शिंगरफ
संज्ञा पुं० [फ़ा० शंगर्फ़] ईंगुर। हिंगुल। विशेष दे० 'ईंगुर'।

शिंगरफी
वि० [फ़ा० शिंगरफी] शिंगरफ के रंग का लाल। सुर्ख।

शिंघण
संज्ञा पुं० [सं० शिङ्घण] १. नासिकामन। रेंट। २. दाढ़ी (को०)।

शिंघाण
संज्ञा पुं० [सं० शिङ्घाण] १. लोहमल। मंडूर। २. नाक के अंदर का चेप जिससे झिल्ली तर रहती है। ३. काँच का बरतन। ४. दाढी़। ५. फूला हुआ अंडकोश। ६. फेन। झाग (को०)। ७. बलगम। कफ या श्लेष्मा (को०)।

सिंघाणक
संज्ञा पुं० [सं० शिङ्घाणक] [स्त्री० शिंघाणिका] १. नाक के अंदर का चेप। २. कफ। बलगम।

शिंघाणी
संज्ञा पुं० [सं० शिङ्घणिन्] नाक।

शिंघान
संज्ञा पुं० [सं० शिङ्घाण] दे० 'शिंघाण'।

शिंघित
वि० [सं० शिङ्घित] सूँघा हुआ। आघ्रात।

शिंघिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिङ्घिनी] नाक।

शिंजंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शिञ्जञ्जिका] करधनी।

शिंज
संज्ञा पुं० [सं० शिञ्ज] झंकार। झनझनाहट। ध्वनि (विशेषकर गहनों की)।

शिंजन
संज्ञा पुं० [सं० शिञ्जन] [वि० शिंजित] १. धातुखंड का परस्पर बजना। झंकार करना। झनकारना। किंकिनी, नूपुर आदि गहनों को पहनकर चलने फिरने या उनके हिलने आदि से होनेवाली मधुर ध्वनि। २. झंकार (को०)।

शिंजा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिञ्जा] १. करधनी, नूपुर आदि आभूषणों की झनकार। २. धातुखंड के बजने का शब्द। झनझनाहट। ३. धनुष की डोरी। प्रत्यंचा। ज्या। यौ०—शिंजालता = प्रत्यंचा। ज्या।

शिंजित (१)
वि० [सं० शिञ्जित] १. झनकार करता हुआ। झंकृत। २. बजता हुआ।

शिंजित (२)
संज्ञा पुं० ध्वनि। झनकार। आवाज।

शिंजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिञ्जनी] १. धनुष की डोरी। चिल्ला। पतंचिका। २. करधनी या नूपुर के घुँघरू।

शिंजी
वि० [सं० शिञ्जिन] १. मधुर झनकार करता हुआ। २. आभूषणों की झनकार से युक्त [को०]।

शिंडाकी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिण्डाकी] एक प्रकार की काँजी। विशेष—यह मूली के पत्तों के रस में राई और नमक डालकर अथवा सरसों के रस में चावल का चूर्ण डालकर बनाई जाती है। वैद्यक के अनुसार यह रुचिकारी, कफकारक, पित्त करनेवाली और भारी होती है।

शिंब
संज्ञा पुं० [सं० शिम्ब] १. फली। छीमी। २. चकवड़ँ। चक्रमर्द।

शिंबा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्बा] १. छीमी। फली। २. सेम। ३. शिंबी धान्य।

शिंबि
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्बि] दे० 'शिंबी'।

शिंबिक
संज्ञा पुं० [सं० शिम्बिक] १. मूँगफली। २. कृष्ण मुद्ग। काली मूँग (को०)।

शिंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्बिका] १. फली। छीमी। २. सेम।

शिंबिजा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्बिजा] द्विदल अन्न। दाल।

शिंबिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्बिनी] १. श्यामा चिड़िया। कृष्ण चटक। २. बड़ी सेम।

शिंबिपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्बिपर्णिका] बनमूँग। मुद्गपर्णी।

शिंबिपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्बिपर्णी] बनमूँग।

शिंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिम्बी] १. छीमी। फली। बौंडी। २. सेम। ३. कौंछ। केवाँच। कपिकच्छु। बनमूँग।

शिंबीधान्य
संज्ञा पुं० [सं० शिम्बीधान्य] वह अन्न जिसके दानों में दो दल हों। द्विदल अन्न दाल। जैसे,—मूँग, मसूर, मोठ, उड़द, चना, अरहर, मटर, कुलथी, लोबिया आदि।

शिंबीफल
संज्ञा पुं० [सं० शिम्बीफल] तरपट या आहुल्य नामक क्षुप।

शिंश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का फलदार वृक्ष।

शिंशपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शीशम का पेड़। २. अशोक वृक्ष।

शिंशुपा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शिंशपा] दे० 'शिंशपा'।

शिंशुमार
संज्ञा पुं० [सं०] सूँस नामक जलजंतु।

शि
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. सुख। सौभाग्य। ३. शांति। ४. धीरता। धैर्य।

शिकंजबी, शिकंजबीन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विकंजबीन'।

शिकंजा
संज्ञा पुं० [फ़ा० सिकंजबीन] १. दबाने, कसने या निचोडने का यंत्र। २. पेंच कसने का यंत्र या औजार जिससे जिल्दबंद किताबें दबाते और उनके पन्ने काटते हैं। ३. वह तागा जिससे जुलाहे घुमावदार बंद बनाते और पनिक बाँधते हैं। (जुलाहे)। ४. प्राचीन काल का अपराधियों को कठोर दंड देने के लिये एक यंत्र जिसमें उनकी टाँगे कस दी जाती थीं। ५. पेरने का यंत्र। कोल्हू। ६. रुई दबाने की कल। पेंच। ७. यंत्रणा (को०)। ८. पकड़। दबाव (को०)। मुहा०—शिकंजे में खिंचवाना = घोर यंत्रणा दिलाना। साँसत कराना। शिकंजे में खींचना = बहुत कष्ट देना। घोर यंत्रणा पहुँचाना।

शिक
संज्ञा स्त्री० [अ० शिक़] १. पक्ष। ओर। तरफ। २. एक ओर का बोझ। ३. खंड। टुकड़ा विभाग। ४. क्षेत्रविभाग। तहसील। ५. पख। बाधा। अड़चन [को०]। यौ०—शिकदार = किसी विशेष, त्रविभाग का क्षेपदाधिकारी। तहसीलदार।

सिकन
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] सिकुड़ने से पड़ी हुई धारी। मुड़कर दबने से पड़ी हुई लकीर। सिलवट। वली। वलि। वल। क्रि० प्र०—आना।—डालना।—निकालना।

शिकन (२)
वि० तोड़नेवाला। भंजक। (समासांत में प्रयुक्त) जैसे, बुतशिकन।

शिकम
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. पेट। उदर। मुहा०—शिकिम पालना = पेट पालना। यौ०—शिकमखारा = क्षुधार्त। भूखा। शिकमपरस्त, शिक्मपरवर, शिकमबंदा = पेटार्थी। पेट पालनेवाला। पेटू। शिकमबंदगी = पेटपूजा। शिकमसेर = तृप्त। भरे पेटवाला। अघाया हुआ। २. आमाशय। पाकस्थली। मेदा (को०)।

शिकमी
वि० [फ़ा०] १. पेट संबंधी। निज का। अपना। २. भीतरी (को०)। ३. बड़े पेटवाला (को०)। ४. दे० 'शिकमी काश्तकार' (को०)।

शिकमी काश्तकार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह काशतकार जिसे जीतने के लिये खेत दूसरे काश्तकार से मिला हो। विशेष—इसका हक खास काश्तकार के हक से बहुत कम होता है।

शिकरा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शिकरह्] एक प्रकार का बाज पक्षी। उ०— कोई शिकरा बाज उड़ाता है कोई हाथ में रखे तुतली है।—नजीर (शब्द०)।

शिकरम
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार की घोड़ागोडी।

शिकवा
संज्ञा पुं० [अ०] शिकायत। उलाहना। उ०—मुझको तुमसे नहीं कुछ बाकी है करना शिकवा।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५६०।

शिकस्त
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. हार। पराजय। मत। २. भंग। टूटना। शिकस्तगी। ३. विफलता। असिद्धि। मुहा०—शिकस्त देना = पराजित करना। हराना। शिकस्त खाना = पराजित होना। हारना।

शिकस्तगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शिकस्तह्] टूटा हुआ। भग्न। खंडित।

शिकस्ता (१)
संज्ञा स्त्री० उर्दू या फारसी की घसीट लिखावट। यौ०—शिकस्ता नवीस = घसीट लिखनेवाला। शिकस्ता दिल = भग्न हृदय। शिकस्ता हाल = जिसकी आर्थिक दशा खराब हो। शिकस्ता हिम्मत = पस्त हिम्मत। हतोत्साह।

शिकायत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. बुराई करना। गिला। शिकवा। चुगली। २. किसी भूल, त्रुटि, दोष आदि की बात जो मन में हो।—जैसे,—उनसे अब मुझे कोई शिकायत नहीं है। ३. उपालंभ। उलाहना। ४. किसी के गलत काम की उसके अधिकारी को सूचना। क्रि० प्र०—करना।—होना। ५. शारीरिक अस्वस्थता। रोग। बीमारी। जैसे,—उसे द्स्त की शिकायत है। मुहा०—शिकायत रफा करना = रोग दूर करना। माँदगी हराना।

शिकायती
वि० [अ० शिकायत] १. शिकायत करनेवाला। २. जिसमें शिकायत हो।

शिकार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. जंगली पशुओं को मारने का कार्य या क्रीड़ा। आखेट। मृगया। अहेर। जैसे,—शेर का शिकार। क्रि० प्र०—करना। होना। २. वह जानवर जो मारा गया हो। ३. गोश्त। मांस। ४. आहार। भक्ष्य। जैसे,—बिल्ली का शिकार चूहा। ५. कोई ऐसा आदमी जिसके फँसने या वश में होने से बहुत लाभ हो। असामी। जैसे,—बहुत दिनों पर आज एक शिकार फँसा है, कुछ मिल ही जायगा। मुहा०—शिकार आना = (१) मारने के लिये कोई जानवर मिलना। (२) किसी ऐसे आदमी का मिलना जिससे कुछ लाभ हो। शिकार करना = (१) कोई जानवर मारना। (२) किसी से कोई लाभ उठाना। (३) लूटना। शिकार खेलना = शिकार करना। किसी का शिकार होना = (१) किसी के द्वारा या कारण मारा जाना। जैसे,—न जाने कितने आदमी प्लेग के शिकार हुए। (२) वश में आना। फँसना। (३) किसी पर मोहित होना।

शिकारगड़हा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शिकार + हिं० गड्ढा] वह गड्ढा जो शिकारी जानवरों को फँसाने के लिये खोदते हैं।

शिकारगाह
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] शिकार खेलने का स्थान।

शिकारबंद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह तस्मा जो घोड़े को दुम के पास चारजामे के पिछे शिकार लटकाने या आवश्यक सामान बाँधने के लिये लगाया जाता है।

शिकारा
संज्ञा पुं० [?] काश्मीर में सवारी के लिये उपयोग में आनेवाली एक प्रकार की नाव। उ०—मेरा शिकारा वह खड़ा है।—पिंजरे०, पृ० २१।

शिकारी (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] आखेट करनेवाला। शिकार करनेवाला। अहेरी।

शिकारी (२)
वि० १. शिकार करनेवाला। जंगली पशुओं को पकड़ने या मारनेवाला। जैसे,—शिकारी कुत्ता। २. शिकार में काम आनेवाला। जैसे,—शिकारी कोट। शिकारी खेमा। मुहा०—शिकारी ब्याह = गंधर्व विवाह जो क्षत्रियों में अबतक कहीं कहीं होता है।

शिकोह
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. भय। त्रास। डर। २. दबदबा। रोबदाब [को०]।

शिकाल
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. वह घोड़ा जिसका अगला दाहिना और पिछला बाँया पैर सफेद हो। (यह दोष माना जाता है)। २. छल। धोखा। फरेब (को०)।

शिक्कु
वि० [सं०] निकम्मा। सुस्त। आलसी [को०]।

शिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] मोम। मैन। मधुमक्खी के छत्ते का मोम या सीठी। मधुशेष।

शिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिक्या'।

शिक्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहँगो को दोनों छोरों पर बँधा हुआ रस्सी का जाल जिसपर बोझ रखते हैं। २. छत में लटकता हुआ रस्सी का जालीदार संपुट जिसपर दूध, दही आदि का मटका रखते हैं। छींका। झोंका। सिकहर। ३. तराजू की रस्सी। ४. बहँगो पर लटकाकर ले जाया जानेवाला बोझ (को०)।

शिक्यित
वि० [सं०] सिकहर पर रखा हुआ या स्थापित।

शिक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] गंधर्वों का एक नायक। रोहित।

शिक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शिक्षका, शिक्षिका] १. शिक्षा देनेवाला। सिखानेवाला। गुरु। उस्ताद। २. सीखनेवाला (को०)।

शिक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पढ़ाने का काम। तालीम। शिक्षा। २. शिक्षा प्राप्त करना सीखने का काम। सीखना (को०)। यौ०—शिक्षणकला = शिक्षा देने, पढा़ने की कला या हुनर।

शिक्षणीय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० शिक्षणीया] जो शिक्षा देने के योग्य हो। जिसे शिक्षा दी जा सके।

शिक्षमाण
वि० [सं०] [वि० स्त्री० शिक्षमाणा] सीखने की स्थिति में रहनेवाला छात्र। उ०—वह अभी शिक्षमाणा ही थी। भिक्षुणी नहीं हुई थी।—इरा०, पृ० १७।

शिक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी विद्या की सीखने या सिखाने का क्रिया। पड़ने पड़ाने की क्रिया। सीख। तालीम। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना। २. गुरु के निकट विद्या का अभ्यास। विद्या का ग्रहण। ३. दक्षता। निपुणता। ४. उपदेश। मंत्र। सलाह। ५. छह वेदांगों में से एक जिसमें वेदों के वर्ण, स्वर, मात्रा आदि का निरूपण रहता हैं, मंत्रों के ठीक उच्चारण का विषय। विशेष—यह विषय कुछ तो ब्राह्मण भाग में आया है और कुछ प्रतिशाख्य सूत्रों में। ऋग्वेद की शीक्षा का ग्रंथ शौनक का प्रतिशाख्य सूत्र है। यजुर्वेद के प्रतिशाख्य के दो ग्रंथ मिलते हैं—एक तो आत्रेय महर्षि और वररुचि संकलित त्रिभाष्यरत्न, जो तैत्तरीय शाखा का है और दूसरा कात्यायन जी का आठ आध्यायों का वाजसनेयी प्रातिशाख्य। पाणिनि आदि के व्याकरण से संबद्ध भी शिक्षा विषयक ग्रंथ हैं जिनकी संख्या पचासों से ऊपर है। ६. शासन। दबाव। ७. किसी अनुचित कार्य का बुरा परिणाम। सबक। दंड। जैसे,—अच्छी शिक्षा मिली, अब कभी ऐसा काम न करेंगे। ८. विनय। विनम्रता। शिष्टता। सुजनता (को०)। ९. विज्ञान। कला। प्रायोगिक शिक्षा। जैसे, रणशिक्षा, सैनिक शिक्षा (को०)।

शिक्षाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यास। उपदेशक। २. शिक्षक। शिक्षा देनेवाला। अध्यापक (को०)।

शिक्षाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] शिक्षा के अनुसार उच्चरित ध्वनि [को०]।

शिक्षाक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] केशव के अनुसार काव्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें शिक्षा द्वारा गमन स्वरूप कार्य रोका जाता है।

शिक्षागुरु
संज्ञा पुं० [सं०] विद्या पढ़ानेवाला गुरु। ज्ञानदाता गुरु। दीक्षागुरु का विलोम।

शिक्षाग्राहक
संज्ञा पुं० [सं०] शिक्षा प्राप्त करनेवाला व्यक्ति। पढ़नेवाला। विद्यार्थी। छात्र।

शिक्षाचार
वि० [सं०] शिक्षा के अनुकूल आचरण करनेवाला [को०]।

शिक्षात्मक
वि० [सं०] उपदेशात्मक। उपदेशप्रद (अं० प्रइडेक्विक)। उ०—इसे स्वीकार कर लेने पर भारतीय काव्य की प्रकृति के निरूपण के लिये आदर्शात्मक, शिक्षात्मक आदि रस और भाव के क्षेत्र के बाहर के शब्दों के व्यवहार को आवश्यकता नहीं रह जाती।—रस०, पृ० ९२।

शिक्षादंड
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षादण्ड] वह दंड जो किसी चाल को छुड़ाने के लिये दिया जाय।

शिक्षानर
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम [को०]।

शिक्षापद
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपदेश। २. बौद्धों के 'विनयपिटक' का एक प्रकरण।

शिक्षापद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिक्षा देने का ढंग। शिक्षण की प्रणाली [को०]।

शिक्षापरिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैदिक काल की शिक्षा संस्था या विद्यालय जो एक ऋषि या आचार्य के अधीन रहता था और उसी के नाम से प्रसिद्ध होता था। २. शिक्षा या पढ़ाई का प्रबंध करनेवाली सभा या समिति।

शिक्षाप्रद
वि० [सं०] जिससे शिक्षा प्राप्त हो। शिक्षा या सीख देनेवाला। जैसे, शिक्षाप्रद ग्रंथ।

शिक्षामंत्री
संज्ञा पुं० [सं० शिक्ष + मन्त्रिन्] [स्त्री० शिक्षामंत्रिणी] राज्य का शिक्षा संबंधी सर्वोच्च अधिकारी (अं० एजुकेशन मिनिस्टर)।

शिक्षारस
संज्ञा पुं० [सं०] किसी विषय में शक्ति या प्रवीणता प्राप्त करने की कामना [को०]।

शिक्षार्थी
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षार्थिन्] शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाला व्यक्ति। विद्यार्थी। तालिब इल्म।

शिक्षालय
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ शिक्षा दी जाय। विद्यालय। पाठशाला।

शिक्षावल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] तैत्तरीय उपनिषद का पहला अध्याय।

शिक्षावाद
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षा + वाद] उपदेशात्मकता। उपदेश वृत्ति। उ०—मंगल और अमंगल के द्वंद्व में कवि लोग अंत में मंगल शक्ति की जो सफलता दिखा दिया करते हैं उसमें सदा शिक्षावाद या अस्वाभाविकता की गंध समझकर नाम भौं सिकोड़ना ठोक नहीं।—रस०, पृ० ६१।

शिक्षाविभाग
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षा + विभाग] वह सरकारी विभाग जिसके द्वारा शिक्षा का प्रबंध होता है। सरिश्ता तालीम।

शिक्षाव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] जैन धर्म के अनुसार गार्हस्थ धर्म का एक प्रधान अंग जो चार प्रकार का होता है; (१) सामयिक, (२) देशावकाशिक, (३) पौष और (४) अतिथि संविभाग।

शिक्षाशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति। मेधा।

शिक्षाशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं० शिक्षा + शास्त्र] वह शास्त्र, ग्रंथ आदि जिसमें शिक्षा की विधि, प्रणाली, अध्यापनपद्धति आदि तत्संबंधी विधानों का विवेचन मिलता है। (अं० एडुकेशन)।

शिक्षाहीन
वि० [सं०] जिसे शिक्षा न मिली हो। अशिक्षित। बेपढ़ा। गँवार।

शिक्षित
वि० पुं० [सं०] [वि० स्त्री० शिक्षिता] १. जिसने शिक्षा पाई हो। पढ़ा लिखा। २. विद्वान्। पंडित। ३. पालतू (को०)। ४. निपुण। कुशल (को०)। ५. विनीत। लज्जाशील (को०)। ६. प्रशिक्षित। अनुशासित (को०)। उ०—जीवन रण में सक्षम, संघर्षों से शिक्षित।—ग्राम्या, पृ० २०।

शिक्षिताक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने विद्या पढी़ हो। शिक्षित। २. शिक्षा देनेवाला। शिक्षक (को०)। ३. लेखक। मुहर्रिर (को०)।

शिक्षितायुध
वि० [सं०] जो आयुधों के प्रयोग में पटु हो। हथियार चलाने में निपुण [को०]।

शिखंड
संज्ञा पुं० [सं० शिखण्ड] १. मोर की पूँछ। मयूरपुच्छ।— उ०—(क) कुटिल कच भुव तिलक रेखा शीश शिखी शिखंड।—सूर (शब्द०)। (ख) सिरनि शिखंड सुमन दल मंडल लाल सुभाय बनाए।—तुलसी (शब्द०)। २. चोटी। शिखा। चुटिया। उ०—सोभित केश विचित्र भाँति दुति शिखि शिखंड हरनी।—सूर (शब्द०)। ३. काकपक्ष। काकुल। यौ०—शिखंडखंडिका=चूड़ाकरण का उत्सव। चूड़ा़करण।

शिखंडक
संज्ञा पुं० [सं० शिखण्डक] १. काकपक्ष। काकुल। २. मयूरपुच्छ। ३. चोटी। शिखा। चुटिया (को०)। ४. नितंब के नीचे का मांसल भाग (को०)। ५. वह जिसने शैव मतानुसार मुक्ति की एक विशेष अवस्था प्राप्त कर ली हो (को०)।

शिखंडिक
संज्ञा पुं० [सं० शिखण्डिक] १. कुक्कुट। मुर्गा। २. एक प्रकार का मानिक (रत्न)।

शिखंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखण्डिका] शिखा। चोटी। दे० 'शिखंड'।

शिखंडिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखण्डिनी] १. मोरनी। मयूरी। २. जूही। यूथिका। ३. गुंजा। करजनी। चोटली। ४. मुर्गी। ५. द्रुपदराज की एक कन्या जो पीछे पुरुष के रूप में होकर कुरुक्षेत्र के युद्ध में लड़ी थी। विशेष—कहते हैं, पूर्व जन्म में यह काशिराज को बड़ी कन्या अंबा थी जिसे भीष्म हर लाए थे। भीष्म से बदला लेने के लिये यह पुरुष रूप में हो गई और महाभारत के युद्ध में लडी थी। विशेष दे० 'शिखंडी'। ६. कश्यप की पुत्री दो अप्सराएँ जो ऋग्वेद के मंत्र की द्रष्टा मानी जाती हैं।

शिखंडिनी (२)
वि० स्त्री० शिखंड से युक्त। शिखंडवाली।

शिखंडी (१)
संज्ञा पुं० [सं० शिखण्डिन्] १. पीली जूही। स्वणीयूथिका। २. गुंजा। चिरमिटी। घुंघची। ३. मोर। मयूर पक्षी। ४. मुर्गा। ५. मोर की पूँछ। ६. वाण। ७. विष्णु। ८. कृष्ण। ९. शिव। १०. शिखा। बालों की चोटी। उ०— शिखंडी शीश मुख मुरली बजावत वन्यो तिलक उर चंदन।— सूर (शब्द०)। ११. द्रुपद का एक पुत्र। विशेष—यह पहले कन्या के रूप में उत्पन्न हुआ था, पर इसे पुत्र के रूप में प्रसिद्ध किया गया और शिक्षादीक्षा भी पुत्र के समान दी गई। कालांतर में हिरण्य वर्मा की कन्या से इसका विवाह भी हुआ। यह जानकर कि मेरी कन्या का विवाह एक स्त्री से हुआ है और द्रुपद ने मुझे धोखा दिया है, हिरण्य वर्मा ने द्रुपद पर आक्रमण करन की तैयारी की। इस बीच शिखंडी ने बन में घोर तप किया और एक यक्ष को प्रसन्न कर अपना स्त्रीत्व उसे दे देने के पीछे पुरुष के रूप में हो गया। इसी को आगे करके महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने युद्ध के दसवें दिन पितामह भीष्म का बध किया था। भीष्म की प्रतिज्ञा थी कि हम किसी स्त्री पर बाण न चलावेंगे। अश्वत्थामा के हाथ इसका वध हुआ था। विशेष दे० 'शिखंडिनी'। १२. राम के दल का एक बंदर। उ०—धुंधमाल गिरि पुनि गए मिले शिखंडी नाम।—विश्राम (शब्द०)। १३. बृहस्पति। देवगुरु।—अनेक (शब्द०)।

शिखंडी
वि० शिखंडयुक्त। शिखावाला [को०]।

शिख पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखा] दे० 'शिखा'। उ०—फूली फिरत रोहिणी मैया नख शिख कर सिंगार।—सूर (शब्द०)।

शिख (२)
वि० [सं०] जिसे शिखा हो। शिखावाला। (समासांत में प्रयुक्त) जैसे, विशिख, पंचशिख।

शिखक
संज्ञा पुं० [सं०] लेखक। मुहर्रिर।

शिखर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सबसे ऊपर का भाग। सिरा। चोटो। २. पहाड़ की चोटी। पर्वतशृंग। ३. अग्रमाग। ४. मंदिर या मकान के ऊपर का निकला हुआ नुकीला सिरा। कंगूरा। कलश ५. मंडप। गुंबद। ६. जैनियों का एक तीर्थ। ७. एक अस्त्र का नाम। ८. एक रत्न जो अनार के दाने के समान सफेद और लाल होता है। उ०—श्रीफल सकुचि रहे दुरि कानन शिखर हियो बिहरान।—सूर (शब्द०)। ९. कुंद की कली। १०. लौंग। ११. काँख। बगल। १२. पुलक। रोमांच। १३. उँगलियों की एक मुद्रा जो तांत्रिक पूजन में बनाई जाती है। १४. तलवार की नोक (को०)। १५. सूखा तिनका (को०)।

शिखरणी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखरिणी] दे० 'शिखरिणी'।

शिखरदर्शना
वि० स्त्री० [सं०] जिसके दाँत कुंद की कली के समान हों।

शिखरन
संज्ञा पुं० [सं० शिखरिणी] दही और चीनी का बनाया हुआ एक प्रकार का मीठा पेय पदार्थ या शरबत जिसमें केसर, कपूर तथा मेवे आदि डाले जाते हैं। श्रीखंड।

शिखरवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिखर पर बसनेवाली, दुर्गा। जो विश्वामित्र ने रामचंद्र को दी थी।

शिखराद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।

शिखरिचरण
संज्ञा पु० [सं०] चिचड़े को जड़। अपामार्ग का मूल।

शिखरिणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रसाल। २. नारीरत्न। स्त्रियों में श्रेष्ठ। ३. रोमावला। ४. मल्लिका। बेला। मोतिया। ५. नेवारी का पौधा। ६. किशमिश। लघुद्राक्षा। ७. मूर्वा। मरोड़- फली। मुरहरी। ८. दही और चीना का रस या शर्बत। ९. सत्रह अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसमें क्रमशः यगण, मगण, नगण, सगण, भगण, लघु और गुरु होते हैं तथा छठे और ग्यारहवें वर्ण पर यति होती है। जैसे,—शिला पै गेरू तें कुपित ललना तोहि लिखि कै।

शिखरिणी (२)
वि० स्त्री० १. शिखर या चूड़ा़वाली। २. नोकदार। अनीदार [को०]।

शिखरी (१)
संज्ञा पुं० [सं० शिखारन्] १. पर्वत। पहाड़। २. पहाड़ी दुर्ग। ३. वृक्ष। पेड़। ४. अपामार्ग। चिचड़ा। ५. वंदाक। बाँदा। ६. कुंदरु नामक गंधद्रव्य। ७. लोबान। ८. काकड़ा- सिंगी। ९. ज्वार। मक्का। १०. एक प्रकार का मृग।

शिखरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखऱ] चोटी। चूड़ा। उ०—जिस दिन शैल शिखरियाँ उनको रजत मुकुट पहनाने आएँ।—हिम कि०, पृ०२।

शिखरी पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखरा] एक गदा जो विश्वामित्र ने रामचंद्र को दी थी। शिखरा। उ०—शिखरी कौमोदकी गदा युग दीपति भरी सदाई।—रघुराज (शब्द०)।

शिखरी (४)
वि० [सं०] १. शिखरवाला। शिखरयुक्त। २. नोकदार। नुकीला (को०)।

शिखलोहित
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुकुरमुत्ता।

शिखांडक
संज्ञा पुं० [सं० शिखाण्डक] क कपक्ष।

शिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुंडन के समय सेर के बीचोबीच छोड़ा हुआ बालों का गुच्छा जो फिर कटाया नहीं जाता और हिंदुओं का एक चिह्न है। चोटी। चुटैया। यौ०—शिखा सूत्र=चोटी और जनेऊ जो द्विजों के चिह्न हैं और जिनका त्याग केवल संन्यासियों के लिये विधेय है। २. मोर, मुर्गा आदि पक्षियों के सिर पर उठी हुई चोटी या पंखों का गुच्छा। चोटी। कलगी। ३. आग की लपट। ज्वाला। ४. दीपक की लौ। टेम। उ०—(क) केशौदास तामें दुरी दीप की शिखा सो दौरि दुरावति नीलवास दुति अंग अंग की।— केशव (शब्द०)। (ख) दीप शिखा सम जुवति जन मन जनि होसि पतंग।—तुलसी (शब्द०)। ५. प्रकाश को किरण। ६. नुकीला छोर या सिरा। नोक। ७. ऊपर को उठा हुआ भाग। चोटी। शिखर। ८. पैर के पंजे का सिरा। ९. स्तन का अग्रभाग। चूचक। १०. पेड़ की जड़। ११. शाखा। डाली। १२. अधि- पति नायक। १३. श्रेष्ठ पुरुष। १४. कलियारी विष। लांगली। १५. मूर्वा। मरोड़फली। १६. जटामासी। बालछड़। १७. बच। १८. शिफा। १९. तुलसी। २०. कामज्वर। २१. एक वर्णवृत्त जिसके विषय पादों में २८ लघु मात्राएँ और अंत में एक गुरु होता है और सम पादों में ३० लघु मात्रएँ और अंत में एक गुरु होता है।

शिखाकंद
संज्ञा पुं० [सं० शिखाकन्द] शलजम। शलगम।

शिखातरु
संज्ञा पुं० [सं०] दीपवृक्ष। दीवट। दीयट।

शिखाधर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मयूर। मोर। २. मंजुघोष नाम के एक पूर्व जिन (को०)।

शिखाधर (२)
वि० १. शिखाधारी। २. नोकदार। नुकीला [को०]।

शिखाधार
संज्ञा पुं० [सं०] मयूर। मोर। २. वह जिसे शिखा हो। चूड़ा़ या चोटीवाला।

शिखापाश
संज्ञा पुं० [सं०] चोटी। चुंदी।

शिखापित्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की रोग जिसमें हाथ पैर की उँगलियों में सूजन और जलन होती है।

शिखाबंधन
संज्ञा पुं० [सं० शिखाबन्धन] सिर के बालों को मिलाकर बाँधने की क्रिया। चोटी बाँधना।

शिखाभरण
संज्ञा पुं० [सं०] सिर का आभूषण। मुकुट।

शिखामणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह रत्न जो सिर पर पहना जाय। २. श्रेष्ठ व्यक्ति।

शिखामणि (२)
वि० सर्वश्रेष्ठ। प्रधान। शिरोमणि। जैसे,—चौरजार शिखामणि=श्रीकृष्ण।

शिखामूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कंद जिसके ऊपर पत्तियों का गुच्छा हो। २. गाजर। गृंजन (को०)। ३. शिखाकंद। शल- गम। शलजम (को०)।

शिखालु
संज्ञा पुं० [सं०] मयूरशिखा। मोर के सिर पर की कलँगो [को०]।

शिखावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्वा। मरोड़फली।

शिखावर
संज्ञा पुं० [सं०] कटहल का वृक्ष। पनस।

शिखावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ। (महाभारत)।

शिखावल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोर। मयूर। २. कटहल।

शिखावल (२)
वि० १. नुकीला। नोकवाला। २. चोटीवाला [को०]।

शिखावला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मयूरशिखा नामक वृक्ष [को०]।

शिखावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोरनी। मयूरी [को०]।

शिखावान् (१)
वि० [सं० शिखावत्] [वि० स्त्री० शिखावती] १. शिखावाला। २. लपटवाला। ज्वालायुक्त (को०)। ३. नुकीला। नोकदार (को०)।

शिखावान् (२)
संज्ञा पुं० १. अग्नि। २. चित्रक वृक्ष। चीता। ३. केतु ग्रह। पुच्छल तारा। ४. मोर। मयूर। ५. दीपक (को०)।

शिखावृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दीवट। दीयट।

शिखावृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह ब्याज जो प्रति दिन बढ़ता जाय। सूद-दर-सूद। २. पराशर स्मृति के अनुसार वह ब्याज जो रोजाने के हिसाब से नित्य वसूल किया जाता है। रोजही।

शिखासूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] चोटी और जनेऊ जो द्विजों का चिह्न है।

शिखि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोर। मयूर। उ०—चीर फारि करिहौं भगौहौं शिखनि शिखि लवलेस।—सूर (शब्द०)। २. तामस मन्वंतर के इंद्र का नाम। ३. कामदेव। ४. अग्नि। ५. तीन की संख्या।

शिखिकंठ (१)
वि० [सं० शिखिकण्ठ] मोर के कंठ के समान। मोर के कंठ सा।

शिखिकंठ (२)
संज्ञा पुं० तूतिया। नीला थोथा।

शिखिकण
संज्ञा पुं० [सं०] चिनगारी। स्फुलिंग [को०]।

शिखिकुंद
संज्ञा पुं० [सं० शिखिकुन्द] कुंदरु। बिरोजा।

शिखिग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] नीला थोथा। २. एक प्रकार का नीला पत्थर। कांत पाषाण।

शिखिध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूआँ। २. कार्तिकेय। ३. वह जिस पर अग्नि या मोर का चिहन बना हो। ४. एक प्राचीन तीर्थ का नाम। ५. मयूरध्वज नामक राजा। उ०—नृपति शिखिध्वज षोड़शों जीतिगो संसार।—केशव (शब्द०)।

शिखिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मयूरी। २. मुर्गी। ३. मुर्गकेश। जटाधारी का पौधा।

शिखिपिच्छ, शिखिपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] मयूरपंख। मोरपंख। मोर की पूँछ [को०]।

शिखिप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली बेर।

शिखिभू
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय का नाम। स्कंद [को०]।

शिखिमंडल
संज्ञा पुं० [सं० शिखिमण्डल] वरुण वृक्ष। तपिया।

शिखिमोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा। अजवायन।

शिखिमृत्यु
संज्ञा पुं० [सं०] मदन। कामदेव [को०]।

शिखियूप
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकारी नाम का मृग।

शिखिवर्द्धक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोल कद्दू। गोल घीया। २. कूष्मांड। कोहँड़ा (को०)।

शिखिवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय।

शिखीव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़पुराण में वर्णित एक प्रकार का व्रत [को०]।

शिखिशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आग की लपट। लौ। २. मोर की कलँगी [को०]।

शिखिशृंग
संज्ञा पुं० [सं० शिखिश्रृङ्ग] चित्रमृग। चित्तीवाला हिरन।

शिखिशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] मयूरशिखा। मोर की कलँगी।

शिखिहिंटी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखिहिण्टी] सहदेई। महाबला।

शिखींद्र
संज्ञा पुं० [सं० शिखीन्द्र] १. तेंदू का पेड़। तिंदूक। २. आबनूस का पेड़।

शिखी (१)
वि० [सं० शिखिन्] [वि० स्त्री० शिखिनी] १. शिखावाला। चोटीवाला। २. नुकीला। नोकदार (को०)। ३. ज्ञान की चोटी पर पहुँचनेवाला (को०)। ४. अभिमानी। घमंडी (को०)।

शिखी (२)
संज्ञा पुं० १. मोर। मयूर। उ०—कुटिल कच तिलक रेखा सीस शिखी शिखंड।—सूर (शब्द०)। २. मुर्गा। ३. एक प्रकार का सारस। ४. बैल। सौड़। ५. घोड़ा। ६. चित्रक। चीते का पेड़। ७. अग्नि। उ०—आखंडल और दंडधर, शिखी वरुण दिगपाल।—गुमान (शब्द०)। ८. चीन की संख्या (अग्नि तीन प्रकार की होने के कारण)। ९. दीपक। १०. पित्त। ११. पुच्छल तारा। केतु। १२. मेथी। १३. पर्वत। १४. वृक्ष। १५. ब्राह्मण। १६. सतावर। १७. बाण। १८. जटाधारी साधु या भिक्षु। १९. एक नाग का नाम। २०. इंद्र। २१. बगला। बक। २२. अपामार्ग। ओंगा। चिचड़ा। २३. एक प्रकार का विष। २४. अजमोदा (को०)।

शिखीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय [को०]। यौ०—शिखीश्वर मास=कार्तिक मास।

शिगाफ
संज्ञा पुं० [फ़ा० शिगाफ़] १. चीरा। नश्तर। २. दरार। दर्ज। ३. कलम के बीच का चिराव। ४. छेद। सूराख। मुहा०—शिगाफ देना या लगाना=(१) कलम को चीरना। (२) चीरा लगाना। नश्तर लगाना।

शिगाल
संज्ञा पुं० [फ़ा०। तुल० सं० श्रृगाल] जंबुक। श्रृगाल [को०]।

शिगिफ्त
संज्ञा पुं० [फ़ा० शिगिफ़्त] अचंभा। आश्चर्य। हैरत।

शिगुफ्त, शिगुफ्तगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शिगुफ्त, शिगुफ्त़गी] विकास। खिलना। २. प्रसन्नता। आह्लाद [को०]।

शिगुफ्ता
वि० [फा० शिगुफ्त़ाह्] १. मुकुलित। विकसित। खिला हुआ। २. प्रसन्न। आह्लादित [को०]।

शिगूड़ी़
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक जंगली क्षुप या पौधा जो दवा के काम में आता है। विशेष—यह वनस्पति चरपरी, गरम तथा वात और पृष्ठशूल का नाश करनेवाली तथा दूसरी ओषधियों के योग से रसायन और शरीर की दृढ़ करनेवाली कही गई है।

शिगूफा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शिगूफ़ह्] १. बिना खिला हुआ फूल। कली। २. फूल। पुष्प। ३. किसी अनोखी बात का होना। अचंभे की बात। चुटकुला। मुहा०—शिगूफा खिलना=कोई ऐसी बात या झगड़ा खड़ा होना जिससे मनोरंजन हो। शिगूफा खिलाना=बात खड़ी करना। तमाशे के लिये कोई मामला पैदा कर देना। शिगूफा छोड़ना= (१) कोई नई या अनोखी बात कहना। (२) तमाशा देखने के लिये कोई मामला खड़ा कर देना। शिगूफा फूलना= (१) अनोखी बात निकलना। (२) मामला खड़ा होना।

शिग्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सहिंजन का वृक्ष। शोभांजन। २. शाक। साग। यौ०—शिग्रुबीज=शिग्रुज।

शिग्रुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिग्रु'। सहिजन। विशेष—मनु ने वानप्रस्थ आश्रमी लोगों के लिये इसके भक्षण का निषेध किया है। मेधातिथि और कुल्लूक ने इसे वाह्लिक देशोद्भव कहा है।

शिग्रुज
संज्ञा पुं० [सं०] सहिंजन का बीज।

शिच्
संज्ञा स्त्री० [सं०] [कर्त्ता का० शिक्] १. जुए की रस्सी। २. बहँगी का छोका या जाल जिसपर बोझ रखा जाता है।

शिचि
वि० [सं०] काला या सफेद [को०]।

शित (१)
वि० [सं०] १. कृश। दुर्बल। २. कमजोर। निर्बल (को०)। नुकौला। पतला। ४. चोखा। धारदार। यौ०—शितधार=तीक्ष्ण धारवाला। शितशूक=(१) यव। जौ। (२) गेहूँ। गोधूम।

शित (२)
संज्ञा पुं० विश्वामित्र के गोत्र के एक ऋषि का नाम।

शित पु (३)
वि० [सं० श्वेत या सित] दे० 'सित'।

शितद्रु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शतद्रु। सतलज नदी। २. क्षीर मोरट। मोरट।

शितनिर्गुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० शितनिर्गुण्डी] शेफालिका।

शितपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] मोथा।

शितवर, शितवार
संज्ञा पुं० [सं०] शिरियारी नामक साग।

शिताशाक
संज्ञा पुं० [सं०] शालिंच शाक। शांति शाक।

शिताग्र
संज्ञा पुं० [सं०] कंटक। काँटा [को०]।

शिताद्रिकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] विष्णुकांता लता। अपराजिता। कोयल।

शिताफल
संज्ञा पुं० [सं०] शरीफा। सीताफल।

शिताब (१)
वि० [फ़ा०] १. जल्द। शीघ्र। उ०—दिए धीरक उसे इस वजा बेहिसाब। उडया वाँते दरहाल तोता शिताब।—दक्खिनी०, पृ० ९१। २. तेज। फुर्तीला। तीव्र (को०)।

शिताब (२)
संज्ञा स्त्री० शीघ्रता। जल्दी [को०]।

शिताबी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. शीघ्रता। जल्दी। २. तेजी। हड़बड़ी।

शितावर
संज्ञा पुं० [सं० शतावर] १. बकुची। सोमराजी। २. शिरियारी। सतावर।

शितावरी
संज्ञा स्त्री० [सं० शतावरी] दे० 'शतावर'।

शिति (१)
वि० [सं०] १. सफेद। शुक्ल। श्वेत। २. काला। कृष्ण। ३. नील। नीला। ४. कर्बुर। चितकबरा (को०)। यौ०—शितिकंठ। शितिकुंभ।

शिति (२)
संज्ञा पुं० भोजपत्र। भूर्ज तरु।

शितिकंठ
संज्ञा पुं० [सं० शितिकण्ठ] १. दात्यूह पक्षी। मुर्गाबी। जलकाक। २. पपीहा। चातक। ३. मोर। मयूर। ४. नाग देवता। ५. शिव। महादेव।

शितिकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० शितिकुम्भ] कनेर का पेड़। करवीर वृक्ष।

शितिकेश
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद के एक अनुचर का नाम।

शितिचंदन
संज्ञा पुं० [सं०] शितिचन्दन कस्तूरी।

शितिचार
संज्ञा पुं० [सं०] शिरियारी नामक साग।

शितिच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] हंस।

शितिपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] हंस।

शितिपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग जो एक यज्ञ में मैत्रावरुण बना था।

शितिमांस
संज्ञा पुं० [सं०] मज्जा। मेद। चर्बी [को०]।

शितिमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] खस। उशीर।

शितिरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] नील मणि। नीलम।

शितिवासा
संज्ञा पुं० [सं० शितिवासस्] बलदेव। बलराम [को०]।

शितिसार, शितिसारक
संज्ञा पुं० [सं०] तिंदुक वृक्ष। तेंद्।

शितीक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक देवता उशना के एक पुत्र का नाम।

शित्पुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिलनी की जाति का एक जानवर। २. एक प्रकार का काला भौंरा।

शिथिल (१)
वि० [सं०] १. जो कसा या जकड़ा न हो। जो खूब बँधा न हो। ढोला। २. सुस्त। मंद। धीमा। ३. जिसमें और शक्ति न रह गई हो। थका हुआ। हारा हुआ। श्रांत। उ०— देह शिथिल भई उठ्यो न जाई।—सूर (शब्द०)। ४. जो कार्य में पूर्ण तत्पर न हो। जो पूरा मुस्तैद न हो। आल- स्ययुक्त। जैसे,—कार्य में शिथिल पड़ना। ५. जो अपनी बात पर खूब जमा न हो। अदृढ़। ६. जिसका पालन कड़ाई के साथ न हो। जिसकी पूरी पाबंदी न हो। जैसे,—नियम शिथिल होना। ७. जो साफ सुनाई न दे। अस्पष्ट (शब्द)।८. जो पूरे दबाव में न रखा गया हो। छोड़ा हुआ। ९. निष्क्रिय। निरर्थक (को०)। १०. असावधान (को०)। ११. डाल से गिरा या टूटा हुआ (को०)। १२. दुर्बल। कमजोर (को०)। क्रि० प्र०—करना।—पड़ना।—होना।

शिथिल (२)
संज्ञा पुं० १. ढीलापन। शिथिलता। सुस्ती। २. बंधन जो वसा न हो। ३. छोड़ना। डालना। ४. त्याग देना। त्यजन [को०]।

शिथिलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कसे या जकड़े न रहने का भाव। ढीलापन। ढिलाईं। २. थकावट। थकान। श्रांति। ३. मुस्तैदी का न होना। अतत्परता। आलस्य। ४. नियम पालन की कड़ाई का न होना। ५. शक्ति की कमी। सामर्थ्य की त्रुटि। ६. वाक्यों में शब्दों का परस्पर गठा हुआ अर्थसंबंध न होना। ७. तर्क में किसी अवयव का अभाव।

शिथिलाई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं शिथिल + हिं० आई (प्रत्य०)] दे० 'शिथिलता'।

शिथिलाना पु †
क्रि० अ० [सं० शिथिलायते ? या सं० शिथिल + हिं० आना (अत्य०)। १. शिथिल होना। ढीला पड़ना। २. थकना। श्रांत होना। उ०—करत सिंगार परस्पर दोऊ अति आलस शिथिलाने।—सूर (शब्द०)।

शिथिलित
वि० [सं०] १. जो शिथिल हो गया हो। ढीला पड़ा हुआ। २. विश्रांत। थका हुआ। उ०—मृग डाल दिया, फिर धनु को भी, मनु बैठ गए शिथिलित शरीर। बिखरे थे सब उपकरण वहीं आयुध, प्रत्यंचा, शृंग, तीर।—कामायनी, पृ० १४१। ३. घुला हुआ। प्रविलीन (को०)।

शिथिलीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० शिथिलीकृत] शिथिल करना। ढीला करना।

शिथिलीकृत
संज्ञा पुं० [सं०] जो शिथिल किया गया हो।

शिथिलीभूत
वि० [सं०] जो शिथिल हो गया हो। शिथिलित पड़ा हुआ। श्लथ।

शिद्दत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. तेजी। जोर। उग्रता। प्रचंडता। २. अधिकता। ज्यादती। जैसे,—शिद्दत की गरमी या बुखार। ३. कठिनाई (को०)। ४. कष्ट। तकलीफ (को०)।

शिना
संज्ञा पुं० [सं०] भुइँ आँवला।

शिनाख्त
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शिनाख्त] १. यह निश्चय कि अमुक वस्तु या व्यक्ति यही है। पहचान। जैसे,—तुम अपने माल की शिनाख्त कर लो। २. स्वरूप या गुण का बोध। असल नकल, अच्छा बुरा, जान लेने की बुद्धि। परख। तमीज। जैसे,—तुम्हें आदमी की शिनाख्त नहीं है।

शिनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्ग ऋषि के पुत्र का नाम। २. क्षत्रियों का एक भेद। ३. एक यादव वीर का नाम। विशेष—इन्होंने वसुदेव के लिये देवकी का बलपूर्वक हरण किया था। इस कारण इनका सोमदत्त के साथ भयंकर युद्ध हुआ था। इनके पु्त्र का नाम सत्यक और पौत्र का सात्यकि था जो पांडवों की ओर से महाभारत में लड़ा था।

शिनिबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] वायुपुराण में वर्णित एक नदी का नाम।

शिनिवास
संज्ञा पुं० [सं०] एक पहाड़ का नाम [को०]।

शिनूसा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] छिक्का। छींक [को०]।

शिपविष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिपिविष्ट' [को०]।

शिपि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रश्मि। किरण। २. जल (को०)।

शिपि (२)
संज्ञा स्त्री० चमड़ा। खाल।

शिपिविष्ट (१)
वि० [सं०] १. किरणों से व्याप्त। किरणाच्छादित। २. गंजे सिरवाला। ३. कुष्ट रोगवाला [को०]।

शिपिविष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. कुष्टी। कोढ़ी। २. खल्वाट व्यक्ति। वह जिसकी खोपड़ी गंजी हो (को०)। ३. शिव (को०)। ४. विष्णु (को०)। ५. वह व्यक्ति जिसके शिश्नाग्र पर चमड़ा न हो (को०)।

शिपुरगड्डी
संज्ञा स्त्री० [त०] एक प्रकार का पौधा जिसकी डाल के रेशे बुरुश बनाने के काम में आते हैं।

शिप्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहे या ताँबे का टोप। शिरस्त्राण। उ०— झिलम टोप (शिप्र) यह लोहे या ताँबे का बनता था।—हिंदु० स०, पृ० ८५। २. हिमालय पर्वत का एक सरोवर (को०)। ३. कपोल। गाल (को०)। ४. चिबुक। ठुढ्ढी (को०)। ५. नाक। नासिका (को०)।

शिप्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मध्यप्रदेश की एक नदी का नाम जिसके किनारे उज्जैन (प्राचीन नाम उज्जयिनी) स्थित है। यह हिमालय के 'शिप्र' सरोवर से निकली है। उ०—आर्य, आपकी वीरता की लेखमाला शिप्रा और सिंधु की लोल लहरियों से लिखी जाती है।—स्कंद०, पृ० ३। २. टोप। शिरस्त्राण (को०)।

शिप्रावात
संज्ञा पुं० [सं०] शिप्रा से आनेवाला पवन। उ०—वह शिप्रावात, प्रिया से प्रिय ज्यों चाटुकार।—अपरा, पृ० २१०।

शिप्री
संज्ञा पुं० [सं० शिप्रिन्] शिरस्त्राणधारी योद्धा। उ०—शिर- स्त्राण पहने हुए योद्धा शिप्री कहलाता था।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ८५।

शिफ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिफा' [को०]।

शिफर पु ‡
संज्ञा पुं० [फ़ा० सिपर] ढाल। उ०—सतएँ शिफर सुसरस बनाई। बान वृष्टि तिन सबै बचाई।—हनुमन्नाटक (शब्द०)।

शिफा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वृक्ष की रेशेदार जड़ जिससे प्राचीन काल में कोड़े बनते थे। २. कोड़े की फटकार। चाबुक की मार। ३. माता। ४. हरिद्रा। हलदी। ५. कमल की जड़। पद्मकंद। भसींड़। ६. लता। ७. नदी। ८. एक प्राचीन नदी का नाम। ९. मांसिका। जटामासी। १०. शिखा। चोटी। ११. जड़। मूल (को०)। १२. दे० 'शतपुष्पा' (को०)। १३. कोड़ा। बेत। यौ०—शिफादंड=कोड़े मारने का दंड।

शिफा (२)
संज्ञा स्त्री० आरोग्य। तंदुरुस्ती। दे० 'शफा'। उ०— उस मसीहा को दिखा दो तो कुछ आजार नहीं, अभी हो जाय शिफा।—श्यामा०, पृ० १०१। यौ०—शिफाखाना=अस्पताल। दवाखाना।

शिफाकंद
संज्ञा पुं० [सं० शिफाकन्द] कमल की जड़। भसींड़।

शिफाक
संज्ञा पुं० [सं०] पद्ममूल। भसींड़।

शिफाधर
संज्ञा पुं० [सं०] डाल। शाखा।

शिफारुह
संज्ञा पुं० [सं०] बरगद का पेड़।

शिबि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिवि' [को०]।

शिबिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शिविका'।

शिबिर
संज्ञा पुं० [सं०] 'शिविर' [को०]।

शिमाल
संज्ञा स्त्री० [अ०] [वि० शिमाली] उतर दिशा।

शिमृडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंगोनी या चिंगोनी नाम का पौधा।

शिया
संज्ञा पुं० [अ० शीया] १. मददगार। सहायक। २. अनुयायी। ३. मुसलमानों के दो प्रधान और परस्पर विरोधी संप्रदायों में से एक। हजरत अली को पैगंबर का ठीक उत्तराधिकारी माननेवाला संप्रदाय। विशेष—उमर, अबूबक्र आदि जो चार खलीफा मुहम्मद साहब के पीछे हुए हैं उन्हें इस संप्रदाय के लोग अनधिकारी मानते हैं तथा पैगंबर के बाद अली और उनके बेटों हसन और हुसेन को ही आदर का स्थान देते हैं। मुहर्रम के महीने में ये अब तक हसन और हुसेन के बीरगति को प्राप्त होने के दिनों में शोक मनाते हैं।

शिरः
संज्ञा पुं० [सं० शिरस्] शिरस् शब्द का समासगत रूप। शिरस् शब्द के कर्ताकारक का एकवचन।

शिरःकपाली
संज्ञा पुं० [सं०] कापालिक संन्यासी।

शिरःकृंतन
संज्ञा पुं० [सं० शिरः कृन्तन] शिर काटना। शिरच्छेद।

शिरःखंड
संज्ञा पुं० [सं० शिरःखण्ड] माथे की हड्डी। कपालास्थि।

शिरःपीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिर का दर्द। माथे की पीड़ा। विशेष—आयुर्वेद में ११ प्रकार के और यूनानी में १९ प्रकार के शिरोरोग कहे गए हैं। परंतु कोई कोई २१ प्रकार के सिरदर्द बताते हैं। आयुर्वेद के अनुसार वातज, पित्तज, कफज, संनि- पातज, रक्तज, क्षयज, कृमिज, सूर्यावर्त, अनंतवात, अर्द्धावभेदक और शंखक ये ११ प्रकार के शिरोरोग होते हैं।

शिरःफल
संज्ञा पुं० [सं०] नारिकेल वृक्ष। नारियल।

शिरःशूल
संज्ञा पुं० [सं०] सिर की पीड़ा।

शिरःस्थ
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिरस्थ'।

शिर
संज्ञा पुं० [सं० शिर, शिरस्] १. सिर। कपाल। मुंड। खोपड़ा। २. मस्तक। माथा। ३. किसी वस्तु का सबसे ऊँचा भाग या सिरा। चोटी। ४. शिखर। ५. सेना का अग्र भाग। ६. पद्य के चरण का आंरभ। टोंका। ७. मुखिया। प्रधान। अगुआ। ८. पिप्पली मूल। पिपरा मूल। ९. शय्या। १०. विस्तर। विस्तार। ११. अजगर।

शिरकत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. किसी वस्तु के अधिकार में भाग। संमिलित अधिकार। साझा। हिस्सा। २. किसी कार्य में योग। किसी काम या व्यवसाय में शामिल होना। जैसे,—उनकी शिरकत से यह काम होगा। यौ०—शिरकतनामा=दे० 'शिराकतनामा'।

शिरकती
वि० [अ० शिरकत] शिरकत करनेवाला।

शिरखिस्त
संज्ञा पुं० [फ़ा० शीरखिश्त] एक वृक्ष का गोंद जो औषध के काम में आता है और जिसे साधारणतः लोग ज्वार से बनी चीनी मानते है।

शिरगोला
संज्ञा पुं० [देश०] दुग्धपाषाण नामक वृक्ष।

शिरज
संज्ञा पुं० [सं०] केश। बाल। शिरसिज।

शिरत्रान पु
संज्ञा पुं० [सं० विरस्त्राण] खोद। दे० 'शिरस्त्राण'। उ०—टूटत धुजा पताक छत्र रथ चाप चक्र शिरत्रान।—सूर (शब्द०)।

शिरनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शीरीनी] मिठाई। उ०—इतनी सुनी हर्ष धर्मदासा। शिरनी पान लाइ धरे पासा।—कबीर सा०, पृ० ८२।

शिरनेत
संज्ञा पुं० [देश०] १. गढ़वाल या श्रीनगर के आस पास का प्रदेश। उ०—सुनि सिधाय शिरनेतन देशू। तहँ विवाह किय ब्रह्मनरेशू।—कबीर (शब्द०)। २. क्षत्रियों की एक शाखा।

शिरपेंच
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'सिरपेंच'।

शिरफूल
संज्ञा पुं० [हि० शिर + फूल] सिर में पहनने का स्त्रियों का आभूषण। सीसफूल। उ०—माँग फूल शिरफूल सब बेणी फूल बनाव।—केशव (शब्द०)।

शिरमौर
संज्ञा पुं० [सं० शिरस् + सं० मुकुट, प्रा० मउड़] १. शिरो- भूषण। मुकुट। २. श्रेष्ट व्यक्ति। मुख्य व्यक्ति। प्रधान। उ०— हम खेलब तव साथ, होइ नीच सब भाँति जो। कह्मौ बचन कुरुनाथ, शकुनी तो शिरमौर मम।—सबल (शब्द०)। २. अधिपति। नायक।

शिरश्चंद्र
संज्ञा पुं० [सं० शिरश्चन्द्र] महादेव, शिव।

शिरश्छेद, शिरश्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] सिर काटना। शिरःकृंतन [को०]।

शिरसिज
संज्ञा पुं० [सं०] केश। बाल। यौ०—शिरसिज पाश=केशबंध।

शिरसिरुह
संज्ञा पुं० [सं०] केश। बाल।

शिरस्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिरस्त्राण। २. पगडी़। शिरोवेष्टन [को०]।

शिरस्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] नरयान। पालकी। शिविका [को०]।

शिरस्तापी
संज्ञा पुं० [सं० शिरस्तापिन्] हाथी। हस्ती [को०]।

शिरस्त्र, शिरस्त्राण
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ध आदि के समय सिर के बचाव के लिये पहनी जानेवाली लोहे की टोपी। कूड़। खोद। उ०—उसके पटदाँव (पीछे की ओर) एक लंबी पुरुष मूर्ति है जो उरस्त्राण, कंचुक और शिरस्त्राण पहने हुए है।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २९०। २. पगड़ी। मुरेठा। शिरोवेष्टन (को०)।

शिरस्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुखिया। अग्रणी। नायक। २. वह जो वाद या अभियोग लगावे। वादी। अभियोक्ता [को०]।

शिरस्थ (२)
वि० उपस्थित। आसन्न। उपनत [को०]।

शिरस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] मुख्य स्थान। प्रधान कक्ष [को०]।

शिरस्य (१)
वि० [सं०] शिर संबंधी। शिर का। शिर पर स्थित।

शिरस्य (२)
संज्ञा पुं० साफ एवं स्वच्छ बाल [को०]।

शिरहन पु †
संज्ञा पुं० [हि० शिर + आधान] १. उसीसा। तकिया। २. सिरहाना। मुड़वारी। उ०—(क) शिरहन ओर चरण की सोवन लगी अवधि नहिं जानी।—रघुराज (शब्द०)। (ख) ताके हृदय गर्व नहिं थोरा। बैठेउ जाइ शिरहने ओरा।— सबल (शब्द०)।

शिरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रक्त की छोटी नाड़ी। खून की छोटी नली। विशेष दे० 'नाड़ी'। २. पानी का सोता या धारा। ३. जाल के समान गुछी हुई रेखाएँ। ४. पानी खींचने का डोल। ५. पृथ्वी के भीतर भीतर बहनेवाला पानी का सोता। विशेष—आठो दिशाओं के स्वामियों के नाम से आठ शिराएँ प्रसिद्ध हैं जैसे,—आग्नेयी, ऐंद्री, याम्या, आदि। बीच सें सबसे बड़ी शिरा या महाशिरा है। इनके अतिरिक्त और भी बहुत सी शिराएँ हैं।

शिरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] भूरे रंग का एक प्रकार का पक्षी। विशेष—इस पक्षी का सिर किरमिजी रंग का तथा पूँछ सफेद होती है। इसकी लंबाई १२ अंगुल के लगभग होती है। यह कुमाऊँ, काशमीर और अफगानिस्तान में होता है तथा भटकटैया के बीज खाता है।

शिराकत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. साझा। हिस्सेदारी। २. कार्य में योग।

शिराकतनामा
संज्ञा पुं० [अ० शिराकत + फ़ा० नामह्] वह कागज जिसपर साझे की शर्त लिखी हो।

शिराकती
वि० [अ० शिराकत] १. साझेदार। हिस्सेदार। २. सहायक। सहयोगी।

शिराग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वातरोग जिसमें वायु रुधिर के साथ मिलकर गले की नसों को काला कर देती है।

शिराज
संज्ञा स्त्री० [देश०] हिंदुओं की एक जाति जो चमड़े का काम बहुत अच्छा करती है।

शिराजाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटी रक्तनाड़ियों का समूह। २. आँख का एक रोग जिसमें लाल डोरे मोटे और कड़े पड़ जाते हैं।

शिरापत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीपल का पेड़। २. एक प्रकार का खजूर। हिंताल। ३. कैथ का पेड़। कपित्थ।

शिरापिड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० शिरापिडिका] आँख का एक रोग जिसमें पुतली के पास एक फुंसी निकल आती है। २. प्रमेह- पिड़िका। शिराविका पिड़िका।

शिराप्रहर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नेत्ररोग।

शिराफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारियल। २. अंजीर।

शिरामूल
संज्ञा पुं० [सं०] नाभि।

शिरामोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] रक्तस्त्राव। रक्त का निकलना [को०]।

शिरायु
संज्ञा पुं० [सं०] रीछ। भालू।

शिराल (१)
वि० [सं०] १. शिरायुक्त। जिसमें शिराएँ हों। २. शिरा- संबंधी [को०]।

शिराल (२)
संज्ञा पुं० कर्मरंग। कमरख [को०]।

शिरालक (१)
वि० [सं०] बहुत नसों या नाड़ियोंवाला।

शिरालक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पौधा जिसे हाड़ा भाँग कहते हैं। अस्यिभंग वृक्ष।

शिरालक (३)
संज्ञा पुं० [?] एक प्राचीन जाति का नाम।

शिराला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का पौधा। २. कमरख।

शिराविकापिड़िड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० शिराविका पिडिका] वह घातक फुसी जो बहुमूत्र के रोगियों को निकलती है। प्रमेह पीड़िका।

शिरावृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा नामक धातु।

शिराहर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. नसों का झनझनाना। २. आँख का एक रोग जिसमें आँख ताँबे के समान लाल हो जाती है और दिखाई नहीं पड़ता।

शिरि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खड़्ग। तलवार। २. शर। ३. वध करनेवाला व्यक्ति। घातक (को०)। ४. शलभ। पतिंगा। ५. टिड्डो।

शिरि (२)
वि० उग्र। क्रूर। रोद्र [को०]।

शिरियारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक जंगली बूटी या शाक जो औषध के काम में आता है। सुसना। सुनिषण्णक। विशेष—यह जंगली शाक हर जगह होता है। इसमें चंगेरी के समान एक साथ चार चार पत्ते होते हैं जो एक अंगुल चौड़े और नोकदार होते हैं। पत्तो क बीच में कली लगती है। फलों में दो चिपटे बाज हाते हैं जा कुछ राएंदार होते है। ये बीज सूजाक में दिए जाते हैं। शिरियारी पंजाब और सिंध में अधिक होती है। वैद्यक में यह कसैली, रूखी, शीतल, हलकी, स्वादिष्ट, शुक्रजनक, रुचिकारी, मेधाजनक और त्रिदोष- नाशक कही गई है। इसका साग भी लोग खाते हैं।

शिरीष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिरस का पेड़। २. शिरीष का पुष्प (को०)।

शिरीषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिरिस का पेड़। २. एक नाग का नाम।

शिरीषपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद कटभी का पौधा।

शिरीषी
संज्ञा पुं० [सं० शिरीषिन्] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।

शिरुआरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'शिरियारी'।

शिरोगद
संज्ञा पुं० [सं०] शिर का रोग [को०]।

शिरोगुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर के तीन घटों या कोठों में से एक जिसमें मस्तिष्क और सुषुम्ना नाड़ी का सिरा रहता है। सिर के भीतर का भाग।

शिरोगृह
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रशाला। अट्टालिका। कोठा।

शिरोगेह
संज्ञा पुं० [सं०] अट्टालिका। कोठा।

शिरोग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] सिर का एक वातरोग। समलबाई।

शिरोज
संज्ञा पुं० [सं०] बाल। केश।

शिरोदाम
संज्ञा पुं० [सं० शिरोदामन्] पगड़ी। साफा।

शिरोधरा
संज्ञा स्त्री [सं०] ग्रीवा। गरदन।

शिरोधाम
संज्ञा पुं० [सं०] चारपाई का सिरहाना।

शिरोधार्य
वि० [सं०] १. सिर पर धरने योग्य। आदरपूर्वक मानने याग्य। सादर अंगीकार करने योग्य। मुहा०—शिरोधार्य करना=(१) सिर पर धारण करना। सिर माथे चढ़ाना। (२) आदरपूर्वक स्वीकार करना। आदर के साथ मानना, जैसे—आज्ञा शिरोधार्य करना।

शिरोधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रीवा। गरदन।

शिरोधिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिरा। नस। नाड़ी।

शिरोध्र
संज्ञा पुं० [सं०] गरदन [को०]।

शिरोनाप
संज्ञा पुं० [सं० शिरस् + हिं० नाप] सिर का परिमाण। सिर का नाप। उ०—ओर भी कई भेद है जिनका नरदह- शास्त्र में विस्तार से अध्ययन होता है। एक प्रमुख भेद का नाम है शिरानाप; यदि किसा के के सिर की लंबाई 'क' ओर चोड़ाई 'ख' है ता उसका शिरानाप क/ख १०० हुआ। आर्यों०, पृ० ७।

शिरोपाव
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'सिरोपाव'। उ०—अच्छे खिलअत ओर शिरापाव दन की कृपा की।—हुमायूँ, पृ० १८३।

शिरोभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिर पर पहनन का गहना। जैसे,— सास फूल। २. मुकुट। ३. शिरोमाण। श्रेष्ठ व्यक्ति।

शिरोभूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिर का अलंकरण, शीशफूल, कलँगी आदि। उ०—कुछ उदाहरणों में शिरोभूषा पर कमलपुष्प भी जड़ है।—सपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ४५०।

शिरेभ्यंग
संज्ञा पुं० [सं० शिरोभ्यंङ्ग] सिर में तेल लगाने की क्रिया।

शिरोमणि (१)
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं०] सिर पर का रत्न। चूड़ामणि। २. श्रेष्ठ व्यक्ति। सबसे उत्तम मनुष्य। सिरताज। मुखिया। प्रधान। ३. माला मे सुमेरु।

शिरोमणि (२)
वि० सर्वप्रधान। सर्वश्रेष्ठ [को०]।

शिरीमर्मा
संज्ञा पुं० [सं० शिरोमर्मन्] जंगली सूअर। शूकर।

शिरोमाली
संज्ञा पुं० [सं० शिरामालिन्] मुंड को माला धारण करनवाले, शिव। महादेव।

शिरोमौलि
संज्ञा पुं [सं०] १. सिर का रत्न। २. श्रेष्ठ व्यक्ति।

शिरोरक्षी
संज्ञा पुं० [सं० शिरोराक्षन्] सदा राजा के साथ रहनेवाला रक्षक। बाड़ागार्ड।

शिरोरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] शिरोमणि।

शिरोरुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सप्तपर्ण वृक्ष। सतिवन। २. मस्तक की पीड़ा (को०)।

शिरोरुह
संज्ञा पुं० [सं०] सिर के ऊपर के बाल। केश।

शिरोरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागरी अक्षरों पर लगाई जानेवाली शीर्ष रेखा। उ०—शिरोरेखा ने नागरी की वैज्ञानिकता और कलापूर्णता दोनों को बढ़ाया है।—भाषा शि०, पृ० ५८।

शिरोवर्ती
वि० [सं० शिरोवर्तिन्] अग्रवर्ती। मुखिया। प्रधान। नायक। शीर्षस्थ [को०]।

शिरोवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोर या मुरगे की चोटी। कलँगी।

शिरोवस्ति
संज्ञा पुं० [सं०] वातज सिर के दर्द का एक उपचार। विशेष—उर्द के सने हुए आटे से सिर पर आठ या सोलह अंगुल की बाढ़ बाँधकर बीच में गरम तेल भर दे और चार घड़ी रखकर निकाल डाले। इससे वातज शिरोरोग, कर्णरोग, ग्रीवा रोग, और दाढ़ के रोग ४, ५ दिन के सेवन से अच्छे हो जाती हैं।

शिरोवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] गोल मिर्च। काली मिर्च।

शिरोवृत्तफल
संज्ञा पुं० [सं०] लाल ओंगा। रक्त अपामार्ग। लाल चिचड़ा।

शिरोवेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] उष्णीष। पगड़ी। साफा।

शिरोवेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] पगड़ी [को०]।

शिरोहर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिर की पीड़ा। सिर का दर्द।

शिरोहर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नेत्ररोग जो शिरोत्पात की चिकित्सा न करने से हो जाता है।

शिरोहारी
संज्ञा पुं० [सं० शिरोहारिन्] १. सिरों की माला पहननेवाले, शिव। महादेव।

शिरोर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिर का दर्द। सिर की पीड़ा [को०]।

शिरोस्थि
संज्ञा स्त्री० [सं०] खोपड़ी की हड्डी। करोटि [को०]।

शिर्क
संज्ञा पुं० [अ०] अनेकेश्वरवादी होना। ईश्वर में द्वैत भाव रखना [को०]।

शिर्कत
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'शिरकत', 'शिराकत' [को०]। यौ०—शिर्कतनामा।

शिलंडी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास। बीड़। विशेष—यह सिध, बलोचिस्तान, दक्षिण, मलाबार और लंका आदि के रेतीले स्थानों में बहुतायत से पाई जाती है। भारत से बाहर यह अरब और उतरी तथा मध्य अमरीका में भी होती है। यह घास जिस स्थान पर होती है उस स्थान पर जमीन में चावल की तरह के एक प्रकार के दाने भी होते हैं। गरीब लोग इन दानों को उबालकर अथवा इनका आटा बनाकर खाते हैं।

शिलंधिर
संज्ञा पुं० [सं० शिलन्धिर] एक प्राचीन गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

शिलंब
संज्ञा पुं० [सं० शिलम्ब] १. जुलाहा। तंतुवाय। २. बुद्धि- मान्। समझदार। ३. तपस्वी। साधु। संत (को०)।

शिल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेत कट जाने और कृषक द्वारा उसे छोड़ देने के बाद भूमि में पड़ा हुआ एक एक दाना बीनना। दे० 'उंछ'। २. पारियात्र के एक पुत्र का नाम।

शिल (२)
संज्ञा स्त्री० १. दे० 'शिला'। २. दे० 'सिल'।

शिलक
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक ऋषि का नाम।

शिलगर्भज
संज्ञा पुं० [सं०] पाषाणभेद। पखानभेद।

शिलज
संज्ञा पुं० [सं०] शैलज। भूरि छरीला।

शिलरति
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो उंछ वृत्ति के द्वारा जीविका निर्वाह करता हो। उंछशील।

शिलवट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'सिलवट'।

शिलवाहा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिलावहा] एक प्राचीन नदी का नाम। दे० 'शिलावहा'।

शिलांजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिलाञ्जनी] कालांजनी वृक्ष। काली कपास।

शिलांत
संज्ञा पुं० [सं० शिलान्त] अश्मंतक वृक्ष।

शिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.पाषाण। पत्थर। २. पत्थर का बड़ा चौडा़ टुकड़ा। चट्टान। सिल। ३. मनःशिला। मैनसिल। ४. कपूर। ५. शिलाजीत। ६. गेरू। ७. नील का पौधा। ८. हरीतकी। हर्रे। ९. गोरोचन। १०. दूब। ११. पत्थर की कंकड़ी अथवा बटिया। १२. भूमि में पड़ा हुआ एक एक दाना बीनने का काम। उंछवृति। उ०—बीन्यो शिला क्षुधावश छीना।—रघुराज (शब्द०)। १३. दे० 'शिस'। १४. चक्की के नीचे का पाट (को०)। १५. चौखट के नीचे की लकड़ी (को०)। १६. स्तंभ का ऊपरी सिरा (को०)।

शिलाकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शल्लकी वृक्ष। सलई।

शिलाकुट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] पत्थर तोड़ने की छेनी।

शिलाकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] शिलाजीत।

शिलाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] प्रस्तरखंड पर अक्षर उत्कीर्ण करना। शिलालेखन। शिलालेख। २. लीथोग्राफी (अँग०)। पत्थर की छपाई [को०]।

शिलाक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] चूना।

शिलागृह
संज्ञा पुं० [सं०] गह्वर। गुहा। कंदरा [को०]।

शिलाघन
वि० [सं०] शिला की तरह कठोर।

शिलाचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. शालग्राम की मूर्ति। २. प्रस्तर पर उत्कीर्ण कोई चक्र।

शिलाचय
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत। पहाड़।

शिलाज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छरीला। पत्थर का फूल। २. लोहा। ३. शिलाजीत। ४. पेट्रोल (को०)। ५. कोई भी शिलाभूत पदार्थ (को०)।

शिलाज (२)
वि० खनिज [को०]।

शिलाजतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिलाजीत। २. गैरिक धातु। गेरू (को०)।

शिलाजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद रंग का पत्थर। संगमरमर।

शिलाजित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शिलाजीत'।

शिलाजीत
संज्ञा पुं० स्त्री० [सं० शिलाजतु] काले रंग की एक प्रसिद्ध ओषधि जिसे कुछ लोग मोमियाई भी कहते हैं। विशेष—सुश्रुत के अनुसार यह ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणों से तपी हुई शिलाओं का रस है। 'निघंटु' के अनुसार यह दो प्रकार का होता है—एक पर्वतों से निकलता है और दूसरा खारी जमीन में मिट्टी और पानी के योग से बनता है। 'रसरत्नाकर' इसकी उत्पत्ति सोने, चाँदी, लोहे और ताँबे से मानता है। परंतु यह प्रायः पहाड़ों पर या लोहे की खानवाले गड्ढे में ही मिलता है। शास्त्रों के अनुसार यह छह प्रकार का होता है। 'रसरत्न' के अनुसार यह दो प्रकार का होता है। एक वह जिसमें से गोमूत्र के समान गंध आती है। यह साधारणतः बहुत मिलता है। और दूसरा कपूर के समान सफेद होता है। इसमें सें किसी प्रकार की गंध नहीं आती। इसका रंग कई प्रकार का होता है। विंध्याचल का शिलाजीत सबसे उत्तम कहा जाता है। इसको रासायनिक रीति से शुद्ध करके ओषधि के काम में लाते हैं। यह बड़ा ही गुणकारी और शक्तिवर्धक होता है। अनुपानभेद क अनुसार नाना प्रकार के रोगो के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। वैद्यक के अनुसार यह कड़वा, चरपरा, गरम, रसायन, छेदन, योगवाही, कफ, मेद, पथरी, शर्करा, सूजाक, क्षय, श्वास, वातरक्त, बवासार, पांडुरोग, मृगी, उन्माद, खाँसी, इत्यादि रोगों का नाश करनेवाला माना गया है। पुराणों के अनुसार देवासुर संग्राम के समय जब अमृत निकालने के लिये देवताओं और राक्षसों ने समुद्र को मंदराचल पर्वत को मथानी बनाकर मथा, तब शेषनाग के झाग और मथने की गरमी से पर्वत के भीतर की धातुएँ पिघल गई और पसीने के रूप में बहने लगीं। उसी स्त्राव का नाम शिलाजीत, गिरिस्वेद या शिलामल हुआ। पीछे से देवाताओं ने ब्रह्मा और इंद्र का पूजनकर मनुष्यों के कल्याणार्थ मंदराचल का वही पसीना अन्य पर्वतों को दे दिया। पर्या०—अगज। अद्रिज। शिलाज। शीतपुष्पक। शैल। शैलेय। अश्मलाक्षा। जत्वश्मक। गैरय। अर्य्य। गिरिज। अश्मज। अश्मोत्थ। शिलाव्याधि। अश्मजतुक।

शिलाटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत बड़ा मकान। अट्टालिका। २. मकान के सबसे ऊपरी भाग में बना हुआ छोटा कमरा। चौबारा। ३. किसी इमारत के चारों ओर बना हुआ बड़ा घेरा। चहारदीवारी। परकोटा। ४. गड्ढा। गर्त। बिल। सूराख।

शिलाठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] रक्त पुनर्नवा। लाल गदहपूरना।

शिलातल
संज्ञा पुं० [सं०] शिला। पाषाणपृष्ठ।

शिलात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] लोहा।

शिलात्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोना या चाँदी गलाने की घरिया।

शिलात्व
संज्ञा पुं० [सं०] शिला का भाव या धर्म।

शिलात्वच्
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिला या वल्का नाम की ओषधि।

शिलाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शिलादद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] शैलेय नामक गंधद्रव्य। छरीला। २. शिलाजीत।

शिलादान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणों के अनुसार वह दान जिसमें किसी ब्राह्मण को शालग्राम की मूर्ति दी जाती है। २. शिल का ग्रहण करना। खेत में से दाने चुनना।

शिलादित्य
संज्ञा पुं० [सं० शीलादित्य] कान्यकुब्ज का एक नरेश। विशेष दे० 'हर्षवर्धन'।

शिलाद्वंद्व
संज्ञा पुं० [सं० शिलाद्वन्द्व] शैलेय नामक गंधद्रव्य। छरीला।

शिलाधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोनागेरू। २. खरिया। मिट्टी। ३. चीनी। शक्कर।

शिलानिर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिलाजीत'।

शिलानीड़
संज्ञा पुं० [सं० शिलानीड] गरुड़।

शिलान्यास
संज्ञा पुं० [सं०] नींव की शिला रखना। नवीन भवन- निर्माण के समय नींव में पूजनादि करके शिला का स्थापन करना।

शिलापट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्थर की चट्टान। उ०—धरी तेरे ही काज यह शिलापट्ट विधि लाय।—सीताराम (शब्द०)। २. मसाला आदि पीसने की सिल।

शिलापट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिलापट्ट' [को०]।

शिलापुत्र, शिलापुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] बट्टा जिससे सिल पर कोई चीज पीसी जाती है।

शिलापुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. छरीला। शैलेय। पत्थर का फूल। पथरफूल। २. दे० 'शिलाजीत'।

शिलापेष
संज्ञा पुं० [सं०] प्रस्तर को चक्की या सिल आदि [को०]।

शिलाप्रतिकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिला पर उकेरी मूर्ति या शिला- त्मक प्रतीक [को०]।

शिलाप्रमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार लड़ाई में पत्थर फेंकना या लुढ़काना।

शिलाप्रवालक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिलीय अर्थशास्त्रानुसार एक प्रकार का साधारण रत्न [को०]।

शिलाप्रसून
संज्ञा पुं० [सं०] शैलज या छरीला नामक गधद्रव्य। शिलाकुसुम।

शिलाफलक
संज्ञा पुं० [सं०] पत्थर की पटिया। पत्थर का पाटा।

शिलाबंध
संज्ञा पुं० [सं० शिलाबन्ध] वह प्राचीर या परकोटा जो पत्थरों के टुकड़ों से बना हो।

शिलाभव
संज्ञा पुं० [सं०] छरीला। शैलज।

शिलाभिष्यंद
संज्ञा पुं० [सं० शिलाभिष्यन्द] शिलाजीत।

शिलाभेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाषाणभेदा वृक्ष। पखानभेद। २. पत्थर तोड़ने की छेनी।

शिलामल
संज्ञा पुं० [सं०] शिलाजीत।

शिलायु
संज्ञा पुं० [सं०] गले में होनेवाला एक प्रकार रोग। विशेष—इसमें कफ और रक्त के कुपत होने से गले में आँवले की गुठली के समान गाँठ उत्पन्न होती है जिसमें बहुत पीड़ा होती है। इसके कारण खाया हुआ अन्न गले में अटकता है। इसको गिलायु भी कहते हैं।

शिलायूप
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।

शिलारंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिलारम्भा] कठकेला। काष्ठ कदली।

शिलारस
संज्ञा पुं० [सं०] लोहबान की तरह का एक प्रकार का सुगंधित गोंद। विशेष—कुछ लोग इसे खनिज भी मानते हैं, पर वास्तव में यह एक वृक्ष का गोंद अथवा जमा हुआ दूध है। इसका वृक्ष पूरबी बंगाल, आसाम, भूठान, पेगू, चीन, मलाया, मेरगुई, जावा और यूनान में पाया जाता है। इसका वृक्ष ६० से १०० फुट तक ऊँचा होता है। इसके पत्ते ४ १/२ इंच तक लंबे, जड़ की ओर गो लाकार, अनीदार और किंचित् बारीक कँगूरेदार होते हैं। शाखाओं के अंत में घुंडीदार फूल होते हैं। फल गोलाकार होते है जिनमें बीजों की अधिकता होती है। वैद्यक के अनुसार यह कड़वा, चरपरा, स्वदिष्ट, स्निग्ध, गरम, सुगंधित, वर्ण को सुंदर करनेवाला और त्रिदोष आदि को शांत करनेवाला होता है।

शिलारोपण
संज्ञा पुं० [सं०] शिलान्यास।

शिलारोहण
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह की एक विधि। अश्मारोहण। उ०—अब तक विवाह की तीन विधियाँ थीं। एक अग्निप्रदक्षिणा, दूसरी, सप्तपदी लाजाहोम, तीसरी शिलारोहण।—वैशाली, पृ० ३४५।

शिलालिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिलालेख।

शिलाली
संज्ञा पुं० [सं० शिलालिन्] एक अति प्राचीन नाटचशास्त्र के आचार्य।

शिलालेख
संज्ञा पुं० [सं०] पत्थर पर लिखा या खोदा हुआ कोई प्राचीन लेख। पुराने लेख जो पत्थरों पर लिखे हुए पाए जाते हैं और जिनमें किसी प्रकार का अनुशासन या दान आदि उल्लिखित होता है।

शिलावर्षी (१)
संज्ञा पुं० [सं० शिलावर्षिन्] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।

शिलावर्षी (२)
वि० पत्थर बरसानेवाला।

शिलावल्कल
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा स्त्री० शिलावल्कला] एक प्रकार की ओषधि। शिलावल्का।

शिलावल्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की विधि जिसे शिलजा ओर श्वेता भी कहते है। राजनिघंटु के अनुसार यह ठंढी, स्वादु, कृच्छुमेह, मूत्रावरोध, अश्मरी, शूलज्वर और पित्त का नाश करनवाली है।

शिलावह
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जनपद का नाम। २. इस जनपद का निवासी।

शिलावहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम।

शिलावृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकाश से ओले या पत्थर गिरना। २. उपलवृष्टि। पथराव।

शिलावेश्म
संज्ञा पुं० [सं० शिलावेश्मन्] १. कंदरा। गुफा। २. पत्थर का बना हुआ मकान।

शिलाव्याधि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिलाजीत'।

शिलासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शैलेय नामक गंधद्रव्य। २. पत्थर का बना हुआ आसन। ३. शिलाजीत।

शिलासार
संज्ञा पुं० [सं०] लोहा।

शिलास्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] शिलाजीत।

शिलाहरि
संज्ञा पुं० [सं०] शालिम्राग की मूर्ति। उ०—भृगु मुनि कहा शिलाहरि धोई। करहु पान कछु दोष न होई।—विश्राम (शब्द०)।

शिलाहारी
संज्ञा पुं० [सं० शिलाहारिन्] वह जो शिला या उंछ वृत्ति से अपना निर्वाह करता हो। उंछशील।

शिलाह्व, शिलाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] शिलाजीत।

शिलिंग
संज्ञा पुं० [अं०] इंगलैंड में चलनेवाला चाँदी का एक सिक्का जो प्रायः पुराने बारह आने मूल्य का होता है।

शिलिंद
संज्ञा पुं० [सं० शिलिन्द] एक प्रकार की मछली। विशेष—वैद्यक के अनुसार इसका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है और श्लेष्मावर्धक, हृद्य और वात-पित-नाशक माना जाता है।

शिलि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र। भूर्जवृक्ष।

शिलि (२)
संज्ञा स्त्री० चौखट के नीचे की लकड़ी। डेहरी। देहली।

शिलिन
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक ऋषि का नाम।

शिलींध्र
संज्ञा पुं० [सं० शिलीन्ध्र] १. केले का फूल। २. ओला। बनौरी। ३. शिलिंद नामक मछली। ४. भुइँछता। कुकुरमुत्ता ५. करुकेला।

शिलींध्रक
संज्ञा पुं० [सं० शिलीन्ध्रक] कुकुरमुत्ता। खुमी।

शिलीध्री
संज्ञा स्त्री० [सं० शिलीन्ध्री] १. केचुआ। गंडूपदी। २. मिट्टी। ३. एक प्रकार की चिड़िया।

शिली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देहलीज। २. केचुआ। गंडूपदी। ३. भोजपत्र। ४. बाण। ५. भाला। ६. खंभे का ऊपरी भाग। स्तंभशीर्ष (को०)। ७. मडूक। मेढक।

शिलीपद
संज्ञा पुं० [सं०] फीलपाँव नामक रोग। श्लीपद।

शिलीभूत
वि० [सं०] शिला बना हुआ। उ०—शिलीभूत सौंदर्य, ज्ञान, आनंद अनश्वर। शब्द शब्द में तेरे उज्जवल जड़ित हिम शिखर।—युग०, पृ० ९२।

शिलीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. भ्रमर। भौंरा। उ०—(क) कुँवरि ग्रसित श्रीखंड अहि भ्रम चरण शिलीमुख लाम।—सूर (शब्द०)। २. बाण। तीर। उ०—न डगैं न भगैं जिय जानि शिलीमुख पंच धरे रतिनायक है।—तुलसी (शब्द०)। ३. युद्ध। समर। लड़ाई। ४. मूर्ख। बेवकूफ।

शिलु
संज्ञा पुं० [सं०] लिसाड़ा। बहुवार वृक्ष।

शिलूष
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि जो नाटयशास्त्र के आचार्य माने जाती हैं। २. बेल का वृक्ष।

शिलेय (१)
वि० [सं०] शिला संबंधी। शिला का।

शिलेय (२)
संज्ञा पुं० शिलाजीत।

शिलोंछ
संज्ञा पुं० [सं०शिलोञ्छ] फसल कट जाने पर खेत में गिरे पड़े दाने चुनकर जीवन निर्वाह करने की वृत्ति। शिल और उँछवृत्ति। यौ०—शिलोंछवृत्ति = दे० 'शिलोंछ'।शिलोंछ वृत्ति पु = दे० 'शिलोंछ'। उ०—करि शिलोंछ वृत्ती मन लावै। स्वामी को परसाद करावै।—राम० धर्म०, पृ०३४४।

शिलोंछन
संज्ञा पुं० [सं०शिलोञ्छन] शिल और उंछवृत्ति।

शिलोंछी
वि० [सं०शिलोञ्छिन्] शिलोंछ वृत्तिवाला। अल्पसंग्रही।

शिलोच्चय
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत। पहाड़।

शिलोत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. छरीला या शैलेय नामक गंधद्रव्य। २. शिलाजीत।

शिलोद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शैलेय। छरीला।२. पीला चंदन। ३. सोना। स्वर्ण (को०)।

शिलोद्भिदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाषाणभेद। पत्थऱफोड़।

शिलौका
संज्ञा पुं० [सं०शिलौकस्] १. वह जो पर्वत पर होता हो।२. गरुड़।

शिल्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ से कोई चीज बनाकर तैयार करने का काम। दस्तकारी। कारीगरी। हुनर। जैसे, बरतन बनाना। कपड़े सीना। गहने गढ़ना आदि। २. कला संबंधी व्यवसाय, जैसे—अब इस नगर में के कई शिल्प नष्ठ हो गए हैं। ३. दक्षता। पाटव। कौशल। चातुर्य (को०)। ४. निर्माण। सर्जन। सृष्टि। रचना (को०) । ५. आकार। आवृत्ति। रूप (को०)। ६. अनुष्ठान। क्रिया। धार्मिक कृत्य (को०)। ७. यज्ञादि में प्रयुक्त स्त्रुवा (को०)।

शिल्पक
संज्ञा पुं० [सं०] अष्टादश उपरुपकों में एक उपरूपक जिसमें चारों वृत्तियाँ, चार अंक, शांत और हास्य के अलावा कोई भी रस, ब्राह्मण नायक, उपनायक हीन पुरुष और इंद्रजाल, श्मसानादि का वर्णन होता है। इसके२७अंग कहे गए हैं।

शिल्पकर
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'शिल्पकार'।

शिल्पकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] दस्तकारी। शिल्पकला। हस्तकला [को०]।

शिल्पकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथ से चीज बनाने की कला। कारी- गरी। दस्तकारी। उ०—तो सों लहि आदर्श बढ़त कर शिल्पकला सब।—श्रीधर (शब्द०)।

शिल्पकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो हाथ से अच्छी अच्छी चीजें बनाकर तैयार करता हो। शिल्पी। कारीगर। दस्तकार। उ०—नए नए साजों बाजों की शिल्पकार करते है सृष्टि।— साकेत, पृ०३७४। २. राज। मेमार।

शिल्पकारक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री०शिल्पकारिका] हाथ से अच्छो अच्छी चीजें बनानेवाला कारीगर। शिल्पकार।

शिल्पकारी
संज्ञा पुं० [सं०शिल्पकारिन्] वह जो शिल्प का कार्य करता हो। कारीगर।

शिल्पकौशल
संज्ञा पुं० [सं०] शिल्पकार्य में पटुता या दक्षता।

शिल्पगृह
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ बहुत से शिल्पी मिलकर चीजें बनाते हों। कारखाना।

शिल्पगेह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिल्पगृह'।

शिल्पजीवी
संज्ञा पुं० [सं०शिल्पजीविन्] वह जो शिल्प के द्वारा जीविका निर्वाह करता हो। कारीगर। दस्तकार।

शिल्पज्ञ
वि० पुं० [सं०] शिल्प जाननेवाला। कारीगरी को जाननेवाला।

शिल्पता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिल्प का भाव या धर्म। शिल्पत्व।

शिल्पत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शिल्प का भाव या धर्म। शिल्पता।

शिल्पप्रजापति
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वकर्मा का एक नाम। विशेष—विश्वकर्मा ही समस्त शिल्पों के आविष्कर्ता और शिल्पियों के मूलपुरुष माने जाते हैं।

शिल्पलिपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्थर या ताबें आदि पर अक्षर खोदने की विद्या।

शिल्पविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथ से अच्छी अच्छी चीजें बनाने की विद्या।२. गृहनिर्माण करा। मकान आदि बनाने की विद्या।३. यांत्रिक विज्ञान (को०)।

शिल्पविधान
संज्ञा पुं० [सं०शिल्प + विधान] साहित्य में रचना या निर्माण का ढंग। रीति या पद्धति। उ०—अतएव कामायनी अपना स्वतंत्र आदर्श और स्वतंत्र शिल्पविधान रखती है।—बी० श० महा०—पृ०३४८।

शिल्पशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ बहुत से शिल्पी मिलकर तरह तरह की चीजें बनाते हों। कारखाना। शिल्पगृह।

शिल्पशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह शास्त्र जिसमें हाथ से तीजें बनाने का निरूपण हो। शिल्पविद्या।२. गृहनिर्माण का शास्त्र। वास्तु शास्त्र।

शिल्पसमाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] कारीगरी का मुकाबला।

शिल्पस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शिल्पकला में निष्णात हो। शिल्पज्ञ व्यक्ति [को०]।

शिल्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाई की दुकान [को०]।

शिल्पाजीवी
संज्ञा पुं० [सं०] शिल्पाजीविन्। दे० 'शिल्पजीवी' [को०]।

शिल्पालय
संज्ञा पुं० [सं०] शिल्पगृह। कारखाना [को०]।

शिल्पिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो शिल्प द्वारा निर्वाह करता हो। कारीगर। दस्तकार।२. शिव का एक नाम।३. नाटक का एक भेद। दे० 'शिल्पक'।४. कारीगरी। दस्तकारी (को०)।

शिल्पिक (२)
वि० हाथ संबंधी अथवा यांत्रिक [को०]।

शिल्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का तृण जो औषध रूप में काम आता है। विशेष—यह दक्षिण में अधिकता से होता है और ओषधि रूप में काम आता है। वैद्यक में यह मधुर तथा शीतल कहा गया है और इसके बीज बल तथा वीर्य बढ़ानेवाले माने गए हैं।

शिल्पिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिल्पो होने का भाव। उ०—स्वल्प, अकृत्रिम कला शिल्पिता के ध्वनिगूढ़ निदर्शन, रंगों की रुचि के स्वर करते दृष्टि सरणि को विस्मित।—अतिमा, पृ०१०३।

शिल्पिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिल्पी का स्त्रीलिंग रूप। २एक प्रकार को घास।

शिल्पिशाला
संज्ञा स्त्री० [सं] शिल्पगृह। कारखाना।

शिल्पी (१)
संज्ञा पुं० [सं०शिल्पिन्] १. शिल्पकार। कारीगर। २. राज। थवई। ३. चितेरा। चित्रकार। ४. नखी नामक गंध- द्रव्य।५. वह जो किसी भी कला में प्रवीण हो (को०)।

शिल्पी (२)
वि० १. ललितकला या यांत्रिक कला संबंधी [को०]।

शिल्ह
संज्ञा पुं० [सं०शिह्ल] दे० 'शिलारस'।

शिल्हक
संज्ञा पुं० [सं० शिह्वक] दे० 'शिलारस'।

शिवंकर
संज्ञा पुं० [सं० शिवङ्कर] १. मंगल करनेवाले, शिव। २. तलवार। ३. शिव का एक गण। ४. रोग फैलानेवाले एक असुर का नाम। ५. एक प्रकार का बालग्रह।

शिवंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शिवन्तिका] गुलदाउदी।

शिवंसा †
संज्ञा पुं० [सं० शिव + अंश] शस्य का वह अंश जो शैव साधुओं के लिये अनाज काटने के समय पृथक् कर दिया जाता है।

शिव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल। कल्याण। क्षेम। २. जल। पानी। ३. सेंधा नमक।४. श्रृगाल। सियार। गीदड़। ५. खूंटा।६. पारा। ७. गुग्गुल। ८. पुंडीरक वृक्ष। ९. मोक्ष। १०. काला धतूरा। ११. वेद। १२. देव। १३. कीलक ग्रह। शुभग्रह। १४.DDDDDDDD रुद्र। काल। १५. वसु। १६. एक प्रकार का मृग। १७. एक प्रकार की गुड़ की शराब। १८. प्लक्ष द्रीप तथा जंबू द्रीप के एक वर्ष का नाम। १९. लिंग। २०. एक प्रकार का नृत्य। २१. एक छंद का नाम। इसके प्रत्येक चरण में५, ६के विश्राम से११मात्राएँ और अंत में सगण, रगण, में से कोई एक होता है। इसकी तीसरी, छठी और नवीं मात्राएँ लघु रहती हैं। २२. परमेश्वर। भगवान्। २३. विष्कंभ आदि सत्ताइस योगों के अंतर्गत एक योग।२४. समुद्री लवण।२५. सुहागा। २६. आँवला। २७. कदंब। कदम। २८. फिटकरी। २९. सिंदूर। ३०. मिर्च। ३१. तिल का फूल। ३२. चंदन। ३३. लोहा। ३४. बालू। ३५. नीलकंठ पक्षी। ३६. कौवा। ३७. मौलसरी का पेड़। ३८. हिंदुओं के प्रसिद्ध देवता जो सृष्टि का संहार करनेवाले और पौराणिक त्रिमूर्ति के अंतिम देवता कहे गए हैं। विशेष—वैदिक काल में यही रूद्र के रूप में पूजे जाते थे। पर पौराणिक काल में ये शंकर, महादेव और शिव आदि नामों से प्रसिद्ध हुए। पुराणानुसार इनका रूप इस प्रकार है,— इनके सिर पर गंगा, माथे पर चंद्रमा तथा एक और तीसरा नेत्र, गले मे साँप तथा नरमुंड की माला, सारे शरीर में भस्म, व्याघ्रचर्म ओढ़े हुए और बाएँ अंग में अपनी स्त्री पार्वती को लिए हुए। इनके पुत्र गणेश तथा कार्तिकेय, गण भूत औरप्रेत, प्रधान अस्त्र त्रिशूल और वाहन बैल है जो नंदी कहलाता है। इनके घनुष का नाम पिनाक है जिसे धारण करने के कारण ये पिनाकी कहे जाते हैं। इनके पास पाशुपत नामक एक प्रसिद्ध अस्त्र था जो उन्होने अर्जुन को उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर दे दिया था। पुराणों में इनके संबंध में बहुत सी कथाएँ हैं। ये कामदेव का दहन करनेवाले और दक्ष का यज्ञ नष्ट करनेवाले माने जाते हैं। कहते हैं, समुद्रमंथन के समय जो विष निकला था, वह इन्होंने पान किया था। वह विष इन्होंने अपने गले में ही रखा और नीचे पेट में नहीं उतारा, इसलिये इनका गला नीला हो गया और ये नीलकंठ कहलाने लगे। परशुराम ने अस्त्रविद्या की शिक्षा इन्हीं से पाई थी। संगीत और नृत्य के भी ये प्रधान आचार्य और परम तपस्वी तथा योगी माने जाते हैं। इनके नाम से एक पुराण भी है जो शिवपुराण कहलाता है। इनके उपासक 'शैव' कहलाते हैं। इनका निवासस्थान कैलास माना जाता है और लोक में इनके लिंग का पूजन होता है। पर्या०—शंभु। महादेव। ईश्वर। ईश। खंडपरशु। ऊर्ध्वरेता। ईशान। पंचानन। शिपिविष्ट। अर्धनारीश। भर्ग। विश्वनाथ। गिरीश। मृत्युंजय। त्रिलोचन। हर। भैरव। उमापति। भूतनाथ। काशीनाथ। नंदीश्वर। रुद्र। महाकाल। वासुदेव। जटाधर। पशुपति। पुरुष। कृत्तिवासा। पिनाकी। धूर्जटि। नीललोहित। उग्र। कपर्दी। श्रीकंठ। शितिकंठ। शूली।

शिव (२)
वि० १. कल्याण करनेवाला। मंगल करनेवाला। २. सुखी। प्रसन्न (को०)।

शिवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँटा। कील। २. खूँटा। बड़ी मेख। ३. वह खंभा जिससे पशु अपना शरीर रगड़ता है। ४. शिवमूर्ति (को०)।

शिवकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के चीबीस जिनों में से एक जिन का नाम।

शिवकर (२)
वि० मंगलकारी। कल्याणकारी [को०]।

शिवकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्तिकेय की एक मातृका का नाम।

शिवकांची
संज्ञा स्त्री० [सं०शिवकाञ्चो] दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध नगर। विशेष—कृष्ण और पोलर नदी के बीच में स्थित कारोमंडल के एक भाग की राजधानी कांची थी। इसके दो हिस्से हैं। एक विष्णुकांवी और दूसरा शिवकांची। शिवकांची उत्तर की ओर है। दक्षिण भारत के शैवों का यह एक प्रधान तीर्थ और सप्तपुरियों में से एक है।

शिवकांता
संज्ञा स्त्री० [सं०शिवकान्ता] शिव की पत्नी, दुर्गा।

शिवकारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम।

शिवकारी
वि० [सं० शिवकारिन्] मंगल करनेवाला। कल्याण करनेवाला।

शिवकिंकर
संज्ञा पुं० [सं० शिवकिङ्कर] शिव का गण या दूत।

शिवकीर्त्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो शिव का कीर्तन करता हो। शैव। २. विष्णु। ३. शिव के द्वारपाल। भृंगरीट। भृंगी। ४. शिव की स्तुति (को०)।

शिवकेसर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गुल्म। बकुल।

शिवक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास।

शिवगंग
संज्ञा पुं० [सं०शिव + गङ्गा] मैसूर राज्य के एक पर्वत का नाम।

शिवगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं०शिवगङ्गा] वह नदी या जलाशय जो शिव जी के मंदिर के समीप हो।

शिवगति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार एक अर्हत् का नाम।

शिवगति (२)
वि० सुखी। प्रसन्न। समृद्ध [को०]।

शिवगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास पर्वत।

शिवगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] शंकराचार्य के पिता का नाम जो विद्याधि- राज के पुत्र थे।

शिवघर्मज
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल ग्रह। विशेष—मत्स्यपुराण के अनुसार दक्ष के यज्ञ को विध्वंस करने के लिये क्रुद्ध शिव के ललाट से गिरे हुए पसीने की बूँद से मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई है।

शिवततुर्दशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शिवरात्रि'।

शिवजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिवलिंगी लता। पचगुरिया।

शिवज्ञ
वि० [सं०] १. जो शिव का भक्त हो। शैव। २. शुभ को जाननेवाला [को०]।

शिवज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिवभक्त महिला।

शिवज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] शुभाशुभ-काल-बोधक शास्त्र [को०]।

शिवता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शिव का भाव या धर्म। उ०—शिव शिवता इनहीं सों लही।—सूर (शब्द०)। २. मनुष्य के शिव में लीन होने की अवस्था। मोक्ष।

शिवताति (१)
संज्ञा स्त्री० शुभता। शुभत्व [को०]।

शिवताति (२)
संज्ञा पुं० [सं०] संगौत में एक ताल का नाम जिसे रुद्रताल भी कहते हैं [को०]।

शिवतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] काशी नामक स्थान जो शिव का प्रधान तीर्थ माना जाता है।

शिवतेज
संज्ञा पुं० [सं० शिवतेजस्] पारा। पारद।

शिवदत्त
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का चक्र। सुदर्शन चक्र।

शिवदारु
संज्ञा पुं० [सं०] देवदार वृक्ष।

शिवदिक्, शिवदिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ईशान कोण जिसके स्वामी शिव माने गए हैं।

शिवदूतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।

शिवदूती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. आठ योगिनियों में से अंतिम योगिनी का नाम।

शिवदैव
संज्ञा पुं० [सं०] आर्द्रा नक्षत्र जिसके अधिष्ठाता देवता शिव माने जाते हैं।

शिवद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] बिल्व वृक्ष। बेल का पेड़।

शिवद्विष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] केतकी। केवड़ा। विशेष—केतकी का फूल शिवजी पर चढ़ाने का निषेध है, इसी से इसका यह नाम पड़ा है।

शिवधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारद। पारा। २. गोदंती नामक मणि।

शिवनंदन
संज्ञा पुं० [सं० शिवनन्दन] शिव जी के पुत्र गणेश जी। उ०—विघ्नहरण गणनाथ शिवनंदन कंदन कुमति। तुव पद नाउँ माथ, करहु पूर संतन सुपश।—रघुराज (शब्द०)।

शिवनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

शिवनाभि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शिवलिंग जो और सब शिवलिंगों में श्रेष्ठ माना जाता है।

शिवनारायणी
संज्ञा पुं० [सं०] हिंदुओं का एक संप्रदाय।

शिवनिर्माल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पदार्थ जो शिव जी को अर्पित किया गया हो। शिव पर चढ़ा हुआ नैवेद्य आदि। विशेष—पुराणों में ऐसी चीजों के ग्रहण करने का निषिध है। २. वह चीज जो किसी प्रकार ग्रहण न की जा सकती हो। परम त्याज्य वस्तु। जैसे,—हमारे लिये तुम्हारी यह संपत्ति शिवनिर्माल्य है।

शिवनृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] गतिभेद के अनुसार एक प्रकार का नृत्य।

शिवपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल।

शिवपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारा। पारद। २. शिव के पुत्र, कार्तिकेय और गणेश।

शिवपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैनियों का स्वर्ग जहाँ वे जैनसिद्धांता- नुसार मुक्ति का सुख भोगते है। मोक्षशिला। २. शिवपुरी। काशी (को०)।

शिवपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] अठारह पुराणों में से एक पुराण जो शैवपुराण भी कहा जाता है। विशेष—यह पुराण शिवप्रोक्त माना जाता है और इसमें शिव का माहात्म्य वर्णित है। अन्य पुराणों के अनुसार इसमें बारह संहिताएँ और२०,०००श्लोक हैं। पर आजकल जो शिवपुराण मिलता है उसमें केवल चार संहिताएँ और ७,०००श्लोक पाए जाते हैं। इसीलिये कुछ लोगों का मत है कि शिवपुराण और वायुपुराण दोनों एक ही हैं। विष्णु, पद्म, मार्कंडेय, कूर्म, वराह, लिंग, ब्रह्मवैवर्त, भागवत और स्कंदपुराण में तो शिवपुराण का नाम है पर मत्स्य, नारद और देवीभागवत में शिवपुराण के स्थान पर वायु- पुराण का नाम मिलता है। कहते हैं, शैवधर्म का प्रकाश करने के लिये शिव जी ने यह पुराण रचा था। इसमें निम्नलिखित बारह संहिताएँ हैं—विद्येश्वर, रौद्र, विनायक, भौम, मातृका, रुद्रैकादश, कैलास, शतरुद्र, कोटिरुद्र, सहस्रकोटिरुद्र, वायवीय और धर्मसंहिता। इसके रचयिता भगवान् देदव्यास जी कहे जाते हैं। पर आजकल जो शिवपुराण मिलना है उसमें केवल ज्ञान, विद्येंशर, कैलास, वायवीय, और धर्म आदि संहिता ही पाई जाती हैं। किसी किसी शिवपुराण में सनत्कुमारसंहिता और गया माहात्म्य भी मिलता है।

शिवपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिव जी की पुरी, वाराणसी। काशी।

शिवपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] आका का वृक्ष। मदार।

शिवप्रिय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुद्राक्ष। २. अगस्त। वकवृक्ष। ३. धतूरा। ४. भाँग। ५. स्फटिक। बिल्लौर।

शिवप्रिय (२)
वि० जो शिव को प्रिय हो।

शिवप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।

शिवप्रीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेल का वृक्ष। बिल्व।

शिवबीज
संज्ञा पुं० [सं०] पारा जो शिव जी का वीर्य माना जाता है।

शिवब्राह्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संखाहुली। शंखपुष्पी।

शिवभक्त
संज्ञा पु० [सं०] वह जो शिव का उपासक हो। शैव।

शिवभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिवोपासना। शिवार्चन या पूजन आदि के प्रति भर्किभावना।

शिवभारत
संज्ञा पुं० [सं०] शिवा जी छत्रपति (१६३०-१६८०) पर कवि परमानंद लिखित एक ऐतिहासिक काव्य।

शिवमल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन वृक्ष।

शिवमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वसु या वसुक नामक पुष्पवृक्ष। २. मदार। आक। ३. अगस्त वृक्ष। ४. शिवलिंगी। ५. श्रीवल्ली नामक कँटीला पेड़।

शिवमल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाशुपति। मौलसिरी। २. मदार। आक। ३. एक नामक वृक्ष। ४. लिंगिनी नाम की लता।

शिवमात्र
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्वों के अनुसार एक बहुत बड़ी संख्या का नाम।

शिवमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] कल्याण मार्ग। मोक्ष। मुक्ति [को०]।

शिवमौलिस्त्रुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा का एक नाम। उ०—वह विष्णुपदी शिवमौलिस्त्रुता वह भीष्मप्रसू और जहूनुसुता।—ग्राम्या, पृ०४२।

शिवरस
संज्ञा पुं० [सं०] उबले हुए चावल का पानी जो तीन दिन का हो [को०]।

शिवराई पु
संज्ञा पुं० [सं०शिव + हिं०राई] महादेव। शिव। उ०—राजयोग कीना शिवराई। गौरा संग अनंग न जाई। सुंदर ग्रं०, भा०१, पृ०१०३।

शिवराजी
संज्ञा पुं० [हिं० शिव + राज] एक प्रकार का बहुत बड़ा कबूतर।

शिवरात्र
संज्ञा स्त्री [सं० शिव + रात्रि] दे० 'शिवरात्रि'।

शिवरात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] फाल्गुन बदी चर्तुदशी। शिवचतुर्दशी। विशेष—इस दिन लोग शिव जी का पुजन करते और उनके उद्देश्य से व्रत रखते हैं।

शिवरानी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शिव + हिं०रानी] शिव जी की पत्नी, पार्वती। उ०—शिवरानी यों रति समुझाई। तब तनु धरि शंबर घर आई।—लल्लू (शब्द०)।

शिवलिंग
संज्ञा पुं० [सं० शिवलिङ्ग] महादेव का लिंग या पिंडी जिसका पूजन होता है।

शिवलिंगी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लिङ्गिनी] एक प्रकार की प्रसिद्ध लता जौ चौमासे में जंगलों और झाड़ियों में बहुत अधिकता से मिलती है। पचगुरिया। बिजगुरिया। विशेष—इसकी डंडियाँ बहुत पतली और पत्ते करेले के पत्तों के समान ३ से ५ इंच के घेरे में गोलाकार, गहरे, कटे किनारेवाले और ५-७ भागों में विभक्त रहते हैं। पत्रदंड की जड़ में ५-६ फूलों के छोटे छोटे गुच्छे लगते हैं। ये फूल पीले होते हैं। इसका व्यवहार ओषधि के रूप में होता है। वैद्यक के अनुसार यह चरपरी, गरम, दुर्गधयुक्त, पौष्टिक, शोधक, गर्भ- धारण करनेवाली और कुष्ट आदि का नाश करनेवालो होती है। इसके फलने पर इसका सर्वांग ओषाधि के निमित्त सग्रह किया जाता है। पर्या०—लिंगिनी। ईश्वरलिंगी। चित्रफला। बहुपत्रा। शिव वल्लिका।

शिवलिंगी
वि० [सं०] शैव। शिवलिंग की पूजार्चा करनेवाला।

शिवलोक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव जी का लोक, कैलास। उ०—सोने मंदिर सँवराई और चंदन सब लीप। दिया जो मन शिवलोक महं उपना सिंहलद्वीप।—जायसी (शब्द०)।

शिववल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] आम्र वृक्ष [को०]।

शिववल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा।२. सेवती। शतपत्री। ३. श्वेत गुलाब (को०)।

शिववल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शिवलिंगो'।

शिववल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० ' शिवलिंगी'।

शिववाहन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का वाहन, बैल। नंदी।

शिववीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] पारा जो शिव जी का वीर्य माना जाता है।

शिववृषभ
सज्ञा पुं० [सं०] शिव जी की सवारी का बैल। उ०— बिराजेगो जो तू श्रमहरन ताकी शिखर पै। दिपेगो ज्यों गोरे शिववृषभ खोदी कलिल है।—लक्ष्मणासिंह (शब्द०)।

शिवशंकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०शिवशङ्करा] देवी की एक मूर्ति। का नाम।

शिवशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वक वृक्ष। अगस्त वृक्ष। २. चंद्रमा (को०)। ३. धतुरा। ४. शिव का मस्तक। ५. सफेद मदार।

शिवशाल
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास पर्वत।

शिवसंप्रदाय
संज्ञा पुं० [सं० शिव + सभ्प्रदाय] दे० 'शैव'। उ०— केवल दो सप्रदाय इस संसार में हैं। एक विष्णुसंप्रदाय तथा दूसरा शिवसंप्रदाय।—कबीर मं०, पृ०५१।

शिवसायुज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. शैवों के अनुसार वह मोक्ष जिसमें मनुष्य शिव में लीन हो जाता है। २. मृत्यु। मौत।

शिवसुंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं०शिवसुन्दरी] दुर्गा।

शिवांक
संज्ञा पुं० [सं०शिवाङ्क] अगस्त का वृक्ष। वकवृक्ष।

शिवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. पार्वती। गिरिजा। उ०— जेहि रस शिव सनकादि मगन भए शंभु रहत दिन साधा। सो रस दिए सूर प्रभु तोको शिवा न लहति अराधा।—सूर। (शब्द०)। ३. मुक्ति। मोक्ष। ४. श्रृगाली। सियारिन। उ०— शिवा यज्ञशाला में बोली। ढहे भवन धरणी जब डोली।— सबल (शब्द०)। ५. हड़। हर्रे। हरीतकी। ६. सोआ नामक साग। ७. शमी। सफेद कीकर। ८. आँवला। ९. हलदी। १०. दूब। ११. गोरोचन। १२. श्यामा नाम की लता। १३. एक बुद्धशक्ति का नाम। १४. धौ। धव। १५. अनंत- मूल। १६. सौभाग्यवती स्त्री। भाग्यशालिनी स्त्री (को०)। १६. पीत वर्णा का एक भेद। एक प्रकार का पीला रंग (को०)।

शिवाकु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

शिवाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] रुद्राक्ष।

शिवाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] बल्ली दूब।

शिवाघृत
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का तैयार किया हुआ घृत। विशेष—इसको प्रस्तुत करने के लिये गोदड़ का मांस, बकरी का दूध, मुलेठी, मजीठ, कुड़ा, लाल चंदन, पदम काठ, हर्रे, बहेड़ा, आँवला, विडंग, देवदार, दंतीमूल, श्यामा लता, काकोली, हलदी, दारु हलदी, अनंतमूल, इलायची, आदि पदार्थीं को घो में डालकर घृतपाक विधि से पकाते हैं। यह घृत पागलपन के लिये बहुत उपकारी माना जाता है। इसके अतरिक्त वात, अपस्मार, मेह आदि में भी इसका व्यवहार गोता है।

शिवाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंशपत्री।

शिवाजी
संज्ञा पुं० [हिं०] महाराष्ट्र राज्य के संस्थापक तथा भारत को विदेशी दासता से मुक्त करने के लिये आजीवन मुगल साम्राज्य से लड़नेवाले एक महान् योद्धा। 'छत्रपति' इनकी उपाधि थी। इसके पिता का नाम शाहजी भोसला और माता का नाम जीजा बाई था। इनका जन्म सन्१६२७में और मृत्यु सन्१६८०ई० में हुई थी।

शिवाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वंशपत्री नामक तृण। २. सफेद पुनर्नवा। ३. लालपुनर्नवा। गदहपूरना। ४. हिंगुपत्री। ५. कठूमर।

शिवात्मक
संज्ञा पुं० [सं०] सेंधा नमक।

शिवादेशक
देश० पुं० [सं०] १. वह जो शुम समाचार लाए। २. भविष्यवक्ता [को०]।

शिवाधूत
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शतद्रु'।

शिवानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. जयंती वृक्ष।

शिवापर
वि० [सं०] निर्यय। निष्ठुर [को०]।

शिवापीड़
संज्ञा पुं० [सं० शिवापीड़] अगस्त या वक नामक बृक्ष।

शिवाप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिवा के पति, शिव। २. बकरा जिसके बलिदान से दूर्गा का प्रसन्न होना माना जाता है।

शिवाफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] शमी वृक्ष। सफेद काकर।

शिवाबलि
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिको के अनुसार वह नैवेद्य जो रात के समय देवी के सामन रखा जाता है और जिसमें मांस की प्रधानता होती है।

शिवायतन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिवालय'।

शिवाराति
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृत्ता जो गीरड़ (शिवा) का शत्रु होता है। २. शिव का विरोधी या शत्रु, कामदेव (को०)। ३. शिवद्रोही।

शिवारुत
संज्ञा पुं० [सं०] गीदड़ के बोलने का शब्द, जिसे यात्रा आदि के समय शुभाशुभ शकुन का विचार किया जाता है।

शिवालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मंदिर जिसमें शिव जी की मूर्ति या लिंग स्थापित हो। शिव जी का मंदिर। २. कोई देवमंदिर। (क्क०)। ३. लाल तुलसी। ४. शमशान। मसान। मरघट।

शिवाला
संज्ञा पुं० [सं० शिवालय] १. शिव जी का मंदिर। शिवालय। २. देवमंदिर (क्व०)। ३. कोयला जलाने की भट्ठी। (बाजारू)।

शिवालु
संज्ञा पुं० [सं०] श्रृगाल। सियार। गीदड़।

शिवा विद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रृगाल की बोली से शकुन विचारने की विद्या [को०]।

शिवास्मृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जयंती वृक्ष।

शिवाह्लाद
पुं० [सं०] अगस्त या वक नामक वृक्ष।

शिवाह्नय
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारद। पारा। २. बरगद। बट वृक्ष। ३. मदार। आक।

शिवाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुद्रजटा। शंकरजटा।

शिवि
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंसक पशु। शिकारी जानवर। २. भोज- पत्र। ३. राजा उशीनर के पुत्र तथा ययाति के दौहित्र एक राजा का नाम जो अपनी दयालुता और दानशोलता के लिये प्रसिद्ध हैं। उ०—अब बरनौ शिवि भूप की कथा परम रमणाय। शरणागत पालन कियो दै निज तनु कमनोय।—रघुराज (शब्द०)। विशेष—कहते हैं, एक बार देवताओं ने इनकी परीक्षा लेने का विचार किया। अग्नि ने कबूतर का रूप धारण किया और इंद्र ने बाज पक्षी का। कबूतर उड़ता उड़ता राजा शिवि की गोद में जा छिपा और कहने लगा कि यह बाज मेरे प्राण लेना चाहता है। आप इससे मेरा रक्षा करें। इतने मै बाज भी वहाँ आ पहुँचा ओर कहने लगा कि यह कबूतर मेरा भक्ष्य है। आप यह मुझे दे दीजिए। शिवि न और कुछ भोजन देकर बाज को संतुष्ट करना चाहा, पर बाज किसी प्रकार नहीं मानता था। अंत में राजा ने अफ्नी जाँघ से मांस काटकर और कबूतर के बराबर तौलकर बाज को देना चाहा। पर ज्यों ज्यों राजा अपने शरीर से माँस काटकर तराजु पर रखते जाते थे, त्यों त्यों, कबूतर भारी होता जाता था। अंत में राजा विवश होकर स्वयं तराजू के पलड़े पर बैठ गए। इसपर बाज ने संतुष्ट होकर कबूतर को भी छोड़ दिया और राजा का मांस भी नहीं लिया। तब से ये बहुत दानी और धर्मात्मा प्रसिद्ध हैं। ४. पुराकाल में आर्यों का एक प्रधान वर्ग या समूह। उ०— प्रधान आर्य समूहों थे—शिवि, मत्स्य, वैतहव्य और विदर्भ आदि।—हिंदु० सभ्यता, पृ०७७।

शिविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पालकी या डोली नाम की सवारी। उ०—देखि पुष्ट पकरयो तिनकाहीं। ल्याय लगायो शिविका माहीं।—रघुराज (शब्द०)। २. शव को श्मसान ले जाने की अरथी (को०)। ३. कुबेर का अस्त्र (को०)। ४. चबू- तरा (को०)।

शिविकागर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] गृह का वह माग जहां पालकियाँ आदि वाहन ठहरें। डयोढ़ी का छायादार बरामदा।—हिंदु०, सभ्यता, पृ०२८८।

शिविपिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव।

शिविर
संज्ञा पुं० [सं०] १. डेरा। खेमा। निवेश। २. फौज के ठहरने की जगह। पड़ाव। छावनी। ३. किला। कोट। उ०—राम शिविर अँगरेज नृप तहँ आए जिहिं वार। तब हैंहू हाजिर रख्यो आदर सहित उदार।—मतिराम (शब्द०)। ४. चरक के अनुसार एक प्रकार का तृण धान्य।

शिविरगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।

शिवीरथ
संज्ञा पुं० [सं०] पालकी। शिविका।

शिवेतर
वि० [सं०] अमंगल। अशुभ। दुर्भाग्य [को०]।

शिवेश
संज्ञा पुं० [सं०] श्रृगाल। गीदड़। सियार।

शिवेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगस्त का वृक्ष। बक वृक्ष। २. बेल। श्रीफल।

शिवेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूब। दूर्वा।

शिवोद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

शिवोपनिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।

शिशन (१)
संज्ञा पुं० [अं० सेशन] दे० 'सेशन'।

शिशन (२)
संज्ञा पुं० [सं० शिश्न] दे० 'शिश्न'।

शिशिर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋतु जो माघ और फाल्गुन मास में होती है। उ०—गोपी गाइ ग्वाल गोसुत वै मलिन वदन कृस गात। परम दीन जनु शिशिर हिमी हत अंबुज गत बिन पात।—सूर (शब्द०)। २. जाड़ा शीतकाल। ३. हिम।४. विष्णु। ५. एक प्रकार का अस्त्र। ६. सूर्य का एक नाम। ७. लाल चंदन। ८. प्लक्ष द्वीप का एक वर्ष (को०)।

शिशिर (२)
वि० शीलतल। ठंडा। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग यौगिक शब्दों के बनाने में उनके आरंभ में होता है। जैसे—शिशिरकर। २. शिशर संबंधी। शिशिर का (को०)। ३. जो ठंढक पहुँचावे। गर्मी हटाने या दूर करनेवाला (को०)।

शिशिरकर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा, जिसकी किरणों शीतल होती हैं।

शिशिरकिरण
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।

शिशिरकाल
संज्ञा पुं० [सं०] जाड़ा या शिशिर ऋतु [को०]।

शिशिरगु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शिशिरघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि। आग [को०]।

शिशिरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिशिर का भाव या धर्म।

शिशिरदीधिति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।

शिशिरधौत
वि० [सं० शिशिर + धौत] शिशिर से धुला हुआ। ओस से आर्द्र। उ०—सजल शिशिरधौत पुष्प ज्यों प्रात में देखता है एकटक किरण कुमारी को।—अपरा०, पृ०१४४।

शिशिरपीड़ित
वि० [सं० शिशिर + पोडित] ठंढ़ से त्रस्त। जाड़े से आक्रांत। उ०—चिर शून्य शिशिर पीड़ित जग में निज अमर स्वरों से भरो प्राण।—युगांत, पृ०१०।

शिशिरमथित
वि० [सं०] दे० 'शिशिरपीड़ित'।

शिशिरमयूख
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शिशिरयामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० शिशिर + यामिनी] जाड़े की रात। उ०—विरह परी सी खड़ी कामिनी, व्यर्थ वह गई शिशिरयामिनी।—गीतिका, पृ०१०।

शिशिरर्तु, शिशिरसमय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिशिरकाल'।

शिशिरसमीर
संज्ञा पुं० [सं० शशिर + समीर] शिशिर या जाड़े की हवा। उ०—बह चली अब अलि शिशिरसमीर।— गीतिका, पृ०१०।

शिशिरांत
संज्ञा पुं० [सं० शिशिरान्त] शिशिर ऋतु के अंत में होनेवाली ऋतु, वसंत। उ०—शिशिरांत की लक्ष्मी का दिया हुआ कलियों का गुच्छा पलास में शोभायमान हुआ।—लक्ष्मण सिंह (शब्द०)।

शिशिरांशु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शिशिराक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम जो सुमेरु के पश्चिम ओर बतलाया गया है।

शिशिरात्यय
पुं० [सं०] शिशिरांत। वसंत [को०]।

शिशिरित
वि० [सं०] शीतल किया हुआ।

शिशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा बच्चा, विशेषतः आठ वर्ष तक की अवस्था का बच्चा। छोटा लड़का। उ०—माथे मुकुट सुभग पीतांबर उर सोभित भृगु रेखा हो। शंख चक्र भुज चारि विरा- जत अति प्रताप शिशु भेषा हो।—सूर (शब्द०)। २. पशुओं आदि का बच्चा। जैसे, हरिणशिशु। ३. कार्तिकेय का एक नाम। ४. बालक जो ८ से १६ वर्ष तक का हो (को०)। ५. शिष्य। छात्र (को०)। ६. करभ जो ६. साल का हो (को०)।

शिशुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिशुमार या सूँस नामक जलजंतु। २. शिशु। बच्चा। बालक। ३. एक प्रकार का वृक्ष। ४. सूँस के आकार का एक मत्स्य (को०)। ५. पशुशावक (को०)। ६. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का साँप।

शिशुकृच्छ्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चांद्रायण व्रत जिसे 'शिशु चांद्रायण' या 'स्वल्प चांद्रायण' भी कहते हैं।

शिशुक्रंद, शिशुक्रंदन
संज्ञा पुं० [सं० शिशुक्रन्द, शिशुक्रन्दन] बच्चे का रोना। शिशु का रुदन।

शिशुक्रंदीय
संज्ञा पुं० [सं०] बालकों के रोग और उनकी चिकित्सा संबंधी एक प्रसिद्ध आयुर्वेदीय ग्रंथ।

शिशुगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० शिशुगन्धा] मल्लिका। मोतिया।

शिशुचांद्रायण
संज्ञा पुं० [सं० शिशुचान्द्रायण] एक प्रकार का चांद्रायण व्रत जिसे स्वल्प चांद्रायण या कृच्छु चांद्रायण भी कहते हैं। इस व्रत में प्रातःकाल चार ग्रास और सायंकाल चार ग्रास भोजन करके निर्वाह किया जाता है।

शिशुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिशु का भाव या धर्म। बचपन। शिशुत्व।

शिशुताई पु
संज्ञा पुं० [सं० शिशुता + हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'शिशुता'। उ०—यशुपति भाग सुहागिनी हरि को सुत जानै। मुख मुख जोरि बतावई शिशुताई ठानै।—सूर (शब्द०)।

शिशुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शिशु का भाव या धर्म। शिशुता। शैशव।

शिशुनाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राक्षस का नाम। २. भागवत के अनुसार एक राजा का नाम। ३. दे० 'शैशुनाग'। ४. करभ। हाथी का बच्चा (को०)। ५. संपोला। साँप का बच्चा (को०)।

शिशुनामा
संज्ञा पुं० [सं० शिशुनामन्] ऊँट।

शिशुपन
संज्ञा पुं० [सं० शिशु + हिं०पन]दे० 'शिशुता'।

शिशुपाल
संज्ञा पुं० [सं०] चेदि देश का एक प्रसिद्ध राजा जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था। उ०—देश देश के नृपति जुरे सब भीष्म नृपति के धाम। रुक्म कह्यो शिशुपालहिं दैहौं नहीं कृष्ण सों काम।—सूर (शब्द०)। विशेष—महाभारत में लिखा है कि दमघोष के घर एक पुत्र उत्पन्न हुआ था जिसके तीन आँखें और चार हाथ थे और जो जनमते ही गधे की तरह रेंकने लगा था। इससे डरकर माता- पिता ने इसका त्याग करना चाहा था; पर इतने में आकाश- वाणी हुई कि यह शिशु बहुत ही बलवान् ओर वीर होगा, तुम लोग इस शिशु का पालन करो। (इसीलिये इसका नाम शिशुपाल रखा गया था)। इसका नाश करनेवाला भी पृथ्वी पर उत्पन्न हो चुका है। आकाशवाणी सुनकर शिशुपाल की माता ने आकाश की ओर देखकर पूछा कि इसका नाश कौन करेगा ? फिर आकाशवाणी हुई कि जिस आदमी की गोद में जाते ही इसकी तीसरी आँख और अतिरिक्त दोनों बाँहें जातीरहेंगी, वही इसका प्राण लेगा। दमघोष ने बहुत से राजाओं आदि को बुलाकर उनकी गोद में अपना पुत्र दिया, पर उसकी तीसरी आँख और दोनों अतिरिक्त भुजाएँ ज्यों की त्यों बनी रहीं। अंत में जब श्रीकृष्ण ने उसे गोद में लिया, तब उसके दो हाथ भी गिर गए और तीसरा नेत्र भी अद्दश्य हो गया। इसपर शिशुपाल की माता ने श्रीकृष्ण से कहा कि तुम इसके सब अपराध क्षमा करना। श्रीकृष्ण ने प्रतिज्ञा की कि मैं इसके सौ अपराध तक क्षमा करूँगा। बड़ा होने पर शिशुपाल बहुत पराक्रमी हुआ और अकारण ही श्रीकृष्ण से बहुत अधिक द्वेष रखने लगा। जब युधिष्ठिर ने अपने राजसूय यज्ञ के समय लोगों से पूछा कि यज्ञ का अर्ध्य किसे दिया जाय, और भीष्म ने उत्तर दिया—श्रीकृष्ण को', तब शिशुपाल बहुत बिगड़ा और सब राजाओं को संबोधन करके श्रीकृष्ण की निंदा करने और उन्हें कुवाच्य कहने लगा। श्रीकृष्ण उसके कुवाच्य गिनते जाते थे। जबतक उसने सौ गालियां दीं, तबतक तो श्रीकृष्ण बिलकुल चुप थे, क्योंकि वे उसकी माता के सामने उसके सौ अपराध क्षमा करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। पर जब वह इतने पर भी शांत न हुआ और उसने एक और कुवाच्य कहा, तब श्रीकृष्ण ने तुरंत उसका सिर काट डाला। विष्णुपुराण के अनुसार यह पूर्व जन्म में हिरणयकशिपु था, दूसरे जन्म में यह रावण हुआ और तीसरे जन्म में यह शिशुपाल था। सस्कृत के प्रसिद्ध महाकाव्य माघ कवि कृत शिशुपालवध में भी उसके तीन जन्म भी घटना संक्षेप में उल्लिखित है।

शिशुपालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दमघोष का पुत्र शिशुपाल। २. केलि कदंब। नीम।

शिशुपालनिषुदन
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।

शिशुपालवध
संज्ञा पुं० [सं०] महाकवि माघ कृत एक प्राचीन संस्कृत महाकाव्य जिसमें श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल के मारे जाने की कथा वर्णित है। उ०—आनंद की साधनावस्था या प्रयत्नपक्ष को लेकर चलनेवाला काव्यों के उदाहरण हैं—रामायण, महाभारत, रघुवंश और शिशुपालवध (महाकाव्य)।— रस०, पृ०५८।

शिशुपालहा
संज्ञा पुं० [सं० शिशुपालहन्] शिशुपाल को मारनेवाले, श्राकृष्ण।

शिशुप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. राब। शीरा। २. कुमुदिनी। कोइं [को०]।

शिशुमार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूँस नामक जलजंतु। २. मगर की आकृतिवाला, नक्षत्रमंडल। ३. दे० 'शिशुमार चक्र'। उ०—(क) मेरो रूप चक्र शिशुमारा। जामें सकल बँध्यो संसारा।—रघुराज (शब्द०)। (ख) बहुत काल में सुरति करि, जब डोल्यो शिशुमार। तब संध्या भै भानु किय, अस्ताचल संचार। रघुराज (शब्द०)। ४. कृष्ण। ५. विष्णु।

शिशुमार चक्र
संज्ञा पुं० [सं०] सब ग्रहों सहित सूर्य। सौर जगत्। उ०—अवध अनंद निहारि मगन रुके भानु गति भूली। रुक्यौ चक्र शिशुमार वार तेहि राम जन्म सुख फूली। —रघुराज (शब्द०)।

शिशुमारमुखी
संज्ञा स्त्री [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।

शिशुमारशिर
संज्ञा पुं० [सं०शिशुमारशिरस्] ईशान कोण। पूर्वोत्तर दिक् [को०]।

शिशुल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिशूल' [को०]।

शिशुवाहक
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली बकरा।

शिशुवाह्यक
संज्ञा पुं० [सं०] शिशुवाहक। जंगली बकरा।

शिशुशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गृह जहाँ धाई बच्चे की देखरेख करती हो।

शिशुहत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिशु की हत्या या वध।

शिशूल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिशु'।

शिश्नंभर
वि० [सं० शिश्नम्भर] कामी। लंपट। छिनरा [को०]।

शिरन
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुष की उपस्थेंद्रिय। लिंग।

शिश्नदेव
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शिश्न को हो देवता माने। लंपट वा कामी व्यक्ति [को०]।

शिश्नोदरपरायण
वे० [सं०] जो पेट और शिश्न की बुभुक्षा- शांति की ही सब कुछ मानता हो। कामी और पेटू [को०]।

शिश्नोदरवाद
संज्ञा पुं० [सं० शिश्नोदर + वाद] पेट की भूख और कामोत्तेजनापरक विचारधारा। फ्रायड और मार्क्स की विचारधारा।

शिष पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० शिष्य] दे० 'शिष्य'। उ०—(क) रामानुज के शिष हरि भयऊ। यह यश त्रिभुवन महँ भरि गयऊ।—रघुराज (शब्द०)। (ख) तुम गुरु सतगुरु ब्रह्म समाना। मैं शिष आँहु महा अज्ञाना। —कबीर सा०, पृ०१०१४।

शिष पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिक्षा] सीख। शिक्षा। सिखावन। उ०—कहेउ सुभग शिष घर्म कुमारा। कीन्ह सबन मिलि अंगीकारा—सबलसिंह (शब्द०)।

शिष (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखाण्ड या शिखा] बाल जो मुंडन के समय सिर पर छोड़े जाते हैं। उ०—कटि पट पीत पिछौरी बाँघे कागपच्छ शिष शीश। शर क्रीड़ा दिन देखत आवत नारद सुर तैतीस। —सूर (शब्द०)।

शिषर ‡
संज्ञा पुं० [सं० शिखर] दे० 'शिखर'। उ०—काल गिरिक शिषर अइसन, द्रोणपर्व्व उक्त घटोत्कच अइसन। —वर्ण०, पृ०१८।

शिषरी पु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ओंगा। अपामार्ग। चिचड़ा।

शिषरी पु (२)
वि० [सं० शिखर + ई (प्रत्य०)] शिखर से युक्त। शिखरवाला। उ०—कोपि शिषरी गदा तब लव हन्यो ताके गात मैं। मोहि कपिपति गिरचो श्रीहत यथा कुमुदिन प्रात मै।—श्याम- बिहारी (शब्द०)।

शिषा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखा] दे० 'शिखा'। उ०—स्तुति वेद शिषा प्रभु केरी। एकदाश मन लेहु निबेरी। —रघुराज (शब्द०)।

शिषि पु
संज्ञा पुं० [सं० शिष्य] दे० 'शिष्य'। उ०—(क) जहँ शिषि तहँ ते गुरु पर्यंता। प्रगटे पद्मिनि पत्र अनंता। —रघुराज (शब्द०)। (ख) अरु बिचारी शिषि करौं न तोही। बाट न रोकु जान दे मोही। —विश्राम (शब्द०)।

शिषी पु
संज्ञा पुं० [सं० शिखिन्] दे० 'शिखी'। उ०—यह कौन आवत है सखो मलपंक अंकित अंग। शिर केश लुंचिन नग्न हाथ शिषी शिखंड सुरंग। —केशव (शब्द०)।

शिष्ट (१)
वि० पुं० [सं०] १. जो अच्छी तरह धर्म का आचरण करता हो। घर्मशील। २. शांत। धीर। ३. अच्छे स्वभाव और आचरणवाला। सुशील। ४. बुद्धिमान्। शिक्षित। ५. सभ्य। सज्जन। भला आदमी। ६. भला। उत्तम। श्रेष्ठ। ७. आचार व्वयहार में निपृण। शालीन। ८. आज्ञाकारी। विनीत। विनम्र। ९. प्रसिद्ध। मशहूर। १०. छोड़ा हुआ। बचा हुआ। बाकी (को०)। ११. आदिष्ट। आज्ञप्त। समादिष्ट (को०)। १२. सधाया हुआ। पालतू। वश्य (को०)।

शिष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. मंत्री। वजोर। २. सभ्य। सभासद। ३. श्रेष्ठ व्यक्ति। चतुर मनुष्य (को०)।

शिष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शिष्ट होने का भाव या धर्म। २. सभ्यता। सज्जनता। भद्रता। ३. उत्तमता। श्रेष्टता। ४. अधीनता।

शिष्टत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिष्टता'।

शिष्टप्रयुक्त
वि० [सं०] सभ्य एवं शिष्ट जनों द्वारा व्यवहत।

शिष्टयोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शिष्टजनों द्वारा व्यहार में लाया गया हो [को०]।

शिष्टमंडल
संज्ञा पुं० [सं० शिष्ट + मण्डल] राज्य या किसी संघटन द्वारा चुना हुआ अधिकारयुक्त प्रतिनिधिवर्ग जो किसी कार्य से कहीं भेजा जाय।

शिष्टविगर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शिष्ट जनों द्वारा निंदित हो [को०]।

शिष्टविगर्हणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० शिष्टविगर्हण [को०]।

शिष्टसभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजसभा। राज्यपरिपद्। २. शिष्ट एवं सभ्य जनों की गोष्ठी।

शिष्टसंमत
वि० [सं० शिष्टसम्मत] शिष्ट जनों द्वारा अनुमोदित या स्वीकृत [को०]।

शिष्टसमाज
संज्ञा पुं० [सं०] वह समाज जनों द्वारा अनुमोदित या स्वीकृत [को०]।

शिष्टसमाज
संज्ञा पुं० [सं० शिष्टसम्मत] शिष्ट जनों द्वारा अनुमोदित या स्वीकृत [को०]।

शिष्टसमाज
संज्ञा पुं० [सं०] वह समाज जिसमें पढ़े लिखे तथा सदा- चारी व्यक्ति हों। भले आदमियों का समाज। सभ्य समाज।

शिष्टाचार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सभ्य पुरुषों के योग्य आचरण। भले आदमियों का सा बरताव। साधु व्यवहार। २. आदर। संमान। खातिरदारी। ३. विनय। नम्रता। ४. वह अच्छा बरताव जो केवल दिखलाने के लिये किया जाय। दिखावटी सभ्य व्यवहार। जैसे—शिष्टाचार की बात छोड़कर अपने आने का अभिप्राय कही। ५. आवभगत। जैसे—शिष्टाचार के अनंतर उन्होंने वार्तालाप प्रारंभ किया।

शिष्टाचारी
वि० [सं० शिष्टाचारिन्] शिष्टाचारयुक्त। सदाचारयुक्त। विनम्र। शालीन।

शिष्टादिष्ट
वि० [सं०] शिष्ट जनों द्वारा कथित, समर्थित या मान्य।

शिष्टानुमोदित
वि० [सं०] सभ्य एवं शिष्ट जनों द्वारा समर्थित। शिष्टसंमत।

शिष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आज्ञा। अनुशासन। हुकूमत। ३. दंड। सजा। ४. सुधार। ५. सहायता। मदद।

शिष्टयर्थ
क्रि० वि० [सं०] अनुशासन या सुधार के लिये [को०]।

शिष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शिश्न'।

शिष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. समय। काल। २. दे० 'शिल्प' [को०]।

शिष्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शिष्या] १. वह जो शिक्षा या उपदेश देने के योग्य हो। २. वह जो विद्या पढ़ने के उद्देश्य से किसी गुरु या आचार्य आदि के पास रहता हो। विद्यार्थी। अतेवासी। चेला। उ०—तीर चलावत शिष्य सिखावत धर निशान देखरा- वत। कबहुँक सधे अश्व चढ़े आपुन नाना भाँति नचावत।— सूर (शब्द०)। ३. (शिक्षक या गुरु के संबंध से) वह जिसने किसी से शिक्षा प्राप्त की ही। शागिर्द। ४. (गुरु के संबंध से) वह जिसने किसी धार्मिक आचार्य से दीक्षा या मंत्र आदि ग्रहण किया हो। मुरीद। चेला। ५. वह जो हाल में श्रावक बना हो (जैन)। ६. क्रोध। दोष। आवेश (को०)। ७. हिंसा। बलात्कार (को०)।

शिष्य (२)
वि० शासनीय। शिक्षणीय।

शिष्यक
संज्ञा पुं० [सं०] छात्र। विद्यार्थी [को०]।

शिष्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिष्य होने का भाव या धर्म। शिष्यत्व।

शिष्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शिष्य होने का भाव या धर्म। शिष्यता।

शिष्यपरंपरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिष्यों की क्रमागत परंपरा या सरणि।

शिष्यशिष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिष्य का शासन करना। शिष्य या छात्र का सुधार [को०]।

शिष्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सात गुरु अक्षर होते हैं। इसका दूसरा नाम 'शीर्षरूपक' भी है। २. छात्रा। विद्यार्थिनी।

शिस्त
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. मछली पकड़ने का काँटा। २. निशाना। लक्ष्य। मुहा—शिस्त बाँधना = ताक लगाना। निशाना बाँधना। ३. दूरबीन की तरह का एक प्रकार का यंत्र जिससे जमीन नापने के समय सीध आदि देखी जाती है। ४. अँगूठा। ५. दे० 'अंगुलित्राण' (को०)। दे० 'अंगुश्ताना' (को०)।

शिस्तबाज
संज्ञा पुं० [फ़ा० शिस्तबाज] १. निशाना लगानेवाला। निशानेबाज। २. शिस्त लगाकर मछली पकड़नेवाला।

शिह्ल, शिह्वक
संज्ञा पुं० [सं०] शिलारस नाम का गंधद्रव्य।

शां
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शांति। २. शयन। सोना। नींद। ३. भक्ति।

शीआ
संज्ञा पुं० [अ० शीअह्] दे० 'शिया' [को०]।

शीकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधा बिरोजा। २. तुषार। ओस। शबनम। ३. हवा। वायु। ४. जलकण। पानी की बूँद। ५. शीत। जाड़ा। ६. वर्षा की छोटी छोटी बूँदें। फुहार। ७. सरल नाम का वृक्ष (को०)। ८. धूप। (जलाने का)। यौ०—शीकरकण = वर्षा या जल की फुहार। शीकरवर्षी = फुहारें वरसानेवाला।

शीकरी
वि० [सं० शीकरिन्] बूंदें या फुहार बरसानेवाला [को०]।

शीघ्र (१)
क्रि० वि० [सं०] बिना बिलंब। बिना देर के। चटपट। तुरंत। जल्द।

शीघ्र (२)
संज्ञा पुं० १. लामज्जक या लामज नामक तृण। २. भागवत के अनुसार कुरुवंशीय अग्निवर्ण के पुत्र का नाम। ३. वायु। हवा। ४. वह अंतर जो पृथ्वी के दो भिन्न भिन्न स्थानों से ग्रहों के देखने में होता है। ५. चक्रांग।

शीघ्र कर्म
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रह सयोग की गणना [को०]।

शीघ्रकारी (१)
वि० [सं० शीघ्रकारिन्] १. जल्दी से काम करनेवाला। शीघ्र कार्य करनेवाला। ३. तीव्र। कड़ा (पीड़ा आदि के लिये)।

शीघ्रकारी (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का संनिपात ज्वर जिसमें मूर्छा, तंद्रा, प्यास, श्वास और पार्श्व में पीड़ा होती है। यह असाध्य और मृत्यु का पूर्वरुप माना जाता है।

शीघ्रकृत्
वि० [सं०] शीघ्र काम करनेवाला [को०]।

शीघ्रकेंद्र
संज्ञा पुं० [सं०शीघ्रकेन्द्र] ग्रहसंयोग से दूरी [को०]।

शीघ्रकोपी
वि० [सं० शीघ्रकोपिन्] १. जल्दी गुस्सा होनेवाला व्यक्ति। २. चिड़चिड़ा।

शीघ्रग (१)
वि० [सं०] शीघ्र चलनेवाला। द्रुतगामी।

शीघ्रग (२)
संज्ञा पुं० १. सूर्य। २. वायु। ३. खरगोश। ४. अग्निवर्ण के पुत्र का नाम।

शीघ्रगामी
वि० [सं० शीघ्रगामिन्] शीघ्र चलनेवाला। जल्दी या तेज चलनेवाला।

शीघ्रचेतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो किसी बात को बहुत शीघ्र समझे। जल्दी बात समझनेवाला। चतुर। २. कुत्ता। कुक्कुर।

शीघ्रचेतना
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिबला नाम की ओषधि [को०]।

शीघ्रजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० शीघ्रजन्मन्] कंट करंज।

शीघ्रजीर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] चौलाई का साग।

शीघ्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीघ्र का भाव या धर्म। जल्दी। तेजी फुरती।

शीघ्रत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शीघ्र का भाव या धर्म। जल्दी। तेजी। फुरती।

शीघ्रपतन
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रीसहवास के समय वीर्य का शीघ्र स्खलित हो जाना। स्तंभनशक्ति का अभाव। विशेष—वैद्यक में इसकी गणना एक प्रकार के नपुंसकत्व में की जातो है।

शीघ्रपरिधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रह संयोग का अधिचक्र [को०]।

शीघ्रपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] वायु।

शीघ्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य वृक्ष।

शीघ्रफल
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहसंयोग का समीकरण [को०]।

शीघ्रबुद्धि
वि० [सं०] कुशाग्रबुद्धि। तीक्ष्ण बुद्धिवाला [को०]।

शीघ्रबोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो जल्दी समझ में आ जाय २. ज्यौतिष विषयक संस्कृत का एक ग्रंथ।

शीघ्रवेधी
संज्ञा पुं० [सं०] शीघ्रता से वाण चलानेवाला। लघुहस्त।

शीघ्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक नदी का नाम। २. दंती वृक्ष। उदुंबरपर्णी।

शीघ्रिय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु। ३. बिल्लियों का लड़ना।

शीघ्रिय (२)
वि० शीघ्र। तेज। क्षिप्र [को०]।

शीघ्री
वि० [सं० शीघ्रिन्] १. गतिशील। शीघ्रगामी। २. कोई काम शीघ्र या तुरत करनेवाला। ३. उच्चारण में जल्दी करनेवाला [को०]।

शीघ्रीय
वि० [सं०] जल्दी। तीव्र। तेज [को०]।

शीघ्र्य
संज्ञा पुं० [सं०] शीघ्रता [को०]।

शीत (१)
वि० [सं०] १. ठंढा। सर्द। शीतल। २. शिथिल। सुस्त। निद्रालु। झपकी लेता हुआ। ३. क्वथित (को०)।

शीत (२)
संज्ञा पुं० १. जोड़ा। सर्दो। ठंढ। २. दालचीनी। ३. बेंत। ४. लिसोड़ा। ५. नीम। ६. कपूर। ७. एक प्रकार का चदन। ८. ओस। तुषार। ९. पित्तपापड़ा। १०. शीतकाल। जाड़े का मौसिम। अगहन, पूस और माघ के महीने। ११. जुकाम। सरदी। प्रतिश्याय। १२. पटसन। अशनपार्णी (को०)। १३. जल। पानी।

शीतक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शीत काल। जाड़े का मौसिम। २. बिच्छू। ३. बनसनई। ४. वह जो हर काम में बहुत देर लगाता हो। दीर्घसूत्री। ५. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम। ६. एक प्रकार का चंदन। ७. आलसी। सुस्त। काहिल। ८. कोई शीतल वस्तु। ठंढी चीज (को०)। ९. संतोषी पुरुष।

शीतक (२)
वि० ठंढा। शीतल। सर्द [को०]।

शीत कटिबंध
संज्ञा पुं० [सं० शीतकटिबन्ध] पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण के भूमिखंड के वे कल्पित विभाग जो भूमध्य रेखा से २३ १/२ अंश उत्तर के बाद और २३ १/२ अंश दक्षिण के बाद माने गए हैं। इन विभागों में जाड़ा बहुत अधिक पड़ता है। ये दोनों विभाग उष्ण कटिबंध के उत्तर और दक्षिण में कर्क और मकर रेखा के बाद पड़ते हैं।

शीतकण
संज्ञा पुं० [सं०] जीरा।

शीतकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] २. ठंढी किरणोंवाला, चंद्रमा। २. कपूर।

शीतकर (२)
वि० शीतल करनेवाला। ठंढा करनेवाला।

शीतकषाय
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में किसी काष्ठौषध आदि का वह कषाय या रस जो उसे छहगुने ठंढे पानी में रात भर भिगो रखने से तैयार होता है।

शीतकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हेमंत ऋतु। अगहन और पूस के महीने। २. जाड़े का मौसिम। हेमंत और शिशिर।

शीतकालीन
वि० [सं०] शीत ऋत में होनेवाला। शीतकाल का [को०]।

शीतकिरण
संज्ञा पुं० [सं०] शीत किरणोंवाला, चंद्रमा।

शीतकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० शीतकृभ्भ] कनेर। कनैल।

शीतकुंभिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतकुम्भिका] कुंभीरिका नाम की लता। जलकुंभी। कुंभी।

शीतकुंभी
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतकुम्भी] जल में उत्पन्न होनेवाली एक प्रकार की लता जिसे शीतली जटा भी कहते हैं।

शीतकूर्चिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरियारा। बला। खिरेंटी।

शीतकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] मिताक्षरा के अनुसार एक प्रकार का व्रत जिसमें तीन दिन तक ठंढा जल, तीन दिन तक ठंढा दूध और तीन दिन तक ठंढा घी पीकर और तीन दिन तक बिना कुछ खाए पीए रहना पड़ता है।

शीतक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध सोहागा।

शीतगंध
संज्ञा पुं० [सं० शीतगन्ध] चंदन। संदल।

शीतगात्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सनिपात ज्वर। विशेष—इस ज्वर में रोगी का शरीर बहुत ठंढा रहता है, इसे श्वास, खाँसी, हिचकी, मोह, कंप, अंतर्दाह और कै होती है; उसके शरीर में बहुत पीड़ा रहती है; उसका स्वर बिलकुल बदल जाता है और वह बकता झकता है।

शीतगु
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

शीतचंपक
संज्ञा पुं० [सं० शीतचम्पक] १. दर्पण। शीशा। आइना। २. प्रदीप। दीआ।

शीतच्छाय, शीतच्छाया (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वट वृक्ष या बरगद, जिसकी छाया बहुत शीतल होती है।

शीतच्छाय, शीतच्छाया (२)
वि० शीतल छायावाला।

शीतज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] जाड़ा देकर आनेवाला बुखार। जूडी। जड़ैया।

शीतता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीत का भाव या धर्म। शीतत्व। ठंढक।

शीतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शीत का भाव या धर्म। शीतता। ठंढापन।

शीतदंत
संज्ञा पुं० [सं० शीतदन्त] ठंढी वायु या ठंढे जल का दाँतों से लगाना या एक प्रकार की वेदना उत्पन्न करना जो वैद्यक के अनुसार दाँतों का एक रोग माना गया है।

शीतदंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतदन्तिका] नागबंती। हाथीशुंडी।

शीतदीधिति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा जिसकी किरणें शीतल होती हैं।

शीतदीप्य
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद जीरा।

शीतदूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद दूब।

शीतद्युति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शीतद्रु
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'मोरट'।

शीतपंक
संज्ञा पुं० [सं० शीतपङ्क] आसव। मैरेय [को०]।

शीतपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद लजालू। सफेद लाजवंती।

शीतपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अर्कपुष्पी। अंधाहुली।

शीतपल्लवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा जामुन। भूमि जंबु।

शीतपाकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काकोली नामक अष्टवर्गीय ओषधि। २. गुंजा। चोंटली। घुँघची। ३. ककही। अतिबला।

शीतपाकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काकोली। २. गुंजा। ३. वाटयालक। अतिबला [को०]।

शीतापित्त
संज्ञा पुं० [सं०] जुड़पित्ती नामक रोग। विशेष—इसमें वात की अधिकता से सारे शरीर की त्वचा में चकत्ते पड़ जाते हैं और उनमें सूई चुभने की सी पीड़ा होती है। इसमें वमन, ज्वर और दाह भी होता है।

शीतपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसके पाणि या कर शीतल हों।

शीतपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. छरीला। शैलेय। २. केवटी मोथा। ३. सिरिस। शिरीष वृक्ष।

शीतपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आक। अर्क। मदार। २. केवटी मोथा। ३. छरीला। शैलेय।

शीतपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिबला। ककही। महासमंगा।

शीतपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिबला। ककही। कंधी।

शीतपूतना
संज्ञा स्त्री० [सं०] भावप्रकाश के अनुसार एक प्रकार का बालग्रह या बालरोग। विशेष—इस रोग में बालक काँपता और खाँसता है, उसकी आँखें दुखती हैं और शरीर दुबला पड़ जाता है, शरीर से दुर्गंध आती है और उसे वमन तथा अतिसार होता है।

शीतप्रधान
वि० [सं०] १. जहाँ शीत अधिक हो। जैसे,—शीतप्रधान श्रेत्र। २. जिसमें शीतत्व की प्रधानता हो। जैसे, शीतप्रधान वस्तु।

शीतप्रभ
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर।

शीतप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] पित्तपापड़ा। पर्पटक।

शीतफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गूलर। २. पीलू। ३. अखरोट। ४. आँवला। ५. लिसोड़ा।

शीतबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] ककही। महासमंगा।

शीतभानु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शीतभीरु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मल्लिका। मोतिया। २. दे० 'निर्गुंडी'। ३. वह जो शीत से डरे।

शीतभीरुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मल्लिका। २. एक प्रकार का शालि- धान्य। ३. काली निर्गुंडी।

शीतमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतमञ्जरी] शेफालिका। निर्गुंडी।

शीतमयूख
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

शीतमरीचि
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

शीतमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] खस। उशीर।

शीतमेह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रमेह रोग।

शीतमेही
संज्ञा पुं० [सं० शीतमेहिन्] वह जिसे शीतप्रमेह रोग हो।

शीतयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं० शीत + युद्ध] संदेह और तनातनी की वह स्थिति जिसमें शस्त्रीकरण और अपने पोषक राष्ट्रों से परस्पर सहायता की संधियाँ हों। (अं० 'कोल्ड वार')।

शीतरम्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रदीप। दीपक।

शीतरश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

शीतरस
संज्ञा पुं० [सं०] ईख के कच्चे रस की बनी हुई एक प्रकार की मदिरा।

शीतरुच्
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शीतरुचि
संज्ञा पुं० [सं०] चाँद। चंद्रमा [को०]।

शीतरुह
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कमल।

शीतल (१)
वि० [सं०] १. ठंढा। सर्द। गरम का उल्टा। २. क्षोभ या उद्वेगरहित। जिसमें आवेश का अभाव हो। शांत। ३. प्रसन्न। संतुष्ट। तृप्त।

शीतल (२)
संज्ञा पुं० १. कसीस। २. छरीला। शैलेय। पत्थरफूल। ३. चंदन। ४. मोती। मुक्ता। ५. उशीर। खस। ६. बन- सनई। ७. लिसोड़ा। ८. चंपा। ९. राल। १०. पद्मकाठ। ११. पीतचंदन। १२. भीमसेनी कपूर। १३. शाल वृक्ष। १४. बर्फ। हिम। १५. केराव। मटर। १६. चंद्रमा। १७. जैनों का एक प्रकार का व्रत।

शीतलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरुआ। मरुवक। २. कुमुद।

शीतलचीनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० शीतल + चीन (देश)] कबाब चीनी।

शीतलच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] चंपा। चंपक।

शीतल जल
संज्ञा पुं० [सं०] पद्म। कमल [को०]।

शीतलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ठंढापन। सर्दी। २. अमृतवल्ली। ३. जड़ता।

शीतलताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतलता + हिं० ई] दे० 'शीतलता'।

शीतलत्व
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'शीतलता'।

शीतलपाटी
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतल + हिं० पाटी] दे० 'शीतलापाटी'।

शीतलप्रद
संज्ञा पुं० [सं०] शीतलता प्रदान करनेवाला, चंदन।

शीतलवात
संज्ञा पुं० [सं०] ठंढी हवा। शीतलता भरी वायु।

शीतलवातक
संज्ञा पुं० [सं०] अपराजिता। कोयल लता। विष्णुक्रांता।

शीतला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विस्फोटक रोग। चेचक। २. एक देवी जो विस्फोटक की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। ३. आराम शीतला। ४. नीली दूब। ५. अर्कपुष्पी। ६. बालू। रेत (को०)। ७. कुटुंबिनी वृक्ष (को०)। ८. दे० 'शीतली' (को०)।

शीतलापूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीतला देवी की पूजा जो फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को होती है [को०]।

शीतलावाहन
संज्ञा पुं० [सं०] गधा [को०]।

शीतलाषष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ शुक्ल पक्ष की छठी तिथि।

शीतलाष्टमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी। इसी दिन शीतला देवी की पूजा होती है।

शीतलासप्तमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माध शुक्ल सप्तमी को होनेवाला देवोत्सव [को०]।

शीतली
संज्ञा स्त्री० [सं०] जल में होनेवाला एक पौधा। शीतली जटा। पातड़ी। २. श्रीवल्ली। ३. चेचक। विस्फोटक।

शीतवर
संज्ञा पुं० [सं०] शिरियारी। गुठवा।

शीतवरा, शीतवला
संज्ञा स्त्री० [सं०] ककही। कंधी नाम का पौधा।

शीतवल्क
संज्ञा पुं० [सं०] गूलर। उदुंबर।

शीतवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] पित्तपापड़ा। शाहतरा।

शीतवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीली दूब।

शीतवासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जूही। यूथिका।

शीतवीर्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पदुम काठ। २. पाषाणभेद। पखानभेद। ३. पित्तपापड़ा। ४. पाकड़ पकड़ी। ५. नीली दूब। ६. बच। वचा।

शीतवीर्य (२)
वि० खाने में जिसका प्रभाव ठंढा ही। जिसकी तासीर सर्द हो।

शीतवीर्यक
संज्ञा पुं० [सं०] पाकर। प्लक्ष वृक्ष।

शीतवृक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हुरहुर का पेड़।

शीतवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य के अनुसार एक प्रकार का रत्न [को०]।

शीतशिव
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेंधा नामक। २. छरीला। पथरफूल। ३. सोआ। ४. शक्तुफला वृक्ष। सौंफ। मधुरिका (को०)। ५. शमी का पेड़। सफेद कीकर। ६. कपूर।

शीतशिवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सफेद कीकर। शमी। २. सौंफ।

शीतशूक
संज्ञा पुं० [सं०] जौ। यव।

शीतसंवासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जूही। शीतवासा।

शीत सन्निपात
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सन्निपात जिसमें शरीर सुन्न और ठंढा हो जाता हैं। पक्षाघात अर्द्धांग।

शीतसह
संज्ञा पुं० [सं०] पीलू। झल्ल वृक्ष।

शीतसहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निर्गुंडी। शेफालिका। २. नेवारी। वासंती का पौधा। ३. मोतिया बेला। मल्लिका का एक भेद। ४. चमेली। ५. झल्ल वृक्ष। पीलू

शीतस्पर्श
वि० [सं०] जो स्पर्श करने में ठंढा हो। शीतल [को०]।

शीतांग
संज्ञा पुं० [सं० शीताङ्ग] शीत सन्निपात।

शीतांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० शीताङ्गी] हंसपदी लता।

शीतांबु
संज्ञा स्त्री० [सं० शीताम्बु] दुद्धी नाम की घास।

शीतांशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्पूर। कपूर। २. चंद्रमा। यौ०—शीतांशु तैल = कर्पूर का तैल।

शीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरदी। ठंढ। २. एक प्रकार की दूब। ३. शिल्पिका घास। ४. तखर की छाल। ५. अमलतास। ६. दे० 'सीता' (को०)।

शीताकुल
वि० [सं०] शीत से व्याकुल। जाड़े से ठिठुरा हुआ।

शीतातपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] छाता। छत्र। छतरी।

शीताद
संज्ञा पुं० [सं०] दाँत के मसूड़ों का एक रोग जिसमें मसूड़े जगह जगह पक जाते हैं और उनमें से दुर्गंध निकलने लगती है।

शीताद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय पर्वत।

शीताद्य
संज्ञा पुं० [सं०] शीतज्वर। जूड़ी़।

शीतावला
संज्ञा स्त्री० [सं०] ककही। महासमंगा।

शीतारु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपूर। २. चंद्रमा।

शीतास
वि० [सं०] जो जाड़े के कारण ठिठुरा हुआ हो [को०]।

शीतार्त्त
वि० [सं०] शीत से पोड़ित। शीतालु।

शीताल
संज्ञा पुं० [सं०] हिंताल वृक्ष।

शीतालु
वि० [सं०]दे० 'शीतार्त' [को०]।

शीताश्म
संज्ञा पुं० [सं० शीताश्मन्] 'चंद्रकांत माणि।

शीतिका, शीतिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० शीतिमन्] ठंढक। शैत्य।

शीतीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शीतलता। २. मनोविकारों के वेग का न रह जाना। शांति। शम। ३. मोक्ष। मुक्ति।

शीतेतर
वि० [सं०] शीत से भिन्न। गरम। उष्ण [को०]।

शीतोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] जल। पानी [को०]।

शीतोदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नरक का नाम। २. ठंढा जल।

शीतोष्ण
वि० [सं०] ठंढा और गरम। मातदिल [को०]।

शीत्कार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सीत्कार'।

शीत्य
वि० [सं०] १. शीतल करने योग्य। २. धान्य। ३. जोता हुआ या जोतने योग्य।

शीधु
संज्ञा पुं० [सं०] १. पकी हुई ईख के रस से बनी हुई मदिरा। सीधु। २. मद्य। शराब (को०)।

शीधुगंध
संज्ञा पुं० [सं०] १. मद्य गंध। २. वकुल वृक्ष। मौलसिरी।

शीधुप
संज्ञा पुं० [सं०] मद्यप। शराबी [को०]।

शीन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूर्ख। २. हिम। बर्फ। ३. अजगर।

शीन (२)
वि० जमा हुआ।

शीन (३)
संज्ञा पुं० [अ०] अरबी का १२वाँ, फारसी का १५वाँ, उर्दू का अठारहवाँ और देवनागरी का तीसवाँ वर्ण। तालव्य श। मुहा०—शीन काफ दुरुस्त होना = (१) उच्चारण ठीक होना। (२) सजकर तैयार होना (व्यंग्य)।

शीफर
वि० [सं०] आनंददायक। सुंदर। मनोहर [को०]।

शीफालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्गुंडी। शेफालिका।

शीभर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मेह की झड़ी।

शीभर (२)
वि० आनंदप्रद। मनोहर [को०]।

शीभव
संज्ञा पुं० [सं०] सीकर। फुहारा [को०]।

शीभ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. वृष। बैल।

शीर (१)
वि० [सं०] नुकीला। तेज।

शीर (२)
संज्ञा पुं० १. अजगर। २. दे० 'सीर'।

शीर (३)
संज्ञा पुं० [फ़ा०; मि० सं० क्षीर] क्षीर। दूध। मुहा०—शीर शकर या शीरोशकर हो जाना = (१) घुलमिल जाना। (२) गाढ़ स्नेह या प्रेम होना।

शीरखाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० शीरखानह्] १. दुग्धकेंद्र। दुग्धालय। २. मदिरालय (को०)।

शीरखार
वि० [फ़ा० शीरख्वार] शीरखोरा। दूध पीता (बच्चा)। उ०—उनों की अक्ल होर लायक के माफिक फरमाते हैं क्या वास्ते तिफ्ले शीरखार....।—दक्खिनी०, पृ० ४२५।

शीरखिश्त
संज्ञा पुं० [फ़ा० शीराखश्त] हकीमी में एक रेचक ओषधि। विशेष—कहते हैं, यह ओषधि खुरासान में पेड़ों और पत्थरों पर ओस की बूँदों की तरह जमा हुई मिलती है।

शीरखोरा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शीरख्वार] १. दूध पीता बच्चा। २. अनजान बालक।

शीरबा, शीरबिरंज
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] पायस। खीर [को०]।

शीरमाल
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. चीनी मिला हुआ पानी। शर्बत। २. चीनी या गुड़ को पकाकर शहद के समान गाढ़ा किया हुआ रस। चाशनी। ३. आँटे को दूध में गूँधकर बनाई जानेवाली रोटी (को०)।

शीरा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शीरह्] १. शकर की चाशनी। २. फलों का निचोड़ा हुआ। रस। ३. पीसी हुई ओषधियों का रस। दे० 'सोरा'।

शीराज
संज्ञा पुं० [फ़ा०] ईरान का एक प्राचीन एवं प्रसिद्ध नगर।

शीराजा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शीराज़ह्] १. वह बुना हुआ रंगीन या सफेद फीता जो किताबों की सिलाई की छोर पर शोभा और मजबूती के लिये लगाया जाता है। २. पुस्तक और पुट्ठों पर की गई सिलाई। ३. प्रबंध। इंतजाम। ४. क्रम। सिलसिला। ५. टुकड़ा। जर्रा। कण। उ०—उन्नीसवीं सदी मे बिखरे शीराजे के एकत्रित करने का जो प्रयत्न हुआ था, वह नगण्य सा था।—भा० ई० रू०, पृ० ३३६। यौ०—शीराजाबंद = (किताब) जिसकी सिलाई हो चुकी हो या जिल्द बँध गई हो। मुहा०—शीराजा खुलना या टूटना = (१) टाँका टूटना। सिलाई खुल जाना। (२) प्रबंध का बिगड़ जाना। इंतजाम खराब होना।शीराजा बँधना = (१) किताब के जुजों की सिलाई होना। (२) बिखरी चीजों का क्रम लगाना या सिलसिला बैठाना। शीराजा बिखरना = बेतरतीब होना। क्रमहीन होना।

शीराजी
संज्ञा पुं० [अ०] १. एक प्रकार का कबूतर। २. घोड़े का एक भेद। शीराज का घोड़ा। दे० 'सिराजी'।

शीरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] रक्तनाड़ी। शिरा।

शीरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंशपत्री नामक तृण।

शीरी (१)
वि० [फ़ा०] १. मीठा। मधुर। २. प्रिय। प्यारा।

शीरी (२)
संज्ञा स्त्री० फरहाद की प्रेयसी एक रमणी। (शीरीं फरहाद की प्रेमकथा बहुत ही प्रसिद्ध है।)

शीरीं जबाँ
वि० [फ़ा० शीरींज़बाँ] मधुरभाषी। उ०—हलू लाजती आई मैन किधन। कहा यूँ जा ऐ तू है शीरीं जबा।— दक्खिनी०, पृ० ८४।

शीरी
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुश। कुशा। हरिदर्भ। २. मूँज। ३. कलिहारी। लांगली।

शीरीनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. मिठास। मीठापन। २. खाने की वस्तु जिसमें खूब चीनी या मीठा पड़ा हो। मिठाई। मिष्ठान्न। ३. बताशा। सिरनी। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—बाँटना।—मानना।

शीर्ण (१)
वि० [सं०] १. छितराया हुआ। टूटा फूटा हुआ। खंड खंड। २. गिरा हुआ। च्युत। ३. जीर्ण। फटा पुराना। ४. मुरझाया हुआ। सूखकर सिकुड़ा हुआ। ५. चुचका हुआ। ६. कृश। दुबला पतला।

शीर्ण (२)
संज्ञा पुं० एक गंधद्रव्य। स्थौणेयक। थुनेर।

शीर्णक
वि० [सं०] शीर्ण वा च्युत पत्तों को खानेवाला [को०]।

शीर्णकाय
वि० [सं०] दुर्बल शरीरवाला। कृशकाय [को०]।

शीर्णता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीर्ण होने का भाव। शीर्णत्व।

शीर्णत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शीर्णता' [को०]।

शीर्णदंत
वि० [सं० शीर्णदन्त] जिसके दाँत गिर गए हों [को०]।

शीर्णदल
संज्ञा पुं० [सं०] नीम।

शीर्णनाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृश्निपर्णी। पिठवन [को०]।

शीर्णपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्णिकार। कनियारी। २. पठानी लोध। ३. नीम। ४. वृक्ष से गिरा हुआ पत्ता (को०)।

शीर्णपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निंब। नीम। २. वृक्ष से गिरा हुआ या कुम्हलाया हुआ पत्ता (को०)। यौ०—शीर्णपर्ण फल = जिसके पत्ते और फल मुरझाए, सूखे या झर गए हों।

शीर्णपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृक्ष का नाम [को०]।

शीर्णपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. यमराज। विशेष—पुराणों में कथा है कि माता के शाप से यमराज के पैर शीण हो गए थे। २. शनिग्रह। ३. अत्यंत कृश पैर (को०)।

शीर्णपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शौंफ। मधुरिका। २. सोआ।

शीर्णपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौंफ।

शीर्णमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन। पृश्निपर्णी।

शीर्णरोमक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गठिवन।

शीर्णवृंत
संज्ञा पुं० [सं० शीर्णवृन्त] तरबूज।

शीर्णांघ्रि
संज्ञा पुं० [सं० शीर्णाङिघ्र] यम। विशेष दे० 'शीर्णपाद'।

शीर्णि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शीर्ति' [को०]।

शीर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] तोड़ने फोड़ने की क्रिया। खंडन।

शीर्य (१)
वि० [सं०] १. टूटने फूटने योग्य। भंगुर। २. नाशवान्।

शीर्य (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार की दूब या घास जिसका प्रयोजन यज्ञों में पड़ता था।

शीर्वि
वि० [सं०] १. अपकारक। २. हिंसक। ३. बर्बर। जंगली।

शोर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिर। मुंड। कपाल। २. माथा। ३. सबसे ऊपर का भाग। सिरा। चोटी। ४. सामना। अग्र भाग। ५. कालागुरु। काला अगर। ६. एक पर्वत का नाम। ७. एक प्रकार की घास।

शीर्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिर। मुंड। २. माथा। ३. चोटी। सिरा। ४. राहु ग्रह। ५. सिर में लपेटने की माला। ६. अगर। ७. नारिकेल वृक्ष। ८. टोप। शिरस्त्राण। कूँड। ९. व्यवहार या अभियोग का निर्णय। फैसला। १०. वह शब्द या वाक्य जो विषय के परिचय के लिये किसी लेख या प्रबंध के ऊपर लिखा जाय। ११. सिर की हड्डी। शिरोस्थि (को०)। १२. पगड़ी। शिरोवेष्टन। मुरेठा (को०)।

शीर्षघाती
वि०, संज्ञा पुं० [सं० शीर्षघातिन्] सिर काटनेवाला। जल्लाद [को०]।

शीर्षच्छेद, शीर्षच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] सिर काटना [को०]।

शीर्षच्छेदिक, शीर्षच्छेद्य
वि० [सं०] शिरच्छेद करने योग्य। वध करने योग्य। वध्य [को०]।

शीर्षणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शय्या का सिरहाना [को०]।

शीर्षण्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. टोप। कूँड़। २. सुलझे हुए साफ बाल। ३. सिर पर बाँधी जानेवाली कोई वस्तु (को०)। ४. सिर पर लपेटने की रज्जु (को०)। ५. चारपाई का सिरहाना।

शीर्षण्य (२)
वि० शीर्षाकित। श्रेष्ठ [को०]।

शीर्षत्राण
संज्ञा पुं० [सं०] शिरस्राण। टोप। कूँड़ [को०]।

शीर्षपट्ट, शीर्षपट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिर में लपेटने का कपड़ा। २. पगड़ी। मुरेठा। साफा।

शीर्षबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० शीर्षबिन्दु] १. सिर के ऊपर और ऊँचाई में सब से ऊपर का स्थान। २. मोतियाबिंद।

शीर्षरक्ष, शीर्षरक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शीर्षत्राण' [को०]।

शीर्षवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] अभियोग। चलानेवाले का उस दशा में दंड सहने के लिये तैयार होना जब कि अभियुक्त ने दिव्य परीक्षा देकर अपने को निर्दोष प्रमाणित कर दिया हो। शिरोपस्थायी।

शीर्षवेदना, शीर्षव्यथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिरोवेदना। सिर का दर्द। शीर्ष शोक [को०]।

शीर्षशोक
संज्ञा पुं० [सं०] शिरोवेदना। सिरदर्द [को०]।

शीर्षस्थ
वि० [सं०] दे० 'शीर्षांकित' [को०]।

शीर्षस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्तमांग। सिर। शीर्ष। २. ललाट। मस्तक। ३. सर्वोच्च स्थान वा पद [को०]।

शीर्षस्थानीय
वि० [सं०]दे० 'शीर्षांकित' [को०]।

शीर्षांकित
संज्ञा पुं० [सं० शीर्षाङ्कित] शीर्षस्थानीय। श्रेष्ठ। सर्वोच्च।

शीर्षोदय
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुंभ और मीन राशि [को०]।

शील (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चाल व्यवहार। आचारण। वृत्ति। चरित्र। २. स्वभाव। प्रवृत्ति। आदत। मिजाज। ३. अच्छा चाल- चलन। उत्तम आचरण। सद्वृत्ति। उ०—'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और शील के संस्थापक हैं।—रस०, पृ० १६१। विशेष—बौद्ध शास्त्रों में दस शील कहे गए हैं—हिंसा, स्त्येन, व्यभिचार, मिथ्याभाषण, प्रमाद, अपराह्न भोजन, नृत्य गीतादि, मालागंधादि, उच्चासन शय्या और द्रव्यसंग्रह इन सब का त्याग। कहीं कहीं पंचशील ही कहे गए हैं। यह शील छह् या दस पारमिताओं में से एक है और तीन प्रकार का कहा गया है— संभार, कुशालसंग्राह और सत्वार्थ क्रिया। ४. उत्तम स्वभाव। अच्छी प्रकृति। अच्छा मिजाज। ५. दूसरे का जी न दुखे, यह भाव। कोमल हृदय। ६. सौंदर्य। सुंदरता। सौभ्यता (को०)। ७. संकोच का स्वभाव। मुरौवत। मुहा०—शील तोड़ना = दूसरे के जी दुखने न दुखने का ध्यान न रखना। मुरौवत न रखना। आँखों में शील न होना = दे० 'आँख' के मुहा०। ८. अजगर।

शील (२)
वि० प्रवृत्त। तत्पर। प्रवृत्तिवाला। स्वभावयुक्त। जैसे—दान- शील, पुण्यशील।

शीलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक कवि का नाम। २. काम की जड़। कर्णमूल [को०]।

शीलकीर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुणों की ख्याति, शुचिता और सदाचार की प्रशस्ति [को०]।

शीलखंडन
संज्ञा पुं० [सं०] शुचिता, सदाचार या नैतिकता का उल्लं- घन [को०]।

शीलगुप्त
वि० [सं०] चतुर। मक्कार। प्रवंचक [को०]।

शीलज्ञ
वि० [सं०] सदाचार एवं नैतिकता का ज्ञाता।

शीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'शीलत्व'।

शीलत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] सदाचार का त्याग [को०]।

शीलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शील्युक्त होने का भाव या क्रिया। शीलता। शालीनता [को०]।

शीलदशा
संज्ञा स्त्री० [सं० शील + दशा] किसी विशेष भाव का किसी की प्रकृति या स्वभाव का लक्षण बनने की अवस्था। जैसे, तुनकमिजाजी, हँसोड़पन, भीरुता आदि। उ०—भाव के इस प्रकार प्रकृतिस्थ हो जाने की अवस्था को हम शील दशा कहेंगे।—रस०, पृ० १८२।

शीलधारी (१)
वि० [सं० शीलधारिन्] सद्वृत्तिवाला। शीलवान् [को०]।

शीलधारी (२)
संज्ञा पुं० शिव [को०]।

शीलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बारबार अभ्यास करना। जैसे, शास्त्र आदि का। २. निरंतर प्रयोग में लाना। अधिक्य। ३. संमान या सेवा करना। ४. वस्र पहिनना [को०]।

शीलभंग
संज्ञा पुं० [सं० शीलभङ्ग] १. दे० 'शीलखंडन'। २. (आधुनिक प्रयोग) किसी भी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध प्रसंग करना। बलात्कार।

शीलभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] सदाचार का विनाश [को०]।

शीलवंचना
संज्ञा स्त्री० [सं० शीलवञ्चना] १. सतीत्व या इंद्रियनिग्रह का अतिक्रमण। २. शुचिता या शील का उल्लंघन [को०]।

शीलवर्जित
वि० [सं०] दुराचारी। शील से रहित [को०]।

शीलवान्
वि० [सं० शीलवत्] [वि० स्त्री० शीलवती] १. अच्छे आचरण का। सात्विक वृत्ति का। २. अच्छे या कोमल स्वभाव का। मुरौवतवाला। सुशील।

शीलवृत्त (१)
वि० [सं०] अच्छे आचारणवाला। सदाचारी [को०]।

शीलवृत्त (२)
संज्ञा पुं० अच्छा आचरण। सदाचार [को०]।

शीलवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुशीलता। सदाचार। भलमनसी [को०]।

शीलवृद्ध
वि० [सं०] संमान्य। सदाचारी [को०]।

शीलसौदर्य
संज्ञा पुं० [सं० शीलसौन्दर्य] उत्कृष्ट एवं सत् आचरण की सुंदरता। शील की सुंदरता। उ०—किसी को रूपसौंदर्य और शीलसौंदर्य का पहले पहल साक्षात्कार या परिचय होते ही सबसे पहली अनुभूति आनंद की होती है। सबसे पहले हृदय विकसित और लुब्ध होता है।—रस०, पृ० ७५।

शीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कैंडिन्य मुनि की पत्नी का नाम।

शीलित (१)
वि० [सं०] १. बारंबार किया हुआ। अभ्यस्त। प्रयुक्त। २. धारण किया हुआ। पहना हुआ। ३. कृत। संपादित। ४. कुशल। निपुण। ५. युक्त। सहित। संपन्न।

शीलित (२)
संज्ञा पुं० अनवरत क्रिया। अभ्यास [को०]।

शीली
वि० [सं० शीलिन्] १. सदाचारी। सुशील। २. बार-बार किया हुआ। अभ्यस्त। प्रयुक्त [को०]।

शीव पु
संज्ञा पुं० [सं० शिव] दे० 'शिव'। उ०—ब्रह्मा विष्णु शीव अधिकारी। तीन की आशा जगत महँ भारी।—कबीर सा०, पृ० ४६८।

शीवल
संज्ञा पुं० [सं०] १. छरीला। शैलेय। पथरफूल। २. सेवार।

शीवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० शीवन्] अजगर।

शीवा (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० शिव] शिव। ब्रह्म। उ०—सब कौ प्रेरक कहिए जीवा। सो क्षेत्रज्ञ निरंतर शीवा।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ११०।

शीश पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० शीर्ष] दे० 'शीर्ष'। यौ०—शीशफूल।

शीश (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० शीशह्] शीशा। काँच। (प्रायः समास में प्रयुक्त)। जैसे,—शीश-ए-दिल, शीश महल [को०]। यौ०—शीश-ए-दिल = कोमल हृदय। नाजुक दिल। शीशगर = काँच के सामान बनानेवाला। शीशबाज = धूर्त। मक्कार। शीशमहल। शीश-ए साअत, शीश-ए-साआ = बालू की घड़ी।

शीशफूल
संज्ञा पुं० [सं० शीर्ष + फुल्ल] सिर पर पहना जानेवाला स्त्रियों का गहना विशेष। उ०—सिर पर हैं चँदवा शीशफूल, कानों में झुमके रहे झूल।—ग्राम्या, पृ० ४०।

शीशम
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का पेड़ जिसका तना भारी, सुंदर और मजबूत होता है। विशेष—यह पेड़ बहुत ऊँचा और सीधा होता है। इसकी पत्तियाँ छोटी और गोल होती हैं। लकड़ी लाल रंग की होती है और मजबूती तथा सुंदरता के लिये प्रसिद्ध है। इससे पलंग, कुरसी, मेज आदि सजावट के सामान बढ़िया बनते हैं।

शीशमहल
संज्ञा पुं० [फ़ा० शीश + अ० महल] १. वह कमरा या कोठरी जिसकी दीवारों में सर्वत्र शीशे जड़े हों। काँच का मकान। मुहा०—शीश महल का कुत्ता = पागल कुत्तों की तरह बकने या उछलने कूदनेवाला। (शीशे में अपना ही प्रतिबिंब देखकर कुत्ता धबराता और भूँकता है।)

शीशा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शीशह्] १. एक मिश्र धातु, जो बालू या रेह या खारी मिट्टी को आग में गलाने से बनती है। विशेष—यह पारदर्शक होती है और खरी होने के कारण थोड़े आघात से टूट जाती है। काँच। २. काँच का वह खंड जिसमें सामने की वस्तुओं का ठीक प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है और जिसका व्यवहार चेहरा देखने के लिये किया जाता है। दर्पण। आइना। ३. झाड़ फानूस आदि काँच के बने सजावट के सामान। मुहा०—शीशे को पत्थर के हवाले करना = जान बूझकर किसी को संकट में डालना। उ०—बे सुबहा खता की जो दिल उस बुत से लगाया। खुद हमने किया शीशे को पत्थर के हवाले।— फिसाना०, भा० ३, पृ० २६। शीशा बाशा = बहुत नाजुक चीज। शीशे में उतारना = (१) भूत छुड़ाना। प्रेतबाधा शांत करना। वश में करना। मोहित करना। उ०—इसकी भड़क कोई नहीं मिटा सकता मगर हमने इसे शीशे में उतारा है।— फिसाना०, भा० ३, पृ० ४।

शीशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शीशह्, शीशा] शीशे का छोटा पात्र जो तेल, इत्र, दवा आदि रखने के काम में आता है। काँच की लंबी कुप्पी। मुहा०—शीशी सुँघाना = क्लोरोफार्म सुँघाना। दवा सुँघाकर बेहोश करना। विशेष—अस्त्रचिकित्सा आदि के समय रोगी इस प्रकार क्लोरो- फार्म सुँधाकर बेहोश किए जाते हैं।

शीस (१)
संज्ञा पुं० [सं० शीर्ष] दे० 'शीर्ष'। उ०—शीस झुकाकर चली गई वह मंदिर में निज हृदय हिलोर।—साकेत, पृ० ३६८।

शीस (२)
संज्ञा पुं० [अ०] एक पैगंबर। आदम का तीसरा पुत्र [को०]।