विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/मठ
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ मठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. निवासस्थान। रहने की जगह। २. वह मकान जिसमें एक महत की अधीनेता में बहुत से साधु आदि रहते हों। यौ०—मठधारी। मठाधीश। मठपति। ३. वह स्थान जहाँ विद्या पढ़ने के लिये छात्र आदि रहते हों। ४. मंदिर। देवालय। यौ०—मठपति=पुजारी।
⋙ मठ † (२)
वि० [हिं० मष्टा] मौन। चुप। उ०—सुंदर काची बिरहनी मुख तैं करै पुकार। मरि माहैं मठ ह्वै रहै वोलै नहीं लगार।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६८३।
⋙ मठधारी
संज्ञा पुं० [सं० मठधारिन्] वह साधु या महंत जिसके अधिकार में कोई मठ हो।
⋙ मठपति
संज्ञा पुं० [सं० मठपति] दे० 'मठधारी'।
⋙ मठर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन मुनि का नाम।
⋙ मठर (२)
वि० [सं०] १. मदमत्त। २. ककंश (आवाज)। कठोर (ध्वनि) [को०]।
⋙ मठरना
संज्ञा पुं० [देश०] सोनारों तथा कसगरों का एक औजार जो छोटे हथोड़े की तरह का होता है। इसका व्ववहार उस समय होता है जिस समय हलकी चोट देने का काम पड़ता है।
⋙ मठरी
संज्ञा स्त्री [देश०] १. मैदे, सूर्जा आदि की एक प्रकार की मिठाई जिसे टिकिया भी कहते है। २. दे० 'मट्ठी'।
⋙ मठली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'मठरी'।
⋙ मठा
संज्ञा पुं० [सं० मन्थन, या मथित] दे० 'मट्ठा'।
⋙ मठाधीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. मठ का प्रधान कार्यकर्ता या मालिक। २. मठ में रहनवाला प्रधान साधु या महंत।
⋙ मठान †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मठरना'।
⋙ मठारना
सं० क्रि० [हिं० मठारना] १. बरतन में गोलाई या सुडोलपन लाने के लिये उसे 'मठरना' नामक हथोड़े से धीरे धीरे पीटना। २. गूँध हुए आटे में लेस उत्पन्न करने के लिये उसे मुक्कियों से बार बार दबाना। मुक्की देना। ३. किसी बात को बहुत धीरे धीरे या बना बनाकर कहना। बात को बहुत विस्तार देना।
⋙ मठिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा मठ या आश्रम। २. पर्णकुटी।मठिया। उ०—तहाँ जाइकै मठिका करई। अल्प द्वार अठ छिद्र सु भरई।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १०२।
⋙ मठिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मठिका, हिं० मठ+इया (प्रत्य०)] छोटी कुटी या मठ।
⋙ मठिया (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] फूल (धातु) की बनी हुई चूड़ियाँ जो नीच जाति की स्त्रियाँ पहनती हैं। विशेष—ये एक बाँह में २०—२५ तक होती हैं और काहनी से कलाई तक पहनी जाती हैं। इनमें कोहनी के पास की चूड़ी सबसे बड़ी होती है; और उसके उपरांत की चूड़ियाँ क्रमशः छोटी होति जाती हैं।
⋙ मठी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मठिन्] छोटा मठ वा आश्रम [को०]।
⋙ मठी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मठ+ई (प्रत्य०)] १. छोटा मठ। २. मठ का अधिकारी। मठ का महंत। मठधारी। उ०—सुपुत्र होहु जै हठी मठीन जों न बोलिए।—केशव (शब्द०)।
⋙ मठुलिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मठरी] १. टिकिया या मठरी नाम की मिठाई। २. दे० 'मट्ठी'।
⋙ मठुली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'मठरी'।
⋙ मठोठा †
संज्ञा पुं० [देश०] कुएँ की जगत।
⋙ मठोर
संज्ञा स्त्री० [हिं० मट्ठ] १. दही मथने वा मट्ठा रखने की मटकी जो साधारण मटकियों से कुछ बड़ी होती है। २. नील बनाने की नाँद। नील का माठ।
⋙ मठोरना †
क्रि० स० [देश०] १. किसी लकड़ी को वरादने के लिये रंदा लगाकर ठीक करना। २. मठरना नामक हथोड़े से धीरे धीरे चोट लगाकर गहने आदि ठीक करना। (सुनार)। ३. किसी बात को बहुत धीरे धीरे या बना बनाकर कहना। मठारना।
⋙ मठोल, मठोला
वि० [अनु०] [वि० स्त्री० मठोली] गठीला। भरापूरा। न बहुत बड़ा न छोटा। मझोले कद का। उ०— (क) खासा छोटा मोटा, गोल मठोल, काजल दिलवाए, सहरा लगाए, खिलौना सा दुलहा।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १८६। (ख) वो सूरत उनकी भोली सी वो सिर पगिया मठोली सी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४९१।
⋙ मठौरा
संज्ञा पुं० [हिं० मठोरना] एक प्रकार का रंदा जिससे लकड़ी रँदकर खरादने आदि के योग्य करते हैं।
⋙ मड़ई † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डपी] १. छोटा मंडप। २. कुटिया पणंशाला।
⋙ मड़ई (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'मंडी'।
⋙ मडक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अन्न (संभवतः मड़ुआ) [को०]।
⋙ मड़क
संज्ञा स्त्री० [अनु०] किसी बात के अंदर छिपा हुआ हेतु। भीतरी रहस्य। जैसे,—तुम उसकी बात की मड़क नहीं समझते।
⋙ मड़नी †
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डन] अनाज अलग करने के लिये सखे डंठलों को बैलों से रौंदवाना। दवँनी। दँवँरी। मदन कराना मलना या मींजना। उ०—शतपथ ब्राह्मण में खेती की चारी प्रक्रियाओं का क्रमशः उल्लेख है—जुताई, बुबाई, लवनी और मडनी।—हिंदु सभ्यता, पृ० ३७।
⋙ मड़मड़ाना
क्रि० अ०, स० [अनुध्व०] दे० 'मरमराना'।
⋙ मड़लाना पु
क्रि० अ० [सं० अणुध्व] दे० 'मँडराना'। उ०— (क) सुषमा में सुख रूप घघा है, नभ में नयन मुक्ति मडलाई।—आराधाना, पृ० ४०। (ख) ये मेरे अपने सपने आँखों से निकले मडलाए।—अपरा, पृ० ३६।
⋙ मड़राना
क्रि० अ० [सं० मण्डल] दे० 'मँडराना'। उ०— सरस कुसुम मडरात अलि, न झुकि झपटि लपटात।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मड़ला †
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] अनाज रखने की छोटी कोठरी।
⋙ मड़वा
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] दे० 'मंडप'।
⋙ मड़वारी †
संज्ञा पुं० [हिं० मारवाड़ी] दे० 'मारवाड़ी'।
⋙ मड़हट पु †
संज्ञा पुं० [हिं० मरघट] दे० 'मरघट'। उ०—देहली लग तेरी मेहरी सगी रे, फलसा लग सँगि माई। मड़हट लूँ सब लोग कुटंबी, हंस अकेलौ जाई।—कबीर ग्रं०, पृ० १९४।
⋙ मड़हा † (१)
वि० [हिं० माँड़+हा (प्रत्य०)] माँड़ खानेवाला।
⋙ मड़हा (२)
संज्ञा पुं० [सं० मण्डप] १. मिट्टी या घास फूस आदि का बना हुआ छोटा घर। झोपड़ी। मड़ई। उ०—भीर बहुत सु भई जात की मड़हन पै ब्रजनारी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३९। २. मंडप। कुंजमंडप। उ०—अबीर गुलाल घुमड़ी मड़हा पर घुमड़ि रहे मडराए।—छीत०, पृ० २२।
⋙ मड़हा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] भुना हुआ चना।
⋙ मड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० माढ़ी] १. बड़ी कोठरी। कमरा।
⋙ मड़ा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० माड़ा] एक प्रकार का नेत्ररोग जिसमें दृष्टि मंद पड़ जाती है।
⋙ मड़ाड़ †
संज्ञा पुं० [देश०] छोटा कच्चा तालाब या गड्ढ़ा। उ०— मड़ाड़, बावली और कुएँ का झाँकना।—जगन्नाथ (शब्द०)।
⋙ मड़ियार
संज्ञा पुं० [हिं० मारवाड़ ?] क्षत्रियों की एक जाति जो मारवाड़ में रहती है।
⋙ मड़ुआ
संज्ञा पुं० [देश०] १. बाजरे की जाति का एक प्रकार का कदन्न। विशेष—यह अन्न बहुत प्राचीन काल से भारत में बोया जाता है; और अबतक अनेक स्थानों में जंगली दशा में भी मिलता है। यह वर्षा ऋतु में खाद दी हुई भूमि में कभी कभी ज्वार के साथ और कभी कभी अकेला बोया जाता है; मैदानों में इसकी देखरेख की विशेष आवश्यकता होती है; पर हिमालय की तराई में यह अधिकांश में आपसे आप ही तैयार हो जाता है। अधिक वर्षा से इसकी फसल को हानि पहुँचती है। यदि इसकी फसल तैयार होने पर भी खेतों में रहने दी जाय, तो विशेष हानि नहीं होती। फसल काटने के उपरांत इसके दाने वर्षों तक रखे जा सकते हैं; और इसीकारण अकाल के समय गरीबों के लिये इसका बहुत अधिक उपयोग होता है। इसे पीसकर आटा भी बनाया जाता है और यह चावलों आदि के साथ भी उबालकर खाया जाता है। इससे एक प्रकार की शराब भी बनती है। वैद्यक में इसे कसैला, कड़आ, हलका, तृप्तिका रक, बलवर्धक, त्रिदोष- निवारक और रक्तदोष को दूर करनेवाला माना है। पर्या०—वटक। स्थूलकंगु। रूक्ष। स्थूलप्रियंगु। २. एक प्रकार का पक्षी।
⋙ मड़ैया †
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डपी] १. छोटा मंडप। २. कुटी। पर्णशाला। झोपड़ी। ३. मिट्टी का बना हुआ छोटा घर।
⋙ मड़ोड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'मरोड़'।
⋙ मड़ोड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मरोड़ना+ई (प्रत्य०)] लोहे की छोटी पेंचदार कंटिया।
⋙ मड्डु, मड्डुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नगाड़ा या ढोल [को०]।
⋙ मढ़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० मठ] दे० 'मठ'। उ०—काकर घर काकर मढ़ माया।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ४११।
⋙ मढ़ (२)
वि० [हिं० मढ़ना] जो जल्दी हटाने से भी न हटे। अड़कर बैठनेवाला।
⋙ मढ़क पु †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] भीतरी रहस्य। दे० 'मड़क'। उ०—फरक कोई मढ़क समझावै।—संत तुरसी०, पृ० ३७।
⋙ मढना (१)
क्रि० स० [सं० मण्डन] १. आवेष्टित करना। चारों ओर से घेर देना। लपेट लेना। जैसे, तसवीर पर चौखटा मढ़ना, टेबुल पर कपड़ा मढ़ना। २. बाजे के मुंह पर बजाने के लिये चमड़ा लगाना। उ०—(क) कमठ खपर मढ़ि खाल निसान बजावहीं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मढ़यौ दमामा जात क्यों सौ चूहे के चाम।—बिहारी (शब्द०)। मुहा०—मढ़ आना=घिर आना (जैसे बादलों का)। उ०— राति ह्वै आई चले को दसहू दिस मेघ महा मढ़ि आए।—केशव (शब्द०)। ३. बलपूर्वक किसी पर आरोपित करना। किसी के गले लगाना। थोपना। जैसे,—अब तो आप सारा दोष मुझपर ही मढ़ेंगे। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
⋙ मढ़ना † (२)
क्रि० अ० आरंभ होना। मचना। मँड़ना। व्याप्त होना। (क्व०)। उ०—मढ़यौ सोर यह घोर परत नहिं और बात सुनि।—हम्मीर०, पृ० ५८।
⋙ मढ़वाना
क्रि० स० [हिं० मढ़ना का प्रे० रूप] मढ़ने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को मढ़ने में प्रवृत्त करना।
⋙ मढ़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० मढ़ो] मिट्टी का बना हुआ छोटा घर।
⋙ मढ़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मढ़ना] १. मढ़ने का भाव। २. मढ़ने का काम। ३. मढ़ने की मजदूरी।
⋙ मढ़ाना
क्रि० स० [हिं० मढ़ना] १. दे० 'मढ़वाना'। २. मंडित करना। उ०—निश्चर बानर युद्ध लखत मन मोद मढ़ाए। प्रेमघन०, भा० १, पृ० ३३८।
⋙ मढ़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० मठ] १. छोटा मठ। २. छोटा देवालय। ३. कुटी। झोपड़ी। पर्णशाला। उ०—खपर न झोली डंड अधारी, मढ़ी न माया लेहु बिचारी।—दादू०, पृ० ५७४। ४. छोटा घर। ५. छोटा मंडप। ६. नाथ संप्रदाय के संन्यासी की समाधि जहाँ प्रायः कुछ साधु लोग रहते हैं।
⋙ मढ़ैया † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मढ़ (=मठ)] दे० 'मढ़ी'।
⋙ मढ़ैया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मढ़ना+ऐया (प्रत्य०)] मढ़नेवाला।
⋙ मणगयण
संज्ञा पुं० [डिं०] सूर्य। (संभवतः यह संस्कृत गगन- मणि का वर्णव्यत्ययजन्य रूप है।)
⋙ मणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहुमूल्य रत्न। जवाहिर। जैसे, हीरा, पन्ना, मोती, माणिक आदि। २. सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति। जैसे, रघुकुलमणि। ३. बकरी के गले की थैली। ४. पुरुषेंद्रिय का अगला भाग। ५. योनि का अगला भाग। ६. घड़ा। ७. एक प्राचीन मुनि का नाम। ८. एक नाग का नाम। मुहा०—मणिकांचन योग=शोभा और सौंदर्य बढ़ानेवाला विचार, भावना वस्तुओं या व्यक्तियों का मिलाप। उ०— पश्चिमी आर्यो की रुढ़िप्रियता, कर्मनिष्ठा के साथ ही साथ पूर्वी आर्यो की भावप्रवणता, विद्रोही वृत्ति और प्रेमनिष्ठा का मणिकांचन योग हुआ है।—प्राचार्य०, पृ० ३३।
⋙ मणिकंकण
संज्ञा पुं० [सं० मणि+कङ्कण] रत्नों से विजटित कड़ा या कंगन [को०]।
⋙ मणिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिट्टी का घड़ा। २. अजागलस्तन। बकरी के गले में लटकनेवाली मांस की थैली (को०)। ३. योनि का अग्र भाग। ४. स्कटिकाश्मिनिर्मित प्रासाद। स्फटिक का महल (को०)। ५. रत्न। मणि (को०)।
⋙ मणिकार्णिका, मणिकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मणिजटित कर्ण- फूल। २. वाराणसी का प्रसिद्ध तीर्थस्थल। विशेष—काशीखंड में कहा है कि विष्णु के कठोर तप को देख आश्चर्यचकित शिव का सिर हिल उठा जिससे उनके कान का मणिकुंडल यहाँ गर पड़ा था।
⋙ मणिकर्णिकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कामरूप देश स्थित एक शिवलिंग का नाम [को०]।
⋙ मणिकाच
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाण या तीर का वह भाग जहाँ पंख जैसी आकृती होती है। २. स्फटिक (को०)।
⋙ मणिकार
संज्ञा पुं० [सं०] जौहरी [को०]।
⋙ मणिकानन
संज्ञा पुं० [सं०] गला। कंठ।
⋙ मणिकुंडल
संज्ञा पुं० [सं० मणि+कुण्डल] मणिविजटित कर्ण- भूषण [को०]।
⋙ मणिकुट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
⋙ मणिकूट
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार कामरूप के पास एक पर्वत का नाम।
⋙ मणिकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] वृहसंहिता के अनुसार एक बहुत छोटा पुच्छल तारा जिसकी पूँछ दूख सी सफेद मानी गई है। यह केतु पश्चिम में उगता है और केवल एक पहर दिखाइँ देता है।
⋙ मणिगुण
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार नगण और एक भगण होता है। इसको 'शशिकला' और 'शरभ' भी कहते हैं। उ०—नचहु सुखद जसुमति सुत सहिता। लहहु जनम इह सुख सखि अमिती। बढ़त चरण रति सु हरि अनु पला। जिमि सित पख नित बढ़त शशि- कला।—भानु (शब्द०)।
⋙ मणिगुणनिकर
संज्ञा पुं० [सं०] मणिगुण नामक छंद का एक रूप जो उसके ८वें वर्ण पर विराम करने से होता है। इसका दूसरा नाम चंद्रावती भी है।
⋙ मणिग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर के एक पुत्र का नाम।
⋙ मणिच्छिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मेधा नाम की ओषधि। २. ऋषभा नाम की ओषधि।
⋙ मणिजला
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार एक नदी का नाम।
⋙ मणित
संज्ञा पुं० [सं०] रतिकालीन सीत्कार। रतिकालीन पूजन [को०]।
⋙ मणितारक
संज्ञा पुं० [सं०] सारस।
⋙ मणितुंडक
संज्ञा पुं० [सं० मणितुण्डक] एक जलपक्षा [को०]।
⋙ मणिदीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दीपक जो मणि द्वारा प्रकाश देता है। २. रत्नाविजटित दीपक [को०]।
⋙ मणिदोष
संज्ञा पुं० [सं०] रत्न के दोष [को०]।
⋙ ममिद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार रत्नों का बना हुआ एक द्वीप जो क्षीरसागर में है। यह त्रिपुरसुंदरी देवी का निवासस्थान माना जाता है।
⋙ मणिधनु मणिधनुस्
संज्ञा पुं० [सं०] इन्द्रधनुष [को०]।
⋙ मणिधर
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प। साँप।
⋙ मणिपद्म
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ मणिपुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मणिपूर'।
⋙ मणिपूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. तंत्र के अनुसार छह चक्रों में से तीसरा चक्र जो नाभि के पास माना जाता है। विशेष—यह तेजोमय और विद्युत् के समान आभायुक्त, नीले रंग का, दस दलों वाला और शिव का निवासस्थान माना जाता है। कहते हैं, यदि इसपर ध्यान लगाया जा सके तो फिर सब विषयों का ज्ञान हो जाता है। यह भी कहते हैं कि इसपर 'ड' से 'फ' तक अक्षर लिखे हैं। २. कलिंग (आसाम बर्मा की सीमा) का एक राज्य। ३. मणिपुर। नाभि (को०)। ४. रत्नविजटित चोली (को०)।
⋙ मणिपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] सहदेव के शंख का नाम। यौ०—मणिपूरपति=अर्जुन क पुत्र बभ्रुवाहन।
⋙ मणिबंध
संज्ञा पुं० [सं० मणिबन्ध] १. नवाक्षरी वृत्त जिसके प्रति चरण में भगण, मगण और सगण होते हैं। उ०— कंठमणी मध्ये सुजला। टूट परी खोजैं अबला।—भानु (शब्द०)। २. कलाई। उ०—जिन युवकों के मणिबंधों में अबंध बल इतना भरा था, जो उलटता शतघ्नियों को।— लहर, पृ० ६०। ३. कलाई में बाँधने या पहनने का आभूषण जिसे तोड़ा कहते हैं।
⋙ मणिबंधन
संज्ञा पुं० [सं० मणिबन्धन] १. मणियों का बाँधना या बाँधा जाना। २. कलाई। ३. कलाई पर पहनने का आभूषण या मोतियों की लरी [को०]।
⋙ मणिबीज
संज्ञा पुं० [सं०] अनार का पेड़।
⋙ मणिभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के एक प्रधान गण का नाम।
⋙ मणिभद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जाति का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है। २. एक नाग का नाम।
⋙ मणिभारव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मणितारक'।
⋙ मणिभित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शेषनाग का महल।
⋙ मणिभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह खान जिसमें से रत्न आदि निकलते हों।
⋙ मणिभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह खान जिसमें से रत्न आदि निकलते हों। २. रत्नजटित भूमि या स्थान (को०)। ३. पुराणनुसार हिमालय के एक तीर्थ का नाम।
⋙ मणिमंडप
संज्ञा पुं० [सं० मणिमण्डप] १. रत्नमय महल या मंडप। २. शेषनाग का प्रासाद।
⋙ मणिमंतक
संज्ञा पुं० [सं० मणिमन्तक] एक प्रकार का हीरा [को०]।
⋙ मणिभंथ
संज्ञा पुं० [सं० मणिमन्थ] सेंधा नमक।
⋙ मणिमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] मणिबंध नाम छंद।
⋙ मणिमान् (१)
वि० [सं० मणिमत्] रत्नभूषित। मणियुक्त [को०]।
⋙ मणिमान् (२)
संज्ञा पु० १. सूर्य। २. एक पर्वत। ३. एक तीर्थ [को०]।
⋙ मणिमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बारह अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्यक चरण में तगण, यगण, तगण, यगण होते हैं। उ०—छाँड़ो सब जेते हैं रै जगमाला, फेरो हरि के नांमों की मणिमाला। २. रतिकालीन दंतक्षत का एक प्रकार (को०)। ३. मणियों की माला। ४. लक्ष्मी। ५. चमक। दीप्ति। आभा।
⋙ मणिमेघ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार दक्षिण भारत के एक पर्वत का नाम।
⋙ मणियष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] रत्नजटित छडी या लरी [को०]।
⋙ मणिरत
संज्ञा पुं० [सं०] एक बौदध आचार्य का नाम।
⋙ मणिरथ
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ मणिराग
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंगुल। शिंगरफ। २. मणि का रंग। ममि की आभा (को०)।
⋙ मणिराज
संज्ञा स्त्री० [सं०] हीरा [को०]।
⋙ मणिराजी
संज्ञा स्त्री० [सं० मणिराजि] मणियों की राशि या ढेरी।मणियों की माला। उ०—देख बिखरती है मणिराजी, अरी उठा बेसुध चंचल।—कामायनी, पृ० ४०।
⋙ मणिरोग
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुषेंद्रिय का एक रोग जिसमें लिंग के अगले भाग का चमड़ा उसके मस्तक पर चिपक जाता है और मूत्र मार्ग कुछ चौड़ा होकर उसमें से मूत्र की महीन धारा गिरती है।
⋙ मणिवर
संज्ञा पुं० [सं०] हीरा। मणिराज [को०]।
⋙ मणिशैल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम जो मंदराचल के पूर्व में हैं।
⋙ मणिश्याम
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रनील नामक मणि। नीलम।
⋙ मणिसर
संज्ञा पुं० [सं०] मोतियों की माला।
⋙ मणिसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मोतियों का हार।
⋙ मणिसोपान
संज्ञा पुं० [सं०] १. रत्नमटित सीढ़ी। २. दे० 'मणिसोपानक'। उ०—मुक्ता के बीच ममि लगे हों तो उसका नाम मणिसोपान है।—बृहत्०, पृ० ३८५।
⋙ मणिसोपानक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्यवर्णित सोने के तार में पिरोए हुए मोतियों की माला जिसके बीच में कोई रत्न हो (कोटि०)।
⋙ मणिस्कंध
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक नाग का नाम।
⋙ मणिस्रक्
संज्ञा स्त्री० [सं० मणिस्रज्] मोतियों का हार या माला [को०]।
⋙ मणिहर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] रत्नों या स्फटिकों से जटित महल।
⋙ मणींद्र
संज्ञा पुं० [सं० मणीन्द्र] हीरा [को०]।
⋙ मणी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मणिन्] सर्प।
⋙ मणी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मणि] दे० 'मणि'।
⋙ मणीआ पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मणिक] दे० 'मनिया'। उ०— सरवरि खोजि पाय नाम मणिआ।—प्राण०, पृ० १०४।
⋙ मणीचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रकांत नामक मणि। २. मत्स्य पुराणानुसार शकद्वीप के एक वर्ष का नाम। ३. एक प्रकार का पक्षी।
⋙ मणीच
संज्ञा पुं० [सं०] १. फूल। पुष्प। २. मुक्ता। मोती। ३. शकद्वीपगत एक वर्ष का नाम। मणीचक्र [को०]।
⋙ मणीवक
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्प। फूल।
⋙ मतंग
संज्ञा पुं० [सं० मतङ्ग] १. हाथी। उ०—मग डोलत मतंग मतवारे।—हम्मीर०, पृ० २६। २. बादल। ३. एक दानव का नाम। ४. एक प्राचीन तीर्थ का नाम। ५. कामरूप के अग्निरोण के एक देश का प्राचीन नाम। ६. त्रिशंकु राजा का नाम (को०)। ७. एक ऋषि का नाम जो शबरी के गुरु थे। विशेष—महाभारत में लिखा है कि ये एक नापित के वीर्य से एक ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। उस ब्राह्मणी के पति ने इन्हें अपना ही पुत्र और ब्राह्मण समझकर पाला था। एक बार ये गधे के रथ पर सवार होकर पिता के लिये यज्ञ की सामग्री लाने जा रहे थे। उस समय इन्होंने गधे को बहुत निदंयता से मारा था। इसपर उस गधे की माता गधी से इन्हें मालूम हुआ कि में ब्राह्णण की संतान नहीं हूँ, चांडाल समाचार कहे और ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिये घोर तपस्या करने लगे। तब इंद्र ने आकर समझाया कि ब्राह्मणत्व प्राप्त करना सहज नहीं है। उसके लिये लाखों वर्षों तक अनेक जन्म धारण करके तपस्या करनी पड़ती है। तब इन्होंने वर माँगा कि मुझे पक्षी बना दीजिए जिसकी सभी वर्णवाले पूजा करे; मैं जहाँ चाहूँ, वहाँ जा सकूँ और मेरी कीर्ति अक्षय हो। इंद्र ने इन्हें यही वर दिया और ये छदोदेव के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ दिनों के उपरांत इन्होंने शरीर त्यागकर उत्तम गति प्राप्त की।
⋙ मतंगज
संज्ञा पुं० [सं० मतड्गज] हाथी [को०]।
⋙ मतंगजा
संज्ञा स्त्री० [सं० मतड़्गजा] संगीत शास्त्र में एक विशिष्ट मूर्छना [को०]।
⋙ मतंगा
संज्ञा पुं० [सं० मतड़्ग] एक प्रकार का बाँस जिसे मूच भी कहते है। यह बगाल और बरमा में बहुत होता है। इसके पोर लबे और मुछ्ढ़ होते हैं। इसको दीमक नहीं खाती।
⋙ मतंगी
संज्ञा पुं० [सं० मतज्गिन] हाथी का सवार। उ०—तिमि लच्छ मतंगी स्वच्छ भट सरी निखंगी अति भले।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ मत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. निश्चित सिद्धांत। संमति। राय। मुहा०—मत उपाना = सम्मति स्थिर करना। उ०—करुना लखि वरुनानिधान ने मन यह मतो उपायो।—(शब्द०)। २. निर्वाचन में किसी के चुनाव या किसी प्रस्ताव आदि के पक्ष या विपक्ष में निर्धारित विधि से प्रकट किया हुआ विचार या संमति। यौ०—मतगणना = मत वोटों की गिनती। मतदान = मत या वोट देना। मतभेद = राय या विचार की भिन्नता। उ०—हिंदुस्तान में इतनी सहनिशीलता थी कि मतभेद होने पर भी लोग सबको उच्च स्थान देते थे।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १९१। मतवाद = किसी विचार को लेकर उसका पक्षस्थापन। उ०—साहित्य केवल मतवाद के प्रचार का साधन भो नहीं बना करता।—न० सा० न० प्र०,११। मतसंग्रह = किसी प्रश्न पर मतदान के अधिकारियों का विचार संकलून। मतस्वातंत्र्य = राय या विचार की आजादी। ३. धर्म। पंथ। मजहव। संप्रदाय। ३. भाव। आशय। मतलब। ४. ज्ञान। ५. पूजा। अर्चा।
⋙ मत (२)
वि० १. जिसकी पूजा की गई हो। पूजित। आचत। २. माना हुआ। संमत (को०)। ३. विचारित (को०)। ४. संमा- नित। आद्दत (को०)। ५. कुत्सित। खराब। बुरा।
⋙ मत (३)
क्रि० वि० [सं० मा] निपेधवाचक शब्द। न। नहीं। जैसे,— (क) वहाँ मत जाया करो। (ख) इनसे मत बोलो।
⋙ मत पु (४)
वि० [सं० मत्त] मतवाला। मत्त। उ०—(क) जस कोउ मदिरा मत अस आदी।—नंद० ग्रं०, पृ० १३८। (ख)
⋙ मत (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० मति] दे० 'मति'। यौ०—मतहीन = बृद्धिरहित। अज्ञागी। उ०—साधू जीव करे उपकारा। जिव मतहीन उन्हीं को मारा।—घट०, पृ० २४०।
⋙ मतना पु० (१)
क्रि० अ० [सं० मत + ना (प्रत्य०)] संमति निश्चित करना। राय कायम करना। उ—विनय करहिं जेते गढ़पती। का जिउ कौन्ह कौन मति मती।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मतना (२)
क्रि० अ० [सं० मत्त] नशे आदि में चूर होना। मत्त होना। मतवाला होना।
⋙ मतरिया ‡ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ, मातर + इया (प्रत्य०) या सं० मातृका] दे० 'माता' या 'माँ'। मुहा०—मतरिया बहिनिया बहिनिया करना = माँ बहन की गाली देना।
⋙ मतरिया पु० (२)
वि० [सं० मंत्र, हिं० मंतर] १. मंत्र देनेवाला। मंत्री। सलाहकार। २. मंत्र प्रभावित। मंत्रित। ३. मंत्रतंत्र करनेवाला। मांत्रिक।
⋙ मतलब
संज्ञा पुं० [अ०] १. तात्पर्य। अभिप्राय। आशय। २. अर्थ। मानी। ३. अपना हित। निज का लाभ। स्वार्थ। उ०—हरदम कृष्ण कहे श्री कृष्ण कहे तू जवा मरी। यही मतलब खातर करता हूँ खुशामद में तेरी।—राम० धर्म०, पृ० ८७। मुहा०—मतलब का आशना = मतलबी मित्र। स्वार्थसाधक। मतलब का यार = अपना भला देखनेवाला। स्वार्थी। मतलब गाँठना या निकालना = स्वार्थसाधन करना। उ०— तब सके गाँठ हम वहाँ मतलब।—चोखे०, पृ० ३६। ४. उद्देश्य। विचार। जैसे,—प्राप भी किसी मतलब से आए हैं। मुहा०—मतलब हो जाना = (१) सफल मनोरथ होना। (२) बुरा हाल हो जाना। (३) मर जाना। ५. संबंध। सरोकार। वास्ता। जैसे,—अब तुम उनसे कोई मतलब न रखना।
⋙ मतलबिया †
वि० [अ० मतलब = हिं० इया (प्रत्य०)] खुदगरज। मतलबी।
⋙ मतलबी
वि० [अ० मतलब + ई (प्रत्य०) ] जो केवल अपने हित का ध्यान रखना हो। स्वार्थी। खुदगरज।
⋙ मतला
संज्ञा पुं० [अ० मत्ला] गजल का सबसे पहला शेर जिसकी दोनों पंक्तियाँ तुकांत होती हैं। गजल का आराभक तुकांत शेर।
⋙ मतलाना
क्रि० अ०[हिं० मतली] मतली आना। जी मिचलाना।
⋙ मतली
संज्ञा स्त्री० [हिं० मिचली] जो मिचलाने की क्रिया या भाव। कै होने की इच्छा।
⋙ मतलूब
वि० [अ० मत्लूब] अभोप्सित। अभिप्रेत। कांक्षित। उ०—तालिब मतलूब को पहूँचै तोफ करै दिल अंदर।—कबीर सा०, पृ० ८८८।
⋙ मतलूबा
वि० [अ० मालूवह्] प्रेमिका। माशूका। कांक्षिता।
⋙ मतवार, मतवारा पु
वि० [सं० मत्त + हिं० वाला] दे० 'मतवाला'। उ०—(क) तोरे पर भए मतवार रे नयनवाँ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५०१। (ख) ह्वै गयो हुतो निपट मतवारो।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१३।
⋙ मतवाला (१)
वि० पुं० [सं० मत्त हिं० + वाला (प्रत्य०)] [ वि० स्त्री० मतवाली] १. नशे आदि के कारण मस्त। मदमस्त। नशे में चूर। २. उन्मत्त। पागल। ३. जिसे अभिमान हो। व्यर्थ अहंकार करनेवाला।
⋙ मतवाला (२)
संज्ञा पुं० १. वह भारी पत्थर जो किले या पहाड़ पर से निचे के शत्रुओं को मारने के लिये लुढ़काय जाता है। २. कागज का बना हुआ एक प्रकार व। गावदुमा खिलौना जिसके नीचे का भाग मिट्टी आदि भरी होने के कारण भारी होता है और जो फेंकने पर सदा खड़ा ही रहता है, जमीन पर लोटता नहीं।
⋙ मतवाला (३)
वि० पुं० [सं० मत + हिं० वाला (प्रत्य०)] किसी मत, संप्रदाय या सिद्धांत को माननेवाला। उ०—उसे काव्य क्षेत्र से निकलकर मतवालों (सांप्रदायिकों) के बीच अपना हाव भाव दिखाना चाहिए। चिंतामणि, भा० २, पृ० ६३।
⋙ मतांतर
संज्ञा पुं० [सं० मतान्तर] १. अन्य मत। भिन्न मत। मत या विचार का विभेद [को०]।
⋙ मता † (१)
संज्ञा पुं० [सं० मत] दे० 'मत'। उ०—(क) पलटू चाहै हरि भगति ऐसा मता हमार।—पलटू०, भा० १, पृ० २७। (ख) केचित मता अधोरी लिया। अंगीकृत दोऊ का कीया।—सुंदर० ग्रं०, भा १, पृ० ९९।
⋙ मता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मति] दे० 'मति'। उ०—यही मता हम तुम कहँ दीन्हा। दूसर कोई न पावै चीन्हा।—कबीर० सा०, पृ० १०१७।
⋙ मता पु० (३)
वि० [सं० मत्तक] दे० 'मत्त'। उ०—कंठगी रंमता। वारुनी पी मता—पृ० रा०, १।६५०।
⋙ मताना
क्रि० अ० [सं० मत्त] १. मदमत्त होना। २. आत्मविभोर होना। बेसुध होना। उ०—पाई बहे कंज मैं सुगंध राधिका को मजु, ध्याए कंदलीबन मतंग लौं मताए हैं।—रत्नाकर, भा० १, पृ० १२०।
⋙ मताधिकार
संज्ञा पुं० [सं० मत + अधिकार] वोट या मत देने का अधिकार जो राजा या सरकार से प्राप्त हो। व्यवस्थापिका परिषद, व्यवस्थापिका सभा आदि प्रतिनिधिक कहलानेवाली संस्थाओं के सदस्य या प्रतिनिधि निर्वाचित करने में वोट या मत देने का अधिकार।
⋙ मताधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० मताधिकारिन्] मतदान करने का हकदार। मतदाता।
⋙ मतानुज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] न्याय दर्शन के अनुसार२१ प्रकार के निग्रह स्थानों में से एक जिसमें अपने पक्ष के दोष पर विचार न करके बार बार विपक्षी के पक्ष के दोष का ही उल्लेख किया जाता है।
⋙ मतानुयायी
संज्ञा पुं० [सं० मतानुयायिन्] किसी के मत के अनुसार आचरण करनेवाला। किसी के मत को माननेवाला। मतावलंबी।
⋙ मतारी †
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ + मातर हिं० माता] दे० 'महतारी'। उ०—अटल कस्द की, हम मतारी किया।—दक्खिनी०, पृ० १४०।
⋙ मतावलंबी
संज्ञा पुं० [सं० मतावलम्बिन्] किसी एक मत, सिद्धांत या संप्रदाय आदि का अवलबन करनेवाला। जैसे, जैनमता- वलबी। उ०—परतु वह विदेशी और अन्य मतावलंबी है। प्रेमधन०, भा० २, पृ० २०४।
⋙ मतावना ‡
क्रि० स० [हिं० मताना] मत्त बनाना। उन्मत्त कर देना। मतवाला कर देना। उ०—कुवुद्धि कलबारिनी बसेले नगरिया हो रे। उन्हि रे मोर मनुआँ मतावल हो रे।—संत० दरिया, पृ० १७९।
⋙ मति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुद्धि। समझ। अक्ल। २. राय। सलाह। संमति। ३. इच्छा। ईहा। ख्वाहिश। ४. स्मृति। मुहा०—मति मारी जाना = निर्बुदि्ध की तरह काम करना। बुद्धिनाश होना।
⋙ मति (२)
वि० बुद्धिमान्। चतुर।
⋙ मति पु † (३)
क्रि० वि० [सं० मा] नहीं। दे० 'मत'। उ०—ताते तुम और भाव मन में मति लाओ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १०६।
⋙ मति पु (४)
अव्य० [सं० मत् या वत्] सदृश। समान। उ०— धूप समूह निरखि चातक ज्यो नृषित जानि मति धन की।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मतिगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धिमान्। चतूर। होशियार।
⋙ मतिगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्धि की गति। विचारसरणि [को०]।
⋙ मतिचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वघोष का एक नाम।
⋙ मतिदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] वह शक्ति जिसके द्वारा दूसरे की योग्यता या भार्वों का पता लगता है।
⋙ मतिदा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ज्योतिप्मती नाम की लता। २. सेमल।
⋙ मतिदा (२)
वि० स्त्री० बुद्धि देनेवाली। बुद्धिप्रदा [को०]।
⋙ मतिद्वैंध
संज्ञा पुं० [सं० मतिद्वैध] विचारों की भिन्नता [को०]।
⋙ मतिन †
अव्य० [सं मत् या वत्] सदृश। समान। (पूरब०)।
⋙ मतिपूर्वक
अव्य० [सं०] उद्देश्यतः। सोच समझकर। जान- बूझकर।
⋙ मतिभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] उन्माद रोग। पागलपन।
⋙ मतिभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] समझ की उलट पलट। बुद्धिभ्रम [को०]।
⋙ मतिमंड
वि० दे० 'मतिमंत'। उ०—एकाकिय जिन जाय नृप, गोड काल मतिमंड।—प० रासो, पृ० १०९।
⋙ मतिमंत
वि० [ सं० मतिमत्] बुद्धिमान्। विचारवान्। चतुर।
⋙ मतिमंद
वि० [ सं० मतिमन्द] मंदबुद्धि। कम अकल। उ०— सुनु मतिमंद देहि अब पूरा। काटे सीस कि होइअ सूरा।—मानस, ६।२९।
⋙ मतिमान्
वि० [सं० मतिमत्] बुद्धिमान्। विचारवान्।
⋙ मतिमाह पु
वि० [सं० मतिमत्] मतिमान्। बुद्धिमान्। समझदार। उ०—पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ। खाँड़े दान उभे निति बाँहा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मतिवंत
वि० [सं० मति + वत्] दे० 'मतिमंत'।
⋙ मतिविपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] मतिभ्रम। भ्रम [को०]।
⋙ मतिशाली
वि० [सं० मतिशालिन्] [वि० स्त्री० मतिशालिनी] बुद्धियुक्त। मतिमान् [को०]।
⋙ मतिहीन
वि० [सं०] मूर्ख। बेवकूफ। निर्बुद्धि।
⋙ मती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मति] दे० 'मति'।
⋙ मती (२)
क्रि० वि० [सं० मा] दे० 'मत'।
⋙ मती † (३)
अव्य० [सं वत् या मत्] दे० 'मति४'।
⋙ मतीर, मतीरा
संज्ञा पुं० [सं० मेट] तरबूज। कलींदा। उ०— (क) गंगा तीर मतीरा अवधू, फिरि फिरि बणिजा कीजै।—गोरख०, पृ० ९६। (ख) प्यासे दुपहर जेठ के थके सबै जल सोधि। मरु धर पाय मतीरहू मारू कहत पयोधि।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मतीस
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाजा। उ०—मदनभेरि अरु घूँघरा घंटा घनै मतीस। मुहचंगी को आड़ दै आवज लुटे छतीस।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मतेई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विमातृ, मि० पं० मतरई (= विमाता] माता की सपत्नी। विमाता। उ०—तुलसी सरल भाव रघुराय माय मानी काय मन बानी हू न जानिए मतेई है। वाम विधि मेरो सुख सिरस सुमन सम ताको छल छुरी को कुलिस लै टेई है।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मतैक्य
संज्ञा पुं० [सं०] मतों या विचारों की एकता। दो या अनेक व्यक्तियों की एक राय होना।
⋙ मत्क (१)
संज्ञा पुं० [सं०] खटमल [को०]।
⋙ मत्क (२)
वि० मेरा। हमारा [को०]।
⋙ मत्कुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. खठमल। २. हाथी जिसे दाँत न हो। बिना दाँत का हाथी (को०)। ३. मकुना हाथी (को०)। ४. महीष भैसा (को०)। ५. पैर वा जाँघ पर बाँधने का बक्तर (को०)। ६. नारियल का वृक्ष (को०)। ७. श्मक्षु वा द्ढ़ीमूछ- विहीन मर्द। अजातश्मश्रृ व्यक्ति (को०)।
⋙ मत्कुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्ञी की योनि जिसपर रोएँ न उगे हों [को०]।
⋙ मत्कुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजातलोमा युवती [को०]।
⋙ मत्त
वि० [सं०] १. मस्त। २. मतवाला। ३. उन्मत्त। पागल। ४. प्रसन्न। खुश। ५. अभिमानी। घमंडी।
⋙ मत्त (२)
संज्ञा पुं० १. वह हाथी जिसके मस्तक से मद बहता हो। मतवाला हाथी। २. धतूरा। ३. कोयल। ४. महिष। भैसा।
⋙ मत्त पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० मात्रा] मात्रा।
⋙ मत्तक
वि० [सं०] जो थोड़ा थोड़ा नशे में हो [को०]।
⋙ मत्तकाशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तम स्त्री। सुंदर स्त्री। अच्छी औरत। उ०—श्यामा माहिला भामिनी मत्तकाशिनी जान।— नंददास (शब्द०)।
⋙ मत्तकासिनी
संज्ञा स्त्री [सं०] सुंदर स्त्री।
⋙ मत्तकीश
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी।
⋙ मत्तगयंद
संज्ञा पुं० [सं० मत्तायन्द] सवैया छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में सात भगण और दो गुरु होते हैं। इसे 'मालती' और 'इंदव' भी कहते हैं।
⋙ मत्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मत्त होने का भाव। मतवालापन। मस्ती। उ०—सौभाग्य भद की मत्तता धीरे धीरे उनकी नस नस में सन सन करती हुई चढ़ने लगी।—सरस्वती (शब्द०)।
⋙ मत्तताई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मत्तता + ई] मतवालापन। मस्ती। उ०—आप बलदेव सदा बरुणी सों मत्त रहे, चाहे मन मान्यो प्रेम मत्तताई चाखिए।—प्रियादास (शब्द०)।
⋙ मत्तदती
संज्ञा पुं० [सं० मत्तदन्तिन्] मतवाला हाथी [को०]।
⋙ मत्तनाग
संज्ञा पुं० [सं०] मतवाला हाथी। मस्त हाथी। उ०— मत्तनाग तम कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी।— मानस, ६।१२।
⋙ मत्तमयूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पंद्रह अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में मगण, तगण, यगण, सगण और मगण (/?/) होते हैं। इसका दूसरा नाम माया भी है। जैसे,—कोऊ बोली ता कहँ लै आव सयानी। माया या पै डार, दई री, हम जानी। २. मेघ को देखकर उन्मत्त होनेवाला मोर। ३. मोर को उन्मत्त करनेवाला—मेध।
⋙ मत्तमयूरक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक योद्धा जाति का नाम।
⋙ मत्तमातंगलीलाकर
संज्ञा पुं० [सं० मत्तमातड़्गलीलाकर] एक दंड़क वृत जिसके प्रत्येक चरण में नौ रगण होते हैं। जैसे,— सच्चिदानंद अनंद के कंद को छाड़ि कै रे मतीमंद भूलो फिरै ना कहूँ। विशेष—नौ से अधिक 'रगण' वाले दंडक भी इसी नाम से पुकारे जाते हैं। केशवदास ने आठ ही रगण के छंद का नाम 'मत्तमातंगलीलाकर' लिखा है। जैसे,—मेघ मंदाकिनी बारु सौदामिनी रूप खरे लसै देह धारी मनो।
⋙ मत्तवारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकान के आगे का दालान या बरामदा। २. आँगन के ऊपर की छत। ३. मतवाला हाथी। ४. पर्यक। मंच [को०]। ५. खूँटी। नागदंत (को०)। ६. सुपारी का चूर (को०)।
⋙ मत्तसमक
संज्ञा पुं० [सं०] चौपाई छंद का एक भेद जिसमें नवीं मात्रा अवश्य लघु होती है।
⋙ मत्ता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बारह अक्षरों का एक वृत जिसके प्रत्येक चरण में मगण, भगण, सगण और एक गुरु होता है और ४, ६ पर यति होती है। जैसे,—मत्ता ह्णँ कै हरि रस सानी। धावै बंसी सुनत सयानी। २. मदिरा। शराब।
⋙ मत्ता (२)
प्रत्य० भाववाचक प्रत्यय पन। विशेष—इसका प्रयोग शब्दों को भाववाचक बनाने में उसके अंत में होता है। जैसे, बुद्धिमत्ता। नीतिमत्ता।
⋙ मत्ता पु † (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० मात्रा, प्रा० मत्ता] दे० 'मात्रा'। उ०—दस मत्ता के छंद में वृत्ति नवासी होइ। संगोहादिक गतिन सँग बरनत हैं सब कोइ।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १८७।
⋙ मत्ताकीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्त + आक्रीड़ा] तेईसं अक्षरों का एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में दो मगण, एक तगण, चार नगण और अंत में एक लघु और एक गुरु अक्षर होता है। जैसे,—यों रानी माघो की बानी सुनि कह कस तिय असत कहत री।
⋙ मत्तालंब
संज्ञा पुं० [सं० मत्त + आलम्ब] भवन के चतुर्दिक् की चहारदीवारी या प्राचीर [को०]।
⋙ मत्थ
संज्ञा पुं० [सं० मस्तक] दे० 'मत्था'। उ०—हत्थि मत्थ पर सिंह बिनु आन न घाले घाव।—भूषण ग्रं०, पृ० १००।
⋙ मत्थना पुं
क्रि० स० [सं० मन्थन] दे० 'मथना'। उ०—दूध को मत्थ कर धिर्त न्यारा किया। बहुर फीर तत्त में ना समाबै।—कबीर० सा० सं०, पृ० ९०।
⋙ मत्था †
संज्ञा पुं० [सं० मस्तक] १. ललाट। भाल। माथा। २. सिर। मूँड़। मुहा०—मत्था टेकना = प्रणाम करना। सिर झुकाकर अभिवादन करना। मत्थापच्ची करना = खोपड़ी खपाना। मग्ज मारना। उ०—इतनी मत्थापच्ची कौन करे ?—किन्नर०, पृ० २५। मत्था मारना = सिप/?/च्च्ी करना। सिर खपाना। मत्थे पड़ना = सिर पड़ना। अपने ऊपर भार आना। उ०— कृषिकारों के मत्थे पड़ा है।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० २६७। ३. किसी पदार्थ का अगला या ऊपरी भाग।
⋙ मत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. हेंगा। सिरावन २. दाँती या हँसिया की की मूठ। ३. ज्ञान अर्जन का साधन। ४. हेंगाने की क्रिया। खेत आदि को हेंगा से समतल करना [को०]।
⋙ मत्यनुसार
क्रि० वि० [सं० मति + अनुसार] बुद्धि के अनुसार उ०—मत्यनुसार समस्त सृष्टि की उपदेश दिया।—कबीर मं०, पृ० १६९।
⋙ मत्स
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'मत्स्य'। उ०—मत्स मारिबे चलत नदी तल अति गति चंचल।—प्रेमधन०, भा० १, पृ० ४८।
⋙ मत्सर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी का सुख या विभव न देख सकना। डाह। हसद। जलन। २. क्रोध। गुस्सा। ३. गर्व। आभीमान (को०)। ४. सोम लता (को०)। ५. मशक। दंश डाँस (को०)।
⋙ मत्सर (२)
वि० १. जो दूसरे की सुख संपत्ति देखकर जलता हो। डाह करनेवाला। २. कृष्ण। कंजूस। ३. जो सबको अपनी निंदा करते देखकर अपने आपको धिक्कारता हो।
⋙ मत्सरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मत्सरयुक्त होने का भाव। डाह। हसद।
⋙ मत्सरी
संज्ञा पुं० [सं० मत्सर्रत] वह जो दूसरों से मत्सर रखता हो। मत्सरपूर्ण। डाही वा द्वेषी व्यक्ति।
⋙ मत्सरीकृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक मूर्छना का नाम। इसका स्वरग्राम इस प्रकार है—म,प,ध,नि,स,रे,ग। ग,म,प,ध,नि,स,रे,ग,म,प,घ,नि।
⋙ मत्स्यंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्यणिका] खाँड़। राब। शक्कर का मोटा और बिना साफ हुआ रूप [को०]।
⋙ मत्स्यंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्यँण्डी] राव। खाँड [को०]।
⋙ मत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मछली। २. प्राचीन विराट देश का नाम। विशेष—कुछ लोगों का मत है कि वर्तमान दीनाजपुर और रगपुर ही प्राचीन काल का मत्स्य देश है; और कुछ लोग इसे प्राचीन पांचाल के अंतर्गत मानते हैं। ३. छप्पय छंद के २३ वें भेद का नाम। ४. नारायण। ५. बारहवीं राशि। मीन राशि। ६. अठारह पुराणों में से एक जो महापुराण माना जाता है। कहते हैं, जब विष्णु भगवान् ने मत्स्य अवतार धारण किया था, तब यह पुराण कहा था। ७. विष्णु के दस अवतारों में से पहला अवतार। कहते हैं, यह अवतार सतयुग में हुआ था। इसका नीचे का अंग रोहू मछली के समान, और रंग श्याम था। इसके सिर पर सींग थे, चार हाथ थे, छाती पर लक्ष्मी थीं और सारे शरीर में कमल के चिह्न थे। विशेष—महाभारत में लिखा है कि प्राचीन काल में विवस्वान् के पुत्र वैवस्वत मनु बहुत ही प्रसिद्ध और बडे तपस्वी थे। एक बार एक छोटी मछली ने आकर उनसे कहा कि मुझे बड़ी बड़ी मछलियाँ बहुत सताती हैं; आप उनसे मेरी रक्षा कीजिए। मनु ने उसे एक घड़े में रख दिया और वह दिन दिन बढ़ने लगी। जब वह बहुत बढ़ गई, तब मनु ने उसे एक कूएँ मनें छोड़ दिया। जब वह और बड़ी हुई, तब उन्होने उसे गंगा में छोड़ा, और अंत में उसे वहाँ से भी निकालकर समुद्र में छोड़ दिया। समुद्र में पहुँचते ही उस मछली ने हँसते हुए कहाँ कि शीघ्र ही प्रलयकाल अनेवाला है। इसलिये आप एक अच्छी और द्दढ़ नाव बनवा लीजिए और सप्तर्षियों सहित उसीपर सवार हो जाइए। सब चीजों के बीज भी अपने पास रख लीजिएगा; और उसी नाव पर मेरी प्रतीक्षा कीजिएगा। वैवस्वत मनु ने ऐसा ही किया। जब प्रलयकाल आया और सारा संसार जलमग्न हो गया, तब वह विशाल मछली उन्हें दिखाई दी। उन्होंने अपनी नाव उस मछली के सींग से बाँध दी। कुछ दिनों बाद वह मछली उस नाव को खींचकर हिमालय के सबसे उँचे शिखर पर ले गई। वहाँ वेवस्वत मनु और सप्रर्षियों ने उस मछली के कहने से अपनी नाव उस शिखर में बाँध दी। इसी लिये वह शिखर अब तक 'नौबंधन' कहलाता है। उस समय उस मछली ने कहा कि में स्वयं प्रजापति ब्रह्मा हूँ। मैने तुम लोगों की रक्षा करने और संसार की फीर से सृष्टि करने के लिये मत्स्य का अवतार धारण किया है। अब यही मनु फिर से सारे संसार की सृष्टि करेंगे। यह कहकर वह मछली वहीं अंतर्धान हो गई। मत्स्य पुराण में लिखा है कि प्राचीन काल में मनु नामक एक राजा ने घोर तपस्या करके ब्रह्मा से वर पाया कि जब महाप्रलय हो, तब मैं ही फिर से सारी सृष्टि की रचना करूँ। और तब प्रलय काल आने से कुछ पहने विष्णु उत्त्क प्रकार से मछली का रूप धरकर उनके पास आए थे। इसी प्रकार भगवत आदि पुराणों में भी इससे मिलती जुलती अथवा भित्र कई कथाएँ पाई जाती हैं। ८. पुराणनुसार सुनहरे रंग की एक प्रकार की शिला जिसका पूजन करने से मुक्ति होती है। ९. मत्स्य देश का राजा।
⋙ मत्स्थकरंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मत्स्यकरण्डिका] मछली रखने या पकड़ने का झावा [को०]।
⋙ मत्स्यगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जलपीपल। २. व्यास की माता सत्यवती का एक नाम। वि० दे० 'व्यास'।
⋙ मत्स्यघात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मत्स्यघाती'।
⋙ मत्स्यघाती
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यघातिन्] मछुआ [को०]।
⋙ मत्स्यजाल
संज्ञा पुं० [सं०] मछली फँसाने का जाल [को०]
⋙ मत्स्यजीवी
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यजीबिन्] निषाद जाती का एक नाम।
⋙ मत्स्यदेश
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन विराट देश का नाम। दे० 'मत्स्य'-२।
⋙ मत्स्यद्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अगहन सुदी द्वादशी।
⋙ मत्स्यद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक द्विप का नाम।
⋙ मत्स्यधानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मछली रखने की झाँपी [को०]।
⋙ मत्स्यनाथ
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्य + नाथ] दे० 'मत्स्येंद्रनाथ'।
⋙ मत्स्यनारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सत्यवती। २. जीव की आकृति।जिसका ऊपरी आधा भाग नारी का और निचला भाग मछली जैसा हो [को०]।
⋙ मत्स्यनाशक, मत्स्यनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] कुरर पक्षी।
⋙ मत्स्यनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाँच प्रकार की सीमाओं में से वह सीमा जो नही या जलाशय आदि के द्वारा निर्धारित होती है।
⋙ मत्स्यपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मत्स्य'-६।
⋙ मत्स्यबंध
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यबन्ध] धीवर। मल्लाह।
⋙ मत्स्यबंधन
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यबन्धन] मछली पकड़ने की वंशी।
⋙ मत्स्यबंधी
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यबन्धिन्] दे० 'मत्स्यबंध'।
⋙ मत्स्यमुद्रा
संज्ञा पुं० स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की एक मुद्रा जो सभी पूजाओं में आवश्यक होती है। विशेष—इसमें दाहीने हाथ के पिछले भाग पर बाएं हाथ की हथेली रखकर अंगूठा हिलाते है। यह मुद्रा अभीष्ट सिंद्ध करनेवाली माना जाती है। इसे कूर्म्म मुद्रा भी कहते हैं।
⋙ मत्स्यरंक
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यरड़्क] दे० 'मत्स्यरंग'।
⋙ मत्स्यरंग
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यरड़्ग] मछरंग नामक पक्षी [को०]।
⋙ मत्स्यराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोहू मछली। २. विराटनरेश (को०)।
⋙ मत्स्यवेधन
संज्ञा पुं० [सं०] बंसी। दे० 'मत्स्यवेधनी'।
⋙ मत्स्यवेधनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंसी। मछली मारने की कँठिय [को०]।
⋙ मत्स्यसंतानिक
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यसन्तानिक] व्यंजन के साथ विशिष्ट प्रकार से पकाई चहुई मछली [को०]।
⋙ मत्स्याक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] सोमलता।
⋙ मत्स्याक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सोमलता। २. ब्राह्मी बूटी। ३. गाडर दूब।
⋙ मत्स्याधानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मछली रखने की झाँपी। २. बडिश। बंसी।—अनेकार्थ० पृ० ६२।
⋙ मत्स्यायिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जलपीपल। २. दे० 'मत्स्याक्षी'।
⋙ मत्स्यावतार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० मत्स्य'-७।
⋙ मत्स्याशन
संज्ञा पुं० [सं०] मछली खानेवाला पक्षी। मछरंग [को०]।
⋙ मत्स्यासन
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिको के अनुसार योग का एक आसन।
⋙ मत्स्यासुर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक असुर का नाम।
⋙ मत्स्यिनी सीमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्मृति के अनुसार दो गाँवों के बीच में पड़नेवाली नदी जो सीमा के रुप में हो।
⋙ मत्स्येंद्रनाथ
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्येन्द्रनाथ] एक प्रसिद्ध साधु और हठयोगी जो गोरखनाथ के गुरु थे। नेपाल चमें ये पद्मपाणि नामक वोधिसत्व के अवतार माने जाते हैं।
⋙ मत्स्योदरी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्योदरिन्] विराठनरेश का एक नाम [को०]।
⋙ मत्स्योदरी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] व्यास जी की माता सत्यवती का एक नाम। मत्स्यगंधा।
⋙ मत्स्योदरीय
संज्ञा पुं० [सं०] व्यास [को०]।
⋙ मत्स्योपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० मत्स्योपजीविन्] धीवर। मल्लाह।
⋙ मथ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'माथ' [को०]।
⋙ मथन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मथने का भाव या क्रिया। बिलोना। २. एक अस्त्र का नाम। ३. गनियारी नामक वृक्ष।
⋙ मथन (२)
वि० मारनेवाला। नाशक। उ०—मधुकैटभ मथन भुर भौम केशी भिदन कंस कुल काल अनुसाल हारी। जानि, युग जूप में भूप तद्रुपता में बहुरि करिहै कलुष भुमिभारी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मथना (१)
क्रि० स० [सं० मथन वा मन्थन] १. किसी तरल पदार्थ को लकड़ी आदि से वेगपूर्वक हिलाना या चलाना। बिलोना। रिड़कना। जैसै, दही मथना, समुद्र मथना इत्यादि। उ०— (क) का भा जोग कहानी कथें। निकसै धीव न बिनु दधि मथें।—जायसी (शब्द०)। (ख) दत्तात्रेय ममं नहिं जाना मिथ्या स्वाद भुलाना। सलिला मथि कै घृत को काढेउ ताहि समाधि समाना।—कबीर (शब्द०)। (ग) मुदिता मथइ बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी।— तुलसी (शब्द०)। क्रि० स०—डालना।—देना।—लेना। २. चलाकर मिलाना। गति देकर एक में मिलाना। उ०— मथि मृग मलय कपुर सबन के तिलक किए। कर मणि माला पहिराए सबन विचित्र ठए।—सूर (शब्द०)। ३. न्यस्त व्यस्त करना। नष्ट करना। ध्वंस करना। उ०— (क) सेन सहित तव मान मथि, बन उजारि पुर जारि। कस रे सठ हनुमान कपि, गएउ जो तव सुत मारि।— तुलसी (शब्द०)। (ख) अध वक शकट प्रलंव हानि, मारेउ गज चाणूर। धनुष भंजि द्दढ़ दौरि पुनि, कंस मथे मदमूर।—केशव (शब्द०)। ४. घूम घूमकर पता लगाना। बार बार श्रमपूर्वक ढूँढ़ना। पता लगाना। जैसे—तुम्हारे लिये सारा शहर मथ डाला गया, पर कहीं तुम्हारा पता न लगा। ५. पके हुए फोड़े आदि का फूटने के लिये रभीतर ही भीतर टीसना। दर्द करना। ६. किसी बात को बारंबार विचारना, सोचना। उ०—ज्ञान कथा को मथि मन देखो ऊधो बहु धोपी। टरति घरी धिन एक न अँखिया श्याम रूप रोपी।— सूर (शब्द०)। ७. बार बार किसी क्रिया का करना। किसी कार्य को बहुत अधिक बार करना।
⋙ मथना (२)
संज्ञा पुं० मथानी। रई। उ०—घूमि रहे जित दधि मथना सुनत मेघ ध्वनि लाज रा। चरनों कहा सदन की सोभा वैकुंठह ते राजै री।—सूर (शब्द०)।
⋙ मथनाचल
संज्ञा पुं० [सं०] मंदराचल पर्वत जिससे समुद्र मथा गया था [को०]।
⋙ मथनियाँ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मथानी + इया (प्रत्यय०)] वह मटका जिसमें दही मथा जाता है। उ०—दही दहेंड़ी ढिग घरी भरी मथनियाँ बारि। कर फेरति उलटी रई नई बिलोव- निहारि।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मथनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मथना] १. वह मटका जिसमें दही मथा जाता है। मथनियाँ। उ०—(क) दूध दही के भोजन चाटे नेकहु लाज न आई। माखन चोरि फोरि मथनी को पीवत छाछ पराई।—सूर (शब्द०)। (ख) डारे कहूँ मथनी बिसारे कहूँ घी को घड़ा बिकल बगारे कहूँ माखन मठा मही। २. दे० 'मथानी'। ३. मथने की क्रिया।
⋙ मथवा ‡
संज्ञा पुं० [सं० मस्तक + वा (प्रत्यय०)] दे० 'माथा'। उ०—गुहि दे मोरे मथवा कै चोटिया रे बालम।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० ३४०।
⋙ मथवाह पु
संज्ञा पुं० [हिं० माथा + वाह (प्रत्य०)] हाथी के सिर पर बैठकर उसे हाँकनेवाला पुरुष। महावत। उ०— दिष्टि तराहिं हीयरे आगे। जनु मथवाह रहै सिर लागे।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मथान
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्थन] १. मंथन। बिलोड़न। उ०—मड़ि मथान मन रई को फेरना, होत घमसान तहँ गगन गाजै।—कबीर० सा० सं०, पृ० ९१। २. चखचख। खलबली। मथने की घरघराहट। उ०—लोग कहैं बौरान काहि की पकरों बानी। घर घर घोर मथान फिरो में नाम दिवानी।—पलटू०, भा० १, पृ० ३१।
⋙ मथानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मथना] काठ का बना हूआ एक प्रकार का दंड जिससे दही से मथकर मक्खन निकाला जाता है। रई। बिलोनी। महनी। खैलर। उ०—को अस साज देह मोहिं आनी। बासुकिं दाम सुमेरु मथानी।—जायसी (शब्द०)। विशेष—इसके दो भाग होते है—एक खोरिया या सिरा और दूसरा डंडी। खोरिया प्रायः गोल, चिपटी और एक और सम तथा दूसरी ओर उन्नतोदर होती है। इसके किनारे पर कटाव होता है और जिस ओर समतल रहता है, उधर बीच में डेढ़ दो हाथ लंबी डंडो जडी रहती है। मथते समय खुरिया दही के भीतर डालकर डंडी को खंभे की चूल में लपेटकर रस्सी से या केवल हाथों से बठ बटकर घुमाते हैं जिससे दही क्षुव्ध हो जाता है और थोड़ा सा पानी डालने पर और मथने से नैनू वा मक्खन मट्टे के ऊपर उतरा आता है, जिसे मथानी से समेटकर अलग इकट्टा करते हैं। पर्या०—मंथान। मंथ। वैशाख। मथा। मंथन। चक्राढ़। भक्राढ। मुहा०—मथानी पड़ना या बहना = खलबली मचना। उ०— गढ़ ग्वालियर महँ बही मथानी। और कँधार मथा भै पानी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मथित (१)
वि० [सं०] १. मथा हूआ। २. घोलकर भली भांति मिलाये हुआ। आलोड़ित। ३. ध्वस्त। नष्ट (को०)। ४. पीड़ित। दलित (को०)।
⋙ मथित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] बिना जल मिलाया हुआ मट्टा। तक जिसमें पानी न मिला हो [को०]।
⋙ मथिता
वि० संज्ञा पुं० [सं० मथितृ] नाशक। नाश करनेवाला। मथनेवाला [को०]।
⋙ मथो (१)
वि० [सं० मथिन्] [स्त्री० मथिनी] मथनेवाला।
⋙ मथी (२)
संज्ञा पुं० १. मथानी। २. वायु (को०)। ३. बज्र। बिजली (को०)। ४. लिंग। शिश्न (को०)।
⋙ मथुरही पु
वि० [हिं० मथुरा] मथुरा संबंधी। दे० 'मथुरिया'। उ०—जो पै अलि अंत इहै करिबैहो। तो अतुलित अहीर अबलन को हठिन हिये हरिबेहो। जो प्रपंच परिणाम प्रेम फिरि अनुचित आधारिबेहो। तौ मथुरही महा महिमा लहि सकल ढरनि ढरिवेहो।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मथुरा
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुपुर (= मथुरा)] पुराणानुसार सात पुरियों में से एक पुरी का नाम। यह ब्रज में यमुना के किनारे पर है। विशेष—रामायण (उत्तरकांड) के अनुसार इसे मधु नामक दैत्य ने बसाया था जिसके पुत्र बाणासुर को पराजित कर शत्रुघ्न ने इसको विजय किया था। पाली भाषा के ग्रंथों में इसे मथुरा लिखा है। महाभारत काल में यहाँ शूरसेन- वंशियों का राज्य था और इसी वंश की एक शाखा में भगवान् श्रीकृष्णचंद्र का यहाँ जन्म हुआ था। शूरसेन- वंशियों के राज्य के अनंतर अशोक के समय में उनके अचार्य उपगुप्त ने इसे बौद्ध धर्म का केंद्र बनाया था। यह जैनों का भी तीर्थस्थान है। उनके उन्नीसवें तीर्थकर मल्लिनाथ का यह जन्मस्थान है। मौर्य साम्राज्य के अनंतर यह स्थान अनेक यूनानी, पारसी और शक क्षत्रपों के अधिकार में रहा। महमूद गजनवी ने सन् १०१७ में आक्रमण कर इस नगर को न्यस्त व्यस्त कर डाला था। अन्य मुसलमान बादशाहों ने भी इसपर समय समय पर आक्रमण कर इसे तहस नहस किया था। यहाँ हिंदुओं के अनेक मंदिर हैं और अनेक कृष्णोपासक वैष्णव सप्रदाय के आचार्यों का यह केंद्र है। पुराणानुसार यह मोक्षदायिनी पुरी है।
⋙ मथुरानाथ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ मथुरापति
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ मथुरिया
वि० [हिं० मथुरा + इया (प्रत्य०)] मथुरा से संबध रखनेवाला। मथुरा का। जैसे, मथुरिया पंडे। उ०—तब मथुरिया (चौबे) कोस दस बीस पर साम्हें आइकै उनकों ले आए।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १९५।
⋙ मथुरेश
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ मथौरा
संज्ञा पुं० [हिं० मथना] एक प्रकार का भद्द रंदा जिससे बढ़ई लकड़ो को खरादने के पहले छीलकर सीधा करते है। उ०—झाड़ दुसाखे झाम बसुल बरमा रु हथौरा। टाँकी नहनी घनी अरा आरी सु मथोरा।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मथौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० माथा + औरी (प्रत्य०)] एक आभूषण का नाम। चंद्रिका। चदक। विशेष—इस आभूषण को स्त्रियाँ सिर में पहनती है। यह अर्धचद्राकार होता है जिसमें कई लटकन लगे रहते हैं। यह जंजीर वा घागे से बाँधा जाता है।
⋙ मथ्थ †
संज्ञा पुं० [सं० मस्तक] दे० 'माथा'। उ०—भटक्कै पटक्कै कटवकै सुमथ्थं। सटक्कै चलावै अटक्कै न तत्थ।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मदंग
संज्ञा पुं० [सं० मृदड्ग] एक प्रकार का बाँस। विशेष—यह बरमा, आसाम, छोटा नागपुर आदि में/?/है। यह खोखला और मोटा होता है। चससे चटाई, घड़नई आदि बनाई जाती है ओर फलटे चीरकर मकान छाए जाते हैं। इसके पोर में लोग चावल पकाते और चीजें भरकर रखते हैं।
⋙ मदंतिका
संज्ञा स्ञी० [सं० मदन्तिका] दे० 'मदंती' [को०]।
⋙ मदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० मदन्ती] विकृत धैवत की चार श्रुतियों में से दूसरी श्रृति का नाम।
⋙ मदंध
वि० [सं० मदान्ध] मदमत्त (हाथी)। दे० 'मदांध'। उ०—समर के सिंह सत्रुमाल के सपूत, सहजहि बकरीया सदसिंधुर मदंध के।—मति० ग्रं०, ३९६।
⋙ मद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हर्ष। आनंद। २. वह गंधयुक्त द्राव जो मतवाले हाथियों की कनपटियों से बहता है। दान। ३. वीर्य। ४. कस्तूरी। ५. मद्य। ६. चित्त का वहु उद्वेग वा उमंग जो मादक पदार्थ के सेवन से होती है। मतवालापन। नशा। ७. उन्मत्तता। पागलपन। विक्षिप्तता। उ०— सत्यवती मछोदरी नारी। गंगातट ठाढ़ी सुकुमारी। पारा- शर ऋषि तहँ चलि आए विवश होइ तिनके मद धाए।—सूर (शब्द०)। ८. गर्व। अहंकार। घमंड। ९. अज्ञान। मतिविभ्रम। प्रमाद। १०. एक रोग वा नाम। उन्माद नामक रोग। ११. एक दानव का नाम। १२. कामदेव। मदन। मुहा०—मद पर आना = (१) उमंग पर आना। (२) कामोन्मत्त होना। गरमाना। (३) युवा होना।
⋙ मद
वि० मत्त। उ०—मद गजराज द्वारा पर ठाढ़ो हरि (?)नेक वचाय। उन नहिं मान्यो संमुख आयो पकरेउ पूँछ फिराय। सूर (शब्द०)।
⋙ मद (३)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. लंबी लकीर जिसके नीचे लेखा लिखा जाता है। खाता। २. कार्य या कार्यालय का विभाग। सीगा। सरिश्ता। ३. खाता। जैसे,—इस मद में सौ रुपए खर्च हुए है। ४. शीर्षक। अधिकार। ५. ऊँची लहर। ज्वार।
⋙ मदअंतिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मदयन्तिका] माल्लिका। मदयंती।
⋙ मदक
संज्ञा स्त्री० [हिं० मद + क (प्रत्य०)] एक प्रकार का मादक पदार्थ अफीम के सत में बारीक कतरा हुआ पान पकाने से बनता है। पीनेवाले इसकी छोटी छोटी गोलियों को चीलम पर रखकर तमाखू की भाँति पीते हैं। यौ०—मदकची या मदकबाज = मदक पीनेवाला।
⋙ मदकची
वि० [हिं० मदक + ची (प्रत्य०)] जो मदक पीता हो। मदक पीनेवाला।
⋙ मदकट
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँड़। २. नपुंसक। षंड़। हिजड़ा (को०)।
⋙ मदकमद्रम
वि० [सं०] ताड़ का पेड़।
⋙ मदकर (१)
वि० [सं०] मदवर्धक। मदकारक। जिससे मद उत्पन्न हो।
⋙ मदकर (२)
संज्ञा पुं० धतूरा।
⋙ मदकरी
संज्ञा पुं० [सं० मदकरिन्] मस्त हाथी। मदांध गज [को०]।
⋙ मदकल
वि० [सं०] १. मत्त। मतवाला। उ०—मदकल मलय पवन ले ले फूलों से। मधुर मरंद बिंदु उसमें सिलाया था।—लहर, पृ० ६८। २. बावला। पागल। ३. मद के कारण अस्पष्ट या धीरे धीरे बोलनेवाला (को०)।
⋙ मदकी
वि० [हिं० मदक + ई (प्रत्य०)] मदक पीलेवाला। मदकची।
⋙ मदकूक
वि० [अ० मदूकूक] १. तपेदिक का रोगी। क्षयरोगी। २. कुटा हुआ [को०]।
⋙ मदकृत्
वि० [सं०] उन्मादजनक। मादक।
⋙ मदकोहल
संज्ञा पुं० [सं०] साँड़।
⋙ मदखूल
वि० [अ० मद्खूल] प्रविष्ट। दाखिल किया हुआ [को०]।
⋙ मदखूला
संज्ञा स्त्री० [अ० मद्खूलह्] वह स्त्री जिसे कोई बिना विवाह किए ही रख ले या घर में डाल ले। गृहीता। रखनी। सुरेतिन।
⋙ मदगंध
संज्ञा स्त्री० [सं० मदगन्ध] १. छितवन। २. मद्य।
⋙ मदगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० मदगन्धा] १. मदिरा। शराब। २. अतसी। अलसी।
⋙ मदगमन
संज्ञा पुं० [सं०] महिष। भैसा।
⋙ मदगल पु
वि० [सं० मदकल] मत्त। मस्त। उ०—साहि के सिवाजी गाजी सरजा समत्थ महा मदगल अफजलै पंजा बल पटक्यो।—भूषण (शब्द०)।
⋙ मदघूर्ण
वि० [सं० मद + घूर्ण] मद में घूरती या हिलती डोलती। उ०—दिखतीं प्यासी आँखें थी रस भरी आँखों को मदघूर्ण।—झरना, पृ० २७।
⋙ मदध्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पोय। पूतिका।
⋙ मदच्यत (१)
वि० [सं० मदच्युत्] १. गर्वनाशक। २. जिससे मद च्युत हो रहा हो। जैसे, हाथी (को०)। ३. मत्त। नशे में चूर (को०)।
⋙ मदच्युत
संज्ञा पुं० इंद्र [को०]।
⋙ मदजल
संज्ञा पुं० [सं०] मत्त हाथी के मस्तक का स्ञाव। हाथी का मद। दान।
⋙ मदज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामज्वर। २. बल या घमंड़ का नशा [को०]।
⋙ मदत पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० मदद] सहायता। सहारा। दे० 'मदद'। उ०—जबहीं मीरा सयद साह की मदत पठाए। सिर उतारि कर लिए राव परि संमुख घाए।—ह० रासो, पृ० ८४।
⋙ मदद
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. सहायता। सहारा। उ०—पहलवान सो बखाने बली। मदद मीर हजमा औ अली। जायसी (शब्द०)। यौ०—मदद खर्च। मददगार। क्रि० प्र०—करना। देना। मुहा०—मदद पहुँचाना = कुमक पहुँचाना। सहायता मिलना। २. मजदूर और राज आदि जो किसी काम के ऊपर लगाए जाते हैं। साथ काम करनेवालों का समूह। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। मुहा० —मदद बाँटना = काम पर लगे मजदूरों की मजदूरी बाँटना वा देना। दैनिक मजदूरी चुकाना।
⋙ मददखर्च
संज्ञा स्त्री० [अ० मदद + फ़ा० खर्च] १. वह धन जो कीसी को सहायतार्थ दिया जाय। २. वह घन जो कोई काम करने के लिये काम करनेवालों को अगाऊ दिया जाय। पेशगी।
⋙ मददगार (१)
वि० [फ़ा०] सहायता देनेवाला। मदद करनेवाला। सहायक।
⋙ मददगार (२)
संज्ञा पुं० [अ० मदद + फ़ा गार (प्रत्य०)] मदद करनेवाला व्यक्ति। सहायता करनेवाला आदमी। सहायक व्यक्ति।
⋙ मदद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] नारियल का वृक्ष [को०]।
⋙ मदद्विप
संज्ञा पुं० [सं०] मद से मस्त हाथी। मदकरी [को०]।
⋙ मदधार
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक पर्वत का नास।
⋙ मदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. कामक्रीड़ा। उ०—वह कभी मदन तथा शारीरिक आनंदों के लोभादि प्रपंचों में नहीं फेसता।—कबीर मं०, पृ० २। ३. कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का आलिंगन जिसमें नायक अपना एक हाथ नायिका के गले में डालकर और दूसरा हाथ मध्यदेश में लगाकर उसका आलिंगन करता है। ४. मैनफल नामक वृक्ष और उसका फल। ५. धतूरा। ६. खैर। ७. मौलसिरी। ८. भ्रमर। ९. मोम। १०. अखरोट का वृक्ष। ११. महादेव के चार प्रधान अवतारों में से तीसरे अवतार का नाम। १२. मैना पक्षी। सारिका। १३. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्म मे सप्तम गृह का नाम। १४. एक प्रकार का गीत। १५. प्रेम। १६. रूपमाल छंद का दूसरा नाम। १७. छप्पय के एक भेद का नाम। १८. खंजन पक्षी।
⋙ मदनकंटक
संज्ञा पुं० [सं० मदनकण्टक] सात्विक रोमांच।
⋙ मदनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मदन वृक्ष। मैनफल। २. दौना। ३. मोम। ४. खैर। ५. मौलसिरी। ६. धतूरा।
⋙ मदनकदन
संज्ञा पुं० [सं० मदन + कदन] शिव। महादेव। उ०— अब ही यह कहि देख्यो मदनकदन की दड।—केशव (शब्द०)।
⋙ मदनकलह
संज्ञा पुं० [सं०] कामकलह। प्रेमकलह [को०]।
⋙ मदनगुपाल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मदनगोपाल'। उ०—तिहि काल बनि ब्रजबाल मदनगुपाल बर छबि अनगनी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७५।
⋙ मदनगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. योनि। भग। २. फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुंडली में सप्तम स्थान। ३. मदनहर छद का दूसरा नाम।
⋙ मदनगोपाल
संज्ञा पुं० [सं० हिं० मदन + गोपाल] श्रीकृष्णचंद्र का एक नाम। उ०—बसुदा मदन गोपाल सुवावै। देखि स्वप्न गत त्रिभुवन कंप्यो ईश बिरंचि भ्रमावै।—सूर (शब्द०)।
⋙ मदनचतुर्दशी
संज्ञा स्ञी० [सं०] चैत मास की शुक्ल चतुर्दशी का नाम। यह मदनमहोत्सब के अंतर्गत है।
⋙ मदनतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० मदनतन्त्र] काम संबंधी शास्त्र। कामशास्त्र [को०]।
⋙ मदनत
वि० [सं० मद + नत] मद या मस्ती से झुकी। शिथिल। उ०—काली काली अलकों में। आलस मदनत पलकों में।— लहर, पृ० ५४।
⋙ मदनताल
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत शास्त्र में एक प्रकार का ताल जिसमें पहले दो द्रुत और अत में दीर्घ मात्रा होती है।
⋙ मदनत्रयोदशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र की शुक्ल ञयोदशी का नाम यह मदनमहोत्सव के अंतर्गत है।
⋙ मदनदमन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम।
⋙ मदनदहन
संज्ञा पुं० [सं० मदन + दहन] शिव जो कामदाहक हैं। कामदेव को दग्ध करनेवालेशंकर [को०]।
⋙ मदनदिवस
संज्ञा पुं० [सं०] मदनोत्सव का दिन।
⋙ मदनदोला
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीतशास्त्र के अनुसार इंद्रताल के छह भेदों में एक का नाम।
⋙ मदनद्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र शुक्ल द्वादशी का नाम। प्राचीन काल में इस दिन मदनोत्सव प्रारंभ होता था। पुराणों में इस दिन व्रत का विधान है।
⋙ मदनद्विट
संज्ञा पुं० [सं० मदनद्विप] शिव [को०]।
⋙ मदनध्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र शुक्ल पूर्णिमा। चैत मास की पूर्णिमा तिथि [को०]।
⋙ मदननालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका विश्वास न हो। भ्रष्टा स्त्री। दुश्चरित्रा स्त्री।
⋙ मदनपक्षी
संज्ञा पुं० [ मदनपक्षिन्] खंजन पक्षी [को०]।
⋙ मदनपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. विष्णु।
⋙ मदनपाठक
संज्ञा पुं० [सं०] कोकिला। कोयल।
⋙ मदनफल
संज्ञा पुं० [सं०] मैनफल। मयनी।
⋙ मदनबाधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेम की पीर। कामध्यथा [को०]।
⋙ मदनपीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेम की पीड़ा। कामजन्य व्यथा।
⋙ मदनबान
संज्ञा पुं० [हिं० मदन + बान] एक प्रकार का बेला। विशेष—इसकी कलियाँ लंबी तथा दल एकहरे और नुकीले होते है। यह वर्षा में फूलता है ओर इसकी गंध बहुत अच्छी पर तीब्र होती है।
⋙ मदनभवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. योनि। भग। २. फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुंडली में जन्म से सप्तम स्थान।
⋙ मदनमनोरमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] केशवदास के मतानुसार सवैया के एक भेद का नाम जिसे दुर्मिल भी कहते हैं।
⋙ मदनमनोहर
संज्ञा पुं० [सं०] दंडक के एक भेद का नाम जिसे मनहर भी कहते हैं।
⋙ मदनमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मल्लिका वृत्ति का एक नाम। २. मल्लिका छंद का एक नाम। उ०—अष्ट वरण शुभ सहित कम गुरु लघु केशवदास। मदन मल्लिका नाम यह कीजै छंद प्रकास।—केशव (शब्द०)।
⋙ मदनमस्त
संज्ञा पुं० [हिं० मदन + मस्त] १. जंगली सूरन का सुखाया हुआ टुकड़ा जिसका प्रयोग औषध में होता है। २. चपे की जाती का एक प्रकार का फूल जिसकी गंध कटहल से मिलती जुलती पर बहुत उग्र तथा प्रिय होती है।
⋙ मदनमह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मदनमहोत्सव' [को०]।
⋙ मदनमहोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक उत्सव जो चैत्र शुक्ल द्वादशी से चतुर्दशी पर्यत होता था। विशेष—इस उत्सव में व्रत, कामदेव की पूजा, गीत, वाद्य और रात्रिजागरण आदि होते थे। इस उत्सव में स्त्री पुरुष दोनों संमिलित होते थे और उद्यान आदि में आमोद प्रमोद करते थे।
⋙ मदनमोदक
संज्ञा पुं० [सं०] केशव के मतानुसार सवैया छंद के एक भेद का नाम जिसे सुंदरी भी कहते है।
⋙ मदनमोहन
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णाचंद्र का एक नाम। उ०—जो मोहिं कृपा करी मोई जै(?) आयो माँगन। यशुमति सुत अपने पाइन जब खेलत आवै आँगन। जब तुम मदनमोहन करि टेरी इहि सुनि कै घर जाऊँ। हों तो तेरे घर की ढाढ़ी सुरदास भट नाऊँ।—सूर (शब्द०)।
⋙ मदनरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामजन्य आनंद। रतिजन्य सुख। २ विष। जहर (कोटि०)।
⋙ मदनरि पु
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। शंकर [को०]।
⋙ मदनललित
संज्ञा पुं० [सं०] कामक्रीड़ा। रतिक्रीड़ा [को०]।
⋙ मदनललिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वार्णिक वृत्ति का नाम। इस वृत्ति के प्रति चरण में सोलह वर्ण होते हैं। पहले मगण, फिर भगण, नगण, मगण, नगण और अंत में गुरु होता है। जैसे—माँग्यो जी दान निज पति ह्लै दासी चरण की।
⋙ मदनलेख
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेमी और प्रेमिका के पारस्परिक प्रेमपत्र।
⋙ मदनशलाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मैना। २. कोकिला। कोयल।
⋙ मदनसदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भग। योनि। २. फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुंडली के सप्तम स्थान का नाम।
⋙ मदनसारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारिका। मैना।
⋙ मदनहर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मदनहरा'।
⋙ मदनहरा
संज्ञा स्ञी० [सं०] चालीस मात्राओं के एक छंद का नाम। विशेष—छंदप्रभाकर में इसे मनहर लिखा है और दस, आठ, चौदह और आठ पर यति तथा आदि की दो मात्राओं का लघू और अंत की मात्रा का ह्रस्व होना लिखा है। उ०—सग सीय लक्ष्मण, श्री रघुनंदन, मातन के शुभ पाइय रे सब दुःख हरे। इसे मदनगृह भी कहते हैं। इसके यति और आदि की लघु मात्रा के नियम को कोई कोई कवि नहीं मानते।—जैसे,—सादल नजीब, महमूद आकबत, जैता गूजर सहित देख जुद्ध पढ़े।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मदनांकुश
संज्ञा पुं० [सं० मदनाड़्कुश] १. पुरुष की इंद्रिय। लिंग। २. नखक्षत।
⋙ मदनांतक
संज्ञा पुं० [सं० मदनान्तक] शिव।
⋙ मदनांध
वि० [सं० मदनान्ध] कामांध।
⋙ मदना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मैना। सारिका। २. मद्य। मदिरा (को०)। ३. कस्तूरी (को०)। ४. अतिमुक्त नाम की लता (को०)।
⋙ मदनाग्रक
संज्ञा पुं० [सं०] कोदव। कोदों।
⋙ मदनातपत्र
संज्ञा स्ञी० [सं०] योनि। भग [को०]।
⋙ मदनातुर
वि० [सं०] कामातुर। काम से पीड़ित या आर्त [को०]।
⋙ मदनायुध
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव का अस्त्र। अत्यंत सुंदरी स्त्री। २. भग। ३. एक शस्त्र का नाम।
⋙ मदनारि
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ मदनालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. भग। योनि। २, फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुंडली में के सप्तम स्थान का नाम। ३. कमल (को०)। ४. राजा (को०)।
⋙ मदनावस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कामुकों की विरहावस्था। २. कामक्रीड़ा की दशा।
⋙ मदनाशय
संज्ञा पुं० [सं०] विषय की इच्छा। भोगेच्छा [को०]।
⋙ मदनास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव का अस्त्र। मदनायुध। २. एक अस्त्र का नाम।
⋙ मदनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुरा। वारुणी। २. कस्तूरी। ३. मेथी। ४. अतिपुष्प नाम का फूल। ५. धाय का पेड़। धौ।
⋙ मदनी (२)
वि० [अ०] १. मदीना का रहनेवाला। २. नगर में रहनेवाला। शहरी [को०]।
⋙ मदनीय
वि० [सं०] उन्मादक। मस्त करनेवाला। राग उत्पन्न करनेवाला [को०]।
⋙ मदनीयहेतु
संज्ञा पुं० [सं०] धातकी। धाय का पेड़। धौ।
⋙ मदनेच्छाफल
संज्ञा पुं० [सं०] कलमी आम का पेड़। बद्धरसाल।
⋙ मदनोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] मदनमहोत्सव।
⋙ मदनोत्सवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग की वेश्या। अप्सरा।
⋙ मदनोद्यान
संज्ञा पुं० [सं०] आनंददायक एक प्रकार का उपवन। प्रमोद वन [को०]।
⋙ मदपानी पु
वि० [सं मद + पान + हिं०, ई (प्रत्य०)] मद्य पीने, वाला। मद्यप। शराबी। उ०—मदपानी कि करै कि न जपै मतिहीना। किं वायस ना भवै कि न कवि करै सुहीना।—पृ० रा०, १२।१३३।
⋙ मदप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों का मद बहना।
⋙ मदप्रसेक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी के गंडस्थल से स्त्रावित होनेवाला मदजल [को०]।
⋙ मदप्रस्ञवण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मदप्रसेक'।
⋙ मदफन
संज्ञा पुं० [अ० मदफ़न] वह स्थान जहाँ मुरदे गाड़े जाते हैं। कब्रिस्तान।
⋙ मदफून
वि० [अ० मद्फ़ून] १. दफन किया हुआ या गाड़ा हुआ। २. गुप्त। गुह्य। पोशीदा [को०]।
⋙ मदभंग
संज्ञा पुं० [सं० मदभड़्ग] नशा उतरना। गर्व टूटना [को०]।
⋙ मदभंजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मदभञ्जिनी] शतमूली।
⋙ मदभरा
वि० [सं० मद + हिं० भरा] मदयुक्त। मतवाला।
⋙ मदमत पु
वि० [सं० मदमत] दे० 'मदमत्त'। उ०—तरकि तरकि अति बज्र से डारै। मदमत इंद्र ठाढ़ी फलकारै।—नंद० ग्रं०, पृ० १९२।
⋙ मदमत्त
वि० [सं०] १. (हाथी) जो मद बहने के कारण मस्त हो। उ०—जिन हाथन हठि हरषि हनत हरिणीरिपु नंदन। तित न करत संहार कहा मदमत्त गयंदन।—केशव (शब्द०)। २. मस्त। मतवाला।
⋙ मदमत्तक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धतूरा [को०]।
⋙ मदमत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृत्ति या छंद [को०]।
⋙ मदमाता
वि [सं० मद + हिं० माता < सं० मत्त] [वि० स्त्री० मदमाती]दे० 'मदमत्त'।
⋙ मदमुकुलित
वि० [सं० मद + मुकुलित] जो मद या मस्ती में अधखुले हों (नेत्र)।
⋙ मदमुकुलिताक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं० मद + मुकुलित + अक्ष + ई(प्रत्य०)] मद के कारण अधखुले नेत्रोंवाली स्त्री।
⋙ मदमोचन
वि० [सं० मद + मोचन] गर्व दूर करनेवाला। मद हरण करनेवाला। उ०—ले हितलोचन रावण मदमोचन मही- यान।—अपरा, पृ० ५७।
⋙ मदयंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मदयन्तिका] मल्लिका।
⋙ मदयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० मदयन्ती] मल्लिका।
⋙ मदयित्नु (१)
वि० [सं० मदयित्नुः] मादक। उल्लासक [को०]।
⋙ मदयित्नु (२)
संज्ञा पुं० १. कामदेव। २. मेघ। ३. कलवार। ४. मद्दा। ५. मद्दापी (को०)।
⋙ मदयून
वि० [अ० मदयून] ऋखी। कर्जदार। देनदार [को०]।
⋙ मदर पु
संज्ञा पुं० [सं० मण्ड़ल] मंडराना। घेरना। आक्रमण। उ०—व्रज पर मदर करत है काम। कहियो पथिक जाइ श्याम सों राखहिं आइ आपनो धाम।—सूर (शब्द०)।
⋙ मदरसा
संज्ञा पुं० [अ०] पाठशाला। विद्यालय।
⋙ मदराग
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. मुर्गा। ३. शराब पीनेवाला व्यक्ति (को०)।
⋙ मदरास
संज्ञा पुं० [हिं०] भारतवर्ष के अंतर्गत एक प्रांत का नाम जो अपने प्रधान नगर के नाम से प्रख्यात है। तामिलनाडु। विशेष—यह प्रदेश दक्षिण प्रांत में पूर्व समुद्र के किनारे आंध्र से कुमारी अंतरीप तक फौला हुआ है। यहाँ द्राविड़ और तैलंग लोग रहते है। इस प्रांत की राजधानी समुद्र के किनारे, है और उसका भी यही नाम है।
⋙ मदरासी
वि० [हिं० मदरास + ई (प्रत्य०)] मदरास निवासी। मदरास का।
⋙ मदरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मंदरा] एक प्रकार का बाजा। उ०— झाल मदरिया झाफे बाजे।—संत० दरिया, पृ० १०६।
⋙ मदर्थ
अव्य० [सं०] मेरे लिये। उ०—वपथा जानता हूँ मैं तेरी, जो मदर्थ ही जाया।—कुणाल, पृ० ४६।
⋙ मदलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वणिक वृत्ति का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सात सात वर्ण होते हैं, जिनमें पहले मगण फिर सगण और अंत में गुरु होता है। जैसे,—मोसी गोप किशोरी। पैहो ना हरि जोरी। २. हाथी के गंडस्थल से निकले हुए मद की रेखा या चिह्न (को०)।
⋙ मदवा †
संज्ञा पुं० [सं० मद्य] शराब। उ०—सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।—कबीर० श०, पृ० ७३।
⋙ मदवारण
संज्ञा स्त्री० [सं०] मतवाला हाथी [को०]।
⋙ मदवारि
संज्ञा पुं० [सं०] मदजल [को०]।
⋙ मदविक्षिप्त (१)
वि० [सं०] मद से पागल। मदमत्त।
⋙ मदविक्षिप्त (२)
संज्ञा पुं० मतवाला हाथी।
⋙ मदविह्णल
वि० [सं०] १. नशे में मस्त। २. विषयातुर। कामातुर।
⋙ मदवृंद
संज्ञा पुं० [सं० मदवृन्द] हाथी। मस्त हाथी [को०]।
⋙ मदव्याधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदात्यय रोग [को०]।
⋙ मदशाक
संज्ञा पुं० [सं०] पोई। पोय।
⋙ मदशालिता
संज्ञा स्त्री० [सं० मद + शालिता] मदयुक्त या गर्वयुक्त होने का भाव। उ०—पर कृपा करके, कर दूर तू, कुटिलता, कटुता, मदशालिता।—प्रिय०, पृ० २२९।
⋙ मदशौंड, मदशौंडक
संज्ञा पुं० [सं० मदशौण्ड, मदशौण्डक] जाती फल। जायफल [को०]।
⋙ मदसार
संज्ञा पुं० [सं०] शहतूत का पेड़।
⋙ मदस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] मदिरालय। शराबखाना [को०]।
⋙ मदस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मदस्थल'।
⋙ मदहस्तिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] करंज का एक भेद [को०]।
⋙ मदहेतु
संज्ञा पुं० [सं०] धातकी। धाय का पेड़।
⋙ मदहोश
वि० [फा़० मद्होश] नशे में चूर। बेसुध। उन्मत्त। उ०—तुम्हीं बता दो यौवन मद में कौन हुआ मदहोश नहीं है, मेरा इसमें दोष नहीं है।—हिल्लोल, पृ० ६३।
⋙ मदांध
वि० [सं० मदान्ध] जिसे मस्ती, गर्व आदि के कारण भले बुरे का कुछ ज्ञान न हो। मदमत्त। मदोन्मत। मद से अंधा।
⋙ मदांबर
संज्ञा पुं० [सं० मदाम्बर] १. मदमत्त हाथी। २. इंद्र का हाथी। ऐरावत [को०]।
⋙ मदांबु, मदांभस
संज्ञा पुं० [सं० मदाम्बु, मदाम्भस्] हाथी का मदजल।
⋙ मदाकुल
वि० [सं०] मस्त। मतवाला [को०]।
⋙ मदाखिलत
संज्ञा स्त्री० [अ० मदाखिलत] १. बाँध। रोक। रुकावट। २. प्रवेश। अधिकार। यौ०—मदाखिलत बेजा।
⋙ मदाखिलत बेजा
संज्ञा स्त्री० [अ० मदाखिलत + फ़ा० बेजा] १. किसी ऐसे स्थान में प्रवेश करना जहाँ वैसा करने का अधिकार प्राप्त न हो। अनधिकार प्रवेश। २. किसी ऐसे कार्य में हस्तक्षेप करना जिसमें वैसा करने का अधिकार न हो। अनुचित हस्तक्षेप।
⋙ मदाढ्य
संज्ञा पुं० [सं०] ताल का वृक्ष। ताड़।
⋙ मदातंक
संज्ञा पुं० [सं० मदातड़्ग] मदात्यय नामक रोग।
⋙ मदात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग का नाम जी लगातार अत्यंत मद्यपान करने से होता है। उ०—विधि से विरुद्ध मद्यपान करने से मदात्यय रोग होता है।—माधव०, पृ० ११५। विशेष—इस रोग में रोगी को चक्कर आता है, नींद नहीं आती, अरुचि होती है, प्यास लगती है, हाथ पैर मे जलन होती है और वे ढील पड़ जाते हैं, तंद्रा आती है और अपच हो जाता है। कभी कभी ज्वर भी आता है और रोगी बहुत प्रलाप करता है। पर्या०—मदातंक। मदव्याधि। मद।
⋙ मदाध
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।
⋙ मदानि पु †
वि० [?] कल्याण करनेवाला। मंगलकारक। उ०— तुलसी संगति पोय की सुजनहिं होति मदानि। ज्यों हरि रूप सुनाहिं तें कीन जुहारी आनि।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मदापनय
संज्ञा पुं० [सं०] मद उतरना। नशा उतरना [को०]।
⋙ मदार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हस्ती। हाथी। २. धूर्त। चालबाज। ३. शूकर। सूअर। ४. एक गंधद्रव्य का नाम। ५. कामुक। कामी।
⋙ मदार (२)
संज्ञा पुं० [सं० मन्दार] आक। उ०—पुत्र से भला मदार फरै ना दोप में।—पलटू०, पृ० १०४। यौ०—मदारगदा।
⋙ मदार (३)
संज्ञा पुं० [अ० मदार] शाह मदार के अनुयायी। दे० 'मदारी'।
⋙ मदार (४)
संज्ञा पुं० [अ०] १. धूरी। कीली। आधार। २. ग्रह नक्षत्राति के भ्रमण का मार्ग। ३. दायरा। घेरा [को०]।
⋙ मदारगदा
संज्ञा पुं० [हिं० मदार + गदा?] धूप में सुखाया हुआ मदार का दूध जो प्रायः औषध आदि में डाला जाता है।
⋙ मदारिया
संज्ञा पुं० [हिं० मदारी] दे० 'मदारी'।
⋙ मदारी
संज्ञा पुं० [अ० मदार] १. एक प्रकार के मुसलमान फकीर जो बंदर, भालू आदि नचाते और लाग के तमाशे दिखाते हैं। ये लोग शाह मदार के अनुयायी होते हैं। मदारिया। कलंदर। विशेष—इस संबंध में बताया जाता है कि शाह मदार का जन्म १०५० ईसवी में एक यहूदी के घर हुआ था और यह स्वयं इस्लाम धर्म में दीक्षित हुए थै। यह फरुँखाबाद में रहते थे और सुलतान शरकी के समय में कानपुर आऐ थे। उस समय कानपुर में 'मकनदेव' नामक़ जिन्न रहता था। शाह मदार उस जिन्न को वहाँ से निकालकर वहाँ रहने लगे। इसी से उस स्थान का नाम मकनपुर पड़ा। शाह मदार के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह चार सो वर्ष जीते रहे और सन् १४३३ में मरे थे। शाह मदार की समाधि मकनपुर में सुलतान इब्राहीम ने बनवाई थी। मुसलमान इन्हें जिंदाशाह कहते हैं और अबतक जीवित मानते हैं। शाह मदार का पूरा नाम बदिउद्दीन था। २. बाजीगर। तमाशा करनेवाला। ३. बंदर आदि नचानेवाला।
⋙ मदालस
वि० [सं०] उत्तेजना, मस्ती अथवा नशे के कारण सूस्त। उ०—पहाड़ की पहली शरद का यह मदालस भाव अकले अनुभव करने का नहीं है।—नदी०, पृ० २५६।
⋙ मदालसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार विश्रावसु गंधर्व की कन्या का नाम जिसे वज्रकेतु के पुत्र पातालकेतु दानव ने उठा ले जाकर पाताल में रखा था। विशेष—मार्कडेय पुराण में कथा है कि राजा शत्रुजित् के पुत्र ऋतुध्वज यज्ञरक्षार्थ गालव जी के आश्रम में रहते थे। एकदिन शूकर रुपधारी पातालवेतु के अधिक उपद्रव करने पर इन्होंने उसका पीछा किया और उसे मारकर पाताल में गए। वहाँ उन्हें मदालप्ता मिली जिससे उन्होंने विवाह किया। थोडे दिनों बाद जब ऋतुध्वज अपने पिता की आज्ञा से पृथिवीपीपर्यटन करने निकले, तब उन्हें पातालकेतु का भाई तालकेतु मिला जो मूनि का रूप धारण कर तप कर रहा था। तालकेतु ने ऋतुध्वज से कहा कि में यज्ञ करना चाहता हैं, पर दक्षिणा देने के लिये मेरे पास द्रव्य नहीं है। यदि आप आपना हार मुझे दें, तो में जल में प्रवेश कर वरुण से धन प्राप्त कर यज्ञ करूँ। राजकुमार ने उसके माँगने पर अपना हार उसे दे दिया और उसके आश्रम में बैठकर उसके लोटने की प्रतीक्षा करने लगे। तालकेतु हार पहनकर जलाशय में घुसा और दूसरे मार्ग से निकलकर उनके पिता के पास पहुँचकर उनसे कहा कि राजकुमार यज्ञ की रक्षा कर रहे थे। राक्षसों से घोर युद्ध हुआ, जिसमें राक्षसों ने राजकुमार को मार डाला। में यह समाचार देने के लिये आया हूँ। जब ऋतुध्वज के मारे जाने का समाचार मदालसा को पहुँचा, तब उसने प्राण त्याग दिए। तालध्वज वहाँ से लोटा और उसी जलाशय से निकलकर ऋतुध्वज से बोला कि आपकी कृपा से मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया। अब आप अपने घर जाइए। ऋतुध्वज जब अपने घर आया, तो मदालसा के शरीरपात का समाचार सुनकर अत्यंत दुःखित हूआ। निदान वह सदा चिंतातुर रहा करता था। उसे शोकातुर देख उसके सखा नागराज अश्वतर के दो पूत्रों ने अपने पिता से प्रार्थना की कि आप तप करके मदालसा की फिर राजा को दें और उनको दुःख से छुडावें। अश्वतर ने शिव की तपस्या कर उनके वरदान से 'मदालसा' तुल्य पुत्री प्राप्त की और राज- कुमार ऋतुध्वज को अपने यहाँ निमंत्रित कर उसे प्रदान किया। यह मदालसा परम विदुषी और ब्रह्मवादिनी थी। यह अपने पुत्रों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश करती हुई खेलाया करती थी। इसके तीन पुत्र विक्रांत, सुबाहु और शत्रुमदंन आबाल ब्रह्मचारी और विरक्त थे; और चौथा पुत्र अलकं गद्दी पर बैठा, जिसे राजा ऋतुध्वज ने अपना उत्तराधिकारी बनाया और अंत की उसी पर राज्यभार छोड़ सस्त्रोक वानप्रस्थाश्रम ग्रहण किया। मार्कडेय पुराण में इसकी कथा विस्तार से आई है।
⋙ मदालापी
संज्ञा पुं० [सं० मदालापिन्] [स्त्री० मदालापिनी] कोकिल।
⋙ मदालु
वि० [सं० मद + आलु] जिससे मद स्त्रवता हो। मतवाला। मस्त [को०]।
⋙ मदाह
संज्ञा पुं० [सं०] कस्तूरी।
⋙ मदि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पटेला। हेंगा।
⋙ मदिप पु
संज्ञा पुं० [सं० मद्यप] दे० 'मद्यप'। उ०—जौ ते चहसि मदिप सँग बासा। आय पिवो मद मय बिनु कासा।—संत दरिया, पृ० १९।
⋙ मदिया
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मादा] पशुऔं में स्त्री जाति। स्त्री जाती का जानवर। जैसे, मदिया कबूतर। मादिया कौवा।
⋙ मदिर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल खैर।
⋙ मदिर (२)
वि० [सं०] नशीला। मदभरा। मदकारक। मस्त करनेवाला। उ०—पलकें मदिर भार मे थी झुकी पड़तीं।—लहर, पृ० ६६।
⋙ मदिरता
संज्ञा स्त्री० [सं० मदिर + ता (प्रत्य०)] मादकता। मदोन्मत्तता। उ०—रात की इस चाँदनी की रौप्यता कुछ खो गई है। और, कोकिल की मदिरता भी तिरोहित हो गई है।—अपलक, पृ० ८९।
⋙ मदिरनयना
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकर्षण मस्त आँखोंवाली स्त्री [को०]।
⋙ मदिरलोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदिरनयना।
⋙ मदिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भबके सै खीच या सड़ाकर बनाया हुआ प्रसिद्ध मादक रस। वह अकं जिसके पीने से नशा हो। शराब। दारू। मद्य। विशेष—मदिरा के प्रधान दो भेद हैं। एक वह जिसे आग पर चढ़ाकर भबके से खींचते हैं, जिसे अभिस्रवित कहते है। दूसरा वह जिसमें सड़ाकर मादकता उत्पन्न की जाती हैं और जिसे पयुंषित कहते हैं। दोनों प्रकार की मदिराएँ उत्तेजक, दाहक, कषाय और मधुर होती हैं। वैदिक काल से ही मादक रसों के प्रयोग की प्रथा पाई जाती है। सोम का रस भी, जिसकी स्तुति प्रायः सभी संहिताओं में है, निचोड़कर कई दिन तक ग्राहों में रखा जाता था जिससे खमीर उठकर उसमे मादकता उत्पन्न हो जाती थी। यजुर्वेद में यवसुरा शब्द आया है, जिससे यह पता चलता है कि यजुर्वेद के काल में यव की मदिरा खींचकर बनाई जाती थी। स्मृतियों में सुरा के तीन भेदों गौड़ी, पेष्टी और माध्वी—का निषेध पाया जाता है। वैद्यक में सुरा, वारुणी, शीघु, आसव, माध्वीक, गौड़ी, पेष्टी, माध्वी, हाला, कादबंरी आदि के नाम मिलते है। जटाधक ने मध्वीक, पानास, द्राक्ष, खर्जूर, ताल, ऐक्षव, मैरेय, माक्षिक, टाँक, मबूक, नारिकेलज, अन्नविकारोत्थ, इन बारह प्रकार की मदिराओं का उल्लेख किया है। इनमे खर्जूर और ताल आदि पर्युषित और शेष अभिस्त्रवित हैं। इन दोनों के अतिरिक्त एक प्रकार की और मदिरा होती है, जिसे अरिष्ट कहते हैं। यह क्वाथ से बनाई जाती है। धान या चावल की मदिरा को सुरा, यव की मदिरा को कोहल, गेहूँ की मदिरा की मधुलिका, मीठे रस की मदिरा को शीधु, गुड़ की मदिरा को गाड़ी, और दाख की मदिरा को मध्वीक कहते हैं। धर्मशास्ञों में गौड़ी, पेष्टी और माध्वी को सुरा कहा गया है। वैद्यक ग्रंथों में भिन्न भिन्न प्रकार की मदिराओं के गुण लिखे हैं ओर उनका प्रयोग भिन्न भिन्न अवस्थाओं के लिये लाभकारी बतलाया गया है। क्रि० प्र०—खींचना।—पीना।—पिलाना। २. मत्त खंजन (को०)। ३. दुर्गा का एक नाम (को०)। ४. वसुदेव की एक स्त्री का नाम। ५. बाइस अक्षरों के वर्णिक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सात भगण और अंत में एक गुरु होता है। इसे मालिनी, उमा और दिवा भी कहते हैं। जैसे,—तोरि शरासन संकर के शुभ सीय स्वयंवर माँझ बरी।—केशव (शब्द०)।
⋙ मदिराक्ष
वि० [सं०] [स्त्री० मदिराक्षी] जिसकी आँखें मदभरी हों। मस्त आँखोंवाला। मत्तालोचन।
⋙ मदिराक्षी
वि० [सं०] मदभरी या मस्त आँखोंवाली।
⋙ मदिरागृह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मदिरालय' [को०]।
⋙ मदीराभ
वि० [सं०] १. मादकता से युक्त। मादक। २. खंजन के समान विस्तृत वा आयत। उ०—खोलता लावन दल मदिराभ, प्रिये, चल अलिदल से वाचाल।—गुंजन, पृ० ४७।
⋙ मदिरायतनयन
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मदिरायतनयना] खंजन के समान बड़े और मदभरे नेत्रावाला [को०]।
⋙ मदिरालय
संज्ञा पुं० [सं०] मधुशाला। शराबखाना। मद्यगृह [को०]।
⋙ मदिरावल पु
संज्ञा पुं० [सं० मदिरा] मद्य। मदिरा। उ०— नीझर झरे अमीरस निकसै तिहि मदिरावल छाका।— कबीर ग्रं०, पृ० १३९।
⋙ मदिरासख
संज्ञा पुं० [सं०] आम का वृक्ष [को०]।
⋙ मदिरोत्कट
वि० [सं०] दे० 'मदिरोन्मत्त' [को०]।
⋙ मदिरोन्मत्त
वि० [सं०] शराब के नशे में चूर [को०]।
⋙ मदिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीखी शराब। नशीली मदिरा [को०]।
⋙ मदा
संज्ञा स्त्री० [सं० मदि] दे० 'मदि'।
⋙ मदोद्
वि० [अ०] लबा। दीर्घ। यौ०—शदीदो मदीद = कठिन और लंबा। उ०—बाद इन्तजार शदीदी मदीद इनायतनामे के दर्शन हुए।—प्रेम० और गीर्की, पृ० ६२।
⋙ मदीना
संज्ञा पुं० [अ०] अरब के एक नगर का नाम। यहाँ मुसल- मानी मत के प्रवोर्तक मुहम्मद साहब की समाधि है।
⋙ मदिय
वि० [सं०] [स्त्री० मदीया] मेरा। उ०—जो नाम मात्र ही स्मरण मदीय करेंगे, वे भी भवसागर बिना प्रयास तरेंगे।—साकेत, पृ० २१६।
⋙ मदीयून
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह जो देनदार हो। कर्जदार। ऋणी।
⋙ मदीला
वि० [हिं० मद + ईला (प्रत्य०)] नशे से भरा हुआ। नशीला। उ०—गजन मदीले चढ़ि चले चटकीले है।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ मदुकल
संज्ञा पुं० [देश०] दोहे के एक भेद का नाम जिसमें तेरह गुरु ओर बाईस लघु मात्राएँ होती हैं। इसे गयंद भी कहते हैं। उ०—राम नाम मणि दीप घरु, जीह देहरा द्वार। तुलसी भीतर बाहिरै, जो चाहसि उजियार।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मदूर †
संज्ञा पुं० [फा़० मजदूर] दे० 'मजदूर'। उ०—रखे शमला चीरा बाँधे मदूर, करे सानी शरीअत काम अवसर।— दक्खिनी० पृ० २४९।
⋙ मदोच्छ्वास
संज्ञा पुं० [सं० मद + उच्छ्वास] मद भरे उच्छवास। आह या दीर्घ साँस। उ०—मेरी निभृत समाधि से अतुल, निकले मदोच्छ्वास गदिराउत।—मधुज्वाल, पृ० ३८।
⋙ मदोत्कट (१)
वि० [सं०] मदगर्वित। मदोद्धत।
⋙ मदोत्कट (२)
संज्ञा पुं० मत्त हाथी।
⋙ मदोदग्र
वि० [सं०] मत्त। मतवाला।
⋙ मदोद्धत
वि० [सं०] १. मदोन्मत्त। मत्त। उ०—जिसमें मदोद्धत कटाक्ष की अरुणिमा, व्यंग्य करती थी विश्व भर के अनुराग पर।—लहर, पृ० ८३। २. घमंडी। अभिमानी।
⋙ मदोन्मत्त
वि० [सं०] मद से भरा हुआ। मदांध।
⋙ मदोमत्त पु †
वि० [सं० मद + मत्त] दे० 'मदोन्मत्त'। उ०—किसोरं किसावतं गातं सु क्रीसं। बप एस बल्ल मदोमत्त दीसं।— पृ० रा०, २।५०१।
⋙ मदोर्जित
वि० [सं०] मद से ओजयुक्त। गर्व से फूला हुआ।
⋙ मदोल्लापो
संज्ञा पुं० [सं० मदोल्लापिन्] कोकिल।
⋙ मदोवै पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दोदरी] मंदोदरी। उ०—तुलसी मदोवै मींजि हाथ, धुनि माथ, कहै काहू कान कियो न मैं केतो कह्यौ कालि है।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मदग्
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का जलपक्षी जिसे जलपाद और लमपुछार भी कहते हैं। विशेष—इसकी लंबाई पूँछ से चोंच तक ३२ से ३४ इंच तक होती है। इसके डैने कुछ पीलापन लिए होते हैं। पूँछ काली, चोंच पीली और मुँह, कनपटी और गले के नीचे का भाग सफैद तथा पैर काले होते हैं। यह भारतवर्ष के प्रायः सभी भागों में, विशेषकर पहाड़ी और जंगली प्रदेशों में, होता है। वैद्यक में इसका मांस शीतल, वायुनाशक स्निग्ध और भेदक माना गया है। यह रक्तपित्त के विकारों को दूर करता हैं। २. पेड़ पर रहनेवाला एक प्रकार का जंतु। ३. मदगुरी मछली। मंगुर। ४. एक प्रकार का साँप। ५. एक प्रकार का युद्धपोत। ६. एक वर्णसंकर जाति का नाम। विशेष—मनुस्मृति में इसकी उत्पत्ति ब्राह्मण पिता और बंदी जाति की माता से लिखीं है और इसका काम वन्य पशुओं को मारना बताया गया है।
⋙ मदगुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मँगुरी या मंगुर नामक मछली। २. प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति जिसका काम समुद्र में डूबकर मोती आदि निकालना था। यौ०—मदगुरप्रिया = सिंधी मछली।
⋙ मदगुरक
संज्ञा पुं० [सं०] मंगुर नामक मछली। मदगुर।
⋙ मदगुरसी, मदगुरी
संज्ञा पुं० [सं०] मँगुर या मदगुर नामक मछली।
⋙ मद्द पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मद्य, प्रा० मद्द] 'मद्य'। उ०—मद्द मांस मिथ्या तज डारौ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ५६।
⋙ मद्द (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'मद्द' (३)'।
⋙ मद्दगल पु
संज्ञा पुं० [देश०] हाथी। मत्त गज। उ०—अरि अग्ग मद्दगल सहस इप्ष।—पृ० रा०, १।४३७।
⋙ मद्दत, मद्दति पु
संज्ञा स्त्री० [अ० मदद] सहायता। मदद। उ०— ठारै से अरु चार में पावस साँवन मांस। मद्दति करिय सुरेस की किय दखिनी दल नास।—सुजान०, पृ० २५।
⋙ मद्दराई पु
वि० [सं० मत्त + राज] मद से युक्त। मदोन्मत। उ०—करि अप्पइसं दुईसं दुहाई। मनौ बंन भुभझै गजं मद्दराई।—पृ० रा०, ९।१४९।
⋙ मद्दा (१)
वि० [अ० मद्दाह] प्रशंसक। उ०—शहादत मद्दा कहे तो क्या, याने इस खाकी तन सुँ मरना है।—दक्खिनी०, पृ० ३९७।
⋙ मद्दा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मन्द] [संज्ञा स्त्री० मद्दी] सस्ता। महँगी होने की विपरीत स्थिती। उ०—चोखेलाल की खत्तियों की बात फैल गई तो बाजार तीन चार आने की मद्दी से खुलेगा।—अभिशप्त, पृ० ५२।
⋙ मद्दाह
वि० [अ०] १. प्रशंसक। तारीफ करनेवाला। २. सहायक। मददगार [को०]।
⋙ मद्दसाही
संज्ञा पुं० [हिं० मधुसाह] एक प्रकार का पुराना पैसा जो तांबे का चौकीर टुकड़ा होता है।
⋙ मद्देनजर
क्रि० वि० [अ० मद्देनज़र] द्दष्टि के समक्ष रखकर। द्दष्टिगत करके। उ०—वह धर्म को व्यापार का शृंगार समझता है और सव काम अपने स्वार्थ को मद्देनजर रखकर करता है।—प्रेम और गोर्की, पृ० ३३६।
⋙ मद्देफाजिल
संज्ञा स्त्री० [अ० मद्देफ़ाजिल] व्यर्थ का खर्च [को०]।
⋙ मद्देमूकाबिल
वि० [अ० मद्दे मुकाबिल] विपक्षी। शत्रु। प्रतिद्वंदी। रकीब [को०]।
⋙ मद्दोजजर
संज्ञा स्त्री० [अ० मद्दोजज्त्र] ज्वार भाटा। समुद्र के पानी का उतार चढ़ाव।
⋙ मद्ध
संज्ञा पुं० [सं० मध्य] दे० 'मध्य'।
⋙ मद्धिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह मदिरा जो द्राक्षा से बनाई जाती है। द्राक्ष।
⋙ मद्धिम पु †
वि० [सं० मध्यम] १. मध्यम। अपेक्षाकृत कम अच्छा। २. मंदा।
⋙ मद्धे
अव्य० [सं० मध्य] १. बीच में। में। उ०—(क) गुरू संत समाज मद्धे भत्कि मुक्ती द्दढ़ाइए।—कबीर (शब्द०)। (ख) सतगु आप पुरुष हैं स्वामी। गगन कंज मद्धे अस्थानी।—घट०, पृ० २५४। २. विषय में। बाबत। संबध में। उ०—परंतु अँगूठी मिलने के मद्धो इससे कुछ ओर पूछ ताँछ होनी चाहिए।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। ३. लेखे में। बाबत। जैसे,—आपको सो रुपए इस मद्धे दिए जा चुके हैं।
⋙ मद्य
संज्ञा पुं० [सं०] मदिरा। शराब।
⋙ मद्यकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० मद्यकुम्भ] शराब का बरतन [को०]।
⋙ मद्यगंध
संज्ञा पुं० [सं० मद्यगन्ध] बकुलवृक्ष [को०]।
⋙ मद्यत पु
वि० [सं० मद] मद से भरा। मतवाला। उ०—निस गयति अद्ध ससि उदिर बीर। बज्जे सु बज्जि मद्यत सुमीर।—पृ० रा०, ६१।१५४२।
⋙ मद्यदोहद
संज्ञा पुं० [सं०] बकुल वृक्ष [को०]।
⋙ मद्यद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] माड़ नामक वृक्ष।
⋙ मद्यपंक
संज्ञा पुं० [सं० मद्यपड़्क] खमीर जो मद्य खींचने के लिये उठाया जाय।
⋙ मद्यप
वि० [सं०] मद पीनेवाला। सुरापी। शराबी। उ०— निर्लज्ज। मद्यप !! क्लीव !!! ओह तो मेरा कोई रक्षक नहीं।—ध्रूव०, पृ० २६।
⋙ मद्यपान
संज्ञा पुं० [सं०] मद्य पीने की क्रिया। शराब पीना।
⋙ मद्यपायी
वि० [सं० मद्दापायिन्] शराब पीनेवाला। शराबी [को०]।
⋙ मद्यपाशन
संज्ञा पुं० [सं०] मद्य के साथ खाई जानेवाली चटपटी चीज। गजक। चाट।
⋙ मद्यपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] घातकी। धौ।
⋙ मद्यबीज
संज्ञा पुं० [सं०] शराब के लिय़े उठाया हुआ खमीर।
⋙ मद्यभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] शराब का पात्र। मद्यभांड [को०]।
⋙ मद्यभांड
संज्ञा पुं० [सं० मद्यभाण्ड] मद्यभाजन [को०]।
⋙ मद्यमंड
संज्ञा पुं० [सं० मद्यमण्ड] वह फेन जो मद्य का खमीर उठने पर ऊपर आता है। मद्यफेन।
⋙ मद्यमोद
संज्ञा पुं० [सं०] बकुल। मालसिरी।
⋙ मद्यवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घातकी। घौ।
⋙ मद्यसंधान
संज्ञा पुं० [सं० मधसन्धान] मद्य निकालने का व्यापार।
⋙ मद्याक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] शराब पीने का व्यसन। शराब की लत [को०]।
⋙ मद्याजीर्ण
संज्ञा पुं० [सं० मद्य + अजीर्ण] एक प्रकार का अजीर्ण जिसमें डकार आना, पेट फूलना आदि उपद्रव होते हैं। उ०—वमन अथवा डकार का आना, जलन होना, ये लक्षण जब मद्याजीर्ण होय है तब होते हैं।—माधव०, पृ० ११८।
⋙ मद्यामोद
संज्ञा पुं० [सं०] बकुल वृक्ष [को०]।
⋙ मद्रंकर
वि० [सं० मद्रङ्कर] मंगलकारक। शुभकारक।
⋙ मद्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का वैदिक नाम। यह देश कश्यप सागर के दक्षिणी किनारे पर पश्चिम की और था। ऐतरेय ब्राह्मण में इसे उत्तर कुरु लिखा है। २. पुराणानुसार रावी और झेलम नदियों के बीच के देश का नाम। ३. हर्ष। ४. मद्र दश के राजा [को०]। ५. मंगल। शुभ [को०]।
⋙ मद्रक
वि० [सं०] १. मद्र देश का। मद्र देश संबंधी। २. मद्र देश में उत्पन्न।
⋙ मद्राकार
वि० [सं०] मंगलकारक। शुभ।
⋙ मद्रसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नकुल और सहदेव की माता, माद्री जो मद्रनरेश की कन्या थी।
⋙ मद्रास
संज्ञा पुं० [देश] दे० 'मदरास'।
⋙ मद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मद्र देश की स्त्री० [को०]।
⋙ मद्रुकस्थली
संज्ञा स्त्री० [स०] पाणिनि के अनुसार एक देश का नाम।
⋙ मद्वा
संज्ञा पुं० [सं० मद्वन्] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ मध पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मध्य] दे० 'मध्प'। उ०—रूप शरीर जीव मध बासा।—घट०, पृ० ३६५।
⋙ मध पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मद] दे० 'मद'। उ०—मध के माते समझत नाहीं, मैंगल की मति आई।—दादू० पृ० ५७५।
⋙ मधगंध पु
संज्ञा पुं० [सं० मद + गन्ध] मदजल के गंधवाले मत हाथी। उ०—अद्ध सूर उग्गंत ढाल ढुक्की सुरतानिय। ढाम ढाम मधगंध सज्जि चल्लै अगवांनिय।—पृ० रा०, २४।१२१।
⋙ मधन
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जो भैरव राग की पुत्रवधू मानी जाती है।
⋙ मधरा पु
वि० [सं० मधुर] दे० 'मधुर'। उ०—हाथ सितारो सुर करयौ, मुख में मधरा बोल।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १६७।
⋙ मधव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वैशाख का महीना। माधव [को०]।
⋙ मधानी †
संज्ञा स्त्री० [हिं मथानी] देही मथने का पात्र। मथानी। मटका। उ०—एक कमरे में, जो कि निस्संदेह मठ का रसोईघर था हमें कढ़ाई, तवा चम्मचें, करछी, मधानी और एक छोटा सा सरोता उपलब्ध हुआ है।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १९०।
⋙ मधाना पु ‡ (१)
क्रि० अ० [हिं० मथना] मथा जाना। बिलोडित होना। उ०—ज्ञान मधाना अहि निशि कथै।—प्राण०, पृ० ४४।
⋙ मधाना (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जो पशुओं के लिये बहुत पुष्टिकारक समझी जाती है। मकड़ा। मधाना। विशेष दे० 'मकड़ा'।
⋙ मधि (१)
संज्ञा पुं० [सं० मध्य] दे० 'मध्य'। उ०—सखा बचन सुनि दोउ दल के मधि रथ लै ठाढ़ो कीनो।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७८२।
⋙ मधि (२)
अव्य० दे० में।
⋙ मधिक पु
क्रि० वि० [सं० मध्य] बिच में। उ०—मधिक पेड़ डार बिस्तारे।—दरिया० बानी, पृ० १८।
⋙ मधिनायक पु
संज्ञा पुं० [सं० मध्य + नायक] माला में बीचों बीच का बड़ा मनका या भूषण। पदिक। उ०—मनहु मधिनायक बिराजत अति अमूत जराव।—घनानंद, पृ० २९७।
⋙ मधिम पु
वि० [सं० मध्यम] दे० 'मध्यम', 'मद्धिम'।
⋙ मधु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी। जल। २. शहद। ३. मदिरा। शराब। ४. फूल का रस। मकरंद। ५. वसंत ऋतु। उ०— कोउ कह बिहरत बन मधु मनसिज दोउ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २१। ६. चैत्र मास। ७. एक दैत्य जिसे विष्णु ने मारा था और जिसके कारण उनका 'मधुसूदन' नाम पड़ा। ८. दूध। ९. मिसरी। १०. नवनीत। मक्खन। ११. घी। १२. एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में दो लघु अक्षर होते हैं। १३. शिव। महादेव। १४. महुए का पेड़। उ०—पठ मंडप चारों ओर तने मन भाए, जिनपर रसाल, मधु, निंब, जंबु, षट् छाए।—साकेत, पृ० २२५। १५. अशोक का पेड़। १६. मुलेठी। १७. अमृत। सुधा। १८. सोमरस (को०)। १९. मधुमक्खी का छत्ता (को०)। २०. मोम (को०)। २१. एक राग जो भैरव राग का पुत्र माना जाता हैं।
⋙ मधु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीवंती का पेड़।
⋙ मधु (३)
वि० [सं०] १. मीठा। २. स्वादिष्ट। उ०—चारौ भ्रात मिलि करत कलेऊ मधु मेवा पकवाना—सूर (शब्द०)।
⋙ मधुआरि
संज्ञा पुं० [सं० मधु + अरि] मधुसुदन। कृष्ण। उ०— मोहन मधु अरि मुष्टि अरि दामोदर जदुईस।—अनेकार्थ० पृ० ९१।
⋙ मधुकंठ
संज्ञा पुं० [सं०] कोकिल। कोयल।
⋙ मधुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] महुए का पेड़। २. महुए का फूल। ३. अशोक वृक्ष (को०)। ४. एक पक्षी (को०)। ५. मुलेठी। जेठी मधु। ६. सीसा। राँगा (को०)। ७. खर्जूर रस (को०)। यौ०—मधुकाश्रय।
⋙ मधुक (२)
वि० १. मीठा। २. मीठा बोलनेवाला। सुस्वर। ३. शहद के समान रंग का [को०]।
⋙ मधुकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोंरा। उ०—फूटि सुगंध कंज की जैसे, मधुकर के मन भाधै—कबीर श०, भा० ३, पृ० १६। २. कामी पुरुष। ३. भँगरा। घबरा।
⋙ मधुकरो (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुकर] १. गकरिया। भौरिया। वाटी। २. पके अन्न की भिक्षा। वह भिक्षा जिसमें केवल एका हुआ दाल, चावल, रोटी, तरकारी आदि ली जाती हो। ३. भ्रमरी। भोंरी।
⋙ मधुकरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] भ्रमर। भौरा [को०]।
⋙ मधुकर्कटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] संतरा। मीठा नीबू।
⋙ मधुकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [पु०] १. दे० 'मधुकर्कटीका'। २. एक प्रकार का खजूर [को०]।
⋙ मधुकलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ मधुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मधुयष्टिका। मुलेठि। २. मधुपर्णी वृक्ष। ३. काले रंगकी ककुनी [को०]।
⋙ मधुकार
संज्ञा स्त्री० [सं०] मधुमक्खी। शहद की मक्खी।
⋙ मधुकारी
संज्ञा पु० [सं० मधुकारिन्] मधुमक्खी। शहद की मक्खी। उ०—कोठ कहे अहो मधुप कौन कहे तुमें मधुकारी।—नंद० ग्रं०, पृ० १८३।
⋙ मधुकाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।
⋙ मधुकंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुकुम्भा] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका का नाम।
⋙ मधुकुक्कुटिका, मधुकुक्कुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का नीबू का पेड़ [को०]।
⋙ मधुकुल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मधु या शहद की धारा (को०)। पुराणानुसार कुशद्वीप की एक नदी का नाम।
⋙ मधुकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] मधुमक्खी [को०]।
⋙ मधुकेशर
संज्ञा पुं० [सं०] मधुमक्खी [को०]।
⋙ मधुकौटभ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार मधु और कैटम नाम के दो दैत्य जो दोनों भाई थे और जिन्हें विष्णु ने मारा था।
⋙ मधुकोश, मधुकोष
संज्ञा पुं० [सं०] शहद की मक्खी का छत्ता। मधुचक्र।
⋙ मधुक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] मधुमक्खी का छत्ता [को०]।
⋙ मधुक्षोर, मधुक्षीरक
संज्ञा पुं० [सं०] खजूर का पेड़।
⋙ मधुखर्जूरिका, मधुखर्जूरी
संज्ञा पुं० [सं०] खजूर का एक प्रकार।
⋙ मधुगंध
संज्ञा पुं० [सं० मधुगन्ध] १. अर्जुन का वृक्ष। २. बकुल। मौलसिरी।
⋙ मधुगंधिक
वि० [सं० मधुगन्धिक] मधुर सुगंधवाला [को०]।
⋙ मधुगायन
संज्ञा पुं० [सं०] कोयल [को०]।
⋙ मधुगुंजन
संज्ञा पुं० [सं० मधुगुञ्जन] सहजन का वृक्ष।
⋙ मधुग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] वाजपेय यज्ञ में का एक होम जो मधु से किया जाता है।
⋙ मधुधोष
संज्ञा पुं० [सं०] कोकिल। कोयल।
⋙ मधुचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] शहद की मक्खी का छत्ता। उ०—पुलक उठी मधुचक्र देख प्रभु की प्रिया।—साकेत, पृ० १३८।
⋙ मधुचौर पु
[सं० मधु + चौर] मधु का चोर। भ्रमर। उ०—मधुप मधुव्रत मधुरसिक इंदीबर मधु चौर।—अनेकार्थ०, पृ० ७१।
⋙ मधुच्छंदा
संज्ञा पुं० [सं० मधुच्छन्दम्] विश्वमित्र के एक पुत्र का नाम जो ऋग्वेद के अनेक मत्रों के द्रष्टा थे।
⋙ मधुच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोरशिखा नाम की बूटी।
⋙ मधज
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।
⋙ मधुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। विशेष—पुराणानुसार पृथ्वी की उत्पत्ति मधु नामक राक्षस के मेद से हुई थी, इसी से उसका यह नाम पड़ा। २. मिस्त्री (को०)।
⋙ मधुजालक
संज्ञा पुं० [सं०] मधुमक्खी का छत्ता [को०]।
⋙ मधुजित्
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ मधुजीरक
संज्ञा पुं० [सं०] सौंफ।
⋙ मधुजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] बहेड़े का वृक्ष।
⋙ मधुतम, मधुतर
वि० [सं०] अत्यंत मीठा [को०]।
⋙ मधुतरु, मधुतृण
संज्ञा पुं० [सं०] ईख। ऊख।
⋙ मधुत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] शहद, घी और चीनी इन तीनों का समूह।
⋙ मधुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] मधु या मधुर होने का भाव। मिठास। मीठापन।
⋙ मधुदीप
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ मधुदूत
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़।
⋙ मधुदूती
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाटला वृक्ष।
⋙ मधुद्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. भौरा। २. लंपट। कामासक्त (को०)।
⋙ मधुद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] लाल सहजन का वृक्ष।
⋙ मधुद्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. महुए का पेड़। २. आम का पेड़ (को०)।
⋙ मधुधातु
संज्ञा पुं० [सं०] माक्षिक। एक धातु [को०]।
⋙ मधुधारी
संज्ञा पुं० [सं०] सोन मक्खी।
⋙ मधुधूलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] खाँड़। शक्कर।
⋙ मधुधेनु
संज्ञा पुं० [सं०] मधु आदि द्वारा निर्मित सवत्सा गौ। शहद जो गाय की आकृति के रूप में ब्राह्मणों को दान किया जाय। विशेष—बाराह पुराण के श्वेतोपाख्यान में इसकी विधि और माहात्म्य वर्णित है।
⋙ मधुनापित
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्णसंकर जाति जो स्मृति के अनुसार शूद्रा स्ञी और क्षत्रिय पुरुष से उत्पन्न है। मोदक [को०]।
⋙ मधुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का क्षुप जिसे धृतमंडा और सुमंगला भी कहते हैं।
⋙ मधुनेता
संज्ञा पुं० [सं० मधुनेतृ] १. मधुमक्खी। २. भ्रमर। भौरा।
⋙ मधुप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भौरा। २. शहद की मक्खी। ३. उद्धव। उ०—रगी प्रेम नंदलाल के, हमैं न भावत जोग। मधुप राजपद पाय कै, भीख न माँगत लोग।—मतिराम (शब्द०)। ४. देवता, जो मधु पीते हैं (को०)।
⋙ मधुप (२)
वि० १. पधु पीनेवाला। २. शराबी (को०)।
⋙ मधुपटल
संज्ञा पुं० [सं०] शहद की मक्खी का छत्ता।
⋙ मधुपति
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ मधुपनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुप + नी(प्रत्य०)] भ्रमरी। उ०— सरस बसंत सुहावनी परंतु आई सुख देनु। माते मधुप मधुपनी कोकिल कुल कल बेनु।—छीत०, पृ० २३।
⋙ मधुपर्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. दही, घी, जल, शहद और चिनी का समूब जो देवताओं को चढ़ाया जाता है। विशेष—इससे देवता बहुत संतुष्ट होते हैं। यह भी कहा गया है कि इसका दान करने से सुख और सोभाग्य की वृद्धि तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। पूजा के सोलह उपचारों में से देवता या पूज्य के सामने मधुपर्क भी रखना एक उपचार है। विवाह में भी इसके दान और प्राशन का विधान है। २. तंत्र के अनुसार घी, दही और मधु का समूह जिसका उपयोग तांत्रिक पूजन में होता है।
⋙ मधुपर्क्य
वि० [सं०] मधुपर्क देने के योग्य। जिसके सामने मधुपर्क रखा जा सके।
⋙ मधुपर्णिका, मधुपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुरुच। २. गंभारी नामक वृक्ष। ३. नीली नामक पौधा।
⋙ मधुपाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] खरबूजा [को०]।
⋙ मधुपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] मदिरा रखने का बरतन। मद्यपात्र [को०]।
⋙ मधुपायी
संज्ञा पुं० [सं० मधुपायित्] भौरा।
⋙ मधुपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंभारी नामक वृक्ष।
⋙ मधुपिंग
संज्ञा पुं० [सं० मधुपिङ्ग] पुराणानुसार एक मुनि का नाम।
⋙ मधुपीलु
संज्ञा पुं० [सं०] महापीलु। अखरोट।
⋙ मधुपुर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मथुरा नगर का प्राचीन नाम।
⋙ मधुपुर (२)
संज्ञा पुं० [सं० मधु + पुर] मयखाना। शराबघर। उ०— अर्ध्य चढ़ा उनको जो जब तब आते हैं तेरे मधुपुर में।—गीतिका, पृ० ३७।
⋙ मधुपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मथुरा का प्राचीन नाम।
⋙ मधुपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. महुआ। २. सिरिस का पेड़। ३. अशोक वृक्ष। ४. मोलसिरी।
⋙ मधुपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागदंती। २. धौ।
⋙ मधुप्रणय
संज्ञा पुं० [सं०] शराब पीने का व्यसन [को०]।
⋙ मधुप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रमेह रोग जिसमें पेशाब में शक्कर आती है। विशेष दे० 'मधुमेह'।
⋙ मधुप्राशन
संज्ञा पुं० [सं०] सोलह संस्कारों में से एक संस्कार जिसमें नवजात शिशु (पुत्र) को शहद चटाया जाता है [को०]।
⋙ मधुप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बलराम। २. भुई जामुन। ३. अक्रूर (को०)।
⋙ मधुफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दाख। २. कँटाय या विकंकत नामक वृक्ष। ३. एक प्रकार का नारियल (को०)।
⋙ मधुफलिका
संज्ञा पुं० स्त्री० [सं०] मीठा खजूर।
⋙ मधुबन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रजभूमि के एक बन का नाम। उ०—मधुबन तुम कत रहते हरे।—सूर०, १०।३२१०। २. सुग्रीव का बगीचा जिसमें अगूर के फल बहुत होते थे। उ०—जौ न होत सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई।—मानस, ५।२९।
⋙ मधुबहुल
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मधुबहुला] १. वासती लता। २. सफेद जूही।
⋙ मधुबारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदिरा। मधु। शराब। उ०—मधु, माध्वी, मदिरा, हरा, सुरा, बारुणी होय। आसव, मय,कादं- बरी, मधुबारा मैरेय।—नंद० ग्रं०, पृ० ९८।
⋙ मधुबाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शराब पिलानेवाली स्त्री। साकी। उ०—सो जाती है मधुबाला। सूखा लुढ़का है प्याला।—लहर, पृ० ५४। २. मकरंद का संग्रह करनेवाली, भौंरी। भ्रमरी।
⋙ मधुबिंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुबिम्बी] कुँदरू।
⋙ मधुबोज
संज्ञा पुं० [सं०] अनार।
⋙ मधुबैनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मधु + हिं० बैन + ई (प्रत्य०)] मधुरभाषिणी। उ०—मधुवैनी बारिज वर बैनी। हास विलास रास रसरैनी।—नंद ग्रं०, पृ० १५८।
⋙ मधुब्रत पु
संज्ञा पुं० [हिं० मधुव्रत] भौरा। दे० 'मधुव्रत'। उ०— वानी रससानी ता मधुव्रत को, लह्यौ जिन कृपा मकरंद स्याम हृदय सरोज को।—घनानंद, पृ० १५०।
⋙ मधुमार
संज्ञा पुं० [सं०] एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं और अंत में जगण होता है। जैसे—प्रभु हौं सुदीन। तुम हो प्रवीन। जग मँह महेश। हरिए कलेश।
⋙ मधुभूमिक
संज्ञा पुं० [सं०] योगी जो साधना की द्वितीय अवस्था में हो [को०]।
⋙ मधमंगल पु
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण का एक सखा। उ०— मधुमंगल लै लै फिरि नाँटव।—घनानंद, पृ० २४८।
⋙ मधुमंथ
संज्ञा पुं० [सं० मधुमन्थ] शहद के मिश्रण से बनाया हुआ एक प्रकार का पेय [को०]।
⋙ मधुमक्खी
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुमक्षिका] एक प्रकार की प्रसिद्ध मक्खी जो फूलों का रस चूसकर शहद एकत्र करती है। मुमाखी। विशेष—दस हजार से पचास हजार तक मधुमक्खियाँ एक साथ एक घर बनाकर रहती है जिसे छत्ता कहते हैं। इस छत्ते में मक्खियों के लिये अलग अलग बहुत से छोटे छोटे घर बने होते हैं। प्रत्येक छत्ते में तीन प्रकार की मधुमक्खियाँ होती हैं। एक तो मादा मक्खी होती है जो 'रानी' कहलाती है। इसका काम केवल गर्भ धारण करके अंडे देना होता है। यह दिन में प्रायः दो हजार अड़े देती है। प्रत्येक छत्ते में ऐसी एक ही मक्खी होती है। साधारण मक्खियों की अपेक्षा यह कुछ बड़ी भी होती है। दूसरी जाति नर मक्खियों की होती है, जिनका काम रानी को गर्भ धारण कराना होता है। और तीसरे वर्ग मे वे साधारण मक्खियाँ होती हैं जो फलों का रस पी पीकर आती हैं और उन्हें शहद या मधु के रूप में छत्तो में जमा करती हैं। जब नर मक्खियाँ मर्भधारण का कार्य करा चुकती हैं, तब उन्हें तीसरे वर्ग की साधारण मक्खियाँ मार डालती हैं। इसके अतिरिक्त छत्ता बनाने और नवजात मक्खियो के पालन पोषण का काम भी इसी तीसरे वर्ग की साधारण मक्खियाँ करती हैं। इस प्रकार अडे देने के सिवा और समग्र काम इसी वर्ग की मक्खियों द्वारा किया जाता है। मादा और काम करनेवाली मक्खियों का डंक जहरीला होता है जिससे वे अपने शत्रु को मारती हैं। जब एक छत्ता बहुत भर जाता है, तब रानी मक्खी की आज्ञा से काम करनेवाली मक्खियाँ किसी दूसरी जगह जाकरनया छत्ता बनाती हैं। शहद में से जो मैल निकलती है, उसी को मोम कहते हैं। बहुत प्राचीन काल मे प्रायः सभी देशों में लोग शहद और मोम के लिये इनका पालन करते आए हैं। इस संबंध में अंग्रेजी और हिंदी में अनेक पुस्तके भी प्रकाशित हैं।
⋙ मधुमक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मधुमक्षा] मधुमक्खी [को०]।
⋙ मधुमक्षिका, मधुमक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शहद की मक्खी। मधुमक्खी।
⋙ मधुमज्जन
संज्ञा पुं० [सं०] अखरोट का पेड़ [को०]।
⋙ मधुमत
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश का नाम जो काशमीर के पास था।
⋙ मधुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और एक गुरु होता है। २. एक प्राचीन नदी का नाम। ३. तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार की नायिका जिसकी उपासना और सिंद्धि से मनुष्य जहाँ चाहे, वहाँ आ जा सकता है। ४. पतंजलि के अनुसार समाधि की वह अवस्था जो अभ्यास और वैराग्य के कारण रजः और तम के बिलकुल दूर हो जाने और सत्गुण का पूरा प्रकाश होने पर प्राप्त होता है। ५. गंगा का एक नाम। ६. मधु दैत्य की कन्या का नाम जो इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व को न्याही थी। ७. पुराणानुसार नर्मदा की एक शाखा का नाम।
⋙ मधुमत्त
वि० [सं०] १. शराब पिए हुए। शराब के नशे में डूबा हुआ। २. वसंत ऋतु के प्रभाव से मस्त या आनंदित [को०]।
⋙ मधुमथन
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ मधुमल्लि, मधमल्लिका, मधुमल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मालती।
⋙ मधुमय
वि० [सं० मधु + मय (प्रत्य०)] मधुयुक्त। आनंदप्रद। सुंदर। उ०—सब तेरे मधुमय देशन में।—हिं० का० प्र०, पृ० २४८।
⋙ मधुमयता
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुमय + ता (प्रत्य०)] आनंद। माधुर्य। मादकता। उ०—श्री लाई तुम शोभा लाई, लाई मधुमयता।—अग्नि०, पृ० २३।
⋙ मधुमस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पकवान। विशेष—यह मैदे को घी में भूनकर और ऊपर से शहद में लपेटकर बनाया जाता है। वैद्यक के अनुसार यह बलकरक और सारी होता है।
⋙ मधुमाखी
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुमक्षी हिं० मधुमक्खी] दे० 'मधु- मक्खी'। उ०—मधुमाखी लीं डीठि दिसि अति छबि पावति।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०।
⋙ मधुमात
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग जो भैरव राग का सहचर माना जाता है।
⋙ मधुमात सारंग
संज्ञा पुं० [सं० मधुमातसारङ्ग] सारंग राग का एक भेद जिसके गाने का समय दिन में १७ दंड से २० दंड तक माना जाता है। यह संकर राग है और सारंग तथा मधुमात के योग से बनता है।
⋙ मधुमाधव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मालश्री, कल्याण और मल्लार के योग से बना हुआ एक सकर राग। २. चैत और वैशाख जो वसंत ऋतु के मास माने गए है।
⋙ मधुमाधवसारंग
संज्ञा पुं० [सं० मधुमाधवसारङ्ग] ओड़व जाति का एक संकर राग जिसमे धैवत और गांधार वर्जित हैं।
⋙ मधुमाधवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक रागिनी जो भैरव राग की सहचरी मानी जाती है। हनुमत के मत से इसका स्वर- ग्राम इस प्रकार है—म प ध नि सा रे ग म अथवा म प नि सा ग म। २. वासती लता। ३. एक प्रकार की शराब।
⋙ मधुमाध्वीक
संज्ञा पुं० [सं०] मद्य। शराब।
⋙ मधुमान्
वि० [सं० मधुमत्] १. मीठा। २. सुखकर। प्रिय। ३. जिसमें शहद मिला हो। ४. मधु से परिपूर्ण जैसे पुष्प (को०)।
⋙ मधुमारक
संज्ञा पुं० [सं०] भौंरा।
⋙ मधुमालती
संज्ञा स्त्री० [सं०] मालती नाम का लता जिसके फूल पीले होते है। विशेष दे० 'मालती'।
⋙ मधुमास
संज्ञा पुं० [सं०] १. चैत महीना। २. वसंत (को०)।
⋙ मधुमूल
संज्ञा पुं० [सं०] रतालू।
⋙ मधुमेह
संज्ञा पुं० [सं०] किसी प्रकार के प्रमेह का बढ़ा हुआ रूप जिसमें पेशाब बहुत अधिक और मधु का सा मीठा ओर गाढ़ा आता है। यह रोग प्रायः असाध्य माना जाता है ओर इससे प्रायः रोगी की मृत्यु हो जाती है। विशेष दे० 'प्रमेह'। माधव०, पृ० १८९।
⋙ मधुमेही
संज्ञा पुं० [सं० मधुमेहिन्] जिसे मधुमेह रोग हो।
⋙ मधुयांष्ट
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुलेठी। जेठी मद। २. ऊख। ईख।
⋙ मधुयष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुलेठी।
⋙ मधुयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुलेठी।
⋙ मधुयामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं मधु + यामिनी] वर वधू के मिलन की प्रथम रात्रि। सुहागरात। आनंदयुक्त रात।
⋙ मधुर (१)
[सं०] १. जिसका स्वाद मधु के समान हो। मीठा। २. जो सुनने में भला जान पड़े। प्रिय। मधुर वचन। ३. सुंदर। मनोरजक। उ०—सोइ जानकीपति मधुर मूरति मोदमय मंगलमई।—तुलसी (शब्द०)। ४. सुस्त। मठृर (पशु)। ५. मंदगामी। धीरे चलनेवाला। ६. जो किसी प्रकार क्लेशप्रद न हो। हलका। उ०—मधुर मधुर गरजत धन धोरा।— तुलसी (शब्द०)। ७. शांत। सोम्य।
⋙ मधुर (२)
संज्ञा पुं० १. मीठा रस। २. जीवक वृक्ष। ३. लाल ऊख। ४. गुड़। ५. (/?/)। ६. स्कंद के एक सैनिक का नाम। ७. लोहा। ८. विष जहर। ९. काकोली। १०. जंगली बेर। ११. बादाम का पेड़। १२. महुआ। १३. मठर।
⋙ मधुरई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मधुर + ई (प्रत्य०)] १. मधुर होने का भाव। मधुरता। २. मिठास। मीठापन। ३. सुकुमारता। कोमलता।
⋙ मधुरकंटक
संज्ञा पुं० [सं० मधुरकण्टक] एक प्रकार की मछली जिसे कजली कहते हैं।
⋙ मधुरक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जीवक वृक्ष।
⋙ मधुरक (२)
वि० दे० 'मधुर'।
⋙ मधुरकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मीठा नीबू।
⋙ मधुरजंबीर
संज्ञा पुं० [सं० मधुरजम्बीर] मीठा जमीरी नीबू।
⋙ मधुरज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] धीमा ओर सदा बना रहनेवाला ज्वर। विशेष—वैद्यक के अनुसार यह ज्वर अधिक घी आदि खाने अथवा पसीना रुकने के कारण होता है। इसमें मुँह लाल हो जाता है, तालू और जीभ सूख जाती है, नींद बहुत आती, प्य़ास बहुत लगती और कै मालूम होती है।
⋙ मधुरता
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधुर कहोने का भाव। २. मिठास। ३. सौंदर्य। सुंदरता। मनोहरता। ४. सुकुमारता। कोमलता।
⋙ मधुरत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] शहद, घी और चीनी इन तीनों का समूह।
⋙ मधुरत्रिफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दाख या किसमिश, गंभारी और खजूर इन तीनों का समूह।
⋙ मधुरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधुर होने का भाव। मधुरता। २. मीठापन। मिठास। ३. सुंदरता। मनोहरता।
⋙ मधुत्वच्
संज्ञा पुं० [सं०] धौ का पेड़।
⋙ मधुरप्रियदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ मधुरफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैर का वृक्ष। २. तरबूज।
⋙ मधुरफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मीठा नीबू।
⋙ मधुरबिंबा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुँदरू। मधुबिंबी।
⋙ मधुरभाषा
वि० [सं० मधुरभाषिन्] मीठा बोलनेवाला।
⋙ मधुरवल्ली
संज्ञा स्ञी० [सं०] एक प्रकार का नीबू [को०]।
⋙ मधुरस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईख। २. ताड़ वा खजूर।
⋙ मधुरस (२)
वि० मीठा। मिठास से भरा हुआ [को]।
⋙ मधुरसरण
वि० [सं० मधुर + सरण] धीरे धीरे चलनेवाला।— उ०—आओ मधुरसरण माननि मन।—गीतिका, पृ० ५५।
⋙ मधुरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूर्वा। २. दाख। उ०—स्वादि मृदुका मधुरसा काल मेखला होइ।—अनेकार्थ० पृ० ३०। ३. गंभारी। ४. दुधिया। ५. शतपुष्पी। ६. प्रसारिणो लता।
⋙ मधुरसिक
संज्ञा पुं० [सं०] भौरा।
⋙ मधुरस्त्रवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिड खजूर।
⋙ मधुरस्वन (१)
वि० [सं०] दे० 'मधुरस्वर'।
⋙ मधुरस्वन (२)
संज्ञा पुं० शख (को०)।
⋙ मधुरस्वर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गंधर्व।
⋙ मधुरस्वर (२)
मीठे स्वरवाला। मीठे स्वर का [को०]।
⋙ मधुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदरास प्रांत का एक प्राचीन नगर जो अब मडुरा या मदूरा कहलाता है। २. मथुरा नगर। ३. शतपुष्पी। ४. मीठा नीबू। ५. मेदा। ६. मुलेठी। ७. काकोली। ८. सतावर। ९. महामेदा। १०. पालक का भाग। ११. सेम। १२. केले का वृक्ष। १३. मसूर। १४. मीठी खजूर। १५. सौंफ।
⋙ मधुराई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मधुर + आई (प्रत्य०)] १. मधुरता। उ०—दुति लावन्य रूप मधुराई। कांति रमनता सुंदर- ताई।—नंद० ग्रं०, पृ० १२४। २. मीठापन। ३. कोमलता। उ०—मधुराई बैरन बसी लगी पगन गति मंद। चपलाई चमकी चखनि चखन लखो नँदनँद।—स० सप्तक, पृ० ३७०। ४. सुंदरता।
⋙ मधुराकर
संज्ञा पुं० [सं०] ईख। ऊख।
⋙ मधुराका
संज्ञा स्त्री० [सं० मधु + राका] १. वसंत ऋतु की चाँदना रात। उ०—और पड़ती हो उसपर शुभ्र नवल मधुराका मन की साध।—कामायनी, पृ० ४८। २. दे० 'मधुयामिनी'।
⋙ मधुराज
संज्ञा पुं० [सं०] भौरा। उ०—छूटि रही अलक झलक मधुराज राजी तापै द्विति तैसोये बिराजै पर मोर की।— रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ मधुराना पु
क्रि० अ० [हिं० मधुर + आना (प्रत्य०)] १. किसी वस्तु में मीठा रस आ जाना। मीठा होना। उ०—व्यंग ढंग तजि बानी हू कछु कछु मधुरानी।—व्यास (शब्द०)। २. सुंदरता से भर जाना। सुंदर हो जाना। उ०—आगे कौन हवाल जवै अंग अंग मधुरैहैं।—व्यास (शब्द०)।
⋙ मधुरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] मिठाई। मिष्टान्न। उ०—खाय मधुरान्न नहिं पाय पनही घरै।—केशव (शब्द०)।
⋙ मधुराम्लक
संज्ञा पुं० [सं०] अमड़ा।
⋙ मधुराम्लरस
संज्ञा पुं० [सं०] नारंगी का पेड़।
⋙ मधुरालापा
संज्ञा० स्त्री० [सं०] मैना पक्षी।
⋙ मधुरालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की छोटी मछली।
⋙ मधुरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौंफ।
⋙ मधुरित
वि० [सं०] मधुर किया हुआ। मधुर बनाया हुआ। अति मधुर। उ०—चढ़ि कदम्म बुल्ले सु प्रभु मधुरित मिष्टत बानि।—पृ० रा०, २।३७९।
⋙ मधुरिपु
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ मधुरिमा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुरिरमन्] १. मिठास। मीठापन। २. सुंदरता। सौंदर्य।
⋙ मधुरिमा (२)
वि० जो बहुत अधिक मीठा हो।
⋙ मधुरि पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० माधुर्य] १. सौंदर्य। सुंदरता। उ०—ता दिन देख परी सब की छबि कौन मिली इनकी मधुरी।—रघुराज (शब्द०)। २. बहुत प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था।
⋙ मधुरी पु (२)
वि० [सं० मधुर] दे० 'मधुर'। उ०—मधुरी नौबतबजत कहूँ नारी नर गावत।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८२।
⋙ मधुरीछ
संज्ञा पुं० [हिं० मधु + रीछ] दक्षिणी अमेरिका का एक जंगली जंतु। विशेष—ऊँचाई में यह जंतु बिल्ली या कुत्ते के बराबर और रूप में रीछ के समान होता है। यह जंतु शहद के छत्तों से शहद चूसने का बड़ा प्रेमी होता है। इसी से इसे लोग मधुरीछ कहते हैं।
⋙ मधुरीला
वि० [हिं० मधुरी + ला (प्रत्य०)] मधीरतायुक्त। माधुर्य- पूर्ण। जैसे,—पुरानी परिपाटी के वृत्तां में आपने वह मधु- रीला चमत्कार कर दिखाया जो शायद कोई और कभी न दिखा सकता।
⋙ मधुरोदक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार सात समुद्रों में से अंतिम समुद्र जो मीठे जल का और पुष्कर द्वीप के चारो और है।
⋙ मधुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मदिरा।
⋙ मधुल पु (२)
वि० दे० 'मधुर' [को०]।
⋙ मधुलग्न
संज्ञा पुं० [सं०] लाल शोभांजन।
⋙ मधुलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की घास जिसे शूली भी कहते हैं।
⋙ मधुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की शराब जो मधुली नामक गेहूँ से बनाई जाती है। २. राई। ३. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम। ४. फूलों का पराग।
⋙ मधुलिह पु
संज्ञा पुं० [सं० मधु + लिह्] भ्रमर। मधुकर। भौंरा। उ०— मान कमल के ढिप ही रहै। रूप रंग रस मधुलिह लहे।—नंद० ग्रं०, पृ० १४४। पर्या०—मधुलेह। मधुलेही। मधुलोलुप। मधुवत।
⋙ मधुली
संज्ञा पुं० [सं० मधुलिका] भावप्रकाश के अनुसार एक प्रकार का गेहूँ।
⋙ मधुलोलुप
सज्ञा पुं० [सं०] भौरा।
⋙ मधुवटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन स्थान का नाम।
⋙ मधुवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मथुरा के पास यमुना के किनारे का एक बन जहाँ शत्रुघ्न ने लवण नामक दैत्य को मारकर मधु- पुरी स्थापित की थी। २. किष्किंधा के पास का सुग्रीव का बन जिसमें सीता का समाचार लेकर लोटने पर हनुमान ने मधुपान किया था। ३. वह वन या कुंज जिसमें प्रेमी और प्रेमिका आकर मिलते हों। ४. कोयल ।
⋙ मधुवणो
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।
⋙ मधुवल्लो
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुलेठी। २. करेला।
⋙ मधुवा †
संज्ञा पुं० [हिं० मधु + वा (प्रत्य०)] मद्य। मदिरा। शराब। उ०—गुरु चरनामृत नेम न धारै मधुवा चाखन आया रे।—कबीर० श०, भा० १, पु० २५।
⋙ मधुवाक्
संज्ञा पुं० [सं० मधुवाच्] कोयल [को०]।
⋙ मधुवात
संज्ञा पुं० [सं०] वसंत की हदा। उ०—बीता रे, जो मधुवान सद्दश।—मिट्टी०, पृ० ११।
⋙ मधुबामन
संज्ञा पुं० [सं०] भौंरा। उ०—मधु मधुब्रत मधुरसिक मधुबामन बग ओर।—नदवास (शब्द०)।
⋙ मधुवार
संज्ञा पुं० [सं०] १. मद्य पीने का दिन। २. मद्य पीने की रीति। शर्नः शनै बार बार पीना। ३. मद्य। मदिरा।
⋙ मधुबाही
संज्ञा पुं० [सं० मधुबाहिन्] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन नद का नाम।
⋙ मधुविद्विट्
संज्ञा पुं० [सं० मधुविद्विप्] विष्णु।
⋙ मधुवीज
संज्ञा पुं० [सं०] अनार।
⋙ मधुव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] मीरा।
⋙ मधुशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शहद से बनाई हुई चीनी जो वैद्यक के अनुसार बलकारक और वृष्य होती है। पर्या०—माध्वी। सिता। मधुजा। क्षौद्रशर्करा। २. सेम। लोबिया।
⋙ मधुशाख
संज्ञा पुं० [सं०] महुए का वृक्ष।
⋙ मधुशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदिरालय। मयखाना। उ०—वैभव की है यह मधुशाला।—लहर, पृ० ५४।
⋙ मधुशिग्रु
संज्ञा पुं० [सं०] शोभांजन। सहिजन।
⋙ मधुशिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेम। लोबिया।
⋙ मधुशिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।
⋙ मधुशेष
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।
⋙ मधुश्रम
संज्ञा पुं० [सं० मधुस्ञवा] संजीवन मूरि। संजीवनी बूटी। (नंददास)।
⋙ मधुश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० मधुश्रवस्] महुआ। मधूक। उ०—माधव, मधुद्रुम, मधुश्रवा, मधुष्टीव, गुड़फूल।—नद ग्रं०, पृ० १०२।
⋙ मधुश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वसंत की शोभा। बसंत का सौंदर्य [को०]।
⋙ मधुश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्वा।
⋙ मधुश्वासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीवंती नामक वृक्ष।
⋙ मधुष्ठील
संज्ञा पुं० [सं०] महुए का वृक्ष।
⋙ मधुसंभव
संज्ञा पुं० [सं० मधुसम्भव] १. मोम। २. दाख।
⋙ मधुसख
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ मधुसहाय
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ मधुसारथि
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ मधुसिक्थक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोम। २. एक प्रकार का स्थावर विष।
⋙ मधुसुक्त
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रस जो पिप्पलीमूल को एक बर्तन में बंद करके तीन दिन तक धूप में रखने से तैयार होता है।
⋙ मधुसुहृद्
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ मधुसूदन
संज्ञा पुं० [सं०] मधु नामक दैत्य को मारनेवाले, श्रीकृष्ण। २. भौंरा।
⋙ मधुसूदनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पालक का साग।
⋙ मधुस्कंद
संज्ञा पुं० [सं० मधुस्कन्द] पुराणनुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ मधुस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] मधुमक्खी का छत्ता।
⋙ मधुस्ठील पु
संज्ञा पुं० [सं० मधुष्ठील] दे० 'मधुष्ठील'। उ०— माधव मधुद्रुम मधुश्रवा मधुठील गुड फूल।—अनेकार्थ०, पृ० ७१।
⋙ मधुस्यंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुस्यन्दित्] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसमें तार लगा रहता था।
⋙ मधुस्यंद
संज्ञा पुं० [सं० मधुस्यंद] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ मधुस्राव
संज्ञा पुं० [सं०] जिससे मधु का स्राव होता हो—१. महुए का वृक्ष। २. पिड खजूर का वृक्ष।
⋙ मधुस्रवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मधुस्रवस्] महुए का वृक्ष।
⋙ मधुस्रवा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संजीवन बूटी। २. मलेठी। ३. मूर्वा। ४. हंसपदी नाम की लता।
⋙ मधुस्राव
संज्ञा पुं० [सं०] महुए का वृक्ष।
⋙ मधुस्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कोयल।
⋙ मधुहंता
संज्ञा पुं० [सं० मधुहन्तृ] मधु दैत्य को मारनेवाले, विष्णु।
⋙ मधुहा
संज्ञा पुं० [सं० मधुहन्] १. शहद को नष्ट करनेवाला। २. शहद का संग्रह करनेवाला। शहद निकालनेवाला। उ०—माँखिन आँखिन धूरि पूरी मधुहा मधु जैसे।—नंद ग्रं०, पृ० २१०। ३. एक शिकारी पक्षी। ४. विष्णु (को०)।
⋙ मधुहेतु
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ मधूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. महुए का पेड़। उ०—जो प्राप्ति हो फूल तथा फलों की, मधूक चिंता न करो दलों की।—साकेत, पृ० २८९। २. महुए का फूल। उ०—पहिराई नल के गले नव मधूक की माल।—गुमान (शब्द०)। ३. मुलेठी। भोंरा (को०)।
⋙ मधूकपर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमड़ा।
⋙ मधूकरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मधुकरी'।
⋙ मधूकशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महूए के फल या फूल से निकाली हुई चीनी।
⋙ मधूख
संज्ञा पुं० [सं० मधूक] दे० 'मधूक'
⋙ मधूच्छिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।
⋙ मधूछेदन पु
संज्ञा पुं० [सं० मधु + छेदन] विष्णु। उ०—मधूछेदनं पाय पावेस कारी।—पृ० रा०, १।२५६।
⋙ मधूत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।
⋙ मधूत्थित
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।
⋙ मधूत्पन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] शहद से बनाई हुई चीनी।
⋙ मधूत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वसंतोत्सव। २. चैत्र की पूर्णिमा।
⋙ मधूद्यान
संज्ञा पुं० [सं०] बसंती बाग। वसंतोद्यान (को०)।
⋙ मधूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल महुआ। २. मधु। शहद (को०)।
⋙ मधूलक
संज्ञा पुं० [पुं०] १. जल महुआ। २. मद्य। शराब।
⋙ मधूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूर्वा। २. मुलेठी ३. एक प्रकार का मोटा अन्न। ४. छोटे दाने का गेहुँ। ५. छोटे दाने के गेहूँ से बनी हुई शराब। ६. एक प्रकार की घास। ७. एक प्रकार की मक्खी जिसके काटने से सूजन और जलन होती है। (वैद्यक)।
⋙ मधूली
संज्ञा पुं० [सं०] १. आम का पेड़। २. जल में उत्पन्न होनेवाली मुलेठी। ३. मध्य देश वा गेहूँ।
⋙ मधूवक
संज्ञा पुं० [सं०] मोम।
⋙ मध्यंदिन (१)
वि० [सं० मध्यन्दिन] १. मध्पवर्ती। बीब का। केंद्रीय। २. दोपहर से संबंधित [को०]।
⋙ मध्यंदिन (२)
संज्ञा पुं० दिन का मध्य भाग। दोपहर [को०]।
⋙ मध्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ के बीच का भाग। दरमियानी हिस्सा। २. कमर। कटी। उ०—मध्य छीन औ भूखन सोहै—हिं० क० का०, पृ० २११। ३. संगीत में एक सप्तक जिसके स्वरों का उच्चारण वक्षस्थल से कंठ के अंदर के स्थानों से किया जाता है। यह साधारणतः बीच का सप्तक माना जाता है। ४. नृत्य में वह गति जो न बहुत तेज हो न बहुत मंद। ५. दस अरब की संख्या। ६. विश्राम। ७. सुश्रुत के अनुसार १६ वर्ष से ७० वर्ष की अवस्था। ८. अंतर। भेद। फरक। ९. पश्चिम दिशा।
⋙ मध्य (२)
वि० १. उपयुक्त। ठीक। न्याय्य। २. अधम। नीच। ३. मध्यम। बीच का। ४. मध्पस्थ (को०)। ५. अंतर्वर्ती। [को०]।
⋙ मध्य (३)
१. बीच में। मध्य में। २. बीच से। मध्य से [को०]।
⋙ मध्यक
वि० [सं०] साधारण। सार्वजनीन [को०]।
⋙ मध्यकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] अधंव्यास [को०]।
⋙ मध्यकाल
संज्ञा पुं० [सं० मध्य + काल] इतिहास में वह समय जो प्राचीन और आधुनिक समय के मध्य में पड़ता है। ईसवी सन् की सातवीं सदी से अठारहर्वीं सदी तक का समय।
⋙ मध्यकालीन
वि० [सं०] मध्यकाल से संबंधित। मध्यकाल का। उ०—कबीर तुलसी जायसी और सूर की सामान्य विशेषताओं को समझे बिना मध्यकालीन हिंदी साहित्य की सामान्य प्रगतिशील विशेषताओं को समझना असंभव है।—आचार्य० पृ० ९४।
⋙ मध्यकुरु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश जो उत्तर कुरु और दक्षिण कुरु के मध्य में था। विशेष दे० 'कुरु'।
⋙ मध्यखंड़
संज्ञा पुं० [सं० मध्यखण्ड] ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी का वह भाग जो उत्तर क्रांतिवृत्त ओर दक्षिण क्रांतिवृत के मध्य में पड़ता है।
⋙ मध्यगंध
संज्ञा पुं० [सं० मध्यगन्ध] आम का वृक्ष।
⋙ मध्यगत
वि० [सं०] मध्यम। बीच का।
⋙ मध्यज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मध्यदिन रेखा।
⋙ मध्यतः
अव्य० [सं० मध्यतस्] बीच से बा बीच में [को०]।
⋙ मध्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मध्य का भाव या धर्म।
⋙ मध्यतापिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
⋙ मध्यदंत
संज्ञा पुं० [सं० मध्यदन्त] सामने या बीच का दाँत [को०]।
⋙ मध्यदीन
संज्ञा पुं० [सं०] दोपहर [को०]।
⋙ मध्यदीपक
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में दीपक अलंकार का एक भेद। विशेष—दे० 'दीपक'।
⋙ मध्यदेश
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन भौगोलिक विभाग के अनुसार भारतवर्ष का वह प्रदेश जो हिमालय के दक्षिण, विंध्य पर्वत के उत्तर, कुरुक्षत्र के पूर्व और प्रयाग के पश्चिम में है। यह प्रदेश किसी समय आयों की प्रधान निवासस्थान था और बहुत पवित्र माना जाता था। मध्यम।
⋙ मध्यदेह
संज्ञा पुं० [सं०] उदर। पेट।
⋙ मध्यपद
संज्ञा पुं० [सं०] बीच का पद वा शब्द० [को०]। यौ०—मध्यपदलोपी = समास का भेद। दे० 'मध्यमादलीपी'।
⋙ मध्यपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष में एक प्रकार का पात। २. जान पहचान। परिचय।
⋙ मध्यपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] जल बेत।
⋙ मध्यपूर्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. मध्यकाल का पूर्वाधं भाग। २. एशिया महाद्वीप का दक्षिण पश्चिमी और अफ्रिका का उत्तर पूर्वी भाग। (ग्रं०) मिडिल ईस्ट।
⋙ मध्यप्रसूता
वि० स्त्री० [सं०] (वह गाय) जिसकी बच्चा दिए अधिक दिन न हुए हों [को०]।
⋙ मध्यभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीच का हिस्सा। २. कमर [को०]।
⋙ मध्यभाव
संज्ञा पुं० [सं०] मध्य की स्थिति। मध्य का भाव [को०]।
⋙ मध्यम (१)
वि० [सं०] जो दो विपरीत सीमाओं के बीच में हो। जो गुण, विस्तार, मान आदि के विचार से न बहुत बड़ा हो, न बहुत छोटा। मध्य का बीच का।
⋙ मध्यम (२)
संज्ञा पुं० १. संगीत के सात स्वरों में से चौथा स्वर। विशेष—इसका मूलस्थान नासिका , अतःस्थान कंठ और शरीर में उत्पत्तिस्थान बक्षस्थल माना जाता है। कहते हैं, यह मयूर का स्वर है, इसके अधिकारी देवता महादेव आकृति विष्णु की संतान दीपक राग, वर्ण नील, जाति शूद्र, ऋतु ग्रीष्म, बार बुध और छंद बृहती है और इसका अधिकार कुश द्वीप में है। संक्षेप में इसे 'म' कहते या लिखते है। यह साधारण और तीव्र दो प्रकार का होता है। इसको स्वर (षड़ज) बनाने से सप्तक इस प्रकार होता है—मध्यम स्वर पंचम ऋषभ, धैवत गांधार, कोमल निषाद। मध्यग, स्वर (षड़ज) पंचम ऋषभ, धँवत, गांधार निषाद तीव्र मध्यम को स्वर (षड़ज) बनाने से सप्तक इस प्रकार होता है—तीव्र मध्यम स्वर, कोमल धेवत ऋषभ, कोमल निषाद गांधार, निषाद मध्यम, कोमल, ऋषभ पंचम, कोमल गांधार धैवत, मध्यम, निषाद। २. वह उपपति जो नायिका के क्रोध दिखलाने पर अपना अनुराग न प्रकट करे और उसकी चेष्टाओं से उसके मन का भाव जाने। ३. साहित्य में तीन प्रकार के नायकों में से एक। ४. एक प्रकार का मृग। ५. एक राग का नाम। ६. मध्य देश।
⋙ मध्यमक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मायामिका] १. मध्य का। बीच का। २. सामान्य। सार्वजनीन।
⋙ मध्यमक (२)
संज्ञा पुं० किसी वस्तु का भीतरी भाग [को०]।
⋙ मध्यमणि
संज्ञा पुं० [सं०] हार का मध्यवर्ती मणि। पदिक [को०]।
⋙ मध्यमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मध्यम होने का भाव।
⋙ मध्यमध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक मूर्छना [को०]।
⋙ मध्यमपद
संज्ञा स्त्री० [सं०] समास का मध्यवर्ती पद।
⋙ मध्यमपदलोपी
संज्ञा पुं० [सं० मध्यमपदलोपिन्] व्याकरण में वह सगास जिसमें पहले पद मे दूसरे पद का संबंध बतलानेवाला शब्द लुप्त या समास से अध्याहत रहता है। लुप्तपदसमास। विशेष—कुध कर्मधारय और कुछ बहुब्रीहि समास मध्यमपद- लोपी हुआ करते हैं। जैसे, पर्णशाला (पर्णनिर्मितशाला)। जेब घड़ी (जैब में रहनेवाली घड़ी), मृगनयनी (मृग के समान नयनोंवाली)।
⋙ मध्यमपांड़व
संज्ञा पुं० [सं० मध्यम पाण्डव] अर्जुन [को०]।
⋙ मध्यमपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण के अनुसार तीन पुरुषों में से वह पुरुष जिससे बात की जाय। वह व्यक्ति जिसके प्रति कुछ कहा जाया।
⋙ मध्यमराजा
संज्ञा पुं० [सं०] वह राजा जो कई परस्पर विरुद्ध राजाओं के मध्य में हो। विशेष—इसमें इतनी शक्ति का होना आवश्यक है कि शांति तथा युद्धकाल में दोनों पक्षों के निग्रह तथा अनुग्रह में समर्थ हो।
⋙ मध्यमरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] आधी रात [को०]।
⋙ मध्यमरात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] आधी रात। उ०—माध की मध्य- रात्रि में जहाँ अभिसार के लिये निरापदता होती है।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १४३।
⋙ मध्यमलोक
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी।
⋙ मध्यमवय
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं० मध्यमवयस्] अधेड़ उम्र। [को०]।
⋙ मध्यमवयस्क
वि० [सं०] अधेड़ उम्र का। पौढ़।
⋙ मध्यमसंग्रह
संज्ञा पुं० [सं० मध्यमसङ्ग्रह] मिताक्षरा के अनुसार स्त्री को अपने अधिकार में लाने का वह प्रकार जिसमे पुरुष उसे वस्त्र आभूषण आदि भेजकर अपने पर अनुरक्त करता है।
⋙ मध्यमसाहस
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार पाँच सौ पण तक का अर्थदंड या जुरमाना।
⋙ मध्यमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाँच उँगलियों में से बीच की उँगली। २. वह नाचिका जो अपने प्रियतम के प्रेम या दोष के अनुसार उसका आदरमान या अपमान करे। ३. रजस्वला स्त्री। ४. कनियारी। ५. छोटा जामुन। ६. काकोली। ७. युक्तिकल्पतरु के अनुसार २४ हाथ लंबी, १२ हाथ चौड़ी और ८ हाथ ऊँची नाव।
⋙ मध्यमागम
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के चार प्रकार के आगमों में से एक प्रकार का आगम।
⋙ मध्यमात्रेय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ मध्यमान
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ताल जिसमें ८ हृस्व अथवा ४दीर्घ मात्राएँ होती हैं तथा ३ आघात और १ खाली होता है। इसके तबले के बोल ये हैं—धा धिन ताक् धिन, धा धिन ताक् धिन, धा तिन ताक् तिन, ता धिन ताक् धिन। धा।
⋙ मध्यमाहरण
संज्ञा पुं० [सं०] बिजगणित की वह क्रिया जिसके अनुसार कोई आयत्त मान निकाला जाता है।
⋙ मध्यमिक
वि० [सं०] बीच का मध्यम।
⋙ मध्यमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह वन्या जिसे रजोदर्शन हो चुका हो। रजस्वला स्त्री। २. देश विशेष जो भारत के मध्य में कहा गयया है। माध्यमिका (को०)।
⋙ मध्यमीय
वि० [सं०] 'मध्यम'।
⋙ मध्यमेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] काशीस्थ एक शिवलिंग।
⋙ मध्ययव
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक परिमाण जो ६ पीली सरसों के बराबर होता है।
⋙ मध्ययुग
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन और अर्वाचीन के मध्य का समय। २. इतिहास में राजपुत से मुगलकाल तक समय। ३. यूरोप में सन् ६०० से १५०० ई० तक का समय।
⋙ मध्यरात
संज्ञा पुं० [सं०] दे 'मध्यरात्रि' [को०]।
⋙ मध्यरात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अर्धरात्रि। आधीरात [को०]।
⋙ मध्यरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष ओर भूगोलशास्त्र में वह रेखा जिसकी कल्पना देशांतर निकालने के लिये की जाती है। विशेष—यह रेखा उत्तर दक्षिण मानी जाती है और उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों को काटती हुई एक वृत्त बनाती है।
⋙ मध्यलोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी। २. जैनों के अनुसार वह मध्यवर्ती लोक जो मेरु पर्वत पर १०००४०योजन की ऊँचाई पर है।
⋙ मध्यवय
वि० [सं० मध्यवयस्] प्रोढ़। अधेड़ [को०]।
⋙ मध्यवर्ती
वि० [सं० मध्यवर्तिन्] जो मध्य में हो। बीच का।
⋙ मध्यवित्त
वि० [सं०] जिसकी आय मध्यम हो। बीच की श्रेणी का। जो न अमीर हो, न गरीब।
⋙ मध्यविवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार सर्य या चंद्रग्रबण के मोक्ष का एक प्रकार जिसमें चंद्रमा का मध्यभाग पहले प्रकाशित होता है। कहते हैं, इस प्रकार के मोक्ष से अन्न तो यथेष्ट होता है, पर वृष्ठि अधिक नहीं होती।
⋙ मध्यवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] न भि [को०]।
⋙ मध्यसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मध्यरेखा'।
⋙ मध्यस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १./????/बीच में पड़कर विवाद की गिटानेवाला। २. जो दोनों पक्षों मे से किसी पक्ष में न ही। उदासीन। तटस्थ। उ०— शत्रु मित्र मध्यस्थ तीन ये वीन्हें/?/।— तुलसी (शब्द०)। ३. वह जो अपनी हानि न् करता हुआ दुसरों का उपकार करता हो। ४. शिव का एक नाम (को०)।
⋙ मध्यस्थता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मध्यस्थ होने वा भाव या धर्म।
⋙ मध्यस्थल
संज्ञा० पुं० [सं०] १. वमन। बीच का भाग [को०]।
⋙ मध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काव्यशास्त्रानुसार वह नायिका जिसमें लज्जा ओर काम समान हो। २. एक वर्णवृत्त जिसके चरण में तीन अक्षर होते है। इसके आठ भेद है। ३. बीन की उँगली। ४. वह लडकी जो रजस्थला हो चुकी हो (को०)।
⋙ मध्यान पुं
संज्ञा पुं० [ सं० मध्याह्म ] दे० 'मध्याह्ण'। उ०— चित्रंग बीर पंवो पगत, वढ़यो मान मध्यान नमि। — पृ० भा०२४।२४९। यौ०— मध्यागोपरांत = दोपहर के बाद। उ०— दिन के मध्य न परांत से पुनः मेले का आरंभ हुआ। — प्रेमधन०, भा०, २ पृ०११८।
⋙ मध्यान्ह
संज्ञा पुं० [ सं० मध्याह्न ] दे० 'गध्याह्न'।
⋙ मध्यारिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता।
⋙ मध्याहारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ललिगनिस्तर के अनुसार ६४ प्रकार की लिपियों में से एक प्रकार की लिपि।
⋙ मध्यह्न
संज्ञा पुं० [सं०] दिन का मध्य भाग। ठीक दोपहर का समय। यौं०— मध्पाह्नकाल = दोपहर। मध्याह्नकृत्य, मध्याह्नक्रिया = दोपहर के लिये जानावाले बिहित कर्म। मध्याह्नभोजन = दोपहर का खाना। प्रभात या मुख्य भोजन। मध्याह्नबेला, मध्याह्नसमय = ध्याह्न काल। मध्याह्नपंध्या = संध्या जो दोपहर में की लाय । मध्याह्नस्नान = दोपहर का स्नान।
⋙ मध्यह्नोतर
संज्ञा पुं० [ सं० ] तीसारा पहर (दिन का)। दोपहर के बाद का समय।
⋙ मध्ये
क्रि० वि० [ सं० गध्य] वावत। बारे में। संबंध में। मद्धे। विशेष दे० मध्ये।
⋙ मध्येज्योति?
संज्ञा स्त्री० [सं०] पांच पाद का एक वैदिक छंद जिसके पहले और दुसरे चरण में आठ आठ वर्ण तथा तीसरे में ग्यारह और पुनः चौथे ओर पांचवे में आठ वर्ण होते है।
⋙ मध्येपृष्ठ
क्रि० वि० [सं० मध्येपृष्टम्] पीठ पीछे।
⋙ मध्व (१)
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'मधु'।
⋙ मध्व (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० मध्वाचार्य। यौ०— मध्वमत = मध्व का मन वा सिद्धांत। मथ्य- संप्रदाय = मध्या/?/द्वारा/?//?/संप्रदाय।
⋙ मध्यक
संज्ञा पुं० [सं०] खुद की/?/।
⋙ मध्यरिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का अरिष्ट जो सग्रहणी रोग मे उपकारी माना जाता हे।
⋙ मध्वल
संज्ञा पुं० [सं०] वार वार ओर बहुत शराब पीना।
⋙ मध्वला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मद पीने का पात्र। चषक। प्याली। २. पान/?//?//?//?/[को०]।
⋙ मध्याचारज पु
संज्ञा पुं० [सं० मध्याचार्य] दे० 'मध्यानार्य'। उ०—मध्याचारज मेघ भक्ति सर ऊसर अरिया।— भत्कमाल (श्री०), प़ृ० ३७६।
⋙ मध्यचारी पु
संज्ञा पुं० [सं० मध्याचार्य ] वह वेष्णव जो मध्वा- चार्य के मत को मानता हो। उ०—मध्यानारी होइ तौ तूँ मधुर मत कों बिचारि मधुर मधुर धुनि हृदै मध्य गाइए।— सुंदर० ग्र०, भा० २, पृ० ६१२।
⋙ मध्याचार्य
संज्ञा पुं० [सं० मध्वाचार्य ] दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य ओर माध्य या 'माध्यानारि' नामक संप्रदाय के प्रवर्तक/?//?/डुबीं शताब्दि मे हूए थे। विशेष— ये वायु के अनुसार आते जाते थे। पहले इनका नाम वासुदेवाचार्य था। इन्होंने अच्यु/?/प्रेक्षावार्य या श्रद्धानंद नामक एक महात्मा से दीक्षा ली थी और दीक्षा लेते ही विरक्त हो गए थे। कहते हैं, ये अपना गीताभाष्य तैयार करके बदरिकाश्रम गए और वहां इन्होंने उसे वासुदेव को अर्पण किया था। वासुदेव से इन्हें तीन शालिग्राम मिले ये जो इन्होंने तीन भिन्न भिन्न मठों में स्थापित किए थे। इन्होंने बहुत से ग्रंथ रचे ओर अनेक भाष्य लिखे थे। इनके सिद्धांन्त के अनुसार सबसे पेहले केवल नारायण थे; और उन्हीं से समस्त जगत् और देवताओ की उत्पत्ति हुइ। ये जीव और इश्वर दोनों की पृथक् पृथक् सत्ता मानते थे। इनके दर्शन का नाम 'पूर्णप्रज्ञ दर्शन' है और इनके अनुजायी मध्यचारी या माध्य कहलाते हैं।
⋙ मध्वाधार
संज्ञा पुं० [सं०] मधुमक्खी का छरा।
⋙ मध्वालु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के पोधे की जड़। विशेष— यह स्वाद में मीठी होती हौ और खाई जाती हौ वौद्दाक में हसे भारी, शीतल , रक्तपित्तनाशक और वीर्यवर्धक माना हौ।
⋙ मध्वालुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मध्वालु' [को०]।
⋙ मध्वावास
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़।
⋙ मध्वाशी
वि० [सं० मध्वाशिन्] मधु या मीठा खानेवाला [के०]।
⋙ मध्वासव
संज्ञा पुं० [पुं०] महुए की शराब या मधु की मदिरा। माध्वीक।
⋙ मध्वासवानिक
संज्ञा पुं० [सं०] शराब बनाकर बेचनेवाला। कलाल। कलवार।
⋙ मध्वास्वाद
वि० [सं०] मधु के स्वादवाला [के०]।
⋙ मध्विजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदिरा। मद्य। शराब।
⋙ मध्वृच
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेद की ऋचा।