व्यंजन वर्ण का अट्ठाईसवाँ वर्ण जिसका उच्चारण स्थान दंत है। इसके उच्चारण मे संवार, नाद और घोष प्रयत्न होते हैं। यह अल्पप्राण है।

लंक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्क] कमर। कटि। उ०—अति ही सुकु- वारि उरोजनि भार भटै मधुरी डग लंक लफै।—घनानंद, पृ० २०९।

लंक (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्कन] लंका नामक द्वीप। उ०—कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हरष विषाद विवस सुरलोकू।— मानस, २।८१। विशेष—इस रूप में इसका प्रयोग प्रायः यौगिक शब्दों में होता है। जैसे,—लंकानाथ, लंकपति।

लंकटकटा
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्कटङ्कटा] १. सुकेश राक्षस की माता और विद्युतकेश की कन्या का नाम। २. संध्या की कन्या का नाम।

लकनाथ
संज्ञा पुं० [हिं० लंक + सं० नाथ] १. रावण। २. विभीषण। उ०—तब लंकनाथ रिसाय कै। भो चलत लब पहँ धाय कै।—लवकुशचरित्र (शब्द०)।

लंकनायक
संज्ञा पुं० [हिं० लंक सं० नायक] दे० 'लंकनाथ'। उ०—जाति बानर लकनायक दूत अंगद नाम है।—केशव (शब्द०)।

लंकलाक
संज्ञा पुं० [अं० लोंगक्लाथ] एक प्रकार का मोटा बढ़िया कपड़ा जो प्रायः धुला हुआ होता है। उ०—नीचे लंक-लाट का चूड़ीदार पैजामा और ऊपर कत्थई रंग की बनिआइन पहने थे।—जिप्सी (अनुक्रमणिका), पृ० १।

लंका
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्का] १. भारत के दक्षिण का एक टापू जहाँ रावण का राज्य था। लोगों का विश्वास है कि रावण के समय यह टापू सोने का था। २. शिवी धान्य। द्विदल अन्न। ३. असबरग। स्पृक्का। ४. काला चना। ५. शाखा। डाली। ६. असती नारी। वेश्या। पुंश्चली (को०)।

लंकादाही
संज्ञा पुं० [सं० लङ्कादहिन्] हनुमान।

लंकाधिप
संज्ञा पुं० [सं० लङ्काधिप] दे० 'लंकाधिपति' [को०]।

लंकाधिपति
संज्ञा पुं० [सं० लङ्काधिपति] १. रावण। २. विभीषण।

लकानाथ
संज्ञा पुं० [सं० लड्कानाथ] दे० 'लंकापति'।

लंकापति
संज्ञा पुं० [सं० लङ्कापति] १. रावण। २. विभीषण। उ०—भेटयौ हरि अंक भरत ज्यौं लंकापति मनु भायो।— तुलसी (शब्द०)।

लंकापिका
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्कापिका] दे० 'लंकायिका' [को०]।

लंकायिका
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्कायिका] असबरग। स्पृक्का।

लंकारि
संज्ञा पुं० [सं० लङ्कारि] रामचंद्र।

लंकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्कारिका] दे० 'लंकायिका' [को०]।

लंकाल पु †
संज्ञा पुं० [सं० लङ्क + हिं० आल ? ] १. सिंह। शेर। २. वीर। योद्धा। उ०—जूटा भाटी जंग मै, कमधी छल लंकाल।—रा० रू०, पृ० २८४।

लंकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्किनी] रामायण के अनुसार एक राक्षसी जिसे हनुमान जी ने लंका में प्रवेश करते समय घूसों से मार डाला था। उ०—नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी।—मानस, ६।५।

लकीस †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लंक] कटि। कमर। लंक। उ०— अलप केस कुच मूल थूलदंती उच्चारन। थूल उदर लंकोस थूल किसलं गंध बारन।—पृ० रा०, २५।१२९।

लंकूर पु †
संज्ञा पुं० [सं० लाङ्गूली] लंगूर।

लंकेश
संज्ञा पुं० [सं० लङ्केश] १. रावण। २. विभीषण।

लंकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० लङ्केश्वर] १. रावण। २. विभीषण।

लंकेस पु
संज्ञा पुं० [सं० लङ्केश] विभीषण। उ०—सुनु लंकेस सकल गुन तोरे। ताते तुम्ह अतिसय प्रिय मोरे।—मानस, ६।४९।

लंकेसर †
संज्ञा पुं० [सं० नागकेसर ? या देश०] एक प्रकार के फूल का पौधा। उ०—उसमें लंकेसर तारा, मधुरी और गेंदा के पौधे लगाए।—नई०, पृ० ८०।

लंकेसुर पु
संज्ञा पुं० [सं० लंकेश्वर] रावण। उ०—मन नहचै लंकेसुर मारण।—रघु० रू०, पृ० १७८।

लंकोई
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्कोटिका] दे० 'लंकोदक'।

लंकोटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्कोटिका] दे० 'लंकोदक' [को०]।

लंकोदक
संज्ञा पुं० [सं० लङ्कोदक] असबरग। स्पृक्का।

लंखनी
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्खनी] लगाम का वह भाग जो घोड़े के मुँह में रहता है [को०]।

लंग (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लाँग] दे० 'लाँग'। उ०—लोगन की लंग ज्यौं लुगाइन की लाग री।—देव (शब्द०)।

लंग (२)
संज्ञा पुं० [फा़०] १. लँगड़ापन। क्रि० प्र०—करना।—खाना। २. वह जो पंगु हो। लँगड़ा व्यक्ति वा प्राणी (को०)। लिंग। शिश्न (को०)।

लंग (३)
संज्ञा पुं० [सं० लङ्ग] १. स्त्री का यार। उपपति। २. मेल। मिलन (को०)। ३. खंजता। पंगुता। लँगड़ापन (को०)।

लंगक
संज्ञा पुं० [सं० लङ्गक] स्त्री का यार। उपपति।

लंगड़ (१)
वि० [सं० लङ्ग + हिं० ड़ (प्रत्य०)] दे० 'लँगड़ा'।

लंगड़ (२)
संज्ञा पुं० [फा़० लंगर] दे० 'लंगर'।

लंगन
संज्ञा पुं० [सं० लङ्घण] लाँघना। लाँघर पार करना [को०]।

लंगनी
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्गनी] वह डोरी या डंडा जिसपर कपड़े टाँगे जाते हैं। अलगनी [को०]।

लंगर (१)
संज्ञा पुं० [फा़०। मि० अं० एन्कर] १. बड़ी बड़ी नावों या जहाजों को रोक रखने के लिये लोहे का बना हुआ एक प्रकार का बहुत बड़ा काँटा। विशेष—इस काँटे या लंगर के बीच में एक मोटा लंबा छड़ होता है, और एक सिरे पर दो, तीन या चार टेढ़ी, झुकी हुई नुकीलीशाखाएँ और दूसरे सिरे पर एक मजबूत कड़ा लगा हुआ होता है। इसका व्यवहार बड़ी बड़ी नावों या जहाजों को जल में किसी एक ही स्थान पर ठहराए रखने के लिये होता है। इसके ऊपर कड़े में मोटा रस्सा या जंजीर आदि बाँधकर इसे नीचे पानी में छोड़ देते हैं। जब यह तल में पहुँच जाता है, तब इसके टेढ़े अंकुड़े जमीन के ककड़ पत्थरों में अड़ जाते हैं, जिसके कारण नाव या जहाज उसी स्थान पर रुक जाता है, और जबतक यह फिर खींचकर ऊपर नहीं उठा लिया जाता, तबतक नाव या जहाज आगे नही बढ़ सकता। क्रि० प्र०—उठाना।—करना।—छोड़ना।—डालना।— फेंकना।—होना। यौ०—लंगरगाह। २. लकड़ी का वह कुंदा जो किसी हरहाई गाय के गले में रस्सी द्वारा बाँध दिया जाता है। इसके बाँधने से गाय इधर उधर भाग नहीं सकती। ठेंगुर। ३. रस्सी या तार आदि से बँधी और लटकती हुई कोई भारी चीज, जिसका व्यवहार कई प्रकार की कलों में और विशेषतः बड़ी घड़ियों आदि में होता है। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना।—हिलाना। विशेष—इस प्रकार का लंगर प्रायः निरतर एक ओर से दूसरी ओर आता जाता रहता है। कुछ कलों में इसका व्यवहार ऐसे पुरजों का भार ठीक रखने में होता है, जो एक ओर बहुत भारी होते हैं और प्रायः इधर उधर हटते बढ़ते रहते हैं, बड़ी धड़ियों में जो लंगर होता है, वह चाभी दी हुई कमानी के जोर से एक सीधी रेखा में इधर से उधर चलता रहता है और घड़ी की गति ठीक रखता है। ४. जहाजों में का मोटा बड़ा रस्सा। ५. लोहे की मोटी और भारी जंजीर। उ०—हाथी ते उररि हाड़ा जूझो लोह लंगर दै एती लाज का में जेती लाज छत्रसाल में।—भूषण (शब्द०)। क्रि० प्र०—डालना।—देना। ६. चाँदी का बना हुआ तोड़ा जो पैर में पहना जाता है। इसकी बनावट जंजीर की सी होती है। ७. किसी पदार्थ के नीचे का वह अंश जो मोटा और भारी हो। ८. कमर के नीचे का भाग। ९. अंडकोश। (बाजारू)। १०. पहलवानों का लँगोट। मुहा०—लंगर बाँधना = (१) पहलवानी करना। (२) ब्रह्म- चर्य धारण करना। लगर लँगोट कसना या बाँधना = लड़ने को तैयार होना। लँगर लँगोट (किसी को) देना या आगे रखना = पहलवानी सीखने के लिये किसी पहलवान का शिष्य बनना। ११. वह (स्थान या व्यक्ति आदि) जिसके द्वारा किसी को किसी प्रकार का आश्रय या सहारा मिलता हो। (क्क०)। १२. कपड़े में के वे टाँके जो दूर दूर पर इसलिये डाले जाते हैं जिसमें मोड़ा हुआ कपड़ा अथवा एक साथ सीए जानेवाले दो कपड़े अपने स्थान से हट न जाय। विशेष—इस प्रकार के टाँके पक्की सिलाई करने से पहले डाले जाते हैं, और इसीलिये इसे कच्ची सिलाई भी कहते हैं। क्रि० प्र०—करना।—डालना।—तोड़ना।—भरना। १३. वह उभड़ी हुई रेखा जो अंडकोश के नीचे के भाग से आरंभ होकर गुदा तक जाती है। सीयन। सीवन। १४. वह पका हुआ भोजन जो प्रायः नित्य किसी निश्चित समय पर दीनों और दरिद्रों आदि को बाँटा जाता है। क्रि० प्र०—देना।—बाँटना।—लगाना। यौ०—लंगरखाना। १५. वह स्थान जहाँ दोनों और दरिद्रों आदि को बाँटने के लिये बोजन पकाया जाता हो। १६. वह स्थान जहाँ बहुत से लोगों का भोजन एक साथ पकता हो।

लंगर (२)
वि० १. जिसमें अधिक बोझ हो। भारी। वजनी। २. शरीर। नटखट। दाँठ। उ०—(क) लरिका लंबे के मिसान लगर मो ढिग आय। गयौ अचानक आँगुरी छाती छल छुवाय।— बिहारी (शब्द०)। (ख) सूर श्याम दिन दिन लंगर भयो दूरि करौं लँगरैया।—सूर (शब्द०)। मुहा०—लगर करना = शररात या ढिठाई करना। उ०—बोलि लियो बलरामहिं यशुमति। आवहु लाल सुनहु हरि के गुण कालिहिं ते लँगरयो करत अति।—सूर (शब्द०)।

लंगर (३)
वि० [हिं० लँगड़ा] दे० 'लँगड़ा'।

लंगरखाना
संज्ञा पुं० [फा़० लंगरखानह्] वह स्थान जहाँ से दरिद्रों को बना बनाया भोजन बाँटा जाता हो।

लंगरगाह
संज्ञा पुं० [फा़०] किनारे पर का स्थान जहाँ लंगर डालकर जहाज ठहराए जाते हैं।

लंगल
संज्ञा पुं० [सं० लङ्गल] हल [को०]।

लगा ‡
वि० [सं० नग्न] १. नंगा। वस्त्ररहित। नग्न। उ०—पय पीवहि फल करहिं अहारा। लंगा। फिरे तन रहे उधारा।—सत० दरिया, पृ० ५६। २. युद्ध के लिये सदा सन्नद्ध। जिसका स्वभाव लड़ाई करने का हो।

लगिमा
संज्ञा पुं० [सं० लङ्गिमन्] १. सौंदर्य। शोभा। सुंदरता। २. मेल। संगम। समागम [को०]।

लंगुरा
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्गुरा] एक प्रकार का अन्न। प्रियंगु [को०]।

लंगूर
संज्ञा पुं० [सं० लाङ्गूली] १. बंदर। २. पूँछ। दुम। (बंदर की)। ३. एक विशेष प्रकार का बंदर। विशेष—लँगूर साधारण बंदर से बड़ा होता है और इसकी पूँछ बहुत अधिक लंबी होती है। हलके सारे शरीर पर सफेद रंग के रोएँ होते हैं और मुँह, हाथ की हथिलियाँ तथा पैर के तलवे और उँगलियाँ आदि काली होती है।

लंगूरफल
संज्ञा पुं० [हिं० लंगूर + सं० फल] नारियल। उ०— बानरमुख लंगूरफल नारिकलि सुभ काम। ये तरुनी के नारियर तो कहँ करत प्रनाम।—नंददास (शब्द०)।

लंगूरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लंगूर + ई (प्रत्य०)] १. घोड़े को एक चाल जिसमें वह उछल उछलकर चलता है। २. वह इनाम जो चोरों को उस समय दिया जाता है, जब वे चोरो गए हुए मवेशियों का पता लगा देते हैं।

लंगूल
संज्ञा पुं० [सं० लङ्गूल] लांगूल। पूँछ। दुम।

लंगेतंगे †
क्रि० वि० [फा़० नंगतंग] साधनहीन स्थिति में। जैसे तैसे करके। येन केन प्रकारेण। उ०—लंगे तंगे पाँच छः महीने कट जायँगे।—गोदान, पृ० १०७।

लंघक
वि० [सं० लड्घक] १. लाँघनेवाला। अतिक्रमण करनेवाला। २. नियम का भंग करनेवाला। कायदा तोड़नेवाला।

लघन
संज्ञा पुं० [सं० लङ्घन] १. उपवास। अनाहार। फाका। कुछ न खाना। उ०—(क) जिन नैनर को है सही मोहन रूप अहार। तिनकौ वैद बतावहीं लंघन को उपचार।—रसनिधि (शब्द०) (ख) धाम धाम माँगै भीख लंघन सुनाई है।— रघुराज (शब्द०)। २. लाँघने की क्रिया। डाँकना। ३. अतिक्रमण। ४. घोड़े की एक चाल जिसमें वह बहुत तेज चलता है। ५. वह उपाय जिसमें किसी काम में लाघव या सुभोता हो। ६. संभोग। संप्रयोग (को०)।

लंघनक
संज्ञा पुं० [सं० लङ्घनक] १. वह जिसके द्वारा लाँघा जाय। सेतु। पुल।

लंघना पु (१)
क्रि० स० [सं० उल्लङ्घन या लङ्घन = लाँघने की क्रिया] किसी वस्तु के ऊपर से होकर इस ओर से उस ओर जाना। लाँघना। नाँघना। डाँकना।

लंघना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लङ्घना] १. अवमानना। उपेक्षा। लापरवाही।पु २. लंघन। उपवास। कड़ाका।

लघना पु (३)
वि० जो लंघन या उपवास किए हुए हो। बुभुक्षित। भूखा। उ०—पतिबरता पति को भजै और न आन सुहाय। सिंघ बचा जो लंघना, तौ भी घास न खाय।—कबीर सा० सं०, पृ० ३०।

लंघनीय
वि० [सं० लङ्घनीय] लाँघने के योग्य। २. उल्लंघन करने के योग्य।

लंघ्य
वि० [सं० लङ्घ्य] दे० 'लंघनीय' [को०]।

लघित
वि० [सं० लङ्घित] १. डाँका हुआ। लाँघा हुआ। ६. उल्लीघत। ३. तिरस्कृत। उपेक्षित। ४. आक्रमित [को०]।

लंच
संज्ञा पुं० [अं०] दोपहर का नाश्ता। अल्पाहार [को०]।

लचा
संज्ञा स्त्री० [सं० लञ्जा] घूप। उत्कोच। रिश्वत [को०]।

लछण (१)
संज्ञा पुं० [सं० लाञ्छन] कलंक। दोष। दे० 'लांछन'। उ०—साल्ह कुंवर सूड़उ कहइ, मालवणी मुख जोइ।— ढोला०, दू० ५०२।

लंछन पु
संज्ञा पुं० [सं० लाञ्छन, प्रा० लंछन] चिह्न। निशानी। लांछन। उ०—परभास पंत परब्रह्म दुति भ्रगु लंछन जनु धारे- हरिय।—पृ० रा०, ७।१०३।

लंज (१)
संज्ञा पुं० [सं० लञ्ज] १. पैर। पाँव। २. काछ। ३. पूँछ। दुभ। ४. लंपटता। ५. स्ञात। सोता।

लंज (२)
संज्ञा स्त्री० लक्ष्मी।

लंजा
संज्ञा स्त्री० [सं० लञ्जा] १. धारा। प्रवाह। २. पुंश्चली। कुलटा। ३. लक्ष्मी। ४. निद्रा [को०]।

लंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० लञ्जिका] वेश्या। रंडी।

लंठ
वि० [हिं० लठ्ठ] मूर्ख। उजड्ड।

लंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० लण्ड] पुरीष। विष्टा। गू।

लंड (२)
संज्ञा पुं० [सं० लङ्ग; तुल० फा़० लंग = शिशु] पुरुष को मूत्रेंद्रिय।

लंतरानी
संज्ञा स्त्री० [अ०] व्यर्थ की बड़ी बड़ी बातें। शेखी। क्रि० प्र०—करना।—हाँकना।

लंदराज
संज्ञा पुं० [अं० लाँग क्लाथ] वस्त्र जो आकार में लंबा चौड़ा और मोटा हो। एक प्रकार की मोटी चादर।

लंप
संज्ञा पुं० [अं० लम्प] दीपक। चिराग।

लंपक
संज्ञा पुं० [पुं० लम्पक] जैनियों का एक संप्रदाय।

लंपट (३)
वि० [सं० लम्पट] व्यभिचारी। विषयी। कामी। कामुक। स्वेच्छाचारी। स्वैरी। उ०—लोभी लंपट लोलुप चारा। जो ताकहिं पर धन पर दारा।—तुलसी (शब्द०)।

लंपट (२)
संज्ञा सं० स्त्री का उपपति। यार।

लंपटता
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्पटता] १. लंपट होने का भाव। दुराचार। कुकम। २. लोभ। लालच [को०]।

लंपाक
संज्ञा पुं० [सं० लम्पाक] १. लंपट। दुराचारी। २. पुराणा- नुसार एक देश का नाम जिसे मुरंड भी कहते थे। यह देश भारत के उत्तरपश्चिम में था।

लंपारह
संज्ञा पुं० [सं० लम्रापटह] पटह वाद्य। नगाड़ा [को०]।

लंफ
संज्ञा पुं० [सं० लम्फ] उछाल। कूद। फलाँग [को०]।

लंफन
संज्ञा पुं० [सं० लम्फन] उछलकूद [को०]।

लंब (१)
संज्ञा पुं० [सं० लम्ब] १. वह रेखा जो किसी दूसरी रेखा पर इस भाँति गिरे कि उसके साथ समकोण बनावे। क्रि० प्र०—गिराना।—डालना। २. एक राक्षस जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था। इसी को प्रलंबासुर भी कहते हैं। ३. शुद्ध राग का एक भेद। ४. वह जो नाचता हो। नाचनेवाला। ५. अंग। ६. पति। ७. एक दैत्य का नाम । ८. एक मुनि का नाम। ९. ज्योतिष में एक प्रकार की रेखा जो विपुव रेखा के समानांतर होती है। १०. ज्योतिष में ग्रहों की एक प्रकार की गति। ११. उत्कोच। भेंट। रिश्वत (को०)।

लंब (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'विलंब'।

लंब (३)
वि० [सं०] १. लंबा। उ०—(क) युक अवलंब लंब भुज चारी।—रघुनाथ (शब्द०)। (ख) अस कहि लब फरस बिछ- बायो।—रघुराज (शब्द०)। २. बड़ा (को०)। ३. लटकता हुआ। अवलबित। संलग्न। लगा हुआ (को०)। ५. विस्तृत। फैलावदार। प्रशस्त (को०)।

लंबक
संज्ञा पुं० [सं० लम्बक] १. किसी पुस्तक का एक अध्याय। २. लंबरेखा (को०)। ३. एक प्रकार का विशिष्ट उपकरण या पात्र (को०)। ४. मुख का एक रोग। ५. ज्योतिष में एक प्रकार के योग जो संख्या में पंद्रह होते है।

लंबकर्ण (१)
संज्ञा सं० [सं० लम्बकर्ण] १. बकरा। २. हाथी। ३. अंकोट वृक्ष। ४. राक्षस। ५. बाज पक्षी। ६. गदहा। खर। ७. खरगोश।

लंबकर्ण (२)
वि० जिसके कान लंबे हों।

लंबकेश (१)
संज्ञा पुं० [सं० लम्बकेश] कुश का आसन। कुश का विष्टर जो विवाह में वर के बैठने कि लिये दिया जाता है।

लंबकेश (२)
वि० लंबे बालोंवाला [को०]।

लबग्रीव
संज्ञा पुं० [सं० लम्बग्रीव] ऊँट।

लंबजठर
वि० [सं० लम्बजठर] तुदिल। तोंदवाला।

लंबतड़ंग
वि० [सं० लम्ब + हिं० ताड़ + अंग] ताड़ के समान लंबा। बहुत लंबा।

लंबदता
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्बदन्ता] सिंहल देश की पिप्पली।

लंबन
संज्ञा पुं० [सं० लम्बन] १. गले का वह हार जो नाभि तक लटकता हो। २. झूलने की क्रिया। ३. अवलंब। आश्रय। सहारा। ४. कफ। ५. शिव का नाम (को०)।

लंघपयोधरा
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्बपयोधरा] १. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम। २. लंबस्तनी स्त्री।

लंबबीजा
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्बबीजा] दे० 'लंबदंता' [को०]।

लंबमान
वि० [सं० लाबमान] लटकता हुआ। दूर तक गया हुआ। फैला हुआ। लंबायमान [को०]।

लंबर (१)
संज्ञा पुं० [अं० नम्बर] दे० 'नंबर'।

लंबर (२)
संज्ञा पुं० [सं० लम्बर] एक प्रकार का ढोल या पटह [को०]।

लंबरदार
संज्ञा पुं० [अ० नंबर + फा़० दार (प्रत्य०)] दे० 'नंबरदार'।

लंबरा
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्बरा] कौटिल्य अर्थशास्त्र में निर्दिष्ट एक प्रकार का कबल। ऊर्णायु [को०]।

लंबस्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्बस्तनी] लंबे स्तनोंवाली नारी [को०]।

लंबा (१)
वि० [सं० लम्ब] [वि० लंबी] १. जिसके दोनों छोर एक दूसरे से बहुत अधिक दूरी पर हों। जिसका विस्तार, आयतन की अपेक्षा, बहुत अधिक हो। जो किसी एक ही दिशा में बहुत दूर तक चला गया हो। 'चौड़ा' का उलटा। जैसे,—लंबा बाल, लंबा, बाँस, लंबा सफर। मुहा०—लंबा करना = (१) (आदमी को) रवाना करना। चलता करना। (२) जमीन पर पटक या लेटा देना। चित करना। उ०—खर नास्यो इन समर अनल खर नासै जैसे। कियो भूमि पर लंब नासि परलंबहि तैसे।—गि० दास (शब्द०)। लंबा बनना या होना = चल देना। रवाना होना। प्रस्यान करना। धता होना। (व्यंग्य और परिहास में)। उ०—थानेदार साहब तहकीकत करके लंबे हुए।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३७२। यौ०—लबा चौड़ा = जिसका आयतन और विस्तार दोनों बहुत अधिक हों। जैसे,—लंबा चौड़ा मैदान। २. जिसकी ऊँचाई अधिक हो। ऊपर की ओर दूर तक उठा हुआ। जैसे, लंबा आदमी। ३. (समय) जिसका विस्तार अधिक हो। जैसे,—(क) गरमी में दिन बहुत लंबा होता है। (ख) तुम तो सदा लंबी मुद्दत का वादा करते हो। ४. विशाल। दीर्घ। बड़ा। जैसे,—इतना लंबा खर्च करना ठईक नहीं।

लंबा (२)
संज्ञा स्त्री० [पुं० लम्बा] १. दुर्गा। २. लक्ष्मी। ३. उपहार। घुस। रिश्वत। ४. रिक्त तुली। कटु तुंबी। तितलौकी [को०]।

लंबाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० लंबा] लंबा होने का भाव। लंबापन। जैसे,—(क) इस जमीन की लंबाई पचास गज है। (ख) यह कपड़ा लंबाई में कुछ कम है। यौ०—लंबाई चौड़ाई = लंबान और चौड़ान।

लंबान
संज्ञा पुं० [हिं० लंबा] लंबाई।

लंबाना
क्रि० स० [हिं० लंबा] लंबा करना। फैलाना। बढ़ाना।

लंबायमान
वि० [सं० लम्बायमान] १. जो लंबा हो। दे० 'लब- मान'। २. लेटा हुआ।

लबिक
संज्ञा पुं० [सं० लम्बिक] कोकिल [को०]।

लंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्बिका] गले के अंदर कीघटी। उ०— नासिका तालिका त्रिकुटी ध्यानी। लंबिका उलटि पीवै गगन पानी।—प्राण०, पृ० ७३।

लंबित
वि० [सं० लम्बित] १. लंबा। २. लटकता हुआ (को०)। ३. अवलंबित। आधारित (को०)। ४. डूबा हुआ। धँसा हुआ (को०)। ५. कार्यच्युत। पदच्युत (को०)। ६. शब्दित। ध्वनित (को०)।

लंबी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्बी] १. ब्रीहि से निर्मित एक खाद्य पदार्थ। २. पुष्पित शाखा। फूल से भरी डाली [को०]।

लंबी (२)
वि० [सं० लंबिन्] अवलंबित। लटकनेवाला [को०]।

लंबी (३)
वि० स्त्री० [हिं० लबा] लंबा का स्त्री लिंग रूप। मुहा०—लंबी तानना—लेटकर सो जाना। उ०—इस समय मेरे अतिरिक्त सब लंबी ताने सोते होगे।—हरिओध (शब्द०)। लंबी साँस लेना = अत्यंत दुःख या खेत से साँस लेना। ठंढी साँस लेना।

लविनी
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्बिनी] स्कद की एक मातृका का नाम [को०]।

लंबुक
संज्ञा पुं० [सं० लम्बुक] १. एक नाग का नाम। २. ज्योतिष में एक प्रकार के योग जिनकी संख्या पंद्रह है। लंबक।

लंबुषा
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्बुपा] सतलड़ा हार [को०]।

लंबू
वि० [हिं० लंबा] लंबा। (आदमी के लिये, व्यंग)।

लंबोतरा
वि० [हिं० लंबा + ओतरा (प्रत्य०)] जो आकार में कुछ लंबा हो। लबापन लिए हुए। जैसे—आम के फल लंबोतरे होते हैं।

लंबोदर
संज्ञा पुं० [सं० लम्बोदर] १. गणेश। २. वह जो बहुत अधिक खाता हो। पेटू। यौ०—लंबोदरजननी = गणेश की माता, पार्वती।

लंबोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० लम्बोष्ठ, लम्बौष्ट] १. वह जिसके होठ लंबेहों। लंबे शौठवाला। २. ऊँट। २. एक प्रकार का क्षेत्र- पाल देवता।

लंभ
संज्ञा पुं० [सं० लम्भ] प्राप्ति। पाना। लाभ। मिलना। अधि- गम [को०]।

लभक
वि० [सं० लम्भक] प्राप्त करनेवाला। पानेवाला [को०]।

लंभन
संज्ञा पुं० [सं० लम्भन] १. ध्वनि। २. लछिना। कलक। ३. प्राप्ति। अधिगम (को०)।

लंभनाय
वि० [सं० लम्भनोय] प्राप्त करने योग्य। प्राप्य [को०]।

लंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० लम्भा] प्राचीर, अविष्टन अवरोध, आदि का एक प्रकार। वाटश्रृखला [को०]।

लंभुक
वि० [सं० लम्भुक] निरंतर आधिगम या प्राप्त करनेवाला। जिसे बराबर प्राप्ति या लाभ होता रहे् [को०]।

लँगटा †
वि० [सं० नग्न, हिं० नंगा + टा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लँगटी] १. निर्वस्त्र। नगा। नग्न। २. शरारती। नटखट।

लँगटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. लँगोटी। २. पैर से विपक्षी के पैरों मे मारना जिससे वह गिर पड़े। अड़ाना।

लैगड़ा (१)
वि० [फा़० लंग + हिं० ड़ा (प्रत्य०)] १. व्यक्ति या पशु आदि जिसका एक पैर बेकाम या टूटा हुआ हो। २. जिसका एक पाया टूटा हो। जैसे,—कुसी, खाट आदि।

लँगड़ा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बढ़िया कलमी आम जो प्रायः वारणसा में होता है।

लँगड़ाना
क्रि० अ० [हिं० लँगड़ा] चलने में दोनों या चारों पैरों का ठीक ठीक और बराबर न बैठना, बल्कि किसी एक पैर का कुछ रुक या दबकर पड़ना। लंग करते हुए चलना। लँगड़े होकर चलना।

लँगड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लँगड़ा] एक प्रकार का छद। उ०—साजै आलै अवज, म, तोहि प्रकाश चहुँ ओर। सब तिथि निशि में अतिथि सी राको करया अंजीर।—गुमान (शब्द०)।

लँगड़ी (२)
वि० [हिं०] बली। बलवान्। जीरावर।

लँगड़ी (३)
वि० स्त्री० [फा़० लंग] लँगड़ा का स्त्री रूप।

लँगड़ा (४)
संज्ञा स्त्री० लंगटी। अड़ानी।

लँगर पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लंगर] ढीठ। नटखट। शरारती।

लँगरई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लंगर] ढिठाई। शरारत। नटखट- पन। उ०—बाँधौ आखु कौन तोहि छौरौ। बहुत लँगरई कीन्हीं मोसों भुज गाहि रजु ऊखल सों जोरै।—सूर (शब्द०)।

लँगराई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लंगर + आई (प्रत्य०)] ढिठाई। शरारत। उ०—अजहूँ छाड़ोगे लँगराई दोउ कर जोरि जननि पै आए।—सूर (शब्द०)।

लँगराना †
क्रि० अ० [हिं० लंगड] दे० 'लँगड़ाना'।

लँगरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लंगर] दे० 'लँगराई'।

लँगरैया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लंगर] ढोठफ्न। शरारत। धृष्टता। उ०—सूर स्याम दिन दिन लंगर भयो दूरि करौ लँगरैया।— सूर (शब्द०)।

लँगोचा
संज्ञा पुं० [देश०] जानवर की आँत जो मसालेदार कीमे से भरकर और तलकर खाई जाती है। कुलमा। गुलमा।

लँगोट, लँगोटा
संज्ञा पुं० [सं० लिङ्ग + ओट] [स्त्री० लँगोटी] कमर पर बाँधने का एक प्रकार का बना हुआ वस्त्र जिससे केवल उपस्थ ढका जाता है। विशेष—यह प्रायः लंबी पट्टी के आकार का अथवा तिकोना होता है, जिसमें दोनों ओर कमर पर लपेटने के लिये बंद लगे रहते हैं। प्रायः पहलवान लोग कुश्ती लड़ने या कसरत करने के समय इसे पहना करते हैं। रुमाली। यौ०—लंगोट का कच्चा या ढीला = विषयी। कामी। लँगोट- बद = ब्रह्माचारी। स्त्रीत्यागी। मुहा०—लँगोट कसना या बाँधना = लड़ने को तैयार होना। लँगोट रखना = (१) 'लंगर लँगोट रखना'। (२) पहलवानो छोड़ देना।

लँगोटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लँगोट + ई (प्रत्य०)] कोषीन। कछनी। भगई। उ०—रोटी गहे हाथ में सुचाटी गुहे माथ में, लँगोटी कछे नाथ साथ बालक बिलासी है।—(शब्द०)। मुहा०—लँगोटिया यार = बचपन का मित्र। उस समय का मित्र, जब कि दोनों लँगोटी बाँधकर फिरते हों। लँगोटी पर फाग खेलना = थोड़ा हा साधन होने पर भी विलासी होना। कम सामर्थ्य होने पर भी बहुत अधिक व्यय करना। लँगोटी बँध- वाना = बहुत दरिद्र कर देना। इतना धनहीन कर देना कि पास में लँगोटी के सिवा और कुछ न रह जाय। लँगोटी बिकवाना = इतना दरिद्र कर देना कि पहनने के वस्त्र तक न रह जाँय।

लँडूरा (१)
वि० [देश० या सं० लाङ्गूल] बिना पूँछ का। जिसकी सब पूँछ कट गई हो (पक्षी)। २. आवारा। नंगा। लुच्चा।


संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. पृथ्वी। ३. छंदःशास्त्र में लघु मात्रा के लिये प्रयुक्त संक्षिप्त रूप (को०)। ४. पाणिनि व्याकरण में क्रिया के काल एवं अवस्था के लिये प्रयुक्त विशेष संज्ञा। ४. पचास की संख्या (को०)।

लउ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ली] लाग। लगन। लौ।

लउआ †
संज्ञा पुं० [सं० लावुक] दे० 'घिया'।

लउकी †
संज्ञा स्त्री० [सं० लावुक] दे० 'घिया'।

लउटी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लगुड] लकुटी। लकुड़ी। उ०—बाटे खेल तरुन वह सोवा। लउटी बूड़ लेइ पुनि रोवा।—जायसी (शब्द०)।

लक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ललाट। २. जंगली धान की बाल [को०]।

लक (२)
संज्ञा पुं० [अं०] किस्मत। भाग्य।

लकच
संज्ञा पुं० [सं०] एक फल। दे० 'लकुच' [को०]।

लकड़तोड़
वि० [हिं० लकड़ी + तोड़] लकड़ी की तरह कड़ा। बहुत कड़ा (व्यंग्य)। उ०—इनका लकड़तोड़ जूता पहनकर पेशकार साहब बड़े साहब के इजलास पर गए।—फिसाना,० भा० ३, पृ० ४६।

लकड़दादा
संज्ञा पुं० [हिं०] दादाओं का भी दादा। अति प्राचीन पुरखा। (व्यंग्य)। उ०—एक शाप। दाँत पीसकर, हाथ उठाकर, शिखा खोलते हुए चाणक्य का लकड़दादा बन जाऊँगा।—स्कंद०, पृ० १०६।

लकड़बग्घा
संज्ञा पुं० [हिं० लकड़ी + बाध] एक मांसाहारी जंगली जंतु जो भेड़िए से कुछ बड़ा होता है। यह कुत्तों का मांस बहुत पसंद करता है। लग्बड़।

लकड़हारा
संज्ञा पुं० [हिं० लकड़ी + हार] जंगल से लकड़ी तोड़कर बेचनेवाला।

लकड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० लकड़ी] १. लकड़ी का मोटा कुंदा। लक्कड़। २. बाजरे, अरहर आदि का सूखा डंठल।

लकड़ाना †
क्रि० अ० [हिं० लकड़ा + ना (प्रत्य०)] १. किसी वस्तु का सूखकर लकड़ी की तरह कड़ा हो जाना। २. दुबला होना। शरीर सुखकर लकड़ी की तरह हो जाना।

लकड़िया †
क्रि० अ० [हिं० लकड़ी] दे० 'लकड़ा'।

लकड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० लगुड] १. पेड़ का कोई स्थूल अंग (डाल, तना आदि) जो कटकर उससे अलग हो गया हो। काष्ठ। काठ। विशेष—इसका व्यवहार प्रायः मेज, कुरसी, किवाड़े आदि सामान बनाने में होता है। २. ईधन। जलावन। मुहा०—लकड़ा देना = मुरदे को जलाना। ३. गलका। ४. छड़ी। लाठी। मुहा०—लकड़ा सा = बहुत दुबला पतला। लकड़ी चलना = लाठो से मार पीट होना। लकड़ी होना = (१) सूखकर काँटा होना। बहुत दुबला पतला होना। (२) सुखकर बहुत कड़ा हो जाना। जैसे,—रोटी सूखकर लकड़ी हो गई।

लक दक
वि० [अ० लग दग] १. (मैदान) जिसमें वृक्ष या वनस्पति आदि कुछ भी न हो। बंजर या चाटयल (मैदान)। २. साफ। चिकना। स्वच्छ।

लकब
संज्ञा पुं० [अ० लक़ब] उपाधि। खिताब। पदवी। क्रि० प्र०—देना।—पीना।—मिलना।

लकरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लकड़ी, लकरी + इया (प्रत्य०)] दे० 'लकड़ी'। उ०—उठत लकरिया टीक तिमिर आखत में आयौ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १०८।

लकरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० लकुटा] दे० 'लकड़ा'।

लकलक (१)
संज्ञा पुं० [अ० लक़लफ़] १. लंबा गरदन का एक पक्षी। ढेंक। २. जाम। जह्वा (को०)।

लकलक (२)
वि० १. बहुत दुबला पतला। २. लंबे पैरोंवाला। जिसकी टाँगे लंबी हों।

लकलका
संज्ञा पुं० [अ० लकलकह्] लकलक पक्षों को तोखो आवाज। रटन। उ०—बनुआफिफत हदीस याने लकलका उसे बोलते हैं के हमशा जबान हरकत में अछे।—दक्खिनी०, पृ० ३९५।

लकवा
संज्ञा पुं० [अ० लक़वह्] एक वातरोग जिसमें प्रायः चेहरा टेढ़ा हो जाता है। विशेष—यह रोग चेहरे के अचिरिक्त और अंगों में भी होता है, और जिस अंग में होता है, उसे विलकुल बेकाम कर देता है। इसमें शरीर के ज्ञानततुओं में एक प्रकार का विकार आ जाता है, जिससे कोई कोई अंग हिलने डोलने या अपना ठीक ठीक काम करने के योग्य नहीं रह जाता। इसे फालिज भी कहते हैं। पक्षाघात। क्रि० प्र०—गिरना। मुहा०—लकवा मारना या मार जाना = शरीर के किसी अंग में लकवे का रोग हो जाना।

लकसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लकड़ी + अँकुसी] फल आदि तोड़ने की लग्गी जिसकी ऊपरी सिरे पर लोहे का चंद्राकर फल या एक तिरछी छओटी लकड़ी बँधी रहती है। विशेष—इसी लग्गी को हाथ में लेकर ऊपरी सिरे में बँधी हुई छोटी लकड़ी या फल की सहयता से ऊँचे वृक्षों के पल आदि तोड़ते हैं।

लका (१)
संज्ञा पुं० [फा़० लक्का] दे० 'लक्का'।

लका (२)
संज्ञा पुं० [अं० लका़] सहवास। मैथुन [को०]।

लका (३)
संज्ञा पुं० [अ० लका़, लिका़] चेहरा। मुख। उ०—ये हदिया ले जा बादशाह वास्ते, वो रोशन लका मेहरोमा वास्ते।—दक्खिनी०, पृ० २१५।

लकाटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बिल्ली जिसके नर जाति के अंडकोशों में से एक प्रकार का मुश्क निकलता है।

लकालक
वि० [अ० लक़लक़] साफ। स्वच्छ।

लकीर
संज्ञा स्त्री० [सं० रेखा, हिं० लीक] १. कलम आदि के द्वारा अथवा और किसी प्रकार बनी हुई वह सीधी आकृति जो बहुत दूर तक एक ही सीध में चली गई हो। रेखा। खत। मुहा०—लकीर का फकीर = वह जो बिना समझे बुझे किसी प्राचीन प्रथा पर चला चलता हो। आँखे बंद करके पुराने ढंग पर चलनेवाला। लकीर पीटना = बिना समझे बूझे पुरानी प्रथा पर चले चलना। लकीर पर चलना = दे० 'लकीर पीटना'। क्रि० प्र०—करना।—खींचना।—बनाना। २. वह चिह्न दूर तक रेखा के समान बना हो। ३. धारी। ४. पंक्ति। सतर। ५. क्रम (को०)। क्रि० प्र०—करना।—खींचना।—बनाना।

लकुच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़हर का वृक्ष और फल।

लकुच (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लकुट'।

लकुट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लकुट (= लगुड)] लाठी। छड़ी। उ०—छोटी सी लकुट हाथ, छोटे छोटे बचवा साथ, छोटे से कान्है देखाति गोपी आई घरन की।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३८।

लकुट (२)
संज्ञा पुं० [सं० लकुच] १. मध्यम आकार का एक प्रकार कावृक्ष जो प्रायः सारे भारत में और विशेषतः बंगाल में अधिकता से पाया जाता है। विशेष—इसकी डालियाँ टेढ़ी मेढी और छाल पतली और खाकी रंग की होती है। इसकी टहनियों के सिरे पर गुच्छों में पत्ते लगते हैं जो अनीदार और कँगूरेदार होते हैं। साथ में सफेद रंग के छोटे छोटे फूलों के भी गुच्छे लगते हैं। २. इस वृक्ष का फल जो प्रायः गुलाब जामुन के समान होता और वसंत ऋतु में पकता है। यह फल मीठा होता है और खाया जाता है। लुकाठ। लखोट।

लकुटिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० लगुड + हिं० इया] दे० 'लकुटी'।

लकुटी †
संज्ञा स्त्री० [सं० लगुड] लाठी। छड़ी। उ०—या लकुटी अरु कामरिया पर रोज तिहुँ पुर को तजि डारौं।—रसखान०, पृ० १३।

लकुलीश
संज्ञा पुं० [सं०] एक शैव संप्रदाय और उसके प्रवर्तक आचार्य का नाम। विशेष—लकुलीश वा नकुलीश संप्रदाय के प्रवर्तक लकुलीश माने जाते हैं। लिंगपुराण (२४।१३१) में उनके मुख्य चार शिष्यों के नाम कुशिक, गर्ग, मित्र और कौरुष्य मिलते हैं। प्राचीन- काल में इसके अनुयायी बहुत थे, जिनमें मुख्य साधु (कनफटे, नाथ) होते थे। इस संप्रदाय का विशेष वृत्तांत शिलालेखों तथा विष्णुपुराण, लिंगपुराण आदि में मिलता है। इसके अनुयायी लकुलीश को शिव का अवतार मानते और उनका उत्पत्तिस्थान कायावरोहण (कायारोहण, कारवान्, बड़ौदा राज्य में) बतलाते थे। (विस्तृत विवरण के लिये देखें उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ० ४१५।

लकोटा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पहाड़ी बकरा जिसके बालों से शाल, दुशाले आदि बनाए जाते हैं।

लक्कड़
संज्ञा पुं० [हिं० लकड़ी] काठ का बड़ा कुंदा।

लक्का
संज्ञा पुं० [अ० लक्का] एक प्रकार का कबुतर जो खूब छाती उभाड़कर चलता है और जिसकी पूँछ पंखे सी होती है।

लक्का कबूतर
संज्ञा पुं० [हिं० लक्का + कबूतर] १. नाच की एक गत जिसमें नाचनेवाला कमर के बल इतना झुकता है कि सिर प्रायः भूमि के निकट तक पहुँच जाता है। यह झुकाव बगल की ओर होता है। २. दे० 'लक्का'।

लक्ख
वि० [सं० लक्ष, प्रा० लक्ख] दे० 'लक्ष'।

लक्खन (१)
संज्ञा पुं० [सं० लक्षण, प्रा० लक्खण, लख्खण] दे० 'लक्षण'। उ०—कुँवर बतांसौ लक्खन राता। दसएँ लखन कहै एक वाता।—जायसी ग्रं०, पृ० २५१।

लक्खन (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मण] लक्ष्मण जी। उ०—जल को गए लक्खन हैं लरिका परिखौ पिय छाँह घरीक ह्वै ठाढ़ै।—तुलसी ग्रं०, पृ०.......।

लक्खना पु
वि० [सं० लक्षणक] लक्षणोंवाला। लक्षणों से युक्त। उ०—कुवर वतीसौ लक्खना सहस करा जस भान।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० ३०६।

लक्खी (१)
वि० [हिं० लाख] लाख के रंग का। लाखी।

लक्खी (२)
संज्ञा पुं० घोड़े की एक जाति।

लक्खी (३)
संज्ञा पुं० [हिं० लाख (संख्या)] वह जिसके पास लाखों रुपए हों। लखवती।

लक्खी (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी, प्रा०, बँग० लक्खी] लक्ष्मी। उ०—बंगाली के लक्खी कहने को लक्ष्मी न मानै तो कभी ठीक न होगा।—प्रेमघन, भा० २, पृ० ७।

लक्त
वि० [सं०] लाल। सुर्ख।

लक्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अलता, जो स्त्रियाँ पैरों में लगती हैं। अलक्तक। २. बहुत फटा हुआ पुराना कपड़ा। चीथड़ा। लत्ता।

लक्तकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० लक्तकर्मन्] लाल लोध।

लक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिपकली [को०]।

लक्ष (१)
वि० [सं०] एक लाख। सौ हजार।

लक्ष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह अंक जिससे एक लाख की संख्या का ज्ञान हो। जैसे,—१,०० ०००। २. पैर। ३. चिह्न। निशान। ४. दे० 'लक्ष्य'। ५. अस्त्र को एक प्रकार का संहार। उ०— लक्ष अलक्ष युगल द्दढ़नाभ सुनाभ दशाक्ष शतानन।—रघुराज (शब्द०)। ६. व्याज। दिखावा। बहाना (को०)। ७. मुक्ता। मोती (को०)।

लक्षक (१)
वि० [सं०] १. (वह) जो लक्ष करा दे। जता देनेवाला। २. (वह शब्द) जो संबंध या प्रयोजन से अपना अर्थ सूचित करे।

लक्षक (२)
संज्ञा पुं० एक लाख की संख्या [को०]।

लक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ की वह विशेषता जिसके द्वारा वह पहचाना जाय। वे गुण आदि जो किसी पदार्थ में विशिष्ट रूप से हों और जिनके द्वारा सहज में उसका ज्ञान हो सके। चिह्न। निशान। आसार। जैसे,—आकाश के लक्षण से जान पड़ता है कि आज पानी बरसेगा। २. नाम। ३. परिभाषा। ४. शरीर में दिखाई पड़नेवाला वे चिह्न आदि जो किसी रोग के सूचक हों। जैसे,—इस रोगी में क्षय के सभी लक्षण दिखाई देते हैं। ५. दर्शन। ६. सारस पक्षी। ७. सामु- द्रिक के अनुसार शरीर के अँगों में होनेवाले कुछ विशेष चिह्न। जो शुभ या अशुभ माने जाते हैं। जैसे,—चक्रवर्ती और बुद्ध के लक्षण एक से होते हैं। ८. शरीर में होनेवाला एक विशेष प्रकार का काला दाग जो बालक के गर्भ में रहने के समय सूर्य या चंद्रग्रहण लगने के कारण पड़ जाता है। लच्छन। ९. चाल- ढाल। तौर तरीका। रंग ढंग। जैसे,—आजकल तुम्हारे लक्षण अच्छे नहीं जान पड़ते। १०. दे० 'लक्ष्मण'। ११. पुरुषेद्रिय। शिश्न [को०]। १२. योनि। भग (को०)। १३. अध्याय। परिच्छेद। स्कंध (को०)। १४. व्याज। छल छद्म (को०)। १५. लक्ष्य। उद्देश्य (को०)। १६. बँधी हुई सीमा। दर (को०)। १७. प्रस्तुत प्रसंग। उपस्थित विषय (को०)। १८. कारण (को०)। १९. नतीजा। परिणाम। असर (को०)।

लक्षणक
संज्ञा पुं० [सं०] चिह्न। निशान। लच्छन [को०]।

लक्षणकर्म
संज्ञा पुं० [सं० लक्षणकर्मन्] परिभाषा [को०]।

लक्षण ग्रंथ
संज्ञा पुं० [सं० लक्षण + ग्रंथ] काव्य या साहित्य के लक्षणों का विवेचन करनेवाला ग्रंथ। साहित्यिक समीक्षा की पुस्तक। समालोचना शास्त्र। उ०—पहली बात तो ध्यान देने की यह है कि लक्षण ग्रंथों के बनने के बहुत पहले से कविता होती आ रही थी। चिंतामणि, भा० २, पु० ९२।

लक्षणज्ञ
वि० [सं०] लक्षणों को जाननेवाला। शुभ अशुभ चिह्नों का ज्ञाता [को०]।

लक्षणभ्रष्ट
वि० [सं०] जो शुभ लक्षणों से हीन या रहित हो। अभागा। भाग्यहीन [को०]।

लक्षण लक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लक्षणा जिसे जहल्लक्षणा भी कहते हैं।

लक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्षण शब्द की वह शक्ति जिससे उसका अर्थ लक्षित हो जाता है। शब्द की वह शक्ति जिससे उसका अभिप्राय सूचित होता है। विशेष—कभी कभी ऐसा होता है कि शब्द के साधारण अर्थ से उसका वास्तविक अभिप्राय नहीं प्रकट होता। वास्तविक अभि- प्राय उसके साधारण अर्थ से कुछ भिन्न होता है। शब्द को जिस शक्ति से उसका वह साधारण से भिन्न और दूसरा वास्तविक अर्थ प्रकट होता है, उसे लक्षणा कहते हैं। साहित्य में यह शक्ति दो प्रकार की मानी गई है—निरूढ़ और प्रयोजनवती (विशेष दे० ये दोनों शब्द)। २. मादा हंस। हंसी। ३. मादा सारस। सारसी। ४. छोटी भटकटैया। ५. एक अप्सरा का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में हैं। ६. दुर्योधन की पुत्री का नाम जिसका विवाह कृष्ण के पुत्र साँब से हुआ था। लक्ष्मणा।

लक्षणान्वित
वि० [सं०] शुभ चिह्नोंवाला [को०]।

लक्षणी
वि० [सं० लक्षणिन्] १. जिसमें कोई लक्षण या चिह्न हो। २. लक्षण जाननेवाला।

लक्षण्य (१)
वि० [सं०] १. चिह्न या निशान का काम देनेवाला। २. शुभचिह्नों से युक्त।

लक्षण्य (२)
संज्ञा पुं० दैवज्ञ। भविष्यवक्ता [को०]।

लक्षना पु
क्रि० स० [सं० लक्ष + हिं० ना (प्रत्य०)] लखना। देखना। उ०—पक्ष हू सधि संध्या संधी हैं मनोत लक्षिए स्वच्छ प्रयक्ष ही देखिए।—केशव (शब्द०)।

लक्षन पु
संज्ञा पुं० [सं० लक्षण] दे० 'लक्ष्मण-१'। उ०—बाण की वायु उड़ाय कै लक्षन लक्षि करों अरहा समत्थहिं।— केशव (शब्द०)।

लक्षना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्षणा] शब्दों की एक शक्ति। विशेष दे० 'लक्षणा'।

लक्षशः
क्रि० वि० [सं० लक्षशस्] लाखों की संख्या में। २. अत्य- धीक। अगणनीय। बहुत अधिक [को०]।

लक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लाख की संख्या।

लक्षि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी] दे० 'लक्ष्मी'। उ०—सुनहिं सुमुखि तो को त्यावतो लक्षि दासी।—केशव (शब्द०)।

लक्षि (२)
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्य] दे० 'लक्ष्य'। उ०— बाण की वायु उड़ाय कै लक्षन लक्षि करौ अरिहा समरत्थहि।—केशव (शब्द०)।

लक्षित (१)
वि० [सं०] १. बतलाया हुआ। निर्दिष्ट। २. देखा हुआ। ३. अनुमान से समझा या जाना हुआ। ४. जिसपर कोई लक्षण या चिह्न बना हो।

लक्षित (२)
संज्ञा पुं० वह अर्थ जो शब्द की लक्षणा शक्ति के द्वारा ज्ञात होता है।

लक्षित लक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लक्षणा।

लक्षितव्य
वि० [सं०] १. परिभाषा या व्याख्या करने योग्य। २. चिह्नित करने योग्य [को०]।

लक्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह परकीया नायिका जिसका गुप्त प्रेम उसकी सखियों को मालूम हो जाय। वह स्त्री जिसका पर-पुरुष- प्रेम दूसरों को ज्ञात हो।

लक्षितार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] अर्थ जो शब्द की अभिधा शक्ति द्वारा प्राप्त न हो। लक्षणा शक्ति द्वारा प्राप्त अर्थ [को०]।

लक्षी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में आठ रगण होते हैं। इसे गंगोदक, गंगाधर और खंजन भी कहते हैं। उ०—कोटि बाधा कटैं पाप सारै घटैं शभु शंभू रटैं नाथ जो मान कै।—जगन्नाथप्रसाद (शब्द०)।

लक्षी (२)
वि० [सं० लक्षिन्] [वि० स्त्री० लक्षिणी] शुभ लक्षणोंवाला। शुभ चिह्नों से युक्त।

लक्ष्म
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मन्] १. चिह्न। निशान। २. धब्बा। दाग। लांछन। ३. प्रधान। मुख्य। ४. परिभाषा। ५. मुक्ता। मोती [को०]।

लक्ष्मण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रघुवंशी राजा दशरथ के चार पुत्रों में में से दूसरे पुत्र, जो सुमित्रा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। विशेष— जब मिथिला में रामचंद्र जी ने धनुष तोड़ा था, तब परशुराम के बिगड़ने पर इन्होंने उनसे वादविवाद किया था। उसी अवसर पर उर्मिला के साथ इनका विवाह हुआ था। यद्यपि इनका स्वभाव बहुत ही उग्र और तीव्र था, तथापि ये अपने बड़े भाई रामचंद्र के बहुत बड़े भक्त थे; और सदा उनके अनुगामी रहते थे। जब रामजंद्र जी बन को जाने लगे थे, तब ये भी अयोध्या का सारा सुख छोड़कर केवल भक्ति और प्रेम- वश उनके साथ हो लिए थे। बन में ये सदा सब प्रकार से उनकी सेवा किया करते थे। रावण की बहन शूर्पनखा की नाक इन्हीं ने काटी थी। जिस समय मारीच सोने के मृग का रूप धरकर आया था और रामचंद्र उसे मारने निकले थे, उस समय सीता की रक्षा के लिये यही कुटी में थे। पर पीछे से सीता के बहुत आग्रह करने पर ये रामचंद्र का पता लगाने के लिये जंगल में गए। राम-रावण-युद्ध के समय ये बहुत वीरता- पूर्वक लड़े थे और मेघनाद का वध इन्होंने किया था। उस युद्ध में ये एक बार शक्ति बाण लगने के कारण मूर्छित हो गए थे,जिसपर रामचंद्र जी ने बहुत अधिक विलाप किया था। पर हनुमान द्वारा ओषधि लाए जाने पर उसके सेवन से शीघ्र ही इनकी मूर्छा दूर हो गई थी और ये फिर उठकर लड़ने लगे थे। जिस समय सीता जी अपने सतीत्व का प्रमाण देने के लिये अग्निप्रवेश करने को प्रस्तुत हुई थीं, उस समय रामचंद्र की आज्ञा से इन्हीं ने सीता के लिये चिता तैयार की थी। रामचंद्र के वनवास के कारण ये अपने पिता राजा दशरथ और भाई भरत से बहुत अप्रसन्न हो गए थे; पर पीछे से भरत की ओर से इनका मन साफ हो गया था और इन्होंने समझ लिया था कि इसमें भरत का कोई दोष नहीं है। ये बहुत ही तेजस्वी, वीर और शुद्ध चरित्र के थे। उर्मिला से इन्हें अंगद और चंद्रकेतु नाम के दो पुत्र थे। पुराणानुसार ये शेषनाग के अवतार माने जाते हैं। २. दुर्योधन के पुत्र का नाम। ३. चिह्न। लक्षण। ४. नाग। ५. आख्या। नाम (को०)। ६. सारस।

लक्ष्मण (२)
वि० १. चिह्न वा लक्षणों से युक्त। २. जो श्री से युक्त हो। भाग्यशाली। जिसमें शोभा और कांति हो।

लक्ष्मणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मद्र देश के राजा बृहत्सेन की कन्या जो श्रीकृष्ण जी को ब्याही थी और उनकी आठ पटरानियों में से एक थी। २. दुर्योधन की बेटी का नाम। यह कृष्ण के पुत्र सांब की स्त्री थी। ३. एक जड़ी। विशेष— यह पुत्रदा मानी जाती है। यह जड़ी पर्वतों पर मिलती है। इसके पत्ते चौड़े होते हैं और उनपर लाल चंदन की सी बूँदे होती हैं। इसका कंद सफेद होता है और वही ओषधि के काम में आता है। पर्या०— पुत्रकंदा। पुत्रका। नागपत्री। जननी। नागिनी। नागाह्वा। मज्जिका। तुलिनी। ४. श्वेत कंटकारी। सफेद भटकटैया (को०)। ५. सारस की मादा वा हंसी।

लक्ष्मा
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मन्] १. दे० 'लक्ष्म'। २. हंस या सारस पक्षी। ३. लक्ष्मण [को०]।

लक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हिंदुओं की एक प्रसिद्ध देवी जो विष्णु की पत्नी और धन की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। विशेष— भिन्न भिन्न पुराणों में इनके संबंध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। इनकी उत्पत्ति के संबंध में प्रसिद्ध है कि देवताओं और दानवों के समुद्र मथने से जो चौदह रत्न निकले थे, उन्हीं में से एक यह भी थीं। इनका वर्ण श्वेत चंपक या कंचन के समान, कमर बहुत पतली, नितब बहुत विशाल और चार भुजाएँ मानी जाती हैं। यह भी कहा गया है कि ये अत्यंत सुंदरी हैं। और सदा युवती रहती हैं। ये महालक्ष्मी भी कही जाती हैं और इनकी पूजा अनेक अवसरों पर, विशेषतः धनतेरस और दीवाली की रात को होती है। मूर्तियों में ये या तो अकेली बैठी हुई और या क्षीरसागर में सोते हुए विष्णु भगवान् के चरण दबाती हुई दिखलाई जाती हैं। पर्या०—पद्मालया। पद्मा। कमला। श्री। हरिप्रिया। इंदिरा। लोकमाता। माँ। क्षीराग्धितनया। रमा। जलधिजा। भर्गवी। हरिवल्लभा। २. धन संपत्ति। दौलत। यौ०—लक्ष्मीवान्। लक्ष्मीपति=धनवान। ३. शोभा। सौंदर्य। छवि। उ०— जय अरि जय हित चल्यौ बदन लक्ष्मी बर ढंगी।—गिरिधर (शब्द०)। ४. दुर्गा का एक नाम। ५. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो रगण, एक गुरु और एक लघु अक्षर होता है। जैसे,—जाहि पावैं नहीं संत। खेल सो लक्षमी कंत। ६. आर्या छंद के २६ भेदों में से पहला भेद जिसके प्रत्येक चरण में २७ गुरु और ३ लघु वर्ण होते हैं। ७. सीता जी का एक नाम। ८. ऋद्धि नाम की ओषधि ९. वृद्धि नाम की ओषधि।१०. वीर स्त्री। ११. घर की मालकिन। गृहस्वामिनी। १२. हल्दी। १३. शमी वृक्ष। १४. मोती। १५. मोक्ष की प्राप्ति। १६. वह वृक्ष जो फलता हो अथवा जिसमें फल लगे हों। १७. पद्म। कमल। १८. सफेद तुलसी। १९. मेढ़ासिंगी। २०. अभ्युदय। सौभाग्य (को०)। २१. प्रभुशक्ति। राज्यशक्ति (को०)। २२. चंद्रमा की ग्यारहवीं कला (को०)। २३. कन्या। पुत्री।

लक्ष्मीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनवान्। अमीर। २. भाग्यवान्।

लक्ष्मीकांत
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मीकान्त] १. नारायण। विष्णु। २. राजा। नरेश (को०)।

लक्ष्मीगृह
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल।

लक्ष्मीजनार्दन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के शालग्राम जो बहुत काले रंग के होते हैं और जिनपर एक ओर चार चक्र रहते हैं।

लक्ष्मी टोड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी+हिं० टोड़ी] एक प्रकार की संकर रागिनी जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।

लक्ष्मीताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. संगीत में १८ मात्राओं का एक ताल जिसमें १५ आघात और ३ खाली होते हैं। इसके मृदंग + १. २. ० ३ ४ ५ ० के बोल इस प्रकार हैं— धा केटे धा धा केटे ताग धा केटे ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ ० + तागे नेना आन खून ग्रेदे ने ताधेम गे तेटे गदि धेने। धा। २. श्रीताल नामक वृक्ष।

लक्ष्मीधर
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रग्विणी छंद का दूसरा नाम। २. विष्णु।

लक्ष्मीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. धनी। ३. राजा।

लक्ष्मीनारायण्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के शालग्राम जो बहुत काले रंग के होते हैं और जिनपर एक ओर चार चक्र बने होते हैं। लक्ष्मीजनार्दन।

लक्ष्मीनिकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] आमलक चूर्ण से किया हुआ स्नान [को०]।

लक्ष्मीनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा जनक के पुत्र का नाम। २. धनी व्यक्ति।

लक्ष्मीनृसिंह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के शालग्राम जिनपर दो चक्र और एक बनमाला बनी होती है। ऐसे शालग्राम गृहस्थों के लिये बहुत शुभ माने जाते हैं।

लक्ष्मीपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। नारायण। २. कृष्ण। ३. राजा। ४. लौंग का वृक्ष। ५. सुपारी का वृक्ष।

लक्ष्मीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. घोड़ा। ३. सीता के पुत्र लव और कुश।

लक्ष्मीपुत्र
वि० धनवान्। अमीर।

लक्ष्मीपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. माणिक। लाल। २. पद्म। कमल। ३. लौंग का फूल।

लक्ष्मीपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह पर्व जिसमें लक्ष्मी का पूजन करते हैं। दीपावली।

लक्ष्मीफल
संज्ञा पुं० [सं०] बेल। श्रीफल।

लक्ष्मीरमण
संज्ञा पुं० [सं०] नारायण।

लक्ष्मीवत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. कटहल का वृक्ष। ३. अश्वत्थ का वृक्ष।

लक्ष्मीवत् (२)
वि० धनवान्। अमीर।

लक्ष्मीवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

लक्ष्मीवसति
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल कमल जो लक्ष्मी का निवास माना जाता है। लक्ष्मीगृह [को०]।

लक्ष्मीवार
संज्ञा पुं० [सं०] गुरुवार।

लक्ष्मीवेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] ताड़पीन।

लक्ष्मीश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु। २. आम का वृक्ष।

लक्ष्मीश (२)
वि० धनवान्। अमीर।

लक्ष्मीसमाह्वया
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता जी का एक नाम [को०]।

लक्ष्मीसहज, लक्ष्मीसहोदर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर। (को०)। ३. इंद्र का घोड़ा। उच्चःश्रवा (को०)। ४. शंख (को०)।

लक्ष्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वस्तु जिसपर किसी प्रकार का निशाना लगाया जाय। निशाना। २. वह जिसपर किसी प्रकार का आक्षेप किया जाय। ३. अभिलषित पदार्थ। उद्देश्य। ४. अस्त्रों का एक प्रकार का संहार। ५. वह जिसका अनुमान किया जाय। अनुमेय। ६. वह अर्थ जो किसी शब्द की लक्षणा शक्ति के द्वारा निकलता हो। ७. व्याज। व्यपदेश। बहाना (को०)। ८. एक लाख की संख्या (को०)।

लक्ष्य (२)
वि० १. देखने योग्य। दर्शनीय। २. जिसका लक्षण या परिभाष की जाय (को०)।

लक्ष्यक्रम
वि० [सं०] जिसका क्रम लक्षित हो। जैसे, लक्ष्यक्रम ध्वनि।

लक्ष्यग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्य साधना। निशाना लेना [को०]।

लक्ष्यज्ञ
वि० [सं०] लक्ष्य का जानकार। लक्ष्य को जाननेवाला।

लक्ष्यज्ञत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह ज्ञान जो चिह्नों को देखकर उत्पन्न हो। ३. वह ज्ञान जो दृष्टांत के द्वारा उत्पन्न हो।

लक्ष्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्य का भाव या धर्म। लक्ष्यत्व।

लक्ष्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्य का भाव या धर्म। लक्ष्यता।

लक्ष्यभेद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का निशाना जिसमें तेजी से चलते या उड़ते हुए लक्ष्य को भेदते हैं। जैसे,— आकाश में फेंके हुए पैसा या उड़ते हुए पक्षी पर निशाना लगाना। लक्ष्यवेध।

लक्ष्यवीथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह उपाय या कर्म जिससे जीवन का उद्देश्य सिद्ध होता हो। २. ब्रह्मलोक का मार्ग, जिसे देवयान पथ भी कहते हैं।

लक्ष्यवेध, लक्ष्यवेधन
संज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्य का वेधन करना। लक्ष्यभेद [को०]।

लक्ष्यवेधी
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्यवेधिन्] वह जो लक्ष्यवेध करता हो। उडते या तेजी से चलते हुए पदार्थों या जीवों पर ठीक निशाना लगानेवाला व्यक्ति।

लक्ष्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वह अर्थ जो लक्षणा से निकले। शब्द की लक्षणा शक्ति द्वारा व्यक्त अर्थ।

लखघर पु
संज्ञा पुं० [सं० लाक्षागृह] लाख का वह घर जो पांडवों को जलाने के लिये दुर्योधन ने बनवाया था। लाक्षागृह। उ०— जैसे जारत लखघर साहस कीन्हाँ भीउ। जरत खंभ तस काढ़हु कै पुरषारथ जीउ।—जायसी (शब्द०)।

लखन † (१)
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मण] श्रीरामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण का नाम। उ०— लखत लख्यो प्रभु हृदय खेभारू।—तुलसी (शब्द०)।

लखन (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लखना] लखने की क्रिया या भाव।

लखनवा
वि० [हिं० लखनऊ+ई (प्रत्य०)] १. लखनऊ का। २. ठाट बाट और शान शौकत पंसंद करनेवाला (व्यंग्य)। उ०— मैं अपने एक लखनवी दोस्त के साथ साँची स्तूप देखने गया।—रस०, पृ० १५४।

लखना पु †
क्रि० स० [सं० लक्ष] १. लक्षण देखकर अनुमान कर लेना। समझ या जान लेना। ताड़ना। उ०— (क) लखन लखेउ भा अनरथ आजू। यह सनेह बस करिहि अकाजू।— तुलसी (शब्द०)। (ख) लखै न रानि निकट दुख कैसे।—तुलसी (शब्द०)। २. देखना। उ०— (क) लहाछेह अति गतिन की सबन लखे सब पास।—बिहारी (शब्द०)। (ख) चहियत किसोर लखि लोचन जुगुल अनेक।—बिहारी (शब्द०)।

लखपती
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष+पति] लाखों रुपयों का अधिपति। जिसके पास लाखों रुपयो की संपत्ति हो।

लखपेड़ा
वि० [हिं० लाख+पेड़] (बाग आदि) जिसमें बहुत अधिक वृक्ष हों।

लखमी †
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी, प्रा० लक्खमी, लखिमी] दे० 'लक्ष्मी'।

लखमीतात
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मी+ताल] समुद्र। (डिं०)।

लखमीवर
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मी+वर] विष्णु। (डिं०)।

लखर
संज्ञा पुं० [देश०] काकड़ासिंगी का पेड़। इसे अरकोल भी कहते हैं।

लखराउँ, लखराँव †
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षराजि, प्रा० लुकखराइ > लक्खराई > लखरांड, लखरांब] विशाल उपवन या बाग। लाखों पेडों से भरा बगीचा।

लखलख
वि० [फ़ा० लखलख] दे० 'लकलक'।

लखलखा
संज्ञा पुं० [फ़ा० लखलखह्] १. कोई सुगंधित द्रव्य। २. एक विशेष प्रकार का बना हुआ सुगंधित द्रव्य जो प्रायः मिट्टी पर गुलाब जल छिड़ककर अथवा इसी प्रकार के और द्रव्यों से तैयार किया जाता है और जिसे सुँघाकर बेहोश आदमी को होश में लाते हैं। मूर्छा दूर करने का कोई सुगंधित द्रव्य।

लखलखाव †
संज्ञा [हिं० लखना+लखाव] परस्पर अवलोकन। निगाहों का मिलना। देखादेखी।

लखलु़ट पु
वि० [हिं० लाख+लुटाना] जो लाखों रुपए लुटा दे। बहुत बड़ा अपव्ययी।

लखाइ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लखना] १. लक्षण। पहचान। २. देखादेखी।

लखाउ पु
संज्ञा पुं० [हिं० लखना] १. लक्षण। पहचान। चिह्न। उ०— (क) अउर एक तोहिं कहौं लखाऊ। मैं एहि भेस न आउब काऊ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बूझि भरत सतभाउ कुभाऊ। आयहु बेगि न होइ लखाऊ।—तुलसी (शब्द०)। २. चिह्न के रूप में दिया हुआ कोई पदार्थ। निशानी में दी हुई चीज। उ०— कियो सीय प्रबोध मुँदरी दियो कपिहि लखाउ। उ०—तुलसी (शब्द०)।

लखाघर पु
संज्ञा पुं० [सं० लाक्षागृह, प्रा० हर] लाख या लाह का घर। लखघर। लाक्षागृह। उ०— जैसे जारत लखाघर साहस कीना भीउ।—जायसी (शब्द०)।

लखाना पु † (१)
क्रि० अ० [हिं० लखना] दिखाई पड़ना। उ०— मिलि चंदन वेंदी रही गोरे मुख न लखाय। ज्यौं ज्यौं मद लाली चढ़ै त्यौं त्यौ उघरति जाय।—बिहारी (शब्द०)।

लखाना (३)
क्रि० स० १. दिखलाना। २. अनुमान करा देना। समझा देना। सुझा देना। उ०— मेरोइ फोरिबे जोग कपार किधौं कछु काहू लखाइ दयो है।—तुलसी (शब्द०)।

लखाव पु
संज्ञा पुं० [हिं० लखना] दे० 'लखाउ'।

लखिमी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी] १. धन संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी, लक्ष्मी। २. धन सपत्ति। दौलत।

लखिवा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० लखना+इया (प्रत्य०)] १. लखनेवाला। जो लखता हो। २. वह जिसकी आयु लाख वर्षों की हो। बहुत दिनों तक जीवन रखनेवाला।

लखी
संज्ञा पुं० [हिं० लाखी] लाख के रंग का घाड़ा। लाखी। उ०— अबलक अरवी लखी सिराजा। चौधर चाल, समँद भल ताजी। जायसी (शब्द०)।

लखुआ † (१)
संज्ञा पुं० [सं० लाक्षा (=लाख) + हिं० उआ (प्रत्य०)] १. लाखा या लाही नामक रोग जो गेहूँ के पौधों में लगता है। २. लाल मुँहवाला बंदर।

लखुआ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लखना + उआ (प्रत्य०)] दे० 'लखिया'।

लखुवा
संज्ञा पुं० [सं० लाक्षा + हिं० उवा (प्रत्य०)] दे० 'लखुण'।

लखेदना पु †
क्रि० स० [सं० लक्ष्य=प्रा० लक्ख, हिं० लख + ऐदना < सं० भेदन, अथवा हिं० खेदना या रगेदना] खदेड़ना। भगाना। खेदना। स्थानच्युत्त करना वा हटा देना।

लखेरा
संज्ञा पुं०[हिं० लाख + एरा (प्रत्य०)] १. वह जो लाख की चूड़ी आदि बनाता हो। २. हिंदुओँ में एक जाति जो लाख की चूड़ियाँ आदि बनाती है।

लखोट, लखोट
संज्ञा पुं० [हिं० लकुट] दे० 'लकूट' [फल]।

लखौट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लाख + औट (प्रत्य०)] लाख की चूड़ी आदि जो स्त्रियाँ हाथों में पहनती हैं। उ०— हाथन लखौट पाइ चूरा पचमणी गरे, गोरी की जुगुल जानु कोरी मनो केरा की।—देव (शब्द०)।

लखौटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लाख + औटा (प्रत्य०)] १. चंदन, केसर आदि से बना हुआ अंगराग वा अधर राग। उ०— दरशन तो भुख को भयो सुमुखो मोंहि रसाल। बिना लखौटा हू लगे अधर ओठ अति लाल। लक्ष्मण (शब्द०)। २. एक प्रकार का छोटा डिब्बा जो प्रायः पीतल का बनता है और जिसमें स्त्रीयाँ प्रायः सिंदूर आदि सौभाग्य के द्रव्य रखती है। इसके ढकने में प्रायः शीशा भी लगा होता है।

लखौटा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लेख + औटा (प्रत्य०)] लिखावट।

लखौटा पु † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लाख + औटा (प्रत्य०)] लाख की चूड़ी। लखौट।

लखौटा (४)
वि० [हिं० लखना(=देखना) + औटा (प्रत्य०)] परिचायक। लखनिवाला। सुचित करनेवाला। उ०— जैसे समुद्र में नाव पर सबके आगे मार्ग दिखलानेवाला माँझी रहता है, वैसे ही तेरे हाथ में यह लखौटा है। — भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २०१।

लखौरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लाक्षा, हिं० लाखा + औरी (प्रत्य०) (तु० आवृत्ति)] १. एक प्रकार की भ्रमरी का घर जो वह मिट्टी से घरों के कोनों में बनाती है। भृंगी का घर। २. भारत की एक प्रकार की छोटी पतली ईंट जो प्रायः पुराने मकानों में पाई जाती है और जिसका व्यवहार अब कम होता जा रहा है। नौतेरही ईंट। ककैया ईंट। लखौरिया ईंट।

लखौरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष, हिं० लाख(संख्या)] किसी देवता को उसके प्रिय वृक्ष की एक लाख पत्तियाँ या फल आदि चढ़ाना। जैसे,— शिव जी को बेलपत्र की या लक्ष्मीनारायण को तुलसी की लखौरी चढ़ाना। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—जलाना या बालना=लाख बत्तियों की आरती करना।

लख्त
संज्ञा पुं० [फा० लख्त] टुकड़ा। खंड। अंश। उ०— कि चश्मेखूँ चकाँ से लख्ते दिल पैहम निकलते हैं। — भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८४८। यौ०— लख्ते जिगर=हृदय का टुकड़ा। पुत्र वा अत्यंत प्रिय व्यक्ति।

लगंत
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगना + अंत (प्रत्य०)] १. लगन होने की क्रिया या भाव। उ,— आलस में जब बहार की आकर खिलत है। दिल की नई लगन को मजे की लगंत है।—नजीर (शब्द०)। २. लगने या स्त्रीप्रसंग करने की क्रिया या भाव।

लग (१)
क्रि० वि० [हिं० लौं] १. तक। पर्यंत। ताईं। उ०— एक मुहूरत लग कर जोरी। नयन मूँदे श्रीपातहि निहोरी।—रघु- राज (शब्द०)। २. निकट। समीप। नजदीक। पास। उ०— यहि भाँति दिगीश चले मग में। इस सोर सुन्यो अति ही लग में।—गुमान (शब्द०)।

लग (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लिग्] लगन। लाग। प्रेम। उ०— झाँकति है का झरोखा लगी लग लागिबे की इहाँ झेल नहीं फिर।—पद्माकर (शब्द०)।

लग (३)
अव्य० १. वास्ते। लिये। उ०— भृगुपति जीति परसु तुम पायो। ता लग हौं लंकेश पठायो। हृदयराम (शब्द०)। २. साथ। संग। उ०— लगलगो बातनि अलग लग लगी आवै लोगनि की लंग ज्यों लुगाइन की लाग री।—देव (शब्द०)।

लगड
वि० [सं०] खूबसूरत। सुंदर [को०]।

लगढग
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'लगभग'।

लगण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें पलक पर एक छोटी, चिकनी, कड़ी गाँठ हो जाती है। इस गाँठ में न तो पीड़ा होती है और न यह पकती है।

लगदी
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह बिछौना जिसे बच्चेवाली स्त्रियाँ बच्चों के नीचे इसलिये बिछाकर उन्हें अपने पास सुलाती हैं कि जिसमें उनके मलमूत्र से और बिछौने खराब न होने पावें। कथरी। पोतड़ा।

लगन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगना] १. किसी ओर ध्यान लगने की क्रिया। प्रवृत्ति का किसी एक ओर लगना। लौ। जैसे,—आज कल तो आपको बस कलकत्ते जाने की लगन लगी है। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। २. प्रेम। स्नेह। मुहब्बत। प्यार। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। ३. लगने की क्रिया या भाव। लगाव। संबंध।

लगन (२)
संज्ञा पुं० [सं० लग्न] १. विवाह के लिये स्थिर किया हुआ कोई शुभ मुहुर्त। ब्याह का मुहुर्त या साइत। २. वे दिन जिनमें विवाह आदि होते हों। सहालगठ। ३. दे० 'लग्न'। मुहा०— लगन धरना=विवाह की तिथि निश्चित करना।

लगन (३)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. ताँबे, पीतल आदि की थाली जिसमें रखकर मोमबत्ती जलाई जाती है। २. कोई बड़ी थाली जिसमें आटा गूँधते या मिठाई आदि रखते हैं। ३. मुसलमानों की एक रीति जिसमें विवाह से पहले थालियों में मिठाइयाँ आदि भरकर वर के लिये भेजी जाती हैं।

लगन पु †
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का मृग। दे० 'लगना'।

लगनपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० लग्नपत्रिका] विवाहसमय के निर्णय की चिट्ठी जो कन्या का पिता वर पिता को भेजता है।

लगनवट पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगन + वट (प्रत्य०)] १. लगन। प्रेम। मुहब्बत। उ०— पाही खेती लगनवट ऋतु कुव्याज मग खेत। बैर बड़े सों आपने किए पाँच दुख हेत।—तुलसी (शब्द०)।

लगनवट † (२)
संज्ञा पुं० दे० 'लगनहट'।

लगनहट †
संज्ञा पुं० [हिं० लगन + हट (प्रत्य०)] लग्न का समय। वह समय जब विवाह शादियाँ होती है। लगनवट।

लगना (१)
क्रि० अ० [सं० लग्न] १. दो पदार्थों का तल आपस में मिलना। एक चीज की सतह पर दूसरी चीज की सतह का होना। सटना। जैसे,—टेबुल पर कपड़ा लगना, तसवीर पर शीशा लगना, दीवार पर इश्तहार लगना। उ०— मिट्टी में सनी हुई बदहवास एक पत्थर से लगी हुई थी।—देवकीनंदन (शब्द०)। २. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में संलग्न होना। मिलना। जुड़ना। जैसे,— तसवीर में चौखटा लगना, अलमारी में शीशा लगना, किसी के गले लगना। उ०— लागात है जाय कठ नाग दिगपालन के मेरे जान सोई कृत कीरात तिहारी है— केशव (शब्द०)। ३. किसी पदार्थ के तल पर पड़ना। जैसे,—पैर में कीचड़ लगना, कपड़े में मिट्टी लगना, कागज में दाग लगना। ४. एक चीज का दूसरी चीज पर सीना, जड़ा टाँका या चिपकाया जाना।जैसे,—चादर में बेल लगना, धोती में फीता लगना, कोट में बटन लगना। उ०— (क) जटित जराय की जँझीर बीच नीलमणि लगि रहे लोगनि के नेन मानो मनहर।—केशव (शब्द०)। (ख) सिर पर फौलादी टोपी जिसमें एक हुमा के पर की लांबी कलगी लगी हुई थी।— देवकीनंदन (शब्द०)। ५. संमिलित होना। शामिल होना। मिलना। जैसे,—पुस्तक में परिशिष्ट लगना, रजिस्टर में पन्ने लगना। ६. उत्पन्न होना। जमना। उगना। जैसे,—(क) यह गुलाब इस जमीन में न लगेगा। (ख) इस पेड़ में खूब आम लगे है। ७. छोर या प्रांत आदि पर पहुँचकर टिकना या रूकना। ठिकाने पर पहुँचना। जैसे,—किनार पर नाव लगना, दरवाजे पर गाड़ी या बरात लगना। ८. क्रम से रखा या सजाया जाना। सिलसिले से रखा जाना। जैसे,—अलमारी में किताबें लगना, दूकान पर माल लगना, बरात लगना, हाट लगना, नुमाइश लगना। ९. व्यय होना। खर्च होना। जैसे,—(क) ब्याह में दस हजार रूपए लगे। (ख) उसे दौड़ने दो, तुम्हारा क्या लगता है। १०. जान पड़ना। मालूम होना। अनुभव होना। जैसे,—डर लगना, मोह लगना, पेशाब लगना, अच्छा लगना, बुरा लगना, जाड़ा लगना, गरमी लगना। उ०— चंद्रकांता के विरह में मोरों की आवाज तीर सी लगती है।—देवकीनंदन (शब्द०)।११. स्थापित होना। कायम होना। जैसे,—मकान में कल लगना, छत के नीचे खंभा लगना। १२. संबंध या रिश्ते में कुछ होना।जैसे,— वह हमारा भाई लगता है।उ०— दशरथ आपके कौन लगते हैं और आप दशरथ के कौन लगते हो। —वाल्मीकीय रामायण (शब्द०)। १३. आघ/?/पड़ना। चोट पहुँचना। —जैसे,—लाठी लगना, थप्प/?/लगना, तलवार लगना। उ०— धौल का लगना था।/?/वह पत्थर का आदमी उठ बैठा। —देवकीनंदन (शब्द०)/?/१४. टक्कर खाना। टकराना। जैसे,— जरा सा ढकेल/?/ही उसका सिर दीवार से जा लगा। १५. किसी चीज/?/के ऊपर लेप किया जाना। पोता जाना। मला जाना। जैसे,— लकड़ी पर वारनिश लगना, फोड़े पर दवा लगना, पान।/?/कत्था लगना, सिर में तेल लगना। १६. किसी पदार्थ का कि/?/प्रकार की जलन या चुनचुनाहट आदि उत्पन्न करना। जैसे,— (क) यह सूरत बहुत लगता है। (ख) यह दवा पहले तो वु/?/लगेगी, पर फिर ठंढक डाल देगी। १७. खाद्य पदार्थ का/?/के समय जल आदि के अभाव या आँच की अधिकता के कार/?/बरतन के तल में जम जाना। जैसे,—खिचडी में पानी छो/?/नहीं तो लग जायगी। १८. किसी प्रकार की प्रवृत्ति आदि/?/आरंभ होना। जैसे,—चाट लगना, चसका लगना। १९. आरंभ होना। शुरु होना। जैसे,—(क) अब तो ग्रहण/?/गया है। (ख) कल से चैत लगेगा। (ग) उनकी नौकरी/?/गई है। २०. उपयोग में आना। काम में आना। जैसे,—(क) जितना मसाला आया था, वह सब एक ही मकान में लग गय/?/(ख) तुम्हारी चारो साड़ियाँ लग गई। २१. काम के/?/आवश्यक होना। जरूरी होना। जैसे,— (क) इस महीने/?/हमें चार गाड़ी भूसा लगेगा। (ख) अब तो उन्हें भी च/?/लगता है। (ग) रजिस्टरी में दो आने का टिकट लगता/?/(घ) तुम्हें जो जो चीजें लगे, सब मुझसे माँग लेना।/?/जारी होना। चलना। जैसे, (क) आजकल दोनों में/?/लड़ाई लगी है। (ख) अब तो तुम्हारा ही काम लगा है,/?/चार दिन में पूरा हो जायगा। (ग) दो चार दिन में/?/लगेगा। २३. एक चीज का दूसरी चीज के साथ रगड़ खान/?/जैसे,—चलने में घोड़े के पैर लगना, गाड़ी का पहिया लगना/?/२४. सड़ना। गलना। जैसे,—(क) यह आम लग गया/?/(ख) इस बैल का कंधा लग गया है। २५. किसी ऐसे कार्य/?/आरंभ होना जिसमें बहुत से लोगों के एकत्र होने की आव/?/कता हो। जैसे,—महाफल लगना, मेला लगना। २६. प्र/?/पड़ना। असर होना। जैसे,—(क) परदेस में हमें पानी/?/जल्दी लगता है। (ख) कड़ाही में आँच लग रही है। (ग)/?/डाक्टरी दवा नहीं लगती। (घ) तुम्हें उसी का शाप लगा/?/(च) सुरती बहुत तेज थी; लग गई है। मुहा०—लगती बात कहना=ऐसी पते की बात कहना कि/?/वाला मन मसोसकर रह जाय। मर्मभेदी बात कह/?/चुटकी लेना। २७. दातव्य नियत होना। देना। निश्चित होना। जैसे/?/टैक्स लगना, व्याज लगना, किराया लगना।/?/आरोप होना। जैसे,—दफा लगना, हत्या ल/?/पाप लगना। २९. प्रज्वलति होना। जलना। जैसे/?/आग लगना, दीया लगना। उ०— औचक ही कर माँझ साँझ ही अगिनि लगी बड़ी अनुरागी रहि गई सोऊ डारिए। —प्रियादास (शब्द०)। ३०. काम में आने योग्य होना। ठीक बैठना। उपयुक्त होना। जैसे,—यह ताली इस ताले में लग जाती है। ३१. हिसाब होना। गणित होना। जैसे,—पुरजा लगना, जोड़ लगना। ३२. पीछे पीछे चलना। साथ होना। शामिल होना। जैसे— (क) बाजार में पहुँचते ही दलाल लगते हैं। (ख) तुम्हारे साथ भी सदा एक न एक आदमी लगा रहता है। उ०— लगे वाके पाछे काछे काछ की न सुधि कछू गई घर आछे रहे द्वार तनु छोजिए। —प्रियादास (शब्द०)। मुहा०—लग चलना=किसी के साथ या पीछे हो लेना। जैसे,— जहाँ तुमने कोई मालदार असामी देखा, वहाँ तुम उसके पीछे लग चले। ३३. संबद्ध होना। चिमटना। जैसे,— रोग लगना। ३४. किसी कार्य में प्रवृत्त या तत्पर होना। जैसे, —(क) तुम्हें इन सब झगड़ों से क्या मतलब; तुम अपने काम में लगो। (ख) वह सवेरे से लिखने में लगा है। ३५. स्पर्श करना। छूना। उ०— कृपा करी निज धाम पठायो अपनी रूप दिखाय। वाके आश्रम जोऊ बसत है माया लगत न ताय। — सूर (शब्द०)। ३६. गौ, भैंस, बकरी आदि दूध देनेवाले पशुओं का दूहा जाना। जैसे,—यह भैंस दिन में तीन बार लगती है। ३७. गड़ना। चुभना। घँसना।उ०—इह काँटे मो पाय लगि लोन्हीं मरति जिवाय। प्रीति जनावति भीति सों मीत जु काढ्यो आय। —बिहारी (शब्द०)। ३८. बदले में जाना। मुजरा होना। जैसे,—उनके दोनों मकान कर्ज में लग गए। ३९. समीप पहुँचना। पास जाना। छूना। जैसे,—पैरों लगना। उ०— (क) उठहिं तुरंग लोहिं नहिं वागा। जानी उलट गगन कहँ लागा। —जायसी (शब्द०)। (ख) वितचोरन चितचोर मैं व्यौरी इतनी आइ। इन्हैं पाय कै मारिए, उनके लागयै पाय। —(शब्द०)। ४०. छेड़खानी करना। छेड़छाड़ करना। जैसे,—ऐस आदमिंयों से मत लगा करो। उ०—औरत सो करि रहे अचगरी मोसों लगत कन्हाई। —सूर (शब्द०)। ४१. बंद होना। मुँदना। जैसे, किवाड़ लगना। उ०— अर्जुन के मंदिर पगु धारा। देखे लगे कपाट दुआरा। —सवल (शब्द०)। ४२. जूए की बाजी पर रखा जाना। दाँव पर रखा जाना। बदना। जैसे,—(क) पाँच रूपए इस दाँव पर लगे हैं। (ख) अच्छा, इसी बात पर शर्त लगी। ४३. अंकित होना। चिह्नित होना। जैसे,—तिलक लगना, निशान लगना, मोहर लगना, ठप्पा लगना।४४. धारदार चीज की धार का तेज किया जाना। जैसे,—उस्तरा लगना, कैंची लगना। ४५. घात में रहना। ताक में रहना। जैसे,—(क) उस रास्ते में संध्या के बाद डाकू लगते हैं। (ख) इस जंगल में शेर लगते हैं। ४६. किसी स्थान पर एकत्र होना। जैसे,— (क) इस घाट पर मछलियाँ लगती हैं।(ख) बाग में मच्छड़ लगतेहैं। ४७. दाम आँका जाना। जैसे,—बाजार में घड़ी का दाम २०)लगा है। ४८. किसी चीज का, विशेषतः खाने की चीज का, अभ्यस्त होना। परचना। सधना। जैसे,—लड़का रोटी पर लग गया है। ४९. अपने नियत स्थान या कार्य आदि पर पहुँचना। जैसे,—पारसल लगना, रजिस्टरी लगना। ५०. फैलना। विछना। जैसे,—विछौना लगना, जाल लगना। ५१. संभोग करना। मैथुन करना। स्त्रीप्रसंग करना। (बाजारू)। ५२. होना। जैसे,—(क) अभी हमें यहाँ देर लगेगी। (ख) वहाँ से हट जाओ; नहीं तो तुम्हारा ही नाम लगेगा। (ग) वह गाँव यहाँ से चार कोस लगता है। (घ) अबकी अमावस की ग्रहण लगेगा। (च) यहाँ तो किताबों का ढेर लगा है। ५३. जहाज का छीछले पानी में अथवा किनारे की जमीन पर चढ़ जाना। (लश०)। ५४. एक जहाज का दूसरे जहाज के सामने या बराबर आना। (लश०)। ५५. पाल का खींचकर चढ़ाया जाना (लश०)। विशेष— (क) भिन्न भिन्न शब्दों के साथ यह क्रिया लगकर भिन्न भिन्न अर्थ हेती है। जैसे,— नींद लगना, दाँत लगना, बात लगना, समाधि लगना, नैवेद्य लगना, आदि। इस प्रकार के बहुत से अर्थों में से अधिकांश की गणना मुहावरों में होनी चाहिए। (ख) इस क्रिया के अलग अलग अर्थों में जाना, पड़ना आदि अलग अलग संयोजक क्रियाएँ लगती है।

लगना (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली मृग।उ०— हरिन रोझ लगना बन बसे। चीतर गोइन झाँख औ ससे।—जायसी (शब्द०)।

लगनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लग्न, हिं० लगन] दे० 'लगन'। उ०— नैन लगे तिहिं लगनि सौं छुटे न छूटै प्रान। काम न आवत एकहू तेरे सौ कि सयान।—बिहारी (शब्द०)।

लगनियाँ †
संज्ञा पुं० [सं० लग्न, हिं० लगन + इया (प्रत्य०)] १. एक प्रकार का गीत। लग्न या विवाह के अवसर पर गाया जानेवाला गीत। उ०— दास कबीर यह गवल लगनियाँ हो। कबीर० श०, भा० ४, पृ० १९। २. विवाह का लग्न लेकर जानेवाला व्यक्ति।

लगनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० लगन(=थाली)] १. छोटी थाली। रिकावी। २. पानदान में की वह तश्तरी जिसमें पान रखे जाते हैं। ३. परात।

लगनीय
वि० [सं०] लगने योग्य। जो संलग्न या संयोजित हो सके [को०]।

लगभग †
क्रि० वि० [हिं० लग (=पास) + अनु० भग] प्रायः करीब करीब। जैसे,—(क) वहाँ लगभग सौ आदमी उपस्थित थे। (ख) इस काम में लगभग एक महीना लगेगा।

लगमात
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगना + सं० मात्रा] स्वरों के वे चिह्न जो उच्चारण के लिये व्यंजनों में जोड़े जाते हैं। स्वरों के चिह्न। जैसे,—एका ओ का। उ०— ना लगमात न न माथे बिंदी अरुण पीत नहिं काला। ऐंडा़ बेंडा टेढा़ नाहीं ना वह आत जंजाला।—चरण० बानी, पृ० ३८४।

लगर पु †
संज्ञा पुं० [देश०] चील की तरह का एक शिकारी पक्षी। लग्घड़। उ०—(क) नैन लगर घूँघुट खुलहि पवन खोल जब लेत। नेही मन किरवान कन झपट सतूना देत।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) जुर्रा बाज बाँस कुही बहरी लगर लोने टोने जरकटी त्यों सचान सानबारे हैं।—(शब्द०)।

लगलग
वि० [अ० लक़लक़] बहुत दुबला पतला। अति सुकुमार। उ०—अँखियाँ अधर चूमि, हाहा छाँडो कहै ढूमि, छतियाँ सों लगी लगलगी सी हलकि कै।—देव (शब्द०)।

लगव पु †
वि० [अ० लगो़] १. झुठ। मिथ्या। असत्य। २. व्यर्थ। बेकार। निष्प्रयोजन।

लगवाना
क्रि० स० [हिं० लगाना का प्रेर० रूप] लगाने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को लगाने में प्रवृत्त करना। उ०—प्रथम खबरि लगवाइ कै कूबर दीन्ह सुधारि।—विश्राम (शब्द०)।

लगवावना पु ‡
क्रि० स० [हिं० लगाना] दे० 'लगवाना'। उ०— तहाँ एक दिन नंद कन्हाई। गए खरिक लगवावन गाई।—विश्राम (सब्द०)।

लगवार †
संज्ञा पुं० [हिं० लगाना (=प्रसंग करना) + वार (प्रत्य)] स्त्री का उपपति। यार। आशना। उ०—साँझ सकार दिया लैं बारे। खसम छोडि सुमिरै लगवारै।—कबीर (शब्द०)।

लगवियत
संज्ञा स्त्री० [अ० लग्वियत] १. बदमाशी। बेहूदगी। लुच्चई। २. व्यर्थता। निरर्थकता [को०]।

लगहर † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लाग + हर (प्रत्य०)] वह काँटा या तराजू जिसमें पासंग हो।

लगहर † (२)
वि० [हिं० लगना + हर (प्रत्य०)] वि० लगनेवाली। दूध आदि देनेवाली। २. सडा गला हुआ फल या सब्जी।

लगाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगाना] १. संबंध। लगाव। सगाई। २. चुगली। आरोप। यौ०—लगाई बझाई = (१) झूठी सच्ची लगाना। इधर की बात उधर करना। (२) किसी से लगने या अवैध संबंध करनेवाली स्त्री।

लगाऊ ‡
वि० [हिं० लगाना + ल (प्रत्य०)] इधर की बात उधर करनेवाला। चुगलखोर।

लगातार
क्रि० वि० [हि० लगाना + तार (= सिलसिला)] एक के बाद एक। सिलसिलेवार। बराबर। निरंतर। सतत। जैसे,— (क) आज चार दिन से लगातार पानी बरस रहा है। (ख) वह लगातार दो घंटे तक व्याख्यान देता रहा।

लगान
संज्ञा पुं० [हिं० लगना या लगाना] १. लगने या लगाने की क्रिया या भाव। २. किसी मकान के ऊपरी भाग से मिला हुआ कोई ऐसा स्थान जहाँ से कोई वहाँ आ जा सकता हो। लाग। जैसे,—इस मकान में दोनों तरफ से लगान है। ३. वह स्थान जहाँ पर मजदूर आदि सुस्ताने के लिये अपने सिर का बोझ उतारकर रखते है। ४. वह स्थान जहाँ पर नावें आकरठहरा करती हैं। ५. वह स्थान जहाँ जंगल में रात को पशु आते हैं। शिकारी लोगों के छिपने बैठने का वह स्थान जहाँ से शिकार किया जाता है। ६. भूमि पर लगनेवाला वह कर जो खेतिहरों की ओर से जमींदार या सरकार को मिलता है। राजत्व। भूकर। जमावंदी। पोत। यौ०—लगान मुकर्ररी = वियत भूकर। लगान वाकई = वास्तविक भूकर।

लगाना
क्रि० स० [हिं० लगना का सक० रूप] १. एक पदार्थ के तल के साथ दूसरे पदार्थ का तल मिलना। सतह पर सतह रखना। सटाना। जैसे,—दीवार पर कागज लगाना, दफ्ती पर तसवीर लगाना, कपडे में अस्तर लगाना, लिफाफे पर टिकट लगाना। २. दो पदार्थों को परस्पर संलग्न करना। मिलाना। जोड़ना। जैसे,—दराज में मुठिया लगाना, चाकु में दस्ता लगाना। ३. किसी पदार्थ के तल पर कोई चीज डालना, फेंकना, रगड़ना, चिपकाना या गिराना। जैसे,—चेहरे पर गुलाल लगाना, सिर में तेल लगाना। उ०—दीन्ह लगाय चून निज पानी। तेहि फल भई अबध की रानी।—विश्राम (शब्द०)। ४. एक चीज पर दूसरी चीज सीना, टाँकना, चिपकाना या जोड़ना। जैसे,—टोपी में कलगी लगाना, कोट में बटन लगाना। ५. संमिलित करना। शामिल करना। साथ में मिलाना। जैसे,—किताब में जिल्द लगाना, मिसिल में चिट्ठी लगाना, शब्द में प्रत्यय लगाना। ६. वृक्ष आदि आरोपित करना। जमाना। उगाना। जैसे,—बाग में पेड लगाना। ७. एक ओर या किसी उपयुक्त स्थान पर पहुँचना। जैसे,—बंदरगाह में जहाज लगाना। ८. क्रम से रखना या सजाना। कायदे या सिलसिले से रखना। सजाना। चुनाना। जैसे,—दस्तरखान लगाना, कमरे में तसवीरें लगाना, गुच्छा लगाना, बाजार लगाना। ९. खर्च करना। व्यय करना। जैसे,—उन्होंने हजारों रूपए लगाए, तब जाकर मकान मिला। उ०—धन निज रघुपति हेतु लगावै। राम भक्ति हिय में उपजावै।—रघुराज (शब्द)। १०. अनुभव कराना। मालूम कराना। जैसे,—यह दवा तुम्हें बहुत भूख लगावेगी। ११. स्थापित करना। कायम करना। जैसे,— उन्होंने अपने यहाँ बिजली का इंजन लगा रखा है। १२. आघात करना। चोट पुँहचाना। जैसे, थप्पड लगाना, मुक्का लगाना। १३. लेप करना। पोतना। मलना। जैसे,—जूते पर स्याही लगाना। १४. किसी में कोई नई प्रवृत्ति आदि उत्पन्न करना, जैसे,—आपने ही तो उन्हें सिगरेट का चसका लगाया है। १५. उपयोग में लाना। काम में लाना। जैसे,—झगडा लगाना, नौकरी लगाना। १६. सडा़ना। गलाना। जैसे,—(क) तुमने लापरवाही से सब पान लगा दिए। (ख) खाली जीन कसते कसते तुमने घोडे की पीठ लगा दी। १७. ऐसा कार्य करना जिसमें बहुत से लोग एकत्र या संमिलित हो। जैसे,— तुम तो यहाँ जाते हो, मेला लगा देते हो। १८. दातव्य निश्चित करना। यह तै करना कि इतना अवश्य दिया जाय। जैसे,—कर लगना। १९. आरोपित करना। अभियोग लगाना। जैसे,—जुर्म लगाना। मुहा०—किसी को लगाकर कुछ कहना या गाली देना = बीच में किसी का संबंध स्थापित करके किसी प्रकार का आरोप करना। २०. प्रज्वलित करना। जैसे,—कडा़ही के नीचे आँच लगा दो। उ०—सेबा प्रभु करौ नेक रहौं पाँव धरौ जाइ कहो तुम बेठो कहीं आग लगाई है।—प्रियादास (शब्द०)। २१. ठीक स्थान पर बेठाना। जडना। जैसे,—घडी में सूई लगाना, चोखटे में शीशा लगाना। २२. गणित करना। हिसाव करना। जैसे,—व्याज लगाना, जोड लगाना। २३. किसी के पीछे या साथ नियुक्त करना। शामिल करना। जैसे,—तुम भी उनके पीछे अपना दूत लगा दो। २४. किसी प्रकार साथ में संबंद्ध करना। जैसे,—तुमने यह अच्छी बला मेरे पीछे लगा दी। २५. किसी के मन में दूसरे के प्रति दुर्भाव उत्पन्न रकरना। कान भरना। चुगली खाना। जैसे,—(क) किसी ने उन्हें मेरी तरफ से कुछ लगा दिया है। (ख) तुम तो यों ही इधर की उधर लगाया करते हो। यौ०—लगामा वुझाना = लडाई झगडा़ कराना। दो आदमियों में वैमनस्य उत्पन्न करना। २६. अपने साथ या पीछे ले चलना। जैसे,—वह बहुतों को अपने साथ लगाए फिरता है। २७. किसी कार्य में प्रवृत्त या तत्पर करना। नियुक्त करना। जैसे,—(क) लड़के को किसी रोजगार में लगा दो। (ख) जो काम किया करो, वह मन लगाकर किया करो। उ०—जिनको चारिहु द्वारन प्रथम लगायो राम।— रघुराज (शब्द०)। २८.— गौ, भैस, बकरी आदि दूध देनेवाले पशुओं को दूहना। जैसे,—वह जौ लगाने गया है। २९. गाड़ना। धंसाना। ठोंकना। जड़ना। जैसे,—दीवार में कील लगाना। ३०. समीप पहुँचना। पास ले जाना। सटाना। जैसे,—वह दरवाजे के पास कान लगाकर सुनने लगा। ३१. स्पर्श कराना। छुआना। जैसे,—उसने तुरंत गिलास उठाकर मुँह से लगाया। ३२. बंद करना। जैसे,—दरवाजा लगाना, कुरते की घुंडी लगाना, ताला लगाना। ३३. जूए की बाजी पर रखना। दाँव पर रखना। जैसे,—(क) उसने अपके पास के सब रूपए दाँव पर लगा दिए। (ख) मैं तुमसे बाजी नहीं लगाता। उ०—देश कोश नृप सकल लगाई। जीति लेब सब रहि नहिं जाई।—सबल (शब्द०)। ३४. किसी विषय में अपने आपको बहुत दक्ष या श्रेष्ठ समझना। किसी बात का अभिमान करना। जैसे,—वह गाने में अपने आपको बहुत लगाता है। ३५.—अंग पर पहनना, ओढना या रखना। धारण करना। जैसे,—चश्मा लगाना ,छाता लगाना। ३६. बदले में लेना। मुजरा करना। जैसे,—यह अँगूठे तो हमने अपने लहने में लगा ली। ३७. अँकेंत करना। चिह्नित करना। जैसे,— तिलक लगाना, निशान लगाना, मोहर लगाना। ३८. धारदार चीज की धार तेज करना। सान पर चढाना।जैसे,—खुरपा लगाना, कैची लगाना। ३९. खरीदने के समय चीज का मूल्य कहना। दाम आँकना। जैसे,—मैंने उनके मकान का दाम ५,०००) लगा दिया है। ४०. किसी चीज का, विशेषतः खाने की चीज का अभ्यस्त करना। परचाना, साधना। जैसे,—लड़के को दाल रोटी पर लगा लो; दूध कहाँ तक दिया करोगे। ४१. नियत स्थान या कार्य पर पहुँचाना। जैसे, पारसल लगाना, मनीआर्डर लगाना। ४२. फैलाना। विछाना। जैसे,—बिछौना लगाना, जाल लगाना। ४३. संभोग करना। मथुन करना। प्रसग करना। (बाजारू)। ४४. करना। जैसे,—(क) आपने वहाँ बहुत दिन लगा दिए। (ख) यहाँ कपडों का ढेर मत लगाना। उ०—अब जनि देर लगाबहु स्वामी। देखि प्रीति बोले ऋषि ज्ञानी।—विश्राम (सब्द०)। ४५. जहाज को छिछली या किनारे की जमीन पर चढाना। (लश०)। ४६. एक जहाज को दूसरे जहाज के सामने या बराबर ले जाना। (लश०)। ४७. पाल खींचकर चढाना। (लश०)। विशेष—(क) भिन्न भिन्न शब्दों के साथ इस क्रिया के भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं। जैसे,—दाँत लगाना, समाधि लगाना, कान लगाना, दस लगाना आदि। इस प्रकार के बहुत से अर्थों में से अधिकांश की गणना मुहावरों में होनी चाहिए। (ख) इस क्रिया के अलग अलग अर्थों में छोडना, डालना, देना, रखना आदि अलग अलग संयोजक क्रियाएँ लगती है।

लगाम
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. लोहे का वह काँटेदार ढाँचा जो घोडे़ के मुँह के अंदर रखा जाता है और जिसके दोनों ओर रस्सा या चमडे का तस्मा आदि बँधा रहता है। दतालिका। कविका। क्रि० प्र०—उतारना।—चढाना।—लगाना। मुहा०—लगाम चढा़ना या देना = (१) किसी को कोई कार्य करने से, विशेषतः बोलने से रोकना। (२) लंगोट कसना। (बाजारू)। २. इस ढाँचे के दोनों ओर बँधा हुआ रस्सा या चमडे़ का तस्सा जो सवार या हाँकनेवाले के हाथ में रहता है। सवार या हाँकनेवाला इसी रस्से या तस्मे की सहायता से घोडे़ का चलाता, रोकता, इदर उधर मोड़ता और अपने वश में रखता है। रास। बाग। मुहा०—लगाम लिए फिरना = किसी को पकडने, बाँधने या वश मे करने के लिये उसका पीछा करना। बराबर ढूँढ़ते फिरना।

लगामी पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० लगाम] लगाम। रास। उ०—हाथि लगामी ताजिगौ, पारकइ सेवि राजदुवार—बी० रासो, पृ० ६९।

लगाय पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगाव] प्रेम संबंध। लगन।

लगायत
प्रव्य० [अ० लगायत] १. लेकर। शुरूकर। २. अंत तक।

लगार पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगना + आर (प्रत्य०)] १. नियमित रूप से कोई काम करने या कोई चीज देने की क्रिया भाव। बंधी। बंधज। २. लगने की क्रिया या भाव। लगाव। संबंध। उ०—बार बार फन घात कै विष ज्वाला की झार। सहसौ फन फन पूँकरै नैक न तनहि लगार।—सूर (शब्द०)। ३. तार। कम। सिलसिला। उ०—सात दिवस नहिं मिटी लगार। बरष्यो सलिल अखँडित धार।—सूर (सब्द०)। ४. लगन। प्रीति। लगावट। मुहव्बत। उ०—चकोर भरोसे चंद के ताता गिलै अँगार। कहै कबीर छोडै नहीं ऐसी वस्तु लगार।— (शब्द०)। ५. वह जो किसी की ओर से भेद लेने के लिये भेजा गया हो। वह जो किसी के मन की बात जानने के लिये किसी की ओर से गया हो। उ०—और सखी एक श्याम पठाई। हरि को विरह देखि भइ व्याकुल मान मनावन आई। बैठी आइ चतुरई काछे वह कछु नहीं लगार। देखति हौ कछु और दसा चुम वूझति बारंवार।—सूर० (शब्द०)। ६. वह जिससे घनिष्टता का व्यवहार हो। मेली। संबंधी। ७. रास्ते के बीच का वह स्थान जहाँ से जुआरी लोग जुआ खेलते के स्थान तक पहुँचाए जाते हैं। टिकान। विशेष—प्रायः चुआ किसी गुप्त स्थान पर होता है, जिसके कहीं पास ही संकेत का एक ओर स्थान नियत होता है। जब कोई जुआरी वहाँ पहुचता है, तब या तो उसे जुए के स्थान का पता बतला दिया जाता है और या उसे वहाँ पहुँचाने के लिये कोई आदमी उसके साथ कर दिया जाता है। इसी संकेत स्थान को, जहाँ से जुआरी जुआ खेलने के स्थान पर भेजे जाते हैं, जुआरी लोग 'लगार' कहते हैं। ८. वह जो पास या निकट हो। समीप की वस्तु। लगी या सटी हुई चीज। उ०—दरिया सब जग आँधरा, सूझै नहीं लगार।— दरिया० वानी, पृ० ३७।

लगालगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगना (लंग का द्वित्वीकृत रूप)] १. लाग। लगन। प्रेम। स्नेह। प्रीति। उ०—(क) क्यों बसिए क्यों निवहिए नीति नेहपुर नाहिं। लगालगी लोचन करैं नाहक मन बँध जाहिं।—बिहारी (शब्द०)। (ख) लगालगी लोपौं गली लगे लगलै लाल। गैस गोप गोपी लगे पालागों गोपाल।— केशव (सब्द०)। २. संबंध। मेलजोल। ३. उलझव। फँसाब। उलझन (को०)।

लगाव
संज्ञा पुं० [लगना + आय (प्रत्य०)] लगे होने का भाव। संबंध। वास्ता। जैसे,—(क) इन दोनों मकानों में कोई लगाव नहीं है। (ख) में ऐसे लोगों से कोई लगाव नहीं रखता।

लगावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगना + आवट (प्रत्य०)] १. संबंध। वास्ता। लगाव। २. प्रेम। प्रीति। लगन। मुहब्बत। जैसे,— लगावट की बातें।

लगावन पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगाव] लगाव। संबंध। वास्ता। उ०—हम हैं अफसर तुम हौ बावन। हमारी तुमरी कहाँ लगा- वन।—रामकृष्ण (शब्द०)। २. वह जिसके सहारे कुछ कुछ खाया जाय। जैसे,—दाल, शाक, चटनी, आचार, नमक, मिर्च आदि। ३. जलाने की लकडी, उपला आदि ईधन।

लगावना
क्रि० स० [हिं० लगाव + ना (प्रत्य०)] दे० 'लगाना'। उ०—केती लाए फौज और क्या आवनी। सो सब लेउ बुलाइ न देर लगावनी।—सुदन (शब्द०)।

लगि पु (१)
अव्य० [हिं०] दे० 'लग'।

लगि (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लग्धो] दे० 'लग्धी'। उ०—(क) लहलहाति तन तरूनई लचि लगि लौं लपि जाइ। लगै लाँक लोयन भरौलोयन लेति लगाइ।—बिहारी (शब्द०)। (ख) नाम लगि ल्याय लासा ललित बचन कहि व्याध ज्यौं विषय बिहंगनि बझवौं।—तुलसी (शब्द०)।

लगित
वि० [सं०] १. संलग्न। सयुक्त। संबंधित। २. प्राप्त। आलव्ध। उपलव्ध। ३. प्रविष्ट। घुसा हुआ [को०]।

लगी † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लगुड] दे० 'लग्गी'। उ०—एहि विपचारइ सब बुधि ठगी। अउ भा काल हाथ लेइ लगी।—जायसी (शब्द०)।

लगी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगना] १. प्रेम। मुहब्बत। आशनाई। उ०—हुजूर यह लगी बुरी होती है।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३३२। २. ख्वाहिश। इच्छा। ५. भूख। मुहा०—लगी बुझाना = मन की भूख मिटाना। इच्छा पूरी होना। लगी लिपटी कहना = पक्षपातपूर्ण बात कहना। लल्लो चप्पो कहना। उ०—जो लगाए कहें लगी लिपटी। वे कभी बन सके नहीं सच्चे।—चुभते०, पृ० १७।

लगु पु †
अव्य० [हिं०] दे० 'लग'।

लगुड़
संज्ञा पुं० [सं० लगुड] १. डंड। डंडा। लाठी। २. प्रायः दो हाथ लंवा लोहे का एक विशेष प्रकार का डंडा जिसका व्यवहार प्रचीन काल में पैदल सैनिक अस्त्रों के समान करते थे। ३. लाल कनेर। यौ०—लगुडवंशिका = छोटी जाति का और पतला एक प्रकार का बाँस। लगुडहस्त = छडी़ बरदार।

लगुडी
वि० [सं० लगुडिन्] हाथ में लगुड लिए हुए। लगुडहस्त। दंडधारी।

लगुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लगुड' [को०]।

लगुल (१)
संज्ञा पुं० [सं० लाड्गूल ?] शिश्न। (डिं०)।

लगुल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लगुड़' [को०]।

लगुवा †
वि० [हिं० लगना + उवा (प्रत्य०)] १. पीछे लगनेवाला। पीछे पीछे चलनेवाला। पिछे लग्गू। २. प्रेम करनेवाला। प्रेमी। लगनवाला। उ०—मतवारा माहन होरी को। लटुवा भयौ फिरत दिन रजनी लगुवा गोरा भोरी को।—घनानंद, पृ० ५१६।

लगूर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लाञगुल] पूँछ। दुम। उ०—जरा लगुर सु राता उहाँ। निकसि जो भाग भएउ करमुहाँ।—जायसी (शब्द)।

लगूल पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लागुगुल] पूँछ। दुम। उ०—हनुमान हाँक सुनि बरफि फूल। सुर बार बार वरनहिं लगूल।—तुलसी (शब्द०)।

लगे †
अव्य० [हिं०] दे० 'लग'।

लगे लगे †
संज्ञा पुं० [हिं० लगाना] बंदर। विशेष—बहुधा बदरों के आने पर स्त्रियाँ और बच्चे 'लगे लगे' का शोर मचाते हैं, और बंदर का नाम लेना लोग ठीक नहीं समझतें; इसलिये प्रायः 'बंदर' के अर्थ में इस सांकेतिक शब्द का प्रयोग करते हैं।

लगो
वि० [अ० लगो] निरर्थक। अर्थहीन। बेकार। असंगत। बेतुका [को०]।

लगौंहाँ
वि० [हिं० लगना + औंहाँ (प्रत्य०)] जिसे लगन लगाने की कामना हो। लगने का आकांक्षी। रिझवार। उ०— (क) लगौहीं चितवनि औरहि होति। दुरति न लाख दुराओ कोऊ प्रेम झलक की जोति।—हरिश्र्चंद्र (शब्द०)। (क) कत सकुचत निधरक फिरौ रतियौ खोरि तुम्हैं न। कहा करौ जो जाहिं ये लगें लगोहैं नैन।—बिहारी (शब्द०)।

लग्गत †
संज्ञा स्त्री० दे० 'लागत'।

लग्गा (१)
संज्ञा पुं० [सं० लगुड] १. लंबा बाँस। २. वृक्षों से फल आदि तोडने का वह लंबा बाँस जिसके आगे एक अँकुसी लगी रहती है। लकसी। ३. वह लंबा बाँस जिसके सहारे से छिछले पानी में नाव चलाते हैं। लग्गी। ४. घास या कीचड़ आदि हटाने का एक प्रकार का फरसा जिसमें दस्ते की जगह एक लंबा बांस लगा रहता है।

लग्गा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लगना] १. कार्य आरंभ करना। काम में हाथ लगाना। २. मुख्य खिलाड़ियों की राजामंदी पर अन्य दर्शकों द्वारा जूए का दाँव लगाना जिनकी हार जीत मुख्य खिलाडी की हार जीत पर निर्भर करती है। क्रि० प्र०—लगाना। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग केवल 'लगना' और 'लगाना' क्रियाओं के साथ ही होता है।

लग्गी
संज्ञा स्त्री० [सं० लगुड] लंबा बाँस। दे० 'लग्गा'। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।

लग्गू †
वि० [हिं० लगना (= संभोग करना)] १. संभोग करनेवाला। २. उपपति। जारा। यार। (बाजारू)। यौ०—लग्गूबझझू = दो लगा बझा हो। पिछलग्गू।

लग्घड़
संज्ञा पुं० [देश०] १. (बडा़) बाज। सचान। २. एक प्रकार का चीता जो सामान्य चीते से बडा़ होता है। विशेष—इसे शिकार करना सिखाया जाता है। यह प्रायः छह फुट लंबा होता है। इसकी आँखों पर जंजीर से पट्टियाँ बँधी रहती हैं। इसी को 'लकड़बग्घा' भी कहते हैं।

लग्घा
संज्ञा पुं० [हिं० लग्गा] दे० 'लग्गा'।

लग्घी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लग्गी] दे० 'लग्गी'।

लग्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष में दिन का उतना अंश, जितने में किसी एक राशि का उदय रहता है। विशेष—पृथ्वीं दिन रात में एक बार अपनी धुरी पर घुमती है; और इस बीच में वह एक बार भेष आदि बारह राशियों को पार रपती है। जितने समय तक वह एक राशि में रहती है, उतने समय तक उस राशि का लग्न कहलाता है। किसी राशि में उसे कुछ कम समय लगता है और किसी में अधिक। जैसे,—मीन राशि में प्रायः पौने चार दंड, कन्या में प्रायः साढे पाँच दंड, और वृश्रिक में प्रायः पौने छह दंड।लग्न का विचार प्रायः बालक की जन्मपत्री बनाने, किसी प्रकार का मुहूर्त निकालने अथवा प्रश्न का उत्तर देने में होता है। २. ज्योतिष के अनुसार कोई शुभ कार्य करने का मुहूर्त। ३. विवाह का समय। उ०—अकहि लग्न सबहि कर पकरेउ, एक मुहूर्त बियाहे।—सूर (शब्द०)। ४. विवाह। शादी। ५. विवाह के दिन। सहालग। ६. वह जो राजाओं की स्तुति करता हो। वंदीजन। सूत। ७. मत्त द्विप। मस्त हाथी (को०)। ८. बारह की संख्या क्योंकि लग्न बारह होते हें। ९. शिव। शुभ। भद्र (को०)।

लग्न (२)
वि० १. लगा हुआ। मिला हुआ। २. लज्जित। शरमिंदा। ३. आसक्त।

लग्न (३)
संज्ञा पुं० [फा़० लगन] दे० 'लगन'।

लग्न (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लगना] दे० 'लगन'।

लग्नकंकण
संज्ञा पुं० [सं० लग्नकङ्कण] वह कंकम या मंगलसूत्र जो विवाह के पूर्व वर ओर के हाथ में बाँधा जाता है।

लग्नक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो जमानत करे। प्रतिभू। जामिन। २. एक राग जो हनुमत् के मत से मेघ राग का पुत्र माना जाता है।

लग्नकाल
संज्ञा पुं० [सं०] शुभ समय। शुभ घडी़। कोई शुभ कार्य, विवाह, यज्ञ आदि करने के लिये निर्धारित शुभ समय।

लग्नकुंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० लग्नकुण्डली] फलित ज्योतिष में वह चक्र या कुंडली जिससे यह पता चलता है कि किसी के जन्म के समय कौन कौन से ग्रह किस किस राशि में थे। जन्मकुंडली।

लग्नग्रह
वि० [सं०] किसी बात पर दृढतापूर्वक अड़नेवाला। आग्रही [को०]।

लग्नदंड
संज्ञा पुं० [सं० लग्नदम्ड] गाने या बजाने के समय स्वर के मुख्य अंशों या श्रुतियों को आपस में एक दूसरे से अलग न होने देना और सुंदरता से उनका संयोग करना। लाग डाँट। (संगीत)।

लग्नदिन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवाह के लिये निश्चित दिन। २. किसी शुभ कार्य के करने के लिये चुना गया दिन।

लग्नदिवस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लग्नदिन' [को०]।

लग्नपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्रिका जिसमें विवाह और उससे संबंध रखनेवाले दूसरे कृत्यों का लग्न स्थिर करके ब्योरेवार लिखा जाता है।

लग्नपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लग्नपत्र'।

लग्नमुहूर्त, लग्नवासर
संज्ञा पुं० [सं०] लग्नदिन। लग्नकाल। शुभ समय [को०]।

लग्नवेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लग्नकाल' [को०]।

लग्नसमय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लग्नकाल' [को०]।

लग्नाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिषी। ज्योतिर्विद्।

लग्तायु
संज्ञा स्त्री० [सं०] फलित ज्योतिष में वह आयु जो लग्न के अनुसार स्थिर की जाती है।

लग्नाह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लग्नदिवस' [को०]।

लग्निका
संज्ञा स्त्री० [सं० नग्निका का असाधु रूप] १. नंगी औरत। बेहया स्त्री (को०)। २. कन्या जो अरजस्का हो। कम अवस्थावाली लड़की।

लग्नेश
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में वह ग्रह जो लग्न का स्वामी हो।

लग्नोदय
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी लग्न के उदय होने का समय। २. लग्न के उदय होने का कार्य।

लग्वगो
वि० [अ० लग्व+फा़० गो] १. मिथ्यावादी। २. बाचाल। बातूनी [को०]।

लग्वगोई
संज्ञा स्त्री० [अ० लग्व+फा़० गोई] १. झूठ बोलना। मिथ्याकथन। उ०—थोड़ी जिंदगी के वास्ते कौन लग्वगोई करके दोजख मै जान का काम करे।—ओनिवास ग्रं०, पृ० ६७। २. बकवास। वाचालता।

लघट्, लघटि
संज्ञा पुं० [सं०] वायु [को०]।

लघडबग्गा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का चीता। लग्घड़।

लघमीपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मीपुष्प] पद्यराग मणि। लाल। माणिक्य। मानिक (डिं०)।

लघाट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वायु' [को०]।

लघिना
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का धारदार अस्त्र जिसमें दस्ता लगा होता था और जिससे भैंसे आदि काटे जाते थे।

लघिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० लघिमन्] १. आठ सिद्धियों में से चौथी सिद्धि (कहते हैं, इसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य बहुत छोटा या हलका बन सकता है)। २. लघु या ह्नस्व होने का भाव। लघुत्व।

लघु (१)
वि० [सं०] १. शीघ्र। जल्दी। २. जो बड़ा न हो। कनिष्ठ। छोटा। जैसे,—लघु स्वर, लघु मात्रा। ३. सुदर। बढ़िया। आनंददायक। इष्ट। अभिप्रेत। ४. जिसमें किसी प्रकार का सार या तत्व न हो। निःसार। महत्वहीन। अना- वश्यक। ५. स्वल्प। थोड़ा। कम। ६. हलका। सरल। आसान। ७. नीच। क्षुद्र। नगण्य। ८. दुर्बल। दुबला। ९। आमश्रित। शुद्ध। निमंल (को०)। १०. फुतौला (को०)।

लघु (२)
संज्ञा पुं० १. काला अगर। २. उशीर। खंस। ३. हस्त, अश्विनी औरं पुष्य ये तीनों नक्षत्र जो ज्योतिष में छोटे माने गए है और जिनका गण 'लघुगण' कहा गया है। ४. समय का एक परिमाण जो पंद्रह क्षणों का होता है। ५. तीन प्रकार के प्राणायामों में से वह प्राणांयाम जो बारह मात्राओं का होता है (शेष दो प्राणायाम मध्यम और फत्तम कहलाते हैं)। ६. व्याकरण में वह स्वर जो एक ही मात्रा का होता है। जैसे,—अ, इ, उ, ओ, ए आदि। ७. वह जिसमें एक ही मात्रा हो। एकमात्रिक। इसका चिह्न (I) हैं। विशेष—इस अर्थ में इसका प्रयोग संगीत में ताल के संबंध में और छंदःशास्त्र में वर्ण के सबंध में होता है। ८. वंशी का छोटा होना, जो उसके छह् दोषों में से एक माना जाता है। ९. चाँदी। १०. पृक्का। असबरण। ११. वह जिसका रोग छूट गया हो (रोग छूटने पर शरीर कुछ हलका जान पड़ता है)।

लघुकंकोल
संज्ञा पुं० [सं० लघुकङ्कोल] एक प्रकार का कंकोल जो साधारण कंकोल से छोटा होता है।

लघुकंटकी
संज्ञा स्त्री० [सं० लघुकण्टकी] लजालू।

लघुक
वि० [सं०] १. लघु। हल्का। २. महत्वहीन। तुच्छ [को०]।

लघुकटाई
संज्ञा स्त्री० [सं० लघुकणटकारी] दे० 'कंटकारी'।

लघुकण
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद जीरा।

लघुकर्कधु
संज्ञा पुं० [सं० लघुकर्कन्धु] भुँई बेर।

लघुकणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्वा।

लघुकाम
संज्ञा पुं० [सं०] बकरी।

लघुकाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] छाग। अज। बकरा [को०]।

लघुकाय (२)
वि० हलके शरीरवाला [को०]।

लघुकाश्मर्य
संज्ञा स० [सं०] कटहल का वृक्ष।

लघुकिन्नरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसमें बजाने के लिये तार लगे होते थे।

लघुकोष्ठ
वि० [सं०] १. जिसका पेट हलका हो। २. खाली पेटवाला [को०]।

लघुकौमुदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरदराज कृत सिद्धांतकौमुदी के संक्षिप्त रूप का नाम।

लघुक्रम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जल्दी जल्दी चलने की क्रिया। तेज चाल।

लघुक्रम (२)
वि० [सं०] द्रुतगामी। तेज कदम बढ़ानेवाला [को०]।

लघुखटि्वका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मचिया। छोटी खाट। खटोला [को०]

लघुग
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। पवन [को०]।

लघुगण
संज्ञा पुं० [सं०] ज्यौतिष में अश्विनी, पुष्य और हस्त इन तीनों नक्षत्रों का समूह।

लघुगति
वि० [सं०] तेज चलनेवाला [को०]।

लघुगगं
संज्ञा पुं० [सं०] १. खैरा नाम की मछली। २. टेंगरा या त्रिकंटक नाम की मछली।

लघुगोधूम
संज्ञा पुं० [सं०] एक छोटी किस्म का गेहूँ [को०]।

लघुचंचरी
संज्ञा स्त्री० [सं० लघुचञ्चरी] संगीत में एक ताल [को०]।

लघुचंदन
संज्ञा पुं० [सं० लघुचन्दन] अगर नामक सुगंधित लकड़ी।

लघुचित्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका मन बहुत दुर्बल या चंचल हो।

लघुचित्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मन के बहुत ही दुर्बल या चंचल होने का भाव।

लघुचिर्मिटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद इंद्रायण। श्वेत इंद्र- वारुणी [को०]।

लघुचेता
संज्ञा पुं० [सं० लघुचेतस्] वह जिसके विचार बहुत ही तुच्छ और बुरे हों नीच।

लघुच्छद †
संज्ञा स्त्री० [सं०] महा शतावरी। बड़ी शतावर।

लघुजंगल
संज्ञा पुं० [सं० लघुजङ्गल] दे० 'लघुजांगल' [को०]।

लघुजल
संज्ञा पुं० [सं०] लवा नामक पक्षी।

लघुजांगल
संज्ञा पुं० [सं० लघुजाङ्गल] लवा नामक पक्षी।

लघुतम
वि० [सं०] सबसे छोटा। यौ०—लघुतम समापवर्त्य=दे० 'लघुत्तमापवर्त्य'।

लघुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लघु होने का भाव। छोटापन। लाघव। २. हलकापन। तुच्छता।

लघुताल
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक ताल [को०]।

लघुतिक्त
संज्ञा पुं० [सं०] मुरदा संग।

लघुतुपक
संज्ञा स्त्री० [सं० लघु+हिं० तुमक] तमंचा। पिस्तौल।

लघुत्तम
संज्ञा पुं० [सं० लघुतम] गणित की एक क्रिया। लघुत्तमा- पवर्त्य।

लघुत्तमापवर्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह सबसे छोटी संख्या जो दो या अधिक संख्याओं मे से प्रत्येक को पूरा पूरा भाग दे सके।

लघुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. लघु होने का भाव। लघुना। २. हलका- पन। छोटापन। तुच्छता।

लघुदती
संज्ञा स्त्री० [सं० लघुदन्ती] छोटी दंती। विशेष दे० 'दंती'।

लघुदुदुभी
संज्ञा स्त्री० [सं० लघुदुःदुमी] एक प्रकार की छोटी दु दुमी। डुग्गी।

लघुद्राक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] किशमिश।

लघुद्रावी
वि० [सं०] सरलता से द्रवण होने या गलनेवाला [को०]।

लघुनामकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार वह कर्म जिससे जीव का शरीर न तो बहुत भारी होता है और न बहुत हलका होता है; बल्कि साधारण सम विभक्त होता है।

लघुनामा
संज्ञा पुं० [सं० लघुनामन्] अगर नामक सुगंधित लकड़ी।

लघुनालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुपक। छोटी बंदूक [को०]।

लघुपंचक
संज्ञा पुं० [सं० लघुपञ्चक] शालिपर्णी, पिठवन, कटाई (छोटी), कटेहरी (बड़ी) और गोखरू इन पाँचों की जड़ों का समूह जा वैद्यक के अनुसार पाचक, बलकारक, ग्राहक और ज्वर, श्वास तथा अश्मरी आदि को दूर करनेवाला माना जाता है।

लघुपंचमूल
संज्ञा पुं० [सं० लघुपञ्चमूल] दे० 'लघुपंचक'।

लघुपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कमीला।

लघुपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] रोचना नामक वृक्ष [को०]।

लघुपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वत्य वृक्ष।

लघुपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूर्वा। मरोड़फली। २. शतमूली। सतावर।

लघुपाक
संज्ञा पुं० [सं०] वह खाद्य पदार्थ जो महज में पच जाय।

लघुपाकी
संज्ञा पुं० [सं० खघुपाकिन्] चेना नामक कदन्न।

लघुपाती
संज्ञा पुं० [सं० लघुपातिन्] कौवा।

लघुपिच्छिल
संज्ञा पुं० [सं०] भूकर्बुदारक [को०]।

लघुपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] भुइँ कदंब।

लघुपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीला केबड़ा। स्वर्ण केवकी।

लघुप्रयत्न
संज्ञा पुं० [सं०] आलसी।

लघुफल
संज्ञा पुं० [सं०] गुलर।

लघुवदर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० लघुवदरी] छोटा बेर। झरवेरी [को०]।

लघुवाह्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलोदभवा। सूक्ष्मपत्रा। क्षुद्रब्राह्मी [को०]।

लघुभव
वि० [सं०] नीच वंश या निम्न कोटि में जन्म लेनेव ला।

लघुभुक्
वि० [सं० लघुभुज्] स्वल्पभोजो। अल्पाहारी [को०]।

लघुभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] हलका भोजन। अल्पाहार।

लघुमथ
संज्ञा पुं० [सं० लघुमन्य] छोटी गनियारी।

लघुमति
वि० [सं०] छोटी समझवाला। कमसमझ। मूर्ख।

लघुमांस
संज्ञा पुं० [सं०] तोतर नामक पक्षी।

लघुमांसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी जटामाँसी।

लघुमान
संज्ञा पुं० [सं०] नायिका का वह मान या अल्प रोष जो नायक को किसी दूसरी स्त्री से बातचीत करते देखकर उत्पन्न होता है।

लघुमूल
संज्ञा पुं० [सं०] गणित में समीकरण की न्यूनतर संख्या या पद [को०]।

लघुमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] मूली [को०]।

लघुमेरु
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक ताल [को०]।

लघुलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. करेले की बेल। २. अनंतमूल।

लघुलय
संज्ञा पुं० [सं०] १. उशोर। खम। २. पीला बाला या लामज (लामंजक) नाम की घास।

लघुलोणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लोनी का साग।

लघुवासा
वि० [सं० लघुवासस्] हल्का अथवा विशूद्ध वस्त्र धारण करनेवाला [को०]।

लघुविक्रम
वि० [सं०] द्रुतगामी। जल्दी चलनेवाला [को०]।

लघुवृत्ति
वि० [सं०] १. दुर्विनोत। बदतनोज। २. हलका। छिछला। ३. अव्यवस्थित। बेढंगेपन से संपन्न [को०]।

लघुवेधी
वि० [सं० लघुवे धेन्] ठीक, शीघ्र और लक्ष्य भेद करनेवाला। चतुर निशानेबाज [को०]।

लघुशंका
संज्ञा स्त्री० [सं० लघुशंङ्का] मूत्रोत्सर्ग। पेशाब करना।

लघुशंख
संज्ञा पुं० [सं० लघुशङ्ख] घाघा।

लघुशिखर
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का ताल। इसे 'लघुशेखर' भी कहते है।

लघुशीत
संज्ञा पुं० [सं०] लिसोड़ा।

लघुसत्व
वि० [सं०] वुर्वल या चंचल चित्तवाला।

लघसदाफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी गुलर। कठूमर [को०]।

लघुसमुत्य
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह राजा या राज्य जो लड़ाई के लिये जल्दी तैयार किया जा सके। विशेष—गुरु समुत्य और लघु समुत्थ इन दो प्रकार के मित्रों में कौटिल्य ने दूसरे को ही अच्छा कहा है; कयोकि उसकी शक्ति बहुत नहीं होती, पर वह समय पर खड़ा तो हो सकता है। पर प्राचीन आचार्य गुरु समुत्थ को ही अच्छा मानते थे, क्योंकि यद्यपि वह जल्दी उठ नहीं सकता, पर जब उठता है, तब कार्य पूरा करके ही छोड़ता है।

लघुसमुत्थान
वि० [सं०] १. शीघ्र उठनेवाला। २. तेज चलनेवाला [को०]।

लघुसार
वि० [सं०] निस्सार। उपेक्षणीय [को०]।

लघुहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बहुत जल्दी जल्दी बाण चला सकता हो। शीघ्रवेधा।

लघुहमदुग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कठगुलर [को०]।

लघूक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] संक्षेप में अभिव्यंजना का ढंग [को०]।

लघूत्थान
वि० [सं०] दे० 'लघुमसुत्थान' [को०]।

लघ्वाशी
वि० [सं० लध्वाशिन्] अल्पाहारी। थोड़ा खानेवाला [को०]।

लघ्वाहार
वि० [सं०] दे० 'लघ्वाशी' [को०]।

लव्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेर नामक फल। २. असबरग। स्पृक्का। ३. छोटा स्यंदन। एक प्रकार का रथ (को०)। ४. दुवली पतली कोमलंगिनी। तन्वंगी स्त्री (को०)।

लच
सज्ञा पुं० [हिं० लचना] लचकने की क्रिया। लचक।

लचक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लचकना] १. लचकने को क्रिया या भाव। लचन। झुकाव। कि० प्र०—खाना—जाना। २. वह गुण जिसके रहन से कोई वस्तु दबती या झुकती हो। यौ०—लचकदार=दे० 'लचाकेदार'।

लवक (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की नाव जो ६०७० हाथ लंबी होती है। विशेष—यह मकसूदाबाद की तरफ बनती है और इसे बहुत से लोग मिलकर खेते है।

लचकना
क्रि० अ० [हि० लच (अनु०)] १. किसी लंबे पदार्थं का बाझ पड़न या दबने आदि का कारण बीच से झुकना। लचना। जैसे,—यह छड़ी बहुत कमजार है जरा सा बाझ दन से ही लचक जाती है। सयो० क्रि०—जाना। २. स्त्रियो की कमर का कोमलता या नखरे आदि के कारण झुकना। जैसे,—जब चलता है, तब उसकी कमर लचकता है। ३. स्त्रियों का कोमलता या नखरे आदि के कारण चलने के समय रह रहकर झुकना। जैस,—वह जब चलता है, तब लचकती चलती हे।

लचकनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लचकना] १. लचीलापन। २. लचक। झुकाव।

लचका
संज्ञा पुं० [हिं० लचकना] एक प्रकार का गोटा।

लचकाना
क्रि० स० [हिं० लचकना] किसी पदार्थ को लचने में प्रवृत्त करना। झुकाना। लचाना।

लचकीला
वि० [हिं० लचक+ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लचकीली] १. जो सहज में लच या दब जाय। लचकने योग्य। २. लचकदार।

लचकौंहाँ पु †
वि० [हिं० लचकना] दे० 'लचकीला'।

लचन
संज्ञा स्त्री० [हिं० लचक] दे० 'लचक'।

लचना
क्रि० अ० [हिं० लच+ना (प्रत्य०)] दे० 'लचकना'।

लचनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लच] दे० 'लचक'।

लचर
वि० [?] १. लचने या झुकनेवाली। कमजोर। तथ्यहीन। २. जो किसी स्तर पर टिक न सके। लचनेवाला। जैसे—लचर दलील, लचर तर्क।

लचलची
वि० [हिं० लचना] जो लचक जाय। लचीला। लचकनेवाला।

लचलचापन
संज्ञा पुं० [हिं० लचना] लचोला होने का भाव। लचीलापन।

लचाकेदार
वि० [हिं० लचक+फा़० दार (प्रत्य०)] मजेदार। बढ़िया। (बाजारू)।

लचाना
क्रि० स० [हिं० लचना का सक० रूप] लचकाना। झुकाना।

लचार पु †
वि० [फा़० लाचार] दे० 'लाचार'।

लचारी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा० लाचारी] दे० 'लाचारी'।

लचारी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. वह कर जो कोई व्यक्ति अपने से बड़े को देता है। भेंट। नजर। उ०—विमल मुक्तमाल लसत उच्च कुचन पर मदन महादेव मनो दई है लंचारा।—सूर (शब्द०)। २. एक प्रकार का गीत। नचारा।

लचारी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० अचार] एक प्रकार का आम का अचार जो खाली नमक से बनता है ओर जिसमे तल नहीं पड़ता। अचारी।

लचुई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] मैदे की बनी हुई पतलो और मुलायम पूरी। लुच्चा। लुचुई।

लच्छ पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्य] १. व्याज। वहाना। मिस। २. वह वस्तु या स्थान जिसपर शस्त्र चलाना हा। निशाना। ताक। उ०—जीभ कमान बचन सर नाना। मनहु माहप मृदु लच्छ समाना।—मानस, २। ४१,

लच्छ (१)
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष] सो हजार की सख्या। लाख।

लच्छ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मा, प्रा० लच्छना, लच्छा] दे० 'लक्ष्मी'। उ०—(क) चह लच्छ बावर कवि साइ। जह सरस्वता लच्छ कित हाइ।—जायसी (शब्द०)। (ख) मरकातमय साखी सुपत्र मंजारअ लच्छ जाह।—तुलसी ग्र०, पृ० २२५।

लच्छण (१)
संज्ञा पुं० [सं० लक्षण] स्वभाव। (डिं०)।

लच्छण पु † (२)
संज्ञा पुं० दे० 'लक्षण'।

लच्छन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० लक्षण] दे० 'लक्षण'। उ०—(क) नहिं दारद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बिनु छल विश्र्वनाथ पद नेहू। राम भक्त कर लच्छन एहू।—तुलसी (शब्द०)। (ग) कछु देखि कै लच्छन छोटो बड़ो सम बात चलें कहि आबतु है।— रघुनाथ (शब्द०)।

लच्छन (२)
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मण] दे० 'लक्ष्मण'।

लच्छना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्षणा] दे० 'लक्षणा'।

लच्छना पु (२)
क्रि० स० [सं० लक्ष्य, हिं० लच्छ+ना (प्रत्य०)] भली- भाँति देखना। उ०—तिनके लच्छन लच्छ अब, आछे कहे बखानि।—मतिराम (शब्द०)।

लच्छमण (१)
वि० [सं० लक्षमीवान्] धनवान्। अमीर। (डिं०)।

लच्छमण (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० लक्षमण] 'लक्ष्मण'।

लच्छमी
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी] दे० 'लक्ष्मी'।

लच्छा
संज्ञा पुं० [अनु०] १. कुछ विशेष प्रकार से लगाए हुए बहुत से तारों या डोरों आदि का समूह। गुच्छे या झुप्पे आदि के रूप में लगाए हुए तार। जैसे,—रेशम का लच्छा, सूत का लच्छा। यौ०—लच्छे ती साड़ी=बनारसी काम की वह साड़ी जिसके किनारे आदि के तार ताने के साथ ही तने गए हो। २. किसी चीज के सूत की तरह लंबे और पतले कटे हुए टुकड़े। जैसे,—प्याज का लच्छा, आदी का लच्छा। ३. इस आकार की किसी तरह बनाई हुई कोई चीज। जैसे,—रबड़ी का लच्छा। ४. मैदे की एक प्रकार की मिठाई जो प्रायः पतले लंबे सूत की तरह और देखने में उलझी हुई डोर के समान होती है। ५. एक प्रकार का गहना जो तारों की जंजीरों का बना होता है। यह हाथों में पहनने का भी होता है और पैरों में पहनने का भी। ६. एक प्रकार का घटिया केसर जो नीबल या निकृष्ट श्रीणी के केसर में थोड़ा सा बढ़िया केसर मिलाकर बनाया जाता है।

लच्छा साख
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की संकर रागिनी।

लच्छि पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी, प्रा० लच्छमी] लक्ष्मी। उ०— (क) एहि बिधि उपजइ लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बसइ नगर जेहि लच्छि करि कपट नारि वर वेप।—तुलसी (शब्द०)। (ग) माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलाच्छ रंक अवनीसा।—तुलसी (शब्द०)।

लच्छि (२)
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष] लाख की संख्या।

लच्छित पु
वि० [सं० लक्षित] १. आलोचित। देखा हुआ। २. निशान किया हुआ। अंकित। चिह्नित।३. लक्षणयुक्त। लक्षणवाला। उ०—शुभ लच्छन लच्छित हय सोई। तुरँग साल देखिय जो होई।—मधुसूदन (शब्द०)।

लच्छिन पु †
संज्ञा पुं० [सं० लक्षण, हिं० लच्छन] दे० 'लक्षण'।उ०—एक घृष्ट, इक सठ, एक दच्छिन। इक अनुकूल सुनहि अब लच्छिन।—नंद० ग्रं०, पृ० १५९।

लच्छिनाथ
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मीनाथ] लक्ष्मीपति, विष्णु। (डिं०)।

लच्छिनिवास पु
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मीनिवास] विष्णु। नारायण। उ०—दुलहिनि लेइगे लच्छिनिवासा। नृप समाज सब भयउ निरासा।—तुलसी (शब्द०)।

लच्छी (१)
वि० [देश०] एक प्रकार का घोड़ा। उ०—कोइ कबुली अँवोज कोई कच्छी। बोत मेमना मुंजी लच्छी।—विश्राम (शब्द०)।

लच्छी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी, हिं० लच्छमी, लच्छि, लच्छी] दे० 'लक्ष्मी'।

लच्छी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लच्छा] सूत, रेशम, ऊत, कलावत्तू इत्यादि की लपेटी हुई गुच्छी। अट्टी।

लच्छेदार
वि० [हिं० लच्छा+फा़० दार (प्रत्य०) १. (खाद्य पदार्थ) जिसमें लच्छे पड़े हों। लच्छोंवाला। २. (बातचीत या इबारत) जिसका सिलसिला जल्दी न टूटे और जिसके सुनने में सन लगता हो। मजेदार या श्रुतिमधुर (बात)। उ०—वैसी लच्छेदार इबारत कोई लिखी नहीं सकता।—प्रेमघन्०, भा० २, पृ० ४०९।

लछ पु
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्य] दे० 'लक्ष्य'। उ०—कोउ कहैं ये परम धर्म इस्त्रीजित पूरे। लछ लाधव संधान धरे आयुध के सूरे।—नंद० ग्रं०, पृ० १८१।

लछन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं०लक्ष्मण] राम के छोटे भाई, लक्ष्मण। उ०—दसरथ सों ऋषि आनि कह्मो। असुरन सों यज्ञ होन न पावत राम लछन तब संग दयो।—सूर (शब्द०)।

लछन (२)
संज्ञा पुं० [सं० लक्षण] दे० 'लक्षण'।

लछना †
क्रि० अ० [सं० √ लक्ष्, प्रा० लख लच्छ] दे० 'लखना'।

लछमन (१)
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मण] दे० 'लक्ष्मण'।

लछमन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मण] दे० 'लक्ष्मणा'-४।

लछमन झूला
संज्ञा पुं० [हिं० लछमन+झूला] १. बदरीनारायण के मार्ग में एक स्थान। विशेष—यहाँ पहले पुरानी चाल का रस्सों का एक लटकौंवाँ पुल था, जिसे झूला कहते थे। २. रस्सों या तारों आदि से बना हुआ वह पुल जो बीच में झूले की तरह नीचे लटकता हो। ३. एक प्रकार की लता या बेल।

लछमना
संज्ञा स्त्री० [सं० लछमना] दे० 'लक्ष्मणा'। उ०—बहुरि लछमना सुमिरन कीन्हो। ताहिं स्वयंवर में हरि लीन्हों।— सूर (शब्द०)।

लछमी
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी] दे० 'लक्ष्मी'।

लछारा पु †
वि० [अनु० लच्छा+रा (प्रत्य०)] लच्छा। शृंखला। गुच्छा। उ०—कैसे छबिदार काकपच्छ से सँवारे कहिए जैसे यह राजत सुगंध के लछारे है।—पजनेत०, पृ० ४१।

लछिमी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लक्ष्मी] दे० 'लक्ष्मी'।

लज पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लजा] शर्म। हया। लाज। उ०—सुघर सौति बस पिय सुनन दुलहिनि दुगुन हुलास। लखी सखी तत दीठि करि सगरब सलज स हास।—बिहारी (शब्द०)। विशेष—'लज्जा' शब्द का 'लज' रूप समस्त पदों में ही पाया जाता है। जैसे,—लजवंती नारी।

लजना
क्रि० अ० [सं० √ लज्ज्] लजाना। शरमाना। लज्जित होना।

लजनी पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० लजाना] १. लजालू का पौधा। २. शरमानेवाली स्त्री। लजानेवाली वा शरमीली स्त्री। उ०— मन तजि मान मेरी वारी मैं निहारी नेकु, पीतम बुलावै मग लीजिए अवास को। लजनी बनी है अजौ रजनी रही न आधी, सजनी प्रकास गयो रजनी प्रकास को।—नट०, पृ० ८९।

लजवाना
क्रि० स० [र्हि० लजाना] दूसरे को लज्जित करना।

लजाधुर † (१)
वि० [सं० लज्जाधर] जो बहुत लज्जा करे। लज्जावान्। शर्मीला।

लजाधुर (२)
संज्ञा पुं० लजालु नाम का पौधा। (लज्जावंती)।

लजाना (१)
क्रि० अ० [सं० √ लज्जा] अपने किसी बुरे या भद्दे व्यव- हार का ध्यान करके वृत्तियों के संकोच का अनुभव होना। शर्म में पड़ना। उ०—कंप किसोरी दरस ते खरे लजाने लाल।— बिहारी (शब्द०)। संयो० क्रि०—जाना।

लजाना (२)
क्रि० स० लज्जित करना। लजवाना।

लजारू †
संज्ञा पुं० [सं० लज्जालू] लजाधुर। लजालू पौधा। उ०— जनक बचन छुए बिरवा लजारू के से, बीर रहे सकल सकुचि सिर नाइ कै।—तुलसी (शब्द०)।

लजालू
संज्ञा पुं० [सं० लज्जालु] हाथ डेढ़ हाथ ऊँचा एक काँटेदार छोटा पौधा जिसकी पत्तियाँ छूने से सुकड़कर बंद हो जाती हैं, और फिर थोड़ी देर में धीरे धीरे फैलती हैं। विशेष—इसके डंठल का रंग लाल होता है और महीन महीन पत्तियाँ शमी या बबूल की पत्तियों के समान एक सीके के दोनों ओर पंक्ति में होती है। हाथ लगते ही दोनों ओर की पत्तियाँ संकुचित होकर परस्पर मिल जाती है; इसी से इस पौधे का नाम लजालू पड़ा। इसके फूल गुलाबी रंग की गोल गोल घुंडियों की तरह के होते है, जिनके झड़ जाने पर छोटे छोटे चिपटे बीज पड़ते हैं। भारत के गरम भागों में यह सर्वत्र होता है; जैसे, बंगाल के दक्षिण भाग में कहीं कहीं बहुत दूर तक रास्ते के दोनों ओर यह लगा मिलता है। वैद्यक में यह कटु, शीतल, कपाय तथा रक्तपित्त, अतिसार, दाह, श्रम, श्वास, व्रण, कुष्ठ कफ तथा योनिरोग को दूर करनेवालां माना जाता है। कहीं कहीं पथरी की पीड़ा शांत करने के लिये तथा भगंदर अच्छा करने के लिये इसकी ज़ड़ और डंठल का काढ़ा और पत्तियों का चूर्ण सेवन करते है। रासायनिक परीक्षा से पता चला है कि इस पौघे मे सौ में दस भाग कषाय धातु (टैनीन) होती है। इसके डंठल के चूर्ण को हीरा कसीस के साथ मिलाने से ब्रड़ी अच्छी स्याही बनती है।पर्या०—लज्जावती लता। वाराहक्रांता। रक्तपादी। शमीपत्रा। स्पृक्का। खदिरपत्रिका। संकोचिनी। समंगी। नमस्कारी। प्रसारिणी। ससपर्णी। खदिरी। गंडमालिका। लज्जा। लज्जिरी। स्पर्शलज्जा। अस्त्ररीधिनी। रक्तमुला। ताम्रमूला। स्वमुप्त। महाभीता। बशिनी। महौपाध।

लजावन †
क्रि० स० [सं० लजाना] दे० 'लजावना' या 'लजाना'। विशेष—समस्त पद में किसी शब्द के आगे आने से इसका अर्थ होता है 'लज्जित करनेवाला'। जैसे,—सोभा कोटि मनोज लजावन।

लजावनहार
संज्ञा पुं० [हिं० लजाना या लजावन+हार (प्रत्य०)] लज्जित करनेवाला। शर्मिदा करनेवाला। उ०—कोटि मनोज लजावनहारे।—तुलसी (शब्द०)।

लजावना पु †
क्रि० स० [हिं० लजवाना] दे० 'लजवाना'।

लजियाना † पु (१)
क्रि० अ० [हिं० लजाना] दे० 'लजाना'।

लजियाना (२)
क्रि० स० दे० 'लजवाना'।

लजीज
वि० [अ० लजीज] १. लज्जतदार। स्वादिष्ट। सुस्वाद। (खाद्य पदार्थ)। २. प्यारा। प्रिय।

लजीला
वि० [हिं० लाज+ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लजीली] जिसमें लज्जा हो। लज्जायुक्त। लज्जाशील। जैसे,—लजीला मनुष्य, लजीली आँखें।

लजुरी ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० रज्जु, माग० लज्जु] कुएँ से पानी भरने की डोरी। रस्सी।

लजोर पु †
वि० [हिं० लाज+आवर (प्रत्य०)] लज्जाशील। जो बहुत जल्दी लज्जित हो। उ०—विदित न सनमुख ह्वै सकै अँखिया बड़ी लजोर।—रसनिधि (शव्द०)।

लजोहा †
वि० [सं० लज्जावह] [वि० स्त्री० लजोही] जिसमें लज्जा हो; या जिससे लज्जा सूचित होती हो। लजीला। शर्मीला। उ०—कुंज भवन राधा मनमोहन। रति विलास करि मगन भए अति निरखत नैन लजोहन—सुर (शब्द०)।

लजौना पु †
वि० [सं० लज्जावत्] १. लज्जावान्। शर्मीला। उ०— लोइन लौने ललित लजौने चलि चलि हँसत ह्वै काननि कौने।—नंद० ग्रं०, पृ० १२६। २. आगे पीछे में पड़ा हुआ। हिचकिचाहटवाला।

लजौहाँ
वि० [सं० लज्जावह] [वि० स्त्री० लजौहीं] जिसमें लज्जा हो या जिससे लज्जा सूचित होती हो। लज्जशील। लजील। शर्मीला। जैसे,—लजौही स्त्री, लजौही आँखें। उ०—मेरे ललचौहैं मुख फेरि के लजौहै, ललचौहै चारु चखनि चितै कै सो चली गई।—मति० ग्रं०, पृ० ३२६।

लज्ज पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लज्जा, तुल० पं० लाजी] लज्जा जिनका भूषण है, प्रिया। प्रियतमा। उ०—(क) नह चल्लै पृथिराज रिन लज्ज लपट्टिय पाइ।—पृ० रा०, २५। ७३०। (ख) लज्ज परव्यत ह्वै रही वैन तजै नृप पास।—पृ० रा०, २५। ७३१।

लज्जका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनकपास।

लज्जत
संज्ञा स्त्री० [अ० लज्जत] स्वाद। जायका। मजा। (खाने पीने की वस्तुओं के लिये)।

लज्जतदार
वि० [अ० लज़्ज़+फा़० दार] स्वादिष्ट। मजेदार। जायकेदार।

लज्जरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लजालु लता। लज्जावंती।

लज्जा
संज्ञा स्त्री० [स़ं०] [वि० लज्जित] १. अंतःकरण की वह अवस्था जिसमें स्वभावतः अथवा अपने किसी भद्दे या बुरे आचरण की भावना के कारण वसरों के सामने वृत्तियाँ संकुचित हो जाती हैं, चेप्टा मंद पड़ जाती है, मुँह से, शव्द नहीं निकलता सिर नीचा हो जाता है और सामने ताका नहीं जाता। लाज। शर्म। हया। पर्या०—ह्नी। त्रपा। व्रीड़ा। मंदास्य। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—(किसी बात की) लज्जा करना=किसी वात की बड़ाई की रक्षा का ध्यान करना। मर्यादा का विचार करना। इज्जत का ख्याल करना।—जैसे,—अपने कुल की लज्जा करा। २. मान मर्यादा। पत। इज्जत। जैसे,—भगवान् लज्जा रखे। क्रि० प्र०—रखना। ३. लज्जालु लता। लजाधुर का पौधा (को०)।

लज्जाकर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० लज्जाकरा, लज्जाकरी] दे० 'लज्जा- प्रद' [को०]।

लज्जाकुल
संज्ञा पुं० [सं० लज्जा+आकुल] लज्जा से व्याकुल। लज्जाभिभूत। शर्म में गड़ा।उ०—खुलते स्तवकों की लज्जाकुल, नत बदना मधुमाधवी अतुल।—अपरा, पृ० १४८।

लज्जाकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृत्रिम मान मर्यादा या लज्जा। दिखा- वटी लज्जा [को०]।

लज्जान्वित
वि० [सं०] हयादार। संकोची स्वभाव का। शर्मदार [को०]।

लज्जापयिता
वि० [सं०] दे० 'लज्जाप्रद' [को०]।

लज्जाप्रद
वि० [सं०] जिससे लज्जा उत्पन्न हो। लज्जाजनक।

लज्जाप्राया
संज्ञा स्त्री० [सं०] केशव के अनुसार मुग्धा नायिका के चार भेदों में से एक।

लज्जारहित
वि० [सं०] निर्लज्ज। लज्जाशून्य [को०]।

लज्जारुण
वि० [सं० लज्जा+अरुण] लज्जा से अभिभूत। शर्म के मारे सुर्ख। उ०—प्रणय सुरा हो, हृदय भरा हो, लज्जारुण मुख हो प्रतिबिंबित। पी अधरामृत हों मृत जीवित, प्रीति सुरा भर, प्रीति सुरा नित।—मधुज्वाल, पृ० ३।

लज्जालु
संज्ञा पुं० [सं०] लंजालू का पौधा। लाजवंती।

लज्जावंत (१)
वि० [सं० लज्जावत्] शर्मोला। लज्जायुक्त। लजीला।

लज्जावंत (२)
संज्ञा पुं० लजालू का पौधा। लाजवंती।

लज्जावती (१)
वि० स्त्री० [सं०] लज्जाशील। शर्मीला। उ०—सुसंयत सकुसुम केशपाश सुशीला लज्जावती।—वर्ण०, पृ० ६।

लज्जावती (२)
संज्ञा स्त्री० लजालू का पौधा।

लज्जावह
वि० [सं०] दे० 'लज्जाप्रद' [को०]।

लज्जावान्
वि० [सं० लज्जावत्] [वि० स्त्री० लज्जावती] लज्जाशील। जिसमें लज्जा हो। शर्मदार। हयादार।

लज्जाशील
वि० [सं०] जिसमें लज्जा हो। जो बात बात में शरमाता हो। लजीला।

लज्जाशन्य
वि० [सं०] जिसे लज्जा न हो। जिसे कोई अनुचित या भद्दी बात करते कुछ संकोच या हिचक न हो। बैहया।

लज्जास्पद
वि० [सं०] लज्जाजनक। उ०—काँग्रेस की ऐसी लज्जा- स्पद दुर्दशा होगी।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३२५।

लज्जाहीन
वि० [सं०] लज्जाशून्य। वेहया।

लज्जित
वि० [सं०] लज्जा के वशीभूत। शर्म में पड़ा हुआ। शर्माया हुआ।

लज्जिनी, लज्जिरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लजारू। लजालू [को०]।

लज्जी पु
संज्ञा स्त्री० [सं०लज्जा] प्रिया। लज्जाशील प्रियतमा। उ०—(क) फिरि बुल्ली लज्जी सुनहि हों मंडन तन बीर।— पृ० रा०, २५। ७३२। (ख) तू लज्जी मो सथ्थ है दान खग्न अरु रूप।—पृ० रा०, २५। ७३४। (ग) सुन रे वै लज्जी चवै हूँ मँडन नर लोइ।—पृ० रा०, २५। ७३५।

लज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लज्जा'। उ०—भृंग संग्या करि कहत सकल कुल लज्या लोपी।—नंद० ग्रं०, पृ० १८६।

लटंग
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो बरमा में होता है।

लट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लट्वा(=घुँघराले केश)] १. सिर के बालों का समूह जो नीचे तक लटके। बालों का गिरा हुआ गुच्छा। केशपाश। अलक। केशलता। मुहा०—लट छिटकाना=सिर के बालों की खोलकर इधर उधर विखराना। २. एक में उलझे हुए बालों का गुच्छा। परस्पर चिमटे हुए बाल। मुहा०—लट पड़ना=बालों का परस्पर उलझ या चिपट जाना। ३. एक प्रकार का बेंत जो आसाम की ओर बहुत होता है। ४. एक प्रकार के सूत के से महीन कीड़े जो मनुष्य की आँती में पड़ जाते है और मल के साथ निकलते है। चनूना।

लट (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लपट] लपट। लौ। अग्निशिखा। ज्वाला। उ०—(क) झपटि झपटत लपट, पटकि फूल फूटत, फल चटकि लट लटलि द्रुम नवायो।—सूर (शव्द०)। (ख) चट पट वोलहि बाँस वहु सिखि लट लागि अकास।—गोपाल (शव्द०)।

लट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूर्ख। बुद्धिहीन। २. दोष। गलती। ऐव। ३. डाकू। बटमार [को०]।

लटक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लटकनी] १. लटकने की क्रिया या भाव। नीचे की ओर गिरता सा रहन का भाव। २. झुकाव। लचक। ३. अंगों की मनोहर गति या चेष्टा। लुभावनी चाल। अंग- भंगो। उ०—प्राणनाथ सों प्राणपियारी प्राण लटक सों लोन्हें।—सूर (शव्द०)। यौ०—लटक चाल।

४. ढालू जमीन। ढाल। (पालकी के कहार)।

लटक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] धोखेबाज। ठग। धूर्त। पाजी। दुष्ट। खल [को०]।

लटकन (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लटकना] [स्त्री० लटकनी] १. लटकने की क्रिया या भाव। नीचे की ओर गिरता सा रहने का भाव। २. किसी वस्तु में लगी हुई दूसरी वस्तु जो नीचे लटकती या झुलती हो। लटकनेवाली चीज। ३. मनोहर अंगभंगी। लुभावनी चाल। लटक० उ०—वझे जाइ खग ज्यों प्रिय छबि लटकनी लस।— सूर (शब्द०)। ४. नाक में पहनने का एक गहना जो लटकता या झूलता रहता है। (यह या तो नाक के दोनों छेदों के बीच में पहना जाता है, अथवा नथ में लगा रहता है)। ५. कलगी या सिरपेंच में लगी हुए रत्नों का गुच्छा जो नीचे की ओर झुका हुआ हिलता रहता है।उ०—लटकन सीसा, कंठ मनि भ्राजन मन्मथ कोटे वारनै गए री।—सूर (शव्द०)। ६. मलखंभ की एक कसरत जिसमें दोनों पैरों के अँगूठों में बेंत फँसाकर पिंडली को लपेटते है और पिंडली के ही बल पर अँगूठों से बेंत को ऊपर खींचते हुए जघों के बल पर का सारा धड़ नीचे की लटका देते हैं।

लटकन (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लटकना ?] एक पेड़ जिसमें लाल रंग के फूल लगते हैं और जिसके बीजों को पानी में पीसने पर गेरुआ रंग निकलता है। इस रंग से कपड़े रंगते हैं।

लटकना
क्रि० अ० [सं० लडन(=झूलना)] १. किसी ऊँचे स्थान से लग या टिककर नीचे की ओर अधर में कुछ दूर तक फैला रहना। ऊपर से लेकर नीचे तक इस प्रकार गया रहना कि ऊपर का छोर किसी आधार पर टिका हो और नीचे का निरा- धार हो। झूलना। जैसे—छत से फानूस लटकना, पेड़ से लता लटकना, कूएँ में डोरी लटकना। संयो० क्रि०—आना।—जाना। विशेष—'टंगना' और 'लटकना' इन दोनों के मूल भाव में अंतर है। 'र्टंगना' शब्द में किसी ऊँचे आधार पर टिकने या अड़ने का भाव प्रधान है और 'लटकना' शब्द में ऊपर से नीचे तक फैले रहने या अधर में हिलने डोलने का। जैसे,—(क) तसवीर बहुत नीचे तक लटक आई है। (ख) कूएँ में डीरी लटक रही है। ऐसे स्थलों पर 'र्टगना' शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। २. ऊँचे आधार पर टिकी हुई वस्तु का कुछ दूर नीचे तक आकर इधर से उधर हिलना डोलना। झूलना। ३. किसी ऊचे आधार पर इस प्रकार टकना कि टिके या अड़े हुए छोर के अतिरिक्त ओर सब भाग नीचे की ओर अधर में हों। टँगना। जैसे,— वह एक पेड़ की डाल से लटक गया। संयो० क्रि०—जाना। ४. किसी खड़ी वस्तु का किसी ओर को झुकना। नम्र होना। जैसे,—खंभा पूरब की ओर कुछ लटका। दिखाई देता है। ५. लचकना। बल खाना। उ०—लटकत चलत नंदकुमार।—सूर (शब्द०)।मुहा०—लटकती चाल=वल खाती हुई मनोहर चाल। उ०— भृकुटी मटकनि पीत पट चटक लटकती चाल। चल चख चित- वनि चोर चित लियो बिहारी लाल।—बिहारी (शब्द०)। ६. कोई काम पूरा न होने या किसी बात का निर्णय न होने के कारण दुविधा में पड़ा रहना। झूलना। जैसे,—अभी तक लटक रहे हैं; कुछ फैसला नहीं हो रहा है। ७. किसी काम का बिना पूरा हुए पड़ा रहना। देर होना।

लटकनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लटकना] लटकने की क्रिया या भाव। उ०—वैसियै हँसनि चहनि पुनि बोलनि। वैसियै लटकनि, मटकनि, डोलनि।—नंद०, ग्रं० पृ० २६५।

लटकवाना
क्रि० स० [हिं० लटकाना का प्रेर० रूप] लटकाने का काम दूसरे से कराना।

लटकहर †
संज्ञा पुं० [देश०] तेली।

लटका
संज्ञा पुं० [हिं० लटक] १. गति। चाल। ढब। २. बनावटी चेष्टा। हाव भाव। ३. बातचीत करने में स्वर का एक विशेष प्रकार से चढ़ाव उतार। बातचीत का बनावटी ढंग। जैसे— लटके के साथ बात करना। ४. कोई शब्द या वाक्य जिसके बार बार प्रयोग का किसी को अभ्यास पड़ गया हो। सखुन- तकिया। ५. मंत्र तंत्र की छोटी युक्ति। टोटका। ६. किसी रोग या बाधा की शांति की छोटी युक्ति। संक्षिप्त उपचार। छोटा नुसखा। जैसे,—यह फकीरी लटका है; इससे जरूर फायदा होगा। ७. एक प्रकार का चलता गाना। ८. लिंग। (बाजारू)।

लटकाना
क्रि० स० [हिं० लटकना] १. किसी ऊँचे स्थान से एक छोर लगा या टिकाकर शेष भाग नीचे तक इस प्रकार ले जाना कि ऊपर का छोर किसी आधार पर टिका हो और नीचे का निराधार हो। जैसे,—छव में फानुस लटकाना; कूएँ में डोरी लटकाना। संयों क्रि०—देना।—लेना। विशेष—'टाँगना' और 'लटकाना' इन दोनों शब्दों के मूल भाव में अंतर है। 'टाँगता' शब्द में किसी ऊंचे आधार पर टिकाने या अड़ाने का भाव प्रधान है और 'लटकाना' शब्द में ऊपर से नीचे तक फैलनि या हिलाने डुलाने का। जैसे—(क) धोती और नीचे तक लटका दो। (ख) कुएँ में डोरी लटका दो। २. किसी ऊँचे आधार पर इस प्रकार टिकाना कि टिके या अड़े हुए छोर के अतिरिक्त और सब भाग अधर में हों। एक छोर या अंश ऊपर टिकाना जिससे कोई वस्तु जमीन पर न गिरे। टाँगना। जैसे,—अँगरखा खूँटी में लटका दो। ३. किसी खड़ी वस्तु को किसी ओर झुकाना, लचकाना या नम्र करना। ४. किसी का कोई काम पूरा न करके उसे दुबधा में डालना। आसरे में रखना। इतजार कराना। जैसे,—उसे क्यौं लटकाए हो; जो कुछ देना हो, दे दो। ५. किसी काम को पूरा न करके डाल रखना। देर करना।

लटकीला
वि० [हिं० लटक+ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री०] लटकीली झूपता हुआ। बल खाता हुआ। लचकदार। जैसे,—लटकीली चाल।

लटकू
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जिसकी छाल को उबा- लने से रंग निकलता है।

लटकौआ, लटकौवा
वि० [हिं० लटकना] लटकनेवाला। जो लटकता हो। यौ०—लटकौवा मालखंभ=वह मालखंभ जिसकी लकड़ी गड़ी न रहकर ऊपर से लटकाई रहती है।

लटजीरा
संज्ञा पुं० [सं० लट् (=लट ?)+हिं० जीरा] १. अंपामार्ग। चिचड़ा। २. एक प्रकार का जड़हन धान जो अगहन में तैयार होता है और जिसका चावल बहुत दिनों तक रहता है।

लटना (१)
क्रि० अ० [सं० लड (=हिलना ड़ोलना)] १. थककर गिर जाना। लड़खड़ाना। उ०—मर्कट विकट भट जुटत कटत,न लटत तन जर्जर भए।—तुलसी (शब्द०)। संयों० क्रि०—जाना।उ०—लटे तन जात किते छत जात।—सूदन (शब्द०)। २. श्रम, रोग आदि से शिथिल होना। अशक्त होना। दुबला और कमजोर होना। जैसे,—आजकल वे बीमारी से बहुत लट गए है। उ०—(क) श्री रघुबीर, निबारिए पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तेरे मुँह फेरे मोसे कायर कपुत कूर लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो।—तुलसी (शब्द०)। (ग) कटी कटीली कांति पै, लटी लटी अति जाय।—रामसहाय (शब्द०)। ३. ढीला पड़ना। र्मद पड़ना। शक्ति और उत्साह से रहित होना। उ०—देखि भीरु लटै लगे, मन मन घटै लगे, पाछे पग हटै लगे, क्रम क्रम नटै लगी।—गोपाल (शब्द०)। ४. श्रम से निकम्मा हो जना। अधिक काम करने के योग्य न रह जाना। शिथिल होना। थक जाना। उ०—रटत रटत रसना लटी तृषा सूखिगे अंग।—तुलसी (शब्द०)। ५. व्याकुल होना। उ०—फटे फन फनि कै औ लटे दिगदंती दीह, घटे बल कूरम बिकलता को पाई है।—रघुनाथ (शव्द०)।

लटना (२)
क्रि० अ० [सं० लल, लड (=ललचाना)] १. ललचाना। लेने के लिये लपकना। चाह करना। लुभाना। उ०—परिहरि सुरमनि सुनाम गुंजा लखि लटत।—तुलसी (शब्द०)। २. लिप्त होना। अनुरक्त होना। प्रेमपूर्वक तत्पर होना। लीन होना। उ०—(क) उलटि तहाँ पग धारिए जासों मन मान्यो। छपद कंज तीज वेलि सों लटि लटि प्रेम न जान्यो।—सूर (शब्द०)। (ख) कित बिमोह लटी फटो गगन मगन सियत।—तुलसी (शब्द०)।

लटपट
वि० [हिं० लट+(अनुकणात्मकभिन्वर्व्यजन द्वित्व पट] दे० 'लटपटा'।

लटपटा (१)
वि० [हिं० लटपटाना] [वि० स्त्री० लटपटी] १. गिरता पड़ता। लड़खड़ाता हुआ। निर्बलता या मद आदि के कारण इधर उधर झुकता हुआ। जैसे,—लटपटी चाल। उ०—धूरिधौन तनु, नैननि अजन, चलत लटपटी चाल।—सुर (शब्द०)। २. जो ठीक बँधा न रहने के कारण ढीला होकर नीचे की ओर सरक आया हो। ढीलाढाला। जो चुस्त ओर दुरुस्त न हो। अस्तव्यस्त। बिना संवारा हुआ। उ०— (क) लटपटी पाग उनींदे नैना डग डग डोलत डगमगात।—सूर (शब्द०)। (ख) सूर देखि लटपटी पाग पर जावत की छबि लाल।—सूर (शब्द०)। ३. (शब्द आदि) जो स्पष्ट या ठीक क्रम से न निकले। टूटा फूटा। उ०—ज्यों ज्यों बलकति बैन लटपटे कहति छबीली।-व्यास (शव्द०)। ४. जो ठीक क्रम से न हो। अव्यवस्थित। अंडबंड। अटसर। ५. थककर गिरा हुआ। हारा हुआ। अशक्त। बेवस। उ०—तेरे मुँह फेरे मोसे कायर कपुत कूर लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगी।— तुलसी (शब्द०)।

लटपटा (२)
वि० १. जो लेई की तरह गाढ़ा हो। जो न पानी की तरह पतला हो और न बहुत अधिक गाढ़ा। लुटपुटा। जैसे,— लटपटी तरकारी। २. भींजा हुआ। गिंजा हुआ। मलादला हुआ। जो इधर उधर सुकड़ा हुआ हो, साफ या बराबर न हो। जिसमें शिकत या सिलवट पड़ी हो। (कपड़ा इत्यादि)। उ०—त्रिबली पलोटन सलोट लटपटी सारी चोट चटपटा अटपटी चाल अटक्यो।—सूर (शब्द०)।

लटपटान
संज्ञा स्त्री० [हिं० लटपटाना] १. लटपटाने की क्रिया या भाव। लड़खड़ाहट। २. मनोहर गति या चाल। लटक। लचक।

लटपटाना (१)
क्रि० अ० [सं० लड (=हिलना डोलना)+पत्(=गिरना)] १. सीधे ढंग से न चलकर निर्बलता या मद आदि के कारण इधर उधर झुक झुक पड़ना। गिरना पड़ना। लड़खड़ाना। उ०—करत विचार चल्यो सम्मुख ब्रज। लटपटाइ पग धरनि धरत गज।—सूर (शब्द०)। सयो० क्रि०—जाना। २. स्थिर न रहना। जमा न रहना। डिगना। विचलित होना। ३. ठीक तरह से न चलना। च्युत होना। चूक जाना। जैसे,— पैर लटपटाना, जीभ लटपटाना।

लटपटाना (२)
क्रि० अ० [सं० लल, लड़ (=लुभाना)] १. लुभाना। मोहित होना। उ०—श्री हरिदास के स्वामी स्यामा कुंज- बिहारी लटपटाइ रहे मानि सबै सुख चेन।—हरिदास (शब्द०)। २. लीन होना। लिप्त होना। अपुरक्त होना।

लटपटानि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लटपटाना] १. दें 'लटपटान'।२. मनोहर गति या चाल। लचक। लटक। उ०—श्री हरिदास के स्वामी स्यामा कुंज बिहारी के राग रंग लटपटानि के भेद न्य़ारे न्य़ारे जैसे पानी में पानी नरीच।—हरिदास (शब्द०)।

लटपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दारुसिता। बड़ी दारचीनी [को०]।

लटभ
वि० [सं०] सुंदर [को०]।

लटह
वि० [सं०, प्रा०] सुंदर। खूबसूरत [को०]।

लटा †
वि० [सं० लट्ट] [वि० स्त्री० लटी] १. लोलुप। लंपट। २. लुच्चा। नीच। ३. तुच्छ। हीन। ४. गिरा हुआ। पतित। ५. बुरा। खराब। उ०—जग में करो जो न कृत मानै। नीकी करी, लटी उर आनै।—लाल (शव्द०)।

लटापटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लटपटाना] १. लटपटाने की क्रिया या भाव। २. लड़ाई झगड़ा। भिड़ंत। उ०—लटापटी होवन लगी मोहि जुदा करि देहु।—गिरधर (शब्द०)।

लटापोट पु †
वि० [हिं० लोटपोट] लोटपोट। मोहित। मुग्ध। उ०—अटकि मुबारक मति गई लूटि सुखन की मोट। लटापोट ह्वै लपटि गो लटकत लट की ओट।—मुबारक (शव्द०)।

लटिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० लट] सूत आदि का लच्छा। लच्छी। आँटी। मुहा०—लटिया करना=सूत को लपेटकर आँटी या लच्छे के रूप में करना।

लटियासन
संज्ञा पुं० [हिं० लट+सन] पटसन।

लटी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लटा (=बुरा)] १. बुरी बात। २. झूठी बात। गप। मुहा०—लटी मारना=गप हाँकना। सीटना। झूठी बात कहना। ३. साधुनी। भक्तिन। ४. वेश्या। रंडी।

लटी (२)
वि० [सं० लट्ट] दे० 'लटा'।

लटुआ
संज्ञा पुं० [सं० लुठन या लुण्ठन] दे० 'लट्टू'। उ०—लटुआ लौ प्रभु कर गहै निगुनी गुन लपटाय। वहै गुनी कर तैं छुटै निगुनीयै ह्वै जाय।—बिहारी (शब्द०)।

लटुक
संज्ञा पुं० [सं० लकुच] लकुट नाम का पेड़ और उसका फल। विशेष दे० 'लकुट' या 'लुकाट'।

लटुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लट+उरी (प्रत्य०)] दे० 'लटूरी'। उ०— लटकन ललित लटुरियाँ मसि विदु गोरोचन।—सूर (शव्द०)।

लटू
संज्ञा पुं० [सं० लुठन] दे० 'लट्टू'। उ०—(क) चारु चकई लै घुनघुना लटू कंचन को खेलि घरे लाल बाल सखन बुलाय रे।—दीनदयाल (शव्द०)। (ख) रन करत लटू को करम रथ, होत छटूको सत्रु उर।—गोपाल (शब्द०)। मुहा०—(किसी पर) लटू होना=(१) मोहित होना। आसक्त होना। लुभाना। आशिक होना। उ०—(क) हम तौ रीझि लटू भइँ लालन महाप्रेम तिय जाति।—सूर (शब्द०)। (ख) रही लटू ह्वै लाल ही लखि वह बाल अनूप।—बिहारी (शब्द०)। (ग) व्याह ही तें भए कान्ह लटू तव ह्वैहै कहा जब होयगो गौनो ?—पद्माकर (शव्द०)। (२) चाह में हैरान होना। प्राप्ति के लिये उत्कंठित होना। उ०—जा सुख की लालसा लटू सिव सनकादि उदासी।—तुलसी (शब्द०)।

लटूरा †
संज्ञा पुं० [हिं० लटूटू] कुप्पा।

लटूरी
सज्ञा स्त्री० [हिं० लट] सिक के वालों का लटकता हुआ गुच्छा। केश। अलक। उ०—लटकन लसत ललाट लटूरी। दमकति द्वै द्वै र्दतुरियाँ रूरी।—तुलसी (शब्द०)।

लटेरा †
संज्ञा पुं० [हि० लटजीरा या देश०] एक प्रकार का धान जिसका स्वाद बहुत अच्छा होता है।

लटोरा (१)
संज्ञा पुं० [हि० लट(=चिपचिपाहट)] एक प्रकार का छोटा पेड़। शलेष्मातक। सपिस्तां। लिटोरा। लिसोड़ा।विशेष—इसकी पत्तियाँ गोल गोल और फल बेर के से होते हैं। यह बसंत में पत्तियाँ झाड़ता है और भारतवर्ष में प्रायःसर्वत्र होता है। फलों में बहुत सा लसदार गुदा होता है। इसका फल ओषध के काम में आता है और सूखी खाँसी को ढीली करने के लिये दिया जाता है। फारसी में इसे 'सपिस्ताँ' कहते हैं, और हकीम लोग मिस्त्री मिलाकर इसका 'लऊक सपिस्ताँ' नामक अवलेह बनाते है और खाँसी में चाटने के लिये देते हैं। संस्कृत में भी इसे 'श्लेष्मांतक' कहते हैं।

लटोरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दस इंच के करीव लंबा एक भारतीय पक्षी। विशेष—इसकी गरदन और मुँह काला, डैने नीलापन लिए हुए भूरे ओर दुम काली होती है। इसकी लंबाई दस इंच होती है। यह भारत में स्थायी रूप से रहता है और प्रायः मैदानों में ही पाया जाता है। यह तीन से छह तक अंडे देता है। इसके कई भेद होते हैं। जैसे,—मटिया, कजला, खरखला।

लट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] दुष्ट आदमी। दुर्जन।

लट्ट पट्ट ‡
वि० [अनु०] दे० 'लथपथ'। उ०—प्रेम रंग लट्ट पट्ट आवैं जाय झट्ट पट्ट देववृंद देखे परैं मानो नट्ट बट्ट हैं।—रघुराज (शब्द०)।

लट्टू
संज्ञा पुं० [सं० लुठन (=लुढ़कना)] गोल बट्टे के आकार का एक खिलौना जिसे लपेटे हुए सूत कें द्वारा जमीन पर फेंककर लड़के नचाते हैं। विशेष—इसके बीच में लोहे की एक कील जड़ी होती है, जिसे 'गूँज' कहते हैं। इसमें डोरो लपेटकर विशेष ढग से जोर से फेंकते हैं, जिससे यह बहुत देर तक चक्कर खाता हुआ घूमता रहता हैं। क्रि० प्र०—नचाना।—फिराना। मुहा०—(किसी पर) लट्टू हेना=दे० 'लटू' शब्द का मुहावरा। यौ०—लट्टूदार=(१) लट्टू के आकार के समान। लट्टूजैसा। (२) लट्टू से युक्त। उ०—कत्तीदार, लट्टूदार या"।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २०७।

लट्टूदार पगड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लट्टूदार+पगड़ी] एक प्रकार की पगड़ी जिसके ऊपर एक गोला सा बना होता है और आगे छज्जा सा भी निकला होता है। इसे छज्जेदार पगड़ी भी कहते हैं।

लट्ठ
संज्ञा पुं० [सं० यष्ठि, प्रा० लट्ठि] बड़ी लाठी। मोटा लंबा डंडा। क्रि० प्र०—चलाना।—मारना। यौ०—लट्ठगँवार। लट्ठबंद। लट्ठबाज। लट्ठबाजी। लट्ठमार। मुहा०—किसी व्यक्ति या वस्तु के पीछे लट्ठ लिए फिरना=किसी का बराबर विरोध करना। किसी वस्तु के प्रतिकूल आचरण करना। जैसे,—तुम तो अक्ल के पीछे लट्ठ लिए फिरते हो।

लट्ठ गँवार
वि० [हिं० लट्ठ+र्गवार] महामूर्ख। उजड्ड। उ०— आज विनय ने जितनी बातें की, उतनी शायद और कभी न की थी, और भी नायकराम जैसे लट्ठगवाँर से।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ६५४।

लट्ठबंद
संज्ञा पुं० [हिं० लट्ठ+बाँधना] लाठी रखनेवाला। लाठी वाँधनेवाला। लाठी से लैस। लठैत। उ०—लट्टवंद चौकसी करते चपरासियों और माली...।—भस्मावृत०, पृ० ५४।

लट्ठबांज
वि० [हिं० लटूठ+फा़० बाज] १. लाठी लड़नेवाला। लठैत। २. बड़ी लाठी बाँधनेवाला।

लट्ठबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लट्ठबाज+ई (प्रत्य०)] लाठी की लड़ाई या मार पीट।

लट्ठमार
वि० [हिं० लट्ठ+मारना] १. लट्ठ मारनेवाला। २. (बात या वचन) अप्रिय या कठोर। कर्कश। कड़वा। जैसे,—उसकी बात लट्ठमार होती है।

लट्ठर †
वि० [हिं० लट्ठ] १. कठोर। कड़ा। कर्कश। २. गफ। मोटा। (कपड़ा आदि)।

लट्ठा
संज्ञा पुं० [हिं० लट्ठ लाठी लठ्ठी का पुंवत् रूप] १. लकड़ी का बहुत लंबा टुकड़ा। बल्ला। शहतीर। २. घर की छाजन या पाटन में लगा हुआ लकड़ी का बल्ला। धरन। कड़ी। ३. लकड़ी का खभा। जैसे,—तालाब का लट्ठा, सरहद का लट्ठा। ४. खेत या जमीन नापने का बाँस या बल्ला जो ५१/२ गज का होता है और नाप के रूप में चलता है। ५. एक प्रकार का गाढ़ा मोटा कपड़ा। गफ मारकोन।

लट्ठाबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लट्ठा+फा़० बदी] जमीन की साधारण नाप जो लट्ठे से की जाय।

लट्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़ा। २. एक प्रकार का राग। ३. एक जाति का नाम (को०)। नाचनेवाला बालक। नृत्य करता हुआ बालक (को०)।

लट्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का करंज। २. एक प्रकार का बाजा। ३. गौरा पक्षी। ४. कुसुंभ। ५.चित्र बनाने की कूंची। कलम। तूलिका। ६. व्यभिचारिणी स्त्री। ७. बालों की लट। अलक। ८. खेल। क्रीड़ा (को०)।

लट्वाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पक्षी [को०]।

लठ
संज्ञा पुं० [प्रा०लट्ठ] दे० 'लट्ठ'।

लठा †
संज्ञा पुं० [हिं० लाठी] दे० 'लट्ठ'। उ०—भारी लठा कोऊ लिए कोउ लकुट निज कर मैं धरे।-प्रेमघन०, भा० १, पृ० ११४।

लठियल †
वि० [हिं० लाठी+इयल (प्रत्य०)] लाठी बाँधने या चलानेवाला। लठैत।

लठिया ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० लाठी+इया (प्रत्य०)] लाठी। लकड़ी। डंडा।

लठैत
संज्ञा पुं० [हिं० लठ+ऐत (प्रत्य०)] लाठी चलानेवाला। लाठी की लड़ाई लड़नेवाला। लट्ठवाज।

लड़ंगा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० लड़ना+अंगा (प्रत्य०)] लड़ाका। योद्धा। लडै़त। सैनिक। उ०—सनाहे असल्ली, हिले फौज हल्ली। लड़गे अलेखै, दिली ख्याल देखै।—रा० रू०, पृ० ३१।

लड़त
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़ना] १. लड़ाई। भिड़ंत। २. सामना। मुकाबला।

लड़ंतिया
संज्ञा पुं० [हिं० लड़ंत+इया (प्रत्व०)] लड़नेवाला। कुश्तीबाज। उ०—वहाँ नित्य सौ पचास लड़ंतिये आ जुटते हैं।—गोदान, पृ० १७७।

लड़
संज्ञा स्त्री० [सं० यष्टि, प्रा० लटि्ठ, हिं० लड़ी] १. सीध में गुछी हुई या एक दूसरी से लगी हुई एक ही प्रकार की वस्तुओं की पंक्ति। माला। जैसे मोतियों की लड़। २. रस्सी का एक तार (जैसे, कई एक साथ मिलाकर नटे जार्यं)। पाम। पान। ३. पक्ति। पाँत। कतार। सिलसिला। श्रेणी। मुहा०—(किसी के साथ) लड़ मिलाना=मेल करना। मित्रता करना। (किसी की) लड़ में रहना=दल या पक्ष में रहना। अनुयायियों में रहना। ४. पंक्ति में लगे हुए फूलों या मंजरियों का छड़ी के आकार का गुच्छा।

लड़इता †
वि० दे० 'लड़ैता'।

लड़कई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़का+ई (प्रत्य०)] १. लड़कपन। वचपन। बाल्यावस्था। २. अज्ञता। नादानी। ३. चपलता। चचेलेती। चिलबिलापन।

लड़कखेल
संज्ञा पुं० [हिं० लड़का+खेल] १. बालकों का खेल। २. सहज काम। साधारण बात।

लड़कखेलवा †
संज्ञा पुं० [हिं० लड़का+खेल] १. बालकों का खेलवाड़। २. सहज काम।

लड़कना †
क्रि० अ० [हिं० ललकना] ललकना। उमंग में भरना। आनंदित होना। उ०—जुगल कुँवर कों लड़कि लड़ावै। परम प्रेमरस पारस पावै। घनानंद, पृ० २६१।

लड़कपन
संज्ञा पुं० [हिं० लड़का+पन] १. वह अवस्था जिसमें मनुष्य बालक हो। बाल्यावस्था। जैसे,—लड़कपन में मैं वहाँ प्रायः जाया करता था। लड़कों का सा चिलबिलापन। चप- लता। चंचलता। जैसे, हर दम लड़कपन मत किया करो। क्रि० प्र०—करना।

लड़कबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़का+बुद्धि] बालकों की सी समझ। अपरिवक्व बुद्धि। अज्ञता। नासमझी।

लड़का
संज्ञा पुं० [सं० लट (=लड़कों का सा आचरण करना) सं० लालन्=(जिसका लाड़ किया जाय) अथवा लाड़ (=दुलार)] [स्त्री० लड़की] १. थोड़ी अवस्था का मनुष्य। वह जिसकी उम्र कम हो। बालक। २. पुत्र। बेटा। यौ०—लड़कावाला। मुहा०—लड़कों का खेल=(१) बिना महत्व की बात। (२) सहज बात या काम। ऐसा काम जिसका करना बहुत सहज हो। जैसे,—यह काम करना लड़कों का खेल नहीं है। राह बाट का लड़का=ऐसा लड़का जिसे किसी ने रास्ते में पड़ा पाया हो, और जिसके माता पिता का पता न हो। लड़की लड़का=संतान। औलाद।

लड़काई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़का+ई (प्रत्य०)] दे० 'लड़कई'।

लड़का बाला
संज्ञा पुं० [हिं० लड़का+सं० बालक, प्रा० बालअ] १. संतति। संतान। औलाद। बाल बच्चा। जैसे,—उन्हें कोई लड़का बाला नहीं है। २. पुत्र, कलत्र आदि। परिवार। कुटुंब। कुनवा। जैसे,—(क) परदेस में लड़के वालों की खबर न मिलने से जी घबराता है। (ख) वह अपने लड़के वालों की खबर नहीं लेता।

लड़किनी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़की + इनि (स्त्री० प्रत्य०)] लरकिनी। दे० 'लड़की'।

लड़की
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़का] १. छोटी अवस्था की स्त्री। बालिका। २. कन्या। पुत्री। बेटी।

लड़कीवाला
संज्ञा पुं० [हिं० लड़की + वाला (प्रत्य०)] विवाह संबंध में कन्या का पिता या संरक्षक। जैसे,—लड़कीवाले को सदा दबकर रहना पड़ता है।

लड़कैया
संज्ञा पुं० [हिं० लड़का + ऐया (प्रत्य०)] दे० 'लड़कपन'। उ०—करो जतन साख साई मिलन की। गुड़िया गुड़वा सूप सुपलिया, तज दे बुध लड़कैया खेलन की।—कबीर श०, भा० १, पृ० ३३।

लड़कोरी
वि० [हिं० लड़का + ओरौ (प्रत्य०)] दे० 'लड़कौरी'। उ०—बेचारी अधमरी लड़कोरी औरत को मारकर तुमने कोई बड़ी जवाँमदीं का काम नहीं किया है।—गोदान, पृ० २७३।

लड़कौरी
वि० स्त्री० [हिं० लड़का + औरी (प्रत्य०)] (स्त्री) जिसकी गोद में लड़का हो। जिसके पास पालने पोसने के योग्य अपना बच्चा हो। जैसे,— लड़कौरी स्त्री को तो बच्चे से ही छुट्टी नहीं मिलती।

लड़खड़ाना
क्रि० अ० [सं० लड़ (= डोलना) + खड़ा (या अनुरणनात्मक)] १. न जमने या न ठहरने के कारण इधर उधर हिल डोल जाना। पूर्ण रूप से स्थित न रहने के कारण खड़ा न रह सकना, इधर उधर झुक पड़ना। झोका खाना। डगमगाना। डिगना। जैसे,—पैर लड़खड़ाना, आदमी का लड़खड़ाकर गिरना। संयो० क्रि०—जाना। २. डगमगाकर गिरना। झोंका खाकर नीचे आ जाना। ३. ठीक तौर से न चलना। अपनी क्रिया में ठीक न रहना। विचलित होना। च्युत होना। चूकना। जैसे,—कोई चीज उठाने में उसका हाथ लड़खड़ाता है। मुहा०—जीभ लड़खड़ाना = (१) ठीक ठीक या पूरे शब्द और वाक्य मुँह से न निकलना। मुँह से स्पष्ट शब्द न निकलना। टूटे फूटे शब्द या वाक्य निकलना। (२) मुँह से रुक रुककर शब्द निकलना।

लड़खड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़खड़ाना] लड़खड़ाने की क्रिया या भाव। डगमगाहट।

लड़ना
क्रि० अ० [सं० रणन] १. आघात करनेवाले शत्रु पर आघात करने का व्यापार करना। आघात प्रातघात करना। एक दूसरे पर वार करना। एक दूसरे को चोट पहुँचाना। युद्ध करना। भिड़ना।संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना। यौ०—लड़ना भिड़ना। २. एक दूसरे को गिराने का प्रयत्न करना। कुश्ती करना। मल्ल- युद्ध करना। जैसे,—पहलवानों का अखाडे़ में लड़ना। ३. एक दूसरे को कठोर शब्द कहना। वाग्युद्ध करना। झगड़ा करना। कलह करना। हुज्जत करना। तकरार करना। जैसे,—इसी बात पर दोनों घंटों से लड़ रहे हैं। ४. वादविवाद करना। बहस करना। ५. दो वस्तुओँ का वेग के साथ एक दूसरे से जा लगना। टक्कर खाना। टकराना। भिड़ना। जैसे,—रेलगाड़ियों का लड़ना, नावों का लड़ना। ६. विरोधी या प्रतिपक्षी के हानि पहुँचानेवाले प्रयत्न को निष्फल करने और उसे विफल करने का उद्योग करना। व्यवहार आदि में सफलता के लिये एक दूसरे के विरुद्ध प्रयत्न करना। जैसे,—मुकदमा लड़ना। ७. पूर्ण रूप से घटित होना। एक बात का दूसरी बात के अनुकूल पड़ना। लक्ष्य के अनुकूल होना। मेल मिल जाना। उपयुक्त उतरना। सटीक बैठना। जैसे,—बात ही तो है, लड़ गई। मुहा०—हिसाब लड़ना = (१) लेखा ठीक उतरना। (२) किसी बात का सुभीता होना। ८. अनुकूल पड़ना। ठीक होना। मुवाफिक उतरना। जैसे,—युक्ति लड़ना, किस्मत लड़ना। †९. बिच्छू, भिड़ आदि का डंक मारना। जैसे,—भिड़ लड़ गई। (पश्चिम)। १०. किसी स्थान पर पड़ना। किसी वस्तु से संयुक्त होना। लक्ष्य पर पहुँचना। भिड़ना। जैसे,—आँख लड़ना। निशाना लड़ना।

लड़बड़ा †
[अनु०] १. (व्यंजन) जो न बहुत गाढ़ा और न बहुत पतला हो। लटपटा। २. जिसमें पौरुष का अभाव हो। नपुंसक।

लड़वड़ाना
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'लड़खड़ाना'।

लड़बावरा
वि० [सं० लड़ (= लड़कों का सा) अथवा लाड (= प्यार दुलार) + बावरा] [वि० स्त्री० लड़बावरी] १. जो लड़क- पन लिए हो। जो चतुर और गंभीर न हो। भोला भाला और उजड्ड। अल्हड़। मूर्ख। नासमझ। अहमक। उ०—(क) सखियाँ लड़बावरी रावरी हैं तिनको मति में अति दौरति हौं।—बेनीप्रवीन (शब्द०)। (ख) नूर कहै न सुनै, लड़बावरी चदहि दोष कछू न भलाई।—नूर (शब्द०)। २. गंवार। अनाड़ी। उ०—एरी लड़बावरी ! अहीरि ऐसी बूझीं तोहि नाहिं सो सनेह कीजै, नाह सों न कीजिए।—केशव (शब्द०)। ३. मूर्खता से भरा हुआ। जिससे मूर्खता प्रकट हो। उ०— रावरी जो लड़बावरी बात है सो सुनि राखियो, मैं न सहूँगी—रघुनाथ (शब्द०)।

लड़बावला †
वि० [हिं० लड़ + बावला] मूर्ख। बेवकूफ। दे० 'लड़बावरा'।

लड़बौरा
वि० [हिं० लाड़ + बौराबावरा] [वि० स्त्री० लड़बौरी] दे० 'लड़बावरा'। उ०—सुन री राधा अति लड़बौरी जमु/?/गई तब संग कौन ही।—सूर (शब्द०)।

लड़ह
वि० [सं०, प्रा० लट, लटह] सुंदर। खूबसूरत [को०]।

लड़ाइता †
वि० [हिं० लाड़ (= प्यार)] दे० 'लड़ैता'। उ०—नंदरु यशोदा के लड़ाइते कुँवर हिय हरे ग्वार गोरिन के खोरिन बगे रहैं।—देव (शब्द०)।

लड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़ना + आई (प्रत्य०)] १. आघात करनेवाले शत्रु पर आघात करने की क्रिया। आघात प्रतिघात। एक दूसरे पर वार। एक दूसरे को चोट पहुँचाने की क्रिया या भाव। भिड़त। युद्ध। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—लड़ाई भिड़ाई। २. सेनाओं का परस्पर आघात प्रतिघात। संग्राम। जग। युद्ध। जैसे,—दोनों राज्यों के बीच लड़ाई हो रही है। क्रि० प्र०—करना।—छिड़ना।—ठनना।—मचना।—होना। मुहा०—लड़ाई का मैदान = रणक्षेत्र। लड़ाई पर जाना = योद्धा या सैनिक के रूप में रणक्षेत्र में जाना। ३. एक दूसरे को पटकने का प्रयत्न। मल्लयुद्ध। कुश्ती। ४. परस्पर कठोर शब्दों का व्यवहार। वाग्युद्ध। झगड़ा। कलह। तकरार हुज्जत। कहा सुनी। यौ०—लड़ाई झगड़ा। ५. वादविवाद। बहस। ६. दो वस्तुओं का वेग के साथ एक दूसरी से जा लगना। टक्कर। ७. विरोधी या प्रतिपक्षी के व्यव- हार से अपनी रक्षा करने और उसे विफल करने का परस्पर प्रयत्न। व्यवहार या मामले में सफलता के लिये एक दूसरे के विरुद्ध प्रयत्न या चाल। जैसे,—जमीन के लिये अदालत में लड़ाई। ८. अनवन। विरोध। बैर। बिगाड़। दुश्मना। जैसे,—उन दोनों में आजकल लड़ाई है।

लड़ाका
वि० [हिं० लड़ना + आका (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लड़ाकी] १. लड़नेवाला। योद्धा। सिपाही। २. बात बात में लड़ जानवाला। बहुत झगड़ा करनेवाला। झगड़ालू। फसादी।

लड़ाकू
वि० [हिं० लड़ना + आकू] १. युद्ध में व्यवहृत होनेवाला। लड़ाई में काम आनेवाला। जैसे,—लड़ाकू जहाज। २. दे० 'लड़ाका'।

लड़ाना (१)
क्रि० स० [हिं० लड़ना का प्रेर० रूप] १. लड़ने का काम दूसरे से कराना। लड़ने मे प्रवृत्त करना। जैसे,—उन दोनों को तुम्ही लड़ा रहे हो। २. झगड़ मे प्रवृत्त करना। कलह के लिय उद्यत करना। ३. एक वस्तु को दूसरी से वेग या झटक के साथ मिला देना। टक्कर खिलाना। भिड़ाना। ४. लक्ष्य पर पहुचाना। किसी स्थान पर फेंकना या डालना। जैसे,—निशाना लड़ाना, आँख लड़ाना। ५. परस्पर उलझाना। जैसे,—पतंग लड़ाना, ङोरा लड़ाना। ६. सफलता के लिये व्यवहार में लाना। सिद्धि के लिये संचालित करना। जैसे, युक्ति लड़ाना, बुद्धि लड़ाना।

लड़ाना (२)
क्रि० स० [हिं० लाड़ (= प्यार)] लाड़ प्यार करना। दूलार करना। प्रेम से पुचकारना। उ०—नव नव लाडूलडा़ई लाड़ली नाहीं नाहीं यहाँ ब्रज जावरो।—हरिदास (शब्द०)।

लड़ायता †
वि० [हिं० लाड़ (= प्यार)] दे० 'लड़ैता'।

लड़िक †
संज्ञा पुं० [हिं० लाड़ + इक] दे० 'लाड़'। उ०—वहुरि कहति अति लाड़क न कीजै। लरिकहिं तनक कछू सिख दीजै।—नंद० ग्रं०, पृ० २२६।

लड़ित
वि० [सं०] इतस्ततः भ्रमणशील। इधऱ उधऱ घूमनेवाला [को०]।

लड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० यष्टि, प्रा० लट्ठि] १. सीध में गुछी हुई या एक दूसरी से लगी हुई एक प्रकार की वस्तुओँ की पंक्ति। माला। जैसे,—मोतियों की लड़ी। २. रस्सी या गुच्छे का तार (जैसे, कई एक साथ मिलाकर बटे या गुछे जाय)। ३. पंक्ति। कतार। सिलासेला। श्रेणी। जैसे,—यहाँ से वहाँ तक टीला की एक लड़ी चलो गई है। ४. पक्ति में लगे हुए फूला या मंजरियों का छड़ी के आकार का गुच्छा।

लड़ीला †
वि० [हिं० लाड़ + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लड़ोली] दुलारा। प्यारा।

लड़ुआ, लडुवा
संज्ञा पुं० [सं० लड्डुक, लड्डुक] मोदक। लड्डू। उ०—काकि भूखि मन लडुवन गई।—नंद० ग्रं०, पृ० १२८।

लड़ता (१)
वि० [हिं० लाड़ (= प्यार) + ऐता (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लडै़ती] १. जिसका बहुत लाड़ प्यार हो। जिसपर बहुत प्रेम किया जाय। लाड़ला। दुलारा। जैसे,—लडै़ते लड़के बिगड़ जाते है। २. जो लाड़ प्यार के कारण बहुत इतराया हो। जिसका स्वभाव किसी के बहुत प्रेम दिखाने के कारण बिगड़ गया हो। धृष्ट। शोख। ३. प्यारा। प्रिय। उ०—जितही जित रुख करै लडै़ती तितही आपुन आवै।—सूर (शब्द०)।

लड़ैता (२)
वि० [हिं० लड़ना] लड़नेवाता। योद्धा। वीर। उ०— कहा लड़ैते हम करे परे लाला बेहाल।—बिहारी (शब्द०)।

लड्ड
संज्ञा पुं० [सं० लटक, लड्ड] धूर्त। धोखेबाज। बदमाश। दुष्ट [को०]।

लड्डू
संज्ञा पुं० [सं० लडडुक] गोल बँधी हुई मिठाई। मोदक। विशेष—लड्डू कई प्रकार के और कई चीजों के बनते हैं। जैसे,— बेसन के लड्डू खोए के लड्डू, बेसन की बुंदिया के लड्डू जो बाबर के लड्डू और मोतीचूर कहलाते हैं। मुहा०—(मन के)लड्डू खाना या फोड़ना = व्यर्थ किसी बड़े लाभ की कल्पना करना जिसका होना बहुत कठिन हो। लड्डू खिलाना = उत्सव मनाना। दावत करना। लड्डू मिलना = कोई अच्छा लाभ होना। जैसे,—वहाँ जाने से क्या लड्डू मिल गया ? लड्डू बँटना = लाभ या प्राप्ति होना। जैसे,—वहाँ क्या लड्डू बँटता है ? ठग के लड्डू खाना = पागल होना। नासमझी करना। होश हवाश में न रहना। विशेष—पहले ठग लोग मुसाफिरों को धोखे से मादक वस्तु या विष मिला लड्डू खिला देते थे; और जब वे बेहोश हो जाते थे, तब उनका माल लूट लेते थे।

लडयाना पु ‡
क्रि० स० [हिं० लाड़ (=प्यार)] लाड़ प्यार करना। दुलार करना। उ०— (क) मृगछौना सो क्यों पग तेरे तजे जाहि पूत लों लाड लड्यावति है। — लक्ष्मण (शब्द०)। (ख) कहते हैं कि भर्ता की लड्याई हुई उस चंडी ने उसके प्रतिज्ञा किए हुए दो वरदान उगले। —लक्ष्मण (शब्द०)।

लढ़ंत
संज्ञा पुं० [सं० लुण्ठन (=लुढ़कना) ] कुश्ती का एक पेच जो मुरगों या खरगोशों की लड़ाई का अनुकरण है।

लढ़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० लुढ़ना] बैलगाड़ी।

लढ़िया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लुढ़ना, लुढ़कना या हिं लढ़ा+इया (प्रत्य०)] बैलगाड़ी।

लत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० रति (=अनुरक्ति, लीनता)] किसी बुरी बात का अभ्यास और प्रवृत्ति। बुरी आदत। दुर्व्यसन। बुरी टेव। उ०— यह एक घृणा उत्पादक लत है। — कबीर मं०, पृ० १६७। क्रि० प्र०—पड़ना। लगना।

लत (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] लात। पाँव। पाद। यौगिक शब्दों में व्यवहृत। जैसे,—लतखोर, लतडी आदि।

लतखोर
वि० [हिं० लात+फ़ा० खोर] दे० 'लतखोरा'।

लतखोरा (१)
वि० [हिं० लात+फा़० खोर (=खानेवाला)] [वि० स्त्री० लतखीरिन] [संज्ञा लतखोरी] १. सदा लात खानेवाला। सदा ऐसा काम करनेवाला जिसके कारण मार खानी पडे़ या भला बुरा सुनना पड़े। २. नीच। कमीना।

लतखोरा (२)
संज्ञा पुं० १. दास। किंकर। गुलाम। २. देहली। दहलीज चौखट। ३. दरवाजे पर पड़ा हुआ पैर पोछने का काडा़। पायंदाज। गुलमगर्दा।

लतड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] केसारी नाम का अन्न।

लतड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लात (=पैर+डी़ (प्रत्य०)] एक प्रकार का जूती जिसमें केवल तला ही होता है।

लतपत †
वि० [अनु०] दे० 'लथपथ'। उ०— एक भैंसा कीचड़ से लतपत आया और उस फर्श के ऊपर बैठ गया। —कबीर मं०, पृ० १५६।

लतमर्दन
संज्ञा स्त्री० [हिं० लत (=लात)+सं० मर्दन] १. लातों से दवाने की क्रिया। पैरों से रौंदने की क्रिया। २. लातों की मार। पदाघात।

लतर
संज्ञा स्त्री० [सं० लता] वेल। वल्ली।

लतरा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का मोटा अन्न जिसे 'बरबरा' और 'रेंवछ' भी कहते हैं। इसकी फलियों की तरकारी भी बनाई जाती है।

लतरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लतरी+इया (प्रत्य०)] दे० 'लतड़ी'। उ०— सास ससुर को लातन मारत खमस को मारत लतरिया।—कबीर श०, भा० २ पृ० ५६।

लतरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास या पौधा जो खेतोंमें मटर के साथ वोया जाता है और जिसमें चिपटी चिपटी फलियाँ लगती है। विशेष— इसके दानों से दाल निकलती है जिसे गरीब लोग खाते हैं। यह बहुत मोटा अन्न माना जाता है। इसे 'मोंट' और 'खेसारी' भी कहते हैं। पशुचारा के रुप में काम आता है।

लतरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लात] एक प्रकार की हलकी जूती जो केवल तले के रुप में होती है और अँगूठे को फँसाकर पहनी जाती है। चप्पल।

लतहा †
वि० [हिं० लात+हा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लतही] लात मारनेवाला (बैल या घोड़ा)। जैसे,—लतही घोड़ी।

लतागी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्कट क्षृंगी। काकड़ासींगी।

लता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह पौधा जो सूत या डोरी के रुप में जमीन पर फैले अथवा किसी खड़ी वस्तु के साथ लिपटकर ऊपर की ओर चढ़े। वल्ली। वेल। वौंर। विशेष— जिस लता में बहुत सी शाखाएँ इधर उधर निकलती है और पत्तियाँ का झापस होता है, उसे संस्कृत में प्रतालिनी कहते हैं। २. कोमल कांड या शाखा। जैसे,— पद्यलता। विशेष— सौंदर्य, कोमलता और सुकुमारता का सूचक होने के कारण 'बाहु' या 'भुज' शब्द के साथ कभी कभी 'लता' शब्द लगा दिया जाता है। जैसे,—बहुलता, भुजलता। सुंदरी स्त्री के लिये भी 'कंचनलता', 'कनकलता', 'कामलता', हेमलता' आदि शब्दों का प्रयोग होता है। जैसे,— (क) गहि शशिवृत्त नरिंद सिढ़ी लंघत ढहि थोरी। कामलता कल्हरी प्रेम मारुत झकझोरी। —पृ० रा०, २५। ३८१। (ख) मानो किलता कचन लहरि मत्ता वीर गजराज गहि। —पृ० रा०, २५। ३७४। ३. प्रियंगु। ४. स्पृक्का। ५. अशनपर्णी। ६. ज्योतिष्मती लता। ७. माधवी लता। ८. दूर्वा। दूव। ९. कैवर्तिका। १०. सारिवा। ११. जातिपुष्प का पौधा। १२. सुंदरी स्त्री। कृशोदरी। १३. मोतिया की लरी (को०)। १४. केशाघात या चावुक। कोड़ा (को०)।

लताकरंज
संज्ञा पुं० [सं० लताकरञ्ज] एक प्रकार का करंज या कंजा। कंटकरेज। प्रया०— दुष्पर्श। वीराख्य। वज्रवीजक। धनदाक्षी। कंटफल। कुवेराक्षी। विशेष— वैद्यक में यह कटु, उष्ण और वात कफ-नाशक कहा गया है। इसका बीज दीपन, पथ्य तथा गुल्म और विप को दूर करनेवाला माना जाता है।

लताकर
संज्ञा पुं० [सं०] नाचने में हाथ हिलाने का एक प्रकार।

लताकस्तूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा जो दक्षिण में होता है। विशेष— वैद्यक में इसे तिक्तस्वादु, वृष्य, शीतल, लघु, नेत्रों को हितकारी तथा श्लेष्मा, तृष्णा और मुखरोग को दूर करनेवाली माना है। इसे लताकस्तूरी भी कहते हैं।

लताकुंज
संज्ञा पुं० [सं० लताकुन्ज] लताओं से छाया हुआ स्थान। उ०— लताकुंज में रघु पपुंज के 'गुन गुन गुन' गुंजन में।— अनामिका, पृ० २३।

लतागण
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में सूत या डोरी के रुप में फैलनेवाले पौधों का वर्ग। विशेष— इन वर्ग के अंतर्गत ये पौधे हैं— पान, गुर्च, सोमवल्ली, विष्णुक्रांता, स्वर्णवल्ली, हड़संहारी, ब्रह्मदंडी, आकाशबेल, वटपत्री, हिंगुपत्री, वंशपत्री, वृहत्रला, अर्कपुष्पी, सर्पाक्षी, गूमा, मूसाकानी, पोई, मोरशिखा, बंदवल्ली, कन्कलता (नागकेसर), जाती और माधवी।

लतागुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] लताओं का झुटमुट। उ०— पेंड़, पौदे, लतागुल्म आदि भी इसी प्रकार कुछ भावों या तथ्यों की ब्यंजना करते हैं। — रस०, पृ० १६।

लतागृह
संज्ञा संज्ञा [सं०] लताओं से मंडप की तरह छाया हुआ स्थान। लताकुंज।

लताजिह्ल
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प। साँप।

लताड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० लथाड़] दे० 'लथाड़'। मुहा०—लताड़ बताना= भर्त्सना करना। झिड़ कियाँ सुनाना। उ०—अलंकार प्रेमियों की लताड़ वताकर शुक्ल जी ने उन्हें सावधान कर दिया है कि हैसियत से बाहर न बोला करें।—आचार्य, पृ० १३५।

लताड़ना
क्रि० स० [हिं० लात] १. पैरों से कुचलना। रौंदना। २. लातों से मारना। ३. हैरान करना। श्रम से शिथिल करना। थकाना। ४. फटकारना। झिड़की सुनाना। ५. लेटे हुए आदमी के शरीर पर खड़े होकर धीरे धीरे इधर उधर चलना, जिससे उसके बदन की थकावट दूर होती है। (पश्चिम)।

लतातरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारंगी का पेड़। २. ताड़ का पेड़। ३. शाल या साखू का पेड़।

लताताल
संज्ञा पुं० [सं०] हिताल वृक्ष।

लताद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लतातरु'।

लतानन
संज्ञा पुं० [सं०] नाचने में हाथ हिलाने का एक ढंग।

लतापता
संज्ञा पुं० [सं० लतापत्र] १. लता और पत्ते। पेड़ पत्ते। पेड़ों और पौधों का समूह। २. पौधों की हरियाली। ३. जड़ी बूटी। जैसे,— गाँव के लोग लतापता से दवा कर लेते हैं।

लतापनस
संज्ञा पुं० [सं०] तरबूज। कलींदा।

लतापर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

लतापर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तालमूला। २. मधूरिका। मेऊडी।

लतापाश
संज्ञा पुं० [सं०] लता का झापस या समूह। लताओं का जाल।

लताप्रतान
संज्ञा पुं० [सं०] लता के रेशे या तंतु [को०]।

लताफत
संज्ञा स्त्री० [अ० लताफ़त] १. कोमलता। २ मृदुलता।नजाकत। २. शोभा। लालित्य। सुंदरत्ता। उ०— नन्ही एक महबूब महताव से, लताफत में निर्मल निछल आव से।— दक्खिनी०, पृ० ७४। ३. बारीकी। सूक्ष्मता (को०)। ४. स्वच्छता। शुद्धता (को०)। ५. नवीनता (को०)। ६. भाव की गंभीरता (को०)।

लताफल
संज्ञा पुं० [सं०] पटोल। परवल।

लताभद्रा
संज्ञा पुं० [सं०] भद्रा या भद्राली नाम की एक लता [को०]।

लताभवन
संज्ञा पुं० [सं०] लताओं का कुंज। लतागृह। उ०— लताभवन तें प्रगट भए तेहि अवसर दोउ भाइ। निकसे जनु जुग विमल विधु जलद पटल बिलगाइ। —तुलसी (शब्द०)।

लतामंडप
संज्ञा पुं० [सं० लतामण्डप] छाई हुई लताओं से बना हुआ मंडप या घर।

लतामंडल
संज्ञा पुं० [सं० लतामण्डल] छाई हुई लताओं का घेरा या कुंज।

लतामणि
संज्ञा पुं० [सं०] प्रवाल। मूँगा।

लतामरुत्
संज्ञा पुं० [सं०] पृका।

लतामृग
संज्ञा पुं० [सं०] शाखामृग। वानर। बंदर [को०]।

लतायष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंजिष्ठा। मजीठ।

लतायावक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रवाल। मूँगा। २. कनखा। अंकुर [को०]।

लतारद
संज्ञा पुं० [सं०] हस्ती। हाथी [को०]।

लतारसन
संज्ञा पुं० [सं०] लताजिह्व। सर्प [को०]।

लतार्क
संज्ञा पुं० [सं०] प्याज का पौधा। हरा प्याज।

लतालक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी।

लतावलय
संज्ञा पुं० [सं०] लताकुंज। लतागृह [को०]।

लतावृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. शल्लकी। सलई का पेड़। २. नारियल का वृक्ष। (को०)।

लतावेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामशास्त्र में सोलह प्रकार के रति- बंधों में से तीसरा। २. एक पर्वत जो द्वारकापुरी से दक्षिण की ओर पड़ता है। (हरिवंश)।

लतावेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आलिंगन। वैठै हुए प्रिय का लेटी हुई प्रिया द्वारा आलिंगन।

लतावेष्टित
वि० [सं०] लतओं से घिरा हुआ या आच्छादित [को०]।

लतावेष्टितक
संज्ञा सं० [सं०] दे० 'लतावेष्टन' [को०]।

लातशंकुतरु
संज्ञा पुं० [सं० लताशङ्कुतरु] लतावंश वृक्ष। [को०]।

लताशंख
संज्ञा पुं० [सं० लताशङ्ख] शाल या साखु का पेड़।

लतासाधन
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र या वाममार्ग की एक साधना जिसका प्रधान अधिकरण लता या स्त्री है। विशेष— इसमें महारात्रि (शिवरात्रि) के दिन एक रजस्वला स्त्री को लेकर उसके योनिदेश पर इष्टदेव का पूजन ओर जप करते हैं।

लतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी। लता। बँवर। बेल। विशेष़ दे० 'लता'।

लतियर, लतियल
वि० [हिं० लता+इयल (प्रत्य०)] जो सदा लात खाता रहता हो। लतखोर।

लतियाना †
कि० स० [हिं० लात+आना (प्रत्य०)] १. पैरों से दवाना या रौंदना। २. खुब लातें मारना। प्रहार करना। दंड देना। जैसे,— इसे खूब लतियाओं, तव मानेगा।

लतिहर, लतिहल
वि० [हिं० लात+इहर (प्रत्य०) ] दे०] 'लतियर'।

लतीफ
वि० [अ० लतीफ़] १. मजेदार। सुस्वादु। जायकेदार। २. अच्छा। बढ़िया। मनोहर। यौ०—लतीफ मिजाज=खुशदिल।

लतीफा
संज्ञा पुं० [अ० लतीफा़] १. हास्य रस पूर्ण छोटी कहानी। चुटकुला। २. चुहल की वात। हँसी की बात। ३. चमत्कार- पूर्ण बात। अनूठी वात। यौ०—लतीफा गो =लतीफा कहनेवाला। लतीफा बाज =विनोदी। चुलहभरी बातें कहनेवाला। मुहा०—लतीफा छोड़ना या कसना=चुहल या विनोद की बातें कहना।

लत्त
संज्ञा स्त्री० [देशी लत्ता, लत्तिया] १. लात। २. बुरी आदत। लत।

लत्ता
संज्ञा पुं० [सं० लत्तक] १. फटा पुराना कपड़ा। चीथढ़ा। २. कपड़े का टुकड़ा। वस्त्र खंड। ३. कपड़ा। वस्त्र। उ०— तन पर लत्ता नाहिं खसम ओढ़ाती सोई। —पलटू०, भा० २, पृ० ७६। यौ० —कपड़ा लत्ता=पहनने का वस्त्र। मुहा०—लत्ते लेना=आड़े हात लेना। व्यग्य द्वारा उपहास करना। वनाना। लत्ते उड़ाना=धजियाँ उड़ाना। बकिया उधेड़ना। पोल खोलना। उ०— भली भाति निर्णय किया और उसके भली प्रकार लत्ते उड़ाए हैं। कबीर मं०, पृ० ३८१।

लत्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोधा। गोइ।

लत्ती (१)
संज्ञा स्त्री० [देशी लत्तिया, हिं० लात] १. प्रहार के लिये उठाया या चलाया हुआ घोडे़, गदहे आदि का पैर। पशुओं का पादप्रहार। लात। २. लात मारने की क्रिया। उ०— कोऊ लरत लत्ती चलावत कोउ कोई मारती। — प्रेंमघन०, भा० १, पृ० ११३। क्रि० प्र०—चलाना।—फटकारना।—मारना। यो०—दुलत्ती=घोडे़, गधे आदि जानवरों का अपने पिछले दोनों पैरों से किसी पर प्रहार करना।

लत्ती (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लत्ता] १. कपड़े की लंबी धजी। २. बाँस में बंधी हुई कपडे़ की धजी जिसे ऊँचा करके कबूतर उडा़ते हैं। २. पतंग की दुम अर्थात् नीचे बंदी हुई कपड़े की लंबी धजी। पुछिल्ला। ३. किसी ओर झुकती या कन्नी काती हुआ पतंग कोठीक रखने के लिये उसके विपरीत ओर की कमाची में बाँधने का लत्ता या धज्जी। क्रि० प्र०—बाँधना।—लगाना।

लथपथ
वि० [अनु०] १. जो भींगकर भारी हो गया हो। भीगा हुआ। तरावोर। जैसे,— (क) वह पानी में लथपथ हो गया। (ख) काम करते करते पसीने से लथपथ हो गए। २. (कीचड़ आदि में) सना हुआ। जो कीचड़ आदि के लगने से भारी हो गया हो। जैसे,—वह कीचड़ में फिसलकर फिर लथपथ दौड़ा।

लथाड़
संज्ञा स्त्री० [अनु० लथपथ] १. जमीन पर पटककर इधर उधर लोटाने या घसीटने की क्रिया। चपेट। जैसे,—ऐसी लथाड़ दी कि होश ठिकाने हो गए। २. हार। पराजय। ३. डाँटडपट। झिड़की। फटकार। ४. नुकसान। हानि। क्रि० प्र०—देना। मुहा०—लथाड़ खाना=झिडका जाना। डाँटा जाना। घुड़की सुनना। लथाड़ पड़ना=डाँटा जाना। झिड़की सुनाई जाना। जैले, —आज उसपर खूव लथाड़ पड़ी।

लथाड़ना
क्रि० स० [अनु० लथाड़] १. दे० 'लथेड़ना'। २. दे० 'लताड़ना'।

लथेड़ना, लथेरना पु †
क्रि० स० [अनु० लथपथ] १. कीचड़ आदि से लपेटना। कीचड़ आदि पोतकर भारी करना। जैसे,— दुपट्टे को क्यों कीचड़ में लथेड़ रहे हो। २. मिट्टी, कीचड़ आदि लिपटाकर गंदा करना। जैसे,— कल ही कुरता पहना, आज ही मिट्टी में लथेड़ डाला। ३. जमीन पर पटककर इधर उधर लोटाना या घसीटना। उ०— हरि तेहि गहि महि माहि लथेरा।— गोपाल (शब्द०)। संयो० क्रि०—डालना। ४. कुश्ती या लड़ाई में पछाड़ना। पटकना। हराना। ५. श्रम से शिथिल करना। हैरान करना। थकाना। ६. बातों या गालियों की बौछाड़ से व्याकुल करना। भर्त्सना करना। झिड़किय, सुनाना। भला वुरा कहना। डाँटना। डपटना।

लदन
संज्ञा स्त्री० [हिं० लदना] लदाव।

लदना † (१)
वि० [हिं०] लदी वस्तु को ढोनेवाला। वोझा ढोनेवाला। लद्दू।

लदना (२)
क्रि० अ० [अनुकरणात्मक देश०] भाराक्रांत होना। भारयुक्त होना। बोझ ऊपर लेना। बोझ से भरना। ऊपर पड़ी हुई वस्तुओं के ढेर से भरना। जैसे,— (क) मेज किताबो से लदी हुई है। (ख) गाड़ी असवाव से लदी हुई आ रही है। संयो० क्रि०—जाना। २. किसी वस्तु का किसी वस्तु के समूह से ऊपर ऊपर भर जाना। आच्छादित होना। पूर्ण होना। जैसे,— (क) यह पेड़ फलों या फूलों से लदा है। (ख) वह स्त्री गहनों से लदी है। ३. सामान ढ़ोनेवाली सवारी (जैसे, गाड़ी घोड़ा, बैल, ऊँट) का वस्तुप्रों से पूर्ण होना। बोझ से भर जाना या भरा जाना। जैसे,— गाड़ी लद रही है। ४. किसी भारी या वजनी चीज का दूसरी चीज के ऊपर होना या रखा जाना। किसी वस्तु के ऊपर बोझ के रुप में पड़ना या रखा जाना। जैसे,— (क) तुम उसकी पीट पर लद जाओ। (ख) मेज पर किताबें लदी हुई हैं। ५. सामान ढोनेवाली सवारी पर वस्तुओं का रखा जाना। बोझ का डाला या रखा जाना। जैसे,— गाड़ी पर उनका असबाब लद रहा है। ६. जेलखाने जाना। कैद होना। जैसे,— वह सात वरस के लिये लद गया। ७. परलोक सिधारना। मर जाना। जैसे,— आज वे भी लद गए। ८. समाप्त होना। खत्म होना।

लदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लदना] १. व्यापार। कारबार। २. लदन। लदाव। जैसे, लदनी लादना। उ०— करै पाप पुन्न की लदनी जग ख्याल हो जग ख्याल हो। — भीखा० श०,पृ० ८३।

लदलद
क्रि० वि० [अनु०] किसी गीली और गाढ़ी या जमी हुई वस्तु के गिरने के शब्द का अनुकरण जैसे,— भीगी मिट्टी ऊपर से लद लद गिर रही है।

लदवाना
क्रि० स० [हिं० लादना का प्रे० रुप] लादने का काम दूसरे से कराना। उ०— पाँच सहस इक सौ रथ आए। सहस निसान तोप लदवाए। —सबल (शब्द०)।

लदाउ, लदाऊ पु †
वि० [हिं० लदना (=भरना)] लदाव। भराव। उ०— रेणुका की रासन में कीच कुस कासन में निकट निवासन में आसन लदाऊ के। पद्याकर (शब्द०)।

लदान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] लादने की क्रिया। लदाव। लदन।

लदाना
क्रि० स० [हिं० लादना का प्रेर० रुप] लादने का काम दूसरे से कराना। दे० 'लदवाना'। संयो० क्रि०—देना।—लेना।

लदाफँदा
वि० [हिं० लदना+फँदना] भारपूर्ण। बोझ से भरा या लदा हुआ।

लदाव
संज्ञा पुं० [हिं० लादना] १. लादने की क्रिया या भाव। २. भार। बोझ। ३. चत आदि का पटाव। ४. इँटों की जोड़ाई जो बिना धरन या कड़ी के अधर में टहरी हो। कड़े की जोड़ाई। जैसे— लदाव की छत। ५. वह छत या महराव जिसमें इँटों की जोड़ाई बिना धरन या कड़ी के सहारे अधर में ठहरी हो।

लटुवा
वि० [हिं० लादना उवा (प्रत्य०)] बोज ढोनेवाला। पीठ पर बोझ लेकर चलनेवाला। जैसे— लटुवा घोड़ा; लदुआ बैल।

लंदूषक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी [को०]।

लददू
वि० [हिं० लादना] बोझ ढोनेवाला। लदुवा। जैसे— लददू घोड़ा।

लद्धड़
वि० [हिं० लदना (=भारी होना)] जिसमें तेजी और फुरती न हो। सुस्त। काहिल। आलसी। जैसे,— लद्धड़ आदमी, लद्दड़ घोड़ा।

लद्धड़पन
संज्ञा पुं० [हि० लद्धड़+पन (प्रत्य०)] काहिली। सुस्ती ढिलाई।

लद्धना पु
क्रि० स० [सं० लब्ब, प्रा० लद्ध (=प्राप्त)] प्राप्त करना। हासिल करना। मिलना। पाना। भेंटना। उ०— चीठर जमिया चून का बैरी बिरहा खद्ध। बीछुरिया सो साजना बेद न काहू लद्ध। —कबीर (शब्द०)।

लनटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पौधा या घास जिसका साग बनाकर खाया जाता है।

लता
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक पेड़ जिससे पंजाब में सज्जी निकाली जाती है। इसका एक भेद 'गोरानला' है। २. शोरा।

लती
संज्ञा स्त्री० [देश०] पान की बारी में की क्यारी।

लनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पंजाब में होनेवाला एक पेड़ जिससे सज्जी निकाली जाती है। छोटी जाति का 'लना' नाम का पेड़।

लप (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास, जिसे 'सुरारी' भी कहते हैं।

लप (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु० ] १. बेंत या लचीली छड़ी को पकड़कर हिलाने से उत्पन्न शब्द या व्यापार। २. छुरी, तलवार आदि की चमक की गति। मुहा०—लप लप करना =(१) बेत या लचीली छड़ी आदि का पकड़कर जोर से हिलाए जाने से शब्द करना। (२) झलकना। चमाचम करना। लप से=लौ या लपट की तरह तेजी से। झट से।

लप
संज्ञा पुं० [देश०] १. दोनों हथेलियों को मिलाकर बनाया हुआ संपुट जिसमें कोई वस्तु भरी जा सके। अंजली। जैसे,—लप भर आटा। २. अंजली भर वस्तु। जैसे,— लप भर निकालकर देना।

लपक
संज्ञा स्त्री० [अनु० लप] १. ज्वाला। लपट। लौ। अग्नि- शिखा। २. चमक। कांति। लपलपाहट। जैसे,— बिजली को लपक से आँखें चौंधिया गई। ३. लौ या लपट की तरह निकलने या चलने की तेजी। वेग। ४. चलने का वेग। झपर। फुरती।

लपकना
क्रि० अ० [हिं० लपक] १. चटपट या तेजी से चल पड़ना। तुरंत दौड़ पड़ना। जैसे,— उसने लपककर भागते हुए चोर को पकड़ लिया। २. वेग से गमन करना। तेजी से जाना या चलना। जैसे,— वह उसी और लपका चला जा रहा है। मुहा०—लपक कर=(१) तुरंत तेजी से जाकर। (२) तुरंत। झट से। जैसे,— लपककर तुम्हीं चले जाओ; लेते आओ। उ०— ताही समय उठे घन घोर दामिनी सी धाय उर लागी जाय स्याम घन सों लपकि कै। — केशव (शब्द०)। ३. आक्रमण के लिये दौड़ पड़ना। झपटना। जैसे,— शेर उसकी ओर लपका। ४. कोई वस्तु लेने के लिये झट से हाथ बढ़ाना। जैसे,— तुम सभी चीजे लेने के लिये लपकते हो।

लपकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लपकना] एक प्रकार की सीधी सिलाई।

लपचा
संज्ञा पुं० [देश०] सिकिम के पहाड़ों की एक जंगली जाती।

लपझप
वि० [अनु लप+हिं० झपट] १. चंचल। चपल। स्थिर न रहनेवाला। २. चुपचाप। न बैठनेवाला। अधीर। जैसे,— बाप चुपुचप, पूत लपझप। ३. तेज। फरतीला। मुहा०—लपझप चाल=बेढगी चाल। चपलता की चाल।

लपझप (२)
संज्ञा स्त्री० १. चंचलता। चपलता। २. तेजी। तीव्रता। ३. सुकुमारता। कौमलता ४. एक प्रेम व्यजक चेष्टा।

लपट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लोक, हिं० लौ+पट (=विस्तार)] १. आग के दहकने से उठा हुआ जलती वायु का स्तूप। अग्नि- शिखा। ज्वाला। आग की लौ। उ०— इंद्रजाल कदर्प को कहै कहा मतिराम। आगि लपट वर्षा करै ताप घरै घनस्याम। — मैंतराम (शब्द०)। २. तपी हुई वायु। हवा म फली हुइ गरमी। आँच। क्रि० प्र०—आना। लगना । ३. किसी प्रकार का गंध से भरा हुआ वायु का झोका। जैसे,— क्या अच्छी गुलाब की लपट आ रही है। ४. गंध। महक। झझंक। बू। उ०— सूरदास प्रभू को बानक देखे गोपा टारे न टरत निपट आवै सोंधें की लपट।—सूर (शब्द०)।

लपट † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लिपटना ] दे० 'लिपट'।

लिपटना †
क्रि० अ० [सं० लिप्त+हिं० ना (प्रत्य०)] १. अंगों से घेरना। लिपटना। चिमटना। आलिंगन करना। २. किसी सूत की सी वस्तु का दूसरी वस्तु के चारों ओर कई फेरों में घेरना। ३. लग जाना। संलग्न होना। सटना। ४. उलझना। फँसना। लिप्त होना। उ०— आइ गयो काल मोहजाल में लपटि रह्यो महा विकराल यमदूत ही दिखाइए। —प्रियादास (शब्द०)। ५. पारवेष्टित होना। घिर जाना। ६. लगा रहना। रत रहना।

लषटा
संज्ञा पुं० [हिं० लपटा सा लपसी] १. गाढ़ी गीली वस्तु। २. लपसी। लेई। ३. कढ़ी। †४. एक प्रकार की घास। लपटौआँ।

लपटाना (१) †
क्रि० स० [हिं० लपटना] १. अंगों से घेरना। लिपटाना। चिमटाना। २. आलिंगन करना। गले लगाना। ३. किसी सूरत की सी वस्तु को कई फेर करके टिकाना या बाँधना। लपेटना। उ०— दरसन आयो राना रुप चतुर्भुज जू के रहे प्रभु पौढ़ि हार सीस लपटायो है। —प्रियादास (शब्द०)। ४. परिवेष्टित करना। घेरना।

लपटाना (२) † पु
क्रि० अ० १. सलग्न होना। सटना। उ०— यह नहिं भली तुम्हारी बानी। मैं गृहकाज रहौं लपटानी। — सूर (शब्द०)। २. उलझना। फँसना।

लपटौआँ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लपटना] एक प्रकार का जंगली तृण जिसकी बाल कपड़े में लिपट या फँस जाती है और कठिनता से छूटती है।

लपटौआँ (१)
वि० १. लिपटनेवाला। चिमटनेवाला। २. सटा या लिपटा हुआ।

लपटौना †
देश० पुं०, वी० [हिं० लपटना] दे० 'लपटौआं'।

लपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुख। मुँह। २. भाषण। कथन। ३. बोलने वा कहने का भाव (को०)।

सपना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० लपन] कहना। बोलना।

लपना (२) †
क्रि० अ० [अनु० लप लप] १. बेंत या लचीली छड़ी का एक छोर पकड़कर जोर से हिलाए जाने से इधर उधर झुकना। झोंके के साथ इधर उधर लचना। २. झुकना। लचना। ३. लपकना। ४. ललचना। उ०— सादन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत। — तुलसी (शब्द०)। ५. हैरान होना। पेरशान होना। मुहा०—लपना झपना=हैरान होना। उ०— साठि बरस जो लपई झपई। छन एक गुपुत जाय जो जपई। — जायसी (शब्द०)।

लपलपाना (१)
क्रि० अ० [अनु० लप लप] १. बेंत यां लचीली छड़ी, टहनी आदि का एक छोर पकड़कर जोर से हिलाए जाने से इधर उधर झुकना। झोंक के साथ इधर उधर लचना या लपना। जैसे— बेत का लपलपाना। २. किसी लबी कोमल वस्तु का इधर उधर हिलना डोलना या किसी वस्तु के अंदर से बार बार निकलता। जैसे,—साँप की जीभ लपलपाती है। मुहा०—जीभ लपलपाना=चखने की इच्छा या लोभ करना। जैसे,— मिठाई खाने के लिये उसकी जीभ लपलपाया करती है। ३. छुरी, तलवार आदि का चमकना। झलकना।

लपलपाना (२)
क्रि० स० १. बेंत या लचीली छड़, टहनी आदि का एक छोर पकड़कर जोर से इधर उधर झुकाना या झोंका देना। झोंक के साथ इधर उधर लचाना। फटकारना। लपाना। जैसे,— मारने के लिये बेंत लपलपाना। २. किसी लंबी नरम चीज को इधर उधर हिलाना ड़ुलाना या किसी वस्तु के अंदर से बार बार निकालना। जैसे,— साँप जीभ लपलपाता है। ३. छुरी, तलवार आदि को निकालकर चमकाना। चमचमाना।

लपलपाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० लपलपाना+आहट (प्रत्य०)] १. लपलपाने की क्रिया या भाव। लचीली छड़ी या टहनी आदि का झोंक के साथ इधर उधर लचकना। एक छोर पकड़कर जोर से हिलाए जाते हुए बेंत आदि का झोंका। २. चमक झलक। जैसे,— तलवारों को तपलपाहट।

लपसी
संज्ञा स्त्री० [सं० लप्सिका] १. भुने हुए आटे में चीनी का शरबत डालकर पकाई हुई बहुत गाढ़ी लेई जो खाई जाती है। थोड़े घी का हलुवा। २. गोली गाढ़ी वस्तु। जैसे,— आज की तरकारी तो लपसी हो गई। ३. पानी में औटाया हुआ आटा जिसमें नमक मिला होता है और जो जेल में कैदियों को दिया जाता है। लपटा।

लपहा
संज्ञा पुं० [देश०] पान का एक रोग। पान की गेरुई।

लपाना
क्रि० स० [अनु० लपलप] १. लचोली छड़ी आदि को झोंक के साथ इधर उधर चलाना। फटकारना। २. नरम लंबी चीज को डुलाना। ३. आगे बढ़ाना।

लपित (१)
वि० [सं०] कहा हुआ। बोला हुआ। कथित।

लपित (२)
संज्ञा पुं० कथन। बोल। आवाज [को०]।

लपिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शाङ्गिका नामक पक्षी की एक जाति।

लपेट
संज्ञा स्त्री० [हिं० लपेटना तुल० सं लिप्त (लेप किया हुआ)] १. लपेटने की क्रिया या भाव। २. किसी सूत, डोरी या कपड़े की सी वस्तु को दुसरी वस्तु की परीधि से लपेटने या बाधने की स्थिति। बंधन का चक्कर। घुमाव। फेरा। जैसे, —कई लपेट बाँधोगे, तब मजबूत होगा। ३. बंधी हुई कठरी में कपड़े की तह की मोड़। उ०— खोलिकै लपेट मध्य संपुट निहारि कौड़ा, समुझि विचारे हारै, मत में न आयो है। — प्रियादास (शब्द०)। ४. ऐंठन। बल। मरोड़। ५. किसी लंबी वस्तु की मोटाई के चारो ओर का विस्तार। घेरा। परिधि। जैसे,— (क) इस खभे की लपटे ३ फुट है। (ख) इस पेड़ के तने की लपेट ५ फुट है। ६. उलझन। फँसाव। जाल या चक्कर। जैसे,— तुम उसकी बातों की लपेट में पड़ गए। उ०— आए इश्क लपेट में लागो चसम चपेट। —रसनिधि (शब्द०)। ७. कुश्ती का एक पेच। विशेष— जब दोनों लड़नेवाले एक दूसरे की बगल से सिर निकालते है और कमर को दोनों हाथों से पकड़कर भीतर अडानी टाँग से लपैटते हैं, तब उसे लपेट कहते हैं। ५. पकड़। बंधन। उ०— बानर भालु लपेटनि मारत तब ह्वै है पछितायो। —(शब्द०)।

लपेटन
संज्ञा स्त्री० [हिं० लपेटना] लपेटने की क्रया या भाव। लपेट। २. फेरा। बल। ३. ऐँठन। मरोड। ४. उलझन। फँसाव।

लपेटन (१)
संज्ञा पुं० १. लपेटनेवाली वस्तु। वह जो चारों ओर सटकर घेर ले। २. वह वस्तु जिसे किसी वस्तु के चारो ओर घुमा घुमाकर बाँधें। ३. वह कपड़ा जिसे किसी वस्तु के चोरों ओर घुमाकर बाँधें। बाँधने का कपड़ा। वेष्टन। वेठन। ४. पैरों में उलझनेवाली वस्तु। जैसे,— रस्सी का टुकड़ा। (पालकी में कहारों का प्रयोग)। उ०— काँट कुराय लपेटन लोटन ठाँवहिं ठाँव बझाऊ रे। — तुलसी (शब्द०)। ५. वह लकड़ी जिसपर जुलाहे बुनकर तैयार कपड़ा लपेटते हैं। तूर। वेलन।

लपेटना
क्रि० स० [सं० लिप्त, हिं० लिपटना] १. किसी सूत, डोरी या कपड़े की सी वस्तु को दूसरी वस्तु के चारों ओर घूमाकर बाँधना। घुमाव या फेरे के साथ चारो ओर फँसाना। चक्कर देकर चारों ओर ले जाना। जैसे,— (क) इस लकड़ी में तार लपेट दो। (ख) छड़ी में कपड़ा लपेटा हुआ है। संयो० क्रि०—देना।—लेना। २. सूत, डोरी या कपड़े की सी वस्तु चारो ओर ले जाकर घेरना। परिवेष्ठित क न। जैसे,— इस डंडें को कपड़ें से लपेट दो। ३. डोरी, सूत या कपड़े की सी फैली हुई वस्तु को तह पर तह मोड़ते या घुमाते हुए सकुचित करना। फैली हुई वस्तु को लच्छे या गट्ठर के रुप में करना। समेटना। जैसे,— (क) कपड़े का थान लपेटकर रख दो। (ख) तागा लपेटकर रख दो। ४.मोड़े हुए कपड़े आदि के अंदर करके बंद करना। कपड़े आदि के अंदर वाँधना। जैसे,— पुस्तक लपेटकर रख दो। ५. हाथ पैर आदि अंगों को चारों ओर सटाकर घेरे में करना। पकड में कर लेना। जैसे,— (क) उसे देखते ही उसने हाथों से लपेट लिया। (ख) अजगर ने शेर को चारों ओर से लपेट लिया। ६. ऐसी स्थिति में करना कि कुछ करने न पावे। गति विधि बंद करना। चारों ओर से चाल रोकना। जैसे,— तुमने तो उसे चारो ओर से ऐसा लपेटा है कि वह कुछ कर ही नहीं सकता। ७. पकड़ में लाना। काबू में करना। रसना। उ०— जिमि करि निकल दलै मृगराजू। लेइ लषेहि लवा जिमि बाजू। — तुलसी (शब्द०)। ८. उलझन में डालना। झंझट में फँसाना। ९. गीली गाढ़ी वस्तु पोतना। लेपन करना। जैसे,—वह बदन में कीचड़ लपेटे आ पुहुँचा। विशेष— यद्य 'लिपटाना' और 'लपेटना' दोनो सकर्मक क्रियाएँ 'लिपटना' ही से बनी हैं, पर दोनों के प्रयोगों मे अंतर है। 'लिपटाना' में संलग्न करने या सटाने का भाव प्रधान है। इसी से 'छाती से लिपटाना', 'वदन में रुई लिपटाना' आदि बोलते हैं। 'लपेटना' में घुमाकर या मोड़कर थेरने का भाव प्रधान है। इसी से 'डोरा लपेटना', 'कपड़ा लपेटना' आदि बोलते हैं।

लपेटनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लपेटना] जुलाहों की लपेटन नाम की लकड़ी। लपेटना। तूर।

लपेटवाँ
वि० [हिं० लपेटना] १. जो लपेटा हो। जिसे लपेट सकें। २. जो लपेटकर बना हो। ३. जिसमें सोने चाँदी के तार लपेटे गए हों। ४. जिसका अर्थ छिपा हो। गूढ़। व्यंग्य। जैसे,— लपेटवाँ गाली। ५. जो सीधे ढंग से न कहा या किया गया हो। घुमाव फिराव का। चक्करदार। जैसे,—लपेटवाँ बात।

लपेटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'लपेट'।

लपेटा ‡ (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] लप्पड़। झापड़।

लपेत
संज्ञा पुं० [सं०] पारस्कर गृह्यमूत्र में कथित बालरोगों के अधिष्ठाता एक देवता।

लपेरा †
संज्ञा पुं० [देश०] लिसोड़ा। लबंरा।

लपोटा †, लप्पड़ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'थप्पड़'।

लप्पा
संज्ञा पुं० [देश०] १. छत में लगी हुई वह लकड़ी जिसमें रेशमी कपड़े बुननेवाले जुलाहों के करघे की रस्सियाँ बँधी रहकती है। २. एक प्रकार का गोटा।

लप्सिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लपसी।

लप्सुद
संज्ञा पुं० [सं०] (बकरे की) दाढी [को०]।

लप्सुदी
वि० [सं०] दाढ़ीवाला (बकरा) [को०]।

लफंगा
वि० [फा़० लफ़ंग] १. लंपट। व्यभिचारी। दुश्चरित्र। २. शोहदा। आवारा। कुमार्गी।

लफ †
संज्ञा स्त्री० [?] दे० 'लय'।

लफटंट
संज्ञा पुं० [अं० लेफ्टिनेट] सेना का एक छोटा अफसर।

लफटंट गवर्नर
संज्ञा पुं० [अं० लेपिटनैंट गवर्नर] किसी प्रांत का शासक। छोटे सूबे का हाकिम।

लफना पु †
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'लपना'। उ०— विलक चिकनई चटक स्योंलफति सटक लौ आय। नारि सलोनी साँवरी नागिन लौं डसि जाय। बिहारी (शब्द०)।

लफलफाना पु †
क्रि० अ० [अनु०] लपलपाना।

लफलफानि पु (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'उपलपाना' या 'लपलापहट' उ०— राधासर तीर द्रुम डारि गहि झूलै फूले देख। सफ लफलफा न गति मति वौरी है। — प्रियादस (शब्द०)।

लफाना पु †
क्रि० स० [अनु० ] दे० 'लफन'।

लफज
संज्ञा पुं० [अ० लफ्ज] १. शब्द। २. वात। बोल।

लफ्जो
वि० [अ० लफ्जी] शब्द संबधी। शब्द का। शाब्दिक [को०]। यौ०—लप्जी माने=शब्दार्थ। शब्द का अर्थ।

लफ्तरा
वि० [अ० लफ्तरह] नाच। अधम। कमीना [को०]।

लफ्फा
संज्ञा स्त्री० [अ० लफ्फा] लौटने या तह करने की क्रिया। मुहा०—लफ्फा मारना=बिना दाँता से अच्छी तरह कूचे हुए खाद्य पदार्थ जल्दी जल्दी निगलना।

लफ्फाज
वि० [अ० लफ़्फा़ज़] वातूनी। बहुत बात करनेवाला। वाचाल [को०]।

लफ्फाजी
संज्ञा स्त्री० [अ० लफ़्फाजी] वाचालता। बातूनीपन। मुखरता [को०]।

लब
संज्ञा पुं० [फा़०] १. ओष्ठ। ओंठ। होंठ। २. तट। कूल। किनारा (को०)। यौ०—लवगीर=तंबाकू पीने की नली या पाइप। लबचरा। लवजदा=(१) 'लववंद'। (२) बातें करने या बोलने वाला। लब बंद =(१) चुप। खामश। (२) बहुत मीठी वस्तु। लवे सड़क=पथ के किनारे। लबरेज।

लवगुरानया
संज्ञा स्त्री० [देश०] गहरे वैगनी रंग के रतालू की लता जो भारतवर्ष में कई जगह वोई जाती है। इसकी जड़ खाई जाती है।

लवचरा
संज्ञा पुं० [फ़ं०] दोस्तों के बीच में रखा मेवा, दाना, चना आदि जिसे बातें करते हुए लोग खाते रहेत हैं [को०]।

लबझना पु †
क्रि० अ० [देश०] उलझना। फँसना। उ०— लबझी अंग तरग वहु, सरिता रंग अनूप। नव पकज अंकुर जहाँ, धरत प्रवाल स्वरुप। — गुमान (शब्द०)।

लवड़ धोंधों
संज्ञा स्त्री० [हिं० अनुकरणात्मक] १. निरर्थक या झूठ मूठ का हल्ला। व्यर्थ का गुल गपाड़ा। क्रि० प्र०—करना।—मचना।मचाना। २. क्रम और व्यवस्था का अभाव। गड़वड़ी। अंधेर। बदहंतजामी। कुव्यवस्था। ३. अन्याय। अनीति। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना। ४. बातों का भुलावा। असल वात को टालने के लिये बकवादऔर कहासुनी। बैईमानी की चाल। जैसे, यहाँ तुम्हारी यह लवड़धोंधों न चलेगी। क्रि० प्र०—करना। मुहा०—लपडधोंधों चलना=वेईमानी की चाल सफल होना।

लबड़ना पु †
क्री० अ० [सं लप=बकना] १झुठ बोलना। लवारी करना। २. गप हाँकना।

लबड़ा †
वि० [सं० लपन] दे० 'लबरा'।

लबदा
संज्ञा पुं० [सं० लगुड] मोटा वेडौल डंडा।

लबदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लबदा] छोटी छड़ी। पतली छड़ी। हलको लाठी।

लबनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. मिट्टी को लंबी हाँड़ी या मटकी जो ताड़ के पेडों में बाँध दी जाती है और जिसमें ताड़ी इकट्ठी होती है। २. काठ की लंबी डाँडी लगा हुआ कटोरा जिससे कड़ाह मे से शोरा निकालते हैं। डोई। डौवा।

लबरा †
वि० [सं० लपन (=बोलना)] [वि० स्त्री० लबरी] १. झूठ बोलनेवाला। उ०— अथवा मुडाय जोगी कपड़ा रँगोलै गोता बांध के होइ गैले लबरा। —क० वचनावली, पृ० २४३। २. गप हाँक वाला। गप्पी। उ०— आप सभा मँह सत्य जू सहित लालची और लवरान की लवरा। — रघुराज (शब्द०)। ३. † वायाँ। बाई ओर का। बाम।

लबरी (१)
वि० स्त्री० [हिं० लबरा] झूठ बोलनेवाली। गप्पी। झूठी।

लबरो (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'लबड़ी'।

लबरेज
वि० [फा़० लबरेज़] ऊपर तक भरा हुआ। किनारे तक भरा हुआ। मुहाँमुँह। लवालव [को०]।

लबलवी
संज्ञा स्त्री० [फा़० लब] बंदूक के घोड़े की कमानी।

लबलहका †
वि० [हिं० लपना+लहकना] [वि० स्त्री० लबलहकी] १. किसी वस्तु को देखते ही उसको ओर लपकनेवाला। अधीर और लालची। २. बिना प्रयोजन सब वस्तुओं को हाथ लगानेवाला। चंचल। चपल।

लबाचा
संज्ञा पुं० [फा़० लवाचह्] कुतें आदि के ऊपर पहनने का एक विशेष पहनावा। लबादा। विशेष दे० 'अबा' [को०]।

लबाद
संज्ञा पुं० [फा़०] वरसाती कोट [को०]।

लबादा
संज्ञा पुं० [फा़० लवादह्] १. रुईदार चोगा। दगला। २. वह लवा ढोला पहनावा जो अँगरखे आदि के ऊपर से पहन लिया जाता है और जिसका सामना प्रायः खुला होता है। अबा। चोगा।

लबान
संज्ञा पुं० [फा़०] १. वक्ष। सीना। छाती। २. लोबान [को०]।

लबाव (१)
वि० [अ० लुआव] चेप। लस। लुआव।

लवाव (२)
संज्ञा पुं० [अ० लुवाब] १. सारांश। खुलासा। सार तत्व। २. गूदा। मग्ज। तत्व [को०]।

लबार †
वि० [सं० लपन(=वकन+आर (प्रत्य०)] १. झूठा। मिथ्या- वादी। २. गप्पी। प्रपंची। उ०— (क) आजु गए औरहि काहू के रिस पावति कहि वड़े लवार। —सूर (शब्द०)। (ख) तौलों लोल लोलुप ललात लालची लबर बार बार लालच धरनि धन धाम को। —तुलसी (शब्द०)। (ग) बालि न कबहुँ गाल अस सारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा। —तुलसी (शब्द०)।

लबारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लवार] झूठ बोलने का काम।

लबारी (२)
वि० १. झूठा। २. चुगुलखोर। उ०— यह पापी अति चोर लबारी। ताहि दीन हम साँसति भारी। विश्राम (शब्द०)।

लबालब
क्रि० वि० [फ़ा] मुँह या किनारे तक। छलकता हुआ। जैसे,— (क) यह तालाब भरा है। (ख) प्याला लबालब भरा है।

लबी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लिपड़ा] ईख का रस जो पकाकर खूब गाढा और दानेदार कर दिया गया हो। राब।

लबूव
संज्ञा पुं० [अं० लुबूब] काम-शक्ति-वर्धक एक पाक [को०]। यौ०— लबूब कबीर, लबूब सगीर=लबूब नाम का पाक।

लबेचू
संज्ञा पुं० [देप०] जैन वैश्यों की एक जाति। लमेचू।

लबेद
संज्ञा पुं० [सं० वेद का अनु०] १. बेद के विरुद्ध रीति, रुढ़ि वचन या प्रसंग। २. लोकाचार और दंतकथा। (बोलचाल)। जैसे,— वेद में यह सब कुछ नहीं हैं; तुम्हारे लबेद में हों, तो हों।

लबेदा
संज्ञा पुं० [सं० लगुड] [स्त्री० अल्पा० लबेदी] मोटा बड़ा डंडा।

लबेदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लबेदा] १. छोटा डंडा। लाठी। २. डंडे का बल। जबरदस्ती।

लबेरा
संज्ञा पुं० [देश०] लसोड़े का पेड़ या फल। लपेरा।

लब्ध
वि० [सं०] १. मिला हुआ। पाया हुआ। प्राप्त। २. उपर्जित। कमाया हुआ। ३. भाग करने से आया हुआ फल। (गणित)।

लब्ध
संज्ञा पुं० स्मृति के अनुसार दस प्रकार के दासों में से एक।

लब्धक
वि० [सं०] १. प्राप्त। उपलब्ध। मिला हुआ (को०)। २. पाने वाला। लब्ध करनेवाला।

लब्धकाम
वि० [सं०] जिसकी कामना सिद्ध हो गई हो। जिसका मनोरथ सफल हो गया हो। जिसका मतलब हासिल हो गया हो।

लब्धकीर्ति
वि० [सं० लब्धकीर्ति] १. जिसने कीर्ति पाई हो। जिसने यश प्राप्त किया हो। २. विख्यात। प्रसिद्ध। नामवर।

लब्धचेता
वि० [सं० लब्धचेतस्] जिसकी चेतना लौट आई हो। जिसकी बेहोशी दूर हो गई हो [को०]।

लब्धजन्मा
वि० [सं० लब्धजन्मन्] जन्मा हुआ। उत्पादित [को०]।

लब्धतीर्थ
वि० [सं०] जिसने कोई अवसर प्राप्त किया हो लब्धावसर [को०]।

लब्धदास
संज्ञा पुं० [सं०] वह दास जो दूसरे सके मिला हो।

लब्धनाम
वि० [सं० लब्धनामन्] जिसने नाम पाया हो। नामवर। प्रसिद्ध।

लब्धनाश
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राप्त वस्तु का नष्ट हो जाना। २. उपार्जन का विनाश [को०]।

लब्धप्रणाश
संज्ञा पुं० [सं०] पंचतंत्र का एक तंत्र जिसमें प्राप्त का नाश दिखाया गया है।

लब्धप्रतिष्ठ
वि० [सं०] जिसने प्रतिष्ठा पाई हो। प्रतिष्ठित। संमानित।

लब्धप्रत्यय
वि० [सं०] जिसने विश्वास प्राप्त किया हो। विश्वास- भाजन। विश्वसनीय [को०]।

लब्धप्रशमन
संज्ञा पुं० [सं०] मनुस्मृति के अनुसार मिले हुए धन आदि का सत्पात्र को दान। (मनु०)।

लव्धप्रसर
वि० [सं०] स्वच्छंद। अवाधित [ को०]।

लब्धलक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. जिसका वार ठीक निशाने पर जा लगे। २. जिसे अभिप्रेत वस्तु मिल गई हो।

लव्धलक्षण
वि० [सं०] दे० 'लब्धावसर' [को०]।

लव्धलक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लब्धलक्षण'।

लब्धवर
वि० [सं०] जिसने वर प्राप्त किया हो।

लब्धवर्ण
वि० [सं०] विद्वान्। पंडित।

लब्धविद्य
वि० [सं०] विद्वान्। शिक्षित। प्राज्ञ। [को०]।

लब्धव्य
वि० [सं०] प्राप्य। पाने के योग्य [को०]।

लब्धशब्द
वि० [सं०] विख्यात। प्रसिद्ध[ को०]।

लब्धश्रुत
वि० [सं०] विद्वान्। निष्णात। बहुश्रुत [को०]।

लब्धसंज्ञ
वि० [सं०] दे० 'लब्धचेता'।

लब्धसिद्धि
वि० [सं०] जिसने पूर्णता प्राप्त की हो। दे० 'लब्ध काम' [को०]।

लब्धांक
संज्ञा पुं० [सं० लब्धाङ्क] गणित करने पर जो अक प्राप्त हो। जवाब।

लब्धांतर
वि० [सं० लब्धान्तर] दे० 'लब्धावकाश'।

लब्धा (२)
वि० [सं० लब्धृ] लब्ध करनेवाला। प्राप्त करनेवाला [को०]।

लब्धा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] विर्पलब्धा नायिका।

लब्धातिशय
वि० [सं०] जिसे असाधारण शक्ति प्राप्रत हुई हो।

लव्धानुज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. जिसने आज्ञा पा ली हो। २. जो उपन्यन में गृहीत ब्रह्मचारी के कर्तव्यों से मुक्त हो [को०]।

लव्धांवकाश
वि० [सं०] जिसने कोई अवसर प्राप्त किया हो। जिसे (कार्य का) क्षेत्र या, अवसर मिला हो [को०]।

लब्धावसर
वि० [सं०] दे० 'लब्धावकाश'।

लब्ध स्पद
वि० [सं०] कोई सहारा या पद प्राप्त करने योग्य।

लब्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राप्ति। लाभ। २. हिसाब का जवाब। गणित का लब्धांक। भागफल।

लव्धोदय
वि० [सं०] १. जन्मा या उगा हुआ। २. समृद्ध। उन्नतिप्राप्त [को०]।

लभधर †
संज्ञा पुं० [देश०] कुदाल के मुँह पर का टेढ़ा भाग।

लभन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० लभ्य, लब्ध] १. प्राप्त करना। हासिल करना। पाना। २. गर्भ धारण करना। गर्भवती होना (को०)।

लभनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'लबनी'।

लभस
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़ा बाँधने की रस्सी। पिछाड़ी। २. धन। ३. याचक। माँगनेवाला।

लभ्य
वि० [सं०] १. पाने योग्य। जो मिल सके। १. न्याययुक्त। उचित। मुनासिब।

लम
प्रत्य० [हिं० लंबा] लंबा का संक्षिप्त रूप जो प्रायः यौगिक शब्दों के आरंभ में लगाया जाता है। जैसे,—लमतडंग।

लमई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] मधुमक्खी का एक भेद। जिसे 'क्ठयाल' भी कहते हैं।

लमक
सज्ञा पुं० [सं०] १. जार। उपपति। २. लंपट। विलासी।

लमकना †
क्रि० अ० [हिं० लपकना] १. लपकना। २. उत्कठित होना। उ०—सजि ब्रजबाल नंदलाल सों मिलै के लिये, लगनि लगालगी में लमकि लमकि उठै।—पद्माकर (शब्द०)। ‡३. धीमे (वायु) चलना। शनैः शनैः चलना।

लमगला
संज्ञा पुं० [देश०] इकतारा। ठिठवा।

लमगिरदी
संज्ञा पुं० [हिं० लंबा+फा० गिर्द] लोहे की दानेदार मोटी रेती जिसके दाने कटहल के छिलके के दानों के सदृश होते हैं। यह रेती नारियल के छिलके (खोपड़ी) को रेतने के काम में आती है।

लमगोड़ा †
वि० [हिं० लंबा+गोड़] जिसकी टांगें लंबी हों।

लमघिचा
वि० [हिं० लंबा+घींच या घैंचा (=गर्दन)] लंबी गर्दनवाला।

लमचा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बरसाती घास जो काली चिकनी मिट्टी की जमीन में बहुत पाई जाती है।

लमछड़
संज्ञा पुं० [हिं० लंबा+छड़] १. साँग। बरछी। भाला। २. कबूतरबाजों की लग्गी। ३. पुरानी चाल की लंबी बदूक।

लमछड़ (२)
वि० पतला और लंबा।

लमछुआ
वि० [हिं० लंबा+छूआ] दे० 'लंबोतरा'।

लमजक
संज्ञा पुं० [सं० लामज्जक] कुश के तरह की एक घास जिसमें सुंदर महक होती है। इसे 'ज्वरांकुश' भी कहते है और ज्वर में औपध के रूप में देते हैं। लामज।

लमज्जुक
संज्ञा पुं० [सं० लामज्जक] दे० 'लमजक'।

लमटगा (१)
वि० [हि० लंबा+टाँग] [वि० स्त्री० लमटंगी] जिसकी टाँगें लंबी हों।

लमटंगा (२)
संज्ञा पुं० सारस पक्षी।

लमढींग †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली जानवर।

लमतड़ंग
वि० [हिं० लंबा+ताड़+अंग] [वि० स्त्री० लमतड़ंगी] बहुत लंबा या ऊँचा। जैसे,—लमतड़गा आदमी।

लमधी †
संज्ञा पुं० [देश०] समधी का वाप। उ०—समधी के घर लमधी आयो आयो बहू कौ भाई।—कबीर (शब्द०)।

लमहा
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'लहमा'।

लमाना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० लंबा+ना (प्रत्य०)] १. लंबा करना। २. दूर तक आगे बढ़ाना। उ०—कैधों दसकंधर की मीचु मँडराति व्योम कैधों महाकाल कोपि रसना लमाई है।—रघुराज (शब्द०)।

लमाना (२)
क्रि० अ० दूर निकल जाना। चलने में बहुत दूर बढ़ जाना।

लय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में मिलना या घुसना। प्रवेश। २. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में इस प्रकार मिलना कि वह तद्रूप हो जाय उसकी सत्ता पृथक् न रह जाय। विलीन होना। लीनता। मग्नता। ३. चित्त की वृत्तियों का सब ओर से हटकर एक ओर प्रवृत्त होना। ध्यान में डूबना। एकग्रता। ४. लगना। गूढ़ अनुराग। प्रेम। उ०—मन ते सकल वासना भागी। केबल राम चरण लय लागी (शब्द०)। क्रि० प्र०—लगना। ५. कार्य का अपने कारण में समाविष्ट होना या फिर कारण के रूप में परिणत हो जाना। ६. सृष्टि के नाना रूपों का लोप होकर अव्यक्त प्रकृति मात्र रह जाना। प्रकृति का विरूप परिणाम। जगत् का नाश। प्रलय। उ०—जो संभव, पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला वपु धारिनि।—तुलसी (शब्द०)। ७. विनाश। लोप। उ०—गो वहेउ हरि बैकुंठ सिधारे। शमदम उनहौं संग पधारे। तप तंतोष दया अरु गयो। जान यमादि सबै लय भयो।—सूर०, १। २९०। ८. मिल जाना। सश्लेष। ९. संगीत में नृत्य, गीत वाद्य की समता। नाच, गाने और बाजे का मेल। विशेष—यह समता नाचनेवाले के हाथ, पैर, गले और सुँह से प्रकट होती है। संगीत दामोदर में हृदय, कंठ और कपाल लय के स्थान माने गए हैं। कुछ आचार्यो ने लय के द्विपदी, लतिका और झल्लिका इत्यादि अनेक भेद माने हैं। १०. स्थिरता। विश्राम। ११. मूर्छा। बेहीशी। १२. ईश्वर। ब्रह्म। परमेश्वर (को०)। १३. आलिंगन (को०)। १४. वाण का नीचे की ओर तीव्र गमन (को०)। वह समय जो किसी स्वर को निकालने में लगता है। विशेष यह तीन प्रकार का माना गया है। द्रुत, मध्य और विलंबित। १६. एक प्रकार का पाटा जिससे वैदिक काल में खेत जोतकर उसकी मिट्टी को सम या बराबर करते थे। इसका उल्लेख शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेय संहिता में है।

लय (२)
संज्ञा स्त्री० १. गाने का स्वर। गाने में स्वर निकालने का ढंग। जैसे,—वह बड़ी सुंदर लय से गाता है। २. गीत गाने का ढंग या तर्ज। धुन। मुहा०—लय देखता=ठीक लय में गाना। ३. संगीत में सम।

लयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्राम। लय। शांति। २. आश्रय। विश्रामस्थान। ३. आश्रयग्रहण। आड़ लेना। पनाह लेना।

लयनालक
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध वा जैन संप्रदाय का मंदिर [को०]।

लयपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] नटी। अभिनेत्री [को०]।

लयारंभ
संज्ञा पुं० [सं० लयारभ्भ] अभिनेता। नर्तक [को०]।

लयार्क
संज्ञा पुं० [सं०] प्रलयकालीन सूर्य [को०]।

लयालंभ
संज्ञा पुं० [सं० लयालम्भ] नट। अभिनेता [को०]।

लर पु †
संज्ञा स्त्री० [प्रा० लठ्ठि] दे० 'लड़'। उ०—नंद के लाल होउ मनं मोर। हौं बैठि पोवत मोतियन लर काँकर डारि चले सखि भोर।—सूर (शब्द०)।

लरकई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'लड़काई' या 'लरिकाई' उ०— जदपि हते जोत्न नवल मधुर लरकई चारु। पै उत चतुराई अधिक प्रगटन रस व्यवहार।—हरिश्चंद्र (शब्द०)।

लरकनी पु †
क्रि० अ० [सं० लड़न (=झूलना)] १. लटकना। उ०—चोटी गुही मोती अमल, तिन जानु लौ लर लरकती। मनु शरद वारिद की घटा जल विंदु अवली ढरकती।—रघुराज (शब्द०)। २. झुकना। ३. खिसककर नीचे आना। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना।

लरका पु
संज्ञा पुं० [हिं० लड़का] दे० 'लड़का'।

लरकाना पु †
क्रि० स० [हिं० लरकना] १. लटकाना। २. झुकाना। ३. नीचे खिसकाना।

लरकिनी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़की] दे० 'लड़की'। उ०— बधू लरकिनी पर घर आई। राखेहु नयन पलक की नाईं।— तुलसी (शब्द०)।

लरखरना पु †
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'लरखराना' वा 'लड- खड़ाना'। उ०—दिग्गयंद लरखरत परत दसकठ मुक्ख भर।— तुलसी (शब्द०)।

लरखरनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लरखराना] १. लड़खड़ाने की क्रिया या भाव। डगड्गाहट। २. चलने या खड़े होने में पैर न जमने का भाव। उ०—(क) हरिजू को बाल छवि कहों बरनि। सकल सुख की सीव कोटि मनोज सोभा हर न। .... पुण्य फल अनुभवत सुनहिं विलोक के र्नंद घरनि। सूर प्रभु की वसी उर किलकनि ललित लरखरनि।—सूर (शब्द०)।

लरखराना
क्रि० अ० [हिं०] १. झोंका खाना। डगमगाना। डिगना। उ०—(क) धनि जसुमति बड़ भागिनी लिए स्याम खेलाबै।....लरखरात गिरि परत है चलि घुटुरुवनि धावै।— सूर (शब्द०)। (ख) रघुनाथ दौरत में दामिनी सी लसति है, गिरते है, फेरि उठि दौरति है लरखराति।—रघुनाथ (शब्द०)। (ग) बेचते लरखराते पैरों से। प्रेमघन०, भा० २, पृ० १४३। २. डगमगाकर गिरना। उ०—गंजेउ सो गरजेउघोर। धुनि सुनि भूमि भूधर लरखरे।—तुलसी (शब्द०)। ३. दे० 'लड़खड़ाना'—३।

लरजना
क्रि० अ० [फा० लरजा (=कंप)] १. काँपना। हिलना। उ०—(क) पात बिनु कीन्हें ऐसी भाँति गन वेलिन के, परत न चीन्हें जे ये लरजत लुंज हैं।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) चंचला चमाकै चहुँ ओरन ते चाह भरी, चरज गई ती फेर चरजन लागी री। कहै पद्माकर लवंगन की लोनी लता, लरज गई ती फेर लरजन लागी री।—पद्माकर (शब्द०)। संयो क्रि०—उठना।—जाना। २. भयभीत होना। दहल जाना। डरना। उ०—(क) शरण राखि ले हो नंदताता। घटा आई गरजि, युवति गई मन लरजि, बीजु चमकति तरजि, डरत गाता।—सूर (शब्द०)। (ख) लाजन हौं लरजों गहिरी बरजों गहिरी कहिरी किहि दाइन।—देव (शब्द०)। क्रि० प्र०—उठना।—जाना।—पड़ना।

लरजाँ
वि० [फा० लरजाँ] काँपनेवाला [को०]।

लरजा
संज्ञा पुं० [फा० लरजह्] १. कप। कँपकँपी। थरथराहट। २. भूकंप। भूचाल। ३. एक प्रकार का ज्वर जिसमें रोगी का शरीर ज्वर आते ही काँपने लगता है। जूड़ी।

लरजिश
संज्ञा स्त्री० [फा० लरजिश] काँपने या थरथराने का भाव। कँपकँपी [को०]।

लरझर पु ‡
वि० [हि० लड़+झड़ना] बरसता हुआ। बहुत अधिक परिमाण में प्राप्त। प्रचुर। उ०—लोचन लेति लगाइ ललकि कै लाल सलोनी। लरझर ललित लुनाई ऐसी भई न होनी।—व्यास (शब्द०)।

लरना
क्रि० अ० [हिं० लड़ना] दे० लड़ना। उ०—भाजि गई लरिकाई मनो लरि कै करि कै दुहु दुंदु भ ओघे। पद्माकर (शब्द०)।

लरनि पु
सज्ञा स्त्री० [हिं० लड़ना] १. युद्ध लड़ाई। उ०—मेरे जिय इहई साच पर् यो। मन के ढग सुनो री सजनी जैसे, मीहिं निदर् यो। आपुनि गयो सग संग लीन्हें प्रयमहिं इहै कर् यो। मो सो बर प्राति करि हर सों ऐसी लरनि लर् यो। ज्यों त्यां नन रहे लपटनि तिनहूँ भेद भर् यो। सुनहु सूर अ नाइ इनहुँ का अब ला रहो डरयो।—सूर (शब्द०)। २. युद्ध करने का ढंग। लड़ने का ढक। उ०— लामी लूम लसत लपेटि पटकत भट, देखा देखो लखन लरनि हनुमान की।—तुलसी (शब्द०)।

लराई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़ना] दे० 'लड़ाई'। उ०—(क) जहँ तहँ परे अनेक लराई। जीते सवल भूप बरिआई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) खजन मैन बीच नासा पुट राजत यह अनुहरि। खंजन युग मानो लरत लर ई कोर बुझावत रार।— सूर (शब्द०)।

लराक पु
वि० [हि० लडना, लरना+आका (प्रत्य०)] दे० 'लड़ाका'। उ०—लरे लराक लाख महँ एका तीर अचूक चलावै।—संत० दरिया, पृ० ११५।

लराका पु०
वि० [हिं०] 'लड़ाका'।

लरिक (१) पु०
संज्ञा पुं० [हिं० लरिका] बचपन। उ०—लटकि लटकि खेलत लरिकाई। लरिक समैं जनु भूषन पाई।—नंद० ग्रं०, पृ० १२०।

लरिक (२)
संज्ञा पुं० [सं० लाल, हिं० लरिका] दे० 'लड़का'। उ०— अवर लरिक की संका पाइ। तासौं ठाढ़ो कितौ लिलाइ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४७।

लरिकई
संज्ञा स्त्री० [हिं० लरिका] १. लड़कपन। बाल्यावस्था। उ०—निरखि नबोढ़ा नारि तस छुटत लरिकई लेस। भो प्यारो प्रीतम तियन मानहुँ चलत बिदेस।—बिहारी (शब्द०)। २. लड़कपन की चाल। लड़कों का व्यवहार। कि० प्र०करना। ३. चपलता। चचलता। उ०—लाल अलौकिक लरिकई लखि लखि सखी सिहाति। आज काल्हि में देखियत उर उकसौहीं भाँति।—बिहारी (शब्द०)।

लरिक सलोरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लरिका+लोल (=चंचल)] लड़को का खेल। खेलवाड़।

लरिका †
संज्ञा पुं० [स्त्री० लरिकिनी] दे० 'लड़का'। उ०— (क) देखि कुठार बान धनुधारी। भई लरिकहिं रिस बीरु बिचारी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) खेलन को मैं जाउँ नहीं। और लरिकनी घर घर खेलति मोंटी को पै कहत तु ही।—सूर (शब्द०)।

लरिकाई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़का+आई (प्रत्य०)] १. लड़कपन। बालपन। बाल्यावस्था। उ०—(क) लरिकाई को नेह कहौ सखि कैसे छूटै।—सूर (शब्द०)। (ख) तात कहहुँ कछु करहुँ ढिठाई। अनुचित छमउ जानि लारकाई।—तुलसी (शब्द०)। (ग) भाजि गई लरिकाई मनौ लरिकै कार कै दुहुँ दुंदुभि औंध।—पद्माकर (शब्द०)। २. लड़कों का व्यवहार या आचरण। ३. चपलता।

लरिकिनि
संज्ञा स्त्री० [हिं० लडका] दे० 'लड़की'। उ०—तब वह लरिकिनि बाके घर में जैन धमँ अनाचार भ्रष्ट देखि कै मन में बोहोत दुख करन लागी।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३८।

लरिया
संज्ञा पुं० [देश०] उपवस्द। दुपटा। दुपट्ट।

लरिकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़की] दे० 'लड़की'। उ०—या लरिकी कौ तुमहीं कहूं आछौ घर, वर देखिकै यहाँ तै दूरि देस में कहूँ याकौ विवाह करि आओ।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० २४३।

लरी
संज्ञा स्त्री० [प्रा० लठ्ठि] दे० 'लड़ी'। उ०—(क) चंपक बरन चरन करि कमलनि दाड़िम दशन लरी। गति मराल अरु बिंव अधर छवि अहि अनूप कवरी। अति करुना रघुनाथ गुसाईं युग भर जात घरी।—सूरदास प्रभु प्रियाप्रेमवस निज महिमा बिसरी—सूर (शब्द०)। (ख) कबिरा मोतिन की लरी हीरन को परगाम। चाँद सुरुज को गम नहीं तहं दरसन पावै दास।—कबीर (शब्द०)।

लर्ज
संज्ञा पुं० [हिं० लरजना] सितार के एक तार का नाम। यह छह, तारों में पाँचवाँ और पीतल का होता है।

ललंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० ललन्तिका] १. नाभि तक लटकती हुई माला या हार। २. गोह।

लल (१)
वि० [सं०] १. विनोदी। क्रीड़ाप्रिय। २. कंपित। हिलता हुआ। लपलपाता हुआ। जैसे, ललजिह्व। ३. इच्छुक। आकांक्षी [को०]।

लल
संज्ञा पुं० [सं० ललम्] १. शाखा। फुनगी। अंकुर। २. वाटिका। उद्यान [को०]।

ललक
संज्ञा स्त्री० [सं० ललन (=लालसा करना)] प्रबल अभि— लाषा। गहरी चाह। उ०—महाराँनी कौशल्यादिक तुम लिखती वारहिं बारा। दुलहिन दुलह देखत केहि दिन लागी ललक अपारा।—रघुराज (शव्द०)।

ललकना
क्रि० अ० [हिं० ललक+ना (प्रत्य०)] १. किसी वस्तु को पाने की गहरी इच्छा करना। लालसा करना। ललचना। उ०—(क) ललकत स्याम, मन ललचात।—सूर (शब्द०)। (ख) ललकत लखि ज्यों कंगाल पातरी सुनाज की।—तुलसी (शव्द०)। २. अभिलाषा से पूर्ण होना। चाह की उमग से भरना। उ०—वलकि बलकि बोलत बचन, ललकि ललकि लपटाति।—(शब्द०)।

ललकीर
संज्ञा स्त्री० [हिं० लड़ना या 'लेले' अनु०+कार] १. युद्ध के लिये उच्च स्वर से आह्वान। लड़ने के लिये तैयार होकर शत्रु या विपक्षी से पुकारकर कहना कि यदि हिम्मत हो, तो आकर लड़। प्रचारण। हाँक। जैसे,—ललकार सुनकर वह सामने आया। २. किसी को किसी पर आक्रमण करने कि लिये पुकारकर उत्साहित करना। लड़ने का बढ़ावा।

ललकारना
क्रि० स० [हिं० ललकार+ना (प्रत्य०)] १. युद्ध के लिये उच्च स्वर से आह्वान करना। लड़ने के लिये तैयार होकर विपक्षी से पुकारकर कहना कि हिम्मत हो, तो आ लड़। प्रचारण। हाँक लगना। जैसे,—युद्ध के लिये सुग्रीव ने बालि को ललकारा। २. किसी पर आक्रमण करने के लिये किसी को पुकारकर उत्साहित करना। लड़ने के लिये उकसाना या बढ़ावा देना। जैसे,—तुम्हारे ललकारने से ही उसकी हिम्मत बढ़ी।

ललचना
क्रि० अ० [हिं० लालच+ना (प्रत्य०)] १. लालच करना। पाने की प्रबल इच्छा करना। प्राप्त करन की अभिलाषा से अधीर होना। २. मोहित होना। आसक्त होना। लुब्ध होना। उय०—मनि मँदिर सब साजू। जहि लखत ललचत सुर- राजू।—रघुराज (शब्द०)। ३. किसी बात की प्रबल इच्छा करना। अभिलाष मे अधीर होना। लालसा करना। उ०—तौ मुख चंद निरीछन को ललचै चख चारु चकोर लला कै।— दीनदयाल (शब्द०)। मुहा०—जी ललचना=मन में पाने की प्रबल इच्छा उत्पन्न होना।

ललचाना (१)
क्रि० सं० [हिं० ललचना] १. किसी के मन में लालच उत्पन्न करना। प्राप्ति की अभिलाषा से अधीर करना। लालसा उत्पन्न करना। २. मोहित करना। लुभाना। उ०—चूनरि चारु चुई सी परै चटकीली हरी अंगिया ललचावै।—पद्माकर (शव्द०)। ४. कोई अच्छी या लुभप्नेवाली वस्तु सामने रखकर किसी के मन में लालच उत्पन्न करना। कोई वस्तु दिखा दिखाकर उसके पाने के लिये अधीर करना। जैसे,— उसे दूर से दिखाकर ललचाना, देना कभी मत। मुहा०—जी या मन ललचाना=मन मोहित करना। मुग्ध करना। लुभाना। उ०—गली में आय, तान मोहिनी सुनाय, मेरो मन ललचाय भरयो कानन में रस है।—(शब्द०)।

ललचाना पु (२)
क्रि० अ० दे० 'ललचना'। उ०—(क) भौंहन चढ़ाय छिनु रहै लखि ललचाय, मुरि मुसुकाय छिन सखी सों लपटि जाय।—रघुनाथ (शब्द०)। (ख) साँझ समै दीप को बिलोकि ललचाय सोऊ लैबे को चहत दोऊ कर को उठावै री।—दीनदयाल (शब्द०)।

ललचौहाँ
वि० [हिं० ललाच+औहाँ(प्रत्य०)] [वि० स्त्री० ललचौहीं] लालच से भरा। ललचाया हुआ। जिससे प्रबल लालसा प्रकट हो। उ०—(क) खरी खरी मुसुकाति है, लखि ललचौहें लाल।—बिहारी (शब्द)। (ख) चितई ललचौहैं चखनि डटि धूँघट पट माहिं।—बिहारी (शब्द०)।

ललछौंहाँ
वि० [हिं० लाली+छूना] लाली लिए हुए। कुछ कुछ लाल। उ०—आः, समद्दष्टि प्रकृति ! बिषरासा आँगन में स्वर्गिक स्मिति भर, फूल उठे ये आड़ू, ललछौहें मुकुलों में सूंदर।—अतिमा, पृ० १५।

ललजिह्व (१)
वि० [सं०] १. जीभ लपलपाता हुआ। २. भयंकर। खूँखार।

ललजिह्व (२)
संज्ञा पुं० १. कुत्ता। २. ऊँट।

ललडिव
संज्ञा पुं० [सं०ललडिम्ब] भौंरा। लकड़ी या धातु का बना हुआ एक प्रकार का खिलौना [को०]। विशेष—यह लट्टू के आकार का होता है। बच्चे इसके बीच की कील में रस्सी लपेटकर इस प्रकार फेंकते हैं जिससे वह देर तक नाचता रहता है।

ललन्
वि० [सं०] १. खेलता हुआ। क्रीड़ारत। २. हिलता डुलता या काँपता हुआ। ४. लपलपाता हुआ। जैसे जीभ [को०]। यौ०—ललज्जिह्व=ललजिह्व। ललङ्किव=ललडिंब।

ललताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लाल] दे० 'लालिमा'। उ०—मुख पर छबि बाढ़ी अधिकाई। गइ पियराइ भई ललताई।—इंद्रा०, पृ० १६४।

ललदंबु
संज्ञा पुं० [सं० ललदम्वु] नीबू का वृक्ष [को०]।

ललदेया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जिसकी फसल अगहन में तैयार होती है।

ललन
संज्ञा पुं० [सं] १. प्यारा बालक। दुलारा लड़का। २. लड़का। बालक। कुमार। ४. नायक के लिये प्यार का शब्द। प्रिय नायक या पति। उ०—(क) ललन चलन की चित धरी, कल न पलन की ओट—बिहारी (शब्द०)। (ख) मानहुँ मुख दिखरावनी दुलिहिनि करि अनुराग। सासु सदन, मन ललनहू, सौतिन दियो सुहाग।—बिहारी (शब्द०)। ४. केले। क्रीड़ा। ५. जीभ को लपलपाना। जीभ लपलप करना या हिलाना डुलाना (को०)। ६. साल। साखू का पेड़। ७. पियार या चिरौंजी का पेड़। प्रियाल।

ललना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। कामिनी। २. जिह्वा। जीभ। ४. एक वर्णवुत्त जिसके प्रत्येक चरण में भगण, मगण और दो सगण होते हैं। उ०—डारत ही सोए सुथरे पलना। चारिउ भैया री सुघरी ललना।—छंदःप्रभाकर (शब्द०)। ४. विला- सिनी यो कामुक औरत। स्वैरिणी (को०)। यौ०—ललनाप्रिय=(१) औ तौ को प्रिय। जो स्त्रियों को प्रिय हो। (२) स्वादु। स्वादिष्ट। ललनावरूथी=औरतो से घिरा हुआ। महिलाओं से आवृत।

ललनाप्रिय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ह्नीवेर नामक गंधद्रव्य। २. कदंव। कदंब का वृक्ष।

ललनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ललना। स्त्री। साधारण स्त्री।

ललना † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नलिनी] वाँस को नली।

ललनी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ललन] ललन का स्त्री० रूप। दे० 'ललन'। उ०—झरि झरि झरोखा झाँकि रही ललनी ललना मुख जोहत है।—संत० दरिया, पृ० ६४।

ललरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० लता] १. कान का नीचे का लटकता हुआ भाग। २. गले के भीतर लटकता मांसपिंड। घाँटी। औवा। लंगर।

ललल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] तुतलाहट। हकलाकर बोलना [को०]।

ललही छठ
संज्ञा स्त्री० [देश०] हलषष्ठी। भाद्ररद कृष्ण पष्ठी जिस दिन स्त्रियाँ देवी का व्रत और पूजन करती है और हल के कर्पण से उत्पन्न अन्न नहीं खातीं।

लाला
संज्ञा पुं० [सं० ललना।हिं० 'लाल' का रूप] [स्त्री० लली] १. प्यारा या दुलारा लड़का। २. लड़का। कुमार। ४. लडके या कुमार के लिये प्यार का शब्द। ४. नायक या पति के लिये प्यार का शब्द। प्रिय नायक या पति। उ०—नैन नचाइ कह्मौ मुसुकाइ लला फिर आइवी खेलन होरी।—पद्माकर (शब्द०)।

ललाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोल+आई (प्रत्य०)] ललिमा। सुर्खी। लाली। उ०—(क) रंगीले नैन में औरी लालई दौरि आई है।—प्रताप (शव्द०)। (ख) लाल ललाई ललितई कलित नई दरसाय।—रामसहाय (शब्द०)।

ललाक
संज्ञा पुं० [सं०] शिश्न। लिंगेंद्रिय।

ललाटंतप (१)
वि० [सं० ललाटन्तप] १. शिर की जलाने या तपानेवाला (सूर्य)। २. अति पीड़ादायक [को०]।

ललाटंतप (२)
संज्ञा पुं० सूर्य [को०]।

ललाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाल। मस्तक। माथा। उ०—नीको लसत ललाट पर टीको जटित जराय। छबिहिं बढ़ाबत रवि मना ससि मंडल में आय।—बिहारी (शद०)। मुहो०—ललाट में लिखा होना=भाग्य में होना। किस्मत में होना। २. भाग्य का लेख। किस्मत का लिखा। जैसे,—जो ललाट में होगा, वही हीगा।

ललाटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाल। २. दे० 'ललाट'। ३. सुंदर मस्तक [को०]।

ललाटतट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ललाटपटल'।

लला पटल
संज्ञा पुं० [सं०] मस्तक का तेल। माये की सतह। उ०—भृकुटि मनोज चाप छबेहारी। तिलक ललाटपटल दुतिकारा।—तुलसी (शब्द०)।

ललाटपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ललाटपटल' [को०]।

ललाटफलक
संज्ञा पुं० [सं०] ललाटपटल।

ललाटरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कपाल का लेख। मस्तक पर ब्रह्मा का किया हुआ चिह्न जिसके अनुसार संसार में प्राणी का सुख या दुःख माना माना जाता है। भाग्यलेख। २. ललाट पर का रेखा। मस्तक पर की लकीर (को०)। ३. सम्तक पर लगाया हुआ रगीन तिलक (को०)।

ललटलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ललाटरेखा' [को०]।

ललाटाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] शिव जिनके तृतीय नेत्र का ललाट पर होता पुराणों म वर्णित है।

ललाटाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गी।

ललाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माथे पर र्बाधने का एक गहना। २. माथे पर का टीका। तिलक।

ललाटूल
वि० [सं०] ऊँचे या सुदर मस्तकवाला [को०]।

ललाट्य
वि० [सं०] ललाट संबंधी। ललाट के याग्य [को०]।

ललानी पु †
क्रि० अ० [सं० ललन (=लालच करना)] किसी वस्तु की पाने की इच्छा से अधीर होना। लोभ करना। ललचता। लालायित होना। जैसे,—तुम सब कुछ खाते हो, फिर भी ललाते रहते हो। उ०—(क) नीच निरादर भाजत कादर कूकर टूकन हेतु ललाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कृस गात ललात जा रोटन को घरबात घरै खुरपा खरिया।—तुलसी (शव्द०)। विशेष—किसी वस्तु को ललाना' ऐसे प्रयोगों में 'को' कर्म का चिह्न नहीं है, के लिये के अर्थ में संप्रदान का चिह्न है।

ललाम (१)
वि० [सं०] १. रमणीय। सुंदर। बढिया। उ०—ठाढ़ोरूप ललाम लै सन्मुख मेरे भेट।—शकुंतला, पृ० ९१। २. लाल रंग का। सुर्खं। उ०—श्याम पै/?/औ ललामन पै स्याम ऐसी सोभा सुभ सुभित है नाना/?/गुल की।—गोपाल (शब्द०)। ३. श्रेष्ठ। बड़ा। प्रवान। ४. मस्तक पर लक्षण से युक्त। चिह्नवाला (को०)।

ललाम (२)
संज्ञा पुं० १. भूपण। अलंकार। गहना। २. रत्न। उ०— रामनाम ललित ललाम कियो लाखन को, बेड़ा कूर कायर कपूत कौड़ी आध को।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—वंद्रमाललाम=शिव, जिनका भूषण चंद्रमा है। उ०— चपरि चढ़ायो चाप चंद्रमाललाम को।—तुलसी (शब्द०)। ३. चिह्न। निशान। ४. दंड और पताका। ध्वज। ५. सींग। शृंग । ६. घोड़ा। ७. घोड़े या गाय के माथे पर का चिह्न। अर्थात् दूसरे रंग का चिह्न। ८. घोड़े का गहना। ९. प्रभाव। १०. घाड़े या सिंह की गर्दन पर का बाल। अयाल। ११. कतार। पांक्त। श्रेणी (को०)। १२. पुच्छ। दुन (को०)। १३. तिलक। ललाट पर का तिलक (को०)।

ललाम (३)
संज्ञा पुं० [सं० ललामन्] १. आभूषण। साज सज्जा। २. अपने वर्ग म उत्कृटन वस्तु। ३. सांप्रदायिक चिह्न वा तिलक। ५. दे० 'ललाभ'—ओर १२।

ललामक
संज्ञा पुं० [सं०] माथे में लपेटने की माला।

ललामा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कान में पहनने का एक गहना।

ललामा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ललाम+ई (प्रत्य०)] १. सुंदरता। २. लालिमा। लाला। सुखी।

ललारी
संज्ञा पुं० [सं० ललाट] ललाट। लिलार। उ०—इसके ललीर की खाल सिकुड़ गई थी, दाँत और ओंठ दोनों बदरंग पड़ गए थे।—श्यामा०, पृ० १४५।

ललित, (१)
वि० [सं०] १. सुंदर। मनोहर। २. ईप्सित। मनचाहा। प्यारा। ३. हिलता डोलता हुआ। चलता हुआ। ४. निर्दोष। सरल (को०)। ५.क्रीडाशील। विनोदी (का०)। ६. रसिक। रसिया (को०)।

ललित (२)
सज्ञा पुं० १. शृंगार रस में एक कायिक हाव या अंगचेष्टा। विशेष—इसमें सुकुमारता (नजाकत) के साथ भौं, आँख, हाथ, पेर आदि अंग हिलाए जाते हैं। कहीं भूषण आदि से सजाने को लालत हाव कहा है। २. एक विधम वर्णवृत्त जिसक पहले चरण में सगण, जगण, सगण, लघु; दूसरं चरण म नगण, सगण, जगण, गुरु; तीसरे मे नगण, नगण, सगण, सगण; और चौय में सगण, जगण, सगण, जगण होता है। जैसे,—सब त्यागए असत काम। शरण गहिए सदी हरीं। भव जनित सकल दुःख टरी। भाजए अहोनिशि हरी, हरी, हरी। ३. कुछ आचायों क मत से एक अलंकार जिसम वणर्य वस्तु (वात) के स्थान पर उसका प्रतिबिंब बर्णन किया जाता है। जैस,—कहना तो यह था कि 'राम को गद्दी मिलनी चाहिए थी, पर वनवास मिला।' पर गोस्वामी तुलसीदास जी इसे इस प्रकार कहते हैं—(क) लिखत सुधाकर लिखि गा राहू। इसी प्रकार 'जिसे ब्रह्मा अच्छा बनाना चाहते थे, उसे बुरा बना दिया' इसके स्थान पर यह कहना—(ख) बिरचत हंस काक किय जेही। ४. पाड़व जाति का एक राग जो भैरव राग का पुत्र माना जाता है और जिसमें निपाद स्वर नहीं लगता; तथा धैवत और गांधार के अतिरिक्त और सब स्वर कोमल लगते हैं। इसके गाने का समय रात्रि के तीस दंड़ बीत जाने पर अर्थात् प्रातःकाल है। ५. नृत्य में हाथों की एक विशेष मुद्रा (को०)। ६. क्रीड़ा विनोद (को)। ७. सौंदर्य। लावण्य। सुंदरता (को०)।

ललितई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ललित+ई (प्रत्य०)] सौंदर्य। दे० 'ललिताई'। उ०—लाल ललाई ललितई कलित नई दरसाय। दरसो सारस रस भरे द्दग आदरस मँगाय।—रामसहाय (शव्द०)।

ललितक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक तीर्थ का नाम।

ललित कला
संज्ञा स्त्री० [सं० ललित+कला] वे कलाएँ या विद्दाएँ जिनके व्यक्त करने में किसी प्रकार के सौंदर्य को अपेक्षा हो। जैसे, संगीत, चित्रकला, वास्तुकला, मूर्तिकला इत्यादि। विशेष दे० 'कला'।

ललितकांता
संज्ञा स्त्री० [सं० ललितकान्ता] दुर्गा।

ललितपद (१)
वि० [सं०] जिसमें सुंदर पद या शब्द हों।

ललितपद (२)
संज्ञा पुं० एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ और १२ के हिसाब से २८ मात्राएँ होती हैं। इसे सार, नरेंद्र और दौवे भी कहते हैं। जैसे,—प्रात समय उठि जनक नंदिनी त्रिभुवननाथ जगावै।

ललितपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों का 'ललितविस्तर' नामक ग्रंथ जिसमें बुद्ध का चरित्र वर्णित है।

ललितप्रहार
संज्ञा पुं० [सं०] हलका या मृदु आघात। प्यार से मारना [को०]।

ललितप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक ताल [को०]।

ललितललित
वि० [सं०] अति सुंदर। सुंदरतम।

ललित लुलित
वि० [सं०] कंपित, हतोत्साह या दुर्बल होने पर भी सुदर [को०]।

ललितलोचन
वि० [सं०] सुंदर आँखोंवाला। प्रिय नेत्रोंवाला [को०]।

ललितवनिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदरी स्त्री। रूपती स्त्री [को०]।

ललितविस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ललितपुराण'।

ललितव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] १. बौद्ध शास्त्र के अनुसार एक समाधि। २. एक वोधिसत्व का नाम।

ललिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण, भगण, जगण और रगण होते हैं। जैसे—तै भाजि री अलि छिपी फिरै कहाँ। तूही बता थल हरी नहीं जहाँ। २. पझपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि के अनुसार राधिका की प्रधान आठ सखियों में से एक।३. एक रागिनी जो संगीतदामोदर और हनुमत के मत से मेघ राग की और सोमेश्वर के मत से वसंत राग की पत्नी है। इसका स्वरग्राम इस प्रकार है—स ग म ध नि स अथवा स रे ग म प ध नि स (प्रथम); ध नि स ग म ध (द्वितीय) ४. कस्तूरी। ५. पुराणोक्त एक नदी। वेशेष—कालिका पुराण में लिखा है कि जब निमि राजा के शाप से वशिष्ठ देहहीन हो गए, तब उन्होंने कामरूप देश में संध्याचल पर्वत पर घोर तप किया, जिससे प्रसन्न होकर विष्णु ने उन्हें वर दिया। वर के प्रभाव से वशिष्ठ ने एक अमृतकुंड बनाया। उसी अमृतकुंड के पूर्व ललिता नाम की एक मनोहर नदी है, जिसे शिव जी ले आए थे। वैशाख शुकन ३ को इसमें नहाने का बड़ा फल है। ६. महिला। कामिनी। सुंदरी स्त्री (को०)। ७. दुर्गा का एक नाम (को०)। यौ०—ललितापंचमी। ललितापष्ठी। ललितासप्तमी।

ललिताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ललित।आई (प्रत्य०)] सुंदरता। सौदर्य। उ०—(क) दक्षभाग अनुराग सहित इदिरा अधिक ललिताई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सुकवि लली के यों ललिताई लहलहात तन।—सुकवि (शब्द०)।

ललितापंचमी
संज्ञा स्त्री० [सं०ललितापञ्चमी] आश्विन महीने की शुक्ला पंचमी जिसमें ललिता देवी (पार्वती) की पूजा होती है।

ललिताभिनय
वि० [सं०] उत्तम या उत्कृष्ट अभिनय करनेवाला [को०]।

ललितार्थ
वि० [सं०] ललित अर्थ से युक्त या सुंदर (काव्य)। (रचना) जो शृंगार रसात्मक हो [को०]।

ललिताषष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाद्र कृष्ण षष्ठी। भादों बदी छऊ, जिस तिथि को स्त्रियाँ पुत्र की कामना से या पुत्र के हितार्थ ललितादेवी (पार्वती) का पूजन करती है और व्रत रहती हैं। पुजन कुश और पलाश की टहनी पर सिंदूर आदि चढ़ाकर होता है।

ललितासप्तमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भादो सुदी सप्तमी। भाद्र शुक्ल सप्तमी।

ललितोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय और उपमान की समता जताने के लिये सम, समान, तुल्य, लौ, इव आदि के वाचक पद न रखकर ऐसे पद लाए जाते हैं, जिनसे बराबरी, मुकाबला, मित्रता, निरादर, ईर्ष्या इत्यादि भाव प्रकट होते हैं। जैसे,—साहि तनै सरजा सिवा की सभा जामधि है मेरुवारी सुर की सभा को निदरति है। ऐसो ऊँचो दुरग महाबली को जामे नखतावली सों बहस दीपावली करति है।— भूषण (शब्द०)।

ललिया †
संज्ञा पुं० [हिं० लाल+इया (प्रत्य०)] लाल रंग का बैल।

लली
संज्ञा स्त्री० [हिं० लला] १. लड़की के लिये प्यार का शब्द। २. दुलारी लड़की। लाड़ली लड़की। जैसे, वृषभानु लली, जनक लली। ३. नायिका के लिये प्यार का शब्द। प्रेयसी। प्रेमिका।

ललीतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ। (महाभारत)।

ललौहाँ
वि० [हि० लाल+औहाँ (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० ललौंही] सुर्खौ मायल। ललाई लिए हुए। उ०—लाल लिलार लला को लखे गए लोचन ह्वै ललना के ललौ है।—(शब्द०)।

लल्लर
वि० [सं०] हकला हकलाकर बोलनेवाला [को०]।

लल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० लाल; लला] [स्त्री० लल्ला] १. लड़के या बेटे के लिये प्यार का शब्द। (पश्चिम)। २. दुलारा लड़का।

लल्लो
संज्ञा स्त्री [सं० ललना] जीभ। जह्वा। जवीन।

लल्ली चप्पो
संज्ञा स्त्री० [सं० लल (=जीभ इधर उधर डोलना)+ अनु० चप] चिकनौ चुपड़ी बात जो केवल किसी का प्रसन्न करन के लिये कही जाय। ठकुरसुहाती। क्रि० प्र०—करना।—होना।

लल्लो पत्तो †
संज्ञा स्त्री० [सं० लल + पत] दे० 'लल्लो चप्पो'। उ०—(क) तुमको हमारे ऊपर कुछ शक है, तो इसमें लल्लो पत्तो काहे की है ?—बालकृष्ण भट्ट (शब्द०)। (ख) लल्ला पत्तो और जाहिरदारी इसे आती ही न थी।—बालकृष्ण भट्ट (शब्द०)।

लल्लू लाल
संज्ञा पु० [हिं०] हिंदी गद्य के आरंभिक लेखकों में प्रमुख लेखक। इनका समय सन् १८२० से १८८५ तक है। हिंदी गद्य में प्रेमसागर, बैताल पचीसी, माधवविलास, सिंहासन बतीसी आदि इनकी रचनाएँ है।

लल्हरा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक पौघा या घास जिसका साग खाया जाता है।

लर्वक
संज्ञा पुं० [सं० लवङ्क] एक प्रकार का वृक्ष [को०]।

लवंग
संज्ञा पुं० [सं० लवङ्ग] १. मलक्का द्विप, जंजिवार तथा दक्षिण भारत में होनेवाला एक पेड़ जिसकी सूखी कलियाँ मसाले और दवा के काम में आती हैं। विशेष—दे० 'लौंग'। २. उक्त वृक्ष की सूखी कली।

लवंगक
संज्ञा पुं० [सं० लवङ्गक] लौंग [को०]।

लवंगकलिका
संज्ञा स्त्री [सं० लवङ्गकलिका] लौंग का फूल। लौंग [को०]।

लवंगपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० लवङ्गपुष्प] देवकुसुम। लौंग।

लवंगलता
संज्ञा स्त्री० [सं० लवङ्गलता] १० लौंग का पेड़ या उसकी शाखा। विशेष—यद्यपि 'लौंग' के बड़े बड़े पेड़ होते हैं जो बीस बरस तक खड़े रहते हैं, तथापि भारतीय कविसंप्रदाय में 'चूत लता' आदि के समान 'लबंगलता' शब्द का भी व्यवहार होता है। ऐसे स्थलों में लता का अर्थ शाखा या टहनी ही लेना चाहिए। २. राधिका की एक सखी का नाम। ३. प्रायः समोसे के आकार की एक बंगला मिठाई जिसमें ऊपर से एक लौंग खोंसा हुआ होता है और जिसके अंदर कुछ मेवे और मसाले आदि भरे होते हैं।

लवंगादिचूर्णा
संज्ञा पुं० [सं० लवङ्गादि चूर्ण] वैद्यक में एक प्रसिद्ध चूर्ण जो संग्रहणी, अतिसार आदि में दिया जाता है। विशेष— लौंग, मोथा, मोचरस, जीरा, धाय के फूल, लोध, इंद्रजौ, सुगधवाला, जवीखार, सेंधा नमक और रसांजन वराबर लेकर पीस डाला जाता है। इसकी मात्रा दस रत्ती से बीस रत्ती तक है।

लवगादि वटी
संज्ञा स्त्री० [सं० लकङ्गादि बटी] वेद्यक में लवंग के योग के निर्मित एक गाली।

लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत थोड़ी मात्रा। बहुत छांटी मिकदार अत्यंत अल्प परिमाण। मुहा०—लबभर=थोड़ा सा। नाम मात्र को। जैसे,—उसे लव भर भी डर नहीं है। २. काल का एक मान। दो काष्ठा अर्थात छतीस निमेप का/?/समय। (कुछ लोग एक निमेप के आठवें भाग को लव मानते हैं)। उ०—लव निमेप परिमान जुग वर्ष कल्पसत चंड।— तुलसी (शब्द०)। ३. लबा नाम की चिड़िया। ४. जातीफल ५. लबंग। ६. लामज्जक। ज्वरांकुश नाम का तृण। ७ काटना। छेदना। कटाई। ८. विनाश। ९.ऊन, बाल या प जो पशु पक्षियों के शरीर से कतर कर निकाले जाते हैं। १० सुरागाय की पूँछ के बाल, जो चँवर वनाने के लिये कतरे जा है। ११. श्रीरामचंद्र के दो यमज पुत्रों में से एक। विशेष— जब लोकापवाद के कारण राम ने सीता जी को गर्भा वस्था में वन में भेजवा दिया था, तब वहीं वाल्माकि के आश्र में लव और कुश इन दो जोड़ुएँपुत्रों की उत्पत्ति हुई थी वाल्मीकि ऋषि ने इन्हें रामायण का गान सिखा दिया था जब इन्होंने रामचंद्र की सभा में जाकर वह गान सुनाया, त राम ने उन्हें पहचाना।

लवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लौनी या लवाई करनेवाला। फस काटनेवाला किसान। २. एक द्रव्यविशेष [को०]।

लवकना †
क्रि० अ० [सं० अवलोकन] लौकना। दिखाई पड़ना झलकाना।

लबढ़ना ‡
क्रि० स० [हिं० लिपटना] लिपटना। उ०—ज्यौं खोले किवार त्यौं ही आनि लवढ़ि गौ गरै।—घनानं पृ० २९१।

लवण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नमक। लोन। विशेष—दे० 'नमकं' २. काटना। काटने की क्रिया। लवना (को०)। ३. खड़् युद्ध का एक प्रकार (को०)। ४. वस्तु जिससे लवाई की जाय काटने की वस्तु हँसिया आदि (को०)। ५. एक असुर जो। दानव का पुत्र था और जिसे शत्रुघ्न ने मारा था। विशेष 'लवणसुर'। ६. एक नरक का नाम (को०) । ७. पुराणो सात समुद्रों में से एक। खारे पानी का समुद्र। विशेष दे० 'लवणसमुद्र'।

लवण (२)
वि० [सं०] १. नमकीन। खारा। २. जिससे काटा जाय। काटनेवाला (को०)। ३. लविण्ययुक्त। सलोना। सुंदर।

लवणकिशुका
संज्ञा स्त्री० [सं० लवणकिशुका] महाज्योतिष्मती लता [को०]।

लवणक्रातक
संज्ञा पुं० [सं०] नमक का व्यापारी [को०]।

लवणक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊख के रस से बनाया हआ एक प्रकार का द्रव्य। २. एक प्रकार का नमक [को०]।

लवणजल
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र [को०]। यौ०—लवणजलोदभव=शंख। शुक्ति।

लवणतृण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अबलोनी घास जिसका साग खाते हैं। लोनी। लोनिया। २. कुलफा नामक साग।

लवणत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में तीन प्रकार के नमकों का समूह, सैधव, विट् और रूचक (सौवचल)।

लवणघेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाय के रुप मे कल्पित नमक का ढेर जिसके दान का वराहपुराण में बड़ा माहात्म्य लिखा है। विशेप—गोबर से लिपे स्थान में कुश के आसन पर सोलह प्रस्थ नमक का एक ढोंका रखे और उस गाय के रूप में कल्पित करे। चार प्रस्थ और नमक पास में रखकर उसे उस गाय का बछड़ा माने। फिर चार गन्ने रखकर चार पैर, सोना रखकर सींग, चाँदी रखकर खुर, गुड़ या स्वर्ण रख कर मुहै, फल रखकर दात, चीनी रखकर जीभ, गधद्रव्य रखकर नाक, रत्न रखकर नेत्र, पत्र रखकर कान, मक्खन रखकर स्तन, तागा रखकर पूंछ, ताबे का पत्तर रखकर पीठ, कुश रखकर रोएँ और काँसा रखकर दोहनी कल्पित करे। फिर यथा वधि पूजन करके सब चीजें दान कर दे।

लवणपाटलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नमक की पोटली या थैली [को०]।

लवणप्रगाढ़
वि० [सं०] जिसमें अत्यधिक नमक हो। जिसमें बहुत। तेज नमक मिला हो।

लवणभास्कर
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक का एक प्रसिद्ध चूर्ण जिसमें तीनों नमक और कई ओषधियाँ पड़ती है और जो पेट की अपच आदि बीमारियों में दिया जाता है।

लवणमद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नमक। क्षार नमक [को०]।

लवणमेद
संज्ञा पुं० [सं०] खारी नमक।

लवणमेह
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार प्रमेह रोग का एक भेद जिसमें पेशाब के साथ लवण के समान स्राव होता है।

लवणयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० लवणयन्त्र] दो मुहँड़ेदार वरतनों के मुँह जोड़कर बनाया हुआ एक यंत्र जिसमें कुछ ओषधियों का पाक होता है। इनमें से एक वरतन में नमक भर दिया जाता है।

लवणवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार कुश द्विप के अंतर्गत एक वर्ष या खंड।

लवण व्यापतू
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोड़ों की एक प्रकार की गहरी पीड़ा जो अधिक नमक खाने से होती है।

लवणशाक
संज्ञा पुं० [सं०] लवण द्वारा संधित वस्तु। संधान। अचार [को०]।

लवणसमुद्र
संज्ञा पुं० [सं०] खारे पानी का समुद्र। विशेष—यह पुराणोक्त सात समुद्रों में से एक है। पुराणों में तो सातो समुद्रों की उत्पत्ति सागर के पुत्रों के खोदने से या प्रियब्रत राजा के रथ के चलने से वताई गई है; पर ब्रह्मवैवर्त में लिखा है कि श्रीकृष्ण की एक पत्नी विरजा के गर्भ से सात पुत्र हुए,जो सात समुद्र हुए। इनमें से एक पुत्र के रोने के कारण थोड़ी देर के लिये कृष्ण का वियोग हो गया। इसपर विरजा ने उसे शाप दिया कि 'तू लवण समुद्र होगा और तेरा जल कोई न पीएगा'। यह कथा बहुत पीछे की कल्पित जान पड़ती है।

लवणांतक
संज्ञा पुं० [सं० लवणान्तक] १. लवणासुर को मारनेवाले शत्रुघ्न। २. नीबू।

सवणांबुगशि
संज्ञा पुं० [सं० लवणम्वुराशि] समुद्र [को०]।

लबणांभ
संज्ञा पुं० [सं० लवणाम्भस्] समुद्र। सागर [को०]।

लवण
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दीप्ति। आभा। २. महाज्योतिष्मती लता। ३. चुक। ४. चँगेरी। ५. अमलोनी शाक। ६. एक नदी का नाम। लूनी।

लबणकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. नमक की खान। २. समुद्र। ३. (साक्ष०) सुंदरता का खान। उ०—उसको (स्यायी भाब) अवस्था लवणाकर के समान होती है।—रस क०, पृ० ११।

लवणाचल
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ के रूप में कल्पित नमक का ढेर जिसके दान का मत्स्यपुराण में बड़ा माहात्म्य लिखा है।

लवणाब्धि
संज्ञा पुं० [सं०] नमक का समुद्र [को०]।

लवणापण
संज्ञा पुं० [सं०] नमक का हाट या बाजार [को०]।

लवणालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र। लवणाकर। २. लवणापुर की बसाई हुई मधुपुरी जो पोछे मथुरा के नाम से प्रसिद्ध हुई।

लवणासुर
संज्ञा पुं० [सं०] मधु नामक असुर का पुत्र जो मथुरा में रहता था और जिसे रामचद्र की आज्ञा से शत्रुघ्न ने मारा था। विशेष—रामायण में इसकी कथा इस प्रकार है। सत्ययुग में देत्य कुल में लोला के गर्भ 'नधु' नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसने घोर तप द्वारा शिव की प्रसन्न करके उनसे एक शूल प्राप्त किया। फिर दूसरी बार तप करके उसने शिव से यह वर माँगा कि वह शूल कुल में सदा बना रहे। शिव ने ऐसा वर न देकर यह वंर दिया कि शूल तुम्हारे ज्येष्ट पुत्र को मिलेगा। विश्वावसु की कन्या अनला के गर्भ से कुंभीनसी नाम की एक कन्या थी। मधु ने उसके साथ विवाह किया, और उसी के गर्भ से लवशासुर उत्पन्न हुआ। शूल पाकर वह अबव्ध हो गया और अनेक प्रकार के अत्याचार करने लगा। जब रामचंद्र जी राजा हुए, तब ऋषियो ने जाकर उनकी दुहाई दी। राम की आज्ञा से शत्रुघ्न उसे मारने गए, और जिस समय उनके हाथ में शूल नहीं था, उस समय उसे मारा।

लवणित
वि० [सं०] लवणयुक्त। नमकीन। नमक मिलाया हुओ [को०]।

लवणिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० लवणिमन्] १. लवणयुक्त होना। नमकीनी। २. सलोनापन। सौंदर्य। लावणय [को०]।

लवणोत्कट
वि० [सं०] दे० 'लवणप्रगाढ़' [को०]।

लवणोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेंधा नमक, जो सब नमकों से अच्छा माना जाता है। २. यवक्षार। जवाखार (को०)।

लवणोत्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष्मती लता।

लवणोद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लवणोदक' [को०]।

लवणोदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नमक मिला हुआ पानी। २. क्षार समुद्र। ४. समुद्र। सागर (को०)।

लवणोदधि
संज्ञा पुं० [सं०] लवणसमुद्र। लवणोदक।

लवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० लवनीय, लव्य] १. काटना। छेदना। २. खेत की कटाई। लुनाई। ४. खेत काटने की मजदूरी में दिया हुआ अन्न। लौनी। ४. खेत की कटाई वा लुनाई करने का औजार हँसिया [को०]।

लवन पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० लवण] नमक। उ०—इम नीर महि गरि जाय लवनं एकमेकहि जानिए।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ५५।

लवना (४)
क्रि० स० [सं० लवन, हिं० लुनना] पके हुए अन्न के पौधों को खेतों से काटकर एकत्र करना। लुनना। उ०—तुलसी यह तन खेत है, मन बच करम किसान। पाप पुन्य द्वै बीज है बोवे सो लवै निदान।—तुलसी (शब्द०)।

लवना पु †
२ क्रि० अ० [हिं० लप या लौ] दीप्त होना। चमकना। उ०—चटक चोप चपला हिय लवै। सबही दिस रस प्यासनि तवै।—घनानद, पृ० १८७।

लवना (४)
वि० [सं० लवण] दे० 'लोना'।

लवनाई पु०
संज्ञा स्त्री० [सं० लावण्य] लावण्य। सुंदरता।

लवनि †
संज्ञा स्त्री० [सं० लवन] १. खेत में अनाज की पकी फसल की कटाई। लुनाई। २. वह अन्न जो मजदूरी में दिया जाता है। उ०—तुलसीदास जोरी देखत सुख सोभा अतुलन जात कही री। रूप रसि विरची बिरंचि मनो सिला लवनि रात काम लही री।—तुलसी (शब्द०)।

लवनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीफे का पेड़ या फल।

लवनी † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लवन] १. दे० 'लवान'। २. औजार जिससे खेत की लुनाई की जाती है। हाँसेया।

लवनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० नवनीत] नवनीत। मक्खन।

लवनीय
वि० [सं०] लुनाई करने लायक। काटने योग्य [को०]।

लवर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लपट] अग्नि की लपट। ज्वाला। उ०—नारी गारी देत रावनहिं जरत लवर की झाग।—देवस्वामी (शब्द०)।

लवलासी †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लब(=प्रेम)+लासी (=लसी, लगाव)] प्रेम की लगावट।

लवली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हरफारेवरी नाम का पेड़ और उसका फल जो खाया जाता है। २. एक विषम वर्णवृत्त जिसके प्रथम चरण में १६, दूसरे चरण में १२, तीसरे चरण में ८ और/?/में २० वर्ण होते हैं। जैसे,—दनुज कुल अरि जग हित धरम धर्ता। साँचो अहहिं प्रभु जगत भर्ता। रामा अनुर सुहर्ता। सरवस तज मन भज नित प्रभ्र भवदपुखहर्ता।

लवलीन
वि० [हिं० लय+लीन] तन्यय। तल्लीन। मग्न। उ०— (क) अधर मधुर मुसुकान मनोहर कोटि मदन मन हीन। सूरदास जहँ द्दष्ठि परत है होत तहीं लवलीन।—सूर (शब्द०)। (ख) जव जय धुनि सुनि कन्त अमर गन नर नारी लवलीन।—सूर (शव्द०)। (ग) अरु जे विषयन के आधीना। तिनके/?/

लवलेश
संज्ञा पुं० [स०] १. अत्यंत अल्प मात्रा। बहुत थोड़ी मिकदार। २. जरा सा लगाव। अल्प संसर्ग। जैसे,—इस दूध में पानी का लवलेश नहीं है।

लवलेस पु
संज्ञा पुं० [सं० लवलेष] दे० 'लवलेश'। उ०—(क) जाके बल लवलेस ते जितेहु चराचर झारि।—मानस, ६। २१। (ख) जाकी कृपा लवलेस तै मतिमंद तुलसीदास हू।—मानस, ७। १४०।

लवहर †
संज्ञा पुं० [श०] एक साथ उत्पन्न दो बालक। यमज। जोड़वाँ।

लवा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० लाजा] अनाज का दाना जो भूनने से फूल गया हो। भुने हुए धान या ज्वार की खोल। लावा। उ०— मिलि माधवा आदिक फूल के व्याज विनोद लवा वरसायो करें। द्रिजदेब (शब्द०)।

लवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० लब] तीतर की जाति का एक पक्षी जो तीतर स बहुत छीटा होता है। उ०—बाज झपट जनु लबा लुका— ने।—तुलसौ (शब्द०)। विशेष—यह तोतर की तरह जमीन पर अधिक रहता है। पँजे बहुत लबे होते है। नर और मादा में देखने में कोई भेद नहीं होता। मादा भूरे रंग के अड़े देती है। जाड़े के दिनां में इस चिड़िया के झुंड के झुंड झाडयों ओर जमीन पर दिखाई पड़ते है। यह दाने ओर कीड़ खाता है।

लवाई
वि० स्त्री० [देश०] हाल की व्याई हुई गाय। वह गाय जिसका बच्चा अभी वहुत हो छोटा हो। उ०—(क) पुनि पुनि मिलात साखन विलगडि। वालवच्छ जनु धनु लवाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कौसल्या दे मातु सब धाई। नरखि बच्छ जनु घेनु लवाई।—तुलसी (शब्द०)।

लवाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लवना+आई (प्रत्य०) १. खेत की फसल की कटाई। लुनाई। २. फसल लटाई की मजदूरी।

लवाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हँसिया। २. कटाई का काम। ३. काटनेवाला [को०]।

लवजिमा
संज्ञा पुं० [अ० लवाज़िम, लवाज़िमा] १. किसी के साथ रहनेवाला दल बल और साज साघान। साथ में रहनेवाली भीड़भाड़ या असबाब। जैसे,—इतना लवाजमा साथ लेकर क्यों पन्देश चलते हो ? २. आवश्यक सामग्री। सामान जो किसी बात के लिये जरूरी हो। जैसे,—सब लवाजमा इकट्ठा कर लो, तब तस्वीर में हाथ लगाओ।

लवाजमात
संज्ञा पुं० [अ० लवाज़मात] लवाजिम का बहुवचन। सामग्री। उपकरण।

लवणिक
संज्ञा पुं० [सं०] हँसिया [को०]।

लबारा †
संज्ञा पुं० [हिं० लबाई] गौ का बच्चा। बछड़ा।

लवासी पु †
वि० [सं० लप, या लव (=बकना)+आसी (प्रत्य०)] १. बकवादी। गप्पी। झूठा। २. लंपट। उ० काहे दियो सूर सुख में दुःख कपटी कान्ह लवासी।—सूर (शब्द०)।

लवि (१)
वि० [सं०] तेज धारवाला। काटने में तेज।

लवि (२)
संज्ञा स्त्री० लवित्र। हसिया [को०]।

लवित्र
संज्ञा पुं० [सं०] काटने का औजार। दाव। हँसिया [को०]।

लवेंटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्न। अनाज [को०]।

लवोपल
संज्ञा पुं० [सं०] ओला। बर्फ का टुकड़ा।

लश
संज्ञा पुं० [सं०] गोंद [को०]।

लशकर
संज्ञा पुं० [फा०] १. सेना। फौज। योद्धाओं का दल। २. मनुष्यों का भारी समूह। भीड़भाड़। दल। जैसे,—इतना बड़ा लशकर क्यों साथ लेकर चलते हो ? ३. फौज के टिकने का स्थान। सेना का पड़ाव। ४. जहाज में काम करनेवालों का दल। जहाजी आदमी। यौ०—लशकर आस=(१) सेना सज्जित करनेवाला। (२) सेना के साथ सामना करनेवाला। लशकर आराई—(१) युद्धार्थ सेना का व्यूहन। (२) सेना लेकर मुकाबला करना। लशकरकशी=चढ़ाई। धावा। आक्रमण। लशकरगाह= शिविर। छावनी।

लशकरी
वि० [फा० लशकर] १. फौज का। सेना संबंधी। सेना से संबंध रखनेवाला। २. जहाज पर काम करनेवाला। खलासी। जहाजी। ३. जहाज से सबध रखनेवाला।

लशकरी
संज्ञा पुं० १. सैनिक। सिपाही। २. जहाजी आदमी। ३. जहाजियों या खलासियों की भाषा। यौ०—लशकरी कोश=जहाजियों की बोलचाल की भाषा का एक कोशग्रंथ।

लशकारना
क्रि० स० [अ० लश्कर] शिकारी कुत्तों को शिकार पकड़ने के लिये पुकारकर बढ़ावा देना। लहकारना। (शिकारी)।

लशुन, लशून
संज्ञा पुं० [सं०] लहसुन।

लषण
संज्ञा पुं० [सं०] अभिलाषा। इच्छा। आकांक्षा [को०]।

लषन पु० (१)
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मण] दे० 'लखन'।

लषन (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लखना] लखने की क्रिया या भाव।

लषना
क्रि० स० [सं० लक्ष] दे० 'लखना'।

लपित
वि० [सं०] वांछित। अभिलषित [को०]।

लष्प पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष] लाख की संख्या।

लष्ष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] नट। नाचनेवाला। नर्तक। अभिनेता [को०]।

लष्षन
संज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मण] दे० 'लक्खन'।

लस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिपकने या चिपकाने का गुण। श्लेषण। चिपचिपाहट। २. वह जिसके लगाव से एक वस्तु दूसरी वस्तु से चिपक जाय। लाषा। ३. चित्त लगने की वात। आकर्षण। जैसे,—वहाँ कुछ लस है; तभी वह नित्य जाता है।

लस (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्त चंदन। २. ऊँट का ज्वर [को०]।

लास (३)
वि० [सं०] १. चमकता हुआ शोभित। २. इधर उधर हिलता हुआ। कपिन [को०]।

लसक
संज्ञा पु० [सं०] १. नाचनेवाला। नर्तक। २. एक वृक्ष का नाम (को०)।

लसक्कर
संज्ञा पुं० [फा० लशकर] दे० 'लशकर'। उ० बिन लसकर बिन फौज मुलुक में फिरी दुहाई।—पलटू०, भा० १, पृ० ९।

लसदंशु
वि० [सं०] दीप्त या चमकीली किरणोंवाला, जैसे, सूर्यं [को०]।

लसदार
वि० [हिं० लस+फा० दार (प्रत्य०)] जिसमें लस हो। जिसमें चिपकने या चिपकाने का गुण हो। गोंद की तरह का। लसीला।

लसना (१)
क्रि० स० [सं० लसन] एक वस्तु को दूसरी वस्तु के साथ इस प्रकार सटाना कि वह अलग न हो। चिपकाना। जैसे,— इस कागज के किताब पर लस दो। संयो० क्रि०—देना।

लसना पु (२)
क्रि० अ० १. शोभित होना। छजना। फबना। २. विराजना। विद्यमान होना। उ०—(क) लसत चारु कपोल दुहुँ विच सजल लोचन चारु।—सूर (शव्द०) (ख) तहँ राजत दसरथ लसें देव देव अनुप।—केशव (शब्द०)।

लसनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लसना] १. स्थिति। विद्यमानता। २. शोभित होने की क्रिय या भाव। शोभा। छटा। उ०— कहत ही बातों श्री गोपाललाल जू सों बाल सुने खरिका में खरी माधुरी लसनि सों।—रघुनाय (शब्द०)।

लसम
वि० [देश०] जो खंरा और चोखा न हो। दागी। दूषितं। खोटा। जैसे,—लसम सोता। उ०—और भूष परषि कै ताडके सुलाखि लेत लसम को खसम तुही पै दशरत्थ के।—तुलसी (शब्द०)।

लसरका
संज्ञा पुं० [सं० लग्ना या लस्तगा] संबंध। लगाव। ताल्लुक। (लखनऊ)।

लसलसा
वि० [हिं० लस] [वि० स्त्री० लसलसी] लसदार। चिपचिपा। जो गोंद की तरह चिपकनेवाला हो।

लसलसाना
क्रि० अ० [अनु०] गोंद या लसदार चीज की तरह चिपकना। चिपचिपाना।

लसलसाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० लसलसा] लसदार होने का भाव। चिपक। चिपचिपाहट।

लसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हल्दी। २. केशर (को०)।

लसिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाला। थूक।

लसित
वि० [सं०] १. लसता हुआ। शोभित। २. व्यक्त। स्थित। प्रकट। ३. जो क्रीड़ा कर रहा हो। क्रीड़ाशील [को०]।

लसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लस] १. लस। चिपचिपाहट। २. दिल लगने की वस्तु। आकर्षण। जैसे,—वह कुछ लसी पाकर वहाँ जाता है। ३. लाभ का योग। फायदे का डौल। जैसे,—बिना लसी के आप क्यों कहीं जाने लगे। ४. संबंध। लगाव। मेलजोल। जैसे,—ऐसे आदमी से लसी लगाना ठीक नहीं। क्रि० प्र०—लगाना। ५. दूध और पानी मिला शरबत।

लसीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माँस और चमड़े के बीच में रहनेवाला रस या पानी। २. लाला। ३. पीव (को०)। ४. मांसपेशी (को०)। ५. ऊख का रस। इक्षुरस (को०)।

लसीला
वि० [हिं० लस + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लसीली] १. लसदार। जिसमें लस हो। जिसके लगाने से कोई वस्तु दूसरी वस्तु से चिपक जाय। चिपचिपा। २. सुंदर। शोभायुक्त। उ०—लाड़ लड़ोली रस बरसीली लसीली हँसीली सनेहसगमगी।—घनानंद, पृ० ४४७।

लसुन
संज्ञा पुं० [सं० लशुन] दे० 'लहसुन'।

लसुनिया
संज्ञा पुं० [हिं० लहसुन] दे० 'लहसुनिया'।

लसुप
वि० [सं०] चमकदार। दीप्त। चमकीला [को०]।

लसोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० लश (= चिपचिपाहट)] एक प्रकार का छोटा पेड़। सपिस्ताँ। श्लेष्मांतक। लसोढ़ा। विशेष—इसकी पत्तियाँ गोल गोल और फल बेर के से होते हैं। यह वसंत में पत्तियाँ झाड़ता है; और हिंदुस्तान में प्रायः सर्वत्र पाया जाता है। फल मे बहुत ही लसदार गूदा होता है। यह फल औषध के काम में आता है और सूखी खाँसी को ढीली करने के लिये दिया जाता है। फारसी में इसे सपिस्ताँ कहते हैं। हकीम लोग मिस्त्री मिलाकर इसका अबलेह (चटनी) बनाते हैं, जो खाँसी में चाटने के लिये दिया जाता है। संस्कृत में भी इसे शलेष्मांतक कहते हैं। इसका अचार भी बनता है।

लसोढ़ा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'लसोड़ा'।

लसौटा
संज्ञा पुं० [हिं० लासा + औटा (प्रत्य०)] बाँस का र्चीगा जिसमें बहेलिए चिड़िया फँसाने का लासा रखते हैं।

लस्टम पस्टम ‡
क्रि० वि० [देश०] १. धीरे धीरे। २. किसी न किसीतरह से। अच्छी तरह या पूरे सामान के साथ नहीं। जैसे,— लस्टम पस्टम काम चला जाता है।

लस्त (१)
वि० [सं०] १. क्रीड़ित। २. शोभायुक्त। सजावट से भरा। ३. प्रवीण। कुशल। दक्ष। चतुर (को०)। ४. आलिंगित। आलिंगनबद्ध (को०)।

लस्त (२)
वि० [हिं० लटना] १. थका हुआ। शिथिल। श्रम या थकावट से ढीला। जैसे,—चलते चलते शरीर लस्त हो गया है। २. जिसमें कुछ करने की शक्ति या साहस न रह गया हो। अशक्त। उ०—वारी सुकुमारी—जर्जर लस्त को ब्याह दी जावे। प्रेमघन०, भा० २, पृ० १८७। क्रि० प्र०—करना।—होना।

लस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष का मध्य भाग। मूठ।

लस्तकी
संज्ञा पुं० [सं० लस्तकिन्] धनुष [को०]।

लस्तगा †
संज्ञा पुं० [?] १. परस्पर संबंध या लगाव। २. शृंखला। २. सिललिला। ३. शुरुआत। प्रारंभ।

लस्सान
वि० [अ०] बातूनी। बाचाल। बाबदूक [को०]।

लस्सानी
संज्ञा स्त्री० [अ०] वाचालता। बातूनीपन। उ०—बात फरोशी हाय हाय। वह लस्सानी हाय हाय।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६७८।

लस्सी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लस] १. लस। चिपचिपाहट। वि० दे० 'लसो'। २. छाँछ। मठा। तक्र। (पच्छिम)। ३. दही को चीनी के साथ मथकर बर्फ मिलाया हुआ शर्बत। यौ०—कच्ची लस्सी = अधिक पानी मिला हुआ दूध।

लहँगा
संज्ञा पुं० [हिं० लंक (= कमर) + अंगा] कमर के नीचे का सारा अंग ढाँकने के लिये स्त्रियों का एक घेरदार पहनावा। उ०—छुद्र घंटिका कटि लहँगा रँग तन तनसुख की सारी।—सूर (शब्द०)। विशेष—यह सूत की डीरी या नाले (इजारबंद) से कमर में कसकर पहना जाता है और इसमें बहुत सी चुनटें पड़ी रहती है। इसमें नाली के आकार का घेरेदार नाला पड़ा रहता है, जिसे नेफा कहते हैं। लहँगे से केवल कटि के नीचे का भाग ढँकता है; इससे इसके साथ ओढ़नी भी ओढ़ी जाती है।

लहक
संज्ञा स्त्री० [हिं० लहकना] १. लहकने की क्रिया या भाव। २. आग की लपट। ३. चमक। द्युति। ४. शोभा। छबि। ५. उमंग। उत्साह। जोश। उ०—देशभक्ति की लहक उसके अंग प्रत्यंग में व्याप्त है।—सुनीता, पृ० ११।

लहकना
क्रि० अ० [सं० लता (= हिलना डोलना) या अनु०] १. हवा में इधर उधर डोलना। झोंके खाना। लहराना। उ०— (क) सकपकाहिं विष भरे पसारे। लहर भरे, लहकहिं अति कारे।—जायसी (शब्द०)। (ख) बैठयो ससि ऊपर सँभारि न सकति भार वेली मानो लहकै नवेली सोनजुही की।—रघुनाथ (शब्द०)। (ग) नव मालती चहूँ दिसि महकत। जमुन लहर तट लह लह लहकत।—गोपाल (शब्द०)। (घ) लाल लाल की लर लटकाए लहकति छन छन।—(शब्द०)। संयो० क्रि०—उठना। २. हवा का बहना। हवा का झोंके देना। उ०—कंत विनु वासर वसंत लागे अंतक से तीर ऐसे त्रिविध समीर लागे लहकन।—देव (शब्द०)। ३. आग का इधर उधर लपट छोड़ना। लपट का निकलना। दहकना। जैसे,—आग लहकना। ४. चाह या उत्कंठा से आगे बढ़ना। लपकना। ५. चाह से भरना। उत्कंठित होना। ललकना। उ०—अंखियाँ अधर चूमि हा हा छाँड़ो कहै झूमि छतियाँ सों लगी लग लगी सी लहकि कै।—(शब्द०)। ६. किसी वस्तु का ठीक से न जमने के कारण हिलना या हचकना।

लहका †
संज्ञा पुं० [हिं० लहक] पतला गोटा। लचका।

लहकाना
क्रि० स० [हिं० लहकना] १. हवा में इधर उधर हिलाना डुलाना। झोंका खिलाना। २. आगे बढ़ाना। ३. चाह या उत्कंठा से आगे बढ़ाना। लपकाना। जैसे,—तुमने लहका दिया, इसी से वह पीछे लगा। ४. उत्साह दिलाकर आगे बढ़ना। आगे बढ़ने के लिये उत्साहित करना। किसी ओर अग्रसर होने के लिये बढ़ावा देना। ५. किसी के विरुद्ध कुछ करने के लिये भड़काना। ताव दिलाना। बरगलाना। ६. दीप्त करना। प्रज्वलित करना। जैसे, आग लहकाना। संयो० क्रि०—देना।

लहकारना
क्रि० स० [हिं० ललकारना] १. किसी के विरुद्ध कुछ करने के लिये बहकाना। ताव दिलाना। २. उत्साहित करके आगे बढ़ाना। ३. कुत्ते को उत्साहित या क्रुद्ध करके किसी के पीछे लगाना।

लहकौर
संज्ञा स्त्री० [हिं० लहना + कौर] दे० 'लहकौरि'।

लहकौरि
संज्ञा स्त्री० [हिं० लहना + कौर (= ग्रास)] विवाह की एक रीति जिसमें दूल्हा और दुलहिन कोहबर में एक दूसरे के मुँह में कौर (ग्रास) डालते हैं। उ०—(क) लहकौरि गौरि सिखाव रामहिं सीय सन सारद कहैं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) गोदा रंगनाथ मुख माँही। मेलति है लहकौरि तहाँ हीं।—रघुराज (शब्द०)।

लहजा (१)
संज्ञा पुं० [अ० लहजह्] गाने या बोलने का ढंग। स्वर। लय। जैसे,—वह बड़े अच्छे लहजे से गाता है।

लहजा (२)
संज्ञा पुं० [अ० लहज़ा] पल। अल्पकाल। क्षण। मुहा०—लहजा भर = क्षण भर। थोड़ी देर।

लहटना †
क्रि० अ० [देश०] परचना।

लहटाना †
क्रि० स० [देश०] परचाना।

लहद
संज्ञा स्त्री० [अ०] कब्र। उ०—हो ढेर अकेला जंगल में तू खाक लहद की फाँकेगा।—राम० धर्म०, पृ० ९१।

लहदि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लादी] दे० 'लादी'। उ०—धोबी घर के गदहा ह्वै हौ ओदी लहदि लदैहौ।—कबीर श०, पृ० २२।

लहदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लादना या प्रा० लद्द] दे० 'लादी'।

लहन (१)
संज्ञा पुं० [देश०] कंजा नाम की कँटीली झाड़ी। विशेष दे० 'कंजा'।

लहन ‡ (२)
संज्ञा पुं० [सं० लभन] दे० 'लहना'।

लहनदार
संज्ञा पुं० [हिं० लहना + फ़ा० दार] वह मनुष्य जिसका कुछ लहना किसी पर बाकी हो। ऋण देनेवाला महाजन। उ०—जिसने ऋण चुका देने को कभी क्रीधी और क्रूर लहनदार की लाल लाल आँखें नहीं देखी हैं।—भारतेंदु ग्र०, भा० १, पृ० २८५।

लहना (१)
क्रि० स० [सं० लभम, प्रा० लहन] प्राप्त करना। लाभ करना। पाना। उ०—नाचत ही निसि दिवस मरचो, पै नहि सुख कबहूँ लह्मो।—सूर (शब्द०)।

लहना (२)
क्रि० स० [सं० लवन] १. काटना। छेदना। २. खेत की फसल काटना। ३. छीलना। तराश करना। कतरना।

लहना (३)
संज्ञा पुं० [सं० लभन, प्रा० लहन] १. किसी को दिया हुआ धन जो वसूल करना हो। उधर दिया हुआ रुपया पैसा। जैसे,—हमारा सब लहना साफ कर दो। उ०—लहना देना विधि सौ लिखैं। बैठे हाट सराफी सिखै।—अर्ध०, पृ० ६। यौ०—लहना देना = प्राप्य एवं देय धन द्रव्य आदि। लहना पटवना = उधार चुकाने की क्रिया। मुहा०—लहना चुकाना, पटाना या साफ करना = किसी से लिया हुआ कर्ज अदा करना। लिया हुआ ऋण दे देना। २. वह धन जो किसी काम के बदले में किसी से मिलनेवाला हो। रुपया पैसा जो किसी कारण किसी से मिलनेवाला हो। ३. भाग्य। किस्मत। जैसे,—जिसके लहने का होगा, उसे मिलेगा।

लहना बही
संज्ञा पुं० [हिं० लहना + बही] वह बही जिसमें ऋण लेनेवालों के नाम और रकमें लिखी जाती हैं, और जिसके अनुसार वसूली होती है।

लहनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लहना] १. प्राप्ति। २. फलभोग। उ०—लहनी करम के पाछे। दियो आपनो लैहे सोई मिलै नहीं पाछे।—सूर (शब्द०)।

लहनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लहना (= काटना, छीलना)] वह औजार जिससे ठठेरे बरतन छीलते हैं।

लहबर
संज्ञा पुं० [हिं० लहर बहर ?] १. एक प्रकार का बहुत लंबा और ढीला ढाला पहनावा। चोंगा। लबादा। २. एक प्रकार का तोता जिसकी गरदन बहुत लंबी होती है। ३. झंडा। निशान। पताका।

लहम
संज्ञा पुं० [अ०] गोश्त। मांस [को०]।

लहमा
संज्ञा पुं० [अ० लहमह्] निमेष। पल। क्षण। अत्यंत अल्प काल। उ०—इक लहमा पकड़ि के खूब मला।—पलटू०, भा० २, पृ० ६।

लहमी
वि० [अ०] लहम अर्थात् मांस का विक्रेता। मांस बेचने वाला [को०]।

लहर
संज्ञा स्त्री० [सं० लहरी] १. हवा के झोंके से एक दूसरे के पीछे ऊँची उठती हुई जल की राशि। बड़ा हिलोरा। मौज। उ०—लोल लहर उठि एक एक पै चलि इमि आवत।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। कि० प्र०—आना।—उठना। मुहा०—लहर लेना = समुद्र के किनारे लहर में स्नान करना। २. उमंग। वेग। जोश। उठान। जैसे,—आनद की लहर। उ०—फूलो धेनु, फूले धाम, फूली गोपी अंग अंग फिर तरुवर आनँद लहर के।—सूर (शब्द०)। ३. मन को मौज। मन में आपसे आप उठी हुई प्रेरणा। मन में वेग के साथ उत्पन्न भावना। जैसे,—उनके मन की लहर है; आज इधर ही निकल आए। ४. शरीर के अंदर के किसी उपद्रव (जैसे, बेहोशी, पीड़ा आदि) का वेग जो कुछ अंतर पर रह रहकर उत्पन्न हो। झोंका। जैसे,—साँप के काटने पर लहर आती है। उ०—(क) सुनि के राजा गा मुरझाई। जानौ लहरि सुरुज कै आई।—जायसी (शब्द०)। (ख) सूर सुरति तनु की कछु आई उतरत लहरि के।—सूर (शब्द०)। मुहा०—लहर देना या मारना = रह रहकर किसी प्रकार की पीड़ा उठना। साँप काटने की लहर = साँप काटे आदमी को वह अवस्था जिसमें बेहोशी के बीच बीच में वह जाग उठता है। उ०—लाओ गुनी गोविंद की बाढ़ी है अति लहरि।—सूर (शब्द०)। ५. आनंद की उमंग। हर्ष या प्रसन्नता का वेग। मजा। मौज। जैसे,—वहाँ चलो; बड़ी लहर आवेगी। यौ०—लहर बहर = सब प्रकार का आनंद और सुख। मुहा०—लहर आना = आनंद आना। लहर लेना या मारना = आनंद भोगना। मौज करना। ६. आवाज की र्गूंज। स्वर का कंप जो वायु में उत्पन्न होता है। ७. वक्र गति। इधर उधर मुड़ती हुई टेढ़ी चाल। जैसे,— वह लहरें मारता चलता है। मुहा०—लहर मारना या देना = सिधा न जाकर इधर उधर मुड़ना। ८. बराबर इधर उधर मुड़ती या टेढ़ी होती हुई जानेवाली रेखा। चलते सर्प को सी कुटिल रेखा। ९. †कसीदे की धारी। १०. हवा का झोंका। ११. किसी प्रकार की गध से भरी हुई हवा का झोंका। महक। लपट। उ०—खुलि रही खूब खुसबोयन की लहरि तैसे सीतल समीर डालै तनिकऊ न डोली मैं।— निहाल (शब्द०)।

लहरदार
वि० [हिं० लहर + फ़ा० दार (प्रत्य०)] १. जो सीधा न जाकर टेढ़ा गया हो। जो बल खाता गया हो। कुटिल या बक्रगति से गया हुआ। जैसे,—यह लकीर सीधी नहीं है, लहरदार है। २. दे० 'लहरियादार'।

लहरना
क्रि० अ० [हिं० लहर + ना (प्रत्य०)] १. दे० 'लहराना'। उ०—बरसाती तरिवर लहरत तहँ लता रहीं लूमि लूमि।—देवस्वामी (शब्द०)। २. दे० 'लहटना'।

लहरपटोर
संज्ञा पुं० [हिं० लहर + पट] [स्त्री० लहर पटोरी] पुरानी चाल का एक प्रकार का रेशमी धारीदार कपड़ा। उ०—पुनि बहु चीर आनि सब छोरी। सारी कंचुकि लहर- पटोरी।—जायसी (शब्द०)।

लहरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लहर] १. लहर। तरंग। २. मौज। आनंद। मजा। ३. बाजों की वह गत जो आरंभ में नाचने या गाने के पहले समाँ बाँधने और आनद बढ़नि के लिये बजाई जाती है। (इसमें कुछ गाना नहीं होता, केवल ताल और स्वरों की लय मात्र होती है।) ४. कुछ देर तक बादलों का बरसना। कुछ समय तक जोरों की वर्षा होना। झर। झड़ो। झोंका।

लहरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास।

लहराना (१)
क्रि० अ० [हिं० लहर + आना (प्रत्य०)] १. हवा के झोंके से इधर उधर हिलना डोलना। प्रकंपित होना। लहरें खाना। जैसे,—खेत लहराना, या खेतों में धान लहराना, लता लहराना बाल लहराना, पताका लहराना। उ०—(क) आतप पर्यी प्रभात ताहि सो खिल्यो कमलमुख। अलक भौंर लहराध जूय मिलि करत विविध सुख।—व्यास (शव्द०)। (ख) मनु प्रगट मनोरथ की लता ललकि ललकि लहराति है।—गोपाल (शव्द०)। २. हवा का चलना या पानी का हवा के झोंके से उठना और गिरना। बहना या हिलोर मारना। ३. सीधे न चलकर साँप की तरह इधर उधर मड़ते या झोंका खाते हुए चलना। जैसे,—यह लकीर लहराती हुई गई है। ४. मन का उमंग में होना। उल्लास में होना। जैसे,—यह सुनकर उनका मन लहरा उठा। ५. किसी वस्तु के लिये उत्कंठित होना। प्राप्त करने की इच्छा से अधीर होना। लपकना। जैसे,—उसके लिये वह लहरा उठा। ६. आग की लपट का निकलकर इधर उधर हिलना। दहकना। भड़कना। उ०—श्रीषति सुकवि यो वियोगी कहरन लागे, मदन की आगि लहरान लागो तन में।—श्रीपति (शब्द०)। ७. शोभित होना। लसना। विराजना। शोभा- पूर्वक रहना। उ०—(क) कहै पद्माकर अहरीन की अवाई पर साहब सवाई की ललाई लहराति है।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) त्यगि भय भाव चहूँ घूमत अनंद भरे विपिन बिहारी पर सुखसाज लहरत।—(शब्द०)।

लहराना (२)
क्रि० स० १. हवा के झोंके में इधर उधर हिलाना या हिलने डोलने के लिये छोड़ देना। जैसे,—सिर के बाल लहराना। २. सीधे न चलाकर साँप की तरह इधर उधर मोड़ते हुए चलाना। बक्र गति से ले जाना। ३. बार बार इधर से उधर हिलाना डुलाना। उ०—सूरदास प्रभु सोइ कन्हैया लहरावति मल्हरावति है।—सूर (शब्द०)।

लहरि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लहर'।

लहरिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लहर] १. ऐसी समानांतर रेखाओं का समूह जो सीधी न जाकर क्रम से इधर उधर मुड़ती हुई गई हों। लहरदार चिह्न। टेढ़ी मेढ़ी गई हुई लकीरों की श्रेणी। जैसे,—(क) इसका लहरिया किनारा है। (ख) इसमें लहरिया काम बना हुआ है। २. एक प्रकार का कपड़ा जिसमें रंग बिरँगी टेढ़ी मेढ़ी लकीरें बनी होती हैं। ३. वह साड़ी या धोती जिसकी रँगाई टेढ़ी मेढ़ी लकीरों के रूप में हो। उ०—(क) लहरत लहर लहरिया लहर बहार। मोतिन जड़ी किनरिया बिथुरे वार।—रहीम (शब्द०)। (ख) फहर फहर होत प्रीतम को पीतपट, लहर लहर होत प्यारी को लहरिय।—देव (शब्द०)। ४. जरी के कपड़ों के किनारे बनी हुई बेल। ५. गोटे, लेस आदि की लहरदार टँकाई।

लहरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लहर + इया] 'लहर' शब्द का पूरबी निर्देशात्मक रूप। उ०—में गैलिउ सोई पिया मोर जागे, आइ गई सुषमन लहरिया हो रामा।—कबीर (शब्द०)।

लहरियादरि
वि० [हिं० लहरिया + दार (प्रत्य०)] १. जिसमें लहरिया बनी हो। बेलबूटेदार। २. जिसमें बहुत सी टेढ़ी मेढ़ी रेखाएँ हो। लहरदार।

लहरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] लहर। तरंग। हिलोर। मौज। उ०— ऊ/?/, बसुधा में सुधालहरी लला की बरनी, मैन कलावारी कहि प्यारी कब बोलिहै।—दीनदयाल (शब्द०)।

लहरी † (२)
वि० [हिं० लहर + ई (प्रत्य०)] मन की तरंग के अनुसार चलनेवाला। आनंदी। मनमौजी। खुशमिजाज। उ०— लहरी जवान हैं। कभी तो रात को तीन तीन बजे तक जागते हैं कभी दिन को दो दो पहर तक सोया करते हैं—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३२।

लहरीला
वि० [हिं० लहर + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लहरीली] दे० 'लहरदार'। उ०—मेरी लहरीली नीली अलकावली समान।—लहर, पृ० ६६।

लहल
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का राग जो दीपक राग का पुत्र कहा जाता है।

लहलह
वि० [हिं० लहलहाना का अनु०] १. लहलहाता हुआ। हरा भरा। सरस। उ०—लाल नील सित पीत कमल कुल सब ऋतु में लहलहाई।—देवस्वामी (शब्द०)। २. हर्ष से फूला हुआ। खुशी से खिला हुआ। प्रफुल्लित।

लहलहा
वि० [हिं० लहलहाना] [वि० स्त्री० लहलही] १. लहलहाता हुआ। फूल पत्तों से भरा और सरस। हरा भरा। २. आनंद से पूर्ण। खुशी से भरा हुआ। प्रफुल्ल। ३. हृष्ट पुष्ट। जैसे,— देह लहलही होना।

लहलहाना
क्रि० अ० [हिं० लहरना (पत्तियों का)] १. लहरानेवाली हरी पत्तियों से भरना। हरा भरा होना। फूल पत्तों से सरस और सजीव दिखाई देना। जैसे,—चारो ओर लहलहाते खेत चले गए हैं। संयो० क्रि०—उठना।—जाना। २. प्रकुल्ल होना। आनंद से पूर्ण होना। खुशी से भरना। जैसे,— इतना सुनते ही वे लहलहा उठे। ३. टेढ़ी मेढ़ी रेखाओं के रूप में होना। रह रहकर दीप्त या व्यक्त होना। उ०—तहाँ कहति है ब्रजभाभिनी। लहलहाति जनु नव दामिनी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३२१। ४. सूखे पेड़ या पौधे में फिर से पत्तियाँ निकलना। पनपना। जैसे,—चार ही दिन पानी पाने से यह पौधा लहलहा- उठा। ४. दुर्बल शरीर का फिर से हृष्ट और सजीव होना। शरीर पनपना। संयों० क्रि०—उठना।

लहलही
वि० स्त्री० [हिं० लहलहाना] दे० 'लहलहा'।

लहली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह दलदल जो किसी जलाशय के सूख जाने पर रह जाती है।

लहसुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'लसोड़ा'।

लहसुन
संज्ञा पुं० [सं० लशुन] १. एक केंद्र से उठकर चारों ओर गिरी हुई लंबी लंबी पतली पत्तियों का एक पौधा, जिसकी जड़ गोल गाँठ के रूप में होती है। उ०—तुलसी अपनो आचरण भलौ न लागत कासु। तेहि न बसाति जो खात नित लहसुन हू की बासु।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—इसकी जड़ या कंद प्याज के ही समान तीक्ष्ण और उग्र गंधवाली होती है; इससे इसे बहुत से आचारवान् हिंदू विशेषतः वैष्णव नहीं खाते। प्याज की गाँठ और लहसुन की गाँठ की बनावट में बहुत अंतर होता है। प्याज की गाँठ कोमल कोमल छिलकों की तहों से मढ़ी हुई होती है; पर लहसुन की गाँठ चारों ओर एक पंक्ति में गुछी हुई फाँकों से बनी होती हैं जिन्हें जवा कहते हैं। वैद्यक में यह मांसवर्धक, शुक्र- वर्धक, स्निग्घ, उष्णवीर्य, पाचक, सारक, कटु, मधुर, तीक्ष्ण, टूटी जगह को ठीक करनेवाला, कफवातनाशक, कंठशोधक, गुरु, रक्तपित्तवर्धक, बलकारक, वर्णप्रसादक, मेघाजनक, नेत्रों को हितकारी, रसायन तथा हृद्रोग, जार्णज्वर, कुक्षिशूल, गुल्म, अरुचि, कास, शोथ, अर्श, आमदोष, कुष्ठ, अग्निमांद्य, कृमि, वायु, श्वास तथा कफनाशक माना जाता है। भावप्रकाश में लिखा है कि लहसुन खानेवालों के लिये खट्टी चीजें, मद्य और मांस हितजनक है; तथा कसरत, धूप, क्रोध, अधिक जल, दूध और गुड़ अहितकर है। वैद्यक में इसके बहुत गुण कहे गए हैं। यह तरकारी के मसाले में पड़ता है। 'भावप्रकाश' में लहसुन के संबंध में यह आख्यान लिखा है—जिस समय गरुड़ इंद्र के यहाँ से अमृत हरकर लिए जा रहे थे, उस समय उसकी एक बूँद जमीन पर गिर पड़ी। उसी से लहसुन की उत्पत्ति हुई। मनु आदि स्मृतियों में इसके खाने का निषेध पाया जाता है। पर्या०—महौषध। अरिष्ट। महाकंद। म्लेच्छकंद। रसोनक। भूतघ्न। उग्रगंध। २. मानिक का एक दोष जिसे संस्कृत में 'अशोभक' कहते हैं।

लहसुनिया
संज्ञा पुं० [हिं० लहसुन] धूमिल रंग का एक रत्न या बहुमूल्य पत्थर। रुद्राक्षक। विशेष—यह नवरत्नों में है तथा लाल, पीले और हरे रंग का भी होता है। जिसपर तीन अर्ध रेखाएँ हों, वह उत्तम समझा जाता है और 'ढाई सूत का' कहलाता है।

लहसुनी हींग
संज्ञा स्त्री० [हिं० लहसुन + हींग] एक प्रकार की कृत्रिम हींग जो लहसुन के योग से बनाई जाती है।

लहसुवा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. लसोड़ा। दे० 'लहसुआ'। २. एक प्रकार का साग।

लहा पु
संज्ञा पुं० [सं० लाक्षा] दे० 'लाह'।

लहाछेह
संज्ञा पुं० [लव्वाक्षेप ?] १. नृत्य की क्रियाओं में से चौथी क्रिया। नाच की एक गति। २. नाचने में तेजी और झपट। उ०—गोपिन सँग निस सरद की रमत रसिक रसराज। लहा- छेह अति गतिन की सबन लखे सब पास।—बिहारी (शब्द०)। ३. तीव्र वर्षा। जोरदार वर्षा। ४. झपट। कूद। धूम- धड़क्का।

लहालह पु †
वि० [हिं० लहलह] दे० 'लहलहा'। उ०—(क) मालति औ मुचकंद है केदलि के परकास। पुरइन जामें लहालहि शोभा अधिक प्रकास।—कबीर (शब्द०)। (ख) नभ पुर मगल गान निसान गहागहे। देखि मनोरथ सुरतरु ललित लहालहे।—तुलसी (शब्द०)।

लहालोट
वि० [हिं० लाभ, लाह + लोटना] १. हँसी से लोटता हुआ। हँसी में मग्न। २. खुशी से भरा हुआ। आनंद के मारे उछलता हुआ। उल्लासमग्न। जैसे,—यह कविता सुनते ही वह लहालोट हो गया। ३. प्रेममग्न। लुभाया हुआ। लुब्ध। मोहित। लट्टू। जैसे,—वह उसका रूप देखते ही लहालोट हो गया। क्रि० प्र०—करना।—होना।

लहास †
संज्ञा स्त्री० [तु० लाश] मुर्दा। मृत शरीर।

लहासन
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह काली भेंड़ जिसकी कनपटी से माथे तक का भाग लाल होता है। (गड़ेरिए)।

लहासी
संज्ञा स्त्री० [सं० लभस, प्रा० लहस (= रस्सी)] १. वह मोटी रस्सी जिससे नाव या जहाज बाँधे जाते हैं। २. रस्सी। डोरी। ३. रास्ते में निकली हुई जड़। (पालकी के कहार)।

लहि †
अव्य० [हिं० लहना (= प्राप्त होना, पहुँचना)] पर्यंत। तक। ताईं। उ०—आवहु करहु कदरमस साजू। चढ़हि बजाइ जहाँ लहि राजू।—जायसी (शब्द०)।

लहिला †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'रहिला'।

लहु पु † (१)
अव्य [हिं० लग] दे० 'लौं'।

लहु (२)
वि० [सं० लघु, प्रा० लहु] छोटा। अल्प। थोड़ा। उ०—बड़ कलेसु कारज अलप बड़ी आस लहु लाहु। उदासीन सीतारमनु समय सरिस निरवाहु।—तुलसी (शब्द०)।

लहुअ ‡
वि० [सं० लघुक, प्रा० लहुअ] अत्यल्प। छोटा। हलका।

लहुरा †
वि० [सं० लघु, प्रा० लहु + रा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० लहुरी] छोटा। कनिष्ठ। जैसे,—लहुरा भाई।

लहुरी †
वि० स्त्री० [हिं० लहुरा] छोटी। कनिष्ठा।

लहू
संज्ञा पुं० [सं० लोह, हिं० लोहू] रक्त। लोहू। रुधिर। खून। मुहा०—लहूलुहान होना = खून से भर जाना। अत्यंत लहू बहना। विशेष रक्तस्राव होना। (अन्य मुहा० के लिये दे० 'खून' और 'रक्त' शब्द के मुहा०)।

लहेर
संज्ञा पुं० [हिं० लहना (= पाना)] ब्राह्मण। (सुनार)।

लहेरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लाह (= लाख) + ऐरा (प्रत्य०)] १. एक जाति जो रेशम रँगने का काम करती है। २. लाह का पक्का रँग चढ़ानेवाला। ३. पक्का रेशम रँगनेवाला।रँगरेज। उ०—तारकसौ अत्तार घनेरे। जोलहा पुनि कलवार लहेरे।—गोपाल (शब्द०)।

लहेरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] छोटे डील का एक सदाबहार पेड़ जो पंजाब, दकिखन, गुजरात और राजपूताने में बहुत होता है। विशेष—इसके हीर की लकड़ी बहुत चिकनी, साफ और मजबूत होती है और कुरसी, मेज, आलमारी इत्यादि सजावट के सामान बनाने के काम में आती है।

लहेसना †
क्रि० स० [देश०] १. साँचे के पल्लों को गाभे पर बैठाना। (बरतन बनानेवाले)। २. किसी लेप आदि को चढ़ाना। पोतना। पलस्तर करना।

लह्न
संज्ञा पुं० [अ०] १. स्वर। आवाज। २. गाने का मधुर स्वर। धुन [को०]।

लह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चिड़िया।