विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/र
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ र
⋙ र
हिंदी व्रणमाला का सत्ताईसवाँ व्यंजन वर्ण जिसका उच्चारण जीभ के अगले भाग को मूर्धा के साथ कुछ स्पर्श कराने से होता है। यह स्पर्श वर्ण और ऊष्म वर्ण के मध्य का वर्ण है। इसका उच्चारण स्वर और व्यंजन का मध्यवर्ती है; इसलिये इसे अंतस्थ वर्ण कहते हैं। इसके उच्चारण में संवार, नाद और घोष नामक प्रयत्न होते हैं।
⋙ रंक (१)
वि० [सं० रङ्क] [वि० स्त्री० रंकिणी] १. धनहीन। गरीब। दरिद्र। कंगाल। उ०— (क) बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चलै सिर छत्र धराई।—सूर (शब्द०)। (ख) ऊँचे नीचे बीच के धनिक रंक राजा राय हठनि बजाय करि डीठि पीठि दई है। —तुलसी (शब्द०)। २. कृपण। कंजूस। ३. सुस्त। काहिल। आलसी।
⋙ रंक (२)
संज्ञा पुं० १. कृपण व्यक्ति। २. सुस्त वा काहिल आदमी। ३. निर्धन व्यक्ति।
⋙ रंकता
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्क+हिं० ता (प्रत्य०)] निर्धनता। गरीबी। कंगाली। उ०— रंकता देख जिसकी रंकता लजाती राजसी ठाठ से उसकी अरथी जाती। —सूत०, पृ० ८७।
⋙ रंकिनी पु
वि० स्त्री० [सं० हङ्किणी] निर्धनवती। दरिद्रा। जिसके पास कुछ न हो। उ०— होकर भी वहु चित्र अंकिनी आप रंकिनी आशा है। —साकेत, पृ० ३६९।
⋙ रंकु
संज्ञा पुं० [सं० रङ्कु] एक प्रकार का हिरन जिसकी पीठ पर सफेद चित्तियाँ होती हैं।
⋙ रंग
संज्ञा पुं० [सं० रंङ्ग, फ़ा० रंग] १. राँगा नामक धातु। २. नृत्य गीत आदि। नाचना गाना। यौ०—नाच रंग। जैसे,—वहाँ आजकल खूब नाच रंग हो रहा है। ३. वह स्थान जहाँ नृत्य या अभिनय होता हो। नाचने गाने, नाटक करने आदि के लिये बनाया हुआ स्थान। यौ०—रंगमंच। रंगभूमि। रंगद्वार। रंगदेवता। रंगस्थन आदि। ४. युद्धस्थल। रणक्षेत्र। लड़ाई का मैदान। ५. खदिरसार ६. किसी दृश्य पदार्थ का वह गुण जो उसके आकार से भिन्न होता है और जिसका अनुभव केवल आँखों से ही होता है। वर्ण। विशेष— जब किसी पदार्थ पर पहले पहले हमारी दृष्टि जाती है, तब प्रायः हमें दो ही बातों का ज्ञान होता है। एक तो उसके आकर का और दूसरा उसके रंग का। वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि रंग वास्तव में प्रकाश की किरणों में ही होता है; और वस्तुओं के भिन्न भिन्न रासायनिक गुणों के कारण ही हमारी आँखों को उनका अनुभव वस्तुओं में होता है। जब किसी वस्तु पर प्रकाश पड़ता है, तब उस प्रकाश के तीन बाग होते हैं। पहला भाग तो परावर्तित हो जाता है; दूसरा वर्तित हो जाता है; और तीसरा उस वस्तु के द्वारा सोख लिया जाता है। परंतु सब वस्तुओं में ये गुण समान रुप में नहीं होते; किसी में कम और किसी में अधिक होते हैं। कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं, जिनमें से प्रकाश परावर्तित होता ही नहीं, या तो वर्तित होता है या सोख लिया जाता है; जैसे, शुद्ध जल। ऐसे पदार्थ प्रायः बिना रंग के दिखाई देते हैं। जिन पदार्थों पर पड़नेवाला सारा प्रकाश परावर्तित हो जाता है, वे श्वेत दिखाई पड़ते हैं। और जो पदार्थ अपने ऊपर पड़नेवाला समस्त प्रकाश सीख लेते हैं, वे काले होते या दिखाई देते हैं। प्रकाश का विश्लेषण करने से उसमें अनेक रंगों की किरणें मिलती हैं, जिनमें ये सात रंग मुख्य हैं—बैंगनी, नील, श्याम, या आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाला। जब ये सातों रंग मिलकर एक हो जाते हैं, तब हम उसे सफेद कहते हैं; और जब इन सातों में से एक भी रंग नहीं रहता, तब हम उसे काला कहते हैं। अब यदि किसी ऐसे पदार्थ पर श्वेत प्रकाश पड़े, जिसमें लाल किरणों को छोड़कर और सब रंगों की किरणों को सोख लेने की शक्ति हो, तो स्वभावतः प्रकाश का केवल लाल ही अंश उसपर बच रहेगा; और उस दशा में हम उस पदार्थ को लाल रंग का कहेंगे। अर्थात् प्रत्येक वस्तु हमें उसी रंग की देख पड़ती है, जिस रंग का वह न तो सोख सकती है और न वर्तित करती है, बल्कि जिसे वह परावर्तित करती है। कुछ रंग ऐसे भी होते हैं, जिनके मिलने से सफेद रंग बनता है। ऐसे रंग एक दूसरे केपरिपूरक कहलाते हैं। जैसे,—यदि हरितपीत रंग के प्रकाश के साथ ही लाल रंग का प्रकाश भी पहुँचने लगे, तो उस दशा में हमें सफेद रंग दिखाई पड़ेगा। इसलिये लाल और हरितपीत दोनों एक दूसरे के परिपूरक रंग है। प्रायः दो रंगों के मिलने से एक नया तीसरा रंग भी पैदा हो जाता है; जैसे— लाल और पीले के मिलने से नारंगी रंग बनता है। परंतु ये सब बातें केवल प्रकाश की किरणों के संबंध में हैं; बाजार में मिलनेवाली बुकनियों के संबंध में नहीं हैं। दो प्रकार की बुकनियों को एक साथ मिलाने से जो परिणाम होगा, वह दो रंगों की प्रकाश- किरणों को मिलाने के परिणाम से कभी कभी बिलकुल भिन्न होगा। इसका कारण यह है कि जब हम दो प्रकार की बुकनियों को एक में मिलाते हैं, उस समय हम वास्तव में एक रंग में दूसरा रंग जोड़ते नहीं हैं, बल्कि एक रंग में से दूसरा रंग घटाते हैं। जिस रंग की किरण को एक बुकनी परावर्तिन करती है, उसे दूसरी बुकनी सोख लेती है। इसी लिये बुकनियों के संबंध में जो नियम हैं, वे प्रकाश की किरणों के संबंध के नियम से भिन्न है। ७. कुछ विशिष्ट रासायनिक क्रियाओं से बनाया हुआ वह पदार्थ जिसका व्यवहार किसी चीज को रँगने या रंगीन बनाने के लिये होता है। वह चीज जिसके द्वारा कोई चीज रँगी जाय या जिससे किसी चीज पर रंग चढ़ाया जाय। विशेष— बाजारों में प्रायः अनेक प्रकार के कार्यों के लिये अनेक रुपों में वने बनाए रंग मिलते हैं, जिनका व्यवहार चीजों को रँगन या चित्रित करने के लिये होता है। जैसे, कपड़े रँगने का रंग, लकड़ी पर चढ़ाने का रंग, तसबीर बनाने का रंग आदि। क्रि० प्र०—करना।—चढ़ना।—चढ़ाना।—पोतना।—होना। यौ०— रंगविरंग, रंगविरंगा=जिसमें अनेक प्रकार के रंग हों। तरह तरह के रंगोवाला। उ०— रंगबिरंग एक पक्षी बना। छाटा चोंच और काटे घना। (पहेली)। मुहा०— रंग आना या चढ़ना=रंग अच्छी तरह लग जाना या प्रकट होना। रंग उड़ना या उतरना =छूप या जल आदि के संसर्ग से रंग का बिगड़ जाना या फीका पड़ जाना। रंग खेलना=होली के दिनों में पानी में रंग घोलकर एक दूसरे पर डालना। रंग डोलना या फेंकना=(होली में) पानी में रंग घालकर किसी पर डालना। रंग निखरना=रंग का शोख या चटकीला होना। यौ०— रंगदार। ८. शरीर का ऊपरी वर्ण। बदन और चेहरे की रंगत। वर्ण। मुहा०— (चेहरे का) रंग उड़ना या उतरना=भय या लज्जा से चेहरे की रौनक का जाता रहना। चेहरा पीला पड़ना। कांतिहीन होना। रंग निकलना=दे० 'रंग निखरना'। रंग निखरना=चेहरे के रंग का साफ होना। चेहरे साफ और चमकदार होना। चेहरे पर रौनक आना। रंग फक होना=दे० 'रंग उड़ना'। रंग बदलना=(१)लाल पीला होना। खफा होना। क्रुद्ध होना। नाराज होना। जैसे,—आप तो नाहक हम पर रंग बदल रहे हैं। (२) रुप परिवर्तित करना। ९. यौवन। जवानी। युवावस्था। क्रि० प्र०—आना।— चढ़ना।—होना। मुहा०—रंग चूना=युवावस्था का पूर्ण विकास होना। यौवन उमड़ना। रंग टपकना=दे० 'रंग चूना'। १०. शोभा। सौंदर्य। रौनक। छवि। क्रि० प्र०—आना।—उतरना।—चढ़ना।—दिखाना।—होना। मुहा०—रंग पकड़ना=रौनक या बहार पर आना। रंग पर आना=दे० 'रंग पकड़ना'। रंग फीका पड़ना या होना= रौनक कम हो जाना। शोभा का घट जाना। रंग बरसना= अत्यंत शोभा होना। खूब रौनक होना। उ०— सखी, मचमूच आज तो इस कदंब के नीचे रंग बरस रहा है।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। रंग है=शाबाश। वाह वा क्या बात है। ११. प्रभाव। असर। मुहा०—रंग चढ़ना=प्रभाव पड़ना। असर पड़ना। जैसे,—इस लड़के पर भी अब नया रंग चढ़ रहा है। रंग जमना=प्रभाव पड़ना। असर पड़ना। १२. दूसरे के हृदय पर पड़नेवाली शक्ति, गुण या महत्व का प्रभाव। धाक। रोब। मुहा०— रंग जमना=धाक जमना। अनुकूल स्थिति उत्पन्न होना। उ०— दोनों ने समझा कि रंग जैसा चाहिए, वैसा जम गया। —अयोध्या० (शब्द०)। रंग उखड़ना =धाक न रहना। स्थिति प्रतिकूल होना। दूसरों पर महत्व आदि का प्रभाव न रह जाना। जैसे,—पहले यहाँ उसे बहुत आमदनी थी; पर अब रंग उखड़ गया। रंग जमाना= प्रभाव डालना। धाक बाँधना। रंग फीका रहना= पूरा पूरा प्रभाव न पड़ना। रंग बँधना=रोब जमना। धाक बँधना। रंग बाँधना=(१) अपना महत्व दूसरे के हृदय में स्थापित करना। रोब गाँठना। धाक जमाना। उ०—भाई मुझे तो एक दिन के लिये भी कहीं तख्त मिल जाय, तो रंग बाध दूँ। —राधाकृष्णदास (शब्द०)। (२) झूठा आडंबर रचना। ढोंग रचना। रंग बिगडना=रोब जाता रहना। प्रभाव नष्ट या कम हो जाना। रंग बिगाड़ना=(१) प्रभाव नष्ट करना। महत्व घटाना। (२) शेखी किरकिरी करना। रंग लाना=अपना प्रभाव या गुण दिखलाना। १३. क्रीड़ा। कौतुक। खेल। आनंद। उत्सव। उ०— (क) दिन में सब लोग राग, रंग, नृत्य, दान, भोजन, पान इत्यादि में नियुक्त थे। (ख) बर जंग रंग करिबे चह्यौ मनहिं सुढंग उमंग में।— गोपाल (शब्द०)। यौ०—रंगरलियाँ=आमोद प्रमोद। मौज। चैन।क्रि० प्र०—करना।—मनाना। मुहा०—रंग रलना=आमोद प्रमोद करना। क्रीड़ा या भोग विलास करना। उ०— भाव ही कह्यौ मन भाव दृढ़ राखिबो दे सुख तुमहिं संग रंग रलिहैं।—सूर (शब्द०)। रंग में भंग पड़ना=आमोद प्रमोद के बीच कोई दुःख की बात आ पड़ना। हँसी और आनंद में विघ्न पड़ना। १४. युद्ध। लडाई। समर। मुहा०—रंग मचाना=रण में खूब युद्ध करना। उ०— चढ़ि देहि समर उत्तर परन उत्तर द्वार मचाय रंग।—गोपाल (शब्द०)। १५. मन की उमंग वा तरंग। मन का वेग या स्वच्छंद प्रवृत्ति। मौज। उ०(क) रत्नजटित किंकिणि पग नूपुर अपने रंग बजावहु। — सूर (शब्द०)। (ख) अपने अपने रंग में सब रँगे हैं, जिसने जो सिद्धांत कर लिया है, वही उसके जी में गड़ रहा है।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। (ग) चढ़े रंग सफजंग के हिंदू तुरुक अमान। उमड़ि उमड़ि दुहुँ दिसि लगे कौरन लौहौ खान।— लाल (शब्द०)। मुहा०— (किसी के) रंग में ढलना=किसी के कहने या विचार के अनुसार कार्य करने लगना। किसी के प्रभाव में आना। उ०— तुरत मन सुख मानि लीन्हों नारि तेहि रंग ढरी।—सरू (शब्द०)। १६. आनंद। मजा।उ०— (क)बहुत झूरिया लागे संग। दाम न खरचै लूटै रंग। —देवस्वामी (शब्द०)। (ख) खान पान सनमान राग रंग मनहिं न भावै। —गिरिधर (शब्द०)। (ग) मोकों व्याकुल छाँडिकै आपुन करैं जु रंग। —सूर (शब्द०)। विशेष— इस अर्थ में इस शब्द का और इसके मुहावरों का प्रयोग प्रायः नशे के संबंध में भी होता है। मुहा०—रंग आना=मजा मिलना। आनंद मिलना। रंग उखड़ना=बने हुए आनंद का अचानक घटना या नष्ट हो जाना। रंग जमना=आनंद का पूर्णता पर आना। खूब मजा होना। रंग मचाना=धूम मचाना। उ०— असवारी में रंग मचावै। मन के संग तुरंग नचावै। —लाल (शब्द०)। रंग में भंग करना=पूर्ण आनंद के समय उसमें विघ्न उपस्थित करना। बना बनायाय मजा बिगडना। रंग रचाना=उत्सव करना। जलसा करना। रंग रहना =आनंद रहना। प्रसन्नता। रहना। मजा रहना। १७. दशा। हालत। उ०— कबहुँ नहिं यहि भाँति देख्यो,आज को सो रंग। —सूर (शब्द०)। मुहा०— रंग लाना=दशा उपस्थित करना। हालत करना। जैसे,—तुम्हारी ही शरारत यह सब रंग लाई है। १८. अदभूत व्यापार। कांड। दृश्य। जैसे,—यह सब रंग उन्हीं की कृपा का फल है। १९. प्रसन्नता। कृपा। दया। मेहरबानी। उ०— हम चाकर कलिराज के वृथा करत हौ देष। ताकी मरजी को तकै करत रंग औ रोप।—गुमान (शब्द०)। २०. प्रेम। अनुराग। उ०— (क) जब हम रँगी श्याम के रंगा। तब लिखि पठवा ज्ञान प्रसंगा।—रघुनाथदास (शब्द०)। (ख) देखु जरनि जड़ नारि की जरत प्रेम के रांग। चिता न चित फीको भयो रची जु पिय के रंग।—सूर (शब्द०)। (ग) ऐसे भए तो कहा तुलसी जो पै जानकीनाथ के रंग न राते।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—रंग देना=किसी को अपने प्रेमपाश में फँसाने के लिये उसके प्रति प्रेम प्रकट करना। (बाजारू)। रंग (में) भौंजना= अनुराग में सराबोर होना। उ०— गोरिन के रंग भींजिगो साँवरो साँवरे के रंग भींजी सु गोरी।—पद्माकर (शब्द०)। २१. ढंग। ढब। चाल। तर्ज। उ०— (क) राजभवनाम्यंतर तो यह उपकरण था और बाहर नभमंडल का और ही रंग दिखलाई देता था।—अयोध्यासिंह (शब्द०)। जो तुम राजी हो इस रंग। तो खेलो फाग हमारे संग।—लल्लूलाल (शब्द०)। (ग) त्यौं पदमाकर यौं मग में रंग देखत हो कब की रुख राखे।—पद्माकर (शब्द०)। यौ०—कुरंग=बुरा ढब या ढंग। बुरा लक्षण। उ०— सुनु जानकी कुरंगनैनी होय न कुरंग यह बड़ोई कुरंग है।— हृदयराम (शब्द०)। रंग ढंग =(१) दशा। हालत। (२) चाल ढाल। तौर तरीका। उ०— हमारा प्रधान शासक न विक्रम के रंग ढंग का है न हारुँ या अकबर के। उसका रंग ही निराला है। —बालमुकुंद(शब्द०)। (३) व्यवहार। बरताव। जैसे—आजकल उसके रंग ढंग अच्छे नहीं दिखाई देते। ४. ऐसी बात जिससे किसी दूसरी बात का अनुमान हो। लक्षण। जैसे,—आसमान के रंग ढंग से तो मालूम होता है कि आज पानी बरसेगा। मुहा० पु— रंग काछना=चाल चलना। ढंग अख्तियार करना। उ०— सूर श्याम जितने रंग काछत युवती जन मन के गोऊ हैं।—सूर (शब्द०)। (किसी को अपने) रंग में रँगना= किसी को अपने ही विचारों का बना लेना। अपना सा कर लेना। २२. भाँति। प्रकार। तरह। उ०— दूरि भजत प्रभु पीठि दै गुन बिस्तारन काल। प्रगटत निरगुन निकट रहि चंग रंग भूपाल।— बिहारी (शब्द०)। २३. चौपड़ की गोटियों के, खेल के काम के लिये किए हुए, दो कृत्रिम विभागों में से एक। विशेष— चौपड़ की कुल गोटियाँ १६ होती हैं, जो चार रंगों में विभक्त होती हैं। इनमें से विशिष्ट
दो रंग की आठ गोटियाँ 'रंग' और शेष दो रंगों की आठ गोटियाँ 'बदरंग' कहलाती हैं। मुहा०—रंग जमना=चौपड़ में रंग की गोटी का किसी अच्छे और उपयुक्त घर में जा बैठना, जिसके कारण खेलाड़ी की जीत अधिक निश्चित हो जाती है। रंग भारना =बाजी जीतना। विजय पाना। उ०— (क) यह होंठ जो कि पोपलेयारों हैं हमारे। इन होठों ने बोसों के बड़े रंग हैं मारे।—नजीर (शब्द०)। (ख) इश्कबाजी के लिये हमने विछाई चौसर। पासा गिरते ही गोया रंग हमारा मारा। —(शब्द०)।
⋙ रंगई †
संज्ञा पुं० [हिं० रंग+ई (प्रत्य०)] धोवियों के अंतर्गत एक जाति केवल छपे हुए कपड़े धोने का काम करती है।
⋙ रंगकार
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गकार] रंग आदि का काम करनेवाला। रंगसाज। रँगरेज [को०]।
⋙ रंगकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गकाष्ठ] पतंग नाम की लकड़ी। बक्कम।
⋙ रंगक्षार
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गक्षार] टंकण। सोहागा [को०]।
⋙ रंगक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गक्षेत्र] १. अभिनय करने का स्थान। रंगस्थल। नाट्यभूमि। २. किसी उत्सव आदि के लिये सजाया हुआ स्थान।
⋙ रंगगृह
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गगृह] १. रंगभूमि। नाट्यस्थल। २. क्रीडागृह। ३. केलिमंदिर।
⋙ रंगचर
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गचर] १. नाटक में अभिनय करनेवाला। नट। २. असियुद्ध करनेवाला योद्धा। तलवार- बाज (को०)।
⋙ रंगज
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गज] सिंदूर।
⋙ रंगजननी
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गजननी] लाक्षा। लाख।
⋙ रंगजीवक
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गजीवक] १. चित्रकार। मुसव्वर। २. वह जो अभिनय करता हो। नट।
⋙ रंगजीविक
संज्ञा पुं० [सं० रहङ्गजीविक] दे० 'रंगकार' [को०]।
⋙ रंगड़ा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० रंग+ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'रंग'। उ०— तेरे प्रेम की माती रे रंगड़ै राती हे।—दूदू०, पृ० ५०४।
⋙ रंगण
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गण] नर्तन। नाचना। नाच करना।[को०]।
⋙ रंगत
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंग+त (प्रत्य०)] १. रंग का भाव। जैसे,—इसकी रंगत कुछ काली पड़ गई है। २. मजा। आनंद। जैसे,—जब आप वहाँ पुहँचेंगे, तभी रंगत आवेगी। क्रि० प्र०—खिलाना।—खुलना।—जमना। मुहा०—रंगत आना=मजा होना। आनंद होना। ३. हालत। दशा। अवस्था। जैस, आजकल उनकी रंगत अच्छी नहीं है।
⋙ रंगतरा
संज्ञा पुं० [हिं०] एक प्रकार की बड़ी और मीठी नारंगी संगतरा।
⋙ रंगद
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गद] १. सोहागा। २. खदिरसार।
⋙ रंगदलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गदलिका] नागवल्ली लता। नागबेल।
⋙ रंगदा
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गदा] फिटकिरी।
⋙ रंगदायक
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गदायक] कंकुष्ठ नाम की पहाड़ी मिट्टी।
⋙ रंगदृढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गदृढ़ा] फिटकरी, जिससे रंग पक्का होता है।
⋙ रंगदेवता
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गदेवता] वह कल्पित देवता जो रंगभूमि के अधिष्ठाता माने जाते हैं।
⋙ रंगद्वार
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गद्वार] १. रंगमंच का प्रेवशद्वार। २. नाटक की भूमिका या प्रस्तावना [को०]।
⋙ रंगन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मझोला वृक्ष। विशेष— इसके हीर की लकड़ी कड़ी, चिकनी और मजबूत होती हैं और इमारत के काम आती है। बंगाल, मध्यप्रदेश और मद्रास में यह पेड़ बहुतायत से होता है। इसे 'कोटा गंधल' भी कहते हैं।
⋙ रंगना (१)
क्रि० स० [हिं० रंग+ना (प्रत्य०)] १. किसी वस्तु पर रंग चढ़ाना। रंग में डुबाकर अथवा रंग चढ़ाकर किसी चीज को रंगीन करना।जैसे, कपड़ा रंगना। किवाड़े रंगना। सयो० क्रि०—ढालना।—देना। २. किसी को अपने प्रेम में फँसाना। ३. अपने कार्यसाधन के अनुकुल करने के लिये बातचीत का प्रभाव डालना। अपने अनुकूल करना। अपना सा बनाना।
⋙ रंगना (२)
क्रि० अ० किसी के प्रेम में लिप्त होना। किसी पर आसक्त होना। उ०— जनम तासु को सुफल जो रंगे राम के रंग।—रघुनाथदास (शब्द०)। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ रंगनिवास पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'रंगमहल'। उ०—राखी रंगनिवास मै, तैं जगमाल जुआँण।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ७२।
⋙ रंगपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गपत्री] नीली वृक्ष।
⋙ रंगपीठ
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गपीठ] नृत्यशाला। नाचघर [को०]।
⋙ रंगपुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंगपुर(=बंगाल का एक नगर)] एक प्रकार की छोटी नाव जिसके दोनों ओर की गलही एक सी होती है।
⋙ रंगपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गपुष्पी] नीली वृक्ष।
⋙ रंगप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गप्रवेश] अभिनय करने के लिये किसी पात्र का रंगभूमि में आना।
⋙ रंगबदल
संज्ञा पुं० [हिं० रँग+बदलना] हल्दी। (साधू)।
⋙ रंगबिरंग
वि० [हिं० रंग+बिरंग (अनु०)] १. कई रंगों का। २. भाँति भाँति के। तरह तरह के। अनेक प्रकार के। जैसे,—(क) उनके पास रंग बिरंग कपड़े हैं। (ख) माँ टेनी और बाप कुलंग। उनके बच्चे रंग बिरंग।
⋙ रंगविरंगा
वि० [हिं० रंग बिरंग ] १. अनेक रंगों का। कई रंगों का। चित्रित। २. तरह तरह का। अनेक प्रकार का।
⋙ रंगबीज
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गबीज] रजत। चाँदी [को०]।
⋙ रंगभरिया †
संज्ञा पुं० [हिं० रंग+भरना] १. छत, किवाड़े, दीवार इत्यादि पर रंगों से चित्रकारी करनेवाला। २. रंग करनेवाला। रंगसाज।
⋙ रंगभवन
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गभवन] आमोद प्रमोद या भोगविलास करने का स्थान। रंगमहल।
⋙ रंगभीनी पु
संज्ञा पुं० [सं० रङ्ग+हिं० भींनना] प्रेममयी। रस में सराबोर। प्रेमासक्त। उ०—साँवरे प्रीतम संग राजत रंगभीनी भामिनी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६४।
⋙ रंगभूति
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गभूति] आश्विन की पूर्णिना। कोजागर पूर्णिमा। विशेष— कहते हैं, जो लोग इस रात को जागते रहते हैं, उन्हें लक्ष्मी आकर धन देती हैं।
⋙ रंगभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गभूमि] २. वह स्थान जहाँ कोई जलसा हो। उत्सव मनाने का स्थान। उ०— (क) रंगभूमि आए दौउ भाई। अस सुधि सव पुरबासिन पाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) एहैं रंगभूमि चलि जबहीं। मल्ल युद्ध करि मारब तबहीं।—रघुनाथदास (शब्द०)। २. खेल, कूद वा तमाशे आदि का स्थान। क्रीड़ास्थल। उ०— रगभूमि रमणीक मधुपुरी बारि चढ़ाइ कहो दह कीजो।—सूर (शब्द०)। ३. नाटक खेलने का स्थान। नाट्यशाला। रंगस्थल। ४. वह स्थान जहाँ कुश्ती होती हो। अखाड़ा। ५. रणभूमि। रणक्षेत्र।
⋙ रंगमंगल
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गमङ्गल] रंगमंच की पूजा या अनुष्ठान [को०]।
⋙ रंगमंडप
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गमण्डप] रंगभूमि। रंगस्थल।
⋙ रंगमंदिर
संज्ञा पुं० [सं० रङ्ग+मन्दिर] दे० 'रंगमहल'। उ०— उस निस्पंद रंगमंदिर के व्योम में क्षीण गंध निरवलंब।—लहर, पृ० ८१।
⋙ रंगमध्य
संज्ञा पुं०[सं० रङ्गमध्य] रंगमंच। रंगस्थल।
⋙ रंगमल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गमल्ली] वीणा। वीन।
⋙ रंगमहल
संज्ञा पुं० [हिं० रंग+अ० महल] भोगविलास करने का स्थान। आमोद प्रमोद करने का भावन। उ०— बैठी रंगमहल में राजति। प्यारी फेरि अभूषण साजति। —सूर (शब्द०)।
⋙ रंगमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गमातृ] १. कुटनी कुट्टनी। २. लाख। लाक्षा।
⋙ रंगमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गमातृका] लाक्षा। लाख।
⋙ रंगमार
संज्ञा पुं० [हिं० रंग+मारना] ताश का एक खेल। विशेष— ताश का यह खेल दो, तीन अथवा चार आदमियों में खेला जाता है। इसमें एक एक करके सब खेलनेवालों को बरावर बराबर पत्ते बाँट दिए जाते हैं और तब खेल होता है। इसमें जिस रंग का जो पत्ता चला जाता है, उसी रंग के उससे बंड़े पत्ते से वह जीता जाता है। यह ताश का सबसे सीधा खेल है।
⋙ रंगरली
संज्ञा स्त्री० [हि० रंग+रलना] दे० 'रँगरली'।
⋙ रंगरस
संज्ञा पुं० [हिं० रंग+रस] आमोद प्रमोद। आनंद मंगल।
⋙ रंगरसिया
संज्ञा पुं० [हिं० रंग+रसिया] भोगविलास करनेवाला व्यक्ति। विलासी पुरुष।
⋙ रंगराज
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गराज] संगीत दामोदर के अनुसार ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक भेद।
⋙ रंगरेली ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'रँगरली'।
⋙ रंगलता
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गलता] आवर्तकी लता। मरोड़फली।
⋙ रगलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० रंगलासिनी] शेफालिका।
⋙ रंगवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [रङ्गवील्लका] रंगवल्ली। नागवल्ली।
⋙ रंगविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गावद्या] नृत्य और अभिनय आदि रंग- मंच संबंधी कला वा हुनर [को०]।
⋙ रंगविद्याधर
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गविद्याधर] १. ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक भेद। इसमें दो खाली और दो प्लुत मात्राएँ होती हैं। २. वह जो अभिनय करता हो। रंगविद्या में कुशल। नट। ३. वह जो नाचने में कुशल हो।
⋙ रंगबीज
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गवीज] चाँदी।
⋙ रंगशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० रंगशाला] नाटक खेलने का स्थान। नाट्यशाला। रंगस्थल।
⋙ रंगसंगर
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गसङ्गर] रंगमंच पर होनेवाली प्रति- द्वंद्विता। अभिनय, नृत्य आदि की प्रतिस्पर्धा [को०]।
⋙ रंगसाज
संज्ञा पुं० [फ़ा० रंगसाज़ (सं० रङ्ग+फ़ा० साज)] १. मेज, कुरसी, किवाड़, दीवार इत्यादि पर रंग चढ़ानेवाला। वह जो चीजों पर रंग चढ़ाता हो। २. उपकारणों से रंग तैयार करनेवाला। रंग बनानेवाला।
⋙ रंगसाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० रंगसाजी] रंगसाज का काम। रँगने़ का काम।
⋙ रंगागण
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गाङ्गण] रंगस्थल। नाट्यशाला।
⋙ रंगांगा
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गाङ्गा] फिटकिरी।
⋙ रंगाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंग+आई (प्रत्य०)] दे० 'रँगाई'।
⋙ रंगाचंगा पु
वि० [हिं० रंगा+प्रा० चंगा ] बना ठना। सज़ा वजा। उ०—केचित् दीसै रंगा चंगा। पाट पटंबर बोढ़हिं अंगा।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ९३।
⋙ रंगाजीव
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गाजीविन्] वह जिसकी जीविका रँगाई से चलती हो। रंगसाज या रँगरेज।
⋙ रंगाना
क्रि० स० [हिं० रंगना का प्रेर० रुप] दे० 'रँगाना'।
⋙ रंगामरण
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गाभरण] ताल के साठ भेदों में से एक भेद।
⋙ रंगारंग पु
वि० [फ़ा०] चित्र विचित्र। रंग बिरंगा। तरह तरह का। उ०— यह रंगारंग विभाग भाँति भाति के काव्यों से भरा हुआ है। —सुंदर० ग्रं० (भू०), भाग १, पृ० ७७।
⋙ रंगार
संज्ञा पुं० [देश०] १. वैश्यों का एक जाति का नाम। २. राजपूतों की एक जाति। इस जाति के लोग मेवाड़ और मालेव में रहते हैं। ३. मध्य तथा दक्षिण भारत में रहनेवाली एक जाति। इस जाति के लोग अपने आपको ब्राह्मणों के अंतर्गत बतलाते और खेतीवारी करते हैं।
⋙ रंगारि
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गारि] करवीर। कनेर।
⋙ रंगालय
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गालय] वह स्थान जहाँ पर नाटक, कुश्ती या इसी प्रकार का और कोई खेल तमाशा हो। रंगभूमि।
⋙ रंगावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंग+आवट (प्रत्य०)] रँगाई।
⋙ रंगावतरण
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गावतरण] रंगमंच पर आना। २. नट को उक्ति या वचन [को०]।
⋙ रंगावतारक
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गावतारक] १. रँगरेज। २. अभिनय करनेवाला। नट।
⋙ रंगावतारी
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गावतारिन्] अभिनय करनेवाला। नट।
⋙ रंगिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गिणी] दे० 'रंगी'।
⋙ रंगी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रङ्गिणी] १. शतमूली। २. कैवर्तिका नाम की लता। विशेष दे० 'कैवर्तिका'।
⋙ रंगी (२)
वि० [सं० रङ्गिन्] [वि० स्त्री० रङ्गिणी] १. आनंदी। मौजी। विनोदशील। २. रंगवाला। रंगयुक्त। जैसे, बहुरंगी (को०)। ३. रँगनेवाला (को०)। ४. अभिनेता। रंगमंच पर अभिनय करनेवाला (को०)।
⋙ रंगीन
वि० [फ़ा०] १. जिसपर कोई रंग चढ़ा हो। रँगा हुआ। रंगदार। २. विलासप्रिय। आमोदप्रिय। जैसे, रंगीन तबीयत, रंगीन आदमी। ३. जिसमें कुछ अनोखापन हो। चमत्कार- पूर्ण। मजेदार। जैसे, रंगीन इवारत,रंगीन बातचीत।
⋙ रंगीनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. रंगीन होने का भाव। २. सजावट। बनाव सिंगार। ३. बाँकापन। ४. रसिकता। रँगीलापन।
⋙ रंगीरेटा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली वृक्ष जो दारजिलिंग में अधिकता से होता है। विशेष— इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और इमारत बनाने के काम में आती है। इससे मेज, कुरसी आदि भी बनाई जाती है।
⋙ रंगोपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० रङ्गोपजीविन्] वह जो रंगशाला में अभिनय करके अपनी जींविका का निर्वाह करना हो। नट।
⋙ रंच पु
वि० [सं० न्यञ्च, प्र० णंच] थोड़ा। अल्प। तनिक। उ०— (क) वंचन मेरो कियो सजनी यह रंच न प्यारे दया मन कीन्ही।—सुंदर (शब्द०)। (ख) प्रदुमन लरे सप्तदस दो दिन रंच हार नहिं माने। —सूर (शब्द०)। (ग) रंच न साधु सुधै सुख की विन राधिकै आधिक लाच न डाटे।—केशव (शब्द०)।
⋙ रंचक पु
वि० [सं० न्यञ्च प्रा० णंच] थोड़ा। अल्प। रंच। उ०—(क) संग लिए बिधु बैनी बधु रति हूँ जेहि रंचक रुप दियो है।—तुलसी (शब्द०)। (ख) हिय अचक रीति रची जब रंचक लाइ लई उर नाह तहीं।—केशव (शब्द०)।
⋙ रंज (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] [वि० रंजीदा] १. दुःख। खेद। २. शोक। ३. पीड़ा। कष्ट। दर्द (को०)। क्रि० प्र०—उठाना।—करना।—झेलना।—देना।—पहुँचना।—पहुँचाना।—सहना।
⋙ रंज (२)
वि० रंजीदा। नाराज। दुखी।
⋙ रंजक (१)
संज्ञा पुं० [सं० रञ्जक] १. रंगसाज। २. रँगरेज। ३. हिंगुल। ईगुर। ४. सुश्रुत के अनुसार पेट की एक अग्नि। विशेष—यह पित्त के अंतर्गत मानी जाती है। कहते हैं कि यह यकृत और प्लीहा के बीच में रहती है; और भोजन से जो रस उत्पन्न होता है उसे रंजित करती है। ५. भिलावाँ। ६. मेहदी। ७. लाल चंदन (को०)।
⋙ रंजक (२)
वि० १ रँगनेवाला। जो रँगे। २. आनंदकारक। प्रसन्न करनेवाला। जैसे, मनोरंजक।
⋙ रंजक (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंचक (=अल्प), फ़ा०?] १. वह थोड़ी सी बारुद जो बत्ती लगाने के वास्ते बंदूक की प्याली पर रखी जाती है। उ०— कैयक हजार एक बार बैरी मारि डारे रंजक दगमि मानो अगिनि रिसाने की।—भूषण (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना।—भरना। मुहा०—रंजक उड़ाना=(१) बंदूक या तोप की प्याली में बत्ती लगाने के लिये बारुद रखकर जलाना। (२) पादना। (बाजारु)। रंजक चाट जाना=तोप या बंदूक की प्याली में रखी हुई बारुद का यों ही जलकर रह जाना और उससे गोला या गोली न छूटना। रंजक पिलाना=तोप या बंदूक की प्याली में रंजक रखना। २. गाँजे, तमाखू या सुलफे का दम।(बाजारू)। मुहा०—रंजक देना=गाँजे आदि का दम लगाना। ३. वह बात जो किसी को भड़काने या उत्तेजित करने के लिये कंही जाय। ४. कोई तीखा या चटपटा चूर्ण।
⋙ रंजकदानी
संज्ञा पुं० [हिं० रंजक+फ़ा० दानी] रंजक रखनेवाला। बंदूक की नली में बारुद जलानेवाला। उ०— रंजकदानी, सिंगरा, तूलि, पलीत दानी। —प्रेमघन०, भा० १, पृ० १३।
⋙ रंजन (१)
संज्ञा पुं० [सं० रञ्जन] १. रँगने की क्रिया। २. चित्त को प्रसन्न करने की क्रिया। ३. पित्त। सफरा। ४. रक्त चंदन। लाल चंदन। ५. छप्पय छंद पचासवें भेद का नाम। ६. वेपदार्थ जिनसे रंग बनते हैं। जैसे, हल्दी, नील, लाल चंदन, कुसुम, मजीठ इत्यादि। ७. मूँज। ८. सोना। ९. जायफल। १०. कमीला वृक्ष ।
⋙ रंजन (२)
वि० [वि० स्त्री० रंजनी] १. रंगनेवाला। २. आनंद देनेवाला। रंजक [को०]।
⋙ रंजनक
संज्ञा पुं० [सं० रञ्जनक] कटहल।
⋙ रंजनकेशी
संज्ञा स्त्री० [सं० रञ्जनकेशी] नीली वृक्ष।
⋙ रंजना पु
क्रि० स० [सं० रञ्जन] १. प्रसन्न करना। आनंदित करना। २. भजना। स्मरण करना। उ०— आदि निरंजन नाम ताहि रंजै सब कोऊ।—सूर (शब्द०)। ३. रँगना। उ०— यों सब के तन त्रानन में झलकी अरुणोदय की अरुनाई। अंतर ते जनु रंजन को रजपूतन की रज ऊपर आई।—केशव (शब्द०)।
⋙ रंजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० रञ्जनी] १. संगीत में ऋषभ स्वर की तीन श्रुतियों में से दूसरी श्रुति। २. नीली वृक्ष। ३. मजीठी। ४. हलदी। ५. पर्पटी। ६. नागवल्ली। ७. जतुका या पहाड़ी नाम की लता।
⋙ रंजनीपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० रञ्जनीपुष्प] एक प्रकार का करंज या कंजा। पूतिकरंज।
⋙ रंजनीय
वि० [सं० रञ्जनीय] १. जो रँगने के योग्य हो। २. जो चित्त प्रसन्न कर सके। आनंद दे सकनेवाला।
⋙ रंजा †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जिसे उलबी भी कहते हैं।
⋙ रंजित
वि० [सं० रञ्चित] १. जिसपर रंग चढ़ा हो या लगा हो। रँगा हुआ० उ०— रंजित अंजन कंज विलोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन। —तुलसी (शब्द०)। २. आनंदित। प्रसन्न। ३. प्रेम में पड़ा हुआ। अनुरक्त।
⋙ रंजिश
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. रंज होने का भाव। २., मनमुटाव। अनबन। ३. वैमनस्य। शत्रुता।
⋙ रंजी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० रजस्?] १. रज। धूल। गर्द। २. दे० 'रजक (२)'। उ०—रजी शास्तर ज्ञान की, अंग रही लपटाय। सतगुर एकहि शब्द से दीन्ही तुरत उड़ाय। दरिया० बानी, पृ० १।
⋙ रंजीदगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. रंजीदा होने का भाव। २. अनबन। रंजिश।
⋙ रंजीदा
वि० [फ़ा० रंजिदह्] १. जिसे रंज हो। दुःखित। २. नाराज। अप्रसन्न। असंतुष्ट।
⋙ रंजूर
वि० [फ़ा०] रोगी। कष्टवाला। दुःखी। गमगीन। उ०— हाजिर बदिले बेदिल रंजूर के आगे। —कबीर मं०, पृ० ४६६।
⋙ रंजूरी
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. रोग। आमय। व्याधि। २. कष्ट। पीड़ा। दुःख [को०]।
⋙ रंड (१)
वि० [सं० रण्ड] १. धूर्त। चालाक। २. विकल। बेचैन। ३. विच्छिन्नांग (को०)।
⋙ रंड (२)
संज्ञा पुं० १. बिना पुत्र पैदा किए मर जानेवाला व्यक्ति। २. वह वृक्ष जिसमें फल फूल न लगते हों। ३. धूर्त व्यक्ति (को०)।
⋙ रंडक
संज्ञा पुं० [सं० रण्डक] वह पेड़ जिसमें फल न आते हों।
⋙ रंडा (१)
वि० [सं० रण्डा] राँड़। विधवा। बेवा।
⋙ रंडा (२)
संज्ञा स्त्री० १. विधवा महिला। २. एक छंद या वृत्ति। ३. रंडी। वेश्या। ४. मूषिकपर्णी [को०]।
⋙ रंडापा
संज्ञा पुं० [हिं० राँड+आपा(प्रत्य०)] विधवा की दशा। वैधव्य। बेवापन।
⋙ रंडाश्रमी
संज्ञा पुं० [सं० रणडाश्रमिन्] वह जो ४८ वर्ष की अवस्था के उपरांत रँडुआ हुआ हो। जिसकी स्त्री ४८ वर्ष की उम्र के बाद मृत हो।
⋙ रंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० रण्डा] धन लेकर नाचने, गाने और संभोग करनेवाली स्त्री। वेश्या। कसवी। यौ०—रंडीबाज। रंडीबाजी। रंडीमुंडी। मुहा०—रंडी रखना=किसी रंडी की संभोग आदि के लिये अपने पास रखना।
⋙ रंडीवाज
संज्ञा पुं० [हिं० रंडी+फ़ा० बाज] वह जो रंडियों से संभोग करता हो। वेश्यागामी।
⋙ रंडीबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंडी+बाजी] रंडी के साथ गमन करना। वेश्यागमन।
⋙ रंतव्य (१)
वि० [सं० रन्तव्य] १. जिसके साथ रति की जा सके। रमण के योग्य। २. क्रीड़ा योग्य। आनंद योग्य।
⋙ रंतव्य (२)
संज्ञा पुं० आनंद। क्रिड़ा। विलास [को०]।
⋙ रंता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रन्ता] गौ। गाय [को०]।
⋙ रंता पु † (२)
वि० [सं० रन्तृ] १. रमण करनेवाला। २. अनुरक्त। लगा हुआ। उ०— मुनि मानस रंता जगत नियंता आदि न अत न जाहि।—केशव (शब्द०)।
⋙ रंति
संज्ञा स्त्री० [सं० रन्ति] १. केलि। क्रीड़ा। २. विराम।
⋙ रंतिदेव
संज्ञा पुं० [सं० रन्तिदेव] १. पुराणानुसार एक बड़े दानी राजा जिन्होंने बहुत अधिक यज्ञ किए थे। वेशेष— एक बार सव कुछ दे डालने पर इन्हें ४८ दिनों तक पीने को जल भी न मिला। उनचासवें दिन ये कुछ खाने पीने का आयोजन कर रहे थे कि क्रम से एक ब्राह्मण, एक शूद्र और कुत्ते के लिये हुए एक अतिथि आ पुहँचे । सब सामान उन्हीं के आतिथ्य में समाप्त हो गया, केवल जल बच रहा। उसे पीने के लिये ज्यों ही इन्होंने हाथ उठाया कि एक प्यासा चांडील आ गया और पीने के लिये जल माँगने लगा। राजा ने वह जल भी दे दिया। अंत में भगवान् ने प्रसन्न होकर इन्हें मोक्ष दिया। २. विष्णु। ३. कुत्ता।
⋙ रंतिनदी
संज्ञा स्त्री० [सं० रन्तिनदी] चंबल नदी।
⋙ रंतु
संज्ञा स्त्री० [सं० रन्तु] १. सड़क। २. नदी।
⋙ रंद
संज्ञा पुं० [सं० रन्ध्र] १, बंड़ी इमारतों की दीवारों के वे छेद जो रोशनी और हवा आने के लिये रखे जाते हैं। रौशनदान। २. किले की दीवारों का वह मोखा जिसमें से बाहर की ओरबंदूक वा तोप चलाई जाती है। मार। उ०— क्या रेनी खंदक रंद बड़ा क्या कोट कँगूरा अनमोला। क्या वुर्ज रहकला तोप किला क्या शीशा दारु और गोला। —नजीर (शब्द०)।
⋙ रंदना
क्रि० स० [हिं० रन्दा+ना (प्रत्य०)] रंदे से छीलकर लकड़ी की सतह चिकनी करना। रंदा फेरना या चलाना।
⋙ रंदा
संज्ञा पुं० [सं० रदन(=काटना, चीरना)] बढ़ई का एक औजार जिससे वह लकड़ी की सतह छीलकर बरावर और चिकनी करता है। विशेष— इस औजार में एक चौपहल लंबी और चिकनी सतहवाली लकड़ी के बीच में एक छोटा लंबा छेद होता है, जिसमें एक तेज धारवाला फल जड़ा रहता है। इसे हाथ में लेकर किसी लकड़ी पर बार बार रगड़ने या चलाने से उसके ऊपर से उभरी हुई सतह उतरने लगती है और थोड़ी देर में लकड़ी की सतह चिकनी हो जाती है।
⋙ रंध पु
संज्ञा पुं० [सं० रन्ध्र] दे० 'रंध्र'। उ०— दसवै द्वार रंध करु वंदा। जहाँ काम नित करै अनंदा। —संत० दरिया, पृ० ३९।
⋙ रंधक
संज्ञा पुं० [सं० रन्धक] १. रसोई बनानेवाला। रसोइया। २. नष्ट करनेवाला। नाशक।
⋙ रंधन
संज्ञा पुं० [सं० रन्धन] १. रसोई बनाने की क्रिया। पाक करना। राँधना। २. नष्ट करना।
⋙ रंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० रन्धि]दे० 'रंधन' [को०]।
⋙ रंधित
वि० [सं० रन्धित] १. पकाया हुआ। राँधा हुआ। २. नष्ट।
⋙ रंध्र
संज्ञा पुं० [सं० रन्ध्र] १. छेद। सूराख। यौ०—ब्रह्मरंध्र। रंध्रवभ्रु= मूषक। चूहा। रंध्रवंश =पोला बीस। २. योनि। भग। ३. नौ की संख्या (को०)। ३. दोष। छिद्र। यौ०—रंध्रगुप्ति=दोष या छिद्र छिपाना। कमजोरी छिपाना। रंध्रप्रहारी=किसी की कमजोरी पर प्रहार करनेवाला।
⋙ रंध्रागत
संज्ञा पुं० [सं० रन्ध्रागत] घोड़ों के गले में होनेवाला एक प्रकार का रोग।
⋙ रंबा
संज्ञा पुं० [हिं० रम्भा] १. दे० 'रंभा'। २. जुलाहों का लोहे का एक औजार जो लगभग एक गज लंबा होता है। विशेष—यह जमीन में गाड़ दिया जाता है और इसमें तानी की रस्सी बाँधी जाती है।
⋙ रंभ
संज्ञा पुं० [सं० रम्भ] १. बाँस। २. एक प्रकार का वाण। ३. पुराणानुसार महिषासुर के पिता का नाम। विशेष— इसने महादेव से वर पाकर महिषासुर को पुत्र रुप में प्राप्त किया था। यह भी कहा जाता है कि यही दूसरे जन्म में रक्तवीज हुआ था। ४. भारी शब्द। कलकल। हलचल। उ०— माथे रंभ समुद्र जस होई।—जायसी (शब्द०)। ५ धूर। धूलि (को०)। ६. छड़ी। दंड। डंडा (को०)। ७. सहारा। आसरा (को०)। ८. एक वानर का नाम (को०)। ९. कदली। केला।
⋙ रंभन
संज्ञा पुं० [सं० रम्भण] आलिंगन। परिरंभण।
⋙ रंभा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रम्भा] १. केला। २. गौरी। ३. गौ का रँभाना या चिल्लाना। ४. उत्तर दिशा। ५. वेश्या। ६. पुराणा- नुसार स्वर्ग की एक प्रसिद्ध अप्सरा। ७. चावल की एक किस्म (को०)।
⋙ रँभा (२)
संज्ञा पुं० [सं० रँभा] लोहे का वह मोटा भारी डंड़ा जिसकी सहायता से पेशराज आदि दीवारों में छेद करते या इसी प्रकार के और काम करते हैं।
⋙ रँभा तृतीया
संज्ञा स्त्री० [सं० रम्भा तृतीया] ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया। विशेष—पुराणानुसार इस तिथि को व्रत करने का विधान हैं।
⋙ रँभापति
संज्ञा पुं० [सं० रम्भापति] इंद्र।
⋙ रँभाफल
संज्ञा पुं० [सं० रम्भाफल] केला।
⋙ रँभित
वि० [सं० रम्भित] १. शब्द किया हुआ। बोलाय़ा हुआ। २. बजाया हुआ।
⋙ रँभिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० रम्भिनी] एक रागिनी जो भैरव राग की पुत्रवधू मानी जाती है।
⋙ रँभी
संज्ञा पुं० [सं० रम्भिन्] १. वह जो हाथ में बेंत या दंड लिए हो। २. बुड़्ढा आदमी। वृद्ध। ३. द्वारपाल। दरवान।
⋙ रँभोरु, रंभोरू
वि० [सं० रम्भोरु, रमभोरू] १. (स्त्री) जिसकी केले के खंभे के समान सुढौल, चिकनी और उतार चढा़ववाली जाँघें हों। २. सुंदर। खूबसूरत।
⋙ रँह
संज्ञा पुं० [सं० रँहस्] १. वेग। गति। तेजी। २. उग्रता। चंडता।। तीक्ष्णता (को०)। ३. उत्कट लालसा (को०)। ४. शिव का एक नाम (को०)। ५. विष्णु का एक नाम (को०)।
⋙ रँहण
संज्ञा पुं० [सं०] तेजी से जाना। तीव्र गति वा गमन [को०]।
⋙ रँहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गति। वेग। चाल। २. रथ का वेग [को०]।
⋙ रँहि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जलप्रवाह। सोता। २. प्रवाह। धारा। ३. पीछा करने की क्रिया। पीछा करना। दौड़ाना। ४. शीघ्रता। तेजी [को०]।
⋙ रँग पु
संज्ञा पुं० [सं० रड़्ग, रंग, फा़० रंग] दे० 'रंग'। उ०— त्यौं पदमाकर यों मृग में रँग देखत हौ कबकी रुख राखे।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ रँगधर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] रंगसाज। चितेरा। चित्रकार। उ०—पुहमीपति दुइ रतन बटोरा। सामुंद्रिक औ रँगधर जोरा—चित्रा०, पृ० १८५।
⋙ रँगना पु
क्रि० स०, क्रि० अ० [हिं० रंग + ना] दे० 'रंगना'। उ०—(क) लाज गड़ी मुख खोलै न बोलै कियो रघुनाथ उपाय दुनी को। कोटि रँगै नहि एक जिमि सूम के आगे सयान गुनी को।—रघुनाथ (शब्द०)। (ख) संतन के उपदेश तें रँग्यो कछुक हरि रंग।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ रँगमगना पु
क्रि० अ० [सं० रङ्ग + मग्न] रँगना। पगना। रँजित होना। रागयुक्त होना। उ०—सोहत श्याम जलद मृदु धोरत धातु रँगभगे सृंगनि।—राम०, पृ० १३६।
⋙ रँगरली
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंग + रलना] आमोद प्रमोद। आनंद। क्रीड़ा। चैन। मौज। उ०—कुढँग कोप तजि रँगीरलीकरति जुवति जग जोई। पावस बात न गूढ यह बूढ़नि हूँ रँग होई।—बिहारी (शब्द०)। मुहा०—रँगरलियाँ मचाना या करना = आनंद मंगल और आमोद प्रमोद करना। उ०—(क) तुम्हारे यही दिन हँसने बोलने और रँगरलियाँ करने के है।—अयोध्या (शब्द०)। (ख) तमाम शहर में हर सू मची है रँगरलियाँ। गुलाल अवीर से गुल्जार है सभी गलियाँ।—नजीर (शब्द०)।
⋙ रँगरस पु
संज्ञा पुं० [सं० रंग + रस] दे० 'रंगरस'। उ०— सुघराई के गरव भरी जानति सब रँगरस।—व्यास (शब्द०)।
⋙ रँगरसिया †
संज्ञा पुं० [हिं० रंगरस + इया (प्रत्य०)] बिलासी व्यक्ति। रंगरसिया।
⋙ रँगराता
वि [सं० रड़्ग + रत] [वि० स्त्री० रँगराती] १. भोग विलास में लगा हुआ। ऐश आराम में मस्त। २. प्रेम- युक्त। अनुरागपूर्ण। उ०—रँगराती रातै हियै प्रियतम लिखी बनाइ। पाती काती बिरह की छातो रही लगाइ।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ रँगरुट
संज्ञा पुं० [अं० रिकूट] १. सेना या पुलिस आदि में नया भर्तो होनेवाला सिपाही। २. किसी काम में पहले पहल हाथ ड़ालनेवाला आदमी। वह आदमी जो कोई काम सीखने लगा हो। जिसने केई नया काम करना शुरू किया हो। वह जिसे कार्य का अनुभव न हो। जैसे,—वह अभो व्याख्यान देना क्या जाने, बिलकुल रँगरूट है।
⋙ रँगरेज
संज्ञा पुं० [फा़०] [स्त्री० रँगरेजिन] कपड़े रँगनेवाला। वह जो कपड़े रँगने का काम करता हो।
⋙ रँगरेली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'रंगरली'। उ०—भैंसन देहु करन रँगरेली। सींग पखारि कुंड विच केली।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)।
⋙ रँगरैनी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंग + रैनी (= जुगनू)] एक प्रकार की लाल रंग की चुनरी।
⋙ रँगवा
संज्ञा पुं० [देश०] चौपायों का एक रोग।
⋙ रँगवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'रंगाई'।
⋙ रँगवाना
क्रि० स० [हिं० रँगना का प्रेर० रूप] रँगने का काम दूसरे से करना। दूसरे को रँगने में प्रवृत्त करना।
⋙ रँगवाल पु
संज्ञा पुं० [फा़० रंग + हिं० वाला (प्रत्य०)] दे० 'रँगरेज'। उ०—सीसगर दरजी तंबोली रँगवाल ग्वाल। बाढई संगतरास तेली धोबी धुनिआ।—अर्ध०, पृ० ४।
⋙ रँगाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंग + आई (प्रत्य०)] १. रँगने का काम। रँगने की क्रिया। २. रँगने का भाव। जैसे,—इसकी रँगाई बहुत अच्छी हुई है। ३. रँगने की मजदूरी।
⋙ रँगाना
क्रि० स० [हिं० रँगना का प्रेर० रूप] रँगने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को रँगने में प्रवृत्त करना।
⋙ रँगावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० रंग + आवट (प्रत्य०)] रँगने का भाव। रंगाई।
⋙ रँगा सियार
संज्ञा पुं० [हिं०] ढोंगी व्यक्ति। छदमवेश में रहनेवाला आदमी। विशेष—इस शब्द के पीछे एक कहानी है। घूमते घामते कोई सियार रात को बस्ती में आ निकला। वहाँ वह धोखे से नील की नाँद में गिर पड़ा। सर्वाग उसका नीला हो गया। सियार बहुत चालाक था। उसने अपने बदले हुए रंग का फायदा उठाया। जंगल में जाकर उसने अपने को देवताओं द्वारा नियुक्त सब जानवरों का राजा घोषित कर दिया। कुछ दिनों बाद भेद खुलने पर उसकी बड़ी दुर्गति हुई।
⋙ रँगिया †
संज्ञा पुं० [हिं० रँग + इया (प्रत्य०)] १. कपड़े रँगनेवाला। रंगरेज। २. रंगसाज।
⋙ रँगिली पु
वि० स्त्री० [हिं० रँगीली] दे० 'रँगीला'। उ०—डारत अतर लगाइ अरगजा रँगिली समधिन देखि।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३८०।
⋙ रँगीला
वि० [हिं० रंग + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० रँगीली] १. आनंदी। मौजी। रसिया। रसिक। उ०—श्याम रँग रँगे रँगीले नैन।—सूर (शब्द०)। २. सुंदर। खूबसूरत। जैसे,— रँगीला जवान। उ०—कहै पदमाकर एते पै यो रँगीलो रूप देखे बिन देखे कहौ कैसे धीर धरिए। पद्माकर (शब्द०)। ३. प्रेमी। अनुरागी।
⋙ रँगीली टोड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० रँगीली + टोड़ी (एक रागिनी)] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। यह टोड़ो रागिनी का एक भेद है।
⋙ रँगैया †
संज्ञा पुं० [हिं० रंग + ऐया (प्रत्य०)] रँगनेवाला।
⋙ रँड़पुरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'रँड़ापा'। उ०—कबहुँ न चढै़ रँड़पुरा जानै सब कोई। अजर अमर अविनासिया ताको नास न होई।—मलूक०, पृ० ३।
⋙ रँड़रोना
संज्ञा पुं० [हिं०] राँड़ का रोना। (पति न होने से जिसका कोई प्रभाव नहीं होता।) राँड की तरह रोना। अरण्यरोदन। उ०—बगैर उसके वस्ल के सब रँड़रोना है यह हँसी नहीं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५७०।
⋙ रँडापा
संज्ञा पुं० [हिं० राँड़ + आपा (प्रत्य०)] रंडापा। वैधव्य। बेवापन। मुहा०—रँडापा खेना या बिताना = किसी प्रकार वैधव्य जीवन व्यतीत करना।
⋙ रँड़ुआ, रँड़ुआ
संज्ञा पुं० [हिं० राँड़ + उआ (प्रत्य०)] वह पुरुष जिसकी स्त्री मर गई हो।
⋙ रँडोरा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० राँड़ + ओरा (प्रत्य०)] [स्त्री० रँडोरी] वह पुरुष जिसकी स्त्री मर गई हो। रँड़ुवा।
⋙ रँभाना (१)
क्रि० अ० [सं० रम्भण] गाय का बोलना। गाय का शब्द करना। उ०—बाजत वेणु विषाण सबै अपने रँग गावत। मुरली घुनि गौ रंभि चलत पग धूरि उड़ावत।—सूर (शब्द०)।
⋙ रँभाना (२)
क्रि० स० गौ से रँभण कराना। गौ को शब्द करने में प्रवृत्त करना।
⋙ रँहचटा
संज्ञा पुं० [सं० रहस् अथवा हिं० रहस + चाट] मनोरथ- सिद्धि की लालसा। लालच। चस्का। उ०—(क) ज्यौ ज्यौं आवत निकट निसि त्यौ त्यौ खरी उताल। झमकि झमकि टहलै करै लगी रँहचटे वाल।—बिहारी (शब्द०)। (ख) कन दैवो सौंप्यो ससुर बहू थुरहथी जानि। रूप रँहचटे लगि लग्यो माँगन सब जग आनि।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पावक। अग्नि। २. कामाग्नि। ३. सितार का एक बोल। ४. जलना। झुलसना। ५. आँच। ताप। गरमी। ६. सोना। स्वर्ण (को०)। ७. वर्ण (को०)। ८. चालीस की संख्या (को०)। ९. छंदशास्त्र में एक गण। रगण जो मध्यलघु होता है (को०)।
⋙ र (२)
वि० तीक्ष्ण। प्रखर।
⋙ रअय्यत
संज्ञा स्त्री० [अ० रअय्यत] १. प्रजा। रिआया। २. काश्तकार। ३. सेवक। मुलाजिम। नौकर (को०)।
⋙ रइअत
संज्ञा स्त्री० [अ० रअय्यत] दे० 'रअय्यत'।
⋙ रइकौ पु †
क्रि० वि० [हिं० रची + कौ (प्रत्य०) या रंचक] जरा भी। तनिक भी। कुछ भी। उ०—ऐसी अनहोन लाज मानति कह्मो न देव होन कहूँ पाप रइकौ सी होन पाउरी।—देव (शब्द०)।
⋙ रइनि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० रजनी, प्रा० रयणी] रात। रात्रि निशि। उ०—(क) रइनि रेनु होइ रबिहि गरासा। मानुस पंखि लेहिं फिरि बासा।—जायसी (शब्द०)। (ख) जहवाँ जात रइनियाँ तहँवाँ जाहु। जोरि नयन निरलजवा कत मुसुकाहू।— रहिमन (शब्द०)।
⋙ रइबारी पु
संज्ञा पुं० [देश० या गुज० रबारी (= एक घुमक्कड़ जाति)] एक जाति जो ढोरों को चराने और रखने का काम करता है।—रइवारी ढोलउ कहइ, करहउ आछउ एक।—ढोला०, दू० ३०६।
⋙ रइयत पु
संज्ञा स्त्री० [अ० रजय्यत] दे० 'रअय्यत'। उ०—आयो भरथ अवध अभग, मंडे पावडा उतमंग। रइयत कीध अत उछरंग, इस आवास जाय उमंग।—रघु० रू०, पृ० १२२।
⋙ रई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रथ (= हिलाना)] दही मथने की लकड़ी। मथनी। खैलर। उ०—बासुको नेति अरु मंदराचल रई कमठ मैं आपनी पीठ धारयो।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना।—फेरना।
⋙ रइ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० रवा] १. गेहूँ का मोटा आटा। दरदरा आटा। २. सूजी। ३. चूर्ण मात्र। उ०—चूरी करिहै रई।— हरिश्चद्र (शब्द०)।
⋙ रई (३)
वि० स्त्री० [हिं० रयना, रचना> सं० रञ्जन] १. ड़ूवी हुई। पगी हुई। (क) उरहन दैन चली जसुमति को मनमोहन के रूप रई।—सूर (शब्द०)। (ख) माधो राधा के रँग राचे राधा माधो रंग रई।—सूर (शब्द०)। २. अनुरक्त। उ०—(क) कहत परस्पर आपुस में सब कहाँ रहीं हम काहिं रई।—सूर (शब्द०)। (ख) स्वाँग सूधो साधु की, कुचालि कलि तें अधिक, परलोक फीकी, मति लोक रंग रई।—तुलसी (शब्द०)। ३. युक्त। सहित। संयुक्त। उ०—(क) बीस बिसे बलवंत हुते जो हुती द्दग केशव रूप रई जू।—केशव (शब्द०)। (ख) करिए युत भूषण रूप रई। मिथिलेश सुता इक स्पर्श मई।—केशव (शब्द०)। ४. मिली हुई।
⋙ रईस
संज्ञा पुं० [अ०] [वि० रईसाना] १. वह जिसके पास रियासत या इलाका हो। तअल्लुकेदार। भू्स्वामी। सरदार। २. प्राति- ष्टित और धनवान पुरुष। बड़ा आदमी। अमीर। धनी। जैसे,— उसकी दावत में शहर के बड़े बड़े रईस आए थे। यौ०—रईसुल बहर = नौसेनापति। रईसजादा। रईसजादी।
⋙ रईसी
संज्ञा स्त्री० [अ० रईस + ई] अमीरी। धनाढ्यता। ऐश्वर्य- संपन्नता।
⋙ रउताई पु †
संज्ञा पुं० [हिं० रावत + आई (प्रत्य०)] मालिक होने का भाव। प्रभुत्व। स्वामित्व। उ०—धनि सो खेल खेल सह पेमा। रउताई अउ कूसल खेमा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ रउरे †
सर्व० [हिं० राव, राविल] मध्यम पुरुष के लिये आदरसूचक शब्द। आप। जनाव। उ०—विप्र सहित परिवार गोसाई। करहिं छोह सब रउरिहि नाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रऐयत
संज्ञा स्त्री० [अ०] प्रजा। रिआया।
⋙ रकछ †
संज्ञा पुं० [हिं० रिकवँच] पत्तों की पकौड़ी। पतौड़। उ०— पान कतरि छौके रकछ डारि मिर्च औ आदि। एक खंड जो खावै पावै सहस सवादि।—जायसी (शब्द०)।
⋙ रकत (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्त] लहू। खून। रुधिर।
⋙ रकत (२)
वि० लाल। सुर्ख।
⋙ रकतकंद
संज्ञा पुं० [सं० रक्तकन्द] १. मूँगा। प्रवाल। विद्रुम (डिं०)। २. राजपलांड़ु। रक्तालु। रतालु।
⋙ रकतांक पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्ताङ्क] १. विद्रुम। प्रवाल। मूँगा। (ड़िं०)। २. कुंकुम। केसर। ३. रक्तचंदन। लाल चंदन।
⋙ रकती (१)
वि० [हिं० रूकत + ई (प्रत्य०)] सुर्खी लाल। जो खून की तरह लाल हो। उ०—उसे पूरी आशा हो गई, उनकी बड़ी बड़ी रकती आँखें देखकर कि, अब उसकी गरदन बिना नपे न बचेगी।—शराबी, पृ० ६१।
⋙ रकती (२)
संज्ञा स्त्री० आँखों में जमा हुआ खून या उसकी लाली।
⋙ रकबा
संज्ञा पुं० [अ० रक़बहु] वह गुणनफल जो किसी क्षेत्र की लंबाई और चौड़ाई को गुणा करने से प्राप्त हो। क्षेत्रफल।
⋙ रकबाहा †
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़ों का एक भेद। उ०—कर रकबाहे किलबाकी कुही काबिल के, खुरासानो खंजरीट खंजन खलक के।—सूदन (शब्द०)।
⋙ रकमंजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० रुक्म] एक प्रकार का पौधा।
⋙ रकम
संज्ञा स्त्री० [अ० रक़म] १. लिखने की क्रिया या भाव। २.छाप। मोहर। ३. रुपया या बीधा बिस्ञा आदि लिखने के फारसी के विशिष्ट अंक जो साधारण संख्यासूचक अंकों से भिन्न होते हैं। ४. नियत संख्या का धन। संपत्ति। दौलत। ५. गहना। जेबर। ६. धनवान। मालदार। ७. चलता पुरजा। चालाक। धूर्त। ८. नवयौवना और सुंदरी स्त्री। (बाजारू)। ९. लगान की दर। १०. प्रकार। तरह। भाँति। ११. एक प्रकार का कसीदा किया कपड़ा जो धारीदार होता है। यौ०—रकम पताई = माल मत्ता। जमा पूँजी। रकम सायर, रकम सिवाय = लगान के अतिरिक्त मिलनेवाली आमदनी।
⋙ रकमी (१)
संज्ञा पुं० [अ० रक़मी] वह किसान जिसके साथ कोई खास रिआयत की जाय।
⋙ रकमी (२)
वि० १. लिखा हुआ। लिखित। २. रेखांकित। चिह्नित। निशान किया हुआ [को०]।
⋙ रकाक
संज्ञा पुं० [अ० रका़क़] पटपर नरम भूमि। चौरस और मुलाय़म मिट्टीवाली जमीन।
⋙ रकान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. तौर तरीका। २. वल्गा। लगाम।
⋙ रकाब
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. घोड़ों को काठी का पावदान जिसपर पैर रखकर सवार होते हैं और बैठने में जिससे सहारा लेते हैं। घोड़ों की जीन का पावदान। (यह लोहे का एक घेरा होता है, जो जीन में दोंनों ओर रस्सी या तस्में से लटका रहता है।) मुहा०—रकाब पर पैर रखना, रकाब मे पाँव रहना = जाने के लिये उद्यत होना । चलने के लिये बिलकुल तैयार होना। जैसे,—(क) आप तो पहले से ही रकाब पर पैर रखे हुए हैं। (ख) आप जब आते है, तब रकाब पर पैर रखे आते हैं। २. रकाबी। तश्तरी।
⋙ रकाबत
संज्ञा स्त्री० [अ० रका़बत] एक नायिका के दो प्रेमियों की परस्पर प्रतिद्वंद्विता। एक नायक को चाहनेवाली दो नायि- काओं का परस्पर डाह [को०]।
⋙ रकाबदार
संज्ञा पुं० [फा़०] १. मुरब्बा, मिठाई आदि बनानेवाला। हलवाई। २. रकाबियों में खाना चुनने और लगानेवाला। खानसामाँ। ३. बादशाहों के साथ खाना लेकर चलनेवाला सेवक। खासा बरदार। ४. रकाब पकड़कर घोड़े पर सवार करानेवाला। नौकर। साईस।
⋙ रकाबा
संज्ञा सं० [फा़०] बड़ी थाली। परात। तश्तरी।
⋙ रकाबी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] एक प्रकार की छिछली छोटी थाली, जिसकी दीवार बहुत कम ऊँची अथवा बाहर की ओर मुड़ी़ हुई होती है। तश्तरी।
⋙ रकार
संज्ञा पुं० [सं०] रवर्ण का बोधक अक्षर। र।
⋙ रकीक (१)
वि० [अ० रकी़क] १. पानी की तरह पतला। तरल। द्रव। २. कोमल। मुलायम। नरम।
⋙ रकीक (२)
वि० [अ०] अधम। तुच्छ। कमीना [को०]।
⋙ रकीब
संज्ञा पुं० [अ० रकी़ब] [संज्ञा स्त्री० रकीबा] वह प्रतियोगी जो किसी प्रेमिका के संबंध में प्रतियोग करता हो। प्रेमिका का दूसरे प्रेमी। सपत्न।
⋙ रकेबी
संज्ञा स्त्री० [फा़० रकरबी, रिकाबी] दे० 'रकावी'।
⋙ रक्कास
संज्ञा पुं० [अ० रक्कास] [स्त्री० रक्कासा] ताड़ंव नृत्य (पुरुष नृत्य) करनेवाला। नर्तक। नाचनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ रक्खना
क्रि० स० [सं० रक्षण, प्रा० रक्खण, हिं० रखना] दे० 'रखना'।
⋙ रक्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह प्रसिद्ध तरल पदार्थ जो प्रायः लाल रंग का होता और शरीर की नसों आदि में से होकर वहा करता है। लहू। रुधिर। खून। विशेष—साधारणतः रक्त से ही हमारे शरीर का पोषण और रक्षण होता है। यह हृदय द्वारा परिचालित होता और सदा सारे शरीर में चक्कर लगाया करता है। शरीर के अंगों में पोषक द्रव्य रक्त के द्वारा ही पहुँचना है; और जब रक्त कहीं से चलता है, तब उस स्थान के दूषित या परित्यक्त अंश को भी अपने साथ ले लेता है। इस प्रकार इसमे जो दूषित अंश या विष जाता है, वह फुफ्फुस की क्रिया से नष्ट हो जाता है; और फुफ्फुस में आने के उपरांत रक्त फिर शुद्ध हो जाता है। हृदय से साफ रक्त चलता है, वह लाल होता है। पर फिर जब शरीर के अंगों से वही रक्त फुफ्फस की ओर चलता है, तब वह काला हो जाता है। रक्त जल से कुछ भरी होता है, स्वाद में कुछ नमकीन होता है और पारदर्शी नहीं होता। साधारणतः इसका तापमान १०० फहरन हाइट होता है; पर रोगों में यह बात घट या बढ़ जाता है। इसमें दो भाग होते हैं—एक तो तरल जिसे 'रक्तवारि' कह सकते हैं, और दूसरे रक्तकण जो उक्त' रक्तवारि' में तैरते रहते हैं। ये कण दो प्रकार के होते हैं—श्वेत और लाल। ये कण वास्तव में सजीव अणुपिंड़ हैं। शरीर से बाहर निकलने पर अथवा मृत्यु के उपरांत शरीर के अंदर रहकर भी रक्त बिलकुल जम जाता है। प्रातः सारे शरीर का १/२० वाँ भाग रक्त होता है। पशुओं का रक्त प्रयः चोनी आदि साफ करने और खाद तैयार करने के काम में आता है। हमारे यहाँ के वैद्यक शास्त्र के अनुसार यह शरीर की सात मुख्य धातुओं में से एक है और यह स्निग्ध, गुरु, चलनशील और मधुर रस कहा गया है। पर्या०—रुधिर। लोहित। अस्त्र। क्षतज। शोणित। रोहित। रंगक। कीलाल। अंगज। स्वज। शरण। लोह। चर्मज। मुहा०—के लिये दे० 'खून' के मुहावरे। २. कुंकुम। केसर। ३. ताँबा। ४. पुराना और पका हुआ आँवला। ५. कमल। ६. सिंदूर। ७. हिंगुल। शिंगरफ। ईंगुर। ८. पतंग की लकड़ी। ९. लाल चंदन। कुचंदन। १०. लाल रंग। ११. कुसुंभ। १२. नदीतट पर होनेवाला एक प्रकार का वेत। हिज्जल। १३. बंधूक। गुलदुपहरिया। १४. एक प्रकार की मछली। १५. एक प्रकार का जहरीला मेंढक। १६. एकप्रकार का विच्छू। १७. शिव का एक नाम (को०)। १८. मंगल ग्रह (को०)।
⋙ रक्त (२)
वि० [सं०] १. चाह या प्रेम में लीन। अनुरक्त। २. रँगा हुआ। ३. लाल। सुर्ख। ४. बिहारमग्न। ऐयाश। विलासी। ५. साफ किया हुआ। शोधित। शुद्ध।
⋙ रक्त आमातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें लहू के दस्त आते है।
⋙ रक्तकंगु
संज्ञा पुं० [सं० रक्तकङ्गु] साल का वृक्ष जिससे राल निकलती है।
⋙ रक्तकंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तकण्टा] विकंकत वृक्ष।
⋙ रक्तकंठ (१)
संज्ञा पुं० [सं० रक्तकण्ठ] १. कोयल। २. भाँटा। भंटा। बैंगन। उ०—रक्तकंठ तांबूल निवारे। पदाभ्यंग वसबाहन द्वारे।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ रक्तकंठ (२)
वि० १. जिसका कंठ लाल रंग का हो। २. जिसकी आवाज मीठी हो (को०)।
⋙ रक्तकंठी
वि० संज्ञा पुं० [सं० रक्तण्ठिन्] दे० 'रक्तकंठ' [को०]।
⋙ रक्तकंद
संज्ञा पुं० [सं० रक्तकन्द] १. विद्रुम। मूँगा। २. प्याज। ३. रतालू।
⋙ रक्तकंदल
संज्ञा पुं० [सं० रक्तकन्दला] मूँगा। विद्रुम।
⋙ रक्तकंबल
संज्ञा पुं० [सं० रक्तकम्वल] नीलोफर। कूँई।
⋙ रक्तक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुलदुपहरिया का पौधा या फूल। बंधूक। २. लाल सहिंजन का वृक्ष। ३. लाल अंड़ी का वृक्ष। लाल रेंड। ४. लाल कपड़ा। ५. खून। रुधिर। रक्त (को०)। ६. लाल रंग का घोड़ा। ७. केसर। कुंकुम।
⋙ रक्तक (२)
वि० १. लाल रंग का। २. प्रेम करनेवाला। अनुरागी। ३. विनोदी। मसखरा।
⋙ रक्तकदंब
संज्ञा पुं० [सं० रक्तकदम्ब] एक प्रकार का कदंब का वृक्ष जिसके फूल बहुत लाल रंग के होते हैं।
⋙ रक्तकदली
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंपा केला।
⋙ रक्तकमल
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग का कमल। विशेष—वाद्यक में यह कटु, तिक्त, मधुर, शीतल, रक्तदोषनाशक, बलकारक और पित्त, कफ तथा बात को शमन करनेवाला मान गया है।
⋙ रक्तकरवीर
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग का कनेर। विशेष—वाद्यक में यह कड़ुआ, तीक्ष्ण विशोधन और व्रण, कंड़ु, कुष्ठ तथा विष का नाशक माना गया है।
⋙ रक्तकांचन
संज्ञा पुं० [सं०रक्तकाञ्चन] कचनार का वृक्ष। कचनाल। पर्या०—विदज। चमरिक। कांचनाल। ताम्रपुष्प। कुदार।
⋙ रक्तकांता
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तकान्ता] लाल रंग की पुनर्नवा। लाल गदहपूरना।
⋙ रक्तका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पानी आँवला।
⋙ रक्तकाश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के रोग जिसमें फेफड़े से मुँह के रास्ते खून निकलता है। विशेष—यह रोग प्रायः जोर से गाने, अधिक बंसी बजाने या खाँसी आदि रहने की दशा में तथा ऊँचे पर्वतों पर चढ़ने आदि से हो जाता है।
⋙ रक्तकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] पतंग की लकड़ी।
⋙ रक्तकुंडल
संज्ञा पुं० [सं० रक्तकुरुण्ड़ल] दे० 'रक्तकुमुद'।
⋙ रक्तकुमुद
संज्ञा पुं० [सं०] कूँई। नीलोफर।
⋙ रक्तकुरुडक
संज्ञा पुं० [सं० रक्तकुरूणडक] लाल कटसरैया।
⋙ रक्तकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] विसर्प नामक रोग, जिसमें सारे शरीर में बहुत जलन होती है, कभी कभी सारा शरीर लाल रंग का हो जाता है और कुष्ठ की भाँति गलने भी लगता है।
⋙ रक्तकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. कचनार। २. आक। मदार। ३. धमिन का पेड़। ४. पारिभद्र या फरहद का पेड़।
⋙ रक्तकुसुसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनार का पेड़।
⋙ रक्तकृमिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाख। लाह।
⋙ रक्तकेशर, रक्तकेशर
संज्ञा पुं० [सं०] प्रारिभद्रक वृक्ष। फरहद का पेड़।
⋙ रक्तकेशी
वि० [सं० रक्तकेशिन्] जिसके बाल लाल रंग के हों। तामडे़ रंग के बालोंवाला।
⋙ रक्तकैरव
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कुमुद।
⋙ रक्तकोकनद
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल।
⋙ रक्तक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] लहू बहना। रक्तस्त्राव।
⋙ रक्तक्षयशोषि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह यक्ष्मा रोग जो किसी कारण- वश शरीर का रक्त कम हो जाने से उत्पन्न हो।
⋙ रक्तखदिर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का खैर का वृक्ष जिसके फूल लाल रंग के होते हैं। रक्तसार।
⋙ रक्तखाड़व, रक्तखाड़व
संज्ञा पुं० [सं० रक्तखाण्ड़व, रक्तखाड़र्व] एक प्रकार का खजूर का वृक्ष।
⋙ रक्तगंधक
संज्ञा पुं० [सं० रक्तगन्धक] बोल नामक गंधद्रव्य।
⋙ रक्तगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तगन्धा] अश्वगंधा। असगंध।
⋙ रक्तगतज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वह ज्वर जो रोगी के रक्त में समा गया हो। विशेष—इसमें रोगी खून थूकता है, अंड़ बड़ं बकता है, छटप- पटाता है और उसे बहुत अधिक दाह तथा तृष्णा होती है।
⋙ रक्तगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेंहदी का पेड़।
⋙ रक्तगुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों का एक रोग जिसमें उनके गर्भाशय में रक्त की एक गाँठ बँध जाती है। विशेष—यह रोग ऋतु काल में अनुचित आहारा विहार करने अथवा समय से पहले गर्भ गिर जाने से होता है। कभी कभीयह प्रसव के उपररांत भी होता है। इसमें गर्भाशय में बहुत दाह और पीड़ा होती है। जब यह रोग गर्भ न रहने की दशा में होता है, तब कभी कभी इसके कारण गर्भ रहने का भी धोखा होता है।
⋙ रक्तगैरिक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण गैरिक। गेरू।
⋙ रक्तग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तग्रंन्थि] १. लास लज्जावंती। २. वह रोग जिसमें शरीर में लहू की गाँठें वँध जायँ।
⋙ रक्तग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] १. कबूतर। २. राक्षस।
⋙ रक्तध्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रोहितक वृक्ष।
⋙ रक्तध्न (२)
वि० जिससे रक्त का नाश हो।
⋙ रक्तध्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की दूव। गंडदूर्वा।
⋙ रक्तचंचु
संज्ञा स्ञी० [सं० रक्तचञ्चु] शुक। तोता।
⋙ रक्तचंदन
संज्ञा पुं० [सं० रक्तचन्दन] लाल रंग का चंदन। विशेष दे० 'चंदन'। पर्या०—तिलपर्ण। पत्रांक। रंजन। कुचंदन। ताम्रवृक्ष। लाल- चंदन। देवीचंदन।
⋙ रक्तचित्रक
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग का चित्रक या चीता वृक्ष।
⋙ रक्तचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेंदुर। सिंदूर। २. कमीला।
⋙ रक्तच्छर्द्दि
संज्ञा स्त्री० [सं०] खून की कै होना। रक्त का वमन।
⋙ रक्तजंतुक
संज्ञा पुं० [सं० रक्तजन्तुक] सीसा।
⋙ रक्तज
वि० [सं०] १. जो रक्त से उत्पन्न हो। लहू से उत्पन्न होनेवाला। २. रक्त के विकार के कारण उत्पन्न होनेवाला (रोग)।
⋙ रक्तजकृमि
संज्ञा पुं० [सं०] वब कृमिरोग जो रक्तविकार के कारण उत्पन्न होना है।
⋙ रक्तजपा
संज्ञा पुं० [सं०] अड़हुल। जवा। देवीफूल।
⋙ रक्तजिह्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शेर। सिंह।
⋙ रक्तजिह्व (२)
वि० जिसकी जीभ लाल रंग की हो।
⋙ रक्तजूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] ज्वार। जोन्हरी। लाल जोन्हरी।
⋙ रक्ततर
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण गैरिक। गेरू।
⋙ रक्तता
संज्ञा पुं० [सं०] लालिमा। लाली। सुर्खी। ललाई।
⋙ रक्ततुंड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० रक्ततुण्ड़] शुक। तोता।
⋙ रक्ततुंड़ (२)
वि० जिसका मुँह लाल रंग का हो।
⋙ रक्ततुंड़क
संज्ञा पुं० [सं० रक्ततुण्ड़क] सीसा।
⋙ रक्ततृण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लाल रंग का तृण।
⋙ रक्ततृण
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोमूत्रिक नामक तृण।
⋙ रक्ततजस्
संज्ञा पुं० [सं०] मांस [को०]।
⋙ रक्तदंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तदन्तिका] दुर्गा का वह रूप जो उन्होंने राक्षसों को (शुंभ और निशुंभ को) खाने के समय धारण किया था। चंडिका।
⋙ रक्तदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तदन्ती] दे० 'रक्तदंतिका'।
⋙ रक्तदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] नलिका नाम का गंधद्रव्य।
⋙ रक्तदिग्ध
वि० [सं० रक्त + दिग्ध] रक्तसिक्त। खून से भीगा हुआ। रक्तमय। उ०—रक्तदिग्ध धरणी में रूप की वियज में।— लहर, पृ० ८४।
⋙ रक्तदूषण
वि० [सं०] जिससे रक्त दूषित हो। खून को खराब करनेवाला।
⋙ रक्तद्दग (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तद्दक्] १. कोयल। कोकिल। २. एक प्रकार का कपोत।
⋙ रक्तद्दग (२)
वि० लाल आँखोंवाला। जिसकी आँखें लाल हों।
⋙ रक्तद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] लाल बीजासन वृक्ष।
⋙ रक्तधरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक के अनुसार मांस के भीतर की दूसरी कला या झिल्ली जो रक्त को धारण किए रहती है।
⋙ रक्तधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. गेरू। २. ताँबा।
⋙ रक्तनयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कबूतर। २. चकोर।
⋙ रक्तनाड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तनाड़ी] दाँतों की जड़ में होनेवाला एक प्रकार का रोग।
⋙ रक्तनाल
संज्ञा पुं० [सं०] जीवशाक। सुसना।
⋙ रक्तनासिक
संज्ञा पुं० [सं०] उल्लू।
⋙ रक्तनिर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग का बीजासन वृक्ष।
⋙ रक्तनील
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बहुत जहरीला बिच्छू।
⋙ रक्तनेत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सारस पक्षी। २. कबूतर। ३चकोर।
⋙ रक्तनेत्र (२)
वि० जिसकी आँखें लाल हों।
⋙ रक्तप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस।
⋙ रक्तप (२)
वि० रक्त पीनेवाला।
⋙ रक्तपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़।
⋙ रक्तपट
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग के कपड़े पहननेवाला, श्रमण।
⋙ रक्तपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पिंड़ालू।
⋙ रक्तपात्रा
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल गदहपूरना। २. नाकुली।
⋙ रक्तपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लजालू। लज्जावंती।
⋙ रक्तपद्म
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल। रक्तोत्पल [को०]।
⋙ रक्तपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] लाल गदहपूरना।
⋙ रक्तपल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] अशोक का वृक्ष।
⋙ रक्तपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जोंक। २. ड़ाकिनी।
⋙ रक्तपाका
संज्ञा स्ञी० [स्त्री०] बृहती नाम की लता।
⋙ रक्तपाणि
वि० [सं० रक्त + पाणि] खूनी या खून में सने हुए हाथवाला। जिसके हाथ रक्त बहाने या हिंसा करने के अभ्यस्त हो। उ०—वहाँ विद्याव्यसनियों की नहीं रक्तपाणि राक्षसों का बोलबाला है।—किन्नर०, पृ० ९०।
⋙ रक्तपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. लहू का गिरना या बहना।रक्तस्त्राव। २. ऐसा लडा़ई झगडा़ जिसमें लोग जखमी हों। खून खराबी। ३. ऐसा प्रहार जिससे किसी का रक्त बहे।
⋙ रक्तपाता
संज्ञा पुं० [सं०] जोंक।
⋙ रक्तपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरगद। २. तोता। ३. युद्ध का रथ। लडा़ई का रथ (को०)। ४. हाथी (को०)।
⋙ रक्तपायी (१)
वि० [सं० रक्तपायिन्] [वि० स्त्री० रक्तपायिनी] रक्तपान करनेवाला। खून पीनेवाला।
⋙ रक्तपायी (२)
संज्ञा पुं० मक्तुण। खटमल।
⋙ रक्तपारद
संज्ञा पुं० [सं०] हिंगुल। शिंगरफ। ईगुर।
⋙ रक्तपाषाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल पत्थर। २. गेरू।
⋙ रक्तपिंड
संज्ञा पुं० [सं० रक्तपिण्ड़] १. जवा का फूल। २. लाल रंग की पुड़िया (को०)। ३. नाक से खून बहना। नकसीर (को०)।
⋙ रक्तपिंडक
संज्ञा पुं० [सं० रक्तपिण्ड़क] १. रतालू। २. जबा का फूल। अड़हुल।
⋙ रक्तिपिंडालु
संज्ञा पुं० [सं० रक्तपिण्ड़ालु] रतालू।
⋙ रक्तपित्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का रोग जिसमें मुँह, नाक, गुदा, योगि आदि इंद्रियों से रक्त गिरता है। विशेष—यह रोग धूप में अधिक रहने, बहुत व्यायाम करने, तीक्ष्ण पदार्थ खाने और बहुत आधिक मैथुन करने के कारण होता है। यह रोग स्त्रियों के रजोधर्म ठीक न होने के कारण भी हो जाता। है। यह रोग पित्त के कुपित होने से होता है। २. नाक से लहू बहना। नकसीर।
⋙ रक्तपित्तहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रतध्नी नाम की दूब।
⋙ रक्तपिंत्ती
संज्ञा पुं० [सं० रक्तपित्तिन्] वह जिसे रक्तपित्त रोग हो।
⋙ रक्तपुच्छक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रेंगनेवाला कीड़ा।
⋙ रक्तपुनर्नवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल रंग की पुनर्नवी या गदहपूर्ना। वैद्यक में इसे तिक्त, सारक और रक्तप्रदर, पांड़ु तथा पित्त आदि का नाशक मान है। पर्या०—क्रूरा। मंडलपत्रिका। रक्तकांता। वर्पकेतु। लोहिता। रक्तपत्रिका। वैशाखों। पुष्पिका। विपध्नी। सारिणी। वर्षाभव। भौम। पुनर्भव। नव। नव्य।
⋙ रक्तपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. करवीर। कनेर। २. अनार का पेड़। २. बंधूक का पेड़। गुलदुपहरिया। ४. पुन्नाग। ५. अड़हुल। जवा का फूल (को०)।
⋙ रक्तपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलास का पेड़। २. सेमल का पेड़। शाल्मलि।
⋙ रक्तपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शाल्मली वृक्ष। सेमल। २. पुनर्नवा। ३. सिंदूरी। ४. चंपा केला। ५. नागदौत।
⋙ रक्तपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लाल पुनर्नवा। २. लजालू। लाजवंती।
⋙ रक्तपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जवा। अड़हुल। २. नागदौन। ३. धौ। ४. आवर्तकी नाम की लता। ५. पाँडर।
⋙ रक्तपूतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल रंग की पूतिका। लाल पोई। विशेष—वैद्यक में यह स्निग्ध और मूत्रवर्धक मानी गई है। बच्चों के कई रोगों में और सूजाक में इसका साग गुणकारी माना गया है। शास्त्र में इसका साग खाने का निषेध है।
⋙ रक्तपूय
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नरक का नाम।
⋙ रक्तपूरक
संज्ञा पुं० [सं०] इमली।
⋙ रक्तपूर्ण
वि० [सं० रक्त + पूर्ण] रक्त से भरा हुआ। रक्ताक्त।
⋙ रक्ततिस्याय
संज्ञा पुं० [सं० रक्तप्रतिश्याय] प्रतिश्याय या जुकाम का एक भेद। बिगड़ा हुआ जुकाम। विशेष—इसमें नाक से खून जाता है, आँखे लाल हो जाती हैं, छाती में पीड़ा होती है और मुँह तथा साँस से बहुत दुगँध आता है।
⋙ रक्तप्रदर
संज्ञा पुं० [सं०] प्रदर रोग का वह भेद जिसमें स्त्रियों की योनि से रक्त बहता है। विशेष दे० 'प्रदर'।
⋙ रक्तमेद
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुषों का एक रोग जिसमें दुर्गँधियुक्त गरम, खारा और खून के रंग का पेशाब होता है।
⋙ रक्तप्रवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] वह रोग जो पित्त के प्रकोप से उत्पन्न हो।
⋙ रक्तप्रसव
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल कनेर। २. मुचकुंद वृक्ष।
⋙ रक्तफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. शाल्मलि। सेमल। २. वट का वृक्ष। बड़ा का पेड़।
⋙ रक्तफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुँदरू। तुष्टी। बिंबो। २. स्वर्णवल्ली।
⋙ रक्तफूल
संज्ञा पुं० [हिं० रक्त + हिं० फूल] १. जवा पुष्प। अड़हुल का फूल। २. पलास का वृक्ष।
⋙ रक्तफेनज
संज्ञा पुं० [सं०] फुफ्फुस। फेफड़ा।
⋙ रक्तभव
संज्ञा पुं० [सं०] मांस। गोश्त।
⋙ रक्तभाव
वि० [सं०] १. लाल रंग का। २. अनुरक्त भाववाला। प्रणयी। प्रेम करनेवाला [के०]।
⋙ रक्तमंजर
संज्ञा पुं० [सं० रक्तमञ्जर] १. बेंत की लता। २. नीम का पेड़।
⋙ रक्तमजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तमञ्जरी] लाल कनेर।
⋙ रक्तमंडल
संज्ञा पुं० [सं० रक्तमण्ड़ल] १. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का साँप। २. लाल कमल। ३. एक प्रकार का जहरीला पशु।
⋙ रक्तमंड़लिका
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तमण्ड़लिका] लाल लज्जावंती या लजालू।
⋙ रक्तमत्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो रक्त पीकर तृप्त हो। जैसे, खटमल, जोंक आदि। २. राक्षस। रक्तस (को०)।
⋙ रक्तमत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की लाल रंग की मछली। विशेष—यह बहुत बड़ी नहीं होती। वैद्यक में इसका माँसशीतल, रुचिकारक पुप्टिकारक, अग्निदीपक और त्रिदोष का नाशक माना गया है।
⋙ रक्तमरतक
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग के सिरवाला सारस पक्षी।
⋙ रक्तमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैद्यक के अनुसार वह रस नामक धातु जिसकी उत्पत्ति पेट में पचे हुए भोजन से होती है और जिससे रक्त बनता है। २. तंत्र के अनुसार एक प्रकार का रोग।
⋙ रक्तमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोहू। मछली। २. यष्टिक धान्य।
⋙ रक्तमूर्द्धा
संज्ञा पुं० [सं० रक्तमूर्द्धन्] सारस।
⋙ रक्तमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] देवसर्षप नाम की सरसों का पेड़।
⋙ रक्तमूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] लजालू।
⋙ रक्तमेह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रक्तप्रमेद'।
⋙ रक्तमोक्ष, रक्तमोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार, शरीर का खून खराब हो जाने पर उसे बाहर निकालने की क्रिया। फस्द।
⋙ रक्तमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का खून निकलना। शीर। फस्द।
⋙ रक्तर्याष्ट
संज्ञा स्त्री० [सं०] मजीठ।
⋙ रक्तरंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तङ्गा] मेहँदी।
⋙ रक्तरज
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तरजस्] सिंदूर।
⋙ रक्तरस
संज्ञा पुं० [सं०] बिजैसार। रक्तासन।
⋙ रक्तरसा
संज्ञा पुं० [सं०] रास्ना।
⋙ रक्तराजि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का कीड़ा जिसे सर्षपिका भी कहते हैं। २. आँख का एक रोग (को०)।
⋙ रक्तरेणु
संज्ञा पुं० [सं०] सिंदूर। २. पुन्नाग। ३. क्रुद्ध व्याक्ति। (को०)। ४. पलाश की कली (को०)।
⋙ रक्तरैवतक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का खजूर का पेड़।
⋙ रक्तरोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह रोग जो रक्त के दूषित होने से होता है। जैसे, कुष्ट आदि।
⋙ रक्तला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काकतुंड़ी। कौवाठोंठी। २. गुंजा करजनी। धुँघची। रती।
⋙ रक्तलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] कबूतर।
⋙ रक्तवटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मसूरिका या चेचक का रोग। शीतला।
⋙ रक्तवरटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीतला रोग। चेचक।
⋙ रक्तवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनार, ढाक, लाख, हलदी, दारु- हलदी, कुसुम के फूल, मजीठ और दुपहरिया के फूल, इन सबका समूह (ये सब रँगने के काम में आते हैं)।
⋙ रक्तवर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीरबहूटी नामक कीड़ा। २. लह- सुनिया नग। गोमेद। ३. मूँगा। ४. कंपिल्लक। कमीला। ५. लाल रंग (को०)। ६. सोना। स्वर्ण (को०)।
⋙ रक्तवर्ण (२)
वि० लाल रंगवाला [को०]।
⋙ रक्तवर्त्तक
संज्ञा पुं० [सं०] लाल वटेर।
⋙ रक्तवर्त्मा
संज्ञा पुं० [सं० रक्तवर्त्मन्] मुरगा।
⋙ रक्तबर्द्धन (१)
वि० [सं०] रक्त बढा़नेवाला। रक्तवर्धक।
⋙ रक्तवर्द्धन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] बैगन।
⋙ रक्तवर्षाभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल पुनर्नवा।
⋙ रक्तवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मजीठ। २. दंडोत्पल नाम का पौधा। ३. नलिका। पगारी। ४. एक प्रकार की लता जिसे पित्ती कहते हैं।
⋙ रक्तवसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. संन्यासी। २. वह ब्राह्मण जो संन्यास- आश्रमी हो गया हो (को०)।
⋙ रक्तवात
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वात रोग जिसे वातरक्त भी कहते हैं। विशेप दे०'वातरक्त'।
⋙ रक्तवालुक
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा स्त्री० रक्तवालुका] सिंदूर।
⋙ रक्तवासा
संज्ञा पुं० [सं० रक्तव सस्] दे० 'रक्तवसन' [को०]।
⋙ रक्तबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० रक्तबिन्दु] १. रुधिर की बूँद। २. रक्त अपामार्ग। लाल चिचड़ा। ३. रत्नों में दिखाई पड़नेवाला लाल दाग या धब्बा जो एक दोष माना जाता है। जैसे, यदि हीरे में यह दोष हो, तो कहते हैं कि उसे पहननेवाले की स्त्री मर जाती है।
⋙ रक्तविकार
संज्ञा पुं० [सं०] खून की खराबी। रक्तदोष।
⋙ रक्तविद्रधि
संज्ञा पुं० [सं०] रक्त के प्रकोप से होनेवाली एक प्रकार की विद्रधि या फोड़ा जिसमें किसी अग में सूजन होती है, और काले रंग की फुंसियाँ हो जाती हैं।
⋙ रक्तविस्फोटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर में गुंजा के समान लाल लाल फफोले पड़ जाते हैं।
⋙ रक्तबीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल बीजोंवाला दाड़िम। अनार। बीदाना। २. रीठा। ३. राक्षस का नाम जो शुंभ और निशुंभ का सेनापति था। विशेष—देवी भागवत में लिखा है कि युद्ध के समय इसके शरीर से रक्त की जितनी बूँदें गिरती थीं, उतने ही नए राक्षस उत्पन्न हो जाते थे। इसलिये चंड़िका ने इसका रक्त पीकर इसे मार डाला था। यह भी कहा गाया है कि महिषासुर का पिता रंग दानव ही मरकर फिर रक्तबीज के रूप में उत्पन्न हुआ था।
⋙ रक्तबीजका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तरदी नमा का एक कँटीली पेड़।
⋙ रक्तबीजा
संज्ञा पुं० [सं०] सिंदूरपुष्पी। सिंदूरिया।
⋙ रक्तवृंतक
संज्ञा पुं० [रक्तवृन्तक] पुनर्नवा। गदहपूरना।
⋙ रक्तवृंता
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तवृन्ता] शोफालिका। निगुँड़ी।
⋙ रक्तवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाश से रक्त या लाल रंग के पानी की वृष्टि होना। विशेष—यह अशुभसूचक है। कहते हैं, ऐसी वृष्टि होने से देश में युद्ध, महामारी आदी अनेक अनिष्ट होते हैं।
⋙ रक्तव्रण
संज्ञा पुं० [सं०] वह फोड़ा जिसमें से मवाद न निकलकर केवल रक्त ही बहता हो।
⋙ रक्तशमन
संज्ञा पुं० [सं०] कमीला।
⋙ रक्तशालि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लाल रंग का चावल या शालि जिसे दाऊदखानी कहते हैं।
⋙ रक्तशालुक
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल की जड़। भसींड़।
⋙ रक्तशाल्मलि
संज्ञा पुं० [सं०] लाल फूलवाला सेमल।
⋙ रक्तशासन
संज्ञा पुं० [सं०] सिंदूर।
⋙ रक्तशिग्र
संज्ञा पुं० [सं०] लाल सहिजन।
⋙ रक्तशीर्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधा विरोजा। २. सारस।
⋙ रक्तशृंग
संज्ञा पुं० [सं० रक्तश्रृङ्ग] हिमालय की एक चोटी का नाम।
⋙ रक्तशृंगिक
संज्ञा पुं० [सं० रक्तश्रृङ्गिक] विष। जहर।
⋙ रक्तशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] पुन्नाग।
⋙ रक्तश्वेत
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बहुत जहरीला। बिच्छू।
⋙ रक्तष्ठीवि, रक्तष्ठीवी
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बहुत ही घातक सन्निपात। विशेष—यह रोग असाध्य माना जाता है। इस सन्निपाता में रोगो के मुँह से लहू जाता है, साँस और पेट फूलता है, जीभ में चकते पड़ जाते और उनमें से लहू निकलता है।
⋙ रक्तसंकोच
संज्ञा पुं० [सं० रक्तसङ्काच] कुसुम का फूल।
⋙ रक्तसंज्ञक
संज्ञा पुं० [सं०] कुंकुम। केसर।
⋙ रक्तसंदंशिका
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तसन्दशिका] जलौका। जोंक [को०]।
⋙ रक्तसंदशिका
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्तसन्दशिका] जोंक।
⋙ रक्तसंध्यक
संज्ञा पुं० [सं० रक्तसन्ध्यक] लाल कमल [को०]।
⋙ रक्तसंबंध
संज्ञा पुं० [सं० रक्तसम्बन्ध] कुल का संबंध। रक्तजनित ऐक्य संबंध।
⋙ रक्तसंवरण
संज्ञा पुं० [सं०] सुरमा।
⋙ रक्तसर्षप
संज्ञा पुं० [सं०] लाल सरसों।
⋙ रक्तसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल चंदन। २. पतंग। ३. अमल- वेत। ४. खैर। ५. बाराही कंद। ६. रक्तबीजासन।
⋙ रक्तस्तंभन
संज्ञा पुं० [सं० रक्तस्तम्भन] बहते हुए रक्त को रोकने की क्रिया।
⋙ रक्तस्त्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर के किसी अंग से रक्त का बहना या निकलना। खून जाना या गिरना। २. घोड़ों का एक रोग जिसमें उनकी आँखों में से रक्त या लाल रंग का पानी बहता है।
⋙ रक्तहंसा
संज्ञा स्ञी० [सं०] एक प्रकार की रागिनी (संगीत)।
⋙ रक्तहर
संज्ञा पुं० [सं०] भिलावाँ।
⋙ रक्तांक
संज्ञा पुं० [सं० रक्ताङ्क] मूंगा।
⋙ रक्तांग (१)
वि० [सं० रक्ताङ्ग] लाल अंगोवाला। जिसके शरीर का वर्ण लाल हो। लाल रंग का।
⋙ रक्तांग (२)
संज्ञा पुं० [सं० रक्ताङ्ग] १. मंगल ग्रह। २. कमीला। ३. मूँगा। ४. खटमल। ५. केसर। ६. लाल चंदन।
⋙ रक्तांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्ताङ्गी] १. मजीठ।२. जीवंती। ३. कुटकी।
⋙ रक्तांड
संज्ञा पुं० [सं० रक्ताण्ड] घोड़ों के अंडकोष में होनेवाला एक प्रकार का रोग।
⋙ रक्ताबंर
संज्ञा सं० [सं० रक्ताम्बर] १. संन्यासी, जो गेरुआ वस्त्र पहनता है। २. लाल रंग का कपड़ा, विशेवतः रेशमी कपड़ा।
⋙ रक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संगीत में पंचम स्वर की चार श्रुतियों में से दूसरी श्रुति का नाम। २. गुंजा। घुँघची। ३. लाल। ४. मजीठा। ५. ऊँटकटरा। ६. एक प्रकार की सेम। ७. लक्षणा नामक कंद। ८. वच। ९. एक प्रकार की मकड़ी। १०. कान के पास की एक शिरा या नास का नाम। ११. जैनों के अनुसार ऐरावत खंड़ की एक नदी का नाम। १२. आग्नि की सात जिह्वाओं में से एक का नाम (को०)। १३. वह स्त्री जो किसी पर अनुरक्त हो। अनुरक्ता स्त्री।
⋙ रक्ताकार
संज्ञा पुं० [सं०] मूँगा।
⋙ रक्ताक्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लाल चंदन।
⋙ रक्ताक्त (२)
वि० १. रक्त लगा हुआ। २. लाल रंग में रँगा हुआ।
⋙ रक्ताक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चकोर। २. सारस। ३. कबूतर। ४. भैसा। ५. साठ संवत्सरों में से अट्टावनवें संवत्सर का नाम।
⋙ रक्ताक्ष (२)
वि० १. लाल आँखोंवाला। २. डरावना। भयानक [को०]।
⋙ रक्तातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अतिसार जिसमें लहू के दस्त आते है। विशेष—इसमें रोगी को प्यास, दाह और मूर्च्छा होती है और गुदा पकी हुई जान पड़ती है।
⋙ रक्ताधरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] किन्नरी।
⋙ रक्ताधार
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़ा। त्वक्।
⋙ रक्ताधिमंथ
संज्ञा पुं० [सं० रक्ताधिमन्थ] एक प्रकार का अधिमंथ रोग जो रक्तविकार से होता है।
⋙ रक्तापह
संज्ञा पुं० [सं०] बोल नामक गंधद्रव्य।
⋙ रक्ताभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बीरबहूटी।
⋙ रक्ताभ (२)
वि० [सं०] लाल आभावाला। लाल रंग का। लालिमा- युक्त। उ०—हो गया सांध्य नभ का रक्ताभ दिगंत फलक।—अपरा, पृ० ६५।
⋙ रक्ताभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल जवा।
⋙ रक्ताभिष्यंद
संज्ञा पुं० [सं० रक्ताभिष्यन्द] भावप्रकाश के अनुसार आँखों का एक रोग। विशेष—इस रोग आँखें बहुत अधिक लाल हो जाती है, उनमें से लाल रंग का पानी निकलता है और आँखों के आगे लाल रेखाए दिखाई देती हैं।
⋙ रक्ताभ्र
संज्ञा पुं० [सं०] लाल अभ्रक।
⋙ रक्ताम्लान
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पौधा जिसमें लाल रंग के फूल लगते हैं। विशेष—वेद्यक में इसे कटु, उष्ण और वात, ज्वर, शूल, काश तथा श्वास आदि का नाशक माना है।
⋙ रक्तारि
संज्ञा पुं० [सं०] महाराष्ट्रि नाम का क्षुप।
⋙ रक्तार्वुद
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर में पकने और बहनेवाली गाँठें निकल आती हैं। इसमें शरीर का रंग पीला पड़ जाता है। २. शुक्रदोष के कारण उत्पन्न होनेवाला एक रोग जिसमें लिंग पर काले फोड़े और उनके साथ लाल फुसियाँ निकल आती हैं।
⋙ रक्तार्म
संज्ञा पुं० [सं० रक्तार्मन्] एक प्रकार का रोग जिसमें आँख की कैड़ी पर माँस इकठ्ठा होकर लाल कमल के रंग का कोमल मंडल बन जाता है।
⋙ रक्तार्श
संज्ञा पुं० [सं० रक्तार्शस्] बवासीर रोग का वह भेद जिसमें उसके मसों में से खून भी निकलता है। खूनी बवासीर। विशेष दे०'बवासीर'।
⋙ रक्तालता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मजीठ।
⋙ रक्तालु
संज्ञा पुं० [सं०] रतालू नामक कंद।
⋙ रक्तावरोधक
वि० [सं०] बहते हुए खून को रोकनेवाला।
⋙ रक्तावसेचन
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का खून निकलवाना। फस्द।
⋙ रक्ताशय
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर के सात आशयों में से चौथा, जिसमें रक्त का रहना माना जाता है। वे कांठे जिनमें रक्त रहता है। जैसे, फेफड़ा, हृदय, यकृत आदि।
⋙ रक्ताशोक
संज्ञा पुं० [सं०] लाल अशोक का वृक्ष।
⋙ रक्ताश्वारि
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कनेर।
⋙ रक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुराग। प्रेम। २. एक परिमाण जो आठ सरसा के बराबर होता है।
⋙ रक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. र्घुघची। रत्ती। २. आठ सरसों के बरावर एक परिमाण। रत्ती।
⋙ रक्तिम
वि० [सं०] ललाई लिए। सुर्खी मायल।
⋙ रक्तिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ललाई। लाली। सुर्खी।
⋙ रक्तेक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग का ऊख।
⋙ रक्तोत्पल
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल। २. शाल्मलि। सेमल।
⋙ रक्तोदर
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोहू मछलो। २. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बहुत जहरीला बिच्छू।
⋙ रक्तोपदंश
संज्ञा पुं० [सं०] लहु के विकार से उत्पन्न गरमी व आतशक का रोग।
⋙ रक्तोपल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गेरू नामक लाल मिट्टी। २. लाल नामक रत्न।
⋙ रक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं० रक्षः] १. रक्षक। रखवाला। उ०—तोरा फूल रक्ष रह तहाँ।—सबल(शब्द०)। २. रक्षा। हिफाजत रखवाली। ३. लाख। लाह। ४. छप्पय के साठवें भेद का नाम जिसमें ११ गुरू और १३० लघु मात्राएँ अथवा ११ गुरु और १२६ लघु मात्राएँ होती हैं।
⋙ रक्ष (२)
संज्ञा पुं० [सं० रक्षस्] राक्षस। उ०—रक्ष यक्ष दानव देवन सों, अभय होहि सब जागा।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ रक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षा करनेवाला। वचानेवाल। हिफाजत करनेवाला। २. पहरेदार। ३. पालन करनेवाला। यौ०—रक्षक दल = रक्षा करनेवालों का दल। सिपाहियों का जत्था। रक्षक पोत = जल की यात्रा में संकट से रक्षा करनेवाला जहाज।
⋙ रक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षा करना। हिफाजत करना। रखवाली। २. पालने की क्रिया। पालन पोषण। ३. रक्षक। रखवाला। ४. विष्णु का एक नाम (को०)।
⋙ रक्षणकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० रक्षणकर्तृ] रक्षा करनेवाला। रक्षक।
⋙ रक्षणारक
संज्ञा पुं० [सं०] मूञकृच्छ रोग।
⋙ रक्षणि,रक्षणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रायमाणा लता।
⋙ रक्षणीय
वि० [सं०] जिसकी रक्षा करना उचित हो। रक्षा करने योग्य।
⋙ रक्षन पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्षण] दे० 'रक्षण'।
⋙ रक्षना पु
क्रि० स० [सं० रक्षण] रक्षा करना। हिफाजत रखना। संभालना। बचाना।
⋙ रक्षपाल
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो रक्षा करता हो। रक्षक।
⋙ रक्षमाण
वि० [सं० रक्ष्यमाण] दे० 'रक्ष्यमाण'।
⋙ रक्षस
संज्ञा पुं० [सं० रक्षस्] असुर। दैत्य। निशाचर।
⋙ रक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आपात्ति, कष्ट या नाश आदि से बचाना। अनिष्ट से बचाने की क्रिया। रक्षण। बचाव। यौ०—रक्षाबंधन। रक्षासमिति। २. वह यंत्र या सूत्र आदि प्रायः बालकों को भूत प्रेत, रोग या नजर आदि से बचाने के लिये बाँधा जाता है। ३. गोद। ४. भस्म राख। ५. लाक्षा। लाख (को०)।
⋙ रक्षाइद पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रक्ष + आइद (प्रत्य०)] राक्षसपन।
⋙ रक्षागृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ प्रसूता प्रसव करे। सूतिकागृह। जच्चाखाना। २. युद्ध के समय बमबारी से राह चलतों को बचने के लिये निर्मित भूगर्भस्थ आश्रस्थान। ३. विश्रामस्थान या कक्ष (को०)।
⋙ रक्षातिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] नियम भंग करना। कायदा कानून तोड़ना। (को०)।
⋙ रक्षादल
संज्ञा पुं० [सं०] नागरिकों का वह संघटन, जो पुलिस के सहायक रूप में रक्षा का कार्य करता है। होमगार्ड।
⋙ रक्षाधिकृत
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का किसी नगर का वह आधिकारी जिसका काम नगर की रक्षा तथा शासन करना होता था।
⋙ रक्षापति
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का वह कर्मचारी जिसका काम नगरनिवासियों की रक्षा करना होता था।
⋙ रक्षापत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजपत्र। २. सफेद सरसों।
⋙ रक्षापाल
संज्ञा पुं० [सं०] प्रहरी। संतरी [को०]।
⋙ रक्षापुरुप
संज्ञा पुं० [सं०] पहरेदार। संतरी।
⋙ रक्षापेक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहरेदार। संतरी। २. अंतःपुर में पहरा देनेवाला संतरी। ३. अभिनय करनेवाला। नट।
⋙ रक्षाप्रदीप
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार वह दीपक जो भूत प्रेत आदि की बाधा से रक्षा करने के लिये जलाया जाता है।
⋙ रक्षाबंधन
संज्ञा पुं० [सं० रक्षा + बन्धन] हिंदुओं का एक त्योहार जो श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को होता है। सलोनो। विशेष—इस दिन बहनें भाइयों के और ब्राह्मण अपने यज्ञ- मानों के दाहिने हाथ की कलाई पर अनेक प्रकार के गंडे, जिन्हें राखी कहते हैं, बाँधते हैं।
⋙ रक्षाभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] वह भूषण या जंतर जिसमें किसी प्रकार का कवच आदि हो और जो भूलप्रेत या रोग आदि की बाधा से रक्षित रहने के लिये पहना जाय।
⋙ रक्षामंगल
संज्ञा पुं० [सं० रक्षामङ्गल] वह अनुष्ठान या धर्मिक क्रिया आदि जो भूतप्रेत आदि की बाधा से रक्षित रहने के लिये की जाय।
⋙ रक्षामणि
संज्ञा पुं० [सं०] वह मणि या रत्न आदि जो किसी ग्रह के प्रकोप से रक्षित रहने के लिये पहना जाय।
⋙ रक्षारत्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रक्षामणि'।
⋙ रक्षि,रक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बचानेवाला। रक्षक। २. पहरेदार। संतरी।
⋙ रक्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रक्षा। हिफाजत। २. वह स्त्री जो रक्षा के लिये नियुक्त हो। अभिभाविका।
⋙ रक्षित
वि० [वि० स्त्री० रक्षिता] १. जिसकी रक्षा की गई हो। रक्षा किया हुआ। हिफाजत किया हुआ। जैसे,—मैं आपको पुस्तक बहुत ही रक्षित रखूँगा। २. प्रतिपालन। पाला पोसा। ३. रखा हुआ।
⋙ रक्षिता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रक्षा। हिफाजत। २. एक अप्सरा का नाम।
⋙ रक्षिता (१)
संज्ञा पुं० [सं० रक्षितृ] १. रक्षा करनेवाला। २. प्रहरी। पहरुआ।
⋙ रक्षिता (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्षित] बिना विवाह किए पत्नि की तरह रखी हुई स्त्री। रखेली। सुरैतिन।
⋙ रक्षी (१)
संज्ञा पुं० [सं० रक्षस् + ई(प्रत्य०)] राक्षसों के उपासक। राक्षस पूजनेवाले। उ०—भूती भूतन यक्षी यक्षन। प्रेतो प्रेतन रक्षी रक्षन।—गिरधर (शब्द०)।
⋙ रक्षी (२)
संज्ञा पुं० [सं० रक्षिन्] १. रक्षा करनेवाला। रक्षक। २. पहरेदार। चौकीदार।
⋙ रक्षोघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. हींग। २. भिलावें का पेड़। ३. सफेद सरसों। ४. रखकर खट्टा किया हुआ चावल का पानी या माँड़।
⋙ रक्षोघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बचा। बच।
⋙ रक्षय
वि० [सं०] रक्षा करने के योग्य। रक्षणीय।
⋙ रक्ष्यमाण
वि० [सं०] १. जिसकी रक्षा की जा सके। २. जिसकी रक्षा की जा रही हो।
⋙ रक्स
संज्ञा पुं० [अ० रक्स] १. उद्धत नृत्य। मर्द का नाच। तांडव। २. लास्य। स्त्री का नाच। ३. नृत्य। नर्तन [को०]।
⋙ रक्साँ
वि० [फा़० रक्साँ] नृत्यरत। नाचता हुआ [को०]।
⋙ रक्से ताऊस
संज्ञा पुं० [फा़० रक्से ताऊस] १. एक प्रकार का नाच, जिसमें पेशवाज के दो कोने दोनों हाथों रसे पकड़कर कमर तक उठा लिए जाते हैं, जिससे नाचनेवाले की आकृति मोर की सी बन जाती है। २. एक प्रकार का नाच जिसमें घुटनों के बल होकर इतनी तेजी से घूमते हैं कि काछनी वा पेशवाज का घेरा फैलकर चक्कर खाने लगता है।
⋙ रख † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना] १. चरी की भूमि। चरौना। चरागाह। २. रक्षित जंगल। दे० 'रखा'।
⋙ रख पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० रक्ष, प्रा० रक्ख] रक्षा। बचाव। जैसे, रखपाल = रक्षपाल।
⋙ रखटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की ईश जिसके रस से गुड़ बनाया जाता है। लखड़ा।
⋙ रखड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'रखटी'।
⋙ रखड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रख (= राखी) + ड़ी (प्रत्य०)] राखी। रक्षावंधन। उ०—भाई कहते थे, रखड़ी (राखी) के बाद जाना।—अभिशप्त, पृ० ९६।
⋙ रखत पु
संज्ञा पुं० [फा़० रख्त] असवाब। सामान। उपकरण। यौ०—रखत बखत = रख्तवख्त। रख्त वलत।
⋙ रखना
क्रि० स० [सं० रक्षण, प्रा० रक्खण] १. किसी वस्तु पर या किसी वस्तु के अंदर दूसरी वस्तु स्थित करना। ठहराना। टिकाना। धरना। जैसे, टेबुल पर किताब रखना; थाली में मिठाई रखना; हाथ पर रुपए रखना; बरतन में अनाज रखना; दाँव पर रुपया रखना; गाड़ी पर असबाब रखना। संयो० क्रि०—देना।—लेना। २. रक्षा करना। हिफा़जत करना। बचाना। जैसे,—तुम आप तो अपनी चीज रखते नहीं; दूसरों को चोर बनाते हो। उ०— जाको राखो साइयाँ, मारि सकै नहिं कोय। बाल न बाकाँ करि सकै, जो जग बैरी होय।—कबीर (शब्द०)। यौ०—रख रखाब = किसी वस्तु की देखरेख और रक्षा। हिफाजत करने की क्रिया। ३. निर्वाह या पालन करना। बिगड़ने न देना। वृथा या नष्ट न होने देना। जैसे,—किसी की इज्जत रखना; किसी की बात रखना। संयो० क्रि०—लेना। ४. एकत्र करना। संग्रह करना। जोड़ना। संचित करना। जैसे, कमा कमाकर रुपए रखना; ढूँढ़ ढूँढ़कर तसवींरें रखना। संयो० क्रि०—चलना।—जाना।—देना।—लेना। ५. सुपुर्द करना। सौंपना। ६. रेहन करना। बंधक में देना। जैसे,—घर के जेवर रखकर उन्हें कर्ज दिया था। ७. अपने अधिकार में लेना। अपने हाथ में करना। जैसे,—अभी यह रुपया हम रखते हैं। जब तुम्हें जरूरत हो, तब ले लेना।संयो० क्रि०—लेना। मुहा०—रख लेना = किसी की चीज उसे वापस न देना। दवा लेना। जैसे,—आपने मेरे लिये जो चीजें उनके पास भेजी थीं, वे सब उन्होंनें रख लीं। ८. पालन पोषण, मनोविनोद या व्यवहार आदि के लिये अपने अधिकार में करना। अपनी अधीनता में लेना। जैसे,—गौ रखना; घोड़ा रखना; रंडी रखना; पहलवान रखना। ९. नियुक्त करना। तैनात करना। मुकर्रर करना। जैसे,—आपके काम के लिये मैंने अपने चार आदमी वहाँ रख दिए हैं। १०. सकुशल जाने न देना। पकड़ या रोक लेना। जैसे,—दो डाकुओं को तो गाँववालों ने रखा। ११. आघात करना। चोट पहुँचाना। जड़ना। जैसे,—मुक्का रखना; थप्पड़ रखना। १२. स्थागित करना। मुलतबी करना। दूसरे समय के लिये टालना। जैसे,—यह बातचीत कल पर रखो। १३. उपस्थित न करना। सामने न लाना। जैसे,—यह सब झगड़ा अलग रखो। १४. व्यवहार करना। धारण करना। जैसे,— आप सदा बढ़िया छड़ी रखते हैं। १५. किसी पर आरोप करना। जिम्मे लगाना। मढ़ना। जैसे,—तुम सदा सब कसूर मुझपर ही रखते हो। मुहा०—हाथ रखना = ऐसी बात कहना जिससे कोई दवे, चिढ़े या एहसान माने। (किसी पर) रखकर कहना = किसी को सुनाने या चिढ़ाने के उद्देश्य से किसी दूसरे पर आरोपित करेक कोई बात कहना। लक्ष्य बनाकर कहना। १६. ऋणी होना। कर्जदार होना। जैसे,—(क) हम क्या उनका कुछ रखते हैं, जो उनसे दवें। (ख) वे कभी किसी का एक पैसा नहीं रखते। १७. मन में अनुभव या धारण करना। जैसे, आशा रखना; विश्वास रखना। १८. निवास कराना। डेरा कराना। ठहराना। जैसे,—हमने उन लोगों को धर्मशाला में रख दिया है। १९. स्त्री (या पुरुष) से संबंध करना। उपपत्नी (या उपपति) बनाना। जैसे,— उसने एक औरत रख ली है। २०. सभोग करना। प्रसंग करना। (बाजारू)। २१. गर्भ धारण कराना। जैसे, पेट रखना। २२. पक्षियों आदि का अंडे देना। जैसे,—आपकी मुर्गी साल में कितने अंडे रखती है ? २३. अपने पास पड़ा रहने देना। बचाना। जैसे,—खा पीकर महीने में क्या रखते हो ? संयो० क्रि०—छोड़ना। मुहा०—रखकर कहना = किसी बातका कुछ अंश बचाकर या छिपाकर शेष अंश कहना। विशेष—नियुक्त क्रिया के रूप में इस शब्द का व्यवहार जिस क्रिया के आगे होता है, उससे सूचित होता है कि वह क्रिया किसी दूसरी क्रिया के पहले पूर्ण हो गई है या हो जानी चाहिए। जैसे,—मैने उससे पहले ही कह रखा था कि तुम्हारे आने पर रुपया दे दे।' मुहावरे के रूप में भी यह क्रिया दूसरी क्रियाओं के साथ लगती है।
⋙ रखनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना + ई (प्रत्य०)] वह स्त्री जिससे विवाह संबंध न हुआ हो और जो यों ही घर में रख ली गई हो। रखी हुई स्त्री। उपपत्नी। रखेली। सुरैतिन। क्रि० प्र०—रखना।
⋙ रखपाल पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्षपाल] दे० 'रक्षपाल'। उ०— पहिरी माला मंत्र की पाई कुल श्रीमाल। थाप्यो गीत विहोलिया वीहोला रखपाल।—अर्ध०, पृ० २।
⋙ रखया पु (१)
वि० स्त्री० [सं० रक्षा] रक्षा करनेवाली।
⋙ रखया पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० रिक्ता] रिक्ता तिथि। दे० 'रिक्ता'। उ०—तीज अष्टमी तेरिस जया। चौथ चतुर्दसि नौमी रखया।—जायसी (शब्द०)।
⋙ रखला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'रहकला'।
⋙ रखवाई
संज्ञा स्त्री० [सं० रखना या रखाना] १. खेतों की रखवाली। चौकीदारी। २. रखनवाली की मजदूरी। चौकीदारी की मजदूरी। ३. चौकीदार का टिकस। ४. रखवाली करने की क्रिया या भाव। ५. रखने की क्रिया या ढंग। ६. रखने की मजदूरी।
⋙ रखवाना
क्रि० स० [हिं० रखना का प्रेर० रूप] १ रखने की क्रिया दूसरे से कराना। दूसरे को रखने में प्रवृत्त करना। २. दे० 'रखाना'।
⋙ रखवार
संज्ञा पुं० [हिं० रखना + वार (प्रत्य०)] १. रक्षा करनेवाला। रखवार। २. चौकीदार। पहरेदार।
⋙ रखवारा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० रखवार] दे० 'रखवार'। उ०—खेत कएल रखवारे लुटल ठाकुर सेवा मोर।—विद्यापति, पृ० ६४१।
⋙ रखवारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना + वारी (प्रत्य०)] दे० 'रखवाली'।
⋙ रखवाल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'रखवाला'। उ०—तुम ही हुए रखवाल तो उसका कौन न होगा ?—अर्चना, पृ० ४९।
⋙ रखवाला
संज्ञा पुं० [हिं० रखना + वाला (प्रत्य०)] १. रक्षा करनेवाला। रक्षक। २. चौकीदार। पहरेदार।
⋙ रखवाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना + वाली (प्रत्य०)] १. रक्षा करने की क्रिया। हिफाजत। २. रक्षा करने का भाव।
⋙ रखशी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का गद्य जिसे नैपाली आदि पहाड़ी पीते हैं।
⋙ रखा (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना] १. पशुओं के चरने के लिये बचाई हुई भूमि। चरी। चरौना। २. सर्वसाधारण के उपयोग के लिये वर्जित जंगल या चरागाह जहाँ से लकड़ी, घास आदि काटने की मनाही हो।
⋙ रखा † (२)
वि० [सं० रक्षक, प्रा० रक्खअ] रक्षा या हिफाजत करनेवाला। चौकीदार। पहरुआ। जैसे, बनरखा = वन का रक्षक।
⋙ रखाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना + आई (प्रत्य०)] १. रक्षा करने की क्रिया। हिफाजत। रखवाली। २. रक्षा करने का भाव। ३. वह धन जो रक्षा करने के बदले में दिया जाय।
⋙ रखान †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना] चराई की भूमि। चरी।
⋙ रखाना (१)
क्रि० स० [हिं० रखना का प्रेर० रूप] रखने की क्रिया दूसरे से कराना। दूसरों को रखने में प्रवृत्त करना। रखवाना।
⋙ रखाना (२)
क्रि० अ० रखवाली करना। रक्षा करना। नष्ट होने से बचाना।
⋙ रखाना पु (३)
संज्ञा पुं० [फा़० रखनह्] छिद्र। छेद। सूराख। उ०— (क) असमान के बीच रखाना है इक, उस हुजेर में बैठौ। पलटू०, भा० ३, पृ० ९२। (ख) सब्दै सब्द मिलावै जोगी खुलिगा गगन रखाना।—पलटू, भा० ३, पृ० ८६।
⋙ रखार †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पाटा जिसका व्यवहार बंबई प्रांत में जुता हुआ खेत बराबर करने के लिये होता है।
⋙ रखिया पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० रखना + इया (प्रत्य०)] १. रक्षक। २. रखनेवाला। उ०—रीझै रिझवारि इंदुत्रदनी उदार सुर रूख की सी डार डोलै रंग रखियन मैं।—देव (शब्द०)।
⋙ रखिया पु †
संज्ञा पुं० [हिं० राखी (= रक्षा)] गाँव के समीप का वह पेड़ जो पूजनार्थ रक्षित रहता है।
⋙ रखियाना
संज्ञा पुं० [हिं० राखी + इयाना (प्रत्य०)] १. राख से बरतनों आदि का माँजना। २. पकाए हुए खैर (कत्ये) को कपड़े में लपेटकर राख के अंदर इस अभिप्राय से रखना कि उसका पानी सूख जाय और कसाब निकल जाय (तँबोली)।
⋙ रखी †
संज्ञा पुं० [सं० ऋषि, पुं० हिं० रिखि] ऋषि। मुनि। (डिं०)।
⋙ रखीराज
संज्ञा पुं० [सं० ऋषिराज] नारद ऋषि। (डिं०)।
⋙ रखीसर पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋषीश्वर] श्रेष्ठ ऋषि, नारद आदि।
⋙ रखेड़िया †
संज्ञा पुं० [हिं० राख + एड़िया (प्रत्य०)] वह जो शरीर में केवल राख पोतकर साधु बना फिरे। ढोंगी साधु।
⋙ रखेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना + एल (प्रत्य०)] दे० 'रखेली'।
⋙ रखेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना + एली (प्रत्य०)] बिना विवाह किए ही घर में रखई हुई स्त्री। रखनी। सुरैतिन। उपपत्नी।
⋙ रखेया †
संज्ञा पुं० [हिं० रखना + ऐया (प्रत्य०)] रखनेवाला। २. रक्षा करनेवाला।
⋙ रखैल
संज्ञा स्त्री० [हिं० रखना + ऐरा (प्रत्य०)] दे० 'रखेल', 'रखेली'।
⋙ रखौंड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० राखी (= रक्षा) + औड़ी (स्वा० प्रत्य०)] रक्षासूत्र। राखो। विशेष दे० 'राखा'।
⋙ रखौंत, रखौना ‡
संज्ञा पुं० [हिं० रखना] पशुओं के चरने के लिये छोड़ी हुई जमीन। चरी।
⋙ रखौनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० राखी] दे० 'राखा'।
⋙ रख्त
संज्ञा पुं० [फा़० रख्त] १. असवाव। सामान। २. पोशाक। वस्त्र। लिबास। उ०—कोइ ताज खरादे हँस हँसकर कोई रख्त खड़ा बनवाता।—राम० धर्म०,पृ० ९१। यौ०—रख्त बख्त = साज सामान।
⋙ रख्श
संज्ञा पुं० [फा़० रख्श] १. घोड़ा। आश्व। २. प्रभा। चपक। कांति। किरण [को०]।
⋙ रख्शाँ
वि० [फा़० रख्शाँ] प्रदीप्त। चमकता हुआ [को०]।
⋙ रगंड
संज्ञा पुं० [डिं०] हाथी का कपोल।
⋙ रग
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. शरीर में की नस या नाड़ी। उ०—जीए रूह रूहन्न में, जीए रूह रगन्न। जीए जो रउ सूरमाँ, ठंढउ चंद्र बसन्न।—दादू (शब्द०)। मुहा०—रग उतरना = (१) क्रोध उतरना। (२) हठ दूर होना। (३) आँत उरतना। रग खड़ी होना = शरीर की किसी रग का फुल जाना। रग चढ़ना = (१) क्रोध आना। गुस्सा आना। (२) हठ के वंश होना। रग दबना = दबाब मानना। किसी के प्रभाव या अधिकार में होना। जैसे,—तुम्हारी रग उन्ही से दबती है। रग पहिचानना या पाना = रहस्य जानना। असल बात जान लेना। रग फड़कना = किसी आनेवाली आपत्ति की पहले से ही आशंका होना। माथा ठनकना। रग रग फड़कना = शरीर में बहुत अधिक उत्साह या आवेश के लक्षण प्रकट होना। रग रग में = सारे शरीर में जैसे,—पाजीपन तो तुम्हारी रग रग में भरा है। यौ०—रग पट्ठा। रग देशा। २. पत्तों में दिखाई पड़नेवाली नसें।
⋙ रगड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० रगड़ना] १. रगड़ने की क्रिया या भाव। घर्षण। २. वह हलका चिह्न जो साधारण घर्षण से उत्पन्न हो जाय। क्रि० प्र०—खाना।—लगना। ३. (कहारों की परिभाषा में) धक्का। ४. हुज्जत। झगड़ा। तकरार। ५. भारी श्रम। गरही मेहनत। मुहा०—रगड़ डालना = अधिक मेहनत लेना। भारी श्रम कराना। रगड़ पड़ना = अधिक परिश्रम उठाना या पड़ना। जैसे,—उसे बहुत रगड़ पड़ी; इससे थक गया।
⋙ रगड़ना
क्रि० स० [सं० घर्षण या अनु०] १. किसी पदार्थ को दूसरे पदार्थ पर रखकर दबाते हुए बार बार इधर उधर चलाना। घर्षण करना। घिसना। जैसे,—चंदन रगड़ना। विशेष—यह क्रिया प्रायः किसी पदार्थ का कुछ अंश घिसने, उसे पीसने अथवा उसका तल बराबर करने के लिये होती है। २. पिसना। जैसे, मसाला रगड़ना, भाँग रगड़ना। ३. अभ्यास आदि के लिये बार बार कोई काम करना। ४. किसी काम को ज्लदी और बहुत परिश्रमपूर्वक करना। जैसे,—इस काम को तो हम चार दिन में रगड़ डालेंगे। ५. तंग करना। दिक करना। परेशान करना। ६. स्त्री के साथ संभोग करना। (बाजारू)। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
⋙ रगड़ना (२)
क्रि० अ० बहुत मेहनत करना। अत्यंत श्रम करना। जैसे,— अभी यहीं पड़े रगड़ रहे हैं।
⋙ रगड़वाना
क्रि० स० [हिं० रगड़ना का प्रे० रूप] रगड़ने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को रगड़ने में प्रवृत्त करना।
⋙ रगड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० रगड़ना] १. रगड़ने की क्रिया या भाव। घर्षण। रगड़। २. निरंतर अथवा अत्यंत परिश्रम। बहुत अधिक उद्योग। ३. वह झगड़ा जो बराबर होता रहे और जिसका जल्दी अंत न हो। जैसे, यह झगड़ा नहीं, रगड़ा है। क्रि० प्र०—खाना।—देना। यौ०—रगड़ा झगड़ा = लड़ाई झगड़ा। बखेड़ा।
⋙ रगड़ान
संज्ञा स्त्री० [हिं० रगड़ना + आन (प्रत्य०)] रगड़ने की क्रिया या भाव। रगड़ा। मुहा०—रगड़ान देना = रगड़ना। घिसना।
⋙ रगड़ी †
वि० [हिं० रगड़ा + ई (प्रत्य०)] रगड़ा करनेवाला। लड़ाई झगड़ा करनेवाला। झगड़ालू। जैसे,—मोरी एक न माने, कान्हा, बड़ो रगड़ी। (गीत)।
⋙ रगण
संज्ञा पुं० [सं०] छंदःशास्त्र में एक गण या तीन वर्णों का समूह जिसका पहला वर्ण गुरु, दूसरा लघु और तीसरा फिर गुरु होता है (/?/)। यह साधारणतः 'र' से सूचित किया जाता है। इसके देवता अग्नि माने गए हैं। जैसे, कामना। मामला। राम को।
⋙ रगत पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्त]। रुधिर। लहू। (डिं०)।
⋙ रगत्र पु †
संज्ञा पुं० [सं० रक्त] दे० 'रक्त'। उ०—सालुले विदल कंदल ससत्र। रँग सेल खगे न मिटै रगत्र।—रा०, रू०, पृ० ७३।
⋙ रगद पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्त] रक्त। रुधिर।
⋙ रगदना
क्रि० स० [हिं० रगेदना] दे० 'रगेदना'।
⋙ रगदल पु
वि० [डिं०] कुवड़ा।
⋙ रगपट्ठा
संज्ञा पुं० [फा़० रग + पट्ठा] १. शरीर के भीतरी भिन्न भिन्न अंग। मुहा०—रग पट्ठो से परिचित या वाकिफ होना = स्वभाव और व्यवहार आदि से परिचित होना। अच्छी तरह जानना। खूब पहचानना। २. किसी विषय की भीतरी और सूक्ष्म बातें।
⋙ रगबत
संज्ञा स्त्री० [अ० रग़बत] १. चाह। इच्छा। २. प्रवृत्ति। रुचि। मुहा०—रगबत आना = चाह होना। मन चलना। रगबत दिलाना = प्रवृत्त होने के लिये प्रेरित करना। बढ़ावा देना। रगबत की आँखों से देखना = पसंद करना।
⋙ रगमगना पु
क्रि० अ० [हिं०] १. भिनना। घुलना। २. अनुरंजित होना। उ०—तीर्थ सबै देखे, सुने, कोऊ नहिं या तूल। ब्रजअवनी रगमगि रही, कृष्न चरन अनुकूल।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १४२।
⋙ रगर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रगड़] १. दे० 'रगड़'। २. हठ। जिद। अड़। टेक। उ०—जनम कोटि लगि रगर हमारी। वरौ संभु न तु रहउँ कुमारी। - मानस, १।८१।
⋙ रगरा †
संज्ञा पुं० [हिं० रगड़ा] दे० 'रगड़ा'।
⋙ रगरेशा
संज्ञा पुं० [फा़० रग + रेशा] १. पत्तियों की नसें। २. शरीर के अंदर का प्रत्येक अंग। मुहा०—रग रेशे में = सारे शरीर में। अंग अंग में। रग रेशे से परिचित या वाकिफ होना = स्वभाव और व्यवहार आदि से परिचित होना। अच्छी तरह जानना। खूब पहचानना। ३. किसी विषय की भीतरी और सूक्ष्म बातें।
⋙ रगवाना पु
क्रि० स० [हिं० रगना का प्रेर० रूप] चुप कराना। शांत कराना। उ०—कुँवर कहूँ रोदन अति करहीं नहीं रगा रगवावै।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ रगा †
संज्ञा पुं० [देश०] मोर।
⋙ रगाना † (१)
क्रि० अ० [देश०] चुप होना। शांत होना।
⋙ रगाना (२)
क्रि० स० चुप कराना। शांत करना।
⋙ रगी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का मोटा अन्न जो मैसूर में होता है। २. दे० 'रग्गी'।
⋙ रगी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० रग + ई (प्रत्य०)] दे० 'रंगीला'।
⋙ रगीला
संज्ञा पुं० [हिं० रग (= जिद) + ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० रगीली] १. हठी। जिद्दी। दुराग्रही। २. पाजी। दुष्ट।
⋙ रगद
संज्ञा स्त्री० [हिं० रगेदना] १. दौड़ाने या भगाने की क्रिया। २. पक्षियों आदि की संभोग की प्रवृत्ति या अवसर। जोड़ा खाने का मौका।
⋙ रगेदना
वि० [सं० खेट, हिं० खेदना] भगाना। खदेड़ना। निकालना। दौड़ना। संयो० क्रि०—देना।
⋙ रग्गा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा अन्न जो दक्षिण के पहाड़ों में होता है। रगी।
⋙ रग्गा † (२)
संज्ञा स्त्री० अधिक वर्षा के उपरांत होनेवाली धूप, जो खेती के लिये लाभदायक होती है।
⋙ रग्गी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'रग्गा (२)'।
⋙ रघु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यवंशी राजा दिलीप के पुत्र का नाम जो उनकी पत्नी सुदक्षिणा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। विशेष—ये अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा और श्री रामचंद्र के परदादा थे। जब ये छोटे थे, तभी इनके पिता ने अश्वमेध यज्ञ किया था और यज्ञ के घोड़े की रक्षा का भार इन्हें सौंपा था। जब उस घोड़े को इंद्र ने पकड़ा, तब इन्होनें इंद्र को युद्ध में पराजित करके वह घोड़ा छुड़ाया था। सिंहासन पर बैठने के उपरांत इन्होंने विश्वाजित् नामक यज्ञ किया था और उसमें समग्र कोष दान कर दिया था। महाराज अज इन्हीं के पुत्र थे। प्रसिद्ध रघुवंश के मूल पुरुष यही थे। २. रघु के वंश में उत्पन्न कोई व्यक्ति।
⋙ रघु (२)
वि० १. शीघ्रगति। द्रुतगति। शीघ्रगामी। २. चपल। ३. चंचल। लोल। ४. उत्सुक। आतुर। व्यग्र। अधीर [को०]।
⋙ रघुकुल
संज्ञा पुं० [सं०] राजा रघु का वंश। विशेष—इस शब्द में चंद्र, मणि, नाथ, पति, वर, वीर, आदि और उनके वाचक शब्द लगने से श्रीतामचंद्र का बोध होता है। जैसे,—रघुकुलचंद्र रघुकुलमणि, रघुनाथ, रघुपति, रघुवर, रघुवीर इत्यादि।
⋙ रघुनंद
संज्ञा पुं० [सं० रघुनन्द] श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुनंदन
संज्ञा पुं० [सं० रघुनन्दन] श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुनांथ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुनायक
संज्ञा पुं० [सं०] रघुकुलस्वामी, श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुपति
संज्ञा पुं० [सं०] रघुवंश के स्वामी, श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुराई पु
संज्ञा पुं० [सं० रघुराज, प्रा० रघुराइ] श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुराज
संज्ञा पुं० [सं०] रघुकुल के राजा, श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुराय पु
संज्ञा पुं० [सं० रघुराज] रघुवंश के राजा। श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुरैया पु
संज्ञा पुं० [हिं० रघुराय] दे० 'रघुराय'।
⋙ रघुवंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाराज रघु का वंश या खानदान जिसमें रामचंद्र जो उत्पन्न हुए थे। उ०—तेहि अक्सर भंजन महि भारा। हरि रघुवंश लीन्ह अवतारा।—तुलसी (शब्द०)। २. महाकवि कालिदास का रचा हुआ एक प्रसिद्ध महाकाव्य जिसमें महाराज दिलीप के समय से लेकर अग्निवंश तक का विवरण दिया हुआ है। यौ०—रघुवंश-वनज-वन-भानु = रघुवंश रूपी कमल वन के सूर्य, श्री रामचंद्र। उ०—जय रघुवंश-वनज-वन-भानू-मानस १।
⋙ रघुवंशकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुवंशी
संज्ञा पुं० [सं० रघुवंशिन्] १. वह जो रघु के वंश में उत्पन्न हुआ हो। २. क्षत्रियों के अंतर्गत एक जाति। विशेष—इस जाति के लोग महाराज रघु और रामचंद्र के वंश में उत्पन्न माने जाते हैं।
⋙ रघुवर
संज्ञा पुं० [सं०] रघुकुलश्रेष्ठ, श्रीरामचंद्र।
⋙ रघुवीर
संज्ञा पुं० [सं०] रघुकुल में वीर, रामचंद्र जी।
⋙ रघूत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] रघुकुल में श्रेष्ठ वा उत्तम, श्रीरामचंद्र।
⋙ रघूद्वह
संज्ञा पुं० [सं०] रघुवंशियों में श्रेष्ठ, श्री रामचंद्र।
⋙ रघ्रती
संज्ञा पुं० [डिं०] संतोष। सब्र।
⋙ रचक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रचना करनेवाला। रचयिता। उ०— पालक संहारक रचक भक्षक रक्ष अपार। सब ही सबको होत है को जानै कै बार।—केशव (शब्द०)।
⋙ रचक (२)
वि० [सं० न्यञ्चक] दे० 'रचंक'।
⋙ रचना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रचने या बनाने की क्रिया या भाव। बनावट। निर्माण। उ०—(क) गढ़रचना बरुनी अलक चितवन भौंह कमान।—बिहारी (शब्द०)। (ख) चलो, रंग- भूमि की रचना देख आवैं।—लल्लूलाल (शब्द०)। २. बनाने का ढंग या कौशल। ३. बनाई हुई वस्तु। रची हुई चीज। सृजित पदार्थ। निर्मित वस्तु। उ०—(क) अद्भुत रचना बिधि रची यामों नहीं विवाद। बिना जीभ के लेत द्दग रूप सलोनी स्वाद।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) तब श्रीकृष्ण चंद्र जो ने सबको मोहित कर जो वैकुंठ की रचना रची थी, सो उठा ली।—लल्लूलाल (शब्द०)। ४. फूलों से माला या गुच्छे आदि बनाना। ५. बाल गूँथना। केश विन्यास। ६. स्थापित करना। ७. उद्यम। कार्य। ८. वह गद्य या पद्य जिसमें कोई विशेष चमत्कार हो। उ०—वचननि की रचनानि सों जो सार्ध निज काज।—पद्माकर (शब्द०)। ९. पुराणानुसार विश्वकर्मा की स्त्री का नाम।
⋙ रचना (२)
क्रि० सं० [सं० रचन] १. हाथों से बनाकर तैयार करना। बनाना। सिरजना। निर्माण करना। उ०—(क) तपबल रचइ प्रपच बिधाता। तप बल विष्णु सकल जग ञाता।—तुलसी (शब्द०)। (ख) इहाँ हिमालय रचेउ बिताना। अति विचित्र नहिं जाइ बखाना।—तुलसी (शब्द०)। २. विधान करना। निश्चित्त करना। उ०—अस विचारि सोचइ मति माता। सो न टरै जो रचइ विधाता।—तुलसी (शब्द०)। ३. ग्रंथ आदि लिखना। उ०—गुनी और रिझवार ये दोउ प्रसिद्ध ह्वै जात। एक ग्रंथ के रचन सों दोगुन जस सरसात।—(शब्द०)। ४. उत्पन्न करना। पैदा करना। ५. अनुष्ठान करना। ठानना। उ०—(क) रति विपरीत रची दंपात गुपुत अति मेरे जान मनि भय मनमथ नेजे तें।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) तव एक- विशांत बार में बिन क्षेत्र की पृथ्वी रची।—केशव (शब्द०)। (ग) सखि पान खवावत ही कोहि कारन कोप पिया पर नारि रच्यौ।—केशव (शब्द०)। ६. आडंबर खड़ा करना। युक्ति या तदबीर लगाना। आयोजन करना। जैसे, आडंबर रचना; उपाय रचना; जाल रचना। उ०—(क) रचि प्रपंच भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।—तुलसी (शब्द०)। ७. काल्पनिक सृष्टि करना। कल्पना करना। उ०—कबहुँ धनु राच पसरु चरावै। कबहुँ भूप बनि नीति सिखावैं।—रघुनाथ (शब्द०)। ८. शृंगार करना। सँवारना। सजाना। कारीगरी करना। उ०—भूषण बसन आदि सब रचि रचि माता लाड़ लड़ावै।—सूर (शब्द०)। ९. तरतीब या क्रम से रखना। उ०—चहूँधा बेदी के विधिवत रची है अगिनि ये। बिछों दर्भा नेरे अरु प्रजुल सोहें समादि लै।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। मुहा०—पु रचि पाचि = परिश्रमपूर्वक। दक्षतापूर्ण ढंग से। उ०—(क) रचिपचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेंसि कपट प्रबोध।—तुलसी (शब्द०)। (ख) राचि पचि कौयौ ऐ सिंगारु, पाटी तौ पारी चोखे माम का।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३२। रचि रचि पु = बहुत होशियारी और कारीगरी के साथ (कोई काम करना)। बहुत कौशलपू्र्वक।
⋙ रचना (३)
क्रि० स० [सं० रञ्जन] रँगना। रांजत करना। उ०— (क)मार्ग को झरोखे तक लाख के रंग में रच दिया।— लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। (ख) रोचन रोरी रची मेहंदी नृप संभु कहैं मुकता सम पोत है।—शंभु (शब्द०)।
⋙ रचना (४)
क्रि० अ० [सं० रंञ्जन] १. अनुरक्त होना। उ०—(क) पर नारि से रचे हैं पिय।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) जो अपने पिय रूप रची कवि राम तिन्हैं रवि की छबि थोरी।—हृदयराम (शब्द०)। (ग) मोहि तोहि मेहँदी कहूँ कैसे बनै बनाइ। जिन चरनन सों मैं रचो तहाँ रची तू जाइ।— रसनिधि (शब्द०)। (घ) चिता न चित फाकौ भयौ रचो जूपिय के रंग।—सूर (शब्द०)। २. रंग चढ़ना। रँगा जाना। रंजित होना। जैसे,—(क) तुम्हारे मुँह में पान खूब रचता है। (ख) उसके हाथ में मेहंदी खूब रचती है। उ०—(क) गान सरस अलि करत परस मद मोद रंग रचि।—गुमान (शब्द०)। (ख) जावक रचित अँगुरियन मृदुल सुढारी हो।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रचनात्मक
वि० [सं० रचना + आत्मक] वह कार्य जो निर्माण में सहायक हो। जैसे,—रचनात्मक साहित्य, रचनात्मक शिक्षा आदि।
⋙ रचयिता
संज्ञा पुं० [सं० रचयितृ] रचनेवाला। बनानेवाला। जैसे,—आपही इस ग्रंथ के रचयिता हैं।
⋙ रचवाना
क्रि० स० [हिं० रचना का प्रेर० रूप] १. रचना के काम में दूसरे को प्रवृत्त कराना। रचना कराना। तैयार कराना। बनवाना। २. मेहँदी या महावर लगवाना।
⋙ रचाना पु (१)
क्रि० स० [सं० रचन] १. आयोजन करना। अनुष्ठान करना या कराना। बनाना जैसे,—व्याह रचाना। उ०— इत पांडव मिलि यज्ञ रचायो।—लल्लूलाल (शब्द०)। २. दे० 'रचवाना'।
⋙ रचाना (२)
क्रि० अ० [सं० रञ्जन] मेहँदी महावर आदि से हाथ पैर रँगाना।
⋙ रचित
वि० [सं०] १. बनाया हुआ। रचा हुआ। २. सुघटित (को०)। ३. विभूषित। सज्जित (को०)। ४. ग्रथित (को०)।
⋙ रची †
वि० [हिं० रंच] थोड़ा। अल्प।
⋙ रच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्ष] दे० 'रक्ष'।
⋙ रच्छक पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्षक] दे० 'रक्षक'।
⋙ रच्छन पु
संज्ञा पुं० [सं० रक्षण] दे० 'रक्षण'।
⋙ रच्छदार पु
वि० [सं० रक्षपाल] रक्षा औऱ पालन करनेवाला। रक्षक। पालक। उ०—गिरि के धरमहार, गैवर के रच्छ पार गरुर न लाइए।—गंग० ग्रं०, पृ० ६।
⋙ रच्छस पु
संज्ञा पुं० [सं० राक्षस] दे० 'राक्षस'।
⋙ रच्छा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्षा] दे० 'रक्षा'।
⋙ रच्छाकर पु
वि० [सं० रक्षा + हिं० करना] रक्षा करनेवाला। रक्षक। उ०—सुरजन सुत नृप भोज भूमि सुर जन रच्छाकर।—मति० ग्रं०, पृ० ४१४।
⋙ रच्छित
वि० [सं० रक्षित] दे० 'रक्षित'।
⋙ रछपाल पु
वि० [सं० रक्षपाल] रक्षा और पालन करनेवाला रक्षपाल। उ०—आविनासी दुलहा कब मिलिहौ, भक्तन के रछपाल।—कबीर श०, पृ० ९१।
⋙ रछस पु †
संज्ञा पुं० [सं० रक्षस = राक्षस] दे० 'राक्षस'। उ०— जबन्दूत मेले समुझावो रछस अजू समजे तो रावण।—रघु० रू०, पृ० १७८।
⋙ रजंपुत्त पु
संज्ञा पुं० [हिं० राजपूत] दे० 'राजपूत'। उ०—रजंपुत्त पंचास झुझझे अमोरं। बजै जीत कै नद्द नीसांन धारं।—पृ० रा०, २०, ६६।
⋙ रज
संज्ञा पुं० [सं० रजस्] १. वह रक्त जो स्त्रियों और स्तनपायी जाति के मादा प्राणियों के योनिमार्ग से प्रतिमास निकलता है और प्रायः तीन या चार दिनों तक बराबर निकलता रहता है। आर्तव। कुसुम। ऋतु। विशेष—रज युवावस्था का सूचक होता है और गरम देशों में स्त्रियों के बारहवें या तेरहवें वर्ष ठंढे देशों में सोलहवें या अठारहवें वर्ष निकलने लगता है और प्रायः पचास या पचपन वर्ष की अवस्था तक निकलता रहता है। जब स्त्री गर्भ धारण कर लेती है, तब रज निकलता बंद हो जाता है; और प्रसव के उपरांत फिर निकलने लगता है। हमारे यहा शास्त्रों में कहा है कि जबतक स्त्री रजस्वला न होने लगे, तबतक उसे कोई धार्मिक कृत्य करने का अधिकार नहीं होता; और जिन दिनों स्त्री को रजस्राव होता हो, उन दिनों वह अपवित्र या अशुचि समझी जाती है। रजस्राव हो चुकने पर जव स्त्री स्नान करती है, तब वह गर्भधारण के लिये विशेष उपयुक्त हो जाती है। २. सांख्य के अनुसार प्रकृति के तीन गुणों में से दूसरा गुण। विशेष—यह चंचल, प्रवृत्त करनेवाला; दुःखजनक और काम, क्रोध, लोभ आदि को उत्पन्न करनेवाला माना गया है। सत्व तथा तम दोनों गुणों को यही संचालित करता है और इसी के द्वारा मनुष्य में सब प्रकार की उत्तेजना या प्रेरणा उत्पन्न होती है। विशेष दे० 'गुण'। ३. आकाश। ४. पाप। ५. जल। पानी। उ०—रज राजस, आकाश रज, रज युवती में होय। रज धूली, रज पाप, कहि रज जल निर्मल धोय।—नंददास (शब्द०)। ६. प्राचीन समय का एक प्रकार का बाजा, जिसपर चमड़ा मढ़ा जाता था। ७. जोता हुआ खेत। ८. बादल। ९. भाप। १०. फूलों का पराग। उ०—हेमकमल रज मिलि पियराए।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। ११. आठ परमाणुओं का एक मान या तौल। १२. भुवन। लोक। १३. पुराणानुसार एक ऋषि का नाम जो वशिष्ठ के पुत्र माने जाते है। ४. खेत पापडा़। १५. स्कंद की एक सेना का नाम।
⋙ रज (२)
संज्ञा स्त्री० १. धूल। गर्द। उ०—(क) गमन चढ़ै रज पवन प्रसंगा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) अति शुभ वीथी रज परिहरे।—केशव (शब्द०)। (ग) रज राजस न छुवाइए नेह चीकने चित्त।—बिहारी (शब्द०)। २. रात। ३. ज्योति। प्रकाश।
⋙ रज (३)
संज्ञा पुं० [सं० रजत] चाँदी। उ०—(क) पुनि ताम्र के हैं कोटि धर श्रुति कोटि रज के स्वच्छ हैं। तहँ पाँच कोटि परवान के गृह दारु के नव लच्छ हैं।—विश्राम (शब्द०)। (ख) भाजन मणि हाटक रज केरे। अति विचित्र बहु भाँति घनेरे।— विश्राम (शब्द०)।
⋙ रज (४)
संज्ञा पुं० [सं० रजक] रजक। धोबी। उ०—(क) शिवनिंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर बसाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मारग में एक रज संहारयो सबहि बसन हरि लीन्हें।— सूर (शब्द०)।
⋙ रज (५)
संज्ञा पुं० [फा़० रज़] अंगूर [को०]।
⋙ रज (६)
वि० [फा़० रज़] रँगनेवाला [को०]।
⋙ रज पु (७)
संज्ञा स्त्री० [सं० रजस्] शूरता। वीरता। रजपूती। उ०—राजे भाणे राज छोडि राजपूत रौती छोड़ि राउत रनाई छोड़ि राना जू।—गंग ग्रं०, पृ० ९३।
⋙ रजई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० राजा + ई (प्रत्य०)] राजत्व। राजा- पन। उ०—राजा है रजई दिखरावत। ग्वाल बाल दुंदुभी बजावत।—नंद० ग्रं०, पृ० २८५।
⋙ रजक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० रजकी] १. कपड़ा धोनेवाला। धोबी। २. सुग्गा। शुक (को०)।
⋙ रजक पु (२)
संज्ञा पुं० [आरिज्क] १. अन्न। भोजन। २. रोजी। जीविका। उ०—देखतड़ा दुःख दूर ह्वै पाय रजक सुख पूर।— बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ११।
⋙ रजकण
संज्ञा पुं० [सं० रजः + कण] धूलिकण।
⋙ रजकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रजक की स्त्री। धोबिन। २. रजोधर्म के समय तीसरे दिन स्त्री की संज्ञा [को०]।
⋙ रजगीर
संज्ञा पुं० [देश०] फफरा। कूटू। कोटू। दे० 'कूटू'।
⋙ रजगुण
संज्ञा पुं० [सं० रजोगुण] प्रकृति का वह गुण जिससे काम वा भोग विलास की इच्छा पैदा होती है। रजोगुण। विशेष दे० 'रज'। उ०—बख्तर बिसाल आयस रचित उपमा नहिं कहि जात है। रनहित लपोटि तम गुनहि तनु मनु रजगुन सरसात है।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ रजतंत
संज्ञा स्त्री० [सं० राजतत्व] शूरता। वीरता। उ०— शिव सरजा सों जंग जुरि चंदावत रजवंत। राव अमर गो अमरपुर समर रही रजतंत।—भूषण (शब्द०)।
⋙ रजत
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चाँदी। रूपा। उ०—रजत सीप महँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।—तुलसी (शब्द०)। २. सोना। ३. हाथी दाँत। ४. हार। ५. रक्त। लहू। ६. पुराणानुसार शाकद्वीप के अस्ताचल पर्वत का नाम।
⋙ रजत (२)
वि० १. सफेद। शुक्ल। २. लाल। सुर्ख। ३. चाँदी के रंग का। चाँदी का बना हुआ (को०)। यौ०—रजतकुंभ = चाँदी का घड़ा। रजतपात्र, रजतभाजन = चाँदी का बरतन।
⋙ रजतकूट
संज्ञा पुं० [सं०] मलय पर्वत की एक चोटी का नाम।
⋙ रजतजयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० रजत + जयन्ती] किसी संस्था के जीवनकाल के २५ वें वर्ष मनाया जानेवाला उत्सव।
⋙ रजतद्युति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हनुमान।
⋙ रजतद्युति (२)
वि० रजत के समान दीप्त वा चमकीला।
⋙ रजतनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक यक्ष का नाम।
⋙ रजतनाभि
संज्ञा पुं० [सं०] कुवेर के एक वंशवर का नाम।
⋙ रजतपट
संज्ञा पुं० [सं० रजत + पट] वह सफेद पर्दा जिसपर चलचित्र प्रदर्शित किए जाते हैं।
⋙ रजतप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास पर्वत।
⋙ रजतवाह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ रजताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रजत + आई (प्रत्य०)] सफेदी। श्वेतता। उ०—तेज सों ताके ललाई भरे रज में मिली आसु सवै रजताई।—गिरधर (शब्द०)।
⋙ रजताकर
संज्ञा पुं० [सं०] चाँदी की खान [को०]।
⋙ रजताचल
संज्ञा पुं० [सं०] १. चाँदी का बनाया हुआ वह कृत्रिम पर्वत जिसका दान करना पुराणानुसार बहुत पुण्य का कार्य समझा जाता है। यह नवाँ महादान है। २. कैलास पर्वत।
⋙ रजताद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास पर्वत।
⋙ रजतोपम
संज्ञा पुं० [सं०] रूपामाखी।
⋙ रजधानी
संज्ञा स्त्री० [सं० राजधानी] दे० 'राजधानी'। उ०— राजा रामु अवध राजधानी। गावत गुन सुर मुनि वर बानी।—मानस, १।२५। २. राज्य। उ०—रामचंद्र दसरथ सुत ताकी जनकसुता पटरानी। कहै तात के, पंचबटी बन छाँड़ि, चले रजधानी। सूर०, १०।१९९।
⋙ रजन (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० रोज़िन] एक प्रकार का गोंद। राल। विशेष दे० 'राल'।
⋙ रजन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किरण। २. रँगने की क्रिया। ३. कुसुंभ। महारजन [को०]।
⋙ रजना पु (१)
क्रि० अ० [सं० रञ्जन] रँगा जाना। रंग में डुबाया जाना। उ०—(क) प्रेम भरी पुर भूप गुण रूप रजी रजपूतिनि राजै।—देव (शब्द०)। (ख) मानत नहीं लोक मरजादा हरि के रंग मजी। सूर श्याम को मिलि चूनो हरदी ज्यौं रंग रजी।—सूर (शब्द०)।
⋙ रजना पु (२)
क्रि० स० रँग में डुबाना। रँगना।
⋙ रजना पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० रञ्जन] संगीत की एक मूर्च्छना जिसका स्वरग्राम इस प्रकार है—नि, स, रे, ग, म, प,ध। नि, स, रे, ग, म, प, ध, नि। स, रे, ग, म, प, ध, नि।
⋙ रजनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'रजनी' [को०]।
⋙ रजनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात। रात्रि। निशा। उ०—(क) मंगल ही जु करी रजनी बिधि याही ते मंगली नाम घरयो है।—केशव (शब्द०)। (ख) है रजनी रज में रुचि केती, कहा रुचि रोचक रंक रसाल में।—द्विजदेव (शब्द०)। ३. जतुका लता। पहाड़ी। ४. नीली। नील। ५. दारुहलदी। ६. पुराणानुसार शाल्मदी द्वीप की एक नदी का नाम। ७. लाख। लाह। ८. दुर्गा का एक नाम (को०)।
⋙ रजनीकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। उ०—संतत दुखद सखी रजनीकर। स्वारथ रत तब अबहुँ एक रस मोकों कबहुँ न भयो तापहर।—तुलसी (शब्द०)। २. कर्पूर। कपूर (को०)।
⋙ रजनीचर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस। २. चंद्रमा। ३. चोर (को०)। ४. रात का पहरेदार (को०)।
⋙ रजनीचर (२)
वि० जो रात के समय चलता या घूमता फिरता हो।
⋙ रजनीजल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ओस। २. पाला [को०]।
⋙ रजनीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।
⋙ रजनीपति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ रजनीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] संध्या। सायंकाल। शाम का वक्त। उ०—(क) बहुरि भोग धरि रजनीमुख में। सैनारती करै भरि सुख में।—गिरधर (शब्द०)। (ख) प्रविश्यौ पवन तनय रजनी मुख लंक निशंक अकेला।—रघुराज (शब्द०)। (ग) दिन उठि जात धेनु बन चारन गोप सखन के संग। वासर गत रजनीमुख आवत करत नैन गति पंग।—सूर (शब्द०)। (घ) रजनीमुख आवत गुन गावत नारद तुंबुर माउँ।—सूर (शब्द०)।
⋙ रजनीरमण
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।
⋙ रजनीश
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। रजनीपति। उ०—कुटिल हरि- नख हिए हरि के हरष निरखति नारि। ईश जनु रजनीश राख्यौ भालहूँ ते उतारि।—सूर (शब्द०)।
⋙ रजनीस
संज्ञा पुं० [सं० रजनीश] चंद्रमा। उ०—तुलसी महीस देखे दिन रजनीस जैसे सूने परे सून से मनो मिटाए आँक के।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रजनीहंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शेफाली। हरसिंगार [को०]।
⋙ रजपूत पु †
संज्ञा पुं० [सं० राजपु्त्र] [स्त्री० रजपूतिन] १. दे० 'राजपूत'। उ०—धूत कहौ अवधूत कहौ रजपूत कहौ जोलहा कहौ कोऊ।—तुलसी (शब्द०)। २. वीर पुरुष। योद्धा। उ०—अंतर ते जनु रंजन को रजपूतन को रज ऊपर आई।— केशव (शब्द०)।
⋙ रजपूती †
संज्ञा स्त्री० [हिं० राजपूत + ई (प्रत्य०)] १. क्षत्रिय होने का भाव। क्षत्रियत्व। उ०—राखी रजपूती राजधानी राखो राजन की, धरा मैं धरम राख्यो राख्यो गुन गुनी मैं।— भूषण ग्रं० पृ० ९७। २. वीरता। शूरता। बहादुरी।
⋙ रजबल पु
संज्ञा पुं० [हिं० राजा अथवा राज्य + बल] राज्य का बल। सुख संपत्ति। राज्यत्व। उ०—जब हम हिरदे प्रीत विचारी। रजबल छाँड़ी के भए भिखारी।—दक्खिनी०, पृ० २३।
⋙ रजबली
संज्ञा पुं० [सं० राज + अली] राजा। (डिं०)।
⋙ रजबहा
संज्ञा पुं० [सं० राज, राजा (= बड़ा) + हिं० बहना] किसी बड़ी नदी या नहर से निकाला हुआ बड़ा नाला जिससे और भी छोटे छोटे अनेक नाले निकलते हैं।
⋙ रजलबाह
संज्ञा पुं० [जलवाह] मेघ। बादल। (डिं०)।
⋙ रजवंती
वि० [सं० रजोवती] वह स्त्री जिसका रजस्त्राव हो रहा हो। रजस्वला।
⋙ रजवट पु
संज्ञा स्त्री० [सं० राज + वट (प्रत्य०)] १. क्षत्रियत्व। २. वीरता। शूरता। (डिं०)।
⋙ रजवती
वि० [सं० रजोवती] दे० 'रजवंती'।
⋙ रजवाड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० राज्य + बाड़ा] १. राज्य। देशी रियासत। जैसे,—वे कई रजवाड़ों में माल बेचने जाते है। २. राजा। जैसे,—आजकल यहाँ कई रजवाड़े आए हुए हैं।
⋙ रजवार पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० राजद्वार] १. राजा का दरबार। २. राजद्वार। उ०—पुनि बाँधे रजदार तुरंगा। का
⋙ बरनउँ जस उनके रंगा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ रजस्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'रज'।
⋙ रजसानु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. चित्त। मन। हृदय [को०]।
⋙ रजस्वल
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो रज वा रजोगुण से भरा हो। २. महिष। भैंसा [को०]।
⋙ रजस्वला
वि० [सं०] १. जिसका रज प्रवाहित होता हो। रजवती। ऋतुमती। उ०—रजस्वला तिय गर्भयुत होई। तासों रमण करै जो कोई।—रघुनाथ (शब्द०)। २. विवाह के योग्य (लड़की)।
⋙ रजी
संज्ञा स्त्री० [अ० रजा] १. मरजी। इच्छा। उ०—(क) नेह पंथ में भाव ते धरिए पाइ सँभार। सावित होइ मन आपने मीत रजा अख्त्यार।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) राजी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रजा है।—नजीर (शब्द०)। २. रुखसत। छुट्टी। ३. अनुमति। आज्ञा। हुक्म। उ०—और कीजै वही आपकी जो रजा।—सूदन (शब्द०)। ४. स्वीकृति। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—मिलना।—लेना।
⋙ रजाइ पु
संज्ञा स्त्री० [अ० रजा़] १. आज्ञा। हुक्म। उ०—(क) पूतना पिसाची जातुवानी जातुधान बाम रामदूत की रजाइ माथे मानि लेत हैं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) राजा की रजाइ पाइ सचिव सेहली लाइ सतानंद ल्याये सिय सिविका चढ़ाइ कै।— तुलसी (शब्द०)। २. दे० 'रजा'।
⋙ रजाइस पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० रजा़ + हिं० आइस (प्रत्य०)] आज्ञा। हुक्म।
⋙ रजाई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रजक (= कपड़ा ? या देशी)] एक प्रकार का जाड़े का ओढ़ना जिसका कपड़ा दोहरा होता है और जिसमें रूई भरी होता है। लिहाफ।
⋙ रजाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० राजा + आई (प्रत्य०)] राजा होने का भाव। राजापन।
⋙ रजाई (३)
संज्ञा स्त्री० [अ० रजा़] आज्ञा। हुक्म। उ०—चले सीस धरि राम रजाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रजाकर
संज्ञा पुं० [अ० रजा़ + कार] १. स्वयंसेवक। २. स्वतंत्र- तापू्र्व भारत में स्थापित एक राष्ट्रविरोधी मुस्लिम राजनीतिक दल।
⋙ रजाना
क्रि० स० [सं० राज्य] १. राज्यमुख का भोग करना। उ०—रूठ रही मन सों कह्यी भूपति आनँद आज न याहि रुठाऊँ। माँगु कह्यौ बनवास दे रामहिं हौं अपने सुत राज रजाऊँ।—हृदयराम (शब्द०)। २. बहुत अधिक सुख देना। बहुत अच्छी तरह से रखना। जैसे,—वे अपने सभी संबंधियों को राज रजा रहे हैं। विशेष—इस शब्द का प्रयोग 'राज' या 'राज्य' शब्द के साथ ही होता है, अलग नहीं।
⋙ रजामंद
वि० [फा़० रजा़मंद] जो किसी बात पर राजी हो गया हो। सहमत। जैसे,—अगर आप इस बात में रजामंद हों, तो यही सही।
⋙ रजामंदी
संज्ञा स्त्री० [फा़० रजा़मंदी] राजी या सहमत होने का भाव। सहमति। स्वीकृति। जैसे,—जो काम होगा, वह आपकी रजामंदी से होगा।
⋙ रजाय पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० रजा़] १. आज्ञा। हुक्म। उ०—(क) चोरन उर करि शुद्ध अति जाहु सु दियो रजाय।—रघुराज (शब्द०)। (ख) कोपि दसकंध तब प्रलय पयोद बोल्यो, रावन रजाय धाय आए यूथ जोरि कै।—तुलसी (शब्द०)। २. मरजी। इच्छा।
⋙ रजायस पु †
संज्ञा पुं० [हिं० राजा अथवा अ० रजा़ + आयसु] आज्ञा। हुक्म। उ०—भयो रजायस मारहु सूआ। सूर न आउ चाँद जहँ ऊआ।—जायसी (शब्द०)।
⋙ रजायसु पु †
संज्ञा पुं० [हिं० राजा वा अ० रजा़ + हिं० आयस] दे० 'रजायस'। उ०—अव तो सूर शरण ताकि आया, सोइ रजायसु दीजै। जेहिं तें रहैं शत्रु प्रण मेरो वहै मतो कछु कीजै।—सूर (शब्द०)। (ग) जबै जमराज रजायसु ते तोहि लै चलिहैं भट बाँधि गटैया।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रजिया (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. अनाज नापने की एक माप जो प्रायः डेढ़ सेर का होता है। २. काठ का वह बरतन जो इस मान का होता है।
⋙ रजिया (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० रजी़अह्] १. दूध शरीक बहन। दूध बहन। २. रजिया बेगम, जो गुलामवंश के दूसरे बादशाह अल्तमश की लड़की थी।
⋙ रजियाउर पु
संज्ञा पुं० [हिं० राजपुर वा राजा + गृह] राजधानी। उ०—बार मोर राजियाउर रता। सो लै चला सुवा परबता। जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३३।
⋙ रजिष्ट्रार
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'रजिष्ट्रार'।
⋙ रजिस्टर
संज्ञा [अ०] अँगरेजी ढंग की बही या किताब आदि जिसमें किसी मद का आय व्यय अथवा किसी विषय का विस्तृत विवरण, सिलसिलेवार या खानेवार, लिखा जाता हो।
⋙ रजिस्टरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. किसी लिखित प्रतिज्ञापत्र को कानून के अनुसार सरकारी रजिस्टरों में दर्ज कराने का काम। विशेष—प्रायः सभी देशों में यह नियम है कि बैनामे, दस्तावेज तथा इसी प्रकार के और सब कागज पत्र लिखे जाने के उपरांत सरकारी रजिस्टरों में दर्ज करा लिए जाते है। इससे लाभ यह होता है कि उस कागज में लिखा हुई सब बातें बिलकुल पक्की हो जाती है; और यदि कोई पक्ष उन बातों के विपरीत कोई काम करता है, तो वह न्यायालय से दंड का भागी होता है। यदि मूल कागज किसी प्रकार खो जाय, तो उसके बदले में आवश्यकता पड़ने पर रजिस्टरीवालो नकल से भी काम चल जाता है। २. चिट्टी पारसल आदि डाक से भेजने के समय डाकखाने के रजिस्टर में उसे दर्ज कराने का काम, जिसके लिये कुछ अलग फीस या दाम देना पड़ता है। विशेष—इस प्रकार की रजिस्टरी से यह लाभ होता है कि रजिस्टरी कराई हुई चीज खोने नहीं पाती; और यदि खो जाय, तो डाकखाना उसके लिये जिम्मेदार होता है। यदि पानेवाला किसी समय उस चिट्ठी या पारसल आदि के पाने से इन्कार करे, तो उसके विरुद्ध डाकखाने से रजिस्टरी का प्रमाण भी दिया जा सकता है। ३. ऊपर कही विधि से भेजा हु्आ पत्र आदि। यौ०—रजिस्टरी शुदा = रजिस्टर्ड। पंजीकृत। पंजीबद्ध।
⋙ रजिस्टर्ड
वि० [अं०] जिसकी लिखा पढ़ी पक्की हो। रजिस्टर में लिखा हुआ। जिसकी रजिस्ट्री कराई गई हो।
⋙ रजिस्ट्रार
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह अफसर जिसका काम लोगों के लिखित प्रतिज्ञापत्रों या दस्तावेजों की कानून के मुताबिक रजिस्ट्री करना अर्थात् उन्हें सरकारी रजिस्टर में दर्ज करना हो। २. वह उच्च कर्मचारी या अफसर जो किसी विश्व- विद्यालय में मंत्री का काम करता हो। जैसे,—हिंदू विश्व- विद्यालय के रजिस्ट्रार।
⋙ रजिस्ट्रेशन
संज्ञा पुं० [अं०] रजिस्टर में दर्ज होना।
⋙ रजीडंट
संज्ञा पुं० [अं० रेजि़डेंट] दे० 'रेजिडेंट'।
⋙ रजील
वि० [अ० रजी़ल] १. छोटी जाति का। नीच। जैसे, रजील कौम। २. पाजी। कमीना। शोहदा।
⋙ रजु पु
संज्ञा स्त्री० [सं० रज्जु] दे० 'रज्जु'। उ०—(क) सोभा रजु मंदरु सिंगारू।—मानस, १।२४७। (ख) जसुमति रिस करि करि रजु करपै। - सूर०, १०।३४२।
⋙ रजोकुल पु
संज्ञा पुं० [सं० राजकुल] राजवंश। राजघराना। उ०—राजाति राज रजोकुल में अति भाग सुहागिनी राज- दुलारी।—(शब्द०)।
⋙ रजोगुण
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकृति का वह स्वभाव जिससे जीव- धारियों में भोग विलास तथा दिखावे की रुचि उत्पन्न होती है। रजगुण। राजस। विशेष—यह सांख्य के अनुसार प्रकृति के तीन गुणों में से एक है जो चंचल और भोग विलास आदि में प्रवृत्त करानेवाला कहा गया है। विशेष दे० 'गुण'।
⋙ रजोगोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार वशिष्ठ के एक पुत्र का नाम।
⋙ रजोदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों का मासिक धर्म। ऋतुस्राव। रजस्वला होना।
⋙ रजोधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों का मासिक धर्म।
⋙ रजोवल
संज्ञा पुं० [सं०] अंधकार। अँधेरा [को०]।
⋙ रजोभक
संज्ञा पुं० [सं०] बुरी बात से रोकनेवाला। निषिद्ध कर्म करने पर सावधान करनेवाला (स्मृति)।
⋙ रजोमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा [को०]।
⋙ रजोरस
संज्ञा पुं० [सं०] अँधकार। अँधेरा।
⋙ रजोहर
संज्ञा पुं० [सं०] रजक। धोबी [को०]।
⋙ रज्जाक पु
संज्ञा पुं० [अ० रज्जा़क] रिज्क या रोजी देनेवाला।ईश्वर। उ०—यह सब आलस तेरा तूँ रज्जाक सभों केरा।—दक्खिनी०, पृ० ५२।
⋙ रज्जु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रस्सी। जेवरी। २. घोड़े की लगाम की डोरी। बागडोर। ३. स्त्रियों के सिर की चोटी। वेणी। ४. जैनियों के अनुसार समस्त विश्व की ऊँचाई का १/१ ४वाँ भाग। राजू।
⋙ रज्जुकंठ
संज्ञा पुं० [सं० रज्जुकण्ठ] एक प्राचीन आचार्य का नाम।
⋙ रज्जुदालक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का जलचर पक्षी जिसका मांस खाने का शास्त्रकारों ने निषेध किया है।
⋙ रज्जुबाल
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार एक प्रकार का पक्षी। रज्जुदालक।
⋙ रज्म
संज्ञा पुं० [अ० रज़म] संग्राम। रण। जंग। युद्ध [को०]।
⋙ रझना †
संज्ञा पुं० [सं० रन्धन या रञ्जन] रँगरेजों का वह पात्र जिसमें वे रँगे हुए कपड़े में का रंग निचोड़ते हैं।
⋙ रटंत
संज्ञा स्त्री० [हिं० रटना + अंत (प्रत्य०)] रटने की क्रिया का भाव। रटाई।
⋙ रटंती
संज्ञा स्त्री० [सं० रटन्ती] माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी जो एक पुण्य तिथि समझी जाती है। विशेष—इस दिन सूर्योदय के समय स्नान एवं तर्पण करने का बहुत माहात्म्य कहा गया है। वृहतन्नीलतंत्र और कालिका- पुराण आदि के अनुसार इस दिन तांत्रिक लोग भगवती तारा और मुंडमालिनी कालिका का पूजन करते हैं।
⋙ रट
संज्ञा स्त्री० [हिं० रटना] किसी शब्द का बार बार उच्चारण करने की क्रिया। जैसे,—तुमने तो 'लाओ', 'लाओ' की रट लगा दी है। उ०—(क) राम राम रटु बिकल भुआलू।—तुलसी (शब्द०)। (ख) केशव वे तुहि तोहि रटै रट तोहिं इतै उनही की लगी है। - केशव (शब्द०)। (ग) जैसी रट तोहिं लागी माधव की राधे ऐसी, राधे राधे राधे रट माधवै लगी रहै।— पद्माकर (शब्द०)। क्रि० प्र०—मचाना। लगना।—लगाना।
⋙ रटन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० रटना] रटने की क्रिया या भाव। रट।
⋙ रटन पु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कहना। बोलना।
⋙ रटनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रटना] रटने की क्रिया। रट। रटन। उ०—चातकु रटनि घटें घटि जाई।—मानस, २।२०४। (ख) तव कटु रटनि करौं नहिं काना। - मानस, ६।२४।
⋙ रटना
क्रि० स० [अनु०] १. किसी शब्द को बार बार कहना। उ०— (क) जानि यह केशोदास अनुदिन राम राम रटत न डरत पुनरुक्ति को।—केशव (शब्द०)। (ख) असगुन होहिं नगर पैसारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा।—तुलसी (शब्द०)। २. जवानी याद करने के लिये बार बार उच्चारण करना। जैसे,—इन शब्दों का अर्थ रट डालो। संयो० क्रि०—डालना।—लेना। ३, बार वार शब्द करना। बजना। उ०—कटि तट रटति चारु किंकिनि रव अनुपम वरनि न जाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ रठ †
वि० [?] रूखा। शुष्क। उ०—मेरी कही मान लीजे आजु मान माँगे दीजे चित हित कीजै तत तीजै रोस रठु है।— रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ रठकठ पु
वि० [देश० रठ (= शुष्क) + हिं० काठ] उकठे काठ की तरह। जड़। शुष्क। उ०—सो सठ रठकठ मति का हीना। साधु संगति नहिं चीन्हें विहीना।—संत० दरिया, पृ० ३८।
⋙ रड्डना पु †
क्रि० अ० [सं० रटन, हिं० ररना] चिल्लाना। चीखना। उ०—दोउ ओर उमग्गैं समर सु रड्डै वढ़ि बढ़ि तंडैं नख खंडैं।—ह० रासो, पृ० १३४।
⋙ रढ़ना पु
क्रि० स० [हिं० रट] १, दे० 'रटना'। उ०—जब पाहन भे बनवाहन से उतरे बनरा जै राम रढ़ै।—तुलसी (शब्द०)। २, बहकाना। फुसलाना। उ०—पुनि पीवत ही कव टकटोरत झूठहिं जननि रढ़ै। सूर निरखि मुख हँसति जसोदा सो सुख उर न कढ़ै।—सूर०, १०।१७४।
⋙ रढ़िया †
संज्ञा स्त्री० [देश० या राढ़ (देश)?] एक प्रकार की देशी कपास जो साधारण कोटि की होती है।
⋙ रण
संज्ञा पुं० [सं०] १, लड़ाई। युद्ध। जंग। यौ०—रणकर्म = युद्ध। लड़ाई। संग्राम। रणकामी = युद्धेप्सु। युद्ध का इच्छुक। रणकारी = युद्ध करनेवाला। रणक्षिति, रणक्षोणी = दे० 'रणक्षेत्र'। रणक्षेत्र। रणधीर। रणभूमि। रणस्थल। २, रमण। ३, शब्द। ४, गति। ५, दुंवा नामक भेड़ा जिसकी दुम मोटी और भारी होती है।
⋙ रणक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह भूमि जहाँ युद्ध हो। लड़ाई का मैदान।
⋙ रणखेत पु
संज्ञा पुं० [सं० रणक्षेत्र] दे० 'रणक्षेत्र'।
⋙ रणगोचर
वि० [सं०] युद्धसंलग्न। संग्राम में लगा हुआ [को०]।
⋙ रणछोड़
संज्ञा पुं० [सं० रण + हिं० छोड़ना] श्री कृष्ण का एक नाम। विशेष—जरासंघ की चढ़ाई के समय श्रीकृष्ण रणभूमि त्याग कर द्वारक की ओर चले गए थे, इसी से उनका यह नाम पड़ा है।
⋙ रणतृर्य
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाई का बाजा। मारू बाजा [को०]।
⋙ रणत्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १, झनझनाहट। २, गूँज [को०]।
⋙ रणदुंदुभी
संज्ञा पुं० [सं० रण + दुन्दुभि] दे० 'रणतूर्य'।
⋙ रणन
क्रि० अ० [सं०] शब्द करना। बजना।
⋙ रणंपंडित
संज्ञा पुं० [सं० रणपंण्डित] १, योद्धा। वीर। २, युद्ध में कुशल व्यक्ति [को०]।
⋙ रणप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १, विष्णु। २. बाजपक्षी। ३. खस।
⋙ रणभू, रणभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ युद्ध हो। लड़ाई का मैदान।
⋙ रणमंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० रण + मण्डन] पृथ्वी। (डिं०)।
⋙ रणमद
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध का नशा। रणोन्माद।
⋙ रणमत्त
संज्ञा पुं० [सं०] १, हाथी। २, वह जो युद्ध में मत्त हो।
⋙ रणमार्ग कोविद
वि० [सं०] युद्ध की कला में प्रवीण [को०]।
⋙ रणमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. लड़ाई का अगला मोरचा। २. सेना का अग्रभाग [को०]।
⋙ रणमुष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] कुचिला।
⋙ रणरंक
संज्ञा पुं० [सं० रणण्ड्क] हाथी के बाहरी दोनों दाँतों के बीच का भाग।
⋙ रणरंग
संज्ञा पुं० [सं० रणरङ्ग] १, लड़ाई का उत्साह। उ०— कुंभकरण दुर्मद रणरंगा।—तुलसी (शब्द०)। २. युद्ध। लड़ाई। ३. युद्धक्षेत्र।
⋙ रणरंता पु
वि० [सं० रण + रत] युद्ध में अनुरक्त। युद्ध में लगा हुआ। उ०—मुनिगण प्रतिपालक रिपुकुल घालक बालक ते रणरंता।—केशव (शब्द०)।
⋙ रणरण
संज्ञा पुं० [सं०] १, व्यग्रता। घबराहट। व्याकुलता। २, खेद। पछतावा। रंज। ३. मच्छड़। मशक (को०)।
⋙ रणरणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव का एक नाम। २, प्रबल कामना। उत्कंठा। ३, व्यग्रता। घबराहट। ४. प्रेम। प्रीति (को०)।
⋙ रणरसिक
वि० [सं०] युद्धप्रेमी [को०]।
⋙ रणलक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] युद्ध की देवी जो विजय करानेवाली मानी जाती है। विजयलक्ष्मी।
⋙ रणवाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाई का वाजा। रणतूर्य।
⋙ रणवास पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रनिवास] दे० 'रनिवास'। उ०— निठुर वचन मुख तैं जु कहि। तनि रणवास रिसाय।—ह० रासो, पृ० १२०।
⋙ रणवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] सैनिक। योद्धा।
⋙ रणशिक्षा
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध करने की शिक्षा [को०]।
⋙ रणशूर
संज्ञा पुं० [सं०] युद्धवीर। योद्धा [को०]।
⋙ रणशौंड
वि० [सं० रणशौड] युद्धकुशल। संग्राम करने में दक्ष [को०]।
⋙ रणसंकुल
संज्ञा पुं० [सं० रणसङ्कुल] घमासान लड़ाई। घनघोर संग्राम। भयंकर युद्ध [को०]।
⋙ रणसज्जा
संज्ञा स्त्री० [सं० रण + हिं० रज्जा] युद्ध की तैयारी [को०]।
⋙ रणसहाय
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाई में मददगार, मित्र [को०]।
⋙ रणसिंधा
संज्ञा पुं० [सं० रण + हिं० सिंघा] तुरही। नरसिंधा।
⋙ रणसिंहा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'रणसिंधा'। उ०—रणसिंहों का जो शब्द होता था, सो अति हो सुहावना लगता था।— लल्लूलाल (शब्द०)।
⋙ रणस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० रणस्तम्भ] वह स्तंभ जो किसी रण में विजय प्राप्त करने के स्मारक में बनवाया जाता है। विजय का स्मारक।
⋙ रणस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाई का मैदान। रणभूमि।
⋙ रणस्वामी
संज्ञा पुं० [सं० रणस्वामिन्] १. शिव। महादेव। २. युद्ध का प्रधान संचालक या सेनापति।
⋙ रणहंस
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्ण वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सगण, जगण, भगण, और रगण होते हैं। इसको 'मनहंस', 'मानहंस' और 'मानसहंस' भी कहते हैं।
⋙ रणांग
संज्ञा पुं० [सं० रणाङ्ग] हथियार। शस्त्रास्त्र [को०]।
⋙ रणांगण
संज्ञा पुं० [सं० रणाङ्गण] लड़ाई का मैदान। युद्धक्षेत्र।
⋙ रणांतकृत
संज्ञा पुं० [सं० रणान्तकृत्] विष्णु [को०]।
⋙ रणाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] सेनामुख। लड़ाई का अग्रिम मोरचा।
⋙ रणाजिर
संज्ञा पुं० [सं०] युद्धक्षेत्र। लड़ाई का मैदान।
⋙ रणि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रैन] रात्रि। रात। (डिं०)।
⋙ रणित
संज्ञा पुं० [सं०] झनझनाहट। रणत्कार [को०]।
⋙ रणेचर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ रणेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु।
⋙ रणेस्वच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] कुक्कट। मुर्गा [को०]।
⋙ रणोत्कट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम। २. एक दैत्य का नाम।
⋙ रणोत्कट (२)
वि० जो रम में संमिलित होने या रण ठानने के लिये उन्मत्त हो रहा हो।
⋙ रणोत्साह
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध संबंधी उत्साह। युद्धोत्साह [को०]।