विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/रि
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ रिंखण
संज्ञा पुं० [सं० रिङ्गण] १. फिसलना। लड़खड़ाना। २. विचलति होना। डिगना। ३. दे० 'रिंगण' (को०)।
⋙ रिंग
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. अँगूठी। छल्ला। २. किसी प्रकार की गोल बड़ी चूड़ी। ३. घेरा। मंडल। यौ०—रिंग मास्टर = सरकस का वह खिलाड़ी जो घिरी हुई भूमि में विभिन्न जानवरों के कर्तब दिखलाता है।
⋙ रिंगण
संज्ञा पुं० [सं० रिंङ्गण] १. रेंगना। २. फिसलना। सरकना। ३. विचलित होना। डिगना।
⋙ रिंगन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० रिङ्गण] घुटनों के बल चलना। रेंगना। उ०—पुनि हरि आय यशोदा के गृह रिंगन लीला करिहैं।— सूर (शब्द०)।
⋙ रिंगनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की ज्वार जो मध्य प्रदेश में होती है।
⋙ रिंगल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पहाड़ी बाँस जो दारजिलिंग में होता है।
⋙ रिंगाना पु †
क्रि० स० [सं० रिंगण] रेंगने की क्रिया कराना। रेंगना। उ०—सुनतहि बचन माथ तब नाई। तब भीतर कहँ दीन्ह रिंगाई।—कबीर सा०, पृ० २५६। २. धीरे धीरे चलाना। ३. घुमाना। फिराना। दौड़ाना। चलाना। (बच्चों के लिये)। उ०—में पठवति अपने लरिका को आवइ मन बहराइ। सूर श्याम मेरो अति बालक मारत ताहि रिंगाइ।— सूर (शब्द०)। संयो० क्रि०—देना।
⋙ रिंगिन
संज्ञा स्त्री० [अं० रिगिंग] वह रस्सी जिससे जहाज के मस्तूल आदि बाँधे जाते हैं। (लश०)।
⋙ रिंछ पु
संज्ञा पुं० [हिं० रीछ] दे० 'रीछ'। उ०—आपेटनि पुनि लषि जीव घात। गज सिंध रिंछ कुपि कोल घात।—पृ० रा०, ६। ८।
⋙ रिंद (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. वह व्यक्ति जो धर्म के विषय में बहुत स्वच्छंद और उदार विचार रखता हो। धार्मिक बंधनों को न माननेवाला पुरुष। उ०—रिंदों में अगर जावैं तो मुश्किल है फिर आना।—नजीर (शब्द०)। २. मनमौजी आदमी। स्वच्छंद पुरुष। ३. मद्यप। शराबी (को०)।
⋙ रिंद (२)
वि० १. मतवाला। मस्त। बेफिक्र। उ०—(क) जिंद सरिस रन रिंद चलत हल चल फनिंद ध्रुव।—गिरधर (शब्द०)। (ख) बिंध्याचल पर बसहिं पुलिंदे। तहँ के नृप ते झगरहिं रिंदे।—गिरधर (शब्द०)। २. रसिया। रँगीला (को०)।
⋙ रिंदगी
वि० [फा़० रिंद + गी (प्रत्य०)] बुराई। पाप। मैलापन। उ०—सुंदर मन कै रिंदगी होइ जात सैतान।— सुंदर० ग्रं०, भां० २, पृ० ७२६।
⋙ रिंदा †
वि० [फा़० रिंद] निरंकुश। उद्दंड।
⋙ रिअना †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कीकर। रीआँ।
⋙ रिआयत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. वह अनुग्रहपूर्ण व्यवहार जो साधारण नियमों का ध्यान छोड़कर किया जाय। कोमल और दयापूर्ण व्यवहार। नरमी। जैसे,—गरीबों के साथ रिआयत होनी चाहिए। २. न्यूनता। कमी। छूट। जैसे,—दाम में कुछ रिआयत कीजिए। (ख) अब बीमारी में कुछ रिआयत है। ३. खयाल। ध्यान। विचार। जैसे,—इस दवा में बुखार की भी रिआयत रखी है। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—होना।
⋙ रिआयती
वि० [अ० रिआयत + ई (प्रत्य०)] रिआयत किया हुआ। जिसमें रिआयत की गई हो।
⋙ रिआया
संज्ञा स्त्री० [अ०] प्रजा।
⋙ रिकवँछ
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक भोज्य पदार्थ जो उर्द की पीठी और अरुई के पत्तें से बनता है। विशेष—अरुई की पत्तियों को बारीक काटकर उर्द की पीठी के साथ मिला देते हैं और फिर उसी के गुलगले को घी या तेल में छान लेते हैं।
⋙ रिकशा
संज्ञा स्त्री० [अं० रिक्शा] एक प्रकार की छोटी गाड़ी जिसे आदमी खींचते हैं और जिसमें एक या दो आदमी बैठते हैं। विशेष—आजकल साइकिल रिक्शा और मोटर साइकिल रिक्शों का भी व्यवहार होने लगा है।
⋙ रिकसा †
संज्ञा स्त्री० [सं० रिक्षा] लीख।
⋙ रिकाब
संज्ञा स्त्री० [अ० रकाब] दे० 'रकाब'।
⋙ रिकाबी
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'रकाबी'।
⋙ रिक्त (१)
वि० [सं०] १. खाली। शून्य। जैसे,—रिक्त घट, रिक्त स्थान। २. निर्धन। गरीब।
⋙ रिक्त (२)
संज्ञा पुं० वन। जंगल।
⋙ रिक्तकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० रिक्तकुम्भ] ऐसी भाषा जो समझ में न आवे। गड़बड़ बोली।
⋙ रिक्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रिक्त या खाली होने का भाव। २. किसी पद, नौकरी या ध्यान का खाली होना (वैकेंसी) (को०)।
⋙ रिक्तहस्त
वि० [सं० रिक्त + हस्त] १. खाली हाथ। अर्थशून्य। जिसके हाथ में कुछ न हो। उ०—बोला मैं हूँ रिक्तहस्त, इस समय विवेचन में समस्त।—अनामिका, पृ० १३१।
⋙ रिक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी की तिथियाँ।
⋙ रिक्तार्क
संज्ञा पुं० [सं०] वह रिक्ता तिथि जो रविवार को पडे। रविवार को होनेवाली चतुर्थी, नवमी या चतुर्दशी।
⋙ रिक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह पद या स्थान जिसपर अभी किसी की नियुक्ति न हुई हो [को०]।
⋙ रिक्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. उतराधिकार या बरासत में मिला हुआ धन या संपत्ति। २. कारबार में लगी हुई वह पूँजी जो संपत्ति, सामान आदि के रूप में हो (को०)। यौ०—रिक्यग्राह, रिक्यभागी, रिक्थहर = (१) उत्तराधिकारी। दायाद। (२) पुत्र।
⋙ रिक्थहारी
संज्ञा पुं० [सं० रिक्थहारिन्] [स्त्री० रिक्थहारिणी] १. वह जिसे उत्तराधिकार में धन संपत्ति मिले। २. मामा। ३. न्यग्रोध बीज या उदुंबर का बीज (को०)।
⋙ रिक्थी
संज्ञा पुं० [सं० रिक्थिन्] [स्त्री० रिक्थिनी] १. वह जिसे उत्तराधिकार में धन संपत्ति मिले। दायाद। उत्तरा- धिकारी। २. वह जो मृत्युलेख लिखता हो। मृत्युलेख लिखनेवाला व्यक्ति (को०)। ३. धनी व्यक्ति। धनवान् (को०)।
⋙ रिक्ष पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्ष] दे० 'ऋक्ष'।
⋙ रिक्षपति पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्षपति] दे० 'ऋक्षपति'।
⋙ रिक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लीक्षा। लीख। जूँ का अंडा। २. त्रिसरेणु। त्रसरेणु।
⋙ रिक्वा
संज्ञा पुं० [सं० रिक्वन्] तस्कर। चोर [को०]।
⋙ रिखभ पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋषभ] दे० 'ऋषभ'।
⋙ रिखि
संज्ञा पुं० [सं० ऋषि] ऋषि। मुनि।
⋙ रिग पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्] दे० 'ऋक्'।
⋙ रिचा
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋचा] दे० 'ऋचा'।
⋙ रिचीक
संज्ञा पुं० [सं० ऋचीक] दे० 'ऋचीक'।
⋙ रिच्चिक पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋचीक] दे० 'ऋचीक'। उ०—ब्रह्मा कै सुत भृगु भए, भार्गव भृगु कै गेह। ऋषि रिच्चिक ताकै भए, तेज पुंज तप देह।—ह० रासो, पृ० ७।
⋙ रिच्छ पु †
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्ष] भालू।
⋙ रिछक पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्षक] रक्षा करनेवाला। रक्षक। उ०— नमो परम परमेश सकल कूँ चूण चुगाए। चौरासी में रिछक सकल कूं चूण चुगाए।—राम धर्म०, पृ० २२३।
⋙ रिछ्छ
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्ष] भालू। रीछ। उ०—दूत कपि रिछ्छ उत रछ्छसेन ही की चमू, डंका देत बंका गढ़ लंका ते कढ़ै लगी।—पद्याकर ग्रं०, पृ० २०३।
⋙ रिज पु
वि० [सं० ऋजु] दे० 'ऋजु'। उ०—सव्वउँ केरा रिज नअन तरुणी हेरहि वंक।—कीर्ति०, पृ० ३२।
⋙ रिजक
संज्ञा पुं० [अ० रिजक] रोजी। जीविका। जीवनवृत्ति। क्रि० प्र०—देना। पाना।—मिलना। मुहा०—रिजक मारना = किसी की जीविका में बाधा डालना। रोजी में खलल डालना।
⋙ रिजर्व
वि० [अं० रिज़र्व] किसी विशेष कार्य के लिये निश्चित या रक्षित किया हुआ। जैसे,—रिजर्व कुरसी, रिजर्व गाड़ी, रिजर्व सेना।
⋙ रिजर्विस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] वे सैनिक जो आपत्काल के लिये रक्षित रखे जाते हैं। रक्षित सैनिक। विशेष—रिजर्विस्ट सैनिक कम से कम तीन वर्ष तक लड़ाई पररह चुकने पर छुट्टी पा जाते हैं। जिस पल्टन में ये भर्ती होते है, रिजर्विस्टों या रक्षित सैनिकों में नाम रहने पर भी ये उस पलटन के ही बने रहते हैं। केवल दो दो वर्ष पर इन्हें दो दो महीने के लिये सैनिक शिक्षा प्राप्त करने के वास्ते अपनी पलटन में जाना पड़ाता है। २५ वर्ष की सैनिक सेवा के बाद इन्हें पेंशन मिल जाती है।
⋙ रिजल्ट
संज्ञा पुं० [अं०] परीक्षाफल। इम्तहान का नतीजा। जैसे इस बार एम० ए० का रिजल्ट बहुत अच्छा हुआ है। क्रि० प्र०—निकलना।—होना। मुहा०—रिजल्ट आउट होना = परीक्षाफल का प्रकाशित होना। इम्तहान का नतीजा निकलना।
⋙ रिजाली
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० रजील(= नीच)] रजीलपन। निर्लज्जता। बेहयाई। उ०—काउ ग्वाली की प्रीति सम्हाली, स्याम रसाली। सुकवि रिजाली दई बहाली भइ नभ लाली।—ब्यास (शब्द०)।
⋙ रिजु
वि० [सं० ऋजु] दे० 'ऋजु'।
⋙ रिझकवार पु †
संज्ञा पुं० [हिं० रीझना + वार (प्रत्य०)] किसी के गुण पर प्रसन्न होनेवाला। रीझनेवाला। उ०— रिझकवार दृग देखि कै मनमोहन की ओर। भौंहन मोरत रीझ जनु डारत है न निहोर।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ रिझवना
क्रि० स० [हिं० रिझाना] प्रसन्न करना। रिझाना। उ०— सो कमला ताज चंचलता करि कोटि कला रिझवै सुर मौरहिं।—तुलसी ग्रं०, पृ० २०४।
⋙ रिझवार †
संज्ञा पुं० [हिं० रीझना + वार (प्रत्य०)] [स्त्री० रिझवारि] १. किसी बात पर प्रसन्न होनेवाला। २. रूप पर मोहित होनेवाला। उ०— (क) कपटौ जब लौं कपट नहिं साँच बिगुरदा धार। तब लौं कैसे मिलैगो प्रभु साँचो रिझवार।— रसनिधि (शब्द०)। (ख) मोहि भरोसी रीझिहौ उझकि झाँकि इक बार। रूप रिझावनहार वह ये नैना रिझवार।—बिहारी (शब्द०)। (ग) नंदनंदन के रूप पर रीझ रही रिझवारि।— मति० ग्रं०, पृ० ३३२। ३. अनुराग करनेवाला। प्रेमी। ४. गुण पर प्रसन्न होनेवाला। कदरदान। गुणग्राहक।
⋙ रिझवैया
संज्ञा पुं० [हिं० रोझना + वैया (प्रत्य०)] दे० 'रिझवार'।
⋙ रिझाना
क्रि० स० [सं० रञ्जन] १. किसी को अपने ऊपर प्रसन्न कर लेना। किसी को अपने ऊपर खुश करना। उ०—सूरदास प्रभु विविध भाँति करि मन रिझयो हिर पी को।—सूर (शब्द०)। २. अपना प्रेमी बनाना। अनुरक्त करना। मोहित करना। लुभाना।
⋙ रिजायल पु †
वि० [हिं० रीझना + आयल (प्रत्य०)] किसी के ऊपर प्रसन्न होनेवाला। रीझनेवाला। उ०—कवि नाथ लई उर लाय पिया रति रंग तरंग रिझायल की।—नाथ (शब्द०)।
⋙ रिझाव
संज्ञा पुं० [हिं० रीझना + आव (प्रत्य०)] किसी के ऊपर प्रसन्न होने या रीझने का भाव।
⋙ रिजावना पु †
क्रि० स० [हिं० रिझाना] दे० 'रिझाना'। उ०— ललिता ललित बजाय रिझावति मधुर बीन कर लीन्हें।—सूर (शब्द०)।
⋙ रिझौंना पु
वि० [हिं० रीझ + औना (प्रत्य०)] जिसपर रीझा जाय। अपने पर रिझानेवाला। उ०—रूप रिझौने मुसकि चलति जब काम अहेरी के टटाबक टोने।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४५।
⋙ रिटर्निंग अफसर
संज्ञा पुं० [अ०] वह अफसर जो निर्वाचन के समय बोटों या मतों को गिनता है और कौन अधिक वोट मिलने से नियमानुसार निर्वाचित हुआ, इसकी घोषणा करता है।
⋙ रिटायर
वि० [अं० रिटायर्ड] जिसने काम से अवसर ग्रहण कर लिया हो। जिसने पिन्शन ली हो। अवसरप्राप्त।
⋙ रिटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ज्योति फूटना। लपट निकलना। २. काला नमक। ३. एक वाद्ययंत्र। ४. शिव के एक पार्पद का नाम [को०]।
⋙ रिणवास †
संज्ञा पुं० [हिं०] रनिवास। अंतःपुर।
⋙ रित पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋतु] दे० 'ऋतु'।
⋙ रितना पु
क्रि० अ० [हिं० रीता + ना (प्रत्य०)] खाली होना। उ०—दीजै दादि देखि ना तो बलि मही मोद मंगल रितई है।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५२८।
⋙ रितवंती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋतुमती] दे० 'रितुवंतीं'।
⋙ रितवना पु
क्रि० स० [हिं० रीता + ना (प्रत्य०)] खाली करना। रिक्त करना। उ०—(क) मंजु मनोरथ कलस भरहिं अरु रितवहिं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) चलिबे को घरै न करै मन नेकु घरै फिर फेर भरै रितवै।—देव (शब्द०)।
⋙ रिताना पु
क्रि० स० [सं० रिक्त + करण] खाली करना। रिक्त करना। उ०—अपने को सोच विचार से तो रिताया ही है।—सुनीता, पृ० २२८।
⋙ रितु पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋतु] दे० 'ऋतु'।
⋙ रितुराज
संज्ञा पुं० [सं० ऋतुराज] वसंत। उ०—सोह मदन मुनि वेष जनु रति रितुराज समेत।—मानस, २।१३३।
⋙ रितुवंता
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋतुमती] रजस्वला स्त्री।
⋙ रिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋद्धि] दे० 'ऋद्धि'।
⋙ रिद्धि सिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋद्धि सिद्धि] दे० 'ऋद्धि सिद्धि'।
⋙ रिधम
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. वसंत।
⋙ रिधि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋद्धि] दे० 'ऋद्धि'। यौ०—रिधसिधि = ऋद्धि सिद्धि।
⋙ रिन
संज्ञा पुं० [सं० ऋण] दे० 'ऋण'।
⋙ रिनिबंधी †
संज्ञा पुं० [सं० ऋण + बन्ध] कर्जदार। ऋणी।
⋙ रिनिआँ †
वि० [सं० ऋणिन्] जिसने ऋण लिया हो। ऋणी। कर्जदार। उ०—दैबे को न कछू रिनिआँ हौं धनिक तू पत्र लिखाउ।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रिनियाँ
वि० [सं० ऋणिन्] दे० 'रिनिआँ'।
⋙ रिनी †
वि० [सं० ऋणिन्] जिसने ऋण लिया हो। ऋणी कर्जदार।
⋙ रिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी। २. शत्रु। ३. हिंसा।
⋙ रिपटना ‡
क्रि० अ० [?] रपटना। फिसलना। बिछलाना।
⋙ रिपु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रु। दुश्मन। बैरी। २. जन्मकुंडली। में लग्न से छठा। स्थान। ३. पुराणानुसार ध्रुव के पोते और श्लिष्टि के पुत्र का नाम। ४. विरुद्ध ग्रह (ज्योतिष)।
⋙ रिपुघाती
संज्ञा पुं० [सं० रिपुघातिन्] दे० 'रिपुघ्न'।
⋙ रिपुघ्न
वि० [सं०] शत्रुओं का नाश करनेवाला।
⋙ रिपुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बैर। शत्रुता। दुश्मनी। उ०—जो रिपुता करि हमको मारयो। ताको हमहि सपदि संहारयो। रघुराज़ (शब्द०)।
⋙ रिपुदवन
संज्ञा पुं० [सं० रिपु + दमन] शत्रुघ्न। उ०—पवन सुवन रिपुदवन भरत लाल लखन दीन की।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५७५।
⋙ रिपुसूदन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रिपुदवन'। उ०—रिपुसूदन पद- कमल नमामी।—मानस।
⋙ रिपुहन
संज्ञा पुं० [सं० रिपुघ्न] शत्रुघ्न। उ०—सुनि रीपुहन लखि नख सिख खोटो।—मानस, २।१६३।
⋙ रिपोर्ट
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. किसी घटना का वह सविस्तार वर्णन जो किसी को सूचना देने के लिये किया जाय। २. किसी संस्था आदि के कार्यो का विस्तृत विवरण। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के संबंध की जानने योग्य बातों का व्योरा।
⋙ रिपोर्टर
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी समाचारपत्र के संपादकीय विभाग का वह कार्यकर्त्ता जिसका काम सब प्रकार के स्थानीय समाचारों और घटनाओं का संग्रह कर उन्हें लिखकर संपादक को देना और अपने पत्र के लिये सार्वजनिक सभा, समिति, उत्सव, मेले आदि का विवरण लिखकर लाना, स्थानांतर में होनेवाली सभा, संमेलन, उत्सव, मेले आदि के अवसर पर जाकर वहाँ का व्यौरा लिखकर भेजना और प्रसिद्ध प्रसिद्ध व्यक्तियों से मिलकर महत्व के सार्वजनिक प्रश्नों पर उनका मत जानना होता है। २. वह जो किसी सभा या समिति का विवरण और व्याख्यान लिखता हो। जैसे, काँग्रेस रिपोर्टर। ३. वह जो सरकार की ओर से अदालत या किसी सभा समिति या कौंसिल की काररवाई और व्याख्यान लिखता हो। जैसे,—कौंसिल रिपोर्टर, सी० आई० डी० रिपोर्टर।
⋙ रिप्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पातक। २. धूल। गंदगी (को०)।
⋙ रिप्र (२)
वि० बुरा। निम्न। नीच [को०]।
⋙ रिप्रवाह
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिससे पाप या पातक का नाश होता हो।
⋙ रिफार्म
संज्ञा पुं० [अं० रिफ़ार्म] दोषों या त्रुटियों का दूर किया जाना। किसी संस्था या विभाग में परिवर्तन किया जाना। सुधार। संस्कार। परिवर्तन।
⋙ रिफा़र्मर
संज्ञा पुं० [अं० रिफ़ार्मर] वह जो धार्मिक, सामजिक या राजनीतिक सुधार या उन्नति के लिये प्रयत्न या आंदोलन करता हो। सुधारक। संस्कारक।
⋙ रिफार्मेटरी
संज्ञा पुं० [अं० रिफ़ार्मेटरी] वह संस्था या स्थान जहाँ अप- राधी कैदी बालक रखे जाते हैं और उन्हें औद्योगिक शिक्षा दी जाती है जिसमें वे लोग वहाँ से बाहर निकलकर जीविकानिर्वाह कर सकें और भलेमानस बनकर रहें। चरित्रसंशोधनालय।
⋙ रिफार्मेटरी स्कूल
संज्ञा पुं० [अं० रिफार्मेटरी स्कूल] दे० 'रिफार्मेटीर'।
⋙ रिबन
संज्ञा पुं० [अं०] १. सिल्क, साटन या सूती कपड़े आदि की पतली लंबी पट्टी जिसमे कोई वस्तु बाँधने का काम लेते हैं। फीता। २. टाइप राइटर में लगाया जानेवाला स्याही का फता। ३. स्त्रियों, कन्याओं की चोटी में लगाया जानेवाला रेशम, सूत आदि का कुछ चौड़ा फीता। उ०—पाउडर, रिबन आदि शृंगार प्रसाधन की प्रायः सभी आवश्यक वस्तुएँ खरीदकर मैं होटल को लौट चला।—जप्सी, पृ० ७१।
⋙ रिभु
संज्ञा पुं० [सं० ऋभु] दे० 'ऋभु'।
⋙ रिभ्वा
संज्ञा पुं० [सं० रिभ्वन्] चोर। तस्कर [को०]।
⋙ रिम (१)
संज्ञा पुं० [सं० अरिम् या ऋषु] शत्रु। (डिं०)।
⋙ रिम
संज्ञा स्त्री० [अं० रीम] दे० 'रीम'।
⋙ रिमाझिम (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] छोटी छोटी बूँदों का लगातार गिरना। हलकी फुहार पड़ना।
⋙ रिमझिम (२)
क्रि० वि० वर्षा की छोटी छोटी बूँदों से। उ०—बादल धिरे हुए हैं; बिजली चमक रही है; रिमझिम झड़ी लगी हुई है।—बालमुकुंद (शब्द०)।
⋙ रिमहर
संज्ञा पुं० [सं० अरिम् + हर] शत्रु। (डिं०)।
⋙ रिमाइंडर
संज्ञा पुं० [अं०] अनुस्मारक। याददाश्त।
⋙ रिमार्क
संज्ञा पुं० [अं०] मत। राय।
⋙ रिमिका
संज्ञा [हिं०] काली मिर्च की लता। (अनेकार्थ)।
⋙ रिम्मना पु
क्रि० अ० [हिं० रमना] रमण करना। रमना। उ०— नारि सो धिकु जेहि पुरुष न रिम्मे, पुरुष सो धिकु जीवन अपकारी। बचन सो धिकु जो बोलि पलट्टिय दानि सो धिक जो करकस भारी।—अकबरी०, पृ० ३२२।
⋙ रिया
संज्ञा स्त्री० [अ०] दिखावा। मक्कारी [को०]। यौ०—रियाकार = मक्कार। रियाकारी = फरेब। मक्करी।
⋙ रियाज
संज्ञा पुं० [अं० रियाज्, रौज़ह् का बहुव०] १. बाग। उपवन। उद्यान। २. मिहनत। श्रम। ३. अभ्यास। ४. दे० 'रियाजत'। मुहा०—रियाज मारना = (१) कसरत करना। (२) परिश्रम करना।
⋙ रियाजत
संज्ञा स्त्री० [अ० रियाज़त] १. कसरत। व्यायाम। २. इबादत। जपतप। ३. दे० 'रियाज' [को०]।
⋙ रियाजी (१)
वि० [अ० रियाजी़] १. मेहनती। २. कसरती।
⋙ रियाजी (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० रियाज़ी] गणित विद्या [को०]।
⋙ रियायत
संज्ञा स्त्री० [अ० रिआयत] दे० 'रिआयत'।
⋙ रियासत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. राज्य। अमलदारी। २. रईस होने का भाव। अमीरी। वैभव। ऐश्वर्य। स्वामित्व। सरदारी।
⋙ रियासती
वि० [अ० रियासत + हिं० ई (प्रत्य०)] रियासत से संबंधित।
⋙ रियाह
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. वायु। २. अपान वायु [को०]।
⋙ रिरंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संभोग की इच्छा। २. आनंद लेने की इच्छा [को०]।
⋙ रिर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रार] हठ। जिद। उ०—रस मैं रिसान्यौ अनरस के खिसान्यौ देव पीछे पछितान्यौ सौ बरोबत रिर परयौ।—देव (शब्द०)।
⋙ रिरकना पु
क्रि० अ० [सं० √ ऋ] १. सरकना। खिसकना। उ०— प्यौ लखि सुंदरि सुंदरि सेज तें यों रिरकी थिरकी थहरानी। बात के लागे नहीं ठहरात है ज्यों जलजात के पात पै पानी।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १६९। २. गिड़गिड़ाना। रिरियाना।
⋙ रिरना †
क्रि० अ० [अनु०] बहुत दीनता प्रकट करना। गिड़- गिड़ाना।
⋙ रिरियाना
क्रि० अ० [हिं० रिरना] दे० 'रिरना'।
⋙ रिरिहा †
संज्ञा पुं० [हिं० रिरना(= गिड़गिड़ाना)] वह जो गिड़गिड़ाकर और रट लगाकर कुछ माँगता हो। उ०— द्वार हौं भोर ही को आज। रटत रिरिहा आरि और न कौर ही ते काज।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रिरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीतल। (धातु)।
⋙ रिरी (२)
वि० [हिं० रिर + ई (प्रत्य०)] जिद्दा। हठी।
⋙ रिलना पु †
क्रि० अ० [हिं० रेलना। तुल० पं० रलना(= मिलना)] प्रवेश करना। पैठना। घुसना। उ०— नौरंग भरि भामिनी दिखावति सौ रँग हिय रिलि।—मुकवि (शब्द०)। २. हिल मिलकर एक हो जाना। मिल जाना। उ०—बेसर मानिक लखि न परत यों रंग रह्यौ रिलि।—सुकवि (शब्द०)।
⋙ रिलीफ
संज्ञा पुं० [अं० रिलीफ़] वह सहायता जो आर्त पीड़ित या दीन दुःखी जन का दी जाय। सहायता। साहाय्य। मदद। जैसे,—मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी। रिलीफ वर्क।
⋙ रिवाज
संज्ञा पुं० [अ०] प्रथा। रस्म। रीति। चलन। क्रि० प्र०—उठना।—चलना।—निकलना।—पड़ना।—होना।
⋙ रिवाल्वर
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का तमंचा जिसमें एक साथ कई गोलियाँ भरने का चक्र होता है जो घूमता है और गोलियाँ लगातार एक के बाद दूसरी छोड़ी जा सकती हैं।
⋙ रिव्यू
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. किसी नवीन प्रकाशित पुस्तक की परीक्षा कर उसके गुण दोषों को प्रकट करना। आलोचना। समालोचना। जैसे,—आपने अपने पत्र में अभी मेरी पुस्तक की रिव्यू नहीं की। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. वह लेख या निबंध जिसमें इस प्रकार किसी पुस्तक की आलोचना। की गई हो। समालोचना। जैसे,—'संदेश' में 'समाज' की जो रिव्यू निकली है वह सद्भावपूर्ण नहीं कही जा सकती। ३. वे सामयिक पत्रपत्रिकाएँ जिनमें राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, वैज्ञानिक आदि विषय पर आलोचनात्मक लेखों का संग्रह रहने के साथ ही नवीन प्रकाशित पुस्तकों की भी आलोचना रहती हो। जैसे—माडर्न रिव्यू, सैटरडे रिव्यू। ४. किसी निर्णय या फैसले का पुनर्विचार। नजरसानी जैसे,—नोचे को अदालत का फैसला रिव्यू के लिये हाईकोर्ट भेजा गया है।
⋙ रिश
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु। अरि [को०]।
⋙ रिशा
संज्ञा स्त्री० [अ०] उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र [को०]।
⋙ रिश्ता
संज्ञा पुं० [फ़ा० रिश्तह्] १. नाता। संबंध। २. डोरा। तागा (को०)। ३. नहारू वा नारू रोग (को०)।
⋙ रिश्तेदार
संज्ञा पुं० [फ़ा० रिश्तह्दार] संबंधी। नातेदार। स्वजन।
⋙ रिश्तेदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० रिश्तह्दारी] रिश्ता होने का भाव। संबंध। नाता।
⋙ रिश्तेमंद
संज्ञा पुं० [फ़ा० रिश्तह्मंद] संबंधी। नातेदार।
⋙ रिश्य
संज्ञा पुं० [सं०] मृग।
⋙ रिश्वत
संज्ञा स्त्री० [अ०] वह धन जो किसी को उसके कर्तव्य से विमुख करके अपना लाभ करने के लिये अनुचित रूप से दिया जाय। घूम। लाँच। उत्कोच। जैसे,—उसने दो सौ रुपए रिश्वत देकर उस मुकदमे से अपनी जान बचाई। क्रि० प्र०—खाना।—देना। जैसे,—रुपया दो रुपया रिश्वत देकर अपना काम निकाल लो।—पाना।—मिलना।—लेना।
⋙ रिश्वतखोर
संज्ञा पुं० [अ० रिश्वत + फ़ा० खोर] वह जो रिश्वत लेता हो। घूस खानेवाला।
⋙ रिश्वतखोरी
संज्ञा स्त्री० [अ० रिश्वत + फ़ा० खोरी] रिश्वत खाने का काम। घूस लेने का काम।
⋙ रिषभ
संज्ञा पुं० [सं० ऋषभ] दे० 'ऋषभ'।
⋙ रिषि पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ऋषि'।
⋙ रिषीक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ रिषीक (२)
वि० हानि पहुँचानेवाला।
⋙ रिष्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कल्याण। मंगल। सौभाग्य। २. अभाग्य। अमंगल। दुर्भाग्य। ३. अभाव। न होना। ४. नाश। ५. पाप। ६. खड्ग। ७. रीठा का वृक्ष (को०)।
⋙ रिष्ट (२)
वि० नष्ट। बरबाद।
⋙ रिष्ट पु (३)
वि० [सं० हृष्ट] १. प्रसन्न। २. मोटा ताजा। यौ०—रिष्टपुष्ट = हृष्टपुष्ट। उ०—रिष्ट पुष्ट कोउ अति तन खीना।—मानस, १।९३।
⋙ रिष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] रक्तशिग्रु। रीठा [को०]।
⋙ रिष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खड्ग। २. अमंगल।
⋙ रिष्य
संज्ञा पुं० [सं०] रिश्य। मृग [को०]।
⋙ रिष्यमूक
संज्ञा पुं० [सं० ऋष्यमूक] दक्षिण का एक पर्वत जहाँ राम जी से सुग्रीव की मित्रता हुई थी। उ०—आगे चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्वत नियराया।—मानस, ४।१।
⋙ रिष्व
वि० [सं०] घातक। वधक। हंता [को०]।
⋙ रिस
संज्ञा स्त्री० [सं० रुष] क्रोध। गुस्सा। कोप। नाराजगी। उ०—(क) सुनि सुदान राजै रिस मानी।—जायसी (शब्द०)। (ख) महाप्रभु कृपाकरन रघुनंदन रिस न गहै पल आधु।— सूर (शब्द०)। (ग) जात पुकारत आरत बानी। देखि दुशासन अति रिस मानी।—सबल (शब्द०)। मुहा०—रिस मारना = क्रोध को रोकना। उ०—(क) धर्मज बदन निहारि, बिकल सकल रिस मरि उर। दीन गदा महि डारि, भीम बिकल पारय अतिहि।—सबल (शब्द०)। (ख) रामै राम पुकार हनुमान अंगद कह्यौ। तव रावण रिस मारि रामचंद्र मन में धरे।—हृदयराम (शब्द०)।
⋙ रिसना †
क्रि० स० [हिं० रसना] बहुत ही छोटे छोटे छिद्रों द्वारा छन छनकर बाहर निकल जाना। रसना। उ०—वहाँ की मिट्टी ऐसी दरदरी थी कि जो दीया बनाते तो जलाने के समय सारी चरबी पिघलकर उसके भीतर से रिस जाती।— शिवप्रसाद (शब्द०)।
⋙ रिसवाना †
क्रि० स० [हिं० रिसाना] दे० 'रिसाना'। उ०— ताही समय नंद घर आए। सुनि जसुमति को बहु रिसवाए।— विश्राम (शब्द०)।
⋙ रिसहा †
वि० [हिं० रिस + हा (प्रत्य०)] १. बात बात पर क्रोध करनेवाला। गुस्सेवर। क्रोधी। उ०—सूधे न काहू बतायो कछू मन याही ते मेरो भयो रिसहा है।—मन्नालाल (शब्द०)।
⋙ रिसहाया †
वि० [हिं० रिसाया] [वि० स्त्री० रिसहाई] क्रुद्ध। कुपित। नाराज। उ०—(क) लखि लीनी तब चतुर नागरी ये मो पर सब हैं रिसहाई।—सूर (शब्द०)। (ख) जननी अतिहि भई रिसहाई। बार बार कहें कुबरि राधिका री मोतीसरि कहाँ गमाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ रिसान
संज्ञा पुं० [देश०] ताने के सूतों को फैलाकर उनको साफ करने का काम। (जुलाहे)।
⋙ रिसाना † (१)
क्रि० अ० [हिं० रिस + आना (प्रत्य०)] क्रुद्ध होना। खफा होना। गुस्सा होना। उ०—(क) और की ओर तकै जब प्यो तब त्यौरी चढ़ाइ चढ़ाइ रिसाति है। (ख) सखी सदन लाई जहँ रानी। मातु ताहि लखि बहुत रिसानो।—विश्राम (शब्द०)। संयो क्रि०—जाना।—उठना।
⋙ रिसाना (२)
क्रि० स० किसी पर क्रुद्ध होना। बिगड़ना। उ०—इनकी बात न जानति मैया मोका बारंबार रिसाति।—सूर (शब्द०)।
⋙ रिसानि, रिसानी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रिस + आनि (प्रत्य०)] क्रोध। गुस्सा। नाराजगी। उ०—घोर धार भृगुनाथ रिसानी।— मानस, १।४१।
⋙ रिसाल †
संज्ञा पुं० [अ० इरसाल] राज्यकर जो मुफस्सल से राजधानी को भेजा जाता है। उ०—मानो हय हाथी उमराव करि साथी अवरंग डरि सिवा जी पै भेजत रिसाल है।— भूषण (शब्द०)।
⋙ रिसालदार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] घुड़सवार सेना का अफसर। २. रिसाल या राजकर ले जानेवालों का प्रधान संचालक। चढ़नदार।
⋙ रिसाला
संज्ञा पुं० [फा० रिसालह्] १. घोड़सवारों की सेना। अश्वारोही सेना। २. किसी विषय पर छोटी पुस्तक (को०)। ३. नियत समय पर मासिक, पाक्षिक, त्रैमासिक आदि रुपों में प्रकाशित होनेवाला पत्र (को०)।
⋙ रिसि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रिस ] दे० 'रिस'।
⋙ रिसिआनी, रिसियाना † (१)
क्रि० अ० [हिं० रिस+आना (प्रत्य०)] क्रुद्ध होना। कुपित होना। उ०— (क) कबहूँ रिसियाई कहैं हठि कै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) शाप दीन सुनि अति रिसियाने। कीन्हें कपट अकाज अजाने।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ रिसिआना, रिसियाना (२)
क्रि० स० किसी पर क्रुद्ध होना। बिगड़ना।
⋙ रिसिक पु
संज्ञा स्त्री० [सं० रिषीक] तलवार। उ०— रिसिक कुसेह कृपान असि विशसनपा करवाल। —नंददास (शब्द०)।
⋙ रिसौहाँ
वि० [हिं० रिस+औहाँ (प्रत्य०)] १. क्रुद्ध सा। कुछ कोप- युक्त। थोड़ा नाराज। उ०—(क) सी करती ओठनि बसी करति आँखिन रिसौंही सी हँसी करति, भौंहनि हँसी करति।— देव (शब्द०)। (ख) करी रिसौंहीं जाहिगी सहज हँसौंहीं भौंह। —बिहारी (शब्द०)। २. क्रोध से भरा। कोपसूचक। उ०— माखे लखन कुटिल भई भौंहैं। रदपुट फरकत नयन रिसौहैं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रिस्क
संज्ञा स्त्री० [अं०] झोंका। जवाबदेही। भार। बोझ। जैसे— रेलवे रिस्क। जैसे,—यदि तुम गाँठ न उठाओगे तो वे तुम्हारी रिस्क पर बेच दी जायँगी। क्रि० प्र०—उठाना।—लेना।
⋙ रिस्टवाच
संज्ञा स्त्री० [अं०] कलाई पर बाँधने की घड़ी।
⋙ रिहन
संज्ञा पुं० [अ० रहन] दे० 'रेहन'।
⋙ रिहननामा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह लेख जिसमें किसी पदार्थ के रेहन रखे जाने और उसके संबंध की शर्तों का उल्लेख हो।
⋙ रिहर्सल
संज्ञा पुं० [अं०] १. नाटक के अभिनय का अभ्यास। २. वह अभ्यास जो किसी कार्य को ठीक समय पर करने के पहले किया जाय।
⋙ रिहल
संज्ञा स्त्री० [अ०] काठ की बनी हुई कैंचीनुमा चौकी जिसपर रखकर लोग पुस्तक पढ़ेते हैं और जिसका आकार इस प्रकार का * होता है।
⋙ रिहा
वि० [फ़ा०] १. (बंधन आदि से) मुक्त। छूटा हुआ। २. (किसी बाधा या संकट से) छुटा हुआ। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ रिहाई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] छुटकारा। मुक्ति। छुट्टी। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।
⋙ रींधना
क्रि० स० [सं० रन्धन] तैयार करने के लिये खाद्य पदार्थ को तलना, उबालना या पकाना। राँधना। उ०— (क) जगन्नाथदरसन कहँ आए। भोजन रींधा भात पकाए। —जायसी (शब्द०)। (ख) रसोई के घर में ब्रह्मानंद की भतीजी रोहिणी रीध रही थी।—अयोध्या (शब्द०)।
⋙ री (१)
अव्य० [सं० रे] सखियों के लिये संबोधन। अरी। एरी। उ०— नेकु सुमुखि चित लाइ चितौ री। नख सिख सुंदरता अवलोकत कह्यौ न परत सुख होत जितो री। साँवर रुप सुधा भरिबे कहँ नयन कमल कल कलस रितौ री।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ री (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गति। २. वध। हत्या। ३. श्बद। रव। ४. क्षरण। चूना।
⋙ रीगन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो भादों या कुआर में तैयार होता है।
⋙ रीगना
क्रि० अ० [देश०] चिढ़ना।
⋙ रीछ
संज्ञा पुं० [सं० ऋच्छ] [स्त्री० रीछनी] भालू। यौ०—रीछपति=जामवंत। उ०— कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।— मानस,—४। ३०। रीछराज।
⋙ रीछिराज पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्षराज] जामवंत। उ०— रीछराज कपिराज नील नल बोलि बालि नंदन लए। —तुलसी ग्रं०, पृ० ३८६।
⋙ रीजेंट
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो किसी राजा की नावालिगी, अनुपस्थिति या अयोग्यता की अवस्था में राज्य का प्रबंध या शासन करता हो। राज्यप्रतिनिधि। अस्थायी शासक। वली। जैसे,— स्वर्गीय महाराज सरदारसिंह जी की नाबालिगी में ईडर के महाराज सर प्रतापसिंह कई वर्ष तक जोधपुर के रीजेंट रहे।
⋙ रीजेंसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] रोजेंट का शासन या अधिकार। जैसे,— जोधपुर में कई वर्ष तक रीजेंसी रही।
⋙ रीज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घृणा। नफरत। २. भला बुरा कहना। लानत मलामत। कुत्सा। निंदा। भर्त्सना।
⋙ रीझ
संज्ञा स्त्री० [सं० रञ्जन] १. किसी के ऊपर रीझने की क्रिया या भाव। किसी की किसी बात पर प्रसन्नता। २. किसी के रुप, गुण आदि पर मोहित होना। मुग्ध होने का भाव।
⋙ रोझना
क्रि० अ० [सं० रंजन] १. किसी की किसी बात पर प्रसन्न होना।उ०— केतिकौ कोऊ बकै रघुनाथ मैं साँवरे के रंग रीझि रजौंगी। देह तजौंगी संदेह तजौंगी पै देह तजौंगी न नेह तजौंगी।—रघुनाथ (शब्द०)। २. मोहित होना। मुग्ध होना। उ०— (क) रीझहि राज कुँवरि छबि देखी। इनहिं बरै हरि जानि विशेषी। —तुलसी (शब्द०) । (ख) कहत नटत रीझत खिझत हिलत मिलत लजियात। भरे भौन में करत हैं नैनन ही सों बात।—बिहारी (शब्द०)। संयो० क्रि०—जाना। उ०— रुप निकाई मीत की ह्याँ तक लों अधिकात। जा तन हेरौ निमिष कै रीझहु रीझी जात।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ रीझि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रीझना] प्रसन्नता। आनंद। उ०— तेरी खोझिबे की रुख रीझि मनमोहन को याते वहै साज सजि सजि नित आवते। —भिखारी० ग्रं०, पृ० १३५।
⋙ रीठ पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रिष्ट] १. तलवार। २. युद्ध। (डिं०)।
⋙ रीठ (२)
वि० अशुभ। खराब।
⋙ रीठा (१)
संज्ञा पुं० [सं० रिष्ट, प्रा० रिट्ठ या सं० रीठा (=करंज भेद)] १. एक बड़ा जंगली वृक्ष जो प्रायः बंगाल, मध्य प्रदेश, राजपूताने तथा दक्षिण भारत में पाया जाता है। यह देखने में बहुत सुंदर होता है। २. इस वृक्ष का फल जो वेर के बरावर होता है। विशेष—इसकी लोग सुखाकर रखते हैं। इसे पानी में भिगोकर मलने से फेन निकलता है जिससे कपड़े धोए जाते हैं। काश्मीर में शाल आदि प्रायः इसी से साफ किए जाते हैं। यह रेशम तथा जवाहिरात धोने के काम में भी आता है। इसे फेनिल भी कहते हैं।
⋙ रीठा (२)
संज्ञा पुं० [सं० भट्ठा] वह भट्ठा जिसमें चूना बनाने के लिये कंकर फूँके जाते हैं।(बुंदेलखंड)।
⋙ रीठाकरंज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रीठा (१)'।
⋙ रीठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० रीठा] दे० 'रीठा'।
⋙ रीडर (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह जो पढ़े। पढ़नेवाला। पाठक। २. कालेज या विश्वविद्यालय का अध्यापक जो लेक्चरर (अध्यापक) से ऊँचा होता है। व्याख्याता। ३. वह जो लेख या पुस्तकों के प्रूफ पढ़ता या संशोधन करता है। संशोधक।
⋙ रीडर (२)
संज्ञा स्त्री० पाठय पुस्तक। जैसे,—पहली रीडर। बेसिक रीडर। किंग रीडर।
⋙ रीडिंग रूम
संज्ञा पुं० [अं०] अध्ययनकक्ष। दे० 'वाचनालय'।
⋙ रीढक
संज्ञा पुं० [सं०] देखो 'रीढ़' [को०]।
⋙ रीढ़
संज्ञा स्त्री० [सं० रीढ़क] पीठ के बीचोबीच की वह खड़ी हड्डी जो दर्दन से कमर तक जाती है और जिससे पसलियाँ मिली हुई रहती हैं। मेरुदंड। विशेष— यह वास्तव में एक ही हड्डी नहीं होती, बल्कि बहुत सी हड्डीयों की गुरियों की एक शृंखला होती है। इसे शरीर का आधार समझना चाहिए। इसका सीधा लगाव मस्तिष्क से होता है और बहुत से संवेदनसूत्र इसमें से दोनों ओर निकलकर फैले रहते हैं।
⋙ रीढा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनादर। अवज्ञा। उपेक्षा [को०]।
⋙ रोण
वि० [सं०] १. तिरोभूत। तिरोहित। अंतर्धान। २. स्पंदित्त। प्रस्रवित। क्षरित [को०]।
⋙ रीत
संज्ञा स्त्री० [हिं० रीति] दे० 'रीति'। उ०— सखीन सो सीखै सोहाग की रीतहि।— देव (शब्द०)।
⋙ रीतना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० रिक्त, प्रा० रित+हिं० ना (प्रत्य०)] खाली होना। रिक्त होना। उ०— हमहूँ समुझि परी नीके करि यह आशा तनु। रीत्यो। —सूर (शब्द०)।
⋙ रीतना (२)
क्रि० स० खाली करना। रिक्त करना।
⋙ रीता
वि० [सं० रिक्त, प्रा० रित्त] [वि० स्त्री० रीती] जिसके अंदर कुछ न हो। खाली। रिक्त। शून्य। उ०— (क) साँची कहिजाउ कब ऐहौ भौन रीते पर। —पद्माकर (शब्द०)। (ख) हम हम करि धन धाम संवारे अंत चले उठि रीते।—तुलसी (शब्द०)। (ग) रीते घट धरि लेत सिर देति भरन को ढ़ारि।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ रीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कोई कार्य करने का ढंग। प्रकार। तरह। ढब। उ०— जाति मुरी बिछुरत घरी जल सफरी की रीति। —बिहारी (शब्द०)। २. रस्म। रिवाज। परिपाटी। उ०— (क) मतलब मतलब प्यार सों तन मन दै कर प्रीति। सुनी सनेहिन मुख यहै प्रेम पंथ की रीति। —रसनिधि (शब्द०)। (ख) रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाहिं वरु वचन न जाई।—तुलसी (शब्द०)। ३. कायदा। नियम। ४. साहित्य में किसी विषय का वर्णन करने में विशिष् पदरचना अर्थात् वर्णों की वह योजना जिससे आज, प्रसाद या माधुर्य आता है। ५. पीतल। ६. लोहे की मैल। मंडूर। ७. जले हुए सोने की मैल। ८. सीसा। ९. गति। १०. स्वभाव। ११. स्तुति। प्रशंसा। यौ०—रीतिकाल=हिंदी साहित्य के इतिहास का वह काल जब रीति ग्रंथों की रचना विशेष रुप से होती थी। रीतिग्रंथ, रीतिशास्त्र=वे लक्षणग्रंथ जिनमें नायिकाभेद, नखसिख, अलंकार आदि का लक्षण एव सोदाहरण विवेचन किया गया हो।
⋙ रीतिक
संज्ञा पुं० [सं०] पीतल का भस्म। पुष्पांजन [को०]।
⋙ रीतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जस्ते का भस्म। २. पीतल। कुसुमांजन।
⋙ रीम (१)
संज्ञा स्त्री० [अं०] कागज की वह गड्डी जिसमें बीस दस्ते (अर्थात् ५०० शीट) होते हैं।
⋙ रीम (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] मवाद। पीव।
⋙ रीर (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० रीढ़] दे० 'रीढ़'।
⋙ रीर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ रीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीतल।
⋙ रीशमाल
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] वह व्यक्ति जो अपनी स्त्री के व्यभिचार की कमाई खाता हो [को०]।
⋙ रीषमूक
संज्ञा पुं० [सं० ऋष्यमूक] दे० 'ऋष्यमूक'।
⋙ रीस (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. दे० 'रीति'। उ०— वृद्ध जो सीस डुलावै सीस धुनहिं तेहि रीस। —जायसी (शब्द०)।
⋙ रीस (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ईर्ष्या] १. डाह। उ०—वरनौं गीउ कंवु कै रीसी। —जायसी (शब्द०)। २. स्पर्धा। बराबरी। उ०— (क) सेमल बिना सुगंध तू करत मालती रीस। —दीनदयाल (शब्द०)। (ख) कह्यो हिमालय सिव प्रभु ईस। हमकों उनसों कैसी रीस।—सूर (शब्द०)।
⋙ रीसना पु
क्रि० अ० [हिं० रिस+ना (प्रत्य०)] क्रुद्ध होना। खफा होना। उ०—मुख फिराइ मन अपने रीसा। चलत न तिरिया कर मुख दीसा। —जायसी (शब्द०)।
⋙ रीसा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की झाड़ी जिसकी छाल के रेशों से रस्सियाँ बनती हैं। यह झाड़ी हिमालय और खासिया पहाड़ी पर होती है। इसे बनकठकीरा या बनरीहा भी कहते हैं।
⋙ रीहा
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक झाड़ी। दे० 'रीसा'।
⋙ रुंज
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाजा। उ०— (क) रुंज मुरज डफ झाँझ झालरी यंत्र पखावज तार।—सूर (शब्द०)। (ख) रुंज सुरज डफ ताल बाँशुरी झालर की झंकार।—सूर (शब्द०)।
⋙ रुंड
संज्ञा पुं० [सं० रुण्ड] १. बिना सिर का धड़। कवंध। २. बिना हाथ पैर का शरीर। वह शरीर जिसके हाथ पैर कटे हों। उ०— (क) जीव पाउँ नहिं पाछे धरहीं। रुंडमुंड मय मेदिनि करहीं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) रुंडनि के झुंड झूमि झूमि झुकरिसे नाचैं समर सुमार सूर भारे रघुबीर के। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ रुंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० रुण्डिका] १. युद्धभूमि। समरक्षेत्र। २. विभूति। ३. दरवाजे की चौखट (को०)।
⋙ रुंधती
संज्ञा स्त्री० [सं० अरुन्धती] वशिष्ठ मुनि की स्त्री। उ०— रतनालिका सी रुधंती सी रोहिणी सी रुचि रति सी रमा सी लसी अंगन में आइकै।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ रुंधना
क्रि० अ० [सं० रुच, हिं०] 'रुँबना'। उ०— सिर तुहै रुंध्यो गयंद कढ्यौ कट्टारौ।—पृ० रा०, ६१। २२९७।
⋙ रुँदवाना
क्रि० स० [हिं० रौंदना का प्रेर०] पैरों से कुचलवाना। रौंदवाना। उ०— अब नहिं राखौं उठाइ वैरी नहिं नान्हों। मारौ गज तें रुँदाइ मनहि यह अनुमान्हों।—सूर (शब्द०)।
⋙ रुँधना
क्रि० अ० [सं० रुद्ध+ना (प्रत्य०)] १. मार्ग न मिलने के कारण अटकना। रुकना। २. उलझना। फँस जाना। उ०— रुँधे रति संग्राम नीके। एक ते एक रणवीर जोधा प्रबल सुरत नहिं नेक अति सबल जी के। —सूर (शब्द०)। ३. किसी काम में लगना। ४. रोक या रक्षा के लिये काँटेदार झाड़ों आदि से घिरना या छाना। घेरा जाना। जैसे,—रास्ता रुँधना, खेत रुँधना।
⋙ रु पु (१)
अव्य० [हिं० अरु का संक्षिप्त रूप] और। उ०—(क) हम हारी कै कै हहा पायन परयौ प्यौअरु। लेहु कहा अजहूँ किए तेह तरेरे त्यौरु। —बिहारी (शब्द०)।(ख) संवत् भुज श्रुति निधि मही मधुमास रु सित पच्छ। शनिवासर शुभ पंचमी किन्हों ग्रंथ प्रतच्छ। —मन्नालाल (शब्द०)।
⋙ रु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द। २. वध। ३. गति। ४. काटना। अलग करना (को०)। ५. भय। खतरा (को०)।
⋙ रुआँली
संज्ञा स्त्री० [रूई+आलि] रूई की बनी हुई एक प्रकार को पोली बत्ती या पूनी जो स्त्रियाँ चरखे पर सूत कातने के लिये एक सिरकी पर लपेट कर बनाती हैं। पूना। पौनी।
⋙ रुआ पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० रोम] शरीर पर के छोटे छोटे बाल। रोम। रोआँ।
⋙ रुआ (२)
संज्ञा पुं० [देश०] आणक का चतुर्थांश। एक पण वा पैसा।
⋙ रुआ घास
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुसा] १. एक प्रकार की बहुत सुगंधित घास जो तेल आदि बासने के काम आती है। इस धास से वासा हुआ तेल।
⋙ रुआना पु †
क्रि० स० [हिं० रुलाना] दे० 'रुलाना'।
⋙ रुआब †
संज्ञा पुं० [अं० रोअब] १. धाक। दबदबा। रोब। २. भय। डर। खौफ। आतंक। क्रि० प्र०—डाँटना।—छाना।—बैठना।—बैठाना।—मानना।
⋙ रुआली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुई+आलि] दे० 'रुआली'।
⋙ रुई
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़। विशेष—यह पेड़ हिमालय की तराई में काश्मीर से पूर्व दिशा में होता है। इसकी छाल और पत्तियाँ रँगाई के काम में आती है।
⋙ रुई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'रुई'।
⋙ रुईदस्त
संज्ञा पुं० [फ़ा० रु?+द्स्त(=हाथ)] कुश्ती में छाती या बगल के पास से हाथ अड़ाकर निकालना।
⋙ रुईदार
वि० [हिं० रुईदार] दे० 'रुईदार'।
⋙ रुक
वि० [सं०] उदार। बहुत देनेवाल [को०]।
⋙ रुकना
क्रि० अ० [हिं० रोक] १. मार्ग आदि न मिलने के कारण ठहर जाना। आगे न बढ़ सकना। अवरुद्ध होना। अटकना। जैसे,—(क) यहाँ पानी रुकता है। (ख) रास्ता न मिलने की वजह से सब लोग रुके हैं। २. अपनी इच्छा से ठहर जाना। आगे न बढ़ना। जैसे,—(क) हम रास्ते में एक जगह रुकना चाहते हैं। (ख) यह गाड़ी हर स्टेशन पर रुकती है। संयों क्रि०—जाना।—पड़ना। ३. किसी कार्य में आगे न चलना। किसी काम में सोच विचार या आगा पीछा करना। जैसे,—मैं कुछ निश्चय नहीं कर सकता, इसी से रुका हूँ; नहीं तो कब का दावा कर चुका होता। ४. किसी कार्य का बीच में ही बंद हो जाना। काम आगे न होना। जैसे,—(क) रुपए के बिना सब काम रुका है। (ख) इस साल विवाह की सब तेयारी हो चुकी थी; पर लड़की मर जाने से विवाह रुक गया। ५. किसी चलते क्रम का बंद होना। सिलसिला आगे न चलना। जैसे— बाढ़ रुकना। सयो० क्रि०—जाना। ६. वीर्यपात न होने देना। स्खलित न होना (बाजारु)।
⋙ रुकमंगद
संज्ञा पुं० [सं० रुकमाङ्गद] दे० 'रुक्मांगद'।
⋙ रुकमंजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० रुक्माञ्जनी] १. एक प्रकार का पौधा जो वागों में सजावट के लिये लगाया जाता है। २. इस पौधे का फूल।
⋙ रुकमिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० रुक्मिणी] श्रीकृष्ण चंद्र को पटरानी। विशेष दे० 'रुक्मिणी'।
⋙ रुकरा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की ऊख या गन्ना।
⋙ रुकवाना
क्रि० स० [हिं० रुकना का प्रेर०] दूसरे को रोकने में प्रवृत्त करना। रोकना। रोकने का काम दूसरे से कराना।
⋙ रुकाव
संज्ञा पुं० [हिं० रुकना] १. रुकने का भाव। रुकावट। अटकाव। अवरोध। रोक। २. मलावरोध। कब्ज। ३. स्तंभन।
⋙ रुकुम पु
संज्ञा पुं० [सं० रुक्म] दे० 'रुक्म'।
⋙ रुकुमी पु
संज्ञा पुं० [सं० रुक्मी] दे० 'रुक्मी'।
⋙ रुक् (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रुच्] १. शोभा। द्युति। कांति। २. आकांक्षा। इच्छा। ३. तेज। ४. आनंद। ५. शुक सारिका की बोली या कूजन [को०]।
⋙ रुक् (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० रुज] रोग। व्याधि [को०]। यौ०—रुक्प्रतिक्रिया=रोग का प्रतिकार। चिकित्सा।
⋙ रुक्का
संज्ञा पुं० [अ० रुक्कअ] १. छोटा पत्र या चिट्ठी। पुरजा। परचा। २. वह लेख जो हुंडी या कर्ज लेनेवाले रुपया लेते समय लिखकर महाजन को देते हैं।
⋙ रुक्ख पु †
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष, प्रा० रुक्ख] रुख। पेड़। वृक्ष।
⋙ रुक्म (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ण। सोना। उ०—चल्यो रुक्मिनी बंधु रुक्म रथ चढ़ि भट रुक्मी। —गोपाल (शब्द०)। २. स्वर्ण- भूषण। स्वर्णभिरण (को०)। ३. धस्तूर। धतूरा। ४. लोहा। ५. नागकेसर। ६. रुक्मिणी के एक भाई का नाम। उ०— कुंदनपुर को भीषम राई। विष्णु भक्ति को तन मन चाई। रुक्म आदि ताके सुत पाँच। रुक्मिणि पुत्री हरि रंग राँच। —सूर (शब्द०)।
⋙ रुक्म (२)
वि० १. चमकीला। २. सुनहरा [को०]। यौ०—रुक्मकेशी=सुनहले बालोंवाला। स्वर्णकेश। जिसके केश स्वर्णाभ हों।
⋙ रुक्मकारक
संज्ञा पुं० [सं०] सुनार।
⋙ रुक्मकेश
संज्ञा पुं० [सं०] विदर्भ के राजा भीष्मक के छोटे पुत्र का नाम।
⋙ रुक्मपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० रुक्मपात्री=स्वर्णथाली] सोने का बर्तन [को०]।
⋙ रुक्मपाश
संज्ञा पुं० [सं०] सूत का बना हुआ वह फंदा या लड़ जिसकी सहायता से गहने आदि पहने जाते हों।
⋙ रुक्मपुर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नगर का नाम जहाँ गरुड़ निवास करते हैं।
⋙ रुक्मपृष्ठक
वि० [सं०] जिसपर सोने का पानी चढ़ाया गया हो।
⋙ रुक्ममाली
संज्ञा पुं० [सं० रुक्ममालिन्] पुराणानुसार भीष्मक के एक पुत्र का नाम।
⋙ रुक्ममाहु
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार भीष्मक के एक पुत्र का नाम।
⋙ रुक्मरथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. शल्य के एक पुत्र का नाम। २. भीष्मक के एक पुत्र का नाम। ३. द्रोणाचार्य।
⋙ रुक्मवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृत्त का नाम, जिसके प्रत्येकचरण में 'भ म स ग' (/?/) होते हैं। इसके और नाम 'रुपवती' तथा 'चंपकमाला' भी हैं।
⋙ रुकमवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] द्रोणाचार्य।
⋙ रुक्मसेन
संज्ञा पुं० [सं०] रुक्मिणी का छोटा भाई। उ०— तब छोटा बालक नृप केरा। रुक्मसेन बोला यहि बेरा। —विश्राम (शब्द०)।
⋙ रुक्मांगद
संज्ञा पुं० [सं० रुक्माङ्गद] एक राजा का नाम। उ०— रुक्मांगद महिपाल, भयो एक भगवान प्रिय। ताकी कथा रसाल, मैं वर्णों संक्षेप ते।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ रुक्माभ
वि० [सं०] सोने की तरह चमकीला। सुतहरा [को०]।
⋙ रुक्मि
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार पाँचवें वर्ष का नाम जो रम्यक और हैरण्यवत् वर्ष के मध्य में स्थित है।
⋙ रुक्मिण
संज्ञा स्त्री० [सं० रुक्मिणी] दे० 'रुक्मिणी'।
⋙ रुक्मिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रीकृष्ण की पटरानियों में से बड़ी और पहली जो विदर्भ देश के राजा भीष्मक की कन्या थी। उ०— (क) यह सुनि हरि रुक्मिणि सों कह्यौ। ज्यों तुम मोकों चित पर चह्यो। सूर (शब्द०)। (ख) लखि रुक्मिणी कह्यो मुनि नारद यह कमला अवतार। —सूर (शब्द०)। विशेष— हरिवंश में लिखा है कि रुक्मणी के सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर श्रीकृष्ण उसपर आसक्त हो गए थे। उधर श्रीकृष्ण के रुपगुण की प्रशंसा सुनकर रुक्मिणी भी उनपर अनृरक्त हो गई थी। पर श्रीकृष्ण ने कंस की हत्या की थी, इसलिये रुक्मी उनसे बहुत द्वेष रखता था। जरासंध ने भीष्मक से कहा था कि तुम अपनी कन्या रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ कर दो। भीष्मक भी इस प्रस्ताव से सहमत हो गए। जब विवाह का समय आया, तब श्रीकृष्ण और बलराम भी वहाँ पहुँच गए। विवाह से एक दिन पहले रुक्मिणी रथ पर चढ़कर इंद्राणी की पुजा करने गई थी। जब वहु पूजन करके मंदिर से बाहर निकली, तब श्रीकृष्ण उसे अपने रथ पर बैठाकर ले चले। समाचार पाकर शिशुपाल आदि अनेक राजा वहाँ आ पहुँचे और श्रीकृष्ण के साथ उन लोगों का युद्ध होने लगा। श्रीकृष्ण उन सबको परास्त करके रुक्मिणी को वहाँ से हर ले गए। पीछे से रुक्मी ने श्री कृष्ण पर आक्रमण किया और नर्गदा के तट पर श्रीकृष्ण से उसका भीषण युद्ध हुआ। उस युद्ध में रुक्मी को मूर्छित और परास्त करके श्रीकृष्ण द्वारका पहुँचे। वहीं रुक्मिणी के गर्भ से श्रीकृष्ण को दस पुत्र और एक कन्या हुई थी। पुराणों में रुक्मिणी को लक्ष्मी का अवतार कहा है।
⋙ रुक्मिदप, रुक्मिदारण
संज्ञा पुं० [सं०] बलदेव।
⋙ रुक्मिदार
संज्ञा पुं० [रुक्मिदारिन्] बलदेव।
⋙ रुक्मिभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] बलराम। बलदेव।
⋙ रुक्मी
संज्ञा पुं० [सं० रुक्मिन्] विदर्भ देश के राजा भीष्मक का बड़ा पुत्र और रुक्मिणी का भाई। विशेष—जिस समय श्रीकृष्ण इसकी वहन रुक्मिणी को हर ले चले थे, उस समय इसके साथ उनका घोर युद्ध हुआ था। रुक्मी ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मैं श्रीकृष्ण को मार न डालूँगा, तब तक घर न लौटूँगा। पर युद्ध में यह श्री कृष्ण से परास्त हो गया था; अतः लौटकर कुंडिननगर नहीं गया और विदर्भ में ही भोजकर नामक एक दूसरा नगर बसाकर रहने लगा था। उ०— चल्यो रुक्मिनी बंधु रुक्म रथ चढ़ि भट रुक्मी। —गिरधर (शब्द०)।
⋙ रुक्मी (२)
वि० १. सोने के आभूषणों से युक्त। २. जिसपर सोने का पानी चढ़ा हुआ हो [को०]।
⋙ रुक्ष (१)
वि० [सं० रुक्ष, रुक्ष] १. जिसमें चिकनाहट न हो। जो स्निग्ध न हो। रुखा। २. जिसका तल चिकना न हो। ऊबड़ खावड़। खुदबुदा। ३. बिना रस का। नीरस। ४. सूखा। शुष्क।
⋙ रुक्ष (२)
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष] १. वृक्ष। पेड़। २. नरकट नाम की घास।
⋙ रुक्षता
संज्ञा स्त्री० [सं० रुक्षता] रुखाई। रुखापन।
⋙ रुख (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० रुख] १. कपोल। गाल। २. मुख। मुँह। चेहरा। ३. चेहरे का भाव। आकृति। चेष्टा। उ०— (क) रुख रुख भीहे सतर नाहिं सोहि ठहरात। मान हितू हरि वात तें घूमजात लौं जात। —स० सप्तक पृ० २६७। (ख) पुनि मुनिवर शंकर रु(ख) ष चीन्हों। चरण गुहा ते बाहर कीन्हों। — स्वामी रामकृष्ण (शब्द०)। (ग) संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहिं तजेउ हृदय अकुलानी। तुलसी (शब्द०)। मुहा०—रुख मिलाना= मुँह सामने करना। ४ मन की इच्छा जो मुख को आकृत्ति से प्रकट हो। चेष्टा से प्रकट इच्छा या मरजी। उ०— राम रुख निरषि हरषौ हिये हनुमान मानो खेलवार खोली सीस ताज बाज की। —तुलसी (शब्द०)। मुहा०—रुख देना=प्रवृत्त होना। ध्यान देना। रुख फेरना या बदलना=(१) ध्यान किसी दूसरी ओर कर लेना। प्रवृत्त न होना। (२) अवकृपा करना। नाराज होना। ५. कृपादृष्टि। मेहरबानी को नजर। ६. सामने या आगे का भाग। जैसे,—(क) वह मकान दक्खिन रुख का है। (ख) कुरसी का रुख इधर कर दो। ७. शतरंज का एक मोहरा जा ठीक सामने, पीछे, दाहिने या बाएँ चलता है, तिरछा नहीं चलता। इसे रथ, किश्ती और हाथी भी कहते हैं।
⋙ रुख (२)
क्रि० वि० १. तरफ। ओर। पार्श्व। उ०— मनहुँ मघा जल उमगि उदधि रुख चले नदी नद नारे। —तुलसी (शब्द०)। २. सामने। उ०— निज निज रुख रामहिं सब देखा। कोउ न जान कछु मरम विशेष। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ रुख (३)
संज्ञा पुं० [सं० रुक्ष] १. दे० 'रुख'। २. एक प्रकार की घास जिसे वरक तृण कहते हैं।
⋙ रुख (४)
वि० [हिं० रुखा] दे० 'रुखा'।
⋙ रुखचढ़वा †
संज्ञा पुं० [हिं० रुख+चढ़ना] १. बंदर। २. पेड़ पर रहनेवाला, भूत।
⋙ रुखड़ा
वि० [हिं० रुखा+डा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री रुखड़ी] दे० खूरदुरा। 'रुखा'। उ०— रेशम से रुखड़ी चीज न कोई सरती है। —दिल्ली, पृ० १९।
⋙ रुखदार
संज्ञा पुं० [फ़ा० रुख+दार (प्रत्य०)] (बाजार का भाव) जो घट रहा हो।
⋙ रुखसत (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० रुखसत] १. आज्ञा। परवानगी। (क्व०)। २. रवानगी। कूच। विदाई। प्रस्थान। ३. काम से छुट्टी। अवकाश। जैसे,—बड़ी मुश्किल से चार दिन की रुखसत मिली है। ४. मुहलत। अवकाश। फुर्सत (को०)। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—होना।
⋙ रुखसती (२)
वि० जो कहीं से चल पड़ा हो। जिसने प्रस्थान किया हो।
⋙ रुखसताना
संज्ञा पुं० [फ़ा० रुखसतानह्] वह इनाम जो किसी को रुखसत होने के समय राजा या रईस आदि के यहाँ से सत्का- रार्थ दिया जाया है। विदा होने के समय दिया जानेवाला धन। बिदाई। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।
⋙ रुखसती (१)
वि० [अ० रुखसत+ई (प्रत्य०)] जिसे छुट्टी मिली हो।
⋙ रुखसती (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० रुखसती] १. विदाई, विशेषतः दुलहिन की विदाइ। विदाई के समय दिया जानेवाला धन। बिदाई।
⋙ रुखसदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुखसती] दे० 'रुखसती'। उ०— मुखिया को काफी चिरौरी करनी पड़ी थी तव कहीं कांता के ससुराल वाले रुखसदी के लिये राजी हुए थे। —नई०, पृ० १३६।
⋙ रुखसार
संज्ञा पुं० [फ़ा० रुखसार] कपोल। गाल।
⋙ रुखाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुखा+आई (प्रत्य०)] १. रुखे होने की क्रिया या भाव। रुखापन। रुखावट। २. शुष्कता। खुश्की। ३. व्यवहार की कठोरता। शील का त्याग। बेमुरौवती। क्रि० प्र०—करना।—दिखलाना।
⋙ रुखान †
संज्ञा स्त्री०[हिं० रुखानी] दे० 'रुखानी'। उ०—सुजन सुतरु बन ऊख खल टंकिका रुखान। तुलसी ग्रं०, पृ० १३१।
⋙ रुखानल पु
संज्ञा पुं० [सं० रोषानल] क्रोधाग्नि। (डिं०)।
⋙ रुखाना पु †
क्रि० अ० [हिं० रुखा+आना (प्रत्य०)] १. रुखा होना। चिकना न रह जाना। २. नीरस होना। सूखना। ३. किसी से रुक्ष या रुष्ट होना।
⋙ रुखानी
संज्ञा स्त्री० [सं० रोक(=छेद)+खनित्र(=खोदने की चीज)] १. बढ़इयों का लोहे का एक औजार जो प्रायः एक बालिश्त लंबा होता है। विशेष—इसका अगला सिरा धारदार होता है, और पीछे की और लकड़ी का दस्ता होता है जिसपर हथौड़ी या बसूले आदि से चोट लगाकर लकड़ी छीली या काटी जाती है, अथवा उसमें बड़ा छेद किया जाता है। २. संगतराशों की वह टाँकी जिसका व्यवहार प्रायः मोटे कामों में होता है। ३. लोहे का प्रायः एक बालिश्त लंबा एक औजार जिसमें काठ का दस्ता लगा होता है और जिसकी सहायता से तेली अपनी धानी चलाते हैं।
⋙ रुखावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुखा+आवट (प्रत्य०)] दे० 'रुखाई'।
⋙ रुखाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुखा+आहट (प्रत्य०)] रुखापन। रुखाई।
⋙ रुखिता
संज्ञा स्त्री० [सं० रुषिता] वह नायिका जो रोप या क्रोध कर रही हो। मानवती नायिका। उ०— कलहंतरिता कोइ विप्रलब्धा कोइ रुखिता।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ रुखिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुखा+इया (प्रत्य०)] पेड़ों से छाई हुई भूमि।
⋙ रुखुरी † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुखा] भूना हुआ चना आदि। चवैना।
⋙ रुखुरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुख] बहुत छोटा पौधा।
⋙ रुखौहाँ
वि० [हिं० रुखा+औहाँ (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० रुखौहीं] रुखाई लिए हुए। रुखा सा। उ०— रुख रुखे मिस रोप मुख कहते रुखौहैं बैन। रुखे कैसें होते ये नेह चीकने बैन।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ रुगटना †पु
क्रि० अ० [हिं० रोना] बेइमानी करना। हार के कारण खीझकर मुकर जाना। उ०—पीरी हरी मिलाय कै दित रुगटि करि दाव। गहि ठोढ़ी प्यारी कहै झूठे झूठे भाव।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ६६।
⋙ रुगदैया पु †
संज्ञा स्त्री० [रोना+दैया(=दैया दैया कर रोते हुए बेईमानी)?] बेईमानी। अन्याय। रोगदैया। रोगदई।
⋙ रुगना †
संज्ञा पुं० [हिं० रोग] पशुओं का टपका नामक रोग।
⋙ रुगिया †
वि० [हिं० रोगी] दे० 'रोगी'।
⋙ रुगौना ‡
संज्ञा पुं० [देश०] धलुआ। धाल।
⋙ रुग्
संज्ञा पुं० [सं० रुज] दे० 'रुज'। यौ०—रुग्दाह (सन्निपात ज्वर)। रुग्भय=रोग का डर। रुग्भेषज=रोग की चिकित्सा।
⋙ रुग्ण
वि० [सं०] १. घायल। चोट खाया हुआ। २. दे० 'रुग्न' [को०]।
⋙ रुग्दाहसन्निपात ज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ज्वर। विशेष— यह ज्वर बीस दिनों तक रहता है। इसमें रोगी व्याकुल होता और बकता है, उसके शरीर में जलन होती है, पेट में दर्द होता है, और उसे विशेष प्यास लगती है। यह बहुत कष्टसाध्य माना जाता है।
⋙ रुग्न
वि० [सं० रुग्ण] १. जिसे कोई रोग हुआ हो। रोगग्रस्त। रोगी। बीमार। २. (रोगादि से) झुका हुआ। नमित। टेढ़ा। ३. टूटा हुआ। ४. बिगड़ा हुआ। ५. दे० 'रुग्ण'।
⋙ रुग्नता
संज्ञा स्त्री० [सं० वरुग्णता] रोगी होने का भाव। बीमारी।
⋙ रुग्मी
संज्ञा पुं० [सं०] जैन हरिवंश के अनुसार जंबू द्वीप के एक पर्वत का नाम।
⋙ रुच पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुचि] दे० 'रुचि'। यौ०—रुचदान।
⋙ रुचक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वास्तुविद्या के अनुसार ऐसा घरजिसके चारों ओर के अलिंद (चवूतरा या परिक्रमा) में से पूर्व और पश्चिम का सर्वथा नष्ट हो गया हो और दक्षिण का समूचा ज्यों का त्यों हो। इसका उत्तर का द्वार अशुभ और शेष द्वार शुभ माने गए हैं। २. वह खंभा जो गोल न हो, बल्कि चौकोर हौ। ३. सज्जीखार। ४. घोड़ों का गहना या साज। ५. माला। ६. काला नमक। ७. मांगल्य द्रव्य। ८. रोचना। ९. बायविडंग। १०. नमक। ११. बीजपूरक। विजौरा नीबू। १२. प्राचीन काल का सोने का निष्क नामक सिक्का। १३. दाँत। १४. कबूतर। १५. पुराणानुसार सुमेरु पर्वत के पास के एक पर्वत का नाम। १६. जैन हरिवंश के अनुसार हरिवर्ष के एक पर्वत का नाम। १७. दक्षिण दिशा।
⋙ रुचक (२)
वि० स्वादिष्ट। जायकेदार। २. रुकनेवाला। रुचिकर (को०)।
⋙ रुचदान †
वि० [सं० रुचि+दान] भला लगने योग्य। जो अच्छा लग सकें। रुचनेवाला।
⋙ रुचना
क्रि० अ० [सं० रुप+हिं० ना (प्रत्य०)] रुचि के अनुकूल होना। अच्छा जान पड़ना। भला लगना। प्रिय लगना। पसंद आना। मुहा०—रुच रुच=बहुत रुचि से। अच्छी तरह मन लगाकर। उ०— खबरी के बेर सुदामा के तंदुल रुचि रुचि भोग लगाए। —भजन (शब्द०)।
⋙ रुचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दीप्ति। प्रकाश। २. शोभा। ३. इच्छा ख्वाहिश। ४. मैना, बुलबुल, तोते आदि पक्षियों का बोलना।
⋙ रुचि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रजापति जो रौज्य मनु के पिता थे।
⋙ रुचि (२)
संज्ञा स्त्री० १. प्रवृत्ति। तबीयत। जैसे— जिस काम में आपकी रुचि हो, वही कीजिए। २. अनुराग। प्रेम। चाह। ३. किरण। ४. छवि। शोभ। सुंदरता। उ०— त्यों पद्माकर आनन में रुचि कानन भौंहैं कमान लगी है। —पद्माकर (शब्द०)। ५. खाने की इच्छा। भूख। ६. स्वाद। जायका। उ०— तब तब कहि सबरी के फलन की रुचि माधुरी न पाई।—तुलसी (शब्द०)। ७. गोरोचन। ८. कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का आलिंगन जिसमें नायिका नायक के सामने उसके घुटने पर बैठकर उसे गले से लगाते है। ९. एक अप्सरा का नाम। उ०— देखी न जाति बिसेखी बधू किधौ हेम बरेखी रमा रुचि रंभौ।—मन्नालाल (शब्द०)।
⋙ रुचि (३)
वि० शोभा के अनुकूल। फबता हुआ। योग्य। मुनासिव। उ०—झीपी सादी कंचुकी कुच रुचि दीसी आज। जनु बिधि सीसी सेत मैं केसरि षीसी राज। स० सप्तक, पृ० २३५।
⋙ रुचिकर (१)
वि० [सं०] रुचि उत्पन्न करनेवाला। अच्छा लगनेवाला। दिलपसंद। जैसे,—इसके सेवन से तुम्हें भोजन रुचिकर लगेगा।
⋙ रुचि (२)
संज्ञा पुं० केशव के एक पुत्र का नाम।
⋙ रुचिकारक
वि० [सं०] १. रुचि उत्पन्न करनेवाला। रुचिकारक। २. अच्छे स्वादवाला। बढ़िया स्वादवाला। स्वादिष्ट। ३. अच्छा लगनेवाला। मनोहर।
⋙ रुचिकारी
वि० [सं० रुचिकारिन्] १. रुचि उत्पन्न करनेवाला। रुचिकारक। २. अच्छे स्वादवाला। स्वादिष्ट। ३. अच्छा लगनेवाला। मनोहर।
⋙ रुचित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मीठी वस्तु। २. इच्छा। अभिलाषा।
⋙ रुचित (२)
वि० जिसे जो चाहता हो। अभिलषित।
⋙ रुचिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रुचि का भाव। रोचकता। २. अनुराग। ३. सुंदरता। खूबसूरती। ४. श्रतिजगती वृत्त का एक भेद।
⋙ रुचिधाम (१)
संज्ञा पुं० [सं० रुचिधामन्] सूर्य।
⋙ रुचिधाम (२)
वि० १. प्रकाशपूर्ण। द्युतिमान्। २. खूधसूरत। सुंदर।
⋙ रुचिप्रभ
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक दैत्य का नाम।
⋙ रुचिफल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नासपाती।
⋙ रुचिभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० रुचिभर्तृ] १. रवि सूर्य। २. स्वामी। मालिक। भर्ता।
⋙ रुचिभर्ता
वि० जिसके द्वारा आनंद की वृद्धि होती हो। सुखकर।
⋙ रुचिमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] उग्रसेन को रानी और देवकी की माता जो श्रीकृष्णचद्र की नानी थी।
⋙ रुचिमान
वि० [सं० रुचिमत] कांतिमान। दीप्तियुक्त। प्रकाशपूर्ण। उ०— रजत तार सी शुचि रुचिमान। —पल्लव, पृ० ८६।
⋙ रुचिर (१)
वि० [सं०] १. सुंदर। अच्छा। भला। २. मीठा। ३. चमकीला (को०)। ४. भूख बड़ानेवाला (को०)। ५. प्रसन्न (को०)।
⋙ रुचिर (२)
संज्ञा पुं० १. मूलक। मूली। कुंकुम। केसर। ३. लोग। ४. सेनजित् के एक पुत्र का नाम।
⋙ रुचिरकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ रुचिरवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] अस्त्र का एक प्रकार का संहार। उ०— रुचिरवृत्ति मतपितृ सौमनस धनधानहु धृत माली।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ रुचिरश्रीगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ रुचिरांगद
संज्ञा पुं० [सं० रुचिराङ्गद] विष्णु [को०]।
⋙ रुचिरांजन
संज्ञा पुं० [सं० रुचिराञ्जन] शोभाजन। सहिंजन।
⋙ रुचिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का छद जिसके पहले और तीसरे पदों में १६ तथा दूसरे और चौथे पदों में १४ मात्राएँ तथा अंत में दो गुरु होते हैं। २. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में ज, भ, स, ज, ग (/?/)होते हैं। ३. एक प्राचीन नदी का नाम जिसका उल्लेख रामायण में है। ४. केसर। ५. लौंग। ६. मूलिका। मूला।
⋙ रुचिराई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० रुचिर+हिं० आई (प्रत्य़०)] सुदरता। मनोहरता। खूबसूरती। उ०— कवु चिवुकाधर सुंदर क्यौं कहौं दसनन को रुचिराई। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ रुचिरचि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ रुचिवर्द्धक
वि० [सं०] १. रुचि उत्पन्न करनेवाला। २. भूख बढ़ानेवाला।
⋙ रुचिष्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाने का मीठा पदार्थ। २. श्वेत नमक (को०)।
⋙ रुचिष्य (२)
वि० १. जिसपर रुचि हो। जिसे प्राप्त करने को जी चाहे। अभिप्रेत। ३. मधुर। मीठा (को०)। ३. पौष्टिक (को०)। क्षुधावर्धक (को०)।
⋙ रुच्छ पु (१)
वि० [सं० रुक्ष] १. रुखा। उ०—अच्छहि निरच्छ कपि रुच्छ ह्वै उवारौ इमि तोण तिच्छ तुच्छन को कछुवै न गंत हौ। —पद्याकर (शब्द०)। २. व्यवहार में कठोर। ३. नाराज। क्रुद्ध।
⋙ रुच्छ (२)
संज्ञा पुं० [सं० रुक्ष] दे० 'रुख'।
⋙ रुच्य (१)
वि० [सं०] १. रुचिकर। २. सुंदर। खूबसूरत। ३. कातिमत्। चमकीला (को०)।
⋙ रुच्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] सेवा नमक। २. शालि धान्य। जड़हन। ३. पति। स्वामी। ४. तुष्टिकारक वस्तु (ओषधि)। ५. कतक का वृक्ष।
⋙ रुच्यकंद
संज्ञा पुं० [सं० रुष्यकन्द] सूरन। ओल।
⋙ रुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. भंग। भोग। २. वेदना। कष्ट। ३. क्षत। घाव। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था। ५. रोग। व्याधि (को०)।
⋙ रुजगार †
संज्ञा पुं० [हिं० रोजगार] दे० 'रोजगार'।
⋙ रुजग्रस्त
वि० [सं० रुज्(=रोग)+ग्रस्त] जिसे कोई रोग हो रोगग्रस्त। बीमार।
⋙ रुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रोग। बीमारी। २. भंग। भाँग। ३. पीड़ा। ४. क्लांति। थकावट। थकान (को०)। ५. भेडी़। ६. कुष्ठ। कोढ़।
⋙ रुजाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिससे कोई रोग उत्पन्न हो। बीमारी पैदा करनेवाला। २. रोग। बीमारी। ३. कमरख नामक फल।
⋙ रुजापह
वि० [सं०] रोग को दूर करनेवाला। व्याधिनाशक [को०]।
⋙ रुजार्त
वि० [सं०] व्याधि से पीड़ित। रोग से आर्त वा दुखी [को०]।
⋙ रुजाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] रोगों या कष्टों का समूह। उ०— हिम करि केहरि करमाली। दहन दोष दुख दहन रुजाली।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रुजासह
संज्ञा पुं० [सं०] धन्वन वृक्ष। धामिन का पेड़ [को०]।
⋙ रुजी
वि० [सं० रुज्(=रोग)+हिं० ई (प्रत्य०)] जिसे कोई रोग हो। अस्वस्थ। बीमार। उ०— बहुत रोज आए भए अहै रुजी यह देश। याते अब निज पुरो को कीन्हें गमन नरेश।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ रुजू
वि० [अ० रुजुअ (=प्रवृत्त)] १. जिसकी तबीयत किसी ओर झुकी या लगी हो। प्रवृत्त। उ०— (क) प्रेम नगर की रीत कछु बैनन कहत बनीन। रुजू रहत चित चोर सौ नेहिन के मन नैन। —रसनिधि (शब्द०)। (ख) अमरैया कूकत फिरै काइल सबै जताइ। अमल भयौ ऋतुराज की रुजू होहु सब आइ।—स० सप्तक, पृ० २३०। २. जा ध्यान दिए हो।
⋙ रुझना पु †
क्रि० अ० [सं० रुद्ध, प्रा० रुज्झ] घाव आदि का भरना या पूजना। उ०— मर्मबेदी बात का नासूर किसी तरह नहीं रुझता।—श्रीनिवासदास (शब्द०)।
⋙ रुझना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अरुझना' या 'उलझना'।
⋙ रुझनी
एक प्रकार की छोटी चिड़िया जिसकी पीठ काली, छाती सफेद और चोच लंबी होती है।
⋙ रुझान
संज्ञा स्त्री० [अ० रुजहान] आकर्षण। झुकाव। २. पक्षपात। एकतरफा होने का भाव।
⋙ रुट् रुड्
संज्ञा स्त्री० [सं० रुष्] रोष [को०]।
⋙ रुठ
संज्ञा पुं० [सं० रुष्ट, प्रा० रुठ्ठ] क्रोध। अमर्ष। गुस्सा। उ०— कामानुज आमर्ष रुठ क्रुध होय। क्षोंभ भरी तिय को निरखि खिड़की सहचरि सोय। —नददास (शब्द०)।
⋙ रुठना †
क्रि० अ० [हिं० रुठना] दे० 'रुठना'।
⋙ रुठाना
क्रि० स० [हिं० रुठना का प्रे० रुप] किसी को रुठने में प्रवृत्त करना। नाराज करना। उ०— मनु न मनावन कौ करै देत रुठाइ रुठाइ। कौतुक लाग्यौ प्यौ प्रिया खिझहू रिझवति आय।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ रुड़ना पु
क्रि० अ० [सं० रणन] बजना। ध्वनित होना। उ०— रिणतूर नफोरय भेर रुड़ै। गहरै स्वर ताँम दमाँम गुड़ै। —रा० रु०, पृ० ३३।
⋙ रुढ़ाना
क्रि० अ० [हिं० रुढ़+आना (प्रत्य०)] १. फल, तरकारी आदि का कड़ा पड़ जाना। २. जवान होना।
⋙ रुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती नदी की एक शाखा जिसका उल्लेख महाभारत में है।
⋙ रुणित
वि० [सं०] शब्द करता हुआ। झनकारता हुआ। बजता हुआ। उ०— चरण रुणित नूपुर ध्वनि मानी सर बिहरत है बाल मराल।—सूर (शब्द०)।
⋙ रुत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋतु] दे० 'ऋतु'।
⋙ रुत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षियों का शब्द। कलरव। उ०— (क) सुनि घोर अधीरन के रुत कौ। चकि कै दृग फेरि किए उतकौ।—गुमान (शब्द०)। (ख) पल्लव अधर मधु मधुपनि पीवत ही सूचित रुचिर पिक रुच सुख लागरी।—केशव (शब्द०)। २. शब्द। ध्वनि।
⋙ रुतबा
संज्ञा पुं० [अ० रुतवहु] १. दरजा। मर्तवा। ओहदा। पद। २. इज्जत। प्रतिष्ठा। बड़ाई। ३. बुजुर्गी। श्रेष्ठता (को०)। क्रि० प्र०—घटना।—पाना।—बढाना।—मिलना।
⋙ रुति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋतु] दे० 'ऋतु'। उ०— अँगना बुहारतसीक जो टूटी, रुति साँमन की। —पोद्दार अभि० ग्रं० पृ० ९४३।
⋙ रुदंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० रुदन्तिका] दे० 'रुदंती'।
⋙ रुदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० रुदन्ती] एक प्रकार का छोटा क्षुप जिसे संजीवनी या महामांसी कहते हैं। विशेष दे० 'रुदवंती'।
⋙ रुदंती (२)
वि० स्त्री० रोनेवाली। रोती हुई। विलाप करती हुई। उ०— उस रुदंती विरहिणी के रुदन रस के लेप से, और पाकर ताप उसके प्रिय बिरह विक्षप से।—साकेत,पृ० २५०।
⋙ रूद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रंदन ध्वनि। २. वेदना। पीड़ा। ३. बीमारी। ४. ध्वनि। शब्द। आवाज [को०]।
⋙ रुद पु
संज्ञा पुं० [सं० रुद्र] दे० 'रुद्र'। उ०— जेतिक अहै काय रुद अंगू। वेतिक करहुँ ताल मिरदँगू।—इंद्रा,० पृ० ३४।
⋙ रुदथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ता। छोटा वच्चा। ३. मृर्गा (को०)।
⋙ रुदन
संज्ञा पुं० [सं० रुदन, रोदन] रोने की क्रिया। क्रंदन। रोना। विलाप करना। उ०— (क) हरि बिन को पुरवै मेरी स्वारय। मुंडहि धुनत शीश कर मारत रुदन करत नृप पारथ।—सूर (शब्द०)। (ख) सकल सुरभी यूथ दिन प्रति रुदति पुर दिश धाई।—सूर (शब्द०)। (ग) आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं। जाउँ समीप गहै पद फिरि फिरि चितइ पहाहिं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रुदराज पु
संज्ञा पुं० [सं० रुद्राक्ष] दे० 'रुद्राक्ष'।
⋙ रुदित (१)
वि० [सं०] जो रो रहा हो। रोता हुआ। उ०— (क) रुदित दक्ष की नारि गिरत ऋत्वेज मुँह के बल। —बालमुकुंद गुप्त (शब्द०)। (ख) हित मुदित अनहित रुदित मुख छबि कहत कवि धनु जाग की।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रुदित (२)
संज्ञा पुं० रुदित क्रिया। रोना। क्रंदन। [को०]।
⋙ रुदुवा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो अगहन के महीने में तैयार होता है और जिसका चावल सालों तक रह सकता है।
⋙ रुद्ध
वि० [सं०] १. जो किसी से घेरकर रोका गया हो। घेरा हुआ। रोका हुआ। २. वेष्टित। आवृत। उ०— (क) तिमि सोहै यमुना की धारा। गंग प्रवाह रुद्ध परिचारा।—स्वामी रामकृष्ण (शब्द०)। (ख) रुद्ध सर्प से क्रुद्ध हिये मागर्ध विद्ध करि।—गिरधर (शब्द०)। ३. जिसमें कोई चीज अड़ या फँस गई हो। मुँदा हुआ। बंद। ४. जिसकी गति रोग ली गई हो। यौ०—रुद्धकंठ=जसिका गला रुंध गया हो। जो प्रेम आदि मनोवेगों के कारण बोलने में असमर्थ हो। रुद्धसूत्र। रुद्धवक्त्र= ढके हुए मुखवाला। जिसने मुँह तोप रखा हो।
⋙ रुद्धक
संज्ञा पुं० [सं०] नमक।
⋙ रुद्धमूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रकृच्छु नामक रोग।
⋙ रुद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गणदेवता। विशेष— इनकी उत्पत्ति सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा की भौहों से हुई थी। ये क्रोध रुप माने जाते हैं और भूत, प्रेत, पिशाच आदि इन्हीं के उत्पन्न कहे जाते हैं। ये कूल मिलाकर ग्यारह हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं—अज, एकपाद, अहिव्रघ्न, पिनाकी, अपराजित, त्र्यंबक, महेश्वर, वृषाकपि, शंभु, हरण और ईश्वर। गरुड़ पुराण में इनके नाम इस प्रकार हैं— अजैक पाद अहिव्रध्न, त्वष्टा, विश्वरुपहर, बहुरुप, त्र्यंबक, उपराजित, वृषाकपि, शंभु, कपर्दी और रैवत। कूर्म पुराण में लिखा हे कि जब आरंभ में बहतु कुछ तपस्या करने पर भी ब्रह्मा सृष्टि न उत्पन्न कर सके , तब उन्हें बहुत क्रोध हुआ और उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे, उन्हीं आँशुओं से भूतों और प्रेतों आदि की सृष्टि हुई; और तब उनके मुख से ग्यारह रुद्र उत्पन्न हुए। ये उत्पन्न होते ही जोर जोर से रोने लगे थे; इसलिये इनका नाम रुद्र पड़ा था। इसी प्रकार और भी अनेक पुराणों में इसी प्रकार की कथाएँ हें। वैदिक साहित्य में अग्नि को ही रुद्र कहा गया है और यह माना गया है कि यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिये रुद्र ही यज्ञ में प्रेवश करते हैं। वहाँ रुद्र को अग्निरुपी, वृष्टि करनेवाला, गरजनेवाला देवता कहा गया हो, जिससे वज्र का भी अभीप्राय निकलता है। इसके अतिरिक्त कहीं कहीं 'रुद्र' शब्द से इंद्र, मित्र, वरुण, पूषण और सोम आदि अनेक देवताओं का भी बोध होता है। एक जगह रुद्र को मरुदगण का पिता और दुसरी जगह अंबिका का भाई भी कहा गया है। इनके तीन नेत्र बतलाए गए हैं और ये सव लोकों का नियंत्रण करनेवाले तथा सर्पों का ध्वंस करनेवाले कहे गए हैं। २. ग्यारह की संख्या। उ०— तेहि मधि कुश करि विटप सुहावा। रुद्र सहस योजन कर गावा। —विश्राम (शब्द०)। ३. शिव का एक रुप। उ०— (क) रुद्रहिं देखि मदन भय माना। दुराधर्ष दुर्गम भगवाना। —तुलसी (शब्द०)। (ख) केशव बरणहुँ युद्ध में योगिनि गण युत रुद्र। —केशव (शब्द०)। (ग) रुद्र के चित्त समुद्र वसै नित ब्रह्महुँ पै वरणी जो न जाई। केशव (शब्द०)। (घ) दशरथ सुत द्वेषी रुद्र ब्रह्मा न भासै। निशिचर वपुरा भू क्यों नस्यो मूल नासै। —केशव (शब्द०)। विशेष —कहा गया हे कि इसी रुप में इन्होंने कामदेव को भस्म किया था, उमा और गंगा आदि के साथ विवाह किया था, आदि। ४. विश्वकर्मा के एक पुत्र का नाम। ५. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा। ६. भदार का पेड़। आक। ७. रौद्र रस। उ०— प्रथम शृंगार सुहास्य रस करुणा रुद्र सुवीर। भय वीभत्स बखानिए अदभुत शांत सुधीर। केशव(शब्द०)।
⋙ रुद्र (२)
वि० भयंकर। डरावना। भयावना। भयानक। उ०— हम बूड़त हैं विपता समुद्र। इन राखि लियो संग्राम रुद्र। —केशव (शब्द०)। २. क्रंदन करनेवाला।
⋙ रुद्रक †
संज्ञा पुं० [सं० रुद्राक्ष] रुद्राक्ष। उ०— मेखल ब्रह्म कपालनि की यह नूपुर रुद्रक माल रचे जू। —केशव (शब्द०)।
⋙ रुद्रकमल
संज्ञा पुं० [सं० रुद्र+कमल] रुद्राक्ष।
⋙ रुद्रकलस
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कलश जिसका उपयोग ग्रहों आदि की शांति के समय होता है।
⋙ रुद्रकवल
संज्ञा पुं० [सं० रुद्र+कमल] रुद्राक्ष। उ०— पुहँची रुद्रकवंल कै गटा। ससि माथे औ सुरसरि जटा। —जायसी (शब्द०)।
⋙ रुद्रकाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] शक्ति या दुर्गा की एक मूर्ति का नाम।
⋙ रुद्रकुड
संज्ञा पुं० [सं० रुद्रकुण्ड] ब्रज के एक तीर्थ का नाम।
⋙ रुद्रकोटि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ रुद्रगण
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार शिव के पारिषद् जिनकी १,००,००,००० और किसी किसी के मत से ३६,००,००,००० है। विशेष— कहते हैं, ये सब जटा धारण किए रहते हैं; इनके मस्तक पर अर्ध चंद्र रहता है; ये बहुत बलवान होते हैं; और योगियों के योगसाधन में पड़नेवाले विघ्न दूर करते हैं।
⋙ रुद्रगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि। आग।
⋙ रुद्रज
संज्ञा पुं० [सं०] पारा।
⋙ रुद्रजटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इसरौल। ईसरमूल। २. सौंफ। ३. तीन चार हाथ ऊचा एक प्रकार का क्षुप जिसके पत्ते मयूरशिखा के पत्तों के समान होते हैं। विशेष— इसके पत्त पहले तो बड़े होते हैं; पर ज्यों ज्यों क्षुप बढ़ता हैं, त्यों त्यों वे छोटे होते जाते हैं। इसमें लाल रंग के बहुत सुंदर फल लगते हैं, जिनका आकार प्रायः जटा के समान हुआ करता है। इसके बीज मरसा के बीजों के समान काले और चमकीले होते हैं। वैद्यक में रुद्रजटा कटु और श्वास, कास, हृदय- रोग तथा भूत प्रेत की वाधा दूर करनेवाली माना गई है। पर्यां—रौद्री। जटा। रुद्रा। सौम्या। सुगंधा। घना। ईश्वरी। रुद्रलता। सुपना। सुगंधपन्ना। सुरमि। शिवाह्ला। पत्रवल्ली। जटावल्ली। रुद्राणी। नेत्रपुष्करा। महाजठा। जटरुद्रा।
⋙ रुद्रट
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य के एक प्रसिद्ध आचार्य जिनका बनाया हुआ 'काव्यालंकार' ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। ये रुद्रभट्ट और शतानंद भई कहलाते थे। इनके पिता का नाम भट्ट वामुक था।
⋙ रुद्रतनय
संज्ञा पुं० [सं०] जैन हरिवंश के अनुसार तीसरे श्रीकृष्ण का एक नाम।
⋙ रुद्रता
संज्ञा स्त्री० [सं० रुद्र+ता (प्रत्य०)] दे० 'रुद्रत्व'।
⋙ रुद्रताल
संज्ञा पुं० [सं०] मृदग का एक ताल जौ सोलह मात्राओं का होता है। इमें ११ आघात और ५ खाली होते हैं। + ० १ २ इसका बोल इस प्रकार है— धा धिन धा दित धेत्ता देन्ना ० १ २ ३ ० १ ० १ खुनखुन धा धा केटे ताग् देन्ता कड़ान् धाम्या ता देत ताग २ ३ ४ ० + देत ताक कडआन् तेरे केटे ताग् खून धा।
⋙ रुद्रतेज
संज्ञा पुं० [सं० रुद्रतेजस्] स्वामि कार्तिक। कार्तिकेय। उ०—अग्नि के फेंके हुए रुद्रतेज को गंगाजी ने, लोकपालों के बड़े प्रतापों से भरे हुए गर्भ को रानी ने राजा के कुल की प्रतिष्ठा के निमित्त धारण किया। —लक्ष्मण (शब्द०)।
⋙ रुद्रत्व
संज्ञा पुं० [सं०] रुद्र का भाव या धर्म। रुद्रता।
⋙ रुद्रपति
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव। उ०— रुद्रपति छुद्रपति लोकपति वोकपति धरनिपति गगनपति अगम बानी। —सूर (शब्द०)।
⋙ रुद्रपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा का एक नाम। २. अतसी। अलसी।
⋙ रुद्रपीठ
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिकों के अनुसार एक पीठ या तीर्थ का नाम।
⋙ रुद्रपुरु
संज्ञा पुं० [सं०] बारहवें मनु रुद्रसावर्णि का एक नाम।
⋙ रुद्रप्रमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार वह स्थान जहाँ से शिव जी ने त्रिपुरासुर पर वाण चलाया था।
⋙ रुद्रप्रयाग
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय के एक तीर्थ का नाम जो गढ़वाल जिले में है।
⋙ रुद्रप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती। २. हरें।
⋙ रुद्रभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नद का नाम।
⋙ रुद्रभू
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान। मरघट।
⋙ रुद्रभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ज्योतिष में एक प्रकार की भूमि। २. श्मशान। मरघट।
⋙ रुद्रभैरवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा की एक मूर्ति का नाम।
⋙ रुद्रयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जो रुद्र के उद्देश्य से किया जाता है।
⋙ रुद्रयामल
संज्ञा पुं० [सं०] तात्रिकों का एक प्रसिद्ध ग्रंथ जिसमें भैरव और भैरवी का संवाद है।
⋙ रुद्ररोदन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण। सोना।
⋙ रुद्ररोमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
⋙ रुद्रलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुद्रजटा नाम का क्षुप।
⋙ रुद्रलोक
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान या लोक जिसमें शिव और रुद्रों का निवास माना जाता है।
⋙ रुद्रवंती
संज्ञा स्त्री० [सं० रुद्रवन्ती] एक प्रसिद्ध वनौषधि जिसकी गणना दिव्योषधि वर्ग में होती है। विशेष— यह प्रायः सारे भारत में और विशेषतः उष्ण प्रदेशों को वलुई जमीन में जलाशयों के पास और समुद्र तट पर अधिकता से होती है। इसके क्षुप प्रायः हात भर ऊँचे होते हैं और देखने में चने के पोधों के से जान पड़ते हैं। इसके पत्ते भी चने के समान हो होते हैं, शरद ऋतु में जिसमें से पानी को बूँदें टीका करती हैं। काले, पीले, लाल और सफेद फूलों के भेद से यह चार प्रकार की होती है। वैद्यक के अनुसार यह चरपरी, कड़वी, गरम, रसायन, अग्निजनक, वीर्यवधंक और श्वास, कृमि, रक्तपित्त, कफ तथा प्रमेह को दूर करनेवाली होती है। पर्यो०—स्रवतोया। सजीवनी। अमृतस्रवा। रोमांचिका। महामांसा। चणकपत्री। सुधास्रवा। मधुस्रवा।
⋙ रुद्रवट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।
⋙ रुद्रवत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रुद्रवान्'।
⋙ रुद्रवदन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव के पाँच मुख।
⋙ रुद्रदन (२)
वि० पाँच का संख्या।
⋙ रुद्रवान् (१)
वि० [सं० रुद्रवत्] रुद्रगणों से युक्त।
⋙ रुद्रवन् (२)
संज्ञा पुं० १. सोम। २. अग्नि। ३. इंद्र।
⋙ रुद्रविंशति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रभव आदि साठ संवत्सरों या वर्षो में से अंतिम बीस वर्षों का समूह, जिसे 'रुद्रबीसी' भी कहते हैं।
⋙ रुद्रवीणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की वीणा।
⋙ रुद्रसर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ रुद्रसावर्णि
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार बारहवें मनु का नाम।
⋙ रुद्रसुंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० रुद्रसुन्दरी] देवी की एक मूर्ति का नाम।
⋙ रुद्रसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसने ग्यारह पुत्र उत्पन्न किए हों।
⋙ रुद्रस्वर्ग
संज्ञा पुं० [सं० रुद्र+स्वर्ग] दे० 'रुद्रलोक'।
⋙ रुद्रहिमालय
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय पर्वत की एक चोटी का नाम। विशेष— यह चोटी चीन की ओर पूर्वों सीमा पर है और सदा बरफ से ढकी रहती है।
⋙ रुद्रहृदय
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपनिषद् का नाम जो प्राचीन दस उपनिषदों में नहीं है।
⋙ रुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रुद्रजटा नामक क्षुप। २. नलिका नाम का गंधद्रव्य। विद्रुम लता। ३. अदितमंजरी। मुक्तवची।
⋙ रुद्राक्रीड़
संज्ञा पुं० [सं० रुद्राक्रीड़] श्मशान। मरघट।
⋙ रुद्राक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध बड़ा वृक्ष जो नेपाल, बंगाल, आसाम और दक्षिण भारत में अधिकता से होता है। विशेष— इसके पत्ते सात आठ अंगुल लंबे दो तीन अंगलु चौड़े और किनारे पर कटावदार होते हैं। नए निकले हुए पत्तों पर एक प्रकार की मुलायम रोई होती है, जो पीछे झड़ जाती है। जाड़े के दिनों में यह फूलता और वसतं ऋतु में फलता है। इसके फल के अंदर पाँच खाने होते हैं और प्रत्येक खाने में एक एक छोटा कड़ा बीज रहता है। २. इस वृक्ष का वीज जो गोल और प्रायः छोटी मिर्च से लेकर आँवले तक के बरावर होता है। रुद्राछ। विशेष— इस वीज पर छोटे छोटे दाने उभरे होते हैं। प्रायः शैव लोग इनमें छेद करके मालाएँ बनाते और गले या हाथ में पहनते हैं। इसकी माला पहनने और उससे जप करने का बहुत अधिक माहात्म्य माना जाता है। कहते है, इन बीजों को कालो मिर्च के साय पीसकर पीने से शीतला का भय नहीं रहता। वैद्यक में इसे शीतल, वलकारी, ओजप्रद, कृमिनाशक और खाँसी तथा प्रसूति आदि में हितकारी माना है। पर्या०—शिवाक्ष। भूतनाशन। शिवप्रिय। पुष्पचामर।
⋙ रुद्राख †
संज्ञा स्त्री० [सं० रुद्राक्ष] दे० 'रुद्राक्ष'। उ०—मेखल सिंगी चक्र धँधारी। जोगौंटा रुद्राख अधारी।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १२६।
⋙ रुद्राणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रुद्र की पत्नी, पार्वती। शिवा। भवानी। २. रुद्रजटा नाग की लता जिसकी पत्तियों आदि का व्यवहार ओषधि के रूप में होता है। ३. एक प्रकार की रागिनी जो कुछ लोगों के मत से मेघ राग की पुत्रवधू है; पर कुछ लोग इसे जैती, ललित, पंचम और लीलावती के मेल से वनी हुई संकर रागिनी भी मानते हैं।
⋙ रुद्रारि
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ रुद्रावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ रुद्रावास
संज्ञा पुं० [सं०] काशी क्षेत्र, जिसमें रुद्र या शिव का निवास माना जाता है।
⋙ रुद्रिय (१)
वि० [सं०] १. रुद्र संबंधी। रुद्र की। २. आनंददायक। प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला। ३. भयानक। खौफनाक।
⋙ रुद्रिय
संज्ञा पुं० आनंद। प्रसन्नता। मोद [को०]।
⋙ रुद्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की वीणा जिसे रुद्रवीणी भी कहते हैं।
⋙ रुद्री (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० रुद्र + ई (प्रत्य०)] १. वेद के रुद्रानुवाक् या अघमर्पण सूक्त की ग्यारह आवृत्तियाँ। २. यजुर्वेद के रुद्र तथा विष्णुपरक कतिपय मत्रों का आठ अध्यायों में किया गया संकलन। रुद्राष्टाध्यायी।
⋙ रुद्रैकादशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुद्रानुवाकों (रुद्रों) की या अधमर्षण सूक्त की ग्यारह आवृत्तियाँ रुद्री।
⋙ रुद्रोपनिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
⋙ रुद्रोप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ रुधि पु
संज्ञा पुं० [सं० रुधिर] दे० 'रुधिर'। उ०—गहि संग सूर लीनी हवकि जै जै सुर आकास कहि। रुध धार छुट्टि समुह चली मनों मेर सरसांत्त वहि।—पृ० रा०, १।६५३।
⋙ रुधिर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर में का रक्त। शोणित। लहू। खून। (मुहा० के लिये दे० 'खून' के मुहा०)। २. रक्तवर्ण। लाल रंग (को०)। ३. कुंकुम। केसर। ४. मंगल। ग्रह। ५. एक प्रकार का रत्न। विशेष दे० 'रुधिराख्य'।
⋙ रुधिर (२)
वि० लाल। लाल रंग का। रक्तवर्ण का [को०]।
⋙ रुधिरगुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों का एक प्रकार का रोग। विशेष—इससे पेट में शूल और दाह होता है और एक गोला सा घूमता है। इसमें पित्तगुल्म के सव चिह्न मिलते हैं और कभी कभी इसमे गर्भ रहने का भी धोखा होता है। कहते हैं, गर्भपात होने पर अनुचित आहार विहार करने के कारण ऋतुकाल में वायु कुपित होती है, जिससे रक्त इकठ्ठा होकर गोला सा बन जाता है।
⋙ रुधिरपायी
संज्ञा पुं० [सं० रुधिरपायिन्] [वि० स्त्री० रुधिरपायिनी] १. वह जो रक्त पीता हो। लहू पीनेवाला। २. राक्षस।
⋙ रुधिरपित्त
संज्ञा पुं० [सं०] रक्तपित्त। नकसीर।
⋙ रुधिरप्लीहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्लीहा रोग का एक भेद। विशेष—वैद्यक के अनुसार इसमें इंद्रियाँ शिथिल हो जाती है, शरीर का रंग बदल जाता है, अंग भारी और पेट लाला हो जाता है और भ्रम, दाह तथा मोह होता है।
⋙ रुधिरवृद्विदाह
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें रक्त की अधिकता से सारे शरीर से धूआँ सा निकलात है और शरीर तथा आँखों का रंग ताँबे का सा हो जाता है और मुँह से लहू की गंध आती है।
⋙ रुधिरांध
संज्ञा पुं० [सं० रुधिरान्ध] पुराणानुसार एक नरक का नाम।
⋙ रुधिराक्ता
वि० [सं०] १. लहू से तर या भीगा हुआ। खून से भरा हुआ। २. लहू का सा लाल।
⋙ रुधिराख्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रत्न या मणि। विशेष—इसकी गणना कुछ लोग उपरत्नों में और कुछ लोग स्वल्प मणियों में करते हैं। इसका रंग बीच में बिलकुल सफेद और अगल बगल इंद्रनील या नीलम के समान होता है। कहते हैं, यही रत्न पककर हीरा हो जाता है। यह भी माना जाता है कि जो इसे धारण करता है, उसे बहुत सुख और ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
⋙ रुधिरानन
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में मंगल ग्रह की एक वक्र गति। विशेष—जब मंगल किसी नक्षत्र पर अस्त होकर उससे पंद्रहवें या सोलहवें नक्षत्र पर वक्री होता है, तब वह रुधिरानन कह- लाता है।
⋙ रुधिरामय
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्तपित्त नामक एक रोग। २. बवासीर (को०)।
⋙ रुधिराशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खर राक्षस का एक सेनापति जिसे श्रीरामचंद्र जी ने मारा था। २. राक्षस।
⋙ रूधिराशन (२)
वि० रक्त ही जिसका आहार हो। रक्तपान करके जीनेवाला।
⋙ रुधिराशी
वि० [सं० रुधिराशिन्] रक्त पान करनेवाला। लहू पीनेवाला।
⋙ रुधिरासी पु
वि० [सं० रुधिराशिन्—रुधिराशी] लहू पीनेवाला। रुधिराशी। उ०—राक्षस संगहि सहस अठासी। भूरि भयंकर भट रुधिरासी।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ रुधिरोद्गारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० रुधिरोद्गारिन्] वृहस्पति के साठ सवत्सरों में से सत्तावनवाँ संवत्सर।
⋙ रुधिरोद्गारी (२)
वि० रक्त का वमन करनेवाला। खून की कै करनेवाला [को०]।
⋙ रुध्र पु
संज्ञा पुं० [सं० रुधिर] दे० 'रुधिर'। उ०—पीया दूध रुध्र ह्वै आया। मुई गाय तब दोष लगाया।—कबीर ग्रं०, पृ० २४५।
⋙ रुनकझुनक पु
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'रुनुकझुनुक'। उ०—त्रिकुटी मध्य इक बाजा बाजै रुनकझुनक झनकार करै।—कबीर० श०, भा० १, पृ० ५५।
⋙ रुनकना पु
क्रि० अ० [अनु०] बजना। शब्दित होना। उ०— तुलाकोट मंजीर पुनि नूपुर रुनकत पाय।—अनेकार्थ०, पृ० ५०।
⋙ रुनकाना पु
क्रि० स० [अनु०] बजाना। ध्वनि करना। रणित करना। उ०—सेज परी नूपुर रुनकावै। कर के कल कंकन कुनकावै।—नंद० ग्रं०, पृ० १५६।
⋙ रुनझुन
संज्ञा स्त्री० [अनु०] नूपुर, मंजीर, किंकिणी आदि का शब्द। कलरव। झनकार। उ०—(क) कटि किंकिणि रुनझुन सुन तन की हंस करत किलकारी।—सूर (शब्द०)। (ख) रुचिर नूपुर किंकिनी मनु हरति रुनझुन करनि।—तुलसी (शब्द०)। (ग) औरत के गान उन्हें कान न सुहात सुनै तेरे नूपुरन की अनूप रुनझुन है।—देव (शब्द०)।
⋙ रुनाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अरुण + हिं० आई (प्रत्य०)] अरुणिमा। लालिमा। ललाई।
⋙ रुनित पु
वि० [सं० रुणित] शब्द करता हुआ। बजता हुआ। झनकार करता हुआ। उ०—(क) चरण रुनित नूपुर कटि किंकिणी कल कूजै।—सूर (शब्द०)। (ख) रुनित भृंग घटावली झरत दान मद नीर। मंद मंद आवतु चल्यो कुंजर कुंज समीर।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ रुनित झुनित पु
वि० [अनु०] रुनझुन करता हुआ। बजता हुआ। उ०—नूपुर रुनित झुनित कंकन कर हार चुरी मिलि बाजै।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४६।
⋙ रुनी
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़े की एक जाती। उ०—कारूनी संदली स्याह कर्नेता रूनी। नुकुरा और दुवाज बोरता है छबि दूनी।— सूदन (शब्द०)।
⋙ रुनुक झुनुक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] नूपूर आदि का रुनझुन शब्द। झनझनाहट। झनकार। उ०—रुनुक झुनुक नूपुर बाजत पग यह अदि है मनहरनी।—सूर० (शब्द०)।
⋙ रुनुझुनु
संज्ञा पुं० [अनु०] नूपुर या किंकिणी आदि का शब्द। झनकार। उ०—रुनुझुनु रुनुझुनु नूपुर झुनकें कनकन के प्रभु पायन में।—देवस्वामी (शब्द०)।
⋙ रुनुल
संज्ञा पुं० [देश०] शिकम और हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का वेत जो झाड़ के रूप में होता है।
⋙ रुन्नी ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] अमरूद। (नेपाल तराई) विशेष दे० 'अमरूद'।
⋙ रुपइया पु †
संज्ञा पुं० [हिं० रुपया] दे० 'रुपया'। उ०—कोइ आवे तो दौलत माँगे भेट रुपइया लीजै जी।—कबीर श०, भा० १, पृ० १०३।
⋙ रुपना
क्रि० अ० [हिं० रोपना का अकर्मक] १. रोपा जाना। जमीन में गाड़ा या लगाया जाना। जमना। जैसे,—धान रुपना। २. डटना। अड़ना। उ०—(क) जो रन में रुपि रुद्र रिझायौ। दागी कौ सिर काटि चढ़ायो।—लाल (शब्द०)। (ख) परयो जोरविपरीत रति रुपी सुरत रनधीर। करति कोलाहल किकिनी गह्यौ मौन मंजीर।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ रुपया
संज्ञा पुं० [सं० रूप्यक] १. भारत में प्रचलित चाँदी का सब- से बड़ा सिक्का जो सोलह आने (चौसठ पैसे) का हेता था। यह तौल में दश माशे का होता है। स्वतंत्र भारत में अब इसमें चाँदी का नाम मात्र रह गया है और इसका मूल्य १०० नए पैसे के बराबर होता है। मुहा०—रुपया उठाना = रुपया खर्च करना। रुपया ठीकरा करना = रुपए का अपव्यय करना। २. धन। संपत्ति। मुहा०—रुपया उड़ाना = खूब धन खरचना। रुपया खा जाना = (१) कर्ज लेकर न चुकाना। ऋण हजम कर जाना। (२) गबन करना। रुपथा जोड़ना = धन संचय करना। रुपया पानो में फेंकना = व्यर्थ खर्च करना। दौलत वरबाद करना। यौ०—रुपया पैसा = धन संपत्ति। रुपयावाला = मालदार। अमीर। धनी।
⋙ रुपवंत पु
वि० [सं० रुपवत् का बहु व०] रूपवान्। रूपमंत। उ०—(क) पुनि रुपवंत बखानों काहा। जावत जगत सवै मुख चाहा।—जायसी (शब्द०)। (ख) इतनि रूप भइ कन्या जेहि सुरूप नहि कोइ। धनि सुदेश रुपवंता जहाँ जनम अस होइ।— जायसी (शब्द०)।
⋙ रुपहरा †
वि० [हिं० रुपहला] दे० 'रुपहला'। उ०—सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी सी जल में कल, रुपहरे कचों में हो ओझल।—गुंजन, पृ० ९५।
⋙ रुपहला
वि० [हिं० रूपा(= चाँदी) + हला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० रुपहली] चाँदी के रंग का। चाँदी का सा। जैसे,—रुपहला गोटा, रुपहला काम।
⋙ रुपहला रंग
संज्ञा पुं० [हिं० रुपहला + रंग] भड़भाँड़ के काँगें से बचने का संकेत। (कहार)।
⋙ रुपा †
संज्ञा पुं० [हिं० रुपया] १. दे० 'रुपया'। २. दे० 'रूपा'।
⋙ रूपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आक। मदार।
⋙ रुपैया ‡
संज्ञा पुं० [हिं० रुपया] दे० 'रुपया'।
⋙ रुपौला †
वि० [हिं० रुपहला] दे० 'रुपहला'।
⋙ रुप्पा पु
संज्ञा पुं० [हिं० रुपया] दे० 'रुपया'। उ०—माया साथ न चालई जर रुप्पा धन माल।—प्राण०, पृ० २५५।
⋙ रुबाई
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. उर्दू या फारसी की एक प्रकार की केविता जिसमें चार मिसरे होते हैं। २. एक प्रकार का रंगीन या चलता गाना।
⋙ रुबाई एमन
संज्ञा पुं० [हिं० रुबाई + एमन] एक शालक राग जिसके साथ कौवाली या ठेका बजाया जाता है।
⋙ रुमंच पु
संज्ञा पुं० [सं० रोमाञ्च] दे० 'रोमांच'।
⋙ रुमझुमाना
क्रि० अ० [अनु०] बल खाना। लचकना। झुकना। झूमना। उ०—जहर, जो गेसुओं की पर्त में सौ पेंच खाता हो। कहर उस वक्त कोई रुमझुमाकर और ढाता हो।—ठंढा०, पृ० २३।
⋙ रुमण
संज्ञा पुं० [सं०] रामायण के अनुसार एक वानर जो सौ करोड़ वानरों का यूथपति था।
⋙ रुमन्वान्
संज्ञा पुं० [सं० रुमन्वत्] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ रुर्माचित पु
वि० [सं० रोमाञ्चित] दे० 'रोमांचित'।
⋙ रुमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वाल्मीकि के अनुसार सुग्रीव की पत्नी का नाम। २. नमक की खानि या झील (को०)।
⋙ रुमाल
संज्ञा पुं० [फ़ा० रूमाल] दे० 'रूमाल'।
⋙ रुमाली
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० रूमाल] १. एक प्रकार का लँगोट जिसमें कपड़े के एक छोटे तिकोने टुकड़े के दोनों ओर दो लंबे बंद और तीसरे कोने पर, जो नीचे की ओर होता है, एक लंबी पतली पट्टी टँकी होती है। विशेष—इसके दोनों बंद कमर से लपेटकर बाँध लिए जाते हैं और नीचे की पट्टी से आगे की ओर इंद्रिय ढककर उसे फिर पीछे की ओर उलटकर खोंस लेते हैं। प्रायः कुश्तीबाज लोग कसरत करने या कुश्ती लड़ने के समय इसे पहनते हैं। २. छोटा रूमाल। गमछा। ३. मुगदर हिलाने का एक हाथ या प्रकार। विशेष—इसका हाथ सिर के ऊपर से मुगदर को ताने हुए और फिर पीठ के ऊपर के आधे ही भाग तक होता है। इसमें अधिक बल की आवश्यकता होती है।
⋙ रुमावली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० रोमावली] दे० 'रोमावली'।
⋙ रुम्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का सारथी, अरुण [को०]।
⋙ रुम्र (२)
वि० पिंग वर्ण का। भूरे रंग का। २. चमकीला। सुंदर [को०]।
⋙ रुरना पु
क्रि० अ० [सं० लुलन] १. लुढ़कना। पड़ना। गिरना। उ०—मधि बाजार चलि रुधिर नदि रुरत तुंड घन मुँड।— पृ० रा० ५।८९। २. हिलना डुलना। कंपित होना। उ०— सहज हसौं ही छवि फबति रँगीले मुख दसननि जोति जाल मोती माल सो रुरै। - रसखान० पृ० ८९।
⋙ रुराई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रूरा + ई (प्रत्य०)] सुंदरता। लुनाई। उ०—मैं सब लिखि सोभा जो बनाई। सजल जलद तन बसन कनक रुचि उर बहु दाम रुराई।—सूर (शब्द०)।
⋙ रुरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. काली हिरन। कस्तूरी मृग। २. एक दैत्य का नाम जिसे दुर्गा ने मारा था। ३. पुराणानुसार एक प्रकार का बहुत ही क्रूर जंतु जिसे भारशृंग भई कहते हैं। विशेष—ऐसा प्रसिद्ध है, इस लोक में जो लोग हिंसा करते हैं, उन्हें हिंसित प्राणी, रुरु होकर, रौरव नरक में काटते हैं। ४. एक प्रसिद्ध ऋषि जो प्रमत्ति के पुत्र और च्यवन के पौत्र थे। विशेष—कहते हैं, जब इनकी स्त्री प्रेमद्वरा का देहांत हो गया, तव इन्होंने उसे अपनी आधी आयु देकर जिलाया था। ५. विश्वेदेवा के अंतर्गत देवताओं का एक गण। ६. सावर्णि मनु के सप्तर्षियों में से एक का नाम। ७. एक भैरव का नाम। ८. एक फलदार वृक्ष का नाम। ८. श्वान। कुत्ता [को०]।
⋙ रुरुआ
संज्ञा पुं० [हिं० ररना, रुरुआ] बड़ी जाति का उल्लू जिसकी बोली बड़ी भयावनी होती है। उ०—रुरुआ चहुँ दिसि ररत, डरत सुनिकै नर नारी।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। विशेष—प्रवाद है, यह कभी कभी किसी का नाम सुनकर रटने लगता है और वह आदमी मर जाता है। इसका बोलना लोग बहुत अशुभ। मानते हैं।
⋙ रुरुक्षु
वि० [सं०] चिकना का उलटा। रूखा। रुक्ष। उ०—काल जिघृक्षु रुरुक्षु कृपा को स्वपानन स्वक्ष स्वपक्ष प्रियाही।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ रुरुत्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रोध करने को अभिलाषा। रोकने की चेष्टा। ३. रोक। रुकावट [को०]।
⋙ रुरुभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] तात्रिकों के अनुसार एक प्रकार के भैरव जिनका पूजन दुर्गा के पुजन के समय किया जाता है।
⋙ रुरुमुंड
संज्ञा पुं० [सं० रुरुमुण्ड] एक पर्वत का नाम।
⋙ रुलना
क्रि० अ० [सं० लुलन(= इधर उधर डोलना)] इधर उधर मारा मारा फिरना। आवारा फिरना। उ०—सुंदर रीझै राम जी जाकै पतिव्रत होइ। रुलत फिरै ठिक बाहरी ठौर न पावै कोइ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६९१। २. खराब होना। दबा रह जाना। हिल डुलकर जहाँ का तहाँ रह जाना।
⋙ रुलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० रोना + आई (प्रत्य०)] १. रोने की क्रिया या भाव। २. रोने की प्रवृत्ति। क्रि० प्र०—आना। छूटना।
⋙ रुलाना (१)
क्रि० स० [हिं० रोना का प्रेर० रूप] दूसरे को रोने में प्रवृत्त करना। उ०—उस कहने ने सवको रुला दिया।— सुधाकर (शब्द०)।
⋙ रुलाना (२)
क्रि० स० [हिं० रुलाना का सक० रूप] १. इधर उधर फिराना। २. नष्ट करना। मिट्टी खराब करना।
⋙ रुल्ल, रुल्ला ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह भूमि जिसकी उपजाऊ शक्ति कम हो गई हो और जिसे परती छोड़ने की आवश्यकता हो।
⋙ रुल्ली
संज्ञा स्त्री० [देश०] रोहिणी की तरह की एक प्रकार की वनस्पति जो उससे कुछ छोटी होती है।
⋙ रुवय
संज्ञा पुं० [सं०] श्वान। कुत्ता [को०]।
⋙ रुपा †
संज्ञा पुं० [हिं० रोवाँ] सेमल के फूल के अंदर से निकलना हुआ धूआ। भूआ। उ०—का सेमर के साख बढ़ाए फूल अनूपम बानी। केतिक चात्रिक लागि रहे है चाखत रुवा उड़ानी।— कबीर (शब्द०)।
⋙ रुवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० रुलाई] दे० 'रुलाई'।
⋙ रुवाब
संज्ञा पुं० [अ० रुअव] दे० 'रोब'।
⋙ रुवु, रुवुक, रुवूक
संज्ञा पुं० [सं०] एरंड वृक्ष। रेंड का पेड [को०]।
⋙ रुशंगु
संज्ञा पुं० [सं० रूशङ्घ] एक प्राचीन ऋषि का दाम जो नृपंगु भी कहे जाते थे।
⋙ रुशदगु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रुशंगु'।
⋙ रुशना
संज्ञा स्त्री० [सं०] भागवत के अनुसार रुद्र के एक पत्नी का नाम।
⋙ रुष
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ऱुषा' [को०]।
⋙ रुष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] क्रोध। गुस्सा। उ०—दैत्य होहु ऋषि सरुप बखाना।—गिरधर (शब्द०)।
⋙ रुष पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० रुख] दे० 'रुख'।
⋙ रुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्रोध। कोप। गुस्सा।
⋙ रुषान्वित
वि० [सं०] क्रुद्घ। क्रोधयुक्त
⋙ रुषित
वि० [सं०] १. क्रुद्ध। नाराज। २. रजीदा। दुःखी।
⋙ रुषेसर पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋषीश्वर] ऋषिश्रेष्ठ। ऋषीश्वर। उ०—पालकाव्य लघु वेस रहत एक तहाँ रुषेसर।—पृ० रा०, २६।६।
⋙ रुष्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिलावाँ। २. कस्तूरी बूटी। नेपरी।
⋙ रुष्ट
वि० [सं०] जिसे रोष हुआ हो। क्रुद्ध। अप्रसन्न। नाराज। कुपित। रुषित।
⋙ रुष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुष्ट होने का भाव। नाराजगी। अप्रसन्नता]।
⋙ रुष्ट पुष्ट पु †
वि० [सं हृष्टपुष्ट] दे० 'ह्वष्टपुष्ट'।
⋙ रुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोप। क्रोध। गुस्सा।
⋙ रुसना पु (१)
क्रि० अ० [हिं० रूसना] दे० 'रूसना'।
⋙ रुसना पु (२)
क्रि० स० रुठना। रुष्ट करना। नाराज करना। उ०— नंददास प्रभु ऐसी काहे कौं रुसए बलि जाके मुख देखे ते मिटत दुख दंदा।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६६।
⋙ रुसना † (३)
वि० [वि० स्त्री० रुसनी] रूसनेवाला। रुष्ट होनेवाला। जैसे,—रुसना स्वभाव।
⋙ रुसनाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रोशनाई] १. चमक। प्रकाश। आभा। उ०—कंचन खंभ नंगन षरों सब जोबन संग लिए रुसनाई।—अकबरी० पृ० ३३१। २। कीर्ति। यश। उ०—जे जन ऐसी करी कमाई। तिनकी फैली जग रुसनाई।—कबीर सा० सं०, पृ० ६०।
⋙ रुसवा
वि० [फा़०] जिसकी बहुत बदनामी हो। निंदित। जलील। लांछित।
⋙ रुसवाई
संज्ञा स्त्री० [फा़०] रुसवा होने का भाव। अपमान और दुर्गति। कुत्सा और निंदा। जिल्लत।
⋙ रुसा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रोहिष] दे० 'रूसा'।
⋙ रुसा (२)
संज्ञा पुं० [सं० रुपक] दे० 'अड़ूसा'।
⋙ रुसित पु
वि० [सं० रुपित] रुष्ट। अप्रसन्न। नाराज। उ०— गरुड़ासन पैं करत रुसित हासन भरि गाँसन। ज्वलित हुतासन सरिस भरत परकासन आसन।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ रुसख
संज्ञा पुं० [अं० रुसूख] १. प्रवेश। पहुँच। पैठ। रसाई।दक्षता। जानकारी। महारत। ३. प्रेम। २. व्यवहार। मेल- जोल [को०]।
⋙ रुसूम
संज्ञा पुं० [अ० रसूम] दे० 'रसूम'।
⋙ रूस्ट पु
वि० [सं० रुष्ट] दे० 'रुष्ट'।
⋙ रुस्तगी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] उपज। उगाव [को०]।
⋙ रुस्तनी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. शाक। तरकारी। सब्जी। २. भूमि, बीज आदि जो उपजने वा उगने के काबिल हो [को०]।
⋙ रुस्तम
संज्ञा पुं० [अ०] १. फारस का एक प्रसिद्ध प्राचीन पहलवान। विशेष—इसकी गणना संसार के बहुत बड़े पहलवानों में होती है। सोहराव और रुस्तम की लड़ाई की कहानी मशहूर है। फिरदौसी ने रुस्तम का उल्लेख अपने शाहनामा में किया है। इसका समय ईसा से लगभग नौ सौ वर्ष पहले माना जाता है। मुहा०—रुस्तम का साला = बहुत बड़ा वीर। बहुत बहादुर। (व्यंग्य)। २. वह जो बहुत बड़ा बीर हो। मुहा०—छिपा रुस्तम = वह जो देखने में सीधा सादा पर वास्तव में किसी काम में बहुत वीर हो।
⋙ रुह्,रुह
वि० [सं०] जात। उत्पन्न। विशेष—यह शब्द प्रायः यौगिक शब्दों में अंत में आता है। जिसै— महीरुह। पंकरुह।
⋙ रुहक
संज्ञा पुं० [सं०] छेद। सूराख।
⋙ रुहठि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रोहट(= रोना)] रुठने की क्रिया या भाव। उ०—रुहठि करै तासों को खेलै रहै पौढ़ि जहँ तहँ सव ग्वैयाँ।—सूर (शब्द०)।
⋙ रुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूव। २. ककही। अतिबला। ३. मांसरोहिणी नाम को लता। ४. लजालू। लज्जावंती।
⋙ रुहिर पु
संज्ञा पुं० [सं० रुधिर, प्रा० रुहिर] लहू। रक्त। खून। उ०—रूहिर चुजइ जो कह बाता। भोजन बिन भोजन मुख राता।—जायसी (शब्द०)।
⋙ रुहीर पु
संज्ञा पुं० [प्रा० रुहिर] दे० 'रुहिर'। उ०—चलै धर पूर रुहीर प्रवाह।—पृ० रा०, ६१।१४७९।
⋙ रुहलखड़
संज्ञा पुं० [हिं० रुहेल + सं० खण्ड़] अवध के उत्तरपश्चिम पड़नेवाला प्रदेश जहाँ रुहेले पठान बसे थे।
⋙ रुहला
संज्ञा पुं० [हिं० रुहेलखंड़] पठानों की एक जाति जो प्रायः रुहेलखड़ में बसी हुई है।
⋙ रुँख
संज्ञा पुं० [हिं० रूख] दे० 'रूख'।
⋙ रुँखड़ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० रूखा] एक प्रकार के भिक्षुक जो दरियाई नारियल का खप्पर लेकर 'अलख' कहकर भोख माँगते है और कमर में एक बड़ा सा घुँघरू बांधें रहते हैं। विशेष—इनका एक और भेद होता है जो गूद़ड़ कहलाता है। ये कहीं अड़कर भिक्षा नहीं माँगते; केवल तीन बार 'अलख' कहकर ही आगे बढ़ जाते है।
⋙ रूँखड़ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० रूख + ड़ (प्रत्य)] दे० 'रूख'।
⋙ रूँगटा
संज्ञा पुं० [हिं० रोंगटा] दे० 'रोंगटा'।
⋙ रूँगटाली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रूँगटा + वाली(= आली)] भेंड़। गाडर।
⋙ रूँगा †
संज्ञा पुं० [सं० रुक(= उदारता)] घेलुआ। घाल। रूगा।
⋙ रूँदना
क्रि० सं० [हिं० रौदना] दे० 'रौंदना'। उ०—माटी कहै कुम्हार कों तूँ क्या रूँदै मोंहि। इक दिन ऐसा होइगा मै रूँदूँगी तोहि।—कविता कौ०, भा० १, पृ० ३२।
⋙ रूँथना
क्रि० सं० [हिं० रौंदना] दे० 'रौंदना'। उ०—जैसे कमल बन की रूथकर मतवाला होयी आता हो तैसे रणधीर सिंह इस समय रणभूमि से इस तरफ चले आते है।—श्रीनिवास ग्र०, पृ० १२८।
⋙ रूँध
वि० [सं० रद्ध] रुका हुआ। अवरुद्ध। उ०—बाढ़त तो उर भर भर तरुनई विकास। वोझनि सौतनि के हिए आघतु रूँध उसास।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ रूँधना
क्रि० स० [सं० रुन्धन] १. किसी स्थान या वस्तु को बाहरवालों के आक्रमण से बचाने के लिये उसके चारो ओर कँटीले झाड़ आदि लगाना। कंटोले झाड़ आदि से घेरना। बाढ़ लगाना। उ०—जर तुम्हार चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ वर वारी।—तुलसी (शब्द०)। २. किसी पदार्थ को चारों ओर से इस प्रकार घेरना कि वह बाहर न जा सके। रोकना। छेकना। जैसे,—गाय रूँधना। ३. गमनागमन का मार्ग बंद करना। जैसे,—राह रूँधना द्बारा रूँधना आदि। उ०—बबुर बहेरे की बबाइ बाँग लाइयत रूँधिवे को सोऊ सुरतरु काटियतु है।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रूही पु
संज्ञा पुं० [हिं० रोआँ का स्त्री० रोई] रोम। लोम। रोआँ। उ०—वै ब्रह्मा। विष्णु महेश प्रलै मैं जिसदी पुसै न रूही।—सुंदर ग्रं०, भा० १. पृ० २७६।
⋙ रू
संज्ञा पुं० [फा़०] १. मुँह। चेहरा। २. द्बार। सबब। ३. आशा उम्मेद। ४. ऊपरी भाग। सिरा। ५. आगा। सामना। यौ०—रूपुश्त = बाहर भीतर। अगे पीछे। दोनों ओर। रू रिआयत = (१) पक्षपात। (२) मुरौवत। शील संकोच। मुहा०—रू से = अनुसार। जैसे; —ईमान का रू से तुम्हीं बतलाओं कि क्या बात है।
⋙ रूई
संज्ञा स्त्री० [सं० रोम, प्रा० रोवँ, हिं० रोवाँ, रोई] १. कपास के डोरे या कोश के अंदर का घुआ। उ०—हरि हरि कहत पाप पुनि जाई। पवन लागे ज्या रूई उड़ाई।—सूर (शब्द०)। विशेष—यह डोडा पक्कर चिटकने पर ऊन के लच्छे की तरह बाहर निकलता है। इसके रेशे कोमल और घुंघराले होते है, जो बीज के ऊपर चारो ओर लगे होते है, और जिनके अंदर बीज लिपटे रहते है। मोटी और बारीक के भेद से रूई अनेक प्रकार की होती है। कितनो रूइयाँ तो रेशम की भाँति कोमलऔर चिकनी होती हैं। डेढ़ या डोड से फूटकर बाहर निकलने पर रूई इकट्टी की जाती है। इसके बाद सुख जाने पर लोग इसे ओटनी में ओटकर बीजों से अलग कर लेते हैं। ओटी हुई, रूई धुनी जाती है जिससे उसमें जो बचे खुचे बीज रहते हैं, अलग हो जाते हैं और उसके रेशे फूटकर खुल जाते हैं। इस रूई से पेंडरी या पूनी बनाई जाती है, जिससे सूत काता जाता है। धुनी हुई रूई गद्दी आदि मे भरी जाती है; और उससे सूत कातकर कपड़े बुनते हैं। इसका प्रयोग रासायानिक रीति से बारूद बनाने में भी होता है। रूई को शोरे के तेजाब में गलाते हैं, जिससे यह अत्यंत विस्फोटक हो जाता है। इस 'गन काटन' कहते है और उत्तम बारूद में इसका प्रयोग होता है। इस 'गन काटन' को ईथर या ईथर मिले हुए अलकोहल में मिलाने से एक प्रकार का लेस बनता है। इस लेस को 'कलोडीन' कहते हैं। यह धाव पर तुरंत लगाए जाने पर झिल्ली की तरह सूखकर उसे जोड़ देता है। कलोड़ीन में थोड़ी सी मात्रा ब्रोमाइ़ड़ और आयोडाइड को मिलाकर शीशे पर लगाकर फोटो के लिये गीला 'प्लेट बनाया' जाता है। हिंदुस्तान में रूई के कपड़े का प्रचार वैदिक काल से चला आता है। ब्रह्मण और गृह्वा सूत्रों में तो इसके यज्ञोपवीत और वस्त्र का विधान वर्णभेद से स्पष्ट देखा जाता है; पर युरोप में इसके कपड़े का प्रचार कुछ ही शताब्दियो से हुआ है। सूत के लिये उत्तम रूई वही समझी जाती है, जिसके रेशे लंबे और द्दढ़ होने पर भी पतले और चमकीले होते है। क्रि० प्र०—तूमना।—धूनना।—धुनकना। पर्या०—तूल। पिचु। मुहा०—रूई का गाला = रूई के गाले की तरह कोमल या सफेद रूई की तरह तूम डालना = (१) अच्छी तरह नोचना। (२) बहुत मारना पीटना। (३) गालिया देना, बखानना। (४) अच्छी तरह छान बीन करना। रूई की तरह धुनना = खूब मारना। अच्छा तरह पीटना। रूई सा = रूई की भाति नरम। कोमल। जैसे,—रूई से हाथ पाँव। अपनी रूई सूत में उल- झना या लिपटना = अपन काम काज में फसना। २. इसी प्रकार का काई राआँ। विशेषतः बीजों के ऊपर का रोआँ।
⋙ रूईदार
वि० [हिं० रूई + फा़० दार (प्रत्य०)] जिसमें रूई भरो गई हो। जस,—रूईदार अंगा, रूईदार बंडी।
⋙ रूक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रूक्षा] तलवार। (ड़ि०)।
⋙ रूक (२)
संज्ञा पुं० [सं० रुक (= उदार)] झूगा। घलुआ। घाल।
⋙ रूक (३)
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष, प्रा० रूक्ख हिं० रूख] एक प्रकार का पेड़ जिसका पत्तियाँ औषधि के रूप में काम आता है और पचपानड़ी के साथ मिलकर बिकती है।
⋙ रूक्ष (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० रूक्षा] जो चिकना या कोमल न हो। रूखा। स्निग्ध का उलटा। दे० 'रुक्ष'। यौ०—रूक्षगंध,रूक्षगंधक = (१) गुग्गुल। (२) गुग्गुल का वृक्ष। रूक्षपत्र = शाखोट या शाखोटक वृक्ष। रूक्षभाव = रूखापन। बेरुखो। रूक्षवर्ण = गहरे रँग का। जैसे बादल। रूक्षवालुक = छोटी मधुमाकिखयों का मधु। रूक्षस्वर = (१) जिसका आवाज रूखो हो। (२) गदहा। रासभ।
⋙ रूक्ष (२)
संज्ञा पुं० १. वृक्ष। पेड़। २. वरक नाम का एक तृण। ३. पारुष्य। कठोरपन। ४. अच्छे किस्म का लोहा। ५. काली मिर्च [को०]।
⋙ रूक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] आयुर्वेद के अनुसार शरीर की चर्बी कम करना [को०]।
⋙ रूक्षता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'रूक्षता' [को०]।
⋙ रूक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दंतीवृक्ष। २. मधु शर्करा [को०]।
⋙ रूख (१)
संज्ञा पुं० [सं० रूक्ष या वृक्ष, प्रा० रुक्ख] पेड़। वृक्ष। उ०—(क) ऊपर ताल वहूँ दिस अमृत फल सब रूख। देखि रूप सरवर कै गा पियास औ भूख।—जायसी (शब्द०)। (ख) रूख कलपतरु सागर खारा। तोहे पठए वन राजकुमारा।— तुलसी (शब्द०)। (ग) वन डोंगर ढूँढत फिरी घर मारग तजि गाउँ। वूझो द्रुम प्रति रूख ए, कोउ कहै न पिय को नाउँ।— सूर (शब्द०)।
⋙ रूख (२)
वि० [सं० रूक्ष, हिं० रूखा] दे० 'रूखा'।
⋙ रूखड़ा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० रूख + डा़] पेड़। वृक्ष। उ०—कबिरा माया रूखड़ा दो फल की दातार। खावत खरचत मुकि गए संचत नरक दुवार।—कबीर (शब्द०)।
⋙ रूखना पु
क्रि० अ० [सं० रुप्] रूसना। रूठना।
⋙ रूखरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'रूखड़ा'।
⋙ रूखरा (२)
वि० [हिं०] दे० 'रूखा'।
⋙ रूखा (१)
वि० [सं० रुक्ष, रूक्ष, प्रा० रुक्ख] १. जो चिकना न हो। जिसमें चिकनाहट का अभाव हो। चिकना का उलटा। अस्निग्ध। जैसे,—रूखा बाल, रूखा शरीर। २. जिसमें घी, तेल आदि चिकने पदार्थ न पड़े हों। जैसे—रूखी रोटी, रूखी दाल। ३. जो चटपटा न हो। जो खाने में रुचिकर और स्वादिष्ट न हो। सीठा। उ०—(क) कैसे सहब खिनहिं खिन भूखा। कैसे खाब कुरकुटा रूखा।—जायसी (शब्द०)। (ख) साँच झूठ करि माया जोरी आपुन रूखो खातो। सूरदास कछु थिर नहिं रहिहैं जो आयो सो जातो।—सूर (शब्द०)। मुहा०—रूखा सूखा = जिसमें चिकना और चरपरा पदार्थ न हो। बिना घी और चटपटे पदार्थो के। जेसे,—रूखा सूखा जो मिला वही, खाकर पड़ रहा। ४. जिसमें रस न हो। सूखा। शुष्क। नीरस। ५.जिसका तल सम न हो। वरदरा। जैसे,—यह कागज कुछ रूखा दिखाई पड़ता है। यौ०—रूखा माल = नक्काशी किया हुआ बरतन (कसेरा)। ६. जिसमें प्रेम न हो। स्नेहरहित। नीरस फोका। उदासीन। उ०—(क) रूखे सूखे जे रहत नेह बास नहिं लेत। उनतें वेअखियाँ भली नेह परसि जिय देत।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) सतर भाँह रूखे वचन करत कठित मन नीठि। कहा करौं ह्वै जाति हरि हेरि हंसौही दिठि।—बिहारी (शब्द०)। (ग) वे ही नैन रूखे से लगत और लोगन को वेई नैन लागत सनेह भरे नाह कै।—मतिराम (शब्द०)। ७. परुप। कठोर। उ०—(क) मुख रूखी बातें कहै जिस में पी की भूख। धीर अधीरा जानिए जैसे मीठी ऊख।—केशव (शब्द०)। (ख) उतर न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जस बधिन भूखी।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—रूखा पड़ना या होना = (१) वेमुरौवती करना। शील संकोच का त्याग करना। (२) क्रुद्ध होना। नाराज होना रोष प्रकट करना। तीखा पड़ना। उ०—पूछि क्यों रूखों पड़ति सग- बग रही सनेह। मनमोहन छबि पर कटी कहै कटयानी देह।— बिहारी (शब्द०)। (ख) भोजन देहु भए वे भूखे। यह सुनिकै ह्वँगे वे रूखे।—सूर (शब्द०)। ८. उदासीन। विरक्त। उ०—(क) नाहिन राम राज के भूखे। धरम धुरीन विषय रस रूखे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा।—तुलसी (शब्द०)। (ग) नेह लगे से ये बदन चिकने सरस दिखाई। नेह लगाए भावतो क्यों रूखो हाइ जाइ।—रसानिधि (शब्द्०)।
⋙ रूखा (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार की छेनी।
⋙ रूखापन
संज्ञा पुं० [हिं० रूखा + पन (प्रत्य०)] १. रूखे होने का भाव। रुखाई। २. खुश्की। नीरसता। ३. कठोरता (व्यवहार की)। ४. उदासीनता। ५. स्वादहीनता।
⋙ रूगा ‡
संज्ञा पुं० [सं० रुक (= उदारता)] किसी, सौदे का वह थोड़ा भाग जो खरीदनेवाले को बेचनेवाला अंत में अधिक दे दिया करता है। घाल। घलुआ। झूँगा।
⋙ रूचना पु
क्रि० स० [हिं० रुचना] दे० 'रुचना'। उ०—चले निपाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रूज
संज्ञा पुं० [अ०] एक प्रकार की वुकनी जिसे मलकर सोना, चादी आदि धातुओँ की चीजों पर जिला किया जाता है। विशेष—यह तूतिए या होराकसीस से बनाया जाता है। पहले तूतिए या कसीस को आग पर तपाते है; और जब वह जल जाता है, तब उसे बारीक पीस डालते है। कभी कभी तूतिए को पानी में गलाकर और निथार तथा धोकर फूँकने से भी रूज बनता है। यह जौहरियों के काम आता है। रूज में खड़िया भी मिलाई जाती है। खड़िया और पारा मिलाकर रूज से बरतन पर जिला या कलई की जाती है। २. एक पाउडर या चूर्ण जिससे कपोलों पर लालिमा लाई जाती है। शृंगार का एक प्रसाधन।
⋙ रूझना पु
क्रि अ० [सं० √ रुध्] दे० 'अरुझता' या 'उलझना'। उ०—निज अवगुन गुन राम रावरे, लखि सुनि मति मन रूझै।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रूठ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० रुष्टि, प्रा० राट्ठि] १. रूठने की क्रिया या भाव। २. क्रोध। कोप।
⋙ रूठड़ा पु
वि० [हिं० रूठ + ड़ा (प्रत्य०)] रुष्ट। नाराज। अप्रसन्न। उ०—कबीर हरि का भाँवता, दूरैं थैं दीसंत। तन पीणाँ मन उनमनाँ जग रूठ़ड़ाँ फिरंत।—कबीर ग्रं० पृ० ५१।
⋙ रूठन
संज्ञा स्त्री० [हिं० रूठना] रुठने की क्रिया या भाव। नाराजगी।
⋙ रूठना
क्रि० अ० [सं० रुष्ट, प्रा० रुट्ठ + हिं० ना (प्रत्य०)] किसी से अप्रसन्न होकर कुछ समय के लिये सबंध छोड़ना। नाराज होना। रूसना। उ०—(क) कबीर ते नर अंध हैं। गुरु को कहते और। हरि के रूठे ठौर है गुरु रूठे नहिं ठौर।—कबीर (शब्द०)। (ख) उलटि द्दष्टि माया सो रूठी। पलट न फेरि जान कै झूठी।—जायसी (शब्द०)। (ग) जेहि कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहिं। पर रूठा।—तुलसी (शब्द०)। (घ) रूठिवे को तूठिवे को मृदु मुसुकाइ कै बिलोकेवे को भेद कछू कह्यो न परतु है।—केशव (शब्द०)। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना।—बैठना।
⋙ रूठनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'रूठन'। उ०—भजनि, मिलनि, रूठनि, तूठनि, किलकनि अवलोकनि, बोलनि बरनि न जाई।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ रूड
संज्ञा पुं० [अं०] लंबाई या विस्तार नापने का एक नाम जो ५. गज का होता है।
⋙ रूड़, रूड़ी
वि० [हिं० रूरा, (डिं०)] [वि० स्त्री० रूड़ी] श्रेष्ठ। उत्तम। उ०—भोइरे तेन्हौ रूडौ थाए। जे गुरु मुख मारगि जाए।—दादू (शब्द०)।
⋙ रूढ़
वि० [सं० रूढ] [वि० स्त्री० रूढ़ा] १. चढ़ा हुआ। आरूढ़। २. उत्पन्न। जात। ३. प्रसिद्ध। ख्यात। प्रचलित। जैसे— इसका रूढ़ अर्थ यही है। ५. गवाँर। उजड्ड़। उ०—और गूढ़ कहा कहों मूढ़ हौं जू जान जाहु प्रोढ़ रूढ़ केशवदास नीके करि जाने हो।—केशव (शब्द०)। ५. कठोर। कठिन। उ०— चाकी चली गोपाल की सब जग पीसा झारि। रूढा़ शब्द कबीर का डारा चाक उखारि।—कबीर। (शब्द०)। ६. अकेला। अविभाज्य। जैसे,—रूढ़ संख्या। ७ फल, तरकारी आदि का कड़ा हो जाना।
⋙ रूढ़ (२)
संज्ञा पुं० अर्थानुसार शब्द का वह भेद जो दो शब्दों या शब्द और प्रत्यय के योग से बना हो तथा जिसके खंड सार्थ न हों। यह यौगिक का उलटा है। रूढ़ि। जैसे,—कुब्जा, घोड़ा इत्यादि।
⋙ रूढ़ता
संज्ञा स्त्री० [सं० रुढता या रूढ + ता (प्रत्य०)] कठोरता। उ०—सोचने लगा, ऐसी, स्थिति में क्या किया जाय़ ? इन्कार करने से रूढ़ता सिद्ध होगी, यह भी जानता था। इसके पहले यथेष्ट अशिष्टता हो चुकी थी।—संन्वासी, पृ० ११।
⋙ रूढ़यौवना
संज्ञा स्त्री० [सं० रूढ़यौवना] दे० 'आरूढ़यौवना'।
⋙ रूढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० रूढा] एक प्रकार की लक्षणा। वह लक्षणा।जो प्रचलित चली आती हो और जिसका व्यवहार प्रसिद्ध से भिन्न अभिप्राव्यंजना के लिये न हो। प्रयोजनवती लक्षणा का उलटा
⋙ रूढ़ि
संज्ञा स्त्री [सं० रूढ़ि] १. चढ़ाई। चढ़ाव। २. वृद्धि। बढ़ती। ३. उभार। उठान। ४. उत्पत्ति। जन्म। प्रादुर्भाव। ५. ख्याति। प्रसिद्धि। ६. प्रथा। चाल। रीति। ७. विचार। निश्चय। उ०—प्रौढ़ रूढ़ि कै सो मूढ़ गूढ़ गेह में गयो। सूक्त मंत्र सोधि सोधि होम को जहीं भयो।—केशव (शब्द)। ८. रूढ़ शब्द की शक्ती जिससे वह यौगिक न होने पर भी अपने अर्थ का बोध कराता है।
⋙ रूढ़िवादी
वि० [सं० रूढि + बादिन्] पुराने रीति रिवाज या परंपरा आदि को ज्यों का त्यों स्वीकार करनेवाला।
⋙ रूत्त पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋतु] दे० 'ऋतु'। उ०—बिना नीर जहँ कमल है बिन बरपा वरसाल। विना मास बिन रूत्त है मात पिता बिन वाल।—राम०, धर्म०, पृ० ६१।
⋙ रूदना पु
क्रि० स० [हिं० नैंदना] रौंद देना या तहस नहस करना। ध्वस्त करना। उ०—सूदन समथ्थ अरि रूदन कौ पथ्थ सम कीरति अकश्य रत्नाकर लौ भू जाकी।—सूजान० पृ० २४।
⋙ रूदाद
संज्ञा स्त्री० [फा़० रूएदाद] १. समाचार। वृत्तांत। हाल। २. दशा। अवस्था। हालत। ३. विवरण। कैफियत। ४. व्यवस्था। ४. अदालत की काररवाई। कार्यक्रम। ६. मुकदमे का रंग ढंग। जैसे,—इस मुकदमे को रूदाद अच्छी नहीं जान पड़ती।
⋙ रूप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ का वह गुण जिसका बोध द्रष्टा। को चक्षुरिंद्रिय द्बारा होता है। पदार्थ के वर्णो और आकृति का योग जिसका ज्ञान आँखों को होता है। शकल। सूरत। आकार। विशेष—पदार्थों में एक शक्ति रहती है, जिससे तेज इस प्रकार विकृत होता है कि जव वह आँखों पर लगाता है, तब द्रष्टा को उस पदार्थ की आकृति। वर्णादि का ज्ञान होता है। इस शक्ति को भी। रूप ही कहते हैं। दर्शन शास्ञों में रूप को चक्षुरिंद्रिय का विषय माना है। वैशेषिक, दर्शन में यह गुण माना गया है। सांख्य ने इसे पंचतन्ञाओं में एक तन्माञा माना है। बौद्ध दर्शन में इसे पाँच स्कंधों में पहला स्कंध कहा है। महाभारत में सोलह प्रकार के गुण (ह्लस्व ,दीर्घ, स्थूल, चतुरस्त्र, वृत्त, शुक्ल, कृष्ण, नीलारूण, रक्त, पीत, कठिन, विक्कण, श्लक्ष्ण, पिच्छल, मृदु और दारुण) रूप के भेद या प्रकार माने गए हैं। वेदांत दर्शन ने इसका एक प्रकार की उपाधि माना है और अविद्याजनित लिखा है। यौ०—रूपरेखा = आकार। शकल। २. स्वभाव। प्रकृति। ३. सौदर्य। सुंदरता। उ०—मुनि मन हरप रूप अति मोरे। मोहि तजि आनहिं तरहि न भोरे।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—रूप हरना = लाज्जित करना। उ०—दीपसम दीपति उदोपति अनूप निज रूप कै सरूप रति रूपहि हरति है।—व्यंग्यार्थ (शब्द०)। यौ०—रूपरेख, रूपरेखा = (१) चिह्ना। उ०—कहा करौं नीके करि हरि को रूपरेख नहिं पावति।—सूर (शब्द०)। (२) पता। निशान। ४. शरीर। देह। उ०—(क) मसक समान रूप कपि धरि। लंका चले सुमिरि नरहरी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जस जस सुरसा बदन बढ़ाना। तासु दून कपि रूप देखावा।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—धारण करना।—बनाना।—होना। मुहा०—रूप लेना = रूप धारण करना। देह धरना। उ०— पाछे पृथु को रूप हरि लीनों नाना रस दुहि काढ़े। तापर रचना रची बिधाता बहु बिधि यत्नन बाढे़।—सूर (शब्द०)। ५. वेष। भेष। उ०—ड़ीठ बचाय के जाइए कंत छए निज रावरो रूप बने हैं।—रघुनाथ (शब्द०)। (ख) विप्र रूप धरि कपि तहँ गयउ। माथ नाइ पूँछत अत भयऊ।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—धरना।—बनाना। मुहा०—रूप भरना = (१) भेस बनाना। वेष धारणा करना। जैसे,—वह बहुरूपिया अच्छा रूप भरता है। (२) स्वाँग रचना। मजाक या तमाशा ख़डा़ करना। ६. दया अवस्था। देश काल का भेद। ७. शब्द या वर्ण का स्वरूप या उसका वह रूपांतर जो उसमें विभक्ति, प्रत्यय इत्यादि विकारों के लगने से बन जाता है। क्रि० प्र०—लेना।—बनाना। ८. समान। तुल्य। सद्दश। अनुरूप। उ०—बोलहु सुआ पियारे नाहाँ। मोरे रूप कोऊ जग माहाँ।—जायसी (शब्द०)। ९. भेद। विकार। १०. चिह्न। लक्षण। आकार। जैसे,—(क) युरोप की लड़ाई भयंकर रूप धारण करती जाती थी। (ख) उसकी बीमारी का रूप अच्छा नहिं है। उ०—उपमा ही के रूप से मिल्यौ बरणी की रूप। ताही सों सब कहत हैं केशव रूपक रूप।—केशव (शब्द०)। ११. रूपक। १२. चाँदी। रूपा। उ०—(क) कहाँ सो खोयो बिरवा लोना। जेहि ते होय रूप औ सोना।—जायसी (शब्द०)। (ख) सोन रूप मल भयो पसारा। धवल सिरो पोतहिं घरवारा।—जायसी (शब्द०)। १३. श्रेत वर्ण (को०)। १४. सिक्का। जैसे-रुपया (को०)। १५. गणित में एक की संख्या (को०)। १६. मृग। हिरन (को०)। १७. पशु। जानवर (को०)। १८. पशुओँ का झुंड़। पशुसमूह (को०)।
⋙ रूप (१)
वि० १. रूपवाला। रूपवान। खूबसूरत। उ०—समय समय सुंदर सबै रूप कुरूप न कोइ। मन की रुचि जेती जिते तितै तिती रुचि होइ।—बिहारी (शब्द०)। २. समान। तद्रुप। अनुरूप। उ०—पारस रूपी जीव है लोह रूप संसार। पारस ते पारस भया परखा भया टकसार।—कबीर (शब्द०)।
⋙ रूपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूर्ति। प्रतिकृति। उ०—बाहुलता रति कंठ बिराजत केशव रूप के रूपकं जो है।—केशव (शब्द०)। २. वह काव्य जो पात्रों द्वारा खेला जाता है या जिसका अभिनय किया जाता है। द्दश्यकाव्य। विशेष—इसके प्रधान दस भेद है, जिन्हें नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अंक, बीथी, और प्रहसन कहते हैं। इसके अतिरिक्त नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाटयरासक, प्रस्थान, उल्लाप्यक, काव्य़, प्रेखण, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिल्पक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रकरणी, हल्लीश और भाग को उपरूपक कहते हैं। विशेष दे० 'नाटक'। ३. एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय में उपमान के साधर्म्य का आरोप करके उसका वर्णन उपमान के रूप से या अभेदरूप किया जाता है। विशेष—रूपक दो प्रकार का होता है।—तद्रूप और अभेद। जिसमें उपमेय का वर्णन उपमान रूप से होता है उसे तद्रूप रूपक, और जिसमें दोनों की अभेदता का वर्णन होता है, उसे अभेद रूपक कहते हैं। रूपक में आकृति, स्वभाव और शील का अभेद और तद्रूपता दिखाई जाती है। तद्रूप का उ०—रच्यौ बिधाता दुहुन लै सिगरी शीभा साज। तू सुंदरि शचि दूसरी यह दूजो सुरराज। अभेद का उ०—नारि कुमुदनी अवध सर रघुबर बिरह दिनेश। अस्त भए विकसित भई निरखि राम राकेश ४. एक परिमाण का नाम। तीन गुंज की तौल। ५. चाँदी। ६. रूपया। ७. संगीत में सात मात्राओं का एक दोताला ताल। विशेष—इसमें दो आघात और एक खाली होता है। इसमें खाली ताल पर ही सम होता है। जब यह दूत में बजाया जाता है, तब इसे तेवरा कहते हैं। इसका मृदंग का बोल इस प्रकार + २ + है—धा दिता तेटेकरा। गदिधेने धा। और तबले का बोल इस + प्रकार है - धिन् धा, धिन् धा, तिन् तिन् ता। धा। यौ०—रूपक ताल = दे० 'रूप—७।' रूपकनृत्य = एक प्रकार का नृत्य वा नाच रूपकरूपक = रूपक अलकार का एक भेद। रूपक शब्द० = लाक्षणिक वा अलंकृत कथन।
⋙ रूपकरण
संज्ञा पुं० [सं० रूप + करण] एक प्रकार का घोड़ा। उ०—किरमिज नुकरा जरदे भले। रूपकरण बोलसर चले।— जायसी (शब्द०)।
⋙ रूपकर्ता
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्वकर्मा। २. मूर्तिकार। शिल्पी (को०)।
⋙ रूपकातिशयोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की अतिशयोक्ति जिसमें केवल उपमान का उल्लेख करके उपमेयों का अर्थ समझाया जाता है। उ०—कनक लता पर चंद्रमा धरे धनृप द्वै वाण।
⋙ रूपकार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रूपकर्ता'।
⋙ रूपकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओँ के स्थपति। त्वष्टा। विश्व- कर्मा। २. मुर्तिकार। शिल्पी (को०)।
⋙ रूपक्रांता
संज्ञा स्त्री० [सं० रूपक्रान्ता] सत्रह अक्षरों की एक वर्ण- वृत्ति का नाम जिसके प्रत्येक चरण में जगण, रगण, जगण, रगण, जगण और अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा होती है। उ०—अशेष पुण्य पाप के कलाप आपने बहाइ। विदेह राज ज्यों सदेह भक्त राम के कहाइ। लहै सुभुक्ति लोक लोक अंत मुक्ति होहि ताहि। कहै सुनै पढै़ गुनै जो रामचंद्र चंद्रि- कहि।—केशव (शब्द०)।
⋙ रूपगरबिता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० रूपगर्बिना] दे० 'रूपगर्विता'। उ०—जाके अपने रूप को, अतिही हीय गुमान। रूपगरविता कहत हैं, तासौं परम सुजान।—मति० ग्रं०, पृ० २९३।
⋙ रूपगर्विता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्विता नायिका का एक भेद। वह नायिका जिसे अपने रूप या सुंदरता का अभिमान हो। उ०—ये अंग दीपित पुंज भरे तिनकी उपमा छनजोन्ह सों दीजत। आरसी की छबि त्यो द्विजदेव सुगोल कपोल समान कहेजत। चतुर श्याम कहाय कहो, उर अंतर लाज कछूक तौ लीजत। रागमयी अधराधर की समता कैसे कै प्रवाल सों कीजत।—द्विजदेव (शब्द०)।
⋙ रूपग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] चक्षु। नेत्र [को०]।
⋙ रूपग्राही
संज्ञा पुं० [सं० रूपग्राहिन्] आँख। नेत्र।
⋙ रूपघनाक्षरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का दंडक छंद। विशेष—इसके प्रत्येक चरण में बत्तीस वर्ण होते हैं। इसके अत में लघु तथा आठ आठ वर्णों पर विश्राम होना आवश्यक है।
⋙ रूपघात
संज्ञा पुं० [सं०] कौटल्य के अनुसार सूरत बिगाड़ना। कुरूप करने का अपराध।
⋙ रूपचतुर्दशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी। विशेष—यह दीपमालिका के एक दिन पहले होती है। इसे नरक चतुर्दशी भी कहते है। इस दिन लोग शरीर में उबटन आदि लगाते हैं।
⋙ रूपजीविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
⋙ रूपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० रूपजीवन्] नट। बहुरूपिया।
⋙ रूपण
संज्ञा पुं० [सं०] १. आरोपण। आरोप करना। २. प्रमाण। ३. परीक्षा।
⋙ रूपता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रूप का भाव या धर्म। २. सौंदर्य। खूबसूरती।
⋙ रूपदर्शक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का सिक्कों का निरी- क्षण करनेवाला राज कर्मचारी। २. सराफ (कौ०)।
⋙ रूपधर (१)
वि० [सं०] सुंदर। खूबसूरत।
⋙ रूपवर (३)
संज्ञा पुं० किसी का रूप धारण करनेवाला। अभिनेता [को०]।
⋙ रूपधारी
वि० संज्ञा पुं० [सं० रूपधारिन्] दे० 'रूपधर' [को०]।
⋙ रूपनाशक रूपनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] उल्लू।
⋙ रूपपति
संज्ञा पुं० [सं०] त्वप्टा। विश्वकर्मा।
⋙ रूपपरिकल्पना
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी रूप का अनुकरण करना। वेश बदलना। कोई अन्य रूप धारण करना। [को०]।
⋙ रूपमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० रूपमञ्जरी] १. एक प्रकार का फूल। उ० - सोनजरद बहु फुली सेवती। रूपमंजरी और मालती।— जायसी (शब्द०)। २. एक प्रकार का धान। उ०—राजहंस और हंसी भोरी। रूपमंजरी औ गुनगौरी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ रूपमनी पु
वि० [हिं० रूपमान] रूपवती। उ०—तेहि। गोहन सिंहल पद्मिनी। इक सो एक चाहि रूपमनी। - जायसी (शब्द०)।
⋙ रूपमय
वि० [हिं० रूप + मय] [वि० स्त्री० रूपमयी] अति सुंदर। बहुत खूबसूरत। उ०—(क) नील निचाल छाल भइ फनि मनि भूषन रोप रोम पट उदित रूपमय।—पूर (शब्द०)। (ख) मों मन मोहन की सबही मिलिकै मुसकानी दिखाय दई। वह माहनी मूरति रूपमयी सबही चितई तब हौं चितई। उनतो अपने अपने घर की रसखानि भली विधि राह लई। कछु माहिं को पाप परयो पल में पग पावत पौर पहार भई।-रसखानि (शब्द०)।
⋙ रूपमान पु
वि० [सं० रूपवान्] [स्त्री० रूपमनी] सुंदर। मनोहर।
⋙ रूपमाला
संज्ञा स्त्री० [हिं० रूप + माला] एक मात्रिक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में १४ और १० के विश्राम से २४ मात्राएँ और एक गुरु एक लघु होता है। इसको मदन भी कहते हैं। उ०—रावरे मुख के बिलोकत ही भए दुख दूरि। सुप्रलाप नहीं रहे उर मध्य आनँद पूरि। देह पावन हो गयो पदपद्म को पय पाइ। पूजतै भयो वश पूजित आशु हो मनुराइ।—केशव (शब्द०)।
⋙ रूपमाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण मे तीन मगण या नौ दोर्घ वर्ण होते है। उ०—अंग वंगा कालिंगा काशी। गंगा सिंधू सगामा वासी।—(शब्द०)।
⋙ रूपया
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रूपया'।
⋙ रूपरूपक
संज्ञा पुं० [सं० रूप + रूपक] रूपक अलंकार का एक भेद। केशव के अनुसार रूपकालंकार के 'सावयव रूपक' भेद का एक नाम।
⋙ रूपवंत
वि० [सं० रूपवत् या रूपवान् का बहु व०] [वि० स्त्री० रूपवंती] जिसमें सौंदर्य हो। खूबसूरत। रूपवान। सुंदर। उ०—(क) तापसी को वेष किए राम रूपवंत किधौं मुक्ति फल दोऊ टूटे पुण्य फल डारि ते।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। (ख) साईं सुआ विचित्र अति बानी बदत विचित्र। रूपवंत गुण आगरे राम नाम सो चित्र।—गिरधर (शब्द०)।
⋙ रूपवती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केशव के अनुसार एक छंद का नाम। इसे छदप्रभाकर में गौरी लिखा है। उ०—कीजै न विडंबन संतत सीते। भावी न मिटै सुकहू जग गीते। तू पाति देवनि के गुरु बेटी। तेरी जग मृत्यु कहावति चेटी।—केशव (शब्द०)। २. चंपकमाला वृत्ति का एक नाम। रुक्मवती।
⋙ रुपवती (२)
वि० स्त्री० सुंदरी। खूबसूरत। (स्त्री)।
⋙ रूपवान्
वि० [सं० रुपवत्] [वि० स्त्री० रुपवती] सुंदर। रूपवाला। खूबसूरत।
⋙ रूपवान
वि० [सं० रूपवत्] दे० 'रूपवान्'।
⋙ रूपशाली
वि० [सं० रूपशालिन्] [वि० स्त्री० रूपशालिनी] रूपवान्। सुंदर। खूबसूरत।
⋙ रूपश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] संपूर्ण जाति की एक संकर रागिनी जिसमें ऋषभ कोमल और शेष सब स्वर शुद्ध लगते हैं।
⋙ रूपसंपद्, रूपसंपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० रूपसम्पद्, रूपसम्पत्ति] सौंदर्य। उत्तम रूप। सुंदरता।
⋙ रूपसी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रूपस्विनी] रूपवती स्त्री। सुंदरी स्त्री। उ०—उषा उन्हें एक रूपसी की भाँति दिखाई पड़ती है जो अंबर पनघट पर तारों के घट को डुबो रही है।—हिं० का० प्र०, पृ० १५९।
⋙ रूपसी (२)
वि० स्त्री० सौंदर्ययुक्त। रूप से भरी हुई। रूपवाली। उ०— बोलति क्यों न सुधा सी धारा। डोलति क्यों न रूपसी डारा।—नंद० ग्रं०, पृ० १४८।
⋙ रूपसेन
संज्ञा दे० [सं०] एक विद्याधर का नाम।
⋙ रूपस्वी
वि० [सं० रूपस्विन्] रूपवान्। सुंदर।
⋙ रूपहरा
वि० [हिं० रूपहला] दे० 'रुपहला'।
⋙ रूपांकक
संज्ञा पुं० [सं० रूपाङ्कक] वह व्यक्ति जो किसी निर्माणा- धीन वस्तु की रूपरेखा, बनावट आदि का रुप, आकार निश्चित करता हो। डिजाइनर।
⋙ रूपांतर
संज्ञा पुं० [सं० रूप + अन्तर] १. परिवर्तन। नए रूप में स्थापन। उ०—विश्व सभ्यता का होना था नख शिख नव रूपांतर।—ग्राम्या, पृ० ५२। २. अनुवाद। एक भाषा से दूसरी भाषा में किया गया परिवर्तित रूप। यौ०—रूपांतरकर्ता, रूपांतरकार = अनुवादक।
⋙ रूपांतरण
संज्ञा पुं० [सं० रूपान्तण] दे० रूपातंर।
⋙ रूपांतरित
संज्ञा पुं० [सं० रूपान्तरित] १. परिवर्तित। अन्य रूप युक्त। २. अनूदित। अनुवाद किया हुआ।
⋙ रूपा
संज्ञा पुं० [सं० रुप्य] १. चाँदी। उ०—(क) हरिमन मथिवे को मानों मनमथ्थ लिखे रूपे के रुचिर अंक पट्टिका कनक की।— केशव (शब्द०)। (ख) यह सुन नंद जी ने कंचन के शृंग, रूपे के खुर, ताँबे की पीठ समेत दो लाख गऊ पाटंबर उढ़ाय संकल्प की।—लल्लू (शब्द०)। २. घटिया चाँदी, जिसमें कुछ मिलावट हो। ३. वह बैल जो बिलकुल सफेद रंग का हो। इस रंग के बैल मजबूत और सहिष्णु माने जाते हैं। ४. स्वच्छ सफेद रंग का घोड़ा। नुकरा।
⋙ रूपाजीवना, रूपाजीवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
⋙ रूपातीत
वि० [सं० रूप + अतीत] रूप से परे। जिसका कोई रूप।स्थिर न किया जा सके। कल्पना से परे। उ०—त्रितिय ध्यान रुपस्थ पुनि, चतुर्त रुपातीत।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ५३।
⋙ रुपात्मक
वि० [सं० रुप + आत्मक] आकारवाला। रुपमय। शकल सूरत का। उ०— हमें अपने मन का और अपनी सत्ता का बोध रुपात्मक ही होता है।—रस०,पृ० ३०।
⋙ रुपाधिबोध
संज्ञा पुं० [सं०] दृश्य वस्तु का वह ज्ञान जो इंद्रियों द्वारा होता है।
⋙ रुपाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रुप्याध्यक्ष'।
⋙ रुपायन
संज्ञा पुं०[सं० रुप + अयन] बनाना। आकृति देना। रुप देना। उ०— साहित्य में इसी रुपायन का महत्व है।— इति०, पृ० ५।
⋙ रुपायित
वि० [सं० रुप] रुपयुक्त। रुप और आकार से युक्त। आकृतिवाला। उ०— मानव मात्र के अचेतन मानसिक जीवन को रुपायित करनेवाला प्राणी स्वीकार किया है।—हिंदी०, आ०, पृ० ५।
⋙ रुपावचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बौध्द मत के अनुसार एक प्रकार के देवता। २. चित्त का एक भेद जिससे रुपलोक का ज्ञान प्राप्त होता है। चित्त की इस वृत्ति के कुशल, विपाक् क्रियादि भेद से अनेक प्रकार माने जाते हैं। ३. योग में ध्यान की एक भूमि का नाम, जिसके प्रथमा आदि चार भेद हैं।
⋙ रुपाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] सुंदर पुरुष। खूबसूरत आदमी।
⋙ रुपास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ रुपिक
संज्ञा पुं० [सं०] सिक्का। रुपया [को०]।
⋙ रुपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद फूल का आक का पेड़। श्वेत मदार। श्वेतांक।
⋙ रुपित
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का उपन्यास, जिसमें ज्ञान, वैराग्यादि पात्र बनाए जाते हैं।
⋙ रुपी
वि० [सं० रुपिन्] [वि० स्त्रि० रुपिणी] १. रुप। विशिष्ट रुपवाला। रुपधारी।उ०— पढ़ पढ़ फिर जन्म लेते हैं, सो भी विद्या रुपी सागर की थाह नहीं पाते। —लल्लू (शब्द०)। २. तुल्य। सदृश। जैसे,— कमल रुपी चरण। उ०— पारस रुपी जीव हैं लोह रुप संसार। पारस ते पारस भया परख भया टकसार।—कबीर (शब्द०)। ३. सुंदर। खूबसूरत।
⋙ रुपेंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० रुपेन्द्रिय] चक्षु। आँख।
⋙ रुपेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० रुपेश्वरी] एक शिवलिंग का नाम।
⋙ रुपेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ए क देवी का नाम।
⋙ ऱुपोपजीविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
⋙ रुपोपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० रुपोपजीवन्] [स्त्री० रुपोपजी- विनी] बहुरुपिया।
⋙ रुपोश
वि० [फा०] [संज्ञा रुपोशी] १. छिपा हुआ। गुप्त। २. जो दंड़ आदि से बचने के लिये भाग गया हो। फरार।
⋙ रुपोशी
संज्ञा स्त्री० [फा०] मुँह छिपाने की क्रिया। गुप्ति। छिपना।
⋙ रुप्य (१)
वि० [सं०] १. सुंदर। खुबसुरत। २. उपमेय।
⋙ रूप्य (२)
संज्ञा पुं० १. रूपा। चाँदी। २. सोने या चाँदी का मुहर लगा सिक्का। जैसे—रुपया, गिन्नी आदि (को०)। ३. अंजन। सुरमा (को०)। ४. परिष्कृत स्वर्ण। तपाया हुआ सोना (को०)। यौ०—रूप्यद = चाँदी देनेवाला। रूप्यधौत = रजत। चाँदी। रूप्यशतमान = साढ़े तीन पल की एक तौल।
⋙ रूप्यक
संज्ञा पुं० [सं० रूप्य] रुपया।
⋙ रूप्यकूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनों के अनुसार हैरण्यवत वर्ष की एक नदी का नाम।
⋙ रूप्याचल
संज्ञा पुं० [सं०] कैलाश पर्वत [को०]।
⋙ रूप्याध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] टकसाल का प्रधान अधिकारी। नैष्ठिक।
⋙ रूबकार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. सामने उपस्थित करने का भाव। पेशी। २. वह तजवीज या फैसला जो किसी काररवाई में हाकिम अदालत के सामने लिखा जाय। अदालत का हुक्म। ३. कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में किसी को अदालत आदि में उपस्थित होने के लिये लिखा हुआ आज्ञापत्र। ४. आज्ञापत्र। हुकुमनामा।
⋙ रूबकारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. मुकदमें की पेशी। २. मुकदमें की काररवाई।
⋙ रूबरू
क्रि० वि० [फ़ा०] संमुख। सामने। समक्ष। उ०—(क) हमारे रूबरू आने की जरूरत नहीं।—राधाकृष्ण (शब्द०)। (ख) महाराज की आज्ञा पावों तो रूबरू ले आवों।— लल्लू (शब्द०)। क्रि० प्र०—आना।—करना।—जाना।—लाना।—होना।
⋙ रूबल
संज्ञा पुं० [रूसी] रूस का चाँदी का सिक्का जो प्रायः दो शिलिंग डेढ़ पेनी के बराबर मूल्य का होता है। एक शिलिंग = प्रायः बारह आने = ७५ पैसे (नए)। एक पेनी = प्रायः तीन पैसे = पाँच नए पैसे।
⋙ रूबुक
संज्ञा पुं० [सं०] एरंड वृक्ष। रेंड का पेड़।
⋙ रूम (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] टर्को या तुर्की देश का एक नाम। उ०— चारि दिसा महिं दंड रचो है रूम साम बिच दिल्ली। ता ऊपर कुछ अजब तमाशा मारे है यम किल्ली।—कबीर (शब्द०)। विशेष—ईसा के जन्म से पहले पाँचवीं शताब्दी से रोमक जातियों की शक्ति बढ़ने लगी थी और यूनान का पतन होने पर वह एक प्रभावशाली जाति हो गई थी। इस जाति की राजधानी रोम नगर थी। यह जाति इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि स्पेन से लेकर अरब, मिस्त्र आदि तक के देशों पर इसका अधिकार हो गया था। तीसरी शताब्दी के अंत में यह बृहत् साम्राज्य शासकों में विभक्त होने लगा और सन् ३३० में कैसर कानिस्तंताइन ने कुस्तुंतुनिया नगर में अपनी राजधानी बनाई। ३९५ में रोम राज्य, पूर्वीय और पश्चिमीय राज्य, जिसकी राजधानी रोम थी, धीरे धीरे निर्बल होता गया और उसे गाथ, फ्रेंच आदि जातियों ने ध्वंस कर दिया; और पूर्वोय राज्य ही सन् ४७६ से रोम राज्यकहलाने लगा। यूरोप के दक्षिणपूर्व का भाग, एशिया का पश्चिमी भाग तथा उत्तरी अफ्रीका और अनेक टापू इस साम्राज्य के अंतर्भूत थे। तब से तुर्को को, जिसका प्रधान नगर कुस्तुंतुनिया है, रूम कहने लगे, और अब तक उसे रूम ही कहते हैं।
⋙ रूम पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० रोम] दे० 'रोम'। उ०—रूम रूम में ठाकुर रम रहए कोइ बरले जन चिना।—रामानंद०, पृ० १६।
⋙ रूमना पु
क्रि० स० [हिं० झूमना का अनु०] झूमना। झूलना। उ०—कहि आपनो तू भेद। न तु चित्त उपजत खेद। कहि बेग वानर पाप। न तु तोहिं देहौं शाप। तव वृक्ष शाखा रूमि। कपि उतरि आयो भूमि।—केशव (शब्द०)।
⋙ रूमपाट पु
संज्ञा पुं० [सं० रोमपाट] ऊनी वस्त्र। दे० 'रोमपाट'। उ०—रूमपाट पाटंबर अंबर जरी बफ्त का बाना। तेरे काज गजी गज चारिक भरा रैह तोसाखाना।—संतवाणी०, भा० २, पृ० ७।
⋙ रूमानी
वी० [अं० रोमांस] प्रणयकथा युक्त। शारीरिक प्रेमव्यापार से युक्त। मन जिससे सरस हो उठे।
⋙ रूमारी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० रोमावली] दे० 'रोपावली'। उ०— त्रै सै साठ करी हड़वारी। अनील असंख करी रूमारी।—प्राण०, पृ० २०।
⋙ रूमाल
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. कपड़े का वह चौकोर टुकड़ा जो हाथ, मुँह पोछने के काम में आता है। उ०—पोंछि रूमालन सों श्रम सीकर भौंर की भीर निवारत ही रहे।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। मुहा०—रूमाल पर रूमाल भिगोना = बहुत रोना। आँसुओं की धारा बहाना। २. चौकोना शाल या चिकन का टुकड़ा जिसके चारों ओर बेल और बीच में काम बना रहता है और जो तिकोना दोहर कर ओढ़ने के काम में लाया जाता है। मुसलमानी समय में इसे कमर में भी बाँधते थे। ३. पायजामे की काट में वह चौकोर कपड़ा जो दोनों मोहरियों की संधि में लगाया जाता है। मियानी। ४. ठगों का रूमाल जिसके एक कोने में चाँदी का एक टुकड़ा बँधा रहता है। विशेष—ठग आदि इसे आदमियों के गले में लपेटकर चाँदी के टुकड़े को उसके गले पर घाँटी के पास अँगूठे से इस प्रकार दबाते थे कि वह मर जाता था। क्रि० प्र०—लगाना।
⋙ रूमाली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'रुमाली'।
⋙ रूमी
वि० [फ़ा०] १. रूम देश संबंधी। रूम का। २. रूम देश में उत्पन्न होनेवाला। जैसे,—रूमी मस्तगा। ३. रूम देश में रहनेवाला। रूप देश का निवासी। उ०—हबशी रूमी और फिरंगी। बड़ बड़ गुनी और तेहि संगी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ रूर
वि० [सं०] १. जो गरम हो गया हो। उत्तप्त। २. जला हुआ। दग्ध।
⋙ रूरना पु
क्रि० अ० [सं० रोरवण (= चिल्लाना)] चिल्लाना। जोर से शब्द करना। उ०—(क) एक मुई रुर सुई सो दुजी। राह न जाय आयु अव पूजी।—जायसी (शब्द०)। (ख) हमरे श्याम चलन कहत हैं दूरि। मधुबन बसत आस हुती सजनी अब मरिहौं जु बिसूरि। कौन कहीं कौन सुनि आई केहि रुख रथ की धूरि। संगहिं सबै चली माधव के ना तौ मरिहौं रुरि। दक्षिण दिशि यह नगर द्वारिका सिंधु रहौ जल पूरि। सूरदास प्रभु बिनु क्यों जीवौं जात सजीवन मूरि।—सूर (शब्द०)।
⋙ रूरा
वि० [सं० रुढ(= प्रशस्त)] [वि० स्त्री० रूरी] १. प्रशस्त। श्रेष्ठ। उत्तम। अच्छा। उ०—(क) जिन्हके श्रवण समुद्र समाना। कथा तुम्हार सुभग सरि नाना। भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम कहँ गृह रूरे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) लटकति ललित ललाट लटूरी। दमकति दूध र्दंतुरिया रूरी।—सूर०, १०। ११७ । २. बूहुत बड़ा। उ०— चित्र की सी पुत्रिका कै रूरे बगरूरे माँहि शंबर छड़ाय लई कामिनी कै काम की।—केशव (शब्द०)। ३. सुंदर। मनोहर। उ०—मेघ मंदाकिनी, चारु सौदामिनी, रूप रूरे लसै देह धारी मनो।—केशव (शब्द०)।
⋙ रूल
संज्ञा पुं० [अं०] १. नियम। कायदा। २. लकीर खींचने का डंडा। रूलर। ३. लकीर जो लिखावट सीधी रखने के लिये कागज पर खींची जाती है। क्रि० प्र०—खींचना। यौ०—रूलदार = (कागज) जिसपर लकीरें खिंची हुई हों।
⋙ रूलना पु
क्रि० स० [देश०] दबाना। हूलना।
⋙ रूलर
संज्ञा पुं० [अं०] १. लकीर खींचने का डंडा। शलाका। २. लकीर खींचने की पटरी। पैमाना। ३. शासक।
⋙ रूष पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० रूख] दे० 'रूख'।
⋙ रूष (२)
वि० [सं०] १. निर्दय। कठोर। २. अम्ल। खट्टा [को०]।
⋙ रूषक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रूसा। अडूसा। वासक।
⋙ रूषक (२)
वि० १. सजानेवाला। २. लीपनेवाला [को०]।
⋙ रूषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूषित करना। अलंकरण। २. अनुलेपन। ३. आच्छादन।
⋙ रूषा पु
वि० [हिं० रूखा] दे० 'रूखा'।
⋙ रूषित
वि० [सं०] १. टूटा हुआ। खंडित। भग्न। २. सज्जित। भूषित (को०)। ३. लिप्त (को०)। ४. मंलिन। दूषित (को०)। ५. सुगंधित। सुवासित (को०)। ६. जड़ा हुआ। जटित (को०)।
⋙ रूस (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक देश का नाम जो यूरोप और एशिया दोनों महाद्वीपों के उत्तरी भाग में फैला हुआ है। विशेष—इसके उत्तर में उत्तरीय हिमसागर, पूर्व में प्रशांत महासागर, दक्षिण में चीन, तुर्किस्तान, फारस, कश्यप सागर, काकेशस या काफ पहाड़, काला सागर और रूमानिया, तथा पश्चिम में हंगरी, जर्मनी, बालटिक की खाड़ी, स्वीडन और नारेव हैं। इस देश में बड़ी बड़ी नदियाँ और बड़े बड़े मैदानतथा जंगल हैं। आबादी इस देश में घनी नहीं है। यह देश ८६, ६०, २८२ वर्ग मील है। इसकी राजधानी पहले लेनिनग्राड थी और अब (मास्को) है।
⋙ रूस (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० रावश] चाल। (लश०)।
⋙ रूसना
क्रि० अ० [हिं० रोष] १. रोष करना। नाराज होना। रूठना। उ०—(क) खोला आगे आनि मजूसा। मिल निकसी बहु दिन कर रूसा।—जायसी (शब्द०)। २. मान करना। रूठना। उ०—(क) बारहि बार को रूसिवो बारो बहाउ जु बुद्धि वियोग बसाई।—केशव (शब्द०)। (ख) जगत जुराफा ह्वै जियत तज्यो तजे निज भान। रूसि रहे तुम पूस में यह धौं कौन समान।—पद्माकर (शब्द०)। क्रि० प्र०—जन।—बेठना।—रहना।
⋙ रूसा पु † (१)
वि० [सं० रुष् (= रोष) ] [वि० स्त्री० रूषी] रूठा हुआ। रुष्ट। उ०—श्याम अचानक आए री। पाछे ते लोचन दोउ मूँदे मो को हृदय लगाए री। लहनो ताको जाके आवं मैं बड़- भागिनि पाए री। यह उपकार तुम्हारो सजनी रूसे कान्ह मिलाए री।—सूर (शब्द०)।
⋙ रूसा (२)
संज्ञा पुं० [सं० रूषक] अडूसा। अरूसा। विशेष दे० 'अड़ूसा'।
⋙ रूसा (३)
संज्ञा पुं० [सं० रोहिष] एक सुगंधित घास का नाम। भूतृण। रोहिष। विशेष—यह घास नेपाल, शिमला, अलमोड़ा, काश्मीर, पंजाब, राजमहल, मध्यप्रदेश के पहाड़ी प्रदेशों, बंबई और मद्रास के पर्वतों में होती है। इस घास से गुलाब की सी सुगंध आती है और इसका तेल निकाला जाता है। इसकी प्रधान दो जातियाँ होती हैं। एक का फूल सफेद और दूसरी का फूल नीले रंग का होता है। जब यह घास नरम रहती है, तब इसकी पत्तियों का रंग नीलापन लिए होता है, पर पकने पर उनका रंग लाल हो जाता है। जब इसकी पत्तिया नरम होती हैं, तब इसे 'मोतिया' कहते हैं; और जब पककर लाल हो जाती हैं, तब उन्हें 'सौंफिया' कहते हैं। सावन भादा में यह फूलने लगती है और कार्तिक अगहन तक फूलती है। इसी समय इसकी पत्तियाँ तेल निकालने के योग्य हो जाती हैं। जब घास फूलने लगती है, तब काट ली जाती है और इसकी छोटी छोटी पूलियाँ बाँध ली जाती हैं। तेल निकालते समय देग में पानी भरकर ढाई तीन सौ पूलियाँ उसमें छोड़ दी जाती हैं। फिर देग पर सरपोश लगा देते हैं, जिसमें दो नलियाँ, जो तीन चार अंगुल मोटी और चार हाथ लंबी होती हैं, लगी रहती हैं। यह देग आग पर रख दिया जाता है और नलियों का सिरा ताबे के दो घड़ों के मुँह से लगा दिया जाता है, जो पानी में डूबे रहते हैं। इस प्रकार घास का आसव खींचा जाता है। जब आसव निकल आता है, तब उसे एक चौड़े मुँह के बरतन में उंडेल लेते हैं। इस बरतन में रूसे का अर्क थोड़ी देर तक रहता है और तेल छोटे चम्मच से धीरे धीरे ऊपर से काछ लिया जाता है। यह तेल गुलाब के अतर में मिलाया जाता है और इसमें ताड़पीन या मिट्टी का तेल मिलाकर सुगंधित द्रव्य तैयार किया जाता है। मध्यप्रदेश के जंगलों से रूसा का तेल बहुत अधिक मात्रा में बाहर जाता है। यूरोप और अमेरिका में इस तेल का बहूत व्यवहार तथा व्यापार होता है। पर्या०—रोहिष। गंधवेना। भूतृण। कत्तृण। गंधतृण।
⋙ रूसियाह (१)
वि० [फ़ा०] जिसका मुँह काला हो। कदाचारी। पापात्मा। बदचलन। गुनहगार। पापी। बदनाम। उ०—काश दस पाँच साल पहले तुम मुझे मिल जाते तो तैमूर तवारीख में इतना रूसियाह न होता।—मान०, भा० १, पृ० १९४।
⋙ रूसियाह (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. सूर्य। २. आसमान [को०]।
⋙ रूसियाही
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बदचलनी। पाप। गुनाह [को०]।
⋙ रूसी (१)
वि० [हिं० रूस] १. रूस देश का रहनेवाला। रूस देश का निवासी। २. रूस देश में उत्पन्न। ३. रूस देश का।
⋙ रूसी (२)
संज्ञा स्त्री० रूस देश की भाषा।
⋙ रूसी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] सिर के चमड़े पर जमा हुआ भूमी के समान छिलका जो सिर न मीलने से जम जाता है। क्रि० प्र०—जमना।—निकलना।
⋙ रूत्त
संज्ञा पुं० [सं०] कपड़े का किनारा। दामन। अंचल [को०]।
⋙ रूह
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आत्मा। जीवात्मा। उ०—चाम चश्म के नजर न आयै देखु रूह के नैना। चून चिगून वजूद नामजु तैं सुभा नमूना ऐना।—कबीर (शब्द०)। २. सत्त। सार। जैसे,—रूह गुलाब, रूह केवड़ा, रूह पानड़ी (यह इत्र का एक भेद होता है)। यौ०—रूह अफजा = प्राणवर्धक। मुहा०—रूह कब्ज हो जाना, रूह फना होना = भय से स्तब्ध हो जाना।
⋙ रूहड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० रूई] पुरानी रूई जो पहले किसी ओढ़ने या बिछाने आदि के कपड़ों में भरी रही हो।
⋙ रूहना पु (१)
क्रि० अ० [सं० रोहण] चढ़ना। उमड़ना। छा जाना। उ०—चहुँ दिसि दिष्टि परी गज जूहा। श्यामल घटा मेघ जस रूहा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ रूहना (२)
क्रि० सं० [हिं० रूँधना] आवेष्टित करना। घेरना। उ०— इमि वमु षोडश वत्तिस जूहा। मधि मोहन शशि के सम रूहा।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ रूहानियत
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] अध्यात्मवाद। आत्मवाद।
⋙ रूहानी
वि० [अ०] आध्यात्मिक। आत्मिक।
⋙ रूही
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष। अर्कमूल। चौरी। ईसर मूल। विशेष—रूही का वृक्ष हिमालय पर्वत के नीचे रावी नदी के पूर्व में तथा मध्यभारत और मद्रास प्रांत में पाया जाता है। इसे चौरी और मामरी भी कहते हैं। इसकी छाल देशी औषधियों में काम आती है और जड़ साँप काटने की ओषधि मानी जाती है। इसकी लकड़ी तौल में प्रति धनफुट २७ सेर तक होती है।यह बहुत मजबूत और चिकनी होती है। रंग देने और वार्निश करने से इसपर बहुत अच्छी चमक आती है। इससे मेज, कुरसी, आलमारी और तसवीर के चौखटे बनाए जाते हैं। यह वृक्ष बीज से बरसात में उगता है। इसको संस्कृत में 'अहिगंधा' कहते हैं। इसकी पत्तियाँ उत्तेजक और कटु होती हैं। इसकी छाल पेट की पीड़ा और अँतरिया ज्वर में दी जाती है। इसकी मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक है। यह मधु के साथ कुष्ठ रोग में और काली मिर्च के साथ पीसकर विशूचिका तथा अतिसार में दी जाती है। इसे वैद्य लोग ईसरमूल, अर्कमूल और रूहीमूल कहते हैं।
⋙ रूहीमूल
संज्ञा पुं० [हिं० रूही + मूल] रूही नामक वृक्ष की छाल और जड़। इसरमूल। अर्कमूल। अतिगंधा। विशेष दे० 'रूही'।