विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/बु
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ बुंद (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बिन्दु] १. बूँद। कतरा। टीप। बिंदु। २. वीय। शुक्र।
⋙ बुंद (२)
वि० थोड़ा सा। जरा सा।
⋙ बुंद (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० बुन्द] तीर। शर।
⋙ बुंदकी
संज्ञा स्त्री० [सं० बिन्दु + हिं० की (प्रत्य०)] दे० 'बुँदकी'।
⋙ बुंदकीदार
वि० [हिं० बुँदकी + फा० दार] दे० 'बुँदकीदार'।
⋙ बुंदा
संज्ञा पुं० [सं० बिन्दुक] [स्त्री० बुंदी] १. बुलाक के आकार का कान में पहनने का एक प्रकार का गहना। लोलक। २. माथे पर लगाने की बड़ी टिकली जो पन्नी या काँच आदी की बनती है और जिसमें बहुत से छोटे छोटे दाने या गोदने के चिह्न होते हैं। ४. बुंद। बिंदु। †५. छोटी गोली। छर्रा।
⋙ बुंदिर
संज्ञा पुं० [सं० बुन्दिर] गृह। घर। मकान [को०]।
⋙ बुंदीदार
वि० [हिं० बूँदी + फा० दार (प्रत्य०)] जिसमें छोटी छोटी बिंदियाँ बनी या लगी हों।
⋙ बुंदेलखंड
संज्ञा पुं० [हिं० बुंदेल] १. संयुक्त प्रांत का वह अंश जिसमें जालोन, झाँसी, हमीरपुर बाँदा के जिले पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त ओड़छा, दतिया, पन्ना, चरखारी, विजावर, छतरपुर आदि अनेक छोटी बड़ी रियासतें भी इसी के अंतर्गत हैं। यह विशेषतः बुंदेले क्षत्रियों का निवास स्थान है। इसलिये यह बुंदेलखंड कहलाता है। २. दे० 'बुंदेला'। विशेष—यहाँ पहले गहरवारों, पड़िहारों और चंदेलों आदि का राज्य था। पर ११८२ ई० में दिल्ली के पृथ्वीराज ने बुंदेल- खंड पर आक्रमण करके उसे अपने अधिकार में कर लिया था। १५४५ ई० में शेरशाह सूर ने बुंदेलखंड पर आक्रमण किया था। पर कालिंजर पर घेरा डालने में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। पीछे से यह प्रदेश मुसलमानों के हाथ में चला गया था। इसके दो विभाग अंग्रेजी शासन में थे जिनमें एकउन्हीं के अधीन और दूसरा अनेक छोटे बडे़ राजाओं ओर जागीरदारों आदि के अधीन था। इस प्रदेश में अनेक पहाड़ हैं ओर बड़ी बड़ी झीलें हैं। जिनके कारण यहाँ की प्राकृतिक शोभा प्रशंसनीय है।
⋙ बुदेलखंडी (१)
वि० [हिं० बुदेलखंड + ई (प्रत्य०)] बुंदेलखंड संबधी। बुंदेलखंड का।
⋙ बुंदेलखंडी (२)
संज्ञा पुं० बुंदेलखंड का निवासी।
⋙ बुंदेलखंडी (३)
संज्ञा स्त्री० बुंदेलखंड का भाषा।
⋙ बुंदेला
संज्ञा पुं० [हिं० बुंद + एला (प्रत्य०)] क्षत्रियों का एक वंश जो गहरवार वश की एक शाखा माना जाता है। विशेष—ऐसा प्रसिद्ध है कि पंचम नामक एक गहरवार क्षत्रिय ने एक बार अपने आपको विध्यवासिनी देवी पर बलिदान चढ़ाना चाहा था। उस समय उसके शरीर से रक्त की जो बूँदे वेदी पर गिरी थीं, उन्हीं से बुदेला वंश के आदि पुरुष की उत्पति हुई थी। चौदहवी शताब्दी लें बुदेलखंड प्रांत में बुदेलों का बहुत जोर था। उसी समय कालिजर और कालपी इनके हाथ आई थी। जब ये लोग बहुत बढे़, तब मुसलमानों से इनकी मुठभेड़ होने लगा। कहा जाता है, पंद्रहवीं शताब्दी के आरभ में बाबर ने बुंदेल सरदार राजा रुद्रप्रताप को अपना सूबेदार बनाया था। बुदेलखंड में बुंदेलों और मुसलमानों में कई बार बड़े बड़े युद्ध हुए थे। बीरसिंह देव और छत्रसाल आदि प्रसिद्ध वीर ओर मुसल- मानों से लड़नेवाले इसी बुंदेले वंश के थे। २. बुदेला वंश का कोई व्यक्ति। ३. बुदेलखंड का निवासी।
⋙ बुंदोरी पु †
संज्ञा पुं० स्त्री० [हि० बूँद + ओरी (प्रत्य०)] बुँदिया या बूँदी नाम की मिठाई।
⋙ बुंलपटी
संज्ञा पुं० [लश०] जहाज में पिछला पाल।
⋙ बुँदकपारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह दंड जो बदमाशों से जमींदार लिया करते थे।
⋙ बुँदकी
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्द + की (प्रत्य०)] १. छोटी गोल बिंदी। २. किसी चीज पर बना या पड़ा हुआ छोटा गोल दाग या धब्बा।
⋙ बुँदकीदार
वि० [हिं० बुँदकी + फा० दार] जिसपर बुँदकियाँ पड़ी या बनी हों। जिसपर बुंदों के से चिह्न हों। बुँदकीवाला।
⋙ बुँदवा †
संज्ञा पुं० [सं० बिन्दुक] १. बुंदा। २. बंदुक में भरकर चलाने की छोटी गोली या छर्रा। उ०—कोउ ढालत गोली कोउ बुँदवन बैठि बनावत।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २४।
⋙ बुँदवान †
संज्ञा पुं० [हिं० बुंद + वान (प्रत्य०)] छोटी छोटी बूँदों की वर्षा।
⋙ बुँदवारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूँद + वारी (प्रत्य०)] दे० 'बुंद', 'बूँद'। उ०—परम लगी नान्हीं बुँदवारी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०७।
⋙ बुँदिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूँद + इया (प्रत्य०)] दे० 'बूँदी'।
⋙ बुँदेलखंड
संज्ञा पुं० [हिं० बुंदेला] दे० 'बुंदेलखंड'।
⋙ बुँदेलखडी
वि०, संज्ञा पुं० [हिं० दुंदेलखंड] दे० 'बुंदेलखंडी'।
⋙ बुँदेलखंडी (२)
संज्ञा स्त्री० बुंदेलखंड की भाषा।
⋙ बुँदेला
संज्ञा पुं० [हिं० बूँद + एला (प्रत्य०)] दे० 'बुंदेला'।
⋙ बुँदोरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूँद + ओरी (प्रत्य०)] १. माथे पर लगाने की टिकली। बुंदा। उ०—काहू के पाँय लगावत जावक काहू पै आपु लगावैं बुँदोरी।—नट०, पृ० ५१। २. बुँदिया या बूँदी नाम की मिठाई। उ०—मतलड छाल ओर मकरोरी। माँठ पेराक और बुँदोरी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बुअंजानि पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रभञ्जन या देशज] महावात। प्रचंड वायु। उ०—किधों बाय बढयो बुअंजानि धीरं।—पृ० रा०, २५। २१३।
⋙ बुआ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बूआ'।
⋙ बुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हास्य। २. अगस्त वृक्ष का फूल [को०]।
⋙ बुक (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० बक्रम] १. एक प्रकार का कलफ किया हुआ महीन पर बहुत करार कपड़ा जो बच्चों की टोपियों में अस्तर देने या अँगिया, कुरती, जनानी चादरें आदि बनाने के काम में आता है। यह साधारण बकरम की अपेक्षा बहुत पतला पर प्रायः वैसा ही करार या कड़ा होता है। २. एक प्रकार की महीन पन्नी।
⋙ बुक (३)
संज्ञा स्त्री० [अ०] पुस्तक। किताब। पोथी। यौ०—बुक बीइंडर = किताब बाँधनेवाला। दफ्तरी। जिल्द- साज। बुकशाप = पुस्तकों को दूकान। बुकसेलर।
⋙ बुकचा
संज्ञा पुं० [तु० बुकचह्] १. वह गठरी जिसमें कपडे़ बँधे हुए हों। २. गठरी। उ०—के उतरे के उतरि के बुकचा बाँधि तयार।—राम० धर्म०, पृ० ७२।
⋙ बुकची (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० बुकचा + ई (प्रत्य०)] १. छोटी गठरो विशेषतः कपड़ों की हठरी। २. दर्जियों की वह थैली जिसमें वे सुई, डोरा, कैंची कपडों, कागज, आदि रखते हैं।
⋙ बुकची (२)
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'बकुची'।
⋙ बुकटा, बुकट्टा †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'बकोटा'।
⋙ बुकनी
संज्ञा स्त्री० [हि० बूकना + ई (प्रत्य०)] १. किसी चीज का महीत पीसा हुआ चूर्ण। २. वह चूर्ण जिसे पानी में घोलने से कोई रंग बनता हो। जैसे, गुलाबी बुकनी। यौ०—बुकनीदार=भुरभुरा। चूर्ण सा।
⋙ बुकवा †
संज्ञा पुं० [हि० बूकना] १. उबटन। बटना। २. दे० 'बुवका'। उ०—मेही मेही बुकवा पिसावो तो पिय के लगावो ही।—धरम० श०, पृ० ४८।
⋙ बुकस
संज्ञा पुं० [सं० बुक्कस] भंगी। मेहतर। हलालखोर।
⋙ बुकसेलर
संज्ञा पुं० [अं०] पुस्तकें बेचनेवाला। पुस्तकविक्रेता।
⋙ बुका
संज्ञा पुं० [हि० बुक्का] दे० 'बुक्का'।
⋙ बुकार †
संज्ञा पुं० [देश०] वह बालू जो बरसात के बाद नदी अपने तट छोड़ जाती है ओर जिसमें कुछ अन्न आदि बोया जा सकता हो। भाट। बालू।
⋙ बुकुन, बुकुना
संज्ञा पुं० [हि० बूकना] १. बुकनी। २. किसी प्रकार का पाचक। उ०—जलित जलेबे अँदरसा बुकुने दधि चटनी चटकारी जू।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ बुक्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृदय। २. वक्षस्थल। स्तन। ३. रक्त। ४. बकरा। अज। ५. समय (को०)।
⋙ बुक्कन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृदय। २. कुत्ते आदि किसी भी पशु का बोलना [को०]।
⋙ बुक्कस
संज्ञा पुं० [सं०] चांडाल [को०]।
⋙ बुक्कसी
संज्ञा पुं० [सं०] नील का पौधा। नील नाम का क्षुप [को०]।
⋙ बुक्का (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हृदय। कलेजा। २. गुरदे का मांस। ३. रक्त। ४. बकरी। ५. प्रचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो मूहँ से फूँककर बजाया जाता था।
⋙ बुक्का (२)
संज्ञा पुं० [हि० बूकना (=पीसना)] १. फूटे हुए अभ्रक का चूर्ण जो चमकीला होता है ओर प्रायः होली में गुलाल के साथ मिलाया जाता हे या इसी प्रकार के ओर काम में आता है। उ०—खेलत गोपाल हरिचंद राधिका के साथ बुक्का एक सोहत कपोल की लुनाई मैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८२२। २. बहुत छोटे छोटे सच्चे मोतियों के दाने जो पीसकर औषध के काम में आते हें अथवा पिरोकर आभषणों आदि पर लपटे जाते हें।
⋙ बुक्का
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बूक'।
⋙ बुक्की
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय [को०]।
⋙ बुखार
संज्ञा पुं० [अ० बुखार] १. वाष्प। भाप। २. ज्वर। ताप। विशेष दे० 'ज्वर'। ३. हृदय का उद्वेग। शोक, क्रोध, दुःख आदि का आवेग। मुहा०—दिल या जी का बुखार निकालना= दे० 'जी' शब्द का मुहा० 'जी का बुखार निकलना'।
⋙ बुखारचा
संज्ञा पुं० [फा० बुखारचह्] १. खिचड़ी के आगे का छोटा बरामदा। २. कोठरी के अदंर तख्तों आदि की बनी हुई छोटी कोठरी।
⋙ बुखारा
संज्ञा पुं० [फा० बुखारह्] रूसी तु्र्किस्तान का एक प्रदेश। यहाँ का सौंदर्य प्रसिद्ध है।
⋙ बुखारी
संज्ञा स्त्री० [फा० बुखारी] १. भाप से चलनेवाली मशीन। २. बखार। खत्ती। ३. दीवार में बनी अँगीठी या आतिश- दान [को०]।
⋙ बुग (१)
संज्ञा पुं० [देश०] मच्छर। (बुदेलखंड)।
⋙ बुग (२)
संज्ञा पुं० दे० 'बुक (२)'।
⋙ बुगचा
संज्ञा पुं० [फा० बुग्चह] दे० 'बुकचा'।
⋙ बुगदर †
संज्ञा पुं० [देश०] मच्छर।
⋙ बुगदा
संज्ञा पुं० [फा०] कसाइयों का छुरा जिससे वें पशुओं की हत्या करते हैं।
⋙ बुगला †
संज्ञा पुं० [हि० बगुला] [स्त्री० बुगली] दे० 'बगुला'। उ०—मछली बुगला की ग्रस्यी देषहु याके भाग। सुंदर यह उलटी भई मूसे षायी काग।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७४८।
⋙ बुगिअल
संज्ञा पुं० [देश०] पशुओं के चरने का स्थान। चरी। चरागाह।
⋙ बुगुल
संज्ञा पुं० [हि० हिहुल] दे० 'बिगुल'।
⋙ बुग्ज
संज्ञा पुं० [अ० बुग्ज] शत्रुभाव। दुश्मनी। भीतरी दुश्मनी। उ०—जिसको मुज बाज पर सदा मन है।—दक्खिनी०,—पृ० २१८। २. डाह। ईर्ष्या। उ०—वे आँखें किस काम की जो आदमी को नफरत, बुग्ज ओर कीने की शक्ल में देखे।—चंद०, पृ० १०१।
⋙ बुचका
संज्ञा पुं० [हि० बुकचा] दे० 'बुकचा'।
⋙ बुज
संज्ञा पुं०, स्त्री० [हि० बुज़] बकरा। बकरी [को०]।
⋙ बुजकसाब
संज्ञा पुं० [फ० बुजकस्साब] वह जो पशुओं की हत्या करता अथवा उनका मांस आदि बेचता हो। कस्साई। बकरकसाब।
⋙ बुजदिल
बि० [फा० बुजदिल] कायर। डरपोक। भीरु।
⋙ बुजदिली
संज्ञा स्त्री० [फा०] कायरता। भीरुता।
⋙ बुजनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] करनफूल के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है ओर जिसके नीचे झुमका भी लटकाया जाता है। इसे प्रायः ब्याही स्त्रियाँ पहनती हैं।
⋙ बुजियाला (१)
संज्ञा पुं० [फा० बुज़] वह बकरी का बच्चा जिसे कलंदर लोग तमाशा करना सिखलाते हैं। (कलंदर)।
⋙ बुजियाला (२)
संज्ञा पुं० [फा० बूजनह्] वह बंदर जिसे कलंदर तनाशा करना सिखाते हें। (कलंजर)।
⋙ बुजरग पु †
वि० [फा० बुजुर्ग] वृद्ध। बड़ा। आदरणीय। श्रेष्ठ। उ०—वेच्यून उसको कहत बुजरग वेनिमून उसै कहे।—सुदर० ग्रं०, भा० १, पृ०२९३।
⋙ बुजुर्ग (१)
वि० [फा० बुजुर्ग] १. जिसकी अवस्था अधिक हो। वृद्ध। बड़ा। २. पाजी। दुष्ठ। (व्यंग्य)।
⋙ बुजुर्ग (२)
संज्ञा पुं० बाप जाजा। पूर्बज। पुरखा। विशेष—इस अर्थ में यह शब्द सदा बहुवचन में बोला जाता है।
⋙ बुजुर्गो (३)
संज्ञा स्त्री० [फा० बुजुर्गी] बुजुर्ग होने का भाव। बड़ापन।
⋙ बुज्जर†
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
⋙ बुज्जी
वि० [फा० बुज] बकरी। (डिं०)।
⋙ बुज्झना ‡
कि० स० [प्रा० बुज्झई] बूझना। समभना। उ०— तरम ब्रह्म परमत्थ बुज्झइ, वित्त बटोरइ कित्ति।—कीर्ति०, पृ० ८।
⋙ बुज्झनिहार पु ‡
वि० [प्रा० बुज्भण + हि० हार] बूझनेवाला। समझनेवाला। उ०—अक्खर रस बुज्झनिहार। नहि, कइ कुल भनि भिक्खरि भउँ।—कीर्ति०,पृ० १८।
⋙ बुज्झा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
⋙ बुझना
कि० अ० [?] १. किसी जलते हुए पदार्थ का जलना वंद हो जाना। जलने का अंत हो जाना। अग्नि या अग्नि- शिखा का शांत होना। जैसे, लकड़ी बुझना, लंप बुझना। २. किसा जलते या तपे हुए पदार्थ का पानी में पड़ने के के कारण ठंढा होना। तपी हुई या गरम चीज का पानी में पड़कर ठंढा होना। ३. पानी का किसी गरम या ताई हुई चीज से छौंका जाना। पानी में किसी चीज का बुझाया जाना जिसमें उस चीज का पानी में कुछ प्रभाव आ जाय। ४. पानी पड़ने या मिलने के कारण ठंढा होना। जैसे, चूना बुझना। ५. चित्त का आवेग या उत्साह आदि मंद पड़ना। जैसे,—ज्यों ज्यों बुढ़ापा आता है, त्यों त्यों जी बुझता जाता है।
⋙ बुझरिया †
संज्ञा स्त्री० [हि० बूझना] शांति। संतोष। बुझारत। उ०— कोउ नहि कहल मोरे मन कै बुझरिया।—गुलाल०, पृ० ८।
⋙ बुझाई
संज्ञा स्त्री० [हि० बुझाना + ई(प्रत्य०)] बुझाने की क्रिया। बुझाने का काम। यो०—बुझाई का हौज=वह होज जिसमें नील के पौधे काटकर पहले पहल पानी में भिहोए जाते हें। २. बुझाने की मजदूरी।
⋙ बुझाना (१)
क्रि० स० [हि० बुझना का सक० रूप] १. किसी पदार्थ के जलने का (उसपर पानी डालकर या हवा के जोर से) अंत कर जेना। जलते हुए पदार्थ को ठंढा करना या अधिक जलने से रोक देना। अग्नि शांत करना। जैसे, आग बुझाना, दिआ हुझाना। २. किसी जलती हुई धातु या ठोस पदार्थ को ठंढे पानी में डाल देना जिसमे वह पदार्थ भी ठंढा हो जाय। तपा हुई चीज को पानी में डालकर ठंढा करना। जैसे— सोनार पहले सोने को तपाते है ओर तब उसे पानी में बुझाकर पीटते ओर पत्तर बनाते हैं। मुहा०—जहर में बुझाना=छुरी, बरछी, तलवार आदि अस्त्रों के फलों को तपाकर किसी जहरीले तरल पदार्थ में बुझाना जिसमें वह फल भी जहरीला हो जाय। ऐसे फलों का घाव लगाने पर जहर भी रक्त में मिल जाता है जिससे घायल आदमी शीघ्र मर जाता हे। जहर का हुझाया हुआ=दे० 'जहर' के मुहा०। ३. ठंढे पानी में इसलिये किसी चीज को तपाकर डालना जिसमें उस चीज का गुण या प्रभाव उस पानी में आ जाय। पानी का छींकना। जैसे,—इनको लोहे का बुझाया पानी पिलाया करो। ४. पानी की सहायता से किसी प्रकार का ताप दूर करना। पानी की डालकर टंढा करना। जैसे, प्यास बुझाना, चूना बुझाना, नील बुझाना। ५. चित्त का आवेग या उत्साह आदि शांत करना। जैसे, दिल की लगी बुझाना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
⋙ बुझाना (२)
क्रि० अ० बुझ जाना। शांत होना। दे० बुझना।
⋙ बुझाना (३)
क्रि० स० [हिं० बूझाना का प्रे० रूप] बूझने का काम दूसरे से कराना। किसी को बूझने में प्रवृत्त करना। जैसे, पहेली बुझाना। २. बोध कराना। समझाना। ३. संतोष देना। जी भरना। उ०—जो बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा।— मानस, १। ३९।
⋙ बुझारत
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुझाना (= समझाना)] १. किसी गाँव के जमीदारों के आय व्यय का वार्षिक लेखा। २. समझाना बुझाना। तोष देना।
⋙ बझावना †
क्रि० स० [हिं० बुझाना] बोध कराना। समझाना। उ०— बहु विधि बचन बुझावए नेहा।— विद्यापति, पृ० ३२१।
⋙ बुझोवल
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूझना + ओवल (प्रत्य०)] दे० 'पहेली'।
⋙ बुझझ †
संज्ञा स्त्री० [सं० बुद्ध्य, प्रा० बुभझ, रोज बूझणों, बूझना] दे० 'बूझ'। उ०— मारू मूँ आखइ सखी, एह हमारी बुझझ। साल्ह कुँअर सुहिणइ मिल्यउ, सुंदरी सउ वर तुभझ।— ढोला०, दू० २४।
⋙ बुट पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूटी या बूट] दे० 'बूटी'। उ०— जातुधान बुट पुटपाक लंका जात रूप रतन जतन जारि कियो है मृगांक सोब।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बुटना पु †
क्रि० अ० [सं० √ बुड् (=सवरण)] दौड़कर चला जाना या हट जाना। भागना। उ०— (क) आशा करि आयो हुती पास रावरे मैं गाढहू के पास दुख दूरि बुटि बुटि गे।— पद्माकर (शब्द०)। (ख) राम सिया शिव सिंधु धरा अहि देवन के दुख पुंज बुटे।— हनुमान (शब्द०)।
⋙ बुट्ठाना, बुट्ठना पु
क्रि० अ० [सं० बृष्टि या वर्षण] ऊपर से गिरना। उ०— (क) करी कंध टुट्टैं इते उत्त बुट्टै।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ११। (ख) काल ग्रेह को फिरे मेद बुट्ठै धाराधर।—पृ० रा०, ५५। ९२।
⋙ बुट्टि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बृष्टि, प्रा० बुट्टि] वृष्टि। वर्षा। उ०— मनो पावसी बुट्टि दादुल्ल रोरं।— पृ० रा०, २। ४७५।
⋙ बुड़ंत †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुड़ना] डूबने या बुड़ने की स्थिति। नष्ट या समाप्त होने की स्थिति। उ०—नट कुपठित होने से तो फिर बुड़त हो जाती है।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३५।
⋙ बुड़की †
संज्ञा स्त्री० [हिं० डूबना स० √ बुड] डुबकी। गोता। उ०— (क) श्री हरिदास के स्वामी स्यामा कुंजाबिहारी लै बुड़की गरें, लागि चौकि परी कहाँ जाऊँ।—हरिदास (शब्द०)। (ख) करति सलान सब प्रेम बुड़की देही समुझि हाई भजि तीर आवै।— सूर (शब्द०)।
⋙ बुड़ना
क्रि अ० [हिं०] दे० 'बूड़ना'।
⋙ बुड़बक †
वि० [सं० बृद्ध, प्रा० बुढ्ढ+सं० बच(=बक)या सं० मूढवच] मूखं। बेवकूफ। अनजान। बोड़म।
⋙ बुड़बकपन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुड़बक + पन (प्रत्य०)] मूर्खता। बेबकूफी। उ०— जल में रहकर मगर से बैर करना बुड़बकपन है।—गोदान, पृ० ३१।
⋙ बुड़बुड़ाना
क्रि० अ० [अनु०] मन ही मन कुढ़कर या क्रोध में आकर अस्पष्ट रूप से कुछ बोलना। बड़बड़ करना।
⋙ बुड़भस
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुड़भस] वृद्ध का जवानों की तरह रंगीन बनना। बुड्ढे का युवक के समान विवेकरहित आचरण करना। उ०— अजी किबला अब ते हवा ही ऐसी चली है कि जवान तो जवान बुड्ढों तक को बुड़मस लगा है।— फिसाना०, भा०, १, पृ० ९।
⋙ बुड़ाना † पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'डुबाना'।
⋙ बुड़ाव
संज्ञा पुं० [हिं० बुड़ना + आव (प्रत्य०)] दे० 'डुबाव'।
⋙ बुड़ुआ, बुडुवा †
संज्ञा पुं० [हिं० बूड़ना] डूबकर मरनेवाला ब्याक्त जो प्रेत बन जाता है। यह मोका पाकर नहानेनालों को डुबाकर मार डालता है।
⋙ बुड़्ढा †
वि० [सं० बृद्ध, प्रा,० बुडु] जिनकी अवस्था अधिक हो गई हो। ५०-६० वर्ष से अधिक अवस्थावाला। वृद्ध। उ०— जवान तो जवान बुड्ढों तक को बुढ़भस लगा है।— फिसाना० भा० १, पृ० ९।
⋙ बुढ़ पु †
वि० [सं० बृद्ध प्रा० बुडु, हिं० बूढ़ + बूढ़ा] वृद्ध। बूढ़ा। उ०— बसह चढ़ल बुढ़ आवे।—विद्यापति, पृ० ३९५।
⋙ बुढ़ना †
संज्ञा पुं० [सं० वर्द्धन] १. छडीला। पत्थरफूल। ‡२. वृद्ध। बूढ़ा।
⋙ बुढ़भस
संज्ञा स्त्री० [सं० बृद्ध, प्रा० बुड़ढ, हिं० बुढ़ + अ० हबस, हिं० भस, हौंस] बुड़भस। ल०— बुड्ढों का बुढ़भस हास्या- स्पद वस्तु है।— गोदान, पृ० ८।
⋙ बुढ़वा †
वि० [हिं०] [स्त्री० बुढ़िया] दे० 'बुड्ढा'। उ०— विद्यापति काँब भाने ओ नाह बुढ़वा जगत् किसान।— विद्यापति, पृ० ३९५।
⋙ बुढ़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूढ़ा + आई (प्रत्य०)] बुढ़ापा। वृद्धत्व। वृद्ध या बूढ़ा होन का भाव। उ०— स्वर मे क्या भरी बुढ़ाई है, दोनों ढलते जाते उन्मन।— आराधना, पृ० २२।
⋙ बुढ़ाना
क्रि० अ० [हिं० बूढ़ा + ना (प्रत्य०)] वृद्धावस्था को प्राप्त होना। बुड्ढा होना। उ०— अब मैं जानी देह बुढ़ानी। सीस पाँव धर कह्यो न मानत तनु की दशा सिरानी।— सूर (शब्द०)।
⋙ बुढ़ापा
संज्ञा पुं० [हिं० बूढ़ा + पा(प्रत्य०)] १. वृद्धावस्था। वुड़ढे होने की अवस्था। २. बुड्ढे होने का भाव। बुड्ढापन।
⋙ बढ़ियाबैठक
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुढ़िया + बैठक (=कसरत)] एक प्रकार की बैठक (कसरत)। इसमें दीवार खंभे आदि का सहारा लेकर बार बार उठते बैठते हैं।
⋙ बुढ़ी पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] बूढ़। बीर बहूटी। उ०— बुढ़ी लुढ़ी जु हरित भई धरनी। उच्छलिंघ्र छवि फबि हियहरनी।— नंद० ग्रं०, पृ० २८९।
⋙ बुढ़ौतो †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूढ़ा + औती (प्रत्य०)] बुढ़ापा। वृद्धावस्था।
⋙ बुत
संज्ञा पुं० [फा०, मि० सं० बुद्ध] १. मूर्ति। प्रतिमा। पुतला। २. वह जिसके साथ प्रेम किया जाय। प्रियतम। उ०— खुद ब खुद आज जो वो वुत आया, मैं भी दौड़ा खुदा खुदा करके।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २२०। ३. सेसरबुत नाम के खेल में वह दाँव जिसमें खिलाड़ी के हाथ में केवल बसवीरें हों अथवा तीनों ताशों की बुंदियों का जोड़ १०, २० या ३० हो। विशेष दे० 'सेसरबुत'। यौ०—बुतखाना=मंदिर। मूर्तिस्थान। बुततराश=मूर्ति बढ़नेवाला। बुतपरस्त। बुर्तशकन।
⋙ बुत (२)
वि० मूर्ति की तरह चुपचाप बैठा रहनेवाला। जो कुछ भी बोलता चालता न हो। जैसे, नशे में बुत हो जाना।
⋙ बुतना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बुझना'।
⋙ बुतपरस्त
संज्ञा पुं० [फा०] वह जो मूर्तियों को पूजता हो। मूर्तिपूजक। २. वह जो सौंदर्य का उपासक हो। रसिक।
⋙ बुतपरस्ती
संज्ञा स्त्री० [फा०] मूर्तिपूजा।
⋙ बुतशिकन
संज्ञा पुं० [फा०] वह जो प्रतिमाओं को तोडता या नष्ट करता हो। वह जो मूर्तिपूजा का घोर विरोधी हो।
⋙ बुतात †
संज्ञा स्त्री० [?] खर्च। ब्यय। जरूरियात। उ०—जमीन इतनी ही थी कि चार महीने का बुतात उनकी उपज से निकल आता।—नई०, पृ० ४।
⋙ बुताना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बुझाना'।
⋙ बुताना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बुझाना'।
⋙ बुताम
संज्ञा पुं० [अं० वटन] पहनने के कपड़े में लगाई जानेवाली कड़ी चिपटी घुंडी। बटन।
⋙ बुत्त
वि० [फा० वुत] दे० 'बृत'। उ०—हाजिर छाड़ि बुत्त की पूजै।—कबीर० शब्द० पृ० ३१।
⋙ बुत्ता
संज्ञा पुं० [देश०] १. धोखा। झाँसा। पट्टी। मुहा०—बुत्ता देना= झाँसा देना। दम देना। यौ०—दमबुत्ता। २. बहाना। हीला। मुहा०—बुत्ता यताना या बता देना=बहाना करना। हीला करना। उ०— अब दिल्लगी जब साहब को ले के आएगी ओर मैं बुत्ता बता दूँगी। दिल में गालियाँ देती और कोसती ही जायगी।— सैर०, पृ० १८।
⋙ बुद
वि० [देश०] पाँच। (दलाल)।
⋙ बुदकना †
क्रि० अ० [अनु०] बुद बुद करना। उ०— क्षण भरभुला सकें हम, नगरी की बेचैन बुदकती गड्डंमड्ड अकुलाहट।—हरी घास०, पृ० ६०।
⋙ बुदगल †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बुदवुद'। उ०— बुदगल देखो जल- सबै, बुदगल कहूँ न होय। कहवे की दूजो कहो जल बुदगल नहिं होय।—वरण०, पृ० २८६।
⋙ बुदबुद
संज्ञा पुं० [सं० बुदबुद] पानी का बुलबुला। बुल्ला। उ०— उस विराट आलाड़न में ग्रह तारा बुदबुद से लगते।— कामायनी, पु० १७।
⋙ बुदबुदा
संज्ञा पुं० [सं० बुदबुद] पानी का बुलबुला। बुल्ला। उ०—तासु में बुदबुदे अंड उपजै मिटैं गुरु दई दृष्टि जा सूँ निहारा।— चरण० बानी, पृ० १३०।
⋙ बुदलाय
वि० [दलाल० बुद + लाय (प्रत्य०)] पंद्रह। दस और पाँच। (दलाल)।
⋙ बुद्ध (१)
वि० [सं०] १. जो जगा हुआ हो। जागरित। २. ज्ञानवान्। ३. पंडित। विद्वान्। ४. विकासित। खिला हुआ।
⋙ बृद्ध (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रवुद्ध, जिसने बुद्धत्व प्राप्त कर लिया हो। सुप्रसिद्ध बोद्ध धर्म के प्रवर्तक एक बहुत बड़े महात्मा जिनका जन्म ईसा के लगभग ५५० वर्ष पूर्व शाक्यवंशी राजा शुद्धीदन की रानी महामाया के गर्भ से नेपाल की तराई के 'लुंबिनी' नामक में साघ की पूर्णिमा को हुआ था। विशेष— इनके जन्म के थोडे़ ही दिनों बाद इनकी माता का देहात हो गया था और इनका पालन इनकी विमाता महाप्रजावती ने बहुत उत्तमतापूर्वक किया था। इनका नाम गौतम अथवा सिद्धार्थ रखा गया था और इन्हें कौशिक विश्वामित्र ने अनेक शास्त्रों, भाषाओं और कलाओं आदि की शिक्षा दी थी। बल्यावस्था में ही ये प्रायः एकांत में बैठकर त्रिविध दुःखों की निवृत्ति के उपाय सोचा करते थे। युवावस्था में इनका विवाह देवदह की राजकुमारी गोपा के साथ हुआ था। शुद्धादन ने इनकी उदासीन वृत्ति देखकर इनके मनोविनोद के लिये अनेक सुंदर प्रासाद आदि बनवा दिए थे और सामग्री एकत्र कर दी थी तिसपर भी एकांतवास और चिताशीलता कम न होती थी। एक बार एक दुर्बल वृद्ध को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देखकर ये संसार से ओर भी विरक्त तथा उदासीन हो गए। पर पीछे एक संन्यासी की देखकर इन्होंने सोचा कि संसार के कष्टों से छुटकारा पाने का उपाय वैराग्य ही है। वे संन्यासी होने की चिंता करने लगे ओर अंत में एक दिन जब उन्हें समाचार मिला कि गोपा के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ है, तब उन्होने संसार को त्याग देना निश्चित कर लिया। कुछ दिनों बाद आषाढ़ की पूर्णिमा की रात को अपनी स्त्री को निद्रावस्था में छोड़कर उन्तीस वर्ष की अवस्था में ये घर से निकल गए ओर जंगल में जाकर इन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की। इसके उपरांत इन्होंने गया के समीप निरंजना नदी के किनारे उरुबि ग्राम में कुछ दिनों तक रहकर योग- साधन तथा तपश्चर्या की ओर अपनी काम, क्रोध, आदि वृत्तियों का पूर्णरूप से नाश कर लिया। इसी अवसर पर घर से निकलने के प्रायः सात वर्ष बाद एक दिन आषाढ़ की पूर्णिमा की रात को महाबोधि वृक्ष के नीचे इनको उद् बोधन हुआ और इन्होंने दिव्य ज्ञान प्राप्त किया। इसी दिन से ये गौतम बुद्ध या बुद्ध देव कहलाए। इसके उपरांत ये धर्मप्रचार करने के लिये काशी आए। इनके उपदेश सुनकर धीरे धीरे बहुत से लोग इनके शिष्य और अनुयायी होने लगे ओर थोड़े ही दिनों में अनेक राजा, राजकुमार और दूसरे प्रतिष्ठित पुरुष भी इनके अनुयायी बन गए जिनमें मगध के राजा बिंबिसार भी ये। उम समय तक प्रायः सारे उत्तर भारत में उनकी ख्याति हो हो चुकी थी। कई बार महाराज शुद्धोदन ने इनको देखने के लिये कपिलवस्तु में बुलाना चाहा, पर जो लोग इनको बुलाने के लिये जाते थे, वे इनके उपदेश सुनकर विरक्त हो जाते और इन्हीं के साथ रहने लगते थे। अंत में ये एक बार स्वयं कपिलवस्तु गए थे जहाँ इनके पिता अपने बंधु- बांधवां सहित इनके दर्शन के लिये आए थे। इस समय तक शुद्धोदन को आशा थी कि सिद्धार्थ गौतम कहने सुनने से फिर गृहस्थ आश्रम में आ जायँगे और राजपद ग्रहण कर लेंगे। पर इन्होंने अपने पुत्र राहुल को भी अपने उपदेशों से मुग्ध करके अपना अनुयायी बना लिया। इसके कुछ दिनों के उपरांत लिच्छिवि महाराज का निमंत्रण पाकर ये वैशाली गए थे। वहाँ से चलकर ये संकाश्य, आवस्ती, कौशांबी, राजगृह, पाटलिपुत्र, कुशीनगर आदि अनेक स्थानों में भ्रमण करते फिरते थे; और सभी जगह हजारों आदमी इनके उपदेश से संसार त्यागते थे। इनके अनेक शिष्य भी चारों ओर धूम घूमकर धर्मप्रचार किया करते थे। इनके धर्म का इनके जीवनकाल में ही बहुत अधिक प्रचार हो गया था। इसका कारण यह या कि इनके समय में कर्मकांड का जोर बहुत बढ़ चुका था और यज्ञों आदि में पशुओं की हत्या बहुत अधिक होने लगी थी। उन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोककर लोगों को जीवमात्र पर दया करने का उपदेश दिया था। इन्होंने प्रायः ४४ वर्ष तक बिहार तथा काशी के आस पास के प्रांतों में धर्मप्रचार किया था। अंत में कुशीनगर के पास के वन में एक शालवृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका शरीरांत या परिनिर्वाण हुआ था। पीछे से इनके कुल उपदेशों का संग्रह हुआ जो तीन भागों में होने के कारण 'त्रिपिटक' कहलाया। इनका दार्शनिक सिद्धांत ब्रह्मवाद या सर्वात्मवाद था। ये संसार को कार्य कारण के अविच्छिन्न नियम में बद्ध और अनादि मानते थे तथा छह इद्रियों और अष्टांग मार्ग को ज्ञान तथा मोक्ष का साधन समझते थे। विशेष— दे० 'बौद्ध धर्म'। हिंदू शास्त्रों के अनुसार बुद्धदेव दस अवतारों में से नवें अवतार और चौबीस अवतारो में से तेई सवें अवतार माने जाते हैं। विष्णु पुराण और वेदांत सूत्र आदि में इनके संबंध की बातें ओर कथाएँ दी हुई है।यौ०— बुद्धगया= बिहार प्रदेश के गया जिले का वह स्थान जहाँ बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। बुद्ध द्रव्य=बुद्ध संबंधी स्मृतिचिह्न। बुद्ध धर्म= दे० 'बौद्धधर्म'। २. ज्ञान। बोध (को०)। ३. परमात्मा (को०)। ४. वह जो ज्ञानी हो। ज्ञानवान्। संत (को०)।
⋙ बुद्ध पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० बुद्ध] १. दे० 'बुध' (ग्रह)। उ०— सुत भयौ सोम कै वुद्ध आय।—ह० रासो, पृ० ६। २. बुधवार। बुध का दिन।
⋙ बुद्ध पु (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० वुधि] बुद्धि। अक्ल। समझ। उ०— (क) अष्टपदी अभ्यास करै तिहुँ बुद्ध बढ़ावै।— भक्तमाल (प्रि०), पृ० ५०१। (ख) बड़े आदमियों की बुद्ध भी बड़ी ही होती है।— रंगभूमि, भा० १, पृ० ४९७।
⋙ बुद्धद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध भगवान् की अस्थि, केश, नख, आदि स्मृतिचिह्न जो किसी स्तूप में संरक्षित हों।
⋙ बुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह शक्ति जिसके अनुसार मनुष्य किसी उपस्थित विषय के संबंध में ठीक ठीक विचार या निर्णय करता है। विवेक या निश्चय करने की शक्ति। अक्ल। समझ। विशेष— हमारे यहाँ बुद्धि अंतःकरण की चार वृत्तियों में से दूसरी वृत्ति मानी गई है ओर इसके नित्य और अनित्य दो भेद रखे गए हैं। इसमें से नित्य बुद्धि परमात्मा की और अनित्यबुद्धि जीव की मानी गई है। सांख्य के मत से त्रिगुणात्मिका प्रकृति का पहला विकार यही बुद्धितत्व है; और इसी को महतत्व भी कहा गया है। सांख्य मे यह भी माना गया है कि आरंभ में ज्यों ही जगत् अपनी सुपुप्तावस्था से उठा था, उस समय सबसे पहले इसी महत् या बुद्धितत्व का विकास हुआ था। नैयायिकों न इसके अनुभूति और स्मृति ये दो प्रकार माने हैं। कुछ लोगों के मत से बुद्धि के इष्टानिष्ट, विपत्ति, व्यवसाय, समाधिता, संशय ओर प्रतिपत्ति यो पाँच गुण और कुछ लोगों के मत से सुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, उह, उपोह ओर अर्थविज्ञान ये सात गुण हैं। पाश्चात्य विद्वान् अतःकरण के सब व्यापारों का स्थान मस्तिष्क मानते हैं। इसलिये उनके अनुसार बुद्धि का स्थान भी मस्तिष्क हो है। यद्यपि यह एक प्राकृतिक शक्ति है, तथापि ज्ञान और अनुभव की सहायता से इसमें बहुत कुछ वृद्धि हो सकती है। पर्या०—मनीषा। धीष्णा। घी। प्रज्ञा। शेमुपी। मति। प्रेक्षा। चित्। चेतना। धारण। प्रतिपत्ति। मेधा। मन। मनस्। ज्ञान। बोध। प्रतिभा। विज्ञान। संख्या। मुहा०—'बुद्धि' शब्द के मुहा० के लिये दे० 'अक्ल शब्द'। २. उपजाति वृत्त का चौजहवाँ भेद जिसे सिद्धि भी कहते हैं। ३. एक छेद जिसके चारो पदों में क्रम से १६, १४, १४, १३ मात्राएँ होती है। इसे 'लक्ष्मी' भी कहते हैं। ४. छप्पय का ४२ वाँ भेद।
⋙ बुद्धिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग का नाम।
⋙ बुद्धिकामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
⋙ बुद्धिकृत
वि० [सं०] बुद्धिपूर्वक किया हुआ [को०]।
⋙ बुद्धिकुशल
वि० [सं०] [संज्ञा बुद्धिकौशल] चतुर।
⋙ बुद्धिगम्य
वि० [सं०] समझ में आने योग्य। उ०—आत्यंतिक सुख इंद्रिय सुखो के परे फलतः बुद्धिगम्य हे।—सा० समीक्षा, पृ० १।
⋙ बुद्धिचक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] प्रज्ञाचक्षु। धृतराष्ट्र। उ०— करण दुशासन नृप मन माना। बुद्धिचक्षु पहँ कीनह पयाना।— (शब्द०)।
⋙ बुद्धिचिंतक
वि० [सं० बुद्धिचिन्तक] बुद्धिपूर्वक चिंतन करनेवाला [को०]।
⋙ बुद्धिजीवी
संज्ञा पुं० [सं० बुद्धिजीविन्] वह जो बुद्धि के द्वारा अपनी जीविका का निर्वाह करना हो।
⋙ बुद्धितत्व
संज्ञा पुं० [सं० बुद्धितत्व] दे० 'बुद्धि'।
⋙ बुद्धिदोष
संज्ञा पुं० [सं०] अज्ञान। नासमझी।
⋙ बुद्धिद्यूत
संज्ञा पुं० [सं०] शतरंज का खेल [को०]।
⋙ बुद्धिपर
वि० [सं०] जो बुद्धि से परे हो। जिस तक बुद्धि न पहुँच सके। उ०— राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर। अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बुद्धिपूर्व, बुद्धिपूर्वक
वि० [सं०] सोच समझकर। जान बूझकर।
⋙ बुद्धिपुरस्सर
क्रि० वि० [सं०] दे० 'बुद्धिपूर्व'।
⋙ बुद्धिधबल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का खेल। २. बुद्धि शक्ति। ज्ञान की शक्ति (को०)।
⋙ बद्धिभेद
संज्ञा पुं० [सं०] निश्चयात्मक ज्ञान न होना। समझ की गड़बड़ी। संशय। संदेह।
⋙ बुद्धिभ्रंश
संज्ञा [सं०] जिसमें अनीति नीति प्रतीत हो ऐसा बुद्धि संबंधी रोग या दोष। बुद्धिनाश दोष जिसमें बुद्धि ठीक काम न करे। उ०— बुद्धिभ्रश ते लहत बिनासहि। ताहि अनीति नीति मासहि।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २८४।
⋙ बुद्धिभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बुद्धिभेद'। उ०— किंतु हाय, वह हुई लीन जब, क्षीण बुद्धिभ्रम में काया।—अनामिका, पृ० ३१।
⋙ बुद्धिमंत
वि० [सं० वुद्धमान्] दे० 'बुद्धिवंत'। उ०—ताहू को व्याकरण, न्याय, वेदांतादि पठित करि कै जे बुद्धिमंत हैं तेई ग्रहन करि सकें।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५२०।
⋙ बुद्धिमत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्धिमान् होने का भाव। समझदारी। अक्लमंदी।
⋙ बुद्धिमानी
संज्ञा स्त्री० [सं० बुद्धिधमान + हीं० ई (प्रत्य०)] दे० 'बुद्धिमत्ता'।
⋙ बुद्धिधमोह
संज्ञा पुं० [सं०] दिमाग का काम न करना या घबड़ाना [को०]।
⋙ बुद्धियोग
संज्ञा पुं० [सं०] ज्ञान योग [को०]।
⋙ बुद्धिलाघव
संज्ञा पुं० [सं०] शीघ्र ठीक निर्णय करना। किसी विषय पर ठीक निर्णय लेने में क्षिप्रता की स्थिति [को०]।
⋙ बुद्धिवंत
वि० [सं० बुद्धि + वंत (प्रत्य०)] बुद्धिमान्। अक्लमंद। समझदार।
⋙ बुद्धिवाद
संज्ञा पुं० [सं० बुद्धि + वाद] १. वह वाद या विचार- धारा जिसमें बुद्धि का प्राधान्य हो। धर्म में भी बुद्धि को ही प्रमाण माननेवाला मत।
⋙ बुद्धिवादी
वि० [सं० बुद्धिवादिन्] बुद्धिवाद संबंधी विचारधारा को माननेवाला।
⋙ बुद्धिविलास
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धि की क्री़डा या खेल। कल्पना [को०]।
⋙ बुद्धिवैभव
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धि की प्रखरता। बौद्धिक संपत्ति [को०]।
⋙ बुद्धिशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्धिबल [को०]।
⋙ बुद्धिशास्त्र
वि० [सं०] ज्ञान वा बुद्धि रूपी शास्त्र से युक्त [को०]।
⋙ बुद्धिशाली
वि० [सं० बुद्धिशालिन्] बुद्धिमान्। समझदार। अक्लमंद।
⋙ बुद्धिशील
वि० [सं०] बुद्धिमान्। बुद्धिशाली। अक्लमंद।
⋙ बुद्धिशुद्ध
वि० [सं०] सच्चे विचार या भाव से युक्त। सच्ची नीयतवाला [को०]।
⋙ बुद्धिश्रीगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ बुद्धिसकीर्ण
संज्ञा सं० [सं० बुद्धिसङ्कीर्ण] एक प्रकार का कक्ष [को०]।
⋙ बुद्धिसंपन्न
वि० [सं० बुद्धिसम्पन्न] दे० 'बुद्धिशील'।
⋙ बुधिसख
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बुद्धिसहाय'।
⋙ बुधिसहाय
संज्ञा पुं० [सं०] मंत्री। सचिव। वजीर।
⋙ बुद्धिहत
वि० [सं०] जिसमें बुद्धि न हो। बुद्धिहीन। वे अकल।
⋙ बुद्धिहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्धि को नष्ट करनेवाली मदिरा। मद्य। शराब।
⋙ बुद्धिहीन
वि० [सं०] जिसे बुद्धि न हो। मूर्ख। बेवकूफ।
⋙ बुद्धींद्रय
संज्ञा स्त्री० [सं० बुद्धीन्द्रिय] दे० 'ज्ञानेंद्रिय'।
⋙ बुद्धी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० बुद्धि] दे० 'बुद्धि'।
⋙ बुध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सौर जगत् का एक ग्रह जो सूर्य के सबसे अधिक समीप रहता है। विशेष— यह प्रायः सूर्य से ३६०००००० मील की दूरी पर अट्ठासी दिन में उसकी परिक्रमा करता है। इसका व्यास प्रायः ३१०० मील के लगभग है और यह २४ घटे ५।। मिनट में अपनी धुरी पर घूमता है। इसकी कक्षा का व्यास ७२०००००० मील है। और इसकी गति प्रति घटे प्रायः एक लाख मील है। सूर्य के बहुत समीप होने के कारण यह दूरबीन की सहायता के बिना बहुत कम देखने में आता है। यह ना तो सूर्य से कभी बहुत पहले उदय होता है और न कभी उसके बहुत बाद अस्त होता है। इसमें स्वयं अपना कोई प्रकाश नहीं है और यह केवल सूर्य के प्रकाश के प्रतिबिंब से ही चमकता है। यह आकार में पृथ्वी का प्रायः १८ वाँ अंश है। २. भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नो ग्रहों में से चौथा ग्रह जो पुराणानुसार देवताओं के गुरु बृहस्पति की स्त्री तारा के गर्भ से चंद्रमा के वीर्य से उत्पन्न हुआ था। विशेष— कहते हैं, चंद्रमा एक बार तारा को हरण कर ले गया था। ब्रह्मा तथा दूसरे देवताओं के बहुत समझाने पर भी जब चंद्रमा ने तारा को नहीं लौटाया तब बृहस्पति और चंद्रमा में युद्ध हुआ। बाद में ब्रह्मा ने बीच में पड़कर बृहस्पति को तारा दिलवा दी। पर उस समय तक तारा चंद्रमा से गर्भवती हो चुकी थी। बृहस्पति के बिग़ड़ने पर तारा ने तुरंत प्रसव कर दिया जिससे बुध की उत्पत्ति हुई। इसके अतिरिक्त काशीखंड तथा दूसरे अनेक पुराणों में भी बुध के संबंध की कई कथाएँ हैं। यह नपुंसक, शूद्र, अथर्ववेद का ज्ञाता, रजोगुणी, मगध देश का अधिपति, बालस्वभाव, धनु के आकार का और दूर्वाश्याम वर्ण का माना जाता है। रवि और शुक्र इसके मित्र और चंद्रमा इसका शत्रु माना जाता है। किसी किसी का मत है कि इसने वैवस्वत मनु की कन्या इला से विवाह किया था जिसके गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ था। यह भी कहा जाता है कि ऋग्वेद के मंत्रों का इसी ने प्रकाश किया था। ३. पंडित, विद्वान्, शास्त्रज्ञ। ४. अग्निपुराण के अनुसार एक सूर्यवंशी राजा का नाम। ५. भागवत के अनुसार वेगवानु राजा के पुत्र का नाम जो तृणविंदु का पिता था। ६. देवता। ७. कुत्ता।
⋙ बुध पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० बोध] ज्ञान। बोध। समझ। उ०— (क) बुध का कोट सबल नाहाँ टूटे। (ख) नाते मनसा कीस बोध लूटे।—रामानंद०, पृ० ३२ (ख) अजब लोग ओ कोई हैं बुध के कम। जो इंसान देते हैं लेकर दिरम।— दक्खिनी० पृ० १५२।
⋙ बुधजन
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धिमान् एवं पंडित। शिक्षित जन [को०]।
⋙ बुधजामी
संज्ञा पुं० [सं० बुध + हिं० जन्मना(=उत्पन्न होना)] बुध के पिता, चंद्रमा।
⋙ बुधरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] बुध ग्रह का रत्न। पन्ना। पुखराज [को०]।
⋙ बुधवान पु †
वि० [हिं० बुध + वान] दे० 'बुद्धिमान'। उ०— बुल्लि सुजान करेय दीवानह। काइथ सब लायक बुधवानह।— प० रासो, —। पृ० २०।
⋙ बुधवार
संज्ञा पुं० [सं०] सात वारों में से एक वार जो बुध ग्रह का माना जाता है। यह मंगलवार के बाद और बृहस्पतिवार से पहले पड़ता है। रविवार से चौथा दिन।
⋙ बुधवासर
संज्ञा पुं० [सं०] बुध का दिन।
⋙ बुधसुत
संज्ञा पुं० [सं०] बुध का सुत। बुध का पुत्र। पुरूरवा [को०]।
⋙ बुधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी [को०]।
⋙ बुधान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धिमान् व्यक्ति। ज्ञानी संत। २. आचार्य। उपदेष्टा।
⋙ बुधान (२)
वि० १. जानकार। विज्ञ। ज्ञानी। २. वेदशिक्षक। ३. जगा हुआ। जागरित। ४. नम्रभाषी। मृदुभाषी [को०]।
⋙ बुधि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० बुद्धि] दे० 'बुद्धि'। उ०— सूकर स्वान वृषभ खर की बुधि सोइ ओहिकाँ आवै।— जग० श०, भा० २, पृ० ९०।
⋙ बुधित
वि० [सं०] जाना हुआ। समझा हुआ [को०]।
⋙ बुधिल
वि० [सं०] बुद्धिमान्। शिक्षित। विज्ञ [को०]।
⋙ बुधिवान पु
वि० [हिं० बुधि + वान (प्रत्य०)] बुद्धिमान्। उ०— सोइ श्रूप अखंड बिराजत है, बुधिवान सोई नर श्रूप को गावत है।— नट० पृ० १२।
⋙ बुध्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. सतह। बुनियाद। आधार। किसी वस्तु का अतिम हिस्सा। जैसे, वृक्ष की जड़। २. आकाश। ३. शरीर। ४. शिव का एक रूप। (प्रायः 'अहि' के साथ 'बुध्न्य' रूप में भी प्रयुक्त)। ५. दस्ता। मुठिया [को०]।
⋙ बुध्य
वि० [सं०] बोध के योग्य। जानने लायक [को०]।
⋙ बुनकर
संज्ञा पुं० [सं० वयन + कर] वस्त्र बुननेवाला। जुलाहा। उ०— और बुनकरों का मुहल्ला (ठान) था।— हिंदु० सभ्यता, पृ० २९६।
⋙ बुनना
क्रि० स० [सं० वयन] १. जुलाहों की वह क्रिया जिससे वे सूतों या तारों की सहायता से कपड़ा तैयार करते हैं। बिनना। उ०— हमै बात कहै कौ प्रयोजन का बुनिबे मैं न बीन बजाइबै मैं।— ठाकुर०, पृ० १५। विशेष— इस क्रिया में पहले करगह में लंबाई के बल बहुत से सूत बराबर बराबर फैलाए जाते हैं, जिसे ताना कहते हैं। इसमें करगह की राछों की सहायता से ऐसी व्यवस्था कर दी जाती है कि सम संख्याओं पर पड़नेवाले सूत आवश्यकता पडने पर विषम संख्याओं पर पड़नेवाले सूतों से अलग करके ऊपर उठाए या नीचे गिराए जा सकें। अब ताने के इन सूतों में से आधे सूतों को कुछ ऊपर उठाते और आधे को कुछ नीचे गिराते हैं। और तब दोनों के बींच में से होकर ढरकी, जिसकी नरी में बाने का सूत लपेटा हुआ होता है, एक ओर से दूसरी ओर को जाती है, जिससे बाने का सूत तानेवाले सूतों में पड़ जाता है। इसके उपरांत फिर ताने के सूतों में से ऊपरवाले सूतों को नीचे और नीचेवाले सूतों को ऊपर करके दोनों के बीच से उसी प्रकार बाने के सूत को फिर पीछे की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार बार बार करने से तानों के सूतों में बाने के सूत पड़ते जाते हैं जिनसे अंत में कपड़ा तैयार हो जाता है। ताने के सूतों में उक्त नियम के अनुसार बाने के सूतों को बैठाने की यही क्रिया 'बुनना' कहलाती है। २. बहुत से सीधे और बेड़े सूतों को मिलाकर उनकों कुछ के ऊपर और कुछ के नीचे से निकालकर अथवा उनमें गोट आदि देकर कोई चीज तैयार करना। जैसे, गुलूबंद बुनना। जाल बुनना। ३. बहुत से तारों आदि की सहायता से उक्त क्रिया से अथवा उससे मिलती जुलती किसी और क्रिया से कोई चीज तैयार करना। जैसे, मकड़ी का जाला बुनना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
⋙ बुनवाना
क्रि० स० [हिं० बुनना] बुनने का काम कराना।
⋙ बुनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुनना + ई (प्रत्य०)] १. बुनने की क्रिया या भाव। बुनावट। २. बुनने की मजदूरी।
⋙ बुनावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुनना + आवट (प्रत्य०)] बुनने में सूतों के मिलावट का ढग। सूतों के संयोग का प्रकार।
⋙ बुनिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूँद + इया (प्रत्य०)] दे० 'बुँदिया'।
⋙ बुनियाद
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. जड़। मूल। नींव। २. असलियत। वास्तविकता। २. प्रारंभ। शुरूआत। क्रि० प्र०—डालना।—देना।—रखना।
⋙ बुनियादी
वि० [फा० बुनियाद + ई (प्रत्य०)] मूल या नींव संबंधी। असली। मूलभूत। उ०— शुक्ल जी जीवन और साहित्य के भावों में बुनियादी अंतर नहीं मानते।—आचार्य०, पृ० ५।
⋙ बुबुकना
क्रि० अ० [अनु०] जोर जोर से रोना। बुक्का फाड़ना। डाढ़ मारना। उ०— जहाँ तहाँ बुबुक बिलो के बुबुकारी देत।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७१।
⋙ बुबुकारी
संज्ञा स्त्री० [अनु० बुबुक + आरी (प्रत्य०)] डाढ़ मारकर रोने की क्रिया। बुक्का फाड़कर रोना। उ०— जहाँ तहाँ बुबुकि बिरोकि बुबुकारी देत, जरत निकेत धाव धाव लागि आगि रे।— तुलसी ग्रं०, पृ० १७१। क्रि० प्र०—देना।—मारना।
⋙ बुबुधान
वि० [सं०] दे० 'बुधान' [को०]।
⋙ बुबुर
संज्ञा पुं० [सं०] जल। पानी [को०]।
⋙ बुभुक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] खाने की इच्छा। क्षुधा। भूख।
⋙ बुभुक्षित
वि० [सं०] जिसे भूख लगी हो। भूखा। क्षूधित। २. किसी वस्तु की इच्छा करनेवाला [को०]।
⋙ बुभुक्षु
वि० [सं०] १. भूखा। वुपुक्षित। २. सांसारिक इच्छाओं, वासनाओं का इच्छुक। मुमुक्षु का विलोम [को०]।
⋙ बुभुत्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जानने की इच्छा। जीज्ञासा। ज्ञान की अकांक्षा [को०]।
⋙ बुभुत्सु
वि० [सं०] जानने का इच्छुक। जिज्ञासु [को०]।
⋙ बुभूषक
वि० [सं०] शुभ, कल्याण, शक्ति आदि का इच्छुक [को०]।
⋙ बुभुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० बुभूषक, बुभूषु] यश की इच्छा रखना।
⋙ बुयाम
संज्ञा पुं० [अं०?] चीनी मिट्टी का बना हुआ एक प्रकार का गोल ओर ऊँचा बड़ा पात्र जो साधारणतः तेजाब और अचार आदि रखने के काम में आता है। जार।
⋙ बुर †
संज्ञा स्त्री० [सं० बूरि] स्त्री की योनि। भग।
⋙ बुरकना
क्रि० ल० [अनु०] किसी पिसी हुई या महीन चीज को हाथ से धीरे धीरे किसी दूसरी चीज पर छिड़कना। भुर- भुराना। उ०— सुंदर सुघरी डगर जो पुर की। चोवा चंदन बंदन बुरकी।— नंद० ग्रं २, पृ० २१३।
⋙ बुरकना (२)
संज्ञा पुं० बच्चों की वह दावात जिसमें वे पटिया आदि पर लिखने के लिये खरिया मिट्टी घोलकर रखते हैं। बोरका। बोरिका।
⋙ बुरका
संज्ञा पुं० [अ० बुरका] १. प्रायः थैले के आकार का मुसलमान स्त्रियों का एक प्रकार का पहनावा जो दूसरे सब वस्त्र पहन चुकने के उपरांत सिर पर से डाल लिया जाता है और जिससे सिर से पैर तक सब अंग ढके रहते हैं। इसमें का जो भाग आँखों के सामने पड़ता है, उसमें जाली लगी रहती है जिसमें चलते समय सामने की चीजें दिखाई पडें। उ०— बुरका डारै टारि खुदा बाखुद दिखरावै।—पलटू, पृ० ४२। यौ०—बुरकापोश= जो बुरका ओढ़े हुए हो। २. वह झिल्ली जिसमें जन्म के समय बच्चा लिपटा रहता है। खेड़ी।
⋙ बुरकाना
क्रि० स० [हिं० बुरकना का प्रे० रूप] बुरकने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को बुरकने में प्रवृत्त करना।
⋙ बुरज, बुरिज पु
संज्ञा पुं० [फा० बुर्ज] १. दे० 'बुर्ज'। उ०— (क) बुरजैं बुरजैं घर धूम परी।— ह० रासो, पृ० ७७। २. राशि (यहाँ शरीरस्थ नाडी राशि) उ०— नौ सै जोगणीं चालिबा साथ, बुरिज बहतरि गाइबा नाथ।— गोरख०, पृ० १६२।
⋙ बुरदू
संज्ञा पुं० [अं० बोर्ड] १. पार्श्व। बगल। २. ओर। तरफ। ३. जहाज का बगलवाला भाग। ४. जहाज का वह भाग जो हवा या तूफान के रुख पर न पड़ता हो, बल्कि पीछे की ओर हो। (लश०)।
⋙ बुरना पु ‡
क्रि० अ० [हिं०] बुडना। डूबना। उ०— बड़े सुखे सासु चुमओवाह मथा। ओठ बुरत सुरसरि के सथा।— विद्यापति, पृ० ५११।
⋙ बुरा (१)
वि० [सं० विरूप] [वि० स्त्री० बुरी] जो अच्छा या उत्तम न हो। खराब। निकृष्ट। मंदा।
⋙ बुरा (२)
संज्ञा पुं० हानि। बुराई। शत्रुता। मुहा०— बुरा करना= हानि करना। बुराई करना। बुरा मानना =द्वेष रखना। बैर रखना। खार खाना। उ०— यह वाकौ वचन सुनत ही हरिदास के ऊपर राजा ने बोहोत बुरी मान्यो।—दो सौ बावन, भा० १, पृ० २४४। बुरा लोग जगना या लगाना=बुरे दिन आना। उ०— जाणी कै फतैपुर झूँझुणूँ कै बुरो जोग जाग्यो।—शिखर०, पृ० ५४। बुरी नजर से देखना। अविश्वास से देखना। बूरी भावना से देखना उ०— उसने फकीर को बुरी नजर से देखा तो देखते ही आग में गिर पड़ी।— फिसाना०, भा० ३, पृ० १४३। यौ०—बुरा भला=(१) हानि लाभ। अच्छा और खराब। (२) गाली गलौज। लानत मलामत। बुरा हाल=बुरे दिन। बुरे दिन का साथी=कष्ट और विपत्ति के समय साथ देनेवाला। बुरी नजर=अशुभ दृष्टि।
⋙ बुराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुरा + ई (प्रत्य०)] १. बुरे होने का भाव। बुरापन। खराबी। २. खोटापन। नीचता। जैसे,—हमने किसी के साथ बुराई नहीं की। ३. अवगुण। दोष। दुर्गुण। ऐब। जैसे,—उसमें बुराई यही है कि वह बहुत झूठ बोलता है। ४. किसी के संबंध में कही हुई बुरी बात। निंदा। जैसे,— तुम तो सबकी बुराई ही करते फिरते हो। यो०—बुराई भलाई। मुहा०—बुराई आगे आना =किए हुए बुरे काम का बुरा फल मिलना।
⋙ बुरादा
संज्ञा पुं० [फा० बुरादह्] १. वह चूर्ण जो लकड़ी को आरे से चीरने पर उसमें से निकलता है। लकड़ी का चूरा। कुनाई। २. चूर्ण। चूरा (क्व०)।
⋙ बुरापन
संज्ञा पुं० [हिं० बुरा + पन (प्रत्य०)] दे० 'बुराई'।
⋙ बुरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भग। योनि [को०]।
⋙ बुरुज पु †
संज्ञा पुं० [फ़ा० बुर्ज] दे० 'बुर्ज'। उ०—चौदह बुरुज दसो दरवाजा।— कबीर० श०, पृ० ७।
⋙ बुरुड
संज्ञा पुं० [देश०] एक जाति जिसकी गणना अंत्यजों में होती है। डोलची, चटाई आदि बनानेवाली जाति।
⋙ बुरुल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा वृक्ष जो हिमालय में १३००० फुट की ऊँचाई तक होता है। इसकी छाल बहुत सफेद और चमकीली होती है जिससे पहाड़ी लोग झोपड़े बनाते हैं। इसकी लकड़ी छत पाटने और पत्ते चारे के काम में आते हैं।
⋙ बुरुश
संज्ञा पुं० [अं० ब्रश] अंग्रेजी ढंग की बनी हुई किसी प्रकार का कूँची जो चीजों को रँगने, साफ करने या पालिश आदि करने के काम में आती है। विशेष— बुरुश प्रायः कूटी हुई मूज या कुछ विशेष पशुओं के बालों अथवा कृत्रिम रेशों से बनाए जाते हैं और भिन्न भिन्न कार्यों के लिये भिन्न भिन्न आकार प्रकार के होते हैं। रंग भरने या पालिश आदि करने के लिये जो बुरुश बनते हैं, उनमें प्रायः मूँज या बालों का एक गुच्छा किसी लंबी लकड़ी या दस्ते के सिरे पर लगा रहता है। चीजों को साफ करने के लिये जो बुरुश बनाए जाते हैं, उनमें प्रायः काठ के एक चौड़े टुकड़े में छोटेछोटे बहुत से छेद करके उनमें एक विशेष क्रिया और प्रकार से मूँज या बालों के छोटे छोटे गुच्छे भर देते हैं। कभी कभी ऐसे काठ के टुकड़ों में एक दस्ता भी लगा दिया जाता है। बुरुश प्रायः मूँज या नारियल, बेंत आदि के रेशों से अथवा घोड़े, गिलहरी, ऊँट, सूअर, भालू, बकरी आदि पशुओं के बालों से बनाए जाते हैं। साधारणतः बुरुश का उपयोग कपड़े, टोपियाँ, चिमनियाँ, तरह तरह के दूसरे सामान, बाल, दाँत आदि साफ करने अथवा किसी चीज पर रग आदि चढ़ाने में होता है।
⋙ बुरूस ‡
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का लाल फूलोंवाला पौधा। उ०— लाल बुरूसों के मधु छत्तों से थी भरी बनानी।— अतिमा, पृ० १५।
⋙ बुर्ज
संज्ञा पुं० [अ०] १. किले आदि की दीवारों में, कोनों पर आगे की ओर निकला अथवा आस पास की इमारत से ऊपर की ओर उठा हुआ गोल या पहलदार भाग जिसके बीच में बैठने आदि के लिये थोड़ा सा स्थान होता है। प्राचीन काल में प्रायः इसपर रखकर तोपें चलाई जाती थीं। गरगज। २. मीनार का ऊपरी भाग अथवा उसके आकार का इमारत का कोई अंग। ३. गुंबद। ४. गुब्बारा। ५. ज्योतिष में राशिचक्र।
⋙ बुर्जी
संज्ञा स्त्री० [अ० बुर्ज + ई] छोटा बुर्ज।
⋙ बुर्जुआ
संज्ञा पुं० [फरासीसी > अं० बुर्ज्वां] धनिक मध्यमवर्गीय जन। अभिजात जन। अभिजात जनों से संबंद्ध वस्तु या व्यवहार।
⋙ बुर्द
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. ऊपरी आमदनी। ऊपरी लाभ। नफा। २. शर्त। होड़। बाजी। ३. शतरंज के खेल में वह अवस्था जब सद मोहरे मर जाते हैं और केवल बादशाह रह जाता है। उस समय बाजी 'बुर्द' कहलाती है और आधी मात समझी जाती है। ४. बेलवूटावाली चादर। नक्सी चादर (को०)।
⋙ बुर्दबार
वि० [फा०] २. बोझा उठानेवाला। २. सहिष्णु। सहनशील।
⋙ बुर्दबारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा बुर्दबार + ई] सहनशीलता। सुशीलता। उ०— यह मुरौवत सखावत बुर्दबारी खाकसारी।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८६।
⋙ बुर्दा
संज्ञा पुं० स्त्री० [तु० बुर्दंह्] १. गुलाम। २. कनीज। बाँदी [को०]।
⋙ बुर्दाफरोश
संज्ञा पु० [तु० बुर्दंह् + फ़रोश (प्रत्य०)] १. गुलामों को बेचनेवाला। दास दासियों को बेचनेवाला व्यक्ति। २. वह व्यक्ति जो औरतों को भगाकर बेचता हों। औरतों को उड़ाकर बेचनेवाला व्यापारी।
⋙ बुर्दाफरोशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बुर्दाफरोश + ई (प्रत्य०)] बुर्दाफरोश का काम। औरतों को बेचने का काम।
⋙ बुर्राक (१)
संज्ञा पुं० [अ० बुराक] मुसलमानों के मतानुसार वह घोड़ा जिसपर सवार होकर उनके रसूल हजरत मुहम्मद जरूसलम से स्वर्ग गए थे। उ०— आगे चलकर वह बुर्राक अश्व भी रह गया।— कबीर मं०, पृ० ८६।
⋙ बुर्राक (२)
वि० [फ़ा० बुर्रा(=तीक्ष्ण)?] धारदार। तीक्ष्ण। चमकदार। जैसे, बुर्राक सफेद।
⋙ बुर्री
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुरकना] बोने का वह ढंग जिसमें बीज हल की जोत में डाल दिए जाते हैं और उसमें से आपसे आप गिरते चलते हैं।
⋙ बुर्श
संज्ञा पुं० [हिं० बुरुश] दे० 'बुरुश'।
⋙ बुलंद
वि० [फा० बलंद, बुलंद] १. भारी। उत्तुंग। जैसे, बुलंद आवाज, बुलंद हौसला। २. जिसकी ऊँचाई अधिक हो। बहुत ऊँचा।
⋙ बुलंदी
संज्ञा स्त्री० [फा० बलंदी] १. बुलंद होने का भाव। २. उच्चता। ऊँचाई।
⋙ बुलडाग
संज्ञा पुं० [अं०] मझोले आकार का एक प्रकार का विलायती कुत्ता जो बहुत बलवान, पुष्ट और देखने में भयंकर होता है।
⋙ बुलना पु ‡
क्रि० स० [प्रा० बुल्ल] दे० 'बोलना'। उ०— बुलंत वाणि कोकिला, बिवंचकी सुरं मिला।—ह० रासो, पृ० २४।
⋙ बुलबुल
संज्ञा स्त्री० [अ०, फ़ा०] एक प्रसिद्ध गानेवाली छोटी चिड़िया जो कई प्रकार की होती है और एशिया, यूरोप तथा अमेरिका में पाई जाती है। विशेष— इसका रंग ऊपर की ओर काला, पेट के पास भूरा और गले के पास कुछ सफेद होता है। जब इसकी दुम कुछ लाल रंग की होती है तब इसे 'गुलदुम' कहते हैं। यह प्रायः एक बालिश्त लंबी होती है और झाड़ियों या जंगलों आदि में जमीन पर या उससे कुछ ही ऊँचाई पर घोसला बनाकर रहती है और ४, ५ अंडे देती है। यह ऋतु के अनुसार स्थान का परिवर्तन करती है। इसका स्वर बहुत ही मधुर होता है और इसीलिये लोग इसे पालते भी हैं। कहीं कहीं लोग इसको लड़ाते भी हैं। जंगलों आदि में यह दिखाई तो बहुत कम पड़ती है, पर इसका मनोहर शब्द प्रायः सुनाई पड़ता है। फारसी और ऊर्दू के कवि इसे फूलों के प्रेमी नायक स्थान में मानते हैं। (उर्दूवाले इस शब्द को पुं० मानते हैं)।
⋙ बुलबुलचश्म
संज्ञा स्त्री० [फा०] एक प्रकार की सहिली (पक्षी)।
⋙ बुलबुलबाज
संज्ञा पुं० [फा० बुलबुलबाज] वह जो बुलबुल पालता या लड़ाता हो। बुलबुल का खिलाड़ी या शौकीन।
⋙ बुलबलपबाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बुलबुल पालने या लड़ाने का काम। बुलबुलबाज का काम।
⋙ बुलबुला
संज्ञा पुं० [सं० बुदबुद या देशी] पानी का बुल्ला। बुदबुदा।
⋙ बुलबुलाना
क्रि० अ० [हिं० बुलबुला + ना (प्रत्य०)] तरलपदार्थ या जल में बुदबुद उठाना। उ०— उसका जीवन उत्साह से वैसे ही बुलबुला रहा था जैसे नदी की पतली, क्षीण परंतु सजीव धारा अपने स्रोत पर बुलबुलाती है।— अभिशप्त, पृ० ५९।
⋙ बुलवन पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बुलावा'। उ०— सास ननद के बुलवन उत्तर का देहु हो।— कबीर० श०, भा० ४, पृ० २।
⋙ बुलवाना
क्रि० स० [हिं० बुलाना का प्रे० रूप] बुलाने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को बुलाने में प्रवृत्त करना।
⋙ बुलहवस
वि० [अ०] लोभी। उ०— गुजर है तुझ तरफ हर बूलहवस का। हुआ धावा मिठाई पर मगस का।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४।
⋙ बुलाक
संज्ञा पुं० [तु० बुलाक़] १. वह लंबोतरा या सुराहीदार मोती जिसे स्त्रियाँ प्रायः नथ में या दोनों नथनों के बीच के परदे में पहनती हैं। उ०— श्याम सरूप में सोहै बुलाक सखी सत भाव सोहाग जो लीजै।— पजनेस०, पृ० १३। २. नथनों के बीच का परदा। नाक के बीच की सीधी हड्डी (को०)।
⋙ बुलाकी
संज्ञा पुं० [तु० बुलाक] घोडे़ की एक जाति। उ०— मुश्की और हिरमंजि इराकी। तुरकी कंगी भुथोर बुलाकी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बुलाना
क्रि० स० [हिं० बोलना का सक० रूप] १. आवाज देना। पुकारना। २. अपने पास आने के लिये कहना। ३. किसी को बोलने में प्रवृत्त करना। बोलने में दूसरे को लगाना।
⋙ बुलावा
संज्ञा पुं० [हिं० बुलाना + आवा (प्रत्य०)] १. बुलाने की क्रिया या भाव। २. निमंत्रण। क्रि० प्र०—आना।—जाना।—भेजना।
⋙ बुलाह
संज्ञा पुं० [सं० बोल्लाह] वह घोड़ा जिसकी गर्दन और पूँछ के बाल पीले हों।— अश्ववैद्यक (शब्द०)।
⋙ बुलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. योनि। भग (डिं०)। २. भय। भीति [को०]।
⋙ बुलिन
संज्ञा स्त्री० [अं० बुलियन] एक विशेष प्रकार का रस्सा जो चौकोर पाल के लग्घे में बाँधा जाता है। (लश०)।
⋙ बुलेट
संज्ञा स्त्री० [अं०] बंदूक, राइफल आदि की गोली।
⋙ बुलेटिन
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी सार्वजनिक विषय पर सरकारी या किसी अधिकारी व्यक्ति का वक्तव्य या विवरण। जैसे,— सत्याग्रह कमिटी के प्रचार मंत्री ने एक बुलेटिन निकाला है जिसमें लोगों से कहा गया है कि वे ऐसे समाचारों पर विश्वास न करें। २. किसी राजा, महाराज, राजपुरुष या देश के प्रमुख नेता के स्वास्थ्य के संबंध में सरकारी या किसी अधिकारी व्यक्ति की रिपोर्ट या विवरण। जैसे,— राज्य के प्रधान डाक्टर के हस्ताक्षर से सबेरे ७ बजे एक। बुलेटिन निकला जिसमें लिखा था कि महाराज का स्वास्थ्य सुधर रहा है।
⋙ बुलेली
संज्ञा पुं० [तामिल] मझोले आकार का एक पेड़ जो मैसूर और पूर्वो घाट में अधिकता से होता है। विशेष— इसकी लकड़ी सफेद और चिकनी होती है और तस्वीरों के चौखटे, मेज, कुर्सियाँ आदि बनाने के काम में आती है। इसके बीजों से एक प्रकार का तेल निकलता है जो मशीनो आदि के पुरजों में डाला जाता है।
⋙ बुलौआ, बुलौवा
संज्ञा पुं० [हिं० बुलाना] दे० 'बुलावा'।
⋙ बुल्लन (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. मुँह। चेहरा। (दलाली)। २. गिरई की तरह की पर भूरे रंग की एक मछली जिसके मूछें नहीं होती।
⋙ बुल्लन (२)
संज्ञा पुं० [अनु० या हिं० बुलबुला] पानी का बुलबुला। बुदबुद।
⋙ बुल्लना पु
क्रि० स० [प्रा० बोल्ल, बुल्ल + हिं० ना(प्रत्य०)] दे० 'बोलना'। उ०— (क) बरषि कदम सुबन्न चढ़ि लज्जित बहु बर बाल। हथ्थ जोरि सम सो भईं प्रभु बुल्ले बछपाल।— पृ० रा०, २। ३७८। (ख) चढ़ि कदम बुल्ले सु प्रभु मधुरित मिष्टत बानि।— पृ० रा०, २। ३७९।
⋙ बुल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० बुलबुला] बुदबुदा। उ०— पानी मँह जस बुल्ला तस यह जग उतराइ। एकहि आवत देखिए एक है जात बिलाइ।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बुष, बुस
संज्ञा पुं० [सं० बुष, बुस] १. अनाज आदि के ऊपर का छिलका। भूसी। २. हटा देने योग्य वस्तु (को०)। ३. जल (को०)। ४. संपत्ति (के०)। ५. सूखा कंडा। सूखा गोबर (को०)।
⋙ बुसतान पु
संज्ञा पुं० [फ़ा बुस्ताँ] उद्यान। वाटिका। उपवन। उ०— सो गुल खिला बुसतान में। बू फैल हिंदुस्तान में।—कबीर मं०, पृ० ३९०।
⋙ बुसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी बहन। (नाटय०)।
⋙ बुस्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. भुने हुए मांस का जला हुआ ऊपरी पर्त। २. फल का छिलका। फल का आवरण (को०)।
⋙ बुहरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भौरना(=भूनना)] दे० 'बुहरी'।
⋙ बुहारना
क्रि० स० [सं० बहुकर + हिं० ना (प्रत्य०)] झाड़ से जगह साफ करना। झाड़ू देना। झाड़ना। उ०— द्वार बुहारत फिरत अष्ट सिधि। कौरेन सथिया चीतति नव निधि। — सूर (शब्द०)।
⋙ बुहारा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बुहारना] ताड़ की सींकों का बना हुआ बड़ा झाड़ू।
⋙ बुहारा (२)
संज्ञा पुं० [सं० व्यवहार] दे० 'व्यवहार'। उ०— ऐसे ऐसे करत बुहारा। आए साहिब के हलकारा।—रामानंद०, पृ० ६।
⋙ बुहारी
संज्ञा स्त्री० [सं० बहुकरी, हिं० बुहारना + ई (प्रत्य०)] झाड़ू। बढ़नी। सोहनी।
⋙ बूँच, बूँछ
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूँछ] एक प्रकार की मछली। दे० 'गूँछ'।
⋙ बूँद (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बिन्दु] १. जल या और किसी तरल पदार्थ का वह बहुत ही छोटा अश जो गिरने आदि के समय प्रायः छोटी सी गोली या दाने आदि का रूप धारण कर लेता है। कतरा। टोप। जैसे, पानी की बूँद, ओस की बूँद, खून की बूँद, पसीने की बूँद। मुहा०— बूदें गिरना या पड़ना=धीमी वर्षा होना। थोड़ा थोड़ा पानी बरसना। बूँद भर=बहुत थोड़ा। यौ०— बूँदाबाँदी। २. वीर्य। ३. एक प्रकार का रंगीन देशी कपड़ा। विशेष— इसमें बूँदों के आकार की छोटी छोटी बूटियाँ बनी होती हैं और यह स्त्रियों के लहँगे आदि बनाने के काम में आता है।
⋙ बूँद (२)
वि० बहुत अच्छा या तेज। विशेष— इस अर्थ में इसका व्यवहार केवल तलवार, कटार, आदि काटनेवाले हथियारों ओर शराब के सबध में होता है।
⋙ बूँदा
संज्ञा पुं० [हिं०] १. बड़ी टिकुली। २. सुराहीदार मणि या मोती जो कान वा नथ में पहना जाता है।
⋙ बूँदाबाँदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूँद + अनु० बाँद] अल्प वृष्टि। हलकी या थोड़ी वर्षा।
⋙ बूँदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूँद + ई(प्रत्य०)] एक प्रकार की मिठाई जो अच्छी तरह फटे हुए बेसन को झरने में से बूँद बूँद टपकाकर और घी में छानकर बनाई जाती है। बुँदिया। विशेष— यह मीठी और नमकीन दो प्रकार की होती है। नमकीन बूँदी बनाने के लिये पहले ही बेसन को घोलते समय उसमें नमक, मिर्च आदि मिला देते हैं, पर मीठी बूँदी बनाने के लिये बेसन घोलते समय उसमें कुछ नहीं मिलाया जाता। उसे घी में छानकर शीरे में डुबा देते हैं और तब फिर काम में लाते हैं। छोटे दानों की बूँदी का लड्डू भी बाँधते हैं जो 'बूँदी का लड्डू' कहलाता है। ऐसे ही लड्डू पर जब कंद या दाने का चूर लपेट देते हैं तब वह मोतीचूर का लड्डू कहलाता है। २. वर्षा के जल की बूँद। क्रि० प्र०—पढ़ना।
⋙ बूँब †
संज्ञा स्त्री० [देश० या अनु०] पुकार। चिल्लाहट। आवाज। उ०— सूँब सूँब कहै सरब दिन, जाचक पाड़ै बूँब। सिद्ध दिगंबर बाजही, ज्यूँ धनवंतो सूँब।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ३५।
⋙ बू
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. बास। गंध। महक। २. दुर्गंध। बदबू। ३. तौर तरीका। ढंग (को०)। ४. आनबान। ठसक (को०)। ५. सुराग (को०)। क्रि० प्र०—आना।—निकलना। यौ०— बूबास=वू। गंध।
⋙ बूआ
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. पिती की बहन। फूफी। २. बड़ी बहन। ३. स्त्रियों का परस्पर आदरसूचक संबोधन। (मुसल०)। ४. एक प्रकार की मछली जो भारत की बड़ी बड़ी नदियों में पाई जाती है। इसका मांस रूखा होता है। ककसी।
⋙ बूई
संज्ञा पुं० [देश०] ऊमरी और खार आदि की जाति का एक प्रकार का पौधा जो दिल्ली से सिंध तक और दक्षिण भारत में पाया जाता है। इसे जलाकर सज्जीखार निकालते हैं। कौड़ा।
⋙ बूक (१)
संज्ञा पुं० [देश०] माजूफल की जाति का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष। सलसी। विशेष— यह पूर्वी हिमालय में ५००० से ९००० फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है और प्रायः ७५ से १०० हाथ ऊँचा होता है। इसकी लकड़ी यदि सूखे स्थान में रहे तो बहुत दिनों तक खराब नहीं होती। इस लकड़ी से खंभे, चौखटे और धरनें आदि बनाई जाती हैं। दारजिलिंग के आस पास के जंगलों में इससे बढ़कर उपयोगी और कोई वृक्ष कदाचित् ही होता है। वहाँ इसकी पत्तियों से चमडा भी सिझाया जाता है।
⋙ बूक (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बकोटा] हाथ के पंजों की वह स्थिति जो उँगलियों को बिना हथेली से लगाए किसी वस्तु को पकड़ने, उठाने या लेने के समय होती है। चंगुल। बकोटा। उ०— पुनि सँधान बहु आनहिं परसहिं बूकहि बूक। करे सँवार गुसाई जहाँ परी कछु चूक।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बूक † (३)
संज्ञा पुं० [सं० बुक्क(=वक्ष), बँ०, बूक] कलेजा। हृदय। वक्ष।
⋙ बूकना
क्रि० स० [सं० वृक्ण(=तोड़ा फोड़ा हुआ)] १. सिल और बट्टे की सहायता से किसी चीज को महीन पीसना। पीसकर चूर्ण करना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। २. अपने को अधिक योग्य प्रमाणित करने के लिये गढ़ गढ़कर बातें करना। जैसे, कानून बूकना, अँग्रेजी बूकना।
⋙ बृका (१)
संज्ञा पुं० [सं० बुक्कन(=बुक्का)] दे० 'बूक (३)'।
⋙ बृका (२)
संज्ञा पुं० [देश०] वह भूमि जो नदी के हटने पर निकलती है। गंगबरार।
⋙ बृका (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० बूकी] दे० 'बुक्का'। उ०— भरि भरि फेंटनि बूका बंदनि कूदि परे सब ग्वाला। जुवति जूथ में जुवति भेष तहाँ राजत है नंदलाला।—छीत०, पृ० २२।
⋙ बूगा †
संज्ञा पुं० [देश०] भूसा।
⋙ बूच (१)
संज्ञा पुं० [अं० बूच] बड़ी मेख। (लश०)। मुहा०—बुच मारना= गोले या गोली आदि की मार से होनेवाले छेद को डाट लगाकर बंद करना।
⋙ बूच (२)
संज्ञा पुं० [अं० बंच(= गुच्छा)] कपड़े, कागज या चमड़े आदि का वह टुकड़ा जो बदूक आदि में गोली या बारूद कीयथास्थान स्थिर रखने के लिये उसके चारों ओर लगाया जाता है। (लश०)।
⋙ बूच (३)
वि० [सं० बुस(=विभाग करना) अथवा] [सं० व्यु च्छन्न, प्रा० वोच्छिन्न, बुच्छिन्न] रहित। वियुक्त। छिन्न। उ०— सतगुरु तेग तरक जम काढ़ा नाक कान कर बूच।—संत तुलसी०, पृ० १९४।
⋙ बूचड़
संज्ञा पुं० [अं० बुचर] वह जो पशुओं का मांस आदि बेचने के लिये उनकी हत्या करता है। कसाई। यौ०—बूचड़खाना।
⋙ बूचड़खाना
संज्ञा पुं० [हिं० बूचड़ + फ़ा० खाना] वह स्थान जहाँ पशुओं की हत्या होती है। कसाईबाड़ा।
⋙ बूचा
वि० [सं० बुस(=विभाग करना)] १. जिसके कान कटे हों। कनकटा। २. जिसके ऐसे अंग कट गए हों, अथवा न हों जिनके कारण वह कुरूप जान पड़ता हो। जैसे,— पत्तियाँ झड़ जाने के कारण यह पेड़ बूचा मालूम होता है। ३. जिसके साथ कोई सौंदर्य बढ़ानेवाला उपकरण न हो। नंगा। खाली।
⋙ बूची
वि० [हिं० बूचा] वह भेड़ जिसके कान बाहर निकले हुए न हों बल्कि जिसके कान के स्थान में केवल छोटा सा छेद ही हो। गुजरी।
⋙ बूजन
संज्ञा पुं० [फा० बूजन] बंदर। (कलंदर)।
⋙ बूजना
क्रि० स० [?] छिपना। धोखा देना। उ०— षाड़ा बूजी भगति है लोहर बाड़ा माहिं। परगट पेड़ाइत बसैं तहँ संत काहे को जाहिं।— दादू (शब्द०)।
⋙ बूजीना
संज्ञा पुं० [फा० बूजीनह्] बंदर। मर्कट [को०]।
⋙ बूझ, बूझि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बुद्धि] १. समझ। बुद्धि। अकल। ज्ञान। उ०—राजैं सरब कथा कही, सोहिल सागर जूझि। औ पुनि उपजी चेत कछु, हिए परा जनु बूझि।—चित्रा०, पृ० १८४। २. पहेली।
⋙ बूझन पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूझना] दे० 'बूझ'।
⋙ बूझना †
क्रि० स० [हिं० बूझ (= बुधि)] १. समझना। जानना। जैसे,— किसी के मन की बात बूझना। पहेली बूझना। उ०— (क) मुझे मत बूझ प्यारे अपना दुशमन। कोई दुशमन हुआ है अपनी जाँ का।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० २८। (ख) मैंर अबूझी बूझिया, पूरी पड़ी बलाइ।— कबीर ग्रं०, पृ० ५१। २. पूछना। प्रश्न करना।
⋙ बूझनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूझना] बूझने की क्रिया। पूछ ताछ। उ०— जब अति सखिन बूझनी लई। तब हँसि कुँवरि गोद लुठि गई।— नंद० ग्रं०, पृ० १२६।
⋙ बूझवारा पु
वि० [हिं० बूझ + वारा (प्रत्य०)] समझदार। उ०— बीघा हवै गइ वाँझ बूझवारे नहि दीसत। दौरयौ आवत काल को जकरि दसनन पीसन।— ब्रज० ग्रं०, पृ० १५४।
⋙ बूट (१)
संज्ञा पुं० [सं० विटप, हिं० बूटा] १. चने का हरा पौधा। २. चने का हरा हरा दाना। ३. वृक्ष। पेड़ पौधा। उ०—सीता राम लषन निवास वास सुनिन को सिद्धि साधु साधर बिवेक बूट सों।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बूट (२)
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का अंग्रेजी ढंग का जूता जिससे पैर के गट्टे तर ढँक जाते हैं।
⋙ बूटनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०बहूटी] बीर बहूटी नाम का कीड़ा। उ०—आछी भूमि हरी हरी आछी बूटनि की रेंगनि काम करोरनि।—हरिदास (शब्द०)।
⋙ बूटा
संज्ञा पुं० [सं० विटप] १. छोटा वृक्ष। पौधा। २. एक छोटा पौधा जो पश्चिमी हिमालय में गढ़वाला से अफागानिस्तान तक पाया जाता है। ३. फूलों या वृक्षों आदि के आकार के चिह्न जो कपड़ों या दीवारों आदि पर अनेक प्रकार से (जैस, सूत, रेशम, रग आदि की सहायता से) बनाए जाते हैं। बड़ी बूटी। यौ०—बेलबूटा = किसी चीज पर बनाए हूए फूल पत्ते। बूटेदार = जिसपर बूटे बने हों।
⋙ बूटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बूटा का स्त्री० रूप] १. वनस्पति। वनौषधि। जड़ी। २. भाँग। भंग। (मुहा० के लिये दे० 'भंग')। ३. एक पौधा जिसके रेशे से रस्सियाँ बनाई जाती हैं। ऊदंल। गुलबादला। ४. फूलों के छोटे चिह्न जो कपड़ों आदि पर बनाए जाते हैं। छोटा बूटा। ५. खेलने के ताश के पत्तों पर बनी हुई टिक्की।
⋙ बूठना पु
क्रि० अ० [सं० वृष्ट, प्रा० बुट्ठ (=बरसा हुआ)] बरसना। वर्षा होना। उ०— (क) मारवणी प्रिय संभलउ नयणे बूठा नीर।—ढोला०, दू० १८। (ख) कबीर यह मन कत गया जो मन होता काल्हि। डूँगरि बूठा मेह ज्यूँ, गया निबांणां चालि।—कबीर ग्रं०, पृ० ३०।
⋙ बूड़, बूड़न †
संज्ञा स्त्री० [अनु० बुड़बुड़ (डूबने का शब्द)] जल की इनती गहराई जिसमें आदमी डूब सके। डुबाव।
⋙ बूड़ना
क्रि० स० [सं० वुडा(= डूबना)] १. डूबना। निमज्जित होना। गर्क होना। उ०—(क) बूडे सकल समाज चढ़े जो प्रथमहि मोह बस।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बूड़त भव निधि नाव निबाहक। निगुणिन के तुमही गुणगाहक।— रघुराज सिंह (शब्द०)। २. लीन होना। निमग्न होना। गूढ़ विचार करना। उ०— दशा गुनि गोरि की बिलोकि गेह वारे लो एरी सखी रोग ठहराय राख्यो सबहू। बूड़ि बूड़ि बैदन सों एक ते सरस एक हारें नाहिं उपचार करत हैं अबहूँ।—रघुनाथ (शब्द०)। सयो० क्रि०—जाना।
⋙ बूड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं०डूबना] वर्षा आदि के कारण होनेवाली जल की बाढ़। क्रि० प्र०—आना।
⋙ बूढ़ ‡ (१)
वि० [सं० वृद्ध, प्रा० बुड्ढ] दे० 'बुड्ढा'। उ०—बूढ़ भएसि न त मरतेउ तोहीं।—मानस, ६। ४८।
⋙ बूढ़ (२)
संज्ञा पुं० [प्रा० बूठ (= वृष्टि) ?] १. लाल रंग। २. बीर बहूटी। उ०—रस कैसे रुख ससिमुखो हँसि हँसि बोलत हैन। गूढ़ मान मन क्यों रहे भए बूढ़ रंग नैन।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ बूढ़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वृद्ध] [स्त्री० बूढ़ी] दे० 'बुड्ढा'।
⋙ बूढ़ा † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बुडाढा] बुड्ढी स्त्री।
⋙ बूत
संज्ञा पुं० [सं० वृत्त (=परिधि)] दे० 'बुता'। उ०— (क) को चढ़ि नाघैं समुद ए, है काकर अस बूत।—जायसी ग्र०, पृ० ५९। (ख) कहिन बड़े दोउ राजा हीहीं। ऐसे बूत दस सब तोहीं।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बूता
संज्ञा पुं० [सं० वृत चया बित्त] बल। पराक्रम। शक्ति। उ०— देव कृपा कजरा ढग की पलकै न उठै जिहिं सों निज बूते।—सेवक (शब्द०)।
⋙ बूथड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] आकृति। चेहरा। सूरत। शकल। (दलाल)।
⋙ बूना
संज्ञा पुं० [देश०] चनार नाम का वृक्ष। दे० 'चनार'।
⋙ बूम (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह लट्ठा जो जहाजों के पाल के नीचे के भाग में, उसको फैलाए रखने के लिये लगाया जाता है। २. बहुत से लट्ठों आदि की बाँधकर तैयार की हुई वह रोक जो नदी में लकड़ियों आदि को बह जाने से रोकने के लिये लगाई जाती है। ३. लट्ठों या तारों आदि से बनाई हुई वह रोक जो बदरों में इसलिये लगा दी जाती है जिसमें शत्रु के जहाज अंदर न आ सकें। ४. वह लट्ठा जो नदी आदि में नावों को छिछले पानी से बचाने और ठीक मार्ग दिखलाने के लिये गाड़ा रहता है। (लश०)।
⋙ बूम (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. धरती। पृथ्वी। २. उलूक। उल्लू। उ०—बुलबुल गुजरा जाए नशी बूम हुआ है।—कबीर मं०, पृ० १४१।
⋙ बूर
संज्ञा पुं० [देश०] [संज्ञा स्त्री० बूरि] १. पश्चिम भारत में होनेवाली एक प्रकार की घास। खोई। उ०—थल मथ्थइ जल बाहिरी, काँइ लबू की बूरि। मीठा बोला घण सहा, सज्जण मूक्या दूरि।—ढ़ीला०, दू० ३९०। विशेष— इस घास के खाने से गौओं, भैसों, आदि का दूध और दूसरे पशुओं का बल बहुत बढ़ जाता है। इसमें एक प्रकार की गंध होती है ओर यदि गोएँ आदि इसे अधिक खाती हैं तो उनके दूध में भी वही गंध आ जाती है। यह दो प्रकार की होती है। एक सफेद ओर दूसरी लाल। यह सुखाकर १०-१५ वर्षों तक रखी जा सकती है। †२. आटे आदि का चोकर। चून की कराई।
⋙ बूरना पु † (१)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'डूबना'।
⋙ बूरना † (२)
क्रि० सं० [हिं० पूरना] १. किसी कार्य को पूरा करना। २. बटना। बरना।
⋙ बूरा
संज्ञा पुं० [हिं० भूरा] १. कच्ची चीनी जो भूरे रंग की होती है। शक्कर। २. साफ की हुई चीनी। उ०—और चाँवर, सीधो, नए बासन में बूरा, तुअर आदि सर्व सामान घर में हतो सों हरिबंस जी को सवं वस्तू दिखाई।— दो सो बावन, भा० १, पृ० ७५। ३. महीन चूर्ण। सफूफ।
⋙ बूरी
संज्ञा स्त्री० [देशं०] एक प्रकार की बहुत छोटी वनस्पति, जो पौधों, उनके तनों, फूलों और पत्तों आदि पर उत्पन्न हो जाती है और जिसके कारण वे पदार्थ सड़ने या नष्ट होने लगते हैं। अंगूर के लिये यह विशेष प्रकार से घातक होती है। इसकी गणना वृक्षों आदि के रोगों में होती है।
⋙ बूर्जवा
वि० [फ़ा० बुर्जुआ] बुर्जुआ से संबद्ध। उ०—इसे आपके समान बूर्जवा मनोवृत्ति के लोग नहीं समझ सकते।—संन्यासी, पृ० ४८१।
⋙ बूला
संज्ञा पुं० [देश०] पयाल का बना हुआ जूता। लतड़ी।
⋙ बृंद
संज्ञा पुं० [सं० वृन्द] दे० वृंद।
⋙ बृंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० वृन्दा] दे० 'वृंदा'। उ०—जहाँ बृंदा अति भली विधि रची बनक बनाय।—घनानंद, पृं० ३०१। यौ०— वृंदारण्य। वृंदाबन।
⋙ बृक्ष
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष] दे० 'बृक्ष'। उ०—सेलनि मैं ज्यों सुमेर लसी बर वृक्षनि मैं कलपद्रुम सालै।—मति ग्रं०, पृ० ३७०।
⋙ बृखभानु पु †
संज्ञा पुं० [सं० वृषभानु] दे० 'वृषभानु'। उ०— उठी बिहँसि बृखभानु कुँवरि वर कर पिचकारी लेत।—नंद० ग्रं०, पृं० ३८२। यौ०—बृखभानु कुँवरि। बृखभानुनंदिनी।
⋙ बृच्छ पु †
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष] दे० 'वृक्ष'। उ०—सबै वृच्छ फुल्ले फल भार झूलें।—ह० रासो, पृ० ३५।
⋙ बृजिन
संज्ञा पुं० [सं० बृजिन] दे० 'बृजिन'।—अनेकार्थ०, पृ० ४०।
⋙ बृतंत पु
संज्ञा पुं० [सं० बृतांन्त] दे० 'बृतांत' उ०— जो वोहि लोक लखन की बनंन कहते वाक बृतंत।—संत तुरसी०, पृ० २११।
⋙ बृत्त
संज्ञा पुं० [सं० वृत्त] दे० 'वृत्त'। उ०—अब वृत्त कहे छल चातुरता।—ह० रासो०, पृ० १५६।
⋙ बृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० वृद्धि] दे० 'वृद्धि'।
⋙ बृप
संज्ञा पुं० [सं० वृप] १. साँड़। बेल। यौ०—बृपकेतु। बृपध्वज। २. मोरपंख। ३. इंद्र। उ०— हमरे आवत रिस करत अस तुम गए मुटाइ। पठइ पत्रिका बान कर लखि वृष रहे चुपाइ।—विश्राम (शब्द०)। ४. बारह राशियों में से दूसरी राशि। दे० 'वृष'। उ०—दुसह बिरह वृष सूर सम चलन कहत अब आप। तिय को कोमल प्रेम तरु क्यों सहिहै संताप।— स० सप्तक, पृ० ३६५।
⋙ बृसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी संत सहात्मा का आसन। ऋषि का आसन [को०]।विशेष— संस्कृत में इसी अर्थ में वृषिका, वृसिका, वृशी और वृषी रूप भी प्राप्त होते हैं।
⋙ बृहत् (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० बृहती] १. बहुत बड़ा। विशाल। बहुत भारी। २. दृढ़। बलिष्ठ। ३. पर्याप्त। ५. उच्च। ऊँचा। (स्वर आदि)। विशेष— संस्कृत में संधि संबंधी नियमों के आधार पर इसके बृहच्, बृहज्, बृहड्, बृहद् और बृहत् रूप भी होते हैं। जैसे,—बृहच्चचु बृहज्जन, बृहद्भानु, बृहन्नला, आदि। इस शब्द से बननेवाले अन्य योगिक शब्दों के लिये देखिए 'बृहत्' शब्द।
⋙ बृहत् (२)
संज्ञा पुं० एक मरुत् का नाम।
⋙ बृहतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुपट्टा। उपरना [को०]।
⋙ बृहती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटाई। बरहट। बनभंटा। २. विश्वावसु गधर्व की वीणा का नाम। ३. उत्तरीय वस्त्र। उपरना। ४. कंटकारी। भटकटैया। ५. सुश्रुत के अनुसार एक मर्मस्थान जो रीढ़ के दोनों ओर पीठ के बीच में है। यदि इस मर्मस्थान में चोट लगे तो बहुत अधिक रक्त जाता हे और अंत में मृत्यु हो जाती है। ६. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नो अक्षर होते हैं। ७. वाक्य।
⋙ बृहतीकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का कायाकल्प।
⋙ बृहतीपति
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति।
⋙ बृहत्कंद
संज्ञा पुं० [सं० बृहत्कन्द] १. विष्णु कंद। २. गाजर।
⋙ बृहत्तर
वि० [सं०] विशाल। विस्तृत।
⋙ बृहत्तृण
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस।
⋙ बृहत्वच्
संज्ञा पुं० [सं० बृहत्वक्] नीम का वृक्ष।
⋙ बृहत्पत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथीकंद। २. सफेद लोध। ३. कासमर्द।
⋙ बृहत्पर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद लोध।
⋙ बृहत्पाटलि
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरे का पेड़।
⋙ बृहत्पाद
संज्ञा पुं० [सं०] वट वृक्ष। बड़ का पेड़।
⋙ बृहत्पाली
संज्ञा पुं० [सं० बृहत्पालिन्] बनजीरा।
⋙ बृहत्पोलु
संज्ञा पुं० [सं०] महापीलु। पहाड़ी अखरोट।
⋙ बृहत्पुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेठा। २. केले का वृक्ष।
⋙ बृहत्पुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सन का पेड़।
⋙ बृहत्फल
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिचिडा। चिचढ़ा। २. कुम्हड़ा। ३. कटहल। ४. जामुन।
⋙ बृहत्फला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तितलोकी। २. महेंद्र वारुणी। ३. कुम्हड़ा। ४. जामुन।
⋙ बृहदारण्यक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध उपनिषद् जो दस मुख्य उपनिषदों के अंतर्गत है। विशेष— यह शतपय ब्राह्मण के मुख्य उपनिषदों में से है और उसके अंतिम ६ अध्यायों या ५ प्रपाठकों में है।
⋙ बृहद् (१)
वि० [सं०] दे० 'बृहत्'।
⋙ बृहद् (२)
संज्ञा पुं० एक अग्नि का नाम।
⋙ बृहद्ग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] करुष नामक प्राचीन देश।
⋙ बृहद्दंती
संज्ञा स्त्री० [सं० बृहद्दन्तिन्] एक प्रकार की दंती जिसके पत्ते एरंड के पत्तों के समान होते है। दे० 'दंती'।
⋙ बृहद्दल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद लोध। २. सप्तपर्ण नामक वृक्ष।
⋙ बृहद्दली
संज्ञा पुं० [सं०] लजालू। लज्जावंती।
⋙ बृहद्बला
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाबला। २. सफेद लोध। ३. लजालू। लज्जावंती।
⋙ बृहद्बीज
संज्ञा पुं० [सं०] अमड़ा।
⋙ बृहद्भंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० बृहदभण्डी] त्रायमाणा लता।
⋙ बृहद्भबट्टारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम।
⋙ बृहद्भानु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अग्नि। २. चित्रक। चीता वृक्ष। ३. सूर्य। ४. भागवत के अनुसार सत्यभामा के पुत्र का नाम।
⋙ बृहद्रथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. इद्र। २. सामवेद का एक अंश। ३. यज्ञपात्र। ४. शतघन्वा के पुत्र का नाम। ५. देवराज के पुत्र का नाम। ६. मगध देश के राजा जरासंध के पिता का नाम।
⋙ बृहद्वर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] सोना मक्खी। स्वर्णमाक्षिक।
⋙ बृहद्वल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] करेला।
⋙ बृहद्वारुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महेंद्रवारुणी नामक लता।
⋙ बृहन्नल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्जुन का एक नाम। २. बाहु। बाँह।
⋙ बृहन्नला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अर्जुन का उस समय का नाम जिस समय वे अज्ञातवास में स्त्री के वेश में रहकर राजा विराट की कन्या को नाच गाना सिखाते थे।
⋙ बृहन्नारायण
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपनिषद का नाम जिमे याज्ञिकी उपनिषद् भी कहते हैं।
⋙ बृहन्निंब
संज्ञा पुं० [सं० बृहन्नम्ब] महानिंब।
⋙ बृहस्पति
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध वैदिक देवता जो अंगिरस के पुत्र ओर देवताओं चके गुरु माने जाते हैं। विशेष— इनकी माता का नाम श्रद्धा और स्त्री का नाम तारा था। ये सभी विषयों करे पूर्ण पंडित थे और शुक्राचार्य के साथ इनकी स्पर्धा रहती थी। ऋग्वेद के ११ सूक्तों में इनकी स्तुति भरी हुई है। उनमें कहा गया है कि इनके सात मुँह, सुंदर जीभ, पैने सींग, और सौ पंख हैं और इनके हाथ में धनुष, बाण और सोने का परश रहता है। एक स्थान में यह भी कहा गया है कि ये अंतरिक्ष के महातेज से उत्पन्न हुए थे। इन्होंने सारा अंधकार नष्ट कर दिया था। यह भी कहा गया है कि ये देवताओं के पुरोहित हैं और इनके बिना यज्ञ का कोई कृत्य पूर्ण नहीं होता। ये बुद्धि और वक्तृत्व के देवता तथा इंद्र के मित्र और सहायक माने गए हैं। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में इनका जो वर्णन दिया हे, वह अग्नि के वर्णन से बहुत कुछ मिलता जुलता है। 'वाचस्पति' और 'सदसस्पति' भी इनके नाम हैं। कई स्मृतियाँ और चार्वक मत के ग्रंथ इन्हीं के बनाए हुए माने जाते हैं। पुराणानुसार इनकी स्त्री तारा को सोम (चंद्रमा) उठा ले गया था जिसके कारण सोम से इनका घोर युद्ध हुआ था। अंत में ब्रह्मा ने बृहस्पति को तारा दिलवा दी। पर तारा को सोम मे गर्भ रह चुका था जिसके कारण उसे एक पुत्र हुआ था जिसका नाम बुध रखा गया था। विशेष— दे० 'बुध'। वैदिक काल के उपरांत इनकी गणना नवग्रहों में होने लगी। पर्या०—सुराचार्य। गीस्पति। धिषण। जीव। अंगिरस। वाचस्पति। चारु। द्वादशरश्मि। गिरीश। दिदिव। वाक्पति। वचसापति। वागीश। द्वादशकर। गीरथ। २. सौर जगत् का पाँचवाँ ग्रह जो सूर्य से ४४,३०,००,००० मील की दूरी पर है और जिसका परिभ्रमण काल लगभग ४३३३ दिन हे। इसका व्यास ९३००० मील है। विशेष— यह सबसे बड़ा ग्रह है और इसका व्यास पृथ्वी के व्यास मे ११ गुना बड़ा है। यह बहुत चमकीला भी है और शुक्र को छोड़कर और कोई ग्रह चमक में इससे बढ़कर नहीं है। अपने अक्ष पर यह लगभग १० घंटे में घूमता है। दूरबीन से देखने से इसके पृष्ठ पर कुछ समानांतर रेखाएँ खिंची हुई दिखाई देती हैं। अनुमान किया जाता है कि यह ग्रह बादलों की मेखलाओं से घिरा हुआ है। यह अभी बालक ग्रह माना जाता है, अर्थात् इसका निर्माण हुए अभी बहुत समय नहीं बीता है। अभी इसकी अवस्था सूर्य की अवस्था से कुछ कुछ मिलती जुलती है और पृथ्वी की अवस्था तक इसे पहुँचने में अभी बहुत समय लगेगा। यह अभी स्वयं प्रकाशमान नहीं है और केवल सूर्य के प्रकाश से ही चमकता है। इसका तल भी अभी पृथ्वी तल के समान ठोस नहीं है। यह चारों ओर अनेक प्रकार के वाष्पों के मंड़ल से घिरा हुआ है। इसके साथ कम से कम पाँच उपग्रह या चंद्रमा हैं जिनमें से तीन उपग्रह हमारे चंद्रमा मे बडे हैं और दो छोटे।
⋙ बृहस्पतिचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] ६० संवत्सरों का समुह [को०]।
⋙ बृहस्पतिपुरोहित
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र [को०]।
⋙ बृहस्पतिवार
संज्ञा पुं० [सं०] गुरुवार। बीफे [को०]।
⋙ बृहस्पतिस्मृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अगिरा के पुत्र बृहस्पति ऋषि कृत एक स्मृति।
⋙ बेंच
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. लकड़ी, लोहै या पत्थर आदि की बनी हुई एक प्रकार की चौकी जो चौड़ी कम और लंबी अधिक होती है। इसपर बराबर कई आदमी एक साथ बैठ सकते हैं। कभी कभी इसमें पीछे की ओर से ऐसी योजना भी कर दी जाती है जिससे बैठनेवाले की पीठ को सहारा भी मिल सके। २. सरकारी न्यायालय के न्यायकर्ता। ३. वह असन जिसपर न्यायकर्ता बैठता है। न्यायासन। ४. न्यायालय। अदालत।
⋙ बेँग
संज्ञा पुं० [सं० भेक] मेढक। उ०—जैसे व्याल बेंग को ढूके बेग पखारी ताकै हो। जैसे सिंह आयु मुख निरखे परे कूप में दाकै हो।—सूर (शब्द०)।
⋙ बेंगत †
संज्ञा पुं० [देश०] वह बीज जो खेतिहरों को उधार दिया जाता है और जिसके बदले में फसल होने पर तौल चमें उससे कुछ अधिक अन्न मिलता है। बेग। बीट।
⋙ बेँगनकुटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] अबाली नाम का पक्षी। दे० 'अबाली'।
⋙ बेँचना
क्रि० सं० [हिं० बेचना] दे० 'बेचना'।
⋙ बेँट, बेँठ
संज्ञा स्त्री० [देश०] औजारों आदि में लगा हुआ काठ या इसी प्रकार की और किसी चीज का दस्ता। मूठ।
⋙ बेँड़ पु † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. वह भेड़ा जो भेड़ों के झुंड़ में बच्चे उत्पन्न करने के लिये छूटा रहता है। (गड़ेरिया)। २. नगद रुपया पैसा। सिक्का। (दलाल)। ३. पड़ाव। (क्व०)।
⋙ बेँड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेड़ा (=आड़ा)] वह चीज जो किसी भार को नीचे गिरने मे रोकने के लिये उसके नीचे लगाई जाय। चाँड़। उ०—ह्वै नल नील अज हो देउँ समुद्र महिं मेड़। कटक शाह कर टेकों है सुमेर रण बेंड़।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बेँड़ना
क्रि० सं० [हिं०] घेर देना। रोक देना।
⋙ बेंड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बेंवड़ा'।
⋙ बेँड़ा (२)
वि० [हिं० आड़ा] १. आड़ा। तिरछा। २. कठिन। मुश्किल। टेढ़ा।
⋙ बेँड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] बाँस की वह टोकरी जिसमें चार रस्सियाँ बंधी रहती हैं ओर जिसकी सहायता से दो आदमी मीलकर किसी गड्ढे का पानी उठाकर खेत आदि सींचते हैं। डलिया। दोरी।
⋙ बेँड़ी मसकली
संज्ञा स्त्री० [देश०] हँसिया के आकार का लोहे का एक औजार जिसमें काठ का दस्ता लगा रहता हैं। इससे बरतनों पर जिला की जाती है।
⋙ बेँढ़
संज्ञा पुं० [लश०] खभे आदि के उपरले पतले भाग में पहनाया हुआ किसी चीज का पतला चौकोर पत्तर या इसी प्रकार का और कोई पदार्थ जिसका उपयोग यह जानने के लिये होता है कि हवा किस ओर बह रही है। यह चारों ओर सहज में घूम सकता है और सदा हवा के रुख पर घूमता रहता है। फरहरा।
⋙ बेँत
संज्ञा पुं० [सं० वेतस्] एक प्रसिद्ध लता जो ताड़ या खजूर आदि की जाति की मानी जाती है। विशेष— यह पूर्वी एशिया ओर उसके आस पास के टापुओं में जलाशयों के पास बहुत अधिकता से होती है। इसके पत्ते बाँस के पत्तों के समान ओर कँटीले होते हैं ओर उन्हीं के सहारे यह लता ऊँचे ऊँचे पेड़ों पर चढ़ती है। इसकी छोटी बड़ी अनेक जातियाँ है। इसके डठल बहुत मजबूत औरलचीले होते हैं और प्रायः छड़ियाँ, टोकरियाँ तथा इसी प्रकार के सरे सामान बनाने के काम में आते हैं। इन डंठलों के ऊपर की छाल कुर्सियां, मोढ़े पलग आदि बुनने के काम में भी आती है। हमारे यहाँ के प्राचीन कवियों आदि का विश्वास था कि बेंत फूलता या फलता नहीं, पर वास्तव में यह बात ठीक नहीं है। इसमें गुच्छों में एक प्रकार के छोटे छोटे फल लगते हैं जो खाए जाते हैं। इसकी जड़ और कोमल पत्तियाँ भी तरकारी की तरह खाई जाती हैं। वैद्यक में इसे शीतल और सूजन, कफ, बवासीर, व्रण, मूत्रकृच्छ, रक्तपित्त और पथरी आदि का नाशक माना है। पर्या०—वेतस। निचुल। बंजुल। दीर्घपत्रक। कलन। मंजरीनम्र। वानीर। विफल। रथ। शीत। गंधपुष्पक। सुषेण। नीरप्रिय। तोयकाम। अभ्रपुष्पक। २. बेंत के ड़ठल की बनी हुई छड़ी। मुहा०—बेंत की तरह काँपना = थर थर काँपना। बहुत अधिक ड़रना। जैसे,—यह लड़का आपको देखते ही बेंत की तरह काँपता है।
⋙ बेँदली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिंदी] माथे पर लगाने की बिंदी। टिकली।
⋙ बेँदा
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुक] १. माथे पर लगाने का गोल तिलक। टीका। २. माथे पर पहनने का स्त्रियों का एक आभूषण। बंदी। बिंदी। उ०—नाना विधि शृंगार बनाए, बेंदा दीन्हों भाल।—सूर (शब्द०)। ३. माथे पर लगाने की बड़ी गोल टिकली। ५. इस आकार और प्रकार का माथे पर पहनने का एक आभूषण।
⋙ बेँदी
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्दु, हिं० बिंदी] १. टिकली। बिंदी। २. शून्य। सुन्ना। उ०—कहत सबै बदी दिए आंक दस गुनो होत। तिय लिलार बेंदी दिए अगनित बढ़त उदोत- बिहारी (शब्द०)। ३. दावनी या बंदी नाम का गहना जिसे स्त्रियां माथे पर पहनती हैं। उ०— (क)बैंदी सँवारन मिस पाइ लागी। चतुर नायकहू पाग मसकी मन ही मन रीझे गुप्त भेद प्रीति तन जागी।—सूर (शब्द०)। (ख) बेदी भाल नैन नित आँजति निरखि रहति तनु गोरी।—सुर (शब्द०)। ४. सरो के पेड़ का सा बैल बूटा।
⋙ बेँदुल, बेँदुलि ‡
संज्ञा स्त्री० [प्रा० अप०, बुंदी, राज० बीदणी ?] बाहन। उ०— (क) अब करि बेंदुल आरतौ, माथे पै तिलकु सँजोइ मनोहर साँम रे।—पोद्दार अभि ग्रं०, पृ० ९३०। (ख) बाकी बेंदुलि राखे बिलमाइ, देवी छंद गावत में।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९६१।
⋙ बेँवड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० बेंड़ा (=आड़ा)] बंद किवाड़ों के पीछे लगाने की लकड़ी। अरगल। गज। व्योंड़। दे० 'अरगल'।
⋙ बेँवत †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ब्योंत'।
⋙ बेँभ्रतना †
क्रि० स० [हिं० बेवत + ला (प्रत्य०)] दे० 'ब्योतना'।
⋙ बेँवताना
क्रि० स० [हिं० ब्योंतना का प्रे० रूप] ब्योंतने का काम दूसरे से कराना। सिलाने के लिये किसी से कपड़ा नपवाना।
⋙ बे (१)
अव्य० [सं० वि०, सि० फ़ा० वे] बिना। बगैर। विशेष—इसका प्रयोग प्रायः फरसी आदि शब्दों के साथ यौगिक में होता है। जेसे,—बेगैरत, बेइज्जत।
⋙ बे (२)
अव्य० [हिं० हे] छोटों के लिये एक संबोधन शब्द जो प्रायः अशिष्टतासूचक माना जाता है। उ०— (क) बे हिंदू के कुफर बोल भी कुफरे कढ्ढै।— पृ० रा०, ६४। ११७। (ख) बे कायर बल्हीन पकरि सिंगिनी क्या तीलै।—पृ० रा० ६४। १४०। मुहा०—बे ते करना = किसी को तुच्छ मसझते हुए उसके साथ अशिष्टतापूर्वक बातें करना।
⋙ बे † (३)
वि० [सं० द्वि, द्वे, प्रा० अप० बे] दो। उ०— ततो बे कुमारी पउट्ठे बजारी, जहिं लष्ख घोरा मअगा हजारी।—कीर्ति०, पृ० ३८।
⋙ बेअंत पु †
क्रि० वि० [हिं बे (=बगैर) + सं० अन्त] जिसका कोई अंत न हो। अंनत। असीम। बेहद। उ०—अगम अपारु अंतु कछु नाहीं। एह बेअंत न कीमति पाहीं।—प्राण०, ९८।
⋙ बेअलक
वि० [फा० बे + अ० अकल या अकल] नासमझ। मूर्ख। बेबकूफ।
⋙ बेअकली
संज्ञा स्त्री० [फा़० बे + अ० अक्लई + ई] नासमझी। मूर्खता। बेवकूफी।
⋙ बेअकीन
वि० [हिं० बे + अ० यकीन] अविश्वसनीयि। विश्वास- हीन। उ०— बेअकील आहै सब दुनियाँ, बहु अपकर्म कमावै।—जग० श०, भा० २, पृ० १०७।
⋙ बेअदब
वि० [फ़ा० बे + अदब] जो किसी का अदब न करता हो। जो बडों का आदर सम्मान न करे।
⋙ बेअदबी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बे + अदब] बेअदब होने का भाव। बड़ों का आदर सम्मान न करना। गुस्ताखी। शोखी।
⋙ बेआज †
संज्ञा पुं० [सं० व्याज] बहाना। दे० 'व्याज'। उ०— निठुर समाज पुछार उदासीन आओर कि कहव बेआजे।—विद्यापति , पृ० १५।
⋙ बेआब
वि० [फ़ा० वे + अ० आब] १. जिसमें आब (चमक) न हो। २. जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो।
⋙ बेआबरू
वि० [फ़ा०] जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो। बेइज्जत। अपमानित।
⋙ बआबरूई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेआबरू + ई (प्रत्य०)] बेइज्जती। उ०—दरोगा ने हमारी जैसो बेआबरूई की है, क्या उसे सहकर तुम आराम की नींद सो सकते हो।—संन्यासी०, पृ० १५६।
⋙ बेआबी
संज्ञा स्त्री० [फा० बे + आब] बेआब होने का भाव। मलिनता। निस्तेजता।
⋙ बेआरा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक में मिला हूआ जौ और बना।
⋙ बेइसाफी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बे + इन्साफी] इंसाफ का अभाव। अन्याय। अनीति।
⋙ बेइख्तियार
वि० [फ़ा० बे + इख्तियार] बेवस। उ०— बेइख्तियार जी चाहता था जबान चूम लें।— सैर०, पृ० १३।
⋙ बेइज्जत
वि० [फा़० बे + अ० इज्जत] १. जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो। अप्रतिष्ठित। २. जिसका अपमान किया गया हो। अपमानित।
⋙ बेइज्जती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा बे + इज्जती] १. अप्रतिष्ठा। २. अपमान।
⋙ बेइलि (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बेला'। उ०—मौलसिरी बेइलि अउ करना। सबइ फूल फूले बहु बरना।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बेइलि पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बेलि] दे० बेलि। उ०—बेइलि है बेइलि चमेली चहुँ गिर्द है भिश्ति की बोए बगीच बानी।—संत० दरिया, पृ० ७२।
⋙ बेइल्म
वि० [फ़ा० बे + अ० इल्म] जो कोई विद्या न जानता हो। जो कुछ पढ़ा लिखा न हो। मूर्ख।
⋙ बेइल्मी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] विद्याविहीनता। निरक्षरता [को०]।
⋙ बेईमान
वि० [फ़ा०] १. जिसका ईमान ठाक न हो। जिसे धर्म का विचार न हो। अधर्मी। उ०—कभी उस बेईमान से लड़कर फतह नहीं मिलनी है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५२१। २. जो विश्वास के योग्य न हो। अविश्वसनीय। ३. जो अन्याय, कपट या और किसी प्रकार का अनाचार करता हो।
⋙ बेईमानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बे + अ० ईमान] बेईमान होने का भाव।
⋙ बेउँगा ‡
संज्ञा पुं० [देश०] बाँस का वह चोंगा जिसे कंबल की पटिया बुनते समय ताने की साँथी अलग करने के लिये ताने में रखते हैं।
⋙ बेउज्र
वि० [फ़ा० बे + अ० उज्र] जो आज्ञापालन अथवा और कोई काम करने में कभी किसी प्रकार की आपत्ति न करे।
⋙ बेएतबारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] अविश्वास। उ०—है नीचता और बेएतबारी की हद्द।— वो दुनियाँ, पृ० २८।
⋙ बेओनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] जुलाहों का एक ओजार दो प्रायः कंधी के आकार का होता है और ताने के सूत के बीच में रहता है।
⋙ बेऔलाद
वि० [फा़०] पुत्रहीन। उ०—ऐसे नालायक बेटे से बेऔलाद भला।—वो दुनियाँ, पृ० ४४।
⋙ बेकडर ‡
वि० [फ़ा० थे + कद्र] दे० 'बेकदर'। उ०—करे हरचंद यूसूफ अजिजी लब। बले नई रहम लाए बेकडर सब।— दक्खिनी०, पृ० ३३९।
⋙ बेकत †
संज्ञा स्त्री० [सं० व्यक्ति] व्यक्ति। आदमी। जन।
⋙ बेकदर
वि० [फ़ा० बेकदर] जिसकी कोई कदर या प्रतिष्ठा न हो। बेइज्जत।। अप्रतिष्ठित।
⋙ बेकदरा
वि० [फा़० बे + कद्रह] जिसकी कोई कदर न हो। अप्रतिष्ठित। २. जो कदर करना न जानता हो।
⋙ बेकदरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा बेकदरी] बेकदर होने का भाव। बेइज्जती। अप्रतिष्ठा। उ०—ऐसी दशा के कारण वह जहाँ घुमे उनकी बेकदरही हुई।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २४८।
⋙ बेकद्र
वि० [फा़० बे + कद्र] [संज्ञा बेकद्री] बेइज्जत। अप्रति- ष्ठित। उ०—समाज की दृष्टि में फल से उतार दिए गए छिलके की भाँति बेकद्र होते हैं।—अभिश०, पृ० १३७।
⋙ बेकरा †
संज्ञा पुं० [देश०] पशुओं का खुरपका नामक रोग। खुरहा।
⋙ बेकरार
वि० [फ़ा० बेक़ारार] जिसे शांति या चैन न हो। घबराया हुआ। व्याकुल। बिकल। उ०— निगह तुम्हारी की दिल जिससे बेकरार हुआ।—बेला, पृ० २१।
⋙ बेकरारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बेकरारी] बेकरार होने का भाव। घबराहट। बेचैनी। व्याकुलता।
⋙ बेकल पु †
वि० [सं० विक्ल] व्याकुल। विकल। बेचैन।
⋙ बेकली
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेकल + ई (प्रत्य०)] १. बेकल होने का भाव। घबराहट। बेचैनी। व्याकुलता। उ०— रह रह इनमें क्यों रंग आ जा रहा है। कुछ सखि। इनको भी हो रही बैकली है।— प्रिय प्र०, पृ० ४३। २. स्त्रियों का एक रोग जिसमें उनकी धरन या गर्भाशय अपने स्थान से कुछ हट जाता है और जिसमें रोगी को बहुत आधिक पीड़ा होती है।
⋙ बेकस
वि० [फ़ा०] १. निःसहाय। निराश्रय। २. गरीब। मुहताज। दीन। ३. मातृ-पितृ-हिन। बिना माँ बाप का अनाथ। यतीम।
⋙ बेकसी
वि० स्त्री० [फ़ा०] १. असहाय होने की स्थिति। निराश्रयता। २. विवशता। दीनता। उ०—क्यों वह दौलतमंद है जिसके पास जरे बैकसी नहीं।—भारतेंदु० ग्रं०, भा० २, पृ० ५७०।
⋙ बेकहा
वि० [हिं० बे + कहना] जो किसी का कहना न माने। किसी की आज्ञा या परामर्श को न माननेवाला।
⋙ बेकाज
वि० [हिं० बे + काज] बिना काम का। व्यर्थ। निरर्थक। बेकार। उ०—परबस भए न सोच सकहिं कछु करि निज बल बेकाज।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४८५।
⋙ बेकानूनी
वि० [फा० बे + अ० कानून] जो कानून या कायदे के खिलाफ हो। नियमविरुद्ध।
⋙ बेकाबू
वि० [फा़० हे + अ० काबू] १. जिसका अपने ऊपर काबू न हो। विवश। लाचार। २. जिसपर किसी का काबू न हो। जो किसी के वश में न हो।
⋙ बेकाम (१)
वि० [हिं० बे + काम] जिसे कोई काम न हो। निकम्मा। निठल्ला।
⋙ बेकाम (२)
क्रि० वि० व्यर्थ। निरर्थक। बेमतलब। निष्प्रयोजन।
⋙ बेकायदा
वि० [फा० बे + अ० कायदा] [संज्ञा बेकायदगी] कायदे के खिलाफ। नियमविरुद्ध।
⋙ बेकार (१)
वि० [फ़ा०] १. जिसके पास करने के लिये कोई काम न हो। निकम्मा। निठल्ला। २. जो किसी काम में न आ सके। जिसका कोई उपयोग न हो सके। निरर्थक। व्यर्थ।
⋙ बेकार (२)
क्रि० वि० व्यर्थ। बिना किसी काम के (पूरब)।
⋙ बेकारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बेकार होने का भाव। खाली या निरुद्यम होने का भाव।
⋙ बेकारयो पु
संज्ञा पुं० [हिं० बिकारी] किसी को जोर से बुलाने का शब्द। जैसे, अरे, हो, आदि। उ०—बेकारयो दै जान कहा- वत जान परयों की कहा परी बाढ़।—हरिदास (शब्द०)।
⋙ बेकुसूर
वि० [फ़ा० हे + अ० कुसूर] जिसका कोई कसूर न हो। निरपराध। दोषरहित। बेगुनाह।
⋙ बेकूफ पु
वि० [फ़ा० बेवकूफ़] दे० 'बेबकूफ'। उ०— पलटू बड़े बेकूफ वे आसिक होने जाहिं। सीस उतारे हाथ से सहज आसिकी नाहिं।—पलटू०, भा० १, पृ० ३०।
⋙ बेख (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़० बेख] जड़। मूल।
⋙ बेख पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वेष] १. भेस। स्वरूप। उ०—जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेख।—मानस १। ६७। २. स्वाँग। नकल।
⋙ बेखटक (१)
वि० [फा० बे + हिं० खटका] बिना किसी प्रकार के खटके के। बिना किसी प्रकार की रुकावट या असर्मजस के। निस्संकोच।
⋙ बेखटक (२)
क्रि० वि० मन में कोई खटका किए बिना। बिना आगा पीछा किए। निस्संकोच।
⋙ बेखटके
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बेखटक'।
⋙ बेखतर (१)
वि० [फ़ा० बे + अ० खतरा] जिसे किसी प्रकार का खतरा या भय न हो। निर्भय। निडर। जैसे,—आप बेखतर वहाँ चले जाँय।
⋙ बेखतर (२)
क्रि० वि० बिना डर या बिना भय के।
⋙ बेखता
वि० [फा० बे + अ० खता (= कसूर)] १. जिसका कोई अपराध चन हो। बेकसूर। निरपराध। २. जो कभी खाली न जाय। अमोघ। अचूक।
⋙ बेखना पु
क्रि० सं [सं० प्रेक्षण, या अवेन्दण प्रा० बेक्खण] देखना। अबलोकना।
⋙ बेखबर
वि० [फा़० बे + खबर] १. जिसको किसी बात की खबर न हो। अनजान। नावाकिफ। उ०—जहाँ ओ कारे जहाँ से हूँ बेखबर बदमस्त — कविता को०, भा० ४। २. बेहोश। बेसुध।
⋙ बेखबरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बेखबरी] १. बेखबर होने का भाव। २. अज्ञानता। ३. बेहोशी। आत्माविस्मृति।
⋙ बेखुद
वि० [फा० बेखुद] आत्मविस्सृत। बेसुध। बेहोश। उ०— बेखुद इस दोर में हैं सब 'हातिम'। इन दिनों क्या शराब सस्ती है।—कविता को०, भा० ४, पृ० ४५।
⋙ बेखुदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बेखुदी] आत्मविस्मृति। उ०— जबतक तुम किसी के हो नहीं गए तबतक, बेखुदी का मीठा मीठा मजा मिलने का नहीं।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १८४।
⋙ बेखुर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसका शिकार किया जाता है। विशेष— यह काश्मीर, नैपाल और बंगाल में पाया जाता है; पर अक्टूबर में पहाड़ पर से उतरकर सम भूमि पर आ जाता है। यह केवल फल फूल ही खाता है और प्रायः नदियों या जलाशयों के किनारे छोटे छोटे झुंड़ों में रहता है।
⋙ बेखौफ
वि० [फ़ा० बेखौफ] जिसे खौफ या भय न हो। निर्भय। निडर।
⋙ बेग (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेग] दे० 'वेग'। उ०—लागे जब बेगी जाइ परयो सिंधु तीर, चाहै जब नीर लिये ठाढ़े देन धोई है।— प्रियादास (शब्द०)।
⋙ बेग (२)
संज्ञा पुं० [अं० बेग] कपड़े, चमड़े या कागज आदि लचीले पदार्थों का कोई ऐसा थैला जिसमें चीजें रखी जाती हों। और जिसका मुँह ऊपर से बंद किया जा सकता हो। थैला।
⋙ बेग (३)
संज्ञा पुं० [तु०] अमीर। सरदार। (नाम के अंत में प्रयुक्त)।
⋙ बेगड़ी
संज्ञा पुं० [देश०] १. हीरा काटनेवाला। हीरातराश। २. नगीना बनानेवाला। बक्काक।
⋙ बेगती
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो बंगाल की खाड़ी में पाई जाती है। यह प्रायः ४ हाथ लंबी होती है और इसका मांस स्वादिष्ट होता है।
⋙ बेगम (१)
संज्ञा स्त्री० [तु०] १. राज्ञी। रानी। राजपत्नी। २. ताशा कि पत्तों में से एक जिसपर एक स्त्री या रानी का चित्र बना होता है। यह पत्ता केवल एक्के और बादशाह से छोटा और बाकी सबसे बड़ा समझा जाता है।
⋙ बेगम (२)
वि० [फ़ा० बेगम] चिंतारहित।
⋙ बेगमी (१)
वि० [तु० बेगम + ई (प्रत्य०)] १. बेगम संबंधी। २. उत्तम। उम्दा। बढ़िया।
⋙ बेगमी (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का बढ़िया कपूरी पान। २. एक प्रकार का पनीर जिसमें नमक कम होता है। ३. एक प्रकार का बढ़िया चावल जो पंजाब में होता है।
⋙ बेगर (१)
संज्ञा पुं० [?] उड़द या मूँग का कुछ मोटा और रवेदार आटा जिससे प्रायः मगदल या बड़ा आदि बनाते हैं। विशेष— यह कच्चा और पक्का दो प्रकार का होता हे। कच्चा वह कहलाता है जो कच्चे मूँग या उड़द को पीसकर बनाया जाता है, और पक्का वह कहलाता है जो भुने हुए मूँग या उड़द की पीसने से बनता है।
⋙ बेगर † (२)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बगैर'।
⋙ बेगरज † (१)
वि० [फ़ा० बे + अं० गरज] जिसे कोई गरज या परवा नही।
⋙ बेगरज (२)
क्रि० वि० बिना किसी मतलब के। निष्र्पयोजन। व्यर्थ।
⋙ बेगरजी
संमज्ञा स्त्री० [फ़ा० वे + अ० गरज + ई(प्रत्य०)] बेगरज होने का भाव।
⋙ बेगला †
वि० [हिं० बेधर या हे = दो) फा० + गलह्] १. गृहहीन। निराश्रय। आवारा। २. दोगला। जारज। उ०—बाइकाँ बनेंगी राँड़ाँ बेगले फिरेंगे छोरे। पस्सी उठा को माँटी डालेंगे नाउँ पो तेरे।—दक्खिनी०, पृ० २९७।
⋙ बेगवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णाधं वृत जिसके विषय पादों में ३ सगण, १ गुरु और सम पादों में ३ भगण और २ गुरु होते हैं।
⋙ बेगसर
संज्ञा पुं० [सं० वेगसर] बेसर। अश्वतर। खच्चर। [डिं०]।
⋙ बेगानगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] बेगाना होने का भाव। परायापन।
⋙ बेगाना
वि० [फ़ा० बेगानह्] [स्त्री० बेगानी] १. जो अपना न हो। गैर। दूसरा। पराया। उ०— एक बेर मायके के लिये बेगानी हो जाने पर स्त्री के लिये फिर मायका अपना नहीं हो सकता।—भस्मावृत, पृ० ५३। २. नावाकिफ। अनजान।
⋙ बेगार
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. वह काम जो राज्य के कर्मचारी आदि अथवा गाँव के जमीदार आदि छोटी जाति के और गरीब आदमियों से बलपूर्वक लेते हैं ओर जिसके बदले में उनकी बहुत ही कम पुरस्कार मिलता है अथवा कुछ भी पुरस्कार नहीं मिलता। बिना मजदूरी का जबरदस्ती लिया हुआ काम। क्रि० प्र०—देना।—लेना। २. वह काम जो चित्त लगाकर न किया जाय। वह काम जो बेमन से किया जाय। मुहा०—बैगार टालना=बिना चित्त लगाए कोई काम करना। पीछा छुड़ाने के लिये किसी काम को जैसे तैसे पूरा करना।
⋙ बेगारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] वह मजदूर जिससे बिना मजदूरी दिए जबरदस्ती काम लिया जाय। बेगार में काम करनेवाला आदमी। उ०—षट दर्शन पाखंड छानबे, पकरि किए बेगारी।—धरम०, पृ०, ६२।
⋙ बेगि पु †
क्रि० वि० [सं० वेग] १. जल्दी से। शीघ्रतापूर्वक। २. चटपट। फोरन। तुरंत। उ०—जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहँसि कहा सुनु माता।— मानस, ३। २२।
⋙ बेगुन †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'बैगन'।
⋙ बेगुनाह
वि० [फा़०] [संज्ञा स्त्री० बेगुनाही] १. जिसने कोई गुनाह न किया हो। जिसने कोई पाप न किया हो। २. जिसने कोई अपराध न किया हो। बेकसूर। निर्दोष।
⋙ बेगुनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की सुराही।
⋙ बेगैरत
वि० [फ़ा० बे + अ० गैरत] सम्मानहीन। प्रतिष्ठारहित। उ०— (क) उसका लड़का इतना बेशर्म और बेगैरत हो।—गवन, पृ० १०८। (ख) ऐसे बेगैरत लड़के से क्या होगा।—वो दुनियाँ, पृ० ४५।
⋙ बेघर
वि० [हि०] गृहहीन। जिसे घर न हो।
⋙ बेचक †
संज्ञा पुं० [हि० बेचना] बेचनेवाला। बिक्री करनेवाला। उ०—द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।—मानस, ७। ९८।
⋙ बेचना
क्रि० सं० [सं० विक्रय] मूल्य लेकर कोई पदार्थ देना। चीज देना और उसके बदले में दाम लेना। विक्रय करना। संयों क्रि०—डालना।—देना। मुहा०—बेच खाना = खो देना। गवाँ देना। उ०— (क) सनु मैया याकी टेव लरन की सकुच बेंचि सी खाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पुरुष केरी सबै सोहै कूबरी के काज। सूर प्रभु की कहा कहिए बेंच खाई लाज।—सूर (शब्द०)।
⋙ बेचवाना
क्रि० सं० [हिं० बेचना का पे० रुप] दे० 'बिकवाना'।
⋙ बेचवाल ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] बेचनेवाला व्यक्ति।
⋙ बेचाना पु †
क्रि० सं० [हिं० बेचना] दे० 'बिकवाना'।
⋙ बेचारगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] विवशता। लाचारी। उ०— उसकी बेचारगी पर हमारा मन आकुलता से भर उठता है— सुनीता, पृ० १३।
⋙ बेचारा
वि० [फ़ा० बेचारह्] [स्त्री० बेचारी] जो दीन और निस्सहाय हो। जिसका कोई साथी या अवलंब न हो। गरीब। दीन।
⋙ बेचिराग
वि० [फ़ा० बे + अ० चिराग] जहाँ दीया तक न जलता हो। उजड़ा हुआ।
⋙ बेचो
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेचना] विक्रय। खरीद फरोख्त।
⋙ बेचूँचुरा
क्रि० वि० [फा़० बे + चूँ व चरा] बिना विवाद या बिना इतराज। बिना उज्र के। उ०—जो बेचूँचुरा नामनामी हूआ। वह सब अंजिया में गिरामी हुआ।—कबीर मं०, पृ० ३८५।
⋙ बेचू †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बेचबाल'।
⋙ बेचैन
वि० [फा़०] जिसे किसी प्रकार चैन न पड़ता हो। व्याकुल। विकल। बेकल।
⋙ बेचैनी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बेचैन होने का भाव। बिकलता। व्याकुलता। बेकली। घबराहट।
⋙ बेजड़
वि० [फ़ा० बे + हिं० जड़] जिसकी कोई जड़ या बुनियाद न हो। जिसके मूल में कोई तत्व या सार न हो। जो यों ही मन से गढ़ा या बना लिया गया हो। निर्मूल। जैसे,— आप तो रोज यों ही बेजड़ की बातें उड़ाया करते हैं।
⋙ बेजबान
वि० [फा़० बेजबान] जिसमें बातचीत करने की शक्तिन हो। जो बोलकर अपने मन के भाव प्रकट न कर सकता हो। गूँगा। मूक। जैसे, —बेजबान जानवरों की रक्षा करनी जाहिए। २. जो अपनी दीनता या नम्रता के कारण किसी प्रकार का विरोध न करे। दीन। गरीब।
⋙ बेजर
वि० [फ़ा० बे + जर] संपत्तिहीन। निर्धन। उ०— अगर मुज जातने बदा हूँ बेजर। चलो मूज घर कतैं तशरीफ लेकर।—दक्खिनी०, पृ० १९०।
⋙ बेजवाल (१)
वि० [फ़ा० बे + जवाल] अविनश्वर। जो न घटे बढ़े या न छीजे। उ०— काम न आता दिसे ये मुल्को माल। देव मुझे या रब तूँ मिल्के बेजबाल।—दक्खिनी०, पृ०१०५।
⋙ बेजबाल † (२)
वि० [फ़ा० बे + जवाल (=झंझट)] जो बिना झंझट का हो। बिना बखेड़े का।
⋙ बेजा
वि० [फ़ा० बे + जा (=स्थान)] १. जो अपने उचित स्थान पर न हो। बेठिकाने। बेमोके। २. अनुचित। नामु- नासिब। ३. खराब। बुरा।
⋙ बेजान
वि० [फ़ा०] १. जिसमें जान न हो। मुरदा। मृतक। २. जिसमें जीवन शक्ति बहुत ही थोड़ी हो। जिसमें कुछ भी दम न हो। ३. मुरझाया हुआ। कुम्हलाया हुआ। ४. निर्बल। कमजोर।
⋙ बेजाब्ता
वि० [फा० बे + अ० जाब्ता] जो जाब्ते के अनुसार न हो। कानून या नियम आदि के विरुद्ध। जैसे,—जाब्ते की काररबाई न करके आप बेजाव्ता काम क्यों करने गए।
⋙ बेजार
वि० [फ़ा० बेजार] १. जो किसी बात से बहुत तंग आ गया हो। जिसका चित्त किसी बात से बहुत दुखी हो। जेसे,—आप तो दिन पर दिन अपनी जिंदगी से बेजार हुए जाते हैं। २. नाराज। अप्रसन्न। उ०— यह आपके बेजार होने का इजहार रहै।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २४। †३. बीमार। रोगग्रस्त।
⋙ बेजारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बेजार] १. परेशानी। २. नाराजी।
⋙ बेजू
संज्ञा पुं० [अं० बेजर] डेढ़ दो हाथ लंबा एक प्रकार का जंगली जानवर जो प्रायः सभी गरम देशों में पाया जाता है। विशेष—इसके शरीर का रंग भूरा और पैर छोटा होता है। इसकी दुम बहुत छोटी और पंजे लंबे तथा दृढ़ होते हैं जिनसे यह अपने रहने के लिये बिल खोदता है। इसका मांस खाया जाता है और इसकी दुम के बालों से चित्रों आदि में रंग भरने या दाढ़ी में साबुन लगाने के बुरुश बनाए जाते है। प्रायः शिकारी लोग इसे बिलों से जबरदस्ती निकालकर कुत्तों से इसका शिकार कराते हैं।
⋙ बेजून †
क्रि० वि० [फा० बे + हिं० जून(=समय)] अनवसर। असमय। बेमोके।
⋙ बेजोड़
वि० [फा० बे + हिं० जोड़] १. जिसमें जोड़ न हो। जो एक ही टुकड़े का बना हो। अखंड। २. जिसके जोड़ का और कोई न हो। जिसकी समता न हो सके। अद्वितीय। निरुपम।
⋙ बेझ पु (१)
वि० [सं० विद्ध, प्रा० बिज्झ] १. विंद्ध। बिंधा हुआ। २. (लाक्ष०) स्तब्ध। उ०—गहि पिनाक जानहुं सुर गहा। जत कत जगत बेझ होइ रहा।— चित्रा०, पृ० २९।
⋙ बेझ (२)
संज्ञा पुं० वेध। लक्ष्य।
⋙ बेझना
क्रि० सं० [सं० बेध + हिं० ना (प्रत्य०)] निशाना लगाना। वेधना।
⋙ बेझरा
संज्ञा पुं० [हिं० मेझरना (=मिलाना)] गेहूँ, जौं, मटर, चना, इत्यादि अनाजों में से कोई दो या तीन मिले हुए अन्न।
⋙ बेझा †
संज्ञा पुं० [सं० बेध] निशाना। लक्ष्य। उ०— (क) बदन के बेझे पै मदन कमनैती के चुटारी शर चोटन चटा से चमकत है।—देव (शब्द०)। (ख) तिय कत कमनैती पढ़ी बिन जिह भौंह कमान। चित चल बेझे चुकति नहिं बक बिलोकनि बान।—बिहारी (शब्द०)। (ग) मारे नैन बान ऐंचि ऐचि स्रवनांत जबै, ताते हते छिद्र से निकट थिर बेझा ज्यों। रावरी बियोग आगि जाके खाय खाय दाग ह्वै गयो करेजा मेरी चूनरी की रेजा ज्यों।—नट०, पृ० ७७।
⋙ बेझी †
संज्ञा पुं० [हिं० बेझ] बेध करनेवाला व्यक्ति। बहेलिया। उ०—तकत तकावत रहि गया, सका न बेझी मारि।—कबीर० सा० सं०, पृ० ८३।
⋙ बेट
संज्ञा पुं० [अं०] बाजी। दाँव। शर्त। बदान। जैसे,— कुछ बेठ लगाते हो। क्रि० प्र०—लगाना।
⋙ बेटकी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेटा] बेटी। कन्या। पुत्री। लड़की। उ०—ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि पेठ ही को पचत बेचत बेटा बेटकी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बेटला पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बेटा + ला (प्रत्य०)] दे० 'बेटा'। उ०—गई गाव के बेटला मेरे आदि सहाई। इनकी हम लज्जा नहीं तुम राज बड़ाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ बेटवा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बेटा'।
⋙ बेटा
संज्ञा पुं० [सं० बटु(=बालक)] [स्त्री० बेटी] पुत्र। सुत। लड़का। मुहा०—बेटा बनाना = किसी बालक को दत्तक लेकर अपना पुत्र बनाना। (किसी को) बेटी देना = कन्या का विवाह करना। (किसी की) बेटी लेना = किसी की कन्या से विवाह करना। बेटे वाला =वर का पिता अथवा वर पक्ष का और कोई बड़ा आदमी। बेटी वाला = वधू का पिता अथवा वधू पक्ष का और कोई बड़ा आदमी। यौ०—बेटा बेटी = संतान। औलाद। बेटे। पोते = संतान और संतान की संतान। पुत्र, पौत्र, आदि।
⋙ बेटिकट
वि० [हिं०] बिना टिकट का।
⋙ बेटौना ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बेटा'।
⋙ बेट्टा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का भैसा जो मैसूर देश में होता है।
⋙ बेट्टा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बेटा] दे० 'बेटा'।
⋙ बेठ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की ऊसर जमीन जिसे बीहड़ भी कहते हैं।
⋙ बेठ (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'बेट' 'बेठ'।
⋙ बेठन
संज्ञा पुं० [सं० बेठन] वह कपड़ा जो किसी चीज को गर्द आदि से बचाने के लिये उसपर लपेट दिया जाय। वह कपड़ा जो किसी चीज को लपेटने के काम में आवे। बँधना। मुहा०—पोथी का बेठन = पुस्तकों से बराबर संबंध रहने पर भी जो अधिक पढ़ा लिखा न हो। ऊ०—तू भला कबौं झूठ बोलबो, तू तो निरे पोथी के बेठन ही।—भारतेंदु ग्र०, भा० १, पृ० ३३५।
⋙ बेठिकाने
वि० [फा० बे + ठिकाना] जो अपने उचित स्थान पर न हो। स्थानच्युत। २. जिसका कोई सिर पेर न हो। ऊल- जलूल। ३. व्यर्थ। निरर्थक।
⋙ बेड़
संज्ञा पुं० [अं०] १. नीचे का भाग। तल। २. बिस्तर। बिछोना। ३. छापेखाने में लोहे का वह तख्ता जिसपर कपोज और शुद्ध किए हुए टाईप, छापने से पहले, रखकर कसे जाते हैं। यौ०—बेड़ रूम=शयनकक्ष।
⋙ बेड़ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बाढ़] वृक्ष के चारों ओर लगाई हुई बाड़। मेड़। उ०—ये पन पीड़ी सी मीड़ी पिंडुरी उमड़ि मेड़ बेड़न लगावे पेड़पाइन गुझकती।—देव (शब्द०)।
⋙ बेड़ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बीड़] नगद रुपया। सिक्का। (दलाल)।
⋙ बेड़ना
क्रि० स० [हिं० बेड़ + ना (प्रत्य०)] नए वृक्षों आवि के चारों और उनकी रक्षा के लिये छोटी दीवार आदि खड़ी करना। थाला बाँधना। मेड़ या बाढ़ लगाना। उ०— जिसने दाख की बारी लगाई और उसको चहुँ ओर बेड़ दिया।—(शब्द०)।
⋙ बेड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेष्ट] १. बड़े बड़े लट्ठों लकड़ियों या तख्तों आदि को एक में बाँधकर बनाया हुआ ढाँचा जिसपर बाँस का टट्टर बिछा देते हैं और जिसपर बैठकर नदी आदि पार करते हैं। यह घड़ों की बनी हुई घन्नई से बड़ा होता है। तिरना। मुहा०—बेड़ा पार करना या लगाना = किसी को संकट से पार लगाना या छुड़ाना। विपत्ति के समय सहायता करके किसी का काम पूरा कर देना। जैसे,—इस समय तो ईश्वर ही बेड़ा पार करेगा। बेड़ा पार होना या लगना = विपत्ति या संकट से उद्धार होना। कष्ट से छुटकारा होना। बेड़ा डूबना=विपत्ति में पड़कर नाश होना। २. बहुत सो नावों या जहाजों आदि का समूह। जैसे,— भारतीय महासागर में सदा एक अँगरेजी बेड़ा रहता है। ३. नाव। नोका (डि०)। ४. झुंड। समुह (पूरब)। मुहा०—बेड़ा बाँधना = बहुत से आदमियों को इक्ट्ठा करना। लोगों को एकत्र करना।
⋙ बेड़ा (२)
वि० [हिं० आड़ा का अनु०, या सं० बलि (=टेढ़ा)] १. जो आँखों के समानंतर दाहिनी ओर से बाई ओर अथवा बाई ओर से दाहिनी ओर गया हो। आड़ा। २. कठिन। मुशकिल। विकट।
⋙ बेड़िचा †
संज्ञा पुं० [देश०] बाँस की कमाचियों की बनी हुई एक प्रकार की टोकरी जो थाल के आकार की होती है ओर जिससे किसान लोग खेत सींचने के लिये तालाब से पानी निकालते हैं।
⋙ बेड़िन,बेड़िनी
संज्ञा स्त्री० [?] नट जाति की स्त्री जो नाचती गाती हो। उ०— (क) जाने गति बेड़िन दिखराई। बाँह डुलाय जीव लेइ जाई।— जायसी (शब्द०)। (ख) कहूँ भाँठ भाटयो करैं मान पावें। कहूँ लोलिनी बेड़िनी गीत गावें।— केशव (शब्द०)। २. नीच जाति की कोई स्त्री जो नाचती गाती और कसब कमाती हो।
⋙ बेड़िया †
संज्ञा पुं० [हिं०] बेडिन की जाति का व्यक्ति। नट।
⋙ बेड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वलय] १. लोहे के कड़ों की जोड़ी या जंजीर जो कैदियों या पशुओं आदि को इसलिये पहुनाई जाती है जिसमें वे स्वतंत्रतापूर्वक घूम फिर न सरें। निगड। उ०— (क)पहुँचेंगे तब कहेंगे वेही देश की सीच। अबहिं कहाँ तें गाड़िए बेड़ी पायन बीच।—कबीर (शब्द०)। (ख) पायन गाढ़ी बेड़ी परी। साँकर ग्रीव हाथ हथकड़ी।—जायसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—डालना।—देना।—पड़ना।—पहनना।— पहनाना। २. बाँस की टोकरी जिसके दोनों ओर रस्सी बँधी रहती है और जिसकी सहायता से पानी नीचे से उठाकर खेतों में डाला जाता है। ३. साँप काटने का एक इलाज जिसमें काटे हुए स्थान को गरम लोहे से दाग देते हैं।
⋙ बेड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेड़ा का स्त्री० अल्पा०] १. नदी पार करने का टट्टर आदि का बना हुआ छोटा बेड़ा। २. छोटी नाव। (क्व०)।
⋙ बेडौल
वि० [हिं० बे + डौल (=रूप)] १. जिसका डोल या रूप अच्छा न हो। भद्दा। २. जो अपने स्थान पर उपयुक्त न जान पड़े। बेढगा।
⋙ बेढंग
वि० [हिं०] दे० 'बेढंगा'।
⋙ बेढ़ंगा
वि० [फा० बे + हिं० ढ़ा + आ (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० बेढ़ंगी] १. जिसका ढंग ठीक न हो। बुरे ढगवाला। २. जो ठीक तरह से लगाया, रखा या सजाया न गया हो। बेतरतीब। ३. भद्दा। कुरूप।
⋙ बेढ़ंगापन
संज्ञा पुं० [हिं० बेढंगा + पन (प्रत्य०)] बेढंग होने का भाव।
⋙ बेढ़
संज्ञा पुं० [सं० √ वृध्(=वर्धन)] नाश। बरबादी। उ०—दोरि बेढ़ सिरोंज को कीन्हों। कुंदा के गिरि डेरा दीन्हों।— लाल (शब्द०)। २. बोया हुआ वह बीज जिसमें अंकुर निकल आया हो। ३. दे० 'बेड'। मेड़। बाढ़।
⋙ बेढ़ई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेढ़ना (=घेरना)] वह रोटी या पूरी जिसमें दाल, पीठी आदि कोई चीज भरी हो। कचौड़ी।
⋙ बेढ़क †
संज्ञा पुं० [सं० वर्धन (=काटना)] काटनेवाला अर्थात् लड़नेवाला। योद्धा। सुभट। उ०—बेढ़क डैरे बज्जिए पड़िया सुहड़ पचास।— रा० रू०, पृ० २५६।
⋙ बेढ़न †
संज्ञा पुं० [सं० वेष्ठन] वह जिससे कोई चीज घेरी हुई हो। बेठन। घेरा।
⋙ बेढ़ना (१)
क्रि० स० [सं० वेष्ठन] १. वृक्षों या खेतों आदि को उनकी रक्षा के लिये चारों ओर से टट्टी बाँधकर, काँटे बिछाकर या और किसी प्रकार घेरना। रूँधना। २. चोपायों को घेरकर हाँक ले जाना।
⋙ बेढ़ना (२)
क्रि० सं० [सं० वर्धन] छिन्न करना। काटना। उ०— दग बाण तिणरा भुजा दोन्यू बढ़िया सुध बाँधने।—रघु०, रू०, पृ० १२६।
⋙ बेढब (१)
वि० [हिं० बे + ढग] १. जिसका ढब या ढंग अच्छा न हो। २. जो देखने में ठीक न जान पड़े। बेढगा। भद्दा।
⋙ बेढब (२)
क्रि० वि० बुरी तरह से। अनुचित या अनुपयुक्त रूप से। बेतरह।
⋙ बेढ़ा
संज्ञा पुं० [हिं० बेढ़ना (=घेरना)] १. हाथ में पहनने का एक प्रकार का कड़ा (गहना)। उ०— तोरा कंठीमाल रतन चोकी बहु साकर। बेढ़ा पहुँची कटक सुमरनी छाप सुभाकर।—सूदन (शब्द०)। २. घर के आसपास वह छोटा सा घेरा हुआ स्थान जिसमें तरकारियाँ आदि बोई जाती हैं।
⋙ बेढ़ाना ‡
क्रि० सं० [हिं० बेढना का प्रे० रूप] १. घेरने का काम दूसरे से कराना। घिरवाना। २. ओढ़ाना।
⋙ बेढुआ ‡
संज्ञा पुं० [देश०] गोल मेथी।
⋙ बेणी
संज्ञा स्त्री० [सं० वेणी] दे० 'बेनी'।
⋙ बेणीफूल
संज्ञा पुं० [सं० वेणी + हिं० फूल] फूल के आकार का सिर पर पहनने का एक गहना। सीसफूल।
⋙ बेत
संज्ञा पुं० [सं० बेतस्] दे० 'बेत'। यौ०—बेतपानि पुबेत्रपाणि। बेंत लिए हुए। दंडघारी। उ०— बेतपानि रक्षक चहुँपासा।—मानस, ६। १०७।
⋙ बेतकल्लुफ (१)
वि० [फा० बे + अ० तकल्लुफ़] १. जिसे तकल्लुफ की कोई परवा न हो। जिसे ऊपरी शिष्टाचार का कोई ध्यान न हो बल्कि जो अपने मन का व्यवहार करे। सीधा सादा व्यवहार करनेवाला। २. जो अपने हृदय की बात साफ साफ कह दे। अंतरगता का भाव रखनेवाला।
⋙ बेतकल्लुफ (२)
क्रि० वि० १. बिना किसी प्रकार के तकल्लुफ के। बेधड़क। निस्संकोच।
⋙ बेतकल्लुफी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बेतकल्लुफ़ी] बेतकल्लुफ होने का भाव। सरलता। सादगी।
⋙ बेतकसोर
वि० [फ़ा० बे + अ० तकसीर] जिसने कोई अपराध न किया हो। निरपराध। निर्दोष। बेगुनाह।
⋙ बेतना
क्रि० अ० [सं० विद् > वेत्ति, वेतन] प्रतीत होना। जान पड़ना। उ०—आपनी सुंदरता को गुमान गहै सुखदान सु ओरहि बेति है।—रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ बेतमीज
वि० [फा० बे + अ० तमीज] जिसे शऊर या तमीज न हो। जिसको भद्रता का आचरण करना न आता हो। बेहूदा। उचड्ड। फूहड़।
⋙ बेतरतीब
वि० [फा़०] बिना सिलसिला या क्रम का।
⋙ बेतरतीबी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] विशृंखलता। क्रमहीनता। अस्त- व्यस्तता। उ०—हरएक काम में बेतरतीबी, झुँझलाहट, जल्दीबाजी, लापरवाही यो दृष्टिकोण का रूखापन।— ठंढा०, पृ० ७५।
⋙ बेतरह (१)
क्रि० वि० [फ़ा० बे + अ० तरह] १. बुरी तरह से। अनुचित रूप से। जैसे,—तुम तो बेतरह बिगड गए। २. असाधारण रूप से। विलक्षण ढंग से। जेसे,—यह पेड़ बेतरह बढ़ा रहा है।
⋙ बेतरह (२)
वि० बहुत अधिक। बहुत ज्यादा। जैसे,—वह बेतरह मोटा है।
⋙ बेतरीका (१)
वि० [फ़ा० बे + अ० तरीक़ह्] जो तरीके और नियम के विरुद्ध हो। बेकायदा। अनुचित।
⋙ बेतरीका (२)
क्रि० वि० बिना ठीक तरीके के। अनुचित रूप से।
⋙ बेतवा
संज्ञा स्त्री० [सं० बेत्रवती] बुंदेलखंड की एक नदी जो भूपाल के ताल मे निकलकर जमुना में मिलती है।
⋙ बेतहाश
क्रि० वि० [फ़ा० बेतहाशा] दे० 'बेतहाशा'।
⋙ बेतहाशा
क्रि० वि० [फ़ा० बे + अ० तहाशह्] १. बहुत अधिक तेजी से। बहुत शीघ्रता से। जेसे,—घोड़ा बेतहाशा भागा। २. बहुत घबराकर। ३. बिना सोचे समझे। जेसे,— तुम तो हर एक काम इसी तरह बेतहाशा कर बैठते हो।
⋙ बेता पु
वि० [सं० वेत्ता] जानकार। ज्ञानी। वेत्ता। उ०— पहुची बात बिद्या के बेता। बा्हु को भ्रस भया संकेता।—कबीर बी० (शिशु०), पृ० २०९। (ख) सकल सिम्रत जिती सत मति कहै तिती हैं इनही परमगति परम बेता।— रे बानी, पृ० १९।
⋙ बेताज
वि० [फा़०] मुकुटविहीन। अधिकाररहित। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—बेताज का राजा = बिना अधिकार के सब कुछ करने में समर्थ। सर्वजनप्रिय एवं समर्थ। उ०—अब मास्टर अनूराज बेताज का राजा था।— किन्नर०, पृ० २।
⋙ बेताब
वि० [फ़ा०] १. जिसमें ताब या ताकत न हो। दुर्बल। कमजोर। २. जो बेचैन हो। विकल। व्याकुल।
⋙ बेताबी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. कमजोरी। दुर्बलता। २. बेचैनी। घबराहट। व्याकुलता।
⋙ बेतार
वि० [हि० बे + तार] बिना तार का। जिसमें तार न हो। यौ०—बेतार का तार =विद्युत् की सहायता से भेजा हुआ वह समाचार जो साधारण तार की सहायता के बिना भेजा गया हो। विशेष— आजकल तार द्वार समाचार भेजने में यह उन्नति हुई है कि समाचार भेजने के स्थान से समाचार पहुँचने के स्थान तक तार के खंभों की कोई आवश्यकता नहीं होती। केवल दोनों स्थानों पर दो विद्युत्यंत्र होते हैं जिनकी सहायता से एक स्थान का समाचार दूसरे स्थान तक बिना तार की सहायता के ही पहुँच जाता है। इसी प्रकार आए हुए समाचार को बिना तार का तार या बेतार का तार कहते हैं।
⋙ बेताल (१)
संज्ञा पुं० [सं० बेताल] बैताल। दे० 'वेताल'।
⋙ बेताल (२)
संज्ञा पुं० [सं० वेतालिक] भाठ। बंदी। उ०—सभा मध्य बेताल ताहि समय सो पढ़ि उठ्तयो। केशव बुदि्ध बिशाल, सुंदर सूरो भूप सो।—केशब (शब्द०)।
⋙ बेताल (३)
वि० [हिं० बे + सं० ताल] गायन वादन में ताल से चूक जानेवाला। संगीत में ताल का ध्यान न रखनेवाला।
⋙ बेताला
वि० [हिं० बेताल] दे० 'बेताल' (३)।
⋙ बेतास्सुबी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बे + अ० तप्रस्सुब] निष्पक्षता। उदारता। उ०— धार्मिक सहिष्णुता और वेतास्सुबी के भी वे जीवित प्रतीक थे।—प्रेम० और गोर्की, पृ० २५३।
⋙ बेतुका
वि० [फ़ा० बे + हिं० तुका] १. जिसमें सामंजस्य न हो बेमेल। मुहा०—बेतुकी उड़ाना = दे० 'बेतुकी हाँकना'। उ०—बेतुकी उड़ाना खूब जानते हैं। जवाब नहीं सूझता।—फिसाना०, भा० १, पृ० १०। बेतुकी हाँकना = बेढ़गी बातें कहना। ऐसी बात कहना जिसका कोई सिर पैर न हो। २. जो अवसर कुअवसर का ध्यान न रखता हो। बेढ़गा। जैसे,— बह बड़ा बेतुका है, उसको मुँह नहीं लगाना चाहिए। मुहा०—बेतुकी बकना = अनवसर की बात करना। उ०— आका क्या बेतुकी बकता है।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १४।
⋙ बेतुकाछंद
संज्ञा पुं० [हिं० बेतुका + सं० छन्द] अभिताक्षर छंद। ऐसा छंद जिसके तुकांत आपस तमें न मिलते हों।
⋙ बेतौर (१)
क्रि० वि० [फ़ा० बे + अ० तौर] बुरी तरह से। बेढंगेपन से। बेतरह।
⋙ बेतौर (२)
वि० जिसका तौर तरीका ठीक चन हो। बेढ़गा।
⋙ बेत्ता पु
वि० [सं० वेत्ता] दे० 'वेत्ता'। उ०—शंका उपजत इहि तन चाहि। जैसे सब को बेत्ता आहि।—नंद० ग्रं०, पृ, ३११।
⋙ बेदंत पु †
वि० [सं० वेद + अन्न या सं० विद्धत्] वेदपारग या वेदज्ञ। विद्वान। उ०— ग्रह नव सुदान बिधि विद्ध दीन। बेदत विप्र अभिपेक कौन।—पृ० रा०, ९। ८०।
⋙ बेद (१)
संज्ञा पुं० [फा़० बेंत] दे० 'बेंत'।
⋙ बेद पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वेद] दे० 'वेद'।
⋙ बेद पु (३)
संज्ञा स्त्री० [वेदना ?] पीड़ा। वेदना। उ०—मंत्र दवा अरु आप सौं वेढब मिटे न वेद।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ९९।
⋙ बेदक
संज्ञा पुं० [सं० बेद + क (प्रत्य०)] बेद को माननेवाला—हिंदू (डि०)।
⋙ बेदखल
वि० [फ़ा० बेदखल] जिसका दखल, कब्जा या अधिकार न हो। अधिकारच्युत। जैसे—डिगरी होते ही वह तुम्हें बेदखल कर देगा। (इसका व्यवहार केवल स्थावर संपत्ति के लिये ही होता है)।
⋙ बेदखली
संज्ञा स्त्री० [फा़० बेदखली] दखल यो वब्जे का हटाया जाना अथवा न होना। अधिकार में न रहने का भाव। (इसका व्यवहार केवल स्थावर संपत्ति के लिये होता है।)
⋙ बेदन पु
संज्ञा पुं० [सं० वेदन] दे० 'वेदन'। उ०— हे सारस तुम नोकें बिछुरन वेदन जानो—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४३८।
⋙ बेदनरोग
संज्ञा पुं० [सं० बेदना + रोग] पशुओं का एक प्रकार का छूतवाला भीषण ज्वर जिसमें रोगी पशु बहुत सुस्त होकर काँपने लगता है। उसका सारा शरीर गरम ओर लाल हो जाता है। उसे भूख बिल्कुल नहीं और प्यास बहुत अधिक लगतो है और पाखाने के साथ आँव निकलती है।
⋙ बेदानि
संज्ञा स्त्री० [सं० वेदना] वेदना का भाव या क्रिया। उ०— में बेदनि कासनि आँखू, हरि बिन जिव न रहै कस राखूँ।— रे० बानी, पृ० ५२।
⋙ बेदबाफ
संज्ञा पुं० [फा़० वेदबाफ़ ] [संज्ञा स्त्री० बेदबाफी] वह व्यक्ति जो बेंत की बुनाई का काम करता हो।
⋙ बेदम
वि० [फ़ा०] १. जिसमें दम या जान न हो। मृतक। मुरदा। २. जिसकी जीवनी शक्ति बहुत घट गई हो। मृतप्राय। अधमरा। ३. जो काम देने योग्य न रह गया हो। जर्जर। बोदा।
⋙ बेदमजनूँ
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी शाखाएँ बहुत झुकी हुई रहती हैं ओर जो इसी कारण बहुत मुरझाया और ठिठुरा हुआ जान पड़ता है। इसकी छाल और फलों आदि का व्यवहार ओषध में होता है।
⋙ बेदमल, बेदमाल
संज्ञा पुं० [देश०] लकड़ी की वह तख्ती जिसपर तेल लगाकर सिकलीगर लोग अपना मस्किला नामक औजार रगड़कर चमकाते हैं।
⋙ बेदगुरक
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का वृक्ष जो पच्छिम भारत में और विशेषतः पंजाब में अधिकता से होता है। विशेष— इसमें एक प्रकार के बहुत ही कोमल और सुगंधित फूल लगते हैं जिनके अर्क का व्यवहार औषध के रूप में होता है। यह अर्क बहुत ही ठढ़ा और चित्त को प्रसन्न करनेवाला माना जाता है।
⋙ बेदर
वि० [फ़ा०] जिसका ठिकाना न हो। उ०—थी अभीचिताएँ चटक रहीं रावी तट पर, थे अभी हजारों भटक रहे बेघर वेदर।—सूत०, पृ० ४४।
⋙ बेदरी
वि० [हिं०] दे० 'बिदरी'।
⋙ बेदरेग
वि० [फा० बेदरेग] बेधड़क। निस्संकोच। आगा पीछा न सोचनेवाला।
⋙ बेदर्द
वि० [फा०] जिसके हृदय में किसी के प्रति मोह या दया न हो। जो किसी की व्यथा को न समझे। कठोरहृदय। निर्दय।
⋙ बेदर्दी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बेदर्द होने का भाव। निर्दयता। बेरहमी, कठोरता।
⋙ बेदर्दी पु † (२)
वि० [फा़० बेदर्द] दे० 'बेदर्द'।
⋙ बेदलौला
संज्ञा पुं० [फा़०] एक प्रकार का पौधा जिसमें सुंदर फूल लगते हैं।
⋙ बेदहल
वि० [हिं० बेदहल] निर्भय। निडर। उ०— एक बेमेल बेदहल लो से, मेल कर तेल को मिला फल क्या।—चुभते०, पृ० ६५।
⋙ बेदा पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० विदा] दे० 'विदा'। उ०—जओ प्रभू हम पए वेदा लेब।—विद्यापति, पृ० ३७५।
⋙ बेदाग
वि० [फा़० बेदाग] १. जिसमें कोई दाग या धब्बा न हो। साफ। २. जिसमें कोई ऐब न हो। निर्दोष। शुद्ध। ३. जिसने कोई अपराध न किया हो। निपराध। बेकसूर।
⋙ बेदाद
संज्ञा स्त्री [फ़ा०] अन्याय। अत्याचार [को०]।
⋙ बेदाना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बिहीदाना या फ़ा० + दानह्] एक प्रकार का बढ़िया काबुली अनार जिसका छिलका पतला होता है। २. बिहीदाना नामक फल का बीज जिसे पानी में मिगाने से लुआब निकलता है। लोग प्रायः इसका शर्बत बनाकर पीते हैं। यह ठंढा ओर वलकारक माना जाता है। ३. एक प्रकार का जरिश्क जिसे अंबरवारी या कश्मल भी कहते हैं। दारुहलदी। चित्रा। वि० दे० 'अंबरबारी'। ४. एक प्रकार का मीठा छोटा शहतूत। ५. एक प्रकार की छोटे दाने की मीठी बुंदिया जो बहुत रसदार होती है।
⋙ बेदाना (२)
वि० [हिं० बे (प्रत्य०) + फ़ा० दाना (= बुद्धिमान)] जो दाना या समझदार न हो। मूर्ख। बेवकूफ। उ०— वेदाना से होत है दाना एक किनार। बेदाना नहिं आदरै दाना एक अनार।—स० सप्तक, पृ० १७९।
⋙ बेदाम (१)
संज्ञा पुं० [फा़० वादाम] दे० 'बादाम'।
⋙ बेदाम (२)
क्रि० वि० [हिं० बे + दाम] बिना दाम का। जिसका कुछ मुल्य न दिया गया हो।
⋙ बेदार
वि० [फ़ा०] १. तेज। २. चौकन्ना। जागरूक। यौ०—बेदारबख्त = भाग्यशाली। जिसकी किस्मत जागरूक हो। बेदारमग्ज = तेज दिमागवाला। तीव्रबुद्धि। बेदारवास = जागरूक रहो। (पहरेदार)।
⋙ बेदारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] चौकन्ना रहना। जागरूकता [को०]।
⋙ बेदावा
वि० [फ़ा० बेदावह्] अधिकारविहीन। दावा रहित। उ०—चलै फहम की फौज दरोग की कोट ढहाई। बेदावा तहसील सबुर कै तलब लगाई।—लटू०, बानी, पृ० ३३।
⋙ बेदिमाग
वि० [फ़ा० बेदिमाग ] १. नाराज। रुष्ट। अप्रसन्न। २. चिड़चिड़ा। नासमझ [को०]।
⋙ बेदियानत
वि० [फा़० बे + अ० दियानत] निष्ठारहित। कर्तव्य- शून्य। बेईमान [को०]।
⋙ बेदिरंग
क्रि० वि० [फ़ा० वे + अ० दिरंग] बिना विलंब किए। फौरन। तत्क्षण। तत्काल। उ०—छीन लेँऊ जे कुछ अछे सो बेदिरंग।—दक्खिनी०, पृ० १७८।
⋙ बेदिल
वि० [फा०] खिन्न। उदास। दुःखी। बेमन। उ०— बेदिल के बहलाव भला दिल कैसे कर बहलाउँ।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० १९१।
⋙ बेदिली
संज्ञा स्त्री० [फा०] उदासी। खिन्नता। उ०— वह भी ऐसी वेदिली और अनुत्साहित रीति से।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २९६।
⋙ बेदी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वेदी] दे० 'वेदी'। उ०—सरीर सरोवर बेदी करिहों ब्रह्मा वेद उचार।— कबीर श०, पृ० ८०।
⋙ बेदी पु (२)
वि० [सं० वेदिन्] वेद का ज्ञान। वेदज्ञ। उ०—नादी बेदी सबदी मोनी जम के परे लिखाया।—कबीर ग्रं०, पृ० ३२४।
⋙ बेदीदा
वि० [फा़० बेदीदह्] १. बिना आँख का। बेमुरब्वत। २. निर्लज्ज। धृष्ट।
⋙ बेदीन
वि० [फा़० बे + अ० दीन] विधर्मी। धर्मभ्रष्ट। उ०— अगर किसी वेदीन बदमाश ने मार नहीं डाला है तो जरूर खोज निकालूंगा।—काया०, पृ० ३३५।
⋙ बेदुआ पु †
वि० [सं० वेद] वेद का जानकार। वेदज्ञ। उ०— कहिं बेदुआ बेद बहु बाएव के कहि बाँह उठाए के आपु ठाढ़।—संत० दरिया, पृ० ६६।
⋙ बेधड़क (१)
क्रि० वि० [फ़ा,० बे + हिं० धड़क(=डर)] १. बिना किसी प्रकार के संकोच के। निःसंकोच। २. बिना किसी प्रकार के भय या आशंका के। बेखोफ। निडर होकर। ३. बिना किसी प्रकार की रोक टोक के। बेरुकावट। ४. बिना आगा पीछा किए। बिना कुछ सोचे समझे।
⋙ बेधड़क (२)
वि० १. जिसे किसी प्रकार का संकोच या खटका न हो। निर्द्वंद्ध। २. जिसे किसी प्रकार का भय या आशंका न हो। निंडर। निर्भय।
⋙ बेधना
क्रि० स० [सं० बेधन] १. किसी नुकीली चीज की सहायता से छेद करना। सूराख करना। छेदना। भेदना। जैसे, मोती बेधना। उ०—हरि सिद्धि हीरा भई बज्र न बेधा जाय। तहाँ गुरू गैल किया तब सिख सकूत समाय।—रज्जब० बानी, पृ० ३। २. शरीर में क्षत करना। घाव करना।
⋙ बेधरम †
वि० [हिं० बेधर्म] दे० 'बेधर्म'।
⋙ बेधर्म
वि० [सं० विधर्म] जिसे अपने धम का ध्यान न हो। धर्म से गिरा हुआ। धर्मच्युत।
⋙ बेधा †
वि० [सं० बेध] १. जिसपर कोई जादू हो। जो आविष्ट हो। २. विपत्तिग्रस्त। उ०—रावी, वाह कोई बेधा ही होगा।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ४७।
⋙ बेधिया †
संज्ञा पुं० [हिं० बेधना] अंकुश। आँकुस। उ०— केहरि लंक कुंभस्थल हिया। गीउ मयूर अलक बेधिया।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बेधीर पु
वि० [फा० बे + हिं० धीर] जिसका धैर्य टूट गया हो। अधीर। उ०—अधर निधि बेबीर करिकै करत आनन हास। फरे भाँवरि खस्म भूषण अग्नी मानी भास।— सूर (शब्द०)।
⋙ बेनंग (१)
संज्ञा पुं० [देश०] छोटी जाति का एक प्रकार का पहाड़ी बाँस। विशेष— यह प्रायः लता के समान होता है। इसकी टहनियों से लोग छप्परों की लकड़ियाँ आदि बाँधते हैं। यह जयंतिया पहाड़ी में होता है।
⋙ बेनंग † (२)
वि० [फ़ा०] लज्जारहित। बेशर्म।
⋙ बेन †
संज्ञा पुं० [सं० बेणु] १. वंशी। मुरली। बाँसुरी। २. सँपेरों के बजाने की तूपड़ी। भहुवर। ३. बाँस। उ०—केरा परे कपूर बेन तें लोचन व्याल। अहि मुख जहर समान उपल ते लोह कराला।—पलटू०, पृ० ६६। ४. एक प्रकार का वृक्ष। उ०—बेन बेल अरु तिमिस तमाला।—(शब्द०)।
⋙ बेन (२)
संज्ञा पुं० [सं० वचन, प्रा० वयण, बेन] बैन। वाणी। उ०—अंग अंग आनंद उमगि उफनत बेनन माँझ। सखी सोभ सब बसि भई मनों कि फूलो सांझ।—पृ० रा०, १४। ५५।
⋙ बेन (३)
संज्ञा पुं० [अं० बेन] एक प्रकार की झ़डी जो जहाज के मस्तूल पर लगा दी जाती है और जिसके फहराने मे यह पता चलता है। कि हवा किस रुख की हैं। (लश०)।
⋙ बेन (४)
संज्ञा पुं० [अ० विंड] हवा। वायु। (लश०)। यौ०—बेनसेढ़र।
⋙ बेनउर ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिनोला'।
⋙ बेनकाब
वि० [फा़० वे + अ० निकाब] बेपर्द। बेशर्म। बेहया। उ०— जहाँ औरते बेनकाब हों, शराब पी जा रही हो।—भस्मावृत०, पृ० ३९।
⋙ बेनजीर
वि० [फ़ा० बे + अ० नजीर] जिसके समान और कोई न हो। जिसकी कोई समता न कर सके। अद्वितीय। अनुपम।
⋙ बेनट
संज्ञा स्त्री० [अं० बेयोनेट] लोहे की वह छोटी किर्च जो सैनिकों की बंदूक के अगले सिरे पर लगी रहती है। संगीन।
⋙ बेनमक
वि० [फा़०] १. बिना नमक का। अलोना। बिना स्वाद का। २. लावण्यरहित। असुंदर (को०)।
⋙ बेनयाज
वि० [फा़० बेनियाज] [संज्ञा स्त्री० बेनिया्ली] जो किसी पर अवलंबित न हो। जिसे किसी की चाह न हो। उ०—मानू अल्ला एक है और न दूजा कोय। यारी वह सब खल्क कूँ बेनयाज हैं सोय।—दक्खिनी०, पृ० ३८४।
⋙ बेनवर ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिनोला'।
⋙ बेनवा
वि० [फ़ा०] दरिद्र। दीन। कंगाल [को०]।
⋙ बेनवाई
संज्ञा स्त्री० [फा०] दरिद्रता। विवशता। अकिंचनता। उ०—सबब बेनवाई के जंगल तेज फकीर के सबब सूँ शहर कूँ तजे।—दक्खिनी०, पृ० ३४६।
⋙ बेनसीब
वि० [हिं० बे + अ० नसीब] जिसका नसीब अच्छा न हो। अभागा। बदकिस्मत।
⋙ बेनसेढ़
संज्ञा पुं० [अ० विंडसेल] जहाज में टाट आदि का बना हुआ नल के आकार का वह बड़ा थैला जिसकी सहायता से जहाज के नीचे के भागों में ऊपर की ताजी हवा पहुँचाई जाता है। (लश०)।
⋙ बेना † (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेणु] १. बाँस का बना हुआ हाथ से झलने का छोटा पंखा। उ०—जहँवा आँधी चले बेना को बर्न बताबै।—पलटू०, पृ० ७४। २. खस। उशीर। उ०— किन्हेसि अगर कस्तुरी बेना। कीन्हेसि भीमसेनि अरु चेना।—जायसी (शब्द०)। ३. बाँस।
⋙ बेना (२)
संज्ञा पुं० [सं० वेणी] एक गहना जो माथे पर बेंदी के बीच में पहना जाता हैं। उ०—बेना सिर फूलहि को देखत मन भूल्यो। रूप की लता में भनों एक फूल फूल्यो।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४०।
⋙ बेनागा
क्रि० वि० [फा़० बे + अ० नागह्] बिना नागा डाले। निरंतर। लगातार। नित्य।
⋙ बेनाम
वि० [फ़ा० बे + सं० नाम] बिना नाम का। नामहीन। गुमनाम।
⋙ बेनिमून पु
वि० [फ़ा० बे + नमूना] अद्वितीय। अनुपम। उ०— बेनिमून वै सबके पारा। आखिर काको करो दिदारा।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बेनियन
संज्ञा पुं० [हिं० बनिया] वह व्यापारी या महाजन जो यूरोपीय कोठीवालों (हाउसवालों) को आवश्यकतानुसार धन की सहायता देता है। विशेष— 'बेनियन' धनी बंगाली और मारवाड़ी होते हैं। हाउसवालों से इनकी लिखा पढ़ी रहती है कि जब जितने रुपए की आवश्यकता होगी देना पड़ेगा। एक हाउस या कोठी का एक ही बेनियन होता है। लाभ होने पर बेनियन को भी हिस्सा मिलता है और घाटा होने पर उसे हानि भी सहनी पड़ती है।
⋙ बेनियाँ
संज्ञा स्त्री० [सं० व्यजन, प्रा० विअण] बेना। पंखी। उ०—जहँ प्रभु बैसि सिंहासन आसन डासब हो। तहवाँ बेनियाँ डोलइबों, बड़ सुख पाइब हो।—संतवानी०, भा० २, पृ० १२७। २. वह लकड़ी जो किवाड़ के दूसरे पल्ले का रोकने के लिये लगाई जाती है। वि० दे० 'बनी'।
⋙ बेनिसाफ †
संज्ञा पुं० [फा़० बेइन्साफ़] अन्याय। उ०—जानी हुती कबहुँ तो लैहिंगे हमारी सुधि जापँ करि बिना सुधि बेनिसाफ लेखो रे।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १३५।
⋙ बेनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वेणी] १. स्त्रियों की चोटी। उ०—मूँदी न राखत प्राप्ति अली यह गूँदी गोपाल के हाथ की बनी।—मतिराम (शब्द०)। २. गंगा, सरस्वती और यमुना का संगम। त्रिवेणी। उ०—जनु प्रयाग अरयल बिच मिली। बेनी भई सो रोमावली।—जायसी (शब्द०)। ३. किवाडी के किसी पल्ले में लगी हुई एक छोटी लकड़ी जो दूसरे पल्ले को खुलने से रोकती है। उ०—चोरिन रानी दियो निसेनी। चढ़ि खोल्यो कपाट की बेनी।—रघुराज (शब्द०)। विशेष— जिस पल्ले में बेनी लगी होती है, जब तक वह न खुले तब तक दूसरा पल्जा नहीं खुल सकता। इसलिये किसी एक पल्ले में यह बेनी लगाकर उसी में सिटकनी या सिकडी लगा देते हैं जिससे दोनों पल्ले बंद हो जाते हैं। ४. एक प्रकार का धान जो भादों के अंत या कुँआर के आरंभ में तैयार हो जाता है।
⋙ बेनीयान †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बेंदी'। (गहना)।
⋙ बेनु
संज्ञा पुं० [सं० वेणु] १. दे० 'वेणु'। २. बंसी। मुरली। ३. बाँस। उ०— बेनु के बंस भई बँसुरी जो अनर्थ करे तो अचर्ज कहा है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८२१।
⋙ बेनुली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] जाँते या चक्की में वह छोटी सा लकड़ी जो किल्ले के ऊपर रखी जाती है और जिसके दोनों सिरों पर जाती रहती है।
⋙ बेनूर
वि० [फा़०] प्रकाश रहित। ज्योतिहीन। निष्प्रभ। उ०— चढ़ा दार पर जब शेख मंसूर। हुए उस वक्त सूरज चद बेनूर।—कबीर ग्रं०, पृ० ६०६।
⋙ बेनौटी पु (१)
वि० [हिं० बिनौला] कपास के फूल की तरह पीले रंग का। कपासी।
⋙ बेनौटी (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का रंग जो कपास के फूल के रंग का सा हलका पीला होता है। कपासी।
⋙ बैनौरा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिनौला'।
⋙ बेनौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिनौला] आकाश से वर्ष के साथ गिरनेवाले छोटे छोटे पत्थर जो प्रायः बिनौले के आकार के होते हैं। ओला। पत्थर। बिनोरी।
⋙ बेपंत पु
वि० [सं० √ वेष का वर्तमान कृबंत प्र० ब०] कंपमान। काँपता हुआ। उ०— सीतल सलिल कंठ परजेत। तहे ठाढ़ी थर थर बेपंत।— नंद ग्रं०, पृ० २९९।
⋙ बेपनाह
वि० [फा़०] शरणविहिन। आश्रयरहित [को०]।
⋙ बेपर
वि० [फ़ा० बेपर] पंखरहित। बिना पंख का। मुहा०— बेपर की उड़ाना = असंभव और अविश्वसनिय बात कहना। उ०— दूसरे ने कहा अच्छी बेपर की उड़ाई।— फिसाना०, भा० ३, पृ० ५०७। बेपर की बात = असंभव बात। अंडबंड या बेमेल बात। उ०—कँकरीली राहें न कटेगी, बेपर की बाते न पटेंगी।—अर्चना, पृ० ८४।
⋙ बेपरद
वि० [फा़० बे + परद] [संज्ञा स्त्री० बेपरदगी] १. जिसके ऊपर कोई परदा न हो। जिसके आगे कोई ओठ न हो। आनावृत। २. नंगा। नग्न।
⋙ बेपरदगी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] परदे का अभाव। परदा न होना।
⋙ बेपरवा
वि० [फा़० बेपरवा] दे० 'बेपरवाह'।
⋙ बेपरवाई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बेपरवाही] दे० 'बेपरवाही'। उ०— लाला ब्रजकिशोर ने बेपरवाही से कहा।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २९९।
⋙ बेपरवाइ
वि० [फा़०] १. जिसे परवा न हो। बेफिक्र। २. जो किसी के हानि लाभ का विचार न करे और केवल अपने इच्छानुसार काम करे। मनमौजी। ३. उदार।
⋙ बेपरवाही
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. बेपरवाह होने का भाव। बेफिकरी। २. अपने मन के अनुसार काम करना।
⋙ बेपर्द
वि० [फा०] [स्त्री० बेपर्दगी] दे० 'बेपरद'।
⋙ बेपाइ पु †
वि० [हिं० बे + सं० उपाय] जिसे घबराहट के कारण कोई उपाय न सूझे। भौचक। हक्का बक्का। उ०—कोहर सी एड़ीनि को लाली देखि सुभाइ। पाय महावर देन को आप भई बेपाइ।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बेपार (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जो हिमालय की तराई में ६००० से ११००० फुट की उँचाई तक अधिकता से पाया जाता है। फेल। विशेष—इसकीं लड़की यदि सीड़ से बची रही तो बहुत दिनों तक ज्यों की त्यों रहती है और प्रायः इमारत से काम आती है। इस लकड़ो का कोयला बहुत तेज होता है और लोहा गलाने के लिये बहुत अच्छा समझ जाता है। इसकी छाल से जंगलों में झोपाड़याँ भी छाई जाती हैं।
⋙ बेपार† (२)
संज्ञा पुं० [सं० व्यापार] दे० 'व्यापार'।
⋙ बेपारी †
संज्ञा पुं० [सं० व्यापारी] दे० 'व्यापारी'।
⋙ बेपीर
वि० [फ़ा० बे + हिं० पीर (=पीड़ा)] १. जिसके हृदय में किसी के दुःख के लिये सहानुभूति न हा। दूसरों के कष्ट को कुछ न सगझनेवाला। २. निर्दय। बेरहम।
⋙ बेपेंदो
वि० [हिं० बे + पेंदा] जिसमें पेदा न हो। जी पेंदा न होने के कारण इधर उधर लुढ़कता हो। मुहा०—बेपेंदी का लोटा=वह सीधा सादा आदमी जो दूसरों के कहने पर ही अपना मत या कार्य आदि बदल देता हो। किसी के जरा से कहने पर अपना विचार बदलनेवाला आदमी।
⋙ बेप्रमाण
वि० [सं० वि + पमाण] अत्याधिक। असंख्य। जिसका प्रमाण न हो। उ०—हमारे प्रधान पुरुषों की मृत्युसंख्या बेप्रमाण बढ़ी है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७३।
⋙ बेफजूल
वि० [उच्चा० बे (आगम) + अ० फ़ुजुल] व्यर्थ। बेकार।बेमतलब। उ०—ऐसी बेफजूल बातों में पुलिस नहीं पड़ती।—सन्यासी, पृ० १०९।
⋙ बेफरमाणी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बेफर्मान + ई (प्रत्य०)] आज्ञा का उल्लघन। आदेश न मानना। हुक्मउदूली। उ०—हिंदू घात करे अजका हरि सूँ बेफरमाणी। मुख सूँ स्वाद करै मन सेती जीव दया नहीं जाणी।—राम० धर्म०, पृ० १४२।
⋙ बेफसल †
वि० [फा़० बे + फ़सल] बिना मौसम का। बे मौसम।
⋙ बेफायदा (१)
वि० [फा़ बे + अ० फाइदह] जिससे कोई फायदा न हो। जिसस कोई लाभ न हो सके। व्यर्थ का।
⋙ बेफायदा (२)
क्रि० वि० बिना किसी लाभ के। बिना कारण। व्यर्थ। नाहक।
⋙ बेफिकर
वि० [हिं० बे + अ० फिक्र] जिसे किसी बात की फिक्र या परवाह न हो। निश्चित।
⋙ बेफिक्र
वि० [फा़० बे + अ० फिक्र] जिसे कोई फिक्र न हो। निश्चिंत। बेपरवाह।
⋙ बेफिक्री
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बेफ्रिकी] बेफिक्र होने का भाव। निश्चिंतता। मुहा०—बेफिक्री की रोटियाँ = बिना हाथ पाँव हिलाए मिलनेवाली रोजी। सुख की रोटी। उ०—जब बेफिक्री की रोटियाँ मिलती हैं तो ऐसी सूझती है।— सैर०, पृ० १५।
⋙ बेबदल
वि० [फा़० बे + अ० बदल] जिसकी जोड़ न हो। बेजोड़। अद्वितीय। उ०— जो बेटा दिया शाह कूँ बेबदल। चंद्र सूरत खूब निर्मल निछल।—दक्खिनी०, पृ० ९४।
⋙ बेबस
वि० [सं० विवश] १. जिसका कुछ वश न चले। लाचार। उ०—बेबसों पर छुरी चला करक क्यों गले पर छुरी चलाते हो।—चुमते०, पृ० ३४। जिसका अपने ऊपर कोई अधिकार न हो। पराधीन। परवश।
⋙ बेबसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेबस + ई(प्रत्य०)] १. बेबस होने का भाव। लाचारी। मजबूरी। विविशता। २. पराधीनता। परवशता।
⋙ बेबहा
वि० [हिं० बे + बाहा] बिना बाहा अर्थात् बिना बाँध का। बधनविहीन। सुक्त। स्वच्छद। उ०— भूमि हरी भई गैले गई मिटि नीर प्रवाह बहा बेबहा है।—ठाकुर०, पृ० १०।
⋙ बेबाक
वि० [फा० बेवाक] जो चुका दिया गया हो। जो अदा कर दिया गया हो। चुकता किया हुआ। चुकाया हुआ। २. जिसमें अब कुछ बाकी था शेष न हो। बिना किसी बाधा के। पूरी तोर से। उ०—फाटे परबत पाप के गुरु दादू की हांक। रज्जब निकस्या राह उस पाप मुकत बेबाक।— रज्जक०, पृ० ३।
⋙ बेबाकी
संज्ञा स्त्री० [फा०बेबाकी] १. घृष्टता। निर्लज्जता। २. निर्भयता। निडरता [को०]।
⋙ बेबात
वि० [फा० बे + हिं० बात] १. अनवसर। बेमोका। उ०—वह बेबात्त भी हँसती है।—सुनीता, पृ० ३३२। २. अनुचित। अनुपयुक्त। यौ०—बेबात की बात=अनवसर की बात। अनुचित चर्चा। असामयिक कथन।
⋙ बेबादी पु †
वि० [सं० विवादी] विवाद करनेवाला। उ०— बकवादी बेबादी निंदक तेहि का मुँह करु काला।—जग० श०, पृ० १२६।
⋙ बेबुनियाद
वि० [फा०] १. जिसकी कोई जड़ न हो। निर्मुल। बेजड़। २. मिथ्या। झूठ।
⋙ बेब्याहा
वि० [फा० बे + हिं० ब्याहा] [स्त्री० बेब्याहो] जिसका ब्याह न हुआ हो। अविवाहित। कुँआरा।
⋙ बेभाव
क्रि० वि० [फा० बे + हिं० भाव] जिसका कोई हिसाब या गिनती न हो। बेहद। बेहिसाव। मुहा०—बेभाव की पड़ना=(१) बहुत अधिक मार पड़ना। उ०—खोजी की चाँद पर बेभाव की पड़ने लगी।— फिसाना०, भा० ३, पृ० २४२। २. बहुत अधिक फटकार पड़ना।
⋙ बेम ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. जुलाहों की कंघी। बय। बैसर। वि० दे० 'कंघी'-२। २. भैस का बछड़ा। पँड़वा। उ०—भक्त ग्वाल के लिये जियराम जी महाराज ने चुराई हुई भैंसै पीछी मँगाई ब्याज रूप वृत में भैंसै की बेम (संतान) आई।—राम० धर्म०, पृ० २८६।
⋙ बेमजा
वि० [फा० बेमजह्] जिसमें कोई मजा न हो। जिसमें कोई आनंद न हो।
⋙ बेमतलब
वि० [फा० बे + अ० मतलब] बिना जरूरत का। अनावश्यक। बेकार।
⋙ बेमन (१)
क्रि० वि० [फा० बे + हिं० मन] बिना मन लगाए। बिना दत्तचित्त हुए।
⋙ बेमन (२)
वि० जिसका मन न लगता हो।
⋙ बेमरम्मत
वि० [फा०] जिसकी मरम्मत होने को हो पर न हुई हो। बिगड़ा हुआ। बिना सुधरा। टूटा फूटा।
⋙ बेमरम्मती
संज्ञा स्त्री० [फा०] बेमरम्मत होने का भाव।
⋙ बेमसरफ
वि० [फा० बेमसरफ] बेकार। बेमतलब।
⋙ बेमाई ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बिवाई'।
⋙ बेमारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बीमारी'।
⋙ बेमालूम (१)
क्रि० वि० [फा०] ऐसे ढंग से जिसमें किसी को मालूम न हो। बिना किसी को पता लगे। जैसे,—वह सब माल बेमालूम उड़ा ले गए।
⋙ बेमालूम (२)
वि० जो मालूम न पड़ता हो। जो देखने में न आता हो या जिसका पता न लगता हो। जैसे,—इसकी सिलाई बेमालूम होनी चाहिए।
⋙ बेमिलावट
वि० [फा० बे + हिं० मिलावट] जिसमें किसी प्रकार की मिलावट न हो। बेमेल। शुद्ध। खालिस। साफ।
⋙ बेमिस्ल
वि० [फा० बे + अ० मिसाल] अनुपम। बेनजीर। लाजवाब। उ०—न उसकूँ है औरत न फरजंद है। के ओ एक बेमिसल् मानिंद है।—दक्खिनी०, पृ० ११७।
⋙ बेमुख †
वि० [सं० विमुख] दे० 'विमुख'। उ०—कृत्यघनी बेमुख भवै, गुरु से विद्या पाय।—चरन० बानी, पृ० २००।
⋙ बेमुनासिब
वि० [फा०] जो मुनासिब न हो। अनुचित।
⋙ बेमुरव्वत
वि० [फा०] जिसमें मुरब्बत न हो। जिसमें शील या संकोच का अभाव हो। तोताचश्म।
⋙ बेमुरव्वती (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] बेमुरव्वत होने का भाव।
⋙ बेमुरौवती (२)
वि० [फा० मेमुरव्वत] [स्त्री० बेमुरौबती] दे० 'बेमुरव्वत'।
⋙ बेमेल
वि० [फा० बे + हिं० मेल] बिना जोड़ का। अनमिल।
⋙ बेमौका (१)
वि० [फा० बे+ अ० मौकह्] जो अपने ठीक मौके पर न हो। जो अपने उपयुक्त अवसर पर न हो।
⋙ बेमौका (२)
संज्ञा पुं० मौके का न होना। अवसर का अभाव।
⋙ बेमौसिम
वि० [फा० बै+ अ० मौसिम] उपयुक्त मौसिम या ऋतु न होने पर भी होनेवाला। जैसे—जाड़े में पानी बरसना या आम मिलना बेमौसिम होता है। उ०—बेमौसिम की धीमी धीमी झड़ी लग रही थी।—वो दुनियाँ, पृ० २।
⋙ बेयरा
संज्ञा पुं० [सं० बेअरर] दे० 'बेरा'।
⋙ बेरंग
वि० [सं० वि+ रङ्ग (=आनंद)] १. आनंदरहित। बेमजा। २. वर्ण रहित।
⋙ बेरंगी पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बेरग + ई] बिना रूप रंगवाला, अर्थात् ईश्वर। उ०—बेरंगी के रंग सूँ सखि गागर लई भराय।—चरण० बानी०, पृ० १५५।
⋙ बेर (१)
संज्ञा पुं० [सं० बदरी या बदर प्रा० बयर] १. प्रायः सारे भारत में होनेवाला मझोले आकार का एक प्रसिद्ध कँटीला वृक्ष। विशेष—इसके छोटे बड़े कई भेद होते हैं। यह वृक्ष जब जंगली दशा में होता है, तब झरबेरी कहलाता है और जब कलम लगाकर तैयार किया जाता है तब उसे पेबंदी (पैवंदी) कहते हैं। इसकी पत्तियाँ चारे के काम में और छाल चमड़ा सिझाने के काम में आती है। बंगाल में इस वृक्ष की पत्तियों पर रेशम के कीड़ें भी पलते हैं। इसकी लकड़ी कड़ी और कुछ लाली लिए हुए होती है और प्रायः खेती के औजार बनाने और इमारत के काम में आती है। इसमें एक प्रकार के लबोतरे फल लगते हैं जिनके अंदर बहुत कड़ी गुठली होती है। यह फल पकने पर पीले रंग का जाता है और मीठा होने के कारण खूब खाया जाता है। कलम लगाकर इसके फलों का आकार और स्वाद बहुत कुछ बढ़ाया जाता है। पर्या०—बदर। कर्कधू। कोल। सौर। कंटकी। वक्रकंटक। २. बेर के वृक्ष का फल।
⋙ बेर (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बार] १. बार। दफा। दे० विशेष और मुहा० 'बार' शब्द में। उ०—जो कोई जाया इक बेर माँगा। जन्म न हो फिर भूख नाँगा।—जायसी (शब्द०)। २. विलंब। देर। उ०—बेर न कीजे बेग चलि, बलि जाउँ री बाल।— ब्रज० ग्रं०, पृ० ६। यौ०—बेर बखत=समय कुसमय। मौके बैमोके। जरूरत के समय। उ०—अपने हाथ में बेर बखत के लिये पूरा स्टौक रखना जरूरी है।—मैला०, पृ० २३०।
⋙ बेरजरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बरे + झड़ी] झड़बेरी। जगली बेर। उ०—बेरजरी सु बीलैया बुटी। बरू बहेर धाबची जूटी।— सूदन (शब्द०)।
⋙ बेरजा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिरोजा'।
⋙ बेरवा † (१)
संज्ञा पुं० [देश० या वलय] कलाई में पहनने का सोने या चाँदी का कड़ा।
⋙ बेरवा (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ब्योरा'।
⋙ बेरस † (१)
वि० [फा० बे + हिं० रस] १. जिसमें रस का अभाव हो। रस रहित। २. जिसमें अच्छा स्वाद न हो। बुरे स्वाद वाला। ३. जिसमें आनंद न हो। बेमजा।
⋙ बेरस † (२)
संज्ञा पुं० रस का अभाव। विरसता। (क्व०)।
⋙ बेरसना
क्रि० स० [सं० विलसन] भोगना। बिलसना। उ०— बेरसहु नव लख लच्छि पिआरी। राज छाँड़ि जनि होहु भिखारी।—जायसी० ग्र० (गुप्त), पृ० २०७।
⋙ बेरहई †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बेढ़ई'।
⋙ बेरहुड्डी †
संज्ञा स्त्री० [बेर + हिं० हड्डी] घुटने के नीचे की हड्डी में का उभार।
⋙ बेरहम
वि० [फा०बेरह् म] जिसके हृदय में दया न हो। निर्दय। निठुर। दयाशून्य।
⋙ बेरहमी
संज्ञा स्त्री० [फा० बेरह् मी] बेरहम होने का भाव। निर्दयता। दयाशून्यता। निष्ठुरता।
⋙ बेरा † (१)
संज्ञा पुं० [सं० बेला] १. समय। वक्त। बेला। २. देर। विलंब। उ०—मोहिं घट जीव घटत नहिं बेरा।—जायसी ग्रं०, पृ० ११०। ३. तड़का। भोर। प्रातःकाल।
⋙ बेरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक में मिला हुआ जो और चना। बेरी।
⋙ बेरा (३)
संज्ञा पुं० [सं० बेड़ा] दे० 'बेड़ा'। उ०—भवसागर बेरा परी, जल माँझ मँझारे हो। संतन दीन दयाल ही करि पार निकारे हो।—संतबानी०, पृ० १२९।
⋙ बेरा (४)
संज्ञा पुं० [अं० बेअरर (=वाहक)] वह चपरासी, विशेषतः साहब लोगों का वह चपरासी जिसका काम चिट्ठी पत्री या समाचार आदि पहुँचाना और ले आना आदि होता है।
⋙ बेरादरी
संज्ञा पुं० [फा० बिरादनी] दे० 'बिरादरी'।
⋙ बेरानी †
वि० [हिं० बिराना] पराया। अन्य का। उ०—बेरानी सब तमाशा यह जो देखें।—कबीर मं०, पृ० ३७६।
⋙ बेराम †
वि० [फा० बे + आराम] दे० 'बीमार'।
⋙ बेरामी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेराम + ई (प्रत्य०)] दे० 'बीमारी'।
⋙ बेरास †
संज्ञा पुं० [सं० बिलास] दे० 'विलास'। उ०—भोग बेराससदा सब माना। दुख चिंता कोई जरम न जाना।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १४९।
⋙ बेरिआ
संज्ञा स्त्री० [सं० बेला (=समय)] बेला। समय।
⋙ बेरिज †
संज्ञा स्त्री० [देश०] किसी जिले की कुल जमा। उ०—तत्त को तेरिज बेरिज बुधि की ध्यान निरखि ठहराई।—धरनी० बानी, पृ० ४।
⋙ बेरियाँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेर] समय। वक्त। काल। बेला। उ०—पिय आन की भई बेरियाँ दरवजवा ठाढ़ी रहूँ।—गीत (शब्द०)।
⋙ बेरिया † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेर + इया (प्रत्य०)] बार। दफा। उ०—बेरिया एक इडा सो खैंचे। पिंगला दूजी बार जु एंचे।—अष्टांग०, पृ० ७४।
⋙ बेरिया (२)
वि० [फा० बेरिया अ] आडंबरविहीन। निश्छल। पाखंडहीन [को०]।
⋙ बेरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बदरी हिं० बेर (=फल)] एक प्रकार की लता जो हिमालय में होती है। इसके रेशों से रस्सियाँ और मछली फँसाने के जाल बनते हैं। इसे 'मुरकूल' भी कहते हैं। २. दे० 'बेर'। ३. एक में मिली हुई सरसों और तीसी। ४. खत्रियों की एक शाखा।
⋙ बेरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेड़ी] दे० 'बेड़ी'। उ०—(क) हथ्थ हथ्थ करि प्रेम की पाइन बेरी लोन। गलै तोष अप आन की छुटयो कहत है कोन।—पृ० रा०, ६६। ४०९। (ख) हरि ने कुटुँब जाल में गेरी। गुरु ने काटी ममता बेरी।—सहजो०, बानी, पृ० ४।
⋙ बेरी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बार (=दफा)] १. दे० 'बेर'। २. उतना अनाज जितना एक बार चक्की में डाला जाता है। अनाज की मुट्ठी जो चक्की में डाली जाती है।
⋙ बेरीछत
संज्ञा पुं० [देश०] एक शब्द जो महावत लोग हाथी को किसी काम से मना करने के लिये कहते हैं।
⋙ बेरुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] बाँस का वह टुकड़ा जो नाब खींचने का गून में आगे की ओर बँधा रहता है और जिसे कंधे पर रखकर मल्लाह चलते हैं।
⋙ बेरुई †
संज्ञा स्त्री० [?] वेश्या। रंडी।
⋙ बेरुकी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक रोग जिसमें बैलों की जीभ पर काले काले छाले हो जाते हैं और उसे बहुत कष्ट देते हैं।
⋙ बेरुख
वि० [फा० बेरुख] १. जो समय पड़ने पर रुख (मुँह) फेर ले। बेमुरव्वत। २. नाराज। क्रुद्ध। रुष्ट। क्रि० प्र०—पड़ना।—होना।
⋙ बेरूखी
संज्ञा स्त्री० [फा० बेरुखी] बेरुख होने का भाव। अवसर पड़ने पर मुँह फेर लेना। बेमुरव्वती। क्रि० प्र०—करना।—दिखाना।
⋙ बेरूप †
वि० [सं० विरूप] भद्दी शक्लवाला। कुरूप। बदशक्ल।
⋙ बेरोक
क्रि० वि० [फा० बे + रोक] बिना किसी प्रकारकी रुकावट के। बेखटके। निर्विघ्न। यौ०—बेरोकटोक=निर्विघ्नतापूर्वक। बिना किसी रूकावट या अड़चन के।
⋙ बेराजगार
वि० [फा० बेरोजगार] जिसके हाथ में कोई रोजगार न हो। जिसके पास करने का कोई काम धंधा न हो।
⋙ बेरोजगारी
संज्ञा स्त्री० [फा० बेरोजगारी] बेरोजगार होने का भाव।
⋙ बेरौनक
वि० [फा० बेरौनक] जिसपर रौनक न हो। जिसकी शोभा न रह गई हो। उदास। क्रि० प्र०—छाना।—होना।
⋙ बेरौनकी
संज्ञा स्त्री० [फा० बेरौनकी] बेरौनक होने का भाव।
⋙ बेर्रा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. मिले हुए जो और चने का आँटा। २. कोई का फल।
⋙ बेर्राबरार
संज्ञा पुं० [हिं० बेर्रा (=जौ और चना) + फा़ बरार (=लादा हुआ)] अन्न की उगाही।
⋙ बेलंद †
वि० [फा० बलंद] १. उँचा। उ०—(क) पद बेलद परे जो पाऊँ। तो लाकौ घर लोक न ठाऊँ।—विश्राम (शब्द०)।(ख) रघुराज ब्याह होत ह्वै गईँ बेलंद आँखें मिथिला निवासिन मिताई नई कीन्हें हैं।—रघुराज (शब्द०)। २. जो बुरी तरह परास्त या बिफलमनोरथ हुआ हो। (व्यंग्य)।
⋙ बेलंब पु †
संज्ञा पुं० [सं० विलम्ब] दे० 'विलंब'।
⋙ बेल (१)
संज्ञा पुं० [सं० बिल्व] मझोले आकार का एक प्रसिद्ध कैटीला वृक्ष जो प्रायः सारे भारत में पाया जाता है। श्रीफल। बिल्व। विशेष—इसकी लकड़ी भारी और मजबूत होती है। और प्रायः खेती के औजार बनाने और इमारत के काम में आती है। इससे ऊख पेरने के कोल्हू और मूसल आदि भी अच्छे बनते हैं। इसकी ताजी गीली लकड़ी चंदन की तरह पवित्र मानी जाती है और उसे चीरने से एक प्रकार की सुगंध निकलती है। इसमें सफेद रंग के सुगंधित फूल भी होते हैं। इसकी पत्तियाँ एक सींके में तीन तीन (एक सामने और दो दोनों ओर) होती हैं जिन्हें हिंदु लोग महादेव जी पर चढ़ाते हैं। इसमें कैथ से मिलता जुलता एक प्रकार का गोल फल भी लगता है जिसके ऊपर का छिलका बहुत कड़ा होता है और जिसके अंदर गूदा और बीज हेते हैं। पक्के फल का गूदा बहुत मीठा होता है और साधारणतः खाने या शरबत आदि बनाने के काम में आता है। फल औषध के काम में भी आता है और उसके कच्चे गूदे का मुरब्बा भी बनता है। वैद्यक में इसे मधुर, कसैला, गरम, हृदय को हितकारी, रुचिकारक, दीपन, ग्राही, रूखा, पित्तकारक, पाचक, और वाताति- सार तथा ज्वरनाशक माना है। पर्या०—विल्व। महाकपित्थ। गोहरीतकी। पूतिवात। मंगल्य। त्रिशिख। मालूर। महाफल। शल्य। शैलपत्र। पत्रश्रेष्ठ। त्रिपत्र। गंधपत्र। लक्ष्मीफल। गंधफल। शिवद्रुम। सदा- फल। सत्यफल।
⋙ बेल † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मल्ल या मल्ली] वह स्थान जहाँ शक्कर आदि तैयार होती है।
⋙ बेल (३)
संज्ञा पुं० [अ०] कपड़े या कागज आदि की वह बड़ी गठरी जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने के लिये बनाई जाती है। गाँठ।
⋙ बेल (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्ली] १. वनस्पतिशास्त्र के अनुसार वे छोटे कोमल पौधे जिनमें कांड या मोटे तने नहीं होते और जो अपने बल पर ऊपर की ओर उठाकर नहीं बढ़ सकते। वल्ली। लता। लतर। विशेष—साधारणतः बेल दो प्रकार की होती है। एक वह जो अपने उत्पन्न होने के स्थान से आस पास के पृथ्वीतल अथवा और किसी तल पर दूर तक फैलती हुई चली जाती है। जैसे, कुम्हड़े की बेल। दूसरी वह जो आस पास के वृक्षों अथवा इसी काम के लिये लगाए गए बाँसों आदि के सहारे उनके चारों ओर घूमती हुई ऊपर की ओर जाती है। जैसे, सुरपेचा, मालती, आदि। साधारणतः बेलों के तने बहुत ही कोमल और बतले होते हैं और ऊपर की ओर अपने आप खड़े नहीं रह सकते। मुहा०—बेल मँढ़े चढ़ना=किसी कार्य का अंत तक ठीक ठीक पूरा उतरना। आरंभ किए हुए कार्य में पूरी सफलता होना। २. संतान। वंश। मुहा०—बेल बढ़ना=वंशवृद्ध होना। पुत्र पौत्र आदि होना। ३. विवाह आदि में कुछ विशिष्ट अवसरों पर संबंधियों और विरादरीवालों की ओर से हज्जामों, गानेवालियों और इसी प्रकार के और नेगियों को मिलनेवाला थोड़ा थोडा धन। क्रि० प्र०—देना।—पढ़ना। ४. कपड़े या दीवार आदि पर एक पंक्ति में बनी हुई फूल पत्तियाँ आदि जो देखने में बेल के समान जान पड़ती हो। ५. रेशमी या मखमली फीते आदि पर जरदोजी आदि से बनी हुई इसी प्रकार की फूल पत्तियाँ जो प्रायः पहनने के कपड़ों पर टाँकी जाती हैं। यौ०—बेलबूटा। क्रि० प्र०—टाँकना।—लगाना। ६. नाव खेने का डाँड़। बल्ली। ७. घोड़ों का एक रोग जिसमें उनका पैर नीचे से ऊपर तक सूज जाता है। बदनाम। गुमनाम।
⋙ बेल (५)
संज्ञा पुं० [फा० बेलचह्] १. एक प्रकार की कुदाली जिसपर मजदूरे जमीन खोदते हैं। यौ०—बेलदार। २. सड़क आदि बनाने के लिये चूने आदि से जमीन पर डाली हुई लकीर जो केवल चिह्न के रूप में अथवा सीमा निर्धारित करने के लिये होती है। क्रि० प्र०—डालना। ३. एक प्रकार का लंबा खुरपा।
⋙ बेल पु † (६)
संज्ञा पुं० [सं० मल्लिक] १. दे० 'बेला'। २. बेले का फूल। उ०—सिय तुव अंग रंग मिलि अधिक उदोत। हार बेलि पहिरावों चंपक होत।—तुलसी ग्रं० पृ० १९।
⋙ बेल पु (७) †
वि० [सं० द्वि > प्रा० बि, बे + एल (प्रत्य०)] दो। युग्म। उ०—जद जागूँ तद एकली जब सोऊँ तब बेल।—ढोला०, दू० ५११।
⋙ बेल † (८)
वि० [सं० √ भेलय, या हिं० मेल] मददगार। सहायक। साथी। दे० 'बेली'। उ०—सँग जैतावत साहिबौ, दूजो जैत दुझल्ल। जैन कमंधा बेल जे, भाँजण देत मुगल्ल।—रा० रू०, पृ० १२४।
⋙ बेलक †
संज्ञा पुं० [देश०] फरसा। फावड़ा।
⋙ बेलकी
संज्ञा पुं० [देश०] चरवाहा।
⋙ बेलकुन
संज्ञा पुं० [देश०] नकछिंकनी जाति की एक प्रकार की लता। विशेष—यह लता पजाब की पहाड़ियों और पच्छिमी हिमालय में ५००० फुट की ऊँचाई तक पाई जाती है। यह लंका और मलाया द्वीप में भी होती है। वर्षा ऋतु के अत में इसमें पीलापन लिए सफेद रंग के बहुत छोटे छोटे फूल लगते हैं।
⋙ बेलखजी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत उँचा वृक्ष जिसके हीर के लकड़ी लाल होती हैं। विशेष—यह वृक्ष पूर्वीय हिमालय में ४००० फुट की ऊँचाई तक होता है जिससे चाय की संदूक, इमारती और आरायशी सामान तैयार किए जाते हैं। वृक्ष को काटने के बाद इसकी जड़ें जल्दी फूट आती हैं।
⋙ बेलगगरा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
⋙ बेलगाम
वि० [फा० बेलगाम] बल्गारहित। निर्बध। सरकश। अंकुश न माननेवाला। मुहा०—बेलगाम होना=(१) निर्बध होना। सरकश होना। (२) बिना बिचारे बोलना। अंड बंड बोलना।
⋙ बेलगिरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेल + गिरी (=भींगी)] बेल के फल का गूदा।
⋙ बेलचक †
संज्ञा पुं० [फा० बेलचह्] दे० 'बेलचा'।
⋙ बेलचा
संज्ञा पुं० [फा० बेलचह्] १. एक प्रकार की छोटी कुदाल जिससे माली लोग बाग की क्यारियाँ आदि बनाते हैं। २. कोई छोटी कुदाल। कुदारी। ३. एक प्रकार की लंबी खुरपी।
⋙ बेलज्जत
वि० [फा० बेलज्जत] १. जिससें किसी प्रकार का स्वाद न हो। स्वादरहित। २. जिसमें कोई सुख न मिले। जैसे, गुनाह बेलज्जत।
⋙ बेलड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेल + ड़ी (प्रत्य०)] छोटी बेल या लता। बौंर। उ०—चंदबदन मृगलोचनी हो कहत सकल संसार। कामिनि बिष की बेलड़ी हो नख शिख भरी बिकार।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ९१८।
⋙ बेलदार
संज्ञा पुं० [फा०] वह मजदूर जो फावड़ा चलाने या जमीन खोदने का काम करता हो।
⋙ बेलदारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] फावड़ा चलाने का काम। बेलदार का काम।
⋙ बेलन (१)
संज्ञा पुं० [सं० वलन] १. लकड़ी, पत्थर या लोहे आदि का बना हुआ, वह भारी, गोल और दड के आकार का खंड जो अपने अक्ष पर घमता है और जिसे लुढ़काकर किसी चीज को पीसते, किसी स्थान को समतल करते, अथवा कंकड़, पत्थर कूटकर सड़कें बनाते हैं। रोलर। २. किसी यत्र आदि में लगा हुआ इस आकारका कोई बड़ा पुरजा जो घुमाकर दबाने आदि के काम में आता है। जैसे, छापने की मशीन का बेलन। ऊख पेरने की कल का बेलन। ३. कोल्हू का जाठ। ४. करघे में का पौसार। वि० दे० 'पौसार'। ५. रुई घुमकने की मुठिया या हत्या। वि० दे० 'धुनकी'। ६. कोई गोल और लबा लुढ़कनेवावा पदार्थ। जैसे, छापने की कल में स्याही लगानेवाला बेलन। ७. दे० 'बेलना'।
⋙ बेलन (२)
संज्ञा [देश०] १. एक प्रकार का जड़हन धान। २. एक में मिलाई हुई वे दों नावें जिनकी सहायता से डूबी हुई नाव पानी में से निकाली जाती है।
⋙ बेलनदार
वि० [हिं० बेलन+ फा० दार (प्रत्य०)] बेलनवाला। जिसमें बेलन लगा हो।
⋙ बेलना (१)
संज्ञा पुं० [सं० वलन] काठ का बना, हुआ एक प्रकार का लंबा दस्ता जो बीच में मोटा और दोनों और कुछ पतला होता है और जो प्रायः रोटी, पूरी, कचौरी आदि की लोई को चकले पर रखकर बेलने के काम आता है। यह कभी कभी पीतल आदि का भी बनता है।
⋙ बेलना (२)
क्रि० स० १. रोटी, पूरी, कचौरी आदि को चकले पर रखकर बेलने की सहायता से दबाते हुए बढ़ाकर बड़ा और पतला करना। २. चौपट करना। नष्ट करना। मुहा०—पापड़ बेलना=काम बिगाड़ना। चौपट करना। ३. विनोद के लिये पानी के छीटे उड़ाना। उ०—पानी तीर जानि सब बेलैं। फुलसहिं करहिं काटकी केलै।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बेलपत्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बेलपत्र'।
⋙ बेलपत्र
संज्ञा पुं० [सं० विल्वपत्र] बेल के वृक्ष की पत्तियाँ जो हर एक सींक में ३-३ होती हैं, और जो शिव जी पर चढ़ाई जाती है।
⋙ बेलपात
संज्ञा पुं० [सं० विल्वपत्र] दे० 'बेलपत्र'।
⋙ बेलबागुरा
संज्ञा पुं० [डिं०] हिरनों को पकड़ने का जाल।
⋙ बेलबूटेदार
वि० वि० [हिं० बेलबूटा + फा० दार (प्रत्य०)] जिसमें बेलबूटे बने हों। बेलबूटोंवाला।
⋙ बेलमाना पु †
क्रि० स० [हिं० बिलमाना] दे० 'बिलमाना'।
⋙ बेलवाती †
संज्ञा स्त्री० [सं० विल्वपत्रा] बिल्वपत्र। बलपत्ता। उ०—बेलवाती महि परै सुखाई। तीनि सहस संवत सोइ खाई।—राम०, पृ० ४९।
⋙ बेलवाना
क्रि० स० [हिं० बेलना] बेलने का काम किसी दूसरे से लेना। जैसे, पूरी बेलवाना।
⋙ बेलसना पु †
क्रि० अ० [सं० विलास + ना (प्रत्य०)] भोग करना। सुख लूटना। आनंद करना।
⋙ बेलहरा †
संज्ञा पुं० [हिं० बेल (=पान)+ हरा (=धारक) (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० बेलहरी] लगे हुए पान रखने के लिये एक लबातरी पिटारी जो बाँस या धातुओं आदि की बनी होती हैं।
⋙ बेलहरी †
संज्ञा पुं० [हिं० बेल + हरी (प्रत्य०)] साँची पान।
⋙ बेलहाजा
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेल + हाजी?] धोती आदि के किनारों पर लहिरएदार बेल छापने का लकड़ी का ठप्पा।
⋙ बेलहाशिया
संज्ञा पुं० [हिं० बेल + हाशिया] धोती आदि के किनारों पर बेल छापने का ठप्पा।
⋙ बेला (१)
संज्ञा पुं० [सं० मल्लिक] १. चमेली आदि की जाति का छोटा पौधा जिसमें सफेद रंग के सुगधित फूल लगते हैं। विशेष—ये फूल तीन प्रकार की होते हैं—(१) मोतिया,जो मोती के समान गोल होता है, (२) मोगरा जो उससे बड़ा और प्रायः सुपारी के बराबर होता है और (३) मदन- बान, जिसकी कली प्रायः एक इंच तक लंबी होती है । २. मल्लिका। त्रिपुरा। ३. बेले के फूल के आकार का एक प्रकार का गहना।
⋙ बेला (२)
संज्ञा पुं० [सं० वेला] १. लहर। उ०—बेला सम बढ़ि सागर रण मैं। लव कह कूल सरिस तेहि क्षण मैं।—रामाश्व० (शब्द०)। २. चमड़े की बनी हुई एक प्रकार की छोटी कुल्हिया जिसमें एक लंबी लकड़ी लगी रहती है और जिसकी सहायता से तेल नापते या दूसरे पात्र में भरते हैं। ३. कटोरा। उ०—बेला भरि हलधर को दीन्हों । पीवत पै बल अस्तुति कीन्हों।—सूर (शब्द०)। ४. समुद्र का किनारा। उ०—बरनि न जाइ कहाँ लौ बरनौ प्रेम जलधि बेला बल बोरे।—सूर (शब्द०)। ५. समय। वक्त। ६. दे० 'बेला'।
⋙ बेला (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] एक तंत्रवाद्य। दे० 'बेहला'। उ०— हमने डाक बंगाली को देखा के जब वह बेला बजाने लगता आप भी मस्त हो जाता।—रस क० (भू०), पृ० ९।
⋙ बेलाग
वि० [फा० बे + हिं० लाग (=लगावट)] १. जिसमें किसी प्रकार की लगावट वा संबंध न हो। बिल्कुल अलग। २. साफ। खरा।
⋙ बेलाडोना
संज्ञा पुं० [अं०] मकोय का सत्त जो प्रायः अँगरेजी दवाओं में खाने या पीड़ित स्थान पर लगाने के काम में आता है।
⋙ बेलावल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिलावल'।
⋙ बेलास †
संज्ञा पुं० [सं० विलास] दे० 'विलास'। उ०—भोग बेलास सबै बिछु पाव।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३४५।
⋙ बेलासना †
क्रि० अ० [सं० विलासन] दे० 'बिलसना'। उ०— पुहुप बेलासा सब भ्रभ नासा भरि भरि अम्रित सो आई। अति सुख सागर सब गुन आगर दरिया दरसन सो पाई।—संत० दरिया, पृ० ७।
⋙ बेलि
संज्ञा स्त्री० [सं० बल्ली] लता। दे० 'बेल'। उ०—इनके लिखे हुए कई ग्रंथ कहे जाते हैं जिनमें 'बेलि किसन' रुक्मिणी री' भी हैं।—अकबरी, पृ० ४२।
⋙ बेलिफ
संज्ञा पुं० [अं०] दीवानी अदालत का वह कर्मचारी जिसका काम अदालत में हाजिर न होनेवाले को गिरफ्तार करना और माल कुर्क करना आदि है।
⋙ बेलिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेला का अल्पा०] छोटी कटोरी।
⋙ बेलिहाज
वि० [फा० बे + लिहाज] निःसंकोच। निर्लज्ल। अदब कायदे का ख्याल न रखनेवाला। २. बे मुरव्वत [को०]।
⋙ बेली (१)
संज्ञा पुं० [सं० बल, राज० बेल (=सहायता)] साथी। संगी। जैसे, गरीबों का बेली अल्लाह है।—(कहावत)। उ०—(क) सोरह सै सँग चलीं सहेली। कँवल न रहा और को बेली।—जायसी (शब्द०)। (ख) ऐहें बैली रली रैली उचित अदन में।—छीत०, पृ० ३९।
⋙ बेली (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा कँटीला वृक्ष जो ग्रीष्म में फूलता है और जाड़े में फलता है। विशेष—हिमालय में यह वृक्ष ४००० फुट तक की ऊँचाई पर मिलता है और दक्षिण भारत में भी पाया जाता है। यह गरमीके दिनों में फूलता और जाड़े में फलता है। इसके भिन्न भिन्न अंगों का व्यवहार ओषधि के रूप में होता है। इसकी लकड़ी पीले रंग की और कड़ी होती है। जावा में इसके फल कपड़ा धोनों के काम में आते हैं।
⋙ बेहिलाज
वि० [फा० बे + लिहाज] १. निःसंकोच। निर्लज्ज। अदब कायदे का ख्याल न रखनेवाला। २. बेमुरव्वत [को०]।
⋙ बेलुत्फ
वि० [फ० बेलुफ्त] [संज्ञा बेलुत्फी] आनंदररिहत। बेमजा [को०]।
⋙ बेलौस
वि० [हिं० बे + फा० लौस] १. सच्चा। खरा। जैसे, बेलौस आदमी। २. बेमुरव्वत। (क्व०)।
⋙ बेलकत
वि० [फा० बेवकत] बिना वकत या प्रतिष्ठा का। नगसय तुच्छ। साधारण [को०]।
⋙ बेवकूफ
वि० [फा० बेबकूफ] जिसे किसी प्रकार का बकूफ या शऊर न हो। मूर्ख। निर्बुद्धि। नासमझ।
⋙ बेवकूफी
संज्ञा स्त्री० [फा० बेवकूफी] बेवकूफ होने का भाव। मूर्खता। नादानी। नासमझी।
⋙ बेवक्त
क्रि० वि० [फा० वेबक्त] अनुपयुक्त समय पर। कुसमय में। मुहा०—बेवक्त का राग=दे० 'बेवक्त की शहनाई'। बेवक्त की शहनाई'=वे मौके की चीज। आसामयिक वस्तु या क्रिया।
⋙ बेवजा पु †
वि० [फा० बे + वजअ (=ढंग)] बेढंगा। भद्दा। उ०—हुआ बेवजा रूप जाँ का लहाँ। न पलकाँ, न साको कट्या ना भवाँ।—दक्खिनी०, पृ० ९०।
⋙ बेवट †
संज्ञा पुं० [सं० विवर्त या व्यावर्त] विवशता। संकट की स्थिति। लाचारी।
⋙ वेवटना †
क्रि० अ० [सं० विवर्तन] १. परिवर्तित होना। जैसा चाहते हों वैसा न होना। २. संकटग्रस्त होना। बिगड़ना। खराब होना।
⋙ वेवतन
वि० [फा़०] १. विना घर द्धार का। जिसके रहने आदि का कोई ठिकाना न हो। २. परदेशी।
⋙ बेवपार पु †
संज्ञा पुं० [सं० व्यापार] दे० 'व्यापार'।
⋙ बेवपारी
संज्ञा पुं० [सं० व्यापारिन्] दे० 'व्यापारी'। उ०—टाँड़ा तुमने लादा मारी, बनिज किया पूरा बेवपारी।—कबीर० श०, पृ० ६।
⋙ बेवफा
वि० [फा़० बे + अ० वफा] १. जो मित्रता आदि का निर्वाह न करे। २. वेमुरव्वत। दुःशील। ३. किए हुए उपकार को न माननेवाला। कृतघ्न।
⋙ बेवफाई
संज्ञा स्त्री० [फा़० बेवफाई] बेवफा या बेमुरव्वत होने की स्थिति। उ०—सीखे हो वेबफाई, इसमें है क्या सफाई।— ब्रज० ग्रं०, पृ० ४४।
⋙ बेवर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जिसकी रस्सी खाट बुनने के काम आती है।
⋙ बेवरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ब्योरा] विवरण। ब्योरा। उ०— कपिल कह्यो तोहि भक्ति सुनाऊँ। अरु ताको बेवरो समझाऊँ।—सुर (शब्द०)। यौ०—बेवरेबाज = चालाक। धूर्त।
⋙ बेवरेबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० व्योरा + फा़० बाजी] चालाकी। चालबाजी। (बाजारू)।
⋙ बेवरेवार
वि० [हिं० बेवरा + वार (प्रत्य०)] तफसीलवार। विवरणसहित।
⋙ बेवसाउ पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यवसाय] उद्यम। व्यवसाय। काम। उ०—बिरिध बैस जो बाँधे पाऊ। कहाँ सो जोबन कित बेवसाऊ।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बेवसाय †
संज्ञा पुं० [सं० व्यवसाय] व्यवसाय। काम।
⋙ बेवसार पु †
संज्ञा पुं० [?] व्यवसाय। विशिष्ट इच्छा या प्रयत्न। उ०—रेखा खाँचि कहत हौं हरि लै जाइहै। तब जानब बेवसार स्याम मुख लाइहै।—अकबरा०, पृ० ३४०।
⋙ बेवस्था †
संज्ञा स्ञी० [सं० व्यवस्था] दे० 'व्यवस्था'। उ०—कठिन मरन तें प्रेम बेवस्था। ना जिउ जियै न दसवै अवस्था।— जायसी ग्रं०, पृ० ४९।
⋙ बेवहर ‡
संज्ञा पुं० [सं० व्यवहार] दे० 'व्यौहर'।
⋙ बेवहरना †पु
क्रि० अ० [सं० व्यवहार] व्यवहार करना। बरताव करना। बरतना।
⋙ बेवहरिया पु †
संज्ञा पुं० [सं० व्यवहार + इया (प्रत्य०)] १. लेनदेन करनेवाला। महाजन। उ०—जेहि बेवहारियाकर बेवहारू का लेइ देव जउँ छेकहि वारू।—जायसी (शब्द०)। २.लेन देन का हिसाब करनेवाला। मुनीम। उ०—अब आनिय वेवहारिया बोली। तुरत देउँ मै थैली खोली।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बेवहार
[सं० व्यवहार, प्रा० विवहार] दे० 'व्यवहार'। उ०—(क) से आवे जाहु ताहु देखि झावए, चिन्हिमन बेवहार।— विद्यापति, पृ० १७३। (ख) पुनि लोकिक वेवहार मै नेम, प्रधान कियो तब नाहिं चुन्यौ।—नट०, पृ० १५२।
⋙ बेवा
संज्ञा स्त्री० [फा़० वेवह्] वह स्त्री जिसका पति मर गया हो। विधवा। राँड़।
⋙ बेवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बिवाई'।
⋙ बेवान पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० विमान] दे० 'विमान'। उ०—दुख तजि सुख की चाह नहिं, नहिं बैकुंठ बेवान। चरन कमल चित चहत हौं, मोहिं तुम्हारी आन।—दया० वानी, पृ० २१।
⋙ बेवान (२)
संज्ञा पुं० [?] चाह। उ०—मुख तान के सुन बेवान लगा सोई आइ खडी नहि लाज डरी।—संत० दरिया, पृ० ६९।
⋙ बेवाहा पु
संज्ञा पुं० [हिं० बिवाहा] प्रिय। प्रियतम। उ०— बेवाहा के मिलन से नैन भया खुषहाल। दिल मन मतवाला हुआ गंगा गहिर रसाल।—संत० दरिया, पृ० २९।
⋙ वेवि पु †
वि० [हिं०] दो। उ०—बेवि सरोरुह उपर देखल जइसन दूतिअ चंदा।—विद्यापति, पृ० २४।
⋙ बेश (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेश] दे० 'वेश'।
⋙ बेश (२)
वि० [फा़०] अधिक। विशेष। ज्यादा।
⋙ बेश (३)
संज्ञा पुं० मीठा तेलिया। संखिया। बच्छनाग [को०]।
⋙ बेशऊर
वि० [फा़० बे + अ० शऊर] जिसे कुछ भी शऊर न हो। मूर्ख। फूहड़। नासमझ। बेसलीका।
⋙ बेशऊरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बे + अ० शऊर + ई (प्रत्य०)] बेशऊर होने का भाव। मूर्खता। नासमझी।
⋙ बेशक
क्रि० वि० [फा़० बे + अ० शक्र] बिना किसी काल का। अवश्य। निःसंदेह। जरूर।
⋙ बेशकीमत, बेशकीमती
वि० [फा़० बेश + अ० कीमत] जिसका मूल्य बहुत अधिक हो। बहुमूल्य। मूल्यवान्।
⋙ बेशवहा
वि० [फा़०] दे० 'बेशकीमती'।
⋙ बेशरम
वि० [फा़० बेशर्म] जिसे शर्म हया न हो। निर्लज्ज। बेहया। उ०—बाँह पकरि तू ल्याई काको अति बेकारम गवाँरि। सूरस्याम मेरे आगे खेलत जोबन मद मतवारि।— सूर (शब्द०)।
⋙ बेशरमी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बेशर्मी] निर्लज्जता। बेहयाई।
⋙ बेशी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १.अधिकता। ज्यादती। २. साधारण से अधिक कार्य करने की मजदूरी। ३. लाभ। नफा।
⋙ बेशुमार
वि० [फा़०] अगणित। असंख्य। अनगिनत।
⋙ बेश्म
संज्ञा पुं० [सं० वेश्म वा वेश्मन्] घर। गृह। निवासस्थान। उ०—निज रहिबे हित बेश्म जो पूँछेउ सो सुनि लेहु।— विश्राम (शब्द०)।
⋙ बेसंदर पु †
संज्ञा पुं० [सं० वेश्वानर] अग्नि। उ०—यहै कुबेरेे जयति वेसंदर। बैठे और अनेक/?/।अवलसिंह (शब्द०)।
⋙ बेसँभर पु †
वि० [फा़० बे + हिं० सँनाल (= सुध)] बेहोश। उ०—राघो बिजली मारा बेसँभर कुछ न सँभार। जायसी (शब्द०)।
⋙ बेस पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेश, प्रा० वेस] दे० 'वेश'।
⋙ बेस (२)
वि० [फा़० वेश, तुल० बँग० बेश (= अधिक)] १. बढ़िया। उत्तम। उ०—कृपाँन एक बेस देस पालकी सुजान की। २. अधिक। ज्यादा। उ०—फबति फूँदननि मै मुकतावलि मोल बेस की।—रत्नाकर, मा० १, पृ० ९।
⋙ बेसन
संज्ञा पुं० [देश०] चने की दाल का आटा। चने का आटा। रेहन।
⋙ बेसना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बसन या वेष्ठन; तुल० हिं० बसना (= थैली)] सर्प का बेठन या थेली। केचुल। उ—नाहिंन कछु स्रम सहजहि ऐसे। साँप बेसना कौ सिसु जैसें।—नंद०, ग्रं०, पृ०, १९२।
⋙ बेसना † (२)
क्रि० अ० [सं० वेशन] दे० 'बैठना'। उ०—मैं गुनिवंत भूमि पर बेसा। चरन धोइ करि पिए नरेसा।— माधवानल०, पृ० १९६।
⋙ बेसनी (१)
वि० [हिं० बेसन + ई (प्रत्य०)] बेसन का बना हुआ।
⋙ बेसनी (२)
संज्ञा स्त्री० १. बेसन की बनी हुई पूरी। २. कचौरी जिसमें बेसन भरा हो।
⋙ बेसबब
क्रि० वि० [फा़०] बिना किसी सबब या कारण के। अकराण।
⋙ बेसबरा
वि० [फा़० बे + अ० सब्र + आ (प्रत्य०)] जिसे सब्र या संतोष न होता हो। जो संतोष न रख सके। अधोर।
⋙ बेसबरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बेसब होने का भाव। अधेर्य। असंतोष।
⋙ बेसबात
वि० [फा़०] [संज्ञा बेसबाती] विनश्वर। विनशनशील। क्षणभंगुर [को०]।
⋙ बेसव्र
वि० [फा़० बेसब्र] दे० 'बेसबरा'। उ०—बंदा बिल्कुल बेसब्र हुआ जाता है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८८।
⋙ बेसमझ
वि० [फा़० बे+ हिं० समझ] मूर्ख। निवुंद्धि। नासमझ।
⋙ बेसमझी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेसमझ + ई (प्रत्य०)] बेसमझ होने का भाव। नासमझी। मूर्खता।
⋙ बेसम्हार पु
वि० [फा़० बे + हिं० सँभाल, सँभार] दे० 'बेसँमर'। उ०—दुरजन दार भजि भजि वेसम्हार चढ़ी, उत्तर पहार डरि सिवजी नरिंद ते।—भूषण० ग्रं०, पृ० ७३।
⋙ बेसर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० बेसर] खच्चर। बेसर। उ०—बसर ऊँठ बृषभ बहु जाती। चले वस्तु भरि अगनित भाँती।—मानस, १।३०।
⋙ बेसर पु (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. स्त्रियों का नाक में पहनने का एक आभूषण। उ०—वेसर बनी बुद्धि की सजनी, मोती बचन सुधार हो।—कबीर श०, भा० पृ० १३४। †२ बेसवा।पतुरिया। उ०—नाचं बसर बारिमुखी तहँ, परमानँद रह्यो छाई।—भारतेंदु ग्रं० भा० २, पृ० ४७१।
⋙ बेसरा (१)
वि० [फा़ वे + सर = ठहरने का स्थान] जिसे ठहरने का कोई स्थान न हो आश्रयहीन। उ०—बिहिरी कहुँ निबइत सुनो लगर झझहित बेस। बासौ पावत बेसरा सही प्रेम के देस।—रसिनिधि—(शब्द०)।
⋙ बेसरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का शिकारी पक्षी। उ०— बहरी सू बेसरा कुही सर। जे गहत नीर चर बहुत खग।— सूदन (शब्द०)।
⋙ बेसरोकार
क्रि० वि० [फा़० बिना मतलब] बिना किसी संबंध अथवा लाभ के। उ०—बेसरोकार जैसे किसी होटल में आ टिके हैं।—भस्मावृत०,/?/३५।
⋙ बेसरोसामान
वि० [फा़०] १. जिसके पास कुछ भी सामग्री न हो। २. दरिद्र। कंगाल।
⋙ बेसवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्य रंडी। वेश्या। कसवी।
⋙ बेसवार
संज्ञा पुं० [देश०] वह तड़ाया हुआ मसाला जिससे शराब चुआई जाती है। जाप।
⋙ बेसहना पु †
क्रि० अ० [देश०] 'बेसाहना'।
⋙ बेसहनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] सदा। खरीद की वस्तु।
⋙ बेसहारा
वि० [फा़०] बिन आश्रय या आधारवाला। आश्रय- विहीन।
⋙ बेसहारे
क्रि० वि० बिना सहारा या अवलंब के।
⋙ बेसहूर पु
वि० [फा़० बेशरु/?/] दे० 'बेशऊर'। उ०—दा दिन का जग में जीवना करता है क्यों गुमान। ऐ बेसहूर गीदी टुक राम को पिछान।—चरण० बानी, पृ० ११।
⋙ बेसा † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या रंडी। वारांगना। कस्बी। उ०— पुनि सिंगारहार घनि/?/। कइ सिंगार तहँ बइठी बेसा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बेसा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भे/?/दे० 'भेष'] उ०—जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुमहि लागि धरिहउँ नर वेसा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बेसाना पु †
क्रि० स० [= वेशन] दे० 'बैठाना', बैसारना। उ०—दीया खरोदन अइहरणइ। राजा कुँवर बेसाणी आणी।—बी० रासो दु०/?/१११।
⋙ बेसामान
वि० [फा़०]/?/बिन साज समान का। बिना उपकरण का। साधनहीन।
⋙ बेसामानी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] साधनविहीनता। अभाव की दशा। मुफलिसी। उ०—ऐसै बैसामानी के साथ ईश्वर पर भरोसा कर बादशाह बदख्शा आंत/?/और कावुल की ओर चले।— हुमायूँ०, पृ० ४।
⋙ बेसारा †
वि० [हिं० बेठानः गुज० बेसाना] १. बठानेवाला। २. रखने या जमानेवाला। उ०—मातु भूमि पितु बौज बेसारा। काल निसान जीव तृष्ट भारा।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ बैसास पु †
संज्ञा पुं० [सं० विश्वास, प्रा० बेसास] दे० 'विश्वास'। उ०—(ज) जप तप दीसैं थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास। सूवै सैबल सेविया, यौं जग चल्या निरास।—कबीर ग्रं०,। (ख) दादू पंथ बतावै पाप का, मर्म कर्म बसास। निकट निरजन जे रहे, क्यों न बतावै तास।—दादू० बानी, पृ० २४।
⋙ बेसाहना
क्रि० अ० [देश०] १. मोल लेना। खरीदना। उ०— भरत कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोहीं।—तुलसी (शब्द०)। २. जान बूझकर अपने पीछे लगाना। (झगड़े, बैर, विरोध, आदि के संबंध में बोलते हैं)।
⋙ बेसाहनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'बेसाहा'।
⋙ बेसाहा
संज्ञा पुं० [हिं० बेसाहना] खरीदी हुई चीज। सीदा। सामग्री। उ०—जेहि न हाट एहि लीन्ह बेसाहा। ताकहँ आन हाठ कित लाहा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बेसिक
वि० [अं०] मूलभूत। आधार रूप। मौलिक। बुनियादी। उ०—जब तक आधुनिक छायावाद के बेसिक शब्द कविता में न आवें तब तक कवि जो को संतोष नहीं हो सकता।—आधुनिक०, पृ० २। यौ०—बेसिक रीडर।
⋙ बेसिलसिले
क्रि० वि० [हिं० बे + फा़० सिलसिला] बिना किसी क्रम आदि के। अव्यवस्थित रूप से।
⋙ बेसा †
क्रि० वि० [फा़० बेश] अधिक। ज्यादा।
⋙ बेसु पु †
संज्ञा पुं० [सं० वेश] दे० 'वेश'। उ०—लाल कमली वोढ़े पेनाए। बेसु हरि थे कैसे बनाए।—दक्खिनी०, पृ० १०३।
⋙ बेसुध
वि० [हिं० बे + सुध (= होश)] १. अचेत। बेहोश। २. बेखबर। बदहवास।
⋙ बेसुधी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेसुध + ई (प्रत्य०)] अचेतनता। बेखबरी। बेहोशी। (क्व०)।
⋙ बेसुमार
वि० [फा़० बेशुमार] दे० 'बेशुमार'। उ०—कछू सूझत न पार परी वार बसुमार, मढ़ो भूमि आसमान धूम धाम घनघोर।—हम्मीर०, पृ० ३१।
⋙ बेसुर
वि० [हिं० ब + सुर (= स्वर)] संगीत आदि की द्दष्टि से जिसका स्वर ठीक न हो। बमल स्वरवाला। उ०—चेतन होइ न एक सुर कैस बनै बनाइ। जड़ मृदग बसुर भए मुँहे थपेरै खाइ।—स० सप्तक, पृ० २२२।
⋙ बेसुरा
वि० [हिं० बे + सुर (= स्वर)] १. जो नियमित स्वर में न हो। जा अन्न नियत स्वर से हटा हुआ हो। (संगीत)। २. जो अपने ठिकाने या मौके पर न हो। बमौका।
⋙ बेस्म पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वेश्म] गृह। घर।—अनेकार्थ०, पृ० ४३।
⋙ बेस्या पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वेश्या] दे० 'बेसा'। उ०—अपने अपने लाभ कों बोलत जैन बनाय। बेस्या बरस घटावहीं जोगी बरस बढ़ाय।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २३९।
⋙ बेस्वा †
संज्ञा स्त्री० [सं वेश्या] वारंगना। वेश्या। बेसा। उ०—/?/बेस्वा तजा सिंगारु सिंद्ध की गइ सिद्धाई।—पलटू०, पृ० १०४।
⋙ बेस्वाद
वि० [हिं० बे + सं० स्वादु] जिसमें कोई अच्छा स्वाद न हो। स्वादरहित। २. जिसका स्वाद खराब हो। बदजायका।
⋙ बेहंगम
वि० [सं० विहङ्गम] १. जो देखने में भद्दा हो। बेढंगा। जैसे, बेहंगम मूर्ति। २. बेढब। विकट। जैसे,—वह बेहगम आदमी है, सबसे झगड़ पड़ता है।
⋙ बेहगमपन
संज्ञा पुं० [हिं० बेहगम + पन (प्रत्य०)] १. बेहगम होने का भाव। भद्दापन। बेढ़गापन। २. बिकटता। भयंकरता।
⋙ बेहँसना †
क्रि० अ० [सं० विइसन, हिं० बिहँसना, हँसना] ठठाकर हँसना। वि० दे० 'हँसना'।
⋙ बेह पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेध] १. छेद। छिद्र। सूराख। उ०— (क) भुज उपमा पौनारि न पूजी, खीन भई तेहि चिंत। ठावहि ठाँव वह भे हिरदै ऊभि साँस लेई निंत।—जायसी—ग्रं०, (गुप्त), पृ० १९५। २. चोट। घाव। (ख) अनिंख चढ़े अनोखी चित चढ़ि उतरै न, मन मग मुँद जाको वह सब और तें।—घनानंद, पृ० १२।
⋙ बेह पु (२)
संज्ञा स्त्री० [?] बाँह। भुजा। उ०—संकट मै हरि बेह उबारी। निस दिन सिमरो नाम मुरारी।—रामानंद०, पृ० ७।
⋙ बेह (३)
वि० [फा़०] अच्छा। भला। सुंदर [को०]।
⋙ बेहड़ (१)
वि० [हिं०] दे० 'बीहड़'।
⋙ बहड़ (२)
संज्ञा पुं० दे० 'बीहड़'। उ०—बन बेहड़ गिरि कदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बेहतर (१)
वि० [फा़०] अपेक्षाकृत अच्छा। किसी के मुकाबले में अच्छा। किसी से बढ़कर। जैसे,—चुपचाप घर बैठन स तो वहीं चले जाना बहतर है।
⋙ बेहतर (२)
अव्य० प्रार्थना या आदेश के उत्तर में स्वीकृतिसूचक शब्द। अच्छा। विशेष—प्रायः इसी अर्थ में इसका प्रयोग 'बहुत' शब्द के साथ होता है। जैसे,—आप कल सुबह आइएगा। उत्तर—बहुत बहतर।
⋙ बेहतरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बेहतर का भाव। अच्छापन। भलाई। जैसे,—आपकी बहतरी इसी में है कि आप उनका रुपया चुका दें।
⋙ बेहद
वि० [फा़०] १. जिसकी कोई सीमा न हो असीम। अपरिमित। अपार। २. बहुत अधिक।
⋙ बेहन † (१)
संज्ञा पुं० [स० वपन] अनाज आदि का बीज जो खेत में बोयाजाता है। बीया। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना।
⋙ बेहन
वि० [?] पीला। जद।
⋙ बेहना †
संज्ञा पुं० [देश०] १. जुलाहों की एक जाति जो प्रायः रूई/?/
⋙ बेहनैर ‡
संज्ञा पुं० [हिं० वेहन + और (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ धान वा जड़हन आदि का बीज बेहन डाला जाय। पनीर। बियाड़ा। विशेष—धान आदि की फसल के लिये पहले एक स्थान पर बीज बोए जाते हैं; और जब वहाँ अकुर निकल आते हैं, तब उन्हें उखाड़कर दूसरे स्थान में रोपते हैं। पहले जिस स्थान पर बीज बोए जाते हैं, उसी को पूरब में बेहनौर कहते हैं।
⋙ बेहया
वि० [फा़०] जिसे हया लज्जा आदि बिल्कुल न हो। निर्लज्ज। बेशर्म।
⋙ बेहयाई
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बेहया होने का भाव। बेशर्मी। निर्लज्जता। मुहा०—बेहयाई का जामा वा वुरका पहनना या ओढ़ना = निर्लज्जता धारण करना। निलज्ज हो जाना। पूरा बेशर्म बन जाना। लोक लाज आदि की कुछ भी परवा न करना।
⋙ बेहर
वि० [देश०] १ . अचर। स्थावर। उ०—रवि के उदय तारा भो छीना। चर बेहर दूनों में लीना।—कबीर (शब्द०)। २. अलग। भिन्न। पृथक्। जुदा। उ०—खारि समुँद सब नाँघा आय समुद जहँ खीर। मिले समुद वे सातों बेहर बेहर नीर।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बेहर
संज्ञा पुं० वापी। बावली।
⋙ बेहरना †
क्रि० अ० [हिं० बेहर + ना(प्रत्य०)] किसी चीज का फटना या तड़क जाना। दरार पड़ना। चिर जाना।
⋙ बेहरा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार की घास जिसे चौपाये बहुत पसंद करते हैं। (बुंदेल०)। २. मूँज की बनी हुई गोल वा चिपटी पिटारी जिसमें नाक में पहनने की नथ रखी जाती है।
⋙ बेहरा (२)
वि० [हिं० बिहरना या देश०] अलग। भिन्न। जुदा। पृथक्। उ०—ना वह मिल ना बेहरा अइस रहा भरपूरि। दिसिटिवंत कहँ नीअरे अंध मुरुख कहँ दूरि।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बेहरा (३)
संज्ञा पुं० [अं०बेयरा] दे० 'बेयरा'।
⋙ बेहराना (१)
क्रि० अ० [हिं० बेहर] फटना। विदीर्ण होना। बेहरना। उ०—उठा फूलि हिरदय न समाना। कंथा टूक टूक बेहराना।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बेहराना † (२)
क्रि० स० फाड़ना। विदीर्ण करना।
⋙ बेहरी †
संज्ञा स्त्री० [?] १. किसी विशेष कार्य के लिये बहुत से लोगों से चंदे के रूप में माँगकर एकत्र किया हुआ घन। २. इस प्रकार चंदा उगाहने की क्रिया। ३. वह किस्त जो आसामी शिकमीदार को देता है। बाछा।
⋙ बेहला
संज्ञा पुं० [अं० यायोलिन] सारंगी के आकार का एक प्रकार का अंग्रेजी बाजा। बेला।
⋙ बेहवास
वि० [फा़०] बिना होश का। परेशान। बदहवास।
⋙ बेहाथ
वि० [सं० वि + हस्त, प्रा० विहथ्थ] हस्तरहित। बिना हाथ का। मुहा०—बेहाथ होना =(१) अकर्मण्य होना। निष्क्रिय वानिरुद्यम होना। उ०—हाथ होते हम बेहाथ हैं।—चुभते० (दो दो बातें), पृ० ५। (२) हाथ के बाहर होना। अंकुश या प्रतिबंध न मानना। उच्छुखल होना। (३) अधिकार से बाहर होना। अधिकार में न होना ।
⋙ बेहान ‡
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बिहान'।
⋙ बेहाल
वि० [फा़० बे + अ० हाल] व्याकुल। विकल। बेचैन। उ०—(क) राम राम रटि विकल भुआलू। जनु विनु पख बिहग बेहालू।—तुलसी (शब्द०)। (ख) लागत कुटिल कटाछ सर क्यों न होइ बेहाल। लगत जु हिए दुसारि करि तऊ रइत नट साल।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बेहाली
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बेहाल होने का भाव। बेकली। बेचैनी। व्याकुलता। उ०—आपु चढ़े ब्रज ऊपर काली। उहाँ निकसि जँए को राखै नंद करत बेहाली।—सूर (शब्द०)।
⋙ बेहावन पु †
संज्ञा पुं० [हिं० भयावन] भयावना। डरावना। उ०—भादौं भुवन बेहावन भयो। देखत घटा प्रान हरि गयो।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २८०।
⋙ बेहिजाब
वि० [फा़०] [संज्ञा बेहिजाबी] वेपर्द। निर्लज्ज। बेहया। हयाहीन [को०]।
⋙ बेहिम्मत
वि० [फा़०] बिना कूवत या ताकत का। कादर।
⋙ बेहिस
वि० [फा़०] लाचार। गतिहीन। उ०—(क) सँग यंत्रों के यंत्र, बने बेहिस और बेबस पिसते जाना।—चाँदनी०, पृ० ४१। (ख) ये मजा हो न नसीबों में किसी बेहिस के।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ८६।
⋙ बेहिसाब
क्रि० वि० [फा़० बे + अ० हिसाब] बहुत अधिक। बहुत ज्यादा। बेहुद।
⋙ बेहु पु
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'बेहु'।
⋙ बेहुनर
वि० [फा़०] जिसे कोई हुनर न आता हो। जिसमें काई कला या गुण न हो।
⋙ बेहुनरा
वि० [हिं० बे + फा़० हुनर] १. जिसे कोई हुनर न आता हो। जो कुछ भी काम न कर सकता हो। मुर्ख। २. वह भालू या बंदर जो तमाशा करना न जानता हो। (कलंदर)।
⋙ बेहुरमत
वि० [फा़०] जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो। बेइज्जत।
⋙ बेहुदगी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बेहुदा होने का भाव। असभ्यता। अशिष्ठता।
⋙ बेहुदा
वि० [फा़०] १ . जिसे तमीज न हो। जो शिष्टता या सभ्यता के विरुद्ध हो। अशिष्टतापूर्ण।
⋙ हूदापन
संज्ञा पुं० [फा़० बेहूदा + हिं० पन (प्रत्य०)] बेहूदा होने का भाव। बेहूदगी। अशिष्टता। असभ्यता।
⋙ बेहून पु ‡
क्रि० वि० [सं० विहीन] बिना। बगैर। रहित। उ०—भई दुहेली टेक बेहूनी। थाँभ नाँह उठ सके न थूनी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बेहैफ
वि० [फा़० बेहैफ] जिसे कोई चिंता न हो। चिंता रहित। बेफिक्र उ०—भले छकाएँ नैन ये रूप सबी के कैफ। देत न मृदु मुसक्यान की तजि आपै बेहैफ।—रसिनिधि (शब्द०)।
⋙ बेहोश
वि० [फा़०] मूर्छित बेसुध। अचेत।
⋙ बेहोशी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बेहोश होने का भाव। मूर्छा। अचेतनता।