विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/अध
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हिन्दी शब्दसागर |
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⋙ अधग पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अर्धांग' । उ०—सीस गंग गिरिजा अधंग भुषण भुजंगबर । —तुलसी ग्रं०, पृ० २३५ ।
⋙ अर्धतरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अध?+ अंतरी] मालखम की एक कसरत ।
⋙ अध? (१)
प्रत्य० [सं०] नीचे । तले ।
⋙ अध? (२)
संज्ञा स्त्री० दश दिशाओं में से एक । पैर के ठीक नीचे की दिशा ।
⋙ अध?काय
संज्ञा पुं० [सं० अध?=नीचे+काय=शरीर] कमर केचे के अंग । नाभि के नीचे के अवयव ।
⋙ अध?क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपमानित करना । नीचा दिखाना [को०] ।
⋙ अध?पतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीचे गिरना । २. अवनति । अध?पात तनज्जुली । ३. दुर्दशा । दुर्गति । ४. विनाश । क्षय ।
⋙ अध?पतित
वि० [सं०] १. जिसका पतन हो गया हो । २. दुर्दशाग्रस्त [को०] ।
⋙ अध?पात
संज्ञा पुं० [सं०] १. निचे गिरना । पतन । २. अवनति । तनज्जुलि । ३. दुर्गति । दुर्दशा ।
⋙ अध?पुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनंतमुल नामक औषधि । २. नीले फुल की एक बुटी जिसे अंधाहुली भी कहते हैं ।
⋙ अध?प्रस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] अशौचवालों के बेठने के लिये तृणों का बना हुआ आसन । कुशासन ।
⋙ अधोवेद
संज्ञा पुं० [सं०] प्रथम पत्नी के जीवित रहते दुसरा विवाह करना [को०] ।
⋙ अध?शयन
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी पर सोना । ब्रह्ममचर्य का एक नियम
⋙ अध?शय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अध?शयन' [को०] ।
⋙ अध?शिरा (१)
वि० [सं० अध?शिरस] सिर निचे रखनेवाला [को०] ।
⋙ अध?शिरा (२)
संज्ञा पुं० एक नरक का नाम [को०] ।
⋙ अध?स्वस्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] अधोविंदु । देखनेवालों के पैरों के नीचे माना जानेवाला एक कल्पत विंदु [को०] ।
⋙ अध (१) पु
अव्य० [हिं०] दे० 'अध?' । उ०—अध अर्द्ध बानर बिदिस दिसि बानर है ।— तुलसी ग्रं०, प० १७४ ।
⋙ अध (२)
वि० [सं० अर्ध; प्रा० अद्ध, अध] 'आधा' शब्द का संकुचित रुप । आधा । उ०—हौं जानत जो नाह तुम बोलत अध अखरान । — पद्माकर ग्रं०, पृ० १६९ । विशेष-प्राय? यौगिक शब्द बनाने में इस शब्द का प्रयोग होता है । जैसे—अधकचरा, अधजल, अधबावरा, अधमरा ।
⋙ अधकचरा (१)
वि० [हिं० अध+ कच्चा] १. अपरिपक्व । अधुरा । अपुर्ण । २ अकुशल । अदक्ष । जिसने पुरी तरह कोई चीज न सीखी हो । जैसे—उसने अच्छी तरह पढ़ा नहीं अधकचरा रह गया (शब्द०) ।
⋙ अधकचरा (२)
वि० [हिं० अध+ कचरना] आधा कुटा या पीसा हुआ । दरदरा । अधपिसा । अधकुटा । अरदावा किया हुआ ।
⋙ अधकच्चा
वि० [हिं०] दे० 'अधकचरा' । उ०—बहुधा इस तरह की बनावट और चालाकी सुखवासी लाला सरीखे अधकच्चे मनुष्यों से होती है ।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ६४ ।
⋙ अधकच्छा
संज्ञा पुं० [सं० अधिकच्छा] नगी के किनारे की वह ऊँची भूमि जो ढालुई होते् होते नदी की सतह में मिल गई हो ।
⋙ अधकछार
संज्ञा पुं० [सं० अर्ध+ कच्छ] पहाड़ के अंचल की वह ढालुई भुमि जो प्राय?बहुत उपजाऊ और हरी भरी होती है ।
⋙ अधकट
वि० [हिं० अध+काटना] १. आधा कटा हुआ । २. नियत दुरी या परिणाम का आधा ।
⋙ अधकपारी
संज्ञा स्त्री० [सं० अर्घ+कपाल हिं० अध+कपारी] आधे सिर का दर्द जो सुर्योदय से प्रारंभ होकर दोपहर तक बढ़ता जाता है । फिर दोपहर के बाद लसे घटने लगता है और सुर्यास्त होते ही बंद हो जाता है । आधासीसी । सुर्यावर्त ।
⋙ अधकरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अर्घ+ कर] १. अठत्रियाँ । किस्त । माल- गुजारी या महसुल या किराए की आधी रकम जो किसी नियत समय पर दी जाय ।
⋙ अधकहा
वि० [हिं० अध+ कहना] आधा कहा हुआ । अस्पष्ट रुप से या आधा उच्चारण किया हुआ । उ०—गहकि गाँसु औरै गहे रहे अधकहे बैन । देखि खिसौहैं पिय नयन किए रिसौहैँ नैन ।—बिहारी र०, दो० ६५ ।
⋙ अधकी पु
वि० [सं० अधिक] दे० 'अधिक' । उ०—ज्यों ज्यों चुल्हे झोंकिया,त्यों त्यों अधकी बास । —कबीर सा०, सं०, पृ० ९२ ।
⋙ अधखिला
वि० [हिं० अध+ खिलना] [स्त्री० अधखिली] आधा खिला हुआ । अर्धविकसित ।
⋙ अधखुला
वि० पुं, [हि० अध+खलना] [स्त्री० अधखुनी] आघा खुला हुआ । उ०—सुभग सिगार साजे सबै, दै सखीन कों पीठि । चलै अधखिले द्बार लौं, खुली अधुखुली दीठी । — पद्माकर ग्रं०, पृ० १२५ ।
⋙ अधगति पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अधोगति' । उ०—महा विपट कोटर महु जाई । रहु अधमाधम अधगति पाई । —मानस, ७ । १०७ ।
⋙ अधगो
संज्ञा पुं० [सं० अध?=नीचे+गो=इंद्रिय] नीचे की इंद्रियाँ । शिश्न या गुदा । उ०—उदर उदाधि अधगो जातना । जगमय प्रभु की बहु कलपना । —मानस, ३ ।१५ ।
⋙ अधगोरा
संज्ञा स्त्री० [हि० अध+गोरा] [स्त्री, अघगोरी] यूरीपीय और एशियाई माता पिता से उत्पन्न संतान । यूरेशियन ।
⋙ अधगोहुआँ
संज्ञा पुं० [सं० अर्ध+गोधुग+क] जौ मिला हुआ गेहुँ । गोजई ।
⋙ अधघट पु
वि० [हि० अध+घट] जो ठीक या पुरा न उतरे । जिससे ठीक अर्थ न निकले । अटपट । कठिन । उ०—रुहै कबीर अधधट बोलै । पुरा होड़ विचार लै बोलै ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अधचना †
संज्ञा पुं० [हि० अधा+चना] गेहूँ और चने का मिश्रण जिसमें आधा चना और आधा गेहूँ हो ।
⋙ अधचरा
वि० [हि० अध+चरना] आधा चरा हुआ । अर्ध मक्षित । आधा खाया हुआ । उ०—यह तन हरियर खेत, तरुनी हरिनी चर । गई । अजहुँ चेत अचेत यह अघचरा बचाइ ले ।—सम्मन (शब्द०) ।
⋙ अधजर पु
वि० [हि० अध+जरना] दे० 'अधजला' । उ०—कोई परा भौर होइ बास लोन्ह जनु चोंप । कोई पतंग भा दीपक कोइ अधजर तन काँप । —जायसी ग्रं० पृ० २४९ ।
⋙ अधजल †
वि०[ सं० अर्ध+जल] पानी से आधा ही भरा हुआ । जैसे—अधजल गगरी छलकत जाय [को०] ।
⋙ अधजला
वि० [हि० आधा+जलना] आधा जला हुआ । जो पूर्ण रूप से भस्म न हुआ हो ।
⋙ अधड़ी पु
वि० स्त्री० [सं० अधर] १. न ऊपर न नीचे । अधर का । आधाररहित । निराधार । २. ऊटपटाँग । बेसिर पैर का । असंबद्ब । जिसका कोई सिलसिला न हो । न इधर की न उधर की । उ०—अधड़ी चाल कबीर की असा धरी नहि जाइ । दादु ड़ाँकहिं मिरिग ज्यों उलटि पड़इ भु आइ— दादू (शब्द०) ।
⋙ अधधर
संज्ञा पुं० [सं० अर्ध+धार] मघ्याघार । बिचोबीच । उ०— पढ़े गुने उपजै अहँकारा । अघधर डूबे वार न पारा —कबीर ग्रं०, पृ० १३० ।
⋙ अधन पु
वि० [सं०] १. धनरहित । निर्धन । कंगाल । गरीब । अकिंचन । धनहीन । उ०—तुम सम अधन भिखारि अगेहा । होत बिरंचि सिवहि संदेहा । —मानस, १ । १६१ । २. स्वतंत्र संपत्ति रखने का अनधिकारी [को] । विशेष—मनु के अनुसार भार्या, पुत्र ओर दास स्वतंत्र संपत्ति रखने के अनधिकारी है ।
⋙ अधनियाँ
वि० [हिं० आधा+आता+ इया (प्रत्य०)] आध आने का । आध आनेवाला । जैसे —अधनियाँ टिकट ।
⋙ अधन्ना
संज्ञा पुं० [सं० अर्ध+आणकृ=आना] [स्त्री० अधन्नी] एक आने का आधा । आध आने का सिक्का । ड़बल पैसा
⋙ अधन्नी
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अधन्ना' ।
⋙ अधन्य
वि० [सं०] [स्त्री अधन्या] १. जो धन्य न हो । भाग्यहीन । अभागा । २. गर्हित । निंद्य । बुरा ।
⋙ अधप
संज्ञा पुं० [सं०] भूखा सिह अर्घतुप्त केहरी ।
⋙ अधपई
संज्ञा स्त्री० [सं० अर्ध+पाद=चोपाई] तोलने का एक बाट । एक सेर के आठवें हिस्से की तौल । आधा पाव तौलने का बाट या मान । दो छटेकी । दसभरी । अधपैया अधपौवा ।
⋙ अधपका
वि० [सं० अर्धपव्व] आधा पका हुआ । जो पुरी तरह पका न हो । अपरिपव्व ।
⋙ अधपति पु †
संज्ञा पुं० [हि०]दे० 'अधिपति' । उ०—खँची कमर सौं बाँध्या पटका । अधिपति हुवा बैठि करि पटका ।—सुदर ग्रं० भा० १ पृ० ३५१ ।
⋙ अधफड़ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अधफर' । उ०—टुटे पंख बाज मँडराने अधफड़ प्रान गाँवैहौ । कबीर श० पृ० २२ ।
⋙ अधफर पु
संज्ञा पुं० [सं० अर्ध+फलक=तख्ता] अंतारिक्ष । न नीचे न ऊपर का स्थान । बिच का भाग । अधर । उ०— अब अधफर ऊपर अकाश । चलत दीप देखेयत प्रकाश । चौकी दै मनु अपने भेव । बहुरे देवलोक की देव ।— केशव (शब्द०) ।
⋙ अधबर पु
संज्ञा पुं० [हि० अर्ध+देश० बर (प्रत्यय०)] अथवा हिं०अध+बाट=मार्ग १आधा मार्ग । आधा रास्त । उ०—जे अनिरुध पर परे हथ्यार । अधबर कटें शोखा की धार । —लल्लु (शब्द०) । २. बीच । मध्य अधर । उ०—उत कुल की करनी तजी इत न भजे भगवान । तुलसी अधबर के भए ज्यों बघूर के पान । —सं० सप्तक, पृ० ३१ ।
⋙ अधबाँच
संज्ञा पुं० [हि० अध=सं० *√ अञ्व्] १. चमरावत । चमारों का जौरा । २. बह उजरत दो चमरों को चमड़े का मोट बनामे के लिये वर्ष भर में या फसल के समय दी जाती है ।
⋙ अधबिच
संज्ञा पुं० [हि० अध+बीच] अद्य । बीच । उ०— तरु तमाल अधबीच जनु त्रिविध कीर पाँचि रुचिर, हेमजाल अंतर परि तातें न उड़ाई ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४०५ ।
⋙ अधवुध पु
वि० [सं० अर्ध+बुध=बुद्दीमान] अर्धशिक्षित । अध— चरा । जिसकी शिक्षा पुरी न हुई हो । उ०—दिना सात लौ वाकी सही । बुध अधबुध अचरज एक कही ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अधबैसू पु
वि० [सं०अर्ध+वयस्+हि० ऊ (प्रत्य०)] [स्त्री०अधबैसी] अधोड़ । मध्यम अवस्था का । ढलती उभ्र का । उतरती जवानी का ।
⋙ अधम (१)
वि० [सं० ] [स्त्री० अधमा] [संज्ञा अधबाई, अधपता]१. नीच । निकृष्ठ । बुरा । खोठा । २. पापी । दुष्ट । उ०— कहाहि सुनाहि० अस अधम नर ग्रसे जे मोह पीसाच ।— मानस १ ।११४ ।
⋙ अधम (२)
संज्ञा पुं० १. एक पेड़ का नाम । २. कवि के तीन भेदों में से एक । वह कवि जो दुसरों की निदा करे । ३. ग्रहों का एक अनिष्ट योग (को०) । ४. कर्तव्याकर्तव्य के विचार से रहित कामी (को०) ।
⋙ अधमई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अधम+हि ई (प्रत्य०)] निवता । अधमता । खोटापन ।—सुनि मेरी अपराध अधमई कोई निकट न आवैं । —सुर०, १ ।१९७ ।
⋙ अधमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधमपना । नीचता । खोटाई ।
⋙ अधमभृत
संज्ञा पुं० [सं०] निम्न श्रेणी का सेवक । तीन प्रकार के सेवकों में एक [को०] ।
⋙ अधमभृतक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अधमभुत' [को०] ।
⋙ अधमरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्यवश प्रिति को अधमरति कहते हैं । जैसे, विश्या की प्रिति ।
⋙ अधमरा
वि० पुं० [सं० अर्ध, हिं अध+मरा] [स्त्री अधमरी] आधा मरा हुआ । अर्धमृत । मृतप्राय । अधमुआ ।
⋙ अधमर्ण
संज्ञा पुं० [सं० अधम+ऋण] ऋण लेनेवाला आदमी । कर्जदार । धरता । ऋणी ।
⋙ अधमांग
संज्ञा पुं० [सं० अधपाङ्ग] शरीर का निचला भाग । चरण । पाँव । पैर ।
⋙ अधमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'अधमा नायिका' । २. नीच प्रकृति की स्त्री [को०] ।
⋙ अधमाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अधम+हि० आई (प्रत्य०)] अधमता । नीचता । खोटाई । उ०—पराहित सारिस धर्म नहि भाई । पर पीड़ा सम नहि अधमाई ।—मानस ७ । ४१ ।
⋙ अधमादूती
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधम कुटनी । वह दुती जो उत्तम रुप से अपना कार्य न करे वरन् कटु बातें कहकर नायक या नायिका का सदेश एक दुसरे को पहुँचाए ।
⋙ अधमाधम
वि० [सं० अधम+ अधम] नीच से नीच । महानीच । उ०—महा बिटप कोटर महु जाई । रहु अधमाधम अधगति पाई । मानस ७ ।१०७ ।
⋙ अधमानायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रकृति के अनुसार नायिका के भेदों से एक । वह स्त्री जो प्रिय या नायक के हितकारी होने पर भी उसके प्रिति अहित या कुव्यबहार करे ।
⋙ अधमार पु
वि० [हि०] आधे मारे हुए । अधमरा । उ०—गए पुकारत कछु अधमारे ।—मानस ५ ।८ ।
⋙ अधमार्ध
संज्ञा पूं० [सं०] नामि के नीचे का भाग [को०] ।
⋙ अधमुआ
वि० [हि०] दे० 'अधमरा' ।
⋙ अधामुख पु
वि० [सं० अधोमृख] मुँह के बेल । सिर के बल । ओध । उलटा । उ० (क) स्याम भुजनि की सृंदरताई । बड़े बिसाल जानु लौं परसत इक उपना मन आई । मनौ भुजंग गगन तें उतरत अधमुख रह्यो झुलाई ।—सुर (शब्द०) । (ख) स्याम बिदु नहि तिबुक मै, मो मन यौं ठहराइ । अधमुख ठोढ़ी गड़ की, अँधियारी दरसाई । स०— सप्तक, पृ० २५५ ।
⋙ अधमोद्बारक
वि० [सं०] पापियों का उद्बार करनेवाला [को०] ।
⋙ अधरंगा
संज्ञा पुं० [हि० आधा+रंग] एक प्रकार का फुल ।
⋙ अधर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीचे का ओठ । २. ओठ । यौ०—बिबाझार । दयिताधर । मुहा०—अधर चबाना=क्रोध के कारण दाँतों से ओठ बार बार दबाना । उ०—तदपि क्रोध नहि रोक्यो जाई । भए अरुन चख अधरो चबाई ।—पन्नालाल (शब्द०) । ३. भग या योनि के दोनों पा्र्श्व । ४. शरीर का निचला हिस्सा (को०) । ५. दक्षिण दिशा (को०) ।
⋙ अधर (२)
संज्ञा पुं० [सं०अ=नहों+धृ=धरना] १. बिना आधार का स्थान । अंतरिक्ष । आकाश । शुन्यस्थान । जैसे—वह अधर में लटका रहा । (शब्द०) । मुहा०—अधर में झुलला, अधर में पड़ना, अधर में लटकना=(१) अधुरा रहना । पूरा न होना । जैसे—यह काम अधर में पड़ा हुआ है (शब्द०) । (२) पशेपेश में पड़ना । दुविधा में पड़ना ।
⋙ अधर (३)
वि० १. जो पकड़ में न आए । चंचल । २. नीच । बुरा । तुच्छ । उ०—गुढ़ कपट प्रिय बवन सुनी तीय अधरबुधि रानी । सुरमाया वस बैरिनिहि सुह्वद जानि पतिआनि ।— मानस २ ।१६ ।३. विवाद या मुकदमे में जो हार गया हो । ४. नीचा । नीचे का ।
⋙ अधरकाय
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का निचला भाग [को०] ।
⋙ अधरछत पु
संज्ञा पुं० [सं० अधरक्षत] ओठ रा ब्रण । उ,—सु है अपन्हुति अधरछत करत न प्रिय हिय बाइ ।—भिखारी प्रं, भा० २. पृ० १९ ।
⋙ अधरज
संज्ञा पुं० [सं० अधर+रज] ओठों की ललाई । ओठों की सुर्खी । ओठों की घड़ी । पान या मिस्सी के रंग की लकीर जो ओठों पर दिखाई देती है ।
⋙ अधरपान
संज्ञा पुं० [सं० अधर=ओठ+पान=पीला, चूसना] सात प्रकार की बाहयर तियों में से एक रति । ओठों का चुंबन ।
⋙ अधरबिंब
संज्ञा पुं० [सं०] कुँदरु के पके फल जैसे लाल ओठ ।
⋙ अधरबुदि्ध
वि० [सं०] क्षुद्र बुद्बिवाला । [को०] ।
⋙ अधरम पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अधर्म' । उ०—जब जब होई धरम कैहानी । बढ़ाहि असुर प्रधरम अमिमानी । —मानस १ ।१२१ ।
⋙ अधरमकाय पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अधर्मास्तिकाय' ।
⋙ अधरमधु
संज्ञा पुं० [सं०] अधरों का रस । अधरामृत [को०] ।
⋙ अधररस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अधरमधु' [को०] ।
⋙ अधरस्वस्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] अधोबिदु [को०] ।
⋙ अधरांगा
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर के नोचे के अंग या भाग [को०] ।
⋙ अधरा पु
स्त्री० पुं० [सं० अधर] दे० 'अधर' । उ०—सुरज बिब में ईगुर बोरे बँधुक से है अधरा अरुकारे ।—भिखारी ग्रं० भा०, १ पृ० ११ ।
⋙ अधरात पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अर्धरात्री] आधीरात । उ०—अधरात उठत करि हाय हाय़ । —भिखारी० ग्रं० भा० १ पृ० २२२ ।
⋙ अधराधर
संज्ञा पुं० [सं० अधर+अधर] नीचे का ओठ । उ०—बर दत की पंगति कुंद कली अधराधर पल्लव खोलनि की ।— तृलसी, ग्रं, पृ० १४४ ।
⋙ अधरामृत
संज्ञा पुं० [सं०] ओठों का रस जो अमृत के समान मीठा माना जाता है [को०] ।
⋙ अधरावलोप
संज्ञा पुं० [सं०] ओष्ठचर्वण । ओठ चबाना [को०] ।
⋙ अधरासव
संज्ञा पुं० [अधर+ आसब] ओठ का मादक रस ।—उ०— अधरासव अधरन चह्वयौं उरहु चहयौ उर लागि । —श्यामा०, पृ० १७३ ।
⋙ अधरीण
वि० [सं०] १. नीच । तीरस्कृत । २. निदित [को०] ।
⋙ उधरेद्यु
संज्ञा पुं० [सं०] गत दिन के पहले का दिन । परसों ।
⋙ अधरोंथा पु
वि० [सं० अर्थ+रोमन्थ=जुगाली] [स्त्री अधरोंथी] आधा जुगली किया हुआ । आधा पागुर किया हुआ । आधा चबाया हुआ । उ०—अधरोंखी कग दाभ गिराक्त । थकित खुले मुख ते बिखराक्त । शकृंतला० पृ० ८ ।
⋙ अधरोत्तर
वि० [सं० अधर+ अत्तर] ऊँचा नाचा । खड़बीहड़ । ऊबड़ खावड़ा । २. अच्छा बुरा । ३. न्युनाधिक । कमोबेश ।
⋙ अधरोत्तर
क्रि० वि० ऊँचे नीचे ।
⋙ अधरोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीचे का होंठ । २. नीचे ओऱ ऊपर के दोनों ओठ [को०] ।
⋙ अधरौष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अधरेष्ठ' [को०] ।
⋙ अधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अधर्मा, अधप्रिष्ठ, अधर्मी] पाप । पातक । असद्वव्यबहार । अकर्तव्य कर्म अन्याय । धर्म के विरुद्घ कार्य । कुकर् दुराचार ।बुरा काम । विशेष—शरीर द्बार हिसा चोरी आदि कर्म, वचन द्बारा अनुत भाषण आदि और मन द्बार परदोंहदि । यह गौतम का मन है । कणाद के अनुसार वह कर्म जो अभ्युदय (लौकिक सुख) ओर नैश्रेयस (पारलौकिक सुख) की सिद्बि का विरोधी हो । जौमिनी के मतानुसार वेदवुरुद्ब कर्म । बोद्बशास्त्रनुसार वह दुष्ठ स्वमान जो निर्वाण का विरेधी ही । २. एक प्रजापति अथवा सुर्य का अनुचर [को०] ।
⋙ अधर्ममंत्रयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह युद्ध जो दोनों ओर के लोगों को नष्ट करने के लिये छेड़ा गया हो ।
⋙ अधर्मात्मा
वि० [सं०] अधर्मी पापी । दुराचारी । कुकर्मी । बुरा ।
⋙ अधर्मास्तिकाय
संज्ञा पुं० [सं०] अघर्म पाप । जैनशस्त्रामुसार द्रव्य के छह मेदों में से एक । विशेष—यह एक नित्य ओर अरुपी पदार्थ है जो जीव और पुदगल की स्थिति का सहायक है । इसके तीन भेद है स्कंध, देश ओर प्रदेश ।
⋙ अधर्मी
संज्ञा पुं० [सं० अर्धामन्] [स्त्री,० अधमिणी] पापी दुराचारी
⋙ अधर्म्य
वि० [सं०] १. धर्माविरुद्घ । जो धर्म की दुष्ठि में उपयुक्त न हो । २. अवैध । अन्यायपुर्ण [को०] ।
⋙ अधर्षणी
वि० पुं० [सं०] जिसको कोई दबा या ड़रा न सके । जिसको कोई पराजित न कर सके । प्रचंड़ । प्रबल । निर्भय ।
⋙ अधवा
संज्ञा स्त्री० [सं० अ+धव=पति] जिसका पति जिवित न हो । विधवा । पतिहीना । बीना पति कि स्त्री । सधवा का उलटा ।
⋙ अधवाना †
संज्ञा पुं० [हि० हिंदबाना] तरबुज ।
⋙ अधवारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पेड़ का नाम जिसकी लकड़ी मकान ओर असबाब बनाने के काम आती है ।
⋙ अधश्चर (१)
वि० [सं०] जो नीचे नीचे चले ।
⋙ अधश्चर (२)
संज्ञा पुं० सेंध लगाकर चोरी करनेवाला पुरुष । । सोंधिया चोर ।
⋙ अधसेरा
संज्ञा पुं० [सं० अर्ध+सेटक=सेर] एक बाट या तौल जो एक सेर की आधी होती है । दी पाव का मान ।
⋙ अधस्तन
वि० [सं०] १. नीचा । नीचे अवस्थित । २. पुर्ववर्ती । पहले का [को०] ।
⋙ अधस्तल
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीचे का कमरा । नीचे की कोठरी । २. नीचे के तह । तहखाना ।
⋙ अधस्स्वस्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] नीचे की ओर का वह स्थान या बिंदु जो पृथ्वी कर के किसी स्थान या बिंदु के ठीक नीचे हो । शीर्षबिंदु से ठोक बिपरित दिशा का बिंदु जो क्षितिज का दक्षिणी ध्रुव है ।
⋙ अधाँगा
संज्ञा पुं० [सं० अनीङ्ग] एक खाकी रंग की चिड़ीया जिसकी गरदन से ऊपर का सारा भाग लाल होता है ओर ड़ैर ड़ैने तथा पैर सुनहले होते है ।
⋙ अधाधुंध
क्रि० वि० [हि०] दे० 'अंधाधुंध' ।
⋙ अधाना
संज्ञा पुं० [सं० अर्ध] ख्याल (अस्थायी) का एक भेद । यह तिलबाड़ा ताल पर बजाया जाता है ।
⋙ अधान्यवाय
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान या उपनिवेश जिसमें धान न पैदा होता हो । विशेष—चाणक्य के अनुसार जलयुक्त उपनिवेश में भी वही उपनिवेश या प्रदेश उत्तम है जिसमें धान पैदा होता हो । परंतु यदि धान पैदा करनेवाला उपनिविश छोटा है ओर धान न पैदा करनेवाला उपनिवेश बहुत बड़ा हो । तो दुसरा ही ठीका है । पैदा करनेवाला उपनिवेश बहुत बड़ा हो ।, तो दुसरा ही ठीक है ।
⋙ अधामार्गव
संज्ञा पुं० [सं०] अपामार्ग [क०] ।
⋙ अधार पु
संज्ञा पुं० [सं० अधांर] दे० 'आधार' । उ०—तप अधार सब सुष्ठि भवानी—मानस, १ ।७३ ।
⋙ अधारणक
वि० [सं०] जो लाभप्रद न हो । [को०] ।
⋙ अधारिया
संज्ञा पुं० [सं० आधार] बैलगाड़ी में गड़ीवान के बैठने का बह स्थान जिसे मोढ़ा भी कहते है ।
⋙ अधारी (१)
पु संज्ञा स्त्री० [सं० आधार या आधारिका] १. आश्रय । सहारा ।आधार की चीज । २. काठ के ड़डे में लगा काठ का पीढ़ा जिमे साधु लोग सहारे रे लिये रखते है । उ०—ऊधोयोग सिखावन आए । शृंगी भस्म अधारी मुद्रा दै यदुनाथ पठाए ।— सुर (शब्द०) । ३. यात्रा का सामन रखने का झोला या थैला जिसे मुसफिर लोग कंधे पर रखकर चलते है । उ०— मेखल, सिधी,चक्र धंधारा । जोगवाट, रुदराक्ष अधारी ।— जायसी ग्रं०, पृ० ५३ ।
⋙ अधारी (२)
वि, स्त्री सहार देनेवाली । प्रिय सुख देनेवाली ।भली । उ०—की मोहि लै पिय कंठ लगावै । परम अधारी बात सुनावै । —जायसी (शब्द०) ।
⋙ अधारी (३)
संज्ञा पुं० [हि० आधा+ आरियसम्थ] बोनिकाला हुआ बैल ।
⋙ अधार्मिक
वि० [सं०] १. अधर्मी । धर्मशून्य । २. पापी । दुराचारी ।
⋙ अधावट पु
वि० पुं० [सं० अर्ध = आधा + आवृत्त, प्रा० अध + आयट्ट, आउठ्ठ] आधा औटा हुआ । जो औटाते या गरम करते करते गाढ़ा होकर नाप में आधा हो गया हो । उ०—कछु बलदाऊ को दीजै, अरु दुध अधावट पीजै ।—सुर० १० ।१८३ ।
⋙ अधिं
उप०[सं०] एक संस्कृत उपसर्ग । विशेष—यह शब्दों के पहले लगाया जाता है ओर इसके ये अर्थ होते है; —(१) ऊपर । ऊँचा । पर जैसे—अधिराज । अधिकारण । अधिवास । (२) प्रधान । मुख्य़ । जैसे० अधिपति । (६) अधिक । ज्य़ादा । जैसे, अधीमास । (४) संबंध में । जैसे, अध्यात्मिक । अधिदैविक । आधिभौतिक ।
⋙ अधिक (१)
वि० [सं०] [संज्ञा अधिकाता, अधिकाई. क्रि० अधिकाना] १. बहुत । ज्यादा । विशेष ।२. अतिरिक्त । सिवा । फालतु । बचा हुआ । शेष । जैसे—जो खाने पीने से आधिक हो उसे अच्छे काम में लगाओ (शब्द०) ।
⋙ अधिक (२)
संज्ञा पुं० १. वह अलंकार जिसमैं आधेय को आधार से अधिकवर्णन करते है । जैसे—तुम पुछत कहि मुद्रिके मौन होति यह नाम । कंकन की पदवी दई तुम बिनु या कहँ राम ।—राम चं० पृ० १०० । २. न्याय के अनुसार एक प्रकार का निग्रह स्थान जहाँ आवश्यकता से अधिक हेतु ओर उदाहरण का प्रयोग होता । है ।
⋙ अधिकई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अधिक+हि० ई (प्रत्य.)] दे० 'अधिकाई' । उ०—हितनी के लाह की, उछाह की, बिनोद मोद सोभा की अवधी नहि । अब अधिकई है ।—तुलसी ग्र० पृ० ३२० ।
⋙ अधिककोण
संज्ञा पुं० [सं० अधिक+कोण] वह कोण जो समकोण से बड़ा हो । (ज्यामिति) ।
⋙ अधिकत?
क्रि० वि० [सं०] अधिकतर । विशे ।षकर । उ०—अधिकत? बँधाता यह ध्यान था, व्रजविभुषण है शतश? बने । प्रिय०, पृ० ग१६३ ।
⋙ अधिकतम
वि० [सं०] परिमाण, माप, संख्या आदि में सबसे अधिक [को०] ।
⋙ अधिकतर (१)
वि० [सं०] किसी की तुलना में आगे बढ़ा हुआ । ओर ज्यादे [को०] ।
⋙ अधिकतर (२)
क्रि० वि० ज्यादातर । बहुत करके [को०] ।
⋙ अधिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधिकता । ज्यादती । बढ़ती । बुद्बि ।
⋙ अधिक तिथि
संज्ञा स्त्री० [ सं०] वह तिथि जो अपने समय के पश्चात् दुसरे दिन भी मानी जाय [को०] ।
⋙ अधिक दिन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अधिक तिथि' [को०] ।
⋙ अधिक दिवस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० अधिक तिर्थि ।
⋙ अधिक मास
संज्ञा पुं० [सं०] अधिक महीना । मलमास । लौद का महीना । पुरुषोत्तम मास । असंक्रातमाम । शुक्ल प्रतिप़दा से लेकर अमावस्य़ा पर्यत काल जिसमें संक्रांति न पड़े ।विशेष—यह प्रति तिसरे वर्ष आता है तथा चांद्र वर्ष ओर सौर वर्ष को बराबर करने के लिये चांद्र बर्ष में जोड़ लिया जाता है ।
⋙ अधिकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. आधार । आसरा । सहारा । २. व्याकरण में कर्तो और कर्म द्बारा क्रिया का आधार । सातवाँ कारक । इसकी विभक्तियाँ 'में ओर पर' है । ३. प्रकरण । शीषर्क । ४. दर्शन में आधार विषय़ । अधिष्ठान । जैसे—ज्ञान का अधिकरण आत्मा है (शब्द०) । ५. मीमांसा ओर वेदांत के अनुसार वह प्रकरण जिसमें किसी सिद्धात पर विवेचना की जाय ओर जिसमें ये पाँच अवश्य़ हो०— विषय संशय, पुर्वपक्ष, उत्तरपक्ष ओर निर्णय । ६. सामान । पदार्थ । ७. न्यायालय । ८. प्रधानता । प्रधान्य । ६. अधिकारप्रदान ।
⋙ अधिकरणभोजक
संज्ञा पुं० [सं०] न्यायाधीश [को०] ।
⋙ अधिकरणमंडप
संज्ञा पुं० [सं० अधिकरण मण्ड़प] न्यायालय । अदालत [को०] ।
⋙ अधिकरणविचाल
संज्ञा पुं० [सं०] व्यातिक्रम करते जाना । किसी वस्तु के गुण में ह्मास अथवा वृद्बि करते जाना [को०] ।
⋙ अधिकरण सिद्धात
संज्ञा पुं० [सं० अधिकरणतिद्बान्त] न्याय दर्शन में वह सिद्धात जिसके सिद्ध होने से कुछ अन्य सिद्धात या अर्थ भी स्वयं सिद्ध हो जायँ । विशेष—जैसे, आत्मा देह ओर इंद्रियों से भिन्न है; इस सिद्बांत के सिद्ध होने से इंद्रियों का अनेक होना, उनके बिषयों का नियत होना, उनका ज्ञाता के ज्ञान ता साधक होना, इत्यादि विषयों की सिद्धि स्वयं हो जाती है ।
⋙ अधिकरणिक
संज्ञा पुं० [सं० अधिकरणिक या अधिकारणिक] मुंसिफ । जज । फैसला करनेवाला । न्यायकर्ता ।
⋙ अधिकरणी
वि० [सं० अधिकरणिन्] १. अध्यक्ष । २. निरीक्षण करनेवाला [को०] ।
⋙ अधिकरण्य
संज्ञा पुं० [सं०] अधिकार [को०] ।
⋙ अधिकर्द्धि
वि० [सं० अधिक+ऋद्बि] ऐश्वर्यशाली [को०] ।
⋙ अधिकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. देखरेख । नीरीक्षण । २. श्रेष्ठ कर्म ३. निरिक्षक [को०] ।
⋙ अधिकर्मकर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० ' अधिकर्मकृत' [को०] ।
⋙ अधिकर्मकृत
संज्ञा पुं० [सं० अधिकर्मकृत] काम करनेवा लों का जमादार ।
⋙ अधिकर्मिक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल में व्यापारियों से चुंगी उगहनेवाला अधिकारी [को०] ।
⋙ अधिकर्मी
संज्ञा पुं० [सं० अधिकमिन्] मजदुरों आदि के कार्यो का निरीक्षण करनेवाला अधिकारी [को०] ।
⋙ अधिकवाक्योक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बढ़ा चढ़ाकर कहना । अतिरं- जना [को०] ।
⋙ अधिकसंवत्सर
संज्ञा पुं० [सं०] अधिक मास । मलमास [को०] ।
⋙ अधिकांग (१)
संज्ञा पुं०—[सं० अधिकाङ्ग] अधिक अंग । नियत संख्य़ा से विशेष अवयव ।
⋙ अधिकांग (२)
वि, जिसे कोई अवयव अधिक हो । जैसे —छांगुर ।
⋙ अधिकांश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अधिक भाग । ज्यादा हिस्सा । जैसे— लुट का अविकांश सरदार ने लिया (को०) ।
⋙ अधिकांश (२)
वि० बहुत ।
⋙ अधिकांश (३)
क्रि० वि० १. ज्यादातर । विशेषकर । बहुधा । २. अक- सर । प्राय?जैसे—अधिकांश ऐसा ही होता है (शब्द०) ।
⋙ अधिकाई पु
संज्ञा स्त्री [सं० अधिक+हि० आई (प्रत्य.)] १. ज्यादती । अधिकता । विपुलता । विशेषता । बहुतायत । बढ़ती । उ०—लहहि सकल, सोभा अधिकाई । मानस, १. । ११ । २. । बड़ाई । महिमा महत्व । उ०—उमा न कछु कपिकै अधिकाई । प्रभु प्रताप जो कलाहि खाई । —मानस, ५ ।३ ।
⋙ अधिकाधिक
वि० [सं०] ज्यादा से ज्यादा । अधिक से अधिक ।
⋙ अधिकाना पु
क्रि० अ० [सं० अधिक से नाम.] अधिका होना । ज्यादा होना । बढ़ाना । विशेष होना । बुद्बि पाना । उ०— सुक से मुनि सारद, से बकता चिरजीवन लोमस ते अधिकाने ।— तुलसी ग्रं० पु० २०७ ।
⋙ अधिकाभेदरुपक
संज्ञा पुं० [सं०] 'चंद्रलोक' के अनुसार रुपक अलंकार के तोन भेदों में से एक । विशेष—इसमें उपमान ओर अपमेय के बिच बहुत सी बातों में अभेद या समानता दिखालाकर पीछे से उपमेय में कुछ विशषता या अधिकता बतलाई जाती है । जैसे—'रहै सदा विकसित विमल, धरै वास मृदु मंजु । उपज्यो नहिं पुनि पंक ते प्यारी को मुख कंज । यहाँ सुख उपमेय ओर कमल उपमान के बीच सुवास आदि गुणों में समानता दिखाकर मुख के सर्वदा विकसित रहने ओर पंक से न उत्पन्न होने की विशेषता दिखाई गई है ।
⋙ अधिकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्यभार? प्रभुत्व । आधिपत्य । प्रधानता । जैसे—'इस कार्य का अधिकार उन्हीं के हाथ में सौपा गया है' (शब्द०) । क्रि० प्र०—चलाना । —जनाना । —देना । —सौंपना । २. स्वत्व । हक । अखितयार जैस—'यह पुछने का अधिकार तुम्हें नहीं है' (शब्द०) । क्रि० प्र०— देना । —रखना । ३. दावा कब्जा । प्राप्ति । जैसे—'सेना ने नगर पर अधिकार कर लीया' (शब्द०) । क्रि० प्र०— करना । —जमाना । ४. क्षमता? सामर्थ्य । शक्ति । ५. योग्यता । परिचय । जानापारी । ज्ञान । लियाकत । जैसे—(क) 'इस बिषय में उसे कुछ अधिकार नहीं है' (शब्द०) । ३. प्रकरण । शीर्षक । जैसे— वातरोगधिकार । ७. नाटय़शास्त्र के अनुसार रुपक के प्रधान फल का स्वामित्व या उसकी प्राप्ति की योग्यता । ८० कर्तव्य (को) । ९. निरीक्षण (को०) । १०.स्थान (को०) १. व्याकरण में एक मुख्य या प्रधान नियम जिससे उसके क्षेत्र में' । आनेवाले अन्य नियम भी शासित होते है । विशेष—यह अधिकार तीन प्रकार का होता है—(१)सिहा- वलेकित, (२) मंड़ुकप्लुत ओर (३) गंगाप्रवाह के सदृश ।
⋙ अधिकार (२)पु
वि० पुं० [सं० अधिक] अधिक । बहुत ।
⋙ अधिकारपात्र
वि० [सं०] अधिकार की पात्रता या योग्यता रखनेवाला [को०] ।
⋙ अधिकारविधि
संज्ञा स्त्री [सं०] मीमांसा में वह विधी या आज्ञा जिसमे यह बोध हो कि किस फल की कामनावाले को कौन सा यज्ञ या कर्म करना चाहीए अर्थात् कौन किस कर्म का अधिकारी है । जैसे,—स्वर्ग की कामना करनेवाला अग्निहोत्र यज्ञ करे, राजा राजसुय यज्ञ करे, इत्यादि ।
⋙ अधिकारस्थ
वि० [सं०] अधिकार संपन्न जिसमें अधिकार निहित हो [को०] ।
⋙ अधिकारा पु
वि० [सं० अधिक+आरा (प्रत्य०)] अत्यधिक । उ०— चढ़े त्रिपुर मारन कुँ सारे, हरिहर सहित देव अधिकारे ।—निश्चल । (शूब्द०) ।
⋙ अधिकारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० अधिकारिन्] [स्त्री० अधिकारिणी] १. प्रभु । स्वामी । मालिक । २. स्वत्वधारी । हकदार ३.योग्यता या क्षमता रखतेवाला ।उपयुक्त पात्र । जैसे—सब मनुष्य बेदांत के अधिकारी नहीं हैं (शब्द०) । ४.नाटय़शास्र' के अनुसार नाटक का वह पात्र जिससे रुपक का प्रधान फल प्राप्त होता है । ५. एक जातीय उपाधि (को०) ।
⋙ अधिकारी (२)
वि०— स्वत्व या क्षमता रखनेवाला [को०] ।
⋙ अधिकारी (३)
वि० स्त्री० [हि० अधिआर] अधिकता । बाहुल्य । उ०— (क) जेहि काँ आपन हितकर जान्यो दीन्हयों मुख अधिकारी ।—जग० बानी, भा, १, पृ० ३४ । (ख) तरकारी, यामें पानी की अधिकारी ।—घाघ० पृ० ८५ ।
⋙ अधिकारी (४)पु
संज्ञा स्त्री [हि०] जबर्दस्ती । उ०—त्यों पदमाकर मेलि मुठी इत पाइ अकेली करी अधिकारी ।—पद्माकर ग्रं० पृ० ३१९ ।
⋙ अधिकार्थ
संज्ञा पु० [सं०] कोई वाक्य या शब्द जिससे किसी पद के अर्थ में विशेषता आ जाय ।
⋙ अधिकार्थवचन
संज्ञा पु० [सं०] अत्युक्ति । अतिरंजना [को०] ।
⋙ अधिकी पु
वि० [सं० अधिक+हि, ई (प्रत्य.)] दे० 'अधिक' । उ०—अधिकी हमकों नाही चाहियत है ।—दो सौ बावन, भाग २, पृ० १०५ ।
⋙ अधिकृत (१)
वि० [सं०] १. अधिकार में आया हुआ । हाथ में आया हुआ । उपलब्ध । २. जिस पर अधिकार किया गया हो । उ०—ह्रदय हुआ अधिकृत तुससे, तुम जीते हम हारे ।—झरना, पृ० ९३ ।
⋙ अधिकृत (२)
संज्ञा पुं अधीकारी । अध्यक्ष । सैसे—महाबलाधिकृत में 'अधिकृत' ।
⋙ अधिकृति
संज्ञा स्त्री [सं०] अधिकार । स्वत्व [को०] ।
⋙ अधिकौहाँ पु
वि० [सं०आधिक+हि० औहाँ (प्रत्य०)] अधिकतम । अत्यधिक । उ०—जनु कलिदनदिने मनि—इंद्रनील—सिखर परसि धँसाति लसाति हंससेमि संकुल अधिकौहै ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४०६ ।
⋙ अधिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] आरोहण । चढ़ाव । चढ़ाई ।
⋙ अधिक्रमण
संज्ञा पुं [सं०] दे० 'अधीक्रम' [को०] ।
⋙ अधिक्षिप्त
वि० [पु०] १. फेका हुआ । २. निदित । तिरस्कृत । अपमानित । बुरा ठहराया हुआ ।
⋙ अधिक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. फेकना । २. तिरस्कार । निदा । अपमान । ३. तानाजनी । व्यंग्य ।
⋙ अधिगंतव्य
वि० [सं० अधिगन्तव्य] १. प्रापणीय । प्राप्तव्य । २. समझने योग्य । ज्ञेय [को०] ।
⋙ अधिगंता
वि० [सं० अधिगन्तृ] १. प्रापक । पानेवाला । २. समझनेवाला । अध्ययन करनेवाला [को०] ।
⋙ अधिगणन
संज्ञा पुं० [सं० ] १. अधिक गिनना । २. किसी चीज का अधिक दाम लगाना ।
⋙ अधिगत
वि० [सं० ] १. प्राप्त । पाया हुआ । २. जाना हुआ । ज्ञात । अवगत । समझा बूझा । पढ़ा हुआ ।
⋙ अधिगम
संज्ञा पुं० [सं० ] १. प्राप्ति । पहुँच । ज्ञान । गति । २. जैन दर्शन के अनुसार व्याख्यान आदि परोपकार द्वारा प्राप्त ज्ञान ३. ऐश्वर्य । बड़प्पन ।
⋙ अधिगमनीय
वि० [सं० ] दे० 'अधिगंतव्य' [को०] ।
⋙ अधिगम्य
वि० [सं० ] दे० 'अधिगमनीय' [को०] ।
⋙ अधिगव
वि० [सं० ] गाय में अथवा गाय से प्राप्त [को०] ।
⋙ अधिगुण (१)
वि० [सं० ] विशिष्ट गुण से भूषित । सुयोग्य [को०] ।
⋙ अधिगुण (२)
संज्ञा पुं० [सं० ] विशिष्ट गुण [को०] ।
⋙ अधिगुप्त
वि० [सं० ] रक्षित । रखा हुआ । छिपाया हुआ । दबा हुआ ।
⋙ अधिचरण
संज्ञा पुं० [सं० ] किसी के ऊपर चलना । अतिक्रमण करना [को०] ।
⋙ अधिच्छ पु
वि० [सं० अदृक्ष] दे० 'अदृश्य' । उ०— अच्छन के आगे ही अधिच्छ गाइयतु है । —पद्माकर ग्रं०, पृ० २६९ ।
⋙ अधिज
वि० [सं० ] १. जनमा हुआ । २. उच्च कुल में उत्पन्न [को०] ।
⋙ अधिजनन
संज्ञा पुं० [सं० ] जन्म [को०] ।
⋙ अधिजिह्व
संज्ञा पुं० [सं० ] १. एक से अधिक जीभवाला जीव । साँप आदि । २. जीभ में होनेवाली एक प्रकार की बीमारी [को०] ।
⋙ अधिजिह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. एक बीमारी जिसमें रक्त मिले हुए कफ के कारण जीभ के ऊपर सूजन हो जाती है । यह सूजन पक जाने पर असाध्य हो जाती है । २. गले का कौआ ।
⋙ अधिजिह्विका
संज्ञा स्त्री० [सं० ] दे० 'अधिजिह्वा' [को०] ।
⋙ अधिज्य
वि० [सं० ] जिसका डोरी खिंची हो । धनुष, जिसकी प्रत्यंचा या जिसका चिल्ला चढ़ा हो ।
⋙ अधिज्यकार्मुक
वि० [सं० ] जिसका धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई हो [को०] ।
⋙ अधिज्यधन्वा
वि० [सं० ] दे० 'अधिज्यकार्मुक' [को०] ।
⋙ अधित्यका
संज्ञा स्त्री० [सं० ] पहाड़ के ऊपर की समतल भूमि । ऊँचा पथरीला मैदान । टेबुल लैंड । 'उपत्यका' का उलटा । उ०— (क) हरी भरी घासन सों अधित्यका छबि छाई । —प्रेमघन०, भा० १, पृ० १३ । (ख) इसकी कैसी रम्य विशाल अधित्यका है जिसके समीप आश्रम ऋषिवर्य का । —कानन०, पृ० १०५ ।
⋙ अधिदंडनेता
संज्ञा पुं० [सं० अधिदण्डनेतृ] यमराज [को०] ।
⋙ अधिदंत
संज्ञा पुं० [सं० अधिदन्त] एक दाँत के ऊपर निकलनेवाला दाँत [को०] ।
⋙ अधिदार्व
वि० [सं० ] काष्ठ का । काठ से बना [को०] ।
⋙ अधिदिन
संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'अधिक तिथि' [को०] ।
⋙ अधिदीधित
वि० [सं० ] अत्यधिक प्रभा या कांतिवाला [को०] ।
⋙ अधिदेव (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] [स्त्री० अधिदेवी] इष्टदेव । कुलदेव ।
⋙ अधिदेव (२)
वि० देव संबंधी [को०] ।
⋙ अधिदैव
वि० [सं० ] दैविक । दवयोग से होनेवाला । आकस्मिक ।
⋙ अधिदैवत (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] वह प्रकरण या मंत्र जिसमें अग्नि, वायु, सूर्य, इत्यादि देवताओं के नामकीर्तन से इष्टदेव का अर्थप्रति- पादन होकर ब्रह्माविभूति अर्थात् सृष्टि के पदार्थ के गुण आदि की शिक्षा मिले । पदार्थविज्ञान संबंधी विषय या प्रकरण ।
⋙ अधिदैवत (२)
वि० देवता संबंधी ।
⋙ अधिदैविक
वि० [सं० ] १. अधिदेव संबंद्ध । अधिदैविक । २. आध्यात्मिक [को०] ।
⋙ अधिनाथ
संज्ञा पुं० [सं० ] १. सबका मालिक । सबका स्वामी । २. सरदार । अफसर । प्रधान अधिकारी ।
⋙ अधिनायक
संज्ञा पुं० [सं० ] [स्त्री० अधिनायिका] १. अफसर । सरदार मुखिया । २. मालिक । स्वामी । ३. किसी प्रदेश, देश, जाति या राष्ट्र का सर्वाधिकार सपंन्न शासक । तानाशाह । डिक्टटेर ।
⋙ अधिनायकतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० अधिनायक + तन्त्र] वह शासन व्यवस्था जिसके अनुसार किसी एक शासक को सारी शक्ति प्रदान कर दी जाय । तानाशाही । डिक्टेटरशिप ।
⋙ अधिनायकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अधिनायक + हिं० ई (प्रत्य.)] अधिनायक का पद या कार्य [को०] ।
⋙ अधिनायकी (२)
वि० अधिनायक संबंधी [को०] ।
⋙ अधिनियम
संज्ञा पुं० [सं० अधि + नियम] लोकसभा या सर्वोच्च शासक द्वारा पारित अथवा स्वीकृत विधि, नियम, कानून । ऐक्ट । जैसे, भारतीय शासक संबंधी सन् १९३५ ई० का अधियम । —भारतीय०, पृ० १ ।
⋙ अधिनियमन
संज्ञा पुं० [सं० अधि + नियमन] अधिनियम या विधान बनाने का कार्य [को०] ।
⋙ अधिप
संज्ञा पुं० [सं० ] मालिक । २. अफसर । सरदार । मुखिया । नायक । ३. राजा ।
⋙ अधिपति (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] [स्त्री० अधिपत्नी] १. सरदार । मालिक । अधीश । नायक । अफसर । स्वामी । मुखिया । हाकिम । २. राजा । ३. मस्तक का वह भाग जहाँ की चोट प्राणघातक होती है ।
⋙ अधिपति (२)
वि० बौद्ध दर्शन के अनुसार अधिपति चार प्रकार के होते हैं— (१) यज्ञाधिपति, (२) वित्ताधिपति, (३) वीर्याधिपति और (४) न्यायाधिपति ।
⋙ अधिपतिप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं० ] जैन दर्शन का अनुसार वह प्रत्यय या संयम जिसके अनुसार विषय को ग्रहण करने का नियम होता है ।
⋙ अधिपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. स्वामिनी । २. शासिका [को०] ।
⋙ अधिपांशुल
वि० [सं० ] धूलिधूसरित । धूल से भरा [को०] ।
⋙ अधिपुरुष
संज्ञा पुं० [सं० ] परमपुरुष । परमात्मा । ईश्वर [को०] ।
⋙ अधिप्रज
वि० [सं० ] बहुत अधिक संतान उत्पन्न करनेवाला [को०] ।
⋙ अधिबल
संज्ञा पुं० [सं० ] गर्भसंधि के तरह अंगों में से एक । वह धोखा जो किसी को वेश बदले हुए देखकर होता है (नाटयशास्त्र) ।
⋙ अधिबिन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं० अधिविन्ना] १. अध्यूढ़ । पहली पत्नी । प्रथम विवाह की स्त्री । वह स्त्री जिसके रहते उसका पति दूसरा विवाह कर ले ।
⋙ अधिभू
संज्ञा पुं० [सं० ] स्वामी । प्रधान व्यक्ति [को०] ।
⋙ अधिभूत (१)
वि० [सं० ] भूत संबंधी [को०] ।
⋙ अधिभूत (२)
संज्ञा पुं० [सं० ] १. ब्रहम । २. सृष्टि के समस्त पदार्थ [को०] ।
⋙ अधिभोजन
संज्ञा पुं० [सं० ] अति भोजन । बहुत अधिक खाना [को०] ।
⋙ अधिभौतिक पु
वि० हिं० दे० 'आधिभौतिक' । उ०—अधिभौतिक बाधा भई ते किंकर तोरे, बेगि बोलि बलि बरजिए करतूति कठोरे । —तुलसी ग्रं०, पृ० ४५७ ।
⋙ अधिमंथ
संज्ञा पुं० [सं० अधिमन्थ] अभिष्यंद रोग का एक अंश ।
⋙ अधिमंथन (१)
संज्ञा पुं० [सं० अधिमन्थन] अग्नि उत्पन्न करने के लिये अरणी की लकड़ियों को परस्पर रगड़ना [को०] ।
⋙ अधिमंथन (२)
वि० रगड़ से अग्नि उत्पन्न करने योग्य (लकड़ी) [को०] ।
⋙ अधिमंथित
वि० [सं० अधिमन्थित] अधिमंथ रोग से पीड़ित (को०) ।
⋙ अधिमांस
संज्ञा पुं० [सं० ] आँख के सफेद भाग में या मसूड़ों के पिछले भाग में होने वाला रोग विशेष [को०] ।
⋙ अधिमांसक
संज्ञा पुं० [सं० ] एक रोग । विशेष—कफ के विकार से नीचे की दाढ़ में विशेष पीड़ा और सूजन होकर मुँह से लार गिरती है ।
⋙ अधिमात्र
वि० [सं० ] परिणाम से अधिक । बहुत ज्यादा [को०] ।
⋙ अधिमास
संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'अधिक मास' ।
⋙ अधिमित्र
संज्ञा पुं० [सं० ] १. परस्पर मित्र । २. ज्योतिष में परस्पर मित्र ग्रहों के योग का नाम ।
⋙ अधिमुक्त
वि० [सं० ] विश्वासयुक्त [को०] ।
⋙ अधिमुक्तक
संज्ञा पुं० [सं० ] मधुमाधवी नाम का पौधा [को०] ।
⋙ अधिमुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० ] विश्वास [को०] ।
⋙ अधिमुक्तिक
संज्ञा पुं० [सं० ] बौद्धौं के अनुसार महाकाल [को०] ।
⋙ अधिमुक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं० ] मुक्ता । सीप । मोती का सीप [को०] ।
⋙ अधिमुह्य
संज्ञा [सं० ] चौंतीस पूर्वजन्मों में बुद्ध का एक नाम [को०] ।
⋙ अधियज्ञ (१)
वि० [सं० ] यज्ञ संबंधो । यज्ञ से संबंध रखनेवाला ।
⋙ अधियज्ञ (२)
संज्ञा पुं० प्रधान यज्ञ [को०] ।
⋙ अधिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अर्धिका] १. आधा हिस्सा । गाँव में आधी पट्टी की हिस्सेदारी । २. एक रीति जिसके अनुसार उपज का आधा मालिक को और आधा उसके संबंध में परिश्रम करने वाले को मिलता है । उ०—खेती करै अधिया, न बैल न बधिया । —घाघ, पृ० ८९ ।
⋙ अधिया (२)
संज्ञा पुं० [सं० अधिक] आधा हिस्सेदार । गाँव में आधो पट्टी का मालिक । अधियार ।
⋙ अधियान
संज्ञा पुं० [सं० ] जपनी । गोमुखी । एक थैली जिसमें हाथ डालकर माला जपते हैं २. छोटी माला । सुमिरनी ।
⋙ अधियाना
क्रि० स० [हिं० आधा से नाम.] आधा करना । दो बराबर हिस्सों में बाँटना ।
⋙ अधियार †
संज्ञा पुं० [हिं० अधिया + आर] (प्रत्य०)] १. किसी जायदाद में आधा हिस्सा । २. आधे का मालिक । वह जमींदार या आसामी जो किसी गाँव के हिस्से या जोत में आधे का हिस्सेदार हो । ३. वह जमींदार या आसामी जिसका आधा संबंध एक गाँव से और आधा दूसरे गाँव से हो और जो अपना समय दोनों गाँवों के काम में लगावे ।
⋙ अधियारिन पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अधियार + इन (प्र०)] १. सौत । सपत्नी । २. बराबर का दावा रखने और आधे हिस्से की हिस्सेदार स्त्री ।
⋙ अधियारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अधियार + ई (प्र०)] किसी जायदाद में आधी हिस्सेदारी । २. किसी जमींदार या असामी की जमींदारी या जोत का दो भिन्न भिन्न गाँवों में होना ।
⋙ अधियोग
संज्ञा पुं० [सं० ] यात्रा के लिये शुभ माना जानेवाला ग्रहों का एक योग [को०] ।
⋙ अधिरथ (१)
संज्ञा सं० [सं० ] सारयी । जो रय को हाँकनेवाला हो । गाड़ीवान ।
⋙ अधिरथ (२)
वि० १. रथारुढ़ । रथ पर चढ़ा हुआ । २. कर्ण को पालनेवाले सूत का नाम ३. बड़ा रथ । उत्तम रथ ।
⋙ अधिराज
संज्ञा पुं० [सं० ] राजा । बादशाह । महाराज । प्रधान राजा । चक्रवर्ती । सम्राट् ।
⋙ अधिराज्य
संज्ञा पुं० [सं० ] साम्राज्य । चक्रवर्ती राज्य ।
⋙ अधिरात पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] आधीरात । उ०— पिउ पिउ अधिरात पुकारतं । —पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १७० ।
⋙ अधिरूढ़
वि० [सं० ] १. आरूढ़ । चढ़ा हुआ । २. बढ़ा हुआ [को०] ।
⋙ अधिरोपण
संज्ञा पुं० [सं० ] ऊपर उठाने या चढ़ाने का कार्य [को०] ।
⋙ अधिरोह
संज्ञा पुं० [सं० ] १. हाथी पर चढ़ना । २. ऊपर चढ़ना । ३. सीढ़ी [को०] ।
⋙ अधिरोहण
संज्ञा पुं० [सं० ] चढ़ना । सवार होना । ऊपर उठना ।
⋙ अधिरोहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] सीढ़ी । निसेनी । जीना ।
⋙ अधिरोही
वि० [सं० ] अधिरोहण करनेवाला । ऊपर चढ़ने— वाला [को०] ।
⋙ अधिलोक (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] संसार । ब्रह्मांड ।
⋙ अधिलोक (२)
वि० ब्रह्मांड संबंधो ।
⋙ अधिवक्ता
संज्ञा पुं० [सं० अधिवक्तृ] १. न्यायालय में किसी पक्ष का समर्थन करनेवाला । वकील । २. वक्ता [को०] ।
⋙ अधिवचन
संज्ञा पुं० [सं० ] १. बढ़ाकर कही हुई बात २. नाम । संज्ञा ३. पक्ष का समर्थन ।
⋙ अधिवसित
वि० [सं० अधिवस + इत (प्रत्य.)] बसा हुआ । आबाद [को०] ।
⋙ अधिवाचन
संज्ञा पुं० [सं० ] नामजदगी । निर्वाचन । चुनाव ।
⋙ अधिवास
संज्ञा पुं० [सं० ] १. निवासस्थल । स्थान । रहने की जगह । २. महासुगंध । खुशबू । ३. विवाह से पहले तेल हलदी चढ़ाने की रीति । ४. उबटन । ५. अधिक ठहरना । अधिक देर तक रहना । ६. दूसरे के घर जाकर रहना । विशेष— मनु के अनुसार स्त्रियों के ६ दोषों में से एक । ७. यज्ञारंभ के पूर्व देवता का आवाहन (को०) । ८. हठ (को०) । ९. लबादा (को०) । १०. निवासी (को०) । ११. पड़ोसी [को०] । १२. ऊपर रहनेवाला [को०] ।
⋙ अधिवासन
संज्ञा पुं० [सं० ] [वि० —अधिवासित] १. सुगंधित करने कि क्रिया । २. देवता की मुर्ति को प्राणप्रतिष्ठा से पहले सुगंधित जल चंदन आदि से लिप्त कर रात भर किसी स्थान में वस्त्र से ढाँककर और जल में डुबकर रख छोड़ने की रीति ।
⋙ अधिवासभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं० ] बस्ती । वासस्थान [को०] ।
⋙ अधिवासित
वि० [सं० ] १. सुगंधित । वासयुक्त । २. सुसज्जित [को०] ।
⋙ अधिवासी
संज्ञा पुं० [सं० ] १. निवासी । रहनेवाला । २. उत्तरप्रदेश का वह कृषक जिसका नाम सरकारी कागजपत्रों में सन् १३५६फसली और१३५६फसली मे चढ गया हो ।
⋙ अधिविन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं० ] वह स्त्री जिसका पति उसके रहते दूसरा विवाह कर ले [को०] ।
⋙ अधिवीत
वि० [सं० ] लपटे हुआ । ढका हुआ [को०] ।
⋙ अधिवेत्तव्या
संज्ञा स्त्री० [सं० ] वह स्त्री जिसके विद्यमान रहते दूसरा विवाह कर लेना उचित हो [को०] ।
⋙ अधिवेत्ता
संज्ञा पुं० [सं० ] पहली स्त्री के रहते दूसरा विवाह करनेवाला व्यक्ति ।
⋙ अधिवेद (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] एक स्त्री के रहते दूसरा विवाह करनेवाला ।
⋙ अधिवेद (२)
वि० [सं० ] वेद से संबंधित [को०] ।
⋙ अधिवेदन
संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'अधिवेद (१) [को०] ।
⋙ अधिवेदनीया
संज्ञा स्त्री० [सं० ] दे० 'अधिवेत्तव्या' [को०] ।
⋙ अधिवेदवेद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० ] दे० 'अधिवेदनीया' [को०] ।
⋙ अधिवेशन
संज्ञा पुं० [सं० ] बैठक । संघ । सभा । जलसा ।
⋙ अधिशय
संज्ञा पुं० [सं० ] योग । जोड़ । मिलाई गई या दी हुई वस्तु [को०] ।
⋙ अधिशयन
संज्ञा पुं० [सं० ] किसी चीज पर लेटना । सोना [को०] ।
⋙ अधिशयित
वि० [सं० ] १. लेटा या सोया हुआ । २. लेटने या सोने के उपयोग में आनेवाला [को०] ।
⋙ अधिशस्त
वि० [सं० ] कुख्यातिप्राप्त । बदनाम [को०] ।
⋙ अधिश्रय
संज्ञा पुं० [सं० ] १. आधार । पात्र । २. उबालना । गरम करना [को०] ।
⋙ अधिश्रयण
संज्ञा पुं० [सं० ] १. आग पर चढ़ाना । आग पर रखना २. तंदूर । भाड़ । अँगीठी । चूल्हा ।
⋙ अधिश्रयणी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] सीढ़ी । निसेनी । नि?श्रेणी । जीना ।
⋙ अधिश्रित
वि० [सं० ] १. आग पर रखा हुआ । २. आबाद [को०] ।
⋙ अधिषवण
संज्ञा पुं० [सं० ] १. सोमरस निचोड़ने की क्रिया । २. सोमरस निचोड़ने का साधन [को०] ।
⋙ अधिष्ठाता
संज्ञा पुं० [सं० अधिष्ठानृ] [स्त्री० अधिष्ठात्री] १. अध्यक्ष । मुखिया । प्रधान नियंता । उ०—इस भूमि का एकमात्र अधिष्ठाता देवता 'प्रेम' है । —रस०, पृ० ८० । २. किसी कार्य का देखभाल करनेवाला । वह जिसके हाथ में किसी कार्य का भार हो । ३. प्रकृति को जड़ से चेतन अवस्था में लानेवाला पुरुष । ईश्वर ।
⋙ अधिष्ठात्री
संज्ञा स्त्री० [सं० ] अधिष्ठाता का स्त्रीलिंग रूप— उ०— प्रकृति अधिष्ठात्री है इसकी, कहीं विकृति का नाम नहीं ।—पंचवटी, पृ० १० ।
⋙ अधिष्ठान
संज्ञा पुं० [सं० ] १. वासस्थान । रहने का स्थान । २. नगर । शहर । जनपद । बस्ती । ३. स्थिति । कयाम । पड़ाव । मुकाम । टिकान । ४. आधार । सहारा । उ०— मंगलशक्ति के अधिष्ठान राम और कृष्ण जैसे पराक्रमशाली और धीर हैं वैसा ही उनका रूपमाधुर्य और उनका शील भी लोकोत्तर है । —रस, पृ० ६१ । ५. वह वस्तु जिसमें भ्रम का आरोप । विशेष— जैसे रज्जु में सर्प और शुक्ति में रजत । यहाँ रज्जु और शुक्ति दोनों अधिष्ठान हैं क्योंकि इन्हीं में सर्प और रजत का भ्रम होता है । ६. सांख्य में भोक्ता और भोग का संयोग । विशेष— जैसे, आत्मा का शरीर के साथ और इंद्रियों का विषय के साथ । ७. अधिकार । शासन । राजसत्ता । ८. गच जिसपर खंभा या पाया आदि बनाया जाय (वास्तु) ।
⋙ अधिष्ठानदेह
संज्ञा पुं० [सं० ] वह सूक्ष्म शरीर जिसमें मरण के उपरांत पितृलोक में आत्मा का निवास रहता है ।
⋙ अधिष्ठानशरीर
संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'अधिष्ठानदेह' ।
⋙ अधिष्ठित
वि० [सं० ] १. ठहरा हुआ । बसा हुआ । स्थापित । २. निर्वाचित । नियुक्त ।
⋙ अधिस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं० ] उच्च श्रेणी की स्त्री [को०] ।
⋙ अधीकार
संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'अधिकार' [को०] ।
⋙ अधीक्षक
संज्ञा पुं० [सं० अधि + ईक्षक] अधीनस्थ कर्मचारिचियों के कार्यों का निरीक्षण करनेवाला अधिकारी (को०) ।
⋙ अधीत
वि० पुं० [सं० ] पढ़ा हुआ । बाँचा हुआ । उ०—प्रथमहि ध्यान पदस्थ है, दुतिये चिंतु अधीत । त्रितिय ध्यान रूपस्थ पुनि, चतुर्थ रुपातीत । —सुंदर ग्रं, भा १. पृ० ५३ ।
⋙ अधीतविद्य
वि० [सं० ] जिसने वेदों का अध्ययन कर लिया हो या जिसका अध्ययन समाप्त हो गया हो [को०] ।
⋙ अधीति
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. अध्ययन ।२. स्मृति । ३. संग्रह [को०] ।
⋙ अधीती
वि० [सं० अधीतिन्] जिसने भली भाँती अध्ययन किया हो [को०] ।
⋙ अधीन (१)
वि० [सं० ] १. आश्रित । मातहत । वशीभूत । आज्ञाकारी । दबैल । बस का । काबू का । उ०—दम दुर्गम, दान दया मख कर्म सुधर्म अधीन सबै जन (धन) को । —तुलसी ग्रं०, पृ० २१९ । २. विवश । लाचार । दिन । उ०—हिंसा मद ममता रस भूलयौ आसाहीं लपटानौ । याही करत अधीन भयो है, निद्रा अति न अघानौ । —सूर०, १ । ४७ ।
⋙ अधीन (२)
संज्ञा पुं० दास । सेवक ।
⋙ अधीनता
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. परवशता । परतंत्रता । आज्ञाका- रिता । मातहती । २. लाचारी । बेबसी । दीनता । गरीबी ।
⋙ अधीनना पु
क्रि० अ० [सं० अधीन से नाम०] अधीन होना । वश में होना उ०—यह सुनि कंस खड्ग लै धायो तब देवै आधीनी हो । यह कन्या जो बकसु बंधु मोहिं दासी जनिकर दीन्हो हो । —सूर (शब्द०) ।
⋙ अधीनस्थ
वि० [सं० अधीन + स्थ] किसी के अधीन रहनेवाला [को०] ।
⋙ अधीमंथ
संज्ञा पुं० [सं० अधीमन्थ] दे० 'अधिमथ' [को० ] ।
⋙ अधीयान (१)
संज्ञा० पुं० [सं० ] १. विद्यार्थी । अध्ययन करनेवाला व्यक्ति । २. विद्यार्थी या अध्यापक रूप में वेदों का अध्ययन पूरा करनेवाला व्यक्ति [को० ] ।
⋙ अधीयान (२)
वि० पढ़नेवाला [को० ] ।
⋙ अधीर
वि० पुं० [सं० ] १. धैर्यरहित । घबराया हुआ । उद्विग्न । व्यग्र । बेचैन । व्याकुल । विह्वल । २. चंचल । अस्थिर । बेसब्र । उतावला । तेज । आतुर । ३. असंतोषी । यौ.—अधीराक्षी । अधीर विप्रेरक्षित ।
⋙ अधीरा (१)
वि० स्त्री० [सं० ] जो धीर न धरे ।
⋙ अधीरा (२)
संज्ञा स्त्री० १. मध्या और प्रौढ़ा नायिकाओं के तीन भेदों में से एक । वह नायिका जो नायक में नारीविलाससूचक चिह्न देखने से अधीर होकर प्रत्यक्ष कोप रहे । २. विद्युत् । बिजली ।
⋙ अधीवास
संज्ञा पुं० [सं० ] एक प्रकार का पहनावा जिससे सारा शरीर ढक जाय । लवादा [को० ] ।
⋙ अधीश
संज्ञा पुं० [सं० ] १. स्वामी । मालिक । सरदार । २. राजा ।
⋙ अधीश्वर
संज्ञा पुं० [सं० ] [स्त्री० अधीश्वरी] १. मालिक । स्वामी । पती । अध्यक्ष । २. अधिपति । भूपति । राजा ।
⋙ अधीष्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] १. किसी को सत्कारपूर्वक किसी कार्य में लगाना । नियोग ।
⋙ अधीष्ट (२)
वि० सत्कारपूर्वक नियोजित । आदर के साथ बुलाकर किसी काम में लगाया हुआ ।
⋙ अधीस पु
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'अधीश' । उ०—परम अधीस बस भूमि थल देखिये । —भिखारी० ग्रं० भा० २. पृ० १९९ ।
⋙ अधीसारक
संज्ञा पुं० [सं० ] वेश्याओं के पास बार बार जानेवाला व्यक्ति । चंद्रगुप्त के समय में इन्हें कठोर दंड दिया जाता था ।
⋙ अधुना
क्रि० वि० [सं० ] इस समय । संप्रति । आजकल । अब । इन दिनों ।
⋙ अधुनातन
वि० [सं० ] सांप्रतिक । वर्तमान समय का । अब का । हाल का । 'सनातन' का उलटा ।
⋙ अधुर
वि० [सं० ] भाररहित । २. चिंतामुक्त [को० ] ।
⋙ अधूत
वि० [सं० ] १. अकंपित । २. निर्भय । निडर । ढीठ । उचक्का । उ०—शंखचूड़ धनपति का दूता । लै भागा एक सखी अधता (शब्द०) ।
⋙ अधूमक (१)
वि० [सं० ] धूमरहित [को० ] ।
⋙ अधूमक (२)
संज्ञा पुं० [सं० ] जलती हुई आग जिसमें धुआँ न हो [को० ] ।
⋙ अधूरा
वि० पुं० [सं० अर्ध, हिं० अध + पूरा या उरा (प्रत्य०)] [स्त्री० अधूरी] अपूर्ण । जो पूरा न हो । अधा । असमाप्त अधकचरा । मुहा० —अधूरा जाना = असमय गर्भपात होना । कच्चा बच्चा होना । जैसे— उस स्त्री को अधूरा गया (शब्द०) ।
⋙ अधृत (१)
वि० [सं० ] १. धारण न किसी हुआ । २. अनियंत्रित [को] ।
⋙ अधृत (२)
संज्ञा पुं० [पुं० ] विष्णु के सहस्त्र नामों में से एक [को०] ।
⋙ अधृति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. धृति की विपरीतता । अधीरता । उद्वेग । दृढ़ता का अभाव । घबराहट । २. आतुरता । असंयम । ४. दु?ख ।
⋙ अधृति (२)
वि० [सं० ] अस्थिर [को० ] ।
⋙ अधृष्ट
वि० [सं० ] १. जो ढीठ न हो । २. विनम्र । लज्जाशील । ३. अजेय । ४. क्षतिरहित [को० ] ।
⋙ अधृष्य
वि० [सं० ] १. अजेय । २. सलज्ज । गर्वयुक्त [को०] ।
⋙ अधेंगा †
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'अधाँग' ।
⋙ अधेड़
वि० [सं० अर्ध; हिं० अध + ऐड़ (प्रत्य०)] वि० आधी उम्र का । उतरती अवस्था का । ढलती जवानी का । बुढ़ापे और जवानी के बीच का ।
⋙ अधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं० ] दूध न देनेवाली गाय । ठाँठ गाय [को० ] ।
⋙ अधेला
संज्ञा पुं० [हिं० आधां + एला (प्रत्य०)] आधा पैसा । एक छोटा ताँबे का सिक्का जो सन् १९५९ तक चलता था । जो पैसे का आधा होता है ।
⋙ अधेलिका †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'अँधियार' ।
⋙ अधेला
संज्ञा स्त्री० [हिं० आधा + एली (प्र०)] आधा रुपया । आठ आने का सिक्का । अठन्नी । विशेष— चाँदी या निकल का सिक्का जो आधे रुपए के ब्रराबर था और सन् १९५९ तक चलता था ।
⋙ अधैर्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] १. धैर्य का अभाव । घबड़ाहट । व्याकुलता । उद्विग्नता । चंचलता । उतावलापन ।
⋙ अधैर्य (२)
वि० १. धैर्यररहित । व्याकुल । उद्विग्न । चंचल । २. उतावला । आतुर ।
⋙ अधैर्यवान
वि० [सं० अधैर्यवान्] १. धैर्यरहित । व्यग्र । उद्विग्न । घबड़ानेवाला । २. आतुर । उतावला ।
⋙ अधोंशुक
संज्ञा पुं० [सं० अधस् = अंशुक] १. नीचे पहनने का वस्त्र । जैसे पायजामा, धोती इत्यादी । २. अस्तर ।
⋙ अधो
अव्य० [सं० अधस् का समासरुप] दे० 'अध?' । जैसे, अधोमुख अधोगती आदि में 'अधो' ।
⋙ अधोक्षज
संज्ञा पुं० [सं० ] विष्णु का एक नाम । कृष्ण का एक नाम ।
⋙ अधोगति
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. पतन । गिराव । उतार । उ०— मूलन ही की जहाँ अधोगति गाइया । —रामचं०, पृ० ८ । २. अवनति । दुर्गति । दुर्दशा ।
⋙ अधोगमन
संज्ञा पुं० [सं० ] १. नीचे जाना । २. अवनति । पतन । दुर्दशा ।
⋙ अधोगामी
वि० [सं० अधोगामिन्] [स्त्री० अधोगामिनी] १. नीचे जानेवाला । २. अवनति की ओर जानेवाला । बुरी दशा को पहुँचेवाला ।
⋙ अधोघंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० अधोवण्टा] चिवड़ा । अपामार्ग ।
⋙ अधोछज पु
संज्ञा पुं० [सं० अधोक्षज] दे० 'अधोक्षज । उ०—इंद्री दृष्टि विकार तें रहित अधोछज जोति । —नंद०, ग्रं० पृ० १७८ ।
⋙ अधोजिह्विका
संज्ञा स्त्री० [सं० ] गले का कौआ [को० ] ।
⋙ अधोटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का बाजा । उ०—बाजत ताल दंग अधौटी बिच मुरली धुनि थोरी । —छी०, पृ० २६ ।
⋙ अधोतर
संज्ञा पुं० [देश० ] एक देशी कपड़ा जो गज्जी गाढ़े से भी मोटा होता है । उ०—सिरी साफ बाफता अधोतर मेख कहि्ये । —सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ७५ ।
⋙ अधोदिशि
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. दक्षिण दिशा । २. अधोविंदु [को०] ।
⋙ अधोदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० ] नीची दृष्टि । केवल नीचे की ओर देखना । उ०—सबै अंग लै अंग ही में दुरायो । अधोदृष्टि कै अश्रुधारा बहायो । —रामचं०, पृ० ९६ ।
⋙ अधोदेश
संज्ञा पुं० [ सं० ] १. नीचे का स्थान । नीचे की जगह । २. शरीर के नीचे का भाग या हिस्सा ।
⋙ अधोद्वार
संज्ञा पुं० [सं० ] गुदा [को० ] ।
⋙ अधोनिलय
संज्ञा पुं० [सं० ] नरक [को० ] ।
⋙ अधोभुवन
संज्ञा पुं० [सं० ] पाताल । नीचे का लोक ।
⋙ अधोभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं० ] पर्वत के नीचे की जमीन । नीची भूमि । [को० ] ।
⋙ अधोमंडल
संज्ञा पुं० [सं० अधोमण्डल] भूमि से साढ़े सात मील तक का ऊँचा वायुमंडल [को० ] ।
⋙ अधोमर्म
संज्ञा पुं० [सं० ] गृह्यद्वार [को० ] ।
⋙ अधोमार्ग
संज्ञा पुं० [सं० ] १. नीचे का रास्ता । सुरंग का मार्ग । २. गुदा ।
⋙ अधोमुख (१)
वि० [सं० ] नीचे मुख किए हुए । मुँह लटकाए हुए । २. औंधा । उलटा ।
⋙ अधोमुख (२)
क्रि० वि० औंधा । उलटा । मुँह के बल । जैसे— वह अधोमुख गिरा (शब्द०) । उ०—गरभ बास दस मास अधोमुख, तहँ न भयो विस्त्राम । सूर०, १ । ४७ ।
⋙ अधोमुखा
संज्ञा स्त्री० [सं० ] गोजिह्वा [को० ] ।
⋙ अधोमूल
वि० [सं० ] जिसकी जड़ नीचे हो [को० ] ।
⋙ अधोयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० अधोयन्त्र] भभका [को० ] ।
⋙ अधोरध पु
क्रि० वि० [हिं० ] दे० 'अधोर्ध' । उ०—दिशि पूरब पच्छिम दाहिने बाएँ अधोरध संकन मेली फिरै । —सेवक (शब्द०) ।
⋙ अधोर्ध
क्रि० वि० [सं० अध? + ऊर्ध्व] नीचे ऊपर । तले ऊपर ।
⋙ अधोलंब
संज्ञा पुं० [सं० अधोलम्ब] १. वह खड़ी रेखा जो किसी दूसरी सीधी आड़ी रेखा पर इस प्रकार आकार गिरे कि पार्श्व के दोनों कोण समकोण हों । लंब । २. साहुल । सूत में बँधा हुआ लोहे या पत्थर का वह गोला या घंटे के आकार का लट्टू जिसे मकान बनानेवाले कारीगर पर्दे की सीध लेने के लिये काम में लाते हैं । विशेष— इस लट्टू को दीवार के सिरे से नीचे की ओर लटकाते हैं और इस सूत और दीवाल के अंतर का मिलान करते हैं । यह यंत्र जल की गहराई नापने के भी काम आता है ।
⋙ अधोलिखित
वि० [सं० अधस् + लिखित] नीचे लिखा हुआ । उ०— अधोलिखित काव्य महाकाव्य की कोटी में पूर्ण नहीं ठहरते ।— बीसल० रास०, पृ० ४५ ।
⋙ अधोलोक
संज्ञा पुं० [सं० ] नीचे का लोक । पाताल ।
⋙ अधोवदन
वि० [सं० ] दे० 'अधोमुख' [को० ] ।
⋙ अधोवस्त्र
संज्ञा पुं० [सं० ] शरीर के नीचेवाले भाग में पहना जानेवाला वस्त्र [को० ] ।
⋙ अधोवस्था
संज्ञा स्त्री० [सं० ] दे० 'अधोगती' । उ०—यह दो सूत्र हमारी संस्कृति के मूल तत्व हैं और इस अधोवस्था में भी हम उन्हें अपनाए हुए हैं । —प्रेम० और गोंर्की पृ० १५१ ।
⋙ अधोवातावरोधोदावर्त
संज्ञा पुं० [सं० ] रोगविशेष । अधोवायु के वेग को रोकने से उत्पन्न उदावर्त रोग । विशेष— इस रोग के ये लक्षण हैं—मल मूत्र का रुक जाना, अफरा चढ़ना, गुदा, मूत्राशय, लिंगेंद्रिय में पीड़ तथा बादी से पेट में अन्य रोगों का होना ।
⋙ अधोवायु
संज्ञा पुं० [सं० ] अपना वायु । गुदा की वायु । पाद । गोज । नीचे का हवा ।
⋙ अधोविंदु
संज्ञा पुं० [सं० अधोविन्दु] पैर के ठीक नीचे माना जाने वाला विंदु [को० ] ।
⋙ अधोही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० आधा + ओही (प्रत्य.)] जानवरों की खाल का वह आधा भाग जो जानवर की लाश ढोनेवालों को मिलता है [को० ] ।
⋙ अधौड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अध + औड़ी (प्र०)] १. आधा चरसा । चरसे या पूरे चमड़े का सिझाया हुआ आधा टुकड़ा । विशेष— सिझाने के लिये चमड़े के टुकड़े करने की आवश्यकता होती है इसी से एक एक टुकड़ा अधौड़ी कहलाता है । २. मोटा चमड़ा । 'नरी' का उलटा जो प्राय? बकरी आदि के पतले चकड़े के होता है । यौ.—अधौड़ी अस्तर = (१) जूते के तले के ऊपर का मोटा चमड़ा जिसपर नरी न हो । (२) वह जूता जिसपर केवल अधौड़ी का मोटा स्तर हो । ऊपर से नरी का लाल चमड़ा न हो । ३. आमाशय । पक्वाशय । उ०—अरी अधौड़ी भावठी, बैठा पेट फुलाइ । दादू सूफर स्वान ज्यों ज्यों आवै त्यों खाइ । — दादू०, पृ० २६ । मुहा०—अधौड़ी तनना = अघाना । खूब पेट भर जाना । जैसे— आज तो निमंत्रण था खूब अधौड़ी तनी होगी । अधौड़ी तानना = खूब पेट भरकर खाना ।
⋙ अधौत पु
बि० [हिं० आधा + ऊत] आधा भाग या अंश [को० ] ।
⋙ अधौरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश० ] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष । बकली । धौरा । शेन । विशेष— हिमालय की तराई में जम्मू से आसपास तक और दक्षिण भारत तथा वर्मा के जंगलों में पाया जाता है । इसकी छाल चिकनी तथा खाकी रंग की होती हैं । छाल और पत्तियाँ चमड़ा सिझाने के काम आती हैं । लकड़ी से हल तथा नावें बनती हैं । इसकी लकड़ी का कोयल भी अच्छा होता है । यह चैत से जेठ तक फूलता और वर्षा ऋतु में फलता है । फल बहुत समय तक वृक्ष पर रहते हैं । इसकी छाल से एक प्रकार का मीठा और खाने योग्य गोंद निकलता है ।
⋙ अधौरी (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'अधौरी' । उ०—बाजत ताल मृदंग अधौरी, कूजत बेनु रसाल । —नंद० ग्रं०, पृ० । ९६ ।
⋙ अध्मान
संज्ञा पुं० [सं० ] रोगविशेष । पेट का अफरा । विशेष—इस रोग में पेट अधिक फूल जाता है, दर्द होती है, अधोवायु का छूटना बंद हो जाता है ।
⋙ अध्यंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० अध्यण्डा] दे० अजशृंगी और भूमि आम्लकी नामक पौधे (को०) ।
⋙ अध्यांडा
संज्ञा स्त्री० [सं० अध्याण्डा] दे० 'अध्यंडा' [को० ] ।
⋙ अध्यक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वामी । मालिक । २. अफसर नायक । सरदार । प्रधान । मुखिया । ३. मुख्य अधिकारी । अधिष्ठता । ४. सफेद मदार । श्वेतार्क । ५. क्षीरिका । खिरनी ।
⋙ अध्यक्ष (२)
वि० १. गोचर । दृश्य ।२. निरीक्षण करनेवाला [को०] ।
⋙ अध्यक्षर (१)
क्रि० वि० [सं०] अक्षरश? । अक्षर अक्षर । जैसे -यह बात अघ्यक्षर सत्य है (शब्द०) ।
⋙ अध्यक्षर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ओम् मंत्र या शब्द [को०] ।
⋙ अध्यक्षीय
वि० [सं०] अध्यक्ष से संबंधित । अध्यक्ष का [को०] ।
⋙ अध्यग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का स्त्रीधन । यौतुक या दायज । विशेष—यह अग्नि को साक्षी कर कन्या को विवाह के समय मायकेवालों की ओर से दिया दाता है ।
⋙ अध्यच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० अध्यक्ष] दे० ' अध्यक्ष' ।
⋙ अध्ययन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पठत पाठन । पढ़ाई । २. ब्राह्माणों के षट्कर्मो में से एक कर्म ।
⋙ अध्ययनीय
वि० [सं०] अध्ययन के योग्य । पठनीय । [को०] ।
⋙ अध्यर्घ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वायु जो सबको धारण करनेवाली और बढ़ानेवाली है और सारे संसार में व्याप्त है ।
⋙ अध्यर्ध (२)
वि० [सं०] एक प्रौर उसका आधा । ड़ेढ़ ।
⋙ अध्यर्बुद
संज्ञा पुं० [सं०] रोगविशेष । विशेष—जिस स्थान पर एक बार अर्बुद रोग हुआ हो उसी स्थान पर यदि फिर अर्जुद हो तो उसे अध्यर्बुद कहते है ।
⋙ अध्यवसान
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रयन्त । २. दृढ़ता । ३. आध्य- वसाय । ४. प्रकृति अप्रकृति की ऐसी अभिन्नता जिसमें एक दुसरे में पुर्णतया समाहित हो [को०] ।
⋙ अध्यवसाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. लगातार उद्योग । अविश्रांत परी- श्रम । निसीम उद्यम । दृढ़ता पूर्वक किसी काम में लगा रहना । २. उत्साह । ३. निश्चय । प्रतीति ।
⋙ अध्यवसायित
वि० [सं०] जिसके लिय प्रयास किया गया हो [को०] ।
⋙ अध्यवसायी
वि० [सं० अध्यवसायिन्] १. लगातार उद्योग करने वाला । परिश्रमी । उद्योगी । उद्यमी । २. उत्साही । उध्यवसायित—जिसने संकल्पपूर्वक किसी कार्य के लिये प्रयत्न किया हो [को०] ।
⋙ अध्यवसिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अध्यवसाय०' [को०] ।
⋙ अध्यशन
संज्ञा पुं० [सं०] अधिक मात्रा में भोजन करना । अजीर्ण । अनपच ।
⋙ अध्यस्त
वि० [सं०] जिसका भ्रम किसी अधिष्ठान में हो । विशेष—जैसे—रज्जु में सर्प, शुक्ति में रजत ओर स्थाणु में पुरुष का भ्रम । यहाँ सर्प, रजत और पुरुष अध्यस्त है और रज्जु आदि अधिष्ठोनों में इनका भ्रम होता है ।
⋙ अध्यस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] अस्यि के ऊपर का भाग [को०] ।
⋙ अध्यस्थि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अस्थि के ऊपर निकनेवाली दूसरी अस्थि । हड़ड़ी के ऊपर की हड़ड़ी [को०] ।
⋙ अध्याइ पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अध्याय' । उ०—प्रब सुनि लै द्बितीय अध्याइ । जामैं ब्रह्मदिक सब आइ । —नंद० ग्रं० पृ०, २२९ ।
⋙ अध्यात्म पु
संज्ञा पुं० दे०
⋙ अध्यात्म (१)
संज्ञा पुं० [सं०]१. ब्रह्माविचार । ज्ञान तत्व । अत्मजान । २. परमात्मा । ३. आत्मा ।
⋙ अध्यात्म (२)
वि० आत्मा से संबद्ब [को०] ।
⋙ अध्यात्मज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मा तथा परमात्मा से संबंध रखने- बाला ज्ञान [को०] ।
⋙ अध्यात्मदर्शो
वि० [सं० अध्यात्मदर्शिन्] आत्मा और परमात्मा का ज्ञान रखनेवाला [को०] ।
⋙ अध्यात्मयोग
संज्ञा पुं० [सं०] मन को अन्य विषयों की और से हटाकर परमात्मा की ओर केंद्रित करना [को०] ।
⋙ अध्यात्मरति
वि० [सं०] परमात्मा के प्रति अनुरत्क रहनेवाला [को०] ।
⋙ अध्यात्मा
संज्ञा पुं० [सं० अध्यात्मन्] परमात्मा । ईश्वर ।
⋙ अध्यात्मिक पु
वि० [हि०] दे० 'आध्यात्मिक' ।
⋙ अध्यापक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अध्यापिका] शिक्षक । गुरु । पढानेवाला । उस्ताद ।
⋙ अध्यापकी
संज्ञा स्त्री० [सं० अध्यापक+हि० ई (प्रत्य०)] पढ़ाई । पढ़ाने का काम । मुदार्रिसी ।
⋙ अध्यापन
संज्ञा पुं० [सं०] शिक्षण । पढ़ाने का कार्य़ ।
⋙ अध्यापयिता
संज्ञा पुं० [सं० अध्यापयितृ] शिक्षक । अध्यापक [को०] ।
⋙ अध्यापिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पढ़ानेवाली । शिक्षिका [को०] ।
⋙ अध्याय
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रंथविभाग । २. पाठ । सर्ग । परिच्छेद ।
⋙ अध्यायी (१)
वि० [सं० अध्यायिन्] अध्ययन में लगा हुआ [को०] ।
⋙ अध्यायी (२)
संज्ञा पुं० विद्यार्थी [को०] ।
⋙ अध्यारुढ
वि०— [सं, अध्यारुढ] १. आरुढ़ा चढा हुआ । सवार । २. आक्रांत ।३. अत्यधिक । ४. किसी की तुलना में उससे श्रेष्ठ । ५. नीचे या निम्नतर [को०] ।
⋙ अध्यारोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक के व्यापार का दूपरें में लगाना । अपवाद । दोष । अध्यास । २. झूठी कल्पना । वेदांत के अनुसार अन्य में अन्य वस्तु का आभाव या भ्रम; जैसे ब्रह्मा में जो सच्चिदानंद अनंत अद्बितिय है, अज्ञानादि सकल जड़ समूह का आरोपण । ३. सांख्य के अनुसार एक के व्यापार को प्रन्य में लगाना । जैसे, प्रकृति ते व्यापार को ब्रह्मा में आरोपित कर उसकी जगत् का कर्ता मानना, या इंद्रियों की क्रियाओ को आत्मा में लगना ओर उसकी उनका कर्ता मानना ।
⋙ अघ्यारोपण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अध्यारीप' [को०] ।
⋙ अध्यारोपित
वि० [सं०] अध्यारोपण किया हुआ । भ्रमवशा आरोपित [को०] ।
⋙ अध्याबाहनिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह द्रुव्य जो कन्या को पिता के घर से पति के धर जाते समय मिलता है । यह स्त्रीधन समझा जाता है ।
⋙ अध्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. अध्यारोव । भ्रांत ज्ञान । मिथ्या ज्ञान । कल्पना । और वस्तु में और वस्तु की धारण ।
⋙ अध्यासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपवेशन । बैठना । २. आरोपण । ३. स्थान ।
⋙ अध्याहरणा
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अध्याहार' [को०] ।
⋙ अध्याहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. तर्क वितर्क । उहापोह । विचिकिस्ता । विचार । बहस । २. वाक्य को पुरा करने के लिये उसमें और कुछ शब्द ऊपर से जोड़ना । उ०—प्रसंगानुकुल आक्षोप अथवा अध्याहार करके ही अर्थबोध होता । है । —शैली० पृ० ७३ । ३. अस्पष्ठ वाक्य को दुसरे शब्दों में स्पष्ठ करने की क्रिया ।
⋙ अध्याहृत
वि० [सं०] अध्याहार किया हूआ [को०] ।
⋙ अध्युषित
वि० [सं०] बसा हुआ । आबाद [को०] ।
⋙ अध्युष्ट
वि० पुं० [सं०] १. बसा हुआ । आबाद । २. साढ़े तिन । तीन और आधा (को०) । ३.साढ़े तीन वलय की सर्प की कुंड़ली [को०] ।
⋙ अध्युष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँटगाड़ी [को०] ।
⋙ अध्यूढ़ (१)
वि० [सं० अध्युढ़] १. उच्च । उन्नत ।२. समृद्ब । ३.अत्य- धिका [को०] ।
⋙ अध्यूढ़ (२)
संज्ञा पुं० १. शिव । २. किसी स्पीका वह पुत्र जो विवाह के पुर्व उत्पन्न हुआ हो [को०] ।
⋙ अध्यूढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० अध्यूढा] प्रथम विवाहित स्त्री । वह स्त्री जिसके रहते पति दूसरा विवाह कर ले । ज्येष्ठा पत्नी
⋙ अध्यूहन
संज्ञा पुं० [सं०] परत ड़ालना (राख आदि की) [को०] ।
⋙ अध्येंन पु
संज्ञा पुं० [सं० अध्ययन] दे० 'अध्ययन' । उ०—दस पंच दिन्न अध्येंन कीन्ह । दस च्यारी सार सब सीख लीन । —पृ० रा०, १ ।७३१ ।
⋙ अध्येतव्य
वि० पुं० [सं०] पढ़ने योग्य । अध्ययन करने योग्य ।
⋙ अध्येता
संज्ञा पुं० [सं० अध्येतृ] पढ़नेवाला । विद्यार्थी ।
⋙ अध्येय
वि० [सं०] पढ़ने योग्य । अध्ययन करने योग्य ।
⋙ अध्येषण
संज्ञा पुं० [सं०] आदर के साथ किसी कार्य़ में प्रवृत करना [को०] ।
⋙ अध्येषण
संज्ञा स्त्री० [सं०] याचना । माँगना । मंगनपन । निवेदन ।
⋙ अध्रि
वि० [सं०] किसी का नियंत्रण न माननेवाला । जिसे वश में न किया जा सके [को०] ।
⋙ अध्रियमाण
वि० [सं०] १. जो पकड़ा न जा सके । २ मृत [को०] ।
⋙ अध्रियामणी पु
संज्ञा स्त्री० [ड़ि०] कटार । कटारी ।
⋙ अध्रुव (१)
वि० पुं० [सं०] १. चल । चंचल । चलायमान । ड़ाबाँड़ोल । अस्थिर । २. अनित्य । अनिशिचत । बेठौर ठिकाने का ।
⋙ अध्रुव (२)
संज्ञा पुं० अनिश्चय [को०] ।
⋙ अध्रुव (३)
संज्ञा पुं० [सं०] गले का रोगविशेष [को०] ।
⋙ अध्व
संज्ञा पुं० [सं० अध्वन्] रास्ता । मार्ग । पथ । २. यात्रा । ३. दुरी । ४. काल । ५. साधन । ६. वेद की शाखा । ७. आक्रमण । ८. स्थान । ९. आकाश । १०. वायु । [को०] ।
⋙ अध्वंग
संज्ञा पुं० [सं०] १. बटोही । पथिक । यात्री । मुसाफिर । २. ऊँट ।३. खच्चर ।४. सूर्य । [को०] ।
⋙ अध्वगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा [को०] ।
⋙ अध्वगामी
वि० [सं० अध्वहामिन] यात्रा करनेवाला [को०] ।
⋙ अध्वनिवेश
संज्ञा पुं० [सं०] पड़ाव ।
⋙ अध्वनीन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] यात्री । मुसाफीर [को०] ।
⋙ अध्वनीन (२)
वि० यात्रा करने योग्य । २. यात्रा में तेज चलनेवाला [को०] ।
⋙ अध्वन्य
संज्ञा पुं० वि० [सं०] दे० 'अध्वनीन' ।
⋙ अध्वपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. मार्ग का निरीक्षण करनेवाला अधिकारी [को०] ।
⋙ अध्वर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ । सोमयज्ञ । २. आकाश । ३. वायु [को०] ।
⋙ अध्वर (२)
वि० १.सरला २. सावधान । ३. अबाध । ४. पुष्ठ [को०] ।
⋙ अध्वरकल्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] काम्योष्ठि यज्ञ [को०] ।
⋙ अध्वरकांड
संज्ञा पुं० [सं० अध्वरकाणड] शतपथ ब्राह्मण का एक भाग [को०] ।
⋙ अध्वरग
वि० [सं०] यज्ञ के उपयोग में आनेवाला [को०] ।
⋙ अध्वरथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. यात्रा के उपयुक्त गाड़ी । २. यात्रा में कुशल दूत [को०] ।
⋙ अध्वर्यु
संज्ञा पुं० [सं०] चार ऋत्विजों या यज्ञ करानेवालों में से एक । यज्ञ में यजुर्वद का मंत्र पढ़नेवाला ब्राह्मण । उ०— करोड़ों बलोन्मत्त नृशंसों के मरण यज्ञ में वे हँसनेवाले अध्वर्यु थे ।—कंकाल, पृ० १५९ ।
⋙ अध्वर्य़ुवेद
संज्ञा पुं० [सं०] यजुर्वेद [को०] ।
⋙ अध्वशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] अपामार्ग । चिचड़ा ।
⋙ अध्वशोषि
संज्ञा पुं० [सं०] रोगविशेष । रास्ता चलने से उत्पन्न यक्ष्मा रोग ।
⋙ अध्वांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० अध्वान्त] १. हलका अँधेरा । २. छापा [को०] ।
⋙ अध्वत (२)
संज्ञा पुं० [सं० अध्व+अन्त] यात्रा या मार्ग का अंत [को०] ।
⋙ अध्वाति
संज्ञा पुं० [सं०] १. पथिक । यात्री । २. कुशल व्याक्ति [को०] ।
⋙ अध्वाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] मार्ग का निरिक्षक [को०] ।
⋙ अध्वायन
संज्ञा पुं० [सं०] यात्रा । सफर [को०] ।
⋙ अध्वेश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० "अध्वाधिप' [को०] ।
⋙ अन्
अव्य० [सं०] संस्कृत व्याकरण में यह निषेधार्थक ' नञ्' अव्यय का स्थानादेश है और अभाव या निषेध सुचित करने के लिय़े स्वर से आरंभ होनेवाले शब्दों के पहले लगाया जाता है । जैसे—अनंकुश अनंत, अनधिकार, अनीश्वर आदि । हिंदी में यह अव्यय या उपसर्ग सस्वर होता है और व्यंजन तथा स्वर से आरंभ होनेवाले शब्दों के पहले भी लगाया जाता है । जैसे, अनबन, अनरीति, अनहोनी, अनअहिवात, अनऋतु आदि ।
⋙ अनंकुश
वि० [सं० अनङ्कृश] १. अंकुश या नियंत्रण से बाहर । अशासित । जो वश में न हो । २. अंकुश न माननेवाला । छूढ लेनेवाला (जैसे, कवि) [को०] ।
⋙ अनंग (१)
वि० [सं० अनङ्ग] १. बिना शरीर का । देहरहित । उ०— (क) अंगी अनंग की मूढ़ अमूढ़ उदास अमीत की मीत सही को । सो अथवै कबहुँ जनि केशव जाके उदात उदै सबाही को ।—केशव (शब्द०) । (ख) मुझको प्यारी के पास पहुँचने के लिये अनंग, अर्थात् शरीरविहीन क्यों नहीं बना देते ।— प्रेमघन० भाग २, पृ० ४३२ ।
⋙ अनंग (२)
संज्ञा पुं० १. कामदेव । उ०—आगे सोहै साँवरो कुँवर गोरो पाछे पाछे, आछे, मुनिवेष धरे लाजत अनंग है ।—तुलसी ग्रं, पृ० १६५ ।२. आकाश (को०) ३. मन (को०) ।४. वह जो अंग न हो (को०) ।
⋙ अनंग अराति पु
संज्ञा पुं० [सं० अनङ्ग+अराति] अनंग का शत्रु । महादेव । शिव । उ०— तुम्ह पुनि राम राम दिन राती । सादर जपहु अनंग अराती । मानस— १ । १०८ ।
⋙ अनंगक
संज्ञा पुं० [सं० अनङ्गक] मन [को०] ।
⋙ अनंगक्रीड़ा
संज्ञा स्त्री०[सं० अनङ्गक्रीड़ा] १, रति । २. छंद?शास्त्र में मुक्तक नामक विषम वृत्त के दो भेदों में से एक जिसके पूर्व दल में १६. गुरु वर्ण और उत्तर दल में ३२ लघु वर्ण हों । जैसे—आठी जामा शंभू गाओ । भी फेदा ते मुक्ति पाओ । सिख मम धरि हिय भ्रम सब तजि कर । भज नर हर हर हर हर हर हर (को०) ।
⋙ अनंगद
वि० [सं० अनङ्गद] काम या प्रणय का जनम [को०] ।
⋙ अनंगना पु
क्रि अ० [सं० अनङ्ग] विदेह होना । शरीर की सुधि छोड़ना । बेसुध होना । सुध बुध भुलाना । उ०—गगरि नागरि जल भरि घर लीन्हें आवै । भुकुटी धनुष कटाक्ष बाण मनो पुनि पुनि हरिहिं लगावै । जाकी निराखि अनंग अनंगत ताहि अनंग बढ़ावै । —सुर (शब्द०) ।
⋙ अनंगरंग
संज्ञा पुं० [सं० अनङ्गरङ्ग] कामशास्त्र संबंधी ग्रंथ जिसमें मैथुन संबंधी आसनों का विवरणी है [को०] ।
⋙ अनंगलेख
संज्ञा पुं०[सं० अनङ्गलेख] मदनलेख या प्रेमपत्र [को०] ।
⋙ अनंगलेखा
संज्ञा स्त्री०[ सं० अनङ्गलेखा] प्रेमपत्र [को०] ।
⋙ अनंगवती
वि० स्त्री [ सं अनङ्गवती] कामिनी [को०] ।
⋙ अनंगशत्रु
संज्ञा स्त्री० [सं० अनङ्गशत्रु] शिव [को०] ।
⋙ अनंगशेखर
संज्ञा पुं० [सं अनङ्गशेखर] दंड़क नामक वर्णवृत्त का एक नेद जिससें ३२ वर्ण होते है ओर लघु गुरु का कोई क्रम नही । होता । जैसे—गरज्जि सिंहनाद लो निनाद मेघनाद वीर क्रुद्ध आन सान सों कृसानु बाण छंड़ियं (शब्द०) ।
⋙ अनंगारि
संज्ञा पुं० [सं अनङ्गरि] कामदेव के अरि या शिव ।
⋙ अनंगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अनह्गिली] अनंग की स्त्री । राति । उ०—लीला रसरंगिनि श्रीराधा, अनुराग अनंगिनि श्रीराधा ।—घनानंद, —पृ० २४५ ।
⋙ अनंगी (१)
वि० [ सं० अनीङ्गन्] [स्त्री० अनंगिनी] १. अंगरहित । बिना देह का । अशरीर ।२. अंगविहीन । लूला लँगड़ । अपाहिज । उ०—कहा कहौ हरि केतिक तारे पवन पद पर- तंगी, सूरदास यह बिरद स्त्रवन सुनि गरजत अधम अनंगी— सूर० १ । २१ ।
⋙ अनंगी (२)
संज्ञा पुं० १. परमेश्वर । २. कामदेव ।
⋙ अनंगुरि
वि० [सं० अनङ्गुरि] बिना उँगलियों का । उँगलियों से हीन या रहित [को०] ।
⋙ अनंगुलि
वि० [सं० अनङ्गुली] अंगुलिहीन [को०]
⋙ अनंजन
वि० [सं० अनज्जन] अंजनरहित । अंजनशून्य [को०] ।
⋙ अनंझ पु
वि० [देश०] अनधीन । जो अधीन न हो । निर्बाध । उ०—बहुआन जोग छत्री अनंझ, अन्यंन कोस सितए मंझ ।—पृ० रा०, ५५ ।४२ ।
⋙ अनंछित्त पु
वि० [सं० अन+छित्त] जो छोदा हुआ या कटा हुआ न हो । अच्छिन्न । उ०—अनंच्छित्त अंगं बरं अत्तताई, भई जीत चहुआन प्रथिराज राई । —पृ० रा० २५ । ७७३ ।
⋙ अनंत (१)
वि० [सं० अनन्त] १. जिसका अंत न हो । जिसका पार न हो । असीम । बेहद । आपार । २. बहुत अधिक । असंख्य । अनेक । ३. अविनाशी । नित्य ।
⋙ अनंत (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु । २. शेषनाग ।३. लक्ष्मणा । । ४. बल- राम । ५. आकाश० ६.जैनों के एक तीथँकर का नाम । ७. अभ्रक । ८. एक गहना जो बाहु में पहना जाता है । ९ । एक सुत का गंड़ा जो चौदह सूत एकत्र कर उससें चौदह गांठ देकर बनाया जाता है । इसे भादों सुदी चतुर्दशी या अनंतव्रत के दिन पूजित कर बाहु में पहनते है । १०. अनंतचतुर्दशी का व्रत । ११. रामानुजाचार्य के एक शिष्य का नाम । १२. विष्णु का शंख (को०) ।१३. कुष्णा (को०) । १४ । . शिव (को०) । १५.रुद्र (को०) ।१६सीमाहीनता । अंतहीनता(को०) ।१७. नियत्व (को०) । १८. मोक्ष (को०) । १९. वासुकि (को०) । २०. बादल (को०) । २१. सिंदुवार (को०) । २२. अभ्रक । अबरक (को०) । २३. श्रवण नक्षत्र (को०) । २४. ब्रह्मा (के०) ।
⋙ अनंतकर
वि० [सं० अनन्तकर] बढ़ाकर सीमाहीन कर देनेवाला । अधिक कटनेवाला (को०) ।
⋙ अनंतकाय
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तकाय] जैनियों के अनुसार उन वनस्पतियों का समुदाय विशेष जिनके खाने ता निषेध है । विशेष—इसके अतर्गत वे पेड़ या पौधे माने जाते हैं जिनके पत्तों, औ फुलों की नसें इतनी सूक्ष्म हों कि देख न पड़ें, जिनकी संधिया गुप्त हों, जो तीड़ने से एकबारगी टूट जायँ, जो जड़ से काटने पर फिर हरे हो जायँ, जिनके पत्त मोटे, दलदार और चिकने हों अथवा जिनके पत्ते, फुल और फल कोमल हो । ये संख्या में बत्तीस है ।
⋙ अनंतग
वि० [सं० अनन्चग] नित्य या अंतहीनं जानेवाला । नित्य गतिशील रहनेवाला [को०] ।
⋙ अनंतगुण
वि० [सं० अनन्तगुण] बहुत अधिक गुणों से युक्त [को०] ।
⋙ अनंतचतुर्दशी
संज्ञा स्त्री०[सं० अनन्तचतुर्दशी] भाद्र शुक्ल चतर्दशी । विशेष—इस दिन हिंदू अलोना व्रत करते है और चौदह तागों के अनंतसूत्र को, जिसमें चौदह गाँठे दी होती है, पूजन कर बाँधते है और तत्पश्चात् भोजन करते है । यह व्रत मध्यहन पर्यंत का है ।
⋙ अनंतचरित्र
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तचारित्र] एक बोधिसत्व [को०] ।
⋙ अनंतजित्
संज्ञा पुं० [सं० अनन्ताजित्] १. वासुदेव । २. वर्तमान अवसार्पिणी के १४ वें तीर्थकर [को०] ।
⋙ अनंततटंक
संज्ञा पुं०[सं० अनन्तटङ्गा] एक रागविशेष जो मेघ राग का पुत्र माना जाता है ।
⋙ अनंतता
संज्ञा स्त्री०[सं० अनन्तता] असीमत्व । अमितत्व । अत्यंत अधिकाता ।
⋙ अनंततान
वि० [सं० अनन्तातान] असीम । अपार [को०] ।
⋙ अनंततीर्थकृत
संज्ञा पुं०[सं० अनन्तथीर्थकृत्] दे० 'अनंतजित्' [को०] ।
⋙ अनंततृतीया
संज्ञा स्त्री०[सं० अन्ततृतीया] भाद्र मास का तीसरा दिन [को०] ।
⋙ अनंतत्व
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तत्व] अनंतता [को०] ।
⋙ अनंतदर्शन
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तदर्शन] जैन मत के अनुसार केवल दर्शन या सम्यक् दर्शन । सब बातों का पूरा ज्ञान । ऐसा ज्ञान जो दिशा, काल आदि से बद्ब न हो ।
⋙ अनंतदृष्ठि
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तदृष्ठि] इंद्र का एक नाम ।
⋙ अनंतदेव
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तदेव] १. शेषनाग । २. शेषशय्या पर रहनेवाले नारायण [को०] ।
⋙ अनंतनाथ
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तनाथ] जैन लोगों के चौदहवें तीर्थकर ।
⋙ अनंतपार
वि० [सं० अनन्तपार] जिसका पार या सीमा न हो । असीम विस्तारवाला [को०] ।
⋙ अनंतमति
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तमति] एक बोधिसत्व [को०] ।
⋙ अनंतमायी
वि० [सं० अनन्तमयिन्] अनंत या आपार छल या माया से युक्त [को०] ।
⋙ अनंतमूल
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तमुल] एक पौधा या बेल जो सारे भारतवर्ष में होती है और ओषधि के काम आती है । विशेष—इसके पत्ते गोल ओर सिरे पर नुकीले होते है । यह दो प्रकार की होती है—काली और सफेद । यह स्वादिष्ट, स्निग्ध, शुक्रजनक तथा मंदाग्नि, अरुचि, श्वास, खाँसी, विष, त्रिदोष आदि के हरनेवाली होती है । रक्त शुद्बु करने का भी गुण इसमें बहुत है । इसी से इसे हिंदी में सालसा या उशबा भी कहते है । पर्याय—सारिवा । अनंता । गोपी । भद्रवल्ली । नागजिह्वा । कराला । गोपवल्ली । सुगंधा । भद्रा । श्यामा । शारदा । प्रहानिका । आस्कोता ।
⋙ अनंतर (१)
क्रि० वि० [सं० अनन्तर] १. पीछे । ठीक बाद । उपरांत । बाद ।२. निरंतर । लगातार ।
⋙ अनंतर (२)
वि० १. अंतररहित । निकटस्थ । पट्टीदार । २. अखंड़ित । ३. अपने वर्ण से ठीक बादवाले वर्ण का (को०) । यौ.—अनन्तरज । अनन्तरजात ।
⋙ अनंतर (३)
संज्ञा पुं० १. समीपता । निकटता । अंतर का आभाव । २. ब्रह्म । परमात्मा [को०] ।
⋙ अनंतरज
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तरज] वह व्याक्ति जिसके पिता का वर्ण माता से एक वर्ण ऊँचा हो । विशेष—जैसे, —माता शूद्रा हो और पिता वैश्य अथवा माता वैश्य ही । और पिता क्षत्रिय अथवा माता क्षत्राणी और पिता ब्राह्वमण हो ।
⋙ अनंतरजात
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तरजात] दे० 'अनंतरज' ।
⋙ अनंतरय
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तरय] अंतर का अभाव [को०] ।
⋙ अनंतराय
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तराय] निर्विघ्न [को०] ।
⋙ अनंतरित
वि० [सं० अनन्तारित] १. जिसमें बीच न पड़ा हो । निकटस्थ । २. अखांड़ित । अटूट ।
⋙ अनंतारिति
संज्ञा स्त्री० [सं० अनन्तारिति] न त्यागना या अल- गाना [को०] ।
⋙ अनंतरीय
वि० [सं० अनन्तरीत] वंशानुक्रम में ठीक बादवाला [को०] ।
⋙ अनंतर्हित
वि० [सं० अनन्तर्हित] १. जो प्रलग न किया गया हो । मिला हुया । निकटस्थ । पास का । २. शृंखलावद्बा । अखंड़ित । ३. जो छिपा न हो । प्रकट (को०) ।
⋙ अनंतवान (१)
वि० [सं० अनन्तवान्] नित्य । जिसकी सीमा न हो [को०] ।
⋙ अनंतवान् (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्मा के चार चरणों में से एक [को०] । विशष—पृथ्वी, अंतरिक्ष, अनंत और समुद्र नामक ब्रह्मा के चार चरण है ।
⋙ अनंतविजय
संज्ञा पुं० [सं० अनन्ताविजय] युधिष्ठिर के शंख का नाम ।
⋙ अनंतवीर्य (१)
वि० [सं० अनन्तत्रीर्य] आपार पौरुषवाला ।
⋙ अनंतवीर्य (२)
संज्ञा पुं० जैनों के तेइसवें तीर्थंकर का नाम ।
⋙ अनंता (१)
वि० स्त्री० [सं० अनन्ता] जिसका अंत या पारावार न हो ।
⋙ अनंता (२)
संज्ञा संज्ञा १.पृथ्वी । २. पार्वती । ३. करियारी का पौधा । ४. अनंतमूल । ५. दूब । ६. पीपर । ७ । जवासा । ८. अरणीवृक्ष । ९. अनंतमूत्र ।
⋙ अनंतानुबंधी
संज्ञा पुं० [सं० अनन्तानुबन्धिन्] जैन मतानुसार वह दोष या दुःस्वभाव जो कभी न जाय; जैसे अनुंतानुबंधी क्रोध- लोभ,—माया, मान ।
⋙ अनंताभिधेय
संज्ञा पुं० [सं० अनन्ताभिधेय] वह जिसके नामों का अंत न हो । । ईश्वर ।
⋙ अनंती
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्रियों का गंड़ा जिसे वे बाएँ बाजू पर बाँधती है । [को०] ।
⋙ अनंत्य (१)
वि० [सं० अनन्त्य] जिसका अंत या सीमा न हो [को०] ।
⋙ अनंत्य (२)
संज्ञा पुं० १. नित्यत्व । नित्यता । २. हिरण्यगर्भ का चरण [को०] ।
⋙ अनंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० अनन्द] १४. वर्णो का एक वृत जिसका क्रम इस प्रकार है—जगण, रगण, जगण, रगण, लघु, गुरु ।
⋙ अनंद (२)पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'आनंद' । उ०—मुनि पुर भयउ अनंद बधाव बजावहि ।—तुलसी ग्रं० पृ० ५६ ।
⋙ अनंदना पु
क्रि० अ० [सं० आनन्द] आनंदित होना । उ०—पुनि मुनिगन दुहँ भाइन्ह बंदे । अभिमतत आसिष पाइ अनंदे ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अनंदी (१)
संज्ञा पुं० [सं० अनान्दिन्] एक प्रकार का धान ।
⋙ अनंदी (२)पु
वि [हि०] दे० 'आनंदी' ।
⋙ अनंबर (१)
वि० [सं० अनम्बर] वस्त्रहीन । नग्न । नंगा (को०) ।
⋙ अनंबर (२)
संज्ञा पुं० एक जैन साधु संप्रदाय । दिगंबर [को०] ।
⋙ अनंभ
वि० [सं० अन=नहीं+अम्मस=जल] बिना पानी का ।
⋙ अनंभ (२)पु
वि० [सं० अन=नहीं+अंह=पाप, बिध्न, बाधा] निर्विध्न । बाधारहित । बे आँच । उ०—मोहन बाण हमार है, देखत मोहत शंमु । मोहन बाण तुम्हार जो हमको करत अनंभु । सबल (शब्द०) ।
⋙ अनंश
वि० [सं०] १. जो पैत्रिक संपत्ति पाने का अधिकारी न हो । २. जिसका अंशभाग या खंड़ न हो (आकाश या ब्रह्मम का विशेषण) [को०] ।
⋙ अनंशुमत्फला
संज्ञा स्त्री० [सं०] केला । कदली [को०] ।
⋙ अन (१)पु
क्रि० वि० [सं० अन्] बिना । बगैर । उ०—हँसि हँसि मिले दोऊ, अन ही मनाए मान छूटि गयो एहि छोर राधीका रमन को । —केशव (शब्द०) ।
⋙ अन (२)पु
वि० [सं० अन्य=दुसरा] अन्य । और । दूसरा । उ०— अनजल सीचे रुख की छाया तें बरु धाम । तुलसी चातक बहुत हैं यह प्रबीत को काम ।—तुलसी ग्रं, पृ० १२८ ।
⋙ अन
३पु संज्ञा पुं० [सं, अन्न] अनाज । अन्न । उ०— जैसे हैं गिरिराज जू तैसौ अन को कोट । मगन भये पूजा करै, नर नारी बड़ छोट —सूर० १० । ८४१ । यौ.—अनधन=अन्न और संपत्ति । उ०—कहत कबीर सुनहु रे संतहु अनधन कछु ओले न गयो ।—कबीर ग्रं, पृ० ३१० ।
⋙ अनअहिवात पु
संज्ञा पुं० [सं० अन=नहीं+हि० अगीवात] अहिवात का अभाव । वैधव्य । विधवापन । रँड़ापा । उ०—कुमतिहि कसि कुवेषता फावी । अनअहिवात सूच जनु भावी ।— मानस, २ ।२५ ।
⋙ अनइच्छित पु
वि० [हि०] दे० 'अनिच्छित' । उ०—राम भजत सोइ मुकुत्ति गुसाई । अनहच्छित आवै बरिआई ।—मानस, ७ ।११९ ।
⋙ अनइस पु
संज्ञा पुं० [हि०] अनिष्ट । अनैस । उ०—आह दइअ मैं काह नसावा । करत नीक फल अनइस पावा ।— मानस । २ ।१६३ ।
⋙ अनइसा पु अनइसी पु
वि० स्त्री [हि०]दे० 'अनैसा' ।
⋙ अनऋतु
संज्ञा पुं० [सं० अन+ऋतु] १. विरुद्ब ऋतु । अनुपयुक्त ऋतु । बेमौसिम । अकाल । असमय । उ०—(क) चातक की रट नेह सदा, वह ऋतु अनृऋतु नहि हारत । —सुर (शब्द०) । (ख) सब तरु फरे राम हित लागी । ऋतु अनऋतुहि काल गति त्यागी । —तुलसी० (शब्द०) । २. ऋतु विपर्यय । ऋतु के विरुद्ब कार्य़ ।
⋙ अनकंप पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अकंप' ।
⋙ अनक (१)
वि० [सं०] दे० 'अणक' [को०] ।
⋙ अनक (२)
संज्ञा पुं० दे० 'अणक' ।
⋙ अनक (३)पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'आनक' ।
⋙ अनकदुंदुभ
संज्ञा पुं० [सं० अनकदुन्दुभ] कृष्ण के पितामह और वसुदेव के पिता का नाम [को०] ।
⋙ अनकदुंदुभि पु
संज्ञा पुं० [सं० आनकदुन्दुभि] अनकदुंदुभ के पुत्र वसुदेव ।
⋙ अनकना †
क्रि० सं० [सं० आकर्णान, प्रा० आकष्णण, हि, अ कनना >(वर्णाव्य.) अनकना] १. सुनना । २. चुसचाप सुनना । छिपकर सुनना । ।
⋙ अनकरीब
क्रि० वि० [अ० अनकरीब] करीब करीब । लगमग । प्राय? ।
⋙ अनकस्मात्०
क्रि० वि० [सं०] जो आकस्मिक, आवानक या अकारण न हो [को०] ।
⋙ अनकहनी
वि० स्त्री० [हि० अन+कहनी] न कहने योग्य । उ०— (क) सबके चरित्र लिखने में कुछ अनकहनी कहनी भी कह गए ।—प्रिमघन०, भा० २.पृ० १०३ । (ख) यहीं बैठ कहती थी तुमने सब कहनी अनकहनी ।—ठंठा० पु० २० ।
⋙ अनकहा
वि० [हि० अन+कहा] [स्त्री० अनकही] बिना कहा हुआ । अकथित । अनुक्त । उ०—सिर्फ अनकहा रहने से तो असत्य हो नहीं जाता ।—सुखदा, पृ० १०७ । मुहा०—अनकही देना=आवाक् रहना । चुपचाप होना । उ०— समुझि परी षटमास बीतीते कहाँ हुतौ हो आयो । सूर अनकही दै गोपिनि सौं स्त्रवन मुँदि उठि धायौ ।—सुर०, १० । ४१४९ ।
⋙ अनका
संज्ञा पुं० [सं अन्क्रा] दे० उनका' [को०] ।
⋙ अनकाढ़ा
[हि० अन+ काढ़ना] बिना निकाला हुआ । उ०— साकहिं मरै चहै अनकाढ़े । जायसी (शब्द०) ।
⋙ अनकायमार
वि० [सं०] जो बना इच्छा के न मरता है । बिना इच्छा के न मरनेवाला [को०] ।
⋙ अनकीय
वि० [सं०] अणाकीय [को०] ।
⋙ अनकुस
संज्ञा पुं०[सं० अङ्गुष अथवा हि० अन+फा० खुश] बुरा खराब । उ०—बॅंगले में शीशे लगी खिड़कियों के बाहर घनी जाली । लगी देखकर कुछ अकुस मालुम होता था ।—किपर० पृ० ७ ।
⋙ अनक्ष
वि० [सं० ] १. बिना आँख का । अंधा । २. जहाँ बहेड़ा या रुद्राक्ष का वृक्ष न हो [को०] ।
⋙ अनक्षर (१)
वि० [सं०] १. अक्षरज्ञान से रहित । निरक्षर । २. न जाननेवाला । अज्ञ । ३. मूक । गुँगा । ४. नकहने योग्य [को०] ।
⋙ अनक्षर (२)
संज्ञा पुं० दुर्वचन या गाली [को०] ।
⋙ अनक्षर (३)
क्रि० वि० विना शब्दप्रगोय किए । बिना शब्द उच्चारण किए । बिना बोले [को०] ।
⋙ अनक्षि
वि० [सं०] बुरी आँख [को०] ।
⋙ अनक्षिक
वि० [सं०] बिना आँख का । अंधा [को०] ।
⋙ अनत्व (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन=बुरा+ अक्ष=आँख, प्रा० अनकख अथवा सं० अनाकाड़क्ष प्रा० †अनाकंख अनअक्ख, अनकख हि०आवख] १. झुँझलाहट । रिस । क्रोध । नाराजगी । अनिच्छा असंतोष । उ०—(क) धानि अनख उरहनो धनि धनि घनि माखन धनि मोहन खाए । —सुर (शब्द०) । (ख) भाय़ँ कुभायं अनथ आलसहुँ । नाम जपन मंगल दिसि दसहूँ ।—मानस १ ।१९ ।२. दु?ख ।ग्लाति । खिन्नता ।उ०— जो पै हिरदय माँझहरी । कर कंकन दरपन लै देखौ इहि अति अनख परी । क्यों अब जिवहि जोग सुनि सुरज, बिराहिन बिरहमरी ।—पु, १० ।६७९० । ३. ईर्षा । द्बेष । ड़ाह । उ०—किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं । प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं । —मानस ३ ।२४ । ४. झुट । इंअनरीति । उ०—वाबु ऐसो है संसार तिहारो ये कलि है व्यवहारा । को अब अनख सहै प्रति दिन को नहिन । रहनि हमारा ।— कबीर (शब्द०) ।५. डिठौना । काजल की बिंदी जिसे डीठ (नजर) से बचाने के लिय़े बच्चों के माथे में लगाते है । उ० —प्रनधन देखि लिलरवा, अनख न धार । समलहु दिय दुति मनसिज, भल करतार ।— खानखाना (शब्द०) ।
⋙ अनख (२)
वि० [सं० अ=नहीं+नख=नाखून] १. बिना नाखुन का । उ० — मिहिर नजर नों भावते, राख याद भरि मोद । अनखन खनि अनखन अरे, मत मो मनहिं करोद ।—रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ अनखना पु
क्रि० अ० [हिं० अनख से नाम०] क्रोध करना । रिसाना । रूष्ठ होना । उ०— हम अनखीं या बात सों लेत दान को नावँ । सहज भाव रहो लाड़िले बसत एक ही गाँव ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अनखाना (१) पु०
क्रि० अ० [हिं अनख] क्रोध करना । रुष्ट होना । रिसाना । उ०—(क) कापर नैन चढ़ाए डोलति, ब्रज में तिनुका तोर । सूरदास यशुदा अनखानी यह जीवन धन मोर ।— सूर०, १० ।३१० ।(ख) गई करूण भी इक दिन ऊब । कहा अनखाकर उसने खूब ।— झरना, पृ० ५९ ।
⋙ अनखाना (२) पु०
क्रि स० अप्रसन्न करना । नराज करना । खिझाना । उ०— उठत सभा दिन मधि सैनापति भीर देखि फिरि आऊँ । न्हात खात सुख करता साहिबी कैसे अनखाऊँ ।— सूर०९ । १७२ ।
⋙ अनखावना पु
क्रि० स० [हि०] दे० 'अनखाना' । उ०—वा देखत हमकौं तुम मिलिहौं, काहे कौ ताकौ अनखावत ।— सूर०, १० ।२४१९ ।
⋙ अनखाहट पु०
संज्ञा स्त्री० [हिं० अनख+आहट (प्रत्य०) प्रनखने या क्रोध दिखलाने की क्रिया भाव । उ०—मारयौ अनुहारिनु भरी गारयौ खरी मिठाहिं । वाकौ अति अनखाहटौ मुसुकाहट बिनु नाहिं ।—बिहारी र०,दो० ४६८ ।
⋙ अनखी †
वि० [हि० अनख +ई (प्रत्य०) ] क्रोधी । गुस्सावर । जो जल्दी नारजा हो ।
⋙ अनखीली पु० †
वि० स्त्री० [हि० अनख +ईली (प्रत्य०)] अनख—वाली । बुरा माननेवाली । अनखी । उ०—कहै पदमाकर अगर अनखीलिन की भीरी भीरी भारत कों भाँज दै री भाँज दै ।—पद्माकर ग्रं, पृ ३२२ ।
⋙ अनखुला
वि० [हिं अन + खुलना] [अनखुली] १. जो खुला ना हो । बंद । २.य जिसका कारण प्रगट न हो । गुप्त । उ०— केसर केसरि कुसुम के रहे अंग लपटाइ । लगे जानि नख अन— खुली कत बोलति अनखाइ ।— बिहारी र०, दो० १९९ ।
⋙ अनखौहा पु० †
वि० [हि० अनख +औहा (प्रत्य०)] [स्त्री० अनखैही] १. क्रोध से भरा हुआ । कुपित । रूष्ट । उ०— रवि बंदौं कर जोरिकै, सुनत स्याम के बैन । भए हँसौहैं सबनु के, अति अनखौहैं नैन ।—बिहारी र०, दो० २२४ । २. चिड़चिड़ा । जल्दी क्रोध करनेवाला । छोटी सी बात पर चिढ़ जानेवाला । ३. क्रोधजनक । क्रोध दिलानेवाल । उ०—निपट निदरि बोले बचन कुठरिपानि, मानि त्रास औनिपन मानौ मौनता गही ।रोखे माखे लखन अकनि अनखौहीं बातें तुलसी बिनीत बानी बिहँसि ऐसी कही । तुलसी ग्रं०, पृ० १६० ।४. अनुचित । खोटा । बुरा । उ०—(क) कबहूँ मो को कछू लगावति कबहुँ कहति जनु जाहु कहीं । सूरदास बातैं अनखौंहीं नहिन मो पै जाति सही ।—सूर (शब्द०) ।(ख) राम सदा सरनागत की अनखौंहीं अनैसी सुमाय सही हैं ।— तुलसी ग्रं० १९९ ।
⋙ अनगढ़
वि० [हि० अन+गढ़ना] १. बिना गढ़ा हुआ । उ०— थे चमक रहे दो खुले नयन ज्यों शिलालग्न अनगढ़े रतन ।— कामायनी, पु० २४७ ।२. जिसे किसने ने नबना या हो । स्व- यंभू । उ० —ऊधौ राखिए यह बात । कहत हौ अनगढ़ व अनहद सुनत ही चापि जात । सूर— (शब्द०) । ३. बेडौल । भद्दा । बेढ़ंगा । ४. असंकृत । अपरिष्कृत । ५. उजडु । अकखड़ । पोंगा । अनाडी़ । जैसे, अनगढ़ मूर्ख । ६. बेतुक । अंडवंड । बे सिर पैर का । जैसे, अनगढ़ बात ।
⋙ अनगन पु०
वि० सं० [अन्+गणन][ स्त्री० अनगती] अगणित । बहुत । उ०— निज काज सजत सँवारि पुर नारी रचना अनगनी ।— तुलसी (शब्द) ।
⋙ अनगना (१) †
क्रि० स० [सं० अनगत=ढ़का हुआ] खपड़ा फेरना । छाजन में टूटे हुए खपडें के स्थान पर लगाना । टपकते हुए खपड़ैल की मरंमत करना ।
⋙ अनगना (२)
वि० [हिं० अन् +गनना] १. जो गिना न गया हो । न गिना हुआ । २. अगणित । बहुत ।
⋙ अनगना (३) †
संज्ञा पुं० गर्भ का आठवाँ महीना । जैसे— इस स्त्री का अब अनगना लगा हैं (शब्द०) ।
⋙ अनगबना पु०
क्रि० अ० [सं अन्+ हिं० अगवना अथवा हिं० अन+ गवंन=गमन] जान बुझकर देर करना विलंब करना । उ० —मुहुँ धोवति, एड़ी घप्तति, हप्तति, अनगवति तीर । धसति न इंदीबार नयनि कालिंदी कै नीर । — बिहारी रा० दो० ६९७ ।
⋙ अनगाना
१.पु क्रि० अ० [सं० अन्+हिं० अगवा्ना] १.विलंब करना । देर करना । २.टालमटोल करना ।
⋙ अनगाना (२)
क्रि० स० [हिं०] सँवरना । सुलझाना (केश आदि)
⋙ अनगाना (३)
क्रि० स० [हि० अनगना] अनगने या खपड़ा फेरने का काम करना ।
⋙ अनगार (१)
वि० [सं०] बिना अगार या घर का । गुहहीन [को०] ।
⋙ अनगार (२
संज्ञा पुं० घूमने फिरनेवाला । संन्यासी [को०]
⋙ अनगारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिव्राजक या संन्यासी का जीवन या स्थिति [कों०] ।
⋙ अनगिन पु०
वि० [हि०] दे० 'अनगिनत' । उ०— फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं ।— कबित०, पृ० ६६ ।
⋙ अनगिनत
वि० [सं अन्=नहीं+गणित=गिनाहुआ] जसकी गिनती न हो । अगणित । असंख्य । बेशुमार । बेहिसाब । बहुत । उ०— शून्यता मम डगर में अनगिनत कंटक बो गई हैं । —अहलक, पृ० ८९ ।
⋙ अनगिना
वि० पुं० [हिं० अन+गिनता] [स्त्री० अनगिनी] १.बिना गिना हुआ । जो गिना न गया हो । २. अगणित । असंख्य । बहुत । उ०— मुक्ति मुक्ता अनगिने फल तहँ चुनि चुनि खाहिं ।—सूर ९ ।३३८ ।
⋙ अनगैरी पु०
वि० [हि० अन+अ० गैर+हिं० ई (प्रत्य०)] गैर । पराया । अपरिचित । बेजाना । उ०— कह गिरिधर कविराय घरे आवै अनगैरी । हित की कहै बनाया चित्त में पूरे बैरी ।— गिरिधरि (शब्द०) । (ख) मूरख करै सबल ते बैरू । मूरख घर राखै अनगैरू ।— विश्राम (शब्द०) ।
⋙ अनग्नि
वि० [सं०] १. अग्निहोत्ररहित । श्रौत और स्मार्त कर्म से विमुख या हीन । २. जिसे अग्नि की आवश्यकता न हो (को०) । ३. मंदाग्नि का रोगी (कों) । ४. अविवाहिता (को०) ।
⋙ अनग्नित्र
वि० पुं० [सं०] [स्त्री० अग्नित्रा] जो पवित्र अग्नि का संर- क्षण न करता हो [को०] ।
⋙ अनग्निदग्ध
वि० [सं०] १. जो आग से जला हो । २. चिता पर न जला या जलाया हुआ । ३. गाड़ा हुआ [को०] ।
⋙ अनग्निष्वात्त
वि० [सं०] १. जो अग्निदग्ध न हो । २. गाड़ा हुआ । दफनाया हुआ [को०] ।
⋙ अनघ (१)
वि० [सं०] १. निष्पाप । पातकरहित । निर्दोष । बेगुनाह । २. पवित्र । शुद्ध ।
⋙ अनघ (२)
संज्ञा पुं० वह जो पाप न हो । पुण्य । उ०— तुलसिदास जगदाघ जवास ज्यों अनघ आगि लागे डाढ़ना— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अनघरी पु०
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्= विरूद्ध+घरी=घड़ी] असमय । कुसमय । अनवसर । बेवक्त । बेमौका ।
⋙ अनघैरी पु०
वि० [सं० अन्+ हिं० घेर अथवा सं० अनागीरित] बिना बुलाया हुआ । अनिमंत्रित । अनाहूत ।
⋙ अनघोर पु०
संज्ञा पु० [सं० घोर] अंधेर । अत्याचार । ज्यादती । उ०—यह अनित्य तनु हेतु तुम, करहु जगत अनघोर ।— रघुराज० (श्ब्द०) ।
⋙ अनघोरी पु०
क्रि० वि० [हिं० अनघरी] अचानक । चुपके से । उ०— जीति पाइ अनघोरी आए ।—छत्र० ।
⋙ अनचहा पु०
वि० [सं० अन+ हि० चाह] नहीं चाहा हआ । अनि- च्छित । अप्रिय । उ०— अनत चह्यो न भलो सुपथ सुचाल
चल्यौ, नीके जिय जानि इहाँ भली अनचह्यो हौं ।— तुलसी ग्र० पृ० ५८८ ।
⋙ अनचाखा पु०
वि० [हि० अन्+चाखना] बिना चखा या खाया हुआ । अनमास्वादित । उ० —दारिउँ दाख फरे अनचाखे ।— जायसी ग्रं०, पृ ४६ ।
⋙ अनचाहत (१) पु०
वि० [हिं० अन+चाहत] जो न चाहे ।
⋙ अनचाहत (२)
संज्ञा पुं० न चाहनेवाला आदमी । प्रेम न करनेवाला पुरूष । उ०— हाय दई कैसी भई अनचाहत को संग । दीपक को भावै नहीं, जल जल मरत पतंग (शब्द०) ।
⋙ अनचाहा
वि० [हि० अन+चहना] जिसकी चाह या इच्छा न की गई हो । अचाहा । अवांछित । अप्रिय ।
⋙ अनचिन्ह पु० †
वि० [हि० अन+चीन्ह=परिचित] अपरिचित । अजनबी । अनजाना ।
⋙ अनचीत
वि० [हि० अन+ चीत] मन या चित के विरूद्ध । बेमन । उ०— गैया चरै अनवीत, मुरली मोहि रे रहे ।— प्रेंनघन० भा० २, पृ० ३५० ।
⋙ अनचीता (१)
वि० [हिं० अन+चीतना=सोचना] १. न सोचा हुआ । अपरिचित । अनचाहा । अचाहा ।
⋙ अनचीता (२)
क्रि० वि० [हिं०अन्+चीतना] प्रचानक या अकस्मात् होनेवाला ।
⋙ अनचीन्ह पु० †
[हिं० अन +चीन्ह] १. अपरिचित । बे पहिचान का । २. चीन्ह या लक्षण से रहित ।
⋙ अनचीन्हा पु० †
वि० [हि० अन्+चीन्ह] बिना पहचाना हुआ । अपरिचित । अज्ञात ।
⋙ अनचेता
वि० [हिं० अन+चेतना] न सोचा हुआ । अचिंतित ।
⋙ अनचेती
वि० स्त्री० [हि० अन+चेतना] न सोची हुआ (बात, विषय आदि) ।
⋙ अनचैन पु० †
संज्ञा स्त्री० [ हि० अन+चैन] बेचैनी । व्याकुलता । विकलता ।
⋙ अनचैनी †
[हि० अनचैन+ई](प्रत्य०)] चैन रहित । व्याकुलता से भरी । विकलतायुक्त ।
⋙ अनच्छ
वि० [सं०] जो, स्वच्छ, निर्मल या साफ न हो [को०] ।
⋙ अनजका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी बकरी [को०] ।
⋙ अनजाद †
संज्ञा पुं० [फा० अँदाजह] अनुमान । अटकल ।
⋙ अनजिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी बकरी [को०] ।
⋙ अनजान (१)
वि० [हिं० अन+जानना] १. अज्ञानी । अनभिज्ञ । अज्ञ । नासनझ । नादान । सीधा । भोला भाला । २. बिना जाना हुआ । अपरिचत । अज्ञात ।
⋙ अनजान (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार की लंबी घास जिसे प्राय? भैसें ही खाती हैं और जिससे उनके दूध में कुछ नषा आ जाता है । २. थजना नाम का पेड़ ।
⋙ अनजानत पु०
क्रि० वि० [हि० अन +जानना] न जानते य । समझते हुए । उ० —(क) श्रीमद नृपअभिमान मोहबस जानत अनजा— नत हरि लायो । तुलसी ग्रं०, पृ० ३९५ । (ख) व्याकुल भयो डरयो जिय भारी । अनजानत कीन्ही अधिकारी ।— सूर० १० ।९४७ ।
⋙ अनजाया पु०
वि० [हि० अन+जाया=उत्पन्न] जन्म से परे । अजन्मा । उ०— बाबुल मेरा ब्याह करा दो अनजाया बर लाय । —कबीर श०, पृ० १०१ ।
⋙ अनजोखा
वि० बिना जोखा हुआ । बिना तौला हुआ ।
⋙ अनट पु०
संज्ञा पुं० [सं० अनृत=अत्याचार अथवा सं० अन्+ऋत= अनृत, प्रा० अणट्ट=उपद्रव] उपद्रव । अनीति । अन्याय । अत्याचार । उ० —(क) खेलत संग अनुज बालक नित जोगवत अनट उपाय ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ५०९ । (ख) सहि कुबोल, साँसति सकल अँगइ अनट अपमान । तुलसी धरम न परिहरिय, कहि करि गए सजान ।— तुलसी ग्रं०, पृ १४२ ।
⋙ अनडीठ पु०
वि० [सं० अन्+ दृष्ट प्रा० डिठ्ठ, दिट्ठ, हिं० डीठ] बिना देखा ।
⋙ अनडुज्जिह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोदिह्वा । २. अनंतमूल [को०] ।
⋙ अनडुह
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल ।२.वृषभराशि (को०) । ३. गोत्र प्रवर्तक एक ऋषि का नाम (को०) ।
⋙ अनडुही
संज्ञा स्त्री०[सं०] गाय ।
⋙ अनडवान्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल । साँड़ । २. सूर्य (उपनि०) ।३. वृष राशि [को०] ।
⋙ अनड्वाही
संज्ञा स्त्री० [सं०] गौ । गाय [को०] ।
⋙ अनणु (१)
वि० [सं०] जो सूक्ष्म न हो [को०]
⋙ अनणु (२)
संज्ञा पुं० मोटा अन्न [को०] ।
⋙ अनत (१)
वि० [सं०] न झुका हुआ । सीधा ।
⋙ अनत (२)
क्रि वि० [सं०] अन्यत्र, प्रा० अण्णत, अत्रत्त]और कहीं । दुसरी जगह में । पराए स्थान । उ०— राम लषन सिय सुनी मम नाऊँ । उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ ।— मानस, २ ।२३२ ।
⋙ अनति (१)
वि० [सं०] बहुत नहीं, थोड़ा ।
⋙ अनति (२)
संज्ञा स्त्री० नम्रता का अभाव । विनती भाव का न होना । अहंकार ।
⋙ अनदेखा
वि० [ हि० अन +देखता] [स्त्री० अनदेखी] बिना देखा हुआ । उ० —देख्यौ अनदेख्यौ कियै अँगु अँगु सबै दिखाइ । पैठति सी तन मैं सकुचि बैंठी वितै लजाइ ।—बिहारी र०, दो० ६१८ ।
⋙ अनदोष
वि० [हि० अन +सं० दोष] दोषरहित । अदोष । निर्दोष । उ०— अनदोषे कौं दोष लगावति, दई देइगौ टारि ।— सूर०, १० ।२९२ ।
⋙ अनद्ध
क्रि० वि० [सं०] असत्यत?, अवस्तुत?या अलीकत? [को०] ।
⋙ अनद्धमिश्रित वतन
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मत के अनुसार समय के संबंध में झूट बोलना । जैसे कुछ रात रहते ही कह देना कि सूर्योदय हो गया ।
⋙ अनध्य़ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद सरसों [को०] ।
⋙ अनध्य़ (१)
वि० जो खाने योग्य न हो । अखाध्य़ [को०] ।
⋙ अनध्य़तन (१)
वि० [सं०] [स्त्री० अनध्य़तनी] आज या अध्य़तन के पहले या पीछे का ।
⋙ अनध्य़तन (२)
संज्ञा पुं० पिछली रात के पिछले दो पहर और आनेवाली रात के अगले दो पहर और इनके बीच के सारे दिन को छोड़कर बाकी रात या भविष्य का समय । पिछली १२ बजे रात से आनेवाली १२ बजे रात तक का जो बीत रहा हो । विशेष— पिछली आधी रात के पहले के समय को भूत अनधतन और आनेवाली रात के समय बाद के भविष्य अनध्य़तन कहते हैं ।
⋙ अनध्य़तनभविष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. आनेवाली आधी रात के बाद का समय । २. संस्कृत व्याकरण में भविष्य काल का एक भेद जिसका अब प्राय? प्रयोग नहीं होता ।
⋙ अनध्य़तन भूत
संज्ञा पुं० [सं० ] १. बीती हुई आधी रात के पहले का समय । संस्कृत व्याकरण में भूतकाल का एक भेद जिसका अब प्राय?प्रयोग नहीं होता ।
⋙ अनधिक
वि० [सं०] १. जो अधिक न हो । २. सीमाहीन । असीम । ३. पूर्ण । पुरा । ४. जिससे कोई बढ़कर न हो । ५.जिसे बढ़ाया न जा सके [को०] ।
⋙ अनधिकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधिकार का अभाव । इख्तियार का न होना । प्रभुत्व का अभाद । २. बेबसी लाचारी । ३. अयोग्यता । अक्षमता ।
⋙ अनधिकार (२)
वि० १. अधिकाररहित । बिना इख्तियार का । २ अयोग्य । योग्यता के बाहर ।
⋙ अनधिकारचर्चा
संज्ञा स्त्री० [सं०] योग्यता के बाहर बातचीत । जिस विषय में गति न हो उसमें टाँग अड़ाना ।
⋙ अनअधिकार चेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिना अधिकार को कोई कार्य या प्रयत्न करना [को०] ।
⋙ अनधिकारिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अधिकारशून्यता । अधिकार का न होना । २. अक्षमता ।
⋙ अनधिकारी
वि० [सं अनधिकारिन्] [स्त्री० अतधिकारिण] १. जिसे अधिकार न हो । जिसके हाथ में इख्तियार न हो । २. आयोग्य । अपात्र । कुपात्र । जैसे— पंडित लोग अतधिकारी को वेद नहीं पढ़ाते(शब्द०) ।
⋙ अनधिकृत
वि० [सं०] १. जो अधिकारी के पद पर नियुक्त न किया गया हो २. आधिकार से बाहर । जिसपर अधिकार न हो [को०] ।
⋙ अनधिगत
वि० [सं०] बिना समझा हुआ । अनवगत । अज्ञात । बे जाना बूझा ।
⋙ अनधिगत मनोरथ
वि० [सं०] जिसकी इच्छा पूर्ण न हुई हो । हताश [को०] ।
⋙ अनधिगत शास्त्र
वि० [सं०] जिसका शास्त्र पर अधिकार न हो [को०] ।
⋙ अनधिगम्य
वि० [सं०] जो पहुँच के बाहर हो । अप्राप्य । दुष्प्राप्य ।
⋙ अनधिष्ठान
संज्ञा पुं० [सं०] निरीक्षण का न होना [को०] ।
⋙ अनधिष्ठित
वि० [सं०] १. जो अधिकारी के पद पर नियुक्त न हुआ । २. जो उपस्थि न हो [को०] ।
⋙ अनधिष्ठित
वि० [सं०] १. अधिकारी के पद पर नियुक्त न हुआ हो । २. उपस्थित न हो [को०] ।
⋙ अनधीन (१)
वि० [सं०] जे आधीन न हो । स्वतंत्र [को०] ।
⋙ अनधीन (२)
संज्ञा पुं० स्वेच्छा पूर्वक स्वतंत्र रूप में काम करनेवाला बढ़ई [को०] ।
⋙ अनधीनक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनधीन' [को०] ।
⋙ अनध्यक्ष
वि० [सं०] १. जो देख न पडे़ । अप्रत्यक्ष । नजर के बाहर । २. अध्यक्षरहित । बिना मालिक का ।
⋙ अनध्ययन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अध्ययन न होना । अध्ययन का अभाव । २. अध्यायनकाल में बीच में पड़नेवाला विराम [को०] ।
⋙ अनध्यवासाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अध्यवासाय का अभाव । अतत्परता । ढिलाई । २. एक काव्यालंकार । विशेष— इसमें कई समान गुणवाली वस्तुओं के बीच नहीं बल्कि किसी एक वस्तु के संबंध में साधारण अनिश्चय का वर्णन किया जाता हैं ।जैसे— 'स्वेदशालि जो कर मम तन कह । हे आली बनमाली को यह' । यह अलंकार वास्तव में 'संदेह' के अंतर्गत ही आता है और इससे कुछ अलंकारता भी नहीं प्रतीत होती हैं ।
⋙ अनध्याय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दिन जिसमें शास्त्रानुसार पढ़ने पढाने का निषेध हो । विशेष— मनु के अनुसार अमावस्या, चतुर्दशी और पूर्णिमा ये चार दिन 'अनध्याय' के हैं । इनके अतिरिक्त प्रतिपदा को ङी अनध्याय माना जाता हैं । २. छट्टी का दिन ।
⋙ अनध्यास
वि० [सं०] भूल हुआ । विस्मृत ।
⋙ अनन (
१.) संज्ञा पुं० [सं०] श्वासग्रहण की क्रिया । जीना [को०] ।
⋙ अनन (२)पुं०
संज्ञा पुं० [हिं०] दे 'अन्न' । उ०— पिय बिन तन पन एनन धन, भूषन ब नरत ।— पृ० रा०, ६६ ।२७६ ।
⋙ अनन (३)पु
वि० [हिं०] दे० 'अन्नय' । उ०— बाजय अनहद ताल पखावज उमग्यो प्रेम अनन खोरी । —भीख० श०, पृ० ५१. ।
⋙ अननि पुं०
वि० [ हिं०] दे० 'अनन्य' । उ० — राह भगति की अननि है विरला पावै कोव ।— रामानंद, पृ० ५४ ।
⋙ अनुकूल
वि० [सं०] १. जो अनुकूल न हो । २. प्रतिकूल । विप- रीत । उलटा । उ०— जहाँ सामाजिक अनुभूति के विपरीत या अननुकूल वैयाक्तिक अनुभूति काव्य में आ जाती है वहाँ रसाभास हो जाता है । साहित्य०, पृ० २१९ ।
⋙ अननख्याति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ख्याति, ज्ञान या बोध का अभाव [को०] ।
⋙ अननुज्ञात
वि० [सं०] जो स्वीकृत न हो । अस्वीकृत । २. जिसको अनुज्ञा या अनुमति न दी गई हो [को०] ।
⋙ अननुभाव
संज्ञा [सं०] जो समझने में असमर्थ में हो [को०] ।
⋙ अननुभावकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.बोध या ज्ञान का आभव । २. अबोध । आज्ञान । अज्ञात [को०] ।
⋙ अननुभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में एक प्रकार का निग्रह स्थान । विशेष—जब वादी किसी विषय को तीन बार कह चुके और सब लोग समझ जायँ, और फिर प्रतिवादी उसका कुछ उत्तर न दे तब वहाँ अननुभाषण होता है और प्रतिवाद की हार मानी जाती है ।
⋙ अननूभुत
वि० [सं०] जिसका अनुभव न हो । अनुभव से परे । उ०— अममुभूति पदार्थो का साहित्यकार सर्जन करता रहता है ।— शैली, पृ० २१ ।
⋙ अननुमत
वि० [सं०] १. जिसका अनुमति या आज्ञा न हो । २. नापसंद । अप्रिय । ३. असंगत । एअयुक्त [को०] ।
⋙ अननुषंगी
वि० [सं० अननुपड्गिन्] जो अनुषंगी न हो [को०] ।
⋙ अननुष्ठान
संज्ञा पुं० [सं०] अननुष्ठान का अभाव [को०] ।
⋙ अननुत्क
वि० [सं०] १. जिसका पाठ न किया गया हो । २. अनुत्त— रति । जिसका उत्तर न दिया गया हो [को०] ।
⋙ अमनृत
वि० [सं०] जो अनृत या असत्य न हो । सत्य [को०] ।
⋙ अनन्न
वि० [सं०] चावाल या खाद्य जो हीन कोटि का हो [को०] ।
⋙ अनन्नास
संज्ञा पुं० [ ब्रैजी. (अमें.) नानस, पुर्त० अनानाज] रामबाँस का तरह का एक पौधा और उसका फल । विशेष— यह पौधा दो फुट तक ऊँचा होता है । जड़ से तीन इंच ऊपर डंठल में अंकुरों की एक गाँठ बँधने लगती है जो क्रमश?मोटी और लंबी होती जाती है और रस से भरी होती है । इस मोटे अंकुरपिंज का स्वाद खटमीठा होता है ।
⋙ अनन्य (१)
वि० [सं०] [स्त्री० अनन्या] अन्य से संबंध न रखनेवाला । एकनिष्ठ । एक ही में ही में लीन । जैसे— (क) 'वह ईश्वर का अनन्य उपासक है ।'इसपर अनन्य अधिकार है, (शब्द०) । (ख) सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमंत ।— मानस ४ ।३ । यौ.— अनन्यभत्क= जो किसी एक की ही भक्ति करे । एकनिष्ठ भक्त । २. अद्वितीय । जिसके समान दूसरा न हो । जैसे— अंगरेजी के अनन्य महाकवि शेक्सपीयर की कविता ।— प्रेमघन, भा० २, पृ० २० ।
⋙ अनन्य (२)
संज्ञा पुं० विष्णु का एक नाम ।
⋙ अनन्यागति
वि० [सं०] जिसको दूसरा सहारा या उपाय न हो । जिसको और ठिकाना न हो । उ०— भेवहि भगति मन बचन करम अनन्य गति हबर चरन की ।— तुलसी ग्रं०, पृ०३१ ।
⋙ अनन्यगतिक
वि० [सं०] जिसे दूसरा सहरा या उपाय न हो[को०] ।
⋙ अनन्यगामी
वि०[सं अनन्यगामिन्] किसी अन्य के पास न जानेवाला [को०] ।
⋙ अनन्यगुरू
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण [को०] ।
⋙ अनन्यचित्त
वि० [सं०] जिसका चित्त और जगह न हो । एकाग्रचित्त ।
⋙ अनन्यचेता
वि० [सं० अनन्यवेतस्] अनन्याचित । एकाग्रचित्त [को०] ।
⋙ अनन्यचोदित
वि० [सं०] जो अन्य किसी से प्रेरत न हो । स्वत?- प्रेरित (को०) ।
⋙ अनन्यज
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव ।
⋙ अनन्यजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० अनन्यजन्मन्] अनंग । कामदेव[को०]
⋙ अनन्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.अन्य के संबंध का अभाव । २. एक- निष्ठता । एकश्रयता । एक ही में लीन रहना । उ०—इस अनन्यता सहित धन्य अपने प्यारे यको आराधा । एकांत०, पृ०१३ ।
⋙ अनन्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] अनन्यता [को०] ।
⋙ अनन्यदृष्टि (
१.) संज्ञा स्त्री० [सं०] एकग्र दृष्टि । एकटक देखते रहना [को०] ।
⋙ अनन्यदृष्टि (२)
वि० एकटक देखनेवाला [को०] ।
⋙ अनन्यदेव (
१.) वि० [सं०] किसका अन्य कोई देव न हो [को०] ।
⋙ अनन्यदेव (२)
संज्ञा पुं० परमात्मा [को०] ।
⋙ अनन्यनिष्पाध्य
वि० [सं०] किसी अन्य से निष्पन्न या संपादित न होने योग्य [को०] ।
⋙ अनन्यपरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्यपरता का अभाव । एक- निष्टता [को०] ।
⋙ अनन्यपरायण
वि० [सं०] जो एन्य (स्त्री०) में लीन या आसत्क न हो [को०] ।
⋙ अनन्यपूर्व
वि० [स०] वह पुरूष जिसके अन्य स्त्री न हो [को०] ।
⋙ अनन्यपूर्वा
वि० स्त्री० [सं०] १. जो पहले किसी की न रही हो । २. कुमारी । क्वारी । बिनब्पाही ।
⋙ अनन्यभव
वि० [सं०] जिसके अन्य संतान उत्पत्र न हो [को०] ।
⋙ अनन्यभाव (
१.) वि० [सं०] अन्य के प्रति भाव या आस्था न रखनेवाला [को०] ।
⋙ अनन्यभाव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एकनिष्ट भक्ति या भाव । २.परमात्मा के प्रति भक्ति या निष्ठा [को०] ।
⋙ अनन्यमनस्क
वि० [सं०] जो अन्यमनस्क या अन्यनिष्ठन न हो [को०]
⋙ अनन्य़मना
वि० [सं० अनन्मनस्] १. एकग्रचित्त । २. एकनिष्ठ [को०] ।
⋙ अनन्यानस
वि० [सं०] १. एकग्रचित । २. एकनिष्ट [को०] ।
⋙ अनन्ययोग (१)
वि० [सं०] जिसका किसी अन्य का योग या साथ न हो [को०] ।
⋙ अनन्ययोग (२)
क्रि० वि० किसी अन्य के साथ या बाद में न आनेवाला [को०]
⋙ अनन्यविषय
वि० [सं०] एकमात्र विषय या संदर्भ से संबंध रखनेवाला [को०] ।
⋙ अनन्यविषयात्मा
वि० [सं० अनन्यविषयात्मन्] एक विषय पर स्थिर रहनेवाला [को०] ।
⋙ अनन्यवृत्ति
वि० [सं०] १. अन्यवृत्ति न रखनेवाला । एकाग्र । दत्तचित्त । २. जिसकी दूसरी वृत्ति या जीविका न हो । ३. समान वृति या स्वमाववाला [को०] ।
⋙ अनन्यासाधारण
वि० [सं०] अन्य से न निलनेवाला । असा- धारण [को०]०
⋙ अनन्यसामान्य
वि० [सं०] जो अन्य सामान्य या साधारण जनों से अलग हो । असाधारण [को०] ।
⋙ अनन्यहृत
वि० [सं०] जो अन्य द्वारा हरण न किया गया हो । सुरक्षित [को०] ।
⋙ अनन्याधिकार
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदार्थ जिसके देखने या बनानेका किसी एक व्यक्ति या कंपनी को ही अधिकार हो । पेटेंट । इजारा ।
⋙ अनन्यार्थ
वि० [सं०] जे अन्य अर्थ या विषय के अंतर्गत न हो । जो गौण न हो । मुख्य या आधिकारिक [को०] ।
⋙ अनन्याश्रित (१)
वि० [सं०] १. जो अन्य का आश्रित या अधीन न हो । २. स्वाधीन । स्वतंत्र [को०] ।
⋙ अनन्याश्रित (२)
संज्ञा पुं० वह संपत्ति जिसपर ऋण न हो [को०] ।
⋙ अनन्वय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्वय या संबंध का अभाव । २. काव्य में वह अलंकार जिसमें एक वस्तु उपामान और उपमेय रूप से कही जाय । जैसे — तेरो मुख की जोड़ को ही मुख आहि (शब्द०) । विशेष— केशवदास ने इसी को अतिशयोपमा लिखा है ।
⋙ अनन्वित
वि० [सं०] १. असंबद्ध । पृथक् । बिलग । २. अंडबंड । अयुक्त ।
⋙ अनन्वै पुं०
संज्ञा पुं० [सं० अनन्वय]दे० 'अनन्वय' । उ०—कहाँ करत उपमेय को उपमेयै उपमान, तहाँ अनन्वै कहत है भूषन सकल सुजान ।— भूषन ग्र०, पृ०१३ ।
⋙ अनप
वि० [सं०] जलहीन । बिना जल का [को०] ।
⋙ अनपकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हानि करना । २. रूपया न लौटाना [को०] ।
⋙ अनपकर्म
संज्ञा पुं० [सं० अनपकर्मन्]दे० 'अनपकरण'[को०] ।
⋙ अनपकार
संज्ञा पुं० [सं०] अपकार या हानि का अभाव [को०] ।
⋙ अनपकारक
वि० [सं०] १. जो हालिकारक न हो । २. निर्दोष [को०]
⋙ अनपकारी
वि० [सं० अनपकारिन्] [स्त्री० अनपकारिणी] अपकार या हानि न करनेवाला [को०]
⋙ अनपकृत (१)
वि० [सं०] जिसका अहित न हुआ हो [को०] ।
⋙ अनपकृत (२)
संज्ञा पुं० दोष का अभाव [को०] ।
⋙ अनपक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] न जाना या न हटना [को०] ।
⋙ अनपक्राम
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीछे न हटाना ।२पराडःमुथ न होना [को०] ।
⋙ अनपक्रामक
वि० [सं०] पीछे न हटनेवाला [को०] ।
⋙ अनपक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'अनपकर' [को०] ।
⋙ अनपच
संज्ञा पुं० [हिं० अन (प्रत्य०)+पच] अजीर्ण । बदहजमी ।
⋙ अनपच्युत
वि० [सं०] १. विचलित न होनेवाला । डावाँडोल न होनेवाला । २. विश्वसपात्र । विश्वसनीय [को०] ।
⋙ अनपढ़
वि० [हि० अन=नहीं+ √ पढ़] बेपढ़ा । अपठित । मूर्ख । निरक्षर ।
⋙ अनपत्य
वि० [सं०] [स्त्री० अनपत्या] नि?संतान । नावल्द ।
⋙ अनपत्यक
वि० [सं०]दे० 'अनपत्य' ।
⋙ अनपत्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निस्संतान होना [को०] ।
⋙ अनपत्रप
वि० [सं०] निर्लज्ज । बेशर्म [को०] ।
⋙ अनपदेश
संज्ञा पुं० [सं०] वह तर्क जो ग्राह्य न हो । अग्राह्य तर्क [को०] ।
⋙ अनपधृष्य
वि० [सं०] पराजित या विजित न करने योग्य [को०] ।
⋙ अनपभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो अपभ्रंश न हो । २. शुद्ध शब्द [को०] ।
⋙ अनपर (१)
वि० [सं०] १. अपर या अन्य से रहित । २. जिसका कोई अनुयायी न हो । ३. अकेला । एकमात्र [को०] ।
⋙ अनपर (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्म [को०] ।
⋙ अनपराद्ध
वि० [सं०] अपराधशून्य [को०] ।
⋙ अनपराध
वि० [सं०] अपराधरहित । निर्दोष । बेकसुर ।
⋙ अनपराधी
वि०[सं० अनपराधिन्] [स्त्री० अनपराधिनी] निरपराध । निर्दोष । बेकसूर ।
⋙ अनपसर
वि० [सं०] १. जिसमें निकलने का मार्ग न हो । २.जो न्याय मन हो [को०] ।
⋙ अनपसारण
संज्ञा पुं० [सं०] निकलने के मार्ग का अभाव [को०] ।
⋙ अनपाकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वचन या इकरार पूरा न करना । २. ऋण या मजदूरी न चुकत करना [को०] ।
⋙ अनपाकरणविवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. इकरार पूरा न करने का मुकदमा या अभियोग । २. श्रृण या मजदूरी न देने का अभियोग[को०] ।
⋙ अनपाकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिज्ञा के काम न करना । इकरार के मुताबिक तनखाह या मजदुर न देना । जैसे—मजदूरी न देना, दी हुई वस्तु लौटा लेना । विषेश ।—स्मृतियों तथा कौटिल्यीय अर्थषशास्त्र में इसका प्रयोग इसी अर्थ में हैं । अनपाकर्म सबंधी झग़ड़ा दो प्रकार का हैं । एक तो वेतन संबंधी और दूसरा दान संबंधी?पराशर ने लिखा है कि श्रमी या भृत्य को उसके काम के बदले वेतन न देना या वेतन देकर लौटा लेने का काम 'वेतनस्यानपाकर्म' है । इसी प्रकार दिए हुए माल को लौटाना और ग्रहण किए हुए माल को देना 'दत्तस्यानपाकर्म' है ।
⋙ अनपाकर्मविवाद
संज्ञा पुं० [सं०] मजदूरों और काम करानेवाले पूँजीपतियों के बीच वेतन संबंधी झगड़ा । विशेष—नारद ने लिखा है कि कर्मस्वामी अर्थात् पूँजीपति भृत्यों को निश्चित की हुई भृति दे (ना० स्मृ० ६०२) ।
⋙ अनपाय (१)
वि० [सं०] अपाय का क्षय से रहित [को०] ।
⋙ अनपाय (२)
संज्ञा पुं० १अनश्वरता । २. नित्यता । ३. शिव [को०] ।
⋙ अनपायनी
वि० स्त्री० [सं० अनपायिनी] विश्लेषरहित । स्थिर । दृढ़ । उ०—प्रेम भगाति अनपायनी देहु हमहिं श्रीराम ।— मानस, ७ ।३४ ।
⋙ अनपायिपद
संज्ञा पुं० [सं०] स्थिर पद । अनश्वर पद । परम पद । मोक्ष ।
⋙ अनपायी
वि० [सं० अनपायिन्] [स्त्री० अनपायिनी] निश्चल । स्थिर । अचल । दृढ़ । अनश्वर ।
⋙ अनपाश्रय
वि० [सं०] १. जो किसी का आश्रित न हो । २. स्वतंत्र [को०] ।
⋙ अनपेक्ष
वि० [सं०] १. अपेक्षा या चाह न रखनेवाला । २. तटस्थ । ३. निष्पक्ष । ४. संबंधहीन । ५. स्वतंत्र [को०] ।
⋙ अनपेक्षा (१)
वि० [सं०] अपेक्षारहित । निरपेक्ष । बेपरवाह ।
⋙ अनपेक्षा (२)
संज्ञा स्त्री० अपेक्षा या चाह का अभाव [को०] ।
⋙ अनपेक्षित
वि० [सं०] जो अपेक्षित न हो । जिसके परवाह न हो । जिसकी चाह न हो ।
⋙ अनपेक्षी
वि० [सं० अनपेक्षिन] दे० 'अनपेक्ष' [को०] ।
⋙ अनपेक्ष्य
वि० [सं०] जो अन्य की अपेक्षा न रखे । जिसे किसी के सहारे की आवश्यता न हो । जिसे किसी की परवा न हो । उ०—साक्षी हो अनपेक्ष्य मेरे अर्थ, सत्य कर दे सर्व-सहन- समर्थ ।—साकेत, पृ० १७८ ।
⋙ अनपेत
वि० [सं०] १. जो गत न हो । २. अव्यतीत । जो बीता न हो । ३. जो पृथक् या अलग न हो । ४. विश्वासपात्र । विश्व— सनीय । ५. निकट समीप [को०] ।
⋙ अनप्त
वि० [सं०] जो जलयुक्त न हो [को०] ।
⋙ अनप्रापत पु
वि० [हिं० अन+ सं० प्राप्त, हिं० प्रापत, परापत] अप्राप्त । उ०—अनप्रापत को कहा तजे, प्रापत तजे सो त्यागी है ।— कबीर रे०, पृ० ४९ ।
⋙ अनप्रासन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्नप्राशन' । उ०—आजु कान्ह करिहैं अनप्रासन ।—सुर० १ ।७०७ ।
⋙ अनफाँस पु
संज्ञा पुं० [हिं० अन+ फाँस=पाश] मोक्ष । मुक्ति । उ०—जेकर पास अनफाँस, कहु जिय फिकिर सँभारि कै ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ अनफा
संज्ञा पुं० [युनानी; ग्री० अनके] ज्योतिष के सोलह योगों में से एक ।विशेष—कुंडली में जिस स्थान पर चंद्रमा बैठा हो उससे बारहवें स्थान में यदि कोई ग्रह हो तो इस योग को अनफा कहते हैं ।
⋙ अनबंछी पु
वि० [हिं० अन+वांछित, प्रा० बंछिप] अवांछित । अनचाही । उ०—और सकल यह बरतनि कहिए अननंछी ही आवै जू ।—सुंदर० ग्रं०, भा०१, पृ० ३११ ।
⋙ अनबन (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अन=नहीं+ √ बन=बनना] बिगाड़ । विरोध । फूट । खटपट ।
⋙ अनबन (२
पु वि० मिन्न भिन्न । नाना (प्रकार) । विविध । अनेक । उ०—(क) अनबन बानी तेहि के माहिं । बिन जाने नर भटका खाहिं ।—कबीर (शब्द०) । (ख) पुनि अभरन बहु काढ़ा अनबन भाँति जराव ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३४४ ।
⋙ अनबनता पु
वि० [हिं० अन+ √ बन] जिससे बनत या बनाव या मेल न हो । उ०—कबीर कहते क्यों बनै अनबनता के संग, दीपक को भावै नहिं जरि जरि मरें पतंग ।—कबीर सा० सं०, पृ० ५८ ।
⋙ अनबना पु
वि० [हिं० अनबन] [वि० स्त्री० अनबनी] बुरा । खराब । बिगड़ा । उ०—बन्यो अनबन्यो समुझि कै, सोधि लेहिंगे साधु । भिखारी, ग्रं०, भा०२, पृ० ४ ।
⋙ अनबनियत पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अनबना] वह जो बननेवाली न हो । उ०—गुरु बिन मिटइ न दुगदुगी अबनियत न नसाइ ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ अनबलई पु
वि० [हिं० अन+ √ बल] बिना जलाया । जो प्रज्वलित न किया गया हो । उ०—अनबलई दव परजलई ।—बीसल० रास०, पृ० ६९ ।
⋙ अनबाद पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनवाद' । उ०—आनंदधन सुजान सुनौ बिनती जिन अनबाद करौ तिहारी ।—धनानंद, पृ० ५५५ ।
⋙ अनबिछा †
वि० [हिं० अन+ √ बिछ] बिना बिछया हुआ । नंगा उ०—अपनी कोठरी में एक अनबिछे तखत पर लेटी थी ।— त्याग; पृ० २१ ।
⋙ अनबिध †
वि० [हिं० अन+ सं० विद्ध] दे० 'अनबिधा' ।
⋙ अनबिधा
वि० [सं० अन्+ विद्ध] बिना बेधा हुआ । बिना छेद किया हुआ ।
⋙ अनबीह पु
वि० [हिं० अन+ सं० भीत, प्रा० भीअ > बीह] निर्भय । निड़र । उ०—लोहाना अनबीह लीय बारत समर्थ्य़ ।— पृ० रा० ४ ।२० ।
⋙ अनबूझ
वि० [हिं० अन+ √ बुझ] अनजान । नासमझ । मूर्ख । उ०—अंधेर नगरी अनबुझ राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ६७० ।
⋙ अनबुझा पु
वि० [हिं०] बेसमझाबुझा । अबुझा ।
⋙ अनबुड़ा पु
वि० [हिं० अन+ √ बुड़] न डुबा हुआ । जो गहरे न पैठा हो । उ०—अनबुड़े बुड़े, तरै जे बुड़े सब अंग ।— बिहारी र०, दो० ९४ ।
⋙ अनवेध
वि० [हिं०] दे० 'अनबिधा' ।
⋙ अनबोल
वि० [हिं० अन=नहीं+ √ बोल] १. अनबोला । न बोलनेवाला । २. चुप्पा । मौन । ३. गुँगा । बेजबान । ४. जो अपने सुख दु?ख को न कह सके । विशेष—पशुओं के लिये इस विशेषण का बहुत प्रयोग प्राप्त होता है ।
⋙ अनबोलता
वि० [हिं०] [स्त्री० अनबोलती] दे० 'अनबोल' ।
⋙ अनबोला (१) †
विं० [हिं०] दे० 'अनबोलता' ।
⋙ अनबोला †
संज्ञा पुं० [हिं० अन+ बोल] बोलचाल या बातचीत का अभाव । अनबन । अनमेल ।
⋙ अनबोले पु
क्रि० वि० [हिं०] बिना बोले हुए । उ०—मै तौ तुम्है हँसरु खेलतहिं छड़ि गई, आई अब न्यारे अनबोले रहे दोऊ ।—सूर०, १० ।२७९१ ।
⋙ अनब्बर पु
वि० [सं० अन+अब्बर=अबल] बली । बलवान । उ०—चढ़यौ चहुआन अनब्बर ।—पृ० रा, ५८ । ७ ।
⋙ अनब्याहा
वि० [हिं० अन+ ब्याहा] [स्त्री० अनब्याही] अविवा- हित । बिन ब्याहा । क्वाँरा । उ०—अनब्याही कह पुरुष सों अनुरागी जो होइ । ताहि अनुढ़ा कहत है कबि कोबिद सब कोइ ।—रसराज, पृ० १५ ।
⋙ अनभंग पु
वि० [हिं० अन+ भंग=टूटना] अखंडित ।अभंग । परिपूर्ण । उ०—थरहरात उर कर कँपत फरकत अधर सुरंग । परखि पीउ पलकानि प्रगट पीक लीक अनमंग । पदमाकर ग्रं०, पृ० १६९ ।
⋙ अनभजता पु
वि० [हिं० अन+ भजना] न भजनेवाला । न चाहनेवाला । उ०—इक भजते की भजै एक अनभजतन भजहीं ।—नंद० ग्रं०, पृ० २० ।
⋙ अनभया पु
वि० [हिं० अन+ भया] बिना हुए । बिना सत्ता या स्थिति हुए । उ०—जागेउ नृप अनभएँ बिहाना ।—मानस, १ ।१७२ ।
⋙ अनभल पु †
संज्ञा पुं० [हिं० अन=नहीं+ भल] बुराई । हानि । अहित । उ०—जारइ जोगु सुभाउ हमारा । अनभल देखि न जाइ तुम्हारा ।—मानस, २ ।१६ । मु०—अनभल ताकना=बुराई चाहना । उ०—जोहिं राउर अति अनभल ताका । सोइ पाइहि येहु फल परिपाका ।—मानस, २ ।२१ ।
⋙ अनभला पु
वि० पुं० [हिं० अन+ भला] [स्त्री० अनभली] बुरा । निंदित । हेय । खराब । उ०—कटु कहिए गाढ़े परे सुनि समुझि सुसाई । करहिं अनभले को भलो आपनी भलाई ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४७२ ।
⋙ अनभाउता पु
वि० [हिं०] दे० 'अनभानता' । उ०—त्यों पदमाकर सौति सँजोगनि रोग भयो अनभाउतो जी को ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १७० ।
⋙ अनभाया
वि० [हिं० अन+भावना= अच्छा लगना] [स्त्री० अनभाई] जो न भावे । जिसकी चाह न हो । अप्रिय । अरुचिकर । नापसंद । उ०—अवध सकल नर नारि विकल अति, अँकनि बचन अनभाये । तुलसी रामबियोग सोग बस समुझत नहिं समुझाए ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३६२ ।
⋙ अनभायौ पु
वि० [हिं०] अप्रिय । अनिष्ट । उ०—गरुड़ को कहा कियौ अनभावौ । जातैं यह इहि दह मैं आयौ ।—नंद ग्रं०, पृ० २८२ ।
⋙ अनभावा †
संज्ञा [हिं० अन+ भाव] भाव या प्रेम का अभाव ।
⋙ अनभावत पु
वि० [हिं०] दे० 'अनभावता' ।
⋙ अनभावता पु
वि० [हिं०] दे० 'अनभाया' । उ०—तेरै लाल माखन खायौ । ऊखल चढ़ि सीके कौ लीन्हों अनभावत भुहँ मैं ढर- कायौ ।—सूर० १० ।३३१ ।
⋙ अभावरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अन+ भावरी] नापसंद होने का भाव या स्थिति । उ०—भावरि अनभावरि भरे करौ कोरि बकवादु । अपनी अपनी भाँति कौ छुटै न सहजु सवादु ।— बिहारी र०, दो० ६३७ ।
⋙ अनिभिगम्य
वि० [सं०] जो अभिगम्य या समझने योग्य न हो । अबोध । उ०—सदैव के लिये यह उन्हें अनभिगम्य हुआ ।— प्रेमधन०, भा० २, पृ० २७५ ।
⋙ अनभिग्रह
१, वि० [सं०] भेदशून्य । समभावविशिष्ट ।
⋙ अनभिग्रह (२)
संज्ञा पुं० १. भेदशून्यता । एकरूपता । समकक्षता । २. जैन मतानुसार सब मतों को अच्छा और सब में मोक्ष मानने का मिथ्यात्व ।
⋙ अनभिज्ञ
वि० [सं०] [विं० स्त्री० अनभिज्ञा, संज्ञा अनभइजता] अज्ञ । जनजान । अनाड़ी । मुर्ख । उ०—(क) मै तब कितनी अनभिज्ञा थी प्रतिबिंचित शशि को पाकर । वीणा, पृ० ३६ । २. अपरिचित । नावाकिफ । उ०—(ख) निपट अनभिज्ञा अभी तुम हो बहिन, प्रेमिका का गर्व रखती हो वृथा ।—ग्रंथि, पृ० ७८ ।
⋙ अनभिज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अज्ञता । अनाड़ीपन । अनजानपन । मुर्खता । २. परिचय का अभाव । नावाकफियत ।
⋙ अनभिप्रेत
वि० [सं०] १. अभिप्रायविरुद्ध । अनभिमत । तात्पर्य से भिन्न । और का और । जैसे—आपने इस बात का अनभिप्रेत अर्थ लगाया है (शब्द०) । २. अनिष्ट । इच्छा के प्रतिकुल । नापसंद । जैसे—ऐसी ऐसी कार्रवाइयाँ हमें अनभिप्रेत है— (शब्द०) ।
⋙ अनभिभूत
वि० [सं०] १. जो पराजित न हो । २. अवाधित [को०] ।
⋙ अनभिमत
वि० [सं०] १. मत के विरुद्ध । राय के खिलाफ । २. तात्यर्यविरुद्ध । और का और । ३. अनभीष्ट । नापसंद ।
⋙ अनभिमान
संज्ञा पुं० [सं० अन्+ अभिमान] अभिमान का अभाव । उ०—संपत्ति में अनभिमान और युद्ध में जिसकी स्थिरता है वह ईश्वर की सृष्टि का रत्न है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २६४ ।
⋙ अनभिमानुक
वि० [सं०] किसी के प्रति दुर्भाव न रखनेवाला [को०] ।
⋙ अनभिम्लात
वि० [सं०] जो मुरझाया या कुम्हलाया न हो [को०] ।
⋙ अनभिम्लातवर्ण
वि० [सं०] जिसका वर्ण या रंग फीका या मंद न हुआ हो [को०] ।
⋙ अनभिरुप
वि० [सं०] जो सदृश या समान न हो । २. जो सुंदर न हो [को०] ।
⋙ अनभिलाष (१)
वि० [सं०] इच्छाशून्य [को०] ।
⋙ अनभिलाष (२)
संज्ञा पुं० १. भूख या इच्छा का अभाव । २. रस या स्वाद का अभाव [को०] ।
⋙ अनभिवद्य
वि० [सं०] जो अभिवदन या निर्वचन के योग्य न हो । अनिर्वचनीय । उ०—है अभिन्न, निष्कंप, अनिर्वच, अनभिवद्य है युगातीत ।—इत्यलम्, पृ० १९६ ।
⋙ अनभिवाद्य
वि० [सं०] जो वंद्य न हो । जो अभिवादन के योग्य न हो [को०] ।
⋙ अभिव्यक्त
वि० [सं०] १. जो व्यक्त न हो । अपरिस्फुट । अप्रका- शित । अप्रकट । २. गुप्त । गूढ़ । अस्पष्ट ।
⋙ अनभिशस्त
वि० [सं०] अनिंद्य । निष्कलुष [को०] ।
⋙ अनभिषंग
वि० [सं० अनभिष्ङ्ग] संबंध या संग का अभाव [को०] ।
⋙ अनभिसंधान
संज्ञा पुं० [सं० अनभिसन्धान] १. इच्छा या रुचि का अभाव । २. निस्स्वार्थना [को०] ।
⋙ अनभिसंधिकृत
वि० [सं० अनभिसन्धिकृत] बिना इच्छा या प्रवृत्ति के किया हुआ [को०] ।
⋙ अनभिसंबंध (१)
वि० [सं० अनभिसम्बन्ध] संबंधरहित [को०] ।
⋙ अनभिसंध (२)
संज्ञा पुं० संबंध का अभाव [को०] ।
⋙ अनभिस्नेह
वि० [सं०] स्नेहशून्य [को०] ।
⋙ अनभिहित
वि० [सं०] १. अकाथित । न कहा हुआ । २. बंधनहीन । अबद्ध [को०] ।
⋙ अनभीप्सीत
वि० [सं०] जो अभीप्सित या इष्ट या प्रिय न हो । उ०—अपने प्रति सदभिलाषा अनिमंत्रित और अनभीप्सित लगती है ।—सुनीता, पृ० ७० ।
⋙ अनभीशु
वि० [सं०] बिना लगाम का । वल्गा रहित [को०] ।
⋙ अनभीष्ट
वि० [सं०] १. जो अभीष्ट न हो । इच्छाविरुद्ध नापसंद । २. तात्पर्यविरुद्ध । और का और ।
⋙ अनभुत्त पु
वि० [हिं० अन+ भूत] अस्तित्वहीन । प्राणरहित । उ०—जुरत जुद्ध दिन बीय, भए अनभुत्त उभै भट ।—पृ० रा० ६१ ।२१०३ ।
⋙ अनभुवना पु †
क्रि० अ० [सं० अनुभव] अनुभव करना । उ०— बाधनी डाकरै जौरियौ पाषरैं अनभुई गोरष राया ।—गोरख०, पृ० १४४ ।
⋙ अनभेदी पु
वि० [हिं० अन+ सं० भेदिन्] भेद ज्ञान से रहित । भेद न जाननेवाला । उ०—भेदी होय सो भर भर पीवै अनभेदी भरम फिरि ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० २३ ।
⋙ अनभै पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनुभव' । उ०—(क) सकल बिध्न खंड खंड तस्मै श्रीराम रक्षा निराकार वीणा अनभै तन्त निर्भै मुक्ति जानी ।—रामानंद०, पृ० ३ । (ख) जीव सृष्टि को कीन्ह पसारा, अनभै ज्ञान कीन्ह बिस्तारा ।—कबीर सा०, पृ० ९५२ ।
⋙ अनेभो (१) पु
संज्ञा पुं० [सं०अन्=नहीं+भव=होना] अचंभा । अचरज । अनहोनी बात ।
⋙ अनभो (२) पु
वि० अपुर्व । अलौकिक । लोकोत्तर । अप्राकृतिक । अदभुत । उ०—तुम घट ही मो श्याम बताए ।००० हम मतिहीन अजान अल्पमति तुम अपभो पद ल्याए ।—सुर (शब्द०) ।
⋙ अनभोरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अन+ भोर] भुलावा । बहाली । चकमा ।क्रि० प्र०—देना । उ०—मानै न जाय गीपाल के गेह घरी घरी धाय कितकेऊ दापति । । दै अनभोरी गिराय कै अंचल गोकुल हेरि हँमांरी ह्वै झापति (शब्द०) ।
⋙ अनभ्यतुज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनज्ञा या अनुमति का अभाव [को०] ।
⋙ अनभ्यासित
वि० [सं० अन्+ अध्यसित] दे० 'अनभ्यस्त' ।
⋙ अनभ्यस्त
वि० [सं०] जिसका अभ्यास न किया गया हो । जिसका मश्क न किया गया हो । जो बार बार न किया गया हो । जैसे—यह विषय उनका अनभ्यस्त है (शब्द०) । २. जिसने अभ्यास न किया हो । जिसने साधा न हो । अपरिपक्व । जैसे—हम इस कार्य में बिलकुल अभ्यस्त है (शब्द०) ।
⋙ अनभ्यारुढ़
वि [सं० अनभ्यारुढ़] १. जिसपर सवारी न की गई हो । २. जो अधिगत या प्राप्त न हो [को०] ।
⋙ अनभ्यारोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. सवारी न करना । २. अधिकार में न करना । प्राप्त न करना [को०] ।
⋙ अनभ्यारोह्य
वि० [सं०] १. सवारी न करने योग्य । २. अप्राप्य [को०] ।
⋙ अनभ्यास
वि० [सं०] जो समीप न हो । दुर [को०] ।
⋙ अनभ्यास
संज्ञा पुं० [सं०] अभ्यास का अभाव । साधना की त्रुटि । मश्क न होना ।
⋙ अनभ्यासी
वि० [सं० अनभ्यासिन्] [स्त्री० अनभ्यासिनी] जो अभ्यास न करे । साधनाशुन्य । अभ्यासरहित । बार बार प्रयत्न न करनेवाला ।
⋙ अनभ्र
वि० [सं०] मेघरहित । बिना बादल का । उ०—प्रहे अनभ्र गगन के जलकण ।—पल्लव पृ० ८२ ।
⋙ अनभ्रवज्रपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिना बादल के बिजली गिरना । २. आकस्मिक संकट या विपत्ति [को०] ।
⋙ अनभ्रवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिना मेघ की वर्षा । २. आकस्मिक या सहसा होनेवाला लाभ [को०] ।
⋙ अनम (१) पु
वि० [सं० अनभ्र] उद्धत । बली (डिं०) ।
⋙ अनम (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी को नमस्कार नहीं करता (ब्राह्मण) [को०] ।
⋙ अनमद पु
वि० [हिं० अन+ मद] मदरहित । अहंकारहीन । गर्व- शून्य । बिना घमंड का । उ०—होय अनमद जुझ सो करिए । जो न वेद आँकुस सिर धरिए ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अनमन पु
वि० [हिं०] दे० अनमना । उ०—भरे हुए उपधन में अनमन मानव रहा अमान, भरा मद ।—आराधना, पृ० ८२ ।
⋙ अनमना
वि० [सं० अन्यमनस] [स्त्री० अनमनी] १. उदास । खिन्न । सुस्त । उचटे हुए चित्त का । उ०—(को०) लाल अनमने कत होत हौ तुम । देखो धों देखो कैसे करि ल्याइ हौं ।—सुर (शब्द०) । (ख) कत सजनी हे अनमनी अँसुवा भरति सशंक ।—मतिराम ग्रं०, पृ० ४४४ ।२. बीमार । अवस्था । जैसे—वे आजकल कुछ अनमने हैं (शब्द०) । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ अनमनापन
संज्ञा पुं० [हिं० अनमना+ पन] १. उदासी । खिन्नता । चित्त का उचाट । उ०—अनमनापन क्यों आजकल उनकी तबियत में रहता है ।—त्याग०, पृ १५ ।२. उदासीनता । बेदली । रुखाई । जैसे—वे अनमनेपन से बोले (शब्द०) ।
⋙ अनमनीय
वि० [सं० अ+ नमनीय] जो नमनीय न हो । दृढ़ । कठोर ।
⋙ अनमन्न पु
वि० [हिं०] दे० 'अनमना' । उ०—अढ़र डरहिं अनमन्न महि ढरहि अठर प्रकार ।—पृ० रा०, ५५ ।१२८ ।
⋙ अनमस्यु
वि० [सं०] नमस्कार न करनेवाला [को०] ।
⋙ अनमाँगा †
वि० [हिं० अन+माँगना] जो माँगा हुआ न हो । अयाचित ।
⋙ अनमाप पु
वि० [हिं० अन+ माप] जिसकी माप न की जा सके । अमेय । अपरिमाण । उ०—नमो निरंजन देव किन पार न पायो, अमित अथाह अतोल नमो अनमाप अजायो ।—राम० धर्म०, पृ० २२२ ।
⋙ अनमापा पु
वि० [हिं० अन+ मापना] [स्त्री० अनमापी] जिसकी माप न हो सके । जो मापा न जा सके । उ०—वह दर्द कि जिसकी अनमापी गहराई में ।—ठंढ़ा लोहा, पृ० ६९ ।
⋙ अनमाया
वि० [हिं० अन+ मायना] जो अँट न सके । जो समा न सके । उ०—भेंटी भालु भरत भरतानुज क्यों कहौं प्रेम अमित अनमायो ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अनमारग पु
संज्ञा पुं० [हिं० अन=बुरा+ मारग] १. कुमार्ग । बुरी राह । २. दुराचार । अन्याय । अधर्म । पाप । उ०— अकरम, अविधि, अज्ञान, अवज्ञा, अनमारग, अनरीति । जाकौ नाम लेत अघ उपजै सोई करत अनीति ।—सुर०, १ ।१२९ ।
⋙ अनमिख (१) पु
वि० [हिं०] दे० 'अनिमिष' । उ०—अनमिख लोचन बाल के यातें नंदकुमार ।—मितराम ग्रं०, पृ० ४५२ ।
⋙ अनमिख (२)पु
क्रि० वि० दे० 'अनमिष' । उ०—मंद मृदु मुसकानि अनमिख पेखिहौं ।—मतिराम ग्रं०, पृ० ३३० ।
⋙ अनमिख (३)पु
संज्ञा पुं० दे० 'अनिमिष' ।
⋙ अनमितंपच
वि० [सं० अनमितम्पच] १. बिना नाप जोख किए न पकानेवाला । २. कृपण । कंजुस [को०] ।
⋙ अनमित पु
वि० [हिं० अन+ मित] अमित । अपार । उ०—आरंभ कान गज आरुहें अनमित सेन उलट्टियौ ।—रा० रू० पृ० १५४ ।
⋙ अनमित्त पु
वि० [हिं०] दे० 'अनमित' । उ०—अनमित्त मत्ति बल अप्रमाई ।—पृ रा०, ६ ।१३५ ।
⋙ अनमित्ती पु
वि० [हिं० अन+मिति] दे० 'अनमित' । उ०—आवी फौज लखाँ अनमित्ती, जोवंतो मारग जगपत्ती । रा० रू०, पृ० २२५ ।
⋙ अनमित्र (१)
वि० [सं०] १. जो अमित्र या शत्रु न हो । २ जिसका कोई अमित्र या शत्रु न हो [को०] ।
⋙ अनमित्र (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अमित्र या शत्रु का अभाव । २ अयोध्या का एक राजा [को०] ।
⋙ अनमियाँ पु
वि० [सं० अ+ नमित] न झुकनेवाला । अनम्र । उ०—पिच्छम घर सोहै वर पाँमे, नर बस किया अनमियाँ नाँमे ।—रा० रु०, पृ० १२ ।
⋙ अनमिल पु
वि० [हिं० अन+ √ मिल] १. बेमेल । बेजोड़ । असंबद्ध । बेतुका । बे सिर पैर का । उ०—(क) अनमिल आखर अरथ न जापू ।—मानस, १ ।१५ । (ख) मिल्यौ यवन मदमत्त बकत कछु अनमिल बातें ।—मतिराम (शब्द०) । २.पृथक । भिन्न । अलग । निर्लिप्त । उ०—रहे अदंड दंड नहिं जुग जुग पार न पावै काला । अनमिल रहे मिले नहिं जग में तिरछी उनकी चाल । कबीर (शब्द०) ।
⋙ अनमिलत पु
वि० [हिं०] [स्त्री० अनमिलती] दे० 'अनमिल' ।
⋙ अनमिलता
वि० [हि० अनमिल+ ता (प्रत्य०)] [स्त्री०अनमिलती] अप्राप्य । अलभ्य । अदृश्य । उ०—कहै पदमाकर सु जादा कहौ कौन अब जाती मरजादा है मही की अनमिलती ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २५६ ।
⋙ अनमिला
वि० [हिं० अन+ मिलता] जो मिला न हो । बेमेल । उ०—इसी से इन अनमेल परदेशियों से विशेष मेल उत्पन्न करते ।—प्रेमधन०, भा०२, पृ० ८७१ ।
⋙ अनमिष (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अनिमिष] मछली । अनेकार्थ०, पृ० ८० ।
⋙ अनमिष (२) पु
वि० [हिं०] दे० 'अनमिष' । उ०—अनमिष नैन सुनै न ये निरखत अनिमिष नैन ।—मातिराम ग्रं० पृ० ४४७ ।
⋙ अनमिषनैनता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अनमिष+ नयन+ ता (प्र०)] पलकों के न गिरने की स्थिति या दशा । बिना पलक गिराए नेत्रों से लगातार देखने की स्थिति । उ०—तो मैं अनमिषनैनता, मोहन मुरति नैन । अनमिष नैन सुनैन ये निरषत अन मेष नैन ।—मतिराम ग्रं०, पृ० ३४३ ।
⋙ अनमी पु
वि० [सं० अ+नमित प्रा० अ+णमित्र] जो अधीन या झुका हुआ न हो । अपराजित । उ०—बारमै सूर सो करन रंग, अनमी नमाइ तिन करै भंग ।—पृ० रा०, १ ।७०९ ।
⋙ अनमीच पु
क्रि० वि० [हिं० अन+मिच] मृत्यु के बिना । बिना मौत के उ०—है धनआनंद सोच महा मरिबो अनमीच बिना जिय जीवौ ।—घनानंद, पृ० ४८ ।
⋙ अनमीलना पु
क्रि० स० [हिं० अन+ मीलता=मींचना] (आँख) खोलना । उ०—नयनन मिलि कछू अनमीलति नैसुक नीद को भाव सुभोयो ।—(शब्द०) ।
⋙ अनमुख पु
क्रि० वि० [अन्य+ मुख] अन्य मुख से । दुसरे के मुँह से । उ०—जीकारो अनमुख जुड़ै आ जगनूँ अभिलाख ।—बाँकीदास ग्रं०, भा० ३, पृ० ७८ ।
⋙ अनमूरति पु
वि० [हिं० अन+मूरति] अमुर्त । निराकार । मूर्ति- हीन । उ०—अछय अभय अनुभव अनमूरति संत सजीवन नाथ ।—गुलाब बानी, पृ० ५२ ।
⋙ अनमेष पु
वि० [हिं०] दे० 'अनिमेष' । उ०—अनमेष जपत इच्छा सघन, आनंद डर भूषन तजै ।—पृ० रा०, २५ । १०८ ।
⋙ अनमेल
वि० [हिं० अन+ मेल] १. बेमेल । बेजोड़ । असंबद्ध । २. बिना मिलावट का । विशुद्ध । खालिस ।
⋙ अनमोल
वि० [हिं० अन+ मोल] १. अमूल्य । मोलरहित । बेमोल । जिसका कोई मूल्य न हो । बहुमूल्य । २. सुदंर । उत्तम । उ०—बिकटी भ्रुकुटी बड़री आँखिया, अनमोल कपो- लन की छबी है ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १६४ ।
⋙ अनम्र
वि० [सं०] अविनीत । नम्रतारहित । उद्धत । उददंड । अकड़वाला । ऐंठवाला ।
⋙ अनय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अमंगल । दुर्भाग्य । विपद । उ०—सब कुरुगन को अनय बीज अनुचित अभिमानी ।—भारतेंदु ग्रं० । भा०१, पृ० ११७ । २. अनोति । अन्याय । दुष्ट कर्म । उ०— काल तोपची तुपक महि, दारू अनय कराल । पाप पलीता कठिन गुरु गोला पहुमी पाल ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १४७ । ३. दुर्निति । ४. व्यसन । ५. दुर्भाग्य (को०) । जुए का एक प्रकार का खेल (को०) ।
⋙ अनयन
वि० [सं०] नेत्रहीन । दृष्टिहीन । अंधा । उ०—स्याम गौर किमि कहौं बखानि । गिरा अनयन नयन बिनु बानी ।— मानस, १ ।२२९ ।
⋙ अनयस पु०
संज्ञा [हिं०] पुं० 'अनैस' ।
⋙ अनयाई पु
वि० [हिं०] दे० 'अन्यायी' उ०—सुन रे काल दुष्ट अनयाई, शब्द संग हँसा घर जाई ।—कबीर सा०, पृ० ८०४ ।
⋙ अनयाश पु
दे० [हिं०] दे० 'अनायास' । उ०—पुनि बर आकाशं मध्य निवासं किया वास अनयाशं ।—सुंदर ग्रं०, भा०, पृ० २४३ ।
⋙ अनयास पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अनायास' । उ०—(क) बासर निसि दोउ करैं प्रकासित महा कुमग अनयास ।—सूर०, १ ।९० । (ख) आनंदघन मुरलि धुनि घमँडनि ताननि झर अनयास ।—घनानंद, पृ० ४८२ ।
⋙ अनरंग पु
वि० [हिं० अन+ रंग] रंगविहीन । रंगरहित । उ०—कारौ अपनौ रंग न छांड़ै, अनरँग कबहुँ न होइ ।—सुर०, १ ।६३ ।
⋙ अनरथ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनर्थ' । उ०—(क) लखन लखेउ भा अनरथ आजु ।—मानस, २ ।७३ ।
⋙ अनरना पु
क्रि० स० [सं० अनादर से नाम०] अनादार करना । अपमान करना । उ०—(क) मधुकर मन सुनि जोग डरै । और सुमन जो अमित सुगंधित शीतल रुचि जो करै । क्यों तुम कोकहि बनै सरै औ और सबै अनरै ।—सुर (शब्द०) । (ख) कोमल विमल दल सेवत चरततल नुपुर बिमल ये मराल अनरत हैं ।—चरण (शब्द०) ।
⋙ अनरस (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अन+ रस] १. रसहिनता । बिनरसता । शुष्कता । उ०—जो मोही राम लागते मीठे । तौ नवरस, षटरस रस अनरस ह्वै जाते सब सीठे । तुलसी ग्रं०, पृ० ५४३ । २. रुखाई । कोप । मान । उ०—अनरस हुँ रसु पाइवतु रसिक रसीली पास । जैसो साँठे की कठिन, गाँठयौ भरी मिठास ।—बिहारी र०, दो० ३३० ।३. मनोमालिन्य । मनमोटाव । अनबन । बिगाड़ । बुराइ । विरोध । क्रि० प्र०—पड़ना । ४. निरानंद । दु?ख । खेद । रंज । उदासी । उ०—(क) रोवनि धोवनि अनखानि अनरसनि डिठइ मुठइ निठुर नसाइहौं ।— तुलसी ग्रं०, पृ० २७७ । (ख) भी रसु अनरसु रिस रली, रीझ खीझ इक बार ।—बिहारी र०, दो० १८७ ।५. रसविहीन काव्य । विशेष—केशव के अनुसार इसके पाँच भेद है?—(क) प्रत्यनीक रस; (ख) नीरस; (ग) विरस; (घ) दु?संधान; और (ङ) पात्र दुष्ट ।
⋙ अनरसना पु
क्रि० अ० [हिं० अनरस से नाम०] उदास होना । खित्र होना । नाराज होना । उ०—हँसे हँसत, अनरसे अनरसत, प्रतिबिंबनि ज्यों झाँई ।—तुलसी ग्रं० पृ० २७७ ।
⋙ अनरसा (१)पु
[सं० अन+ रस] अनमना । माँदा । बीमार । उ०— अगु अनरसेहि भोर के पय पियत न नीके । रहत न बैठ ठाढ़े; पालने झुलावत हु रोवत राम मेरो सो सोच सबही के ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २७४ ।
⋙ अनरसा (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अँदरसा' ।
⋙ अनरसों †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अतरसों' ।
⋙ अनराता
वि० [सं० अन्+रक्त] [स्त्री० अनराती] अरक्त । अरंजित । बिना रँगा हुआ । सादा । उ०—अनराते सुख सोवना राते नींद न आय । ज्यों जल टूटे माछरी तलफत रैन बिहाय ।—कबीर सा० सं०, भा० १, पृ० २२ ।
⋙ अनरित पु
वि० [हिं०] दे० 'अनऋतु' । उ०—अनरिति फल काहु करन, किहि कर अनरित फुल । दिव्य वस्त्र काहु करन नामा बरन अमूल ।—पृ० रा०, ६ ।५१ ।
⋙ अनरिति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अनऋतु' । किहि कर अनरित फुल ।—पृ० रा०, ६ ।५१ ।
⋙ अनरिया पु
वि० [हिं०] दे० 'अनारी' । उ०—साध संत मिल सौदा करीहैं झीखैं मुरख अनरिया ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ५५ ।
⋙ अनरीति
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्+ रीति] १. कुरीति । कुचाल । कुप्रथा । बुरी रस्म । बुरा रेवाज । २. अन्यथाचार । अनुचित व्यवहार । उ०—इतनी सुनत विभिषन बोले बंधू पाइ परौं । यह अनरीती सुनी नहीं स्रवननि अब नई कहा करौ ।— सुर०, ९ ।९७ ।
⋙ अनरुच पु
वि० [हिं० अनरुचि] जो पंसद न हो । नापसंद । अरुचिकर । उ०—दसन गए कै पचा कपोला । नैन गए अनरुच देइ बोला ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अनरुण
वि० [सं०] जो अरुण या लाला न हो । उ०—रच गए जो अधर अनरुण, बच गए जो विरह सकरुण ।—अर्चना, पृ० ६३ ।
⋙ अनरुचि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्+रुचि] १. अरुचि । घृणा । अनिच्छा । उ०—मोहन काहैं न उगिलौ माटी । बार बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिए साँटी ।— सुर०, १० ।२५४ ।
⋙ अनरुअ पु
वि० [सं० अनुरुप; प्रा० अणुरुअ] समान । तुल्य । सदृश । उ०—मुरति मनोहर चारि बिरचि बिरंचि परमारथ मई । अनरुप भूपति जानि पूरन जोग विधि संकर दइ ।— तुलसी ग्रं०; पृ० २६९ ।
⋙ अनरुप पु
वि० [सं० अन्=बुरा+ रुप] १. कुरुप । बदसूरत । २. असमान । अतुल्य । असदृश । उ०—केशव लजात जलजात जातवेद ओप; जातरुप बापुरे बिरुप सों निहारिए । मदन निरुपम निरुपन निरुप भयो, चंद बहुरुप अनरुप कै बिचारिए ।—केशव (शब्द०) । ३. रुपरहित । बिना रुप का । उ०— रुप कहाँ अनरुप पवन अनरेख ते ।—पलटु बा०, पृ० ७४ ।
⋙ अनरेख पु
वि० [हिं० अन+ रेख] बिना रेखा या पहचानवाला । उ०—रुप कहौ अनरुप पवन अनरेख ते ।—पलटू बा०, पृ० ७४ ।
⋙ अनरोम पु
वि० [हिं० अन+ सं० रोम] रोमरहित । बिना रोएँ का । उ०—अनरोम के बहु रोम, इक मात तात न खोमा ।— पृ० रा० ६३ ।५९ ।
⋙ अनर्गल
वि० [सं०] १. प्रतिबंधशून्य । बेरोक । बेरुकावट । बेधड़क । २. विचारशून्य । व्यर्थ । अंडबंड । ३. लगातार । उ०—बहै अनर्गल अश्रुधारल यह ज्यों पावस का मेह ।—एकांत, पृ० ४ ।
⋙ अनर्गलप्रलाप
संज्ञा पुं० [सं० अनर्गल+ प्रलाप] अंडबंड बोलना या बकना [को०] ।
⋙ अनर्ध
वि० [सं०] १. अमुल्य । कीमती । बहुमुल्य । २. अल्प मूल्य का । कम कीमत । सस्ता । यौ.—अनर्घराघव ।
⋙ अनर्घक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] बाजार की कीमत से अधिक या कम कीमत पर खरीदना ।
⋙ अनर्घराघव
संज्ञा पुं० [सं०] मुरारि कृत का संस्कृत नाटक [को०] ।
⋙ अनर्घविक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] बाजार भाव से अधिक या कम दाम पर बेचना । विशेष—चाणक्य ने इस अपराध में १००० पण दंड लिखा है ।
⋙ अनर्घ्य
वि० [सं०] १. अपूज्य । पूजा के अयोग्य । २. जिसका मूल्य न लगा सके । बहुमूल्य । अमूल्य । ३. कम मूल्य का (को०) ।
⋙ अनर्जित
वि० [सं०] १. अर्जित या प्राप्त न किया हुआ । न कमाया हुआ । २. अप्राप्त (को०) ।
⋙ अनर्जित आय
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह आय या लाभ जो वस्तु के एकाएक महँगे हो जाने पर उसको उत्पन्न करनेवाला या बेचने वाले को हो जाय अर्थात् जिसकी संभावना पहले न रही हो ।
⋙ अनर्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरुद्ध अर्थ । अयुक्त अर्थ । उलटा मतलब उ०—उसने अर्थ का अनर्थ किया है (शब्द०) । २. कार्य की हानि । बिगाड़ । नुकसान । उपद्रव । उत्पात । खरावी । बुराई । आपद । विपद । अनिष्ट । गजब । उ०—(क) अनरथ अवध अरंभेउ जब ते ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मै सठ सब अनरथ कर हेतु—तुलसी (शब्द०) । ३. वह धन जो अधर्म से प्राप्त किया जाय । ४. भय की प्राप्ति ।
⋙ अनर्थ (२)
वि० १. व्यर्थ । निकम्मा । २. अभागा । भाग्यविहीन । ३. खराब । त्रुटीपूर्ण । ४. तुच्छ । गरीब । ५. भिन्न या बिपरीत अर्थवाला । अर्थवीहीन । निरर्थक [को०] ।
⋙ अनर्थअनर्थानुबंध
संज्ञा पुं० [सं० अनर्थअनर्थानुबन्ध] किसी शक्तिशआली राजा को लड़ने के लिये उभाड़कर आप अलग हो जाना । यह अर्थ के भेदों में से है ।
⋙ अनर्थअर्थानुबंध
संज्ञा पुं० [सं० अनर्थाअर्थानुबंध] अपने लाभ के लिये शत्रु या पड़ोसी को धन तथा सैन्य (कोशदंड) द्धारा सहायता पहुँचाना ।
⋙ अनर्थक
वि० [सं०] १. निर्थक । अर्थरहित । जिसका कुछ अभिप्राय अर्थ न हो । २. व्यर्थ । बेमतलब । बेफायदा । निष्प्रयोजन ।
⋙ अनर्थकर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अनर्थकारी] १. बेकार काम करने वाला । २. अर्थकर या लाभदायक न हो [को०] ।
⋙ अनर्थकारी
वि० [सं० अनर्थकारिन्] [स्त्री० अनर्थकारिणी] १. विरुद्ध अर्थ करनेवाला । उलटा णतलब निकालनेवाला । २. अनिष्टकारी । हानिकारी । उपद्रवी । उत्पानी । नुकसान पहुँचानेवाला । ३. व्यर्थ काम करनेवाला ।
⋙ अनर्थत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यर्थता । २. अर्थशून्यता [को०] ।
⋙ अनर्थदर्शी
वि० [सं०अनर्थदर्शिन्] [स्त्री० अनर्थदर्शिनी] अनर्थ की और दृष्टि रखनेवाला । बुराई सोचने या चाहनेवाला । हित पर ध्यान न रखनेवाला ।
⋙ अनर्थनाशी
संज्ञा पुं० [सं० अनर्थनाशिन्] शिव [को०] ।
⋙ अनर्थनिरनुबंध
संज्ञा पुं० [सं० अनर्थानिरनबन्ध] अर्थ के भेदों में से एक । किसी हीन शक्तिवाले राजा को उभाड़कर तथा लड़ने के लिये प्रोत्साहित कर स्वयं पृथक् हो जाना ।
⋙ अनर्थबुद्धि
वि० [सं०] जिसकी बु्द्धि व्यर्थ या गई बीती हो [को०] ।
⋙ अनर्थभाव
वि० [सं०] दुष्ट प्रकृति । बुरे स्वभाववाला [को०] ।
⋙ अनर्थलुप्त
वि० [सं०] निस्सार विषयों से सुरक्षित या मुक्त [को०] ।
⋙ अनर्थसंशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐसा कार्य जिसमें भारी अनिष्ट की शंका हो । २. संपत्ति जो संकट या संदेह से मुक्त हो [को०] ।
⋙ अनर्थसंशायापद
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रुयों के साथ मित्रों की लड़ाई का अवसर ।
⋙ अनर्थसिद्ध
संज्ञा स्त्री० [सं०] चल मित्र या आक्रंद्र (वह मित्र जो शत्रु या विजीगीषु के आश्रय में हो) का मेल या संधि ।
⋙ अनर्थानर्थानुबंध
संज्ञा पुं० [सं० अनर्थानर्थानुबन्ध] किसी बल- शाली राजा को युद्ध के लिये उभाड़कर स्वयं अलग हो जाना [को०] ।
⋙ अनर्थानुबंध
संज्ञा पुं० [सं० अनर्थानुबन्ध] शत्रु का इस प्रकार नाश न होना कि अनर्थ की आशंका मिट जाय ।
⋙ अनर्थापद
संज्ञा पुं० [सं०] चारों ओर से शत्रुऔ का भय ।
⋙ अनर्थार्थसंश्य
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसी स्थिति जिसमें एख ओर तो अर्थ प्राप्ति की संभावना हो और दूसरे और अनर्थ की आशंका ।
⋙ अनर्थार्थानुबंध
संज्ञा पुं० [सं० अनर्थार्थानुबन्ध] अपने लाभ के लिये शत्रु या पड़ोसी राजा को धन और सेना द्वारा सहायता पहुँचाना [को०] ।
⋙ अनर्थ्य
वि० [सं०] अनर्थक [को०] ।
⋙ अनर्ह
वि० [सं०] अयोग्य । अनधिकारी । अपात्र
⋙ अनलंकृत
वि० [सं० अन्+अलङ्कृत] अलंकारविहीन । उ०— आकर्षित कर रहा विश्व को अनलंकृत भी अमल कमल है, सुंदरता का रुप सरल है ।—सागरिका, पृ० ७९ ।
⋙ अनलंकरिष्णु
वि० [सं० अन्+ अलङ्करिष्णु] १. जो अलंकृत न हो । २. अलंकार की इच्छा न रखनेवाला [को०] ।
⋙ अनल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । आग । २. अग्नि के अधिष्ठाता । देव (को०) । ३. पाचनशक्ति (को०) । ४. पित्त (को०) । ५. वायु (को०) । ६. अष्टवस्तुओं में से पंचन वसु (को०) । ७. एक पितृदेव (को०) । ८. परमेश्वर (को०) । ९. जीव (को०) । १०. विष्णु (को०) । ११. वासुदेव (को०) । १२. एक वानर (को०) । १३. एक मुनि (को०) । १४. कृत्तिका नक्षत्र (को०) । १५. पचासवाँ संवत्सर (को०) । १६. र वर्ण या अक्षर (को०) । १७. तीन की संज्ञा । १८. माली नामक राक्षस का पुत्र और विभीषण का मंत्री । १९. चीता । चित्रक । २०. भिलावाँ ।
⋙ अनलगी
वि० [हिं० अन+लगी] जो लगी हुई या संयुक्त न हो । अविद्यमान । उ०—लगी अनलगी सी जु बिधि करी खरी कटि खीन । किए मनौ वै ही कसर कुच नितंब अति पीन ।— बिहारी दो० ६६४ ।
⋙ अनलचुर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] बारुद । दारू ।
⋙ अनलद
वि० [सं०] अग्नि को शांत करनेवाला (जल) [को०] ।
⋙ अनलदीपन
वि० [सं०] पाचनशक्ति बढ़ानेवाला [को०] ।
⋙ अनलपंख पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनलपक्ष' । उ०—गौन किया सत लोक से, अनलपंख की चाल ।—कबीर ग्रं०, पृ० ४१५ ।
⋙ अनलपंखी पु
संज्ञा पुं० [सं० अनल+ पक्षी] दे० 'अनलपक्ष' उ०— अनलपंखी आकाश मै उड़ैं बहुत करि जोर ।—सुंदर ग्रं० भा० २, पृ० ७६८ ।
⋙ अनलपंखचार पु
संज्ञा पुं० [सं० अनलपक्ष+ चर] हाथी (ड़ि०) ।
⋙ अनलपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक चिड़िया । विशेष—इसके विषय में कहा जाता है कि यह सदा आकाश में उड़ा करती है और अंडा देती है । इसका अंडा पृथ्वी पर गिरने से पहले पककर फूट जाता है और बच्चा अंड़े से निकल कर उड़ता हुआ अपने माँ, बाप से जा मिलता है ।
⋙ अनलप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष्मती नाम की लता [को०] ।
⋙ अनलप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निपत्नी । अग्येयी । स्वाहा [को०] ।
⋙ अनलमुख (१)
वि० [सं०] जिसका मुख अग्नि हो । जो अग्नि द्वारा पदार्थों को ग्रहण करे ।
⋙ अनलमुख (२)
संज्ञा पुं० १. देवता । २. ब्राह्मण । ३. चिता । चित्रक । ४. भिलावाँ ।
⋙ अनलशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आग की लपट । उ०—मेरे स्वर की अनलशिखा से जला सकल जग जीर्ण दिशा से ।—गीतिका पृ० १३ ।
⋙ अनलस
वि० [सं० अन्+ अलस] आलस्यरहित । बिना आलस्य का । फुर्तिला । चैतन्य ।
⋙ अनलसाद
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निमांद्द रोग । मंगाग्नि [को०] ।
⋙ अनलसित
वि० [सं०] आलस्यहीन । उ०—मेरा चितारहित अनल सित वारि बिंब सा विमल हृदय ।—पलल्व, पृ० १०४ ।
⋙ अनलहक
संज्ञा पुं० [अ० अनलहक] मैं सत्य हूँ । मै ब्रह्मन हूँ । उ०— दुई खुदी हस्ती जब मेटे निरंकार कहलैहों । गगन भूमि में राज हमारो, अनलहक धूम मचैहौं ।—पलटू० बानी, भा० ३, पृ० ३ ।
⋙ अनलहता पु
वि० [हिं० अन+लहता] अलब्ध । अप्राप्त । अनुचित । उ०—दिन प्रति सबै उरहने कैं मिस, आवति है उठि प्रात । अनलहते अपराध लगावति विकट बनावति बात ।—सुर०, १० ।३२६ ।
⋙ अनलहना पु
संज्ञा पुं० [हिं० अन+ लहना] लाभ न होना । प्राप्ति न होना । कुछ न मिलना । उ०—मकर बीच सूरज को गहना, उपजैं चोर होइ अनलहना ।—इंद्रा०, पृ० १३२ ।
⋙ अनला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दक्ष प्रजापति की एक कन्या । विशेष—यह कश्यप ऋषि की पत्नियों में से थी । यह फलवालेसंपुर्ण वृक्षों की माता कही जाती है । २. माल्यवान् नामक राक्षस की एक कन्या ।
⋙ अनलायक पु
वि० [हिं० अन+ अ० लायक] नालायक । अयोग्य । उ०—अनलायक हम हैं कि तुम हौ कहौ न बात उधारि ।— सुर० (शब्द०) ।
⋙ अनलि
संज्ञा पुं० [सं०] बक वृक्ष [को०] ।
⋙ अनलेख पु
वि० [सं० अन=नहीं+लक्ष्य=देखने योग्य] अलख । अदृश्य । अगोचर । उ०—आदि पुरुष अनलेख है सहजै रहा समाय ।—दादु (शब्द०) ।
⋙ अनल्प
वि० [सं०] थोड़ा नहीं । बहुत । अधिक । ज्यादा ।
⋙ अनल्पघोष
संज्ञा पुं० [सं०] कोलाहल [को०] ।
⋙ अनल्पमन्यु
वि० [सं०] बहुत अधिक क्रुद्ध [को०] ।
⋙ अनल्ल पु
संज्ञा पुं० [सं० अनल] अग्नि । उ०—मिले कमलासन और वसिष्ठ, कियौ सुचि कुंड अनल्ल सुइष्ट ।—हम्मीर, रा०, पृ० ९६ ।
⋙ अनवकांक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० अनवकाङक्षा] १. अनिच्छा । निरपे- क्षता । निस्पृहता । २. जैनशास्त्रानुसार किसी परिणाम के लिए आतुर न होना । विशेष—जो जैन साधु मृत्यु की कामता से अनशन व्रत करते है और घबराते नहीं उनको अनवकांक्षमाण कहते हैं ।
⋙ अनवकाश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अवकाश का अभाव । फुरसत न होना ।
⋙ अनवकाश (२)
वि० अवकाशहीन । बिना फुरसत का [को०] ।
⋙ अनवकाशिक पु
संज्ञा पुं० [सं०] एक पैर से खड़े होकर तप करनेवाला ऋषि ।
⋙ अनवगत
वि० [सं०] जो अवगत या जाना हुआ न हो । अज्ञात । उ०—सरल उर की सी मृदु आलाप अनवगत जिसका गान ।—पल्लव, पृ० ७५ ।
⋙ अनवगम्य
वि० [सं०] समझ में न आने योग्य । जो जाना न जा सके [को०] ।
⋙ अनवगाह
वि० [सं०] अथाह । गंभीर । बहुत गहरा ।
⋙ अनवगाहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंभीरता । गहराई ।
⋙ अनवगाही
वि० [सं० अनवगाहिन्] १. गोता या डुबकी लगानेवाला २. अध्ययन न करनेवाल [को०] ।
⋙ अनवगाह्य
वि० [सं०] दे० 'अनवगाह' ।
⋙ अनवगोत
वि० [सं०] अनिद्य । अनिंदित [को०] ।
⋙ अनवग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिबंधशून्य । स्वच्छंद । जो पकड़ में न आए । जिसे कोई रोक न सके ।
⋙ अनवच्छ़ पु
वि० [सं० अनवच्छिन्न] अखड़ित । अटूट । उ०— उच्छलत सुजस विलच्छ अनवच्छ दिच्छ दिच्छनहूँ छीरधि लौं स्वच्छ छाइयतु है ।—पद्माकर ग्रं०, पृ ३०५ ।
⋙ अनवच्छिन्न
वि० [सं०] १. अखंडित । अटूट । २. पृथक् न किया हुआ । जुड़ा हुआ । संयुक्त । यौ.—अनबच्छिन्न संख्या=गणित में वह संख्या जिसका किसी वस्तु में संबंध हो । जैसे; चार घोड़े, पाँच मनुष्य ।
⋙ अनवट (१)
संज्ञा पुं० [देश०] पैर के अँगूठे में पहनने का एक प्रकार का छल्ला । उ०—अनवट बिछिया नखत तराई । पहुँचि सकै को पायँन ताइँ—जायसी ग्रं०, पृ० ४० ।
⋙ अनवट (२)
संज्ञा पुं० [सं० नयन, हिं० अयन+ओट या सं० अंध+ पट या देशी] कोल्हू के बैल की आँखों की पट्टी या ढक्कन । ढोका ।
⋙ अनवद्य
वि० [सं०] अर्निद्य । निर्दोष बेऐब । उ०—हमरें जान सदासिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ।— मानस, १ ।९० ।
⋙ अनवद्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्दोषिता । दोष का अभाव । उ०— सत्य की अनवद्यता से आ गए विस्तार में ।—बेला, पृ० ७४ ।
⋙ अनवद्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] अनवद्यता [को०] ।
⋙ अनवद्यरुप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दोषरहित रुप । वह रुप जिसमें कोई दोष न हो [को०] ।
⋙ अनवद्यरुप (२)
वि० [सं०] निर्दोष रुपवाला [को०] ।
⋙ अनवद्यांग
वि० [सं० अनवद्यङन] [स्त्री० अनवद्याङ्नी] सुंदर अंगोंवाली । सूड़ौल । खूबसूरत ।
⋙ अनवद्राण
वि० [सं०] न सोनेवाला । अनिद्रित [को०] ।
⋙ अनवधर्ष्य
वि० [सं०] जिसको घर्षित न किया जासके [को०] ।
⋙ अनवधान
संज्ञा पुं० [सं०] आसावधानी । अमनोयोग । चित्तविक्षेप । प्रसाद । गफलत । बेपरवाही ।
⋙ अनवधानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ध्यानहीनता । लापरवाही । असावधानी । गफलत । उ०—उसने अनवधानता से उस प्रश्न को टाल दिया ।—कंकाल, पृ० १४३ ।
⋙ अनवधि (१)
वि० [सं०] असीम । बेहद । बहुत ज्यादा ।
⋙ अनवधि (२)
क्रि० वि० निरंतर । सदैव । हमेशा ।
⋙ अनवन (१)
वि० [सं०] अरक्षाकर । विपत्तिकारक [को०] ।
⋙ अनवन (२)
संज्ञा पुं० अरक्षा [को०] ।
⋙ अनवनामितवैजयंत
संज्ञा पुं० [सं० अनवनामितवैजयन्त] भावी विश्व जिसमें विजयध्वजा बराबर ऊँची रहेगी (बौद्ध) ।
⋙ अनवपुरण
वि० [सं०] असंयुक्त पर चारों ओर फैलनावाला [को०] ।
⋙ अनवबुध्यमान
वि० [सं०] जो बुद्धिहीन या विकृत बु्द्धिवाला न हो [को०] ।
⋙ अनवभ्र
वि० [सं०] १. जो अक्षुण हो । २. जो नश्वर न हो । ३. स्थायी [को०] ।
⋙ अनवम
वि० [सं०] १. जो तुच्छ क्षुद्र न हो । २. उदात्त । श्रेष्ठ [को०] ।
⋙ अनवय पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्व्य] वंश । कुल । खानदान ।
⋙ अनवर
वि० [सं०] १. जो कनिष्ठ न हो । २. श्रेष्ठ । बड़ा । ३. जो न्यून न हो [को०] ।
⋙ अनवरत
क्रि० वि० [सं०] निरंतर । सतत । अदस्र । अहर्निश । सदैव । लगातार । हमेशा । उ०—अनवरत उठे कितनी उमंग ।—कामायनी, पृ० १६४ ।
⋙ अनवरार्ध्य
वि० [सं०] १. मुख्य । प्रधान । २. सर्वोत्तम [को०] ।
⋙ अनवरोध (१)
वि० [सं०] बिना रोक या बाधा का । निरंतर । अबाध । उ०—सरस ज्ञान अनवरोध करता नर रुधिरपान ।— गीतिका, पृ० ७० ।
⋙ अनवरोध (२)
संज्ञा पुं० अवरोध का अभाव [को०] ।
⋙ अनवलंब (१)
वि० [सं० अनवलम्ब] बिना अवलंब का । बेसहारा [को०] ।
⋙ अनवलंब (२)
संज्ञा पुं० स्वतंत्रता । अवलंब का अभाव [को०] ।
⋙ अनवलंबन (१)
वि० [सं० अनवलम्बन] जिसे अवलंब या सहारा न हो [को०] ।
⋙ अनवलंबन (२)
संज्ञा पुं० स्वतंत्रता [को०] ।
⋙ अनवलंबित
वि० [सं० अनवलाम्बित] आश्रयहीन । निराधार । बेसहारा ।
⋙ अनवलाप
वि० [सं०] वचनशून्य । मौन । उ०—हुए शीर्ण खो खोकर, अनक्लाप रो रोकर ।—अर्चना, पृ० १४ ।
⋙ अनवलेप
वि० [सं०] १. अभिमानशून्य । २. अवलेप या लेप से रहित [को०] ।
⋙ अनवलोभन
संज्ञा पुं० [सं०] एक संस्कार जो गर्भ के तृतीय मास में किया जाता है [को०] ।
⋙ अनवसर
संज्ञा पुं० [सं०] १. निरवकाश । फुरसत का न होना । २. कुसमय । बेमौका । उ०—सोई लंका लखि अतिथि अनवसर राम तृनासर (सन) ज्यों दई ।—तुलसी ग्रं० पृ० ३८८ । । ३. जयवंत जसोभूषण के अनुसार वह काव्यालंकार जिसमें किसी कार्य का अनवसर होना या करना वर्णन किया जाय ।
⋙ अनवसादन
वि० [सं०] अवसाद या विषाद न करनेवाला । उ०— सहज रिमझिम बाद रिन रिन अनवसादन ।—गीतगुंज, पृ० ५८ ।
⋙ अनवसान
वि० [सं०] १. अंत से रहित । २. मृत्युहीन [को०] ।
⋙ अनवसित
वि० [सं०] १. असमाप्त । उ०—बह चली सलिला अनवसित, ऊँमिजा जैसे उतारी ।—अर्चना, पृ० १०४ । २. जो अस्त न हुआ हो (को०) ।
⋙ अनवसितसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अनवसित सन्धि] जंगल या ऊसर जमीन बसाने के संबंध में दो पुरुषों या राष्ट्रों की संधि । औपनिवेशक संधि । विशेष—औपनिवेशक संधि के विषय में चाणक्य ने लिखा है कि यह प्राय? विवादग्रस्त विषय है कि स्थलीय या जलप्राय भूमि में उपनिवेश की दृष्टि से कौन सी भूमि उत्तम है । साधारणत? जलप्राय भूमि ही उत्तम मानी जाती है ।
⋙ अनवसिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक छंद या वृत्त [को०] ।
⋙ अनवस्थ
वि० [सं०] १. अस्थिर । चंचल । उतावला । अधीर । २. अव्यवस्थित । डावाँडोल ।
⋙ अनवस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्थितिहीनता । अव्यवस्था । अनिय- मितता । उ०—यह अनवस्था युगल मिले से विकल व्यवस्था सदा बिखरती ।—कामायनी, पृ० २७१ ।२. व्याकुलता । आतुरता । अधीरता । ३. न्याय में एक प्रकार का दोष । विशेष—इस प्रकार का तर्क और अन्वेषण जिसका कुछ और छोर न हो । यह उस समय होता है जब तर्क भी समाप्त न हो । जैसे कारण का कारण, उसका भी कारण, फिर उसका कारण ।
⋙ अनवस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्थिरता । २. अनिश्चिचतता । ३. आचरणभ्रष्टता । ४. वायु [को०]
⋙ अनवस्थायी
वि० [सं० अनवस्थायिन्] क्षणस्थायी [को०] ।
⋙ अनवस्थित
वि० [सं०] १ अस्थिर । अधीर । चंचल । अशांत । क्षुब्ध । २. बेठिकाना । बेसहारा । निराधार । निरवलंब ।
⋙ अनवस्थितचित्त
संज्ञा पुं० [सं०] अस्थिर चित्त या बु्द्धिवाला [को०] ।
⋙ अनवस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अस्थिरता । चंचलता । अधीरता । अनिश्चितता । २. अवलंबशून्यता । आधारहीनता । ३. योग- शास्त्र के अनुसार समाधि प्राप्त हो जाने पर भी चित्त का स्थिर न होना ।
⋙ अनवहित
वि० [सं०] असवधान । बेखबर । बेपरवाह ।
⋙ अनवह्वर
वि० [सं०] जो टेढ़ा न हो । सीधा । ऋजु [को०] ।
⋙ अनवाँसना पु
क्रि० स० [सं० नव+ हिं० बासन] [नए बरतन को पहले पहल काम में लाना ।
⋙ अनवाँसा
संज्ञा पुं० [सं० * अत्रकांड़ांश>] प्रा०* अन आ अंश> अनवा अंप्त अथवा सं० अण्वंश] १. कटी हुई फसल का एक बड़ा मुट्ठा या पूला । औंसा । २. एक अनवाँसी भूमि में उत्पन्न अन्न ।
⋙ अनवाँसी
संज्ञा स्त्री० [सं० अणु=छोटा+ वंश> बाँसा=नाप] एक बिस्वे का १/४००वाँ भाग ।विस्वांसी का बीसवाँ हिस्सा ।
⋙ अनवाद पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्=बुरा+बाद=वचन] बुरा वचन । कटु भाषण । कुबोल । उ०—कूँजरी ऊजरी बाल बहेवा सों मेवा के मोल बढ़ावति झूठे । रूप की साठी के तौलति घाटि बदै अनबाद ददै फल जूठे ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अनवाप्त
वि० [सं०] न पाया हुआ । अप्राप्त । अलब्ध ।
⋙ अनवाप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्राप्ति । अनुपलब्धि । न पाना ।
⋙ अनवाय
वि० [सं०] अबाध । नर्विघ्न[को०] ।
⋙ अनवेक्ष
वि० [सं०] १. लापरवाह । २. उदासीन [को०] ।
⋙ अनवेक्षक
वि० [सं०] दे० 'अनवेक्ष' [को०] ।
⋙ अनवेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. असावधानता । २. निरखने या निरीक्षण का अभाव । ३. उदासीनता [को०] ।
⋙ अनवेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अनवेक्षण' [को०] ।
⋙ अनशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपवास । अन्नत्याग । निरहार व्रत । २. जैन शास्त्रानुसार मोक्षप्राप्ति के लिये मरने के कुछ दिन पहले ही अन्न जल का सर्वथा त्याग । ३. राजनोतिक दबाव डालने के लिये अन्न का त्याग करना ।
⋙ अनश्वर
वि० [सं०] नष्ट न होनेवाला । अमिट । अटल । स्थिर । कार्यम रहनेवाला ।
⋙ अनसखड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अनसखरी' । उ०—बालभोग कौ महाप्रसाद अनसखड़ी तथा दुध की (समग्री) आगे धरी ।—दे सौ बावन०, भा० १. पृ० ८ ।
⋙ अनसखरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अन=अन्न+सखरी=संस्कृत] निखरी । पक्की रसोई । घी में पका हुआ भोजन ।
⋙ अनसत्त
वि० [हिं० अन+ सत्त] असत्य । झूठ । उ०—घर जाऊँ तो नंद पै खात बरा दधि प्यारे । सपने अनसत्त किधौ सजनी घर बाहिर होत बड़े घरवारे । केशव (शब्द०) ।
⋙ अनसन †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनशन' । उ०—उसके लिये हमको अनसन करना होगा ।—मैला०, पृ० १९ ।
⋙ अनसनमाना पु
वि० [हिं० अन+ सनमान] असंमानित । उ०— कैइक रहे ताहि अरमाने, अक्रूरादिक अनसनमाने ।—नंद०, ग्रं०, पृ० २२४ ।
⋙ अनसमझ
वि० [हिं० अन+ समझ] नासमझ । उ०—तू इतना अनसमझ क्यों है प्रमोद ।—त्याग०, पृ० २० ।
⋙ अनसमझा पु
वि० [हिं० अन+ समझ] १. जिससे न समझा हो । नासमझ । उ०—समुझे का घर और है अनसमझे का और ।—कबीर (शब्द०) । २. अज्ञात । बिना समझा हुआ ।
⋙ अनसमुझा पु
वि० [हिं०] दे० 'अनसमझा' । उ०—अनसमुझे अनुसोचने अवसि समुझिये आपु ।—स० सप्तक, पृ० ५२ ।
⋙ अनसहत पु
वि० [हिं० अन+ सहना] असह्य । असहनीय । जो सहा न जाय । उ०—गाज सो परति अनसहत विपच्छिन पै मत्त गजराजन के घंटा गरजत ही ।—चरण (शब्द०) ।
⋙ अनसाना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अनखाना' ।
⋙ अनसुनी
वि० [हिं० अन+ सुनता] अश्रुत । बेसुती । बिना । सुनी हुई । मु०.—अनसुनी करना=जानबूझ कर सुनी हुई बात को बेसुनी करना या टालना । आनाकानी करना । बहटियाना ।
⋙ अनसूय
वि० [सं०] असूया रहित । पराए गुण में दोष न देखनेवाला । अछिद्रन्वेषी ।
⋙ अनसूयक
वि० [सं०] दे० 'अनसुय' [को०] ।
⋙ अनसूया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पराए गुण में दोष न देखना । नुक्ता- चीनी न करना । २. अत्रि मुनि की स्त्री ।
⋙ अनसूयु
वि० [सं०] दे० 'अनसूय' [को०] ।
⋙ अनसूरि
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धिमान् व्यक्ति । विद्धान् व्यक्ति [को०] ।
⋙ अनसोची
वि० [हिं० अन+सोची] बिना सोची हुई । उ०— प्रियतम अनसोची ध्यान में भी न आई ।—प्रिय प्र०, पृ० ७७ ।
⋙ अनस्त
वि० [सं०] जो अस्त न हो । अस्त न होनेवाला । उ०—अनस्त अस्त ह्वै गम गुरुस्त रस्त छोड़हीं ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २०६ ।
⋙ अनस्तमित
वि० [सं०] १. जो अस्त न हुआ हो । २. जिसका पतन न हो [को०] ।
⋙ अनस्तित्व
वि० पुं [सं०] अविद्यमानता । सत्ता का अभाव । उ०— घू घू करता नाच रहा था अनस्तित्व का तांडव नृत्य ।—कामा- यनी, पृ० २० ।
⋙ अनस्थ
वि० [सं०] दे० 'अनस्थि' [को०] ।
⋙ अनस्थक
वि० [सं०] दे० 'अनस्थि' [को०] ।
⋙ अनस्थि
वि० [सं०] अस्थिहीन । बिना हड़ड़ी का [को०] ।
⋙ अनस्थिक
वि० [सं०] दे० 'अनस्थि' [को०] ।
⋙ अनह
संज्ञा पुं० [सं० अनहन्] १. दिन का अभाव । २. अदिन । बुरा दिन [को०] ।
⋙ अनहक्क पु
वि० [हिं० अन+ अ० हक] बिना हक या सत्य या ईश्वर का । उ०—हरिया एकै हक्क बिन सब दिन जाहि अनहक्क ।—राम० धर्म०, पृ० ६९ ।
⋙ अनहड़ पु
वि० [हिं० अन+ सं० घट] १. विचित्र । २. विकट । कठिन । उ०—भीखा ब्रह्मासरुप प्रगट पर अनहड़ बड़ा तासु मिलना ।—भीखा० बानी, पृ० ७० ।
⋙ अनहद (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनहदनाद' । उ०—द्वार न धैरुँ पवन न रोकै नहिं अनहद उरझावै ।—कबीर श०, पृ० ४६ ।
⋙ अनहद (२)
वि० [हिं० अन=अभाव+अ० हद=सीमा] सीमारहित । असीम । उ०—ऊँधो राखियै वह बात । कहन हौ अनगही अनहद, सुनत ही चपि जात ।—सूर०, १० ।३९०२ ।
⋙ अनहद नाद
संज्ञा पुं० [सं० अनाहत+ नाद] योग का एक साधन । वह नाद या शब्द जो दोनें हाथों के अँगूठों से दोनों कोनों की लवें बंद करके ध्यान करने से अपने ही भीतर सुनाई देता है । उ०—हृदय कलम तै जोति बिराजै । अनहदनाद निरंतर बाजै ।—सुर०, १० ।४०९४ ।
⋙ अनहद्द (१) पु
वि० [हिं०] दे० 'अनहद' । उ०—(क) कृत व्यक्त रक्त स्त्रोतस्विनी जत्र तत्र अनहृद्द भुअ ।—भिखारी ग्रां०, भां० २, पृ० १८२ ।
⋙ अनहद्द (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनहदनाद' । उ०—सहस और द्वादहो रूह हें संग में करत किलोल अनहद्द बजाई ।—कबीर मं०, पृ० ५७६ ।
⋙ अनहार पु †
वि० [हिं० √ आन+हार (प्रत्य०)] आननेवाला । ले आनेवाला । उ०—खेलत रहलौं बाबा चौबरिया आइ गए अनहार हो—धरम०, ३४ ।
⋙ अनहित पु
संज्ञा पुं० [हिं० अन+हित] १. अहित । अपकार । बुराई । हानि । अमंगल । उ०—अनहित तोर प्रिया केहि कीन्हा । केहि दुइ सिर केहि जम चह लीन्हा ।—तुलसी (शब्द०) । २. अहितचिंतक । अपकारी । शत्रु । उ०—बंदउँ संत समान चित, हित अनहित नहिं कोउ ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अनहितू
वि० [हिं० अन+ हितु 'मित्र'] अहितचिंतक । अमित्र । अबंधु । शत्रु । अपकारी । बुराई सोचने या करनेवाला ।
⋙ अनहुआ
वि० [हिं०+ हुआ] अघटित । जो न हुआ हो । उ०— अनहुआ उसे नहीं किया जा सकता ।—सुखदा, पृ० ११३ ।
⋙ अनहूबा पु
वि० [हिं० अन+भूत प्रा० हूब हूअ] अनहोनी । अलौकिक । उ०—अनहूबै की बात कछू प्रकट भई सी जान ।— भुषण ग्र०, पृ० ५८ ।
⋙ अनहोता
वि० [हिं० अन+ होना] [स्त्री० अनहोती] १. जिसे कुछ न हो । दरिद्र । गरीब । निर्धन । उ०—'हे सखी तेरी इस अंग न को अच्छे गहने कपड़े चाहिए थे, ये आश्रय कि फुल पत्ते तो अनहोती को है' । शकुंतला, पृ० ६९ ।२. अनहोना । अलौकिक । अचेंभे का । उ०—पलुही मै होती अनहोती करतु है ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ४४३ ।
⋙ अनहोनी (१)
वि० स्त्री० [हिं० अन+ होन,] न होनेवाली । अलौकिक । असंभव । अनहोती । अचेंभे की ।
⋙ अनहोनी (२)
संज्ञा स्त्री० असंभव बात । अलौकिक घटना । उ०— अनहोनी कहुँ भई कन्हैया देखी सुनी न बात । या तौ आहि खिलौना सब कौ खान कहत तिहि तात ।—सुर०, १० ।१८९ ।
⋙ अनाई पठाई
संज्ञा स्त्री० [सं० √ आनय+हिं० ई (प्रत्य०) +सं० √ प्रथा>पट्ठाहिं० ई (प्रत्य०)] विवाह हो जाने पर दुल- हिन के तीन बार ससुराल से बाप के घर आने जाने के पीछे बराबर आने जाने को अनाई पठाई कहते हैं ।
⋙ अनाकनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० दे० 'अनाकानी' । उ०—(क) नीकी दई अनाकनी, फीकी परी गुहार । तज्यौ मनौ तारन बिरद, बारक बारनू तारि ।—बिहारी र०, दो० ११ । (ख) कीनी अनाकनी औ मुख मोरि सुजोरि भुजा, भटू भेटत ही बन्यौ ।— देव (शब्द०) ।
⋙ अनाकानी
संज्ञा स्त्री० [सं० अनाकर्णन] सुनी अनुसुनी करना । जान बुझकर बहलाना । टालमटोल । बहटियाना । उ०— केती अनाकानी कै जँभानी अँगिरानी पै न अतर की पीर बहराए बहरानी है ।—भिखरी० ग्र०, भा०, १. पृ०, १४३ ।
⋙ अनाकार
वि० [सं०] १. निराकार । आकाररहित । २. परमात्मा का एक विशेषण (को०) ।
⋙ अनाकाल
संज्ञा पुं० [सं०] अकाल । दुर्भिक्ष [को०] ।
⋙ अनाकालभृत
संज्ञा पुं० [सं०] अकाल पड़ने पर दास कर्म करनेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ अनाक्रांत
वि० [सं० अनाक्रान्त] [स्त्री० अनाक्रान्तता] जो अक्रांत न हो । अपीड़ित । अरक्षित ।
⋙ अनाक्रांतना
संज्ञा पुं० [सं० अनाक्रान्तता] रक्षा । अपीड़ा । आक्रांतता का अभाव ।
⋙ अनाखर
वि० [सं० अनक्षर] जो छील छालकर दुरुस्त न किया गयो हो । बेडौल । बेढंगा ।
⋙ अनागत (१)
वि० [सं०] १. न आया हुआ । अनुपस्थि । अविद्यमान । अप्राप्त । २. आगे आनेवाला । भावी । होनहार । ३. अपरिचित । अज्ञात । बेजाना हुआ । ४. अकस्माप् । अचानक । सहसा । एकाएक । उ०—(क) सुने हैं श्याम मधुपुरी जात । सकुचनि कहि न सकति काहुं सों गुप्त हृदय की बात । संकित बचन अनागत कोऊ कहि जो गई अधरात । —सुर० (शब्द०) । ५. अनादि । अजन्मा । उ०—नित्य अखंड अनूप अनागत अविगत अनध अनंत । जाको आदि कोऊ नाहिं जानत कोउ न पावत अंत ।—सुर० (शब्द०) । यौ०.— अनागत विधाता । ६. अपुर्व । अदभुत । उ०—इत रुचि दृष्टि मनोज महासुख, उत सोभागुन अमित अनागत ।—सुर०, १० ।२१२३ ।
⋙ अनागत (२)
संज्ञा पुं० संगीत के अंतर्गत ताल का एक भेद । उ०— सुर सति तान बंधान अमित अति सप्त अतीत अनागत आवत ।—सुर०, १० ।६४८ ।
⋙ अनागतविधाता
संज्ञा पुं० [सं०] आनेवाली आपत्ति के लक्षण को जानकर उसके निवारण का पहले ही से उपाय करनेवाला व्यक्ति । अग्रसोची या दुरंदेश आदमी ।
⋙ अनागतातर्तवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमारी । गोरी । बालिका । जो कन्या रजोधर्मिणी न हुई हो । अजातरस्का ।
⋙ अनागम
संज्ञा पुं० [सं०] आगमन का अभाव । न आना । उ०— सौचे अनागम कारन कंत मोचै उसासनि आँसहु मोचै ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० १२१ ।
⋙ अनागत
वि० [सं० अनागस्] पापरहित । निर्दोष निर्मल । उ०— सुराभक्त वह मुक्त अनागस ।—मधुज्वाल, पृ० १२ ।
⋙ अनाघात
संज्ञा पुं० [ सं० ] संगीत के अंतर्गत तालविशेष । वह विराम जो गायन मे चार मात्राओं के बाद आता हे और कभी कभी सम का काम देता है ।
⋙ अनाचार (१)
संज्ञा पु० [ सं० ] १ कदाचार । भ्रष्टता । दुराचार । निंदित आचरण । कु्व्यवहार । २. कुरीति । कुचाल । कुप्रथा ।
⋙ अनाचार (२)
वि० १. जो विशिष्ट न हो । २. जो भद्र न हो । अभद्र । ३. विचित्र [ को० ] ।
⋙ अनाचारिता
संज्ञा स्त्री० [ सं० ] १. दुष्टता । दुराचारिता । निंदित आचरण ।२. कुरीति । कुचाल ।
⋙ आनचारी
वि० [ सं० अनाचारिन ] [ स्त्रीं अनाचारिणी ] आचारहीन । भ्रष्ट । पतित । कुचाली । दुराचारी । बुरे आचरणवाला ।
⋙ अनाज
संज्ञा पुं० [ सं० अन्नाध्द, प्रा० अन्नजु>अनाज ] अन्न । धान्य । नाज । दाना । गल्ला ।
⋙ अनाज्ञप्त
वि० [ सं० ] जिसकी आज्ञा न दी गई हो [ को० ]
⋙ अनाज्ञप्तकारी
- विं० [सं० अनाज्ञप्तकारिन् ] जिस कार्य की आज्ञा न हो उसे करनेवाला [को०]
⋙ अनाज्ञाकारिता
संज्ञा स्त्री० [ सं० ] आज्ञा न मानना । आदेश पर न चलना ।
⋙ अनाज्ञाकारी
वि० [ सं० अनाज्ञाकारिन ] [ अनाज्ञाकारिणी ] जो आज्ञा न माने । जो आदेश पर न चले । बेकहा ।
⋙ अनाज्ञात
वि० [ सं० ] १. अज्ञात । २. पूर्व ज्ञात से बढा हुआ [ को०] ।
⋙ अनाडी़
वि० पु० [ सं० अनार्य = अपठीत, अशिक्षित प्रा० अनारिय अथवा सं० अज्ञानी प्रा० अनारगी] १. नासमझ । नादान । गँवार । अनजान । उ० —अनाडी के हाथ पडा मोती की सी कपूरमंजरी की दशा हे ।—भारतेंदु ग्रं, भा, १. पृ०३६८ । २. जो निपुण न हो । अकुशल ।अदक्ष । जैसे—यह किसी अनाडी कारीगर को मत देना (शब्द) ।
⋙ अनाढ्य
वि० [वि० स्त्री० अनाढ्या] असंम्पन्न । द्रब्यहीन । दरिद्र । कंगाल । गरीब ।
⋙ अनातत
वि० [सं०] १. जो फेला हुआ न हो । २. जो खीँचा या ताना हुआ हो [ को०] ।
⋙ अनातप (१)
संज्ञा पुं० धूप का अभाव छाया ।
⋙ अनातप (२)
वि० १. आतपरहित । जहाँ धूप न हो । २. ठंढा । शीतल ।
⋙ अनातम(पु)
वि० [ सं० अनात्म] दे० 'अनात्म' । उ०— सुनि शिष्य यहै मत सांखही कौ जु अनातम आतम भीन्न करे ।—सुंदर० ग्र०, भा० १. । पृ० ५०.
⋙ अनातुर
वि० [सं०] [स्त्री० अनातुरा ] १. जो आतुर या उत्कठिंत न हो । २. उदासीन । ३.अक्लांत । ४.अविचलित । धीर । ५.स्वस्थ । रोगरहित । निरोग ।
⋙ अनात्म (१)
वि० [सं० अनात्मन् ] आत्मारहित । जड़ ।
⋙ अनात्म
संज्ञा० पु० आत्मा को विरोधी पदार्थ । अचित । पंचभूत ।
⋙ अनात्मक
वि० [सं०] १. जो यथार्थ न हो २. क्षणिक ।३. बौद्ध मत से जगत् या संसार का विशेषण [को०] ।
⋙ अनात्मकदुःख
संज्ञा पु० [ सं० ] १.अज्ञानजनित दु?ख । सांसरिक आधिव्याधि । भय । बाधा । २. जैन शास्त्रनुसार इस लोक और परलोक दोनो के दु?ख ।
⋙ अनात्मज्ञ
वि० [सं०] आत्मज्ञान से रहित । अज्ञ [को]
⋙ अनात्मधर्म
संज्ञा पु० [ सं० ] शारीरिक धर्म । देह का धर्म ।
⋙ अनात्मनीन
वि० [सं०] १. जो अपना न हो । २. जो काम या लाभ के लिये न हो । ३.निरस्वार्थ । स्वार्थरहित [को] ।
⋙ अनात्मप्रत्यवेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्ध दर्शन के अनुसार यह विचार कि आत्मा नहीं हे [को०]
⋙ अनात्मवाद
संज्ञा पु० [सं०] आत्मा की स्थिति को न माननेवाला सिद्धांत । जड़वाद । उ०— मैने भी तीर्थकरों के मुख से आत्मवाद- अनात्मवाद के व्याखान सुने है ।—इंद्र०, पृ०१२५
⋙ अनात्मवाद
वि० [सं०] असंयमी [को०] ।
⋙ अनात्मवेदी
वि० [सं० अनात्मवेदिन्] जो आत्मविद् न हो ।आत्म- ज्ञान से रहित [को०] ।
⋙ अनात्मसंपन्न
वि० [सं० अनात्मासंपन्न] मूर्ख । गुणशून्य [को०] ।
⋙ अनात्म्य (१)
वि० [सं०] अशरीरी । अशारीरिक [ को०] ।
⋙ अनात्म्य (२)
संज्ञा पु० १. अपनों या परिवारवालों के लिये स्नेहरहित व्यक्ति । २. शरीर संबंधी गर्व या मद [को०]
⋙ अनात्यंतिक
वि० [सं०] १. जो नित्य न हो ।२जो अंतिम न हो । ३.पुनःआवर्तनशील [ को०] ।
⋙ अनाथ
वि० [सं०[ [ स्त्री० अनाथा ] १. नाथहीन । प्रभुहीन । विना मालिक का । उ०—नाथ तु अनाथ को अनाथ कौन मो सो ।— तुलसी, ग्रं० पृ०५०० ।२. जीसका कोई पालन पोषण करनेवाला न हो । बिना माँ बाप का । लावारिस । जैसे— 'अनाथ बालकों की रक्षा के लिये उन्होंने दान दिया (शब्द) । ३. असहाय । अशरण । जिसे कोई सहारा न हो । ४. दीन । दु?खी । मुहताज । यौ.—अनाथालाय ।
⋙ अनाथसभा
संज्ञा स्त्री० [सं० ] निर्धनगृह [को०] ।
⋙ अनाथानुसारी
वि० [स० अनाथानुसारीन् ] [ स्त्री० अनाथानुसारिणी] सहायतार्थ अनाथों का अनुसरण या पीछा करनेवाला । दीनपालक । गरीब को पालनेवाला । उ०— अनाथै सुन्यौ मैं अनाथानुसारी । बसै चित दंडी जटी मुंडधारी ।— केशव (शब्द०) ।
⋙ अनाथालाय
संज्ञा० पु० [सं० ] वह स्थान जहां दीन दु?खियों और अस-/?/हायों का पालन हो । मुहताजखाना । लंगरखाना ।२. लावा- रिस बच्चों की रक्षा का स्थान । यतीमखाना । अनाथाश्रम ।
⋙ अनाथाश्रम
संज्ञा पु० [सं० अनाथ +आश्रम ] वह स्थान जहाँ अनाथ रखे जाएँ ।
⋙ अनाद
संज्ञा पु० [सं० ] १. ध्वनियों मे नाद अंश का अभाव । २. वे अघोष ध्वनियाँ जिनमे नादांश नही पाया जाता [को०] ।
⋙ अनाददान
वि० [सं०] न लेनेवाला [ को०] ।
⋙ अनादर
संज्ञा पुं० [सं०] १.आदार का अभाव । निरादार । अवज्ञा । २. तिरस्कार । अपमान । अप्रतिष्ठा । बेइजत्ती । ३. एक काव्यालांकार । विशेष—इसमें प्राप्त वस्तु के तुल्य दूसरी अप्राप्त वस्तु की इच्छा के द्वारा प्राप्त वस्तु का अनादार सूचित कीया जाय । जैसे— सर के तट लखि कामिनी अलि पंकजहि विहाय । ताके अधरन दिसि चल्यो, रसमय गूँज सुनाया (शब्द ०) ।
⋙ अनादरण
संज्ञा पुं० [सं०] असंमानपूर्ण व्यवहार [को०] ।
⋙ अनादरणीय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० आनादरणीया ] १.आदर के अयोग्य । आमाननीय ।२.तिरस्कार योग्य । निंध्य । बुरा ।
⋙ आनादरित
वि० [सं०] वह जिसका अपमान हुआ हो । अपमानित ।
⋙ अनादरी
वि० [सं०अनादरिन् ] वह जो आदरयुक्त न हो[को०] ।
⋙ अनादि
वि० [सं०] जिसका आदि न हो । जो सब दिन से हो । जिसके आरंभ का कोई काल या स्थान हो । स्थान और काल से आबद्ध । विशेष—शास्त्राकारों ने 'ईश्वर'जीव और प्रक्रुति' इन तीन वस्तुओं को आनादि माना है ।
⋙ अनादित्व
संज्ञा पुं० [सं०] अनादि होने का भाव । नित्यता ।
⋙ अनादिनिधन
वि० [सं०] जिसका आदि और अंत न हो [को०] ।
⋙ अनादिमान्
वि० [सं०अनादिमत्] जिसका आदि न हो [को०] ।
⋙ अनादिमध्यांत
वि०[सं० अनादिमध्यान्त] जिसका आदि, मध्य और अतं न हो [को०] ।
⋙ अनादिष्ट
वि० [सं०] बिना आदेश का ।
⋙ अनादृत
वि० पुं० [सं०] जिसका अनादर हुआ हो । अपमानित ।
⋙ अनादेय
वि० [सं०] जो आदेय या ग्राहय न हो [को०] ।
⋙ अनादेश
संज्ञा पुं० [सं०] आदेश का अभाव । आदेश म होना [को०] ।
⋙ अनादेशकर
वि० [सं०] जिसकी अनुमति या आदेश न हो वह करनेवाला [को०] ।
⋙ अनाद्यत (१)
वि० [सं० अनाद्यन्त] जिसका आदि तथा अंत न हो । उ०— अमरों के उस अनाद्यंत आनंदलोक में ।—युगपथ, पृ० ११५ ।
⋙ अनाद्यत (२)
संज्ञा पुं० शिव [को०] ।
⋙ अनाद्य (१)
वि० [सं०अनादि] दे० 'अनादि' [को०] ।
⋙ अनाद्य (२)
वि० [सं०अन् + √ अद् > आद्य ] जो खाने योग्य म हो । अखाध्य [को०] ।
⋙ अनाद्यनंत (१)
वि० [सं०अनाद्यनन्त] जिसका आदि और अंत न हो [को०] ।
⋙ अमाद्यनंत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ अनाधार
वि० पुं० [सं०] आधाररहित । निरवलंब । बेसहारा ।
⋙ अनाधि
वि० [सं०] चिंता से रहित [को०] ।
⋙ अनाधृष्ट
वि० [सं०] १. जो जीतने योग्य म हो । अजेय । २.जो नियंत्रित या अधीन हो । अनियंत्रित । ३.अक्षुण्य [को०] ।
⋙ अनाधृष्य
वि० [सं०] दे० 'अनाधृष्ट' [को०] ।
⋙ अनाना
क्रि० स० [सं०आनयन] १.लाना । बुलाना । उ०—(क) जौ कबहूँ बठि नींद अनैये, साँवरे पिय सपने में पैये ।—नंद० ग्रं०, पृ० १७१ ।(ख) केलि रसम से मिथुन कौं सुखनींद अनाऊँ ।—धनानंद, पृ० ३१४ ।२.मंगाना ।उ०—लंक दीप के सिला अनाई । बाँधा सरवट घाट बनाई ।—जायसी ग्रं०, पृ० १२ ।
⋙ अनानुपूर्व्य
संज्ञा पुं० [सं०] १.अनुक्रम में न आना । अनुक्रम का अभाव । किसी समस्त पद के विभिन्न पद के अवयवों को विग्रहपूर्वक अलग करना [को०] ।
⋙ अनापद
संज्ञा स्त्री० [सं०] विपत्ति या विपद का अभाव [को०] ।
⋙ अनापशनाप
संज्ञा पुं० [देश०] १. ऊटपटाँग । अटसट । आयँवायँ ।अंडबड ।२. असंबद्ध प्रलाप । निरर्थक बकवाद ।
⋙ अनापा पु
वि० [सं० अ=नहीं+हिं० √ नाप ] १.बिना नाप हुआ २.असीम । अतुल ।
⋙ अनापि (१)
वि० [सं०] बिना मित्र का [को०] ।
⋙ अभापि (२)
संज्ञा पुं० इंद्र [को०] ।
⋙ अनाप्त
वि० [सं०] १.अप्राप्त ।अलब्ध । २.अविश्वल्त । ३.असत्य । ४.अकुशल । ५. अनिपुण । अनाडी़ ।६.अनात्मीय ।अबंधु ।
⋙ अनाप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] आप्ति अर्थात् प्राप्ति न होना [को०] ।
⋙ अनाप्त्य
वि० [सं०] अप्राप्य [को०] ।
⋙ अनाप्लुत
वि० [सं०] जो स्नात या धुला न हो [को०] ।
⋙ अनाप्लुतांग
वि० [सं० अजाप्लुताग्ड. ] जिसका शरीर स्नानसे शुद्ध न हो [को०] ।
⋙ अनाबाध
वि० [सं०] बाधा या विध्न ले मुक्त [को०] ।
⋙ अनाबिद्ध
वि० [सं० अनाबिद्ध] १.अनविधा । अनछेदा । बिना छेद का ।२. चोट न खाया हुआ ।
⋙ अनाभ्युदयिक
वि० [सं०] दुर्भाग्यपूर्ण । जो मंगलमय न हो [को०] ।
⋙ अनाम
वि० [सं०अनामन्] [वि० स्त्री० अनाम] १.बिना नाम का । उ०—आदि अनाम ब्रह्म है न्यारा ।—कबीर सा०,पृ,८१२ । अप्रसिद्ध ।२. अप्रख्यात ।
⋙ अनामय
वि० [सं०] निरामय । रोगरहित । नीरोग ।चंगा । स्वस्थ । तंदुरूस्त ।२.दोषरहित । निर्दोष । बेऐब ।उ०— जय भगवंत अनंत अनामय ।—मानस ७ ।३४ ।
⋙ अनामय (२)
संज्ञा पुं० नीरेगीता । तंदुरूस्ती ।२.कुशल क्षेम । उ०— गुरू जी ने आपका अनामय पूछकर यह काहा है ।—शकुंतला, पृ० ८९ ।
⋙ अनामा (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. बिना नाम की ।२. अप्रसिद्ध ।
⋙ अनामा (२)
संज्ञा स्त्री० कनिष्ठा और मध्यमा के बीच की उँगली । अनामिका ।
⋙ अनामिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कनिष्ठा और मध्यमा के बीच की उँगली ।सबसे छोटी उँगली की बगल की उँगली ।अनामा ।
⋙ अनामिका (२)
वि० स्त्री० [सं०] बिना नाम की । अप्रसिद्ध ।उ०—जो प्रिया,प्रिया वह रही सदा ही अनामिका ।—प्रनामिका, पृ०२१ ।
⋙ अनामिल
वि० [सं०अनाविल] स्वच्छ । निर्मल उ०—ओस के धोए अनामिल पुष्प ज्यों खिल किरण चूमे ।—गीतिका, पृ०९४ ।
⋙ अनामिष
वि० [सं०] निरामिष । मांसरहित ।
⋙ अनामी (१)
वि० [सं०अनाम+हिं० ई(प्रत्य०)] अनाम संबंधी । उ०—शुद्ध ब्रह्म पद तहँ ठहराई, तो नाम अनामी धारा है ।— कबीर श०,पृ० ६०. ।
⋙ अनामी (२)
संज्ञा पुं० परमात्मा । परब्रह्म । उ०—परे ताके रहत अनामी, स्वामी निरताइ कै ।—घट०, पृ, ३७४ ।
⋙ अनामृत
वि० [सं०] को मृत्युवश न हो [को०] ।
⋙ अनामल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'एनामेल' ।
⋙ अनायक
वि० [सं०] १. नायकरहित । २. जो व्यवस्थित न हो [को०] ।
⋙ अनायत
संज्ञा वि० [सं०] १. जो नियंत्रित न हो । २. अनिवारित । ३. अनाश्रित । बेसहारा । ४. जो विच्छिन्न न हो । अवि- च्छिन्न । ५. संलग्न । ६. बिना लंबाई का [को०] ।
⋙ अनायतन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जो विश्रामस्थल या वेदी न हो [को०] ।
⋙ अनायतन (२)
वि० विश्रामस्थान या वेदी से रहित [को०] ।
⋙ अनायत्त
वि० [सं०] [स्त्री० अनायत्ता] १. अनधीन । अवशीभूत । २. स्वतंत्र । खुद मुख्तार ।
⋙ अनायस
क्रि० वि० [सं०] १. बिना प्रयास । बिना परिश्रम । बिना उद्योग । बैठे बिठाए । उ०—जोई तनु धरौ तजौ पुनि अनायस हरि जान ।—मानस ७ । १०९ ।२. अकस्मात् । अचानक । सहसा । एकाएक । उ०—भरत बिबेक बराह बिसाला । अनायास उधरी तेहिं काला ।—मानस, २ । २९६ ।
⋙ अनायुष्य
वि० [सं०] आयुष्य या दीर्घजीवन के लिये हानिकर [को०] ।
⋙ अनारंभ
वि० [सं० अन्+आरम्भ] आरंभरहित । उ०—अनारंभ अनिकेत अमानी ।—मानस, ७ । ४६ ।
⋙ अनार (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. एक पेड़ और उसके फल का नाम । दाड़िम । विशेष—यह पेड़ १५-२० फुट ऊँचा और कुछ छतनार होता है । इसकी पतली पतली टहनियों में कुछ कुछ काँटे रहते हैं । इसके फूल लाल होते हैं । फल के ऊपर के कड़े छिलके को तोड़ने से रस से भरे लाल सफेद दाने निकलते हैं जो खाए जाता हैं । फल खट्टा मीठा दो प्रकार का होता है । गर्मी के दिनों में पीने के लिये इसका शरबत भी बनाते हैं । फूल रंग बनाने और दवा के काम में आता हैं । फल का छिलका अतिसार, संग्रहणी आदि रोंग में दिया जाता है । पेड़ की छाल में चमड़ा सिझाते हैं । पश्चिम हिमालय और सुलेमान की पहाड़ियों पर यह वृक्ष आप से आप उगता है । इसका कलम भी लगता है । प्रति वर्ष खाद देने से फल भी अच्छे आते हैं । काबुल और कंधार के अनार प्रसिद्ध हैं । २. एक आतशबाजी । विशेष—अनार फल के समान मिट्टी का एक गोल पात्र जिसमें लोहचून और बारुद भरा रहिता है और जिसके मुँह पर आग लगाने से चिनगारियों का एक पेड़ सा बन जाता है । यौ.—अनारदाना । विशेष—दाँतों की उपमा कवि लोग अनार से देते आए हैं । ३. वह रस्सी जिसमें दो छप्पर एक साथ मिलाकर बाँधे जाते हैं ।
⋙ अनार पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० अन्याय] अनीति । अन्याय ।
⋙ अनारकिस्ट
संज्ञा पुं० [अँ० एनार्किस्ट] वह जो राज्य में विद्रोह को उत्तेजन दे या अशांति उत्पन्न करे । वह जो राज्य या राज्य व्यवस्था को उलट देना चाहता हो । अराजक । विप्लवपंथी ।
⋙ अनारज पु
वि० [हिं०] दे० 'अनार्य' । उ०—भावै देह छूटौ देश आरज अनारज मैं भावै देह छूटि जाहु बन मैं नगर मैं ।— सुंदर ग्रं० भा० २, पृ० ६४२ ।
⋙ अनारत (१)
वि० [सं०] १. निरंतर । अनवरत । २. नित्य । स्थायी [को०] ।
⋙ अनारत (२)
संज्ञा पुं० अविच्छिन्नता । निरंतरता [को०] ।
⋙ अनारदाना
संज्ञा पुं० [फा० अनारदानह्] १. खट्टे अनार का सुखाया हुआ दाना । २. रामदाना ।
⋙ अनारपन पु
संज्ञा पुं० [हिं० अनारी+पन (प्रत्य०)] गँवारपन । नासमझी । अनाड़ीपन । उ०—को कब लौं सिख देय जू सैन नारंगी बाल । नवल कुचहि दलि जात हो यह अनारपन लाल ।—स० सप्तक, पृ० २३० ।
⋙ अनारभ्य
वि* [सं०] जो आरंभ करने योग्य न हो [को०] ।
⋙ अनारी (१) पु
वि० [हिं०] दे० 'अनाड़ी' । उ०—न्यारी न्यारी दिसि चारी चपला चमतकारी, बरनैं अनारी ये कटारी तरवारी हैं ।—भिखारी० ग्रं० भा० २, पृ० १०२ ।
⋙ अनारी (२) पु
वि० [हिं० अनार+ई (प्र०)] अनार के रंग का । लाल ।
⋙ अनारी (३)
संज्ञा पुं० १. लाल रंग की आँखवाला । कबूतर । २. एक प्रकार का पकवान । भीतर मीठा या नमकीन पूर से भरा एक प्रकार का समोसा ।
⋙ अनारोग्य
वि० [सं०] १. जो स्वस्थ न हो । २. स्वास्थ्य के लिये हानिकर [को०] ।
⋙ अनारोग्यकर
वि० [सं०] जो स्वास्थ्यकर न हो [को०] ।
⋙ अनार्की
संज्ञा स्त्री० [अँ० एनार्की] १. राज्य या राजा न रहने की अवस्था । शासन या राज्यव्यबस्था का अभाव । राजनितिक उथल पुथल । अराजकता । विप्लव । २. एक मतवाद जिसके अनुसार समाज तभी पूर्णता को प्राप्त होगा जब राज्य या शासनव्यवस्था न रहेगी और पूर्ण व्यक्तिस्वातंत्र हो जायगा । अराजकवाद ।
⋙ अनार्जव
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिधाई का अभाव । टेढ़ापन । २. सरलता का अभाव । अऋजुता । कुटिलता । कपट ।
⋙ अनार्तव (१)
वि० [सं०] बिना ऋतु का । बेमौसम । अनवसर ।
⋙ अनार्तव (२)
संज्ञा पुं० स्त्रियों के ऋतुधर्म का अवरोध । रजोधर्म की रुकावट ।
⋙ अनार्तवा
वि० स्त्री० [सं०] जो ऋतुमती न हो ।
⋙ अनार्य
वि० [सं०] १. आर्य जाति से रहित । २. अश्रेष्ठ [को०] ।
⋙ अनार्य
संज्ञा पुं० [स्त्री० अनार्या] १. वह जो आर्य न हो । २. म्लेच्छ ।
⋙ अनार्यक
संज्ञा पुं० [सं०] अगुरु की लकड़ी [को०] ।
⋙ अनार्यकमी
वि० [सं० अनार्यकर्मिन्] आर्योचित कर्म न करनेवाला [को०] ।
⋙ अनार्यज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अगुरु की पेड़ [को०] ।
⋙ अनार्यज (२)
वि० [वि० स्त्री० अनार्यजा] १. जो आर्य से उत्पन्न न हो । २. अनार्य देश में उत्पन्न [को०] ।
⋙ अनार्यजुष्ट
वि० [सं०] जो अनार्य द्वारा आचरित या व्यवहृत हो [को०] ।
⋙ अनार्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आर्य धर्म का अभाव । २. अश्रेष्ठता । ३. लघुता । नीचता । ४. म्लेच्छता ।
⋙ अनार्यतिक्त
संज्ञा पुं० [सं०] चिरायता [को०] ।
⋙ अनार्यव्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनार्यता' ।
⋙ अनार्ष
वि० [सं०] जो ऋषिप्रणीत न हो । जो ऋषिकाल का बना हुआ न हो ।
⋙ अनार्षेय
वि० [सं०] जो आर्ष या वैदिक न हो [को०] ।
⋙ अनालंब (१)
[सं० अनालम्ब] अवलंबहीन [को०] ।
⋙ अनालंब (२)
संज्ञा पुं० अवलंब का अभाव [को०] ।
⋙ अनालंबन
वि० [सं० अनालंम्बन] १.निरवलंब ।२.निराशा[को०] ।
⋙ अनालंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० अनालम्बिन] शिव का एक वाद्य [को०] ।
⋙ अनालंबुका
संज्ञा स्त्री० [सं० अनालम्बुका]दे० 'अनालंभुका' [को०] ।
⋙ अनालंभुका
संज्ञा स्त्री० [सं० अनालम्भुका] रजस्वला स्त्री० [को०] ।
⋙ अनालस्य
संज्ञा पुं० [सं०] आलस्य का अभाव ।
⋙ अनालाप (१)
वि० [सं०] १. मितभाषी । कम बोलनेवाला [को०] ।
⋙ अनालाप (२)
संज्ञा पुं० १. मितभाषण । २. अलाप या बातचीत का अभाव [को०] ।
⋙ अनालोचित
वि० [सं०] १. न देखा हुआ । २. जो विचारित या विवेचित न हो । ३. जिसकी आलोचना न की गई हो [को०] ।
⋙ अनालोच्य
वि० [सं०] जो आलोचना के योग्य न हो [को०] ।
⋙ अनावरण
संज्ञा पुं० [सं०] आवरण का अभाव ।
⋙ अनावर्ती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. न लौटना । २. पुनर्जन्म का अभाव । ३. मोक्ष [को०] ।
⋙ अनावर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] अनावृष्टि । अवर्षा । मेघ के जल का आभाव । सूखा ।
⋙ अनावश्यक
वि० [सं०] जिसकी आवश्यकता न हो । अप्रयोजनीय । गैरजरुरी ।
⋙ अनावश्यकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] आवश्यकता न होना । अप्रयोजनीय । गैरजरुरत ।
⋙ अनाविद्ध
वि० [सं०] १. जो विद्धया विधा न हो [को०] ।
⋙ अनाविल
वि० [सं०] १. स्वच्छ । निर्मल । साफ । २. स्वास्थ्यकर (देश०) । ३. निष्पंक । पंकरहित । [को०]०
⋙ अनावृत
वि० [सं०] [स्त्री अनावृत] १. जो ढँका न हो । आवरण रहित । खुला । २. जो घिरा न हो ।
⋙ अनावृत्त
वि० [सं०] १. न लौटा हुआ । २. पीछे न हटा हुआ । ३. जिसकी आवृत्ति न की गई हो । ४. न चुना हुआ [को०] ।
⋙ अनावृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर धारण न करना । मोक्ष [को०] ।
⋙ अनावृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्षा का अभाव । अनावर्षण । अवर्षा । सूखा । उ०— सब जादौ मिलि हरि सौं यह कह्यौ सुफलक सुत जहँ होई । अनावृष्टि अतिवृष्टि होति नहीं यह जानत सब कोई ।— सूर०, ।१० । ४१९१ ।
⋙ अनावेदित
वि० [सं०] जो ज्ञापित न हो । जिसकी विज्ञाप्ति न की गई हो [को०] ।
⋙ अनाश
वि० [सं०] १. निराश । २. जिसका नाश न हो । ३. जो नष्ट न किया गया हो । ४. जीवित [को०]०
⋙ अनाशक (१)
वि० [सं०] १. अनश्वर । २. नशा या हानि न करनेवाला । २. उपवास करनेवाला । २. भोजन का त्याग करनेवाला (आमरण भी) [को०] ।
⋙ अनाशक (२)
संज्ञा पुं० उपवास [को०] ।
⋙ अनाशकायन
संज्ञा पुं० [सं०] उपवास का व्रत [को०] ।
⋙ अनाशस्त
वि० [सं०] जो प्रशंसित न हो [को०] ।
⋙ अनाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आशा का अनाव । नैराश्य [को०] ।
⋙ अनाशी
वि० [स० अनाशीन्] १. जो नष्ट न हो । २. न खानेवाला [को०] ।
⋙ अनाशु
वि० [सं०] मंद । सुस्त । जो तेज न हो । २. अनश्वर [को०] ।
⋙ अनाश्य
वि० [सं०] अनश्वर [को०] ।
⋙ अनाश्रमी
वि० [सं० अनाश्रमिन्] १. आश्रमभ्रष्ट । आश्रम धर्म से च्युत । गार्हस्थ्य आदि चारों आश्रमों से रहित । २. पतित । भ्रष्ट ।
⋙ अनाश्रय
वि० [सं०] निराश्रय । बेसहारा । निरवलंब अनाथ । दीन ।
⋙ अनाश्रित
वि० [सं०] १. आश्रयरहित । निरावलंबी । बेसहारा । उ०—संभालेगा हमें अब कौन? यों अनाश्रित रह सका कब कौन ।—साकेत, पृ० १७७ ।num>२. जो अधिकार रहते भी ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों को ग्रहण न करे ।
⋙ अनास
वि० [सं०] बिना नाक का । चपटी नाकवाल ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ३५ ।
⋙ अनासक्त
वि० [सं०] जो किसी विषय में आसक्त न हो । उ०— त्यागी भी हैं शरण जिनके, जो अनासक्त गेह, राजा योगी जय जनक वे पुण्यदेही, विदेह ।—साकेत, पृ० २५० ।
⋙ अनासक्ति
संज्ञा पुं० [सं०] मोहरहित्य । आसक्ति या अनुरक्ति का आभाव । उ०—मैं कोमल वर्ग की मोहिनी शक्ति से निर्लिप्त हूँ, और अनासक्ति का पद प्राप्त कर चुका हूँ ।— मान०, भा० १, पृ० २८१ ।
⋙ अनासती पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुसमय । कुअवसर (डिं०) ।
⋙ अनासादित
वि० [सं०] १. अप्राप्त । २. जो आक्रांत न हो । ३. जो घटित न हो । ४. अस्तित्वरहित [को०] ।
⋙ अनासादितविग्रह
वि० [सं०] जिसे विग्रह या युद्ध का अनुभव न हो [को०] ।
⋙ अनासाद्य
वि० [सं०] अप्राप्य [को०] ।
⋙ अनासिक
वि० [सं०] बिना नाक का । नकटा ।
⋙ अनास्थ
वि० [सं०] १. आस्थारहित । २. उदासीन [को०] ।
⋙ अनास्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अश्रद्ध । आरथा का अभाव । २. अनादर । अप्रतिष्ठा । ३. अवज्ञा । ४. उदासीनता ।
⋙ अनास्राव
वि० [सं०] बिना क्लेश का । क्लेशरहित [को०] ।
⋙ अनास्वाद (१)
वि० [सं०] स्वादहीन । विरस [को०] ।
⋙ अनास्वाद (२)
संज्ञा पुं० स्वाद का अभाव । विरसता । नीरसता [को०] ।
⋙ अनास्वादित
वि० [सं०] जिसका स्वाद न लिया गया हो [को०]
⋙ अनास्वाद्य
वि० [स०] जो स्वाद या आस्वाद के योग्य न हो [को०] ।
⋙ अनाह
संज्ञा पुं० [सं०] रोगविशेष । अफरा । पेट फूलना ।
⋙ अनाहक पु
क्रि० वि० [हिं]दे० 'नाहक' । उ०—चंद्रमुखी सुनि मंद महातम राहु भयो यह आनि अनाहक ।—घनानंद, पृ० १०५ ।
⋙ अनाहक्क पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अनाहक' । उ०—अनाहक चंदेल नृप, क्यों मंडित माहि रार । पृ० रा०, पृ० ४० ।
⋙ अनाहत (१)
वि० [सं०] १. जिसपर आघात न हुआ हो । अक्षुब्ध । २. अगिणत । जिसका गुणन न किया गया हो ।
⋙ अनाहत (२)
संज्ञा पुं० १. शब्दयोग में वह शब्द या नाद जो दोनों हाथों के अँगुठों से दोनों कानों की लवें बंद करके ध्यान करने से सुनाई देता है । २. हठयोग के अनुसार शरीर के भीतर के छह चक्रों में से एक । इसका स्थान हृदय; रंग लाल पीला मिश्रित और देवता रुद्र माने गए हैं । इसके दलों का संख्या १२ और अक्षर 'क' से 'ठ' तक हैं । ३. नया वस्त्र । ४. द्वितीय बार किसी वस्तु को उपनिधि या धरोहर में देना । दोबारा किसी चीज का अमानता में दिया जाना ।
⋙ अनाहतनाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनाहत' । उ०—गूँजता तुम्हारा अनाहत नाद जो वहाँ, सुनता है दास यह भक्तिपूर्वक नत- मस्तक ।—अनामिका, पृ० १०० ।
⋙ अनाहदवाणी
संज्ञा स्त्री० [सं० अनाहत+वाणी] आकाशवाणी । देववाणी ।
⋙ अनाहत शब्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक भीतरी शब्द जिसे योगी सुनते हैं । २. ओम की ध्वनि [को०] ।
⋙ अनाहार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन का अभाव या त्याग ।
⋙ अनाहार (२)
वि० १. निराहार । जिसने कुछ न खाया हो । जैसे—आज हम अनाहार रह गए (शब्द०) । २. जिसमें कुछ खाया जाय । जैसे, अनाहार व्रत ।
⋙ अनाहारमार्गणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनशास्त्रानुसार एक व्रत ।
⋙ अनाहारी
वि० [सं० अनाहारीन्] १. आहार न लेनेवाला । २. उपवास या अनशन करनेवाला [को०] ।
⋙ अनाहार्य
वि० [सं०] १. जो लेने या ग्रहण करने योग्य न हो । २. जो खाने योग्य न हो [को०] ।
⋙ अनाहिताग्नि
वि० [सं०] जिसने विधिपूर्वक अग्निहोत्री अग्न्याधान न किया हो । जो अग्निहोत्री न हो । निराग्नि ।
⋙ अनाहुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यज्ञ का अभाव । २. अविहित यज्ञ [को०] ।
⋙ अनाहूत
वि० [सं०] बिना बुलाया हुआ । अनामंत्रित । अनिमंत्रित उ०—धिक् । आए तुम यों अनाहुत ।—अपरा, पृ० २०२ ।
⋙ अनाह्लद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आहलाद या आनंद का अभाव [को०] ।
⋙ अनाह्लद (२)
वि० आहलादरहित । । संजीदा [को०] ।
⋙ अनाह्लादित
वि० [सं०] जो हर्षित या आनंदित न हो [को०] ।
⋙ अनिंगित
वि० [सं० अन्+इङ्गित=हिलाना, काँपना] १. अकं- पित । निश्चल । उ०— काँप रही है ज्योति; अब तो तुम इसे कर दो अनिंगित; तब निवासस्थान में अब लौ लगे इसकी अशंकित ।—क्वासि, पृ० २ । २. अनिर्दिष्ट । इंगित न किया हुआ । जिसकी ओर इशारा न हो (को०) ।
⋙ अनिंद पु
वि० [हिं०] दे० 'अनिंद्य' । उ०—बैठी फिरि पूतनी अनू- तरी फिरंग कैसी पीठी दै प्रबीनी दृग दृगनि मिलै अनिंद ।— पद्माकर ग्रं, पृ० १०१ ।
⋙ अनिंदित
वि० पुं० [सं० अनिन्दित] [स्त्री० अनिन्दिता] १. अकलंकित बदनामी से बचा हुआ । २. निर्दोष । उत्तम ।
⋙ अनिंदनीय
वि० पुं० [सं० अनिन्दनीय] [स्त्री० अनिंदनीया] १. जो निंदा के योग्य न हो । निर्दोष । निष्कलंक ।
⋙ अनिंद्य
वि० पुं० [सं० अनिन्द्य] [वि० स्त्री० अनिंद्या] १. जो निंदा के योग्य न हो । २. उत्तम । प्रशंसनीय । अच्छा ।
⋙ अनिंद्र
वि० [सं० अनिन्द्र] इंद्र की पूजा या उपासना न करनेवील [को०] ।
⋙ अनि पु
वि० [हिं०] दे० 'अन्य' । उ०—दै द्रव्य कहयौ माता सिधाव । इह शहर छंडि अनि सहर जाव ।—पृ० रा०, १ । ३७९ ।
⋙ अनि अनी पु
वि० [सं० अन्य+अन्य] अन्यान्य । और और । उ०—अनि अनी सुभट बैठे सु आइ ।—पृ० रा०, ६ । १३५ ।
⋙ अनिआई पु
वि० [हिं०] दे० 'अन्यायी' ।
⋙ अनिक पु
वि० [सं० अनेक; प्रा० अणिक्क] दे० 'अनेक' । असंख्य । उ०—निर्मल बूँद अकाश की लीनी भूमि मिलाइ । अनिक सियाने पच गए ना निरबारी जाय ।—कबीर ग्रं०, पृ० २५५ ।
⋙ अनिकेत
वि० [सं०] १. स्थानरहित । बिना घर का । उ०—अनारंभ अनिकेत अमानी ।—मानस, ७ । ४६ ।. २. संन्यासी । परिब्रा- जक । ३. खानाबदेश । घूम फिरकर अनियत स्थानों में गुजारा करनेवाला ।
⋙ अनिकेतन
वि० [सं० अ+निकतेन] दे० 'अनिकेत' । उ०— गृही लोग हम अनिकेतन की क्या जानें सुख पीर ।—अपलक, पृ० ७२ ।
⋙ अनिक्षिप्तधूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक बोधिसत्व का नाम । २. निकाला हुआ बौद्ध भिक्षु [को०] ।
⋙ अनिक्षिप्त सैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] तोड़ी या सेवा से अलग की हुई सेना । अपसृत सैन्य ।
⋙ अनिक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] जो ईख न हो । ईख जैसे लंबी घास या नर- कुल [को०] ।
⋙ अनिगीर्ण
वि० [सं०] १. जो निगला न गया हो । २. जो छिपा न हो । प्रकट । व्यक्त [को०] ।
⋙ अनिग्रह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनवरोध । बंधन का अभाव । २. दंड या पीड़ा का न होना । ३. वाद या तर्क में हार का अस्वीकरण [को०] ।
⋙ अनिग्रह (२)
वि० १. बंधनरहित । बेरोक । २. असीम । बेहद । ३. पीड़ारहित । नीरोग । ४. जिसने दंड न पाया हो । अदंडित । ५. जो दंड के योग्य न हो । अदंड्य ।
⋙ अनिच्छ
वि० [सं०] आकांक्षारहित । अनिच्छुक [को०] ।
⋙ अनिच्छक
वि० [सं०] दे० 'अनिच्छुक' [को०] ।
⋙ अनिच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अनिच्छित, अनिच्छुक] १. इच्छा का अभाव । चाह का न होना । अरुचि । २. आवृति ।
⋙ अनिच्छित
वि० [सं०] जिसकी इच्छा न हो । अनिप्सित । अन चाहा उ०—अभिलषित वस्तु तो दूर रहे, हाँ मिले अनिच्छित दुःखद खेद ।—कामायनी, पृ० १६४ । । २. अरुचिकर ।
⋙ अनिच्छु
वि० [सं०]दे० 'अनिच्छुक' [को०] ।
⋙ अनिच्छक
वि० [सं०] इच्छा न रखनेवाला । जिसे चाह न हो । अनमिलाषो । निरकांक्षी ।
⋙ अनिजक
वि० [सं०] जो अपना न हो । पराया दूसरे का [को०] ।
⋙ अनित (१)पु
वि० [हिं०] १. दे० 'अनित्य' । उ०—दारा सुत बिरत अहें सबहि अनित तासों । पोद्दार० अभि० ग्रं० पृ०४९३ । २. अनंत । जिसका अंत न हो । उ०—महिमा अनित साधु गुरू समुझहु संत सुजान ।—कबीर सा०, भा० ४, पृ०४२० ।
⋙ अनित (२)
वि० [सं०] बिना किसी के साथ । अकेला । वंचित [को०] ।
⋙ अनितभा (१)
वि० [सं०] कांतिहीन । तेजहीन [को०] ।
⋙ अनितभा (२)
संज्ञा स्त्री [सं०] एक नदी का नाम [को०] ।
⋙ अनित्र पु
वि० [हिं०] दे० 'अन्यत्र' । उ०—काहे कौं भ्रमत है तू बावरे अनित्र जाइ ।— सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ०५९४ ।
⋙ अनित्य
वि० [सं०][स्त्री०अनित्या][संज्ञा अनित्यत्व,अनित्यता] १. जो सब दिन न रहे । अध्रुव । अस्थायी । चंदरोजा । क्षणभंगुर । २. नश्वर । नाशवान् । ३. जो स्वयं कार्यरूप हो और जिसका कोई कारण हो, अत? जो एक सा न रहे । जैसे 'संसार अनित्य है' (शब्द०) । ४.असत्य । झुठा५. अनिश्चित । संदेहास्पद(को०)६६.व्याकरण में एक नियम जो परीक्षण, प्रयोग के योग्य या अनिवार्य नहीं होता । वैकल्पित [को०] ।
⋙ अनित्यकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] यदा कदा समय पर किया जाने— वाला कार्य, जैसे—विशेष उद्देश्य से किए जानेवाले यज्ञ आदि [को०] ।
⋙ अनित्यक्रिया
संज्ञा स्त्री [सं०] दे० 'अनित्यकर्म' [को०] ।
⋙ अनित्यता
संज्ञा स्त्री [सं०] १. अनित्य अवस्था । नापायदारी । अस्थिरता । अध्रुवता । २. क्षणभंगुरता । नश्वरता ।
⋙ अनित्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनित्यता' ।
⋙ अनित्यदत्त
संज्ञा पुं० [सं०] गोद लेने के पहले माता पिता के द्वारा दूसरे को कुछ काल के लिये हूआ पुत्र । वह लडका जो गोद लिए जाने के पहले कुछ काल के लिये आपने माता पिता द्वारा गोद लेनेवालों को दिया जाय [को०] ।
⋙ अनित्यदत्तक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनित्यदत्त' [को०] ।
⋙ अनित्यदत्रिम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनित्यदत्त' [को०] ।
⋙ अनित्यभाव
संज्ञा पुं० [सं०] परिवर्तनशीलता । क्षणभंगुरता ।
⋙ अनित्यसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में जाति या असत् उत्तर के २४ भेदों में से एक । विशेष—यदि कोई कहे कि घट का सादृश्य शब्द में है, इससे घट की भांति शब्द भी अनित्य हो गया; तो इसपर यह कहना कि किसी न किसी बात में घट का सादृश्य सभी वस्तुओं में होगा; तो कया फिर सभी वस्तुएँ अनित्य होंगी ? इसी प्रकार का उत्तर अनित्यसम कहलाता है ।
⋙ अनिद
विं० [सं०] जो देखा ना जा सके [को०]
⋙ अनिदान
विं० [सं०] जिसका कारण ज्ञात न हो । कारण- रहित [को०] २६
⋙ अनिद्र (१)
विं० [सं०] १.निद्रारहित । बिना नींद का । जिसे नींद न आए ।२. जागरूक । जागा हुआ ।
⋙ अनिद्र (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नींद ना आने का रोग । प्रजागर । २. निद्रारहित । जाग्रत । जागा हुआ [को०] । ३. जागरूक । तत्पर [को०] ।
⋙ अनिद्रा
संज्ञा पुं० [सं०] १.जागरूकता । तत्परता । २.दे० 'अनिद्र'[को०] ।
⋙ अनिद्रित
विं० [सं०] जो सोया हुआ न हो । जागा हुआ [को०] ।
⋙ अनिधृष्ट
विं० [सं०] जो रोका न जा सके । प्रतिबंधरहित । अबाध । अपराभूत [को०] ।
⋙ अनिन पु
विं० [हिं०] दे० 'अनन्य' । उ०—(क)अनिन कथा तनि आचरी हिरदै त्रिभुवन राइ ।— कबीर ग्र०, पृ०२९ ।(ख) संतो अनिन भगति यह नाहीं ।—रे० बानी०, पृ०१४ ।
⋙ अनिन्नता पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अनिन्न+ता(प्रत्य०)] दे० अनन्यता । उ०—सेबहि इक्क अनिन्नता, कंत मुक्त कब दानि ।— पृ० रा०, पृ० ३९ ।
⋙ अनिप पु
संज्ञा पुं० [सं० अनिक][हिं० अनी=सेना+प=स्दामी] सेनापति । सेनाध्यक्ष । फौजी अफसर ।उ०—मनो मधुमाधव दोउ अनिप धीर । बर बिपुल बिटप बानैत बीर ।— तुलसी ग्र० पृ०३४९ ।
⋙ अनिपात
संज्ञा पुं० [सं०] पतन का न होना । अपतन । जीवन । का लगातार बने रहना [को०] ।
⋙ अनिपुण
विं० [सं०] अकुशल । अपटु । जो प्रवीण न हो ।
⋙ अनिबद्ध
विं० [सं०] १. जो बाँधा न हो । अबद्ध । २. असंबद्ध । अनर्गल । बेसिलसिला [को०] ।
⋙ अनिबद्धप्रलाप
संज्ञा पुं० [सं०] असंबद्ध वा बेसिर पैर की बात [को०] ।
⋙ अनिबद्धप्रलापी
विं [सं० अनिबद्धप्रलापित] बेसिर पैर की बात करनेवाला । ऊलजलूल बात करनेवाला ।[को०] ।
⋙ अनिबाध (१)
विं० [सं०] बाधारहित । जिसे कोई बाधा न हो । स्वच्छंद [को०] ।
⋙ अनिबाध (२)
संज्ञा पु० स्वच्छंदता । मुक्तता[को०] ।
⋙ अनिभृत
विं० [सं०] १. जो छिपा न हो । जो एकांत में न हो । २. अगुप्त । प्रकट । जाहीर ।३. धृष्ट । असंकोची । बेतकल्लुफ । ४.ढुलमुल । अस्थीर ।[को०] ।
⋙ अनिभृत संधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अनिभीत सन्धि] यदि कोई राजा किसी दूसरे राजा की बहुत ही अधिक उपजाऊ भूमि को खरीदना चाहता हो और दूसरा राजा उस भूमि को देकर उससे संधि कर ले ऐसी संधि को अनिभृत संधि कहते है ।
⋙ अनिभृष्ट
विं० [सं०] अबाधित । बेरोक । जिसपर कोई प्रतिबंध न हो [को०] ।
⋙ अनिभ्य
विं० [सं०] धनहीन । निर्धन । कंगाल ।
⋙ अनिमंत्रित
विं० [सं० अनिमन्त्रित] बिना न्योता हुआ ।बिना बुलाया हुआ । अनामंत्रित । अनाहूत ।
⋙ अनिमक
संज्ञा० पु० [सं०] १.मेंढक ।२. कोयल ।३. मधुमख्खी । ४. भौंरा ।५. कमल की केशर । पद्मकेशर ।६. महुए का वृक्ष । [को०] ।
⋙ अनिमा (१)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अणिमा' ।
⋙ अनिमा (२)
संज्ञा० पु० [अं०एनीमा] दे० 'एनिमा' ।
⋙ अनिमान
वि० [सं०] असीम । अथाह । अत्याधिक । अपरिच्छिन्न [को०] ।
⋙ अनिमित्त (१)
वि० [सं०] निमित्तरहित । बिना हेतु का । आकस्मिक ।
⋙ अनिमित्त (२)
क्रि० वि० १. बिना कारण ।२.बीना गरज । बिना किसी प्रायोजन के ।
⋙ अनिमित्त (३)
संज्ञा पुं० [सं०] अपशकुन । अनिष्ट [को०]
⋙ अनिमित्तक
वि० [सं०] १. बिना कारण का । बिना हेतु का । २. व्यर्थ । प्रयोजनरहित । बेमतलब ।
⋙ अनिमित्तनिराक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपशकुन या अनिष्ट का निवारण [को०]
⋙ अनिमित्तलिंगनाश
संज्ञा पुं० [अनिमित्तलिडनाश] एक प्रकार का नेत्ररोग जिसमें मनुष्य अंधा हो जाता हे [को०]
⋙ अनिमिष (१)
वि० [सं०] १.निमेष रहीत । स्थिरदृष्टि । टकटकी बाँधकर देखने वाला ।२. जागरूक (को०) ।३.विकसित । खुलाहुआ । जैसे आँख या पुष्प [को०] ।
⋙ अनिमिष (२)
क्रि० वि० १. बिना पलक गिराए । एकटक । उ०— सुंदरता से अनिमिष चितवन छू कोमल मर्मस्थल ।—युगवाणी, पृ६२ ।१. निरंतर
⋙ अनिमिष (३)
संज्ञा पुं० १. देवता ।२. मछली ।३. विष्णु (को०) ।४. महाकाल का नाम (को०) । ५. एक रतिबंध (को०)
⋙ अनिमिषदृष्टि
वि० [सं०] टकटकी बाँधकर देखना । आँख गडाकर देखना । जानबुझ कर या सभिप्राय घूरना [को०] ।
⋙ अनिमिषनयन
वि० [सं०] दे० 'अनिमिषदृष्टि'[को०] ।
⋙ अनिमिषलोचन
वि० [सं०] दे० 'अनिमिषदृष्टि' [को०] ।
⋙ अनिमिषाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] देवगुरु । बृहस्पति ।
⋙ अनिमिषीय
वि० [सं०] देवसंबधी [को०] ।
⋙ अनिमेष (१)
वि० [सं०] दे० 'अनिमिष' ।
⋙ अनिमेष (२)
क्रि० वि० १. बिना पलक गिराए । एकटक ।२. निरंतर ।
⋙ अनिमेष (३
संज्ञा पु० दे० 'अनिमिष' ।
⋙ अनिमेषदृष्टि
वि० [सं०] दे० 'अनिमिषदृष्टी' [को०] ।
⋙ अनिमेषनयन
वि० [सं०] दे० 'अनिमिषदृष्टि' [को०] ।
⋙ अनिमेषलोचन
वि० [सं०] दे० 'अनिमिषदृष्टि'[को०] ।
⋙ अनियंत्रित
वि० [सं०अनियंत्रित ] १. जो पकडा या बांधा न हो । अबद्ध । प्रतिबंधरहित । बिना रोक टोक का । २. मनमाना । स्वच्छंद । निरंकुश ।
⋙ अनियंत्रित शासन
संज्ञा पु० [सं० अनियंत्रित शासन ] निरंकुश राज्य । स्वेच्छाचारी राज्य । एकतंत्र [को०] ।
⋙ अनियत
वि० [सं०] १. जो नियत न हो । अनिश्चित । अनिर्दिष्ट । अनिर्धारित । २. अस्थिर । अदृढ । जिसका ठीक ठीकाना न हो । ३. अपरिमित । असीम । ४.असाधारण । गैरमामुली । ५.अबाधित । जो रोका न जा सके [को०] ।६.अनियमित (को०) ७.अकारण । कारणविहीन [को०] ८. आकस्मिक [को०] ।
⋙ अनियतपुंस्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] असती पुंश्चली । शिथिल आचरण— वाली स्त्री । व्यभिचारिणी [को०] ।
⋙ अनियतवृत्ति
वि० [सं०] १. अनियमित काम न करनेवाला । जो किसी बंधे काम पर न लगा हो [को०] । २. अनिश्चित आयवाला । जिसकी कोई बंधी आमदानी न हो[को०] ।
⋙ अनियंताक
संज्ञा पु० [सं० अनियताड्क] गणित मे आनेवाला अनि— श्चित या अंज्ञात अंक । वह संख्या जिसका मूल्य निश्चित न हो [को०] ।
⋙ अनियतात्मा
वि० [सं० अनियत्मन्] १. चंचल बुद्धि का । डावाँ— डोल चित्त का । २. जिसका मन वश मे न हो । अजितेंद्रिय ।
⋙ अनियम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १.नियम का अभाव । नियम का न होना । व्यतिक्रम । २. अव्यवस्था । बेकायदगी । ३. अनिय— मितता । अनिश्चितता । अस्पष्टता (कों०) । ४. अविहित कर्म या अनुचित आचरण (को०) ।
⋙ अनियम (२)
वि० नियमरहित । व्यवस्थारहित । अव्यवस्थित [को०] ।
⋙ अनियमित
वि० [सं०] १. नियमरहित । व्यवस्थारहित । अव्यवस्थित बेकायदा । २. अनिश्चित । अनियत । अनिर्दिष्ट ।
⋙ अनियाउ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्याय' । उ०—सत्य कहहु तुम मोसौं दहुँ काकर अनियाउ । —जायसी ग्रं० पृ०३८ ।
⋙ अनियारा पु
वि० [सं० अणि=नोक+हिं०आरा(प्रत्य०)][स्त्री० अनियारी] नुकीला । कटीला । पैना । धारदार । कोरदार । तीक्ष्ण । तीखा । उ०—अनियारे दीरघ दृगन, किती न तरुनि समान । वह चितवनि औरे कछू, जिहि बस होत सुजान ।— बिहारी र०, दो० ५८८ ।
⋙ अनियारी पु
सज्ञां स्त्री० [हिं० अनियारा ] अनिदार कटारी । उ०— गहि रोस नंखि नर भूमि पर । हनि अनियारिय उभय कसि । पृ० रा० ७ ।१५८ ।
⋙ अनियुक्त
वि० [सं०] जो नियुक्त न किया गया हो । अनाधिकारी । २. न्यायाधीश के साथ बैठनेवाला व्यक्ति (असेसर) जिसकी नियुक्ती अनौपचारिक होती है जिसे मत देने का अधिकार नहीं होना [को०] ।
⋙ अनियोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. संबंध का अभाव । २. अनुपयुक्त पद या आयोग [को०] ।
⋙ अनिर (१)
वि० [सं०] जो प्रेरित ना किया जा सके । जो ठेला ना जा सके । अशक्त । शक्ति की कमी [कं०] ।
⋙ अनिर (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनिरवा' ।
⋙ अनिरवसित
वि० [सं०] ऐसे शूद्र जो इतने नीचे नहीं माने जाते कि उनके भोजन कर लेने पर पात्र सदा के लिये त्याग दिया जाय, अर्थात जिस पात्र मे उन्होने भोजन किया हो उसे स्वच्छ करके फिर ग्रहण किया जा सकता हे [कों] ।
⋙ अनिरवां †
संज्ञा पुं० [ सं० अ=नहीं+नकिट; प्रा० णिअड, निअट, निअड] [स्त्री० अनिरिया ] बहका हुआ पशु । आवारा चौपाया जो खुंटे पर न रहे । बहेतू ।
⋙ अनिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भोजन का अभाव । अति दरिद्रता । अन्नरहित दरिद्रता । २. दैवी विपत्ति, जैसे, अतिवृष्टि, अनावृष्टि [को०] ।
⋙ अनिराकरण
संज्ञा पुं० [सं०] निराकरण न करना । दुर न करना [को०] ।
⋙ अनिराकृत
वि० [सं०] जिसका निराकरण न किया गया हो । जो दुर न किया गया हो [को०] ।
⋙ अनिरुक्त
वि० [सं०] १. जो स्पष्ट रुप से कहा न गया हो । अस्पष्ट (कथन) । २. जिसका निर्वचन (व्याख्या) स्पष्ट रुप से न हुआ हो [को०] ।
⋙ अनिरुक्तगान
स्त्री० पुं० [सं०] १. अस्पष्ट गाना या गुनगुनाना । २. सामगान का एक प्रकार [को०] ।
⋙ अनिरुद्ध (१)
वि० [सं०] जो रोका हुआ न हो । अबाध । बेराक ।
⋙ अनिरुद्ध (२)
संज्ञा पुं० श्रीकृष्ण के पौत्र, प्रद्युम्न के पुत्र जिनको ऊषा ब्याही थी ।
⋙ अनिरुध पु
संज्ञा पुं० [सं० अनिरुद्ध] दे० 'अनिरुद्ध (२)' । उ०—अनिरुध कहँ जो लिखी जैमारा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३०६ ।
⋙ अनिर्णय
संज्ञा पुं० [सं०] निर्णय का न होना । अनिश्चय [को०] ।
⋙ अनिर्दश
वि० [सं०] जनन या मरण के अशौच के दिन बीतने के पूर्व का (समय) [को०] ।
⋙ अनिर्दशा
वि० स्त्री० [सं०] जिसको बच्चा दिए दस दिन न बीते हों । विशेष—इस शब्द का व्यवहार प्राय? गाय के संबंध में देखा जाता है । ऐसी गाय का दूध पीना निषिद्ध है ।
⋙ अनिर्दशआह
वि० [सं०] दे० 'अनिर्दश' [को०] ।
⋙ अनिर्दश्य
वि० [सं०] दे० 'अनिर्देश्य' [को०] ।
⋙ अनिर्दिष्ट
वि० [सं०] १. जो बताया न गया हो । अनिरुपित । अनिर्धारित । अनिर्वाचित । उ०—क्या उनकी कल्पना में किसी अनिर्दिष्ट अत्याचारी या क्रुरकर्मा का सामान्य रुप ही था?- रस,० क०, पृ० २६८ ।२ अनियत । अनिशिचत । ३. असीम । अपरिमित । ४. निश्चित लक्ष्य से रहित [को०] ।
⋙ अनिर्दिष्टभोग
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरे के पशु, भूमिया और पदार्थो को मालिक की आज्ञा के बिना काम में लाना । विशेष—इस प्रकार दूसरे की वस्तु का व्यवहार करनेवाला चोर के तुल्य ही कहा गया है । स्मृतियों में इस दोष के करनेवाले के लिये भिन्न भिन्न अर्थदंड हैं ।
⋙ अनिर्देश
संज्ञा पुं० [सं०] निश्चित नियम या निर्देश का अभाव [को०] ।अनिर्देश१) वि० [सं०] जिसके गुण, स्वाभाव, जाति आदि का निर्धारण न हो सके । जिसके विषय में कुछ ठीक बतलाया न जा सके । अनिर्वचनीय । अनिर्धार्य । २. जिसकी परिभाषा न हो सके । जिसकी तुलना न हो सके (को०) ।
⋙ अनिर्देश्य (२)
संज्ञा पुं० परब्रह्म की एक उपाधि [को०] ।
⋙ अनिर्धारित
वि० [सं०] अनिरुपित । अनिश्चित [को०] ।
⋙ अनिर्धीर्य
वि० [सं०] जिसका निरुपण न हो सके । जिसका लक्ष्य स्थिर न किया जा सके । जिसके विषय में कोई बात ठहराई न जा सके । अनिर्देशय ।
⋙ अनिर्बध
वि० [सं० अनिर्बन्ध] १. बिना बंधन का । अबाध । अनि- यंत्रित । बेरोकटोक । २. स्वंतत्र । स्वच्छंद । स्वाधीन । खुदमुख्तार ।
⋙ अनिर्भर
वि० [सं०] भाररहित । कम वजन का । हलका । कम [को०] ।
⋙ अनिर्भेद
संज्ञा पुं० [सं०] भेद न खोलना ।
⋙ अनिर्मल
वि० [सं०] गंदा । मैला । अशुद्ध । गँदला [को०] ।
⋙ अनिर्माल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा जो औषध के काम आता है । पिंड़िका [को०] ।
⋙ अनिलोचित
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिसपर सावधानी से विचार न हुआ हो । आविचारित [को०] ।
⋙ अनिलोडित
वि० [सं०] जिसकी पुर्णत? परीक्षा न हुई हो । अपरी- क्षित [को०] ।
⋙ अनिर्वच
वि० [सं० अनिर्वचनीय] दे० 'अनिर्वचनीय' । उ०—वह है, वह नहीँ, अनिर्वच जग उसमें वह जग में लय ।—गुंजन, पृ० ८३ ।
⋙ अनिर्वचन
संज्ञा पुं० [सं०]मौन । खामोशी । जोर से न बोलना । [को०] ।
⋙ अनिर्वचनीय (१)
[सं०] १. जिसका वर्णन न हो सके । अकथनीय । अवर्णनीय । उ०—अहो अनिर्वचनीय भावसागर । सुनो मेरी भी स्वरलहरी क्या है कह रही ।—कानन०, पृ० ८९ । २. जो कहने योग्य न हो । अकथ्य ।
⋙ अनिर्वचनीय (२)
संज्ञा पुं० १. माया । भ्रम । अज्ञान । २. जगत् । संसार [को०] ।
⋙ अनिवर्त्यमान
वि० [सं०] जो पास न आ रहा हो । न लोटनेवाला [को०] ।
⋙ अनिर्वाच्य
वि० [सं०] १. निर्वचन के अयोग्य । जिसका निरुपण न हो सके । जो बतलाया न जा सके । जिसके विषय में कुछ स्थिर न हो सके । उ०—पावा अनिर्वाच्य विश्राम ।—मानस, ५ ।८ । ।२. जो चुनाव के योग्य न हो । निर्वाचन के अयोग्य ।
⋙ अनिर्वात
वि० [सं०] वायुरहित । शांत । उ०—वह श्रुति धारिता, ज्ञान की शिखा वह अनिर्वात निष्कंप ।—अणिमा, पृ० ३९?
⋙ अनिर्वाण
वि० [सं०] १. न बुझा हुआ । २. न नहाया हुआ । अस्नात । अप्रक्षालित [को०] ।
⋙ अनिर्वाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरा न होना । अपुर्णता । २. अनिष्पत्ति । असंगति । ३. आय की कमी या टोटा । साधन की अल्पता [को०] ।
⋙ अनिर्वाह्य
वि० [सं०] जो निर्वाह के योग्य न हो । जिसकी व्यवस्था कठिन हो [को०] ।
⋙ अनिर्वाह्य पण्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदार्थ या माल जिसका राज्य या नगर के भीतर लाया जाना बंद किया गया हो ।
⋙ अनिर्विण
वि० [सं०] अलज्जित । जिसने लज्जित होने योग्य कुछ न किया हो [को०] ।
⋙ अनिर्विण्ण
वि० [सं०] १. जो थका न हो । निर्वदरहित । दु?ख— रहित । २. विष्णु की एक उपाधि ।—[को०] ।
⋙ अनिर्विद
वि० [सं०] अशांत । अक्लांत । तरोताजा [को०] ।
⋙ अनिर्वृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'अनिर्वृत्ति' । २. दरिद्रता । शरणहीन [को०] ।
⋙ अनिर्वृत्त (१)
वि० [सं०] [संज्ञा अनिर्वत्ति] बुरी स्थिति का । दु?खी ।
⋙ अनिर्वृत्त (२)
वि० [सं०] दे० 'अनिर्वत्ति' [को०] ।
⋙ अनिर्वृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुरी स्थिति । दु?ख ।
⋙ अनिर्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्लांति का अभाव । निराशा का अभाव । २. स्वावलंबन । साहस [को०] ।
⋙ अनिर्वेश
वि० [सं०] बेरोजगार । दु?खी [को०] ।
⋙ अनिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हवा । पवन । वायु । २. पवन देवता । ३. वायु के ४१ भेदों में से एक । ४. अष्ट वसुओं में एक । पंचम वसु । ५. शरीर का एक तत्व । ६. पक्षाघात । लकवा । बातरोग । ७. अक्षर । ४९ की संख्या का द्योतक शब्द । ८. स्वाति नक्षत्र । ९. विष्णु का नाम । १० सागौन का वृक्ष । ११. वायु रोग (को०) ।
⋙ अनिलकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पवन के पुत्र हनुमान । २. जैन शास्त्रों के अनुसार भुवनपति देवताओं का एक भेद ।
⋙ अनिलध्न
वि० [सं०] वातविकारों को दुर करनेवाला [को०] ।
⋙ अनिलध्नक
संज्ञा पुं० [सं०] बिभीतक वृक्ष । बेहड़ा [को०] ।
⋙ अनिलपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनिलपर्याय' [को०] ।
⋙ अनिलपर्याय
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की पलकों तथा बाहरी भाग की सूजन [को०] ।
⋙ अनिलप्रकृति (१)
वि० [सं०] वातप्रकृतिवाला [को०] ।
⋙ अनिलप्रकृति (२)
संज्ञा पुं० शनि का नाम [को०] ।
⋙ अनिलभद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रथ । विशेष—मान सार में बनावट या आकार के अनुसार रथ का सात भेद माने गए है०—(१) नभस्वद्रक्, (२) प्रभंजनभद्रक, (३) निवातभद्रक, (४) पवनभद्रक, (५) परिषदभद्रक, (६) इंद्रभद्रक और (७) अनिलभद्रक ।
⋙ अनिलय
वि० [सं०] निवासरहित । आश्रयरहित [को०] ।
⋙ अनिलवाह
संज्ञा पुं० [सं० अनिल+ वाह=प्रवाह] वायु का प्रवाह । वायुमंडल । उ०—इस अनिलवाह के पार प्रखर किरणों का वह ज्योतिर्मय घर ।—तुलसी०, पृ० १९ ।
⋙ अनिलव्याधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वायु कुपित होने से उत्पन्न रोग [को०] ।
⋙ अनिलसख
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि । वायु का सहायक [को०] ।
⋙ अनिलसारथि
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०] ।
⋙ अनिलात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] वायु का पुत्र—१. हनुमान् । २. भीम [को०] ।
⋙ अनिलांतक
संज्ञा पुं० [सं० अनिलान्तक] इंगुदी का पौधा । अंगार- पुष्य [को०] ।
⋙ अनिलापह
वि० [सं०] दे० 'अनिलध्न' [को०] ।
⋙ अनिलामय
संज्ञा पुं० [सं०] वातरोग । लकवा । गठिया [को०] ।
⋙ अनिलायन
संज्ञा पुं० [सं०] वायु का मार्ग । हवा की दिशा [को०] ।
⋙ अनिलहा
वि० [सं० अनीलहन] वातरोग नष्ट करनेवाला [को०] ।
⋙ अनिलाशन
वि० [सं०] दे० 'अनिलाशी' [को०] ।
⋙ अनिलाशी (१)
वि० [अनिलाशिन्] [वि० स्त्री० अनिलाशिनी] हवा पीकर रहनेवाला ।
⋙ अनिलाशी (२)
संज्ञा पुं० साँप । सर्प ।
⋙ अनिलोडित (१)
वि० [सं०] अनुभवरहित [को०] ।
⋙ अनिलोड़ित (२)
वि० [सं०] जिसपर भलीभाँति विचार न हुआ हो । अपुर्णत? परीक्षित [को०] ।
⋙ अनिवर्तन
वि० [सं०] १. दृढ़ । स्थिर । २. उचित । अत्याज्य [को०]
⋙ अनिवर्ती
वि० [सं० अनिर्वतिन्] [स्त्री० अनिवर्तिनी] १. वापस न न लौटनेवाला । २. तत्पर । अध्यवयासी । सुस्तैद । ३. वीर । पीठ न दिखानेवाला । ४. विष्णु और ईश्वर का विशेषण (को०) ।
⋙ अनिवार पु
वि० [सं० अनिवार्य] दे० 'अनिवार्य' । उ०—प्रति सूधो टेढ़ो बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार ।—रसखान०, पृ० ९ ।
⋙ अनिवारित
वि० [सं०] जिसे रोका नहीं गया । अबाधित । जिसका विरोध न हो । निर्विरोध [को०] ।
⋙ अनिवार्य
वि० [सं०] १. जो निवारण के योग्य न हो । जो हटे नहीं । अटल । २. अवश्यभावी । जो होकर रहे । जो अवश्य हो । ३. जिसके बिना काम न चले । परम आवश्यक । जैसे— उन्नति के लिये शिक्षा का होना अनिवार्य है (शब्द०) ।
⋙ अनिविशामान
वि० [सं०] न बैठनेवाला । विश्राम न करनेवाला । गतिशील [को०] ।
⋙ अनिवेशन
वि० [सं०] जिसके पास विश्राम का स्थान न हो [को०] ।
⋙ अनिवृत्तिवादर
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार वह कर्म जिसका परिणाम निवृत्ति या दुर हो जाय पर कषाय या वासना रह जाय ।
⋙ अनिविष्ट
वि० [सं०] अविवाहित [को०] ।
⋙ अनिश
क्रि० वि० [सं०] निरंतर । अनवरत । लगातर । अनिश्रांत ।
⋙ अनिश्चय
संज्ञा पुं० [सं०] सदेह । निश्चय का अभाव [को०] ।
⋙ अनिश्चत
वि० [सं०] जिसका निश्चय न हुआ हो । अनियत । अनि- र्दिष्ट । जिसका कुछ ठीक ठाक न हो । जिसके विषय में कुछ स्थिर न हुआ हो ।
⋙ अनिषिद्ध
वि० [सं०] जो अवैध या वर्जित न हो । प्रशस्त [को०] ।
⋙ अनिष्कासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पर्दानशीन औरत । विशेष—चंद्रगुप्त के समय यह नियम था कि पदनिशीन औरतों से घरों के भीतर ही काम लिया जाता था और उनको वहीं पर वेतन पहुँचा दिया जाता था ।
⋙ अनिष्ट (१)
[सं०] १. जो इष्ट न हो । इच्छा के प्रतिकूल । अनभिलषित । अवांछित । २. बुरा । निषिद्ध (को०) । ३. यज्ञ के लिये वर्जित । जो यज्ञ के लिये प्रशस्त न हो (को०) ।
⋙ अनिष्ट (२)
संज्ञा पुं० अमंगल । अहित । बुराई । इच्छाविरुद्ध कार्य । खराबी । हानि ।
⋙ अनिष्टकर
वि० [सं०] अनिष्ट करनेवाला । अहितकारी । हानिकारक । अशुभकारक ।
⋙ अनिष्टकारी
वि० [सं० अनिष्टकारिन्] [स्त्री० अनिष्टकारिणी] दे० 'अनिष्टकर' ।
⋙ अनिष्टग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] हानि करनेवाला ग्रह । अशुभ ग्रह [को०] ।
⋙ अनिष्टप्रवृत्तिक
वि० [सं०] राष्ट्र या राज्य के अनिष्टसाधन में तत्पर । बागी । राष्ट्रद्रोही । विशेष—चाणक्य के समय में ऐसे लोगों कगो अग्नि में जलाने का दंड दिया जाता था ।
⋙ अनिष्टप्रसंग
संज्ञा पुं० [सं० अनिष्टप्रसङ्ग] १. अवाछित या अनिच्छित घटना । २. गलन वस्तु, तर्क, अथवा नियम का संबंध [को०] ।
⋙ अनिष्टफल
संज्ञा पुं० [सं०] अवांछित परिणाम । बुरा नतीजा [को०] ।
⋙ अनिष्टशंका
संज्ञा स्त्री० [सं० अनिष्टशाङ्क] दुर्भाग्य या अवांछित को आशंका । अहित होने का डर [को०] ।
⋙ अनिष्टसूचक
वि० [सं०] अनिष्ट या अहित की सूचना देनेवाला [को०] ।
⋙ अनिष्ट हेतु
संज्ञा पुं० [सं०] बुरा लक्षण । अपशकुन ।
⋙ अनिष्टानुबंधी
वि० [सं० अनिष्टानुबन्धिन्] एक के बाद एक विपत्ति का आना । लगातर । विपत्तियों का आगमन [को०] ।
⋙ अनिष्टापत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनिष्ट या अशुभ की प्राप्ति । अवांछित घटना [को०] ।
⋙ अनिष्टापादन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनिष्टापत्ति' [को०] ।
⋙ अनिष्टाप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनिष्ट की आप्ति अर्थात् प्राप्ति । अनिष्टापत्ति [को०] ।
⋙ अनिष्टाशंसी
वि० [सं० अनिष्टाशंसिन्] अनिष्ट की सूचना देने वाला । अनिष्टसूचक ।
⋙ अनिष्टी
वि० [सं० अनिष्टिन्] जिसने यज्ञ आदि न किया हो (को०) । २. अभागा । भाग्यहीन ।
⋙ अनिष्टोत्प्रेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] अनिष्ट की कल्पना । अनिष्ट होने की संभावना [को०] ।
⋙ अनिष्ठा
संज्ञा पुं० [सं०] अदृढ़ता । निष्ठा का अभाव [को०] ।
⋙ अनिष्ठुर
वि० [सं०] जो कठोर न हो । जो निर्दय न हो । दयावान । कोमलाचित्त [को०] ।
⋙ अनिष्ण
वि० [सं०] जो प्रवीण न हो । अदक्ष । अकुशल [को०] ।
⋙ अनिष्पत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपुर्णता । अधूरापन । असिद्धि ।
⋙ अनिष्पन्न
वि० [सं०] १. अधुरा । अपुर्ण । २. असंपत्र । असिद्ध ।
⋙ अनिस पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अनिश' ।
⋙ अनिसर्ग
वि० [सं०] अस्वाभाविक । अप्राकृतिक [को०] ।
⋙ अनिसृष्ट
वि० [सं०] १. जिसने अधिकार या आज्ञा न प्राप्त की हो । २. जिसके व्यवहार या उपयोग की आज्ञा न ले ली गई हो ।
⋙ अनिसृष्टोपभोक्ता
संज्ञा पुं० [सं० अनिसृष्टोपभोक्तृ] वह जो मालिक की आज्ञा के बिना धरोहर रखी हुई वस्तु काम में लाए ।
⋙ अनिस्तीर्ण
वि० [सं०] १. जो पार न किया गया हो । जो अस्वीकृत न किया गया हो । जिससे छुटकारा न मिला हो । २. अभियोग जिसका उत्तर न दिया गया हो । जिसका खंडन न किया गया हो [को०] ।
⋙ अनिस्तीर्णाभियोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह अभियुक्त जिसने अभियोग का खंडन कर उससे मुक्ति न पा ली हो [को०] ।
⋙ अनि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अणि=अग्रभाग; नोक] १. नोक । सिरा । कोर । उ०—सतगुरु मारी प्रेम की रही कटारी टूटि । वैसी अनी न सालई जैसी सालै मूठि ।—कबीर (शब्द०) । २. नाव या जहाज का अगला सिरा । माँगा । माथा । गलही । ३. जूते की नोक । ४. पानी में निकली हुई जमीन की नोक ।
⋙ अनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अनीक=समुह, सेना] १. समुह । झुंड । दलय़ उ०—नारदादि सनकादि प्रजापतचि, सुर नर असुर अनी ।— सुर०, १ ।३७१ । २. सेना । फौज । उ०—बेषु न सो सखि सीय न संगा । आगे अनी चली चतुरंगा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अनी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० आन=मर्यादा] ग्लानि । खेद । लाग । जैसे—उसने अनो के बस कनी खा ली (शब्द०) ।
⋙ अनी (४) †
संबो स्त्री० [सं० अयि पं० अनी] री । अरी । ओ ।
⋙ अनीक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेना । फौज । २. समूह । झुंड़ । ३. युद्ध । संग्रांम । लड़ाई ।
⋙ अनीक (२)पु
वि० [सं० अ=नही.+फा० नेक, हिं० नीक] जो अच्छा न हो । बुरा । खराब ।
⋙ अनीकीनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अक्षौहिणी या पुरी सेना का दसवाँ भाग जिसमें २१८७ हाथी, ५६६१ घोड़े ओर १०९३५ पैदल होते हैं । २. कमलिनी । पद्मिनी । नलिनी ।
⋙ अनीक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] न देखना । दृष्टिनिक्षेप न करना [को०] ।
⋙ अनीच
वि० [सं०] १. जो नीचा न हो । उत्तम । आदर के योग्य । २. जिसका उच्चारण अनुदात्त स्वर में न हुआ हो । उदात्त स्वर में उच्चारित [को०] ।
⋙ अनोचदर्शी
संज्ञा पुं० [सं० अनीचर्दर्शिन्] एक बुद्ध का नाम [को०] ।
⋙ अनोचानुवर्ती
वि० [सं० अनिचानुवर्तिन्] १. नीच अथवा अशिष्ट जनों से संपर्क न रखनेवाला । २. निष्ठावान् या विश्वसनीय पति या प्रणयी [को०] ।
⋙ अनीठ पु
वि० [सं० अनिष्ठ; प्रा० अणिठ्ठ] १. जो इष्ट न हो । अनि- शिचत । अप्रिय । २. बुरा । खराब । उ०—(क) जाउ जू जैए अनीठ बड़े अरु ईठ बड़ै पर दीठ बड़े हौ ।—देव (शब्द०) । (ख) हा हा बलाइ ल्यों पीठ दै बैठुरी काहु अनीठ की दीठि परैगी ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अनीठि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अन+ इष्ठि] १. अनिच्छा । २. बुराई । ३. क्रोध ।
⋙ अनोड (१)
वि० [सं०] बिना घोंसले का । २. आश्रयहीन । जिसका निशिचत आवास न हो । ३. अशरीरी ।
⋙ अनीड (२)
संज्ञा पुं० अग्नि का एक नाम [को०] ।
⋙ अनीत पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अनीति' । उ०—ऐसौ और न जानिबी जग अनीत करनार । जामै उपज्यौ सरन सौ ताकौ बैधत मार ।—स० सप्तक, पृ० ३६५ ।
⋙ अनीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नीति का विरोध । अन्याय । बेइंसाफी । २. शरारत । ६. अंधेर । अत्याचार । ४. ईति अर्थात् विपत्ति । या कष्ट का अभाव (को०) ।
⋙ अनीतिज्ञ
वि० [सं०] दुराचार में प्रवीण । अनुचित कार्य में पटु । जिसे सदाचार या नीति का ज्ञान न हो । धृष्ट [को०] ।
⋙ अनीतिविद्
वि० [सं०] दे० 'अनीतिज्ञ' [को०] ।
⋙ अनीतिमान्
वि० [सं० अतीतिमत्] [स्त्री० अनीतिमती] अन्यायी अन्यथाचारी ।
⋙ अनीदृश
संज्ञा पुं० [सं०] भिन्न । जो एक से न हों । जिनमें समानता न हो [को०] ।
⋙ अनीप्सित
वि० [सं०] अनिच्छित । अनभिलषित । अनचाहा । चाहा हुआ ।
⋙ अनीर्षु
वि० [सं०] जिसमें ईर्ष्या न हो । द्धेषरहित [को०] ।
⋙ अनील
वि० [सं०] जो नीला न हो । श्वेत [को०] ।
⋙ अनीलवाजी
संज्ञा पुं० [सं० अनीलवाजिन्] १. सफेद घोड़ेवाला पुरुष । २. अर्जुन ।
⋙ अनीश (१)
वि० [सं०] १. ईशरहित । बिना अभिभावक या मालिक का । २. जो स्वामी या मालिक न हो । ३. शक्तिरहित । असमर्थ । ४. जिसके ऊपर कोई न हो । सबसे श्रेष्ठ । ४. जो स्वतंत्र या खूदमुख्तार न हो [को०] ।
⋙ अनीश (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु । २. ईश्वर से भिन्न वस्तु । जीव । माया ।
⋙ अनीश (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] असहायावस्था । असमर्थता । दीन अवस्था [को०] ।
⋙ अनीश्वर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'अनीश' । २. ईश्वर का अस्तित्व या सत्ता न मानना [को०] ।
⋙ अनीश्वर (२)
वि० १. ईश्वर को न माननेवाला । २. दे० 'अनीश' ।
⋙ अनीश्वरवाद
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनीश्वरवादी] १. ईश्वर के अस्तित्व पर अविश्वास । नास्तिकता । २. पुर्व मीमांसा । मीमांसा दर्शन ।
⋙ अनीश्वरवादी
वि० [सं० अनीश्वरवादिन्] १. ईश्वर को न मानने वाला । नास्तिक । २. मीमांसक ।
⋙ अनीस पु
वि० [हिं०] १. दे० 'अनीश (१)' । २. जिसका कोई रक्षक । न हो । अनाथ । उ०—बाल दसा जेते दुख पाए । अति अनीस नहिं जाय गनाए ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अनीसून
संज्ञा पु० [यू०] एक प्रकार की सौंफ जो उत्तर भारत में बहुत होती है ।
⋙ अनीह (१)
वि० [सं०] १. इच्छारहित । निस्पृह । उ०—एक अनीह अरुप अनामा ।—मानस, १ ।१३ । ।२. निश्चेष्ट । बेपरवाह । उदासीन ।
⋙ अनीह (२)
संज्ञा पुं० अयोध्या के एक नरेश का नाम [को०] ।
⋙ अनीहा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनिच्छा । निष्कामता । निस्पृहता । २. निश्चेष्टता । बेपरवाही । उदासीनता ।
⋙ अनीहा (२)
वि० अप्रिय । जो प्रिय न लगे [को०] ।
⋙ अनु (१)
उप० [सं०] जिस शब्द के पहले यह उपसर्ग लगता है उसमें इन अर्थो का संयोग करता है—१. पीछे । जैसे, अनुगामी, अनुसरण । २. सदृश । जैसे, अनुकाल, अनुकुल, अनुरुप, अनुगुण । ३. साथ । जैसे, अनुकंपा, अनुग्रह, अनुपान । ४. प्रत्येक ।जैसे, अनुक्षण, अनुदिन, । ४. बारंबार । जैसे, अनुगणन अनुशीलन । गणरत्न सहोदधि में इसके निम्मांकित अर्थ निर्दिष्ट किए गए है—वेदाध्ययन, अनुष्ठान, सामीप्य, पश्चादभाव, अनुबंधन, साम्य, अभिमुख, हीन, विसर्ग और लक्षण ।
⋙ अनु (२)
संज्ञा पुं० १. राजा ययाति का एक पुत्र । २. प्राचीन भारत की एक जाति [को०] ।
⋙ अनु (३
पु संज्ञा पुं० [सं० अणु] दे० 'अणु' । उ०—मिल्यों चंद्र कनि चांविकनि अनु अनु ह्वै मनु जाइ ।—भिखारी ग्रं०, भा० २, पृ० १४१ ।
⋙ अनु (४)पु
अव्य० [हिं०] हाँ । ठीक है । उ०—प्रनु तुम कही नीक यह सोभा । पै कुल सोई जेहि भँवर जेहि लोमा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अनुकंपन (१)
संज्ञा पुं० [सं० अनुकम्पन] १. अनुग्रह । दया । २. सहानुभूति [को०] ।
⋙ अनुकंपन (२)
वि० दया करनेवाला । कोमलहृदय । सहृदय [को०] ।
⋙ अनुकंपनीय
वि० [सं० अनुकम्पनीय] दे० 'अनुकंप्य' [को०] ।
⋙ अनुकंपा
संज्ञा स्त्री० [सं० अनुकम्पा] [वि० अनुकम्पित] १. दया । कृपा । अनुग्रह । २. सहानुभूति । हमदर्दी ।
⋙ अनुकंपित
वि० [सं० अनुकम्पित] जिस पर कृपा की गई हो । अनुगृहीत ।
⋙ अनुकंप्य (१)
वि० [सं० अनुकम्प्य] दया के योग्य । सहानुभुति का पात्र [को०] ।
⋙ अनुकंप्य (२)
संज्ञा पुं० १. शीघ्रगामी दूत या समाचारवाहक । २. तपस्वी [को०] ।
⋙ अनुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कामी । कामुक । विषयी । कामी पुरुष
⋙ अनुक (२)
वि० लालची । इच्छुक । २. कामवासनाग्रस्त । ३. ढालुआँ । ४. अधीन । आश्रित [को०] ।
⋙ अनुकथन
संज्ञा पुं० [सं०] क्रमबद्ध वचन । कथोपकथन । वार्तालाप बातचीत । उ०—सुनि अनुकथन परसपर होई ।— मानस, १ ।४१ ।
⋙ अनुकनीय
वि० [सं० अनुकनीयस्] सबसे छोटे से बड़ा । कनिष्ठतम से प्रथम [को०] ।
⋙ अनुकर
संज्ञा पुं० [सं०] सहायक [को०] ।
⋙ अनुकरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुकरणीय, अनुकृत] १. देखा देखी काम । नकल । समान आचरण । उ०—आज सोचता हुँ जैसे पदिमनी थी कहती—'अनुकरण कर मेरा' ।—लहर पृ० ६७ ।२. पीछे आनेवाला । वह जो पीछे उत्पन्न हो । उ०—आलंबन उद्दीपन के जे अनुकरण बखाना ते कहिए अनुभावा सब, दंपति प्रीति विधान ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ अनुकरणीय
वि० [सं०] [स्त्री० अनुकरणीय] अनुकरण करने लायक । नकल करने योग्य ।
⋙ अनुकर्ता
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुकरण करनेवाला । आदर्श पर चलने वाला । २. नकल करनेवाला । ३. आज्ञाकारी । हुक्म माननेवाला ।
⋙ अनुकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] अनुकरण । नकल [कौ०] ।
⋙ अनुकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गाड़ी या रथ का तला । २. खिंचाव । आकर्षण । ३. देवता का आवाहन । ४. विलबंसे किसी कर्तव्य का पालन ।
⋙ अनुकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुकर्ष' ।
⋙ अनुकलन
संज्ञा पुं० [सं०] अंकन । लेखन । सज्जा करना । उ०— हिंदी लिखसे के लिये फारसी लिपि का इस प्रकार अनुकलन करने के कारण ।—संपू० अनि० ग्रं०, पृ १३१ ।
⋙ अनुकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] आवश्यकतानुसार निर्दिष्ट के अभाव में अन्य विक्लप का व्यवहार । जैसे यव के अभाव में गेहूँ या चावल के व्यवहार का विकल्प । २. कल्प (छह वेदांगों में से एक) से संबंधित ग्रंथ [को०] ।
⋙ अनुकांक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० अनुकाङ्क्षा] [वि० अनुकांक्षित, अनुकांक्षी] इच्छा । अभिलाषा । आकांक्षा ।
⋙ अनुकांक्षित
वि० [सं० अनुकाङ्क्षित] इच्छित । अभिलाषित । आकांक्षित ।
⋙ अनुकांक्षी
वि० [सं० अनुकाङ् क्षिन्] [वि० स्त्री० अनुकाक्षिणी] इच्छा रखनेवाला । चाहनेवाला । आकांक्षी ।
⋙ अनकाम
वि० [सं०] १. प्रिय । इच्छानुकूल । २. इच्छुक । विलासी [को०] ।
⋙ अनुकामी
वि० [सं० अनुकामिन्] इच्छानुसार कार्य करनेवाला । स्वेच्छाचारी [को०] ।
⋙ अनुकामीन
वि० [सं०] दे० 'अनुकामी' [को०] ।
⋙ अनुकार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुकरण' ।
⋙ अनकारी
वि० [सं० अनुकारिन्] [स्त्री० अनुकारिणी] १. अनुकर्ता । अनुकरण करनेला । देखादेखी करनेवाला । नकल करनेवाला । २. आज्ञाकारी । हुक्म पर चलनेवाला ।
⋙ अनुकार्य (१)
वि० [सं०] जिसकी नकल की जा सके । नकल किए जाने योग्य ।
⋙ अनुकार्य (२)
संज्ञा पुं० अभिनेता द्वारा अनुकृत व्यक्ति । वह जिसकी नकल की जाय । उ०—उन अभिनेताओं को ही दर्शक लोग अनुकार्य समझ लेते हैं ।—स० शास्त्र, पृ० ४७ ।
⋙ अनुकाल
वि० [सं०] समायिक । समयानुकूल [को०] ।
⋙ अनुकीरतन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनुकीर्तन' । उ०—जहाँ प्रसिद्ध निषेध को अनुकीरतन प्रकाश ।—मतिराम ग्रं०, पृ० ४३९ ।
⋙ अनुकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्णन । कथन । २. घोषणा । उद्— घोष । प्रचार [को०] ।
⋙ अनुकचिंत
वि० [सं० अनुकुन्चित] १. झुका हुआ । २. झुकाया हुआ । टेढ़ा किया हुआ [को०] ।
⋙ अनुकूल (१)
वि० [सं०] [स्त्री० अनुकूला] १. मुआफिक । २. पक्ष में रहनेवाला । सहायक । हितकर । ३. प्रसन्न । उ०—होउ महेस मोहि पर अनुकूला ।—मानस, १ ।१५ ।
⋙ अनुकूल (२)
संज्ञा पुं० १. वह नायक जो एक ही विवाहित स्त्री में अनुरक्त हो । २. एक काव्यालंकार जिसमें प्रतिकूल से अनुकूल वस्तु की सिद्धि दिखाई जाय । जैसे—आगि लागि घर जरिगा, बड़ सुख कीन्ह । पिय के हाथ घयिलवा भरि भरि दीन्ह । (शब्द०) । ३. राम के दल का एक बंदर । ४. सबके प्रिय विष्णु ।
⋙ अनुकूल (३) पु
क्रि० वि० [हिं०] ओर । तरफ । उ०—ढाहति भूप रूप तरु मुला । चली बिपत्ति बारिध अनुकूला ।—मानस २ ।३४ ।
⋙ अनुकूलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपतिकूलता । अविरुद्धता । २. पक्षपात । हितकारिता । सहायता । ३. प्रसन्नता ।
⋙ अनुकूलन
संज्ञा पुं० [सं०] अनुकुल होने का प्रभाव । उ०—अर्वाचीन काल में भी हिंदू सभ्यता ने बड़ी स्थिरता दिखाई है और अनुकूलन की शक्ति का भी परिचय दिया है ।—हिंदू सभ्यता, पृ० ५८४ ।
⋙ अनुकूलना पु
क्रि० स० [सं० अनुकूलन से नाम०] १. अप्रतिकुल होना । मुआफिक होना । २. पक्ष में होना । हितकर होना । ३. प्रसन्न होना । उ०—फगुआ देन कहयो मन भायो सबै गोपिका फुलीं । कंठ लगाय चलीं प्रियतम कौ अपने गृह अनुकुलीं ।—सुर (शब्द०) ।
⋙ अनुकूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में भगण, तगण, नगण और दो गुरु (ऽ।। X ऽऽ। X ।।। X ऽऽ) होते हैं । मौक्तिक माला । जैसे—पावक पूज्यौ समिध सुधारी । आहूतदि दीन्हीं सब सुखकारी ।—केशव (शब्द०) । २. दंती वृक्ष ।
⋙ अनुकूलित
वि० [सं०] संमानित । जिसका भव्य स्वागत हुआ हो [को०] ।
⋙ अनुकृत
वि० [सं०] अनुकरण किया हुआ । नकल किया हुआ ।
⋙ अनुकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समान आचरण । देखा देखी कार्य । नकल । अनुकरण । उ०—हृदय की अनुकृति वाह्य उदार ।— कामायनी, पृ० ४६ ।२. वह काव्यालंकार जिसमें एक वस्तु का कारणांतर से दूसरी वस्तु के अनुसार हो जाना वर्णन किया जाय । यह वास्तव में सम अलंकार के अंतर्गत ही आता है ।
⋙ अनुकुष्ट
वि० [सं०] १. आकृष्ण । खींचा हुआ । २. समाहृत । संमि- लित । ३. आरोपित । गार्भित [को०] ।
⋙ अनुक्त
वि० [सं०] अकांथत । बिना कहा हुआ । अनभिहित ।
⋙ अनुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. न बोलना । न कहना । अकथना । २. वह बात जो उचित न हो । अनुचित बात [को०] ।
⋙ अनुक्रंदन
संज्ञा पुं० [सं० अनुक्रन्दन] उत्तर में चिल्लाना । प्रतिक्रंदन [को०] ।
⋙ अनुक्रकच
वि० [सं०] जिसमें लकड़ी चीरने की आरी जैसे दाँत बने हों । दाँतेदार [को०] ।
⋙ अनुक्रम (१)
वि० [सं०] क्रमबद्ध । सिलसिलेवार । तरतीबबार । उ०— प्रकृति पुरुष, श्रीपति सीतापति, अनुक्रम कथा सुनाई ।—सूर, १० ।२८१६ ।
⋙ अनुक्रम (२)
संज्ञा पुं० १. क्रम । सिलसिला । तरतीब । २. एक के बाद एक होने की स्थिति या क्रिया (को०) । ३. दे० 'अनुक्रमणिका' [को०] ।
⋙ अनुक्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रमबद्ध रुप से आगे बढ़ना । २. पीछे पीछे चलना । अनुगमन [को०] ।
⋙ अनुक्रमणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रम । तरतीब । सिलसिला । २. रुची । तालिका । फिहरिस्त । ३. कात्यायन का एक ग्रंथ जिसमें मंत्रों के ऋषि, छंद, देवता और विनियोग बताए गए है ।४. अक्षरों और मात्राओं के क्रमानुसार तैयार की हुई शब्द, ग्रंथ, नाम या विषय आदि की सूची ।
⋙ अनु क्रमरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अनुक्रमणिका' [को०] ।
⋙ अनुक्रांत
वि० [सं० अनुक्रांत] १. पारायण किया हुआ । पढा हुआ । २. विधिपूर्वक संपन्न । ३. अनुक्रमणी आदि में समाविष्ट । परिमणित [को०] ।
⋙ अनुक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० १.'अनुक्रम' । २.'अनुकर्म' (को०) ।
⋙ अनुक्रोश
संज्ञा पुं० [सं०] अनुकंपा । दया । उ०—दयित, क्या मुझे आर्त जान के, अधिप ने अनुक्रोश मान के, घर दिया तुम्हें भेज आपही ।—साकेत, पृ० ३१२ ।
⋙ अनुक्षण
क्रि० वि० [सं०] १. प्रतिक्षण । २. लगातार । निरंतर ।
⋙ अनुक्षत्ता
संज्ञा पुं० [सं० अनुक्षतृ] द्वाररक्षक अथवा सारथी का अनुचर [को०] ।
⋙ अनुक्षपा
संज्ञा संज्ञा [सं० अनुक्षपम्] एक रात के बाद दुसरी रात का अनवरत क्रम [को०] ।
⋙ अनुक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] उड़ीसा के मंदिरों से पुजारियों को देवोतर सपत्ति में से दी जानेवाली वृति [को०] ।
⋙ अनुख्याता
संज्ञा पुं० [सं० अनुख्यातृ] अनुसंधान करनेवाला । पता लगानेवाला [को०] ।
⋙ अनुख्याति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनुसंधान । पता लगाना [को०] ।
⋙ अनुगंतव्य
संज्ञा पुं० [सं० अनुगन्तव्य] १. अनुगमन किए जाने के योग्य । जैसे—मृत पति के साथ पत्नी का सहमरण ।२. अनुकरण किए जाने योग्य ।३. अनुसंधान करने योग्य । जिसे खोजा जाय [को०] ।
⋙ अनुग (१)
वि० [सं०] पीछे चलनेवाला । अनुगामी । अनुयायी । पैरोकार उ०—वन में अग्रज अनुज ही अग्रणी ।—साकेत, पृ०१३४ ।
⋙ अनुग (२)
संज्ञा पुं० सेवक । नौकर । चाकर । अनुचर । उ०—उतरि अनुज अनुगनि लमेत प्रभु गुरू द्विजगन चरननि सिर नायो ।— तुलसी ग्रं०, पृ०४०२ ।
⋙ अनुगत (१)
वि० [सं०] १. पीछे पीछे चलनेवाला । अनुगामी । अनुयायी उ०—चिर अनुगत सौंदर्य के समादर में ।—लहर, पृ०६५ । २. अनुकूल । मुआफिक । जैसे; —नियमानुगकत कार्य होना उत्तम है (शब्द०) ।
⋙ अनुगत (२)
संज्ञा पुं० १. सेवक । अनुचर । नौकर । २. संगीत में मध्यम लय या समय (को०) ।
⋙ अनुगतार्थ
वि० [सं०] प्रायः समान अर्थवाला । करीब करीब मिलते जुलते अर्थ का ।
⋙ अनुगत
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुगमन । अनुसरण । पीछे पीछे चलना । २. अनुकरण । नकल । ३. अंतिम दशा । मरण ।
⋙ अनुगतिक
वि० [सं०] अनुसरण करनेवाला । नकल करनेवाला [को०] ।
⋙ अनुगम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुगमन' [को०] ।
⋙ अनुगमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीछे चलना । अनुसरण । २. समान आचरण । ३. विधवा का मृत पती के शव के साथ जल मरना । ४. सहवास । संभोग ।५. स्वीकारण । स्वीकार । मा्नना ।[को०] ।
⋙ अनुगम्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जिसका अनुसरण अथवा अनुकरण किया जाय [को०] ।
⋙ अनुगर्जित (१)
वि० [से०] गर्जन किया हुआ [को०] ।
⋙ अनुगर्जित (२)
संज्ञा पुं० गरजने जैसी प्रतिध्नि [को०] ।
⋙ अनुगवीन
संज्ञा पुं० [सं०] ग्वाला । गोपालक [को०] ।
⋙ अनुगांग
वि० [सं० अनुगाङ्ग] गंगा के किनारे का (देश०) ।
⋙ अनुगादी
वि० [सं० अनुगादिन्] पुनरावृत्ती करनेवाला । दूसरे के शब्दों को दोहरानेवाला । प्रतिध्वनि करनेवाला ।
⋙ अनुगामी
वि० [सं० अनुगामिन्][वि० स्त्री अनुगामिनी] १. पश्चाव्दर्ती पीछे चलनेवाला । उ०—नहीं आप होते अनुगामी निरय के ।— करूण० पृ०२२ । २. समान आचरण करनेवाला । ३. आज्ञाकारी । हुक्म माननेवाला । उ०— मोहि जानिय आपन अनुगामी ।—मानस, १ ।२८१ ।४.सहवास या संभोग करनेवाला । ५. जैन सिद्धांत के अनुसार क्षयोपशमनिमित्त अवधिज्ञान के छह भेदों में प्रथम । यहाँ अनुगामी उसे कहा गया है जो दूसरे क्षेत्र या जन्म मे भी जीव के साथ जाता है' । उ०— 'अनुगामी जो दूसरे क्षेत्र या जन्म में भी जीव के साथ जाता है' । हिंदू० स०, पृ०२४१ ।
⋙ अनुगामुक
वि० [सं०] पीछे चलने का अभ्यासी । सदा पीछे चलने वाला [को०] ।
⋙ अनुगीत
संज्ञा पुं० [सं०] एक छंद का नाम । दे० 'गीता' । २. गीत के बाद गाय हुआ गीत । उत्तरगीत [को०] ।
⋙ अनुगीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. महाभारत के अश्वमेध पर्व के १६ से ९२ अध्याय तक का नाम [को०] ।
⋙ अनुगीति
संज्ञा पुं० [सं०] आर्या छंद का एक भेद [को०] । विशेष—इसके प्रथम चरण में २७ और द्वितीय चरण मे ३२ मात्राएँ होती हैं ।
⋙ अनुगुण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक काव्यालंकार जिसमें किसी वस्तु के पूर्वगुण का दुसरी वस्तु के संसर्ग से बढना दिखाया जाय । जैसे—मुक्तमाल तिय हास ते अधिक स्वेत हौ जाय ।— (शब्द) । २. स्वाभाविक विशोषता [को०]
⋙ अनुगुण (२)
वि० १. समान गुणोंवाला । समान प्रकृतिवाला । २. अनुकूल । मनपसंद । ३. आज्ञाकारी [को०] ।
⋙ अनुगुप्त
वि० [सं०] ढका हुआ । रक्षित । आवरण किया हुआ [को०] ।
⋙ अनुगृह
संज्ञा पुं० [सं० अनुगृहम्] मकान के उपर की छत [को०] ।
⋙ अनुगृहीत
वि० [सं०] १. जिसपर अनुग्रह किया गया हो । उपकृत । उ०—मैं अनुगृहीत हूँ और कहूँ क्या देवी ।—साकेत, पृ०२४३ । २.कृतज्ञ ।
⋙ अनुगौन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनुगमन' । उ०—देखा देखी प्रजहु सब कीनो ता अनुगौन ।—भारतेंदु ग्र० भा० १, पृ० २२० ।
⋙ अनुग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुसरे का दुःख दुर करने की इछा । उ०— कृपा अनुग्रह अंगु अघाई ।—मानस, २ ।२९९ ।२. कृपा । दया ।अनुकंपा ।उ०—करौ अनुग्रह सोइ बुद्धिरासि सुभ गुन सदन ।—मानस,१ ।१ ।३. अनिष्ट निवारण । उ०—संकर दीन दयाल अब, येहि पर होहु कृपाल । साप अनुग्रह होइ जेहि, नाथ थोरेही काल । मानस—७ ।१०८ । ४. राज्य या राजा की कृपा से प्राप्त सहायता । सरकारी रिआयत । ५. पृष्ठ भाग का रक्षक [को०] ।
⋙ अनुग्रही
वि० [सं० अनुग्रहिन्] जादूगरी में पटु । बाजीगरी में निपुण [को०] ।
⋙ अनुग्रासक
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रास । कौर । नेवाला [को०] ।
⋙ अनुग्राहक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अनुग्रहिका] अनुग्रह करनेवाला । कृपालु । सहायक । उपकारी ।
⋙ अनिग्राही
वि० [सं० अनिग्रहिन्] दे० 'अनुग्राहक' ।
⋙ अनुग्राह्म
वि० [सं०] कृपा का पात्र । अनुग्रह के योग्य [को०] ।
⋙ अनुघटन
संज्ञा पुं० [सं०] आपस में जोड़ना । मिलाना संबंध स्थापित करना [को०] ।
⋙ अनुघात
संज्ञा पुं० [सं०] नाश । संहार ।
⋙ अनुघातन
वि० [सं०] मार डालने या नाश करनेवाला । उ०— अघ अरिष्ट धेनुक अनुघातन ।— सूर, १० । ६८१ ।
⋙ अनुच पु
वि० [सं० अचुच्च] जो ऊँचा या श्रेष्ठ न हो । अश्रेष्ठ । निम्न । नीच । उ०—इहि बिधि उच्च अनुच तन धरि धरि देस बिदेस बिचरतौ ।— सुर०, १ ।२०३ ।
⋙ अनुचर
संज्ञा पुं० [सं०] [लि० स्त्री० अनुचरा, अनुचरी] १. पीछे चलनेवाला दास । नौकर । उ०— अपनी आवश्यकता का अनुचर बन गया ।— करूण०, पृ० २६ ।२. सहचर । साथी । उ०— सामने ता शैशव से अनुचर मानिक युवक अब ।— लहर,पृ० ७२ ।
⋙ अनुचारक
संज्ञा पुं० [सं०] सेवक । परिचारक । अनुगामी [को०] ।
⋙ अनुचारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेविका । दासी [को०] ।
⋙ अनुचारी
वि० [सं०] दे० 'अनुचर' । उ०— तात, भरत, शत्रुघ्न, मांडवी हम सब उनके अनुचारी ।— साकेत, पृ० ३८१ ।
⋙ अनुचिंतन
संज्ञा पुं० [सं०अनुचिन्तन] १. विचार । गौर । २. भूली हुई बात को मन में लाना । ३. लगातार चिंतन । चिंता (को०) ।
⋙ अनुचित
वि० [सं०] १. अयोग्य । अयुक्त । अकर्तव्य । नामुनासिब । बुरा । खराब । उ०— जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विश्व प्रतिकूल ।— मानस, १ ।२७७ । २. पंक्तिबद्ध किया हुआ (को०) ।
⋙ अनुचिष्ट पु
वि० [सं० अनुच्छिष्ट] दे० 'अनुच्छिष्ट' । उ०—करूणमृत सुकवित्त युक्ति अनुचिष्ट उचारी ।— भक्तमाल (श्री०), पृ० ५३ ।७ ।
⋙ अनुच्छित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूर्णत? पृथक् न होना । २. पूर्णत? नष्ट न होना । ३. अनश्वरता [को०] ।
⋙ अनुच्छिष्ट
वि० [सं०] जो जूठा या व्यवहृत न हो । शुद्ध । निर्दोष । ग्रहण करने योग्य [को०] ।
⋙ अनुच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'अनुच्छित्ति' । २. नियम, अधि- नियम आदि का वह अंश जिनमें एक बात का विशद विवरण हो । जैसे राष्ट्रसंध के घोषणापत्र की ७ वीं धारा का दुसरा अनुच्छेद । ३. किसी रचना या ग्रंथ के प्रकरण के वे छोटे छोटे अंश जिसमें संबंद्ध विषय के एक एक अंग का विवेचन होता है । पैराग्राफ ।
⋙ अनुछिन पु
वि० [सं० अनुक्षण] क्षण क्षण । प्रत्येक क्षण । लगा तार । उ०— 'हरीचंद' ते महामूढ जे इनहिं न अनुथिन ध्यावैं ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८० ।
⋙ अनुज (१)
वि० [सं०] जो पीछे उत्पन्न हुआ हो । उ०— वन में अग्रज अनुज, अनुज ही अग्रणी ।— साकेत, पृ० १३४ ।
⋙ अनुज (२)
संज्ञा पुं० १. छोटा भाई । उ०— राम देखवहिं अनुजहि रचना ।— मानस, १ ।२२५ ।२. एक पौधा । स्थलपदम ।
⋙ अनुजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० अनुजन्मन] दे० 'अनुज' [को०] ।
⋙ अनुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी बहन । उ०—कलिकाल बिहाल किए मनुजा । नहिं मानत क्वौ, तनुजा । ।—मानस, ७ ।१०२ ।
⋙ अनुजात
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अनुजाता] दे० 'अनुज' [को०] ।
⋙ अनुजीवी (१)
वि० [सं० अनुजीविन्] [वि० स्त्री० अनुजीविनी] सहारे पर जीनेवाला । आश्रित ।
⋙ अनुजीवी (२)
संज्ञा पुं० सेवक । दास ।
⋙ अनुजीव्य
वि० [सं०] सेवा का पात्र । सेव्य । जैसे,—गुरू, स्वामी, माता पिता आदि । २. रहन या आचार व्यवहार में अनुकरणीय । जैसे,—गुरूजन, आचार्य, वयोवृद्ध आदि [को०] ।
⋙ अनुज्ञप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अनुज्ञापन' [को०] ।
⋙ अनुज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आज्ञा । हुकम । अनुमति । इजाजत । उ०— माँग अनुज्ञा उमसे मैंने उस उपवन के फल खाए ।— साकेत, पृ० ३८९ । २. एक काव्यालंकार जिसमें दूषित वस्तु में कोई गुण देखकर इसके पाने की इच्छा का वर्णन किया जाय । जैसे,— चाहति हैं हम और कहा सखि, कयों हूं कहूँ पिय देखन पावैं । चेरियै सों जु गुपाल रचे तौ चलौरी सबै मिलि चेरि कहावैं । — रसखाम (शव्द०) ।३. विवाह के प्रसंग में वाग्दान (को०) । ४. अनुताप । पश्चात्ताप (को०) । ५. अनुरोध (को०) । ६. सद्व्यवहार । आनुग्रह(को०) ।
⋙ अनुज्ञात
वि० [सं०] जिसे अनुमति प्राप्त हो । आदेशप्राप्त । २. स्वीकृत । संमानित । अनुगहीत । ३. अधिकृत । जिसे कोई अधिकार मिला हो । ४. पृथक् किया हुआ । ५. पढाया हुआ । निष्णात [को०] ।
⋙ अनुज्ञातक्रप
संज्ञा पुं० [सं०] सरकार की ओर से दिया हुआ कुछ वस्तुओं को बेचने का ठेका [को०] ।
⋙ अनुज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'अनुज्ञा' । २. प्रस्थान के लिये स्वीकृति । ३. क्षमा । त्रृटि के लिये अनुग्रह (को०) ।
⋙ अनुज्ञापक
वि० [सं०] आज्ञा या आदेश देनेवाला [को०] ।
⋙ अनुज्ञापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आज्ञा देना । हुकम देना । २. जताना । बतलाना ।
⋙ अनुज्येष्ठ
वि० [सं०] १. ज्येष्ठतम से कनिष्ठ । सबसे बडे छोटा । द्वितीय । २. वरीयता के क्रम में दूसरा [को०] ।
⋙ अनुतप्त
वि० [सं०] १. तपा हुआ । गरम । २. दुखी । खेदयुक्त । रंजीदा ।
⋙ अनुतर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पार जाना । दूसरे छोर पर जाना । २. लंबाई में तानना । ३. नदी पार करने का किराया [को०] ।
⋙ अनुतर्ष
संज्ञा पु० [सं०] १. प्यास । पीने की इच्छा । २. अभिलाषा । आकांक्षा । ३. मदिरापान । ४. पिने का पात्र । चषक । ५ । मदिरा [को०] ।
⋙ अनुतर्षणा
संज्ञा पु० [सं०] १. मदिरापान । २. मदिरा पीने का पात्र [को०] ।
⋙ अनुताप
पु० [सं०] [वि अनुतप्त] १. तपन । दाह । जलन । २. दु?ख । खेद । रंज । ३. पछतावा । अफसोस ।
⋙ अनुतापन
वि० [सं०] दु?ख देनेवाला । पश्चात्ताप उत्पन्न करनेवाला । शोकप्रद [को०] ।
⋙ अनुतापी
वि० [सं० अनुतापिन्] पश्चात्ताप करनेवाला । खेदयुक्त [को०] ।
⋙ अनुक्त
वि० [सं०] [स्त्री० अनुत्का] उत्कंठारहित । अनुत्सुक । अभि- लाषारहित । विना लालसा का ।
⋙ अनुत्कट
वि० [सं०] छोटा । सूक्ष्म [को०] ।
⋙ अनुत्त
वि० [सं०] १. जो तर या भीगा न हो । सूखा २. अप्रेरित [को०] ।
⋙ अनुत्तम (१)
वि० [सं०] १. जिससे उत्तम दुसरा न हो । सर्बोत्तम । २. जो सबसे अच्छा न हो । सर्वोत्तम नहीं । घटिया [को०] ।
⋙ अनुत्तम (२)
संज्ञा पु० १. शिव । २. विष्णु [को०] ।
⋙ अनुत्तमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] घटियापन । बुराई । उ०—सुख से मन के है ममता, है उसमें छिपी अनुत्तमता ।— सागरिका, पु० ७२ ।
⋙ अनुत्तर (१)
वि० [सं०] १. निरुत्तर । लाजवाब । कायल । उ०—यहाँ से एक जिज्ञासा अनुत्तर जगेगी अनिमेष ।—हरी घास० पृ० ५० ।२. प्रधान । मुख्य (को०) । ३. सर्वोत्तम (को०) ४. दृढ़ । संलग्न (को०) । ५. जो उत्तरदिशा में न हो । दक्षिणी (को) ।६. क्षुद्र । निच (को०) ।
⋙ अनुत्तर (२)
संज्ञा पु० १. जैन देवाताओं का एक वर्ग । २. उत्तर का अभाब (को०) ।
⋙ अनुत्तरदायी
वि० [सं० अनुत्तरदायिन्] कर्तव्य और जिम्मेदारी न रखनेवाला । अपना उत्तरदायित्व न समझनेवाला ।
⋙ अनुत्तरित
वि० [सं०] उत्तरविहीन । उत्तररहित । उ०—पूछा तुम कहाँ छिपे ? प्रश्न रहा अनुत्तरित ।—अपलक, पु० ४८ ।
⋙ अनुत्तान
वि० [सं०] जो उत्तान न हो । पीठ के बल नहीं । छाती के बल लेटा हुआ । चित्त नहीं । पट [को०] ।
⋙ अनुत्ताप
संज्ञा पु० [सं०] बौद्धो के अनुसार दस क्लेशों में से एक ।
⋙ अनुत्थान
संज्ञा पु० [सं०] [वि० अनुत्थित] उत्थान का अभाव । चेष्टा या श्रम ता न होना [को०] ।
⋙ अनुत्पात्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्पत्ति का अभाव । २. विफलता । असफलता [को०] ।
⋙ अनुत्पात्तिक
वि० [सं०] जो अब तक उत्पन्न न हुआ हो [को०] ।
⋙ अनुत्पत्तिसम
संज्ञा पु० [सं०] न्याय में जाति या असत् उत्तर के चौबीस भेदों में से एक । विशेष—यदि किसी वस्तु के प्रसंग में कोइ हेतु कहा जाय और उत्तर में उसी के प्रसंग में यह कहा जाय कि जब तक उसवस्तु की उत्पत्ति ही नहीं हुई, तब तक वह कहा हुआ हेतु कहाँ रहेगा? तो ऐसे उत्तर को अनुत्पत्तिसम कहेंगे । जैसे,—यादि वादी कहे—'शब्द अनित्य है' क्योंकि प्रयत्न से उत्पन्न होता है ।' इसपर प्रतिवादी कहे—'यदि शब्द प्रयत्न से उत्पन्न होता है तो प्रयत्न से पहले इसकी उत्पत्ति नहीं होगी । और जब शब्द उत्पन्न ही नहीं हुआ, तब प्रयत्न से उत्पन्न होने का गुण कहाँ पर रहेगा? जब इस गुण का आधार ही नहीं रहा, तब वह अनित्यत्व का साधन कैसे कर सकता है?
⋙ अनुत्पन्न
वि० [सं०] जो उत्पन्न न हुआ हो । जो जन्मा न हो । जो उत्पन्न न किया गया हो [को०] ।
⋙ अनुत्पाद
संज्ञा पु० [सं०] उत्पत्ति का न होना । अस्तित्व में न आना [को०] ।
⋙ अनुत्पादक
वि० [सं०] उत्पन्न करने में असमर्थ । जिससे उत्पन्न न हो [को०] ।
⋙ अनुत्पादन
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'अनुत्पाद' [को०] ।
⋙ अनुत्साह (१)
संज्ञा पु० [सं०] संकल्प और प्रयत्न का अभाव । उ०— है शीतलता भी और दाह, उत्साह तथा है अनुत्साह । —साग- रिका, पु ७७ ।
⋙ अनुत्साह (२)
वि० १. ढृढ़ता या क्षमता से रहित । २. उदासिन । उत्साहहीन [को०] ।
⋙ अनुत्सुक
वि० [सं०] जो उत्सुक न हो । सामान्य । शांत । उत्कंठ न दिखानेवाला [को०] ।
⋙ अनुत्सुत्र
वि० [सं०] १. सूत्रों का अनुगामी । २. नियमों या नीति के अनुसार चलनेवाला [को०] ।
⋙ अनुत्सेक
संज्ञा पु० [सं०] १. गर्व का न होना । घमंड न होना । २. शालीनता [को०] ।
⋙ अनुत्सेकी
संज्ञा पु० [सं० अनुत्सेकिन्] जो उत्तोजित न हो । धमंड- रहित [को०] ।
⋙ अनुदक
वि० [सं०] १. जलशून्य । जल के अभाववाला (जैसे, मरु- स्थल) । २. थोड़े जलवाला । अल्प जलवाला । ३. जिसे कोई पानी देनेवाला न हो [को०] ।
⋙ अनुदग्र
वि० [सं०] १. जो ऊँचा न हो । नीचा । २. मुलायम । ३. कोमल । दुर्बल । ४. जिसमें तेजि या धार न हो [को०] ।
⋙ अनुदत्त
वि० [सं०] १. लौटाया हुआ । वापस किया हुआ । २. स्वीकार किया हुआ । ३. क्षमा किया हुआ [को०] ।
⋙ अनुदर
वि० [सं०] [वि० स्त्री अनुदरा] कृशोदर । दुबला । पतला ।
⋙ अनुदर्शन
संज्ञा पु० [सं०] १. निरीक्षण । पर्यवेक्षणा । २. स्वीकार आदर [को०] ।
⋙ अनुदात्त
वि [सं०] १. छोटा । तुच्छ । जो उच्चाशय न हो । २. नीचा (स्वर) । लघु (उच्चारण) । स्वर के तीन भेदों में से एक । वह स्वर जिसपर बलाघात न हो ।
⋙ अनुदान
संज्ञा पु० [सं० अनुदान] १. किसी कार्य के लिये कुछ प्रति बंधों के साथ दी जानेवाली सरकारी सहायता । सरकारी विमागों द्वारा व्य होने के लिये स्वीकृत धनराशि । २. लौटाना । प्रत्यावर्तन [को०] ।
⋙ अनुदार
वि० [सं०] १. सूम । कंजूस । २. संकुचित हृदयवाला । संकीर्ण विचारवाला । ३. अत्यंत उदार । महान् । ४. जिसकी दारा या पत्नी भली और अनगमन करनेवाली हो [को०] ।
⋙ अनुदित
वि० [सं०] अकथित । जो कहा न गया हो । २. जो उदित न हुआ हो । जो सामने न आया हो । ३. न कहने योग्य । निंदनीय [को०] ।
⋙ अनुदिन
क्रि० वि० [सं०] नित्यप्रति । प्रतिदिन । रोजमर्रा ।उ०— तुलसी सकल कल्यान ते नर नारि अनुदिन पावहीं ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ६३ ।
⋙ अनुदिवस
क्रि० वि० [सं०] दे० 'अनुदिन' [को०] ।
⋙ अनुदृष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृपादृष्टि । अनुकूल दृष्टि । [को०] ।
⋙ अनुदृष्टि (२)
वि० कृपादृष्टि रखनेवाला । अनुकूल दृष्टि रखनेवाला [को०] ।
⋙ अनुद्धत
वि० [सं०] १. जो उद्धत न हो । अनुग्र । २. सौम्य । शांत । ३. विनीत ।
⋙ अनुद्धरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. न हटाना ।२. स्थापना न करना । प्रमाणित न करना [को०] ।
⋙ अनुद्धर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] उद्वेग का अभाव । शांति ।
⋙ अनुद्धार
संज्ञा पुं० [सं०] १. बँटवारा न करना या अपना भाग न लेना । २. दे० 'अनुद्धरण' [को०] ।
⋙ अनुद्धृत
वि० [सं०] १. बिना बँटा । अविभक्त । २. न हटाया हुआ । ३. अनष्ट । अक्षत । दुरुस्त । ४. अप्रमाणित । जिसकी स्थापना न की गई हो [को०] ।
⋙ अनुद् भट
वि० [सं०] मृदु स्वभाववाला । अधृष्ट । २. सौम्य । अहंकार- शून्य । निरभिमानी [को०] ।
⋙ अनुद्यत
वि० [सं०] अतत्पर । सुस्त । काहिल । अकर्मण्य [को०] ।
⋙ अनुद्यम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] उद्योग या उद्यम का अभाव [को०] ।
⋙ अनुद्यम (२)
वि० उद्योग या श्रम न करनेवाला । अनुद्यमी [को०] ।
⋙ अनुद्यमी
वि० [सं० अनुद्यमिन्] उद्यमरहित । आलसी । सुस्त । अलहदी ।
⋙ अनुद्यूत
संज्ञा पुं० [सं०] १. लगातार जुआ खेलना ।२. महाभारत के सभापर्व के अध्माय ७० से ७९ तक का नाम [को०] ।
⋙ अनुद्योग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आलस्य । सुस्ती । अकर्मण्यता [को०] ।
⋙ अनुद्योग (२)
वि० अनुद्योगी । अकर्मण्य [को०] ।
⋙ अनुद्योगी
वि० [सं० अनुद्योगिन्] आलसी । निष्क्रिय । अकर्मण्य । सुस्त [को०] ।
⋙ अनुद्रुत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में ताल का एक भेद । द्रुत का आधा और मात्रा का एक चौथाई समय ।
⋙ अनुद्रुत (२)
वि० जिसका पीछा किया गया हो । अनुगमित । अनुधावित [को०] ।
⋙ अनुद्वाह
संज्ञा पुं० [सं०] अविपाह ब्रह्माचर्य । अविवाहित रहना [को०] ।
⋙ अनुद्विग्न
वि० [सं०] निश्चिंत । शांत । चिंतामुक्त । आशंकारहित [को०] ।
⋙ अनुद्वेग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आशंका का अभाव । भय से मुक्ति या सुरक्षा [को०] ।
⋙ अनुद्वेग (२)
वि० उद्वेगरहित । अनुद्विग्न [को०] ।
⋙ अनुधावन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुवाधक, अनुधावित, अनुवावी] १. पीछे चलना । अनुसरण । २. अनुकरण । नकल । ३. अनुसंधान । खोज । ४. बार बार बुद्धि दौड़ना । विचार । चिंतन । ५. शुद्ध करना । सफाई (को०) ।
⋙ अनुधूपित
वि० [सं०] फूला हुआ । गर्वित । अभिमान [को०] ।
⋙ अनुध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी विषय का चिंतन । ध्यान । २. स्मरण । विचारण । ३. शुभचिंतन [को०] ।
⋙ अनुध्यायो
वि० [सं० अनुध्यायिन्] १. चिंतन करनेवाला । ध्यान में स्थित होनेवाला । २. खोया हुआ । अन्यमनस्क [को०] ।
⋙ अनुध्येय
वि० [सं०] जिसका शुभ चिंतन किया जाय । जिसके प्रति अनुराग हो [को०] ।
⋙ अनुध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रतिध्वनि । गूँ ज । उ०—अंबर सेटकराकर अनुध्वनि आ गई त्वरित ।—अपलक, पृ० ४७ ।
⋙ अनुनत
वि० [सं० अनु+नत] विनीत । अनुशासित । शीलयुक्त । उ०—चिर अनुनत सौंदर्य के समादर में गुर्जरेश मेरी उन इंगितों में नाच उठे ।—लहर, पृ० ७१ ।
⋙ अनुनय
संज्ञा पुं० [सं०] १. विनय । विनंती । प्रार्थना । उ०— अनुनय भरी वाणी गूँज उठी कान में ।—लहर, पृ० ७१ । २. मानना ।
⋙ अनुनयमान
वि० [सं०] विनयशील । शिष्ट । संराधन करने वाला । (को०) ।
⋙ अनुनयी
वि० [अनुनयिन्] विनीत । नम्र । विनयी [को०] ।
⋙ अनुनाद
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुनादित्] प्रतिध्वनि । गूँज । गुंजार ।
⋙ अनुनादित
वि० [सं०] प्रतिध्वनित । जिसका अनुनाद या गूँज हुई हो ।
⋙ अनुनादी
वि० [सं० अनुनादिन्] प्रतिध्वनि करनेवाला । आवाज करनेवाला । गुंजायमान [को०] ।
⋙ अनुनायक
वि० [सं०] संकोची । विनम्र [को०] ।
⋙ अनुनायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुख्य नायिका की सहचरी । जैसे,— सखी, दासी, परिचारिका आदि ।
⋙ अनुनासिक (१)
वि० [सं०] जो (अक्षर) मुँह और नाक से बोला जाय ।
⋙ अनुनासिक (२)
संज्ञा पुं० १. मुख और नासिका के योग से उच्चरित वर्ण जैसे,—ङ, ञ, अ, ण, न, म और अनुस्वार । २. नाक से बोली जानेवाली ध्वनि ।
⋙ अनुनीत
वि० [सं०] १. मर्यादित । अनुशासित । [को०] । २. गृहीत (को०) । ३. प्रतिष्ठित । पूजित (को०) । ४. संतुष्ट । संरा- धित (को०) । ५. विनयपूर्वक सत्कृत । उ०—किंचित् अनुनीत स्वर में हरिप्रसन्न ने कहा ।—सुनीता, पृ० ३२४ ।
⋙ अनुनीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अनुनय' [को०] ।
⋙ अनुनीय
वि० [सं०] १. अनुनययोग्य । संराधन के योग्य [को०] ।
⋙ अनुनेय
वि० [सं०] दे० 'अनुनीय' [को०] ।
⋙ अनुन्नत
वि० [सं०] जो ऊँचा न हो । जो उमरा न हो ।(निचा) जो ऊपर न उठा गया हो । जिसकी उन्नति न हुई हो [को०] ।
⋙ अनुन्नतगात्र
वि० [सं०] अविकसित या अल्प विकसित अंगोंवाला । अपुष्ट अंगोंवाला [को०] ।
⋙ अनुन्नतानत
वि० [सं०] समतल [को०] ।
⋙ अनन्मत्त
वि० [सं०] जो मतवाला या पागल न हो [को०] ।
⋙ अनुन्मदित
वि० [सं०] दे० 'अनुन्मत्त' [को०] ।
⋙ अनुन्माद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पागलपन का न होना । उन्माद का अभाव [को०] ।
⋙ अनुन्माद (२)
वि० दे० 'अनुन्मत्त' [को०] ।
⋙ अनुप पु †
वि० [सं० अनुपम] बेजोड़ । उपमारहित ।उ०—सकल सत्त दासी अनुप । नृप इंद्रावति अप्पि ।—पृ० रा०, ३३ । ७८ ।
⋙ अनुपकार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुपकारक, अनुपकारी] १. उपकार का अभाव । २. अपकार । हानि ।
⋙ अनुपकारी
वि० [सं०] १. उपकार न करनेवाला । अकृतज्ञ । अपकार करनेवाला । हानि पहुँचानेवाला ।२. फजूल । निकम्मा ।
⋙ अनुपकारीमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु राजा का मित्र ।
⋙ अनुपक्षित
वि० [सं०] न छीजनेवाला । क्षीण न होनेवाला [को०] ।
⋙ अनुपगत
वि० [सं०] दूर का ।
⋙ अनुपगीत
वि० [सं०] जिसकी प्रशंसा न की गई हो । अप्र- शंसित [को०] ।
⋙ अनुपजीवनीय
वि० [सं०] जिससे सीवननिर्वाह के लिये पर्याप्त प्राप्ति न हो सके । २. जिसके पास जीवननिर्वाह का साधन न हो । साधनहीन [को०] ।
⋙ अनुपतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरना । क्रमशः गिरना । एक के बाद दूसरे का पतन । २. पीछा करना । अनुसरण । ३. निश्चित क्रम में आगे बढ़ना । ४. अनुपात । ५. गणित का त्रैराशिक नियम [को०] ।
⋙ अनुपद (१)
क्रि० वि० [सं०] १. पीछे पीछे । कदम ब कदम । उ०— वधू उर्मिला अनुपद थी, देख गिरा भी गद् गद् थी ।—साकेत, पृ० ८४ । २. अनंतर । बाद ही ।
⋙ अनुपद (२)
वि० पीछे पीछे चलनेवाला । कदम ब कदम पीछे चलनेवाला । पदानुसारण करनेवाला [को०] ।
⋙ अनुपद (३)
संज्ञा १. गीत में बार बार दोहराय जानेवाला पद । टेक । २. शब्दशः व्याख्या [को०] ।
⋙ अनुपदवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पथ । मार्ग । सड़क [को०] ।
⋙ अनुपदिक
वि० [सं०] १. पीछे चलनेवाला । पदानुसरण करनेवाला पीछे गया हुआ [को०] ।
⋙ अनुपदी
वि० [पुं० अनुपदिन्] पीछा करनेवाला । खोज करनेवाला । अन्वेषक । पता लगानेवाला [को०] ।
⋙ अनुपदीना
संज्ञा स्त्री० [सं०] जूता । मोजरी । पूरे पैर की लंबाई का जूता ।
⋙ अनुपधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंचकता ।
⋙ अनुपधि
वि० [सं०] निश्चल । निष्कपट । धोखा धड़ी से रहित[को०] ।
⋙ अनुपनीत
वि० [सं०] १. अप्राप्त । न लाया हुआ । २. जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो ।
⋙ अनुपन्यस्त
वि० [सं०] यज्ञ जिसका न्यास या स्थापन विधिपूर्वक न हुआ हो [को०] ।
⋙ अनुपन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुपन्यस्त] १. प्रमाण या निश्चय का अभाव । असमाधान ।२. संदेह । अनिश्चय [को०] ।
⋙ अनुपपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपपत्ति का अभाव । २. असमाधान । असंगति । ३. असिद्धि । ४. अप्राप्ति । ५. असंपन्नता । असमर्थता ।
⋙ अनुपपन्न
वि० [सं०] १. अप्रतिपादित । २. जो साबित न हुआ हो । ३. अयुक्त । ४. असंभव (को०) । ५. जो सही ढंग से समर्थित न हो (को०)
⋙ अनुपम
वि० [सं०] उपमारहित । बेजोड़ । जिसकी टक्कर का दूसरा न हो । बेमिसाल । बेनजीर । उ०—अनुपम शोमाधाम आभूषण थे तारका ।—कानन०, पृ० ९७ ।
⋙ अनुपमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनुपम होना । उपमा का अभाव । बेजोड़पन ।
⋙ अनुपमर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] अभियोग या आरोग का खंडन न किया जाना [को०] ।
⋙ अनुपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षिण—पश्चिम दिशा के गज । कुमुद की पत्नी [को०] ।
⋙ अनुपमित
वि० [सं०] दे० 'अनुपम' [को०] ।
⋙ अनुपमेय
वि० [सं०] दे० 'अनुपमा' ।
⋙ अनुपयुक्त
वि० [सं०] अयोग्य । बेठिक । बेढब ।
⋙ अनुपयुक्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अयोग्यता । बेढबपन ।
⋙ अनुपयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यवहार का अभाव । काम में न लाना । २. दुर्व्यवहार ।
⋙ अपनुपयोगिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपयोगिता का अभाव । निरर्थकता ।
⋙ अनुपयोगी
वि० [सं० अनुपयोगिन्] [संज्ञा अनुपयोगिता] बेकाम । व्यर्थ का । बेमतलब का । बेमसरफ ।
⋙ अनुपरत
वि० [सं०] १. जो मृत न हो २. बेरोक । अबाधित [को०] ।
⋙ अनुपलंभ
संज्ञा पुं० [अनुपलम्भ] ज्ञान का अभाव । जानकारी न होना [को०] ।
⋙ अनुपल
वि० [सं०] प्रतिक्षण । हर समय । हर घड़ी ।उ०—वह प्रजा से अनुपल मिलने को सब्नद्ध रहता था ।—आदि० भारत, पृ० २५७ ।
⋙ अनुपलब्ध
वि० [सं०] १. अप्राप्त । न मिला हुआ । २. अनदेखा । अकल्पित । अज्ञान (को०) ।
⋙ अनुपलब्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अनुपलब्ध] १. अप्राप्ति । न मिलना । २. कल्पना या ज्ञान का अभाव (को०) ।
⋙ अनुपलब्धिसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में जाति के चौबीस भेदों में से एक । विशेष—जदि वादी किसी बात के न पाए जाने के आधार पर कोई बात सिद्ध करना चाहता है, और उसके उत्तर में प्रतिवादी किसी और बात के न पाए जाने के आधार पर उसके विपरीत बात सिद्ध करने का प्रयत्न करता है, तो ऐसे उत्तर को अनुपलब्धिसम कहते हैं ।
⋙ अनुपवीती
वि० [सं० अनुपवीतिन्] यज्ञोपवीत धारण न करने वाला [को०] ।
⋙ अनुपशय
संज्ञा पुं० [सं०] रोगज्ञान रे पाँच विधानों में से एक । विशेष—इसमें आहार विहार के बुरे फल को देखकर यह निश्चय किया जाता है कि रोगी को अमुक रोग है । वि० दे० 'उपशय' ।
⋙ अनुपस्कृत
वि० [सं०] १. अपरिष्कृत । जिसपर पालिस न की गई हो । २. शुद्ध । निष्कलुष । ३. जो पकाया न गया हो । ४. जिसके संबंध में कोई भ्रम न हो [को०] ।
⋙ अनुपस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] अनुपस्थिति [को०] ।
⋙ अनुपस्थित
वि० [सं०] जो सामने न हो । जो मौजूद न हो । अविद्यमान । गैरहाजिर ।
⋙ अनुपस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अविद्यमानता । गैरमौजूदगी । गैर- हाजिरी । उ०—प्रत्युत्तर की अनुपस्थिति में हास भी पाद— पूर्ति सा होता है दुष्काव्य में ।—महाराणा०, पृ० १४ ।
⋙ अनुपहत
वि० [सं०] १. अव्यवहृत । कोरा । नया (वस्त्र) । २. जो टूटा न हो । अक्षत [को०] ।
⋙ अनुपाख्य
वि० [सं०] जो साफ देखा या जाना न जाय । जिसका केवल अनुमान किया जाय । अनुमेय [को०] ।
⋙ अनुपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. गणित की त्रैराशिक क्रिया । २. दी हुई तीन संख्याओं से चौथी को जानना । २. अनुसरण । पीछा करना (को०) ३. एक के बाद दूसरे का पतन । लगा— तार गिरना (को०) ।
⋙ अनुपातक
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्महत्या के समान पाप जैसे, चोरी, झूठ बोलना, परस्त्रीगमन इत्यादि ।
⋙ अनुपादक
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार आकाश से भो सूक्ष्म एक तत्व ।
⋙ अनुपान
संज्ञा पुं० [सं०] वह वस्तु जो औषध के साथ या उसके ऊपर से खाई जाय ।
⋙ अनुपानत्क
वि० [सं०] पदत्राण से रहित । नंगे पैर [को०] ।
⋙ अनुपानीय (१)
वि० [सं०] औषधि के साथ लिया जानेवाला पेय [को०] ।
⋙ अनुपानीय (२)
संज्ञा पुं० बाद में पी जानेवाली वातु [को०] ।
⋙ अनुपाय
वि० [सं०] निरुपाय । उ०—राज्य संग तुम्हें कहाँ से हाय । दे सकूँगा आर्य को अनुपाय ।—सारेत, पृ० १९९ ।
⋙ अनुपायी
वि० [सं० अनुपायिन्] साधन का उपयोग न करनेवाला । उपाय न करनेवाला [को०] ।
⋙ अनुपार्श्व
वि० [सं०] पार्श्ववर्ती । बगलगीर [को०] ।
⋙ अनुपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वादि पशुओं का रक्षक । रखवाला [को०] ।
⋙ अनुपालक
वि० [सं०] १. रक्षा करनेवाला । २, माननेवाला [को०] ।
⋙ अनुपालन
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षण । २. पालन [को०] ।
⋙ अनुपाश्रयाभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि जो बसनेवालों के अतिरिक्त और दूसरों को आश्रय देने में असमर्थ हो अर्थात् जिसमें और लोगों के बसने की गुंजाइश न हो ।
⋙ अनुपासन
संज्ञा पुं० [सं०] ध्यान का अभाव । उपेक्षा [को०] ।
⋙ अनुपासित
वि० [सं०] उपेक्षित । जिसपर ध्यान न दिया जाय [को०] ।
⋙ अनुपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्वकखित व्यक्ति । २. अनुगामी । अनुयायी [को०] ।
⋙ अनुपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की नरकुल [को०] ।
⋙ अनुपूर्व
वि० [सं०] यथाक्रम । अनुक्रमिक । सिलसिलेवार ।
⋙ अनुपूर्वकेश
वि० [सं०] सुव्यवस्थित केशोंवाला [को०] ।
⋙ अनुपूर्वगात्र
वि० [सं०] सुडौल अंगोंवाला [को०] ।
⋙ अनुपूर्वदष्ट्र
वि० [सं०] सुदंर दंत पंक्तियोंवाला [को०] ।
⋙ अनुपूर्वनाभि
वि० [सं०] सुंदर नाभिवाला [को०] ।
⋙ अनुपूर्वपाणिलेख
वि० [सं०] जिसके हाथ की रेखाएँ सुस्पष्ट तथा व्यवस्थित हों [को०] ।
⋙ अनुपूर्ववत्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नियमित समय पर बच्चा देनेवाली गाय [को०] ।
⋙ अनुपूर्व्य
वि० [सं०] व्यवस्थित । क्रमबद्ध [को०] ।
⋙ अनपेत
वि० [सं०] १. जो शिक्षा या दीक्षा के लिये गुरु के यहाँ भरती न हुआ हो । अदीक्षित । २. जिसका यज्ञोपवीत न हुआ हो । अनुपनीत (को०) ।
⋙ अनुप्त
वि० [सं०] जो बोया न गया हो । बिना बोया हुआ ।
⋙ अनुप्रशस्य
वि० [सं०] बिना बोया । परती [को०] ।
⋙ अनुप्रज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] अन्वेषण करना । पता लगाना । खोज करना [को०] ।
⋙ अनुप्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेंट । उपहार । दान ।२. वृद्धि । बढ़ोतरी [को०] ।
⋙ अनुप्रवण
वि० [सं०] अनुकूल । भागनेवाला । मनपसंद [को०] ।
⋙ अनुप्रवाद
संज्ञा पुं० [सं०] किंवदंती । अफवाह [को०] ।
⋙ अनुप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रवेश करना । भीतर जाना ।२. अपने अवसर के अनुकूल बनाना । ३. अनुकरण [को०] ।
⋙ अनुप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं०] संबंधित प्रश्न । प्रसंगानुकूल जिज्ञासा [को०] ।
⋙ अनुप्रसक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रगाढ़ प्रेम । गहरी आसक्ति । २. तर्क शास्त्र के अनुसार शब्दों का निकट संबंध [को०] ।
⋙ अनुप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] चौड़ाई के अनुसार [को०] ।
⋙ अनुप्राणन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राण संचारण । २. प्रेरणा । स्फुरण [को०] ।
⋙ अनुप्राणित
वि० [सं०] प्राणवान् । सजीव । प्रेरित । उ०— "भगवद् गीता भी जायसवाल जी के कथनानुसार मनुस्मृतिवाले आदर्शों से ही अनुप्रणित है" ।—प्रा० इ० रू०, पृ० ७२६ ।
⋙ अनुप्राशन
संज्ञा पुं० [सं०] खाना । भक्षण । उ०—कछु दिन पवन कियो अनुप्राशन रोक्यो श्वास यह जानी ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—होना ।
⋙ अनुप्रास
संज्ञा पुं० [सं०] वह शब्दालंकार जिसमें किसी पद में एक ही अक्षर बार बार आकर उस पद की अधिक शोभा का कारण होता है । वर्णवृत्ति । वर्णसाम्य । वर्णमैत्री । जैसे—काक कहहिं कलकंठ कठौरा ।— तुलसी (शब्द०) । विशेष—इसके पाँच भेद हैं—छेकानुप्रास, वृत्यनुपास, श्रुत्यनुप्रास, अंत्यानुप्रास और लाटान प्रास ।
⋙ अनुप्रेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नेत्र गड़ाकर देखाना । ध्यान से देखना । २. ग्रंथ के अर्थ का मनन अर्थात् मन से अभ्यास । पठित विषय का एकाग्र चित्त से चिंतन ।
⋙ अनुबंध
संज्ञा पुं० [सं अनुबन्ध] १. बंधन । लगाव । २. अविच्छिन्न क्रम । आगापीछा । सिलसिला । जैसे—किसी कार्य को करने पहले उसका आगापीछा सोच लेना चाहिए (शब्द०) ।३. वंशज । अनुवंश (को०) । ४. होनेवाला शुभ या अशुभ परिणाम । फल । ५. उद्देश्य । इरादा । कारण (को०) । ६. गौण वस्तु । पूरक । अप्रधान वस्तु (को०) । ७. बात पित और कफ में से जो अप्रधान हो । ८. वादविवाद या विषयवस्तु को जोड़नेवाली कड़ी । वेदांत का एक अनिवार्य तत्व या अधिकरण । ९. अपराध । त्रुटि (को०) । १०. पारिवारिक बाध, भार या स्नेह (को०) । ११. पिता या गुरु के पथ का अनुसरण करनेवाला बालक (को०) । १२. आरंभ । श्रीगणेश । १३. मार्ग । उपाय (को०) । १४. तुच्छ या नगण्य वस्तु (को०) । १५. मुख्य रोग के साथ उत्पन्न अन्य विकार (को०) । प्यास । तृषा (को०) । १६. अनुसरण । १७. करार । इकरारनामा । १८. पाणिनीय व्याकरण में धातु, प्रत्यत आदि लोप होनेवाला वह इत्संज्ञक सांकेतिक वर्ण जो गुण, वृद्धि प्रत्याहार आदि के लिये उपयोगी हो ।
⋙ अनुबंधक
वि० [सं० अनुबन्धक] १.संबंद्ध । संबंधित । २. अनुबंधकरनेवाला [को०] ।
⋙ अनुबंधन
संज्ञा पुं० [सं० अनुबन्धन] संबंध । अनुक्रम । सिलसिला । उ०—पूर्वापर प्रसंगों के अनुबंधन में ब्रजविलास की कला द्रुत- विलंबित गति से प्रवाहित होती है ।—पोद्दार० अभि०, ग्रं०, पृ० ३४९ ।
⋙ अनुबंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अनुबन्धिका] जोड़ का दर्द [को०] ।
⋙ अनुबंधो (१)
वि० [सं० अनुबन्धिन्] [वि० स्त्री० अनुबन्धिती] १. संबंधी । लगाव रखनेवाला । २. फलस्वरूप । परिणामस्वरूप ।
⋙ अनुबंधी (२)
संज्ञा स्त्री० १. हिचकी । २. प्यास ।
⋙ अनुबद्ध
वि० [सं०] १. संबंद्ध ।२. लगाव रखनेवाला [को०] ।
⋙ अनुबर्तन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनुवर्त्तन' । उ०—प्रगटित पूरब दिसिहि को जहँ अनुबर्तन होता ।—मतिराम ग्रं०, पृ० ४२८ ।
⋙ अनुबल
संज्ञा पुं० [सं०] पीछे रहकर रक्षा करनेवाली सेना [को०] ।
⋙ अनुबाद पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनुवाद' । उ०—सुमन फिरौं हरि गुन अनुबाद ।—मानस, ७ ।११० ।२. जनश्रुति । अफवाह । उ०—ताहि तू बताई जोई बाँह दै उसीसैं सोई ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे हैं ।—गंग०, पृ० २६४ ।
⋙ अनुबोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्मरण या बोध जो पीछे हो । २. किसी वस्तु की हल्की हो गई सुगंध को पुनः तीव्र करना । गंधोद्दीपन । क्रि० प०—करना—होना ।
⋙ अनुबोधन
संज्ञा पुं० [सं०] स्मरण करना या कराना (को०) ।
⋙ अनुब्राह्मण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण के समान ग्रंथ । जैसे, ऐतरेय ब्राह्मण से मिलता जुलता ग्रंथ । २. ब्राह्मण जैसा कार्य [को०] ।
⋙ अनुभव
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुभवी] १. प्रत्यक्ष ज्ञान । वह ज्ञान जो साक्षात् करने से प्राप्त हो । स्मृतिभिन्न ज्ञान । जैसे—सबजीव पीड़ा का अनुभव करते हैं (शब्द०) ।२. परीक्षा द्वारा पाया हुआ ज्ञान । उपार्जित ज्ञान । तजरबा । जैसे—उसे इस कार्य का अनुभव नहीं है (शब्द०) । ३. समझ । मन से प्राप्त ज्ञान (को०) । ४. परिणाम । फल (को०) ।
⋙ अनुभवना पु
क्रि० स० [सं अनुभव से नाम०] अनुभव करना । बोध करना । उ०—पुन्य फल अनुभवत सुतहिं बिलोकि कै नँद घरनि ।—सूर०, १० । १०९ ।
⋙ अनुभवी
वि० [सं० अनुभविन्] अनुभव रखनेवाला । जिसने देख सुनकर जानकारी प्राप्त की हो । तजरबेकार । जानकार ।
⋙ अनुभाऊ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनुभाव' ।उ०—बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ ।—मानस, २ । २८८ ।
⋙ अनुभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभाव । महिमा । बड़ाई । २. काव्य में रस के चार अंगों में से एक । वे गुण और क्रियाएँ जिनसे रस का बोध हो । चित्त का भावप्रकाश करनेवाला कटाक्ष, रोमांच आदि चेष्टाएँ । विषेश—अनुभाव के चार भेद हैं—सात्विक, कायिक, मानसिक और आहार्य । हाव भी इसी के अंतर्गत माना जाता है ।
⋙ अनुभावक
वि० [सं०] प्रतीति या अनुभूति करानेवाला [को०] ।
⋙ अनुभावन
संज्ञा पुं० [सं०] चेष्टा या भंगिमा द्वारा मन के भावों को प्रकट करना [को०] ।
⋙ अनुभावित
वि० [सं०] १. अत्यधित शक्तिसंपन्न । २. रक्षित । ३. अनुभवसंपन्न । अनुभवी [को०] ।
⋙ अनुभावी
वि० [सं० अनुभाविन्] [वि० स्त्री० अनुभाविनी] १. जिसे अनुभव या संवेदना हो । साक्षात्कार कारक । २. वह साक्ष्य जिसने सब बातों खुद देखी सुनी हों । चश्मदीद गवाह । ३. मृतक के वे संबंधी जिन्हें उसके मरने का अशौच लगे या जो आयु आदि में उसके छोटे हों । ४. बाद में आनेवाला । बाद में होनेवाला (को०) । ५. भाव दिखानेवाला (को०) ।
⋙ अनुभाषक
वि० [सं०] उत्तर में बोलनेवाला [को०] ।
⋙ अनुभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. खंडन करने के लिये किसी स्थापना का पुनः कथन ।२. कथित वस्तु का पुनः कथन । पुनराख्यान । आवृत्ति । ३. वार्तालाप । कथोपकथन [को०]
⋙ अनुभास
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कौआ [को०] ।
⋙ अनुभूत
वि० [सं०] १. जिसका अनुभव हुआ हो । जिसका साक्षात् ज्ञान हुआ हो । २. परीक्षित । तजरबा किया हुआ । आजमूदा । यौ०.—अनुभूतार्थ ।
⋙ अनुभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनुभव । परिज्ञान । आधुनिक न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष, अनुमिति उपमिति और शब्दबोध द्वारा प्राप्त ज्ञान । २. इंद्रियज ज्ञान या बोध । प्रत्यक्ष ज्ञान [को०] ।
⋙ अनुभेद
संज्ञा पुं० [सं०] उपभेद ।उ०—कौन बड़ो को छोट भेद अनुभेद न जानै ।— सूर०, १० । ५८९ ।
⋙ अनुभोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जमीन जो किसी काम के बदले में माफी दी जाय । माफी । खिदमती । २. उपभोग ।
⋙ अनुभौ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनुभव' ।उ०—अनुमौ चँवर रैन दिन ढरिया ।—केशव० अमी०, पृ० ५० ।
⋙ अनुभ्राता
संज्ञा पुं० [सं० अनुभ्रातृ] कनिष्ठ भ्राता । छोटा भाई । अनुज [को०] ।
⋙ अनुमंता
वि० [सं० अनुमन्तृ] अनुमति देनेवाला । स्वीकृति देनेवाला । चलते कार्य को होने देनेवाला [को०] ।
⋙ अनुमत
वि० [सं०] १. अनुज्ञप्त । संमत । स्वीकृत । २. प्रिय । मनपसंद । ३. एकमत । एकराय । ४. प्रेमी [को०] ।
⋙ अनुमति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आज्ञा । अनुज्ञा । हुक्म । २. संमति । इजाजत । ३. वह पूर्णिमा जिसमें चंद्रमा की पूरी न हो । चतुर्दशी से युक्त पूर्णिमा ।
⋙ अनुमतिपत्र
संज्ञा पुं० [सं० अनुमति+पत्र] किसी प्रतिबंधित कार्य के करने के लिये सरकारी आज्ञापत्र । जैसे, एक देश से दूसरे देश में जाने के लिये सरकारी आज्ञापत्र, पासपोर्ट या विसा [को०] ।
⋙ अनुमत्त
वि० [सं०] आनंद के अतिरेक से उन्मत्त । खुशी के मारे पागल [को०] ।
⋙ अनुमनन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वीकृति देना ।२. स्वतंत्रता [को०] ।
⋙ अनुमरण
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चात् मरण । पति के साथ विधवा स्त्री का चितारोहण । सती होना [को०] ।
⋙ अनुमरु
संज्ञा पुं० [सं०] मरुभूमि के बाद का देश [को०] ।
⋙ अनुमा
संज्ञा पुं० [सं०] अनुमान । अनुमिति [को०] ।
⋙ अनुमाता
वि० [सं० अनुमातृ] अनुमान लगानेवाला । निष्कर्ष निकालनेवाला [को०] ।
⋙ अनुमात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दृढ़ निश्चय । संकल्प [को०] ।
⋙ अनुमान
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अनुमानित, अनुसित] १. अटकल अंदाजा । २. विचार । भावना । कयास । ३. न्याय के अनुसार प्रमाण के चार भेदो में से एक । विशेष—इससे प्रत्यक्ष साधन द्वारा अप्रत्यक्ष साध्य की भावना होती है । इसके तीन भेद हैं—(को) पूर्ववत् या केवलान्वयी जिसमें कारण द्वारा कार्य का ज्ञान हो । जैसे, बादल देखकर यह भावना करना कि पानी बरसेगा । (ख) शेषवत् या व्यतिरेकी, जिसमें कार्य को प्रत्यक्ष देखकर कारण का अनुमान किया जाय । जैसे, नदी की बाढ़ देखकर अनुमान करना कि उसके चढ़ाव की और पानी बरसा है । और (ग) सामान्यतोदृष्ट या अन्वयव्यतिरेकी, जिसमें नित्यप्रति के सामान्य व्यापार को देखकर विशेष व्यापार का अनुमान किया जाता है । जैसे, किसी वस्तु को स्थानांतर में देखकर उसके वहाँ लाए जाने का अनुमान ।
⋙ अनुमानतः
क्रि० वि० [सं०] अटकल या अनुमान से [को०] ।
⋙ अनुमानना पु
क्रि० स० [ सं० अनुमान से नाम०] अनुमान करना । सोचना । अंदाज करना ।उ०—समय प्रतापभानु कर जानी । आपन अति असमय अनुमानी ।—मानस, १ । १५८ ।
⋙ अनुमानाश्रित
वि० [सं० अनुमान+आश्रित] जो अनुमान पर आधारित हो । जिसका कोई ठोस आधार न हो ।
⋙ अनुमानोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तर्क । तर्कना । २. तर्कानु- मोदित निष्कर्ष [को०] ।
⋙ अनुमापक
वि० [सं०] [स्त्री० अनुमापिका] अनुमान में सहायक [को०] ।
⋙ अनुमास
संज्ञा पुं० [सं०] १. आनेवाला महीना । २. मास प्रति मास [को०] ।
⋙ अनुमित
वि० [सं०] अनुमान किया हुआ । अंदाजा हुआ ।
⋙ अनुमिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुमान । २. नव्य न्याय के अनुसार अनुभूति के चार भेदों में से एक जिसमें किसी वस्तु के व्याप्त गुणों के कारण अन्य वस्तु का अनुमान किया जाय ।
⋙ अनुमित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्कर्ष या अनुमान निकालने की आकांक्ष [को०] ।
⋙ अनुमृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो पति के साथ सती हो गई हो [को०] ।
⋙ अनुमेय
वि० [सं०] अनुमान के योग्य ।
⋙ अनुमोद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुमोदन' [को०] ।
⋙ अनुमोदक
वि० [सं०] अनुमोदन करनेवाला । समर्थन करनेवाला । उ०—अनुमोदक तो नहीं किंतु निज अग्रज का अनुगत हूँ मैं ।—साकेत, पृ० ३९५ ।
⋙ अनुमोदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसन्नता का प्रकाशन । खुश होना । २. समर्थन । ताईद ।उ०—कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं । ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ।—मानस, ७ । १२९ ।
⋙ अनुयाता
संज्ञा पुं० [सं० अनुयातृ] अनुगामी । साथी [को०] ।
⋙ अनुयात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १.अनुचरों का दल । २. अर्दली में रहना । ३. अनुगमन [को०] ।
⋙ अनुयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अनुयात्र' [को०] ।
⋙ अनुयात्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुयात्रा' [को०] ।
⋙ अनुयान
संज्ञा पुं० [सं०] अनुगमन । पीछे चलना [को०] ।
⋙ अनुयोयी (१)
वि० [सं० अनुयायिन्] [वि० स्त्री० अनुयायिनी] १. अनुगामी । पीछे चलनेवाला ।२. अनुकरण करनेवाला । शिक्षा या आदर्श पर चलनेवाला । ३. समान । तुल्य (को०) ।
⋙ अनुयायी (२)
संज्ञा पुं० अनुचर । सेवक । दास । पैरोकार ।
⋙ अनुयुक्त
वि० [सं०] १. जिसके संबंध में अनुयोग किया गया हो । जिसके विषय में कुछ प्रश्न किया गया हो । जिज्ञासित । २. निंदित ।
⋙ अनुयोक्ता (१)
वि० [सं० अनुयोक्त] [वि० स्त्री० अनुयोक्त्री] जिज्ञासा करनेवाला । पूछताछ करनेवाला ।
⋙ अनुयोक्ता (२)
संज्ञा पुं० १. परीक्षक । २. भृतकाध्यापक । शुल्क लेकर पढ़नेवाला अध्यापक [को०] ।
⋙ अनुयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रश्न । जिज्ञासा । पूछताछ । रोक । बाधा (को०) । ३. उद्यम । श्रम । चेष्टा (को०) ।४. आलोचना । टीका (को०) । ५. आध्यात्मिक या यौगिक मनन चिंतन [को०] ।
⋙ अनुयोजन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुयोजित, अयोज्यनु] पूछने की क्रिया । प्रश्न करना । पूछना ।
⋙ अनुयोजित
वि० [सं०] जिसके विषय में पूछताछ की गई हो ।
⋙ अनुयोज्य (१)
वि० [सं०] १. प्रष्टव्य । जिसके विषय में पूछताछ की आव्शकता हो । २. निंदनीय । बुरा ।
⋙ अनुयोज्य (२)
संज्ञा पुं० विश्वस्त सेवक । भृत्य [को०] ।
⋙ अनुरंजक
वि० [सं० अनुरञ्जक] मन बहलानेवाला । प्रसन्न करनेवाला [को०] ।
⋙ अनुरंजन
संज्ञा पुं० [सं० अनुरञ्जन] १. अनुराग । आसक्ति । प्रीति । २. दिलबहलाव ।
⋙ अनुरंजित
वि० [सं० अनुरञ्जित] आनंदित । अनुरागयुक्त । उ०— मन को अनुरंजित करना हो यदि कविता का अंतिम लक्ष्य माना । जाय तो । —रस० पृ० २८ ।
⋙ अनुरत्क
वि० [सं०] अनुरागयुक्त । प्रेमयुक्त ।—सरिता बनी माया उसे कहती कि तुम अनिरक्त हो ।—कानन, पृ० २९ । २. आसक्त । लीन । उ०—रहै सदा हरि पद अनुरक्त ।—सुर. ९ ।५ ।३. प्रसन्न । खुश । संतुष्ठ (को०) । ४. लालिमायुक्त । रंगीन (को०) । ५. हर प्रकार से अनुकूल । भक्त । निष्ठावान् (को०) ।
⋙ अनुरक्तप्रकृति
वि० [सं०] (राजा) जिककी प्रजा उसमें अनुरक्त हो । प्रजाप्रिय ।
⋙ अनुरक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] आसक्ति । अनुराग । प्रीति । भक्ति । उ०—उर में जाने पर भी वन की स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह— पंचवटी पृ० ११ ।
⋙ अनुरणन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नूपुर, घंटा आदि की ध्वानि । २. प्रतिध्वानि । गूँज । ३. शब्दव्यंजना [को०] ।
⋙ अनुरणित
वि० [सं०] झंकृत । ध्वनित [को०] ।
⋙ अनुरत
वि० [स०] १. लीन । आसक्त । उ०—चरननि वित्त निरंतर अनुरत रसना चरित रसाल ।—सुर०१ ।१८९ ।२. अनुरागी प्रिय ।
⋙ अनुरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] लीनता । आसक्ति । अनुराग । प्रीति ।
⋙ अनुरत्त पु
वि० [सं० अनुरक्त, प्रा० अनुरत्त]दे० 'अनुरत्क' ।उ०— सजे सूर सावंत सब, सुमुख समर अनुरत्त ।— हम्मीर, पृ० २३ ।
⋙ अनुरथ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] सड़क के दोनों ओर पैदल चलने का मार्ग । सड़क का किनारा । पटरी ।[को०] ।
⋙ अनुरध पु
संज्ञा पुं० [सं० अनिरुद्व] दे० 'अनिरुद्ब' । उ०— कृष्णा गेह कै काम । काम अंगज जनु अनुरध ।—पृ० रा० १ ।७२७ ।
⋙ अनुरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोण रस । अप्रधान रस । २. वह स्वाद जो किसी वस्तु में पूर्ण रुप से न हो । ३. दे० 'अनुरसित' (१) [को०] ।
⋙ अनुरसित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिध्वानि । गूँज [को०] ।
⋙ अनुरसित (२)
वि० प्रतिध्वनियुक्त [को०] ।
⋙ अनरहस (१)
वि० [सं०] एकांत । गुप्त । गोपनीय [को०] ।
⋙ अनरहस (२)
क्रि० वि० गुप्त रुप से । ऐकांतिक [को०] ।
⋙ अनुराग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुरागी] प्राति । प्रेम । असक्ति । प्यार । मुहब्बत । २. भक्ति भाव (को०) ।३. लाल रंग । (को०) ।
⋙ अनुराग (२)
वि० लालिमायुक्त । लाल किया हुआ [को०] ।
⋙ अनुरागना (१)पु
क्रि० सं० [सं० अनुराग से हि० नाम०] प्रीति करना । प्रेम करना । आसक्त होना । उ०—प्रस कहि भले भूप अनुरागे । रुप अनूप बिलोकन लागे ।—मानस, १ ।२४६ ।
⋙ अनुरागना (२)पु
क्रि० अ० प्रेमयुक्त होना । आसक्तियुक्त होना । उ०— सुनि प्रभुवचन अधिक अनुरागेउँ । मानस, ७ । ८४ ।
⋙ अनुरागी
वि० [सं० अनुरागिन] [वि० स्त्री० अनुरागिणी] अनुराग रखनेवाला । प्रेमी । उ०—या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोय ।—बिहारी र०, दो० १२१ ।
⋙ अनुरात्र
क्रि० वि [सं०] प्रतिरात्रि । रात्रि में । एक के बाद दूसरी रात [को०] ।
⋙ अनुराध (१)
वि० [सं०] १. कल्याण करनेवाला । हितकारक । २. अनुराधा नक्षत्र में उत्पन्न [को०] ।
⋙ अनुराध (२)पु
संज्ञा पुं० [हि०] विनती । विनय । आराधन । प्रार्थना । याचना । उ०—सूर स्याम मन देहिं न मेरौ पुनि करिहौं अनुराध ।—सूर० १० ।१८८६ ।
⋙ अनराधना पु
क्रि० सं०[सं०] [अनुराध से हिं० नाम०] विनय करना । विनती करना । मनाना । प्रार्थना करना । उ०— मैं आजु तुम्है गहि बाँधौं, हा हा करि करि अनुराधौं ।—सुर, १० । १८३ ।
⋙ अनुराधग्राम
संज्ञा पुं० [सं०] अनुराध द्वारा स्थापित लंका की प्राचीन राजधानी जिसका एक नाम अनुराधपुर भी है [को०] ।
⋙ अनुराधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] २७ नक्षत्रों में १७ वाँ नक्षत्र । उ०— भादौ सुकला छटठ को, जो अनुराधा होय । ताता संवत यों जुड़े, भूखा रहै न कोय (शब्द०) । विशेष—यह सात तारों के मिलने से सर्पाकर दिखाई देता है । यह नक्षत्र बड़ा शुम और मंगलिक माना जाता है ।
⋙ अनुरुद्ध
वि० [सं०] १. रोका हुआ । बाधित । जिसका प्रति- वाद किया गया हो ।२. तोषित । संराधित [को०] ।
⋙ अनुरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की घास [को०] ।
⋙ अनुरुप
वि० [सं०] [संज्ञा अनुरुपता] १. तुल्य रूप का । सदृश । समान सरीखा । २. योग्य । अनुकूल । उपयुक्त । उ०— निज अनुरूप सुभग वरु माँग ।—मानस, १ ।२२८ ।
⋙ अनुरुपक पु
संज्ञा पुं० [सं०] [अनु+रुपक] प्रतिमा । प्रतिमूर्ति । उ०—सोभियत दंत । रुचि सुभ्र उर आनिए । सत्य जनरुप अनरुपक बखानिए ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ अनुरुपता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समानता । सादृश्य । २. अनु— कूलता । उपयुक्तता ।
⋙ अनुरुपना पु
क्रि० सं० [सं०अनुरुप से हिं० नाम०] समान या सदृश बनाना ।
⋙ अनुरूपासिद्बि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्रों, भाई, बंधुप्रों आदि को साम, दाम आदि द्वारा अपने पक्ष में करना ।
⋙ अनुरेवति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा [को०] ।
⋙ अनुरोदन
संज्ञा पुं० [सं०] शोक की अभिव्यक्ति । सहानुभूति [को०] ।
⋙ अनुरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुकावट । बाधा । उ०—सीधु बिनु, अनुरोध ऋतु के बोध बिहित उपाउ । करत है सोई सोइ समय साधन फलति वचत बनाउ ।—तुलसी ग्रं० पृ० ३७३ । २. प्रेरणा । उत्तेजना । जैसे०—सत्य़ के अनुरोध से मुझे यह कहना ही पड़ता है (शब्द०) । ३. आग्रह । दबाव । विनयपूर्वक किसी बात के लिये हट । जैसे,—उसका अनुरोध है कि मैं अँगरेजी मी पढूँ (शब्द०) । ४. इच्छापूर्ति करना (को०) । ५. संमान (को०) । ६. विचार [को०] ।
⋙ अनुरोधक
वि० [सं०] अनुरोध करनेवाला [को०] ।
⋙ अनुरोधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुसरण । परिपालन । अज्ञाका- रिता । आदर । इच्छापूर्ति । २. किसी का प्रेम प्राप्त करने का साधन [को०] ।
⋙ अनुरोधी
वि० [सं० अनुरोधिन्] दे० 'अनुरोधक' [को०] ।
⋙ अनुर्वर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अनुर्वरा] १. जिसमें उपज न हो । जो जरखेज न हो । उ०—इस विकराल, अनुर्वर, ऊसर अरस काल प्रांतर में । —क्वासि, पृ० १४ ।२. निष्फल । उ०— अपने में सिमटी हुई मलिन विद्या अनुर्वरा की झँकी ।— सामधेनी, पृ० १७ ।
⋙ अनुलग्न
वि० [सं०] संलग्न । पीछे लगा हुआ । जान बुझकर चिपका हुआ । [को०] ।
⋙ अनुलाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. बातचित । वार्तालात । वार्तालाप । उ०— आलियों के बीच में होने लगा अनुलाप ।—शंकु० पृ० ९ । २. पुन— रुक्ति । किसी बात को प्रकारांतर से बार बार कहना (को०) ।
⋙ अनुलालित
वि० [सं०] अनुरंजित । जिसका मनोरंजन किया गया हो । [को०] ।
⋙ अनुलास
संज्ञा पुं० [सं०] मयूर । मोर [को०] ।
⋙ अनुलास्य़
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुलास' [को०] ।
⋙ अनिलिपि
संज्ञा पुं० [सं० अनु+लिपि] प्रतिलिपि । नकल । उ०— अनुलिपि आदि का कुछ कुछ अभ्यास करना प्रारंभ कर देने से लाभ ही होता है । भाषा शि० पृ० ६८ ।
⋙ अनुलेख
संज्ञा पुं० [सं० अनु+लेख] अनुलिपि । प्रतिलिपि ।
⋙ अनुलेप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुलेपन' (१) । उ०—संसृति के बिक्षत पग रे, यह चलती है डगमग रे, अनुलेप सदृश तू लग रे ।— लहर, पृ० ५० ।
⋙ अनुलेपक
वि० [सं०] [स्त्री० अनुलेपिका] जो शरीर पर लेप, उबटन आदि लगाता है [को०] ।
⋙ अनुलेपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी तरल वस्तु की तह चढ़ाना । लेपन । उ०—अनुलेपन सा मधुर स्पर्श था ।—कामायनी,पृ० २१५ ।२. सुगंधित द्रव्यों या औषधों का मर्दन । उबटन करना । बटना लगाना । ३. लीपना । पोतना ।
⋙ अनुलेपी
वि० [सं० अनुलेपिन्] दे० 'अनुलेपक' [को०] ।
⋙ अनुलोम
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊँचे से निचे की और आने का क्रम । उतार का सिलसिला । २. उत्तम मे अधम की ओर आता हुआ । । श्रेणीक्रम । ३. संगति में सुरों का उतार । अवरोही । ४. प्रतिलोम का उलटा या विलोम [को०] । यौ.—अनुलोम विवाह ।
⋙ अनुलोमज
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अनुलोमजा] वह (संतान) जो अनुलोम विवाह से उत्पन्न हो । अनुलोम संकर ।
⋙ अनुलोमजन्मा
वि० [सं० अनुलोमजन्मन्] दे० 'अनुलोमज' [को०] ।
⋙ अनुलोमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह औषध जो पेट में पड़े हुए गोटों की ढीला करके गिरा दे । कोष्ठबद्बुता को दूर करनेवाली रेचक या भेदके ओषध । २. स्वाभाविक क्रम अनुलोम [को०] ।
⋙ अनुलोम विवाह
संज्ञा पुं० [सं०] उच्चा वर्ण के पुरुष का अपने से किसी निच वर्ण की स्त्री के साथ विवाह । जैसे—ब्राह्माण का क्षत्रिया, वैश्या या शूद्रा से क्षत्रिय का वैश्या या शूद्रा से ओर वैश्या का शूद्रा से विवाह । इस प्रकार के संबंध से जो संतति होती है वह अनुलोम संकर कहलाती है ।
⋙ अनुलोमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पति से नीचे वर्ण की स्त्री [को०] ।
⋙ अनुलोमा सिद्बि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पौर, जानपद तथा सेनापतियों को दान तथा भैद से अपने अनुकूल करना ।
⋙ अनुल्बाण, अनुल्बाण
वि० [सं०] १. जो अधिक नहो । न आधिक न अल्प । २. अस्पष्ठ [को०] ।
⋙ अनुवंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वंशवृक्ष । वंशावली । कुरसीनामा ।२. आधुनिक, या नई पीढ़ी [को०] ।
⋙ अनुवंश्य
वि० [सं०] वंशवृक्ष या वंशावली से संबाधित । जो कुरसी नामे में हो [को०] ।
⋙ अनुवक्ता
संज्ञा पुं० [सं० अनुवक्तृ] उत्तर देनेवाला । प्रतिवक्ता । बाद में बोलनेवाला । पुन? पाठ करनेवाला । दोहराने वाला [को०] ।
⋙ अनुवक्र
वि० [सं०] १. अत्यंत कुटिल या टेढ़ा । २. कुछ टेढ़ा या तिरछा [को०] ।
⋙ अनुवचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आवृत्ति । दोहराना । पठन ।२. अध्यापन । शिक्षण । व्याख्यान । भाषण । ३. अध्याय । पाठ । प्रकरण । ४. भिन्न ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट नियमों के अनुसार मंत्रपाठ [को०] ।
⋙ अनुवत्सर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार जो पाँच वर्ष का युग होता है उसका चौथा वर्ष ।
⋙ अनुवस्तर (२)
क्रि० वि० प्रतिवर्ष सालाना
⋙ अनुवादना पु †
क्रि० सं० [सं० अनु+वद] बात दुहराना । उत्तर प्रत्युत्तार करना । कठहुज्जती करना । उ०—भल नहिं अनुवद सुपहु समाज—विद्यापति, पृ० ३१४ ।
⋙ अनुवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुसरण अनुगमन । २. अनुकरण । समान आचरण । ३. किसी नियम का कई स्थानों पर बार बार लगना । ४. परिणाम । फल (को०) । ५. कृतज्ञकताज्ञापन (को०) ।
⋙ अनुवर्तिनी (१)
वि० [सं०] अनुगमिनी । अनुसरण करनेवाली ।
⋙ अनुवर्तिनी (२)
संज्ञा स्त्री० भार्या । पत्नी[को०] ।
⋙ अनुवर्ती
वि, [सं० अनुर्वतिन] [स्त्री अनुवर्तिनी अनुसरण] करनेवाला । अनुसार बरताव करनेवाला । अनुयायी । अनुगामी । पैरवी करनेवाला ।
⋙ अनुवश (१)
वि० [सं०] अनुगत । दूसरे के कहने पर चलनेवाला । वशवर्ती । आज्ञाकारी [को०] ।
⋙ अनुवश (२)
संज्ञा पुं० आज्ञाकारिता । वशवर्तित्व [को०] ।
⋙ अनुवसित
वि० [सं०] १. कपड़े से ढँका हुआ । वस्त्र द्वारा आच्छा— दित । २. बाँधा हुआ । संबद्ब । संलग्न [को०] ।
⋙ अनुवह
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक का नाम [को०] ।
⋙ अनुवा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० अनूप=जलयुक्त,प्रा अणुव] १. कुएँ के जगत का वह भाग जहाँ खड़े होकर पानी खींचते है । २. पानी निकालने के लिये खोदा हुआ गड़ढा । चौड़ा । चोआ । ३. ताल के पास का वह स्थान जहाँ से टोकरी या दौरी के द्बारा खेत सींचने के लिये पानी ऊपर फेंकते है । चौना ।
⋙ अनुवा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] व्याभिचार दोष ।
⋙ अनुवा (३)पु
[हि० आनना] आनेनेवाला । लानेवाला । उ०—ताहि तु बताइ जोई बाँह दै उसीसै सोई ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे है ।—गंगा० ग्रं० पृ० ७९ ।
⋙ अनुवाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रंथविभाग । ग्रंथावयव । ग्रंथखंड़ । अध्याय या प्रकरण का एक भाग । २. वेद के अध्याय का एक अंश । ३. दुहराना । पुन? पढ़ना (को०) ।
⋙ अनुवाचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञों में विधि के अनुसार मंत्रों का पाठ । २. पढ़ाना । अध्ययन कराना (को०) । ३. स्वयं पढ़ना (को०) ।
⋙ अनुवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुररुक्ति । पुन?कथन । दोहराना । २. भाषांतर । उल्था । तर्जुमा । ३. न्याय के अनुसार वाक्य का वह भेद जेसमें कही हुई बात का फिर फिर स्मरण और कथन हो । जैसे—'अन्न पकाओ, पकाओ, पकाओ, शीघ्र पकाओ, हे प्रिय पकाओ' । विशेष—इसके दो भेद हैं—जहाँ विधि का अनुवाद हो वहाँ शब्दा— नुवाद और जहाँ विहित का हो वहाँ अर्थानुवाद होता है । ४. मीमांसा के अनुसार वाक्य के विधिप्राप्त आशय का दूसरे शब्दों में समर्थन के लिये कथन । विशेष—यह तीन प्रकार का है—(क) भूतार्थानुवाद, जिसमें आशय की पुष्ठि के लिये भूतकाल का उल्लेख किया जाय़ । जैसे, पहले सत् ही था । (ख) स्तुत्यार्थानुवाद, जैसे, वायु ही सबसे बड़कर फेकनेवाला देवता है । (ग) गुणानुवाद, जैसे, दही से हवन करे । ५. खबर । जनश्रुति (को०) । ६. व्याख्यान का आरंभ (को०) । ७. विज्ञापन । सुचना [को०] ।
⋙ अनुवादक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुवाद करनेवाला । भाषांतर करनेवाला । उल्था करनेवाला । २. सदृश समान (को,) ३. समर्थन करनेवाला [को०] ।
⋙ अनुवदित
वि० [सं०] अनुवाद किया हुआ । अनूदित ।
⋙ अनुवादी (१)
संज्ञा पुं० [सं० अनुवादिन्] संगीत में स्वर का एक भेद जिसकी किसी राग में आवश्यकता न हो और जिसके लगाने से राग अशुद्ब हो जाय ।
⋙ अनुवादी (२)
वि० दे० 'अनुवादक' [को०] ।
⋙ अनुवाद्य
वि० [सं०] अनुवाद के योग्य । व्याख्या के योग्य़ [को०] ।
⋙ अनुवास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुवासन' [को०] ।
⋙ अनुवासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्त्रादी को सुगंधित करना । महकाना । २. सुश्रुत के अनुसार पिचकारी के द्बारा तरल औषध शरिर के भोतर पहुँचाना । वस्ति किया । एनिमा ।
⋙ अनुवासनवस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुगंधित करने का यंत्र । पिचकारी । २. शरीर के भीतर तरल औषध पहुँचाने की पिचकारी ।
⋙ अनुवासित
वि० [सं०] १.गंध से बसाया हुआ । गंधद्रव्य से सुवा- सित । २. वस्ति क्रिया द्बारा चिकित्सा किया हुआ । एनिमा दिया हुआ [को०] ।
⋙ अनुवासी
वि० [सं० अनुवासिन्] पड़ोस में रहनेवाला । साथ रहनेवाला [को०] ।
⋙ अनुवित्त
वि० [सं०] प्राप्त । उपलब्ध [को०] ।
⋙ अनुवित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राप्ती । उपलब्धि [को०] ।
⋙ अनुविद्ब
वि० [सं०] १. छेदा हुआ । जिसमें आर पार छेद किया हो । २. खचित । संलग्न । ३. भरा हुआ । परिपुर्ण । ४. मिला हुआ । युक्त । संयुक्त [को०] ।
⋙ अनुविधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. आज्ञापालन । आज्ञाकारिता । २. आदेश या नियम के अनुसार कार्य़ करना ।
⋙ अनुविधायी
वि० [सं० अनुविधायिन्] [वि० स्त्री० अनुविधायिनी] १. आज्ञाकारी । विनीत । आदेशनुसारी । २. मिलता जुलता । तद्रूप [को०] ।
⋙ अनुविनाश
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के साथ लुप्त या नष्ट हो जाना [को०] ।
⋙ अनुविहित
वि० [सं०] आज्ञाकारी [को०] ।
⋙ अनुवृत्त (१)
वि० [सं०] १. अनुसरण करनेवाला । २. आज्ञापालन करनेवाला । ३. लगातार । अविच्छिन्न । ४. उतार चढ़ाव के साथ वर्तुलाकार । सुराहीदार । ५. शीलानुगत । ६. जिसकी आवृति कि गई हो [को०] ।
⋙ अनुवृत्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वुतांत । वर्णन । विवरण ।
⋙ अनुवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पद के पहले अंश से कुछ वाक्य उसके पिछले पिछले अंश में अर्थ की श्पष्ट करने के लिये लाना जैसे—राम धर गए है और गोविंद भी (घर गए है)' । २. स्वीकृति । संपुष्टि (को०) ३. आज्ञाकारिता (को०) ।४. आवृत्ति (को०) ५. अनुसरण । अनुकरण (को०) ।
⋙ अनुवेध
संज्ञा पुं० [सं०] १. छेदन करना । बेधना । २. संपर्क । मिलन । ३. मिश्रण । ४. बाधा [को०] ।
⋙ अनुवेल्लित (१)
वि० [सं०] नीचे झुका हुआ [को०] ।
⋙ अनुवेल्लित (२)
संज्ञा पुं० १. घाव पर पट्टी बाँधना । २. सुश्रुत के अनुसार घाव बाँधने के लिये १४ प्रकार की पट्टियों में से एक [को०] ।
⋙ अनुवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुसरण । बाद में प्रवेश करना । पीछे पीछे प्रवष्टि होना । २. बड़े भाई से पहले छोटे का विवाह [को०] ।
⋙ अनुवेशन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुवेश' [को०] ।
⋙ अनुवेश्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह ब्राह्ममणा जो मंगल या शांति कर्म करनेवाले से एक घर के अंतर पर रहता हो । विशष—मनु ने किसी मंगल, या शांति कर्म में ऐसे ब्राह्ममण के भोजन कराने का नीषेध कीया है ।
⋙ अनुवेश्य (२)
वि० प्रतिवेशी । पड़ोसी । सटे हुए मकान में रहनेवाला ।
⋙ अनुव्याख्यान
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंत्रों तथा सूत्रों की व्याख्या । मंत्रविवरण । २. ब्राह्ममणा ग्रंथों का वह भाग जिसमें कठिन सुत्रों तथा मंत्रों की व्याख्या हो । मंत्रों आदि का अनुरुप अर्थ- प्रकाशक व्याख्यान [को०] ।
⋙ अनुव्याध
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुवेध' [को०] ।
⋙ अनुव्याहरणा
संज्ञा पुं० [सं०] १. बार बार दोहराना । पुनरुक्ति । २. किसी प्रसंग का प्रसंगांतर सहीत उल्लेख । ३. शाप । अनिष्ट- चिंतन [को०] ।
⋙ अनुव्याहार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुव्याहरण' [को०] ।
⋙ अनुव्रजन
संज्ञा पुं० [सं०] विदा होते हुए विशिष्ट आतिथि के साथ कुछ दूर पुहुँचाने जाना [को०] ।
⋙ अनुव्रज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अनुव्रजन' [को०] ।
⋙ अनुव्रत (१)
वि० [सं०] १. विश्वासपात्र । कर्तव्यपरायण । २. निर्दिष्ट कार्यों को दत्तचित होकर उचित रुप से करनेवाला [को०] ।
⋙ अनुव्रत (२)
संज्ञा पुं० जैन मुनियों का एक वर्ग [को०] ।
⋙ अनुव्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सदा पति में अनुरक्त रहनेवाली स्त्री । पतिव्रता [को०] ।
⋙ अनुशतिक
संज्ञा पुं० [सं०] सौ से अधिक सैनिकों का नायक या अफसर । विशेष—इसका स्थान शतानीकों के ऊपर होता था जिन्हों यह सैनिक शिक्षा देता था ।
⋙ अनुशप
संज्ञा पुं० [सं०] काम से ली हुई छुट्टी । रुखसत । विशेष—चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र मे इसके संबंध में बहुत से नियम दिए है ।
⋙ अनुशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्वद्वेष । पुराना वैर । अदावत । २. पश्चात्ताप । अनुताप । उ०— लघुता मत देखो वक्ष चीर, जिसमें अनुशय बन घुसा तीर ।—कामायनी, पृ० २५० ।३. झगड़ा वादविवाद । कहासुनी । गर्मागर्मी । ४. दान संबंधी झगड़ों का निर्णय, फल या फैसला (अर्थ०) ।५. घुणा (को०) । ६. लगाव । आसक्ति (को०) । ७. बुरे कर्मों का फल या परिणाम । कर्मविपाक (को०) । यौ.—क्रीतानुश्य=वे नियम जो क्रय विक्रय के झगड़े से संबंध रखें । नारद स्मृति में ये बड़े विस्तार के साथ कहे गए है ।
⋙ अनुशयान
वि० [सं० ] पश्चात्ताप करनेवाला । पछतानेवाला [को०] ।
⋙ अनुशयाना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परकीया नायिका का एक भेद । वेह नायिका जो अपने प्रिय का मिलने स्थान नष्ठ हो जाने से दुखी हो ।— विशेष—यह तीन प्रकार की होती है । (क) संकेतबिधटुता= वर्तमान संकेत नष्ट होने से दुखी । (ख) भाविसंकेतनष्टा= भावि संकेत के नष्ट होने की संभावना से संतापित और (ग) रमणागमना=मिलने के स्थान पर प्रिय गया होग और मैं नहीं पहुँच सकी, यह सोचकर जो दुखी हो ।
⋙ अनुशयी (१)
वि० [सं० अनुशयिन्] १. बैरि । द्वेषी । २. झगड़ालु । ३. पश्चात्तापयुक्त । पछतानेवाला । ४. चरणों पर पड़कर प्रणाम करनेवाला । ५. अनुरक्त । लीन आसक्त । ६. कर्मफल का भोक्ता (को०) ।
⋙ अनुशयी (२)
संज्ञा पुं० वह राजकर्मचारी जो दान संबंधी झगड़ों का निर्णय करता था (अर्थ०) ।
⋙ अनुशयी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०अनुशय+ई] रोगविशेष । एक प्रकार की फुंसी जो पैर में होती है ।
⋙ अनुशर
संज्ञा पुं० [सं०] दुष्टात्मा । राक्षस ।
⋙ अनुशासक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आज्ञा देनेवाला । आदेश देनेवाला । हुक्म देनेवाला । २. उपदेष्टा । शिक्षक । ३. देश या राज्य का प्रबंध करनेवाला । हुकूमत करनेवाला ।
⋙ अनुशासन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुशासक, अनुशासनीय, अनुशासित ।] १. आदेश । आज्ञा । हुक्म । उ०—अनुशासन ही था मुझे अभी तक आता ।—सकेत, पृ० २३५ ।२. उपदेश । शिक्षा । ३. व्याख्यान । विवरण । ४. महाभारत का एक पर्व । ५. नियम । व्यवस्था ।
⋙ अनुशासनपर
वि० [सं०] आज्ञाकारी [को०] ।
⋙ अनशासनपर्व
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत का १३वाँ पर्व ।
⋙ अनुशासनोय
वि० [सं०] १. आज्ञा देने के योग्य । आदेश देने के योग्य । हुक्म देने के लायक । २. उपदेश देने के योग्य । शिक्षा देने के योग्य । ३. प्रबंध करने के योग्य । हुकूमत करने के लायक ।
⋙ अनुशासित
वि० [सं०] १. जिसको आज्ञा दी गई हो । जिसे आदेश दिया गया हो । २. उपदिष्ट । शिक्षित । ३. जिसका प्रबंध किया गया हो । जिसपर हुकूमत की गई ही ।
⋙ अनुशासी
संज्ञा पुं० [सं० अनुशासिन्] दे० 'अनुशासक' [को०] ।
⋙ अनुशास्ता
संज्ञा पुं० [सं० अनुशास्तृ] दे० 'अनुशासक' [को०] ।
⋙ अनुशिष्ट
वि० [सं०] १. शिक्षित । २. आदिष्ट । निदेशित । ३. पूछा हुआ ।
⋙ अनुशिष्ट
संज्ञा स्त्री० [सं०] आदेश । शिक्षा । शासन [को०] ।
⋙ अनुशीलन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अनुशिलनीय, अनुशीलित] १. चितन । मनन । आलोचन । उ०—देवों की सुष्ठि विलान हुई अनुशीलन में अनुदिन मेरे ।—कामायनीस पृ० ७१ ।२ पुन? पुन? अभ्यास या अध्ययन । आवृत्ति ।
⋙ अनुशीलनीय
वि० [सं०] १. चितन करने के योग्य । मनन करने के योग्य । विचार या आलोचना करने के योग्य । २. अभ्यास करने के योग्य ।
⋙ अनुशीलित
वि० [सं०] बार बार अभ्यस्त । सावधानी से अथवा ध्यानपूर्वक पठित [को०] ।
⋙ अनुशोक
संज्ञा पुं० [सं०] शोक । पश्चात्ताप । खेद [को०] ।
⋙ अनुशोचक
वि० [सं०] १. पश्चात्तापकार । खेदजनक । पछताने— वाला । [को०] ।
⋙ अनुशोचन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुशोक' [को०] ।
⋙ अनुशोचना
संज्ञा स्त्री० [सं० अनुशोचन] दु?ख । शोक । खेद । चिंता । उ०—(क) 'क्यों हृदय को दुर्बल बनाकार अनुशोचना बढ़ा रहे । हो ।' —राज्यश्री, पृ० ६ ।
⋙ अनुशोची
वि० [सं० अनुशोचिन्] दे० 'अनुशोचक' [को०] ।
⋙ अनुश्रव
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक या धार्मिक परंपरा [को०] ।
⋙ अनुश्रविक
वि० [सं०] परंपरा से श्रुति द्वारा परलोक विषयक (ज्ञान), जैसे, स्वर्ग, देक्ता, अमृत इत्यादि का ।
⋙ अनुश्रृत
वि [सं०] परंपरा से सुना गया अथवा प्राप्त (ज्ञान आदि) [को०] ।
⋙ अनुश्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] परंपरया सुनी या प्राप्त कथा, ज्ञान अथवा बात । उ०—अनुश्रुति है कि उनका निर्वाण विक्रम के जन्म से ४७० वर्ष पुर्व हुआ ।—हिंदु सभ्यता, पृ० २२३ ।
⋙ अनुषंग
संज्ञा पु० [सं० अनुषङ्ग] [वि० अनुषंगी, अनुषंगिक] १. करुण । दया । २. संबंध । लगाव । साथ । ३. प्रसंग से एक वाक्य के आगे और वाक्य लगा देना । जैसे—'राम वन को गए ओर लक्ष्मण भी' । इस पद में "भी" के आगे 'वन को गए' वाक्य अनुषंग से समझ लीया जाता है । ४. न्याय में उपनय के अर्थ को निगमन में ले जाकर घटाना । किसी वस्तु में किसी और के तुल्य धर्म का स्थापन करके उसके विषय में कुछ निश्चय करना । जैसे,—घट आदि उत्पात्ति धर्मवाले हैं (उदाहरण), वैसे ही शब्द उत्पात्ति धर्मवाला है (उपनय), इसलिये शब्द अनित्य है (निगमन) । ५. उत्कट लालसा । तीव्र इच्छा । ६. अर्थपूर्ति के लिये एक या अनेक शब्दों की आवृत्ति (को०) । ७. घालमेल । मिश्रण (को०) । ८. अवश्य होनेवाला फल (को०) । ९. एक शब्द का दूसरे से संबंध (को०) ।
⋙ अनुषंगिक
वि० [सं० अनुषङ्गिक] १. अनिवार्य फलरुप । २. संबंध या प्रसंगवश प्राप्त । संबद्ब (को०) ।
⋙ अनुषंगी
वि० [सं० अनुषङ्गिन्] १. संबंधी । २. दे० "अनुषगिक' [को०] ।
⋙ अनुषत्क
वि० [सं०] १. घनिष्ठ संबंध या लगाववाला । २. संलम्न । संपृक्त [को०] ।
⋙ अनुषत्कि
वि० [सं०] १. संबद्बता । संलग्नता । २. आसक्ति [को०] ।
⋙ अनुषिक्त
वि० [सं०] बार बार सिंचित । [को०] ।
⋙ अनुषेक
संज्ञा पुं० [सं०] बार बार सींचना । फिर फिर पानी डालना या छिड़कना [को०] ।
⋙ अनुषेचन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुषेक' [को०] ।
⋙ अनुष्टुप्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अष्टक्षरपदी छंद । बत्तिस अक्षरों का एक वर्णवृत्त । विशेष—इसमें आठ वर्ण के चार पद या चरण होते हैं, प्रत्येक चरण का पाँचवाँ अक्षर सदा लघु और छठा सदा गुरु होता है तथा दूसरे और चौथे चरणों का सातवाँ अक्षर भी लघु ही होता है । शेष वर्णों के लिये कोई नियम नहीं है । "छंद? प्रभाकर" के अनुसार माणावक्रिड़ा, प्रमाणिका, लक्ष्मी, विपुला, गजगति, विद्युन्माला, मल्लिका, तुंग पद्म, वितान, रामा, नराचिका, नित्रपदा और श्लोक अनुष्टुप् छद हैं । इनके लक्षण और भेद अलग अलग है । २. सरस्वती (को०) । ३. वाणी । वाक् (को०) । ४. आठ की संज्ञा ।
⋙ अनुष्ठातव्य
वि० [सं०] अनुष्ठान किए जाने योग्य । अनुष्ठेय ।
⋙ अनुष्ठाता
वि० [सं० अनुष्ठातृ] कार्य करने या कार्यारंभ करनेवाला । अनुष्ठानकर्ता (को०) ।
⋙ अनुष्ठान
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्य का आरंभ । किसी काम का शुरू । २. नियमपुर्वक कोई काम करना । ३. शास्त्रविहित कर्म करना । ४. किसी फल के निमित्त किसी देवता की आराधना । प्रयोग । पुरश्चरण ।
⋙ अनष्ठानक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मकृत्यों का क्रम [को०] ।
⋙ अनुष्ठानशरीर
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्य के अनुसार सूक्ष्म और स्थूल शरीर के मध्य की स्थिति जिसे अधिष्ठानशरीर भी कहके है [को०] ।
⋙ अनुष्ठापन
संज्ञा पुं० [सं०] कार्य़ में प्रकृत करना अथवा कार्य कराना [को०] ।
⋙ अनुष्ठायी
वि० [सं० अनुष्ठायिन्] अनुष्ठान या कार्य करनेवाला [को०] ।
⋙ अनुष्ठित
वि० [सं०] सविधि पूरा किया हुआ । संपन्न । पुर्ण । उ०—सुप्रभात किया अनुष्ठित राजसूय सुरीति से ।— कानन० पृ० ११३ ।
⋙ अनुष्ठेय
वि० [सं०] कर्तव्य । करने योग्य अनुष्ठान योग्य [को०] ।
⋙ अनुष्ण (१)
वि० [सं०] १. जो गर्म न हो । ठंढ़ा । २. आलसी । सुस्त (को०) ।
⋙ अनुष्ण (२)
संज्ञा पुं० नील कमल [को०] ।
⋙ अनुष्णक
वि० [सं०] 'अनुष्ण' [को०] ।
⋙ अनुष्णगु
संज्ञा पुं० [सं०] शीतल किरणोंवाला । चंद्रमा [को०] ।
⋙ अनुष्णवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीली दूब । नील दूर्वा [को०] ।
⋙ अनुष्ष्यंद
संज्ञा पुं० [सं०] गाड़ी का पिछला चक्का [को०] ।
⋙ अनुसंधान
संज्ञा पुं० [सं० अनुप्तन्धान] [क्रि० अनुसंधानना] पश्चादगमन । पीछे लगना । २. अन्वेषण । खोज । ढूँढ़ । जाँच पड़ताल । तलाश । तहकीकात । ३. चेष्ठा । प्रयत्न । कोशिश । ४. योजना । पुर्वरूप या प्रारूप । खाका (को०) ।
⋙ अनुसंधानकर्ता
वि० [सं० अनुसन्धान+कर्तृ] शोध या खोज का कार्य करनेवाला । उ०—यह संक्षिप्त वर्णान अनुसधानकर्ताओं के सामने एक नए क्षैत्र का जन्मदाता होगा । —प्रा० भा० प०, पृ० १२१ ।
⋙ अनुसंधानना पु
क्रि० सं० [सं० अनुसन्धान से ही० नाम०] १. खोजना । ढूँढ़ना । २. सोचना । विचारना । उ०—हृदय न कछु फल अनुसंधाना । भुप बिबेकी परम सुजाना ।— मानस, १ ।१५६ ।
⋙ अनुसंधानी
वि० [सं० अनुसन्धानिन्] १. शोध करनेवाला । तलाश में रहनेवाला । २. योजनापटु । किसी योजना के कार्यन्वयन में दक्ष [को०] ।
⋙ अनुसंधायक
वि० [सं० अनु+सन्धायक] दे० 'अनुसंधायी' । उ०— यहाँ तक कि कुछ अनुसंधायक परवर्ती अथवा उत्तरार्ध शृंगार काल को इसी करण पझाकर युग तक कहना चाहते है ।— पद्माकर ग्रं० (भु०), पृ० ८ ।
⋙ अनुसंधायी
वि० [सं० अनुसन्धायिन्] दे० 'अनुसंधानी' [को०] ।
⋙ अनुसंधी
संज्ञा स्त्री० [सं० अनुसन्धि] १. परामर्श । २. अनुसंधान । ३. गुप्त परामर्श । अंतरंग मंत्रणा । भीतरी बातचीत । षड़चक्र । उ०—जिनको कि यह सब सुप्त अनुसंधि न मालूम थी, इस बात का निश्चय भी करा दिया । —भारतेंदु ग्रं० भा० १. पृ.१३४ ।
⋙ अनुसंधेय
वि० [सं० अनुसन्धेय] शोध योग्य । खोज के योग्य ।
⋙ अनुसंधान
संज्ञा पुं० [सं०]अनु+संधान] १. साथ चलना । साथ साथ यात्रा करना । २. गमन । यात्रा । दौरा । ३. बदली या परिवर्तन । उ०—अनुसंधान का अर्थ विवादग्रस्त है ।—भा० इ० रु० पृ० ५७८ ।
⋙ अनुसंहित
वि० [सं०] १.जिसकी छानबीन या जाँच की गई हो । २.किसी के अनुरूप या अनुकूल [को०] ।
⋙ अनुसमापन
संज्ञा पुं० [सं०] कार्य की नियमित परिपूर्ति या समाप्ति [को०] ।
⋙ अनुसयना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अनुशयाना]दे० 'अनुशयाना' । उ०— सु तीसरी अनुसयाना पहिचान ।—पद्माकर ग्रं०,पृ०१०५ ।
⋙ अनुसयाना पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अनुशयाना' । उ०—कही अनुसयाना त्रिविध प्रथम भेद यह जानि ।—पद्माकर ग्रं०, पृ०१०४ ।
⋙ अनुसर (१)पु
वि० [हिं० ] दे० 'अनुसार' ।
⋙ अनुसर
वि० [सं०] दे० अनुगामी । सहयोगी । अनुचर [को०] ।
⋙ अनुसरण
संज्ञा पु० [सं०] [क्रि० अनुसारना, अनुसारना] १.पीछे चलना । साथ साथ चलना । २.अनुकरण । नकल । ३. अनुकूल आचरण ।
⋙ अनुसरना पु
क्रि० स० [सं० अनुसरण से हिं, नाम०] १. पीछे चलना । साथ साथ चलना ।उ०—जिमि पुरूषहि अनुसर परिछाही० ।—मानस, २ ।१४१ । २. अनुकरण करना । नकल करना । उ०—कहहु सो प्रेम प्रकट को करई । केहि छाया कवि मति अनुसरई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अनुसर्प
संज्ञा पु [सं०] १.सर्प जैसा जीव ।२. रेंगनेवाला जीव । सरीसृप [को०] ।
⋙ अनुसर्पिणी
संज्ञा स्त्री [सं०] सुख दु?ख की स्थिति के तारतम्यानुसार जैन लोग छ? काल की जो शृंखलाएँ मानते हैं उनमें से एक का नाम । उ०—जैन लोग छह छह कालों की दो महान शृंखलाएँ मानते हैं—अनुसर्पिणी और अवसर्पिणी ।
⋙ अनुसाम
वि० [सं०] १. परितोषित । संतुष्ट किया हुआ । अनुकूल । मुताबिक [को०] ।
⋙ अनुसार (१)
क्रि० वि० [सं०] १.अनुकूल । मुआफिक । उ०—कहउँ नामु बड़ रात तें निज बिचार अनिसार । —मानस, १ ।२३ । २. सदृश ।समान । मुताबिक । जैसे—मैंने आपकी आज्ञा के अनुसार ही काम किया है (शब्द०) । विशेष—संस्कृत में यह शब्द संज्ञा है पर हिंदी में इसका प्रयोग क्रियाविशेषणवत् होता है ।
⋙ अनुसार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] २. पीछे पीछे चलना । अनुसरण ।२. अनुकूल आचरण ।३. किसी वस्तु की स्वाभाविक प्रकृति या स्थिति । ४. प्रथा । परंपरा । ५. अभ्यास । अनुकुल [को०] ।
⋙ अनुसार (३)
संज्ञा पु० [सं०अनुस्वार] दे० 'अनुस्वार' । उ०—अनुसार से उतपती नीरजन, नीरंजन से उतपती जीव ।—रामानद०, पृ०३० ।
⋙ अनुसारक
वि० [सं०] अनुसरणकारी । पीछे चलनेवाला । अनुयायी । २. तुल्य । अनुरूप ।३.शोध करनेवाला । खोजनेवाला [को०] ।
⋙ अनुसारण
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीछा करना । अनुगमन करना [को०] ।
⋙ अनुसारना पु
क्रि० स० [सं० अनुसरण] १., अनुसरण करना । अनुकूल आचरण करना ।२. आचरण करना । उ०—ऐसे जनम करम के ओछे ही अनुसारत ।—सुर०(शब्द०) । ३.कोई कार्य करना ।विशेष—हिंदी के कविगण यौगिक क्रिया बनाने में प्राय? किसी भी संज्ञा शब्द के साथ इस क्रिया को जोड़ देते हैं । जैसे,—(क) तब ब्रह्मा बिनती अनुसारी ।—सूर० (शब्द०) ।(ख) ता तें कछुक बात अनुसारी ।—मानस,२ ।१६ ।(ग) तिलक सारि अस्तुति अनुसारी ।—मानस,६ ।१०५ ।(घ) नींद भूख प्यास ताहि अधी हू रही न तन आधे हू न आखर सकत अनुसारि कै । देव (शब्द०) । (च) कहै पझाकर कहौं जौ बरदान तौ लौ कैयो बरदान न के गान अनुसारती ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २६० ।
⋙ अनुसारिता
संज्ञा स्त्री [सं०] दे० 'अनुवर्तिता' ।
⋙ अनुसारी पु
वि० [सं० अनुसारिन्] १. अनुसरण करनेवाला । अनुकरण करनेवाला ।उ०—सूरदास सम, रूप नाम गुन अंतर अनुचर अनुसारी ।—सूर०,१० ।१७१ । २.दे० 'अनुसारक' ।
⋙ अनुसार्यक
संज्ञा पुं० [सं०] सुगंधद्रव्य चंदन, अगुरू आदि [को०] ।
⋙ अनुसाल पु
संज्ञा पुं [सं० अनु+हिं० √ साल] वेदना । पीडा । उ०—नधुकैटभ मथन, मुर भौम केशभिदन; कंसकुल काल अनुसाल हारो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अनुसासन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनुशासन' । उ०—चली दुलहिनिहिं ल्याइ पाइ अनुसासन । तुलसी ग्रं०, पृ० ५८ ।
⋙ अनुसुइया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अनुसूया' । उ०—इंद्रादिक सब देव बखानहु, अनुसुइया धर मृष्टित जानहु ।—प० रा०, पृ,३७ ।
⋙ अनुसूचक
वि० [सं०] सुचना करने या देनेवाला [को०] ।
⋙ अनुसूचन
संज्ञा पुं० [सं०] सूचना देने का कार्य । सूचना देना [को०] ।
⋙ अनुसूचित
वि० [हिं० अनुसूची] परिगणित । जिसका नाम सूची में दर्ज हो ।
⋙ अनुसूची
संज्ञा स्त्री० [सं० अनु+सूची] संलग्न तालीका या सूची ।
⋙ अनुसृत
वि० [सं०] १. अनुसरण किया हुआ । अनुगमित ।२. प्रवाहित होना । बहना । लुढ़कना ।३.आश्रयी । शरणागत [को०] ।
⋙ अनुसृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुसरण । पीछे जाना ।२. नकल । पैरवी ।३.पुंश्चली । कुलटा [को०] ।
⋙ अनुसृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.क्रमबद्ध रचना ।२.प्रत्युत्पन्नमति या हाजिर जवाब । महिला [को०] ।
⋙ अनुसेवी
वि० [सं० अनुसोविन्] किसी वस्तु के सेवन का अभ्यासी । अदि । लत में पडा हुआ [को०] ।
⋙ अनुसोचना पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अनुशोचना' । उ०— अनुसमुझे अनुसोचनो अवधि समुझिए आपु ।—तुलसी ग्रं०, पृ०१४४ ।
⋙ अनुस्तरणा
संज्ञा पु० [सं०] बिखराना । विकीर्ण करना [को०] ।
⋙ अनुस्तरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १आच्छादन ।२.गौ । वह गौ जिसका अंतिम संस्कार के समय वैतरणी पार होने के सिये उत्सर्ग किया जाता है [को०] ।
⋙ अनुस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] पाशुपत दर्शन के अनुसार शिव पर चढे निर्माल्य को धारण करना ।
⋙ अनुस्मरण
संज्ञा पुं० [सं०] बार बार स्मरण करना । स्मृति में लाना उ०—इतिहास मे भूतकाल की घटनाओं का उल्लेख और अनुस्मरण रहता है ।—हिंदु० सभ्यता, पृ०१ । सोचना [को०] ।
⋙ अनुस्मारक
संज्ञा पुं० [सं० अनु+स्मारक] स्मृति या याद दिलाने— वाली वस्तु ।
⋙ अनुस्मृति
संज्ञा पु० [सं०] १.संजोई हुई स्मृति । प्रिय स्मृति ।२. अन्य त्याग करके किसी एक के प्रति किया हुआ चितंन या स्मरण । एकांत चितंन[को०] ।
⋙ अनुस्यूत
वि० [सं०] १. सीया हुआ । २. पिरोया हुआ । ३. ग्रथित । गूँथा हुआ । उ०—तीनि अवस्था माहिं है सुंदर साक्षीभूत । सदा एकरस आतमा व्यापक है अनुस्यूत ।—सुंदर ग्रं०, भा०२, पृ० ७८२ ।४. संबद्ध । श्रेणीबद्ध । सिलसिलेवार ।
⋙ अनुस्वान
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतिध्वनि । गूँज । २. समध्वनि । समर्थक स्वर । अनुरगन [को०] ।
⋙ अनुस्वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर के बाद उच्चरित होनेवाला एक अनुनासिक वर्ण जिसका चिन्ह () है । निगृहीत इसे आश्रय स्थानभागी भी कहते है क्योंकि जिस स्वर के बाद यह लगेगा उसी का सा उच्चारण इसका होगा । २. स्वर के उपर की बिंदी ।
⋙ अनुहरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नकल । अनुकरण । २. सादृश्य । समता [को०] ।
⋙ अनुहरत
वि० हिं √ [अनुहार का कृंदत रुप ] १. अनुसार । अनुरुप । समान । उ०—दंभ सहित कलि धरम सब छल समेत व्यवहार । स्वारथ सहित सनेह सब, रुचि अनुहरत अचार ।—तुलसी ग्रं० पृ० १५० । २. उपयुक्त । योग्य । अनुकूल । उ०—अब तुम्ह बिनय मोरि सुन लेहु । मोहि अनुहरत सिखावनु देहू । मानस, २ ।१७७ ।
⋙ अनुहरना पु
क्रि० स० [ सं० अनुहरण] अनुकरण करना । आदर्श पर चलना । नकल करना । समानता करना । उ०—सहज टेढ अनुहर न तौही नीचु मीचु सम देख न मोही ।— मानस १ ।२७
⋙ अनुहरिया (१) पु †
वि० [सं० अनुहार+हिं० इया (प्रत्य.)] समान । तुल्य ।
⋙ अनुहरिया (२)पु †
संज्ञा स्त्री० आकृति । मुखानी । उ०—माल तिलक सर सोहत भौंह कमान । मुख अनुहरिया केवल चंद समान ।— तुलसी ग्रं० पृ०१९ ।
⋙ अनुहार (२)
वि० [सं०] सदृश । तुल्य । समान । एकरुप । उ०— खंजन नैन बीच नासा पुट राजत यह अनुहार । खंजन युग मनो लरत लराई कीर बुझावत रार । —सुर (शब्द०) ।
⋙ अनुहार (२)
संज्ञा स्त्री० १. रुप भेद । प्रकार । उ०— मुग्धा मध्या प्रौढ़ गनि, तिनके तीनि बिचार । एक एक की जनिए चार चार अनुहार । —केशव (शब्द) । २. मुखानी । आकृति ।
⋙ अनुहार (३)
संज्ञा पुं० दे० 'अनुहरण' ।
⋙ अनुहारक
संज्ञा पुं [सं०] [ स्त्री० अनुहारिका] अनुकरण करनेवाला । नकल करने वाला । सदृश कर्म करनेवाला ।
⋙ अनुहारना पु
क्रि० स० [ अनुहार से नाम०] तुल्य करना । सदृश करना । समान करना । उ०— देखि री हरि के चंचल तारे ।कमल मीन कौं कहां इती छबि, खंजन हूँ न जात अनुहारे ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ अनुहारि (१)
वि० स्त्री० [सं० अनुहारिन्] १. समान । सदृश । तुल्य । बराबर । उ०— (क) गिरि समान तन अगम अति, पन्नग की अनुहारि । सुर० १० ।४३१ । (ख) चुनरी स्याम सतार नभ, मुख ससि की अनुहारि । नेह दबावत नींद लौं, निरखि निसा सी नारि ।— बिहारी (शब्द०) । २. योग्य । उपयुक्त । उ०—बर अनुहारि बरात ना भाई । हंसी करैहहु पर पुर जाई । मानस, १ ।९२ । ३. अनुसार । अनुकुल । मुताबिक । उ०— कहि मृदु बचन विनीत तिन्ह, बैठारे नर नारि । उत्तम मध्यम नीच लघु, निज निज थल अनुहारि ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष— इस विशेषण का लिंग भी 'नाई' के समान है अर्थात यह शब्द संज्ञा पुं० और संज्ञा स्त्री० दोनों का विशेषण होता है ।
⋙ अनुहारि (२) पु
संज्ञा स्त्री० आकृति । चेहरा । उ—ज्यों मुख मुकुर बिलोकिए, चित न रहै अनुहारि । त्यों सेवतहु निरापने मातु पिता सुत नारि ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अनुहारी (१)
वि० [सं० अनुहारिन्][स्त्री० अनुहारिणी] अनुकरण करने वाला । नकल करने वाला ।
⋙ अनुहारी (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अनुहारि' (२) । उ०—(क) देखी सासु आन अनुहारी ।—तुलसी (शब्द०) ।(ख) भरथु रामहीं कि अनुहारी ।—मानस, १ ।३११ ।
⋙ अनुहार्य
वि० [सं०] अनुकरण या नकल करने योग्य [को०] ।
⋙ अनुहोड
संज्ञा पुं० [सं०] बैलगाडी [को०] ।
⋙ अनुश्वर पु
क्रि० वि० [सं० अनवरत] सतत । निरंतर । लगातार ।
⋙ अनूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गत जन्म । पुर्व जन्म । २. कुल । वंश । खानदान । ३.शील । स्वभाव । ४. पीठ की हड्डी । रीढ़ । ५. मेहराब के बीच की ईंट कीली । ६. यज्ञ की वेदी बनाने के लिए ईंठ उठाने की खंचिया या पात्र । ७. जाति या वंशगत विशिष्टता [को०] ।८.यज्ञ की वेदी का पृष्टभाग(को०) ।
⋙ अनूकाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाश की कौंध या झलक । २. उदा— हरण । संदर्भ । हवाला । [को०] ।
⋙ अनूक्त
वि० [सं०] १. बाद मे कथित । दोहराया गया ।२. जिसने वेदाध्ययन किया हो । अधीत [को०] ।
⋙ अनूक्ति
संज्ञा स्त्री [सं०] १. विवरणपुर्वक कही या दोहराई हुई बात ।२. वेदाध्ययन [को०] ।
⋙ अनूचान
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वेद वेदांग मे पारंगत होकर गुरुकुल से आया हो । स्नातक ।२. विद्यारसिक व्यक्ति ।३. चरित्रवान् पुरुष ।
⋙ अनुजरा पु
वि० [ हिं० अन +उजरा ] [स्त्री० अनूजरी] जो उजला या साफ न हो । मैला । उ०—साछय साछी पूतरी अनूजरीसह उजरी द्वै देखि रागी त्यागी ललचात जनजात है ।—निश्चल (शब्द०) ।
⋙ अनूठा
वि० [सं० अनुत्थ; पा० अनुट्ठ, प्रा० अणुट्ठ=स्थित अथवा देश ०] [स्त्री० अनूठी ] १. अपूर्व । अनोखा । विचित्र । विलक्षण । अदभुत । २. सुंदर । अच्छा । बढिया ।
⋙ अनूठापन
संज्ञा पु० [हि० अनूठा+पन् (प्रत्य०)] १. विचित्रता । विलक्षणता । विशेषता । २. सुंदरता । अच्छापन ।
⋙ अनूढ़
वि० [सं० अनूढ] १. अज्ञात । अनुत्पन्न । २. जो ले जाया न गया हो । ३. अविवाहित [को०] ।
⋙ अनूढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० अनूढा] १. अविवाहिता कन्या । २. बिना ब्याही स्त्री जो किसी पुरुष से प्रेम रखती हो । उ०—ताहि अनूढ़ा कहत हैं कवि पंडित परबीन ।—पद्माकर ग्रं० पृ० ९७ ।
⋙ अनूढ़ागमन
संज्ञा पु० [सं० अनूढागमन] अविवाहिता स्त्री से प्रेम या ससर्ग [को०] ।
⋙ अनूढ़ाभ्राता
संज्ञा पु० [सं० अनुढ़ाभ्रातृ] १. अविवाहिता स्त्री का भाई । २. राजा की रखेली उपपत्नी का भाई [को०] ।
⋙ अनूतर पु
वि [सं० अनुत्तर] [वि० स्त्री० अनुतरी] १. निरुत्तर । कायल २. चुपचाप बैठनेवाला । मौन धारणा करनेवाला । उ०—बैठी फिरि पूतरी अनुतरी फिरंग कैसी, पीठि दै प्रबीनी दृग दृगनि मिलै अनिंद ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १०१ ।
⋙ अनूदक
संज्ञा पु० [सं०] १. जनहीन स्थान । २. सूखा [को०] ।
⋙ अनूदर्वा
संज्ञा पु० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की नाव । विशेष—यह ४८ हाथ लंबी, २४ हाथ चौड़ी और २४ ही हाथ ऊँची होती थी ।
⋙ अनूदित
वि० [सं०] १. कहा हुआ । वर्णन किया हुआ । २. अनुवादित । तर्जुमा किया हुआ । भाषांतरित ।
⋙ अनूद्य
वि० [सं०] १. पीछे चर्चा करने योग्य । २. अनुवाद योग्य [को०] ।
⋙ अनून
वि० [सं०] १. अखंड । पूर्णा । पूरा । समग्र । २. जिसमें कोई कमी न हो । २. अन्यून । अधिक । ज्यादा । बहुत । ३. पुर्ण अधिकारयुक्त [को०] ।
⋙ अनूप (१)
वि० [सं०] १. जलप्राय । जहाँ जल अधिक हो । २. दलदली [को०] ।
⋙ अनूप (२)
संज्ञा पु० १. जलप्राय देश ।वह स्थान जहाँ जल अधिक हो । २. भैस । ३. ताल या तालाब । ४. दलदल । ५. कछार । ६. मेढक । ७. हाथी । ८. तीतर या चकोर [को०] । उ०— अनुप (जलसमीप) के रहनेवाले जीव हंस चकवा आदि ।—माधव, पु० १८१ ।
⋙ अनूप (३)
[सं० अनूपन] १. जिसकी उपमा न हो । आद्वितीय । बेजोड़ । उ०—(क) कबीर रामानंद को सतगुरु भए सहाय । जग में जुगुत अनूप है सो सब दई बताय । कबीर (शब्द०) । (ख) जिन्ह वह पाई छाँह अनूपा । फिर नहिं आइ सहै यह धूपा । जायसी (शब्द०) । (ग) अरथ अनूप सुभाव सुभासा । सोइ पराग मकरंद सुबासा ।—मानस, १ ।३७ ।२. सुंदर । अच्छा । उ०—जो घरु बर कुलु होइ अनूपा । करिअ विवाह सुता अनुरुपा ।—मानस, १ ।७१ ।
⋙ अनुपग्राम
संज्ञा पु० [सं०] नदी के किनारे का गाँव । विशेष—चंद्रगुप्त कालीन एक राजनियम के अनुसार बरसात के दिनों में ऐसे गाँव के लोगं को नदी का किनारा छोड़कर किसी दूसरे दूरवर्ती स्थान पर बसना पड़ता था ।
⋙ अनूपनाराच
संज्ञा पु० [सं० अनुप+नाराच] छंद का एक भेद जो पंचचामर के अंतर्गत है और जिसके प्रत्येक चरण में ज, र, ज, र, ज और गुरु होता है ।
⋙ अनुपम पु
वि० दे० 'अनुपम' । उ०—(क) अदभुत एक अनुपम बाग । सूर०, १० ।२११० । (ख) ध्रुव सगलानि जपेउ हरि नाऊँ । थापेउ अचल अनूपम ठाऊँ । मानस, १ ।२६ ।
⋙ अनूपान पु
संज्ञा पु० दे० 'अनुपान' । उ०—रघुपति भगति सजीवनि मूरी । अनूपान श्रद्धा । मति रूरी ।— मानस, ७ ।१२२ ।
⋙ अनूपी पु
वि० स्त्री० दे० अनूप । उ०—धन्य अनुराग धनि भाग धनि सौभाग्य धन्य जोबन रूप अति अनूपी ।— सूर, १० ।१७८८ ।
⋙ अनूमान पु
संज्ञा पु० दे० 'अनुमान' । उ०—अनूमान साछी रहित होत नहीं परमान ।—स० सप्तक, पु० ४० ।
⋙ अनूरत्त पु
वि० दे० अनुरक्त' । उ०—दिपंती सुहागं । अनूरत रागं ।—पु रा० ६२ ।४१ ।
⋙ अनूरु (१)
वि० [सं० अनूरु] उरूहान । बिना जाँघवाला ।
⋙ अनूरु (२)
संज्ञा पु० १. सुर्य का सारथी । अरुणा । २. अरुणोदय [को] ।
⋙ अनूरुसारथी
संज्ञा पु० [सं०] सूर्य [को०] ।
⋙ अनूर्जित
वि० [सं०] १. शक्तिहीन । अशक्त । कमजोर । २. अभि— मानशून्य [को०] ।
⋙ अनूर्ध्व
वि० [सं०] ऊँचा नहीं । निचा [को०] ।
⋙ अनूर्मि
वि० [सं०] १. तरंगशून्य । अचंचल । २. अनतिक्रम [को०] ।
⋙ अनूषर
वि० [सं०] १. क्षारीय । रेहवाला । २. क्षारहीन । रेहशून्य [को०] ।
⋙ अनूह
वि० [सं०] १. जिसपर विचार न हो सेक । अतर्क्य । २. विचारहीन । लापरवाह (को०) ।
⋙ अनृजु
वि० [सं०] जो ऋजु अर्थात् सीधा न हो । कुटिल । वक्र । २. दुष्ट । अविश्वस्त । बेईमान [को०] ।
⋙ अनृण
वि० [सं०] जो ऋणी न हो । जिसे कर्ज न हो । ऋणमुक्त ।
⋙ अनृणता
संज्ञा पु० [सं०] कर्ज से छुटकारा । ऋणमुक्ति [को०] ।
⋙ अनृणी
वि० [सं० अनृणिन्] दे० 'अनृणा' [को०] ।
⋙ अनृत (१)
वि० [सं०] १. मिथ्या । झूठा । २. अन्यथा । विपरीत । उ०—तोहिं स्याम हम कहा दिखावैं । अमृत कहा अनृत गुण प्रगटै सो हम कहा बतावैं । सूर०, १० ।२०६६ ।
⋙ अनृत (२)
संज्ञा पु० [सं०] १. मिथ्या । असत्य । झूठा । २. कृषि । खेती [को०] ।
⋙ अनृतक
वि० [सं०] मिथ्यावादी । झूठ बोलनेवाला [को०] ।
⋙ अनृतभाषण
संज्ञा पु० [सं०] झूठ बोलना । मिथ्या कथन [को०] ।
⋙ अनृतावादन
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'अनृतभाषण' [को०] ।
⋙ अनृतवादी
वि० [सं० अनृतवादिन्] [वि० स्त्री० अनृतवादिनी] झूठामिथ्यावादी [को०] ।
⋙ अनृतव्रत
वि० [सं०] अपने या प्रातिज्ञा का पालन कभी न करनेवाला [को०] ।
⋙ अनृती
वि० [सं० अनृतित्] दे० 'अनृतक' [को०] ।
⋙ अनृतु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेमौसम । असमय । २. रजोदर्शन से पूर्व की अवस्था या स्थिति [को०] ।
⋙ अनृतुकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या जिसे रजोधर्म न हुआ हो [को०] ।
⋙ अनृतुप्राप्त सैन्य
संज्ञा पु० [सं०] वह सेना जिसके अनुकुल ऋतु न पड़ती हो । विशेष—कौटिल्य के अनुसार ऐसी सेना ऋतु के अनुकूल वस्त्र, अस्त्र, कवच आदि का प्रबंध हो जाने पर युद्ध कर सकती है, पर अभूमिप्राप्त (अनुपयुक्त भुमि में फँसी) सेना कुछ करने में असमर्थ हो जाती है ।
⋙ अनृशंस
वि० [सं०] क्रूरतारहित । अकठोर । मृदुल [को०] ।
⋙ अनृशंसता
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्रूरता का अभाव । दयालुता [को०] ।
⋙ अनेऊ पु †
वि [सं० अन्याय, प्रा०>अन्नाअ>अन्याअ>अनाव> अनेव>अनेऊ] बुरा । खराब ।
⋙ अनेक
वि० [सं०] एक से अधिक । बहुत । ज्यादा । असंख्य । अनगिनत । यौ०—अनेकानेक ।
⋙ अनेककाम
वि० [सं०] एक से अधिक इच्छाओंवाला [को०] ।
⋙ अनेककालावाधि
क्रि० वि० [सं०] बहुत काल से या चिरकाल तक [को०] ।
⋙ अनेककृत
संज्ञा पु० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ अनेकचर
वि० [सं०] समूह या झुंड में रहनेवाला । [को०] ।
⋙ अनेकचित्त
वि० [सं०] १. अनेक वस्तुओं की कामना या ध्यान रखने वाला । २. चंचल मनवाला । चपलचित्त [को०] ।
⋙ अनेकज (१)
वि० [सं०] जिसका जन्म एक बार से अधिक हो [को०] ।
⋙ अनेकज (२)
संज्ञा पु० पक्षी [को०] ।
⋙ अनेकजन्मा
वि० [सं०] दे० 'अनेकज' [को०] ।
⋙ अनेकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अनेकत्व' ।
⋙ अनेकत्व
संज्ञा पु० [सं०] एक से अधिक होने का स्थिति या भाव । बहुत्व । अनेकता [को०] ।
⋙ अनेकत्र
क्रि० वि० [सं०] कई जगह । कई स्थान [को०] ।
⋙ अनेकधा
क्रि० वि० [सं०] कई प्रकार से । कई तरह से [को०] ।
⋙ अनेकप
संज्ञा पु० [सं०] द्बिप । हाथी [को०] ।
⋙ अनेकभार्य
वि० [सं०] कई पत्नियोंवाला (को०) ।
⋙ अनेकमुख
वि० [सं०] [स्त्री० अनेकमुखी] १. अनेक चेहरेवाला । अनेक मुखवाला । २. कई दिशाओं में जानेवाला । [को०] ।
⋙ अनेकमूर्ति
संज्ञा पु० [सं०] विष्णु का एक नाम [को०] ।
⋙ अनेकरुप (१)
वि० [सं०] [स्त्री० अनेकरुपा] १. कई रूपोंवाला । २. परिवर्तवनशील [को०] ।
⋙ अनेकरूप (२)
संज्ञा पु० परमेश्वर [को०] ।
⋙ अनेकलोचन
संज्ञा पु० [सं०] १. इंद्र । २. शिव । ३. विराटपुरुष । सहस्त्राक्ष [को०] ।
⋙ अनेकवचन
संज्ञा पु० [सं०] १. बहुवचन । २. द्विवचन ।
⋙ अनेकवर्ण (१)
वि० [सं०] कई रंगोंवाला [को०] ।
⋙ अनेकवर्ण (२)
संज्ञा पु० बीजगणित में प्रयुक्त अज्ञात राशियाँ [को०] ।
⋙ अनेकविध
वि० [सं०] अनेक प्रकार का । विभिन्न कोटि का ।
⋙ अनेकाश
क्रि० वि० [सं०] अनेकवार । बार बार । उ०—मेरि कामना हैं कि इस दिवस की अनेकश? पुनरावृति हो ।—शुक्ल० अभि० ग्र०, पु० १५ ।
⋙ अनेकशफ
वि० [सं०] फटे खुरोंवाला [को०] ।
⋙ अनेकशब्द
वि० [सं०] पर्यायवाची [को०] ।
⋙ अनेकसाधारण
वि० [सं०] अनेक में पाया जानेवाला । बहुतों में पाया जानेवाला । [को०] ।
⋙ अनेकांगी (१)
संज्ञा पु० [सं० अनेकाङ्गिन्] वह जिसे कई अंग हीं । जिसके बहुत हिस्से या भाग हों ।
⋙ अनेकांगी (२)
वि० अनेक अंग, भाग या हिस्सोंवाला [को०] ।
⋙ अनेकांत
वि० [सं० अनेकान्त] १. जो एकांत न हो । २. जो स्थिर न हो । चंचल ।
⋙ अनेकांतवाद
संज्ञा पु० [सं० अनेकान्तवाद] [वि० अनेकांतवादी] जैन दर्शन । आर्हन दर्शन । स्थाद्वाद ।
⋙ अनेकांतवादी
संज्ञा वि० [सं० अनेकान्नवादिन्] अनेकांतवाद के माननेवाला [को०] ।
⋙ अनेकाकर
वि० [सं० अनेक+आकार] अनेक आकारवाला । अनेक आकृतियोंवाला [को०] ।
⋙ अनेकाकी
वि० [सं० अनेकाकिन्] [वि० स्त्री० अनेकाकिनी] अकेला नहीं । कई लोगों के साथ [को०] ।
⋙ अनेकाक्षर
वि० [सं०] अनेक अक्षरों से युक्त [को०] ।
⋙ अनेकाग्र
वि० [सं०] १. जो किसी एक विषय पर ध्यानस्थ न हो । कई कामों में लगा हुआ । २. उलझा हुआ । अव्यवस्थित [को०] ।
⋙ अनेकाच्
वि० [सं०] जिसमें बहुत से 'अच्' या स्वर हों । बहुत से स्वरों से युक्त । (शब्द या वाक्य) जिसमें बहुत से स्वर हों ।
⋙ अनेकार्थ
वि० [सं०] जिसके बहुत से अर्थ हों । बहुत अर्थोंवाला ।
⋙ अनेकार्थक
वि० [सं०] दे० 'अनेकार्थ' [को०] ।
⋙ अनेकाल
वि० [सं०] जिसमें एक से अधिक 'अल्' (स्वर और व्यंजन) वाला ।
⋙ अनेकाश्रय
वि० [सं०] अनेक या कई पर निर्भर रहनेवाला [को०] ।
⋙ अनेकाश्रित
वि० [सं०] दे० 'अनेकाश्रय' [को०] ।
⋙ अनेग पु
वि० [सं० अनेक] बहुत अधिक । ज्यादा । उ०—रोकि रहे द्वार नेग माँगन अनेग नेगी, वोलन न खाल व्याल खोलत खहिनि के ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अनेड (१)
वि० [सं०] १. मूर्ख । २. बुरा । खराब [को०] ।
⋙ अनेड (२)पु †
वि० [सं०अनृत] 'अनेरा'
⋙ अनेडमूक
वि० [सं०] १. गूँगा बहरा । २. अंधा । ३. बेईमान । कपटी । दुष्ट । बदमाश [को०] ।
⋙ अनेड़ा पु †
वि० [सं० अ+निकट, प्रा० नियर, निपड] दूर । असमीप । उ०—जागु सबेरा बाट अनेड़ा फिर नहिं लागै जोर, बटोही का रे सोवै ।—संतवाणी० भा० २ पृ० ३० ।
⋙ अनेता †
संज्ञा पु० [देश०] मालाती लता (देहरादून) ।
⋙ अनेम पु
संज्ञा पु० [हि०] दे० 'अनियम' । उ०—प्रानियम थल नेमहि गहै नियम ठौर जु अनेम ।— मिखारी० ग्रं० भा० २, पृ० २३४ ।
⋙ अनेय पु
वि० [सं० अनिति, प्रा०अ+णीइ] अन्याय से होनेवाली । अनीतिजन्य । उ०— तुम सुधरम राजन अनेय लज्जा अधिकारिय । पृ० रा० ६६ ।४९६ ।
⋙ अनेरा (१)पु
वि० [सं० अनुत,प्रा० * अनिर] [वि० स्त्री० अनेरी] १. झूठ । व्यर्थ । निष्प्रयोजन । उ०—अरी ग्वारि में मंत वचन बोतल जो अनेरो । कब हरि बालक भए, गर्म कब लियो बसेरो ।—सुर० (शव्द०) । २. झूठा । अन्यायी । दुष्ट । निकम्मा । उ०—तोहि स्याम की सपद जसोदा आइ देखु गृह मेरो । जैसी हाल करी यहि ढोटो छोटो निपट अनेरो ।—तुलसी (शव्द०) । ३. स्वच्छंद । निरंकुश ।
⋙ अनेरा (२)
क्रि० वि० व्यर्थ । झूठमूठ । निष्प्रयोजन । उ०—सुनहु स्याम रघुबीर गोसाई मन अनिति रत मेरो । चरनसरोज बिसारि तुम्हारो निसदिन फिरत अनेरो ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अनेला
वि० [सं० अ+निकट, प्रा० नियड; हिं० नेर] अपरिचित । अनपहचाना । उ०—अधिक झाँसे में कोई अनेला आए तो आए हमपर चकमा न चलेगा ।—फिसाना०, भा० १. पृ० ५ ।
⋙ अनेलापन
संज्ञा पु० [हि० अनेला+पन अथवा हिं० अनेरा] १. न पहचानने की स्थिति । अपरिचित होने का भाव । अजानपना । २. स्वच्छंदता । स्वतंत्रता । उ०—प्रनेलापन उसका मुझे भा गया । करुँ क्या दिल उसपर मेरा आ गया ।—शौक (फैलन) ।
⋙ अनेव (१)
क्रि० वि० [सं०] अन्याथा । नहीं तो [को०] ।
⋙ अनेव (२)पु
वि० [हिं०] दे० 'अनेक' । उ०—वाजित्र बज्जि मंगल अनेव । माननि उचारि सागुन्न गैव ।—पु० रा०, ६१ ।२५२४ ।
⋙ अनेस (१)पु
वि० [सं० अनिष्ट] बुरा । खराब । अनइस ।
⋙ अनेस (२) †
संज्ञा पुं० आशंका । डर । चिंता ।
⋙ अनेह पु
संज्ञा पुं० [सं० असोह] अप्रेम । अप्रीति । विरक्ति ।
⋙ अनेहा
संज्ञा पुं० [सं० अनेहम्] समय । काल । वक्त ।
⋙ अनै पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अनय' । उ०—नाम प्रताप पतित पावन किए जे न अधाने अव अनै ।—तुलसी ग्र०, पु० ३८९ ।
⋙ अनैकांत
वि० [सं० अनैकान्त] दे० 'अनेकांत' [को०] ।
⋙ अनैकांतिक
वि० [सं० अनैकान्तिक] दे० 'अनेकांत' [को०] ।
⋙ अनैकांतिक हेतु
संज्ञा पुं० [सं० अनैकान्तिकहेतु] न्या के पाँच हेत्वाभासों में से एक । वह हेतु जो साध्य का एकमात्र साधन- भुत न हो । बह बात जिससे किसी वस्तु की एकांतिक सिद्धि न हो । सव्यानिचार हेत्वामास । । जैसे,— कोई कहे कि शब्द नित्य है क्योंकि बह स्पर्शवाला नहीं है । यहाँ घर आदि स्पर्शवाले पदार्थों को अनित्य देखकर अस्पृश्यता को नित्यता का एक हेतु मान लिया गया है । पर परमाणु, जो स्पर्शवाले हैं, नित्य हैं । अत? इस हेतु में व्यभिचार आ गया ।
⋙ अनैक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐक्य या एकता का अभाव । एका न होना । २. मतभेद । नाइत्तफाकी । फूट ।
⋙ अनैच्छिक
वि० [सं०] १. अवांछित । न चाहा हुआ । २. इच्छा के बिना होनेवाला । स्वत? । शरीर की चेष्टाएँ, विकार आदि ।
⋙ अनैठ †
संज्ञा पुं० [सं० अन्=नहीं+पण्यस्थ; प्रा० पञ्लठ्ट, हिं० पैठ अथवा देश०] वह दिन जिसमें बाजार बंद रहे । 'पैठ' का उलट्टा
⋙ अनैतिक
वि० [सं०] जो नीति के विपरीत हो । अविहित [को०] ।
⋙ अनैतिहासिक
वि० [सं०] १. जो इतिहाससंमत न हो । २. जैसा भूत में न हुआ हो । अभूतपूर्व [को०] ।
⋙ अनैपुण
संज्ञा पुं० [सं०] अनिपुणता । अदक्षता । अकुशलता [को०] ।
⋙ अनैश्वर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐश्वर्य का अभाव । अप्रपुत्व । बड़ाईया संपदा का न होना । २. अनीश्वरता । सिद्धियों की अप्राप्ति ।
⋙ अनैस (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्+एष=अषण] [क्रि० अनैसना] बुराई । आहित ।
⋙ अनैस (२)
वि० बुरा ।—उ०—मोह को यह गर्व सागर भरो आइ अनैस ।—सा० लहरी, पु० १९ । क्रि० प्र०—मानना=बुरा मानना । रूठना ।
⋙ अनैसना पु
क्रि० अ० [हिं० अनैस से नाम०] बुरा मानना । रुठना । उ०—श्यामरूप बन माँझ समाने मोपे रहे अनैसे ।— सूर० (शब्द०) ।
⋙ अनैसर्गिक
वि० [सं०] १. जो प्रकृति के विरुद्धहो । अप्राकृतिक ।२. जो स्वभाव के प्रतिकूल हो । अस्वाभाविक [को०] ।
⋙ अनैसा पु
वि० [हि० अनैस] [वि० स्त्री० अनैसी] जो इष्ट न हो । अप्रिय । बुरा खराब । उ०—(क) नाम लिए अपनाइ लियो तुलसी सों कहौं जग कैन अनैसो ।—तुलसी ग्र० पृ० १९८ । (ख) पापिन परम ताड़का ऐसी । मायाविनि ग्राति अदय अनैसी ।—पद्माकर(शब्द०) ।
⋙ अनैसे
क्रि० वि० [हिं० अनैस] अनिच्छापूर्वक । बुरे भाव से । बुरी तरह से । उ०—(क) कह मुनि राम जाइ रिस कैसे । अजहुँ अनुज तव चितव अनैसे । ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) छोरि छोरि बाँधों पाग आरस सों आरसी लै अनत ही आन भाति देखत अनैसे हो ।—केशव० ग्र०, भा० १, पृ० १२५ ।
⋙ अनैहा पु
संज्ञा पुं० [हिं० अनैस] उत्पात । उपद्रव । उ०—जा कारण सुन सुत सुदंर वर कीन्हों इती अनैहो । सोइ सुधाकर देखि दमोदर या भाजन में है, हो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अनोअन्न पु
वि० [हि०] दे० 'अन्योन्थ' । उ०—छटा ज्यों विछूटै भुजे सेल छूटै । खगे अंग तूटै अनोअन्न खूटै ।—रा० रु० पु० ४९० ।
⋙ अनोकशायी
संज्ञा पुं० [सं० अनोकशायिन्] जो घर में न सोता हो [को०] ।
⋙ अनोकह
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो अपना स्थान न छोड़े । २. पेड़ । वृक्ष ।
⋙ अनोख पु
वि० [हिं०] दे० 'अनोखा' । उ०—औ उकतै मुकतैं उलही कखि रोष अनोष धरी चतुराई ।—इतिहास, पु० २८२ ।
⋙ अनोखा
वि० [अ० (उच्चा०) सं० नवक; अप० णवख] [वि० स्त्री० अनोखि], [संज्ञा अनोखापन] १. अनुठा । निराला । विलक्षण । विचित्र । अदूभुत । २. नुतन । नया । ३. सुन्दर । खूबसूरत । उ०—उप अनोखो अतिथि को अतिथ्य में चुपचाप । दे दिया उससे हृदय भी शीघ्र अपने आप ।—शकुं०, पु० ८ ।
⋙ अनोखापन
संज्ञा पुं० [हि० अनोखा+पन (प्रत्य०)] १. अनूठापन । निरालापन विलक्षणता । २. नूतनत्व । नयापन । ३. सुंदरता । खूबसूरती ।
⋙ अनोट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनवट' । उ०—देखि करोट सु ऐंचि अनोट जगाइ लै ओट गए गिरिधारी । —भिखारी० ग्रं०, भा०१, पृ० १०५ ।
⋙ अनोदन
वि० [सं०] बिना भोजन के । निराहार [को०] ।
⋙ अनोदयनाम
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मत के अनुसार वह पाप कर्म जिसके उदय से मनुष्य की बात कोई नहीं मानता ।
⋙ अनोपम पु
वि० [हिं०] दे० 'अनुपम' । उ०—सुंदर भाल विसाल अलक सम माल अनोपम । हित प्रकाश म्रदुहास अरुण वारिज मुख ओपम । —रा० रु०, पृ० २ ।
⋙ अनोसर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० अन+ सं अवसर] १. वह समय जब वैष्णव धर्मावलंबी मूर्तियों का शयन कराते हैं । २. एकांत स्थान । सूना स्थान । उ०—अनोसर करि आम कछूक आरोगे । —दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २१ ।
⋙ अनौचित्य
संज्ञा पुं० [सं०] उचित बात का अभाव । अनुपयुक्तता ।
⋙ अनौजस्य
संज्ञा पुं० [सं०] पराक्रम या शक्ति का अभाव [को०] ।
⋙ अनौट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अनवट' । उ०—बिछिया अनौट बाँक घूघरी जराइ जरी, जेहरी छबीली छुद्रघंटिका की जालिका । —केशव० ग्रं० ।
⋙ अनौद्धत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. उच्छृंखलता या दर्प का न होना । २. नम्रता । ३. शांति । (नदी के जल का) ऊँचा न होना । ऊपर न उठना [को०] ।
⋙ अनौधि पु
अव्य० [सं० अनवधि] शीघ्र । जल्दी । तुरत ।
⋙ अनौपम्य
वि० [सं०] जिसकी उपमा न दी जा स के । बेजोड़ [को०] ।
⋙ अनौरस
वि० [सं०] १. जो विवाहिता पत्नी से उत्पन्न न हो । जो औरस संतान न हो, अवैध । २. गोद लिया हुआ (पु्त्र) [को०] ।
⋙ अन्नंभट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] तर्कसंग्रह के रचयिता ।
⋙ अन्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाद्यपदार्थ । २. अनाज । नाज । धान्य । दाना । गल्ला । ३. पकाया हुआ अन्न । भात । यौ०—अन्नकूट । अन्नजल । पक्वान्न । अन्नराशि । ४.वह जो सबका भक्षण या ग्रहण करे । ५. सूर्य । ६. विष्णु । ७.पृथ्वी । ८. प्राण । ९. जल । मु०—अन्न मिट्टी होना—खाना पीना हराम होना । उ०—जेहि दिन वह छेकै गढ़ घाटी । होइ अन्न ओही दिन माटी । —जायसी (शब्द०) ।
⋙ अन्न (२) पु
वि० [सं० अन्य प्रा०—अष्ण] दूसरा । विरुद्ध । पर । उ०— जो विधि लिखा अन्न नहिं होई । कित धावै कित रोवै कोई ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अन्नकाल
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन करने का समय । अन्न ग्रहण करने का समय [को०] ।
⋙ अन्नकिट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्नमल' [को०] ।
⋙ अन्नकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न का पहाड़ या ढेंर । उ०— गोबर्धन सिर तिलक चढ़ायौ, मेटि इंद्रं ठकुराइ । अन्नकूट ऐसो रचि राख्यौ, गिरि की उपमा पाइ । —सूर०, १० ।८३२ । २. एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यंत यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं ।
⋙ अन्नकोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न रखने का स्थान या कोठरी । २. गंज । गोला । बखार ।
⋙ अन्नकोष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्नकोष्ठ' [को०] ।
⋙ अन्नगंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्नगन्धि] अतिसार की व्याधि [को०] ।
⋙ अन्नगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्न की प्रणाली या गति [को०] ।
⋙ अन्नछेत्र †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्नसत्र' ।
⋙ अन्नजल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दाना पानी । खाना पीना । खानपान । जैसे,—तुम्हारे यहाँ हम अन्नजल नहीं ग्रहण करेंगें (शब्द०) । क्रि० प्र०—त्यागना या छोड़ना = उपवास करना । २. आबदाना । जीविका । क्रि० प्र०—उठना = जीविका छूटना । जैसे,—अब यहाँ से हमारा अन्न जल उठ गया' (शब्द०) । ३. संयोग । इत्तफाक । जैसे,—जहाँ का अन्न जल होगा वहाँ चले ही जायँगे (शब्द०) ।
⋙ अन्नजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की हिचकी । विशेष—'माधवनिदान' के अनुसार अन्न और पानी का बहुत अधिक सेवन करने से वायु अकस्मात् कुपित होकर ऊर्ध्वगामी हो जाती है जिससे यह हिचकी होती है ।
⋙ अन्नजीवी
संज्ञा पुं० [सं० अन्नजीविन्] वह जो केवल अन्न खाकर जीवनयापन करता है । केवल अन्न पर पलनेवाला जीव [को०] ।
⋙ अन्नथा पु
वि० [सं० अन्यथा] दे० 'अन्यथा' । उ०—कृत करण अन्नथा करण । सगले ही थोके समरत्थ । —वेलि०, दू०, पृ० १३७ ।
⋙ अन्नद
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अन्नदा] अन्नदाता । प्रतिपालक । रक्षक । पोषक ।
⋙ अन्नदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा । २. अन्नपूर्णा [को०] ।
⋙ अन्नदाता
संज्ञा पुं० [सं० अन्नदातृ] [स्त्री० अन्नदात्री] १. अन्न दान करनेवाला । २. पोषक । प्रतिपालक ।
⋙ अन्नदास
संज्ञा पुं० [सं०] वह नौकर जो केवल भोजन पर कार्य करता है [को०] ।
⋙ अन्नदोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न से उत्पन्न विकार । जैसे, दूषित अन्न खाने से रोग इत्यादि का होना । २. निषिद्ध स्थान या व्यक्ति का अन्न खाने से उत्पन्न दोष या पाप ।
⋙ अन्नद्रवशूल
संज्ञा पुं० [सं०] पेट का वह दर्द जो सदा बना रहे, चाहे अन्न पचे या न पचे और जो पथ्य करने पर भी शांत न हो । लगातार बनी रहनेवाली पेट की पीड़ा ।
⋙ अन्नद्वेष
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अन्नद्वेषी] अन्न में रुचि न होना । भोजन में अरुचि । भूख न लगना ।
⋙ अन्नपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न का स्वामी । २. शिव । ३. अग्नि । ४. सूर्य [को०] ।
⋙ अन्नपाक
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि पर या पेट में अन्न का पाचन [को०] ।
⋙ अन्नपाकस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पाकस्थली' ।
⋙ अन्नपूरना पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अन्नपूर्णा' । उ०—जौलों देवी द्रवै न भवानी अन्नपूरना । —तुलसी ग्रं०, पृ० २३५ ।
⋙ अन्नपूर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्न की अधिष्ठात्री देवी । दुर्गा का एक रूप । ये काशी की प्रधान देवी हैं ।
⋙ अन्नपूर्णेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अन्नपूर्णा । २. तंत्रोक्त एक भैरवी का एक नाम [को०] ।
⋙ अन्नप्रलय
वि० [सं०] मरणोपरांत शरीर का अन्न रुप में परिवर्तित होना [को०] ।
⋙ अन्नप्राशन
संज्ञा पुं० [सं०] बच्चों को पहले पहल अन्न चटाने का संस्कार । चटावन । पेहनी । पसनी । विशेष—स्मृति के अनुसार छठे या आठवें महीने बालक को और पाँचवें सातवें महीने बालिका को पहले पहल अन्न चटाना चाहिए ।
⋙ अन्नप्रासन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्नप्राशन' । उ०—नामकरण सु अन्नप्रासन वेद बाँधी नीति । —तुलसी ग्रं०, पृ० ४२६ ।
⋙ अन्नमयकोश
संज्ञा पुं० [सं०] वेदांत के अनुसार पंचकोशों में से प्रथम । अन्न से बना हुआ त्वचा से लेकर वीर्य तक का समुदाय । स्थूल शरीर । बौद्धशास्त्रानुसार रूपस्कंद । उ०— अन्नमयकोश सुतौ पिंड है प्रकट यह प्रानमय कोश पंचवायु हू वषानिये । —सुंदर ग्रं०, पृ० ५९८ ।
⋙ अन्नमल
संज्ञा पुं० [सं०] १. यव आदि अन्नों से बनी शराब । २. मल । विष्टा ।
⋙ अन्नराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्न की ढेरी । गंज ।
⋙ अन्नविकार
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न का परिवर्तित रूप । अन्न पचने से क्रमश? बने हुए रस, रक्त मांस, मज्जा, चरबी, हड्डी और शुक्र आदि ।
⋙ अन्नव्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] पारस्परिक भोजन या खानपान का व्यवहार [को०] ।
⋙ अन्नशेष
संज्ञा पुं० [सं०] बचा हुआ भोजन । उच्छिष्ट [को०] ।
⋙ अन्नसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] देवतादि के कार्यों में अन्न का प्रयोग । देवकार्य में अन्नोत्सर्ग [को०] ।
⋙ अन्नसत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ भूखों को भोजन दिया जाता है । अन्नक्षेत्र । लंगर ।
⋙ अन्ना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० * अग्निक, प्रा० *अत्रिअ> अत्रा] १.वह छोटी अँगीठी या बोरसी जिसमें सुनार सोना आदि रखकर भाथी के द्वारा तपाते या गलाते हैं ।
⋙ अन्ना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बा या अल्ला=माँ अथवा देश० दाई] धात्री । दूध पिलानेवाली स्त्री ।
⋙ अन्नाकाल
संज्ञा पुं० [सं०] अनाकाल । दुर्भिक्ष [को०] ।
⋙ अन्नाद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सब को ग्रहण करे । ईश्वर । २. विष्णु के सहस्त्र नामों में से एक ।
⋙ अन्नाद (२)
वि० अन्न खानेवाला । अन्नाहारी ।
⋙ अन्नाम पु
वि० [हिं०] दे० 'अनाम' । उ०—इह सु नाम अन्नाम । जेन नामह घर जाइय । —पृ० रा०, ३३ ।१९ ।
⋙ अन्नि पु
वि० [हिं०] दे० 'अन्य' । उ०—ग्रहंत अन्नि एक पंति, उर्द्ध जात तथ्थयं । —पृ० रा०, ५८ ।२४१ ।
⋙ अन्नित पु
वि० [हिं०] दे० 'अनीति' । उ०—हूँ नीति जानि अन्नित न करि । —पृ रा०, ३५ ।३ ।
⋙ अन्य
वि० [सं०] दूसरा । और कोई । भिन्न । गैर । पराया । उ०—असुर सुर नाग नर यक्ष गंधर्व खग रजनिचर सिद्ध ये चापि अन्ये । —तुलसी ग्रं०, पृ० ४८७ । यौ.—अन्यजात । अन्यमनस्क । अन्यान्य । अन्योन्य ।
⋙ अन्यक
वि० [सं०] दे० 'अन्य' [को०] ।
⋙ अन्यकारुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मल का कीड़ा [को०] ।
⋙ अन्यक्रीत
वि० [सं०] दूसरे का खरीदा हुआ ।
⋙ अन्यग
वि० [सं०] दूसरे की स्त्री के साथ गमन करनेवाला । व्यभिचारी [को०] ।
⋙ अन्यगामी
वि० [सं० अन्यागामिन्] दे० 'अन्यग' [को०] ।
⋙ अन्यचित्त
वि० [सं०] जिसका मन अन्यत्र लगा हो । अन्यमनस्क [को०] ।
⋙ अन्यच्च
क्रि० वि० [सं०] और भी ।
⋙ अन्यजात
वि० [सं०] खोई हुई या नष्ट (वस्तु) ।
⋙ अन्यत्
वि० [सं०] दे० 'अन्य' ।
⋙ अन्यत?
क्रि० वि० [सं० अन्यतस्] १. किसी और से । २. किसी और स्थान से । कहीं और से ।
⋙ अन्यतम
वि० [सं०] जिसकी तुलना में और कोई न हो । सर्वश्रेष्ठ । सबसे बड़ा [को०] ।
⋙ अन्यतर
वि० [सं०] दूसरा । भिन्न । दो में से एक ।
⋙ अन्यतस्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु । दुश्मन । प्रतिपक्षी [को०] ।
⋙ अन्यतोपाक
संज्ञा पुं० [सं०] दाढ़ी, कान, भौं इत्यादि में वायु का प्रवेश होने के कारण आँखो की पीड़ा ।
⋙ अन्यत्र
वि० [सं०] और जगह । दूसरी जगह । उ०—ता नृप कौ परमातम मित्र । इक छिन रहत न सो अन्यत्र । —सूर० ४ ।१२ ।
⋙ अन्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] परायापन । भिन्नता ।
⋙ अन्यत्वभावना
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनशास्त्रानुसार जीवात्मा को शरीर से भिन्न समझना ।
⋙ अन्यथा (२)
वि० [सं०] १. विपरीत । उलटा । विरुद्ध । और का और । २. असत्य । झूठा । उ०—किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्र श्राप अति घोर । —मानस, १ ।१७४ ।
⋙ अन्यथा (१)
अव्य० नहीं तो । जैसे,—आप समय पर आइए अन्यथा हमसे भेंट न होगी (शब्द०) ।
⋙ अन्यथाकारिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विपरीत या विरुद्ध करने की प्रवृत्ति । उ०—हा! होती है प्रकृति रुचि में अन्यथाकारिता भी । —प्रिय० प्र०, पृ० २१९ ।
⋙ अन्यथाचार
संज्ञा पुं० [सं०] अनुचित या विपरीत कार्य । विरुद्ध आचरण । उ०—तब उसका परिणाम अन्यथाचार के अतिरिक्त क्या होना है । —प्रेमघन०, भा०२, पृ० ३१६ ।
⋙ अन्यथानुपपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी वस्तु के अभाव में किसी दूसरी वस्तु की उपपत्ति या अस्तित्व की असंभावना । विशेष—जैसे, मोटा देवदत्त दिन को नहीं खाता; इस कथन से इस बात का अनुमान होता है या प्रमाण मिलता है कि देवदत्त रात को खाता है क्योंकि बिना खाए मोटा होना असंभव है । न्याय में यह अनुमान के अंतर्गत और मीमांसा में अर्थापत्ति प्रमाण के अंतर्गत है ।
⋙ अन्यथाभाव
संज्ञा पुं० [सं०] विरोधात्मक भाव या विचार । भिन्न रूप में होना [को०] ।
⋙ अन्यथावाही
संज्ञा पुं० [सं० अन्यथावाहिन्] अर्थशास्त्रानुसार बिना चुंगी या महसूल दिए ही माल ले जानेवाला ।
⋙ अन्यथासिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] न्याय में एक दोष जिसमें यथार्थ नहीं किंतु और कोई कारण दिखाकर किसी बात की सिद्धि की जाय । असंबद्ध कारण से सिद्धि । जैसे,—कहीं कुम्हार, दंड या गधे को देखकर यह सिद्ध करना कि वहाँ घट है ।'
⋙ अन्यदा
अव्य० [सं०] १. दूसरे समय । दूसरे अवसर पर । २. एक दिन । एकबार । एक समय । ३. किसी समय । कभी [को०] ।
⋙ अन्यदीय
वि० [सं०] अन्य का । दूसरे से संबंधित । उ०—अन्यदीय इच्छा के द्वारा उसका संचालन नहीं होता । —संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ११८ ।
⋙ अन्यदुर्वह
वि० [सं०] जो दूसरे के वहन करने योग्य न हो । दूसरे के लिये कठिन [को०] ।
⋙ अन्यदेशीय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अन्यदेशीया] विदेशी । दूसरे देश का परदेशी ।
⋙ अन्यधी
वि० [सं०] जिसका विचार ईश्वर के पक्ष में न हो । ईश्वर को न माननेवाला [को०] ।
⋙ अन्यनाभि
वि० [सं०] दूसरे वंशवाला [को०] ।
⋙ अन्यपर
वि० [सं०] अन्य विषयक । दूसरे के बारे में [को०] ।
⋙ अन्यपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूसरा आदमी । गैर । २. व्याकरण में पुरुषवाची सर्वनाम का तीसरा भेद । वह पुरुष जिसके संबंध में कुछ कहा जाय । यह दो प्रकार है—निश्चयात्मक जैसे 'यह', 'वह' और अनिश्चयात्मक जैसे 'कोई' ।
⋙ अन्यपुष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अन्यपुष्टा] वह जिसका पोषण अन्य के द्वारा हो । कोकिल । कोयल । काकपाली । विशेष—ऐसा कहा जाता है कि कोयल अपने अंडों को सेने के लिये कौवों के घोसलों में रख आती है ।
⋙ अन्यपूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कन्या जो एक को ब्याही जाकर या वाग्दत्ता होकर फिर दूसरे से ब्याही जाय । इसके दो भेद हैं— पुनर्भू और स्वैरिणी ।
⋙ अन्यबीजज
संज्ञा पुं० [सं०] दत्तक पुत्र [को०] ।
⋙ अन्यबीजसमुद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्यबीजज' [को०] ।
⋙ अन्यबीजोत्पन्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्यबीजज' [को०] ।
⋙ अन्यभृत् (१)
वि० [सं०] दूसरे का पलन करनेवाला [को०] ।
⋙ अन्यभृत् (२)
संज्ञा पुं० काक । कौआ [को०] ।
⋙ अन्यभृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोयल [को०] ।
⋙ अन्यमन
वि० [सं० अन्यमनस्] अनमना । उदास । चिंतित ।
⋙ अन्यमनस्क
वि० [सं०] जिसका जी कहीं न लगता हो । उदास । चिंतित । अनमना । उ०—किंतु अन्यमनस्क होकर वह टहलने ही लगी ।—कानन०, पृ० १८ ।
⋙ अन्यमानस
वि० [सं०] दे० 'अन्यमनस्क' [को०] ।
⋙ अन्यमातृज
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरी या सौतेली माता से उत्पन्न । सौतेला भाई [को०] ।
⋙ अन्यमार्गी
वि० [सं० अन्यमार्गिन्] दूसरा मत या धर्म माननेवाला । उ०—अन्यमार्गी कौ अहसान मोल लियो । —दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ३१८ ।
⋙ अन्यर्हि
अव्य० [सं०] किसी अन्य समय (को०) ।
⋙ अन्यवादी
वि० [सं० अन्यवादिन्] १. झूठी गवाही देनेवाला । २. प्रतिवादी [को०] ।
⋙ अन्यवाप
संज्ञा पुं० [सं०] कोयल [को०] ।
⋙ अन्यविवर्धित
वि० [सं०] जिसका पालन दूसरे द्वारा किया गया हो [को०] ।
⋙ अन्यव्रत
वि० [सं०] अन्यधर्मानुगामी । अनार्य । विशेष—अनार्यों की अपनी भाषाएँ थी जो आर्यों को अजीब सी मालूम होती थीं । आर्यों ने उनको अन्यव्रत इत्यादि कहा है जिससे जाहिर होता है कि उनको धर्म, देवता, नियम इत्यादि पृथक् थे ।
⋙ अन्यशाख
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जिसने अपना धर्म त्याग दिया हो (को०) ।
⋙ अन्यशाखक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्यशाख' [को०] ।
⋙ अन्यसंक्रांत
वि० [सं० अन्यसङ् क्रान्त] दूसरी स्त्री सबंध कर लेनेवाला [को०] ।
⋙ अन्यसंगम
संज्ञा पुं० [सं० अन्यसङ्गम] अवैध यौनसंबंध [को०] ।
⋙ अन्यसंभूयक्रय
संज्ञा पुं० [सं० अन्यसम्भूक्रय] थोक का दूसरा दाम जो पहले दाम पर न बिकने पर लगाया जाय । विशेष—चंद्रगुप्त के समय बहुत से पदार्थ ऐसे थे जिन्हें राज्य ही बेचता था ।
⋙ अन्यसंभोगदु?खिता
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्यसम्भोगदु?खिता] वह नायिका जो अन्य स्त्री में संभोग के चिह्न देखकर और यह जान— कर कि इसने हमारे पति के साथ रमण किया है, दु?खित हो ।
⋙ अन्यसाधारण
वि० [सं०] बहुतों में पाया जानेवाला [को०] ।
⋙ अन्यसुरतिदु?खिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अन्यसंभोगदु?खिता' । उ०—अन्यसुरतिदुखिता कहौ, करे पेच—रिस—तेह ।—मतिराम ग्रं०, पृ० २९२ ।
⋙ अन्याइ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्याय' । उ०—सुनि पावै नीवन कौ राइ । तौ यह होइ बड़ो अन्याइ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४४ ।
⋙ अन्याई (१)
पु—संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्याय' । उ०—सेए नाहिं चरन गिरिधर के बहुत करी अन्याई । —सूर० १ ।१४७ ।
⋙ अन्याई (२) पु
वि० [हिं०] दे० 'अन्यायी' । उ०—या ब्रज में लरिका घने हौंही अन्याई । —तुलसी ग्रं०, पृ०४३० ।
⋙ अन्याउ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्याय' । उ०—जे अन्याउ करहिं काहू को ते सिसु मोहिं न भावहिं । —तुलसी ग्रं०, पृ० ४३२ ।
⋙ अन्यादृश
वि० [सं०] १. दूसरे प्रकार का । २. परिवर्तित [को०] ।
⋙ अन्यापदेश
संज्ञा पुं० [सं०] वह कथन जिसका अर्थ साधर्म्य के विचार से कखित वस्तुओं के अतिरिक्त दूसरी वस्तुओं पर घटाया जाय । अन्योक्ति । जैसे,—हे पिक पंचम नाद को नहिं भीलन को ज्ञान । यहै रीझिबो मान तू जो न हनै हिय बान । यहाँ कोकिल और भील की बात कहकर मूर्ख दुर्जनों और गुणियों का स्वभाव दिखाया गया है ।
⋙ अन्यापेक्षी
वि० [सं० अन्यापेक्षिन्] दूसरे का आसरा रखनेवाला । दूसरे का अवलंब लेनेवाला । उ०—वह मूलत? एक उन्मुख भाव है, अन्यापेक्षी भाव जो दूसरे की उपस्थिति से ही रसावस्था तक पहुँचना है । —नदी०, पृ० २५६ ।
⋙ अन्याय
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अन्यायी] १. न्याय के विरुद्ध आचरण । अनीति । बेइंसाफी । २. अंधेर । अन्यथाचार । ३. जुल्म ।
⋙ अन्यायी (१)
वि० [सं० अन्यायिन्] अन्यथाचारी । अनुचित कार्य करनेवाला दुराचारी । जालिम ।
⋙ अन्यायी (२)
वि० [सं०] न्याय के प्रतिकूल । अनुचित ।
⋙ अन्यारा पु
वि० [सं० अ=नहीं+हिं० न्यारा] १. जो पृथक् या जुदा न हो । २. अनोखा । निराला । ३. खूब । बहुत । बढ़ै बस जग माह अन्यारा । छत्र धर्म धुर को रखवारा ।— लाल० (शब्द०) ।
⋙ अन्यारी पु
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'अनियारा' । उ०—काम झूलै उर में उरोजन में दाम झूलै, स्याम झूलै प्यारी की अन्यारी अँखियान में । —पद्माकर, ग्रं०, पृ० ३२१ ।
⋙ अन्यार्थ
वि० [सं०] प्रस्तुत अर्थ से भिन्न अर्थ प्रकट करनेवाला [को०] ।
⋙ अन्याव पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्याय' । उ०—देवनि हूँ देव परिहरयो अन्याव न तिनको, हौ अपराधी सब केरो । —तुलसी ग्रं०, पृ० ५९३ ।
⋙ अन्याश्रित
वि० [सं०] दूसरे पर निर्भर या अवलंबित [को०] ।
⋙ अन्यास पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अनायास' । उ०—दास भनि काहे को अन्यास दरसावती भयावनी भुअंगिनी सी बेनी लौटि लौटि है । —भिखारी०, ग्रं०, पृ० १७४ ।
⋙ अन्यासाधरण
वि० [सं०] असाधारण । असामान्य । विचित्र [को०] ।
⋙ अन्यून
वि० [सं०] जो न्यून न हो । जो कम न हो । काफी । बहुत ।
⋙ अन्येद्यु?
क्रि० वि० [सं०] [वि० अन्येद्युक] दूसरे दिन ।
⋙ अन्येद्यु?ज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वह ज्वर जो बीच में एक एक दिन का अंतर देकर चढ़े । एकतरा ज्वर । अँतरिया बुखार ।
⋙ अन्येद्युष्क (१)
वि० [सं०] दूसरे दिन होनेवाला ।
⋙ अन्येद्युष्क (२)
संज्ञा पुं० दे० 'अन्वेद्युज्वर' ।
⋙ अन्योका
वि० [सं० अन्योकस्] अपने घर में न रहनेवाला [को०] ।
⋙ अन्योक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कथन जिसका अर्थ साधर्म्य के विचार से कथित वस्तु के अतिरिक्त अन्य वस्तु पर घटाया जाय । अन्यापदेश । जैसे,—केती सोम कला करो, करो सुधा को दाना नहीं चंद्रमणि जो द्रवै, यह तेलिया पखान । यहाँ चंद्रमा और तेलिया पत्थर के बहाने गुणी और अगुणग्राही अथवा सज्जन और दुर्जन की बात कही गई है । रुद्रट आदि दो एक आचार्यों ने इसको अलंकार माना है ।
⋙ अन्योदर्य
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अन्योदर्या] दूसरे के पेट से पैदा । सहोदर का उलटा ।
⋙ अन्योन्य (१)
सर्व० [सं०] परस्पर । आपस में ।
⋙ अन्योन्य (२)
संज्ञा पुं० वह काव्यालंकार जिसमें दो वस्तुओं की किसी क्रिया या गुण का एक दुसरे के कारण उत्पन्न होना वर्णन किया जाय । जैसे—सर की शोभा हंस हो, राजहंस की ताल करत परस्पर हैं सदा गुरुता प्रकट विशाल ।
⋙ अन्योन्यभेद
संज्ञा पुं० [सं०] आपसी बैर । शत्रुता [को०] ।
⋙ अन्योन्यविभाग
संज्ञा पुं० [सं०] पैतृक संपत्ति का पारस्परिक बँटवारा [को०] ।
⋙ अन्योन्यवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पारस्परिक या आपसी प्रभाव [को०] ।
⋙ अन्योन्यव्यतिकर
संज्ञा पुं० [सं०] कार्य और कारण का पारस्परिक संबंध [को०] ।
⋙ अन्योन्यसंश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्योन्यव्यतिकर' [को०] ।
⋙ अन्योन्याभाव
संज्ञा पुं० [सं०] किसी एक वस्तु का दूसरे वस्तु न होना । जैसे—घट पट नहीं हो सकता और पट घट नहीं हो सकता ।
⋙ अन्योन्याश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. परस्पर का सहारा । एक दूसरे की अपेक्षा । २. न्याय में एक वस्तु के ज्ञान के लिये दूसरी वस्तु के ज्ञान की अपेक्षा । सापेक्ष ज्ञान । जैसे—सर्दी के ज्ञान के लिये गर्मी के ज्ञान की, और गर्मी के ज्ञान के लिये सर्दी के ज्ञान की आवश्यकता है ।
⋙ अन्वक्
क्रि० वि० [सं०] १. बाद में । पीछे से । २. मैत्री से । अनुकूलता से [को०] ।
⋙ अन्वक्ष (१)
वि० [सं०] १. प्रत्यक्ष । साक्षात् । २. पीछ या बाद का (को०) ।
⋙ अन्वक्ष (२)
क्रि० वि० १. सामने । २. पीछे । बाद । उपरांत ।
⋙ अन्वय
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अन्वयी] १. परस्पर । तारतम्य । २. संयोग । मेल । ३. पद के शब्दों को वाक्यरचना के नियमा- नुसार यथास्थान रखने का कार्य । जैसे—पहले कर्ता फिर कर्म और फिर क्रिया । ४. अवकाश । खाली स्थान । ५. वंश । कुल । घराना । खानदान । ६. भिन्न भिन्न वस्तुओं को साधर्म्य के अनुसार एक कोटि में लाना । जैसे,—चलने फिरनेवाले मनुष्य, बैल, कुत्ता आदि को जंगम के अंतर्गत मानना । ७. कार्य कारण का संबंध । ८. अनुगमन (को०) । ९. आशय (को०) ।
⋙ अन्वयज्ञ
वि० [सं०] वंशपरंपरा का ज्ञाता [को०] ।
⋙ अन्वयव्यतिरेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सहमति और असहमति । संगति और असंगति । २. नियम और अपवाद [को०] ।
⋙ अन्वयव्यतिरेकसंबंध
संज्ञा पुं० [सं० अन्वयव्यतिरेकसम्बन्ध] दो वस्तुओं का वह वह संबंध जिसमें एक के होने पर दुसरी का होना तथा दुसरी के न होनेपर पहली का न होना निर्भर करता है । जैसे, दंड और चक्र तथा घड़े का संबंघ । 'दंड' और चक्र के रहने पर ही घड़े का बनना', यहाँ दंड और चक्र का घड़े के बनने से अन्वय संबंध है । साथ है दंड और चक्र के अभाव में घड़े का न बनना यहाँ दंड और चक्र के अभाव का घ़ड़े के न बनने से व्यतिरेक संबंध है ।
⋙ अन्वयव्याप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] निश्चय या स्वीकारात्मक तर्क [को०] ।
⋙ अन्वयागत
वि० [सं०] जो वंशपरंपरा से चला आ रहा हो । वंशानुगत [को०] ।
⋙ अन्वयार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] अन्वय से व्यक्त होनेवाला अर्थ [को०] ।
⋙ अन्वयी
वि० [सं० अन्वयिन्] १. अन्वययुक्त । २. संबंद्ध । ३. एक ही वंश का ।
⋙ अन्वर्थ
वि० [सं०] अर्थ के अनुसार । २. सार्थक । अर्थयुक्त ।
⋙ अन्ववकिरण
संज्ञा पुं० [सं०] यथा क्रम उचित ढंग से चारो ओर बिखेरना [को०] ।
⋙ अन्ववचार
संज्ञा पुं० [सं०] पीछे की ओर जाना तथा अनुकरण करना [को०] ।
⋙ अन्ववसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढीला करना । २. इच्छानुकूल व्यवहार या कामचार की आज्ञा [को०] ।
⋙ अन्ववसायी
वि० [सं० अन्ववसायिन्] १. संबंध रखनेवाला । २. निर्भर । आश्रित [को०] ।
⋙ अन्ववसित
वि० [सं०] संलग्न । संबद्ध [को०] ।
⋙ अन्ववाय
संज्ञा पुं० [सं०] जाति । वंश । कुल [को०] ।
⋙ अन्ववेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लिहाज । ख्याल । विचार [को०] ।
⋙ अन्वष्टका
संज्ञा स्त्री० [सं०] साग्नियों के लिये एक मात्रिक श्राद्ध जो अष्टका के अंनतर पूस, माघ, फागुन और क्वार की कृष्ण पक्ष की नवमी को होता है ।
⋙ अन्वाख्यान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्वकथन की व्याख्या । २. खंड । अध्याय । पर्व [को०] ।
⋙ अन्वाचय
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रधान या मुख्य काम करने के साथ साथ किसी अप्रधान काम को भी करने की आज्ञा । जैसे,— भिक्षा के लिये जाओ और यदि रास्ते में गाय मिले तो उसे भी हाँकते लाना । २. उक्त प्रकार का कार्य या विषय (को०) ।
⋙ अन्वादेश
संज्ञा पुं० [सं०] किसी को एक कार्य के किए जाने पर पुन? दूसरा कार्य करने का आदेश या उपदेश । जैसे,—इसने व्याकरण पढ़ा है अब इसको साहित्य पढ़ाओ ।
⋙ अन्वाधान
संज्ञा पुं० [सं०] अग्न्याधआन के उपरांत अग्नि को बनाए रखने के लिये उसमें ईंधन छोड़ने की क्रिया ।
⋙ अन्वाधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह आधि या प्रतिभु धन जो किसी के हाथ में इसलिये दिया जाय कि वह इसे अमुक (तीसरे) व्यक्ति को दे दे । २. पशचात्ताप । ग्लानि । व्यथा ।
⋙ अन्वाधेय
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह के पीछे धन स्त्री को उसके पिता या पति के घर से मिले ।
⋙ अन्वाधेयक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्वाधेय' [को०] ।
⋙ अन्वाध्य
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का एक वर्ग [को०] ।
⋙ अन्वाय
संज्ञा पुं० [सं०] अर्थशास्त्र के अनुसार सेना के किसी एक अंग की अधिकता ।
⋙ अन्वायन
संज्ञा पुं० [सं०] वह सामान जो वधू अपने पिता के घर से लाई हो ।
⋙ अन्वारंभ
संज्ञा पुं० [सं० अन्वारम्भ] आशीर्वाद देने के लिये यजमान की पीठ का स्पर्श [को०] ।
⋙ अन्वारंभण
संज्ञा पुं० [सं० अन्वारम्भण] दे० 'अन्वारंभ' ।
⋙ अन्वारूढ़
वि० [सं० अन्वारूढ़] पीछे चलनेवाला ।
⋙ अन्वारोहण
संज्ञा पुं० [सं०] पति के शव के साथ या उसके बाद चिता पर चढ़ना [को०] ।
⋙ अन्वालंभन
संज्ञा पुं० [सं० अन्वालम्भन] मुठिया । मूठ [को०] ।
⋙ अन्वालभन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्वालंभन' [को०] ।
⋙ अन्वासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्चन । सेवा । आराधन । २. दूसरे के बाद आसन ग्रहण करना । ३. दु?ख । पश्चात्ताप । ४. उद्योग का स्थआन । कारखाना । ५. तेल का या ठंढा एनिमा स्नेहवस्ति [को०] ।
⋙ अन्वाहार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरोहित को यज्ञ में दी जानेवाली दक्षिणा या भोजन । २. दे० 'अन्वाहार्यश्राद्ध' [को०] ।
⋙ अन्वाहार्यक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्वाहार्य' [को०] ।
⋙ अन्वाहार्य श्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] मासिक श्राद्ध । वह सपिंड श्राद्ध जो अमावस्या के समीप किया जाता है । दर्शश्राद्ध ।
⋙ अन्वाहिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अन्वाहिकी] दैनिक । रोजमर्रा [को०] ।
⋙ अन्वाहित (१)
वि० [सं०] स्मृति के अनुसार (द्रव्य) जो एक के यहाँ अमानत रखा हो और उसे किसी और के यहाँ रख दे ।
⋙ अन्वाहित (२)
संज्ञा पुं० निक्षेप या न्यास के धन को एक महाजन के यहाँ से उठाकर दूसरे के यहाँ रखने का विधान ।
⋙ अन्वित
वि० [सं०] १. युक्त । सहित । शामिल । मिला हुआ । २. समझा या विचारा हुआ । (को०) । ३. उचित । योग्य । उपयुक्त (को०) । ४. संबंद्ध [को०] ।
⋙ अन्वितार्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अन्वय से निकलनेवाला अर्थ ।
⋙ अन्वितार्थ (२)
वि० अन्वय से युक्त या पूर्ण अर्थ रखनेवाला [को०] ।
⋙ अन्विति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विभिन्न अंगों की परस्पर संबद्धता । परस्पर सामंजस्य । उ०—यही कारण है कि उनकी रचनाओं में उस अन्विति (Unity) का सर्वथा अभाव रहता है जिसके बिना कला की कोई कृति खड़ी ही नहीं हो सकती ।— चिंतामणि, भा०२, पृ० ९९ ।
⋙ अन्विष्ट
वि० [सं०] अन्वेषित । इच्छित । आकांक्षित [को०] ।
⋙ अवीक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ध्यान से देखना । गौर । विचार । २. खोज । तलाश । अनुसंधान ।
⋙ अन्वीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अन्वीक्षण' ।
⋙ अन्वीत
वि० [सं०] दे० 'अन्वित' [को०] ।
⋙ अन्वीय
वि० [सं०] १. पानी के समीप का । पानी के पास स्थित । २. मैत्रीपूर्ण [को०] ।
⋙ अन्वेष
संज्ञा पुं० दे० 'अन्वेषण' (को०) ।
⋙ अन्वेषक
वि० [सं०] [स्त्री० अन्वेषिका] खोजनेवाला । तलाश करने वाला । अनुसंधान करनेवाला [को०] ।
⋙ अन्वेषण
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अन्वेषण, वि० अन्वोषइत, अन्वेषी, अन्वेष्टा] अनुसंधान । खोज । ढूँढ़ । तलाश ।
⋙ अन्वेषित
वि० [सं०] खोजा हुआ । ढूँढ़ा हुआ ।
⋙ अन्वेषी
वि० [सं० अन्वेषिन्] [स्त्री० अन्वोषिणी] खोजलवाला । तलाश करनेवाला ।
⋙ अन्वेष्टव्य
वि० [सं०] दे० 'अन्वेष्य' । [को०] ।
⋙ अन्वेष्टा
वि० [सं० अन्वेष्टृ] [स्त्री० अन्वेष्ट्री] खोजनेवाला । तलाश करनेवाला ।
⋙ अन्वेष्य
वि० [सं०] अन्वेषण के योग्य [को०] ।
⋙ अन्हरा पु †
वि० [सं० अंध; प्रा० अंधल] अंधा । नेत्रहीन । सूर । उ०—जो कुछ रहा से अन्हरे भाखा, कठवै कहेसि अनूठी । बचा रहा सो जोलहा कहिगा, अब जो कहैं सो झूठे । — प्रमेघन०, भा०२, पृ० ३९९ ।
⋙ अन्हवाना पु
क्रि० सं० [हिं० अन्हाना का प्रे रु०] स्नान कराना । नहलाना । उ०—(क) बंद करत पूजा हरि देखत । घंट बजाइ देव अन्हवायौ, दल चंदल लै भेटत ।—सूर०, १० ।२६१ । (ख) रामचरित सर बिन अन्हवाएँ ।—मानस, १ ।११ ।
⋙ अन्हवैया पु
वि० [हिं० अन्हाना+ वैया (प्रत्य०)] स्नान करानेवाला । नहानेवाला । उ०—भरत, राम, रिपुदवन, लखन के चरित सरित अन्हवैया ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २७९ ।
⋙ अन्हान पु
संज्ञा पुं० [सं० स्नान; प्रा० ण्हाण, अण्हान, नहान] दे० 'स्नान' । उ०—कै मज्जन तब किएउ अन्हानू । पहिरे चीर गएउ छपि भानू ।—जायसी ग्रं० ।
⋙ अन्हाना पु