रांकव
संज्ञा पुं० [सं० राङ्कव] १. मृगों के रोएँ से बना हुआ कपड़ा आदि। २. पशम। नरम ऊन।

रांडीर
संज्ञा पुं० [सं० राण्डीर] राँड को ओलाद। एक गाली [को०]।

राँक
वि० [सं० रड्क] दे० 'रंक'। उ०—राँकनि नाकप रीझि करै तुलसी जग जो जुरै जाँचक जोरो।—तुलसी (शब्द०)।

राँकण †
संज्ञा स्त्री० [हि० रंक] एक प्रकार की भूमि जिसमें बहुत कम अन्न पैदा होता है। ऐसी भूमि बहुधा कंकरीली और ऊँचा नीची हुआ करती है।

राँग (१)
संज्ञा पुं० [सं० रड्न हि० राँग] दे० 'राँगा'।

राँग † (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० रंग] किसी फूल पत्ती आदि को पीसकर निकाला हुआ रस। स्वरस। जैसे—सेम का राँग। तुलसी का राँग।

राँगड़ी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का चावल जो पंजाब नें पैदा होता है।

राँगा
संज्ञा पुं० [सं० रड्गा] एक प्रसिद्ध धातु। त्रपु। विशेष—वह बहुत नरम ओर रंग में सफेद होती है। यह पीटकर पत्तर के रूप नें की जा सकती है। यह प्रायः कई दूसरे पदार्थो के साथ पहाड़ों को दरारों तथा नदियों के किनारे पाई जाती है। यह भारत में केवल बरमा में मिलती है; ओर मलाया प्रायद्वीप तथा आस्ट्रेलिया आदि में बहुत मिलती बै। यह बहुत साधारण आँच पाकर भी गल जाती है; इसीलिये इसका व्यवहार प्रायः फूल ओर भरत आदि मिश्रित धातुएं बनाने में होता है। ताँबे के बरतनों पर इसी धातु से कलई की जाती है जिससे इसे कलई भी कहते हैं। वैद्यक में इस कटु, तिक्त, शीतल, कपाय, लवण रस और मेह, कृमि, पांडु तथा दाह आदि का नाशक, कांतिवर्धक और रसायन माना है। इसे शोधकर ओर भस्म बनाकर अनेक प्रकार के रोगों में देते हैं। पर्या०—रंग। वंग। त्रपु। नाग। त्रपुप। मधुर। हिम। पूतिगंध कुरूप्य। स्वर्णज। कुरुपत्री। तमर। नागजीवन। चक्र। स्ववेत।

राँच पु †
अव्य० [हि० रंच] दे० रंच। उ०—झूठ बोत थिर रहै न राँटा। पंडीत सोई वेद मत साँचा।—जायसी (शब्द०)।

राँचना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० रञ्डन] १. अनुरक्त होना। प्रेम करना। चाहना। उ०— (क) मन काँच नाँचे वृथा साँचे राँच राम।—बिहारी (शब्द०)। (ख) मन जाहि राँचो मिलहि सो वर सहज सुंदर साँवरो।—तुलसी (शब्द०)। २. रंग पकड़ना।

राँचना पु (२)
क्रि० स० [सं० रक्डन] रंग चढ़ाना। रँगना। उ०— जो मजीठ औटै बहु आँचा। सो रंग जनम न डोलै राँचा।—जायसी (शब्द०)।

राँजना † (१)
क्रि० अ० [रञ्सन] (आँख में) काजल लगाना।

राँजना (२)
क्रि० स० रंजित करना। रँगना।

राँजना (३)
क्रि० स० [हिं० राँगा] फूटे हुए बरतन को राँगे से जोड़ना। राँगे से टाँका लगाना।

राँटा † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] टिटिहरि चिड़िया। टिट्टिभ। उ०—झिल्ली ते रसीली जीली रँटे हू की रट लीली, स्यार तें सवाई भूत- भावनी ते आगरी।—केशव (शब्द०)।

राँटा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० रहँटा] दे० 'रहँटा'।

राँटा (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] चोरों की सांकेतिक भाषा।

राँड़
वि० स्त्री० [सं० रण्डा] १. जिसका पति मर गाया हो ओर पुनर्विवाह न हुआ हो। विधावा। बेवा। २. रंडी। वेश्या। कसबी। (क०)। क्रि० प्र०—करना।—रखना।

राँढ़
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का चावल जो बंगला में अधिकता से होता है।

राँढ़ना †
क्रि० स० [सं० रुदन] विलाप करना। रोना। उ०— कोई औगुन मन बसा चित तें धरा उतार। दादू पति बिन सुंदरी राँढइ घर घर बार।—दादू (शब्द०)।

राँध
संज्ञा पुं० [सं० परान्त (=दूसरी ओर)] १. निकट। पास। समीप। उ०—(क) अनु रानी हौं रहतेउ राँधा। कैसे रहउ बचा कर बाँधा।—जायसी (शब्द०)। (ख) एहि डर राँध न बैठों मकु साँवरि होइ जाउँ।—जायसी (शब्द०)। २. पड़ोस। पार्श्व। बगल। यौ०—राँधपड़ोस, राँधपड़ोसी।

राँधना
क्रि० स० [सं० रन्धन] (भोजन आदि) पकाना। पाक करना। जैसे,—दाल राँधना, चावल राँधना। उ०—विविध मृगन कर आमिष राँधा।—तुलसी (शब्द०)।

राँधपड़ोस †
संज्ञा पुं० [हिं० राँध (=पास) +पड़ोस] आसपास। पड़ोस। पार्श्व का स्थान। प्रतिवेश।

राँपी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पलती खुरपी के आकार का मोचियों का एक औजार जिससे वे चमड़ा तराशते, काटते ओर साफ करते हैं। रापी।

राँभना
क्रि० अ० [सं० रम्भण] (गाय का) बोलना या चिल्लाना। बँबाना। उ०—(क) तव पृथ्वी दुख पाय घबराय गाय रूप बनाय राँभती राँभती देवलोक मे गई।—लल्लू (शब्द०)। (ख) तमचुर खगरोर सुनहु बोलत वनराई। राँभति गो खरिकन में वछरा हित धाई।—सूर (शब्द०)।

राआ पु †
संज्ञा पुं० [सं० राजा, प्रा० राआ] दे० 'राजा'।

राइ
संज्ञा पुं० [सं० राजा, प्रा० राया] छोटा राजा। राय। सरदार। उ०—(क) पउरिहि पउरि सिंह गढ़ि काढे़। डरपहिं राइ देखि तिन्ह ठाढे़।—जायसी (शब्द०)।

राइता
संज्ञा पुं० [हिं० रायता] दे० 'रायता'।

राइफल
संज्ञा स्त्री० [अं०] घोडे़दार बंदूक। बड़ी बंदूक।

राइरंगा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'रामदाना'।

राई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० राजिका, प्रा० राईआ] १. एक प्रकार की बहुत छोटी सरसों। २. बहुत थोड़ा मावा या परिमाण। मुहा०—राई भर=बहुत थोड़ा। राई रत्ती करके=छोटी से छोटी रकम या तौल के हिसाब से। राई नोन उतारना=नजर लगे हुए बच्चे पर उतारा करके राई ओर नमक को आग में डालना, जिससे नजर के प्रभाव का दूर होना माना जाता है। राई ते पर्वत करना=थोड़ी बात को बहुत बढ़ा देना। उ०—अविगति गति जानी न परै। राई ते पर्वत करि डारै राई मेरु करै।— सूर (शब्द०)। राई काई करना =टुकडे़ टुकडे़ कर डालना। राई काई होना =टुकड़े टुकडे़ होना। उ०—अजुर्न ने ऐसे पवन बाण मारे कि बादल राई काई हो यों उड गए, जैसे रूई के पहल पवन के झोंक से।—लल्लू (शब्द०)। तेरी आँखों में राई नोन =ईश्वर करे, तेरी वुरी डोठ मुझे न लगे। राई से पर्वत करना =छोटी बात को बहुत बढ़ा देना। राई लीन उतारना =दे० राई नाई नीन उतारना। उ०—(क) हिरण्याक्ष अरु हिरनकशिपु भट आदिक जेइ संहारयो। ताहि प्रेत बाधा वारन हित राई लोना उतारयो।—रघुराज (शब्द०)। (ख) कबहूँ अंग भूषण बनवावति राई लोन उतारि।—सूर (शब्द०)। (ग) यशुमति माय धाय उर लीन्हों राई लोन उतारो।—सूर (शब्द०)।

राई पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० राई] राजा होने का भाव। राजापन। राजसी।

राई पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० राजा] १. राजा। २. वह जो सबसे श्रेष्ठ हो। उ०—सुनु मुनि राई, जग सुखदाई। कहि अब सोई, जेहि यश होई।—केशव (शब्द०)।

राउंड
वि० [अ०] गोल। वर्तुल। चक्राकार।

राउंड
संज्ञा पुं० १. वर्तुलाकर वस्तु। वृत्त। वलय। घेरा। २. चक्र। चक्कर। दोर। फेरा। वारी [को०]।

राउंड टेबुल कान्फरेंस
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह सभा या संमेलन जिसमें एक गोल मेज के चारों ओर राजपक्ष तथा देश के भित्र भिन्न मतों और दलों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ बैठकर किसी महत्व के विषय पर विचार करें। गोलमेज कान्फरेंस।

राउ पु
संज्ञा पुं० [सं० राजा, प्रा० राय, राव] राजा। नरेश। उ०—राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुवेष महामुनि जाना।—तुलसी (शब्द०)।

राउत †
संज्ञा पुं० [सं० राज+पुत्र प्रा० राअउत] १. राजवंश का कोई व्यक्ति। २. क्षत्रिय। ३. वीर पुरुष। बहादुर। उ०— राढऊ राउत होत फिरे कै जूझे।—तुलसी (शब्द०)।

राउर पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० राज+पुर प्रा० राय, राअ+उर] राजाओं के महल का अंतःपुर। रनवास। जनानखाना। उ०—(क) जब राउर में रघुनाथ गए। बहुधा अवलोकत शोभ भए।—केशव (शब्द०)। (ख) भयो कुलाहल अवध आति सुनि नृप राउर सोर।—तुलसी (शब्द०)। (ग) गे सुमंत तब राउर माहीं।—तुलसी (शब्द०)।

राउर † (२)
वि० [हि०] श्रीमान का। आपका। उ०— (क) जो राउर आयसु मे पाउँ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सब कर हित रुख राउर राखे।—तुलसी (शब्द०)।

राउल पु †
संज्ञा पुं० [सं० राजकुल] १. राजकुल में उत्पन्न पुरुष। २. राजा।

राकस पु †
संज्ञा पुं० [सं० राक्षस] [स्त्री० राकसिन, राकसिनि] राक्षस। उ०—राकस वंस हमें हतने सब। काज कहा तिनसों हमसे अब।—केशव (शब्द०)। (ख) राजैं कहा रे राकस जानि बूझि वौरासि।—जायसी (शब्द०)।

राकसगद्दा
संज्ञा पुं० [हि० राकस+गद्दा] कदंब नाम की वेल और उसकी जड़ जो पंजाब, सिध, गुजरात ओर लंका में पाई जाती हैं। विशेष—इसकी जड़ औषधि के काम में आती है। इसके खाने से दस्त और कै होती है। गर्मी के रोगी को इसका रस पिलाया जाता है और गठिया के रोगी की गाँठ पर इसका लेप चढ़ाया जाता है।

राकसताल
संज्ञा पुं० [ही० राकस+ताल] तिब्बत में कैलास के उत्तर ओर को एक झील का नाम, जिसे रावणह्रद ओर मान- तलाई भी कहते हैं।

राकसपत्ता
संज्ञा पुं० [हि० राकस (=राक्षस)+हि० पत्ता] जंगली कुँबार जिसे काँटल और बबूर भी कहते हैं।

राकसिन, राकसिनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० राकस+इन, इनि (प्रत्य०)] राक्षसी। निशाचरी। उ०—खायो हुतो तुलसी कुरोग राँड राकसिनि, केसरीकिसोर राखे बीर बरियाई है।—तुलसी (शब्द०)।

राका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूर्णिमा की रात। २. पूर्णमासी। ३. खुजली का रोग। ४. वह स्त्री जिसको पहले पहल रजो- दर्शन हुआ हो। ५. चंद्रमा। (डिं०)। ६. खर और सूर्पणखा की माता का नाम। ७. एक नदी (क०)।

राकाचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० राकचन्द्र] दे० 'राकापती' [को०]।

राकापति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। उ०—राकापति पोडस उअहि तारा गन समुदाइ।—मानस, ७। ७८।

राकारमण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'राकापति' [को०]।

राकेश
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

राक्षस
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० राक्षसी] १. निशाचर। दैत्य। असुर। २. कुबेर के धनकोश के रक्षक। ३. कोई दुष्ट प्राणी। ४. साठ संवत्सरों में से उनचासवाँ संवत्। ५. वैद्यक में एक रस जो पारे और गंधक के योग से बनता है। विशेष—यह रस पेट की बादी दूर करता और भूख बढ़ाता है।६. एक प्रकार का विवाह जिसमें कन्या के लिये युद्ध करना पड़ता है। यौ०—राक्षस विवाह=विवाह का एक प्रकार जिसमें युद्ध में कन्या का हरण करके बिवाह करते हैं। जैसे,—कृष्ण रुकिमणी और पृथ्वीराज संयोगिता का बिवाह। ७. ज्योतिष में एक योग का नाम (को०)। ८. तीसवाँ मुहूर्त (को०)। ९. राजा नंद का एक अमात्य ब्राह्मण जो कूटनीति कै बहुत बड़ा ज्ञाता था।

राक्षसघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीरामचंद्र का नाम।

राक्षसपति
संज्ञा पुं० [सं० राक्षस+पति] रावण। उ०—सिगरे नरनायक, असुर विनायक राक्षसपति हिय हारि गए।—केशव (शब्द०)।

राक्षसेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० राक्षसेन्द्र] रावण [को०]।

राक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाक्षा। (अव्युत्पन्न प्रयोग)।

राख
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्षा ? या सं० क्षार > खार (वर्णव्यत्यय से, > राख)] किसी बिलकुल जले हुए पदार्थ का अवशेष। भस्म। खाक। जैसे, कोयले की राख।

राखडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का आभूषण [को०]।

राखना पु †
क्रि० स० [सं० रक्षण] १. रक्षा करना। बचाना। उ०—जाको राखै साइयाँ मारि न सकिहै कोइ।—कबीर (शब्द०)। २. मानना। पालन करना। पालना। उ०—जो हठ राखै धरम की तेहि राखै करतार।—(शब्द०)। ३. पेड़ या फसल को जानवरों या चिड़ियों के खाने या लोगों के लेने से बचाना। रखवाली करना। उ०—खेत खरी राखे खरी खरे उरोजन बाल —बिहारी (शब्द०)। ४. छिपाना। कपट करना। उ०—कछु तेहि ते पुनि मैं नहि राखा। समुझइ खग खग ही की भाखा।—तुलसी (शब्द०)। ५. रोक रखना। जाने न देना। ठहराना। उ०—जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी।—तुलसी (शब्द०)। ६. आरोप करना। बताना। उ०—तहाँ वेद अस कारन राखा। भजन प्रभाव भाँति बहु भाखा।—तुलसी (शब्द०)। ७. दे० 'रखना'

राखी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रक्षा] वह मंगलसूत्र जो कुछ विशिष्ट अवसरों पर, विशेपतः श्रावणी पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण या और लोग अपने यजमानों अथवा आत्मीयों के दाहिने हाथ की कलाई पर बाँधते हैं। रक्षाबंधन का डोरा। रक्षा।

राखी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० राख+ई (प्रत्य०)] दे० 'राख'।

राग
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी इष्ट वस्तु या सुख आदि को प्राप्त करने की इच्छा। प्रिय या आभमत वस्तु का प्राप्त करने की आभिलापा। प्रिय या सुखद वस्तु की ओर आकर्षण या प्रवृत्ति। सांसारिक सुखों की चाह। विशेष—पतंजलि ने इसे पाँच प्रकार के क्लेशों में से एक प्रकार का क्लेश माना है। उनके मत से जो व्यक्ति सुख भोगता है, उसकी प्रवृत्ति और अधिक सुख प्राप्त करने की ओर होती हे; और इसी प्रवृति का नाम उन्होंने राग रखा हे। इसका मूल आवेद्या ओर परिणाम क्लेश है। २. क्लेश। कष्ट। पीड़ा। तकलीफ। ३. मत्सर। ईर्ष्या। द्वेष। ४. अनुराग। प्रेम। प्रीति। उ०—सो जन जगत जहाज है, जाके राग न द्वेष।—तुलती (शब्द०)। ५. चंदन, कपूर, कस्तूरी आदि से बना हुआ अंग में लगाने का सुगंधित लेप। अंगराग। उ०—कौन करै होरी कोई गोरी समुझावै कहा, नागरी को राग लाग्यो विष सो बिराग सों। कहर सी केसर कपूर लाग्यो काल सम गाज सो गुलाब लाग्यो अरगजा आग सो।—पद्माकर (शब्द०)। ६. एक वर्णवृत जिसके प्रत्येक चरण में १३ अक्षर (र, ज, र, ज और ग) होते हैं। ७. रंग, विशेषतः लाल रंग। जैसे,—लाख आदि का। ८. मन प्रसन्न करने की क्रिया। रंजन। ९. राजा। १०. सूर्य। ११. चंद्रमा। १२. पैर में लगाने का अलता। १३. संगीत में पड़ज आदि स्वरों, उनके वर्णों और अंगों से युक्त वह ध्वनि जो किसी विशिष्ट ताल में बैठाई हुई हो ओर जो मनोरंजन के लिये गाई जाती हो। किसी खास धुन में वैठाए हुए स्वर जिनके उच्चारण से गान होता हो। विशेष—संगीत शास्त्र के भारतीय आचार्यों ने छह् राग माने है; परतु इन रागों के नामों के संबंध में बहुत मतभेद है। भरत और हनुमत के मत से ये छह राग इस प्रकार हैं—भैरव, कौशिक (मालकोस), हिंडेल, दीपक, श्री ओर मेघ। सोमेश्वर ओर ब्रह्मा के मत से इन छह रागों के नाम इस प्रकार हैं— श्री, वसंत, पंचम, भैरव, मेघ और नटनारायण। नारद- संहिता का मत है कि मालव, मल्लार, श्री, वसंत, हिंडोल और कर्णाट ये छह राग हैं। परंतु आजकाल प्रायः ब्रह्मा ओर सोमेश्वर का मत ही अधिक प्रचलित है। स्वरभेद से राग तीन प्रकार के कहे गए हैं—(१) संपूर्ण, जिसमें सातो स्वर लगते हों; (२) षाड़व, जिसमें केवल छह स्वर लगते हों और कोई एक स्वर वर्जित हो; और (३) ओड़व, जिसमे केवल पाँच स्वर लगते हों और दो स्वर वर्जित हों। मतंग के मत से रागों के ये तीन भेद हैं— (१) शुद्ध, जो शास्त्रीय नियम तथा विधान के अनुसार हो और दो जिसमें किसी दूसरे राग की छाया न हो; (२) सालंक या छायालग, जिसमें किसी दूसरे राग की छाया भी दिखाई देती हो, अथवा जो दो रागों के योग से बना हो; और (३) संकीर्ण, जो कई रागों के योग से बना हो। संकीर्ण को 'संकर राग' भी कहते हैं। ऊपर जिन छह रागों के नाम बतलाए गए हैं, उनमें से प्रत्येक राग का एक निश्चित सरगम या स्वरक्रम है; उसका एक विशिष्ट स्वरूप माना गया है; उसके लिये एक विशिष्ट ऋतु, समय और पहर आदि निश्चित है; उसके लिये कुछ रस नियत है; तथा अनेक ऐसी बातें भी कही गई है; जिनमें से अधिकांश केवल कल्पित ही हैं। जैसे, माना गया है कि अमुक राग का अमुक द्विप या वर्ष पर अधिकार है, उसका अधिपति अमुक ग्रह है, आदि। इसके अतिरिक्त भरत और हनुमत के मत से प्रत्येक राग की पाँच पाँचरागिनियाँ और सोमेश्वर आदि के मत से छह छह रागिनियाँ हैं। इस अंतिम मत के अनुसार प्रत्येक राग के आठ आठ पुत्र तथा आठ आठ पुत्रवधुएँ भी हैं (विशेष दे० 'रागिनी'-४)। यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय् तो राग और रागिनी में कोई अंतर नही है। जो कुछ अंतर है, वह केवल कल्पित है। हाँ, रागों में रागिनियों की अपेक्षा कुछ विशेषता और प्रधानता अवश्य होती है और रागनियाँ उनकी छाया से युक्त जान पड़ती हैं। अतः हम रागनियो को रंगों के अवातर भेद कह सकते है। इसके सिवा और भी बहुत से राग हैं, जो कई रागो की छाया पर अथवा मेल से बनते हैं और 'संकर राग' कहजाते हैं। शुद्ध रागों की उत्पत्ति के संबंध में लोगों का विश्वास है कि जिस प्रकार श्रीकृष्ण की वंशी के सात छेदों में से स त स्वर निकले हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण जी की १६०८ गोपिकाओं के गाने से १६०८ प्रकार के राग उत्पन्न हुए थे; और उन्हीं में से बचते बचते अंत में केवल छह राग और उनकी ३० या ३६ रागिनियाँ रह गईं। कुछ लोगों का यह भी मत है कि महादेव जी के पाँच मुखीं से पाँच राग (श्री, वसंत, भैरव, पंचम और मेघ) निकले हैं और पार्वती के मुख से छठा नटनारायण राग निकला है। मुहा०—अपना राग अलापना=अपनी ही बात कहना। अपना ही विचार प्रकट करना, दूसरे की बातों पर ध्यान न देना।

रागखांडव
संज्ञा पुं० [सं० रागखाण्डव] दे० 'रागषाड़व'।

रागखाडव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकात का खाद्यपदार्थ। दे० 'रागपाड़व'।

रागचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. खैर का पेड़। ३. लाख। लाह (के०)। ४. अबीर। गुलाल (को०)।

रागच्छन्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. रामचंद्र।

रागदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्फटिक। सित मणि [को०]।

रागदालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मसूर [को०]।

रागद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] रँगने का सामान। रंग [को०]।

रागदृश्
संज्ञा पुं० [सं०] माणिक्य। लाल [क०]।

रागना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० राग+हि० ना (प्रत्य०)] १. अनुराग करना। अनुरक्त होना। २. रँग जाना। रंजित होना। ३. निमग्न हो जाना। उ०—सोमक स्याम करन रस रागि।—गोपाल (शब्द०)।

रागना (२)
क्रि० स० [सं० राग] गाना। अलापना। उ०—(क) या अनुराग की फाग लथो जहँ रागती राग किशोर किशोरी।— पद्माकर (शब्द०)। (ख) पैघी लंबित सतलरी पुही प्रेम रँग ताग। मनौ विपंची काम की रागति पंचम राग।—गुमान (शब्द०)। (ग) गहि कर बीन प्रबीन तिय राग्यो राग मलार।— बिहारी (शब्द०)।

रागपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बहुमूल्य पत्थर [को०]।

रागपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] वंधुजीव नामक पुष्प या उसका पौधा। गुलदुपहरिया।

रागपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवा।

रागप्रसव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रागपुष्प' [को०]।

रागभजन
संज्ञा पुं० [सं०] एक विद्याधर का नाम।

रागयुज्
संज्ञा पुं० [सं०] मानिक। माणिक्य [को०]।

रागरज्जु
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।

रागलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामदेव की स्त्री, रति।

रागलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल रेखा। रंग की लकीर।

रागविवाद
संज्ञा पुं० [सं०] गाली गलौज।

रागपाड़व
संज्ञा पुं० [सं० रागपाडव] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो अनार और दाख से बनता था। २. आम का मुरब्बा।

रागसारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मैनसिल।

रागाँगा
संज्ञा स्त्री० [सं० रागाड्गी] मजीठ।

रागा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नडुआ या मकरा नाम का कदन्न [को०]।

रागात्मक
वि० [सं०] प्रेम उत्पन्न करने या बढ़ानेवाला [को०]।

रागान्वित
वि० [सं०] १. रागयुक्त। जिसे राग या प्रेम हो। २. जिसे क्रोध हो।

रागारु
सं० [सं०] जो किसी को कुछ देने की आशा बंधाकर भी न दे।

रागाशनि
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धदेव।

रागिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विदग्धा स्त्री। २. मैना की बड़ी कन्या का नाम। ३. जयश्री नाम की लक्ष्मी। ४. संगीत में किसी राग की पत्नी या स्त्री। दे० 'राग'। विशेष—हनुमत और भरत के मत से प्रत्येक राग की पाँच पाच रागिनियाँ और सोमेश्वर आदि के मत से छह छह रागिनियाँ हैं। परंतु साधारणतः लोक में छह रागों की छत्तीस रागिनियाँ ही मानी जाती हैं। इस अंतिम मत के अनुसार प्रत्येक राग की रागिनियाँ इस प्रकार हैं। श्रीराग की भार्याएँ या रागिनियाँ—पालश्री, त्रिवणी, गौरी, केदारी, मधुमाधवी और पहाड़ी। वसंत राग की रागिनियाँ— देशी, देवगिरि, बैराटी, टौरिका, ललिता और हिंडोल। पंचम राग की रागिनियाँ—विभास, भूपाली, कर्णाटी, पठहंसिका, मालवी, और पटमंजरी। भैरव राग की रागिनियाँ—भैरवी, र्बगाली, सैंधवी, रामकेली, गुर्जरी और गुणकली। मेघ राग की रागिनियाँ—मल्लारी, सौरटी, सावेरी, कौशिकी, गांधारी और हरशृंगार। नटनारायण राग की रागिनियाँ—कामोदी, कल्याणी, आभीरी, नाटिका, सारंगा और हम्मोरी। अन्य मत से रागों की रागिनियाँ इस प्रकार हैं। भैरव—मध्यमादि (मधुमाधवी), भैरवी, बगाली, वरारी और सैंधवो। मालकोस— टीड़ी, खंबावती, गौरी, गुणकरी और ककुमा। हिडोल— बिलावती, रामकली, देसाख, पटमंजरी और लालत। दीपक— केदारी, करणाटी, देसी टौड़ी, कामोदी और नट। श्री—वसंत, मालवी, मालश्री, असावरी और धनाश्री। मेघ—गौड़मल्लारी, देसकार, भूपाली, गुर्जरी और श्रीरंक। कुछ लोगों के मत से रागिनियों के उक्त नामों में मतभेद भी है। इन छतीस रागिनियोंके अतिरिक्त और भी सैकड़ों रागिनियाँ हैं, जो प्रायः कई रागों और रागिनियों के मेल से बनती हैं, और जिन्हें संकर रागिनी कहते हैं।

रागी (१)
संज्ञा पुं० [सं० रागिनी] [स्त्री० रागिन्] १. अनुरागी। प्रेमी। २. मडुवा या मकारा नानक कदन्न। ३. छह मात्रावाले छंदों का नाम। ४. अशोक वृक्ष।

रागी (२)
वि० १. रँगा हुआ। २. लाल। सुर्ख। उ०—सुआई जहां दोखए वक्र रागी।—केशव (शब्द०)। ३. विषय वासना में फैसा हुआ। विषयासक्त। विरागा का उलटा। उ०— पयपावनि वन भूमि भलि सैत, सुहावन पीठि। रागिहिं सोठि विसेषि थलु, विषय विरागाहे मीठि।—तुलसी (शब्द०)। ४. रंजन करनेवाला। रंगनेवाला।

रागी पु ‡ (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० रानी] राजा की पत्नी। रानी। उ०—तौ लग रंग विभीषण के करु राज इहाँ गढ़ ह्वै पट रागी।—राम (शब्द०)।

राघव
संज्ञा पुं० [सं०] १. रघु के वंश में उत्पन्न व्यक्ति। २. श्री रामचंद्र। ३. दशरथ। ४. अज। ५. समुद्र में रहनेवाली एक प्रकार की बहुत बड़ी मछली।

राचना पु †
क्रि० स० [हि० रचना] रचना। बनाना। उ०— (क) बे चूने जग राचिया साई नूर निनार। तब आखिर के बखत में किसका करूँ दिदार।—कबीर (शब्द०)। (ख) कोटि इंद्र छिन ही में राचै छिन में करै बिनास। सूर रच्यो उनहीं को सुरपति मैं भूली तेहि आस।—सूर (शब्द०)। (ग) धनि धनि सूरदास के स्वामी अदभुत राच्यो राम।—सूर (शब्द०)। (घ) विशद विहंगन की वाणी राग राचती सी नाचती तरग ऐन आनंद बधाई सी।—पद्माकर (शब्द०)।

राचना पु (२)
क्रि० अ० रचा जाना। बनना।

राचना पु (३)
क्रि० अ० [सं० रज्जन] १. रँगा जाना। रंग पकड़ना। रंजित होना। उ०—प्रेम माने कछु सुधे न रही अँग रहे श्याम रँग राची।—सूर (शब्द०)। (ख) तो रस राच्यो आन बस, कझो कुटल मति कूर। जाभ निबौरी क्यों लगै, बौरी चाखि खजूर।—बिहारी (शब्द०)। (ग) राची भूमि हरित हरित तृण जालन सों बिच खात त्यों फहारन सो छहरात। देव स्वामी— (शब्द०)। २. अनुरक्त होना। प्रेम करना। उ०—(क) पर नारी के राचंने सूधो नरकै जाय। यम ताको छँडे़ नहीं कोटिन करै उपाय।—कबीर (शब्द०)। (ग) बिरचि मन बहुरि राच्यो आइ। टूटी जुरै बहुत जतननि करि तऊ दोष नहिं जाइ।—सूर (शब्द०)। (ग) वहाकि बड़ाई आपनी कत राचत मति भूल। बिन मधु मधुकर के हिए गडै़ न गुडहर फूल।—बिहारी (शब्द०)। ३. लीन होना। मग्न होना। डूबना। उ०—(क) जग जहदा में राचिया झूठे कुल की लाज। तन छीजैं कुल विनासिहै रटै न राम जहाज।—कबीर (शब्द०)। (ख) कछु कुल धर्म न जानई वाके रूप सकल जग राच्यो। बिनु देखे बिनु ही सुने ठगत न कोऊ बाच्यो।—सूर (शब्द०)। ४. प्रसन्न होना। उ०—(क) जय जय तिहुँ पुर जयमाल राम उर वरयैं सुमन सुर रूरे रूप राचहीं।—तुलती (शब्द०)। (ख) प्रमान मान नाचहीं। अमान मान राचहीं। समान मान पावहीं। विमान मान धावहीं।—केशव (शब्द०)। ५. शोभा देना। भला जान पड़ना। उ०—आँच न चद्रकला बिच राचत साँच न चारिन के चरसा में।—मतिराम (शब्द०)। ६. प्रभावान्वित होना। सोच में या चिता मे पड़ना। उ०—शोत उष्ण सुख दुख नहि मानै गानि भए कछु सोच न रैचै। जाइ समाइ सूर वा निधि में बहुरि न उलटि जगत में नाचै।—सूर (शब्द०)।

राछ
संज्ञा पुं० [सं० रक्ष] १. कारीगरों का औजार। उ०— क्या गुरु कोई घर का राछ है कि भला मिलो चाहै बुरा, परंतु प्राणी को अवश्य बना हो छोड़ना चाहिए।—श्रद्धाराम (शब्द०)। २. लकड़ी के अंदर का पक्का अंश। हीर। ३. जुलाहों के करघे में एक औजार जिसमें ताने का तागा ऊपर नीचे उठता और गिरता है। कंघी। विशेष—वह दो नरसलों का होता है जिसके बीच में ऊपर नीचे तागे बँधे होते हैं और जिनके बीच से ताने के तागे एक एक करके निकल जाते हैं। ४. बारात। जलूस। क्रि० प्र०—निकलना।—फिरना। मुहा०—राछ घुमाना = विवाह में वर को पालकी पर चढ़ाकर किसी जलाशय या कूएँ की परिक्रमा कराना। ५. चक्की के बीच का खूँटा जिसक चारों ओर ऊपर का पाट फिरता है। ६. लोहार का बड़ा हथौड़ा।

राछछ ‡
संज्ञा पुं० [सं० राक्षस, हिं० राछस] दे० 'राक्षस'।

राछबँधिया
संज्ञा पुं० [हिं० राछ+बाँधना] वह जुलाहा या आदमी जो राछ बाँधने का काम करता हो।

राछस पु †
संज्ञा पुं० [सं० राक्षस] दे० राक्षस।

राज (१)
संज्ञा पुं० [सं० राज्य] १. देश का अधिकार या प्रबंध। प्रजा- पालन की व्यवस्था। हुकूमत। राज्य। शासन। उ०—(क) सुख सोवें जो राज याके सब। दुख पैहैं सो सकल प्रजा अब।—सूर (शब्द०)। (ख) खान बलि अली अकबर अद् भुत राज, रावरो है अचल सुयश भीजियतु है।—गुमान (शब्द०)। मुहा०—राज करना = हुकूमत करना। प्रजापालन की व्यवस्था करना। उ०—मोहिं चलो वन सग लिएँ। पुत्र तुम्हें हम देखि जिएँ। अवधपुरी महँ गाज परै। कै अब राज भरत्थ करै।— केशव (शब्द०)। राज काज = राज्य का प्रबंध। राज्य का काम। उ०—(क) राज काज कुपथ कुसाज भोग रोग को है बेद बुधि विद्या वाय विवस बलकहीं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) राज काज कछु मन नहिं धरै। चक्र सुदर्शन रक्षा करै।— सूर (शब्द०)। राज देना = किसी को किसी देश के शासन काभार देना। किसी को कहीं का शासक बनाना। राज सिंहासन पर बैठाना। राज्य का अधिकार देना। उ०—दीन्हें मारि असुर हरि ने तब देवन दीन्हों राज। एकन को फगुआ इंद्रासन इक पताल को साज।—सूर (शब्द०)। राज पर बैठना = राज सिंहासन पर बैठना। राज्याधिकार पाना। उ०—जब से वैठे राज, राजा दसरथ भूमि में। सुख सोयो सुरराज, ता दिन ते सुरलोक में।—केशव (शब्द०)। राज भूँजना = राज्य का भोग करना। शासन करना। बहुत सुख भोगना। उ०—राजु कि भूँजव भरत पुर नृप कि जिइहिं बिनु राम।—मानस, २। ४९। राज रजना = (१) राज्य करना। (२) राजाओं का सा सुख भोगना। बहुत सुख से रहना। राजा रजाना = बहुत सुख देना। यौ०—राजपाट = (१) राजसिंहासन। (२) शासन। उ०—सिर पर धरि न चलोगे कोऊ अनेक जतन करि माया जारी। राजपाट सिंहासनन बैठे नोल पदम है सो कहे थोरी।—(शब्द०)। २. उताना भूमिमान जितना एक राजा द्वारा शासित होता ही। एक राजा द्वारा शासित देश। जनपद। राज्य। उ०—ऋषि राज तज्यों धन धान्य तज्यों सब। नारि तज्यों सुत सोच तज्यों तव।—केशव (शब्द०)। ३. पूरा अधिकार। खूब चलती। जैसे,—आजकल बाजार भर में आपका राज है। ४. अधिकार काल। समय। जैसे,—पिताजी के राज में सारा सुख भोग लिया। ५. देश। जनपद। उ०—एक राज महँ प्रगट जहँ द्वै प्रभु केशवदास। तहाँ बसत है रैनि दिन मूरातवंत विनाश।— केशव (शब्द०)।

राज (२)
संज्ञा पुं० [सं० राज् वा राजः] १. राजा। २. कोई श्रेष्ठ वस्तु। किसी वर्ग की सर्वश्रेष्ठ वस्तु। ३. वह कारीगर जो ईटों से दीवार आदि चुनता और मकान बनाता है। थवई। राजगीर।

राज (३)
वि० श्रेष्ठ। सर्वोच्च। जैसे, मणिराज, ग्रहराज आदि।

राज (४)
संज्ञा पुं० [फा० राज] रहस्य। भेद। गुप्त बात।

राजक (१)
वि० [सं०] दीप्तिकारक। चमकनेवाला।

राजक (२)
संज्ञा पुं० १. राजा। २. काला अगर।

राजकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इतिहास। तवारीख।

राजकदंब
संज्ञा पुं० [सं० राजकदम्ब] एक प्रकार का कंदब जिसके फल बडे़ और स्वादिष्ट होते हैं।

राजकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजा की पुत्री। २. केवडे़ का फूल।

राजकर
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर जो प्रजा से राजा लेता है। राजा को मिलनेवाला महसुल। खिराज।

राजकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. न्यायालय। अदालत। २. राजनीति। जैसे,—राजकरण की बहुत सी महत्वपूर्ण बातें परदे के अंदर हुआ करती है; और जब तक वे कार्य में परिणत नहीं होतीं, तब तक वे बडे़ यत्न से दवा रखी जाती हैं।—श्रीकृष्ण सदेश (शब्द०)।

राजकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ककड़ी।

राजकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी की सूँड़।

राजकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० राजकर्तृ] जो पुरुष दूसरे को राजसिंहासन पर बैठाता है। किसी को राजगद्दी पर यथेच्छ बैठाने और उतारने की शक्ति रखनेवाला पुरुष।

राजकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमा की सोलहा कलाओं में से एक कला का नाम।

राजकलि
संज्ञा पुं० [सं०] दुष्ट राजा। क्रूर शासक [को०]।

राजकल्प
वि० [सं०] दे० 'राजदेशीय'।

राजकशेरु
संज्ञा पुं० [सं०] भद्रमोथा। नागरमोथा।

राजकीय
वि० [सं०] राजा या राज्य से संबंध रखनेवाला। राज्य संबंधी। जैसे,—राजकीय घोषणा।

राजकुँअर पु †
संज्ञा पु० [सं० राजकुमार] [स्त्री० राजकुँअरि, राजकुँआरी] राजकुमार। उ०—लख्यो सुभद्रा यह संन्यासी। राजकुँअरी कियो मन उदासी।—सूर (शब्द०)।

राजकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० राजकुमारी] राज का पुत्र।

राजकुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजाओं का खानदान। राजवंश। उ०—मृगराज राजकुल क्लस कहँ बालक बृद्ध न जानिए।— केशव (शब्द०)। २. राजसभा। राजदरबार। ३. न्यायसभा। न्यायालय (को०)। ४. राजमहल। प्रसाद। सौध। राजसदन (को०)। ५. राजा का सेवक। शाही नौकर (को०)। ६. स्वामी। मालिक (को०)।

राजकुलक
देश० पुं० [सं०] परवल की लता।

राजकुष्मांड
संज्ञा पुं० [सं० राजकुष्माण्ड] बैंगन।

राजकोल
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा बेर।

राजकोलाहल
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक।

राजकोषातक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० राजकोषातकी] एक प्रकार का नेनुआ जो बहुत बड़ा होता है। घीया। तरोई।

राजक्रोशक
संज्ञा पुं० [सं०] राजा को गाली देने या कोसनेवाला। राजा की अनुचित शब्दों में आलोचना करनेवाला। विशेष—कौटिल्य ने इसके लिये जीभ उखाड़ने का दंड लिखा है।

राजक्षवक
संज्ञा पुं० [सं०] राई।

राजखर्जुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिड खजूर।

राजगद्दी
संज्ञा [हिं० राज+गद्दी] १. राजसिंहासन। राज के बैठने का आसन। २. राज्याभिषेक। राज्यारोहण। ३. राज्याधिकार। उ०—राजा ययाति प्रसन्न हो बोला कि तेरे कुल में राजगद्दी रहेगी।—लल्लू (शब्द०)।

राजगवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाय की जाति का एक पशु।

राजगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मगध देश के एक पर्वत का नाम। २. वथुआ। ३. दे० 'राजगृह'।

राजगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० राजा+गी (प्रत्य०)] राजा का पद।

राजगीर
संज्ञा पुं० [सं० राज+गृह] मकान बनानेवाला कारीगर। राज। थवई।

राजगीरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० राजगीर+ई (प्रत्य०)] राजगीर का कार्य वा पद।

राजगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजप्रसाद। राजा का महल। २. एक प्राचीन स्थान का नाम जो बिहार में पटने के पास है। विशेष—इसे प्राचीन काल में गिरिब्रज कहते थे। महाभारत के अनुसार यहाँ मगध की राजधानी थी, जिसे कुश के पुत्र वसु ने शोण और गंगा के संगम पर पाँच पहाड़ियों के बीच में बसाया था। महाभारत के समय में यह जरासध की राजधानी थी। महाभारत में उन पाँच पर्वतों का नाम वैहार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि और चैत्यक लिखा है। वायुपुराण में इन्हीं पाँचों का नाम वैभार, गिरिब्रज, रत्नकूट, रत्नाचल और विपुल लिखा है। शोणिक ने विपुलगिर के उतर, जिसे महाभारत के समय चैत्यक कहते थे, सरस्वती नामक एक छोटी सी नदी के पूर्व में नवीन राजगृह बसाया था। इसी को अब राजगिरि कहते हैं। यह शोणिंक महावीर तीर्थकर के काल में था और उनका प्रधान भक्त था। महात्मा बुद्ध के समय नें यही बिंबसार की राजधानी थी। इन पहाड़ों पर अपने अपने समय में महावीर और गौतम बुद्ध ने निवास और उपदेश किया था तथा बौद्धों का प्रथम रांघ यहीं पर संघटित हुआ था, और यहीं पर महाकाश्यप ने त्रिपिटक का प्रथम संग्रह किया था। यहाँ बौद्धों और जैनियों के अनेक मंदिर, स्तूप और चैत्यादि हैं। प्राचीन नगर के भग्नावशेप इसमें अब तक देखे जाते हैं। यहाँ अनेक प्राचीन अभिलेख भी मिले हैं। यह स्थान बौद्धों, जैनों और हिंदुओं का प्रधान तीर्थस्थान है।

राजगोपालाचारी
संज्ञा पुं० [सं०] प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल (सन् १९४८-५०)।

राजग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।

राजघ (१)
वि० [सं०] राजा को मारनेवाला। राजा की हत्या करनेवाला।

राजघ (३)
वि० तीक्ष्ण। तेज।

राजचंपक
संज्ञा पुं० [सं० राजचम्पक] पुन्नाग का फूल। सुलताना चंपा।

राजचिह्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. छत्र, चमर, आदि राजा के चिह्न। २. रांजमुद्रा। राज्यचिह्र [को०]।

राजचिह्नक
संज्ञा पुं० [सं०] शिश्न। उपस्थ।

राजचूड़ामणि
संज्ञा पुं० [सं० राजचूडामणि] ताल के साठ भेदों में से एक। (संगीत)।

राजजंवू
संज्ञा पुं० [सं० राजजम्वू] १. बड़ा जामुन। फरेंदा। २. पिंड खजूर।

रादजक्ष्मा
संज्ञा पुं० [सं० राजजक्ष्मन्] राजयक्ष्मा रोग। विशेष दे० 'क्षय' [को०]।

राजजामुन
संज्ञा पुं० [सं० राजा+हिं० जामुन] जामुन की जाति का एक प्रकार का मझोले आकार का वृक्ष जो देहरादून, अवध और गोरखपुर के जंगलों में पाया जाता है। पियामान। ठूठी। विशेष—इसकी छाल पीलापन लिए भूरे रंग की और खुरदुरी होती है। यह गरमी में फूलता और बरसात में फलता है। इसकी पत्तियों का व्यहार औषध में होता है और फल खाए जाते हैं। इसकी लकडी इनारत के सामान और खेती के औजार बनाने के काम में आती है।

राजजीरक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का जीरा।

राजत (१)
वि० [सं०] राजत का बना हुआ। चाँदी का।

राजत (२)
संज्ञा पुं० रजत। चाँदी।

राजतरंगिणी
संज्ञा पुं० [सं० राजतरड्गिणी] कल्हण कृत काश्मीर का एक प्रसिद्ध इतिहास का ग्रंथ जो संस्कृत में है और जिसमें पीछे कई पंडितों ने वृत्तांत बढ़ाए। इसकी रचना अब तक होती जाती है।

राजतरु
संज्ञा पुं० [सं०] कर्णिकार का वृक्ष। कनियारी। २. आरग्वध। अमलतास।

राजतरुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का कुब्जक या सफेद गुलाब जिसका फूल सेवती से बडा होता है। बड़ी सेबती। विशेष—इसकी लता टट्टियों पर चढ़ाई जाती है। फूलों को गंध मंद और मीठी होती है। वैद्यक में इसे कफकारक, हृद्य और चाक्षुप्य माना है और इसका स्वाद कसैला लिखा गया है। पर्या०—महासहा। वर्णपुष्प। अम्लान। अम्लातक। सुवर्ण पुष्प।

राजता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजा होना का भाव। २. राजा का पद।

राजताल
संज्ञा पुं० [सं०] सुपारी का पेड़।

राजतिमिश
संज्ञा पुं० [सं०] तरबूज।

राजतिलक
संज्ञा पुं० [हिं० राज+तिलक] १. राजसिंहासन पर किसी नए राजा के बैठने की रीति। राज्याभिषेक। उ०— नृपति युधिष्ठिर राजतिलक दै मारि दुष्ट की भार। द्रोण कर्ण अरु शल्य मुक्त करि मेटी जग की पीर।—सूर (शब्द०)। २. नए राजा के गद्दी पर बैठने का उत्सव।

राजतेमिष
संज्ञा पुं० [सं०] राजतिमिश। तरबूज।

राजत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का भाव वा कर्म। २. राजा का पद।

राजदंड
संज्ञा पुं० [सं० राजदण्ड] १. राजशासन। २. वह दंड जिसका विधान राजा के शासन के अनुसार हो। वह दंड जो राजा की आज्ञा के अनुसार दिया जाय।

राजदंत
संज्ञा पुं० [सं० राजदन्त] दाँतों की पक्ति के बीच का वह दाँत जो और दाँतों से बड़ा और चौड़ा होता है। चौका। विशेष—ऐसे दाँत ऊपर और नीचे की पंक्तियों के बीच में होते है। कोई कोई ऊपर की पंक्ति में सामने के दो बडे़ दाँतों को भी राजदंत मानते हैं; पर अन्य लोग दोनों पंक्तियों में बीच के दो दाँतों को राजदंत कहते हैं।

राजदूत
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरुष जो एक राज्य की ओर से किसी अन्य राज्य में संधि या विग्रह संबंधी अथवा अन्य नेतिक कार्य संपादन करने के लिये या किसी प्रकार का सँदेसा देकर भेजा जाता है। विशेप—चाणक्य का मत है कि मेधावी, वाक्वाटु, धीर, पर- चित्तीपलक्षक तथा यथोक्तवादी पुरुष की राजदूत नियत करना चाहिए। प्राचीन काल में आवश्यकता पड़ने पर ही राजदूत एक राज्य से दूसरे राज्य में भेजे जाते थे; पर पश्चिमी देशों में यह प्रथा है कि मित्र राज्यों में राजाओं के राजदूत परस्पर एक दूसरे के यहाँ रहा करते है और उन्हीं के द्वारा सारा कार्य संपादित होता है। दो राज्यों के बीच युद्ध छिड़ने पर दोनों एक दूसरे के यहाँ से अपने अरने राजदूत बुला लेते हैं।

राजदूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की दूब जिसकी पत्तियाँ, कांड आदि स्थूल और बडे़ होते हैं।

राजदृपद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] जाँता। चक्की।

राजदेशीय
वि० [सं०] राजा से कुछ ही कम। राजा के तुल्य। राजकल्प।

राजद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] आरग्वध। अमलतास।

राजद्रोह
संज्ञा पुं० [सं०] राजा या राज्य के प्रति किया हुआ द्रोह। वह कृत्य जिससे राजा या राज्य के नाश या अनिष्ट की संभावना हो। वगावत। जैसे,—प्रजा या सेना को राजा या राज्य से लड़ने के लिये भड़काना।

राजद्रोही
वि० [सं० राजद्रोहिन्] राजद्रोह करनेवाला। बागी।

राजद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का द्वार। राजा की डयोढ़ी। २. विचारालय। न्यायालय।

राजद्वारिक
संज्ञा पुं० [सं०] राजा का द्वारपाल। प्रतिहार [को०]।

राजधरम पु
संज्ञा पुं० [सं० राजधर्म] राजा का कर्तव्य या धर्म। राजधर्म। उ०—राजधरम सरबनु एतनोई। जिमि मन माह मनोरथ गोई।—मानस, २। ३१५।

राजधर्तूरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का धतूरा जिसके फूल कई आवरण के होते हैं। २. कनक धतूरा।

राजधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का कर्तव्य या धर्म। जैसे,— प्रजा का पालन, शत्रु से देश की रक्षा, लूटपाट या उपद्रव आदि का निवारण। २. महाभारत के शांतिपर्व के एक अंश का नाम जिसमें राजा के कर्तव्यों का वर्णन है।

राजधर्मा
संज्ञा पुं० [सं० राजधर्म्मन्] महाभारत के अनुसार काश्यप के एक पुत्र का नाम जो सारसों का राजा था।

राजधानो
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह प्रधान नगर जहाँ किसी देश का राजा या शासक रहता हो। किसी प्रदेश का वह नगर जहाँ उस देश के शासन का केंद्र हो। जैसे,—भारत की राजधानी दिल्ली, रूस की राजधानी मास्को, इंगलैंड की राजधानी लंदन। पर्या०—राजधान। राजधानक। राजधानिका, आदि।

राजधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान जिसे श्यामा धान भी कहते हैं। साँवा धान।

राजधुर्, राजधुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] राज्य का भार। शासन की जिम्मेदारी [को०]।

राजधुस्तूरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का धतूरा जिसके फूल बड़े और कई आवरण के होते हैं। पर्या०—राजधूर्त। महाशठ। निस्त्रैण पुष्पक। भ्रांत। राजस्वर्ण। २. कनक धतूरा। पीला धतूरा जो सोनो की तरह दिपता है।

राजनय
संज्ञा पुं० [सं०] राजनीती।

राजना पु
क्रि० अ० [सं० राजन (= शोभित होना)] १. विरा- जना। उपस्थित होना। रहना। उ० —(क) कीन्हो केलि बहुत बल मोहन भुव को भार उतारेउ। प्रगट ब्रह्म राजत द्वारावति बेद पुरान उचारेउ।— सूर (शब्द०)। (ख) मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा शील तेज की खानी।—तुलसी (शब्द०)। (ग) पुरुजित अरु पुरुभित्र महीप। राज्यो रन रथ दारे समीप।— गोपाल (शब्द०)। २. शोभित होना। सोहना। उ०— (क) आय जगदीश्वर ह्वै जग में विराजमान, हौं हू तो कवीश्वर ह्वै रजतै रहत हौं।— पद्माकर (शब्द०)। (ख) बहु राजत है गजराज बड़े। नभ आडत बिद्ध मनो उमड़े।—गुमान (शब्द०)। (ग) वा दिन भाजे मुखन की, तुम नासी मुसुकाइ। ते राजि यह सुनि उठी, सुमना सी विकसाइ।—शृं० सं० (शब्द०)।

राजनामा
संज्ञा पुं० [सं० राजनामन्] पटोल। परवल।

राजनीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह नीति जिसका अवलंबन कर राजा अपने राज्य की रक्षा और शासन दृढ़ करता है। विशोष— इसके प्रधान दो भेद हैं— एक तंत्र और दूसरा आवाय। वह नीति जिसके द्वार अपने राज्य में सुप्रबंध और शांति स्थापित की जाय, तंत्र नीति कहलाती है; और जिसके द्वारा। परराष्टों से संबंध दृढ़ किया जाय, वह आवाय कहलाती है। स्वराज्य में प्रजा का समाचार और उनको गति का पता देने के लिये राजा को चर से काम लेना पड़ता है; और परराष्ट्रों में स्वराष्ट्रों के स्वत्व, वाणिज्य व्यापारादि की रक्षा तथा उनकी गतियों का पता देने के लिये दूत रहते हैं। इन दूतों और चरों से राजा स्वराष्ट्र और पर- राष्ट्र की गति, चेष्टा आदि का पता लगाकर अपनी शत्कि और स्वत्व की समुचित रक्षा करता है। प्राचीन ग्रंथों में आवाय के छह मुख्य भेद किए गए हैं; जिनको पड़्गुण भी कहते हैं। उनके नाम ये हैं— संधि, विग्रह, यान आसन, द्वैधीकरण और संश्रय। ये षड़्नीति के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। राजनीति के चार और अंग कहे गए हैं— साम, दान, दंड और भेद।

राजनीतिक
वि० [सं०] राजनीति संबंधी। जैसे,— राजनीतिक आंदोलन, राजनीतिक सभा।

राजनील
संज्ञा पुं० [सं०] मरकत मणि। पन्ना।

राजन्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षत्रिय। २. अग्नि। ३. खिरनी का पेड़। ४. राजा।

राजन्यबंधु
संज्ञा पुं० [राजन्यबन्धु] क्षत्रिय।

राजन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजकुल की महिला [को०]।

राजपंखी पु
संज्ञा पुं० [सं० राज+हिं० पंखी] राजहंस। उ०— पाँचवाँ नग सो तहाँ लागना। राजपंखि पेखा गरजना।— जायसी (शब्द०)।

राजपंथ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'राजपथ'। उ०— सुनु ऊधो ! निर्गुन कंटक तें राजपंथ क्यों रूँधो ?— सूर (शब्द०)।

राजपटोल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पटोल या परवल। विशेष— इसके फल बड़े होते हैं। फागुन चैत के महीनों में इसकी डालियाँ काटकर खेतों में दो दो हाथ की दूर पर पंक्तियों में नाली खोदकर लगाई जाती हैं और उनमें पानी दिया जाता है। यह वैसाख जेठ से फूलने लगता है और इसकी फसल वर्षा ऋतु के मध्य तक रहती है। फल देखने में लबें, बड़े और खाने में कुछ कम स्वादिष्ट होते हैं। इसे प्रति वर्ष खेतों में लगाने की आवश्यकता होती है। विहार प्रांत में इसकी खेती आधिक होती है। इसे पूरबी या पटने का (पटनहिया) परवल भी कहते हैं।

राजपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. चुंबक पत्थर। २. एक साधारण रत्न (को०)।

राजपट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चातक पक्षी।

राजपति
संज्ञा पुं० [सं०] राजाओं का राजा। सम्राट्।

राजपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजा की स्त्री। रानी। २. पीतल नाम की एक प्रसिद्ध धातु।

राजपथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह चौड़ा मार्ग जिसपर हाथी, घोड़े, रथ आदि सुगमता से चल सकते हों। राजमार्ग। बड़ी सड़क।

राजपद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजपथ। २. राजनीति।

राजपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रसारिणी नाम की लता।

राजपलांड़ु
संज्ञा पुं० [सं० राजपलाण्ड़ु] लाल प्याज। विशेष दे० 'प्याज'।

राजपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिससे राजा या राज्य की रक्षा हो। जैसे,— सेना आदि। २. दे० 'राज्यपाल'। गवर्नर।

राजपिंड
संज्ञा पुं० [सं० राजपिण्ड] राज्य द्वारा प्राप्त होनेवाला गुजारा [को०]।

राजपीलु
संज्ञा पुं० [सं०] महापीलु नाम का वृक्ष।

राजपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का पुत्र। राजकुमार। २. एक वर्णसंकर जाति का नाम। पुराणों में इस जाति की उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और कर्ण माता से लिखो है। ३. बड़े आम का एक भेद। ४. बुध ग्रह। ५. राजपूत क्षत्रिय (को०)। ६. राज्य की ओर से मिला हुआ एक पद या उपाधि। सरदार। नायक। विशोष— गुप्तों के समय में यह पद घुड़सवारों के नायक को दिया जाता था। हिंदी का 'रावत' या 'राउत' शब्द इसी से बना है।

राजपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० राजपुत्रिका] १. राजकुमार। २. दे० 'राजपुत्र'।

राजपुत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह (स्त्री) जिसका पुत्र राजा हो। राजा की माता। राजमाता।

राजपुत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजकन्या। २. सफेद जुही। ३. शरारि नामक पक्षी। ४. पीतल।

राजपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कड़वा कददू। कदुतुंबी। २. रेणुका। ३. जाती। जूही का फूल। ४. छछूँदर। ५. मालती। ६. राज- कन्या। ७. एक धातु। पीतल (को०)।

राजपुर
संज्ञा पुं० [सं०] राजधानी [को०]।

राजपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] राज्य का कोई अफसर या कार्यकर्ता। राजकर्मचारी।

राजपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. नागकेसर का पेड़। २. कनकचंपा।

राजपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वनमल्लिका। २. जाती पुष्प। ३. करुणी का फूल जो कोंकण में होता है।

राजपूग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पूग वा सुपारी का वृक्ष [को०]।

राजपूजित
संज्ञा पुं० [सं०] १. वे श्रेष्ठ ब्राह्मण जिनका सत्कार राज्य की ओर से होता हो और जो जीविका आदि के लिये प्रजावर्ग के आश्रित न हों। २. वह जो राजा द्वारा समाद्दत हो (को०)।

राजपूज्य
संज्ञा पुं० [सं०] सोना।

राजपूत
संज्ञा पुं० [सं० राजपुत्र] १. दे० ' राजपुत्र'। २. राजपूताने में रहनेवाले क्षत्रियों के कुछ विशिष्ट वंश जो सब मिलाकर एक बड़ी जाति के रूप में माने जाते हैं। विशेष— 'राजपूत' शब्द वास्तव में 'राजपुत्र' शब्द का अपभ्रंश है और इस देश में मुसलमानों के आने के पश्चात प्रचलित हुआ है। प्राचीन काल में राजकुमार अथवा राजवंश के लोग 'राजपुत्र' कहलाते थे, इसीलिये क्षत्रिय वर्ग के सब लोंगों को मुसलमान लोग राजपूत कहने लगे थे। अब यह शब्द राजपूताने में रहनेवाले क्षत्रियों की एक जाति का ही सूचक हो गया है। पहले कुछ पाश्चात्य विद्वान् कहा करते थे कि 'राजपूत' लोग शक आदि विदेशी जातियों की संतान हैं और वे क्षत्रिय तथा आर्य नहीं हैं। परंतु अब यह बात प्रमाणित हो गई है कि राजपूत लोग क्षत्रिय तथा आर्य हैं। यह ठीक है कि कुछ जंगली जातियों के समान हूण आदि कुछ विदेशी जातियाँ भी राजपूतों में मिल गई हैं। रही शकों की वाता, सो वे भी आर्य ही थे, यद्यपि भारत के बाहर बसते थे। उनका मेल ईरानी आर्यों के साथ आधिक था। चौहान, सोलंकी, प्रतिहार, परमार, सिसोदिया आदि राजपूतों के प्रसिद्ध कुल हैं। ये लोग प्राचीन काल से बहुत ही वीर, योद्धा, देशभक्त तथा स्वामिभक्त होते आए हैं।

राजपूताना
संज्ञा पुं० [हिं० राजपूत] राजस्थान नामक प्रदेश जो भारत के पश्चिम में और पंजाब के दक्षिणी भाग में है। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि राज्य इसी के अंतर्गत हैं।

राजप्रकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजपुरुष। राजा का अमात्य।

राजप्रमुख
संज्ञा पुं० [सं० राज+प्रमुख] राज्यसंघ का प्रधान।

राजप्रासाद
संज्ञा पुं० [सं०] राजा का महल। राजमहल।

राजप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजपलांड़ु। २. करुणी का फूल जो कोंकण में उत्पन्न होता है।

राजप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'राजप्रिय'। २. एक प्रकार का धान जो लाल रंग का होता है और जिसका चावल सफेद तथा स्वादिष्ट होता है। तिलवासिनी।

राजप्रेष्य
संज्ञा पुं० [सं०] राजा या राज्य का नौकर। राज- कर्मचारी।

राजफंद
संज्ञा पुं० [सं० राज+फंदा] शासन का भार। राज्य का सुख। राज्य का बंधन। राज्यभार। उ०— दोखो कलि संद मैं भरथरी औ गोपीचंद छाँड़ि राजफंद बनि जोगी बन जात भे।— दीन० ग्रं०, पृ० १७२।

रांजफणिज्झक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की नारंगी।

राजफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पटोल। परवल। २. बड़ा आम। ३. खिरनी।

राजफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजजंबू। जामुन।

राजफल्गु
संज्ञा पुं० [सं०] काकोदुंबर। कठूमर। कठगूलर।

राजबंदी
संज्ञा पुं० [हिं०] राजनीतिक बंदी। वह बंदी जो राज- द्रोह आदि के अपराध में पकड़ा गया हो।

राजबदर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैवंदी या पेउँदी बैर। २. रत्कामलक। लाल आँवला। ३. लवण। नमक।

राजबरन पु
वि० [हिं० राज+वर्ण] राजा के समान तेजस्वी। राजा की कांतिवाल। उ०— राजबरन औ लंबी देहा।—कबीर सा०, पृ० १६०६।

राजबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रसारिणी लता।

राजबाड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० राजवाटिका] १. राजा की वाटिका वा उद्यान। २. राजभवन। राजमहल।

राजवाहा
संज्ञा पुं० [हिं० राज+बहना] प्रधान या बड़ी नहर जिससे अनेक छोटी छोटी नहरें खेतों के लिये निकाली जाती हैं।

राजबीजी
संज्ञा पुं० [सं० राजबीजीन्] दे० 'राजवीजी'।

राजभंडार
संज्ञा पुं० [सं० राजभण्डार] राज्य या राजा का खजाना। राजकोश।

राजभक्त
वि० [सं०] जिसमें राजा या राज्य के प्रति भक्ति हो। राजा का भक्त।

राजभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा या राज्य के प्रति भक्ति या प्रेम।

राजभट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का जलपक्षी। गोभंडीर। पकरीट। हायुत्री।

राजभद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. फरहद का पेड़। पारिद्रक। २. नीम। निंब। ३. कुड़ा। कुष्ठ। ४. कुंदरू। ५. सफेद आक।

राजभवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजप्रासाद। राजा का महल। २. राजधानी में राज्य का वह भवन जहाँ राज्यपाल या उपराज्यपाल रहते हैं।

राजभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं० राज+भाषा] वह भाषा जो सरकारी काम काज तथा न्यायलयों के लिये स्वीकृत हो। राष्ट्रभाषा।

राजभूय
संज्ञा पुं० [सं०] राजत्व। राज्य।

राजभृत
संज्ञा पुं० [सं०] राजा का सैनिक वा वेतनभोगी भृत्य।

राजभृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजसेवक या राजमंत्री। २. सरकारी अथवा जनता प्रशासक [को०]।

राजभोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का महीन धान जो आगहन में होता है। उ०— राजभोग औ रानी काजर। भाँति भाँति क सीझे चावर।—जायसी (शब्द०)। २. राजा का भोजन। राजकीय भोजन (को०)। ३. एक प्रकार का आम।

राजभोग्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. जावित्री। २. पयार। चिरौंजी। ३. एक प्रकार का धान। राजभोग।

राजमंडल
संज्ञा पुं० [सं० राजमण्डल] ऐसे राजाओं का राज्य जो किसी राज्य के आस हो। किसी राज्य के आस पास या चारों ओर के राज्य। विशोष— नीतिशास्त्र में बारह प्रकार के राजमंडल माने गए हैं— आरि, मित्र, उदासीन, विजिगीषु, पार्ष्णिग्रहसार, आक्रंद, विजि- गीपु का पुरःसर और पश्वाद्वर्तो, पार्ष्णिग्रहसार, आक्रंदसार, अरिसम, मित्रसम और मध्यम।

राजमंड़ूक
संज्ञा पुं० [सं० राजमण्ड़ूक] एक प्रकार का मेढ़क जो बहुत बड़ा होता है। पर्या—महामंडूक। पीताभ। वर्षाघोष। महोरव।

राजमंत्रधर
संज्ञा पुं० [सं० राजमन्त्रधर] दे० 'राजमंत्री' [को०]।

राजमत्री
संज्ञा पुं० [सं० राजन्विन्] राजा का मंत्री। अमात्य। सचिव [को०]।

राजमँदिर पु
संज्ञा पुं० [सं० राजमन्दिर] राजमहल। प्रासाद। उ०— तेहि पर ससि जो कचपचिन्ह भर। राजमँदिर सोनै नग जरा।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २१९।

राजमराल
संज्ञा पुं० [सं०] राजहंस।

राजमहल
संज्ञा पुं० [हिं० राजा+महल] १. राजा का महल। राजप्रासाद। २. एक पर्वत का नाम जो बंगाल में संथाल परगने के पास है। विशेष— यह पर्वतमाला समुद्र से दो हजार फुट ऊँची है। यहाँ मुगल साम्राज्य काल के बने अनेक प्रासाद, मसजिदें, भवन आदि विद्यमान हैं।

राजमहिषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पटरानी। प्रधान रानी [को०]।

राजमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० राजमातृ] वह स्त्री जिसका पुत्र राजा हो। राजा की माता। उ०— मझली माँ ने क्या समझा था कि मैं राजमाता हूँगी।— पंचवटी, पृ० ७।

राजमात्र
वि० [सं०] जो नाम मात्र का राजा हो।

राजमान
वि० [सं०] दीप्त। चमकता हुआ। शोभित [को०]।

राजमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] राजपथ। चौड़ी सड़क।

राजमाष
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा उरद जो नीले या काले रंग का होता है। विशेष— वैद्यक में इसे रुचिकर, रुक्ष, लघु, वातकारक और बल तथा शुक्र बढ़ानेवाला लिखा है। विशेष दे० 'उरद'। पर्या०—नीलमाप। नृपमाप।

राजमाष्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह खेत जिसमें माष बोया जाता हो। मसार।

राजमुद् ग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का र्मूग। यह सुनहले रंग का होता है और खाने में आधिक स्वादिष्ट होता है।

राजमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजा की मुहर। सरकारी मुहर। २. राजा के नाम से अंकित वह अँगूठी जिसे राजा धारण करता हो।

राजमुनि
संज्ञा पुं० [सं०] राजर्षि।

राजमृगांक
संज्ञा पुं० [सं० राजमृगाङ्क] एक मिश्र रस का नाम जो यक्ष्मा रोग में दिया जाता है। विशोष— इसके बनाने की विधि यह है— सोने को उतनी ही चाँदी, और उससे दूने मैनशिल, गंधक, हरताल तथा तिगुने रससिंदूर के साथ मिलाकर एक कौड़ी में भर देते हैं। फिर बकरी के दूध में सुहागा पीसकर उससे कैड़ी का मुँह बंद कर देते हैं। फिर उसे मिट्टी के बरतन में भरकर गजपुट से फूँक देते हैं। ठंढा होने पर उसे निकालकर पीस डालते हैं। कुछ लोग चाँदी की यह रस बनाते हैं। यह रस चार रत्ती की मात्रा में खाया जाता है। इसका अनुपान घो, मधु या पीपल और मिर्च है।

राजयक्ष्मा
संज्ञा पुं० [सं० राजयक्ष्मनू] क्षयी। यक्ष्मा। क्षय रोग। तपेदिक। विशोष दे० 'क्षय'।

राजयक्ष्मा
वि० [सं० राजयक्ष्मिनू] जिसे राजयक्ष्मा रोग हुआ हो। क्षय रोग से पीड़ित।

राजयान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पालकी। २. वह सवारी जो राजा के लिये हो। ३. राजा की सवारी का निकलना। राजा का जलूस।

राजयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह प्राचीन योग जिसका उपदेश पतंजलि ने योगशास्त्र में किया है। विशोष— इसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि नामक अष्टांग का यथाक्रम अभ्यास किया जाता है। इसे अष्टांग योग भी कहते हैं। विशेष दे० 'योग'। २. फलित ज्योतिष के अनुसार ग्रहों का ऐसा योग जिसके जन्म- कुंड़ली में पड़ने से मनुष्य राजा या राजा के तुल्य होता है। विशोष— यवनाचार्य के मत से पापग्रहों का जन्मसमय स्वस्थान- भागी होकर सूच्च होना राजयोग है। पर जीवशर्मा का मन है कि मंगल, शनि, सूर्य और बृहस्पति में से किसी तीन ग्रहों का अपने स्थान में सूच्च पड़ना राजयोग है।

राजयोग्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंदन।

राजयोग्य (२)
वि० राजा के योग्य वा उपयुक्त।

राजरंग
संज्ञा पुं० [सं० राजरङ्ग] चाँदी। रजत।

राजरथ
संज्ञा पुं० [सं०] राजा का रथ।

राजराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजओं का राजा। अधिराज। २. कुबेर। ३. चंद्रमा।

राजराजेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० राजराजेश्वरी] १. राजओं का राजा। अधिराज। २. एक रसौवध का नाम जिसका प्रयोग दाद, कुष्ठ आदि रोगों में होता है। विसोष— पारे, गंधक और हरताल के साथ ताँबे को मिलाकर भँगरैया के रस में एक दिन खरल करके उसमें त्रिफला, गुड़ुच, बकुची सम भाग मिलाकर दो दो रत्ती की गोलियाँ बनाई जाती हैं और दो तोले मधु या घी के साथ खाई जाती हैं।

राजराजेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दस महाविद्याओं में से एक का नाम। भुवनेश्वरी। २. राजराजेश्वर की पत्नी। महाराजी।

राजरीति
संज्ञा पुं० [सं०] काँसा। कसकुट।

राजरोग
संज्ञा पुं० [हि० राज+रोग] १. वह रोग जो असाध्य हो। जैसे,— यक्ष्मा, श्वास इत्यदि। २. राजयक्ष्मा। क्षय रोग।

राजर्षि
संज्ञा पुं० [सं०] वह ऋषि जो राजवंश या क्षत्रिय कुल का हो। क्षत्रिय ऋषि। जैसे,— राजर्षि विश्वामित्र। विशोष— ऋषि सात प्रकार के कहे गए हैं— देवर्षि, ब्रह्मर्षि, महर्षि, परमर्षि, राजर्षि, कांडर्षि और श्रुतर्षि। इनमें से अंतिम दो वेद के द्रष्टा हैं।

राजल
संज्ञा पुं० [हिं० राजा+ल (प्रत्य०)] एक प्रकार का धान जो अगहन में पककर काटने योग्य होता है।

राजलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] सामुद्रिक के अनुसार वे चिह्न या लक्षण जिनके होने से मनुष्य राजा होता है।

राजलक्ष्म
संज्ञा पुं० [सं० राजलक्ष्मन्] १. राजाओं के चिह्न। राज- चिह्न। २. युधिष्ठिर। ३. वह मनुष्य जिसमें सामुद्रिक के अनुसार राजओं के लक्षण हों। राजलक्षण से युक्त पुरुष।

राजलक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजश्री। राजवैभव। २. राजा की शक्ति वा शोभा

राजवंत
वि० [सं० राज+वंत (प्रत्य०)] रजकर्म से संयुक्त। उ०— जन राजवंत, जग योगवंत। तिनको उदोत, केहि भाँति होत।— केशव (शब्द०)।

राजवंश
संज्ञा पुं० [सं०] राजा का कुल। राजकुल।

राजवंश्य
वि० [सं०] राजा के वंश में उत्पन्न। जो राजकुल में उत्पन्न हुआ हो।

राजवर्चस
संज्ञा पुं० [सं० राजवर्चस्] १. राजशक्ति। २. राजपद।

राजवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] अनेक रंग का कपड़ा। वह वस्त्र जिसमें कई रंग हों।

राजवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रसिद्ध कीमती पत्थर।

राजवर्त्मा
संज्ञा पुं० [सं० राजवर्त्मन्] बड़ी और चौड़ी सड़क। राजमार्ग। राजपथ।

राजवली
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंधप्रसरिणी। गंधपसार। प्रसारिणी।

राजवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. खिरनी। २. बड़ा आम। ३. बड़ा बेर। पउँदी बेर। ४. पियार। चिरौंजी (को०)। ५. एक मिश्र रसौषध जो शूल, गुल्म, ग्रहणी, अतीसार आदि में दी जाती है।

राजवल्ला
संज्ञा स्त्री० [सं०] करेले का पेड़।

राजवसति
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा का महल। राजभवन।

राजवार
संज्ञा पुं० [सं० राज+द्वार] राजद्वार। उ—माँगत राजवार चलि आई। भीतर चेरिन्ह बात जनाई।— जायसी (शब्द०)।

राजवारूणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का मद्य। विशेष—अर्कप्रकाश के अनुसार यह सोंठ, पीपल, पिपलामूलक, अजवायन और काली मिर्च को उनकी तौल से तिगुने अम्ल- वर्ग और चौगुने मधुजातीय और इक्षुजातीय रसों में। मिलाकर खींचा जाता है।

राजवाह
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ा।

राजवाह्य
संज्ञा पुं० [सं०] राजा की सवारी का हाधी। हस्ती।

राजवि
संज्ञा पुं० [सं०] नीलकंठ।

राजविजय
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग।

राजविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजनीति। पर्या०—राजनय, नृपनय, राजशास्त्र, आदि।

राजविद्रोह
संज्ञा पुं० [सं०] बगावत। राजविप्लव। विशेष दे० 'राजद्रोह'।

राजविद्रोही
संज्ञा पुं० [सं० राजविद्रोहिन्] वह जो राजा या राज्य के प्रति विद्रोह करे। बागी।

राजविनोद
संज्ञा पुं० [सं०] एक ताल का नाम। (संगीत)।

राजवी पु
संज्ञा पुं० [सं० राजवीजी] दे० 'राजवीजी'। उ०— नल राजा आदर दियउ, जउ राजवियाँ लोग।—ढोला०, पृ० ३।

राजवीजी
वि० [सं०] राजवंशी।

राजवीथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजमार्ग। राजपथ। चौड़ी सड़क।

राजवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. आरग्वध का वृक्ष। उरगा का पेड़। अमलतास। २. पयार का पेड़। ३. लंका का भद्रचूड़ नामक वृक्ष। ४. श्योनाक वृक्ष। सोनापाढ़ा।

राजवैद्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का चिकित्सक। राज्य का प्रधान चिकित्सक। २. वह वैद्य जो चिकित्सा में कुशल हो।

राजशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'राजसत्ता'।

राजशण
संज्ञा पुं० [सं०] पटसन।

राजशफर
संज्ञा पुं० [सं०] हिलसा मछली।

राजशब्दोपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० राजशब्दोपजीवी] वह जो राजा के अधिकार और कर्तव्यों से रहित होते हुए भी राजा कहा जाता हो।

राजशब्दोपजीवीगण
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का गण या प्रजातंत्र। विशष— कौटिल्य ने लिखा है कि लिच्छिवि, वज्जिक, मद्रक, कुरुपांचाल आदि गण राजशब्दोपजीवी हैं।

राजशाक
संज्ञा पुं० [सं०] वारतुक शाक। वथुआ।

राजशाकनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजशाक। वास्तूक। वथुआ।

राजशालि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार जड़हन धान जिसे राजभोग्य या राजमोग भी कहते हैं। इसका चावल बहुत महीन और सुगंधित होता हैं।

राजशिंबी
संज्ञा पुं० [सं० राजशिम्बी] एक प्रकार की सेम। विशेष— यह चौड़ी और गूदेदार होती है तथा खाने में स्वादिष्ट होती है। इसे घीया सेम भी कहते हैं। इसकी दो जातियाँ होती हैं—एक काली और दूसरी सफेद। इसमें और समान्य सेम में यह भेद है कि यह उससे अधिक चौड़ी होती है और लंबाई में बहुत नहीं बढ़ती।

राजशुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तोता जो लाल रंग का होता है। इसे नूरी कहते हैं। पर्या०—प्राज्ञ। शतपत्र। नृपप्रिय।

राजशुकज
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान।

राजशृंग
संज्ञा पुं० [सं० राजशृंग] राजकीय छत्र। राजछत्र। २. मद् गुर मत्स्य। माँगुर मछली [को०]।

राजश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजलक्ष्मी। रजवैभव। राजा का ऐश्वर्य। राजा की सोभा।

राजसंसद्
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजसभा। २. वह धर्माधिकरण जिसमें राजा स्वयं उपस्थित हो। स्वयं राजा का दरबार।

राजस (१)
वि० [सं०] [स्त्री० राजसी] रजोगुण से उत्पन्न। राजे- गुणोद्भव। रजोगुणी। जैसे,— राजस यज्ञ, राजस दान, राजस बुद्धि आदि। विशोप दे० 'गुण'।

राजस
संज्ञा पुं० १. आवेश। क्रोध। उ०— जो चाहै चटक न घटै मैलौ होइ न मित्त। राज राजसु न छुवाइयै नेक चीकनौ चित्त।— बिहारी र०, दो० ३९६। २. मद। घमंड। गर्व।

राजसत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजशक्ति। २. वह सत्ता जो किसी देश या जति के भरण पोषण, वर्धन और रक्षण के लिये स्थापित की जाती है।

राजसफर
संज्ञा पुं० [सं०] हिलसा मछली।

राजसभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजा की सभा। दरबार। २. वह सभा जिसमें अनेक राजा बैठे हों। राजाओं की सभा ३. राज्यसभा। राज्यपरिषद्। (अं० कौंसिल आफ् स्टेट्स)।

राजसमाज
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजाओं का दरबार या समाज। राजमंडली। २. राजा लोग। उ०— राजसमाज कुसाज कोटि कटु कलपत कलुप कुचाल नई है।— तुलसी (शब्द०)।

राजसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बड़ा साँप। पर्या०—भुजंगभोजी।

राजसर्षप
संज्ञा पुं० [पुं०] राई।

राजसाक्षी
संज्ञा पुं० [सं० राजसाक्षिन्] वह अपराधी जो इकबाली गवाह बन गया हो। (अं० एप्रूवर)।

राजसायुज्य
संज्ञा पुं० [सं०] राजत्व।

राजसारस
संज्ञा पुं० [सं०] मयूर। मोर।

राजसिंह
संज्ञा पुं० [सं०] वह नरेश जो राजओं में श्रेष्ठ हो। श्रेष्ठ राजा [को०]।

राजसिंहासन
संज्ञा पुं० [सं०] राजा के बैठने का सिंहासन। राजगद्दी।

राजसिक
वि० [सं०] रजोगूण से उत्पन्न। राजस।

राजसिरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० राजश्री] राजश्री। राजलक्ष्मी। उ०— केशव ये मिथिलाधिप हैं जग में जिन कीरति बेलि बई है। दान कृपान विधानन सों सिगरी बसुधा जिन हाथ लई है। अंग छ सातक आठक सों तीनहुँ लोक में सिद्ध भई है। वेद त्रयी अरु राजसिरी परिपूरणता शुभ योग भई है।— केशव (शब्द०)। (ख) लाल मणीन रची मुड़वारी। राजसिरी जावक अनुहारी। फैलि रहीं किरणों अति तासू। केशरि फूलि रही सविलासू।— गुमान (शब्द०)।

राजसी (१)
वि० [हिं० राजा] राजा के योग्य, बहुमूल्य या भड़कीली। राजाओं की सी शानवाला। जैसे,— उनका ठाट बाट सदा राजसी रहता है।

राजसी (२)
वि० स्त्री० [सं०] जिसमें रजोगुण की प्रधानता हो। रजोगुणमयी। जैसे, राजसी प्रकृति।

राजसी (३)
संज्ञा स्त्री० दुर्गा।

राजसूय
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक यज्ञ का नाम। विशेष— इस यज्ञ के करने का आधिकार केवल ऐसे राजा को होता है, जिसने वाजपेय यज्ञ न किया हो। यह यज्ञ करने से राजा सम्राट् पद का अघिकारी होता है। यह यज्ञ बहुत दिनों तब होता है और इसे अनेक यज्ञों और कृत्यों की समष्टि की कहना ठीक है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इष्टि, पशु, सोम और दार्वी होम इसके प्रधान अंग हैं। इसका प्रारंभ पवित्र नामक सोमयाग से होता है और सौत्रामणी से इसकी समाप्ति होती है। इसके बीच में दस संसृप, अभीषेचनीय, मरुत्वती, दिग्विजय, बृहस्पति सबन, बृहविधनि, द्यूत क्रीड़ आदि अनेक कृत्य होते हैं। इससे ऋत्किज् लोग एक ऊँचे मच पर व्याघ्रचर्म बिछाकर और उसपर सिंहासन रखकर राजा को अभीषेक कराकर बैठाते हैं और चारो ओर से उसे घेरकर प्रशस्ति सुनाते हैं। फिर राजा उन्हें दक्षिणा देकर दिग्विजय के लिये प्रस्थान करता है; और उसके लौटने पर फिर उसे मंच बैठकर प्रशस्तिगान होता है। तदनंतर सभा में द्यूतक्रीड़ा होती है; और अंत को सौत्रमणी याग के बाद कृत्य समाप्त होता है। प्राचीन काल में केवल बड़े बड़े राजा ही यह यज्ञ करते थे। २. एक प्रकार का कमल (को०)। ३. एक पहाड़ (को०)।

राजसूयिक
वि० [सं०] राजसूय यज्ञ संबंधी।

राजसूयी
संज्ञा पुं० [सं० राजसूयिन्] राजसूय यज्ञ करनेवाला। पुरोहित।

राजसूयेष्टिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजसूय यज्ञ।

राजस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० राजस्कन्ध] घोड़ा।

राजस्तंब
संज्ञा पुं० [सं० राजस्तम्ब] [वि० राजस्तंबायन, राजस्तंबि] एक ऋषि का नाम।

राजस्थलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन स्थान का नाम।

राजस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजपूतान। विशेष दे० 'राजपूताना'।

राजस्थानिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक उच्च राजकीय पद। २. उस पद पर प्रतिष्ठित व्यक्ति। वाइसराय। हाकिम। विशोष— गुप्तों के समय में इस शब्द का विशेष प्रचार था। यह पद बहुत ही उच्च होता था। इसका स्थान राजा के बाद और प्रधान अमात्मा के ऊपर था। प्रायः इस पद पर युवराज या राजवंश के लोग ही नियुक्त होते थे ।

राजस्थानीय
संज्ञा पुं० [सं० राजस्थानिक] दे० 'राजस्थानिक'।

राजस्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूमि आदि का वह कर जो राजा को दिया जाय। राजधन। २. किसी राजा या राज्य को वार्षिक आय जो मालगुजारी, आबकारी, इनकम टैकस, कस्टम्स ड्यूटी आदि करों से होती हो। आमदेमुल्क। मालगुजारी। यौ०—राजस्वमंत्री= भूमि आदि के करों से संबंध रखनेवाले विभाग का मंत्री।

राजस्वर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] राजधूस्तूरक। राजधतूरा।

राजस्वामी
संज्ञा पुं० [सं० राजस्वामिन्] विष्णु।

राजहंस
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० राजहंसी] १. एक प्रकार का हंस जिसे सोना पक्षी भी कहते हैं। विशोष—यह प्रायः झुंड बाँधकर उड़ता है और झीलों के किनारे रहता है। इसके अनेक भेद हैं। इसके रंग श्वेत तथा पैर और चोंच लाल रंग की होती है। यह अगहन पूस में उत्तरीय भारत में उत्तर के ठंढे प्रदेशों से आता है। २. एक संकर राग का नाम जो मालव, श्रीराम और मनोहर राग के मेल से बनता है।

राजहर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] राजप्रासाद।

राजहस्ती
संज्ञा पुं० [सं० राजहस्तिन्] १. राजा की सवारी का हाथी। २. सुंदर और श्रेष्ठ हाथी [को०]।

राजहार
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरुष जो यज्ञों में सोमरस लाता है।

राजहासक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'राजहासांक' [को०]।

राजहासांक
संज्ञा पुं० [सं० राजहासाङ्क] एक प्रकार की मछली जिसे कतला कहते हैं।

राजांगण
संज्ञा पुं० [सं० राजाङ्गण] १. राजकीय न्यायलय। २. राजप्रासाद का आँगन [को०]।

राजा
संज्ञा पुं० [सं० राजन्] [स्त्री० राक्षी, हिं० रानी] १. किसी देश, जाति या जत्ये का प्रधान शासक जो उस देश, जाति या जत्थे को नियम से चलाता, उनमें शांति रखता तथा उसकी और उसके स्वत्वों की, दूसरों के आक्रमण से, रक्षा करता है। बादशाह। आधिराज। प्रभु। विशेष— महाभारत से पता चलता है कि पहले मनुष्यों में न तो कोई शासक था और न दंडकर्ता। सब लोग धर्मपूर्वक मिल जुलकर रहते थे और आपस में एक दूसरे की रक्षा करते थे। इस प्रकार उन्हों न तो किसी शसन की आवश्यकता होती थी और न शासक की। पर यह सुव्यवस्था बहुत दिनों तक न रह सकी। लोगों के चित्त में विकार उत्पन्न हो गया, जिससे वे कर्तव्यपालन में शिथिल हो गए। उनमें सहानुभूति न रही और लोभ, मोह आदि कुवासनाओं ने उन्हें घेर लिया। सब लोग विषय वासना में ग्रस्त हो गए और वैदिक कर्मकांड का लोप हो गया। इससे स्वर्ग में देवता घबराए और दौड़े हुए ब्रह्मा जी पास पहुँचे। ब्रह्मा जी ने उन्हें आश्वासन दिया और मनुष्यों की शासव्यवस्था के लिये एक लाख अध्यायों का एक बृहद् ग्रंथ बनाया। देवता लोग उस ग्रंथ को लेकर विष्णु के पास पहुँचे और उनसे प्रार्थना की कि आप किसी ऐसे पुरुष को आज्ञा दीजिए, जो मनुष्यों को इस शास्त्रानुसार चलावे। विष्णु भगवान् ने उस सास्त्र के अनुसार शासन करने के लिये राजा की सृष्टि की। किसी किसी पुराण के अनुसार वैवस्वत मनु और किसी के अनुसार कर्दम- जी के पुत्र अंग मनुष्यों के पहले राजा हुए। पूर्व काल में मनुष्यों की इतनी अधिकता न थी और न उनकी इतनी घनी बस्तियाँ थीं। एक कुल में उतपन्न लोगों की संख्या बढ़ते बढ़ते बहुत से जत्थे बन गए थे, जो अपने कुल के सबसे श्रेष्ठ या वृद्ध के शासन में रहते थे। वह शासक प्रजापति कहलाता था और शेष लोग प्रजा अर्थात् पुत्र। वेदों में भरत, जमदग्नि, कुशिक आदि जातियों के नाम आए हैं, जिनके पृथक् पृथक् प्रजापति थे। इनमें से अनेक जातियाँ पंजाब आदि प्रांतों में बस गई और कृषि कर्म करने लगीं। पहले तो उनमें पृथक् पृथक् प्रजापति थे; पर धीर धीरे जनसंख्या बढ़ती गई और अनेक देश उनसे भर गए। ऐसे आर्यो को शालीन कहा है। फिर उनमें प्रजापतियों से काम न चला और भिन्न भिन्न देशों में शांति स्थापित करने और दूसरे दोशों के आक्रमण से अपनी रक्षा करने के लिये प्रजापति से अधिक शक्तिमान् एक शासक की नियुक्ति की आवश्यकता पड़ी। पहले पहल यह प्रथा भरत जाति में चली थी; इसीलिये राजसूय यज्ञ में 'भोः भारताः अर्य वः सर्वेपां राजा'। कहकर राजा को राजसिंहासन पर बैठाया जाता था। पहले यह राजा प्रजाओं के द्वारा प्रतिष्ठित होता था; और प्रजा का अहित करने पर लोग उसे पदच्युत भी कर देते थे। वेणु आदि राजाओं का पदच्युत होना इसका उदाहरण है। जब उन शालीनों में वर्णव्यवस्था स्थापित हो गई, तब राजा का पद पैतृक हो गया और उसकी शक्ति सर्वोपरि मानी गई। मनु ने राजा को अग्नि, वायु, सूर्य, चंद्र, यम, कुबेर, वरुण और महेंद्र या इद्र की मात्रा या अश से उत्पन्न लिखा है और उसे चार वर्णों का शासक कहा है। ज्यों ज्यों प्रजाओं की शक्ति धीमी पड़ने लगी, त्यों त्यों राजा का आधिकार सर्वोपरि होता गया और अंत में वह देश या राज्य का एकाधिपति स्वामी हो गया। दूसरे वर्ग के आर्यों में, जो इधर उधर जत्थे या गण बाँधकर चलते फिरते रहते थे और जिन्हें व्रात्य या यायावर कहते थे, प्रजापति की प्रथा बनी रही और यही प्रजापति गणनाथ बन गया। ऐसी आर्यों में न तो वर्ण की ही व्यवस्था थी और न उनमें राजा का एकाधिपत्य ही हुआ। उनमें प्रजापति राजा तो कहलाने लगा, पर वह सारा काम गण की संमति से करता था। ऐसे व्रात्य आर्य कोशल, मिथिला, और विहार आदि प्रांतों से आकर बसे थे और उपनिषद् या ब्रह्मविद्या के अभ्यासी थे। मिथिला के राजा जनक इन्हीं यायवर आर्यों में थे और वहाँ के व्याध भी ब्रह्मज्ञान के उपदेष्टा थे। इनसे लिच्छवि लोगों में गण की प्रथा महात्मा बुद्धदेव के काल तक प्रचलित थी, इसका पता त्रिपिटक से चलता है। पर्या०—नृपति। पार्थिव। भूप। महीक्षित्। भूभृत। पार्थ। नाभि। नाराज। महींद्र। नरेंद्र। दंडधर। स्कंध। भूभुज्। प्रभु अर्थपति। विशेष— बहुत से शब्दों के साथ समस्त होकर यह शब्द आकार की बड़ाई या श्रेष्ठता सूचित करता है। जैसे,— राजदंत, राजमाष, राजशुक, राजशालि, इत्यादि। २. अधिपति। स्वामी। मालिक। ३. एक उपाधि जिसे अँग्रेजी सरकार बड़े रईसों, जमींदारों या अपने कृपापात्रों को प्रदान करती थी। जैसे,—राजा राममोहन राय, राजा शिवप्रसाद। ४. धनवान् वा समृद्धिशाली पुरुष। ४. प्रेमपात्र। प्रिय व्यक्ति। (बाजारू)।

राजाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा का कोप।

राजाज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा की आज्ञा।

राजातन
संज्ञा पुं० [सं०] चिरौंजी का पेड़। पयार।

राजात्यवर्त्तक
संज्ञा पुं० [सं०] लाजवर्द पत्थर। राजावर्त।

राजादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षीरिका। खिरनी। २. पयार। चिरौंजी। ३. टेसू।

राजादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षीरिणी। खिरनी।

राजाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक पर्वत का नाम। २. एक प्रकार का अदरक। बड़ा अदरक। बवादा।

राजाधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० राजाधिकारिन] १. वह जो न्यायालय में बैठकर न्याय करता हो। विचारपति। २. सरकारी आधिकारी।

राजाधिकृत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'राजाधिकारी' [को०]।

राजाधिदेय
संज्ञा पुं० [सं०] संविधानानुसार राजा या शासक को व्यक्तिगत खर्च के लिये सरकारी खजाने से दी जानेवाली निश्चित रकम। (अँ० 'प्रिवी पर्स')।

राजाधिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] सूर जाति का एक क्षत्रिय वीर।

राजाधिदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूरसेन की एक कन्या का नाम।

राजाधिराज
संज्ञा पुं० [सं०] राजाओं का राजा। शाहंशाह। बड़ा बादशाह।

राजाधिष्ठान
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजधानी। २. वह नगर जहाँ राजा का प्रसाद हो।

राजाध्वा
संज्ञा पुं० [सं० राजाध्वन्] राजपत। राजमार्ग। चौड़ी सड़क।

राजानक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा राजा। सामंत राजा। २. एक संमानित उपाधि जो प्रायः उच्च कोटि के अध्येताओं और कवियों को दी जाती थी। जैसे, राजानक रुय्यक (को०)।

राजान्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का अन्न। २. एक प्रकार का शालि धान जो आंध्र देश में उत्पन्न होता है। पर्या०—राजाई। नृपान्न। दीर्घशूकक। राजधान्य। राजेष्ठ। दीर्घकुरक।

राजाभियोग
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा का अपनी प्रजा पर दबाव डालकर उसकी इच्छा न रहने पर भी उसे कोई काम करने के लिये बाध्य करना। राजा का प्रजा से जबरदस्ती कोई काम कराना।

राजाभिषेक
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'राज्याभिषेक' [को०]।

राजाम्र
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का आम जो सामान्य आमों से बड़ा होता है और जिसमें गूदा अधिक और गुठली छोटी होती है। विशेष—इसके पेड़ों से कलम उतारी जाती है, जो छोटी होने पर भी अच्छे और बड़े फल देती हैं। इसके फल पकने पर मीठे होते हैं और सामान्य आमों की अपेक्षा उनमें रेशा कम होता हैं। बंबई, लँगड़ा, मालदह, सफेदा आदि इसी जाति के आम हैं। वैद्यक में इसे पित्तवर्धक और पकने पर बलवीर्यप्रद माना है। पर्या०—राजफल। स्मराम्र। कोकिलोत्सव। कालेष्ठा। नृपवल्लभ।

राजाम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] अम्लवेतस्। अमलबेद।

राजार्क
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत मदार। सफेद फूल का आक।

राजाई (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगरु। अगर। २. क्पूर। कर्पूर। ३. जंबू वृक्ष। जामुन का पेड़। ४. एक प्रकार का चावल। दे० 'राजान्न' (को०)।

राजार्ह (२)
वि० राजा के योग्य।

राजार्हण
संज्ञा पुं० [सं०] १. संभ्रमसूचक उपहार। भारी उपहार। २. राजा का दान।

राजालावु, राजालावू
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लौआ या कद्दू जो आकार में बड़ा और खाने में मीठा होता है।

राजालुक
संज्ञा पुं० [सं०] मूली।

राजावर्त्त
संज्ञा पुं० [सं०] लाजवर्द नामक रत्न। वशेष— यह उपरत्न माना गया है। वैद्यक में इसे मधुर, स्निग्ध और पित्तनाशक कहा है।

राजाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] राजा का आश्रय।

राजाश्रित
वि० [सं०] राजाश्रय में रहनेवाला। जैसे, राजाश्रित कवि।

राजासंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० राजासन्दी] काठ की चौका या पीढ़ा जिसपर यज्ञों में सोम रखा जाता था।

राजासन
संज्ञा पुं० [सं०] राजाओं के बैठने का आसन। सिंहासन। तख्त।

राजाहि
संज्ञा पुं० [सं०] दोमुँहा साँप।

राजिंद पु
[सं० राजेन्द्र] दे० 'राजेंद्र'। उ०— भीमराज राजिंद राइ राइन उच्चारन। अति अचंभ वलरूप द्रुग्गपति सेव सधारन।— पृ० रा०, १२। ८।

राजि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पक्ति। अवली। कतार। २. रेखा। लकीर। ३. राई। ४. अलिजिह्वा। शुंडिका (को०)। ५. क्षेत्र। भूमि। स्थान। विषय (को०)।

राजि (२)
संज्ञा पुं० ऐल के पौत्र और आयु के एक पुत्र का नाम।

राजिक पु
वि० [अ० राजिक] अन्नदाता। पालन पोषण करनेवाल। उ०— उ०— दादू राजिक रिजक लिए खड़ा, देवै हाथां हाथ।— दादू०, पृ० ३४०।

राजिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केदार। क्यारी। २. राई। ३. राजि। पंक्ति। ४. रेखा। लकीर। ५. लाल सरसों। ६. मड़ुआ। ७. कृष्णोदुंबर। कठगूलर। कठूमर। ८. एक पारमाण। ९. एक प्रकार का छुद्र रोग जिसमें सरसो के बराबर छोटी छोटी फुसियाँ निकलती हैं। यह रोग अधिक धूप लगते और गर्मो के कारण हो जाता है।

राजिकाचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप जिसके ऊपर सरसों की तरह छोटी छोटी बुँदकियाँ होती हैं।

राजित
वि० [सं०] जो शोभा दे रहा हो। फवता हुआ। शोभित। २. विराजा हुआ। मौजूद। उपस्थित।

राजिफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] चीना ककड़ी।

राजिमान्
संज्ञा पुं० [सं० राजिमन्] एक प्रकार का साँप।

राजिल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप जिसके ऊपर सीधी रेखाएँ होती हैं। (संभवतः ड़ुंड़ुभ, डेड़हा)।

राजिलफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का खरबूजा या ककड़ी।

राजिव पु
संज्ञा पुं० [सं० राजीव] कमल। उ०— राजिवनयन धरे धनु सायक। भगत विपति भंजन सुखदायक।— तुलसी (शब्द०)।

राजी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पंक्ति। श्रेणी। २. राई। ३. लाल सरसों। दे० 'राजि'।

राजी (२)
वि० [अ० राजी] १. कोई कही हुई बात मानने को तैयार। अनुकूल। संमत। उ०— अब इतराजी मत करै, मुझ नित राजी राख। जब रस ज्यों चाहै लियो सुरँग हिये आभिलाख।— रसनिधि (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—होना। २. नीरोग। चंगा। ३. खुश। प्रसन्न। उ०—ताजी ताजी गतिन ये तब तें सीखे लैन। गाहक मन राजी करैं वाजी तेरे नैन।— रसनिधि (शब्द०)। क्रि० प्र०—रखना। ४. सुखी। सुखयुक्त। यौ०—राजी खुशी= सही सलामती। कुशल आनंद।

राजी ‡ (३)
संज्ञा स्त्री० रजामंदी। अनुकूलता। उ०—हम सब प्रजा चलहिं नृप राजी। यथा सूत प्रेरित रथ बजी।—गोपाल (शब्द०)।

राजीनाम
संज्ञा पुं० [फा० राजीनामह्] १. वह लेख जिसके द्वारा अभियोगी और अभियुक्त, या वादी और प्रतिवादी परस्पर एकमत या अनुकूल होकर अभियोग या वाद को न्यायालय से उठा लें अथवा एक मत हो जायँ और तदनुसार ही न्यायालय को व्यवस्था देने के लिये उससे प्रार्थना करें। २. स्वीकारपत्र।

राजीफल
संज्ञा पुं० [सं०] परवल। पटोल।

राजीव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रैया मछली। २. एक प्रकार का मृग जिसकी पीठ पर धारियाँ होती हैं। ३. हाथी। ४. सारस पक्षी की एक जाति। ५. नीलपद्म। नीलकमल। ६. कमल। जैसे,— राजीव लोचन।

राजीव (२)
वि० जिसपर धारियाँ हों। धारीदार।

राजीवगण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में अठारह मात्राएं होती हैं और नौ नौ मात्राओं पर विराम पड़ता है। (नौ नौ राजीवगण कल धारए।— छंद०, पृ० ४७)। इसमें तुकांत में गुरु लघु का कोई विशेष नियम नहीं है। इसे माली भी कहते हैं।

राजीविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का कमल। कमलिनी। २. राजीविनी का समूह (को०)।

राजुक
संज्ञा पुं० [सं०] मौर्य काल का एक राजकर्मचारी, जो एक प्रांत का प्रबंध करता था।

राजुदल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वृक्ष।

राजू पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रज्जु] दे० 'रज्जु'।

राजू ‡ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० राजा] प्रेमपात्र वा प्रिय व्यक्ति।

राजेंद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं० राजेन्द्र] १. रांजाओं का राजा। बादशाह। २. राजागिरि नामक पर्वत। राजाद्रि।

राजेंद्र (२)
संज्ञा पुं० [सं० राजेन्द्र+प्रसाद] स्वतंत्र गणतंत्र भारतवर्ष के प्रथम राष्ट्रपति। (ई० १९५०-१९६२)।

राजेय
संज्ञा पुं० [सं०] पटोल। परवल।

राजेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० राजेश्वरी] राजाओं का राजा। राजेंद्र। महाराज।

राजेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजान्न नामक धान। २. राजभोग्य। ३. लाल प्याज।

राजेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केला। २. पिड़खजूर।

राजेसुर †
संज्ञा पुं० [सं० राजेश्वर] दे० 'राजेश्वर'। उ०— इंद्रराज राजेसुर महा। सौंहैं रिसि किछु जाइ न कहा।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३०४।

राजोपकरण
संज्ञा पुं० [सं०] राजाओं के लक्षण या उनके साथ रहनेवाला सामान। राजचिह्न। जैसे,— झंड़ा, निशान, नौबत आदि।

राजोपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० राजेपजीविन्] १. राजकर्मचारी। राज्य का नौकर। २. वह पुरुष जिसकी जीविका राजा की सेवा करने से चलती हो।

राजोपसेवी
संज्ञा पुं० [सं० राजोपसेविन्] राजा का सेवक।

राज्ञी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रानी। राजमहिषी। २. मत्स्यपुराण के अनुसार सूर्य की पत्नी का नाम। संज्ञा। ३. काँसा। ४. नील का वृक्ष। नीली।

राज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का काम। शासन। क्रि० प्र०—करना।—देना।—पाना।—होना। विशेष— शास्त्रों में राजा, आमात्य, दुर्ग, राष्ट्र, कोप, दंड़ या बल और सुहृत् ये सातों राज्य की प्रकृतियाँ मानी गई हैं। २. वह देश जिसमें एक राजा का आधिकार और शासन हो। बादशाहत। जैसे,— नैपाल का राज्य। काबुल का राज्य। विशीष— कहीं कहीं एक लाख गाँवों के समूह को भी राज्य कहा है। पर्या०—मंडल। जनपद। देश। विषय। राष्ट्र।

राज्यकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० राज्यकर्तृ] १. शासक। राज्याधिकारी। २. नृपति। राजा [को०]।

राज्यक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] रायता।

राज्यच्युत
वि० [सं०] जो राजसिंहासन से उतार या हटा दिया गया हो। राज्यभ्रष्ट।

राज्यच्युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] राज का राजसिंहासन से उतार दिया जाना।

राज्यतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० राज्यतन्त्र] राज्य की शासनप्रणाली।

राज्ययद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह उपकरण जिकसी आवश्यकता राज्याभिषेक में पड़ती है। राजतिलक की सामग्री।

राज्यधर
संज्ञा पुं० [सं०] राज्यपालन। शासन।

राज्यधुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] राज्यशासन।

राज्यपरिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रदेशों वा राज्यों से चुने हुए प्रति- निधियों की वह उच्च परिषद् जो निम्न सदन (लोकसभा) के निर्णयों पर पुतः विचार करती है।

राज्यपाल
संज्ञा पुं० [सं० राज्य+पाल] राज्य का शासक। गवर्नर।

राज्यप्रद
वि० [सं०] राज्य देनेवाला। जिससे राज्य मिलता हो।

राज्यभंग
संज्ञा पुं० [सं० राज्यभङ्ग] राज्य का नाश। राज्य का ध्वंस।

राज्यभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'राजभापा', 'राष्ट्राभापा'।

राज्यलक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजश्री। २. विजयगौरव। विजयकीर्ति।

राज्यलोभ
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत बड़ा लोभ। उच्च आशा। उच्चाकांक्षा।

राज्यव्यवस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह नियम या व्यवस्था जिसके अनुसार प्रजा के शासन का विधान किया जाता हो। राज्य- नियम। नीति। कानून।

राज्यस्थायी
संज्ञा पुं० [सं० राज्यस्थायिन्] राजा। शासक।

राज्यांग
संज्ञा पुं० [सं० राज्याङ्ग] राज्य के साधक अंग जिन्हें प्रकृति भी कहते हैं। शास्त्रों में प्रधान प्रकृतियाँ सात मानी गई हैं। यथा— राजा, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, बल और सुहृत्।

राज्याभिषिक्त
वि० [सं०] जिसका राज्याभिषेक हुआ हो।

राज्याभिषेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजसिंहासन पर बैठने के समय या राजसूय यज्ञ में राजा का अभिषेक, जो वेद के मंत्रों द्वारा पवित्र तीर्थों के जल और ओषधियों से कराया जाता है। २. किसी नए राजा का राजसिंहासन पर बैठना या बैठाया जाना। राजगद्दी पर बैठते की रीति। राज्यारोहण।

राज्यारोहण
संज्ञा पुं० [सं० राज्य+आरोहण] दे० 'राज्याभिषेक'। उ०— फिर राज्यारोहण करो, राम, हृदयासन में हो जन मंगल।— युगपथ, पृ० १३०।

राज्योपकरण
संज्ञा पुं० [सं०] राजचिह्न।

राट्, राट
संज्ञा पुं० [सं० राट् राज्] १. राजा। बादशाह। २. श्रेष्ठ व्यक्ति। सरदार। ३. किसी बात में सबसे बड़ा पुरुष। जैसे धूर्तराट्। विशेष— इस शब्द का प्रयोग प्रायः यौगिक शब्दों के अंत में होता है।

राट
संज्ञा पुं० [सं० राट्] दे० 'राट्'। उ०—सोहे भटराट विराट प्रभु परन विमुख रन मुख करत।— गोपाल (शब्द०)।

राटपाट पु †
वि० [सं० रट > राट+हिं० (अनु०) पाट] बरबाद। नष्ट भ्रष्ट। उ०— पड़ झाट थाट छल राट पाट दिल्लीय जले दल वले दाट।— रा० रू०, पृ० ७४।

राटि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाई। युद्घ [को०]।

राटि (२)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार का पक्षी। आड़ी। रेघनी चिराई।

राटुल
संज्ञा पुं० [अं० रतल (= एक तौल)] वह बड़ा तराजू जो लट्ठा गाड़कर लटकाया जाता है और जिसमें लोहा, लकड़ी इत्यादि मनों की तौल से तौली जाती है।

राठ पु
संज्ञा पुं० [सं० राष्ट्र] १. राज्य। २. राजा।

राठवर
संज्ञा पुं० [हिं० राठौर] दे० 'राठौर'।

राठौर
संज्ञा पुं० [सं० राष्ट्रकूट] १. दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश। २. राजपूतों की एक उपजाति।

राड़
वि० [सं० राटि, प्रा० राडि] १. दुष्ट। जड़। उ०—(क) लखि गयंद लै चलत भजि स्वान सुखानो हाड़। गज गुन, मोल, अहार, बल महिमा जान की राड़।— तुलसी ग्रं०, पृ० १३४। २. नीच। निकम्मा। उ०— (क) कागा करँक ढँढोरिया मूठिक रहिया हाड़। जिस पिंजर बिरहा बसै माँस कहा रे राड़।— कबीर (शब्द०)। (ग) बिष्ठा का चौका दिया हाँड़ी सीझै हाड़, छूति बचावै चाम की तिनहू का गुरु राड़।— कबीर (शब्द०)। (घ) रावन राड़ के हाड़ गढैंगे।— तुलसी (शब्द०)। २. कायर। झगोड़ा। यौ०—राड़ रोर।

राड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] सरसों। सर्षप।

राढ़ (१)
वि० [हिं० राड़] दे० 'राड़'। उ०— तुलसी तेरी भलाई अजहू बूझैं। राढ़उ राउत होत फिरि कै जूझै।— तुलसी ग्रं०, पृ० ५४६। यौ०—राढ़ रोर। उ०— ऐसेउ साहब की सेवा सों होत चोर रे। आपनी ना बूझि ना कहे को राढ़ रोर रे।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४९६।

राढ़ ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० राटि (= लड़ाई)] रार। झगड़ा। उ०— उन्हीं के किए सब धंधा गंदा हुआ। वह देतीं तो यह राढ़ क्यों बढ़ती।— दुर्गाप्रसाद मिश्र (शब्द०)।

राढ़ी (१)
संज्ञा पुं० [सं० राढि] वंग देश के उत्तर भाग का पुराना नाम।

राढ़ी (२)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की कपास।

राढ़ी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० राढा] १. कांति। दीप्ति। २. शोभा। छवि।

राढ़ी (४)
वि० [सं० राटि] १. झगड़ालू। जिद्दी। २. नासमझ। मूर्ख।

राढ़ि
संज्ञा पुं० [सं० राढि] वंग देश के उत्तरी भाग का नाम। उ०— खेलत जीत्यो जिन राढ़ि देश।— कर्पूरमंजरी (शब्द०)।

राढ़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की मोटी घास। २. एक प्रकार का आम।

राण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्ता। दल। २. मोरपंख। मोर की पूँछ [को०]।

राणा
संज्ञा पुं० [सं० राट् या राजानः, प्रा० राआणो, हिं० राणा या राज्ञी='राणी' का पुल्लिंगीकृत राखा] [स्त्री० राणा] राजा।विशेष— इस शब्द का प्रयोग राजपूताने की उदयपुर आदि कुछ विशेष रियासतों के राजाओं के लिये होता है। नेपाल के सरदार भी राणा कहलाते हैं।

राणिक †
संज्ञा स्त्री० [सं०] लगाम। वल्गा [को०]।

रातंग
संज्ञा पुं० [ड़िं०] गीध। गिद्ध।

रातंती
संज्ञा स्त्री० [सं० रातन्ती] पौष शुक्ल चतुर्दशी को होनेवाला एक त्यौहार [को०]।

रात (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रात्रि] समय का वह भाग जिसमें सूर्य का प्रकाश हम तक नहीं पहुँचता। संध्या से प्रातःकाल तक का समय। दिन का उलटा। पर्या०—रजनी। निशा। शर्वरी। निशि। विभावरी। मुहा०—रात दिन= सर्वदा। सदा। हमेशा। यौ०—रातराजा= उल्लू। रातरानी= एक पौधा और उसका फूल जो रात में फूलता है। रजनीगंधा।

रात (२)
वि० [सं०] प्रदत्त। दिया हुआ [को०]।

रात पु (३)
वि० [सं० रक्त] लाज। रक्त वर्ण का। उ०— कँवल चरन आति रात बिसेखे। रहहिं पाट पर पुहुमि न देखे।— जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० १९९।

रातड़ी, रातरी ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० रात्रि] रात। उ०— राम सनेही कारने रोय रोय रातड़ियाँ।— कबीर (शब्द०)।

रातना पु
क्रि० अ० [सं० रक्त, रत्त+हिं० ना (प्रत्य०)] १. लाल रंग से रँग जाना। लाल हो जाना। २. रँग जाना। रंगीन होना। उ०— रँग राते बहु चीर अमोला।— जायसी (शब्द०)। ३. अनुरक्त होना। आशिक होना। उ०— (क) जाहि जो भजै सो ताहि रातै। कोउ कछु कहै सब निरस बातैं।— सूर (शब्द०)। (ख) रँग राती राते हिये प्रीतम लिखी बनाय। पाती काती बिरह की छाती रही लगाय।—बिहारी (शब्द०)। (ग) जिन कर मन इन सन नहिं राता। तिन जग बंचित किए बिधाता। तुलसी (शब्द०)।

राता पु
[सं० रक्त, प्रा० रत्त] [वि० स्त्री० राती] १. लाल। सुर्ख। उ०— (क) बन बाटनि पिक बटपरा तकि विरहिन मन मैन।— कुहै कुहौ कहि कहि उठै करि करि राते नैन।— बिहारी (शब्द०)। (ख) भृकुटी कुटिल नैन रिस राते।— तुलसी (शब्द०)। २. रँगा हुआ।

राति पु (१)
संज्ञा स्त्री०[हिं० रात] दे० 'रात'। उ०— रातिहिं घाट घाट की तरनी। आई अगनित जाहिं न बरनी।— मानस, २। २२०।

राति (२)
वि० [सं०] १. उदार। २. संनद्ध। तैयार [को०]।

राति (३)
संज्ञा पुं० मित्र। अराति का विलोम। २. उपहार। उपा- यन। ३. धन। संपत्ति [को०]।

रातिचर पु
संज्ञा पुं० [हिं० राति+सं० चर] निशिचर। राक्षस। उ०— मारे रन रातिचर रावन सकुल दल अनुकूल देव मुनि फूल वरपतु हैं।— तुलसी ग्रं०, पृ० १९७।

रातिब
संज्ञा पुं० [अं०] १. पशुओं का दैनिक भोजन। २. हाषियों आदि का खान। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—पाना।—मिलना।

रातुल (१)
संज्ञा पुं० [अ० रतल] दे० 'राटुल'।

रातुल (२)
वि० [सं० रक्तालु, प्रा० रत्तालु] सुर्ख रंग का। लाल। उ०—उर मोतिन की माला री पहिरे रातुल चीर, वारे कन्हैया।—सूर (शब्द०)।

रातैल
संज्ञा पुं० [हिं० राता+ऐल (प्रत्य०)] लाल रंग का एक छोटा कीड़ा जो जुआर को हानि पहुँचाता है।

रात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्ञान। ज्ञानोपदेश। २. रात। रात्रि [को०]।

रात्रक (१)
वि० [सं०] १. रात्रि संबंधी। २. रात भर का [को०]।

रात्रक (२)
संज्ञा पुं० १. वह व्यक्ति जो किसी वेश्या के घर में एक वर्ष बिताए। २. पाँच रात्रि का समय। पंचरात्र [को०]।

रात्रिंचर
संज्ञा पुं० [सं० रात्रिञ्चर] [स्त्री० रात्रिंचरी] १. दे० 'रात्रिचर'।

रात्रिंदिव, रात्रिंदिवा
क्रि० वि० [सं० रात्रिन्दिव, रात्रिन्दिवा] रात दिन। अनवरत। लगातार [को०]।

रात्रिंमन्य
वि० [सं० रात्रिम्मन्य] (दिन) जो बादलों के घिरने वा अंधकार से रात सा प्रतीत हो [को०]।

रात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उतना समय जितने समय तक सूर्य का प्रकास न देश पड़े। संध्या से लेकर प्रातःकाल तक का समय। सूर्यास्त से सूर्योदय तक का समय। रात। निशा। यौ०—रात्रिंदिव, राविंदिवा=(१) रातदिन। सदा। २. हलदी। ३. पुराणनुसार क्रौंच द्वीप की एक नदी का नाम।

रात्रिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बिच्छू।

रात्रिक (२)
वि० रात का। रात्रि का। जैसे, पंचरात्रिक उत्सव (समा- सांत में)।

रात्रिकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

रात्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात। रजनी [को०]।

रात्रिचर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस। निश्चर। २. चोर। तस्कर। लुटेरा (को०)। ३. प्रहरी। रात्रि को पहरा देनेवाला। रक्षक (को०)। ४. उल्लू। उलूक (को०)।

रात्रिचर (२)
वि० रात के समय विचरनेवाला।

रात्रिचारी
संज्ञा पुं० वि० [सं० रात्रिचारिन्] दे० 'रात्रिचर'।

रात्रिज
संज्ञा पुं० [सं०] नक्षत्र, तारे आदि।

रात्रिजल
संज्ञा पुं० [सं०] ओस [को०]।

रात्रिजगार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ता। २. रात्रि में जागरण या पहरा देना (को०)।

रात्रिजागरद
संज्ञा पुं० [सं०] मच्छड़ [को०]।

रात्रितिथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुक्ल पक्ष की रात।

रात्रिदोष
संज्ञा पुं० [सं०] रात्रि में होनेवाला अपराध। जैसे,—चोरी (कौटि०)।

रात्रिद्विष
संज्ञा पुं० [सं० रात्रिद्विष्] सूर्य।

रात्रिनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।

रात्रिनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।

रात्रिपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल। २. रात में खिलनेवाला पुष्प। कुमुद। कुईँ (को०)।

रात्रिबल
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस।

रात्रिमुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनों के अनुसार छठी प्रतिमा जो रात्रि के समय किसी प्रकार का भोजन आदि नहीं ग्रहण करती।

रात्रिमुजंग
संज्ञा पुं० [सं० रात्रिभुजङ्गज] चंद्रमा [को०]।

रात्रिमट
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस। २. रात को लूटने या चोरी करनेवाला चोर।

रात्रिमणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर (को०)।

रात्रियोग
संज्ञा पुं० [सं०] सायंकाल। संध्या।

रात्रिराग
संज्ञा पुं० [सं०] अँधकार। अँधेरा।

रात्रिवास
संज्ञा पुं० [सं० रात्रिवासस्] १. अधंकार। अँधेरा। २. रात के समय पहनने का वस्त्र।

रात्रिविगस्
संज्ञा पुं० [सं०] प्रभात। तड़का।

रात्रिविश्लेषगामी
संज्ञा पुं० [सं० रात्रिविश्लेषगामिन्] चक्रवाक। चकवा पक्षी।

रात्रिवेद
संज्ञा पुं० [सं०] कुक्कुट। मुरगा।

रात्रिवेदी
संज्ञा पुं० [सं० रात्रिवेदिन्] दे० 'रात्रिवेद' [को०]।

रात्रिसाम
संज्ञा पुं० [रात्रिसामन्] एक प्रकार का साम।

रात्रिसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋग्वेद के एक सूक्त का नाम। २. दुर्गा सप्तशती का एक सूक्त।

रात्रिहास
संज्ञा पुं० [सं०] कुमुद। कूईँ।

रात्रिहिंडक
संज्ञा पुं० [सं० रात्रिहिण्डक] १. राजाओं के अंतःपुर का पहरेदार। २. रात्रि में घूम घूमकर पहरा देनेवाला (को०)।

रात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात। २. हलदी।

रात्र्यंध
संज्ञा पुं० [सं० रात्र्यन्ध] १. जिसे रात को न दिखाई देता हो। जिसे रतौंधी का रोग हो। २. वे पक्षी और पशु जिन्हें रात को न दिखाई पड़ता हो। जैसे,—कौआ, बंदर।

रात्र्यट
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोर। २. निशाचर [को०]।

राथकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो रथकार ऋषि के गोत्र में उत्पन्न हो।

राद
संज्ञा पुं० [अ०] बिजली की कड़क [को०]।

राद्ध
वि० [सं०] १. पका हुआ। राँधा हुआ। २. सिद्ध। ठोक किया हुआ। ३. पूरा किया हुआ।

राद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० राद्धान्त] सिद्धांत। उसूल।

राद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिद्ध होने का भाव। सफलता। सिद्धि।

राध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैशाख मास। २. धन। संपत्ति। ३. अनुग्रह (को०)। ४. अभ्युदय (को०)।

राध (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पीव। मवाद।

राधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधने की क्रीया। साधना। २. मिलना। प्राप्ति। ३. संतोष। तुष्टि। ४. वह वस्तु जिससे कोई कार्य किया जाय। साधन।

राधना पु † (१)
क्रि० स० [सं० आराधना] १. आराधना करना। पूजा करना। उ०—साधो कहा करि साधन ते जौ पै राधो नहीं पति पारवती को।—तुलसी (शब्द०)। २. सिद्ध करना। पूरा करना। ३. काम निकालना। साधना।

राधना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गिरा। वाणी [को०]।

राधनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूजा। उपासना। आराधना [को०]।

राधरंक
संज्ञा पुं० [सं० राधरङ्क] १. हल। २. हलकी वर्षा। ३. ओला। बनौरी [को०]।

राधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैशाख की पूर्णिमा। २. प्रीति। अनुराग। प्रेम। ३. धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ की पत्नी का नाम। विशेष—इसने कर्ण पुत्रवत् पाला था। इसी कारण से कर्ण का एक नाम 'राधेय' भी था। ४. वृषभानु गोप की कन्या और श्रीकृष्ण की प्रेयसी। विशेष—श्रीमद् भागवत में राधा का कोई उल्लेख नहीं है। पर ब्रह्मवैवर्त देवीभागवत, आदि में राधा का वर्णन मिलता है। इन पुराणों में राधा के जन्म और जीवन के संबंध में भिन्न भिन्न कथाएँ दी गई हैं। कहीं लिखा है कि ये श्रीकृष्ण के बाएँ अंग से उत्पन्न हुई थी और कहीं गोलोकधाम के रासमंडल में इनका जन्म लिखा है। यह भी कहा जाता है कि ये जन्म लेते ही पूर्ण वयस्का हो गई थीं। श्रीकृष्ण के साथ इनका विवाह नहीं हुआ था यद्यपि गर्गसंहिता आदि कुछ इधर के ग्रंथों में विवाह की कथा भी रख दी गई है। सब जगह श्रीकृष्ण के साथ इनकी मूर्ति और नाम रहता है। इनके नाम के साथ ईश या स्वमीवाचक शब्द लगने से श्रीकृष्ण का बोध होता है। ५. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में रगण, तगण, मगण, यगण और एक गुरु सब मिलकर १३ अक्षर होते हैं। जैसे,— कृष्ण राधा कृष्ण कृष्ण राधा राधा गा। ६. विशाखा नक्षत्र। ७. बिजली। ८. आँवला। ९. विष्णुक्रांता लता।

राधाकांत
संज्ञा पुं० [सं० राधाकान्त] श्रीकृष्ण।

राधाकुंड
संज्ञा पुं० [सं० राधाकुण्ड] गोवर्धन के निकट का एक प्रख्यात सरोवर।

राधातंत्र
संज्ञा पुं० [सं० राधातन्त्र] एक तंत्र का नाम जिसमें मंत्रों आदि के अतिरिक्त राधा की उत्पत्ति का भी रहस्यपूर्ण वर्णन है।

रधापति
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण [को०]।

राधाभेदी
संज्ञा पुं० [सं० राधाभेदिन्] अर्जुन का एक नाम [को०]।

राधारमण
संज्ञा पुं० [सं०] राधा से रमण करनेवाले, श्रीकृष्ण।

राधारमन पु
संज्ञा पुं० [सं० राधारमण] श्रीकृष्ण। उ०—लीला राधारमन की, सुंदर जस अभिराम।—मतिराम (शब्द०)।

राधावल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।

राधावल्लभी
संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णवों का एक प्रसिद्ध संप्रदाय। विशेप दे० 'वैष्णव'।

राधावेधी
संज्ञा पुं० [सं० राधावेधिन्] अर्जुन [को०]।

राधासुत
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ण का एक नाम [को०]।

राधास्वामी
संज्ञा पुं० [हिं०] एक मतप्रवर्तक आचार्य और उनका संप्रदाय।

राधाष्टमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भादों सुदी अष्टमी।

राधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वृषभानु गोप की कन्या राधा। विशेष दे० 'राधा—४'। उ०—प्रभु माया फेरी प्रबल सब लोग ग्रिह दंद। पल न सुहाई राधिका बिन बृंदाबनचंद।—पृ० रा०, २। ५५८। २. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १३ और ९ के विश्राम से २२ मात्राएँ होती है। जैसे,—सब सुधि बुधि गई क्यों भूल, गई मति मारी। माया को चेरो भयो, भूलि असुरारी। कटि जैहै भव के फंद, पाप नसि जाई। रे सदा भजौ श्री कृष्ण, राधिका माई।—छंद०, पृ० ५१। विशेष—लाबनी इसी छंद में होती है। यह छंद प्रस्तार की रीति से नया रचा गया है।

राधी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैशाख मास की पूर्णिमा [को०]।

राधेय
संज्ञा पुं० [सं०] (धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ की पत्नी राधा द्वारा पालित) कर्ण।

राध्य
वि० [सं०] आराधना करने के योग्य। आराध्य।

रान
संज्ञा स्त्री० [फा०] जंघा। जाँघ। उ०—खाइ सेर बोसक की रानैं। धकाधकी हाथिन सों ठानै।—लाल (शब्द०)।

रानतुरई
संज्ञा स्त्री० [हिं० रानी+तुरई] कड़ुई तरोई।

राना (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'राणा'।

राना पु (२)
क्रि० अ० [हिं० राचना] अनुरक्त होना। उ०—कौन कली जो भौंर न राई। डार न टूट पुहुप गरुआई।—जायसी (शब्द०)।

राना
वि० [फा० राना] १. सुंदर। हसीन। २. अच्छे डीलडौल का [को०]।

रानाई
संज्ञा स्त्री० [फा० रानाई] सुंदरता। सौंदर्य [को०]।

रानापति
संज्ञा पुं० [हिं० राणा+पति] सूर्य। विशेष—चितौर के राना सूर्यवंश के माने जाते हैं।

रानी
संज्ञा स्त्री० [सं० राज्ञी, प्रा० राणी] १. राजा की स्त्री। राजा की पत्नी। २. स्वामिनी। मालकिन। जैसे,—मधुमक्खियों की रानी। ३. स्त्रियों के लिये आदरसूचक शब्द।

रानीकाजर
संज्ञा पुं० [हिं० रानी+काजल] एक प्रकार का धान। उ०—राजभोग औ रानीकाजर। भाँति भाँति के सीझे चावर।—जायसी (शब्द०)।

रापड़ †
संज्ञा पुं० [?] बंजर। ऊसर।

रापती
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक छोटी नदी जो नैपाल के पहाड़ों से निकलकर गोरखपुर के निकट सरयू में गिरती है।

रापरंगाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नृत्य। उ०—शूलं बध्वैक पादेन सहैवानुपतेद्यदि। द्वितीयोपि तदा रापरंगाल तद्विदो विदुः।—केशव (शब्द०)।

रापी
संज्ञा स्त्री० [हिं० राँपी] चमारों का राँपी नाम का औजार जिससे वे चमड़ा, साफ करेत और काटते हैं। उ०—अस कहि रापी ताहि की तामें दियो छुवाइ। तुरतै कचन की भई तेहि गुण दियो दिखाई।—रघुराज (शब्द०)।

राब (१)
संज्ञा स्त्री० [पुं० द्रावक (=मोम)] आँच पर औटाकर खूब गाढ़ा किया हुआ गन्ने का रस जो गुड़ से पतला और शीरे से गाढ़ा होता है। इसी को साफ करके खाँड़ बनाई जाती है।

राब (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] नाव में वह बड़ी लकड़ी जो उसकी पेंदी में लंबाई के बल एक सिर से दूसरे सिरे तक होती है। पहले यही लकड़ी लगाकर तब उसपर से अहार चढ़ाते हैं।

राबड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० राब+ड़ी (प्रत्य०)] औटाकर गाढ़ा किया हुआ दूध। बसौंधी। रबड़ी। †२. राजपूताने की ओर का एक विशिष्ट खाद्य।

राबना
क्रि० स० [सं०] खेत में खाद देने की एक विशेष प्रणाली। विशेष—इसमें पहले खेत में खाद, सूखी पत्तियाँ और टहनियाँ आदि रखकर जला देतें हैं; फिर उनकी राख समेत जमीन को एक बार जोत, देते हैं। वही राख केत में खाद का काम देती है।

राम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यवंशी महाराज दशरथ के पुत्र जो दस अवतारों में से एक माने जाते हैं। विशेष दे० 'रामचंद्र'। २. परशुराम जो विष्णु के अंशावतार माने जाते हैं। विशेष दे० 'परशुराम'। ३. कृष्ण के बड़े भाई बलराम या बलदेव। विशेष दे० 'बलराम'। मुहा०—राम शरण होना=(१) साधु होना। विरक्त होना । (२) मर जाना। परलोकवासी होना। उ०—राम राम कहि राम सिय राम शरण भए राउ।—तुलसी (शब्द०)। राम जाने=(१) मुझे नहीं मालूम। ईश्वर जाने। (२) यदि मैं झूठ कहता होऊँ तो उसके साक्षी भगवान हैं (एक शपथ)। राम राम करना=(१) अभिवादन करना। प्रणाम करना। (२) भगवान् का नाम जपना। राम नाम सत्य है=एक वाक्य जिसका प्रयोग कुछ हिंदू जातियों में मृतक को श्मशान ले जाने के समय होता है और जिससे संसार की असारता और मिथ्यात्व तथा ईश्वर की सत्यता का बोध होता है। राम राम करके=बड़ी कठिनता से। किसी प्रकार। उ०—राम राम करके बासमती से पीछा छूटा है; फिर यह बिपत कहाँ से आई।—अयोध्या (शब्द०)। राम राम होना=भेंट होना। मुलाकात होना। उ०—कैसे ह्वै है दई मेरे आनंद की जई राम, भई राम राम आज नई राम राम सों।—रामकवि (शब्द०)। राम राम हो जाना=मर जाना। गत हो जाना। उ०—तौ लौ रहे प्राण दशरथ जू के नीके, पाछे राम नाम लेत राजा राम राम ह्वै गयो।—रामकवि (शब्द०)।४. तीन की संख्या। ५. ईश्वर। भगवान्। ६. एक मात्रिक छंद जिसमें ९ और ८ के विराम प्रत्येक चरण में १७ मात्राएँ होती है और अंत में यगण होता है। जैसे,—सुनिए हमारी विनय मुरारी। दीजै हमारी, विपत्ति टारी। ७. वरुण। ८. घोड़ा। ९. अशोक वृक्ष। १०. रति। ११. वथुआ। एक साग। १२. तेजपत्ता। १३. प्रेम करनेवाला। प्रेमी (को०)। १४. अरुणी का एक नाम (को०)। १५. रात्रि का अंधकार। १६. कुष्ठ। १७. तमालपत्र (को०)।

राम (२)
वि० १. मनोज्ञ। सुंदर। २. आनंददायक। ३. सुफेद। श्वेत ४. काला। असित [को०]।

रामअंजीर
संज्ञा स्त्री० [हिं० राम+फा० अंजीर] पाकर वृक्ष पकरिया।

रामक (१)
वि० [सं०] आनंदयुक्त। आनंददायक।

रामक (२)
संज्ञा पुं० मंदिर का एक आकार प्रकार [को०]।

रामकजरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है।

रामकपास
संज्ञा स्त्री० [हिं० राम+कपास] देवकपास। नरमा विशेष दे० 'नरमा'।

रामकरी, रामकली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी। विशेष—यह भैरव राग की स्त्री मानी जाती है। इसके गाने का समय प्रातःकाल १ दंड से ५ दंड तक है। यह संपूर्ण जाति की रागिनी है और इसमें ऋषभ तथा निषाद कोमल लगते हैं।

रामकांड
संज्ञा पुं० [सं० रामकाण्ड] एक प्रकार का बेंत [को०]।

रामकाँटा
संज्ञा पुं० [हिं० राम+काँटा] एक प्रकार का बबूल।

रामकिरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'रामकली'।

रमकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग का नाम [को०]।

रामकेला
संज्ञा पुं० [हिं० राम+केला] १. एक प्रकार का बढ़िया केला। विशेष—इसके पेड़ का तना, फूल आदि गहरे लाल रंग के होते हैं इसका फल पतला और प्रायः एक बालिश्त लंबा होता है। यह बंबई प्रांत की और अधिकता से होता है और बंगाल के केले से आकार प्रकार में बिलकुल भिन्न होता है। २. एक प्रकार का बढ़िया आम जो बंगाल और मिथिला होता है।

रामक्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राग। दे० 'रामकरी' [को०]।

रामक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार दक्षिण देश का प्राचीन तीर्थ।

रामखंड
संज्ञा पुं० [सं० रामखण्ड] पुराणनुसार एक प्राचीन तीर्थ।

रामगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० रामगङ्गा] एक छोटी नदीजो पीलीर्भ के निकट से निकलकर कन्नौज के आगे गंगा में मिलती है।

रामगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] नागपुर जिले की एक पहाड़ी जिस वर्णन कालिदान ने अपने मेघदुत में किया है। आजकल इसे रामटेक कहते हैं। विशेष—कुछ लोग चित्रकूट को रामगिरि मानते हैं। पर मेघदूत में जो स्थिति दी हुई है, उससे वह नागपुर ही के पास होना चाहिए।

रामगिरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'रामकली'।

रामगीती
संज्ञा पुं० [सं०] एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३६ मात्राएँ होती है। जैसे,—यहि भाँति बरणे सुभट गण कहँ जीति लव रणधीर।

रामचंगी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक तरह की तोप। उ०—चलै रामचंगी धरा में धमकैं। सुने तें अवाजैं बली वैरि संकै।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १०।

रामचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० रामचन्द्र] अयोध्या के राजा इक्ष्वाकुवंशी महाराजा दशरथ के बड़े पुत्र जो ईश्वर वा विष्णु भगवान् के मुख्य अवतारों में माने जाते हैं और जिनकी कथा रामायण में वर्णित है। विशेष—इनका जन्म कौशल्या के गर्भ से हुआ था और इन्होंने वशिष्ठ मुनि से शिक्षा पाई थी। जब ये बालक थे, तभी विश्वामित्र मुनि इन्हें अपने यज्ञ की रक्षा के लिये अपने सात वन में ले गए थे, जहाँ इन्होंनें अनेक राक्षसों का वध किया था। जब यज्ञ समाप्त हो गया, तब ये अपने छोटे भाई लक्ष्मण और गुरु विश्वामित्र के साथ राजा जनक के यहाँ सीता के स्वयंवर में गए। वहाँ इन्होंनें शिवजी का धनुष तोड़कर सीता का पाणिग्रहण किया। जब ये लौटकर अयोध्या आए, तब राजा दशरथ इनका अभिषेक करके इन्हें राजगद्दी देना चाहते थे, पर रानी कैकेयी के कहने से उन्होनें इन्हें चौद्ह वर्षों तक वन में रहने के लिये भेज दिया। जब ये वन जाने लगे, तब इनकी स्त्री सीती और इनके छोटे भाई लक्ष्मण भी इनके साथ हो लिए। इनके वन जाने पर पीछे इनके दुखी पिता दशरथ की मृत्यु हो गई। कैकेयी अपने पुत्र भरत को सिंहासन पर बैठाना चाहती थी; पर भरत ने स्पष्ट कह् दिया कि यह राज्य मेरे बड़े भाई रामचंद्र का है; और मै इसे ग्रहण नहीं कर सकता। पीछे भरत रामचंद्र को समझा बुझाकर लाने के लिये वन में भी गए, पर रामचंद्र ने कह दिया कि मैं पिता की आज्ञा से चौदह वर्षो के लिये वन में आया हुँ। और जब तक यह अवधि पूरी न हो जायगी, तब तक मै लोटकर अयोध्या नहीं चल सकता। इसपर भरत इनके खड़ाऊँ ले जाकर और उसे सिंहासन पर स्थापित करके, इनकी ओर से, इनकी अनुपस्थिति में शासन करने लगे। वनवास काल में रामचंद्र अनेक वनों और पर्वतों पर और ऋषियों आदि के आश्रमों पर घूमा करते थे। दंडकारण्य में एक बार लंका का राजा रावण आकार छल से सीता को हर ले गया। इसपर इन्होंने बहुत से वानरों आदि को साथ लेकर लंका पर चढ़ाई की ओर युद्ध में रावण तथा उसके साथी राक्षसों को मारकर और उसका राज्य उसके छोटे भाई विभी- षण को देकर अपनी स्त्री सीता को अपने साथ ले आए। वनवास की अवधि पूरी हो गई थी; इलसिये ये सीधे अयोध्या चले आए और वहाँ आकार सुख से राज्य करने लगे। इनका शासन प्रजा के लिये इतना अधिक सुखद था कि अब तक लोग इनके राज्य को आदर्श समझते है; और अच्छे राज्य की उपमा 'रामराज्य' से देते हैं।

रामचक्रा †
संज्ञा पुं० [सं० राम+चक्र] १. बरा नामक पकवान जो उड़द की पीठी का बनता है। २. बड़ा और मोटी रोटी जो किसान लोग खाते हैं। लिट्टी। बाटी।

रामचना
संज्ञा पुं० [हिं० राम+चना] खटुआ बेल। अत्य- म्लपर्णी।

रामचिड़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० राम+चिड़िया] एक प्रकार का जलपक्षी जो मछलियाँ पकड़कर खाता है। मछरंगा।

रामजननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रामचंद्र की माता, कौशल्या। २. बलराम की माता, रोहिणी। ३. परशुराम की माता, रेणुका।

रामजना
संज्ञा पुं० [हिं० राम+जना (=उत्पन्न)] १. एक संकर जाति जिसकी कन्याएँ वेश्यावृत्ति करती हैं। विशएष—कई बातों में यह जाति गंधर्व जाति से मिलती जुलती होती है, पर साधारणतः उससे नीची समझी जाती है। इस जाति के लोग प्रायः राजपूताने, उत्तर प्रदेश तथा बिहार में पाए जाते हैं। २. वह जिसके माता पिता का पता न हो। वर्णसंकर।

रामजनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० राम+जना (=उत्पन्न)] १. रामजना जाति की स्त्री। २. वेश्या। रंडी। ३. वह स्त्री जिसके पिता का पता न हो। उ०—रामजनी संन्यासिनी पटु पटवा की बाल। केशव नायक नायिका करहिं सब काल।—केशव (शब्द०)।

रामजमानी
संज्ञा पुं० [सं० राम+यवानी (अजवायन)] एक प्रकार का बहुत बारीक चावल।

रामजयती
संज्ञा स्त्री० [सं० रामजयन्ती] देवा कीए क मूर्ति का नाम।

रामजामुन
संज्ञा पुं० [सं० राम+जामुन] मझोले आकार का एक प्रकार का जामुन का वृक्ष, जो प्रायः सारे उत्तरी और पूर्वी भारत तथा बरमा और लंका में होता है। विशेष—इसके फल बहुत बड़े बड़े स्वादिष्ट होते हैं। इसकी लकड़ी यद्यपि साधारण जामुन की लकड़ी के समान उत्तम नहीं होती, तो भी इमारत तथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है। यह छोटी नदियों के किनारे अधिकतर होता है।

रामजौ
संज्ञा पुं० [सं० राम+हिं० जौ] एक प्रकार की जई जिसके दाने साधारण जौ से कुछ बड़े होते हैं।

रामझोल
संज्ञा स्त्री० [सं० राम+हिं० झुलना] पाजेब। पायल।

रामटेक
संज्ञा पुं० [हिं० राम+टेक (=टेकड़ी, पहाड़ी)] नागपुर जिले की एक पहाड़ी जहाँ रामचंद्र का एक मंदिर है। यह एक तीर्थस्थान माना जाता है। विशेष दे० 'रामगिरि'।

रामटोड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक संकर रागिनी जिसमें गांधार कोमल और शेप सब स्वर शुद्ध लगते हैं।

रामठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश जो पश्चिम में है। २. इस देश का निवासी। ३. हींग। ४. अखरोट का वृक्ष। ५. मैनफल। ६. चिचड़ा।

रामठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हींग।

रामण पु
संज्ञा पुं० [सं० रावण] दे० 'रावण'। उ०—रामण नह सौनौ दियो, लहि सोना री लंक।—बी० रासो, पृ० ५४।

रामणीयक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रमणीयत्व। मनोहरता।

रामणीयक (२)
वि० रमणीय। मनोहर।

रामत पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रामति] दे० 'रामति'। उदा०—फिर रामत की आज्ञा लीन्ही।—चरण० बानी, पृ० २०१।

रामतरुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सेवती। २. सीता जी।

रामतरोई
संज्ञा स्त्री० [हिं० राम+तरोई या तुरई] भिंडी नामक फली जिसकी तरकारी बनती है।

रामता
संज्ञा स्त्री० [सं०] राम का गुण। रामपन। रामत्व। उ०—आजु राम रामता निहारौं। नेकु शंकु मन महँ नहिं धारौं।—रघुराज (शब्द०)।

रामतापनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम जो प्राचीन उपरनिषदों में नहीं है, बल्कि एक सांप्रदयिक पुस्तक है।

रामतारक
संज्ञा पुं० [सं०] राम जी का मंत्र जो रामोपासक लोग जपते हैं। विशएष—कहते हैं, काशी में जो लोग मरते हैं, उन्हें शिव जी इसी मंत्र का उपदेश करते हैं, जिसके प्रभाव से उनकी मुक्ति हो जाती है। यह मंत्र इस प्रकार है 'रां रामाय नमः'।

रामति पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० रमन (=घूमना फिरना)] भिक्षा के लिये इधर उधर घूमना। भिक्षुकों की फेरी।

रामतिल
संज्ञा पुं० [सं० राम+तिल] एक प्रकार का तिल।

रामतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामगिरि नामक स्थान। रामटेक। २. बंगाल के एक प्रसिद्ध संत।

रामतुलसी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'रामा तुलसी'।

रामतेजपात
संज्ञा पुं० [हिं० राम+तेजपात] तेजपात की जाति का एक प्रकार का वृक्ष जो पूर्वी बंगाल, बरमा, और अंडमन टापू में अधिकता से होता है। विशएष—इसके पत्तों का व्यवहार तेजपत्ते के समान होता है और लकड़ी संदूक तथा तख्ते आदि बनाने के काम में आती है।

रामत्व
संज्ञा पुं० [सं०] राम का भाव। रामता। रामपन।

रामदल
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामचंद्र जी की बंदरोंवाली सेना, जिसके नीचे लिखे १८ मुख्य यूथप थे—(१) लक्ष्मण, (२) सुग्रीव, (३) नील, (४) नल, (५) सुखेन, (६) जानमवंत, (७) हनुमान, (८) अंगद, (९) केशरी, (१०) गवय, (११) गवाक्ष, (१२) गज, (१३) विभीषण, (१४) द्विविद, (१५) तार, (१६) कुमुद, (१७) शरभ और (१८) दधिमुख।२. कोई बड़ी और प्रबल सेना जिसका मुकाबला करना कठिन हो।

रामदाना
संज्ञा पुं० [सं० राम+हिं० दाना] १. मरसे या चौराई की जाति का एक पौधा जिसमें सफेद रंग के एक प्रकार के बहुत छोटे छोटे दाने लगते हैं। विशेष—ये दाने कई प्रकार से खाए जाते हैं और इनकी गिनती 'फलाहार' में होती है। पहाड़ीं में यह बैसाख जेठ में बोया औऱ कुआर में तैयार हो जाता है; पर उत्तरी, पश्चिमी तथा मध्य भारत में यह जाड़े के दिनों में भी होता है। कहीं कहीं बागों में भी शोभा के लिये इसके पौधे लगाए जाते हैं। २. एक प्रकार का धान।

रामदास
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान। २. एक प्रकार का धान। ३. दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध महात्मा जो छत्रपति महाराज शिवाजी के गुरु थे और जिन्हें लोग स्वामी रामदास या समर्थ रामदास भी कहते हैं। विशेष—स्वामी रामदास का जन्म शक सं० १५३० की रामनवमी के दिन गोदावरी के तट पर जंबू नामक स्थान में एक ब्राह्मण के घर हुआ था। पहले इनका नाम नारायण था। ये बाल्यवस्था से ही बहुत रामभक्त थे। कहते हैं कि जब ये ८ वर्ष के थे, तब एक बार रामचंद्र जी ने इन्हें दर्शन देकर कहा था कि तुम म्लेच्छों का नाश करेक धर्म को दुर्दशा से बचाओं और उसे पुनः स्थापित करो। तभी से इनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ जिसे दूर करने के लिये माता पिता ने इनका विवाह करना चाहा। पर ये विवाहमंडप से उठकर भाग गए और नासिक के पास की एक गुफा में जाकर तपस्या करने लगे। फिर बहुत दिनों तक इधर उधर तीर्थयात्रा करते रहे। उस समय तक दक्षिण भारत में इनकी साधुता की बहुत प्रसिद्ध हो चुकी थी जिसको सुनकर शिवाजी इनके दर्शन के लिये आए और तब से इनके परम भक्त हो गए। महाराज शिवाजी प्रायः सब कामों में इनसे परामर्श और आज्ञा ले लिया करते थे। कहते हैं, इन्होंनें अपने जीवन में अनेक विलक्षण चमत्कार दिखाए थे। इनकी मृत्यु शक सं० १६०३ के माघ मास में हुई थी। इनके उपदेशों और भजनों का दक्षिण भारत के अंचलों में अब तक बहुत अधिक प्रचार है।

रामदूत
संज्ञा पुं० [सं०] हनुमान जी।

रामदूती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की तुलसी। पर्या०—पर्वपुष्पी। विशल्या। सूक्ष्मपर्णी। भवन्याह्वा। २. नागदंती। नागदौन। ३. नागपुष्पी।

रामदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामचंद्र। २. एक संप्रदाय जो राज- पूताने में प्रचलित है और जिसके अधिकांश अनुयायी चमार आदि अस्पृश्य जातियों के लोग हैं।

रामधनुष
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रधनुष।

रामधाम
संज्ञा पुं० [सं०] साकेत लोक जहाँ भगवान् नित्य राम रूप में विराजमान माने जाते हैं।

रामननुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० राम+ननुआ] १. घीया। २. कद् दू। लौकी। लौवा।

रामनवमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र सुदी नवमी जिस दिन रामचंद्र जी का जन्म हुआ था। इस दिन हिंदू रामजन्म का उत्सव मनाते और व्रत रखते हैं।

रामना पु
क्रि० अ० [सं० रमण] घूमना। फिरना। विचरना। उ०— (क) एक समय कहुँ रामत माहीं। पर् यो अकेल रहेउ कोउ नाहीं।—रघुराज (शब्द०)। (ख) एक समय रामन हितै कीन्ह्यौ कहूँ पयान।—रघुराज (शब्द०)।

रामनामी
संज्ञा पुं० [हिं० राम+नाम+ई (प्रत्य०)] १. वह चादर, दुपट्टा या धोती आदि जिसपर 'राम राम' छपा रहता है और जिसका व्यवहार राम के भक्त लोग इसलिये करेत हैं जिसमें राम का नाम हरदम आँखों के सामने रहे। विशोष—इसी प्रकार कुछ कपड़ों पर कृष्ण या शिव का नाम भी छपा रहता है। २. गले में पहनने का एक प्रकार का हार जो प्रायः सोने का होता है। विशेष—इसमें छोटे छोटे कई टिकड़े या पान आदि होते हैं, जो आपस में एक दूसरे के साथ जंजीर के कई छोटे छोटे टुकड़ों या लड़ों से जड़े होते हैं। इसके बीच में प्रायः एक पान होता है, जिसमें 'राम' शब्द, किसी देवता की मूर्ति अथवा चरणाचिह्न अंकित होता और जो पहनने पर छाती पर लटकता रहता है। इसी के कारण इसे राममानी कहते हैं।

रामनौमी
संज्ञा स्त्री० [सं० रामनवमी] दे० 'रामनवमी'।

रामपात
संज्ञा पुं० [हिं० राम+पत्र] नील की जाति की एक प्रकार की झाड़ी जो आसाम देश में होती है और जिसकी पत्तियों तथा छाल से वहाँ के लोग रग बनाते हैं।

रामपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग। वैकुंठ। २. अयोध्या।

रामफटाका
संज्ञा पुं० [हिं० राम+फटाका ?] तीन खड़ी लकीरोंवाला तिलक जिसे रामानंदीय साधु लगाते हैं। इसे ऊर्ध्वपुंड्र भीट कहते हैं।

रामफल
संज्ञा पुं० [हिं० राम+फल] शरीफा। सीताफल।

रामबँटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० राम+बाँटना] वह विभाग जिसमें आधा एक व्यक्ति और आधा दूसरे व्यक्ति को मिले। आधे आध की बँटाई। विशेष—यह न्याययुक्त होती है, इसी से इसे रामबँटाई कहते हैं।

रामबबूल
संज्ञा पुं० [सं० राम+बबूल] एक प्रकार का बवूल या कीकर जो गुजरात, झंग और झेलम में अधिकता से होता है। विशेष—इसकी डालियाँ सरो की डालियों की तरह तने से सटी रहती हैं। इसकी लकड़ी कम मजबूत होती है। इसे काबुली कीकर भी कहते हैं।

रामबाँस
संज्ञा पुं० [हिं० राम+बाँस] १. एक प्रकार का मोटाबाँस जो प्रायः नालकी के डंडे बनाने के काम में आता है। २. केतकी या केवड़े की जाति का एक पौधा जिसके पत्ते नीले और खाँड़े की तरह दो ढाई हाथ लबे होते हैं। विशेष—यह सारे भारत में या तो आपसे आप होता है या कहीं कहीं बोया भी जाता है। इसकी पत्तियाँ कूटकर एक प्रकार का रेशा निकाला जाता है, जो रस्से और रस्सियाँ आदि बनाने के काम में आता है। इन पत्तियों में एक प्रकार का तेजाबी रस होता है जिसेक हाथ में लगने से छाले पड़ जाते है; इसलिये पत्तियाँ कूटने के समय कहीं कहीं हाथों में एक प्रकार के दस्ताने पहन लेत हैं। इसकी जड़ और पत्तियों का ओषधि के रूप में भी व्यवहार होता है। रेल की सड़कों के किनारे यह अकसर लगाया जाता है।

रामबान
संज्ञा पुं० [हिं० राम+सं० बाण] १. एक प्रकार का नरसल। रामशर। विशेष दे० 'रामशर'। ३. दे० 'रामबाण'।

रामबिलास
संज्ञा पुं० [सं० राम+विलास] एक प्रकार का धान।

रामबोला
संज्ञा पुं० [हिं० राम+बोला] वह जो राम राम बोलता हो। गोस्वामी तुलसीदास का एक नाम। उ०— राम को गुलाम नाम रामबोला राख्यो राम, काम यहै नाम द्वै ही कबहुँ कहत हौं।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४९९।

रामभक्त (१)
वि० [सं०] रामचंद्र का उपासक।

रामभक्त
संज्ञा पुं० हनुमान्।

रामभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] रामचंद्र।

रामभोग
संज्ञा पुं० [सं० राम+भोग] १. एक प्रकार का चावल। २. एक प्रकार का आम।

राममंत्र
संज्ञा पुं० [सं० राममन्त्र] 'रामतारक'।

रामरक्षा
संज्ञा पुं० [सं०] राम जी का एक स्तोत्र जिसके कर्ता विश्वामित्र जी माने जाते हैं। विशषे—कहते हैं कि इस स्तोत्र के मंत्रों से अभिमंत्रित किया हुआ व्यक्ति विशेष रूप से सुरक्षित रहता है।

रामरज
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की पीली मिट्टी जिसका वैष्णव लोग तिलक लगातै हैं। यह मध्य प्रदेश में नदियों (जैसे, चित्रकूट की मंदाकिनी) के किनारे बहुत मिलती है।

रामरतन
संज्ञा पुं० [हिं० राम+रत्न] चंद्रमा। (डिं०)।

रामरस
संज्ञा पुं० [हिं० राम+रस] १. नमक। २. पीसी या बनी हुई भंग। (मदरास)।

रामरसडाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० राम+रस+डाली] एक प्रकार की ऊख जो किनारा में पैदा होता है।

रामराज
संज्ञा पुं० [सं० रामराज्य] दे० 'रामराज्य'।

रामराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामचंद्र जी का शासन जो प्रजा के लिये अत्यंत सुखदायक था। २. वह शासन जिसमें रामचंद्र के शासनकाल का सा सुख हो। अत्यंत सुखदायक शासन। ३. मैसूर देश।

राम राम (१)
संज्ञा पुं० [हिं० राम] प्रणाम। नमस्कार। जैसे,— उनसे हमारा राम राम कह देना। विशष—इस पद का प्रयोग हिंदुओं में परस्पर अभिवादन के लिये होता है।

राम राम (२)
संज्ञा स्त्री० भेंट। मुलाकात। सामना। जैसे,—कभी तो हमारी उनकी राम राम होगी।

रामल
वि० [सं०] रमल संबंधी। रमल का।

रामलवण
संज्ञा पुं० [सं०] साँमर नमक।

रामलीला
संज्ञा पुं० [सं०] १. राम जी के जीवनकाल के किसी कृत्य का नाट्य। राम के चरित्रों का अभनिय। २. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३४ मात्राएँ होती हैं और अंत में 'जगण' का होना आवश्यक होता है। उ०—अजर अमर अंनत जय जय चरित श्री रघुनाथ। करत सुर नर सिद्ध अचरज श्रवण सुनि सुनि गाथ। काय मन बच नेम जानत शिला सम पर नारि। शिला ते पुनि परम सुंदर करत नेक निहारि।—केशव (शब्द०)।

रामवल्लभी
संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णवों का एक संप्रदाय जिसके अनुयायी बंगाल के कुछ जिलों में पाए जाते हैं।

रामबाण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक मे एक प्रकार का रस जो पारे, गंधक, सींगिया आदि के योग से बनता है और जो अजीर्ण के लिये बहुत उपयोगी माना जाता है।

रामबाण (३)
वि० जो तुरंत उपयोगी सिद्ध हो। तुरंत प्रभाव दिखानेवाल (औषध)।

रामवीणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की वीणा।

रामशर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नरसल या सरकंडा जो ऊख के खेतों में आप ही आप उगता है और ऊख ही के आकार प्रकार और रूप रंग का होता है। अंतर केवल इतना ही होता है कि इसमें कुछ भी रस नहीं होता। उ०—तुलसी तुम जो कहत ते संगत ही गुन होत। माँझ उकारी रामसर रस काहे नहिं होत।—तुलसी (शब्द०)।

रामशिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] गया की एक पहाड़ी जिसे लोग तीर्थ मानते हैं।

रामश्री
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का राग जिसे कुछ लोग हिंडोल राग का पुत्र मानते हैं।

रामसंडा
संज्ञा पुं० [सं० रामशर] एक प्रकार की घास जिससे रस्सी या बाध बनाते हैं। काँस।

रामसखा
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुग्रीव। २. निषादराज। गुह। उ०—राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।—मानस, २। १९३।

रामसनेही (१)
संज्ञा पुं० [हिं० राम+स्नेह] वैष्णवों का एक संप्रदाय जो रपाजपूताने के शाहपुरा राज्य में प्रचलित है। विशेष—इस मत का प्रवर्तक 'रामचरण' नामक एक साधुथा। इस मत में जोर जोर से 'राम राम' पुकारना ही मुख्य कृत्य माना जाता है।

रामसनेही (२)
वि० राम में स्नेह रखनेवाला। रामभक्त।

रामसर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

रामसीता
संज्ञा पुं० [हिं० राम+सीता] शरीफा। सीताफल।

रामसुंदर
संज्ञा पुं० [हिं० राम+सुंदर] एक प्रकार की नाव। उ०—निवाड़े, भौलिये, बजरे, चलके, मोरपंखी, सोनामुखी, श्यामसुंदर, रामसुंदर और जितने ढब की नावें थी, सुथरे रूप से सजी ससाई कसी कसाई सौ सौ लचके खाती आती जाती लहराती पढ़ी फिरती थीं।—इंशाअल्ला खाँ (शब्द०)।

रामसेतु
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण भारत की अंतिम सीमा पर रामश्वेर तीर्थ के पास समुद्र में पड़ी हुई चट्टानों का समूह जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि यह वही पुल है जिसे राम ने लंका की चढ़ाई के समय बँधवाया था।

रामसेनुर †
संज्ञा पुं० [देश०] कास नाम का एक तृण।

रामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुंदर स्त्री। २. गानकला में प्रवीण स्त्री। ३. कार्तिक बदी ११ की तिथि। ४. हींग। ५. ईंगुर। शिंगरफ। ६. नदी। ७. सपेद भटकटैया। ८. घीकुआर। ९. शीतल। १०. अशोक। ११. गोरोचन। १२. सुगंधवाला। १३. गेरू। १४. त्रायमाण लता। १५. तमालपत्र। १६. लक्ष्मी। १७. सीता। १८. रुक्मणी। १९. राधा। २०. इँद्रवज्रा और उपेंद्रवज्रा के मेल से बना हुआ एक उपजाति वृत्त जिसके प्रथम दो चरण इंद्रवज्रा के और अंतिम दो चरण उपेंद्रवज्रा के होते हैं। उ०—रामै भजौ मित सुप्रेमवारी। दैहैं जु तेरे सब दुःख टारी। सुनेम याही जब सत्य धारो। सुघाम अंत हरिके सिवारो।—जगन्नाथप्रसाद (शब्द०)। २१. आर्या छँद का १७ वाँ भेद जिसमें ११ गुरु और ३५ लघु वर्ण होते हैं। २२. आठ अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण, यगण और दो लघु वर्ण होते हैं। उ०—काम तजु काम तजु। राम भजु राम भजु।—जगन्नाथप्रसाद (शब्द०)। २३. प्रियतमा। पत्नी (को०)।

रामातुलसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह तुलसी जिसके डंठल का रंग सफेदी लिए हरा होता है, काला नहीं होता। विशेष—तुलसी दो प्रकार की होती है—रामा और कृष्णा।

रामानंद
संज्ञा पुं० [सं० रामानन्द] एक प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य जिनका चलाया हुआ 'रामावत' नामक संप्रदाय अबतक प्रच- लित हैं। विशएष—रामानंद जी का जन्म सं० १३५६ ई० में प्रयाग में पुण्यसदन या भूरिकर्मा नामक एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण के घर हुआ था। पहले इनका नाम रामदत्त था। बाल्यावस्था में इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। कहते है, बारह वर्ष की अवस्था में ही ये सब शास्त्र पढ़कर पूर्ण पंडित हो गए थे और दर्शन शास्त्र का विशेष रूप से अध्यंयन करने के लिये काशी चले आए थे। पहले ये एक स्मार्त अध्यापक से पढ़ने लगे। एक दिन रामानुज की शिष्यपरंपरा के राघवानंद से इनकी भेंट हुई जिन्होंने इन्हें देखकर कहा कि तुम्हारी आयु बहुत थोड़ी है और तुम अभी तक हरि की शरण में नहीं आए हो। इसरपर ये राघवानंद से मंत्र लेकर उनके शिष्य हो गए और उनसे योग सीखने लगे। उसी समय इनका नाम रामानंद रखा गया। इनके समय में प्रायः सारे भारत में मुसलमानों के अनेक प्रकार के अत्याचार हुए थे, जिन्हें देखकर इन्होंने जाति पाँति का बंधन कुछ ढीला करना चाहा; और सबको राम नाम के महामंत्र का उपदेश देकर अपने 'रामावत' संप्रदाय में संमिलित करना आरंभ किया। रामानुज के श्रीवैष्णव संप्रदाय की संकुचित सीमा तोड़कर इन्होंने उसे अधिक विस्तृत तथा उदार बनाया था। इनका शरीरांत सं०, १४६७ में हुआ था। इनके मुख्य शिष्यों में पीपा, कबीर, सेना, धना, रैदास आदि हैं।

रामानंदी
वि० [हिं० रामनंद+ई (प्रत्य०)] १. रामानंद संबंधी। २. रामानंद के संप्रदाय का अनुयायी।

रामानुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामचंद्र के छोटे भाई लक्ष्मण। उ०—(क) रामानुज लघु देख खचाई।—मानस, ६। ३५। (ख) रामानुज आगे करि आए जहँ रघुनाथ।—मानस, ५। २०। वैष्णव मत के एक प्रसिद्ध आचार्य और श्रीवैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक। विशेष—कहते हैं, रामानुज का जन्म सं० १०७३ में हुआ था। बाल्यवस्था में ये काँचीपुर (कांजीवरम्) में रहते थे। पहले ये वैष्णव यामुन मुनि के अनुयायी हुए और फिर उनकी गद्दी भी इन्हीं को मिली और ये श्रीरगंम् में रहने लगे। पर वहाँ के राजा शँकराचार्य के अद्वैत मत के अनुयायी थे। अतः उनसे अनबन हो जाने का कारण ये मैसूर चले गए। वहाँ के जैन राजा विष्णुवर्धन को इन्होंने वैष्णव बना लिया था। उसी राज्य में सं० ११९४ में १२१ वर्ष की अवस्था में इनका देहांत हुआ था। इन्होंने वेदांतसार, वेदांतदीप तथा वेदार्थसंग्रह ये तीन ग्रंथ बनाए थे और ब्रह्मसूत्र तथा भगवद् गीता पर भाष्य किए थे। इनके दार्शनिक सिद्धांतों के आधार उपनिषद् हैं। वेदांत में इनका सिद्धांत विशिष्टद्वैत के नाम से प्रसिद्ध है।

रामप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] दार चीनी।

रामायण
संज्ञा पुं० [सं०] वह ग्रंथ जिसमें रामचरित वर्णित हो। रामचंद्र के चरित्र से संबंध रखनेवाला ग्रंथ। विशष—संस्कृत में रामायण नाम के बहुत ग्रंथ हैं, जिनमें से वाल्मीकि कृत रामायण सबसे प्राचीन और अधिक प्रसिद्ध है। यह आदिकाव्य है और इसके रचयिता वाल्मीकि आदिकवि हैं। वाल्मिकी ऋषि रामचंद्र के समकालीन थे; अतः उनका ग्रंथ रामायण सबसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है। इसमें सात कांड हैं जिनमें से प्रत्येक कांड अनेक सर्गों में विभक्त है। साधारणतः भारत में तीन प्रकार के वाल्मीकीय रामायण पाए जाते हैं—औदीच्य, दाक्षिणात्य और गौड़ीय। इन तीनों रामायणों के सर्गों की संख्या और पाठ आदि में बहुत कुछ अंतर हैं।इतने प्राचीन काव्य की भिन्न भिन्न प्रतियों में इतना अधिक अंतर होना स्वाभाविक भी है। बहुत कुछ इसी रामायण के आधार पर और स्थान स्थान पर अन्यान्य रामायणों की सहायता लेकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने 'रामचरितमानस' नामक जो प्रसिद्ध भाषाकाव्य लिखा है उसका बोध भी इस 'रामायश' शब्द से होता है। वाल्मीकि कृत रामायण के अतिरिक्त अध्यात्म रामायण आदि जो कई रामायण है, वे सांप्रदायिक हैं।

रामायणी (१)
वि० [सं० रामयणीय] रामायण संबंधी। रामायण का।

रामायणी (२)
संज्ञा पुं० [सं० रामायण+ई (प्रत्य०)] १. वह जो रामायण का विशेष रूप से जानकर और पंडित हो। २. वह जो रामायण की कता कहता हो। ३. वह जो रामलीला में रामायण गाता या पाठ करता हो।

रामायन
संज्ञा पुं० [सं० रामायण] दे० 'रामायण'।

रामायुध
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष।

रामावत
संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णव आचार्य रामानंद का चलाया हुआ एक प्रसिद्ध संप्रदाय। विशेष—इस संप्रदाय के अनुसार मनुष्य ईश्वर की भक्ति करके सांसिरिक संकटों तथा आवागमन से बच सकता है। यह भक्ति राम की उपासना से प्राप्त हो सकती है और इस उपासना के अधिकारी मनुष्य मात्र हैं। जाति पाँति का भेद इसमें किसी प्रकार का अवरोध उपस्थित नहीं कर सकता।

रामिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. रमण। २. कामदेव। ३. स्वामी। पति। ४. वह जिससे प्रेम किया जाय। प्रेमपात्र।

रामी
संज्ञा स्त्री० [सं० रामा] कास नामक घास।

रामेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण भारत में समु्द्र के तट पर स्थापित एक प्रसिद्ध शिवलिंग। विशेष—इसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि इसे रामचंद्र जी ने लंका का पुल बाँधने के समय स्थापित किया था। यह भारत के चार मुख्य और सबसे बड़े तीर्थं में से एक तीर्थ है।

रामेषु
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामशर। २. एक प्रकार की ईख।

रामोद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

रामोपनिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] अथर्ववेद के अंतर्गत एक उपनिषद् का नाम।

राम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात्रि। रात।

राय (१)
संज्ञा पुं० [सं० राजन्, राज, प्रा० राय (संस्कृत में भी प्रयुक्त)] १. राजा। २. छोटा राजा या सरदार। सामंत। उ०—सब राजा रायन कै बारी। बरन बरन पहिरे सब सारी।—जायसी (शब्द०)। ३. संमान की एक उपाधि। यौ०—रायबहादुर। राय साहब। विशेष—किसी किसी शब्द के पहले लगकर यह श्रेष्ठता या बड़ाई भी सूचित करता है, जैसे—रायकरौंदा, रायमुनिया। ४. भाट। वंदीजन। ५. गंधर्वों की उपाधि। ६. दे० 'रायबेल'। उ०—पीपल रूना फूल बिन फल बिन रूनी राय। एकाएकी मानुषा टप्पा दीया आय।—कबीर (शब्द०)।

राय (२)
संज्ञा स्त्री० [फा०] संमति। अनुमति। मत। सलाह। क्रि० प्र०—देना।—लेना।—उहराना। मुहा०—राय कायम करना=किसी विषय में मत निश्चित करना। संमति स्थिर करना। निर्णय करना।

रायकरौंदा
संज्ञा पुं० [हिं० राय (=बड़ा)+करौंदा] बड़ा करौंदा जिसके फल छोटे बेर के बराबर, सफेद और गुलाबी रंग मिले बहुत सुंदर होते हैं।

रायकवाल
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति।

रायज
वि० [अ०] जिसका रवाज हो। जो व्यवहार में आ रहा हो। प्रचलित। चलनसार।

रायजादा
संज्ञा पुं० [सं० राज, प्रा० राय+फा० जादह्] १. राय का पुत्र। २. एक जाति।

रायजादी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० राज, प्रा० राअ, राय+फा० जादी] राजकुमारी। राजपुत्री। उ०—रायजादी घर अंगणइ छुटे पटे छंछाल।—ढोला०, दू० ५४०।

रायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीड़ा। दर्द। २. आवाज करना। ध्वनि होना [को०]।

रायता
संज्ञा पुं० [सं० राजिकाक्त] दही या मठे में उबाला हुआ साग, कुम्हड़ा, लौआ या बुँदिया आदि जिसमें नमक, मिर्च, जीरा, राई आदि मसाले पड़े रहते हैं। उ०—पानौरा रायता पकौरी। डमकौरी मुँगछी सुठि सौंरी।—सूर (शब्द०)।

राय बहादुर
संज्ञा पुं० [हिं० राय+फा०=बहादुर] एक प्रकार की उपाधि जो पहले भारत की अँगरेजी सरकार की ओर से रईसों, जमींदारों तथा सरकारी कर्मचारियों आदि को दी जाती थी।

रायबेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० राय+बेल] एक प्रकार की लता जिसमें बहुत ही सुंदर और सुंगधित दोहरे फूल लगते हैं।

रायबेलि (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'रायबेल'। उ०—रायबेलि महकति सखो अति सुगध रस झेलि। क्यों न रमत तू श्याम सों कंठ भुजा दोउ मेलि।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७८६।

रायभाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी की धारा। नदी का प्रवाह [को०]।

रायभोग
संज्ञा पुं० [सं० राजभोग] १. एक प्रकार का धान। राजभोग। उ०—रायभोग औ काजर रानी। झिनवा रूद औ दाउदखानी।—जायसी (शब्द०)।

रायमुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० राय+मुनिया] लाल नामक पक्षो की मादा। सदिया। रायमुनिया। उ०—जनु रायमुनो तमाल पर बैठो विपुल सुख आपने।—मानस, ६। १०२।

रायरंगाल
संज्ञा पुं० [सं० रायरङ्गाल] एक प्रकार का नृत्य जिसे केशव ने रायरंगाल लिखा है। दे० 'रायरंगाल'।

रायरायान
संज्ञा पुं० [हिं० राय+राय+फा० आन (प्रत्य०)] १. राजाऔं के राजा। राजाधिराज। २. मुगलों के समय का एकउपाधि जो प्रायः रईसों, जमीदारों और राजकर्मचारियों आदि को दी जाती थी।

रायरासि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० राजराशि] राजा का कोष। शाही खजाना। उ०—भईं मुदित सब ग्राम वघूटी। रंकन्ह रायरासि जनु लूटी।—तुलसी (शब्द०)।

रायल
वि० [अं०] १. राजकीय। शाही। २. छापने की कलों तथा कागज की एक नाज जो २० इंच चौड़ी और २६ इंच लंबी होती है।

रायसा
संज्ञा पुं० [सं० रहस्य या राजसूय १] १. वह काव्य जिसमें किसी राजा का जीवनचरित्र वर्णित हो। रासो। जैसे,—पृथ्वीराज रायसा। २. युद्ध। लड़ाई। संग्राम। उ०— भयौ रायसौ दुहुनि कौ, जेहिं बिधि सौ निरधारि। हम्मीर०, पृ० २।

राय साहब
संज्ञा पुं० [हिं० राय+फा० साहब] एक प्रकार की पदवी जो पहल भारत की अँगरेजी सरकार की ओर से रईसों और राजकर्मचारियों आदि को दी जाती थी।

रार (१)
संज्ञा पुं० [सं० रारि, प्रा० राड़ि (=लड़ाई)] झगड़ा। टंटा। हुज्जत। तकरार। उ०—खंजन जुग माना करत लराई की बुझावत रार।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—ठानना।—मचाना।

रार (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० राल] दे० 'राल'।

रार पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० रराट (=भ्रू)] नेत्र। आँख। उ०— (क) याँ मुख झूठी आखनौं पूगौ साह दवार। अरज हुवंता असपती कीची रत्ती रार।—रा० रू०, पृ० १०२। (ख) नवहत्थो मत्थो बड़ो रोस भटक्कै रार।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ११।

रारि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० रार] लड़ाई। झगड़ा। रार। उ०— राम रावनहि परसपर होति रारि रन घोर।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८९।

राल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का बहुत बड़ा सहाबहार पेड़ जो दक्षिण भारत के जंगलों में होता है। विशष—इसकी लकड़ी किसी काम की नहीं होती, पर इसका नियसि बहुत काम का होता है, जो 'राल' के नाम से बाजारों में मिलता है। यह निर्यास दो प्रकार का होता है—सफेद और काला। जव वृक्ष प्रायः दो वर्ष का होता है, तब उसके तने में जगह जगह काट देते हैं, जहाँ से चैत से अगहन तक निर्यास निकला करता है। यह निर्यास प्रायः दस वर्ष तक निकलता रहता है। इसका व्यवहार प्रायः बार्निश आदि के काम में होता है; और कुछ औषधों में भी इसका प्रयोग होता है। २. इस वृक्ष का निर्यास। धूना। धूप। यौं०—रालकार्य—लाल वृक्ष।

राल (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कंबल।

राल (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० लाला] १. वह पतला लसदार थूक जो प्रायः बच्चों और कभी कभी बुड्ढों के मुँह से आपसे आप बहा करता है। दाँतों की पीड़ा आदि मे कोई कोई दबा लगाने पर भी यह मुँह से निकलकर गिरने लगती है। लार। मुहा०—राम गिरना, चूना या टपकना=किसी पदार्थ को देखकर उसे पाने की बहुत इच्छा होना। मुँह में पानी भर आना। जैसे,—जहाँ कोई अच्छी चीज दिखाई दी कि तुम्हारे मुँह से राल टपकी। २. चौपायों का एक रोग जिसमें उन्हें खाँसी आती है और उनके मुँह से पतला लसदार पानी गिरता है।

रालना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० रलना] १. डालना। फेंकना। उ०— (क) माँड पोवइ कण रालजे लाल विहूणी बाजै है घंट।—बी० रासो, पृ० ७९। (ख) बरंगा राल वरमाल सुरा वरैं, त्रिपत पंखाल दिल खुले ताला।—रघु० रू०, पृ० २०। २. ढालना। बहाना। उ०—रोय सुत किम नीर रालै दलैं, भावी कौण, टालै, हुवो होवण हार।—रघु० रू०, पृ० ११६।

रालना पु † (२)
क्रि० अ० [सं० लल (=चाहना), प्रा० लल्ल?] पसंद करना। चाहना। इच्छा करना। उ०—कंत कहै सुनि सर्व सोहागिनि तेरा बोल न रालौं। अब कै क्यौही छूटन पाऊँ बहुरि न तोहि सँभालौ।—सुंदर० ग्रं० भा० २, पृ० ८२७।

राली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का बाजरा जिसके दाने बहुत छोटे होते हैं। विशेष—यह प्रायः संयुक्त प्रांत और बुंदेलखंड में होता है। यह फागुन चैत में बोया जाता है और बैसाख में तैयार होता है।

राव (१)
संज्ञा पुं० [सं० राजा, प्रा० राय] १. राजा। २. सरदार। दरबारी। ३. भाट। बंदीजन। ४. कच्छ और राजपूताने के कुछ राजाओं की एक पदवी। ५. श्रीमंत। अमीर। धनाढ्य।

राव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ध्वनि। गुंजार। २. चिल्लाहट। रंभण (को०)।

राव (३)
संज्ञा पुं० [देश०] छोटे आकार का एक पेड़ जिसकी लकड़ी कुछ ललाई लिए, चिकनी और मजबूत होती है। विशेष—यह हिमालय की तराई में हजारे और शिमले से भूटान तथा शिकम तक होता है। इसकी लकड़ी की प्रायः छड़ियाँ बनाई जाती हैं।

रावचाव
संज्ञा पुं० [हिं० राव (=राजा)+चाव] १. नृत्य गीत आदि का उत्सव। राग रंग। २. प्यार। लाड़। दुलार।

रावट † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० रावल] महल। राजभवन।

रावट पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० राजवर्तक] दे० 'लाजवर्द'। उ०— रावन लंका मैं डही ओई हम डाहन आइ। कनै पहार होत है रावट को राखै गहि पाइ।—पदमावत, पृ० १९६।

रावटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० रावट] १. कपड़े का बना हुआ एक प्रकार का छोटा घर या डेरा जिसके बीच में एक बँडेर होती है और जिसके दोनों ओर दो ढालुएँ परदे होते हैं। यह बड़े खेमों के साथ प्रायः नौकरों आदि के ठहरने की लिये रखी जाती है।छोलदारी। २. किसी चीज का बना हुआ छोटा घर। उ०— जिहिं निदाघ दुपहर रहै भई माह की राति। तिहि उसांर की रावटी खरी आवटी जाति।—बिहारी (शब्द०)। ३. बारह दरी। ४. दे० 'लाजवर्द'।

रावण (१)
वि० [सं०] जो दूसरों को रुलाता हो। रुलानेवाला।

रावण (२)
संज्ञा पुं० १. लंका का प्रसिद्ध राजा जो राक्षसों का नायक था और जिसे युद्ध में भगवान् रामचंद्रा ने मारा था। विशेष—एक बार लंका में राक्षसों के साथ विष्णु का घोर युद्ध हुआ था जिसमें राक्षस लोग परास्त होकर पाताल चले गए थे। उन्हीं राक्षसों में सुमल्ली नामक एक राक्षस था, जिसको कैकसी नाम की कन्या बहुत सुंदरी थी। सुमाली ने सोचा कि इसी कन्या के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करा के विष्णु से बदला लेना चाहिए; इसी लिये उसने अपनी कन्या को पुलत्स्य के लड़के विश्रवा के पास संतान उत्पन्न कराने को भेजा। विश्रवा के वीर्य से कैकसी के गर्भ से पहला पुत्र यही रावण हुआ जिसके दश सिर थे। इसका रूप बहुत ही विकराल और स्वभाव बहुत ही क्रूर था। इसके उपरांत कैकसी के गर्भ से कुंभकर्ण और विभीषण नाम के दो और पुत्र तथा शूर्षणखा नाम की एक कन्या हुई। एक दिन अपने वैमात्रेय कुबेर को देखकर रावण ने प्रतिक्षा की कि मै भी इसी के समान संपन्न और तेजवान् बनूँगा। तदनुसार वह अपने भाइयों को साथ लेकर घोर तपस्या करने लगा। दस हजार वर्ष तक तपस्या करने के उपरांत भी मनोरथ सिद्ध होता न देखकर इसने अपने दसों सिर काटकर अग्नि में डाल दिया। तब ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर इसे वर दिया कि दैत्य, दानव, यक्ष आदि में से कोई तुम्हें मार न सकेगा। तब सुमाली न रावण से कहा कि अब तुम लंका पर अधिकार करो। उस समय लंका पर कुबेर का अधिकार था। रावम का बहुत जोर देखकर विश्रवा की आज्ञा से कुबेर तो लंका पर अधिकार कर लिया तथा मय दानव की कन्या मंदोदरी से विवाह कर लिया। इसी मदोदरी के गर्भ से मेघनाद का जन्म हुआ। ब्रह्मा के वर के प्रभाव से रावण ने तीनों लोक जीत लिए और ईंद्र, कुबेर, यम आदि को परास्त कर दिया। अब इसका अत्याचार बहुत बढ़ गया। यह सबको सताने लगा और लोगों की कन्याओं तथा पत्नियों का हरण करने लगा। एक बार सहस्त्रार्जुन ने इसे युद्ध में परास्त करेक कैद कर लिया था, पर पुलस्त्य के कहने पर छोड़ दिया। बाली से भी यह एक बार बुरी तरह परास्त हुआ था। जिस समय भगवान् रामचंद्र अपने साथ लक्ष्मण और सीता को लेकर दंडकारण्य में वनवास का समय बिता रहे थे, उस समय यह सीता को एकातं में पाकर छल से उठा लाया था। तब रामचद्र ने समु्द्र पर सेतु बाँधकर लंका पर चढ़ाई की और इसके साथ घोर युद्ध करेक अंत में मार डाला और इसके अत्याचार से पृथ्वी की रक्षा की। पर्या०—पौलस्त्य। दशकंधर। दशानन। राक्षसेंद्र। २. चिल्लाना। आक्रंदन (को०)। ३. एक मुहूर्त का नाम (को०)।

रावणगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० रावणगङ्गा] पुराणानुसार सिंहल द्वीप की एक नदी का नाम।

रावणारि
संज्ञा पुं० [सं०] रावण को मारनेवाले, रामचंद्र।

रावणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. रावण का पुत्र। २. मेघनाद।

रावत
संज्ञा पुं० [सं० राजपुत्र, प्रा० राय + उत्त] १. छोटा राजा। २. शूर। वीर। बहादुर। सेनापति। बड़ा योद्धा। ४. सामत। सरदार। उ०—हो रावत मंडली कोरि मच्छर मन मंडहु। सो तुरंग तन पिस्यौ संग बाहिर गहि कढ्ढहु।—पृ० रा०, ६४।३९।

रावन (१)
संज्ञा पुं० [सं० रावण] दे० 'रावण'।

रावन (२)
वि० [सं० रमण] रमण करनेवाला। उ०—हौं रामा तू रावन राऊ।—जायसी ग्रं०, पृ० १३९।

रावनगढ़ पु
संज्ञा पुं० [हिं० रावण + गढ़] लंका।

रावना पु
क्रि० स० [सं० रावण (रुलाना)] दूसरे को रोगे में प्रवृत्त करना। रुलाना। उ०—इहाँ भँवर मुख वात हिलावसि। उहाँ सुरुज कहँ हँसि हँसि रावसि।—जायसी (शब्द०)।

रावबहादुर
संज्ञा पुं० [हिं० राज + फ़ा० बहादुर] एक प्रकार की उपाधि जो पहले भारत की अँगरेजी सरकार प्रायः दक्षिण भारत के रईसों आदि को देती थी।

रावर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० राजपुर + प्रा० राय + उर] रनिवास। राज- महल। अंतःपुर। उ०—(क) रावर में नृप बोलि लिए गुनि। ठाढ़ किए परदा तट लै मुनि।—केशव (शब्द०)। (ख) रावण जैहे गूढ़ थल, रावर लुटै बिशाल। मंदोदरी कढोरिवो, अरु रावण को काल।—केशव (शब्द०)।

रावर (२)
वि० [हिं० राउ + कर (विभक्ति)] [वि० स्त्री० राउरी, रावरी] आपका। भवदीय। उ०—टूट्यो सो न जुरैगो सरासन महेस जू को रावरी पिनाक में सरीकता कहा रही।—तुलसी (शब्द०)।

रावरखा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा और ऊँचा पेड़। वुरुल। विशेष—यह वृक्ष हिमालय में १३,००० फुट की ऊँचाई तक होता है। इसकी छाल बहुत सफेद और चमकीली होती है। इसकी लकड़ियों से पहाड़ी मकानों की छतें और छाल से झोपड़ियाँ छाई जाती हैं। इसकी पत्तियाँ प्रायः चारे के काम में आती हैं।

रावरा
सर्व० [हिं०] दे० 'रावर'।

रावराजा
संज्ञा पुं० [हिं०] सँमानसूचक एक उपाधि।

रावल (१)
संज्ञा पुं० [सं० राजपुर, हिं० राउर] अतःपुर। राजमहल। रनिवास। उ०—भए बिनु भोर वधू शोर करि रोइ उठी भोइ गई रावल में सुनो साधु भाषिए।—प्रियादास (शब्द०)।

रावल (२)
संज्ञा पुं० [पा० राजुल] [स्त्री० रावलि, रावली] १. राजा। उ०—चेतन रावल पावन खंडा सहजहि मूलै बाँधै।ध्यान धनुष धरि ज्ञानवान बेन योग सारे सर साधै।— कबीर (शब्द०)। २. राजपूताने के कुछ राजाओँ की उपाधि। ३. प्रधान। सरदार। ४. एक प्रकार का आदरसूचक संबोधन। उ०—(क) रावल जी ड्यौढ़ी के भीतर न जाना ।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। (ख) 'रावलि कहाँ है' ? किन कहत हौ कातें ? 'अरी रोष तरज' रोप कै कियो मैं का अवाहे कीं ?—पद्माकर (शब्द०)। ५. श्रीबदरीनारायण के प्रधान पंडे की उपाधि। ६. मथुरा के पास के एक गाँव का नाम। कहते हैं, यहीं राधिका का जन्म हुआ था।

रावसाहब
संज्ञा पुं० [हिं० राव + फ़ा० साहब] एक प्रकार की उपाधि जो पहले भारत की अँग्ररेजी सरकार की ओर से दक्षिण भारत के रईसों आदि को दी जाती थी।

रावी
संज्ञा स्त्री० [सं० एरावती] पंजाब की पाँच नदियों में से एक नदी जो हिमालय से निकलकर प्रायः दो सौ कोस बहती हुई मुलतान से बीस कोस ऊपर चनाब में मिलता है।

राशन
संज्ञा पुं० [अं०] १. रोजमर्रा की निश्चित खूराक। २. नियंत्रित तथा निश्चित मात्रा में वस्तुओं का वितरण। जैसे, चीनी का राशन, तेल का राशन।

राशनिंग
संज्ञा पुं० [अं०] खाद्य पदार्थों या अन्य वस्तुओँ का समान अनुपात मे वितरण का व्यवस्था।

राशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक ही तरह की बहुत सी चीजों का समूह। ढेर। पुंज। जैसे,—अन्न की राशि। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। मुहा०—राशि बैठना = गोद बैठना। दत्तक पुत्र होना। ३. क्रांतिवृत्त में पड़नेवाले विशिष्ट तारासमूह जिनकी संख्या बारह है और जिनके नाम इस प्रकार हैं—मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुंभ और मीन। विशेष—आकाश में पृथ्वी जिस मार्ग से होकर सूर्य की परिक्रमा करती है, वह क्रांतिवृत्त कहलाता है। परंतु पृथ्वी पर से देखने पर साधारणतः यही जान पड़ता है कि सूर्य ही उस क्रांतिवृत्त पर होकर चलता और पृथ्वी की परिक्रमा करता है। इस क्रांतिवृत्त पर दोनों ओर प्रायः ८० अंश तक अनेक तारासमूह फैले हुए हैं। इनमें से प्रत्येक तारासमूह में से होकर गुजरने में सूर्य को प्रायः एक मास लगता है; इसी विचार से समस्त क्रांतिवृत्त बराबर बराबर बारह भागों में बाँट दिया गया है जिन्हें राशि कहते हैं। प्रत्येक तारासमूह की आकृति के अनुसार ही उनका नाम भी रख लिया गया है और उसमें के तारे भी गिन लिए गए हैं। जैसे,—मेष कहलानेवाली राशि का आकार भी मेष या भेड़े के समान है और उसमें ६६ तारे हैं। इसी प्रकार १४१ तारों के एक समूह का आकार वृष या बैल के समान है; और इसी लिये उसे वृष कहते हैं। फलित ज्योतिष में भिन्न भिन्न राशियों के भिन्न भिन्न स्वरूप, वर्ण, स्वभाव, गुण, कार्य, अधिपति, देवता आदि दिए गए हैं और उनमें से प्रत्येक में जन्म लेने का अलग अलग फल कहा गया है। विद्वानों का अनुमान है कि राशिविभाग भारतीय आर्यों के प्राचीन ज्योतिष में नहीं था, केवल नक्षत्रविभाग था। राशिविभाग बाबुलवालों से लिया गया है। वैदिक साहित्य में राशियों के नाम नहीं हैं, केवल नक्षत्रों के नाम हैं। विशेष दे० 'नक्षत्र'। मुहा०—राशि आना = अनुकूल होना। मुआफिक होना। राशि मिलना = (१) दो व्यक्तियों का एक ही राशि में जन्म होना। (२) मेल मिलना। पटरी बैठना।

राशिचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] मेष, वृष, मिथुन आदि राशियों का चक्र या मंडल। ग्रहों के चलने का मार्ग या वृत्त। भचक्र। विशेष दे० 'राशि'।

राशिनाम
संज्ञा पुं० [सं० राशिनामन्] फलित ज्योतिष के अनुसार किसी व्यक्ति का वह नाम जो उसके जन्म समय की राशि के अनुसार होता है। विशेष—यह नाम व्यक्ति के उस नाम से भिन्न होता है, जिससे वह लोक में प्रसिद्ध होता है। लोग प्रायः अपना राशिनाम नहीं लेते। इस नाम का व्यवहार धर्मकार्यों और ज्योतिष संबंधी गणनाओं में ही होता है।

राशिप
संज्ञा पुं० [सं०] किसी राशि का स्वामी या अधिपति देवता।

राशिभाग
संज्ञा पुं० [सं०] किसी राशि का भाग या अंश। भग्नांश। (ज्योतिष)।

राशिभोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी ग्रह का किसी राशि में कुछ समय तक रहना। २. उतना समय जितना किसी ग्रह को किसी राशि में रहने में लगता है। विशेष दे० 'राशि'।

राशिवर्धन
वि० [सं०] १. संख्यापूरक। २. (लाक्ष०) मात्र संख्या बढ़ानेवाला। व्यर्थ का। बेकार [को०]।

राशी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० राशि] दे० 'राशि'।

राशी (२)
वि० [अ०] रिश्वत खानेवाला। घूसखोर।

राष्ट
संज्ञा [?] फारसी संगीत में १२ मुकामों में से एक।

राष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. राज्य। २. देश। मुल्क। ३. प्रजा। ४. पुराणानुसार पुरुरवा के वंशज काशी के पुत्र का नाम। ५. वह बाधा जो संपूर्ण देश में उपस्थित हो। ईति। ६. वह लोकसमुदाय जो एक ही देश में बसता हो या जो एक ही राज्य या शासन में रहता हुआ एकताबद्ध हो। एक या समभाषा भाषी जनसमूह। नेशन। जैसे, भारतीय राष्ट्र।

राष्ट्रक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राज्य। २. देश।

राष्ट्रक (२)
वि० राष्ट्र संबंधी। राष्ट्र का।

राष्ट्रकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] राजा या शासक का प्रजा पर अत्याचार करना।

राष्ट्रकूट
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध क्षत्रिय राजवंश जो आजकल राठौर नाम से प्रसिद्ध है। विशेष दे० 'राठौर'।

राष्ट्रगीप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। २. राजा का प्रतिनिधि कोई बड़ा शासक।

राष्ट्रगीप (२)
वि० राज्य की रक्षा करनेवाला।

राष्ट्रतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० राष्ट्रतन्त्र] राज्य का शासन करने की प्रणाली।

राष्ट्रपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी राष्ट्र का स्वामी। २. आधुनिक प्रजातंत्र शासनप्रणाली में वह सर्वप्रधान शासक जो बहुमत से, राजा के समान शासन का सब काम करने के लिये, चुना जाता है। ३. किसी मंडल का शासक। हाकिम। विशेष—गुप्तों के समय में एक प्रदेश। जैसे,—कुरु पांचाल के शासक राष्ट्रपति कहलाते थे।

राष्ट्रपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। २. कंस के आठ भाइयों में एक भाई का नाम।

राष्ट्रभाषा
संज्ञा स्त्री० [राष्ट्र + भाषा] १. वह भाषा जिसमें राष्ट्र के काम किए जायँ। राष्ट्र के कामधाम या सरकारी कामकाज के लिये स्वीकृत भाषा। २. वह भाषा जिसे राष्ट्र के समग्र नागरिक अन्य भाषा भाषी होते हुए भी जानते समझते हों और उसका व्यवहार करते हों। राष्ट्र द्वारा मान्यताप्राप्त भाषा।

राष्ट्रभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। २. शासक। ३. राजा भरत के एक पुत्र का नाम। ४. प्रजा। रिआया।

राष्ट्रभृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो राज्य की रक्षा या शासन करता हो। २. प्रजा।

राष्ट्रभेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन राजनीति के अनुसार वह उपाय जिसके द्वारा किसी शत्रु राजा के राज्य में उपद्रव या विद्रोह खड़ा किया जाता है। २. किसी राष्ट्र के शासनाधिकारियों में फुटमत या एका न होना। ३. राज्य का विभाजन।

राष्ट्रवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] राजा दशरथ और रामचंद्र के एक मंत्री का नाम।

राष्ट्रवादी
संज्ञा पुं० [सं० राष्ट्रवादिन्] वह व्यक्ति, संस्था, दल आदि जो राष्ट्र कीःएकता, संपन्नता आदि हितों को सर्वोपरि माने और उसी को प्रमुखता दे। संपूर्ण राष्ट्र के हित को सर्वोपरि माननेवाला। (अं० नेशनलिस्ट)।

राष्ट्रवासी
संज्ञा पुं० [सं० राष्ट्रवासिन्] [स्त्री० राष्ट्रवासिनी] १. राष्ट्र में रहनेवाला। २. परदेसी। विदेशी।

राष्ट्रविप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] राज्य में होनेवाला विप्लव। विद्रोह। बलवा।

राष्ट्रांतपालक
संज्ञा पुं० [सं० राष्ट्रान्तपालक] राज्य की सीमा की रखवाली करनेवाला।

राष्ट्रिक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजा। २. प्रजा।

राष्ट्रिक (२)
वि० राष्ट्र संबंधी। राष्ट्र का।

राष्ट्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंटकारि। भटकटैया।

राष्ट्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राष्ट्र का स्वामी, राजा। २. प्राचीन संस्कृत नाटकों को भाषा में राजा का साला।

राष्ट्री (१)
संज्ञा पुं० [सं० राष्ट्रीन्] १. राज्य का अधिकारी, राजा। २. प्रधान शासक।

राष्ट्री (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] रानी। राजपत्नी।

राष्ट्रीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन नाटकों की भाषा में राजा का साला।

राष्ट्रीय (२)
वि० राष्ट्र संबंधी। राष्ट्र का। विशेषतः अपने राष्ट्र या देश से संबंध रखनेवाला। जैसे,—(क) यह ग्रंथ राष्ट्रीय भावों से पूर्ण है। (ख) आपको अपना राष्ट्रीय वेश धारण करना चाहिए।

राष्ट्रीयकरण
संज्ञा पुं० [सं० राष्ट्रीय + करण] १. भूमि, संपत्ति, व्यवसाय, रेलवे आदि को राष्ट्रीय व्यवस्था के अंतर्गत कर लेना। २. राष्ट्रीय बनाना।

राष्ट्रीयता
संज्ञा स्त्री० [सं० राष्ट्रीय + ता] १. अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम। देशभक्ति। २. किसी राष्ट्र का नागरिक होने का भाव।

रास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोलाहल। शोरगुल। हल्ला। २. गोपों की प्राचीन काल की एक क्रीड़ा जिसमे वे सब घेरा बाँधकर नाचते थे। विशेष—कहते हैं, इस क्रीड़ा का आरंभ भगवान् श्रीकृष्ण ने एक बार कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय किया था। तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि मिल गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी। इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग बोला जाता है। यौ०—रासमंडल। ३. एक प्रकार का नाटक जिसमें श्रीकृष्ण की इस क्रीड़ा तथा दूसरी क्रीड़ाओं या लीलाओं का अभिनय होता है। यौ०—रासधारी। ४. एक प्रकार का चलता गाना। ५. शृंखला। जंजीर। ६. विलास। ७. लास्य नामक नृत्य। ८. नाचनेवालों का समाज।

रास (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. घोड़े की लगाम। बागडोर। मुहा०—रास कड़ी करना = घोड़े की लगाम अपनी ओर खींचे रहना। रास में लाना = अधिकार में लाना। वशीभूत करना। २. सिर (को०)। ३. पशुओं के लिये संख्यावाचक शब्द।

रास (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० राशि] १. ढेर। समूह। २. ज्योतिष की राशि। विशेष दे० 'राशि'। ३. एक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में ८ + ८ + ६ के विराम से २२ मात्राएँ और अंत में सगण होता है। प्रस्तार की रीति से यह छंद नया रचा गया है। जैसे,—ईस भजौ जगदीश भजौ यह बान धरौ। सीख हमारी अति हितकारी कान धरौ ।—छंद०, पृ० ५१। ४. जोड़। ५. चौपायों का झुंड। ६. एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है। इसका चावल सैकड़ों वर्षों तक रखा जा सकता है। ७. गोद। दत्तक। मुहा०—रास बैठाना या लेना = गोद बैठाना। दत्तक लेना। ८. सूद। व्याज।

रास पु (४)
वि० [फ़ा० रास्त (= दाहिना)] अनुकूल। ठीक। मुआफिक। उ० काँचे बारह परा जो पाँसा। पाके पैंत परी तनु रासा।—जायसी (शब्द०)।

रासक
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक का एक भेद। विशेष—यह केवल एक अंक का होता है और इसमें केवल पाँच नट या अभिनय करनेवाले होते हैं। यह हास्यरस का होता है, और इसमें सूत्रधार नहीं होता। इसमें नायिका चतुर तथा नायक मूर्ख होता है।

रासचक्र
संज्ञा पुं० [सं० राशिचक्र] दे० 'राशिचक्र'।

रासताल
संज्ञा पुं० [सं०] १३ मात्राओं का एक ताल जिसमें ८ आघात और ५ खाली होते हैं। इसके मृदंग के बोल यह है— + ० १ २ ० ३ ४ ५ ० ६ कता कता केट ताग् धा केटे खन् गदि घेने नागे ० ७ ० + देत तेरे केटे कड़ान्। धा।

रासधारी
संज्ञा पुं० [सं० रासधारिन्] वह व्यक्ति या समाज जो श्रीकृष्ण की रासक्रीड़ा अथवा अन्य लीलाओं का अभिनय करता है। विशेष—ये लोग एक प्रकार के व्यवसायी होते हैं जो घू्म घूमकर इस प्रकार के अभिनय करते हैं। इनके नाटक में गीत, वाद्य, नृत्य और अभिनय आदि सभी होते हैं।

रासन (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० रासनी] १. स्वादिष्ट। जायकेदार। २. रसना संबंधी। जीभ संबंधी (को०)।

रासन (२)
संज्ञा पुं० १. स्वाद लेना। चखना। २. ध्वनि करना। शब्द करना।

रासनशीन
वि० [सं० राशि + फ़ा० नशीन] गोद बैठाया हुआ। दत्तक। मुतबन्ना।

रासना
संज्ञा पुं० [सं०] रास्ना नाम की लता जिसका व्यवहार ओषधि के रूप में होता है। विशेष दे० 'रास्ना'।

रासनृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] गति के अनुसार नृत्य का एक भेद।

रासपूर्णिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मार्गशीर्ष की पूर्णिमा जिस दिन श्रीकृष्ण ने रासक्रीड़ा आरंभ की थी।

रासभ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० रासभी] १. गर्दभ। गधा। गदहा। खर। उ०—(क) विपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) गैवर भेटि चढ़ावत रासभ प्रभुता मोट करत हिनती।—सूर (शब्द०)। २. अश्वतर। खच्चर। ३. एक दैत्य जिसे व्रज के ताल वन में बलदेव जी ने मारा था। यह गर्दभ के रूप में ही रहा करता था।

रासभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ रासक्रीड़ा होती हो। रास करने का स्थान।

रासमंडल
संज्ञा पुं० [सं० रासमण्डल] १. श्रीकृष्ण के रासक्रीड़ा करने का स्थान। २. रासक्रीड़ा करनेवालों का समूह या मंडली। रास करनेवालों का वृत्ताकार समूह। उ०—रासमंडल बने श्याम श्यामा। नारि दुहुँ पास गिरिधर वने दुहुनि विच सहस शशि बीस द्वादश उपमा।—सूर (शब्द०)। ३. रासधारियों का अभिनय। ४. रासवारियों का समाज।

रासमंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० रासमण्डली] रासधारियों का समाज या टोली।

रासयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार एक प्रकार का उत्सव जो शरतपूर्णिमा को होता है। २. शाक्तों का एक उत्सव जो शक्ति के उद्देश्य से चैत्र की पूर्णिमा को होता है।

रासलीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह क्रीड़ा या नृत्य जो श्रीकृष्ण ने गोपियों को साथ लेकर शरत्पूर्णिमा को आधी रात के समय किया था। २. रासधारियों का कृष्णलीला संबंधी अभिनय।

रासविलास
संज्ञा पुं० [सं०] रासक्रीड़ा।

रासविहारी
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्णचंद्र।

रासायन
वि० [सं० ] रसायन संबंधी। रसायन का।

रासायनिक
वि० [सं०] १. रसायन शास्त्र संबंधी। २. रसायन शास्त्र का ज्ञाता।

रासायनिकशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ रसायन शास्त्र संबंधी परीक्षाएँ या प्रयोग होते हों।

रासि
संज्ञा स्त्री० [सं० राशि] दे० 'राशि'।

रासी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. तीसरी बार खींची हुई शराब जो सबसे निकृष्ट समझी जाती है। २. सज्जी।

रासी (२)
वि० नकली या खराब। जैसे,—रासी तार।

रासी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० राशि] दे० 'राशि'।

रासु पु †
वि० [फ़ा० रास्त] १. सीधा। सरल। २. ठीक। उ०— भूले तैं कर तार के रागु न आवै रासु। यहै समुझ कै राख तूँ मन करतारैं पासु।—रसनिधि (शब्द०)।

रासेरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोष्ठी। रासक्रीड़ा। ३. शृंगार। ४. उत्सव। ५. हँसी मजाक। ठठ्ठा। चुहल।

रासेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] राधा।

रासो
संज्ञा पुं० [सं० रासक या रासऊ रहस्य था राजयश, हिं० रायसा] किसी राजा का पद्यमय जीवनचरित्र, विशेषतः वह जीवन चरित्र जिसमें उसके युद्धों और वीरता आदि का वर्णन हो। जैसे,—पृथ्वीराज रासो खुमान रासो, हम्मीर रासो।

रास्त
वि० [फ़ा०] १. सीधा। सरल। नेक। २. सही। दुरुस्त। ठीक। ३. ऊचित। वाजिब। ४. अनुकूल। मुताबिक।

रास्तगो
वि० [फ़ा०] सच बोलनेवाला। सत्यवक्ता।

रास्तबाज
वि० [फ़ा० रास्तबाज] सच्चा। निष्कपट। ईमानदार।

रास्तबाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० रास्तबाजी] सचाई। सत्याता। ईमानदारी।

रास्ता
संज्ञा पुं० [फा़० रास्तह्] १. मार्ग। राह। मग। पथ। मुहा०—रास्ता काटना = किसी के चलने के समय उसके सामनेसे होकर निक्ल जाना। जैसे—बिल्ली रास्ता काट गई। रास्ता देखना = प्रतीक्षा करना। आसरा देखना। रास्ता पकड़ना = (१) मार्ग का अवलंबन करना। राह से चलना। (२) चल देना। चले जाना। रास्ता बताना = (१) चलता करना। टालना। हटाना। (२) सिखाना। तरकीब बताना। जैसे,—वह तुम्हारे जैसों को रास्ता बतलाता है। रास्ते पर लाना = सुमार्ग पर चलाना। ठीक करना। दुरुस्त करना। २. प्रया। रीति। चाल। जैसे,—अब तो आपने यह रास्ता चला ही दिया है। ३. उपाय। तरकीब। जैसे—इस विपत्ति से निकलने का भी कोई रास्ता निकालो।

रास्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंधनाहुली नामक कंद। घोड़रासन। विशेष—यह आसाम, लंका, जावा आदि में अधिकता से होती है। वैद्यक में यह गुरु, तिक्त, उष्ण और विष, वात, खाँसी, शोथ, कंप, कफ आदि की नाशक और पाचक मानी गई है। वैद्यक में इससे रास्ना गुग्गुल, रास्नादशमूल, रास्नादिक्वाथ, रास्नादिलौह, रास्नापंचक, रास्नासप्तक आदि अनेक औषध बनते हैं। २. एलापर्णो नाम की ओषधि। ३. रुद्र की प्रधान पत्नी का नाम। ४. रस्सी। रज्जु (को०)। ५. करवनी। मेखला (को०)।

रास्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] रास्ना।

रास्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक पात्र जिसमें यज्ञ के समय घी रखकर दान किया जाता था।

रास्य
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।

राह (१)
संज्ञा पुं० [सं० राहु] दे० 'राहु'। उ०—आव चाँद पुनि राह गिरासा। वह बिन राह सदा परकासा।—जायसी (शब्द०)।

राह (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. मार्ग। पथ। रास्ता। मुहा०—राह देखना या ताकना = प्रतीक्षा करना। आसरा देखना। डाका पड़ना। लूट पड़ना। बाट पड़ना। उ०—कहै पदमाकर त्यों रोगन की राह परी दुःखन में गाह अति गाज का।— पद्माकर (शब्द०)। (२) रास्ते से आना। रास्ते पर जाना। राह लगना = (१) रास्ते से जाना। (२) आना काम देखना। अपने काम से काम रखना। (अन्य मुहा० के लिये दे० 'रास्ता' के मुहा०)। २. प्रथा। रीति। चाल। ३. नियम। फायदा। ४. कोल्हू की नाली। यौ०—राहखर्च। राहगीर। रहजन। राहदार = चौकीदार। राहनुमा = रहनुमा। रहनुमाई। राहनुमाई राहवर = रहवर। राहबरी = रहवरी। राहरस्म = राहरीति आदि।

राह (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० रोहू] दे० 'रोहु'। उ०—पाहन ऊपर हेरै नाहीं। हना राह अजुन परछाहीं।—जायसी (शब्द०)।

राह
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. हर्ष। खुशी। २. मदिरा। शराब [को०]।

राहखर्च
संज्ञा पुं० [फ़ा० राह + खर्च] कहीं जाने आने के समय रास्ते में होनेवाला खर्च। मार्गव्यय।

राहगीर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] मार्ग चलनेवाला। मुसाफिर। पथिक।

राहचबैनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० राह + चबैनी] वैशाख में अक्षय तृतीया के दिन किया जानेवाला दान जिसमें भूजे चने, बेसन के लड्डू आदि रहते हैं। पितरों के तृप्त्यर्थ भी इसका विधान है। सरग चवैनी।

राहचलता
संज्ञा पुं० [फ़ा० राह + हिं० चलता] १. रास्ता चलनेवाला। पथिक। राहगीर। बटोही। २. कोई साधारण या तीसरा मनुष्य जिसका प्रस्तुत विषय से कोई संबंध न हो। अजनबी। गैर। जैसे,—यों राहचलते को कोई ऐसा काम सुपुर्द करता है।

राहचौरंगी †
संज्ञा पुं० [फ़ा० राह + हिं० चौरंगी] चौमुहानी। चौरस्ता। उ०—सो किमि छानी जाय राहचौरंगी सोहै।—सुधाकर द्विवेदी (शब्द०)।

राहजन
संज्ञा पुं० [फ़ा० राहज़न] डाकू। लुटेरा।

राहजनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० राहजनी] डकैती। लूट।

राहड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की संगीतरचना [को०]।

राहड़ी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का घटिया कंबल।

राहत
संज्ञा स्त्री० [अ०] आराम। सख। चैन। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।

राहदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. राह पर चलने का महसूल। सड़क का कर। यौ०—परवाना राहदारी = वह आज्ञापत्र जिसके अनुसार किसी मार्ग से होकर आने या माल ले जाने का अधिकार प्राप्त हो। २. चुंगी। महसूल।

राहना † (१)
क्रि० स० [हिं० राह ? (राह बनाना) या देश०] १. चक्की के पाटों को खुरदुरा करके पीसने योग्य बनाना। जाँता कूटना। २. रेती आदि को खुरदुरा करके रेतने के योग्य बनाना।

राहना पु † (२)
क्रि० अ० [हिं० रहना] दे० 'रहना'। उ०—हम सों तोसों बैर कहा, अलि, श्याम अजान ज्यों राहत।—सूर० (शब्द०)।

राहर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० अरहर] अरहर नामक अन्न जिसकी दाल होती है। उ०—वहु गोधूम चनक तंदुल अति। राहर ज्वार मसूर लेहु रति।—प० रासो, पृ० १७।

राहरीति
संज्ञा स्त्री० [हिं० राह + सं० रीति] १. राह रस्म। लेन देन। व्यवहार। २. जान पहचान। परिचय।

राहा
संज्ञा पुं० [हिं० राह] मिट्टी का वह चबूतरा जिसपर चक्की के नीचे का पाट जमाया रहता है।

राहित्य
संज्ञा पुं० [सं०] विहीनता। अभाव। (किसी वस्तु का) न होना। उ०—तदपि निश्चित रहो तुम नित्य यहाँ राहित्य नहीं, साहित्य।—साकेत, पृ० ४०।

राहिन
संज्ञा पुं० [अ०] रेहन रखनेवाला। बंधक रखनेवाला।

राहिम
वि० [अ०] जो रहम करे। कृपा करनेवाला [को०]।

राहिम्म पु
वि० [अ० राहिम] दे० 'राहिम'। उ०—अबदुल्ल रोम राहिम्म मीर।—पृ० रा०, ६१।५४४।

राही
संज्ञा पुं० [फ़ा०] राहगीर। मुसाफिर। पथिक। यात्रि। मुहा०—राही करना = चलता करना। धता बताना। हटाना। राही होना = चल देना। हट जाना।

राहु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार नौ ग्रहों में से एक जो विप्रचित्ति के वीर्य से सिंहिका के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। उ०—(क) राहु शशि सूर्य के बीच में बैठि कै मौहनी सों अमृत माँगि लीनो।—सूर (शब्द०)। (ख) उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू। - तुलसी (शब्द०)। (ग) हरिहर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहस बाहु से।— तुलसी (शब्द०)। विशेष—यह बहुत बलवान था। कहते हैं, समुद्रमंथन के समय देवताओं के साथ बैठकर इसने चोरी से अमृत पी लिया था। सूर्य और चंद्र ने इसे यह चोरी करते हुए देख लिया था और विष्णु से यह कह दिया था। विष्णु ने सुदर्शन चक्र से इसकी गरदन काट दी। पर यह अमृत पी चुका था इससे इसका मस्तक अमर हो गया था। उसी मस्तक से यह सूर्य और चंद्र को ग्रसने लगा था। और तब से अब तक समय समय पर बराबर ग्रसता आता है जिससे दोनों का ग्रहण लगता है। यही मस्तक राहु और कंबंध केतु कहलाता है। २. ग्रहण (को०)। ३. उपसर्जन। परित्याग (को०)। ४. उपसर्जक। ५. दक्षिणपश्चिम कोश का।

राहु (२)
संज्ञा पुं० [सं० राघव] रोहू मछली। उ०—(क) राहु बेधि भूपति करौ नहिं समर्थ जग कोय।—सबल (शब्द०)। (ख) राहू बेधि अर्जुन होइ जीत दुरपदी ब्याह।—जायसी (शब्द०)।

राहुग्रसन
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य या चंद्रमा को राहु का ग्रसना ग्रहण। उपराग।

राहुग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहण। उपराग।

राहुच्छत्र
संज्ञा पुं० [सं०] अदरक। आदी।

राहुदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहण। उपराग।

राहुपीडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रहण। उपराग।

राहुभेदी
संज्ञा पुं० [सं० राहुभेदिन्] विष्णु।

राहुमाता
संज्ञा स्ञी० [सं० ] राहु की माता, सिंहिका।

राहुरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] गोमेद मणि जो राहु के दोष का शमन करनेवाली मानी जाती है।

राहुल
संज्ञा पुं० [सं०] गौतम बुद्ध के पुत्र का नाम।

राहुशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

राहुसूतक
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहण। उपराग।

राहुस्पर्श
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहण। उपराग।

राहूच्छिष्ट, राहूत्सृष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] लहसुन।

रहिल
संज्ञा पुं० [यहू०] यहूदियों की एक उपजाति।