विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/मै
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ मैँ (१)
सर्व० [सं० मया] सर्वनाम उत्तम पुरुष में कर्ता का रूप। स्वयं। खुद।
⋙ मैँ (२)
अव्य० [सं० मय] दे० 'मै'।
⋙ मैँ पु † (३)
[सं० मध्ये, पु० हिं० महिं] अधिकरण कारक का चिह्न। दे० 'में'। उ०—बिहरत वृंदा बिपिन मैं गोपिन सँग गोपाल। बिक्रम हृदै सदा बसौ इहि छबि सों नंदलाला।— स० सप्तक, पृ० ३४३।
⋙ मैँड़ †
संज्ञा स्त्री० [देश०] 'मेंड़'। उ०—नंददास प्रभुनिधि न रुकति री वा बारू मैंड़।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८६।
⋙ मैँड़क †
[सं० मण्डूक] दे० 'मेढक'। उ०—तुम्हारी मैंड़क की सी टर टर उसके कान तक न पहुँचे इसी में तुम्हारे लिये अच्छा है।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १०८।
⋙ मैँडा पु
सर्व० [पंजा०] दे० 'मेरा'। उ०—नंद महर दा कुँवर कन्हैया मैंडा जीवन जानी है।—घनानंद, पृ० १७७।
⋙ मैँढल
संज्ञा पुं० [हिं० मैनफल] मैनफल। मदनफल।
⋙ मैँहल पु ‡
संज्ञा पुं० [अ० महल] उ०—भगति करण करो आरंभ, मैंहल उठै जब थरि होइ थंभा।—रामानंद०, पृ० ५३।
⋙ मै पु (१)
अव्य० [सं० मय] दे० 'मय'। उ०—श्रम सीकर साँवरि देह लसै मनो राशि महातमा तारक मै।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मै (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] मदिरा। शराब। उ०—कर्ज की पीते थे मै लेकिन समझते थे कि हाँ। रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४७७। यौ०—मैकदा = दे० 'मैखाना'। मैकश। मैकशी = दे० 'मैषरस्ती'। मैखाना। मैषरस्त = शराबखोर। शराबी। मैपरस्बी = शराब- खोरी। मदिरापान की लत।
⋙ मै (३)
अव्य० [अ०] साथ। सहित। जैसे, मैसरोसामान, मैंखर्च आदि।
⋙ मैकश
संज्ञा पुं० [फा़०] शराब पीनेवाला। मद्यप।
⋙ मैखाना
संज्ञा पुं० [फा़० मैखानह्] शराब पीने का स्थान। मधु- शाला। उ०—पै हमने तो सीधा ताका उस साकी का मैंखाना।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५६३।
⋙ मैका †
संज्ञा पुं० [सं० मातृक] दे० 'मायका'। उ०—(क) नेवते गइलि ननँदिया मैके सासु। दुलहिनि तोरि खबरिया आवै आँसु।—रहीम (शब्द०)। (ख) तेरे मैके ते हम आए। तुम ढिग जननी जनक पठाए।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मैगनेट
संज्ञा पुं० [अं०] चुंबक पत्थर।
⋙ मैगनाकार्टा
संज्ञा पुं० [अँ०] वह राजकीय आज्ञापत्र जिसमें राजा की ओर से प्रजाजनों को कोई स्वत्व या अधिकार देने की बात हो। शाही फरमान। (अंग्रेजों ने वैयक्तिक और राजनीतिक स्वाधीनता का यह अधिकारपत्र बादशाह जान से सन् १२१५ ई० में प्राप्त किया था।)
⋙ मैगल (१)
संज्ञा पुं० [सं० मदकल] मत्त हाथी। मस्त हाथी। उ०— (क) माधव जू मन सब ही। बीध पोच। अति उनमत्त निरंकुश मैगल चिंतारहित असोच।—सूर (शब्द०)। (ख) ऐंड़ति अड़ति पैंड़ मध्य मत्त मैगल सी, खाय करि द्वै वल सी लचति लचाक लंक।—भुवनेश (शब्द०)। (ग) भक्ति द्वार है साँकरा राई दसवें भाय। मन तो मैगल ह्वै रह्यौ कैसे होय समाय।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मैगल (२)
वि० मत्त। मस्त। (हाथी के लिये)।
⋙ मैच (१)
संज्ञा पुं० [अं० मैच] १. किसी प्रकार के गेंद के खेल की अथवा इसी प्रकार के और किसी खेल की बाजी। २. उपयुक्त जोड़ा।
⋙ मैच (२)
संज्ञा स्त्री० दियासलाई। माचिस। यौ०—मैचबाक्स = दियासलाई की डिबिया।
⋙ मैजल पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० मंजिल] १. उतनी दूरी जितना कोई पुरुष एक दिन भर चलकर तै करे। मंजिल। २. सफर। यात्रा। उ०—ग्रीष्म ऋतु पुनि मैजल भारी। पद झलकत झलका जनु बारी।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ मैजिक
संज्ञा पुं० [अं०] वह अदभुत खेल या कृत्य जो दर्शकों की दृष्टि और बुद्ध को धोखा देकर किया जाय। जादु का खेल।
⋙ मैजिक लालटेन
संज्ञा स्त्री० [अं० मैजिक लैटर्न] एक प्रकार की लालटेन जिसके आगे शीशे पर बने हुए चित्र इस प्रकार रखे जाते हैं कि उनकी परछाई सामने के कपड़े पर पड़ती है, और वे चित्र दर्शकों को उस परदे सिखाई देते हैं।
⋙ मैटर
संज्ञा पुं० [अं०] १. कागज पर लिखा हुआ कोई विषय जो 'कंपोज' करने के लिये दिया जाय। वह लिखी हुई कापी जो ' कंपोज' करने के लिये लिये दी जाय। जैसे,—पहले फमें के लिये एक कालम का मैटर और चहिए (कंपोजीटर)। २. कंपोज किए हुए टाइप या अक्षर जो छापने के लिये तैयार हों। जैसे,—प्रेस पर फर्मा कमते हुए एक का मैटर टूट गया। (कंपोजीटर)।
⋙ मैंटिनी
संज्ञा स्त्री० [अँ०] अपराह्नकालीन नाटयाभिनय। उ०— एक रोज भाल साहब की साली के साथ मैटिनी (दोपहर) में सिनेमा भी हो आई।—भस्मावृत०, पृ० ३६।
⋙ मैडम
संज्ञा स्त्री० [अँ०] विवाहिता तथा वृद्धा स्त्री० के नाम के आगे लगाया जानेवाला आदरसूचक शब्द। श्रीमती। महाशया। जैसे, मैडम ब्लैड़वैस्की।
⋙ मैड़ो पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मठिका या मण्ड़पिका, प्रा० मढी] मड़ई। मड़ैया। छोटा मकान। मढी। उ०—मैड़ी महल बावड़ी छाजा। छाड़ि गए सब भूपति राजा।—कबीर ग्रं०, पृ० १२०।
⋙ मैत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुराधा नक्षत्र। २. सूर्यलोक। ३. मलद्वार। गुदा। ४. ब्राह्मण। ५. सूर्योंदय के समय के उपरांत उससे तीसरा मुहूर्त। ६. प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति ७. मित्र का भाव। मित्रता। दोस्ती। ८. वेद की एक शाखा। ९. बंगाली ब्राह्मणों का एक अल्ल (को०)।
⋙ मैत्र (२)
वि० मित्र संबंधी। मित्र का।
⋙ मैत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मित्रता। दोस्ती। २. बौद्ध मंदिर का पुजारी (को०)।
⋙ मैत्रभ
संज्ञा पुं० [सं०] अनुराधा नक्षत्र।
⋙ मैत्राक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रेत।
⋙ मैत्राक्षज्योतिक
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार एक योगि जिसमें अपने कर्तव्य से भ्रष्ट होनेवाला वैश्य जाता है।
⋙ मैत्रायण
संज्ञा पुं० [सं०] गृह्यसूत्र के प्रणेता एक प्राचीन ऋषि। २. मैत्र नामक वैदिक शाखा।
⋙ मैत्रायणि
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपनिषद का नाम।
⋙ मैत्रावरूण, मैत्रावरूणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोलह ऋत्विजों में से पाँचवाँ ऋत्विज। २. मित्र और वरुण के पुत्र, अगस्त्य। विशेष—कहते हैं, उर्वशी को देखकर मित्र और वरुण दोनों देवताओं का वीर्य एक जगह स्खलित हो गया था। उसी विर्य से अगस्त्य और वरिष्ठ इन दो ऋषियों का जन्म हुआ था।
⋙ मैत्रि
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक आचार्य जिनके नाम पर मैञ्युप- निषद् की रचना हुई है।
⋙ मैत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दो व्यक्तियों के बीच का मित्र भाव। मित्रता। दोस्ती।
⋙ मैत्रीबल
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्ध का एक नाम। विशेष—मैत्री मुदिता आदि योग के चार साधन कर्म हैं, जो बुद्ध को प्राप्त हो गए थे, इसीलिये उनका यह नाम पड़ा।
⋙ मैत्रेय
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध नाम जो अभी होनेवाले हैं। २. भागवत के अनुसार एक ऋषि का नाम जो पराशर के शिष्य थे और जिनसे विष्णुपुराण कहा गया था। ३. सूर्य। ४. प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति जो पिता औरअयोगव माता से उत्पन्न कही गई है। इसका काम दिन रात की घड़ियों को पुकारकर बताना था।
⋙ मैत्रोयिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मित्र के साथ युद्ध। मित्रों या दोस्तों के वीच की लड़ाई [को०]।
⋙ मैत्रेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. याज्ञवल्कय की स्त्री का नाम जो वह्म- वादिनी और बड़ी पंड़िता थी। २. अहल्या का नाम।
⋙ मैत्र्य
संज्ञा पुं० [सं०] मित्रता। दोस्ती।
⋙ मैथिल (१)
वि० [सं०] १. मिथिला देश का। २. मिथिला संबंधी।
⋙ मैथिल (२)
संज्ञा पुं० १. मिथिला देश का निवासी। २. राजा जनक का एक नाम।
⋙ मैथिललिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिथिला देश० या प्रांत की लिपि। विशेप—मिथिला (तिरहुत) देश के बाह्मणों की लिपि, जिसमें संस्कृत ग्रंथ लिखे जाते हैं, 'मैथिल' कहलाती है। यह लिपि वस्तुतः बँगला का किंचितू परिवर्तित रूप ही है और इसका बँगला के साथ वैसा ही संबंध है जैसा कि कैथी का नागरी से है।—भा० प्रा० लि०, पृ० १३१।
⋙ मौथिली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मिथिला देश के राजा की कन्या, जानकी। सीता। २. मिथिला की भाषा।
⋙ मैथुन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्री के साथ पुरूष का समागम। संभोग। रतिक्रीड़ा। २. विवाह संस्कार (को०)। ३. अग्न्या- धान (को०)। यौ०—मैथुनगमन = संभोग। रतिक्रीड़ा। मैथुनज्वर = कामज्वर। मैथुनवैराग्य = रति या संभोग से विरत हो जाना। इंद्रिय- निग्रह।
⋙ मैथुनिक
वि० [सं०] १. मैथुन से संबंध रखनेवाला। २. स्त्री और पुरूष अथवा दोनों के आपसी व्यवहार या संपर्क से संबध रखनेवाला [को०]।
⋙ मैथुनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैवाहिक संबंध [को०]।
⋙ मैथुनीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] संभोग। रतिक्रिया।
⋙ मैथुन्य
संज्ञा पुं० [सं०] गोधर्व विवाह।
⋙ मैदा
संज्ञा पुं० [फा़० मैदह्] बहुत महीन आटा। उ०—नेह मौन छवि मधुरता मैदा रूप मिलाय। बेंचत हलवाई मदन हलुआ सरस बनाय।—रसनिधि (शब्द०)। मुहा०—मैदे की लोई = अत्यंत कोमल। मुलायम (उदर)।
⋙ मैदान
संज्ञा पुं० [फा़०] १. धरती का वह लंबा चौड़ा विभाग जो। समतल हो और जिसमे पहाड़ी या घाटी आदि न हो। दूर तक फैली हुई सपाट भूमि। उ०—जब कढी़ कोशल नगर तें मैदान माहिं बरात। तब भयो देवन भोर मानहु सिंधु द्वितिय देखात।—रघुराज (शब्द०)। मुहा०—मैदान छोड़ना या करना = (१) किसी काम के लिये बीच में कुछ जगह खाली छोड़ना। (२) मैदान जना = शौचादि के लिये जाना। (विशेषतः वस्ती के बाहर)। २. वह लंबी चौड़ी भूमि जिसमें कोई खेल खेला जाय अथवा इसी प्रकार का और कोई प्रतियोगिता या प्रतिद्वंद्विता का काम हो। उ०—(क) चहुँ दिसि आव अलोपत भानू। अव यह गोय यही मैदानू।—जायसी (शब्द०)। (ख) श्री मनमोहन खेलत चौगान। द्वारावती कोट कंचन में रच्यौ रुचिर मैदान।—सूर (शब्द०)। मुहा०—मैदान में आना = मुकाबले पर आना। प्रायोगिता या प्रातिद्वंद्विता के लिये सामने आना। उ०—अग्ग आउ मैदान ज्वान मरदुन मुप जोरहि।—पृ० रा०, ६४।१४०। मैदान में उतरना = कुश्ती के लिये अखाड़े में आना। कार्यक्षेत्र में आना। मैदान साफ होना = मार्ग में कोई बाधा आदि न होना। मैदान मारना = प्रातियोगिता में जीतना। खेल, बाजी आदि में जीतना। ३. वह स्थान जहाँ लड़ाई हो। युद्धक्षेत्र। रणक्षेञ। मुहा०—मैदान करना = लड़ना। युद्ध करना। उ०—जेहि पर पढ़ि करि मैं मैदाना। जीतहुँ सकल बीर बलवान।—विश्राम (शब्द०)। मैदान छोड़ना = लड़ाई के स्थान से हट जाना। मैदान बदना = लड़ने या बलपरीक्षा के लिये दिन, स्थान नियत करना। मैदान मारना = विजय प्राप्त करना। मैदान हाथ रखना = लड़ाई में विजयी होना। जीतना। मैदान होना = युद्ध होना। ४. किसी पदार्थ विस्तार। ५. रत्न आदि का विस्तार। जवाहिर की लंबाई चौड़ाई। (जौहरी)।
⋙ मैदानबाजी
संज्ञा स्त्री० [फा़० मैदान + बाजी] लड़ाई। युद्ध। उ०— हम दोनों की जिंदगी के आखिरी साल मैदानबाजी में गुजरे और आज उसका यह अंजाम हुआ।—काया०, पृ० ३३४।
⋙ मैदानी
वि० [फा़०] १. मैदान से संबंधित। मैदान का। उ०— ज्यों मैदानी रूख अकेला डोलिए रे।—कबीर श०, पृ० १२६। २. समतल।
⋙ मैदानेजंग
संज्ञा पुं [फा़० मैदान + ए + जंग] लड़ाई का मैदान। युद्धक्षेत्र। रणभूमि। उ०—जानिब औरत को मैदानेजंग छोड़।—कुकुर०, पृ० ४।
⋙ मैदा लकड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० मेदा + हिं० लकड़ी] एक प्रकार की जड़ी जो औषध के काम में आती हैं। विशेष—यह सफेद रंग की और बहुत मुलायम होती है। वैद्यक में इसे मधुर, शीतल, भारी, धातुवर्धक, और पित्त, दाह, ज्वर तथा खाँसी आदि को दूर करनेवाली माना है।
⋙ मैन (१)
संज्ञा पुं [सं० मदन, प्रा० मयण, मइण] १. कामदेव। मदन। उ०—(क) जा संग जागे हौ निसा जासे लागे नैन। जा पग गहि मति मैन भै मैन बिबस सो मैन।—रामसहाय (शब्द०)। (ख) मैन फिरंगी की मनौं छूटन लागी तोप।—ब्रजनिधि ग्रं०, पृ० १९। २. मोम। उ०—(क) मैन के दशन कुलिस के मोदक कहत सुनत बौराई।—तुलसी (शब्द०) (ख) मैन बलित नव बसन सुदेश। भिदत नहीं जल ज्यौ उपदेश।—केशव(शब्द०)। (ग) श्याम रँग रँगे रँगीले नैन। धोए छुटत नहीं यह कैसेहु मिलै पिघिल ह्वै मैन।—सूर (शब्द०)। ३. राल में मिलाया हुआ मोम जिससे पीतल या ताँबे की मूर्ति बनानेवाले पहले उसका नमूना बनाते हैं और तब उस नमूने पर से उसका साँचा तैयार करते हैं।
⋙ मैन (२)
संज्ञा पुं० [अँ०] मनुष्य। पुरुष। जैसे, पुलिस मैन। मशीन मैन।
⋙ मैन आफ वार
संज्ञा पुं० [अँ०] लड़ाऊ जहाज। युद्धपोत। लड़ाकू जहाज।
⋙ मैनका
संज्ञा स्त्री० [सं० मेनका] दे० 'मेनका'। उ०—मैन कामिनी के मैनका हू के न रूप रीझे, मैं न काहू के सिखाएँ आनों मन मान री।—मति० ग्रं०, पृ० २९३।
⋙ मैनकामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मदन, प्रा० मयणनी हिं० मैन + कामिनी] कामदेव की स्त्री। रति। उ०—मैन कामिनी के मैनकाहू के न रूप रीझे, मैं न काहू के सिखाए आनों मन मान री।—मतिराम (शब्द०)।
⋙ मैनडेट
संज्ञा पुं० [अँ०] आदेश। हुक्म। जैसे,—कांग्रेस से ऐसा करने का मैनडेट मिला है।
⋙ मैनडेटरी
वि० [अँ०] जिसमें आदेश हो। आदेशात्मक। जैसे— कांग्रेस का वह प्रस्ताव मैनडेटरी है।
⋙ मैनफर †
संज्ञा पुं० [सं० मदनफल] दे० 'मैनफल'।
⋙ मैनफल
संज्ञा पुं [सं० मदनफल, प्रा० मयणफल] मझोले आकार का एक प्रकार का झाड़दार और कँटीला वृक्ष। विशेष—इस वृक्ष की छाल खाकी रँग की, लकड़ी सफेद अथवा हलके रंग की, पत्तो एक से दो इंच तक लंबे और अंड़ाकार तथा देखने में चिड़चिड़े के पत्तों के समान, फूल पीलापन लिए सफेद रंग के पाँच पंखड़ियोंवाले और दो या तीन एक साथ होते हैं। इसमें अखरोट की तरह के एक प्रकार के फल लगते हैं जो पकने पर कुछ पीलापन लिए सफेद रंग के होते हैं। इसकी छाल और फल का व्यवहार औषधि के रूप में होता है। २. इस वृक्ष का फल जिसमें दो दल होते हैं और जिसके बीज विहीदाने के समान चिपटे होते हैं। विशेष—इस फल का गूदा पीलापन लिए लाला रंग का और स्वाद कड़ुवा होता है। इस फल को प्रायः मछुवे लोग पीसकर पानी में ड़ाल देते हैं, जिससे सब मछलियाँ एकत्र होकर एक ही जगह पर आ जाति हैं और तब वे उन्हें सहज में पकड़ लेते हैं। यदि ये फल वर्पा ऋतु में अन्न की राशि में रख दिए जाँय, तो उसमें कीड़े नहीं लगते। वमन कराने के लिए मैनफल बहुत अच्छा समझा जाता है। वैद्यक में इसे मधुर, कड़ुवा, हलका, गरम, वमनकारक, रूखा, भेदक, चरपरा, तथा विद्रधि, जुकाम, घाव, कफ, आनाह, सूजन, त्वचारोग, विषविकार, ववासीर और ज्वर का नाशक माना है।
⋙ मैनमय पु
वि० [सं० मदन, हिं० मैन + मय] कामातुर। कामेच्छा से युत्क। उ०—नैन सुख दैन, मन मैनमय लेखियो।—केशव (शब्द०)।
⋙ मैनर †
संज्ञा पुं० [हिं० मैनफर] दे० 'मैनफल'।
⋙ मैनशिल
संज्ञा पुं० [सं० मनःशिला] दे० 'मैनसिल'।
⋙ मैनसिल
संज्ञा पुं० [सं० मनःशिला] एक प्रकार की धातु जो मिट्टी की तरह पीली होती है और जो नेपाल के पहाड़ों में बहुतायत से होती है। विशेष—वाद्यक में इसे शोधकर अनेक प्रकार के रोगों पर काम में लाते हैं और इसे गुरु, वर्णकर, सारक, उप्णवीर्य, कटु, तिक्त, स्निग्ध और विप, श्वास, कुष्ठ, ज्वर, पांड़ु, कक तथा रक्तदोष- नाशक मानते हैं। पर्या०—मोनोज्ञा। नागजिह्वा। नैपाली। शिला। कल्याणिका। रोगाशिला। गोला। दिव्यौषधी। कुनटी। मनोगुप्ता।
⋙ मैंनस्क्रिप्ट
संज्ञा पुं० [अँ०] वह पुस्तक या कागज जो हाथ या कलम से लिखा हुआ हो, छपा हुआ न हो। हस्तलिखित प्रति। पांड़ुलिपि। मूल हस्तलेख। हस्तलेख।
⋙ मैना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मदना, प्रा० मयणा] काले रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी जिसकी चोंच पीली या नारंगी की होतीः है और जो सिखाने से मनुष्य की सी बोली बोलने लगती है। यह इसी बोली के लिये प्रसिद्ध है। मदनशलाका। सारिका। सारि।
⋙ मैना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मेनका] पार्वती जी की माता, मेनका।
⋙ मैना (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक जाति जो राजपूताने में पाई जाती है और 'मीना' कहलाती है। उ०—(क) कुच उतंग गिरिवर गह्यौ मैना मैन मवास।—बिहारी (शब्द०)। (ख) सुकवि गुलाब कहै अधिक उपाधिकारी मैना मारि मारि करे अखिल अभूत काज।—गुलाब (शब्द०)।
⋙ मैनाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक पर्वत का नाम जो हिमालय का पुत्र माना जाता है। कहते हैं, इंद्र से डरकर यह पर्वत समुद्र में जा छिपा था; इस कारण यह अब तक सपक्ष है। लंका जाते समय समुद्र की आज्ञा से इसने हनुमान जी को आश्रय देना चाहा था। उ०—सिंधु बचन सुनि कान तुरत उठयो मैनाक तब।—तुलसी (शब्द०)। पर्या०—हिरण्यनाभ। सुनाभ। हिमवत् सुत। २. हिमालय की एक ऊँची चोटी का नाम। ३. एक दानव।
⋙ मैनाकस्वसा
संज्ञा स्त्री० [सं० मैनाकस्वसृ] पार्वती [को०]।
⋙ मैनाल
संज्ञा पुं० [सं०] मछुवा [को०]।
⋙ मैनावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत जिसका प्रत्येक चरण चार तगण का होता है।
⋙ मैनिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मैनाल' [को०]।
⋙ मैनिफेस्टो
संज्ञा पुं० [अँ०] किसी व्यक्ति, संस्था या सरकार का किसी सार्वजनिक विषय, नीति अथवा कार्य पर अभिमत वक्तव्य या घोषणा। वक्तव्य। जैसे,—देश के कितने प्रमुख नेताओंने एक मैनिफेस्टो निकाला है; जिसमें सरकरा की वर्तमान दमन नीति की निंदा की गई है, और लोगों से कहा गया हैं कि वे इसके विरुद्ध जोरों का अंदोलन करें।
⋙ मैनेजर
संज्ञा पुं० [अं०] प्रबंधक। व्यवस्थापक। उ०—मैनेजर और बड़े साहव को सलूट देते हैं।— फूलो०, पृ० २४।
⋙ मैमंत पु †
वि० [सं० मदमत्त] १. मदोन्मत्त। मतवाला। उ०— कुभं लसत दोउ गज मैमंत।—(शब्द०)। २. अहंकारी। अभीमानी। उ०—(क) वारि बैस गई प्रीति न जानी। तरुन भई मैमंत भुलानी।—जायसी (शब्द०)। (ख) अरी ग्वारि मैमंत बचन बोलत जो अनेरो।—सूर (शब्द०)।
⋙ मैमत (१)
वि० [सं० मदमत्त] दे० 'मैमंत'।
⋙ मैमत पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ममत्व] ममता।
⋙ मैया
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृका, प्रा० मातृआ, माइआ] माता। माँ। उ०—कहन लागे मोहन मैया मैया।—सूर (शब्द०)।
⋙ मैयार † (१)
संज्ञा पुं [हिं० मटियार] एक प्रकार की मटियार जमीन जो बहुत खराब होती है।
⋙ मैयार (२)
संज्ञा पुं० [अ०] पाट्यक्रम। कोर्स।
⋙ मैर † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] सोनारों की एक जाति।
⋙ मैर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मृदर, प्रा० मिअर(= क्षणिक)] साँप के विष की लहर। उ०—तोहिं बजे बिष जाइ चढ़ि आइ जात मन मैर। बंसी तेरे बैर को घर घर सुनियत घैर।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) खेलि कै फागु भली बिधि सों तन सों दृग देखिए मैर मढी़ सो।—(शब्द०)।
⋙ मैरा
संज्ञा पुं [सं० मयर, प्रा० मयड़] खेतों में वह छाया हुआ मचान जिसपर बैठकर किसान लोग अपने खेतों की रक्षा करते हैं।
⋙ मैरीन (१)
संज्ञा पुं [अँ०] १. वह सैनिक जो लडा़ऊ जहाज पर काम करता हो। २. किसी देश या राष्ट्र की समस्त नौसेना। नौ- सेना। जलसेना। जैस, रायल मैरीन। ३. किसी देश के समस्त जहाज।
⋙ मैरीन (२)
वि० समुद्र संबंधी। जल संबंधी। नौसेना संबंधी। जैसे, मैरीन कोर्ट।
⋙ मैरेय
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मदिरा। शराब। २. गुड और धौ के फूल की बनी हुई एक प्रकार की प्राचीन काल की मदिरा। ३. एक में मिला हुआ आसव और मद्य जिसमें ऊपर से शहद भी मिला दिया गया हो।
⋙ मैलंद
संज्ञा पुं० [सं० मैलिन्द, प्रा० मैलंद] भ्रमर। भौरा।
⋙ मैल † (१)
वि० [सं० मलिन, प्रा० मइल] मलिन। मैला। विशेष दे० 'मैला'।
⋙ मैल (२)
संज्ञा पुं० १. गर्द, धूल, किट्ट आदि जिसके पड़ने या जमने से किसी वस्तु की शोभा या चमक नष्ट हो जाती है। मलिन करलेवाली वस्तु। मल। गंदगी। जैसे,—(क) घड़ी के पुरजों में बहुत मैल जम गई हैं। (ख) आँख या कान आदि में मैल न जमने देनी चाहिए। यौ०—मैलखोरा। मुहा०—हाथ की मैल = तुच्छ वस्तु, जिसे जब चाहे तब प्राप्त कर लें। जैसे,—रुपया पैसा हाथ की मैल है। २. दोष। विकार। जैसे—मन मैल मिटे, तन तेज बढे,करे भंग अंग को मोटा। (गीता)। मुहा०—मन में मैल रखना = मन में किसी प्रकार का दुर्भाव या वैमनस्य आदि रखना।
⋙ मैल (३)
संज्ञा पुं० [देश०] फीलवानों का एक संकेत जिसका व्यवहार हाथी को चलाने में होता है।
⋙ मैलखोरा (१)
वि० [हिं० मैल + फा़० खोर (= खानेवाला)] (रंग आदि) जिसपर जमी हुई मैल जल्दी दिखाई न दे। मैल को छिपा लेनेवाला (रंग)। जैसे—काला या खाकी रंग मैलखोरा होता है।
⋙ मैलखोरा (२)
संज्ञा पुं० १. वह वस्त्र जो शरीर की मैल से शेप कपड़ों की रक्षा करने के लिये अंदर पहना जाया। जैसे गंजी, कमीज आदि। २. काठी या जीन के नीचे रखा जानेवाला नमदा। ३. साबुन।
⋙ मैला (१)
वि० [सं० मलिन, प्रा० मइल] १. जिसपर मैल जमी हो। जिसपर गर्द, धूल या कीट आदि हो। जिसकी चमक दमक मारी गई हो। मलिन। अस्वच्छ। साफ का उलटा यौ०—मैला कुचैला। २. विकारयुक्त। सदोष। दूषित। ३. गंदा। दुर्गधयुक्त।
⋙ मैला (२)
संज्ञा पुं [सं० मल] गलीज। गू। विष्टा। २. कूड़ाकर्कट। ३. दे० 'मैल'।
⋙ मैलाकुचैला
वि० [हिं० मैला + सं० कुचैल(= गंदा वस्त्र)] १. जो बहुत मैले कपड़े पहने हुए हो। २. बहुत मैला। गंदा।
⋙ मैलापन
संज्ञा पुं [हिं० मैला + पन (प्रत्य०)] मैला होने का भाव। मलिनता। गंदापन।
⋙ मैलेयक
संज्ञा पुं [सं०] एक प्रकार का हीन वा साधारण रत्न [को०]।
⋙ मैवार †
वि० [देश० मै + वार] मद वा अहंकार से युक्त। घमंड़ी। उ०—देवा आहव आँगमे, माहव का मैवार।—रा० रू०, पृ० १३७।
⋙ मैवास
संज्ञा पुं [हिं० मवासा] दे० 'मवासा'। उ०—गए पर्बत बंक मैवास भारं।—ह० रासो, पृ० ६८।
⋙ मैशिनरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. किसी यंत्र या कल के पुर्जे। २. यंत्र। कल। मशीन।
⋙ मैहमाँ
संज्ञा स्त्री० [सं० महिमनू] दे० 'महिमा'। उ०—साह कसौटी के नाह मेरे जाँन तही की मैहमाँ ओ मन मे रहे जावै।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३५६।
⋙ मैहर † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मही (= मट्ठा)] वह तलछट जो घी वामक्खन को गरम करने पर नीचे बैठ जाती है। घी वा मकखन तपाने से निकला हुआ मट्ठा।
⋙ मैहर (२)
संज्ञा पुं [सं० मातृगुह] दे० 'नैहर'।
⋙ मैहर (३)
संज्ञा स्त्री० विवाह के अवसर पर किया जानेवाला मातृका- पूजन आदि कृत्य।
⋙ मैहर (४)
संज्ञा पुं० मध्यप्रदेश में रीवाँ राज्यांतर्गत एक प्रसिद्ध स्थान। विशेष—यहाँ भगवती दुर्गा की एक अतिप्राचीन और प्रसिद्ध मूर्ति है। लोग दूर दूर से उसका दर्शन करने आते हैं। चंदेलों की यह कुलदेवी भी कही गई हैं। राजा परमाल के प्रमुख सामंत वीर आल्हा और उदल इनके उपासक थे। आज भी यह कहा जाता है कि अमर आल्हा भगवती का रात्रि को पूजन करता है।
⋙ मैहल पु, मैहैल †
संज्ञा पुं [अ० महल] महल। आवास। उ०— (क) रिपी मन्न मैहल्ल भोजन्न कज्जी।—पृ० रा०, २।२४३। (ख) रंग मैहैल संकेत सुगल करि, टहलन करों सहेली।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३८६।
⋙ मोँ (१)
अव्य० [सं० स्मिनू] दे० 'में'। उ०—तनपोपक नारि नरा सिगरे। परनिंदक ते जग मों बगरे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मोँ (२)
सर्व० [सं० मह्मम्] खड़ी बोली के 'मुझ' के समान ब्रज और अवधी में 'मैं' का वह रूप जो असे कर्ताकारक के अतिरिक्त और किसी कारक का चिह्न लगने के पहले प्राप्त होता है। जैसे, मयु मोंको, मोंपै, इत्यादि। उ०—(क) साहिव की आग्या है मोंऊँ।—रामानंद०, पृ० २९। (ख) काँपी भौंह पुहुप पर देखे। जनु ससि गहन तैस मोंहि लेखे।—जायसी ग्रं०, पृ० १४३।
⋙ मोँगरा
संज्ञा पुं [सं० मुदगर] [स्त्री० मोंगरी] काठ का बना हुआ एक प्रकार का हथौड़ा जिससे मेख इत्यादि ठोंकि जाती है।
⋙ मोँगरा (२)
संज्ञा पुं० १. दे० 'मोगरा'। २. दे० 'मुँगरा'।
⋙ मोँगला
संज्ञा पुं० [देश०] मध्यम श्रेणी का और साधारणतः बाजार में मिलनेवाला केसर। वि० दे० 'केसर'।
⋙ मोँच ‡
संज्ञा पुं० [हिं० मोछ] दे० 'मूँछ'। उ०—देखिए इश्को मोंच का रेख आ रहा है।—मैला० पृ० १३०।
⋙ मोँछ
संज्ञा स्त्री० [सं० श्मश्रु] दे० 'मूँछ'। उ०—इसके सहारे स्वदेश तक श्रीमान् मोंछों पर ताव देते चले जा सकेते हैं।—बालमुकुंद गुप्त (शब्द०)।
⋙ मोँडीकाटा ‡
वि० [हिं० मूड़ी़ + काटना] स्त्रियों द्वारा पुरुषों के लिये प्रयुक्त एक गाली। उ०—मुए तलपट की सब सुनकर भलाई, मोंडीकाटे को मैं लिखने बुलाई।—दक्खिनी, पृ० २५१।
⋙ मोँढा
संज्ञा पुं [सं० मूर्द्वा, मूड़्ढा (= आधार)] १. बाँस, सरकंडे या बेंत का बना हुआ एक प्रकार का ऊँचा गोलाकार आसन जो प्रायः तिरपाई से मिलता जुलता होता है। २. बाहु के जोड़ के पास का बना हुआ घेरा। कंधा। यो०—सीना मोंढा़ = छाती और कंधा।
⋙ मो पु
सर्व [सं० मम] १. मेरा। उ०—मो संपाति यदुपति सदा बिपति बिदारनहार।—बिहारी (शब्द०)। २. अवधी और ब्रजभाषा में 'मैं' का वह रूप जो उसे कर्ताकारक के अतिरिक्त और किसी कारक का चिह्न लगने के पहले प्राप्त होता है। जैसे, मोकों, मोंसों, इत्यादि।
⋙ मोअज्जिज
वि० [अ० मुअज्जिज़] प्रतिष्ठित। इज्जतदार। उ०— मोअज्जिज हुए खाक खाकी हुए।—कबीर मं०, पृ० १३०।
⋙ मोई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोना] घी में सना हुआ आटा जो छींट की छपाई के लिये काला रंग बनाने में कसीस और धौ के फूलों के काढे़ में डाला जाता है।
⋙ मोई (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की जड़ी जो मारवाड़ देश में होती है। कहीं कहीं इसे 'ग्वालिया' भी कहते हैं।
⋙ मोक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] केंचुल [को०]।
⋙ मोक † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मोक्ष, प्रा० मोक्ख] मुक्ति। छूटना। उ०— ताकहँ कहा मोक हम जाना। जो शरीर के रूप भुलाना।—इंद्रा०, पृ० १५६।
⋙ मोकदमा ‡
संज्ञा पुं० [अ० मुक़दमह्] दे० 'मुकदमा'।
⋙ मोकना †
क्रि० स० [सं० मुक्त, हिं० मुकना] १. छोड़ना। परित्याग करना। उ०—कंपित स्वास त्रास अति मोकति ज्यों मृग केहरि कोर।—सूर (शब्द०)। २. क्षिप्त करना। फेंकना। उ०— ठाढ़यौ तहाँ एक बालै बिलोक्यौ। रोक्यो नहीं जोर नाराच मोक्यौ।—केशव (शब्द०)।
⋙ मोकल
वि० [सं० मुक्त, हिं० मुकना] छूटा हुआ। जो बँधा न हो। आजाद। स्वच्छंद। उ०—(क) जोबन जरब महा रूप के गरब गति मदन के मद मदमोकल मतंग की।—मतिराम (शब्द०)। (ख) गोकुल में मोकल फिरै गली गली गज प्रेम। ऊधो ह्याँ ते जाउ लै तुम अपनो सब नेम।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मोकलना पु †
क्रि० स० [सं० मुक्त, हिं० मुकना] छोड़ना। भेजना। उ०—चिहुँ दिसि मौता मोकल्या, षंड षंड रा आविया राई। बी० रासो, पृ० १०।
⋙ मोकला † (१)
वि० [सं० मुक्त, हिं० मोकल] १. अधिक चौड़ा। कुशादा। २. खुला हुआ। छुटा हुआ। स्वच्छंद। उ०—कबिरा सोई सूरमा जिन पाँचो राखे चूर। जिनके पाँचो मोकले तिनसूँ साहेब दूर।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मोकला † (२)
संज्ञा पुं० अधिकता। बहुतायत। ज्यादमी। जैसे,—वहाँ तो पशुओं के लिये चारे पानी का बड़ा मोकला है।
⋙ मोका (१)
संज्ञा पुं० [देश०] मदरास, मध्य भारत और कुमायूँ के जंगलों में होनेवाला एक प्रकार का वृक्ष। गेठा। विशेष—इस वृक्ष के पत्ते प्रतिवर्ष झड़ जाते हैं। इसकी लकड़ी कड़ी और सफेदी लिए भूरे रंग की होती है और आरायशी सामान बनाने के काम आती है। खरादने पर इसकी लकड़ी बहुत चिकनी निकलती है और इसके ऊपर रंग और रोगन आधिक खिलता है। इसकी लकड़ी न तो फटती है, न टेढी़ होती है। यह वृक्ष वर्षा ऋतु में बीजों से उगता है। इसे गेठा भी कहते हैं।
⋙ मोका † (२)
संज्ञा पुं० १. दे० 'मोखा'। २. दे० 'मौका'।
⋙ मोकाम †
संज्ञा पुं० [फा़० मुका़म] दे० 'मुकाम'। उ०—दरगाह में पीर मोकाम सदा, एक संग रहो छोड़ो दिल दोई।—कबीर० रे०, पृ० ४१।
⋙ मोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी प्रकार के बंधन से छूट जाना। मोचन। छुटकारा। २. शास्त्रों और पुराणों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बंधन से छूट जाना। आवागमन से रहित हो जाना। मुक्ति। नजात। विशेष—हमारे यहाँ दर्शनों में कहा गया है कि जीव अज्ञान के कारण ही बार बार जन्म लेता और मरता है। इस जन्ममरण के बंधन से छूट जाने का ही नाम मोक्ष है। जब मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है, तब फिर उसे इस संसार में आकार जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। शास्त्रकारों ने जीवन के चार उद्देश्य बतलाए हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें से मोक्ष परम अभीष्ट अथवा परम पुरूषार्थ कहा गया है। मोक्ष की प्राप्ति का उपाय आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का साक्षात् करना बतलाया गया है। न्यायदर्शन के अनुसार दुःख का आत्यंतिक नाश ही मुक्ति या मोक्ष है। सांख्य के मत से तीनों प्रकार के तापों का समूल नाश ही मुक्ति या मोक्ष है। वेदांत में पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा मायासंबंध से रहित होकर अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना मोक्ष है। तात्पर्य यह है कि सब प्रकार के सुख दुःख और मोह आदि का छूट जाना ही मोक्ष है। मोक्ष की कल्पना स्वर्ग नरक आदि की कल्पना से पीछे की और उसकी अपेक्षा विशेष संस्कृत तथा परिमार्जित है। स्वर्ग की कल्पना में यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने किए हुए पुण्य वा शुभ कर्म का फल भोगने के उपरांत फिर इस संसार में आकार जन्म ले; इससे उसे फिर अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ेंगे। पर मोक्ष की कल्पना में यह बात नहीं है। मोक्ष मिल जाने पर जीव सदा के लिये सब प्रकार के बंधनों और कष्टों आदि से छूट जाता है। ३. मृत्यु। मौत। ४. पतन। गिरना। ५. पाँडर का वृक्ष। ६. छोड़ना। फेकना। जैसे, बाणमोक्ष (को०)। ७. ढीला या बंधनमुक्त करना। जैसे, बेणीमोक्ष, नीवीमोक्ष (को०)। ८. नीचे गिराना या बहाना। जैसे, बाष्पमोक्ष, अश्रुमोक्ष (को०)।
⋙ मोक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोखा नामक वृक्ष। २. मोक्ष करने या देनेवाला। वह जो मोक्ष करता हो।
⋙ मोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० मोक्षणीय मोक्षित, मोक्ष्य] १. मोक्ष देने की क्रिया। २. छोड़ना। मुक्त करना। ३. क्षेपण (को०)। ४. गिराना (को०)।
⋙ मोक्षद
संज्ञा पुं० [सं०] मोक्ष देनेवाला। मोक्षदाता।
⋙ मोक्षदा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अगहन सुदी एकादशी तिथि।
⋙ मोक्षदा (२)
वि० स्त्री० मोक्ष देनेवाली।
⋙ मोक्षदात्री
वि० स्त्री० [सं०] मोक्ष देनेवाली।
⋙ मोक्षदायिनी
वि० स्त्री० [सं०] दे० 'मोक्षदात्री' [को०]।
⋙ मोक्षदेव
संज्ञा पुं० [सं०] चीनी यात्री ह्वेनसांग का भारतीय नाम [को०]।
⋙ मोक्षद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. काशी तीर्थ।
⋙ मोक्षधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत शांतिपर्व का एक अंश [को०]।
⋙ मोक्षपति
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के मुख्य साठ भेदों में से एक। इसमें १६ गुरु, ३२ लघु, और ६४ द्रुत मात्राएँ होती हैं।
⋙ मोक्षपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कांची पुरी का एक नाम [को०]।
⋙ मोक्षविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदांत शास्त्र।
⋙ मोक्षशास्त्र
संज्ञा स्त्री० [सं०] आध्यात्मविद्या।
⋙ मोक्षशिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन मतानुसार वह लोक जहाँ जैन धर्मविलंबी साधु पुरूष मोक्ष का सुख भोगते हैं। स्वर्ग। उ०— ज्यौं घटनाश भए घट ब्योम सुलीन भयौ पुनि है नभ माँही। त्यौं मुनि मुक्ति जहाँ बपु छाड़त सुंदर मोक्षाशला कहुँ काँही।— सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६३२।
⋙ मोक्षसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] जिससे मोक्ष प्राप्त ही। मोक्ष का उपाय वा साधन [को०]।
⋙ मोक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मोक्षदा'।
⋙ माक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं० मोक्षिन्] १. मोक्ष पाने का इच्छुक। २. मुक्त [को०]।
⋙ मोक्ष्य
वि० [सं०] जो मोक्ष के योग्य हो। मोक्ष का आधिकारी।
⋙ मोख पु †
संज्ञा पुं० [सं० मोक्ष, प्रा० मोक्ख] १. दे० ' मोक्ष'। मुक्ति। उ०— (क) मोहू दीजै मोख ज्यै अनेक अधमन दियो।—बिहारी (शब्द)। २. छुटकारा। बंधनमुक्ति। उ०— रानी धर्म सार पुनि साजा। बंदि मोख जेहि पावहि राजा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मोखा (१)
संज्ञा पुं०० [सं० मुख] दीवार आदि मे वना हुआ छेद जिसके द्वारा धूआँ निकलता है और प्रकाश तथा वायु आती है। छोटी खिड़की। झरोखा। उ०— (क) मोखा और झरोखा लखि लखि द्दग दोउ बरसत।— व्यास (शब्द०)। (ख) जाली झरोखों मोखों से धूप की सुगंध आय रही हैं।— लल्लूलाल (शब्द०)।
⋙ मोखा (२)
संज्ञा पुं०० [सं० मु्ष्क] एक वृक्ष। दे० 'मुष्क'।
⋙ मोगरा
संज्ञा पुं०० [सं० मुदूगर] १. एक प्रकार का बहूत बढिया और बड़ा वेला का पुष्प। उ०— मंजुल मौलसिरी मोगरा मघु- मालती कै गजरा गुहि राखै।— (शब्द०)। २. दे० ' मोंगरा'।
⋙ मोगल
संज्ञा पुं० [तु० मुगल, फा़० मुगल] दे० ' मुगल'।
⋙ मोगली (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक जंगली वृक्ष जो गुजरात में अधिकता से पाया जाता है और जिसकी छाल चमड़ा सिझाने के काम में आती है।
⋙ मोगली (२)
वि० [फा़० मुगल] मुगल संबंधी। मुगलों का। उ०— काबुल गए पिया मोर आए बोलै मोगली बानी। आब कहतै मारे गइलैं, खटिया तर है पानी।
⋙ मोगी
संज्ञा स्त्री० [देश०] राजपूताने की एक जाति का नाम। उ०— सरदारों को चाहिए कि वे चोरें, ड़कैतों, थोरियों, बाबरियों, मोगियों और बागियों को आश्रय न दें।— राज० इति०, पृ० १०६५।
⋙ मोघ (१)
वि० [सं०] निष्फ्ल। व्यर्थ। चूकनेवाला। उ०— पै यह वैष्णव धनु कौ सायक। कबहुँ न मोध होने के लायक।— रधुराज (शब्द०)।
⋙ मोघ (२)
संज्ञा पुं० घेरा। बाड़ा। बाड़ा [को०]।
⋙ मोघकर्मा
वि० [सं० मोघकर्मनू] निरर्थक काम में लगा हुआ [को०]।
⋙ मोघपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंध्या स्त्री [को०]।
⋙ मोघा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाटल का फूल। २. विड़ग [को०]।
⋙ मोघिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह मोटी, मजबूत और अधिक चौड़ी नरिया जो खपरैली छाजन में बँड़ेरे पर मँगरा वाँधने में काम आती है।
⋙ मोघोली
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीर, परकोटा।
⋙ माघ्य
संज्ञा पुं० [सं०] विफलता। अकृतकार्यता। नाकामयाबी।
⋙ मोच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेमल का पेड़। २. केला। २. पाड़र का पेड़। ४. शोभांजन वृक्ष (को०)।
⋙ मोच (२)
स संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर के किसी अंग के जोड़ की नस का अपने स्थान से इधर उधर खिसक जाना। चोट या आघात आदि के कारण जोड़ पर की नस का अपने स्थान से हट जाना (इसमें वह स्थान सूज जाता है ऐर उसमें बहुत पीड़ा होती है) जैसे,— उनके पाँव में मोच आ गाई है।
⋙ मोचक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छुड़ानेवाला। २. सेमल का पेड़। ३. केला। ४. मुक्ति। मोक्ष (को०)। ५. विषय वासना से मुक्त सन्यासी। ६. एक प्रकार का अपानह (को०)।
⋙ मोचन
संज्ञा पुं०० [सं०] १. बंधन आदि से छुड़ा ना। छुटकारा देना। मुक्त करना। २. रिहा करना। बंधन आदि खोलना। छुड़ाना। ३. दूर करना। हटाना। जैसे, संकटमोचन, पाप- माचन, पिशाचमोचन। ४. रहित करना। लेलेना। जैसे, दस्त्रमोचन।
⋙ मोचना (१)
क्रि० स० [सं० मोचन] १. छोड़ना। २. गिराना। बहाना। उ०— (क) सोच मति करै मति मोच आसू बिभीषण, कहै रघुनाथ मातमष भोषि नीर चिह्न रघुनायक सीय पै ह्वै।— तुलसी (शब्द०)। ३. छुड़ाना। मुक्त करना। उ०— अब तिनके बंधन मोचहिंगे।— सूर (शब्द०)।
⋙ मोचना (२)
संज्ञा पुं०० [सं० मोवन] [स्त्री० मोवन] १. लोहारों का वह औजार जिससे वे लाहे के छाटे छाटे टुकड़ा उठते हैं। २. हजामों का वह औजरा जिससे वे वाल उखाड़ते हैं।
⋙ मोचनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंटकारी। भटकटैया [को०]।
⋙ मोचयिता
वि० [सं० मोचयितृ] मोचन करनेवाला। छुटकारा दिलानेवाला [को०]
⋙ मोचरस
संज्ञा पुं० [सं०] सेमल वृक्ष का गोंद। सेमर का गोंद।
⋙ मोचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केला। २. सेमल वृक्ष (को)। ३. नीली वा नील का पोधा (को०)। ४. सहिजन। शोभांजन (को०)।
⋙ मोचाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. केला। २. केले की पेड़ी के बीच का कोमल भाग। केले का गाभ। ३. चंदन (को०)। ४. कृष्ण जीरक। काला जीरा [को०]।
⋙ मोचिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो उपानह बनाता हो। मोची [को०]।
⋙ मोचिनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोची की स्त्री। उ०—मोचिनि बदन सँकोचिनि हीरा माँगन हो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४।
⋙ मोचिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पोई का पौधा।
⋙ मोची (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्चक या फा़० मोजा (= जूता) + ई (प्रत्य०) (= चमड़ा) छुड़ाना] चमड़े का काम बनानेवाला। वह जो जूते आदि बनाने का व्यवसाय करता हो।
⋙ मोची (२)
वि० [सं० मोचिन्] [वि० स्त्री० मोचिनी] १. छूड़ानेवाला। २. दूर करनेवाला।
⋙ मोची (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिलमोचिका शाक [को०]।
⋙ मोच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० मोक्ष] दे० 'मोक्ष'।
⋙ मोछ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मूछ'।
⋙ मोछ पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मोक्ष] दे० 'मोक्ष'। उ०—खहिं पेट भरि सोवहीं जानहिं अठात न मोछ।—भीखा० श०, पृ० ९४।
⋙ मोज पु
संज्ञा स्त्री० [अ० मौज] दे० 'मौज'। उ०—रोगग्रस्त होने से अंत समय मुख प्रसंगवश वा जैसे मोज आई, कह ड़ाली।—सुंदर० ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० १२५।
⋙ मोजड़ी †
संज्ञा स्त्री० [अप०, देशी] उपानह। जूती। पदात्राणिका। उ०—(क) खूटइ जीन न मोजड़ी कड़या नहीं केकाँण। साजनियाँ सालइ नहीं सालइ आही ठाँण।—ढोला०, टू० ३७५। (ख) छुट तिहि बेर मतंग पेल देखन कौँ धायौ, एक मोजरी मद्धि पनग फान आनि लुकायौ।—पृ० रा०, १।५०९।
⋙ मोजरा †
संज्ञा पुं० [अ० मुजरा] दे० 'मुजरा'। उ०—लेत मोजरा सबहिं को जहँ लौं जीव जहान।—धरनी० वानी, पृ० ५६।
⋙ मोजा
संज्ञा पुं० [फा़० मोज़ह्] १. पैरों में पहनने का एक प्रकार का वुना हुआ कपड़ा जिससे पैर के तलवे से लेकर पिंड़ली या घुटने तक ढक जाते हैं। पायताबा। जुरबि। २. पैर में पिंडली के नीचे का वह भाग जो गिट्टे के आस पास और उसके कुछ ऊपर होता है। ३. कुश्ती का एक पेंच। इसमें जब खिलाड़ी अपने विपक्षी की पीठ पर होता है, तब एक हाथ उसके पेट के नीचे से ले जाकर उसकी बगल में जमाता है और दूसरे हाथ से उसका मोजा या पिंडली के नीचे का भाग पकड़कर उसे उलट देता है।
⋙ मोजा (२)
संज्ञा पुं० [देशी०] उपानह। जूता। उ०—फिरि राय आय हेंबर चढयो पहरत मोज पग डस्यौ। भवितव्य बात आघात गति इतनी कहि राजन हस्यौ।—पृ० रा०, १।५०९।
⋙ मोट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं मोट (= गट्ठर) हिं० मोटरी] गठरी। मोटरी। उ०—(क) जोग मोट सिर बोझ आनि तुम कत धौं घोष उतारी।—सूर (शब्द०)। (ख) नट न सीस सवित भई लुटी सुखन की मोट। चुप करिए चारी करति सारी परी सरोट।—बिहारी (शब्द०)। (ग) नाम ओट लैत ही निखोट होत खोटे खल, चोट बिनु मोट पाय भयो न निहाल को।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ मोट (२)
संज्ञा पुं० चमड़े का बड़ा थैला जिसके द्वारा खेत सींचने के लिये कुएँ से पानी निकाला जाता है। चरसा। पुर। उ०— संगति छो़ड़ि करै असरारा। उबहे मोट नरक की धारा।— कबीर (शब्द०)।
⋙ मोट पु † (३)
वि० [हिं० मोटा] १. जो बारीक न हो। मोटा। २. कम मोल का। साधारण। उ०—भूमि सयन पट मोट पुराना। दिए डारि तन भूपन नाना।—तुलसी (शब्द०)। वि० दे० 'मोटा'। यौ०—मोट भर = गठरी भर। बहुत ज्यादा। उ०—ताकै कहा गँवार मोट भर बाँध सिताबी।—पलटू०, पृ० १४।
⋙ मोटक
संज्ञा पुं० [सं०] पितृतर्पण में व्यवहृत दुहरा। किया हुआ कुशद्बय जिसके मूल और अग्रभाग एक और रहते हैं। यह त्रिकुश से भिन्न होता है और पितृतर्पण में ही प्रयुक्त है।
⋙ मोटकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी का नाम।
⋙ मोटन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. मलना, रगड़ना। या पीसना।
⋙ मोटनक
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण दो और अंत में एक लघु गुरु कुल मिलाकर ११ अक्षर होते है। जैसे,—आए दशरत्थ बरात सजे। दिग्पाल गयंदन देखि लजे। चाप्यो दल दूलह चारु बने। मोहे सुर औरन कौन गने।—केशव (शब्द०)।
⋙ मोटर
संज्ञा पुं० [अँ०] १. एक विशेष प्रकार की कल या यंत्र जिससे किसी दूसरे यंत्र आदि का संचालन किया जाता है। चलानेवाला यंत्र। २. एक प्रकार की प्रसिद्घ छोटी गाड़ी जो इस प्रकार के यंत्र की सहायता से चलती है। मोटरकार। विशेष—इस गाड़ी में तेल आदि की सहायता से चलनेवाला एक इंजिन लगा रहाता है जिसका संबंध उसके पहियों से होता है। जब यह इंजिन चलाया जाता है तब उसकी सहायता से गाड़ी चलने लगती है। यह गाड़ी प्राय़ः सवारी और बोझ ढोने अथवा खींचने के काम में आती है। यौ०—मोटर कार = छोटी मोटर गाड़ी। मोटर। हवागाड़ी। उ०—एक मोटर कार द्वार पर आकार रुकी।—गबन, पृ० ११। मोटर गाड़ी = मोटरकार। मोटर ड्राइवर = मोटर गाड़ी चलानेवाला। मोटर बोट = मोटर इंजन से चलनेवाली नाव। मोटर साइकिल = मोटर यंत्र से चलनेवाली साइकिल।
⋙ मोटरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मोट (बौद्ध), तैलंग मूटा (= गठरी)] गठरी। उ०—(क) आश्रम वरन कलि बिबस, बिकल भए, निज निज मरजाद मोटरी सी डार दी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) अमृत केरी मोटरी सिर से धरी उतारि।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मोटा (१)
वि० [सं० मुष्ट (= मोटा ताजा आदमी) या हिं० मोट] [वि० स्त्री० मोटी] १. जिसके शरीर में आवश्यकता से आधिक मांस हो। जिसका शरीर चरबी आदि के कारण बहुत फूल गया हो। जिसका शरीर चरबी आदि के कारण बहुत फूल गया हो। दुबला का उलटा। स्थूल शरीरवाला। जेसे, मोटा आदमी, मोटा बंदर। पु †२. श्रेष्ठ। वरिष्ठ । उ०— अग्रज अनुज सहोदर जोरी, गौर श्याम गूंथै सिर चोटा। नंददास बलि बलि इहि सूरति लीला ललित सबहि बिधि मोटा।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४१। यो०—मोटा ताजा या मोटा झोटा = (१) स्थूल शरीरवाला। (२) जिसकी एक ओर की सतह दूसरी ओर की सतह से आधिक दूरी पर हो। पतला का उलटा। दबीज। दलदार। गाढा। जैसे, मोटा कागज, मोटा कपड़ा, मोटा तख्ता। ३. जिसका घेरा या मान आदि साधारण से आधिक हो। जैसे, मोटा डंड़ा, मोटा छड़, मोटी कलम। मुहा०—मोटा असामी = जिसके पास अधिक धन हो। अमीर। मोटा भाग = सौभाग्य। खुशकिस्मती। उ०—सहज सँतोषहि पाइए दादू मोटे भाग।—दादू (शब्द०)। (ख) सूरदास प्रभु मुदित जसोदा भाग बड़े करमन की मोटी।—सूर (शब्द०)। ४. जो खूब चूर्ण न हुआ हो। जिसके कण खूब महीन न हो गए हों। दरदरा। जैसे,—यह आटा मोटा है। ५. बढ़िया या सूक्ष्म का उलटा। निम्न कोटि का। घटिया। खराब। जैसे, मोटा आनाज, मोटा कपड़ा, मोटी अकल। उ०—भूमि सयन पट मोट पुराना।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तुम जानति राधा है छोटी। चतुराई अँग अंग भरी है, पूरण ज्ञान न बुद्धि की मोटी।—सूर (शब्द०)। मुहा०—मोटा झोटा = धटिया। खराब। मोटी बात = साधारण बात। मामूली बात। मोटे हिसाब से = अंदाज से। अटकल से। बिल्कुल ठीक ठीक नहीं। मोटे तौर पर = बहुत सूक्ष्म विचार के अनुसार नहीं। स्थूल रूप से। ६. जो देखने में भला न जान पड़े। भद्दा। बैडौल। उ०—हरि कर राजत माखन रोटी। मनु बारिज ससि बैर जानि कै गह्यौ सुधा ससुधौटी। मेली सजि मुख अंबुज भीतर उपजी उपमा मोटी। मनु बराह भूधर सह पुहुमी धरी दसन की कोटी।—सूर०, १०।१६४। मुहा०—मोटी चुनाई = बिना गढे़ हुए बेडौल पत्थरों की जोड़ाई। मोटी भूल = भद्दी या भारी भूल। ७. साधारण से अधिक। भारी या कठिन। जैसे, मोटी मार, मोटी हानि, मोटा खर्च। उ०—(क) बंदौ खल मल रूप जे काम भक्त अघ खानि। पर दुख सोइ सुख जिन्हें पर सुख मोटी हानि।—विश्राम (शब्द०)। (ख) दुर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय। बिना जीव की स्वाँस से लोह भसम ह्वै जाय।—कबीर (शब्द०)। (ग) नारि नर आरत पुकारत सुनै नकोऊ, काहू देवननि मिलि मोटी मूठ मार दो।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—मोटा दिखाई देना = आँख की ज्योति में कमी होना। कम दिखाई देना। केवल मोटी चीर्जे दिखाई देना। ८. घमंडी। अहंकारी। अभिमानी। उ०—मोटी दसकंध सो न दूवरो विभीपण सो बूझि परी रावरे की प्रेम पराधीनता।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मोटा (२)
संज्ञा पुं० मरवाँ जमीन। मार।
⋙ मोटा † (३)
संज्ञा पुं० [हिं० मोट] बोझ गट्ठड़।
⋙ मोटा (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बला। वरियारा नाम का क्षुप। विशेष दे० 'बरियारा' [को०]।
⋙ मोटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोटा + ई (प्रत्य०)] १. मोटे होने का भाव। स्थूलता पीवरता। २. शरारत। पाजीपन। बदमाशी। उ०—डगर डगर में चलहु कन्हाई समुझि न लागै बहुत मोटाई।—रघुनाथदास (शब्द०)। मुहा०—मोटाई उतरना = शेखी किरकिरी होना। दुरुस्त होना। पाजीपन छूटना। मोटाई चढ़ना = पाजी, बदमाश या घमंड़ी होना । मोटाई झाड़ना = (१) शरारात दूर होना। बदमाशी छूटना। (२) घमंड़ न रह जाना। ऐंठ निकल जाना।
⋙ मोटाना (१)
क्रि० अ० [हिं० मोटा + आना (प्रत्य०)] १. मोटा होना। स्थूलकाय हो जाना। २. अहंकारी हो जाना। अभि- मानी होना। ३. धनवान् हो जाना।
⋙ मोटाना (२)
क्रि० स० दूसरे को मोटा करना। दूसरे को मोटे होने में सहायता देना।
⋙ मोटापन
संज्ञा पुं० [हिं० मोटा + पन (प्रत्य०)] मोटाई। स्थूलता।
⋙ मोटापा
संज्ञा पुं० [हिं० मोटा + पा (प्रत्य०)] मोटे होने का भाव मोटापन। मोटाई।
⋙ मोटिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मोटा + इया (प्रत्य०)] मोटा और खुरखुरा देशी कपड़ा। गाढा़। गजी खद्दड़। सल्लम। जैस,—वे मोटिया पहिनना ही आधिक पसंद करते हैं।
⋙ मोटिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मोटा (= बोझ) + इया (प्रत्य०)] बोझ ढोनेवाला कुली। मजदूर। उ०—मोटियों को भाड़े के कपड़े पहनाकर तिलंगा बनाते हैं।—शिवप्रसाद (शब्द)।
⋙ मोट्टयित
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में एक हाव जिसमें नायिका अपने आंतरिक प्रेम को कटु भाषण आदि द्वारा छिपाने की चेष्टा करते पर भी छिपा नहीं सकती। विशेष—केशवदास ने लिखा है कि स्तंभ, रोमांच आदि सात्विक भावों को बुद्धिबल से रोकने को 'मोट्टायित' हाव कहते हैं।
⋙ मोठ
संज्ञा स्त्री० [सं० मकुष्ठ, प्रा० मडट्ट] मूँग की तरह का एक प्रकार का मोटा अन्न, जो वनमूँग भी कहा जाता है। मोटा। मुगानी। मोथी। बनमूँग। विशोष—यह प्रायः सारे भारत में होता है। इसकी बोआई ग्रीष्म ऋतु के अंत या वर्षा के आरंभ में और कटाई खरीफ की फसल के साथ जाड़े के आरंभ में होती है। यह बहुत ही साधारण कोटि की भूमि में भी बहुत अच्छी तरह होता है। और प्रायः बाजरे के साथ बोया जाता है। अधिक वर्षा से यह खराब हो जाता है। इसकी फलियों में जो दाने निकलते हैं, उनकी दाल बनती है। यह दाल साधारण दालों की भाँति खाई जाती है, और मंदाग्नि अथवा ज्वर में पथ्य की भाँति भी दी जाती है। वैद्यक में इसे गरम, कसैली, मधुर, शीतल, मलरोधक, पथ्य, रुचिकारी, हलकी, बादी, कृमिजनक, तथा रक्तपित्त, कफ, वाव, गुदकील, वायुगोले, ज्वर, दाह और क्षयरोग की नाशक माना है। इसकी जड़ मादक और विषैली होती है।
⋙ मोठस
वि० [सं०/?/मृष>मष्ट (= जाने देना)] मौन। चुप। उ०—मोठस कै रघुनाथ रहौ बिनु मोठस कीन्हें ते जीवे को भै है।—रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ मोड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुड़ना] १. रास्ते आदि घूम जाने का स्थान। एक ओर फिर जाने का स्थान। वह स्थान जहाँ से किसी ओर को मुड़ा जाय। उ०—आज बड़े लाट अमुक मोड़ पर बेष बदले एक गरीब काले आदमी से बातें कर रहे थे।— बालमुकुंद गुप्त (शब्द०)। २. घुमाव या मुड़ने की क्रिया। ३. घुमाव या मुड़ने का भाव। ४. कुछ दूर तक गई हुई वस्तु में वह स्थान जहाँ से वह कोना या घुमाव डालती हुई दूसरी ओर फिरी हो।
⋙ मोड़ पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मुकुट, प्रा० मउर, हिं० मोड़] मौर। उ०—पाई कंकण सिर बंधीयो मोड़। प्रथम पयाड़उँ दूरग चितोड़। रासो, पृ० १२।
⋙ मोड़तोड़
संज्ञा पुं० [हिं० मोड़ + अनु० तोड़] मागों में पड़नेवाला घुमाव फिराव। चक्कर।
⋙ मोड़ना
क्रि० स० [हिं० मुड़ना का प्रेर० रूप०] १. फेरना। लौटाना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। मुहा०—मुख मोड़ना, मुहँ मोड़ना = (१)किसी काम के करने में आनाकानी करना। आगा पीछा करना। रुकना। (२) विमुश होना। पराड़्मुख होना। उ०—खान पान असनान भोग तजि मुख नहिं मोड़त।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २३३। २. किसी फैली हुई सतह का कुछ अंश समेटकर एक तह के ऊपर दूसरी तह करना। जैसे,—(क) चादर का कोना मोड़ दो। (ख) कागज किनारे पर मोड़ दो। ३. किसी छड़ की सी सीधी वस्तु का कुछ अंश दूसरी ओर फेरना। ४. दिशा परिव- र्तन करना। दिशा बदलना। ५. धार भुयरी करना। कुंठित करना। जैसे, धार मोड़ना।
⋙ मोड़ना तोड़ना
क्रि० स० [हिं० मोड़ना + तोड़ना] नष्ट भ्रष्ट करना। काम लायक न रहने देना। नष्ट करना। मसलना। उ०—अब तो मोड़ तोड़ तुम ड़ारा, राम राम कहों झूठ पसारा।—घट०, पृ० २२७।
⋙ मोड़ा
संज्ञा पुं० [सं० मुण्ड़, मि० पं० मुंड़ा (= लड़का)] [स्त्री० मोड़ी़] लड़का। बालक।
⋙ मोड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुड़ना या देश०] १. घसीट वा शीघ्र लिखने की लिपि। २. दक्षिण भारत की एक लिपि जिसमें प्रायः मराठी भाषा लिखी जाती है। विशेष—इस लिपि की उत्पत्ति के विषय में कुछ लोगों का कहना हैं कि हेमाद्रि पंडित ने इसको लंका से लाकर महाराष्ट्र देश में प्रचलित किया। किंतु शिवाजी के पहले इसके प्रचार का कोई पता नहीं चलता। शिवाजी द्वारा राजकीय लिपि के रूप में स्वीकृत नागरी लिपि को त्वरा के साथ लिखने योग्य बनाने के विचार से शिबाजी के 'चिटनिस' (मंत्री, सरिश्तेदार) बालाजी अबाजी ने इसके अक्षरों को मोड़ (तोड़ मरोड़) कर एक नई लिपि तैयार की। जिसे 'मोड़ी' कहते हैं (दे० भा० प्रा० लि०, पृ० १३१-१३२)।
⋙ मोडो़ पु
क्रि० वि० [देश०। सं० मन्दमू ?] देर से। विलंब से। उ०—ढोला, मोड़ो आवियउ, गइ बालापण वेस।—ढोला०, दू० ४४३।
⋙ मोढा
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'मोंढा़'। मुँडेरा। बरामदा। छज्जा। बारजा। उ०—इसपर भी मोढे़ पर बैठनेवाली और गलियों में मारी मारी फिरनेवाली, हम कुलीन ब्राह्मणों के मुँह लगती है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३७७।
⋙ मोण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूखा फल। २. कुंभीर। मगर। ३. मक्खी। ४. बाँस या सींक का बना हुआ ढक्कनदार टोकरा। झाबा। पिटारा। मोना।
⋙ मोत †
संज्ञा स्त्री० [सं० मृत्यु] दे० 'मौत'। उ०—तेगा तीन माथा में सजोरी सी बताई। जैसो क्याम पांजी फतैपुर कै मोत पाई।— शिखर०, पृ० ७१।
⋙ मोतदिल
वि० [अ० मातदिल] १. जो न बहुत गरम और न बहुत सर्द हो। शीत और उष्णता आदि के विचार से मध्यम अवस्था का। विशेष—इस शब्द का व्य़वहार प्रायः ओषधि या जलवायु आदि के लिये होता है। २. मध्यम। दरमियानी (को०)। ३. जिसमें कोई बात अवश्यकता से कम वा आधिक न हो। संतुलित (को०)।
⋙ मोतबर
वि० [अ०] १. विश्वास करने योग्य। जिसपर विश्वास किया जा सके। ३. जिसपर विश्वास किया जाता हो। विश्वासपात्र।
⋙ मोतबिर
वि० [अ० मोतबर] दे० 'मोतबर'। उ०—उस वक्त उसका कोई मोतबिर आदमी उसके खयाल बमूजिब अपनी खास गर्ज बिना उसकी राय से मिलती हुई बात कहे तो उस बात का सुननेवाले के दिल में पूरा असर होता है।—श्रीनिवास ग्र०, पृ० ३१।
⋙ मोतबरी
संज्ञा स्त्री० [अ० मोतबर + ई (प्रत्य०)] विश्वासपात्रता। विश्वसनीयता।
⋙ मोतमद
वि० [अ० मोतमद] भरोसे का। विश्वासपात्र।
⋙ मोताद
संज्ञा पुं० [अ० मोताद] पूरी मात्रा। पूरी खुराक [को०]।
⋙ मोति
संज्ञा पुं० [सं० मोत्तिक] दे० 'मोती'। उ०—नैनन ढरहिं मोति और मुँगा।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २०४।
⋙ मोतियदाम
संज्ञा पुं० [सं० मौक्तिकदाम, प्रा० मोतियदाम] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार जगण होते हैं। जैसे,— भजौ रघुनाथ धरे धनु हाथ। विराजत कंठ सु मोतियदाम।
⋙ मोतिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मोती + इया (प्रत्य०)] १. एक प्रकार का बेला जिसकी कली मोती के समान गोल होती है। २. एक प्रकार का सलमा जिसके दाने गोल होते है और जो जरदोजी के काम में किनारे किनारे टाँका जाता है। ३. रुसा नाम की घास,जब तक वह थोड़ी अवस्था की और नीलापन लिए रहती है। ४. एक चिड़िया जिसका रंग मोती का सा होता है।
⋙ मोतिया (२)
वि० १. हलका गुलाबी, वा पीले और गुलाबी रंग के मेल का (रंग)। २. छोटे गोल दानों का वा छोटी गोल कड़ियों का। जैसे, मोतिया सिकड़ी। ३. मोती संबंधी।मोती का।
⋙ मोतियाबिंद
संज्ञा पुं० [हिं० मोतिया + सं० बिंन्दु] आँख का एक रोग जिसमें उसके एक परदे में गोल झिल्ली सी पड़ जाती है, जिसके कारण आँख से दिखाई नहीं पड़ता।
⋙ मोती (१)
संज्ञा पुं० [सं० मौतिक, प्रा० मौत्तिअ] १. एक प्रसिद्ध बहुमूल्य रत्न जो छिछले समुद्रों में अथवा रेतीले तटों के पास सीपी में से निकलता है। विशेष—समुद्र में अनेक प्रकार के ऐसे छोटे छोटे जीव होते है, जो अपने ऊपर एक प्रकार का आवरण बनाकर रहते हैं। इस आवरण को प्रायः सीप और उन जीवों को सीपी कहते हैं। कभी कभी ऐसा होता है कि बालु का कण या कोई बहुत छोटा जीव सीप में प्रवेश कर जाता है, जिसके कारण सीपी के शरीर में एक प्रकार का प्रदाह उत्पन्न होने लगता है। उस प्रदाह को शांत करने के लिये सीपी अनेक प्रयत्न करती है पर जब उसे सफलता नहीं होती, तब वह अपने शरीर में से एक प्रकार का सफेद, चिकना और लसीला पदार्थ निकालकर बालु के उस कण अथवा जीव को चारों ओर से ढकने लगती है, जो अंत में मोती का रुप धारण कर लेता है। तात्पर्य यह कि मोती की सृष्टि किसी स्वाभाविक प्रक्रिया के अनुसार नहीं होती, बल्कि अस्वाभिक रुप में होती है; और इसीलिये बहुत दिनों तक लोग यह समझते थे कि मोती की उत्पत्ति सीपी में किसी प्रकार का रोग होने से होती है। हमारे यहाँ प्राचीन काल में यह माना जाता था कि स्वाती की वर्षा के समय सीपी मुँह खोलकर समुद्र के ऊपर आ जाया करती है; और जब स्वाती की बुँद उसमें पड़ती है, तब मोती उत्पन्न होता है। साधारण मोती सुडौल और गोल होता है, पर कुछ मोती लंबोतरे; टेढ़े मेढ़े या बेडौल होते हैं। मोती का रंग मटमौला, धुमिल, काला या कुछ हरापन अथवा नीलापन लिए हुए होता है; पर साफ करने पर वह खुब सफेद हो जाता है औऱ उसमें एक विशेष प्रकार की 'आब' या चमक आ जाती है। मोतीजितना बड़ा सुडौल होता है उसका मूल्य भी उतना ही अधिक होता है। यों तो मोती संसार के अनेक भागों में पाए जाते हैं; पर लंका फारस की खाड़ी तथा आस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट के मोती बहुत अच्छे समझे जाते हैं। इसके अतिरिक्त पनामा के पीले मोती तथा कैलिफोर्निया की खाड़ी के काले और भुरे मोती भी बहुत अच्छे होते हैं। मोती प्रायः तौल के हिसाब से बिकते हैं, पर अन्यान्य रत्नों की भाँति मोती की दर भी उसके भार की वृद्धि के अनुसार बहुत बढ़ती जाती है। उदाहरणार्थ यदि एक चौ के मोती का दाम ५०) होगा, तो उसी प्रकार के दो चौ के मोती का दाम २००) और पाँच चौ के मोतीदाम १२५०) या इससे भी अधिक हो जाएगा। भारतवर्ष में मोती का व्यवहार बहुत प्राचीन काल से चला आता है। धनवान् लोग इसकी प्रायः मालाएँ बनवाते हैं, और इन्हें अगुँठियों तथा दुसरे आभूषण में जड़वाते है। इसका व्यवहार वैद्यक में औषध रुप में भी होता है; और प्रायः वैद्य लोग इसका भस्म तैयार करते हैं। वैद्यक में मोती को शीतवीर्य शुक्रवर्धक, आँखों के लिये हितकारी और शरीर को पृष्ट करनेवाला माना है। हमारे यहाँ प्राचीन ग्रंथों में यह भी कहा गया है कि सीपी और शंख आदि के अतिरिक्त हाथी, साँप, मछली, मेंढक, सुअर, बाँस और बादल तक में मोती होते है; और इनको प्राप्त करनेवाला बहुत सौभाग्यशाली कहा गया है। इन सब मोतियों के अलग अलग गुण भी बतलाए गए हैं; पर ऐसे मोती कभी किसी के देखने नें नहीं आते। मुहा०—मोती गरजना =मोती में बाल पड़ जाना। मोती चटकना या कड़क जाना। मोती ढलकाना =रोना (व्यंग्य)। मोती पिरोना =(१) बहुत ही सुंदर और प्रिय भाषण करना। (२) बहुत ही सुंदर और स्पष्ट अक्षर लिखना। (३) रोना (व्यंग्य)। (४) कोई बारीक काम करना। मोती बींधना =(१) मोती को पिरोए जाने के योग्य बनाने के लिये उसके बीच में छेद करना। (२) कुमारी का कौमार्य भंग करना। योनि का क्षत करना। (बाजारु)। मोती रोलना =बिना परिश्रम अथवा थोड़े परिश्रम से बहुत अधिक धन कमाना या प्राप्त करना। मोतियों के मोल पड़ना =बहुत महँगा पड़ना। उ०—किंतु यह फल बकरियों और खच्चरों पर लादकर रेल तक पहुँचाने में मोती के मोल पड़ेंगे, उन्हें कौन खरीदेगा।—किन्नर०, पृ० ११। मोतियों से माँग भरना =माँग में मोती पिरोना। मोतियों से मुँह भरना = प्रसन्न होकर किसी को बहुत अधिक धन संपत्ति देना। पर्या०—मौक्तिक। शौक्तिक। मुक्ता। मुक्ताफल। २. कसेरों का एक औजार जिससे वे नक्काशी करते समय मोती की सी आकृति बनाते हैं।
⋙ मोती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मौक्तिकी] बाली जिसमें बड़े बड़े मोती पड़े रहते हैं। उ०—छोटी छोटी मोती कान छोटे कठुला त्यों कंठ छोटे से बिजायठ कटक दुति मोटे हैं।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मोतीचूर
संज्ञा पुं० [हिं० मोती + चूर] १. मोती की तरह छोटी बुँदियों का लड्डु। यौ०—मौतीचूर आँख =गोल छोटी उभरी हुई चमकदार आँख। (जैसी कबुतर की होती है)। २. एक प्रकार का धान जिसकी फसल अगहन में तैयार होती है। ३. कुश्ती का एक पेंच जिसमें प्रतिद्धंद्धी के बाएँ पैर को अपने दाहिने पैर में फँसाकर और हाथ से उसका गला लपेटकर उसे चित कर देते हैं।
⋙ मोतीज्वर
संज्ञा पुं० [हिं० मोती + सं० ज्वर] चेचक निकलने के पहले आनेवाला ज्वर।
⋙ मोतीझरा †, मोतीझिरा
संज्ञा पुं० [हिं० मोती + झिरा (=ज्वर)] छोटी शितला का रोग। मोतिया माता निकलने का रोग। मंथर ज्वर। मोतिमाती।
⋙ मीतीफल
संज्ञा पुं० [सं० मुक्ताफल] दे० 'मुक्ताफल'। उ०—कोऊ मोतीफल कोऊ वास रस पय पान, कोऊ पौन पीवत भरत पेट भार कौं।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४२९।
⋙ मोतीबेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोतिया + बेल] बेले का वह भेद जिसे मोतिया कहते हैं। मोतिया बेला। उ०—मोतीबेल कैसे फूल मोतिन के भूपन सूचीर गुलचाँदनी सी चंपक की डारी सी।— देव (शब्द०)।
⋙ मोतीभात
संज्ञा पुं० [हिं० मोती + भात] एक विशेष प्रकार का भात। उ०—परस्यो ओदन विविध प्रकारा। मोतीभात सुनाम उचारा। केसरि भात नाम ससिभातू। कनकभात पुनि बिमल विभातु।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मोतीलाडू
संज्ञा पुं० [हिं० मोती + लड्डु] मोतीचूर का लड्डु। उ०—दुनी बहुत पकावन सागे। मोतीलाडु खेरौरा बाँधे।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मोतीसिरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोती + सं० श्री] मोतियों की कंठी। मोतियों की माला। उ०—तोरि मोतिसिरी गुप्त करि घरयौ कहुँ एहि मिस सकुचि रही मुख न बोलै।—सुर (शब्द०)।
⋙ मोतीहारि †
संज्ञा पुं० [सं० मुक्ताफल, प्रा० मुक्ताहल>मोताहल] दे० 'मुक्ताफल'। उ०—सउ सहसे एकोतरे सिरि मोतीहरि सुघ्घ। नदी निवासउ उत्तरइ आँणु एक अविंध। ढोला०, दु० ३३०।
⋙ मोत्याहल †
संज्ञा पुं० [सं० मुक्ताफल] मुक्ति रुपी फल। मुक्ति। उ०—अवधू अहुँठ परबत मंझार, बेलडी माड्यौ विस्तार। बेली फुल बेलो फल, बेली अछे मोत्याहल।—गोरख०, पृ० ११८।
⋙ मोथरा †
वि० [हिं० मुथरा] जिसकी धार तेज न हो। कुंठित। गोठिल। कुंद। उ०—भयौ अबहुँ नहि मोथरी मोर उदंड कुठार। उपज्यो अमरष दुन करौ सकुल संहार।—रघुराज़ (शब्द०)।
⋙ मोथा
संज्ञा पुं० [सं० मुस्तक, प्रा० मुस्थअ] १. नागरमोया नामक घास। मुस्ता। उ०—शूकर वृंद डहर में जाई। खोद निडर मोथा जर खाई।—शकुंतला, पृ० ३३। २. उपर्युक्त नागर- मोथा घास की जड़ जो ओषधि की भाँति प्रयुक्त होती है। उ०—मोथा नीव चिरायत बासा। पीतपापरा पित कहँ नासा।—इंद्रा०, पृ० १५१। विशेष—यह तृण जलाशयों में होता है। इसकी पत्तियों कुश की पत्तियों की तरह लंबी और गहरे हरे रंग की होती हैं। इसकी जड़े बहुत मोटी होती है, जिन्हें सुअर खोदकर खाते हैं।
⋙ मोद
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० मोदी] १. आनंद। हर्ष। प्रसन्नता। खुशी। २. पाँच भगण, एक मगण, एक सगण, और गुरु वर्ण का एक वर्णवृत्त। जैसे, भे सर में सिगरे गुण अर्जुन जाहिर भुपालौहु लजाने। ज्यौहिं स्वयंबर में मछरी दइ बेध सभा सो द्रौपदी आने। ३. सुगंध। महक। खुशबु।
⋙ मोदक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लड्डु। (मिठाई)। २. औषध आदि का बना हुआ लड्डु। जैसे,—मदनानंद मोदक। ३. गुड़। ४. एक वर्णवृत जिसके प्रत्येक चरण में चार भगण होते हैं। जैसे,—(क) भा चहुँ पार जु भौ निधि रावन। तो गहु राम पदै नित पावन। आय घरै प्रभु लै चरनोदक। भुख लगे न भाखै मन मोदक।—छंदप्रभाकर (शब्द०)। (ख) काहु कहुँ शर आसर मारिय। आरत शब्द अकाश पुकारिय। रावण के वह कान परयौ जब। छोड़ि स्वयंवर जात भयो तब।—केशव (शब्द०)। ५. एक वर्णसंकर जाति जिसकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और शुद्रा माता से मानी जाती है।
⋙ मोदक (२)
[वि० स्त्री० मोदका, मोदकी] मोद या आनंद देनेवाला। आनंददायक।
⋙ मोदककार
संज्ञा पुं० [सं०] हलवाई।
⋙ मोदकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन मुनि का नाम।
⋙ मोदकर (२)
वि० आनंददायक। मोदजनक।
⋙ मोदकवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] मोदक जिन्हें प्रिय है, गणेश [को०]।
⋙ मोदकिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिठाई [को०]।
⋙ मोदकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की गदा। उ०—शिखरी त्यौ मोदकी गदा युग दीपांत भरी सदाई।—रघुराज (शब्द०)। (ख) श्री लव वीर उदंड पुनि गदा मोदकी मारि। बीर विभीषण असुर कँह दियो भूमि पै डारि।—रघुराज (शब्द०)। २. मुर्वा।
⋙ मोदन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० स्त्री० मोदनीय, मोदित] १. मुदित करना। प्रसन्न करना। २. सुगंधि फैलाना। महकाना। ३. मोम (को०)। ४. आनंद। मोद। हर्ष (को०)।
⋙ मोदना पु (१)
क्रि० अ० [सं० मोदन] १. प्रसन्न होगा। खुश होना। आनंदित होना। २. सुगंधि फैलना। महकना। उ०—फूलि फूलि तरु फूल बढ़ावत। मोदत महा मोद उपजावत। —केशव (शब्द०)।
⋙ मोदना
क्रि० स० प्रसन्न करना। खुश करना। उ०—तुलसी सरिस अजान मान रिस पुरो हियरा। तऊ गोंद लेइ पोंछि चूमि मुख मोदत जियरा।—सुधाकर (शब्द०)।
⋙ मोदमोदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जामुन। जंबूफल [को०]।
⋙ मोदयंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मोदयन्तिका] एक प्रकार की चमेली की लता और उनका फुल [को०]।
⋙ मोदयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० मोदयन्ती] दे० 'मोदयंतिका' [को०]।
⋙ मोदवंती
संज्ञा स्त्री० [सं० मोदवती] वनमल्लिका। जंगली चमेली।
⋙ मोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अजमोदा। बन अजवाइन। २. सेमल का वृक्ष।
⋙ मोदाक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक वृक्ष का नाम।
⋙ मोदाकर
वि० [सं० मोद + आकार] हर्षजनक। आनंदपूर्ण। आनंद मोद की खान। उ०—मोदाकर गोदावरी विपिन सुखद सब काल।—तुलसी ग्रं०, भा०२, पृ० ७६।
⋙ मोदाकी
संज्ञा पुं० [सं० मोदाकिन्] महाभारत के अनुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ मोदाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़।
⋙ मोदाढ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा। बन अजवाइन।
⋙ मोदाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] मुँगेर के पास के एक पर्वत का पौराणिक नाम।
⋙ मोदित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आनंद। हर्ष। प्रसन्नता [को०]।
⋙ मोदित (२)
वि० हर्षित। आनंदित। प्रसन्न। उ०—गंध मंद मोदित पुर, नंदन आनंद गमन।—बेला, पृ० ७२।
⋙ मोदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अजमोदा। २. जुही। ३. कस्तुरी। ४. मदिरा। ५. चमेली।
⋙ मोदी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मोदक (=लड्डु बनानेवाला) अथवा अ० मद्दअ (=जिंस, रसद)] १.आटा, दाल, चावल आदि बेचनेवाला बनिया। भोजन सामग्री देनेवाला बनिया। परचुनि- या। उ०—(क) माया मेरे राम की मोदी सब संसार। जाकी चीठी ऊतरी सोई खरचनहार।—कबीर (शब्द०)। (ख) दमन के मोद भरी जोबन प्रमोद भरी मोदी की बहू की दुति देखे दिन दुनी सी। चुमरी सुरंग अंग ईंगुर के रंग देव बठी परचुनी की दुकान पर चुनी सी।—देव (शब्द०)। (ग) है अत्रपुरणा मोदी। दे सबै अहारै सोदी।—विश्राम (शब्द०)। २. वह जिसका काम नौकरों को भरती करना हो।
⋙ मोदी (२)
वि० [सं० मोदिन्] [वि० स्त्री० मोदिनी] मोद करनेवाला। आनदी [को०]।
⋙ मोदीखाना
संज्ञा पुं० [हिं० मोदी + फा़० खानह्] अन्नादि रखने का घर। भंडार। गोदाम।
⋙ मोधक
संज्ञा पुं० [सं० मोदक (=एक वर्णसंकर जाति)] मछली पकड़नेवाला। धीवर। मछुआ। उ०—एक मीन के भक्ष कियो तब हरि रखवारी कीन्ही। सोई मत्स्य पकरि मोधुक ने जाय असुर को दीन्ही।—सुर (शब्द०)।
⋙ मोघू †
वि० [सं० मुग्ध, प्रा० मुद्ध मु्ध्ध] बेवकुफ। मुर्ख। भोंदु। उ०—विदूषक—मित्र यों मोधू बनकर बैठने से क्या होगा? कुछ उपाय करना चाहिए।—वालमुकुंद गुप्त (शब्द०)।
⋙ मोन (१)
संज्ञा पुं० [सं० मोण] दे० 'मोना (२)'। उ०—मानहुँ रतन मोन दुइ मुँदे।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मोन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मौन'। उ०—चित्र दिषात सु चित्रनी मोन बिलग्गिय बाह।—पृ० रा०, ५७।८३।
⋙ मोनशेनयर
संज्ञा पुं० [फें०] फ्रांस में प्रिंस, पादरी तथा प्रतिष्ठित लोंगों के नाम के आगे लगनेवाला संमानसूचक शब्द। श्रीमान्।
⋙ मोनस
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ मोना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० मोयन] भिगोना। तर करना। उ०— (क) कह्यौ राम तँह भरत सों काके बालक दोइ। मोर चरित गावत मधुर सुर संयुत रस माइ।—विश्राम (शब्द०)। (ख) नेह मोइ रस रेसमहिं गाँठ दई हित जोर। चाहत हैं गुरुजन तिन्है अनख नखन सों छीर।—रसनिधि (शब्द०)। (ग) तुलसी मुदित मातु सुत गति लकि बिथकी है ग्वालि मैन मन मोए।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मोना † (२)
संज्ञा पुं० [सं मोण] बाँस, मुँज आदि का ढक्कनदार डला। झावा। पिटारा।
⋙ मोनाल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का महोख पक्षी जो शिमले के आस पास बहुत पाया जाता है। इसे 'नील मोर' भी कहते हैं।
⋙ मोनिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोना + इया (प्रत्य०)] बाँस या मूँज की बनी हुई पिटारी। छोटा मोना।
⋙ मोनी पु
वि० [सं० मौनी] दे० 'मौनी'। उ०—मोनी मन का मारै मानु।—प्राण०, पृ० ९३।
⋙ मोनोग्राम
संज्ञा पुं० [अँ०] दो या तीन अक्षरों के संयोग से बना हुआ किसी नाम की संक्षिप्त रुप।
⋙ मोनोटाइप मशीन
संज्ञा स्त्री० [अँ०] कंपोज करनेवाली एक प्रकार की मशीन जिसमें एक एक अक्षर ढलता और कंपोज होता चलता है।
⋙ मोनोप्लेन
संज्ञा पुं० [अँ०] एरोप्लेन या वायुयान का एक भेद। एक पंखवाला वायुयान।
⋙ मोपला
संज्ञा पुं० [देश०] मुसलमानों की एक जाति जो मदरास में पाई जाती है।
⋙ मोम
संज्ञा पुं० [फा़० मोम] १. वह चिकना और नरम पदार्थ जिससे शहद की मक्खियाँ अपना छत्ता बनाती हैं। मधुमक्खी के छत्ते का उपकरण। विशेष—मोन प्रायः पीले रंग का होता है और इसमें से शब्द की सी गंध आती है। साफ करने पर इसका रंग सफेद हो जाता है। यह बहुत थोड़ी गरमी से गल या पिघल जाता है; और कोमल होने के कारण थोड़े से दबाव द्धारा भी, गीली मिट्टी या आटे आदि की भाँति, अनेक रुपों में परिवर्जित किया जा सकता है। इसकी बत्तियाँ बनाई जाती है, जो बहुत ही हलकी और ठंढी रोशनी देती हैं। ओषधि के रुप में इसका व्यवहार होता है और यह मरहमों आदि में डाला जाता है। खिलौने और ठप्पे आदि बनाने में भी इसका व्यवहार होता है। यौ०—मोम की नाक =(१) जिसकी संमति बहुत जल्दी बदल जाती हो। अस्थिरमति। (२) वह जो जरा सी बात मे मिजाज बदले। मोम की मरियम =बहुत ही कोमल और सुकुमार स्त्री। मुहा०—मोम करना या मोम बनाना =द्रवीभूत कर लेना। दयार्द्र कर लेना। मोम होना =दयार्द्र हो जाना। पिघल जाना। कठोरता छोड़ देना। २. रुप रंग और गुण आदि में इसी से मिलता जुलता वह पदार्थ जो मधुमक्खी की जाति के तथा कुछ और प्रकार के कीड़े पराग आदि से एकत्र करते हैं अथवा जो वृ्क्षों पर लाख आदि के रुप में पाया जाता है। ३. मिट्टी के तेल में से, एक विशेष रासायनिक क्रिया के द्धारा, निकाला हुआ इसी प्रकार का एक पदार्थ। जमा हुआ मिट्टी का तेल। विशेष—अंतिम दोनों प्रकार के मोमों का व्यवहार भी प्रायः पहले प्रकार के मोम के समान ही होता है।
⋙ मोमजामा
संज्ञा पुं० [फा़० मोम + जामह्] वह कपड़ा जिसपर मोम का रोगन चढ़ाया गया हो। तिरपाल। विशेष—ऐसे कपड़े पर पड़ा हुआ पानी आर पार नहीं होता।
⋙ मोमदिल
वि० [फा़० मोम + दिल] दुसरों के दुःख से शीघ्र द्रवित होनेवाला। बहुत कोमल हृदयवाला।
⋙ मोमना †
वि० [हिं० मोम + ना (प्रत्य०)] मोम का सा। बहुत ही कोमल।
⋙ मोमबत्ती
संज्ञा स्त्री० [फा़० मोम + हिं० बत्ती] मोम वा ऐसे ही किसी और जलानेवाले पदार्थ की बनी हुई बत्ती। विशेष—इस प्रकार की बत्ती बीच में एक मोटा डोरा होता है और उसपर मोम चढ़ा रहता है। जब वह डोरा जलाया जाता है, तब चारों ओर से मोम गल गलकर जलने लगता है। जिससे प्रकाश होता है। प्राचीन काल में फारस आदि देशों में उत्सवों आदि पर इसका बहुत अधिक व्यवहार होता था।
⋙ मोमम्भर पु
वि० [देश०] वजनदार। भारवाला। प्रतिष्ठावाला। उ०—छिप्पत कबहुँ न मोमम्भर तिन। रंकति न छिपै वित परषन षिन।—पृ० रा०, ६१।८६।
⋙ मोमिन
संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री० मोमिना] १. धर्मानिष्ठ मुसलमान। उ०—मोमिनो नेक य आसार मुबारक होए।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५४२। २. जुलाहों की एक जाति। ३. एक उर्दु कवि का नाम।
⋙ मोमिया
संज्ञा स्त्री० [अं० ममूमी, फा़० मोमिया ?] मसाला लगाकर सुरक्षित रखी हुई लाश। सड़ने से बचाने के लिये सुंगंधित मसाला के लेप द्धारा सुरक्षित पुरातन शव।
⋙ मोमियाई
संज्ञा स्त्री० [फा़० मोमियायी] १. कृत्रिम शिलाजतु। पत्थर से बननेवाला शिलाजतु। नकली शिलाजीत। उ०— वहाँ एक किस्म का पत्थर होता है। उसको पानी में उवालकर मोमियाई बनाते हैं।—शिवप्रसाद (शब्द०)। मुहा०—मोमियाई निकालना =(१) किसी से कठिन परिश्रम लेना। किसी को खुब मारना पीटना। विशेष—कुछ लोगों का विश्वास है कि मोमियाई मनुष्य के शरीरको आँच से तपाकर निकाली हुई चिकनाई से तैयार की जाती है; इसी से ये मुहावरे बने हैं। २. काले रंग की एक चिकनी दवा जो मोम की तरह मुलायम होती है। यह दवा घाव भरने के लिये प्रसिद्ध है।
⋙ मोमी
वि० [फा़०] १. मोम का बना हुआ। जैसे, मोमी, मोती, मोमी पुतला। २.मोम का सा।
⋙ मोमी मोती
संज्ञा पुं० [फा़० मोमी + सं० मौक्तिक] मोम से बना मोती। एक प्रकार का नकली मोती। उ०—चमकीले और बड़े बड़े मोमी मोतियों से सजे बाल खुब ही मजा दे रहे थे।— शराबी, पृ० २९।
⋙ मोयन
संज्ञा पुं० [हिं० मैन (=मोम)] माँड़े हुए आटे में घी या चिकना देना जिसमें उससे बनी वस्तु खसखसी और मुलायम हो। यौ०—मोयनदार =जैसे, मोयनदार कचौरी।
⋙ मोयना ‡
संज्ञा सं० [हिं० मुअना] दे० 'मरना'। उ०—जिए लग तो जोरु बचे प्यार करेत। मीये पर तो मुर्दा क कर जी में डरते।—दक्खिनी०, पृ० २५३।
⋙ मोयुम
संज्ञा पुं० [देश०] एक लता जो आसाम, सिक्किम और भुटान में बहुतायत से उत्पन्न होती है। विशेष—इस लता से अत्यंत चमकीला रंग तैयार किया जाता है, जिससे कपड़े रँगे जाते हैं।
⋙ मोरंग
संज्ञा पुं० [देश०] नेपाल देश का पूर्वी भाग जो कौशिकी नदी के पूर्व पड़ता है। विशेष—संस्कृत ग्रंथों में इसी भाग को 'किरात देश' कहा गया है। इस देश में जंगल और पहाड़ियाँ बहुत हैं। इस देश का कुछ भाग जिला पुरनिया (बंगाल) में भी पड़ता है।
⋙ मोर (१)
संज्ञा पुं० [सं० मयूर, प्रा० मोर] [स्त्री० मोनी] १. एक अत्यंत सुंदर बड़ा पक्षी। मयूर। बहीं। उ०—भादव मास बरिस घनघोर। सभ दिस कुहकए दादुल मोर।—विद्यापति, पृ० १३१। विशेष—यह पक्षी प्रायः चार फुट लंबा होता है और इसकी लंबी गर्दन और छाती का रंग बहुत ही गहरा और चमकीला नीला होता है। नर के सिर पर बहुत ही सुंदर कलगी या चोटी होती है। पंख छोटे तथा पुँछ लंबी और अत्यंत सुंदर होती है। नर जिस समय प्रसन्न होता है, उस समय अपनी पुँछ के पर खड़े करके मंडलाकार फैला देता है, जिससे वह बहुत ही सुंदर जान पड़ता है। पुँछ के परों पर बहुत सुंदर गोल दाग या चित्तियाँ होती है, जिनका रंग नीला होता है और जिनपर सुंदर सुनहरा मंडल होता है। इन्हें चंद्रिका कहते हैं। मोर सब पक्षियों से सुंदर पक्षी है। अनेक चटकीले रंगों का जैसा सुंदर मेल इसमें होता है, वैसा और किसी पक्षी में नहीं होता। प्राचीन युनानी और रोमन इसे बहुत पवित्र मानते थे। राजपूताने में अब तक कोई इसकी हत्या नहीं करता। इसका स्वभाव है कि बादलों की गरज सुनते ही यह कूकता है। संस्कृत में इसका एक नाम भुजंगभुक् है। कहते हैं, यह साँप को खा जाता है। मादा का रंग फीका होता है और वह देखने में वैसों सुंदर नहीं होती। पर्या०—नीलकंठ। केकी। बरही। शिखी। शिखंडी। कलापी। शिवपुतवाहन। भुजंगभुक्। अहिभक्षी। २. नीलम की आभा, जो मोर के पर के समान होती है। उ०— मोर, विष्णु, नभ, कमल, अलि, कोकिल, कलरव, मेह। फुल सिरस, अरसी, अवनि ग्यारह छाया एह।—रत्नपरीक्षा। (शब्द०)।
⋙ मोर पु † (२)
सर्व० [सं० मम] [स्त्री० मोरी] दे० 'मेरा'। उ०— (क) मोर हृदय सत सुलिस समाना।—मानस, २।१६६। (ख) खुले सुभाग्य मोरयँ, लह्यौ दरस्स तोरयं।—ह० रासो, पृ० १३।
⋙ मोर (३)
संज्ञा स्त्री० [डिं०] सेना की अगली पंक्ति।
⋙ मोरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का लोहा। २. गाय का ब्याने के सात दिन बाद का दुध [को०]।
⋙ मोरचंग
संज्ञा पुं० [हिं० मुँहचंग] दे० 'मुरचंग'।
⋙ मोरचंदा पु
संज्ञा पुं० [मयूरचन्द्रक] दे० 'मोरचंद्रिका'। उ०— गावत गोपाल लाल नीके राग नट हैं।...मोरचंदा चारु सिर मंजु गुंजापुंज धरे, बनि बनधातु तन ओढ़े पीत पट हैं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मोरचद्रिका
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोर + चन्द्रिका] मोर पंख के छोर की वह बुटी जो चंद्राकार होती है। उ०—मोरचंद्रिका श्याम सिर चढि कत करत गुमान।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मोरचा
संज्ञा पुं० [फा़० मोरचह्] १. लोहे की ऊपरी सतह पर चढ़ आनेवाली लाल या पीली रंग की बुकनी की सी तह। जंग। विशेष—लोहे पर जमनेवाली यह तह वायु और नमी के योग से रासायनिक विकार होने से उत्पन्न होती है। यह लाल बुकनी वास्तव में विकारप्राप्त लोहा ही है। २. दर्पण पर जमी हुई मैल। उ०—(क) जब लग हिय दरपन रहै कपट मोरचा छाइ। तब लग सुंदर मीत मुख कैसे दृगन दिखाइ।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) पहिर न भूषन कनक के कहि आवत एहि हेत। दरपन के से मोरचा देह दिखाई देत।—बिहारी (शब्द०)। विशेष—प्राचीन काल में दर्पण लोहे को माँजते माँजते चमकदार बनाए जाते थे, इसी से दर्पण के साथ 'मोरचा' शब्द का प्रयोग चला आ रहा। 'दर्पण' के लिये फारसी का 'आईना' शब्द वास्तव में 'आहना' का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ 'लोहे का' होता है। क्रि० प्र०—जमना।—लगना। मुहा०—मोरचा खाना =मोरचा लगाने से खराब होना।
⋙ मोरचा (२)
संज्ञा पुं० [फा़० मोरचाल] १. वह गड्ढा जो गढ़ के चारों और रक्षा के लिये खोद दिया जाता है। २. वह सेना जो गढ़ के अंदर रहकर शत्रु से लड़ती है। ३. वह स्थान जहाँसे सेना, गढ़ या नगर आदि की रक्षा की जाती है। वह स्थान जहाँ खड़े होकर शत्रुसेना से लड़ाई की जाती है। मुहा०—मोरचाबंदी करना =गढ़ के चारों ओर गड्ढा खोदकर या टीले बनाकर यथास्थान सेना नियुक्त करना। मोरचा जीतना =शत्रु के मोरचे पर अधिकार कर लेना। मोरचा बाँधना =दे० 'मोरचाबंदी करना'। उ०—बढ़ि बढ़ि बाँधे मोरचे लाग देखि नियराइ।—हम्मीर०, पृ० २७। मोरचा मारना =दे० 'मोरचा जीतना'। मोरचा लेना =युद्ध करना।
⋙ मोरछड़
संज्ञा पुं० दे० [हिं० मोर + छड़] दे० 'मोरछल'।
⋙ मोरछल
संज्ञा पुं० [हिं० मोर + छड़ ] मोर की पुँछ के परों को इकट्ठा बाँधकर बनाया हुआ लंबा चँवर जो प्रायः देवताओं ओर राजाओं आदि के मस्तक के पास डुलाया जाता है। उ०— (क) अगल बगल बहु मनुज मोरछल चँबर डोलावत।—गोपाल (शब्द०)। (ख) चारु चोंर चहुँ ओर चलावै मोरछलान डोलाई।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मोरछला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मौलिश्री] 'मौलसिरी'। उ०—छड़, खिरौटी, आँवले कुट और मोरछली की छाल, इनको जल के साथ महीन पीसकर लेप करो तो बाल बढ़ेगें।—प्रतापसिंह (शब्द०)।
⋙ मोरछली (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मोरछल + हिं० (प्रत्य०)] मोरछल हिलानेवाला।
⋙ मोरछाँह पु
संज्ञा पुं० [हिं० मोरछल] दे० 'मोरछल'। उ०—का वरनउँ अस ऊँच तुषारा। दुइ बेरें पहुँचे असवारा। बाँधे मोर- छाँह सिर सारहिं। भाजहिं पुँछ चँवर जनु ढारहिं।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मोरजुटना
संज्ञा पुं० [हिं० मोर + जुटना] एक प्रकार का आभूषण। विशेष—यह आभूषण सोने का बनता और रत्नजटित होता है। इसके बीच का भाग गोल बेंदे के समान होता है और दोनों ओर मोर बने रहते हैं। यह बेंदे के स्थान पर माथे पर पहना जाता है।
⋙ मोरुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊख की जड़। २. अंकोल वा अंकोट का फुल। ३. प्रसव से सातवीं रात के बाद का दुध। ४. एक प्रकार की लता जिसे कर्णपुष्प भी कहते हैं। विशेष—वैद्यक में इस मधुर कषाय, वृष्य, बलवर्धक और पित्त, दाह तथा ज्वर के लिये नाशक माना है।
⋙ मोरटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'मोरटक'। २. सफेद खैर।
⋙ मोरटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्वा। दुब। २. मूर्वा [को०]।
⋙ मोठ
संज्ञा पुं० [सं०] खट्टा मट्टा [को०]।
⋙ मोरत †
संज्ञा पुं० [हिं० महूरत] दे० 'मुहुर्त'। उ०—पोडस प्रकारु के दान बेदोक्त करवाए। पंचांग सुध सोध मोरत बतलाए।— रघु० रु०, पृ० २३९।
⋙ मोरध्वज
संज्ञा पुं० [सं० मयूरव्वज] एक पौराणिक राजा का नाम जो बहुत प्रसिद्ध भक्त था। विशेष—इसकी परीक्षा के लिये श्रीकृष्ण और अर्जुन इसके यहाँ गए थे। श्रीकृष्ण की बात मानकर यह राजा अपना जीवित शरीर आरे से चिरवाने के लिये तैयार हुआ था।
⋙ मोरदार
वि० [हिं० मोड़ + दार (प्रत्य०)] १. मोथरा। २. घुमावदार। उ०—उरज बुरज दै मवासी छल रासी मनों, पीय मन चंचल बनी के नींके मोरदार।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५७३।
⋙ मोरन पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोड़ना] मोड़ने की क्रिया या भाव। मोड़ना।
⋙ मोरन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मोरट] बिलोया हुआ दही जिसमें मिठाई और कुछ सुगंधित वस्तुएँ (इलायची, लौंग इत्यादि) डाली गई हों। शिखरन। उ०—पुनि सँधान आने बहु साँधी। दुध दही की मोरन बाँधी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मोरना पु (१)
क्रि० स० [हिं० मोड़ना] दे० 'मोड़ना'। उ०—(क) फिर फिर सुंदर ग्रीवा मारत। देखत रथ पाछे जो घोरत। लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। (ख) चोरि चोरि चित चितवति मुँह मोरि मोरि काहे तें हँसति हिय हरष बढ़ायो है।—केशव (शब्द०)। (ग) कर आँचार को ओट करि जमुहानी मुख मोरि।—बिहारी। (शब्द०)। (घ) नासा मोरि नचाय दृग करी कका की सौंहँ।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मोरना (२)
क्रि० स० [हिं० मोरन] दही को मथकर मक्खन निका- लना। (वुंदेलखंड)। उ०—डीठडोर नै मोर दिय छिरक रुपरस तोय। मथि मा घट प्रतीम लियो मन नवनीत बिलोय।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मोरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोर का स्त्री० रुप] १. मोर पक्षी की मादा। उ०—चितै चकोरनी चकोर मोर मोरनी समेत, हस हंसिनी समेत सारिका सबै पढ़ैं।—केशव (शब्द०)। २. मोर के आकार का अथवा और किसी प्रकार का एक छोटा टिकड़ा जो नथ में पिराया जाता है और प्रायः होंठों के ऊपर लटकता रहता है।
⋙ मोरपंख
संज्ञा पुं० [हिं० मोर + पंख (=पर)] मोर का पर जो देखने में बहुत सुंदर होता है, और जिसका व्यवहार अनेक अवसरों पर प्रायः शोभा या शृंगार के लिये अथवा कभी कभी औषद के रुप में होता है। उ०—मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छा बीच बिच कुसुम कली के।—मानस, १।२३३।
⋙ मोरपंखी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोरपंख + ई (प्रत्य०)] १. वह नाव जिसका एक सिरा मोर के पर की तरह बना और रँगा हुआ हो। २. मलखंभ की एक कसरत जो बहुत फुरती से की जाती है और जिसमें पैरों को पीछे की ओर से ऊपर उठाकर मोर के पंख की सी आकृति बनाई जाती है।
⋙ मोरपंखी (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का बहुत सुंदर गहरा और चमकीला नीला रंग जो मोर के पर से मिलता जुलता होता है।
⋙ मोरपंखी (३)
वि० मोर के पंख के रंग का। गहरा चमकीला नीला।
⋙ मोरपखा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० मोरपंख] १. मोर का पर। मोरपंख। २. मोरपंख की कलगी जो प्रायः श्रीकृष्ण जी मुकुट या चीरमें खोंसा करते थे। उ०—(क) बाँसुरि कुंडल मोरपखा मघुरी मुसकानि भरी मुख है ये।—बेनी (शब्द०)।(ख) पीत पटी लकुटी पदमाकर मोरपखा लै कहुँ गति नाखा। पद्माकर (शब्द०)। (ग) क्यों करि धौं मुरली मनि कुंडल मोरपखा बनमाल बिसारै। ते धनि जे ब्रजराज लके गृहकाज करैं अरु लाज सँभारैं।—मतिराम (शब्द०)।
⋙ मोरपच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० मयूरपक्ष] मोर का पंख। यौ०—मोरपच्छधर =मोर का पंख धारण करनेवाले, कृष्ण। उ०—मोरपच्छधर पच्छ धरि, ब्रजनिधि मैं अनुरागि।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १०।
⋙ मोरपाँव
संज्ञा पुं० [हिं० मोर + पाँव] जंगी जहाजों के बावर्चीखाने की मेज पर खड़ा जड़ा हुआ लोहे का छड़ जिसमें मांस के बड़े बड़े टुकड़े लटकाए रहते हैं। (लश०)।
⋙ मोरमुकुट
संज्ञा पुं० [हिं० मोर + मुकुट] मोर के पंखों का बना हुआ मुकुट जो प्रायः श्रीकृष्ण जो पहना करते थे। उ०—मोर मुकुट की चंद्रिकन यौं राजत नंदनंद। मनु ससिसेखर की अकस किय सेखर सत चंद। —बिहारी (शब्द०)।
⋙ मोरवा पु ‡ (१)
संज्ञा पुं० [सं० मयूर, हिं० मोर + वा (प्रत्य०)] १. दे० 'मोर'। उ०—कुक मोरवान को करेजा टुक टुक करैं लागति है हुक सुनि धुनि धुरवान को।—दीनदयाल (शब्द०)। २. मुष्क का वृक्ष। मोखा।
⋙ मोरवा
संज्ञा पुं० [देश०] वह रस्सी जो नाव की किलवारी में बाँधी जाती है और जिससे पतवार का काम लेते हैं।
⋙ मोरशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं० मयूर + शिखा] एक जड़ी जिसकी पत्तियाँ ठीक मोर की कलगी के आकार की होती है। विशेष—यह जड़ी बहुधा पुरानी दीवारों पर उगती है। इसकी सुखी पत्तियों पर पानी छिड़क देने से वे पत्तियाँ फिर तुरंत हरी हो जाती है। वैद्यक में इसे पित्त, कफ, अतिसार और बालग्रह दोषानिवारिणी माना गया है।
⋙ मोरा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] अकीक नामक रत्न का एक भेद जो प्रायः दक्षिण भारत में होता है और जिसे 'बावाँघाड़ी' भी कहते हैं।
⋙ मारा पु † (२)
वि० [सं० मम] [वि० स्त्री० मोरी] दे० 'मेरा'। उ०—हमे हसि हेरला थोरा रे। सफल भेल सखि कौतुक मोरा रे।—विद्यापति, पृ० १८२। यौ०—मोरे लेखे =मेरे हिसाब से। मेरे विचार से। मेरे अनुमान से। उ०—एकहि मंदिर बसि पिया न पुछए हसि, मारे लेखे समुद्रक पार।—विद्यापति, पृ० ११८।
⋙ मोराद †
संज्ञा स्त्री० [अ० मुराद] दे० 'मुराद'। उ०—वह नुर नबी तहकीक करै, तब आदि मोराद का पाइए जो।—कबीर० रे०, पृ० ४०।
⋙ मोगना पु †
क्रि० स० [हिं० मोड़ना का प्रे० रुप] १. चारों ओर घुमाना। फिराना। उ०—आरति करि पुनि नरियल तबहीं मोराइए। फुरुष को भोग लगाइ सखा मिलि खाइए।—कबीर (शब्द०)। २. रस पेरने के समय ऊख की अँगारी को कोल्हु में दबाना।
⋙ मोरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा दरवाजा। गुप्त या बगल का दरवाजा [को०]।
⋙ मोरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोरना] कोल्हु में कातर की दुसरी शाखा जो बाँस की होती है।
⋙ मोरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोहरी] १. किसी वस्तु के निकलने का तंग द्धार। २. नाली जिसमें से पानी, विशेषतः गंदा और मैला पानी बहता हो। पनाली। उ—ऐसी गाढ़ी पीजिए ज्यौं मोरी की कीच। घर के जाने मर गए आप नशे के बीच।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ८३। मुहा०—मोरी छुटना =दस्त आना। पेट चलना। मोरी पर जाना =पेशाब करने जाना। (स्त्रियाँ)। ३. दे० 'मोहरी'।
⋙ मोरी पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मयूरी, हिं० मोर + ई (प्रत्य०)] मोर पक्षी का मादा। मयूरी। उ०—मोरी सी घन गरज सुनि तू ठाढ़ी अकुलात।—सीताराम (शब्द०)।
⋙ मोरी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] क्षत्रियों की एक जाति जो 'चौहान' जाति के अंतर्गत है। उ०—जादौ रु बघेला मल्हवास। मोरी बड़गु- जर आइ पास।—पृ० रा०, १।४२४।
⋙ मोर्चा
संज्ञा पुं० [फा़० मोरचा] दे० 'मोरचा'।
⋙ मोल
संज्ञा पुं० [सं० मूल्य, प्रा० मुल्ल] १. वह धन जो किसी वस्तु के बदले में बेचनेवाले की दिया जाय। कीमत। दाम। मूल्य। क्रि० प्र०—करना।—चुकना।—ठहरना।—देना।—लेना। यौ०—अनमोल। २. दुकानदार की ओर से वस्तु का मूल्य कुछ बढ़ाकर कहा जाना। जैसे,—मोल मत करो, ठीक ठीक दाम कहो। यौ०—मोलचाल =(१) अधिक मूल्य। (२) किसी चीज का दाम घटा बढ़ाकर तै करना। मुहा०—मोल करना =(१) किसी पदार्थ का उचित से अधिक मूल्य कहना। (२) मूल्य घटा बढा़कर तै करना।
⋙ मोलना †
संज्ञा पुं० [अ० मौलाना] मौलवी। मुल्ला। उ०—(क) बेद किताब पढ़ै वे खुतबा वे मोलना वे पाँड़े।—कबीर (शब्द०)। (ख) पंडित बेद पुराण पढ़े और मोलाना पढै़ कोराना।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मोलवी †
संज्ञा पुं० [अ० मौलवी] वह विद्धान् मुसलमान जो अपने धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञाता हो। मौलवी। उ०—रहे मोलबी साहेब जहाँ के अतिसय सज्जन।—प्रेमघन०, भा०१, पृ० २०।
⋙ मोलसिरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मौलसिरी'। उ०—तहँ मोलसिरी सोहैं गँभीर।—ह० रासो, पृ० ६२।
⋙ मोलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोल + आई (प्रत्य०)] १. मोल पूछने या तै करने की क्रिया। मूल्य कहना वा ठीक करना।
⋙ मोलाना †
क्रि० स० [हिं० मोल] मोलभाव करना। कीमत तै करना। उ०—नंददास पिय प्यारी की छबि पर त्रिभुवन की शोभा वारों विनु मोले।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६६।
⋙ मोलिया ‡
वि० [देश०] मुड़ने या लचकनेवाला। नाजुक। कोमल। निर्बल। मुलायम। उ०—मावडिया अँग मोलिया, नाजुक अंग निराट।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १३।
⋙ मोल्ड
संज्ञा पुं० [अं०] साँचा।
⋙ मोवना (१)
क्रि० स० [हिं० मोयन] दे० 'मोना'।
⋙ मोवना पु † (२)
क्रि० स० [हिं० मौड़ना, मोरना] दे० 'मोरना'। उ०—भृकुटी चाप चंचल मुख मोवहि। हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० १९५।
⋙ मोशिये
संज्ञा पुं० [फ्रें० तुल० मोनशीयर] [संक्षिप्त, रुप मीन्स, एम०, तुल० बँग० मोशाय] [हिं० संक्षिप्त रुप मो०] फ्रांस में नाम के आगे लगाया जानेवाला आदरसूचक शब्द। महाशय। साहब। जैसे, मोशिये व्रायंद।
⋙ मोष (१)
संज्ञा पुं० [सं० मोक्ष] दे० 'मोक्ष'।
⋙ मोष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोरी। २. लुटना। लुट। ३.बध। हत्या। ४. दंड देना।
⋙ मोषक
संज्ञा पुं० [सं०] चोर।
⋙ मोषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. लुटना। २. चोरी करना। ३. छोड़ना। ४. बध करना। ५. वह जो चोरी करता या डाका डालता हो।
⋙ मोषना पु
संज्ञा पुं० [सं० मोषण वा मोक्षण] समाप्त करना। लुटना। खत्म करना। सोख लेना। सुखाना। उ०—काल अगिनि तीन भवन प्रवानी। उलटंत पवनां मोषंत पानी।—गोरख०, पृ० २४६।
⋙ मोषयिता
संज्ञा पुं० [सं० मोषयितृ] चोरी करनेवाला। लुट करनेवाला [को०]।
⋙ मोषा
संज्ञा पुं० [सं०] चोरी। लुट। डकैती [को०]।
⋙ मोसना पु † (१)
क्रि० स० [सं० मोषण] मारना। नष्ट करना। उ०—मुरगी कौं मोसता है बकरी को रोसता है।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४०४।
⋙ मोसना †
२ क्रि० अ० मसुलना। उ०—सखि अस अदभुत रुप निहारै। मोसति मन कोसति करतारै।—नंद० ग्रं०, पृ० १२४।
⋙ मोसर ‡
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'अवसर'। उ०—अबके मोसर ज्ञान बिचारी, राम राम मुख गाती।—संतवाणी०, भाग २, पृ० ६८।
⋙ मोसील †
संज्ञा पुं० [अ० मुहासिल, मुहस्सिल] वसुल करनेवाला। दे० 'मुहसिल'। उ०—पाँच मोसील मलि लगे घर घर मँहै मारि औ पीटि के रोज माँगै।—पल्टु०, भा० २, पृ० ३६।
⋙ मोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुछ का कुछ समझ लेनेवाली बुद्धि। अज्ञान। भ्रम। भ्रांति। उ०—तुलसिदास प्रभु मोह जनित भ्रम भेदबुद्धि कब बिसरावहिंगे।—तुलसी (शब्द०)। २. शरीर और सांसारिक पदार्थों को अपना या सत्यं समझने की बुद्धि जो दुःखदायिनी मानी जाती है। ३. प्रेम। मुहब्बत। प्यार। उ०—(क) साँचेहु उनके मोह न माया। उदासीन धन धाम न जाया।—तुलसी (शब्द०)। (ख) काशीराम कहै रघुवंशऱीन की रीती यहै ज सों कीजै मोह तासा लोह कैसे गहिऐ।—काशीराम (शब्द०)। (ग) मोहु सो तजि मोह दृग चले लागि उहि गैल।—बिहारी (शब्द०)। (घ) रह्यौ मोह मिलनो रह्यौ कहि गहें मरोर।—बिहारी (शब्द०)। ४. साहित्य में ३३ संचारी भावों में से एक भाव। भय, दुःख घबराहट, अत्यंत चिंता आदि से उत्पन्न चित्त की विकलता। ५. दुःख। कष्ट। ६. मूर्छा। बेहोशी। गश। उ०—गिरयौ हंस भु भयो मोह भारी।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मोहक
वि० [सं०] १. मोह उत्पन्न करनेवाला। जिसके कारण मोह हो। २.मन को आकृष्ट करनेवाला। लुभानेवाला।
⋙ मोहकम
वि० [अ० मुहकम] बड़ा। भारी। उ०—मोहकम मार पड़ी गुरजन की तव कहु ज्वाब न आया।—मलुक०, पृ० २५।
⋙ मोहकलिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोह का द्दढ़ पाश। माया का जाल। २. मादक पेय। मदिरा (को०)।
⋙ मोहकार
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह + कैड़ा या कार (प्रत्य०)] पीतल या ताँबे के घड़े का गला समेत मुहँड़ा। (ठठेरा)।
⋙ मोहठा
संज्ञा पुं० [सं०] दश अक्षरों का वह वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन रगण और एक गुरु होता है। इसे 'बाला ' भी कहते है। जैसे,—रोरि रंगा दियो कौन बाला। मै न जानौं कहै नंदलाला। श्याम की मात बोली रिसाई। गोपि कोई करी है ढिठाई।—छंद०, पृ० १५६।
⋙ मोहड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह + ड़ा (प्रत्य०)] १. किसी पात्र का मुँह या खुला भाग। २. किसी पदार्थ का अगला या ऊपरी भाग। मुहा०—मोहड़ा लगाना =अन्न से भरे हुए बोरे दुकान पर रखकर उसका मुँह खोल देना। (अन्न के व्यापारी)। मोहड़ा मारना = किसी काम को सबसे पहले कर डालना। ३. मुँह। मुख।
⋙ मोहड़ा (२)
संज्ञा पुं० दे० 'मोहरा।
⋙ मोहताज
वि० [अं० मुहताज] १. धनहीन। निर्घन। गरीब। २. जिसे किसी बात की अपेक्षा हो। जैसे,—वह आपकी मदद के मोहताज नहीं हैं।
⋙ मोहताजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोहताज + ई (प्रत्य०)] मोहताज होने की क्रिया या भाव। गरीबी।
⋙ मोहन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोह लेनेवाला व्यक्ति। जिसे देखकर जी लुभा जाय। उ०—लखि मोहन जो मन रहै तो मन राखौ मान।—बिहारी (शब्द०)। २. श्रीकृष्ण। उ०—मोहन तेरे नाम को कढ़ो वा दिन छोर। ब्रजवासिन को मोह कै चलो मधु- पुरी ओर।—रसनिधि (शब्द०)। ३. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक सगण और एक जगण होता है। जैसे,—जन राजवंत। जग योगवंत। तिनको उदोत। केहिं भाँति होत।— केशव (शब्द०)। ४. एक प्रकार का तांत्रिक प्रयोग जिससे किसी को बेहोश या मूर्छित करते हैं। उ०—मारन मोहन बसकरन उच्चाटन अस्थंभ। आकर्षन सब भाँति के पढ़ै सदा करि दंभ।— (शब्द०)। ५. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जिससे शत्रुमुर्छित किया जाता था। उ०—बर विद्याधर अस्त्र नाम नंदन जो ऐसो। मोहन, स्वापन, समन, सौम्य, कर्षन, पुनि तैसो।— पद्माकर (शब्द०)। ६. कोल्हु की कोठी अर्थात् वह स्थान जहाँ दबने के लिये ऊख के गाँड़े डाले जाते है। इसे कुंडी और 'घगरा' भी कहते है। ७. कामदेव के पाँच बाणों में एक बाण का नाम। ८. धतुरे का पौधा। ९. शिव का एक नाम (को०)। १०. विष्णु की नौ शक्तियों में एक शक्ति (को०)। ११. संभोग। रति। मैथुन (को०)। १२. बारह मात्राओं का एक ताल जिसमें सात आघात औऱ पाँच खाली रहते है। इसका + १ ० २ ० मृदंग का बोल यह है—धा धा ता गे तेरे कता ३ ० ४ ५ ० ६ ० + कता गदि घेने नाग् देत् तेरे करे। धा।
⋙ मोहन (२)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मोहिनी] मोह उत्पन्न करनेवाला। उ०—सब भाँति मनोहर मोहन रुप अनुप हैं भुप कें बालक द्वै। तुलसी (शब्द०)।
⋙ मोहनक
संज्ञा पुं० [सं०] चैत्र मास [को०]।
⋙ मोहनभोग
संज्ञा पुं० [हिं० मोहन + भोग] १. एक प्रकार का हलुआ। २. एक प्रकार का केला (फल)। ३.एक प्रकार का आम।
⋙ मोहनमाल, मोहनमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोने की गुरियों या दानों की बनी हुई माला। उ०—(क) मोहनलाल के मोहन को यह पैन्हति मोहनमाल अकेली।—देव (शब्द०)। (ख) मोहनमाल बिसाल हिए पर सोहत नील सुपीत पिछौरी।—दीनदयाल गिरि (शब्द०)।
⋙ मोहना (१)
क्रि० अ० [सं० मोहन] १. किसी पर आशिक या अनुरक्त होना। मोहित होना। रीझना। उ०—(क) सुंदर वपु अति श्यामल सोहै। देखत सुर नर को मन मौहै।—केशव (शब्द०)। (ख) देखत रुप सकल सुर मोहै।—तुलसी (शब्द०)। (ग) चारयो दल दूलह चारु बने। मोहे सुर औरन कौन गने।—केशव (शब्द०)। २. मूर्छित होना। बेहोश हो जाना। उ०—अष्टम सर्ग महा समर कुश लव भरतहिं साथ। जुग बंधुन कर मोहिबो भरत नास तिन हाथ।—शिरमौर (शब्द०)।
⋙ मोहना (२)
क्रि० स० [सं० मोहन] १. अपने ऊपर अनुरक्त करना। मुग्ध करना। मोहित करना। लुभा लेना। उ०—(क) पंडित अति सिगरी पुरी मनहु गिरा गति गुढ़। सिंह नियुत जनु चंडिका मोहति मूढ़ अमूढ़।—केशव (शब्द०)। (ख) बैठे जराय जरे पलका पर रामसिया सबको मन मोहै।—केशव (शब्द०)। (ग) अहो भले लतिका तरु सोहै। कलिन कोंपलन सों मन मोहै।—प्रतापनारायण मिश्र (शब्द०)। २. भ्रम में डाल देना। संदेह पैदा कर देना। धोखा देना। उ०—(क) तुम आदि मध्य अवसान एक। जग मोहत हौ वपु धरि अनेक।—केशव (शब्द०)। (ख) अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मोहना (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तृण। २. एक प्रकार की चमेली।
⋙ मोहनि पु
वि० [सं० मोहनी] दे० 'मोहिनी'। उ०—(क) मोहनि मुरति श्याम की यौं घट रही समाय।—बिहारी (शब्द०)। (ख)जब हरि रंगनि भरे मोहनि मुरति साँवरे।—नंद० ग्रं०, पृ० ३९५।
⋙ मोहनास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र।
⋙ मोहनिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोह की निद्रा। अज्ञान में पड़ा रहना [को०]।
⋙ मोहनिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोह की निशा। दे० 'मोहरात्रि'।
⋙ मोहनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैशाख सुदी एकादशी। २. एक लंबा सुत सा कीड़ा जो हल्दी के खेतों में पाया जाता है। इसे पाकर तांत्रिक लोग वशीकरण यंत्र बनाते हैं। ३. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सगण, भगण, तगण, यगण और सगण होते हैं। दे० 'मोहिनी—६'। ४. भगवान् का वह स्त्री- रुप जो उन्होने समुद्रमंथन के उपरांत अमृत बाँटते समय धारण किया था। ५. एक प्रकार की मिठाई। .६. वशीकरण का मंत्र। लुभाने का प्रभाव। उ०—(क) जिन निज रुप मोहनी डारी। कीन्हें स्वबस सकल नर नारी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) निरखि लखन राम जाने रितु पति काम मोहि मानो मदन मोहनी मुँड नाई है।—(शब्द०)। मुहा०—मोहनी डालना वा लाना =ऐसा प्रभाव डालना कि कोई एकदम मोहित हो जाय। माया के वश करना। जादु करना। उ०—नागरि मन गई अरुझाइ। अति विरह तनु भई व्याकुल घर न नेकु सुहाइ। श्याम सुंदर मदनमोहन मोहनी सी लाइ।—सुर (शब्द०)। मोहनी लगना =जादु लगने के कारण मोहित होना। मोहित होना। लुभाना। उ०—आजु गई हौं नंदभवन में कहा कहौं ग्रह चैनु री। बोलि लई नव बधु जानि कै खेलत जहाँ कँधाई री। मुख देखत मोहनी सी लागत रुप न बरन्यो जाई री।—सुर (शब्द०)। ७. माया। ८. पोई का साग।
⋙ मोहनी (२)
वि० स्त्री० [सं०] मोहित करनेवाली। चित को लुभानेवाली। अत्यंत सुंदरी।
⋙ मोहनीय
वि० [सं०] मोहित करने के योग्य। मोह लेने के योग्य।
⋙ मोहपास
संज्ञा पुं० [सं० मोहपाश] मोह का जाल। माया का बंधन।
⋙ मोहफिल
संज्ञा स्त्री० [अ० महफ़िल] दे० 'महफिल'।
⋙ मोहब्बत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुहब्बत] दे० 'मुहब्बत'। उ०—हमको अपना आप दे, इश्क मोहब्बत दर्द। सेज सुहाग सुख प्रेम रस मिलि खेलैं ला पर्द।—दादु (शब्द०)।
⋙ मोहभंग
संज्ञा पुं० [सं० मोहभंग] भ्रांतिनिवारण। अज्ञान का नाश होना।
⋙ मोहमंत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मोह में डालनेवाला मंत्र।
⋙ मोहर
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. किसी ऐसी वस्तु पर लिखा हुआ नाम,पता या चिह्न आदि जिसे कागज वा कपड़े पर छाप सवें अक्षर, चिह्न आदि दबाकर अंकित करने का ठप्पा। उ०—इस मोहर की अँगुठी से आपको विश्वास हो जाएगा। (अँगुठी देता है)।—हरिशचंद्र (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—छापना।—देना।—लगाना। २. उपर्युक्त वस्तु की छाप जो कागज वा कपड़े आदि पर ली गई हो। स्याही लगे हुए ठप्पे को दबाने से बने हुए चिह्न या अक्षर। उ०—मोहर में अपना नाम वा चिह्न होता है जिसमें पत्र पर लगी हुई मोहर देखते ही उस पत्र के पढ़ने के प्रथम परिज्ञान हो जाता है कि यह पत्र अमुक का है।—मुरारिदान (शब्द०)। ३. स्वर्णमुद्रा। अशरफी। उ०—(क) करि प्रणाम मोहर बहु दीन्हो। दिओ असीस यतीश न लीन्हों।—रघुराज (शब्द०)। (ख) जो कुजाति नहि मानै बाता। गगरा खोदि दिखायौ ताता। गाड़े बीच अजिर के माहीं। मोहर भरे नृप मानत नाहीं।—रघुनाथदास (शब्द०)।
⋙ मोहरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह + रा (प्रत्य०)] [स्त्री० मोहरी] १. किसी बर्तन का मुँह या खुला भाग। २. किसी पदार्थ का ऊपरी या अगला भाग। ३. एक प्रकार की जाली जो बैल, गाय, भैंस इत्यादि का मुँह कसकर गिराँव के साथ बाँधने के लिये होती है। यह मुँह पर बाँधकर कस दी जाती है, जिससे पशु खाने पीने की चीजों पर मुँह नहीं चला सकता। ४. सेना की अगली पंक्ति जो आक्रमण करने और शत्रु को हटाने के लिये तैयार हो। ५. फौज की चढ़ाई का रुख। सेना की गति। उ०—मही के महीपन को मोरयौ कैसे मोहरा।—रघुराज (शब्द०)। मुहा०—मोहरा लेना =(१) सेना का मुकाबला करना। (२) भिड़ जाना। प्रतिद्वंद्विता करना। ६. कोई छेद वा द्धार जिससे कोई वस्तु बाहर निकले। ७. चोली आदि की तनी या बंद। उ०—कंचुकी सूही कसे मोहरा अति फैलि चली तिगुनी परभासी। मानिक के भुजवंद चुरी माठी कैचन कंकन ओप प्रकासी।—गुमान (शब्द०)।
⋙ मोहरा (२)
संज्ञा पुं० [फा़० मोहर] १. शतरंज की कोई गोटी। २. मिट्टी का साँचा जिसमें कड़ा, पछुआ इत्यादि ढालते हैं। ३. रेशमी वस्त्र घोटने का घोटना जो प्रायः बिल्लौर का बनता है। ४. सिंगिया विष। ५. सोने, चाँदी पर नक्काशी करनेवालों का वह औजार जिससे रगड़कर नक्काशी को चमकाते हैं। दुआली। ६. जहरमोहरा। उ०—बड़े भाग सरे सतगुरु मिलिगे घोरि पियाए जस मोहरा। कहै कदीर सुनो भाइ साधो गया साघ नहिं बहुरा।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ४८।
⋙ मोहरात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह प्रलय जो ब्रह्मा के पचास वर्ष बीतने पर होता है। दैनंदिन प्रलय। २. जन्माष्टमी की रात्रि। भाद्रपद कृष्णा अष्टमी।
⋙ मोहराना
संज्ञा पुं० [फा़० मुहर + आना (प्रत्य०)] वह धन जो किसी कर्मचारी को मोहर करने के लिये दिया जाय। मोहर करने की उजरत।
⋙ मोहरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोहरा + ई (प्रत्य०)] १. बरतन आदि का छोटा या खुला भाग। २. पाजामे का वह भाग जिसमें टाँगें रहती हैं। ३. दे० 'मोरी'।
⋙ मोहरिर्र
संज्ञा पुं० [अ० मुहर्रिर] वह जो किसी कागज आदि लिखने का काम करते हो। लेखक। मुंशी।
⋙ मोहलत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुहलत] १. फुरसत। अवकाश। छुट्टी। क्रि० प्र०—देना।—माँगना।—मिलना।—लेना। २. किसी काम को पूरा करने के लिये मिला हुआ या निश्चित समय। अवधि। जैसे,—चार दिन की मोहलत और दी जाती है। इस बीच में रुपया इकठ्ठा करके दे दो।
⋙ मोहल्ला
संज्ञा पुं० [अ० महल्लह्] दे० 'महल्ला'।
⋙ मोहबत पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० मुहब्बत] दे० 'मोहब्बत' या 'मोह'। उ०—हंसा आन बैठा तीरे। निश दिन चुगैं मोहबत हीरे।— रामानंद०, पृ० १०।
⋙ मोहशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] मोह उत्पन्न करनेवाला शास्त्र या ग्रंथ [को०]।
⋙ मोहर † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह + आर (प्रत्य०)] १. द्वार। दरवाजा। उ०—ठाढ़ि मोहारे धन सुसुकै, मन पछताइल हो।—धरम०, पृ० ६४। २. मुँहड़ा। अगला भाग। उ०—रुप को कुप बखानत है कवि कोऊ तलाब सुधा ही के संग को। कोऊ तुफंग मोहार कहै दहला कलपद्रुम भाषत अंग को।—शंभु (शब्द०)।
⋙ मोहार (२)
संज्ञा पुं० [सं० मधुकर, प्रा० महुअर] १. मधुमक्खी की एक जाति जो सबसे बड़ी होती है। सारंग। २. मधु का छता। ३. मौंरा। भ्रमर।
⋙ मोहारनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह + सं० पारायण (प्रत्य०)] पाठ- शाला के बालकों का एक साथ खड़े होकर पहाड़े पढ़ना।
⋙ मोहाल (१)
संज्ञा पुं० [अ० महाल] पूरा गाँव वा उसका एक भाग अथवा कई गाँवों का एक समूह जिसका बंदोबस्त किसी नंबरदार के साथ एक बार किया गया हो। व्यवहार में 'मोहाल' पूरा माना जाता है और इसी विचार से उसकी पट्टी वा हिस्सा बनाया जाता है।
⋙ मोहाल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मोहार] १. मधुमक्खी की एक जाति। मोहार। २. मधुमक्खी का छता।
⋙ मोहाल (३)
वि० [अ० मुहाल] मुश्किल। कठिन। दे० 'मुहाल'। उ०—इतनी मान्यताओं के बाद आदमी का जीना मोहाल हो जाता है।—काले०, पृ० ७०।
⋙ मोहावरित पु
वि० [सं० मोहावृत] मोह से आच्छादित। उ०— जैसी मोहावरित ब्रज में तामसो रात आई। वैसे ही वे लसित उसमें कौमुदी के समा थी।—प्रिय०, पृ० २६८।
⋙ मोहासिब
संज्ञा पुं० [अ० मुहासिबह्] हिसाब किताब। पुछ ताछ। उ०—मोहासिब करि अस्थिर मनुवाँ मूल मंत्र अवराधी।— धरनी०, श०, पृ० ४।
⋙ मोँहिँ पु मोँहिँ पु
सर्व० [हिं० मोहिं] दे० 'मोहिं'।
⋙ मोहिँ
सर्व० पुं० [सं० मह्यम्, प्रा० मरुह, मज्झं] ब्रजभाषा और अवधी के उत्तम पुरुष 'मैं' का वह रुप जो पहले सब कारकों में आता था। पर पीछे कर्म और संप्रदान में भी आने लगा। मुझको। मुझे। उ०—(क) मरुँ पर माँगीं नहीं अपने तन के काज। परमारथ के कारनै मोहिं न आवै लाज।—सुर (शब्द०)। (ख) नैना कह्यौ न मानौ मेरो। हारि मानि कै रही मौन ह्वै निकट सुनत नहि टेरो। ऐसे भए मनो नहिं मेरे जबहि श्याम मुख हेरो। मैं पछताति जबहिं सुधि आवति ज्यों दीन्हों मोहिं डेरो।—सुर (शब्द०)।
⋙ मोहित
वि० [सं०] मोह या भ्रम में पड़ा हुआ। मुग्ध। २. मोहा हुआ। आसक्त।
⋙ मोहिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] मोहनेवाली।
⋙ मोहिनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. त्रिपुरमाली नामक फुल। वटपत्रा। बेला। २. बिष्णु के एक अवतार का नाम। विशेष—भागवत के अनुसार विष्णु ने यह अवतार उस समय लिया था, जब देवताओं और दैत्यों ने मिलकर रत्नों को निका- लने के लिये समुद्र मथा था और अमृतके निकलने पर दोनों उसके लिये परस्पर झगड़ रहे थे। उस समय भगवान् ने मोहिनी अवतार धारण किया था और उन्हें देखते ही असुर मोहित होकर बोले थे कि अच्छा आओ, हम दोनों दलों के लोग बैठ जाँय और मोहिनी अपने हाथ से हम लोगों को अमृत बाँट दे। दोनों दलों के लोग पंक्ति बाँधकर बैठ गए और मोहिनी रुप विष्णु ने अमृत बाँटने के बहाने से देवताओं को अमृत और असुरों को सुरा पिला दी। ३. माया। जादु। टोना। उ०—देवी ने ऐसी मोहिनी डाली थी कि यशोदा को लड़की के होने की भी सुध नहीं थी।—लल्लु (शब्द०)। ४. वैशाख शुक्ल एकादशी का नाम। ५. एक अप्सरा का नाम (को०)। ६. एक अर्धम वृत्त का नाम जिसके पहले और तीसरे चरणों में बारह और दुसरे तथा चौथे चरणों में सात मात्राएँ होती है; और प्रत्येक चरण के अंत में एक सगण अवश्य होता है। उ०—शंभु भक्तजनत्राता भवदुख हरैं। मनवांछित फलदाता मुनि हिय वरैं।—छंद०, पृ० ७३। ७. पंद्रह अक्षरों के वर्णिक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सगण, भगण, तगण, यगण, और सगण होते हैं। उ०— शुभ तो ये सखि री आदिहुँ जो चित्त धरी। नर औ नारि पढ़ैं भारत के एक घरी।—छद०, पृ० २०८।
⋙ मोही (१)
वि० [सं० मोहिन्] [वि० स्त्री० मोहिनी] मोहित करनेवाला।
⋙ मोही (२)
वि० [हिं० मोह + ई (प्रत्य०)] १. मोह करनेवाला। प्रेम करनेवाला। २. लोभी। लालची। ३. भ्रम या अविद्या में पड़ा हुआ। अज्ञानी।
⋙ मोहेला
संज्ञा पुं० [अ० महल] एक प्रकार का चलता गाना।
⋙ मोहेली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो हिमालय और सिंध की नदियों में मिलती है।
⋙ मोहोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अलंकार का नाम जो केशवदास के अनुसार उपमा का एक भेद है; पर और आचार्य जिसे 'भ्रांति' अलंकार कहते हैं। विशेष दे० 'भ्रांति'।
⋙ मौँगी पु †
वि० स्त्री० [सं० मौन] मौन। चुप। उ०—सुनि खग कहत अंब मौगी रहि समुझि प्रेमपथ न्यारो।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मोहौर ‡
संज्ञा पुं० [हिं० मोहर] स्वर्गमुद्रा। अशरफी। मोहर। उ०—मो एक एक मोहौर और एक एक पाग दै उनको विदा करे।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १०६।
⋙ मौंज
वि० [सं० मौञ्ज] [वि० स्त्री० मौञ्जी] मूँज का बना हुआ।
⋙ मौंजकायन
संज्ञा पुं० [सं० मौञ्जकायन] मंजुक ऋषि को गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
⋙ मौंजवान
वि० [सं० मौञ्जवत्] १. मँजवान् नामक पर्वत में उत्पन्न। २. मुंजवान नामक पर्वत संबंधी।
⋙ मौंजिबंधन
संज्ञा पुं० [सं० मञ्जिबन्धन] यज्ञोपवीत संस्कार। ब्रतबंध। जनेऊ।
⋙ मौंजी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मौञ्जी] मूँज की बनी हुई मेखला। यौ०—मौंजिबंधन।
⋙ मौंजी (२)
वि० [सं० मौञ्जिन्] १. जो मूँज को मेखला धारण किए हुए हो। जो मूँज की मेखला पहने हों। २. दे० 'मौंजीय'।
⋙ मौंजिपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० मौञ्जीपत्रा] वल्यजा।
⋙ मौंजीय
वि० [सं० मौञ्जीय] र्मूंज का बना हुआ।
⋙ मौंड़ा पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० माणवक] [स्त्री० मौंड़ी] लड़का। उ०—(क) मैया बहुत बुरौ बलदाऊ। कहन लगे हन बड़ो तमासो सब मौड़ा मिलि आऊ।—सुर (शब्द०)। (ख) बाट ही गौरस बेच री आज तू मायके मूंड चढ़ै मति मौंड़ी।—रसखानि। (शब्द०)।
⋙ मौँड़ा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मुह+ड़ा] दे० 'मौहड़ा'।
⋙ मौंआसा †
संज्ञा पुं० [सं० मवास] दे० 'मवास'। उ०—रैयत एक पाँच ठकुराई, दस दिसि है मौआसा। रजो तमो गुन खरे सिपाही करहिं भवन में बासा।—पलटब, भा० ३, पृ० ९८।
⋙ मौका
संज्ञा पुं० [अ० मौका़] १. वह स्थान जहाँ कोई घटना घटित हो। घटनास्थाल। वारदात की जगह। उ०—बार्नस साहब ने मौके पर जाकर, अच्छी तरह तहकीकात की।—द्विवेदी (शब्द०)। २. देश। स्थान। जगह। जैसे,— मकान का मौका अच्छा नहीं है। ३. अवसर। समय। उ०— तब से बंबई जाने को हमें मौका ही न आया।—द्विवेदी (शब्द०)। मुहा०—मौका देना=अवकाश देना। समय देना। मौका देखना या ताकना=दाँव में रहना। उपयुक्त अवसर की ताक में रहना। मौका पाना=(१) अवकाश पाना। फुरसत पाना। (२) उपयुक्त समय या अवसर पाना। मौका पान, मौकामिलना, या मौका हाथ लगना=(१) अवकाश मिलना। समय या अवसर मिलना। (२) घात मिलना। दाँव पाना। मौके पर=उपयुक्त अवसर पर। आवश्यकता के समय। मौके से=ठीक समय पर। उचित अवसर पर।
⋙ मौकुल, मौकुलि
संज्ञा पुं० [सं०] कौआ।
⋙ मौकूफ
वि० [अ० मौकूफ] १. रोका हुआ। बंद किया हुआ। स्थगित किया हुआ। उ०—(क) सरकार ने अब इस सती होने की बुरी रस्म को मौकूफ कर दिया है।—शिवप्रसाद (शब्द०)। (ख) एक भुग्गा पास न पावेगा मौकूफ हुआ जब अन्न औ जल—नजीर (शब्द०)। २. काम करने से रोका गया। नौकरी से अलग किया गया। बरखास्त। उ०—सन् १९१० ई० में बादशाह ने मुसलमान मुगलों की, जो नौकर हो गए थे, यक- कलम मौकूफ कर दिया।—शिवप्रसाद (शब्द०)। ३. रद्द किया गया। ४. अधिष्ठित। मुनहसर। अवलंबित। आश्रित। निर्भर। उ०—(क) दुःख और सुख तबीअत पर मौकूफ है।— शिवप्रसाद (शब्द०)। (ख) भा सस्ता हो या महँगा नहीं मौकूफ गल्ले पर। ये सब खिरमन उसी के हैं खुदा है जिसके पल्ले पर।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २५। क्रि० प्र०—रहना।—होना।
⋙ मौकूफी
संज्ञा [अ० मौकुफ+ई] १. मौकूफ होने की क्रिया या भाव। २. प्रतिबिंध। रुकावट। ३. काम से अलग किया जाना। बरखास्तगी।
⋙ मौक्तिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मोती।
⋙ मौक्तिक (२)
वि० मुक्ति के लिये प्रयत्नशील।
⋙ मौक्तिकतंडुल
संज्ञा पुं० [सं० मौक्तिकतण्डुल] सफेद मक्का। बड़ी ज्वार।
⋙ मौक्तिकदाम
संज्ञा पुं० [सं०] बारह अक्षरों का एक वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में दूसरा, पाँचवाँ, आठवाँ, और ग्यारहवाँ वर्ण गुरु और शेष लघु होते है; अर्थात् जिसके प्रत्येक चरण में चार जगण होते हैं। उ०—दुख्यो हियं केतिक देखत भूप। करयो तब तापर रोष अनुप। वियोगिनि के उर भेदत रोजु। करै तुमको निज बाण मनोजु।—गुमान (शब्द०)। २. मोतियों की लड़ी।
⋙ मौक्तिकप्रसवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुक्ताशुक्ति। सोपी जिसमें से मोती निकलती है [को०]।
⋙ मौक्तिकमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्यारह अक्षरों को एक वर्णिक वृत्ति की नाम जिसके प्रत्येक चरण का पहला, चौथा, पाँचवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ अक्षर गुरु और शेष लघु होते हैं तथा पाँचवें और छठे वर्ण पर यति होती है। इसे 'अनुकूला' भी कहते हैं। उ०—भीति न गंगा जग तुव दाया। सेवत तोहि मनं बच काया। नासहु बेगी मम भवशूला। हौ तुम माता जग अनुकूला।—छंद०, पृ० १६३।
⋙ मौक्तिकावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोती की माला।
⋙ मौक्य
संज्ञा पुं० [सं०] मूकता। मौनता।
⋙ मौक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम गान।
⋙ मौख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मुख से होनेवाला पाप। जैसे, अभक्ष्य- भोजन और अपशब्दों का उच्चारण आदि।
⋙ मौख (२)
वि० १. मुखसंबंधी। २. अलिखित। वाचिक। उक्त [को०]।
⋙ मौख (३)
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का मसाला। उ०—मौख मुनक्का मृत मुलतानी। मेथी मालवंगनी सानी।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मौखर
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत अधिक या बढ़ बढ़कर बातें करना। मुखरता। मुँहजोरी।
⋙ मौखरी
संज्ञा पुं० [सं०] भारत के एक प्राचीन राजवंश का नाम जिसका शासन काल ईसवी पाँचवी शताब्दी के अंत से लगभग आठवीं शताब्दी तक था। विशेष—इस वंश का राज्य पूर्व में मगध तक, दक्षिण में मध्य प्रांत और आंध्र तक; उत्तर में नेपाल तक तथा पश्रिम में थानेश्वर और मालवे तक था। इसकी राजधानी कन्नौज थी, परंतु बीच में उसपर बैस वंशी राजा हर्ष ने अधिकार कर लिया था। इस वंश के लोग अपने आप को भद्रराज अश्वपति के वंशज मानते थे। इस वंश के बहुत प्राचीन होने के कई प्रमाण मिले हैं; पर इनका पुराना इतिहास अभी तक नहीं मिला है। हरिवर्मा, ईश्वरवर्मा, शर्ववर्मा, ग्रहवर्मा, यशोवर्मा, आदि इस वंश के प्रसिद्ध राजा थे।
⋙ मौखर्य
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत अधिक या बढ़ बढ़कर बोलना। मुखरता। वाचालता। प्रगल्भता।
⋙ मौखिक
वि० [सं०] १. मुख संबंधी। मुख का। २. जबानी। जैसे,—आप कुछ देते तो हैं नहीं, केवल मौखिक बातें करते हैं।
⋙ मौख्य
संज्ञा पुं० [सं०] मुख्यता। श्रेष्ठता। महत्ता। प्राधान्य [को०]।
⋙ मौगा †
वि० [सं० मुग्ध] [वि० स्त्री० मौगी] १. मूर्ख। दुर्बुद्धि। २. जनखा। हिजड़ा। मेहरा।
⋙ मौगी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० मौगा; मि० बंगव मागी (=स्त्री)] स्त्री। औरत।
⋙ मौग्ध्य
संज्ञा पुं० [सं०] मुग्धता [को०]।
⋙ मौध्य
संज्ञा पुं० [सं०] मोघता। व्यर्थता। निरर्थकता [को०]।
⋙ मौच
संज्ञा पुं० [सं० तुल० फा० मौज (=केला)] केले का फल।
⋙ मौज
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. लहर। तरंग। हिलोर। क्रि० प्र०—आना।—उठना। मुहा०—मौज मारना=लहराना। बहना। जैसे,—दरिया मौजें मार रहा है। मौज खाना=लहर मारना। हिलोरा लेना। (लश०)। लंबी मौज=दूर तक का बहाव। (लश०)। २. मन की उमंग। उछंग। जोश। उ०—(क) साहब के दरबार में कभी काहु की नाहिं। बंदा मौज न पावही चूक चाकरी माँहि।—कबीर। (शब्द०)। (क) कहा कभी जाके राम घनी। मनसा नाथ मनोरथ पूरण निधान जाकी मौज घनी।—सुर (शब्द०)।मुहा०—किसी को मौज आना याकिसी का मौज में आना= उमंग में भरना। अचानक किसी काम के लिये उत्तेजना होना। धुन होना। मौज उठना=मन में उमंग उठना। किसी की मौज पाना=मरजी जानना। इच्छा से अवगत होना। ३. धुन। ४. सुख। आनंद। मजा। उ०—(क) कबिरा हरि की भक्ति कर तजु विषया रस चौज। बार बार नहिं पाइए मानुष जनम की मौज।—कबीर (शब्द०) (ख) सोचु परयो मन राधिका कछु कहन न आवै। कछु हरषै कछु दुख करं मन मौज बढ़ावै।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—उड़ाना।—मारना।—मिलना।—लेना। ५. प्रभूति। विभव। विभूति। उ०—रहति न रन जयसाहि मुख लखि लाखन की फौज। जाचि निराखर हू चलै लै लाखन की मौज।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मौजा
संज्ञा पुं० [अ० मौजा] १. गाँव। ग्राम। २. स्यान। जगह (को०)।
⋙ मौजावारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रथा जिसके अनुसार फसल की स्थिति देखकर मालगुजारी निश्चित की जाती थी। उ०— मराठा काल में मौजावारी प्रथा का प्रादुर्भाव हुआ।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० ९।
⋙ मौजिब †
संज्ञा पुं० [अ० मूजिब] कारण। रहस्य। सबब। उ०— मौजिब कोई न जान कभी जिसका आज तक।—कबीर मं०, पृ० १६५।
⋙ मौजी
वि० [हिं० मौज+ई (प्रत्य०)] १. मनमाना काम करनेवाला। जो जो में आवे, वही करनेवाला। २. सदा प्रसन्न रहनेवाला। आनंदी। ३. मन में कभी कुछ और कभी कुछ विचार करनेवाला।
⋙ मौजूँ
वि० [अ० मौजूँ] १. जो किसी स्थान पर ठीक बैठता या मालूम होता है। उपयुक्त। उचित। मुनासिब। २. तुला हुआ। संतुलित। ३. छद के नियम गण, मात्रा आदि से शुद्ध (पद्य)।
⋙ मौजूद
वि० [अ०] १. उपस्थित। हाजिर। विद्यमान। रहता हुआ। उ०—जहाँ हम लोग गए थे, वहाँ शांतिपुर का हमारा नायब गुमाश्ता मौजूद था।—सरस्वती (शब्द०)। २. प्रस्तुत। तैयार। कटिबद्ध। जैसे,—आपका काम करने को मैं मौजूद हूँ। विशेष—इसका प्रयोग विशेष्य के आदि में इस रूप में नही होता; और यदि होता भी है, तो होना क्रिया का रूप लुप्त रहता है। जैसे,—वहाँ पर मौजूद सिपाही ने उसे बहुत रोका। मुहा०—मौजूद रहना=(१) उपस्थित रहना। पास रहना। सामने रहना। २. ठहरे रहना। जैसे,—मौजूद रहो; अभी उत्तर मिलेगा।
⋙ मौजूदगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सामने रहने का भाव। उपस्थित विद्यमानता।
⋙ मौजूदा
वि० [अ० मौजूदह्] वर्तमान काल का। जो इस समय मौजूद हो। प्रस्तुत। उ०—चूँकि उर्दू की एक बेनजीर तारीख (आवे हयात) मुल्क में मौजूद है; लेहाजा किताब का जियादह हिस्सा संस्कृत, हिंदी और मौजूदा हिंदी के जिक्र खैर से मामूर होगा।—जमाना (शब्द०)।
⋙ मौजूदात
संज्ञा स्त्री० [अ० मौजूदा का बहु व०] संसार का सभी चीजें। सृष्टि। चराचर जगत्।
⋙ मौठ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मकुष्ठ, प्रा० मउट्ठ] दे० 'मोठ'। उ०— बहु गोधूम चनक तंदुल अति। राहर ज्वार मसूर लेहु रति।— मुँग मौठ बटुरा बहू ल्यावहु। राजभाष अरु भाप मँगावहु।— प० रासो, पृ० १७।
⋙ मौड़ा पु
संज्ञा पुं० [सं० माणवक] दे० 'मौडा'।
⋙ मौत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मरने का भाव। मरण। मृत्यु। विशेष दे० 'मृत्यु'। उ०—अरे कंस ! जिसे तू पहुँचाने चला है, तिसका आठवाँ लड़का तेरा काल उपजेगा। उसके हाथ तेरी मौत है।—लल्लू (शब्द०)। २. वह देवता जा मनुष्यों या प्राणियों के प्राण निकालता है। मृत्यु। उ०—बिरह तेज तन में तपै अंग सबै अकुलाय। घट सूना जिब पीव में, मौति दूँढ़ि फिर जाय।—कबीर (शब्द०)। मुहा०—मौत आना=मरने को होना। मौत का पसीना आना=आसन्नमरण होना। मरने के लक्षण दिखाई देना। मौत का सिर पर खेलना=(१) मरने को होना। मरने पर होना। (२) दुर्दिन आने को होना। आपत्ति काल समीप होना। (३) प्राण जाने का भय होना। जान जोखों होना। मौत का तमाचा=मृत्यु का स्मरण दिलानेवाला कार्य का घटना। अपनी मौत मरना=स्वाभाविक ढंग से मरना। प्राकृतिक नियम के अनुसार मरना। मौत बुलाना=ऐसा काम करना जिससे मौत निश्चित हो। ३. मरने का समय। काल। मौत की घड़ी। मृत्युकाल। मुहा०—मौत माँगना=कष्ट, कठिनाइयों से ऊबकर मौत मनाना। मौत के दिन पूरे होना=किसी प्रकार आयु बिताना। कठिनता से कालक्षेप करना। ऐसे दुःख में दिन बिताना जिसमें बहुत दिन जीना असंभव हो। ४. अत्यंक कष्ट। आपत्ति। जैसे,—वहाँ जाना तो हमारे लिये मौत है।
⋙ मौताज †
संज्ञा पुं० [अ० मुहताज] दे० 'मुहताज'। उ०—जभी दाने दाने को मौताज हो।—गोदान, पृ० १८६।
⋙ मौताद
संज्ञा स्त्री० [अ०] मात्रा। उ०—चंग जो होता वैद को दिए दवा मौताद। क्यों नहिं सिर के दरद में सिर देता फिर- हाद।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मौती पु †
संज्ञा पुं० [सं० मौक्तिक] दे० 'मौती'। उ०—नासिका कौ मौती देखि उड़गन सकुचाइ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७०।
⋙ मौदक
वि० [सं०] १. मिठाई संबंधी। २. (भाव) मिठाई के क्रय विक्रय का ? [को०]।
⋙ मौदकिक
संज्ञा पुं० [सं०] हलवाई [को०]।
⋙ मौद् गल
संज्ञा पुं० [सं०] मुद् गल ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष। मौद् गल्य।
⋙ मौद् गलि
संज्ञा पुं० [सं०] काक। कौआ [को०]।
⋙ मौद् गल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुद् गल ऋषि के पुत्र का नाम। ये एक गोत्रकार ऋषि थे। २. मुद् गल ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
⋙ मौद् गल्यायन
संज्ञा पुं० [सं०] गौतम बुद्ध के एक प्रधान शिष्य का नाम।
⋙ मौद् गीन
संज्ञा पुं० [सं०] वह खेत जिसमें मूँग उत्पन्न होता हो।
⋙ मौन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. न बोलने की क्रिया या भाव। चुप रहना। चुप्पी। उ०—संपत्ति अरु विपत्ति को मिलि चलै प्रभु तहाँ जहाँ नहिं होइ सुमिरन तिहारो। करत दंडवत मैं तुमहिं करुणाकरन कृपा करि ओर मेरे निहारो। सुनत यह बचन हरि करयो अब मौन करि कृपा तोहि पर बीर धारी। संपत्ति अरु विपत्ति को भय न होइहै तिसै सुनै जो यह कथा चित्त धारी।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—रहना। मुहा०—मौन गहना या ग्रहण करना=चुप रहना। चुप्पी साधना। न बोलना। उ०—(क) देखत ही जेहि मौन गही अरु मौन तजे कटु बोल उचारे।—केशव (शब्द०)। (ख)मौन गहौं मन मारि रहों निज पीतम की कहों कौन कहानी।— व्यंग्यार्थ (शब्द०)। मौन खोलना=चुप रहने के उपरांत बोलना। उ०—खिनक मौन बाँध खिन खोला। गहेसि जीभ मुख जाइ न बोला।—जायसी (शब्द०)। मौन तजना=चुप्पी छोड़ना। बोलने लगना। उ०—देखत ही जेहि मौन गही अरु मौन तजे कटु बोल उचारे।—केशव (शब्द०)। मौन धरना या धारण करना=न बोलना। चुप होना। मौन होना। उ०—जँह बैठी वृषभानु नंदिनी तँह आए धरि मौन। पड़े पायँ हरि चरण परसि कर छिन अपराध सलौन।—सूर (शब्द०)। मौन बाँधना=चुप्पी साधना। चुप हो जाना। उ०—जो बोले सो मानिक मूँगा। नाहिं तो मौन बाँधु होइ गूँगा।—जायसी (शब्द०)। मौन लेना या साधना=मौन धारण करना। चुप होना। न बोलना। उ०—जिय में न क्रोध करु जाहि अब केहू ठौर नगर जरावे जिन साध्या हम मौन है।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। मौन सँभारना=मौन साधना। चुप होना। २. मुनियों का व्रत। मुनिव्रत। ३. फागुन महीने का पहला पक्ष। ४. उदासीनता। खिन्नता। अप्रफुल्लता (को०)।
⋙ मौन (२)
वि० [सं० मौनो] जो न बोले। चुप। मौनी। उ०—(क) हमहुँ कहब अब ठकुर सुहाती। नहिं त मौन रहब दिन राती।—तुलसी (शब्द०)। (ख) इतनी सुनन नैन भरि आए प्रेम नंद के लालहि। सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै घोष बात जानि चालहि।—सूर (शब्द०)।
⋙ मौन पु ‡ (३)
संज्ञा पुं० [सं० मौण] १. वरतन। पात्र। उ०— काढ़ो कोरे कोपर हो अरु काढ़ो घी को मौन। जाति पाँति पहिराय कै सब समदि छतीसो पौन।—सूर (शब्द०)। २. डब्बा। उ०—मानहुँ रतन मौन दुइ मूँदे।—जायसी (शब्द०)। ३. मूँज आदि का बना टोकरा या पिटारा।
⋙ मौनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मौन होने या रहने का भाव। चुप होना। चुप्पी।
⋙ मौनभंग
संज्ञा पुं० [सं० मौनभङ्ग] मौन तोड़ना। चुप्पी त्याग कर बोलना।
⋙ मौनमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चुप्पी। मौन भाव [को०]।
⋙ मौनव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] मौन धारण करने का व्रत। चुप रहने का व्रत।
⋙ मौना
संज्ञा पुं० [सं० मौण] [स्त्री० अल्पा० मौनी] १. घी या तेल आदि रखने का एक विशेष प्रकार का बरतन। २. काँस और मूँजे से बुनकर बनाया हुआ टोकरा जिसमें अन्न आदि रखा जाता हैं। ३. सींक या काँस और मूँज का तंग मुँह का ढक्कनदार टोकरा। पिटारी। ४. मधुमक्खी। उ०—जाड़े से हड्डी बजती, सरकार हुआ बूढा तन। मौना के छत्ते करते फूटे कानों में भन भन।—अतिमा, पृ० १६।
⋙ मौनी (१)
वि० [सं० मौनिन्] चुप रहनेवाला। न बोलनेवाला। मौन धारण करनेवाला।
⋙ मौनी (२)
संज्ञा पुं० मुनि। वनवासी। तपस्वी।
⋙ मौनी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मौना] कटोरे के आकार की टोकरी जो प्रायः काँस और मूँज से बुनकर बनाई जाती है।
⋙ मौनो अमावस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ की अमावस्या।
⋙ मौनेय
संज्ञा पुं० [सं०] गंधर्वों ओर अप्सराओं आदि का एक मातृक गोत्र। विशेष—इन जातियों में माता का गोत्र प्रधान होता है; क्योंकि इनके पिता अनिश्चित होते हैं।
⋙ मौर (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुकुट, पा० मउड़] [स्त्री० अल्पा० मौरी] १. एक प्रकार का शिरोभूषण जो ताड़पत्र या खुखड़ी आदि का बनाया जाता है। विवाह में वर इसे अपने सिर पर पहनता है। उ०—(क) अवधू बोत तुरावल राता। नाचै बाजन बाज बराता। मौर के माये दूलह दीन्हीं, अकथा जोरि कहाता। मड़ये के चारन समधी दीन्हों पुत्र विआहल माता।—कबीर (शब्द०)। (ख) सोहत मोर मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता- मनि गाथे।—तुलसी (शब्द०)। (ग) रामचंद्र सीता सहित शोभत हैं तेहि ठौर। सुवरणमय मणिमय खचित शुभ सुंदर सिर मौर। -केशव (शब्द०)। मुहा०—मौर बाँधना=विवाह के समय सिर पर मौर पहनना। उ०—पाँवरि तजहु देहु पग, पैरन बाँक तुखार। बाँध मौर औ छत्र सिर बेगि देहु असवार।—जायसी (शब्द०)। २. शिरोमणि। प्रधान। सरदार। उ०—(क) जो तुम राजा आप कहावत वृंदाबन की ठौर। लूट लूट दधि खात सबन कोसब चोरन के मौर।—सुर (शब्द०)। (ख) साधू मेरे सब बड़े अपनी अपनी ठौर। शब्द बिबेकी पारखी वह माथे का मौर।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मौर (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुकुल, प्रा० मउल] छोटे छोटे फूलों या कलियों से गुथी हुई लंबी लटोंवाला धौद। मंजरी। बौर। जैसे,—आम का मौर। पयार का मौर। अशोक का मौर। उ०—(क) नंद महर घर के पिछवाड़े राधा आइ बतानी हो। मनों अंब दल मौर देखइ कै कुहकि कोकिला बानी हो।—सूर (शब्द०)। (ख) चलत सुन्यो परदेश को हियरो रह्यौ न ठौर। लै मालिन मीतहिं दिया नव रसाल को मौर।—मतिराम (शब्द०)। मुहा०—मौर बँधना=मौर निकलना। मंजरी लगना।
⋙ मौर (३)
संज्ञा पुं० [सं० मौलि (=सिर)] गरदन का पिछला भाग जो सरि के नीचे पड़ता है। गरदन। उ०—(क) बौंह उँचै आँचरु उलटि मौर मोरि मुँह मोरि।—बिहारी (शब्द०)। (ख) मोर उँचै घूटेन नै नारि सरोवर न्हाइ।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मौरजिक
संज्ञा पुं० [सं०] मुरज निर्माण करनेवाला शिल्पी। मुरज वाद्य बनानेवाला।
⋙ मौरना
क्रि० स० [हिं० मौर+ना (प्रत्य०)] वृक्षों पर मंजरी लगना। आम आदि के पेड़ों पर बौर लगना। उ०—(क) काटे आँब न मौरिया फाटे जुरे न कान। गोरख पद परसे बिना कहौ कौन की सान।—कबीर (शब्द०)। (ख) शिशिर होत पतझार, आँब कटाहर एक से। राह बंसंत निहार, जग जाने मौरत प्रगट।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। (ग) बिलोके तहाँ आँव के साखि माँरे। चहूँधा भ्रमै हुंकरैं भौंर बौरे। लगे पौन के झोंक डारैं झुकावैं। बिचारे वियोगोन को ज्यों डरावै।—गुमान (शब्द०)।
⋙ मौरसिरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मौलि+श्री] दे० 'मौलसिरो'। उ०— (क) जुही नसत तासों कहूँ प्रीति निबारी जाय। मौरासिरी दिन दिन चढ़ै सदा सुहागि लताहि।—रसिनिधि (शब्द०)। (ख) मौरसिरी ही को पैन्हि कै हार भई सब के सिर मौर सिरी तू।—देव (शब्द०)।
⋙ मौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मौर+ई (प्रत्य०)] १. छोटा मौर जो विवाह में बधू के सिर बाँधा जाता है। उ०—मौर लसै उत मौरी इतै उपमा इकहू नहिं जातु लही है। केसरी बागो बनों दोउ के इत चंद्रिका चारु उसै कुलही है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ७७७।
⋙ मौरूसी
वि० [अ०] बाप दादो के समय से चला आया हुआ। पैतृक। जैसे,—यह बीमारी तो उनके खानदान में मौरूसी है। यौ०—मौरूसी कश्तिकार=वह कश्तिकीर जिसकी कश्ति पर उसके उत्तराधिकारी को भी वही हक प्राप्त हो। मौरूसी जायदाद=पैतृक परंपरा से प्राप्त जमोना। जैसे,—यह मौरूसी जायदाद है; इसमें सब का हक है।
⋙ मौखर्य
संज्ञा पुं० [सं०] मुर्खता। बेवकूफी।
⋙ मौर्य
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रियों के एक वंश का नाम। विशेष—सम्राट् चंद्रगुप्त और अशोक इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। पुराणों में मौर्यो का वर्णसंकर लिखा है और मौर्य वंश का मूलपुरुष 'चंद्रगुप्त' माना गया है। पुराणों के अनुसार चंद्रगुप्त का जन्म मुरा नामक शूद्रा से हुआ था और वह चाणक्य की सहायता से नंदों का नाश कर पाटलिपुत्र का सम्राट हुआ था। (विशेष दे० 'चंद्रगुप्त') पर बौद्ध ग्रंथों में 'चंद्रगुप्त' को 'मोरिय' वंश का लिखा है और उसे शुद्ध क्षत्रिय माना है। मौर्य वंश के शुद्ध क्षत्रिय होने की पुष्टि दिव्यावदान में अशोक के मुँह से कहलाए हुए 'दोव अहं क्षत्रियः कथं पलांडु परिभक्षयामि' से भौ होता है, जिसमें अशोक कहता है—'दीव, मैं क्षत्रिय हूँ; मैं प्याज कैस खाऊँ। 'मुरा' शब्द में 'णय' प्रत्यय लगाने से 'मौय' शब्द बहुत खींच खाच से बनता है; पर पालि भाषा में 'मोरिया' शब्द आया है, जिसकी सिद्धि पालि व्याकरण के अनुसार 'मोर' शब्द सो जो 'मयूर' का पालि रूप है, की गई है। यह समझकर जैनियों ने चंद्रगुप्त की माता को नंद के मयूर- पालकों के सरदार की कन्या लिखा है। बुद्धघोष के विपयपिंटक की आत्मकथा का टीका और महावंश का टीका में चंद्रगुप्त को मोरिय नगर के राजा के रानी का पुत्र लिखा है। यह मोरिय नगर हिंदूकुश और चित्राल के मध्य उज्जानक (सं० उद्यान) देश में था। महापरिनिर्वाण सुत्र में लिखा है कि जिस समय महात्मा गौतम बुद्ध का कुशीनगर में निर्वाण हुआ था और मल्लराज ने उनकी अंत्येष्टि के अनंतर उनके भस्म और अस्थि को कुशीनगर में चैत्य बनाकर प्रतिष्ठित करना चाहा था, उस समय कपिलवस्तु, राजगृह आदि के राजाओं ने महात्मा बुद्धदेव के धातु को बाँटकर अपने अपने भाग को अपने अपने देश में चैत्य बनाकर रखने के उद्देश्य से कुशीनगर पर चढ़ाई को थी, जिससे महान् उपद्रव की संभावना देख महात्मा द्रोण ने महात्मा बुद्धदेव के धातु को विभक्त कर प्रत्येक को कुछ कुछ भाग देकर झगड़ा शात किया था। उन राजाओं में, जिन्हें महात्मा बुद्धदेव की चिता के भस्म का भाग दिया गया था, पिप्पलीकानन के मोरिया राजा का भी उल्लेख महापरिनिर्वाण सूत्र में है। इससे विदित होता है कि महात्मा बुद्धदेव के परिनिर्वाण काल में पिप्पलीकानन में मोरिय क्षत्रियों का निवास था। इससे मोरिय राजवंश की सत्ता का पता चंद्रगुप्त से बहुत पहले तक चलता है। ये मोरिय लोग शाक्य, लिच्छवि, मल्ल आदि वंश के क्षत्रियों के संबंधी थे। जान पड़ता है, ये लोग काबुल के प्रदेशों के रहनेवाले क्षत्रियों थे; और जब पारसी आर्यों ने भारतीय आर्यों पर आक्रमण करना प्रारंभ किया, तब ये लोग भागकर नेपाल की तराई में चले आए और वहाँ के लोगों को अपने अधिकार में करके इन्होंने छोटे छोटे अनेक राज्य स्थापित किए। इनके आचार आदि पर पारसी आर्यो और मध्य एशिया की अन्य जातियों का प्रभाव पड़ा था; इसलियेमनु जो ने उन्हें व्रात्य क्षत्रिय लिखा है।— झल्लोमल्लश्च राजन्याद व्रात्याल्लिच्छिविरेवच। नटश्चकरणश्चैव खसोद्रविड एव च। संभव है, बौद्ध हो जाने के कारण ही संस्का रच्युत होने पर इन जातियों को व्रात्यज लिखा गया हो; और इसीलिये पुराणों में चंद्रगुप्त मौर्य के वंश के लिये भी 'वृपल' या वर्णसंकर लिखा गया हो। महावंश के टीकाकर और दिव्याबदान के टीकाकारों का कथन है कि चंद्रगुप्त मोरिय नगर के राजा का पुत्र था। जब मोरिय के राजा का ध्वंस हुआ तब उसकी गर्भवती रानी अपने भाई के साथ बड़ी कठिनता से भागकर पुष्पपुर चली आई और वहीं चंद्रगुप्त का जन्म हुआ। यह चंद्रगुप्त गौए चराया करता था। इसे होनेपर देख चाणक्य- जी अपने आश्रम पर लाए और उपनयन कर अपने साथ तक्षशिला ले गए। जब सिकंदर ने पंजाब पर आक्रमण किया, तब तक्षशिला के ध्वंस होने पर चंद्रगुप्त आचार्य चाणक्य के साथ सिकंदर के शिबिर में था। वील साहब का कथन है कि मोरिय नगर उज्जानक प्रदेश में था, जो हिंदूकुश और चित्राल के मध्य में था। इन सब बातों को देखते हुए जान पड़ता है, जिस प्रकार निस्विश से लिच्छवि, शक से शाक्य आदि राजवंशों के नाम पड़े, उसी प्रकार मोरिय नगर के प्रथम अधिवासी होने के कारण मौर्य राजवंश की भी नाम रखा गया; और आचार व्यवहार की विभिन्नता से पुराणों में उसे 'वृषल' आदि लिखा गया। पारस की सीमा पर रहने के कारण उनके आचार व्यवहार और रहन सहन पर पारसियों का प्रभाव पड़ा था; और चंद्रगुप्त तथा अशोक के समय के गृहों और राजप्रसादों का भी निर्माण पारस के भवनों के ढंग पर ही किया गया था। चंद्रगुप्त के अनतर अशोक मौर्य वंश का सबसे प्रसिद्ध सम्राट हुआ। मौर्य साम्राज्य का ध्वंस शुंगों ने किया। पर विक्रम की आठवी शताब्दी तक इधर उधर मौर्यों के छोटे छोटे राज्यों का पता लगता है। ऐसा प्रसिद्ध है, और जैन ग्रंथों में भी लिखा है कि चितौड़ का गढ़ मौर्य या मोरी राजा चित्रांग ने बनवाया था।
⋙ मौर्बी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धनुष की प्रत्यंचा। कमान की डोरी। ज्या। २. मूर्वा घास की बनी मेखला जिसे क्षत्रियों को धारण करने का विधान है [को०]।
⋙ मौल (१)
वि० [सं०] १. मूल से संबंध रखनेवाला। २. मौरूसी। पैतृक। ३. परंपरागत। परंपराप्राप्त (को०)।
⋙ मौल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल के एक प्रकार के मंत्री। २. बड़ा जमीदार। तालुकेदार। भूस्वामी। विशेष—मनु ने लिखा है कि ग्राम के सीमा संबंधी विवाद को सामंत और यदि सामंत न हो तो मौल निपटावे।
⋙ मौलबल
संज्ञा पुं० [सं०] बड़े जमीदारों की अथवा उनके द्वारा एकत्र की हुई सेना।
⋙ मौलवी
संज्ञा पुं० [अ०] १. अरबी भाषा का पंडित। २. मुसलमान धर्म का आचार्य, जो अरबी, फारसी आदि भाषाओं का ज्ञाता हो। ३. धर्मनिष्ठ मुसलमान।
⋙ मौलवीगिरी
संज्ञा स्त्री० [अ० मौलवी+गिरी] मौलवी का काम। अध्यापन [को०]।
⋙ मौलसिरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मौलि+श्री] एक प्रकार का बड़ा सदाबहार पेड़। उ०—पहिरत ही गोरे गरे यों दौरी दुति लाल। मनौ परसि पुलकित भई मौलसिरी की माल।—बिहारी (शब्द०)। विशेष—इसकी लकड़ी अंदर से लाल और चिकनी होती है जिससे मेज, कुर्सी आदन बनाई जाती है। यह दरवाजे और सँगहे बनाने के भी काम आति है। इसके फसू मुकुट के आकार के, तारे की भाँति छोटे छोटे होते हैं और उनसे इत्र बनाया जाता है। इसके फल पकने पर खाने योग्य होते हैं और बीजों से तेल निकलता है। इसकी छाल ओषधियों में काम आती है। इसकी पेड़ बीजों से उत्पन्न होता है और सब देशों में लगाया जा सकता है। पश्चिमी घाट और कनारा में यह जंगलों में स्वच्छद रूप से उगता है। यह पेड़ बहुत दिनों में बढ़ता है। यह बरसात में फूलता और शरद् ऋतु में फलता है। इसके फूल सफेद, कटावदार और छोटे छोटे बहुत ही कोमल और मीठी सुंगंधवाले होते हैं। पर्या—बकुल। केसर। सीधगंध। मुकुल। मधुपुष्प। सुरभि। शारदिक। करक। चिरपुष्प।
⋙ मौला (१)
संज्ञा पुं० [देश०] उत्तरी भारत में होनेवाली एक प्रकार की बेल जिसकी पत्तियाँ एक बालिश्त तक लंबी होती है। जाड़े के दिनों में इसमें आध इंच लंबे फूल लगते हैं। इसके तने से एक प्रकार का लाल रंग का गोंद निकलता है। यह बेल जिस वृक्ष पर चढ़ती है, उसे बहुत हानि पहुँचाती है। मूला। मल्हा बेल।
⋙ मौला (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. स्वामी। मालिक। २. ईश्वर। परमेश्वर। ३. दासता से मुक्त दास [को०]।
⋙ मौलाना
संज्ञा पुं० [अ० मौलाना] १. अरबी भाषा का बहुत बड़ा विद्वान्। २. बड़ा मौलवी। ३. विद्वान्।
⋙ मौलि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ का सबसे ऊँचा भाग। चोटी। सिरा। चूड़ा। २. मस्तक। सिर। ३. किरीट। ४. जूड़ा। जटाजूट। ५. अशोक का पेड़। ६. मुख्य वा प्रधान व्यक्ति। सरदार।
⋙ मौलि (२)
संज्ञा स्त्री० पृथिवी। भूमि। जमीन। यौ०—मौलिपृष्ट=मुकुट। मौलिबंध=मुकुट। राजमुकुट। किरीट। मौलिमणि=मुकुट में जड़ा हुआ रत्न। श्रेष्ठ मणि। शिरो- मणि। मौलिमुकुट=मुकुट। मौलिरत्न=दे० 'मौलिमणि'।
⋙ मौलिक
वि० [सं०] १. मूल संबंधी। २. मुख्य। प्रधान। ३. जो किसी की छाया, या अनुवाद न हो। ४. छोटा। निम्न (को०)।
⋙ मौलिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मौलिक होने का भाव [को०]।
⋙ मौलिमनि पु
वि० [सं० मौलिमणि] शिरोमणि। प्रधान।उ०—मो सम कुटिल मौलिमनि नहिं जग, तुम सम हरि न हरन कुटिलाई।—संतवाणी०, भा० २, पृ० ८३।
⋙ मौली (१)
वि० [सं० मौलिन्] जिसके सिर पर मौलि या मुकुट हो। मुकुटधारी।
⋙ मौली (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मौलि'।
⋙ मौलूद
संज्ञा पुं० [अ०] १. नवजात शिशु। जन्म प्राप्त शिशु। २. मुहम्मद साहब के जन्म का उत्सव। उ०—काशी में व्यास गद्दी सी लगाकर मौलूद की कथा की भाँति।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३६५। यौ०—मौलूदख्वाँ=मौलूद की कथा कहनेवाला। मौलूद- शरीफ=(१) मुहम्मद साहब की जन्मकथा। (२) वह मजलिस जिसमें मुहम्मद साहब की जन्मकथा कही जाय।
⋙ मौलेयक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रत्न या हीरा (कौटि०)।
⋙ मौल्य
संज्ञा सं० [सं०] मूल्य।
⋙ मौषल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के एक पर्व का नाम।
⋙ मौषल (२)
वि० [सं०] १. मुषल संबंधी। २. मूसल के आकार का।
⋙ मौषिकपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शतपथ ब्राह्मण के अनुसार एक आचार्य का नाम।
⋙ मौष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] घूँसे की मार। घूँसाघूँसी। मुक्कामुक्की।
⋙ मौष्टिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोरी। ठगी। २. चोर। ठग। बटमार। धूर्त।
⋙ मौसम
संज्ञा पुं० [अ० मौसिम] दे० 'मौसिम'।
⋙ मौसर पु †
वि० [अ० मुयस्सर (=प्राप्त)] १. जो सुगमता से मिल सके। सुप्राप्य। मुहा०—मौसर आना=मिल सकना। उ०—समय की चुक हूक सालति प्रबीनन को मौसर न आवै बनै औसर जबाब को।— बलबीर (शब्द०)। २. उपलब्ध। प्राप्त। उ०—(क) औसर के मौसर भए मत दे करतें खोइ। जोबन औसर भावतो बार बार नहिं होइ।— रसनिधि (शब्द०)। (ख) बार बार नहिं होत है औसर मौसर बार। सौ सिर देवै को अरे जो फिर हूजै त्यार।—रसनिधि (शब्द०)। क्रि० प्र०—आना।—करना।—होना।
⋙ मौसल
वि० [सं०] मूसल संबंधी। मूसल का।
⋙ मौसली ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० मौलसिरी] दे० 'मौलसिरो'।
⋙ मौसा
संज्ञा पुं० [हिं० मौसी का पुं०] [स्त्री० मौसी] माता की बहन का पति। मौसिया या माँसी का पति।
⋙ मौसिम
संज्ञा पुं० [अ०] [वि० मौसिमी] १. उपयुक्त समय। अनुकूल काल। २. ऋतु।
⋙ मौसिमी
वि० [अ०] १. समयोपयोगी। काल के अनुकूल। २. ऋतु संबंधी। ऋतु का। जैसे, मौसिमी फल, मौसिमी मिठाई।
⋙ मौसिमी बुखार
संज्ञा पुं० [अ० मौसिमी+फा० बुखार] चैत या भादौं कुआर में होनेवाला ज्वर।
⋙ मौसिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मौसा+इया] दे० 'मौसा'।
⋙ मौसिया (२)
वि० संबंध में मौसी या मौसा के स्थान का। मौसी के द्वारा संबंध रखनेवाला। जैसे, मौसिया सास, मौसिया ससुर। दे० 'मौसेरा'। जैसे, चोर चोर मौसिया भाई। (कहावत)।
⋙ मौसियाउत
वि० [हिं० मौसी+आउत (प्रत्य०)] मौसेरा।
⋙ मौसियायत †
वि० [हिं० मौसी] दे० 'मौसियाउत'।
⋙ मौसी
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृष्वसा, प्रा० माउस्सिमा] [वि० मौसेरा, मौसियाउत] माता की बहिन। मासी। उ०—मातु मौसी बहिन हूँ तें सासु तें अधिकाइ। करहि तापस तीय तनया सीय हित चित लाइ।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मौसूफ
वि० [अ० मौसूफ] [स्त्री० मौसूफा] १. जिसकी प्रशंसा की जाय। प्रशंसित। २. पूर्वोक्ति। जिसका जिक्र चल रहा हो। ३. जिस शब्द के साथ कोई विशेषण हो। विशेष्य [को०]।
⋙ मौसूम
वि० [अ०] [वि० मौसूमह्] नाम रखा हुआ। हुआ। नामधारी।
⋙ मौसूल
वि० [अ०] [वि० स्त्री० मौसूलह्] प्राप्त। लब्ध। हासिल।
⋙ मौसेरा
वि० [हिं० मौसी+एरा (प्रत्य०)] मौसी के द्वारा संबंद्ध। मौसी के संबंध का। जैसे, मौसेरा भाई, मौसेरी बहन, मौसेरा ससुर, मौसेरी सास, इत्यादि। उ०—जब देवसरूप बैठ गए, उनके मौसेरे ससुर नंदकुमार अपनी ठौर से उठे और देखकर कहने लगे।—अधखिला फूल (शब्द०)।
⋙ मौहर †
संज्ञा पुं० [सं० मधुकर० प्रा० महुअर] दे० 'महुअर'। उ०—जलतरंग मुरली किंकिन मौहर उपंग मंडल स्वर तिंतिन।—कबीर सा०, पृ० २४९।
⋙ मौहरु ‡
संज्ञा पुं० [सं० मुकुट] मुकुट। मौर। उ०—रघवर की निकरौसी कीनीं मौहरु राँम पै बँधवाँमें।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३६।
⋙ मौहूर्त
संज्ञा पुं० [सं०] मुहूर्त बतलानेवाला। ज्योतिषी।
⋙ मौहूर्तिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुहूर्त बतलानेवाला। ज्योतिषी। २. दक्ष की मुहूर्ती नामक कन्या से उत्पन्न एक देवगण।
⋙ मौहूर्तिक (२)
वि० मुहूर्त से उत्पन्न। मुहुर्तोद् भव।
⋙ म्नात
वि० [सं०] जिसे दो बार किया गया हो। २. दुहराया हुआ। २. पढ़ा हुआ। सीखा हुआ [को०]।
⋙ म्यंत पु †
संज्ञा पुं० [सं० मित्र] दे० 'मीत'। उ०—काल सहाणौं यौं खड़ा, जागि पियारे म्यंत। रांम सनेही बाहिरा तू क्यू सोवै नच्यंत।—कबीर ग्रं०, पृ० ७२।
⋙ म्याउँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'म्याँव'। मुहा०—म्याऊँ म्याऊँ करना=म्यावाँ म्यावँ करना'। उ०— बिल्ली अपना, हिस्सा या तो म्याउँ म्याउँ करेक माँगते है या चोरी से ले जाती है।—रस०, पृ० ११२।
⋙ म्याँवँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] बिल्ली की बोली।मुहा०—म्याँवँ म्याँवँ करना=भयभीत होकर धीमी आवाज में बोलना। डर के मारे बोल बंद हो जाना।
⋙ म्यान
संज्ञा पुं० [फा० मियान] १. कोष जिसमें तलवार, कटार आदि के फल रखे जाते हैं। तलवार, कटार आदि का फल रखने का स्थान। उ०—चाखा चाहै प्रेम रस राखा चाहै मान। दोय खंग इक म्यान में देखा सुना न कान।—कबीर (शब्द०)। (ख) जब माल इकट्ठा करते थे, अब तन का अपने ढेर करो। गढ़ टूटा लश्कर भाग चुका अब म्यान में तुम शमसेर करो।—नजीर (शब्द०)। २. अन्नमय कोश। शरीर। उ०—(क) कविरा सूता क्या करें, उठि न भजै भगवान। जम धरि जब ले जायँगे पड़ा रहैगा म्यान।—कबीर (शब्द०)। (ख) चंचल मनुवाँ तचेत रे सोवै कहा अजान। जम धर जब ले जायगा पड़ा रहेगा म्यान।—कबीर (शब्द०)।
⋙ म्याना पु
क्रि० स० [हिं० म्यान] म्यान में डालना। म्यान में रखना। उ०—(क) अस कहि अपनी काढ़ि कृपानी। म्यान्यौ ताहि विशेष कखानी।—रघुराज (शब्द०)। (ख) तासु तेजु साहि सक्यो न राना। खड्ग तुरंत म्यान महँ म्याना।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ म्याना (२)
संज्ञा पुं० [फा० म्ययानह्] दे० 'मियाना'।
⋙ म्याना (३)
वि० मध्य का। बीच का। मझोला।
⋙ म्यानी
संज्ञा स्त्री० [फा० मियानी] पाजामे की काठ में एक टुकड़े का नाम जो दोनों पल्लों को जोड़ते समय रानों के बीच में जोड़ा जाता है।
⋙ म्युजियम
संज्ञा पुं० [अ० म्युजियम] वह स्थान जहाँ देश तथा विदेश के अनेक प्रकार के अदभुत और विलक्षण पदार्थ संगृहीत हों। अदभुत पदार्थों का संग्रहलय। अजायवघर।
⋙ म्युनिसिपल
वि० [अ०] नगरपालिका या म्युनिसिपैल्टी संबंधी। उ०—१५० रुपये सालाना आय पर म्युनिसिपल टैक्स देनेवाले व्यक्ति।—भारतीय०, पृ० २०।
⋙ म्युनिसिपैलटी
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'म्युनिसिपैल्टी'। उ०— म्युनिसिपैलिटी के कार्य निर्वाह का बोझ एक आदमी के सिर नहीं है उस्मैं बहुत से मेंवर होते हैं।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २२०।
⋙ म्युनिसिपैल्टी
संज्ञा स्त्री० [अं०] किसी नगर के नागरिकों की वह प्रतिनिधि सभा जिसे उस नगर के स्वास्थ्य, स्वच्छता तथा अन्यान्य आंतरिक प्रबंधों का स्वतंत्र रूप से नियमानुसार अधिकार हो। विशेष—प्रायः सभी बड़े नगरों में वहाँ की सफाई, रोशनी, सड़कों और मकानों आदि की व्यवस्था तथा इसी प्रकार के और अनेक कार्यों के लिये म्युनिसिपैलिटी का संघटन होता है। इसके सदस्यों का चुनाव प्रायः प्रति तीसरे वर्ष कुछ विशिष्ट योग्यतावाले नागरिकों के द्वारा हुआ करता है।
⋙ म्यों
संज्ञा स्त्री० [अनु०] बिल्ली की बोली। मुहा०—म्यों म्यों करना=दे० 'म्याँवँ म्याँवँ करना'। उ०—मेरी देह छुटत जदम पठए जितक हुते घर मों। लै लै सब हथियार आपुने सान धराए त्यों। तिनके दारुन दरस देखइ कै पतित करत म्यों म्यों।—सुर (शब्द०)। दे० 'म्याँव'।
⋙ म्योंड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्गुण्डी] एक सदाबहार झाड़ का नाम। सिंदुवार। निर्गुंडी। विशेष—इस झाड़ में क्सेरिया रंग के छोटे छोटे फूलों की मंज- रियाँ लगती हैं। इसकी डालियों में आमने सामने पत्तियाँ होती हैं, जिनके बीच से दूसरी शाखाएँ निकलती हैं। इसकी पत्तियों के बीच एक सींक होती है जिसके सिरे पर एक और दोनों ओर दो दो पत्तियाँ होती हैं, जो कुल मिलकर पाँच पाँच होती हैं। यह झाड़ बनों में होता है और बागो के किनारे बाढ़ पर भी लगाया जाता है। वैद्यक में म्योड़ी उष्ण और रुक्ष मानी गई है और इसका स्वाद कटु तथा तिक्त लिखा गया है। यह खाँसी, कफ, सूजन और अफरा को दूर करती है। इसका प्रयोग बात रोग में भी होता है और इसकी पत्तियों की भाप बवासीर की पीड़ा को दूर करती है। पर्या०—नीलिका। नील निर्गुडी। सिंहक। सिंदवार। निर्गुडी।
⋙ म्रक्ष, म्रक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपने दोषों को छिपाना। मक्कारी। २. तेल लगाना। ३. मसलना। मीजना।
⋙ म्रगंमद पु
संज्ञा पुं० [सं० मृगमद] कस्तूरी। मृगमद। उ०— कालिंदी न्हावहि न नयन अंजै न म्रगंमद। कुचा अग्र परसै न नील दल कवल तोरि सद।—पृ० रा०, २। ३४९।
⋙ म्रग पु
संज्ञा पुं० [सं० मृग] [स्त्री० म्रगी] मृग। हिरन। उ०— म्रगी जान भ्रद्दै धरै बघ्घ धाई।—पृ० रा०, ६१। २२३३।
⋙ म्रगतिह्म पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगतृष्णा, प्रा० म्रगतिण्हा] दे० 'मृगतृषा', 'मृगतृष्णा'। उ०—नव बधू सजत भूषन सँवारि, ससि बढ़ी किरन अति तेज तार। म्रगतिह्म भई उर मुत्ति- माल, भुल्लै चकोर ससि नैन चाल।—पृ० रा०, २। ३४९।
⋙ म्रगमास †
संज्ञा पुं० [सं० मृगमास] दे० 'मार्गशीर्ष'। उ०—नव उच्छव नर नार नवल शृंगार वसन्ने। गीता मैं म्रगमास कह्यौ मम रूप किसन्ने।—रा० रू०, पृ० ३७७।
⋙ म्रग्ग पु
संज्ञा पुं० [सं० मृग, प्रा० म्रग्ग] [स्त्री० म्रग्गी] दे० 'मृग'। उ०—तिते देषि असमान म्रागी ठठुक्की। मनो मैनिका नृत्य तें ताल चुक्की।—पृ०, रा०, १। ४३०।
⋙ म्रजाद पु
संज्ञा पुं० [सं० मर्याद] दे० 'मर्यादा'। उ०—पुष्टि म्रजांद भजन सुख सीमा निजजन पोषन भरन भजौं।—नंद० ग्रं० पृ० ३२५।
⋙ म्रदिमा
संज्ञा पुं० [सं० म्रदिमन्] १. मृदुता। कोमलता। २. नम्रता। आजिजी।
⋙ म्रदिष्ट
वि० [सं०] अति मृदु। अत्यंत कोमल।
⋙ म्रदु पु
वि० [सं० मृदु] दे० 'मृदु'। उ०—सुंदर भाल विसाल, अलक सम माल अनोपम। हित प्रकाश म्रदु हास, अरुण वारिज मुख ओपम।—रा० रू०, पृ० २।
⋙ म्रदना पु
क्रि० स० [सं० मर्द्दन] दे० 'मर्दना'। उ०—परे पंच वीरं, म्रदे लष्ष भीरं।—पृ० रा०, ६१। १६८३।
⋙ म्रनाल पु †
संज्ञा पुं० [सं० मृणाल] दे० 'मृणाल'। उ०—मनों चंच हंसी म्रनालं ति षग्गी।—पृ० रा०, ५५। १४८।
⋙ म्रातन
संज्ञा पुं० [सं०] कैवर्ती मुस्तक। केवटी मोथा।
⋙ म्रितक
संज्ञा पुं० [सं० मृतक] दे० 'मृतक'। उ०—म्रितक होय काल को डसे, उलट बाँमी सर्प को षाइ।—रामानंद०, पृ० ३४।
⋙ म्रिथा पु †
क्रि० वि० [सं० मृषा] दे० 'मृथा'। उ०—यह म्रिथा मच नहि होय। सब भर्मजात वियोग।—संत० दरिया, पृ० १०।
⋙ म्रिनाल पु †
संज्ञा पुं० [सं० मृणाल] दे० 'मृणाल'। उ०—डटि अंत दंतन तीर। म्रिनाल मनु कढ़ि नीर। -पृ० रा०, ६१। १७१३।
⋙ म्रियमाण
वि० [सं०] मरता हुआ। मरा हुआ सा। मृतप्राय। अवसन्न। उ०—खिल उठे पुण्य पद्म म्रियमाण; विश्व का हो सदैव कल्याण।—सागरिका, पृ० ७६।
⋙ म्लात
वि० [सं०] मुरझाया हुआ। म्लान [को०]।
⋙ म्लान (१)
वि० [सं०] मलिन। कुम्हलाया हुआ। २. दुर्बल। कमजोर। ३. मैला। मलिन।
⋙ म्लान
संज्ञा स्त्री० दे० 'म्लानि'। यौ०—म्लानमना=उदास। खिन्न। म्लानव्रीड=निर्लज्ज। बेशर्म। लज्जाहीन।
⋙ म्लानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. म्लान होने का भाव। मलिनता। २. ग्लानि।
⋙ म्लानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मलिनता। कांतिक्षय। २. छाया। मलिनता। उ०—या कि विधु में ज्यों मही की म्लानि, दूर भी बिंबित हुई गृह ग्लानि।—साकेत, पृ० १६६। २. ग्लानि। शोक।
⋙ म्लायी
वि० [सं० म्लायिन्] १. म्लान। म्लानियुक्त। २. दुखी।
⋙ म्लिष्ट
वि० [सं०] १. जो साफ न हो। अस्पष्ट। जैसे, म्लिष्ट वाणी। २. अव्यक्त वाणी बोलनेवाला। जो स्पष्ट बोलता हो।
⋙ म्लेच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्यों की वे जातियों जिनमें वर्णाश्रम धर्म न हो। इस शब्द का अर्थ है—अस्पष्टभाषी अथवा ऐसी भाषा बोलनेवाला जिनमें वर्णों का व्यक्त उच्चारण न होता हो। विशेष—प्राचीन ग्रंथों में म्लेच्छ शब्द का प्रयोग उन जातियों के लिये होता था, जिनकी भाषा के भाषा उच्चारण की शैली आर्यों की शैली से विलक्षण होथी थी। ये जातियाँ प्रायः ऐसी थीं जिनका आर्यों के साथ संपर्क था; इसीलिये म्लेच्छ देश भी भारत के अंतर्गत माना गया है और म्लेच्छों को वर्णाश्रमधर्म से रहित यज्ञ करनेवाला लिखा है। महाभारत के आदिपर्व मे म्लेच्छों की उत्पत्ति विश्वामित्र से छीनकर ले जाते समय वशिष्ठ की धेनु नंदिनी के अंग प्रत्यंग से लिखी गई है और पह्लव, द्रविड, शक, यवन, शबर, पौंड्र किरात, यवन, सिंहल, बर्बर, खंस आदि म्लेच्छ माने गए हैं। पुराणों में म्लेच्छों की उत्पत्ति में मतभेद है। विष्णुपुराण में लिखा है कि सगर ने हैहयवंशियों को पराजित कर उन्हें धर्मच्युत कर दिया था और वही लोग शक, यवन, कावोज, पारद और पह्लव नामक म्लेच्छ जाति के हो गए। मत्स्यपुराण में राजा वेणु के शरीरमंथन से म्लेच्छ जाति की उत्पत्ति लिखी गई है। बृहत्संहिता में हिमालय और विंघ्यागिरि तथा विनशन और प्रयाग के मध्य के पवित्र देश के अतिरिक्त अयन्त्र को म्लेच्छ देश लिखा है। बृहत्पारशर में चातुर्वण और अंतराल वर्णो के अतिरिक्त वर्णाचारहीन को म्लेच्छ लिखा है; और प्रायश्चित्ततत्व में गोमांसभक्षी, विरुद्धभाषी और सर्वाचारविहीन ही म्लेच्छ कहे गए हैं। २. ताम्र। ताँवा धातु (को०)। ३. अनार्य भाषा वा कथन (को०)। ४. हिंगु। हींग।
⋙ म्लेच्छ (२)
वि० १. नीच। २. जो सदा पाप कर्म करता हो। पापरत। यौ०—म्लेच्छकंद। म्लेच्छजाति=अनार्य या असंस्कृत जाति। म्लेच्छदेश=चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से रहित अनार्य देश। म्लेच्छ भाषा=विदेशी भाषा। अनार्य भाषा। म्लेच्छभोजन। म्लेच्छमंडल=म्लेच्छ देश। म्लेच्छमुख। म्लेच्छवाक्=म्लेच्छभाषा।
⋙ म्लेच्छकंद
संज्ञा पुं० [सं० म्लेच्छकन्द] लहसुन।
⋙ म्लेच्छमोजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. यावक। वोरी। २. गेहूँ।
⋙ म्लेच्छमुख
संज्ञा पुं० [सं०] ताँबा।
⋙ म्लेच्छाक्रांत
संज्ञा पुं० [सं० म्लेच्छ+आक्रान्त] म्लेच्छों द्वारा आक्रांत। म्लेच्छआ द्वारा विजित। उ०—म्लेच्छाक्रांत देश छोड़कर राजधानी में चला आया था।—स्कंद०, पृ० १८।
⋙ म्लेच्छाश
संज्ञा पुं० [सं०] गेहूँ। म्लेच्छभोजन [को०]।
⋙ मेल्च्छित
संज्ञा पुं० [सं०] १. म्लेच्छ भाषा। अनार्य भाषा। २. अपभाषा। व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध भाषा [को०]।
⋙ म्हाँ †
सर्व० [सं० अस्मत्, अहम्, प्रा० अम्हे, राज० म्हे, म्हा] मुझ। दे० 'म्हा'। उ०—(क) राँणी राजानूँ कहइ, ओ म्हाँ नातरउ कीध।—ढोला०, दू० ९। (ख) म्हाँ सी थाँके घड़ीं टहलनी भँवर कमलफुल बास लुभावै।—घनानंद०, पृ० ३३४।