हांगर
संज्ञा पुं० [सं० हाङ्गर] एक बृहदाकार मत्स्य [को०]।

हांत्र
संज्ञा पुं० [सं० हान्त्र] १. मृत्यु। मरण। मौत। २. युद्ध। लड़ाई। संघर्ष। ३. एक दैत्य का नाम राक्षस [को०]।

हांबीरी
संज्ञा स्त्री० [सं० हाम्बीरी] एक प्रकार की रागिनी।

हांस
वि० [सं०] हंस का या हंस संबघी।

हाँ (१)
अव्य [सं० आम्] १. स्वीकृतिसूतक शब्द। संमतिसूचक शब्द। वह शब्द जिसके द्वारा यह प्रकट किया जाता है कि हम यह बात करने को तौयार हैं। जैसे,—प्रश्न—तुम वहाँ जाओगे ? उत्तर—'हाँ'। २. एक शब्द जिसके द्वारा यह प्रकट किया जाता है कि वह जो पूछी जा रही है, ठीक है। जैसे,—प्रश्न— तुम वहाँ गए थे ? उत्तर—हाँ। मुहा०—हाँ करना = (१) स्वीकार होना। संमत होना। राजी होना (२) ठीक मान लेना। यह मानना कि कोई बात ऐसी ही है। हाँ न करना = इधर उधर की बात कहकर जल्दी स्वीकार न करना। न मानना। न राजी होना। हाँ हाँ करना = (१) स्वीकारसूचक शब्द कहना। मान लेना। जैसे,—अभी तो हाँ हाँ कर रहा है, पीछे धोखा देगा। (२) बात न काटना। 'ठीक है' 'ठीक है' कहना। (३) खुशामदकरना। हाँ जो हाँ जी करना = (१) खुसामदकरना। चापलूसू करना। स्वार्थ या दबाव वश समर्थन करना। उ०—जिसके धर में रहना। ऊँट बिलैया ले गई तो हाँ जी हाँ जी कहना। (कहावत)। हाँ में हाँ मिलना = (१) बिना बिचार किए बात का समर्थन करना। प्रसन्न करने के लिये किसी के मन की बात कहना। (२) खुशामद करना। चापलूसी करना। ३. कोई बात स्वीकार न करने पर भी दूसरे रूप में स्वीकार सूचित करनेवाला शब्द। वह शब्द जिसके द्वारा किसी बात का दूसरे रूप में, या अंशतः माना जाना प्रकट किया जाता है। यह बात तो नहीं है या ऐसा तो मैं नहीं कर सकता पर इतना हो सकता है, या इतनी बात मानी जा सकती है। जैसे,—(क) तुम्हें हम अपने साथ तो न ले चलेंगे, हाँ, पीछे से आ सकते हो। (ख) हमारे सामने तो वह कुछ नहीं कहता; हाँ औरों से कहता हो तो नहीं जानते। ४. मना करना, वारण करना, बरजना आदि अर्थों में प्रयुक्त शब्द।

हाँपु पु † (२)
अव्य० [सं० इह] इहाँ। दे० 'यहाँ'।

हाँक
संज्ञा स्त्री० [सं० हुङ्कार] १. किसी को बुलाने के लिये जोर से निकाला हुआ शब्द। जोर की पुकार। उच्च स्वर से किया हुआ संबोधन। यौ०—हाँक पुकार। मुहा०—हाँक देना या हाँक लगाना = जोर से पुकारना। हाँक मारना = दे० 'हाँक देना' या 'हाँक लगाना'। हाँक पुकारकर कहना = डंके की चोट कहना। सबके सामने निर्भय और निस्सं- कोच कहना। सबको सुनाकर कहना। २. लड़ाई में धावा या आक्रमण करते समय गर्वसूचक चिल्लाहट। डाँट। दपट। ललकार। हुंकार। गर्जन। उ०—रजनिचर घरनि घर गर्भ अर्भक स्रवत सुनत हनुमान की हाँक बाँकी।—तुलसी (शब्द०)। ३. बढ़ावे का शब्द। उत्साह दिलाने का शब्द। बढ़ावा। उ०—तुलसी उत हाँक दसानन देत, अचेत भै बीर को धीर धरै।—तुलसी (शब्द०)। ४. सहायता के लिये की हुई पुकार। दुहाई। उ०—बसत श्री सहित बैकुंठ के बीच गजराज की हाँक पै दौरि आए।—सूर (शब्द०)।

हाँकना
क्रि० स० [हिं० हाँक + ना (प्रत्य०)] १. जोर से पुकारना। चिल्लाकर बुलाना। २. ललकारना। लड़ाई में धावे के समय गर्व से चिल्लाना। हुकार करना। उ०—भूमि परे भट घूमि कराहत, हाँकि हने हनुमान हठीले।—तुलसी (शब्द०)। ३. बढ़ बढ़कर बोलना। लंबी चौड़ी बातें कहना। सीटना। जैसे—(क) हमारे सामने वह इतना नहीं हाँकता। (ख) शेखी हाँकना। डींग हाँकना। (ग) वह दुकानदार बहुत दाम हाँकता है। ४. मुँह से बोलकर या चाबुक आदि मारकर जानवरों (घोड़े, बैल आदि) को आगे बढ़ाना। जानवरों को चलाना। जैसे,—बैल हाँकना। उ०—हाँकि हाँकि दलनि दनाइ दहपट्टी हते, बाजी औ वितुंड झुंड झूमत खरे जे हैं।— हम्मीर०, पृ० ५७। ५. खींचनेवाले जानवर को चलाकर गाड़ी, रथ आदि चलाना। गाड़ी चलाना। उ०—खोज मारि रथ हाँकहु ताता।—तुलसी (शब्द०)। २. मारकर या बोलकर चौपायों को भगाना। चौपायों को किसी स्थान से हटाना। जैसे,—खेत में गाएँ खड़ी हैं, हाँक दो। संयो० क्रि०—देना। ७. पंखा हिलाना। बीजन डुलाना। झलना। ८. पंखे से हवापहुँचाना। हवा करना। जैसे,—मुझे मत हाँको, उन लोगों को हाँको।

हाँका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० हाँकना] शेर आदि दरिंदे जानवरों के शिकार करने का एक ढंग। विशेष दे० 'हँकवा'।

हाँका पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० हाँक] दे० 'हाँक'।

हाँकारी
वि० [हिं० हाँ + कारी] किसी बात पर हाँ कहनेवाला। किसी विचार पर स्वीकृति व्यक्त करनेवाला।

हाँगर
संज्ञा पुं० [सं० हाङ्गर] एक प्रकार की बड़ी मछली।

हाँगा
संज्ञा पुं० [सं० आङ्ग] १. शरीर का बल। बूता। ताकत। मुहा०—हाँगा छूटना = बल काम न करना। साहस छूटना। हिम्मत न रहना। २. जबरदस्ती। अत्याचार। धींगा धींगी। जैसे,—पुलिसवाले सबके साथ हाँगा करते हैं।

हाँगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाँ] हामी। स्वीकृति। मुहा०—हाँगी भरना = हामी भरना। स्वीकार करना। मानना या अंगीकार करना। उ०—छारि डारी पुलक, प्रसेद हू निवारि डारी, नेक रसना हू ते भरी न कछु हाँगी री। एते पै रह्मो न प्रान मोहन लटू पै भटू, टूक टूक ह्वै कै जो छटूक भई आँगरी।—पद्माकर (शब्द०)।

हाँड़ाना (१)
क्रि० अ० [सं० हिण्डन] व्यर्थ इधर उधर फिरना। आवारा घूमना।

हाँड़ना (२)
वि० [वि० स्त्री० हाँड़नी] हाँड़नेवाला। व्यर्थ इधर उधर घूमनेवाला। आवारा फिरनेवाला। जैसे,—हाँड़नी नारि।

हाँड़ी
संज्ञा पुं० [सं० भाण्ड, हिं० हंडा ('हंडिका' प्राकृत से लिया प्रतीत होता है)] १. मिट्टी का मझोला बरतन जो बटलोई के आकार का हो। हँड़िया। मुहा०—हाँड़ी उबलना = (१) हाँड़ी में पकाई जानेवाली चीज का गरम होकर ऊपर आना। (२) खुशी से फूलना। इतराना। हाँड़ी चढ़ना या चढ़ाना = कोई चीज पकाने के लिये हाँड़ी का आग पर रखा जाना। उ०—जैसे हाँड़ी काठ की चढ़ै न दूजी बार—(शब्द०)। हाँड़ी पकना = (१) हाँड़ी में पकाई जानेवाली चीज का पकना। (२) बकवाद होना। मुँह से बहुत बातें निकलना। (३) भीतर ही भीतर कोई युक्ति खड़ी होना। कोई षट्चक्र रचा जाना। कोई मामला तैयार किया जाना। जैसे,—भीतर ही भीतर खूब हाँड़ी पक रही है। किसी के नाम पर हाँड़ी फोड़ना = किसी के चले जाने पर प्रसन्न होना। बावली हाँड़ी = वह भोजन जिसमें बहुत सी चीजें एक में मिल गई हों। २. इसी आकार का शीशे का पात्र जो सजावट के लिये कमरे में टाँगा जाता है और जिसमें मोमबत्ती जालई जाती है।

हाँण पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० हानि]दे० 'हानि'। उ०—सुख दुख मित्र उदाससूँ ह्वै मिस सज्जण हाँण।—रघु० रू०, पृ० ९।

हाँता पु
वि० [सं० हात (= छोड़ा हुआ)] [वि० स्त्री० हाँती] १. अलग किया हुआ। त्याग किया हुआ। छोड़ा हुआ। २. दूर किया हुआ। हटाया हुआ। उ०—(क) प्रिया, बचन कस कहसि कुभाँती। भीरु प्रतीति प्रीति करिहाँती।— तुलसी (शब्द०)। (ख) जानत प्रीति रीति रघुराई। नाते सब हाँते करि राखत राम सनेह सगाई।—तुलसी (शब्द०)। (ग) कंत, सुनु मंत, कुल अंत किए अंत हानि, होतों कीजे हीय ते भरोसो भुज बीस को।—तुलसी (शब्द०)।

हाँथ पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हथ्थ, हिं० हाथ] दे० 'हाथ'। उ०—कोउ कर जोरि कहत तुअ हाँथ निबाह।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ७२।

हाँन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हानि] दे० 'हानि'। उ०—करै सिंह गुंजार भारी भयाँनं। सुनो प्राँनहारी डरैँ जीव हाँनं।— ह० रासो०, पृ० ३६।

हाँपना
क्रि० अ० [अनु० या सं० हाफिक] दे० 'हाँफना'।

हाँफना
क्रि० अ० [अनु० हँफ हँफ या सं० हाफिक] कड़ी मिहनत करने, दौड़ने या रोग आदि के कारण जोर जोर से और जल्दी जल्दी साँस लेना। तीव्र श्वास लेना। जैसे—वह चार कदम चलता है तो हाँफने लगता है।

हाँफा
संज्ञा पुं० [हिं० हाँफना] हाँफने की क्रिया या भाव। तीव्र और क्षिप्र श्वास। जल्दी जल्दी चलती हुई साँस। मुहा०—हाँफा छूटना = कड़ी मिहनत करने पर या रोगादि के कारण थोड़ा श्रम करने पर हाँफने लगना। उ०—जिन्हें चार पग चलने में हाँफा छूटता।—प्रेमघन, भा० २, पृ० २८१।

हाँमैला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।

हाँस †
संज्ञा स्त्री० [सं० हास] दे० 'हँसी'। उ०—स्याम गात सरोज आनन, ललित गति मृदु हाँस।—संतवाणी०, पृ० ६०।

हाँस पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० हंस] जीवात्मा। जीव। प्राण। दे० 'हंस'। उ०—साज्या काल न छोड़ै पास। छूटै पिंड उड़ावै हाँस।— प्राण०, पृ० १।

हाँस पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० अंसली, हिं० हंसली, हँसुली या देश०]दे० 'हँसली'। उ०—देखत अपनी औरत कूँ लाया गले। सो बाहाँ केरा हाँस भाया गले।—दक्खिनी०, पृ० ९२।

हाँसना पु ‡
क्रि० अ० [सं० हसन] दे० 'हँसना'।

हाँसल पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० हाँस] घोड़ों का एक भेद। वह घोड़ा जिसका रंग मेंहँदी सा लाल और चारों पैर कुछ काले हों। कुम्मैत हिनाई। उ०—हाँसल गौर गियाह बखाने।—जायसी (शब्द०)।

हाँसल पु † (२)
संज्ञा पुं० [अ० हासिल] हासिल। लगान। कर। उ०— मह अध दीध हाँसल मोक।—रघु० रू०, पृ० १२२।

हाँसवर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हँसली] दे० 'हँसली'।

हाँसिल
संज्ञा स्त्री० [अं० हाजर] १. रस्सा लपेटने की गराड़ी। २. लंगर की रस्सी। पागर (लश्करी)। क्रि० प्र०—तानना।

हाँसी
संज्ञा स्त्री० [सं० हास्य] १. हँसी। हँसने की क्रिया या भाव।२. परिहास। हँसी ठट्ठा। दिल्लगी। मजाक। ठठोली। उ०— (क) निर्गुन कौन देस को बासी। ऊधो ! निकु हमहिं समुझा- वहु, बूझति साँच न हाँसी।—सूर (शब्द०)। (ख) हमरे प्रान अघात होत हैं, तुम जानत हौ हाँसी।—सूर (शब्द०)। ३. उपहास। निंदा। उ०—(क) ऊधो, कही सो बहुरि न कहियो। हाँसी होन लगी या ब्रज में, अनबोले ही रहियो।—सूर (शब्द०)। (ख) जेते ऐंड़दार दरबार सरदार सब ऊपर प्रताप दिल्लीपति को अभंग भो। मतिराम कहै करवाल के कसैया केते गाड़र से मूँड़, जह हाँसी को प्रसंग भो।—मतिराम (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।

हाँसु पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक कंठाभूषण। हँसुली। उ०—कंचन कया सो रानी रहा न तोला माँसु। कंत कसौटी घालि कै चूरा गढ़ै कि हाँसु।—जायसी ग्रं०, पृ० १७०।

हाँसुल पु
संज्ञा पुं० [हिं० हाँस ?] एक प्रकार का अश्व। कुम्मैत हिनाई। दे० 'हाँसल'। उ०—लील समुंद चाल जग जानै। हाँसुल भैवर किआह बखानै।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १५०।

हाँ हाँ
अव्य० [हिं० अहाँ (= नहीं)] निषेध या वारण करने का शब्द। वह शब्द जिसे बोलकर किसी को कोई काम करने से चटपट रोकते हैं। जैसे,—हाँ हाँ ! यह क्या कर रहे हो ?

हा (१)
अव्य० [सं०] १. शोक, दुःख, पीड़ा या निराशासूचक शब्द। २. आश्चर्य या आह्लादसूचक शब्द। ३. क्रोध, फटकार, व्यंग्य- सूचक शब्द। ४. भयसूचक शब्द। यौ०—हाकार = हा करनेवाला व्यक्ति या शोकादिसूचक हा शब्द की ध्वनि। हाकृत = हाय हाय की आवाज से भरा हुआ शोकसूचक रुदन। हा हंत। हा हा।

हा (२)
संज्ञा पुं० हनन करनेवाला। मारनेवाला। बध या नाश करनेवाला। (यौगिक शब्दों के अंत में प्रयुक्त)। उ०—कौन शत्रु तै हत्यो कि नाम शत्रुहा लिया ?—केशव (शब्द०)।

हाइ पु ‡
अव्य० [हिं० हाय] दे० 'हाय'।

हाइड्रोजन
संज्ञा पुं० [अं०] एक वायवीय तत्व जो जल का घटक है।

हाइड्रोसील
संज्ञा पुं० [अं०] अंडकोश या फोते में शरीर के विकृत जल का जमा होना। अंडवृद्धि। फोते का बढ़ना।

हाइफन
संज्ञा पुं० [अं०] एक विराम चिह्न जो एक में समस्त दो या अधिक शब्दों के बीच में लगाया जाता है। सामासिक चिह्न। जैसे,—रघुकुल-कमल-दिवाकर।

हाइभाइ पु †
संज्ञा पुं० [सं० हाव + भाव] हावभाव। मुद्रा। भंगिमा। उ०—वीर भोग वसुमती वीरभोगी बर चाहों। हाइभाइ कटाच्छ बीर बीरा तन साहौं।—पृ० रा०, १७।७४।

हाइल पु
वि० [देश०] दे० 'हायल'।

हाई
संज्ञा स्त्री० [सं० घात] १. दशा। हालत। अवस्था। जैसे— अपनी हाई और पर छाई। २. ढंग। घात। तौर। ढब। उ०—ऊधो, दीनी प्रीति दिनाई। बातनि सुहृद, करम कपटी के, चले चोर की हाई।—सूर (शब्द०)।

हाईकोर्ट
संज्ञा पुं० [अं०] हिंदुस्तान में किसी प्रदेश या प्रात की दीवानी और फौजदारी की सबसे बड़ी अदालत। सबसे बड़ा न्यायालय। उच्च न्यायालय। विशेष—हिंदुस्तान के प्रत्येक बड़े प्रदेश में एक हाईकोर्ट है। जैसे,—कलकत्ता हार्हकोर्ट, इलाहाबाद हाईकोर्ट, आदि।

हाई ड्रोफोबिया
संज्ञा पुं० [अं०] शरीर के भीतर एक प्रकार का उपद्रव या व्याधि जो पागल कुत्ते, गीदड़ आदि के काटने से होता है। इसमें मनुष्य प्यास के मारे व्याकुल रहता है, पर पानी सामने आने से चिल्लाकर भागता है। जलत्रास रोग। जलातंक।

हाईस्कूल
संज्ञा पुं० [अं०] अँगरेजी की वह बड़ी पाठशाला जिसमें दसवीं कक्षा तक विश्वविद्यालय की पढ़ाई के पहले की पढ़ाई पूरी होती है।

हाउस
संज्ञा पुं० [अं०] १. घर। मकान। जैसे,—बोर्डिंग हाउस, काँजी हाउस, कानीहाउस। २. कोठी। बड़ी दूकान। जैसे,—हाउस की दलाली। ३. सभा। मंडली। जैसे,—हाउस आफ लार्डस।

हाउस आफ कामन्स
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'कामनसभा'।

हाउस आफ लार्ड्स
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'लार्डसभा'।

हाऊ
संज्ञा पुं० [अनु०] एक कल्पित भयानक जंतु जिसका नाम बच्चों को डराने के लिये लिया जाता है। हौवा। भकाऊँ। जूजू। उ०—खेलन दूरि जात कित कान्हा। आजु सुन्यो बन हाऊ आयो तुम नहिं जानत नान्हा।—सूर (शब्द०)।

हाक पु
संज्ञा पुं० [हिं० हाँक] पुकार। गर्जन। उ०—दादू धरती करते एक डग, दरिया करते फाल। हाकी पर्वत फाड़ते, सो भी खाए काल।—दादू०, पृ० ४०१।

हाकर
संज्ञा पुं० [अं० हाँकर] १. घूम घूमकर सामान बेचनेवाला व्यक्ति। फेरीवाला। फेरीदार। २. वह व्यक्ति जो घूम घूमकर। अखबार बेचता हो।

हाकल
संज्ञा पुं० [सं०] एक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में १५ मात्राएँ और अंत में एक गुरु होता है। इसके पहले और दूसरे चरण में ११ और तीसरे तथा चौथे चरण में १० अक्षर होते हैं।

हाकलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पंद्रह अक्षरों का एक वर्णवृत्त।

हाकली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दस अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन भगण और एक गुरु होता है।

हाकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र शास्त्रानुसार एक प्रकार की घोर देवी। (तंत्र)।

हाकिम
संज्ञा पुं० [अ०] १. हुकूमत करनेवाला। शासक। गवर्नर। २. प्रधान अधिकारी। सरदार। बड़ा अफसर। ३. स्वामी। मालिक (को०)। ४. नरेश। राजा। बादशाह। उ०—तात सरूपी हाकिमा जिन अमल पसारा।—कबीर श०, भा० १, पृ० ५०। यौ०—हाकिमे आला, हाकिमे बाला = उच्चाधिकारी। प्रधान अफसर। हाकिमे वक्त = तत्कालीन शासक । हाकिमे हकीकी = ईश्वर। परमात्मा।मुहा०—हाकिम का कुत्ता = किसी हाकिम के अधीन वे छोटे कर्मचारी जो हाकिम से मिलने में बाधा पैदा करें और बिना घूस लिए मिलने न दें

हाकिमाना
वि० [अ० हाकिमानह्] १. हाकिम के ढंग का। रोबदाब से युक्त। २. हाकिम से संबद्ध।

हाकिमी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० हाकिम + ई (प्रत्य०)] हाकिम का काम। हुकूमत। प्रभुत्व। शासन। उ०—कहूँ हाकिमी करत है, कहूँ बंदगी आय। हाकिम बंदा आप ही दूजा नहीं देखाय।— रसनिधि (शब्द०)।

हाकिमी (२)
वि० १. हाकिम का। हाकिम संबंधी। २. हाकिम जैसा।

हाकी
संज्ञा पुं० [अं० हाँकी] एक खेल जिसमें एक टेढ़ी लकड़ी या डंडे से गेंद मारते हैं। चौगान की तरह का एक अँगरेजी खेल।

हाग्गडदि पु
संज्ञा पुं० [देश०] हाहाकार।

हाजत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. जरूरत। आवश्यकता। उ०—न उसकूँ वजीर है न उसकूँ नजीर। न हाजत उसे है न ताज ओ सरीर।—दक्खिनी०, पृ० ११७। २. चाह। उ०—नहीं शमा व चिराग की हाजत। दिल है मुझ बज्म का दिया मेरा।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४२। यौ०—हाजतख्वाह = इच्छा की पूर्ति चाहनेवाला। हाजतमंद = (१) निर्धन। (२) इच्छुक। अभिलाषी। हाजत रवाँ = कामनाएँ पूरी करनेवाला। ३. पहरे के भीतर रखा जाना। हिरासत। हवालात। मुहा०—हाजत में देना = पहरे के भीतर देना। हवालात में डालना। हाजत में रखना = हवालात में रखना। ४. शौच आदि की तीब्रता या वेग। मुहा०—हाजत रफा करना = शौच जाना।

हाजती (१)
वि० [अ०] १. अभिलाषी। आकांक्षी। चाहनेवाला। २. जो हाजत में रखा गया हो। हवालती। ३. हाजतवाला।

हाजती (२)
संज्ञा स्त्री० वह चौकी जो रोगी के पलंग के पास इसलिये लगा दी जाती है जिससे पाखाना और पेशाब करने में रोगी को कष्ट न हो।

हाजमा
संज्ञा पुं० [अ० हाजमह्] पाचन क्रिया। पाचनशक्ति। भोजन पचने की क्रिया। मुहा०—हाजमा खराब होना या हाजमा बिगड़ना = अन्नन पचना।

हाजरी पु
वि० [अ० हाजिर]दे० 'हाजिर'। उ०—साँई सिरजन- हार तूँ, तूँ पावन तूँ पाक। तूँ काइम करतार तूँ, तूँ हरी हाजरी आप।—दादू०, पृ० ५७५।

हाजिक
वि० [अ० हाजिक] १. दक्ष। प्रवीण। निपुण। २. किसी शास्त्र का अत्यंत निपुण जानकार [को०]।

हाजिब
संज्ञा पुं० [अ०] १. चोबदार। दंडधारी। २. भौंह। भ्रू। ३. प्रहरी। द्वारपाल। उ०—यहाँ सब अपस का कहा उन हजूर। सुने बात सारी व हाजिब जरूर।—दक्खिनी०, पृ० २७०।

हाजिम
वि० [अ० हाजिम] १. हजम करनेवाला। भोजन पचानेवाला। पाचक। २. अग्रसोची। दूरंदेश। बुद्धिमान (को०)।

हाजिर
वि० [अ० हाजिर] १. संमुख उपस्थित। सामने आया हुआ। मौजूद। विद्यमान। जैसे,—(क) तुम उस दिन हाजिर नहीं थे। (ख) जो कुछ मेरे पास है, हाजिर है। २. कोई काम करने के लिये संनद्ध। प्रस्तुत। तैयार। जैसे,— मेरे लिये जो हुक्म होगा, मैं हाजिर हूँ। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—हाजिर आना = हाजिर होना। हाजिर में हुज्जत न होना = जो मौजूद हो, उसको प्रस्तुत या ग्रहण करने में किसी प्रकार की हीलाहवाली न होना। ३. परदेशी। शरणार्थी (को०)। ४. जो ऊँचा हो। उच्च (भूमि)। ५. मना करनेवाला (को०)। यौ०—हाजिर जामिन = अपराधी को न्यायालय में उपस्थित करने की जिम्मेदारी लेनेवाला। हाजिर जामिनी = अपराधी को न्यायालय में उपस्थित करने की जमानत। हाजिर दिमाग = (१) किसी बात की तह पहुँचकर ठीक राय देनेवाला। (२) तुरत उचित उत्तर देनेवाला। प्रत्युत्पन्नमति। हाजिरजवाब। हाजिरनाजिर, हाजिरोनाजिर = (१) ईश्वर। परमात्मा। (२) किसी स्थान पर उपस्थित और देखनेवाला। उपस्थित और द्रष्टा।

हाजिरजवाब
वि० [अ० हाजिर जवाब] उत्तर देने में निपुण। जोड़ की तोड़ बात कहने में चतुर। बात का चटपट अच्छा जवाब देने में होशियार। उपस्थितबुद्धि। प्रत्युत्पन्नमति। जैसे,—बीरबल बड़े हाजिरजवाब थे।

हाजिरजवाबी
संज्ञा स्त्री० [अ० हाजि़रजबाबी या अ० हाजिरजवाब + हिं० ई (प्रत्य०)] चटपट उत्तर देने की निपुणता। उपस्थित बुद्धि। प्रत्युत्पन्नमतित्व। जैसे,—बीरबल की हाजिरजवाबी से अकबर बहुत खुश रहता था।

हाजिरबाश
वि० [अ० हाजि़र + फा़० बाश] १. सामने मौजूद रहनेवाला। बराबर सेवा में रहनेवाला। २. लोगों के पास जाकर बराबर मिलने जुलनेवाला।

हाजिरबाशी
संज्ञा स्त्री० [अ० हाजिर + फा़० बाशी] १. सेवा में निरंतर उपस्थिति। २. लोगों से जाकर मिलना जुलना। खुशामद।

हाजिराई
संज्ञा पुं० [अ० हाजि़र हिं० + आई (प्रत्य०)] १. भूतप्रेत बुलाने या दूर करनेवाला। ओझा। सयाना। २. जादूगर। ऐंद्र जालिक। मायिक।

हाजिरात
संज्ञा स्त्री० [अ० हाजिरात] बंदना या पूजा आदि के द्वारा किसी के ऊपर कोई आत्मा, भूत प्रेत, जित, आदि बुलाना जिससे वह झूमने और अनेक प्रकार की बातें कहने तथा प्रश्नों के उत्तर देने लगता है।

हाजिराती
संज्ञा पुं० [अ० हाजिराती] हाजिरात करनेवाला। ओझा। सयाना [को०]।

हाजिरी
संज्ञा स्त्री० [अ० हाजिरी] १. उपस्थिति। विद्यमानता। मोजूदगी। वर्तमानता। २. विद्यार्थियों या मजदूरों की गणना।३. न्यायालय में सम्मम अथवा वारंट के द्वारा प्रतिपक्षी प्रतिपक्षी और गवाहों की उपस्थिति (को०)। मुहा०—हाजिरी बजाना = किसी अधिकारी अथवा बड़े आदमी के यहाँ बराबर उपस्थित होना। दरबारगीरी करना। हाजिरी देना = (१) उपस्थिति सूचित करना। (२) दे० 'हाजिरी बजाना'। हाजिरी लेना = विद्यार्थियों अथवा मजदूरों आदि का नाम पुकारकर उनकी उपस्थिति मालूम करना या लिखना।

हाजिरीन
संज्ञा पुं० [अ० हाजिरीन] हाजिर शब्द का बहुवचन। उपस्थित लोग।

हाजी (१)
संज्ञा पुं० [उर्दू। अ० शब्द 'हाज' है] १. हज करनेवाला। तीर्थाटन के लिये मक्के मदीने जानेवाला। २. वह जो हज कर आया हो। (मुसल०)।

हाजी
वि० [अ०] १. निदा या बुराई करनेवाला। निंदक। २. हिज्जे या अक्षरों के क्रमविन्यास को साफ साफ बोलनेवाला [को०]।

हाजुर पु
वि० [अ० हाजिर] दे० 'हाजिर'। उ०—हाजुर मीर हमाम मीर गिरदान सामि नमि।—पृ० रा०, ६१। १६६४।

हाट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हट्ट] १. वह स्थान जहाँ कोई व्यवसायी बेचने के लिये चीजें रखकर बैठता है। दूकान। २. वह स्थान जहाँ बिक्री की सब प्रकार की वस्तुएँ रहती हों। बाजार। उ०—प्रेम बिकंता मै सुना, माथा साटें हाट। बूझत बिलँब न कीजिए ततछित दीजै काट।—संतवाणी०, पृ० १९। यौ०—हाटाबाट = पण्यवीथिका। बाजार। उ०—(क) शतसंख्य हाटबाट भमंते।—कीर्ति०, पृ० २८। (ख) हाट बाट नहि जाइ निहारी।—मानस, २।१५९। हाट बाजार = दे० 'हाटबाट।' मुहा०—हाट करना = (१) दूकान रखकर बैठना। (२) सौदा लेने के लिये बाजार जाना। हाट खोलना = (१) दूकान रखना। रोजगार करना। (२) दूकान पर आकर बिक्री की चीजें निकालकर रखना। हाट बाजार करना = सौदा लेने बाजार जाना। जैसे,—वह स्त्री हाट बाजार करती है। हाट लगना = दूकान या बाजार में बिक्री की चीजें रखी जाना। हाट चढ़ना = बाजार में बिकने के लिये आना। उ०—पंडित होइ सो हाट न चढ़ा- जायसी (शब्द०)। हाट जाना = कुछ खरीदने या बेचने के उददेश्य से बाजार जाना। हाट भरना = बाजार में खरीद और बिक्री करनेवालों की भीड़ इकट्ठी होना। ३. बाजार लगने का दिन।

हाट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मैनफल वृक्ष और उसका फल। विशेष-दे० 'मैनफल'। २. कमल की जड़। भसीड़। ३. कमल का छत्ता [को०]।

हाटक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत में वर्णित एक देश का नाम। २. सोना। स्वर्ण। उ०—फाटक दै कर हाटक माँगत भोरी निपट बिचारी।—सूर (शब्द०)। ३. भाड़ा। किराया। जैसे,—नौका हाटक। ४. धतूर (को०)।

हाटक (२)
वि० [सं०] [स्त्री० हाटकी] १. सुनहरा। स्वर्ण के वर्ण का स्वर्णिम। २. स्वर्णनिर्मित। सोने का बना हुआ [को०]।

हाटकगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत [को०]।

हाटकपुर
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का बना हुआ नगर। लंका नगर। उ०—नाँघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।—मानस, ५।३३।

हाटकमय
वि० [सं०] सोने का। स्वर्णमय [को०]।

हाटकलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] हिरण्याक्ष नाम का दैत्य। उ०—कनक कसिपअरु हाटकलोचन। जगत बिदित सुरपति पदमोचन।— तुलसी (शब्द०)।

हाटकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाताल की एक नदी [को०]।

हाटकीय
वि० [सं०] १. सोने का सोना संबंधी। २. स्वर्णनिर्मित। सोने का बना हुआ।

हाटकेश, हाटकेशान
संज्ञा पुं० [सं०] शिव की एख मूर्ति का नाम। हाटकेश्वर।

हाटकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव की एक मूर्ति या रूप का नाम जिसकी उपासना गोदावरी के तट पर होती है। २. भागवत के अनुसार वितल नामक अधोलोक में स्थित शिव का नाम।

हाड़ पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० हड्ड या अस्थि]। अस्थि। हड्डी। उ०—चरण चंगु गत चातकहि नेम प्रेम की पीर। तुलसी परबस हाड़ परि परिहै पुहुमी नीर।—तुलसी (शब्द०)। २. वंश या जाति की मर्यादा। कुलीनता। उ०—देवनंदन देखने सुनने, पढ़ने लिखने सब बातों में अच्छा है, पर हाड़ में तो अच्छा नहीं है।— ठेठ०, पृ० ८ ।

हाड़ † (२)
संज्ञा पुं० [सं०] आषाढ़ का महीना। उ०—बस ‍‍‍! अबके हाड़ में यह आम खूब फलेगा, चाचा भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना।—गुलेरीजी० पृ० ५१।

हाड़ना † (१)
क्रि० सं० [सं० हरण] तौलने में बरतन आदि के कारण किसी पलड़े के भारी पड़ने पर दूसरे पलड़े पर पत्थर आदि रखकर दोनों पलड़े ठीक बराबर करना। अहँड़ा करना। धड़ा करना।

हाड़ना (२)
क्रि० स० [सं० हिण्डन] दे० 'हाँड़ना'। उ०—सतगुर बिन सौदा किया जन हरिया बें काम। साकट ऐसे सूकरा हाड़ै घर घर जाम।—राम० धर्म०, पृ० ५२।

हाड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० आर, आड़ (= डंक)] लाल रंग की बडी भिड़। लाल ततैया।

हाड़ा (२)
संज्ञा पुं० क्षत्रियों की एक शाखा। उ०—सोनीगरा काहूँ करूँ बषाँण। हाड़ा बुँदी का धणी।—बी० रासो, पृ० १८।

हाडि पु
संज्ञा, स्त्री० [सं० हण्डिका, हाडिका] दे० 'हाँड़ी'। उ०— पाँहण टाँकि न तौलिए, हाडि न कीजै बेह। माया राता मांनवी तिन सूँ किसा सनेह।—कबीर ग्रं०, पृ० ४८।

हाडिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंडिका। हँड़िया।

हाड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हाडिका] १. जमीन में पत्थर गाड़कर बनाया हुआ गड्ढा जिसमें अनाज रखकर साफ करने के लिये मूसल से कूटते हैं। २. वह गड्ढेदार पत्थर जिसपर रखकर पीटने से पीतल आदि की चद्दर कटोरेनुमा बन जाती है।

हाड़ी (२)
संज्ञा पुं० [सं० आडि] १. एक प्रकार का बगला। २. काक। काग। कौआ।

हा़ड़ी (३)
संज्ञा पुं० [पं० हाड़(= असाढ़)] एक प्रकार का पहाड़ी राग।

हाड़ी (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०?] निम्न श्रेणी की एक जाति। उ०— इन पेशेवाली जातियों से भी नीचे हाड़ी, डोम, चांडाल और विधातू थे।—अकबरी०, पृ० ६।

हाण पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हानि] दे० 'हानि'। उ०—हहो करै हित हाण झझो तन ब्याध जगावै।—रघु० रू०, पृ० ७।

हात (१)
वि० [सं०] छोड़ा हुआ। त्यागा हुआ।

हात पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हत्थ, हथ्थ, हिं० हाथ]दे० 'हाथ'। उ०—(क) उडै पग हात किरका हवै अंगरा, बहै रत जेम सावण बहाला।—रघु० रू०, पृ० २९। (ख) कँवले कँवल से नर्म तर हैं तेरे हात रंग।—अली आदिल०, पृ० ७९।

हातव्य
वि० [सं०] १. छोड़ने योग्य। त्याज्य। परित्याज्य। २. जो पीछे छोड़ दिया जाय (को०)।

हाता (१)
संज्ञा पुं० [अ० इहातह्] १. घेरा हुआ स्थान। वह जगह जिसके चारों ओर दीवार खिँची हो। बाड़ा। २. देशाविभाग। मंडल। हलका या सूबा। प्रांत। जैसे,—बंगाल हाता; बंबई हाता। ३. रोक। हद। सीमा।

हाता पु (२)
वि० [सं० हात] [वि० स्त्री० हाती] १. अलग। दूर किया हुआ। हटाया हुआ। उ०—(क) कंत सुनु मंत, कुल अंत किए अंत हानि, हातो कीजै हीय तै भरोसो भुज बीस को।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जानत प्रीति रीति रघुराई। नाते सब होते करि राखत राम सनेह सगाई।—तुलसी (शब्द०)। (ग) मधुकर ! रह्यौ जोग लौं नातो। कतहिं बकत बेकाम काज बिनु, होय न हयाँ ते हातो।—सूर (शब्द०)। (घ) हरि से हितू सों भ्रमि भूलि हू न कीजै मान, हातो किए हिय हू सों होत हित हानियै।—केशव (शब्द०) २. नष्ट। बरबाद।

हाता (३)
वि०, संज्ञा पुं० [सं० हन्ता] मारनेवाला। बध करनेवाला (समास में प्रयुक्त)।

हातिफ
संज्ञा पुं० [अ० हातिफ़] १. आकाशवाणी। २. एक फरिश्ता। उ०—जो रखी फिरदोस पर टुक इक नजर। गैब के हातिफ ने यूँ लाया खबर।—दक्खिनी०, पृ० १७८।

हातिम
संज्ञा पुं० [अ०] १. निपुण व्यक्ति। चतुर या कुशल व्यक्ति। २. किसी काम में पक्का आदमी। उस्ताद। जैसे,—वह लड़ने में बड़े हातिम हैं। ३. एक प्राचीन अरब सरदार जो बड़ा दानी, परोपकारी और उदार प्रसिद्ध है। मुहा०—हातिम की कबर पर लात मारना = बहुत अधिक उदारता या परोपकार करना। (व्यंग्य में प्रयुक्त)। ४. वह जो अत्यंत परोपकारी हो। परोपकारी व्यक्ति। ५. अत्यंत दानी मनुष्य। अत्यंत उदार मनुष्य।

हातिमताई
संज्ञा पुं० [अ०] १. दे० 'हातिम'। २. वह पुस्तक जिसमें हातिम की उदारता, परोपकारिता आदि का वर्णन है।

हाती ‡
संज्ञा पुं० [सं० हस्ती, प्रा० हथ्थी] दे० 'हाथी'। उ०—माई, राजा जसरत कें चारि हाती हए, चारों ठाड़े दरबाजे, अनंद भए।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३०।

हातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृत्यु। मौत। २. राजपथ। सड़क।

हाञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. मजदूरी। भाडा़। भृति। २. आघात। हनन। वध। ३. मृत्यु। मौत। ४. एक दैत्य [को०]।

हाथ
संज्ञा पुं० [सं० हस्त, प्रा० हत्थ, हथ्थ] १. मनुष्य, बंदर आदि प्राणियों का वह दंडाकार अवयव जिसमें वे वस्तुओं को पकड़ते या छूते हैं। बाहु से लेकर पंजे तक का अंग, विशेषतः कलाई और हथेली या पंजा। कर। हस्त। मुहा०—हाथ आगे करना = छड़ी या रूल आदि की मार खाने के लिये छोटे छात्रों द्वारा हथेली सामने करना। हाथ आना, हाथ पड़ना, हाथ चढ़ना = दे० 'हाथ में आना या पड़ना'। उ०— नाथ वह जो सनाथ करता है। हाथ आया न हाथ के बूते।— चोखे०, पृ० ४। हाथ में आना या पड़ना = अधिकार या वश में आना। कब्जे या काबू में आना। मिलना या इख्तियार में हो जाना। जैसे,—(क) सब वही ले लेगा, तुम्हारे हाथ में कुछ भी न आवेगा। (ख) अब तो वह हमारे हाथ में है, जैसा कहेंगे वैसा करेगा। (किसी को) हाथ उठाना = सलाम करना। प्रणाम करना। (किसी पर) हाथ उठाना = किसी को मारने के लिये थप्पड़ या घूँसा तानना। मारना। जैसे,— बच्चे पर हाथ उठाना अच्छी बात नहीं। उ०—औरतों पर हाथ उठाते हो।-सैर कु०, पृ० १४ हाथ उठाकर देना = अपनी खुशी से देना। जैसे,—कभी हाथ उठाकर एक पैसा भी तो नहीं दिया है। हाथ उठाकर कोसना = शाप देना। किसी के अनिष्ट की ईश्वर से प्रार्थना करना। हाथ उतरना = हाथ की हड्डी उखड़ जाना। हाथ ऊँचा रहना = दे० 'हाथ ऊँचा होना'। उ०—हाथ ऊँचा सदा रहा किसका। हित सकल सुख सहज सहेजे में।—चोखे०, पृ० ११। हाथ ऊँचा होना = (१) दान देने में प्रवृत्त होना। (२) देने लायक होना। खर्च करने लायक होना। संपन्न होना। हाथ कट जाना = (१) कुछ करने लायक न रह जाना। साधन या सहायक का अभाव हो जाना। (२) प्रतिज्ञा आदि से बद्ध हो जाना। इच्छानुसार कुछ करने के लिये स्वच्छंद न रह जाना। हाथ कटा देना = (१) अपने को कुछ करने योग्य न रखना। साधन या सहायक खोदेना। उ०—धन किसी का देख काटे होंठ क्यों। हाथ तो हमने कटाया है नहीं।—चुभते०, पृ० ५२। (२) अपने को प्रतिज्ञा आदि से बद्ध कर देना। कोई ऐसा काम करना जिससे इच्छानुसार कुछ करने की स्वतंत्रता न रह जाय। बँध जाना। हाथ चलाना = वार करना। प्रहार करना। हाथ का झूठा = अविश्वसनीय। जिसपर एतबार न किया जा सके। धोकेबाज। बेईमान। हाथ का दिया = (१) दिया हुआ। प्रदत्त। जैसे,—तुम्हारे हाथ का दिया हम कुछ भी नहीं जानते। (२) दान दिया हुआ। जैसे,—हाथ का दिया साथ जाता है। हाथ का सच्चा = (१) ईमानदार। (२) अचूक वार। करनेवाला। ऐसा वार करनेवाला जो खाली न जाय। (३) ऐसा सटीक काम करनेवाला जिसमें भूल चूक न हो।हाथ का मैल = हाथ में आता जाता रहनेवाला। साधारण वस्तु। तुच्छ वस्तु। जैसे,—रुपया पैसा हाथ का मैल है। (किसी के) हाथ की चिट्ठी या पुरजा = किसी के हाथ से लिखा हुआ पत्र या पुरजा। हस्तलेख। हाथ की लकीर = (१) हथेली में पड़ी हुई लकीरें। हस्तरेखा जिनसे शुभाशुभ फल कहा जाता है। (२) भाग्य। किस्मत। हाथ के नीचे आना या हाथ तले आना = काबू में आना। वश में होना। ऐसी स्थिति में पड़ना कि जो बात चाहें कराई जा सके। हाथ खाली जाना = (१) बार चूकना। प्रहार न बैठना। (२) युक्ति सफल न होगा। चाल चूक जाना। हाथ खाली होना = पास में कुछ द्रव्य न रह जाना। रुपया पैसा न रहना। हाथ खाली न होना = काम में फँसा रहना। फुरसत न होना। हाथ खुजलाना = (१) किसी को मारने का जी करना। किसी को थप्पड़ लगाने की इच्छा होना। (२) मिलने का आगम होना। द्रव्यप्राप्ति के लक्षण दिखाई पड़ना (ऐसा विश्वास है कि जब हथेली में खुजलाहट होती है तब कुछ मिलता है)। हाथ खींचना = (१) किसी काम से अलग हो जाना। योग म देना। (२) खर्च बंद कर देना। देना बंद कर देना। हाथ खींच लेना = दे० 'हाथ खींचना'। उ०—चाहिये इस तरह न खिँच जाना। किस लिये हाथ खींच लेते हैं।—चुभते०, पृ० २८। हाथ खुलना = (१) दानमें प्रवृत्ति होना। (२) खर्च करना। (३) रोक या प्रतिबंध का खत्म होना। हाथ गरम होना = दे० 'मुट्ठी गरम होना'। हाथ घसना = दे० 'हाथ मलना'। उ०—हाथ घसै निरधन हुवाँ, माँखी ज्यों जग माँहिं।—बाँकी० ग्रं०, भाग ३, पृ० ८२। हाथ चलना = (१) किसी काम में हाथ का हिलना डोलना। जैसे,—अभ्यास न होने से उसका हाथ जल्दी जल्दी नहीं चलता। (२) किसी काम को करने का गुर समझ में आ जाना। किसी काम को करने का अभ्यास होना। (३) मारने के लिये हाथ उठना। थप्पड़ या घूँसा तानना। जैसे,— तुम्हारा हाथ बड़ी जल्दी चल जाता है। हाथ चलाना = (१) किसी काम में हाथ हिलाना डुलाना। (२) मारने के लिये थप्पड़ तानना। मारना। (३) किसी वस्तु को छूने या लेने के लिये हाथ बढ़ाना। जैसे,—छाती पर हाथ चलाना। हाथ चूमना या हाथ आँखों से लगाना = (१) किसी की कलानिपुणता पर मुग्ध होकर उसके हाथों को प्यार करना। किसी की कारीगरी पर इतना खुश होना कि उसके हाथों को प्रेम की दृष्टि से देखना। जैसे,—(क) इस चित्र को देखकर जी चाहता है कि चित्रकार के हाथ चूम लूँ। (ख) यह काम कर डालो तो हाथ चूम लूँ। (२) स्त्रियों का, विशेषकर बड़ी बूढ़ी स्त्रियों का बच्चों के हाथ चूमकर स्नेह व्यक्त करना। हाथ चालाक या हाथचला = (१) फुरती से दूसरे की चीज उड़ा लेनेवाला। दूसरे की वस्तु लेने में हाथ की सफाई दिखानेवाला। (२) किसी काम में हाथ की सफाई दिखानेवाला। हस्तलाघव दिखानेवाला। हाथ चालाकी = हाथ की सफाई या फुरती। हस्तकौशल। हस्तलाघव या क्षिप्रता। हाथ चाटना = सामने रखा भोजन कुछ भी न छोड़ना, सब खा जाना। सब खाकर भी न तृप्त होना। हाथ छूटना = मारने के लिये हाथ उठना। (किसी पर) हाथ छोड़ना = मारना। प्रहार करना। हाथ जड़ना = थप्पड़ मारना। प्रहार करना। हाथ जोड़ना = (१) प्रणाम करना। नमस्कार करना। (२) अनुनय विनय करना। (३) प्रार्थना करना। (दूर से) हाथ जोड़ना = संसर्ग या संबंध न रखना। किनारे रहना। पीछा छुड़ाना। जैसे,—ऐसे आदमियों को हम दूर ही से हाथ जोड़ते हैं। हाथ जूठा होना = हाथ में खाने पीने की चीज लगी रहना या हाथ का मुँह में पड़ जाना (ऐसा हाथ अशुद्ध माना जाता है)। (किसी काम में) हाथ जमना = दे० 'हाथ बैठना'। हाथ झाड़ना = (१) लड़ाई में खूब शस्त्र चलाना। खूब हथियार चलाना। (२) वार करना। प्रहार करना। खूब मारना। हाथ झुलाते या हिलाते आना = कुछ भी न लेकर आना। खाली हाथ लौटना। हाथ झाड़ देना = खाली हाथ हो जाना। कह देना कि मेरे पास कुछ नहीं है। हाथ झाड़कर खड़े हो जाना = खाली हाथ दिखा देना। कह देना कि मेरे पास कुछ नहीं है। जैसे,—तुम्हारा क्या ? तुम तो हाथ झाड़कर खड़े हो जाओगे, सारा खर्च हामारे ऊपर पड़ेगा। हाथ झाड़ना = अपने पास कुछ भी न रह जाना। खाली हाथ हो जाना। उ०—कहैं कबीर अंत की बारी, हाथ झाड़ ज्यों चला जुवारी।—कबीर श०, भा० १, पृ० २९। हाथ झुलाते आना = खाली हाथ आना। कुछ भी लेकर न आना। उ०—कोई खत वत लाए हो या यों ही आए हो हाथ झुलाते।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १८२। हाथ टूटना = (१) सामर्थ्य न रहना। काम करने की हाथ में ताकत न रहना। उ०—क्या हुआ जो कुछ हमें टोटा हुआ। है हमारा हाथ तो टूटा नहीं।—चुभते०, पृ० ५२। (३) अत्यंत घने प्रिय बंधु या सहयोगी का न रह जाना। दे० 'बाँह टूटना'। हाथ टेकना = साहारा देना। हाथ डालना = (१) किसी काम में हाथ लगाना। योग देना। (२) दखल देना। (३) बुरी भावना से किसी स्त्री को हाथ लगाना। (४) लूटना। माल मारना। हाथ तकना = दूसरे के देने के आसरे रहना। दूसरे के आश्रित रहता। हाथ तंग होना = खर्च करने के लिये रुपया पैसा का न रहना। हाथ थिरकाना या नचाना = नाचने या बोलने में हाथ मटकाना हिलाना। हाथ दिलाना = नजर झड़वाना। भूत प्रेत की बाधा शांत करने के लिये सयाने को दिखाना। हाथ दिखाना = (१) भविष्य शुभाशुभ जानने के लिये सामुद्रिक जाननेवाले से हाथ की रेखाओं का विचार कराना। (२) वैद्य को नाड़ी दिखाना। (३) हस्तकौशल दिखाना। हाथ की कारीगरी प्रदर्शित करना। (४) युद्ध में शत्रुओं पर जमकर शस्त्र चलाना। समर भूमि में युद्धकौशल का प्रदर्शन करना। उ०—हजाराँ रसाला वाढे अषाडै दिखाया हाथ। न बीरी कसमाँ काढे बखाणै नबाब।— बाँकी० ग्रं०, भा० ३. पृ० १२७। हाथ देखना = (१) वैद्य का रोगी की नाड़ी देखकर रोग की स्थिति जानना। नाड़ी देखना। (२) सामुद्रिक का विचार करना। हथेली की रेखाओं से शुभाशुभभविष्य का विचार करना। हाथ देते ही पहुँचा पकड़ना = थोड़ी सी सुविधा मिलते ही अधिक सुविधा प्राप्त करने का प्रयत्न करना। उ०—इसके मानी क्या ! हाथ देते ही पहुँचा पकड़ लिया। फिसाना०, भा० ३, पृ० २८३। हाथ देना = (१) सहारा देना। (२) बाजी लगाना। (३) गुप्त रूप से सौदा तै करना। (४) दीया बुझाना। (५) भूत प्रेत की बाधा का विचार करना। (६) रोकना। मना करना। (किसी का) हाथ धरना = (१) कोई काम करने से रोकना। जैसे,—जिसको जो चाहें दें, कोई हाथ धर सकता है। (२) किसी को सहारा देना। अपनी रक्षा में लेना। (३) पाणिग्रहण करना। विवाह करना। (किसी पर) हाथ धरना = किसी को आशीर्वाद देना। (किसी वस्तु या बात से) हाथ धोना = (१) खो देना। प्राप्ति की संभावना न रखना। नष्ट करना। जैसे,—(क) जान से हाथ धोना। (ख) मकान से हाथ धोना। (२) समझ न होना। बिना बुद्धि के या बिना बिचारे काम करना। उ— अक्ल को तो हुस्न आरा रो चुकी अक्ल से कब की हाथ धो चुकी।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३२०। हाथ धोकर पीछे पड़ना = (१) किसी काम में जी जान से लग जाना। सब कुछ छोड़कर काम में प्रवृत्त हो जाना। (२) किसी को हानि पहुँचाने में सब काम धंधा छोड़कर लग जाना। जैसे,—न जाने क्यों वह आजकल हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ा है। उ०—धो न बैठेंगे हितों से हाथ हम। हाथ धोकर क्यों न वे पीछे पड़ें।—चुभते०, पृ० १४। हाथ धो बैठना = किसी काम से, किसी प्रिय वस्तु या व्यक्ति से निराश हो बैठना। हाथ न रखने देना या पुट्ठे पर हाथ न धरने देना = (१) बहुत तेजी दिखाना। हाथ रखते ही उछलने कूदने या दौड़ने लगना (घोड़े के लिये प्रयुक्त)। (२) जरा भी बातों में न आना। थोड़ी सी बात भी मानने के लिये तैयार न होना। दृढ़ रहना। जैसे,—उसे कैसे राजी करें, हाथ तो रखने ही नहीं देता। हाथ पकड़ना = (१) किसी काम से रोकना। (२) सहारा देना। संबल देना। उ०—है गई अब बुरी पकड़ पकड़ी। आप आ हाथ लें पकड़ मेरा।—चुभते०, पृ० ४। (३) आश्रय देना। शरण में लेना। रक्षक होना। (४) पाणिग्रहण करना। विवाह करना। हाथ पड़ना = (१) हाथ लगना। किसी व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ से हाथ का स्पर्श होना। हाथ छू जाना। (२) मार पड़ना। मार खा जाना। (३) न चाहते हुए भी किसी का साथ हो जाना। (४) छापा पड़ना। डाका पड़ना। लूट होना। जैसे,—आज बाजार में हाथ पड़ गया। हाथ पत्वर तले दबना = (१) मुश्किल में फँसना। संकट या कठिनता की स्थिति में पड़ना। (२) कुछ कर धर न सकना। कुछ करने की शक्ति या अवकाश न रहना। (३) लाचार होना। विवश होना। (४) किसी चलते हूए काम को बंद करने के लिये विवश होना। हाथ पर गंगाजली रखना = (१) गंगा की शपथ देना। कसम खिलाना। (२) गंगा की शपथ खाना। कसम खाना। हाथ पर नाग खेलाना = अपनी जान जोखों में डालना। प्राण संकट में डालना। हाथ पर जीव लेना = दे० 'हथेली पर सिर रखना या लेना'। यह जानते हुए भी कि इस काम में मौत निश्चित है, उसे करने के लिये उद्यत होना। उ०—अस लागेहु केहि के सिख दीन्हें। आएहु मरै हाथि जिउ लीन्हें। —जायसी ग्रं०, पृ० २६७। हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना=खाली बैठे रहना। कुछ काम धंधा न करना। हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना=निराश हो जाना। हाथ पर हाथ मारना=(१) प्रतिज्ञा करना। किसी बात को दृढ़ करना। किसी बात को पक्का करना। (२) बाजी लगाना। उ०—आओ हाथ पर हाथ मारो। —फिसाना०, भा० ३, पृ० १११। हाथ पसारना या फैलाना=कुछ माँगना। याचना करना। (किसी के आगे) हाथ पसारना या फैलाना=(किसी से) कुछ माँगना। याचना करना। जैसे,—हम गरीब हैं तो किसी के आगे हाथ फैलाने तो नहीं जाते। उ०—परम उदार, चतुर चिंतामनि, कोटि कुबेर निधन कौं। राखत है जन

की परतिज्ञा, हाथ पसारत कन कौं।—सूर०, १। ९। हाथ पसारे जाना=इस संसार से खाली हाथ जाना। परलोक में कुछ साथ न ले जाना। हाथ पाँव चलना=काम धंधे के लिये सामर्थ्य होना। कार्य करने की योग्यता होना। जैसे,—इतने बड़े हुए, तुम्हारे हाथ पाँव नहीं चलते हैं। हाथ पाँव चलाना=काम धंधा करना। हाथ टूटना=(१) अंग भंग होना। (२) शरीर में पीड़ा होना। उ०— कल से चंडू नसीब नहीं हुआ। जम्हाई पर जम्हाई आती है और हाथ पाँव टूटे जाते हैं। —फिसाना०, भा० ३, पृ० ६३। हाथ पाँव ठंडे होना=(१) शरीर में गरमी न रह जाना। मरणासन्न होना। (२) भय या आशंका से स्तब्ध हो जाना। ठक हो जाना। हाथ पाँव डाल देना=कुछ न करना। निष्क्रिय या निकम्मा बन जाना। उ०—डाल दो हाथ पाँव मत अपने। आँख में आँख डालकर देखो। —चोखे०, पृ० १९। हाथ पाँव तोड़ना=(१) अंग भंग करना। (२) हाथ पाँव थर्राना। डर के मारे कँपकँपी होना। हाथ पाँव निकालना=(१) शरीर हृष्ट- पुष्ट होना। मोटा ताजा होना। (२) सीमा का अतिक्रमण करना। हद से गुजरना। (३) नटखटी करना। शरारत करना। (४) छेड़छाड़ करना। हाथ पाँव फूलना=(१) भय से स्तब्ध होना। डर या शोक से घबरा जाना। (२) व्यय के आधिक्य को देखकर घबड़ा उठना। उ०—ठाकुर साहब फर्स्ट क्लास जेंटुल- मैन के नाम एक महीने में इस कदर बिल आए कि हाथ पाँव फूल गए। —फिसाना०, भा० ३, पृ० १५७। हाथ पाँव फेकना=हाथ पाँव की मिहनत करना। उ०—लाभ हैं ले रहे लड़कपन का, हाथ औ पाँव फेंकते लड़के। —चोखे०, पृ० १३। हाथ पाँव बचाना=अपने शरीर की रक्षा करना। जैसे,— हाथ पाँव बचाकर काम करना। हाथ पाँव पटकना= छटपटाना। हाथ पाँव मारना या हिलाना=(१) तैरने में हाथ पैर चलाना। (२) शोक, दुःख या पीड़ा से छट- पटाना। तड़पना। (३) घोर प्रयत्न करना। बहुत कोशिश करना। जैसे,—उसने बहुत हाथ पाँव मारे पर उसे ले न सका। उ० —छह रोज तक उन्होने हाथ पाँव मारे। सातवें रोज दो चोरों की फाँसा।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २३६। (४) बहुतपरिश्रम करना। खूब मिहनत करना। हाथ पाँव से छूटना= अच्छी तरह बच्चा पैदा होना। सहज में कुशलपूर्वक प्रसव होना। (स्त्रि०)। हाथ पाँव हारना=(१) साहस छोड़ना। हिम्मत हारना। (२) निराश होना। हताश होना। हाथ पीले पड़ना= (१) किसी प्रकार विवाह कर देना। (२) विवाह करना (हिंदुओं में विवाह के समय शरीर में हल्दी लगाने की रीति है)। हाथ पैर जोड़ना=बहुत विनती करना। अनुनय विनय करना। हाथ फेंकना=(१) हाथ चलाना। (२) वार करना। हथियार चलाना। (किसी पर) हाथ फेरना=प्यार से शरीर सहलाना। प्यार करना। (किसी वस्तु पर) हाथ फेरना=किसी वस्तु को उड़ा लेना। ले लेना। हाथ बंद होना=दे०'हाथ तंग होना'। हाथ बढ़ाना=(१) कोई वस्तु लेने के लिये हाथ फैलाना। (२) हद से बाहर जाना। सीमा का अतिक्रमण करना। (३) सहयोग देना। सहायता करना। (किसी काम में) हाथ बँटाना या बटाना=शामिल होना। शरीक होना। योग देना। उ०—बेर न बीर लगाओ, बढ़ाकर हाथ बटाओ। —अर्चना, पृ० २९। हाथ बाँधकर खड़ा होना=(१) हाथ जोड़कर खडा होना। (२) सेवा में उपस्थित रहना। हाथ बाँधे खड़ा रहना=सेवा में बराबर उपस्थित रहना। खिदमत में हाजिर रहना। उ०—जब किसी का पाँव हैं हम चूमते। हाथ बाँधे सामने जब हैं खड़े। — चोखे०, पृ० ३५। (किसी के) हाथ बिकना=किसी को मोल दिया जाना। (किसी व्यक्ति का) किसी के हाथ बिकना=(१) किसी का क्रीत दास होना। किसी का खरीदा गुलाम होना। (२) किसी के बिल्कुल अधीन होना। उ०—ऊधो नहीं हम जानत ही मनमोहन कूबरी हाथ बिकैहैं।—मति० ग्रं०, पृ० ४०४। (किसी काम में) हाथ बैठना या जमना=अभ्यास होना। मश्क होना। ऐसा अभ्यास होना कि हाथ बराबर ठीक चला करे। उ०—काम की यह बात है, हर काम में। बैठता है हाथ बैठाते रहे। —चोखे०, पृ० २१। (किसी पर) हाथ बैठना या जमना=किसी पर ठीक और भरपूर थप्पड़ या वार पड़ना। काम करते करते हाथ थक जाना। हाथ भरना=हाथ में रंग या महावर लगाना। हाथ मँजना=अभ्यास होना। मश्क होना। हाथ माँजना=अभ्यास करना। हाथ मलना= (१) भूल चूक का बुरा परिणाम होने पर अत्यंत पश्चात्ताप करना। बहुत पछताना। (२) निराश और दुःखी होना। उ०— तो लगेगी हाथ मलने आबरू। हाथ गरदन पर अगर डाला गया। —चोखे०, पृ० १९। हाथ मारना=(१) बात पक्की करना। दृढ़ प्रतिज्ञा करना। (२) बाजी लगाना। (किसी वस्तु पर) हाथ मारना=उड़ा लेना। गायब कर लेना। बेईमानी से ले लेना। (भोजन पर) हाथ मारना=(१) खुब खाना। (२) बड़े बड़े कौर मुँह में डालना। हाथ मारकर भागना=दौड़ने और पकड़ने का खेल खेलाना। हाथ मिलाना=(१) भेंट होने पर प्रेमपूर्वक एक दूसरे का हाथ पकड़ना। (२) लड़ना। पंजा लड़ाना। (३) सौदा पटाकर लेना। हाथ मींजना=अपना कोई वश न चलने पर अत्यंत निराश होना।दे०'हाथ मलना'। उ०—रोवत समुझि कुमातुकृत मींजि हाथ धुनि माथ। —तुलसी ग्रं०, पृ० ७४। हाथ में करना=(१) वश में करना। काबू में करना। (२) अधिकार में करना। ले लेना। प्राप्त करना। (मन) हाथ में करना=मोहित करना। लुभाना। प्रेम में फँसाना। हाथ में ठीकरा लेना=भिक्षावृत्ति का अवलंबन करना। भीख माँगना। मँगता हो जाना। हाथ में पड़ना=(१) अधिकार में आना। (२)वश में होना। काबू में आना। हाथ में लाना=दे०'हाथ में करना'। हाथ में लेना=(१) करने का भार ऊपर लेना। जिम्मे लेना। (२) अपने अधिकार में करना। स्वायत्त करना। हाथ में हाथ देना=पाणिग्रहण कराना। (कन्या को) ब्याह देना। हाथ में होना=(१) अधिकार में होना। पास में होना। (२) वश में होना। अधीन होना। उ०—हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस बिधि हाथ।—तुलसी (शब्द०)। हाथ में गुन या हुनर होना=किसी काल में निपुणता होना। हाथ रँगना=(१) हाथ में मेहँदी लगाना। (२) किसी बुरे काम में पड़कर अपने को कलंकित करना। कलंक माथे पर लेना। (३) रिशवत लेना। घूस लेना। (किसी पर) हाथ रखना=(१) मदद देना। सहायक होना। सक्रिय सहयोग देना। उ०—इस वास्ते तुमसे अरज करि जोर कीजति है वली। अब हाथ उसपर रक्खियै तो जंग लेहि फतेअली। —सुजान०, पृ० १०। (किसी का) हाथ रोकना=कोई काम न करने देना। कुछ करते समय हाथ थाम लेना। कुछ करने से मना करना। (अपना) हाथ रोकना=(१) किसी काम का करना बंद कर देना। किसी काम से अलग हो जाना। विरत हो जाना। (२) मारने के लिये हाथ उठाकर रह जाना। (३) खर्च करते समय आगा पीछा सोचना। सँभालकर खर्च करना। जैसे,— आमदनी घट गई है तो हाथ रोककर खर्च किया करो। हाथ रोपना या ओड़ना=हाथ फैलाना। माँगना। (कोई वस्तु) हाथ लगना=(१) हाथ में आना। मिलना। प्राप्त होना। जैसे,—तुम्हारे हाथ तो कुछ भी न लगा। (२) गणित करते समय वह संख्या जो अंतिम संख्या ले लेने पर बच रहती है। जैसे,—१२ के २ रखे, हाथ लगा १। (किसी काम में) हाथ लगना=(१) आरंभ होना। शुरू किया जाना। जैसे,—जब काम में हाथ लग गया तब हुआ समझो। (२) किसी के द्बारा किया जाना। किसी का लगाव होना। जैसे,—जिस काम में तुम्हारा हाथ लगता है, वह चौपट हो जाता है। (किसी वस्तु में) हाथ लगना=छू जाना। स्पर्श होना। (किसी काम में) हाथ लगाना=(१) आरंभ करना। शुरू करना। (२) करने में प्रवृत्त होना। योग देना। जैसे,—जिस काम में तुम हाथ लगाओगे वह क्यों न अच्छा होगा। (किसी वस्तु में) हाथ लगाना=छूना। स्पर्श करना। हाथ लगे मैला होना=इतना स्वच्छ और पवित्र होना कि हाथ से छूने से मलिनता आ जाना या मैला होना। हाथ साधना=(१) यह देखने के लिये कोई काम करना कि उसे आगे अच्छी तरह कर सकते हैं या नहीं। (२) अभ्यास करना। मश्क करना। (३) दे० 'हाथ साफ करना'। (किसी पर) हाथ साफ करना=किसी को मारना। (किसीवस्तु पर) हाथ साफ करना=बेईमानी से ले लेना। अन्याय से हरण करना। उड़ा लेना। (भोजन पर) हाथ साफ करना= खूब खाना। (किसी के सिर पर) हाथ रखना=किसी की रक्षा का भार ग्रहण करना। शरण या आश्रय में लेना। मुरब्बी होना। (अपने या किसी के सिर पर) हाथ रखना= सिर की कसम खाना। शपथ उठाना। हाथ से=द्बारा। मारफत जैसे,—(क) तुम्हारे हाथ से यह काम हो जाता तो अच्छा था। (ख) तुमने किसके हाथ से रुपया पाया ? हाथ से जाना या निकल जाना=(१) अपने अधिकार में न रहना। कब्जे में न रह जाना। (२) अवसर या मौका न रह जाना। उ०—न जाने तड़के तड़के किस मनहूस का मुँह देखा है कि भर दिन के मजे हाथ से गए। —फिसाना०, भा० १, पृ० ७। (३) वश में न रह जाना। काबू में न रह जाना। जैसे,—चीज हाथ से निकल जाना, अवसर हाथ से जाना। हाथ से हाथ मिलाना=दान देना। खैरात करना। अपने हाथ से दूसरे के हाथ पर कुछ रखना। जैसे,—आज एकादशी है, कुछ हाथ से हाथ मिलाओ। हाथ हिलाते आना=(१) खाली हाथ लौटना। कुछ लेकर या प्राप्त करके न आना। (२) बिना कार्य सिद्ध हुए लौट आना। हाथों के तोते उड़ जाना=(१) हाथ में आई हुई वस्तु का निकल जाना या बेहाथ होना। (२) होश हवाश गायब हो जाना। घबड़ा जाना। उ०—उन्होंने काँपते हुए जवाब दिया कि क्या बताऊँ, हाथों के तोते उड़ गए। — फिसाना०, भा० ३, पृ० २९१। हाथों में चाँद आना=(१) पु्त्र उत्पन्न होना। लड़का पैदा होना। (स्त्रियाँ)। (२) मनचाही वस्तु मिलना। इच्छित वस्तु की प्राप्ति होना। हाथों में पिसान लगाकर भंडारी बनना=(१) गृह कार्य या समारोह आदि में कुछ काम न करते हुए भी बहुत बड़ी जिम्मेदारी का कार्य करने या कार्य की सफलता का श्रेय लेने का ढोंग रचना। (२) झूठा ढोंग रचना। नकली वेश बनाना। उ०—अनेक जन व्यर्थ भी हाथों में पिसान लगाकर भंडारी बनने पर तत्पर हो जाते।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४५१। हाथों में रखना=बड़े लाड़ प्यार या आदर संमान से रखना। हाथों हाथ=एक के हाथ से दूसरे के हाथ में होते हुए। जैसे,—चीज हाथों हाथ वहाँ पहुँच गई। हाथों हाथ बिक जाना या उड जाना=खूब बिक्री होना। बड़ी गहरी माँग होना। जैसे,—ऐसी उपयोगी पुस्तक हाथों हाथ बिक जायगी। हाथों हाथ लेना=बड़े आदर और संमान से स्वागत करना। (किसी के) हाथ बेचना=किसी को मूल्य लेकर देना। (किसी के) हाथ भेजना=किसी के हाथ में देकर भेजना। किसी के द्बारा प्रेषित करना। (किसी के) हाथों= किसी के द्बारा। २. लंबाई की एक माप जो मनुष्य की कुहनी से लेकर पंजे के छोर तक की मानी जाती है। चौबीस अंगुल का मान। जैसे —दस हाथ की धोती। बीस हाथ जमीन। मुहा०—हाथो कलेजा उछलना=(१) बहुत जी धड़कना। (२) आनंद- मग्न होना। बहुत खुशी होना। हाथ भर कलेजा होना=(१) बहुत खुशी होना। आनंद से फूलना। (२) उत्साह होना। साहस बँधना। ३. युद्ध, लड़ाई आदि में आक्रमण करने का ढंग। वार करने की कला। ४. ताश, जुए आदि के खेल में एक एक आदमी के खेलने की बारी। दावँ। जैसे,—अभी चार ही हाथ तो हमने खेला है। मुहा०—उलटकर या उलटा हाथ मारना=शत्रु के वार को रोकते हुए उसपर आघात करना। प्रत्याक्रमण करना। हाथ मारना=(१) कुशलतापूर्वक शत्रु पर वार करना। (२) दावँ जीतना। हाथ बनाना=दे० 'हाथ मारना'। ४. किसी कार्यालय के कार्यकर्ता। कारखाने में काम करनेवाले आदमी। जैसे,—आजकल हाथ कम हो गए हैं; इसी से देर हो रही है। ५. किसी औजार या हथियार का वह भाग जो हाथ से पकड़ा जाय। दस्ता। मुठिया।

हाथकंडा
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'हथकंडा'।

हाथड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ+ड़ (प्रत्य०)] जाँते या चक्की की मुठिया।

हाथतोड़
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ+तोड़ना] कुश्ती का एक पेच जिसमें जोड़ का पंजा उलटा पकड़कर मरोड़ते हैं और उसी मरोड़े हुए हाथ के ऊपर से अपनी उसी बगल की टाँगे जोड़ की टाँगों में फँसाकर उसे चित करते हैं।

हाथधुलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ+धुलाई] वह बँधी रकम जो चमारों को मरे हुए चौपायो कें फेंकने के लिये दि जाती है।

हाथपान
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ+पान] हाथफूल के समान हथेली की पीठ पर पहनने का एक गहना जो पान के आकार का होता है और जंजीरों के द्बारा अँगूठियों और कलाई से लगाकर बँधा रहता है।

हाथफूल
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ+फूल] हथेली की पीठ पर पहनने का फूल के आकार का एक गहना जो सिकड़ियों के द्बारा अँगूठियों और कलाई से लगाकर बाँधा जाता है।

हाथबाँह
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ+बाँह] बाँह करने (कसरत) का एक ढंग।

हाथा
संज्ञा पु्० [हिं० हाथ] १. किसी औजार या हथियार का वह भाग जो मुट्ठी में पकड़ा जाता है। दस्ता। २. दो तीन हाथ लंबा लकड़ी का एक औजार जिससे सिंचाई करते समय खेत में आया हुआ पानी उलीचकर चोरों ओर पहुँचाते हैं। ३. पंजे की छाप या चिह्न जो गीले पिसे चावल और हल्दी आदि पोतकर दीवार पर छापने से बनता है। छापा। विशेष—उत्सव, पूजन आदि में स्त्रियाँ ऐसा छापा बनाती हैं।

हाथाछाँटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ+छाँटना] १. व्यवहार में कपट या बेईमानी। चालाकी। धूर्तता। चालबाजी। २. चालबाजी या बेईमानी से रुपया पैसा उड़ाना। माल हजम करना। क्रि० प्र०—करना।—होना।

हाथाजोड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ+जोड़ना] १. एक पौधा जो औषध के काम में आता है। २. सरकंडे की वह जड़ जो दो मिले पंजों के आकार की बन जाती है।विशेष—इस प्रकार की जड़ का रखना लोग बहुत फलदायक और कल्याणकारक मानते हैं।

हाथापाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ+पायँ] ऐसी लड़ाई जिसमें हाथ पैर चलाए जायँ। मारपीट। उठापटक। मुठभेड़। भिड़ंत। धौलधप्पड़। क्रि० प्र०—करना।—होना।

हाथाबाँही
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ+बाँह] दे० 'हाथापाई'।

हाथाली पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्ततली]दे० 'हथेली'। उ०—राति ज रूनी निसह भरी, सुणी महाजनि लोइ। हाथाली छाला पड़्या, चीर निचोइ निचोइ। —ढोला०, दू० १५६।

हाथाहाथी (१)
अव्य० [हिं० हाथ+हाथ] १. एक हाथ से दूसरे हाथ में। हाथोंहाथ। २. तुरंत। शीघ्र। जल्दी।

हाथाहाथी (२)
संज्ञा स्त्री०दे० 'हाथापाई'।

हाथि पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हाथ]दे० 'हाथ'।

हाथी (१)
संज्ञा पुं० [सं० हीस्तन्, हस्ती, प्रा० हत्थी] [स्त्री० हथिनी] एक बहुत बड़ा स्तनपायी जंतु जो सूँड़ के रूप में बढ़ी हुई नाक के कारण और सब जानवरों से विलक्षण दिखाई पड़ता है। विशेष—यह जमीन से ७-८ हाथ ऊँचा होता है और इसका धड़ बहुत चौड़ा और मोटा होता है। धड़ के हिसाब से इसकी टाँगें छोटी और खंभे की तरह मोटी होती हैं। पैर के पंजे गोल चक्राकार होते हैं। आँखें डीलडौल के हिसाब से छोटी और कुछ ऊदापन लिए होती हैं। जीभ लंबी होती है। पुँछ के छोर पर बालों का गुच्छा होता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है नाक जो एक गावदुम नली के समान जमीन तक लटकती रहती है और सूँड़ कहलाती है। यह सूंड़ हाथ का भी काम देती है। इससे हाथी छोटी से छोटी वस्तु जमीन पर से उठा सकता है और पेड़ की बड़ी बड़ी डालों को तोड़कर मुँह में डाल लेता है। इससे वह अपने शत्रुओं को लपेटकर पटक देता या चीर डालता है। सूँड़ में पानी भरकर वह अपने ऊपर डालता भी है। नर हाथी के मुखविवर के दोनों छोरों पर हाथ डेढ़ हाथ लंबे और ५-६ अंगुल चौड़े गोल डडे की तरह के सफेद चमकीले दाँत निकले होते हैं जो केवल दिखावटी होते हैं। इन दाँतों का वजन बहुत अधिक—७५ से १७५ सेर तक होता है। इसके कान गोल सूप की तरह के होते हैं। मस्तक चोड़ा और बीच से कुछ विभक्त दिखाई पड़ता है। सिरकी हड़िडयाँ जालीदार होती हैं। पसलियों बीस जोड़ी होती हैं। हाथी पृथ्वी के गरम भागों में —विशेषतः हिंदुस्तान और अफ्रिका में —पाए जाते हैं। अफ्रिका और हिंदुस्तान के हाथियों में कुछ भेद होता है। अफ्रिका के हाथी के दो निकले हुए दाँतों के सिवा चार दाढ़ें होती हैं और हिंदुस्तानी के दो ही। अफ्रिका के हाथी का मस्तक गोल और कान इतने बड़े होते हैं कि सारे कंधे को ढँके रहते हैं। बरमा और स्याम की ओर सफेद हाथी भी पाए जाते हैं जिनका बहुत अधिक आदर और मोल होता है। हिंदुस्तान के हाथियों के भी अनेक भेद होते हैं; जैसे,— दँतैला, मकना (कद में छोटा और बिना दाँत का), पलँगदाँत, गनेसा, सूअरदंता, पथरदंता, सँकरिया, अंकुसदंता या गुंडा इत्यादि। कोई कोई हिंदुस्तानी हाथी के दो प्रधान भेद करते हैं —एक कमरिया, दूसरा मिरगी या शिकारी। कमरिया का शरीर भारी और सूँड़ लंबी होती है। मिरगी कुछ अधिक ऊँचा और फुरतीला होता है और उसकी सूँड़ भी कुछ छोटी होती है। सवारी के लिये कमरिया हाथी अधिक पसंद किया जाता है और शिकार के लिये मिरगी। हाथी गहरे जंगलों में झुंड बाँधकर रहते हैं और मनुष्य की तरह एक बार में एक बच्चा देते हैं। हाथी की बाढ़ १८ से २४ वें वर्ष तक जारी रहती है। पाले हुए हाथी सौ वर्ष से अधिक जीते हैं। जंगली और भी अधिक जीते होंगे। हिंदुस्तान में हाथी रखने की रीति अत्यंत प्राचीन काल से है। प्राचीन समय में राजाओं के पास हाथियों की भी बड़ी बड़ी सेनाएँ रहती थीं जो शत्रु के दल में घुसकर भयंकर संहार करती थीं। हाथी रखना अमीरी का बड़ा भारी चिह्न समझा जाता है। अफ्रिका के जंगली इसका मांस भी खाते हैं। हाथी पकड़ने के कई उपाय हैं। अधिकतर गड्ढा खोदकर हाथी फँसाए जाते हैं। यौ०—हाथीखाना। हाथीनाल। हाथीदाँत। हाथीनशीन। हाथीपाँव। मुहा०—हाथी सा=बहुत मोटा। अत्यंत स्थूलकाय। हाथी की राह=आकाशगंगा। डहर। (दरवाजे पर) हाथी झूमना= अत्यंत ऐश्वर्यशाली होना। बहुत अमीर होना। हाथी पर चढ़ना=बहुत अमीर होना। हाथी पर चढ़ाना=अत्यंत आदर संमान करना। हाथी बाँधना=बहुत अमीर होना। जैसे,—तुम्हीं बेईमानी करके हाथी बाँध लोगे ? निशान का हाथी=सेना या जुलूस में वह हाथी जिसपर झंडा और डंका रहता है। हाथी के संग गाँड़े खाना=बलवान की बराबरी करना।

हाथी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथ+ई] हाथ का सहारा। करावलंब। उ०—दस्तगीर गाढ़े कर साथी। वह अवगाह दीन्ह तेहि हाथी। —जायसी (शब्द०)।

हाथीखाना
संज्ञा पुं० [हिं० हाथी+फा़० खानह्] वह घर जिसमें हाथी रखा जाय। फीलखाना।

हाथीचक
संज्ञा पुं० [हिं० हाथी+चक्र] एक प्रकार का पौधा जो औषध के काम में आता है।

हाथीदाँत
संज्ञा पुं० [हिं० हाथी+दाँत] हाथी के मुँह के दोनों छोरों पर हाथ डेढ़ हाथ निकले हुए सफेद दाँत जो केवल दिखावटी होते हैं। विशेष—यह बहुत ठोस, मजबूत और चमकीला होता है तथा अधिक मूल्य पर बिकता है। इससे अनेक प्रकार के सजावट के सामान बनते हैं; जैसे, —चाकू के बेंट, कंघियाँ, कुरसियाँ, शीशे के फ्रेम इत्यादि। इसपर नक्काशी भी बड़ी ही सुंदर होती है।

हाथीनाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाथी+नाल] वह पुरानी तोप जिसे हाथियों की पीठ पर रखकर ले जाते थे। हथनाल। गजनाल।

हाथीपाँव
संज्ञा पुं० [हिं० हाथी+पाँव] १. एक रोग जिसमें टाँगें फूलकर हाथी के पैर की तरह मोटी और बेडौल हो जाती हैं। फीलपाँव। २. एक प्रकार का बढ़िया सफेद कत्था।

हाथीपीच
संज्ञा पुं० [हिं० हाथी+पीच] एक प्रकार का हाथीचक जो शाम और रूम की ओर से आता है और औषध के काम का होता है।

हाथीबच
संज्ञा स्त्री० [हिं० हथी+बच] एक पौधा जिसकी तरकारी बनाई जाती है।

हाथीवान
संज्ञा पुं० [हिं० हाथी+वान (प्रत्य०)] हाथी की रक्षा करने और उसे चलाने के लिये नियुक्त पुरुष। फीलवान। महावत।

हादसा
संज्ञा पुं० [अ० हादिसह्] बुरी घटना। दुर्घटना। आपत्ति।

हादिस
वि० [अ०] १. नया। नवीन। नूतन। २. जो हमेशा से न हो। अचिरस्थायी [को०]।

हादिसा
संज्ञा पुं० [अ० हादिसह्] १. नवीन घटना। नई बात। २. दे० 'हादसा' [को०]।

हादी
संज्ञा पुं० [अ०] १. हिदायत देनेवाला। मार्गदर्शक। उ०—बाद चंदे हजरते शेखे शफीक, वाकिफे, असरारे हक हादी तरीक। — दक्खिनी०, पृ० २०३। २. उष्ट्रपाल। रैवारी।

हान पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हानी] दे० 'हानि'। उ०—जरा मरन वा घर नहीं, नहीं लाभ नहिं हान। —धरम०, पृ० ७९।

हान (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्यागने की क्रिया। परित्याग। त्याग। २. विफलता। वैफल्य। ३. अपसर्पण। अफयान। ४. कमी। अभाव। ५. समाप्ति। विराम। ६. शौर्य। शक्ति [को०]।

हानव्य
वि० [सं०] जिसकी स्थिति जबड़े में हो। जैसे,—दाँत [को०]।

हानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. न रह जाने का भाव। नाश। अभाव। क्षय। जैसे,—प्राणहानि, तिथिहानि। २. नुकसान। क्षति। लाभ का उलटा। पास के द्रव्य आदि में त्रुटि या कमी। घाटा। टोटा। जैसे,—इस व्यापार में बड़ी हानि हुई। ३. स्वास्थ्य में बाधा। तंदुरुस्ती में खराबी। जैसे,—जिस वस्तु से हानि पहुँचती है, उसे क्यों खाते हो ?४. अनिष्ट। अपकार। बुराई। ५. तिरस्कार। उपेक्षा (को०)। ६. न्यूनता। कमी (को०)। ७. दोष। त्रुटि (को०)। परित्यजन। परित्याग (को०)। ८. गति। गमन (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—हानि उठाना=नुकसान सहना। हानि पहुँचना=नुकसान होना। हानि पहुँचाना=नुकसान करना।

हानिकर
वि० [सं०] १. हानि करनेवाला। जिससे नुकसान पहुँचे। २. अनिष्ट करनेवाला। बुरा परिणाम उपस्थित करनेवाला। ३. स्वास्थ्य में त्रुटि या बाधा पहुँचानेवाला। तंदुरुस्ती बिगाड़नेवाला। रोगी बनानेवाला।

हानिकारक
वि० [सं०]दे० 'हानिकार'।

हानिकारी
वि० [सं० हानिकारिन्]दे० 'हानिकर'।

हानीय
वि० [सं०] जो छोड़ने अथवा परित्याग करने के योग्य हो। दे० 'हातव्य' [को०]।

हानु
संज्ञा पुं० [सं०] दंत। दाँत [को०]।

हान्यौ पु
वि० [सं०] हनन मारा हुआ। उ०—नंदसुवन तब ही पहि- चान्यौ। दुष्ट न दुरै दई कौं हान्यौ। —नंद० ग्रं०, पृ० २८५।

हापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. परित्याग करने या हटा देने के लिये बाध्य करने की क्रिया। २. ह्रास। अभाव [को०]।

हापुत्रिका, हापुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का खंजन [को०]।

हाफ
वि० [अं०] आधा। अर्ध।

हाफिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जँभाई। जृंभा [को०]।

हाफिज (१)
संज्ञा पुं० [अ० हाफ़िज] १. वह धार्मिक मुसलमान जिसे कुरान कंठ हो। उ०—दादू यह तन पिंजरा माँही मन सूवा। एकै नाँव अलह का, पढ़ि हाफिज हूवा। —दादू०, पृ० ४७। २. वह जिसकी स्मरण शक्ति तीव्र हो (को०)।

हाफिज (२)
वि० बचानेवाला। रक्षक। उ०—वह अपना सँभाले हमारा भी खुदा हाफिज है। —रंगभूमि, भा० २, पृ० ७०४।

हाफिजा
संज्ञा पुं० [अ० हाफ़िजह्] याददाश्त। स्तरणशक्ति [को०]।

हाफू पु
संज्ञा पुं० [यू० ओपियम, अ० अफ़यून, फा० अफ्यून, मरा० अफू, हिं० अफीम, आफू] अफीम। उ०—रज्जब रजमाँ पाइए हाफू जली गुनाह। —रज्जब०, पृ० ३।

हाबिस
संज्ञा पुं० [देंश०] जहाज का लंगर उखाड़ने अथवा उसे खींचने की क्रिया।

हाबी (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० हाँबी] अभिरुचि। शौक। उ०—लाला भगवानदीन जी की हाबी थी —पढ़ाना पढ़ना, पढ़ना पढ़ाना। — अपनी०, पृ० १०१।

हाबी (२)
वि० [अ० हावी]दे० 'हावी'। उ०—बल्कि उनपर बदजेहा हाबी है। —प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८६।

हाबुस
संज्ञा पुं० [सं० हविष्य] जौ की कच्ची बाल जो प्रायः भूनकर और नमक मिर्च मिलाकर खाई जाती है।

हाबूड़ा़
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की पिछड़ी जाति जिसका काम लूटमार और चोरी आदि करना है।

हामिद
वि० [अ०] १. तारीफ या प्रशंसा करनेवाला। प्रशंसक। २. ईश्वर का स्तवन करनेवाला [को०]।

हामिल
वि० [अ०] [वि०स्त्री० हामिला] १. बोझ उठानेवाला। वाहक। २. रखनेवाला। धारण करनेवाला [को०]।

हामिला
संज्ञा स्त्री० [अ० हामिलह्] वह स्त्री जिसके पेट में बच्चा हो। गर्भिणी स्त्री।

हामी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाँ] 'हाँ' करने की क्रिया या भाव। स्वीकृति। स्वीकार। उ०—तनिक जबान से भरौ हामी। —पलटू०, पृ० २।मुहा०—हामी भरना=किसी बात के उत्तर में 'हाँ' कहना। स्वीकार करना। मंजूर करना। मानना।

हामी (२)
वि० संज्ञा पुं० [अ०] १. वह जो हिमायत करता हो। पक्षपाती। समर्थक। पृष्ठपोषक। उ०—शुक्ल जी देशभक्त लेखक थे, वह साहित्य में देशभक्ति के हामी थे। —आचार्य०, पृ० २२। २. सहायक। मददगार।

हाय (१)
प्रत्य० [सं० हा] १. शोक और दुःख सूचित करनेवाला एक शब्द। घोर दुःख या शोक में मुँह से निकलनेवाला एक शब्द। आह। २. कष्ट और पीड़ा सूचित करनेवाला शब्द। शारीरिक व्यथा के समय मुँह से निकलनेवाला शब्द। क्रि० प्र०—करना। यौ०—हाय तोबा=हाय हाय करना। चिल्ल पों मचाना। उ०— बड़ी हायतोबा के बाद वह टाँगे पर बैठी। —पिंजड़े०, पृ० ५९। मुहा०—हाय करके या हाय मारकर रह जाना=निरुपाय होकर कष्ट सहन करना। हाय मारना=(१) शोक से हाय हाय करना। कराहना। (२) दहल जाना। स्तंभित हो जाना।

हाय (२)
संज्ञा स्त्री० १. कष्ट। पीड़ा। दुःख। जैसे,—गरीब की हाय का फल तुम्हारे लिये अच्छा नहीं। उ०—तुलसी हाय गरीब की हरि सों सही न जाय। (चलित) (शब्द०)। मुहा०—(किसी की) हाय पड़ना=पहुँचाए हुए दुःख या कष्ट का बुरा फल मिलना। जैसे,—इतने गरीबों की हाय पड़ रही है, उसका कभी भला न होगा। २. जलन। ईर्ष्या। डाह। मुहा०—हाय करना, हाय होना=किसी की उन्नति, धन संपत्ति, संमान आदि देखकर ईर्ष्या करना।

हायक
वि० [सं०] परित्याग करनेवाला। छोड़ देनेवाला [को०]।

हायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्ष। संवत्सर। साल। २. एक प्रकार का चावल (को०)। ३. आग की लौ। लपट (को०)। ४. छोड़ देना। परित्याग (को०)। ५. गुजर जाना। गुजरना (को०)।

हायनक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मोटा चावल जो लाल होता है।

हाय भाय पु
संज्ञा पुं० [सं० हाव+भाव] भावभंगिमा। मुद्रा। हावभाव। उ०—अद्रभुत अकह अनुप अनंत हायभायनि की, लुरति लरी की लरी भरी अति चितचायनि की। —रत्नाकर, भा० १, पृ० १५।

हायल पु (१)
वि० [सं० हात(=छोड़ा हुआ), प्रा० हाय, अथवा हिं० घायल] घायल। शिथिल। मूर्छित। बेकाम। उ०—किय हायल चित चाय लगि बजि पायल तुव पाय। पुनि सुनि सुनि मुख मधुर धुनि, क्यों न लाल ललचाय। —बिहारी (शब्द०)।

हायल (२)
वि० [अ०] दो वस्तुओं के बीच में पड़नेवाला। व्यवधान रूप से स्थित। रोकनेवाला। अंतरवर्ती।

हाय हाय (१)
अव्य० [सं० हा हा] शोक, दुःख या शारीरिक कष्ट- सूचक शब्द।दे० 'हाय'। उ०—सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सभा पुकारा। —मानस, १। २७६। क्रि० प्र०—करना।— मचना।होना। उ०—बस हाय हाय मच गई, रोने की अवाजें आने लगीं। —प्रेमघन०, भा० २, पृ० २४।

हाय हाय (२)
संज्ञा स्त्री० १. कष्ट। दुःख। पीड़ा। शोक। २. व्याकुलता। घबराहट। आकुलता। परेशानी। झंझट। जैसे,—(क) तुम्हें तो रुपए के लिये सदा हाय हाय रहती है। (ख) जिंदगी भर यह हाय हाय न मिटेगी।

हार (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हारि] १. युद्ध, क्रीड़ा, प्रतिद्बंद्विता आदि में शत्रु के संमुख असफलता। लड़ाई, खेल, बाजो या चढ़ा ऊपरी में जोड़ या प्रतिद्बंद्वी के सामने न जीत सकने का भाव। पराजय। शिकस्त। जैसे,—लड़ाई में हार, खेल में हार इत्यादि। क्रि० प्र०—जाना।—मानना।—होना। यौ०—हारजीत। मुहा०—हार खाना=पराजय होना। हारना। हार देना=पराजित करना। हराना। हार बोलना=हार मान लेना। २. शिथिलता। श्रांति। थकावट। ३. हानि। क्षति। हरण। ४. जब्ती। राज्य द्बारा हरण। ५. युद्ध। ६. विरह। वियोग।

हार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोने, चाँदी या मोतियों आदि की माला जो गले में पहनी जाय। उ०—नव उज्वल जलधार, हार हीरक सी सोहति। —भारतेंदु ग्रं०, भा १, पृ० २८२। विशेष—किसी के मत से इसमें ६४ और किसी के मत से १०८ दाने होने चाहिए। मुहा०—हार मोर हो जाना=गायब हो जाना। उ०—निजरा आगै निमष मैं, हार मोर ह्वै जाय। —बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० २२। २. वह जो ले जानेवाला या वहन करनेवाला हो। ३. अंकगणित में भाजक। ४. पिंगल या छंदः शास्त्र में गुरु मात्रा। ५. ले लेना। हरण (को०)। ६. अलग करना। रहित करना (को०)। ७. मोती की माला। ८. क्षेत्र का विस्तार। ९. मार्ग। रास्ता। उ०—हार मुक्त को फूल को, हार क्षेत्र विस्तार, हार बिरह को बोलिबो, मारग कहियत हार। —अनेकार्थ०, पृ० १६२।

हार (३)
वि० १. मनोहर। मन हरनेवाला। सुंदर। २. नाश करनेवाला। ३. ले जानेवाला या हरण करनेवाला (को०)। ४. उगाहने या वसूल करनेवाला। ५. शिव संबंधी। ६. विष्णु संबंधी।

हार (४)
संज्ञा पुं० [देश० या सं० अरण्य] १. वन। जंगल। २. नाव के बाहरी तख्ते। ३. चरने का मैदान। चरागाह। गोचारण भूमि। ४. कृषिभूमि। खेत।

हार (५)
प्रत्य० [सं० धार, हिं० हार] वाला अर्थ का सूचक प्रत्यय। दे० 'हारा'। जैसे,—पावनिहार।

हारक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरण करनेवाला। लेनेवाला। २. जानेवाला। ३. मन हरनेवाला। मनोहर। सुंदर। ४. चोर। लुटेरा। ५. धूर्त। खल। ६. गणित में भाजक। ७. जुआड़ी (को०)। ८. हार। माला। ९. एक विज्ञान (को०)। १०. शाखोट वृक्ष (को०)। ११. गद्य का एक प्रकार या भेद (को०)।

हारक (२)
वि० १. ले लेनेवाला। हरण करनेवाला। २. लूटनेवाला। चोरी करनेवाला। ३. आकर्षित करनेवाला। आकर्षक। ४. मोहक। मनोहर। सुंदर [को०]।

हारगुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हार की गुरिया। माला के दाने।

हारणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरण कराने की क्रिया [को०]।

हारद पु
वि० [सं० हार्द]दे० 'हार्द', 'हार्दिक'।

हारना (१)
क्रि० अ० [सं० हारि, हिं० हार+ना (प्रत्य०) अथवा सं० हृत या हारित, प्रा० हारिअ, हिं० हारि] १. युद्ध, क्रीड़ा, प्रतिद्बंद्विता आदि में शत्रु के सामने असफल होना। लड़ाई, खेल, बाजी या लाग डाँट में दूसरे पक्ष के मुकाबिले में न जीत सकना। पराभूत होना। परजित होना। शिकस्त खाना। जैसे,—लड़ाई में हारना, खेल या बाजी में हारना। संयो० क्रि०—जाना। २. व्यवहार या अभियोग में दूसरे पक्ष के मुकाबिले में कृतकार्य न होना। मुकदमा न जीतना। जैसे,—मुकदमे में हारना। ३. श्रांत होना। शिथिल होना। थक जाना। प्रयत्न में निराश होना। असमर्थ होना। जैसे,—जब वह उसे न ले सका, तब हारकर बैठ गया। यौ०—हारा माँदा। मुहा०—हारे दर्जे=(१) सब उपायों से निराश होकर और कुछ बस न चलने पर। (२) लाचार होकर। विवश होकर। हारकर=(१) असमर्थ होकर। (२) लाचार होकर।

हारना (२)
क्रि० स० १. लड़ाई, बाजी आदि को सफलता के साथ न पूरा करना। जैसे,—बाजी हारना, दाँव हारना। २. नष्ट करना या न प्राप्त करना। गँवाना। खोना। जैसे,—प्राण हारना, धन हारना। ३. छोड़ देना। न रख सकना। जैसे,—हिम्मत हारना। दे देना। प्रदान करना। जैसे,—बचन हारना।

हारफल
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हारफलक'।

हारफलक
संज्ञा पुं० [सं०] पाँच लड़ियों का हार।

हारबंध
संज्ञा पुं० [सं० हारबन्ध] एक चित्रकाव्य जिसमें पद्य हार के आकार में रखे जाते हैं।

हारबर
संज्ञा पुं० [अं०] समुद्र के किनारे, नदी के मुहाने या खाड़ी में बना हुआ वह स्थान जहाँ जहाज आकर ठहरते हैं। बंदरगाह। जैसे,—डायमंड हारबर, बंबई हारबर।

हारभूरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्राक्षा। दाख। अंगूर।

हारभूषिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रचीन जाति।

हारमुक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] हार का मोती। हाक में गुँथा मोती।

हारमोनियम
संज्ञा पुं० [अं०] संदूक के आकार का एक अँगरेजी बाजा जिसपर उँगली रखने और भाथी पर दाब देने से अनेक प्रकार के इच्छित स्वर निकलते हैं। इसमें मंद्र, मध्य और तार —ये तीनों सप्तक होते हैं।

हारम्य पु
संज्ञा पुं० [सं० हर्म्य] प्रासाद। अट्टालिका। हर्म्य। उ०— हारम्य रम्य फिरि मंडि लोइ। दालिद्र दीन दीसै न कोइ।—पृ० रा०, १। ६०७।

हारयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] हार या माला की लड़ी।

हारल †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जो अपने चंगुल में कोई लकड़ी या तिनका लिए रहती है।दे०'हारिल'।

हारलता
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हारयष्टि'।

हारवार पु
संज्ञा स्त्री० [अनु०]दे० 'हड़बड़ी'।

हारसिंगार
संज्ञा पुं० [हिं० हार+सिंगार] हरसिंगार का पेड़ या फूल। परजाता।

हारहारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अंगूर।

हारहूण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम। २. हारहूण देश के निवासी।

हारहूर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मद्य।

हारहूरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अंगूर।

हारहूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हारहूरा'।

हारहौर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम। २. उक्त देश का निवासी।

हार (१)
प्रत्य० [सं० धार (=रखनेवाला)] [स्त्री० हारी] एक पुराना प्रत्यय जो किसी शब्द के आगे लगकर कर्तव्य, धारण या संयोग आदि सूचित करता है। वाला। जैसे,—करनेहारा, देने- हारा, लकड़हारा इत्यादि।

हारा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दक्षिणपश्चिम के कोने की हवा।

हारा पु (३)
संज्ञा स्त्री० [अ० हाल] हाल। लाचारी। दीनता। उ०— 'दही दही' करि महरि पुकारा। हारिल बिनवै आपन हारा। — जायसी ग्रं०, पृ० ११।

हारावलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मोतियों की माला। उ०—रसिक जनन जीवन जु हृदय हारावलि धारी। —भक्तमाल, पृ० ५३७। २. पुरुषोत्तम देव द्बारा रचित अप्रचलित शब्दों के संग्रह से युक्त संस्कृत का एक कोशग्रंथ।

हारावली
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हारावलि'।

हारि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हारा। पराभव। शिकस्त। २. क्रीड़ा या द्यूतक्रीड़ा में पराजय। ३. पथिकों का दल। कारवाँ।

हारि (२)
वि० १. हरण करनेवाला। ले जाने या बलात् ले लेनेवाला। २. आकर्षक। मनोहर। मन हरनेवाला।

हारि पु (३)
संज्ञा स्त्री० शिथिलता। दे०'हार (१)'।

हारिकंठ (१)
वि० [सं० हारिकण्ठ] १. मधुर कंठवाला। मधुरभाषी। २. जो गले में मोतियों की माला पहने हो [को०]।

हारिकंठ (२)
संज्ञा पुं० कोयल [को०]।

हारिक (१)
वि० [सं०] हरि के सदृश। हरितुल्य।

हारिक (२)
संज्ञा पुं० एक प्राचीन जनपद [को०]।

हारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक छंद का नाम [को०]।

हारिज
वि० [अ०] १. हानिकर। नुकसानदेह। २. गड़बड़ी फैलानेवाला। उपद्रवकारी। बाधक [को०]।

हारिण (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० हारिणी] हिरण से संबंधित [को०]।

हारिण (२)
संज्ञा पुं० हिरन का मांस। मृगमांस [को०]।

हारिणाश्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हारिनाश्वा'।

हारिणिक
वि० [सं०] हिरण को पकड़नेवाला। शिकारी [को०]।

हारित (१)
वि० [सं०] १. हरण कराया हुआ। २. लाया हुआ। जिसे ले आए हों। ३. छीना हुआ। ४. खोया हुआ। गँवाया हुआ। ५. छोड़ा हुआ। समर्पित। ६. वंचित। ७. पराजित। हारा हुआ। ८. आकृष्ट। मोहित। मुग्ध।

हारित (२)
संज्ञा पुं० १. तोता। सूआ। २. एक वर्णवृत्त जिसमें एक नगण और दो गुरु होते हैं। ३. हरा रंग (को०)। ४. सामान्य ढंग की हवा जो न बहुत कम और न बहुत तीखी हो (को०)। ५. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम (को०)। ६. एक प्रकार का कबूतर (को०)।

हारितक
संज्ञा पुं० [सं०] हरी सब्जी। हरा शाक [को०]।

हारिद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का विष जिसका पौधा हल्दी के समान होता है और जो हल्दी के खेतों में ही उगता है। इसकी गाँठ बहुत जहरीली हीती है। २. एक प्रकार का प्रमेह जिसमें हल्दी के समान पीला पेशाब आता है। ३. एक प्रकार का ज्वर (को०)। ४. कदंब का वृक्ष। कदंब (को०)। ५. स्वर्ण। सोना (को०)। ६. पीला रंग (को०)।

हारिद्र (२)
वि० पीत वर्ण का। पीला [को०]।

हारिद्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] प्रमेह रोग का एक भेद। हरिद्रा मेह।

हारिनाश्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक मूर्छना जिसका स्वरग्राम इस प्रकार है —ग, म, प, ध, नि, स, रे। स, रे, ग, म, प, ध, नि, स, रे, ग, म, प।

हारिल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जो प्रायः अपने चंगुल में कोई लकड़ी या तिनका लिए रहती है। इसका रंग हरा, पैर पीले और चोंच कासनी रंग की होती है। हरियल। उ०— हमारे हरि हारिल की लकरी। —सूर (शब्द०)

हारी (१)
वि० [सं० हारिन्] [वि० स्त्री० हारिणी] १. हरण करनेवाला। छीननेवाला। २. ले जानेवाला। पहुँचानेवाला। लेकर चलनेवाला। ३. चुरानेवाला। लूटनेवाला। ४. दूर करनेवाला। हटानेवाला। ५. नाश करनेवाला। ध्वंस करनेवाला। ६. वसूल करनेवाला। उगाहनेवाला (कर या महसूल)। ७. जीतनेवाला। पराजित करनेवाला। ८. मन हरनेवाला। मोहित करनेवाला। ९. आह् लादित्, खुश या प्रसन्न करनेबाला। १०. ग्रहण करनेवाला (को०)। ११. हार पहननेवाला।

हारी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण और दो गुरु होते हैं। २. बदनाम लड़की जो विवाह के अयोग्य कही गई है (कौ०)। ३. मुक्ता। मोती (को०)।

हारी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] पराजय।दे०'हार'। मुहा०—हारी मानना न जीती मानना=किसी तरह न मानना। न चित्त मानना न पट मानना। उ०—हजार बार कह दिया, समझा दिया कि बाबा लड़ो झगड़ो मत। मगर यह शख्स किसी की सुनता ही नहीं। हारी मानता है न जीती। —सैर०, पृ० २३।

हारीत
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोर। लुटेरा। डाकू। २. धूर्त। शठ। चाँईं। ३. चोरी। लुटेरापन। ४. चाँईंपन। धूर्तता। ५. कण्व ऋषि के एक शिष्य का नाम। ६. एक ऋषि जो स्मृतिकार हैं। ७. जाबाल ऋषि के एक पुत्र का नाम। ८. राजतरंगिणी के अनुसार एक जनपद का नाम। ८. परेवा। कबूतर।

हारीतक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कबूतर [को०]।

हारीतबंध
संज्ञा पुं० [सं० हारीतबन्ध] एक प्रकार का वृत्त।

हारु पु
संज्ञा पुं० [सं० हार]दे० 'हार'। उ०—मोतीहारु आधों चारु उर रहचो लसी। —नंद० ग्र०, पृ० ३४७।

हारुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरण करनेवाला। छीननेवाला। २. ले जानेवाला।

हारौल
संज्ञा पुं० [तु० हरावल, हिं० हरौल] दे० 'हरावल'।

हार्द (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेम। स्नेह। उ०—हार्द स्नेह प्रियता बहुरि प्रनय राग अनुराग। —अनेकार्थ०, पृ० ५९। २. हृद् गत अभि- प्राय। मनोभावना। इरादा (को०)। ३. प्रयोजन। इच्छा। आकांक्षा (को०)। ४. दयालुता। कृपालुता (को०)।

हार्द (२)
वि० हृदय संबंधी। हृदय का।

हार्दिक
वि० [सं०] १. हृदय संबंधी। हृदय का। २. हृदय से निकला हुआ। सच्चा। जैसे,—हार्दिक सहानुभूति। हार्दिक प्रेम।

हार्दिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मित्रभाव। मित्रता। सुहृद्भाव। २. महाभारत के अनुसार कृतवर्मा का एक नाम [को०]।

हार्दी (१)
संज्ञा पुं० [सं० हार्दिन्] वह वस्तु जो बहुत अधिक पसंद की जाय। वह वस्तु जिसके प्रति हृदय बहुत अधिक अनुरक्त हो [को०]।

हार्दी (२)
वि० स्नेहानुभूति करनेवाला। सहृदय [को०]।

हार्न
संज्ञा पुं० [अ०] मोटर द्बारा मार्ग में की जानेवाली संकेतध्वनि। मोटर का भोंपा। उ०—इतने में मोटर का हार्न सुनाई दिया औऱ एक पल में रतन आ पहुँची। —गबन, पृ० २५०।

हार्य (१)
वि० [सं०] १. हरण करने या छीनने योग्य। २. ग्रहण करने या लेने योग्य। ३. जो हरण किया या छीना जानेवाला हो। ४. जो ग्रहण किया या लिया जानेवाला हो। ५. अस्थिर, ढुलमुल या विचलित होने योग्य। जैसे, किसी की प्रतिज्ञा या वचन (को०)। ६. जो हिलाया या इधर उधर किया जानेवाला हो। हिलाने योग्य, विशेषतः वायु द्बारा। ७. जो आकृष्ट, प्रभावित या वशीभूत करने योग्य हो (को०)। ८. दूर करने, हटाने या वारण करने योग्य। जिसका वारण किया जा सके (को०)। ९. जो नष्ट करने या विध्वस्त करने लायक हो (को०)। १०. मनमोहक। सौंदर्ययुक्त। लुभाना (को०)। ११. जिसका अभिनय किया जानेवाला हो (नाटक आदि)। १२. जो भाग दिया जानेवाला हो। जिसमें भाग दिया जाय। (गणित में) भाज्य।

हार्य (२)
संज्ञा पुं० १. सर्प। साँप। भुजंग। २. विभीतक का वृक्ष। ३. गणित में वहु अंक जिसमें भाग दिया जाय। भाज्य अंक [को०]।

हार्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का चंदन।

हार्र
वि० [अ०] १. उष्ण। गरम। तप्त। २. गर्म करनेवाला। गर्म स्वभाव या प्रभाववाला। जैसे,—ओषधि [को०]।

हार्रा
वि० [अ० हार्रह्] १. उष्ण। तप्त। २. जिसमें खेती की जाती हो। जैसे,—भूमि। ३. बोया हुआ। जिसमें बीज बोया गया हो [को०]।

हाल (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. दशा। अवस्था। जैसे,—अब उनका क्या हाल है ? उ०—(क) विरहिनि तो बेहाल है, को जानत हाला। कबीर श०, भा० ३. पृ० १७। (ख) डोला लिए चलो तुम झटपट, छोड़े अटपट चाल रे। सजन भवन पहुँचा दो हमको, मन का हाल बिहाल, रे। —क्वासि, पृ० ४७। २. परिस्थिति। माजरा। ३. संवाद। समाचार। वृत्तांत। जैसे,—बहुत दिनों से उनका कुछ हाल नहीं मिला। ४. जो बात हुई हो, उसका ठीक ठीक उल्लेख। इतिवृत। ब्योरा। विवरण। कैफियत। ५. कथा। आख्यान। चरित्र। जैसे,— इस किताब में हातिम का सारा हाल है। २. ईश्वर के भक्तों या साधकों की वह अवस्था जिसमें वे अपने को बिलकुल भूलकर ईश्वर के प्रेम में लीन हो जाते हैं। तन्मयता। लीनता। (मुसल०)। यौ०—हालचाल=वर्तमान स्थिति या दशा। हालबिहाल, हाल बेहाल=बुरी दशा। दयनीय दशा। हाल समाचार=वर्तमान अवस्था और गतिविधि। मुहा०—(किसी पर) हाल आना=ईश्वरप्रेम का उद्बेग होना। प्रेम की बेहोशी छाना।

हाल (२)
वि० वर्तमान। चलता। उपस्थित। जैसे,—जमाना हाल। मुहा०—हाल में=थोड़े ही दिन हुए। जैसे,—वे अभी हाल में आए हैं। हाल का=थोड़े दिनों का। नया। ताजा।

हाल (३)
अव्य० १. इस समय। अभी। उ०—बात कहिबे में नंदलाल की उताल कहा ? हाल तौ हरिननैनी हँफनि मिटाय लै। — शिव (शब्द०)। २. तुरंत। शीघ्र। उ०—संग हित हाल करि जाचक निहाल करि नृपता बहाल करि कीरति बिसाल की। —गुलाब (शब्द०)।

हाल (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हालना] १. हिलने की क्रिया या भाव। कंप। २. झटका। झोंका। धक्का। क्रि० प्र०—लगना। ३. नौका का कर्ण। नाव की गलही (को०)। ४. लोहे का बंद जो पहिए के चारों ओर घेरे में चढ़ाया जाता है।

हाल (५)
संज्ञा पुं० [अं० हाँल] बहुत बड़ा कमरा। जिसमें बहुत से लोग एकत्र हो सकें। खुब लंबा चौड़ा कमरा।

हाल (६)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेत जोतने का हल। २. बलराम। ३. शालिवाहन राजा। ४. एक प्रकार का पक्षी [को०]।

हाल (७)
संज्ञा पुं० [फा़०] १. श्वेत इलायची। २. चैन। आराम। शांति। ३. नाच। नृत्य। ४. चौगान खेलने की गेंद। कंदुक [को०]।

हालक
संज्ञा पुं० [सं०] पीलापन लिए भूरे रंग का घोड़ा।

हालगाह
संज्ञा पुं० [फा़०] चौगान खेलने का मैदान। कंदुक की क्रीड़ा के लिये निर्मित मैदान [को०]।

हालगोला
संज्ञा पुं० [हिं० हाल+गोला] गेंद। उ०—किधौं चित्त चौगान के मूल सोहैं। हिये हेम के हालगोला बिमोहैं। —केशव (शब्द०)।

हालडोल
संज्ञा पुं० [हिं० हालना+डोलना] १. हिलने की क्रिया या भाव। गति। २. कंप। ३. हलकंप। हलचल।

हालत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. दशा। अवस्था। जैसे,—अब उस बीमार की क्या हालत है ? २. आर्थिक दशा। सांपत्तिक स्थिति। जीवननिर्वाह की गति। जैसे,—अब उनकी हालत ऐसी नहीं है कि कुछ अधिक दे सके। ३. चारों ओर की वस्तुओं और व्यापारों की स्थिति। संयोग। परिस्थिति। जैसे,—ऐसी हालत में हम सिवा हट जाने के और क्या कर सकते थे। मुहा०—हालत खराब होना=(१) दशा बिगड़ना। प्रतिकूल परिस्थिति होना। (२) पराभूत होना। हालत गैर या तबाह होना=दे०'हालत खराब होना।'

हालदार
संज्ञा पुं० [अ० हवालु+फ़ा० दार] १. दे० 'हवलदार'। २ बंगाल में एक जातिगत अल्ल या उपाधि।

हालदारी
संज्ञा स्त्री० [?] एक प्रकार का कर जो विवाह के अवसर पर पहले बंगाल में लगता था।

हालना पु †
क्रि० अ० [सं० हल्लन] १. हिलना। डोलना। गतिवान् होना। हरकत करना। उ०—ज्यों जल हालत है लगि पौन कहै भ्रम तै प्रतिबिंब हि काँपै। —सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ५८०। २. काँपना। डगमगाना। उ०—भुव हालति जानि अकास हिये। जनु थंभित ठौरनि ठौर किये। — केशव (शब्द०)। ३. झूमना। लहराना। उ०—(क) भूतल भूधर हाले अचानक आप भरत्थ के दुंदुभि बाजे। —केशव (शब्द०)। (ख) हालति न चंपलता डोलत समीरन के बानी कल कोकिल कलित कंठ परिगो। —(शब्द०)।

हालभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] बलदेव। बलराम [को०]।

हालरा
संज्ञा पुं० [हिं० हालना] १. बच्चों को हाथ में लेकर हिलाने की क्रिया। बच्चों को लेकर हिलाना डुलाना। २. झोंका। ३. लहर। हिलोर।

हालहल, हालहाल
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हलाहल', 'हालाहल'।

हालहली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदिरा। शराब [को०]।

हालहूल (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हल्ला] १. हल्ला गुल्ला। कोलाहल। शोरगुल। २. हलकंप। हलचल। आंदोलन।

हालहूल पु (२)
क्रि० वि० [हिं० हालना+अनु० हूलना, या हिं० झूलना] हिलडुलकर। उ०—हालहुल ऊँचे नीचे ठौर ठहराहिंगे।—सुंदर० ग्रं० (जी०), पृ० ६६।

हालाँकि
अव्य० [फ़ा०] यद्यपि। गो कि। ऐसी बात है, फिर भी। जैसे,—वह ज्यादा हिम्मत रखता है, हालाँकि तुमसे कमजोर है।

हाला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदिरा। मद्य। शराब।

हाला पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० हालना]दे० 'हालो'। यौ०—हालाडोला=दे० 'हालडोला'। 'हालाहाली'।

हालात
संज्ञा पुं० [फ़ा०] हालत का बहुवचन। परिस्थितियाँ [को०]।

हालावाद
संज्ञा पुं० [सं० हाला+वाद] साहित्य, विशेषतः काव्य की वह प्रवृत्ति या धारा, जिसमें हाला या मदिरा को वर्ण्य विषय मानकर काव्यरचना हुई हो। उ०—'मधुशाला,' 'मधुबाला' इत्यादि काव्य कृतियों से हिंदी में हालावाद नाम की एक नई प्रवृत्ति चल पड़ी। —हिं० का० आ० प्र०, पृ० १८३। विशेष—साहित्य की इस धारा का आधार उमर खैयाम की रुबा- इयाँ रही हैं।

हालाह
संज्ञा पुं० [सं०] चितकबरा घोड़ा। हलाह [को०]।

हालाहल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हलाहल'।

हालाहाली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाल] शीघ्रता। जल्दी जल्दी।

हालाहाली (२) †
क्रि वि० शीघ्रता में। जल्दी में।

हालिक (१)
वि० [सं०] हल संबंधी।

हालिक (२)
संज्ञा पुं० १. कृषक। किसान। खेतिहर। २. एक प्रकार का छंद। ३. पशुओं का बध करनेवाला। कसाई। ४. वह जो हल को शस्त्र की तरह युद्ध में प्रयुक्त करता हो। हल से युद्ध करनेवाला। ५. वह जो हल को खींचता हो। हल का बैल (को०)। ६. हलवाहा (को०)। ७. अनार। दाड़िम। उ०—रक्त- बीज, हालिक, करक, शुक प्रिय, कुट्टिम मार। ए दाड़िम इत देखि बलि, कछु तुव दसन अकार। —नंद० ग्रं०, पृ० १०२।

हालिक (३)
वि० [अ०] प्राण लेनेवाला। घातक [को०]।

हालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की बड़ी गृहगोधा या छिपकली।

हालिम
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जिसके बीज औषध के काम में आते हैं। चंसुर। चंद्रसुर। हालोँ। विशेष—यह सारे एशिया में लगाया जाता है। इसके बीजों से एक प्रकार का सुगंधित तेल निकलता है। बीज बाजार में बिकते हैं और पुष्ट माने जाते हैं। ग्रहणी और चर्मरोग में भी इनका व्यवहार होता है।

हाली (१)
अव्य० [अ० हाल] जल्दी। शीघ्र। यौ०—हाली हाली=जल्दी जल्दी। शीघ्रता से।

हाली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्नी की छोटी बहन। साली [को०]।

हाली पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० हाल] १. हल चलानेवाला। कृषक। उ०— बाड़ी माँहैं माली निपज्यौ हाली माँहैं निपज्यौ षेत। —सुंदर० ग्रं० भा०२, पृ० ५३३।

हाली (४)
वि० [अ०] १. वर्तमान समय का। आधुनिक। २. आभूषित। शृंगारित। ३. चालू। जो प्रचलन में हो। जैसे,—नोट सिक्का आदि। [को०]।

हालीमवाली
संज्ञा पुं० [अ०] संगी साथी। यार दोस्त।

हालु
संज्ञा पुं० [सं०] दंत। दाँत।

हालूक
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की भेड़ जो तिब्बत के पूरबी भाग में होती है और जिसका ऊन बहुत अच्छा होता है।

हालोँ, हालौँ
संज्ञा पुं० [देश० हालिम]दे० 'हालिम।'

हालो पु
संज्ञा पुं० [हिं० हालना] हलकंप। हलचल। उ०—हालो परय़ो लोकन में लालो परय़ो चक्रिन में चालो परय़ो लोगन में चामर चबात हों। —कविता कौ०, भा० १, पृ० १५१।

हाल्ट
संज्ञा पुं० [अं०] दल या सेना का चलते हुए एकदम रुक जाना या ठहर जाना। ठहराव। विशेष—मार्च करती हुई या चलती हुई सेना को ठहराने के लिये यह शब्द जोर से बोला जाता है।

हाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पास बुलाने की क्रिया या भाव। पुकार। बुलाहट। २. संयोग या शृंगार के समय में नायिका की प्रेमभाव- जनित स्वाभाविक चेष्टाएँ जो पुरुष को आकर्षित करती हैं। विशेष—साहित्य में ग्यारह हाव गिनाए गए हैं—लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिंचित, मोट्टायित, विव्वोक, विहृत, कुट्टमित, ललित और हेला। भाव विधान में 'हाव' अनुभाव के ही अंतर्गत है। यौ०—हावभाव।

हावक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हवन या यज्ञ करानेवाला। २. वह जो आह्वान करे। पुकारनेवाला व्यक्ति (को०)। ३. वह व्यक्ति जो वधू या दुलहिन को बुलाए (को०)।

हावन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. उलूखल। ओखली। २. दवा आदि कूटने का ओखली जैसा लोहे का पात्र।

हावनदस्ता
संज्ञा पुं० [फ़ा० हावनदस्तह्] लोहे का ओखली जैसा पात्र और कूटने का लंबा लोहे का बट्टा। खरल और बट्टा।

हावनीय
वि० [सं०] हवन कराने योग्य।

हावभाव
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों की वह चेष्टा जिससे पुरुषों का चित्त आकर्षित होता है। नाज नखरा। क्रि० प्र०—करना।—दिखाना।

हावर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़। विशेष—यह पेड़ अवध, राजपूताना, मध्यप्रदेश और मद्रास में बहुत होता है। इसकी लकड़ी मजबूत, वजनी और भूरे रंग की होती है और खेती के सामान (हल, पाटे आदि) बनाने के काम में आती है।

हावलाबावला
वि० [हिं० बावला] [वि० स्त्री० हावलीबावली] पागल। सनकी।

हावहाव
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाय] किसी पदार्थ को प्राप्त करने की बहुत अधिक और अनुचित इच्छा। हाय हाय। जैसे,—तुम्हें तो हरदम रुपयों की हावहाव पड़ी रहती है।

हावी (१)
वि० [अ०] १. छाया हुआ। आच्छादित। जिसने किसी चीज को ढँक लिया हो। २. कुशलता और चतुराई के बल से जिसने किसी को प्रभावित कर लिया हो। ३. प्रभावित करनेवाला। अधिकार करनेवाला। उ०—कवि पर धर्मोपदेष्टा और नीतिकार का हावी होना शुक्ल जी को पसंद नहीं है।—आचार्य०, पृ० ११५।

हावी
२) वि० [सं० हाविन्] अग्नि में हवि देनेवाला। साकल्य, घृत आदि हवन करनेवाला। होता [को०]।

हाशिया
संज्ञा पुं० [अ० हाशियह्] १. किसी फैली हुई वस्तु का किनारा। कोर। पाड़। बारी। जैसे,—किताब का हाशिया, कपड़े का हाशिया। २. गोट। मगजी। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—लगाना। ३. हाशिए या किनारे पर का लेख। नोट। मुहा०—हाशिए का गवाह=वह गवाह या साक्षी जिसका नाम किसी दस्तावेज के किनारे दर्ज हो। हाशिया चढ़ाना=किसी बात में मनोरंजन आदि के लिये कुछ और बात जोड़ना। नमक मिर्च लगाना। यौ०—हाशिया आराई=दे० 'हाशिया चढ़ाना'। हाशियानशीन= (१) दरबार में मंडलाकार बैठनेवाले सभासद। (२) किसी बड़े आदमी के पास उठने बैठनेवाले लोग। हशियानशीनी= दरबरदारी। मुसाहिबी।

हास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंसने की क्रिया या भाव। हँसी। उ०—संतो भाई सुनिए एक तमासा। चुप करि रहो त कोई न जानैं कहते आवै हासा। —सुंदर० भा० २, पृ० ८२७। २. परिहास। दिल्लगी। ठट्ठा। मजाक। ३. निंदा का भाव लिए हँसी। उपहास। ४. आनंद। खुशी। ५. हास्य रस का स्थायी भाव (को०)। ६. अत्यंत चमकीला श्वेत वर्ण। ७. खिलना। विकसित होना (को०)। ८. अहंकार। गर्व। घमंड (को०)। यौ०—हाम परिहास, हासविलास=हास और क्रीड़ा। उ०—चारु चिबुक नासिका कपोला। हासविलास लेत मन मोला। — मानस, १। १२३।

हास (२)
वि० श्वेत (वर्ण)। उज्वल।

हासक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हँसानेवाला व्यक्ति। भाँड़। विदूषक। २. हास। हास्य (को०)।

हासकर (१)
वि० [सं०] हँसानेवाला। जिसमें या जिससे हँसी आवे।

हासकर (२)
संज्ञा पुं० हास में प्रवृत्त करने की क्रिया। हँसाना।

हासद
वि० [सं० हास (=प्रसन्नता, खुशी)+द (प्रत्य०)] सुखांत। उ०—नाटकों में त्रासद (दुःखांत) और हासद (सुखांत) का भेद किया जाता है। —स० शास्त्र, पृ० १२६।

हासन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हँसाना। हासयुक्त करना। २. वह जो हँसाता हो। हँसानेवाला।

हासन (२)
वि० हँसानेवाला। मजाक से भरा हुआ। मजाकिया [को०]।

हासनिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो विनोद या क्रीड़ा का साथी हो। साथ साथ विनोद या क्रीड़ा करनेवाला।

हासवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिक बौद्धों की एक देवी।

हासशील
वि० [सं०] हँसानेवाला। हँसोड़। विनोदी।

हासस्
संज्ञा पुं० [सं०] इंदु। चंद्रमा। सुधाकर [को०]।

हासा
संज्ञा पुं० [सं०] काल। समय [को०]।

हासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हँसी। हास्य। २. आनंद। क्रीड़ा। विलास। मौज। मनोरंजन [को०]।

हासिद
वि० [अ०] हसद करनेवाला। डाह करनेवाला। ईर्ष्यालु।

हासिनी
वि० स्त्री० [सं० हासिन् = हासी, हासिनी] हँसनेवाली। उ०—कौन ! कौन तुम निष्ठुर हासिनि ?—रजत०, पृ० ७९।

हासिव
संज्ञा पुं० [अ०] १. वह आँधी जिसमें धूल और कंकड़ हो। धूल और कंकड़ पत्थर से भरी आँधी। २. वह बादल जो ओले बरसाए [को०]।

हासिल (१)
वि० [अ०] १. प्राप्त। लब्ध। वसूल। पाया हुआ। मिला हुआ। २. जो शेष रह जाय या जो बचा हुआ हो। उ०— काया गढ़ बैठो कुतवलिया हासिल ले सब दाम गनाय।— गुलाल०, पृ० १। मुहा—हासिल आना = दे० 'हासिल होना'। हासिल करना = प्राप्त करना। लाभ करना। जैसे,—दौलत हासिल करना, इल्म हासिल करना। हासिल होना = (१) प्राप्त होना। मिलना। (२) शेष रहना। बाकी रहना। बच जाना।

हासिल (२)
संज्ञा पुं० १. गणित करने में किसी संख्या का वह भाग या अंक जो शेष भाग के कहीं रखे जाने पर बच रहे। हाथ। क्रि० प्र०—आना।—लगना। २. उपज। पैदावार। ३. लाभ। नफा। ४. गणित की क्रिया का फल। जैसे,—हासिल जरब, हासिल तकसीम। ५. जमा। राजस्व। लगान। वसूली। ६. परिणाम। निचोड़। निष्कर्ष (को०)। यौ०—हासिल कलाम = बात का निष्कर्ष या निचोड़। हासिल जमा = योगफल। जोड़। मीजान। हासिल जर्ब = दो संख्याओं के गुणन से प्राप्त संख्या। गुणनफल। हासिल तकसीम = लब्धांक। भजनफल। हासिल तफ्रीक = बड़ी संख्या में से शेष छोटी संख्या घटाने से प्राप्त शेष संख्या। शेष। हासिल मतलब = सारांश। निष्कर्ष।

हासी (१)
वि० [सं० हासिन्] [वि० स्त्री० हासिनी] १. हँसनेवाला। जैसे,—चारुहासी। २. उपहास करनेवाला। ३. श्वेत। सफेद।

हासी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हँसना] हँसी। हास। उ०—हासी लौं उजासी जाकी जगत हुलासी हैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१।

हास्त
वि० [सं०] हाथ का बना हुआ। हस्तनिर्मित।

हास्तमुकुल
संज्ञा पुं० [सं०] अंजलि [को०]।

हास्तिक (१)
वि० हाथी का या हाथी से संबंधित [को०]। यौ०—हास्तिकदंत = हाथी का दाँत। हाथीदाँत।

हास्तिक (२)
संज्ञा पुं० १. पीलवान। महावत। २. हाथी का सवार। ३. हाथियों का गिरोह, झुंड या समूह [को०]।

हास्तिदंत
वि० [सं० हास्तिदन्त] हाथीदाँत से निर्मित। हाथीदाँत का बना हुआ [को०]।

हास्तिन (१)
वि० [स०] १. हाथी जितना गहरा। जैसे,—पानी। २. हाथी का अथवा हाथी से संबंधित [को०]।

हास्तिन (२)
संज्ञा पुं० हस्तिनापुर का एक नाम [को०]।

हास्य (१)
वि० [सं०] १. हँसने योग्य। जिसपर लोग हँसें। २. उपहसनीय। उपहास के योग्य। ३. हँसनेवाला। हँसी पैदा करनेवाला। हास्य उत्पन्न करनेवाला।

हास्य (२)
संज्ञा पुं० १. हँसने की क्रिया या भाव। हँसी। २. नौ स्थायी भावों और रसों में से एक। उ०—महामुनि भरत कहते हैं कि शृंगार रस की अनुकृति हास्य है।—रस क०, पृ० ४१। ३. उपहास। निंदापूर्ण हँसी। ४. आनंद। खुशी। प्रफुल्लता (को०)। ५. ठट्ठा। ठिठोली। दिल्लगी। मजाक।

हास्यकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हँसी की बात। २. कोई ऐसी कहानी या आख्यायिका जो हास्य रस की हो।

हास्यकर
वि० [सं०] १. हँसानेवाला। २. जिसमें हँसी आवे।

हास्यकार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हासक'।

हास्यकृत
वि० [सं०] दे० 'हास्यकर'।

हास्यजनक
वि० [सं०] दे० 'हास्यकर'।

हास्यकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] हँसी लानेवाला काम। वह काम जिसे देखकर हँसी आवे। उपहास के योग्य कार्य।

हास्यकौतुक
संज्ञा पुं० [सं०] हास्यपूर्ण क्री़ड़ा। हँसी खेल।

हास्यपदवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपहास। मजाक [को०]।

हास्यमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हास्यपदवी'।

हास्यरस
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य के नौ रसों में से एक जिसका स्थायी भाव हास्य है [को०]।

हास्यरसात्मक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० हास्यरसात्मिका] जिसमें हास्य रस प्रधान हो। हास्य रस से भरपूर। जैसे, कविता, कहानी आदि।

हास्यरसिक
वि० [सं०] हास्यप्रिय। विनोदी [को०]।

हास्यरहित, हास्यहीन
वि० [सं०] १. जो हास्य रस से रहित हो। जो हास्य रसात्मक न हो। २. जो हँसता न हो।

हास्यास्पद
संज्ञा पुं० [सं०] १. हास्य का स्थान या विषय। वह जिसे देखकर लोग हँसें। २. उपहास का विषय। वह जिसके बेढंगे- पन पर लोग हँसी उड़ावें।

हास्योत्पादक
वि० [सं०] जिससे लोगों को हँसी आवे। उपहास के योग्य। हास्य उत्पन्न करनेवाला।

हास्योद्दीपक
वि० [सं० हास्य + उद्दीपन] हास्य उत्पन्न करनेवाला। हास्यकर। उ०—उसके साथी अपनी हास्योद्दीपक उक्तियों और प्रत्युपन्न मति के लिये प्रसिद्ध थे।—अकबरी, पृ० २३।

हा हंत
अव्य० [सं० हा हन्त] अत्यंत शोकसूचक शब्द।

हाहल
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणघातक विष [को०]।

हाहव
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम [को०]।

हाहस
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधर्वं का नाम [को०]।

हा हा (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. हँसने का शब्द। वह आवाज जो जोर से हँसने पर आदमी के मुँह से निकलती है। यौ०—हाहा ठीठी, हाहा हीही = हँसी ठट्ठा। विनोद। हाहा हूहू। मुहा०—हाहा हीही करना = (१) हाहा हूहू करना। हँसना। (२) हँसी ठट्ठा करना। विनोद क्रीड़ा करना। हाहा हीही होना या मचाना = हँसी होना। २. गिड़गिड़ाने का शब्द। अनुनय विनय का शब्द। दीनता या बहुत बिनती की पुकार। दुहाई। मुहा०—हाहा करना = गिड़गिड़ाना। बहुत विनती करना। दुहाई देना। उ०—हाहा कै हारि रहे मनमोहन पाँय परे जिन्ह लातनि मारे।—केशव (शब्द०)। हाहा खाना = बहुत गिड़- गिड़ाना। अत्यंत दीनता और नम्रता से पुकारना। बहुत विनती करना। उ०—साँटी लै जसुमति अति तरजति हरि बसि हाहा खात।—सूर (शब्द०)।

हाहा (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गंधर्व का नाम। २. एक विशाल संख्या का वाचक शब्द (को०)।

हाहा (३)
अव्य० दुःख, वेदना और आश्चर्यसूचक एक अव्यय [को०]।

हाहाकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. भय के कारण बहुत आदमियों के मुँह से निकला हुआ हाहा शब्द। घबराहट की चिल्लाहट। भय, दुःख या पीड़ा सूचित करनेवाली जनसमूह की पुकार। कुहराम। २. संघर्ष, युद्ध आदि का तीव्र कोलाहल। क्रि० प्र०—करना।—मचना।—पड़ना।—होना।

हाहाठीठी
संज्ञा स्त्री० [अनु० हा हा + हिं० ठट्ठा] हँसी ठट्ठा। विनोद क्रीड़ा। जैसे,—तुम्हारा सारा दिन हाहाठीठी में जाता है। मुहा०—हाहा ठीठी करना = हँसी ठट्ठा करना। हाहा ठीठी होना = हँसी मजाक होना। उ०—कोऊ अन्हात पै हाहा ठीठी होत रहत चहुँ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ४१।

हाहाल
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणघातक विष [को०]।

हाहाहूत पु †
संज्ञा पुं० [अनु०] हाहाकार। भय का कोलाहल।

हाहा हूहू
संज्ञा पुं० [अनु०] हा हा करके हँसने की क्रिया। हँसी ठट्ठा। विनोद। हाहा ठीठी।

हाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० हाय] किसी वस्तु को प्राप्त करने की अनुचित और बहुत अधिक विकलता। कुछ पाने के लिये 'हाय हाय' करते रहना। जैसे—(क) तुम्हें तो सदा रुपयों की हाही पड़ी रहती है। (ख) इतनी हाही क्यों करते हो ? जब सबको मिलेगा, तुम्हें भी मिल जायगा।

हाहू पु
संज्ञा पुं० [अनु०] १. हल्लागुल्ला। शोरगुल। कोलाहल। २. हलचल। धूम।

हाहूबेर
संज्ञा पुं० [देश० हाहू + हिं० बेर] जंगली बेर। झड़बेरी।

हिंकरना
क्रि० अ० [अनु० हिन हिन अथवा सं० हिङ्कार] घोड़ों का हिनहिनाना।

हिंकार
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्कार] १. रँभाने का वह शब्द जो गाय अपने बछड़े को बुलाते समय करती है। २. बाघ के बोलने का शब्द। ३. सामगान का एक अंग जिसमें उद्गगाता गीत के बीच बीच में 'हिं' का उच्चारण करता है। ४. व्याघ्र। बाघ।

हिंक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङिक्रया] गाय आदि के रँभाने की ध्वनि [को०]।

हिंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गु] दे० 'हीँग'।

हिंग (२)
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्ग] मार्कंडेय पुराण में वर्णित एक देश का नाम।

हिंगन पु †
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गोट] दे० 'हिंगनबेर'। उ०—चंदन के साती लिंब हुआ चंदन, क्यों कर रोवे देखो ए हिंगन।— दक्खिनी०, पृ० २२।

हिंगनबेर
संज्ञा पुं० [हिं० हिंगोट + बेर] इंगुदी वृक्ष। हिंगोट। हिंगुवा। गोंदी।

हिंगलाची
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गलाची] बौद्धों के अनुसार एक यक्षिणी का नाम।

हिंगलाज
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गुलाजा] दुर्गा या देवी की एक मूर्ति अथवा उनका एक भेद। उ०—देवां दुंदुभि वज्जिया, हिंगलाज दरबार।—रा० रू०, पृ० ३६६। विशेष—हिंगलाज देवी की यह स्थान सिंध और बलूचिस्तान के बीच की पहाड़ियों में है। यहाँ अँधेरी गुफा में ज्योति के उसी प्रकार दर्शन होते हैं जिस प्रकार काँगड़े की ज्वालामुखी में। कराची बंदर से उत्तर की और समुद्र के किनारे किनारे ४५ कोस चलकर लोग यहाँ पहुँचते हैं।

हिंगली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का तंबाकू।

हिंगलू †
संज्ञा पुं० [हिं०। सं० हिङ्गुल] दे० 'हिंगुल'। उ०—(क) हिंगलू के लोकै पत्रों की आयुर्दा विभाग पर तथा बीच बीच में पदों आदि के साथ लगी हुई हैं।—सुंदर० ग्रं० (भ०), पृ० ९। (ख) अन्य ग्रंथों में प्रायः छंदादि के पीछे हिंगलू की लीकैं नहीं हैं।—सुंदर० ग्रं०, भा० १ (भू०), पृ० ११।

हिंगाष्टकचूर्ण
संज्ञा पुं० [हिं० हिंग + सं० अष्टक] वैद्यक में प्रसिद्ध एक अजीर्णनाशक और पाचक चूर्ण। विशेष—सोंठ, पीपल, कालीमिर्च, अजमोदा, सफेद जीरा, स्याह जीरा, भुनी हीँग और सेँधा नमक इन सबको बराबर बराबर एक साथ चूर्ण कर देने से इसका निर्माण होता है। इसके सेवन की मात्रा। १ या २ टंक है।

हिंगु
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गु] १. हींग। उ०—हरित शाक कबहूँ नहिं खाई। हिंगु ल्हसनु सब देइ बहाई।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १०२। २. हिंगु का वृक्ष। हींग का पेड़ (को०)। ३. नीम का वृक्ष (को०)।

हिंगुक
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गुक] हिंगुवृक्ष [को०]।

हिंगुनाडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गुनाडिका] एक प्रकार का हिंगु वृक्ष और उसका निर्यास। विशेष दे० 'नाड़ी हिंगु'।

हिंगुदी
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गुदी] एक प्रकार का वृंताक।

हिंगुनिर्यास
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गुनिर्यास] १. हिंगु वृक्ष का गोँद। हीँग। २. नीम वृक्ष [को०]।

हिंगुपत्र
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गुपत्र] १. इंगुदी। हिंगोट। २. हिंगुवृक्ष का पत्ता।

हिंगुपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गुपत्री] एक तरह की हीग। वंशपत्री [को०]।

हिंगुपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गुपर्णी] वंशपत्री [को०]।

हिंगुल
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गुल] १. ईंगुर। सिंगरफ। २. एक नदी का नाम।

हिंगुला
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गुला] एक प्रदेश का नाम जो सिंध और बलूचिस्तान के बीच में है और जहाँ 'हिंगुलाजा' या 'हिंगलाज' देवी का स्थान है। विशेष दे० 'हिंगलाज'।

हिंगुलाजा
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङगुलाजा] दुर्गा या देवी का एक रूप। हिंगलाज देवी।

हिंगुलि
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गुलि] ईंगुर [को०]।

हिंगुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गुलिका] कंटकारी [को०]।

हिंगुलु
संज्ञा पुं० [हिंङ्गुलु] सिंगरफ। ईगुर [को०]।

हिंगुली
संज्ञा स्त्री० [सं०हिङ्गुली] दे० 'हिंगुदी' [को०]।

हिंगुलेश्वर रस
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गुलेश्व रस] ईंगुर से बनी हुई एक रसौषध जिसका व्यवहार वातज्वर की चिकित्सा में होता है।

हिंगूज्ज्वला
संज्ञा स्त्री० [स० हिङ्गूज्ज्वला] एक प्रकार का सुगंधित पदार्थ [को०]।

हिंगूल
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गूल] हिज्जल नाम का पौधा।

हिंगोट
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्गुपत्र, प्रा० हिंगुवत्त] एक झाड़दार कँटीला जंगली पेड़। इंगुदी। विशेष—यह पेड़ मझोले आकार का होता है और इसकी इधर उधर सीधी निकली हुई टहनियाँ गोल गोल और छीटी तथा श्यामता लिए गहरे हरे रंग की पत्तियों से गुछी होती हैं। इसमें बादाम की तरह के गोल छोटे फल लगते हैं जिनकी गुठलियों से बहुत अधिक तेल निकलता है। छाल और पत्तियों में कसाव होता है। प्राचीन काल में जंगल में रहकर तपस्या करनेवाले मुनियों और तपस्वियों के लिये यह पेड़ बड़े काम का होता था; इसी से इसी 'तापसतरु' भी कहते थे। पर्या०—इंगुदी। हिंगुपत्र। जंगली बदाम।

हिंग्वाष्टक चूर्ण
संज्ञा पुं० [सं० हिङ्ग्वष्टक चूर्ण] दे० 'हिंगाष्टकचूर्ण'।

हिंग्वादिगुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्ग्वादि गुटिका] हींग के योग से बनी हुई एक विशेष प्रकार की गोली। विशेष—भुनी हींग, अमलवेत, काली मिर्च, पीपल, अजवायन, काला नमक, साँभर नमक, सेंधा नमक इन सबको पीसकर बिजौरे नीबू के रस में गोलियाँ बनाते हैं जो गरम पानी के साथ खाई जाती हैं। इसके सेवन से पेट का दर्द दूर होता है।

हिंग्वादि चूर्ण
संज्ञा पुं० [हिङ्ग्वादि चूर्ण] हींग के योग से बनी हुई एक बुकनी। विशेष—भूनी हींग, पिपलामूल, धनिया, जीरा, बच, चव्य, चीता, पाठा, कचूर, अमलबेत, साँभर नमक, काला नमक, सेंधा नमक, जवाखार सज्जी, अनारदाना, हड़ का छिलका, पुष्करमूल, डाँसरा, झाऊ की जड़, इन सबका चूर्ण कर डाले और अदरक तथाबिजौरे के रस के सात सात पुट देकर सुखा डालें। यह बुकनी गुल्म अनाह, अर्श, संग्रहणी, उदावर्त, शूल और उन्माद आदि रोगों में दी जाती है।

हिंच
संज्ञा पुं० [अं० हिच] झटका। आघात। चोट। (लश्करी)।

हिंछना ‡
क्रि० अ० [सं०इच्छण] इच्छा करना। चाहना।

हिंछा पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० इच्छा] दे० 'इच्छा'। उ०—महादेव कर मंडप जगत जातरा आउ। जो हिंछा मन जेहि के सो तैसै फल पाउ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २३१।

हिंजीर
संज्ञा पुं० [सं० हिञ्जर] हाथी के पैर में बाँधने की रस्सी या जंजीर।

हिंडक (१)
वि० [सं० हिण्डक] हिंडन करनेवाला। घूमने फिरनेवाला।

हिंडक (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का विष जिसे नाडीतरंग भी कहते हैं। काकोल नाम का विष [को०]।

हिंडन
संज्ञा पुं० [सं०हिण्डन] १. घूमना। फिरना। चंक्रमण। २. लिखना। लेखन (को०)। ३. संभोग। मैथुन (को०)।

हिंडना पु
क्रि० अ० [सं० हिण्डन] घूमना। फिरना। चंक्रमण करना। जाना। उ०—बिरचयो लोहबर सिंध सुअ षंड षंड तन षंडयौ। निढ्ढुर निसंक झुझ्झंत रन अठ्ठ कोस नृप हिंडयौ।—पृ० रा०, ६१।२२०८।

हिंडिक
संज्ञा पुं० [सं० हिण्डिक] फलित ज्योतिषी।

हिंडिर
संज्ञा पुं० [सं० हिण्डिर] दे० 'हिंडीर'।

हिंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० हिण्डी] दुर्गा का एक नाम।

हिंडीकांत
संज्ञा पुं० [सं० हिण्डीकान्त] शिव का एक नाम।

हिंडीप्रियतम
संज्ञा पुं० [सं० हिंण्डीप्रियतम] शिव। हिंडीकांत [को०]।

हिंडीबदाम
संज्ञा पुं० [देश० हिंड + फा़० बादाम] अंडमान टापू में होनेवाला एक प्रकार का बडा़ पेड़ जिसमें एक प्रकार का गोंद निक- लता है और जिसके बीजों से बहुत सा तेल होता है।

हिंडीर
संज्ञा पुं० [सं० हिण्डीर] १. एक प्रकार की समुद्री मछली की हड्डी जो 'समुद्रफेन' के नाम से प्रसिद्ध है। २. मर्द। नर। पुरुष। ३. वृंताक। वार्ताकु। वैगन (को०)। ४. अग्निदीपन (को०)। ५. अनार का पेड़।

हिंडुक
संज्ञा पुं० [सं०हिंण्डुक] शिव का एक नाम।

हिंडुल
वि० [हिं० हिडोल] हिलता हुआ। झूलता हुआ। उ०— कठंसरी बहु क्रांति मिली मुकताहलाँ। हिंडुल नोसरहार नोसरहार जलूस जलाहलाँ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ३६।

हिंडोर पु
संज्ञा पुं० [हिं०हिंडोल] दे० 'हिँडोरा'।

हिंडोरना पु
संज्ञा पुं० [हिं० हिंडोर] दे० 'हिँडोला'।

हिंडोरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हिँडोला'।

हिंडोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिंडोरा] छोटा हिँडोला।

हिंडोल
संज्ञा पुं० [सं०हिन्दोल] १. हिँडोला। २. एक राग जिसे गांधार स्वर की संतान कहा गया है। विशेष—एक मत से यह ओड़व जाति का है और इसमें पंचम तथा गाँधार वर्जित हैं। इसकी ऋतु वसंत और वार मंगल है। गाने का समय रात को २१ या २६ दंड से लेकर २९ दंड तक है। ऐसा प्रसिद्ध है कि यह राग यदि शुद्ध गाया जाय तो हिंडोला आपसे आप चलने लगता है। हनुमत् के मत से इसका स्वरग्राम इस प्रकार है—सा ग म प नि सा नि प म ग सा। विलावली, भूपाली, मालश्री, पटमंजरी और ललिता इसकी स्त्रियाँ तथा पंचम, वसंत, विहाग, सिंधुड़ा और सोरठ इसके पुत्र माने गए हैं। इसकी पुत्रवधुएँ, सिंधुरई, गाँधारी, मालिनी और त्रिवेणी कही गई हैं।

हिंडोलना ‡
संज्ञा पुं० [सं० हिण्डोल] दे० 'हिंडोला'। उ०— झूलत गुरुमुख संत अलख हिंडोलने।—चरण० बानी, पृ० १४४।

हिंडोला
संज्ञा पुं० [सं० हिन्दोल] १. नीचे ऊपर घूमनेवाला एक चक्कर जिसमें लोगों को बेठने के लिये छोटे छोटे मंच बने रहते हैं। विशेष—विनोद या मनबहलाव के लिये लोग इसमें बैठकर नीचे ऊपर घूमते हैं। सावन के महीने में इसपर झूलने की विशेष चाल है। २. पालना। ३. झूला। उ०—अली फूल को हिंडोलो बनो फूल रही जमुना।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७४।

हिंडोली
संज्ञा स्त्री० [सं० हिण्डोली] एक रागिनी जो हनुमत के मत से हिंडोल राग की प्रिया है।

हिंता
संज्ञा पुं० [अ० हितह्] गेहूँ। गोधूम [को०]।

हिंताल
संज्ञा पुं० [सं० हिन्ताल] एक प्रकार का जंगली खजूर जिसकी पेड़ छोटे छोटे—जमीन से दो तीन हाथ ऊँचे- होते हैं। उ०—शाल ताल हिंताल वर सोभित तरुन तमाल।— श्यामा०, पृ० ३९। विशेष—यह पेड़ देखने में बहुत सुंदर होता है और दक्षिण के जंगलों में दलदलों के किनारे और गीली जमीन मे बहुत पाया जाता है। अमरकंटक के आसपास यह बहुत होता है। संस्कृत के पुराने कवियों ने इसका बहुत वर्णन किया है।

हिंद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] हिंदोस्तान। भारतवर्ष। उ०—मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४८०। विशेष—यह शब्द वास्तव में 'सिंधु' शब्द का फारसी उच्चारण है। प्राचीन काल में भारतीय आर्यों और पारसीक आर्यों के बीच बहुत कुछ संबंध था। यज्ञ करानेवाले याजक बराबर एक देश से दूसरे देश में आते जाते थे। शाकद्विप के मग ब्राह्मण फारस के पूर्वोत्तर भाग से ही आए हुए हैं। ईसा से ५०० वर्ष पहले दारा (दारयवहु) प्रथम के समय में सिंधु नदी के आसपास के प्रदेश पर पारसियों का अधिकार हो गया था। प्राचीन पारसी भाषा में संस्कृत के 'स' का उच्चारण 'ह' होता था। जैसे,—संस्कृत 'सप्त' फारसी 'हफ्त'। इसी नियम के अनुसार 'सिंधु' का उच्चारण प्राचीन पारस देश में 'हिंदु' या 'हिंद' होता था। पारसियों के धर्मग्रंथ 'आवस्ता' में'हफ्तहिंद' का उल्लेख है जो वेदों में भी 'सप्तसिंधु' के नाम से आया है। धीरे धीरे 'हिंद' शब्द सारे देश के लिये प्रयुक्त होने लगा। प्राचीन यूनानी जब फारस आए, तब उन्हें इस देश का परिचय हुआ और वे अपने उच्चारण के अनुसार फारसी 'हिंद' को 'इंड' या 'इंडिका' कहने लगे, जिससे आजकल 'इंडिया' शब्द बना है।

हिंदवा
संज्ञा स्त्री० [फ़ा] एक वनौषधि। कासनी [को०]।

हिंदवाँ †
संज्ञा पुं० [फ़ा० हिंदू] हिंदू का बहुवचन। हिंदू लोग। उ०—जवन जोस वरजोर, हेक सम तोर हजाराँ। हीण तवै हिदवाँ, एक लेखवै अपाराँ।—रा० रू०, पृ० २३।

हिंदवाना †
संज्ञा पुं० [फा़ हिंद + वान] १. तरबूज। कलींदा। हिंदु- आना। २. हिंदुस्तान। भारतवर्ष। उ०—केती हुती रिद्धी सिद्धी केते हुते संत वृद्ध, छोडा़ हिंदवाना तुर्कान हद्द लामी है।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३३।

हिंदवी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] हिंद या हिंदोस्तान की भाषा। हिंदी जो उत्तरीय भारत के अधिकतर भाग में बोली जाती है। उ०— कोई हिंदवी में हिंदू सिद्ध करते।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३८२।

हिंदसा
संज्ञा पुं० [अ० हिंदसह] १. संख्या। अदद। २. गणित [को०]।

हिंदी (१)
वि० [फा़०] हिंद का। हिंदुस्तान का। भारतीय।

हिंदी (२)
संज्ञा पुं० हिंद का रहनेवाला। हिंदुस्तान या भारतवर्ष का निवासी। भारतवासी। उ०—मालिक व आदम व जिन्नो परी। हबशी हिंदी व खैबर और ततरी।—कबीर सा०, पृ० ९७९।

हिंदी (३)
संज्ञा स्त्री० १. हिंदुस्तान की भाषा। भारतवर्ष की बोली। २. हिंदुस्तान के उत्तरी या प्रधान भाग की भाषा जिसके अंतर्गत कई बोलियाँ हैं और जो बहुत से अंशों से सारे देश की एक सामान्य भाषा मानी जाती है। विशेष—मुसलमान पहले पहल उत्तरी भारत में ही आकर जमे और दिल्ली, आगरा और जौनपुर आदि उनकी राजधानियाँ हुई। इसी से उत्तरी भारत में प्रचलित भाषा को ही उन्होंने 'हिंदवी' या 'हिंदी' कहा। काव्यभाषा के रूप में शौर- सेनी या नागर अपभ्रंश से विकसित भाषा का प्रचार तो मुसल- मानों के आने के पहले ही से सारे उत्तरी भारत में था। मुसलमानों ने आकर दिल्ली और मेरठ के आसपास की भाषा को अपनाया और उसका प्रचार बढ़ाया। इस प्रकार वह भी देश के एक बड़े भाग की शिष्ट बोलचाल की भाषा हो चली। खुसरो ने उसमें कुछ पद्यरचना भी आरंभ की जिसमें पुरानी काव्यभाषा या ब्रजभाषा का बहुत कुछ आभास था। इससे स्पष्ट है कि दिल्ली और मेरठ के आसपास की भाषा (खड़ी बोली) को, जो पहले केवल एक प्रांतिक बोली थी, साहित्य के लिये पहले पहल मुसलमानों ने ही लिया। मुसलमानों के अपनाने से खड़ी बोली शिष्ट बोलचाल की भाषा तो मानी गई, पर देश को साहित्य की सामान्य काव्यभाषा वह ब्रज (जिसके अंतर्गत राजस्थानी भी आ जाती है) और अवधी रही। इस बीच में मुसलमान खड़ी बोली को अरबी फारसी द्वारा थोड़ा बहुत बराबर अलंकृत करते रहे, यहाँ तक कि धीरे धीरे उन्होंने अपने लिये एक साहित्यिक भाषा और साहित्य अलग कर लिया जिसमें विदेशी भावों और संस्कारों की प्रधानता रही। ध्यान देने की बात यह है कि यह साहित्य तो पद्यमय ही रहा, पर शिष्ट बोलचाल की भाषा के रूप में खड़ी बोली का प्रचार उत्तरी भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक हो गया। जब अँगरेज भारत में आए, तब उन्होंने इसी बोली को शिष्ट जनता में प्रचलित पाया। अतः उनका ध्यान अपने सुबीते के लिये स्वभावतः इसी खड़ी बोली की ओर गया और उन्होंने इसमें गद्य साहित्य के आविर्भाव का प्रयत्न किया। पर जैसा ऊपर कहा जा चुका है, मुसलमानों ने अपने लिये एक साहित्यिक भाषा उर्दू के नाम से अलग कर ली थी। इसी से गद्य साहित्य के लिये एक ही भाषा का व्यवहार असंभव प्रतीत हुआ। इससे कलकत्ते के फोर्ट विलियम कालेज के प्रोत्साहन से खडी़ बोली के दो रूपों मे गद्य साहित्य का निर्माण आरंभ हुआ—उर्दू में अलग और हिंदी में अलग। इस प्रकार 'खड़ी बोली' का ग्रहण हिंदी के गद्य साहित्य में तो हो गया, पर पद्य की भाषा बहुत दिनों तक एक ही—वही ब्रजभाषा—रही। भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय तक यही अवस्था रही। पीछे हिंदी साहित्यसेवियों का ध्यान गद्य और पद्य की एक भाषा करने की ओर गया और बहुत से लोग 'खड़ी बोली' के पद्य की ओर जोर देने लगे। यह बात बहुत दिनों तक एक आंदोलन के रूप में रही; फिर क्रमशः खड़ी बोली 'में भी बराबर हिंदी की कविताएँ लिखी जाने लगीं। इस प्रकार हिंदी साहित्य के भीतर अब तीन बोलियाँ आ गईं—खड़ी बोली, ब्रजभाषा और अवधी। हिंदी साहित्य की जानकारी के लिये अब इन तीनों बोलियों का जानना आवश्यक है। साहित्यिक खड़ी बोली की हिंदी और उर्दू दो शाखाएँ हो जाने से साधारण बोलचाल की मिलीजुली भाषा को अँगरेज हिंदुस्तानी कहने लगे। यौ०—हिंदीदाँ = हिंदी भाषा का जानकार। हिंदी का ज्ञाता। हिंदीदानी = हिंदी लिखना और पढ़ना जानना। हिंदीसाज = हिंदी को सँवारनेवाला। हिंदी का तुकबाज। उ०—कोई हिंदीसाज इनके नाच और बाजे की तारीफ में योँ कह गया है कि बंपारन बाजा लगा बजने झार मन।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५२।

हिंदीरेँवद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का पौधा। विशेष—यह पौधा हिमालय में ११,००० से १२,००० फुट की ऊँचाई तक उगता है। यह काश्मीर, लद्दाख, नेपाल, सिक्किम और भूटान में पाया जाता है। इसकी जड़ औषध के काम में आती है और चीनी रेवंद या रेवंदचीनी कहलाती है। इसका रंग भी मैला होता है और सुगंध भी काम होती है, पर चीनी रेवंद की जगह यह बाजारों में बराबर बिकती है। चीनी जाति का पौधा तिब्बत के दक्षिणपूर्व भाग में तथाचीन के पश्चिमोत्तर भाग में होता है और उलकी जड़ क्राइसो- फेनिक एसि़ड के अंश के कारण पीसने पर खूब पीली निकलती है। रेवंद की जड़ दवा के काम में आती है और यह पुष्ट, उदरशूलनाशक तथा कुछ रेचक होती है। यह आमातिसार में उपकारी होती हैं, पर ग्रहणी में नहीं।

हिंदु पु
संज्ञा पुं० [सं० फ़ा० हिंदू] भारतवासी आर्य जाति के वंशज। विशेष दे० 'हिंदू'। उ०—हुए हिंदु बलहीण, धरा पण खीण सुराँ ध्रम। मिटे बेद मरजाद, भेद गुण आद पड़े भ्रम।—रा० रू०, पृ० २२।

हिंदुआना
संज्ञा पुं० [फ़ा० हिंदुआनह्] तरबूज।

हिंदुई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० हिंदी>हिंदवी] दे० 'हिंदी'। उ०— खुसरो ने फारसी, अरबी, तुर्की भाषाओं के वर्णन के साथ भारत की सर्वप्रचलित भाषा हिंदी (हिंदुई) का भी उल्लेख किया है।—अकबरी०, पृ० २६।

हिंदुगी पु
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० हिंदी = हिंदवी] दे० 'हिंदी'। उ०— मूलदास जिनदास के भयौ पुत्र परधान। पढ़यौ हिंदुगी पारसी भागवान बलवान।—अर्ध०, पृ० २।

हिंदुत्व
संज्ञा पुं० [सं० हिन्दुत्व या फ़ा० हिंदू + सं० त्व (प्रत्य०)] हिंदू का भाव। हिंदूपन।

हिंदुनि पु
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० हिंदू + इनि (प्रत्य०)] हिंदू स्त्री। विवाहिता हिंदू महिला। उ०—हिंदुनि सों तुरकिनि कहैं, तुम्हैं सदा संतोष।—भूषण ग्रं०, पृ० १२६।

हिंदुवान पु
संज्ञा पुं० [हिं० हिन्दु + वान् (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ हिंदू रहते हैं। हिंदुओं का जनपद। हिंदवान। हिंदुस्तान। उ०—इक्क मत्त किन्नव सबन, मिट्टब कहँ हिंदुवान।—प० रासो, पृ० १०२।

हिंदुसथाँन पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० हिंदू + सं० स्थान] दे० 'हिंदुस्तान'। उ०—मेक सपत संमत्त मैं, पैतीसै जसराज। गौ हरि धाम जिहान तज, हिंदुसथाँन जिहाज।—रा० रू०, पृ० १७।

हिंदुस्तान
संज्ञा पुं० [फ़ा० हिंदोस्तान] १. भारतवर्ष। विशेष दे० 'हिंद'। २. भारतवर्ष का उत्तरीय मध्य भाग। विशेष—भारतवर्ष का यह भाग दिल्ली से लेकर पटना तक और दक्षिण में नर्मदा के किनारे तक माना जाता है। यह खास हिंदुस्तान कहा जाता है। पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र आदि के निवासी इस भूभाग को प्रायः हिंदुस्तान और यहाँ के निवासियों को हिंदुस्तानी कहा करते हैं।

हिंदुस्तानी (१)
वि० [फ़ा०] हिंदुस्तान का। हिंदुस्तान संबंधी।

हिंदुस्तानी (२)
संज्ञा पुं० १. हिंदुस्तान का निवासी। भारतवासी। २. उत्तरीय भारत के मध्य भाग का निवासी। भारतवासी। (पंजाबी, बंगाली आदि से भेद सूचित करने के लिये)।

हिंदुस्तानी (३)
संज्ञा स्त्री० १. हिंदुस्तान की भाषा। २. बोलचाल या व्यवहार की वह हिंदी जिसमें न तो बहुत अरबी फारसी के शब्द हों न संस्कृत के। उ०—साहिब लोगों ने इस देश की भाषा का एक नया नाम हिंदुस्तानी रखा।—प्रेमघन०, भा० २ पृ० ४१४।

हिंदुस्थान
संज्ञा पुं० [सं०, फ़ा० हिंदू + सं० स्थान] हिंदुस्तान। भारतवर्ष। उ०—जितनी प्रजा हिंदुस्थान की है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६७।

हिंदू
संज्ञा पुं० [सं० फ़ा०] भारतवर्ष में बसनेवाली आर्य जाति के वंशज जो भारत में प्रवर्तित या पल्लवित आर्य धर्म, संस्कार और समाजव्यवस्था को मानते चले आ रहे हों। वेद, स्मृति, पुराण आदि अथवा इनमें से किसी एक के अनुसार चलनेवाला। भारतीय आर्य धर्म का अनुयायी। विशेष—यह नाम प्राचीन पारसियों का दिया हुआ है जो उनके द्बारा संसार में सर्वत्र प्रचलित हुआ। प्राचीन भारतीय आर्य अपनी धर्मव्यवस्था को 'वर्णाश्रम धर्म' के नाम से पुकारते थे। प्राचीन अनार्य द्रविड़ जातियों को उन्होंने अपने समाज में मिलाया, पर उन्हें अपनी वर्णव्यवस्था के भीतर करके अर्थात् सिद्धांत रूप में किसी आर्य ऋषि, राजा इत्यादि की संतति मानकर। पीछे शक, हूण और यवन आदि भी जो मिले, वे या तो वसिष्ठ ऋषि द्बारा उत्पन्न (गाय से सही) वीरों के वंशज माने जाकर अथवा ब्राह्मणों के अदर्शन से पतित क्षत्रिय माने जाकर। सारांश यह कि भारतीय आर्य अपनी धर्मव्यवस्था को मजहब की तरह फैलाते नहीं थे, आसपास की या आई हुई जातियाँ उसे सभ्यता के संस्कार के रूप में आपसे आप ग्रहण करती थीं। प्राचीन काल में आर्य सभ्यता के दो केंद्र थे-भारत और पारस। इन दोनों में भेद बहुत कम (दे० 'हिंद') था। हूणों ने पहले पारसी सभ्यता ग्रहण की, फिर भारत में आकर वे भारतीय आर्यों से मिले। शक जाति तो आर्य जाति की ही एक शाखा थी। पीछे जब पारस के निवासी मुसलमान हो गए तब उन्होंने 'हिंदू' शब्द के साथ 'काफिर', 'काला', लुटेरा आदि कुत्सित अर्थों की योजना की। जब तक वे आर्य धर्म के अनुयायी रहे, तब तक 'हिंदू' शब्द का प्रयोग आदर के साथ 'हिंद के निवासी' के अर्थ में ही करते थे। यह शब्द इसलाम के प्रचार के बहुत पहले का है (दे० 'हिंद')। अतः पीछे से मुसलमानों के बुरे अर्थ की योजना करने से यह शब्द बुरा नहीं हो सकता। भविष्य पुराण 'हप्तहिंदु' शब्द का उल्लेख करता है। कालिका पुराण, राम कोश, हेमंत कवि कोश, अद् भुतरूप कोश, मेरुतंत्र (आठवीं शताब्दी आदि), कृछ आधुनिक ग्रंथों में इस शब्द को संस्कृत सिद्ध करने का जो प्रयत्न किया गया है, उसे कल्पना मात्र ही समझना चाहिए।

हिंदूकुश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक पर्वतश्रेणी जो अफगानिस्तान के उत्तर में है और हिमालय से मिली हुई है।

हिंदूधर्म
संज्ञा पुं० [फ़ा० हिंदू + सं० धर्म] हिंदुओं का धर्म। वर्णाश्रम धर्म। भारतीय आर्य धर्म।

हिंदूपन
संज्ञा पुं० [फ़ा० हिंदू + हिं० पन (प्रत्य०)] हिंदू होने का भाव या गुण।

हिंदोरना
क्रि० स० [सं० हिन्दोल + हिं० ना (प्रत्य०)] पानी के समान पतली चीज में हाथ या कोई चीज डालकर इधर उधर घुमाना। घँघोलना। फेंटना।

हिंदोल
संज्ञा पुं० [सं० हिन्दोल] १. हिंडोला। झूला। उ०—न कर वेदनासुख से वंचित, बढ़ा हृदय हिंदोल।—साकेत, पृ० २७०। २. हिंडोल नाम का राग। उ०—इतिहासकार स्मिथ ने लिखा हे कि कुछ रूढ़िवादी हिंदू संगीतज्ञ तानसेन की भर्त्सना इसलिए करते हैं कि परंपरागत दो राग हिंदोल और मेघ इनके समय से लुप्त हो गए थे।—अकबरी०, पृ० १०५। ३. श्रावण के शुक्लपक्ष में दोलोत्सव जिसमें श्रीकृष्ण की मूर्ति हिंडोले में रखकर उपवनादि में उत्सवार्थ ले जाते हैं। ४. इस प्रकार की यात्रा। भगवतयात्रा।

हिंदोलक
संज्ञा पुं० [सं० हिन्दोलक] दे० 'हिंडोला'।

हिंदोला
संज्ञा पुं० [सं० हिन्दोला] दे० 'हिंडोला'।

हिंदोस्तान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] दे० 'हिंदुस्तान'। उ०—वह भाषा कि जो समस्त हिंद वा हिंदोस्तान की हो।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३८१।

हिंदोस्तानी
वि०, संज्ञा पुं०, संज्ञा स्त्री० [फ़ा० हिंदुस्तानी] दे० 'हिंदुस्तानी'।

हिंन पु
संज्ञा पुं० [सं० हरिण, हिं० हिरन] मृग। हिरन। उ०— महा सुछछ पुछ्छैर ही हैं उनै सी। नरी पाँतरी आतुरी हिंन जैसी।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २८१।

हिंमत पु
संज्ञा स्त्री० [अ० हिम्मत] दे० 'हिम्मत'। उ०—दास कौ प्रनाम मन धारिकै, दयालु मात, दीजिए हिंमत बल कल ब्रह्म- बालिका।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३६।

हिंस
संज्ञा स्त्री० [सं० हेषा या अनु० हिं हिं] घोड़ों के बोलने का शब्द। हींस। हिनहिनाहट। उ०—गरजहिं गज, घंटाधुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहुँ ओरा।—तुलसी (शब्द०)।

हिंसक (१)
वि० [सं०] १. हिंसा करनेवाला। हत्यारा। वध करनेवाला। घातक। २. मारने या पीड़ित करनेवाला। कष्ट पहुँचानेवाला। ३. बुराई करनेवाला। हानि करनेवाला।

हिंसक (२)
संज्ञा पुं० १. जीवों को मारनेवाला पशु। खूँखार जानवर। २. शत्रु। दुश्मन। ३. मारण, उच्चाटन आदि प्रयोग करनेवाला ब्राह्मण। तांत्रिक ब्राह्मण।

हिंसन
संज्ञा पुं० [सं०, वि० हिंसनीय, हिंसित, हिंस्य] १. जीवों का वध करना। जान मारना। घात करना। उ०—गोभक्षन द्बिज श्रुति हिंसन नित जासु कर्म मैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५४०। २. जीवों को पीड़ा पहुँचाना। कष्ट देना। सताना। पीड़न। ३. बुराई करना। अनिष्ट करना या चाहना। ४. वैरी। शत्रु। दुश्मन (को०)।

हिंसना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'हिंसन', 'हिंसा'।

हिंसनीय
वि० [सं०] १. हिंसा करने योग्य। २. जिसकी हिंसा की जानेवाली हो। ३. वध करने योग्य। वध्य (को०)।

हिंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वध या पीड़ा। जीवों को मारना या सताना। प्राण मारना या कष्ट देना। २. हानि पहुँचाना। अनिष्ट करना। विशेष—हिंसा तीन प्रकार से हो सकती है—मनसा, वाचा और कर्मण। पुराणों में हिंसा लोभ की कन्या और अधर्म की भार्या कही गई है। जैन शास्त्रानुसारा हिंसा चार प्रकार की होती है— आकुट्टी हिंसा, दर्प हिंसा, प्रसाद हिंसा और कल्प हिंसा। ३. लूट। डकैती (को०)।

हिंसाकर्म
संज्ञा पुं० [सं० हिंसाकर्मन्] १. वध करने या पीड़ा पहुँचाने का कर्म। मारने या सताने का काम। २. दूसरे का अनिष्ट करने के लिये मारण, उच्चाटन, पुरश्चरण आदि तांत्रिक प्रयोग।

हिंसात्मक
वि० [सं०] १. जिससे हिंसा हो। २. हिंसा से युक्त।

हिंसाप्राणी
संज्ञा पुं० [सं० हिंसाप्राणिन्] हानि पहुँचानेवाले या हिंसक पशु। खूँखार जानवर [को०]।

हिंसाप्राय
वि० [सं०] सामान्यतया हानिकारक [को०]।

हिंसारत
वि० [सं०] दुष्टतापूर्ण कार्य में आनंद लेनेवाला। उ०— हिंसारत निषाद तामस बपु पसु समान बनचारी।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५४२।

हिंसारू
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंसक पशु। हिंस्त्र पशु। खूँखार जानवर। २. बाघ। शेर।

हिंसारूचि
वि० [सं०] दे० 'हिंसारत' [को०]।

हिंसालु (१)
वि० [सं०] १. हिंसा करनेवाला। मारनेवाला या सतानेवाला। २. हिंसा की प्रवृत्तिवाला।

हिंसालु (२)
संज्ञा पुं० कटहा कुत्ता या दुष्ट कुत्ता। जंगली या शिकारी कुत्ता [को०]।

हिंसालुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हिंसालु (२)'।

हिंसाविहार
वि० [सं०] दे० 'हिंसारत'।

हिंसासमुद्भव
वि० [सं०] जो हिंसा से उत्पन्न हो [को०]।

हिंसित (१)
वि० [सं०] १. जिसकी हिंसा की गई हो। जिसे मार डाला गया हो। २. जिसे हानि पहुँचाई गई हो। ३. जिसे आघात पहुँचा हो। आहत [को०]।

हिंसित (२)
संज्ञा पुं० १. आघात। चोट। २. क्षति। हानि [को०]।

हिंसितव्य
वि० [सं०] १. हिंसा करने योग्य या जिसकी हिंसा करनी हो। २. जिसे पीड़ा या कष्ट पहुँचाया जाय (को०)।

हिंसीन
संज्ञा पुं० [सं०] हिंसक पशु। जंगली जानवर। शिकारी जान- वर [को०]।

हिंसीर (१)
वि० [सं०] १. हिंसा करनेवाला। हिंसक। २. पीड़ित करने, बुराई करने या सतानेवाला।

हिंसीर (२)
संज्ञा पुं० १. बाध। २. खग। पक्षी (को०)। ३. निंदक अथवा बुराई करनेवाला व्यक्ति (को०)।

हिंस्य
वि० [सं०] १. हिंसा के योग्य। २. जिसकी हिंसा होनेवाली हो। ३. जिसे सताया या कष्ट पहुँचाया जाय (को०)।

हिंस्त्र (१)
वि० [सं०] १. हिंसा करनेवाला। खूँखार। जैसे,—हिंस्त्र पशु। २. निंदा करने या हानि करनेवाला। ३. विध्वंसक। विनाशक।४. भयंकर। भयदायक। भयानक (कौ०)। ५. क्रूर। निर्दय। निष्कृप (को०)।

हिंस्त्र (२)
संज्ञा पुं० १. खूँखार पशु। जंगली जानवर। हिंसा करनेवाला जानवर। २. विनाश करनेवाला व्यक्ति। ३. शिव। ४. भीम। ५. वह व्यक्ति जो जीवित प्राणियों को कष्ट पहुँचाने में सुख का अनुभव करे। ६. क्रूरता। निर्दयता [को०]।

हिंस्त्रक
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली जानवर। हिंसक पशु। शिकार करनेवाले जानवर [को०]।

हिंस्त्रजंतु
संज्ञा पुं० [सं० हिंस्त्रजन्तु] हिंसक पशु [को०]।

हिंस्त्रपशु
संज्ञा पुं० [सं०] खूँखार पशु। शिकारी जानवर [को०]।

हिंस्त्रयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० हिंस्त्रयन्त्र] १. कूटयंत्र। पाश। जाल। फंदा। २. मारण, मोहन, उच्चाटन आदि कर्मों का विधायक अभिचार मंत्र [को०]।

हिंस्त्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नस। नाड़ी। शिरा। २. जटामासी ३. गुंजा का पौधा। ३. एक प्रकार का अनाज। गवेधु। ४. चर्बी। वसा [कौ०]।

हिंस्त्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुश्मनों या डाकुओं की नाव।

हिँकरना पु
क्रि० अ० [अनु० हिन हिन] घोड़ों का बोलना। हिनहिनाना। हींसना। उ०—जो कहु रामलखन बैदेही। हिँकरि हिँकरि हित हेरहिं तेहीं।—मानस, २।१४३।

हिँगाइन †
वि० [हिं० हींग] हींग के समान गंधवाला। जिसकी गंध कच्ची हींग की महक के समान हो।

हिँगाना † (१)
क्रि० स० [हिं० हेंगा] खेत को पटेले से ठीक करना। पटेला चलाना।

हिँगाना † (२)
क्रि० अ० [हिं० हींग + आइन (प्रत्य०)] हींग के समान गंध आना। हींग की तरह महकना।

हिँगाया पु †
वि० पटेला चलाकर बराबर किया हुआ। हेँगाया हुआ [खेत]। उ०—जुते हिँगाए खेत बनत उज्वल दुतिधारी।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० ३३।

हिँछना पु ‡
क्रि० अ० [सं० इच्छन] इच्छा करना। चाहना।

हिँडोर पु
संज्ञा पुं० [हिं० हिंडोल] हिँडोला। उ०—कै तरंग की डोर हिँडोरन करत कलोलै।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४५५।

हिँडोरना पु
संज्ञा पुं० [हिं० हिंडोल] दे० 'हिँडोला'। उ०— (क) माई झूलत नवल लाल, झुलावत ब्रज की बाल कालिंदी के तीर माई रच्यो है हिँडोरना।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७८।

हिँडोरा
संज्ञा पुं० [हिं० हिँडोला] दे० 'हिंडोला'।

हिँडोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिँडोला] छोटा हिंडोला।

हिँडोल
संज्ञा पुं० [हिं०] १. हिंडोला। २. एक राग।

हिँयवैँ पु
अब्य० [हिं०] दे० 'यहाँ'। उ०—मोर पिया बसै पुर पाटन, हम धन हियवैँ हो ललना। अपने पिय की सुद्धि जो पौतिउँ हम धन कहबौँ हो ललना।—पलटू०, भा० ३, पृ० ७५।

हिँयाँ पु †
अव्य० [हिं०] दे० 'यहाँ'।

हिँव पु
संज्ञा पुं० [सं० हिम] दे० 'हिम'।

हिँवार
संज्ञा पुं० [सं० हिमालय] १. हिम। बर्फ। पाला। २. हिमालय पर्वत। मुहा०—हिँवार पड़ना = (१) बर्फ गिरना। (२) बहुत सर्दी पड़ना। बहुत जाड़ा होना।

हिँवारै पु
संज्ञा पुं० [सं० हिमालय] हिमालय पर्वत। उ०—केचित जाइ हिँवारै सीझै। मन की मूठि तहाँ अति रीझै।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ९३।

हिँवालै पु
संज्ञा पुं० [सं० हिमालय] दे० 'हिँवारै'। उ०—कौ सीझै जाइ हिँवालै। इंद्रिय अपनी नहिं गालै।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १४७।

हिँसना पु
क्रि० अ० [अनु० हिनहिन] दे० 'हींसना'। उ०— हिँसहिं तुरंग चिकारैं हाथी। सोभै हंक हंक मिलि साथी।—हिं० क० का०, पृ० २२४।

हि (१)
एक पुरानी विभक्ति जिसका प्रयोग पहले तो सब कारकों में होता था, पर पीछे कर्म और संप्रदाय में ही ('को' के अर्थ में) रह गया। जैसे—रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।—मानस, १।२५५। विशेष—पाली में तृतीया और पंचमी की विभक्ति के रूप में 'हि' का व्यवहार मिलता है। पीछे प्राकृतों में संबंध के लिये भी विकल्प से अपादान की विभक्ति आने लगी और सब कारकों का काम कभी कभी संबंध की विभक्ति से ही चलाया जाने लगा। 'रासो' आदि की पुरानी हिंदी में 'ह' रूप में भी यह विभक्ति मिलती हैं। अपभ्रंश में 'हो' और 'हे' रूप संबंध विभक्ति के मिलते हैं। यह 'हि' या 'ह' विभक्ति संस्कृत के 'भिस्' या 'भ्यस्' से निकली जान पड़ती है।

हि ‡ (२)
अव्य० दे० 'ही'। उ०—हरि कर पिचका निरखि तियन के नैना छबि हि ठराई।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८१।

हिअ पु
संज्ञा पुं० [प्रा० सं० हृत्, प्रा०, अप० हिअ या सं० हृदय, प्रा० हिअय, अप० हिअ] १. हृदय। उ०—स्रवन नाहिं पै सब किछु सुना। हिअ नाहीं गुनना सब गुना।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १२५। २. छाती। वक्ष।

हियड़ा, हिअरा पु
संज्ञा पुं० [अप० हिअ + ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'हिअ'।

हिआ पु
संज्ञा पुं० [प्रा० अप० हिअ] १. हृदय। २. छाती। उ०—हिआ थार कुच कंचन लाडू।—जायसी (शब्द०)।

हिआउ ‡
संज्ञा पुं० [हिं० हिआ + आउ (प्रत्य०)] दे० 'हिआव'। उ०—(क) जाँचो जल जाहि कहै अमिय पिआउ सो। कासों कहौं काहू सों न बढ़त हिआउ सो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५४९। (ख) अस्ति नास्ति एको नाउँ। कवण सु अखरु जितु रहै हिआउ।—प्राण०, पृ० ११५।

हिआव
संज्ञा पुं० [हिं० हिअ + आव (भाव० प्रत्य०)] साहस। जिगरा। हिम्मत। विशेष दे० 'हियाव'। उ०—भँवर जो मनसा मानसर लीन्ह कँवलरस जाइ। घुन जो हिआव न कै सका झूर काठ तस खाइ।—जायसी (शब्द०)।

हिकदा
संज्ञा पुं० [फ़ा० सिह, सेह (= तीन) + हिं० कोड़ी] तीन कोड़ी कपड़ों का समूह। (धोबी)।

हिकदा पु
वि० [पं०] एख या प्रधान (परमात्मा)। उ०—विचौं सभो डूरि करि अंदर बिया न पाइ। दादू रता हिकदा, मन मोहब्बत लाइ।—दादू०, पृ० ६५।

हिकमत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. विद्या। तत्वज्ञान। उ०—धर्मराय को हिकमत दीन्हाँ।—कबीर सा०, पृ० ८१८। २. कला- कौशल। निर्माण की बुद्धि। कोई चीज बनाने या निकालने की अक्ल। जैसे—हिकमते चीन, हुज्जते बंगाल। ३. कार्य सिद्ध करने की युक्ति। तदबीर। उपाय। जैसे—उसके हाथ से रुपया निकालने की तुम्हीं कोई हिकमत सोचो। क्रि० प्र०—करना।—निकालना।—लगाना। ४. चतुराई का ढंग। चाल। पालिसी। जैसे,—ऐसे मौके पर हिकमत से काम लेना चाहिए। ५. किफायत। ६. हकीम का काम या पेशा। हकीमी। वैद्यक। ७. मल्लाही। (लश०)। यौ०—हिकमते अमली = कूटनीति। चतुराई। हिकमते इलाही = ईश्वरेच्छा।

हिकमति पु
संज्ञा स्त्री० [अ० हिकमत] दे० 'हिकमत'। उ०— करि सलाम सुरजन तबै, बीरा खायौ कोपि। आप (य) भवन हिकमति रची, स्वामि धर्म सब लोपि।—ह० रासो, पृ० ११४।

हिकमती
वि० [अ० हिकमत] १. कार्यसाधन की युक्ति निकालनेवाला। तदबीर सोचनेवाला। उपाय निकालनेवाला। कार्यपटु। २. चतुर। चालाक। ३. किफायती।

हिकलाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'हकलाना'।

हिकायत
संज्ञा स्त्री० [अ०] कथा। कहानी। प्रसंग।

हिकारत
संज्ञा स्त्री० [अ० हक़ारत] उपेक्षा। अपमान। तिरस्कार। उ०—सिलिया ने हिकारत के साथ कहा—बिरादरी में क्यों न लेंगे ?—गोदान, पृ० २४२।

हिक्कल
संज्ञा पुं० [?] बौद्ध संन्यासियों या भिक्षुओं का दंड।

हिक्का (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हिचकी। २. बहुत हिचकी आने का रोग। विशेष—वायु का पसलियों और अँतड़ियों को पीड़ित करते हुए ऊपर चढ़कर गले से झटके से निकलना ही हिक्का या हिचकी है। वैद्यक में वायु और कफ के मेल से पाँच प्रकार की हिक्का कही गई है—अन्नजा, यमला, क्षुद्रा, गंभीरा और महती। पेट में अफरा, पसलियों में तनाव, कंठ और हृदय का भारी होना, मुँह कसैला होना हिक्का होने के पूर्वलक्षण हैं। गरम, बादी, गरिष्ठ, रूखी और बासी चीजें खाना, मुँह में धूल जाना, थकावट, मलमूत्र का वेग रोकना हिक्का के कारण कहे गए हैं। जिस हिक्का में रोगी को कंप हो, ऊपर की ओर दुष्टि चढ़ जाय, आँख के सामने अँधेरा छा जाय, शरीर दुबला होता जाय, छींक बहुत आवे और भीजन में अरुचि हो जाय, वह असाध्य कही गई है। ३. रोने या सिसकने का वह शब्द जो रुक रुककर आवे। ४. उलूक नाम का पक्षी। उल्लू (को०)।

हिक्का (२)
संज्ञा स्त्री० [देशी] रजकी। धोबिन।

हिक्काश्वासी
वि० [सं० हिक्काश्वासिन्] जिसे बहुत हिचकी आती हो। जिसे हिचकी का रोग हो [को०]।

हिक्किका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिक्का। हिचकी।

हिक्कित
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हिक्का' [को०]।

हिक्की
वि० [सं० हिक्किन्] जिसे हिक्का रोग हो। हिचकी का रोगी।

हिचक
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिचकना] किसी काम के करने में वह रुकावट जो मन में मालूम हो। आगा पीछा। हिचकिचाहट। उ०— छूने में हिचक, देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं।— कामायनी, पृ० ९९।

हिचकना
क्रि० अ० [सं० हिक्का या अनु० हिच, हिचक + हिं० ना (प्रत्य०)] १. हिचकी लेना। वायु का उठा हुआ झोंका कंठ से निकालना। २. किसी काम के करने में कुछ अनिच्छा, भय या संकोच के करण प्रवृत्त न होना। आगा पीछा करना। जैसे,— वहाँ जाने से तुम हिचकते क्यों हो ?

हिचकिच
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिचकना] दे० 'हिचक'।

हिचकिचाना
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'हिचकना'।

हिचकिचाहट
संज्ञा स्त्री० [अनु० हिचकिचाना + हिं० आहट (प्रत्य०)] दे० 'हिचक'।

हिचकिची
संज्ञा स्त्री० [अनु० हिचकिच + हिं० ई] दे० 'हिचक'।

हिचकी
संज्ञा स्त्री० [अनु० हिच या सं० हिक्का] १. पेट की वायु का झोंके के साथ ऊपर चढ़कर कंठ से धक्का देते हुए निकलना। उदरस्थ वायु के कंठ में आघात या शब्द के साथ निकलने की क्रिया। विशेष दे० 'हिक्का'। क्रि० प्र०—आना।—लेना। मुहा०—हिचकियाँ लगना = मरने के समय वायु का कंठ में से रह रहकर आघात करते हुए निकलना। मरणासन्न अवस्था होना। मरने के निकट होना। २. रह रहकर सिसकने का शब्द। रोने में रह रहकर कंठ से साँस छोड़ना। क्रि० प्र०—बँधना। मुहा०—हिचकी लेना = रोने में साँस का रुक रुककर आना।

हिचकोला
संज्ञा पुं० [हिं० हचकना] दे० 'हचकोला'। उ०—रास्ते भर हिचकोलों के कारण नाकों दम रहा।—संन्यासी, पृ० ३०९।

हिचना पु ‡
क्रि० अ० [देश० ?] लड़ना। युद्ध करना। उ०—(क) हिचे मरे खल हात, खग धाराँ कुलखोवणा।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ५। (ख) एक अनेकाँ सूँहिचै, छाती बजर कपाट।— बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ६२।

हिचर मिचर
संज्ञा पुं० [हिं० हिचक] १. किसी काम के करने में भय, संकोच या कुछ अनिच्छा के कारण रुकना या देर करना। आगा पीछा। सोच विचार। २. किसी काम को न करना पड़े, इसलिये देर करना या इधर उधर की बात कहना। टालमटूल। क्रि० प्र०—करना।—होना।

हिचिर मिचिर †
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'हिचर मिचर'।

हिच्छ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० इच्छा] दे० 'इच्छा'। उ०—आन हिच्छ नहिं दूसरी, देहु कलपि करि सीस। हम परसम परसाद तुव, होहिं भवानी ईस।—चित्रा०, पृ० १८।

हिज आनर
संज्ञा पुं० [अं० हिज आनर] छोटे लाट आदि के पद के आगे लगनेवाला सम्मान का सूचक शब्द। जैसे,—हिज आनर लेफ्टिनेंट गवर्नर।

हिज एक्सेलेंसी
संज्ञा पुं० [अं० हिज एक्सेलेंसी] [स्त्री० हर एक्सेलेंसी] राष्ट्रपति, प्रधान सेनापति, राज्यपाल, स्वतंत्र देशों के मंत्री आदि कुछ विशिष्ट उच्च अधिकारियों के नाम के आगे लगनेवाली प्रतिष्ठासूचक उपाधि। श्रीमान्। जैसे,—हिज एक्सेलेंसी वाइसराय, हिज एक्सेलेंसी कमांडर इन चीफ, हिज एक्सेलेंसी प्राइम मिनिस्टर, नेपाल।

हिजड़ा
संज्ञा पुं० [फ़ा० हीज + हिं० ड़ा (स्वा० प्रत्य०)] जो न स्त्री हो, न पुरुष। विशेष दे० 'नपुंसक'।

हिज मैजेस्टी
संज्ञा पुं० [अं०] [संज्ञा स्त्री० हर मैजेस्टी] सम्राट् और स्वाधीन देशों के राजाओं के आगे लगनेवाली गौरवसूचक उपाधि। माहमहिभान्वित। मालिक मोअज्जम। जैसे,—हिज मैजेस्टी किंग जार्ज। हिज मैजेस्टी अमानुल्ला।

हिजरत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. अपना देश छोड़कर दूसरे देश में जा बसना। उ०—बुल्ला हिजरत बिच अलाह दे मेरा नित है खास अराम।—संतवाणी०, पृ० १५२। २. मुहम्मद साहब की मक्का से मदीने की यात्रा।

हिजरा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० हीजड़ा] सं० 'हिजड़ा'।

हिज रायल हाइनेस
संज्ञा पुं० [अं०] [स्त्री० हर रायल हाइनेस] स्वाधीन राज्यों या देशों के युवराजों तथा राजपरिवारों के व्यक्तियों के नाम के आगे लगनेवाली गौरवसूचक उपाधि। जैसे,—हिज रायल हाइनेस प्रिंस आव वेल्स।

हिजरी
संज्ञा पुं० [अ०] मुसलमानी सन् या संवत् जो मुहम्मद साहब के मक्के से मदीने जाने की तारीख (१५ जुलाई, सन् ६२२ ई० अर्थात् विक्रम संवत् ६७९, श्रावण शुक्ल २ का सायंकाल) से चला है। विशेष—खलीफा उमर ने विद्बानों की संमति से यह हिजरी सन् स्थिर किया था। हिजरी सन् का वर्ष शुद्ध 'चांद्र वर्ष' है। इसका प्रत्येक मास चंद्रदर्शन (शुक्ल द्वितीया) से आरंभ होता है और दूसरे चंद्रदर्शन तक माना जाता है। हर एक तारीख सायंकाल से आरंभ होकर दूसरे दिन सायंकाल तक मानी जाती है। इस सन् के बारह महीनों के नाम इस प्रकार हैं—(१) मुहर्रम, (२) सफर, (३) रबीउल् अव्वल, (४) रबीउस्सानी, (५) जमादिउल् अव्वल्, (६) जमादिउल् आखिर, (७) रजब, (८) शाबान, (९) रमजान, (१०) शव्वाल, (११) जल्काद और (१२) जिलहिज्ज। चांद्रमास २९ दिन, ३१ घड़ी, ५० पल और ७ विपल का होता है; इससे चांद्रवर्ष सौरवर्ष से १० दिन, ५३, घड़ी० ३० पल और ६ विपल के करीब कम होता है। इस हिसाब से सौ वर्ष में ३ चांद्रवर्ष २४ दिन और ९ घड़ियाँ बढ़ जाती हैं। अतः विक्रम संवत् या ईसवी सन् से हिजरी सन् का कोई निश्चित अंतर नहीं रहता, जिससे दिए हुए हिजरी सन् में कोई निश्चित संख्या जोड़कर ईसवी सन् या विक्रम निकाल लें। इसकी लिये गणित करना पड़ता है।

हिजली बदाम
संज्ञा पुं० [हिजली ? + हिं० बादाम] काटू नामक वृक्ष के फल जो प्रायः बादाम के समान होते हैं और जिनसे एक प्रकार का तेल निकलता है जो प्रायः बादाम के तेल के समान होता है। यह फल भूनकर खाया जाता है और इसका मुरब्बा भी पड़ता है। विशेष दे० 'काटू'।

हिज हाइनेस
संज्ञा पुं० [अं०] [स्त्री० हर हाइनेस] राजा महाराजाओं के नाम के आगे लगनेवाली गौरवसूचक उपाधि। जैसे,—हिज हाइनेस महाराज सर सयाजी राव गायकवाड़।

हिज होलीनेस
संज्ञा पुं० [अं०] पोप तथा ईसाई मत के प्रधान आचार्यों के नाम के आगे लगनेवाली उपाधि। विशेष—भारत में भी लोग धर्माचार्यों के नाम के आगे यह उपाधि लगाने लग गए हैं। जैसे,—हिज होलीनेस स्वामी शंकराचार्य।

हिजा
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. निंदा। अपकीर्ति। अपवाद। २. मात्राओं के साथ अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण [को०]।

हिजाज
संज्ञा पुं० [अ० हिजाज] १. अरब के एक भाग का नाम जिसमें मक्का और मदीना नामक नगर हैं। २. फारसी संगीत के १२ मुकामों में से एक का नाम।

हिजाब
संज्ञा पुं० [अ०] १. आड़। ओट। परदा। २. शर्म। हया। लज्जा। ३. झिझक। संकोच। मुहा०—हिजाब उठना = पर्दा हटना। शर्म न रह जाना।

हिजाबत
संज्ञा स्त्री० [अ०] डयोढ़ीदार या द्बारपाल का काम। दरवानी (को०)।

हिज्ज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हिज्जल'।

हिज्ज ‡ (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० हीज़] १. दे० 'हीजड़ा'। २. आलस्य। सुस्ती। विलंब।

हिज्जल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पेड़।

हिज्जे
संज्ञा पुं० [अ० हिज्जह्] किसी शब्द में आए हुए अक्षरों को अलग अलग मात्रा सहित कहना। क्रि० प्र०—करना। मुहा०—हिज्जे निकालना = (१) टुकड़े टुकड़े करना। (२) अपत्ति करना। हिज्जे पकड़ना = अशुद्धि पकड़ना। गलती निकालना।

हिज्र
संज्ञा पुं० [अ०] जुदाई। वियोग। बिछोह। उ०—आबरू हिज्र बीच मरता था। मुख दिखाकर उसे जिलाया गया।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ११। यौ०—हिज्रनसीब = जिसकी किस्मत में प्रिय से वियोग ही वियोग हो।

हिज्री
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'हिजरी'।

हिटकना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'हटकना'।

हिडंब
संज्ञा पुं० [?] [स्त्री० हिडंबी] भैंस। (डिं०)।

हिडिंब
संज्ञा पुं० [सं० हिडिम्ब] एक राक्षस का नाम जिसे भीम ने पांडवों के वनवास के समय मारा था। यौ०—हिडिंबजित्, हिडिंबनिषूदन, हिडिंबभिद्, हिडिंबरिपु = हिडिंब राक्षस को मारनेवाले,भीम।

हिडिंबा
संज्ञा स्त्री० [सं० हिडिम्बा] १. हिडिंब राक्षस की बहिन जो पांडवों के वनवास के समय भीम को देखकर मोहित हो गई थी और जिसके साथ, हिडिंब को मार चुकने पर, भीम ने विवाह किया था। इस विवाह से भीम को घटोत्कच नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। २. हनुमान की स्त्री (को०)। यौ०—हिडिंबापति, हिडिंबारमण = (१) भीमसेन। (२) हनुमान।

हिडोर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हिंडोला'।

हिडोल, हिडोला पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हिंडोला'। उ०—मुदित मनोभव खेल हिडोल।—विद्यापति, पृ० ३४०।

हित (१)
वि० [सं०] १. लाभदायक। उपकारी। फायदेमंद। २. अनुकूल। मुवाफिक। ३. अच्छा व्यवहार करनेवाला। भलाई करने या चाहनेवाला। सद्भाव रखनेवाला। स्नेहपूर्ण। खैरखाह। उ०— मिली मातु, हित, मीत, गुरु सनमाने सब लोगु।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९१। ३. रखा हुआ। व्यवस्थित (को०)। ४. लिया हुआ। गृहीत। ५. जिसे प्रेरित किया गया हो। ६. भेजा हुआ। प्रेषित (को०)। ७. गया हुआ। ८. मांगलिक। शुभद (को०)।

हित (२)
संज्ञा पुं० १. लाभ। फायदा। २. कल्याण। मंगल। भलाई। उपकार। बेहतरी। उ०—राम विमुख सुत तें हित हानी।— तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—हितकर। हितकारी। ३. अनुकूलता। मुवाफिकत। ४. स्वास्थ्य के लिये लाभ। तंदुरुस्ती को फायदा। ५. प्रेम। स्नेह। अनुराग। उ०—हित करि श्याम सों कह पायो ?—सूर (शब्द०)। ६. मित्रता। खैरखाही। ७. भला चाहनेवाला आदमी। मित्र। ८. संबंध। नाता। रिश्ता। ९. उचित, उपयुक्त या योग्य वस्तु। १०. संबंधी। नातेदार। रिश्तेदार।

हित (३)
अव्य० १. (किसी के) लाभ के हेतु। खातिर। प्रसन्नता के लिये। २. निमित्त हेतु। कारण। लिये। वास्ते। उ०—हरि हित हरहु चाप गरुवाई।—तुलसी (शब्द०)।

हितक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिशु। बच्चा। बालक। २. किसी जानवर का बच्चा।

हितकर
वि० [सं०] १. भलाई करनेवाला। उपकार या कल्याण करनेवाला। २. लाभ पहुँचानेवाला। उपयोगी। फायदेमंद। ३. शरीर को आराम या आरोग्यता देनेवाला। स्वास्थ्यकर।

हितकर्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं० हितकर्तृ] भलाई करनेवाला व्यक्ति।

हितकर्ता (२)
वि० हितकाम। हितेच्छु।

हितकांक्षी
वि० [सं० हितकाङि्क्षन्] हित का कांक्षी। हितेच्छु।

हितकाम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भलाई की कामना या इच्छा। खैरखाही।

हितकाम (२)
वि० भलाई चाहनेवाला। हितेच्छु।

हितकामना, हितकाम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] परहित की आकांक्षा। दूसरे के कल्याण की कामना [को०]।

हितकारक
वि० संज्ञा पुं० [सं०] १. भलाई करनेवाला। उपकार या कल्याण करनेवाला। २. लाभ पहुँचानेवाला। फायदेमंद। ३. स्वास्थ्यकर।

हितकारी
वि०, [सं० हितकारिन्] [वि० स्त्री० हितकारिणी] १. हित या भलाई करनेवाला। उपकार या कल्याण करनेवाला। २. लाभ पहुँचानेवाला। फायदेमंद। ३. स्वास्थ्यकर।

हितकृत्
वि, संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हितकारक'।

हितचिंतक
संज्ञा पुं० [सं० हितचिन्तक] भला चाहनेवाला। खैरखाह।

हितचिंतन
संज्ञा पुं० [सं० हितचिन्तन] किसी की भलाई की कामना या इच्छा। उपकार की इच्छा। खैरखाही।

हितता पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हित+ता (प्रत्य०)] भलाई। उपकार। उ०—स्वामी की सेवक हितता सब कछु निज साँइ द्रोहाई। मैं मति तुला तौलि देखी भइ मोरिहि दिसि गरुआई।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५४४।

हितपथ्य
वि० [सं०] हितकर और स्वास्थ्यवर्धक।

हितप्रणी
संज्ञा पुं० [सं०] जासूस। गुप्तचर। भेदिया [को०]।

हितप्रवृत्त
वि० [सं०] उपकार या भलाई में लगा हुआ [को०]।

हितप्रेप्सु
वि० [सं०] दे० 'हितकाम' [को०]।

हितबुद्धि (१)
वि० [सं०] कल्याणकामी। शुभेच्छु।

हितबुद्धि (२)
हितकारक बुद्धि [को०]।

हितमाती पु
वि० स्त्री० [सं० हित+मत्त] प्रेम में दीवानी। उ०— मैं तो हितमाती अनुराग सो अथाती रवि, जानी नाहिं जाती राति साँझ की फजर की।—नट, पृ० ६९।

हितमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हितकारक मित्र। हितू मित्र। २. बंधु- बांधव। भाई बंधु।

हितवंत पु
वि० [सं० हितवत् के कर्ताकारक का बहुवचन या हित+ वान् (प्रत्य०)] हित करने या चाहनेवाला। उ०—निरंजनहि निर्वान पद, कही तुम्हीं हितवंत।—कबीर सा०, पृ० ८५२।

हितवचन
संज्ञा पुं० [सं०] भलाई का वचन। कल्याण का उपदेश। बेहतरी की सलाह।

हितवना पु
क्रि० अ० [हिं० हित+औना] दे० 'हिताना'।

हितवाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] हितकारक उपदेश या कथन [को०]।

हितवाद
संज्ञा पुं० [सं०] मैत्रीपूर्ण कथन। हितवचन [को०]।

हितवादी
वि० [सं० हितवादिन्] [वि० स्त्री० हितवादिनी] हित की बात कहनेवाला। बेहतरी की सलाह देनेवाला।

हितवार पु
संज्ञा पुं० [सं० हित ?] प्रेम। स्नेह। दुलार।

हिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुल्या। नाली। बरहा। २. एक विशेष प्रकार की रक्तवाहिनी नस या शिरा। यौ०—हिताभंग।

हिताई
संज्ञा स्त्री० [सं० हित+आई (प्रत्य०)] नाता। रिश्ता। संबंध।

हिताकांक्षी
वि० [सं० हिताकाङ्क्षिन्] हित की आकांक्षा करनेवाला।

हिताधायी
वि० [सं० हिताधायिन्] हित का आधान करनेवाला। हितकारी।

हितान पु
संज्ञा पुं० [सं० हित] भलाई। हित। लाभ। उ०—चली चिन्ह खानी हितानं चितानं।—घट०, पृ० ३८६।

हिताना पु
क्रि० अ० [सं० हित+आना (प्रत्य०)] १. हितकारी होना। अनुकूल होना। २. प्रेमयुक्त होना। उ०—बाँध्यो देखि श्याम को परबस गोपी परम हितानी। सूर (शब्द०)। ३. प्यारा लगना। अच्छा लगना। भाना। रुचिकर होना। उ०—ऐसे करम नाहि प्रभु मेरे जाते तुमहिं हितैहौ।—सूर (शब्द०)।

हितान्वेषी
वि० [सं० हितान्वेषिन्] हितेच्छु। हितार्थी [को०]।

हितार्थी
वि० [सं० हितार्थिन्] दूसरों का भला या कल्याण चाहनेवाला। हितेच्छु [को०]।

हितावह
वि० [सं०] जिससे भलाई हो। हितकारी। कल्याणकारी।

हिताशंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हित कहना। हित का कथन [को०]।

हिताहित
संज्ञा पुं० [सं०] भलाई बुराई। लाभ हानि। नफा नुकसान। उपकार और अपकार। जैसे,—जिसे अपने हिताहित का ध्यान नहीं, वह बावला है। उ०—निठुर नियति छल हो कि कर्म फल यह चिर अविदित, चख मदिरा रस, हँस रे पर वश, त्याग हिताहित।—मधुज्वाल,पृ० २०।

हिती
वि० [सं० हित+हिं० ई (प्रत्य०)] १. हितू। भलाई चाहनेवाला। खैरख्वाह। २. मित्र। दोस्त। ३. बंधुबांधव। संबंधी। रिश्तेदार।

हितु
संज्ञा पुं० [सं० हित]दे० 'हित', 'हितू'। उ०—ये तौ उनही की अनुहारी। नहिं अचिरज हितु चाहिए भारी।—नंद० ग्रं०, पृ० १२५।

हितुआ ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हितू'।

हितुव, हितुवा पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० हित] दे० 'हितू'। उ०—हितुव जानि सोमेस पुनि, किन्नव संधि विचार।—प० रासो, पृ० ५२।

हितू (१)
संज्ञा पुं० [सं० हित] १. भलाई करने या चाहनेवाला व्यक्ति। खैरखाह। दोस्त।उ०—सखि सब कौतुक देखनहारे। जेइ कहावत हितू हमारे।—तुलसी (शब्द०)। २. संबंधी। नातेदार। ३. सुहृद्। स्नेही।

हितू पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० हित] सखी। उ०—बयसा सैरिंधी सखी हितू सहचरी आही।—अनेकार्थ०, पृ० २५५।

हितेच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भलाई की चाह। खैरखाही। उपकार का ध्यान।

हितेच्छु
वि० [सं०] भला चाहनेवाला। शुभेच्छु। खैरखाह। कल्याण मनानेवाला।

हितैषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुभेच्छा। हितेच्छा [को०]।

हितैषिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भलाई चाहने की वृत्ति। खैरखाही।

हितैषी (१)
वि० [सं० हितैषिन्] [वि० स्त्री० हितैषिणी] भला चाहनेवाला। खैरखाह। कल्याण मनानेवाला।

हितैषी (२)
संज्ञा पुं० दोस्त। मित्र। सुहृद्।

हितोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] हित के वचन। भलाई का उपदेश। कल्याणकारी उपदेश। नेक सलाह।

हितोपदेश
सं० पुं० [सं०] १. भलाई का उपदेश। नेक सलाह। २. विष्णुशर्मा रचिन संस्कृत का एक प्रसिद्ध ग्रंथ जिसमें व्यवहार- नीति की शिक्षा को लिए हुए उपदेश और कहानियाँ हैं।

हितौना पु †
क्रि० अ० [हिं० हितवना] दे० 'हिताना'।

हित्त पु
संज्ञा पुं० [सं० हित]दे० 'हित'। उ०—देह निकट तेरे पड़ी, जीव अमर है नित्त। दुइ में मूवा कौन सा, का सूँ तेरा हित्त।— संतवाणी०, पृ० १५७।

हित्र पु
संज्ञा पुं० [सं० हित]दे० 'हितू'। उ०—पाहन ह्वै ह्वै सब गए, बिन भितियन के चित्र। जासो कियो मिताइया, सो धन भया न हित्र।—कबीर बी० (शिशु०), पृ० २१५।

हिदायत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. पथप्रदर्शन। रास्ता दिखाना। २. सीख। शिक्षा। ३. अधिकारी का आदेश। निर्देश। हुक्म। यौ०—हिदायतनामा=नियमों, निर्देशों की पुस्तक।

हिदै पु
संज्ञा पुं० [सं० हृदय, प्रा० हिदै] दे० 'हृदय'। उ०—तबै कोपि कै दुष्ट उछ्छंग लीनौ। हिदै फारि तत् काल सो डारि दीनौ।— पृ० रा०, २।१८८।

हिद्दत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. उग्रता। तीव्रता। तेजी। २. उष्णता। गरमी। हरारत (को०)। ३. क्रोध। गुस्सा।

हिनंक्कना पु
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'हिनकना'। उ०—झिनंकेति षग्गं हिनंक्केति ताजी। मिलं भूप भूपं महाबीर गाजी।— पृ० रा०, ८।४१।

हिनकाना
क्रि० अ० [अनु० हिनहिन+करना] घोड़े का बोलना। हिनहिनाना।

हिनती पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० हीनता] हीनता। तुच्छता। छोटापन।

हिनवाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० हिंदुआनह् > हिंदुआना] दे० 'हिंदवाना'।

हिनहिनाना
क्रि० अ० [अनु० हिन हिन] घोड़ का बोलना। हींसना।

हिनहिनाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिनहिनाना] घोड़े के हींसने की आवाज घोड़े की बोली।

हिना
संज्ञा स्त्री० [अ०] मेंहदी। उ०—उसके कदमों से लगी रहती है दिन रात हिना। खूब दुनिया में बसर करती है औकात हिना।—क० कौ०, भा० ४. पृ० ४२। यौ०—हिना का चोर=हथेली का वह अंश जहाँ मेंहदी न लगी हो। हिनाबंद=मेंहदी लगानेवाला।

हिनाई (१)
वि० [अ० हिना+आई (प्रत्य०)] मेंहदी के रंग का। हिना के रंग का।

यौ०—हिनाई कागज=एक प्रकार का कागज।

हिनाई (२)
संज्ञा पुं० पीलापन लिए हुए सुर्ख रंग।

हिनाई (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० हीन] क्षुद्रता। हीनता। लघुता। [को०]।

हिनाबंदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. मेँहदी लगाना। २. मुसलमानों में विवाह के समय की एक रस्म [को०]।

हिपोक्रिट
संज्ञा पुं० [अं०] १. कपटी। मक्कार। २. पाखंडी।

हिपोक्रिसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. छल। कपट। फरेब। मक्कारी। २. पाखंड।

हिप्नोटिज्म
संज्ञा पुं० [अं० हिप्नाँटिज्म] संमोहन विद्या। उ०— हिप्नोटिज्म के विशेषज्ञ अपनी मोहनाविद्या के आशु प्रभाव के लिये अपने पात्र की ऐसी ही अवस्था की प्रतीक्षा किया करते हैं। संन्यासी, पृ० ५२।

हिफाजत
संज्ञा स्त्री० [अ० हिफ़ाजत] १. किसी की वस्तु को इस प्रकार रखना कि वह नष्ट होने या बिगड़ने न पावे। रक्षा। जैसे,— इस चीज को हिफाजत से रखना। २. बचाव। देखरेख। खबर- दारी। सावधानी। जैसे,—वहाँ लड़कों की हिफाजत कौन करेगा। क्रि० प्र०—करना।—रखना। य़ौ०—हिफाजते खुदइख्तियारी=आत्मरक्षा। हिफाजते जानो- माल=आत्मरक्षा और धन की रक्षा। जीवन और संपत्ति की रक्षा।

हिफाजती
वि० [अ० हिफ़ाजती] जो रक्षा के लिये हो। जिससे सुरक्षा हो। हिफाजत करनेवाला [को०]।

हिफ्ज
संज्ञा पुं० [अ० हिफ्ज] १. हिफाजत। रक्षा। २. कंठस्थ या मुखाग्र होना। [को०]।

हिबा
संज्ञा पुं० [अ० हिबह्] दे० 'हिब्बा'। यौ०—हिबा कुनिंदा=दान करने या इनाम देनेवाला।

हिबुक
संज्ञा पुं० [सं०] जन्मकुंडली में लग्न से चौथा स्थान या भवन। पाताल [को०]।

हिब्बा
संज्ञा पुं० [अ० हिब्बह्] १. दाना। २. दो जौ की एक तौल। मुहा०—हिब्बा भर=जरा सा। थोड़ा। ३. दान। उ०—फिर अपना सारा कारोबार उन्है सौंपा और कुछ दिनों के उपरांत यह गाँव उन्हीं के नाम हिब्बा कर दिया।— मान०, भा० ५, पृ० २६४। ४. पारितोषिक। पुरस्कार (को०)। यौ०—हिब्बानामा।

हिब्बानामा
संज्ञा पुं० [अ० हिब्बह्+फा० नामह्] दानपत्र।

हिमंचल पु
संज्ञा पुं० [सं० हिमाचल] दे० 'हिमाचल'। उ०—(क) साथ सखी के नई दुलही को भयो हरि कौ हियो हेरि हिमंचल।— मतिराम ग्रं०, पृ० २७७। (ख) हिमंचल राह सती अवतरिया। गण दीन्ह नाम पारबती धरिया।—कबीर सा०, पृ० ३३।

हिमंत पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० हेमन्त]दे० 'हेमंत'। उ०—खुली न कठिन समाधि ऋषि, चली हिमंत सुहारि। सिसिर परस मन बरनि करि, उठी सुकाँम जुहारि।—ह० रासो, पृ० २२।

हिम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाला। बर्फ। जल का बह ठोस रूप जो सरदी से जमने के कारण होता है। तुषार। उ०—(क) काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी।—मानस, २।६२। (ख) ऊपर हिम था नीचे जल था।—कामायनी, पृ० २। २. जाड़ा। ठंढ। ३. जाडे़ की ऋतु। ४. चंद्रमा। ५. चंदन। ६. कपूर। ७. राँगा। ८. मोती। ९. ताजा मक्खन। १०. कमल। ११. पृथ्वी के विभागों या वर्षों में से एक। १२. वह दवा जो रात भर ठंढे पानी में भिगोकर सबेरे मलकर छान ली जाय। ठंढा क्वाथ या काढ़ा। खेशाँदा। १३. हिमवान्। हिमालय (को०)। १४. रजनी। निशा। रात्रि (को०)। १५. एक वृक्ष। पद्मकाष्ठ। पद्माख। विशेष दे० 'पदम' (२)।

हिम (२)
वि० १. ठंढा। सर्द। २. तुषार या पाला से भरा हुआ [को०]।

हिम पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० हेम]दे० 'हेम'। उ०— राजा मन मोदित भयो, धीरज धर्म निधान। पंच कोटि मँगवाइ हिम, दिय बिप्रन कहँ दान।—प० रासो, पृ० १९।

हिमउपल
संज्ञा पुं० [सं०] ओला। पत्थर। जमा हुआ मेह। उ०— जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।—तुलसी (शब्द०)।

हिमऋतु
संज्ञा स्त्री० [सं०] जाड़ी का मौसम। हेमंत ऋतु।

हिमक
संज्ञा पुं० [सं०] तालीशपत्र।

हिमकण
संज्ञा पुं० [सं०] बर्फ या पाले के महीन टुकड़े।

हिमकणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बर्फ की छोटी कनी। उ०—वन की एक एक हिमकणिका जैसी सरस और शुचि है। क्या सौ सौ नागरिक जनों की वैसी विमल रम्य रुचि है ?—पंचवटी, पृ० ९।

हिमकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। हिमांशु। उ०—सीय बदन सम हिमकर नाहीं।—मानस, १। २३७। २. कपूर। यौ०—हिमकरतनय, हिमकरसुत=बुध ग्रह का नाम।

हिमकर (२)
वि० शीतप्रदायक। ठंढ लानेवाला।

हिमकरधर पु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रधर। शिव। उ०—सो संभो सूलिन सिव संकर। हर हिमकरधर उग्र भयंकर।—नंद० ग्रं०, पृ० १५४।

हिमकिरण
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हिमकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. शीतकाल। ठंढक का मौसम। शिशिर ऋतु। २. हिमालय पर्वत। ३. हिमालय का कूट। हिमालय की चोटी [को०]।

हिमखंड
संज्ञा पुं० [सं० हिमखण्ड] १. हिमालय पहाड़। २. ओला। बनौरी। पत्थर (को०)।

हिमगर पु
संज्ञा पुं० [सं० हिम+हिं० गर (प्रत्य०)] पाला। हिम। दे० 'हिँवार'। उ०—जीवजल हिमगर होत है सकत सीत कै संग। सो पखान पानी बह्मा गुरु गीषम कै अंग।—रज्जब०, पृ० १६।

हिमगर्भ
वि० [सं०] बर्फ से परिपूर्णं।

हिमगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय पर्वत। उ०—(क) तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमी पारबती तनु पाई।—मानस, १।६५। (ख) हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर।—कामा- यनी, पृ० १।

यौ०—हिमगिरिसुता=पार्वती।

हिमगु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हिमगृह
संज्ञा पुं० [सं०] वह घर या कोठरी जो बहुत ठंढी हो और जिसमें ठंढक के सामान इकट्ठे हों। सर्दखाना।

हिमगृहक
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हिमगृह'।

हिमगौर
वि० [सं०] हिम के समान श्वेत। बर्फ की तरह सफेद [को०]।

हिमघ्न
वि० [सं०] जिससे शीत दूर हो। ठंढक या हिम को दूर करनेवाला [को०]।

हिमज (१)
वि० [सं०] १. बर्फ में होनेवाला। २. हिमालय में होनेवाला। ३. हिमालय से उत्पन्न।

हिमज (२)
संज्ञा पुं० मैनाक पर्वत।

हिमजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खिरनी का पेड़। २. यवनाल से निकली हुई चीनी। ३. पार्वती।

हिमज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] जाड़ा देकर आनेवाला बुखार। जड़ैया। विशेष दे० 'जूड़ी' [को०]।

हिमझंटि
संज्ञा स्त्री० [सं० हिमझण्टि]दे० 'हिमझटि'।

हिमझटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाला। कोहरा [को०]।

हिमति पु
संज्ञा स्त्री० [अ० हिम्मत]दे० 'हिम्मत'। उ०—हजरति हिमति न छडिये, धरिये मन मैं धीर।—ह० रासो, पृ० १०६।

हिमतैल
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर देकर बनाया हुआ तेल।

हिमदीधिति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हिमदुग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] खिरनी। क्षीरिणी।

हिमदुर्दिन
संज्ञा पुं० [सं०] ठंढक का मौसम। ठंढक का बुरा मौसम [को०]।

हिमद्युति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।

हिमद्रुट्
संज्ञा पुं० [सं० हिमद्रुह्] सूर्य [को०]।

हिमद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] बकायन का पेड़।

हिमधर
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय [को०]।

हिमधातु
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय [को०]।

हिमधामा
संज्ञा पुं० [सं० हिमधामन्] चंद्रमा [को०]।

हिमध्वस्त
वि० [सं०] पाले से नष्ट किया हुआ। पाला मारा हुआ [को०]।

हिमपात
संज्ञा पुं० [सं०] पाला पड़ना। बर्फ गिरना।

हिमप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय पहाड़।

हिमबारि पु
संज्ञा पुं० [सं० हिमवारि] १. दे०'हिमवारि'। २. वह जो अत्यंत शीतल हो। उ०—घोर घामु हिमबारी बयारी।—मानस, २।६२।

हिमबालुक
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर [को०]।

हिमभानु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हिमभूधर
संज्ञा पुं० [सं० हिम+भूधर] हिमाचल। हिमालय। उ०—जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हें। उचित बास हिमभूधर दीन्हें।—मानस १।६५।

हिमभूभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] हिमभूधर। हिमालय।

हिममयुख
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हिमयुक्त
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हिमरश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हिमरितु पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हिमऋतु] हेमंत ऋतु। जाड़े का मौसम। अगहन और पूस का महीना। उ०—मंगल मूल लगनु दिन आवा। हिमरितु अगहनु मास सुहावा।—मानस, १।३१२।

हिमरुचि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हिमरोम
संज्ञा पुं० [सं० हिम+ रोम] चंद्रमा। उ०—इंदु कलानिधि सुधानिधि, जैवात्रिक ससि सोम। अब्ज अमीकर, छपाकर, विधु कहियत हिमरोम।—नंद० ग्रं०, पृ० ८८।

हिमर्तु
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिम ऋतु। जाड़े का मौसिम।

हिमवंत पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० हिमलत् शब्द के कर्ता कारक का बहु व०] हिमालय। उ०—बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहु लगन सुनाई आइ। समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलइ।—मानस, १।९९।

हिमवंत पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० हेमन्त] वह ऋतु जिसमें शीत या ठंढ का आधिक्य हो। हेमंत ऋतु। हिम ऋतु। उ०—(क) हिमवंत कंत मुक्कै न प्रिय पिया पत्र पोमिनी परषि।—पृ० रा०, ६१। ५२। (ख) हिमवंत कंत सुग्रह ग्रहति हहकरत फुट्टै हियौ।— पृ० रा०, ६१।५३।

हिमवत (१)
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हिमवान्'।

हिमवत पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० हिमवत्]दे० 'हिमवान्'। उ०—सो सोहति अस बैस कुमारी। हिमगिरिवर जनु हिमवत बारी।— नंद-ग्र०, पृ० १२०।

हिमवत्कुक्षि
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिमालय की कंदरा या गुहा [को०]।

हिमवत्खंड
संज्ञा पुं० [सं० हिमवत्खण्ड] स्कंद पुराण के एक खंड या विभाग का नाम।

हिमवत्पुर
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय की नगरी। ओषधिप्रस्थ नगर जो हिमवान् की राजधानी है [को०]।

हिमवत्प्रभव
वि० [सं०] हिमालय में उत्पन्न। हिमालय से उत्पन्न [को०]।

हिमवत्सुत
संज्ञा पुं० [सं०] मैनाक पर्वत।

हिमवत्सुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती। २. गंगा।

हिमवल
संज्ञा पुं० [सं०] मोती।

हिमवान (१)
वि० [सं० हिमवत्] [वि० स्त्री० हिमवती] बर्फवाला। जिसमें बर्फ या पाला हो।

हिमवान (२)
संज्ञा पुं० १. हिमालय पहाड़। उ०—गुननिधान हिमवान धरनिधर धुर धनि।—तुलसी ग्रं०, पृ० २९। २. कैलाश पर्वत। ३. चंद्रमा। उ०—पावक पवन पानी भानु हिमवान जम, काल लोकपाल मेरे डर डाँवाडोल है।—तुलसी (शब्द०)।

हिमवारि
संज्ञा पुं० [सं०] हिम का पानी। बर्फ के कारण अत्यंत शीतल पानी।

हिमवालुक
संज्ञा पुं० [सं०] कर्पूर। कपूर [को०]।

हिमवालुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपूर।

हिमवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाला पड़ना। २. ओले या बनौरी गिरना। बर्फ पड़ना [को०]।

हिमशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चीनी जो यवनाल से निकाली जाती है।

हिमशिखरी
संज्ञा पुं० [सं० हिमशिखरिन्] हिमालय पर्वत [को०]।

हिमशीतल
वि० [सं०] १. बर्फ की तरह शीतल। अत्यंत ठंढा। जिसका प्रभाव तरल पदार्थ कोजमा देनेवाला हो। जैसे, जाड़ा, शीत [को०]।

हिमशृभ्र
वि० [सं०] हिम की तरह शुभ्र या श्वेत [को०]।

हि ल
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय पहाड़।

हिमशैलजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती।

हिमश्रथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा २. बर्फ का पिचलना [को०]।

हिमश्रथन
संज्ञा पुं० [सं०] बर्फ पिघलना [को०]।

हिमसंघात
संज्ञा पुं० [सं०हिमसड्घात]दे० 'हिमसंहित'।

हिमसंहति
संज्ञा पुं० [सं०] हिम का समूह। बर्फ की ढेरी [को०]।

हिमसर
संज्ञा पुं० [सं० हिमसरस्] शीतल जल। ठंढा पानी [को०]।

हिमस्त्रुत
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हिमहानकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] कृशानु। पावक। अग्नि [को०]।

हिमहासुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का खजुर। हिंताल।

हिमांक
संज्ञा पुं० [सं० हिमाङ्क] कपूर।

हिमांत
संज्ञा पुं० [सं० हिमान्त] शीत ऋतु का अंत। हिमऋतु की समाप्ति [को०]।

हिमांबु
संज्ञा पुं० [सं० हिमाम्बु] १. शीतल जल। ठंढा पानी। २. अवश्याय। ओस [को०]।

हिमाभ
संज्ञा पुं० [सं० हिमाम्भस्] दे० 'हिमांबु'।

हिमांशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

हिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शीतऋतु। ठंढा का मौसम। जाड़ा। २. छोटी इलायची। ३. एक प्रकार की घास। चणिका। ४. दुर्गा। पार्वती। ५. नागरमोथा। भद्रमुस्तक। ३. असवर्ग। पृक्का [को०]।

हिमाकत
संज्ञा स्त्री० [अ० हिमाकत] नासमझी। बेवकूफी। मूर्खता। उ०—आँखों में हिमाकत का कँवल जब से खिला है। आते हैं नजर कूचओ बाजार बसंती।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ७९२।

हिमाम
संज्ञा पुं० [सं०] हेमंत ऋतु। जाड़े का मौसम।

हिमाचल
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय पहाड़।

हिमाच्छन्न
वि० [सं०] बर्फ से ढका हुआ।

हिमात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] जाड़े की समाप्ति [को०]।

हिमाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय पहाड़। उ०—हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबृद्ध शुद्ध भारती।

हिमाद्रिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हिमालय की पुत्री। पार्वती। २. गंगा का एक नाम [को०]।

हिमाद्रितनया
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हिमाद्रिजा'।

हिमानद्ध
वि० [सं०] हिम के कारण जड़ीभूत अथवा बर्फ से जमा हुआ [को०]।

हिमानिल
संज्ञा पुं० [सं०] ठंढी हवा। बर्फीली हवा [को०]।

हिमानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बर्फ का ढेर। घना तुषार। पाले का समूह। उ०—मृत्यु अरी चिरनिद्रे तेरा, अंक हिमानी सा शीतल।—कामायनी, पृ० १८। २. पार्वती। उ०—भवा, भवानी, मृड़ा, मृडानी। काली कात्याइनी, हिमानी।—नंद० ग्रं०, पृ० २२४। ३. एक प्रकार की शर्करा जो यवनाल से निकाली जाती है। हिमशर्करा। यौ०—हिमानीविशद, हिमानीशुभ्र=हिमसीकर या तुषार की तरह श्वेत वर्ण का।

हिमापह
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह जिससे शीत दुर हो, अग्नि। आग [को०]।

हिमाब्ज
संज्ञा पुं० [सं०] कमल। नील कमल।

हिमाभ
वि० [सं०] हिम की तरह श्वेत वर्ण का [को०]।

हिमाभ्र
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर।

हिमाम पु
संज्ञा पुं० [अ० हम्माम]दे० 'हम्माम,' 'हमाम'। उ०— मोही सो किन भेंटि लै जौ लौं मिली न बाम। सीतभीत तेरो हियो मेरो हिमाम।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १६१।

हिमामदस्ता
संज्ञा पुं० [फा़० हावनदस्तह्] खरल और बट्टा।

हिमायत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. रक्षा। अभिभावकता। संरक्षा। २. तरफदारी। पक्षपात। ३. मंडन। समर्थन। क्रि० प्र०—करना।—होना।

हिमायतगर
वि० [फा०] दे० 'हिम्मती' [को०]।

हिमायती
वि० [फा़०] १. पक्ष करनेवाला। पक्ष लेनेवाला। समर्थन करनेवाला। मंडन करनेवाला। २. तरफदार। सहायता करनेवाला। मददगार।

हिमारा
संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री० हिमारा] गर्दभ। गधा। रासभ [को०]।

हिमाराति
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। आग। २. सूर्य। ३. चित्रक वृक्ष। चीता। ४. आफ। मदार।

हिमारि
संज्ञा पुं० [सं०] अनल। अग्नि। आग [को०]। यौ०—हिमारिरिपु, हिमारिशत्रु=जो हिम के अरि अर्थात् अग्नि का शत्रु हो। जल।

हिमारुण
वि० [सं०] तुषार या पाले के कारण जो भुरे रंग का हो गया हो।

हिमार्त
वि० [सं०] १. हिम से पीड़ित या काँपता हुआ। २. पाले से जमा हुआ या ठिठुरा हुआ [को०]।

हिमाल
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हिमालय' [को०]।

हिमालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. भारतवर्ष की उत्तरी सीमा पर बरा- बर फैला हुआ एक बहुत बड़ा और ऊँचा पहाड़ जो संसार के सब पर्वतों से बड़ा है।विशेष—इसकी ऊँची उँची चोटियाँ सदा बर्फ से ढकी रहती हैं और सबसे ऊँची चोटी २९,००२ फुट ऊँची है। यह संसार की सबसे ऊँची चोटी मानी गई है। उत्तर भारत की सबसे बड़ी नदियाँ इसी पर्वतराज से निकली हैं। पुराणों में यह पर्वत मेना या मेनका का पति और पार्वती का पिता माना गया है। गंगा भी इसकी बड़ी पुत्री कही गई हैं। यौ०—हिमालयकन्या, हिमालयपुत्री, हिमालयसुता=दे० 'हिमा- द्रिजा'। २. श्वेत खदिर का वृक्ष। सफेद खैर का पेड़।

हिमालया
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूइँ आँवला। भूम्यामलकी [को०]।

हिमावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] सत्यानाशी। स्वर्णक्षीरी [को०]।

हिमाविल
वि० [सं०] हिम से आच्छन्न। बर्फ से ढँका हुआ। हिमा- च्छादित [को०]।

हिमाश्रया
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीली जीवंती। स्वर्ण जीवंतिका [को०]।

हिमाहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुषारपात। हिमपात [को०]।

हिमाह्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपूर। कर्पूर। २. जंबु द्धीप के एक वर्ष या खंड का नाम।

हिमाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपूर। कर्पूर। २. कमल। पंकज (को०)।

हिमि पु
संज्ञा पुं० [सं० हिम]दे० 'हिम'।

हिमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुषार। पाला [को०]।

हिमित
वि० [सं०] जो हिम या बर्फ के रूप में परिणत हो [को०]।

हिमेलु
वि० [सं०] ठंढ से पीड़ित या आर्त। शीत से सिकुड़ा हुआ। हिमार्त [को०]।

हिमेश
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय।

हिमोत्तरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की पीली दाख। कपिलवर्ण का अंगुर।

हिमोसत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिमानी। दे० 'हिमशर्करा' [को०]।

हिमोद्रवा
संज्ञा पुं० [सं०] १. कचुर। आमाहलदी। २. क्षीरिणी [को०]।

हिमोस्त्र
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमा [को०]।

हिम्न
संज्ञा पुं० [सं०] बुध ग्रह। बुद्ध नाम का ग्रह।

हिम्मत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कोई कठिन या कष्टसाध्य कर्म करने की मानसिक दृढ़ता या बल। साहस। जिगरा। करेजा। हिम्मत। २. बहादुरी। पराक्रम। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—हिम्मत टुटना=दे० 'हिम्मत हारना'। उ०—हिम्मत टुट गई सोचते थे कि अगर इस बीमारी से बच भी गए तो नतीजा क्या होगा।—फिसाना०, भा०३, पृ० ११९। हिम्मत पड़ना=साहस होना। हिम्मत हारना=साहस छोड़ना। उत्साह न रहना। उ०—हिम्मत न हारिए बिसारिए न हारिनाम, जाही बिधि राखे प्रभु ताही बिधि रहिए।

हिम्मतवर
वि० [फा़०] हिम्मतवाला। हिम्मती। साहसी [को०]।

हिम्मती
वि० [फा़०] १. हिम्मतवाला। साहसी। दृढ़। २. पराक्रमी। बहादुर।

हिम्य
वि० [सं०] १. बर्फीला। बर्फ से युक्त। २. ठंढा। हिम से जमा हुआ या आवृत [को०]।

हिय
संज्ञा पुं० [सं० हृदय, प्रा० हिअ] १. हृदय। मन। उ०—चले भाँट, हिय हरष न थोरा।—तुलसी (शब्द०)। २. छाती। वक्षस्थल। दे०'हिया'। मुहा०—हिय हारना=हिम्मत छोड़ना। साहस न रखना। उ०— तोहि कारन आवत हिय हारे। कामी काक बलाक बेचारे।—तुलसी (शब्द०)।

हियड़ा पु †
संज्ञा पुं० [सं० हृत् या हृदय, प्रा० हिअ, हिं० हिय+ ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'हियरा'। उ०—प्रीतम तोरइ कारणइ, ताता भात न खाहि। हियड़ा भीतर प्रिय वसइ, दाझणती डरपाहि।—ढोला०, दु० १६०।

हियरा
संज्ञा पुं० [हिं० हिय+रा (स्वार्थिक प्रत्य०)] १. हृदय। मन। उ०—(क) आँसु बरषि हियरे हरषि, सीता सुखद सुभाय। निरखि निरखि पिय मुद्रिकहिं बरनति है बहु भाय।—केशव (शब्द०)। (ख) नैसुक हेरि हरयो हियरा मनमोहन मेरो अचानक ही।—(शब्द०)। २. छाती। वक्षस्थल। उ०— हियरा लगि भामिनि सोइ रही।—लक्ष्मण० (शब्द०)।

हियाँ †
अव्य० [हिं० यहाँ, इहाँ]दे० 'यहाँ'।

हिया
संज्ञा पुं० [सं० हृदय, प्रा० हिअअ] १. हृदय। मन। उ०— (क) अब धौं बिनु प्रानप्रिया रहिहैं कहि कौन हितु अवलंब हिये।—केशव (शब्द०)। (ख) साथ सखी के नई दुलही को भयो हरि कौ हियो बेरि हिमंचल। आय गए मतिराम तहाँ घरु जानि इकंत अनंद ते चंचल।—मति० ग्रं०, पृ० २७७। २. छाती। वक्षस्थल। उ०—(क) बनमाल हिये अरु विप्रलात।—केशव (शब्द०)। (ख) हिया थार, कुच कंचन लाडु।— जायसी। (शब्द०)। मुहा०—हिये का अंधा=अज्ञान। मूर्ख। हिये की फुटना=ज्ञान न रहना। अज्ञान रहना। बुद्धि न होना। हिया शीतल या ठंढा होना=मन में सुख शांति होना। मन तृप्त और आनंदित होना। हिया जलना=अत्यंत क्रोध में होना। उ०—क्रुर कुठार निहारि तजै फल ताकि यहै जो हियो जरई।—केशव (शब्द०)। हिये लगना=गले से लगना। छाती से लगना। आलिंगन करना। उ०—क्यों हठि मान गहै सजनी उठि बेगि गोपाल हिये किन लागै?—शंकर (शब्द०)। हिये में लोन सा लगना=बहुत बुरा लगना। अत्यंत अरुचिकर होना। उ०—सुनत रुखि भई रानी, हिये लोन अस लाग।—जायसी (शब्द०)। हिये पर पत्थर धरना=दे० 'कलेजे पर पत्थर धरना'। हिया फटना= कलेजा फटना। अत्यंत शोक या दुःख होना। हिया भर आना= कलेजा भर आना। शोक या दुःख का हृदय में अत्यंत वेग होना। हिया भर लेना=दुःख से लंबी साँस लेना। विशेष दे० मुहा० 'जी' और 'कलेजा'।

हियाव
संज्ञा पुं० [हिं० हिय+ आव (भाव० प्रत्य०)] कोई कठिन काम करने की मानसिक दृढ़ता। साहस। हिम्मत। जीवट। उ०— भौर जो मनसा मानसर लीन्ह कँवलरस जाय। गुन जो हियाव न कै सका झुर काठ तस खाय।—जायसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—हियाव खुलना=(१) मानसिक दृढ़ता आना। साहस हो आना। हिम्मत बँधना। (२) संकोच, हिचक या भय न रहना। धड़क खुलना। हियाव पड़ना=हिम्मत होना। साहस होना।

हिरंगु
संज्ञा पुं० [सं० हिरङ्ग] राहु ग्रह।

हिरंबर पु
वि० [देश०] निर्विकार। विकाररहित। शुद्ध। उ०— जो हीरा घन सहै घनेरा। होय हिरंबर बहुरि न फेरा।— दरिया० बानी, पृ० ५।

हिरंमर पु
संज्ञा पुं० [सं० हृद्म्बर (=हृदयाकाश) या देश०] हृदयरुपी आकाश। विकाररहित हृदय। उ०—हीरा तो हंसा भए पंछी सकल सररी। सत्त नाम के जान के भया हिरंमर धीर।—संत० दरिया, पृ० ४५।

हिर
संज्ञा पुं० [सं०] कपड़े आदि के पट्टी या मेखला।

हिरकना पु †
क्रि० अ० [सं० हिरुक् (=समीप)] १. पास होना। निकट जाना। २. इतने समीप होना कि स्पर्श हो। सटना। भिड़ना। जैसे,—हिरककर बैठना। ३. (बच्चों या पशुओं आदि का) परचना। संयो० क्रि०—जाना।

हिरकाना पु †
क्रि० स० [हिं० हिरकना] १. पास करना। नज- दीक ले जाना। २. इनते समीप ले जाना कि स्पर्श हो जाय। सटाना। भिड़ाना। ३. (पशुओं या बच्चों आदि को) परचाना। संयो० क्रि०—देना।

हिरगुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हीरा+ गुन (=सुत)] एक प्रकार की बढ़िया कपसा जो सिंध में होती है।

हिरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना। स्वर्ण। २. शुक्र। वीर्य। ३. कौड़ी। कपर्दिका।

हिरण पु ‡ (२)
संज्ञा पुं० [सं० हरिण]दे० 'हिरन', 'हरिण'।

हिरणाखी
वि० [सं० हरिणाक्षी] मृगनयनी। हरिणाक्षी। उ०— हिरणाखी हसिनइ कहइ, करउँ दिसाउर एक।—ढोला०, दु० २२१।

हिरण्मय (१)
वि० [सं०] १. सुनहरा। स्वर्णिम। २. सोने का बना हुआ। स्वर्णनिर्मित।

हिरण्मय (२)
संज्ञा पुं० १. हिरण्यगर्भ। ब्रह्मा। २. एक ऋषि का नाम। ३. जंबु द्धीप के नौ खंड़ों या वर्षों में से जो श्वेत और शृंगवान् पर्वततों के बीच कहा गया है। ४. भागवत के अनुसार उक्त कंड या वर्ष का शासक, अग्नीध्र का पुत्र।

हिरण्मय कोश
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मा के सात आवरणों में से अंतिम आवरण।

हिरण्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना। स्वर्ण। २. वीर्य। शुक्र। ३. कौ़ड़ी। ४. एक मान या तौल। ५. धतुरा। ६. हिरण्मय नामक वर्ष या खंड। ७. एक दैत्य। ८. नित्य वस्तु या तत्व। ९. ज्ञान। १०. ज्योति। तेज। प्रकाश। ११. अमृत। १२. स्वर्णपात्र। सोने का बर्तन। (को०)। १३. रजत। चाँदी (को०)। १४. कोई मूल्यवान् धातु (को०)। १५. भावप्रकाश के अनुसार एक प्रकार का गुग्गुल (को०)। १६. मरुत्। १७. धन। संपत्ति (को०)। १८. अग्नीध्र का एक पुत्र (को०)।

हिरण्य (२)
वि० हिरण्यनिर्मित। स्वर्णनिर्मित।

हिरण्यकंठ
वि० [सं० हिरण्यकण्ठ] जिसका कंठ स्वर्णिम हो [को०]।

हिरण्यक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण की आकांक्षा या मनोरथ [को०]।

हिरण्यकक्ष
वि० [सं०] सोने की मेखला पहननेवाला। जो सोने का कमरबंद पहने हुए हो [को०]।

हिरण्यकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यकर्तृ] स्वर्णकार। सुनार [को०]।

हिरण्यकवच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम।

हिरण्यकवच (२)
वि० स्वर्णनिर्मित कवचवाला [को०]।

हिरण्यकशि पु (१)
वि० [सं०] सोने के तकिए या गद्दीवाला।

हिरण्यकशिपु (२)
संज्ञा पुं० एक प्रसिद्ध विष्णुविरोधी दैत्य राजा का नाम जो प्रह्लाद का पिता था। विशेष—यह कश्यप और दिति का पुत्र था और भगवान् का बड़ा भारी विरोधी था। इसे ब्रह्मा से यह वर मिला था कि मनुष्य, देवता और किसी प्राणी से तुम्हारा वध नहीं हो सकता। इससे यह अत्यंत प्रबल और अजेय हो गया। जब इसने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवान् की भक्ति करने के कारण बहुत सताया और एक दिन उसे खंभे से बाँध और तलवार खींचकर बार कहने लगा कि 'बता ! अब तेरा भग- वान् कहाँ है? आकार तुझे बचावे'। तब भगवान् नृसिंह (आधा सिंह और आधा मनुष्य) का रूप धारण करके खंभा फाड़कर प्रकट हुए और उसे फाड़ डाला। भगवान् का चौथा नृसिंह अवतार इसी दैत्य को मारनेके लिये हुआ था।

हिरम्यकश्यप
संज्ञा पुं० [सं० हरिण्यकशिपु] दे० 'हिरण्यकशिपु'।

हिरण्यकामधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] दान देने के निमित्त बनी हुई सोने की कामधेनु गाय। विशेष—स्वर्णनिर्मित ऐसी गाय का दान १६ महादानों में है।

हिरण्यकार
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्णकार। सुनार।

हरिण्यकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०]।

हिरण्यकृतचूड
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।

हिरण्यकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। २. वह जिसके केश सुनहले वर्ण के हों।

हिरण्यकेशी
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यकेशिन्] १. एक गृह्यसूत्रकार ऋषि का नाम। २. उक्त नाम का एक गृह्यसुत्र।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १४४।

हिरण्यकोश
संज्ञा पुं० [सं०] तपाया हुआ सोना अथवा चाँदी [को०]।

हिरण्यखादि
वि० [सं०] स्वर्णनिर्मित।

हिरण्यगर्भ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह ज्योतिर्मय अंड जिससे ब्रह्मा और सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई। २. ब्रह्मा। उ०—सृष्टि की समस्या के सुलझाव के लिये स्वभावतः एक स्त्रष्टा की कल्पना हुई और उसे पुरुष विश्वकर्मा, हिरण्य़गर्भ और प्रजापति की संज्ञाएँ दी गई।—संत० दरिया (भू०), पृ० ५४। विशेष—ब्रह्मा ने जल या समुद्र की सृष्टि करके उसमें अपना बीज डाला, जिससे एक अत्यंत देदीप्यमान ज्योतिर्मय या स्वर्णमय अंड की उत्पत्ति हुई। यह अंड सूर्य से भी अधिक प्रकाशमान् था। इसी अंड से सृष्टिनिर्माता ब्रह्मा प्रकट हुए जो ब्रह्मा के व्यक्त या सगुण रुप हुए। वेदांत की व्याख्या के अनुसार ब्रह्मा की शक्ति या प्रकृति पहले रजोगुण की प्रवृति से दो रुपों में विभ- क्त होती है—सत्वप्रधान और तमःप्रधान। सत्वप्रधान के भी दो रुप हो जाते हैं—शुद्ध सत्व। (जिसमें सत्वगुम पूर्ण होता है) और अशुद्ध सत्व (जिसमें सत्व अंशतः रहता है)। प्रकृति के इन्हीं भेदों में प्रतिबिबित होने के कारण ब्रह्मा कभी ईश्वर या हिरण्यगर्भ और कभी जीव कहलाता है। जब शक्ति या प्रकृति के तीन गुणों में से शुद्ध सत्व का उत्कर्ष होता है तब उसे 'माया' कहते हैं, और उस माया में प्रतिबिंबित होनेवाले ब्रह्मा को सगुण या व्यक्त ईश्वर, हरिण्यगर्भ आदि कहते हैं। अशुद्ध सत्व की प्रधानता को 'अविद्या' सत्व कहते हैं उसमें प्रतिबिंबित होनेवाले ब्रह्मा को जीव या प्राज्ञ कहते हैं। ३. सूक्ष्म शरीर से युक्त आत्मा। ४. एक मंत्रकार ऋषि। ५. एक शिवलिंग। ६. विष्णु। ७. षोडश महादान के अंतर्गत द्धितीय महादान (को०)।

हिरण्यगर्भ (२)
वि० ब्रह्मा से संबद्ध। ब्रह्मा संबंधी [को०]।

हिरण्यगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम [को०]।

हिरण्यद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र [को०]।

हिरण्यद (२)
वि० सोना देनावाला। स्वर्णदान करनेवाला [को०]।

हिरण्यदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। २. एक नदी का नाम [को०]।

हिरण्यनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. मैनाक पर्वत। ३. बृहत्संहिता के अनुसार वह मकान जिसमें तीन बड़ी शालाएँ (कमरे) पूर्व, पश्चिम और उत्तर की ओर हों और दक्षिण की ओर कोई शाला न हो।

हिरण्यपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत [को०]।

हिरण्यपुर
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश में वर्णित असुरों का एक नगर जो समुद्र के पार वायुमंडल में स्थित कहा गया है।

हिरण्यपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्णनिर्मित पुरुष की प्रतिमा या मुर्ति [को०]।

हिरण्यपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार पौधा।

हिरण्यबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का एक नाम। २. सोन नद। ३. एक नाग का नाम।

हिरण्यबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यबिन्दु] १. अग्नि। आग। २. एक पर्वत। ३. एक तीर्थ।

हिरण्यमाली
वि० [सं० हिरण्यमालिन्] [वि० स्त्री० हिरण्यमालिनी] सोने की माला धारण करनेवाला।

हिरण्यय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० हिरण्ययी] सोने का। स्वर्णिम [को०]।

हिरण्यरशन
वि० [सं०] [स्त्री० हिरण्यरशना] सोने की मेखला या कटि- सूत्र धारण करनेवाला।

हिरण्यरेता (१)
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यरेतस्] १. कृशानु। अग्नि। आग। २. सूर्य। ३. शिव। ४. बारह आदित्यों में से एक। ५. अर्कवृक्ष। मदार। ६. चित्रक वृक्ष। चीता (को०)।

हिरण्यरेता (२)
वि० सोने के सदृश बीज या रेतसयुक्त।

हिरण्यरोमा
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यरोमन्] १. एक लोकपाल जो मरीचि- के पुत्र हैं। २. महाभारत के अनुसार भीष्मक का नाम।

हिरण्यलोमा
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यलोमन्] एक ऋषि जो पाँचवें मन्वंतर में हुए थे [को०]।

हिरण्यव
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोने का आभूषण। स्वर्णाभरण। किसी देवता या मंदिर पर चढ़ा हुआ धन। देवस्व। देवोत्तर संपत्ति।

हिरण्यवर्चस्
वि० [सं०] स्वर्णिम दीप्ति से युक्त। सोने की तरह कांतिवाला [को०]।

हिरण्यवर्ण
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जिसकी कांति या वर्ण स्वर्णिम हो। २. एक नदी का नाम।

हिरण्यवान् (१)
वि० [सं० हिरण्यवत्] [वि० स्त्री० हिरण्यवती] सोनेवाला। जिसमें या जिसके पास सोना हो।

हिरण्यवान् (२)
संज्ञा पुं० अग्नि।

हिरण्यवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. सोन नद।

हिरण्यवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. सूर्य।

हिरण्यशकल
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण का छोटा छोटा बुंदा। सोने का छोटा टुकड़ा [को०]।

हिरण्यशृंग
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यशृंङ्ग] १. वह जिसकी चोटी या सींग सोने की हो। २. महाभारतोक्त एक पर्वत का नाम [को०]।

हिरण्यष्ठीव
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत पुराण के अनुसार एक पर्वत- विशेष [को०]।

हिरण्यष्ठीवी
वि० [सं० हिरण्यष्ठीविन्] महाभारत के अनुसार (पक्षीविशेष) जो सोना उगलता या वमन करता हो [को०]।

हिरण्यसंकाश
वि० [सं० हिरण्यसङ्काश] सोने की तरह दीप्तियुक्त [को०]।

हिरण्यसर
संज्ञा पुं० [सं० हरिण्यसरस्] महाभारत में वर्णित एक तीर्थ।

हिरण्यसामुदयिक
संज्ञा पुं० [सं०] मुद्रा के रुप में कर वसूल करनेवाला अधिकरी। उ०—बंगाल में नकद कर वसूल करनेवालों को 'हिरण्यसामुदायिक' कहते थे।—पू० म० भा०, पृ० १०७।

हिरण्यस्थाल
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण का कटोरा या कटोरे के समान कोई पात्र [को०]।

हिरण्यस्त्रक्
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यस्त्रज्] १. सोने की माला। २. वह जिसने सोने की माला या सिकड़ी पहन रखी हो [को०]।

हिरण्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा का नाम [को०]।

हिरण्याक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध दैत्य जो हिरण्यकशिपु का भाई था। विशेष—यह दैत्य कश्यप और दिति से उत्पन्न हुआ था। इसने पृथ्वी को लेकर पाताल में रख छोड़ा था। ब्रह्मा आदि देवताओ की प्रार्थना पर विष्णु ने वाराह अवतार धारण करके इसे मारा और पृथ्वी का उद्धार किया। यौ०—हिरण्याक्षारिपु, हिरण्याक्षहर=वारह रुपधारी विष्णु। २. वसुदेव के छोटे भाई श्यामक केएक पुत्र का नाम।

हिरण्याश्व
संज्ञा पुं० [सं०] दान देने के लिये बनाई हुई सोने के घोड़े की मुर्ति जिसका दान १६ महादानों में है।

हिरण्याश्वरथ
संज्ञा पुं० [सं०] दान देने के लिये बनाया गया सोने का घोड़ा और रथ। यह दान १६ महादानों में है [को०]।

हिरण्यिनी
संज्ञा स्त्री० [अं०] सोने की खान [को०]।

हिरदयपु †
संज्ञा पुं० [सं० हृदय]दे० 'हृदय'। उ०—प्रेम प्रमोद परस्पर प्रगटत गोपहिँ। जनु हिरदय गुन ग्राम थुनि थिर रोपहिँ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ५३।

हिरदा पु
संज्ञा पुं० [सं० हृदय]दे० 'हृदय'। उ०—लज्यावान अति निछलता कोयल हिरदा सोय।—संतवाणी०, पृ० २७।

हिरदानी पु
संज्ञा पुं० [सं० हृदय] अंतरात्मा। उ०—चेतै क्यों न मूढ़ चित लाय हिरदानी मैं।—सुंदर ग्रं०, भा०२, पृ० ४०७।

हिरदावल
संज्ञा पुं० [सं० हृदावर्त] घोड़े की छाती की भौंरी (घुमे हुए रोएँ) जो बड़ा भारी दोष मानी जाती है।

हिरन (१)
संज्ञा पुं० [सं० हरिण] [स्त्री० हिरनी] हरिन। मृग। विशेष- दे० 'हरिन'। मुहा०—हिरन हो जाना=भाग जाना। बहुत तेजी से भागना।

हिरन पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्य, प्रा० हिरण्ण] सोना। सुवर्ण। उ०—लोहा हिरन होइ धौ कैसे जौ पारस नहिँ परसै।—रै० बानी, पृ० १३।

हिरनखुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिण+ खुरिन्] एक प्रकार की लता या बेल जो बरसात में उगती है और जिसके पत्ते हरिनन के खुर से मिलते जुलते होते है।

हिरननैनि, हिरननैनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिणनयनी] मृगनयनी। उ०—हाँ हँसि हँसि हाँ ही करौ, नाहिं नाहिं महिं हानि। हरि हरखत हेरत हियें हिरननैनि हित ठानि।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ७।

हिरना पु
संज्ञा पुं० [सं० हरिणा] मृग।

हिरनाकच्छप पु
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यकशिपु] एक दैत्य जो प्रह्लाद का पिता था। विशेष दे० 'हिरण्यकशिपु'। उ०—हिरनाकच्छप दीन भयो जब, दीन्ह्यो सब बरदान।—जग० श०, पृ० ११३।

हिरनाकुश पु
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यकशिपु]दे० 'हिरण्यकशिपु'। उ०—हिरनाकुश वा हिरनाक्ष राऊ। कीन्ह सेवा बहु शंभु ठाऊ।—कबीर सा०, पृ० २९।

हिरनाकुस पु
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यकशिपु]दे० 'हिरण्यकशिपु'। उ०—हिरनाकुस औ कंस गयो दुहुन को राज।—गिरधर (शब्द०)।

हिरनाक्ष पु
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्याक्ष]दे० 'हिरण्याक्ष'। उ०—हिरनाकुश वा हिरनाक्ष राऊ। कीन्ह सेवा बहु शंभु ठाऊ।—कबीर सा०, प० २९।

हिरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिरन+ ई (स्त्री० प्रत्य०)] हरिण की मादा। मृगी।

हिरनौटा
संज्ञा पुं० [सं० हरिणपोत] हिरन का बच्चा। मृगशावक।

हिरफत
संज्ञा स्त्री० [अ० हिरफ़त] १. व्ययसाय। पेशा। व्यापार। २. हाथ की कारीगरी। दस्तकारी। ३. हुनर। कलाकौशल। ४. चतुराई चालाकी। ५. चालबाजी। धर्तुता।

हिरफतबाज
वि० [अ० हिरफत+ फा़० बाज] चालबाज। धुर्त।

हिरफती
वि० [फा़० हिरफती] धुर्त। वंचक। चालबाज [को०]।

हिरमजी
संज्ञा स्त्री० [अ० हिरमजी़] १. लाल रंग की एक प्रकार की मिट्टी, जिससे कपड़े, दीवार आदि रँगते हैं। २. एक फुल जो लाल होता है। ३. रक्त वर्ण। लाल रंग [को०]।

हिरमिजी
संज्ञा स्त्री० [फा़० हिरमिजी]दे० 'हिरमजी'।

हिरवा ‡
संज्ञा पुं० [सं० हीरक]दे० 'हीरा'।

हिरवा चाय
संज्ञा स्त्री० [हिं० हीरा+ चाय] एक प्रकार की सुंगंधित घास जिसकी जड़ में से नीबु की सी सुगंध आती है और जिससे तेल बनता है।

हिरस ‡
संज्ञा स्त्री० [अ० हिर्स] दे० 'हिर्स'।

हिरसिया
वि० [अ० हिर्स, हिं० हिरस+ इया] १. हिर्स करनेवाला। उ०—तुँ कादिर दरियाव, मै हिरसिया हुसियार।—रै० बानी, पृ० २८। २. ईर्ष्यालु।

हिरसी †
वि० [अ० हिर्स, हिं० हिरस+ई] १. हिरिस करनेवाला। ईर्ष्यालु। २. लोभी। लालची। उ०—इष्टी स्वाँगी बहु मिले हिरसी मिले अनंत।—संतबानी०, भा० १, पृ० १२९।

हिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रक्तनाड़ी या शिरा।

हिरात
संज्ञा पुं० [फा़०] अफगानिस्तान के उत्तरी भाग में स्थित एक नगर का नाम।

हिराती (१)
वि० [देश० या फा़० हिरात] हिरात नामक स्थान का। अफगानिस्तान के उत्तर में स्थित हिरात नगर संबंधी। जैसे,— हिराती घोड़ा।

हिराती (२)
संज्ञा पुं० एक जाति का घोड़ा जिसका डीलडौल औसत दर्जे का और हाथ पैर दोहरे हैं। यह गरमी में नहीं थकता।

हिरना † (१)
क्रि० अ० [सं० हरण] १. खो जाना। गायब होना। गुम होना। उ०—तौन पाप मेरे, तेरे तीर पर मैया अब, मिलत न हरे इत, कित धौं हिराने हैं।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २७२।२. न रह जाना। अभाव होना। उ०—गुन ना हिरानो गुनगाहक हिरानो है।—(शब्द०)। संयो० क्रि०—जाना। ३. मिटना। दुर होना। उ०—लखि गोपिन को प्रेम भुलायो। ऊधो को सब जान हिरायो।—सुर (शब्द०)। ४. आश्चर्य से अपने को भुल जाना। हक्का बक्का होना। दंग रह जाना। अत्यंत चकित होना। उ०—सोभा को सघन बन मेरो घनश्याम नित, नई नई रुचि तन हेरत हिराइऐ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ६०। ५. अपने को भूल जाना। आपा कोना। उ०—जौ कहि आप हिराइ न कोई। तौ लहि हेरत पाव न सोई।—जायसी (शब्द०)।

हिराना (२)
क्रि० स० १. भूल जाना। ध्यान में न रहना। उ०—बिकल भई तन दसा हिरानी।—सूर (शब्द०)। २. भूली हुई वस्तु को खोजने में मदद करना। ढुँढ़वाना।

हिराना (३)
क्रि० स० [हिं० हिलाना (= प्रवेश करना और कराना)] खेतों में भेड़ बकरी, गाय आदि चौपाए रखना या रखवाना जिसमें उनकी लेँड़ी या गोबर से खेत में खाद हो जाय।

हिरावल
संज्ञा पुं० [तु० हरावल]दे० 'हरावल'।

हिरास (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. भय। त्रास। २. नैराश्य। नाउम्मेदी। ३. रंज। खेद। खित्रता।

हिरास (२)
वि० [फा़० हिरासाँ] १. निराश। नाउम्मेद। हताश। २. उदासीन। खिन्न।

हिरासत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. ऐसी स्थिति जिसमें कोई मनुष्य इधर उधर भाग न सके। पहरा। चौकी। २. कैद। नजरबंदी। मुहा०—हिरासत में करना=कैद करना। पहरे के अंदर करना। सिपाहियों के पहरे में देना।

हिरासाँ
वि० [फा़०] १. निराश। नाउम्मेद। २. हिम्मत हारा हुआ। पस्त। ३. उदासीन। खिन्न।

हिरिंग पु
संज्ञा पुं० [सं० ह्लीं] मंत्र का बीजाक्षर। ह्लीं। उ०— (क) हिरिंग जाप तासु मुख गाजा लछमी शिव आधारा है।—कबीर श०, भा० १, पृ० ५३। (ख) पचम अकास में बिश्नु बिराजे। लछमी सहित सिंघासन गाजे। हिरिंग बैकुंठ भक्त समाजे। जिन भक्तन कारज सारा है।—कबीर० श०, भा० १, पृ० ६१।

हिरिंब
संज्ञा पुं० [देश०] तलैया। पल्वल [को०]।

हिरिमंथ
संज्ञा पुं० [सं० हरिमन्थ] एक प्रकार का चना।दे० 'हरिमंथ' [को०]।

हिरिली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का कंद [को०]।

हिरिवंग
संज्ञा पुं० [देश०] लगुड। लाठी [को०]।

हिरिस (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष अवध, राजपुताना, पंजाब और सिंध में पाया जाता है। इसकी छाल भुरे रंग की होती है। इसकी पत्तियाँ पाँच छह अंगुल लंबी और जड़ की ओर गोलाकार होती हैं। यह फागुन चैत में फलता है। इसके फल खटमीठे होते है और कहीं कहीं खाए जाते है।

हिरिस (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० हिर्स]दे० 'हिर्स'।

हिरीसि †
संज्ञा स्त्री० [अ० हिर्स] दे० 'हिर्स'। उ०—जाहि बातुन, जिकीरि, फिकीरि, हिरीसि, हवा सभ दुरि मुआ।—संत० दरिया, पृ० ६६।

हिरोदक
संज्ञा पुं० [सं०] रक्त। खुन [को०]।

हिरोरा पु
संज्ञा पुं० [सं० हिल्लोल]दे० 'हिलोर', हिलोरा। उ०— सकल कटक मै परयौ हिरोरा। छुटै फिरै हाँथि औ घोरा।—हिं० क० का०, पृ० २१६।

हिरौँजी ‡
संज्ञा स्त्री० [अ० हिरमजी]दे० 'हिरमजी'।

हिरौल पु
संज्ञा पुं० [तु० हरावल, हिं० हरौल]दे० 'हरावल'।

हिर्दय पु
संज्ञा पुं० [सं० हृदय]दे० 'हृदय'। उ०—बीरा पाय राय भय भागा। सत्य ज्ञान हिर्दय में जागा।—कबीर सा०, पृ० ४९८।

हिर्फत
संज्ञा स्त्री० [अ० हिर्फत]दे० 'हिरफत'। यौ०—हिर्फतबाज=दे० 'हिरफबाज'।

हिर्स
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. तृष्णा। लालच। लोभ। २. इच्छा का वेग। कामना की उमंग। मुहा०—हिर्स करना=तृष्णा करना। हिर्स छुटना=मन में लालच होना। तृष्णा होना। हिर्स दिलाना या देना=(१) प्रबल इच्छा उत्पन्न करना। लालसा जनाना। कामना उत्तेजित करना। (२) लालच दिलाना। हिर्स मिटना=(१) इच्छा का वेग शांत होना। (२) कामेच्छा शांत होना। काम का वेग शांत होना। हिर्स मिटाना=(१) इच्छा पूरी करना। लालसा पूरी करना। (२) काम का वेग शांत करना। हिर्स होना=दे० 'हिर्स छुटना'। ३. किसी की देखादेखी कुछ काम करने की इच्छा। टीस। स्पर्धा। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—हिर्साहिर्सी।

हिर्साहा †
वि० [अ० हिर्स] १. लालची। लोभी। २. इर्ष्यालु। लाग- डाट करनेवाला।

हिर्साहिर्सी
संज्ञा स्त्री० [अ० हिर्स] लाग डाट। देखा देखी।

हिर्सी
वि० [अ० हिर्स+ हिं० ई (प्रत्य०)] १. हिर्स रखनेवाला। लालची। २. ईर्ष्यालु। द्वेषी।

हिर्सोहवस
संज्ञा स्त्री० [अ० हिर्स+ फा़० हवस] हिर्स और हवस। लोभ और लालच [को०]।

हिर्सोहवा
संज्ञा स्त्री० [अ० हिर्स+ फा़० हवा] लोभ और लालच। अधिक लोभ। उ०—गाफिल हुए सब हिर्सोहवा ढंग लगाए।—कबीर मं०, पृ० ४६६।

हिलंदा
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० हिलंदी] मोटा ताजा आदमी। तगड़ा या तंदुरुस्त आदमी।

हिलकना † (१)
क्रि अ० [अनु० या सं० हिक्का] १. हिचकियाँ लेना। हिचकना। २. सिसकना।

हिलकना (२)
क्रि० स० [देश०] सुकोड़ना। (मुहँ) ऐँठना या सिकोड़ना।

हिलकना (३)
क्रि० अ० [सं० हिरुक् (=समीप)]दे० 'हिरकना'।

हिलकी †पु (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु० या सं० हिक्का] १. हिचको। २. भीतर ही भीतर रोने से रह रह रहकर वायु के निकलने का झोंका या आघात। सिसकने का शब्द। सिसक। उ०—(क) देखौ माई कान्ह हिलकियनि रोवै।—सुर०,१०। ३४७। (ख) (माई) नैकुहुँ न दरद करति हिलकिनि हरि रोवै।—सुर०, १०। ३४८। (ग) कमल नयन हरि हिलकिन रोवँ बंधन छोरि जसोवै।—सुर (शब्द०)। (घ) उरलाय लई अकुलाय तऊ अधिरातिक लौं हिलकीन रहीं।—केशव (शब्द०)। क्रि० प्र०—भरना।—लेना।

हिलकी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिलना] उमंग। तरंग।

हिलकोर
संज्ञा पुं० [सं० हिल्लोल] हिलोर। लहर। तरंग।

हिलकोरना
क्रि० स० [हिं० हिलकोर+ ना (प्रत्य०)] पानी को हिलाकार तरंगें उठाना। जल को क्षुब्ध करना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।

हिलकोरा
संज्ञा पुं० [सं० हिल्लोर] तरंग। लहर। वीचि। हिलोरा। हिलकोर। उ०—नदी का जल हिलकोरा मार रहा था।—प्रेमघन०, भा०, पृ० ४४४। मुहा०—हिलकोरा देना=(१) तरंगित करना। (२) लहराना। हिलकोरा मारना या हिलकोरे लेना=लहराना। तरंगित होना।

हिलग
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिलगना] १. लगाव। संबंध। २. परिचय। हेलमेल। हिलने मिलने या परचने का भाव। ३. लगन। प्रेम। उ०—देखे भूलियत कछु कहत न आवै सखी, इनकी हिलग नई नई देखियत है।—घनानंद, पृ० २१४।

हिलगत
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिलगता] १. हिलगने या परचने का भाव। २. टेव। आदत। बान।

हिलगना (१)
क्रि० अ० [सं० अधिवग्न, प्रा० अहिलग्न] २. अटकना टँगना। किसी वस्तु से लगकर ठहरना। २. फँसना। बझना। ३. हिलमिल जाना। ४. परचना।

हिलगना (२)
क्रि० अ० [सं० हिरुक् (=समीप। पास)] पास होना। इतने समीप होना कि स्पर्श हो। सटना। भिड़ना। दे० 'हिरकना'।

हिलगाना (१)
क्रि० स० [हिं० हिलगना] १. अटकाना। टाँगना। किसी वस्तु से लगाकर ठहराना। २. फँसाना। बझाना। ३. मलजोल में करना। घनिष्ठता स्थापित करना। ४. परचाना। परिचित और अनुरक्त करना। जैसे—बच्चे कौ हिलगाना।

हिलगाना (२)
क्रि० स० [सं० हिरुक् (=पास)] सटाना। भिड़ाना। दे० 'हिरकाना'।

हिलन मिलन
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिलना + मिलना] मिलना जुलना। मिलाप। उ०—हिलन मिलन, उनकी लागत मन को अति प्यारी।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १९।

हिलना (१)
क्रि० अ० [सं० हलल्न (= इधर उधर लुढ़कना)] १. डोलना। चलायमान होना। स्थिर न रहना। हरकत करना। जैसे,—पेड़ की पत्तियाँ हिलना। घड़ी का लंगर हिलना। संयो० क्रि०—जाना।—उठना। मुहा०—हिलना डोलना = (१) चलायमान होना। (२) चलना फिरना। घूमना। टहलना। जैसे,—शाम को कुछ हिला डोला करो। (३) श्रम करना। काम धंधा करना। (४) प्रयत्न करना। उद्योग करना। जैसे,—बिना हिले डोले कोई काम नहीं हो सकता। २. अपने स्थान से टलना। सरकना। चलना। जैसे,—जो लड़का अपनी जगह से हिलेगा, वह मार खायगा। ३. काँपना। कंपित होना। थरथराना। जैसे,—लिखने में हाथ हिलना। जाड़े से बदन हिलना। ४. खूब जमकर बैठा न रहना कि छूने से इधर उधर न करे। ढीला हीना। जैसे— दाँत हिलाना। ५. झूमना। लहराना। नीचे ऊपर या इधर उधर डोलना। जैसे,—(क) बहुत से लड़के हिल हिलकर पढ़ते हैं। (ख) बुड़्ढों का सिर हिलना। ६. घुसना। पैठना। प्रवेश करना। (विशेषतः पानी में)। यौ०—हिलना मिलना = (१) मेल जोल के साथ होना। घनिष्ठ संवंध रखना। (२) मेल जोल से होना। एकता के साथ रहना। (३) एक जी होना। परस्पर गहरे मित्र होना। जैसे,—दोनों खूब हिल मिल गए हैं। उ०— आनंदघन ब्रजजीवन जेँवत हिलिमिलि ग्वार तोरि पतानि ढाक।— घनानंद, पृ० ४७३। मुहा०—हिल मिलकर = (१) मेल जोल के साथ। घनिष्ठता और मैत्री के साथ। एक जी होकर। सुलह के साथ। (२) संमिलित होकर। इकट्ठा होकर। एकत्र होकर। उ०— हिल मिल फाग परस्पर खेलहिं, सोभा बरनि न जाई।— गीत (शब्द०)। हिला मिला या हिला जुला = (१) मेल जोल में आया हुआ। घनिष्ठ संबंध रखता हुआ। सुहृद् भाव रखता हुआ। (२) परचा हुआ। परिचित और अनुरक्त। जैसे,—यह बच्चा तुमसे खूब हिला जुला है।

हिलना (२)
क्रि० अ० [देश०] प्रवेश करना। घुसना। (विशेषतः पानी में)।

हिलनि
संज्ञा स्त्री० [सं० हल्लन, हिं० हिलना] हिलने का कार्य या भाव। उ०—मेंरी गति होउ सोई महरानी। जासु भौंह की हिलनि विलोकत निसु दिन सारँगपानी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २. पृ० ७९।

हिलबी
वि० [देश०] हलव देश का। उ०—आँणै हिलबी आदरस, वोह यमनी बोदार।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३. पृ० ५७।

हिलमोचि,हिलमोचिका, हिलमोची
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक तरह का साग [को०]।

हिलसा
संज्ञा स्त्री० [सं० इल्लिश] एक प्रकार की मछली जो चिपटी और बहुत काँटेदार होती है।

हिलाना (१)
क्रि० स० [हिं० हिलना] १. डुलाना। चलायमान करना। हरकत देना। जैसे,—(क) बैठे बैठे पैर हिलाना। (ख) छड़ी हिलाना। २. स्थान से उठाना। टालना। हटाना। जैसे,— (क) जब हम बैठ गए, तब कौन हिला सकता है। (ख) इस भारी पत्थऱ को जगह से हिलाना मुश्किल है। ३. कँपाना। कंपित करना। ४. नीचे ऊपर या इधर उधर डुलाना। झुलाना। जैसे,—मुगदर हिलाना, सिर हिलाना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।

हिलाना (२)
क्रि० स० [हिं० हिलगाना] १. परिचित और अनुरक्त करना। परचाना। घनिष्ठता स्थपित करना। जैसे,—छोटे बच्चे को हिलाना। जानवरों को हिलाना।

हिलाना (३)
क्रि० स० [देश०] प्रवेश कराना। घुसाना। प्रविप्ट करना। पैठना। (विशेषतः पानी में)।

हिलाल
संज्ञा पुं० [अ०] दूज का चाँद। शुक्ल पक्ष की द्वितीया का चंद्रमा। उ०—अजब हुस्न में खूब साहब जमाल। जिस हुस्न तल दब रहे नित हिलाल।—दक्खिनी०, पृ० २६७।

हिलूर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हिल्लोल] तरंग। लहर। हिलोर। उ०— पुनि यहै अकूरं नाँही ऊरं प्रेम हिलूरं बरषाशी।—सुंदर० ग्रं, भा० १, पृ० २४१।

हिलूसना
क्रि० अ० [सं० उल्लासन] उत्सुक या लालायित होना। दे० 'हुलसना'। उ०—आड़ा डुँगर दूरि घर, वणइ न जाणइ भत्त। सज्जण संदइ कारणइ हियउ हिलूसइ नित्त।—ढोला०, दू० ६७।

हिलोर
संज्ञा पुं० [सं० हिल्लोल] १. हवा के झोंके आदि से जल का उठना और गिरना। तरंग। लहर। २. मौज। उ०—सोहै सितासित को मिलिबो, तुलसी हुलसै हियहेरि हिलोरे।— (शब्द०)। क्रि० प्र०—उठना। मुहा०—हिलोरे लेना = तरंगित होना। लहराना।

हिलोरना
क्रि० स० [हिं० हिलोर + ना (प्रत्य०)] १. जल को क्षुब्ध और तरंगित करना। पानी को इस प्रकार हिलाना कि लहरें उठें। २. लहराना। इधर उधर हिलाना डुलाना। ३. हिला डुलाकर बड़ी वस्तु ऊपर करना। ४. अत्यधिक द्रव्य उपार्जित करना।

हिलोरा
संज्ञा पुं० [सं० हिल्लोल] दे० 'हिलोर'।

हिलोल
संज्ञा पुं० [सं० हिल्लोल] दे० 'हिल्लोल', 'हिलोर'।

हिलौअल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिलाना] हिलाने या आंदोलित करने की क्रिया। उ०—किसी से गुडमार्निगं और किसी से हाथ हिलौअल होती।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १४८।

हिल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] एक जलीय पक्षी [को०]।

हिल्ला (१)
संज्ञा पुं० [अ० हीलह] दे० 'हीला'।

हिल्ला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गीला या देशी] १. कीचड़। कर्दम। २. बालू। सिकता।

हिल्लूरी
संज्ञा स्त्री० [देशी] लहरी। तरंग।

हिल्लोल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिलोरा। तरंग। लहर। २. आनंद की तरंग। मौज। ३. कामशास्त्र के अनुसार एक रतिबंध या आसन। ४. मौज। धुन। सनक। ५. एक राग का नाम। हिंडोल।

हिल्लोल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० हिलोर] दे० 'हिंलोर'।

हिल्लोलन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० हिल्लोलित] १. तरंग उठना। लहराना। २. दोलन। झूलना।

हिल्वला
संज्ञा स्त्री० [सं०] इल्वला नामक पाँच छोटे तारों का समूह जिनकी स्थिति मृगशिरा नक्षत्र के शीर्ष के ऊपर मानी गई है। इन्वका [को०]।

हिवंचल पु
संज्ञा पुं० [सं० हिम + अञ्चल] पाला। बरफ। हिम। उ०—बरखा रुदन गरज अति कोहू। बिजुरी हँसी हिवंचल छोहू।—जायसी (शब्द०)।

हिवंचल पु
संज्ञा पुं० [सं० हिमाचल] दे० 'हिमालय'। उ०—को ओहि लागि हिवंचल सीझा। का कह लिखी ऐस का रोझा।—जायसी (शब्द०)।

हिवँ पु
संज्ञा पुं० [सं० हिम] बर्फ। पाला।

हिव (१)
अव्य० [देश०] अब। उ०—समुझै क्यौं न अजूँ समझाऊँ भूल मतौ हिव भाया।—रघु० रू०, पृ० १६।

हिव पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० हृत्, प्रा० हिअ] हृदय।

हिवड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० हृत्, प्रा० हिअ, अप० हिअड़] हृदय। हिया। उ०—कबकी ठाढ़ी मैं मग जोऊँ निस दिन बिरह सतावे। कहा कहूँ कछु कहत न आवे, हिवड़ो अति अकुलावे। पिय कव दरस दिखावे।—संतबानी०, पृ० ७३।

हिवाँर पु
संज्ञा पुं० [सं० हिम + आलि] बर्फ। पाला। तुषार। मुहा०—हिवाँर होना = बहुत ठंढा होना। बहुत पाला होना। बहुत सर्द होना।

हिवाँले पु
संज्ञा पुं० [सं० हिमालय] दे० 'हिमालय'। उ०—ना मैं गलौं हिवाँले माँही। स्वर्ग लोक कौं बंछौ नाँही।—सुंदर० ग्र० भा० १, पृ० ६०५।

हिवार पु
संज्ञा पुं० [सं० हिमालय] दे० 'हिवाँले'। उ०—छल बल करि कौरौ संघारे। पंडौ भगत हिवारे गारे।—पट०, पृ० २६०।

हिस
संज्ञा पुं० [अ०] १. अनुभव। ज्ञान। बोध। २. संज्ञा। होश। चेतना। ३. चेष्टा। हरकत। मुहा०—बेहिस व हरकत = निश्चेष्ट और निःसंज्ञ। बेहोश और संज्ञाशून्य। अचेत और सुन्न।

हिसका
संज्ञा पुं० [सं० ईर्ष्या, हिं० हीस] १. ईर्ष्या। डाह। २. स्पर्धा। देखादेखी किसी बात की इच्छा। ३. किसी की बरा- बरी करने की हवस।यौ०—हिसका हिसकी = परस्पर स्पर्धा का भाव। एक दूसरे के बराबर होने की धुन।

हिसाब
संज्ञा पुं० [अं०] १. गिनती। गणित। लेखा। कोई संख्या, वस्तु परिमाण आदि में कितनी ठहरेगी, इसके निर्णय की प्रक्रिया। जैसे,—(क) अपने रुपए का हिसाब करो कितना होगा। (ख) यह हिसाब लगाओ कि वह चार घंटे में कितनी दूर जायगा। क्रि० प्र०—करना।—लगाना। यौ०—हिसाब किताब। हिसाब बही। हिसाब चोर। २. लेन देन या आमदनी, खर्च आदि का लिखा हुआ ब्योरा। लेखा। उचापत। मुहा०—हिसाब चलाना = (१) लेन देन का लेखा रहना। (२) उधार लिखा जाना। हिसाब चुकाना या चुकता करना = जो कुछ जिम्मे निकलता हो उसे दे देना। देना साफ करना। हिसाब जाँचना = लेखा देखना कि ठीक है या नहीं। हिसाब जोड़ना = अलग अलग कई रकमों की मीजान लगना। कई अलग अलग अंकों का योगफल निकालना। हिसाब करना = जो जिम्मे आता हो उसेदे देना। तनखाह, दाम या मजदूरी के मद्धे जो कुछ रुपया निकलता हो उसे चुकाना। जैसे,— हमारा हिसाब कर दीजिए, अब हम नौकरी न करेंगे। हिसाब जौ जौ और बकसीस सौ सौ = देन लेन या क्रय विक्रय का हिसाब किताब निस्संकोच होकर पाई पाई का करे और इनाम बख्शीश खुले दिल से दे। हिसाब किताब में जौ भर भी फरक नहीं पड़ना चाहिए, वहाँ पैसे पैसे का हिसाब दुरुस्त होना चाहिए और किसी की बखशीश में सौ सौ रुपए दिए जा सकते हैं, उसमें हिचक नहीं करनी चाहिए। उ०—सुनो भाई, हिसाब जौ जौ और बकसीस सौ, सौ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८०। हिसाब देना = लेखा समझाना। जमा खर्च का ब्यौरा बताना। हिसाब पर चढ़ना = बही में लिखा जाना। लेखे में टँकना। हिसाब बराबर करना = (१) कुछ दे या लेकर लेना और देना बराबर करना। लेनदेन का हिसाब साफ करना। (२) अपना काम पूरा करना। हिसाब बेवाक करना = दे० 'हिसाब चुकाना'। हिसाब बंद करना = लेखा आगे न चलाना। लेनदेन बंद करना। हिसाब में जमा होना = (१) किसी से पाई हुई रकम का लिखा जाना। (२) लेनदेन के लेखे में पावने से ऊपर आई हुई रकम का अलग लिखा जाना। हिसाब में लगाना = उधार या लेनदेन में शामिल करना। हिसाब लेना = यह पूछना कि कितनी रकम कहाँ खर्च हुई। (किसी से) हिसाब समझना = (किसी से) आमदनी और खर्चं का ब्यौरा पूछना। हिसाब समझाना = आमदनी खर्च आदि का व्यौरा बताना। बेहिसाब = (१) बहुत अधिक। अत्यंत। इतना कि गिनती या नाप आदि न हो सके। हिसाब रखना = आमदनी, खर्च आदि का ब्यौरा लिखकर रखना। आय व्यय आदि का लेख- बद्ध विवरण रखना। हिसाब लड़ना या लगना = मेल मिलना। तबीयत मिलना। हिसाब बैठना = (१) ठीक ठीक जैसा जैसा चाहिए वैसा प्रबंध हो जाना। इच्छानुसार सब बातों की व्यवस्था होना। (२) सुबीता होना। सुपास होना। आवश्य- कता पूर्ण होना। जैसे,—इतने से हमारा हिसाब नहीं बैठेगा। हिसाब से = (१) अंदाज से। संयम से। परिमित। जैसे,— हिसाब से खर्च किया करो। (२) लेखे के अनुसार। लिखे हुए ब्यौरे के मुताबिक। जैसे—हिसाब से तुम्हारा जितना निकले उतना लो। बेँड़ा या टेढ़ा हिसाब = (१) कठिन कार्य। मुस्किल काम। (२) अव्यवस्था। गड़बड़ व्यवहार या रीति। पक्का हिसाब = ठीक ठीक हिसाब। पूरा हिसाब। सूक्ष्म विवरण। कच्चा हिसाब = स्थूल विवरण। मोटा ब्यौरा। ऐसा ब्यौरा जो अधूरा हो। चलता हिसाब = लेनदेन का लेखा जो जारी हो। लेनदेन या उधार बिक्री का जारी सिलसिला। २. गणित विद्या। वह विद्या जिसके द्वारा संख्या, मान आदि निर्धारित हो। जैसे,—यह लड़का हिसाब में कमजोर है। यौ०—हिसाबदाँ। ३. गणित विद्या का प्रश्न। गणित की समस्या। जैसे,—चार में से मैंने दो हिसाब किए हैं। क्रि० प्र०—करना।—लगाना। ४. प्रत्येक वस्तु या निर्दिष्ट संख्या या परिमाण का मूल्य जिसके अनुसार कोई वस्तु बेची जाय। भाव। दर। रेट। जैसे,— नारंगियाँ किस हिसाब से लाए हो। मुहा०—हिसाब से = (१) परिमाण, क्रम या गति के अनुसार। अनुसार। मुताबिक। जैसे,—जिस हिसाब से दर्द बढ़ेगा उसी हिसाब से बुखार भी। (२) विचार से। ध्यान से। अपेक्षा से। जैसे,—कद के हिसाब से हाथी की आँखें छोटी हीती हैं। ५. नियम। कायदा। व्यवस्था। बँधी हुई रीति या ढंग। जैसे,— तुम्हारे जाने आने का कोई हिसाब भी है या यों ही जब चाहते हो चल देते हो। ६. निर्णय। निश्चय। धारण। समझ। मत। विचार। राय। जैसे,—(क) हमारे हिसाब से तो दोनों बराबर हैं। मुहा०—अपने हिसाब या अपने हिसाब से = अपनी समझ के अनुसार। अपनी जान में। अपने विचार में। लेखे में। जैसे,— अपने हिसाब तो हम अच्छा ही करते हैं, तुम जैसा समझो। ७. हाल। दशा। अवस्था। स्थिति। जैसे,—उनका हिसाब न पूछो, खूब मनमानी कर रहे हैं। ८. चाल। व्यवहार। रहन। जैसे,—उनका वही हिसाब है, कुछ सुधर नहीं रहे हैं। ९. ढंग। रीति। तरीका। जैसे,—(क) तुम्हें ऐसे हिसाब से चलना चाहिए कि कोई बुरा न कह सके। (ख) उनका हिसाब ही कुछ और है। १०. किफायत। मितव्यय। जैसे,—वह बड़े हिसाब से रहता है, तब रुपया बचाता है। ११. हृदय या प्रकृति की परस्पर अनुकूलता। मेल। मुहा०—हिसाब बैठना = पटरी बैठना। मेल मिलना। प्रकृति की समानता होना।

हिसाब किताब
संज्ञा पुं० [अ०] आमदनी, खर्च आदि का ब्यौरा जो लिखा हो। वस्तु या धन की संख्या, आय, व्यय, आदि का लेख- बद्ध विवरण। लेखा। जैसे,—कहीं कुछ हिसाब भी रखते हो कि यों ही मनमाना खर्च करते हो। उ०—इसी कारण मनुष्य के देह ही से इसके कर्मों का भली प्रकार हिसाब किताब होता है।—कबीर सा०, पृ० ९८१। मुहा०—हिसाब किताब देखना या जाँचना = लेखा जाँचना। २. ढंग। चाल। रीति। कायदा। जैसे,—उनका हिसाब किताब ही कुछ और है।

हिसाबचोर
संज्ञा पुं० [अ० हिसाब + हिं० चोर] वह जो व्यवहार या लेखे में कुछ रकम दबा लेता हो।

हिसाबदाँ
वि० [फा़०] जो गणित विद्या का जानकार हो [को०]।

हिसाबदानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. गणित विद्या का ज्ञाता होना। २. गणित करने की क्रिया या भाव। गणितज्ञता [को०]।

हिसाबदार
वि० [फा़०] हिसाब किताब करने और उसे रखनेवाला व्यक्ति।

हिसाब बही
संज्ञा स्त्री० [अ० हिसाब + हिं० बही] वह पुस्तक जिसमें आय व्यय या लेन देन आदि का ब्यौरा लिखा जाता हो।

हिसाबी
वि० [अ० हिसाब + हिं० ई (प्रत्य०)] १. हिसाब या गणित विद्या संबंधी। २. हिसाब का ज्ञाता। गणितज्ञ [को०]।

हिसार (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] फारसी संगीत की २४ शोभाओं में से एक।

हिसार (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. घेरा। अहाता। २. चहारदीवारी। क्रि० प्र०—करना।—बाँधना = घेरा बाँधना या डालना। ३. किला। उ०—खोलकर बंदे कबा का मुल्के दिल गारत किया। क्या हिसारे कल्ब दिलवर ने खुले बंदो लिया।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४७। ४. हरयाणा राज्य का एक जिला।

हिसिखा, हिसिषा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ईर्ष्या] १. दूसरे की देखादेखी कुछ करने की प्रबल इच्छा। स्पर्धा। बराबरी करने का भाव। होड़। २. समता। तुल्यभावना। पटतर। उ०—जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ विवेक अभिमान। परहिं कलपु भरि नरक महुँ, जीव की ईस समान।—तुलसी (शब्द०)।

हिस्टरी
संज्ञा स्त्री० [अं०] इतिवृत्त। पुरावृत्त। इतिहास।

हिस्टीरिया
संज्ञा पुं० [अं०] आक्षेप या मूर्छा रोग। विशष—यह रोग प्रधानतः स्त्रियों को होता है। इस रोग के प्रधान लक्षण ये हैं,—आक्षेप या मूर्ध के पहले ऐसा मालूम होना मानों पेट में कोई गोला ऊपर को जा रहा है, रोना, चिल्लाना, बकना, हाथ पैर ठंढे होना, बार बार प्यास लगना आदि।

हिस्ट्री
संज्ञा स्त्री० [अं०] इतिहास। दे० 'हिस्टरी'।

हिस्सा
संज्ञा पुं० [अ० हिस्सह] १. उतनी वस्तु जिसनी कुछ अधिक वस्तु में से अलग की जाय। भाग। अंश। जैसे,—१००) के २५-२५ के चार हिस्से करो। (ख) जमीन चार हिस्सों में बँट गई। क्रि० प्र०—करना।—होना।—लगाना। २. टुकड़ा। खंड। जैसे,—इस गन्ने के चार हिस्से करो। ३. उतना अंश जितना प्रत्येक को विभाग करने पर मिले। अधिक में से उतनी वस्तु जितनी बाँटे जाने पर किसी को प्राप्त हो। बखरा। जैसे,—तुम अपने हिस्से में से कुछ जमीन इसको दे दो। यौ०—हिस्सा बखरा। ४. बाँटने की क्रिया या भाव। विभाग। तकसीम। क्रि० प्र०—करना।—होना। लगाना। ५. किसी विस्तृत वस्तु (जैसे,—खेत, घर आदि) का विशेष अंश जो और अंशों से किसी प्रकार की सीमा द्वारा अलग हो। विभाग। खंड। जैसे,—(क) इस मकान के पिछले हिस्से में किराएदार हैं। (ख) कोठी का अच्छा हिस्सा उसके अधिकार में है। ६. किसी बड़ी या विस्तृत वस्तु के अंतर्गत कुछ वस्तु या अंश। अधिक के भीतर का कोई खंड या टुकड़ा। जैसे,—यह पेड़ दुनिया के हर हिस्से में पाया जाता है। ७. अंग। अवयव। अंतर्भूत वस्तु। जैसे,—बदन के किस हिस्से में दर्द है ? ८. किसी वस्तु के कुछ अंश के भोग का अधिकार। किसी व्यवसाय के हानि लाभ में योग। साझा। शिरकत। जैसे,— कंपनी में हिस्सा, दुकान में हिस्सा, मकान में हिस्सा।

हिस्सा बखरा
संज्ञा पुं० [अ० हिस्सह + फा़० बख्र्ह् या बखरह्] बाँटे जाने पर प्राप्त या प्राप्य अंश। भाग [को०]।

हिस्साबाट
संज्ञा पुं० [अ० हिस्सह् + हिं० बाँटना] भाग का विभाजन। हिस्से का बँटवारा। उ०—कोई कोई ऋषि जायदात के हिस्साबाट पर गुहस्थों की तरह झगड़े करते थे।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १६२।

हिस्सेदार
संज्ञा पुं० [अ० हिस्सह् + फ़ा० दार (प्रत्य०)] १. किसी वस्तु के किसी भाग पर अधिकार रखनेवाला। वह जिसे किसी वस्तु के कुछ अंश के भोग का अधिकार हो। वह जिसे कुछ हिस्सा मिला हो। जैसे,—इस मकान के चार हिस्सेदार हैं। २. किसी व्यवसाय के हानि लाभ में औरों के साथ संमिलित रहनेवाला। रोजगार में शरीक। साझेदार। जैसे,—कपंनी के हिस्सेदार, बैंक के हिस्सेदार। ३. भागी। शरीक।

हिस्सेदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० हिस्सह + फा़ दारी] भागीदार होना। भागीदारी। साझा।

हिहिनाना
क्रि० अ० [अनु० हिं हि] घोड़ों का बोलना। हिन- हिनाना। हींसना। उ०—देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं।—तुलसी (शब्द०)।