विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/मल
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⋙ मलंग
संज्ञा पुं० [फा० (मलंग=आपसे बाहर)] १. एक प्रकार के मुसलमान साधु। ये मदारशाह के अनुयायी होते हैं तथा सिर के बाल बढ़ाते और नंगे सिर तथा नंगे पैर अकेले भीख माँगते फिरते हैं। उ०—(क) कौड़ा आँसू बूँद, करि साँकर बरुनी सजल। कौने बदन न मूँद, दृग मलंग डारे रहै।—बिहारी (शब्द०)। (ख) किधौं मैन मलंग चढ्यो थल तुंग अँजीर अरी न परै झटकी।—मुकुंदलाल (शब्द०)। २. एक प्रकार का बड़ा बगुला जो स्वच्छ, सफेद रंग का हेता है। यह भारतवर्ष और बरमा में होता है; और प्रायः एकांत में और अकेला रहता है।
⋙ मलंगा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मलंग'।
⋙ मल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मैल। कीट। जैसे, धातुओं का मल। उ०—लीली सगुन जो कहहिं बखानी। सोई स्वच्छता करइ मल हानी।—तुलसी (शब्द०)। २. शरीर से निकलनेवाली मैल या विकार। विशेष—ये मल बारह प्रकार के माने गए हैं।—(१) वसा, (२) शुक्र, (३) रक्त, (४) मज्जा, (५) मूत्र, (६) विष्ठा, (७) कर्णमल या खूँट, (८) नख, (९) श्लेष्मा या कफ,(१०) आँसू, (११) शरीर के ऊपर जमी हुई मैल और (१२) पसीना। ३. विष्ठा। पुरीष। ४. दुषण। विकार। ५. शुद्धतानाशक पदार्थ। ६. पाप। ७. दोष। बुराई। ऐब। ८. हीरे का एक दोष। ९. जैन शास्त्रनुसार आत्माश्रित दुष्ट भाव। यह पाँच प्रकार का माना गया है—(१) मिथ्या ज्ञान, (२) अधर्म, (३) शक्ति, (४) हेतु और (५) च्युति। १०. कपूर। ११. प्रकृतिदोष। जैसे, वात, पित्त, कफ।
⋙ मल (२)
वि० १. गंदा। अशुद्ध। २. नीच। दुष्ट। ३. नास्तिक [को०]।
⋙ मल (३)
[देश०] फीलवानों का एक साकेंतिक शब्द जो हाथियों को उठाने के लिये कहा जाता है।
⋙ मलऊन
वि० [अ० मल्ऊन] तिरस्कृत। दुष्ट। धिक्कृत। उ०— यह लश्कर लेकर वह मलऊन। मक्के की तरफ कीता है मुँह।—दक्खिनी०, पृ० २२१।
⋙ मलक (१)
संज्ञा पुं० [अ०] देवता। फरिश्ता [को०]।
⋙ मलक (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मलकाना] १. आँखों के खोलने बंद करने की क्रिया। दृष्टि को स्थिर न रखना। २. हिलना डोलना। उ०— लागत पलक मलक नहिं लावै।—कबीर सा०, पृ० १५८६।
⋙ मलकना
क्रि० अ० [हिं० मलकना] १. हिलना डोलना। २. इतराना। इठलाना। उ०—झूमत चलि मद मत्त गर्यद ज्यौं, मलकत बाँह दुराई।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८९।
⋙ मलकनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मलकना] मलकने की क्रिया। हिलने डोलने या इठलाने की क्रिया। उ०—मोहन पिय की मलकनि ढलकनि मोर मुकुट की। सदा बसौ मन मेरे फरकनि पियरे पट की।—नंद० ग्रं०, पृ० २२।
⋙ मलकरना
संज्ञा पुं० [देश०] बरतन पर नकाशी करनेवालों का एक औजार जिससे खोदने पर दोहरी लकीर बनती है।
⋙ मलकर्षण
वि० [सं०] साफ करनेवाला। गंदगी दूर करनेवाला [को०]।
⋙ मलकलमौत
संज्ञा पुं० [अ० मलकुलमौत] दे० 'मलकुतमौत'। उ०—जेहि विधि पारा मरै न मारा। मलकलमौत सो करै विचारा।—संत० दरिया, पृ० २३।
⋙ मलका
संज्ञा स्त्री० [अ० मलिकह्] बादशाह या महाराज की पटरानी। महारानी। उ०—मेरी मलका ! चुंबन, कल जैसा दिन दुश्मन की किस्मत में भी न आए।—पिंजरे०, पृ० १२२।
⋙ मलकाछ
संज्ञा पुं० [हिं० मल्ल+काछ] ठाकुरों के शृंगार के लिये एक प्रकार का कछनी जिसमें तीन झब्बे लगे होते हैं।
⋙ मलकाना (१)
क्रि० स० [अनु०] १. हिलाना। डोलना। विचलित करना। जैसे, आँख मलकाना।
⋙ मलकाना (२)
क्रि० अ० बना बनाकर बातें करना।
⋙ मलकुलमौत
संज्ञा पुं० [अ०] मुसलमानों के अनुसार वह फरिश्ता जो अत समय ये प्राण लेन के लिये आता है।
⋙ मलकूत (१)
वि० [अ०] पवित्र। फरिश्तो से संबंधित। उ०—जिन ताकूँ नादार झंकारे तो मंजिल मलकूत तूज।—दक्खिनी०, पृ० ५६।
⋙ मलकूत (२)
संज्ञा पुं० १. शासन। राज्य। २. स्वर्ग। देवलोक। ३. फरिश्ता। देवगण [को०]।
⋙ मलखंभ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मलखम'।
⋙ मलखम
संज्ञा पुं०[सं० मल्ल+हिं० खभा] १. लकड़ी का एक प्रकार का खभा जिसपर कसरत करनेवाले फुरती से चढ़ और उतरकर कसरत करते हैं। मालखंभ। विशेष—मलखम तीन प्रकार के होते हैं—गड़ा मलखम, लटका मलखम और वेत का मलखम। गड़ा मलखम एक लंबा मोटा चार पाँच हाथ ऊँचा मुगदर के आकार का खंभा होता है जो भूमि में गड़ा रहता है। लटका हुआ या लटकौआँ मलखम छत्त या किसी और धरन के सहारे ऊपर से अधोमुख लटका रहता है। जब इस खंभे की जगह धरन आदि में बेंत लटकाया जाता है, तब इसे बेंत को मलखम कहते हैं इसपर कसरत करनेवाले वेत की हाथ में पकड़कर उसपर अनेक मुद्राओं से कसरत करते हैं। इसे बाँस, लग्गी या मलखानी भी कहते हैं। मलखम की कसरत भारतवर्ष की एक प्राचीन मल्ल नामक क्षत्रिय जाति की निकाली हुई है। इसी मल्ल जाति को आविष्कार की हुई कुश्ती को मल्लयुद्ध भी कहते हैं। मलखम पर चढ़ने उतरने की 'पकड़' कहते हैं। इस कसरत से मनुष्य में फुरती आती है और रानें दृढ़ होती हैं। २. वह कसरत जो मलखम पर या उसक सहारे से की जाय। ३. पत्थर या लकड़ी के पुरानी चाल के कोल्हू में लकड़ी का एक खूँटा जो कातर या पाट में कोल्हू से दूसरी छोर पर गाड़ा जाता है और जिसमें ढेंके की रस्सी बाँधी जाती है; अथवा जिसमें रस्सी लगाकर ढेंकी बाँधकर जाट के ऊपर लगाते हैं। इसे मरखम भी कहते हैं।
⋙ मलखाना (१)
वि० [हिं० मल+खाना] मल खानेवाला। उ०—कोउ न जग में होत कुटिल जैसे मलखाने। उसर वैठि मरजाद भ्रष्ट आचार न जाने।—गिरिधरदास (शब्द०)।
⋙ मलखाना (२)
संज्ञा पुं० [सं० मल्ल+हिं० खान] १. महोबे के राजा परमाल के भतीजे मलखान का नाम। यह पृथ्वीराज चौहान का समकालीन था। २. पश्चिमी उत्तरप्रदेश में बसनेवाले एक प्रकार के राजपूत जो मुसलमान बना लिए गए ते। इन लोगों का आचार विचार अब तक प्रायः हिंदुओं का सा है।
⋙ मलखानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मलखम] एक ऊँचा गोल और सीधा पतला खंभा जिसपर बेंत से मलखम की कसरत की जाती है। इसे वाँस और लग्गी भी कहते हैं। विशेष दे० 'मलखम'।
⋙ मलगजा पु (१)
वि० [हिं० मलना+गींजना] मला दला हुआ। गींजा हुआ। मरगजा।
⋙ मलगजा (२)
संज्ञा पुं० बेसन में लपेटकर तेल या घी में छाने हुए बैगन, कुँहड़ा आदि के पतले टुकड़े।
⋙ मलगिरी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मलयागिरि] एक प्रकार का हल्का कत्थई रंग। विशेष—यह रंग रँगने के लिये कपड़ा पहले हड़ के हलके काढ़े में और फिर कसीस के पानी में डुबोते है; और फिर उसे एक रंग में जिसमें कत्था, चूना, मेंहदी की पत्ती और चंदन का चूरा पीसकर घोला रहता है और छैलछबीला, नागरमोथा, कपूर- कचरी, नख, पाँजर, बिरमी, सुंगधबाला, सुगंध कोकल, बालछड़, जरांकुश, बुढ़ना, सुगंधमैत्री, लौंग, इलायची, केशर और कस्तूरी का चूर्ण मिला रहता है, डालकर पहर भर उबालते हैं और उतारने पर उसे दिन रात उसी में पड़ा रहने देते हैं। दूसरे दिन कपड़े को उसमें से निकालकर निचोड़लेते हैं और बर्तन के रंग को छानकर उसमें हिना का इत्र मिलाकर उसमें फिर उस कपड़े को डुबाकर सुखाते हैं। पर आजकल प्रायः रँगरेज मलगिरि रंग रँगने में कपड़े को कत्थे और चूने के रंग में रँगते हैं; फिर उसे कसीस के पानी में डुबा देते हैं इसके बाद रँगे हुए कपड़े को आहार देकर निचोड़ते और सुखाते हैं और अंत में उसपर हिना का इत्र मल देते हैं।
⋙ मलगिरि (२)
वि० मलगिरि रंग का।
⋙ मलघन
संज्ञा पुं० [सं० मलघ्न] एक प्रकार की कचनार, जो लता रूप में होती है। विशेष—यह हिमालय की तराई, मध्य भारत और टेनासरम के जंगलों में पाई जाती है। इसकी छाल मलू कहलाती है जिसपर रंग अच्छा चढ़ता है और जो कूटने पर ऊन की तरह चमकदार हो जाती है। इस ऊन में मिलाकर तागा काता जाता है जिससे ऊनी कपड़े बुने जाते हैं। यह छाल ऐसी साफ होती है कि ऊन में मिलाने पर इसकी मिलावट बहुत कम पहचानी जाती है।
⋙ मलघ्न
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मलघ्नी] मलनाशक।
⋙ मलघ्न
संज्ञा पुं० १. शाल्मली कंद। सेमल का मुसला। २. कचनार का एक भेद। 'मलघन'।
⋙ मलघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदौना।
⋙ मलज
संज्ञा पुं० [सं०] पीब।
⋙ मलजुद्ध पु
संज्ञा पुं० [सं० मल्लयुद्ध] दे० 'मल्लयुद्ध'। उ०— मलजुद्ध समुद्र सुबीर करैं।—ह० रासो, पृ० १५७।
⋙ मलज्वर
संज्ञा पुं० [सं० मल+ज्वर] अमृतसागर के अनुसार एक प्रकार का ज्वर जो मल के रुकने के कारण होता है। इससे रोगी के पेट में शूल और सिर में पीड़ा होती है, मुँह सूखा रहता है, जलन होती है, भ्रम होता है और कभी कभी मुर्छा भी आती है।
⋙ मलझन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बेल जो बागों में लगाई जाती है।
⋙ मलट
संज्ञा पुं० [अं० मैलेट] १. लकड़ी का हथौड़ा जिससे खूँटे आदि गाड़े जाते हैं। २. काठ का वह हथौड़ा जिससे छापने के पहले सीसे के अक्षर ठोंककर बैठाए और बराबर किए जाते हैं।
⋙ मलतन †
संज्ञा स्त्री० [सं० मल्लत्व, प्रा० मल्लक्षण या हिं० मल (=मल्ल) + तन (प्रत्य०)] बहादुरी। शक्ति का अभिमान। उ०—सभ भागी सिद्धाँ की मलतन।—प्राण०, पृ० १२०।
⋙ मलता
वि० [हिं० मलना] मल या घिसा हुआ (सिक्का)। जैसे, मलता पैसा, मलती अठन्नी।
⋙ मलद
संज्ञा पुं० [सं०] वाल्मीकीय रामायण के अनुसार एक प्रदेश का नाम। विशेष—कहते हैं, ताड़का यहीं रहती थी। इसे मल्लभूम भी कहते थे।
⋙ मलदूषित
वि० [सं०] मलीन। मैला।
⋙ मलद्रावी
संज्ञा पुं० [सं० मलद्राविन्] जयपाल। जमालगोटा।
⋙ मलद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर की वे इंद्रियाँ जिनसे मल निकलते हैं। २. पाखने का स्थान। गुदा।
⋙ मलधात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह धाय जो बच्चों का मलमूत्र धोने पर नियुक्त हो।
⋙ मलधारी
संज्ञा पुं० [सं० मलधारिन्] एक प्रकार के जैन साधु जो शरीर में मल लगाए रहते हैं और उसको धोते और शुद्ध नहीं करते।
⋙ मलन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मर्दन। २. पोतना। लेप करना। लगाना। ३. तंबू। शामियाना (को०)।
⋙ मलन पु (२)
वि० मसलनेवाला। पीस डालनेवाला। मल देनेवाला। उ०—अफजल का मलन शिवराज आया सरजा।—भूषण ग्रं०, पृ० ११७।
⋙ मलन पु (३)
वि० [हिं०] दूषित। बुरा। दे० 'मलिन'। उ०—मलन काज मैं खलन की मति अति होति अनूप।—दीन० ग्रं०, पृ० ८१।
⋙ मलना
क्रि० स० [सं० मलन] १. हाथ अथवा किसी और पदार्थ से किसी तल पर उसे साफ, मुलायम या अच्छा करने के लिये रगड़ना। हाथ या किसी और चीज से दबाते हुए घिसना। मर्दन। मींजना। मसलना। जैसे, लोई मलना, घोड़ा मलना बरतन मलना। उ०—(क) यहि सर घड़ा न बूड़ता मंगर मलि भलि न्हाय। देवल बूड़ा कलस लों पक्षि पियासा जाय।—कबीर (शब्द०)।(ख) चलि सखि तेहि सरोवर जाहिं। जेहि निर्मल अंग मलि मलि न्हाहिं। मुक्ति मुक्ता अंबु के फल तिन्हैं चुनि चुनि खाहिं।—सूर (शब्द०)। संयो० क्रि०—डालना।—देना। मुहा०—दलना मलना=(१) चूर्ण करना। पीसकर टुकड़े टुकड़े करना। उ०—रन मत्त रावण सकल सुभट प्रचंड भुजबल दलमले।—तुलसी (शब्द०)। (२) मसलना। हाथों से रगड़ना। घिसना। हाथ मलना=(१) पछताना। पश्चाताप- करना। उ०—बार बार करतल कहँ मलि कौ। निज कर पीठ रदन सों दलि कै।—गोपाल (शब्द०)। (२) क्रोध प्रगट करना। उ०—चलो सुकर्मा बीर भलो अंबर तन धारे। मलो करहि भरि क्रोध हलोरन नद बहुवारे।—गोपाल (शब्द०)। किसी तरल पदार्थ या चूर्ण आदि को किसी तल पर रखकर हाथ से रगड़ना। मालिश करना। जैसे, तेल मलना, सुरती मलना। उ०—(क) मधु सों गीले हाथ ह्वै ऐंचो धनुष न जाइ। ते पराग मलि कुसुम शर बेधत मोहिं बनाइ।—गुमान (शब्द०)। (ख) चलेउ भूप पुरुमित्र मित्रहुति मगध मित्र मन। पट पवित्र मन चित्र सहित मलि इत्र धरे तन।—गोपाल (शब्द०)। ३. किसी पदार्थ को टुकड़े टुकड़े या चूर्ण करने के लिये हाथ से रगड़ना या दबाना। मसलना। मींजना।उ०—जो कहो तिहारा बल पाय बाएँ हाथ नाथ, आँगुरी सों मेरु मलि डारों यह छिन मैं।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। ४. मरोड़ना। ऐंठना। जैसे, मुँह मलना, नाक मलना, कान मलना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। ५. हाथ से बार बार रगड़ना या दबाना। जैसे, छाती मलना, गाल मलना।
⋙ मलनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मलना] आठ दस अंगुल लंबा, दो अंगुल चौड़ा, सुडौल और चिकना कतजन के आकार का बाँस का एक टुकड़ा जिससे कुम्हार मलकर सुरहियाँ आदि चिकनी करते हैं।
⋙ मलपंकी
वि० [सं० मलपङ्किन्] १. मलीन। मैला। २. कीचड़ में सना हुआ।
⋙ मलपाक
संज्ञा पुं० [सं० मल+पाक] शरीर की वह स्थिति जिसमें दोषों की प्रकृति बदल जाती है, वे हलके हो जाते हैं, शरीर हलका हो जाता है और इंद्रियाँ निर्मल हो जाती है।—माधव०, पृ० २८।
⋙ मलपात्र
संज्ञा पुं० [सं० मल+पात्र] वह पात्र जो शौच के उपयोग में लाया जाता हो। कमोड।
⋙ मलपू
संज्ञा पुं० [सं०] कठूमर।
⋙ मलपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] पुस्तक का पहला या बाह्य पृष्ठ [को०]।
⋙ मलप्पना पु
क्रि० अ० [प्रा० मल्लप्पण] १. पहलवानों के समान मस्ती भरी चाल चलना। क्रीड़ा में कुदान करना। उ०—करंत केलि सारसी मलप्पते महा रसी। विरद्द नेक बोलते पलक्क चष्ष खोलते।—पृ० रा०, १७। ६०।
⋙ मलफ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मलफना] कूद। कुदान। उ०—गाज मलफ एता गुणाँ, सोहाँ काज सरंत।—बाँकी०, ग्रं० भा० १, पृ० १७।
⋙ मलफना पु
क्रि० अ० [हिं०] कूदना। कुदान भरना। उ०—तैं जेहा दीधा तुरी मृग जीपण मलफंत। चढ़ै जिकाँ अन पह चढ़ै तोरण वारण तंत।—बाँकी०, ग्रं०, भा० ३, पृ० १०।
⋙ मलफूफ
वि० [अ० मल्फूफ] १. जो लपेटा हुआ हो। जिसपर कागज या कपड़ा चढ़ा हो। २. जो लिफाफे में बंद हो। उ०—प्रेम बत्तीसी हिस्सा दोयम का किस्सा 'खूने अजमत' मलफूफ है —प्रेम० और गोर्की, पृ० ५४।
⋙ मलबा
संज्ञा पुं० [हिं० मलभार] १. कूड़ा कर्कट। कतवार। २. टूटी या गिराई हुई इमारत की ईँट, पत्थर और चूना आदि। ३. एक प्रकार की उगाही या वेहरी जो गाँव में पट्टीदारों से दौरे के हाकिमों आदि के खर्च के लिये वसूल की जाती है।
⋙ मलभांड
संज्ञा पुं० [सं० मल+भाण्ड] दे० 'मलपात्र'।
⋙ मलभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] कौवा।
⋙ मलभेदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुटकी।
⋙ मलभई पु
वि० [सं० मल+हिं० मई (प्रत्य०)] मलयुक्त। लोक सृष्टि सिरजति यह माया। तुम तें दूरि मलमई काया। नंद० ग्रं०, पृ० ३१५।
⋙ मलमल
संज्ञा स्त्री० [सं० मलमल्लक] एक प्रकार का पतला कपड़ा जो बहुत बारीक सूत से बुना जाता है। उ०—(क) मलमल खासा पहनते खाते नागर पान। टेढ़ा होकर चालते करते बहुत गुमान।—कबीर (शब्द०)। (ख) कमरी थोरे दाम की आवै बहुतै काम। खासा मलमल वाफता उनकर राखै मान।—गिरधराराय (शब्द०)। विशेष—प्राचीन काल में यह कपड़ा भारतवर्ष में विशेषकर बंगाल और बिहार में बुना जाता था और वहीं से भिन्न भिन्न देशों में जाता था। अब तक ढाके और मुर्शिदाबाद में अच्छी मलमल बनती है।
⋙ मलमला
संज्ञा पुं० [देश०] कुलफे का साग।
⋙ मलमलाना (१)
क्रि० सं० [हिं० मलना] १. बार बार स्पर्श कराना। लगातार छुलाना। २. वार वार खोलना और ढकना। जैसे, पलक मलमलाना। ३. पुनः पुनः आलिंगन करना। उ०—नवल सुनि नवल पिया नयो नयो दरश बिचि तन मलमले प्राणपति पीय को अथर धरयो री। प्रीति का रीति प्राण चंचल करत निरखि नागरी नैन चिबुक सो मोरी। तब कामकेलि कमनीय चंदय चकोर चातक स्वाति बूँद परयो री। सुनि सूरदास रस राशि रस बरसि कै चली जनु हरति ले कुहु सु गोरी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मलमलाना (३)
क्रि० अ० [अनु०] पश्चात्ताप करना। अफसोस करना। पछताना।
⋙ मलमलाहट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] मलमालने की क्रिया या भाव। पश्चात्ताप। अफसोस।
⋙ मलमल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] कापीन।
⋙ मलमाँस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मलमास'। उ०—अली शुभ तीरथ तीर लसै मलमाँस पवित्र नदी जुग संग।—श्यामा०, पृ० ३२६।
⋙ मलमा
संज्ञा पुं० [हिं० मलबा] दे० 'मलबा'।
⋙ मलमास
संज्ञा पुं० [सं०] वह अमांत मास जिसमें संक्रांति न पड़ती हो। इसे अधिक मास भी कहते हैं। विशेष—यों तो साधरण रीति से बारह महीने का वर्ष माना जाता है, पर कभी कभी तेरह महीने का भी भी वर्ष होता है। पर यह बात केवल चांद्र मास में ही होती है, और मास सदा वर्ष में बारह ही होते हैं। चांद्र मास की वृद्धि का हेतु यह है कि दिन रात्रि का मान, जिसे दिनमान कहते हैं, ६० दंड का माना जाता है। पर एक तिथि का मान ५८ दंड का माना जाता है। इसलिये ३० दिन में ३१ तिथियाँ पड़ती हैं। इस हिसाब से चांद्र वर्ष और सामान्य वर्ष में प्रति वर्ष बारह दिन का अंतर पड़ा करता है जो पाँच वर्ष में पूरे दो महीने का अंतर डाल देता है। ऐसे अधिक महीने को मलमासकहते हैं। वह चांद्र मास, जिसमें सूर्य की संक्राति पड़ती है, शुद्ध मास कहलाता है। पर संक्रातिवर्जित मास तीन प्रकार के माने गए हैं जिन्हें भानुलंघित, क्षय और मलमास कहते हैं। भानुलंघित और मलमास वे मास कहलाते है जिनमें सूर्य- संक्राति न पड़े। पर यदि सूर्यसक्रांति शुक्ल प्रतिपदा को पड़ी हो, तो उसे क्षय मास कहते हैं। बारह महीने दो अयनों में बाँटे गए हैं एक वैशाख से कुआर तक, दूसरा कार्तिक से चैत तक। यह मलमास प्रायः फागुन से अगहन तक दस ही महीनों में पड़ता है। शेष दो महीनों में से पूस में तो कभी कभी मलमास पड़ता ही नहीं; और माघ में बहुत ही कम पड़ा करता है। इसका नियम यह है कि यदि दक्षिणायन और उत्तरयण दोनों अयनों में मलमासयुक्त मास पड़ें, तो दक्षिणायन का मास भानुलंघत और उत्तरायण का मास मलमास कहलावेगा। पर यदि एक ही अयन में दो मास मलमास-लक्षण-युक्त हों, तो पहला मलमास और दूसरा भानुलांघा कहलावेगा। पर ऐसे दो उसी वर्ष में पड़ते हैं जिसमें क्षय मास भी पड़ता है। पर कार्तिक, अगहन और पूस के महीने में क्षय मास नहीं होता। विवाहादि शुभ कृत्य जिस प्रकार मलमास में वर्जित हैं, उसी प्रकार भानुलंघित और क्षय मास में भी वर्जित है। पर्या०—अधिक मास। पुरुषोत्तम। मलिम्लुच। अधिमास। असंक्रांत मास। नपुसंक मास।
⋙ मलय
संज्ञा पुं० [सं० मलय (=पर्वत)] १. दक्षिण भारत के एक पर्वत का नाम। विशेष—(१) यह पश्चिमी घाट का वह भाग है जो मैसूर राज्य के दक्षिण और ट्रावंकोर के पूर्व में है। यहाँ चंदन बहुत उत्पन्न होता है। पुराणों में इसे सात कुलपर्वतों में गिनाया गया है। (२) मलय शब्द पवन, समीर, वायु आदि शब्दों के आदि में समस्त होकर (१) सुगंधित और (२) दक्षिणी वायु का अर्थ देता है। जैसे, मलयसमीर, मलयपवन, आदि। पर्या०—आषाढ़। दक्षिणाचल। चंदनाद्रि। मलयाचल। २. मलबार देश। ३. मलबार देश के रहनेवाले मनुष्य। ४. एक उपद्वीप का नाम। ५. सफेद चंदन। उ०—दारु विचारु कि करइ कोउ बंदिय मलय प्रसंग।—मानस, १। १०। ६. गरुड़ के एक पुत्र का नाम। ७. नंदन वन। ८. उद्यान। उपवन। बाग (को०)। ९. छप्पय के एक भेद का नाम। इसमे २५ गुरु, १०२ लघु, कुल १२७ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती है। १०. पहाड़ का एक प्रदेश। शैलांग। ११. ऋषभदेव के एक पुत्र का नाम।
⋙ मलयगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलय नामक पर्वत जो भारतवर्ष के दक्षिण दिशा में हैं। विशेष—यहाँ चंदन अधिक और उत्तम उत्पन्न होता है। यह पश्चिमी घाट का वह भाग है जो मैसूर के दक्षिण अरौ ट्रार्बकोर के में वपु है। पुराणों में इसे कुलपर्वतों में गिनाया है। २. मलयगिरि में उत्पन्न चंदन। उ०—बेधी जानि मलयगिरि बासा। सीस चढ़ी लोटहि चहुँ पासा।—जायसी (शब्द०)। ३. हिमालय पर्वत का वह देश जहाँ कामरुप और आसाम है। ४. दे० 'मलयगिरी'।
⋙ मलयगिरी
संज्ञा पुं० [हिं० मलयगिरि] दारचीनी की जाति का एक प्रकार का बड़ा और बहुत ऊचा वृक्ष जो कामरुप, आसाम और दार्जिलिंग में उत्पन्न होता है। विशेष—इसकी छाल दो अंगुल से चार पाँच अंगुल तक मोटी होती है और लकड़ी भारी, पीलापन लिए सफेद रंग की होती है। इसकी छाल और लकड़ी दोनों सुगंधित होती हैं। लकड़ी बहुत मजबुत होती है और साफ करने पर चमकदार निकलती है जिसमें दीमक आदि कीड़े नहीं लगते। इससे मेज, कुरसी, संदुक आदि बनते हैं और इमारत आदि में भी यह काम आती है। वसंत ऋतु में बीज बोने से यह वृक्ष उगता है।
⋙ मलयज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंदन। उ०—मलयज घसि घनसार मैं खौरि किए गयगौनि। सेत बसत सजि तजि गली चली चाँदनी रैनि।—स० सप्तक, पृ० २५०। २. राहु।
⋙ मलजय (२)
वि० मलय पर्वत से आनेवाली। मलय पर्वत की। उ०— सोता तारक किरन पुलक रोमावलि मलयज वात।—लहर, पृ० ५२। यौ०—मलयजरज=चंदन का चुर्ख। मलयजवात=दक्षिण की वाजु। मलवानिल।
⋙ मलयद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंदन। २. मदन। मैना या मैनी नामक पेड़।
⋙ मलयपवन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मलयनिल'।
⋙ मलयभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिमालय के एक प्रदेश का नाम।
⋙ मलयवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।
⋙ मलयसमीर
संज्ञा पुं० [सं०] मलयानिल। मलय पवन। दक्षिणी वायु [को०]।
⋙ मलया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. त्रिवृता। निसोथ। २. सोमराजी। बावची। बकुची।
⋙ मलया पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मलय] श्वेत चंदन। मलयज। मलय। उ०—मलया के परसंग से सीतल होअत साँप।—पलटु०, पृ०३७।
⋙ मलयागिरि
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मलयगिरि'। उ०—मलयागिरि कै पीठि सँवारी। बेनी नाग चढ़ा जनु कारी।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० १९६।
⋙ मलयाचल
संज्ञा पुं० [सं०] मलयगिरि। मलय पर्वत।
⋙ मलयाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] मलयाचल। मलय पर्वत [को०]।
⋙ मलयानिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलय पर्वत की ओर से आनेवाली वायु, दक्षिण की वायु। उ०—जा, मलयानिल, लौट जा, यहाँअवधि का शाप। लगे न लु होकर कहीं तु अपने को आप।—साकेत, पृ० २९२। २. सुगंधित वायु। ३. वसंत काल की वायु।
⋙ मलयालम (१)
संज्ञा पुं० [सं० मलय (=पर्वत) + अलम (=उपत्यका)] दक्षिण के एक पहाड़ी देश का नाम जो पश्चिमी घाट के किनारे किनारे फैला हुआ है। इसे केरल भी कहते हैं। यहाँ की भाषा मलयालम कहलाती है। यहाँ नायर नामक हिंदुओं और मोपाला नामक मुसलमान जाति की आवादी है। केरल।
⋙ मलयालम (२)
संज्ञा स्त्री० केरल प्रदेश में प्रचलित भाषा जो दक्षिण की चार प्रमुख भाषाओं में से एक है।
⋙ मलयालि
संज्ञा पुं० [त० मलयालम] मलयालम में बसनेवाली एक पहाड़ी जाति का नाम। इस जाति के लोग पशुपालन और खेती करते हैं और तमिल भाषा बोलते हैं।
⋙ मलयाली (१)
वि० [त० मलयालम] १. मलबार दश का। मलबार देश संबंधी।२. मलबार देश में उत्पत्र।
⋙ मलयाली (२)
संज्ञा स्त्री० मलबार देश की भाषा। केरल में प्रचलित भाषा।
⋙ मलयुग
संज्ञा पुं० [सं० मल (=पाप)+युग] दे० 'कलियुग'। उ०—नाम ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो। अब गरीब जन पोषिए पायबो न हेरो।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मलयोद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] चंदन।
⋙ मलराना पु
क्रि० स० [सं० मल्ह] दे० 'मल्हराना'।
⋙ मलरुचि
वि० [सं०] दूषित रुचि का। पापी। उ०—सेइय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी। समनि सोक संताप पाप रुज सकल सुमंगल रासी।.................दंडपानि भैरव वैषान मलरुचि खलगन भे दासी। लोल दिनेस त्रिलोचन लोचन करनघंट घंटा सी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मलरोधक
वि० [सं०] जो मल को रोके। जिसके खाने से कोष्ठ बद्ध हो। कब्जियत करनेवाला। काबिज।
⋙ मलरोधन
संज्ञा पुं० [सं०] विष्ठंभ। कोष्ठबद्ध। कब्जियत।
⋙ मलवंधा
वि० [?] स्वादरिहत और अरुचि उत्पन्न करनेवाला। उ०—आकास का मलवंधा स्वाद।—गोरख०, पृ० २२३।
⋙ मलवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋतुमती स्त्री [को०]।
⋙ मलवा (१)
संज्ञा पुं० [बरमी] हावर की जाति का एक पेड़ जो बरमा में होता है। विशेष—यह बहुत अधिक उँचा नहीं होता। इसकी लकड़ी चिकनी और नारंगी रंग की होती है ओर मेज, आदि वनाने के काम में आती है।
⋙ मलवा (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मलबा'।
⋙ मलवाना
क्रि० स० [हिं० मलना का प्रे० रुप] मलने के लिये प्रेरणा करना। मलने का काम दुसरे से कराना।
⋙ मलवासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋतुवासी स्त्री। वह स्त्री जो अपने मासिक धर्म में हो [को०]।
⋙ मलविनाशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुखपुष्पी। २. क्षार। ३. निर्मली।
⋙ मलविसर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] मलत्याग। शौच होना [को०]।
⋙ मलवेग
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतीसार।
⋙ मलशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पेट का साफ होना। कोष्ठवद्धता दुर होना [को०]।
⋙ मलसा
संज्ञा पुं० [सं० मल्लक] घी रखने का कुप्पा।
⋙ मलसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मलसा] मिट्टी का वर्तन जिसमें प्रायः मुसलमान खाना पकाते है।
⋙ मलसूत
संज्ञा पुं० [अ० मवसुत] भारी बोझ उठाकर गाड़ी या नाव आदि पर लादने का यंत्र। गीध। दमकला।
⋙ मलहंता
संज्ञा पुं० [सं० मलहन्तृ] सेमल का मुसल।
⋙ मलहम
संज्ञा पुं० [अ० मरहम्] ओषधियों के योग से बना हुआ चिकना चमकीला लेपे जो घाव, फोड़े आदि पर लागाया जाता है। मरहम।
⋙ मलहर
संज्ञा पुं० [सं०] जमालगोटो। जयमाल।
⋙ मलहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरिवंश के अनुसार राजा रौद्राश्व की कन्या का नाम।
⋙ मलहारक
संज्ञा पुं० [सं०] भंगी। मेहतर।
⋙ मला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमड़ा। २. चमड़े से बना हुआ पदार्थ। ३. कसकुट ४. भुईँ आँवला।५. बिच्छु का डंक। ६. आँवा हलदी।
⋙ मलाई (१)
संज्ञा स्त्री० [देश० या अ० माल (=सार तत्व)] दुध की साढ़ी। उ०— छाछ को ललात जैसे राम नाम के प्रसाद खात खुन सात सौधे दुध की मलाई है।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—जब दुध हलकी आँच पर गरम किया जाता है, तब वह गाढ़ा होता जाता है और उसके ऊपर सार भाग की एक हलकी तह जमती है। यही तह बार बार जमने से मोटी हो जाती है। इसी को मलाई रहते हैं। यह मुलायम और चिकनाई से भरी होती है। जनाए जाने पर इसी मलाई को मथकर मसका निकाला जाता है। क्रि० प्र०—आना।—जमना।—पड़ना। २. सारतत्व। रस। उ०—भुरि दई विष भुरि भई प्रहलाद सुधाई सुधा की मलाई।—(शब्द०)।३. एक रंग का नाम जो बहुत हलका बादामी होता है।
⋙ मलाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मलना] १. मलने की क्रिया या भाव २. मलने की मजदुरी।
⋙ मलाकर्षी
संज्ञा पुं० [सं० मलाकर्षिन्] [स्त्री० मलाकर्षिणी] मलहारक। भंगी। मेहतर।
⋙ मलाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कामिनी स्त्री। उ०—नंद लला यहि मैं न मलाकान कोने घों काम कला तुलकी।—अकबरी०, पृ० ३५१। २. वेश्या। ३. दुतो। ४. हथिनी।
⋙ मलाट
संज्ञा पुं० [देश० या अं० मौटिल्ड] एक प्रकार का मोटा घटिया कागज जो प्रायः खाकी रंग का होता है और कागजों के बंडल बाँधने या इसी प्रकार के और कामों में आता है।
⋙ मलान पु
वि० [सं० म्लान] दे० 'म्लान'। उ०—वरप चारि दस विपिन बास कारे पितु वचन प्रमान। आइ पायँ पुनि देखिहऊँ मन जनि करसि म्लान।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सुनि सजनी सुर मान है अति मलान मति मंद। पुनो रजनी में जु गिलि देत उगिलि यह चंद।—शृं० स० (शब्द०)।
⋙ मलानि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० म्लानि] दे० 'म्लानि'। उ०—जानि जिय अनुमानहीं सिय सहस विधि सनसानि। राम सदगुन धाम परमित भई कछुक मलाने।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मलापह
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मलापहा] १. मलनाशक। मल दुर करनेवाला। २. पापनाशक।
⋙ मलाबार
संज्ञा पुं० [सं० मलय+हिं० बार (=किनारा)] भारत के दक्षिणी प्रात का वह प्रदेश जो पश्चिमा किनारे पर हे। यह प्रदेश पश्चिमी घाट के पाच्छमी समुद्र के तट पर है।
⋙ मलाबारी
वि० [हिं० मलबार+ई (प्रत्य०)] मलाबार का निवासी।
⋙ मलामत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. लानत। फटकार। दुतकार। उ०— आया राज कयामत मलामत से पाक हुए, रहेगा सलामत खुदाई आप आप ते।—(शब्द०)। यौ०—लानत मलामत। २. किसी पदार्थ में का निकृष्ट या खराब अंश। गंदगी। क्रि० प्र०—निकलना।—निकालना।
⋙ मलामती
वि० [फा०] १. जो मलामत करने के योग्य हो। दुतकारने या फटकारने योग्य। २. घृणित। जघन्य।
⋙ मलायक
संज्ञा पुं० [अ० मलक का बहु० मलाइक] देववाण [को०]।
⋙ मलार
संज्ञा पुं० [सं० मल्लार] संगीत शास्त्रनुसार एक राग का नाम। उ०—पुस मास सुनि साखन पै साई चलत सवार। गाहे कर बिन परवान तिय राग्यौ राग मलार।—बिहारी (शब्द०)। विशेष—कुछ आचार्य इसे छह प्रधान रागों के अंतर्भुत मानते हैं, पर दुसर इसके बदले हिंडाल या मेघराग को स्थान देते हैं। यह राग वर्षाऋतु में गाया जाता है। बेलावली, पूरबी कान्हड़ा, माधवी, काड़ा और केदारिका ये छह इसका रागिनयाँ हैं। यह संपुर्ण जात का राग है और इसके गाने की ऋतु वर्षा और समय रात का दुसरा पहर है। संगीत- सार ने इस मेघ राग का छठा पुत्र माना है। इसका रंग श्याम,आकृति भयानक, गल म साप का माला पहने, फुलौ के आभुषण धारण किए सस्त्रीक बतलाया गया हे। ईसका, स्थान विंध्याचल, वस्त्र केले का पत्ता और मुकुट केले को कलिका कहा जाती है। इसका अस्त्र धनुष, कटारा और छुरा लिखा है। मुहा०—मलार गाना=बहुत प्रसत्र होकर कुछ कहना, विशेषतः गाना। जैसे,—आप ता दिन भर घर पर बैठे मलार गाया करते हैं।
⋙ मलारि
संज्ञा पुं० [सं०] क्षार।
⋙ मलारी
संज्ञा स्त्री० [सं० मल्लारी] वसंत राग की एक रागिनी का नाम।
⋙ मलाल
संज्ञा पुं० [अ०] १. दुःख। रंज। मुहा०—मलाल आना या मलाल पैदा होना=(१) रंज होना। मन में दुःख होना। (२) मन में मैल उत्पत्र होना। मलाल निकलना=मन में दबा हुआ दुःख कुछ बक झककर दुर करना। २. उदासीनता। उदासी।
⋙ मलावरोध
संज्ञा पुं० [सं०] मल का रुकना। कब्जियत [को०]।
⋙ मलावह
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार पापों की एक कोटि। विशेष—इसमें कृमिकीटों और पक्षियों की हत्या, मद्य के साथ एक पात्र में लाए हुए, पदार्थों को खाना, फल, ईंधन और फुल की चोरी और अधैर्य संमिलित हैं।
⋙ मलाशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेट। २. अँतड़ियाँ [को०]।
⋙ मलाह पु
संज्ञा पुं० [हिं० मल्लाह] दे० 'मल्लाह'। उ०—रुप कहर दरियाव में तरिबो है न सलाह। नैनन समुझावत रहै निसि दिन ज्ञान मलाह।—रसिनिध (शब्द०)।
⋙ मलाहत
संज्ञा स्त्री० [अ०] चेहरे पर का नमक। सौंदर्य। उ०— शोर दरिया तक मलाहत का तेरी पहुँचा है शोर। बेनमक आगे तेरे लब के नमकदाँ हो गया।—कविता० कौ०, बा० ४, पृ० ४०।
⋙ मलिंग
संज्ञा पुं० [फा़० मलंग] दे० 'मलंग'।
⋙ मलिंद
संज्ञा पुं० [सं० मलिन्द] भ्रमर। भौंरा। उ०—(क) मल्लिकान मंजुल मलिंद मतवारे मिले, मंद मंद मारुत मुहीम मनसा की है।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) नेह सरीखी रज्जु नहिं, कविवर करै विचार। वारिज बाँध्यो मलिंद लखि, दार बिदारन हार।—दीनदयाल (शब्द०)। (ग) मंजुल मंजरी पै हो मलिंद विचारि कै भार सम्हारि कै दीजियो।—व्यंग्यांर्थ (शब्द०)।
⋙ मलिक
संज्ञा पुं० [अ० सं०] [स्त्री० मलिका] १. राजा। उ०— तब्बे चिंतई मलिक असलान,सब्ब सेन मह पलइ पातिसाह।—कीर्ति०, पृ० ११०। २. अधीश्वर। ३. मुसलमानों की एक जाति का नाम जो प्रायः कृषि कर्म करती है। ये लोग मध्यम श्रेणी के माने जाते हैं। ४. किन्नरों और कथकों के एक वर्ग की उपाधि।
⋙ मलिकजादा
संज्ञा पुं० [अ० मालक + फा़० जादह्] बादशाह का लड़का। शाहजादा [को०]।
⋙ मलिका (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० मलिकह्] १. रानी। २. अधीश्वरी।
⋙ मलिका (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मल्लिका'।
⋙ मलिक्ष पु
संज्ञा पुं० [सं० म्लेच्छ] दे० 'म्लेच्छ'। उ०—तबही विश्वामित्र तहँ †विविध सुआयुध वाहि। व्याकुल कीन्ह मलिक्ष दल सब शक यवन विदाह।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ मलिच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० म्लेच्छ] दे० 'म्लेच्छ'। उ०—तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंस पर, त्यौं मलिच्छ बंस पर सेर सिवराज है।—भूषण ग्रं०, पृ० ३७।
⋙ मलिच्छ ‡
वि० [सं० म्लेच्छ या मलिष्ठ (=मलिन)] मैला। गंदा।
⋙ मलिछ पु
संज्ञा पुं० [सं० म्लेच्छ, हिं० मलिच्छ] दे० 'मलिच्छ'। उ०—अरे मलिछ बिसवासी देवा। कत मैं आइ कीन्हिं तोरि सेवा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २५६।
⋙ मलित
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की छोटी कुची जिससे सुनार नक्काशी के गहनों को साफ करते हैं।
⋙ मलिन (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मलिना, मलिनी] १. मलयुक्त। मैला। गँदला। स्वच्छ का उलटा। उ०—चाहे न चंपकली की थली मलिनी नलिनी कि दिशान सिधावै।—केशव (शब्द०)। २. दुषित। खराब। ३. जिसका रंग खराब हो। मटमैला। धुमिल। वदरंग। उ०—मलिन भए रस माल सरोवर मुनिजन मानस हंस।—सुर (शब्द०)। ४. पापात्मा। पापी। ५. धींमा। फीका। जैसे, ज्योति मलिन होना। ६. म्लान। विषणण। उदासीन। जैसे, मलिन- मन, मलिनसुख। यौ०—मलिनप्रभ। मलिनमुख। मलिनकाश=धुमिल आकाश। उ०—धुलि धुम अरु मेघ करि दीसै मलिनाकाश।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७७८।
⋙ मलिन (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार के साधु जो मैला कुचैला कपड़ा पहनते हैं। पाशुपत।२. मट्ठा। ३. सोहागा। ४. काला अगर या अगर चंदन। ५. गौ का ताजा दुध। ६. हंस। ७. दस्ता। मुठ। ८. दोष। ९. रत्नों की चमक और रंग का फीका और धुँधला होना। रत्नों के लिये यह एक दोष समझा जाता है।
⋙ मलिनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मलिन होने का भाव। मैलापन।
⋙ मलिनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] मलिन होने का भाव। मलिनता। मैलापन मालिन्य।
⋙ मलिनप्रभ
वि० [सं०] जिसकी कांति मलिन हो। धुलिधुसर। धुँधला [को०]।
⋙ मलिनमुख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। आग। २. बंल की पुँछ। ३. प्रेत। ४. एक प्रकार का बंदर (को०)।
⋙ मलिनमुख (२)
वि० १. जिसका मुंह उदास हो। उदासीन वदन। २. क्रुर। ३. खल।
⋙ मलिनांबु
संज्ञा पुं० [सं० मलिनाम्बु] मसी। स्याही।
⋙ मलिना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रजस्वला स्त्री। २. लाल साँड़। ३. छोटी भटकटैया।
⋙ मलिनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मलिन+आई (प्रत्य०)] मैलापन। मलिनता। उ०—(क) सुखी भए सुरसंत भूमिसुर खलगन मन मलिनाई। सबै सुमन विवसत रवि निकसत कुमुद विपिन बिलखाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) होम हुताशन धुम नगर एकै मलिनाइय।—केशव (शब्द०)।
⋙ मलिनाना पु
क्रि० अ० [हिं० मलिन से नामिक धातु] मैला होना। उ०—भरे नेह सोहैं खरे निपट रहे मलिनाय।—श्रृ० स० (शब्द०)।
⋙ मलिनिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मालिन] दे० 'मालिनी'। उ०— बतिया सुधरि मलिनिया सुंदर गातहि हो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४।
⋙ मलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रजस्वला स्त्री।
⋙ मलिनीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] पापों की एक कोटि का नाम। मलावह।
⋙ मलिम्लुच
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलमास। २. अग्नि। ३. चोर। ४. वायु। ५. चित्रक वृत्त (को०)। ६. पंचयज्ञ न करनेवाला पुरुष।
⋙ मलिया
संज्ञा स्त्री० [सं० मल्लक या मस्लिका, हिं० मरिया] १. मिट्टी के एक वर्तन का नाम जिसका मुँह तंग होता है। इसमें घी, दुध, दही आदि पदार्थ रखे जाते हैं। २. गोटी के खेल में वह त्रिकोण चक्र जो चौक के दोनों ओर बीच में बना रहता है। इस खेल को अठारह गोटी कहते हैं। विशेष—यह खेल दो आदमी खेलते हैं और प्रत्येक पक्ष में अठारह गोटियाँ होती हैं जिनमें से छह गोटियाँ मलिया में और शेष बारह ढाई पंक्तियों में रखी जाती हैं। केवल बीच का बिंदु खाली रहता है। गोटियों की चाल एक बिंदु से दुसरे बिंदु तक लकीरों के मार्ग से होती है। जब एक गोटी किसी दुसरी गोटी का उल्लंघन करती है, तब वह पहली गोटी मानों मर जाती है और खेल में से निकालकर अलग कर दी जाती है। दोनों ओर की सब गोटियाँ जब मलिया से चौक में निकल आती हैं,त्ब यदि किसी पक्षवाला 'मलियामेट' शब्द कह दे तो दोनों ओर की मलिया मिटा दी जाती है और फिर गोटियाँ चौक में ही रहती हैं। पर यदि कोई मलियामेट न कहे तो गोटियाँ बारबर मलिया में आती जाती रहती है। यौ०—मलियामेट। ३. घेरा। चक्कर। लपेट।मुहा०—मलिया बाँधना= रस्सी को मोड़कर बाँधना। (लश०)।
⋙ मलियाचल पु
संज्ञा पुं० [सं० मलयाचल] दे० 'मलयाचल'। उ०—विस्व सुवासित होय जिसे मुख बासहुँ। मलियाचल महकंत वसंत बिलासहुँ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ३६।
⋙ मलियामेट
संज्ञा पुं० [हिं० मलिया + मिटाना] सत्तानाश। तहस नहस। जैसे,—उसने सारा घर मलियामेट कर दिया।
⋙ मलिष्ठ
वि० [सं०] १. अत्यंत मलिन। बहुत अधिक मैला कुचैला। २. पापी (को०)।
⋙ मलिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋतुमती स्त्री [को०]।
⋙ मलिस
संज्ञा स्त्री० छेनी के आकार का सुनारों का एक औजार जिससे हँसुली की गिरह या घुँड़ियाँ उभारी जाती हैं।
⋙ मलीण ‡
संज्ञा पुं० [?] स्त्रियों को तरह नखरा। जनखापन। उ०—मावड़ियो महिला तणी मारे रोज मलीण।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १४।
⋙ मलीदा
संज्ञा पुं० [फा़०] १. चुरमा।२. एक प्रकार का बहुत मुलायम ऊनी वस्त्र। विशेष—यह वस्त्र बहुत मुलायम और गरम होता है। यह बुने जाने के बाद मलकर गफ और मुलायम बनाया जाता है। यह प्रायः काश्मीर और पंजाब से आता है।
⋙ मलीन (१)
वि० [सं० मलिन] १. मैला। अस्वच्छ। उ०—(क) जिनके जस प्रताप के आगे। ससि मलीन राब सीतल लागं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मन मलीन मुख सुंदर कैसे। विष रस भरा कनक घट जैसे।—तुलसी (शब्द०)। २. उदास। उ०—अति मलीन वृषभानु कुमारी। हरिश्रम जल अंतर तनु भीजे ता लालच न धुवावात सारी।—सुर (शब्द०)।
⋙ मलीन पु (२)
संज्ञा पुं० पाप। उ०—अनै बृजिन टुकृत दुरित अघ मलीन मसि पंक।—अनेकार्थ०, पृ० ५५।
⋙ मलीनता
संज्ञा स्त्री० [हिं० मलीन+ता (प्रत्य०)] दे० 'मलिनता'।
⋙ मलीनी पु
वि० [हिं० मलीन+ई (प्रत्य०)] मैला। अस्वच्छ। मलीन। उ०—तस हौं अहा मलीनी करा। मिलेउँ आइ तुम्ह भा निरभरा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३७३।
⋙ मलीमस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहा। २. पीले रंग का कसीस। ३. पाप।
⋙ मलीमस (२)
वि० १. मलिन। मैला। २. काला। ३. पापी।
⋙ मलीयस्
वि० [सं०] [ वि० स्त्री० मलीयसी] अत्यंत मलिन। बहुत अधिक मैला कुचैला।
⋙ मलुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. उदार। पेट। २. एक प्रकार का पशु।
⋙ मलुकाना पु †
क्रि० अ० [सं० आलोकन या हिं० मुलकाना] दिखाई देना। उ०—निर्मल जोति नहीं मलुकाई। नानक अनहदि शब्दि समाई।—प्राण०, पृ० १७१।
⋙ मलू
संज्ञा स्त्री० [सं० मालु] १. मलघन नामक कचनार को छाल। यह बहुत दृढ़ होती है और रँगने पर कुटकर ऊन में मिलाई जाती है। २. मलघन नामक वृक्ष।
⋙ मलूक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कीड़ा।२. एक प्रकार का पक्षी। उ०—मैना मलुक कोइला कपोत। बगहंस और कलहंस गोत।—सूदन (शब्द०)। ३. बौद्ध शास्त्रानुसार एक संख्यास्थान। ४. दे० 'अमलुक'।
⋙ मलूक (२)
वि० [देश०] सुंदर। मनोहर। उ०—प्यारी प्यारी वे अलुक हरियाला कुंजे। शाभा छबि आनंद भरी सब सुख की पुंजे।—श्रीधर (शब्द०)।
⋙ मलुकादस
संज्ञा पुं० [देश०] एक संत कवि। उ०—तेरोई एक भरोस मलुक को तेरे समान दुजो जसी है। एहो मुरार पुकार कहौ अब भेरी हंसी नाह तेरी हँसी है।—कविता कौ०, भा०१, पृ० १९७। विशेष—ये इलाहाबाद के कड़ा गाँव के लाला सुंदरदास कक्कड़ (खत्री) के पुत्र थे। इनका जन्म संवत १६३१ वैशाख कृष्ण ५ को हुआ और १०८ वर्ष की अवस्था में संवत् १७३९ में इन्होंने अपना शरीर त्याग किया था।
⋙ मलुन
संज्ञा पुं० [सं० मल] पक्वाशय में विष्ठा से उत्पत्र एक प्रकार के कांडे़। उ०—इन (कृमियों) क पाँच नाम हैं।— ककेरुक, मकेरुक, सौसुराद, मलुन जौर लेलिह।—माधव०, पृ० ७१।
⋙ मलूल
वि० [अ०] दुखी। रंजीदा। उदास। उ०—भला अपने दिल कु करी मत मलुल, रखो उस कतैं खोल मानिंद फुल।—दाक्खनी०, पृ० २३६।
⋙ मलेक्ष
संज्ञा पुं० [सं० म्लेच्छ] दे० 'म्लेच्छ'।
⋙ मलेच्छ
संज्ञा पुं० [सं० म्लेच्छ] दे० 'म्लेच्छ'। उ०—पाछे एक मलेच्छ वा गाम ऊपर चढ़ि के (आयो)। वो लराई में कृष्णदास देह छोरी।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २३८।
⋙ मलेछ पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० म्लेच्छ, हिं० मलेच्छ, मलेछ] दे० 'म्लेच्छ'। उ०—मलेछ सोई जा मल के खावे सो मल कबहि ना धोवै।—संत० दरिया, पृ० ९७।
⋙ मलेटरी †
संज्ञा स्त्री० [अं० मिलिटरी] सेना। फौज। उ०—मलेटरी ने बहुरा चेथरु का गिरपक कर लिया है।—मैला०, पृ० १।
⋙ मलेपंज
संज्ञा पुं० [देश०] अधिक अवस्था का घोड़ा। बुढ्ढा घोड़ा।
⋙ मलेया पु †
संज्ञा पुं० [सं० मलय] मलयागरि चंदन। श्वेत उ०—पवन भछै सी होए भुअंगा। करहि जोग मलेया के संगा।—संत० दरिया, पृ० १४।
⋙ मलेरिया
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का ज्वर जो वर्षा ऋतु में फैलता है। विशेष—यह जाड़ा देकर आता है। पहले डाक्टरों का विश्वास था कि वस्तुओं के सड़ने या किसी अन्य कारण से वायु में विष फैलता है जिससे सविराम, अर्थात् अँतरिया, तिजरा, चौथिया आदि ज्वर, जो मलेरिया के अंतर्गत हैं, फैलते हैं। पर अब उन्होंने यह निश्चय किया है कि मच्छड़ा के देश से मलेरिया का विष मनुष्यों के रक्त में पहुचता है जिससे सबिराम ज्वर का रोग उत्पन्न होता है।
⋙ मलैगिरि
संज्ञा पुं० [सं० मलयगिरि] दे० 'मलयगिरि'। उ०— वेना नाग मलौगारे पीठी। सास माथे होइ दुइजि बईठी।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १५६।
⋙ मलैया ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० मलाई] एक प्रकार का दुध का झाग जो जाड़ के दिना में रात भर दुध को आस में रखकर मथने से तैयार होता है।
⋙ मलोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] मलत्याग। शौच [को०]।
⋙ मलोल
संज्ञा पुं० [अ० मलुल] दे० 'मलाल'।
⋙ मलोलना
क्रि० अ० [अ० मलुल, हिं० मलोल] दुखी होना। पछताना।
⋙ मलोला
संज्ञा पुं० [अ० मलुल या बलवला] १. मानसिक व्यथा। दुःख। रंज। उ०—राबे अहो हरि भावत का भरिकं भुज भौटए मेटि मलोलै।—देव (शब्द०)। मुहा०—मलोला या मलोल आना=दुःख होना। पछतावा होना पश्चात्ताप होना। मलोले खाना=मानसिक व्यथा सहना। दुःख उठना। उ०—उन्होने मसोसे के मलोले खा के कहा।—इंशाअल्लाह (शब्द०)। दिल के मलोले निकालना=भड़ास निकलना। कुछ बक झक्कर मन का दुःख दुर करना। २. वह इच्छा जो उमड़ उमड़कर मानसिक व्याकुलता उत्पन्न करे। अरमान। जैसे,—मेरे मन का मलोला कब होगा। (गीत)। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—निकलना।
⋙ मल्यागिर पु ‡
संज्ञा पुं० [हिं० मलयागिर] दे० 'मलयागिरि'। उ०— नाम अमर मल्यागेर भाई। पीवत विष अमृत हो जाई।—कबीर सा०, पृ० ८६२।
⋙ मल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जाति का नाम। विशेष—इस जाति के लोग द्वंद्वयुद्ध में बड़े निपुण होते थे; इसीलिये द्वंद्वयुद्ध का नाम मल्लयुद्ध और कुश्ता लड़नेवाले का नाम मल्ल पड़ गया है। महाभारत में मल्ल जाति, उनके राजा और उनके देश का उल्लेख हैं। भारतवर्ष के अनेक स्थान जस मुलतान (मल्लस्यान) मालव, मालभूमि आदि में मल्ल शब्दविकृत रुप में मिलता है। त्रिपिटक सं कुशनगर में मल्लों के राज्य का होना पाया जाता है। मनुस्मृति में मल्लों को लिछिबी (लिच्छाव) आदि के साथ संस्काच्युत या व्रात्य क्षात्रय लिखा है। पर मल्ल आदि क्षत्रिय जातियाँ बोद्ध मतावलंबी हो गई थी। इसका उल्लख स्थान स्थान पर त्रिपटक में मिलता है जिससे ब्राह्मणी के अधिकार से उनका निकल जाना और ब्रात्य होना ठीक जान पड़ता है और कदाचित् इललिये स्मृतियों मे या व्रात्य कह गए है। २. द्वंद्वयुद्ध करनेवाला। पहलवान। पट्ठा। उ०—कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठा बठत कसरत करता।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ४५६। २. मनुस्मृति के अनुसार एक व्रात्य क्षत्रिय़ जात का नाम। ४. ब्रह्मववत के अनुसार लट पता तीवरी माता से उत्पत्र एक वर्णसंकर जाति का नाम। ५. पराशर पद्धति के अनुसार कुंदकार पिता और तंतुवाय माता में उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति। ६.पात्र।७.कपोल।८. एक प्रकार की मछली। ९. एक प्राचीन देश का नाम जो विराट देश के पास था। १०. दीप। उ०—दगदगाति जो मल्ल सी अग्नि राशि की कांति। सोई मणि माणिक विपे, काति रंग की भाँति। — रत्नचपरीक्षा (शब्द०)।
⋙ मल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दाँत। २. दावट। चिरागदान। ३. दीप। दीया।४. नारियल के छिलके का बना हुआ पात्र।५. बर्तन। पात्र। ६. डव्वे या संपुट का पल्ला।
⋙ मल्लकाछ
संज्ञा पुं० [सं० मल्ल + हिं० काछ] दे० 'मलकाछ'। उ०—तब तो मोर मुकुट, काछनी, धोती, उपरेना, वागा, पाग, फेंटा, कुलही, टिपारो, मल्लकाछ, पिछोरा या प्रकार भाँति भाँति के सिंगार करे। —दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ९६।
⋙ मल्लक्रीड़ा
संज्ञा पुं० [सं० मल्लक्रीडा] मल्लयुद्घ। कुश्ती।
⋙ मल्लखंभ
संज्ञा पुं० [सं० मल्ल + हिं० खंभ] दे० 'मलखम'।
⋙ मल्लज
संज्ञा पुं० [सं०] काली मिर्च।
⋙ मल्लतरु
संज्ञा पुं० [सं०] पियाल या पियार का पेड़। चिरौंजी।
⋙ मल्लताल
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत शास्त्रानुसार एक ताल का नाम जिसनमें पहले चार और फिर दो द्रुत मात्राएँ होती हैं। यह ताल के आठ मुख्य भेदों में से एक माना जाता है।
⋙ मल्लतूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नगाड़ा जो रस्साकसी के समय बजाया जाता था [को०]।
⋙ मल्लनाग
संज्ञा पुं० [सं०] कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन का एक नाम।
⋙ मल्लपछार
वि०[सं० मल्ल + हिं० पछाड़ना] पहलवानों को पछाड़नेवाला। उ०—मदहारी श्री मुकुटवर, मधुपुर मल्ल- पछार। —दरिया० वानी, पृ० १८।
⋙ मल्लभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मल्लभूमि' [को०]।
⋙ मल्लभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मलद नामक देश।२. कुश्ती लड़ने की जगह। अखाड़ा।
⋙ मल्लयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] परस्पर द्वं द्वयुद्ध जो बिना शस्त्र के केवल हाथों से किया जाय। बाहुयुद्ध। कुश्ती। पर्या०— नियुद्घ। बाहुयुद्घ। विशेष— यह युद्ध प्राचीन मल्ल जाति के नाम से प्रख्यात है। इस जाति के लोग अखाड़ों में व्यायाम और युद्ध किया करते थे। महाभारत के काल में इनकी युब्बणाली को राजा लोग इतना पसंद करते थे कि प्रायः सभी राजाओं के दरबार में मल्ल नियुक्त किए जाते थे और उन्हें अखाड़ों में लड़ाया जाता था। कितने लोग मल्लों को रखकर उनसे स्वयं शिक्षा प्राप्त करते थे और मल्लयुद्घ में निपुणता बड़े गौरव की बात मानी जाती थी। जरासंघ और भीम मल्लयुद्ध के बड़े व्यसनी थे। जरासंध के यहाँ मल्लों की एक सेना भी थी।
⋙ मल्लविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुश्ती की कला या विद्या। मल्लयुद्ध की विद्या।
⋙ मल्लशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मल्लयुद्ध करने का स्थान। मल्लभूमि। अखाड़ा।
⋙ मल्ला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। नारि। २. मल्लिका। चमेली। ३. एक लता का नाम। पत्रवल्ला।
⋙ मल्ला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. जुलाहों के हत्था नामक औजार का ऊपरी भाग जिसे पकड़कर वह चलाया जाता है। २. एक प्रकार का लाल रंग जो कपड़े को लाल या गुलाबी रंग के माठ में बचे हुए रंग में ड़ुबाने से आता है।
⋙ मल्लार
संज्ञा पुं० [सं०] मलार नाम राग। विशेष दे० ' मलार'।
⋙ मल्लारि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृष्ण।२. शिव।
⋙ मल्लारि (२)
संज्ञा स्त्री० एक रागिनी। दे० 'मल्लारी'।
⋙ मल्लारी
संज्ञा पुं० [सं०] वसंत राग की एक रागिनी का नाम। विशेष—हलायुव ने इसे मेघ राग को रागिनी और ओडव जाति की मान है और घ, नि, रि ग, म, ध इसका स्वरग्राम बतलाया है।
⋙ मल्लाह
संज्ञा पुं० [अ०] [ स्त्री० मल्लाहिन] एक अंत्यज जाति जो नाव चलाकर और मछलियाँ मारकर अपना निर्वाह करती है। केवट। धीवर। माझी।
⋙ मल्लाही (१)
वि० [फा०] मल्लाह संबंधी। मल्लाह का। मुहा०— मल्लाही काँटा= लोहे का एक काँटा जिसका चिपटा करके मोड़ा या घुमाया होता है। ऐसा काँटा नाव की पटरियों के जड़ने में काम आता है।
⋙ मल्लाही (२)
संज्ञा स्त्री० मल्लाह का काम, मजदूरी या पद।
⋙ मल्लि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार चौबीस जिनों में उन्नीसवें जिन का नाम। इन्हें मल्लिनाथ कहते हैं।
⋙ मल्लि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] मल्लिका।
⋙ मल्लिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का हंस जिसके पैर और चोंच काली होती है। २.जोलाहों की ढरकी।३. माघ का महीना।
⋙ मल्लिक (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मलिक'।
⋙ मल्लिक (३)
संज्ञा पुं० वंगालियों की एक जाति और अल्ल या उपनाम।
⋙ मल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का वेला जिसे मोतिया कहते है। उ०—द्दगजल से सानंद, खिलेगा कभी मल्लिकापुंज।—झरना, पृ० ९। विशेष —वैद्यक में इसका स्वाद कड़वा ऐर चरपरा, प्रकृति गरम और गुण हलका, वीर्यवर्घक, बात-पित-नाशक, अरूचि और बिष मे हितकर तथा व्रण और कोढ़ का नाशक लिखा है। इसका फूल सफेद और गोल तथा गंघ मनोरम होती है। कुछ लोग भ्रमवश इसे चमेली समझते हैं। २. आठ अक्षरों का एक वर्णिक छंद जिसके प्रत्यके चरण में रगण, जगण और अंत में एक गुरू और एक लघु होता है। जैसे— एक काल रामदेव। सोधु बंधु करत सेव। शोभिजै सबै सो और। मंत्रि मित्र ठौर ठौर। ३. सुमुखि वृत्ति का एक नाम। ४. एक वाद्य का नाम (को०)। ५. दीवट (को०)६. एक प्रकार का मिट्टी का बर्क्षन (को०)।
⋙ मल्लिकाक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का घोड़ा जिसको आँख पर सफेद धब्बे होक्षे हैं। २. घोड़े की आँख पर के सफेद धब्बे।३. एक प्रकार के हंस का नाम।
⋙ मल्लिकाक्ष (२)
वि० सफेद आँखवाला। कंजा।
⋙ मल्लिकाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँख पर सफेद धव्बेवाली कुतिया [को०]।
⋙ मल्लिकाख्य
संज्ञा पु० [सं०] दे० मल्लिकाक्ष [को०]।
⋙ मल्लिकाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मल्लिकापुष्प [को०]।
⋙ मल्लिकामोद
संज्ञा पु० [सं०] ताल के साठ मुख्य भेदा में से एक भेद का नाम जिसमें चार विराम होते हैं।
⋙ मल्लिकाछद
संज्ञा पुं० [सं०] दीपक का आच्छादन। (अँ) लैप रोड [को०]।
⋙ मल्लिकापुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. मल्लिका का फूल।२. कुटजवृक्ष।
⋙ मल्लिकार्जुन
संज्ञा पुं० [सं०] एक शिवलिंग का नाम जो श्रीशैल पर है। यह द्वादश ज्योतिलिंग में से एक है।
⋙ मल्लिगंधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जैनियों के उन्नीसवें तीर्थकर का नाम। २. संस्कृत काव्यों (रधुवंश, कुमारसंभव, किरातार्जुनीय, शिशापालवध, नैषवचरित, मेघदूत आदि) के प्रसिद्ध टीकाकार जिनका समय १४ वीं १५वीं शताब्जी के लगभग है। इनका पूरा नाम मल्लिनाथ सूरि था।
⋙ मल्लिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] छत्राक। कुकुरमुता [को०]।
⋙ मल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मल्लिका। उ०— लपचत इव माधविका सुवास। फूली मल्ली मिलि करि उजास। —भारतेंदु ग्रं०, भा०, २,पृ० ३११। २. सुंदरी वृति का एक नाम।
⋙ मल्लु
संज्ञा पुं० [सं०] १. भालू।२.बंदर।
⋙ मल्लू
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मल्लु'।
⋙ मल्हनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की नाव जिसका अगला भाग अघिक चौड़ा होता है।
⋙ मल्हपना पु †
क्रि० अ० [प्रा० मल्ह] लीला करना। लीला के साथ धीरे धीरे चलना। उ०—सही समाँणी साथि करि, मंदिर कूँ मल्हपंत। —ढोला०, दू०९८।
⋙ मल्हम
संज्ञा पुं० [फा़० मरहम]दे० 'मलहम'। उ०—हाय हाय मुख तें परे इस्क के घाव। मल्हम यहि सहि जानियो मोहन दरस दिखाव। —ब्रज, ग्रं०, पृ० ३५।
⋙ मल्हराना †
क्रि० स० [सं० मल्ह(=गोस्तन) ] चुप करना। पुचकारना। मल्हाना। उ०—रूचिर सेज लै गई मोहन को भूजा उछंग सुवावति है। सूरदास प्रभु सोई कन्हैया हलरावति मल्हरावति है। —सूर (शब्द०)। विशेष—गौओं को दुहते समय जब दुहनेवाला उनके स्तन से दूघ निकालता है, तब नई गौएँ बहुत उछलती कूदती औरलात चलाती है। इसके लिये दुहनेवाले उन्हें चुमकारते पुचकारते हैं जिससे वे शांत हों और दुहने दें। इसीलिये 'मल्ह' शब्द से जिसका अर्थ गोस्तन है, मल्हराना, मल्हाना, मल्हारना आदि क्रियाएँ चुमकारने के अर्थ में बनी हैं।
⋙ मल्हाना †
क्रि० स० [सं० मल्ह(= गोस्तन) ] चुमकारना। पुचकारना। मल्हराना। उ०— (क) यशोदा हरि पालनहि झुलावै। हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै।— सूर (शब्द०)। (ख) वछरू छबीले छौना छगन मगन मेरे कहति मल्हाइ मल्हाई। सानुज हिय हुलसति, तुलसी के प्रभु की ललित ललित लरिकाई।— तुलसी (शब्द०)। (ग) कहति मल्हाइ मल्हाइ उर छिन छिन छगन छवीले छोटे छैया। मोद कंद कुल कुमुद चंद मेरे रामचेद्र रघुरैया।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ मल्हाना पु (२)
क्रि० अ० [अप० मल्ह] पुचकारना। किसी का चरित्र- गान करना। रह रहकर गाना। उ०—कवण देस तइँ आविया, किहाँ तुम्हारउ वास। कुणँ ढोलउ, कुण मारूवि, राति मल्हाया जास।—ढोला०, दू०,१९५।
⋙ मल्हावेल
संज्ञा स्त्री० [देश०] मौला नाम की वेल जो प्रायःवृक्षों पर चढ़कर उन्हे बहुत अधिक हानि पहुँचाती है। विशेष दे० 'मौला'।
⋙ मल्हार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मलार'।
⋙ मल्हारना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'मल्हाना'।
⋙ मवक्किल
संज्ञा पुं० [अ० मुवक्किल][ स्त्री० मविक्किला (क्व०)] १.अपनी ओर से वकील या प्रतिनिधि नियत करनेवाला पुरूष। मुकदमे में अपनी ओर से कचहरी या न्यायालय में काम करने के लिये अधिकारी प्रतिनिधि नियत करनेवाला पुरूष।२. कितो को अपना काम सुपुद करनेलवाला। असामी।
⋙ मवन पु (१)
वि० [सं० मौन] दे० 'मौन'। उ०— कोउ तौ मवन कोऊ नगन विचार है।—भाखा० श०, पृ० ५५।
⋙ मवन पु (२)
वि० [हिं० मापना] १. मापित। मापा या नापा हुआ। २. विचारित। उ०—मवन मंत चुक्कौन सोइ वर मंत विचारौ।— पृ० रा०, २७। २३।
⋙ मवनी पु
वि० [सं० मौनी] दे० 'मौनी'। उ०—पेम पियाला पीवे मवनी। —कबीर रे०, पृ०२।
⋙ मवर
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध मतानुसार एक बहुत बड़ी संख्या।
⋙ मवर्रिखा
वि० [अ०] लिखित।
⋙ मवसर ‡
संज्ञा पुं० [अ० मुयस्सर] मौसर। दर्शन का अवसर। उ०— मवसर तिका कुसुम फल मंजर। साख प्रसाख सरूप सुरंतर। —रा० रू०, पृ० ३५३।
⋙ मवाजिब
संज्ञा पुं० [अ०] नियमित मात्रा में नियमित समय पर मिलनेवाला पदार्थ। भृति।जैसे, वेतन, महसूल आदि। उ०— फकीरों के, मवाजिब बंद हो गए। —शिवप्रसाद (शब्द०)।
⋙ मवाजी
वि० [अ० मवाजी] अनुमान किया हुआ। अनुमानित। विशेष— इस शब्द का प्रयोग और गाँव के अंशों का द्योतन करने के लिये होता। जैसे, मवाजी दस आना, पवाजी पाँच बीधा छह विस्वा।
⋙ मवाद
संज्ञा पुं० [अ०] १. सामग्री। सामान। मसाला। २. पीव। मवाद।३. प्रामाण। सबूत (को०)।
⋙ मवाली
संज्ञा पुं० [अ०] १. यार दोस्त। संगी साथी।२. बदमाश। गुंड़ा। ३. दक्षिण भारत की अर्धसम्य और उर्छ खल एक जाति।
⋙ मवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षा का स्थान। त्राणस्थल। आश्रय। शरण। उ०—(क) चलन न पावत निगम पथ जग उपजी अति त्रास। कुच उतंग गिरिवर गह्यौ मीना मैन मवास।— विहारी (शब्द०)। (ख) दैन लगै मन मृगहि जब बिरह अहेरी त्रास। जाइ लेत हैं दौरि तब प्रीतम सुवन मवास।— रसनिधि (शब्द०)। मुहा०—मवास करना= बसेरा करना । निवास करना। उ०— कहै पदमाकर कलिंदो के कदंवन पै, मधुवन कोन्हीं आइ महत मवासो है। —पद्माकर (शब्द०)। २. किला। दुर्ग। गढ़। उ०—(क) हठो मरहठो ता में राख्यो न मवास कोऊ छीने हथियार डोलैं बन बनजारे से।—भूषण (शब्द०)। (ख) रहि न सकी सब जगत में सिसिर सोत के भास। गरमि भाज गढ़वै भई तिय कुच अचल मवास।— बिहारी (शब्द०)। (ग) सिंधु तरे बड़े वीर दले खल जोर हैं लंक से बंक मवासे।—तुलसी (शब्द०)। ३. वे पेड़ जो दुर्ग के प्राकार पर होते हैं। उ०—जहाँ तहा होरी जरै हरि होरी है। मनहुँ मवासे आगि अहो हरि होरी है।—सूर (शब्द०)।
⋙ मवासी (१)
संज्ञा स्त्री० [ हिं० मवास] छोटी गढ़। गढी़। उ०— (क) जम ने जाइ पुकारिया डंडा दीया डारि। संत मवासी ह्वै रहा फाँसि न परै हमारि।—कबीर (शब्द)। (ख) कोट किरीट किए मतिराम करै चढ़ि मोरपखानि मवासी।— मतिराम (शब्द०)। मुहा०— मवासी तोड़ना= (१)गढ़ तोड़ना। (२) विजय करना। संग्राम जीतना। उ०—कब दतै मवासी तोरी। कब सुकदेव तोपची जोरी।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मवासी (२)
संज्ञा पुं० १. गढ़पति। किलेदार। उ०—(क) आइ मिले सब विकट मवासी। चुक्यौ अमल ज्यों रैयत खासी।— लाला (शब्द०)। (ख) हुते शत्रु जेते भए ते भिखारी। मवासे मवासीन की जोम झारी।—सूदन (शब्द०)।२. प्रधान। मुखिया। अधिनायक। उ०—(क) गोरस चुराइ खाइ वदन दुराइ राखै मन न घरत वृंद्रावन को मवासी। सूर श्याम तोहि घर घर सब जानै इहाँ को है तिहारी दासी।—सूर (शब्द०)। (ख) वन मैं बंसी बजावत डोलत घर मैं भए हौ मवासी।—घनानंद, पृ४४४।
⋙ मवेशी
संज्ञा पुं० [अ० माशियह् का बहु व० मवाशी] पशु। ढोर। डंगर। यौ०—मवेशीखाना।
⋙ मवेशीखाना
संज्ञा पुं० [फा़० मवेशीखानह्] वह बाड़ा जिसमें मवंशी रखे जाते है। विशेष—वर्तमान सरकारी राज्य में स्थान स्थान पर ऐसे मवंशीखाने हैं जिनमें ऐसे मवेशी बंद किए जाते हैं जिन्हें कृपक उनकी खेती को हानि पहुँचाने पर हाँककर ले जाते हैं। वे मवेशी तबतक उस मवेशीखान में बंद रहते हैं जबतक कि उनका मालिक प्रति मवेशी कुछ दंड और खूराक खर्च वहाँ के कर्मचारी को नहीं दे देता। मवेशीखाने का कर्मचारी 'मुहर्रिर मवेशी' कहलाता है।
⋙ मश
संज्ञा पुं० [सं] १. क्रोध। २.मच्छड़।
⋙ मशक (२)
संज्ञा पुं० [सं] १. मच्छड़। २. गार्ग्य गोव में उत्पन्न एक आचार्य का नाम जो एक कल्पसूत्र के रचयिता थे। ३. महाभारत के अनुसार शकद्वीप में क्षत्रियों का एक निवासस्थान। ४. मसा नामक चर्मरोग।
⋙ मशक (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] चमडे़ का बना हुआ थैला जिसमें पानी भरकर एक स्थान से दूसरे पर ले जाते हैं।
⋙ मशककुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मच्छड़ हाँकने की चौरी।
⋙ मशकबीन
संज्ञा पु० [फा़० मशक + हिं० बीन] एक प्रकार का मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला बाजा जिसमें थैला सा बना रहता है और जिसमें एक नली फूकने के लिये तथा अन्य स्वर संयोजनार्थ होती है। यह शब्द (अं० वैग पाइप का) हिंदी रूपांतर है।
⋙ मशकहरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मसहरी'।
⋙ मशकावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम।
⋙ मशकी
संज्ञा पु० [सं० मशकिन्] उदुंवर। गूलर का पेड़ जिसमें मशक रहते हैं [को०]।
⋙ मशकूर
वि० [अ०] कृतज्ञ के।
⋙ मशक्कत
संज्ञा स्त्री० [अ० मशक्कत] १. मेहनत। श्रम। परिश्रम। २. वह परिश्रम जो जेलखाने के कैदियों को करना पड़ता हैं। जैसे, चक्की पीसना, कोल्हू पेरना, मिट्टी खोदना रस्सी बटना आदि।३. कष्ट। दुःख। तकलीफ (को०)।
⋙ मशक्कती
वि० [अ० मशक्कत] मेहनत करनेवाला। मेहनती। परिश्रमी।
⋙ मशगला
संज्ञा पु० [अ० मशगलहू] १.उद्यम। व्यवसाय। २. व्यापार। शगल। ३. कार्य। काम [को०]।
⋙ मशगूल
वि० [अ० मशगूल] काम में लगा हुआ। प्रवृत। लीन।
⋙ मशरव
संज्ञा पुं० [अ० मश्रब] १. पानी पीने का स्थान। २. नत। अकीदा। विश्वास [को०]।
⋙ मशरिक
संज्ञा पुं० [अ० मश्रिक] सूर्य निकलने का स्थान। उदयाचल।२. पूर्व। पूरब। उ०—यों सुन्या हुँ शहर मशरिक का नकल, बादशाह उस शहर म्याने था अकल। —दक्खिनी०, पृ० ३६३।
⋙ मशरिकी
वि० [अ० मश्रिकी] १. पूर्वोय। पूरब का। २. जो पश्चिमी या युरोप का न हो, एशिया का हो [को०]।
⋙ मशरू
संज्ञा पुं० [अ० मशरूअ] एक प्रकार का धारीदार कपड़ा। विशेष— यह रेशम और सूत से बुना जाता है। मुसलमान स्त्री पुरूप इसका पायजामा बनाकर पहनते हैं। यह अधिकतर बनारस में बनता है।
⋙ मशवरा
संज्ञा पुं० [अ० मशवरह्] दे० 'मशविरा'।
⋙ मशविरा
संज्ञा पुं० [अ० मशवरह्] सलाह। परामर्श। मंत्रणा। यौ०—सलाह मशविरा = परामर्श। उ०—उन्होंने समझा कि सुडूर पूर्व में भी एक प्रबल शक्ति का प्रादुभवि हुआ और बड़े बड़े राजकीय मामलों में अब आगे उससे भी सलाह मशविरा करने की जरूरत पड़ा करेगी। —द्विवेदी (शब्द०)।
⋙ मशहूर
वि० [अ०] प्रख्यात। प्रसिद्ध।
⋙ मशाता
संज्ञा स्त्री० [अ० मश्शातह्] १. प्रसाधिका।२. कुटनी। दूती। उ०—छिपी थी सो एक माह मद की छबीली। मशाता हो ईदी निगारत दिखाया। —दक्खिनी०, पृ० ७३।
⋙ मशान
संज्ञा पुं० [सं० श्मशान] मरधट। उ०—बसे मशान भूत ?? लिये। रक्त फूल की माला दिए।—लल्लू (शब्द०)।
⋙ मशायरा
संज्ञा पुं० [अ० मशाबरहू] दे० 'मुशायरा'। उ०—आज इस महल्ले में एक जगह मशायरा होगा इस वास्ते दो घड़ी वहाँ जाने का इरादा है।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३६।
⋙ मशाल
संज्ञा पुं० [अ० मशअल, मिशाअल] एक प्रकार की मौटी बती जिसके नीचे पकड़ने के लिये काठ का एक दस्ता लगा रहता है और जो हाथ में लेकर प्रकाश के लिये जलाई जाती है। विशेष—यह कपडे की बनाई जाती है और चार पाँच अंगुल के व्यास की तथा दो ढाई हाथ लंबी होती है। जलते रहने के लिये इसके मुँह पर बार बार तेल की धारा डाली जाती है। मुहा०—मशाल लेकर या जलाकर ढूँढना= अच्छी तरह ढूँढना बहुत ढँढ़ना। उ०—अगर मशाल लेकर भी ढूँढोगी तो इतना बडा दुश्मन न मिलेगा। —फिसाना०, भा० ३, पृ० ६१३।
⋙ मशालची
संज्ञा पुं० [फा़०] [स्त्री० मशालचिन] मशाल दिखलानेवाला। मशाल जलाकर हाथ में लेकर दिखलानेवाला।
⋙ मशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मसि' [को०]।
⋙ मशीखत
संज्ञा स्त्री० [अ० मशीखत] १. बड़प्पन। बुजुर्गो (को०)। २. शेखी। घमंड। मुहा०—मशीखत बधारना= बढ बढ़कर बातें करना। शेखी बघारना।
⋙ मशीन
संज्ञा स्त्री० [अं०] किसी प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से कोई चीज तैयार की जाय। कल।यौ०—मशीनगन= एक प्रकार की बंदूक जिससे बहुत तेजी से गोलियाँ छूटती है। मशीनमैन =मशीन चलानेवाला आदमी। प्रेम मैन।
⋙ मशीनरी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. किसी कारखाने के यंत्रों का समूह। २. कार्यपक्रिया। रचनापद्धति [को०]।
⋙ मशीर
संज्ञा पुं० [अ०] मशविरा देनेवाला। सलाह देनेवाला। मंत्रणा देनेवाला। मंत्री।
⋙ मशुन
संज्ञा पुं० [सं०] श्वान। कुत्ता [को०]।
⋙ मश्क
संज्ञा पुं० [अ० मश्क] किसी काम को अच्छी तरह करने का अभ्यास। उ०—दिया सख्त मुश्किल मश्क दकीक। था पानी का वाँ इस चशमा अमीक।—दक्खिनी०, पृ० ३४५।
⋙ मश्करी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मसखरी] दे० 'मसखरी'। उ०—'मसखरी'। उ०—दुष्ट राणे ने मश्करी के साथ विष को चरणामृत कहलाकर भिजवाया।—राम० धर्म०, पृ० २८२।
⋙ मश्कूक
वि० [अ०] जिसपर शक हो। संदेग्ध। २. जिसको शक हो। शंकावान। शंकित [को०]।
⋙ मशकूर
वि० [अ०] दे० 'मशकूर'।
⋙ मश्शाक
वि० [अ० मश्शाक] जिसे कोइ काम करने का खूब अभ्यास हो। अभ्यस्त।
⋙ मश्शाकी
संज्ञा स्त्री० [अ० मश्शाक] अभ्यस्त होना। निपुण होना। निपुणता [को०]।
⋙ मश्शाता
संज्ञा स्त्री० [अ० मश्शातह्] प्रसाधिका। दे० 'मशाता'।
⋙ मष
संज्ञा पुं० [सं मख] दे० 'मख'। उ०—दक्ष लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग। नेवते सादर सकल सुर जे पावत मप भाग।—मानस, १। ६०।
⋙ मषार पु
वि० [सं० अमर्य] १. ईष्यालू। द्बिषी। २. क्रोधी। ३. चिकना चुपड़ा। उ०—फंदैत कुरँग से दून सार। जर हेम पट्ट डोरी मषार। —पृ० रा०, ५८।२१।
⋙ मषि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काजल। सुरमा।३.स्याही।
⋙ मषिकूपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दावात।
⋙ मषिघटी्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दावात।
⋙ मषिवान
संज्ञा पुं० [सं०] दावात।
⋙ मषिपण्य
संज्ञा पुं० [सं०] लिखने का काम करनेवाला। वह जो लिखने का काम करता हो। लेखक।
⋙ मषिप्रसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दावात। २. कलम।
⋙ मषिमणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दावात।
⋙ मषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मषि'।
⋙ मष्ट
वि० [सं० मष्ट, प्रा० मष्ट= मट्ट] १. संस्कारशून्य। जो भूल गया हो। २. उदासीन। मौन। उ०—(क) सो अवगुन कित कोजिए जिव दोजै जेहि काज। अव कहनो है कछु नहीं मष्ट भलो पखिराज। —जायसी (शब्द०) सुनिहैं लोग मष्ट अबहुँ करि तुमहि कहाँ की लाज। सूर स्याम मेरौ माखन भोगी तुम आवति वेकाज।—सूर०, १०। ७७५। मुहा०—मण्ट करना= ?? रहना। मुँह न खोलना। उ०— (क) वोलत लखनहि जनक डेराहों। मष्ट करहु अनु चेत भल नाहीं। तुलसी (शब्द०)। (ख) वूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हैस मष्ट करि रहहू।—तुलसी (शब्द०)। (ग) स्याम तन देखि री आपु तन देखिए। भोति जौ होइ तौ चित्र अवरेखिए।......कहाँ मेरे कान्ह की तनक सी आगुरी बडे़ बडे़ नखनि के चिन्ह तैरै। मष्ट करू हँमैगे लोग, अँकवार भरि भुजा पाई कहाँ श्याम मेरे।— सूर०, १०। ३०७। मष्ट धारना= मीन धारण करना। चुप्पी साधना। उ०—मुन्यो वसुदेव दोउ नदसुवन आए। त्रिया सौ कहत कछु सुनत है री नारि, रातिहु सपन कछु ऐसे पाए। गए अकूर तोह नृपति माँगे वोलि, तुरत आए आइ कंस मारे। कहा पिय कहत, सुनिहे वात पौरया, जाय कहिहै रहौ मष्ट वारि।—सुर०,१०। ३०८९। मष्ट मारना = मौन धारण करना। चुपचाप रहना। उ०—एक दिन वह रात्रि समय स्त्री के पास सेज पर तन छीन मन मलीन मष्ट मारे बैठा मन ही मन कुछ विचार करता था। —लल्लू (शब्द०)।
⋙ मष्णार
संज्ञा पु० [सं०] ऐतरय ब्राह्मण के अनुसार एक प्राचीन स्थान का नाम।
⋙ मष्परो पु
वि० [सं० मत्सर या अमर्प, हिं० माखना] मत्सरवाला। क्रोधयुक्त। उ०—गजन पंति ढुलि ढाल तत तोपार पष्पारेय। जंत्र गोर गहरान मिलत मेछान मप्पारेय। —पृ० रा०, ३३। २९।
⋙ मसंद पु
संज्ञा स्त्री० [अ० मसनद, हिं० मसनंद] दे० ' मसनद'। उ०—हम्मीर राव राजत मसंद। दुहुँ ओर ढौरैअमंद।— ह० रासो, पृ० १११।
⋙ मस पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मसि] स्याही। रोशनाई। उ०—सात स्वर्ग को कागद करई। घरतो दुहूँ मस भरई। —जायसी (शब्द०)।
⋙ मस (२)
संज्ञा पुं० [सं० मशक] मच्छड़। मशक। उ०—दादुर काकोदर दसन परं मसन मात ध्याउ। —दीन० ग्रं०, पृ० २०९। यौ०—मसहरी = दे० 'मशहरी'।
⋙ मस (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्मश्रु] मोछ निकलने से पहले उसके स्थान पर की रोमावली। उ०—उनके भी उगती मसों से रस का टपका पड़ना और अपनी परछाई से अकड़ना इत्यादि।.... शिवप्रसाद (शब्द०)। मुहा०—मस भींजना = मूछों का निकलना आरंभ होना। मूछों की रेखा दिखाई पड़ने लगना। उ०—उठत वैस मस भींजत सलोने सुठि सोमा देखवैया बिनु बित ही बिकैहैं। — (शब्द०)।
⋙ मस (४)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मसा'।
⋙ मसा (५)
संज्ञा पुं० [सं०] माप। तौल [को०]।
⋙ मस (६)
संज्ञा पुं० [अ०] १. चूसना। चूपण। २.छूना।३. पसंद। रूचि [को०]।
⋙ मसक
संज्ञा पुं० [सं० मशक] ममा। मच्छड़। डांस। उ०— मसक समान रूप कपि परी। लंकहि चलेउ सुमिरि मन हरी। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ मसक (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़० मशक] दे० ' मशक'। उ०—छूछी मसक पवन पानो ज्या तैसेई जन्म बिकारी हो। —सूर (शब्द०)।
⋙ मसक (३)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] मसकने की क्रिया या भाव।
⋙ मसक
संज्ञा पुं० [हिं० मसक] एक प्रकार का वाजा। मशकवीन। उ०—झाझ मजीरे मसक समय अनुसार।— प्रेमधन०, भा० १, पृ० ७८।
⋙ मसकची
संज्ञा पुं० [फा़० मशक + तु० ची (प्रत्य०)] भिश्ती। मसकवाला। उ०—उस समय बादशाह का गुलाम एक मसकचो था। —हुमायू०, पृ० ६९।
⋙ मसकत पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० मशक्कत] दे० 'मशक्कत'। उ०— तुम कब मो सो पतित उवारयो। काहे प्रभु बिरद बुलावत बिन मसकत को तारया। —सूर (शब्द०)।
⋙ मसकन
संज्ञा पुं० [अ० मस्कन] निवासस्थान। घर। मकान। उ०—मुवारक शहर मगरिब थ मसकन। बलियाँ में सब अथै अफजल हर यक मन। —दक्खिनी०, पृ० ११५।
⋙ मसकना (१)
क्रि० स० [अनु०] १. खिचाव या दबाव में डालकर कपड़े को इस प्रकार फाड़ना कि वुनावट के सब तंतु टूटकर अलग हो जायँ। २. किसी चीज को इस प्रकार दबाना कि वह बीच मे से फट जाय या उसमें दरार पड़ जाय। उ०— महावली वालि को दबतु दलकत भूमि तुलसी उछरि सिंधु मेरू मसकतु हैं। —तुलसी (शब्द०)। ३. जोर से दबाना । जोर से मलना। उ०—सो सुख भाषि सकै अब को रिस कै कसकै मसकै छतियाँ छिये। राति की जागी प्रभात उठी अंग- रात जम्हात लजात लगी हिये। —पद्माकर (ग्रं०, पृ० १७१)। ‡४. वैलों को बलपूवक हाँकना। दौड़ाना। भगाना। उ०— गाड़ी वारे मसकि दे बैल अबै पुरवैया के बादर ऊन आए।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १५६। संयो० क्रि०— ड़ालना।— देना।
⋙ मसकना (२)
क्रि० अ० किसी पदार्थ का दबाव या खिचाव आदि के कारण बीच में फट जाना। जैसे,—कपड़ा मसक गया, दीवार मसक गई। संयो० क्रि०— जाना। २. (चित्त का) चितित होना। दुःख के कारण धसना। उ०— राजकुमार धीरे से उसी स्थान पर बैठ गए। पूर्वकालीन वातें स्मरण होने लगीं ओर कलेजा मसकने लगा। —गदाधरसिंह (शब्द०)।
⋙ मसकरा पु
संज्ञा पु० [अ० मसखरा] दे० 'मसखरा'। उ०—(क) जूझैगे तब कहैगे अब क्या कहें वनाय। भीर परै मन मसकरा लडै कियौ भगि जाय। —कबीर (शब्द०)। (ख) दादू यहु मन मसकरा, जिनि कोई पतियाइ। —दादू०, पृ० २०९।
⋙ मसकरी पु
संज्ञा स्त्री० [ हिं० मसखरी] दे० 'मसखरी'। उ०— काँद न देह मसकरी करई। कहू हुइ भाति कसे निस्तरई।—कबीर वी० (शिशु०), पृ० २०६।
⋙ मसकला
संज्ञा पु० [अ० मलकलह्] १.सिकलीगरों का एक औजार जो हँसिया के आकार का होता है और जिसमें काठ का एक दस्ता लगा रहता है। इससे रगड़ने से धातुओं पर चमक आ जाती है। प्रायः तलवारें आदि भी इसी से साफ की जाती हैं। उ०—(क) गुरू सिकलौगर कीजिए, ज्ञान मसकला देइ। मन की मैल छुड़ाइ कै, सुचि दर्पण कर लेइ। —कबीर (शब्द०)। (ख) शिष्य खाँड़ गुरू मसकला, चढै शब्द खरसान। शब्द सहे सन्मुख रहे, निपंज शिष्य सुजान। —कबीर (शब्द०)।२. सैकल या सिकली करने की क्रिया।
⋙ मसकली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] 'मसकला'।
⋙ मसका
संज्ञा पुं० [फा़० मस्कह्] १. नवनीत। मक्खन। नैनूँ २. ताजा निकाला हुआ घी।
⋙ मसका (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. दही का पानी।२. रासायनिक परिभाषा में, बाँघा हुआ पारा।३. चूने की बरी का वह चूर्ण जो उसपर पानी छिड़कने से हो जाता है।४. कायस्थ। (सुनार)।
⋙ मसका पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० मशक] दे० 'मसक (१)'। उ०—मसका कहत मेरी सरभरि कौन उड़ै। मेरे आगे गरूड़ की कतीयक जर है। —सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४९९।
⋙ मसकाना † (१)
क्रि० स०, अ० [अनु०] दे० 'मसकना'।
⋙ मसकाना पु (२)
क्रि० अ० [अनु०] खाना। भक्षण करना। उ०— आकू षाय भाँगि मसकावै। ता मैं अकलि कहाँ तै आवै। चढ़ताँ पित उतरताँ बाई। तातै गोरख भाँगि न खाई।—गोरख०, पृ० ६९।
⋙ मसकाला पु †
संज्ञा पु० [अ० मसकलहू] दे० 'मसकला'। उ०— कहां ग्यान कहाँ ग्यान का म्याँन कहाँ म्याँन का मसकाला।—रामानंद०, पृ० १३।
⋙ मसकीन पु †
वि० [अ० मिसंकीन] १. गरीब। दीन। बेचारा। उ०— ह्वै मसकीन कुलीन कहावौ तुम योगी संन्यासी। ज्ञानी गुणी शूर कवि दाता ई मति काहु न नासी। —कबीर (शब्द०)। २. साधु। संत। उ०—क्या मूड़ी भूमिहि शिर नाए क्या जल देह नहाए। खून करै मसकीन कहावै गुण को रहै छिपाए।—कबीर (शब्द०)। ३. दरिद्र। कंगाल। ४. भोला भाला। ५. सुशील।
⋙ मसखरा
संज्ञा पुं० [अ० मसखरह्] १. बहुत हँसी मजाक करनेवाला। हँसोड़। ठट्ठेबाज। उ०—कबिरा यह मन मसखरा कहूँ तो माने रोस। जा मारग साहब मिलै तहाँ न चालै कोस। —कबीर (शब्द०)।२. बिदूषक। नक्काल।
⋙ मसखरापन
संज्ञा पुं० [अ० मसखरा + हिं० पन (प्रत्य०)] दिल्लगी। ठठोली। हँसी। ठट्ठा। उ०—मुझको तो आपके मुसाहवों में सिवाय मसखरापन के और कोइ लियाकत नहीं मालूम होती। —श्रीनिवासदास (शब्द०)।
⋙ मसखरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० मसखरा + हिं० ई (प्रत्य०)] दिल्लगी। हँसी। मजाक। उ०—जो कह झूठ मसखरी जाना। कलियुग सोइ गुनवंत बखाना। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ मसखवा †
संज्ञा पुं० [हिं० मांस + खाना] वह जो मांस खाता हो। मांसाहारी। उ०—वूड़ा़हि हस्ति घोर मानवा। चहुँ दिस आय जुरै मसखवा। —जायसी (शब्द०)।
⋙ मसजिद
संज्ञा स्त्री० [फा़० मसजिद] सिजदा करने का स्थान। मुसलमानों के एकत्र होकर नमाज पढ़ने तथा ईश्वरवंदना करने के लिये विशिष्ट रूप में बना हुआ स्थान। विशेष—मसजिद साधारणतः चौकोर बनाई जाती है और उसमें आगे की ओर कुछ खुला हुआ स्थान तथा मुँह धोने के लिये पानी का हौज होता है। पीछे की ओर नमाज पढ़ने के लिये दालान होता है जिसके ऊपर प्रायः एक से चार तक ऊँची मीनारें भी होती हैं, जिनमें से एक पर चढ़कर अजान या नमाज के समय की सूचना दी जाती है।
⋙ मसड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० मिसरी] कंद। (ड़ि०)।
⋙ मसड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
⋙ मसतक पु
संज्ञा पुं० [सं० मस्तक] दे० 'मस्तक'। उ०—सा धण इणि परि राखिजई, जिम सिव मसतक गंग। —ढोला०, दू० ४५३।
⋙ मसती
संज्ञा पुं० [हिं० मस्त] हाथी। (डि०)।
⋙ मसनंद पु
संज्ञा स्त्री० [अ० मसनद] दे० 'मसनद'। उ०—नर धर वर मसनंद सीस उस्सीस धराइअ।—सुजान०, पृ० २३।
⋙ मसन (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का टकुआ जिसकी सहायता से ऊन के कई तागे एक साथ मिलाकर बटे जाते हैं।
⋙ मसन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तौलना। मापना।२. एक प्रकार की जड़ी। ३. चोट। आघात। [को०]।
⋙ मसनद
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. बड़ा तकिया। गाव तकिया। २. तकिया लगाने की जगह। ३. अमीरों की बैठने की गद्दी। उ०—क्या मसनद तकिये मुल्क मकाँ, क्या चौकी कुरसी तख्त छतर।—नजीर (शब्द०)।
⋙ मसनदनशीन
संज्ञा पुं० [अ० मसनद + फा़० नशीन] मसनद पर बैठनेवाला। बड़ा आदमी। अमीर।
⋙ मसनवी
संज्ञा स्त्री० [अ० मस्नवी] उर्दू काव्य का एक प्रकार जिसमें कोइ कहानी या उपदेश एक ही वृत्ति में होता है और जिसमें हर शेर के दोनों मिसरे सानुप्रास होते हैं पर हर शेर का तुक भिन्न होता है। उ०—जेहि के मसनवी जगत महँ, अगम निगम अवगाह।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २३२।
⋙ मसना
क्रि० स० [हिं० मसलना] १. मसलना। उ०—(क) स्वास को चारू प्रकास बयारिन मंद सुगंध हियो मसती है।— रधुनाथ (शब्द०)। (ख) आजु परयो जानि जब आपने मैं सुने कान वाको संबोधन मोसो कह्मो ही मसतु है।—रघुनाथ (शब्द०)।२. गूँबना। जैसे —नेत्रों। के आस पास उर्द के मसे हुए आटे की एक अँगुल ऊँची देवार सी बना दो।
⋙ मसनूई
वि० [अ० मस्नूइ] १. बनावटी। कृत्रिम। २. झूठा। तथ्यरहित। ३.अस्वाभाविक। अप्राकृतिक [को०]।
⋙ मसपूरज पु ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] अस्यि। हड़ूड़ी जिसके आधार पर मास स्थिर रहता है। उ०—नदी सहस नाड़ियाँ प्रगट परवत मसपूरज।—रधु० रू०, पृ० ४५।
⋙ मसमुद पु †
वि० [मस ? + मूँदना (=वद होना)] कशमकश ठेलमठेल। चक्कमधक्का। उ०—तबही सूरज के सुभट निकट मचायो दुंद। निकसि सकै नहि एकहु कस्यां कटक मसमुंद।— सूदन (शब्द०)।
⋙ मसयारा पु †
संज्ञा पुं० [अ० मशअल] १. मशाल। उ०—(क) जानहुँ नखत करहि उजियारा। छिप गए दीपक औ मसयारा।—जायसी (शब्द०)। (ख) बारह अभरन सोरह सिंगारा। तोहि सोहे पिय ससि मसयारा।—जायसी (शब्द०)। २. मशालची। मशाल दिखानेवाला। उ०—सूक मुनेटा सिस मसयारा। पवन करै नित वार बाहारा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मसरना पु †
क्रि० स० [हिं० मसलना] दे० 'मसलना'। उ०— कुँवर कान्हे जमुना मैं न्हात। मनरत सुभग साँवरे गात।— घनानंद, पृ० १८३।
⋙ मसरफ
संज्ञा पुं० [अ० मसरफ़] १. व्यवहारक में आना। काम में आना। उपयोग। २. व्यय करने की जगह, मौका वा अवसर (को०)। ३. प्रयोजन। हेतु (को०)। क्रि० प्र०— में आना।— में लाना।
⋙ मसरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मसुर [को०]।
⋙ मसरू
संज्ञा पु० [अ० मशारूअ] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। विशेष दे० 'मशरू'।
⋙ मसरूका
वि० [अ० मसरूकहू] चोरी किया हुआ। चुराया हुआ। जैसे, माल मसरूका। (कचहरी)।
⋙ मसरूक
वि० [अ० मसरूफ़] काम में लगा हुआ। काम करता हुआ।
⋙ मसल
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कहावत। कहनूत। लोकोक्ति। उ०—हिदू हृदय जो आरति पावे। राम नाम कै मसल चलावे।—गुलाल०, पृ० १२५। २. समान। तुल्य। मिस्ल (को०)।
⋙ मसलति
संज्ञा स्त्री० [अ० मसलहत] दे० 'मसलहत'। उ०—वोलि खाँन सुलतान तब, मसलति करी जु साहि। —ह० रासो, पृ० ९६।
⋙ मसलनू
वि० [अ०] मिसाल के तौर पर। उदाहरण के रूप में। उदाहरणार्थ। जिस तरह। यथा। जैसे।
⋙ मसलन
संज्ञा स्त्री० [हिं० मसलना] १. मसलने का कार्य या स्थिति। रगड़ने का भाव। उ०—चंचल किशोर सुंदरता की, मै करती रहती रखवाली। में वह हलकी सी मसलन हुँ, जो बनती कानों की लाली।—कामायनी, पृ० १०३। २. स्पर्श। छुअन।
⋙ मसलना
क्रि० स० [हिं० मलना] १. हाथ से दबाते हुए रगड़ना। मलना। २. जोर से दबाना। उ०—आज किसी के मसले तारों को वह दूरागत झंकार। मुझे बुलाती है सहमी सी झंझा के परदों के पार। —यामा, पृ० १४। संयों० क्रि०— ड़ालना। देना। ३. आटा गूँधना।
⋙ मसलहत
संज्ञा स्त्री० [अ०] ऐसी गुप्त युक्ति अथवा छिपी हुई भलाई जो सहमा ऊपर से देखने से जानी न जा सके। अप्रकट शुभ हेतु। जैसे—(क) इसमें एक मसलहत है जो अभी तक आपको समझ में नहीं आई। (स) इस समय उसे यहाँ से उठा देने में एक मसलहत थी। २. परामर्श। सलाह। उ०—घरे मसलहत करै वदुरिकै सौ धावै। —पलटू०, पृ० ७०। यौ०— मसलहतअंदेश = समझकर कार्य करनेवाला। मसलहत- पसंद =(१) शुभकामी। खैरख्वाह। (२) दे० 'मसलहतअंदेश'। मसलहतेवक्त = समय की पुकार।
⋙ मसलहतिका पु
वि० [अ० मसलहत] परामर्श देनेवाला। सलाह- देनेवाला। उ०—काम और क्रोध मसलहतिका वे दोऊ।—पलटू०, पृ० ४२।
⋙ मसला (१)
संज्ञा पुं० [अ० मसलह्] कहावत। कहनूत। लोकोक्ति। उ०—आप भलो तौ जग भलो यह मसलो जुअ गोइ। जौ हरि हित करि चित गहो कहो कहा दुख होइ। —स० सप्तक, पृ० २४६।
⋙ मसला (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. समस्या। त्रिषय। प्रश्न। सवाल [को०]। मुहा०— मसला हल होना = समस्या हल होना।
⋙ मसवई
संज्ञा स्त्री० [मसोवा द्वीप] एक प्रकार का बवूल का गोंद जो अदन से आता है। यह पहले मसोवा द्वोप से आता था, इसी से इसका यह नाम पड़ा।
⋙ मसवारा
संज्ञा पुं० [हिं० मास + वारा (प्रत्य०)] प्रसूता का वह स्नान जो प्रसव के उपरांत एक मास समाप्त होने पर होता है।
⋙ मसवासी
संज्ञा पुं० [सं० मासवासी] १. एक स्थान पर केवल एक मास तक निवास करनेवाला विरक्त। वह साधु आदि जो एक मास से अधिक किसी स्थान में न रहे। उ०—कोई सुरिखेसुर कोइ सनियासी। कोई सुरामजति कोई मसवासी।—जायसी (शब्द०)। २. एक महीन से अधिक किसी पुरूष के पास न रहनेवाली स्त्री। गणिका। उ०—तिरिया जो न होइ हरिदासी। जौ दासी गणिका सम जानो दुष्ट राँड मसवासी। —रधुराज (शब्द०)।
⋙ मसविदा
संज्ञा पुं० [अ० मुसविदा] १. वह लेख जो पहली बार काट छाँट के लिये तैयार किया गया हो और अभी साफ करने को बाकी हो। खरी। मसौदा। २. युक्ति। उपाय। तरकीब। क्रि० प्र०— निकालना। मुहा०— मसविदा बाँधना = युक्ति रचना। उपाय सोचना।
⋙ मसहरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मशहरी] १. पलंग के ऊपर और चारों ओर लटकाया जानेवाला वह जालीदार कपड़ा जिसका उपयोग मच्छड़ों आदि से बचने के लिये होता है। २. ऐसा पलंग जिसके चारों पायों पर इस प्रकार का जालीदार कपड़ा लटकाने के लिये चार ऊँची लकड़ियाँ या छड़ लगे हों। विशेष—ऊपर की ओर भी ये चारों लकड़ियाँ या छड़ लकड़ी की चार पाट्टियों या छड़ों से प्रायः जोड़े रहते हैं।
⋙ मसहार पु
संज्ञा पुं० [सं० मांसाहारिनू] मांसाहारी। मांस खानेवाला। उ०—(क) घटे नहि कोह भरे उर छोह। नटे मसहार धरे मन मोह। —सूदन (शब्द०)। (ख) मसहार छाए नभ धरति मन मोह। —सूदन (शब्द०)।
⋙ मसहूर
वि० [अ० मशहूर] दे० 'मशहूर'।
⋙ मसाँन पुं
संज्ञा पुं० [हिं०] उ०—घमसान मसाँन सु ज्योति जगी।—ह० रासो, पृ० १५७।
⋙ मसा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मांसकील] १. शरीर पर कहीं कहीं काले रंग का उभरा हुआ मांस का छोटा दाना जो वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का चर्मरोग माना जाता है, और जो शरीर में अपने होने के स्थान के विचार से शुभ अथवा अशुभ माना जाता है। यह प्रायः सरसों अथवा मूँग के आकार से लेकर बेर तक के आकार का होता है। उ०—अंदाज से जियादा निपट नाज सुख नहीं। जो खाल अपने हद से बढा़ सो मसा हुआ। —कविता कौ०, भा० ४. पृ० १२। २. बवासीर रोग में मांस के दाने जो गुदा के मुँह पर या भीतर होते हैं। इनमें बहुत पीड़ा होती है और कभी कभी इनमें से खून भी बहता है।
⋙ मसा (२)
संज्ञा पुं० [सं० मशक] मच्छड़।
⋙ मसाइक
संज्ञा पुं० [अ० मुशायख (शेख का बहुवचन)] दे० 'शेख'। उ०—पीर पैगंबर किया पयाना। सेख मसाइक सबै समाना।—दादू०, पृ० ५७३।
⋙ मसाण पु
संज्ञा पुं० [राज०] दे० 'मसान'। उ०—काहे रे नर करहु डफाण। अंतिकालि घर गोर मसाण।—दादू०, पृ० ४८४।
⋙ मसान
संज्ञा पुं० [सं० श्मशान] १. वह स्थान जहाँ मुरदे जलाए जाते हों। मरघर। उ—सब मसान पर हमरा राज। कफन माँगने का है काज।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २९२। पर्या०—पितृवन। शतानक। रूद्राक्रीड़। दाहसर। अंतशय्या। पितृकानन। मुहा०— मसान जगाना= तंत्रशास्त्र के अनुसार स्मसान पर बैठकर शव की सिद्ध करना। मुरदा सिद्ध करना। उ०—कपट सयानी न कहति कछु जागति मनहु मसान। —तुलसी (शब्द०)। मसान पड़ना = सन्नाटा हो जाना। २. भूत पिशाच आदि। यौ०— मसान की बीमारी= बच्चों को होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें वे घुल घुलकर मर जाते हैं। ३. रणभूमि। रणक्षेत्र। उ०—तुलसी महेश विधि लोकपालदेवगन देखत विमान चढ़ि कौतुक मसान के। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ मसाना (१)
संज्ञा पुं० [अ० मसानहू] पेट में की वह थैली जिसमें पेशाब जमा रहता है। पेशाब की थैली। मूत्राशय। वस्ति।
⋙ मसाना पु
संज्ञा पुं० [सं० श्मशान] दे० 'मसान'। उ०—लोथ पड़ी भहराय उठत हैं गिद्ध मसाना। —पलटू०, पृ० ७६।
⋙ मसानिया
संज्ञा पुं० [सं० मसान (श्मशान) + इया (प्रत्य०)] १. श्मशान पर रहनेवाला डोम। २. वह जो श्मशान पर रहकर किसी प्रकार की साधना करता हो। ३. वह जो झाड़ फूँककर भूत प्रेत आदि उतारता हो। सयाना। ओझा।
⋙ मसानी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्मशानी] स्माशान में रहनेवाली पिशा- चिनी, डाकिनी इत्यादि। उ०—माइ मसानी सेढ़ि सीतला, भँरू भूत हनुमंत। साहब से न्यारा रहै जो इनको पूजंत। — कबीर (शब्द०)।
⋙ मसायख
संज्ञा पुं० [अ० शेख] दे० 'मसाइक'। उ०—ना कोइ पीर मसायख काजी।—कबीर श०, भा० २, पृ० १५२।
⋙ मसार
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रनील मणि। नीलम।
⋙ मसाल
संज्ञा स्त्री० [अ० मशाल] दे० 'मशाल'। उ०—आनि इतै छन बारि दे छाबि घनसार मसाल। कौन काज तहँ राज जहँ सुधन बदन दुतिजाल। —रामसहाय (शब्द०)।
⋙ मसालची
संज्ञा पुं० [फा० मशालची] दे० ' मशालची'।
⋙ मसालदुम्मा
संज्ञा पुं० [हिं० मशाल + दुम] एक प्रकार का पक्षी जिसको दुम बिलकुल काली रहती है, बाकी सारा शरीर चाहे जिस रंग का हो।
⋙ मसालहत
संज्ञा स्त्री० [अ० मसलहत] सुलह। मेल। संधि। समझौता [को०]।
⋙ मसाला
संज्ञा पुं० [फा़० मसालहू] १. किसी पदार्थ को प्रस्तुत करने के लिये आवश्यक सामग्री। वे चीजें जिनकी सहायता से कोइ चीज तैयार होती है। जैसे, (क) मकान बनाने के लिये सुर्खो, चूना, ईटें, आदि। (ख) रसोइ बनाने के लये हलदी, वनिया मिर्च, जीरा तेजपत्ता आदि। (ग) कपड़ा पर टाँकने के लिये गोटा, पट्टा, किनारी आदि। (घ) ग्रंथ या लेख आदि लिखने के लिये दूसरे ग्रंथ आदि। यौ०— गरम मसाला। मसालेदार। मसाले का तेल। २. ओषधियों अथवा रासायनिक द्रव्यों का योग या समूह। जैसे, पतील साफ करने का मसाला, पान का मसाला सिर मलने का मसाला, तेल में मिलाने का मसाला। ३.साधन। जैसे,—अब तो आपको भी दिल्लगी का अच्छा मसाला मिल गया। ४.तेल। जैसे, —रोशनी बुझ रही है, मसाला लेते आना। ५. आतिशवाजी। जैसे, —उसकी बारात में अच्छे अच्छे मसाले छूटे थे। ६. नवयौवना और सुंदरी स्त्री (बाजारू)। ७. टार्च या चोरबती में लगनेवाला मसाला। बैटरी का सेल।
⋙ मसाली
संज्ञा स्त्री० [अ० मशाल ?] रस्सी। डोरी। (लश०)। क्रि० प्र०—कसना। बाँधना।
⋙ मसाले का तेल
संज्ञा पुं० [हिं० मसाला + तेल] एक प्रकार का सुगंधित तेल जो साधारण तिल के तेल में कचुर कचरी, वालछड़ आदि सुगंधित द्रव्य मिलाकर बनाया जाता है।
⋙ मसालेदार
वि० [अ० मसालह् + फा़० दार (प्रत्य०)] जिसमें किसी प्रकार का मसाला लगा या मिला हो। विशेष—इसका प्रयोग प्रायः खाद्य पदार्थों के लिये ही होता है।
⋙ मसाहत
संज्ञा स्त्री० [अ०] नापना। पैमाइश [को०]।
⋙ मसिंदर
संज्ञा पुं० [अँ० मेसेंजर] जहाज में का वह बहुत बड़ा रस्सा जो चरखी या दौड़ में लपेटा रहता है और जिसकी सहायता से जहाज का गिराया हुआ लंगर उठाया जाता है। (लश०)।
⋙ मसि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लिखने की स्याही। रोशनाई। उ०— तुम्हरे देश कागद मसि खूटो—सूर (शब्द०)। (ख) परम प्रेममय मृत्यु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीत्ती लिखि लीन्ही।— तुलसी (शब्द०)। २. निर्गुडी का फल। ३. काजल। ४. कालिख। उ०—बनु मुँह लाई गेरु मसि भए खरनि असवार।—तुलसी (शब्द०)। ५. पाप। उ०—औन वृजिन् दुकृत दुरित अब मलीन मसि पंक।—अनेकार्थ०, पृ० ५५। ६. नई उगती मूछों की रेख। मूँछ। उ०—उन्नत नासा अधर बिंब सुक की छबि छीनी। तिन बिच अद्भूत भाँति लसति कछुइक मसि भीनी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३।
⋙ मसिआरा पु
वि० [सं० मसि + हिं० आरा (प्रत्य०)] १. कालिमायुक्त। २. कलंकयुक्त। कलंकी। उ०—मूक सोंहिया ससि मसिआरा। पवन करै निति वार बुहारा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २९९।
⋙ मसिक
संज्ञा पुं० [सं०] साँप का बिल [को०]।
⋙ मसिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शेफालिका। निर्गुँडी।
⋙ मसिकूपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दावात।
⋙ मसिजल
संज्ञा पुं० [सं०] लिखने की स्याही। रोशनाई।
⋙ मसिजीवी
वि० [सं० मसि + जीविन्] लेखनकार्य करके आजीविका चलानेवाला।
⋙ मसित
वि० [सं०] पीसा या चूर्ण किया हुआ [को०]।
⋙ मसिदानी
संज्ञा स्त्री० [सं० मसि + फा़० दानी] दावात। मसिपात्र।
⋙ मसिधान
संज्ञा पुं० [सं०] दावात।
⋙ मसिधानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दावात [को०]।
⋙ मसिपण्य
संज्ञा पुं० [सं०] लिखने का काम करनेवाला। लेखक।
⋙ मसिपथ
संज्ञा पुं० [सं०] कलम।
⋙ मसिपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] दावात।
⋙ मसिप्रसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलम। २. दावात [को०]।
⋙ मसिबुंदा
संज्ञा पुं० [सं० मसिविन्दु] दे० 'मसिबिंदु'। उ०—(क) मुनि मन हरन मंजु मसिबुंदा। ललित वदन वलि बालमुकुंदा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) उर वघनहा कंठ कंठुला झँडूले वार। वेनी लटकन मसिवुंदा मुनिमनहार। —सूर (शब्द०)।
⋙ मसिमणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दावात।
⋙ मसिमुख
वि० [सं०] जिसके मुँह में स्याही लगी हो। काले मुँहवाला। दुष्कर्म करनेवाला। उ०—जो भागै सत छाँड़ि कै मसिमुख चढ़ै वरात।—(शब्द०)।
⋙ मसियर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मशाल'। उ०—चहुँ दिसि मसियर नखत तहाई। सूरुज चढ़ा चांद कै ताईं।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मसियाना
क्रि० अ० [हिं० मस] भली भाँति भर जाना। पूरा हो जाना। उ०—नेगी गेज मिले अरकाना। पैवरथ बाजे घर मसियाना।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मसियार पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मशाल'। (क) धरती सरग चहूँ दिसि पूरि रहै मसियार।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ०३१३। (ख) छपि गा दीपक औ मसियारा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१३।
⋙ मसियारा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मशलची'।
⋙ मसिवर्ण
वि० [सं०] स्याही के रंग का काला [को०]।
⋙ मसिविंदु
संज्ञा पुं० [सं० मसिबिन्दु] काजल का बुंदा जो नजर से वचने के बच्चों को लगाया जाता है। दिठौना। उ०—लोयन नील सरोज से भू पर मसिविंदु विराज।—तुलसी (शब्द०)। (ख) ललित भाल मसिविंदु विराजै। भृकुटी कुटिल श्रवण अति भ्राजै।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ मसिल †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मैनसिल'।
⋙ मसहानी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मसिधानी] दावात। उ०—मन मसिहानी साँच की स्याही।—धरनी० बानी, पृ०३।
⋙ मसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मसि'। उ०—दरसन ही ते लागै जसमुख मसी है। —भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८२।
⋙ मसीका
संज्ञा पुं० [हिं० माशा] १. आठ रत्ती का मान। माशा। चवन्नी। (दलाल)।
⋙ मसीत पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० मसजिद] मुसलमानों का बंदना- स्थान। मसजिद। उ०—कविरा काजी स्वाद वस जीव हते तब दोय। चढ़ि मसीत एको कहै क्यों दरगह साँचा होय।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मसीद पु
संज्ञा स्त्री० [अ० मस्जिद] दे० 'मसजिद'। उ०—माँगि कै खैवो मसीद को सोइवो लेनी है एक न देनो है दोऊ।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मसीना
संज्ञा पुं० [देश०; सं० मस्यन्न (=कदन्न ?)] मोटा अन्न। कदन्न।
⋙ मसीह
संज्ञा पुं० [अ०] ईसाइयों के धर्मगुरु हजरत ईसा का नाम।
⋙ मसीहा
संज्ञा पुं० [फा़०] १. ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह। २. वह जो मृतकों को जीवित करता हो। उ०—क्यों न दवा करे मसीहा का। मुर्दे ठोकर से वो जिला करके।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ०२२०। विशेष—प्रायः उर्दू और फारसी काव्यों में प्रेमी या प्रेमिका के लिये इस शब्द का व्यवहार होता है।
⋙ मसीहाई
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १.मसीहा का भाव। मसीहापन। २. मृतक को जीवीत करने की शक्ति। मरे हुए को जिलाने की ताकत।
⋙ मसीही (१)
वि० [अ० मसीह + फा़० ई (प्रत्य०)] ईसामसीह संबंधी। मसीह का।
⋙ मसीही (२)
संज्ञा पुं० मसीह का अनुयायी। ईसाई।
⋙ मसीही (३)
संज्ञा स्त्री० चमत्कारिक या आध्यात्मिक कार्य [को०]।
⋙ मसुर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मसूर'।
⋙ मसुरिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० मसूरिका] दे० 'मसूरिका'।
⋙ मसुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मसूर'।
⋙ मसू पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मरू, मि० पुं० सँसा (=कठिनता से)] कठिनाई। कठिनता। मुश्किल। मुहा०—मसू करके =बहुत कठिनता से। बड़ी मुश्किल से। उ०— रसखानि तिहारी सौं एरी जसोमति भागि मसू करि छूटन पाई।—रसखान (शब्द०)।
⋙ मसूक पु
वि० [अ० मशूक] दे० 'मशूक'। उ०—मगन मसूक एह गगन में कूदिया ढील करि बाग मैदान हंका।—संत० दरिया, पृ० ७९।
⋙ मसूड़ा
संज्ञा पुं० [सं० श्मश्रु + हिं० ड़ा (प्रत्य०)] मुँह के अंदर दाँतों की पंक्ति के नीचे या ऊपर का मांस जिसपर दाँत जमे होते है।
⋙ मसूढ़ी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] धातु गलाने की भट्ठी।
⋙ मसूर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अन्न जो द्विदल और चिपटा होता है और जिसका रंग मटमैला होता है। मसूरी। विशेष— प्रायः इसकी दाल बनती है जो गुलाबी रंग को और अरहर की दाल से कुछ छोटी और पतली होती है। पकाने पर इसका भी रंग अरहर की दाल का सा हो जाता है। यह दाल बहुत ही पुष्टिकारक समझी जाती है। इसे प्रायः नीची जमीनों में,जहाँ पानी ठहरता है, खाली खेतों में अथवा धान के खेतों में बोते हैं। इसकी कच्ची फलियाँ भी खाई जाती हैं तथा इसकी सूखी पत्तियाँ और डंठल चारे के काम में भी आते हैं। वैद्यक में इसे मधुर, शीतल, संग्रहक, कफ और पित्त का नाशक तथा ज्वर को दूर करनेवाला माना है। द्विजों में कुछ लोग इसका खाना कदाचित् इसलिये अच्छा नहीं समझते कि इसके नाम का 'मांस' शब्द के साथ कुछ मेल मिलता है। पुराणों में रविवार के लिये इसका खाना नितांत वर्जित किया गया है। पर्या०— सांगल्यक। व्रीहिकांचन। पृथुबीजक। शूर। कल्याणबीज। मसूरिका।यौ०—मसूर का सत्त =भूने मसूर का आटा मीठा या नमक मिलाकर पानी में घोलकर खाया जाता है।
⋙ मसूरक
संज्ञा पुं० [सं०] गोल तकिया।
⋙ समूरकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।
⋙ मसूरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या। रंडी। २. मसूर की दाल। ३. मसूर की वनी हुई वरी। उ०—कीन्ह मसूरा धन सो रसोई। जो कछु सव माँसू सो होई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मसूरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० मसूढ़ा] दे० 'मसूढ़ा'।
⋙ मसूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शीतला। माता। चेचक। २. छोटी माता जिसमें सारे शरीर में लाल छोटी फुंसियाँ निकल आती है। उ०—मसूरिका मसूर की दाल के समान बड़ी फुड़िया होती है।—माधव०, पृ० १८७। ३. कुटनी।
⋙ मसूरिकापिड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० मसूरुकापिडिका] एक प्रकार की माता या चेचक जिसमें मसूर को दाल के बराबर छोटे छोटे दाने निकलते हैं।
⋙ मसूरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माता। चेचक। २. दे० 'मसूरी'।
⋙ मसूरी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़। विशेष—यह पेड़ कद में छोटा होता है और प्रतिवर्ष शिशिर ऋतु में इसके पत्ते झड़ जाते हैं। इसकी लकड़ी सफेद, बढ़िया और बहुत मजबूत होती है, जिससे संदूक तथा सजावट के अनेक प्रकार के सामान बनाए जाते हैं। शिमले, शिकम और भूटान आदि में यह वृक्ष अधिकता से होता है।
⋙ मसूल
संज्ञा पुं० [अ० महसूल] दे० 'महसूल'।
⋙ मसूला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की पतली लंबी नाव।
⋙ मसूस
संज्ञा स्त्री० [हिं० मसूलना] मन मसोसने का भाव। कुढ़न। कल्पना। उ०—याही मसूस मरो का करों रिखिनाथ परोसिन मै परो पैयाँ।—रिखिनाथ (शब्द०)।
⋙ मसूसन
संज्ञा स्त्री० [हिं० मसूसना] मन मसूसने का भाव। आंतरिक व्यथा। कुढ़न। उ०—(क) कीजै कहा चाव अपनी कत इहाँ मसूसन मरिए। सूर (शब्द०)। (ख) सूरन के मिस ही मन मूसति होस मसूसन हीं फिरै कोठनि।—देव (शब्द०)। (ग) बाल नवेलो न रूसनो जानति, भीतर मौन मसुसनि रोवै।—मति० ग्रं०, पृ० २९७।
⋙ मसूसना
क्रि० अ० [हिं० मरोडना या फा़० अफसोस, पुं० मसोस] १. ऐंठना। मरोड़ना। बल देना। २. निचोड़ना। ३. किसी मनोवेग को रोकना। जव्त करना। उ०—केवल मन में मसूसि रह जाना पड़ता है।—श्यामा०, पृ० १३७। ४. मन ही मन रंज करना। कुढ़ना। कल्पना। (इस अर्थ में यह शब्द बहुधा मन शब्द के साथ आता है)। उ०—(क) डाँट दीजिए, हम मन ही मन मसूसकर रह जायँ।—राधाकृष्णदास (शब्द०)। (ख) सोवति सजोवति न दूसति न तूसति मसूसति रिसति रस रूसति हँसति सी।—देव (शब्द०)। ५. सिसकना। उ०—(क) खोइए सोय सवै श्रम यौं कहि रूसि कै बाल मसूसि कै रोई।—श्यामा०, पृ० १४१।
⋙ ममृण
वि० [सं०] जो रूखा या कड़ा न हो। चिकना और मुलायम।
⋙ मसृणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अलसी [को०]।
⋙ मसेवरा †
संज्ञा पुं० [हिं० मांस + वरा (प्रत्य०)] मांस की बनी चीजें। जैसे, कोफता, कबाब आदि। उ०—कीन्ह मसेवरा सीझि रसोई। जो किछु सबै माँसु सौं होई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मसोढ़ा † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] सोना, चाँदी आदि गलाने की घरिया। (कुमाऊ)।
⋙ मसोढ़ा (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मसूढ़ा'।
⋙ मसोस पु
संज्ञा पुं० [हिं० मसूपन] दे० 'मसूस'। उ०—हरि उपाय कहा करौं, हाय भरौं किहि भाय मसोस यौं मारै।—घनानंद, पृ० १५९।
⋙ मसोसना
क्रि० अ० [हिं० मसोस + ना (प्रत्य०)] दे० 'मसूसना'।
⋙ मसोसा
संज्ञा पुं० [हिं० मसोसना] १. मानसिक दुःख। मन में होनेवाला रंज। २. पश्चाताप। पछतावा।
⋙ मसौदा
संज्ञा पुं० [अ० मसव्विदा] १. काट छाँट करने दोहराने और साफ करने के उद्देश्य से पहली बार लिखा हुआ लेख। खर्रा। मसविदा। २. उपाय। युक्ति। तरकीब। मुहा०—मसौदा गाँठना या बाँधना = कोई काम करने की युक्ति या उपाय सोचना। तरकीब सोचना। यौ०—मसौदानवीस = मसौदा तैयार करनेवाला। मसौदेबाज।
⋙ मसौदेबाज
संज्ञा पुं० [अ० मसौदा + फा० बाज (प्रत्य०)] १. वह जो अच्छा उपाय निकालता हो। अच्छी युक्ति सोचनेवाला। २. धूर्त चालाक।
⋙ मस्कत
संज्ञा पुं० [अ० मस्कत] १. अरव का एक राज्य और उसका प्रधान नगर। २. उक्त राज्य का अनार [को०]।
⋙ मस्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वंश। वाँस। २. पोला वाँस। ३. गति। ४. ज्ञान।
⋙ मस्करा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मसखरा'।
⋙ मस्करी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मस्करिन्] १. वह जो चौथे आश्रम में हो। संन्यासी। २. भिक्षु। ३. चंद्रमा।
⋙ मस्करी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मसखरी'।
⋙ मस्कला पु
संज्ञा पुं० [अ० मसकला] दे० 'मसकला'। उ०— शब्द मसकला करै ज्ञान का कुरंड चलावै।—पलटू०, पृ० २।
⋙ मस्का
संज्ञा पुं० [अ० फ़ा० मस्कह्] १. मक्खन। नवनीत। २. दे० 'मसका'।
⋙ मस्कुर ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मसूढ़ा'।
⋙ मस्खरा
संज्ञा पुं० [अ० मस्खरह्, हिं० मसखरा] दे० 'मसखरा'।
⋙ मस्खरागी
संज्ञा पुं० [फ़ा० मस्खरगी] दे० 'मसखरी'। उ०—बड़ीसख्त दिसने लगी ऐब ते। हुई मस्खरागी बड़ी गैव ते।—दक्खिनी०, पृ० ९०।
⋙ मस्जिद
संज्ञा स्त्री० [अ० मसजिद, मस्जिद] दे० 'मसजिद'। उ०— क्या भी वजू व भजन कीन्हें, क्या मस्जिद सिर नाए। हृदया कपट निमाज गुजारै कह भी मक्का जाए।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मस्त (१)
वि० [फ़ा० मि० सं० मत्त] १. जो नशे आदि के कारण मत्त हो। मतवाला। मदोन्मत्त। जैसे,—वह दिन रात शराब मे मस्त रहता है। २. जिसे किसी बात का पता न लगता हो। जिसे किसी कि चिंता या परवाह न होती हो। सदा प्रसन्न और निश्चिंत रहनेवाला। ३. जो अपनी पूरी जवानी पर आने के कारण आप से बाहर हो रहा हो। यौवनमद से भरा हुआ। जैसे, मस्त हाथी, मस्त औरत। ४. जिसमें मद हो। मदपूर्ण। जैसे, मस्त आँखें। ५. परम प्रसन्न। मग्न। आनंदित। जैसे,—वह अपने बालबच्चों में ही मस्त रहता है। ६. अभिमानी। घमंडी। जैसे,—आजकल के मजदूर मस्त हो रहे है। इनसे काम लेना कुछ सहज नहीं है।
⋙ मस्त (२)
वि० [सं०] उच्च। ऊँचा [को०]।
⋙ मस्त (३)
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तमांग। मस्तक। सिर [को०]। यौ०—मस्तदारु। मस्तमूलक।
⋙ मस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] सिर। उ०—मस्तक टीका काँध जनेऊ। कवि विआस पंडित सहदेऊ।—जायसी (शब्द०)। यौ०—मस्तकज्वर = शिरोव्यथा। मस्तकमूलक = दे० 'मस्तमूलक'। मस्तकलुंग = मस्तिष्क के चारो ओर की छोटी छोटी शिराएँ। मस्तकशूल = दे० 'मस्तकज्वर'। मस्तकस्नेह = दिमाग।
⋙ मस्तकी
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'मस्तगी'।
⋙ मस्तगी
संज्ञा स्त्री० [अ० मस्तकी] दवा के काम आनेवाला एक प्रकार का बढ़िया पीला गोंद जिसे रूमी मस्तगी भी कहते हैं। विशेष—यह गोंद भूमध्य सागर के आसपास के प्रदेशों में होनेवाली एक प्रकार की सदाबहार झाड़ी के तनों को पाछकर निकाला जाता है, और जो अपने उत्पत्तिस्थान 'रूम' के कारण प्रायः 'रूमी मस्तगी' कहलाता है। यह गोंद वार्निश में मिलाया जाता है और औषधि रूप में भी काम आता है। दाँतों के अनेक रोगों में यह बहुत उपकारी होता है। इससे दाँतों का हिलना, पीड़ा, दुर्गंधि आदि दूर होती है। और भी कई रोगों में इसका व्यवहार किया जाता है।
⋙ मस्तदारु
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु का वृक्ष [को०]।
⋙ मस्तमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] गरदन [को०]।
⋙ मस्तरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मस्त्रा] १. धातु गलाने की भट्ठी। (शाहजहाँपुर)।
⋙ मस्तान पु
वि० [फ़ा० मस्तानह्] दे० 'मस्ताना'। उ०—रसना रटि जेहि लागिगे चीख भयो मस्तान।—संतबानी०, भा० १, पृ० १३४।
⋙ मस्ताना (१)
वि० [फ़ा० मस्तानह्] १. मस्तों का सा। मस्तों की तरह का। जैसे, मस्तानी चाल। २. मस्त। मत्त।
⋙ मस्ताना (२)
क्रि० अ० [फ़ा० मस्त + हिं० आना (प्रत्य०)] मस्ती पर आना। मस्त होना। मत्त होना। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ मस्ताना (३)
क्रि० स० मस्ती पर लाना। मस्त करना। मत्त करना। संयो० क्रि०—देना।
⋙ मस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] माप। तौल [को०]।
⋙ मस्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मस्तिष्क'। उ०—साहिब तबही छाया कीन्हा। मस्तिक हाथ आमनि के दीन्हा।—कबीर सा०, पृ० १०१५।
⋙ मस्तिकी
संज्ञा स्त्री० [अ० मस्तकी] दे० 'मस्तगी'।
⋙ मस्तिष्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. मस्तक के अंदर का गूदा। भेजा। मगज। विशेष—कहा जाता है, भोजन का परिपाक होने पर जो रस बनता है, वह क्रमशः मस्तक में पहुँचकर स्निग्ध रूप धारण करता है और उसी के द्वारा स्मृति और बुद्धि काम करती है। उसी को 'मस्तिष्क' कहते हैं। २. बुद्धि के रहने का स्थान। दिमाग।
⋙ मस्ती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. मस्त होने की क्रिया या भाव। मत्तता। मतवालापन। क्रि० प्र०—आना।—उतरना।—चढ़ना।—दिखाना। मुहा०—मस्ती झड़ना = मस्ती दूर होना। मस्ती झाड़ना = मस्ती दूर करना। २. भोग की प्रबल कामना। प्रसंग की उत्कट इच्छा। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—चढ़ना।—झड़ना।—में आना। मुहा०—मस्ती निकालना = प्रसंग करके वीर्यपात करना। संभोग करके वीर्य स्खलित करना। ३. वह स्राव जो कुछ विशिष्ट पशुओं के मस्तक, कान, आँख, आदि के पास से कुछ विशिष्ट अवसरों पर, विशेषतः उनके मस्त होने के समय होता है। मद। जैसे, हाथी की मस्ती, ऊँट की मस्ती। क्रि० प्र०—टपकना।—बहना। ४. वह स्राव जो कुछ विशिष्ट वृक्षों अथवा पत्थरों आदि में से कुछ अवसरो पर होता है। जैसे, नीम की मस्ती, पहाड़ की मस्ती। क्रि० प्र०—टपकना।—बहना। ५. अभिमान। घमंड। गर्व। गरूर। ६. युवावस्था का मद। जवानी का नशा।
⋙ मस्तु
संज्ञा पुं० [सं०] १. दही का पानी। २. छेने का पानी।
⋙ मस्तुलुंग
संज्ञा पुं० [सं० मस्तुलुङ्ग] मस्तिष्क। मगज।
⋙ मस्तूरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मस्त्रा] धातु गलाने की भट्ठी (फतहपुर)।
⋙ मस्तूल
संज्ञा पुं० [पुर्त०] बड़ी नावों आदि के बीच में खड़ा गाड़ा जानेवाला वह बड़ा लठ्ठा या शहतीर जिसमें पाल बाँधते हैं। उ०—उसका ऊँचा मस्तूल झुका हुआ ऐसा दिखाई देता है मानो वह अपने प्यारे जलयान को समाधि को गले लगाकर रो रहा है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५५२।
⋙ मस्सा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मसा'। उ०—तिल और मस्सा भी पूर्व कर्मानुसार ही प्रकट होते हैं।—कबीर सा०, पृ० ९८१।
⋙ मस्सीत पु
संज्ञा स्त्री० [अ० मस्जिद] दे० 'मसीत'। उ०—कौन मक्कान महजीत मस्सीत में।—जमीं असमान बिच कौन ठाईं।—तुरसी श०, पृ० १९।