बनक पु
संज्ञा पुं० [सं० वणिक्] दे० वणिक्। उ०—बंभन बनंक कापथ्थ संग, पसवान लोग जे रषिक अंग।—पृ० रा०, १४।१२६।

बन
संज्ञा पुं० [सं० वन] १. जंगल। कानन। अरण्य। २. समूह। ३. जल। पानी। उ०—बाँध्यो बननिधि नीरनिधि, जलधिसिंधु बारीश।—तुलसी(शब्द०)। ४. बगीचा। बाग। उ०—वासण वरुण विधि बन ते सोहावनो, दसानन को बानन बसंत को सिंगार सो।—तुलसी(शब्द०)। ५. निराने या नीदने की मजदूरी। निरोनी। निदाई। ३. वह अन्न जो किसान लोग भजदूरों को खेत काटने की मजदूरी के रूप में देते हैं। ७. कपास का पेड़। कपास का पौधा। उ०— सन सूख्यो बीत्यो बनौ ऊखौ लई उखार। अरी हरी अरहर अर्जीं धर धरहर जियनार।—बिहारी (शब्द०)। ८. वह भेंट जो किसान लोग अपने जमींदार को किसी उत्सव के उपलक्ष में देते हैं। शादियाना। ९. दे० 'वन'।

बनआल्
संज्ञा पुं० [हिं० वन + आलू] पिंडालू और जमीकंद आदि की जाति का एक प्रकार का पौधा जो नेपाल,सिकिम, बंगाल, बरमा और दक्षिण भारत में होता है। यह प्रायः जंगली होता है और बोया नहीं जाता इसकी जड़ प्रायः जंगलो या देहाती लोग अकाल के समय खाते हैं।

बनउर †
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'बिनोला'। २. दे० 'ओला'।

बनकंडा
संज्ञा पुं० [हिं० बन + कंडा] वह कड़ा जो बन में पशुओं के मल के आपसे आप सुखने से तैयार होता है। अरना कंडा।

बनक पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनना] १. बनावट। सजावट। सज- धज।— उ०—द्विजदेव की सौं ऐसी बनक निकाई देखि, राम की दुहाई मन होत है निहाल मम।—द्विजदेव(शब्द०)। २. बाना। बेष। भेस। उ०—अरुन नील पियरे लसत अंकन सुमन समाज। अरी आज रितुराज की बनक बनै ब्रजराज।—स० सप्तक, पृ० ३७५। ३. मित्रता। दोस्ती। उ०—जासों अनबन मोही, तासों बनक बनी तुम्हें।— घनानंद पृ० २०६।

बनक (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वन + क(प्रत्य०)] बन की उपज। जगल की पैदावार। जैसे, गोंद, लकड़ी, शहद आदि।

बनक पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० वर्णक] वर्ण, रंग। उ०—केसरि कनक कहा चंपक बनक कहा ? दामिनी यों दुरि जात देह की दमक तैं।—मति० ग्रं०, पृ० ३०७।

बनककड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + ककड़ी] पापड़े का पेड़। विशेष—यह सिकिम से लेकर शिमले तक पाया जाता है। इस पौधे से एक प्रकार का गोंद और एक प्रकार का रंग भी निकाला जाता है। इसका गोंद दवा के काम आता है।

बनकचूर
संज्ञा पुं० [हिं० बन + कचूर] एक पौधा। दे० 'कचूर'।

बनकटी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का बाँस जिससे पहाड़ी लोग टोकरे बनाते हैं।

बनकटा (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + काटना] जंगल काटकर उसे आबाद करने का स्वत्व वा अधिकार जो जमीदार या मालिक की ओर से किसानों आदि को मिलता है।

बनकठा †
वि [हिं० बन + काठ] जंगली लकड़ी।

बन कपास
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + कपास] पटसन की जाति का एक प्रकार का लंबा पैधा। विशेष—यह बुंदेलखंड,अबध और राजपुताने में अधिकता से होती है। इसमें बहूत अधिक टहनियाँ होती हैं। कहीं कहीं इसमें काँटे भी पाए जाते हैं। इससे सफेद रंग का मजबूत रेशा निकलता है।

बन कपासी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + कपास] एक प्रकार का पैधा जो साल के जंगलों में अधिकता से पाया जाता है। इसके रेशों से लकड़ी के गट्ठो बाँधने की रस्सियाँ बनती हैं।

बनकर
संज्ञा पुं० [सं० बनकर] १. एक प्रकार का अस्त्रसंहार। शत्रु के चलाए हूए हथियार को निष्फल करने की युक्ति। २. जंगल में होनेवाले पदार्थं अर्थात् लकड़ी, घास आदि की आमदनी। ३. सूर्य (डिं०)।

बनकल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० बन + कल्ला] एक प्रकार का जंगली पेड़।

बनकस, बनकुस
संज्ञा पुं० [हिं० बन + कुश] एक प्रकार की घास जिसे बनकुस, बँभनी, मोय और बाभर भी कहते हैं। इससे रस्सियाँ बनाई जाती हैं।

बनकोरा
संज्ञा पुं० [देश०] लोनिया का साग। लोनी।

बनखंड
संज्ञा पुं० [सं० वनखण्ड] जंगल का कोई भाग। जंगली प्रदेश। उ०—आगे सड़क रक्षित वनखंड में घुसी।— किन्नर०, पृ० ५१।

बनखंडी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + खंड(= टुकड़ा] बन का कोई भाग। २. छोटा सा बन।

बनखडी (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रसिद्ध महात्मा जो श्रीचंद जी के अनुयायी थे। सक्खर में 'साधुबेला' नामक इनका स्थान प्रसिद्ध है। २. वह जो बन में रहता हो। वन में रहनेवाला। जंगल में रहनेवाला व्यक्ति। उ०—उसी व्यथा से है परिपीड़ित यह बनखंडी आप।—(शब्द०)।

बनखरा
संज्ञा पुं० [हिं० वन + खरा (संभवतः सं० खण्ड से १)] वह भूमि जिसमें पिछली फसल में कपास बोई गई हो।

बनखोर
संज्ञा पुं० [देश०] कौर नामक वृक्ष। विशेष दे० 'कौंर'।

बनगरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक मछली जिसे बाँगुर और बँगुरी भी कहते हैं।

बनगाय
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + गाय] जंगली गाय। नीलगाय। गवय।

बनगाव
संज्ञा पुं० [हिं० बन + फ़ा० गाव, हिं० गौ] १. एक प्रकार का बड़ा हिरन जिसे रोझ भी कहते हैं। २. एक प्रकार का तेंदू वृक्ष।

बनघास
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + घास] जंगली घास। नाम- रहित घास या तृण। उ०—केहि गिनती महँ गिनती जस बनघास। राम जपत भए तुलसी तुलसीदास।—तुलसी ग्रं०, पृ० २४।

बनचर
संज्ञा पुं० [सं० वनचर] १. जंगले में रहनेवाले पशु। वन्य पशु। २. बन में रहनेवाला मनुष्य। जंगली आदमी। उ०—राम सकल बनचर तब तोषे।—मानस, २।१३७। ३. जल में रहनेवाले जीव। जैसे, मछली, मगर आदि।

बनचरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की जंगली घास जिसकी पत्तियाँ ग्वार की पत्तियों की तरह होती हैं। बरो।

बनचरी (२)
संज्ञा पुं० जंगली पशु।

बनचारी
संज्ञा पुं० [सं० बनचारिन्] १. बन में घूमनेवाला। उ०—हिसारत निषाद तामस वपु पशु समान बनचारी।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५४२। २. वन में रहनेवाला व्यक्ति। ३. जंगली जानवर। ४. मछली, मगर, घड़ियाल, कछुवा आदि जल में रहनेवाले जंतु।

बनचौंर, बनचौंरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + सं० चमरी] नेपाल के पहाड़ों में रहनेवाली एक प्रकार की जंगली गाय जिसकी पूँछ की चँवर बनाई जाती है। सुरा गाय। सुरभी।

बनज (१)
संज्ञा पुं० [सं० वनज] १. कमल। उ०—जय रघुबश बनज बन भालू।—तुलसी (शब्द०)। २. जल में होनेवाले पदार्थ। जैसे, शंख, कमल, मछली आदि। यौ०—बनजबन = कमलवन। कमलसमूह। उ०—नृप समाज जनु तुहिन बनजबन मारेउ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५३।

बनज (२)
संज्ञा पुं० [सं० वाणिज्य, प्रा० बणिज] बाणिज्य। व्यापार। व्यवसाय। रोजगार। यौ०—बनज व्यौपार = व्यापार। उ०—हमारे श्री ठाकुर जी बनज व्यौपार करत नाहीं हैं, जो ऐसे लोगन को दिखाइए। दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३१९।

बनजना पु
क्रि० स० [हिं० बनज + ना (प्रत्य०)] खरीदना। खरीद करना। उ०—कलाकंद तजि बनजी खारी। अइया मनुषहुँ घूझि तुम्हारी।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ३२०।

बनजर
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बंजर'।

बनजरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनजर + इया (प्रत्य०)] बंजर- भूमि। उ०—वह तो न जाने कब से कृष्णार्पण लगी हुई बनजरिया है।—तितली, पृ० ३७।

बनजात
संज्ञा पुं० [सं० बनजात] कमल। उ०—बरन बरन बिकसे बनजाता।—तुलसी (शब्द०)।

बनजारा
संज्ञा पुं० [हिं० बनिज + हारा] [स्त्री० बनजारन, बनजारी] १. वह व्यक्ति जो बँलों पर अन्न लादकर बेचने के लिये एक देश से दूसरे देश को जाता है। टाँडा़ लादनेवाला व्यक्ति। टँड़ैया। टँड़वरिया। बंजारा। उ०—सब ठाट पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलैगे बनजारा।—नजीर(शब्द०)। २. बनिया। व्यापारी। सौदागर। उ०—(क) चितउर गढ़ कर इक बनजारा। सिंहलदीप चला बैपारा।—जायसी (शब्द०)। (ख) हठी मरहठी तामें राख्यो ना मवास कोऊ छीने हथियार सबै डोलै बनजारै से।—भूषण (शब्द०)।

बनजी पु †
संज्ञा पुं० [सं वाणिज्य] १. व्यापार। रोजगार। २. व्यापारी। रोजगार करनेवाला।

बनजोटा पु०
संज्ञा पुं० [हिं० बनज + ओटा(प्रत्य०)] व्यापारी। उ०—साह गुरू सुकदेव बिराजै चरनदास बनजोटा।— चरण० बानी, पृ० ९९।

बनज्योत्स्ना
संज्ञा स्त्री० [सं० बन + ज्योत्स्ना] माधवी लता।

बनडरो पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनड़ा] एक राग। उ०—गवाहिं बनडरी बन नहि सूझे देहि सभनि कहं दीछा।—संत० दरिया, पृ० १०६।

बनड़ा पु ‡ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] बनरा। बना। दूल्हा। उ०—बनड़ा मूँ सूँपै बनी, हतलेवे मिल हाथ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ५८।

बनड़ा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] बिलावल राग का एक भेद। यह राग झूभड़ा ताल पर गाया जाता है।

बनड़ा जैत
संज्ञा पुं० [देश०] एक शालक राग जो (?) रूपक ताल पर बजता है।

बनड़ा देवगरी
संज्ञा पुं० [देश०] एक शालक राग जो एकताले पर बजाया जाता है।

बनत
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनना + त (प्रत्य०)] १. रचना। बना- वट। २. अनुकूलता। सामंजस्य। मेल। ३. मखमल वा किसी रेशमी कपड़े पर सलमे सितारे की बनी हूई बेल जिसके दोनों ओर हाशिया होता है। जिस बेल के एक ही ओर हाशिया होता है उसे चपरास कहते हैं।

बनता †
संज्ञा स्त्री० [सं० वनिता] दे० 'बनिता'। उ०—बनता हरण बलै बनवासी, लंका वणी लड़ाई।—रघु० रू०, पृ० १९१।

बनताई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + ताई(प्रत्य०)] बन की सघनता। बन की भयंकरता।

घनतुरई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + तुरई] बंबाल।

बनतुलसा
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'वनतुलसी'। उ०—घाट की सीढ़ी तोड़ फोड़कर बनतुलसा उग भाई।—ठंडा०, पृ० २०।

बनतुलसी
संज्ञा स्त्री० [सं० वन + तुलसी] बबई नाम का पौधा जिसको पत्तो और मंजरी तुलसी की सी होती है। बर्बरी।

बनद पु
संज्ञा पुं० [सं० बनद] बादल। मेघ।

बनदाम
संज्ञा स्त्री० [सं० बनदाम] बनमाला।

बनदेव
संज्ञा पुं० [सं० बनदेव] बन के आधिष्ठाता दैवता। उ०— बनदेवी बनदेव उदारा।—मानस, २।६६।

बनदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं० वनदेवी] किसी वन की अधिष्ठात्री देवी।

बनधातु
संज्ञा स्त्री [सं०] ग्र०/?/और कोई रंगीन मिट्टी। उ०— बका बिदारि चले ब्रज को हरि। सखा संग आनंद करत सब अंग अंग वनधातु चित्र करि।—सूर (शब्द०)।

बनना
क्रि० अ० [सं० वर्णन, प्रा० वण्णन(= चित्रित होना, रचा जाना)] १. सामग्री की उचित योजना द्वारा प्रस्तुतहोना। तैयार होना। रचा जाना। जैसे, सड़क बनना, मकान बनना, संदूक बनना। मूहा०—बना रहना = (१) जीता रहना। संसार में जीवित रहना। जैसे,—ईश्वर करे यह बालक बना रहे। (२) उपस्थित रहना। मौजूद रहना। ठहरा रहना। जैसे,—यह तो आपका घर ही है, जबतक चाहें आप बने रहें। २. किसी पदार्थ का ऐसे रूप में आना जिसमें वह व्यवहार में आ सके। काम में आने योग्य होना। जैसे,—रसोई बनना, रोटी बनना। ३. ठीक दशा या रूप में आना। जैसा चाहिए वैसा होना। जैसे, अनाज बनना, हजामत बनना। ४. किसी एक पदार्थ का रूप परिवर्तित करके दूसरा पदार्थ हो जाना। फेरफार या और वस्तुओं के मेल से एक वस्तु का दूसरी वस्तु के रूप में हो जाना। जैसे, चीनी से शर्बत बनना। ५. किसी दूसरे प्रकार का भाव या संबंध रखनेवाला हो जाना। जैसे, शत्रु का मित्र बनना। ६. खोई विशेष पद, मर्यादा या आधिकार प्राप्त करना। जैसे अध्यक्ष बनना, मंत्री बनना। निरीक्षक बनना। ७. अच्छी या उन्नत दशा में पहुँचना। धनीमानी हो जाना। जैसे, वे देखते देखते बन गए। ८. वसूल होना। प्राप्त होना। मिलना। जैसे,—अब इस आलमारी के पाँच रुपए बन जायेगे। ९. समाप्त होना। पूरा होना। जैसे—अब यह तसवीर बन गई। १०. आविष्कार होना। ईजाद होना। निकलना। जैसे—आजकल कई नई तरह के टाइपराइटर बने हैं। ११. मरम्मत होना। दुरुस्त होना। जैसे,—उनके यहाँ घड़ियाँ भी बनती है ओर बाइसिकलें भी। १२. संभव होना। हो सकना। जैसे,—जिस तरह बने, यह काम आज ही कर डालो। उ०—बनै न बरनत बनी बराता।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—प्राणों पर या जान पर आ वनना = ऐसा संकट या कठिनता पड़ना जिसमें प्राण जाने का भय हो। १३. आपस में निभना। पटना। मित्रभाव होना। जैसे—आजकल उन लोगों में खूब बनती है। १४. अच्छा, सुंदर या स्वादिष्ट होना। जैसे—रँगने से यह मकान बन गया। १५. सुयोग मिलना। सुअवसर मिलना जैसे—जब दो आजमियों में लड़ाई होती है, तब तीसरे की ही बनती है। संयो० क्रि०—आना।—पड़ना। १६. स्वरूप धारण करना। जैसे,—थिएटर में बहुत अच्छा अफीमची बनता है। १७. मूर्ख ठहरना। उपहासास्पद होना। जैसे,—आज तो तुम खूब बने। १८. अपने आपको आधिक योग्य, गंभीर अथवा उच्च प्रमाणित करना। महत्व की ऐसी मुद्रा धारण करना जो वास्तविक न हो। जैसे,— वह छोकरा हम लोगों के सामने भी बनता है। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—बनकर = अच्छी तरह। भली भाँति। पूर्ण रूप से। उ०—मनमोहन सों विछुरे इतही बनिकै न अबै दिन द्वै गए हैं। सखि वे हम वे तुम वेई बनो पै कछू के कछू मन ह्वै गए हैं।—पद्माकर (शब्द०)। १९. खूव सिंगार करना। सजना। सजावट करना। यौ०—बनना सँवरना,बनना ठनना,= खूव अच्छी तरह अपनी सजावट करना। खूब शृंगार करना।

बननि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनना] १. बनावट। सजावट। २. बनाव सिंगार।

बननिधि
संज्ञा पुं० [सं० बननिधि] समुद्र। उ०—बाँध्यो बन- निधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।—मानस, ६।५।

बननीबू
संज्ञा पुं० [हिं० बन + नीवू] एक प्रकार का सदा- बहार क्षुप। विशेष—यह क्षुप प्रायः सारे भारत में और हिमालय में ७००० फुट तक की ऊँचाई तक पाया जाता है। इसकी टहनियाँ दतुग्रन के काम में आती हैं और इसके फल खाए जाते हैं।

बनपट पु
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्षों की छाल आदि से बनाया हुआ कपड़ा।

बनपति
संज्ञा पुं० [सं० वनपति] सिंह। शेर।

बनपथ
संज्ञा पुं० [सं० वनपथ] १. समुद्र। २. वह रास्ता जिसमें जल बहूत पड़ता है। ३. वह रास्ता जिसमें जंगल बहूत पड़ता हो।

बनपाट
संज्ञा सं० [हिं० बन + पाट] जंगली सन। जंगली पदुआ।

बनपाती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति या हिं० बन + पत्ती] वनस्पति।

बनपाल
संज्ञा पुं० [सं० वनपाल] वन या बाग का रक्षक। माली। बाग का रखवाला।

बनपिंडालू
संज्ञा पुं० [हिं० बन + पिंडालू] एक जंगली वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष बहुत बड़ा नहीं होता। इसकी लकड़ी जर्दी लिए भूरे रंग की और कंघी, कलमदान या नक्काशीदार चीजें बनाने के काम आती है। यह पेड़ मध्य देश बंगाल और मद्रास में होता है।

बनप्रिय
संज्ञा पुं० [सं० बनप्रिय] कोयल। कोकिल।

बनप्सा †
संज्ञा पुं० [बनफशह्] दे० 'वनपशा'।

बनफती †
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति, प्रा० वणफ्फइ] दे० 'बन- स्पति'। उ०—सहस भाव फूली बनफती। मधुकर फिरहिं सँवरि मालती।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३६०।

बनफल
संज्ञा पुं० [हिं० बन + फल] जंगली मेवा।

बनफशा
संज्ञा पुं० [फ़ा० बनफ्शह्] दे० 'बनफ्शा'। उ०—नील नयन में फँसा रहा मन, फूल वनफशा जो चिर सुंदर।— मधुज्वाल, पृ० २९।

बनफ्शई
वि० [फा़० बनफ़्शह् + ई] बनपशे के रंग का।

बनफशा
संज्ञा पुं० [फा़० बनफ़्शह्] एक प्रकार की प्रसिद्ध वनस्पति। विशेष—यह वनस्पति नेपाल, काशमीर और हिमालय पर्वत के दूसरे स्थानों में ५०००फुट तर की ऊँचाई पर होती है। इसका पौधा बहुत छोटा होता है। जिसमें बहुत पतली और छोटी शाखाएँ निकलती हैं जिनके सिरे पर बँगनी यानीले रंग के खुशबूदार फूल होते हैं। इसकी पत्तियाँ अनार की पत्तियों से कुछ मिलती जुलती हैं। इसकी जड़, फूल और पत्तियाँ तीनों ही ओषधि के काम आते हैं। साधारणतः फूल और पत्तियों का व्यवहार जुकाम और ज्वर आदि में होता है और जड़ दस्तावर दवाओं के साथ मिलाकर दी जाती हैं। फूलों ओर जड़ का व्यवहार वमन कराने के लिये भी होता है और खाली फूल पेशाब लानेवाले माने जाते हैं।

बनबकरा
संज्ञा पुं० [हिं० बन + बकरा] एक प्रकार का पक्षी। विशेष—काशमीर और भूटान आदि ठंढे देशों में यह पक्षी पाया जाता है। यह रंग में भूरा और लंबाई में लगभग एक फुट के होता है। यह घास और पत्तियों से भूमि पर या नीची झाड़ियों में घोंसला बनाता है। अप्रैल से जून तक इसके अडे देने का समय है। यह एक बार में तीन चार अंडे देता है।

बनबन्हि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बनबह्नि] दावानल। वनाग्नि। उ०—उठिहै निसि बनवन्हि अचान। पानी लौं हरि करिहैं पान।—नंद० ग्रं०, पृ० २०२।

बनबरै
संज्ञा पुं० [हिं०] जंगली कुसुम। खारेजा।

बनबारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + बारी] १. वनकन्या। वन में रहनेवाली बालिका। २. उद्यान। पुष्पवाटिका।

बनबास
संज्ञा पुं० [सं० वनवास] १. बन में बसने की क्रिया या अवस्था। २. प्राचीन काल का देश निकाले का दंड। जलावतनी।

बनबासी
संज्ञा पुं० [सं० वनवासिन्] [स्त्री० बनवासिनी] १. वन में रहनेवाला। वह जो वन में बसे। २. जंगली।

बनबाइन पु
संज्ञा पुं० [सं० बनवाहन] जलयान। नाव। नौका। उ०—जब पाहन भे बनबाहन से उतरे बनरा जय राम रढ़ै।—तुलसी (शब्द०)।

बनबिलार
संज्ञा पुं० [सं० बन + विडाल] दे० 'बनबिलाव'। उ०—तब वे बूढ़े़ बनबिलारों के समान घूरते।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० ९४।

बनबिलाव
संज्ञा पुं० [हिं० बन + बिलाव(= बिल्ली)] उत्तर भारत, बंगाल और उड़ीसा में मिलनेवाला बिल्ली की जाति का और उससे बहुत ही मिलता जुलता एक जंगली जंतु जिसे लोग प्रायः बिल्ली ही मानते हैं। विशेष—यह बिल्ली से कुछ बड़ा होता है और इसके हाथ पैर कुछ छोटे तथा द्दढ़ होते हैं। इसका रंग मटमैला भूरा होता है और इसके शरीर पर काले लंबे दाग और पूँछ पर काले छल्ले होते हैं। यह प्रायः दलदलों में रहता है और वहीं मछली पकड़कर खाता है। यह कुछ अधिक भीषण होता है और कभी कभी कुतों या बछड़ों पक भी आक्रमण कर बैठता है।

बनबेला
संज्ञा पुं० [हिं०] एक प्रकार का पुष्प। कुटज। कोरैया कुरैया। उ०—वनबेले ने फूलकर बाग के बेलों को लजाया। प्रेमघन०, भा० २, पृ० १२।

बनमानुष
संज्ञा पुं० [हिं० बन + मानुष] १. बंदरों से कुछ उन्नत और मनुष्य से मिलता जुलता कोई जंगली जंतु। जैसे गोरिल्ला, चिपैंजी, आदि। २. बिल्कुल जंगली आदमी (परिहास)।

बनमाल
संज्ञा स्त्री० [सं० वनमाल] दे० 'बनमाला'। उ०—ह्वै बनमाल हिए लगिए अरु ह्वै मुरली अधरा रस पीवै।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १३९।

बनमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० वनमाला] तुलसी, कुंद, मंदार, परजाता और कमल इन पाँच चीजों की बनी हुई माला। विशेष—ऐसी माला का वर्णन हमारे यहाँ के प्राचीन साहित्य में विष्णु, कृष्ण, राम आदि देवताओं के सबंध में बहूत आता है। कहा है, यह माला गले से पैरों तक लंबी होनी चाहिए।

बनमाली
संज्ञा पुं० [सं० वनमालिन्] १.वनमाला धारण करनेवाला। २. कृष्ण। ३. विष्णु। नारायण। ४. मेघ। बादल। उ०—बनमाली ब्रज पर बरसत बनमाली बनमाली दूर दुख कैशव कैसे सहों।—केशव (शब्द०)। ५. वन से घिरा हुआ देश। जिस प्रदेश में घने वन हों। उ०—बनमाली ब्रज पर बरसत बनमाली बनमाली दूर दुख केशव कैसे सहों।—केशव (शब्द०)।

बनमुर्गा
संज्ञा पुं० [हिं० बन + फ़ा० मुर्गा] जंगली मुरगा।

बनमुर्गिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + फ़ा मुर्गी + हिं० इया (प्रत्य०)] हिमालय की तराई में रहनेवाला एक प्रकार का पक्षी। विशेष—इस पक्षी का गला और सीना सफेद सारा शरीर आसमानी रंग का और चोंच जंगली रंग की हाती है। यह पक्षी भूमि पर भी चलता और पानी में भी तैर सकता है। इसका मांस खाया जाता है।

धनमूँग
संज्ञा पुं० [सं० बनमुदग] मुँगवन या मोठ नाम का कदन्न।

बनर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का अस्त्र। उ०—तिमि विभूति अरु वनर कह्यो युग तैसहि बन कर बीरा। कामरूप मोहन आवरणहु खड़ै काम रुचि बीरा।—रघुराज (शव्द०)।

बनरखत †
संज्ञा पुं० [हिं० बंदर + खत < सं० क्षत] बंदर का घाव या क्षत जिसे वे बराबर कुरेदते रहते है और इससे वह ठीक नहीं हो पाता।

बनरखना
संज्ञा पुं० [हिं० बन + रखना] बन का रक्षक। बनरखा।

बनरखा
संज्ञा पुं० [हिं० बन + रखना(= रक्षा करना)] १. जंगल की रक्षा करनेवाला। बन का रक्षक। २.बहेलियों तथा जगल में रहनेवालों की एक जाति। विशेष—इस जाति के लोग प्रायः राजा महाराजाओं को शिकार के संबध में सूचनाएँ देते हैं। और शिकार के समयजंगली जानवरों को घेरकर सामने लाते हैं और उनका शिकार कराते हैं।

बनरा पु (१)
पुं० [हिं०] [स्त्री० बनरी, बनरिया] दे०'बंदर'। उ०—जब पाहन भे बनबाहन से उतरे बनरा जय राम रढ़ैं।तुलसी (शब्द०)।

बनरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बनना] १. बर। दूल्हा। २. विवाह समय का एक प्रकार का मंगलगीत। उ०—गावै विधवा अपन कहि बनरा दुलहिन केर।—रघुनाथदास (शव्द०)।

बनराई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वनराजि, प्रा० बणराइ] दे०'बनराजि'। उ०—दादू सबही गुरु किए पसु पंषी बनराइ। तीनि लोक गुण पंचसीं, सबदी माँहि खुदाइ।—दादू० पृ० ३१।

बनराज पु †
संज्ञा पुं० [सं० वनराज] १. बन का राजा। सिंह। शेर। २. बहुत बड़ा पेड़।

बनराजि, बनराजी
संज्ञा स्त्री० [सं० बनराजि] वृक्षसमूह। वृक्षावली। तरुपंक्ति। उ०—कुसुमित बनराजी अति राजी।—नंद० ग्रं०, पृ० २२७। (ख)अपना दल अंचल पसार कर बनराजी माँगती है।—लहर, पृ० ७६।

बनराय
संज्ञा पुं० [सं० वनराज, प्रा० वणराप] १. दे० 'बनराज'। २. दे० 'बनराजी'। उ०—सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय—कबीर सा० सं०, भा० १. पृ० २।

बनरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनरा का स्त्री०] नववधू। नई ब्याही हुई वधू। उ०—सखी लखु सिय बनरी घर आई। परिछन करि सब सासु उतारी पुनि पुनि लेत बलाई।—रघुराज (शब्द०)।

बनरीठा
संज्ञा पुं० [हिं० बन + रीठा] एक प्रकार का जंगली रीठा जिसकी फलियों से लोग सिर के बाल साफ करते हैं। एला। विशेष—इसका पेड़ काँटेदार होता है और सारे भारत में पाया जाता है। इसके पत्ते खट्टे होती हैं. इसलिये कहीं कहीं लोग उसकी तरकारी बनाकर भी खाते हैं।

बनरीहा
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + रीहा (रिस) या सं० रुह (= पौधा)] एक प्रकार की घास जिसकी छाल से सुतली या सूत बनाया जाता है। विशेष—यह घास खसिया पहाड़ी पर बहुतायत से होती है। इसे रीसा या बनकटरा भी कहुते हैं। कुछ लोग इसी का बनरीठा भी कहते हैं परंतु वह इससे भिन्न है।

बनरुह
संज्ञा पुं० [सं० वनरुह] १. जंगल में आपसे आप होनेवाला वृक्ष या पौधा। जंगली पेड़। २. कमल। उ०—रिपु रन जीति अनुज सँग सोभित फेरत चाप विशिष वनरुह कर।—तुलसी (शब्द०)।

बनरुहिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनरुइ + इया (प्रत्य०)] एक प्रकार की कपास।

बनवध
संज्ञा पुं० [हिं० बनना] एक प्राचीन प्रांत। <col n="1" विशेष—इस प्रांत में जौनपूर, आजमगढ़, बनारस और अवध का पश्चिमी भाग संमिलित था। कुछ लोग इसका विस्तार बैसवाड़े से विजयपुर तक और गोरखपुर मे भोजपुर तक भी मानते हैं। इस प्रांत के बारह राजाओं अर्थात (१) विजयपुर के गहरवार, (२) बछगोती के खानजादे, (३)बैसवाड़े के बिसेन, (४) गोरखपुर के श्रीनेत, (५) हरदी के हैहयवशी। (६) डुमराँव के उजैनी, (७) त्योरी भगवानपुर के राजकुमार, (८) अँगोरी के चंदेल, (९) सरुवर के कलहंस, (१०) नगर के गौतम, (११) कुड़वार के हिंदू बछगोती और (१२) मझौली के बिसेन ने मिलकर एक संध बनाया या और निश्चय किया था कि हमलोग सदा परस्पर सहायता करते रहेंगे। ये लोग 'बारहो बनवध' कहलाते थे।

बनवना ‡पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बनाना'। उ०—बनवत पहिनत पहिनावत अतिसय प्रसन्न मन।—प्रेमधन०, भा० १, पृ० ४२।

बनवर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिनौला'।

बनवसन पु
संज्ञा पुं० [सं० बन + वसन] वृक्षों की छाल का बना हुआ कपड़ा।

बनवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वन (= जल) + हिं० वा (प्रत्य०)] पनडुव्बी नामक जलपक्षो।

बनवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० वन (= जंगल)] एक प्रकार का बछनाग।

बनवाना
क्रि० स० [हिं० बनाना का प्रे० रूप] दूसरे को बनाने में प्रवृत्त करना। बनाने का काम दूसरे से कराना। उ०— कोऊ रसोई बनवत अरु कोऊ बननावत।—प्रेमघन०, पृ० २७।

बनवारी
संज्ञा पुं० [सं० बनमाली] श्रीकृष्ण का एक नाम।

बनवासी
संज्ञा पुं० [सं० बनवासिन्] वन का निवासी। जंगल में रहनेवाला।

बनवैया
संज्ञा पुं० [हिं० बनाना + वैया (प्रत्य०)] बनानेवाला।

बनसपति,बनसपती
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति] दे० 'बनस्पति'। उ०—करहिं बनसपति हिए हुलासू।—जायसी ग्रं०, पृ० १५५।

बनसार
संज्ञा पुं० [सं० वन(= जल) + सार ? ] जहाज पर चढ़ने ओर उतरने का स्थान। बगसार। (लश०)।

बनसी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'वंशी'।

बनसी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वडिश] मछली फँसाने की कँटिया। दे० 'बंसी'। उ०—इक धीवर बुद्धि उपाई। बनसी का साज बनाई।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १२९।

बनस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्थली] जंगल का कोई भाग। वनखंड।

बनस्पति
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति] दे० 'वनस्पति'।

बनस्पति विद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति विद्या] दे० 'वनस्पति शास्त्र'।

<col n="2"

बनहटो
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी नाव जो डाँड़ से खेई जाती है।

बनहरदी
संज्ञा स्त्री० [सं० वनहरिद्रा] दारु हल्दी। दारु हरिद्रा।

बनांतर
संज्ञा पुं० [सं० वनान्तर] दूसरा बन। दूसरा भाग। उ०—बिहरत अति आसक्त जु भए। गोधन निकसि बनांतर गए।—नंद० ग्रं०, पृ० २८७।

बना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बनना] [स्त्री० बनी] बर। दूल्हा। उ०—बानी सी बानी सुनि, बानी, बारह देह। बनी बनो सी पै बनी, नजर बना की नेह।—ब्रज ग्रं०, पृ० ५६।

बना (२)
संज्ञा पुं० [?] एक छंद का नाम जिसमें १०,८ और १४ के विश्राम से ३२ मात्राएँ होती है। इसका दूसरा और प्रसिद्ध नाम 'दंडकला' है।

बनाई पु
क्रि० वि० [हिं० बनाकर(= अच्छी तरह] १. बिल्कुल। निपट। अत्यंत। नितांत। उ०—(क) देखि घोर तप शक्र उर कंपित भयो बनाइ। मनमथ सकल समाज जुत आदर कीन्ह बुलाइ।—(शब्द०)। (ख) हरि तासों कियो युद्ध बनाई। सब सुर मन में गए डराई।—सूर (शब्द०)। २. भली भाँति। अच्छी तरह। उ०—सुर गुरु महिसुर संत की सेवा करइ बनाइ।—(शब्द०)।

बनाउ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बनाव'। उ०—(क) सात दिवस भए साजत सकल बनाउ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २०। (ख) मो मन सुक तौ उड़ि गयो, अब क्यों हूँ न पत्याय। बसि मोहन बनमाल में रहो बनाउ बनाय।—मति० ग्रं०, पृ० ३५४।

बनाउरि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वाणावलि] दे० 'वाणावली'।

बनागि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वनाग्नि, प्रा० वणागि] दे० 'बनाग्नि'।

बनाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०वनाग्नि] दावानल। दवारि।

बनात
संज्ञा स्त्री०[हिं० बाना] एक प्रकार का बढ़ियाँ ऊनी कपड़ा जो कई रंगों का होता है। उ०—लाल बनात का कनटोप दिए ...... उन्हीं के पीछे खड़ा था।—श्यामा०, पृ० १४५।

बनाती
वि० [हिं०बनात + ई (प्रत्य०)] १. बनात संबधी। २. बनात का बना हुआ।

बनान पु
संज्ञा पुं० [हिं० बनाना] दे० 'बनाव'। बहु बनान वै नाहर गढ़े।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १४७।

बनाना
क्रि स० [हिं० बनना का सक० रूप] रूप या अस्तित्व देना। सृष्टि करना। प्रस्तुत करना। रचना। तैयार करना। जैसे,—(क) यह सारी सृष्टि ईश्वर की बनाई हुई है। (ख) अभी हाल में नए कानून बनाए गए हैं। (ग) वे आककल एक महाकाव्य बना रहे हैं। (घ) इस सड़क पर एक अस्पताल बन रहा है। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। यौ०—बनाना बिगाड़ना। मुहा०—बनाकर = खूब अच्छी तरह। भली भाँति। पूर्ण रूप से। जैसे,—आज यह लड़का, खूब बनाकर पीटा गया है। बनाए नहीं बनना = सँवारे न सँवरना। उ०—कुछ बनाए नहीं बनी अबतक।—चुभते०, पृ० २। बनाए रखना = जीवित रखना। जीता रहने देना। जैसे,—ईश्वर आपको बनाए रखें। (आशीर्वाद)। २. किसी पदार्थ को काट छाँटकर, गढ़कर, सँवारकर, पकाकर या और किसी प्रकार तैयार करना। ऐसे रूप में लाना जिसमें वह व्यवहार में आ सके। रूप परिवर्तित करके काम में आने लायक करना। जैसे, कलम बनाना, भोजन बनाना, कुरता बनाना। ३. ठीक दशा या रूप में लाना। जैसा होना चाहिए वैसा करना। जैसे,—अनाज बनाना, हजामत बनाना, बाल बनाना (= कंघी से सवाँरना), तरकारी बनाना (= छील या काटकर ठीक करना या पकाना)। ४. एक पदार्थ के रूप को बदलकर दूसरे पदार्थ तैयार करना। जैसे, गुड़ से चीनी बनाना, मक्खन से घी बनाना। ५. दूसरे प्रकार का भाव या संबंध रखनेवाला कर देना। जैसे, दुशमन को दोस्त बनाना, संबंधी बनाना। ६. कोई विशेष पद, मर्यादा या शक्ति प्रदान करना। जैसे, सभापति बनाना, मैनेजर बनाना, तहसीलदार बनाना, नेता बनाना। ७. अच्छी या उन्नत दशा में पहुँचाना। जैसे,— उन्होंने अपने आपको कुछ बना लिया। ८. उपार्जित करना। वसूल करना। प्राप्त करना। जैसे,—उसने बहुत रुपया बनाया। ९. समाप्त करना। पूरा करना। जैसे,—अभी तस्वीर नहीं बनाई। १०, आविष्कार करना। ईजाद करना। निकालना। जैसे,—उन्होंने एक नई तरह की बाइसिकिल बनाई है जो पानी पर भी चलती है और जमीन पर भी। ११. मरस्मत करना। दोष दूर करके ठीक करना। जैसे, घड़ी बनाना, बाइसिकिल बनाना। १२. मूर्ख ठहराना। उपाहासास्पद करना। जैसे,—आज वहाँ सब लोगों ने मिलकर इन्हें खूब बनाया।

बनाफाति पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति, प्रा० वणफ्फइ] दे०

⋙ 'वनस्पति'।

बनाफर
संज्ञा पुं० [सं० वन्यफल?] क्षत्रियों की एक जाति। (आल्हा ऊदल इसी जाति के क्षत्रिय थे।)

बनावंत पु, बनावनत पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बनना + अबनना]विवाह करने के विचार से किसी लड़के और लड़की की जन्मपत्रियों का मिलान। इसे 'बनताबनत' भी कहते हैं। क्रि० प्र०—बनना।—मिलना।

बनाम
अव्य० [फा़०] नाम पर। नाम से। किसी के प्रति। विशेष—इस शब्द का प्रयोग बहुधा अदालती कारवाइयों में वादी और प्रतिवादी के नामों के बीच में होता है। यह वादी के नाम के पीछे और प्रतिवादी के नाम के पहले रखा जाता है। जैसे, रामनाथ (वादी) बनाम हरदेव(प्रतिवादी)।

बनाय† (१)
क्रि० वि० [हिं० बनाकर(= अच्छी तरह)] १. बिल्कुल। पूर्णतया। उ०—पवन सुवन लंकेश हू खोजत खोजत जाय।जामवंत कहँ लखत भे शर जर्जरित बनाय।—रघुराज (शब्द०)। २. अच्छी तरह से। उ०—लाग्यो पुनि सेवा करन नृप संतन की आय। कनक थार सातहून के धोए चरन बनाय।—रघुनाथ (शब्द०)।

बनाय पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बनाव] बनावट। शृंगार। उ०— आई झूलन सबै ब्रजबधु मबै एक बनाय की।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३७५।

बनार
संज्ञा पुं० [?] १. चाकसू नामक ओषधि का वृक्ष। २. कासमर्द। काला कसोंदा। ३. एक प्राचीन राज्य जो वर्तमान काशी की उत्तर सीमा पर था। कहते हैं, 'बनारस' का नाम इसी राज्य के नाम पर पड़ा।

बनारस
संज्ञा पुं० [सं० बाराणसी] काशी। वाराणसी।

बनारसी (१)
वि० [हिं० बनारस + ई (प्रत्य०)] १. काशी संबंधी। काशी का। जैसे, बनारसी दुपट्टा, बनारसी जरी। २. काशी- निवासी। बनारस का रहनेवाला।

बनारसी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाराण्सी, प्रा० वाणारसी] दे०'वाराणसी'। उ०—जो गुरु बसैं बनारसी सिष्य समुंदर तीर। एक पलक बिसरै नहीं जो गुन होय सरीर।—कबीर सा० भा० १, पृ० २।

बनारी
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रणाली] एक बालिश्त लंबी और छह अंगुल चौड़ी लकड़ी जो कोल्हू की खुदी हूई कमर में कुछ नीचे लगी रहती है और जिससे नीचे नाद में रस गिरता है।

बनाल, बनाला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बंदाल'।

बनाव (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बनना + आव (प्रत्य०)] १.बनावट। रचना। २. शृंगार। सजावट। यौ०—बनाव चुनाव, बनाव सिंगार। = शृंगाररचना। साज करके सज्जा। सजना सँवारना। उ०—आज तो ऐसा बनाव चुनाव आई हो कि बस कुछ न पूछो।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३३४। ३. तरकीब। युक्ति। तदबीर। उ०—जो नहिं जाऊँ रहइ पछितावा। करत विचार न बनइ बनावा।—तुलसी (शब्द०)।

बनाव पु† (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बनना] बनने य़ा पटने की स्थिति। मेलं। उ०—सखि मोरा तोरा बनेला बनाव बहुरि नहिं आइब है।—संत० दरिया, पृ० १७०।

बनावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनाना + वट (प्रत्य०)] १. बनने या बनाने का भाव। रचना। गढ़त। जैसे,—इन दोनों कुरसियों की बनावट में बहुत अंतर है। २. ऊपरी दिखावा। आडंबर। जैसे,—जिन आदमियों में बनावट होती है वे शीघ्र ही लोगों की निगाह से गिर जाते हैं।

बनावटी
वि० [हिं० बनावट] बनाया हुआ। नकली। कृत्रिम। जैसे, बनावटी हीरा।

बनावन (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बनाना] कंकड़ियाँ, मिट्टी, छिलके और दूसरे फालतू पदार्थ जो अन्न आदि को साफ करने पर निकलें। जैसे,—इस गेहूँ में बनावन कम निकलेगा।

बनावन (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बनवध'।

बनावनहारा
संज्ञा पुं० [हिं० बनाना + हारा(प्रत्य०)] १. बनानेवाला। वह जिसने बनाया हो। रचयिता। २. सुधार करनेवाला। वह जो बिगड़े हुए को बनाए।

बनावना पु
क्रि० स० [हिं० बनाव + ना (प्रत्य०)] दे० 'बनाना'। उ०—कोऊ विशाल मृणाल के केयूर वलय बनावते।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ११३।

बनावरि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वाणावलि] दे० 'वाणावली'। उ०—बारहि पार बनावरि साँधी। जासौ हेर लाग विष बाँधी।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १८९।

वनास
संज्ञा स्त्री० [देश०] राजपूताने की एक नदी का नाम जो आरावली पर्वत से निकलकर चंबल में मिलती है।

बनासपती
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति] १. जड़ी, बूटी, पत्र, पुष्प इत्यादि। पौधों, पेड़ों वा लताओं के पंचांग में से कोई अंग। फल, फूल, पत्ता आदि। उ०—आनि बनासपती बन ते सब तीरथ के जल कुंभ भरे हैं। आम को मोर धरौ तेहि ऊपर केसर सों लिखि पीत करे हैं।—हनुमान (शब्द०)। २. घास, साग, पात इत्यादि।

बनासपाती
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति] घास, साग पति आदि वनस्पतियाँ। दे० 'बनासपती'। उ०—ऐसी परीं नरम हरम पातसाहन की, नासपाती खातीं ते बनासपाती खाती हैं।— भूषण (शब्द०)।

बनि पु (१)
वि० [हिं० बनना] पूर्ण। समस्त। सब। उ०— अमित काल मैं कीन्ह मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी।—तुलसी (शब्द०)।

बनि (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह मजदूरी जो अन्न आदि के रूप में दी जाय। बनी। उ०—खेती, बनि, बिद्दा, बनिज, सेवा सिलिपि सुकाज। तुलसी सुरतरु सरिस सब सुफल राम के राज।—तुलसी ग्रं, पृ० ११८।

बनिक
संज्ञा पुं० [सं० वणिक्] दे० 'वणिक'। उ०—बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहू कुबेर ते।—मानस, ७।२८।

बनिज
संज्ञा पुं० [सं० वाणिज्य] १. व्यापार। वस्तुओं का क्रय- विक्रय। रोजगार। उ०—बनिजा कयल लाभ नहि पा- ओल अलप निकठ भेल थोर।—विद्यापति, पृ० ४०३। २. व्यापार की वस्तु। सौदा। उ०—(क) कलियुग बर विपुल बनिज नाम नगर खपत।—तुलसी (शब्द०)। ३. मालदार मुसाफिर। धनि यात्री। (ठग)।

बनिजना पु †
क्रि० स० [सं० वाणिज्य, हिं० बनिज + ना (प्रत्य०)] १. व्यापार करना। लेन देन करना। खरीदना और बेचना उ०—(क) जो जस बनिजए लाभ तस पावए सूपुरुस मरहि गमार।—विद्यापति, ४०३। (ख) यह बनिजति वृषभान सुता तुम हम सोंवैर बढ़ावति।—सूर(शब्द०)। (ग) इनपर घर उत हैं घरा बनिजन आए हाठ। करम करीना बेचि कै उठि कै चालो बाट।—कबीर (शब्द०)। २. मोल ले लेना। अपने अधीन कर लेना। उ०—(क) गातन ही दिखराइ बातन ही बनिजै बनिजारी।—देव (शब्द०)। (ख) थापन पाई थिर भया, सतगुरु दीन्ही धीर। कबीर हीरा बनिजिया, मानसरोवर तीर।—कबीर० सा० स०, पृ० ५।

बनिजार, बनिजारा
संज्ञा पुं० [हि०] सौदागर। दे० 'बनजारा' या 'बंजारा'। उ०—(क) हमें जिबे अँगिरल जम बनिजार। विद्यापति०, ३५६। (ख) हहु बनिजार त बनिज बेसाहहु। भरि बैपार लेहू जो चाहहू—जायसी ग्रं०, पृ० २६७।

बनिजारिन, बनिजारी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बंजारा] बनजारा जाति की स्त्री। उ०—(क) लीन्हे फिरति रूप त्रिभुवन को ए नोखी बनिजारिन।—सूर (शब्द०) (ख) गातन ही दिखराय बटोहिन, बातन ही बनिजै बनिजारी।—देव (शब्द०)।

बनित पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनना] बानक। वेश। साज बाज। उ०—चढ़ि यदुनंदन बनिय बनाप कै। साजि बरात चलै यादव चाय कै।—सूर (शब्द)।

बनिता
संज्ञा स्त्री० [सं० वनिता] १. स्त्री। औरत। २. भार्य पत्नी।

बनियऊँ †
वि० [हिं० बनिया + ऊ (प्रत्य०)] बणिक संबंधी। बनियों की तरह। वणिक कै समान। उ०—उपदेश करने के लिये और बनियऊँ झाँव झाँव दिखलाने के लिये बनाया है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४३९।

बनिया
संज्ञा पुं० [सं० वणिक] [स्त्री० बनियाइन] १. व्यापार करनेवाला व्यक्ति। व्य़ापारी। वैश्य। २. आटा, दाल चावल आदि बेचनेवाला मोदी।

बनियाइन
संज्ञा स्त्री० [अ बनियन] जुर्राबी बूनावट की कुरती या बंडी जो शरीर से चिपकी रहती है। गंजी।

बनिस्बत
अव्य० [फ़ा०] अपेक्षा। मुकाबले में। जेसे,—उस कपड़े की बनिस्बत यह कपड़ा कहीं अच्छा हैं।

बनिहार
संज्ञा पुं० [हिं० बन + हार (पत्य०) अथवा हिं० बन्नी] वह आदमी जो कुछ वेतन अथबा उपज का अंश देने के वादे पर जमीन जोतने, बोने, फसल आदि काटने और खेत की रखवाली करने के लिये रखा जाय।

बनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वनि] १. वनस्थली। वन का एक टुकड़ा। २. वाटिका। बाग। जैसे, अशोक बनी। उ०—अति चंचल जहँ चलदलै बिधवा वनि न नारि। मन मोह्यो ऋषिराज को अद्भुत नगर निहारि।—केशव (शब्द०)।

बनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० 'बना' का स्त्री लिं० या सं० वनिता, प्रा० बनिआ, हिं० बनी] १. नववधू। दूलहिन। २. स्त्री। नायिका। उ०—प्रँगिया की तनी खुलि जात घनि सु बनी फिरि बाँधति है कसिकै।—देव (शब्द०)।

बनी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० वन] दक्षिण देश में उत्पन्न होनेवाली एक प्रकार की कपास।

बनी (४)
संज्ञा पुं० [सं बणिक्] बनिया। उ०—बनी को जैसो मोल है।—घनानंद (शब्द)।

बनीनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनी + ईनी (प्रत्य०)] वैश्य जाति की स्त्री। बनिए की स्त्री। उ०—नव जोबनी की जोबनी की जोति जीति रही, कैसी बनी नीकी बनीनी की छबि छाती में।—देव(शब्द०)।

बनीर पु
संज्ञा पुं० [सं० बानीर] बेत।

बनूख पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० बन्धूक] दे० 'बंधुक'। उ०—सुनत बचन वै अधर सोहाए। ऊख, बिपूख बनूख सुखाए।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २५४।

बनेठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बन + सं यष्टि] वह लंबी लाठी जिसके दोनों सिरों पर गोल लट्टू लगे रहते हैं। इसका व्यबहार पटेबाजी के अभ्यास और खेलों आदि में होता है। यौ०—पटा बनेठी।

बनेला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का रेशम का कीड़ा।

बनैत पु
वि० [हिं०] बानैत। तीरंदाज। उ०—बदर बनैत चहूँ दिस घाए।—नंद० ग्रं०, पृ० १६६।

बनैला
वि० [हिं० बन + ऐला(प्रत्य०)] जंगली वन्य। बैसे, बनैला सूअर।

बनोक †
संज्ञा पुं० [सं० बनौकस्] बनौकस। बंदर। उ०— नाचै लाज निवार नित बाँका छाण बनोक।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ६०।

बनोबस्त †
संज्ञा पुं० [फ़ा० बंदोबस्त] दे० 'बंदोबस्त'। उ०— थौड़ा खर्च रो बनोबस्त कर दियो होतो।—श्रीनिवास ग्रं० पृ० ५७।

बनोबास पु †
संज्ञा पुं० [सं० वनबास] दे० 'बनवास'। उ०—धनुष भग के और राम के बनोबास के।—अपरा, पृ० १९६।

बनौकस
वि० [सं० बनौकस्] बनवासी। जंगल निवासी। उ०— निरखि बनौकस प्रमुदिए भए।—नंद० ग्रं०, पृ० २९०।

बनौट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनावट] बनावट। आडंबर। उ०— उस अदा में अपने शहर के माशूकों की तरह बनौट का नाम न था।—सैर०, पृ० २३१।

बनौटा
वि० [हिं० बनावट] बनाया हुआ। प्रतिपालित। निर्मित। उ०—हमरै साहु रमाइया मोटा, हम ताके आहि बनौटा।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ८८८।

बनौटी
वि० [हिं० बन + औटी (प्रत्य०)] कपास के फूल का सा। कपासी। उ०—देखी सोनजुही फिरत सोनजुही से अंग। दुति लपटनि पट सेतहू करति बनोटी रंग।—बिहारी (शब्द०)।

बनौधा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे 'बनवध'।

बनौरी ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० वन(= जल) + ओला] बर्षा के साथ गिरनेवाला ओला। पत्थर। हिमोपल।

बनौवा
वि० [हिं० बनाना + औवा(प्रत्य०)] बनावजी। कृत्रिम।नकली। उ०—तब उस बनौबा शुक्र ने बारंबार मिथ्या भाषण करके धोखा दिया।—कबीर मं०, पृ० २२८।

बन्नर पु †
संज्ञा पुं० [सं० वानर, हिं० बंदर] दे० 'बंदर'। उ०— रिन रत्तौ कुंभक्रन्न परयो भूषौ बैसन्नर। घर बंदर धक धाह दंत करि षद्धो बन्नर।—पृ० रा०,२।२८९।

बन्ना †
संज्ञा पुं० [हिं० बना] दूल्हा। उ०—वन्ना बनि आयो नँद- नंदन मोहन कोटिक काम।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४४।

बन्नात
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बनात'।

बन्नो
संज्ञा स्त्री० [देश०] अन्न का तिहाई अथवा और कोई भाग जो खेत में काम करनेवालों को काम करने के बदले में दिया जाता है।

बन्नो †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बनी'।

बन्हि
संज्ञा स्त्री० [सं० वाह्नि, प्रा० वह्नि] दे० 'वह्नि'। उ०—उठिहै निसि बन बन्हि अचान।—नंद० ग्रं०, पृ० २०२।

बपंस †
संज्ञा पुं० [हिं० बाप + सं० अंश] पिता से मिला हूआ अंश। बपोती। दाय।

बप पु† (१)
संज्ञा पुं० [सं० वप्र] बाप। पिता। यौ०—बपमार = पिता को मारनेवाला। पितृघातक।

बप पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वपु] वपु। शरीर। उ०—बप रूप ओप नवघन बरण, हरण पाप त्रय ताप हरि।—रा० रू०, पृ० २।

बपमार
वि० [हिं० बाप + मारना] १. पिता का घातक। वह जो अपने पिता की हत्या करे। २. सबके साथ धोखा और अन्याय करनेवाला।

बपतिस्मा
संज्ञा पुं० [अं०] ईसाई संप्रदाय का एक मुरुय संस्कार जो किसी व्यक्ति को ईसाई बनाने के समय किया जाता है। विशेष—इसमें पादरी हाथ में जल लेकर अभिमंत्रित करता और ईसाई होनेवाले व्यक्ति पर छिड़कला है। यह संस्कार विधर्मियों को ईसाई बनाने के समय भी होता है और ईसाइयों के घर जन्मे हूए बालकों का भी होता है। इस संस्कार के समय संस्कृत होनेवाले का एक अलग नाम भी रखा जाता है जो उसके कुल नाम के साथ जोड़ दिया जाता है। संस्कार के समय का यह नाम उनमें से कोई होता है जो इंजील में आए हैं।

बपना पु †
क्रि० स० [सं० वपन] (बीज) बोना। उ०—(क) कहु को लहे फल रसाल बबुर बीज बपत।—तुलसी(शब्द)।

बपु
संज्ञा पुं० [सं० वपु] १. शरीर। देह। २. अवतार। ३. रूप।

बपुख
संज्ञा पुं० [सं० वपुप्] शरीर। देह। उ०—दूरि के कलंक भव सीस सिस सम राखत है केशौदास के बपुख को।—केशव (शब्द०)।

बपुरा
वि० [सं० वराक अथवा देशी वप्पुड(= दीन)] [वि० स्त्री० बपुरी] बेचारा। अशक्त। गरीब। अनाथ। उ०—(क) सिव बिरंचि कहँ मोहैं को है बपुरा आन।—मानस,७।६२। (ख) कहा करैं बपुरी ब्रज अबला गरब गाँठि गहि खोलै।— घनानंद, पृ० ४७५।

बपौती
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाप + औती (प्रत्य०)] बाप से पाई हूई जायदाद। पिता से मिली हूई संपत्ति।

बप्तिस्मा
संज्ञा पुं० [अं० बपतिसमा] दे० बपतिसमा'। उ०—मे अभी आप दोनों को गिर्जे में फादर के पास ले जाती हूँ, आज ही बप्तिस्मा हो जायगा।—जिप्सी,पृ० १६५।

बप्पड़ा पु
वि० [ देशी बप्पुड, राज० बप्पड़ा, बापड़] दे० 'बापुरा'। उ०—(क) बगही भला त बप्पड़ा धरणि न मुक्कइ पाइ।— ढोला०, दू० २५७। (ख) अजइ कुआरउ बप्पड़ा, नहीं ज कामणि मोह।—ढोला०, दू० ३२२।

बप्पा †
संज्ञा पुं० [ सं० वप्ता, प्रा० वप्पा, हिं० बाप] पिता। बाप। विशेष—इस शब्द का प्रयोग कुछ प्रांतों में प्रायः संबोधन रूप में होता है। जैसे, अरे बप्पा ! अरे मैया।

बफरना †
क्रि० अ० [सं० विस्फुरण] बढ़ बढ़कर बातें करना दे० 'बिफरना'। उ० (क) संध्या समय घर आया, तो बफरने लगा। अब देखता हूँ कौन माई का लाल इनकी हिमायत करता है।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ५८७। (ख) हरनाथ कुशल योदघा की भाँति शत्रु को पीछे हटता देखकर, बफरकर बोला।—मान०, भा० ५, पृ० १९३।

बफर स्टेट
संज्ञा पुं० [अं०] वह मध्यवर्ती छोटा राज्य जो दो बड़े राज्यों को एक दूसरे पर आक्रमण करने से रोकने का काम करे। संघर्षनिवारक राज्य। अंतर्धि। विशेष—दो बड़े राज्यों के एक दूसरे पर आक्रमण करने के मागं में जो छोटा सा राज्य होता है, उसे 'बफर स्टेट' कहते हैं। जैसे, हिंदुस्तान और रूस के बीच अफगानिस्तान, फ्रांस तथा जर्मनी के बीच बेलजियम हैं। यदि ये छोटे राज्य तटस्थ या निरपेक्ष रहैं तो इनमें से होकर कोई राज्य दूसरे राज्य पर आक्रमण नहीं कर सकता। इस प्रकार ये संघर्ष रोकने का कारण होते हैं। ऐसे छोटे राज्यों का बड़ा महत्व हैं। संधि न होने की अवस्था में इधर उधर के प्रतिद्वंद्वी राज्य इनसे सदा सशंक रहते हैं कि न जाने ये कब किसके पक्ष में हो जायँ और उसके आक्रमण का मार्ग प्रशस्त कर दें। गत प्रथम महासमर में जर्मनी ने बेलजियम की तटस्थता भंग कर उसमें से होकर फ्रांस पर चढ़ाई की थी। साथ ही साथ यह भी है कि जब दो प्रतिद्वंद्वी राज्य 'बफर स्टेट' की तटस्थता भंग करके भिड़ जाते हैं, तब बफर स्टेत की, बीच में होने का कारण भीषण हानि होती है।

बफारा
संज्ञा पुं० [ सं० वाप्प, हिं० बाफ, भाप + श्रारा (प्रत्य०)] १. ओषधिमिश्रित जल को औटाकर उसकी भाप से शरीर के किसी रोगी अंग को सेंकने का काम। उ०—आय सकारे हिय सकुचि, पाय पधारे ऐन। तिय नागरि तिय नँन तकि लगी बफारे दैन।—स सप्तक, पृ० २४७।क्रि० प्र०—देना।—लेना। २. वह ओषधि जिसकी भाप से इस प्रकार का सेंक किया जाय। ३. वाष्प। भाप।

बफुली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का सदाबहार छोटा पौधा जो प्रायः सभी गरम देशों में और विशेषतः रेतीली जमीनों में पाया जाता हैं। इसकी पत्तियाँ ऊँटों के चारे के काम में आती हैं।

बफौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाप + औरी (प्रत्य०)] भाप से पकाई हूई बरी। विशेष—बटलोई में अदहन चढ़ाकर उसके मुँह पर बारीक कपड़ा बाँध देते हैं। जब पानी खूब उबलने लगता हैं तब कपड़े पर बेसन या उर्द की पकौड़ी छोड़ते हैं जो भाप से ही पकती है। इन्हीं पकौड़ियों को बफौरी कंहते हैं।

बबकना
क्रि० अ० [अनुध्व] १. उत्तेजित होकर जोर से बोलना। बमकना। २. आवेश में उछलना कूदना।

बबर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. बर्बरी देश का शेर। बड़ा शेर। सिंह। २. एक प्रकार का मोटा कंबल जिसमें शेर की खाल की सी धरियाँ बनी होती हैं।

बबा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाबा'।

बबुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० बाबू] १. बेटे या दामाद के लिये प्यार का संबोधनात्मक शब्द। (पूरब)। २. जमींदार। रईस। (पूरब)।

बबुई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाबू का स्त्री०] १. बेटी। कन्या। उ०— बाबा घर रहलों बबुई कहौलों सैयाँ घर चतुर सयान, चेतब घरवा आपन रे।—कबीर० श०, भा० २, पृ० ३८। २. छोटी ननद। पति की छोटी बहन। ३. किसी ठाकुर, सरदार या बाबू की बेटी।

बबुर, बबूर
संज्ञा पुं० [सं० बव्बूर] दे० 'बबूल'। उ०—गुरु के पास दाख रस रसा। बैरि बबूर मारि मन कसा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २२४।

बबूल
संज्ञा पुं० [सं० बब्बुल, प्रा० बबूल] मझोले कद का एक प्रसिद्ध काँटेदार पेड़। कीकर। विशेष—यह वृक्ष भारत के प्रायः सभी प्रांतों में जंगली अवस्था में अधिकता से पाया जाता है। गरम प्रदेश और रेतीलौ जमीन में यह बहुत अच्छी तरह और अधिकता से होता है। कहीं कहीं यह वृक्ष सौ वर्ष तक रहता है। इसमें छोठी छोटी पत्तियाँ, सुई के बराबर काँटे और पीले रंग के छोटे छोटे फूल होते हैं। इसके अनेक भेद होते हैं जिनमें कुछ तो छोटी छोटी कँटीली बैलें हैं और बाकी बड़े बड़े वृक्ष। कुछ जातियों के बबूल तो बागों आदि में शोभा के लिये लगाए जाते हैं। पर अधिकांश से इमारत और खेती के कामों के लिये बहुत अच्छी लकड़ी निकलती है। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत और भारी होती है और यदि कुछ दिनों तक किसी खुले स्थान पर पड़ी रहे तो प्रायः लोहे के समान हो जाती है। इसकी लकड़ी ऊपर से सफेद और अंदर से कुछ कालापन लिए हुए लाल रंग की होती है। इससे खेती के सामान, नावें, गाड़ियों और एक्कों के घुरे तथा पहिए आदि अधिकता से बनाए जाते हैं। जलाने के लिये भी यह लकड़ी बहुत अच्छी होती है, क्योंकि इसकी आँच बहुत तेज होती है और इसलिये इसके कोयले भी बनाए जाते हैं। इसकी पतली पतली टहनियाँ, इस देश में, दातुन के काम में आती हैं और दाँतों के लिये बहूत अच्छी मानी जाती हैं। इसकी जड़, छाल, सूखे बीज और पत्तियाँ ओषधि के काम में भी आती हैं। छाल का प्रयोग चमड़ा सिझाने और रँगने में भी होता है। पत्तियाँ और कच्ची फलियाँ पशुओं के लिये चारे का काम देती हैं और सूखी टहनियों से लोग खेतों आदि में बाड़ लगाते हैं। सूखा फलियों से पक्की स्याही भी बनतो है और फूलों से शहद की मक्खियाँ शहद भी निकालती हैं। इसमें गोंद भी होता है जो और गोंदों से बहुत अच्छा समझा जाता हैं। कुछ प्रांतों में इसपर लाख के कीडे़ रखकर लाख भी पैदा की जाती है। रामबबूल, खैर, फुलाई, करील, बनरीठा, सोनकीकर आदि इसी की जाति के वृक्ष हैं।

बबूला (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'बगूला'। २. दे० 'बुलबुला'। ३. दे० 'पस्सी बबूल'।

बबूला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] हाथियों के पाँव में होनेवाला एक एक प्रकार का फोड़ा।

बबेक पु †
संज्ञा पुं० [सं० विवेक] यथार्थ ज्ञान। उ०—सांषि जोग अरु भक्ति पुनि सबद ब्रह्म संयुक्ति है। कहि बालकराम बबेक निधि देखे जीवन मुक्ति है।—सुंदर० ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० ११०।

बब्बर पु (१)
संज्ञा पुं० [फा़० बबर] शिर। केसरी। उ०—बाहे बब्बर बीच ह्वै, द्वै टुक निनारे।—पृ० रा०, २४। ३४९।

बब्बर पु (२)
वि० [सं० बबँर, प्रा० बब्बर] बलशाली। क्रूरकर्मा। उ०—बब्बर दौरहि बीर तुरंत करै गिर भूम भयानक रंत।— प० रासो, पृ० १४३।

बब्बू ‡ (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाबू'।

बब्बू (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का उल्लू।

बभना †
संज्ञा पुं० [सं०ब्राह्मण, प्रा० बंभन, हिं० बाभन] ब्राह्मण। द्विज। उ०— चाकी परै बभना, मैं काकी लागों तोर रे।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४०।

बभनी
संज्ञा स्त्री० [सं० ब्राह्मणी] १. एक प्रकार का कीड़ा। एक सरीसृप। विशेष—यह कीड़ा बनावट में छिपकली के समान पर जोंक सा पतला होता है। इसके शरीर पर लंबी सुंदर जान धारियाँ होती हैं जिनके कारण वह बहुत सुंदर जान पड़ता है। २. कुश की जाति का एक तृण जिसे बनकुस भी कहते है। ३. ब्राह्मणों से संबद्ध या ब्राह्मणों की लिपि। देवनागरी। उ०—जैसे कि दिवनागरी बभनी कहलाती थी।—प्रेंमघन०, भा० २, पृ०३९२।

बभूत
संज्ञा स्त्री० [सं० विभूति] दे० 'भभूत' या 'विभूति'।

बभ्रवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम [को०]।

बभ्रि
संज्ञा पुं० [सं०] बज्र। विद्युत् [को०]।

बभ्रु (१)
वि० [सं०] १. लालिमायुक्त भूरे रंग का। गहरे पिंगल वर्ण का। २. गंजा। खल्वाट [को०]।

बभ्रु (२)
संज्ञा पुं० १. अग्नि। २. नेवला। ३. भूरा या पिंगल वर्ण। ४. भूरे वर्ण के केशवाला व्यक्ति। ५. शिव। ६. विष्णु। ७. चातक। ८. भूरे रंग की कोई वस्तु। ९. सफाई करनेवाला व्यक्ति [को०]। यौं—बभ्रुकेश, बस्त्रुलोमा= भूरे या पिंगल केशवाला।

बभ्रुधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वसी। सोना। २. गैरिक। गेरू। [को०]।

बभ्रुव पु
संज्ञा पुं० [सं० बभ्रु] नेवला। उ०—बस्त्रुव वाल पालिए आखू। इतने जीव दुगं महँ राखू।— प० रासो, पृ० १८।

बभ्रुवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन का एक पुत्र जिसकी माता चित्रांगदा थी। यह मणिपुर का नरेश था।

बम (१)
संज्ञा पुं० [अं० बॉम्ब] विस्फोटक पदार्थों से भरा हुआ लोहे का बना हुआ वह गोला जो शत्रुओं की सेना अथवा किले आदि पर फेंकने के लिसे बनाया दाता है और गिरते ही फटकर आस पास के मनुष्यों पदार्थों की भारी हानि बहुँचाता है। क्रि० प्र०—गिरना।—गिराना।—चलना।—चलना।—फेंकना।—मारना। यौ०—बमबर्पक = एक प्रकार का हवाई जहाज। वह वायुयान जो बम गिराता है। बमबारी = बम को पर्षा। विस्फोटक बमों का लगातार गिरना।

बम (२)
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] १. शिव के उपासकों का वह 'बम, बम' शब्द जिसके विषय में यह माना जाता है कि इसके उच्चारण से शिव जी प्रसन्न होते हैं। विशेष—कहा जाता है, शिब जी ने कुपित होकर जब दक्ष का सिर काट लिया तब बकरे का सिर जोड़ा गया जिससे वे बकरे की तरह बोलने लगे। इससे जब लोग गाल बजाते हुए 'बम, बम' करते हैं तब शिब जी प्रसन्न होते हैं। मुहा०—बम बोलना या बोल जाना = शक्ति, धन, आदि की समाप्ति हो जाना। कुछ न रह जाना। खाली हो जाना। दिवाला हो जाना। २. शहनाई बजानेवालों का वह छोटा नगाड़ा जो बजाते समय बाईं ओर रहता हैं। भादा नगाड़ा। नगड़िया।

बम (३)
संज्ञा पुं० [कनाड़ी बंबू बाँस] १. बग्गी, फिटन आदि में आगे की ओर लगा हुआ वह लंबा बाँस जिसके दोनों ओर घोड़े जोते जाते हैं। २. एक्के, गाड़ियों आदि में आगे की ओर लगा हुआ लकड़ियों का वह जोड़ा जिसके बीच में घोड़ा खड़ा करके जोता जाता है।

बमकना †
क्रि अ० [अनु०] १. आवेश में आकर लंबी चौड़ी बातें करना। शेखी बघारना। डींग हाँकना। २. उछलना कूदना। ३. फूट जाना।

बमकाना
क्रि० सं० [हि० बमकना] किसी को बमकने में प्रवृत्त करना। बढ़कर बोलने के लिये आवेश दिलाना।

बमचख
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व० बम + हिं० चीखना] १. शोर गुल। २. लड़ाई झपड़ा। विवाद। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना।

बमना पु †
क्रि० सं० [सं० बमन] १. मुँह से उगलना। बमन करना। कै करना। उ०—मुष्टिक एक ताहि कपि हनी। रुधिर बमत धरनी ढनमनी।—तुलसी (शब्द०)। २. उगलता हुआ। वर्षण करता हूआ। उ०—विकट बदन अरु बड्डे दंत। बिकट भृकुटि दृग अग्नि बसंत।— नंद० ग्रं०, पृ० २८६।

बमनी †
वि० स्त्री० [सं० वामन] लघु। छोदी। स्वल्प। उ०—अंदर की प्रभु सब जानत धौं काह मौज सेरी बमनी।—भीखा० श०, पृ० १०।

बमपुलिस
संज्ञा पुं० [अं० बम (=धड़ाका + प्लेस(=स्थान)] राहचलतों और मुसाफिरों के लिये बस्ती से दूर बना हुआ पाखाना। विशेषःइस शब्द के प्रचार के संबंध में एक मनोरंजक बात सुनने में आई है। कहते हैं, हिंदुस्थान में पलटल के आशिक्षित गोरे पाखाने को 'बम प्लेस' अर्थता धड़ाका करने का स्थान कहा करते थे। इसी 'बम प्लेस' से बिगड़कर 'बमपुलिस' बन गया।

बमलाना †
क्रि० सं० [हि० बमकाना] बढ़ावा देना। प्रोत्साहित करना।

बमालन
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कँटीली लता। मकोह। विशेष—यह उत्तर भारत में पंजाब से असाम तक और दक्षिण में लंका तक पाई जाती है। यह गरमी में फूलती और बरसात के दिनों में फलती है। इसके फल खाए जाते हैं।

बमीठा
संज्ञा पुं० [हि० बाँबी + ईठा (प्रत्य०)] बाँबी। वल्मीक।

बमुकाबला
क्रि० वि० [फ़ा० बमुक़ाबलह्] १. मुकाबले में। समक्ष। सामने। २. मुकाबले पर। विरुद्ध। विरोध में।

बमूजब
क्रि० वि० [फ़ा० बमूजिब] दे० 'बमूजिब'। उ०— हमारी मर्जी बमूजब तो इनका सत्कार यहाँ कहाँ बन पड़ेगा।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १६।

बगूजिब
क्रि० वि० [फ़ा० बगूजिब] अनुसार। मुताबिक। जैसे, हुकुम के बगुजिब।

बमेक †
संज्ञा पुं० [सं० विवेक] दे० 'विवेक'। उ०—रज्ज बचन बमेक धन, लहिए बारंवार।—रज्जब०, पृ० १०।

बमेको
वि० [सं० विवेकी] विवेकवाला। विवेकी। विवेकशील।उ०—दूजा बहीं और को औसा, गुरु अंजनं करि सूझै। दादू मोटे भाग हमारे, दास बमेकी बूझै।— दादू०, पृ० ५४४।

बमेला †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।

बमोट †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'वमीठा'।

बम्मन,बम्हन †
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण, प्रा० अप० बम्हण, बभन, द० हि० बम्मन] दे० 'ब्राह्मण'। उ०—नामा प्यारा है भगत, उसे जानत है जगत। बम्मन आया धूँड़त धूँढ़त लगत आया गाँव मों।—दक्खिनी०, पृ० ४५।

बम्हनपियाव ‡
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण + हि० पिलाना] ऊख को पहले पहल पेरने के समय उसका कुछ रस ब्राह्मणों को पिलाना जो अवश्यक और शुभ माना जाता है।

बम्हनरसियाव ‡
संज्ञा पुं० [हि० बम्हन + रसियाव] दे० 'बम्हन, पियाव'।

बह्मनी
संमज्ञा स्त्री० [सं० ब्राह्मणी, अप० बम्हनी] १. छिपकली की तरह का एक पतला कीड़ा। बभनी। विशेष—आकार में यह प्रायः छिपकली से आधा होता है। इसकी पीठ काली, दुम और मुँह लाल चमकीले रंग का होता है। इसकी पीठ पर चमकीली धारियाँ होती हैं। २. आँख का रोग जिसमें पलक पर एक छोटी फुंसी निकल आती है। बिलनी। गुहांजनी। ३. वह गाय जिसकी आँख की बरोनी झड़ गई ही। ४. हाथी का एक रोग जिसमें उसकी दुम सड़कर गिर जाति है। ५. एक प्रकार का रोग जो ऊख को बहुत हानि पहुँचाता है। ६. लाल रंग की भूमि।

बयंड †
संज्ञा पुं० [हि० गयद < सं० गजेन्द्र या सं० बनेन्द्र अथवा देश०] हाथी। (डिं०)।

बयंडा †
वि० [सं० बात + कायड अथवा विहिणडन] अवारा।

बय
संज्ञा स्त्री० [सं० वय] दे० 'वय'। उ०—बय बपु बरन रूप सोइ आली।—मानस, २। २२१।

बयकुंठ पु †
संज्ञा पुं० [सं० बैकुएठ] दे० 'बैकुंठ'। उ०—छांड्यो बयकुंठ धाम कियों ब्रज बिसराम।—ब्रज० ग्रं० पृ० १४२।

बयन पु †
संज्ञा पुं० [सं० वचन, प्रा० वयन] वाणी। बोली। बात। उ०— रूखे रुख मुख प्रिय बयन नयन चुराई दीठि। दीठि तियहि पिय पीठि दी ईठि भई सुबसीठि।— सं० सप्तक, पृ० १४२। २. बदन। मुख।

बयना पु † (१)
क्रि० स० [सं०बयन, प्रा० बयन] बोना। बीज जमाना या लगाना। उ०—(क) सूर सुरपति सुन्यो बयौ जैसो लुन्यों प्रभु कह गुन्यो गिरि सहित वैहै।—सूर (शब्द०)। (ख) सीचे सीय सरोज कर बए बिटप बर बेलि। समउ सुकालु किसान हित सगुन सुमंगल केलि।—तुलसी (शब्द०)।

बयना (२)
क्रि० स० [सं० बचन, प्रा० वयण, हिं० बैन या सं० वर्णन] वर्णन करना। कहना। उ०— दल फल फूल दूब दधि रोचन जुवतिन भरि भरि थार लए। ग्वत चलीं भीर भइ बीथिन बदिन बांकुरे बिरद बए।—तुलसी (शब्द०)।

बयना (३)
संज्ञा पुं० [सं० बायन] दे० 'बैना'।

बयनी पु
वि० [हिं० बयन] बोलनेवाली। जो बोलती हो। जैसे, कोकिलबयनी। उ०—करहि गान कल कोकिल बयनी।—मानस, १। २८६।

बयपार †
संज्ञा पुं० [सं० व्यापार] दे० 'व्यापार'। उ०— जानो बहु बयपार पारख हथ्यार, मार जानो गिरि दीलद्याल ठीटें सब षाठ कों।— दीन० ग्रं०, पृ० ३५७।

बयर ‡
संज्ञा पुं० [सं० बैर, प्रा० बइर, बयर] दे० 'बैर'। उ०—दक्ष सकल निज सुता बुलाई। हमरे बयर तुम्हों बिसराई।— मानस,१। ६२।

बयल
संज्ञा पुं० [डिं०] सूर्य।

बयस (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वयस्] दे० 'वय'।

बयस (२)
संज्ञा पुं० [सं० बायन] दे० 'बायन', 'बैना'।

बयसर
संज्ञा स्त्री० [देश०] कमखाब बुननेवालों की वह लकड़ी जो उनके करघे में गुल्ले के ऊपर निये लगती है।

बयसवाला पु †
वि० [सं० वयस् + हिं० वाला] [स्त्री० वि० वयसवाली] युवक। जवान।

बयससिरोमनि †
संज्ञा पुं० [सं० वयस् + शिरोमणि] युवावस्था। जवानी। यौवन। उ०— बय किसोर सरियार मनोहर बयस- सिरोमनि होने।— तुलसी (शब्द०)।

बयसा
संज्ञा स्त्री० [सं० वयस्या] सखी। वयस्या।—अनेकार्थ०, पृ० ९३।

बयसु †
संज्ञा पुं० [सं० वैश्य] वाणिज्य कर्म करनेवाला। वैश्य। उ०—सोचिय बयसु कृपन धनवानू।—मानस, २। १७२।

बयाँग †
संज्ञा पुं० [देश०] झूला।

बयाँवार
क्रि वि० [अ० बयान] सिलसिलेवार। उ०—सुनो अब नए तौर की और बात। बयाँवार कहता हूँ खुबी के साथ—दक्खिनी०, पृ० ३००।

बया (१)
संज्ञा पुं० [सं० बयन (=बुनना)] गौरेया के आकार और पीले रंग का प्रसिद्ध पक्षी। विशेष—इसका माथा बहुत चमकदार पीला होता है। यह पाला जाता है और सिखाने से, संकेत करने पर, हलकी चीजें जैसे, कोड़ी, पत्ती आदि, किसी स्थान से ले आता है। यह अपना घोंसला सूखे तृणों से बहूत ही कारीगरी के साथ और इस प्रकार बुनकर बनाता है कि उसके तृण बुने हुए मालूम होते हैं।

बया (२)
संज्ञा पुं० [अ० बयाह् (=बेचनेवाला)] वह जो अनाज तौलने का काम करता है। अनाज तैलनेवाला। तौलैया। उ०— (क) प्रेमनगर में दृग बया नोखे प्रगटे आई। दो मन कौं कर एक मन भाव दियों ठहराइ।—सप्तक, पृ० १९९ (ख) एक एक बया, दलाल भी सो सो, दो दो सो इसमें फूँक तापते थे।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३३०।

बयाई †
संज्ञा स्त्री० [हि० बया + आई (प्रत्य०)] अन्न आदि तौलने की मजदूरी। तौलाई।

बयान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. बखान। वर्णन। जिक्र। चर्चा। २. हाल। विवरण। वृतांत। ३. वक्तव्य। क्रि० प्र०—करना।—होना।—देना।

बयाना (१)
संज्ञा पुं० [अ० बै + फा़० आना (प्रत्य०)] वह धन जो कोई चीज खरीदने के समय अथवा किसी प्रकार का ठेका आदि देने के समय उसकी बातचीत पक्की करने के लियै बेचनेवाले अथवा ठेका लेनेवाले को दिया जाय। किसी काम के लिये दिए जानेवाले पुरस्कार का कुछ अंश जो बातचीत पक्की करने के लिये दिया जाय। पेशगी। अगाऊ। विशेष—बयाना देने के उपरांत देने और लेनेवाले दोनों के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि हवे उस निश्चय की पाबंदी करें जिसके लिये बायाना दिया जाता है। बयाने की रकम पीछे से दाम या पुरस्कार देते समय काट ली जाती है।

बयान (२)
क्रि० अ० [सं० वचन, प्रा० वयन] सोने की अवस्था में बड़बड़ना। बर्राना।

बयाबान
संज्ञा पुं० [फा० बियाबान] १. जंगल। उजाड़। उ०— कोई सोस्तान और बलूचिस्तान के बयावानों को।—किन्नर०, पृ० १०।

बयार,बयारी †पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वायु] हवा। पवन। उ०— (क) देखि तरु सब अति डराने हैं बड़े बिस्तार। गिरे कैसे बड़ो अचरज नेकु नहीं बयार।— सूर (शब्द०)। (ख) तिनुका बयार के बस, ज्यों भावै त्यों उड़ाइ लै जाइ आपने रस।—स्वा० हरिदास (शब्द०)। मुहा—बयार करना = पर पंखा हिलाना जिससे हवा लगे। उ०— भोजन करत कनक की थारी। द्रुपदसुता तहँ करति बयारी।—(शब्द०)।

बयारा †
संज्ञा पुं० [हि० बयार] १. हवा का झोंका। २. तूफान।

बयारी (१)
संज्ञा स्त्री० [देशी विआलिउ] दे० 'बियारी', 'ब्यालू'।

बयारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'बयार'। उ०—आवत देखहिं विषय बयारी।—मानस, ७। ११८।

बयाला †
संज्ञा पुं० [सं० बाह्य + हि० आला] १. दीवार में का वह छेद जिससे झाँककर बाहर की वस्तु देखी जा सके। २. ताख। आला। ३. पटाव के नीचे की खाली जगह। ४. किलों या गढ़ों में वह स्थान जहाँ तीपें लगी रहती हैं। ५. कोठ की दीवार में वह छोटा छेद या अवकाश जिसमें से तोप का गोलं पार करके जाता है। उ०— तिमि घरनाल और कर नालै सुतरनाल जंजालैं। गुर गुराब रहँकले भले तह लागे बिपुल बयालैं।—रघुराज (शब्द०)।

बयालिस (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्विचत्वारिंशता, प्रा० बिचातालीसा, बायालीसा, वियालस] १. चालीस और दो की संख्या। इस संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है — ४२।

बयालिस (२)
वि० जो गिनती में चालीस से दो अधिक हो।

बयालिसवाँ
वि० [हिं० बयालिस + वाँ (प्रत्य०)] जो क्रम में बयालिस के स्थान पर हो। इकतालिसबें के बाद का।

बयासी (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्वा, द्वि + अशीति, प्रा० बिअसी] १. अस्सी और दो की संख्या। २. इस संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—८२।

बयासी (२)
वि० जो संख्या में अस्सी और दो हो।

बयोरो पु ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] वृत्तांत। ब्योरा। उ०— राम सी धन ताके कहा बयोरो। अष्ट सिद्धि नव निधि करत निहोरो।— दक्खिनी०, पृ० २८।

बरंग
संज्ञा पुं० [देश०] १. मध्यप्रदेश में होनेवाला छोटे कद का एक पेड़। पोला। विशेष—इसकी लकड़ी सफेद और मुलायम हाती है और इमारत तथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है। इसकी छाल के रेशों से रस्से भी बनते हैं। इसे पोला भी कहते हैं। २. बख्तर। कवच।— (डिं०)।

बरंगा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. छत पाटने की पत्थर की छोटी पटिया जो प्रायः डेढ़ हाथ लंबी और एक बित्ता चौड़ी होती है। २. वे छोटी छोटी लकड़ियाँ जो छत पाटते समय धरनों के बीचवाला अंतर पाटने को लगाई जाती हैं। उ०—बरंगा बरंगी की या जरी हैं। मनो ज्वाल ने बाहु लच्छी करी हैं।—सूदन (शब्द०)।

बरंगा † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बराड़्गना] अप्सरा। — उ०—बरंगा राल बरमाल सूरा बरै। त्रिपत पंखाल दिल खुले ताला।— रघु० रू०, पृ० २०।

बर (१)
संज्ञा पुं० [सं० वर] १. वह जिसका विवाह होता हो। दूल्हा। दे० 'वर'। उ०—(क) जद्यपि बर अनेक जग माँहीं। एहि कँह सिव तजि दूसर नाहीं।— तुलसी (शब्द०)। (ख) बर अस बधू आप जब जाने रुक्मिनि करत बधाई।—सूर (शब्द०)। मुहा०—बर का पानी = विवाह से पहले नहछू के समय का बर का स्नान किया हुआ पानी जो एक पात्र में एकत्र करके कन्या के घर भेजा जाता हैं और जिससे फिर कन्या नहलाई जाती है। जिस पात्र में वह जल जाता है वह पात्र चीनी, खांड़ आदि से भरकर लड़केवाला के घर लोटा दिया जाता हैं। २. वह आशीर्वाद सूचक वचन जो किसी की प्रार्थना पूरी करने के लिये कहा जाय। दे० 'वर'। उ०—यह बर माँग्यो दियो न काहू। तुम मम मन ते कहूँ न जाहू।—केशव (शब्द०)।

बर (२)
वि० १. श्रेष्ठ। अच्छा। उत्तम। २. सुंदर। अनेकार्थ०, पृ० १४२। मुहा०—बर परना = बढ़ निकलना। श्रेष्ठ होना। उ०—अर ते टरत न बर परैं दई मरकि मनु मैन। होड़ाहोड़ी बढ़ि चले चित चतुराई नैन।—बिहारी (शब्द०)।

बर पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० बट] वट वृक्ष। बरगद। उ०— कौन सुभाव री तेरो परयो बर पूजत काहे हिए सकुचाती।—प्रताप (शब्द०)।

बर पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० बल] बल। शक्ति। उ०—(क) परे भूसि नहिं उठत उटाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए।—तुलसी (शब्द०)। (ख) खीन लंक टूटी दुख भरी। विन रावन केहि वर होय खरी।—जायसी (शब्द०)। (ग) देख्यों में राजकुमारन के बर।—केशव (शब्द०)।

बर (५)
अव्य० [फ़ा०] १. बाहर। २. ऊपर। पर। मुहा०—बर आना या पाना = बढ़कर निकलना। मुकाबले में अच्छा ठहरना। जैसे,— झूठ बोलने में तुमसे कोई बर नहीं पा सकता। (या आ सकता)।

बर (६)
वि० १. बढ़ा चढ़ा। श्रेष्ठ। २. पूरा। पूर्ण। (आज्ञा या कामना आदि के लिये जैसे, मुराद बर आना।

बर (७)
पुं० १. शरीर। देह। २. गोद। क्रोड़। (को०)। ३. फल। यौ०—बरे अबा = आम की फसल की आय या मालगुजारी।

बर (८)
संज्ञा पुं० [हिं० बल (= सिकुड़न)] रेखा। लकीर। मुहा०—बर खाँचना या खींचना = (१) किसी बात के संबंध में दृढ़ता सूचित करने के लिये लकीर खींचना। (प्रायः लोग दृढ़ता दिखा ने के लिये कहते हैं कि मैं बर (लकीर) खींचकर यह बात कहता हूँ।) उ०—तेहि ऊपर राघव बर खाँचा। दुहज आजु तो पंडित साँचा।—जायसी (शब्द०)। २. हठ दिखलाना। अड़ना। जिद करना। उ०— हिंदू देघ काह बर खाँचा। सरगहु अब न सूर सों बाँचा।—जायसी (शब्द०)। बर बाँधना = प्रतिज्ञा करना। उ०— लँधउर घरा देव जस आदी। और को बर बाँधै को बादी।—जायसी (शब्द०)।

बर (९)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कीड़ा जिसे खाने से पशु मर जाते हैं।

बर (१०)
अव्य० [सं० बरम्, हिं० बरु] बरन्। बल्कि उ०—सुनि रोवत सब हाय बिरह ते मरन भली बर।—व्यास (शब्द०)।

बर (११)
संज्ञा पुं० [हिं०] बाल या बार का समस्त शब्दों में प्रयुक्त रूप जैसे, बरटुट। बरतोर।

बरअंग †
संज्ञा स्त्री० [सं० वराड़] योनि। (डि०)।

बरई †
संज्ञा पुं० [हिं० बाड़(= क्यारी)] [स्त्री० बरइन] १. एक जाति जिसका काम पान पैदा करना या बेचना होता है। २. इस जाति का कोई आदमी। तमोली।

बरकंदाज
संज्ञा पुं० [फ़ा० बरकंदाज] १. वह सिपाही या चौकीदार आदि जिसके पास बड़ी लाठी रहती हो। २. तोड़ेदार बंदूक रखनेवाला सिपाही। ३. चौकीदार। रक्षक।

बरक (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० बर्क़] बिजली। उ०—तन दुख नीर तडाग, रोग बिहंगम रूखड़ो। बिसन सलीमुख बाग, जरा वरक ऊतर जबल।— बाँकी, ग्रं०, भा० २, पृ० ४१।

बरक (२)
संज्ञा पुं० [अ० वरक़] दे० 'वरक'। उ०— कै वरक तिल्लई पै सीतल ए खेंव दई तहरीरे हैं।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३९२।

बरकत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. किसी पदार्थ की अधिकता। बढ़ती। ज्यादती। बहुतायत। कमी न पड़ना। पुरा पड़ना। विशेष—इस शब्द का प्रयोग साधारणतः यह दिखलाने के लिये होता है कि बस्तु आवश्यकतानुसार पूरी है ओर उसमें सहसा कमी नहीं हो सकती। जैसे,—(क) इकट्ठी खरीदी हुई चीज में बड़ो बरकत होती है। (ख) जिस चीज में तुम हाथ लगा दोगे, उसकी बरकत जाती रहेगी। मुहा०—बरकत उठना = (१) बरकत न रह जाना। पूरा न पड़ना। (२) वैभव आदि की समाप्ति या अंत आने लगना। ह्रास का आरंभ होना। जेसे, अब तो उनके घर से बरकत उठ चली। बरकत होना = (१) अधिकता होना। वृद्धि होना। (२) उन्नति होना। २. लाभ। फायदा। जेसे,— (ख) जैसी नीयत वैसी बरकत। (ख) इस रोजगार में बरकत नहीं है। ३. वह बधा हुआ पदार्थ या धन आदि जो इस विचार से पीछे छोड़ दिया जाता है कि इसमें ओर वृद्धि हो। जैसे,—(क) थैली बिल्कुल खाली मत कर दो, बरकत का एक रुपया तो छोड़ दो। (ख) अब इस घड़े में है ही क्या, खाली बरकत बरकत है। ४. समाप्ति। अंत। (साधारणतः गृहस्थी में लोग यह कहना कुछ अशुभ समझते हैं कि अमुक वस्तु समाप्त हो गई; और उसके स्थान पर इस शब्द का प्रयोग करते हैं। जेसे,— आजकल घर में अनाज की बरकत है।) ५. एक की संख्या। (साधारणतः लोग गिनती के आरंभ में एक के स्थान में शुभ या वृद्धि की कामना से इस शब्द का प्रयोग करते हैं)। जैसे, बरकत, दो, तीन, चार, पाँच आदि। ६. धनदौलत। (क्व०)। ७. प्रसाद। कृपा। जैसे, —यह सब आरके कदमों की बरकत है कि आपके आते ही रोगी अच्छा हो गया। (कभी कभी यह शब्द व्यंग्य रूप से भी बोला जाता है)। जैसे,— यह आपके कदमों की ही बरकत है कि आपके आते ही सब लोग उठ खड़े हुए)।

बरकती
वि० [(अ० बरकत + ई (प्रत्य०)] १. बरकतवाला। जिसमें बरकत हो। जैसे,—जरा अपना बरकती हाथ उधर ही रखना। (व्यंग्य)। २. बरकत संबंधी। बरकत का। जैसे, बरकती रुपया।

बरकदम
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बरक़दम] एक प्रकार की चटनी। विशेष— इसके बनाने की विधि इस प्रकार है—पहले कच्चे आम को भूनकर उसका पना निकाल लेते हैं और तब उसमें चीनी, मिर्च, शीतल चीनी, केसर, इलायची आदि डाल देते हैं।

बरकना (१)
क्रि० अ० [हिं० बरकाना] १. कोई बुरी बात न होने पाना। न घटित होना। निवारण होना। बचना। जैसे, झगड़ा बरकना। २. अलग रहना। हटना। दूर रहना।

बरकना पु (२)
क्रि० अ० [सं० वल्गन (=बहुत बोलना), हिं० बलकना, गुजच बरकुवुँ] आवेश में उत्साहित होकर बोलना या चिल्लाना। बलकना। उ०—बरकि कन्ह चहुआँत करि, तिल तिल सम तन तुंड।—पृ० रा०, ५। ८९।

बरकरार
वि० [फ़ा बर + अ० करार] १. कायम। स्थिर।जिसकी स्थिति हो। २. उपस्थित मोजूद। ३. जिवित। जिंदा (को०)। क्रि० प्र०—रहना।

बरकस
क्रि० वि० [फ़ा० बर + अ० अकस, अक्स] विपरीत। उलटा। उ०— बहुत मिल के बिद्या शिकना। भावबंद में बरकस रहेना।—दक्खिनी०, पृ० ६५।

बरकाज
संज्ञा पुं० [सं० वर + कार्य] विवाह। ब्याह। शादी। उ०— प्रबल प्रचंड बीरबंड बर बेष बपु बरिबे के बोले बैदेही बरकाज कें।—तुलसी (शब्द०)।

बरकाना †
क्रि० स० [सं० वारण वारक] १. कोई बुरी बात न होने देना। निवारण करना। बचाना। जैसे, झगड़ा बरकाना। २. पीछा छुड़ाना। बहलाना। फुसलाना। उ०—खेलत खुशी भए रघुवशिन। कोशलपति सुख छाय दै नवीन भूषन पट सुंदर जस तस कै बरकाय।— रघुराज (शब्द०)।

बरकावना पु
क्रि० अ० [हिं० बरकाना] किसी के द्वारा बरकाना।

बरक्कत †
संज्ञा स्त्री० [अ० बरकत] वुद्धि। समृद्धि। भलाई। उ०— भीड़ भाड़ से डरे भीड़ में नहीं बरकत। पलटू०, पृ० ५५।

बरख पु †
संज्ञा पुं० [सं० वर्ष] बरस। साल। उ०—(क) बरख बधै बिय बाल पिथ्थ बद्धै इक मासह।—पृ०, रा०, १। ७१७। (ख) अगले बरख तो लड़कों का जनेउआ करोगे।—नई०, पृ० ७८।

बरखना
क्रि० अ० [सं० वर्षण] पानी बरसना। वर्षा होना। उ०— (क) कोटिन्ह दीन्हेउ दान मेघ जनु बरखइ हो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ६। (ख) परखे प्रलय को पानी, न जात काहू पै बखानी। ब्रज हूँ तैं भारी टूटत हैं तर तर।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६२।

बरखनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बर्षण] बरसने की स्थिति। बर्षा। उ०—तौसियै सिर तैं कुसुम सु बरखनि।—नंद० ग्रं० पृ० २४८।

बरखा पु
सज्ञा स्त्री० [सं० वर्षा] १. मेह गिरना। जल का बरसना। वृष्टि। उ०— का बरखा जव कृषी सुखाने।—तुलसी (शब्द०)। २. वर्षा ऋतु। बरसात का मौसिम। उ०—बरखा विगत सरद ऋतु आई।—मानस, ४। १६।

बरखाना पु
क्रि० स० [सं० बर्षा] १. बरसाना। २. ऊपर से इस प्रकार छितराकर गिराना कि बरसता हुआ मालूम हो। ३. बहुत अधिकता से देना।

बरखास पु †
वि० [फ़ा० बरखास्त] दे० 'बरखास्त'। उ०— करि भूपति दूतन विदा कियो सभा बरखास। भरत शत्रुहन संग लै गए आपु रनिवास।—रघुराज (शब्द०)।

बरखास्त
वि० [फ़ा० बरखास्त] १. (सभा आदि) जिसका विसर्जन कर दिया गया हो। जिसकी बैठक समाप्त कर दी गई हो। जैसे, दरबार, कचहरी, स्कूल आदि बरखास्त होना। जो बंद कर दिया गया हो। उ०—सुनिकै सभासद अभि- लषित निज निज अयन गमनत भए। भूपति सभा बरखास्त करि किय शयन अति आनदमए।—रघुराज (शब्द०)। २. जो नौकरी से हटा या छुड़ा दिया गया हो। मौकूफ।

बरखास्तगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बरखास्तगी] १. नौकरी या सेवा से अलगाव। सेवानिवृत्ति। मौकूफी [को०]।

बरखिलाफ
क्रि० वि० [फ़ा० बरखिलाफ़] प्रतिकूल। उलटा। विरुद्ध।

बरखुरदार (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० बरखरदार] पुत्र। बेटा। संतान।

बरखुरदार (२)
वि० फलयुक्त। फूलता फलता। भग्यवान् [को०]।

बरगंध †
संज्ञा पुं० [सं० वर + गन्ध] सुगंधित मसाला।

बरग (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० बगं] पत्ता। पत्र। जैसे, बरग बनफशा। बरग गाबजुवाँ।

बरग (२)
संज्ञा पु० [सं० वर्ग] दे० 'वर्ग'।

बरगद
संज्ञा पुं० [सं० वट, हिं० बड़] बड़ का पेड़। पीपल, गूलर आदि की जाति का एक प्रसिद्ध बड़ा वृक्ष जो प्रायः सारे भारत में बहुत अधिकता से पाया जाता है। विशेष—अनेक स्थानों पर यह आपसे आप उगता है। पर इसकी छाया बहुत घनी और ठंढ़ी होती है, इसलिये कहीं कहीं लोग छाया आदि के लिये इसे लगते भी हैं। यह बहुत दिनों तक रहता, बहुत जल्दी बढ़ता और कभी कभी अस्सी या सो फुट की ऊँचाई तक जा पहुँचता है। इसमें एक विशेषता यह होती है कि इसकी शाखाओं में से जटा निकलती है जिसे बरोह कहते हैं और जो नीचे की और आकर जमीन में मिल जाती है और तब एक नए वृक्ष के तने का रूप धारण कर लेती है। इस प्रकार एक ही बरगद की डालों में से चारों ओर पचासों जटाएँ नीचे आकर जड़ और तने का काम देने लगती हैं जिससे वृक्ष का विस्तार बहुत शीघ्रता से होने लगता है। यही कारण है कि बरगद के किसी बड़े वृक्ष के नीचे सैकड़ों हजारों आदमी तक बैठ सकते हैं। इसके पत्तों और डालियों आदि में से एक प्रकार का दूध निकलता है जिससे घटिया रबर बन सकता है। यह दूध फोड़े फुंसियों पर, उनमे मुँह करने के लिये, और गठिया आदि के दर्द में भी लगाय जाता है। इसकी छाल का काढ़ा बहुमूत्र होने में लाभदायक माना जाता है। इसके पत्ते, जो बड़े और चौड़े होते हैं, प्रायः दोने बनाने और सौदा रखकर देने के काम आते हैं। कहीं कहीं, विशेषतः अकाल के समय में, गरीब लोग उन्हें खाते भी हैं। इसमें छोटे छोटे फल लगते जो गरमी के शुरू में पकते हैं और गरीबों खाने के काम आते हैं। यों तो इसकी तकड़ी फुसफुसी और कमजोर होती है और उसका विशेष उपयोग नहीं होता, पर पानी के भीतर वह खूब ठहरती है। इसलिये कुएँ की 'जमवट' आदि बनाने के काम आती है। साधारणतः इसके संदूक और चौखटे बनते हैं। पर यदि यह होशियारी से काटी जाय और सुखाई जाय तो और रसमान भी बन सकते हैं। ड़ालियों में से निकलनेवाली मोटी जटाएँ बहँगी के डंडे, गाड़ियों के जुए और खेमों के चोव बनाने के काम आती हैं। इस पेड़ पर कई तरह के लाख के कीड़े भी पल सकते हैं। हिंदू लोग बरगद को बहुत ही पवित्र और स्वयं रुद्रस्वरूप मानते हैं।इसके दर्शन तथा स्पर्श आदि से बहुत पुण्य होना और दुःख तथा आपत्तियों आदि का दूर होना माना जाता है और इसलिये इस वृक्ष का लगाना भी बड़े पुण्य का काम माना जाता है। वैद्यक के अनुसार यह कषाय, मधुर, शीतल, गुरु, ग्राहक और कफ, पित्त, व्रण, दाह, तृष्णा, मेह तथा योनि- दोष-नाशक माना गया है। पर्य्या०—न्यग्रोध। बहुपात। वृक्षनाथ। यमप्रिय। रक्तफल। शृंगी। कर्मज। ध्रुव। क्षीरी। वैश्रवणावास। भांडरी। जटाल। अवरोही। विटपी। स्कंदरुइ। महाच्छाय। भृंगी। यक्षावास। यक्षतरु। नील। बहुपाद। वनस्पति।

बरगश्ता
वि० [फ़ा० बरगश्ताह्] प्रतिकूल। उलटा। फिरा हुआ। विपरीत। उ०—ऐ रसा जैसा है बरगश्ता जमाना हमसे। ऐसा बरगश्ता किसी का न मुकद्दर होगा।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५७।

बरगेल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का लवा (पक्षी) जिसके पंजे कुछ छोटे होते हैं और जो पाला जाता है।

बरचर
संज्ञा पुं० [देश०] हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का देवदार वृक्ष जिसकी लकड़ी भूरे रंग की होती है। घेसी। परुँगी। खेख।

बरचस
संज्ञा पुं० [सं० वर्चस्क] विष्ठा। मल। (ड़िं०)।

बरच्छा †
संज्ञा पुं० [सं० वर + ईक्षा(=ईक्षण)] विवाह की बात पक्की होने पर वर के पिता के हाथ में जनेऊ, द्रव्य और फल रखने की रीति। इसे लोग बरछेकाई भी कहते हैं।

बरछा
संज्ञा पुं० [सं० व्रश्चन्(=काटलेवाला)?] [स्त्री० बरछ़ी] भाला नामक हथियार जिसे फेंककर अथवा भोंककर मारते हैं। विशेष—इसमें प्रायः एक बालिश्त लंबा लोहे का फल होता हैं और यह एक बड़ी लाठी के सिरे पर जड़ा होता है। यह प्रायः सिपाहियों और शिकारियों के काम का होता है।

बरछैत
संज्ञा पुं० [हिं० बरछा + ऐत(प्रत्य०)] बरछा चलानेवाला। भालाबर्दार। उ०—सहस दोइ बरछैत जे न कबहूँ मुख मोरत।—सुजान०, पृ० २६।

बरजनहार
वि० [हिं० बरजना + हार (प्रत्य०)] रोकनेवाला। निवारक। उ०—वहहुं करहू होय सोई कौन बरजनहार। जग० श०, भा० २, पृ० १०३।

बरजना पु †
क्रि० अ० [सं० वर्जन] मना करना। रोकना। निवारण करना। निषेध करना।

बरजनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बर्जन] १. मनाही। २. रुकावट। ३. रोक।

बरजवान
वि० [फा़० बरजबान] जो जबानी याद हो। मुखाग्र। कंठस्थ।

बरजोर (१)
वि० [हिं० बल, बर + फ़ा० जोर] १. प्रबल। बलवान्। जबरदस्त। उ०—ते रनरोर कपीस किसार बंडे बरजोर परे फग थाए।—तुलसी (शब्द०)। २. अत्याचार अथवा अनुचित बलप्रयोग करनेवाला।

बरजोर (२)
क्रि० वि० १. जबरदस्ती। बलपूर्वक। उ०—भूषन भनत जो लौं भेजो उस और तिन, बेही काज बरजोर क्टक कटायो है।—भूषण ग्रं०, पृ० ७२।

बरजोरन
संज्ञा पुं० [सं० वर (=पति) + हिं० जोरन(= मिलान)] १. विवाह के समय वर और वधू के पल्लों में गाँठ बाँधा जाना। गठबंधन। २. विवाह (डिं०)।

बरजोरी पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरजोर + ई (प्रत्य०)] जबरदस्ती। बलप्रयोग। प्रबलता।

बरजोरी (२)
क्रि० वि० जबरदस्ती से। बलपूर्वक।

बरट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अन्न [को०]।

बरड †
संज्ञा पुं० [सं० बरट] भिड़। बर्रे। उ०—बरड छता के छेरि, गाय व्यानी बक्गानिय।—पृ० रा०, १३। २८।

बरड़ाना †
क्रि० स० [अनुध्व०] दे० 'बरर्ना' या 'बड़बड़ाना'। उ०— (क) सुपने हू बरड़इ कै जिह मुख निकसै राम।— कबीर ग्रं०, पृ० २६१। (ख) सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोले सो सोता बरड़ावै।—दरिया० बानी, पृ० २४।

बरण
संज्ञा पुं० [सं० वर्ण] दे० 'वर्ण'। अक्षर। उ०—राम बरण जग रूप अँसह वरणाँ सिरताज।—रघु० रू०, पृ० २।

बरणाना
क्रि० स० [सं० वर्णन] दे० 'बरनना'। उ०—अजर अमर अज अंगी औरु अनंगी सब बरणि सुनावैं ऐसे कोने गुण पाए हैं।— केशव (शब्द०)।

बरतंत
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तान्त] दे० 'वृत्तांत'। उ०—तब कहिय जमिनि कंत। यह लिखिय तेय बरतंत।—प० रासो, पृ० १२।

बरत (१)
संज्ञा पुं० [सं० व्रत] ऐसा उपवास जिसके करने से पुण्य हो। परमार्थसाधन के लिये किया हुआ उपवास। विशेष— दे० 'व्रत'। उ०—जप तप संध्या बरत करि तजै खजाना कोष। कह रघुनाथ ऐसे नृपै रती न लागै दोष। —रघुनाथ- दास (शब्द०)। यौ०—तीरथ बरत = उ०—नारद कहि संवाद अपारा। तीरथ बरत महा मत सारा।—सबलसिंह (शब्द०)।

बरत (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरना (= बटना)] १. रस्सी। उ०— बरत बाँधकर घरन में कला गगन में खाय। अर्ध अर्ध नट ज्यों फिरै सहजो राम रिझाय।—सहजो०, पृ० ४२। २. नट की रस्सी जिसपर चढ़कर वह खेल करता है। उ०— (क) डीठ बरत बाँधी अटनि चढ़ि धावत न डरात। इत उत ते चित दुहुन के नट लौं आवत जात।—बिहारी (शब्द०)। (ख) दुहूँ कर लीन्हें दोऊ बैस बिसवास वास डीठ की, बरत चढ़ी नाचै भौं नटिनी।—देव (शब्द०)।

बरतन (१)
संज्ञा पुं० [सं० बर्तन (=पात्र)] मिट्टी या धातु आदि की इस प्रकार बनी वस्तु कि उसमें कोई वस्तु, विशेषतः खाने पीने की, रख सकें। पात्र। जैसे, लोटा, थाली, कटोरा,गिलास, हंडा, परात, घड़ा, हाँड़ी, मटका आदि। भाँड़। भाँड़ा।

बरतन (२)
संज्ञा पुं० [सं० वर्तन] बरतना या व्यवहृत करने का भाव। बरताव। व्यवहार।

बरतना (१)
क्रि० अ० [सं० वर्तन] किसी के साथ किसी प्रकार का व्यवहार करना। बरताव करना। जैसे,—जो हमारे साथ बरतेगा उसके साथ हम भी बरतेंगे।

बरतना (२)
क्रि० स० काम में लाना। व्यवहार में लाना। इस्तेमाल करना। जैसे, —यह कटोरा हम बरसों से बरत रहे हैं, पर अभी तक ज्यों का त्यों बना है।

बरतना (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्तनी] एक प्रकार की कलम। बरतनी। उ०—राजपूताना में अब भी लकड़ी की गोल तीखे मुँह की कलम को जिससे बच्चे पट्टे, पर सूरखी बिछाकर अक्षर बनाना सीखते हैं थरथा या बरतना कहते हैं।—भा० प्रा० लि०, पृ० ६।

बरतनी
संज्ञा स्त्री० [सं० बर्तनी] १. लकड़ी आदि की बनी एक प्रकार की कलम जिससे विद्यार्थी लोग सिट्टी या गुलाल आदि बिछाकर उसपर अक्षर लिखते हैं। अथवा तांत्रिक लोग यंत्र आदि भरते हैं। २. लेखनप्रणाली। लिखने का ढंग।

बरतर
वि० [फा० तुल० सं० बर + तर (प्रत्य०)] श्रेष्ठतर। अधिक अच्छा उ०— याने बुजुर्ग हैं वह बरतर।—दक्खिनी०, पृ० ३०३।

बरतराई †
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बरतर] वह कर जो जमींदार की ओर से बाजार में बैठनेवाले बनियों और दुकानदारों आदि से लिया जाता है। बैठकी। झरी।

बरतरफ
वि० [फ़ा० तर + अ० तरफ़] १. किनारे। अलग। एक ओर। २. किसी कार्य, पद, नौकरी आदि से अलग। छुड़ाया हूआ। मौकूफ। बरखास्त। क्रि० प्र०—करना।—होना।

बरताना (१)
क्रि० सं० [सं० वर्तन या वितरण] सबको थोड़ा थोड़ा देना। वितरण करना। बाँटना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।

बरताना (२)
क्रि० अ० [सं० वर्तन] बरताव करना। आचरण करना। उ०—ज्ञान सु इंद्रिय पंच ये भिन्न भिन्न बरताहिं। सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० २४।

बरताना † (३)
संज्ञा पुं० [सं० वर्तन, हिं० बरतना] १. व्यवहार। बरताव। उ०—पिता आइ कीयौ संयोगा, यह कलियुग बरताना।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८७४। २. व्यवहार में आया हुआ वस्त्र। व्यवहृत वस्त्र आदि। ३. व्यवहृत सामान। बर्तन आदि (हलवाई)।

बरताव
संज्ञा पुं० [हिं० बरतना का भाव] बरतने का ढंग। मिलने जुलने, बातचीत करने या बरतने, आदि का ढंग या भाव। वह कर्म जो किसी के प्रति, किसी के संबंध में किया जाय। व्यवहार। जैसे,—(क) वे छोटे बड़े सबके साथ एक सा वरताव करते हैं। (ख) जिस आदमी का बरताव अच्छा न हो उसके पास किसी भले आदमी को जाना न चाहिए। विशेष दे० 'व्यवहार'।

बरती (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पेड़।

बरती (२)
वि० [सं०व्रतिन् हिं० व्रती] जिसने उपवास किया हो। जिसने व्रत रखा हो।

बरती (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्ति, हिं० बरवा] दे० 'बर्ती'।

बरतुल पु
वि० [सं० वर्तुल] वृत्ताकार। गोला। वर्तुल। उ०— बरतुल सुछम कपोल रसीली बाँमरा। किया तयारी बेह दरप्पण काँमरा।—बांकी ग्रं०, भा० ३, पृ० ३२।

बरतुस ‡
संज्ञा पुं० [देश०] वह खेत जिसमें पहले धान बोया गया हो ओर फिर जोतकर ईख बोई जाय।

बरतेला †
संज्ञा स्त्री० [देश०] जुलाहों की वह खूँटी जो करघे की दाहिनी ओर रहनी है ओर जिसमें ताने को कसा रखने के लिये उसमें बँधी हुई अंतिम रस्सी यो 'जोते' का दूसरा सिरा 'पिंडा' या 'हथेला' (करघे के पीछे लगी हुई दूसरी खूँटी) पिछे से घुमाकर लाया और बाँध जाता है। विशेष— यह खूँटी करघे की दाहिनी ओर बुननेवाले के दाहिने हाथ के पास इसलिये रहती है जिसमें वह आवश्यकता- नुसार जोते ढीला करता रहे ओर उसके कारण ताना आगे बढ़ता चले।

बरतोर †
संज्ञा पुं० [हिं० बार + तोरना] वह फुंसी या फोड़ा जो बाल उखड़ने के कारण हो। उ०—(क) ताने तन पेखियत घोर बरतोर सिसु फूटि फूटि निकसत है लोन राम राय को।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जनु छुइ गयउ पाक बरतोरा।

बरथ ‡
संज्ञा पुं० [सं० व्रत, हिं० बरत] दे० 'व्रत'। उ०—तीरथ बरथ करे असनान। नहिं नहिं हरि नाम समान।—दक्खिनी०, पृ० १६।

बरद
संज्ञा पुं० [सं० बलीवर्द; देशी प्रा० बलइ] उ०—बरु बौराह बरद असवारा। ब्याल कपाल विभूषन छारा।—मानस, १। ९५।

बरदना
क्रि० अ० [हिं० बरद + ना (प्रत्य०)] दे० 'बरदाना'।

बरदमानी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्ध (=काटना)] काट करनेवाली एक तरह की तलवार। उ०—तहँ सु बरदमानी खड़ग पिहानी हर वरदानी हेरि इँसे।—पद्माकर ग्रँ०, पृ० २८।

बरदवान (१)
संज्ञा पुं० [सं० वर + दामन्] कमखाब बुननेवालों के करघे की एक रस्सी जो पगिया में बँधी रहती है। 'नथिया' भी इसी में बँधी रहती है। २. रस्सी। उ०—बरदवानी, डेंरा, कनात, पात्र, सामग्री, आभूषण वस्त्र दोऊ भाँति के, सिज्या और जो कद्दू वस्तू चाहिए ये सब पठवाए।—दो सो बावन०, भा० १, पृ० ११४।

बरदवान (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० बादबान] १. तेज हवा। (कहार)। २. हवा। वायु। उ०—जैसे जाहाज चलै सागर में बरदवान बहै धीमी।—वट०, पृ० १९८।

बरदवाना
क्रि० स० [हिं० बरदाना] बरदाना का प्रेरणार्थक रूप। बरदाने का काम दूसरे के कराना।

बरदा (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दक्षिण भारत की एक तरह की रूई।

बरदा (२)
संज्ञा पुं० [देशी बलइ] दे०/?/

बरदा (३)
संज्ञा पुं० [तु० बर्दह्] दास। गुलाम [को०]।

बरदाइ पु
वि० [सं० बरदानी] वर देनेवाली। उ०—प्रये गवरि, ईस्वरि सब लायक। महामाइ बरदाइ सुभायक।—नंद० गं०, पृ० २९८।

बरदाई
संज्ञा पुं० [हिं०] पृथ्वीराज चौहान के मित्र और पृथ्वीराज रासो के रचयिता राजकवि चंद की उपाधि।

बरदाना † (१)
क्रि० सं० [हिं० बरधा (बैल)] गो, भैस, बकरी, आदि पशुओं का इनकी जाति के नर पशुओं से, संतान उत्पन्न करने के लिये संयोग कराना। जोड़ा खिलाना। जुफी खिलाना। सयो० क्रि०—डालना।—देना।

बरदाना (२)
क्रि० अ० गौ, भैंस, बकरी, घोड़ी आदि पशुयों का अपनी जाति के नरपशुओं से गर्भ रखाना। जोड़ा खाना। जुफी खाना। संयो० क्रि०—जाना।

बरदानि, बरदानी
वि० [सं० बरदानी] अभीष्ठ देनेवाला। उ०— जगजीवन कर जोरि कहत है, देहु दरस बरदानी।— जग० बानी, पृ० ३।

बरदाफरोश
संज्ञा पुं० [फ़ा० बर्दह् फ़रोशी] गुलाम बेचनेवाला। दासों को खरीदने और बेचनेवाला।

बरदाफरोशी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बर्दहा फरोशी] गुलाम बेचने का काम।

बरदाय पु
वि०, स्त्री० [हिं०] दे० 'बरदाई' (१)। उ०—महामाय बरदाय, सु संकर तुमरे नायक।—नंद० ग्रं०, पृ० २०९।

बरदायक
वि० [सं० वर + दायक] वर देनेवाला। उ०—ब्रह्म राम तें नाम बड़ बरदायक बरदानि।—मानस, १। ३१।

बरदार
वि० [फ़ा०] १. ले जानेवाला। बहन करनेवाला। ढोनेवाला। धारण करनेवाला। जैसे, बल्लम बरदार। उ०— बहु कनक छरी बरदार तित, आनि प्रभुहिं बिनती करी।— दीनं ग्रं०, पृं० १०२। २. पालन करनेवाला। माननेवाला। जैसे, फरमाँबरदार।

बरदाश्त
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] सहने की क्रिया या भाव। सहन।

बरदिया
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बलदिया'।

बरद्दिया पु
संज्ञा पुं० [देशी बलद्द + हि० इया] बैल। बृष। उ०— प्रथिराज खलन खद्धो जु खर यों दुब्बरो बरद्दिया।—पृ० रा०, ३०, पृ० ६७३।

बरधी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. दे० 'बलदी'। २. बैलों का समूह जिसपर माल लादकर व्यापारी लोग एक जगह से दूसरी जगह आते जाते थे। उ०— (क) इक बनिजारा अलप जुवनियाँ दुसरे लगतु है जाड़। राति बिराति चलै तोरी बरदी, लूटि लेइहि कोउ ठाढ़।—पलटू०, भा० ३, पृ० ८४।

बरदुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] बरमे की तरह का एक ओजार जिससे लोहा छेदा जाता है।

बरदौर †
संज्ञा पुं० [सं० बरद + और (प्रत्य०)] गौओं और बैलों के बाँधने का स्थान। मवेशीखाना। गोशाला।

बरध, बरधा
संज्ञा पुं० [सं० बलीबर्ड़] बैल। उ०—ओर वा तेली के साथ एक बरध हतो।—दो सो बावन०, भा० १, पृ० ३००।

बरधमुतान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] बरधा या बैल के मूतने से बनी टेढ़ीमेढ़ी रेखा या आकृति।

बरधवाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बरदवाना'।

बरधाना
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'बरदाना'।

बरधी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का चमड़ा।

बरन
संज्ञा पुं० [सं० वर्ण] १. दे० 'वर्ण'। २. रंग। उ०— सुबरन बरन सुवास जुत, सरस दलनि सुकुमारि।—मतिराम (शब्द०)। ३. हिंदू जाति के चार मुख्य वर्ग। उ०—प्रेम दिवाने जो भए जात बरन गई छूट। सहजो जग बोरा कहैं लोग गए सब फूट।—सहजो०, पृ० ४०।

बरनन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वर्णन'।

बरनना पु
क्रि० सं० [सं० वर्णन] वर्णन करना। बयान करना। उ०—बरनों रघुबर बिमल जस जो दायक फल चारि।— तुलसी (शब्द०)।

बरनमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्णमाला] दे० 'वर्णमाला'। उ०— जासु वरनमाला गुन खानि सकल जग जानत।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४१६।

बरनर
संज्ञा पुं० [अं०] लंप का ऊपरी भाग जिसमें बत्ती लगाई जाती है। बत्ती इसी भाग में जलती हैं और इसी के ऊपर मे होकर प्रकाश बाहर निकलता और फैलता है।

बरना (१)
क्रि० स० [सं० वरण] १. वर या वधू के रूप में ग्रहण करना। पति या पत्नी के रूप में अंगीकार करना। ब्याहना। उ०—(क) जो एहि बरइ अमर सो होई। समर भूमि तेहि जीत न कोई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मरे ते अपसरा आइ ताको बरति, भाजि है देखि अब गेह नारी।—सूर० (शब्द०)। २. कोई काम करने के लिये किसी को चुनना या ठीक करना। नियुक्त करना। उ०—बरे बिप्र चहुँ वेद केर रबिकुल गुरु ज्ञानी।—तुलसी (शवब्द०)। ३. दान देना।

बरना ‡ (२)
क्रि० अ० [हिं० बलना] दे० 'जलना'। उ०—औंधाई सीसी सुलखि बिरह बरति बिललात। बीचहि सूखि गुलाब गौ छोंटो छुई न गात।—बिहारी (शब्द०)।

बरना † (३)
क्रि० स० [सं० वलन(=घूमना)] दे० 'बटना'।

बरना † (४)
क्रि० स० [सं० वारण, हिं० वारना] मना करना। रोकना। (लश०)।

बरना (५)
संज्ञा पुं० [सं० वरुण] एक प्रकार का वृक्ष।

बरना (६)
संज्ञा स्त्री० [सं० वरणा] वरुणा नदी। दे० 'वरुणा' -१ उ०—ससी सम जसी असी बरना में बसी पाप खसी हेतु असी ऐस लसी बारानसी हैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१।

बरना (७)
अव्य० [फ़ा० वर्नह्] अन्यथा। नहीं दो। दे० 'बरना'।

बरनाल
संज्ञा पुं० [हिं० परनाला] जहाज में वह परनाला या पानी निकालने का मार्ग जिसमें से, उसका फालतू पानी निकलकर समुद्र में गिरता है। (लश०)।

बरनाला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परनाला'। (लश०)।

बरनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वरणीय] वरणीय। कन्या। उ०— (क) परिहार सिंध जिम जेर कीन। बरनी विवाहि रस असी अधीन।—पृ० रा०, १। ६७५। (ख) वरनी जोग बरंन को बर भुल्ले करतार।—पृ० रा०, २५। ११०।

बरनीय
संज्ञा स्त्री० [सं० वरणीया] कन्या जिसका परिणय किया जाय। उ०—बरनीय अष्ट दुय लेय ब्याहि।—पृ० रा०, १। ७११।

बरनेत †
संज्ञा स्त्री० [हिं० वरना (वरण करना) + ऐत (प्रत्य०)] विवाह की एक रस्म जो विवाहमुहूर्त से कूछ पहले होती है। विशेष—इसमें कन्या पक्ष के लोग वर पक्ष के लोगों को बुलाते है और विवाहमंडप में उन्हें बैठाकर उनसे गणेश आदि का पूजन कराते हैं।

बरपा
वि० [फ़ा०] खड़ा हुआ। उठा हुआ। मचा हुआ। विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः झगड़ा फसाद, आफत, कयामत, अप्रिय अशुभ बातों के लिये ही होता है।

बरफ
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बर्फ़] दे० 'बर्फ'।

बरफानी
वि० [फ़ा० बर्फ़ानी] बरफ से युक्त। बरफ का। बरफीला।

बरफी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बरफ़, बर्फ़ी] एक प्रकार की प्रसिद्ध मिठाई। विशेष—यह मिठाई चीनी की चाशनी में गरी या पेठे के महीन टुकड़े, पीसा हुआ बदाम, पिस्ता या मुँग आदि आथवा खोवा डालकर जमाई जाती है और पीछे से छोटे छोटे चौकोर टुकड़ों के रूप में काट ली जाती है। इसकी जमावट आदि प्रायः बरफ की तरह होती है। इसीलिये यह बरफी कहलाती है।

बरफीदार कनारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बरफ़ीदार + देश० कनारी] वह स्थान जहाँ सफेद रंग के काँट अधिकता से मार्ग में पड़ते हों। (पालकी के कहारों की बोली)।

बरफीसंदेस
संज्ञा सं० [फा़ बरफ़ी + बँग० संदेश] बरफी की तरह की एक प्रकार की बँगला मिठाई जो छेने से तैयार की जाती है।

बरफोला
वि० [फ़ा० बर्फ़ीलह्] बरफ से युकात। हिमयुक्त। हिमावृत।

बरबंड पु ‡
वि० [मं० बलवन्त] १. बलवान्। ताकतवर। २. प्रतापशाली। ३. उद्दंड। उद्धत। ४. प्रंचड। प्रखर। बहुत तेज।

बरबट पु †
क्रि० वि० [सं० बलवत्] १. बलपूर्वक। जबरदस्ती। बरबस। उ०—बेधक अनियारे नयन बेधत करि न निषेधु। बरबट बेघतु मो हियौ तो नासा कौ बेधु।—बिहारी (शब्द०)। २. दे० 'बरबस'। उ०—(क) नैन मीन ऐ नागरनि, बरबट बाँधत आइ।—मतिराम (शब्द०)। (ख) कैसे अपबस राखौं अपनपौ है बरबट चित चोर।— घनानंद, पृ० ५४८।

बरबत
संज्ञा पुं० [अ०] एक प्रकार का बाजा।

बरबर † (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] व्यर्थ की बातें। बके बक। बकवाद। उ०—सुनि भृगुपति के बैन मनही मन मुसक्यात मुनि। अबै ज्ञान यह है न, वृथा बकत बरबर वचन।—रघुराज (शब्द०)।

बरबर (२)
वि० बड़बड़ानेवाला। बकवादी। उ०—आलि ! बिदा करु बटुहि वेगि, बड़ बरबर।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३४।

बरबर (३)
संज्ञा पुं० [सं० बर्बर] दे० 'बर्बर'।

बरबराना
क्रि० अ० [अनुध्व०] दे० 'बर्राना'।

बरबरी
संज्ञा स्त्री० [सं० बर्वरी] १. बर्बर या बर्बरी नामक देश। २. एक प्रकार की बकरी।

बरबस
क्रि० वि० [सं० बल + वश] १. बलपूर्वक। जबरदस्ती। हठात्। २. व्यर्थ। फिजूल। उ०—खेलत में कोउ काको गुसैयाँ। हरि हारे जीते श्रीदामा बरबस ही क्यों करत रिसैयाँ।—सूर (शब्द०)।

बरबाद
वि० [फा०] १. नष्ट। चौपट। तबाह। जैसै, घर बर- बाद होना। २. व्यर्थ खर्च किया हुआ। जैसे,—सैकड़ों रुपए बरबाद कर चुके, कुछ भी काम न हुआ। तुम्हें क्या मिल जायगा ?

बरबादी
संज्ञा स्त्री० [फा०] नाश। खराबी। तबाही। जैसे,— इस झगड़े में तो हर तरह तुम्हारी बरबादी ही है।

बरम पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वर्म] जिरह बक्तर। कवच। शरीरत्राण। उ०—(क) असन बिनु बिनु बरम बिनु रण बच्यो कठिन कुघायँ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पहिर बरम, असि, चरम खरे सो सुभट बिराजै।—नंद० ग्रं०, पृ० २०९।

बरम †
संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्म] दे० 'ब्रह्म'। यौ०—बरमसूत = जनेऊ। ब्रह्मसूत्र। यज्ञोपवीत। उ०—कंधे पर वरमसूत पहने रग्घू मजदूरी करने कैसे जाती।—भस्मावृत०, पृ० ८५।

बरमा पु (१)
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० अल्पा० बरमी] लकड़ी आदि में छेद करने का, लोहे का बना एक प्रसिद्ध औजार विशेष—इसमें लोहे का एक नोकीला छड़ होता है जो पीछे की ओर लकड़ी के एक दस्ते में इस प्रकार लगा रहता है किसहज में खूब अच्छी तरह घूम सके। जिस स्थान पर छेद करना होता है, उस स्थान पर नोकीला कोना लगाकर और दस्ते के सहारे उसे दबाकर रस्सी की गराड़ियों की सहायता से अथवा और किसी प्रकार खूब जोर जोर से घुमाते हैं जिससे वहाँ छेद हो जाता है।

बरमा (२)
संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मदेश] १. भारत को पूर्वी सीमा पर, बंगाल की खाड़ी के पूर्व ओर आसाम तथा चीन के दक्षिण का एक पहाड़ी प्रदेश। विशेष—यह प्रदेश पहले वहाँ के देशी राजा के अधिकार में था। फिर अँग्रजो के अधिकार में आ गया और भारतवर्ष में मिला लिया गया। दूसरी महायुद्ध के बाद से यह एक स्वतंत्र देश हो गया है। इस प्रदेश में खान और जंगल बहुत अधिकता से हैं। यहाँ चावल बहुत अधिकता से होता है। इस देश के अधिकांश निवासी बौद्ध हैं। २. एक प्रकार का धान जो बहुत दिनों तक रखा जा सकता हे।

बरमी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बरमा + ई (प्रत्य०)] बरमा देश का निवासी। बरमा का रहनेवाला।

बरमी (२)
संज्ञा स्त्री० बरमा देश की भाषा।

बरमी (३)
वि० बरमा संबंधी। बरमा देश का। जैसे, बरमी चावल।

बरमी (४)
संज्ञा स्त्री० गीली नाम का पेड़। विशेष दे० 'गीली'।

बरम्हंड पु
संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्माण्ड] दे० 'ब्रह्माड'। उ०—कीन्हेसि सप्त मही बरम्हडा। कीन्हेसि भुवन चोदही खडा।—जायसी ग्रं०, पृ० १।

बरम्ह
संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्म] दे० बह्म'।

बरम्हबोट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरमा (देश) + अं० बोट(=नाव)] प्रायः चालीस हाथ लबी एक प्रकार की नाव। विशेष—इसका पिछला भाग अपेक्षाकृत अधिक चौड़ा होता है। इसके बीच में एक बड़ा कमरा होता है और पीछे की और ऐसा यत्र बना होता है जिसे बारह आदमी पैर से चलाते है।

बरम्हा (१)
संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मा] दे० 'ब्रह्मा'। उ०—एक एक बोल अरथ चौगुना। इंद्रमीह बरम्हा सिर धुना।—जायसी ग्रं० (गुस), पृ० १९१।

बरम्हा (२) †
ज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरमा'।

बरम्हाउ पु
संज्ञा पुं० [हिं० बरम्हाव] 'बरम्हाव'। उ०— (क) ठाढ़ देखि सब राजा राऊ। बाएँ हाथ दीन्ह बरम्हाऊ।—जायसी (शब्द०)। (ख) भइ अज्ञा को भाँट अभाऊ। वाएँ हाथ देइ बरम्हाऊ।—जायसी ग्रं० पृ० ११४।

बरम्हाव पु †
संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मा + हिं० आव (प्रत्य०)] १. ब्राह्मणत्व। २. ब्राह्मण का आशीर्वाद।

बरम्हावना पु
क्रि० स० [सं० ब्रह्म + हिं० आवना (प्रत्य०)] आशी- र्वाद देना। आसीस देना। ऊ०—जाति भाट कित ओगुन लावसि। बाएँ हाथ राज बरम्हावसि।—जायसी ग्रं०, पृ० ११५।

बरराना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बर्राना'। उ०—जोग जोग कबहुँ न जाँने कहा जोहि जाकौ, ब्रह्म ब्रह्म कबहुँ बहकि बररात हौ।—पोद्दार—अभि० ग्रं०, पृ० ३४३।

बररे पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] भिड़। दे० 'बर्रे'।

बरवट
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'तिल्ली' (रोग)।

बरवल
संज्ञा पुं० [देश०] भेड़ की एक जाति। विशेष—इस जाति की भेड़ हिमालय पर्वत के उत्तर में जुमिला से किरंट तक और कमाऊँ से शिकम तक पाई जाती है। यह पहाड़ी भेड़ों के पाँच भेदों में से एक है। इसके नर के सिर पर दृढ़ सीगें होती हैं और वह लड़ाई में खूब टक्कर लगाता है। इसका ऊन यद्यपि मैदान की भेड़ों से अच्छा होता है, तो भी मोटा होता है और कंबल आदि बनाने के काम में ही आता है। इसका मांस खाने में रूखा होता है।

बरवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरवै'।

बरवै
संज्ञा पुं० [देश०] १९ मात्राओं का एक छंद जिसमें १२ और ७ मात्राओं पर यति और अंत में 'जगण' होता है। इसे 'ध्रुव' और 'कुरंग' भी कहते हैं। जैसे,—मोतिन जरी किनरिया बिथुरे बार।

बरष पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्ष] दे० 'बरषा'। उ०—वात बरष अपने तन सहैं। काहू सौं क्छु दुख नहिं कहैं।—नंद० ग्रं०, पृ० ३००। २. साल। वर्ष। बरस। उ०—बरष चारि दस विपिन बसि करि पितु बचन प्रमान।—मानस, २। ५३।

बरषना पु †
क्रि० अ० [हिं० वरष(=वर्षा)+ ना(प्रत्य०)] दे० 'बरसना'।

बरषा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्षा] १. पानी बरसना। वृष्टि। उ०— का बरषा जव कृषी सुखाने। समय चूकि पुनि का पछ- ताने।—तुलसी (शब्द०)। २. वर्षाकाल। बरसात।

बरषाना पु †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बरसाना'।

बरषासन पु †
संज्ञा पुं० [सं० वर्षाशन] एक वर्ष की भोजन- सामग्री। उतना अनाज आदि जितना एक मनुष्य अथवा एक परिवार एक वर्ष में खा सके। उ०—गुरु सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे।— मानस, २। ८०।

बरस
संज्ञा पुं० [सं० वर्ष] बारह महीनों अथवा ३६५ दिनों का समूह। वर्ष। साल। जैसे,—(क) दो बरस हुए, बहुत बाढ़ आई थी। (ख) अभी तो वह चार बरस का बच्चा है। विशेष—दे० 'वर्ष'। यौ०—बरसगाँठ। मुहा०—बरस दिनका दिन = ऐसा दिन (त्योहार या पर्व आदि) जो साल भर में एक ही बार आता हो। बड़ा तिहवार।

वरसगाँठ
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरस + गाँठ] वह दिन जिसमें किसी का जन्म हुआ हो। वह दिन जिसमें किसी की आयु का एक वरस पूरा हुआ हो। जन्मदिन। सालगिरह। उ०—कुछ न मिला हमको बरसगाँठ से। एक बरस और गया गाँठ से।—(शब्द०)।विशेष—प्रागरे आदि की तरफ घर में एक तागा रहता है। जिसके नाम का यह तागा होता है उसके एक एक जन्म दिन पर इस तागे में एक एक गाँठ देते जाते हैं। इसी से जन्म- दिन को बरसगाँठ कहते हैं। प्राचीन समय में भी ऐसी ही प्रथा थी।

बरसना
क्रि० अ० [सं० वर्षण] आकाश से जल की बूँदों का निरंतर गिरना। वर्षा का जल गिरना। मेह पड़ना। २. वर्षा के जल की तरह ऊपर से गिरना। जैसे, फूल बरसना। ३. बहुत अधिक मान, सख्या या मात्रा में चारों ओर से आकर गिरना, पहुँचना या प्राप्त होना। जैसे, रुपया बरसना। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—बरस पड़ना = बहुत अधिक क्रुद्ध होकर डाँटने, डपटने लगना। बहुत कुछ बुरी भली बातें कहने लगना। ४. बहुत अच्छी तरह झलकना। खूब प्रकट होना। जैसे,— उनके चेहरे से शरारत बरसती है। शोभा बरसना। ५. दाएँ हुए गल्ले का इस प्रकार हवा में उड़ाया जाना जिसमें दाना अलग और भूसा अलग हो जाय। ओसाया जाना। डाली होना।

बरसनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] बरसने की क्रिया या भाव।

बरसाइत पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वट + सावित्री] जेठ बदी अमावस जिस दिन स्त्रियाँ वटसावित्रो का पूजन करती हैं। उ०—बर साइति है मिलन की, बरसाइत है लेखि। पूजन बर साइत भली, बरसाइत चलि देखि।—स० सप्तक, पृ० ३६२।

बरसाइन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरस + आइन (प्रत्य०)] प्रति वर्ष बच्चा देनेवाली गाय। वह गो जो हर साल बच्चा दे।

बरसाऊ †
वि० [हिं० बरसना + आऊ (प्रत्य०)] बरसनेवाला। वर्षा करनेवाला। (बादल आदि)।

बरसात
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्षा, हिं० बरसना + आत (प्रत्य०)] पानी बरसने के दिन। सावन भादों के दिन जब खूब वर्षा होती है। वर्षाकाल। वर्षाऋतु।

बरसाती (१)
वि० [सं० वर्षा] बपसात का। बरसात संबंधी। जैसे, बरसाती पानी। बरसाती मेढक।

बरसाती (२)
संज्ञा पुं० [सं० वर्षा, हिं० बरसात + ई (प्रत्य०)] १. घोड़ों का स्थायी रोग जो प्रायः बरसात में होता है। २. एक प्रकार का आँख के नीचे का घाव जो प्रायः बरसात में होता है। ३. पैर में होनेवाली एक प्रकार की फुंसियाँ जो बरसात में होती हैं। ४. चरस पक्षी। चीनी गोर। तन मोर। ५. एक प्रकार का मोमजामे या रबर आदि का बना हुआ ढीला कपड़ा जिसे पहन लेने से शरीर नहीं भीगता। ६. सबसे ऊपर का खुला हवादार कमरा। ७. मकान के आगे का वह छतदार हिस्सा जहाँ गाड़ी (बग्घी, कार आदि) रोकी जाती है।

बरसान (१)
क्रि० स० [हिं० बरसना का प्रे० रूप] १. आकाश से जल की बूँदे निरंतर गिराना। वर्षा करना। वृष्टि करना। २. वर्षा के जल की तरह लगातार बहुत सा गिराना। जैसे, फूल बरसाना। ३. बहुत अधिक संख्या या मात्रा में चारों ओर से प्राप्त करना। ४. दाएँ हुए अनाज को इस प्रकार हवा में गिराना जिससे दाने अलग और भूसा अलग हो जाए। ओसाना। डाली देना। संयो० क्रि०—देना।—डालना।

बरसाना (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] मथुरा जिले का एक गाँव जो राधिका जी का जन्मस्थान माना जाता है

बरसायत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बर + अ० सायत] शुभ घड़ी। शुभ मुहूर्त। उ०—संमत पंद्रा से बीस प्रमाना। मास जेठ बरसायत जाना।—कबीर सा०, पृ० ९३४।

बरसायत (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बरसाइत'।

बरसाला †
वि० [हिं० बरसालू] बरसनेवाला। उ०—समहर तीराँ पूर सचालौ, बरसे फिर मातौ बरसालौ।—रा० रू०, पृ० २५३।

बरसालू
वि० [सं० वर्पा + आलुच् (प्रत्य०)] वर्षणशील। बरसनेवाला। उ०—अति अंबु कोपि कुँवर ऊफणियो बरसालू बाहला बारि।—बेलि०, दू० ३४।

बरसावना † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरसाना' (२)।

बरसावना (२)
क्रि० सं० दे० 'बरसाना' (१)।

बरसिंघा (१)
संज्ञा [पुं० बर + हिं० सींग] वह बैल जिसका एक सींग खड़ा और दूसरा नीचे की ओक झुका हो। मैना।

बरसिंघा (२) ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बारहसिंगा'।

बरसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरस + ई (प्रत्य०)] वह श्रादध जो किसी मृतक के उद्देश्य से उसके मरने की तिथि के ठीक एक बरस बाद होता है। मृतक के उद्देश्य से किया जानेवाला प्रथम वार्षिक श्राद्ध।

बरसीला
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० बरसीली] बरसनेवाला। उ०— लाड़ लड़ीली रस बरसीली लसीली हँसीली सनेह सगमगी।—घनानंद, पृ० ४४७।

बरसू
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष।

बरसोदिया †
संज्ञा पुं० [हिं० बरस + ओदिया (प्रत्य०)] पूरे साल भर के लिये रखा हुआ नौकर। वह नौकर जो साल भर के लिये रखा जाय।

बरसौड़ी, बरसौंढ़ी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरस + औड़ी वा औढ़ी (प्रत्य०)] वार्षिक कर। प्रति वर्ष लिया जानेवाला कर।

बरसौंदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बसौधी'। उ०—जे बरसौंदी खात, ते सब विप्र बुलाइयो।—नंद० ग्र०, पृ० ३३४।

बरसौंहा †
वि० [हि० बरसना + औहाँ (प्रत्य०)] बरसनेवाला। उ०—तिय तरसौंहै मुनि किए करि सरसौंहै नेह। घर परसौहैं ह्वै रहे झर बरसौंहै मेह।—बिहारी (शब्द०)।

बरहंटा
संज्ञा पुं० [सं० भण्टाकी] बड़ी कटाई। कड़वा भंटा। पर्या०—वार्ताकी। वृहती। महती। सिंहिका। राष्ट्रिका। स्थूल- कंटा। क्षुद्रभंटा।

बरह
संज्ञा पुं० [सं० वर्ह] १. वृक्ष आदि का पत्ता। २. पंख। पक्ष। उ०—बरहि बरह धरि अमित कलन करि नचत अहीरन सगी बहुरंगी लाल त्रिभंगी।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० २७३।

बरहन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बड़हन'।

बरहना
वि० [फा० वरनह्] [सज्ञा बरहनगी] जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। नंगा। नग्न। उ०—कोई साफ बरहना फिरता है न पगड़ी है न जामा है।—राम० धर्म०, पृ० ९२। यौ०—बरहनागो = सष्टवक्ता। बरहनापा = नंगे पाव। बरह- नासर = नंगे सर।

बरहम
वि० [फा० बरहम] १. जिसे गुस्सा आ गया हो। क्रुद्ध। २. उत्तेजित। भड़का हुआ। ३. तितर बितर। उलट पलट। उ०—यही है अदना सी इक अदा से जिन्होंने बरहम है की खुदाई।—भारतेंदु ग्रं०, २, पृ० ८५७।

बरहमन
संज्ञा पुं० [फा० तुल० सं० ब्राह्मण] पंडित। ब्राह्मण। उ०—क्या शेख व क्या बरहमन जब आशिकी में आवे। तसबी करे फरामोश जन्नार भूल जावे।—कविता० कौ०, भा० ४, पृ० १५।

बरहा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बहा या बाहा] [स्त्री० अल्पा० बरही] १. खेतों में सिंचाई के लिये बनी हुई छोटी नाली। उ०—तरह तरह के पक्षी कलोल कर रहे थे, बरहों में चारों तरफ जल बह रहा था।—रणधीर (शब्द०)। २. नाला। उ०—बरहे हरे भरे सर जित तित। हित फुहार की झमक रहति नित।—घनानंद, पृ० २८८।

बरहा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] मोटा रस्सा।

बरहा (३)
संज्ञा पुं० [सं० बर्हिं] मयूर। उ०—(क) तहँ बरहा निरतत बचन मुख दुति अलि चकोर बिहंग। बलि भार सहित गोपाल झूलत राधिका अरधंग।—सूर (शब्द०)। (ख) उहाँ बरहा जनु उप्परि केल। किने नब दीठ हिया छवि मेल।—पृ० रा०, २५। २३४।

बरही (१)
संज्ञा पुं० [सं० वहि] १. मयूर। मोर। उ०—लता लचत बरही नचत रचत सरस रसरंग। घन बरसत दरसत दृगन सरसत हियै अनंग।—स० ससक, पृ० ३९०। २. साही नाम का जंगली जंतु। उ०—पुनि शत सर छाती महँ दीन्हें। बीसहु भुज बरही सम कीन्हें।—विश्राम (शब्द०)। ३. अग्नि। आग। (डिं०)। ४. मुरगा। ५. द्रुम। वृक्ष।— अनेकार्थ०, पृ० १४३। ६. अग्नि।—अनेकाथ०, पृ० १४३।

बरही (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बारह + ई (प्रत्य०)] १. प्रसूता का वह स्नान तथा अन्यान्य क्रियाएँ जो संतान उत्पन्न होने के बारहवें दिन होती हैं। २. संतान उत्पन्न होने के दिन से बारहवाँ दिन।

बरही (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. पत्थर आदि भारी बोझ उठाने का मोटा रस्सा। २. जलाने की लकड़ी का भारी बोझा। ईधन का बोझा। उ०—(क) शक्ति भक्त सों बोलि दिनहि प्रति बरही डारैं।—नाभा जी (शब्द०)। (ख) नित उठ नौवा नाव चढ़त है बरही बेरा बारि उही।—कबीर (शब्द०)।

बरहीपोड़ पु †
संज्ञा पुं० [सं० वर्हिपीड] मोर के परों का बना हुआ मुकुट। मोरमुकुट। उ०—वेणु बजाय बिलास कियो बन धौरी धेनु बुलावत। बरहीपीड़ दाम गुंजामणि अद् भुत वेष बनावत।—सूर (शब्द०)।

बरहीमुख पु †
संज्ञा पुं० [सं० बर्हिमुख] देवता।

बरहौं
संज्ञा पुं० [हिं० बरही] संतान उत्पन्न होने के दिन से बारहवाँ दिन। बरही। इसी दिन नामकरण होता है। विशेष—दे० 'बरही'। उ०—चारों भाइन नामकरन हित बरहौं साज सजायो।—रघुराज (शब्द०)।

बरांडल
संज्ञा पुं० [देश०] १. जहाज के उन रस्सों में केई रस्सा जो मस्तूल की सीधा खड़ा रखने के लिये उसके चारों ओर, ऊपरी सिरे से लेकर नीचे जहाज के भिन्न भिन्न भागों तक बाँधे जाते हैं। बारांडा। बरांडाल। २. जहाज में इसी प्रकार के और कामों में आनेवाला कोई रस्सा। (लश०)।

बरांडा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० बरामदा'। २ दे० 'बरांडल'।

बरांडाल
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बरांडल'।

बरांडी
संज्ञा स्त्री० [अं० ब्रैंडी] एक प्रकार की बिलायती शराब। ब्रांडी। उ०—शंपेन और बरांडी की मात करनेवाली किन्नरी सुरा यहाँ मौजूद है।—किन्नर०, पृ० ३७।

बरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० बटी] उड़द की पीसी हुई दाल का बना हुआ, टिकिया के आकार का एक प्रकार का पक्वान्न जो घी या तेल में पकाकर यों ही या दही, इमली के पानी में डालकर खाया जाता है। बड़ा। उ०—(क) बरी बरा बेसन बहु भाँतिन व्यंजन बिविध अनगनियाँ। डारत खात लेत अपने कर रुचि मानत दधि दनियाँ।—सूर (शब्द०)। (ख) सो दारि भिजोइ धोइ पीसि के वाके बरा करति हती।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १७३।

बरा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० बट] बरगद का पेड़।

बरा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] भुजदंड पर पहनने का एक आभूषण। बहुँटा। टाँड़। उ०—बाँह उसारि सुधारि बरा बर बीर छरा धरि ढूकति आवै।—घनानंद, पृ० २१२।

बराई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हड़ा + ई या आई (प्रत्य०)] दे० 'बड़ाई'। उ०—सरधा भगति की बराई भले साधि परै बाधि ये सुदृष्टि बिसवास सम तूल है।—प्रियादास (शब्द०)।

बराई (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का गन्ना।

बराक (१)
संज्ञा पुं० [सं० वराक] १. शिव। २. युद्ध। लड़ाई।

बराक (२)
वि० १. शोचनीय। सोच करने के योग्य। २. नीच। अधम। पापी। दुखिया। ३. बपुरा। बेचारा। उ०—सोहै जहँ बृषभान तहँ को है इंद्र बराक।—अनेकार्थ०, पृ० १२।

बराक पु (३)
क्रि० वि० [हिं० बार + एक] थोड़ा। नाममात्र। किंचित्। मनाक्। उ०—सुंदर जो सतसंग मैं बैठे आइ बराक। सीतलऔर सुंगध ह्वै चंदन की ढिंग ढाक।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७४१।

बराट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वराटिका] कौड़ी। कपदिका। उ०—भयो करतार बड़े कूर को कृपालु पायो नाम प्रेम पारस हौं लालची बराट को।—तुलसी (शब्द०)।

बराट (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बरारी] एक प्रकार की रागिनी जिसके गाने का समय दिन में २५ से २८ दंड तक है। हनुमत के मत से यह भैरव राग की रागिनी मानी गई है।

बराटक
संज्ञा पु० [सं० वराटक] कौड़ी। उ०—कृपण बराटक पावियाँ, नाटक करै निलज्ज।—बाँकी ग्रं०, भा० २, पृ० ३२।

बराड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरार (देश)] बरार और खानदेश की रूई।

बराढ़
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरार] दे० 'बरार'।

बरात
संज्ञा स्त्री० [सं० वरयात्रा] १. विवाह के समय वर के साथ कन्यापक्षवालों के यहाँ जानेवाले लोगों का समूह, जिसमें शोभा के लिये बाजे, हाथी, घोड़े, ऊँट या फुलवारी आदि भी रहती है। बरपक्ष के लोग, जो विवाह के समय वर के साथ कन्यावालों के यहाँ जाते हैं। जनेत। क्रि० प्र०—आना।—जाना।—निकलना।—सजना।—सजाना। २. कहीं एक साथ जानेवालों का बहुत से लोगों का समूह। ३. उन लोगों का समूह जो मुरदे के साथ श्मशान तक जाते हैं (क्व०)।

बराती
संज्ञा पुं० [हिं० बरात + ई (प्रत्य०)] बरात में वर के साथ कन्या के घर तक जानेवाला। विवाह में वरपक्ष की ओर से संमिलित होनेवाला। २. शव के साथ श्मशान तक जानेवाला (क्व०)।

बरानकोट
संज्ञा पुं० [अ० ब्राउनकोट] १. वह बड़ा कोट या लबादा जो लाड़े या बरसात में सिपाही लोग अपनी वर्दी के ऊपर पहनते हैं। २. दे० 'ओवरकोट'।

बराना (१)
क्रि० अ० [सं० वारण] १. प्रसंग पड़ने पर भी कोई बात न कहना। मतलब की बात छोड़कर और और बातें करना। बचाना। उ०—बैठी सखीन की सोभै सभा सबै के जु नैनन माँझ बसै। बूझै ते बात बराइ कहै मन ही मन कैशवराइ कहै।—केशव (शब्द०)। २. बहुत सी वस्तुओं या बातों में से किसी एक वस्तु या बात को किसी कारण छोड़ देना। जान बूझकर अलग करना। बचाना। उ०—साँवरे कुँवर के चरन के चिह्न बराइ बधू पग धरति कहा धौं जिय जानि कै।—तुलसी (शब्द०)। ३. रक्षा करना। हिफाजत करना। बचाना। उ०—हम सब भाँति करब सेवकाई। खेतों में से चूहों आदि को भगाना।

बराना (२)
क्रि० स० [सं० वरण] बहुत सी चीजों में से अपने इच्छानुसार कुछ चीजें चुनना। देख देखकर अलग करना। छाँटना। उ०—(क) आसिष आयसु पाइ कपि सीय चरन सिर नाइ। तुलसी रावन बाग फल खात बराइ बराइ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ८७। (ख) यादव बीर बराई इक हलधर इक आपै ओर।—सूर (शब्द०)।

बराना (३) †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बालना'। (जलाना)। उ०— देबो गुण लियो नीके जल सों पछारि करि करी दिव्य बाती दई दिये में बराइ कै।—प्रियादास (शब्द०)।

बराना (४)
क्रि० अ० [सं० वारि] १. सिंचाई का पानी एक नाली से दूसरी नाली में ले जाना। २. खेतों में पानी देना।

बराबर (१)
वि० [फा० बर ?] १. मान, मात्रा, संख्या, गुण, महत्व, मूल्य, आदि के विचार से समान्। किसी के मुकाबिले में उससे न कम न अधिक। तुल्य। एक सा। जैसे,—(क) चौड़ाई में दोनों कपड़े बराबर हैं। (ख) सिर के सब बाल बराबर कर दो। (ग) एक रुपया चार चवन्नियों के बराबर है। (घ) इसकै चार बराबर हिस्से कर दो। २. समान पद या मर्यादावाला। जैसे,—(क) यहाँ सब आदमी बराबर हैं। (ख) तुम्हारे बराबर झूठा ढूँढ़ने से न मिलेगा। मुहा०—बराबर का = (१) बराबरी करनेवाला। समान। जैसे,—बराबर का लड़का है, उसे मार भी तो नहीं सकते। (२) सामने या बगल का। बराबर छूटना=/?/हार जीत के निर्णय कै कुश्ती या बाजी समाप्त होना। बराबर से निकलना = समीप से समान भाव से आगे बढ़ना। ३. जिसकी सतह उँची नीची न हो। जो खुरखुरा न हो। समतल। मुहा०—बराबर करना = समाप्त कर वेना। अंत कर देना। न रहने देना। जैसे,—उन्होंने दो ही चार बरस में अपने बड़ों की सब कमाई बराबर कर दा। ४. जैसा चाहिए वैसा। ठीक।

बराबर (२)
क्रि० वि० १. लगातार। निरंतर। बिना रुके हुए। जैसे, बराबर आगे बढ़ते जाना। २. एक ही पंक्ति में। एक साथ। जैसे, सब सिपाही बराबर चलते हैं। ३. साथ। (क्व०)। जैसे,—हमारे बराबर रहना। ४. सदा। हमेशा। जैसे,—आप तो बराबर यही कहा करते हैं। यौ०—बराबर बराबर =(१) पास पास। साथ साथ। (२) आधा आधा। समान समान।

बराबरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बराबर + ई (प्रत्य०)] १. बराबर होने की क्रिया या भाव। समानता। तुल्यता। २. सादृश्य। ३. मुकाबिला। सामना।

बरामद (१)
वि० [फा०] १. जो बाहर निकला हुआ हो। बाहर आया हुआ। सामने आया हुआ। २. खोई हुई, चोरी गई हुई या न मिलती हुई वस्तु जो कहीं से निकाली जाय। जैसे, चोरी का माल बरामद करना। क्रि० प्र०—करना।—होना।

बरामद (१)
संज्ञा स्त्री० १. वह जमीन जो नदी के हट जाने से निकल आई हो। दियारा। गंगबरार। २. निकासी। आमदनी।उ०—बड़ो तुम्हार बरामद हूँ को लिखि कीनो है साफ।— सूर (शब्द०)।

बरामदगी
संज्ञा स्त्री० [फा०] बरामद होना। प्राप्ति। मिलना।

बरामदा
संज्ञा पुं० [फा० बरामदह्] १. मकानों में छाया हुआ वह तंग और लंबा भाग जो मकान की सीमा के कुछ बाहर निकला रहता है और जो खंभो, रेलिंग या घुड़िया आदि के आधार पर ठहरा हुआ होता है। बारजा। छज्जा। २. मकान के आगे का वह स्थान जो ऊपर से छाया या पटा हो पर सामने या तीनों ओर खुला हो। दालान। ओसारा।

बरामीटर
संज्ञा पुं० [अं० बैरीमीटर] दे० 'बैरोमीटर'।

बराम्हण, बराम्हन †
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण] दे० 'ब्राह्मण'। उ०—आए भाट बराम्हन लवन धराइन हो।—कबीर०, श०, भा० ४, पृ० २।

बराय (१)
अव्य० [फा०] वास्ते। लिये। निमित्त। जैसे, बराय खुराक, बराय माम।

बराय पु (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'बढ़ाई'। स०—तुका मिलना तो भला मन सूँ मन मिल लाय। ऊपर ऊपर माठी घसनि उनकी कोन बराय।—दक्खिनी०, पृ० १०९।

बरायन
संज्ञा पुं० [सं० वर + आयन (प्रत्य०)] वह लोहे का छल्ला लो ब्याह के समय दूल्हे के हाथ मे पहनाया जाता है। इसमें रत्नों के स्थान में गुंजा लगे रहते हैं। उ०—बिहँसत आव लोहारिनि हाथ बरायन हो।—तुलसी (शब्द०)। २. विवाह के अवसर पर मंडप, में स्थापित कलश।

बरार (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का जंगली जानवर। २. वह चंदा जो गाँवों में घर पीछे लिया जाता है। ३. मध्य- प्रदेश का एक भाग जो अब महाराष्ट्र का अंग है।

बरार (२)
वि० [फा०] [संज्ञा बरारी] पूर्ण करनैवाला। २. लाने अथवा ले जानेवाला। (समासांत में)।

बरारक
संज्ञा पुं० [देश०] हीरा। (डिं०)।

बरारा पु †
वि० [देश०; या हिं० बड़ा + रा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० बरारी] बड़ा। जबरदस्त। महान्। उ०—(क) खट तीसूँ बंस तणा खितधारी विग्रह रूप बरारा है।—रघु० रू०, पृ० २७७। (ख) आस पास अमराय बरारी। जहँ लग फूल तिती फुलवारी।—नंद० ग्रं०, पृ० ११९।

बरारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो दोपहर के समय गाई जाती है। कोई कोई इसे भैरव राग की रागिनी मानते हैं।

बरारीश्याम
संज्ञा स्त्री० [सं०] संपूर्ण जाति की एक संकर राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।

बराव
संज्ञा पुं० [हिं० बराना + आव(प्रत्य०)] बराना का भाव। बचाव। परहेज। निवारण। उ०—मानहुँ विवि खंजन लरैं शुक करत बराव।—विश्राम० (शब्द०)।

बरास (१)
संज्ञा पुं० [सं० पोतास?] एक प्रकार का कपूर जो भीमसेनी कपूर भी कहलाता है। विशेष—दे० 'कपूर'।

बरास (२)
संज्ञा पुं० [अं० ब्रेस] जहाज में पाल की वह रस्सी जिसकी सहायता से पाल को घुमाते हैं

बराह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बराह'। उ०—सेसनाग और राजा बासुक बराह मुछित होइ आई।—कबीर० श०, भा० २, पृ० १२।

बराह (२)
क्रि० वि० [फा०] १. के तौर पर। जैसे, बराह मेहर- बानी। २. जरिए से। द्वारा।

बराही
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घटिया ऊन।

बरिअर †
वि० [हिं० बरियार] दे० 'बरियार'। उ०—गवहि मत्रि बाद खिन आवा। मति बरिअर भो गरब निवावा।— चित्रा०, पृ० १३९।

बरिअरा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बरियार (१)'।

बरिआई (१)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बरियाई'।

बरिआई (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'बरियाई (२)'।

बरिआत †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरात'। उ०—बिधु बरिआती धीर समीर।—विद्यापति, पृ० १६५।

बरिआर †
वि० [हिं०] [वि० स्त्री०] बरिआरि दे० 'बरियार'। उ०—(क) यह सोहिल बरिआर जों हतों होत भिनुसार।— चित्रा०, पृ० १४९। (ख) अस बरिआरि नारि विधि कीन्हा। पुरुषन्ह जाइ सरन जिन लीन्हा।—चित्रा०, पृ० १४२।

बरिच्छा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरच्छा'।

बरिबड पु
वि० [सं० वलवन्त] बरबंड। बली। दुर्धंर्ष। उ०— (क) क्रोध उपजाय भृगुनंद बरिबंड को।—केशव (शब्द०)। (ख) विधि विरुद्ध कछु सूझ परत नहिं कहा करे बरिबड हुमाऊँ।—अकबरी०, पृ० ६०।

बरिया पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेरा] समय। अवसर। काल। दे० 'बेरिया'। उ०—(क) दादू नीकी बरिया आय करि, राम जपि लीन्हा। आतम साधन सोधि करि कारिज भल कीन्हा।—दादू०, पृ० ४१। (ख) करि लै सुकृत यहाबरिया न आवै फेरि।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ४१६।

बरिया पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्ली, वल्लरी] लता। बेलि। उ०—फूलन बरिया फूल है फैली अंग न समाय।—ब्रज० ग्र०, पृ० ५६।

बरिया † (३)
संज्ञा पुं० [हिं० बारी] दे० 'बारी'। उ०—नौवा भूले बरिया भूले, भूले पंडित ज्ञानी।—कबीर० श०, भा० २, पृ० १०७।

बरिया पु † (४)
वि० [सं० वलिन्] बलवान्। ताकतवर। उ०— तुलसिदास को प्रभु कोसलपति सब प्रकार बरियो।—तुलसी (शब्द०)।

बरिया (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० बटिका] बटी। बरी।

बरियाई † (१)
क्रि० वि० [सं० बलात्] हठात्। जबरदस्ती से। उ०—मंत्रिन पुर देखा बिनु साई। मो कहँ दीन राज वरियाई।—तुलसी (शब्द०)।

बरियाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरियार] १. बलवान् होने का भाव। बलशालिता। ताकतवरी। २. बलप्रयोग। जबरदस्ती।

बरियार †
वि० [हिं० बल + आर (प्रत्य०)] बली। बलवान्। मजबूत। उ०—कीन्हेसि कोई निभरोसी, किन्हेसि कोइ बरियार।—जायसी ग्रं०, पृ० २।

बरियारा
संज्ञा पुं० [सं० वला] एक छोटा झाड़दार छतनारा पौधा जो हाथ सवा हाथ ऊँचा होता है। विशेष—इसकी पत्तियाँ तुलसी की सी पर कुछ बड़ी और खुलते रंग की होती हैं। इसमें पीले पीले फूल लगते हैं जिनके झड़ जाने पर कोदो के से बीज पड़ते हैं। वैद्यक में बरियारा कडुवा, मधुर, पित्तातिसारनाशक, बलवीर्य- वर्धक, पुष्टिकारक और कफरोधविशोधक माना जाता है। इसके पौधे की छाल से बहुत अच्छा रेशा निकलता है जो अनेक कामों में आ सकता है। इस पौधे को खिरेटी, बीजबंध और बनमेथी भी कहते है। पर्या०—वाक्यपुष्पी। समांशा। विल्ला। वलिनी। वला। ओदनी। समंगा। भद्रा। खरककाष्टिका। कल्याणिनी। भद्रवला। मोटापाटी। बलाढया। शीतपाकी। वाक्यवाटी। निलया। वाटिका। खरयष्टिका। ओदनाह् वा। वातध्नी। कनका। रत्ततंदुला। क्रूरा। प्रहासा। वारिगा। फणि- जिह्विका। जयंती। कठोरयष्टिका।

बरियाल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पतला बाँस। बाँसी।

बरिल †
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा, बरा] पकौड़ी या बड़ै की तरह का एक एकवान। उ०—बने अनेक अन्न पकवाना। बरिल इडरहर स्वादु महाना।—रघुराज (शब्द०)।

बरिल्ला
संज्ञा पुं० [देश०] सज्जीखार।

बरिवंड पु
वि० [सं० बलवत्, हिं० बलवंत] १. बलवान्। बली। २. प्रचंड। प्रतापी।

बरिशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बडिश। बंसी [को०]।

बरिषना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बरसना'।

बरिषा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्षा] दे० 'वर्षा'। उ०—ये श्यामघन तू दामिनि प्रेमपुंज बरिषा रस पीजै।—हरिदास (शब्द०)।

बरिष्ठ
वि० [सं० वरिष्ठ] दे० 'वरिष्ठ'।

बरिस †
संज्ञा पुं० [सं० वर्ष] वर्ष। साल। उ०—(क) पाँच बरिस महँ भई सो बारी। दीन्ह पुरान पढ़इ बइसारी।— जायसी (शब्द०)।(ख) तापस वेष विशेष उदासी। चौदह बरिस राम बनवासी।—तुलसी (शब्द०)।

बरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वटी, प्रा० बड़ी] गोल टिकिया। बटी। २. उर्द या मूँग की पीठी के सुखाए हुए छोटे छोटे गोल टुकड़े जिनमें पेठे या आलू के कतरे भी पड़ते हैं। ये घी में तलकर पकाए जाते हैं। उ०—पापर, बरी अचार परम शुचि। अदरख औ निबुवन ह्वै है रुचि।—सूर (शब्द०)। ३. वह मेवा या मिठाई जो दूल्हे की ओर से दुलहिन के यहाँ जाती है।

बरी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरना (=जलना)] एक प्रकार का कंकड़ जो फूके जाने के बाद चूने की जगह काम में आता है। कंकड़ का चूना।

बरी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास या कदन्न जिसके दानों को बाजरे में मिलाकर राजपूताने की ओर गरीब लोग खाते हैं।

बरी (४)
वि० [फा०] १. मुक्त। छूटा हुआ। बचा हुआ। जैसे, इलजाम से बरी। २. खाली। फारिग (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।—हो जाना।उ०—बरी हो जाने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही थी।—ज्ञान०, पृ० ५।

बरी ‡ (५)
वि० [सं० बली] दे० 'बली'। उ०—धरम नियाउ चलइ सत भाखा। दूबर बरी एक सम राखा।—जायसी (शब्द०)।

बरीक
वि० [हिं० बारीक] पतला। सूक्ष्म। उ०—जहाँ राम तइँ मैं नहीं, मैं तइँ नाहीं राम। दादू महल बरीक है, दुइ के नाहीं ठाम।—संतबानी, भा० १, पृ० ९५।

बरीवर्द
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बलीवदं'।

बरीस ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वर्ष'। उ०—(क) जानि लखन सम देहिं असीसा। जियहु सुखी सय लाख वरीसा।— तुलसी (शब्द०)। (ख) नंद महर के लाड़िले तुम जीओ कोति बरीस।—सूर (शब्द०)।

बरीसना पु
क्रि० अ० [हिं० बरसना] दे० 'बरअना'। उ०— (क) सघन मेघ होइ साम वरीसहिं।—जायसी (शब्द०)। (ख) समय गेले मेघे बरीघब, कीदई ले जलधार।— विद्यापति, पृ० १२०।

बरीसानु पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरसाना'। ड०—बरीसासु गिरि गाइऐ, परम पुनीत सुथान।—घनानंद, पृ० २४१।

बरु पु (१)
अव्य [सं० वर (=श्रेष्ठ, भला)] भले ही। ऐसा हो जाय तो हो जाय। चाहे। कुछ हर्ज नहीं। कुछ परवा नहीं। उ०—(क) सूरदास बरु उपहास सहोई सुर मेरे नंद सुवन मिलैं तो पै कहा चाहिए।—सूर (शब्द०)। (ख) बरु तीर मारहु लषनु पे जब लगि न पाय पखारिहौं।—मानस, २। १००।

बरु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वर'। उ०—लिख लाई सिय को बरु ऐसो। राजकुमारहि देखिय ऐसो।—केशव (शब्द०)।

बरुआ †
संज्ञा पुं० [सं० बटुक, प्रा० बडुअ] १. बटु। ब्रह्मचारी। जिसका यज्ञोपवीत हो गया हो पर जो गृहस्थ न हुआ हो। २. ब्राह्मणकुमार। ३. उपनयन संस्कार। जनेऊ का संस्कार।

बरुआ
संज्ञा पुं० [हिं० बरना] मूँज के छिलके की बनी हुई बद्धी जिससे डालियाँ बनाई जाती हैं।

बरुक †
अव्य० [हिं० बरु + क(प्रत्य०)] दे० 'बरु'। उ०—(क)निज प्रतिबिंब बरुक गहि जाई।—मानस २। ४७। (ख) नहिं नैमित्तिक बरुक नित्य की बात बतावत।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १२।

बरुन पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० वरुण] दे० 'वरुण'। उ०—बरुन कहत कवि नीर कहँ, बरुन स्याम को नाम।—अनेकार्थ०, पृ० १४३।

बरुना (१)
संज्ञा पुं० [सं० वरुण] एक सीधा सुंदर पेड़ जिसकी पत्तियाँ साल में एक बार झड़ती हैं। बन्ना। बलासी। विशेष—कुसुम काल में यह पेड़ फूलों से लद जाता है। फूल सफेद और सुगंधित होते हैं। इसकी लकड़ी चिकनी और मजबूत होता है जिसे खरादकर अच्छी अच्छी चीजें बनती हैं। ढोल, कंघियाँ और लिखने की पट्टियाँ इस लक़ड़ी की अच्छी बनती हैं। बरुना भारतवर्ष के सभी प्रंतों में होता है और बरसात में बीजों से उगता है। इसे बन्ना और बलासी भी कहते हैं।

बरुना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वरुणा] दे० 'वरुणा' (नदी)।

बरुना पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बरुनी'। उ०—धनुक सर्मा है भिर्कुठी, बरुना चोखी बान।—इंद्रा०, पृ० १८।

बरुनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वरण (=ढकना)] पलक के किनारे पर के बाल। बरौनी। उ०—(क) अंजन बरुनी पनच कै लोचन बान चलाय।—(शब्द०)। (ख) बरुनी बघंबर में गूदरी पलक दोऊ, कोए राते बसन भगौहें भेष रखियाँ।—देव (शब्द०)।

बरुला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरुला'।

बरुवा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरुआ'।

बरुहा पु
संज्ञा पुं० [सं० बर्ह] मोरपंख। यौ०—वरुहाचंद = मोरपंखों दा चाँद। स०—बीच बीच बरुहाचंद फूलनि के सेहरा माई।—छीत०, पृ० ३६।

बरूँज
संज्ञा पुं० [देश०] देवदार की जाति का एक एक पेड़। उ०—याद है क्या, ओट में बखँज की प्रथम बार।—इत्यलम् पृ० १८७।

बरूथ
संज्ञा पुं० [सं० वरूथ] दे० 'वरूथ'। उ०—चहुँ दिसि बरूथ बनाइ। तिन राम घेरे जाइ।—मानस, ६।

बरूथी
संज्ञा स्त्री० [सं० वरूथ] एक नदी जो सई और गोमती के बीच में है। उ०—बहुरि बरूथी सरित लखि उतरि गोमती आसु। निरख्यो साल बिशाल बन विविध विहंग बिलासु।— रघुराज (शब्द०)।

बरूद
संज्ञा पुं० [का० बारूद] दे० 'बारूद'। उ०—भरत तोस दानन कोउ, सिंगरा भरत बरूदहिं।—प्रेमघन०, भा० १. पृ० २४।

बरेँड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० वरण्डक (=गोला, गोल लकड़ी)] १. लकड़ी का वह मोटा गोल लट्ठा जो खपरैल या छाजन की लंबाई के बल एक पाखे से दूसरे पाखे तक रहता है। इसी के आधार पर छप्पर या छाजन का टट्टर रहता है। २. छाजन गा खपरैल के बीचोबीच का सबसे ऊँचा भाग। उ०—यह उपदेश सेंत ना भाए जो चढ़ि कहौ बरेंड़े।—सूर (शब्द०)।

बरेंड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बरेंड़ा'। उ०—छानि बरेंड़ि ओ पाट पछीति मयारि कहा किहि काम के कोरे।—अकबरी०, पृ० ३५४।

बरे पु † (१)
क्रि० वि० [सं० वल, हिं० बर] १. जोर से। बल- पूर्वक। २. जबरदस्ती से। ३. ऊँची आवाज से। ऊँचे स्वर से। उ०—बोलि उठौंगी बरे तेरो नाँव जो बाट में लालन ऐसी करोगे।—(शब्द०)।

बरे (२)
अव्य० [सं० वत्त (=पलटा), हिं० बद, बदे] १. पलटे में। २. निमित्त। वास्ते। लिये। खातिर। उ०— हाजिर मैं हौं हुजूर में राबरे सेवा बरे सहितै लघु भाई।—रघुराज (शब्द०)।

बरेखी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँह + रखना] स्त्रियों की भुजा पर पहनने का एक गहना।

बरेखी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बर + देखना, बरदेखी] विवाह संबंध के लिये वर या कन्या देखना। विवाह की ठहरौनी। उ०— धरघाल चालक कलह प्रिय कहियत परम परमारथी। तैसी बरेखी कीन्हि पुनि मुनि सात स्वारथ सारथी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) लोग कहैं पोच सो न सोच न सँकोच मेरे ब्याह न बरेखी जाति पाँति न चहत हौं।—तुलसी (शब्द०)।

बरेज, बरेजा
संज्ञा पुं० [सं० वाटिका, प्रा० बाड़िअ] पान का बगीचा। पान का भीटा।

बरेठ † बरेठा
संज्ञा पुं० [देश०] रजक। धोबी।

बरेत (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरेता'।

बरेत (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] मंथनरज्जु। मथनी की रस्सी।

बरेता
संज्ञा पुं० [हिं० बरना, बरना + एत (प्रत्य०)] सन का मोटा रस्सा। नार।

बरेदी †
संज्ञा पुं० [देश०] चरवाहा। ढोर चरानेवाला।

बरेब †
संज्ञा पुं० [सं० वाटिका, वाडिआ] दे० 'बरेज'।

बरेपी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बरेखी'। उ०—जौ तुम्हरे हठ हृदय विसेषी। रहि न जाप विनु किए बरेषी।—तुलसी (शब्द०)।

बरैंड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरेंड़ा'।

बरो (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० वार, बाल] आल की जड़ का पतला रेशा। (रँगरेज)।

बरो (२)
सज्ञा पुं० [देश०] एक घास जिससे बागों को हानि पहुँचती है।

बरो ‡ (३)
वि० [हिं०] दे० 'बड़ा'।

बरोक (१)
संज्ञा पु० [हिं० वर + रोक] वह द्रव्य जो कन्या पक्ष सेबर पक्ष को यह सूचित करने के लिये दिया जाता है कि संबंध की बातचीत पक्की हो गई। इसकी द्वारा वर रोका रहता है। अर्थात् उससे और किसी कन्या के साथ विवाह की बातचीत नहीं हो सकती। बरच्छा। फलदान। उ०—(क) राजा कहै गरब से अहौं इंद्र सिवलोक। सो सरवरि हैं मोरे कासे करउँ बरोक।—जायसी ग्रं०, पृ० २०। (ख) भा बरोक तब तिलक सँवारा।—जायसी ग्रं०, पृ० ११९।

बरोक (२)
संज्ञा पुं० [सं० बलौक] सेना। फौज।

बरोक (३)
क्रि० वि० [सं० बलौक] बलपूर्वक। जबरदस्ती। उ०— धावन तहाँ पठावहु देहिं लाख दस रोक। होइ सो बेली जेहि बारी आनहिं सबहि बरोक।—जायसी (शब्द०)।

बरोठा
संज्ञा पुं० [सं० द्वार + कोष्ठ, हिं० बार + कोठा] १. ड्योदी। पौ/?/। उ०—चढे पयोधर कों चितै जात कितै मति खोइ। छन मैं घन रस बरसिहै रहौ बरोठे सोइ—स० सप्तक, पृ० २८४। २. बैठक। दीवानखाना। मुहा०—बरोठे का चार = द्वारपुजा। द्वारचार।

बरोधा †
संज्ञा पुं० [देश०] वह खेत या भूमि जिसमें पिछली फसल कपास की रही हो।

बरोबर ‡
वि० [हिं०] दे० 'बराबर'।

बरोरु, बरोरू पु
वि० [सं० वरोरु] दे० 'वरोरु'। उ०—जानसि मार सुमाउ बरोरू।—मानस, २। २६।

बरोह
संज्ञा स्त्री० [सं० बट, हिं० वर + रोह (=उगनेवाला)] बरगव के पेड़ के ऊपर की डालियों में टँगी हुई सूत या रस्सी के रूप की वह शाखा जो क्रमशः नीचे की ओर बढ़ती हुई जमीन पर जाकर जड़ पकड़ लेती है। बरगद की जटा।

बरौंछी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बार + ओँछना] सूअर के बालों की बनी हुई कूँची जिससे सुनार गहना साफ करते हैं।

बरौखा †
संज्ञा पुं० [हिं० बड़ा > बड़ + ऊख] एक प्रकार का गन्ना जो बहुत ऊँचा या लंबा होता है। बड़ौखा।

बरौठा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरोठा'।

बरौनी † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बरुनी'। उ०—आँसू बरौनियों तक आए, नीचे न किंतु गिरने पाए।—साकेत, पृ० १५९।

बरौनी † (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] चौका बर्तन साफ करनेवाली मज दूरनी। उ०—थोड़ी देर में बरौनी चौका साफ करने आई।—शुक्ल अभि० ग्रं० (जी०), पृ० ७।

बरौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बड़ी, बरी] बड़ी या बरी नाम का पकवान। उ०—बढ़ी सँवारी और फुलौरी। औ खँड़वाना लाय वरौरी।—जायसी (शब्द०)।

बर्कदाज
संज्ञा पुं० [फा० बर्कन्दाज] दे० 'बरकंदाज'। उ०— अधिकारियों ने सरकारी बर्कदाजों और तहसील के चपरा- सियों को बड़े बड़े प्रलोभन देकर काम करने के लिये तैयार किया।—रंगभूमि, भा० १, पृ० ८२६। — 1 —

बर्क (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० बर्क] बिजली। विद्युत्।

बर्क (२)
वि० १. तेज। जालाक। २. चट उपस्थित होनेवाला। पूर्ण रूप से अभ्यस्त।

बर्कत
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बरकत'।

बकँर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बकरा। २. कोई भी पशु। ३. बधिर व्यक्ति। बहरा। ४. क्रीड़ा। परिहास [को०]।

बर्की
वि० [फा० बर्क + ई (प्रत्य०)] विद्युत् संबंधौ। बिजली का [को०]।

बर्खास्त
वि० [हिं०] दे० 'बरखास्त'।

बर्ग
संज्ञा पुं० [फा०] १. युद्धास्त्र। २. दल। पत्ता (को०)।

बर्छा
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० अल्पा० बर्छी] दे० 'बरछा'।

बज पु
वि० [सं० वर्य] दे० 'वर्य'। उ०—रामकथा मुनियर्ज बखानी। सुनी महेश परम सुख मानी।—तुलसी (शब्द०)।

बर्जना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बरजना'।

बर्णन
संज्ञा पुं० [सं० वर्णन] दे० 'वर्णन'।

बर्णना (१) पु
क्रि० स० [हिं० वर्णन] वर्णन करना। बयान करना।

बर्णना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्णना] दे० 'वर्णना'।

बर्त ‡ (१)
संज्ञा पुं० [सं० व्रत] दे० 'व्रत'।

बर्त पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बरेत] दे० 'बरेता'। उ०—मुक्ति पंथ की ओर मँसूबे सूँ चला। तैसे बर्त पै जाय जो नठ भूला कला।—चरण० बानी पृ० ९५।

बर्तन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरतन'।

बर्तना
क्रि० सं० [सं० वर्तन (=बृत्ति, व्यवहार)] १. आचरण करना। व्यवहार करना। जैसे, मित्रता बर्तना। २. व्यव- हार में लाना। काम में लाना। इस्तेमाल करना। जैसे,— यह बरतन नया है। किसी ने इसे बर्ता नहीं है। उ०—इनसे प्रजा को रात दिन बतंना पड़ता है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २८२।

बर्ताव
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बरताव'।

बर्द
संज्ञा पुं० [सं० बलद] बैल। बृष।

बर्दाश्त
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बरदाश्त'।

बर्न पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्ण] दे० 'वर्ण'। यौ०—बर्नाश्रम = दे० 'वर्णाश्रम'। उ०—बनाश्रम में निष्ट इष्ट रत सिष्ट अदूषित।—श्यामा० (भू०) पृ० ४।

बर्नना पु
क्रि० स० [हिं०] वर्णन करना।

बर्नर
संज्ञा पुं० [अं०] लैप का यह अंश जिसमें बत्ती लगी रहती है और आवश्यकतानुसार कमवेशी की जा सकती है।

बर्फ
संज्ञा स्त्री० [फा० बर्फ] १. हवा में मिली हुई भाप के अत्यंत सूक्ष्म अणुओं की तह जो वातावरण की ठंढक के कारण आकाश में बनती और भारी होने के कारण जमीन पर गिरती है। पाला। हिम। तुषार।विशेष—गिरते समय यह प्रायः रुई की तरह मुलायम होती है और जमीन पर गिरकर अधिक ठंढक के कारण जम जाती है। जमने से पहले यदि चाहें तो इसे एकत्र करके ठोस गोले आदि के रूप में भी बना सकते हैं। जमने पर इसका रंग बिलकुल सफेद हो जाता है। ऊँचे पहाड़ों आदि पर प्रायः सरदी के दिनों में यह अघिकता से गिरती है और जमीन पर इसकी छोटी मीटी तहे जम जाती हैं जिन्हें पीछे से फावड़े आदि से खोदकर हटाना पड़ता है। क्रि० प्र०—गलना।—गिरना।—पड़ना। २. बहुत अधिक ठंढक के कारण जमा हुआ पानी जो ठोस और पारदर्शी होता है और जी आघात पहुँचने पर टुकड़े टुकड़े हो जाता है। विशेष—जिस समय जल में तापमान की ४ अंश की गरमी रह जाती है तब वह जमने लगता है और ज्यों ज्यों जमता जाता है त्यों त्यों फैलकर कुछ अधिक स्थान घेरने लगता है, यहाँ तक कि जब वह बिल्कुल जम जाता है और उसमें तापमान O (शून्य) अंश जाता तब उसके आकार में प्रायः १/११ वे अश की वृदि्ध हो जाती है। जबतक उसका ताप- मान घटकर ४ डिग्री तक नहीं पहुँच जाता तबतक तो वह सिमटता और नीचे बैठता है पर जब उसका तापमान ४ डिग्री से भी कम होने लगता है तब वह फैलकर हलका होने लगता है और अंत में आस पास के पानी पर तैरने लगता है। साधारणत; जल में तैरती हुई बफ का ९/१० वाँ भाग पानी के भीतर और १/१० भाग पानी के ऊपर होता है। प्रायः जाड़ी के दिनों में अथवा और किसी प्रकार सरदी बढ़ने के कारण समुद्र आदि का बहुत सा जल प्राकृतिक रूप से जमकर बर्फ बन जाता है। क्रि० प्र०—गलना।—जमना। मुहा०—बर्फ होना=बहुत ठंढा होना। जैसे,—मरने से एक घटे पहले उनका सारा शरीर बर्फ हो गया। ३. मशानों आदि की सहायता अथवा और कृत्रिम उपायों से ठढक पहुँचाकर जमाया हुआ पानी जो साधारणतः बाजारों में बिकता है और जिससे गर्मी के दिनों में पीने के लिये जल आदि ठंढा करते है। क्रि० प्र०—गलना।—गलाना।—जमना।—जमाना। ५. दे० 'ओला'।

बर्फ (२)
वि० १. अत्यत शीतल। बरफ की तरह ठंढा। २. बर्फ की तरह श्वेत। एक दम सफेद।

बर्फानी
वि० [फा० बर्फानी] बर्फ भरी। अत्यंत शीतल। उ०— मालूम होता था जैसे शीतकाल की बर्फानी हवा ने मेरे भीतर घर कर लिया हो।—संन्यासी, पृ० २९०।

बर्फिस्तान
संज्ञा पुं० [फा० बर्फ + स्तान; तुल० सं० स्थान] वह स्थान जहाँ बर्फ हो। बर्फ का मैदान या पहाड़।

बर्फी
संज्ञा स्त्री० [फा० बर्फ + ई] एक मिठाई जो चाशनी के साथ जमे हुए खोए आदि के कतरे काट काटकर बनाई जाती है। यौ०—करनसाही बर्फी=एक मिठाई जो बेसन की तली हुई बुँदिया शीरे में डालकर जमा देने से बनती है।

बर्फी (२)
वि० [फा० बर्फ + हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'बरफानी'। उ०—मानों बर्फी समुंदर के ऊपर घोड़ों के सदृश दीड़ रहे हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १२।

बर्फीला
वि० [फा० बफ + हिं० ईला (प्रत्य०)] बर्फ से भरा हुआ। बर्फ ये युक्त। बर्फ का। उ०—राजपूताने में पहले बर्फीले पहाड़ थे।—प्रा० भा० प०, पृ० ३।

बर्बट
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० बर्बटी] एक प्रकार का अन्न। राजमाष [को०]।

बर्बटा, बर्बटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या। गणिका। वारस्त्री। २. राजमाष। †३. बोड़ा [को०]।

बर्बणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीले वर्ण की एक मक्खी [को०]

बर्बर (१)
वि० [सं०] १. भ्रष्ट उच्चारण किया हुआ। हकलाता हुआ। २. घूँघरदार। बल खाया हुआ। (बाल)।

बर्बर (२)
संज्ञा पुं० १. घुँघराले बाल। २. अनार्य। वर्णाश्रम बिहीन असभ्य मनुष्य। जंगली आदमी। ३. एक पौधा। ४. एक कीड़ा। ५. एक प्रकार की मछली। ६. एक प्रकार का नृत्य। ७. अस्त्रों की झनकांर। हथियारों की आवाज। ८. पीतचंदन।

बर्बर
वि० १. जंगली। असभ्य। २. अशिष्ट। उद्दंड। उ०—परम बर्बर खर्ब गर्व पर्वत चढ़ो अज्ञ सर्वज्ञ जनमानि जनावै।—तुलसी (शब्द०)।

बर्बरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बर्बरी। बनतुलसी। २. एक प्रकार की मक्खी। ३. एक नदी का नाम।

बर्बरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बनतुलसी। २. इंगुर। ३. पीतचंदन।

बर्बरीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. घुँघराले बाल। २. पीत चंदन। ३. भीम के पुत्र घटोत्कच का बेटा। विशेष—इसकी माता का नाम कामकटंकटा था। अप्रमेय बलशाली बर्बरीक को कुछ ऐसी सिद्धियाँ प्राप्त थीं जिनके बल से पलक झपते महाभारत के युद्ध में भाग लेनेवाले समग्र वीरों को वह मार सकता था। जब यह युद्ध में सहायता देने आया तब इसकी शक्ति का परिचय प्राप्त कर कृष्ण ने अपनी कूटनीति से इसे रणचंडी को बलि चढ़ा दिया। महाभारत युद्ध की समाप्ति तक युद्ध देखने की इसकी कामना कृष्ण के बरदान से पूर्ण हुई और इसका कटा सिर अंत तक युद्ध देखता और वीरगर्जन करता रहा।

बर्बुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वृक्ष। २. जल [को०]।

बर्म्म पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्म] दे० 'वर्म'। उ०—अंग बर्म्म चर्म्म सुकीन। सिर टोप ओप सुदीन।—ह० रासो, पृ० १२३।

बरचाइ पु †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बरियाई'। उ०—वंशीवट की गैल मैं हों सखि गई भुलाइ। तब बरयाइ जदुराज नै दीन्हीं राह बताइ।—स० सप्तक, पृ० ३७८।

बरयाना पु
क्रि० स० [हिं०] 'बराना'। उ०—बूझत वात बरचाइ कहै मन ही मन केसवराइ हँसै।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १८।

बर्र
संज्ञा पुं० [सं० वरट] बर्रे। भिड़।

बर्रा
संज्ञा पुं० [हिं० बरना] रस्से की खिंचाई जो कुआर सुदी चौदस (बाँटा चौदस) को गाँवों में होती है। जो लोग रस्सा खीच ले जाते हैं यह समझा जाता है कि वे साल भर कृतकार्य होंगे।

बर्राक
वि० [अ०] १. चमकीला। जगमगाता हुआ। २. तेज। वेगवान्। ३. तीव्र। ४. चतुर। चालाक। होशियार। ५. बहुत उजला। धवला। सफेद। ६. खूब मश्क किया हुआ। पूर्ण रूप से अभ्यस्त। जैसे, सबक बर्राक कर डालना।

बर्राना
क्रि० अ० [अनुध्व० बर बर] व्यर्थ बोलना। फिजूल बकना। प्रलाप करना। २. नींद या बेहोशी में बकना। स्वप्न की अवस्था में बोलना।

बर्रै (१)
संज्ञा पुं० [सं० बरट] भिड़ नाम का कीड़ा। ततैया। तितैया। उ०—बर्रै बालक एक सुभाऊ।—तुलसी (शब्द०)।

बर्रै † (२)
संज्ञा पुं० एक काँटेदार क्षुप जिसके पुष्प केसर के रंग के और लाल पीले श्बेत होते हैं। इसके बीज का तेल बनता है। यह एक कदन्न है।

बर्रो
संज्ञा पुं० [देश०] एक चिड़िया का नाम।

बर्रोही
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरोह] दे० 'बरोह'। उ०—कोउ बर्रोही खूनि खानि कै बरत पलीते।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ५।

बर्स पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्ष] भूखंड। देश। उ०—जब लगि रहि तुव बर्स मँह मम आयस कव बत्त।—प० रासो०, पृ० २०।

बर्सात
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बरसात'।

बर्ह
संज्ञा पुं० [सं०] मयूरपिच्छ। दे० 'वर्ह'।

बर्हण (१)
वि० [सं०] मजबूत। शक्तिशाली [को०]।

बर्हण (२)
संज्ञा पुं० पत्र। पत्ता [को०]।

बर्हि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. कुश। कुशा [को०]।

बर्ही
संज्ञा पुं० [सं० बर्हिन्] १. मयूर। मोर। २. एक प्रकार का गंध [को०]।

बलंद
वि० [फा०] [संज्ञा बलंदी] ऊँचा। उ०—क्रम क्रम जाति कहूँ पुनि गंगा। करति अपार करारन भंगा। मंद मंद कहुँ चलत स्वछंदा। नीच होति कहुँ होति बलंदा।—रघुराज (शब्द०)।

बलंधरा
संज्ञा स्त्री० [सं० बलन्धरा] महाभारत के अनुसार भीमसेन की एक स्त्री का नाम।

बलंबी
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़। विशेष—यह वृक्ष भारत के अनेक भागों में पाया जाता है। इसके फल खट्टे होते हैं और अचार के काम में आते हैं। फलों के रस से लोहे पर के दाग भी साफ किए जाते हैं। इसकी लकड़ी से खेती के औजार भी बनाए जाते हैं।

बलइया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बलैया'। उ०—संत की सकल बलइया लेवैं। संत कूँ अपनो सर्वस देवै।—चरण० बानी० पृ० ३१०।

बल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शक्ति। सामर्थ्य। ताकत। जोर। बूता। पर्या०—पराक्रम। शक्ति। वीर्य। मुहा०—बलभरना=बल दिखाना। जोर दिखाना। जोर करना। बल की लेना=इतराना। घमंड करना। २. भार उठाने की शक्ति। सँभार। सह। ३. आश्रय। सहारा। जैसे, हाथ के बल, सिर के बल, इत्यादि। ४. आसरा। भरोसा। बिर्ता। उ०—(क) जो अंतहु अस करतब रहेऊ। माँगु माँगु तुम्ह केहि बल कहेऊ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बल पाई।—तुलसी (शब्द०)। ५. सेना। फौज। ६. बलदेव। बलराम। ७. एक राक्षस का नाम। ८. बरुण नामक वृक्ष। ९. सत्य (को०)। १०. काम (को०)। ११. पुरुष तेज। शुक्र (को०)। १२. ओषधि (को०)। १३. मोटाई। स्थूलता (को०)। १४. रक्त (को०)। १५. काक, कौआ (को०)। १६. हाथ (को०)। १७. पार्श्व। पहलू। जैसे, दहने बल, बाएँ बल।

बल (२)
संज्ञा पुं० [सं० बलि (=झुर्री मरोड़) अयवा वलय] ऐंठन। मरोड़। वह चक्कर या घुमाव जो किसी लचीली या नरम वस्तु को बढ़ाने या घुमाने से बीच बीच में पड़ जाय। पेच। क्रि० प्र०—पड़ना।—होना। मुहा०—बल खाना=ऐंठ जाना। पेच खाना। बटने या घुमाने से घुमावदार हो जाना। बल देना= (१) ऐंठना। मरोड़ना। (२) बटना। २. फेरा। लपेट। जैसे,—कई बल बाँधोगे तब यह न छूटेगा। ३. लहरदार घुमाव। गोलापन लिए वह टेढ़ापन जो कुछ दूर तक चला गया हो। पेच। क्रि० प्र०—पड़ना। मुहा०—बल खाना=घुमाव के साथ टेढ़ा होना। कुंचित होना। उ०—कंधे पर सुंदरता के साथ बनाई गई काल साँपनी ऐसी बल खाती हिलती मन मोहनेवाली चोटी थी।—अयोध्या सिंह (शब्द०)। ४. टेढ़ापन। कज। खम। जैसे,—इस छड़ी में जो बल है वह हम निकाल देंगे। मुहा०—बल निकालना=टेढ़ापन दूर करना। ५. सुकड़न। शिकन। गुलझट। क्रि० प्र०—पड़ना। ६. लचक। झुकाव। सीधा न रहकर बीच से झुकने की मु्द्रा। मुहा०—बल खाना=लचकना। झुकना। उ०—(क) पतलीकमर बल खाती जाति (गीत)। (ख) बल खात दिग्गज कोल कूरम शेष सिरग हालति मही।—विश्राम (शब्द०)। ७. कज। कसर। कमी। अंतर। फर्क। जैसे,—(क) पाँच रुपए का बंल पड़ता है नहीं तो इतने में मैं आपके हाथ वेच देता। (ख) इसमें उसमें बहुत बल हैं। मुहा०—बल खाना=घाटा सहना। हानि सहना। खर्च करना। जैसे,—बिना कुछ बल खाए यहाँ काम न होगा। बल पड़ना=(१) अंतर होना। फर्क रहना। (२) कमी वा घाटा होना। ८. अधपके जौ की बाल।

बल पु (३)
अव्य [हिं०] तरफ। ओर। उ०—साँवला। सोहन मोहन गमरू इत बल आइ गया।—घनानंद, पृ० ४४।

बल † (४)
संज्ञा पुं० [हिं०] 'बाल' शब्द का समासगत रूप। जैसे, बलटुट और बलतोड़।

बलकंद
संज्ञा पुं० [सं० बलकन्द] माला कंद।

बलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वप्न जो अर्धरात्रि के बाद हो। २. दूध और सीरे का मिश्रण [को०]।

बलकट (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बाल + काटना] पौधे की बाल को बिना काटे तोड़ लेना।

बलकट (२)
वि० [?] पेशगी। अगाऊ। अगौढ़ी।

बलकटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बल (=जौ की बाल) + कट] मुसल- मानी राज्य काल की एक प्रकार की किस्त जो फसल कटने के समय बसूल की जाती थी।

बलकना
क्रि० अ० [सं० वल्गन (=बढ़कर बोलना)] १. उबलना। उफान खाना। खोलना। २. उमड़ना। उमगना। उमंग या आवेश में होना। जोश में होना। उ०—(क) प्रेम पिए बर बारुणी बलकत बल न सँभार। पग डग मग जित तित धरति मुकुलित अलक लिलार।—सूर (शब्द०)। (ख) बलकि बलकि वोलति बचन ललकि ललकि लपटाति। बिहारी (शब्द०)। ३. बकना झकना। बढ़कर बोलना। उ०—कहत है और करत है औरे बलकत फिरत अनेरा।— भीखा० श०, पृ० ४।

बलकनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बलकना] बलकनै की स्थिति या भाव। मौज। उफान। लहर। तरंग। उ०—नीकी पलकनि पीक लीक झलकनि सोहै, रस बलकनि उनमदि न कहूँ रुके।—घनानंद, पृ० ११।

बलकर (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० बलकरी] बल देनेवाला। बलजनक।

बलकर (२)
संज्ञा पुं० हड्डी।

बलकल पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० वल्कल] दे० 'वल्कल'। उ०— उरझयो काहू रूख में कहूँ न बलकल चीर।—शकुंतला, पृ० ३७।

बलकाना †
क्रि० स० [हिं० बलकना] १. उबालना। खौलाना। २. उभारना। उमगाना। उत्तेजित करना। उ०—जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जसु न नसावा।—तुलसी (शब्द०)।

बलकारक
वि० [सं०] दे० 'वलकर'।

बलकारी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बलकर'।

बलकारी पु (२)
वि० [सं० बल + कारिन्] बली। बलवान्। बल करनेवाला। उ०—सत सामंत सूर बलकारी। तिन सम जुद्ध सु देव विचारी।—पृ० रा०, २५। ७७।

बलकाय
संज्ञा पुं० [सं०] सेना। फौज [को०]।

बलकुआ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस। विशेष—यह चालीस पचास हाथ लंबा और दस बारह अंगुल मोटा होता है। इसकी गाँठें लंबी होती हैं जिनपर गोल छल्ला पड़ा रहता है। यह बहुत मजबूत होता है और पाइट बाँधने के काम के लिये बहुत अच्छा होता है। इसे भलुआ, बड़ा बाँस, सिल बरुआ आदि भी कहते हैं। यह पूर्वीय भारत में होता है।

बलकौँहाँ †
वि० [हिं० बलकना] उन्माद या आनंदयुक्त। उल्लास युक्त। उ०—नैन छलकौंहें बर बैन बलकौहें औ कपोल फलकौहैं झलकौहैं भए अंग है।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १४१।

बलक्ष (१)
वि० [सं०] धवल। श्वेत [को०]। यौ०—बलक्षगु =श्वेत किरणवाला—चंद्रमा।

बलक्ष (२)
संज्ञा पुं० श्वेत वर्ण [को०]।

बलगना पु
क्रि० अ० [सं० वल्गन] दे० 'बलकना'। उ०—बलगत बचन बीर मुख भावे।—हम्मीर०, पृ० ३०।

बलगम
संज्ञा पुं० [अ० बलगम] [वि० बलगमी] श्लेष्मा। कफ।

बलगर †
वि० [हिं० बल + गर] १. बलवान्। बली। २. दृढ़। मजबूत।

बलचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. राज्य। साम्राज्य। २. राज्यशासन। ३. सेना (को०)।

बलज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० बलजा] १. अन्न की राशि। २. शस्य। फसल। ३. नगर का द्वार। ४. द्वार। ५. खेत। ६. युद्ध।

बलज (२)
वि० १. बल देनेवाला। २. बलोत्पन्न।

बलजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। २. एक प्रकार की जुही। ३. रस्सी। ४. सुंदर स्त्री (को०)।

बलटुट, बलतोड़
संज्ञा पुं० [हिं० बाल + टूटना] दे० 'बरटुट', 'बरतोड'।

बलदंड
संज्ञा पुं० [सं० बलदण्ड] कसरत करने के लिये लकड़ी का बना हुआ एक ढाँचा जिसमें एक काठ के दोनों ओर कमान की तरह लकड़ियाँ लगी हीती हैं। इसे गट्ठेदंड भी कहते हैं।

बलद (१)
वि० [सं०] बलदायक [को०]।

बलद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैल। उ०—प्रचरिज बात ईम सयलअसेस, बलद ते मानजे हलि बहइ गाय।—वी० रासो, पृ० ७९। २. जीवक नामक वृक्ष। ३. गृहाग्नि का एक भेद जिससे पौष्टिक कर्म किया जाता है।

बलदर्प
संज्ञा पुं० [सं०] शक्ति या बल का गर्व [को०]।

बलदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वगंधा।

बलदाऊ
संज्ञा पुं० [सं० बलदेव वा बल + हिं० दाऊ] बलदेव। बलराम। उ०—(क) गए नगर देखन को मोहन बलदाऊ के साथ। पुर कुलवधू झरोखन झाँकत निरखि निरखि मुसकात—सूर (शब्द०)। (ख) लै हर मूसर ऊसर ह्वै कहू आयो तहाँ बनि कै बलदाऊ।—पद्माकर (शब्द०)।

बलदिया
संज्ञा पुं० [सं० बलद (=बैल) + हिं० इया (प्रत्य०)] वह कर जो गौओ, भैसों, आदि को चराने के बदले में दिया या लिया जाय। चराई।

बलदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बलद (=बैल)] बैलों का झुंड या समूह। बरदी।

बलदेव
संज्ञा पु० [सं०] १. कृष्णचंद्र के भाई जो रोहिणी के पुत्र थे। बलदाऊ। बलराम। २. वायु। हवा (को०)।

बलद्विट्
संज्ञा पुं० [सं० बलद्विष] बल दानव के शत्रु इंद्र [को०]।

बलधिया पु †
संज्ञा पुं० [सं० बलद] बलीवर्द। बैल। उ०— कबिरा पाँच बलधिया, ऊजर ऊजर जाहिं। बलिहारी वा दास की पकरि जो राखै बाहिं।—कबीर सा० स०, पृ० २२।

बलन
संज्ञा पुं० [सं०] बलवर्धन की क्रिया। शक्ति अजंन करना [को०]।

बलना
क्रि० अ० [सं० बर्हण वा ज्वलन] जलना। लपट फेंककर जलना। दहकना।

बलनिषूदन
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र [को०]।

बलनेह
संज्ञा पुं० [हिं० बल + नेह] एक संकर राग जो रामकली, श्याम, पूर्वी, सुंदरी, गुणकली और गाँधार से मिलकर बना है।

बलपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. सेनानायक (को०)।

बलपांडुर
संज्ञा पुं० [सं० बलपाण्डुर] कुंद का पौधा।

बलपुच्छक
संज्ञा पुं० [सं०] कौआ।

बलपृष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] रोहू मछली।

बलप्रमथनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम [को०]।

बलप्रसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] बलराम की माता। रोहिणी [को०]।

बलबलाना
क्रि० अ० [अनुध्व०] १. ऊँट का बोलना। २. व्यर्थ बकवाद। ३. निरर्थक शब्द उच्चारण करना।

बलबलाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बलवलाना] १. ऊँट की बोली। २. व्यर्थ बकवाद। ३. उमंग। ४. अहंकार। घमंड।

बलबीज
संज्ञा पुं० [सं० बला + बीज] कंधी नाम के पौधे का बीज।

बलबीर पु
संज्ञा पुं० [हिं० बल (=बलराम) + बीर (=भाई)] बलराम के भाई कृष्ण। उ०—(क) छठ छ रागिनी गाय रिझावत अति नागर बलबीर। खेलत फाग संग गोपिन के गोपबृंद की भीर।—सूर (शब्द०)। (ख) ए री बल- बीर के अगीरन की भीरन में सिमिटि समीरन अबीर की अटा भयो।—पद्माकर (शब्द०)।

बलबूता
संज्ञा पुं० [सं० बल + विक्त] शक्ति। सामर्थ्य। ताकत। उ०—सम्राट् अपने ही बलबूते पर यह दुस्साहस कर बैठे।— वै० न०, पृ० २९५।

बलभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक विषैला कीड़ा।

बलभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. बलदेव जी का एक नाम। २. लोध का पेड़। ३. नील गाय। ४. भागवत के अनुसार एक पर्वत का नाम। ५. बलशाली पुरुष (को०)। ६. एक प्रकार का बैल (को०)। ७. अनंत का एक नाम (को०)।

बलभद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुमारी। २. त्रायमाण नाम की लता। ३. नील गाय। ४. जंगली गाय।

बलभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र [को०]।

बलभी
संज्ञा स्त्री० [सं० वलभि] वह कोठरी जो मकान के सबसे ऊपरवाली छत पर बनी हो। ऊपर का खंड। चौबारी। उ०—कंचन कलित नग लालन वलित सौध, द्वारिका ललित जाकी दिपित अपार है। ता ऊपर बलभी, बिचित्र अति ऊँची, जासो निपटे नजीक सुरपति को अगार है।—दास (शब्द०)।

बलभृत्
वि० [सं०] बली। ताकतवर [को०]।

बलम
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ] प्रियतम। पति। नायक। उ०— ताकि रहत छिन और तिय, लेत और को नाउँ। ए अलि ऐसे बलम की बिबिध भाति बलि जाउँ।—पद्माकर (शब्द०)।

बलमा †
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ] दे० 'बलम'।

बलमीक पु
संज्ञा पुं० [सं० वल्मीक] दे० 'बाँबी'।

बलमुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] सेना का प्रधान। सेनापति [को०]।

बलय पु
संज्ञा पुं० [सं० वलय] दे० 'वलय'। उ०—जनु इह बलय ना़ड़िका लहै। जियति हौ किधौं भरि गई अहै।—नंद ग्रं०, पृ० १५०।

बलया पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वलय] कंगन। वलय। उ०—सरकी सारी सीस नें सुनतहिं आगम नाह। तरकी बलया कंचुकी दरकी फरकी बाह।—स० सप्तक, पृ० २४८।

बलय्या
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बलैया' उ०—जी करता है तुझे चूम लूँ, ले लूँ मधुर बलय्या।—हिल्लोल, पृ० १०१।

बलराइ पु
संज्ञा पुं० [सं० बलराम] कृष्ण के अग्रज। बलराम। उ०—ताल रस के पान ते अति मत्त भे बलराइ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २५७।

बलराम
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णचंद्र के भाई जो रोहिणी से उत्पन्न हुए थे। विशेष—कृष्ण के साथ ये गोकुल में रहे और उनके साथ ही मथुरा में आए। ये स्वभाव के बड़े उद्दंड थे और मद्य पियाकरते थे। इनका अस्त्र हल और मूसल था। सून पौराणिक की धृष्टता पर क्रुद्ध होकर इन्होने उन्हें मार डाला था।

बलल
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. बलराम [को०]।

बलवंड पु
वि० [सं० बलवन्त] बली। पराक्रमवाला। उ०— आगर इक लोह जटित लीनों बलवंड दुहूँ करनि असुर हयो भयो मांस पिंड।—सूर (शब्द०)।

बलवंत
वि० [सं० बलवन्त] बलवान्। बली। उ०—प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ज्ञानी।—मानस ७। ६२।

बलवत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शक्तिसंपन्नता। उत्कृष्टता। श्रेष्ठता [को०]।

बलवर्जित
वि० [सं०] कमजोर। दुर्बल। बलरहित [को०]।

बलवर्द्धक
वि० [सं०] बल बढ़ानेवाला [को०]।

बलवर्द्धी
वि० [सं० बलवर्द्धीन्] [स्त्री० बलवर्द्धिनी] दे० 'बल- वद् र्धक'।

बलवा
संज्ञा पुं० [फा० बलवह्] १. दंगा। हुल्लड़। खलबली विप्लव। २. बगावत। विद्रोह। क्रि० प्र०—मचाना।—करना।—होना।

बलवाई
संज्ञा पुं० [फा० बलवा + ई (प्रत्य०)] १. बलवा करनेवाला। विद्रोही। बागी। २. उपद्रवी। फसादी।

बलवान्
वि० [सं० बलवत्] [स्त्री० बलवती] १. बलिष्ठ। मजबूत। ताकतवर। जिसके शरीर में बल हो। २. सामर्थ्य- वान्। शक्तिमान। ३. दृढ़। मजबूत। ४. घना। गहरा। जैसे, अंधकार (को०)। ५. अधिक महत्व का। अधिक वजन का (को०)। ६. सेनायुक्त (को०)। ७. आठवें मुहूर्त का नाम (ज्यौ०)।

बलवार पु
वि० [हिं० बल + वार (=वाला)] बली। बलवान्।

बलकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम।

बलविन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] सेना का व्यूहाकार संयोजन। सेनाओं का व्यूह विन्यास करना [को०]।

बलवीर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बलबीर'।

बलव्यसन
संज्ञा पुं० [सं०] सेना को हराना या तितर बितर करना।

बलब्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि।

बलशाली
वि० [सं० बलशालिन्] [स्त्री० बलशालिनी] बलवान्। बली।

बलशील
वि० [सं०] बली। शक्तिशाली। शक्तिवाला।

बलसाली पु
वि० [सं० बलशाली] दे० 'बलशाली'। उ०—राम सेन निज पाछे घाली। चले सकोप महा बलशाली।—मानस, ६। ६९।

बलसील पु
वि० [सं० बलशील] उ०—अंगद मपंद नल मील बलसील महाबालधी फिरावै मुख नाना गति लेत हैं।— तुलसी (शव्द०)।

बलसुम
वि० [हिं० बालू + सम] बलुआ। जिसमें बालू हो।

बलसूदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. विष्णु।

बलस्थ (१)
वि० [सं०] ताकतवर। मजबूत [को०]।

बलस्थ (२)
संज्ञा पुं० सिपाही। सैनिक [को०]।

बलहा
संज्ञा पुं० [सं० बलहन्] १. इंद्र। २. बल का, सेना का नाश करनेवाला। ३. श्लेष्मा। कफ।

बलहीन
वि० [सं०] निर्बल। कमजोर। उ०—छुधाछीन बलहीन रिपु सहजेहिं मिलिहहि आइ।—मानस, १। १८१।

बलांगक
संज्ञा पुं० [सं० वलाङ्गक] बसंतकाल। वसंत ऋतु।

बला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बरियारा नामक क्षुप। दे० 'बरियारा'। २. वैद्यक के अनुसार पौधों वी एक जाति का नाम। विशेष—इसके अंतर्गत चार पौधे माने जाते हैं—(क) बला या बरियारा। (२) महाबला या सहदेवी (सहदेइया)। (३) अतिबला या कँगनी और (४) नागवला वा गँगेरन। ये चारों पीवे पौष्टिक माने जाते हैं और इन्हें 'बलाचतुष्टय' भी कहते हैं। इन चारों पौर्धे में 'राजबला' का मिश्रण 'बलापंचक' नाम से अभिहित है। इनके बीज, जड़ आदि का प्रयोग औषध में होता है। ३. मंत्र वा विद्या का नाम जिससे युद्ध के समय योद्धा को भूख और प्यास नहीं लगती। ४. नाट्यशास्त्र के अनुसार नाटकों में छोटी बहन का संबोधन। ५. दक्ष प्रजापति की एक कन्या का नाम। ६. पृथ्वी। ७. लक्ष्मी। ८. जैनियों के ग्रंथानुसार एक देवी जो वर्तमान अवसर्पिणो में सत्रहवें अर्हत के उपदेशों का प्रचार करती है। ९. दे० 'वला'।

बला (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. आपत्ति। आफत। गजब। २. दुःख। कष्ट। ३. भूत। प्रेत। भूत प्रेत की बाधा। ४. रोग। व्याधि। जैसे,—इस बच्चे की सब बला तू ले जा। मुहा०—बला का=गजब का। घोर। अत्यंत। बहुत बढ़ा- चढ़ा। जैसे,—बला का बोलनेवाला है। (किसी की) वला ऐसा करे या करती है=ऐसा नहीं करता है या करेगा। जैसे,—(क) मेरी बला जाय अर्थात् मैं नहीं जाऊँगा। (ख) उसकी बला दुकान पर बंठे अर्थात् वह दुकान पर नहीं बैठता या बैठेगा। (ग) एक बार वह वहाँ हो आया फिर उसकी बला जाती है अर्थात् फिर वह नहीं गया। बला टालना= आपत्तियाँ दूर करना। संकट हटाना। उ०—सब बला टाल देस के सिर की।—चुभते०, पृ० ४४। बला पीछे लगना= (१) तंग करनेवाले आदमी का साथ में होना। (२) बखेड़ा साथ होना। किसी ऐसी बात से संबंध या लगाव हो जाना जिससे तंग होना पड़े। झंझट या आफत का सामना होना। बला पीछे लगाना=(१) बखेड़ा साथ करना। तंग करनेवाले आदमी को साथ में करना। (२) झंझट में डालना। बखेड़े में फँसाना। बला लगाना=परेशनी में डालना। उलझन में फसाना। उ०—परेशाँ हम हुए जुल्फ उनकी उलझी। बला मेरे लगाई अपने सर की।—कविता कौ०,भा० ४, पृ० २९। बला से=कुछ परवा नहीं। कुछ चिंता नहीं।

बलाइ पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बलाय] दे० 'बलाय'। मुहा०—बलाइ लेना=मंगल कामना के साथ प्यार करना। उ०—पोंछन मुख अपुने अंचल सों, पुनि पुनि लेत बलाइ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३४८।

बलाइ पु (२)
वि० [?] बलशाली। बली। खोफनाक। भयंकर। बलाय। उ०—च्यारी सहस मीना प्रवल बैठे आइ बलाइ।— पृ० रा०, ७। ७८।

बलाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बक। बगला। २. एक राजा का नाम जो भागवत के अनुसार पुरु का पुत्र और जहनु का पौत्र था। ३. जातुकर्ण सुनि के एक शिष्य का नाम। ४. एक राक्षस का नाम। ५. शाकपूणि ऋषि के एक शिष्य का नाम।

बलाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बगली। २. कामुकी स्त्री। ३. बगलों की पंक्ति। ४. गति के अनुसार नृत्य का एक भेद। ५. प्रेमिका। प्रिया (को०)।

बलाकारी पु
वि० [हिं०] दे० 'बलकारी'। उ०—कुण बलाकारी गर्वहारी अकलवारी गाजए।—राम० धर्म०, पृ० २८७।

बलाकाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरिवंश के अनुसार एक राजा का नाम जो अजक का पुत्र या। २. जह नु के वंश का एक राजा।

बलाकिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी आकृति के बगलों की एक जाति [को०]।

बलाकी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वलाकिन्] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।

बलाकी (२)
वि० जहाँ बहुत बगले हों। बलाकाओं से परिव्याप्त।

बलागत
संज्ञा स्त्री० [अ० बलागत] आलंकारिक ढंग से बात करने की शैली। उ०—बले अक्ल सूआ में कुछ होर था। हुनर के बलागत में बरजोर था।—दक्खिनी०, पृ० ८०।

बलाग्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेनापति। २. सेना का अगला भाग।

बलाग्र (२)
वि० बलशली। बली।

बलाठ
संज्ञा पुं० [सं० वलाट] मूँग।

बलाढ़य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] माष। उड़द। उरद।

बलाढ्य (२)
वि० [सं०] बलवान। बलशाली। बलाग्र।

बलात्
क्रि० वि० [सं०] १. बलपूर्वक। जबरदस्ती। बल से। २. हठात्। हठ से।

बलात्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी की इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक कोई काम करना। जबरदस्ती कोई काम करना। २. अत्याचार। अन्याय। ३. किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध संभोग करना। ४. दे० 'बलात्कार दायन' (को०)।

बलात्कार दायन
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृति कि अनुसार ऋणी को मार पीटकर रुपया चुकता कराना।

बलात्काराभिगम
संज्ञा पुं० [सं०] बलात् किसी स्त्री के सतीत्व का नाश करना। जिनाबिल्जब्र।

बंलात्कारित
वि० [सं०] जिससे बलात्कार से कुछ कराया जाय। जिसपर बलात्कार करके कोई काम कराया जाय।

बलात्कृत
वि० [सं०] जिसके साथ बलात्कार किया गया हो।

बलात्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथीसूँड़ (हस्तिशुंडी) नाम का पौधा।

बलाधिक
वि० [सं०] जो बल में अधिक हो। अधिक शक्तिवाला [को०]।

बलाधिकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सैनिक काररवाई। २. सेना का प्रधान कार्यालय।

बलाधिकृत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसके अधिकार में सेना हो। सेनापति। उ०—बलाधिकृत पर्णदत्त की आज्ञा हुई कि महाराजपुत्र गोविंद गुप्त को, जिस तरह हो, खोज निकाली।—स्कंद०, पृ० ३८।

बलाधिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] शक्तिसंपन्नता। बल या सेनार की अधिकता [को०]।

बलाधिक्ष पु
संज्ञा पुं० [सं० बलाध्यक्ष] दे० 'बलाध्यक्ष'। उ०— वलाधिक्ष चिंतामनि राइय। दिय निसान भूपति सुख पाइय। प० रासो, पृ० २०।

बलाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सेनापति। सेनानायक।

बलाना पु †
क्रि० स० [हिं०] बुलाना। उ०—कुँवर बलावे बाहुड़्या, राजमति मूकलावी सुभाई।—बी० रासो, पृ० २७।

बलानुज
संज्ञा पुं० [सं०] बलराम के छोटे भाई। कृष्ण [को०]।

बलान्वित
वि० [सं०] बलाढ्य। पराक्रमी [को०]।

बलापंचक
संज्ञा पुं० [सं० बलापञ्चक] बला, अतिबला नागबला, महाबला और राजबला नामकी पाँच ओषधियों के समुदाय का नाम। विशेष—दे० 'बला'।

बलाबंध पु ‡
संज्ञा पुं० [देश०] अरावली। आड़वला नामक पर्वतमाला —उ०—कहै मतिराम, सब राजत अनूप गुन, राव भावसिंह बलाबंध सुलतान के।—मति० ग्रं०, पृ० ३७१।

बलाबल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बल और अबल। २. महत्व और हीनता। उत्कृष्टता और लघुता (तुलनात्मक रूप से किन्हीं दो का)।

बलामोटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदमनी नाम की ओषधि।

बलाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बरुना नामक वृक्ष। बन्ना। बलास।

बलाय (२)
संज्ञा पुं० [अ० बला] १. आपत्ति। विपत्ति। बला। उ०—लालन तेरे मुख रहौं वारी। बाल गोपाल लगो इन नैननि रोगु बलाय तुम्हारी।—सूर (शब्द०)। २. दुख। कष्ट। उ०—हरि को मति पूछति इमि गायो बिरह बलाय। परत कान तजि मान तिय मिली कान्ह सों जाय।—पद्माकर(शब्द०)। ३. भूत प्रेत की बाधा। ४. दुःखदायक रोग जो पीछा न छोड़े। व्याधि। उ०—अलि इन लोचन को कहूँ उपजी बड़ी बलाय। नीर भरे नित प्रति रहैं तऊ न प्यास बुझाय।—बिहारी (शब्द०)। ५. पीछा न छोड़नेवाला शत्रु। अत्यंत दुःखदायी मनुष्य। बहुत तंग करनेवाला आदगी। उ०—बापुरी विभीषन पुकारि बार बार कह्यौ बानर बड़ी वलाय बने घर घालि है।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—बलाय ऐसा करे या करती है=ऐसा नहीं करता है या करेगा। दे० 'बला'। उ०—(क) तौ अनेक अवगुन भरी चाहै याहि बलाय। जौ पति संपति हू बिना जदुपति राखे जाय।—बिहारी (शब्द०)। (ख) जा मृमनैनी की सदा बेनी परसत पाय। ताहि देखि मन तीरथनि विकटनि जाय बलाय।—बिहारी (शब्द०)। (ग) उठि चलौ जो न मानै काहू की बलाय जानै मान सों जो पहिचानै ताके आइयतु है।—केशव (शब्द०)। वलाय लेना =(अर्थात् किसी का रोग दुख अपने ऊपर लेना) मंगल कामना करते हुए प्यार करना। विशेष—स्त्रियाँ प्रायः बच्चों के ऊपर से हाथ घुमाकर और फिर ऊपर ले जाकर इस भाव को प्रकट करती हैं। उ०— (क) निकट बुलाय बिठाय निरखि मुख आँचर लेति बलाय।—सूर (शब्द०)। (ख) लै बलाय सुकर लगायो निरखि मंगलचार गायो।—सूर (शब्द०)। ६. एक रोग जिसमें रोगी की उँगली के छोर या गाँठ पर फोड़ा हो जाता है। इसमें रोगी को बहुत कष्ट होता है और उँगली कट जाती या टेढ़ी हो जाती है।

बलायत
संज्ञा पुं० [हिं० विलायत] दे० 'विलायत'। उ०—बला- यत की सब उन्नति का मूल लाडं बेकन की यह नीति है।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १५८।

बलाराति
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. विष्णु।

बलालक
संज्ञा पुं० [सं०] जलआँवला।

बलावलेप
संज्ञा पुं० [सं०] गर्व। अहंकार। बल का दर्प।

बलाश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बलास'।

बलास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक रोग जिसमें कफ और वायु के प्रकोप से गले और फेफड़े में सूजन और पीड़ा होती है, साँस लेने में कष्ट होता है। २. क्षय। यक्ष्मा (को०)।

बलास (२)
संज्ञा पुं० [सं० बलाय] वरुना नाम का पौधा।

बलासक
संज्ञा पुं० [सं०] रोग के कारण आँख की पुतलियों की सुफेदी पर आया हुआ पीलापन [को०]

बलासबस्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक नेत्ररोग [को०]।

बलासम
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध।

बलासवर्धन
वि० [सं०] कफ या श्लेष्मा बढ़ानेवाला [को०]।

बलासी (१)
संज्ञा पुं० [सं० बलाय, बिलासिन्] बलास। बरना। बन्ना नाम का पेड़।

बलासी (२)
वि० [सं० बलासिन्] यक्ष्मापीड़ित। क्षयग्रस्त।

बलाह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जल। सलिल [को०]।

बलाह (२)
संज्ञा पुं० [सं० बोल्लाह] वह घोड़ा जिसकी गरदन और दुम के बाल पीले हों। बुल्लाह। उ०—हरे कुरंग महुअ बहु भाँती। गुर्र कोकाह बलाह सो पाँती।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० १५०।

बलाहक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. एक दैत्य। ३. एक नाग। ४. सुश्रुत के अनुसार दर्वीकर जाति के साँपों के छब्बीस भेदों में एक का नाम। ५. कृष्णचंद्र के रथ के एक घोड़े का नाम। ६. मोथा। ७. लिंगपुराण के अनुसार शाल्मलि द्विप के, और मत्स्यपुराण के अनुसार कुश द्विप के एक पर्वत का नाम। ८. महाभारत के अनुसार जयद्रथ के एक भाई का नाम। ९. एक प्रकार का बगला।

बलाहर †
संज्ञा पुं० [हिं० बुलाना] गाँव में होनेवाला वह कर्मचारी जो दूसरी गाँवों में संदेसा ले जाता, गाँव मे आए हुए लोगों की सेवा सुश्रुषा करता और उन्हें मार्ग दिखलाता हुआ दूसरे गाँव तक ले जाता है।

बलिंदम
संज्ञा पुं० [सं० बलिन्दम] विष्णु।

बलि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूमि की उपज का वह अंश जो भूस्वामी प्रतिवर्ष राजा को देता है। कर। राजकर। विशेष—हिंदू धर्मशास्त्रों में भूमि की उपज का छठा भाग राजा का अंश ठहराया गया है। २. उपहार। भेंट। ३. पूजा की सामग्री या उपकरण। ४. पंच महायज्ञों में चौथा भूतयज्ञ नामक महायज्ञ। बिशेष—इसमें गृहस्थों की भोजन मे से ग्रास निकालकर घर के भिन्न भिन्न स्थानों में भोजन पकाने के उपकरणों पर तथा का आदि जंतुओं के उद्देश्य से घर के बाहर रखना होता है। ५. किसी देवता का भाग। किसी देवता को उत्सर्ग किया कोई खाद्य पदार्थ। ६. भक्ष्य। अन्न। खाने की वस्तु। उ०—(क) बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि सस चहै नाग अरि भागू।—तुलसी (शब्द०)। (ख) आए भरत दीन ह्वै बोले कहा कियो कैकेयी माई। हम सेवक वा त्रिभुवनपति के सिंह को बलि कौवा को खाई।—सूर (शब्द०)। ७. चढ़ावा। नैवेद्य। भोग। उ०—पर्वत साहित धोइ ब्रज डारौं देउँ समुद्र बहाई। मेरी बलि औरहि लै पर्वत इनकी करौं सजाई।— सूर (शब्द०)। (ख) बलि पूजा चाहत नहीं चाहत एकै प्रीति। सुमिरन ही मानै भलो यही पावनी रीति।—तुलसी (शब्द०)। ८. वह पशु लो किसी देवस्थान पर या किसी देवता के उद्देश्य से मारा जाय। क्रि० प्र०—करना।—देना।—होना। मुहा०—बलि चढ़ना=मारा जाना। बलि चढ़ाना= बलि देना। देवता के उद्देश्य से घात करना।—देवार्पण के लिये बध करना। बलि जाना=निछावर होना। बलिहारी जाना।उ०—(क) तात जाऊँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कौशल्या आदिक महतारी आरति करत बनाय। यह सुख निरखि मुदित सुर नर मुनि सूरदास बलि जाय।—सूर (शब्द०)। बलि जाऊँ या बलि=तुम पर निछावर हूँ। (बात चीत में स्त्रियाँ इस वाक्य का व्यवहार प्रायः यों ही किया करती हैं)। उ०— छवै छिगुनी पहुँचौ गिलत अति दीनता दिखाय। बलि बावन को ब्योंत सुनि को बलि तुम्हैं पताय।—बिहारी (शब्द०)। ९. चँवर का दंड। १०. आठवें मन्वंतर में होनेवाले इंद्र का नाम। ११. असुर।—अनेकार्थ०, पृ० १४४। १२. विरोचन के पुत्र और प्रह्लाद के पोत्र का नाम। यह दैत्य जाति का राजा था। विष्णु ने वामन अवतार लेकर इसे छल कर पाताल भेजा था।

बलि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'बलि'। २. चमड़े की झुर्री। ३. स्त्रियों की नाभि के ऊपर की रेखा (को०)। ४. एक प्रकार का फोड़ा जो गुदावर्त के पास अर्शादि रोगों में उत्पन्न होता है। ५. अशं का मस्सा। ६. मकान की छाजन का छोर या किनारा (को०)।७. लक्ष्मी।—अनेकार्थ०, पृ० १४४।

बलि (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० बला (=छोटी बहिन)] सखी। उ०— ताकि रहत छिन और तिय लेत और को नाउँ। ए बलि ऐसे बलम को विविध भाँति बलि जाउँ।—पद्माकर (शब्द०)।

बलिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नाग का नाम। २. वह व्यक्ति जो प्रति छठे दिन भोजन करता है (को०)।

बलिकर
वि० [सं०] १. बलि करनेवाला। २. सिकुड़न या झुर्री पैदा करनेवाला। ३. करदाता [को०]।

बलिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० बलिकर्मन्] बलिदान।

बलित पु (१)
वि० [हिं० बलि] बलिदान चढ़ाया हुआ। हत। मारा हुआ। उ०—बलित अबेर कुबेर बलिहि गहि देहु इंद्र अब। विद्याधरन अविद्य करौं बिनु सिद्धि सिद्ध सब।—केशव (शब्द०)।

बलित पु (२)
वि० [सं० वलित] दे० 'वलित'। उ०—भाग्यौ सुलतान जान बचत न जानि बेगि, बलित बितुंड पै बिराजि बिलखाइ कै।—हम्मीर०, पृ० ४०।

बलिदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता के उद्देश्य से नैवेद्यादि पूजा की सामग्री चढ़ाना। २. बकरे आदि पशु देवता के उद्देश्य से मारना। क्रि० प्र०—करना।—होना।

बलिद्विष्
संज्ञा पुं० [सं०] बलि के शत्रु—विष्णु।

बलिध्वंसी
संज्ञा पुं० [सं० बलीध्वंसिन्] विष्णु [को०]।

बलिनंदन
संज्ञा पुं० [सं० बलिनन्दन] वाणासुर।

बलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अतिबला नाम की ओषधि। २. बरियरा [को०]।

बलिपशु
संज्ञा पुं० [हिं० बलि + पशु] वह पशु जो किसी देवता के उद्देश्य से मारा जाय। उ०—लखइ न रानि निकट दुख कैसे। चरइ हरित तृन बलिपशु जैसे।—तुलसी (शब्द०)।

बलिपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बलि का पुत्र—वाणासुर [को०]।

बलिपुष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] कौवा।

बलिपोदकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी पोय।

बलिप्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] बलिदान।

बलिप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोध का पेड़। २. कौवा।

बलिबंड
वि० [हिं०] दे० 'बलबंड'। उ०—प्रथियराज चहुआन बान पारथ बलिबंडह।—पृ० रा०, ६। १२८।

बलिबधन
संज्ञा पुं० [सं० बलिबन्धन] बलि को बाँधनेवाले विष्णु [को०]।

बलिभुक्
संज्ञा पुं० [सं०] कौवा।

बलिभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बलिभुक्'।

बलिभृत
वि० [सं० बलिभृत्] १. करद। करदाता। कर देनेवाला। २. अधीन।

बलिभोज, बलिभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] कौवा।

बलिभोजी
संज्ञा पुं० [सं० बलिभोजिन्] दे० 'बलिभोज'।

बलिया †
वि० [हिं० बल + इया (प्रत्य०) अथवा सं० बलीयस्] बलवान्। ताकतवर। जैसे,—किस्मत के बलिया। पकाई खीर, हो गया दलिया।—(कहा०)। उ०—जम किंकर मोर कि करत अंगे। रह अपराधी बलिया संगे।—विद्यापति, पृ० ५७९।

बलिवर्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँड़। बैल।

बलिवैश्वदेव
संज्ञा पुं० [सं०] भूतयज्ञ नामक पाँच महायज्ञों में चोथा यज्ञ। इसमें गृहस्थ पाकशाला में पके अन्न से एक ग्रास लेकर मंत्रपूर्वक घर के भिन्न स्थानों में मूसल आदि पर तथा काकादि प्राणियों के लिये भूमि पर रखता है।

बलिश
संज्ञा पुं० [सं०] बंसी। कँटिया।

बलिष्ठ (१)
वि० [सं०] अधिक बलवान।

बलिष्ठ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँठ।

बलिष्णु
वि० [सं०] अपमानित।

बलिसद्म
संज्ञा पुं० [सं० बलिसद्मन्] बलि का गृह या वेश्म। पाताल [को०]।

बलिसुत
संज्ञा पुं० [सं० बलिसुत] बलि का पुत्र। बाणासुर [को०]।

बलिहार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बलिहारी'। उ०—जीवन या बलिहार, तुम्हारा पार न आया।—अर्चना, पृ० २२।

बलिहारना पु
क्रि० सं० [हिं० बलि + हारना] निछावर कर देना। कुर्बान कर देना। चढ़ा देना। उ०—विश्व निकाई विधि ने उसमें की एकत्र बटोर। बलिहारौं त्रिभुवन धन उसपर वारौं काम करोर।—श्रीधर (शब्द०)।

बलिहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बलि + हारी] निछावर। कुरबान। प्रेम, भक्ति, श्रद्धा आदि के कारण अपने को उत्सर्ग कर देना। उ०—(क) सुख के माथे सिल परै हरि हिरदा सीजाय। बलिहारी वा दुःख की पल पल राम कहाय।—कबीर (शब्द०)। (ख) बलिहारी अब क्यों कियो सैन साँवरे संग। नहिं कहुँ गोरे अंग ये भए झाँवरे रंग।—शृंगार सत० (शब्द०)। (ग) तुका बड़ो मैं ना मनूँ जिस पास बहुत दाम। बलिहारी उस मुख की जिस्ते निकसे राम।—दक्खिनी०, पृ० १०७। मुहा०—बलिहारी जाना=निछावर होना। कुरबान जाना। बलैया लेना। उ०—दादू उस गुरुदेव की मैं बलिहारी जाउँ। आसन अमर अलेख था लै राखे उस ठाउँ।—दादू (शब्द०)। बलिहारी लेना=बलैया लेना। प्रेम दिखाना। उ०—पहुँची जाय महरि मंदिर में करत कुलाहल भारी। दरसन करि जसुमति सुत को सब लेन लगीं बलिहारी।—सूर (शब्द०)। बलिहारी है ! =मैं इतना मोहित या प्रसन्न हूँ कि अपने को निछावर करता हूँ। क्या कहना है। विशेष—सुंदर रूप रंग, शोभा, शील स्वभाव, आदि को देख प्रायः यह वाक्य बोलते हैं। किसी की बुराई, बेढगेपन या विलक्षणता को दिखकर व्यग्य के रूप में भी इसका प्रयोग बहुत होता है।

बलिहृत् (१)
वि० [सं०] १. बलि लानेवाला। भेंट लानेवाला। २. करप्रद। करदाता। कर देनेवाला।

बलिहृत् (२)
संज्ञा पुं० राजा।

बलींडा †
संज्ञा स्त्री० [सं० बलीक] बड़ेरा। उ०—औ लौ ठीका चढ़्या बलींडै जिनि पीया तिनि माना।—कबीर ग्रं०, पृ० ९०।

बली (१)
वि० [सं० बलिन्] बलवान्। बलवाला। पराक्रमी।

बली (२)
१. सांड़। वृषभ। २. महिष। ३. ऊँट। ४. शूकर। ५. एक तरह की चमेली। ६. बलराम। ७. सैनिक। सिपाही।

बलि (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वलि, वली] १. चमड़े पर की झुर्री। २. वह रेखा जो चमड़े के मुड़ने के मुड़ने या सिकुड़ने से पड़ती है। दे० 'वली'। ३. दे० † 'बलि'। ४. पु लता। वल्ली।

बलीक
संज्ञा पुं० [सं०] छाजन के किनारे का भाग [को०]।

बलीता पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पलीता' उ०—दोइ पुड़ जोड़ चिगाई भाठी, चुया महारस भारी। काम क्रोध दोइ किया बलीता, छूटि गई संसारी।—कबीर ग्रं०, पृ० ११०।

बलीन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिच्छू। २. एक असुर का नाम।

बलीन पु †
वि० [सं० बलिन्] दे० 'बली'।

बलीना
संज्ञा स्त्री० [यू० फैलना] एक प्रकार की ह्वेल मछली।

बलीबैठक
संज्ञा स्त्री० [हिं० बली + बैठक] एक प्रकार की बैठक जिसमें जंघे पर भार देकर उठना बैठना पड़ता है। इससे जाँघ शीघ्र भरती है।

बलीमुख पु
संज्ञा पुं० [सं० वलिमुख] बंदर। उ०—चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कोउ समुहाई।—तुलसी (शब्द०)।

बलीयस् (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० बलीयसी] अत्यधिक बलवाला। बलवान्। उ०—बिड़ंबना है विधि की बलीयसी।—प्रिय० प्र०, पृ० १७३। २. अधिक प्रभावपूर्ण या आकर्षक (को०)। ३. अधिक महत्व का (को०)।

बलीयस् (२)
क्रि० वि० पूरी तरह से। अत्यधिक [को०]।

बलीयान्
वि० [सं० बलीयस्] बलवान्। सबल। सशक्त। जैसे,— प्रजा के बल से बलीयान् होने के वे प्रजा पर तो अनियंत्रित शासन करते रहना चाहते हैं।

बलीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौवा। काक। २. धूर्त या चालबाज व्यक्ति [को०]।

बलु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बल'। उ०—जामवंत हनुमंत वलु कहा पचारि पचारि।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८५।

बलु पु (२)
अव्य० [हिं०] दे० 'बरु' उ०—प्यास न एक बुझाई बुझै त्रैताप बलु।—केशव (शब्द०)।

बलुआ (१)
वि० [हिं० बालू] [स्त्री० बलुई] रेतीला। जिसमें बालू अधिक मिला हो। जैसे, बलुआ खेत, बलुई मिट्टी।

बलुआ (२)
संज्ञा पुं० वह मिट्टी या जमीन जिसमें बालू अधिक हो।

बलुआह, बलुआहा †
संज्ञा पुं० [हिं० बालू] बालू का मैदान। वह मैदान जिधर बालू पड़ता हो। उ०—दिशा फराकत के लिये लोटा लेकर बलुआहा की ओर निकल गए।—रति०, पृ० १४१।

बलूच
संज्ञा पुं० [देश० ?] एक जाति जिसके नाम पर देश का नाम पड़ा। विशेष—यह जाति कब बलूचिस्तान में आकर बसी इसका ठीक पता नहीं है। बलूचिस्तान में ब्रहुई और बलूची दो जातियाँ निवास करती हैं। इनमें से ब्रहुई जाति अधिक उन्नत और सभ्य है और उसका अधिकार भी बलूचों से पुराना है। बलूच पीछे आए। बलूचों में ऐसा प्रवाद है कि उनके पूर्वज अलिपो नगर से अरबों की चढ़ाई के साथ आए। अरबों की चढ़ाई बलूचिस्तान पर ईसा की आठवीं शताब्दी में हुई थी। बलूच सुन्नी शाखा के मुसलमान हैं।

बलूचिस्तान
संज्ञा पुं० [फा०] एक राज्य जो हिंदुस्तान के पश्चि- मोत्तर कोण में है। इसके उत्तर में अफगानिस्तान, पूर्व में सिंधु प्रदेश, दक्षिण में अरब का समुद्र और पश्चिम में फारस है। विशेष—ब्रहुई और बलूची इस देश के प्रधान निवासी हैं। इनमें ब्रहुई पुराने हैं। दे० 'बलूच'। इस देश के प्राचीन इतिहास के संबंध में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं। गंधार और कांबोज के समान यह देश भी हिंदुओं का ही था, इसमें तो कोई संदेह नहीं। ऐसी कथा है कि यहाँ पहले शिव नाम का कोई राजा था जिसने सिंधु देशवालों के आक्रमण से अपने रक्षा के लिये कुछ पहाड़ी लोगों को बुलाया। अंत में पहाड़ियों के सरदार कुंभर ने आकर सिंधवालों को हटाया और क्रमशः उस हिंदु राजा को भी अधिकारच्युत कर दिया।यह कुंभर कौन था, इसका पता नहीं। ईसा की आठवीं शताब्दी में अरबों का आक्रमण इस देश पर हुआ और यहाँ के निवासी मुसलमान हुए। आजकल बलूच और ब्रहुई दोनों सुन्नी शाखा के मुसलमान हैं।

बलूची
संज्ञा पुं० [देश०] बलूचिस्तान का निवासी।

बलूत
संज्ञा पुं० [अ०] माजूफल की जाति का एक पेड़ जो अधिकतर ठंढे देशों में होता है। विशेष—योरोप में यह बहुत होता है। इसके अनेक भेद होते है जिनमें से कुछ हिमालय पर भी, विशेषतः पूरबी भाग (सिक्किम आदि) में होते हैं। हिंदुस्तानी बलूत बज, मारू या सीतासुपारी, सफेद (कश्मीर) के नाम से प्रसिद्ध है जो हिमालय में सिंधु नद के किनारे से लेकर नैपाल तक होता है। शिमला नैनीताल, मसूरी आदि में इसके पेड़ बहुत मिलते हैं। लकड़ी इसकी अच्छी नहीं होती, जल्दी टूट जाती है। अधिकतर इंधन और कोयले के काम में आती है। घरों में भी कुछ लगती है। पर दार्जिलिंग और मनीपुर की ओर जो बूक नाम का बलूत होता है उसकी लकड़ी मजबूत होती है। योरप में बलूत का आदर बहुत प्राचीन काल से है। इंगलैड के साहित्य में इस तरुराज का वही स्थान है जो भारतीय साहित्य में बट या आम का है। यूरोप का बलूत मजबूत और टिकाऊ होता है।

बलूल
वि० [सं०] बलयुक्त। शक्तिशाली।

बलूला
संज्ञा पुं० [अनु०] बुल्ला। बुदबुद। उ०—(क) देखत ही ही देखत बलूला सौ बिलाइहै।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४१६।(ख) बहु सितभानु भानु उस वारिधि के हैं विविध बलूले।—पारिजात, पृ० १८।

बलैया
संज्ञा स्त्री० [अ० बला, हिं० बलाय] बला। बलाय। मुहा०—(किसी की) बलैया लेना=(अर्थात् किसी का रोग, दुःख ऊपर लेना) मंगलकामना करते हुए प्यार करना। दे० 'बलाय लेना'। बलैया लेता हूँ=बलिहारी है ! इस बात पर निछावर होती हूँ ! क्या कहना है ! पराकाष्ठा है ! बहुत ही बढ़ चढ़ कर है (सुंदरता, रूप, गुण, कर्म, आदि देख सुन कर इसका प्रयोग करते हैं। यद्यपि 'बलि जाना और 'बलैया लेना' व्युत्पत्ति के विचार से भिन्न हैं पर मुहाविरे हिलमिल से गए हैं)। उ०—लाज बाँह गहे की, नेवाजे की सँभार सार, साहब न राम सो, बलैया लीजै सील की।—तुलसी (शब्द०)।

बल्कल
संज्ञा पुं० [सं० वल्कल] दे० 'वल्कल'।

बल्कस
संज्ञा पुं० [सं०] वह तलछट या मैल जो आसव उतारने में नीचे बैठ जाती हैं।

बल्कि
अव्य० [फा०] १. अन्यथा। इसके विरुद्ध। प्रत्युत। जैसे,—उसे मैंने नहीं उभारा बल्कि मैंने तो बहुत रोका। २. ऐसा न होकर ऐसा हो तो और अच्छा। बेहतर है। जैसे,—बल्कि तुम्हीं चले जाओ, यह सब बखेड़ा ही दूर हो जाय।

बल्ब
संज्ञा पुं० [अं०] १. एक प्रकार की वनस्पति। गुट्ठी। विशेष—इसमें बहुत सी पत्तियों के योग से प्रायः कमल के आकार की बहुत बड़ी कली या गुट्ठी सी बन जाती है। इसके नीचे के भाग से जड़ें निकलती हैं जो जमीन के अंदर फैलती हैं और ऊपरी मध्य भाग में से पतला तना निकल कर ऊपर की ओर बढ़ता है जिसमें सुगंधित फूल लगते हैं। इसके कई भेद होते हैं। २. शीशे का वह खोखला लट्टू जो प्रायः कमल के आकार का होता है और जिसके अंदर बिजली की रोशनी के तार लगे रहते हैं। ३. शीशे की किसी नली का चौड़ा हिस्सा।

बल्बलाकार
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो तुतला या हकलाकर बोलता हो [को०]।

बल्मा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बालम'। उ०—बल्मा झोक लगै लटकँन की, मो पै अटा चढ्यौ ना जाइ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८७७।

बल्य (१)
वि० [सं०] १. बलकारक। २. शक्तियुक्त। बल- शाली (को०)।

बल्य (२)
संज्ञा पुं० १. शुक्र। वीर्य। २. बौद्ध भिक्षु (कौ०)।

बल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अतिबला। २. अश्वगंधा। ३. प्रसा- रिणी। ४. शिम्रीडी। चंगोनी।

बल्ल
संज्ञा पुं० [सं० वल्ल] दे० 'वल्ल'।

बल्लकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वल्लकी'।

बल्लव पु
संज्ञा पुं० [सं० बल्लभ] गोप। ग्वाल।—अनेकार्थ०, पृ० २९।

बल्लभ
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ] [स्त्री० वल्लभा] दे० 'वल्लभ'। उ०—(क) डारयौ उगिलि सुबल्लभ बालक। जगपालक ऐसेइ घरधालक।—नंद० ग्रं०, पृ० २५८। (ख) निअ बल्लभ परिहरि जुवति धाव।—विद्यापति, पृ० ९६।

बल्लभी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्लभी] दे० 'वलभी'।

बल्लभी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्लवी] १. ग्वालिन। २. रसोई बनानेवाली स्त्री।

बल्लम
संज्ञा पुं० [सं० बल, हिं० बल्ला] १. छड़। बल्ला। २. सोंटा। डंडा। ३. वह सुनहरा या रुपहला डंडा जिसे प्रतिहार या चोबदार राजाओं के आगे लेकर चलते हैं। यौ०—आसाबल्लम। ४. बरछा। भाला।

बल्लमटेर
संज्ञा पुं० [अं० वालंटियर] १. वह मनुष्य जो बिना वेतन के स्वेच्छा से फौज में सिपाही या अफसर का काम करे। स्वेच्छापूर्वक सेना में भरती होनेवाला। स्वेच्छा सैनिक। वालटियर। २. अपनी इच्छा से सार्वजनिक सेवा का कोई काम करनेवाला। स्वेच्छासेवक। स्वयंसेवक।

बल्लमबर्दार
संज्ञा पुं० [हिं० बल्लम + फा० बर्दान्] वह नौकरजो राजाओं की सवारी या बारात के साथ हाथ में बल्लम लेकर चलता है।

बल्लमा †
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ] दे० 'बालम'। उ०—बार लगाई बल्लमा विरहनि फिरै उदास।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६८५।

बल्लरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्लरी] दे० 'वल्ली'।

बल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. चरवाहा। ग्वाला। २. भीम का वह नाम जो उन्होंने विराट के यहाँ रसोइए के रूप में अज्ञात- वास करने के समय में धारण किया था। ३. रसोइया।

बल्लवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्वालिन [को०]।

बल्ला (१)
संज्ञा पुं० [सं० वल (=लट्ठा या डंडा)] [स्त्री० अल्पा० बल्ली] १. लकड़ी की लंबी, सीधी और मोटी छड़ या लट्ठा। डंडे के आकार का लबा मोटा टुकड़ा। शहतीर या डंडा। जैसे, साखू का बल्ला। २. मोटा डंडा। दंड। उ०—कल्ला करे आगू जान देत लेत बल्ला त्यागे ढौंसत प्रबल्ला मल्ला धायो राजद्वार को।—रघुराज (शव्द०)। ३. बाँस या डंडा जिससे नाव खेते हैं। डाँड़ा। ४. गेंद मारने का लकड़ी का डंडा जो आगे की ओर चौड़ा और चिपटा होता है। बैट। यौ०—गेंद बल्ला।

बल्ला (२)
संज्ञा पुं० [सं० वलय] गोबर की सुखाई हुई पहिए के आकार की गोल टिकिया जो होलिका जलने के समय उसमें डाली जाती है।

बल्लारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें केवल कोमल गांधार लगता है।

बल्ली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बल्ला] १. छोटा बल्ला। लकड़ी का लंबा टुकड़ा। २. खंभा। ३. नाव खेने का बल्ला। डाँड़।

बल्ली पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्ली] लता। वल्ली। उ०—सुनि कग्गर नृपराज पृथु भौ आनंद सुभाइ। मानौं बल्ली सूकते बीरा रस जल पाइ।—पृ० रा०, १२। ६६।

बल्लेबाज
वि० [हिं० बल्ला + बाज] क्रिकेट के खेल में बल्ले (बैट) से गेंद मारनेवाला। क्रिकेट के बल्ले से खेलनेवाला।

बल्लोच
संज्ञा पुं० [फा० बलूच] बलूचिस्तान की निवासिनी एक जाति का नाम। उ०—बल्लोच मिले सब पाइ बंधि। बाभन्या नृपति तजि गए संधि।—पृ० रा०, १। ४२२।

बल्व
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार एक करण का नाम।

बल्वज
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० बल्वजा] एक घास का नाम।

बल्वल
संज्ञा पुं० [सं०] इल्वल नामक दैत्य के पुत्र का नाम जिसे बलदेव जी ने मारा था। यौ०—बल्वलारि=बलदेव जी।

बवंडर
संज्ञा पुं० [सं० वायु + मण्डल या सं० वात हिं० अर्डबर] १. हवा का तेज झोंका जो घूमता हुआ चलता है और जिसमें पड़ी हुई घूम खंभे के आकार में ऊपर उठती हुई दिखाई देती है। चक्र की तरह धूमती हुई वायु। चक्रवात। बगूला। क्रि० प्र०—उठना। २. प्रचंड वायु। आँधी। तूफान। उ०—आई जसुमत विगत बवंडर। बिन गोविंद लख्यो सो मंदिर।—गोपाल (शब्द०)।

बवंड़ा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बवंडर'।

बवँड़ना †
क्रि० अ० [सं० व्यावर्त्तन प्रा० व्यावट्टन] इधर उधर धूमना। व्यर्थ फिरना। उ०—इत उत ही तुम डोलत बवँड़त करत आपने जी की।—सूर (शब्द०)।

बवँड़ियाना ‡
क्रि० अ० [हिं० बवँड़ना] निष्प्रयोजन इतस्ततः घूमना।

बव
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार एक करण का नाम।

बवघूरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० वायु + घूर्णन] [हिं० बाइ + घूरा] बगूला। बवंडर। उ०—केशवराइ अकाश के मेह बड़े बवघूरन में तृण जैसे।—केशव (शव्द०)।

बवन पु †
संज्ञा पुं० [सं० वमन] दे० 'वमन'।

बवना पु (१)
क्रि० स० [सं० वपन] १. दे० 'बोना'। जमने के लिये जमीन पर बीज डालना। उ०—करि कुरूप विधि पर- वस कीन्हा। बबा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा।—तुलसी (शब्द०)। २. छितराना। बिखराना।

बवना (२)
क्रि० अ० छिटकना। छितराना। बिखरना। उ०—ऊधो योग की गति सुनत मोरे अंग आगि बई।—सूर (शव्द०)।

बवना पु † (३)
संज्ञा पुं० [सं० वामन] दे० 'बावना' या 'वामन'।

बवरना
क्रि० अ० [हिं० बौर] दे० 'बौरना', 'मौरना'। उ०— बवरे बौंड़ सीस भुइँ लावा। बड़ फल सुफर वही पैं पावा।— जायसी (शब्द०)।

बवादा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की जड़ी या औषधि जो हलदी की तरह की होती है।

बवाल
वि० [अ० बवाल] जंजाल। झमेंला। झंझट। यौ०—बवाले जान=भारी कष्ट का कारण। उ०—गोया जनाब कविसंमेलन क्या है एक बवाले जान है।— कुंकुम, पृ० २।

बवासीर
संज्ञा स्त्री० [अ०] एक रोग का नाम जिसमें गुदेंद्रिय में मस्से या उभार उत्पन्न हो जाते हैं। इसमें रोगी को पीड़ा होती है और पाखाने के समय मस्सों से रक्त भी गिरता है। अर्शरोग। विशेष—आयुर्वेद में मनुष्य के मलद्वार में तीन वलियाँ मानी गई हैं। सबके भीतर या ऊपर की ओर जी वली होती है उसे प्रवाहिनी, मध्य में जो होती है उसे सर्जनी कहते है। इनके अतिरिक्त एक वली अंत में या बाहर की और होती है। इन्हीं त्रिवलियों में अर्शरोग होता है। यदि बाहरवाली वली में मस्से हों तो रोग साध्य, मध्यवाली में हो तो कष्टसाध्यऔर सबसे भीतरवाली वली में हौं तौ असाध्य होता है। अर्शरोग छह प्रकार का कहा गया है—वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, रक्तज और सहज।

बवियान
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का यंत्र जिससे गुरज या कोई अग्निपदार्थ फेंका जाता था। उ०—छुटैं गुरजं बवियानन सें। षह ते पलटे मनो तारक सें।—पृ० रा०, २५। ५११।

बशर
संज्ञा पुं० [अ०] व्यक्ति। मानव। उ०—जीते जी कद्र बशर की नहीं होती प्यारे। याद आएगी तुम्हें मेरी वफा मेरे बाद।—प्रेमघन०, भा० २ पृ० ६३।

बशिष्ट
संज्ञा पुं० [सं० वशिष्ठ] दे० 'वशिष्ठ'।

बशीरी
संज्ञा पुं० [अ० बशीर] एक प्रकार का बारीक रेशमी कपड़ा जो अमृतसर से आता है।

बष्कय
वि० [सं०] १. एक वर्ष का। २. पूर्ण युवा। जैसे, बछड़ा [को०]।

बष्कयणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जिसकी ब्याए हुए बहुत समय हो गया हो। बकेना। विशेष—ऐसी गाय का दूध गाढ़ा और मीठा होता है।

बष्कयिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वष्कयणी'।

बष्कयनी, बष्कयिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकेना गौ [को०]।

बष्किह
वि० [सं०] वृद्धावस्था से जीर्णा। जराजीर्ण [को०]

बष्ट
वि० [सं०] मूर्ख। जड़। अज्ञ [को०]।

बसंत
संज्ञा पुं० [सं० वसन्त] १. दे० 'वर्सत'। २. दो हाथ ऊँच एक प्रकार का पौधा। विशेष—यह पौधा प्रायः सारे भारत में और हिमालय में सात हजार फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। इसकी पत्तियाँ चार पाँच अंगुल लंबी पर गोलाकार होती हैं। फूल के विचार से इसके कई भेद होते हैं।

बसंत †
संज्ञा पुं० [हिं० बसंत] हरे रंग की एक चिड़िया जिसका सिर से लेकर कंठ तक का भाग लाल होता है।

बसंती (१)
वि० [हिं० बसंत] १. बसंत का। बसंत ऋतु संबंधी। २. खुलते हुए पीले रंग का। सरसों के फूल के रंग का। विशेष—वसंतागम में खेत में सरसों के फूलने का वर्णन होता है। इससे वसंत का रंग पीला माना जाता है।

बसंती (२)
संज्ञा पुं० १. एक रंग का नाम। विशेष—यह रंग तुन के फूलों आदि में रँगने से आता है। यह हलका पीला होता है। बसंत ऋतु में यह रंग लोगों को अधिक प्रिय होता है। २. पीला कपड़ा। सरसों के फूल के रंग का कपड़ा।

बसंदर
संज्ञा पुं० [सं० वैश्वानर] आग। उ०—कथा कहानी सुनि जिउ जरा। जानहुँ घीउ बसंदर परा।—जायसी ग्रं०, पृ० ९७।

बस (१)
वि० [फा०] पर्याप्त। भरपूर। प्रयोजन के लिये पूरा। बहुत काफी। उ०—मेरे सदृश विद्वान् की परीक्षा बस होगी।—सरस्वती (शव्द०)। मुहा०—बस करो। या बस। ठहरो। रुको। इतना बहुत है, और अधिक नहीं। उ०—बलराम जी, बस करो, वस करो, अधिक बड़ाई उग्रसेन की मत करो।—लल्लू (शब्द०)।

बस (२)
अव्य० १. पर्याप्त। काफी। अलम्। २. सिर्फ। केवल। इतना मात्र। जैसे,—बस, हमें और कुछ न चाहिए। उ०—रचिए गुणगौरव पूर्ण ग्रंथ गण सारा। बस यही आपसे विनय विनीत हमारा।—द्विवेदी (शब्द०)।

बस (३)
संज्ञा पुं० [सं० वश] दे० 'वश'। क्रि० प्र०—करना।—कर लेना = वश में कर लेना। उ०—हजूर, बिल्कुल बस में कर लिया।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ४।

बस (४)
संज्ञा पुं० [हिं० बास] सुवासित। उ०—मधुर मालती के सिंगार सजि पहिरि बिसद बस बास।—घनानंद, पृ० ४८२।

बस (५)
संज्ञा स्त्री० [अं०] यात्रियों की सवारी गाड़ी। लारी। वह लंबी मोटर जिसपर लोग आवागमन करते हैं।

बसकरन पु
वि० [सं० वशीकरन] वश में करनेवाली। वशीभूत करनेवाली। उ०—आनँदघन घमँडि तीर बिहरत रमडि ब्रजबधू बसकरन बंसिका गाजै।—घनानंद, पृ० ४३४।

बसत पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वस्तु] दे० 'वस्तु'। उ०—(क) स्वामी जी बसत घणेरी बरतन ओछा कहो गुरू क्या कीजे।—रामानंद०, पृ० १४। (ख) लै धरी बसत अन्नेक सुर करि अस्तुति मुख कोटि तर।—पृ० रा०, २४। ४८०।

बसत पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वसति] घर। निवासस्थान। उ०—मनो बसत रँगरेज मट्ट फुट्यो सुरंग ढहि।—पृ० रा०, २४। १९६।

बसती †
संज्ञा स्त्री० [सं० वसति] दे० 'बस्ती'। उ०—बसती न सुन्यं, सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा।—गोरख०, पृ० १।

बसन
संज्ञा पुं० [सं० वसन] दे० 'वसन'। उ०—बसन बीजुरी सी धरै लख्यौ सु वह बन गेह।—स० सप्तक, पृ० ३६५।

बसना (१)
क्रि० अ० [सं० वसन] १. स्थायी रूप से स्थित होना। निवास करना। रहना। जैसे,—इस गाँव में कितने मनुष्य बसते हैं। उ०—(क) जो खोदाय मसजिद में बसत है और देस केहि केरा ?—कबीर (शब्द०)। (ख) ब्रजबनिता के नयनं प्रान बिच तुमही श्याम बसंत।—सूर (शव्द०)। २. जनपूर्ण होना। प्राणियों या निवासियों से भरा पूरा होना। आवाद होना। जैसे, गाँव बसना, शहर बसना। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—घर बसाना=कुटुंबसहित सुखपूर्वक स्थित होना। गृहस्थी का बनना। उ०—नारद बचन न मैं परिहरहूँ। बसउ भवन, उजरउ नहि डरहूँ।—तुलसी (शब्द०)। घर में बसना =सुखपूर्वक गृहस्थी में रहना। उ०—सुखत बचन बिहँसे रिषिय गिरिसंभव तव देह। नारद कर उपदेस सुनि कहहू बसेउ को गेह।—तुलसी (शब्द०)।३. टिकना। ठहरना। अवस्थाना करना। डेरा करना। जैसे,— ये तो साधु हैं रात को कहीं बस रहे। संयो० क्रि०—जाना।—रहना। मुहा०—मन में बसना=घ्यान में बना रहना। स्मृति में रहना। उ०—सीस मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल। इहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।—बिहारी (शब्द०)। ४. पु बैठना। बैसना।

बसना (२)
क्रि० अ० [हिं० बासना] बासा जाना। सुगंध से पूर्ण हो जाना। सुगंधित हो जाना। महक से भर जाना। जैसे,— तेल बस गया। संयो० क्रि०—जाना।

बसना (३)
संज्ञा पुं० [सं० वसन (=कपड़ा)] १. वह कपड़ा जिसमें कोई वस्तु लपेटकर रखी जाय। वेष्ठन। बेठन। २. थैली। ३. वह लंबी जालीदार थैली जिसमें रुपया पैसै रखते हैं। इसे बसनी भी कहते हैं। ४. वह कोठी जिसमें रुपए का लेनदेन होता हो। ५. बासन। बरतन। भाँड़ा।

बसना (४)
संज्ञा पुं० [देश०] जयंती की जाति का एक प्रकार का मझोला वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष देखने में बहुत सुंदर होता है और प्रायः शोभा के लिये बागों में लगाया जाता है। इसके पत्ते एक बालिश्त लंबे होते हैं। प्रायः पान के भीटों में यह लगाया जाता है। इसकी पत्तियों, कलियों और फूलों की तरकारी बनती है और ओषधि रूप में भी उनका उपयोग होता है।

बसनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बसना] रहना। निवास। वास। उ०—बिद्रूप ताको दरसावत जहँ जोगिन की बसनि।— देवस्वामी (शब्द०)।

बसबास पु
संज्ञा पुं० [हिं० बसना + वास] १. निवास। रहना। उ०—(क) सुनि मुनि आयसु प्रभु कियो पंचबटी बसबास।—तुलसी ग्रं०, पृ० ७६। (ख) जो तुम पुहुप पराग छाड़ि के करौ ग्राम बसबास। तो हम सूर यहौ करि देखैं निमिख न छाँड़ै वास।—सूर (शब्द०)। २. रहन। रहने का ढग। स्थिति। उ०—ऐसे बसवास तें उदास होय केशोदास केशव न भजै, कहि, काहे को खगतु है।—केशव (शब्द०)। ३. रहायस। रहने का डौल या सुभीता। निवास योग्य परिस्थिति। ठिकाना। उ०—अब बसबास नहीं लखौं याहि तुव ब्रज नगरी। आपु गयो चढ़ि कदम चीर लै चितवत रहि सिगरी।—सूर (शब्द०)।

बसर
संज्ञा पुं० [फा०] गुजर। निर्वाह। कालक्षेप। क्रि० प्र०—करना।—होना।

बसवर्ती
वि० [सं० वशवर्ति] दे० 'वशवर्ती' उ०—परकैंच कबूतर की तरह वह इन्हें अपना बसवर्ती रखते थे।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २१२।

बसवार † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० वास (=सुगंध) + वार (प्रत्य०)] छौंक। वघार।

बसवार (२)
वि० सोंधा। सुगंधित। उ०—करुए तेल कीन्ह बसवारू। मेथी कर तब देन्ह बघारू।—जायसी (शब्द०)।

बसह
संज्ञा पुं० [सं० वृपभ, प्रा० बसह] बैल। उ०—(क) कर त्रिशूल अरु डमरु बिराजा। चले बसह चढ़ि बाजहिं बाजा। तुलसी (शब्द०)। (ख) अमरा शिव रवि शशि चतुरानन हयगय बसह हंस मृग जावत। धर्मराज बनराज अनल दिव शारद नारद शिव सुत भावत।—सूर (शब्द०)।

बसही पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वसति, प्रा० बसहि, बसइ] १. घर। २. स्त्री। पत्नी। ३. और सब सामंतन की बसही आनी। कितकों आंननै मांनी।—पृ० रा०, १९। ११४।

बसाँधा †
वि० [हिं० बास] बासा हुआ। सुगंधित।

बसा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वसा] दे० 'वसा'।

बसा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश० ?] १. बरें। भिड़। वरठी। उ०— बसा लंक बरनी जग झोनी। तेहि ते अधिक लंक वह खीनी।—जायसी (शब्द०)। २. एक प्रकार की मछली।

बसात
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिसात'।

बसाना (१)
क्रि० स० [हिं० 'बसना' का सकर्मक तथा प्रे० रूप] १. बसने देना। बसने के लिये जगह देना। रहने को ठिकाना देना। जैसे,—राजा ने उस नए गाँव में बहुत से बनिए बसाए। संयो० क्रि०—देना।—लेना। २. जनपूर्ण करना। आबाद करना। जैसे,—गाँव बसाना, शहर बसाना। उ०—(क) केहि सुकृती केहि घरी बसाए। घन्य पुण्यमय परम सुहाए।—तुलसी (शब्द०)। (ख) नाद तैं तिय जेंवरी ते साँप करि घालैं घर बीथिका बसावति बनन की।—केशव (शब्द०)। संयो० क्रि०—देना।—लेना। मुहा०—घर बसाना=गृहस्थी जमाना। सुखपूर्वक कुटुंब के साथ रहने का ठिकाना करना। ३. टिकाना। ठहराना। स्थित करना। जैसे,—रात को इन सुसाफिरों को अपने यहाँ बसा लो। मुहा०—मन में बसाना=चित्त में इस प्रकार जमाना कि बरबर ध्यान में रहे। हृदय में अंकित कर लेना। उ०— व्यासदेव जब शुकहि सुनायो। सुनि कै शुक सो हृदय बसायो।—सूर (शब्द०)।

बसाना पु (२)
क्रि० अ० बसना। ठहरना। रहना। उ०—बालक अजाने हठी और की न मानै बात बिना दिए मातु हाथ भोजन न पाय है। माटी के बनाए गज बाजी रथ खेल माते पालन बिछौने तापै नेक न बसाय है।—हनुमान (शब्द०)।

बसाना (३)
क्रि० स० [सं० वेशन, पू० हिं० बैसाना] १. बिठाना। २. रखना। उ०—बधुक सुमन पद पंकज अंकुस प्रमुख चिह्नबनि आयो। नूपुर जनु मुनिवर कलहंसनि रचे नीड़ दै बाँह बसायो।—तुलसी (शब्द०)।

बसाना पु (४)
क्रि० अ० [हिं० बश से नामि० धा०] वश चलना। जोर चलना। काबू चलना। अधिकार या शक्ति का काम देना। उ०—(क) घट में रहै सूझै नहीं कर सौ गहा न जाय। मिला रहै औ ना मिलै तासों कहा बसाय।—कबीर (शब्द०)। (ख) काटिय तासु जीभ जो बसाई। स्रवन मूँदि नतु चलिय पराई।—तुलसी (शव्द०)। (ग) करो रो न्यारी हरि आपन गैया। नहिन बसात लाल कछु तुम सों सबै ग्वाल इक ठैयाँ। सूर (शव्द०)।

बसाना (५)
क्रि० अ० [हिं० बास] १. बास देना। महकना। उ०—(क) बेलि कुढगी फल बुरी फुलवा कुबुधि बसाय। मूल बिनासी तूमरी सरो पात वरुआय।—कबीर (शब्द०)। (ख) धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई। तुलसी (शब्द०)। २. दुर्गंध देना। बदबू देना। उ०—मद जस मंद बसाइ पसेऊ। औ बिसवासि छरै सब कोऊ।—जायसी (शब्द०)

बसाहना पु †
क्रि० स० [हिं० बिसाहना] खरीदना। क्रय करना। उ०—बसाहंति षीसा पइञ्जल्ल मोजा। भमे मीर बल्लीअ सइल्लार षौजा।—कीर्ति०, पृ० ४०।

बसिआना पु
क्रि० अ० [हिं० बासा] दे० 'बसियाना'।

बसिऔरा
संज्ञा पुं [हिं० वासी + और (प्रत्य०)] १. वर्ष की कुछ तिथियाँ जिनमें स्त्रियाँ बासी भोजन खाती और बासी पानी पीती हैं। २. बासी भोजन।

बसिठ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बसीठ'। उ०—उतरि बसिठ दुइ आइ जोहारे।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २६७।

बसिया †
वि० [हिं० बासी + इया (प्रत्य०)] दे० 'बासी'।

बसियाना
क्रि० अ० [हिं० बासी, या बसिया + ना (प्रत्य०)] बासी हो जाना। ताजा न रह जाना।

बसिष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वसिष्ठ'।

बसीकत
संज्ञा स्त्री० [हिं० बसना] १. बस्ती। आबादी। २. बसने का भाव या क्रिया। रहन।

बसीकर
वि० [सं० वशीकर] वशीकर। वश में करनेवाला। उ।—रसखानि के प्रानसुधा भरिबो अधरान पै त्यों अधरा धरिबो। इतने सब मैन के मोहनी यंत्र पै मंत्र बसीकर सी करिबो।—रसखानि (शव्द०)।

बसीकरन पु
सज्ञा पुं० [सं० वशीकरण] दे० 'वशीकरण'।

बसीगत
संज्ञा स्त्री० [हिं० बसना] दे० 'बसीकत'।

बसीठ
संज्ञा पुं० [सं० अवसृष्ट, प्रा० अवसिट्ठ] भेजा हुआ दूत। सेदेसा ले जानेवाला। उ०—(क) प्रथम बसीठ पठव सुनु नीती। सीता जेइ करहु पुनि प्रीती।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मधूकर तोहिं कौन सों हेत।....अति शठ दीठ बसीठ श्याम को हमें सुनावत गीत।—सूर (शब्द०)। (ग) जुझत ही मकाराक्ष के रावण अति दुख पाय। सत्वर श्री रघुनाथ पै दिए बसीठ पठाय।—केशव (शब्द०)।

बसीठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बसीठ + ई (प्रत्य०)] दूत का काम। दौत्य। सँदेशा भुगताने का काम। उ०—(क) हरि मुख निरखत नागरि नारि।... हारि जोहारि जो करत बसीठी प्रथमहि प्रथम चिन्हार।—सूर (शब्द०)। (ख) बिकानी हरिमुख की मुसकानि।......नैनन निरखि बसीठी कीन्हों मनु मिलयो पय पानि।—सूर (शब्द०)। (ग) सेतु बाँधि कपि सेन जिमि, उतरी सागर पार। गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार।—तुलसी (शव्द०)।

बसीत
संज्ञा पुं० [अ०] एक यंत्र का नाम जो जहाज पर सूर्य का अक्षांश देखने के लिये रहता है। कमान।

बसीत्यो पु
संज्ञा पुं० [हिं०] वास। निवास।

बसीना पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बसना] रहायस। रहन। यौ०—बासबसीना। उ०—इनही ते व्रज बासबसीनो। हम सब अहिर जाति मतिहीनो।—सूर (शव्द०)।

बसीला (१)
वि० [हिं० वास + इल (प्रत्य०)] गंधयुक्त। सुगंध या दुर्गंध भरा।

बसीला (२)
संज्ञा पुं० [अ० वसीलह्] १. मदद। सहायता। २. जरिया। राह। रास्ता।

बसु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वसु'।

बसुकला
संज्ञा पुं० [सं० वसुकला] एक वर्णवृत जिसे तारक भी कहते हैं।

बसुदेव
संज्ञा पुं० [सं० वसुदेव] दे० 'वसुदेव'।

बसुद्यौ पु †
संज्ञा पुं० [सं० वसुदेव] कृष्ण के पिता। वसुदेव। उ०—बसुद्यौ संभु सीस धरि आन्यौ गोकुल आनँदकंद।—सूर०, १०। १७९५।

बसुधा
संज्ञा स्त्री० [सं० वसुधा] दे० 'वसुधा'।

बसुमती
संज्ञा स्त्री० [सं० वसुमती] दे० 'वसुमती'।

बसुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बाँसुरी'।

बसुला
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० बसुली] दे० 'बसूला'।

बसूला
संज्ञा पुं० [सं० बासि + ल (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० वसूली] एक हथियार जिससे बढ़ई लकड़ी छीलते और गढ़ते हैं। उ०—मातु कुमति बढ़ई अध मूला। तेहि हमरे हित कीन्ह बसूला।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—यह बेंट लगा हुआ चार पाँच अंगुल चौड़ा लोहे का टुकड़ा होता है जो धार के ऊपर बहुत भारी और मोटा होता हैं। यह ऊपर से नीचे की आर चलाया जाता है।

बसूली
संज्ञा स्त्री० [हिं० बसूला] १. छोटा बसूला। २. राजगीरों का एक औजार जिससे वे इँटों को तोड़ते, छीलते और ठोंकते हैं।

बसेंड़ा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बाँस + ड़ा] [स्त्री० बसेंड़ी] पतला बाँस।

बसेरा (१)
वि० [हिं० बसना √ बस + एरा (प्रत्य०)] बसनेवाला। रहनेवाला। उ०—(क) निपट बसेरे अघ औगुन घनेरे नर नारिऊ अनेरे जगदंब चेरी चेरे हैं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पै तूँ जंबुदीप बसेरा।—जायसी ग्रं०, पृ० १३८।

बसेरा (२)
संज्ञा पुं० १. वह स्थान जहाँ रहकर यात्री रात बिताते हैं। बासा। टिकने की जगह। २. वह स्यान जहाँ चिड़ियाँ ठहरकर रात बिताती हैं। उ०—धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ विपति विषाद बसेरा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पिय मूरति चितसरिया चितवति बाल। चितवति अवध बसेरवा जपि जपि माल।—रहिमन (शब्द०)। मुहा०—बसेरा करना=(१) डेरा करना। निवास करना। ठहरना। उ०—(क) बहुते को उद्यम परिहरै। निर्भय ठौर बसेरो करै।—सूर (शब्द०)। (ख) हाथी घोड़ा बैल बाहनौं संग्रह किया घनेरा। बस्ती में से दिया खदेरी जंगल किया बसेरा।—कबीर (शब्द०)। (२) घर बनाना। रहना। बस जाना। उ०—कहा भयो जो देश द्वारका कीन्हों दूर बसेरो। आपुनही या ब्रज के कारण करिहौ फिरि फरि फेरो।—सूर (शब्द०)। बसेरा लेना=निवास करना। वास करना। रहना। उ०—अरी ग्वारि मैमंत बचन बोलत जो अनेरो। कब हरि बालक भए गर्भ कब लियो बसेरो।—सूर (शब्द०)। बसेरा देना=(१) रहने की जगह देना। ठहराना। टिकाना। (२) आश्रय देना। ठिकाना देना। उ०—प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन बसेरा।—तुलसी (शब्द०)। ३. टिकने या बसने का भाव। रहना। बसना। आबाद होना। उ०—(क) तन संशय मन सोनहा, काल अहेरी नित्त। एकै अंग बसेरवा कुशल पुछो का मित्त।—कबीर (शव्द०)। (ख) परहित हानि लाभ जिन केरे। उजरे हरष बिषाद बसेरे।—तुलसी (शव्द०)।

बसेरी पु
वि० [हिं० बसेरा] निवासी। रहनेवाला। उ०—मानिक पुरहि कबीर बसेरी। मुद्दत सुना शेख तकि केरी।—कबीर (शब्द०)।

बसैया पु †
वि० [हिं० बसना + ऐया (प्रत्य०)] बसनेवाला। रहनेवाला। उ०—(क) कबहुँ कहत हरि माखन खायो कौन बसैया कहत गाँवरी। कबहुँ कहत हरि ऊखल बाँधे घर घर ते लै चलो दाँवरी।—सूर (शव्द०)। (ख) भरत राम रिपुदवन लखन के चरित सरित अन्हवैया। तुलसी तब कस अजहु जानिबे रघुबर नगर बसैया।—तुलसी (शब्द०)। (ग) काहु को है चतुरानन को बर कोउ गजानन आस वसैया।—हनुमान (शब्द०)।

बसोधरा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वसुन्धरा] धरती। धरित्री। वसुंधरा। उ०—भ्रम्य भूलि परयौ भवसागर, कछू न बसाइ बसोधरा।—कबीर० ग्रं०, पृ० १२५।

बसोबास पु
संज्ञा पुं० [हिं० बास + आवास] निवासस्थान। रहने की जगह। उ०—चारि भाँति नृपता तुम कहियो। चारि मंत्रिमत मन में गहियो। राम मारि सुर एक न बचिहै। इंद्रलोक बसोबासहिं रचिहैं।—केशव (शव्द०)।

बसौँधी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बास + औंधी (प्रत्य०)] एक प्रकार की रबड़ी जो सुगंधित और लच्छेदार होती है।

बस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] १. चित्रकारी में वह मुर्ति, चित्र या प्रति- कृति जिसमें किसी व्यक्ति के मुख, अथवा छाती के ऊपरी भाग मात्र की आकृति बनाई गई हो। किसी व्यक्ति की ऐसी मूर्ति या चित्र जिसमें केवल धड़ और सिर हो। २. छाती। वक्षस्थल। सीना।

बस्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. बकरा।

बस्त † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वस्तु'। उ०—जो कुछ वस्त हवाले करों तो गँवाय।—दक्खिनी०, पृ० १५१। यौ०—चीलबस्त।

बस्त पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्र] दे० 'वस्त्र'। उ०—तिन दिष्षत बर बस्त मग अप्पन मुख अष्षहि।—पृ० रा०, १। ४१३।

बस्त पु (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० वस्ति] वस्ति। वक्षस्थल। उ०—अस्त बस्त अरु चर्म टंक लम्भै नन हड्डं।—पृ० रा०, १। ६६६८।

बरतक
संज्ञा पुं० [सं०] साँभर झील से तैयार नमक। साँभर नमक [को०]।

बस्तकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. साल का पेड़। २. असना का पेड़। पीतशाल वृक्ष।

बस्तगधा
संज्ञा स्त्री० [सं० बस्तगन्धा] अजगंधा। अजमोदा।

बस्तमुख
वि० [सं०] बकरे की तरह मुँहवाला। बकरमुहाँ [को०]।

बस्तमोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा।

बस्तर पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्र] वस्त्र। कपड़ा। उ०—बिन बस्तर अंग सुरंग रसी। सुहलै जनु साख मदंन कसी।— पृ० रा०, १४। ४९। यौ०—बस्तरमोचन, बस्तरामोचन=किसी का सब कुछ छीन लेना।

बस्तशृंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० बस्तश्रृङ्गिन्] मेषशृंगी। मेढ़ासींगी।

बस्तांबु
संज्ञा पुं० [सं० बस्ताम्बु] बकरे का मूत्र [को०]।

बस्ता
संज्ञा पुं० [फा० बस्तह् तुल० सं० वेष्ट (वेष्टन)] कपड़े का चौकोर टुकड़ा जिसमें कागज के मुट्ठे, बही खाते और पुस्तकादि बाँधकर रखते हैं। बेठन। क्रि० प्र०—बाँधना। मुहा०—बस्ता बाँधना=कागज पत्र समेटकर उठने की तैयारी करना।

बस्ताजिन
संज्ञा पुं० [सं०] बकरे का चमड़ा [को०]।

बस्तार
संज्ञा पुं० [फा० बस्ता] एक में बँधी हुई बहुत सी वस्तुओं का समूह मुट्ठा। पुलिंदा।

बस्ति
संज्ञा पुं० स्त्री० [सं०] दे० 'वस्ति'।

बस्ती
संज्ञा स्त्री० [सं० वसति] १. बहुत से मनुष्यों का घर बनाकररहने का भाव। आबादी। निवास। उ०—जिन जिह्वा गुन गाइया बिन बस्ती का गेह। सूने घर का पाहुना तार्सो लावै नेह।—कबीर (शब्द०)। २. बहुत से घरों का समूह जिसमें लोग बसते हैं। जमपद। खेड़ा, गाँव, कसबा, नगर इत्यादि। जैसे,—राजपूताने में कोसों चले जाइए कहीं बस्ती का नाम नहीं। उ०—मन के मारे बन गए, बन तजि बस्ती माहिं। कहै कबीर क्या कीजिए या मन ठहरै नाहिं।—कबीर (शब्द०)।

बस्तु
संज्ञा स्त्री० [सं० वस्तु] दे० 'वस्तु'। उ०—बस्तु सकल राखी नृप आगे। बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागं।—मानस, १। ३०६।

बस्त्र
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्र] दे० 'वस्त्र'।

बस्य
वि० [सं० वश्य] दे० 'वश्य'। उ०—भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।—मानस, ७। ९२।

बस्स ‡
अव्य० [फा० बस] दे० 'बस'। उ०—अच्छी, पै एक बात और कह लऊँ, फिर बस्स।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ५८।

बस्साना
क्रि० अ० [हिं० बास (=गध) + आना] दुर्गंध देना। बदबू करना।

बहँगा
संज्ञा पुं० [सं० वहन + अङ्ग] बड़ी बहँगी।

बहँगी
संज्ञा स्त्री० [सं० बहन + अङ्ग] बोझा ले चलने के लिये तराजू के आकार का एक ढाँचा। काँवर। विशेष—लगभग चार पाँच हाथ लंबी लचीली लकड़ी या बाँस के दोनों छोरों पर रस्सी का छीका लटकाकार नीचे काठ का चौकठा सा लगा देते हैं जिसपर बोझा रखा जाता है। बाँस को बीचोबीच कधे पर रखकर ले चलते हैं।

बहक
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहकना] १. पथभ्रष्टता। २. बहकने या इतस्ततः होने की स्थिति। ३. बहुत बढ़कर बोलना।

बहकना
क्रि० अ० [हिं० बहा ? या हिं० बहना से बहकना (=इधर उधर बह जागा)] १. भूल से ठीक रास्ते से दूसरी ओर जा पड़ना। मागंभ्रष्ट होना। भटकना। जैसे,— वह बहककर जंगल की ओर चला यया। संयो० क्रि०—जाना। २. ठीक लक्ष्य या स्थान पर न जाकर दूसरी ओर जा पड़ना। चूकना। जैसे, तलवार बहकना, हाथ बहकना। ३. किसा की बात या भुलावे में आ जाना। बिना भला बुरा बिचारे किसी के कहने या फुसलाने से कोई काम कर बैठना। उ०— बहक न हहि बहनापने जब तब, वीर बिनास। बचै न बड़ी सबीलहू चील घोंसुवा माँस।—बिहारी (शब्द०)। ४. किसी बात में लग जाने के कारण शांत होना। बहलना (बच्चों के लिये)। ५. आपे में न रहना। रस या मद में चूर होना। जोश या आवेश में होना। उ०—जब ने ऋतुराज समाज रच्यो तब तें अवली अलि की चहकी। सरसाय के सोर रसाल की डारन कोकिल कूकैं फिरै बहकी।—रसिया (शव्द०)। मुहा०—बहककर बोलना=(१) मद में चूर होकर बोलना। (२) जोश में आकर बढ़ बढ़कर बोलना। अभिमान आनि से भरकर परिणाम या औचित्य आदि का पिचार न करना। जैसे,—आज बहुत बहककर बोल रहे हो, उस दिन कुछ करते धरते नहीं बना। बहकी बहकी बातें करना=(१) मदोन्मत्त की सी बातें करना। (२) बहुत बढ़ी चढ़ी बातें करना।

बहकाना
क्रि० स० [हिं० बहकना] १. ठीक रास्ते से दूसरी ओर ले जाना या फेरना। रास्ता भुलवाना। भटकाना। संयो० क्रि०—देना। २. ठीक लक्ष्य या स्थान से दूसरी ओर कर देना। लक्ष्यभ्रष्ट कर देना। जैसे,—लिखने में हाथ बहका देना। ३. भुलावा देना। भरमाना। बातों से फुसलाना। कोई अयुक्त कार्य कराने के लिये बातों का प्रभाव डालना। जैसे,—उसे बहकाकर उसने यह काम कराया है। उ०—नई रीति इन अबै चलाई। काहू इन्हैं दियो बहकाई।—सूर (शव्द०)। ४. (बातों से) शांत करना। बहलाना। (बच्चों को)।

बहकावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहकाना + आवट (प्रत्य०)] बह- काने की क्रिया या भाव।

बहकावा
संज्ञा पुं० [हिं०] भुलावा। बहकाने या भुलावे में डालनेवाला कार्य।

बहतोल पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहता + ल(प्रत्य)] जल बहाने की नाली। बरहा। उ०—ग्रीषम निदाघ समै बैठे अनुराग भरे बाग में बहति बहतोल है रहँट की।—लाल (शब्द०)।

बहत्तर (१)
वि० [सं० द्वासप्तति, प्रा० बहत्तरि] सत्तर और दो। सत्तर से दो अधिक।

बहत्तर (२)
संज्ञा पुं० सत्तर से दो अधिक की संख्या और अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—७२।

बहत्तरवाँ
वि० [हिं० बहत्तर + वाँ (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० बहत्तरवीं] जिसका स्थान बहत्तर पर पड़े। जो क्रम में इक- हत्तर वस्तुओं के बाद पड़े।

बहदुरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक कीड़ा जो धान या चने में लगकर उनके पत्ते काटकर गिरा देता है।

बहन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बहिन'। उ०—उसने आशीर्वाद दिया कि बहन, तुम भी हम सी हो।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २१६।

बहन (२)
संज्ञा पुं० [सं० बहन] बहने की क्रिया या भाव। उ०— वायु को बहन दिन दावा को दहन, बड़ी बड़वा अनल ज्वाल जाल में रह्यौ परे।—केशव (शब्द०)।

बहनड़ी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहन + ड़ी (प्रत्य०)] बहिन। भगिनी। उ०—आन पुरुष हूँ बहनड़ी, परम पुरुष भर्तार। हूँ अवला समझौ नहीं, तूँ जानै कर्तार।—दादू० बानी, पृ० ३५१।

बहना
क्रि० अ० [सं० वहन] १. द्रव पदार्थो का निम्न तल की ओर आपसे आप गमन करना। पानी या पीने के रूप की वस्तुओं का किसी ओर चलना। प्रवाहित होना। उ०—हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहा- वनि।—तुलसी (शव्द०)। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—बहती गंगा में हाथ धोना=किसी ऐसी बात से लाभ उठाना जिससे सब लाभ उठा रहे हों। बहती नदी में पाँव पखारना=दे० 'बहती गंगा में हाथ धोना'। बह चलना= पानी की तरह पतला हो जाना। जैसे,—दाल या तरकारी का। २. पानी की धारा में पड़ककर जाना। प्रवाह में पड़कर गमन करना। जैसे, बाढ़ में गाय, बैल, छप्पर आदि का बह जाना। ३. स्त्रवित होना। लगातार बूंद या धार के रूप में निकलकर चलना। (जो निकले ओर जिसमें से निकले दोनों के लिये)। जैसे, मटके का घी बहना, शरीर से रक्त बहना, फोड़ा बहना। ४. वायु का संचरित होना। हवा का चलना। जैसे, हवा बहना। उ०—(क) गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिविध बयारि बहइ सुख देनी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) चाँदनी के भारन दिखात उनयी सो चंद गंध ही के भारन बहत मंद मंद पौन।—द्विजदेव (शब्द०)। ५. कहीं चला जाना। इधर उधर हो जाना। हट जाना। दूर होना। जैसे,—(क) मंडली के टूटते ही सब इधर उधर हो गए। (ख) कबूतरों का इधर उधर बह जाना। (कबूतर- बाज)। उ०—सुक सनकादि सकल मन मोहे, ध्यानिन ध्येन बह्यो।—सूर (शब्द०)। ६. ठीक लक्ष्य या स्थान से सरक जाना। हठ जाना। फिसल जाना। जैसे,—टोपी के गोट का नीचे बह आना। धोती का कमर के नीचे बह आना। ७. बिना ठिकाने का होकर घूमना। मारा मारा फिरना। जैसे,—न जाने कहाँ का बहा हुआ आया, यद्द' ठिकाना लग गया। ८. सन्मार्ग से दूर हो जाना। कुमागा होना। आवारा होना। चौपट होना। बिगड़ना। चरित्र- भ्रष्ट होना। जैसे,—लुच्चों के साथ में पड़कर वह बह गया। उ०—मातु पितु गुरु जननि जान्यो भली खोई महति। सूर प्रभु को ध्यान धरि चित अतिहि काहे बहति।—सूर (शब्द०)। ९। गया बीता होना। अधम या बुरा होना। जैसे,—वह ऐसा नहीं बह गया है कि तुम्हारा पैसा छूएगा। १०. गर्भपात होना। अड़ाना। (चौपायों के लिये)। ११. बहुतायत से मिलना। सस्ता मिलना। संयो० क्रि०—चलना। २. (रुपया आदि) डूब जाना। नष्ठ जाना। व्यर्थ खर्च हो जाना। १३. कनकौवे की डोर का ढीला पड़ना। पतंग का पेटा छोड़ाना। १४. जल्दी जल्दी अंडे देना। मुहा०—बहता हुआ जोड़ा=बहुत अंडे देनेवाला जोड़ा (कबूतर)। १५. लादकर ले चलना। ऊपर रखकर ले चलना। बहन करना। उ०—जन्म याहि रूप गयो पाप बहत।—सूर (शब्द०)। १६. खींचकर ले चलना (गाड़ी आदि)। उ०—अस कहि चढ़यों ब्रह्म रथ माहीं। श्वेत तुरंग बहे रथ काहीं।—रघुराज (शब्द०)। पु १७. धारण करना। रखना। उ०—छोनी में न छाँड़्यो छप्पो छोनिप को छोना छोटो छोनिपछपन वाको बिरद बहत हौं।—तुलसी (शब्द०)। १८. उठना। चलना। उ०—बहइ न हाथ दहइ रिस छाती।—तुलसी (शब्द०)। १९. निर्वाह करना। निबाहना। उ०—गाड़े भली उखारे अनुचित बनि आए बहिबे ही।—तुलसी (शब्द०)। २०. बीतना। गुजरना। व्यतीत होना। उ०—बहुत काल बहि गए भरे जगल धर पूरन।—पृ० रा०, १। ५२०।

बहनापा
संज्ञा पुं० [हिं० बहिन + आपा (प्रत्य०)] भगिनी की आत्मीयता। बहिन का संबंध। क्रि० प्र०—जोड़ना।

बहनी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कोल्हू में से रस लेकर रखनेवाली। ठिलिया।

बहनी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वह्नि] अग्नि। आग। उ०—(क) तुम काहे उडुराज अमृतमय तजि सुभाउ बरषत कत बहनी।—सूर (शब्द०)। (ख) दार बहनीं ज्यूँ होइबा भेवं। असंख दल पखुड़ी गगन करि सेवं।—गोरख०, पृ० १६।

बहनी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बोहनी'।

बहनु पु
संज्ञा पुं० [सं० वहन] सवारी। उ०—देत संपदा समेत श्रीनिकेत जाचकनि भवन बिभूत भाग वृषभ बहनु है।—तुलसी (शब्द०)।

बहनेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहन + एली (प्रत्य०)] वह जिसके साथ बहनापा या बहन का संबंध स्थापित किया गया हो। मुँहबोली बहन। (स्त्रियाँ)। उ०—हम दोनों बहनेली हो गई हैं।—त्याग०, पृ० ५।

बहनोई
संज्ञा पुं० [सं० भगिनीपति, प्रा० बहिणीवइ] बहिन का पति।

बहनौता
संज्ञा पुं० [सं० भगिनीपुत्र, प्रा० बहिणीउत्त] बहिन का पुत्र। भांजा।

बहनौरा
संज्ञा पुं० [हिं० बहिन + औरा (प्रत्य०) < सं० आलय] बहिन की ससुराल।

बहबल पु †
वि० [सं० विह्वल] दे० 'विह्वल'। उ०—दे सिर फूटि परचौ सु भयौ पीड़ित अति कैदी। इंद्री बहवल भूख पिटारी मूर्स छेदी।—ब्रज० ग्र० पृ० ७३।

बहबहा
वि० [हि० बहना] बहेतू। उ०—बहबहे कहँ रहे धोखे काहु के आनँदघन भूले से फूले फिरौ तकि ताही ज्यों टकटोरौ।—घनानंद०, पृ० ५६९।

बहबूदी
संज्ञा स्त्री० [फा०] लाभ। भलाई। फायदा।

बहम
संज्ञा पुं० [अ० वहम] दे० 'वहम'।

बहमोल
वि० [सं० बहुमूल्य] बहुमूल्य। अधिक दामवाला। उ०— इह अमोल मोलन बहमोल ग्रह फिरि साजिय।—पृ० रा०, १६। १८।

बहरंगी पु
वि० [हिं० बहुरंगी] बहुत रंगोवाला। उ०—बहरंगी चीधाँ लखी, अवरंगी नीसाँण।—रा० रू०, पृ० ८३।

बहर पु (१)
क्रि० वि० [हिं० बाहर] दे० 'बाहर'। उ०—दरिया गुर दरियाव की, साध चहूँ दिस नहर। संग रहै सोई पिए, नहिं फिरै तृषाया बहर।—दरिया० बानी, पृ० ३१।

बहर (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० बह्र] छंद। वृत्त। उ०—काम कामिनी तै ललित केलि कला कमनीय। रंग भरी राजत रवन बहर बनी रवनीय।—स० सप्तक, पृ० ३५२। विशेष—छंद को उर्दू में बहर कहते हैं। मशहूर बहरें कुल उन्नीस हैं। उनमें से कुल पांच बहरें खास अरबी के लिये हैं। बाकी अरबी ओर फारसी दोनों में काम देती हैं।

बहर (३)
संज्ञा पुं० [अ० बह] समुद्र। सागर। उ०—बहर रूप सम भृप रूप अनभूत सँचारिय।—पृ० रा०, ७। ९३।

बहर पु (४)
संज्ञा पुं० [अ० वहल] पंक। कर्दम। कीचड़। उ०—एक लरत गिरत घुंमत घटत भटक, नट्ट मंडिय बहर।—पृ० रा०, १३। ७०।

बहरखा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] बोरखा नामक हाथ का गहना। उ०—बाहे सुंदरि बहरखा, चासू चुड़ स बचार। मनुहरि कटिथल मेखला पग झाँझर झंकार।—ढोला०, दू० ४८१।

बहरतौर
वि० [फा० बहर + अ० तौर] दे० 'बहरहाल'।

बहरहाल
वि० [फा० बहर + अ० हाल] प्रत्येक दशा में हर हालत में। जैसे भी हो। उ०—मामले के सच समझा हो या झूठ, मुंशी का बहरहाल तबादला हो गया।—काले०, पृ० ६७।

बहरा
वि० [सं० वधिर, प्रा० बहिर] [स्त्री० बहरी] जो कान से सुन न सके। न सुननेवाला। जिसे श्रवण शक्ति न हो। मुहा०—बहरा पत्थर, या बज्र बहरा=बहुत अधिक बहरा। जिसे कुछ भी न सुनाई पड़ता हो।

बहराई †
संज्ञा पुं० [हिं० बाहर] बाहर होने या रहने की स्थिति। बाह्य स्थिति। बाहर होना। उ०—बासा सब महँ अहै तुम्हारो, नहीं कहूँ बहराई।—जग० बानी, पृ० २६।

बहराना (१)
क्रि० स० [हिं० भुराना (भ का उच्चारण बह के रूप में हो गया) या फा० बहाल] १. जिस बात से जी ऊबा या दुखी हो उसकी ओर से ध्यान हटाकर दूसरी ओर ले जाना। ऐसी बात कहना या करना जिससे दुःख की बाद भूल जाय और चित्त प्रसन्न हो जाय। उ०—मैं पठवत अपने लरिका को आवै मन बहराइ।—सूर (शब्द०)। २. बहकाना। भुलाना। फुसलाना। उ०—(क) उरहन देत ग्वालि जे आई तिन्है जशोदा दियो बहराई।—सूर (शब्द०)। (ख) क्यों बहरावत झूठ मोहिं और बढ़ावत सोग। अब भारत में नाहि वे रहे बीर जे लोग।—हरिश्चंद्र (शब्द०)।

बहराना † (२)
क्रि० स० [हिं० बाहर] दे० 'बहरियाना'।

बहराना (३)
क्रि० अ० बाहर होना। दे० 'बहरियाना' २।' उ०— भोर ठहरात न कपूर बहरात मेध सरद उड़ात बात लाके दिसि दस को।—भूषण ग्रं०, पृ० ९। २. बहरा बनने का नाटक करना।

बहरिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० याहर + इया (प्रत्य०)] बल्लभ संप्रदाय के मंदिरों के छोटे कर्मचारी जो प्रायः मंदिर के बाहर ही रहते हैं।

बहरिया † (२)
वि० बाहर का। बाहर संबंधी।

बहरियाना (१)
क्रि० स० [हिं० बाहर + इयाना (नामधातु० प्रत्य०)] १. बाहर की ओर करना। निकालना। २. अलग करना। जुदा करना। ३. नाव को किनारे से हटाकर मँझधार की ओर ले जाना। (मल्लाह)।

बहरियाना (२)
क्रि० अ० १. बाहर की ओर होना। २. अलग होना। जुदा होना। ३. नाव का किनारे से हटकर मंझधार की ओर जाना।

बहरी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] एक शिकारी चिड़िया जिसका रूप रंग और स्वभाव बाज का सा होता है, पर आकार कुछ छोटा होता है। उ०—जुररा, बहरी, बाज बहु, चीते, स्वान, सचान।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १४४।

बहरी (२)
वि० [अ० बहु] दे० 'बह्नी'।

बहरू
संज्ञा पुं० [देश०] मध्यप्रदेश, बरार और मदरास में होनेवाला मझोले आकार का एक पेड़। विशेष—इसकी लकड़ी सुंदर, चमकदार और मजबूत होती है। हल, पाटे आदि खेतों के सामान, गाड़ियाँ तथा तसवीरों के चौकठे इस लकड़ी के बनते हैं।

बहरूप
संज्ञा पुं० [हिं० बहु + रूप] एक जाति जो बैलों का व्यवसाय करती है और गोरखपुर, चंपारन आदि पूरबी जिलों में बसती है।

बहरो पु †
वि० [हिं०] दे० 'बहरा'।

बहल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बहन] एक प्रकार की छतरीदार या मंडपदार गाड़ी जिसे बैल खींचते हैं। रथ के आकार की बैलगाड़ी। खड़खड़िया। रब्बा।

बहल (२)
वि० [सं०] १. अत्यधिक। बहुत ज्यादा। २. घना। ठोस। ३. गुच्छेदार। झब्बेदार। जैसे, दुम। ४. मजबूत। गाढ़। दृढ़। ५. कर्कश। कठोर। जैसे, ध्वनि [को०]।

बहल (३)
संज्ञा पुं० एक प्रकार की ईख।

बहलना
क्रि० अ० [हिं० बहलाना का अकर्मक रूप] १. जिस बात से जी ऊबा या दुःखी हो उसकी ओर से ध्यान हटकर दूसरी ओर जाना। झंझट या दुःख की बात भूलना और चित्त का दूसरी ओर लगना। जैसे,—दो चार महीने बाहर जाकर रहो, जी बहल जायगा। संयो० क्रि०—जाना। २. मनोरंजन होना। चित्त प्रसन्न होना। जैसे,—थोड़ी देर बगीचे में जाने से जी बहल जाता है।

बहलवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० बहलवर्त्मन्] एक नेत्ररोग [को०]।

बहला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एला या इलायची का वृक्ष और उसका फल [को०]।

बहलाना
क्रि० स० [फा़० बहाल (=स्वस्थ) या हिं० भुलाना] १. जिस बात से जी ऊबा या दुखी हो उसकी ओर से ध्यारूहटाकर दूसरी ओर ले जाना। झंझट या दुःख की बात भुलवाकर चित्त दूसरी ओर ले जाना। २. मनोरंजन करना। चित्त प्रसन्न करना। जैसे,—थोड़ी देर जी बहलाने के लिये बगीचे चला जाता हूँ। ३. भुलावा देना। बातों में लगाना। बहकाना। किसी के साथ एसा करना कि वह सावधान न रह जाय। जैसे,—उसे बहलाकर हम कुछ रुपया निकाल लाए हैं।

बहलाव
संज्ञा पुं० [हिं० बहलना] चित्त का किसी ओर कुछ काल के लिये लग जाना। मनोरंजन। प्रसन्नता। यौ०—मनबहलाव।

बहलावा
संज्ञा पुं० [हिं० बहलाना] भुलावा। बहकावा। उ०— अंतमुख संगठन पलायन, बहलावा है।—रजत०, पृ० ६३।

बहलित
वि० [सं०] अत्यधिक मजबूत और ठोस या घना [को०]।

बहलिया
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बहेलिया'।

बहलो
संज्ञा स्त्री० [सं० वहन] एक प्रकार की छतरीदार या परदेदार गाड़ी जिसे बैल खींचते हैं। रथ के आकार की बैलगाड़ी।

बहल्ला पु ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बहलना अथवा फा़० बहाल] आनंद। प्रमोद। उ०—चला चला छायो रव ह्वै गयौ बहल्ला हमै लल्ला देत ईस आज अवधभुवार को।—रघुराज (शब्द०)।

बहल्ली
संज्ञा पुं० [हिं० बाहर > बहर + ली (प्रत्य०)] कुश्ती का एक पेंच। इसमें प्रतिपक्षी द्वारा कंधे पर आए हाथ को दबाकर घूम जाते हैं और साथ ही उसकी टाँग पर टाँग मारकर चित्तकर देते हैं।

बहशत
संज्ञा स्त्री० [अ० वहशत] भय। डर। खौफ। बदहोशी। उ०—बजाय तबीअत खुश करने के एक अजीब किस्म की बहशत और घबराहट पैदा करती है।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० १५५।

बहस ‡ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] सम। उ०—विषम बहस अरु विषम बहस इम पद चलु द्वालै हेक पखैं।—रघु० रू०, पृ० ६२।

बहस (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. वाद। दलील। तर्क। खंडन मंडन की युक्ति। किसी विषय को सिद्ध करने के लिये उत्तर प्रत्युत्तर के साथ बातचीत। क्रि० प्र०—करना। २. विवाद। झगड़ा। हुज्जत। ३. होड़। बाजी। बदाबदी। उ०—मोहि तुम्हैं बाढ़ी बहस को जीतै जदुराज। अपने अपने बिरद की दुहूँ निबाहत लाज।—बिहारी (शब्द०)। यौ०—बहस मुबाहसा = तर्क वितर्क। वादविवाद।

बहसना पु
क्रि० अ० [अ० बहस + हिं० ना (प्रत्य०)] १. बहस करना। विवाद करना। तर्क वितर्क करना। २. होड़ लगाना। शर्त बाँधना। उ०—बहसि करत बहु हेतु जहँ एक काज की सिद्धि। इहो समुच्चय कहत हैं जिनकी है मति रिद्धि।—मतिराम (शब्द०)।

बहाउ ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बहाव] दे० 'बहाव'।

बहादर †
संज्ञा पुं० [तु० बहादुर] वीर। बहादुर। उ०—नाना विध बकवाद करन कौ बड़ा बहादुर।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ९५।

बहादुर
वि० [तु०] १. उत्साही। साहसी। २. शूरवीर। पराक्रमी।

बहादुराना
वि० [फा़० बहादुरानह्] वीरोचित। बहादुरों के योग्य [को०]।

बहादुरी
संज्ञा स्त्री० [तु०] वीरता। शूरता।

बहाना (१)
क्रि० स० [हिं० बहना] १. द्रव पदार्थों को निम्न तल की ओर छोड़ना या गमन कराना। पानी या पानी सी पतली चीजों को किसी ओर ले जाना। प्रवाहित करना। जैसे,—खून की नदी बहाना। संयो० क्रि०—देना। २. पानी की धारा में डालना। बहती हुई चीज में इस प्रकार डालना कि बहाव के साथ चले। प्रवाह के साथ छोड़ना । जैसे,—नदी में तख्ते या लट्ठे बहाना। ३. लगातार बूँद या धार के रूप में छोड़ना या निकालना। ढालना। गेरना। लुढ़ाना। जैसे,—(क) आँसू बहाना। (ख) घड़े का पानी क्यों बहाते रहे हो ?। मुहा०—फोड़ा बहाना = फोड़े में इस प्रकार छेद कर देना जिससे उसमें का मवाद निकल जाय। जैसे,—यह दवा फोड़े को बहा देगी। ४. वायु संचालित करना। हवा चलाना। ५. व्यर्थ व्यय करना। खोना। गँवाना। जैसे,—उसने लाखों रुपए बहा दिए। †६. फेंकना। डालना। पकड़े या लिए न रहना। ७. सस्ता बेचना। कौड़ियों के मोल दे देना।

बहाना (२)
संज्ञा पुं० [फा़० बहानह्] १. किसी बात से बचने या कोई मतलब निकालने के लिये अपने संबंध में कोई झूठ बात कहना। मिस। हीला। जैसे,—काम के वक्त तुम बीमारी का बहाना करके बैठ जाते हो। क्रि० प्र०—करना।—बनाना। २. उक्त उद्देश्य से कही हुईं झूठ बात। वह बात जिसकी ओट में असल बात छिपाई जाय। क्रि० प्र०—ढूँढ़ना। ३. निमित्त। कहने सुनने के लिये एक कारण। प्रसंग। योग। जैसे,—(क) हीले रोजी, बहाने मौत। (ख) चलो इसी बहाने हम भी बंबई देख आएँगे।

बहानेबाजी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बहाना बनाने का काम। हीला- हवाला।

बहार
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. बसंत ऋतु। फूली के खिलने का मौसिम। उ०—जिन दिन देखे वे कुसुम गई सो बीति बहार—बिहारी (शब्द०)। २. मौज। आनंद। क्रि० प्र०—आना।—उड़ना।—लूटना।—होना। ३. यौवन का विकास। जवानी का रंग। ४. शोभा। सौंदर्य। रमणीयता। सुहावनापन। रौनक। जैसे,—यहाँ बड़ी बहार है।क्रि० प्र०—देना। ५. विकास। प्रफुल्लता। जैसे,—उसके सिर पर कलँगी क्या बहार देती है। मुहा०—बहार पर आना = विकसित होना। खिलना। पूर्ण शोभासंपन्न होना। ६. मजा। तमाशा। कौतुक। जैसे,—उस बेवकूफ को वहाँ ले चलो, देखो क्या बहार आती है। क्रि० प्र०—आना। ७. नारंगी का फूल। ८.एक रागिनी।

बहारगुजरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बहार + हिं० गुर्जरी] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।

बहारनशाख
संज्ञा पुं० [फा़०] मुकाप्त राग का पुत्र एक राग।

बहारना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बुहारना'।

बहारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बुहारी'।

बहारू
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बुहारी'। उ०—डग फरास हाजिर खड़े बरुनि बहारू देत।—स० सप्तक, पृ० १८२।

बहाल
वि० [फा़०] १. जहाँ जैसा था वहाँ वैसा ही। पूर्ववत् स्थित। ज्यों का त्यों। जैसे,—अदालत का फैसला बहाल रहा। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—नौकरी पर बहाल करना = जिस जगह पर नौकर था उसी जगह पर फिर मुकर्रर करना। २. भला चंगा। स्वस्थ। ३. प्रसन्न। जैसे,—तबीयत बहाल करना।

बहाला †
संज्ञा पुं० [हिं० बहना या देश०] बरहा। नाला। उ०— उडै पग हात किरका हूवै अंगरा, बहै रत जेम सावण बहाला।—रघु० रू०, पृ० २९।

बहाली (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] पुनर्नियुक्ति। फिर उसी जगह पर मुकर्ररी।

बहाली † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहलाना] झाँसा पट्टो। धोखा देनेवाली बात। उ०—वाहरे, वाहरे, कैसी दौड़ी चली जाती है। देखकर भी बहाली दिए जाती है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २९। क्रि० प्र०—देना।

बहाव
संज्ञा पुं० [हिं० बहना, √ बह + आव (प्रत्य०)] १. बहाने का भाव। २. बहने की क्रिया। प्रवाह। ३. बहती हुई धारा। बहता हुआ जल आदि। जैसे,—बहाव में पड़ना।

बहावन पु
वि० [हिं० बहाव] बहानेवाला। दूर करनेवाला। उ०—आनँदघन अघओघ बहावन सुद्दस्टि जिवावन वेद भरत हैं मामी।—घनानंद, पृ० ४१८।

बहिः
अव्य० [सं० वहिस्] बाहर।

बहिअर †
संज्ञा स्त्री० [सं० वधूवर, हिं० बहुवर] स्त्री।

बहिक्रम पु
संज्ञा पुं० [सं० वयःक्रम] अवस्था। उम्र। †वय क्रम। उ०—(क) जल सीसव मुद्ध समान भय। रबि बाल बहिक्रम लै अथर्य।—पृ० रा०, २५।९२। (ख) इते पर बाल बहिक्रम जानि। हिये करुना उपजै अति आनि।—केशव (शब्द०)। (ख) ग्यारह वर्ष बहिक्रम बीत्यो। खेलत आखेटक श्रम जीत्यो।—लाल (शब्द०)।

बहित्र
संज्ञा पुं० [सं० वहित्र] नाव। जहाज। उ०—सोइ राम कामारि प्रिय अवधपति सवँदा दास तुलसी त्रासनिधि वहित्रं।—तुलसी (शब्द०)।

बहिन
संज्ञा स्त्री० [सं० भगिनी, प्रा० बहिणी] माता की कन्या। बाप की बेटी। वह लड़की या स्त्री जिसके साथ एक ही माता पिता से उत्पन्न होने का संबंध हो। भगिनी। विशेष—जिस प्रकार स्नेह से समान अवस्था के पुरुषों के लिये 'भाई' शब्द का व्यवहार होता है उसी प्रकार स्त्रियों के लिये 'बहिन', 'बहिनी' शब्द का भी।

बहिना †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बहिन'। उ०—बहिना आज सँजो दो, धीरे धीरे दीप अवलियाँ।—कुंकुम, पृ० १८।

बहिनापा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बहनापा'।

बहिनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० भगिनी, प्रा० बहिणो] दे० 'बहिन'।

बहिनोली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बहनेली'। उ०—बोली बहिनोली घर घर तें भरि भरि ओली देत सिहाय।—घना- नंद, पृ० ५६१।

बहियाँ पु ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाह + इयाँ (प्रत्थ०)] दे० 'बाहीं' या 'बाहँ'। उ०—सूरदास हरि बोलि भगत को निरबाहत दै बहियाँ।—सूर (शब्द०)।

बहिया
संज्ञा स्त्री० [सं० वाह] बाढ़। प्लावन। उ०—नारी का अश्रु जल अपनी एक एक बूँद में बहिया लिए रहता है। जनमेजय०, पृ० १३।

बहिर्
अव्य० [सं० बहिस् का समासप्रयुक्त रूप] १. बाहर। जैसे, बहिगंमन। २. बाहर का। बाहर से। उ०—बहिर्रति सात अरु अंतर्रति सात सुन रति विपरीतनि को विविध बिचार है।—केशव (शब्द०)।

बहिरंग
वि० [सं० बहिरङ्ग] १. बाहरी। बाहरवाला। 'अंत— रंग' का उलटा। २. जो गुट या मंडली के भीतर न हो।

बहिर पु †
वि० [सं० वधिर] दे० 'बहरा'। उ०—अंधहु बधिर न कहहिं अस स्त्रवन नयन तव बीस।—तुलसी (शब्द०)।

बहिरत पु ‡
अव्य० [सं० बहिर्] बाहर। उ०—जोगी होइ जग जीतता, बहिरत होइ संसार। एक अंदेसा रहि गया, पाछे परा अहार।—कबीर (शब्द०)।

बहिरा पु
वि० [हिं०] दे० 'बहरा'।

बहिराना † (१)
क्रि० स० [हिं० बाहर + ना (प्रत्य०)] बाहर कर देना। निकाल देना। उ०—सत्त नाम सुधा बरतावहु, घिरत लेहु बहिराई।—जग० बानी, पृ० ११७।

बहिराना (२)
क्रि० अ० बाहर होना।

बहिर्गत
वि० [सं०] १. जो बाहर गया हो। बाहर आया या निकला हुआ। २. जो बाहर हो। ३. अलग। जुदा। जो अंतर्गत न हो।

बहिर्गमन
संज्ञा पुं० [सं०] बाहर जाना। उ०—जीवन को कुछ बहिर्गमन मिले।—सुनीता, पृ० ३३।

बहिर्गीत
संज्ञा पुं० [सं०] वह गायन जो तंतुवाद्य पर गाया जाय [को०]।

बहिर्गेह
अव्य० [सं०] १. गुह के बाहर। २. अन्य देश में। विदेश में [को०]।

बहिर्जगत्
संज्ञा पुं० [सं०] दृश्यमान संसार। प्रत्यक्ष जगत् [को०]।

बहिर्जानु
अव्य० [सं०] हाथों को दोनों घुटनों के बाहर किए हुए (बीच में नहीं)। विशेष—श्राद्ध आदि कृत्यों में इस प्रकार बैठने का प्रयोजन पड़ता है।

बहिर्देश
संज्ञा पुं० [सं०] १. विदेश। परदेश। २. ग्राम या जनपद के बाहर का स्थान। ३. वह स्थान जहाँ गाँव या कस्बा न हो [को०]।

बहिर्द्वार
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकोष्ठ। तोरण। पोर्टिको [को०]।

बहिर्धा
वि० [सं०] बाहर का। बाहर की ओर का। बाह्म। बाहरी। उ०—और बहिर्धा परिणामभाजन लोक के रूप में (स्थान) होता है।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ३४१।

बहिर्ध्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम [को०]।

बहिर्भूत
वि० [सं०] १. जो बाहर हुआ हो। २. जो बाहर हो। ३. अलग। जुदा। ४. बीता हुआ। व्यतीत। जैसे, समय (को०)। ५. लापरवाह (को०)।

बहिर्भूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बस्ती से बाहरवाली भूमि। २. झाड़े या जंगल जाने की भूमि। उ०—गए हैं बहिर्भूमि तहाँ कृष्ण झूमि आए करी बड़ी धूम आक बौंड़िन सों मारि कै।—प्रियादास (शब्द०)।

बहिर्मुख (१)
वि० [सं०] १. विमुख। विरुद्ध। पराङ्मुख। २. जो बाह्म विषयों में प्रवृत्त या दत्तचित्त हो। ३. मुख के बाहर आया हुआ (को०)। †४. बहिष्कृत। बाहर किया हुआ। उ०—तब वा नागर ने श्रीगुसाँई जी से बिनती करि कह्मो जो महाराज मेरी ज्ञाति के बहिर्मुख हैं।

बहिर्मुख (२)
संज्ञा पुं० देवता [को०]।

बहिर्यात्रा
संत्रा पुं० [सं०] बाहर जाना। विदेश जाना [को०]।

बहिर्यान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बहिर्यात्रा'।

बहिर्योग
संज्ञा पुं० [सं०] बाह्म वस्तुओं या विषयों पर ध्यान अधिक केंद्रित करना [को०]।

बहिर्रति
संज्ञा स्त्री० [सं० बहिर् + हिं० रति] केशव के अनुसार रति के दो भेदों में एक। बाहरी रति या समागम जिसके अंतर्गत आलिंगन, चुंबन, स्पर्श, मर्दन, नखदान, रददान और अधरपान हैं। उ०—बहिर्रति सात अरु अतर्रति सात सुन रति बिपरीतनि को विविध विचार है।—केशव (शब्द०)।

बहिर्लंब
संज्ञा पुं० [सं० बहिर्लम्ब] वह लंब जिससे अधिक कोण बनते हैं [को०]।

बहिर्लापिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] काव्यरचना में एक प्रकार की पहेली जिसमें उसके उत्तर का शब्द पहेली के शब्दों के बाहर रहता है, भीतर नहीं। 'अंतर्लापिका' का उलटा। जैसे,— अक्षर कौन विकल्प को युवति बसति किहि अंग। बलि राजा कौने छल्यो सुरपति के परसंग। उत्तर क्रमशः वा, वाम और वामन।

वहिर्वासा
संज्ञा पुं० [सं० बहिर्वास्] बाहरी कपड़ा। कौपीन के ऊपर पहनने का कपड़ा।

बहिर्विकार
संज्ञा पुं० [सं०] गर्मी या आतशक का रोग [को०]।

बहिर्व्यसन
संज्ञा पुं० [सं०] बाहरी विषयों के प्रति अनुराग। लंपटता [को०]।

बहिव्यसनी
वि० [सं० बहिर्व्यसनिन्] लंपट। क्षुद्र। अविनयी। निम्न [को०]।

बहिला †
वि० [सं० बहुला (= गाय), या हिं० बाँझ + ला (प्रत्य०)] बंध्या। बाँझ। जो बच्चा न दे। (चौपायों के लिये)।

बहिश्चर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाहर जानेवाला। २. बाहरी। बाहर का [को०]।

बहिश्चर (२)
संज्ञा पुं० १. केकड़ा। कर्कत। २. बाहर का दूत या गुप्तचर। बाहर का भेद लेनेवाला [को०]।

बहिष्क
वि० [सं०] बाहर का। बाहरी [को०]।

बहिष्करण
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाह्म इंद्रियाँ। २. हटाना। अलग करना। ३. निकालना। बाहर करना। ४. त्याग। क्रि० प्र०—करना।—होना।

बहिष्कार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० बहिष्कृत] १. बाहर करना। निकालना। २. दूर करना। हटाना। अलग करना। ३. त्याग। क्रि० प्र०—करना।—होना।

बहिष्कार्य
वि० [सं०] बहिष्कार करने योग्य। उ०—किसी त्याज्य। प्रकार की कुटिल अभिसंधि वह अपने के लिये हो या दूसरे के लिये सद्यः बहिष्कार्य समझता हूँ।—गीतिका (श्व०), पृ० १६।

बहिष्कुटीचर
संज्ञा पुं० [सं०] कर्कट। केकड़ा [को०]।

बहिष्कृत
वि० [सं०] १. बाहर किया हुआ। निकाला हुआ। २. अलग किया हुआ। दूर किया हुआ। ३. त्यागा हुआ। त्यक्त।

बहिष्क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बहिष्कार' [को०]।

बही
संज्ञा स्त्री० [सं० बद्ध, *बद्धिता, हिं० बँधी ?] हिसाब किताब लिखने की पुस्तक। सादे कागजों का गड जो एक में सिला हो और जिसपर क्रम से नित्य प्रति का लेखा लिखा जाता हो। उ०—खाता खत जान दे बही को बहि जान दे।—पदमाकर (शब्द०)। यौ०—बहीखाता। रोकड़ बही। हुंडी बही। मुहा०—बही पर चढ़ना या टँकना = हिसाब की किताब मेंलिख लिया जाना। बही पर चढ़ाना या टाँकना = बही पर लिखना। दर्ज करना।

बहीखाता
संज्ञा स्त्री० [हिं०] हिसाब किताब की पुस्तक।

बहीर
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीड़] १. भीड़। जनसमूह। उ०—जिहि मारग गे पंडिता तेही गई बहीर। ऊँची घाटी राम की तिहि चढ़ि रहे कबीर।—कबीर (शब्द०)। २. सेना के साथ साथ चलनेवाली भीड़ जिसमें साईस, सेवक, दूकानदार आदि रहते हैं। फोज का लवाज। उ०—ऐसे रघुबीर छीर नीर के विवेक कवि भीर की बहीर को समय के निकारिहौं ।— हनुमान (शब्द०)। ३. सेना की सामग्री। फौज का सामान। उ०—हुकुम पाय कुतवाल ने दई बहीर लदाय।— सूदन (शब्द०)। (ख) कब आय हौ औसर जान सुजान बहीर लों बैस तौ जाति लदी।—रसखान०, पृ० ७५।

बहीर पु ‡ (२)
अव्य [सं० बहिस्, बहिर्] बाहर। उ०—कोऊ जाय द्वार ताहि देत हैं अढ़ाई सेर। बेर जनि खाओ चले जाव यों बहीर के।—प्रियादास (शब्द०)।

बहीरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बहिर्रति'।

बहीरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बहेड़ा'।

बहुँटा
संज्ञा पुं० [हिं० बाँह] दे० 'बहूँटा'। उ०—बाहँन बहुँटा टाड़ सलोनी।—जायसी ग्रं०, पृ० १३२।

बहु (१)
वि० [सं०] १. बहुत। एक से अधिक। अनेक। २. ज्यादा। अधिक।

बहु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वधू] दे० बहू'। उ०—गे जनवासहि राउ, सुत, सुतबहुन समेत सब।—तुलसी (शब्द०)।

बहुकंटक (१)
वि० [सं० बहुकणटक] काँटों से भरा हुआ। बहुत काँटोवाला कंटकावृत [को०]।

बहुकंटक (२)
संज्ञा पुं० १. जवासा। २. छोटा गोखरू (को०)। ३. हिंताल वृक्ष।

बहुकंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुकणटा] कंटकारी।

बहुकंद
संज्ञा पुं० [सं० बहुकन्द] सूरन। ओल [को०]।

बहुक (१)
वि० [सं०] अधिक या महँगे मूल्य पर क्रीत [को०]।

बहुक (२)
संज्ञा पुं० १. केकड़ा। २. आक। मदार। ३. पपीहा। चातक। ४. सूर्य (को०)। ५. तालाब खोदनेवाला व्यक्ति (को०)।

बहुकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृतकुमारी।

बहुकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. झाड़ू देनेवाला। २. ऊँट।

बहुकरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुहारी। झाडू।

बहुकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] झाडू। बुहारी।

बहुकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूसाकानी।

बहुकालीन
वि० [सं०] अत्यंत पुराना। बहुत काल का। प्राचीन। उ०—ज्ञानी गुन गृह बहुकालीना।—मानस, ७।६२।

बहुकूर्च
संज्ञा पुं० [सं०] एक तरह का नारिकेल वृक्ष।

बहुकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] वाल्मीकि रामायण में उल्लिखित एक पर्वत का नाम।

बहुक्षम
वि० [सं०] [वि० स्त्री० बहुक्षमा] १. बहुत सहन करनेवाला। २. अनेक कार्यों को करने में समर्थ।

बहुक्षीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधिक दूध देनेवाली गौ। वह गाय जो अधिक दूध देती हो [को०]।

बहुगंध (१)
वि० [सं० बहुगन्ध] बहुत गंधवाला। तीव्र गंध का [को०]। यौ०—बहुगंधदा = कस्तूरी। मृगमद।

बहुगंध (२)
संज्ञा पुं० १. दारचीनी। २. कुंदरु। ३. पीतचंदन।

बहुगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुगन्धा] १. जूही। २. स्याहजीरा। ३. चंपा की कली।

बहुगव
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत में वर्णित पुरुवंशीय राज।

बहुगुडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंटकारी। भटकटैया। २. भूम्यामलकी।

बहुगुण
वि० [सं०] १. जिसमें बहुत सूत हों। अनेक सूतोंवाला। २. अनेक गुणयुक्त [को०]।

बहुगुना
संज्ञा पुं० [हिं० बहु + गुण] चौड़े मुँह का एक गहरा बरतन जिसके पेंदे और मुँह का घेरा बराबर होता है। इससे यात्रा आदि में कई काम ले सकते हैं। शायद इसी से इसे बहुगुना कहते हैं।

बहुगुनी
वि० [सं० बहुगुणिन्] विशेष जानकार। उ०—कह्मा तब ऐ बहुगुनी नामदार। तेरा नाम रोशन अछो ठार ठार।—दक्खिनी०, पृ० ९२।

बहुगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जिसने ऊपरी तौर से या अगंभीरता से बहुत अधिक पढ़ा हो। अल्पज्ञ या पल्लवग्राही व्यक्ति।

बहुग्यता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुज्ञता] दे० 'बहुज्ञता'। उ०—धि/?/बहुग्यता धिग सब इषै। बिमुख जो कृष्ण अधोक्षज बिषैं।—नंद० ग्रं०, पृ० १०४।

बहुग्रंथि
संज्ञा पुं० [सं० बहुग्रन्थि] झाऊ का पेड़।

बहुछल
वि० [सं०] छलयुक्त [को०]।

बहुछिन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंद गुडूची। गुडबेल [को०]।

बहुजन
संज्ञा पुं० [सं०] व्यक्तियों की बहुत अधिक संख्या। बहुत से लोगों का समूह। जनसमाज। जनसाधारण। यौ०—बहुजन हिताय बहुजन सुखाय = बहुत से लोगों या जन- साधारण के कल्याण या सुख के लिये।

बहुजल्प
वि० [सं०] अत्यधिक बोलनेवाला। बड़बड़िया [को०]।

बहुज्ञ
वि० [सं०] बहुत बातें जाननेवाला। जानकार।

बहुज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुत से विषयों का ज्ञान। सर्वज्ञता। उ०—संस्कृत के अनेक कवियों ने वेदांत, आयुर्वेद न्याय के पारिभाषिक शब्दों को लेकर बड़े बड़े चमत्कार खड़ै किए हैं या अपनी बहुज्ञता दिखाई है।—रस०, पृ० ४४।

बहुटनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहूँटा] बाँह पर पहनने का एकगहना। छोटा बहूँटा। उ०—बहु नग लगे जराव की अँगिया भुला बहुटनी बलय संग को।—सूर (शब्द०)।

बहुतंत्री
वि० [सं० बहुतन्त्रिन्] १. अनेक तंतुओंवाला (शरीर)। २. अनेक तारों वाला जैसे, सितार आदि वाद्य [को०]।

बहुतंत्रीक
वि० [सं० बहुतन्त्रीक] अनेक तंतुओं या तारों से युक्त (वाद्य)।

बहुत (१)
वि० [सं० बहुतर; अथवा सं० प्रभूत, प्रा० पहुत्त] १. एक दो से अधिक। गिनती में ज्यादा। अनेक। जैसे,—वहाँ बहुत से आदमी गए। २. जो परिमाण में अल्प या न्यून न हो। जो मात्रा में अधिक हो। जैसे,—आज तुमने बहुत पानी पिया। ३. आवश्यकता भर या उससे अधिक। यथेष्ट। बस। काफी। जैसे, अब मत दो, इतना बहुत है। मुहा०—बहुत अच्छा = (१) स्वीकृतिसूचक वाक्य। एवमस्तु। ऐसा ही होगा। (२) धमकी का वाक्य। खैर ऐसी करो, हम देख लेंगे। कोई परवा नहीं। बहुत करके = (१) अधिकतर। ज्यादातर। बहुधा। प्रायः। अक्सर। अधिक अवसरों पर। जैसे,—बहुत करके वह शाम को ही आता है। (२) अधिक सभव है। बीस बिस्वे। जैसे,—बहुत करके तो वह वहाँ पहुँच गया होगा, न पहुँचा हो तो भेज देना। बहुत कुछ = कम नहीं। गिनती करने योग्य। जैसे,—अभी उनके पास बहुत कुछ धन है। बहुत खूब ! = (१) वाह ! क्या कहना है। (किसी अनोखी बात पर)। (२) बहुत अच्छा। बहुत है = कुछ नहीं है। (व्यंग्य)। बहुत हो जिए = रहने दो। जाव। चल दो। तुम्हारा काम नहीं।

बहुत (२)
क्रि० वि० अधिक परिमाण में। ज्यादा। जैसे,—वह बहुत दौड़ा।

बहुतक पु †
वि० [हिं० बहुत + एक अथवा क (स्वार्थे प्रत्य०)] बहुत से। बहुतेरे। उ०—बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।—तुलसी (शब्द०)।

बहुतरि पु
संज्ञा पुं०, वि० [सं० द्वासप्तति, प्रा० बहत्तरि] दे० 'बहत्तर'। उ०—लषिन बतिस बहुतरि कला बाल बेस/?/सगुन। क्रोड़त गिलोल जब लाल कर तब मार जान चापक सुमन।—पृ० रा०, १।७२७।

बहुताँ
वि० [हिं० बहुत] १. बहुत। २. बनिर्ये की बोली में तीसरी तौल का नाम। (तीन की संख्या अशुभ समझी जाती है, इससे तौल की गिनती में जब बनिये तीन पर आते हैं तब यह शब्द कहते हैं।

बहुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुत्व। अधिकता।

बहुताइत
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बहुतायत'। उ०—हमको पिय तुम एक हो तुम को हम सी कोरि। बहुताइत के रावरे प्रीति न डारो तोरि।—नंद० ग्रं०, पृ० १८०।

बहुताई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहुत + आई < आयत (प्रत्य०)] बहुतायत। अधिकता। ज्यादती।

बहुतात
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बहुतायत'।

बहुतायत
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहुत + आयत (प्रत्य०)] अधिकता। ज्यादती। कसरत।

बहुतिक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकमाची।

बहुतृण (१)
वि० [सं०] १. घास से भरा हुआ। शाद्धलपूर्ण। २. घास की तरह। घास जैसा अनावश्यक एवम् तुच्छ [को०]।

बहुतृण (२)
संज्ञा पुं० मूँज नामक घास।

बहुतेर पु
वि० [हिं०] दे० 'बहुतेरे'। उ०—साधो मंत्र सत मत ज्ञान। देखि जड़ बहुतेर अंधे, झूठ करहिं बखान।—जग० बानी, पृ० १५।

बहुतेरा (१)
वि० [हिं० बहुत + एरा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० बहुतेरी] बहुत सा। अधिक।

बहुतेरा (२)
क्रि० वि० बहुत। बहुत प्रकार से। बहुत परिमाण में। जैसे,—मैंने बहुतेरा समझाया, पर उसने एक न मानी।

बहुतेरे
वि० [हिं० बहुतेरा] संख्या में अधिक। बहुत से। अनेक। उ०—अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे।—मानस, १।५५।

बहुत्त पु †
वि० [हिं०] दे० 'बहुत'। उ०—धनि छोड्डिअ नवजो- व्बना धन छोड्डिओ बहुत्त।—कीर्ति०, पृ० २२।

बहुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] आधिक्य। अधिकता।

बहुत्वक्क
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र।

बहुत्वच्
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र।

बहुदक्षिण
वि० [सं०] १. अधिक दानोपहार पानेवाला। अधिक उपहारों से युक्त। २. उदार विचारों वाला [को०]।

बहुदर्शक
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे० 'बहुदर्शी' [को०]।

बहुदर्शिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुज्ञता। बहुत सी बातों की जानकारी या समझ।

बहुदर्शी (१)
संज्ञा पुं० [सं० बहुदर्शिन्] वह व्यक्ति जिसने बहुत कुछ देखा हो। जानकार या बहुज्ञ व्यक्ति।

बहुदर्शी (२)
वि० जानकार। बहुज्ञ। दूरदर्शी [को०]।

बहुदल
संज्ञा पुं० [सं०] चेना नाम का अन्न।

बहुदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंचु। चेंच नाम का साग।

बहुदुग्ध
संज्ञा पुं० [सं०] गेहूँ।

बहुदुग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] थूहर का पेड़। स्नुही।

बहुदुग्धिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बहुदुग्धा'।

बहुधधी
वि० [हिं० बहु + धधा] अपने को बहुत कामों में लगाए रखनेवाला।

बहुधन
वि० [सं०] अत्यधिक संपत्तिवाला [को०]।

बहुधर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

बहुधा
क्रि० वि० [सं०] १. बहुत प्रकार से। अनेक ढंग से। २. बहुत करके। प्रायः। अकसर। अधिकतर। अवसरों पर।

बहुधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] साठ संवत्सरों में से बारहवाँ संवत्सर।

बहुधार
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का हीरा। वज्र। हरिक। २. विद्युत्। वज्र [को०]।

बहुनाद
संज्ञा पुं० [सं०] शंख।

बहुपत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभ्रक। अबरक। २. प्याज। पलांडु। ३. बंशपत्र। ४. मुचकुंद का पेड़। ५. पलाश।

बहुपत्र (२)
वि० बहुत पत्तों से युक्त [को०]।

बहुपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तरुणीपुष्प वृक्ष। २. शिवलिंगनी लता। ३. गोरकादुगधी। दुधिया घास। ४. भूआँवला। ५. घीकुवार। ६. बृहती। ७. जतुका। पहाड़ी नाम की लता जिसकी पत्तियाँ दवा के काम में आती हैं।

बहुपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भूम्यामलकी। २. महा शतावरी। ३. मेथी। ४. वच।

बहुपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भूम्यामलकी। २. लिंगिनी ३. तुलसी का पौधा। ४. जतुका। ५. बृहती। ६. दुधिया घास।

बहुपदु, बहुपादु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बहुपाद'।

बहुपाद (१)
वि० [सं०] अधिक पैरौंवाला। अनेक पैरोंवाला।

बहुपाद (२)
संज्ञा पुं० वटवृक्ष। बरगद का पेड़। बड़ का पेड़।

बहुपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाँचवें प्रजापति का नाम। २. सप्तपर्ण। सप्तच्छद।

बहुपुत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्कंद की अनुचरी। एक मातृका।

बहुपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारिभद्र वृक्ष। फरहद का पेड़। २. नीम का पेड़।

बहुपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] धातकी वृक्ष। धाय का पेड़।

बहुप्रज (१)
वि० [सं०] जिसके बहुत संतान हों।

बहुप्रज (२)
संज्ञा पुं० १. शूकर। सूअर। २. मूँज का पौधा। ३. भूसा। मूषक (को०)।

बहुफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्दब। २. विकंकत। कटाई। बनभंटा।

बहुफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भूम्यामलकी। २. खीरा। त्रपुष। ३. क्षविका। एक प्रकार का बनभंटा। ४. काकमाची। ५. छोटा करेला। जंगली करेला। करेली।

बहुफली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की जंगली गाजर। विशेष—इसका पौधा अजवाइन का सा पर उससे छोटा होता है। पत्ते सौंफ के से होते हैं और धनिए के फूलों के से पीले रंग के गुच्छे, लगते हैं। उँगली की तरह या पतली गाजर सी लंबी जड़ होती है। बीज भूरे हलके और हरसिंगार के बीजों के से होते हैं तथा बाजार में 'बनफली' या 'टूफू' (हकीमी) के नाम से बिकते हैं।

बहुफेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सातला। पीले दूधवाला थूहर। २. शंखाहुली।

बहुबल
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह। मृर्गेंद्र।

बहुबल्क
संज्ञा पुं० [सं०] पियासाल।

बहुबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] रावण। उ०—तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहि त अस होइहि बहुबाहू।—तुलसी (शब्द०)।

बहुबिधि
क्रि० वि० [सं० बहुविध] दे० 'बहुविध' (२)। उ०—बहु- बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई।—मानस, ७।८८।

बहुबाज
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिजौरा नीबू। २. बीजवाला केला। ३. शरीफा। सीताफल।

बहुबालक
वि० [सं०] अत्याधिक वार्ता करनेवाला। बड़बड़िया [को०]।

बहुभाग्य
वि० [सं०] अत्यंत भाग्यवान् [को०]।

बहुभाषी
संज्ञा पुं० [सं० बहुभाषिन्] १. बहुत बोलनेवाला। बकवादी। २. अनेक भाषाओं का जानकार।

बहुभुजक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] रेखागणित में वह क्षेत्र जो चार से अधिक रेखाओं से घिरा हो।

बहुभुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।

बहुभूमिक
वि० [सं०] १. अनेक मंजिलोंवाला। २. (नाटक) जो अनेक पात्र या अभिनेताओं से युक्त हो।

बहुभोग्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुतों के द्वारा भोगी जानेवाली नारी। वेश्या। वारांगना [को०]।

बहुभोजी
वि० [सं० बहुभोजिन्] अत्यधिक खानेवाला। पेटू [को०]।

बहुमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुमञ्जरी] तुलसी।

बहुमत
संज्ञा पुं० [सं०] अलग अलग बहुत से मत। बहुत से लोगों की अलग अलग राय। जैसे,—बहुमत से बात बिगड़ जाती है। २. बहुत से लोगों की मिलकर एक राय। अधिकतर लोगों का एक मत। जैसे,—सभा में यह प्रस्ताव बहुमत से पास हो गया।

बहुमति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुमान। संमान। इज्जत [को०]।

बहुमल
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा नाम की धातु।

बहुमान
संज्ञा पुं० [सं०] १. अतयंत समादर। उ०—जोलइ बीसल दे परधान। रायकुंवर आपौ बहुमान।—बी० रासो, पृ० १०२। २. श्रेष्ठ व्यक्ति द्वारा अपने से छोटे के प्रति संमान या आदर भाव।

बहुमानी
वि० [सं० बहुमानिन्] १. विशेष रूप से समादरणीय। २. अपने को बहुत समान्य समझनेवाला [को०]।

बहुमान्य
वि० [सं०] विशेष रूप से आदर के योग्य। संमा- नित [को०]।

बहुमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] जहाँ से अनेक मार्ग फूटते हों। चतुष्पथ। चौराहा [को०]।

बहुमागगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंगा नदी। २. पुंश्चली। चरित्र- हीना नारी [को०]।

बहुमार्गी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान या भूमि जहाँ कई रास्ते मिले हों [को०]।

बहुमुख
वि० [सं०] १. अत्यधिक। बहुत। २. अनेक प्रकार की बातें करनेवाला [को०]।

बहुमुखी
वि० [सं०] अनेक दिशाओं या विषयों में प्रवृत्त होनेवाली [को०]।

बहुमूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें रोगी को मूत्र बहुत उतरता है। पेशाब अधिक आने का रोग। विशेष—यह रोग दो प्रकार का होता है। एक में तो केवल जल का अंश ही बहुत उतरता है, दुसरे में मूत्र के साथ शकंरा या मधु निकलता है। बहुमूत्र शब्द से प्रायः दूसरे प्रकार का रोग समझा जाता है। यह बहुत भयंकर रोग है और इसमें रोगी की आयु दिन प्रतिदन क्षीण होती चली जाती है। वैद्यक में यह प्रमेह के अंतर्गत माना गया है। विशेष—दे० 'मधुमेह'।

बहुमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं० बहुमूत्ति] १. बनकपास। २. विष्णु। ३. बहुरूपिया।

बहुमूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामशर। सरकंडा। २. नरसल। ३. शोभांजन। शिग्र। सहिजन। सैजन।

बहुमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] खस। उशीर।

बहुमूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतावरी।

बहुमूल्य
वि० [सं०] अधिक मूल्य का। कीमती।

बहुरंगा
वि० [हिं० बहु + रंगा] १. कई रंग का। चित्रविचित्र। २. बहुरूपधारी। ३. मनमोजी। अस्थिर चित्त का।

बहुरंगी †
वि० [हिं० बहुरंगा + ई (प्रत्य०)] १.बहुरूपिया। अनेक प्रकार के रूप धारण करनेवाला। २. अनेक रंग दिखलानेवाला। अनेक प्रकार के करतब या चाल दिखलानेवाला। ३. मनमौजी।

बहुरंध्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुरन्ध्रिका] मेदा।

बहुर पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बहुरि'। उ०—चपमाल सिसुपाल परस अलि बहुर न आए।—नंद० ग्रं०, पु० २०८।

बहुरना †
क्रि० अ० [सं० प्रघूर्णन, प्रा० पहोलन] १. लौटना। फिरकर आना। वापस आना। उ०—बहुरी बरात जनवास थान। छबि सोभ सुवन भुवभंति भान।—पृ० रा०, ४।३५। २. फिर हाथ में आना। फिर मिलना।

बहुरस
संज्ञा पुं० [सं०] ईख। इक्षु [को०]।

बहुरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाज्योतिष्मती।

बहुराना
क्रि० स० [हिं० बहुरना का सक० रूप] बिदा करना। लोटाना। उ०—(क) बहुराइ देव कवियन प्रबल मिलन पिथ्थ अग्गै चलिय।—पृ० रा०, ६।९३ (ख) दइय बाच सब बीर नै बहुराए कवि चंद। सब सामंत अनंद भो दरसत नट्ठे दंद।—पृ० रा०, ६।१७५। (ग) सागर जब बसीठ बहुराए। चारिहुँ दिस बारी दोराए।—चित्रा०, पृ० १४३।

बहुरि पु †
क्रि० वि० [हिं० बहुराना > बहुरि (=फिरकर)] १. पुनः। फिर। २. इसके उपरांत। पीछे। अनंतर। उ०— आगे चले बहुरि रघुराई।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—बहूरि बहुरि = पुनः पुनः। बार बार। उ०—बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं।—मानस, १।३४०।

बहुरिया † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बधूटी, बघटिका, प्रा० बहूडिया] नई बहू। उ०—जाग बहुरिया पहिरु रँग सारी।—धर्म० श०, पृ० ७०।

बहुरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [देशी] बुहारी। माजँनी [को०]।

बहुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भौरना (=भूनना)] भुना हुआ खड़ा अन्न। चर्वण। चबेना। उ०—सेतुवा कराइन बहुरी भुजाइन।—कबीर० श०, पृ० ५५।

बहुरूप (१)
वि० [सं०] अनेक रूप धारण करनेवाला।

बहुरूप (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु। २. शिव। ३. कामदेव। ४. सरट। गिरगिट। ५. ब्रह्मा। ६. बाल। प्रियव्रत के पौत्र और मेषातिथि के पुत्र का नाम (भाग०)। ७. एक वर्ष का नाम। ८. एक बुद्ध का नाम। ९. तांडव नृत्य का एक भेद जिसमें अनेक प्रकार के रूप धारण करके नाचते हैं। १०. बाल। केश (को०)। ११. सूर्य (को०)।

बहुरूपक
संज्ञा पुं० [सं०] एक जंतु।

बहुरूपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।

बहुरूपिया (१)
वि० [हिं० बहु + रूप + इया (प्रत्य०)] १. अनेक प्रकार के रूप धारण करनेवाला। २. नकल बनानेवाला।

बहुरूपिया (२)
संज्ञा पुं० वह जो तरह तरह के रूप बनाकर अपनी जीविका करता है।

बहुरूपी (१)
वि० [सं० बहुरूपिन्] अनेक रूप धारण करनेवाला।

बहुरूपी (२)
संज्ञा पुं० बहुरूपिया।

बहुरेतस्
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा।

बहुरोमा
संज्ञा पुं० [सं० बहुरोमन्] १. मेष। मेढ़ा। २. वह जिसे अधिक बाल हों। लोमश। ३. घना (को०)। ४. बंदर। कपि।

बहुल (१)
वि० [सं०] १. प्रचुर। अधिक। ज्यादा। २. काला। कृष्ण [को०]।

बहुल (२)
संज्ञा पुं० १. आकाश। २. सफेद मिर्च। ३. कृष्ण वर्ण। ४. कृष्ण पक्ष। ५. अग्नि। ६. महादेव।

बहुलगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुलगन्धा] छोटी इलायची।

बहुलच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] लाल सैजन। लाल सहिजन। रक्त शिसु।

बहुलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुतायत। अधिकता। बाहुल्य। प्राचुर्य।

बहुला
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाय। २. एक गाय जिसके सत्यव्रत की कथा पुराणों में है जोर जिसके नाम पर लोग भादों बदी चौथ को व्रत करते हैं। ३. नीलिका। नील का पौधा। ४. कालिका पुराण के अनुसार एक देवी का नाम। ५. इलायची। ६. मार्कंडेय पुराण में वर्णित एक नदी का नाम। ७. कृत्तिका नक्षत्र।

बहुलाचौथ
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुलाचतुर्थी] भादों बदी चौथ।विशेष—इस दिन बहुला गाय के सत्यव्रत के स्मरणार्थ व्रत किया जाता है।

बहुलानुरक्त (सैन्य)
वि० [सं०] कौटिल्य के अनुसार प्रजा से प्रेम रखनेवाली (सेना)। सर्वप्रिय।

बहुलाबन
संज्ञा पुं० [सं०] वृंदावन के ८४ बनों में से एक बन। विशेष—कहते हैं, इसी बन में बहुला गाय ने व्याघ्र के साथ अपना सत्यव्रत निबाहा था।

बहुलाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत में वर्णित मिथिला के एक परम भागवत राजा।

बहुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सप्तर्षिमंडल।

बहुलित
वि० [सं०] अभिवर्धित। बढ़ाया हुआ [को०]।

बहुली
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुला] इलायची। उ०—बूझा मरुआ, कुंद सों कहै गोद पसारी। बकुल, बहुलि बट कदम पै ठाढ़ी ब्रजनारी।—सूर (शब्द०)।

बहुलीकृत
वि० [सं०] १. अभिवृद्ध। वर्धित। २. व्यक्त। प्रकटित [को०]।

बहुवचन
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण की एक परिभाषा जिससे (हिंदी में द्विवचन न होने से) एक से अधिक वस्तुओं के होने का बोध होता है। जमा।

बहुवर्ण
वि० [सं०] १. बहुत रंगों से युक्त। बहुरंगा। २. बहुत वर्णों (ध्वनियों) वाला।

बहुवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं०] आँखों का एक रोग जिसमें पलकों के चारो ओर छोटी छोटी फुंसियाँ सी फैल जाती हैं।

बहुवल्क
संज्ञा पुं० [सं०] पियासाल वृक्ष [को०]।

बहुवल्कल
संज्ञा सं० [सं०] दे० 'बहुवल्क'।

बहुवा †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहू] बधू। बहू। उ०—कहैं कबीर सुनो हो बहुवा, सतसंगत को धाव।—कबीर श०, पृ० ५०।

बहुविद्य
वि० [सं०] बहुत सी बातें जाननेवाला। बहुज्ञ।

बहुविध (१)
वि० [सं०] अनेक प्रकार का [को०]।

बहुविध (२)
क्रि० वि० अनेक प्रकार से। बहुत ढंग से।

बहुविवाह
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनेक स्त्रियों का परिणयन। कई शादी करना।

बहुवीज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बहुबीज'।

बहुवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विभीतक। बहेड़ा। २. सेमर का पेड़। शाल्मली। ३. मरुवा।

बहुव्रीहि
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याकरण में छह् प्रकार के समासों में से एक जिसमें दो या अधिक पदों के मिलने से जो समस्त पद बनता है वह एक अन्यपद का विशेषण होता है। जैसे,— पीतांबर, आरूढ़वानर (वृक्ष) = वह वूक्ष जिसपर बंदर आरूढ़ हो। २. बहुत ब्रीहिवाला जन। वह व्यक्ति जिसके पास धान अधिक हो।

बहुशः
क्रि० वि० [सं० बहुशस्] बहुत। अधिक। बार बार। उ०—विचूर्ण होती बहुशः शिला रहीं, कठोर उदबंधन सर्प गात्र से।—प्रिय० प्र०, पृ० १७७।

बहुशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] चटक। गौरा पक्षी।

बहुशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] रक्त खदिर। लाल खैर।

बहुशस्त
वि० [सं०] अत्यंत सुंदर। बहुत अच्छा। एकदम ठीक।

बहुशाख
संज्ञा पुं० [सं०] स्नुही। थूहर।

बहुशाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बहुशाख'।

बहुशिख
संज्ञा स्त्री० [सं०] गजपिप्पली।

बहुशिर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

बहुश्रृग
संज्ञा पुं० [सं० बहुश्रृङ्ग] विष्णु।

बहुश्रुत
वि० [सं०] १. जिसने बहुत सी बातें सुनी हों। जिसने अनेक प्रकार के विद्वानों से भिन्न भिन्न शास्त्रों की बातें सुनी हों। अनेक विषयों का जानकार। चतुर। २. बहुत लोगों द्वारा ज्ञात या चर्चित (व्यक्ति)।

बहुसंख्यक
संज्ञा पुं० [सं० बहुसंख्यक] गिनती में बहुत। अनेक। बहुत। उ०—फिर देखा, उस पुल के ऊपर बहुसंख्यक बैठे हैं वानर।—अनामिका, पृ० २४।

बहुसार
संज्ञा पुं० [सं०] खदिर। खैर।

बहुसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतमूली नामक क्षुप [को०]।

बहुसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शूकरी। मादा सूअर। २. अनेक पुत्रों की माता (को०)। ३. गाय (को०)।

बहुसूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कई पुत्रों की जननी। २. बहुत बच्चे देनेवाली गाय (को०)।

बहुस्त्रव
संज्ञा पुं० [स्त्री० बहुस्त्रवा] शल्लकी वृक्ष। सलई।

बहुस्वन
संज्ञा पुं० [सं०] १. उल्लू। २. शंख।

बहुस्वामिक
वि० [सं०] अनेक मालिकोंवाला। जिसके कई स्वामी हों [को०]।

बहूँटा
संज्ञा पुं० [सं० बाहुस्थ, प्रा० बाहुट्ठ] [स्त्री० अल्पा० बहूँटी] बाँह पर पहनने का एक गहना।

बहू
संज्ञा स्त्री० [सं० वधू प्रा० बहू] १. पुत्रवधू। पतोहू। २. पत्नी। स्त्री। ३. कोई नवविवाहिता स्त्री। दुलहिन।

बहूकरी ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुकरी] दे० 'बहुकरी'।

बहूटी
संज्ञा स्त्री० [सं० बधूटी] दे० 'बधूटी'। उ०—झंडे लेकर निकली धी और बहूटी पंडित की।—बेला, पृ० ४७।

बहूदक
संज्ञा पुं० [सं०] संन्यासियों का एक भेद। एक प्रकार का संन्यासी। विशेष—ऐसे संन्यासियों को सात घर में भिक्षा मांगकर निर्वाह करना चाहिए। यदि एक ही गृहस्थ भरपेट भोजन दे तो भी नहीं लेना चाहिए। इनके लिये गाय की पूँछ के रोएँ से बँधा त्रिदंड, शिक्य, कौपीन, कमंडलु, गात्राच्छादन, कंथा, पादुका, छत्र, पवित्र, चर्म, सूची, पक्षिणी, रुद्राक्षमाला,बहिर्वास, खनित्र और कृपाण रखने का विधान है। इन्हें सर्वांग में भस्म ओर मस्तक में त्रिपुंड धारण करना चाहिए तथा शिखासूत्र न छोड़ना चाहिए और योग्याभ्यास भी करना चाहिए।

बहूपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह अर्थालंकार जिसमें एक उपमेय के एक धर्म से अनेक उपमान कहे जायँ। जैसे,—हिम हर हीरा हंस सो जस तेरो जसवंत।—मुरारिदान (शब्द०)।

बहेँगवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० विहङ्गम (बहिगंम)] १. एक पक्षी जिसे भुजंगा या करचोटिया भी कहते हैं। †२. घुमंतू या आवारा व्यक्ति। ३. दे० 'बहेगवा'।

बहेँगवा (२)
वि० [सं० विहगम] १. घुमक्कड़। इधर उधर घूमनेवाला। २. आवारा। बहेतू।

बहेँत
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ वह (बहना) + ऐस (प्रत्य०)] वह काली मिट्टी जो तालों या गड्ढों में बहकर जमा हो जाती है। इसी मिट्टी के खपड़े बनते हैं।

बहेँतू
वि० [हिं०] दे० 'बहेतू'।

बहेगवा †
संज्ञा पुं० [देश०] चौपायों की गुदा के पास पूँछ के नीचे की मांसग्रंथि।

बहेचा
संज्ञा पुं० [देश०] घड़े का ढाँचा जो चाक पर से गढ़कर उतारा जाता है। इसे जब थापी और पिटने से पीटकर बढ़ाते हैं तब यह घड़े के रूप में आता है। (कुम्हार)।

बहेड़ा
संज्ञा पुं० [सं० बिभीतक, प्रा० बहेडअ] एक बड़ा और ऊँचा जंगली पेड़ जो अर्जुन की जाति का माना गया है। विशेष—यह पतझड़ में पते झाड़ता है और सिंध तथा राज- पूताने आदि सूखे स्थानों को छोड़कर भारत के जंगलों में सर्वत्र होता है। बरमा और सिंहल में भी यह पाया जाता है। इसके पत्ते महुए के से होते हैं। फूल बहुत छोटे छोटे होते हैं जिनके झड़ने पर बड़ी बेर के इतने बड़े फल गुच्छों में लगते हैं। इनमें कसाव बहुत कम होता है, इससे ये चमड़ा सिझाने और रँगाई के काम में आते हैं। ताजे फलों को भेड़ बकरी खाती भी हैं। वैद्यक में बहेड़े का बहुत व्यवहार है। प्रसिद्ध औषध त्रिफला में हड़, बहेड़ा और आँवला ये तीन वस्तुएँ होती हैं। वैद्यक में बहेड़ा स्वादपाकी, कसेला, कफ-पित्त-नाशक, उष्णवीर्य, शीतल, भेदक, कास- नाशक, रूखा, नेत्रों को हितकारी, केशों को सुंदर करनेवाला तथा कूमि और स्वरभंग को नष्ट करनेवाला माना गया है। बहेड़े के पेड़ से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है जो पानी में नहीं घुलता। लकड़ी इसकी अच्छी नहीं होती पर तख्ते, हलके संदूक, हल या गाड़ी बनाने के काम में आती है। पर्या०—बिभीतक। कलिद्रुम। कल्पवृक्ष। संवतं। अक्ष। तुप। कर्पफल। भूतवास। कुशिक। बहुवीर्य। तैलफल। वासंत। हार्य। विपध्न। कलिंद। कासध्न। तोलफल। तिलपुष्पक।

बहेतू
वि० [हिं०] १. बहा बहा फिरनेवाला। इधर उधर मारा मारा फिरनेवाला। जिसका कहीं ठोर ठिकाना न हो। २. आवारा। व्यर्थ घूमनेवाला। निकम्मा।

बहेर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बहेड़ा'। उ०—मोहि बरजत बहेर तर गई।—नंद० ग्रं०, पृ० १०८।

बहेरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बहेड़ा'।

बहेरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहराना] बहाना। हीला। उ०— मोहि न पत्याहु तौ संग हरिदासी हुती पूँछि देखि भटू कहि धौं कहा भयो मेरी सौं। प्यारी तोहिं तोहिं गठोंध न प्रतीति छाड़ि छिया जान दै इतनी बहेरी सौं—हरिदास (शब्द०)।

बहेला
संज्ञा पुं० [सं० बाह्मकर] कुश्ती का एक पेंच।

बहेलिया
संज्ञा पुं० [सं० वध + हेला] पशु पक्षियों को पकड़ने या मारने का व्यवसाय करनेवाला। शिकारी। अहेरी। व्याध। चिड़ीमार।

बहोड़ना पु
क्रि० स० [सं० प्रघूर्णन, प्रा० पहोलन, हिं० बहुरना] वापस करना। लौटाना। उ०—(क) कबीर यह तन जात है सकै तो लेहु बहोड़ि।—कबीर ग्रं०, पृ० २४४। (ख) साल्ह चलंतउ हे सखी, गउखे चढ़ि मइँ दीठ। हियड़उ वाहीं सूँ गयउ नयण बहोड़्या नीठ।—ढोला०, दू० ३६२।

बहोड़ि पु
अव्य० [हिं०] दे० 'बहोरि'। उ०—तो तूठा वर प्रापिजइ। भूलउ हो आखर आणि बहोड़ि।—वी० रासो, पृ० ३।

बहोड़ी पु
अव्य० [हिं०] दे० 'बहोड़ि'। उ०—रहि [रही] कांमणी अंचल छोड़ी, औलग जाऊँ हूँ अंऊ न बहोड़ी।— वी० रासो, पृ० ४९।

बहोत †
वि० [हिं०] दे० 'बहुत'। उ०—(क) सो ये पढ़े बहोत।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ४। (ख) शम दम से आन लढ़े। बहोताँ के तखत चढ़े।—दक्खिनी०, पृ० ६३।

बहोतरि पु †
संज्ञा पुं०, वि० [हिं०] दे० 'बहत्तर'। उ०—नव नाड़ी बहोतरि कोठा ए अष्टांग सब झूठा।—गोरख०, पृ० ४६।

बहोर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बहुरना] फेरा। वापसी। पलटा। उ०—सबही लीन्ह बिसाहन अउ धर कीन्ह बहोर। बाम्हन तहवाँ लेइ का गाँठि साँठि सुठि थोर।—जायसी (शब्द०)।

बहोर (२)
क्रि० वि० दे० 'बहोरि'।

बहोरना †
क्रि० स० [हिं० बहुरना] १. लौटाना। वापस करना। फेरना। पलटाना। उ०—गई बहोरि गरीबनिवाजू। सरल सबल सहिब रघुराजू।—मानस, १। १३। २. (चौपायों को) घर की और हाँकना। हाँकना।

बहोरि †पु
अव्य० [हिं० बहोर] पुनः। फिर। दूसरी बार। उ०—अस्तुति कीन्ह बहोरि बहोरी।—तुलसी (शब्द०)।

बहोरी पु †
संज्ञा स्त्री० [?] बहुल्ली। शालभंजिका। पुतली। उ०—न करि मोह कर गहि सु दुज, मूर्छि बहोरिय नूप।— पृ० रा०, २४।४४९।

बह्व (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] शेर का वजन। बहर। वूत्त। छंद [को०]।

बह्र (२)
संज्ञा पुं० १. समुद्र। सागर। २. महासागर। ३. नद। ४. उदारहृदय व्यक्ति। ५. जलयानों का झुंड। जहाजों का समूह। ६. तीव्रगामी अश्व [को०]।

बह्री
वि० [अ०] समुद्र संबंधी। समुद्रीय।

बह्वीद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बहूदक' [को०]।