विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/श्
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ श्चोत, श्चोतन, श्च्योत, श्च्योतन
संज्ञा पुं० [सं०] निकलना। बहना। रिसना [को०]।
⋙ श्नाभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।
⋙ श्नुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैदिक काल का 'समय' का एक परिमाण। २. छोटी ढेरी या अन्न नापने का छोटा नाप (को०)।
⋙ श्नौष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।
⋙ श्म
संज्ञा पुं० [सं० श्मन्] १. मुख। आनन। २. देह। शरीर। ३. मृत शरीर। शव। मुर्दा [को०]।
⋙ श्मशान
संज्ञा पुं० [सं० श्म (=शव) + शान (=शयन)] १. वह स्थान जहाँ मुरदे जलाए जाते हों। शवदाह करने का स्थान। मसान। मरघट। पर्या०—पितृवन। शतानक। रुद्राक्रीड़। दाहसर। अंतशय्या। पितृकानन। २. पितरों के लिये दी जानेवाली बलि या पिंड (को०)।
⋙ श्मशान कालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार की काली जिनका पूजन मांस, मछली खाकर, मद्य पीकर और नंगे होकर श्मशान में किया जाता है।
⋙ श्मशान काली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्मशान कालिका' [को०]।
⋙ श्मशानगोचर
वि० [सं०] मसान में घुमनेवाला [को०]।
⋙ श्मशाननिलय
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान में रहनेवाले, महादेव। शिव।
⋙ श्मशाननिवासी (१)
वि० [सं० श्मशाननिवासिन्] श्मशान में रहनेवाला (चांडाल)।
⋙ श्मशाननिवासी (२)
संज्ञा पुं० १. शिव। २. भूत प्रेत [को०]।
⋙ श्मशानपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्मशान के स्वामी, शिव। २. एक प्रकार के ऐंद्रजालिक।
⋙ श्मशानपाल
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान का रक्षक, चांडाल।
⋙ श्मशानभाक्
संज्ञा पुं० [सं० श्मशानभाज्] शिव [को०]।
⋙ श्मशान भैरवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तांत्रिकों के अनुसार वे देवियाँ जो श्मशान में रहती हैं। २. दुर्गा का एक नाम।
⋙ श्मशानवर्ती
संज्ञा पुं० [सं० श्मशानवर्तिन्] दे० 'श्मशानवासी' [को०]।
⋙ श्मशानवाट
संज्ञा पुं० [सं०] मसान का घेरा [को०]।
⋙ श्मशानवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काली।
⋙ श्मशानवासी
संज्ञा पुं० [सं० श्मशानवासिन्] १. महादेव। शिव। २. चांडाल। ३. भूत प्रेत आदि (को०)।
⋙ श्मशानवेताल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की भूतयोनि।
⋙ श्मशानवेश्म
संज्ञा पुं० [सं० श्मशानवेश्मन्] महादेव। शिव। २. भूतप्रेत (को०)।
⋙ श्मसानवैराग्य
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान में शरीर की नश्वरता को देखकर होनेवाला क्षणिक वैराग्य [को०]।
⋙ श्मशानशूल
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान भूमि में स्थित सूली जिससे प्राचीन काल में प्राणदंड दिया जाता था।
⋙ श्मशानसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] भूत प्रेतों को वश में करने के लिये श्मशान भूमि में शव पर बैठकर की जानेवाली तांत्रिक क्रिया [को०]।
⋙ श्मशानाग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] मरघट की आग [को०]।
⋙ श्मशानालय
संज्ञा पुं० [सं०] मरघट। मसान। यौ०—श्मशानालयवासिनी = काली।
⋙ श्मशानिक
वि० [सं०] श्मशान में रहनेवाला [को०]।
⋙ श्मशानी
वि० [सं० श्मशानिक्] मरघट पर रहनेवाला। श्मशान का। श्मशान संबंधी। उ०—यह जिसके मन में प्रवेशित होता है वह जीवित श्मशानी भूत है।—कबीर मं०, पृ० १८७।
⋙ श्मश्रु
संज्ञा पुं० [सं०] होठों, गालों और ठोढ़ी आदि पर होनेवाले बाल। मुँह पर के बाल। दाढ़ी मूँछ।
⋙ श्मश्रुकर
संज्ञा पुं० [सं०] दाढ़ी की सफाई करनेवाला, हज्जाम। नापित।
⋙ श्मश्रुकर्म
संज्ञा पुं० [सं० श्मश्रुकमँन्] दाढ़ी बनवाना। हजामत बनवाना। क्षौर कर्म।
⋙ श्मश्रुधर
वि० [सं०] दाढ़ीवाला [को०]।
⋙ श्मश्रुधारी
वि० [सं० श्मश्रुधारिन्] श्मश्रुयुक्त। मूँछ दाढ़ीवाला।
⋙ श्मश्रुप्रवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दाढ़ी का बढ़ना [को०]।
⋙ श्मश्रुमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके गालों ओर ऊपरी होंठ पर दाढ़ी और मोछ के बाल हों। विशेष—ऐसी स्त्री क्रूर, कुलक्षणी और पुंश्चली समझी जाती है।
⋙ श्मश्रुल
वि० [सं०] दाढ़ी मूँछ से युक्त [को०]।
⋙ श्मश्रुवर्द्धक
संज्ञा पुं० [सं०] हज्जाम।
⋙ श्मश्रुशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] नारियल का वृक्ष।
⋙ श्मोलन
संज्ञा पुं० [सं०] आँख झपकाना या मुलकाना [को०]।
⋙ श्मीलित (१)
वि० [सं०] निमीलित। आँख झपकाया हुआ। मुलकाया हुआ [को०]।
⋙ श्मीलित (२)
संज्ञा पुं० पलक झपकाना, गिराना या मारना [को०]।
⋙ श्यश्मनाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम। उ०—विनायक, फल्गुचंडी, श्यश्मनाक्षी और मंगला की गया क्षेत्र में उपासना होती थी।—प्रा० भा० प०, पृ० ४२०।
⋙ श्यान (१)
वि० [सं०] १. गया हुआ। गत। २. जमा हुआ। गाढ़ा। ३. क्षोण। क्षाम। सिकुड़ा हुआ। ४. घनीभूत। सांद्र। चिक्कण (को०)।
⋙ श्यान (२)
संज्ञा पुं० धुआँ [को०]।
⋙ श्याना पु
वि० [हिं० सयाना] वयस्क। दे० 'सयाना'। उ०— कितक दिन कूँओ ज्यों के श्याना हुआ। ओ हर एक हुनर-मन में दाना हुआ।—दक्खिनी०, पृ० ३६०।
⋙ श्यापीय
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक शाखा का नाम।
⋙ श्याम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीकृष्ण का एक नाम, जो उनके शरीर के श्याम वर्ण होने के कारण पड़ा था। उ०—एक बार हरि निज पुर छए। हलधर जी बृंदाबन गए। यह देखत लोगन सुख पाए। जान्यो राम श्याम दोउ आए।—सूर (शब्द०)। २. प्रयाग के अक्षयवट का नाम। ३. साँवाँ नामक धान्य (डिं०)। ४. एक राग जो श्रीराग का पुत्र माना जाता है। यह राग उत्सवों आदि के समय गाया जाता है, और हास्य रस के लिये भी उपयुक्त होता है। इसके गाने का समय संध्या के समय १ दंड से ५ दंड तक है। इसे श्यामकल्याण भी कहते हैं। उ०—नित मलार जु मलार सुनाई। श्याम गुजरी पुनि भल गाई।—जायसी (शब्द०)। ५. सेंधा या समुद्री नमक। ६. धतुरा। ७. विधारा। ८. मेघ। बादल। ९. दौना का क्षुप। दमनक। १०. एक प्रकार का तृण। गधतृण। ११. गोल मिर्च। छोटी या काली मिर्च। १२. पीलू वृक्ष। १३. कोयल। कोकिल। १४. प्राचीन काल का एक देश जो कन्नौज के पश्चिम ओर था। १५. स्याम नामक देश। वि० दे० 'स्याम'। १६. काला रंग (को०)। १७. गहरा हरा रंग (को०)।
⋙ श्याम (२)
वि० १. काला और नीला मिला हुआ (रंग)। गहरा हरा। २. काला। साँवला। उ०—अमी हलाहल मद भरे, श्वेत श्याम रतनार। जियत मरत झुकि झुकि परत, जेहि चितवत एक बार। (शब्द०)। ३. धूसर। भूरा (को०)। ४. विवर्ण। उदास। जैसे, श्याम मुख।
⋙ श्यामकंठ
संज्ञा पुं० [सं० श्यामकण्ठ] १. मोर। मयूर। २. नीलकंठ नामक पक्षी। ३. शिव का एक नाम।
⋙ श्यामकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामकन्दा] अतीस। अतिविषा।
⋙ श्यामक
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँवाँ का चावल। २. गंधतृण नामक तृण। रामकपूर। ३. स्याम नामक देश। ४. भागवत के अनुसार शूर के एक पुत्र और वसुदेव के भाई का नाम।
⋙ श्यामकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वह घोड़ा जिसका सारा शरीर सफेद और एक कान काला होता है। उ०—श्यामकर्ण हय चालत आवै।—चमर छत्र तापर छबि छावै।—सबलसिंह (शब्द०)। विशेष—अश्वमेध यज्ञ में यही श्यामकर्ण अश्व रखा जात था।
⋙ श्यामकांडा, श्यामकांता
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामकाणडा, श्यामकान्ता] गाँडर दूब।
⋙ श्यामग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामग्रन्थि] गाडर दूब।
⋙ श्यामचटक
संज्ञा पुं० [सं०] श्यामा नामक पक्षी।
⋙ श्याम चिरैया
संज्ञा स्त्री० [सं०श्याम + हि० चिरैया] एक विशेष पक्षी। श्यामा पक्षी। उ०—एक सूखे पेड़ की टहनी पर श्यामचिरैया का जोड़ा प्रणयाकुल हो रहा था।— भस्मावृत०, पृ० ११।
⋙ श्यामचूड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामचूडा] कृष्ण चटक या श्यामा नामक पक्षी।
⋙ श्यामजीरा
संज्ञा पुं० [सं० श्याम + जीरक] १. एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है और जिसका चावल बहुत दिनों तक रखा जा सकता है। २. काला जीरा। कृष्ण जीरक।
⋙ श्याम टीका
संज्ञा पुं० [सं० श्याम + हिं० टीका] वह काला टीका जो बच्चों को नजर से बचाने के लिये लगाया जाता है। दिठौना। उ०—पठवहिं मातु भूप दरबारै टीको श्याम लगाई।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ श्यामता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्याम का भाव या धर्म। २. कालापन। साँवलापन। कृष्णता। ३. मलिनता। उदासी। जैसे,—यह बात सुनते ही उसके मुँह पर श्यामता छा गई। ४. एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर का रंग काला होने लगता है।
⋙ श्याम तीतर
संज्ञा पुं० [सं० श्याम + हिं० तीतर] प्रायः डेढ़ बालिश्त लंबा एक प्रकार का पक्षी जो अकेला रहता है और पाला भी जा सकता है। विशेष—यह काश्मीर, भूटान और दक्षिण हिमालय में पाया जाता है। ऋतुभेदानुसार यह स्थानपरिवर्तन करता रहता है। इसकी चोच लंबी होती है और यह बहुत तेज उड़ता है। इसका शब्द धीमा पर विचित्र होता है। इसका मांस स्वादिष्ट होता है; इसलिये इसका शिकार भी किया जाता है।
⋙ श्यामत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्यामता'।
⋙ श्यामपट्ट
संज्ञा पुं० [सं० श्याम + पट्ट] कक्षाओं में लगा हुआ वह काला तख्ता जिसपर खड़िया से लिखकर अध्यापक छात्रो को समझाता है (अं० ब्लैक बोर्ड)।
⋙ श्यामपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] तमाल वृक्ष।
⋙ श्यामपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जामुन का वृक्ष।
⋙ श्यामपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] सिरिस का पेड़। शिरीष का वृक्ष।
⋙ श्यामपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चाय'।
⋙ श्यामपूरबी
संज्ञा पुं० [सं० श्याम + हिं० पूरबी] एक प्रकार का संकर राग। इसमें और सब तो शुद्ध स्वर लगते हैं, केवल मध्यम तीव्र लगता है।
⋙ श्यामभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] मिर्च।
⋙ श्याम मंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्याम + मञ्जरी] काले रंग की एक प्रकार की मिट्टी जिससे वैष्णव लोग माथे पर तिलक लगाते हैं। यह मिट्टी प्रायः जगन्नाथ जी के आसपास की भूमि में पाई जाती है।
⋙ श्यामल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीपल। अश्वत्थ वृक्ष। २. सिरिस का पेड़। शिरीष। ३. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बहुत जहरीला बिच्छू। ४. भौंरा। भ्रमर (को०)। ५. काली मिर्च (को०)। ६. काला रंग। श्याम वर्ण (को०)। ७. दे० 'पूतिका' (को०)।
⋙ श्यामल (२)
वि० जिसका वर्ण कृष्ण हो। काला। साँवला।
⋙ श्यामलचूड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुंजा। घुँघची।
⋙ श्यामलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्यामल या काले रंग के होने का भाव। साँवलापन। कालापन।
⋙ श्यामला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अश्वगंध। असगंध। २. कटभी। ३. जामुन। ४. कस्तूरी। मृगमद। ५. पार्वती का एक नाम।
⋙ श्यामलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीली।
⋙ श्यामलित
वि० [सं०] श्याम या काला किया हुआ [को०]।
⋙ श्यामलिया
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामलियन्] श्यामता। कालापन। श्यामलता [को०]।
⋙ श्यामली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्यामला'।
⋙ श्यामली (२)
वि० स्त्री० [सं० श्यामल] श्याम वर्ण की। साँवली। उ०—काढ़ूँ कैसे हृदय तल से श्यामली मूर्ति न्यारी।— प्रिय०, पृ० २४९।
⋙ श्यामलेक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] काले रंग की ईख।
⋙ श्यामवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० श्यामवर्त्मन्] एक प्रकार का नेत्ररोग। विशेष—इसमें आंख की पलकें बाहर तथा भीतर से काली होकर फूल जाती हैं और उनमें पीड़ा होती है।
⋙ श्यामवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] काली मिर्च [को०]।
⋙ श्यामशबल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार यम के अनुचर दो कुत्ते जो उनके द्वार पर पहरा देने का काम करते हैं। विशेष—ये चार आँखोंवाले कहे गए हैं। इन्हें संतुष्ट करने के लिये एक प्रकार का व्रत करने का भी विधान है।
⋙ श्यामशार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की ईख जो बहुत अच्छी और गुणवाली मानी जाती है।
⋙ श्यामशालि
संज्ञा पुं० [सं०] काला शालिधान्य।
⋙ श्यामसार
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण खदिर का वृक्ष।
⋙ श्यामसुंदर
संज्ञा पुं० [सं० श्यामसुन्दर] १. श्रीकृष्ण का एक नाम। उ०—लिये उठाय श्यामसुंदर को थन गहि कै मुख लीन्हों।— सूर (शब्द०)। २. एक प्रकार का वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष कद में बहुत ऊँचा होता है। इसकी छाल प्रारंभ में उज्वल होती है; परंतु ज्यों ज्यों यह पुराना होता जाता है, त्यों त्यों छाल काली होती जाती है। इसके हीर की लकड़ी चमकदार होती है। पहाड़ों पर यह चार हजार फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। इसकी लकड़ी प्रायः बढ़िया चीजों के बनाने में काम आती है। इससे खेती के औजार भी बनाए जाते हैं।
⋙ श्यामांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्यामाङ्ग] बुध ग्रह, जिसका वर्ण दूर्वा की तरह या प्रियंगुकलिका की तरह श्याम माना गया है।
⋙ श्यामांग (२)
वि० जिसका शरीर कृष्ण वर्ण का हो। काले या साँवले रंगवाला।
⋙ श्यामांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामाङ्गी] नीली दूब।
⋙ श्यामा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राधा या राधिका का एक नाम, जो श्याम या श्रीकृष्ण के साथ उनका प्रेम होने के कारण पड़ा था। उ०—मदनमोहन भाव जान्यो गगन मेघ छिपाइ। श्याम श्यामा गुप्त लीला।—सूर (शब्द०)। २. एक गोपी का नाम। उ०—श्यामा कामा चतुरा नवला प्रसुदा सुमदा नारि।—सूर (शब्द०)। ३. प्रायः सवा या डेढ़ बालिश्त लंबा एक प्रकार का पक्षी। विशेष—इसका रंग काला और पैर पीले होते हैं। यह पंजाब के अतिरिक्त सारे भारत में मिलता है। यह एक ही स्थान पर स्थिर रूप से रहता है और पहाड़ पर लहीं जाता। यह प्रायः घने जंगलों में रहता है। इसका स्वर बहुत ही मधुर और कोमल होता है। यह पत्ती घास से घोंसला बनाता है और एक बार में चार अंडे देता है। ४. सोलह वर्ष की तरुणी। षोडशी। ५. काले रंग की गाय। ६. कबूतरी। मादा कबूतर।—बृहत्०, पृ० ४१०। ७. कीला अनंतमूल। श्यामा लता। ८. काली निसोथ। ९. प्रियंगु। वनिता। १०. बकुची। सोमराजी। ११. नील। १२. गूगुल। १३. सोम लता। सोमवल्ली। १४. भद्रमोथा। १५. गुडुच। गिलोय। १६. बंदा। बंदाक। बंझा। १७. कस्तुरी। मुश्क। १८. वटपत्री। पाषाणभेदी। १९. पीपल। पिप्पली। २०. हल्दी। हरिद्रा। २१. हरी दूब। २२. तुलसी। सूरसा क्षृप। २३. कमलगट्टा। २४. विधारा। २५. शिंशपा वृक्ष। शीशम। २६. सावाँ नामक अन्न। २७. काली गदहपुरना। २८. गोलोचन। गोरोचन। २९. एरका या गुंदा नामक घास। ३०. लता कस्तुरी। मुश्क दाना। ३१. मेढ़ासिंगी। ३२. हरीतकी। हर्रे। ३३. कोयल नामक पक्षी। ३४. यमुना। ३५. रात। रात्रि। ३६. स्त्री। औरत। ३७. श्याम वर्ण की स्त्री। साँवली औरत (को०)। ३८. वह स्त्री जिसको संतान न हूई हो। अपसूता स्त्री (को०)। ३९. तपे हुए सोने के वर्ण की एक विशिष्ट प्रकार की स्त्री। वह स्त्री जो शीतऋतु से सुखद ऊष्मायुक्त और ग्रीष्म में सुखद शीतल हो (को०)। ४०. छाया। ४१. कालिका देवी का एक नाम।
⋙ श्यामा (२)
वि० १. तपाए हुए सोने के समान वर्णवाली। २. श्याम रंगवाली। काली।
⋙ श्यामाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँवाँ नामक अन्न। २. एक देश।—बृहत्०, पृ० ८६।
⋙ श्यामाढकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काले फूल की अरहर। विशेष—यह वैद्यक के अनुसार दीपन और पित्त तथा दाह की नाशक मानी जाती है।
⋙ श्यामायन
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम जो गोत्रप्रवर्तक ऋषि थे।
⋙ श्यामायनि
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक आचार्य का नाम।
⋙ श्यामायनी
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैशंपायन के शिष्यों का संप्रदाय। वह जो इस संप्रदाय में हो।
⋙ श्यामायमाना
वि० स्त्री० [सं०] १. श्यामतायुक्त। हरीभरी। हरीतिमायुक्त। २. श्याम अर्थात् कृष्ण के न रहने पर भी जो श्यामयुक्त सी प्रतीत होती हो (लाक्ष०)। उ०—वे आए जिस काल कांत ब्रज में देखा महा गुग्ध हो, श्रीवृंदावन की मनोज्ञ मधुरा श्यामायमाना मही।—प्रिय०, पृ० ९८।
⋙ श्यामालता
संज्ञा स्त्री० [सं०] काला अनंतमूल। कृष्ण शारिवा।
⋙ श्यामाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिप्पली। पीपल।
⋙ श्यामिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काला रंग। कृष्ण वर्ण। २. कालापन। श्यामता ३. मलिनता। उदासी। ४. अपवित्रता (को०)। ५. खोटाई। खोटापन। ६. मैल या किट्ट जो किसी धातु पर हो (को०)।
⋙ श्यामित
वि० [सं०] काला बनाया या किया हुआ [को०]।
⋙ श्यामेक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] काला ईख। कजली ईख।
⋙ श्यार पु †
संज्ञा पुं० [फ़ा० शहर] दे० 'शहर'। उ०—श्यार के वो पापी पावों मुज पो आ सकते नँई। मैं तो मैं मेरी गरद को बी वो पा सकते नँई।—दक्खिनी०, पृ० २९६।
⋙ श्याल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्नी का भाई। साला। उ०—बार बार सत्कार करि, केन्हो श्याल निहाल।—रघुराज (शब्द०)। बहन का पति। बहनोई। भगिनीपति। (ब्रह्मवैवर्त)।
⋙ श्याल (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृगाल] गीदड़। सियार। उ०—रोव वृषभ तुरंग अरु नाग। श्याल दिवस निशि बोले काग।—सूर (शब्द०)।
⋙ श्यालक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० श्यालिका] पत्नी का भाई। साला।
⋙ श्याल काँटा
संज्ञा पुं० [श्याल ? + हिं० काँटा] स्वर्णक्षीरी। सत्या- नाशी। भरभाँड़।
⋙ श्यालकी, श्यालिका, श्याली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्नी की बहन। साली।
⋙ श्याव (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० श्यावा, श्यावी] कृष्ण और पीत मिश्रित (वर्ण)। काला और पीला मिला हुआ (रंग)। कपिश।
⋙ श्याव (२)
संज्ञा पुं० १. काला पीला मिला हुआ रंग। कपिश वर्ण। २. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बिच्छू जिसका विष बहुत तेज नहीं होता।
⋙ श्यावक
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक प्राचीन राजर्षि का नाम।
⋙ श्यावता
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्याव (वर्ण) का भाव या धर्म। कपि- शता।
⋙ श्यावतैल
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़।
⋙ श्यावदंत
संज्ञा पुं० [सं० श्यावदन्त] १. दाँतों का एक प्रकार का रोग। विशेष—इसमें रक्त मिश्रित पित्त से दाँत जलकर काले, पीले या नीले हो जाते हैं। २. वह जिसके दाँत स्वभावतः काले रंग के हो। ३. वह व्यक्ति जिसके आगे के दो दाँतों के बीच छोटा सा दाँत हो या उनके ऊपर दाँत हो (को०)।
⋙ श्यावदंतक
संज्ञा पुं० [सं० श्यावदन्तक] दे० 'श्यावदंत'।
⋙ श्यावनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ श्यावरथ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ श्याववर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० श्याबवर्त्मन्] आँखों का श्यामवर्त्मन् नामक रोग। वि० दे० 'श्यामवर्त्म'।
⋙ श्यावाश्र्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ श्यावास्य
वि० [सं०] जिसका मुख श्याम रंग का हो [को०]।
⋙ श्येत (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० श्येता, श्येती] श्वेत। सफेद। शुक्ल। (वर्ण)।
⋙ श्येत (२)
संज्ञा पुं० सफेद रंग। श्वेतवर्ण।
⋙ श्येतकोलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।
⋙ श्येन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिकरा या बाज नामक प्रसिद्ध पक्षी जो प्रायः छोटे छोटे पक्षियों का शिकार किया करता है। उ०— शून्याश्रम से इधर दशानन, मानों श्येन कपोती को। हर ले चला विदेहसुता को, भय से अबला रोती को।—साकेत, पृ० ३८४। पर्या०—शशघातन। शशाद। शशादन। कपोतारि। क्रूर। वेगी। खगांतक। करग। ग्राहक। लंबकर्ण। नीलपिच्छ। रणप्रिय। रणपक्षी। भयंकर। स्थूलनील। पिच्छवाण। मारक। घातिपक्षी। २. दोहे के चौथे भेद का नाम। इसमें १९ गुरु और १० लघु णात्राएँ होती हैं। ३. पीला रंग। पांडुर वर्ण। ४. श्वेत वर्ण। सुफेद रंग (को०)। ५. धवलिमा। श्वेतता (को०)। ६. हिंसा। हिसन (को०)। ७. अश्व। घोड़ा (को०)। ८. एक प्रकार का सैनिक व्यूह। श्येन व्यूह (को०)।
⋙ श्येनकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी काम को उतनी ही तेजी औंर द्दढ़ता से करना जितनी तेजी और द्दढ़ता से बाज झपटकर अपने शिकार को पकड़ता है। २. जल्दबाजी। शीघ्रता। उतावलापन। हड़बड़ी (को०)।
⋙ श्येनकरणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्येनकरण' [को०]।
⋙ श्येनगामी
संज्ञा पुं० [सं० श्येनगामिन्] रामायण के अनुसार एक राक्षस का नाम।
⋙ श्येनघंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्येनघणटा] दंती वृक्ष। उदुंबरपर्णी। विशेष दे० 'दंती'।
⋙ श्येनचित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ आदि में अग्नि स्थापित करने की वह वेदी जिसका आकार श्येन या बाज पक्षी के समान होता है। २. श्येनजीवी (को०)।
⋙ श्येनचित
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की अग्नि। २. 'श्येनचित्'—१ [को०]।
⋙ श्येनजीवी
संज्ञा पुं० [सं० श्येनजीविन्] वह जो श्येन या बाज पकड़ और बेचकर जीविका निर्वाह करता हो। विशेष—मनु ने ऐसे आदमी के साथ एक पंक्ति में बैठकर खाने पीने का निषेध किया है।
⋙ श्येनपात्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाज की तरह झपटना या झपट्टा मारना। २. ऐंद्रजालिकों का अनुकूल अद्भुत कार्य [कों]।
⋙ श्येनभृत
संज्ञा पुं० [सं०] श्येन द्वारा लाया हुआ, सोम [को०]।
⋙ श्येनव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसर वह दंडव्यूह जिसमें पक्ष और कक्ष को स्थिर रखकर उरस्य को आगे बढ़ाया आय।
⋙ श्येनहृत्, श्येनाहृत
संज्ञा पुं० [सं०] सोम लता।
⋙ श्येनिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ११ अक्षर होते है; और मात्रा के अनुसार उनका क्रम इस प्रकार होता है—र, ज, र, ल, ग (SIS, ISI० S०S, S)। इसका दूसरा नाम 'श्येनी' भी है।
⋙ श्येनिका (२)
संज्ञा स्त्री० बाज पक्षी की मादा।
⋙ श्येनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'श्येनिका'। २. मार्कंडेपुराण के अनुसार कश्यप की एक कन्या का नाम। विशेष—यह दक्ष की पुत्री ताम्रा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। कहते हैं, बाज, तोते, कबूतर आदि पक्षी इसी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
⋙ श्यैनंपात
संज्ञा पुं० [सं० श्यैनम्पान] १. श्येन छोड़ने का उपयु्क्त स्थान। २. दे० 'श्यैनंपाता' [को०]।
⋙ श्यैनंपाता
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यैनम्पाता] १. मृगया। शिकार। श्येन पक्षी द्वारा शिकार करना [को०]। २. श्येन छोड़ने की उपयुक्त भूमि [को०]।
⋙ श्यैन
वि० [सं०] श्येन बा बाज संबंधी [को०]।
⋙ श्यैनिक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का याग, जो एक दिन में होता था।
⋙ श्यैनिक शास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] मृगया करने का ढंग बतानेवाला ग्रंथ [को०]।
⋙ श्यैनेय
संज्ञा पुं० [सं०] जटायु का एक नाम।
⋙ श्योणक, श्योनाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोनापाढ़ा वृक्ष।— बृहत्संहिता, पृ० ३५९। २. लोध्र। लोध।
⋙ श्योरा
संज्ञा पुं० [लश०] बड़ी मेख। क्रि० प्र०—ठोंकना।—मारना।
⋙ श्रंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रङ्ग] गमन। जाना।
⋙ श्रंग (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्रङ्ग] शृंग। (डिं०)।
⋙ श्रंथ
संज्ञा पुं० [सं० श्रन्थ] १. संसार के बंधन से छुड़ानेवाले, विष्णु। २. बंधन। ३. मोक्ष। ४. ढोला वा शिथिल करना (को०)। ५. शिथिलता। ढीलापन (को०)। ६. छोड़ना वा मुक्त करना (को०)।
⋙ श्रंथन
संज्ञा पुं० [सं० श्रन्थन] १. खोलना। छोड़ना। ढीला करना। २. हिंसन। धातन। ३. नष्ट या विघ्वस्त करना। ४. बाँधना। अच्छी तरह संवद्ध करना। ५. ग्रंथन करना। रचना। जैसे, गद्य या पद्यात्मक कृति [को०]।
⋙ श्रंथित
वि० [सं० श्रन्थित] १. बँधा हुआ। एक साथ बाँधा हुआ। २. शिविलित। ढीला किया हुआ। ३. मुक्त। ४. एक दूसरे से संबद्ध। परस्पर संबद्ध। ५. क्षतिग्रस्त। चोट खाया हुआ। घायल (को०)। ६. विनष्ट। ध्वस्त (को०)। ७. अभिभूत। पराभूत (को०)। ८. प्रसन्न। हर्षित। खुश।
⋙ श्रसन
संज्ञा पुं० [सं०] वह ओषधि जो पिट में जमे हुए मल या गोटे को बाहर निकालती हो। जैसे, अमलतास का गूदा।
⋙ श्रक पु
संज्ञा स्त्री० [सं०स्रक्] माला। उ०—माला श्रक श्रज गुनवती यह जु नाम की दाम।—प्रनेकार्थ०, पृ० ७८।
⋙ श्रग पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ग>सर्ग>श्रग] दे० 'स्वर्ग'। उ०—दादू श्रग पयाल मैं, साचा लेवै गाँव। सकल लोक सिरि देखिए, परगट सबही ठाँव।—दादू० बानी, पृ० ५२।
⋙ श्रग पु
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रक्] माला।
⋙ श्रज पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्रज्, स्रक्] माला।—अनेकार्थ०, पृ० ७८।
⋙ श्रथन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार डालना। वध। हत्या। २. अलग करना। बंधन से मुक्त करना। खोलना। ३. शिथिल या ढीला करना (को०)। ४. यत्न। कोशिश। ५. बाँधना। बंधन में डालना (को०)। ५. बारबार प्रसन्न करना (को०)।
⋙ श्रद्दधान
वि० [सं०] विश्वास रखनेवाला। आस्थावान्। श्रद्धा- पूर्ण [को०]।
⋙ श्रद्दान
संज्ञा पुं० [सं०] आस्था। विश्वास [को०]।
⋙ श्रद्ध
वि० श्रद्धा या विश्वास करनेवाला। श्रद्धालु। आस्थावान् [को०]।
⋙ श्रद्धांजलि
संज्ञा पुं० [सं० श्रद्धाञ्जलि] श्रद्धायुक्त प्रणाम। श्रद्धा सहित किसी के संमान में विनयपूर्वक कुछ कथन या निवेदन। उ०—श्रद्धांजलि स्वोकार करें गुरुदेव शिष्य की, आज श्राद्ध वासर के वाष्प नयन अवसर पर।—युगपथ, पृ० १०९।
⋙ श्रद्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की मनोवृत्ति, जिसमें किसी बड़े या पूज्य व्यक्ति के प्रति भक्तिपूर्वक विश्वास के साथ उच्च और पूज्य भाव उत्पन्न होता है। बड़े के प्रति मन में होनेवाला आदर ओर पूज्य भाव। उ०—(क) महिमा वेद पुराण सबै बहु भाँति बखानत। यथा सहित सब करत सहित श्रद्धा गुण गानत।—केशव (शब्द०)। (ख) पूजत श्रद्धा भक्ति जु कोई। ताके वश्य जगत हम दोई।—सबलसिंह (शब्द०)। २. बौद्ध धर्म के अनुसार बुद्ध, धर्म और संघ में विश्वास। ३. वेदादि- शास्त्रों और आप्त पुरुषों के वचनों पर विश्वास। भक्ति। आस्था। ४. शुद्धि। ५. चित्त की प्रसन्नता। ६. कर्द्दम मुनि की कन्या का नाम। विशेष—भागवत के अनुसार श्रद्धा कर्दम की पत्नी देवहूति के गर्भ से उत्पन्न हुई थी और अत्रि ऋषि की पत्नी थी। इन्हें मनु की पत्नी भी कहा गया है। आस्था, विश्वास, द्दढ़ता, सत्यता की देवी के रूप में इसका प्राचीन ग्रंथों में अनेक जगह अनेक रूपों में उल्लेख आया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में प्रजापति की कन्या, शतपथ में सूर्य की पुत्री, महाभारत में दक्ष की कन्या और धर्म की पत्नी के रूप में इनका उल्लेख आया है और मार्कंडेय- पुराण में श्रद्धा काम की माता कही गई है। ७. घनिष्ठता। परिचय (को०)। ८. गर्मिणी महिला का दोहद (को०)। ९. प्रबल या उत्कट इच्छा (को०)।
⋙ श्रद्धाकृत
वि० [सं०] श्रद्धावान् होकर किया हुआ। जो श्रद्धायुक्त होकर किया गया हो [को०]।
⋙ श्रद्धाजाड्च
संज्ञा पुं० [सं०] श्रद्धा के कारण उत्पन्न जड़ता। अंध- विश्वास [को०]।
⋙ श्रद्धातव्य
वि० स्त्री० [सं०] जिसपर श्रद्धा की जा सके। श्रद्धा करने के योग्य।
⋙ श्रद्धादेय
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वास। विश्रंभ। प्रत्यय [को०]।
⋙ श्रद्धादेव
वि० [सं०] जो श्रद्धा पर पूर्ण विश्वास करता हो। श्रद्धालु [को०]।
⋙ श्रद्धादेही
वि० स्त्री० [सं० श्रद्धा + देही] श्रद्धास्वरूपिणी। श्रद्धारूपी देहवाली। उ०—श्रद्धादेही आशागेही, स्नेही रूपलता। श्री लाईं, तुम, शोभा लाई, लाईं मधुमयता। अग्नि०, पृ० २३।
⋙ श्रद्धान
संज्ञा पुं० [सं०] श्रद्धा।
⋙ श्रद्धान्वित
वि० [सं०] श्रद्धावान्। श्रद्धायुक्त।
⋙ श्रद्धामय, शद्धायुक्त
वि० [सं०] श्रद्धा से पूर्ण। श्रद्धावान्। श्रद्धालु [को०]।
⋙ श्रद्धारहित
वि० [सं०] जो श्रद्धायुक्त न हो। श्रद्धाविरहित [को०]।
⋙ श्रद्धालु
वि० [सं०] १. जिसके मन में श्रद्धा हो। श्रद्धा रखनेवाला। श्रद्धायुक्त। श्रद्धावान्। २. (स्त्री) जिसके मन में, गर्भावस्था की अनेक प्रकार की अभीलाषाएँ हों। दोहदवती।
⋙ श्रद्धावान्
संज्ञा पुं० [सं० श्रद्धावत्] १. वह जिसके मन में श्रद्धा हो। श्रद्धायुक्त। श्रद्धालु पुरुष। २. जिसके मन में धर्म के प्रति निष्ठा हो। धर्मनिष्ठ।
⋙ श्रद्धाविरहित
वि० [सं०] दे० 'श्रद्धारद्दित' [को०]।
⋙ श्रद्धासमन्वित
वि० [सं०] श्रद्धान्वित। श्रद्धायुक्त [को०]।
⋙ श्रद्धास्पद
वि० [सं०] जिसके प्रति श्रद्धा की जा सके। श्रद्धापात्र। श्रद्धेय। पूजनीय।
⋙ श्रद्धी
संज्ञा पुं० [सं० श्रद्धिन्] जिसके मन में श्रद्धा हो। श्रद्धावान्।
⋙ श्रद्धेय
वि० [सं०] [संज्ञा श्रद्धेयत्व] जिसपर श्रद्धा की जाय। श्रद्धा करने के योग्य। श्रद्धा का पात्र। श्रद्धास्पद।
⋙ श्रद्धेयता
संज्ञा पुं० [सं०] श्रद्धेय होने का भाव वा कर्म।
⋙ श्रद्धेयत्व
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्रद्धेयत्व'। श्रद्धेय होने की पात्रता या भाव।
⋙ श्रपण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गार्हपत्य या आहवनीय अग्नि जिसके द्वारा चरु पकाया जाय। उबालना। चरु आदि पकाने की क्रिया।
⋙ श्रपणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्रपण'।
⋙ श्रपित (१)
वि० [सं०] पका हुआ। पक्व। सिझाया वा उबाला हुआ।
⋙ श्रपित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पकाया या उबाला हुआ मांस आदि [को०]।
⋙ श्रपिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काँजी। कांजिक। २. चावल की माँड़।
⋙ श्रप्प
संज्ञा पुं० [सं० सर्प] दे० 'सर्प'। उ०—अगनि होत्र बरमेद, मध्य जग मेध श्रप्प बर।—पृ० रा०, ५५।४०।
⋙ श्रब पु
वि० [सं० सर्व] दे० 'सब'। उ०—षबरि श्रब धृमानं दिन्नं नृप आदि सूर सामंत। अनंगपाल तप सरनं दिल्लीय दीन राज प्रथिराजं—पृ० रा०, १९।९५।
⋙ श्रब्बदा
अब्य० [सं० सर्वदा] दे० 'सर्वदा'। उ०—वही तत्त त्रैलोक संसार सारं। वही तारनं सत्त भौसिंध पारं। जगत्तं अधारं निराधार वोही। वही श्रब्बदा संपदा नित्य सोही।—पृ० रा०, १७७२।
⋙ श्रब्बर पु
सर्व० [सं० सर्व] दे० 'सब'। उ०—वंटि दियौ प्रथिराज भाग किन्ने सह श्रब्बर—पृ० रा०, २४।४८४।
⋙ श्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी कार्य के संपादन में होनेवाला शारीरिक अम्यास। शरीर के द्वारा होनेवाला उद्यम। परिश्रम। मेहनत। मशक्कत। उ०—दूरि तीर्थन श्रम करि जाहि। जहाँ रहैं तहँ लख्यों न ताहिं।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—उठाना।—करना।—पड़ना।—होना। २. थकावट। क्लांति। मुहा०—श्रम पाना = परिश्रम करना। मेहनत करके थकना। उ०—आजु कहा उद्यम करि आए। कहै वृथा भ्रमि भ्रमि श्रम पाए।—सूर (शब्द०)। ३. साहित्य में संचारी भावों के अंतर्गत एक भाव। कोई कार्य करते करते संतुष्ट और शिथिल हो जाना। ४. क्शेश। दुःख। तकलीफ। ५. दौड़ धूप। परेशानी। ६. पसीना। स्वेद। ७. व्यायाम। कसरत। ८. शस्त्रों का अभ्यास। सैनिक कवायद। ९. चिकित्सा। इलाज। १०. खेद। ११. तप। १२. प्रयास। १३. (शास्त्रादि का) अभ्यास।
⋙ श्रमकण
संज्ञा पुं० [सं०] पसीने की बूँदें, जो परिश्रम करने पर शरीर से निकलती हैं। स्वेदविंदु।
⋙ श्रमकन पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रमकण] स्वेदविंदु। श्रमकण। उ०— (क) श्यामल तन श्रमकन राजत ज्यों नवघन सुधा सरोवर खरे।—तुलसो (शब्द०)। (ख) मुझे व्यजन सा हिलकर अविरल शीतलता सरसाने दो। अपने मुख से जगचिंता के श्रमकन सदय ! सुखाने को।—वेणा, पृ० २०।
⋙ श्रमकर
वि० [सं०] खेदकारक। थकानेवाला [को०]।
⋙ श्रमकर्षित
वि० [सं०] मेहनत से थका हुआ [को०]।
⋙ श्रमक्लांत
वि० [सं० श्रमक्लांत] मेहनत से थका हुआ। श्रम से शिशिल [को०]।
⋙ श्रमघ्न
वि० [सं०] जिससे श्रम दूर हो। थकावट दूर करनेवाला।
⋙ श्रमघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मीठा कद्दू या कुम्हड़ा। मीठी लौकी [को०]।
⋙ श्रमजर्जर
वि० [सं० श्रम + जर्जर] परिश्रम से थका हुआ या चूर। उ०—वे ढाल ढाल कर उर उपने, है बरसा नहीं मधुर सपने। श्रमजर्जर विधुर चराचर पर, गा गीत स्नेह-वेदना-सने।—युगांत, पृ० १९।
⋙ श्रमजल
संज्ञा पुं० [सं०] पसीना। स्वेद। प्रस्वेद। उ०—(क) श्रमजल विंदु इंदु आनन पर राजन अति सुकुमार। मानो विविध भाव मिल विलसत मगन सिंधु रस सार।—सूर (शब्द०)। (ख) कुमकुम आड़ श्रवत श्रमजल मिलि मधु पेवत छबि छीट चली री। —सूर (शब्द०)।
⋙ श्रमजित
वि० [सं० श्रम + सं० जित् या हिं० जीतना] जो मनमाना परिश्रम करने पर भी न थके। श्रम को जीत लेनेवाला। उ०—स्वामि भक्त श्रमजित सुधी, सेनापति सु अभीत। अनालसी जन प्रिय जसी, सुख संग्राम अजीत।—केशव (शब्द०)।
⋙ श्रमजीवी (१)
वि० [सं० श्रमजीविन्] १. शारीरिक परिश्रम करनेवाला। मेहनत करके पेट पालनेवाला। उ०—चींटी है प्राणी सामाजिक वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।—युगवाणी, पृ० २२। २. बौद्धिक परिश्रम करके जीविका चलानेवाला। जैसे, श्रमजीवी पत्रकार, श्रमजीवी लेखक।
⋙ श्रमजीवी (२)
संज्ञा पुं० मजदूर। कुली। उ०—ये नाप रहे निज घर का मग, कुछ श्रमजीवी धर डगमग पग, भारी है जीवन भारी पग।—युगांत, पृ० २०।
⋙ श्रमण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बौद्ध या जैन मतावलंबी संन्यासी। २. यति। मुनि। ३. वह जो नीच कर्म करके जीविका निर्वाह करता हो। नीच। घृणित। ४. श्रभजीवी। मजदूर। ५. भिक्षुक (को०)।
⋙ श्रमण (२)
वि० १. श्रम करनेवाला। २. नीच। निम्न कोटि का। ३. नंगा [को०]।
⋙ श्रमणक
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध या जैन भिक्षु [को०]।
⋙ श्रमणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुदर्शना नामक ओषधि। २. जटा। भांसी। बालछड़। ३. मुंडी। घुंडी। श्रावणिका। ४. शबर जाति की एक स्त्री का नाम। ५. संन्यासिनी। ६. लावण्यमयी स्त्री (को०)। ७. कठिन परिश्रम करनेवाली स्त्री (को०)।
⋙ श्रमणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भिक्खुनी। बौद्ध संन्यासिनी। दे० 'श्रमण' [को०]।
⋙ श्रमदान
संज्ञा पुं० [सं०] सार्वजनिक कार्य में स्वेच्छया बिना मजदूरी लिए शारीरिक मेहनत करना [को०]।
⋙ श्रमबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० श्रमबिन्दु] पसीने की बूंदें जो परिश्रम करने पर शरीर से निकलती हैं। क्षमकण। स्वेद।
⋙ श्रमभंजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रमभञ्जिनी] नागवल्ली लता, जो थकावट दूर करनेवाली मानी जाती है। पान। नागवल्ली।
⋙ श्रममोहित
वि० [सं०] अति श्रम के कारण जिसकी बुद्धि व्यवस्थित न हो [को०]।
⋙ श्रमवारि
संज्ञा पुं० [सं०] परिश्रम के कारण शरीर से निकलनेवाला पसीना। श्रमकण।
⋙ श्रमविंदु
संज्ञा पुं० [सं० श्रमविन्दु] स्वेद। श्रमविंदु।
⋙ श्रमविनयन
वि० [सं०] थकान को दूर करनेवाला। [को०]।
⋙ श्रमविनोद
संज्ञा पुं० [सं०] वह कार्य जिससे थकान दूर हो सके [को०]।
⋙ श्रमविभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी कार्य के भिन्न भिन्न अंगों के संपादन के लिये, अलग अलग व्यक्तियों की नियुक्ति। परिश्रम या काम का विभाग। जैसे,—किसी का रूई ओटना, किसी का सूत कातना, किसी का कपड़ा बुनना, किसी का अनाज पीसना, किसी का रोटी पकाना। २. श्रमिकों के हित आदि से संबंधित मामलों की देखभाल करनेवाला सरकारी महकमा।
⋙ श्रमशीकर
संज्ञा पुं० [सं०] श्रम से होनेवाला पसीना। श्रमकण।
⋙ श्रमशील
वि० [सं०] मेहनती। परिश्रम करनेवाला [को०]।
⋙ श्रमसहिष्णु
वि० [सं०] जो यथेष्ट श्रम कर सकता हो। मेहनती। परिश्रमी।
⋙ श्रमसाध्य
वि० [सं०] जिसके संपादन में श्रम करना पड़े। जो सहज में या बिना परिश्रम न सध सके।
⋙ श्रमसीकर
संज्ञा पुं० [सं०] पसीना। श्रमविंदु। उ०—(क) कुंडल मकर कपोलनि झलकत श्रमसीकर के दाग।—सूर० (शब्द०)। (ख) सूखे श्रमसीकर वे, छबि के निर्झर झरे नयनों से, शक्त शिखार्ये हुई रक्तवाह ले।—अनामिका, पृ० १४७।
⋙ श्रमस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रम करने का स्थान। व्यायामभूमि। कारखाना [को०]।
⋙ श्रमांबु
संज्ञा पुं० [सं० श्रमाम्बु] पसीना। स्वेद [को०]।
⋙ श्रमार्त
वि० [सं०] श्रम से थका हुआ या चूर। उ०—हमारे देश में में भी नाट्याचार्य ने नाटक की विशेषता बताते हुए लिखा कि यह दुःखी, श्रमार्त्त, शोकार्त को विश्रांतिदायक होता है।— स० शास्त्र, पृ० १६।
⋙ श्रमित
वि० [सं० श्रम] जो श्रम से शिथिल हो गया हो। श्रांत। थका हुआ। उ०—चारों भ्रातन भ्रातन श्रमित जानि कै जननी तब पौढ़ाए। चापत चरण जननि अप अपनी कछुक मधुर स्वर गाए।—सूर (शब्द०)।
⋙ श्रमितचरण
वि० [सं० श्रमित + चरण] जिसके पाँव थक गए हों। उ०—श्रमित चरण लौटे गृहिजन निज निज द्वार।—अपरा, पृ० ३५।
⋙ श्रमी
वि०, संज्ञा पुं० [सं० श्रमिन्] १. मेहनती। परिश्रमी। उ०— थके श्रमी जीवों के पसीने भरे सीने लग, जीने को सफल करने के लिये सोते चलो।—झरना, पृ० ४१। २. दे०। 'श्रमजीवी'।
⋙ श्रय
संज्ञा पुं० [सं०] आश्रय। श्रयण [को०]।
⋙ श्रयण
संज्ञा पुं० [सं०] आश्रय।
⋙ श्रयना पु
वि० सं० [सं० स्रवण] श्रयण करना। आश्रय करना या लेना। उ०—इकै श्रइ कीरति अमृत एक। कछुक कवित्त सुघारौं विसेक।—पृ० रा०, १२३३४। २. गिराना। बहाना। दे० 'श्रवना'।
⋙ श्रवंतिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रवन्तिनी] नदी।
⋙ श्रव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जिससे सुना जाय, कान (डिं०)। यौ०—श्रवपत्र = एक आभूषण। कर्ण फूल। २. जो सुना जाय, शब्द। ३. श्रवण करना। सुनना जैसे, सुखश्रव (को०)। ४. त्रिभुज का कर्ण (को०)। ५. स्रवित होना। क्षरण (को०)। ६. कीर्ति। यश (को०)। ७. अन्न। धान्य (को०)। ८. धन। संपत्ति (को०)।
⋙ श्रव पु (२)
सर्व० [सं० सर्व] सब। उ०—राजकुँवर श्रव वर्णव्या, सयल सभा साभलो हो संजोग।—बी० रासी, पृ० १००।
⋙ श्रवण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह इंद्रिय जिससे शब्द का ज्ञान होता है। कान। कर्णा। श्रुति। २. वह ज्ञान जो श्रवर्णेद्रिय द्वारा होता है। ३. सुनना। श्रवण करने की क्रिया। शास्त्रीय परिभाषा में शास्त्रों में लिखी हुई बातें सुनना और उनके अनुसार कार्य करना अथवा देवताओं आदि के चरित्र सुनना। उ०—श्रवण कीर्त्तन सुमिरन करै। पद सेवन अर्चन उर धरै।—सूर (शब्द०)। ४. नौ प्रकार की भक्तियों में से एक प्रकार की भक्ति। उ०—श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण, पद रत, अरचन, वंदन दास। सख्य और आत्मा निवेदन प्रेम लक्षण जास।—सूर (शब्द०)। ५. वैश्य तपस्वी अंधक मुनि के पुत्र का नाम। ६. राजा मेघध्वज के पुत्र का नाम। उ०—ता संगति नव सुत नित जाए। श्रवणादिक मिलि हरि गुण गाए।—सूर (शब्द०)। ७. अश्र्विनी आदि सत्ताइस नक्षत्रों में से बाइसवाँ नक्षत्र, जिसका आकार शर या तीर का सा माना गया है। विशेष—इसमें तीन तारे हैं, और इसके अधिपति देवता हरि कहे गए हैं। फलित ज्योतिष के अनुसार जो बालक इस नक्षत्र में जन्म लेता है, वह शास्त्रों से प्रेम रखनेवाला, बहुत से लोगों से मित्रता रखनेवाला, शत्रुऔं पर विजय प्राप्त करनेवाला और अच्छी संतानवाला होता है। ८. किसी त्रिभुज का कर्ण (को०)। ९. अध्ययन (को०)। १०. यश। कीर्ति (को०)। ११. धन। संपत्ति (को०)। १२. बहना। क्षरण। स्रवित होना (को०)।
⋙ श्रवणकातरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुनने की लालसा [को०]।
⋙ श्रवणगोचर
वि० [सं०] १. जो सुना जा सके। २. जर्हा से सुनाई पड़े [को०]।
⋙ श्रवण द्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भादों मास के शुक्ल पक्ष की वह द्वादशी जो श्रवण नक्षत्र से युक्त हो। उ०—अस कहि शुभ दिन शोधि ब्रह्म ऋषि तुरत सुमंत बोलायो। भादौं मास श्रवण द्वादशि को मुदिवस सुखद सुनायो।—रघुराज (शब्द०)। विशेष—यह बहुत पुण्य तिथि मानी जाती है। इसे वामन द्वादशी भी कहते हैं। कहते हैं, वामनावतार इसी दिन हुआ था।
⋙ श्रवणपथ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रवणेंद्रिय। कान।
⋙ श्रवण परुष
वि० [सं०] जो सुनने में कठोर हो। श्रवणकटु।
⋙ श्रवणपालि, श्रवणफाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] कान की ललरी [को०]।
⋙ श्रवणपुट, अवणपुटक
संज्ञा पुं० [सं०] कर्णरंध्र [कों]।
⋙ श्रवण पूरक
संज्ञा पुं० [सं०] कान का आभूषण।
⋙ श्रवण फूल
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण + हिं० फूल] करनफूल।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १९३।
⋙ श्रवणभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] कान का आभूषण।
⋙ श्रवणविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह विद्या जो श्रवण इंद्रिय के संपर्क से मानसिक तृप्ति प्रदान करती है। जैसे, संगीतशास्त्र।
⋙ श्रवणविवर
संज्ञा पुं० [सं०] कान का छेद [को०]।
⋙ श्रवणविषय
[सं०] १. दे० 'श्रवणपथ'। २. श्रवण की सीमा में आनेवाला विषय, वस्तु आदि।
⋙ श्रवणवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रवण + वृत्ति] सूनने की बृत्ति। श्रवण। सुनने की ललक। उ०—जिस प्रकार दशंन वृत्ति की बोध दशा और रागात्मिका दशा ये दो दशाएँ होती हैं, उसी प्रकार श्रवण वृत्ति की भी।—रस०, पृ० ७२।
⋙ श्रवणशींर्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रावणी वृक्ष। गोरखमुंडी। बड़ी मुडी।
⋙ श्रवणसुभग
वि० [सं०] कर्णेंद्रिय को सुख देनेवाला। जो सुनने में अच्छा लगे [को०]।
⋙ श्रवणहारी
संज्ञा पुं० [सं० श्रवणहारिन्] वह जो कानों को भला लगे। सुनने में अच्छा जान पड़नेवाला। कर्णमधुर।
⋙ अवणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बड़ी मुंडी। २. पुं० (मुं०) डेरी। ३. अश्विनी आदि सत्ताइस नक्षत्रों के अंतर्गत बाईसवाँ नक्षत्र। विशेष दे० 'श्रवण'—७।
⋙ श्रवणाधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० श्रवणधिकारिन्] वह जो बोल रहा हो। वक्ता [को०]।
⋙ श्रवणावमास
संज्ञा पुं० [सं०] श्रुतिपथ। कर्ण-श्रवण-पथ [को०]।
⋙ श्रवणाह्वया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निर्विषी नामक तृण। २. जल चौलाई।
⋙ श्रवणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुं (मुं०) डेरी। २. गोरखमुँडी। महामुंडी।
⋙ श्रवणीय
वि० [सं०] सुवने लाथक। भवण करने योग्य।
⋙ श्रवणेंद्रिय
संज्ञा पुं० [सं० श्रवणेन्द्रिय] कान। कर्ण।
⋙ श्रवणोत्पल
संज्ञा पुं० [सं०] आभुषण की द्दष्टि से कान में लगाया हुआ कमल [को०]।
⋙ श्रवणोदर
संज्ञा पुं० [सं०] कर्णरंध्र। कर्णविवर। कान [को०]।
⋙ श्रवती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रवन्तिनी या हिं०] नदी।—नंद० ग्रं० पृ० ९८।
⋙ श्रवन पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण] १. श्रवण। कान। उ०—(क) नयन बैन औ श्रवन ये सबही तोर प्रसाद। सेवा मोर यही नित बोलौं आसिरबाद।—जायसी (शब्द०)। (ख) नैन राच्यो रूप सो श्रवनूँ राच्यो नांद।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १८०। २. दे० 'श्रावण'। उ०—श्रवन मास नौमी तिथि लग्गिय।—प० रासो, पृ० १५९। ३. आकर्णन। अकनना। श्रवण करना। सुनना।
⋙ श्रवना पुं (१)
क्रि० अ० [सं० स्राव] बहना। चूना। रसना। उ०—राति दिव्रस रस श्रवत सुधा में कामधेनु दरसाई। लूट लूट दधि खात सखन सँग तैसो स्वाद न पाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ श्रवना (२)
क्रि० स० गिराना। बहाना। उ०—खर भर लंक, सशंक, दशानन गर्भ श्रवहिं अरि नारि।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ श्रवनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सुमरनी] दे० 'सुमिरनी'। उ०—हंस दशा धरि पंथ चलावे। श्रवनी कंठी तिलक लगावे।—कबीर सा०, पृ० २२१।
⋙ श्रवस्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसिद्धि। यश। ख्याति। २. ख्यातिदायक कार्य [को०]।
⋙ श्रवाप्य,श्रवाय्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बलिपशु [को०]।
⋙ श्रवाप्य, श्रवाय्य (२)
वि० प्रशंसनीय [को०]।
⋙ श्रवित पु
वि० [सं० स्राव] बहा हुआ। रसा या चूआ हुआ। उ०— काचे घट में जल जथा श्रवित होत अति जाय।—दीन ग्रं०, पृ० ७९।
⋙ श्रविष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक ऋषि का नाम।
⋙ श्रविष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनिष्ठा नक्षत्र।
⋙ श्रविष्ठाज
संज्ञा पुं० [सं०] बुधग्रह।
⋙ श्रविष्ठामण
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ श्रविष्ठाभू
संज्ञा पुं० [सं०] बुधग्रह।
⋙ श्रव्य
वि० [सं०] जो सुना जा सके। सुनने योग्य। जैसे,—संगीत। यौ०—श्रव्य काव्य = वह काव्य जो केवल सुना जा सके। वह काव्य जो अभिनय आदि के रूप में देखा जा न सके। इसके तीन भेद हैं—(१) गद्य, (२) पद्य और (३) गद्य-पद्य-मय। विशेष दे० 'काव्य'।
⋙ श्रांत
वि० [सं० श्रान्त] १. जितेंद्रिय। शांत। ३. जो अधिक श्रम करने के कारण थक गया हो। परिश्रम से थका हुआ। ४. दुःखी। खिन्न। रंजीदा। ५. निवृत्त। ६. जो सुख भोगकर तृप्त हो चुका हो।यौ०—श्रांतचित्त, श्रांतमना श्रांतहृदय = दुखी। उदास। श्रांतसंवाह, श्रांतसंवाहना = थके व्यक्ति को आराम देना।
⋙ श्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रान्ति] १. श्रम। परिश्रम। मेहनत। २. थकावट। उ०—संध्या पर्यंत मार्ग में चलती रही; इससे अत्यंत श्रांति मालूम हुई।—प्रतापनारायण (शब्द०)। ३. खेद। दुःख। ४. विश्राम। आराम।
⋙ श्राण (१)
वि० [सं०] १. घी, दूध या जल में पका हुआ। सिद्ध। पक्व। भूना हुआ (को०)। ३. उबाला या पकाया हुआ। ४. आर्द्र। तर (को०)।
⋙ श्राण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] उबाला हुआ मांस [को०]।
⋙ श्राणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] माँड़ की काँजी जिसका व्यवहार पथ्य रूप में होता है। यवागू। विशेष दे० 'यवागू'।
⋙ श्राणिक
संज्ञा पुं० [सं०] वे भृत्य जिनको केवल—भाजी (या यवागू) दी जाती थी।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २४९।
⋙ श्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कार्य जो श्रद्धापूर्वक किया जाय। श्रद्धा से किया जानेवाला काम। २. वह कृत्य जो शास्त्र के विधान के अनुसार पितरों के उद्देश्य से किया जाता है। जैसे पितरों के उद्देश्य से तर्पण और पिंडदान करना तथा ब्राह्मणों को भोजन कराना। उ०—श्राद्ध करत पितरन को तर्पण करि बहु भाँति। कहुँ विप्रन को देत दक्षिणा कहुँ भोजन की पाँति।—सूर (शब्द०)। विशेष—कुछ लोगों के मत से श्राद्ध पाँच प्रकार का है—नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण और कुछ लोग इन पाँच प्रकार के श्राद्धों के अतिरिक्त नीचे लिखे सात प्रकार के और भी (कुल बारह प्रकार के) श्राद्ध मानते है—सपिंडन, गोष्ठी, शुद्धचर्थ, कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ और पुष्टचर्थ। ३. आश्विन कृष्ण पक्ष जिसमें पितरों के उद्देश्य से विशेष रूप से पिंडदान किया और ब्राह्मणभोजन कराया जाता है। पितृ- पक्ष। ४. विश्वास। ५. प्रीति।
⋙ श्राद्धकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंत्येष्टि क्रिया। २. मृत की वाषिंक तिथि पर पिंडदान आदि करना [को०]।
⋙ श्राद्धकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० श्राद्धकर्तृ] श्राद्ध करनेवाला व्यक्ति। श्राद्धकारक।
⋙ श्राद्धकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्राद्धकर्म'।
⋙ श्राद्धक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्राद्धकर्म'।
⋙ श्राद्धत्व
संज्ञा पुं० [सं०] श्राद्ध का भाव या धर्म।
⋙ श्राद्धद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्राद्धकर्ता'।
⋙ श्राद्धदिन
संज्ञा पुं० [सं०] श्राद्धकृत्य करने का दिन। मृत व्यक्ति की वह वार्षिक तिथि जिस दिन मृत का श्राद्धकर्म किया जाय।
⋙ श्राद्धदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्मराज। २. यमराज। ३. श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मण। ४. मार्कंडेय पुराण के अनुसार वैवस्वत मनु का एक नाम। ५. एक वैश्वदेव (को०)। ६. बह लोक जहाँ मरने पर पितर लोग जाते हैं। पितृलोक। ७. प्रजापति। पितर (को०)।
⋙ श्राद्ध पक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] तर्पण, पिंडदान आदि के लिये निश्चित आश्विन मास का कृष्ण पक्ष। पितृपक्ष।
⋙ श्राद्धभुक् (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्राद्धभुज्] पितर [को०]।
⋙ श्राद्धभुक् (२)
वि० श्राद्धान्न भोजन करनेवाला [को०]।
⋙ श्राद्धमोक्ता
संज्ञा पुं० [सं० श्राद्धभोक्तृ] पितर [को०]।
⋙ श्राद्धमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार वह व्यक्ति जो श्राद्धकर्म के अवसर पर मित्र बनावे या मित्रता करे [को०]।
⋙ श्राद्धशाक
संज्ञा पुं० [सं०] नाड़ी शाक। कालशाक।
⋙ श्राद्धसूतक
संज्ञा पुं० [सं०] श्राद्ध के उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन। पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मणों के खिलाने के लिये बनाया हुआ भोजन।
⋙ श्राद्धिक (१)
वि० [सं०] श्राद्ध संबंधी। श्राद्ध का।
⋙ श्राद्धिक (२)
संज्ञा पुं० १. वह जो श्राद्ध के अवसर पर पितरों के उद्देश्य से भोजन करता हो। श्राद्घ में दी हुई वस्तु को स्वीकार करनेवाला। २. श्राद्ध में दी हुई वस्तु [को०]।
⋙ श्राद्धी
संज्ञा पुं० [सं० श्राद्धिन्] श्राद्ध में भोजन करनेवाला। श्राद्धिक।
⋙ श्राद्धीय
वि० [सं०] श्राद्ध संबंधी। श्राद्ध का।
⋙ श्राद्धेय
वि० [सं०] श्राद्ध के योग्य। श्राद्ध में प्रयुक्त होने योग्य। जैसे, श्राद्धेय अन्न [को०]।
⋙ श्राप पु
संज्ञा पुं० [सं० शाप] दे० 'शाप'। उ०—राछसन मारि विश्वामित्र सा करायो यज्ञ तारी रिषि नारी सिला श्राप सो भई रहा।—रघुनाथ बंदीजन (शब्द०)।
⋙ श्रापी
संज्ञा पुं० [सं० श्रापिन्] वह जो भोजन बनाता हो। रसोइया।
⋙ श्राम
संज्ञा पुं० [सं०] १. मास। महीना। २. मंडप। छाजन। घर। ३. काल। समय।
⋙ श्रामणेर. श्रामणोक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो नया बौद्धभिक्षु हुआ हो [को०]।
⋙ श्राय
संज्ञा पुं० [सं०] आश्रय।
⋙ श्रावंती
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मपत्तन। धर्मपुरी। दे० 'श्रावस्ती' [को०]।
⋙ श्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रवण। कान। २. गंधाबिरोजा। ३. दे० 'स्रवण'।
⋙ श्रावक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० श्राविका] १. बौद्ध धर्म को माननेवाला संन्यासी। २. जैन धर्म को माननेवाला संन्यासी। ३. वह जो जैन धर्म का अनुयायी हो। ४. नास्तिक। पाखंडी। उ०—यह नरक को कोउ जीव है जिनि याहि देखि डेराहि। निज जानियै यह श्रावका अति दूर ते तजि ताहि।—केशव (शब्द०)। ५. दूर की आवाज। दूर का शब्द। ६. कौआ। काक। ७. छाव। शिष्य।
⋙ श्रावक (२)
वि० श्रवण करनेवाला। सुननेवाला।
⋙ श्रावग पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रावक] दे० 'श्रावक'। उ०—अजहूँ, श्रावण ऐसो करै। ताही को मारग अनुसरै।—सूर (शब्द०)।
⋙ श्रावगी
संज्ञा पुं० [सं० श्रावक] जैन धर्म को माननेवाला। जैनी।
⋙ श्रावण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चैत आदि महीनों में से एक महीने का नाम। असाढ़ के बाद और भादों के पहले का महीना। विशेष—गणना में यह पाँचवां महीना होता है और वर्षा ऋतु में पड़ता है। इस मास को पूर्णमासी श्रवण नक्षत्र से युक्त होती है. इसी लिये इसे श्रावण कहते हैं। सावन। २. एक प्रकार का वर्ष। विशेष—यदि श्रवण अथवा धनिष्ठा नक्षत्र में वृहस्पति उदय हो. तो उस दिन से एक वर्ष तक का समय श्रावण कहलाता है। कहते हैं, इस वर्ष में धान्य खूब पकते हैं, सब लोग बहुत सूखी होते हैं, पर पाखंडी मनुष्य तथा उनके अनुयायी पीड़ित होते हैं। ३. श्रावण मास की पूर्णिमा। ४. शब्द, जिसका ग्रहण श्रवणेंद्रिय द्वारा होता है। आवाज। ५. श्रवण करने से प्राप्त ज्ञान। श्रवणजन्य ज्ञान (को०)। ६. श्रवण नामक तपस्वी (को०)। ७. नास्तिकता। पाखंड। ८. वंचक। पाखंडा (को०)। ९. माकडेय पुराण के अनुसार। योगियों के याग में होनवाल पांच प्रकार का विघ्न या उपसर्ग जिसमें यागी हजार योजन तक के शब्द ग्रहण करके उनके अर्थ हृदयंगम करता है।
⋙ श्रावण (२)
वि० १. श्रवण नक्षत्र संबंधा। श्रवण नक्षत्र का। २. श्रवण नक्षत्र में उत्पन्न (को०)। ३. श्रवणेंद्रिय या कान से संबंधित (को०)। ४. वेदविहित वेदाक्त। वैदिक (को०)। यौ०—श्रावण ज्ञान, श्रावण प्रत्यक्ष=श्रवणेंद्रिय द्वारा प्राप्त ज्ञान वा अनुभूति।
⋙ श्रावणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भुँइ कदंब। २. सुदर्शना नामक वृक्ष।
⋙ श्रावणिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रावण मास। सावन। २. एक प्रकार की अग्नि।
⋙ श्रावणिक (२)
वि० श्रावण संबंधी। श्रावण का।
⋙ श्रावणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुंडी।
⋙ श्रावणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रवण नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा। सावन मास की पूर्णमासी। विशेष—इस दिन ब्राह्मणों का प्रसिद्ध त्योहार 'रक्षाबंधन्' या 'सलोनी' तथा कुछ और कृत्य या पूजन आदि होते हैं। इस दिन लोग यज्ञोपवीत का पूजन करते और नवीन यज्ञोपवीत भी धारण करते हैं। २. मुंडी। घुंडा। ३. भुइँ कदंब। ४. वृद्धि नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ५. ऋद्धि नामक अष्टवर्गीय ओषधी।
⋙ श्रावना (१) पु
क्रि० स० [सं० स्त्राव (=बहाना), हिं० स्रवना] गिराना। बहाना। उ०—रुचि द्रुम प्रीति रीति नैनन जल साचिं ध्यान झर लागी। ताके प्रेम सुफल मुनिश्रावन श्याम सुरँग अनुरागी।—सूर (शब्द०)।
⋙ श्रावन (२)पु
संज्ञा पुं० ढरकाने या बहाने या द्रवित करने की क्रिया या भाव।
⋙ श्रावस्त
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार राजा श्राव के पुत्र का नाम, जिन्होंने श्रावस्तकी नगरी बसाई थी।
⋙ श्रावस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्रावस्ती'।
⋙ श्रावस्ती
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तर कौशल में गंगा के तट पर बसी हुई एक बहुत प्राचीन नगरी। विशेष—यह अब एक छोटे से गाँव के रूप में रह गई है और सहेत महेत कहलाती है। आजकल यह स्थान बलरामपुर राज्य के अंतर्गत है। यहाँ श्रीरामचंद्र के पुत्र लव की राजधानी थी। जैनी इसे 'सावत्थी' कहते हैं और अपने नवें तीर्थंकर सुबुद्धनाथ का कल्याणक बतलाते हैं। यह राजा प्रसेनजित् की राजधानी भी कही जाती है। यहाँ एक बार कुछ दिनों तक भगवान् बुद्ध ने भी निवास किया था, इसलिये बौद्धों की दृष्टि में यह एक बहुत पुण्यस्थल है। बुद्ध के समय में और उनसे पहले भी यह नगरी बहुत श्रीसंपन्न थी।
⋙ श्रावा
संज्ञा स्त्री० [सं०] माँड। पसावन। पीच।
⋙ श्रावित (१)
वि० [सं०] कहा हुआ। बताया हुआ। सुनाया हुआ [को०]।
⋙ श्रावित (२)
संज्ञा पुं० १. पुकार। गुहार। २. निवेदन [को०]।
⋙ श्राविता
वि० [सं० श्रावितृ] श्रवण करने या सुननेवाला। श्रोता [को०]।
⋙ श्राविष्ठ, श्राविष्ठीय
वि० [सं०] १. श्रविष्ठ या श्रवण नक्षत्र संबंधी। २. श्रविष्ठा में उत्पन्न या जात [को०]।
⋙ श्रावी (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्राविन्] सज्जी। स्वर्जिका क्षार।
⋙ श्रावी (२)
वि० श्रवण करनेवाला।
⋙ श्राव्थ
वि० [सं०] १. सुनने के योग्य। सुनने लायक। श्रोतव्य। २. स्फुट। व्यक्त। श्रोत्रेंद्रिय द्वारा ग्राह्म (को०)।
⋙ श्रित
वि० [सं०] १. आश्रय में पहुँचा हुआ। २. चिपका, लगा हुआ। सहारा लिया हुआ। अधिष्ठित। ३. मीलित। संबद्ध। ४. रक्षित। बचाया हुआ। ५. संमानित। सेवित। ६. अनुजीवी। सहकारी। ७. आच्छादित। ५. पूरित। ९. एकत्रित। समवेत। १०. संपन्न। ११. पकाया हुआ [को०]। यौ०—श्रितक्षम=अक्षुब्ध। शांतमना। स्वस्थ। श्रितसत्व= धैर्ययुक्त। साहस युक्त।
⋙ श्रीतवान
वि० [सं० श्रृतवत्] १. आश्रय लेनेवाला। सेवक।
⋙ श्रिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अवलब। सहारा [को०]।
⋙ श्रियंमन्य
वि० [सं० श्रियम्मन्य] [वि० स्त्री० श्रियंमन्या] अपने को श्रीयुक्त माननेवाला। अभिमानी। घमंडी [को०]।
⋙ श्रिय (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रिया] मंगल। कल्याण। उ०— लखी जोति जो बाम्हन लोगा। तिनके बचन न संसय जोगा। इसकी बानि संग श्रिय रहहीं। ये नहिं कबहुँ मृषा कछु कहहीं।—सीताराम (शब्द०)।
⋙ श्रिय पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्री] शोभा। प्रभा। उ०—दुहुन बीच संकेत राधिका नंदकुँवर कौ। सौ श्रिय को कहि सकै भेदु पिय प्यारी घर कौ।—सूदन (शब्द०)।
⋙ श्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] विष्णु की पत्नी, लक्ष्मी।
⋙ श्रियावास
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसके पास यथेष्ट लक्ष्मी हो। धनवान्। अमीर।
⋙ श्रियावासी
संज्ञा पुं० [सं० श्रियावासिन्] महादेव। शिव।
⋙ श्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विष्णु की पत्नी, लक्ष्मी। कमला। उ०— तजि वैकुंठ गरुड़ तजि श्रा तजि निकट दास के आयो।—सूर (शब्द०)। २. सरस्वती। ३. धूप। सरल वृक्ष। ४. लवंग। लौंग। ५. कमल। पद्म। ६. बेल। बिल्व बृक्ष। ७. ऋद्धि नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ८. सफेद चंदन। संदल। ९. धर्म, अर्थ और काम। त्रिवर्ग। १०. संपत्ति। धन। दौलत। ११. विभूति। ऐश्वर्ग। १२. उपकरण। १३. अधिकार। १४. कीर्ति। यश। १५. प्रभा। शोभा। १६. कांति। चमक। १७. बृद्धि। १८. सिद्धि। १९. एक प्रकार का पद- चिह्न। उ०—स्वस्तिक अष्टकोण श्री केरा। हल मूसल पन्नग शर हेरा।—विश्राम (शब्द०)। २०. स्त्रियों का बेंदी नामक आभूषण। उ०—श्री जो रतन माँग बैठारा। जानहु गगन टूट निस तारा।—जायसी (शब्द०)। २१. ऊर्ध्व पुंड्र के बीच की लंबी नोकदार लाल रंग की रेखा। २२. चंद्रमा की बारहवीं कला (को०)। २३. सजावट। रचना (को०)। २४. उक्ति। वाणो (को०)।२५. ऋक्, साम और यजुर्वेद। वेदत्रयी (को०)।२६. पक्व करना। एकदिल करना। पकान। (को०)। २७. समझ। ज्ञान। बुद्धि (को०)। २८. आदरसूचक शब्द जो नाम के आदि में लिखा जाता है। विशेष—संन्यासी, महात्माओं के नाम के आगे श्रो १०८ लिखा जाता है। माता, पिता और गुरु के लिये श्री के साथ ६, स्वामी के लिये ५, शत्रु के लिये ४, मित्र के लिये ३, नौकर के लिये २ और शिष्य, सुत और स्त्री के लिये श्री के साथ १ लिखने की प्राचीन प्रणाली है।
⋙ श्री (२)
संज्ञा पुं० १. कुबेर। (डिं०)। २. व्रह्मा। ३. विष्णु। ४. वैष्णावों का एक संप्रदाय। ५. एक वृत्त का नाम। यह एकाक्षरा वृत्ति है। इसके प्रत्येक पद में एक गुरु होता है। यथा—गो। श्री। धी। ही। ६. संपूर्ण जाति का एक राग, जो हनु मत् के मत से छह् रागों के अंतर्गत पाँचवाँ राग है। विशेष—यह धैवत स्वर की संतान और पृथ्वी की नाभि से उत्पन्न माना गया है। इसकी ऋतु शरद् और वार शुक्र है। कहते हैं, इस राग को शुद्धतापूर्वक गाने से सूखा वृक्ष भी हरा हो जाता है। शास्त्र के अनुसार इस राग की रागि- नियाँ ये हैं—गौरी, पूरबी, मालवी, मुलतानी, और जयती। इसका सहचर मंगलराग और सहचरी चंद्रावती रागिनी है। श्यामकल्याण, मारू, एमन, मौन ध्यान और गौड़ इसके पुत्र हैं। भीमपलाश्री, धनाश्री, मालश्री, वारवा, चित्राचकोरी इसकी पुत्रवधुएँ हैं। हनुमत् के अनुसार मारवा, पूरवा, श्याम, हेम, क्षेत्र, हंबिरिक, भूपाल, जेतरा, कल्याण, ध्यानकल्याण इसके पुत्र हैं। इसकी स्त्रियाँ मालवी, त्रिवेणी, गौरी, गौरा और पूरबी है, तथा इसकी प्रियाएँ एमनि, टंकी, माली, गौरा, नागध्वनि और चेतकी हैं।
⋙ श्री (३)
वि० १. योग्य। २. सुंदर। श्रेष्ठ। ४. मिश्र। मिश्रित। ५. शुभ।
⋙ श्रीकंठ
संज्ञा पुं० [सं० श्रीकण्ठ] १. महादेव। उ०—श्रीकंठ उर वासुकि लसत सर्वमंगला गार।—केशव (शब्द०)। २. हस्तिना- पुर के उत्तर पश्चिम का कुरु जांगल देश। ३. संस्कृत के नाटककार भवभूति का एक नाम। यौ०—श्रीकंठपदलांछन=श्रीकंठ नामवाला, भवभूति का एक नाम। ४. एक राग का नाम (को०)। ५. सुंदर कंठवाला एक पक्षी (को०)।
⋙ श्रीकंठसखा
संज्ञा पुं० [सं० श्रीकण्ठसखा] कुबेर का एक नाम।
⋙ श्रीकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रीकन्दा] बंध्या कर्कोंटकी, खेखसा। बन- परवल।
⋙ श्रीकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. लाल कमल। ३. नौ उपनंदों में से एक।
⋙ श्रीकर (२)
वि० १. शोभा बढ़ानेवाला। सौंदर्य बढ़ानेवाला। २. कल्याण करनेवाला।
⋙ श्रीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलम। लेखनी। २. कायस्थों की शाखा या उपजाति का नाम। १. उत्तर कोशल की राजधानी का नाम (को०)।
⋙ श्रीकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी। (बृहत्संहिता)।
⋙ श्रीकांत
संज्ञा पुं० [सं० श्रीकान्त] लक्ष्मी के पति, विष्णु।
⋙ श्रीकाम
वि० [सं०] कीर्ति या यश चाहनेवाला। अभ्युदय की आकांक्षा करनेवाला।
⋙ श्रीकाम
संज्ञा स्त्री० [सं०] राधिका का एक नाम [को०]।
⋙ श्रीकारी
संज्ञा पुं० [सं० श्रीकारिन्] एक प्रकार का मृग। कुरंग। पर्या०—महायव। शिखिपूप। यवन। जंघाल।
⋙ श्रीकीर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] संगीतदामोदर के अनुसार ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक भेद। इसमें दो गुरु और दो लघु मात्राएँ होती हैं (संगीतदामोदर)।
⋙ श्रीकुंज
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रीकुञ्ज] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम, जो सरस्वती नदी के तट पर था।
⋙ श्रीकुंड
संज्ञा पुं० [सं० श्रीकुण्ड] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ श्रीकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्रत जिसमें केवल श्रीफल (बेल) खाकर रहते हैं।
⋙ श्रीकृष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कृष्ण'—१। यौ०—श्रीकृष्णस्मरण=पुष्टिमार्गीय जनों का नमस्कार। उ०— तब उन वैष्णन कों श्रीकृष्णस्मरण करि बोहोत आदर करि बैठारि।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ७७।
⋙ श्रीक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] जगन्नाथ पुरी तथा उसके आसपास के प्रदेश का नाम, जो पुण्य क्षेत्र माना जाता है।
⋙ श्रीखंड
संज्ञा पुं० [सं० श्रीखण्ड] १. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार काचंदन जो हरिचंदन भी कहलाता है। मलयागिरि चंदन। उ०—मुकता माल नंद नंदन उर अर्ध सुधा घट कांति। तनु श्रीखंड मेघ उज्जवल अति देखि महाबल भाँति।—सूर (शब्द०)। २. एक पेय पदार्थ। दे० 'शिखरण'। उ०— कलिया अरु कबाब बर स्वादू। तिमि श्रीखंड करन अहलादू।—रघुराज (शब्द०)। ३. वैश्यों की एक जाति।
⋙ श्रीखंड शैल
संज्ञा पुं० [सं० श्रीखण्ड शैल] मलय पर्वत, जहाँ श्रीखंड (चंदन) होता है।
⋙ श्रीखंडा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'श्रीखंड'।
⋙ श्रीगंध
संज्ञा पुं० [सं० श्रीगन्ध] सफेद चंदन। संदल।
⋙ श्रीगणेश
संज्ञा पुं० [सं०] आरंभ। प्रारंभ। शुरुआत। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ श्रीगदित
संज्ञा पुं० [सं०] उपरूपक के अठारह भेदों में से एक भेद। विशेष—इसकी रचना प्रायः किसी पौराणिक घटना के आधार पर होती है। इसका दूसरा नाम श्रीरासिका भी है।
⋙ श्रीगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. खड्ग। तलवार। ३. राजा का शयनकक्ष (को०)।
⋙ श्रीगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] वैश्यों की एक जातिविशेष।
⋙ श्रीगेह
संज्ञा पुं० [सं०] कमल। पद्म।
⋙ श्रीगोंड
संज्ञा पुं० [सं० श्री + हिं० गोंड] वैश्यों की एक जाति विशेष।
⋙ श्रीग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ चिड़ियों के पानी पीते का प्रबंध हो।
⋙ श्रीग्रामर
संज्ञा पुं० [सं०] नारायण। विष्णु [को०]।
⋙ श्रीघन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दही। दघि। २. बुद्धदेव का एक नाम। ३. बौद्ध यति या संन्यासी।
⋙ श्रीचंदन
संज्ञा पुं० [सं० श्रीचन्दन] सफेद चंदन। संदल।
⋙ श्रीचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार का चक्र या यंत्र। विशेष—इसका व्यवहार देवी के पूजन में, विशेषतः त्रिपुरासुंदरी देवी के पूजन में होता हैं। २. भूमंडल। ३. इंद्र के रथ का एक चक्र (को०)।
⋙ श्रीचमरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का हिरन।
⋙ श्रीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। मदन। २. शांब का एक नाम।
⋙ श्रीटंक
संज्ञा पुं० [सं० श्रीटङ्क] संगीत में एक प्रकार का राग, जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।
⋙ श्रीणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात। रात्रि।
⋙ श्रीतरु
संज्ञा पुं० [सं०] सर्ज वृक्ष। साल का पेड़। शाल।
⋙ श्रीतल
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णुपुराण के अनुसार एक नरक का नाम।
⋙ श्रीताल
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़ या ताल के वृक्ष से मिलता जुलता एक प्रकार का वृक्ष जिसे हिंताल भी कहते हैं। विशेष—यह मलाया देश में उत्पन्न होना है। वैद्यक के अनुसार यह मधुर, कृछ कृछ खट्टा, कफकारक, किंचित् वायु को कुपित करनेवाला तथा पित्त का नाश करनेवाला माना गया है। पर्या०—मृदुताल। लक्ष्मीताल। मृदुच्छद। विशालपत्र। मसी- लेखदल। शिरालपत्रक।
⋙ श्रीतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ श्रीतेज, श्रीतेजा
संज्ञा पुं० [सं० श्रीतेजस्] ललितविस्तर के अनुसार एक बुद्ध का नाम।
⋙ श्रीद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] धन देनेवाले, कुबेर।
⋙ श्रीद (२)
वि० १. श्री बढ़ानेवाला। २. शोभा बढ़ानेवाला।
⋙ श्रीदयित
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।
⋙ श्रीदामा
संज्ञा पुं० [सं० श्रीदामन्] श्रीकृष्ण के एक ग्वाल सखा का नाम, जिन्हें सुदामा भी कहते है। उ०—हँसि हँसि तारी देत सखा सब भए श्रीदामा चोर। सुरदास हँसि कहति यशोदा जीत्यो है सुत मोर।—सूर (शब्द०)।
⋙ श्रीदेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वसुदेव को पत्नी सुदेवा का एक नाम।
⋙ श्रीद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्रीवृक्ष' [को०]।
⋙ श्रीधन्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ श्रीधर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। उ०—धनि धनि नंद धन्य निशिवासर धनि यशुमति जिन श्रीधर जाए।—सूर (शब्द०)। २. शालग्राम शिलाचक्र (को०)। ३. जैनियों के चौबीस तीर्थंकरों में से सातवें तीर्थंकर का नाम। ४. श्रीधर स्वामी। श्रामद् भागवत के एक ख्यातनामा टाकाकार।
⋙ श्रीधर (२)
वि० तेजस्वी। तेजवान्।
⋙ श्रीधाम
संज्ञा पुं० [सं०] १. लक्ष्मी का निवासस्थान। २. पद्म।
⋙ श्रीनंदन
संज्ञा पुं० [सं० श्रीनन्दन] १. कामदेव। २. एक ताल का नाम (को०)।
⋙ श्रीनगर
संज्ञा पुं० [सं०] काश्मीर राज्य की आधुनिक राजधानी। २. राजतरंगिणी में उल्लिखित दो नगर जिनसें एक कानपुर और दूसरा बुंदेलखंड में था [को०]।
⋙ श्रीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णुक का एक नाम।
⋙ श्रीनाथजी द्वार
संज्ञा पुं० [सं० श्रीनाथ + हिं० जी + सं० द्वार] वल्लभ मतानुयायियों का एक पवित्र तीर्थ जो उदयपुर में है। उ०—ऐसे करत कछुक दिन में श्री गुसाई जी द्वारिकाजी तें श्रीनाथजी द्वार पधारे।—दो सौ बावन०, भा० २. पृ० १०।
⋙ श्रीनिकेत
संज्ञा पुं० [सं०] १. लक्ष्मी का निवासस्थान, वैकुंठ। उ०—श्रीनिकेत समेत सब सुख रूप प्रगट निधान। अधर सुधा पिआइ बिछुरे पठै दीनो ज्ञान।—सूर (शब्द०)। २. गंधा- बिरोजा। सरल निर्यास। ३. लाल कमल। ४. स्वर्ण। सोना।
⋙ श्रीनिकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. लक्ष्मी का निवासस्थान, वैकुंठ। ३. गंधाबिरोजा। सरल निर्यास।
⋙ श्रीनितंबा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रीनितम्बा] राधा का एक नाम।
⋙ श्रीनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम।
⋙ श्रीनिवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। २. श्री या लक्ष्मी का निवासस्थान, वैकुंठ। उ०—श्रीनिवास पुर ते अधिक रचना विविध प्रकार।—मानस, १।१२९।
⋙ श्रीनिवासक
संज्ञा पुं० [सं०] कटसरैया।
⋙ श्रीपंचमी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रीपञ्चमी] माध शुल्क पंचमी। बसंत पंचमी।
⋙ श्रीपत पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रीपति] विष्णु। (डिं०)।
⋙ श्रीपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। नारायण। हरि। उ०— (क) श्रीपति निज माया तब प्रेरी।—मानस, १।१२६। (ख) जाके सखा श्यामसुंदर से श्रीपति सकल सुखन के दाता।—सूर (शब्द०)। २. रामचंद्र। उ०—बार बार श्रीपति कहै केवट नहिं मानै।—सूर (शब्द०)। ३. कृष्ण। उ०—तो हम कछु न बसाइ पार्थ जो श्रीपति तोहि जितावै।—सूर०, १।२७५। ४. कुबेर। ५. पृथ्वीपति। नृप। राजा।
⋙ श्रीपथ
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ी और चौड़ी सडक। राजमार्ग। राजपथ।
⋙ श्रीपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वार्षिकी पुष्पवृक्ष। मल्लिका। बेला।
⋙ श्रीपद्म
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण का एक नाम।
⋙ श्रीपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल। पद्म। २. अग्निमंथ वृक्ष। अरनी। गनियारी।
⋙ श्रीपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटफल। कायफल। २. गंभारी ३. गनियारी। अरनी। ४. पृश्मिपर्णो। पिठवन। ५. सेमल का पेड़। शाल्मलि।
⋙ श्रीपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कायफर। कायफल। २. र्गभारी। ३. गनियारी। अरनी। ४. पिठवन। ५. सेमल का पेड़।
⋙ श्रीपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।
⋙ श्रीपा
वि० [सं०] श्री की रक्षा करनेवाला। समृद्धि का रक्षण। करनेवाला।
⋙ श्रीपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो चरण पूजने योग्य हो। पूज्य। श्रेष्ठ। २. धनवान्। संपन्न।
⋙ श्रीपिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] सरल वृक्ष का रस। गंधाबिरोजा।
⋙ श्रीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्व। घोड़ा। २. कामदेव। ३. चंद्रमा (को०)। ४. इंद्र का अश्व (को०)।
⋙ श्रीपुर
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण का मणिद्वीप नामक स्थान। विशेष—यह वाममार्गी शाक्तों का प्रधान स्थान है। यहीं ये लोग मुक्ति का सुख अनुभव करते हैं।
⋙ श्रीपु्ष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. लौंग। लवंग। २. पद्मकाष्ठ। पदुमाख। ३. पुंडेरी। ४. सफेद कमल।
⋙ श्रीप्रद
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो श्री या सौभाग्य प्रदान करता हो।
⋙ श्रीप्रदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] राधा का एक नाम।
⋙ श्रीप्रसून
संज्ञा स्त्री० [सं०] लौंग। लवंग।
⋙ श्रीप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] हरताल।
⋙ श्रीफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेल। २. नारियल। उ०—(क) श्रीफल मधुर चिरौजी आनी। सफरी चिरुआ अरु नय वाणी। —सूर (शब्द०)। (ख) हिया थार कुच कनक कचुरा। जानहुँ दोऊ श्रीफल जूरा।—जायसी (शब्द०)। ३. खिरनी। राजादनी वृक्ष। ४. आँवला। ५. कच्ची चिकनी सुपारी। ६. द्रव्य। धन। उ०—श्रीफल को अभिलाष प्रगट कवि कुल के जी में।—केशव (शब्द०)।
⋙ श्रीफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नीली। नील का पौधा। २. करेली। क्षुद्र कारवेली। ३. आँवला।
⋙ श्रीफलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्षुद्र कारवेली। करेली। २. महानीली का पौधा।
⋙ श्रीफली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आँवला। २. नील। ३. बड़ी मालकँगनी। महाज्योतिष्मती लता।
⋙ श्रीबंधु
संज्ञा पुं० [सं० श्रीबन्धु] १. अमृत। २. चंद्रमा।—अनेकार्थ०, पृ० ३०।
⋙ श्रीबन
संज्ञा पुं० [सं० श्री + बन] वृंदावन। उ०—प्रीतम के शृंगार के अर्थ श्रीबन (निधि बन) की लताओं में गुंजा एकत्रित कर उसकी माला पिरोवै।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १९६।
⋙ श्रीबीज
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़। ताल वृक्ष।
⋙ श्रीभक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मधुपर्क जो देवताओं के सामने रखा जाता या दान किया जाता है। विशेष दे० 'मधुपर्क'—१।
⋙ श्रीभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] मुस्तक। मोथा।
⋙ श्रीभद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भद्रमोथा। भद्रमुस्तक।
⋙ श्रीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत के अनुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम, जिनका जन्म सत्यभामा के गर्भ से हुआ था।
⋙ श्रीभ्राता
संज्ञा पुं० [सं० श्रीभ्रातृ] अश्व, चंद्र, अमृत आदि चौदह रत्न जो समुद्र से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी या श्री के भाई कहे जाते हैं।
⋙ श्रीमंगल
संज्ञा पुं० [सं० श्रीमङ्गल] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ श्रीमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रीमञ्जरी] तुलसी। सुरसा।
⋙ श्रीमंजु
संज्ञा पुं० [सं० श्रीमञ्जु] एक पर्वत का नाम।
⋙ श्रीमंडप
संज्ञा पुं० [सं० श्रीमण्डप] एक पर्वत का नाम।
⋙ श्रीमंत (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रीमन्त] १. एक प्रकार का शिरोभूषण। उ०—शीश सचिक्कन केश हो बिच श्रीमंत सँवारि।—सूर (शब्द०)। २. स्त्रियों के सिर के बीच की माँग।
⋙ श्रीमंत (२)
वि० १. श्रीमान्। धनवान्। धनाढ्य। धनी। २. सुंदर। सौंदर्यशाली।
⋙ श्रीमकुट
संज्ञा पुं० [सं०] सोना। स्वर्ण [को०]।
⋙ श्रीमत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिल पुष्प। २. पीपल। अश्वत्थ। वृक्ष। ३. विष्णु का एक नाम। ४. शिव का एक नाम। ५. कुबेर। ६. ऋषभक नामक अष्टर्गीय ओषधि। ७. हल्दी का पौधा। ८. शुक। सुग्गा (को०)। ९. प्रजनन कराने के लिये रखा हुआ वृष (को०)। १०. पुरुष एवं ग्रंथादि के नाम के आदि में प्रयुक्त शब्द।
⋙ श्रीमत् (२)
वि० १. जिसके पास बहुत अधिक धन हो। धनवान्। अमीर। २. जिसमें श्री या शोभा हो। ३. सुंदर। खूबसूरत। ४. प्रसिद्ध। ख्यात। आदरणीय (को०)।
⋙ श्रीमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. 'श्रीमान्' का स्त्रीलिंग वाचक शब्द। स्त्रियों के लिये आदरसूचक शब्द। जैसे,—श्रीमती सुभद्रा देवी। २. लक्ष्मी। ३. राधा का एक नाम। ४. मुंडिका। मुंडी। ५. पत्नी (को०)।
⋙ श्रीमत्कुंभ
संज्ञा पुं० [सं० श्रीमत्मकुम्भ] सोना।
⋙ श्रीमत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. 'श्रीमत्' या 'श्रीमान्' होने का भाव या धर्म। २. संपन्नता। अमीरी।
⋙ श्रीमद
संज्ञा पुं० [सं०] धनमद। संपत्ति का गर्व। उ०—(क) श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि प्रभूता बधिर न काहि। मृगलोचनि के नैनसर को अस लाग न जाहि।—मानस, ७।७०। (ख) ऐ परि यह श्रीमद है जैसो। बड़ अनर्थकर अवर न ऐसो।—नंद० ग्रं०, पृ० २५२।
⋙ श्रीमय
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ श्रीमलापहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तमाखू। तमाकू।
⋙ श्रीमस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लहसुन। २. लाल आलू।
⋙ श्रीमहिमा
संज्ञा पुं० [सं० श्रीमहिमन्] शिव। महादेव।
⋙ श्रीमान् (१)
वि० [सं० श्रीमत्] १. लक्ष्मीवान्। धनवान्। अमीर। २. शोभायुक्त। शोभावान्। ३. सुंदर। ४. यशस्वी। प्रसिद्ध (को०)। ५. प्रसन्न। भाग्यशाली (को०)।
⋙ श्रीमान् (२)
संज्ञा पुं० १. तिल पुष्पी। २. पीपल। अश्वत्थ वृक्ष। ३. हल्दी। हरिद्रा। ४. ऋषभक नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ५. विष्णु। ६. शिव। ७. कुबेर। ८. सुग्गा। शुक (को०)। ९. साँड़ (को०)।
⋙ श्रीमान
संज्ञा पुं० [सं० श्रीमत्] आदरसूचक शब्द जो नाम के आदि में रखा जाता है। उ०—जय जय जय श्रीमान महावपु जय जय जगत अधार।—सूर (शब्द०)।
⋙ श्रीमाल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति।
⋙ श्रीमाल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्री + माला] गले में पहनने का एक आभूषण। कंठश्री। उ०—चिबुल तर कंठ श्रीमाल मोतीन छबि कुच उचनि हेम गिरि अतिहि लाजै।—सूर (शब्द०)।
⋙ श्रीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. शोभित या सुंदर मुख। उ०—आगम कल्प रमण तुव ह्वै है श्रीमुख कही बखान।—सूर (शब्द०)। २. बृहस्पति के साठ संवत्सरों में से सातवाँ संवत्सर। ३. विष्णु का मुख, वेद। ४. सूर्य। उ०—व्योम में मुनि देखिए अति लाल श्रीमुख साजहीं।—केशव (शब्द०)। ५. वह पत्र लेख आदि जिसके प्रारंभ में स्वातिवाचक शब्द श्री लिखा हुआ हो।
⋙ श्रीमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैष्णर्वों का तिलक जो मस्तक पर लगाया जाता है।
⋙ श्रीमूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विष्णु की मूर्ति। २. लक्ष्मी प्रतिमा। प्रतिमा। मूर्ति (को०)।
⋙ श्रीयुक्त
वि० [स०] १. जिसमें श्री या शोभा हो। २. एक आदर- सूचक विशेषण, जो बड़े आदमियों के नाम के साथ लगाया जाता है। जैसे,—श्रीयुक्त केशवचंद्र सेन। ३. लक्ष्मीवान्। धनाढ्य (को०)। ४. प्रसिद्ध [को०]।
⋙ श्रीयुत
वि० [सं०] दे० 'श्रीयुक्त'।
⋙ श्रीरंग
संज्ञा पुं० [सं० श्रीरङ्ग] १. विष्णु। लक्ष्मीपति। उ०—काके होहिं जो नहिं गोकुल के सूरज प्रभु श्रीरंग।—सूर (शब्द०)। २. संगीतदामोदर के अनुसार ताल के साठ मुख्य भेदों मे से एक भेद।
⋙ श्रीरंगपट्टन
संज्ञा पुं० [सं० श्रीरङ्गपट्टन] दक्षिण में मैसूर राज्य के अंतर्गत एक प्रसिंद्ध तीर्थ का नाम। विशेष—पहले मैसूर राज्य की यही राजधानी थी। यहाँ 'श्रीरंगस्वामी' नाम कौ एक प्रसिद्ध विष्णुमूर्ति है, जिसके कारण इसका यह नाम पड़ा है।
⋙ श्रीर पु
संज्ञा पुं० [सं० शरीर] दे० 'शरीर'। उ०—कितनेक दिवस तिन तज्यौ श्रीर। भंडार पाहि नह सुनौ बोर।—पृ० रा०, २४।२१।
⋙ श्रीरमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक संकर राग जो शंकराभरण और मालश्री को मिलाकर बनाया गया है। (संगीत)। २. विष्णु।
⋙ श्रीरवन पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रीरमण] लक्ष्मी में रमण करनेवाले, विष्णु।
⋙ श्रीरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधाबिरोजा। श्रीवेष्ट। २. तारपीन का तेल।
⋙ श्रीराग
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में छह रागों में से तीसरा राग, जो संपूर्ण जाति का है और पृथ्वी की नाभि से उत्पन्न माना गया है। विशेष—हनुमत के मत से यह पाँचवाँ राग है और इसका स्वर- ग्राम इस प्रकार है—सा रे ग म प ध नि सा अथवा नि ग म प ध नि सा रे। यह हेमंत ऋतु में तीसरे पहर या संध्या समय गाया जाता है। सोमेश्वर के मत से मालवी, त्रिवेणी, गौरी, केदारा, मधुमाधवी और पहाड़ी ये छह इसकी भार्याएँ या रागिनियाँ हैं; और संगीतदामोदर में गांधारी देवगांधारी, मालवश्री, साखी और रामकीरी ये पाँच रागिनियाँ कही गई हैं। सिंधु, मालव, गौड़, गुणसार, कुंभ, गंभीर, विहाग और कल्याण ये आठ इसके पुत्र कहे गए हैं।
⋙ श्रीराम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'राम'। विशेष दे० 'रामचंद्र'।
⋙ श्रीरामनवमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'रामनवमी'।
⋙ श्रीरूपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] राधा।
⋙ श्रील
वि० [सं०] १. धनाढ्य। धनी। २. सौंदर्यशाली। ३. सौभाग्य- शाली। ४०. ४. प्रसिद्ध (को०)।
⋙ श्रीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी मालकँगनी। ज्योतिष्मती लता।
⋙ श्रीवंत
वि० [सं० श्रीमत्, श्रीमन्त्] ऐश्वर्यवान्। संपत्तिशाली।
⋙ श्रीवत्स
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. विष्णु के वक्षस्थल पर अंगुष्ठ प्रमाण श्वेत बालों का दक्षिणावर्त भौंरी का सा चिह्न, जो भृगु के चरण प्रहार का चिह्न माना जाता है। उ०—वन के धातु चित्र तनु किए। श्रीवत्स चिह्न राजत असि हिए।—सूर (शब्द०)। यौ०—श्रीवत्सवारी, श्रीवत्सभृत, श्रीवत्सलक्ष्मा, श्रीवत्सलांछन, श्रीवत्सांक=विष्णु। ३. जैनों के अनुसार अर्हतों का एक चिह्न। ४. सेंध (को०)।
⋙ श्रीवत्सक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्रीवत्सकी'।
⋙ श्रीवत्सकी
संज्ञा पुं० [सं० श्रीवत्सकिन्] वह घोबा जिसके वक्षपर दक्षिणावर्त भौंरी हो [को०]।
⋙ श्रीवर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु। श्रीवल्लभ।
⋙ श्रीवराह
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का वराह अवतार।
⋙ श्रीवर्द्धन
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राग का नाम। २. शिव का एक नाम।
⋙ श्रीवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. लक्ष्मी का प्रिय। धनी व्यक्ति [को०]।
⋙ श्रीवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की कँटीली लता या चढ़नेवाली झाड़ी, जिसका व्यवहार औषध में होता है। विशेष—यह लता कुछ दिनों तक यों हीं खड़ी रहती है, पीछे बढ़ने पर किसी वृक्ष आदि का आश्रय लेती है। इसके डंठल और टहनियाँ भूरे रंग को होती हैं तथा उनपर टेढ़े काँटे होते हैं। यह फागुन से फूलने लगती है और आषाढ़ तक फलती है। इसमें छोटी छोटी फलियाँ लगती हैं। वैद्यक में ये फलियाँ हलकी, रेचक और वमनकारक कही षई हैं। इस पौधे की फली, पत्ती और छाल तीनों औषधोपयोगी हैं। पर्या०— शितवल्ली। कंटवल्ली। अभ्ला। कटुफला। दुरारोहा।
⋙ श्रीवह
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग का नाम।
⋙ श्रीवाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पान। नागवल्ली भेद।
⋙ श्रीवारक
संज्ञा पुं० [सं०] सितावर शाक। शिरियारी।
⋙ श्रीवास, श्रीवासक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधाबिरोजा। सरल निर्यास। २. तारपीन का तेल। ३. गुगल। ४. देवदारु। ५. राल। धूप। करायल। ६. चंदन। संदल। ७. कमल। ८. विष्णु। ९. शिव।
⋙ श्रीवासच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूप का पेड़। सरल वृक्ष। २. चंदन। ३. पदुमाख। पद्मकाष्ठ।
⋙ श्रीवाससार
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधाबिरोजा। २. तारपीन का तेल।
⋙ श्रीवासा
संज्ञा पुं० [सं० श्रीवासस्] गंधाबिरोजा। सरल द्रव।
⋙ श्रीविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक महाविद्या। त्रिपुरसुंदरी [को०]।
⋙ श्रीवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वत्थ वृक्ष। पीपल। २. बिल्व वृक्ष। ३. घोड़े के मस्तक और छाती पर बालों की भौंरी। श्रीवत्सक (को०)।
⋙ श्रीवृक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े की छाती पर की एक भँवरी जो शुभ मानी जाती है। २. एक व्रत का नाम।
⋙ श्रीवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बोधिद्रुम पर की एक देवी। (ललित- विस्तर)। २. समृद्धि। वृद्धि। संपन्नता। उ०—अत्यंत प्रसन्नता का अवसर है कि इधर हमारी भाषा और हमारे साहित्य की उत्तरोत्तर श्रीवृद्धि होती जा रही है।—रस क० (प्रा०), पृ० १।
⋙ श्रीवेष्ट, यीवेष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरल द्रव। गंधाबिरोजा। २. तारपीन का तेल। सरल वृक्ष।
⋙ श्रीवैष्णव
संज्ञा पुं० [सं०] रामानुज के अनुयायी वैष्णव। वैष्णवों का एक संप्रदाय।
⋙ श्रीश
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ श्रीसंज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] लौंग। लवंग।
⋙ श्रीसंपदा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रीसम्पदा] ऋद्धि नामक अष्टर्गीय ओषधि।
⋙ श्रीसंभूता
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रीसम्भूता] ज्योतिष में कर्म मास की छठी रात्रि।
⋙ श्रीसदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रजनी। निशि। रात्रि। उ०—निसि श्रीसदा विभावरी, रात्री त्रिजामा सोय।—अनेकार्थ (शब्द०)। विशेष—इस अर्य में यह शब्द संस्कृत कोशों में नहीं मिलता।
⋙ श्रीसमाध
संज्ञा पु० [सं०] एक राग जो श्री, शुद्ध, मालश्री, भीम पलाश्री और टंक को मिलाकर बनाया जाता है।
⋙ श्रीसहोदर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। (चंद्रमा और लक्ष्मी दोनों समुद्र से उत्पन्न हैं)।
⋙ श्रीसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष के अनुसार सोलहवाँ योग [को०]।
⋙ श्रीसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] ऋग्वेदोक्त एक सूक्त का नाम [को०]।
⋙ श्रीहट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक नगर का नाम। सिलहट।
⋙ श्रीहत
वि० [सं०] १. शोभारहित। २. निस्तेज। निष्प्रभ। प्रभाहीन। उ०—(क) नमित सीस सोचहिं सलज्ज सब श्रीहत सरोर।—तुलसी (शब्द०)। (ख) वे शेर हो गए आज रण भए में श्रीहत खंडित।—अपरा, पृ० ४७।
⋙ श्रीहरि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ श्रीहर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. नैषध काव्य के रचयिता संस्कृत के प्रसिद्ध पंडित और कवि जो कान्यकूव्ज के गहखार राजा को आश्रित थे। २. रत्नावली, गागानंद और प्रियदर्शिका नाटकों के रचयिता जो संभवतः कान्यकुब्ज के प्रसिद्ध सम्राट् हर्षवर्द्धन थे।
⋙ श्रीहस्तिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हस्तिशुंडी। नागदंती। २. सूर्य- मुखी का पौधा।
⋙ श्रुग्ग पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ग] दे० 'स्वर्ग'। उ०—सुबर सूर सामंत, गुन, श्रुग्ग मत्त मति भोग।—पृ० रा०, २५।६६२।
⋙ श्रुग्वारु
संज्ञा पुं० [सं०] विकंकत। कंटाई। कंज बृक्ष।
⋙ श्रुघ्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सज्जीखार।
⋙ श्रुतधर
संज्ञा पुं० [सं० श्रुतन्धर] वास्तुविद्या में एक प्रकार का मंडप।
⋙ श्रुत
वि० [सं०] १. सुना हुआ। जो श्रवणगोचर हुआ हो। २. जिसे परंपरा से सुनते आते हों। ३. ज्ञात। प्रसिद्ध। ख्यात। ४. सीखा़ हुआ। समझा हुआ (को०)। ५. प्रतिज्ञात।
⋙ श्रुत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुनने का विषय। श्रुतिविषय शब्दादि। २. वेद। ३. विद्या। ४. सुनने को क्रिया [को०]।
⋙ श्रुतकाम
वि० [सं०] वेदादि पवित्र ज्ञान का इच्छुक।
⋙ श्रुतकीर्ति (१)
वि० [सं०] जिसकी कीर्ति प्रसिद्ध हो। कीर्तियुक्त।
⋙ श्रुतकीर्ति (२)
संज्ञा पुं० १. अर्जुन के एक पुत्र का नाम। २. उदार चरित व्यक्ति (को०)। ३. संत। ऋषि (को०)।
⋙ श्रुतकीर्ति (३)
संज्ञा स्त्री० राजा जनक के भाई कुशध्वज की कन्या, जो शत्रुघ्न को ब्याही थी।
⋙ श्रुतकेवली
संज्ञा पुं० [सं० श्रुतकेवलिन्] एक प्रकार के अर्हत् जो छह् कहे गए हैं। (जैन)।
⋙ श्रुतदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती।
⋙ श्रुतधर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कान। २. पुराणनुसार। शाल्मलि द्विप के ब्राह्मणों की संज्ञा।
⋙ श्रुतधर (२)
वि० सुनी हुई बात का स्मरण रखनेवाला [को०]।
⋙ श्रुतनिगदी
वि० [सं० श्रुतनिगदिन्] जो एक बार सुने हुए पद्य आदि को ज्यों का त्यों कह सके।
⋙ श्रुतनिष्क्रय
संज्ञा पुं० [सं०] शिक्षा प्राप्त करने के बदले दिया जानेवाला धन। शिक्षा शुल्क। (अं० टयूशन फोस)।
⋙ श्रुतपूर्व
वि० [सं०] जो पहले सुना गया हो। जानाबूझा।
⋙ श्रुतर्षि
संज्ञा पुं० [सं०] ऋषि विशेष [को०]।
⋙ श्रुतवास
वि० [सं० श्रुत + वास] वेदज्ञ। विद्वान्। उ०—सिद्धि श्री श्रीनिवास, पास, श्रुतवास सहायक।—नंद० ग्रं०, पृ० २०५।
⋙ श्रुतविज्ञ
वि० [सं०] वेदज्ञ। वेद शास्त्र का पंडित [को०]।
⋙ श्रुतवित्त
वि० [सं०] वैदिक। वेदज्ञ। श्रुताढ्य [को०]।
⋙ श्रुतवृद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] विद्वान्।
⋙ श्रुतशील (२)
वि० [सं०] विद्वान् और सदाचारी।
⋙ श्रुतशील (२)
संज्ञा पुं० विद्या और सदाचार (मनु०)।
⋙ श्रुतश्रुवा
संज्ञा पुं० [सं० श्रुत श्रवस्] शिशुपाल के पिता का नाम [को०]।
⋙ श्रुतश्रुवानुज
संज्ञा पु० [सं०] शनिग्रह [को०]।
⋙ श्रुतश्रीणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १, मूषाकानी। २. नदी [को०]।
⋙ श्रुता
वि० स्त्री० [सं० श्रुत] ख्यात। प्रसिद्ध। श्रुत। उ०—वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा, वह सगर पुत्र तारिणी, श्रुता।—ग्राम्या, पृ० ४२।
⋙ श्रुतादान
संज्ञा पुं० [सं०] व्रह्मवाद [को०]।
⋙ श्रुताघ्ययन
संज्ञा पुं० [सं०] वेद का अध्ययन [को०]।
⋙ श्रुतान्वित
वि० [वि०] शास्त्रज्ञ। शास्त्रवेत्ता।
⋙ श्रुतायु
संज्ञा पुं० [सं०] राम के पुत्र कुश के वंशज एक सूर्य- वंशी राजा।
⋙ श्रुतायुध
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा, जिसके पिता वरुण ने उसे एक ऐसी गदा प्रदान की थी कि जो युद्धकर्ता पर फेंकने से उसका अवश्य नाश कर देती थी, पर युद्ध न करनेवाले के ऊपर चलाने से वह लौटकर चलानेवाले ही के प्राण ले लेती थी।
⋙ श्रुतार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] कहा हुआ अथवा सुना हुआ तथ्य [को०]।
⋙ श्रुतार्थापत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अर्थापत्ति' [को०]।
⋙ श्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्रवण करने की क्रिया या भाव। सुनना। २. सुनने की इंद्रिय। श्रवण। कान। ३. वह जो सुना जाय। सुनी हुई बात। ४. शब्द। ध्वनि। आवाज ५. खबर। शुहरत। किंवदंती। ६. कथन। बात। ७. वह पवित्र ज्ञान जो सृष्टि के आदि में ब्रह्मा या कुछ महर्षियों द्वारा सुना गया और जिसे परंपरा से ऋषि सुनते आए। वेद। निगम। विशेष—'श्रुति' के अंतर्गत पहले मंत्र और ब्राह्मण भाग ही लिए जाते थे, पर पीछे उपनिषदें भी मानी गईं। ८. चार की संख्या (वेद चार होने से)। ९. संगीत में किसी सप्तक के बाईस भागों में से एक भाग अथवा किसी स्वर का एक अंश। विशेष—स्वर का आरंभ और अंत इसी से होता है। षड्ज में चार, ऋषभ में तीन, गांधार में दो, मध्यम में चार, पंचम में चार, धैवत में तीन और निषाद में दो श्रुतियाँ होती हैं। १०. अनुप्रास का एक भेद। ११. त्रिभुज के समकोण के सामने की भुजा। १२. नाम। अभिधान। १३. विद्या। १४. विद्वत्ता। १५. अत्रि ऋषि की कन्या, जो कर्दम की पत्नी थीं। १६. श्रवण नाम का नश्रत्र (को०)। १७. वाक्। वाणी (को०)। १८. ख्याति। कीर्ति (को०)।
⋙ श्रुतिकट
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प। साँप। २. तप।
⋙ श्रुतिकटु
संज्ञा पुं [सं०] काव्यरचना में एक दोष। कठोर और कर्कश वर्णों का व्यवहार। दुश्रवत्व। विशेष—द्वित्व वर्ण, टवर्ग और मूर्धन्य वर्ण कठोर माने गए हैं। श्रुतिकटु नित्य दोष नहीं हैं, अनित्य दोष है क्योंकि यह सर्वत्र दोष नहीं होता, केवल शृंगार, करुण आदि कोमल रसों में कठोर वर्ण दोषाध्यायक होते हैं, वीर, रौद्र आदि में नहीं।
⋙ श्रुतिकीर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्रुतकीर्ति'।
⋙ श्रुतिगोचर
वि० [सं०] जो सुना जाय। श्रव्य। श्रोतव्य। उ०— अशोक अपनी जिन बातों को चिरकाल के लिये श्रुतिगोचर कराना चाहते थे उन्हें उन्होंने पहाड़ के गात्रपर खोद दिया था।—सा० द०, पृ० ५८।
⋙ श्रुतिचोदन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० श्रुतिचोदना] वेदविधि। शास्त्रीय आज्ञा [को०]।
⋙ श्रुतिजीविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्मृति। धर्मशास्त्र।
⋙ श्रुतिजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनेक प्रकार की श्रुतियों का समूह। दे० 'श्रुति'—२।
⋙ श्रुतिजातिविशारद
वि० [सं०] जो नाना प्रकार की श्रुतियों का ज्ञाता हो [को०]।
⋙ श्रुतिजीविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्मृति। धर्मशास्त्र।
⋙ श्रुतिदुष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] श्रुतिकटु दोष। दुःश्रवत्व।
⋙ श्रुतिदुषक
वि० [सं०] १. वेदवचनों में दोष बतानेवाला। २. कानों को कष्ट पहुँचानेवाला [को०]।
⋙ श्रुतिद्वैध
संज्ञा पुं० [सं०] वेदविधियों का परस्पर विरोध [को०]।
⋙ श्रुतिधर
वि० [सं०] १. वेदज्ञ। २. सुननेवाला। श्रवणेंद्रिय संपन्न। उ०—वचन रहित वचन चयनों में चकित सकल श्रुतिधर।—गीतिका, पृ० २१०। ३. सुनी हुई बात को स्मरण रखनेवाला [को०]।
⋙ श्रुतिधरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदज्ञता। पांडित्य। उ०—ख्यात वह श्रुतिधरता, सान की शिखा वह अनिर्वात।—अपरा, पृ० २१४
⋙ श्रुतिनिगदी
वि० [सं० श्रुतिनिगदिन्] दे० 'श्रुतनिगदी' [को०]।
⋙ श्रुतिनिदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] श्रुति का प्रमाण। वेद का प्रमाण। वेद का दृष्टांत [को०]।
⋙ श्रुतिपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रवण मार्ग। श्रवणेंद्रिय। कर्णपथ। कान। श्रवण। उ०—बजती है श्रुतिपथ में वीणा, तारों की कोमल झंकार।—अपरा, पृ० १५५। मुहा०—श्रुतिपथ में आना=सुनाई पड़ना। २. वेदविहित मार्ग। सन्मार्ग।
⋙ श्रुतिपुट
संज्ञा पुं० [सं०] श्रवण। कर्णपुट [को०]।
⋙ श्रुतिप्रमाण
संज्ञा पुं० [सं०] वेद का प्रमाण [को०]।
⋙ श्रुतिप्रसादन
वि० [सं०] श्रवणमधुर। श्रुतिमधुर [को०]।
⋙ श्रुतिप्रामाण्य
संज्ञा पुं० [सं०] वेद की प्रामाणिकता [को०]।
⋙ श्रुतिभाल
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा [को०]।
⋙ श्रुतिमंडल
संज्ञा पुं० [सं०] कान का बाहरी घेरा। २. संगीत में श्रुतियों का समूह [को०]।
⋙ श्रुतिमति
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रुति + मति] वेद बुद्धि। उ०—भई सब श्रुतिमति बौर और खेल कैसे क्हूँ।—नद० ग्रं०, पृ० ३९५।
⋙ श्रुतिमधुर
वि० [सं०] कर्णप्रिय। कान को मधुर लगनेवाला [को०]।
⋙ श्रुतिमांथा पु
वि० [सं० श्रुति + हिं० माथा] श्रुतिमस्तक। वेदशिरो- मणि। उ०—छीरसिंधु गवने मुनिनाथा जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा।—मानस, १।१२८।
⋙ श्रुतिमाल
संज्ञा पुं० [सं०] (चार सिर वाले) ब्रह्मा।
⋙ श्रुतिमुख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] (चार मुख वाले) ब्रह्मा।
⋙ श्रुतिमुख (२)
वि० वेद ही जिसका मुख है।
⋙ श्रुतिमूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कान का मूल भाग। कान की जड़। २. वेद [को०]।
⋙ श्रुतिमूलक
वि० [सं०] जो वेद पर आधारित हो [को०]।
⋙ श्रुतिरंजक
वि० [सं० श्रुतिरञ्जक] जो कानों को सुखद हो [को०]।
⋙ श्रुतिवर्जित
वि० [सं०] १. वधिर। बहिरा। २. वेद के अभ्यास से रहित। ३. जो वेदविहित न हो (को०)।
⋙ श्रुतिविद
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रुतिविन्द] कुश द्विप की एक नदी।
⋙ श्रुतिविप्रतिपन्न
वि० [सं०] १. धर्म ग्रंथों की प्रमाण न माननेवाला। वेद विरोधी। २. जो वेद द्वारा ग्राह्य न हो। वेद के प्रतिकूल [को०]।
⋙ श्रुतिविवर
संज्ञा पुं० [सं०] कान का छेद। कर्ण कुहर [को०]।
⋙ श्रुतिविषय
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रवणेंद्रिय का विषय। शब्द। ध्वनि। २. कर्ण गोरता या कान की पहुँच या सीमा। ३. वेद का विषय। ४. धर्मानुमोदित विधि। विहित विधि [को०]।
⋙ श्रुतिवेध
संज्ञा पुं० [सं०] कनछेदन। कर्णवेध संस्कार।
⋙ श्रुतिशिखर
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपनिषद् या वेदांत। २. वेद का प्रमुख पाठ [को०]।
⋙ श्रुतिशिर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्रुतिशिखर' [को०]।
⋙ श्रुतिसागर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ श्रुतिसार
संज्ञा पुं० [सं० श्रुति + सार] वेद का सार। उ०—भो प्रभु यह तुम्हरी अवतार। सुलभहि प्रकट सकल श्रुतिसार।—नंद० ग्रं०, पृ० २६८।
⋙ श्रुतिसुख (१)
वि० [सं०] श्रवणसुखद। कानों को आनंद देनेवाला [को०]।
⋙ श्रुतिसुख (२)
संज्ञा पुं० श्रवणसुख। कानों द्वारा प्राप्त आनंद [को०]
⋙ श्रुतिसेतु पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रुति (=वेद) + सेतु=पुत्र)] श्रुतिमर्यादा। श्रुतिनियम। उ०—श्रुतिसेतु पालक राम तुम्ह जगदीश माया जानकी।—मानस, २।१२६। (ख) कोपेउ जबहि वारिचर- केतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुतिसेतू—मानस, १।८४।
⋙ श्रुतिस्फोटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कनफोड़ा। २. कणस्फोटा लता।
⋙ श्रुतिस्मृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेद और धर्मशास्त्र [को०]।
⋙ श्रुतिहारी
वि० [सं० श्रुतिहारिन्] कानों को अच्छा लगनेवाला। सुनने में मधुर।
⋙ श्रुती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्रुति' [को०]।
⋙ श्रुत्य (१)
वि० [सं०] १. सुना जाने योग्य। २. प्रसिद्ध। ३. प्रशस्त।
⋙ श्रुत्य (२)
संज्ञा पुं० ख्याति दिलाने वाला कार्य [को०]।
⋙ श्रुत्यनुप्रास
संज्ञा पुं० [सं०] अनुप्रास के पाँच भेदों में से एक। वह अनुप्रास जिसमें एक ही स्थान से उच्चरित होनेवाले व्यंजन दो या अधिक बार आवें। विशेष—कंठ, तालु, मूर्द्धा, दंत आदि उच्चारण के स्थान हैं। अतः भिन्न वर्ण होने पर भी यदि कई वर्ण एक ही उच्चारण- स्थान के हैं तो यह अनुप्रास होना।
⋙ श्रुव
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ। २. दे० 'स्रुव'।
⋙ श्रुवा
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्रुवा'। उ०—कुश मुद्रिका समिधै श्रुवा कुश औ कमंडल को लिए।—केशव (शब्द०)।
⋙ श्रुवावृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] विकंकत का पेड़ [को०]।
⋙ श्रुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कासमर्द। कसौदा।
⋙ श्रुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुनने की क्रिया। २. सहारा। सहायता। ३. वर। प्रसाद। अनुग्रह। ४. उन्नति। उत्फुल्लता। आनंद [को०]।
⋙ श्रुठी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्डी] पीपर। उ०—कोला, कृष्णा, मागधी, तिग्म तुंडला होइ, बैदेही स्यामा, कणा, श्रूठो कहियै सोइ।—नंद० ग्रं०, पृ० १०४।
⋙ श्रेटी, श्रेढी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का पहाड़ा। सेंड़ी। २. श्रेढी व्यवहार। श्रेढ़ीगणना का एक ढंग। यौ०—श्रेढीफल=पहाड़े का जोड़। श्रेणीव्यवहार=श्रेढ गणना की एक विधि।
⋙ श्रेणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बत सी वस्तुओं का ऐसा समूह जो उत्तरोत्तर रखा के रूप में कुछ दूर तक चला गया हो। पंक्ति। पाँती। कतार। २. एक के उपरांत दूसरा ऐसा लगातार क्रम। श्रृ़खला। परपरा। सिलसिला। यौ०—श्रेणिबद्ध=श्रेणीबद्ध। ३. दल। समूह। ४. सेना। फोज। ५. समान व्यवसायियों का दल। एक ही कारबार करनेवालों को मंडला। कंपनी। ६. पानी भरने का डोल। ७. सिकड़ी। जंजीर। ८. सोढ़ी। जीना। ९. किसी वस्तु का अगला या ऊपरी भाग।
⋙ श्रेणिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगला दाँत। राजदंत। २. मगध देश के राजा बिबसार का एक नाम।
⋙ श्रेणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डेरा। खेमा। तंबू। २. एक छंद का नाम। ३. एक तृण।
⋙ श्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्रेणि'। २. समान व्यवसायियों का दल। उ०—यहाँ भी व्यवसायियों को श्रेणियाँ थीं, जैसे कि गोवर्धन में २,००० जुलाहों को एक श्रेणी थी।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ३१८।
⋙ श्रेणीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्वापर क्रम से रखने का कार्य श्रेणीवद्ध करना। वर्णीकरण [को०]।
⋙ श्रेणीकृत
वि० क्रम से लगाया या सजाया हुआ [को०]।
⋙ श्रेणीधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यवसायियों को मंडली के नियम। व्यापारियों की नीति रोति। २. पंचायत की रीति या नियम।
⋙ श्रेणीपाद
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्रानुसार वह राष्ट्र या जनपद जिसमें श्रेणियों या पंचायतों की प्रधानता हो।
⋙ श्रेणीप्रमाण
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार वह शिल्पी या व्यापारी जो किसी श्रेणी के अंतर्गत हो और उसके मंतव्यों के अनुसार काम करता हो।
⋙ श्रेणीबंध
वि० [सं० श्रेणीबन्ध] दे० 'श्रेणीबद्ध' [को०]।
⋙ श्रेणीबद्ध
वि० [सं०] १. पंक्ति के रूप में स्थित। कतार बाँधे हुए। २. समूह बद्ध। वर्ग या दलबद्ध। ३. एक शृंखला में वैधा हुआ (को०)।
⋙ श्रेणीभुक्त
वि० [सं०] जो श्रेणी या पंक्ति में कर लिया गया हो। श्रेणी में आया या मिला हुआ [को०]।
⋙ श्रेणीसंघर्ष
संज्ञा पुं० [सं० श्रेणी + सङ्घर्ष] समानधर्मियों के एक वर्ग या श्रेणी का दूसरे से संघर्ष वर्गसंघर्ष। (अं० क्लास वार)। उ०—वे लोग सुधारवादी ढंग के विरोधी थे और श्रेणीसंघर्ष के द्वारा श्रमजीवियों की अवस्था को सुधारना चाहते थे।—भा० वि०; पृ० ७२।
⋙ श्रेणीहित
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ग का हित। वर्गीय स्वार्थ। (अं० क्लास इंटेरेस्ट)। उ०—मजदूरों के दृष्टिकोण को—उनके श्रेणीहित के साधनों को—न अपना सके।—'आज', पृ० ३, (३।१०।५१)।
⋙ श्रेय (१)
वि० [सं० श्रेयस्] [वि० स्त्री० श्रेयसी] १. अधिक अच्छा। बेहतर। २. श्रेष्ठ। उत्तम। बहुत अच्छा। प्रशस्त। ३. मंगल- दायक। शुभ। कल्याणकारी। ४. यश देनेवाला। कीर्तिकर। ५. अधिक सौभाग्यशाली (को०)। ६. अत्यंत प्रिय। प्रियतर (को०)। ७. उपयुक्त (को०)।
⋙ श्रेय (२)
संज्ञा पुं० १. अच्छापन। २. भलाई। बेहतरी। कल्याण। मंगल। ३. धर्म। पुण्य। सदाचार। ४. एक साम का नाम। ५. ज्योतिष में दुसरा मुहुर्त्त। ६. वर्त्तमान अवसर्पिणी के ग्यारहवें अर्हत्। (जैन)। ७. मुक्ति। मोक्ष (को०)। ८. शुभ अवसर (को०)। ९. सुख (को०)।
⋙ श्रेयसी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हरीतकी। हर्रे। २. पाठा। पाठी। ३. गज पीपल। ४. रास्ना। ५. प्रियंगु।
⋙ श्रेयसी (२)
वि० स्त्री० कल्याणमयी। श्रेययुक्ता [को०]।
⋙ श्रेयस्कर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० श्रेयस्करी] कल्याण करनेवाला। शुभदायक।
⋙ श्रेयस्त्व
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तमता। श्रेष्ठता [को०]।
⋙ श्रेयांसनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] वर्त्तमान अवसर्पिणी के ग्यारहवें अर्हत् या तीर्थंकर (जैन)।
⋙ श्रेष्ठ (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० श्रेष्ठा] १. सर्वोत्तम। उत्कृष्ट। बहुत अच्छा। २. मुख्य। प्रधान। प्रथम। ३. पूज्य। बड़ा। ४. बृद्ध। ज्येष्ठ। ५. कल्याण भाजन। ६. प्रियतम। अत्यंत प्रिय (को०)।
⋙ श्रेष्ठ (२)
संज्ञा पुं० १. कुबेर। २. विष्णु। ३. द्विज। ब्राह्मण। ४. राजा। नृप (को०)। ५. गोदुग्ध। गाय का दूध (को०)। ६. ताँबा (को०)। ७. शिव। महादेव (को०)।
⋙ श्रेष्ठकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. सागौन। सागवान का पेड़। २. घर में लगा प्रधान स्तंभ।
⋙ श्रेष्ठतम
वि० [सं०] सबसे श्रेष्ठ। सबसे बड़ा या ज्येष्ठ। सर्वोत्तम।
⋙ श्रेष्ठता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्तमता। २. प्रधानता। गुरुता। बड़ाई। बड़प्पन।
⋙ श्रेष्ठवाक्
वि० [सं० श्रेष्ठवाच्] वावदूक। मुखर। श्रेष्ठ वक्ता [को०]।
⋙ श्रेष्ठवेधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कस्तुरी। मृगमद [को०]।
⋙ श्रेष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहुत उत्तम स्त्री। २. स्थल कमल। ३. मेदा नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ४. त्रिफला।
⋙ श्रेष्ठाम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] इमली [को०]।
⋙ श्रेष्ठाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. गृहस्थाश्रम। २. गृहस्थ [को०]।
⋙ श्रेष्ठिकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यवसायी की पुत्री। सेठ महाजन की कन्या। उ०—घबराओ मत श्रेष्ठिकन्ये।—स्कंद०, पृ० ४४।
⋙ श्रेष्ठिचत्वर
संज्ञा पुं० [सं०] नगर का वह भाग जहाँ बड़े बड़े व्यापारी रहते हैं [को०]।
⋙ श्रेष्ठी
संज्ञा पुं० [सं० श्रेष्ठिन्] १. व्यापारियों या वणिकों का मुखिया। प्रतिष्ठित व्यवसायी। महाजन। सेठ। २. बड़ा व्यापारी। श्रीष्ठ व्यापारी।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ७८।
⋙ श्रेष्ठय
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वोत्कृष्टता। सबसे श्रेष्ठ होने का भाव [को०]।
⋙ श्रोण (१)
वि० [सं०] पंगु। खंज।
⋙ श्रोण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग [को०]।
⋙ श्रोण पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० शोण] दे० 'शोण'। उ०—श्रोण की सरिता दुरंत अनंत रूप सुनत।—केशव (शब्द०)।
⋙ श्रोणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काँजी। भात का माँड़। २. श्रवण नक्षत्र।
⋙ श्रोणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटि। कमर। २. निर्तब। चूतड़। ३. यज्ञ की वेदी का किनारा। ४. पथ। मार्ग। यौ०—श्रोणितट=नितंब की उतार या ढाल। श्रोणिफल, श्रोणि- फलक=बड़ा नितंब। कटिप्रदेश। श्रोणिबिंब=(१) कटिसूत्र। (२) गोलाकार नितंब। श्रोणिसूत्र।
⋙ श्रोणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्रोणि'।
⋙ श्रोणित पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० शोणित] दे० 'शोणित'।
⋙ श्रोणिसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. करधनी। मेखला। खड्गबंधन का सूत्र परतला। तलवार का पट्टा [को०]।
⋙ श्रोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटि। कमर। २. चूतड़। नितंब। ३. मध्य भाग। कटि प्रदेश। ४. पंथ। मार्ग (को०)।
⋙ श्रोतःआपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्ध शास्त्र के अनुसार मुक्ति या निर्वाणसाधना की प्रथम अवस्था जिसमें बंधन ढीले होने लगते हैं। विशेष—बौद्ध शास्त्र में पाँच प्रतिबंध माने गए हैं—आलस्य, हिंसा, काम, विचिकित्सा और मोह। श्रोतःआपन्न को ये पाँचों बंधन छोड़ते तो नहीं पर क्रमणः ढोले होते जाते हैं। इस अवस्था को प्राप्त साधक को केवल सात बार और जन्म लेना पड़ता है। इस अवस्था के उपरांत 'सकृदागामी' की अवस्था है जिसमें प्रथम तीन बंधन सर्वथा छूट जाते हैं और एक ही जन्म और लेना रह जाता है।
⋙ श्रोतःआपन्न
वि० [सं० स्रोतस् + आपन्न] बौद्ध शास्त्र के अनुसार मुक्ति या निर्वाण की साधना में प्रथम अवस्था को प्राप्त जिसमें क्रमशः बंधन ढीले होने लगते हैं।
⋙ श्रोत
संज्ञा पुं० [सं० श्रोतस्] १. श्रवणेंद्रिय। कान। २. हाथी की सूँड़ (को०)। ३. इंद्रिय। ज्ञानेंद्रिय (को०)। ४. धारा। प्रवाह (को०)।
⋙ श्रोतक
वि० [सं०] १. सुनने योग्य। श्रवणीय। २. जिससे सुनना हो।
⋙ श्रोतव्य
वि० [सं०] १. सुनने के योग्य। उ०—श्रोत्र सु अध्यातम प्रगट श्रोतव्यं अधिभूत। दिशा तत्र है देवता यह त्रिपुटी इहिं सूत।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ६४।
⋙ श्रोता
संज्ञा पुं० [सं० श्रोतृ] १. सुननेवाला। श्रवणकर्ता। २. कथा या उपदेश सुननेवाला। शिक्षार्थी।
⋙ श्रोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रवणेंद्रिय। कान। २. वेदज्ञान। वेद में निपुणता। वेद संबंधी प्रवीणता। ३. वेद। श्रुति (को०)। यौ०—श्रोत्रपदवी = श्रवणगोचरता। श्रवण की सीमा। श्रोत्रपदा- नुग = श्रुतिप्रिय। श्रोत्रपालि = कान की लोर या ललरी। श्रोत्र- पुट = (१) कर्णपुट। (२) कान की ललरी। श्रोत्रपेय = कानों द्वारा पान करने योग्य। सुननेयोग्य। श्रवणीय। श्रोत्रमार्ग = कर्ण। कान श्रोत्रमूल = कान की जड़। कर्णमूल। श्रोत्रवर्त्म = कर्ण। कान। श्रोत्रवादी = आज्ञापालक। आज्ञाकारी। सुनने के साथ ही आज्ञापालन करनेवाला। श्रोत्रमुख = कानों को सुखद। श्रवणमधुर। श्रतिमधुर। श्रोत्रहोन = कर्णरहित। श्रवणशक्ति विहीन। बधिर। बहरा।
⋙ श्रोत्रकांता
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रोत्रकान्ता] एक पौधा जो औषध के काम में आता है।
⋙ श्रोत्रिय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वेद वेदांग में पारंगत हो। वेदज्ञ। २. ब्राह्मणों का एक वर्तमान भेद। [को०]।
⋙ श्रोत्रिय (२)
वि० १. वेदज्ञ। वेद में पारंगत। २. विघेय। अनुशासनीय। वश्य। ३. सभ्य। शिष्ट। सुसंस्कृत [को०]।
⋙ श्रोत्रियता
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रोत्रिय होने का भाव या धर्म।
⋙ श्रोत्रियत्व
संज्ञा पुं० [सं०] श्रोत्रियता [को०]।
⋙ श्रोत्री
संज्ञा पुं० [सं० श्रोत्रिय] दे० 'श्रोत्रिय'।
⋙ श्रोन पु
संज्ञा पुं० [सं० शोण, हिं० श्रोण] दे० 'शोण'। उ०— लिए नृकपाल नृदेह कराल। करे नर मुंडनि की उर माला। पिए नर श्रोन मिल्यो मदिरा सों। कपालि कु देखिए भीम प्रभा सों।—केशव (शब्द०)।
⋙ श्रोनित पु
संज्ञा पुं० [सं० शोणित] दे० 'शोणित'। उ०—श्रोनित श्रवत लसै तनु कैसे। परम प्रफुल्लित किंसुक जैसे।—मधुसूदन (शब्द०)।
⋙ श्रौत (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० श्रौती] १. श्रवण संबंधी। कर्ण संबंधी। २. श्रुति या वेद संबंधी। ३. श्रुतिविहित। वेद प्रतिपादित। जो वेद के अनुसार हो। ४. यज्ञ संबंधी। जैसे,—श्रोतकर्म, श्रौत सूत्र। ५. श्रोत्र ग्राह्म। जो अस्फुट न हो (को०)।
⋙ श्रौत
संज्ञा पुं० १. तीनों प्रकार की अग्नि। गाईपन्य, आहवनीय और दक्षिण नाम की अग्नि। २. वेद प्रतिपादित धर्म। ३. यज्ञाग्नि का रक्षण वा भरण [को०]।यौ०—श्रौतकर्म = दे० 'श्रौत्रकर्म'। श्रौतजन्म = यज्ञोपवीत संस्कार। श्रौतजन्म। श्रोतमार्ग = (१) श्रुतिविहित मार्ग। (२) श्रवण। कर्णपथ। श्रौतसूत्र।
⋙ श्रौतश्रव
संज्ञा पुं० [सं०] शिशुपाल का एक नाम।
⋙ श्रौतसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञादि के विधानवाले सुत्र। कल्प ग्रंथ का वह अंश जिसमें पौर्णमास्येष्टि से लेकर अश्वमेध पर्यत यज्ञों का विधान है। विशेष—दो प्रकार के बैदिक सूत्रग्रंथ मिलते हैं—श्रौतसूत्र और गृह्मसूत्र। श्रोत सूत्रों में यज्ञों का विधान है। सूत्रकार कई हैं। जैसे,—आश्वलायन, आपस्तंब, कात्यायन, द्राह्मयण।
⋙ श्रौतहोम
संज्ञा पुं० [सं०] सामवेद का एक परिशिष्ट।
⋙ श्रोत्र (१)
वि० [सं०] श्रवणेंद्रिय संबंधी। श्रवण सबंधी।
⋙ श्रौत्र (२)
संज्ञा पुं० १. वेद में दक्षता। वेदज्ञाता। वैदिक वाङमय या कार्यो मे पारंगत होना। २. श्रवण। कर्ण [को०]।
⋙ श्रौत्रकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] वेदविहित यागादि कर्म। यज्ञ।
⋙ श्रोत्रजन्म
संज्ञा पुं० [सं० श्रोत्रजन्मन्] द्विजों का उपनयन संस्कार जिसमें वे वेद के अधिकारी होकर द्वितीय जन्म प्राप्त करते हैं।
⋙ श्रौन पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण] दे० 'श्रवण'। उ०—पीतम श्रौन समीप सदा बजौ यौं काहकै पहिले पहिरायो।—मतिराम (शब्द०)।
⋙ श्य्राह्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल। पद्म। २. गंधाबिरोजा। सरल द्रव्य।
⋙ श्लक्ष्ण (१)
वि० [सं०] १. कोमल। मृदु। सौम्य। जैसे, शब्द। २. चिकना, चमकदार। ३. स्वल्प। पतला। सूक्ष्म। ४. सुंदर। लावण्यमय। ५. सच्चा। ईमानदार। निश्छल। खरा [को०]। यौ०—श्लक्ष्णत्वक् = (१) वृक्ष की चिकनी छाल या वल्कल। (२) अश्मंतक नामक वृक्ष। कचनार। श्लक्ष्णपत्रक = आबनूस या कोविदार। श्लक्ष्णपिष्ट = खूब महीन या चिकना पीसा हुआ। श्लक्ष्णवाक् = मधुर वचन। श्लक्ष्णवादी = मृदु या मधुर बोलनेवाला।
⋙ श्लक्ष्णक (१)
वि० [सं०] १. कोमल। चिक्कण। २. सुंदर [को०]।
⋙ श्लक्ष्णक (२)
संज्ञा पुं० सुपारि। पुगफल [को०]।
⋙ श्लथ
वि० [सं०] १. शिथिल। ढोला। उ०—बीता उत्सव ज्यों चिह्न म्लान; छाया श्लथ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५। २. मंद। धीमा। ३. दुर्बल। अशक्त। ४. गिरा हुआ। च्युत (को०)। ५. न बंधा हुआ। बिखरा हुआ। छूटा हुआ। जैसे, केश।
⋙ श्लथगात
वि० [सं०] शिथिल शरीरवाला। उ०—श्लथगात, तुम में ज्यों रही मैं बद्ध हो। अपरा, पृ० १४५।
⋙ श्लथबंधन
वि० [सं० श्लथबन्धन] जिसके बंधन ढोले हो गए हों।
⋙ श्लथांग
वि० [सं० श्लथाङ्ग] जिसके अंग शिथिल हों। श्लथगात।
⋙ श्लथोद्यम
वि० [सं०] चेष्टा या उद्यम को विश्राम देने या शिथिल करनेवाला [को०]।
⋙ श्लाघन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० श्लाघित, श्लाघी, श्लाघनीय, श्लाध्य] १. प्रशंसा करना। प्रशस्ति गान। २. खुशामद या चाटुकारिता। चापलूसी। ३. अपनी प्रशंसा करना। डींग हाँकना।
⋙ श्लाघन (२)
वि० अपनी प्रशंसा करनेवाला।
⋙ श्लाघनीय
वि० [सं०] १. प्रशंसा के योग्य। प्रशंसनीय। तारीफ के लायक। २. उत्तम। श्रेष्ठ।
⋙ श्लाघा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रशंसा। तारीफ। २. स्तुति। बड़ाई। ३. खुशामद। चापलूसी। ४. इच्छा। चाह। उ०—अच्छा तो ज्ञात हुआ कि कदाचित् तुम्हारी श्लाघा है कि मैं तुमको इनसे भी नीचतर समझूँ।—अयोध्यासिंह (शब्द०)। ५. आज्ञा- पालन। सेवा। ६. आत्मप्रशंसा (को०)। यौ०—श्लाघाविपर्यय = आत्म प्रशंसा या चापलूसी का अभाव।
⋙ श्लाघित
वि० [सं०] १. जिसकी तारीफ हुई हो। प्रशंसित। २. अच्छा। उत्तम। श्रेष्ठ।
⋙ श्लाघी
वि० [सं० श्लाधिन्] १. सदर्प। साहंकार। मदोद्धत। २. अभिमानी। प्रगल्भ। धृष्ट। डींग हाँकनेवाला। ३. प्रख्यात। प्रसिद्ध [को०]।
⋙ श्लाघ्य
वि० [सं०] १. सराहने योग्य। प्रशंसनीय। तारीफ के लायक। २. श्रेष्ठ। अच्छा। ३. आदरणीय। श्रद्धेय (को०)।
⋙ श्लिकु
संज्ञा पुं० [सं०] १. लंपट। कामुक। २. सेवक। दास। ३. आश्रित। ४. नक्षत्र विद्या। फलित ज्योतिष [को०]।
⋙ श्लिक्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामुक। लंपट। २. आश्रित। दास। सेवक।
⋙ श्लिषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मिलना। जुड़ना। संयुक्त होना। २. परिरंभण। आलिंगन।
⋙ श्लिष्ट
वि० [सं०] १. मिला हुआ। एक में जुड़ा हुआ। सटा हुआ। लगा हुआ। २. अच्छी तरह जमा हुआ। चिपका हुआ। खूब बैठा हुआ (वस्त्र आदि)। ३. आलिंगित। भेंटा हुआ। ४. (साहित्य में) श्लेषयुक्त। जिसके दोहरे अर्थ हों। ५. टिका हुआ। झुका हुआ (को०)।
⋙ श्लिष्ट रूपक
संज्ञा पुं० [सं०] रूपक अलंकार का एक भेद। जहाँ शब्दों द्वारा रूपक का विधान किया जाय। जैसे,—देखत ही सुबरन हीरा हरिबे कौं पश्यतोहर मनोहर ये लोचन तिहारे हैं।—भिखारी ग्रं०, भाग २, पृ० १००।
⋙ श्लिष्टवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० श्लिष्टवर्त्सन्] एक नेत्र रोग, पलकों की बरौनियों का आपस में चिपक जाना [को०]।
⋙ श्लिष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जोड़। मिलान। लगाव। २. आलिं- गन। परिरंभण।
⋙ श्लिष्टि (२)
संज्ञा पुं० ध्रुव के एक पुत्र का नाम।
⋙ श्लिष्टोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह उक्ति कथन जो श्लेषयुक्त हो। द्वच- र्थक उक्ति।
⋙ श्लोपद
संज्ञा पुं० [सं०] टाँग भूलने का रोग। फीलपाव। विशेष—इस रोग में प्रथम पेड़ू, अंडकोष और जघा की संधियों में पीड़ासहित और ज्वरयुक्त सूजन होकर पाँव में उतर आती है और पैर हाथी के पैर के समान मोटा हो जाता है। वैद्यक के अनुसार यह रोग हाथ, नाक, कान, आँख, लिंग और होंठ में भी होता है। यह चार प्रकार का होता है; अर्थात् वातज, पित्तज, श्लेष्मज और सन्निपातज। एक वर्ष बाद यह रोग असाध्य हो जाता है। यह रोग तालाब आदि का पुराना जल पीने, शीत देश में अधिक निवास करने तथा जिन स्थानों में सदा पुराना पानी बना रहता है; वहाँ रहने से उत्पन्न होता है।
⋙ श्लीपदप्रभव
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़ [को०]।
⋙ श्लीपदापह
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्रजीव वृक्ष।
⋙ श्लीपदी
वि० [सं० श्लीपदिन्] जिसे श्लीपद रोग हो गया हो।
⋙ श्लील
वि० [सं०] १. उत्तम। नफीस। श्रेष्ठ। २. जो अश्लील न हो। जो भद्दा न हो। भद्र या सभ्य समाज में स्त्री, पुरुष, बच्चे आदि सभी के बोलने, पढ़ने या दिखाए जाने योग्य। ३. भाग्यशाली। मंगलदायक। शुभ। दे० 'श्रील' (को०)।
⋙ श्लेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिलना। जुड़ना। एक में सटने यो लगने का भाव। २. संयोग। जोड़। मिलान। ३. आलिंगन। परिरंभण। भेंटना। ४. साहित्य में एक अलंकार जिसमें एक शब्द के दो या अधिक अर्थ लिए जाते हैं। दो अर्थवाले शब्दों का प्रयोग। ५. मैथुन। संभोग (को०)। ६. दाह। जलन (को०)। ७. व्याकरण में वृद्धि या आगम (को०)।
⋙ श्लेषक (१)
वि० [सं०] मिलानेवाला। जोड़नेवाला।
⋙ श्लेषक (२)
संज्ञा पुं० १. दे० 'श्लेष'। उ०—केशव दशम प्रभाव में, श्लेषक कवित विलास। वर्णन के मिसु प्रगटहीं, वरषा शरद प्रकाश।—केशव (शब्द०)। २. कफ का एक भेद। विशेष—कफ के अवलुंपक, क्लेदक, बोधक, तर्षक और श्लेषक पाँच भेद हैं।
⋙ श्लेषण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० श्लेषणीय, श्लेषित, श्लेषी, श्लिष्ट] १. मिलाना। जोड़ना। एक में सटाना। संयुक्त करना। २. परिरंभण। आलिंगन।
⋙ श्लेषभित्तिक
वि० [सं०] जो श्लेष पर आधारित हो [को०]।
⋙ श्लेषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आलिंगन। भेंटना।
⋙ श्लेषार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] अनेकार्थक शब्दों का प्रयोग [को०]।
⋙ श्लेषी
वि० [सं० श्लेषित] श्लेषण करनेवाला। आलिंगन करने वाला [को०]।
⋙ श्लेषोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्लेषयुक्त कथन। द्वचर्थक वचन। श्लिष्टोक्ति [को०]।
⋙ श्लेषोरमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अलंकार जिसमें ऐसे श्लिष्ट शब्दों का प्रयोग होता है जिनके अर्थ उपमेय और उपमान दोनों में लग जाते हैं। उ०—सगुन, सरस, सब अंग रागरंजित हैं सुनहु सुभाग ! बड़े भाग बाग पाइए। चातुरी की शाला मानि आतुर ह्वै, नंदलाल ! चंपे की माला बाला उर उरझाइए।—केशव (शब्द०)। यहाँ सगुन (गुणयुक्त, सूत्रयुक्त), सरस आदि शब्द बाला और चंपकमाला दोनों में लग जाते हैं।
⋙ श्लेष्म, श्लेष्मक
संज्ञा पुं० [सं०] श्लेष्मा।
⋙ श्लेष्म कटाहक
संज्ञा पुं० [सं०] निष्ठीवन का पात्र। पीकदान [को०]।
⋙ श्लेष्मघन
संज्ञा पुं० [सं०] १. केतकी। २. चमेली या जूही।
⋙ श्लेष्मघ्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. त्रिपुर मल्लिका। २. मल्लिका। मोतिया का एक भेद। ३. केतकी। केवड़ा। ४. महाज्योतिष्मती लता। ५. तीन कड़वे मसाले। त्रिकटु।
⋙ श्लेष्मघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्लेष्मघ्ना'।
⋙ श्लेष्मज अर्श
संज्ञा पुं० [सं०] श्लेष्मा (कफ) से उत्पन्न बवासोर रोग।—माघव०, पृ० ५४।
⋙ श्लेष्मण
वि० [सं०] १. कफवाला। कफ प्रकृतिवाला। २. कफ संबंघी। श्लेष्मल।
⋙ श्लेष्मणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा।
⋙ श्लेष्मधातु
संज्ञा पुं० [सं०] कफ प्रकृति। कफ स्वभाव [को०]।
⋙ श्लेष्मभू
संज्ञा पुं० [सं०] फुफ्फुस [को०]।
⋙ श्लेष्मल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लिसोड़ा। बहुवार वृक्ष।
⋙ श्लेष्मल (२)
वि० कफयुक्त। श्लेष्मयुक्त। श्लेष्मण। कफ संबंधी।
⋙ श्लेष्मह
संज्ञा पुं० [सं०] श्लेष्मा को हरनेवाला। कायफल। कटफल।
⋙ श्लेष्महर
वि० [सं०] श्लेष्मा का हरण करनेवाला। बलगम दूर करनेवाला [को०]।
⋙ श्लेष्मांतक
संज्ञा पुं० [सं० श्लेष्मान्तक] लिसोड़ा। लभेरा। बह्- वार वृक्ष।
⋙ श्लेष्मा
संज्ञा पुं० [सं० श्लेष्मन्] १. वैद्यक के अनुसार शरीर की तीन धातुओं या विकारों में से एक। कफ। बलगम। २. रस्सी। बंधन। बांधने की रस्सी। ३. लिसोड़े का फल। लभेरा।
⋙ श्लेष्मात, श्र्लेष्मातक
संज्ञा पुं० [सं०] लिसोड़ा। लभेरा।
⋙ श्लेष्मातक वन
संज्ञा पुं० [सं०] गोकर्णतीर्थ के पास का जंगल जिसमें शिव एक बारहसिंघे के रूप में छिपे थे। (पुराण)।
⋙ श्लेष्मातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] कफ के विकार से होनेवाला संग्रहणी या पेचिश का रोग [को०]।
⋙ श्लेष्मिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० श्लेष्मिकी] १. कफ संबंधी। श्लेष्मल। २. कफ बढ़ानेवाला। बलगम पैदा करनेवाला। कफकारक [को०]।
⋙ श्लेष्मी
संज्ञा पुं० [सं० श्लेष्मिन्] १. गंधा बिरोजा। २. लोबान।
⋙ श्लेष्मोज
संज्ञा पुं० [सं०] कफप्रकृति। दे० 'श्लेष्मधातु' [को०]।
⋙ श्लेष्मोदर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का उदर रोग। उ०— श्लेष्मोदर रोग में हाथ पैर आदि अंगों में शून्यता होय और जकड़ जाँय।—माधव०, पृ० १९४।विशेष—इसमें कफ के विकार के कारण हाथ, पैर आदि में शून्यता आ जाती है। पेट चिकना, सफेद, कड़ा तथा ठंढा मालूम पड़ने लगता है।
⋙ श्लैष्मिक
वि० [सं०] श्लेष्म संबंधी। कफवाला।
⋙ श्लोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द। ध्वनि। आवाज। २. पुकार। आह्वान। ३. स्तोत्र। स्तुति। ४. पद्यबद्ध कीर्तिगान या प्रशंसा। ५. स्तवन या प्रशसा का विषय वा आस्पद (को०)। ६. नाम। कीर्ति। यश। जैसे,—पुण्यश्लोक। ७. संस्कृत का सबसे अधिक व्यवहृत छंद। अनुष्टुभ छंद। ८. संस्कृत का कोई पद्य। ९. किंवदंनी। कहावत (को०)। १०. इष्टमित्र (को०)। यौ०—श्लोककार = कवि। छंदबद्ध कविता करनेवाला। श्लोक- निबद्ध, श्लोकबद्ध = छंदबद्ध। पद्यबद्ध। श्लोकभू = ध्वनि या शब्द से उत्पन्न होनेवाला।
⋙ श्लोकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] श्लोक होने का भाव या धर्म।
⋙ श्लोक्य
वि० [सं०] स्तुत्य। प्रशंस्य [को०]।
⋙ श्लोण
संज्ञा पुं० [सँ०] लँगड़ा मनुष्य [को०]।
⋙ श्र्वः
अव्य० [सं० श्वस्] आनेवाले दूसरे दिन। कल। २. (समास में) भविष्यत् काल में (को०)। यौ०—श्र्वःश्रेयस = (१) प्रसन्न। समृद्ध। (२) प्रसन्नता। समृद्धि। (३) ब्रह्म या परमात्मा।
⋙ श्र्वकंटक
संज्ञा पुं० [सं० श्र्वकणटक] व्रात्य और शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न पुरुष (स्मृति)।
⋙ श्र्वक
संज्ञा पुं० [सं०] भेड़िया। वृक।
⋙ श्र्वक्रीडी
संज्ञा पुं० [सं० श्र्वक्रीडिन्] करतबी या खिलाड़ी कुत्ता पालनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ श्र्वगण
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ते का झुंड [को०]।
⋙ श्र्वगणिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिकारी। २. कुत्ता पालनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ श्र्वग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. बालग्रह या रोग। २. बच्चों को कष्ट देनेवाला एक प्रेत। वह जो कुत्तों को पकड़ता है (को०)।
⋙ श्र्वचिल्ली
संज्ञा पुं० [सं०] कुकुरबंदा।
⋙ श्र्वज पु
अव्य० [सं० स्वयम्] स्वयम्। खुद। उ०—बिन पत्त मत्त जनु डंड डक, रंभ षंभ कर कटिय श्र्वज।—पृ० रा०, ५।५१।
⋙ श्र्वजीविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुत्तों की जीविका। दासता। गुलामी [को०]।
⋙ श्र्वदंष्ट्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ते का दाँत। २. गोखरू।
⋙ श्र्वदंष्ट्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुत्ते की दाढ़। २. गोखरू।
⋙ श्र्वदयित
संज्ञा पुं० [सं०] हड्डी जो कुत्तों को प्रिय है [को०]।
⋙ श्र्वधूर्त
संज्ञा पुं० [सं०] श्रृगाल। गीदड़।
⋙ श्र्वन्
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शुनी] कुत्ता। कुक्कुर। विशेष—समास में इस शब्द का पूर्वपद केवल 'श्र्व' रह जाता है। जैसे,—श्वकर्ण, श्वपच।
⋙ श्र्वनर
संज्ञा पुं० [सं०] नीच व्यक्ति। कमीना आदमी [को०]।
⋙ श्र्वनिश
संज्ञा पुं० [सं०] वह रात्रि जिस दिन कूत्ते भौंकते हैं अथवा नहीं खाते। कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि। उ०—वर्तमान काल में भी यत्र तत्र इस प्रकार के कुत्ते सुने गए हैं जो उक्त तिथि को नहीं खाते। इस तिथि के लिये श्वनिश तथा श्वनिशा (२।४। ५) शब्द प्रचलित थे।—संपुर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २४८।
⋙ श्वनिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'श्वनिश'।
⋙ श्वपच्, श्वपच
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० श्वपचा, श्वपची] १. कुत्ते का मांस पकाकर खानेवाला। २. एक प्रकार का चांडाल। डोम। विशेष—भिन्न भिन्न स्मृतियों में इसकी उत्पत्ति भिन्न भिन्न कही गई है। जैसे,—कहीं चांडाल और ब्राह्मणी से, कहीं निष्टच और किराती से, कहीं क्षत्रिय और उग्र जाति की स्त्री से, कहीं अंबष्ठ और ब्राह्मणी से इत्यादि। ३. कुत्ते को खिलानेवाला (को०)। ४. बधिक। जल्लाद (को०)।
⋙ श्वपति
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ते का मालिक [को०]।
⋙ श्वपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ते का पैर। २. कुत्ते के पदचिह्न का निशान [को०]। विशेष—मनु ने इसे चोरों के सिर पर लगाने के लिये कहा है।
⋙ श्वपाक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० श्धपाकी] दे० 'श्वपच'। चांडाल।
⋙ श्वपामन
संज्ञा पुं० [सं०] पपरी नाम का पौधा जिसकी कड़वी जड़ रेचक होती है और औषध के काम में आती है। काकच्छदि।
⋙ श्वपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृश्चिक। बिच्छू। २. कुत्ते की पूँछ (को०)।
⋙ श्वपुच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृष्णिपर्णी। पिठवन।
⋙ श्वफल
संज्ञा पुं० [सं०] बिजौरा नीबू। बीजपूर वृक्ष।
⋙ श्वफल्क
संज्ञा पुं० [सं०] यादव वृष्णि के पुत्र और अक्रूर के पिता।
⋙ श्वभीरु
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो कुत्ते से डरता हो, श्रृगाल। गोदड़।
⋙ श्वभ्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. दरार। छेद। गड्ढा। २. एक नरक। ३. वसुदेव के एक पुत्र का नाम। ३. गुफा। कंदरा (को०)।
⋙ श्वभ्रित
वि० [सं०] छिद्रों से भरा हुआ [को०]।
⋙ श्वमुख
संज्ञा पुं० [सं०] एक जंगली जाति।
⋙ श्वथ
संज्ञा पुं० [सं०] शोथ। सूजन।
⋙ श्वयथु
संज्ञा पुं० [सं०] शोथ। सूजन।
⋙ श्वयीचि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।
⋙ श्वयीची
संज्ञा स्त्री० [सं०] बीमारी। रोग [को०]।
⋙ श्वयूथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्तों का झुंड [को०]।
⋙ श्ववृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नीच सेवा की वृत्ति। निकृष्ट नौकरी द्वारा निर्वाह। २. कुत्ते की सी जीवन वृत्तिं (को०)।
⋙ श्वव्याघ्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंस्र पशु। २. व्याघ्र। ३. चीता।
⋙ श्वहन्
संज्ञा पुं० [सं०] शिकारी [को०]।
⋙ श्वशुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पति या पत्नी का पिता। ससुर। २. आदरणीय व्यक्ति (को०)।
⋙ श्वसुरक
संज्ञा पुं० [सं०] ससुर [को०]।
⋙ श्वसुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] पति या पत्नी का भाई। देवर या साला।
⋙ श्वश्रु
संज्ञा स्त्री० [सं०] पति या पत्नी की माता। सास।
⋙ श्वसन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० श्वसनीय, श्वसित] १. साँस लेना। दम लेना। २. हाँफना। ३. फुँकना। मुँह से हवा छोड़ना। ४. फूत्कार करना। फुफकारना। ५. लंबी साँस खींचना। आह भरना। ६. वायु देवता। पवन। ७. एक वसु का नाम। ८. मैनफल। मदनफल। ९. एक राक्षस का नाम जिसे इंद्र ने मारा था (को०)।
⋙ श्वसनरंध्र
संज्ञा पुं० [सं० श्वसनरन्ध्र] नाक। नासिका [को०]।
⋙ श्वसनव्यापार
संज्ञा पुं० [सं० श्वसन + व्यापार] श्वास लेने और छोड़ने की क्रिया। उ०—श्वसन व्यापार, जीभ की क्रियाएँ, शुद्ध उच्चारण सुनने का अभ्यास आदि की सहायता भी लेनी चाहिए।—भा० शिक्षा, पृ ४७।
⋙ श्वसनसमीरण
संज्ञा पुं० [सं०] साँस [को०]।
⋙ श्वसनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] वायु भक्षण करनेवाला, सर्प। साँप।
⋙ श्वसनेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन वृक्ष।
⋙ श्वसनोत्सुक
संज्ञा पुं० [सं०] साँप। सर्प।
⋙ श्वसनोर्मि
संज्ञा स्त्री० [सं०] हवा का झोंका [को०]।
⋙ श्वसान
वि० [सं०] साँस लेता हुआ। जीवित [को०]।
⋙ श्वसित (१)
वि० [सं०] १. श्वासमय। श्वासयुक्त। उ०—चित्रित से उपवन में शत रंगों में आतप छाया, सुरभि श्वसित मारुत, पुलकित कुसुमों की कंपित काया।—ग्राम्या, पृ० ७६। २. साँस लेनेवाला। जीवित (को०)। ३. आह भरने वाला (को०)।
⋙ श्वसित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँस। २. ऊँची साँस लेना। आह भरना [को०]।
⋙ श्वसुत, श्वसुन
संज्ञा पुं० [सं०] कुकुंदर। कुकरौंधा नामक पौधा।
⋙ श्वस्तन (१)
वि० [सं०] आनेवाले दिन का। कल का।
⋙ श्वस्तन (२)
संज्ञा पुं० कल का दिन। आनेवाला दूसरा दिन।
⋙ श्वस्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कल का दिन। आनेवाला दूसरा दिन।
⋙ श्वस्त्य
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्वस्तन' [को०]।
⋙ श्वहा
संज्ञा पुं० [सं० श्वहन्] आखेटक। शिकारी [को०]।
⋙ श्वास्थि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का रत्न या बहुमूल्य पत्थर जो काँसे, रूपे, शंख, कुमुद आदि के रंग का कहा गया है। (रत्नपरीक्षा)।
⋙ श्वा
संज्ञा पु० [सं० श्वन्] कुक्कुर। कुत्ता [को०]।
⋙ श्वाकर्ण
संत्रा पुं० [सं०] कुत्ते का कान [को०]।
⋙ श्वागणिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्वगणिक' [को०]।
⋙ श्वाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ते की पुँछ [को०]।
⋙ श्वाघ्निक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिकारी। २. कुत्ता पालनेवाला [को०]।
⋙ श्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] श्वानभक्षक। श्वपाक।
⋙ श्वान
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० श्वानी] १. कुत्ता। कुक्कुर। उ०— गोकुल चले प्रमें आतुर ह्वै खुलि गए कपट कपाट। सोए श्वान, पहरुआ सोए, सबै मुक्त भई बाट।—सूर (शब्द०)। २. दोहे का इक्कीसवाँ भेद। इसमें दो गुरु और ४४ लघु होते हैं। ३. छप्पय का पंद्रहवाँ भेद। इसमें ५६ गुरु, ४० लघु कुल ९६ वर्ण, १५२ मात्राएँ होती हैं।
⋙ श्वानचिल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बथुआ न मक शाक।
⋙ श्वाननिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐसी नींद जो थोड़े खटके से भी चट खुल जाय। हल की नींद। झपकी।
⋙ श्वानवैखरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुत्ते की गुर्राहट [को०]।
⋙ श्वानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूनी। कुतिया।
⋙ श्वान्नति
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी। बभनेटी। ब्राह्मणयष्टिका।
⋙ श्वापद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हिंसक पशु। व्याघ्र आदि।
⋙ श्वापद् (२)
वि० खौफनाक। जंगली। बर्बर [को०]।
⋙ श्वापुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ते की पूँछ।
⋙ श्वाचित्, श्वाविद्, श्वाविध्
संज्ञा पुं० [सं०] साही नामक जंतु। शल्य।
⋙ श्वास
संज्ञा पुं० [सं०] १. नासिका के मार्ग से प्राणावायु के भीतर जाने और बाहर निकलने की क्रिया। प्राणियों का नाक से हवा खींचने और बाहर निकालने का व्यापार। साँस। दम। उ०—ताती ताती श्वासन बिनास्यो रूप होठन।—शकुंतला, पृ० १०९। क्रि० प्र०—लेना।—छोड़ना।—निकलना।—खींचना।—रोकना। मुहा०—श्वास रहते = प्राण रहते। जीते जी। श्वास खींचना या चढ़ाना = साँस रोके रहना। श्वास छूटना = मृत्यु होना। २. व्यंजनों के उच्चारण के प्रयत्न में मुँह से हवा छुटना। ३. जल्दी जल्दी साँस लेना। हाँफना। ४. वायु। हवा (को०)। ५. निश्वास लेना। आह भरता (को०)। ६. एक रोग जिसमें साँस अधिक वेग से और जल्दी जल्दी चलती है। दम फूलने का रोग। दमा। यौ०—श्वासकास। विशेष—आयुर्वेंद में श्वास रोग पाँच प्रकार का कहा गया है- महाश्वास, ऊर्द्ध्व श्वास, छिन्न श्वास, तमक श्वास और क्षद्र श्वास। इनमें से प्रथम तीन असाध्य, चौथा कष्टसाध्य और पाँचवाँ साध्य कहा गया है।
⋙ श्वासकष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] साँस लेने में होनेवाला कष्ट। श्वासकास।
⋙ श्वासकास
संज्ञा पुं० [सं०] १. दमा और खाँसी। २. दमे की खाँसी। दमा।
⋙ श्वासकुठार
संज्ञा पुं० [सं०] श्वास रोग में उपकारी एक रसौषध। विशेष—इसे बनाने के लिये शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक की कजली, सिंगी मुहरा, चूना, सोहागा, मैनसिल, काली मिर्च, सोंठ और पिप्पली के चूर्ण को अदरक के रस की एक पुट देकर सिद्ध करते हैं।
⋙ श्वासधारण
संज्ञा पुं० [सं०] कात्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार श्वास को रोक रखना। साँस रोकने की क्रिया।
⋙ श्वासप्रश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] साँस लेने की क्रिया। श्वांस की रेचक और पूरक क्रिया। साँस लेना और निकालना।
⋙ श्वासरोग
संज्ञा पुं० [सं० श्वास + रोग] दे० 'श्वास—४'।— माधव०, पृ० ९४।
⋙ श्वासरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँस रोकना। साँस को बाहर निकलने से रोके रहना। २. दम घुटना। साँस भीतर न समाना।
⋙ श्वासहिक्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की हिचकी [को०]।
⋙ श्वासहीन
वि० [सं०] जो श्वासग्रहण की क्रिया से रहित हो। मृत। मुर्दा।
⋙ श्वासहेति
संज्ञा स्त्री० [सं०] (दमा को हटानेवाली) निद्रा। नींद।
⋙ श्वासा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वास] १. साँस। दम। जैसे, —जब तक श्वासा तब एक आशा। उ०—श्वासा तासु भए श्रुति चार। करि सो स्तुति था परकार।—सूर (शब्द०)। २. प्राण। प्राणवायु।
⋙ श्वासारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुष्कर मूल। २. कुष्ठ नामक पौधा। कूट।
⋙ श्वासी
संज्ञा पुं० [सं० श्वासिन्] १. श्वास लेनेवाला जीव। जीवित प्राणी। २. वायु। हवा।
⋙ श्वासोच्छ् वास
संज्ञा पुं० [सं०] वेग से साँस खीचंना और निकालना। क्रि० प्र०—लेना।
⋙ श्वित (१)
वि० [सं०] श्वेत। श्वेत। धवल।
⋙ श्वित (२)
संज्ञा पुं० श्वैत्य। धवलिमा। सुफेदी [को०]।
⋙ श्वितान
वि० [सं०] धवल। श्वेत [को०]।
⋙ श्विति
संज्ञा स्त्री० [सं०] धवलिना। उज्वलता [को०]।
⋙ श्वित्न, श्वित्न्य, श्वित्य
वि० [सं० ] श्वेत। सफेद। धवल [को०]।
⋙ श्वित्र (१)
वि० [सं०] १. सफेद। श्वेत। २. सफेद कोढ़वाला।
⋙ श्वित्र (२)
संज्ञा पुं० १. श्वेत कुष्ट। सफेद कोढ़। सफेद दागवाला कोढ़। विशेष—इस रोग में शरीर के चमड़े के ऊपर सफेद दाग पड़ जाते हैं। यह रुधिर, मांस और भेद में रहता है। अन्य प्रकार के कुष्ठों की तरह यह पकता, बहता और पीड़ा नहीं करता। जिसमें केश सफेद न हुए हों तथा जिसमें दाग परस्पर मिलकर एक न हो गए हों, वह साध्य है। २. शरीर के चर्म पर पड़ा हुआ श्वेत कुष्ट का दाग। सुफेद कोढ़ का धब्बा (को०)।
⋙ श्वित्रघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृश्चिकाली। पीतपर्णी। बिछाली का पौधा।
⋙ श्वित्रनाशन, श्वित्रहर
वि० [सं०] कुष्ट रोग दूर करनेवाला।
⋙ श्वित्रिरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकुची। सोमराजी।
⋙ श्वित्री
वि० [सं० श्वित्रिन्] [वि० स्त्री० श्वित्रिणी] १. श्वित्र रोगी। सफेद कोढ़वाला। २. श्वित्र रोग संबंधी।
⋙ श्वेत (१)
वि० [सं०] १. जिसमें कोई रंग न मालूम हो। बिना रंग का। सफेद। धौला। चिट्टा। विशेष—विज्ञान से सिद्ध है कि श्र्वेत रंग में सातों रंगों का अभाव नहीं है बल्कि उनका गूढ़ मेल है। सूर्य की किरनें देखने में सफेद जान पड़ती हैं, पर रश्मि विश्लेषण क्रिया से सातों रंगों की किरणें अलग अलग हो जाती हैं। २. शुभ्र। उज्वल। साफ। निर्गल। ३. निर्दोष। निष्कलंक। ४. जो साँवला न हो। गोरा।
⋙ श्वेत (२)
संज्ञा पुं० १. सफेद रंग। श्वेत वर्ण। २. चाँदी। रजत। ३. कौड़ी। कपर्दक। ४. पुराणानुसार एक द्वीप। ५. आयुर्वेद में तीसरी त्वचा की संज्ञा। शरीर के चमड़े की तीसरी तह। ६. एक पर्वत। ७. स्कंद के एक अनुचर का नाम। ८. शोभांजन वृक्ष। सहिंजन। ९. जीवक नामक अष्टवर्गीय ओषधि। १०. शंख। ११. शुक्र ग्रह। १२. सफेद घोड़ा। १३. सफेद बादल। १४. एक केतु या पुच्छल तारा। १५. सफेद जीरा। श्वेत जीरक। १६. शिव का एक अवतार। १७. वराह-मूर्ति-भेद। श्वेत वराह। १८. पुराण के अनुसार हिरणमय वर्ष और रम्यक वर्ष के बीच का एक पर्वत। १९. सफेद बकरा (को०)। २०. आँखों की सफेदी। नेत्र का श्वेत रंग (को०)। २१. अग्निपुराण में वर्णित एक राजा का नाम (को०)। २२. भागवत के अनुसार एक नाग (को०)। २३. तक्र या मट्ठा जिसमें समानुपात में जल मिलाया हो (को०)।
⋙ श्वेतकंटकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्र्वेतकण्टकारी] सफेद कंटकारी। श्वेत पुष्पवाली कंटकारी [को०]।
⋙ श्वेतकंद
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतकन्द] प्याज।
⋙ श्वेतकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वेतकन्दा] अतिविषा। अतीस नामक ओषघि।
⋙ श्वेतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चाँदी। रजत। रौप्य। २. कौड़ी। कपर्दक। ३. काँसा। ४. एक नाग का नाम।
⋙ श्वेतकपोत
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का चूहा। २. एक प्रकार का साँप।
⋙ श्वेतकमल
संज्ञा पुं० [सं०] उज्वल कमल। पुंडरीक [को०]।
⋙ श्वेतकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक कल्प का नाम [को०]।
⋙ श्वेतकांडा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वेतकाण्डा] सफेद दुब्र। श्वेत दूर्वा।
⋙ श्वेतकाक
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कौआ अर्थात् असंभव बात।
⋙ श्वेतकाकीय
वि० [सं०] असंभव। व्यर्थ। बेकार [को०]।
⋙ श्वेतकापोती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा [को०]।
⋙ श्वेतकि
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत में वर्णित एक धर्मपरायण राजा।
⋙ श्वेतकिणही
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतपत्रा। विषघ्निका नामक वृक्ष [को०]।
⋙ श्वेतकुंजर
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतकुञ्जर] १. श्वेत वर्ण का हाथी। २. इंद्र का ऐरावत हाथी [को०]।
⋙ श्वेतकुक्षि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।
⋙ श्वेतकुश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तृण। सित दर्भ [को०]।
⋙ श्वेतकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद दागवाला कोढ़। श्वित्र।
⋙ श्वेतकृष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद और काला। २. यह पक्ष और वह पक्ष। एक बात और दूसरी बात। जैसे,—हम श्र्वेत कृष्ण कुछ न कहेंगे। ३. एक प्रकार का विषैला कीड़ा। (सुश्रूत)।
⋙ श्वेतकृष्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक विषैला कृमि [को०]।
⋙ श्वेतकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. महर्षि उद्दालक के पु्त्र का नाम। २. बोधिसत्व की अवस्था में गौतम बुद्ध का नाम। ३. केतु ग्रह- विशेष।
⋙ श्वेतकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल फूल का सहिंजन का पेड़। २. सफेद बाल।
⋙ श्वेतकोल
संज्ञा पुं० [सं०] पोठी या पोठिया नाम की मछली। शफर [को०]।
⋙ श्वेतक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] शोरा [को०]।
⋙ श्वेतगज
संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत हाथी। उ०— अप्सरा पारिजातक धनुष अश्व गज श्वेत ए पाँच नरपतिहि दीने।—सूर (शब्द०)।
⋙ श्वेतगरुतू, श्वेतगरुत
संज्ञा पुं० [सं०] हंस [को०]।
⋙ श्वेतगुंजा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वेतगुञ्जा] सफेद घुँघची [को०]।
⋙ श्वेतघंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वेतघणटा] नागदंती।
⋙ श्वेतचंदन
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतचन्दन] श्वेत मलयागिरि चंदन। दे० 'चंदन'।
⋙ श्वेतचरण
संज्ञा पुं० [सं०] एक पक्षी।
⋙ श्वेतचिलिका, श्वेतचिल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का शाक। बथुआ [को०]।
⋙ श्वेतच्छंद
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधपत्र। बनतुलसी। २. हंस।
⋙ श्वेतजीरक
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद जीरा।
⋙ श्वेतटंकक
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतटङ्कक] सोहागा। श्वेत टंकण [को०]।
⋙ श्वेतटंकण
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतटङ्कण] सोहागा।
⋙ श्वेतता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेदी। उज्वलता। शुक्लता। उ०—उसने देखा मक्रील की फेनिल श्वेतता युवती की सुघड़ता पर विराज रही है।—पिंजरे०, पृ० १३।
⋙ श्वेतद्युति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ श्वेतद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वरुण वृक्ष।
⋙ श्वेतद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐरावत हाथी। २. सफेद रंग का हाती (को०)।
⋙ श्वेतद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार क्षीरसागर के पास एक अत्यंत उज्वल द्वीप जहाँ विष्णु भगवान् निवास करते हैं। २. वह स्थान या देश जहाँ श्वेत रंग के व्यक्ति या गोरे रहते हैं। योरप। उ०—यूरप या श्वेतद्वीप मानों पश्विमीय सभ्यता का मायका।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५९।
⋙ श्वेतधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वेत रंग के खनिज पदार्थ। २. खड़िया मिट्टी। ३. दूधिया पत्थर [को०]।
⋙ श्वेतधामा
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतधामन्] १. चंद्रमा। २. कपूर। ३. समुद्र फेन। ४. अपामार्ग। चिचड़ा। ५. अपराजिता।
⋙ श्वेतनील
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल।
⋙ श्वेतपटल
संज्ञा पुं० [सं०] जस्ता नामक धातु।
⋙ श्वेतपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हँस। २. किसी प्रकार की राजनीतिक वार्ता या सधिचर्चा के अंत में उसमें तै की हुई शर्तो आदि की लिखित घोषण (अं० ह्वाइट पेपर)।
⋙ श्वेतपत्ररथ
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा [को०]।
⋙ श्वेतपर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलकुंभी। वारिपर्णी।
⋙ श्वेतपर्णास
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत तुलसी।
⋙ श्वेतपाटला
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेत वर्ण के फूलवाला पाटल या पाडर वृक्ष [को०]।
⋙ श्वेतपाद
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के एक गण का नाम।
⋙ श्वेतपिंग
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतपिङग] सिंह [को०]।
⋙ श्वेतपिंगल
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतपिङ्गल] १. सिंह। २. महादेव। शिव। ३. वह जिसका वर्ण श्वेत ओर कपिल रंग का हो (को०)।
⋙ श्वेतपिंगलक
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतपिङ्गलक] सिंह।
⋙ श्वेतपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. निर्गुडा। सफेद फूल।
⋙ श्वेतपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागपुष्पी। २. तारई। ३. सन। ४. सेंधुआर। संभालु। ५. नागदंता। ६. सफेद अपराजिता।
⋙ श्वेतपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुत्रदात्री लता। २. बड़ी सन- पुष्पी।
⋙ श्वेतप्रदर
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रदर रोग जिसमें स्त्रियों को सफेद रंग की धातु गिरती है।
⋙ श्वेतप्रस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्वेतधातु' [को०]।
⋙ श्वेतबर्बर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चंदन।
⋙ श्वेतबिंदुका
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वेतबिन्दुका] १. वह कन्या जिसके शरीर पर सफेद धब्बे या दाह हों। (यह विवाह के अयोग्य मानी जाती है)। २. कोई भी श्वेत बूँदोंवाली वस्तु।
⋙ श्वेतबुह्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनतिक्ता।
⋙ श्वेतभंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वेतभण्डा] शफेद फूलोंवाली अप- राजिता [को०]।
⋙ श्वेतभानु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ श्वेतभिक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत वस्त्रधारी साधु। धूर्त [को०]।
⋙ श्वेतभुजंग
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतभुजङग] ब्रह्मा का एक अवतार।
⋙ श्वेतमंडल
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतमण्डल] एक प्रकार का साँप। (सुश्रुत)।
⋙ श्वेतमंदारक
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतमंदारक] सफेद फूलोंवाला अर्क वृक्ष। सुफेद मदार [को०]।
⋙ श्वेतमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] मुस्तक। मोथा।
⋙ श्वेतमयुख
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ श्वेतमरिच
संज्ञा पुं० [सं०] १. शोभांजन बीज। सहिंजन के बीज। २. सफेद मिर्च।
⋙ श्वेतमाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. ध्रूम्र। धुआँ।
⋙ श्वेतमूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की गदहपूरना। पुनर्नवा का एक भेद।
⋙ श्वेतयावरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] (श्वेत बहनेवाली) एक नदो जिसका नाम ऋग्वेद में आया है।
⋙ श्देतरंजन
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतरञ्जन] सीसा धातु।
⋙ श्वेतरक्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गुलाबी रंग।
⋙ श्वेतरक्त (२)
वि० गुलाबी रंगवाला [को०]।
⋙ श्वेतरथ
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्र ग्रह।
⋙ श्वेतरस
संज्ञा पुं० [सं०] तक्र या मट्ठा जिसमें जल का अनुपात समान हो [को०]।
⋙ श्वेतराजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिचिंडा (जिसकी तरकारी होती है)।
⋙ श्वेतरावक
संज्ञा पुं० [सं०] निर्गुंडी।
⋙ श्वेतरोचिस्
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ श्वेतरोहित
संज्ञा पुं० [सं०] १. गरुड़ का एक नाम। २. एक प्रकार का पौधा जिसका फूल सफेद ओर फल लाल होता है।
⋙ श्वेतलोध्र
संज्ञा पुं० [सं०] पठानी लाध। पट्टिका लोध।
⋙ श्वेतवक्तु, श्वेतवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद के एक अनुचर का नाम।
⋙ श्वेतवचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सफेद वच। २. अतिविषा। अतिस।
⋙ श्वेतवल्कल
संज्ञा पुं [सं] १. गूलर। उदुंबर वृक्ष। २. सफेद रंग की छाल।
⋙ श्वेतवह
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा स्त्री० श्वेतौही] इंद्र।
⋙ श्वेतवाजी
संज्ञा पुं० [श्वेतवाजिन्] १. सफेद घोड़ा। २. चंद्रमा। ३. अर्जुन। ४. कपूर (को०)।
⋙ श्वेतवाराह
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाराह भगवान् की एक मूर्ति। २. एक कल्प का नाम जो ब्रह्म के मास का प्रथम दिन माना गया है। ३. एक तीर्थ।
⋙ श्वेतवासा
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत वस्त्रधारी संन्यासी। २. वह जिसने श्वेत परिधान धारण किया हो [को०]।
⋙ श्वेतवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. (सफेद घड़िवाले) इंद्र। २. अर्जुन।
⋙ श्वेतवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. अर्जुन का एक नाम। ३. समुद्र का मकर। ४. शिव का एक रूप या मूर्ति। ५. कपूर (को०)। ६. हरिवंश के अनुसार एक राजा जो विदूरथ का पौत्र था (को०)।
⋙ श्वेतवाही
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतवाहिन्] अर्जुन [को०]।
⋙ श्वेतवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण नाम का वृक्ष [को०]।
⋙ श्वेतशिंशपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेत वर्ण का शिंशया वृक्ष [को०]।
⋙ श्वेत सिग्रु
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत पुष्पवाला सहिंजन वृक्ष [को०]।
⋙ श्वेतशुग, श्वेतशृंग
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतशुङ्ग, श्वेतश्रृङ्ग] जौ। यव।
⋙ श्वेतसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण वृक्ष। २. सफेद साँप।
⋙ श्वेतसर्षप
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाली सरसों।
⋙ श्वेतसार
संज्ञा पुं० [सं०] खैर। कत्था। खदिर।
⋙ श्वेतसिंही
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का शाक।
⋙ श्वेतसिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद के एक अनुचर का नाम।
⋙ श्वेतसुरसा
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद फूल की निर्गुंडी।
⋙ श्वेतस्पदा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वेतस्पन्दा] अपराजिता [को०]।
⋙ श्वेतहनु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप। (सुश्रुत)।
⋙ श्वेतहय
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र का घोड़ा। उच्चैः श्रवा। २. अर्जुन। ३. इंद्र (को०)। ४. श्वेत वर्णं का अश्व।
⋙ श्वेतहस्ती
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐरावत। २. श्वेत वर्ण का हाथी।
⋙ श्वेतांग (१)
वि० [सं० श्वेताङ्ग] १. श्वेत अंगवाला। गोरा। गौरांग। २. श्वेत वर्णवाला।
⋙ श्वेतांग (२)
संज्ञा पुं० युरोप का निवासी। यूरोपियन। अंग्रेज। उ०— (क) भारत भर आज श्वेतांग होने की अभिलाषा से।—प्रेम- धन०, भा० २, पृ० २५९। (ख) जो आज श्वेतांग लोग करते हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५८।
⋙ श्वेतांबर
संज्ञा पुं० [सं० श्वेताम्बर] १. सफेद वस्त्र धारण करनेवाला। २. जैनों के दो प्रधान संप्रदायों में से एक। विशेष—ये लोग चंवरी रखते, बाल उखड़वाते, श्वेत वस्त्र पहनते, क्षमायुक्त रहते और भिक्षा मांगकर अपना निर्वाह करते हैं। ये स्त्रियों को भी अपवर्ग मानती हैं। ३. शिव का एक रूप।
⋙ श्वेतांशु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ श्वेता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अग्नि की सात जिह्नाओं में से एक। २. कौड़ी। ३. भोजपत्र का पेड़। ४. श्वेत पाटला। काष्ठ पाटला। ५. श्वेत या शंख नामक हस्ती की माता। शंखिनी। ६. अतीस। अतिविषा। ७. अपराजिता लता। ८. सफेद बन भंटा। ९. श्वेत कंटकारी। भटकटैया। १०. पाषाणभेद। पखानभेद। ११. वंशलोचन। १२. श्वेत पुनर्नवा। सफेद गदहपूरना। १३. शिलावाक। १४. फिटकरी। १५. चीनी। शक्कर। १६. मिस्री० १७. सफेद बच। १८. क्षुरपत्री। पर्वमूला।विशेष—यह तुण बरसात में उगता है और जाड़े में नष्ट हो जाता है। यह एक या डेढ़ बालिश्त ऊँचा और छतनारा होता है। पत्तियाँ छोटी, फूल नीले या बैंगनी रंग के और बीज छोटे छोटे दानों की तरह के होते हैं। क्षुरपत्री मधुर, शीतल और स्त्री का दूध बढ़ानेवाली कही गई है। १९. स्कंद की अनुचरी एक मातृका। २०. कश्यप की क्रोधवशा नाम्ना पत्नी से उत्पन्न एक कन्या जो दिग्गजों की माता है।
⋙ श्वेता (२)
वि० श्वेत वर्ण की। गोरी। गौरवर्णा।
⋙ श्वेताक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की सोमलता।
⋙ श्वेताद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वेत नाम का पर्वत। २. कैलाश पर्वत [को०]।
⋙ श्वेताभ
वि० [स०] आभायुक्त। श्वेतकांतिवाला।
⋙ श्वेताम्लि
संज्ञा स्त्री० [सं०] इमली।
⋙ श्वेतारण्य
संज्ञा पुं० [सं०] कावेरी नदी के किनारे का एक वन जो तीर्थ माना गया है।
⋙ श्वेतार्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. श्वेत मंदार का वृक्ष।
⋙ श्वेतार्चि
संज्ञा पुं० [सं० श्वेतार्चिसु] चंद्रमा।
⋙ श्वेतालु
संज्ञा पुं० [सं०] महिष कंद। भैंसाकंद।
⋙ श्वेतावार
संज्ञा पुं० [सं०] सितावर शाक।
⋙ श्वेतार्श्व
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन का एक नाम।
⋙ श्वेताश्वतर
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा। २. उपनिषद् विशेष। विशेष—कृष्ण यजुर्वेद की यह उपनिषद् छह अध्यायों की है। इसमें वेदांत के प्रायः सब सिद्धांतों के मूल पाए जाते है। भगवद् गीता के बहुत से प्रसंग इससे लिए हुए जान पड़ते हैं। इसकी संस्कृत बड़ी ही सरल और स्पष्ट है। वेदांत के प्रसंगों के अतिरिक्त इसमें योग और सांख्य के सिद्धांतों के मूल भी मिलते है। वेदांत, सांख्य और योग तीनों शास्त्रों के कर्ताओं ने मानो इसी के मूल वाक्यों को लेकर ब्रह्म के स्वरूप तथा पुरुष-प्रकृति भेद आदि का विस्तार किया है।
⋙ श्वेताह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेत पाटला।
⋙ श्वेतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौंफ।
⋙ श्वेतित
वि० [सं०] श्वेत या सफेद बनाया हुआ या किया हुआ [को०]।
⋙ श्वेतिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वेतिमन्] शुक्लत्व। शुभ्रता। धवलिमा। सफेदी [को०]।
⋙ श्वेतेक्षु
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ईख। सफेद ईख [को०]।
⋙ श्वेतौदर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर। २. एक प्रकार का साँप। (सुश्रुत)। ३. मार्कंडेय पुराण के अनुसार एक पर्वत।
⋙ श्वेतौही
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्राणी। शची।
⋙ श्वेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कोढ़।
⋙ श्वैत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वेनता। शुभ्रता। २. सफेद कुष्ट [को०]।
⋙ श्वैत्र, श्वैत्र्य
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कोढ़ [को०]।