विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/अव
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ अवंड
वि० [सं० अवण्ड (गौ)] जो पुच्छरहित न हो [को०] ।
⋙ अवंति
संज्ञा स्त्री० [सं० अवन्ति] दे० 'अवंती' ।
⋙ अवंतिका
संज्ञा स्त्री० [दे० अवन्तिका] दे० 'अवंती' ।
⋙ अवंती
संज्ञा स्त्री० [सं० अवन्ती] १. मध्यदेशांतर्गत मालवा का एक नगर जिसे आजकल उज्जैन कहते हैं । यह सप्तपुरियों में से एक है । २. एक नदी ।
⋙ अवंश (१)
वि० [सं०] वंशहीन । निपूता । अपुत्र । नि?संतान ।
⋙ अवंश (२)
संज्ञा पुं० नीचा कुल या वंश ।
⋙ अव (१)
उप० [सं०] एक उपसर्ग । यह शब्द जिसमें लगता है उसमें निम्नलिखीत अर्थों की योजना करता है—१. निश्चय, जैसे अवधारण । २. अनादर; जैसे अवज्ञा । अवमान । ३. ईषत्; न्यूनता या कमी; जैसे अवहनन । अवधात । ४. निचाई बा गहराई; जैसे—अवतार । अवक्षेप । ५. व्याप्ति; जैसे— आकाश । अवगाहन ।
⋙ अव (२) पु
अव्य० [सं० अपि, प्रा० अपि] और ।
⋙ अवकर
संज्ञा पुं० [सं०] धुल । कूड़ा [को०] ।
⋙ अवकर्णन
संज्ञा पुं० [सं०] सुनना । कान देना [को०] ।
⋙ अवकर्त
संज्ञा पुं० [सं०] टुकड़ा । भाग । खंड [को०] ।
⋙ अवकर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विभाजन । २. युद्धक्षेत्र [को०] ।
⋙ अवकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] बलपूर्वक किसी पदार्थ का एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाना । खींच ले जाना ।
⋙ अवकलन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि०अवकलित] १. इकट्टा करके मिला देना । २. देखना । जानना । ३. ज्ञान । ४. ग्रहण ।
⋙ अवकलना
क्रि० स० [सं० अवकलन=ज्ञात होना] ज्ञात होना । समझ पड़ना । विचार में आना । उ०—केहि विधि होइ राम अभिषेकू । मोहि अवकलत उपाउ न एकू ।—मानस, २ ।२५२ ।
⋙ अवकलित
वि० [सं०] १. देखा हुआ । दुष्ट । २. ज्ञात । जाना हुआ । ३. गृहीत । संगृहीत । ४. इकट्ठा करके मिलाया हुआ । ५. दृष्ट । बदमाश [को०] ।
⋙ अवकल्कन
संज्ञा पुं० [सं०] एक साथ मिलाना । गड्डमगड्ड करना [को०] ।
⋙ अवका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शैवाल । सेवार ।
⋙ अवकाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थान । जगह । उ०—बिनु विज्ञान कि समता आवै । कोउ अवकाश कि नभ बिनु पावै ।—तुलसी (शब्द०) । २. आकाश । अंतरिक्ष । शून्य स्थान । उ०— नभ शत कोटि अमित अवकाश ।—तुलसी (शब्द०) । ३. दूरी । अंतर । फसिला । क्रि० प्र०— पड़ना । ४. अवसर । समय । मौका । उ०—हो जो अवकाश तुम्हें ध्यान कभी आवे मेरा, अहो प्राणप्यारे, तो कठोरता न कीजीए ।— झरना, पृ० ४३ ।५. खाली वक्त । फुर्सत । छुट्टी । उ०— मरण है अवकाश जीवन कार्य ।—साकेत, पृ० १९४ ।६. जगह । जमीन । विशेष—चाणक्य ने अनवसित संधि प्रकरण में अवकाश शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया है ।
⋙ अवकास पु
संज्ञा पुं० [सं०अवकाश] अवसर । समय । मौका । उ०—संपा को प्रकास, बक अबलोको अवकास, बूढनि बिकास दास देखिबे कों या समैं ।—भिखारी ग्रं०, भा०२, पृ० २८ ।
⋙ अवकिरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवकीर्ण, अवकुष्ट] १. विखरना । फैलाना । छितराना । २. कूड़ा करकट (को०) ।
⋙ अवकीर्ण (१)
वि० [सं०] १. फैलाया हुआ । छितराया हुआ । बिखेरा हुआ । २. ध्वस्त । नष्ट किया हुआ । नष्ट । ३. चूर चूर किया हुआ ।
⋙ अवकीर्ण (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्माचर्य का नाश । ब्रह्मचारी का स्त्रीसंसर्ग द्वारा व्रतभंग । यौ०—अवकीर्ण याग=एक याग जो उस ब्रह्मचारी के लिय़े प्रायश्चित रूप कर्तव्य कहा गया है जिसने अपना ब्रह्मचर्य नष्ट कर दिया हो । इसमें उस जंगल में जाकर चतुष्पथ में काने गधे को मारकर पाकयज्ञ के विधान से निऋक्ति देवता के लिये यज्ञ करना पड़ता है ।
⋙ अवकीर्णी
संज्ञा पुं० [सं० अबकीर्णिन्] वह ब्रह्मचारी जिसका ब्रह्मचर्य ब्रत भंग हो गया हो । नष्टब्रह्मचर्य ।
⋙ अवकीर्णों
वि० ब्रह्मचर्य व्रत से च्युत या रखलित (को०) ।
⋙ अवकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] खूँटी [को०] ।
⋙ अवकुंचन
संज्ञा पुं० [सं० अवकुञ्चन] १. समेटना । बटोरना । २. एक प्रकार का रोग [को०] ।
⋙ अवकुंठन
संज्ञा पुं० [सं० अवकुण्ठन] १. घेरना । पाटना । ढँकना । २. आकृष्ट करना । खींचना । ३. दे० अवगुंठन [को० ।
⋙ अवकुटार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विरुपता । रूप की विकृति [को०] ।
⋙ अवकुटार (२)
वि० बहुत गहरा [को०] ।
⋙ अवकृट्टित (१)
वि० [सं०] छिन्न । कटा हुआ [को०] ।
⋙ अवकुत्सित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] निंदा । दोष [को०] ।
⋙ अविकुत्सित (२)
वि० जिसकी निंदा की गई हो । निंदित [को०] ।
⋙ अवकृपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृपा का अभाव । नाखुशी । उदासीनता ।
⋙ अवकृष्ट (१)
वि० [सं०] १. दूर किया हुआ । निकाला हुआ । २. निग- लित । नीचे उतारा हुआ । ३. नीच । नीच जाति का ।
⋙ अवकृष्ट (२)
संज्ञा पुं० घर में झाड़ु लगानेवाला । दास ।
⋙ अवकेश
वि० [सं०] लटकते हुए बालोंवाला [को०] ।
⋙ अवकेशी (१)
वि० [सं० अवकेशिन्] १. फल न देनेवाला । २. लघ या अल्प बालोंवाला [को०] ।
⋙ अवकेशी (२)
संज्ञा पुं० फलहीन वृक्ष [को०] ।
⋙ अवकोकिल
वि० [सं०] कोयल की आवाज से आकर्षित [को०] ।
⋙ अवकखन पु
संज्ञा पुं० [सं० अवेक्षण] देखना ।
⋙ अवक्तव्य
वि० [सं०] १. न कहने योग्य । २. निषिद्ध । ३. अश्लील । ४. मिथ्या । झूठ ।
⋙ अवक्त्र
वि० [सं०] जो खुला न हो । बिना मुँह का—जैसे, बरतन या फोड़ा [को०] ।
⋙ अवक्रंद
वि० [सं० अवक्रन्द] दे० 'अवक्रंदन' ।
⋙ अवक्रंदन
संज्ञा पुं० [सं० अवक्रन्दन] ऊँचे स्वर से रोना [को०] ।
⋙ अवक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. उतराव । नीचे की ओर उतरना ।
⋙ अवक्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीचे की तरफ उतरना । २. बोद्ध और जैन धर्म के मतानुसार गर्भ में आना [को०] ।
⋙ अवक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बदला । २. मूल्य । दाम । ३. भाड़ा । किराया । ४. कर ।
⋙ अवक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० अवक्रान्ति] १. अधोगमन । उतार । गिराव । २. झुकाव ।
⋙ अवक्रीतक (१)
वि० [सं०] माँगकर लिया हुआ । मँगनी लिया हुआ । विशेष—प्रवक्रीतक वस्तु न लौटानेवाले के लिये याचितक के समान ही दंडविधान था ।
⋙ अवक्रीतक (२)
संज्ञा पुं० किराए या भाड़े पर लिया हुआ माल ।
⋙ अवक्रोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्कश स्वर । असह्य कड़ी बोली । २. कोसना । गाली । ३. निंदा ।
⋙ अवक्लिन्न
वि० [सं०] आर्द्र । गीला । तर । भीगा हुआ ।
⋙ अवक्लेद
संज्ञा पुं० [सं०] जलस्राव [को०] ।
⋙ अवक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] क्षय । नाश । हानि [को०] ।
⋙ अवक्षिप्त
वि० [सं०] १. गिरा हुआ । २. जिसकी निंदा की गई हो । जिसपर लांछन लगाया गया हो ।
⋙ अवक्षुत
वि० [सं०] जिसपर छींक पड़ गई हो ।
⋙ अवक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. आपत्ति । २. आरोप [को० ।
⋙ अवक्षेपण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवक्षिप्त] १. गिराना । अध?पात करना । नीचे फेंकना । विशेष—वैशेषिक शास्त्र में यह अपक्षेपण, आकुंचन आदि पाँच कर्मों या क्रियाओं में से एक है । २. आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रकाश, तेज या शब्द की गति में उसके किसी पदार्थ में होकर जाने से वक्रता का होना । ३. निंदा करना (शब्द०) । ४. पराभूत । करना या पछाड़ना [को०] ।
⋙ अवक्षेपणी
संज्ञा स्त्री० (सं०) बाग । लगाम [को०] । ४३
⋙ अवखंडन
संज्ञा पुं० [सं० अवखण्डन] १. नष्ट करना । तोड़ फोड़ करना । २. खंड खंड अलग अलग तोड़ना [को०] ।
⋙ अवखात
संज्ञा पुं० [सं०] गहरा गड़ढ़ा ।
⋙ अवखाद
संज्ञा पुं० [सं०] अपवित्र या खराब भोजन । २. अनुपयुक्त नैवेद्य [को०] ।
⋙ अवगंड
संज्ञा पुं० [सं० अवगण्ड] चेहरे या गालों पर होनेवाली फुड़िया या फुंसी । मुँहाँसा [को०] ।
⋙ अवण
वि० [सं०] १. स्वजनों से अलग रहनेवाला । एकांतवासी [को०] ।
⋙ अवगणन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवगणित] १. निंदा । तिरस्कार । अपमान । २. नीचा देखना । पराभव । पराजय । हार । ३. गिनती ।
⋙ अवगणना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अवगणन' ।
⋙ अवगणित
वि० [सं०] १. निंदित । तिरस्कृत । अपमानित । २. नीचा देखा हुआ । पराजित । ३. गिना हुआ ।
⋙ अवगत
वि० [सं०] १. विदित । ज्ञात । जाना हुआ । उ०—"वह मुझे भली भाँति अवगत है" ।—चंद्र० पृ० २१५ । क्रि० प्र०—होना=मालूम होना । जान पड़ना । २. नीचे गया हुआ । गिरा हुआ । ३. वादा किया हुआ [को०] ।
⋙ अवगतना पु
क्रि० स० [सं० अवगत+ हिं० ना (प्रत्य०)] [प्रे० रुप, अवगताना] सोचना । समझना । विचारना । उ०—मास मास नहिं करि सकै छठै मास अलबत्ति ।—यामैं ढील न कीजिये कबीर अवगति ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अवगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुद्धि । धारणा । समझा । २. कुगति । नीच गति । ३. निश्चयात्यमक ज्ञान ।
⋙ अवगथ
वि० [सं०] प्रात?स्नात । तड़के नहाया हुआ [को०] ।
⋙ अवगनना पु †
क्रि० अ० [सं० अवगणन] १. निंदा करना । तिर- स्कार करना । २. तुच्छ समझना । कम या घटिया समझना । ३. कम मूल्य या महत्व आँकना या लगाना ।
⋙ अवगम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवगमन' [को०] ।
⋙ अवगमन
संज्ञा पुं० [सं०] देख सुनकर किसी बात का अभिप्राय जान लेना । जानना समझना । २ दे० 'अवगति' ।
⋙ अवगर पु
वि० [सं० अवग्रह=ज्ञान] [वि० स्त्री० अवगरी] ज्ञान या समझबुझवाला ।
⋙ अवगलित
वि० [सं०] नीचे गिरा हुआ [को०] ।
⋙ अवगहना
क्रि० स० [सं० अवगाहन] थहाना । थाह लेना ।
⋙ अवगाढ़
वि० [सं० अवगाढ़] १. निविड़ । छिपा हुआ । २. प्रविष्ट । घसा हुआ । निमग्न । ३. नीचा । गहरा [को०] । ४. जमता या गाढ़ा होता हुआ—जैसे, खून [को०] ।
⋙ अवगाद
संज्ञा पुं० [सं०] नाव से पानी उलीचने के लिये काठ का एक छोटा पात्र [को०] ।
⋙ अवगाधना पु
क्रि० [हिं०] दे० 'अवगाहना' ।
⋙ अवगारना पु
क्रि० स० [सं० अव+ गृ] समझना । बुझाना । जताना । उ०—कहा कहत रे मधु मतवारे । हम जान्यो यह श्याम सखा है यह औरे न्यारे ।........सूर कहा याके मुख लागत कौन यहि अवगारे ।—सूर० (शब्द०) ।
⋙ अवगास पु
संज्ञा पु० [सं० अवकाश, प्रा० ओगास] जगह । स्थान । मैदान । उ०—भए अवगास काँस बन फुले । कंत न फिरे बिदेसहिं भूले ।—जायसी ग्र०, पृ० ३५६ ।
⋙ अवगाह (१) पु
वि० [सं० अवगाध] १. अथाह । गहरा । अत्यंत गंभीर । उ०—(क) पेम समुद जो अति अवगाहा । जहाँ न वार न पार न थाहा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ६० ।२. अनहोनी । कठिन । उ०—तोरेहु धनुष ब्याहुअ वगाहा । बिनु तोरे को कुँआरि बिआहा ।—मानस, १ ।२४५ ।
⋙ अवगाह (२) पु
संज्ञा पुं० १. गहरा स्थान । २. संकट का स्थान । ३. कठिनाई । उ०—दस्तगीर गाढ़े कई साथी । जँह अवगाह दीन्ह तहँ हाथी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अवगाह (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भीतर प्रवेश । हलना । २. जल में हलकर स्नान करना । ३. स्नान करने की जगह [को०] । ४. डोल या बालटी [को०] । ५. भलीभाँति अध्ययन या छानबीन [को०] ।
⋙ अवगाहक
वि० [सं०] अवगाहन करनेवाला । उ०—अवगाहक सा उतर अचेतन के निस्तल में ।—रजत०, पृ० १८ ।
⋙ अवगाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी में हलकर स्नान करना । निमज्जन । उ०—शीतल जल में अवगाहन कर शैल शिला पर बैठ गया ।—प्रमे०, पृ० ३१ । प्रवेश । पैठ । ३. मंथन । बेलोड़न । ४. थहाना । खोज । छानबीन । जैसे-नगर भर अवगाहन कर डाला, कहीं लड़के का पता न लगा । ५. चित्त धँसाना । लीन होकर विचार करना । जैसे—खूब अवगाहन करो, तब इस श्लोक का अर्थ खुलेगा । वि० दे० 'अवगाह' ।
⋙ अवगाहना (१)
क्रि० अ० [सं० अवगाहन] १. हलकर नहाना । निमज्जन करना । उ०—जे सर सरित राम अवगाहहिं । तिन्हहिं देव सर सरित सराहहिं ।-तुलसी (शब्द०) । २. डूबना । पैठना । धँसना । मग्न होना । उ०—भूप रूप गुन सील सराही । रोवहिं सोक सिंधु अबगाही ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अवगाहना (२)
क्रि० सं० १. थहाना । छानना । छानबीन करना । उ०—अवगाहन, सीतहि चाहन, यूथप यूथ सबै पठाए ।-राम चं०, पृ० ९० । (ख) सहज सुगंधि शरीर की, दिसी विदिसन अबगाहि । दूती ज्यों आई लिये, केशव शूर्पनखाहि ।-केशव (शब्द०) । २. विचलित करना । हलचल डालना । मथना । उ०—सुनहु सूत तेहि काल, भरत तनय रिपु मृतक लखि । करि उर कोप कराल, अवगाही सेना सकल ।—केशव (शब्द०) । ३. चलाना । हिलाना । डुलाना । उ०—नद सोक विषाद कुसाग्र ग्रसैं करि धीरहि तें अवगाहनो है । हित दीनदयाल महा मृदु है कठिनो अति अंत निबाहनो हैं ।-दीन ग्रं०, पृ २५८ ।४. सोचना । विचारना । समझना । उ०— (क) अंगसिंगार स्याम हित कीन्हे, वृथा होन ये चाहत । सूर स्याम आपैं की नाहिं, मन मन यह अवगाहत ।—सूर०, १० । २०२८ । (ख) पच्छिम में याही में बड़ो है राजहंस एक सदा नीर छीर के विवेक अवगाहे ते ।—दूलह (शब्द०) । ५. धारण करना । ग्रहण करना । उ०—जाही समय जौन ऋतु आवै । तबही ताको गुन अवगाहै ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ अवगाहित
वि० [सं०] १. नहाया हुआ । २. जिसमें नहाया गया हो । ३. अच्छी तरह मनन किया गया ।
⋙ अवगाही
वि० [सं० अवगाहिन्] १. खोजनेवाला । अनुसंधान करनेवाला । २. चिंतन करनेवाला । ३. थाह लगानेवाला । गहरे तक पैठनेवाला । ४. स्नान करनेवाला [को०] ।
⋙ अवगाह्य
वि० [सं०] स्नान करने योग्य (प्राणी) । २. स्नान के निमित्त उचित (स्थान) । ३. अध्ययन, मनन करने योग्य [को०] ।
⋙ अवगीत (१)
वि० [सं०] १. जिसकी निंदा की गई हो । निंदित । २. बदमाश । दुष्ट । फिर फिर देखा हुआ । सुपारिचित [को०] ।
⋙ अवगीत (२)
संज्ञा पुं० १. निंदा ।२. निंद्य या अभद्र गीत । बेसुरा गीत [को०] ।
⋙ अवगुंठन
संज्ञा पुं० [सं० अवगुण्ठ] [वि० अवगुंठित] १. ढँकना । छिपाना । २. रेखा से घेरना । ३. पर्दा । ४. घूँघट । बुर्का । ५. झ़ाड़ु [को०] । ६. धार्मिक अनुष्ठआनों में प्रयुक्त अँगुलियों की एक मुद्रा [को०] ।
⋙ अवगुंठनपती
वि० स्त्री० [सं० अवगुण्ठनवती] घूँघटवाली । उ०— किंतु वह अर्ध अवगुंठनवतो कौन ?—इरावती, पृ० १०१ ।
⋙ अवगुंठिका
संज्ञा पुं० [सं० अवगुंण्ठिक] १. घूँघट । २. जवनिका । पर्दां । ३. चिक ।
⋙ अवगुंठित
वि० [सं० अवगुण्ठित] ढँका हुआ । छिपा हुआ । २. चुर किया हुआ । चूर्णित [को०] ।
⋙ अवगुंडित
वि० [सं० अवगुण्डित] चुर्ण किया हूंआ [को०] ।
⋙ अवगुंफन
संज्ञा पुं० [सं० अवगुम्फन] १. गूथना । गुहना । २. ग्रंथन । बुनना ।
⋙ अवगुंफित
वि० [सं० अवगुम्फित] १. गूँथा हुआ । गुहा हुआ । २. बुना हुआ । ग्रथित ।
⋙ अठागुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोष । दूषण । ऐब । २. अपराध । बुराई । खोटाई ।
⋙ अठागुन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अवगुण' । उ०—गुन अवगुन जानत सब कोई, जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ।—मानस, १ ।५ ।
⋙ अठागुरण
संज्ञा पुं० [सं०] धमकाना । क्षति पहुँचाने की धमकी देना [को०] ।
⋙ अठागूहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. छिपाना । २. आलिंगन करना [को०] ।
⋙ अठागोरण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवगुण' [को०] ।
⋙ अठाग्गी
वि० [सं०] नियंत्रण' में न रहनेवाला [को०] ।
⋙ अठाग्या पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अवज्ञा' । उ०—तौ कहि इती अवग्या उन्ह पै, कैसे सही परी ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३३९ ।
⋙ अपग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुकावट । अटकाव । अड़चन । बाधा । २. वर्षा का अभाव । अनावृष्टि । ३. बाँध । बंद । ४. व्याकरण में संधिविच्छेद । ५. अनुग्रह का उलटा । ६. गजसमूह । ७. हाथी का ललाट । हाथी का माथा । ८. स्वभाव । प्रकृति । ९. शाप । कोसना । १०. लुप्ताकार का चिह्न । खंडाकार (s) [को०] । अकुंश [को०] ।
⋙ अवग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनादर । अवमान । अपमान । २. रोक । बाधा [को०] । ३. ज्ञान [को०] ।
⋙ अवग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] १. संबंधीविच्छेद । अलगाव । २. बाधा [को०] । ३. कोसना [को०] । दे० 'अवग्रह' ।
⋙ अवघट पु
वि० [सं० अव + घट्ट=घाट] कुघाट । अटपट । अड़बड़ । विकट । दुर्गम । कठिन । दुर्धट । उ०—(क) सरिता बन गिरि अवघट घाटा । पति पहिटानि देहीं बर बाटा ।—मानस, ३ ।७ (१क) । (ख) घाट घाट अवघट यमुना तट बातें कहत बनाय । कोऊ ऐसी दान लेत है कौने सिखै पठाय ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अवघट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिल । गुफा । २. पीसने की चक्की । ३. हिलाना [को०] ।
⋙ अवघट्टन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीसना । मर्दन । २. दो वस्तुओं का परस्पर संपर्क । मिलन [को०] ।
⋙ अवघर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] घसना । माँजना । रगड़ना [को०] ।
⋙ अवघाटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हार [को०] ।
⋙ अवघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोट । ताड़न । घन । प्रहार । २. कूटना [को०] । ३. अकाल मृत्यु । अस्वाभाविक मृत्यु [को०] ।
⋙ अवघाती
वि० [सं० अवघातिन्] अवघात करनेवाला [को०] ।
⋙ अवघूर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बवंडर [को०] ।
⋙ अवघूर्ण (२)
वि० क्षुब्ध [को०] ।
⋙ अवघूर्णन
संज्ञा पुं० [सं०] चक्कर काटना । बवंडर [को०] ।
⋙ अवघोरित
वि० [सं०] चारों ओर से ढँका या मढा हुआ [को०] ।
⋙ अवघोषक
संज्ञा पुं० [सं०] झुठी खबरें उड़ानेवाला व्यक्ति । विशेष—चंद्रगुप्त मौर्य के समय में ऐसे लोगों को फाँसी पर चढ़ाने का दंड़ दिया जाता था ।
⋙ अवघोषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोषणा [को०] ।
⋙ अवच
क्रि० वि० [सं०] नीचे [को०] ।
⋙ अवचट (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० अव=नहीं+ हिं० घट=जल्दी अथवा सं० अव=थोड़ा+ हिं० चित] अनजान । अचक्का । उ०—पानि सरोज सोह जयमाला । अवचट चितए सकल भुआला ।— मानस, १ ।२४८ ।
⋙ अवचट (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] कठिनाई । अवघट । अंडस । चपुकुलिस । जैसे—अवचट में पड़कर मनुष्य क्या नहीं करता ।
⋙ अवचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वचन का अभाव । नौन । २. बुरा वचन । निंदा । दुर्वचन ।
⋙ अवचनीय
वि० [सं०] १. जो कहने योग्य नहीं । २. अश्लील । फुहड़ ।
⋙ अवचय
संज्ञा पुं० [सं०] चुनकर इकट्ठा करना । फुल या फल तोड़कर बटोरना । उ०—नया नया उल्लास कुसुम अवचय का मन में उठता था ।—प्रेम०, पृ० १७ ।
⋙ अवचल पु †
वि० [सं० अविचल] अचल । —उ०—पुहमी जोड़ अवचल प्रेम ।—रघु०, रू० पृ० १२४ ।
⋙ अवचस्कर
वि० [सं०] मौन । चुप [को०] ।
⋙ अवचाय
संज्ञा पुं० [सं०] फूल फल आदि चुनना [को०] ।
⋙ अवचार (१)
वि० [सं०] नीचे या ऊपर की ओर जाता हुआ [को०] ।
⋙ अवचार (२)
संज्ञा पुं० १. रास्ता । सड़क । २. कार्यक्षेत्र [को०] ।
⋙ अवचित
वि० [सं०] १. चुना हुआ । बटोरा हुआ । २. आबाद [को०] ।
⋙ अवचूड़
संज्ञा पुं० [सं० अवचुड] ध्वजा के अगले भाग में नीचे झूलना हुआ वस्त्र [को०] ।
⋙ अवचूड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० अवचूड़] माला [को०] ।
⋙ अवचूटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] टिप्पणी । लघु व्याख्या [को०] ।
⋙ अवचूरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अवचुरि] टीका । टिप्पणी ।
⋙ अवचूर्णित
वि० [सं०] १. विचूर्ण किया हुआ । भलीभाँति पीसा हुआ । २. मिश्रित किया हुआ । मिलाया हुआ [को०] ।
⋙ अवचूल
संज्ञा पुं० [सं०] अंवचूड़ [को०] ।
⋙ अवचूलक
संज्ञा पुं० [सं०] चँवरी गाय की पूँछ के बाल या मोरपंख का बना हुआ चँवर [को०] ।
⋙ अवचेतन (१)
वि० [सं०] अवचेतना संबंधी । आंशिका चेतनावाला ।
⋙ अवचेतन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] मनोविज्ञान के अनुसार मन का वह भाग जो चेतन मन में न होने पर भी थोड़ा प्रयास करने से चेतना में लाया जा सके । इसका स्थान अहं तथा अचेतन के बीच माना गया है ।
⋙ अवचेतना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अवचेतन' ।
⋙ अवच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] ढकना । सरपोश ।
⋙ अवच्छाद
संज्ञा पुं० [सं०] ढकना । अवच्छद [को०] ।
⋙ अवच्छिन्न
वि० [सं०] १. जिसका किसी अवच्छेदक पदार्थ से अवच्छेद किया गया हो । अलग किया हुआ । पृथक् । २. विशेषयुक्त । ३. सीमित ।
⋙ अवच्छुरित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कठोर या कर्कश हास्य [को०] ।
⋙ अवच्छुरित (२)
वि० मिला जुला । मिश्रित [को०] ।
⋙ अवच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवच्छेद, अवच्छित्र] १. अलगाव । भेद । २. इयत्ता । हद । सीमा । ३. अवधारण । निश्चय । छानबीन । ४. संगीत में मृदंग के बारह प्रबंधों में से एक । ५. परिच्छेद । विभाग । ६. किसी वस्तु का वह गुण या धर्म जिससे अन्य पदार्थ पृथक् प्रतीत हों [को०] । ७. व्याप्ति [को०] ।
⋙ अवच्छेदक (१)
वि० [सं०] १. छेदक । भेदकारी । अलग करनेवाला । २. इयत्ताकार । हद बाँधनेवाला । ३. अवधारक । निश्चय करनेवाला ।
⋙ अवच्छेदक (२)
संज्ञा पुं० १. विशेषण । २. सीमा । इयत्ता [को०] ।
⋙ अवच्छेदकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अवच्छेद करने का भाव । पृथक् करने का धर्म । अलग करने का धर्म । २. हृद या सीमा बाँधने का भाव परिमिति ।
⋙ अवच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. काटना । विभाजन । खंड करना । २. सीमा निर्धारण करना [को०] ।
⋙ अवच्छेद्य
वि० (सं०) अलगाव के योग्य ।
⋙ अवच्छेपणी
संज्ञा पुं० (सं० अवक्षेपणी) दहाना । दाँती । लगाम ।
⋙ अवछंग पु
संज्ञा पुं० (सं० उत्पङ्ग) दे० 'उछग' ।
⋙ अवजय
संज्ञा स्त्री० (सं०) हार । पराजय [को०] ।
⋙ अवजित
वि० [सं०] हारा हुआ । विजित । तिरस्कृत [को०] ।
⋙ अवज्जि पु
संज्ञा पुं० [फा० आवाज] १. पुकार । आवाज । २. शोर- गुल । उ०—सुनी धाह जसवंत आयो सेन सुसज्जि । ढलकि ढाल बद्दल मिलिय, पुब्ब झड़ाउ अवज्जि । पृ० रा०, ४ ।२५ ।
⋙ अवज्ञा
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवज्ञात, श्रवज्ञेय] १.अपमान । आना- दर । २. आज्ञा का उल्लंघन । आज्ञा न मानना । अवहेला । ३. पराजय । हार । ४. वह काव्यालंकार जिसमें एक वस्तु के गुण या दोष से दूसरी वस्तु का गुण या दोष न प्राप्त करना दिख- लाया जाय; जैसे, —करि बेदांन विचार हू शठहि विराग न होय । रंच न मृदु मेनाक भो निशि दिन जल में सोय ।— (शब्द०) ।
⋙ अवज्ञात
वि० [सं०] अपमानित । तिरस्कृत ।
⋙ अवज्ञात
संज्ञा पुं० [सं०] अनादर । अप्रतिष्ठा [को०] ।
⋙ अवज्ञेय
वि० [सं०] अपमान के योग्य । तिरस्कार के योग्य ।
⋙ अवझरि पु
संज्ञा स्त्री० [प्रा० ओज्जरी] दे० 'ओझरी' । उ०—झक- झोरी तोरि अवझरि उजरि । गहि हमेल हम्मीर लिय ।— पृ० रा०, ६४ ।३३५ ।
⋙ अवझोरा पु
संज्ञा स्त्री० [प्रा० ओरुज्झान] उलझन । झंझट । गाँठ । उ०—चित्र बचित्र इहै अवझोरा । तजि चित्रै चितु राखि चितेरा ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३१० ।
⋙ अवट
संज्ञा पुं० [सं०] १. गड्ढ़ा । कुंड । २. हाथियों के फँसाने के लिये गड्ढा जिसे तृणादि से आच्छादित कर देते हैं । खाँड़ा । माला । ३. गले के नीचे कंधे और काँख आदि का गडढ़ा । ४. एक नरक का नाम । ५. दाँत का गड्ढा । दंतकोटर [को०] । ६. बाजीगर । ऐंद्रजालिक [को०] । यौ.—अवटनिरोधन, अवटविरोधन=निरकविशेष का नाम ।
⋙ अवटकच्छप
संज्ञा पुं० [सं०] १. गड्ढ़े के भीतर रहनेवाला कच्छप अर्थात् अज्ञानी मनुष्य [को०] ।
⋙ अवटना (१) पु
क्रि० स० [सं० आवर्त्तन, प्रा० आवट्टन, आट्टन] १. मथना । आलोड़न करना । २. किसी द्रव पदार्थ को आग पर रखकर चलाकर गाढ़ा करना । उ०—(क) परम धर्ममय पय दुहि भाई । अवटै अनल अकाम बनाई ।—मानस, ७ ।११७ । (ख) कान्ह माखन खाहु हम सु देखैं । सद्य दधि दूध ल्याई अवटि हम, खाहु तुम सफल करि जनम लेखै ।—सूर०, १० ।१५९६ । मुहा.—अवटि मरना=भ्रमना । मारे मारे फिरना । चक्कर खाना । दु?ख उठाना । उ०—जो आचरन बिचारहु मेरो कपल कोटि लगि अवटि तरौं । तुलसिदास प्रभु-कृपा-बिलोकनि गोपद ज्यों भवसिंधु तरौं ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५२९ ।
⋙ अवटना (१) पु
क्रि० अ० [सं० अटन] घूमना फिरना ।
⋙ अवटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गड्ढ़ा । २. कुआँ । ३. छेद [को०] ।
⋙ अवटीट
वि० [सं०] चपटी । नाकवाला । नकटिपटा ।
⋙ अवटु
संज्ञा पुं० १. बिल । २. कुआँ । ३. गलें का पिछला हिस्सा । ४. शरीर का दबा हुआ भाग । ५. एक प्रकार का वृक्ष ।
⋙ अवटुज
संज्ञा पुं० [सं०] सिर के पिछले भाग का बाल [को०] ।
⋙ अवडंग
संज्ञा पुं० [सं० अवडङ्ग] हाट । बाजार [को०] ।
⋙ अवडीन
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी की उड़ान । पक्षियों का ऊपर से नीचे की तरफ आना [को०] ।
⋙ अवडेर †
संज्ञा पुं० [सं० अब+ हिं० रार या राड़] झमेला । झंझट । बखेड़ा ।
⋙ अवडेरना पु (१)
क्रि० स० [सं० उद्वासन या हिं० अवडेर] १. न बसने देना । न रहने देना । उ०—भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि-तोषि थापि आपने न अवडेरिये ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २५६ ।२. चक्कर में डालना । फरे में डालना । उ०—(क) पंच कहे सिव सती बिबाही । पुनि अवडेरि मरा- एन्हि ताही ।—मानस, १ ।७९ ।
⋙ अवडेरा पु †
वि० [हिं० अबडेर] १. घुमाव फिराववाला । चक्करदार । २. बेढब । कुढब । उ०—जननी जनक तज्यो जनमि करम बिनु बिधिहु सुज्यो अवडेरे ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५७२ ।
⋙ अवढर पु
वि० [सं० अब+ हिं० ढरना] दे० 'ओढर' । उ०—(क) आसुतोष तुम्ह अवढर दानी । आरति हरहु दीन जनु जानी ।— मानस, २ ।४४ । (ख) लच्छ सौं बहु लच्छ दीन्हौं दान अवढर ढरन ।—सुर०, १ ।२०२ ।
⋙ अवतक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] टुकड़े में काटी गई कोई वस्तु [को०] ।
⋙ अवतत
वि० [सं०] १. ढाँका हुआ । आवृत । २. फैला हुआ । विस्तृत [को०] ।
⋙ अवतमस
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधारण अंधकार । क्षीण अंधकार । २. अंधकार । ३. अस्पष्टता । गुहयता [को०] ।
⋙ अवतण
संज्ञा पुं० [सं०] १. उतारना । पार होना । २. उतार । २. शरीर धारण करना । जन्म ग्रहण करना । ३. नकल । प्रति— कृति । ४. किसी पुस्तक या लेख का ज्यों का त्यों उतारा या नकल किया हुआ अंश । उद्धरण । उ०—ऊपर दिए अवतरणों में हम स्पष्ट देखते हैं कि किसी उक्ति की तह में.... काव्य की सरसता बराबर पाई जायगी ।—रस०, पृ० ३६ ।५. प्रादुर्भाव । ६. सीढ़ी जिससे उतरे । घाट की सीढ़ी । ७. घाट । ८. तीर्थ [को०] । ९. परिचय । उपोदघात [को०] । यौ०—अवतरणचिह्न । अवतरणमगल ।
⋙ अवतरणचिह्न
संज्ञा पुं० [सं०] उलटे लगे हुए विराम चिह्व जिनके बीच कीसी का कथन उदधृत किया गया हो; जैसे— ।
⋙ अवतरणमंगल
संज्ञा पुं० [सं० अवतरणमङ्गल] श्रद्धापूर्वक किया गया स्वागत [को०] ।
⋙ अवतरणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ग्रंथ की प्रस्तावना । उपोदघाता अवतरणी । २. परिपाटी । रीति ।
⋙ अवतरना पु
क्रि० अ० (सं० अवतरण) प्रकट होना । उपजना । जन्मना । उ०—(क) इच्छा रुप नारि अवतरी । तासु नाम गायत्री धरी ।—कबीर (शब्द०) । (ख) बहुरि हिमाचल कैं अवतरी । समय पाइ सिव बहुरौ बरी ।—सूर०, ४ ।५ ।
⋙ अवतरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ग्रंथ की प्रस्तावना के लिये भूमिका जो इस अभिप्राय से लिखी जाती है कि विषय की संगति मिल जाय । उपोदघात । २. रीति । परिपाटी ।
⋙ अवतरित
वि० [हि० अवतरना] १. नीचे आया हुआ । उतरा हुआ । उ०— अवतरित हुआ मै, आप उच्चफल जैसा ।—साकेत, पृ० २१८ ।२. जन्मा हुआ । शरीर ग्रहण किया हुआ । ३. किसी दूसरे स्थल से लिया हुआ । ४. अवतीर्गा ।
⋙ अवतर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] शांति प्रदान करनेवाला साधन । अनुकूल उपचार [को०] ।
⋙ अवताड़न
संज्ञा पुं० [सं० अवताड़न] १. रौद देना । कुचल देना । २. आघात करना या चोट देना [को०] ।
⋙ अवतान
संज्ञा पुं० [सं०] १. आच्छादन । आवरण ।२. लटका हुआ चेहरा । ३. धनुष की प्रत्यंचा ढीली करना । ४. तानना । कैलाना । ५. लताओं का फैलाव । ६. आतपत्र । चँदवा [को०] ।
⋙ अवतापी
वि० [सं० अवतापिन्] १. ताप देनेवाला । तपानेवाला । २. (स्थान) जो अधिक तप्त हो [को०] ।
⋙ अवतार
संज्ञा पुं० [सं०] १. उतरना । नीचे आना । २. जन्म । शरीरग्रहण । उ०—(क) नव अवतार दीन्ह विधि आजू । रही छार भइ मानुष साजू ।—जायसी (शब्द०) । (ख) प्रथम दच्छ गृह तव अबतारा । सती नाम तब रहा तुम्हारा ।— तुलसी (शब्द०) । ३. पुराणों के अनुसार किसी देवता का मनुष्यादि संसारी प्रणियों का शरीर धारण करना । ४. विष्णु का संसार में शरीर धारण करना । विशेष—पुराणानुसार विष्णु भगवान् के २४. अवतार है ।—ब्रह्मा, वाराह, नारद, नरनारायण, कपिल, दत्तात्रेय, यज्ञ, ऋषभ, पृथु, मत्स्य, कूर्म, धन्वंतारि, मोहिनी, नृसिह, वामन, परशुराम, वेदव्यास, राम, बलराम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि, हंस और हयग्रीव, इनमें से १० अर्थात् मत्स्य, कच्छप, वराह, नुसिह, वामन, परशु- राम, राम, कृष्णा, बृद्ध और कल्किप्रधान माने जाते है । ५. पु सृष्टि । शरीररचना । उ०—कीन्हेसि धरनी सरग पतारू । कीन्हेसि बरन बरन अवतारू । —जायसी (शब्द०) । ६. अवतरण भूमि । उतरने का स्थान [को०] । ७. तालाब [को०] । ८. अनुवाद [को०] । ९. बिषयप्रवेश । आमुख । भूमिका [को०] । १०. तीर्थ [को०] ।११. विशिष्ट व्याक्ति [को०] । १२. उत्पत्ति । विकास [को०] । मुहा.—अवतार लेना=शरीर ग्रहण करना । जन्म लेना । उ०— अंसन्ह सहित मनुज अवतारा । लेइहउँ दिनकर बंस—उदारा ।— तुलसी (शब्द०) । अवतार धरना= जन्म ग्रहण करना । उ०— भुव की रक्षा करन जु कारण धरि वराह अवतार । पीछे कपिल रूप हरि धारयो कीन्हो सांख विचार ।—सूर (शब्द०) पु अवतार करना पु= शरीर धारण करना । उ०—अरुन असित सित वपु उनहार । करत जगत में तुम अवतार ।.....सूर (शब्द०) । यौ०—अवतारकथा । अवतारमंत्र = भगवान् से अवतार ग्रहण करने के लिये की गई प्रार्थना । अवतारवाद ।
⋙ अवतारण
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अवतारणा] १. उतारना । नीचे लाना । उ०—क्रूर कर्मो की अवताणा से भी एक बार सद्धर्म के उठाने की आकांक्षा थी ।—स्कंद, पृ० ८४ ।२. उतारना । [को०] । ६. पूजा । अर्चा [को०] । ७. पोशक का छोर या किनारा [को०] ।
⋙ अवतारना पु
क्रि० सं० [सं० अवतारण] १. उत्पन्न करना । रचना । उ०—चाँद सग बिधि अवतार । दीन्ह कलंक कीन्ह उजियारा । —जायसी (शब्द०) । २. उतारना । जन्म देना । उ०—(क) सिघलदीप राजघरवारी । महा स्वरुप दई अवतारी ।—जायसी (शब्द०) । (ख) धन्य कोख जिहि तोकौं राख्यौ धनि घरि जिहि अवतारी । धन्य पिता माता तेरे छबि निरखाति हरि महतारी । —सूर० १० ।७०३ ।
⋙ अवतारवाद
संज्ञा पुं० [सं० अवतार + वाद] भगवान् का मनुष्य आदि का शरीर धारण करने का सिद्धात ।
⋙ अवतारी (१)
वि० [सं० अवतारिन्] १. अतरेवाला । अवतार ग्रहण करनेवाला । उ०—धनि यशुमति जिन बस किये अविनाशी अवतारि । धानि गोपी जिनके सदन माखन खात मुरारि ।— सूर (शब्द०) । २. देवांशधारी । अलौकिक । उ०—कहत ग्वाल जसुमति धनि मैया । बड़ो पूत तै जायौ । यह कोउ आहि पुरुष अवतारी भाग हमारै अयौ ।—सूर० १० ।२००९ ।
⋙ अवतारी (२)
संज्ञा पुं० २४. मात्राओं का एक छंद जिसके ७५०२५ प्रस्तार है । रोला, दिक्पाल, शोभा और लीला आदि इसके भेद है ।
⋙ अवतीर्ण
वि० [सं०] १. उतरा हुआ । अवतरित । २. अवूदित [को०] । ३. व्यातीत, जैसे रात्रि [को०] । ४. पार किया हुआ [को०] । ५. स्नात [को०] । ६. अवतार ग्रहण किया हुआ [को०] । ७. उदाहृत । उदधृत ।
⋙ अवतोका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री या गाय जिसका गर्भपात किसी दुर्घटनावश हो गाया हो [को०] ।
⋙ अवश्थ पु
वि० [सं० अवस्तु] निरर्थक । व्यर्थ । अवस्तु । उ०— तुम चित्त छंड़ि हम घर चलाहि । इह अवश्य पत्रंग ।—पृ० रा० ६६ ।३५६ ।
⋙ अवदंश
संज्ञा पुं० [सं०] मद्यपान के समय जो कबाब, बड़े आदि खाए जाते है । गजक । चाट ।
⋙ अवदंस पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अवदंश' ।
⋙ अवदग्ध
वि० [सं०] जला हुआ [को०] ।
⋙ अवदमन
संज्ञा पुं० [सं० अपदमन] अच्छी तरह दबाना । दमन करना ।
⋙ अवदरण
संज्ञा पुं० [सं०] तोड़ना फोड़ना । अच्छी तरह दरना या पीसना [को०] ।
⋙ अवदाघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. तपन । जलन । २. ग्रीष्म ऋतु [को०] ।
⋙ अवदात
वि० [सं०] १. शुभ्र । उज्वल । श्वेत । उ०—हँसी रानी सुनकर वह बात, उठी अनुपम आभा अवदात ।— साकेत, पृ० २७ ।२. शुद्ध । स्वच्छ । विमल । निर्मल । उ०—शोच आति पोच उर मोच दुखदानिए मातु यह बात अवदात मम मानिए ।—रामचं० पृ० ७४ ।३. शुक्ल वर्ण का । गौर । ४. पीत वर्ण का । पीला । ५. खूबसूरत । संदुर [को०] ।६. उत्तम । पुणयशील [को०] ।
⋙ अवदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रशस्त कर्म । २. शुद्ध आवरण । अच्छा काम । २. खंड़न । तोड़ना । ३. पराक्रम । शक्ति बल । ४. अतिक्रम । उल्लंघन । ५. शुद्ध करना । पवत्रि करना । साफ करना । ६. वीरणामूल । खस । उशीर । गाँड़रे की जड़ ।
⋙ अवदान्य
वि० [सं०] १. पराक्रमी । बली । २. अतिक्रमणकारी । सीमा का अतिक्रमण करनेवाला । ३. व्यय न करके घनसंचय करनेवाला । कंजुस ।
⋙ अवदारक (१)
वि० [सं०] विदारण करनेवाला । विभाग करनेवाला ।
⋙ अवदारक (२)
संज्ञा पुं० मिट्टी खोदने के लिये लोहे का एक मोटा ड़ंड़ा । खता । रंभा ।
⋙ अवदारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. विदारण करना । विभाग करना । २. तोड़ना । फोड़ना । ३. मिट्टी खोदने का औजार । रंभा । खंता ।
⋙ अवदारित
वि० [सं०] विदारण किया हुआ । विदीर्ण । ट्टा फूटा ।
⋙ अवदाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. अत्यधिक गर्मी । भषण ताप । २. आग लगाना । जलना । ३. कुश की ज़ड़ । खस [को०] ।
⋙ अवदीर्ण
वि० [सं०] १. विभक्त । टूटा हुआ । २. घबराया हुया उदास । ३. पिघला या घुला हुआ [को०] ।
⋙ अवदोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूध । दुग्ध । २. दूध दुहना । दोहन ।
⋙ अवद्य (१)
वि० [सं०] १. अधम । पापी । २. गर्हित । निद्य । ३. त्याज्य । ४. कुत्सित । निकृष्ट ।
⋙ अवद्य (२)
संज्ञा पुं० १. दोष ।२. पाप । ३. निंदा ४. लज्जा [को०] ।
⋙ अवध (१)
संज्ञा पुं० [सं० अयोध्या] १. कोशल । साकेत एक देश जिसकी प्रधान नगरी अयोध्या थी । २. अयोध्या नगरी ।
⋙ अवध पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अवधि] दे० 'अवाधि' ।
⋙ अवध (३)
वि० [सं०] अवध्य । न मारने योग्य [को०] ।
⋙ अवधान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मन का योग । चित्त का लगाव । मनोयोग । २. चित की वृत्ति का निरोध करके उसे एक ओर लगाना । समाधि । ३. ध्यान । सावधानी । चौकसी ।
⋙ अवधान (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० आधान] गर्भ । गर्भाधान । पेट । उ०— जैस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगसू ।— जायसी ग्रं, पृ० १९ ।
⋙ अवधानी
वि० पुं० [सं० अवधानतिल्] ध्यान रखनेवाला । ध्यानी [को०] ।
⋙ अवधार
संज्ञा पुं० [सं०] निश्चय । सीमा [को०] ।
⋙ अवधारक
वि० [सं०] अवधारण करनेवाला । किसी एक विषय पर अपने को केंद्रित करनेवाला [को०] ।
⋙ अवधारण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवघारित, अवधारणीय] १. विचारपूर्वक निधारिण करना । निश्चय । २. शब्दार्थ की इयत्ता । स्थिर करना [को०] । ३. शब्द आदि पर बल देना [को०] । ४. केवल विषय पर घ्यानस्थ होना [को०] ।
⋙ अवधारणीय
वि० [सं०] विचार करने योग्य । निश्चय योग्य ।
⋙ अवधारना पु
क्रि० सं० [सं० अबघारण] १. धारण करना । ग्रहण करना । उ—विप्र असीम विनित अवधारा । सुवा जीव नहिं करौ निरारा । जायसी (शब्द०) । २. निश्चय करना । समझना ।
⋙ अवधारित
वि० [सं०] निश्चित । निर्धारित ।
⋙ अवधार्य
वि० [सं०] निश्चय करने योग्य । आवधारण करने योग्य ।
⋙ अवधावन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीछा करना । २. साख करना । धोना [को०] ।
⋙ अवधावित
वि० [सं०] १. पीछा किया हुआ । जिसका पीछा किया गया हो । २. साफ किया हुआ [को०] ।
⋙ अवधि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीमा । हद । पराकाष्ठा । उ०— जिन्हहि बिरचि बड़ भयेउ बिधाता । महिमा अवधि राम पितु माता । —तुलसी (शब्द०) । २. निर्धरित समय । मीयाद । उ०—रहयौ ऐचि, अंतु न लहै अवाधि दुसासनि बीरु । आली बाढ़तु बिरहु ज्यौ पंचाली को वीर ।—बिहारी र०, दो० ४०० ।३. गड़ढा । गर्त [को०] । ४. प्रमाण [को०] ५. उपजनपद । पड़ोस [को०] । ६. अंत समय । अंतिम काल । उ०—(क) आजु अवधिसर पहुँचे गए जाउँ मुखरात । बेगि रोहु मोहि मारहु जनि चावहु यह बात ।—जायसी । (शब्द०) । (ख) तेरी अवधि कहत सब कोऊ ताते कहियत बात । बिनु विश्वास मारिहै तो के आजु रैन कै प्रात ।— सूर (शब्द०) । मुहा.—अवधि देना=समय निर्धारित करना । अत्रधि बढना= समय नियत करना । उ०—आज बिनु आनँद के मुख तेरो । निसि बसिबे की अवधि बदी मोहि साँझ गए कहि आवन । सूरश्याम अनतहि कहुँ लुबधे नैन भए दोउ सावन ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अवधि (२)
अव्य० [सं०] तक । पर्यंत । उ०—तोसों हौं फिर फिर हित प्रिय पुनीत सत्य बचन कहत । विधि लगि लघु कोटि अवधि सुख सुखी दुख दहत ।—तुलसी (शब्द०) । यौ.—अद्यपधि=अब तक । समुद्रावधि=समुद्र तक ।
⋙ अवधिज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रनुसार वह ज्ञान जिसके द्बारा पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, अंधकार और छाया आदि से व्यवहित द्रव्यों का भी प्रत्यक्ष हो और आत्मा का भी ज्ञान हो । अवधिदर्शन ।
⋙ अवधिदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार पृथ्वी, जल, पवनादि से व्यवहित पदार्थों की यथावत् देखना । अवधिज्ञान ।
⋙ अवधिमान पु
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र । उ०— प्राची जाय अथवै प्रतीची कै अदित भानु सानुमान सीस चूम लेवै भूमि मित को । लाँघि कै अवधि जो पै उमगै अवाधिमान लाँघै यह चाल जो पै कालहु के गत को । —चरण (शब्द०) ।
⋙ अवाधी (१)
वि० [हि० अवध + ई (प्रत्य०) अवध संबंधी । अवध का । जैसे—'अवधी वोली' २ । अवध की भाषा ।
⋙ अवधी पु (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'अवधि१' ।
⋙ अवधीरण
संज्ञा पुं० [सं०] अवमान या तिरस्कार करना [को०] ।
⋙ अवधोरण
संज्ञा स्त्री० [सं०] तिरस्कार । अवज्ञा ।
⋙ अवधीरित
वि० [सं०] अपमानित । तिरस्कृत ।
⋙ अवधू पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अवधूत' । उ०—अवधू ऐसा ज्ञान बिचारी, ज्यूँ बहुरि न ह्वै संसारी ।—कबीर ग्रं०, पृ०, १५९ ।
⋙ अवधूक
वि० [सं०] बिना पत्नी का [को०] ।
⋙ अवधूत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अवधूतिन्] १. संन्यासी । साधु । योगी । उ०—(क) धूत कहौं, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ ।— तुलसी ग्रं० पृ० २२३ । (ख) यह सूरति यह मुद्रा हम न देख अवधुत । जाने होहि न योगी कोइ । राजा कर पूत । —जायसी (शब्द०) । २. साधुयों का एक भेद । उ०—सेवरा खेवरा बान पर, सीध साधक अवध्त । आसन मारे बैठ सब जारि आतमा भूत ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अवधूत (२)
वि० [सं०] १. कंपित । हिला हुआ । २. विनष्ट । नाश किया हुआ । ३. अपमानित । तिरस्कृत [को०] । ४. अस्वीकृत [को०] । ५. बढ़ा हुआ [को०] । ६. आक्रांत [को०] ।७. विरक्त [को०] ।
⋙ अवधूतवेश
वि० [सं०] विना वस्त्र का । नग्न । विविस्त्र ।
⋙ अवधूपित
वि० [सं०] सुगंधित किया हुआ । सुवासित [को०] ।
⋙ अवधूलन
संज्ञा पुं० [सं०] घाव के ऊपर चुर्ण छिड़कना [को०] ।
⋙ अवधृत
वि० [सं०] दे० 'अवधारित' ।
⋙ अवधेय (१)
वि० [सं०] १. ध्यान देने योग्य । विचारणीय । २. श्रद्बेय । ३. जानने योग्य ।४. न्यान योग्य । रखने योग्य । [को०] ।
⋙ अवधेय (२)
संज्ञा पुं० १. नाम । २. ध्यान [को०] ।
⋙ अवध्य
वि० [सं०] वध करे अयोग्य । न मारने योग्य । अवध । उ०— यह समझकर की ब्राह्मण अवध्य है, तू मुझे भय दिखलाता । है ।—चंद्र० पृ० ७७ ।
⋙ अवध्वंस
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवध्वस्त] १. परित्याग । छोड़ना । निंदा कलंक । ३. चूर चूर करना । चूर्णन । नाशा ।४. धूल । चूर्ण [को०] ५. छिड़काव । छिड़कना । [को०] । ६. गिरकर दूर जा पड़ना [को०] ।
⋙ अवध्वस्त
वि० [सं०] १. नष्ट । विनिष्ट । २. त्यक्त । ३. निंदित । ४. बिखेरा हुआ । ५. चूर चूर किया हुआ । ६. छिड़का हुआ [को०] ।
⋙ अवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रीणन । प्रसन्न करना । २. रक्षण । बचाव । उ०—दूत राम राय को, सपूत पूत पौन को तू अंजनी को नंदन प्रताप भूरि भानु सो । सीय सोच मसन दुरित दोष दमन, सरन आए अवन लखन प्रिय प्रान सो ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २४८ । ३. प्रीति । ४. इच्छा । कामना [को०] ५. संतोष [को०] । ६. त्वरा । जल्दबाजी । [को०] ।
⋙ अवन (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अवनि] १. जमीन । भूमि । २. रास्ता । राह । सड़क । उ०—गुरुजन बाहक जदापि पुनि घालक चाबुक सैन । कटै बटे न कढ़े तऊ रूप अवन ह्वै नैन । —(शब्द०) ।
⋙ अवनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] तारों का न दीख पड़ना [को०] ।
⋙ अवनत
वि० [सं०] १. नीचा । झुका हुआ । उ०—वह बोली नील गगन अपार जिसमें अवनत घन सजल भार ।—कामायनी, पृ० २३४ । २. गिरा हुआ । पतित । अधोगत । ३. कम । ४. अस्त होता हुआ । [को०] । ५. विनीत । नम्र [को०] ।
⋙ अवनति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घटती । कमी । घाटा । न्यूनता । हानि । २. अधोगति । हीन दशा । तनजुल्ली । उ०—पूर्ण प्रकृति की पूर्ण नीति है क्या भली, अवनति को जो सहन करे गंमीर हो ।-महा० पृ० २. । ३. झुकाव । झुकना । ४. नम्रता । ५. अस्त होना । डूबना [को०] ।
⋙ अवनद्ध (१)
वि० [सं०] १बना हुआ । निर्मित । २. निश्चत किया हुआ । बैठै हुआ । ३. आवेष्टित । बँधा हआ [को०] ।
⋙ अवनद्ध (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का ढ़ोल [को०] ।
⋙ अवनमन
संज्ञा पुं० [सं०] १.झुकने की क्रिया । २. पैर पड़ना । उ०—ज्ञान की खोज में ओज कुल खो दिया, सत्य की नित्य । आराधना, अनमन ।—आराधना, पृ०, ७१ ।
⋙ अवनम्र
वि० [सं०] झुका हुआ । नमित [को०] ।
⋙ अवनयन
संज्ञा पुं० [सं०] नीचे की तरफ ले जाना [को०] ।
⋙ अवना पु
क्रि० अ० [सं० आगमन] आना । उ०—(क) तोहि रे हम चाहहिं गवना । होहु सँजूत बहुरि नहिं अवना ।— जायसी ग्रं० पृ० ६२ । (ख) अब की के गवना बहुरि नहिं अवना करिले भेट अँकवारी ।—कबीर श०, पृ० ।
⋙ अवनाट (१)
वि० [सं०] १. चपटी नाकवाला । नकचिपटा [को०] ।
⋙ अवनाट (२)
संज्ञा पुं० चपटी नाकवाला व्याक्ति [को०] ।
⋙ अवनाम
संज्ञा पुं० दें 'अवनमन' [को०] ।
⋙ अवनामक
वि० [सं०] पतित करनेवाला । नीचे गिरनेवाला [को०] ।
⋙ अवनाय
संज्ञा पुं० [सं०] नीचे फेंकना [को०] ।
⋙ अवनासिक
वि० [सं०] दे० 'अवनाट' [को०] ।
⋙ अवनाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँधना । कसकर बाँधन । २. आबेष्टित करना [को०] ।
⋙ अवनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । जमीन । उ०—सुचि अवनि सुहावनि आलबाल, कानन विचित्र बारी बिसाल ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४६५ । यौ०—अवनिध्र = पर्वत । पहाड़ । अवनिप = राजा । उ०— अवनिध अकनि राम पगुधारे ।—तुलसी (शब्द०) । अवनिपति = राजा । अवनींद्र = राजा । अवनिसुता = जानकी । अवनितल पृथ्वी । अवनीध = राजा । २. एक प्रकार की लता । ३. उँगली । ४. नदी का पाट [को०] ।५. नदी [को०] ।६. जगह । स्थान (को०) ।
⋙ अवनिक्त
वि० [सं०] १. धोया हुआ । धोकर साफ किया हुआ । २. ढूँढा हुआ [को०] ।
⋙ अवनिज
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल ग्रह [को०] ।
⋙ अवनिरुह
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष [को०] ।
⋙ अवनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अवनि' । उ०—(क) कुटिल अलक बदन की छबि, अवनि परि लोलै ।—सूर०, १० ।१०१ ।
⋙ अवनीच
वि० [सं०] इधर उधर घूमनेवाला । घुमक्कड़ [को०] ।
⋙ अवनीतल
संज्ञा पुं० [सं०] धरती की सतह । धरातल [को०] ।
⋙ अवनीघ्र
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत । पहाड़ [को०] ।
⋙ अवनीप
संज्ञा पुं० [सं०] राजा । उ० —दीप दीप हु के अवनीपन के अवनीप, पृथु सम केशोदास द्बिज गाय के । —राम चं० पृ० २१ ।
⋙ अवनीपति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा । उ०—सातहु दीपन के अवनीपति हारि रहे जिय में जब जाने ।-राम चं० पृ० १९ ।
⋙ अवनीरुह
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ । वृक्ष [को०] ।
⋙ अवनोश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवनीश' [को०] ।
⋙ अवनीस पु
संज्ञा पुं० [सं० अवनीश] उ०— बिचरहि अवनि अवनीस चरनसरोज मन मधुकर किए ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५२३ ।
⋙ अवनीसुत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवनिज' [को०] ।
⋙ अवनीसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता । पृथ्वीपुत्री जानकी [को०] ।
⋙ अवनेजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धोना । प्रक्षालन । २. श्राद्ध में पिंड़दान की वेदी पर बिछाए हुए कुशों पर जल सोंचने का संस्कार । ३. भोजन के बाद का आचमन ।
⋙ अवपाक (१)
वि० [सं०] १. अच्छी तरह न पकाया हुआ । २. बिना जाल का [को०] ।
⋙ अवपाक (२)
संज्ञा पुं० अच्छी तरह भोजन न बनानेवाला रसोईदार । वह व्यक्ति जिसे अच्छी तरह भोजन बनाने न आता हो [को०] ।
⋙ अवपाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रोग जो लघुछिद्र योनिवाली और रजस्वलाधर्म रहित स्त्री से मैथुन करने से, हस्तक्रिया से, लिंगोंद्रिय के बंद मुंह को बलात् खोलने से अथवा निकलते हुए वीर्य को रोकने से हो जाता है । इस रोग में लिंग को आच्छादित करनेवाला चमड़ा प्राय? फट जाता है ।
⋙ अवपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिराव । पतन । अध?पतन । २. गड्ढ़ा कुंड़ । ३. हाथियों को फँसाने के लिये एक गढ़ा जिसे तृणादि से अच्छादित कर देते है । ३. खाँड़ा । माला । ४. नाटक में भयादि से भागना । व्याकुल होना आदि दिखलाकर अंक या गर्भाक की समाप्ति । ५. पक्षियों आदि का ऊपर से नीचे की ओर झपटना [को०] ।
⋙ अवपातन
संज्ञा पुं० [सं०] नीचे उतारना । गिराना ।
⋙ अवपात्र
वि० [सं०] (भ्लेच्छ) जिसके खाने से पात्र किसी के उपयोग योग्य न हो [को०] ।
⋙ अवपाद
संज्ञा पुं० [सं०] नीचे गिराना [को०] ।
⋙ अवबाहुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिससे हाथ की गति रुक जाती है । भुजस्तंभ ।
⋙ अवबुद्ध
वि० [सं०] १. जाना हुआ । २. जाननेवाला [को०] ।
⋙ अवबोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. जगना । जगना । २. ज्ञान । बोध । ३. शिक्षण । सिखाना । [को०] ४. न्याय करना । फैसला [को०] ।
⋙ अववोधक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री अवबोधिका] १.बंदी । चारण । २. रात को पहरा देनेवाला पुरुष । चौकीदार । पाहरू । ३. सूर्य । ४. शिक्षक । सिखानेवाला व्यक्ति [को०] ५. विचार । समझ बुझ [को०] ।
⋙ अवबोधक (२)
वि० चेतानेवाला । जाननेवाला ।
⋙ अवबोधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोतावती । ज्ञापन । २. ज्ञान । इंद्रिय- ज्ञान [को०] ।
⋙ अवभंग
संज्ञा पुं० [सं० अवभंङ्ग] १. नीचा दिखाना । पराजित करना । २. नथुना फुलना पचकना [को०] ।
⋙ अवभास
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवभासक, अवभासित] १.ज्ञान । प्रकाश ।२. थ्मियाज्ञान । ३. चमक [को०] ।४. झलक । आभास [को०] ।५. अवकाश । स्थान [को०] ।
⋙ अवभासक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] परब्रह्म [को०] ।
⋙ अवभासक (२)
वि० [सं०] बोध करानेवाला । प्रतीत करानेवाला ।
⋙ अवभासित
वि० [सं०] लक्षित । प्रतीत ।
⋙ अवभासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊपर के चमड़े का काम । चमड़े की पहली पर्त ।
⋙ अवभृथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह शेष कर्म जिसके करने का विधान मुख्य यज्ञ के समाप्त होने पर है । २. वह स्नान जो यज्ञ केअंत में किया जाय । यज्ञांतस्तान । उ०—पावक सरोवर में अवभृथ स्नान था, अत्मासम्मान यज्ञ की वह पूर्णाहुति ।— लहर, पृ० ६३ ।
⋙ अवभ्रट
वि० पुं० संज्ञा [सं०] दे० 'अवनाट' [को०] ।
⋙ अवमंता
वि० [सं० अवमन्तू] अनादर करनेवाला । असंमान करनेवाला [को०] ।
⋙ अवमंथ (१)
संज्ञा पुं० [सं० अवसन्थ] एक रोग जिसमें लिंग में बड़ी बड़ी और घनी फुंसियाँ हो जाती है । यह रोग रक्तविकार से होता है और इसमें पीड़ा तथा रोमांच होता है ।
⋙ अवमंथ (२)
वि० सूजन पैदा करनेवाला [को०] ।
⋙ अवम (१)
वि० [सं०] १. अधम । अंतिम । २. रक्षक । रखवाला । ३. नीच । निंदित । ४. घनिष्ठ [को०] ।५. कनिष्ठ [को०] ।
⋙ अवम (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पितरों का एक गण । २. मलमास । अधिमास । ३. पाप [को०] ।४. रक्षक व्याक्ति । त्राता [को०] ।
⋙ अवमत
वि० [सं०] अवज्ञात । अवमानित । तिरस्कृत । निंदित ।
⋙ अवमति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अवज्ञा । अपमान । तिरस्कार । निंदा ।
⋙ अवमति (२)
संज्ञा पुं० स्वामी । मालिक [को०] ।
⋙ अवमतिथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह तिथि जिसका क्षय हो गया हों ।
⋙ अवमर्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रहण का एक भेद । वह ग्रहण जिसमें राहु सूर्यमंड़ल या चंद्रमंड़ल को पूर्णाता से ढ़ँककर अधिक काल तक ग्रसे रहे । २. रौंदना । कुचलना । ३. शत्रु को क्षत विक्षत करना । ४. एक प्रकार का उल्लू [को०] ।
⋙ अवमर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीड़ा देना । दुःख देना । दलन । २. मालिश । रगड़ ना [को०] ।
⋙ अवमर्दित
वि० [सं०] १. पीड़ित । दलित । मालिश किया हुआ [को०] ।
⋙ अवमर्श
संज्ञा पुं० [सं०] स्पर्श । संपर्क [को०] ।
⋙ अवमर्शसांधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अवमर्शसन्धि] नाटय़शस्त्र के अनुसार पाँच प्रकार की संधियों में सें एक । विशेष—जहाँ क्रोध, व्यसन, अथबा विलोमन आदि से फलप्रप्ति के संबंध में वितार या आशंक की जाय और जहाँ गर्भसंधि से बीजार्थ अधिक स्पष्ट हो वहाँ अवमर्शसंधि होत है । वि० दे० 'विमर्ष' ।
⋙ अवमार्शित
वि० [सं०] नष्ट भ्रष्ट [को०] ।
⋙ अवमर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. विचार । खोज बीन । २. दे० 'अवमर्श' संधि । ३. आक्रमण [को०] ।
⋙ अवमर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिटाना । २. हटाना । ३. बरबाद करना । ४. असहनशीलता [को०]
⋙ अवमान
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवमानित] तिरस्कार । अपमान । अनादार । उ०—पूरन राम सुपेम पियूषा । गुर अवमान दोष नहि दूषा । मानस, २ । २०८ ।
⋙ अवमानन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री अवमानना] दे० 'अवमान' ।
⋙ अवमानित
वि० [सं०] तिरस्कृत । उपेक्षित । अपमानित [को०] ।
⋙ अवमानी
वि० [सं० अलमानिन्] [वि० स्त्री० अवमानिनी] तिरस्कार करनेवाला । अपमान करनेवाला । उ०—सोविय सूद बिप्र अवमानी । मखरु मानप्रिय ग्यान गुमानी ।-मातस, २ । १७२ ।
⋙ अवमूर्धशय
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] सिर नोचे करके लेटनेवाला [को०] ।
⋙ अवमूल्यन
संज्ञा पुं० [सं०] [अं० ड़िवैल्युएशन] किसी देश की सरकार द्बार दूसरे देशों की अपेक्षा अपने देश की मुद्रा का विनिमय मूल्य गिरा देना ।
⋙ अवमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] निर्बधं करना । बंधनविहीन करना । मुक्त करना [को०] ।
⋙ अवमोदरिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अवन + अदरिका] एक वृत्ति जिसमें क्रमश? भोजन से निवृत्ति प्राप्त करते है ।—हिदु० सभ्यता, पृ० २३३ ।
⋙ अवय पु
संज्ञा पुं० [सं० अवयव] दे० 'अवयव' । उ०— देवि कुँवरि अदभुत अवय । रंजित है अति लाज । —पृ० रा०, २५ । १७७ ।
⋙ अवयव
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंश । भाग । हिस्सा । २. शरीर का एक देश । अंग । ३. न्यायशास्त्रानुसार वाक्य का एक अंश या भेद । विशेष—ये पाँच है—(१) प्रातिज्ञा, (२) हेतु, (३) उदाहरण, (४) उपनय, और (५) निगमन । कीसी किसी के मत से यह दस प्रकार का है—(१) प्रतिज्ञा, (२) हेतु, (३) उदाहरण, (४)उपनय, (५) निगमन, (६) जिज्ञासा, (७) संशय (८) शक्यप्राप्ति, (९) प्रयोजन और (१०) संशयव्युदास । ४. उपकरण । साधन [को०] ।५.शरीर [को०] । यौ०—अवयवभूत = अंगभूत । अंशभूत । अवयवघर्म । अवयवरूपक = रूपक का एक भेद ।
⋙ अवयवार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द की प्रकृति और प्रत्यय से निकलनेवाला अर्थ [को०] ।
⋙ अवयवी (१)
वि० [सं० अवयविन्] १. जिसके और बहुत से अवयव हों । अंगी । २. कुल । संपूर्ण । समष्टि समूचा ।
⋙ अवयवी (२)
संज्ञा पुं० १. वह वस्तु जिसके बहुत से अवयव हों । २. देह । शरीर । ३. न्याय में एक तर्क [को०] ।
⋙ अवयस्क
वि० [सं०] जो वयस्क न हो [को०] ।
⋙ अवयान
संज्ञा पुं० [सं०] १. विपथगमी होना । पीछे की ओर आना । २. किमी को संतुष्ट करना । ३. प्रायश्चित्त करना [को०] ।
⋙ अवर (१)
वि० [सं०] पुं १. अन्य । दूसरा । और ।उ०—गम दुर्गम गढ़ देहु छुड़ाई । अवरो बात सुनो कछु भाई ।—कबीर (शब्द०) । २. अश्रेष्ठ । अधम । नीच । ३. पिछला (माग) । ४. अंतिम (को०) । ४. पश्चिमी (को०) ६. निकटतम । दूसरा [को०] । ७. अत्यंत श्रेष्ठ [को०] ।
⋙ अवर (२)
वि० [सं० अ + बल] निर्बल । बलहीन ।
⋙ अवर (३)
संज्ञा पुं० १. अतीत काल । २. हाथी का पिछला भाग ।
⋙ अवरक्षक
वि० [सं०] पालक । रक्षक ।
⋙ अवरज
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अवरजा] १. छोटा भाई । २. नीच कुलोत्पन्न । नीच ।
⋙ अवरण पु
संज्ञा पुं० [हि०] १. दे० 'अवर्ण' । २. दे० 'आवरण' ।
⋙ अवरत (१)
वि० [सं०] १. जो रत न हो । विरत । निवृत्त । २. ठहरा हुआ । स्थिर । ३. अलगा । पृथक् ।
⋙ अवरत (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० आवर्त] दे० 'आवर्त' । ४४
⋙ अवरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विराम । २. निवृत्ति । छुटकारा ।
⋙ अवरवर्णाभिनिवेश
संज्ञा पुं० [सं०] छोटी जतोयों से वसाया हुआ उपनिवेश
⋙ अवरव्रत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. आक । मंदार ।
⋙ अवरव्रत (२)
वि० हीनव्रत । अधम ।
⋙ अवरशैल
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चिम का पहाड़ जिसके पीछे सूर्य अस्त होता है [को०] ।
⋙ अवरहस
वि० [सं०] जनशून्य । निर्जन [को०] ।
⋙ अवरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा । २. दिशा । ३. हाथी का पिछला भाग [को०] ।
⋙ अवराधक पु
वि० [सं० आराधन] आराधना करनेवाला । पूजनेवाला । सेवक । उ०— ए सब रामभगति के बाधक । कहहिं संत तव पद अवराधक ।—मानस, ४ ।७ ।
⋙ अवराधन पु
संज्ञा पुं० [सं० आराधन] आराधान । उपासना । पूजा । सेवा । उ०— प्रवसि होइ सिधि, साहस फलै सुसाधन । कोटि कल्पतरु सरिस संमु अवराधन । —तुलसी ग्रं०, पृ० ३० ।
⋙ अवराधना पु
क्रि० सं० [सं० आराधना] उपासना करना । पूजना । सेवा करना । उ०—(क) केहि अवराधहु का तुम चहहु । हम सन सत्य मरमु, सब कहहू । —मानस, १ ।७८ । (ख) हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो । हरि चरणारविंद उर धरो । लै चरणोदक निज व्रत साधी । ऐसी विधि हरि के अवराधो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अवराधी पु
वि० [हि० अवराधना] आराधाना करनेवाला । उपा- सक । पूजक । उ०— कहाँ बैठि प्रभू साधि समाधी । आजु होब हम हरि अवराधी ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ अवरार्घ
संज्ञा पुं० [सं०] १. लघुतम भाग । कम से कम । २. उत्त- रार्ध ।३. नीचे या पीछे का आधा भाग [को०] ।
⋙ अवरापतन
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भपतन [को०] ।
⋙ अवरावर
वि० [सं०] निम्नतम । सबसे निकृष्ट । सबसे बुरा [को०] ।
⋙ अपरु पु
अव्य० [हि०] दे० 'और' ।
⋙ अवरुद्ध
वि० [सं०] १. रुँधा हुआ । २. आच्छादित । गुप्त । छिपा ।
⋙ अवरुद्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपने वर्ण की वह दासी या स्त्री जिसे कोई अपने घर में ड़ाल ले । रखनी । सुरैतिन । २. वह स्त्री जेसे कोई रख ले । उढ़री । रखुई ।
⋙ अवरुढ़
वि० [सं० अवरूढ़] १. ऊपर से नीचे आया हुआ । उतरा हुआ । आरूढ़ का उलटा । २. टूटा हुआ । छिन्नमूल (को०) ।
⋙ अवरूप
वि० [सं०] १. भद्दी आकृतिवाला । विरूप । २. पतित । जिसका पतन हो गया हो [को०] ।
⋙ अवरेखना पु
क्रि० सं० [सं० अवलेखन, अवरेखन, अवरेखन या आलेखन] १. उरेहना । लिखना । चित्रित करना । उ०— (क) स्याम तन दोखि री आपु तन देखिऐ । भीति जौ होइ तौ चित्र अवरेखिऐ ।— सूर० १० ।३०७ । (ख) सखि रघुबीर मुख छबि देखु । चित्त भीति सुप्रीति रंग सुरुपता अवरेखु ।—तुलसी (शब्द०) । २. देखना । उ०—(क) ऐसे कहत गए अपने पुर सबहि बिलक्षण देख्यो । मणिमय महल फटिक गोपुर लखि कनक भूमि अपबेख्यो ।—सूर (शब्द०) । (ख) फिरत प्रभु पूछत बन द्रुम बेली । अहो बंधु काहु अवरेखी एहि मग बधू अकेली । —सूर (शब्द०) । ३. अनुमान करना । कल्पना करना । सोचना । उ०—एकै कहै सुखना लहरैं, मन के चढ़िबे की सिढ़ी एक पेखैं । कान्ह को टोवो कह्यो कछु काम कविश्वर एक यहै अवरेखै ।—केशव (शब्द०) । ४. मानना । जनना । उ०—पियवा आय दुअरवा उठ किन देखु । दुरलभ पाय बिदेसिया मुद अवरेखु ।-रहीम (शब्द०) ।
⋙ अवरेब पु
संज्ञा पुं० [सं० अव=विरुद्ध+रेब=गति; फा० उरेब= टेढ़ा] १. वक्र गति । तिरछी चाल । २. कपड़े की तिरछी काट । यौ०—अवरेबदार=तिरछी काट का । ३. पेच । उलझन । उ०—प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जोहि आयसु देब । सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब ।— मनस, २ ।२६८ ।४. बिगाड़ । खराबी । उ०— रामकृपा अवरेब सुधारी । बिबुध धारी भइ गुनद गोहारी ।— मानस,२ ।३१३ ।५. झगड़ा । विवाद । खींचतानी । उ०—राक्षस सुत तो यह कही कन्या को हम लेब । बिप्र कहै दे मित्र मोहिं परी दुहुन अवरेब ।- (शब्द०) ।६. वक्रोक्ति । काकूक्रि । उ०—धुनि अवरेब कवित गुन जाती । मीन मनोहर ते बहु भाँती ।-मानस, १ ।३७ ।
⋙ अवरोक्त
वि० [सं०] बाद में कहा गया । जिसका उल्लेख बाद में हुआ हो [को०] ।
⋙ अवरोचक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें भुख बहुत कम लगती है या लगती ही नहीं [को०] ।
⋙ अवरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुकावट । अटकाव । अड़चन । रोक । २. छेकना । घरे लेना । मुहासिरा । ३. निरोध बंद करना । ४. अनुरोध । दबाव । ५. अंतःपुर ।-उ० राजकीय अवरोध की ये स्त्रियाँ है ।-इरा०, पृ० ९६ ।६. लेखनी । कलम [को०] । ७. प्रहरी [को०] । ८. खाई । गड़ढ़ा [को०] । ९. पर्त । तह [को०] ।
⋙ अवरोधक (१)
वि० [सं०] १. रोकनेवाला । २. घेरनेवाला [को०] ।
⋙ अवरोधक (२)
संज्ञा पुं० १. पहरेदार । २. रोक । बाड़ [को०] ।
⋙ अवरोधन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवरोधक, अवरोधित, अवरोधी, अवरोध, अवरुद्ध] १. रोकना । छेकना । २. अंतःपुर । जनान- खाना । ३. किसी वस्तु का भीतरी भाग [को०] ४. निजी या व्यक्तिगत स्थान (को०) । ५. अंत?पुरिका । हरम में रहनेवाली स्त्री (को०) ।
⋙ अवरोधना पु
क्रि० सं० [सं० अवरोधन] रोकना । निषेध करना । उ०—यह बिधि विषय भेद अवरोधा । नहि कछु श्रुति प्रत्यक्ष विरोधा ।—शं० दि० (शब्द०) ।
⋙ अवरोधिक (१)
वि० [सं०] रोकनेवाला । अवरोध उपस्थित करनेवाला [को०] ।
⋙ अवरोधिक (२)
संज्ञा पुं० अंत?पुर का प्रहरी [को०] ।
⋙ अवरोधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंतःपुर की दासी । अंतःपुर की रखवाली करनेवाली स्त्री या दासी [को०] ।
⋙ अवरोधित
वि० [सं०] रोका हूआ । रुका । घेरा हुआ ।
⋙ अवरोधी
वि० [सं० अवरोधिन्] [वि० स्त्री० अवरोधिनी] अवरोध करनेवाला । रोकनेवाला । दे० 'अवरोधक' ।
⋙ अवरोपण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवरोपित, अवरोपणीय] १. उखा- ड़ना । उत्पादन । २. पेड़ लगाना [को०] ।
⋙ अवरोपणीय
वि० [सं०] १. उखाड़ने योग्य ।
⋙ अवरोपित
वि० [सं०] उखाड़ा हुआ । उन्मूलित ।
⋙ अवरोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. उतार । गिराव । अधःपतन ।२ अवनति । अवसर्पण । विवर्त्त । ३. एक अलंकार जो वर्धमान अलंकार का उलटा है । इसमें किसी वस्तु के रूप तथा गुण का क्रमशः अधःपतनः दीखाया जाता है; जैसे— सिंघू सर पल्लव पुष्करणिय । कुंड़ वापिका कूप जु वरणिय । चुलुक रुप भौ जिन्ह कर भीतर । पान करत जय जय वह मुनिवर । ४. बररीह । ५. संगीत में स्वरों का उतार [को०] ।६. आरोहण । चढ़ाव (को०) । ७. वृक्ष से लता का लिपटते हुए चढ़ाना या घेर लेना [को०] ।८. स्वर्ग [को०] । यौ० —अवरोहशाख, अबरोहशाखी, अवरोहशायी वट = वृक्ष ।
⋙ अवरोहक (१)
वि० [सं०] १. गिरनेवाला । २. अवनति करनेवाला ।
⋙ अवरोहक (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री० अवरोहिका] अश्र्वगंध ।
⋙ अवरोहण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवरोहक, अवरोहित, अवरोही] १. नीचे की ओर जाना । पतन । गिराव । २. चढ़ाना [को०] ।
⋙ अवरोहना (१) पु
क्रि० अ० [सं० अवरोहण] १. उतरना । नीचे आना । २. चढ़ना । ऊपर जाना । उ०—(क) कहँ सिव चाँप लकरवनि बुझत बिहँस चितै तिरछोहै । तुलसी गलिन भीर दरसन लगि लोग अटनि अवरोहैं ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) जोबन व्याध नहीं अरु बैननि मोहिनी मंत्र नही अवरोह्यो ।— देव (शब्द०) ।
⋙ अवरोहना (२) पु
क्रि० सं० [हि० उरेहना] खीचना । अंकित करना । चित्रित करना । उ०— गोरे गात, पातरी, न लोचन समात मुख उर उरजातन की बात अवरोहिये ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ अवरोहना (३) पु
क्रि० स० [सं० अवरोधन, प्रा० अवरोहन] रोकना । रुँधना । छेंकना । उ०—मत अद्वैत राजपथ सोहा । जहाँ भेद कंटक अवरोहा ।—शं० दि० (शब्द०) ।
⋙ अवरोहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वगंधा [को०] ।
⋙ अवरोहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष के अनुसार एक बुरी दशा, जो नक्षत्रों के खास स्थानों में पहुँचने से उत्पन्न होती है [को०] ।
⋙ अवरोहित
वि० [सं०] १. गिरनेवाला । २. अवनत । हीन । ३. हल्के लाल रंग का ।
⋙ अवरोही (१)
संज्ञा पुं० [सं० अवरोहिन्] १. वह स्वर जिसमें पहले षड्ज का उच्चारण हो, फिर निषाद से षड्ज तक क्रमानुसार उतरते हुए स्वर निकलते जाय़ँ । सा, नि, ध, प, म, ग, री सा का क्रम । विलोम । आरोही स्वर का उलटा । २. वटवृक्ष ।
⋙ अवरोही (२)
वि० ऊपर से नीचे की तरफ आनेवाला [को०] ।
⋙ अवर्ग (१)
वि० [सं०] जिसका कोई वर्ग या श्रेणी न हो [को०] ।
⋙ अवर्ग (२)
संज्ञा पुं० स्वरवर्ण [को०] ।
⋙ अवर्ण (१)
वि० [सं०] १. वर्णरहित । बिना रंग का । २. बदरंग । बुरे रंग का । ३. जो ब्रह्माण आदि के धर्म से शून्य हो । वर्ण— धर्म—रहित ।
⋙ अवर्ण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकार अक्षर । २. निंदा । ३. अपशब्द ।
⋙ अवर्ण्य (१)
वि० [सं०] जो वर्णन के योग्य न हो ।
⋙ अवर्ण्य (२)
संज्ञा पुं० [सं० अ + बर्ण्य] जो वर्ण्य या उपमेय न हो । उपमान । उ०—है उपमेय विश्व अरु वर्ण्य । उपमानतु बिषयीरु अवर्ण्य ।—मितराम (शब्द०) ।
⋙ अवर्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्फुर्तिशून्य पदार्थ । वह पदार्थ जिसके आरपार प्रकाश या दृष्टि न या सके ।
⋙ अवर्त (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० आवर्त्त] १. भँवर । नाँद । उ०—कादर भयंकर रुधिर सारिता चली परम अपावनी । दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अवर्त्त बहति भयावनी । —मानस, ६ ।८६ ।२. पु घुमाव । चक्कार । उ०— बिषम बिषाद तोरावति धारा । भय भ्रम भँवर अवर्त आपारा ।—मानस, २ ।२७५ ।
⋙ अवर्तन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जिविका का अभाव । जीविका की अनुपलब्धि ।
⋙ अवर्तन (२) पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'आवर्तन' ।
⋙ अवर्तमान
वि० [सं०] १. जो वर्तमान न हो । अनुपस्थित । अप्रस्तुत । २. असत् । अभाव । ३. भूत या भविष्य ।
⋙ अवर्धामान
वि० [सं०] वर्धमान का बीपरीत । न बढ़नेवाला [को०] ।
⋙ अवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवर्षण' [को०] ।
⋙ अवर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] वृष्टि का अभाव । बर्षा का न होना । अवग्रहण । अनवृष्टि ।
⋙ अवर्षुक
वि० [सं०] न बरसनेवाला [को०] ।
⋙ अवलंघन
संज्ञा पुं० [सं० अव + लड्धन] दे० 'उल्लंघन' ।
⋙ अवलंघना पु
क्रि० सं० [सं० अब + लङ्घन] लाँघना । फाँदना । उ०— राम प्रताप, सत्य सीता कौ, यहै नाव-कनधार । तिहि अधार धन मै अवलंघ्यौ आवत भई न बार ।—सूर० ९ ।८९ ।
⋙ अवलंब
संज्ञा पुं० [सं० अवलम्ब] आश्रय । आधार । सहारा । उ०— सो अवलंब देउ मोहि देई । अवधि पारु पावउँ जोहि सेई ।— मानस, २ ।३०६ ।
⋙ अवलंवक
संज्ञा पुं० [सं० अवलम्बक] एक प्रकार का वृत्त या छंद [को०] ।
⋙ अवलंबन
संज्ञा पुं० [सं० अवलम्बन] [वि० अवलम्बीत, अवलम्बी] १. आश्रम । आधार । सहारा । उ०—नाहि कलि करम न भगति बिबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ।—तुलसी (शब्द०) । २. धारण । ग्रहण । क्रि० प्र०—करना = धारण करना । ग्रहण करना । अनुसरण करना; जैसे,—'यह सुन उसने मौनाबलंबन किया' (शब्द०) । ३. छड़ी ।
⋙ अवलंबना पु
क्रि० स० [सं० अवलभ्बन] अवलंबन करना । आश्रय लेना । टिकन । उ०—जिन्हें अतन अवलंहबई सो आलंबन जानि । निज तें दीपित होति है । ते उद्दीप बखानि ।— केशव ग्रं० भा० १ पृ० ३५ ।
⋙ अवलंबित
वि० [सं० अवलम्बित] १. आश्रित । सहारे पर स्थित । टिका हुआ । उ०—चरणकमल अवलंबित राजित वनमाल ।प्रफुलित ह्वै ह्वै लता मनी चढी तरु तमाल—सूर (शब्द०) । २. मुनहमर । निर्मर; जैसे—इसका पूरा होना द्रव्य पर अवलंबित है । (शब्द०) । उ०— ऐसे और पतित अवलंबित के छिन माही तरे । सूर पतित तुम पतित उधारन बिरद कि लाज धरे ।—सूर० १ ।१९८ ।३. लटकाया हुआ [को०] ।४. शीध्र । सत्वर [को०] ।
⋙ अवलंबी
वि० पुं० [सं० अवलम्बिन्] [वि० स्त्री० अवलंबिती] १. अवलंबन करनेवाला । सहारा लेनेवाला । उ०— और भगवान् की करुणा का अवलंबी बन गया था । —इंद्र०, पृ० ४१ ।२. सहारा देने— वाला । पालनेवाला ।
⋙ अवल पु
वि० [हि०] दे० 'अव्वल' । उ०—अवस कीलनु जी आदर कुरव दे अवधेस—रघु० रु० पृ० ८१ ।
⋙ अवलक्ष (१)
वि० [सं०] सफेद वर्ण का [को०] ।
⋙ अवलक्ष (२)
संज्ञा पुं० सफेद वर्ण [को०] ।
⋙ अवलग्न (१)
वि० [सं०] लगा हुआ । मिला हुआ । संबंध रखनेवाला ।
⋙ अवलग्न (२)
संज्ञा पुं० शरीर का मध्य भाग । धबु । माझा ।
⋙ अवलच्छना पु
क्रि० सं० [सं० अव+लक्ष्य] लक्ष्य बनना । देखना उ०—पच्छ-रहीत जीतत उड़ि पच्छिय । अंतरिच्छ गति जिन अवलच्छिय़ ।—पद्माकार ग्रं० पृ० ९ ।
⋙ अवलि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आवलि ] दे० 'अवली' । उ०— माल बिसाल तिलक झलकाहीं । कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ।— मारस, १ ।२४३ ।
⋙ अवलिप्त
वि० [सं०] १.लगा हुआ । पोता हुआ । २. सना हुआ । आसक्त । ३. घमंड़ी । गर्वित ।
⋙ अवलिया †
संज्ञा पुं० [हि० औलिया] दे० 'ओलिया' । उ०—जहाँ बसे तीरथ देव अवलिया होना ।-प्रेमधन० भा० २ पृ० ३४९ ।
⋙ अवली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अवलि] १. पंक्ति । पाँति । उ०— मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि अवली फिऱि आई ।—सूर०, १० ।१०८ ।२. समुह । झुड़ । उ०— मन रंजन खंजन की अवली नित आँगन आय न ड़ोलती है ।—केशव (शब्द०) । ३. वह अन्न की ड़ाँठ जो नवान्न करने के लिये थेत से पहले पहल काटी जाती है । ४. रोआँ या ऊन जो गड़रिया एक बार भेड़ पर से काटता है ।
⋙ अवलीक
वि० [सं० अव्यलीक] अपराधशून्य । पापशून्य । निष्पाप । निष्कलंक । शुद्ध । उ०— जावो वाल्मीकि घर बड़ो अवलीक साधु किया अपराध दियो जो बताइये ।—प्रिया (शब्द०) ।
⋙ अवलीढ
वि० [सं०] १. भक्षित । खाया हुआ । २. चाटा हुआ । ३. स्पृष्ट । संपर्कप्राप्त (को०) ।
⋙ अवलीन
वि० [सं०] युक्त । भीतर युक्त अंदर की ओर स्थित [को०] ।
⋙ अवलीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रीड़ा । खेल । २. अनादर । अवहे— लना [को०] ।
⋙ अवलुंचन
संज्ञा पुं० [सं० अवलुञ्जन] १. छेदना । काटना । २. उखाड़ना । नोचना । ३. दूर करना हटाना । अपनयन । ४. खोलना ।
⋙ अवलुंचित
वि० [सं० अवलुञ्तित] १. कटा हुआ । छेदित । २. उखाड़ा हुआ । नोचा हुआ । ३. दूरीकृत । हठाया हुया । अप्रति ४. खुला या खोला हुआ । मुक्त ।
⋙ अवलुंठन
संज्ञा पुं० [सं० अवलुण्ठन] १. लोटना । लुढ़कना । २. लूटना (को०) ।
⋙ अवलुंठित
वि० [सं० अवलुण्ठित] १. जो लुढ़क गया हो । लोटा हुआ । २. लूट लिया गया हो (को० ।
⋙ अवलुंपन
संज्ञा पुं० [सं० अवलुम्पन] अचानक लपक पड़ना । टूट पड़ना । झुपट्टा मारना [को०] ।
⋙ अवलेख
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोई खरोंची हुई या चिह्नित वस्तु । २. खुरचना, चिह्नित करना वा तोड़ना [को०] ।
⋙ अवलेखन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुरुश या कघी करना । २. चिह्न करना या लकीर खोंचना ।
⋙ अवलेखना पु
क्रि० सं० [सं० अवलेखन] १. खोदना । खरचना । २. चिह्न ड़ालना । लकीर खींचना । उ०—गहौ बिरद की लाज दीन हित करि सुदृष्टि ब्रज देखौ । मौसाँ बात कहत किन सन्मुख कहा अवनि अवलेखौ ।—सूर०, १० ।४१५४ ।
⋙ अवलेखनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लेखनी । २. बाल झड़ने की कंघी या ब्रश [को०] ।
⋙ अवलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रगड़ना । २. चित्रांकन करना । ३. शृंगार करना । सजावट करना (को०) ।
⋙ अवलेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. उबटन । लेप उ०—कुच कंकुम अवलेप तरुनि किये सोभित स्यामल गात । गत पतंग, राका ससि बिय सँग, घटा सघन सोभात ।—सूर०, १० ।२७३४ ।२. घमंड़ । गर्व । ३. आभूषण (को०) । ४. मलहम (को०) । ५. संग । मिलन (को०) । ६. आक्रमण । हिंसा (को०) । ७. अपमान (को०) । यौ०—बलावलेप = बल का गर्ब ।
⋙ अवलेपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लगाना । पोतना । छोपना । २. वह वस्तु जो लगाई या छोपी जाय । लेप । उबटन । ३. घमंड़ । अभिमान । अहंकार । ४. दुषण । ५. चंदन का वृक्ष (को०) ।
⋙ अवलेह
संज्ञा पुं० [सं०] १. लेई जो न अधिक गाढ़ी और न अधिक पतली हो और चाटी जाय । चटनी । माजून (वेद्यक) ।२. औषध जो चाटा जाय । ३. निर्यास । सत्त । अरक—जैसे, सोम [को०] ।
⋙ अवलेहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीभ की नोक लगकर खाना । चाटना । २. चटनी ।
⋙ अवलेह्य
वि० [सं०] चाटने योग्य ।
⋙ अवलोक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवलोकन' [को०] ।
⋙ अवलोकक
संज्ञा पुं० [सं०] १. देखनेवाला । अवलोकन करनेवाला । १. सोद्देश्य किसी वस्तु को देखनेवाला? जैसे—जासूस [को०] ।
⋙ अवलोकन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवलोकित, अवलोकनीय] १. देखना । उ०—देव कहैं अपनी अपनी अवलोकन तीरथराज चलो रे ।—तुलसी ग्रं० पृ० २३४ ।२. देखमाल । जाँच पड़ताल । निरिक्षण । ३. नेत्र । आँख [को०] ।
⋙ अवलोकना पु
क्रि० सं [सं० अवलोकन] १. देखना । उ०— गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी । प्रगट न लाज निशा अवलोकी ।—मानस, १ ।२५९ ।२. जाँचना । अनुसंधान करना ।उ०— फिरत वृथा भाजन अवलोकत सूनै सदन अजान ।— सुर०, १ ।१०३ ।
⋙ अवलोकनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अवलोकन] आँख । दृष्टि । चितवन । उ०—अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास । भायप भलि चहुँ बंधु की जलमाधुरी सुबास । —मानस,१ ।४२ ।
⋙ अवलोकनीय
वि० [सं०] देखने योग्य । दर्शनीय ।
⋙ अवलोकित
वि० [सं०] देखा हुआ । दृष्ट ।
⋙ अवलोकितेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम ।
⋙ अवलोक्य
वि० [सं०] देखने योग्य । अवलोकनीय [को०] ।
⋙ अवलोचना पु
क्रि० स० [सं० अवलोचन, आलोचन] दूर करना । उ०—सोचँ अनागम कारण कंत को मोचै उसासनि आँसहूँ मोचै । मोची न हेरि हरा हिय को पदमाकर मोचि सकै न सँकोचै । कोत की इह चाँदनी चैते अलि, याहि निबाहि बिथा अवलोचै । लोचै परी सो परी परजंक पैं बीती घरी न घरी घरी सोचै । —पद्माकर ग्र० पृ० १२१ ।
⋙ अवलोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. काटना । काटकर दुर करना । बिगा— ड़ना । २. अधर को दाँत से क्षत कर ना । अधर चूमना [को०] ।
⋙ अवलोभन
संज्ञा पुं० [सं०] विषयवासना [को०] ।
⋙ अवलोम
वि० [सं०] १. अपनी तरफदारी करनेवाला । अपना पक्ष लेनेवाला । २. उपयुक्त [को०] ।
⋙ अवल्गुज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सोमराजी नामक पौधा [को०] ।
⋙ अवल्गुज (२)
वि० जिसका मूल अच्छा न हो [को०] ।
⋙ अववद
संज्ञा पुं० [सं०] निदा । अपवाद [को०] ।
⋙ अववदान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अववद' [को०] ।
⋙ अववदित
वि० [सं०] सिखलाया हुआ । समझाना हुआ [को०] ।
⋙ अववदिता
वि० [सं० अववदितृ] निर्णयक ढ़ंग से बोलनेवाला [को०] ।
⋙ अववरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छेद । २. खिड़की [को०] ।
⋙ अववाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. निंदा । बुराई । २. विश्रास । ३. अनादर । अवज्ञा । ४. सहारा । भरोसा । ५.आदेश । ६. सूचना [को०] ।
⋙ अवश
वि० [सं०] १. विवश । परवश । लाचार । २. स्वतंत्र । मुक्त [को०] । ३. अनियंत्रित [को०] ४. जरुरी । आवश्यक (को०) । यौ०—अवशग = स्वतंत्र । अवशीभुत = अनियंत्रित । अवशोंद्रिय— चित = जिसका मन और मस्तिष्क वश में न किया जा सके ।
⋙ अवशप्त
वि० [सं०] अभिशप्त । [को०] ।
⋙ अवशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मरकही या बुरी गाय [को०] ।
⋙ अवशिष्ट
वि० [सं०] बचा हुआ । शेष । बाकी । बचा खुचा । बचा बचाया ।
⋙ अवशीन
संज्ञा पुं० [सं०] बिच्छू [को०] ।
⋙ अवशीर्णा
वि० [सं०] टूटा फूटा । नष्ट [को०] ।
⋙ अवशीर्षक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] विरक्त मित्र या राज्यपराध के कारण बहिष्कृत व्याक्ति के साथ फिर संधि करना ।
⋙ अवशीर्ष (१)
वि० [सं०] जिसका सिर झुका हो ।
⋙ अवशीर्ष (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का नेत्ररोग [को०] ।
⋙ अवशेष (१)
वि० [सं०] १. बचा हुआ । शेष । बाकी । उ०—चोर चला चोरी करन किये साहु का भेष । गल्ले सब जग मूसिया चोर रहा अवशेष । —कबीर (शब्द०) । २. समाप्त ।
⋙ अवशेष (२)
संज्ञा पुं० [सं० अवशिष्ट] बची हुई वस्तु । २. अंत । समाप्ति ।
⋙ अवशेषित
वि० [सं०] बचा हुआ । अवशिष्ट । उ० —रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिय न ताहु । अजहुँ देत दुख रबि ससिहिं सिर अवशेषित राहु ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अवश्यंभावी
वि० [सं० अवश्यम्भाविन्] जो अवश्य हो, टले नहीं । अटल । ध्रुव ।
⋙ अवश्य (१)
क्रि० वि० [सं०] निश्चय करके । निस्संदेह । जरूर ।
⋙ अवश्य (२)
वि० [स्त्री अवश्या] १. जो वश में न आ सके । दुर्दांत । २. जो वश में न हो । अनायत्त ।
⋙ अवश्यक
वि० [सं०] दे० 'आवश्यक' [को०] ।
⋙ अवश्यमेव
क्रि० वि० [सं०] अवश्य । निस्सदेह । जरुर ।
⋙ अवश्यसैन्य
वि० [सं०] राजा या राष्ट्र जिसकी सेना वश में न हो । विशेष—पुराने नीतिज्ञ इसकी अपेक्षा अव्यवस्थित सैन्य अच्छा समझते थे । पर कौटिल्य के मत में अवश्यसेना साम आदि उपायों से वश में की जा सकती है, अत?वही अच्छी है ।
⋙ अवंश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वच्छंद स्त्री । २. कुहरा [को०]
⋙ अवंश्याय
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिम । तुषार । पाला । २. झींसी । झडी । ३. अभिमान । यौ०—अवश्यायपट=एक तरह का कपड़ा ।
⋙ अपश्रयण
संज्ञा पुं० [सं०] चूल्हे पर से पके हुए खाने को उतारकर नीचे रखना । अधिश्रमण का उलटा ।
⋙ अवष्कयणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुत समय बाद बच्चा देनेवाली गाय [को०] ।
⋙ अवष्टंभ
संज्ञा पुं० [सं० अवष्टम्भ] [वि० अवष्टब्ध] १. सहारा । आश्रय । २. थंभा । थाम । ३. सोना । ४. अनभ्रता । ५. आरंभ (को०) । ६. खड़ा होना । रुक जाना (को०) । ७. हिम्मत । साहस (को०) । ८. रोक । बाधा (को०) । ९. लकवा । फालिज (को०) । १०. उत्तमता । श्रेष्ठता (को०) ।
⋙ अवष्टंभन
संज्ञा पुं० [सं० अवष्टम्भन] १. सहारा लेना तथा देना । २. जड़करना । ३. रुकना । स्थिर न होना । ४. स्तंभ [को०] ।
⋙ अवष्टब्ध
वि० [सं०] १. जिसे सहारा मिला हो । अश्रित । २. रोका हुआ । बाधित [को०] । ३. समीपवर्ती (को०) । ४. जड़ीकृत । जो जड़ बना दिया गया हो (को०) । ५. बद्ध । लगा हुआ (को०) । ६. आवृत । आवेष्टित (को०) ७. पराभूत (को०) ।
⋙ अवसंजन
संज्ञा पुं० [सं० अवसञ्जन] आलिगन [को०] ।
⋙ अवसंड़ीन
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षियों के नीचे उतरने की गती ।
⋙ अवस (१)
क्रि० वि० [हि०] दे० 'अवश्य' ।
⋙ अवस (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । २. सूर्य । ३. अर्क । मदार । ४. ५. नाश्ता । ६. रक्षण [को०] ।
⋙ अवस (३) पु
वि० [सं० अवश] लाचार । विवश ।
⋙ अवसक्त (१)
वि० पुं० [सं०] लगा हुआ । संसृष्ट । संलग्न ।
⋙ अवसक्त (२)
संज्ञा पुं० लगाव । संलग्नता । संबद्धता [को०] ।
⋙ अवसक्थिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अरदावन । उंचन । अदवाइन । अदवान । २. एक मुद्ना जिसमें उकड़ूँ बैठकर एक कपड़े की पीठ पर से ले जाकर आगे घुटनों को लेकर बाँधते है । प्रौढ़पाद । पर्यकबंध ।
⋙ अवसथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वासस्थान् । ठौर । गाँव । २. घरा । ३. मठ जिसमें विद्यार्थी रहे । बोर्ड़िग हाउस ।
⋙ अवसस्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवसथ' ।
⋙ अवसथ्य (२)
वि० गृहसंबधी [को०] ।
⋙ अवसन्न
वि० [सं०] १. विषादप्राप्त । विषणा । २. विनाशोन्भुख । नष्ट होनेवाला । ३. सुस्त । आलसी । स्वकार्यक्षम । ४. मृत । गात (को०) । ५. समाप्त । निष्कासित (को०) ।
⋙ अवसर
संज्ञा पुं० [सं०] १. समय । काल । उ०—एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रुप । बिसाल । मानस, १ ।१३१ । अवकाश फुरसत । ३. इत्तिफाक । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना ।—पाना ।—बीतना ।—मिलना । मुहा०—अवसर चूकना = मौका हाथ से जाने देना । उ०— अवसर चूकी ड़ोमिनी गावँ ताल वेताल ।—(कहा०) । अवसर ताकना=उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करना । मौका ढूँढ़ना । अवसर मारा जाना = मौका हाथ से निकल जाना । समय बीत जाना । उ०—संसारी समय विचारिया क्या गिरही क्या योग । औसर मारा जाता है चेतु बिराने लोग ।—कवीर (शब्द०) । ४. एक काव्यालंकार जिसमें किसी घटना का ठीक अपेक्षित समय पर घटित होना वर्णन किया जाय; जैसे—प्रान जो तजैगी बिरहाग में मयंकमुखी, प्रानघाती पापी कौन फूली ये जुही जुही । जौ लौं परदेशी मन भावन विचार कीन्हों तौ लौं तूही प्रकट पुकारी है तुही तुही ।—चितामणि (शब्द०) । ५. भूमिका । परिचय़ (को०) । ६. साल । वर्ष (को०) ।७. वर्षा (को०) । ८. एकांत परामर्श [को०] । यौ०—अवसरग्रहण = अवकाशग्रहण । अवसरप्राप्त=अवकाशप्राप्त ।
⋙ अवसरप्राप्त
वि० [सं०] जिसमे अपने काम से सदा के लिये अवसर ग्रहण कर लिया हो । जिसने पेंशन ले ली हो; जैसे— अवसर प्राप्त मैजिस्ट्रेट ।
⋙ अवसरवाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक पाश्चात्य दार्शनिक सिद्धात । विशेष—इसके अनुसार ईश्वर ही वास्तव में कर्ता और ज्ञाता है और जीव काल्पनीक कर्ता और ज्ञाता मात्र है । इस सिद्धांत के अनुसार जब जब शरीर पर असर होने से आत्मा को संवेदन या सुख दःख होते है, ओर जब जब आत्मा की कृति- शक्ति से शरीर हीलता है, तब तब आत्मा और शरीर के बीच में पड़कर ईश्वर कार्य करता है । संवेदन का शरीर और शारीरिक गति का आत्मा केवल समय समय पर सहकारी कारण है, वस्तुत? इस संवेदन और दोनों ही का कारण ईश्वर है । यह सिद्धात मेलब्रांश और ज्यूलोक का है जिससे मेलब्रांश ईश्वर को ज्ञाता और ज्यूलोक कर्ता मात्र मानता है ।
⋙ अवसरवादिता
संज्ञा स्त्री [सं०] मौके से फायदा उठाने की प्रवृत्ति ।
⋙ अवसरवादी
वि० [सं० अवसरवादिन्] [ अं० एपाँरचुनिस्ट] १. समय के अनुकूल अपने सिद्धातों को परिवर्तित करनेवाला । अवसर से लाभ उठानेवाला ।२. अवसरवाद के दार्शनिक सिद्धांत को माननेवाला ।
⋙ अवसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुक्ति । छोड़देना । २. शिथिल करना । ३. स्वतंत्र करना [को०] ।
⋙ अवसर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] छोड़ना । बंधन से मुक्त कर देना [को०] ।
⋙ अवसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] खुपिया । जासूस [को०] ।
⋙ अवसर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] अधोगमन । अध?पनन । अवरोहण । विवर्तन ।
⋙ अवसार्पिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनशास्त्रानुसार गिराव का समय जिसमें रुपादि का क्रमश?ह्रास होता है । इसके छह विभाग है जिनको 'आरा' कहते है । अवरोह । विवर्त ।
⋙ अवसर्पी
वि० [सं० अवसर्पिन्] [वि० स्त्री० अवसर्पिणी ।] नीचे जाने वाला । गिरनेवाला ।
⋙ अवसवो पु †
क्रि० वि० [हि०] दे० 'अदश्यमेव' । उ०—अवसवो उद्यम लक्षि बस अवसकओ साहस मिद्धि ।—कीर्ति ०, पृ० २६ ।
⋙ अवसव्य
वि० [सं०] दाहिना । अपसव्य [को०] ।
⋙ अवसाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाश । क्षय । २. बिषाद । ३. दीनता । ४. थकावट । ५. कमजोरी । ६. कानून में कारण की सदीषता जिसकी वजह से मुकदमा गिर जाय (को०) ।
⋙ अवसादक
वि० [सं०] १. अवसाद उत्पन्न करनेवाला । २. सुस्त कर देनेवाला । असफल कर देनेवाला । २. क्षीण करनेवाला । ३. समाप्त करनेवाला [को०] ।
⋙ अवसादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाश । क्षय । ध्वंस । २. विनाशन । ३. विरक्त होना । ४. दीन होना । ५. थकना । ६. वैद्यक में व्रणचिकत्सा का एक भेद । मरहम पट्टी । ६. कार्य करने की अक्षमता [को०] ।
⋙ अवसादी
वि० [सं० अवसादिन्] अवसादयुक्त [को०] ।
⋙ अवसान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विराम । ठहराव । समाप्ति । अंत । ३. सीमा । उ० —यही तुम्हारे मान का अवसान है न?'— चंद्र०, पृ०, ५९ ।४. सायंकाल । ५. मरण । ६. घोड़े से उतरने का स्थान (को०) । ७. छंद की समाप्ति या छद । ८. रुकने का स्थान । विश्रामस्थान [को०] ।
⋙ अवसान पु (2)
संज्ञा पुं० [हि०] दे० औसान (२)' ।—(क) फिरकि— नारि, दै गारि, आपु अहि जाहि जाइ जगायौ । पग सौ चाँपि पूँछ, सबै अदसान भुलायौ ।—सूर०, १० ।५८९ । (ख) छूटत कमान अररान लग्यौ, आसमान जान लागे अवसान कहौ क्यों न लागहु । —गंग, पृ० ४६६ ।
⋙ अवसानक
वि० [सं०] नष्ट होता हुआ । समाप्त होता हुआ [को०] ।
⋙ अवसाफ पु
वि० [हि०] दे० 'औसाफ' । उ०—अवसाक तुरा गोयद सकल कवि नरहरिगुफ्तम चुनी ।—अकबरी०, पृ०, ३३३ ।
⋙ अवसाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. निष्कर्ष । निचोड़ । समाप्ति । २. अवशेष । ३. परिसमाप्ति । ४. निश्चय । ४. अंतिम अवस्था को पहुँचानेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ अवसायक
वि० [सं०] नष्ट भ्रष्ट करनेवाला । विघाटित करनेवाला । [को०] ।
⋙ अवसायिता पु
संज्ञा स्त्री [सं० अवसित = ऋद्ध] ऋद्धि । (ड़ि०) ।
⋙ अवसायी
वि० [सं० अवसायिन्] रहनेवाला [को०] ।
⋙ अवसारण
संज्ञा पुं० [सं०] हटाना [को०] ।
⋙ अवसि पु
क्रि० वि० दे० 'अवश्य' । उ०—प्रवसि चलिअ बन राम जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह ।—मानस, २ ।१८४ ।
⋙ अवसिक्त
वि० [सं०] सीचा हुआ । सिंचित [को०] ।
⋙ अवसित (१)
वि० [सं०] १.समाप्त । २. ऋद्ध । बढ़ा हुआ । ३. परि— पक्व । ४. निश्चित । ५. संबद्ध । ६. रहनेवाला । ७.जमा किया हुआ । एकत्र किया हुआ । ८. ज्ञाना । जाना हुआ [को०] ।
⋙ अवसित (२)
संज्ञा पुं० १. रहने की जगह । २. खलिहान [को०] ।
⋙ अवसी
संज्ञा स्त्री० [आवसित, प्रा० आवसिअ = पका धान्य] वह धान्य या शस्य जो कच्चा नवान्न आदि के लिये काटा जाय । अवली ।अरवन । गद्दर ।
⋙ अवसुप्त
वि० [सं०] सोया हुआ (को०) ।
⋙ अवसृष्ट
वि० [सं०] [स्त्री० अवसृष्टा] १. त्यागा हुआ । त्यक्त । २. निकाला हुआ । ३. दिया हुआ । दत्त ।
⋙ अवसेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंचन । २. एक प्रकार का नेत्र रोग [को०] ।
⋙ अवसेख पु
वि० [हि०] दे० 'अवशेष' । उ०— उहाँ राम रजनी अवसेखा । जागे सीय सपन अस देखा ।— मानस, २ ।२२५ ।
⋙ अवसेचन
संज्ञा पुं० [सं०] सींचना । पानी देना । २. पसीजना । पसीना निकलना । ३. वह क्रिया जिसके द्वारा रोगी के शरीर से पसीना निकाला जाय । ४. जोंक, सींगी, तूँबी या फस्द देकर रक्त निकालना । ५. जल जो छिड़का जाय (को०) ।
⋙ अवसेर
संज्ञा स्त्री० [सं० अवसेरु = बाधक] १. अटकाव । उलझन । उ०—भयो मो मन माधव के अवसेर । मौन धरे मुख चितवत ठाढ़ी ज्वाब न आवै फेर । तब अकुलाय चली उठि बन को बोले सुनत न देर ।— सूर (शब्द०) । २. देर । विलंब । उ०— महारि पुकारत कुँअर कन्हाई । माखन धरयो तिहारे कारन आजु कहाँ अवसेर लगाई ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना ।—लगाना ।—होना । ३. चिंता । व्यग्रता । उचाट । उ०— (क) भए बहुत दिन अति अवसेरी । सगुन प्रतीति भेट प्रिय केरी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) आजु कौन बन गाइ चरावत, कहँ धौं भई अबेर । बैठे कहँ सुधि लेउँ कौन विधि ग्वारि करत अवसेर । सूर०, १० ।४५८ । क्रि० प्र०—करना । उ०— दूती मन अवसेर करै । श्याम मनावन मोहि पठाई यह कतहूँ चितवै न टरै । —सूर (शब्द०) ।—लगाना । उ०—अब ते नयन गए मोहि त्यागि । इद्री गई गयो तन ते मन उनहि बिना अवसेरी लागि ।-सूर (शब्द०) । ४. हैरानी । बेचैनी । उ०—दिन दस घोष चलहु गोपाल । गाइन के अवसेर मिटावहु लेहु आपने ग्वाल ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना = दुःख देना । —मिटाना ।—में पड़ना = दु?ख में फँसना ।- में फँसना=दुख में पड़ना । अवसेरन मरना= दुख ले तंग आना ।
⋙ अवसेरना पु
क्रि० स० [हिं० अवसेर] तंग करना । दु?ख देना । उ०— पिय पागे परोसिन के रस में बस में न कहूँ बस मेरे रहै । पद्माकर पाहनी सी ननद निस नींद तजे अवसेरे रहै ।— पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ अवसेष पु
वि० [हि०] दे० 'अवशेष' ।
⋙ अवसेषित पु
वि० [हि०] दे० 'अवशेषित' ।
⋙ अवसेस पु
वि० [हिं०] दे० 'अवशेष (१)' । उ०— करि भोजन अवसेस जज्ञ कौ त्रिभूवन भूख हरी ।— सूर०, १ । १६ ।
⋙ अवस्कंद
संज्ञा पुं० [सं० अवस्कन्द] १. सेना के ठहरने की जगह । शिविर ।— डेरा । २. जनवासा । ३. आक्रमण । हमला (को०) ।
⋙ अवस्कंदक
संज्ञा पुं० [सं० अवस्कन्दक] जो रास्ते चलते लोगों को मारे पीटे ।
⋙ अवस्कंदित
वि० [सं० अवस्कन्दित] १. जिसपर आक्रमण किया गया हो । २. नीचे गया हुआ । ३. अशुद्ध गलत । ४. नहाया हुआ । स्नात [को०] ।
⋙ अवस्कंदितश्रमी
संज्ञा पुं० [सं० अवस्कन्दितक्श्रमी] मजदूरी या तनखाह लेकर भाग जानेवाला मजदूर ।
⋙ अवस्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलमूत्र । २. मलमूत्रेंद्रिय । ३. कूडा कर्कट । ४. कतवारकाना । जहाँ कूडा कर्कट एकत्र रहता है । घूर ।
⋙ अवस्करक (१)
वि० [सं०] गंदगी से उत्पन्न होनेवाला [को०] ।
⋙ अवस्करक (२)
संज्ञा पुं० १. मेहतर । २. गोबरैला । ३. झाडू [को०] ।
⋙ अवस्करभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] वह नल जिससे पाखाना बह कर बाहर जाता हो ।
⋙ अवस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी के मुख का वह भाग जो दोनों आँखों के ठीक बीच में है [को०] ।
⋙ अवस्तार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्दा । २. खेमे के चारो ओर लगाया गया कपड़ा । कनात । ३. चटाई [को०] ।
⋙ अवस्तु
वि० [सं०] १. जो कोई वस्तु न हो । शून्य । २. तुच्छ । हीन ।
⋙ अवस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दशा । हालत । उ०— सुनता हूँ परम भट्टारक की अवस्था अत्यंत शोचनीय है ।- स्कंद०, पृ० ३२ । २. समय । काल । उ०— मरन अवस्था कौं नृप जानै । तौ हू धरै न मन में ज्ञानै ।- सूर०, ४ ।१२ । ३. आयु । उम्र । ४. स्थिति । उ०— 'भाव के इस प्रकार प्रकृतिस्थ हो जाने की अवस्था को हम शील दशा कहेंगे' ।- रस०, पृ० १८३ । ५. वेदांत दर्शन के अनुसार मनुष्य की चार अवस्थाएँ- जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय । ६. स्मृति के अनुसार मनुष्य जीवन की आठ अवस्थाएँ- कौमार, पौगंड, कैशौर, यौवन, बाल, तरूण, वृद्ध और वर्षीयान् । ७. सांख्य के अनुसार पदार्थों की तीन अवस्थाएँ-अनागतावस्था, व्यक्ताभिव्यक्तावस्था और तिरोभाव । ८. निरूक्त ते अनुसार छह प्रकार की अनस्थाएँ- जन्म, स्थिति, वर्धन, विपरिणमन, अपक्षय और नाश । ९. कामशास्त्रानुसार दस अवस्थाएँ- अभिलाष, चिंता, स्मृति, गुण- कथन, उद्धेग, संलाप, उन्माद, व्यधि, जडता और मरण । १०,जैनशास्त्रानुसार लाभ की प्राप्ति के पूर्व की स्थिति । यह पाँच प्रकार की है— व्यक्त, अव्यक्त, जप, आदान और निष्ठा । ११. योनि । भग (को०) । १२, आकृति । रूप [को०] । यौ०— अवस्यांतर = एक अवस्था से दूसरी अवस्था को पहुँचना । हालत का बदलना । दशापरिवर्तन । अवस्थाद्वय= सुख और दु?ख जीवन की दो अवस्थाएँ ।
⋙ अवस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थिति । संत्ता । २. स्थान । जगह । वास । ३. निवासस्थान [को०] । ४. रहना । ठहरना [को०] । ५. रुकने या ठहरने का काल [को०] ।
⋙ अवस्थापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निवेशन । रखना । स्थापन करना । २. निवास (को०) ।
⋙ अवस्थापरिणम
संज्ञा पुं० [सं०] दो० 'परिणाम' (योग) ।
⋙ अवस्थित
वि० [सं०] १. उपस्थित । विद्यमान । मौजूद । २. निश्चेष्ट (को०) । ३. तैयार । तत्पर । (को०) । ४. अच्छी तरह संयोजित या लग्न (को०) । ५. टिका हुआ । निर्भर (को०) ।
⋙ अवस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्तमानता । स्थिति । सत्ता । अवस्थान ।
⋙ अवस्नात
वि० [सं०] (जल) जिसमें स्नान किया गया हो [को०] ।
⋙ अवस्फूर्ज
संज्ञा पुं० [सं०] बादलों की ध्वनि । गर्जन । गड़गड़ाहट [को०] ।
⋙ अवस्यंदन
संज्ञा पुं० [सं० अवस्यन्दन] टपकना । चूना । गिरना ।
⋙ अवस्य पु
क्रि० वि० [सं० अवश्य] दे० 'अवश्य' । उ०— और श्रीरन- छोर जी तो श्रीअचार्य जी के माने हैं, तातें वहाँ अवस्य जानो ।— दो सौ हावन०, पृ० १८ ।
⋙ अवस्यक पु
वि० [सं० आवश्यक] दे० 'आवश्यक' । उ०— चतुर सेनापहिं नित न अवस्यक बल दिखारावन ।— रत्नाकर, भा० १, पृ० २६ ।
⋙ अवह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दिशा जिसमें नाले न हों । २. वह वायु जो आकाश के तृतीय स्कंध पर है । ईथर ।
⋙ अवह (२)
वि० १. जो वहन न किया जा सके । जो ढोया न जा सके । २. बिना नदी या सोतेवाला [को०] ।
⋙ अवहनन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कूटना (जैसे धान) । २. पछोरना । फटकना । ३. धान कूटकर चावल अलग करना । ४. फुफ्फुस । फेफड़ा [को०] ।
⋙ अवहरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चुरा लेना । जबरदस्ती ले लेना । २. अन्यत्र जाना या ले जाना । ३. युद्धक्षेत्र से शिविर को वापस होना [को०] ।
⋙ अवहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ या गदेली का पृष्टभाग । उलटा हाथ ।
⋙ अवहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलहस्ति । सूँस । २. जोर । तस्कर (को०) । ३. आमंत्रण ४. युद्धक्षेत्र से वापस होना (को०) । ५. संधि । शस्त्रविराम । (को०) ६. धर्मत्याग । ७. समीप लाने के योग्य या अनुकूल (को०) । ८. अपहरण (को०) । ९. वापस करना (को०) ।
⋙ अवहारक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूँस नामक जलजंतु (को०) ।
⋙ अवहारक (२)
वि० १. युद्ध रोकनेवाला । २. बचाव करनेवाला । ३. एक स्थान से दूसरी जगह ले जानेवाला [को०] ।
⋙ अवहार्य
वि० [सं०] १. ले जाने योग्य । २. दड योग्य या अर्थदंड योग्य । ३. जिसे लौटने के लिये बाध्य हों । ४. पूर्ण होनेवाला [को०] ।
⋙ अवहालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दीवार । प्राचीर । घेरा [को०] ।
⋙ अवहास
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुस्कान । मुस्काहट । २. उपहास । हँसी । मजाक उडाना [को०] ।
⋙ अवहित
वि० [सं०] सावधान । एकाग्रचित्त ।
⋙ अवहित्थ
संज्ञा पुं० [सं०] अवहित्था [को०] ।
⋙ अवहित्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का भाव जब कोई भय, गौरव, लज्जादि के कारण हर्षादि को चतुराई से छिपावे । यह संतारी या व्यभिचारी में गिना जाता है । आकारगुप्ति जैसे,— ज्यों ज्यों चबाब चलै चहुँ ओर, धरैं चित चाव ये त्योंही त्यों चोखे । कोऊ सिखावनहार नहीं बिनु लाज भए बिगरैल अनोखे । गोकुल गाँव को एती अनीति कहाँ ते दई धौं दई अनजोखे । देखती हौ मोहिं माँझ गली में गही इन आइ धौं कौन के धोखे । —(शब्द०) ।
⋙ अवही
संज्ञा पुं० [सं० अवह= बिना पानी का देश] एक प्रकार का बबूला जो काँगडा में होता है । विशेष— इसकी लपेट आठ फुट की होती है । यह मैदानों में पैदा होता और इसकी लकडी खेत के औजार बनाने तथा छतों के तख्तों में काम आती है ।
⋙ अवहृत
वि० [सं०] १. आगे या पीछे हटाया हुआ । २. चुराया हुआ । ३. दंडित किया गया [को०] ।
⋙ अवहेलन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अवहेलना] [वि० अवहेलित] १. अवज्ञा । अपमान । २. आज्ञा न मानना ।
⋙ अवहेलना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अवज्ञा । अपमान । तिरस्कार । उ०— वे ईष नियमों की कभी अवहेलना करते न थे ।— भारत०, पृ० ६ । २. ध्यान न देना । बेपरवाही ।
⋙ अनहेलना पु (२)
क्रि० स० [सं० अवहेलन] तिरस्कार करना । अवज्ञा करना । उ०— इन उतपातन गनिय सुजात न, सब अवहेलिय० रन मद झेलिय ।— सुजान० पृ०२२५ ।
⋙ अवहेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अवज्ञा । तिरस्कार । अवहेलना । उ०— तब मेरी अवहेला की गई; यह उसी का परिणाम है ।— स्कंद० पृ० १४७ ।
⋙ अवहेलित
वि० [सं०] जिसकी अवहेला हुई हो । तिरस्कृत ।
⋙ अवांछनीय
वि० [सं० अवाञ्छनीय] १. जिसे न चाहा जाय । अप्रिय । २. उपेक्षणीय [को०] ।
⋙ अवांतर (१)
वि० [सं० अवान्तर] १. अंतर्गत । २. मध्यवर्ती । बीज का ३. दूसरा । गौण । अन्य [को०] ।
⋙ अवांतर (२)
संज्ञा पुं० मध्य । भीतर । बीच । यौ.—अवांतर दिशा = बीच की दिशा । विदिशा । अवांतर देश = दो देशों का मध्यवर्ती स्थान । अवांतर भेद= अंतर्गत भेद । भाग का बाग । अवांतर वाक्य = महावाक्य के मध्य में आनेवाला वाक्य या सार्थक शब्दसमूह ।
⋙ अवाँ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अवाँ' । उ०— चंदन की चोली और कपूर च्वाएँ अंग अंग विरह की आँच त्यों अवाँ ज्यों सिलगा- इगो ।— गंगा०, पृ० २८३ ।
⋙ अवाँग
वि० [सं० अवाड्] १. झुका हुआ । नत । २. टेढे अंगवाला ।
⋙ अवाँगना पु
क्रि० स० [ हिं० अवाँग+ ना ] नीचे की ओर झुकाना । अवनत करना ।
⋙ अवांच
वि० [सं० अवाञ्च] १. झुका हुआ । दबा हुआ । २. अधोमुख । ३. नीचे की ओर स्थित [को०] ।
⋙ अवांच (२)
संज्ञा० पुं० १. दक्षिण । २. ब्राह्मण [को०] ।
⋙ अवाँसना †
क्रि० स० [हिं०] अनवासना । नए बर्तन को पहले पहले काम में लाना ।
⋙ अवाँसी
संज्ञा स्त्री० [सं० अवासित] वह बोझ जो फसल में से पहले पहले काटा जाय । यह नवान्न के लिये काम में आता है । अखान । ददरी । कवल । अवली ।
⋙ अवाई
संज्ञा स्त्री० [सं० आयन=आगमन] १. आगमन । उ०— (क) इहाँ राज अस सेन बनाई । उहाँ साह कै भई अवाई ।— जायसी ग्र०, पृ० २३० । (ख) लखि यों अवाई बीर की रिपु भीर में खलबल भई ।- पद्माकर ग्रं, पृ० १७ । २. गहरा जोतना । गहरी जोताई ।- 'सेव' का उलटा ।
⋙ अवाक्
वि० [सं०] १. चुप । मौन । चुपचाप । २. निचे मुख किए हुए । अधोमुख । २. स्तब्ध । जड़ । स्तंभित । चकित । विस्मित । ३. दक्षिण का । दक्षिणी [को०] । क्रि० प्र०— रहना ।— होना । यौ.— अवाङ् मनसगोचर= जिसका न वर्णन हो सके और न चिंतन । वारणी और मन परे, जैसे ईश्वर ।
⋙ अवाक्पुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह पौधा जिसके फूल अधोमुख हों । २. सौंफ । ३. सोया ।
⋙ अवाकशाख
संज्ञा पुं० [सं०] पीपल [को०] ।
⋙ अवाक्रश्रुति
वि० [सं०] बोल न सुन सकनेवाला । गूँगा बहरा [को०] ।
⋙ अवाकसंदेश
संज्ञा पुं० [बंग०] एक प्रकार की बँगला मिठाई ।
⋙ अवाक्ष
वि० [सं०] रक्षक । अभिभावक । देखभाल करनेवाला [को०] ।
⋙ अवागी पु
वि० [सं० अवाग्मिन्=अपटु] मौन । चुप ।
⋙ अवाङ्
वि० [सं०] नीचे की तरफ झुका हुआ [को०] ।
⋙ अवाङनरक
संज्ञा पुं० [सं०] जिह्वा छेदन का दु?ख । जुह्वा काटने कादंड । जबान काटने की सजा ।
⋙ अवाङनिरय
संज्ञा पुं० [सं०] सबसे नीचे का नरक अर्थात पृथ्वी [को०] ।
⋙ अवाङमुख (१)
वि० [सं०] १. अधोमुख । उलटा । नीचे मुँह का । २. लज्जित ।
⋙ अवाङमुख (२)
संज्ञा पुं० एक शस्त्र [को०] ।
⋙ अवाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षिण दिशा । उ०— प्राची प्रतीची अवाची बिलोकि दसो होत ही कूच कुकैनी- गंगा०, पृ० ३४० ।
⋙ अवाचीन
वि० [सं०] १. अधोमुख । मुहँ लटकाए हुए । २. लज्जित ३. दक्षिण संबधी । दक्षिणी । दक्षिण का [को०] । ४. नीचे गया हुआ [को०] ।
⋙ अवाच्य (१)
वि० [सं०] १. जो कहने योग्य म हो । अनिंदित । विशुद्ध । २. जिससे बात करना उचित न हो । नीच । निंदित । ३. स्पष्टतारहित । अस्पष्ट [को०] । ४. दक्षिण संबंधी । दक्षिणी [को०] ।
⋙ अवाच्य (२)
संज्ञा पुं० कुवाच्य । बुरी बात । गाली । यौ०— अवाक्यदेश =वह स्थान जिसकी बाबत कुछ कहना ठीक न हो— योनि ।
⋙ अवाज पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० आवाज] ध्वनि । शब्द । आवाज । उ०— कहियत पतित बहुत तुम तारे स्रवननि सुनी आवाज । दई न जात खार उतराई चाहत चढयौ जहाज ।—सूर०, १ । १०८ ।
⋙ अवाजी पु
वि० [फा० आवाज] शब्द करनेवाला । चिल्लानेवाला । उ०— यदपि आवाजी परम तदपि बाजी सो छाजत ।— गोपाल (सब्द०) ।
⋙ अवाडू पु
वि० [सं० अपवृत अथवा देशी] विपरीत । उलटा । उ०—पाँखडियाँ ई किऊँ नहीं, दैव अवाडू ज्याँह । चकवीकइ इह पंखड़ी, रमणि न मेलउ त्याँह ।— ढोला० दू० ७१ ।
⋙ अवात
वि० [सं०] वातशून्य । जहाँ वायु न लगे । निर्वात । २. अवाक्रांत [को०] ।
⋙ अवादादे०
वि० पुं० [हिं० वादा] दे० 'वादा' ।
⋙ अवादी
वि० [सं० अवादिन्] १. न बोलनेवाला । अवक्ता । २. जो कोई वाद उपस्थित नहीं करता । शांतिप्रिय [को०] ।
⋙ अवान
वि० [सं०] सूखा हुआ । शुष्क [को०] ।
⋙ अवापित
वि० [सं०] १. जो बोया न गया हो । रोप हुआ । २. (केश) जो काटा हुआ न हो [को०] ।
⋙ अवाप्त
वि० [सं०] प्राप्त । लब्ध ।
⋙ अवाप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राप्ति । २. (गणित में) उद्धरण । [को०] ।
⋙ अवाप्य
वि० [सं०] १. प्राप्त करने योग्य । २. (केश) न काटने योग्य [को०]
⋙ अवाम
संज्ञा पुं० [अ० 'आम' का बहुव०] साधारणजन । सर्वसाधारण । आम लोग । उ०— करैं तृप्त किमि तुमहि अवाम ।— प्रेमध०, पृ० १४१ ।
⋙ अवाय (१)पु
वि० [सं० अवर्य] अनिवार्य । उच्छृंखल । उद्धत । उ०— दीनदयाल पतित पावन प्रभु बिरद भुलावत कैसे । कहा भयो गज गनिका तारींजो जन तारौ ऐसे । अकरम अबुध अज्ञान अवाया अनमारग अनरीति । जाको नाम लेत अध उपजै सो मैं करी अनीति ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ अवाय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ में पहनने का भूषण । कड़ा । —डिं०
⋙ अवार
संज्ञा पुं० [सं०] नदी के इस पार का किनारी । सामने का किनारा । 'पार' का उलटा । उ०— उठा अवार न पार जाकर भी गई । उर्मि हूँ मैं इस भवार्णव की नई ।— साकेत, पृ० ३०३ ।
⋙ अवारजा
संज्ञा पुं० [फा०] १. वह बडी जिसमें प्रत्येक असामी की जोत आदि लिखी जाती है । २. जमाखर्च की बही । ३. वहबही जिसमें याददाश्त के सिये नोट किया जाय । ४. संक्षिप्त वृत्तांत । गोशवारा । खतियौनी । संक्षिप्त लेखा । उ०— साँचो सो लिखधार कहाँवै । काय ग्राम मसाहत करिकै जमाबंधि ठहरावै । करि अवारजा प्रेम प्रीति को असल तहाँ खतियावै । दूजी करे दूरि दाई तनक न तामें आवै ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ अवारण
वि० [सं०] १. जिसका निषेध न हो सके । सुनिश्चित । २. जिसकी रोक न हो सके । बेरोक । अनिवार्य ।
⋙ अवारणीय (१)
वि० [सं०] १. जो रोका म जा सके । बेरोक । अनिवार्य । २. जिसका अवरोध म हो सके । दूर न हो सके । ३. जो आराम न हो । असाध्य ।
⋙ अवारणीय (२)
संज्ञा पुं० सुश्रुत के अनुसार रोग का वह भेद जो अच्छा न हो । असाध्य रोग । विशेष— यह आठ प्रकार है- वात, प्रेमेह, कुष्ठ, अर्श, भगंदर, अश्मरी, सूढगर्भ और उदररोग ।
⋙ अवारना पु
क्रि० स० [सं० अ + वारण] १. रोकना । मना करना २. वारना । न्यौछावर करना ।
⋙ अवारपार
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र ।
⋙ अवारा †
वि० [हिं०] दे० 'आवारा'
⋙ अवारा (२)पु
वि० [हिं० आला + वार (प्रत्या०)] आनेवाले । आगंतुक । परदेशी । उ०— सिसिर सिरान्यो आस आवनि अवारे की ।— प्रेमघन०, पृ० २२९ ।
⋙ अवारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनिया ।
⋙ अवारिजा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अवारजा' ।
⋙ अवारित
वि० [सं०] जिसपर रोक न हो । रोक या प्रंतिबंध- मुक्त [को०] । यौ०— अवरित द्वार = जिसका द्वार बंद न हो खुला हो ।
⋙ अवारी (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० वारण] बाग । लगाम ।
⋙ अवारी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अवार] १. किनारा । मोड़ । क्रि० प्र०— देना = नाव फेरना । २. मुखविवर । मुँह का छेद ।
⋙ अवारीण
वि० [सं०] नदी पार गया हुआ [को०] ।
⋙ अवारो पु †
संज्ञा पुं० [सं० अ = दूषित + प्रा० वार = वे] अबेर । देर । बिलंब । अतिकाल । उ०— तब अवारो सो ये सेवा सों पहोंचता ।— दो सौ बावन०, पृ० २१० ।
⋙ अवर्स
वि० [सं०] दे० 'अवारणीय' । उ०— उस पहेले के ही मलबे से जिसका जलना गिरना अवार्य । — दैनिकी, पृ० २१ ।
⋙ अवावट
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरे सवर्ण पति से उत्पन्न पुत्र, जैसे कुंड और गोलक ।
⋙ अवास पु
संज्ञा पुं० [लाआवास] नीवासस्थान । घर । उ०— कबिरा कहा गरब्बिया ऊँचा देखि अवास । कलि परे भुई लोटना ऊपर जमिहै घास ।— कथीर (शब्द) । (ख) बाजति नंद अवास बधाई । बैठे खेलत द्वार आपनैं, सात बरस के कुँवर कन्हाई ।— सूर०, १० ।८१८ ।
⋙ अवासा
संज्ञा पुं० [सं० अवासस्] एक प्रकार के दिगंबर जैन जो 'नग्न' के अंतर्गत है ।
⋙ अवास्तव
वि० [सं०] मिथ्या । निराधार जो । वास्तव न हो ।
⋙ अवाह (१) पु
वि० [सं० अ+वह] जो वाहन न किया जा सके । दुर्वह । उ०— इसौ आवाह अश्व दाह एक राह दष्षयं ।—पृ० रा०, १४८ ।
⋙ अवाह (२)पु
वि० [सं० अबाध, प्रा० अवाह] दे० 'अबाध' ।
⋙ अवाहन
बि० [सं०] १. जिसके पास वाहन न हो । २. जो सवारी पर न बैठा हो (को०) ।
⋙ अविंध
वि० [सं० अविद्ध] दे० 'अबिद्ध' । उ०— नदी निवासउ उत्त- रइ, आणूँ एक अविंध ।— ढोसा, दू० २३० ।
⋙ अवि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. मदार । आक । ३. पर्वत । ४. हवा । वायु । ५. मेष । भेड़ा । ६. ऊन । ७. शिक्षक । ८. दीवाल । ९. समूर । मूषिक कंबल । १०. बकरा । छाग ११. चूहा [को०] ।
⋙ अवि (२)
संज्ञा स्त्री० १. लज्जा । २. ऋतुमती स्त्री । ३. भेड़ । मेष [को०] ।
⋙ अविक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेड़ । उ०— अविक अजा मृगिनी मृग ते जालह । रक्खहु बहु दुर्ग विसालह ।— प० रा०, पृ० १७ । २. हीरा ।
⋙ अयिकच
वि० [सं०] अस्फुट । अविकसित । मुद्रित । बंद ।
⋙ अविकचित
वि० [सं०] दे० 'अविकच' [को०] ।
⋙ अविकट
संज्ञा पुं० [सं०] भेड़ों का झुंड [को०] ।
⋙ अविकत्थ
वि० [सं०] जो आत्मप्रशंसक न हो । जो अपनी वडाई न करता हो [को०] ।
⋙ अविकत्थन
वि० [सं०] दे० 'अविकत्थ' [को०] ।
⋙ अविकल
वि० [सं०] १. जो विकल न हो । ज्यों का त्यों । २. बिना उलट फेर का । २. पुर्ण । पुरा । उ०— वह दब सकता नहीं, न उनसे मिल सके जिसमें तेरी अविकल छवि हो छा रही ।— कानन०, पृ० ८३ । ३. निश्चल । अव्याकुल । शांत ।
⋙ अविकल्प (१)
वि० [सं०] १. जो विकल्प न हो । निश्चित । २. निःसंदेह । असंदिग्ध । ३. जो परिवर्तनशील न हो । अपरिवर्त्य [को०] ।
⋙ अविकल्प (२)
संज्ञा पुं० १. संदेह या विकलप का अभाव । २. निश्चया— त्मक श्थिति या कार्य [को०] ।
⋙ अविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अविक' [को०] ।
⋙ अविकाज पु
संज्ञा पुं० [हि० अ + बेकाज] दे० 'अकाज' । उ०—विसग सथ्य दिष्षौ सकल । उर मन्यो अविकाज ।— पृ० रा०, ५७ ।६९ ।
⋙ अविकार (१)
वि० [सं०] जिसमें विकार न हो । विकाररहित । निर्दोष ।
⋙ अविकार (२)
संज्ञा पुं० विकार का अभाव ।
⋙ अविकारी
वि० [सं० अविकारिन् ] [स्त्री० अविकारिणी] १. जिसमें विकार न हो । विकारशून्य । निर्विकार । उ०— व्याल पास सब भयउ खरारी । स्वबस अनंत एक अविकारी ।— तुलसी (शब्द०) २. जो किसी का वीकार न हो । उ०—साँचो जो जीव सदा अविकारी । कयों वह हैत पुमान ते न्यारी ।— केशव (शब्द०) ।
⋙ अविकार्य
वि० [सं०] जिसमें विकार न उत्पन्न हो । जिसमें परिवर्तन न हो [को०] ।
⋙ अविकाश
संज्ञा पुं० [सं० अ + विकाश ] विकास या चमक का अभाव ।
⋙ अविकाशी
वि० [सं० अविकाशिन्] दे० 'अविकासी' [को०] ।
⋙ अविकास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अविकाश' [को०] ।
⋙ अविकासी
वि० [सं० अविकासिन्] [वि० स्त्री० अविकासिनी] १. जो विकासी न हो । निकम्मा । निष्क्रिय । २. जो न खिले [को०] । ३. जो चमकनेवाला न हो (को०) ।
⋙ अविकृत
वि० पुं० [सं०] जो विकृत न हो । जो विकार को प्राप्त न हो । जो बिगड़ा न हो ।
⋙ अविकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विकार का अभाव । २. मूल प्रकृति (सांख्य०) ।
⋙ अविक्रम (१)
वि० [सं०] शक्तिहीन । दुर्बल । कमजोर [को०] ।
⋙ अविक्रम (२)
संज्ञा पुं० भीरुता । दौर्बल्य । कमजोरी [को०] ।
⋙ अविक्रांत
बि० [सं० अविक्रान्त] १. अतुलनीय । अनुपम । २. दुर्बल । कमजोर ।
⋙ अविक्रिय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अविक्रिया] जिसमें विकार न हो । जिसमें बिगाड न हो । जो विगड़ा न हो ।
⋙ अनिक्रिय (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्म [को०] ।
⋙ अविक्रेय
वि० [सं०] १. जो बेचने योग्य न हो [को०] ।
⋙ अविक्लम
संज्ञा पुं० [सं०] थकान का अभाव । ताजगी [को०] ।
⋙ अविक्षत
वि० [सं०] १. जिसकी सिसी प्रकार की हानि या क्षति न हो । २. पूरा । पूर्ण [को०] ।
⋙ अविक्षिप्त
वि० [सं०] १. जो फेंका हुआ न हो । जो विक्षिप्त न हो । समझदार [को०] ।
⋙ अविगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० अविगन्धा] अजगंधा नामक एक पौधा [को०] ।
⋙ अविगत
वि० [सं०] १. जो विगत म हो । जो जाना न जाय । उ०— दूजे घट इच्छा भई चित मन सातो कीन्ह । सात रूप निरभाइया अविगत काहु न चीन्ह ।— कबीर (शब्द०) । २. अज्ञात । अनिर्वचनीय । उ०—(क) अविगत गोतीता चरित पुनीता मायारहित मुकुंदा ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) राम सरूप तुम्हार, वचन ओचर बुद्धि पर । अविगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह ।— तुलसी (शब्द०) । ३. जो नष्ट न हो । नित्य ।
⋙ अविगान
वि० [सं०] १. जो निंदित न हो । २. जिसमें असामंजस्य न हो [को०] ।
⋙ अविगीत
वि० [सं०] दे० 'अविगान' [को०] ।
⋙ अविग्न
संज्ञा पुं० [सं०] करमर्दक नामक वृक्ष तथा उसका फ । करौंदा [को०] ।
⋙ अविग्रह
वि० [सं०] १. जो स्पष्ट रूप से न जाना गया हो । अविज्ञात । २. जिसका शरीर न हो । निरवयव । निराकार । ३.वह समास जिसका विग्रह न हो । नित्यसमास (व्या०) ।
⋙ अविघात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विघात का अभाव । विघ्न का न होना ।
⋙ अविघात (२)
वि० विघात या बाधा से रहित [को०] ।
⋙ अविघ्न
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे० 'अविधात' [को०] । यौ०—अविघ्नकरणव्रत=एक विशेष प्रकार का व्रत जो फाल्गुन के चौथे दिन पड़ता है ।
⋙ अविचक्षण
वि० [सं०] अज्ञानी । अनाड़ी । मूर्ख [को०] ।
⋙ अविचल
वि० [सं०] जो विचलित न हो । अचल । स्थिर । अटल । उ०— देति असीस सकल ब्रज जुवती जुग जुग अविचल जोरी ।— सूर०, १० ।२८५८ ।
⋙ अविचलित
वि० [सं०] दे० 'अविचल' ।
⋙ अविचार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विचार का अभाव । २. अज्ञान । अविवेक । उ०— सबसे अधिक अविचार का विस्तार है संप्रति वहाँ ।— भारत०, पृ० १२७ । ३. अत्याचार । अन्याय । ४. भेड़ चराने योग्य स्थान [को०] ।
⋙ अविचार
वि० बिना विचार हुआ । २. संशय या विवेक से रहित । ३. चर या जासूसवाला [को०] ।
⋙ अविचारित
वि० [सं०] बिना विचार हुआ । जिसके विषय में विचार न गया हो ।
⋙ अविचारी
वि० [सं० अविचारिन्] [वि० स्त्री० अविचीरिणी] १. विचारहीन । अविवेकी । बेसमझ । उ०— सूरन के मिलिबे कहै आप, मिल्यौ दसकंठ सदा अविचारी ।— राम चं०, पृ० १७ । २. अत्याचारी । अन्यायी ।
⋙ अविचालित
वि० [सं०] १. अडिग । अटल । २. विजेता । विजयी [को०] ।
⋙ अविच्छिन्न
वि० [सं०] अविच्छेद । अटूट । लगातार ।
⋙ अविच्छे़द (१)
वि० [सं०] जिसका विच्छेद न हो । अटूट । लगातार । विच्छेदरहित ।
⋙ अविच्छे़द (२)
संज्ञा पुं० विच्छे़द का अभाव ।
⋙ अविच्छेदी
वि० [सं० अविच्छेदिन्] काव्यमीमांसा में कथित कवियों के दस भेदों में से एक जो बिना विच्छे़द या बाधा के कविता करे ।
⋙ अविच्युत
वि० [सं०] १. जो अपने स्थान से च्युत न हुआ हो । अच्युत । २. शाश्वत । नित्य [को०] ।
⋙ अविछिन्न पु
वि० [हिं०] दे० 'अविछिन्न' । उ०— चंद्रशेखर सूल- पानि हर अनद्य अज अमित अविछिन्न वृषभेशगामी ।— तुलसी ग्रं० पृ० ४८० ।
⋙ अविजन पु
संज्ञा पुं० [सं० अभिजन] अभिजन । कुल । वंश । उ०— दंडवत गोविंद गुरू वंदों अविजन सोय । पहिले भय प्रणाम तिन नमो जो अगे होय ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ अविजेय
वि० [सं० अ + विजेय] जो विजित न किया जा सके । उ०— जय हे, जय राष्ट्रपिता जय जय हे देव विनय, अविजेय आत्मबल ।— युगपथ, पृ० ८६ ।
⋙ अविज्ञ
वि० [सं०] अनभिज्ञ । अविक्षित । अप्रवीण । अनजान । उ०— यद्यपि अविज्ञों से हुआ वह निंद्य और निषेद्ध है ।— भारत०, पृ० ३८ ।
⋙ अविज्ञता
संज्ञा स्त्री [सं०] अज्ञानता । अनजानपन । अनभिज्ञता ।
⋙ अविज्ञात
वि० [सं०] १. जो अच्छी तरह जाना न हो । अनजाना । अज्ञात । उ०— सघन हो रहा अविज्ञात यह देश मलिनहै धूमधार सा—कामानिय पृ० २६६ । २. बेसमझ । अर्थनिश्चयशून्य । यौ.— अविज्ञात कुलशील= जिसका कुल मालूम न हो । अविज्ञातगति = जिसकी गति न जानी जाय । अविज्ञातगद = मूर्खता- पूर्ण ढंग से बोलनेवाला ।
⋙ अविज्ञातक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुप्त स्थान से या मालिक के अनजान में कोई पदार्थ मोल लेना । २. व्यवहार में आधा माल नष्ट हो जाना ।
⋙ अविज्ञाता
संज्ञा पुं० [सं० अविज्ञातृ] १. विष्णु । २. परमेश्व [को०] ।
⋙ अविज्ञेय (१)
वि० पुं० [सं०] १. जो जाना म जा सके । जिसे जाना न सकें । २. न जानने योग्य ।
⋙ अविज्ञेय (२)
संज्ञा पुं० परमात्मा [को०] ।
⋙ अविडीन
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षियों की सीधी उड़ान [को०] ।
⋙ अवितत्
घि० [सं०] विरूद्ध । उलटा । यौ.— अवितत्करण । अवितदभाहण ।
⋙ अवितत्करण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाशुपत दर्शन के अनुसार वह कर्म करना जो अन्य मतवालों के विचार में गर्हित है पर पाशुपत में करणीय है । २. जैनशास्त्रानुसार कार्याकार्य के विवेक में व्याकुल पुरूष की नई लोकनिंदित कर्म करना । ३. विरूद्धाचरण ।
⋙ अवितथ (१)
वि० [सं०] १. सत्य । अमिथ्या । २. सफल । फलयुक्त ।
⋙ अवितथ (२)
संज्ञा पुं० सचाई । सत्यता ।
⋙ अवितभ्दाषण
संज्ञा पुं० [सं०] व्याहत और अपार्थक शब्दों का उच्चारण करना । उलटा कहना । अंडबड कहना ।
⋙ अवितर्कित
बि० [सं०] १. जिस पर तर्क म किया गया हो । २. बिना किसी तर्क का नि?संदेह ।
⋙ अवित्त
वि० [सं०] १. धनहीन । निर्धन । २. अविख्यात । गुमनाम ।
⋙ अवित्ता (१)
वि० [सं० अवृति] रक्षक [को०] ।
⋙ अवित्ता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] भेड़ [को०] ।
⋙ अवित्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अप्राप्ति । २. बुद्धिहीनता । मूर्खता । ३. निर्धनता [को०] ।
⋙ अवित्ति (२)
वि० १. न प्राप्त होनेवाला । २. मूर्ख [को०] ।
⋙ अवित्यज
संज्ञा पुं० [सं०] पारद । पार ।
⋙ अविथ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक पौधा । अजथ्या । पौली जूही ।
⋙ अविद
वि० [सं०] अनजान । मूर्ख ।
⋙ अविदग्ध
वि० [सं०] १. जो जला या पका न हो । कच्चा । २. खट्टा [को०] । ३. गँवार । अशिझित । लंठ [को०] ।
⋙ अविदित (१)
वि० [सं०] १. जो विदित न हो । अज्ञात । २. अप्रकट । गुप्त । अप्रसिद्ध ।
⋙ अविदित (२)
संज्ञा पुं० परमेश्वर [को०] ।
⋙ अविदुग्ध
संज्ञा पुं० भेंडी का दूध ।
⋙ अविदुषी
वि० स्त्री [सं०] जो विदुषी न हो । मूर्खा । अनपढ़ी ।
⋙ अविद्ध (१)
वि० [सं०] जो छेदा म गया हो । अनाविद्ध [को०] ।
⋙ अविद्ध (२)
संज्ञा पुं० यवन (कान न छेदवाने के कारण यवन अविद्ध कहे जाते हैं) ।
⋙ अविद्धकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाढ़ा नाम की लता ।
⋙ अविद्य (१)पु
वि० [सं० अविद्यमान्] नष्ट । नेस्त नाबूद । उ०— विद्या धरनि अविद्य करौं बिन सिद्ध सिद्धि सब । —रामचं०, पृ० १२२ ।
⋙ अविद्य (२)
वि० [सं०] १. अशिक्षित । विद्याविहीन । अपढ़ । बेवक्फ २. जो शिक्षा संबंधी न हो [को०] ।
⋙ अविद्यमान
वि० [सं०] १. जो विद्यमान या उपस्थित न हो । अनुप स्थिति । २. जो न हो । असत् । उ०—अर्थ अविद्यमान जानिय संसृति नहि जाइ गोसाईं । बिनु बाँधे निज हठ सठ परबस परयो कीर की नाई । —तुलसी ग्रं० पृ० ५१७ ।३. मिथ्या । असत्य । झूठा ।
⋙ अविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरुद्ध ज्ञान । मिथ्या ज्ञान । अज्ञान । मोह । उ०—(क) जिन्हहिं सोक ते कहौं बखानी । प्रथम अविद्या निसा नसानी ।—मानस, ७ । ३१ (ख) विषम भई संकल्प जब तदाकार सो रूप । महाँ अँधेरो काल सो परे अविद्या कूप ।—कबीर (शब्द०) । २. माया । उ०—हरि सेवकहि न व्याप अविद्या । प्रभु प्रेरित व्यापै तेहि विद्या । — तुलसी (शब्द०) । ३. माया का भेद । उ०— तेहि कर भेद सुनहु तुम सोऊ । विद्या अपर अविद्या दोऊ ।-तुलसी (शब्द०) । ४. कर्मकांड । ५. सांख्यशास्त्रानुसार प्रकृति । अव्यक्त । अचित् । जड़ । ६. योगशास्त्रानुसार पाँच क्लेशों में पहला । विपरीत ज्ञान । अनित्य में नित्य, अशुचि में शुचि, दुःख में सुख और अनात्मा (जड़) में आत्मा (चेतन) का भाव करना । ७. वैशेषिकशास्त्रानुसार इंद्रियों के दोष तथा संस्कार के दोष से उत्पन्न दुष्ट ज्ञान । ८. वेदांतशास्त्रानुसार माया । यौ.—अविद्याकृत=अविद्या से उत्पन्न । अविद्याजन्य=अविद्या से उत्पन्न । अविद्याच्छन्न=अविद्या या अज्ञान से आवृत्त । अविद्यामार्ग=प्रेम । वह मार्ग जो संसार में मनुष्यों को अनुरक्त करता है । अविद्याश्रव=अज्ञान (बौद्ध) ।
⋙ अविद्वत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्खता । अज्ञानता ।
⋙ अविद्वान्
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अविदुषी] जो विद्वान् न हो । शास्त्रानभिज्ञ । मूर्ख ।
⋙ अविद्वेष
संज्ञा पुं० [सं०] विद्बेष का अभाव । अनुराग । प्रेम ।
⋙ अविधवा
वि० [सं०] सधवा । सौभाग्यवती । सुहागिन ।
⋙ अविधान पु
संज्ञा पुं० [सं० अभिथान] दे० 'अभिधान' । उ०— व्याक्रन्न कथा नाटक्क छंद । अभिधांन दास अलंकार बंध ।— पृ० रा०, १ । ७३६ ।
⋙ अविधान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विधि के विरुद्ध कार्य करना । २. विधान का अभाव ।
⋙ अविधान (२)
वि० १.विधिविरुद्ध । २. उलटा ।
⋙ अविधि (१)
वि० [सं०] विधिविरुद्ब । नियम के विपरीत ।
⋙ अविधि (२)
संज्ञा पुं० १. विधान के विरुद्ध कार्य । अविधान । अनिय- मितता । उ०— वे है अविद्या के पुरोहित अविधि के आचार्य हैं ।— भारत०, पृ० १२७ । २. अपरिभाषेय । जिसकी परिभाषा न की जा सके [को०] ।
⋙ अविनय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विनय का अभाव । ढिठाई । उद्दंड़ता । उ०—अविनय विनय जथारुचि बानी । छमहि देव अति आरति जानी ।-तुलसी (शब्द०) । २. घमंड़ । अभिमान [को०] । ३. अपराध । दोष [को०] ।
⋙ अविनय (२)
वि० उद्दंड । धृष्ट । अशिष्ट । घमंड़ी [को०] ।
⋙ अविनयी
वि० [सं० अविनयिन्] विनय रहित । उद्दंड़ [को०] ।
⋙ अविनश्वर
वि० [सं०] जो नष्ट न हो । जो बिगड़े नहीं । विरस्थायी । शाश्वत । उ०—दर्शन से जीवन पर बरसे अविनश्वर स्वर ।— अपरा, पृ० १८९ ।
⋙ अविनाभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. संबंध । २. व्याप्यव्यापक संबंध, जैसे अग्नि और धुम का ।
⋙ अविनाश
संज्ञा पुं० [सं०] विनाश का अभाव । अक्षय ।
⋙ अविनाशी
वि० पुं० [सं० अविनाशिन्] [वि० स्त्री० अविनाशिनी] १. जिसका विनाश न हो । अक्षय । अक्षर । २. नित्य । शाश्वत ।
⋙ अविनासी (१)पु
वि० [सं० अविनाशी] दे० 'अविनाशी' । उ०—दादू अविहड़ आप है अमर उपजाबनहार । अर्विनासी आपइ रहइ बिनसइ सब संसार ।—दादू (शब्द०) ।
⋙ अविनासी (२)
संज्ञा पुं० [सं० आविनाशिन्] ईश्वर । ब्रह्मा । उ०—(क) राम नाम छाँड़ों नहीं सतगुरु सीख दई । अविनासी सों परसि के आत्मा अमर भई । —कबीर (शब्द०) । (ख) दादू आनंद आतमा अविनासी के साथ । प्राननाथ हिरदै बसइ सकल पदारथ हाथ ।—दादू (शब्द०) ।
⋙ अविनीत
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अवनीता] १. जो विनीत न हो । उद्धत । उ०— जो, मेरी है सृष्टि उसी से भीत रहूँ मै, क्या अधिकार नहीं कि कभी अविनीत रहूँ मैं । —कामायनी, पृ० १९० ।
⋙ अविनीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलटा नारी । असती स्त्री । दुराचारिणी या बदचलन स्त्री ।
⋙ अविनेय
वि० [सं०] अनियंत्रणशील । अवाध्य । बेकहा [को०] ।
⋙ अविपक्व
वि० [सं०] १. न पका हुआ । अपक्व । २. जिसका ज्ञान प्रौढ़ न हो [को०] ।
⋙ अविपट
संज्ञा पुं० [सं०] भेड़के ऊन का वस्त्र । ऊनी बस्त्र [को०] ।
⋙ अविपद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] कष्ट, दु?ख आदि का आभाव । सुख । समृद्धि [को०] ।
⋙ अविपन्न
वि० [सं०] १. स्वस्थ । नीरोग । २. दो क्षत न हुआ हो । जिसे आघात या चोट न लगी हो । ३. शुद्ध । पवित्र ।
⋙ अविपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] विपर्यय या विकार का न होना । क्रम के विरुद्ध न होना ।
⋙ अविपाक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अजीर्ण रोग [को०] ।
⋙ अविपाक (२)
वि० अजीर्ण रोग से ग्रस्त । अजीर्ण [को०] ।
⋙ अविपाल
संज्ञा पुं० [सं०] गड़े रिया । उ०— पशुओं की रक्षा करने के कारण उसे गोपालक, अजापाल वा अविपाल कहते थे ।— हिंदु० सभ्याता, पृ० २९२ ।
⋙ अविपित्तक
संज्ञा पुं० [सं०] एक चुर्णा जो अम्लपित्त रोग में दिया जाता है ।
⋙ अविबुध (१)
वि० [सं०] अज्ञानी । नादान । २. बुद्धिहीन । बेअक्ल ।
⋙ अविबुध (२)
संज्ञा पुं० असुर । दैत्य । राक्षस ।
⋙ अविभक्त
वि० [सं०] १. जो अलग न किया गया हो । मिला हुआ । २. जो बाँटा न गया हो । विभागरहित । शमिलाती । ३. अभिन्न । एक । उ०—सुत तुम्हारे भाव ये अविभक्त, मैं स्वयं उन पर करूँगी व्यक्त ।-साकेत, पृ० १८९ ।
⋙ अविभाग
वि० [सं०] जिसके टुकड़े न हो । जो अलग अलग न हो । जो एक ही [को०] ।
⋙ अविभाज्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गणित में वह राशि जिसका किसी गुणक के द्वारा भाग न किया जा सके । निश्छेद ।
⋙ अविभाज्य (२)
वि० जिसका बँटावारा न किया जा सके । जिसके भाग या खंड़ न हो सकें ।
⋙ अविभावन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अविभावना] [वि० अविभावनीय, अविभाव्य] १. पहचान का अभाव । २. अदर्शन । लोप [को०] ।
⋙ अविमान
संज्ञा पुं० [सं०] १. आदर । संमान । २. अपमान का अभाव [को०] ।
⋙ अविमुक्त (१)
वि० [सं०] जो विमुक्त न हो । बद्ध ।
⋙ अविमुक्त (२)
संज्ञा पुं० १. कनपटी । जाबाल उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म का स्थान । २. काशी ।
⋙ अविमुक्तेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] काशी में स्थापित एक शिवलिंग [को०] ।
⋙ अवियुक्त
वि० जो वियुक्त न हो । जो अलग अलग न हो । मिला हुआ [को०] ।
⋙ अवियोग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वियोग का अभाव । उपस्थित । २. संयोग । मिलाप ।
⋙ अवियोग (२)
वि० १. वियोगशून्य । जिसका वियोग न हो । २. संयुक्त संमिलित । एकीभूत । यौ०-अवियोगव्रत.=कल्कि पुराण के अनुसार एक व्रत जो अगहन शुक्ल तृतीया को पड़ता है । इस दिन स्त्रियाँ स्नान कर चंद्र दर्शन करके रात की दूध पीती है । यह व्रत सौभाग्यप्रद माना जाता है ।
⋙ अविरत (१)
वि० [सं०] १. विरामशून्य । निरंतर । २. अनिवृत्त । लगा हुआ ।
⋙ अविरत (२)
क्रि० वि० १. निरंतर । लगातार । २. सतत । नित्य । हमेशा ।
⋙ अविरत (२)
संज्ञा पुं० विराम का अभाव । नैरंतर्य ।
⋙ अविरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निवृत्ति का अभाव । लीनता । २. विषयादि में तृष्णा का होना । विषयाशक्ति । ३. विराम का अभाव । अशांति । ४. जैनशास्त्रनुसार धर्मशास्त्र की मर्यादा से रहित बर्ताव करना । विशेष—यह बंधन के चार हेतुओं में से है और बारह प्रकार का है । पाँच प्रकार की इंद्रियाविरत, एक मनोविरति और छह प्रकार की कायाविरति ।
⋙ अविरथा पु
क्रि० वि० [सं०वृथा, हि० बिरथा] दे० 'वृथा' ।
⋙ अविरल
वि० [सं०] १. जो विरल या भिन्न न हो । मिला हुआ । २. घना । अव्यवच्छिन्न । सघन । उ०—अचल अनिकेत अविरल अनामय अनारंभ अंबोदनादघ्न बंधो ।-तुलसी ग्रं० पृ० ४८७ । यौ.—अविरलधारसार=अनवरत होनेवाली मूसलाधार वृष्टि ।
⋙ अविरहित
वि० [सं०] वियोग न होना । अवियुक्त । अलग न होना [को०] ।
⋙ अविराम (१)
वि० [सं०] १. बिना विश्राम लिए हुए । अविश्रांत । उ०—चलना है अविराम तुम्हें उद्वेग ।- कानन०, पृ० १३ ।
⋙ अविराम (२)
क्रि० वि० लगातार । निरंतर ।
⋙ अविराम (३)
संज्ञा पुं० विरामाभाव । निरंतरता । नैरंतर्य [को०] ।
⋙ अविरुद्ध
वि० [सं०] १. जो विरुद्ध न हो । अप्रतिकूल । उ०— स्थायी दशा को विरुद्ध या अविरुद्ध कोई भाव संचारी रूप में आकर तिरोहित नहीं कर सकता ।- रस०, पृ० १८२ । २. अनुकूल । मुवाफिक । उ०— प्रजा आज और सोचती जो अब तक अविरुद्ध रही ।— कामायानी, पृ० १७५ ।
⋙ अविरेचन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अविरेचनीय, अविरेत्य] विरेचन क्रिया में बाधा उत्पन्न करनेवाली वस्तु । कब्ज करनेवाली वस्तु । [को०] ।
⋙ अविरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधर्म्य । समानता । २. विरोध का अभाव । अनुकूलता । ३. मेल । संगति । मुवाफिकत । उ०— समय समाय धर्म अविरोधा । बोले तब रघुवंशपुरोधा ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अविरोधी
वि० [सं० अविरोधिन्] [वि० स्त्री० अविरोधिनी] १. जो विरोधी न हो । अनुकूल । २. मित्र । हित ।
⋙ अविलंघन
संज्ञा पुं० [सं० अविलङ्कन] [वि० अविलंघनीय] न लाँघना । मर्यादा को न पार करना [को०] ।
⋙ अविलंब (१)
क्रि० वि० [सं० अविलम्ब] बिना विलंब । तुरंत । उ०—रथ रुका, उसरे उभय अविलंब ।-साकेत, पृ० १७४ ।
⋙ अविलंब (२)
संज्ञा पुं० विलंब का अभाव । शीघ्रता [को०] ।
⋙ अविलक्ष्य
वि० [सं०] १. बिना लक्ष्यवाला । २. ईमानदार । निर्भीक । ३. असाध्य (रोग या रोगी) जिसकी चिकित्सा कठिन हो । ४. जिसका विरोध कठिन हो [को०] ।
⋙ अविला
संज्ञा स्त्री० [सं०] भेड़ [को०] ।
⋙ अविलास (१)
वि० [सं०] विलास से मुक्त रहनेवाला । विश्वसनीय । स्थिर [को०] ।
⋙ अविलास (२)
संज्ञा पुं० विलास का अभाव [को०] ।
⋙ अविलिख
वि० [सं०] १. न लिखनेवाला अथवा लिखना न जानने वाला । २. बुरा लिखनेवाला । ३. लिखनेवाले से भिन्न या व्यतिरिक्त [को०] ।
⋙ अविलोकन पु
संज्ञा पुं० [सं० अवलोकन] दे० 'अवलोकन' ।
⋙ अविलोकना पु
क्रि० स० [हि०] दे० 'अवलोकना' ।
⋙ अविलोडित
वि० [सं० अ=नहीं+विलोड़ित=मथा हुआ] न मथा हुआ । अमंथित । उ०—अविलोड़ित था जमा दही ।— साकेत, पृ० ३४८ ।
⋙ अविवक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विवक्षा अर्थात् कहने, बोलने आदि की अनिच्छा ।
⋙ अबिवक्षित
वि० [सं०] १. बिना उद्देश्य या अभिप्राय का । २. जिसके विषय में कहना या बोलना न हो [को०] ।
⋙ अविवाद (१)
वि० [सं०] विवादरहित । निर्विवाद । उ०—सामुहिक जीवन विकास की साम्य योजना है अविवाद । —युग०, पृ० ४१ ।
⋙ अविवाद (२)
संज्ञा पुं० सहमति । विवाद का न होना [को०] ।
⋙ अविवादी
वि० [सं० अविवादिन्] विवाद न करनेवाला । शांत [को०] ।
⋙ अविवाहित
वि० [सं०] [ वि० स्त्री० अविवाहिता] जिसका ब्याह न हुआ हो । बिना ब्याहा । क्वाँर । उ०— तब में इस कुटुंब की कमनीय कल्पना को दूर ही से नमस्कार करता और आजी- वन अविवाहित रहना' ।-स्कंद० पृ० ७० ।
⋙ अविविक्त
वि० [सं०] १. जसकी विवेचना न हो । अविवेचित । २. विवेकरहित । अविवेकी । ३. कोई भेद न रखनेवाला । भेदरहित । ४. सर्वसाधारण से संबंध रखनेवाला । सार्व— जनिक [को०] ।
⋙ अविवेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवेक का अभाव । अविचार । २. अज्ञान । नादानी । ३. अन्याय । ४. न्यायदर्शन के अनुसार विशेष ज्ञान का अभाव । ५. सांख्यशास्त्रनुसार मिथ्याज्ञान ।
⋙ अविवेकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विचार का अभाव । अज्ञानता । २. विवेक का न होना ।
⋙ अविवेकी
वि० [सं० अविवेकिन्] १. अज्ञानी । विवेकरहित । जिसे तत्वज्ञान न हो । २. अविचारी । ३. मूढ़ । मूर्ख । ४. अन्यायी
⋙ अविवेचक
वि० [सं०] विवेचना बा स्पष्टीकरण न करनेवाला [को०] ।
⋙ अविवेचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] विवेचना बा व्याख्यान करने की शक्ति का न होना [को०] ।
⋙ अविशंक
वि० [सं० अविशङ्क] १. शंका या संदेह न करनेवाला । अशंक । २. न ड़रनेवाला । निर्भय [को०] ।
⋙ अविशंका
संज्ञा स्त्री० [सं० अविशङ्का] संदेह या भय का अभाव [को०] ।
⋙ अविशुद्ध
वि० [सं०] १. जो विशुद्ध न हो । मेलमाल का । २. अशुद्ध । मलिन । ३. अपवित्र । नापाक ।
⋙ अविशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अशुद्धि । मेलमाल । २. मलिनता । अपवित्रता । नापाकी । ३. विकार ।
⋙ अविशेष (१)
[सं०] भेदक धर्मरहित । जीसमें किसी दूसरी वस्तु से कोई विशेषता न हो । तुल्य । समान ।
⋙ अविशेष (२)
संज्ञा पुं० १. भेदक धर्म का अभाव । तुल्यत्व । २. एकता [को०] । ३. सांख्य में सांतत्व धीरत्व और मूढ़त्व आदि विशेष- ताओं से रहित सूक्ष्म भूत । यौ०—अविशेषज्ञ ।
⋙ अविशेषसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में जाति के चौबीस भेदों में से एक । यदि वादी किसी वस्तु के सादृश्य के आधार पर कोई बात सिद्ध करे-उदाहरणार्थ घट के सादृश्य से शब्द को अनित्य सिद्ध करे और उसके उत्तर में प्रतिवादी कहे कि यदि प्रयत्न के उत्पन्न होने के कारण हि घट के समान शब्द भी अनित्य हो; तो इतना अल्पसादृश्य तो सभी वस्तुओं में होता हे; और ऐसे सादृश्य के कारण सभी चीजों के धर्म एक मानने पड़ेंगे; तो ऐसा उत्तर अविशेषसम कहा जायगा ।
⋙ अविश्रंभ
संज्ञा पुं० [सं० अबिश्रम्भ] विश्वास का अभाव । अविश्वास [को०] ।
⋙ अविश्रांत (१)
वि० [सं० अविश्रान्त] १. विरामरहित । जो रुके नहीं । २. जो थके नहीं । ३.जो क्षतियुक्त न हो । अक्षत [को०] ।
⋙ अविश्रांत (२)
क्रि० वि० अनवरत । लगातार [को०] ।
⋙ अविश्वसनीय
वि० [सं०] जो विश्वासयोग्य न हो । जिस पर विश्वास न किया जा सके ।
⋙ अविश्वस्त
वि० [सं०] संदेहास्पद । अविश्वसनीय ।
⋙ अविश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्वास का अभाव । बे एतबारी । उ०—परंतु उस पर प्रकट रूप से अविश्वास का भी समय नहीं रहा ।— स्कंद०, पृ; १०४ । २. अप्रत्यय । अनिश्चय । यौ०.—अविश्वासपात्र=जिस पर विश्वास न किया जाय । बेएतबारी । झूठा ।
⋙ अविश्वासी
वि० [सं० अविश्वसिन्] १. जो किसी पर विश्वास न करे । विश्वासहीन । श्रद्धारहित । उ०—सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय । तभी तो म्लेच्छ लोग साम्राज्य बना रहे है । —चंद्र० पृ० १९२ । २. जिस पर विश्वास न किया जाय । अविश्वासपात्र ।
⋙ अविष (१)
वि० [सं०] १. जो बिषैला न हो । बिषहीन । २. बिष के अभाव को समाप्त करनेवाला [को०] ।
⋙ अविष (२)
संज्ञा पुं० १. समुद्र । २. आकाश । ३. राजा [को०] ।
⋙ अविषय (१)
वि० [सं०] १. जो विषय न हो । अगोचर । २. अप्राति- पाद्य । अनिर्वचनीय । ३. जिसमें कोई विषय न हो । विषयशून्य ।
⋙ अविषय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभाव । २. लोप । अदर्शन । ३. इंद्रियों के विषय की उपेक्षा [को०] ।
⋙ अविषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्विषी तृण । एक जड़ी । जदबार । विशेष—यह मोये के समान होती है और प्राय? हिमालय के पहाड़ों पर मितली है । इसका कंद अतीस के समान होता है और साँप, बिच्छु आदि के विष को दूर करता है ।
⋙ अविषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरिता नदी । २. पृथ्वी । धरती । ३. स्वर्ग [को०] ।
⋙ अविसर्गी
वि० [सं० अविसर्गन्] न हटनेवाला । हमेशा बना रहनेवाला [को०] । यौ०—अविसर्गी ज्वर=लगातार बना रहनेवाला ज्वर ।
⋙ अविसह्य
वि० [सं०] रोग उत्पन्न करनेवाला या गुणारहित (पदार्थ) । विशेष—कोटिल्यके अनुसार ऐसे पदार्थ बेचनेवाला दंड़ का भागी होता था ।
⋙ अविसह्यदुर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के मातानुसार वह दुर्ग जिसमें शत्रु प्रवेश न कर सकता हो ।
⋙ अविस्तर
वि० [सं०] कम विस्तार या लंबाईवाला । संक्षिप्त [को०] ।
⋙ अविस्तार
वि० [सं०] विस्तार का अभाव । संक्षिप्तता [को०] ।
⋙ अविस्तीर्ण
वि० [सं०] जो विस्तीर्ण न हो । कम फैलाववाला [को०] ।
⋙ अविस्तृत
वि० [सं०] ठसा हुआ । कम स्थान में फैला हुआ । आवि- रल । घना [को०] ।
⋙ अविस्पष्ट
वि० [सं०] जो साफ या स्पष्ट न हो । स्पष्ट रहिता अस्पष्ट [को०] ।
⋙ अविहड़ पु
वि० [सं० अ+विघटय] १. जो विहड़े नहीं । जो खंड़ित न हो । अखंड़ । अनश्वर । उ०—(क) अविहड़ अखडित पीव है ताको निर्भय दास । तीनौ गुन के पेलि से चौथे कियो निवास ।— कबीर (शब्द०) । (ख) अविहड़ आँग विहड़े नहीं अपलट पलट न जाय । दादू अनवट एक रस सब में रहा समाय । —दादू (शब्द०) । २. दे० 'बीहड़' ।
⋙ अविहर पु
वि० [हि० अ+विहर=विखरेवाला] दे० अविहड़ । उ०—ढ़ढोरज्जहिं ढ़ाल मुरैं गौरीदल । अविहर । —प्रि० रा० १३ ।६५ ।
⋙ अविहित
वि० [सं०] १. जो विहित न हो । विरुद्ध । २. अनुचित । अयोग्य । ३. निकृष्ट । नीच ।
⋙ अवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ऋतुमती स्त्री । बनकुलथी ।
⋙ अवीचि
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नरक ।
⋙ अवीचि
वि० लहरविहीन । जिसमें लहर न हो [को०] ।
⋙ अवीज (१)
वि० [सं०] १. बीजरहित । २. नपुंसक । ३. मुख्य हेतु का अभाव [को०] ।
⋙ अवीज (२)
संज्ञा पुं० १. मानसिक उत्तेजना पर नियंत्रण । २. बीज का अभाव या न होना । ३. बुरा बीज ।
⋙ अवीजक
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवीज' [को०] ।
⋙ अवीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] किशमिश ।
⋙ अवीरा
वि० स्त्री० [सं०] १. जिस स्त्री के पुत्र और पति न हों । पुत्र और पतिरहित (स्त्री) । २. स्वतंत्र (स्त्री) ।
⋙ अवोह पु
वि० [सं० अवीड़?] जो डरे नहीं । अभय । निड़र ।— (ड़ि०) ।
⋙ अवृक्ष
वि० [सं०] वृक्षविहीन । पेड़ पौधों से रहीत [को०] ।
⋙ अवृत
वि० [सं०] १. जो रोका न गया हो । २. अनिर्वाचित । ३. आवरणरहित । रक्षाविहीन । ४. जो किसी के वश में या पराभूत न हो ।
⋙ अवृत्ति (१)
संज्ञा संज्ञा [सं०] १. जीविका का आभाव । २. स्थिति का अभाव । बेठिकानापन ।
⋙ अवृत्ति (२)
वि० १. अस्तित्व या स्थितिरहित । २. जीविकाहीन [को०] ।
⋙ अवृथा
अव्य० [सं०] सफलतासहित । अव्यर्थ [को०] ।
⋙ अवृद्धिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बिना वृद्धि या ब्याज का रुपया । मूल धन । असल ।
⋙ अवृद्धिक (२)
वि० जिसपर ब्याज न लगता हो । जो बढ़ता न हो ।
⋙ अवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बर्षा का अभाव । अवर्षण । सूखा [को०] ।
⋙ अवेक्षक
वि० [सं०] १. देखनेवला । अवलोकन करनेवाला । २. जाँच पड़ताल करनेवाला । निरीक्षक [को०] ।
⋙ अवेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवेक्षित अवेक्षणीय] १. अवलोकन । देखना । २. जाँच पड़ताल । देखभाल । निरीक्षण ।
⋙ अवेक्षणीय
वि० [सं०] १. देखने योग्य । निरीक्षण योग्य । २. जाँच के लायक । परीक्षा के योग्य ।
⋙ अवेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अवेक्षण । देखना । २. परबाह । ध्यान । ख्याल ।
⋙ अवेज पु
संज्ञा पुं० [अ० एवज] बदला । प्रतीकार । उ०—मारग में गज में चढ़ो जात चलो अँगेरेज । कालीदह बोरयो सगज लिय कपि चना अवेज । —रघुराज (शब्द०) ।
⋙ अवेणि
वि० [सं०] १. वेणी न किया हुआ । २. जिसके बालों की वेणी न बनी हो । ३. जो एक साथ मिलकर न प्रवाहित हो,—जैसे नदी का जल [को०] ।
⋙ अवेत
वि० [सं०] १. बीता हुआ । २. पाया हुआ । प्राप्त किया हुआ । ३. संयुक्त [को०] ।
⋙ अवेद
संज्ञा पुं० [सं०] वेद से भिन्न । जो वेद न हो [को०] । यौ०.—अवेदविद् अवेदविहित ।
⋙ अवेदि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्खता । अज्ञान [को०] ।
⋙ अवेद्य (१)
वि० पुं० [सं०] १. जो जाना न जा सके । अक्षय । २. अलभ्य ।
⋙ अवेद्य (२)
संज्ञा पुं० १. बछड़ा । २. नादान बच्चा ।
⋙ अवेद्या
वि० स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिससे विवाह नहीं कर सकते । अविवाह्य स्त्री ।
⋙ अवेल (१)
वि० [सं०] १. जिसकी सीमा न हो । असीमित । २. असामयिक [को०] ।
⋙ अवेल (२)
संज्ञा पुं० गोपन छिपाव । दुराव [को०] ।
⋙ अवेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुरा समय । कुसमय । अनुचित समय । प्रतिकूल समय । २. चबाया हुआ पान [को०] ।
⋙ अवेव पु
वि० [सं० अ=नहीं+वेग] निर्बल । उ०—सबलौ भूखे सोह ज्यूँ असुरा लखे अवेव । —रा० रू० पृ० २७८ ।
⋙ अवेश (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० आवेश] १. किसी विचार में इस प्रकार तन्मय हो जाना कि अपनी स्थिति भूल जाय । आवेश । जोश । मनोवेग । उ०—मारि मारि करि, कर खड़ग निकासि सियो दियो घोर सागर में सो अवेश आयो है । —नाभा (शब्द०) । २. आसंग । चेतनता अनुप्रवेश । उ०—शिष्यन सों कह्यो कभू देह में अवेश जाने तब ही बखानो आनि सुनि किजै न्यारी है । —प्रिया (शब्द०) । ३. भूतावेश । भूत चढ़ना । किसी भूत का सिर अना । भूत लगना । उ०—कोऊ कहै दोष, कोऊ कहत अवेश तापै करौ दशरथ कियो भाव पूरो परयो है । —नाभा (शब्द०) ।
⋙ अवेश (२)
वि० [सं०] बिना वेशवाला । वेशरहित [को०] ।
⋙ अवेस्ता
संज्ञा स्त्री० [पहल.] १. ईरान के पूर्वा जनसमूह की एक पुरानी भाषा जो संस्कृत के अति निकट है । २. पारसियों की एक धर्मपुस्तक ।
⋙ अवैज्ञानिक
वि० [सं०] १. जिसका विज्ञान से कोई संहंध न हो । २. जो तर्कसंमन न हो [को०] ।
⋙ अवैतनिक
वि० [सं०] जो वैतनिक न हो । जो किसी काम को करने के लिये वेतन न पाए । बिना वेतन के काम करनेवाला । आनरेरी ।
⋙ अवैदिक
वि० [सं०] वेदाविरुद्ध ।
⋙ अवैद्य
वि० [सं०] १. जो वैद्य न हो । जो वैद्यकशास्त्र को न जानता हो । २. अज्ञ । अनजान ।
⋙ अवैध
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अबैधी] १. नियम के विपरीत । गैर कानूनी । अविहित । उ०—यदि वे हमीं से अवैध सेवा लेना चाहे.... ।— स्कंद०, पृ० १२१ । २. जो शास्त्रानुमोदित न हो ।
⋙ अवैधानिक
वि० [सं०] जो विधान या नियम के वेपरीत हो ।
⋙ अवैमत्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मतभेद का अभाव । ऐकमत्य ।
⋙ अवैमत्य (२)
वि० जिसमें मतभेद न हो । सर्वसंमत ।
⋙ अवोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] तिरछा हाथ करके जल गिराना । तिरछा हाथ करके जल छिड़काना ।
⋙ अवोद (१)
वि० [सं०] गीला । आर्द्न । नम [को०] ।
⋙ अवोद (२)
संज्ञा पुं० आर्द्र करना । गीला करना [को०] ।
⋙ अवोष
संज्ञा पुं० [सं०] ताजा या गरमागरम भोजन [को०] ।
⋙ अव्यंग
वि० [सं० अव्यङ्ग] दो व्यंग या टेढ़ा न हो । सीधा ।
⋙ अव्यंगाँग
वि० [वि० अव्यङ्गाङ्गा] [स्त्री० अव्यगांगी] जिसका कोई अंग टेढ़ा न हो । सुड़ौल ।
⋙ अव्यंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० अव्य़ङ्गा] केवाँच । करैच । कौंच ।
⋙ अव्यंग्य
वि० [सं० अव्यङ्ग्य] १. निर्दोष । २. व्यंग्यरहित । व्यंजन- विहीन [को०] । विशेष—साहित्य में अव्य़ंग्य काव्य को अवर अर्थात् अधम कोटि में माना गया है ।
⋙ अव्यंजन (१)
वि० [सं० अव्यञ्जन] [वि० स्त्री० अव्यंजना] १. बिना सींग का (पशु) । ड़ूँड़ा । २. जो सुलक्षण न हो । कुलक्षण । ३. जिसमें (जवानी का) कोई चिह्नन न हो । चिह्ननशून्य । ४. जो पृथक् या व्यक्त न हो [को०] ।
⋙ अव्यंजन (२)
संज्ञा पुं० १ श्रृगहीन पशु । डँड़ापशु । २. जो व्यंजन न हो अर्थात् स्वर [को०] ।
⋙ अव्यंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० अव्यण्ड़ा] १. केवाँच । करैंच । कौंच ।
⋙ अव्यक्त
वि० [सं०] १. जो स्पष्ट न हो । अप्रत्यक्ष । अगोचर । उ०—(क) अटल शक्ति अविनाश अधिक बल एक अनादि अनूप । आदि अव्यक्त अंबिकापूरण अखिल लोक तव रूप ।— सूर (शब्द०) । (ख) सिर्फ एक अव्यक्त शब्द सा 'चुप, चुप, चुप' ।— अपरा, पृ० १३ । २. अज्ञात । अनिर्वचनीय । उ०— प्रथम शब्द है शून्याकार । परा अव्यक्त सो कहै विचार ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ अव्यक्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. कामदेव । ३. शिव । ४. प्रधान । प्रकृति (सांख्य) । उ०—अव्यक्त मुलमनादि तरुत्वच चारि निगमागम भने । —मानस, ७ । १३ । ५. वेदांत शास्त्रानुसार अज्ञान । सूक्ष्म शरीर और सुषुप्ति अवस्था । ६. ब्रह्म । ईश्वर । ७. बीजगणित के अनुसार वह राशि जिसका मान अनिश्चित हो । अवनगत राशि । ८. मायोपाधिक ब्रह्म (शंकर) । ९. जीव । क्रि० प्र०—होना (१) प्रकृति दशा को प्राप्त होना । कारण से लय होना । (२) अप्रकट होना । लुप्त होना । निर्वचनीय से अनिवर्चनीय अवस्था को प्राप्त होना ।
⋙ अव्यक्तक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] बीजगणित की एक क्रिया ।
⋙ अव्यक्तिगणित
संज्ञा पुं० [सं०] बीजगणित ।
⋙ अव्यक्तगति
वि० [सं०] लिसकी गति प्रकट न हो । अप्रत्यक्ष गमन करनेवाला [को०] ।
⋙ अव्यक्तपद
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदं जिसका तालु आदि स्थानों द्बारा स्पष्ट उच्वाकण न हो सके; जैसे विड़ियों की बीलो ।
⋙ अव्यक्तमलप्रभव
संज्ञा पुं० [सं०] संसार । जगत् ।
⋙ अव्यक्तराग
संज्ञा पुं० [सं०] १. हल्का लाल । अरुण । २. गौर । श्वेत ।
⋙ अव्यक्तराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] (बीजगणित में) वह राशि जिसका मान अनिश्चत हो [को०] ।
⋙ अव्यक्तलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ अव्यक्तलिंग
संज्ञा पुं० [सं० अव्यक्तलिङ्ग] १. सांख्यशास्त्रानुसार महत- त्त्वादि । २. संन्यासी । ३. वह रोग जो पहचाना न जाय ।
⋙ अव्यक्तसाम्य
संज्ञा पुं० [सं०] बीजगणित के अनुसार अव्यक्त राशि या वर्ण का समीकरण ।
⋙ अव्यक्तानुकरण
संज्ञा पुं० [सं०] अस्फुट शब्द का अनुकरण । जैसे, मनुष्य मुर्गे की बोली पर उसकी नकल करके 'कुक्डूँकूँ' बोलता है ।
⋙ अव्यंक्तिक
वि० [सं०] दे० 'अव्यक्त' [को०] ।
⋙ अव्यग्र
वि० [सं०] १. जो व्यग्र न हो । धीर । २. ध्यानवाला । सतर्क [को०] ।
⋙ अव्यथ (१)
वि० [सं०] १. किसी को दु?ख न देनेवाला । दयालु । २. वेदना से रहित । दु?ख से दूर [को०] ।
⋙ अव्यथ (२)
संजा पुं० साँप [को०] ।
⋙ अव्यथय
संज्ञा पुं० [सं०] अश्व । घोड़ा [को०] ।
⋙ अव्यथा
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरीतकी । हड़ । २. सोंठ । ३. स्थल- कमल । स्थलपद्म । ४. गोरखमुड़ी । ५. आँवला । ६. स्थिरतह । दृढ़ता [को०] ।
⋙ अव्यथिष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. समुद्र [को०] ।
⋙ अव्यथिषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । २. रात्रि । धर्मरात्रि । निशीथ [को०] ।
⋙ अव्यथी
वि० [सं० अव्याथिन्] १. दु?ख से मुक्त । २. भय से मुक्त । निर्भय । ३. दु?ख न देनेवाल [को०] ।
⋙ अव्यथ्य
वि० [सं०] दे० १. जिसे किसी प्रकार क्षुब्ध न किया जा सके । २. दे० 'अव्यथी' [को०] ।
⋙ अव्यपदेश्य (१)
वि० [सं०] १.जो कहा न जा सके । आनिर्वतनीय । २. न्यायानुसार निर्विकल्प । जिसमें विकल्प या उलट फेर न हो । निश्चनित । ३. अनिर्दश्य ।
⋙ अव्यपदेश्य (२)
संज्ञा पुं० १. निर्विकल्प ज्ञान । २, ब्रह्म ।
⋙ अव्यभिचार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अविच्छिन्नता । सातत्व । २. वफादारी । ३. नित्यसंग या साहचर्य । [को०] ।
⋙ अव्यभिचारी
वि० [सं० अव्यामिचारिन्] जो किसी प्रतिकूल कारण से हटे नहीं । अनुकूल । २. जो किसी प्रकार व्यभिचारित न हो । ३. धर्मशील । सच्चरित्र । नैतिक । [को०] । ४. नित्य । जो हमेशा बना रहे । एकरस [को०] ।
⋙ अव्यभिचारी (२)
संज्ञा पुं० न्याय के मत से साध्य-साधक-व्याप्ति-विशिष्ट हेतु ।
⋙ अव्यय (१)
वि० [सं०] १. जो विकार को प्राप्त न हो । सदा एकरस रहनेवाला । अक्षय । २. नित्य । आदि-अंत-रहित । ३. परिणाम- रहित । विकार-रहित । ४. प्रवाहरूप से सदा रहनेवाला ।
⋙ अव्यय (२)
संज्ञा पुं० १. व्याकरण में वह जिसका सब लिंगो, सब विभक्तियों और सब वचनों में समान रूप से प्रयोग हो । २. परब्रह्म । ३. शिव । ४. विष्णु । ५. कुशल क्षेम [को०] । ६. समृद्धि [को०] ।
⋙ अव्ययीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] समास का एक भेद जिसमें अव्यय के साथ उत्तरपद समस्त होता है । जैसे, अतिकाल, अनुरूप, प्रति- रूप । यह समास प्राय? पूर्वपदप्रधान होता है और या तो विशेषण या क्रियाविशेषण होता है ।
⋙ अव्ययेत
संज्ञा पुं० [सं०] यमकानुप्रास के दो भेदों में से एक जिसमें यमकात्मक अक्षरों के बीच कोई और अक्षर या पद न पड़े; जैसे—अलिनी अलि नीरज बसे प्रति तरुवरनि बहंग । त्यों मनमथ मन मथन हरि बसै राधिका संग । यहाँ 'अलिनी, अलि नी और' 'मनमथ मन मथ के बीचट कोई और पद नहीं है ।
⋙ अव्यर्थ
वि० [सं०] १. जो व्यर्थ न हो । सफल । २. सार्थक । ३. अमोघ ।
⋙ अव्यलीक
वि० [सं०] १. झुठ नहीं । सत्य । २. सहमत होने योग्य । प्रिय [को०] ।
⋙ अव्यवधान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यवधान या अंतर का अभाव । २. निकटता । लगाव । रोक न होना । रुकावट का अभाव । ३. लापरवाही [को०] ।
⋙ अव्यवधान (२)
वि० १. बिना व्यवधान या रुकावट का । २. प्रकट । खुला हुआ । ३. नग्न । आवरणहीन, जैसे भूमि । ४. लापरवाह [को०] ।
⋙ अव्यवसाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यवसाय का अभाव । उद्यम का अभाव । २. निश्चयाभाव । निश्चय का न होना ।
⋙ अव्यवसाय (२)
वि० उद्यमशून्य । व्यवसायशून्य । आलसी । निकम्मा ।
⋙ अव्यवसायी
वि० [सं० अव्यवसायिन्] १. उद्यमहीन । निरुद्यमी । २. आलसी । पुरुषार्थहीन ।
⋙ अव्यवस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अव्यवस्थित] १. निमय का न होना । नियमाभाव । बेक्रायदगी । २. स्थिति का अभाव । मर्यादा का न होना । ३. शास्त्रादिविरुद्ध व्यवस्था । अविधि । ४. बेइंतजामी । गड़बड़ ।
⋙ अव्यवस्थित
वि० [सं०] १. शास्त्रादि-मर्यादा-रहित । बेमर्याद । उ०— 'गुप्तकुल का अव्यवस्थित उत्ताराधिकार नियम' ।— स्कंद०, पृ० १२ । २. अनियत रूप । बेठिकाने का । उ०—'सम्राट् की मति एक सी नहीं रहती, वे अव्यवस्थित और चंचल हैं ।— स्कंद०, पृ० २८ । ३. चंचल । अस्थिर । उ०—मै इन बातों को नहीं सुनना चाहती, क्योंकि समय ने मुझे अव्यवस्थित बना दिया है ।-चंद्र०, पृ० १३३ ।यौ०.—अव्यवस्थितचित्त=जिसका चित्त ठिकाने न हो । चंचल- चित्त । उ-वह अव्यवस्थितचित्त का मनुष्य है ।-(शब्द०) ।
⋙ अव्यवहार्य
वि० [सं०] १. जो व्यवहार या काम में लाने योग्य न हो । जो व्यवहार में न लाया जा सके । २ पतित । पंक्तिच्युत ।
⋙ अव्यवहित
वि० [सं०] बिना व्यवधान या रुकावट का [को०] ।
⋙ अवयवहृत
वि० [सं०] जो व्यवहार में न आया हो [को०] ।
⋙ अव्यसन (१)
वि० [सं०] व्यसन से मुक्त । व्यसन से हीन । दुर्गुण से दूर [को०] ।
⋙ अव्यसन (२)
संज्ञा पुं० व्यसन या दुर्गुण का अभाव [को०] ।
⋙ अव्याकृत (१)
वि० [सं०] १. जो व्याकृत न हो । अविशिल्ष्ट जो विकार प्राप्त न हो । २. अप्रकट । गुप्त । ३. कारण रूप । कारणस्थ ।
⋙ अव्याकृत (२)
संज्ञा पुं० १. वेदांतशास्त्रनुसार अप्रकट बीजरूप जग- त्कारण अज्ञान । २. सांख्यशास्त्रानुसार प्रधान प्रकृति । यौ०—अव्याकृतधर्म ।
⋙ अव्याकृतधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धशास्त्रानुसार वह स्वभाव जिससे शुभ और अशुभ दौनों प्रकार के कर्म किए जा सकें ।
⋙ अव्याख्या
संज्ञा पुं० [सं०] स्पष्टीकरण या व्याख्या का अभाव [को०] ।
⋙ अव्याख्यात
वि० [सं०] जिसे स्पष्ट न किया गया हो । व्याख्याहीन [को०] ।
⋙ अव्याख्येय
विं० [सं०] १. व्याख्या के अयोग्य । २. जिसे व्याख्या की जरूरत न हो । सरल [को०] ।
⋙ अव्याघात
वि० [सं०] १. व्याघातशून्य । जो रोका न जा सके । बेरोक । २. अटूट । लगातार ।
⋙ अव्याज (१)
वि० [सं०] १. छलछदम से रहित । निष्कपट । २. अकृत्रिम । स्वाभाविक । नैसर्गिक (विशेषत? समास में, जैसे अव्याजमनोहर, अव्याजरमणीय [को०] ।
⋙ अव्याज (२)
संज्ञा पुं० छलछदम् का अभाव । निष्कपटता । ईमानदारी [को०] ।
⋙ अव्यापन्न
वि० [सं०] जो मरा न हो । जीवित । जिंदा ।
⋙ अव्यापार (१)
सं० [सं०] व्यापारशून्य । बेकाम ।
⋙ अव्यापार (२)
संज्ञा पुं० १. उद्यम का अभाव । निठाला । २. वह काम जो अपने से संबंधित न हो । बिना काम का काम [को०] ।
⋙ अव्यापारी
वि० [सं० अव्यापारिन्] १. व्यापारशून्य । निरुद्यमी । निठल्लु । २. सांख्यशास्त्रानुसार क्रियाशून्य, जिसमें व्यापार अर्थात् क्रिया करने की शक्ति न हो । जो स्वभाव से अकर्ता हो ।
⋙ अव्यापी
संज्ञा पुं० [सं० अव्यापिन्] [स्त्री० अव्यापिनी] १. जो व्यापी न हो । जो सब जगह न पाया जाय । २. एक प्रकार का उत्तराभास जिसमें कहे हुए देश, स्थान का पता न चले; जैसे-'कोई कहे कि काशी के पूर्व मध्य देश में मेरा खेत अमुक ने लिया । यहाँ काशी के पूर्व मध्य देश नहीं, किंतु मगध देश है; अत? यह अव्यापी है ।
⋙ अव्याप्त
वि० [सं०] जो व्याप्त न हो । जो हर जगह न हो । सीमित [को०] ।
⋙ अव्याप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अव्याप्त] १. व्याप्ति का अभाव । २. नव्य न्यायशस्त्रानुसार लक्ष्य पर लक्षण के न घटने का दोष; जैसे-'सब फटे खुरवाले पशुओं के सीगं होती है । इस कथन में अव्याप्ति दोष है, क्योंकि सूअर के खुर फटे होते है, पर उसके सींग नहीं होती ।
⋙ अव्याप्य
वि० [सं०] व्याप्तिरहित । जो समग्र पर न लागू हो [को०] । यौ०—अव्याप्यवृत्ति=सुख दु?ख आदि की क्षणीक वृत्ति ।
⋙ अव्यावृत
वि० [सं०] १. निरंतर । सतत । लगातर । २. अटूट । ३. बिना लोट पोट का । ज्यों का त्यों ।
⋙ अव्याहत (१)
वि० [सं०] १. अप्रतिरुद्ध । बेरोक । उ०—सुनत फिरउँ हरि गुन अनुवादा । अव्याहत गति शंभु प्रसादा ।-तुलसी (शब्द०) । २. सत्य ।
⋙ अव्याहत (२)
संज्ञा पुं० सत्य या अखंडनीय वक्तव्य ।
⋙ अव्युच्छिन्न
वि० [सं०] बेरोक । अव्याहत ।
⋙ अव्युत्पन्न
वि० [सं०] १. अनभिज्ञ । अनुभवशून्य । अनाड़ी । अकुशल । २. व्याकरणशास्त्रानुसार वह शव्द जिसकी व्युत्पत्ति या सिद्धि न हो सके । ३. व्याकरणज्ञानशून्य ।
⋙ अव्युष्ट
वि० [सं०] न चमकता हुआ । प्रकाशहीन । उ०—उषा के अव्युष्ट होने का अर्थ है कि अर्थ है कि अभी अँधेरा है ।-आर्यो०, पृ० ११८ ।
⋙ अव्र
संज्ञा पुं० [ अ० अव्र, तुल सं० अभ्र] बादल । मेघ ।
⋙ अव्रण (१)
वि० [सं०] जो क्षत न हो । बिना घाव का । जो घाव से खराब न हुआ हो [को०]
⋙ अव्रण (२)
संज्ञा पुं० दे० 'अव्रणशुक्र' [को०] ।
⋙ अव्रणशुक्र
संज्ञा पुं० [सं०] आँख का एक रोग जिसमें आँख की पुतली पर सफेद रंग की एक फूली सी पड़ जाती है और उसमें सूई चुभने के समान पीड़ा होती है ।
⋙ अव्रत (१)
वि० [सं०] १. व्रतहीन । जिसका व्रत नष्ट हो गया हो । २. जिसने व्रतधारण न किया हो । व्रतरहित । ३. नियमरहित । नियमशून्य ।
⋙ अव्रत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैनशास्त्रानुसार व्रत का त्याग । विशेष—यह पाँच प्रकार है-प्राणवध, मृषावाद, अदत्तदान, मैथुन या अब्रह्म और परिग्रह । २. व्रत का अभाव । ३. नियम का न होना ।
⋙ अव्रत्य
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मानुष्ठान का अभाव [को०] ।
⋙ अव्वल (१)
वि० [अ०] १. पहला । आदि का । प्रथम । २. उत्तम । श्रेष्ठ ।
⋙ अव्वल (२)
संज्ञा पुं० आदि । प्रारंभ, जैसे-'अव्वल से आखिर तक' ।—(शब्द०) । मुहा०—अव्वल आना या रहना=प्रथम स्थान प्राप्त करना ।
⋙ अव्वलन्
क्रि० वि० [अ०] प्रथमत? । पहले ।
⋙ अव्वास पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आवास' । उ०—ऊँचा महल ही अव्वास । करता नारि नर विल्लास ।-राम० धर्म०, पृ० १६८ ।
⋙ अशंक
वि० [सं० अशङ्क] १. नि?शंक । बेडर । निर्भय । उ०—देखा भविष्य के प्रति अशंक ।-अपरा, पृ० १७४ । २. संदेहरहित । निश्चित [को०] ।
⋙ अशंकित
वि० [सं० अशङ्कित] दे० 'अशंक' [को०] ।
⋙ अशंभु पु
संज्ञा पुं० [सं० अ=नहीं+ शम्भु=कल्याण] अकल्याण । अमंगल । अशुभ । अहित । उ०—सुनो क्यों न कनकपुरी के राइ । डोलै गगन सहित सुरपति अरु पुहुमि पलट जग जाइ । नसै धर्म मन वचन काय करि शंभु अशंभु कराइ । अबला चलै, चलत पुनि थाकै, चिरंजीव सो मरई । श्री रधुनाथ प्रताप पतिव्रत सीता सत नहीं टरई ।-सूर (शब्द०) ।
⋙ अशकुंभी
संज्ञा स्त्री० [सं० असकुम्भी] जल में होनेवाला एक पौधा । आकाशमूली [को०] ।
⋙ अशकुन
संज्ञा पुं० [सं०] कोई वस्तु या व्यापार जिससे अमंगल की सूचना समझी जाय । बुरा शकुन । बुरा लक्षण । विशेष—इस देश मैं लोग दिन को गीदड़ का बोलना, कार्यारंभ में छींक होना आदि अशकुन समझते हैं ।
⋙ अशक्त
वि० [सं०] [संज्ञा अशक्ति] १. निर्बल । कमजोर । २. अक्षम । असमर्थ । नाकाबिल । उ०—होकर अशक्त अकाल में ही काल- कवलित हो रहे ।-भारत०, पृ० १०१ ।
⋙ अशक्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शक्तिहीनता । अयोग्यता [को०] ।
⋙ अशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निर्बलता । कमजोरी । २. सांख्य में बुद्धि और इंद्रियों का बध या विपर्यय । हाथ पैर आदि इंद्रियो और बुद्धि का बेकाम होना । वेशेष—ये अशक्तियाँ अटठाईस हैं । इंद्रियाँ ग्यारह है, अछ? ग्यारह अशक्तियाँ तो उनकी हुई । इसी प्रकार बुद्धि की दो शक्तियाँ है तुष्टि और सिद्धि । तुष्टि नौ है और सिद्धि आठ । इन सबके विपर्यय को अशक्ति कहते हैं ।
⋙ अशक्य
वि० [सं०] १. असाध्य । शक्ति के बाहर । न होने योग्य । २. एक काव्यालंकार जिसमें किसी रुकावट या अड़चन के कारण किसी कार्य के होने की असाध्यता का वर्णन हो, जैसे-काक कला कहुँ कहुँ कपि कलकल । कहुण झिल्ली रव कंक कहुँ थल । बसी भाग्य बस सों बन ऐसे । करहिं तहाँ ध्वनि कोकिल कैसे ।
⋙ अशत्रु (१)
वि० [सं०] बिना शत्रुवाला । २. जिससे शत्रु शत्रुता का व्यवहार नहीं रखते [को०] ।
⋙ अशत्रु (२)
संज्ञा पुं० १. चंद्रमा । २. शत्रु का अभाव [को०] ।
⋙ अशन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अशित, अशनीय] १. भोजन । आहार । अन्न । २. भोजन की क्रीया । भक्षण । खाना । ३. चीता । चित्रक लकड़ी । ४. भिलावाँ । ५. अशन वृक्ष ।
⋙ अशनपति
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न के स्वामी या देवता [को०] ।
⋙ अशनपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पटसन [को०] ।
⋙ अशना
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि०अशनाय़ित] भोजन की इच्छा । भूख [को०] ।
⋙ अशनाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भोजन की इच्छा । भूख । उ०— इस प्रवृत्ति का हेतु जो बल होता है उसे श्रुति में अशनाया बल कहा गया है ।—पोद्दार अभि०, पृ० ६१७ ।
⋙ अशनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वज्र । बिजली । २. बिजली की चमक [को०] । ३. महास्त्र [को०] । ४. स्वामी । मालिक [को०] । ५. इंद्र [को०] । ६. अग्नि [को०] । यौ०—अशनिदंड़=वज्र । बिजली । अशनिपात=वज्रपात ।
⋙ अशनीय
वि० [सं०] खाने योग्य ।
⋙ अशब्द (१)
वि० [सं०] १. जो शब्दों में प्रकट न किया जाय । २. अव्यक्त । ३. शब्दविहीन । ४. जो वैदिक न हो । अवैदिक [को०] ।
⋙ अशब्द (२)
संज्ञा पुं० १. शब्द का अभाव । २. ब्रह्म [को०] ।
⋙ अशरण
वि० [सं०] जिसे कहीं शरण न हो । अनाथ । निराश्रय । बेपनाह ।
⋙ अशरणशरण (१)
वि० [सं०] अनाथ या निराश्रय को आश्रय देनेवाला [को०] ।
⋙ अशरणशरण (२)
संज्ञा पुं० ईश्वर । भगवान् [को०] ।
⋙ अशरफ
वि० [अ० अश्रक्] बहुत अधिक शरीफ [को०] ।
⋙ अशरफी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. सोने का एक पुराना सिक्का जो सोलह रुपए से लेकर पचीस रुपए तक का होता था । मोहर । २. एक प्रकार का पीले रंग का फूल । गुल अशरफी ।
⋙ अशरा
संज्ञा पुं० [अ० अशरह्] १ महीने का दसवाँ दिन । २. मुहर्रम का दसवाँ दिन [को०] ।
⋙ अशराफ
वि० [अ० शरीफ का बहु०] भद्र । शरीफ । भलामानुष । उ०—फिरते हैं अशराफ गली में मारे मारे ।—कविता कौ०, भा०२, पृ० २५५ ।
⋙ अशराफत
संज्ञा स्त्री० [अ० अशराफ+ त (प्रत्य०)] सज्जनता । शराफत । भद्रता । उ०—'सादगी' औऱ सीधेपन से रहने में मनुष्य की सच्ची अशराफत मालूम होती है' ।-श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २७७ ।
⋙ अशरीर (१)
वि० [सं०] शरीररहित । आकारविहीन [को०] ।
⋙ अशरीर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमात्मा । ब्रह्म । २. मीमांसा के अनुसार कोई भी देवता । ३. काम के देवका । कामदेव । ४. विरक्त । संन्यासी [को०] ।
⋙ अशरीरी (१)
वि० [सं० अशरीरिन्] शरीररहित । देहविहीन । उ०— ये अशरीरी रूप, सुमन से केवल वर्ण गंध में फूले ।—कामा- यानी, पृ० २६४ ।
⋙ अशरीरी (२)
संज्ञा पुं० १. ब्रह्म । २. देवता [को०] ।
⋙ अशर्फी
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अशरफी' ।
⋙ अशर्म (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कष्ट । दु?ख । अकल्याण ।
⋙ अशर्म (२)
वि० १. दु?खी । बेचैन । २. जिसे घरबार न हो । गृहरहित ।
⋙ अशस्त
वि० [सं०] १. अनिर्वचनीय । अकथनीय । २. अप्रतिष्ठित । भाग्यहीन [को०] ।
⋙ अशस्त्र (१)
वि० [सं०] बिना शस्त्र का । शस्त्रहीन [को०] ।
⋙ अशस्त्र (२)
संज्ञा पुं० जो शस्त्र न हो [को०] ।
⋙ अशांत
वि० [सं० अशान्त] जो शांत न हो । अस्थिर । चंचंल । डाँवाँडोल । उ०—यही तो, मैं ज्वलित वाड़व वह्नि नित्यअशांत ।-कामयनी, पृ० ८५ । २. अपवित्र । अधार्मिक [को०] । ३. पाँचों तन्मात्राओं में से एक ।
⋙ अशांति
संज्ञा स्त्री० [अशान्ति] [वि० अशांत] १. अस्थिरता । चंचलता । हलचल । खलबली । उ०—जाकर कहाँ हमने जलाई आग युद्ध अशांति की ।—भारत०, पृ० ५१ । २. क्षोभ । असंतोष । उ०—जीवन अशांति अपूर्ण सबके दीन हो अथवा धनी ।—भारत०, पृ० १४६ ।
⋙ अशाखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की घास जिसे शूलीतृण भी कहते हैं [को०] ।
⋙ अशाम्य
वि० [सं०] जिसको शांत न किया जा सके । जिसका शमन असंभव हो [को०] ।
⋙ अशालीन
वि० [सं०] धृष्ट । ढीठ । शालीनतारहित ।
⋙ अशालीनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धृष्टता । ढिठाई ।
⋙ अशासन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शासनाभाव । अव्यवस्थित शासन । अराजकता [को०] ।
⋙ अशासन (२)
वि० शासन में न रहनेवाला । शासनहीन [को०] ।
⋙ अशासावेदनीय
संज्ञा पुं० [सं०] जैनशास्त्रानुसार वह कर्म जिसके उदय से दु?ख का अनुभव होता है ।
⋙ अशास्त्रीय
वि० [सं०] जो शास्त्रसंमत न हो । जो विहित न हो [को०] ।
⋙ अशिक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिक्षा का अभाव । ज्ञानभाव । उ०— ये सब अशिक्षा के कुफल हैं वास है जिनका यहाँ ।—भारत०, पृ० ११५ ।
⋙ अशिक्षित
वि० [सं०] जिसने शिक्षा न पाई हो । बेपढ़ा लिखा । अनपढ़ । उजड्ड । अनाड़ी । गँवार । उ०—यदि हम अशिक्षित थे, कहें तो, सभ्य वे कैसे हुए ।—भारत०, पृ० ६६ ।
⋙ अशित
वि० [सं०] खाया हुआ । भुक्त ।
⋙ अशित्र
संज्ञा पुं० [सं०] चोर ।
⋙ अशिथिल
वि० [सं०] १. जो ढीला न हो । कसा हुआ । गाढ़ । २. प्रभावकर । विश्वस्त [को०] ।
⋙ अशिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. हीरा । २. अग्नि । ३. राक्षस । ४. सूर्य ५. वायु [को०] ।
⋙ अशिव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अमंगल । अकल्याण । अशुभ ।
⋙ अशिव (२)
वि० १. दुष्ट । बदमाश । २. भाग्यहीन । ३. जो कृपालु न हो । अमित्र । ४. खतरनाक [को०] ।
⋙ अशिशु (१)
वि० [सं०] नि?संतान । बिना बालबच्चेवाला [को०] ।
⋙ अशिशु (२)
संज्ञा पुं० १. तरुण । युवा । २. शिशुता का अभाव [को०] ।
⋙ अशिश्विका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिना बच्चा की स्त्री । संतानहीन स्त्री । २. बिना बछड़े की गाय [को०] ।
⋙ अशिश्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अशिश्विका' ।
⋙ अशिष्ट
वि० [सं०] असाधु । दु?शील । अविनीत । उजड्ड । बेहूदा । अभद्र । अनैतिक अगान्य ।
⋙ अशिष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. असाधुता । दु?शीलता । बेहूदगी । उजड्डपन । अभद्रता । २. ढिठाई ।
⋙ अशीत
वि० [सं०] जो ठंढा न हो । गरम [को०] ।
⋙ अशीतकर
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०] ।
⋙ अशीतल
वि० [सं०] गरम [को०] ।
⋙ अशीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ८० की संख्या [को०] ।
⋙ अशीतिक
वि० [सं०] १. अस्सी सालवाला । २. अस्सी का मापक । ३. अस्सी का जिससे संकेत मिले [को०] ।
⋙ अशील (१)
वि० [सं०] १. अभद्र । अशिष्ट । उद्दंड । २. उदास [को०] ।
⋙ अशील (२)
संज्ञा पुं० अभद्रव्यवहार । अशिष्टता । उद्दंडना [को०] ।
⋙ अशीष पु
संज्ञा पुं० [सं० आशिष्] आशीर्वाद । असीस । दुआ । उ०—कछू जनि जी दुख पायहु माइ । सो देहु अशीष मिलौं फिरि आइ ।—रामचं०, पृ० ४८ ।
⋙ अशुच
वि० [सं० अशुचि] दे० 'अशुचि' । उ०—अति विलक्षण है तव दुष्क्रिया अशुच मृत्यु अरे अधमाधम ।—कविता कौ०, भा०, २, पृ० २४७ ।
⋙ अशुचि (१)
वि० [सं०] [संज्ञा अशौच] १. अपवित्र । २. गंदा । मैला । ३. काला [को०] ।
⋙ अशुचि (२)
संज्ञा स्त्री० १. काला रंग । २. अपवित्रता । ३. अपकर्ष । अधोगमन [को०] ।
⋙ अशुचिता
वि० [सं०] १. अपवित्रता । २. ग्रीष्माभाव । ज्येष्ठ और आषाढ़ का महीना [को०] ।
⋙ अशुद्ध (१)
वि० [सं० संज्ञा अशुद्धता, अशुद्ध] १. अपवित्र । अशौच- युक्त । नापाक । २. बिना साफ किया हुआ । बिना शोधा हुआ । असंस्कृत जैसे, अशुद्ध पारा । ३. बेठिक । गलत । यौ०—अशुद्ध वासक=संदिग्ध व्यक्ति ।
⋙ अशुद्ध (२)
संज्ञा पुं० रक्त । खून [को०] ।
⋙ अशुद्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपवित्रता । मैलापन । गंदगी ।२. गलती ।
⋙ अशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपवित्रता । अशौच । गंदगी । २. गलती ।
⋙ अशुन पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्विनी] अश्विनी नक्षत्र । उ०—अशुन, भरनि, रेवती भली । मृगसर मोल पुनरबसु बली ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अशुभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अमंगल । अकल्याण । अहित । २. पाप । अपराध । ३. दुर्भाग्य [को०] ।
⋙ अशुभ (२)
वि० जो शुभ न हो । अमंगलकारी । बुरा । यौ.—अशुभदर्शन=भद्दा । कुरूप । अप्रियदर्शन । अशुभसुपचक= अमंगल की सूचना देनेवाला ।
⋙ अशुश्रूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिसकी आज्ञा में रहना चाहिए, उसकी आज्ञा में न रहने का अपराध । विशेष—स्मृति के अनुसार पारिवारिक व्यवस्था की दृष्टि से इस अपराध का राज्य की ओर से दंड़ होता था, जैसे—यदि पुत्र पिता की आज्ञा न माने तो वह दंडनीय माना गया है ।
⋙ अशून्य
वि० [सं०] शून्यरहित । प्रमाणित । अरिक्त । पूर्ण । पूरा । उ०—(क) 'हमने भी लेख अशून्य करने को कुछ भेजा है सो लेना ।' भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० २०७ । (ख) 'यही लेख अशून्य करने को होगी' ।—भारतेंदु ग्रं०,; भा०१, पृ० २०८ ।
⋙ अशून्यशयन
संज्ञा पुं० [सं०] वह तिथि जिस दिन विश्वकर्मा शयन करते हैं [को०] । यौ.—अशून्यशयन द्धितीया=दे० 'अशून्यशयनव्रत' ।
⋙ अशून्यशयनव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक व्रत जो श्रावण कृष्ण द्धितीया को होता है ।
⋙ अश्रृत
वि० [सं०] बिना पका हुआ । कच्चा । अपरिपक्व [को०] ।
⋙ अशेव
वि० [सं०] सुखदायक । हर्षदायक [को०] ।
⋙ अशेष
वि० [सं०] १. शेषरहित । पुरा । समुचा । सब । तमाम । उ०—विषमय यह गोदावरी अमृतन को फल देति । केशव जीवनहार को, दु?ख अशेष हरि लेति ।—रामचं०, पृ० ६९ । क्रि० प्र०—करना ।होना । २. समाप्त । खतम । ३. अनंत । अपार । बहुत । अधिक । अगणित । अनेक । उ०—सानंद आशिष अशेष ऋषीश दीन्हो ।—रामचं०, पृ० ६६ । (ख) मिस रोम राजि रेखा सुवेष । विधि गनत मनो गुनगुन अशेष ।—गुमान (शब्द०) ।
⋙ अशेषता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णता । समग्रता [को०] ।
⋙ अशेषसाम्राज्य
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ अशैक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अर्हत । उ०—'प्रथम आचार्यों के अनुसार 'अर्हत' से तीन यानों के उन आर्यों से आशय है जिन्होंने अशैक्ष फल का लाभ किया है' ।—संपू० अभि० ग्रं०, पृ० ३४९ ।
⋙ अशैव
वि० [सं०] अशुभ [को०] ।
⋙ अशोक (१)
वि० [सं०] शोकरहित । दु?खशुन्य । उ०—देव अदेव नृदेव अरु, जितने जीव त्रिलोक । मन भायौ पायौ सबन कीन्हें सबन अशोक ।—रामचं०, पृ० १९२ ।
⋙ अशोक (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रसिद्ध पेड़ । विशेष—इसकी पत्तियाँ आम की तरह लंबी और किनारों पर लहरदार होती है । इसमें सफेद मंजरी (मौर) लगती है जिसके झड़ जाने पर छोटे छोटे गोल फल लगते हैं जो पकने पर लाल होते हैं, पर खाए नहीं जाते । यह पेड़ बड़ा सुंदर और हरा भरा होता है, इससे इसे बगीचों में लगाते हैं । शुभ अवसरों पर इसकी पत्तियों की बंदनवारें बाँधी जाती हैं । यह शीतल, कसैला, कडुआ, मल को रोकनेवाला, रक्तदोष को दूर करनेवाला और कृमिनाशक समझा जाता हैं । इसकी छाल विशेषकर स्त्री रोगों में दी जाती है । इसके दो भेद होते हैं— एक के पत्ते रामफल के समान औऱ फूल कुछ नारंगी रंग के होते हैं । यह फागुन में फूलता है । दूसरे के पत्ते लंबे लंबे और आम के पत्तों के सामान होते हैं और इसमें सफेद फूल वसंत ऋतु में लगते हैं । पर्या०—विशोक । मधुपुष्प । ककेलि । वेलिक । रक्तपल्लव । रागपल्लव । हेमपुष्प । बंजुल । कर्णपूर । ताम्रपल्लव । वामांघ्रिघातन । राम । रामा । नट । पिंड़ी । पुष्प । पल्लव- द्रुम । दोहलीक । सुभग । रोगितरु । २. पारा । ३. भारतवर्ष का एक प्राचीन मौर्यवंशीय सम्राट् । ४. विष्णु का एक नाम [को०] । ५. बकुल वृक्ष [को०] । ६. प्रसन्नता । आह्लाद [को०] ।
⋙ अशोकपुष्पमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अशोकपुष्पमन्जरी] दंडक वृत्त का एक भेद जिसमें २८ अक्षर होते है और लघु और लघु गुरु का कोई नियम नहीं होता, जैसे-सत्यधर्म नित्य धारि व्यर्थ काम सर्व डारि भूलि कै करो कदा न निंद्य काम ।
⋙ अशोकपूर्णिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] फाल्गुन की पूर्णिमा [को०] ।
⋙ अशोकवनिकान्याय
संज्ञा पुं० [सं०] किसी कार्य को करने का कारण न बताया जानेवाला व्यवहार, जैसे—रावण ने सीता जी को अशोक के ही निचे रहने का क्यों आदेश आदेश दिया? इसका कारण नहीं बताया गया [को०] ।
⋙ अशोकवाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह बगीचा जिसमें अशोक के पेड़ लगे हों । २. शोक को दुर करने वाला रम्य उद्यान । ३. रावण का वह प्रसिद्ध बगीचा जिसमें उसने सीता जी को ले जाकर रखा ।
⋙ अशोकषष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र शुक्ला षष्ठी । इस दिन कामख्या तंत्र के अनुसार पुत्रलाभार्थ षष्ठी देवी की पूजा की जाती है ।
⋙ अशोका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुटकी । २. अशोक की कली । ३. दे० 'अशोकषष्ठी' ।
⋙ अशोकारि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कदंब [को०] ।
⋙ अशोकाष्टमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र शुक्ला अष्टमी । विशेष—इस दिन पानी में अशोक के आठ पल्लव डालकर उसे पीने का विधान है तथा अशोक के फूल विष्णु को चढ़ाते हैं ।
⋙ अशोच
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिंता या परवाह का अभाव । २. शांति । ३. विनम्रता [को०] ।
⋙ अशोच्य
वि० [सं०] शोक न करने योग्य । उ०—वे हैं अशोच्य, हाँ स्मरण योग्य हैं सबके । —साकेत, पृ० २२३ ।
⋙ अशोधित
वि० [सं०] बिना शोधन किया हुआ । बिना साफ किया हुआ । संस्काररहित [को०] ।
⋙ अशोभक
वि० [सं०] माणिक्य का एक दोष [को०] ।
⋙ अशोभन
वि० [सं०] असुंदर । अभद्र । सुंदर न लगनेवाला ।
⋙ अशौच
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपवित्रता । अशुद्धता । २. हिंदू शास्त्र नुसार अशौच की अवस्था । विशेष—इन अवस्थाओं में अशौच माना जाता है-(क) मृतक- संस्कार के पश्चात् मृत के परिवार या सपिंडवालों में वर्णक्रमा नुसार १०, १२, १५ और ३० दिन तक । (ख) संतान होने पर भी ऊपर के नियमानुसार । शोक के अशौच को सूतक और संतानोत्पत्ति के अशौच को वृद्धि कहते है । (ग) रजस्वला स्त्री को तीन दिन । (घ) मल, मूत्र, चांडाल या मुर्दें आदि का स्पर्श होने पर स्नानपर्यत । अशौचावस्था में संध्या तर्पण आदि वैदिक कर्म नहीं किए जाते ।
⋙ अशौचसंकर
संज्ञा पुं० [सं० अशौचसङ्कर] दो या दो से अधिक अशौचों का साथ होना, जैसे किसी परिवार में मृत्यु का अशौच लगा हो परंतु अशौच काल में ही बालक का जन्म हो जाय तो जन्म अशौच के कारण वहीं अशौचसंकर की स्थिति होगी [को०] ।
⋙ अश्मंत (१)
संज्ञा पुं० [सं० अशमन्त] १. चूल्हा । २. अमंगल । ३. मरण । ४. खेत । ५. एक मरुत् [को०] ।
⋙ अश्मंत (२)
वि० १.अशुभ । अभागा । २. असीमित [को०] ।
⋙ अश्मंतक
संज्ञा पुं० [सं० अशमन्तक] १. मूँज की तरह एक घास जिससे प्राचीन काल में ब्राह्मण लोग मेखला अर्थात् करधनी बताते थे । २. आच्छादन । छाजन । ढकना । ३. दीपाधार । दीवट । ४. पाषाणमेद । ५. लिसोढ़ा । ६. कचनार । ७. चूल्हा । भट्ठी [को०] ।
⋙ अश्क
संज्ञा पुं० [फा०] अश्रु । आँसू । उ०—कल जो टुक रोया किसी की याद में वह गुलबदन । अश्क थे आँखों में या मोती कुचलकर भर दिए ।—कविता कौ०, भा०४, पृ० ३३२ ।
⋙ अश्म
संज्ञा पुं० [सं० अश्मन्] १. पर्वत । पहाड़ । २. मेघ । बादल । ३. पत्थर । ४. सोनामक्खी । ५. लोहा ।
⋙ अश्मक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम जो आजकल ट्रांवकोर (त्रिवांकुर) कहलाता है ।
⋙ अश्मकदली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का केला जो कड़ा तथा कम स्वादवाला होता है । काष्ठकदली । कठकेला [को०] ।
⋙ अश्मकुट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के बानप्रस्थ जो सिल, बट्टा या उखली आदि नहिं रखते थे, केवल पत्थर से अन्न कूटकर पकाते थे ।
⋙ अश्मगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] पन्ना । मरकत ।
⋙ अश्मगर्भज
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिलाजतु । २. गेरू । ३. लोहा [को०] ।
⋙ अश्मज
संज्ञा पुं० [सं०] शिलाजतु । शिलाजीत । २. मोमियाई । ३. लोहा ।
⋙ अश्मभेद
संज्ञा पुं० [सं०] पखानभेद नाम की जड़ी जो मूत्रकृच्छ् आदि रोगों में दी जाती है ।
⋙ अश्मयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] पन्ना [को०] ।
⋙ अश्मर
वि० [सं०] पथरीला ।
⋙ अश्मरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुत्ररोगविशेष । पथरी । यौ०.—अशमरोध्त=वरुण वृक्ष । बरना का पेड़ ।
⋙ अश्मसार
संज्ञा पुं० [सं०] लोहा ।
⋙ अश्मा
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अश्म' [को०] ।
⋙ अश्मीर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अश्मरी' [को०] ।
⋙ अश्मोत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] शिलाजोत [को०] ।
⋙ अश्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँसू । २. रक्त [को०] ।
⋙ अश्रद्ध
वि० [सं०] श्रद्धा न रखनेवाला । विश्वास न रखनेवाला [को०] ।
⋙ अश्रद्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अश्रद्धेय] श्रद्धा का अभाव ।
⋙ अश्रद्धेय
वि० [सं०] अश्रद्धा के योग्य । घृणा के योग्य । बुरा ।
⋙ अश्रप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस ।
⋙ अश्रप (२)
वि० रक्त पीनेवाला । दुष्ट । अत्याचारी [को०] ।
⋙ अश्रवण (१)
वि० [सं०] १. जो सुनता न हो । बहरा । २. कर्णहीन [को०] ।
⋙ अश्रवण (२)
संज्ञा पुं० १. साँप । २. श्रवण शक्ति का अभाव । बहरापन [को०] ।
⋙ अश्रांत
वि० [सं० अश्रान्त] १. श्रमरहित । स्वस्थ । जो थका- माँदा न हो । २. विश्रामरहित । लगातर । निरंतर । उ०— चंद्रमा नभ में हँसना था बाज रही थी वीणा अश्रांत ।— झरना, पृ० ७१ ।
⋙ अश्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० अश्रान्ति] श्रांति या थकावट का अभाव । उ०—संसारयात्रा में स्वपति की वे अटल अश्रांति हैं ।—भारत०, पृ० ५९ ।
⋙ अश्राव्य
वि० [सं०] १. न सुनने योग्य । २. न कहने योग्य [को०] ।
⋙ अश्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. (कोठरी, घर आदि का) कोना । २. अस्त्र शस्त्र की नोक । ३. धार ।
⋙ अश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अलक्ष्मी । दरिद्रा । २. दे० 'अश्रि' [को०] ।
⋙ अश्रीक
वि० [सं०] १. शोभीहीन । जिसमें श्री न हो । २. भाग्य— हीन । अभागा [को०] ।
⋙ अश्रु
संज्ञा पुं० [सं०] मन के किसी प्रकार के आवेग के कारण आँखों में आनेवाला जल । आँसू । २. काव्य में अनुभाव के अंतर्गत सात्विक के नौ भेदौं में से एक ।
⋙ अश्रुकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्रुविंदु [को०] ।
⋙ अश्रुगैस
संज्ञा स्त्री० [सं० अश्रु+ अं० गैस] एक प्रकार की गैस जिसका प्रयोग अनियमित भीड़ को तितर बितर करने के लिये शासन द्वारा किया जाता है ।
⋙ अश्रुत
वि० [सं०] १. जो न सुना गया हो । अज्ञात । २. जिसने कुछ देखा सुना न हो । नातजर्बेकार । ३. अशिक्षित । अशास्त्रज्ञ मूर्ख [को०] ।
⋙ अश्रुतपूर्व
वि० [सं०] १. जो पहले न सुना गया हो । २. अदभुत । विलक्षण । अनोखा ।
⋙ अश्रुति (१)
वि० [सं०] १. बिना कानवाला । श्रुति या श्रवणरहित ।
⋙ अश्रुति (२)
संज्ञा स्त्री० १. न सुनना । अश्रवण । २. विस्मृति [को०] ।
⋙ अश्रुतिधर
वि० [सं०] १. वेदों को न जाननेवाला । ध्यान से सुननेवाला । ध्यान न देनेवाला [को०] ।
⋙ अश्रुपात
संज्ञा पुं० [सं०] आँसु गिराना । ऱुदन । रोना ।
⋙ अश्रुमुख (१)
वि० [सं०] १. आँसुओ से भरा हुआ । रोना हुआ । २. रोनी सूरत का । रुआँसा ।
⋙ अश्रुमुख (२)
संज्ञा पुं० ज्योतिष के अनुसार जिस नक्षत्रपर मंगल का उदय है, उसके १० वैं, ११ वें १२ वें नक्षत्रपर यदि उसकी गति वक्र तो वह (वक्रगति) अश्रुमुख कहलाती है ।
⋙ अश्रेय (१)
वि० [सं० अश्रेयस्] १. बुरा । खराब । २. कल्याणकर व्यर्थ । निकम्मा [को०] ।
⋙ अश्रेय (२)
संज्ञा पुं० १. बुराई । खराबी । २. अकल्याण । ३. दु?ख [को०] ।
⋙ अश्रेष्ठ
वि० [सं०] १. जो श्रेष्ठ या उत्तम न हो । २. बुरा निकृष्ट [को०] ।
⋙ अश्रौत
वि० [सं०] जो श्रुति या वेदसंमत न हो [को०] ।
⋙ अश्लाघ्य
वि० [सं०] १. जो शलाघ्य न हो । अप्रशंसनीय । जो सरा हने योग्य न हो । निम्न । निंद्य ।
⋙ अश्लिष्ट
वि० [सं०] १. शलेषशून्य । श्लेषरहित । २. असंबद्ध । असंगत ।
⋙ अश्लील (१)
वि० [सं०] १. फूहड़ । भद्दा । २. लज्जाजनक ।
⋙ अश्लील (२)
संज्ञा पुं० १. साहित्यशास्त्र के अनुसार काव्यादि में ऐसे शव्दों का प्रयोग जिनसे ब्रीड़ा, जुगुप्सा और अमंगल की अभि- व्यक्ति होती हो । २. गँवारू भाषा ।
⋙ अश्लीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] फूहड़पन । भद्दापन । गंदापन । लज्जा का उल्लंघन । निर्लज्जता । उ०—यो भक्ति रस भी सन गया अश्लीलता की नीड़ में ।—भारत० पृ० १२३ । विशेष—काव्य में यह दोष माना जाता है ।
⋙ अश्लेष
वि० [सं०] श्लेषरहित । एकनिष्ठ । उ०—द्विस्वभाव अश्लेष में ब्राह्मण जाति अजेय ।—रामचं०, पृ० १६० ।
⋙ अश्लेषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राशिचक्र के २७ नक्षत्रों में से नवाँ नक्षत्र । विशेष—यह नक्षत्र चक्राकार छ? नक्षत्रों से मिलकर बना है । इसका देवता सर्प है और यह केतु ग्रह का जन्म नक्षत्र है । २. अलगाव । विच्छेद । विश्लेष [को०] ।
⋙ अश्लेषाभव
संज्ञा पुं० [सं०] केतु ग्रह ।
⋙ अश्वंत
वि० संज्ञा पुं० [सं० अश्वन्त] दे० 'अशमंत' [को०] ।
⋙ अश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़ा । तुरंग । २. सात की संख्या [को०] । ३. पुरुष की एक जाति [को०] ।
⋙ अश्वकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० अश्वकन्दा] अश्वगंधा [को०] ।
⋙ अश्वक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा घोड़ा । २. लावारिस घोड़ा । ३. घोड़ा । ४. खराब जाति का घोड़ा ।
⋙ अश्वकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का शाल वृक्ष । २. लता शाल । ३. घोड़े का कान [को०] । ४. चिकित्सा शास्त्र में वर्णित एक प्रकार का अस्थिभंग [को०] ।
⋙ अश्वकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्विनी नक्षत्र [को०] ।
⋙ अश्वकुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घुड़साल [को०] ।
⋙ अश्वकुशल
वि० [सं०] घोड़ा फेरनेवाला सवार । अश्वशिक्षक [को०] ।
⋙ अश्वकोविद
वि० [सं०] दे० 'अश्वकुशल' ।
⋙ अश्वक्रंद
संज्ञा पुं० [सं० अश्वक्रन्द] १. एक प्रकार का पक्षी । २. देवसेना का नायक [को०] ।
⋙ अश्वक्रांता
संज्ञा स्त्री० [सं० अश्वक्रान्ता] संगीत में एक मूर्च्छता । इसका स्वरग्राम यों है—ग म प ध नि स रे ग म प ध नि ।
⋙ अश्वखरज
संज्ञा पुं० [सं०] खच्चर [को०] ।
⋙ अश्वखुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. नख नामक सुगंधित द्रव्य । २. घोड़े का सुम [को०] ।
⋙ अश्वखुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपराजिता पौधे का नाम [को०] ।
⋙ अश्वगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० अश्वगन्धा] असगंध ।
⋙ अश्वगति
संज्ञा पुं० [सं०] १. छंद?शास्त्र में नील वृत्त का दूसरा नाम । यह पाँच भगण और एक गुरु का होता है, जैसे-भा शिव आनन गौरि जबै मन लाय लखी । लै गई ज्यों सुठि भुषण धारि वितान सखी । २. चित्र काव्य का एक चक्र जिसमें ६४ खाने होते है । ३. घोड़े की चाल [को०]
⋙ अश्वगोयुग
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े की जोड़ी [को०] ।
⋙ अश्वगोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] घुड़साल । अस्तबल [को०] ।
⋙ अश्वग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] कश्यप ऋषि की दनु नाम्नी स्त्री से उत्पन्न पुत्र । हयग्रीव ।
⋙ अश्वघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] कनेर का फूल तथा उसका पेड़ [को०] ।
⋙ अश्वचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े के चिह्नों से शुभाशुभ का विचार । २. घोड़ों का समूह ।
⋙ अश्वचिकित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह शास्त्र जिसमें पशुओं के रोगों तथा उनकी चिकत्सा का विवरण होता है [को०] ।
⋙ अश्वतर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अश्वतरी] १. एक प्रकार का सर्प । नागराज । २. खच्चर । ३. बछड़ा [को०] । ३. गंधर्वों की एक जाति [को०] ।
⋙ अश्वत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीपल । २. पीपल का गोदा [को०] । ३. सूर्य का एक नाम [को०] । ३. पीपल में फल आने का काल [को०] । ५. अश्विनी नक्षत्र [को०] ।
⋙ अश्वत्थक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीपल में फल लगने के समय अदा किया जानेवाला ऋण । २. पीपल वृक्ष ।
⋙ अश्वत्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्विन की पूर्णिमा [को०] ।
⋙ अश्वत्थाम
वि० [सं०] घोड़े के समान शक्तिवाला [को०] ।
⋙ अश्वत्थामा
संज्ञा पुं० [सं० अश्वत्थामन्] १. द्रोणाचार्य के पुत्र । २. मालवा के राजा इंद्रवर्मा के एक हाथी का नाम जो महाभारत के युद्ध में मारा गया था ।
⋙ अश्वत्थी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा पीपल । २. पीपल की तरह लगनेवाला एक छोटा वृक्ष [को०] ।
⋙ अश्वदंष्ट्र
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोखरू ।
⋙ अश्वदूत
संज्ञा पुं० [सं०] घुड़सवार दूत [को०] ।
⋙ अश्वनाय
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े का चरवाहा [को०] ।
⋙ अश्वनिबंधिक
संज्ञा पुं० [सं० अश्वनिबन्धिक] अश्वपाल । साईस [को०] ।
⋙ अश्वपति
संज्ञा पुं० [सं०] घुड़सवार । २. रिसालदार । ३. घोड़ों का मालिक । ३. भरत जी के मामा । ५. केकय देश के राज- कुमारों की उपाधि ।
⋙ अश्वपाल
संज्ञा पुं० [सं०] साईस ।
⋙ अश्वपुच्छी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माषपर्णी नामक पौधा [को०] ।
⋙ अश्वबंध
संज्ञा पुं० [सं० अश्वबन्ध] चित्रकाव्य में वह पद्य जो घोड़े के चित्र में इस रीति से लिखा हो कि उसके अक्षरों से अंग प्रत्यंग तथा साजों और आभूषणो के रूप निकल आएँ ।
⋙ अश्वबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेथी [को०] ।
⋙ अश्वबाल
संज्ञा पुं० [सं०] कास का पौधा ।
⋙ अश्वभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिजली [को०] ।
⋙ अश्वमार
संज्ञा पुं० [सं०] कनेर का पेड़ ।
⋙ अश्वमारक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अश्वमार' ।
⋙ अश्वमाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप [को०] ।
⋙ अश्वमुख
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अश्वमुखी] किन्नर ।विशेष—कहते है, किन्नरों का मुँह घोड़ों के समान होता है ।
⋙ अश्वमेद पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्वमेध] दे० 'अश्वमेध' । उ०— अश्वमेद राजसू । लंब गोषंभ मेद बर ।-पृ० रा०, ५५ ।४० ।
⋙ अश्वमेध
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक बड़ा यज्ञ । विशेष—इसमें घोड़े के मस्तक पर जयपत्र बाँधकर उसे भूमं- डल में घूमने के लिये छोड़ देते थे । उसकी रक्षा के निमित्त किसी वीर पुरुष को नियुक्त कर देते थे जो सेना लेकर उसके पीछे पीछे चलता था । जिस किसी राजा को अश्वमेध करनेवाले का अधिपत्य स्वीकृत नहीं होता था, वह उस घोड़े को बाँध लेता और सेना से युद्ध करता था । अश्व बाँधनेवाले को पराजित कर तथा घोड़े को छुड़ाकर सेना आगे बढ़ती थी । इस प्रकार वह घोड़ा संपूर्ण भूमंडल में घूमकर लौटता था, तब उसको मारकर उसकी चर्बी से हवन किया जाता था । यह यज्ञ केवल बड़े प्रतापी राजा करते थे । यह यज्ञ साल भर में होता था । २. एक प्रकार की तान जिसमें षडज स्वर को छो़ड़कर शेष छह स्वर लगते हैं ।
⋙ अश्वमेधिक (१)
वि० [सं०] अश्वमेध संबंधी [को०] ।
⋙ अश्वमेधिक (२)
संज्ञा पुं० १. अश्वमेध के योग्य घोड़ा । २. महाभारत का चौदहवाँ पर्व [को०] ।
⋙ अश्वमेधीय
वि० [सं०] दे० 'अश्वमेधिक' [को०] ।
⋙ अश्वयुज (१)
वि० [सं०] १. जिसमें घोड़ा जुता हो । २. जो अश्विनी नक्षत्र में उत्पन्न हो [को०] ।
⋙ अश्वयुज् (२)
संज्ञा स्त्री० १. अश्विनी नक्षत्र । २. आश्विन महीना । ३. रथ जिसमें घोड़े जुते हों [को०] ।
⋙ अश्वयूप
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वमेध के घोड़े को बाँधने का खूँटा [को०] ।
⋙ अश्वयोग
वि० [सं०] घोड़े की तरह तेजी से पहुँचनेवाला [को०] ।
⋙ अश्वरक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वपाल [को०] ।
⋙ अश्वरिपु
संज्ञा पुं० [सं०] भैंस [को०] ।
⋙ अश्वरोधक
संज्ञा पुं० [सं०] कनेर ।
⋙ अश्वल
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रकार ऋषि का नाम ।
⋙ अश्वलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े के शुभाशुभ लक्षणों का विचार [को०] ।
⋙ अश्वललित
संज्ञा पुं० [सं०] अद्रितनया नामक वर्णावृत्त ।
⋙ अश्वलाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का साँप [को०] ।
⋙ अश्ववक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] किन्नर [को०] ।
⋙ अश्ववदन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम ।
⋙ अश्ववह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अश्ववाह' [को०] ।
⋙ अश्ववार, अश्ववारक
संज्ञा पुं० [सं०] घुड़सवार [को०] ।
⋙ अश्ववाह, अश्ववाहक
संज्ञा पुं० [सं०] घुड़सवार [को०] ।
⋙ अश्वविद् (१)
वि० [सं०] १. घोड़ों का शिक्षक । २. घोड़े के लक्षणों को जाननेवाला [को०] ।
⋙ अश्वविद (२)
संज्ञा पुं० १.घुड़सवार । २. राजा नल [को०] ।
⋙ अश्ववैद्य
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों का वैद्य [को०] ।
⋙ अश्वव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्युह जिसमें कवचघारीं (लोहे की पारवरवाले) घोड़े सामने और साधारण घोड़े पक्ष और कक्ष में हों ।
⋙ अश्वशंकु
संज्ञा पुं० [सं० अश्वङ्कु] घोड़ा बाँधने का खूँटा [को०] ।
⋙ अश्वशक
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े की लीद [को०] ।
⋙ अश्वशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ घोड़े रहें । घुड़साल । अस्तबल । तबेला ।
⋙ अश्वशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें घोड़ों के शुभाशुभ लक्षणों एवं उनके रोगादि का वर्णन रहता है । शालिहोत्र [को०] ।
⋙ अश्वसाद
संज्ञा पुं० [सं०] घुड़सवार [को०] ।
⋙ अश्वसादी
संज्ञा पुं० [सं० अश्वसादिन्] दे० 'अश्वसाद' [को०] ।
⋙ अश्वसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] वेद का एक सूक्त जिसमें घोड़ों का वर्णन हैं ।
⋙ अश्वस्तन (१)
वि० [पुं०] वर्तमान दिवस संबंधी । केवल आज के दिन से संबंध रखनेवाला ।
⋙ अश्वस्तन (२)
संज्ञा पुं० [वि० अश्वस्तनिक] वह गृहस्थ जिसे केवल एक दिन के खाने का ठिकाना हो । कल के लिये कुछ न रखनेवाला गृहस्थ ।
⋙ अश्वस्तनिक
वि० [सं०] १. कल के लिये कुछ न रखनेवाला । २. आगे के लिये संचय न करनेवाला । विशेष—यह एक प्रकार की ऋषिवृत्ति है ।
⋙ अश्वस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े की पीठ पर रखा जानेवाला कपड़ा [को०] ।
⋙ अश्वहृदय
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े का चिकित्साशास्त्र । शालिहोत्र । घुड़सवार [को०] ।
⋙ अश्वांतक
संज्ञा पुं० [सं० अश्वान्तक] कनेर [को०] ।
⋙ अश्वाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवसर्षप नामक पौधा । २. घोड़े की आँख [को०] ।
⋙ अश्वाजनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाबुक । कशा [को०] ।
⋙ अश्वाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] घुड़सवार सेना का अध्यक्ष या नायक [को०] ।
⋙ अश्वानीक
संज्ञा स्त्री० [सं०] घुड़सवार सेना । रिसाला [को०] ।
⋙ अश्वायुर्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अश्वशास्त्र' [को०] ।
⋙ अश्वारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सा । महिष । २. करवीर । कनेर ।
⋙ अश्वारूढ़
वि० [सं० अश्वारूढ़] जो घोड़े पर सवार हो [को०] ।
⋙ अश्वारोह (१)
वि० [सं०] अश्वारूढ़ [को०] ।
⋙ अश्वारोह (२)
संज्ञा पुं० १. घुड़सवार । २. घुड़सवारी [को०] ।
⋙ अश्वारोहक
संज्ञा पुं० [सं०] असगंध नामक पैधा [को०] ।
⋙ अश्वारोहण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अश्वारोही] घोड़ी की सवारी ।
⋙ अश्वारोही (१)
वि० [सं० अश्वारोहिन्] घोड़े की सवारी करनेवाला ।
⋙ अश्वारोही (२)
संज्ञा पुं० घुडसवार ।
⋙ अश्वावतारी
संज्ञा पुं० [सं० अश्वावतारिन्] ३१ मात्राओं के छंदों की संज्ञा । वीर छंद इसी के अंतर्गत है ।
⋙ अश्विनी
संज्ञा स्त्री० [स०] १. घोड़ी । २. २७ नक्षत्रों में से पहला नक्षत्र अश्वयुक् । याक्षायणी । ३. जटामासी । बालछड़ ।विशेष—तीन नक्षत्रों के मिलने से इसका रूप घोड़े के मुख के सदृश होता है ।
⋙ अश्विनीकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उप्तन्न सूर्य के दो पुत्र । विशेष—एक बार सूर्य तेज को सहन करने में असमर्थ होकर प्रभा अपनी दो संतति यम और यमुना तथा अपनी छाया छोड़कर चुपके से भाग गई और घोड़ी बनकर तप करने लगी । इस छाया से भी सूर्य को दो संतति हुई । शनि और ताप्ती । जब छाया ने प्रभा की संतति का अनादर आरंभ किया, तब यह बात खुल गई कि प्रभा तो भाग गई है । इसके उपरातं सूर्य घोड़ा बनकर प्रभा के पास, जो अश्विनी के रूप में थी, गए । इस संयोग से दोनों अश्विनीकुमारों की उत्पत्ति हुई जो देवताओं के वैद्य हैं । पर्यां०—स्ववैद्य । दस्र । नासत्य । आश्विनेय । नासिक्य । गदागद । पुष्करस्रज । अश्विनीपुत्र । अश्विनीसुत ।
⋙ अश्वियुगल
संज्ञा पुं० [सं०] दो कल्पित देवता जो प्रभाव के समय घोड़ों या पक्षियों से जुते हुए सोने के रथ पर चढ़कर आकाश में निकलते हैं । विशेष—कहते है कि यह लोगों के सुख सौभाग्य प्रदान करते हैं और उनके दुख तथा दरिद्रता आदि हरते हैं ।-कहीं कहीं यही अश्विनीकुमार भी माने गए हैं । कहते हैं कि दधीचि से मधु- विद्या सीखने के लिये इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था, और उनके धड़पर घोड़े का सिर रख दिया था; और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी । वि० दे० 'दधीचि' ।
⋙ अश्वियुज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष् में एक युग अर्थात् पाँच वर्ष का काल जिसमें क्रम से पिंगल, कालयुक्त, सिद्धार्थ, रौद्र औरदुर्मति सवत्सर होते हैं ।
⋙ अश्वीय (१)
वि० [सं०] अश्वसंबंधी [को०] ।
⋙ अश्वीय (२)
संज्ञा पुं० घोड़ों का समूह [को०] ।
⋙ अषडक्षीण (१)
वि० [सं०] जिसे छह आँखो ने न देखा गो अर्थात् दो ही व्यक्तियों को ज्ञात अथवा दृष्ट [को०] ।
⋙ अषडक्षीण (२)
संज्ञा पुं० रहस्य । राज । [को०] ।
⋙ अषाढ़ पु
संज्ञा पुं० [सं० अषाढ़] वह महीना । जिसमें पूर्णिमा पूर्वाषाढ़ में तेढ़े । असाढ़ । अषाढ़ ।
⋙ अषाढ़क
संज्ञा पुं० [सं० अषाढ़क] अषाढ़ का महीना [को०] ।
⋙ अष्टंग पु
वि० [सं० अष्टङ्ग] दे० 'अष्टांग' । उ०—कहिय नृपति अष्टंग सुधि । रंजि राज फल गान । -पृ० रा०, २५ ।१३ ।
⋙ अष्टंगी पु
वि० [सं० अष्टाङ्गी] दे० 'अष्टांगी' ।
⋙ अष्ट (१)
वि० [सं० अष्टन्] आठ ।
⋙ अष्ट (२)
संज्ञा पुं० आठ की संख्या ।
⋙ अष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आठ वस्तुऔ का संग्रह, जैसे-हिंग्वष्टक । २. वह स्तोत्र या काव्य जिसमें आठ श्लोक हों, जैसे-रुद्राष्टक, गंगाष्टक । ३. वह ग्रंथावयव जिसमें आठ अध्याय आदि हों । ४. मनु के अनुसार एकगण जिसमें पैशुन्य, साहस, द्रोह, इर्ष्या, असुया, अर्थदूषण, वाग्दड और पारुष्य ये आठ अवगुण है । ५. पाणिनिकृत व्याकरण । अष्टाध्यायी । ६. आठ ऋषियों का एक गण ।
⋙ अष्टकमल
संज्ञा पुं० [सं०] हठयोग के अनुसार मूलाधार से लालट तक के आठ कमल जो भिन्न भिन्न स्थानो में माने गए हैं— मूलाधार, विशुद्ध, मणिपूरक, स्वाधिष्ठान, अनाहत (अनहद) आज्ञाचक्र, सहस्त्रारचक्र और सुरति कमल ।
⋙ अष्टकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा [को०] । विशेष—चार मुख होने के कारण ब्रह्मा के आठ कान है, अत? इन्हें अष्टकर्ण कहा जाता है ।
⋙ अष्टकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जिसके कान पर आठ की संख्या (८) का चिह्न अकिंत हो । उ०—ऋग्वेद में ऋषि नाभाने दिष्ठ हजार अष्टकर्णी गौएँ दान करने के कारण राजा सावर्णि की स्तुति करता है ।—भा०, प्रा०, लि०, पृ० ११ ।
⋙ अष्टका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अष्टमी । २. अगहन, पूस, माघ और फागुन महीने की कृष्ण अष्टमी । इस दिन श्राद्ध करने से पितरों की तृप्ति होती है । ३. अष्टमी के दिन का कृत्य । अष्टका याम । ४. अष्टका में कृत्य श्राद्ध ।
⋙ अष्टकुल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार सर्पों के आठ कुल; यथा— शेष वासुकि, कंबल कर्कोंटिक, पद्म, महबापद्म, शंख और कुलिका । किसी किसी ते मत से-नक्षत्र, महापद्म, शंख, कुलिक, कंबल, अश्वतर, धृतराष्ट्र औऱ बलाहक है ।
⋙ अष्टकुलाचल
संज्ञा पुं० [सं०] आठ प्रमुख प्रवत—नील, निषध, विंध्याचल, माल्यवान्, मलय, गंधमादन, हेमकूट और हिमालय [को०] ।
⋙ अष्टकुली
वि० [सं०] साँपों के आठ कुलों में से किसी में उत्पन्न ।
⋙ अष्टकृष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वल्लभ कुल के मतानुसार आठ कृष्ण, यथा-श्रीनाथ, नवनीताप्रिय, मथुरानाथ, बिट्ठलनाथ, द्वारका- नाथ, गोकुलनाथ, गोकुलचंद्रमा और मदनमोहन ।
⋙ अष्टकोण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह क्षेत्र जिसमें आठ कोण हों । २. तंत्र के अनुसार एक यंत्र । ३. एक प्रकार का कुंडंल जिसमें आठ कोण होते हैं ।
⋙ अष्टकोण (२)
वि० आठ केनेवाला । जिसमें आठ कोने हों ।
⋙ अष्टगंध
संज्ञा पुं० [सं० अष्टगन्ध] आठ सुंगंधित द्रव्यो का समाहार । दे० 'गंधाष्टक' ।
⋙ अष्टछाप
संज्ञा पुं० [सं० अष्ट+ हिं० छाप] वल्लभ संप्रदाय के प्रसिद्ध अष्ठ कवियों का वर्ग; जिनके नाम है—सूरदास, कुंभन- दास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास ।
⋙ अष्टताल
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के आठ प्रकार-आड़, दोज, ज्योति, चंद्रशेखर गंजन, पंचताल, रूपल और समताल ।
⋙ अष्टदल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आठ पत्ते का कमल ।
⋙ अष्टदल (२)
वि० १. आठ दल का । २. आठ कानों का । आठ पहल का ।
⋙ अष्टद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] आठ द्रव्य जो हवन के काम आते हैं— अश्वत्थ, गूलर, पाकर, वट, तिल, सरसों पायस और घी ।
⋙ अष्टधाती
वि० [सं० अष्ट+ धातु] १. अष्टधातुओ से बना हुआ । २. दृढ़ । मजबूत । ३. उत्पाती । उपद्रवी । ४. जिसके मातापिता का ठीक ठिकाना न हो । वर्णसंकर ।
⋙ अष्टधातु
संज्ञा स्त्री० [सं०] आठ धातुएँ-सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, जस्ता, सीसा, लोहा और पारा ।
⋙ अष्टनायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आठ नायिकाएँ । विशेष—पुराणनुसार आठ प्रधान शक्तियाँ —उग्रचंड, प्रचंड़ा, चंडोग्रा, चंडनायिका, चामुंड़ा, चंडा अतिचंडा और चंडवती । कृष्ण की आठ पटरानियाँ—रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, कालिंदी, मित्रवृंदा, नाग्नजिती, भद्रा और लक्ष्मणा । इंद्र की आठ नायिकाएँ—उर्वशी, मेनका, रंभा, पूर्वचिती, स्वयंप्रभा, भिन्नकेशी, जनवल्लभा और घृताची (तिलोत्तमा) । साहित्य में वर्णित आठ नायिकाएँ—वासकसज्जा, विरहोत्कंठिता, स्वाधिनभर्तृका, कलहांतरिता, खंडिता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका और अभिसारिका कही गई हैं ।
⋙ अष्टपद
संज्ञा पुं० वि० [सं०] दे० 'अष्टपाद' ।
⋙ अष्टपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आठ पदों का एक समूह । एक प्रकार का गीत जिसमें आठ पद होते हैं । २. बेला नाम का फूल या उसका पौधा ।
⋙ अष्टपाद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरभ । शार्दूल । २. लूता । मकड़ी । ३. आठ अंगोंवाला एक जंतु । ४. अर्गला । सिटकिनी [को०] । ५. कैलास पर्वत [को०] । ६. सोना । स्वर्ण । ७. कपड़े की बनी बिसात [को०] । ८. एक कीट [को०] । ९. जंगली चमेली [को०] ।
⋙ अष्टपाद (२)
वि० आठ पैरोंवाला [को०] ।
⋙ अष्टप्रकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुक्रनीति के अनुसार राज्य के ये आठ प्रधान कर्माचारी-सुमंत्र, पंड़ित, मंत्री, प्राधान अमात्य, प्राड्विवाक और प्रतिनिधि । विशेष—महाभारत, मनुस्मृति आदि में पहले सात ही अंग कहे गए है । २. राज्य के आठ अंग—राजा, राष्ट्र, अमात्य, दुर्ग, सेना, कोष, सामंत, तथा प्रजा । ३. शरीर की आठ प्रकृति— क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर, मन, बुद्धि और अहंकार ।
⋙ अष्टप्रधान
संज्ञा पुं० [सं०] राज्य के आठ प्रकार के प्रधान जैसे— वैद्य, उपाध्याय, सचिव, मंत्री, प्रतिनिधि, राज्याध्यक्ष, प्रधान और अमात्य । शिवाजी के अष्ठप्रधान ये थे—प्रधान, अमात्य, सचिव, मंत्री, लिपिक या लेखक, न्यायाधीश, सेनापति, और न्यायशास्त्री [को०] ।
⋙ अष्टभुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा ।
⋙ अष्टभुजी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अष्टभुजा' ।
⋙ अष्टभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के आठ गण जिनके नाम है; असि- तांग, संहार, रुरु, काल, क्रोध, ताम्रतूड़, चंद्रचूड़ तथा महाभैरव [को०] ।
⋙ अष्टमंगल
संज्ञा पुं० [सं० अष्टमङ्गल] १. आठ मंगलद्रव् या पदार्थ—सिंह, वृष, नाग, कलश, पंखा, वैजयंती, भेरी और दीपक । किसी किसी के मत से—ब्रह्माण, गो, अग्नि, सुवर्ण, घी, सूर्य, जल और राजा हैं । २. एक घृत जो वच, कुट, ब्राह्मी, सरसों, पीपल, सारिवा, सेंधा नमक और इन आठ औषघियौ से बनाया जाता है ।
⋙ अष्टम
वि० पुं० [सं०] आठवाँ । उ०—सप्तम चेतनता लहै सोइ । अष्टम मास सँपूरन होइ ।—सूर० १ ।३१४ ।
⋙ अष्टमान
संज्ञा पुं० [सं०] आठ मुट्टी का एक परिमाण अर्थात् एक कुडव ।
⋙ अष्टमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.आधे पल या दो कर्ष का परिमाण । २. चार तोले का एक परिमाण ।
⋙ अष्टमी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुक्ल और कृष्ण पक्ष के भेद से आठवीं तिथि । आठैं । २. क्षीरकाकोली । पयस्वा ।
⋙ अष्टमी (२)
वि० स्त्री० [सं०] आठवीं ।
⋙ अष्टमुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक माप । कुंचि [को०] ।
⋙ अष्टमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । उ०—गनिये जु जीव आधार पुनि अष्ट (म) मूर्ति इनतें कहत ।—शकुंतला, पृ० ३ । २. शिव की आठ मूर्तियाँ क्षिति, जल, तेज, वायु, आकाश, जयमान, अर्क, और चंद्र, अथवा सर्व, भव, रुद्र उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव ।
⋙ अष्टलोह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अष्टधातु' [को०] ।
⋙ अष्टवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] जीवक, ऋषभक, मेदा, महाभेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि, और वृद्धि, इन आठ ओषधियों का समाहार । २. ज्योतिष का गोचरविशेष । ३. नीतिशास्र के अनुसार किसी राज्य के ऋषि, बस्ती (बाजार आदि), दुर्ग, सेतु, हस्तिबंधन, खान, करग्रहण औऱ सैन्यसंस्थापन का समूह ।
⋙ अष्टश्रवण
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा [को०] ।
⋙ अष्टश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० अष्टश्रवस्] दे० 'अष्टश्रवण' [को०] ।
⋙ अष्टसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] योग द्वारा प्राप्त होनेवाली आठ अलौकिक शक्तियाँ जिनके नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशित्व तथा वशित्व [को०] ।
⋙ अष्टांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० अष्टाङ्ग] [वि० स्त्री० अष्टांगी] १. योग की क्रिया के आठ ङेद—यम, नियम, आसन प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि । उ०—भक्ति पंथ कौं जो अनुसरै । सो अष्टांग जोग कौ करै ।—सूर० १ ।३६४ । २. आयुर्वेद के आठ विभाग शल्य, शालाक्य, कार्यचिकित्सा, भुतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतंत्र, रसायनतंत्र और वाजीकरण । ३. शरीर के आठ अंग—जानु, पद, हाथ, उर, शिर, वचन, दृष्टि, बुद्धि, जिनसे प्रणाम करने का विधान है । ४. अर्घविशेष जो सूर्य को दिया जाता है । इसमें जल, क्षीर, कुशाग्र, घी, मधु, दही, रक्त चंदन और करवीर होते हैं ।
⋙ अष्टांग (२)
वि० १. आठ अवयववाला । २. अठपहल ।
⋙ अष्टांगमार्ग
संज्ञा पुं० [सं० अष्टाङ्गमार्ग] बुद्ध द्वारा प्रतिपादन दु?ख से त्राण दिलानेवाला आठ सुत्रों का मार्ग?—सम्यग्दृष्टि सम्य— संकल्प, सम्यग्वाक्, सम्यक्कर्म, सम्यगाजीव, सम्यग्व्यायाम, सम्यक्स्मृति, सम्यक्समाधि [को०] ।
⋙ अष्टांगयोग
संज्ञा पुं० [सं० अष्टांगयोग] दे० 'अष्टांग' (१) [को०] ।
⋙ अष्टांगायुर्वेद
संज्ञा पुं० [सं० अष्टाङ्गायुर्वेंद] दे० 'अष्टांग (२)' [को०] ।
⋙ अष्टांगी
वि० [सं० अष्टाङ्गिन्] आठ अंगवाला ।
⋙ अष्टाकपाल
संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी के आठ बरतनों या खपरों मेंपकाया हुआ पुरोड़ाश । २. वह यज्ञ जिसमें अष्टाकपाल पुरोडाश काम में लाया जाय ।
⋙ अष्टाकुल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अष्टकुल' । उ०—पारथ-सीस सोधि अष्टाकुल, तव जदुनंदन ल्याये । —सुर०, १ ।२९ ।
⋙ अष्टाक्षर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आठ अक्षरों का मंत्र । २. विष्णु भगवान् का मंत्र ।—'ऊँ नमो नारायण' । ३. वल्लभ कुल के मतवालों के मत से 'श्रीकृष्ण? शरण मम' ।
⋙ अष्टाक्षर (२)
वि० आठ अक्षरों का । आठ अक्षरवाला ।
⋙ अष्टादस पु
वि० [सं० अष्टादश] अठारह । उ०—रोमराजि अष्टादस भारा । अस्थि, सैल सरिता नस जारा ।—मानस, ६ ।१५ ।
⋙ अष्टाध्यायी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पणिनीय व्याकरण का प्रधान ग्रंथ जिसमें आठ अध्याय हैं ।
⋙ अष्टापद
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । २. शरभ । उ०—वर विद्यासी आनंद दानि । युत अष्टापद मनु शिवा मानि ।-राम चं०, पृ०, १०० । ३. लूता । मकड़ी । ४. कृमि । ५. कैलास । ६. धतूरा ।
⋙ अष्टावक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि । २. वह मनुष्य जिसके हाथ पैर आदि कई अंग टेढ़े मेढ़े हों ।
⋙ अष्टाश्रि (१)
वि० [सं०] आठ कोनेवाला । आठकोना ।
⋙ अष्टाश्रि (२)
संज्ञा पुं० वह घर जिसमें आठ कोन हों ।
⋙ अष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सोलह अक्षर की एक वृत्ति जिसके चंचला, चिकिता, पंचचामार आदि बहुत भेद हैं । २. सोलह की संख्या । ३. खेलने की बिसात [को०] । ४. बीज [को०] । ५. फल का गूदा । गिरी [को०] ।
⋙ अष्टी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दीपक राग की एक रागिनी ।
⋙ अष्ठि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुठली । २. बीज [को०] ।
⋙ अष्ठीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक रोग जिसमें मूत्राशय में अफरा होने से पेशाब नहीं होता और गाँठ पड़ जाती है जिससे मला- वरोध होता है और वस्ति में पीड़ा होती है । २. पत्थर की गोली । ३. गूदा । गिरी [को०] । ४. बीजान्न [को०] ।
⋙ अष्ठीलिका