विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/व
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ व
⋙ व
हिंदी या संस्कृत वर्णमाला का उन्नीसवाँ व्यंजन वर्ण, जो उकार का विकार और अंतस्थ अर्धव्यंजन माना जाता है। इसका उच्चारणस्थान दंत्योष्ठ है, अर्थात् दाँत और से इसका उच्चारण होता है। प्रयत्न ईषत्स्पृष्ट होता है, अर्थात् उच्चारण के समय दाँतों का ओठ से कुछ स्पर्श होता है। हिंदी में इस वर्ण का उच्चाऱण अधिकतर केवल ओठ से होता है; केवल संस्कृताम्यासी लोग ही शुद्ध दंत्योष्ठ उच्चारण करते हैं।
⋙ वंक (१)
वि० [सं० वङ्क या बक्र] कुछ झुका हुआ। टंढ़ा। वक्र।
⋙ वंक (२)
संज्ञा पुं० १. नदी का मोड़। वंकर। २. टेढ़ापन। कुटिलता (को०)। ३. पल्ययन। दे० 'वंका'। (को०)। ४. आवारा व्यक्ति (को०)।
⋙ वंकट
वि० [सं० वङ्क] १. टेढ़ा। बाँका। २. कुटिल। जो सीधा न हो। ३. विकट। दुर्गम। उ०—रही है घूँघटपट की ओट। मनौ कियो फिर मान मवासो मन्मथ वंकट कोट। —सूर (शब्द०)।
⋙ वंकटक
संज्ञा पुं० [सं० वङ्कटक] एक पर्वत जिसे वंकाटक भी कहा गया है।
⋙ वंकनाल
संज्ञा पुं० [सं० वङ्कनाल] शरीर की एक नाड़ी का नाम। सुषुम्ना।
⋙ वंकनाली
संख्या स्त्री० [हिं० वंक+नाड़ी] साघुओं की बोकचाल में सुषुम्ना नामक नाड़ी, जो मध्य में मानी गई है। उ०—वंकनालि सदा रस पीवै, तब यहु मनुवाँ कही न जाय। बिगसै कँवल प्रेम जब उपजै ब्रहा जीव को करें सहाय। —दादू (शब्द०)।
⋙ वंकर
संज्ञा पुं० [सं० वङ्कर] वह स्थान जहाँ से नदी मुड़ी हो। नदी का मोड़।
⋙ बंकसेन
संज्ञा पुं० [सं० वङ्कसेन] अगस्त का बृक्ष।
⋙ वंका
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्का] चारजामे की अगली मेंड़ी।
⋙ वंकाटक
संज्ञा पुं० [सं० वङ्काटक] एक पर्वत का नाम।
⋙ वंकाली
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्काला] राजतरंगिणी के अनुसार बंगाल की प्राचीन राजधानी का नाम जिसके कारण उस देश का बंगाल नाम पड़ा। (राज०)।
⋙ वंकिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्किणी] एक क्षुप का नाम।
⋙ वंकिम
वि० [सं० वङ्किम] ईषत् वक्र। कुछ टेढ़ा या झुका हुआ। बाँका। उ०—निद्रालस वंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही। किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिए। अपरा, पृ० ५।
⋙ वंकिल
संज्ञा पुं० [सं० वङ्किल] कंटक। काँटा।
⋙ वंक्य
वि० [सं० वडक्य] टेढ़ा। लचीला। वक्र [को०]।
⋙ वंक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्क्रा]दे० 'वंक्रि'।
⋙ वंक्रि
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्क्रि] १.पशुओं की पसली की हड्डी। २. काँड़ी। कड़ी। ३. प्राचीन काल का का एक प्रकार का बाजा।
⋙ वंक्षण
संज्ञा पुं० [सं० वङ्क्षण] मूत्राशय और जंधास्थल का संधिस्थान। वह स्थान जो पेड़ू और जाँघ के बीच में है और जहाँ 'वर्ध्म' नामक रोग की गाँठ निकला करती है।
⋙ वंक्षु
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्क्षु] १. आक्सस नदी जो हिंदूकुश पर्वत से निकलकर मध्य एशिया में बहती हुई आरल समुद्र में गिरती है। विशेष—इस नदी का नाम वेदों में कई जगह आया है। पुराणों में यह केतुमाल वर्ष की एक नदी कही गई है। महाभारत में इसकी गणना पवित्र नदियों में की गई है। रघुवंश की प्राचीन प्रतियों में भी रघु के दिग्विजय के अंतर्गत इस नदी का उल्लेख है और इसके किनारे हूणों की बस्ती कही गई है। २. गंगा की एक छोटी सी शाखा (को०)।
⋙ वंग
संज्ञा पुं० [सं० बङ्ग] १. मगध या बिहार के पूर्व पड़नेवाला प्रदेश। बंगाल। विशेष—ऋग्वेद में सबसे पूर्व पड़नेवाले जिस प्रदेश का उल्लेख है, वह 'कीकट' (मगध) है। अथर्व संहिता में 'अंग' देश का भी नाम मिलता है। संहिताओं में 'वंग' नाम नहीं मिलता। ऐतरेय आरणयक में ही सबसे पहले वंह देश की चर्चा आई है; और वहाँ के निवासियों की दुर्बलता और दुराहार आदि का उल्लेख पया जाता है। बात यह है कि संहिता काल में कीकट और वंग देश में अनार्यों का ही निवास था। आर्य लोग वहाँ तक न पहुँचे थे। बौधायन धर्मसूत्र में लिखा है कि वंग, कर्लिग, पुंड्र आदि देशों में जानेवाले को लौटने पर पुनस्तोम यज्ञ करना चाहिए। मनुस्मृति में तीर्थयात्रा के लिये जाने की आज्ञा है। इससे जान पड़ता है कि उस समय आर्य वहाँ बस गए थे। शतपथ ब्राह्मण के समय में मिथिसा में विदेह वंश प्रतिष्ठित था। रामायण में प्राग् ज्योतिःपुर (रंगपुर से लेकर आसाम तक प्रागज्योतिष प्रदेश कहलाता था) की स्थापना का उल्लेख है। महाभारत (आदिपर्व) में लिखा है कि क्षत्रिय राजा बलि को कोई संतति न हुई। तब उन्होंने अंघे दी्र्घतमा ऋषि द्वारा अपनी रानी के गर्भ से पाँच पुत्र उत्पन्न कराए, जिनके नाम हुए- अंग, वंग, कलिंग, पुंड्र और सुह्म। इन्हीं के नाम पर देशों के नाम पड़े। २. राँगा नाम की धातु। ३. राँगे का भस्म। ४. कपास। ५. बैगन। भंटा। ६. ऱाजा बलि का पुत्र। एक चंद्रवंशी राजा (को०)। ७. एक धातु। सीसा। सीसक।
⋙ वांगज (१)
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गज] १. सिंदूर। २. पीतल।
⋙ वांगाज (२)
वि० १.बंगाल में उत्पन्न होनेवाला। २. बंगाली।
⋙ वांगजीवन
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गजीवन] चाँदी।
⋙ वंगन
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गन] बैंगन।
⋙ वंगमल
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गमल] सीसा नामक धातु। विशेष—प्राचीनों की यह धारण थी कि राँगा और सीसा दोनों एक ही धातु है और वे सीसे को राँगे का मल समझते थे।
⋙ वंगला
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्गला] बगाला या बंगालिका नाम की रागिनी। विशेष दे० 'बंगाली'।
⋙ वंगशुल्यज
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गशुल्यज] काँसा। काँस्य [को०]।
⋙ वंगसेन
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गसेन] लाल फूलवाला अगस्त।
⋙ वंगा
संज्ञा पुं० [सं० वङ्ग] दे० 'वंग'। उ०—तेलंगा, वंगा, चोला, कलिंगा राआ पुत्ते मंडिया। —कीर्ति०, पृ० ४८।
⋙ वंगारि
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गारि] हरताल।
⋙ वंगाल
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गाल] एक राग।दे०'बंगाल'—२।
⋙ वंगाली
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्गाली] भैरव राग की एक रागिनी। विशेष—यह ओड्व जाति की है और इसमें ऋषभ तथा धैवत स्वर नहीं लगते। कल्लिनाथ के मत से यह संपूर्ण जाति की है और इसमें दो बार मध्यम आता है।
⋙ वंगाष्टक
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गाष्टक] एक रसौषध जिसमें राँगा आदि आठ धातुएँ एक साथ मिलाकर फूँकी जाती हैं। यह प्रमेह रोग पर दिया जाता है। विशेष—पारा, गंधक, लोहा, चाँदी, खपरिया, अभ्रक और ताँबा बराबर लेकर जितना सब हो, उतना राँगा लेकर सब को एक साथ मर्दन करके गजपुट द्वारा फूँकते हैं। जब भस्म हो जाता है, तब उसको वंगाष्टक कहते हैं। वंगाष्टक की मात्रा दो रत्ती है; और मधु, हलदी के चूर्ण तथा आमले के रस में इसे खाते हैं।
⋙ वंगेरिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्गेरिका] चँगेरी। डलिया। टोकरी [को०]।
⋙ वंगेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० वङ्गेरी] चँगेरी। डलिया [को०]।
⋙ वंगेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गेश्वर] एक प्रसिद्ध रस। विशेष—पारे का भस्म ८ तोला, वंग का भस्म ८ तोला, ताँबे का भस्म ३२ तोला और गंधक ३२ तोला लेकर मदार के दूध मेंमलकर फिर पिंडी बनाकर 'भूधर यंत्र' द्वारा फूँकते हैं। जब भस्म हो जाता है, तब उसे वंगेश्वर कहते हैं। इसकी मात्रा २ रत्ती है। इसे गुल्मोदर रोग में घी के साथ देते हैं; और ऊपर से पुनर्नवा का रस और गोमूत्र या हल्दी का रस पिलाते हैं।
⋙ वंघ
संज्ञा पुं० [सं० वङ्घ] एक वृक्ष का नाम [को०]।
⋙ वंचक (१)
वि० [सं० वञ्चक] १.धुर्त्त। धोखेबाज। ठग। २. खल।
⋙ वंचक (२)
संज्ञा पुं० १. गीदड़। २. सोंधियार। ३. चोर। ठग। ४. गृहवभ्रु। गंधमूषक (को०)।
⋙ वंचति
संज्ञा पुं० [सं० वञ्चति] अग्नि [को०]।
⋙ वंचथ
संज्ञा पुं० [सं० वञ्चथ] १. धर्तता। छलना। २. धूर्त। छली। ३. पिक। कोकिल। ४. मरण। मृत्यु [को०]।
⋙ वंचन
संज्ञा पुं० [सं० वञ्चन] [वि० वंचित] १. धोखा देना। धूर्तता। ठगी। २. धोखा खाना। ठगा जाना। ३. भ्रांति। व्यामोह (को०)। ४. क्षति। हानि (को०)। यौ०—वंचनचंचुता=वंचन कार्य में कुशलता। वंचनपटुता=दे० 'वंचनचंचुता'। वंचनप्रवण=धोखा देने की ओर प्रवृत्त। वंचन योग=ठगी या धोखा देने का अभ्यास।
⋙ वंचना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वञ्चना] धोखा। जाल। फरेब। छल। वंचन। यौ०—बंचनापंडित=कुशल धोखेबाज। वंचनापटु, वंचना- कुशल=वंचना करने में पंडित।
⋙ वंचना पु (२)
क्रि० स० [सं० वञ्चना] धोखा देना। ठगना। उ०— दंभ विलोक्यो कहल जो, दिल्ली नगरी जाइ। वंचतु जग जैसे फिरतु मो पै बरनि न जाइ। —केशव (शब्द०)।
⋙ वंचना पु (३)
क्रि० स० [सं० वाचन] पढ़ना। बाँचना।
⋙ वंचनीय
वि० [सं०] १. त्याज्य। परित्याग करने लायक। छोड़ने के काबिल। २. भोला भाला। जिसे धोखा दिया जा सके। जो ठगा जा सके [को०]।
⋙ वंचयिता
वि० [सं० वञ्चयितृ] वंचना करनेवाला। दे० 'वंचक' [को०]।
⋙ वंचित
वि० [सं० वञ्चित] १. धोखे में आया हुआ। जो ठगा गया हो। २. अलग किया हुआ। ३. विमुख। अलग। हीन, रहित। जैसे—मैं इस कृपा से वंचित रखा गया हूँ।
⋙ वंचिता
संज्ञा स्त्री० [सं० वञ्चिता] प्रहेलेक। गूढ़ प्रश्न। पहेली [को०]।
⋙ वंचुक (१)
वि० [सं० वञ्चुक] [वि० स्त्री० वंचुकी] धूर्त। ठग। चालाक। बेईमान [को०]।
⋙ वंचुक (२)
संज्ञा पुं० गीदड़। स्यार [को०]।
⋙ वंचुलक
संज्ञा पुं० [सं० वञ्चुलक] १. एक प्रकार का वृक्ष।दे० 'वंजुल'। २. एक पक्षी [को०]।
⋙ वंछित
वि० [सं० वाञ्छित] दे० 'वांछित'। उ०—कितहूँ न भयौ विंछित कछू अब तौ तूष्ना मोहि तजि। —ब्रज० ग्रं०, पृ० १०७।
⋙ वंजुल
संज्ञा पुं० [सं० वञ्जुल] १. बेत। उ०—मंजु वंजुल की लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पता ऐसे सघन जो सूर्य की किरनौं की भी नहीं निकलने देते। —श्यामा०, पृ० ४१। २. तिनिश का पेड़। ३. अशोक का पेड़। ४. स्थलपद्य। ५. एक प्रकार के पक्षी का नाम। यौ०—वंजुलद्रुम=अशोक। वंजुलप्रिय=वेतस।
⋙ वंजुला
संज्ञा स्त्री० [सं० वञ्जुला] १. अधिक दूध देनेवाली गौ। दुधारी गाय। दुधारू गाय। २. एक नदी का नाम जो मत्स्य- पुराणानुसार सह्याद्रि पर्वत से निकलती है।
⋙ वंजुलावती
संज्ञा स्त्री० [सं० वञ्जुलावती] एक नदी का नाम जो दक्षिण के एक पर्वत से निकलती है।
⋙ वट (१)
संज्ञा पुं० [सं० वण्ट] १. भाग। बाँट। २. हँसिया आदि की मूठ। बेंट। वह। ३. वह जिसकी पूँछ न हो या कट गई हो। लँड़ूरा। बाँड़ा। ४. अविवाहित पुरुष।
⋙ वंट (२)
वि० १. बाँड़ा। लँडूरा। २. अविवाहित [को०]।
⋙ वंटक (१)
संज्ञा पुं० [सं० वण्टक] भाग। बाँट।
⋙ वंटक (२)
वि० बाँटनेवाला। विभाजक।
⋙ वटन
संज्ञा पुं० [सं० वण्टन] अंश या भाग लगाना। विभक्त करना। बाँटना [को०]।
⋙ वंटनीय
वि० [सं० वण्टनीय] बाँटने लायक। वंटन के योग्य।
⋙ वटाल
संज्ञा पुं० [सं० वण्टाल] १. शूरों का युद्ध। २. नौका। ३. खोदने का औजार। खनती।
⋙ वंठ (१)
वि० [सं० वण्ठ] १. जिसका कोई अंग खंडित हो। हीनांग। जैसे —लूला, लँडूरा, खंजा आदि। २. अविवाहित (को०)।
⋙ वंठ (२)
संज्ञा पुं० १. अविवाहित पुरुष। २. दास। सेवक। ३. वामन। बौना। ४. कुंत। भाला।
⋙ वंठर
संज्ञा पुं० [सं० वण्ठर] १. ताड़ के वृक्ष का कोंपल। २. बाँस के कल्ले का वह मोटा पत्ता जो उसे छिपाए रहता है। विशेष—यह पत्ता गाँठ गाँठ पर होता है और बहुत कड़ा तथा भूरे रंग का होता है। ३. कुत्ते की पूँछ। ४. वह रस्सी जिससे बकरी, गाय आदि को गले से बांधते हैं। ५. स्तन। थन। ६. मेघ। ७. कुत्ता।
⋙ वंठाल
संज्ञा पुं० [सं० वण्ठाल] दे० 'वंटाल'।
⋙ वंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० वण्ड] १. वह जिसकी लिगेंद्रिय के अग्र भाग पर वह चमड़ा न हो, जो सुपारी को ढाँके रहता है। २. ध्वजभंग नामक रोग। पर्या०—दुश्चर्मा। द्विनग्नक। शिपिविष्ट।
⋙ वंड (२)
वि० १. बाँड़ा। हीनांग। २. अविवाहित (को०)।
⋙ वंडर
संज्ञा पुं० [सं० वण्डर] १. मक्खीचूस। सूम। कंजूस। २. वह नपुसक जो अंतःपुर का रक्षक हो। खोजा।
⋙ वंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० वण्डा] रंडा। पुंश्चली स्त्री।
⋙ वडाल
संज्ञा पुं० [सं० वण्डाल] दे० 'वंटाल'।
⋙ वंद
वि० [सं० वन्द] १. स्तुति या प्रशस्ति करनेवाला। २. परोप- जीवी [को०]।
⋙ वंदक
संज्ञा पुं० [सं० वन्दक] १. स्तुतिकर्ता। चारण। वंदी। २. एक परोपजीवी पौधा। विशेष दे०'वंदा'। ३. बौद्ध भिक्षु [को०]।
⋙ वंदका
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दका] दे० 'वंदा' [को०]।
⋙ वंदथ
संज्ञा पुं० [सं० वन्दथ] १. वदीजन। चारण। २. वंदनीय व्यक्ति [को०]।
⋙ वंदन
संज्ञा पुं० [सं० वन्दन] १. स्तुति और प्रणाम। पूजन। विशेष—वंदन षोडशोपचार पूजन में है। यह समस्त पदों के अंत में 'वंदन' शब्द से पूजित या पूज्य का अर्थ देता है। (जैसे,—जगवंदन) २. शरीर पर बनाऐ हुए तिलक आदि चिह्न। ३. एक विष का नाम। ४. एक असुर का नाम। ५. एक ऋषि का नाम। ६. वंदाक। बाँदा।
⋙ वंदनक
संज्ञा पुं० [सं०] विनम्र भाव से नमस्कार [को०]।
⋙ वंदनमाल
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दनमाल] वंदनवार।
⋙ वंदनमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दनमाला]दे० 'वंदनमाला'।
⋙ वंदनमालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दनमालिका] दे० 'वंदनमाल'।
⋙ वंदनवार
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दनमाल] वह माला जो सजावट के लिये घरों के द्वार पर या मंडप के चारों ओर उत्सव के समय बाँधी जाती है। उ०—सेजहि सुधारै एक, रोशनी उज्यारैं एक, बाँधती वंदनवारैं झारै फूल क्यारी को। —राम (शब्द०)। विशेष—इस माला में फूल पत्तियाँ गुथी रहती हैं। यज्ञादि के अवसर पर इसमें आम के पल्लव गूँथे जाते हैं।
⋙ वंदना
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दना] [वि० वंदित, वंदनीय] १. स्तुति। २. प्रणाम। वंदन। ३. वह तिलक जो होम के भस्म से यज्ञ के अंत में लगाया जाता है।
⋙ वंदनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दनी] १. स्तुति। २. जीवातु नामक ओषधि। ३. गोरोचन। ४. तिलकादि चिह्न जो शरीर पर बनाए जाते हैं। ५. याचनाकर्म। ६. बटी।
⋙ वंदनीय (१)
वि० [सं० वन्दनीय] वंदना करने योग्य। आदर करने योग्य।
⋙ वंदनीय (२)
संज्ञा पुं० पीत भृंगराज। पीली भँगरैया [को०]।
⋙ वंदनीया
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दनीया] गोरोचना [को०]।
⋙ वंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दा] दूसरे पेड़ों के उपर उसी के रस से पलनेवाला एक प्रकार का पौधा। वंदाक। बाँदा। पर्या०—वृक्षादनी। वृक्षरुहा। वदाका। जीवंतिका। शेखरी। सव्या। वंदका। वंदक। नीलवल्ली। वंदाकी। परवासिका। वशिनी। पुत्रिणी। वंद्या। परपुष्टा। पराश्रया। कामवृक्षा। केशरूपा। गधमादनी। कामिनी। श्यामा। कामवृक्ष। विशेष—इसका स्वाद तिक्त होता है, और वैद्यक में यह कफ, पित्त, तथा श्रम को दूर करनेवाला कहा गया है। २. भिक्षुणी (को०)।
⋙ वंदाक
संज्ञा पुं० [सं० वन्दाक] दे० 'वंदा'।
⋙ वंदाका
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दाका]दे० 'वंदा'।
⋙ वंदाकी
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्दाकी] दे० 'वंदा'।
⋙ वंदार
संज्ञा पुं० [सं० वन्दार] परोपजीवी पौधा। वंदा। बाँदा [को०]।
⋙ वंदारु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वन्दारु] १. स्तोत्र। २. बाँदा। वंदाक। ३. वैतालिक। चारण। स्तुतिपाठक। स्तुतिकर्ता। भाट (को०)।
⋙ वंदारु (२)
वि० वंदशील। नम्र।
⋙ वंदि
संज्ञा पुं० [सं० वन्दि] १.दे०'बंदी'। २. कैद। ३. सोपान। सीढ़ी। ४. स्तुति। ५. स्तुतिपाठक। वंदी [को०]।
⋙ वंदिग्राह
संज्ञा पुं० [सं० वन्दिग्राह] डाकू।
⋙ वंदिचौर
संज्ञा पुं० [सं० वन्दिचौर] १.चोर। तस्कर। २. डाकू [को०]।
⋙ वंदित
वि० [सं० वन्दित] [वि० स्त्री० वंदिता] १. आदृत। पूजित। २. पूज्य। आदरणीय।
⋙ वंदितव्य
वि० [सं० वन्दितव्य]दे० 'वंद्य'।
⋙ वंदिती
संज्ञा पुं० [सं० वन्दितृ] स्तुति करनेवाला। प्रशंसा करनेवाला [को०]।
⋙ बंदिपाल
संज्ञा पुं० [सं० वन्दिपाल] कैदखाने का अधिकारी [को०]।
⋙ वंदी
संज्ञा पुं० [वन्दिन्] १.दे०'बंदी'। २. दे०'वंदि'।
⋙ वंदीक
संज्ञा पुं० [सं० वन्दीक] इंद्र।
⋙ वंदीगृह
संज्ञा पुं० [सं० वन्दीगृह] कैदखाना।
⋙ वंदीजन
संज्ञा पुं० [सं० वन्दीजन] राजाओं आदि का यश वर्णन करनेवाली एक प्राचीन जाति।
⋙ वंद्य
वि० [सं० वन्द्य] वंदना करने योग्य। वंदनीय। आदरणीय। पूजनीय।
⋙ वंद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्द्या] १. बाँदा। वंदा। २. गोरोचन [को०]।
⋙ वंद्र
संज्ञा पुं० [सं० वन्द्र] १. अभ्य़ुदय। मंगल। २. प्राचुर्य। प्रचुरता। ३. भक्त। उपासक [को०]।
⋙ वंधु
संज्ञा पुं० [सं० वन्धु]दे० 'बंधु'।
⋙ वंधुर
संज्ञा पुं० [सं० वन्धुर] १. रथ या गाड़ी का आश्रय जिसमें दोनों इरसे और धुरा प्रधान हैं। २. गाड़ी में का वह स्थान जहाँ सारथी या गाड़ीवान बैठकर उसे चलाता है।
⋙ वंधुर (२)
वि० दे० 'बंधुर'।
⋙ वंध्य
वि० संज्ञा पुं० [सं० वन्ध्य]दे० 'बंध्य'। यौ०—वंध्यफल।
⋙ वंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्ध्या] बाँझ स्त्री जिसे संतान न उत्तपन्न हो। दे० 'बंध्य़ां'। यौ०—वंध्यातन्य। वंघ्यापुत्र। वंध्यासुत। वंध्यासूनु= दे० 'बंध्यापुत्र'।
⋙ वंन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्ण; प्रा० वणण]दे० 'वर्ण'। उ० — मारुवणी मुँह वँन्न आदित्ता हूँ उज्जली। —ढोला०, दू० ४६४।
⋙ वंभ
संज्ञा पुं० [सं० वम्भ] बाँस [को०]।
⋙ वंभारव
संज्ञा पुं० [सं० वम्भारव] रँभाना। जानवर के रँभाने का शब्द [को०]।
⋙ वंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस। २. बँडेर। ३. पीठ की हड्डी। ४. नाक के ऊपर की हड्डी। बाँसा। ५. बाँसुरी। ६. एक प्रकार की ईख। ७. खड्ग के बीच का वह भाग जो ऊँचा हो, अर्थात् जहाँ पर वह अधिक चौड़ा होता है। ८. बारह (कुछ के मत में दस) हाथ का एक मान। ९. बाहु आदि की लंबी हड्डियाँ। १०. युद्ध की सामग्री। जैसे, रथ, ध्वजा इत्यादि। ११. विष्णु। १२. वंशलोचन। १३. फूल। १४. कुल। परिवार। जाति (को०)। १५. संतान। पुत्र (को०)। १६. एक ही जैसी वस्तुओं का समूह या वर्ग (को०)। १७. शाल का वृक्ष (को०)। १८. अभिमान। दर्प (को०)। १९. द्दढ़ ग्रंथि। मजबूत गठि (को०)। २०. बवंडर। यौ०—वंशज। वंशकृत। वंशक्षय। वंशच्छेद, इत्यादि।
⋙ वंशऋषि
संज्ञा पुं० [सं०] वे ऋषि जिनके नाम वंश ब्राह्मण में आए हैं।
⋙ वंशकंज
संज्ञा पुं० [सं० वंशकञ्ज] काले अगर की लकड़ी। कृष्णागुरु।
⋙ वंशक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगर नामक गंधद्रव्य। अगुरु। २. एक प्रकार की मछली। ३. एक प्रकार का गन्ना या ईख। विशेष—वैद्यक में इसे शीतल, मघुर, स्निग्ध, पुष्टिकारक, सारक, वृष्य और कफनाशक लिखा है। इसके रस का स्वाद कुछ खारी- पन लिए भारी होता है। इसे 'कड़ऊख' कहते हैं। ४. बाँस की गाँठ या संधि (को०)। ५. छोटी जाति का बाँस।
⋙ वंशकठिन
संज्ञा पुं० [सं०] जहाँ बाँस परस्पर गुथे हुए हों। बाँस का जंगल [को०]।
⋙ वंशकपूर
संज्ञा पुं० [सं० वंशकर्पूर] बंसलोचन।
⋙ वंशकफ
संज्ञा पुं० [सं०] सेमल आदि का घूआ जो आकाश में उड़ता फिरता है।
⋙ वंशकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पुरुष जिससे किसी वंश का आरंभ हुआ हो। मूल पुरुष। पूर्वज। पुरखा। २. पुत्र (को०)।
⋙ वंशकरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मार्कंडेय पुराणनुसार एक नदी जो महेंद्र पर्वत से निकलती है। वंशधारा।
⋙ वंशकर्पूर
संज्ञा पुं० [सं०] बसलोचन। यौ०—वंशकर्पूररोचना, वंशकर्पूररोचनी, वंशकर्पूरलोचना= दे० 'वंशलोचन', 'बंसलोचन'।
⋙ वंशकर्म
संज्ञा पुं० [सं० वंशकर्मन्] बँसोर का काम। बाँस की डलिया, सूप, टोकरी आदि बनाने का काम [को०]। यौ०—वंशकर्मकृत्=दे० 'बँसोर'।
⋙ वंशकार
संज्ञा पुं० [सं०] गंधक।
⋙ वंशकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वंश का मूल पुरुष [को०]।
⋙ वंशकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] वंशीवादन। बाँसुरी बजाना [को०]।
⋙ वंशक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वंश की तालिका। वंशानुक्रम [को०]।
⋙ वंशक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] वंश या कुल का विनाश [को०]।
⋙ वंशक्षीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंसलोचन।
⋙ वंशगोप्ता
संज्ञा पुं० [सं० वंशगोप्त] वह जो कुल या वंश का संर- क्षक हो [को०]।
⋙ वंशघटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दिव्यावदान के अनुसार एक प्रकार का खेल।
⋙ वंशचर्मकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बाँस और चमड़े की वस्तुएँ बनाता हो [को०]।
⋙ वंशचरित
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वंश का इतिहास [को०]।
⋙ वंशचिंतक
संज्ञा पुं० [सं० वंशचिन्तक] कुल या वंश का कुर्सीनामा तैयार करनेवाला [को०]।
⋙ वंशच्छेत्ता
संज्ञा पुं० [सं० वंशच्छेत्तृ] वंश का अंतिम पुरुष [को०]।
⋙ वंशज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस का चावल या बीज। २. पुत्र। ३. कुल में उत्पन्न पुरुष। संतान। संतति। औलाद। ४. वंश- लोचन (को०)।
⋙ वंशज (२)
वि० १. बाँस का बना हुआ। २. अच्छे कुल में उत्पन्न। ३. (किसी) वंश में उत्पन्न [को०]।
⋙ वंशजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वंशलोचन। २. कन्या।
⋙ वंशतंडुल
संज्ञा पुं० [सं० वंशतण्डुल] बाँस का चावल या बीज [को०]।
⋙ वंशतालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंशवृक्ष। कुर्सीनामा (को०)।
⋙ वंशतिलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक छंद का नाम।
⋙ वंशचला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीरिका तृण। बाँसा। विशेषदे० 'वंशपत्री' [को०]।
⋙ वंशधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुल में उत्पन्न। वंशज। संतति। संतान। २. वंश की मर्यादा रखनेवाला।
⋙ बंशधरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी जो महेंद्र पर्वत से निकली है। यह नदी मध्य प्रदेश में है। इसे वंशकरा भी कहते हैं। इसका आधुनिक नाम वंशधारा है।
⋙ वंशधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस का चावल।
⋙ वंशनर्ती
संज्ञा पुं० [सं० वंशनर्त्तिन्] भाँड़।
⋙ वंशनाडिका, वंशनाडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाँसुरी। २. बाँस की पुपली या नली [को०]।
⋙ वंशनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] वंश का प्रधान पुरुष। जाति का मुखिया या प्रधान व्यक्ति [को०]।
⋙ वंशनाश
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक योग जो शनि और राहु के सूर्य के साथ एक लग्न में, विशेषतः पंचम में पड़ने पर होता है।
⋙ वंशनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] ईख के अंकुरवाले डंठल जिन्हें जमीन में गाड़ने से ईख का नया पौधा उत्पन्न होता है। आँख।
⋙ वंशपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरताल। २. बाँस का पत्ता (को०)। ३. एक प्रकार का सरकंडा (को०)।
⋙ वंशपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की ईख जो सफेद होती है। २. एक प्रकार की मछली। ३. हरताल। ४. सरकंडा (को०)।
⋙ वंशपत्रपतित
संज्ञा पुं० [सं०] १७ वर्णों के एक र्छद का नाम जिसमें क्रम से भगण, रगण, नगण, भगण, नगण और अंत में एक लघु और एक गुरु होता है।
⋙ वंशपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की हींग। २. एक घास जिसे बाँसा कहते हैं। विशेष—इसकी पत्तियाँ बाँस की पत्तियों से मिलती हैं। वैद्यक में यह शीतल, मधुर, रुचिकारी तथा रक्तपित्त के दोषों को शांत करनेवाली कही गई है। पर्या०—वंशदला। जीरिका। जीर्णपत्रिका। वेणुपत्री। पिंडा। शिराटिका।
⋙ वंशपरपरा
संज्ञा स्त्री० [सं० वंशपरम्परा] १. वंशतालिका। वंश- वृक्ष। २. पूर्वपुरुषों से चली आती हुई रीति। कुलगत आचार।
⋙ वंशपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस का बना पात्र। जैसे, डलिया, टोकरी आदि [को०]।
⋙ वंशपीत
संज्ञा पुं० [सं०] गुग्गुल।
⋙ वंशपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षुप जाति की एक वनौषधि। सहदेई। विशेष दे० 'सहदेई'।
⋙ वशपूरक
संज्ञा पुं० [सं०] ईख या गन्ने की पोर [को०]।
⋙ वंशपोट
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस का अंकुर। करइल। २. अच्छे कुल की संतान [को०]।
⋙ वंशबाहय़
वि० [सं०] वंश से बाहर किया गया। वंशच्युत [को०]।
⋙ वंशब्राह्मण
संज्ञा पुं० [सं०] सामवेद के ब्राह्मणों में एक प्रधान ब्राह्मण, जिसमें सामवेदी ब्राह्मणों के वंशकार ऋषियों की नामावली है।
⋙ वंशभव
वि० [सं०] १. बाँस का बन हुआ। २. कुलीन। पालनकर्ता।
⋙ वंशमृत्
संज्ञा पुं० [सं०] वंश का प्रधान [को०]।
⋙ वंशभोज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह संपत्ति जिसपर वंशगत अधिकार हो। मौरूसी जायदाद। २. वंशगत अधिकार की शासनप्रणाली।
⋙ वंशयव
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस का बीज [को०]।
⋙ वंशराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत लंबा बाँस। २. खानदान का मालिक। कुल का प्रधान।
⋙ वंशरोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंसलोचन।
⋙ वंशलून
वि० [सं०] जिसके वंश का लून अर्थात् उच्छेद हो गया हो। संसार में अकेला [को०]।
⋙ वंशलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] बंसलोचन। पर्या०—त्वक्क्षीरा। वंशलोचना। तुगाक्षीरी। वाशी। वंशजा। क्षीरिका। तुंगा। त्वक्क्षीरी। शुभ्रा। शुभा। वंशक्षीरी। त्वक्सारा। कर्म्मरी। श्वेता। वंशकर्पूर। रोचना। रोचनिका। पिंगा। वंशशर्करा। वेणुलवण। वैणवी।
⋙ वंशलोचना
वि० स्त्री० [सं०] बंसलोचन।
⋙ वंशवन
संज्ञा पुं० [सं०] बाँसों का जंगल [को०]।
⋙ वंशवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] वंश की वृद्धि करनेवाला। पुत्र [को०]।
⋙ वशवितति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परिवार। २. बाँसों का झुर- मुट [को०]।
⋙ वंशविस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] वंशवृक्ष [को०]।
⋙ वशवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस का पेड़। २. किसी वंश की वृक्ष की आकृति में बनाई गई तालिका [को०]।
⋙ वंशशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंसलोचन।
⋙ वशशलाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बोन, सितार आदि बाजों का डंडा।
⋙ वशसपत्
संज्ञा स्त्री० [वंशसम्पत्] उच्च कुल में जन्म एवं प्रभूत वैभव [को०]।
⋙ वंशस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] बारह वर्णों का एक वर्णवृत्त जिसका व्यवहार संस्कृत काव्यों में अधिक मिलता है। इसमें जगण, तगण, जगण और रगण आते है। जैसे,—प्रथा जु वंशस्थ विलंघि धावती। नसाय तीनों कुल को लजावती। इसे 'वंश- स्थविल' भी कहते हैं।
⋙ वंशस्थविल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस के भीतर का खोखला हिस्सा। २. एक वर्णिक छंद। वंशस्थ [को०]।
⋙ वशहीन
वि० [सं०] जिसके वंश में कोई न हो। निर्वंश। २. अपुत्र।
⋙ वंशांकुर
संज्ञा पुं० [सं० वंशाङ्कुर] १. बाँस का कोपल। करइल। २. पुत्र [को०]।
⋙ वंशागत
वि० [सं०] कुल परंपरा से आता हुआ।
⋙ वंशाग्र
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वंशांकुर' [को०]।
⋙ वंशानुक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] वशावली।
⋙ वशानुकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वंशानुचरित' [को०]।
⋙ वशानुचरित
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन राजवशों की कथा। विशेष—यह पुराणों के लक्षणों में से एक है।
⋙ वंशावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी वंश में उत्पन्न पुरुषों को पूर्वोत्तर क्रम से सूची।
⋙ वंशाह्व
संज्ञा पुं० [सं०] बंसलोचन।
⋙ वंशिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगर की लकड़ी। २. काला गन्ना। केतारा। ३. प्राचीन काल की एक माप जो चार स्तोम की कही गई है (को०)। ४. एक जाति जो शूद्र और वेषी से उत्पन्न कही गई है (को०)।
⋙ वंशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अगर की लकड़ी। २. बसी। मुरली। ३. पिप्पली।
⋙ वंशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला एक प्रकार का बाजा जो बाँस में सुर निकालने के लिये छेद करके बनाया जाता है। बाँसुरी। मुरली। विशेष—पुराने ग्रंथों में लिखा है कि वंशी बाँस ही की होनी चाहिए, पर खैर, लाल चंदन आदि की लकड़ी की अथवा सोने, चाँदी की भी हो सकती है। यह वास्तव में बाँस की एक पोली नली होती है, जिसके बजानेवाले छोर पर एक जीभ लगी होती है और दूसरी ओर नली के ऊपर एक पंक्ति में सुर निकलनेके छेद होते हैं। मार्तंग ऋषि का मत है कि नली का छेद कनिष्ठा उँगली के मूल के बराबर होना चाहिए। जो छोर मुँह में रखकर फूँका जाता है, उसे 'फूत्काररंध्र' और सुर निकालनेवाले सात छेदों को 'ताररंध्र' कहते हैं। इस बंसी के अतिरिक्त मातंग के अनुसार चार प्रकार की मुरलियाँ और होती हैं, जिन्हें मदानंदा, नंदा, विजया और जया कहते हैं। मदानंदा में ताररंध्र फूत्कारंध्र से दस अंगुल पर, नंदा में ग्यारह अंगुल पर, विजया में बारह अगुल पर और जया में चौदह अंगुल पर होते हैं। आजकल वह वशी जो एक साथ दो बजाई जाती है, अलगोजा कहलाती है। प्राचीन काल के गोपी में इस बाजे का प्रचार बहुत था। यौ०—वंशीधर। २. चार कर्ष का एक मान, जो आठ तोले के बराबर होता है। ३. बंसलोचन। ४. धमनी। नाड़ी (को०)।
⋙ वंशीधर
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण, जो वंशी बजाया करते थे।
⋙ वंशीधारी
संज्ञा पुं० [सं० वंशीधारिन्] १. श्रीकृष्ण। २. वह जो बाँसुरी बजाता हो। बाँसुरीवादक [को०]।
⋙ वंशाय
वि० [सं०] वंशोद्भव। कुल में उत्पन्न। जैसे,—चंद्रवंशीय। विशेष—इस शब्द का प्रयोग यौगिक शब्दों के अंत में हुआ करता है।
⋙ वंशोवट
संज्ञा पुं० [सं०] वृंदावन में वह बरगद का पेड़ जिसके नीचे श्रीकृष्ण वंशी बजाया करते थे।
⋙ वंशीवादन
संज्ञा पुं० [सं०] वंशी बजाना।
⋙ वंशोद्भव
वि० [सं०] वंशज। कुल में उत्पन्न।
⋙ वंशोद्भवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंसलोचन।
⋙ वंश्य (१)
वि० [सं०] १. वंशी। वंशज। २. मेरुदंड संबंधी। मुख्य अस्थि से संबद्ध (को०)। ३. अच्छे कुल का। कुलीनवंश संबंधी [को०]।
⋙ वंश्य (२)
संज्ञा पुं० १. पीठ की रीढ़। २. वह बड़ी लकड़ी जो छाजन के बीचोबीच रीढ़ के समान होती है। बँड़ेर। ३. पूर्व पुरुष। पूर्वज (को०)। ४. संतति। संतान (को०)। ५. परिवार या कुल का कोई व्यक्ति (को०)। ६. शिष्य (को०)। ७. वे संबंधी व्यक्ति जो सात पुश्त पूर्व और सात पीढ़ी बाद के हों (को०)।
⋙ वंश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनिया [को०]।
⋙ वंस
संज्ञा पुं० [सं० वंश] दे० 'वंश'। उ०—एक पुत्र है, सो तेरो वंस चल्यो जायगो।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ७२।
⋙ वंसग
संज्ञा पुं० [सं०] साँड़। वृषभ [को०]।
⋙ वँसली ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० बांसुरी] दे० 'बाँसुरी'। उ०—गावणहार माँडइ (अ) र गाई। राम कइ (सम) यइ वँसली वाई।—बी० रासो, पृ० ५।
⋙ व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. बाण। ३. वरुण। ४. बाहु। ५. मंत्रणा। ६. कल्याण। ७. सांत्वना। ८. वसति। बस्ती। ९. वरुणालय। समुद्र। १०. शार्दूल। ११. वस्त्र। १२. कोई का कंद। सेरकी। १३. जल में उत्पन्न होनेवाले कंद। शालूक। १४. वंदन। १५. अस्त्र। १६. खङ्गधारी पुरुष। १७. मूर्वा नामक लता। १८. वृक्ष। १९. कलश से उत्पन्न ध्वनि। २०. मद्य। २१. प्रचेता। २२.। पानी। जल (को०)। २३. आदर। संमान (को०)। २४. राहु (को०)।
⋙ व (२)
वि० बलवान्।
⋙ व (३)
अव्य० [फ़ा०] और। जैसे,—राजा व रईस।
⋙ वअन पु
संज्ञा पुं० [सं० बचन; प्रा० वयण, वअन] दे० 'वचन'। उ०—कुटिल राजनीति चतुरहु, मोर वअन आकणणे करहु।— कीर्ति०, पृ० २०।
⋙ वइठना पु †
क्रि० अ० [सं० √ विश्, विष्ट; प्रा० बिट्ठ + हिं० ना (प्रत्य०) या स० वितिष्ठति, प्रा० बइठ्ठइ] दे० 'बैठना'। उ०— वइठहिं ठामहि ठामा।—कीर्ति०, पृ० ९६।
⋙ वइराग पु †
संज्ञा पुं० [सं० वैराग्य; प्रा० वइराग] दे० 'वैराग्य'। उ०—मनि वइराग न थाइ, वाँलभ वीछुड़िया तणी।— ढोला०, दू० १७१।
⋙ वइसाना पु
क्रि० स० [हिं० बैठाना] दे० 'बैठाना'। उ०—अमरा- पति चढ़ि चाल्यो राय। ली अस्त्री अरधंग वइसाय।—बी० रासो, पृ० २७।
⋙ वक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बगला नाम का पक्षी। २. अगस्त का पेड़ या फूल। ३. एक दैत्य का नाम जिसे श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में मारा था। ४. एक राक्षस जिसे भीम ने मारा था। ५. कुबेर। ६. एक यक्ष का नाम। ७. एक जाति का नाम। ८. वंचक। ठग। ढोंगी (को०)।
⋙ वकअत
संज्ञा स्त्री० [अ० वक़अत] इज्जत। मान। गौरव। साख। ऊँचाई। प्रतिष्ठा। उ०—सबसे ज्यादा जिस बात से तआज्जुब होता है, यह है कि खान देहली की जबान और उर्दू को भी वकअत की निगाह से नहीं देखते।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८७।
⋙ वककच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद जो नर्मदा के किनारे था। विशेष—कथासरित्सागर में लिखा है कि उज्जयिनी के राजा सातवाहन सर्ववर्मा ने कलाप व्याकरण का अध्ययन करके अपने गुरु को यह राज्य गुरुदक्षिणा में दिया था।
⋙ वकचर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वकवृत्ति'।
⋙ वकचिंचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वकचिञ्चिका] एक प्रकार की छोटी मछली।
⋙ वकजित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीकृष्ण। २. भीमसेन।
⋙ वकत
संज्ञा स्त्री० [अ० वक़त] दे० 'वकअत' [को०]।
⋙ वकनख
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ वकनिषूदन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बकनिषूदन' [को०]।
⋙ वकधूप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बकधूप' [को०]।
⋙ वकपंचक
संज्ञा पुं० [सं० वकपञ्चक] कार्तिक के शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक की पाँच तिथियाँ।
⋙ वकयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० वकयन्त्र] आसब आदि भबके से उतारने के लिये एक यंत्र या बरतन जिसके मुँह पर बगले की गरदन की तरह टेढ़ी नली लगी रहती है।
⋙ वकवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] धोखा देकर काम निकालने को घात में रहने की वृत्ति। कदाचार।
⋙ वकल
संज्ञा पुं० [सं० वल्कल] भीतर की छाल [को०]।
⋙ वकव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] बगले की तरह बात नें रहनेवाला। कपटी चालबाज मनुष्य।
⋙ वकाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०]।
⋙ वकार
संज्ञा पुं० [अ० वक़ार] १. प्रतिष्ठा। बड़प्पन। इज्जत। २. गुरुता। गंभीरता [को०]।
⋙ वकारना
क्रि० अ० [देश०] गरजना। ललकारना। हुँकारना। उ०—भये त्रिपत बीराधिवर, पूरन डक्क डकार। अति आनंदत उल्हसत, बोलत बयन वकार।—पृ० रा०, ६।१७०।
⋙ वकालत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. दूसरे के किसी काम का भार लेना। दूसरे के स्थानापन्न होकर काम करना। २. दूसरे का सँदेसा जोर देकर कहना। दूतकर्म। ३. दूसरे के पक्ष का मंडन दूसरे की ओर से उसके अनुकूल बातचीत करना। जैसे,—उन्हें जो कुछ कहना होगा आप कहेंगे, तुम क्यों उनकी ओर से वकालत करते हो। ४. अदालत या कचहरी में किसी मामले में वादी या प्रतिवादी की ओर से प्रश्नोत्तर या वादविबाद करने का काम। मुकदमे में किसी फरीक की तरफ से बहस करने का पेशा। मुहा०—वकालत चलना या चमकना = वकालत के पेशे में आमदनी होना। वकालत जमना = वकालत के पेशे में लाभ होने लगना। यौ०—वकालतनामा।
⋙ वकालतन्
क्रि० वि० [अ०] वकील के द्वारा। असालतन् का उलटा।
⋙ वकालतनामा
संज्ञा पुं० [अ० वकालत + फ़ा० नामह्] वह अधिकार- पत्र जिसके द्वारा कोई किसी वकील को अपनी तरफ से मुकदमे में बहस करने के लिये मुकर्रर करता है।
⋙ वकाली
संज्ञा स्त्री० [सं० वक + आलि] वकपंक्ति। उ०—नभ में मेघावलि है काली, क्षिति में हे मजुल हरियाली, है दोनों के बीच वकाली। विद्युदबाला की माला सी, है वह सुंदर श्वेत सुमन की।—प्रेमांजलि, पृ० ११९।
⋙ वकासुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस का नाम। विशेष—इस नाम के दो राक्षत हुए है। एक को श्रीकृष्ण ने अपने बाल्यावस्था में मारा था। वत्सासुर और अधासुर नाम के इसके दो भाइयों का भी कृष्ण ने सहार किया वाद यह पूतना नाम की राक्षसी का भाई और कंस का अनुचर था। दूसरे को भीमसेन ने उस समय मारा था, जब पाँचों पांडव लाक्षागृह से निकलकर वन में जाकर रहते थे।
⋙ वकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राक्षसी का नाम।
⋙ वकीअ
वि० [अ० वेकीअ] १. इज्जतदार। प्रतिष्ठित। २. ऊँचा। बलंद।
⋙ वकीअत
संज्ञा स्त्री० [अ० वकी़अत] १. कुत्सा। निंदा। २. युद्ध। लड़ाई [को०]।
⋙ वकील
संज्ञा पुं० [अ०] १. दूसरे के काम को उसकी ओर से करने का भार लेनेवाला। २. दूसरे का संदेसा ले जाकर उसपर जोर देनेवाला। दूत। ३. राजदूत। एलची। उ०—सूरज कही नवाब के है आनंद सरीर। तब वकील बिनती करी कृपा पाइ जदुबीर।—सूदन (शब्द०)। ४. प्रतिनिधि। ५. दूसरे का पक्ष मंडन करनेवाला। दूसरे की ओर से उसके अनुकुल बात करनेवाला। ६. कानून के अनुसार वह आदमी जिसने वकालत की परीक्षा पास की हो और जिसे हाईकोर्ट की ओर से अधिकार मिला हो कि वह अदालतों में मुद्दई या मुद्दालैह की ओर से बहस करे।
⋙ वकीली †
संज्ञा स्त्री० [अ० वकील + हि० ई (प्रत्य०)] दे० 'वकालत'।
⋙ वकुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगस्त का पेड़ या फूल। २. मौलसिरी। उ०—सूखा है यह मुख यहाँ, रूखा है मन आज। किंतु सुमन- संकुल रहे प्रिय का वकुल समाज।—साकेत, पृ० २९३। ३. शिव। दे० 'बकुल'।
⋙ वकुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुटकी नामक ओषधि।
⋙ वकुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काकोली नाग की ओषधि। २. वकुल। मौलसिरी।
⋙ वकुश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह त्यागी यती, साधु जिसे अपने ग्रंथों, शरीर और भक्तों या शिष्यों की कुछ कुछ चिंता रहती हो। (जैन)। २. पत्तों के झुरमुट में रहनेवाला एक जंतु (को०)।
⋙ वकूअ
संज्ञा पुं० [अ० वकूअ] घटित होना। प्रकट होना। मुहा०—वकूम में आना = प्रकट होना। घटित होना।
⋙ वकूआ
संज्ञा पुं० [अ० वक़ूआ] १. फसाद। झंझट। २. घटना। वारदात। हादसा (को०)।
⋙ वकूफ
संज्ञा पुं० [अ० वक़ूफ] १. जानकारी। ज्ञान। २. बुद्धि। समझ। यौ०—बेवकूफ = मूर्ख।
⋙ वक्त (१)
संज्ञा पुं० [अ० वक्त] १. समय। काल। मुहा०—वक्त काटना = (१) किसी प्रकार समय बिताना। (२) जी बहलाना। वक्त की चीज = (१) किसी समय या ऋतु विशेष में मिलनेवाली चीज। (२) किसी विशेष समय में गाया जानेवाला गीत या राग। जैसे,—कोई वक्त की चीज गाइए। वक्त खोना = समय नष्ट करना। २. किसी बात के होने का समय। अवसर। मौका। मुहा०—वक्त पर = अवसर आने पर। कोई विशेष परिस्थिति होने पर। जैसे,—इसे रख छोड़ो, वक्त पर काम आवेगी। वक्त ताकना = मौका देखना। इस बात की प्रतीक्षा में रहना कि कब उपयुक्त अवसर मिले और कोई बात करूँ। वक्त हाथ से देना = अवसर चूकना। मौका आने पर भी काम न करना। ३. इतना समय कि कोई काम किया जा सके। अवकाश। फुरसत।क्रि० प्र०—निकलना।—निकालना।—मिलना। ४. विपत्काल। मुसीबत का समय (को०)। ५. मौसिम (को०)। ६. मरने का नियत समय। मृत्युकाल। क्रि० प्र०—आ जाना।—आ पहुँचना।
⋙ वक्त पु (२)
वि० सं० वक्तृ 'वक्ता'। दे० 'वक्ता'। उ०—उनईस सहस गरु- णह पुरान। श्रोतान वक्त भक्ती उरान।—पृ० रा० १।४०।
⋙ वक्तन् फौक्तन्
क्रि० वि० [अ० वक़्तन् फ़ौक़्तन्] यदाकदा। कभी कभी। ३. यथासमय।
⋙ वक्तव्य (१)
वि० [सं०] १. कहने योग्य। वाच्य। २. कुछ कहने सुनने लायक। ३. हीन तुच्छ। ४. जिम्मेदार। उत्तरदायी। ५. आधारित। निर्भर। आश्रित (को०)।
⋙ वक्तव्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथन। वचन। २. वह बात जो किसी विषय में कहती हो। ३. निंदा। बुराई (को०)। ४. नियम (को०)। ५. सीख। शिक्षा (को०)।
⋙ वक्तव्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दोषारोपण। तिरस्कार। २. निर्भ- रता। पराधीनता [को०]।
⋙ वक्तव्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वक्तव्यता' [को०]।
⋙ वक्ता
वि० [सं० वक्तृ] १. वाग्मी। बोलनेवाला। २. भाषणपदु। वदान्य। ३. ईमानदार (को०)।
⋙ वक्ता (२)
संज्ञा पुं० १. कथा कहनेवाला पुरुष। व्यास। उ०—सूत तहँ कथा भागवत की कहत है ऋषि अठासी सहस हुते श्रोता। राम को देखि सनमान सब ही कियो सूत नहिं उठयो निज जानि वक्ता।—सूर (शब्द०)। २. शिक्षक। अध्यापक (को०)। ३. बुद्धिमान्। मेधावी व्यक्ति (को०)।
⋙ वक्तुकाम
वि० [सं०] बोलने की इच्छा रखनेवाला [को०]।
⋙ वक्तुमना
वि० [सं० वक्तुमनस्] जो बोलना चाहता हो। जिसके मन में बोलने की इच्छा हो [को०]।
⋙ वक्तृक
वि० [सं०] बोलनेवाला। वक्तृता देनेवाला [को०]।
⋙ वक्तृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वाग्मिता। वाक्पटुता। २. व्याख्यान। ३. कथन। भाषण।
⋙ वक्तृत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. वक्तृता। वाग्मिता। २. व्याख्यान। प्रवचन। ३. कथन। भाषण।
⋙ वक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुख। २. तगर की जड़। ३. एक प्रकार का छंद जो अनुष्टुप छंद के अनुरूप होता है। ४. काम का आरंभ। ५. मुखाकृति। चेहरा (को०)। ६. दाँत (को०)। ७. बाण की नोक (को०)। ८. एक प्रकार का पहनावा। यौ०—वक्ञज।
⋙ वक्त्रखुर
संज्ञा पुं० [सं०] दंत। दाँत [को०]।
⋙ वक्त्रज
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण। २. दाँत [को०]।
⋙ वक्त्रताल
संज्ञा पुं० [सं०] वह ताल जो मुँह से उत्पन्न किया जाय। जैसे, वंशी को बजाने से या मुँह में वायु भरकर छोड़ने से।
⋙ वक्त्रतुंड
संज्ञा पुं० [सं० वक्त्रतुण्ड] गणेश।
⋙ वक्त्रदल
संज्ञा पुं० [सं०] तालु। तालू।
⋙ वक्त्रपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] तोबड़ा [को०]।
⋙ वक्त्रपरिस्पंद
संज्ञा पुं० [सं० वक्त्रपरिस्पन्द] वार्ता। बात [को०]।
⋙ वक्त्रबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] बाराही कंद।
⋙ वक्त्रभेदी
वि० [सं० वक्त्रभेदिन्] बहुत तीखा या चरपरा [को०]।
⋙ वक्त्रवास
संज्ञा पुं० [सं०] नारंगी।
⋙ वक्त्रशल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुंजा। घुँघची।
⋙ वक्त्रशोधी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वक्त्रशोधिन्] जमीरी नींबू [को०]।
⋙ वक्त्रशोधी (२)
वि० मुख को शुद्ध करनेवाला [को०]।
⋙ वक्त्रासव
संज्ञा पुं० [सं०] लाला। थूक [को०]।
⋙ वक्फ
संज्ञा पुं० [अ० वक़फ़] १. वह भूमि या सपत्ति जो धर्मार्थ दान कर दी गई हो। किसी धर्म के काम में लगी हुई जायदाद। क्रि० प्र०—करना। २. किसी धर्म के काम में धन आदि देना। धर्मार्थ दान। ३. किसी के लिये चीज या धन संपत्ति आदि छोड़ देना (क्व०)।
⋙ वक्फनामा
संज्ञा पुं० [अ० वक़्फ़् + फ़ा० नामह्] वह पत्र जिसके अनुसार किसी के नाम कोई चीज वक्फ की जाय। दानपत्र।
⋙ वक्फा
संज्ञा पुं० [अ० वक़्फ़ा] १. अवकाश। अंतर। छुट्टी। मोहलत। क्रि० प्र०—देना।—मिलना। २. काम करने से विराम। क्रि० प्र०—मिलना।
⋙ वक्र (१)
वि० [सं०] १. टेढ़ा। बाँका। ऋजु का उलटा। २. झुका हुआ। तिरछा। ३. कुटिल। दाँवपेंच चलनेवाला। ४. बेईमान (को०)। ५. निर्दय। क्रूर (को०)।
⋙ वक्र (२)
संज्ञा पुं० १. नदी का मोड़। बाँका। २. तगरपादुका। ३. शनैश्चर। ४. भौम। मगल। ५. रुद्र। ६. पर्पट। ७. वह ग्रह जिससे तीस अंश के अंदर ही सूर्य हो। वक्री ग्रह। ८. एक राक्षस का नाम। ९. त्रिपुरासुर। १०. नासिका। नाक (को०)। ११. अस्थिभंग का एक प्रकार (को०)।
⋙ वक्रकट
संज्ञा पुं० [सं० वक्रक्णट] बैर का वृक्ष। वक्रकंटक।
⋙ वक्रकटक
संज्ञा पुं० [सं० वक्रकण्टक] १. बैर का वृक्ष। २. खैर का पेड़ (को०)।
⋙ वक्रकील
संज्ञा पुं० [सं०] अंकुश [को०]।
⋙ वक्रगति
संज्ञा पुं० [सं०] १. भौम। मंगल। २. ग्रहलाघव के अनुसार वे ग्रह जो सुर्य से पाँचवें, छठे, सातवें और आठवें हों। इस प्रकार मंगल ३६ दिन, बुध २१ दिन, बृहस्पति १०० दिन, शुक्र १२ दिन और शनि १८४ दिन वक्री होता है।
⋙ वक्रगल
संज्ञा पुं० [सं० वक्र + गला] एक प्रकार का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है।
⋙ वक्रगामी
वि० [सं० वक्रगामिन्] १. टेढ़ी चाल चलनेवाला। २. शठ। कुटिल।
⋙ वक्रगुल्फ
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट।
⋙ वक्रग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट। क्रमेलक [को०]।
⋙ वक्रचंचु
संज्ञा पुं० [सं० वक्रचञ्चु] तोता। शुक पक्षी।
⋙ वक्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टेढ़ापन। २. पीछे की ओर मुड़ने की क्रिया। ३. विफलता। असफलता। चूक। ४. कुटिलता [को०]।
⋙ वक्रताल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाजा जो मुँह से बजाया जाता है। वक्रनाल।
⋙ वक्रताली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वक्रताल'।
⋙ वक्रतुंड
संज्ञा पुं० [सं० वक्रतुण्ड] १. शुक पक्षी। तोता। २. गणेश।
⋙ वक्रत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वक्रता'।
⋙ वक्रदंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] शूकर। सूअर।
⋙ वक्रद्दष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टेढ़ी द्दष्टि। २. क्रोध की द्दष्टि। ३. मंद द्दष्टि।
⋙ वक्रधर
संज्ञा पुं० [हिं० वक्र + धर] द्वितीया का टेढ़ा चंद्रामा धारण करनेवाले, शिव।
⋙ वक्रधी (१)
वि० [सं०] टेढ़ी बुद्धिवाला। धूर्त। बेईमान [को०]।
⋙ वक्रधी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] धूर्तता। बेईमानी। मक्कारी।
⋙ वक्रनक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पिशुन। चुगुलखोर। २. शुक पक्षी। तोता।
⋙ वक्रनाल
संज्ञा पुं० [सं०] वक्रताल नाम का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है।
⋙ वक्रनासिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] उल्लू।
⋙ वक्रनासिक (२)
वि० टेढी़ नाकवाला।
⋙ वक्रपद
संज्ञा पुं० [सं०] विभिन्न प्रकार की नक्काशी से युक्त कपड़ा। छींट [को०]।
⋙ वक्रपाद
वि० [सं०] जिसका पैर टेढ़ा हो।
⋙ वक्रपुच्छ, वक्रपुच्छिक
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता।
⋙ वक्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगस्त का पेड़। २. पलाश।
⋙ वक्रबुद्धि
वि० [सं०] दे० 'वक्रधी' [को०]।
⋙ वक्रभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. टेढ़ापन। २. धूर्तता [को०]।
⋙ वक्रभुज
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश [को०]।
⋙ वक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] भागना। अवक्रम। पलायन [को०]।
⋙ वक्रमति
वि० [सं०] दे० 'वक्रधी' [को०]।
⋙ वक्रय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मूल्य। दाम।
⋙ वक्रय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] अवक्रम। भागना [को०]।
⋙ वक्रवक्त्र
संज्ञा पुं० [वि०] शूकर। सूअर [को०]।
⋙ वक्रशल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कड़वा कददू या घीया। २. लाल फूल की विषलांगली।
⋙ वक्रांग (१)
वि० [सं० वक्राङ्ग] जिसका अंग टेढ़ा हो।
⋙ वक्रांग (२)
संज्ञा पुं० १. हंस। २. सर्प। साँप।
⋙ वक्राख्य
संज्ञा पुं० [सं०] टीन [को०]।
⋙ वक्रि
वि० [सं०] असत्यभाषी। झूठा [को०]।
⋙ वक्रित
वि० [सं०] जो टेढ़ा हो गया हो।
⋙ वक्रिमा
वि० [सं०] टेढ़ा। कुटिल।
⋙ वक्रिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० वक्रिमन्] १. टेढ़ापन। कुटिलता। २. कथन की भंगी [को०]।
⋙ वक्री (१)
वि० [सं० वक्रिन्] १. अपने मार्ग को छोड़कर पीछे लौटनेवाला। विशेष—फलित ज्योतिष में जो ग्रह अपनी राशि से एकबारगी दूसरी राशि में चला जाता है, उसे अतिवक्री या महावक्री कहते हैं। यह वक्रता मंगल आदि पाँच ग्रहों में भी होती है। विशेष दे० 'वक्रगति'। २. कुटिल। टेढ़ा (को०)। ३. धूर्त। मक्कार। फरेबी (को०)।
⋙ वक्री (२)
संज्ञा पुं० वक्र ग्रह। २. वह प्राणी जिसके अंग जन्म से टेढ़े हों। २. बुद्धदेव या जैन जिन्होंने टेढ़ी युक्तियों से वैदिक मत का विरोध किया था।
⋙ वक्रोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का काव्यालंकर जिसमें काकु या श्लेष से वाक्य का और का और अर्थ अर्थ किया जाता है। २. काकूक्ति। ३. वह उक्ति जिसमें चमत्कार हो। वढ़िया उक्ति। विशेष—किसी किसी आचार्य (जैसे 'वक्रोक्तिजीवितम्' के कर्ता) ने वाक्चातुर्य को ही काव्य की आत्मा कह दिया है, जिसका और आचार्यों ने खंडन किया है।
⋙ वक्रोक्तिजीवित
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य शास्त्र का एक ग्रंथ जिसमें वक्रोक्ति को ही काव्य की आत्मा माना गया है। इसके रचयिता आचार्य 'कुंतक' थे।
⋙ वक्रोष्ठि, वक्रोष्ठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐसी मंद हँसी जिसमें दाँत न खूलें केवल ओंठ कुछ टेढ़े हो जायँ। मुसकान। स्मित।
⋙ वक्वस
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का मद्य।
⋙ वक्षःस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] उरस्थल। वक्ष।
⋙ वक्ष
संज्ञा पुं० [सं० वक्षस्] १. पेट और गले के बीच में पड़नेवाला भाग जिसमें स्त्रियों के स्तन और पुरुषों के स्तन के से चिह्न होते हैं। छाती। उरस्थल। २. बैल। वृषभ। ३. शक्ति। बल। ताकत (को०)।
⋙ वक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. छाती। सीना। २. शक्ति वा स्फूर्तिदायक पदार्थ। ३. अग्नि। पावक [को०]।
⋙ वक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पेट। उदर। २. नदी का पाट या चौड़ाई। ३. नदी [को०]।
⋙ वक्षथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. उगना। बड़ा होना।
⋙ वक्षस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] उर। छाती।
⋙ वक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निशिखा।
⋙ वक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वंक्षु'।
⋙ वक्षोग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ वक्षोज
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन। कुच।
⋙ वक्षोरुह
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन। कुंच।
⋙ वक्षीमंडली
संज्ञा पुं० [सं० वक्षोमण्डलिन्] नृत्य में हाथों की एक मुद्रा वा स्थिति [को०]।
⋙ वक्षीमणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मणि या रत्न जो वक्ष पर धारण किया जाय [को०]।
⋙ वक्ष्यमाण
वि० [सं०] १. वाच्य। वक्तव्य। २. जिसे कह रहे हों अथवा जो आगे या बाद में कहा जानेवाला हो। जो कथन का प्रस्तुत विषय हो।
⋙ वखरुह †
संज्ञा पुं० [देश०] १. मुँह से निकला हुआ शब्द। बोल। बकार। २. अंश। भाग। बखरा। उ०—वखरु साचु करे वा पारु। नानक पाए मुक्ति द्वार।—प्राण०, पृ० १०४।
⋙ वखाण ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बखान] दे० 'बखान'। उ०—मालव देस वखोडिया, मारू किया वखाण। मारू सोहागिणि थईं, सुंदरि सगुण सुजाण।—ढोला०, दू० ६७२।
⋙ वगपंती
संज्ञा स्त्री० [सं० वकपड़िक्त] बगलों की पाँत। वकपंक्ति। उ०—जामन चलत सेत सिर दंती। स्याम घटा मानहु वगपंती- हिं० क० का०, पृ० २२३।
⋙ वगर (१)
अव्य० [फ़ा०] दे० 'अगर'। उ०—मेरे बर में बोलो के क्या रंग है। वगर नहीं तो तुम सूँ मेरा जंग है।—दक्खिनी०, पृ० ३४८।
⋙ वगर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रघण, प्रा० पघण] महल। निवास। दे० 'बगर'। उ०—जड़ित नीलमणि जासु वगर सुंदर चामीकर। नगर परम रमनीय सुथर सुरलोकहु ते वर।—दीन० ग्रं०, १४६।
⋙ वगरना
अव्य० [फा० बगरह्] अन्यथा। वर्ना। नहीं तो [को०]।
⋙ वगराना
क्रि० स० [सं० विकीर्णन] फौलाना। दे० 'बगराना'। उ०—कुसुम समूढ़ रहत सुंदर सुगंध बगराई।—प्रेमघन०, पृ० १६।
⋙ वगलबंदी †
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बगलबंदी] मिरजई। उ०—अतः बगलबंदी आई, पर वह भी न भई।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २१६।
⋙ वगला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वगलामुखी'।
⋙ वगलामुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दस महाविद्याओं में से एक जिसकी पूजा का महत्व तंत्रों में वर्णित है।
⋙ वगा
संज्ञा स्त्री० [अ० वगा़] युद्ध। लड़ाई [को०]।
⋙ वगाह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवगाह' [को०]।
⋙ वगैरह
अव्य० [अ० वगैरह] एक अव्यय जिसका अर्थ यह होता है कि 'इसी प्रकार और भी समझिए'। इत्यादि। आदि। जैसे,— बैल, ऊँट, हाथी, वगैरह बहुत से जानवर वहाँ आए थे। विशेष—इसका प्रयोग वस्तुओं को गिनाने में उनके नामों के अंत में संक्षेप या लाधव के लिये होता है।
⋙ वग्ग (१)
संज्ञा पुं० [सं० वर्ग, प्रा० वग्ग (= बाड़ा)] १. दे० 'वर्ग'। समूह। शाला। (लाक्ष०)। उ०—ढोलइ चित्त विमासियउ, मारू देश अलग्ग। आपण जाए जोइयउ, करहा हंदउ वग्ग।—ढोला०, दू० ३०७।
⋙ वग्ग पु (२)
संज्ञा पुं० [अ० बाग़] बगीचा। बाग। उ०—फुल्ले सुंगध के बरन फूल। देखंत वग्ग पावस्स झूल।—पृ० रा०, १४।६८।
⋙ वग्ग (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्गा, प्रा० वग्ग] लगाम। उ०—फेरे वग्ग तुरंग री, तोले खग्ग करग्ग।—रा० रू०, पृ० ३२।
⋙ वग्गना पु
क्रि० अ० [सं० √ वल्ग्, प्रा० वग्ग (= दहाड़ना) + हिं० ना (प्रत्य०)] तीव्र ध्वनि करना। गरजना। बजना। उ०—बजे त्रंब जंगी गढ़े नाल वग्गी। लजावंत जंगी दुहूँ दीठ लग्गी।—रा० रू०, पृ० १८९।
⋙ वग्नु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वक्ता। वाचक। २. शब्द। आवाज। ध्वनि। ३. (किसी पशु की) चिल्लाहट [को०]।
⋙ वग्नु (२)
वि० बकवादी [को०]।
⋙ वग्वनु
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वनि [को०]।
⋙ वचंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० वचणडी] १. सारिका। मैना। २. दीप की बत्ती। बत्ती। ३. एक शस्त्र का नाम। विशेष—मेदिनी कोश में इस शब्द का पाठ 'वचंडा' और 'वरंडा' है।
⋙ वंचदा
संज्ञा स्त्री० [सं० वचन्दा] दे० 'वचंडी' [को०]।
⋙ वच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तोता। शुक पक्षी। २. वजह। कारण हेतु। ३. सूर्य। यौ०—वचार्च = सूर्यपूजक।
⋙ वच (२)
संज्ञा पुं० [वचस्, वचन] १. वचन। वाक्य। २. आज्ञा। आदेश (को०)। ३. सलाह। मंत्रणा। परामर्श (को०)। ४. चिड़ियों की चहचह ध्वनि (को०)। ५. स्तुति। स्तवन (को०)। ६. (व्याकरण में) शब्द के रूप में वह विधान जिससे एकत्व आदि का बोध होता है। दे० 'वचन'—३।
⋙ वचक्नु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण [को०]।
⋙ वचक्नु (२)
वि० बकवादी। वग्नु। बहुत बोलने या बड़बड़ानेवाला [को०]।
⋙ वचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्य के मुँह से निकला हुआ सार्थक शब्द। वाणी। वाक्य। पर्या०—इरा। सरस्वती। ब्राह्मी। भाषा। गिरा। गीर्देवी। भारती। वरजा। वर्णमातृका। व्याहार। लपित। २. कही हुई बात। कथन। उक्ति। यौ०—वचनबद्ध। वचनगुप्ति। ३. व्याकरण में शब्द के रूप में वह विधान जिससे एकत्व या बहुत्व का बोध होता है। विशेष—हिंदी में दो ही वचन होने हैं—एकवचन और बहुवचन। पर कुछ और प्राचीन भाषाओं के समान संस्कृत में एक तीसरा वचन द्विवचन भी होता है। ४. बोलना। बोलने की क्रिया। उच्चारण। वाचन (को०)। ५. शास्त्रों का उधृत अंश। जैसे शास्त्रवचन, श्रुतिवचन (को०)। ६. आदेश (को०)। ७. मंत्रणा। परामर्श (को०)। ८. घोषणा। प्रख्यापन (को०)। ९. शब्द का अर्थ या भाव (को०)। १०. सोंठ शुंठी (को०)।
⋙ वचनकर
वि० [सं०] १. दे० 'वचनकारी'। २. किसी नियम या आदेश का लेखक या उदघोषक।
⋙ वचनकारी
वि० [सं० वचनकारिन्] आज्ञाकारी।
⋙ वचनक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] आज्ञापालन [को०]।
⋙ वचनगुप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन धर्म के अनुसार वाणी का ऐसा संयम जिससे वह अशुभ वृत्ति में प्रवृत्त न हो।
⋙ वचनगोचर
वि० [सं०] जो वाणी द्वारा व्यक्त हो। कथन द्वारा व्यक्त। [को०]।
⋙ वचनगौरव
संज्ञा पुं० [सं०] आज्ञा की गुरुता। आदेश के प्रति आदर भाव [को०]।
⋙ वचनग्राही
वि० [सं० वचनग्राहिन्] आज्ञा का पालन करनेवाला [को०]।
⋙ वचनपटु
वि० [सं०] बातचीत करने में कुशल [को०]।
⋙ वचनबद्ध
वि० [सं०] प्रतिज्ञाबद्ध। प्रतिश्रुत [को०]।
⋙ वचनरचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] कथन, लेखन, भाषण की प्रभावशाली शब्दावली [को०]।
⋙ वचनलक्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह परकीया नायिका जिसकी बात- चीत से उसका उपपति से प्रेम लक्षित या प्रकट होता है। जैसे,—अंगन की छवि भूषन की रघुनाथ सराहि सबै सिहरातें। आपनी प्रीति, मया उनकी प्रगटी प्रगटे सुख के हियरातें। काहे के आजु छिपावति हौ इमसों करि ये चतुराई की घातें। मैं निज कान सुनी जो कही यह काल्हि सखी सों गोपाल की बातें।— रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ वचनविदग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नायिकाओं का एक भेद। वह परकीया नायिका जा अपने वचन की चतुराई से नायक की प्रीति का साधन करती हो। जैसे,—जब लौं घर को धनी आवै घरै तब लौं तो कहुँ। चत दैबो करो। पदमाकर ये बछरा अपने बछरान के संग चरैबो करो। अरु औरन के घर तें हम सों तुम दूनी दुहावन लैबो करो। नित साँझ सकारे हमारी हहा ! हरि गैयन को दुहि जैबो करो।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ वचनव्यक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी उक्ति का ठीक ठीक आशय। २. भाष्य। विवृति। निर्वचन। व्याख्या [को०]।
⋙ वचनसहाय (१)
वि० [सं०] सहायता का वचन देनेवाला [को०]।
⋙ वचनसहाय (२)
संज्ञा पुं० १. कथन द्वारा की गई सहायता। २. मित्र [को०]।
⋙ वचनस्थित
वि० [सं०] बात पर द्दढ़ रहनेवाला [को०]।
⋙ वचनावक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] अवक्षेप से भरे वचन का कथन [को०]।
⋙ वचनीय
वि० [सं०] १. कथनीय। २. निंदनीय (को०)।
⋙ वचनीय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] निंदा। शिकायत।
⋙ वचनोपक्रम
संज्ञा ह्ल [सं०] वाक्य का आरंभ [को०]।
⋙ वचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुक्कुट। २. शठ।
⋙ वचलु
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुश्मन। शत्रु। २. दुष्ट व्यक्ति [को०]।
⋙ वचस (१)
वि० [सं०] १. कुशल। चतुर। २. वाचाल [को०]।
⋙ वचसांपति
संज्ञा पुं० [सं० वचसाम्पति] बृहस्पति [को०]।
⋙ वचसा
अब्य० [सं०] वचन द्वारा। कथन द्वारा [को०]।
⋙ वचस्कर
वि० [सं०] १. आज्ञाकारी। २. बोलनेवाला [को०]।
⋙ वचस्वी
वि० [सं० वचस्विन्] बोलने में पटु। प्रवक्ता।
⋙ वचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वच नाम की ओषधि। विशेष दे० 'बच'। २. सारिका पक्षी। मैना।
⋙ वचार
संज्ञा पुं० [?] दे० 'विचार'। उ०—वाँहे सुंदरि बहरखा, चासू चुड़स वचार। मनुहरि कटि थल मेखला, पग झाँझर झणकार।—ढोला०, दू० ४८१।
⋙ वचोग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ण। कान [को०]।
⋙ वचोहर
संज्ञा पुं० [सं०] दूत। संदेशवाहक [को०]।
⋙ वच्छ पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वक्षस्, प्रा० वच्छ] उर। छाती।
⋙ वच्छ (२)
संज्ञा पुं० [सं० वत्स, प्रा० वच्छ] दे० 'वत्स'।
⋙ वजग
संज्ञा पुं० [सं० वजग] दे० 'वजगा' [को०]।
⋙ वजगा
संज्ञा पुं० [अ० वजगह्] १. मंडूक। मेढक। २. गृहगोधा। छिपकिली। ३. गिरगिट। कृकलास [को०]।
⋙ वजन
संज्ञा पुं० [अ० वजन] १. भार। बोझ। २. तौल। ३. तौलने की क्रिया। ४. मान। मर्यादा। गौरव। क्रि० प्र०—करना।—रखना। यौ०—वजनदार=दे० 'वजनी'।
⋙ वजनी
वि० [अ० वजन+ई] १. जिसका बहुत बोझ हो। भारी। २. जिसका कुछ असर हो। मानने योग्य।
⋙ वजर पु † (१)
संज्ञा, पुं० [सं० वज्र] दे० 'वज्र'। उ०—एक अनेकाँ सूँ हिचै, छाती वजर कपाट।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ५। यौ०—वजरकपाट=वज्र के समान दरवाजा।
⋙ वजर (२)
संज्ञा पुं० [अ०] भय। डर। खौफ [को०]।
⋙ वजह
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कारण। हेतु। २. प्रकृति। ३. तत्व। ४. मुखाकृति। चेहरा (को०)।
⋙ वजा
संज्ञा स्त्री० [अ० वजअ] १. संघटन। बनावट। रचना। २. चालढाल। सजधज। ३. रूप। आकृति। ४. दशा। अवस्था। ५. रीति। प्रणाली। तौर तरीका। उ०—हुनकी रहन सहन वजा अंदाज और कार्यों में०००००।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १७७। ६. मुजरा। मिनहा। कटती। ७. जनना। प्रसव (को०) ८. रखना (को०)। ९. सदैव एक समान रहना और यथायोग्य व्यवहार करना। (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ वजादार
वि० [अ० वजा+फा० दार] १. जिसकी बनावट या गठन आदि बहुत अच्छी हो। तरहदार। दर्शनीय। २. अपनी रीतिनीति पर कायम रहनेवाला। जो अपनी वजा का पाबंद हो (को०)।
⋙ वजादारी
संज्ञा स्त्री० [अ० वजा+फा० दारी] १. कपड़े वगैरह पहनने का सुंदर ढंग। फैशन। २. सजावट का उत्तम ढंग। ३. किसी प्रकार की मर्यादा आदि का भली भाँति निर्वाह। ३ उ०—प्रायः स्त्रियों के नाज व अंदाज के कारण नजाकतवजादारी से रहित न हो प्रचलित थी।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ५।
⋙ वजारत
संज्ञा स्त्री० [अ० वजा़रत] १. मंत्री, वजीर या अमात्य का पद। वजीरी। २. मंत्री या अमात्य का कार्य। ३. अमात्य का कार्यालय।
⋙ वजाहत (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. सुंदरता। भव्यता। चेहरे का रोब। उ०—कहते हैं जो था कोई सौदागर एक। वजाहन मन पाक सीरत में नेक।—दक्खिनी०, पृ० ७। २. प्रतिष्ठा। महत्व। बड़प्पन।
⋙ वजाहत (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० वजाहत] १. स्पष्टता। विवरण। २. विस्तार। फैलाव [को०]।
⋙ वजीफा
संज्ञा पुं० [अ० वज़् फह्] १. वृत्ति। उ०—याद करना हर घड़ी तुझ यार का। है वजीफा मुझ दिले बीमार था।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ६। २. वह वृत्ति या आर्थिक सहायता जो विद्धानों, छात्रों, संन्यासियों, दीनों या बिगड़े हुए रईसों आदि को दी जाती है। ३. निवृत्ति वेतन। पेनशन (को०)। ४. वह जप या पाठ जो नियमपूर्वक प्रतिदिन किया जाता है। (मुसलमान)। उ०—प्रातःकाल नमाज नजीफा पढ़िकै चट पट।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २०। क्रि० प्र०—पढ़ना।
⋙ वजीफादार
वि० [अ० वज़ीफ़ह्+फा़० दार] वजीका पानेवाला।
⋙ वजीर
संज्ञा पुं० [अ० वजी़र] १, वह जो बादशाह को रियासत के प्रबंध में सलाह या सहायता दे। मंत्री। अमात्य। दीवान। २. शतरंज की एक गोटी। विशेष—यह बादशाह से छोटी और शेष सब मोहरों से बड़ी होती है। यह गोटी आगे, पीछे, दाहिने, बाँए और तिरछे जिधर चाहे, उधर और जितने घर चाहे, उतने घर चल सकती है। यौ०—वजीरे आजम=प्रधान मंत्री। वजीरे इंसाफ=न्यायमत्री। वजीरे खारिजा=परराष्ट्रमंत्री, वजोरे गिजा=खाद्यमंत्री। वजीरे जंग=युद्धमंत्री। वजीरे तालीम=शिक्षामंत्री। वजीरे दाखिला=गृहमंत्री। वजीरे माल=अर्थमंत्री।
⋙ वजीरा (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० वजीरी] वजीर का काम या पद।
⋙ वजीरी (२)
संज्ञा पुं० १. सरहदी पठानों का एक वर्ग या कबीला। २. घोड़ों की एक जाति जो बलुचिस्तान में पाई जाती है। विशेष—इस जाति के घोड़े बड़े परिश्रमी और दौड़ने में बहुत तेज होते हैं। इनके कंधे ऊँचे और पुट्ठ चौड़े होते हैं।
⋙ वजीह
वि० [अ०] द्दढ़। मजबूत [को०]।
⋙ वजीहा
वि० [अ० वजीहह्] १. सुंदर। भव्य। रोबदार। २. सामान्य। विशिष्ट [को०]।
⋙ वजू
संज्ञा पुं० [अ० वुज़ू] नमाज पढ़ने के पुर्व शौच के लिये हाथ पाँव आदि धोना। उ०—का भो वजू व मज्जन कीन्हें का मसजिद सिर नाएँ। हृदया कपट निमाज गुजारै का भो मक्का जाएँ। कबीर (शब्द०)। विशेष—मुसलमानों का नियम है कि नमाज पढ़ने के पूर्व वे पहले तीन बार हाथ धोते, फिर तीन बार कुल्ली करके नथनों में पानी देते हैं। फिर मुँह धोकर कुहनियों तक हाथ धोते हैं, और सिर पर पानी लगे हाथ फेरते हैं। अंत में पाँव धोते हैं। इसी आचार का नाम वजू है। क्रि० प्र०—करना।
⋙ वजूद
संज्ञा पुं० [अ०] १. सत्ता। स्थिति। अस्तित्व। उ०—नाहीं खबर वजूद की मैं फकीर दिवाना।—मलूक० बानी, पृ० ७। २. शरीर। देह। उ०—वजूद खजाना अलह का, जर अंदर अरि वाहि। रज्जब पीर खजानची, दसत न सकई बाहि।—रज्जब०, पृ० १८। ३. सृष्ट। ४. प्रकट या घटित होना। अभिव्यक्ति। मुहा०—वजूद पकड़ना=प्रकट होना। अस्तित्व में आना। वजूद में आना=उत्पन्न होना। प्रकट होना। वजूद में लाना= उत्पन्न करना।
⋙ वजूहात
संज्ञा स्त्री० [अ० वजूह का बहु० रूप] कारणों का समूह। विशेष—यह बहुवचन शब्द है, और इसका प्रयोग भी सदा बहुवचन में ही होता है।
⋙ वजेकता
संज्ञा पुं० [अ० वज़ए+कत्अ] बनावट। तर्ज। ढंग। उ०—ओर फकीराना मकान होने की शहादत अपनी वजेकता और तर्जे तामीर से ब जबाने हाल खुद ही दे रहा है।— सुंदर० ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० ५३।
⋙ वजेदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० वज्अदारी] दे० 'वजादारी'। उ०— पंडित पुरुषोत्तमदास ने बड़ी वजेदारी से कहा।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १७०।
⋙ वजोग ‡
संज्ञा पुं० [सं० वियोग] दे० 'वियोग'। उ०—किसन वजोग चारणाँ कारण गलियो जुजठल राव गत।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ११२।
⋙ वज्जित्त पु
संज्ञा, पुं० [सं० वादित्र] वादित्र। बाजा। उ०—वज्जित्त नृघोष अरि घोष पर, छोरि पंग दिष्षे सु हय।—पृ० रा०, २६। १४।
⋙ वज्द
संज्ञा पुं० [अ०] १. आनंदातिरेक में होनेवाली आत्मविस्मृति। २. काव्य या संगीत की रसानुभुतिजन्य तन्मयता। ३. आनंद की स्थिति में आपा भूला हुआ व्यक्ति [को०]।
⋙ वज्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार भाले के फल के समान एक शस्त्र जो इंद्र का प्रधान शस्त्र कहा गया है। विशेष—इसकी उत्पत्ति की कथा ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों में लिखी हुई है। ऋग्वेद में उल्लेख है कि दधीचि ऋषि की हड्डी से इंद्र ने राक्षसों का ध्वस किया। ऐतरेय ब्राह्मण में इसका इस प्रकार विवरण है। दधीचि जब तक जीते थे, तब तक असुर उन्हें देखकर भाग जाते थे पर जब वे मर गए, तब असुरों ने उत्पात मचाना आरंभ किया। इंद्र दधीचि ऋषि की खोज में पुष्कर गए। वहाँ पता चला कि दधीचि का देहावसान हो गया। इसपर इंद्र उनकी हड्डी ढूँढने लगे। पुष्कर क्षेत्र मेंसिर की हड्डी मिली। उसी का वज्र बनाकर इंद्र ने असुरों का संहार किया। भागवत में लिखा है कि इंद्र ने वृत्रासुर का वध करने के लिये दधीचि की हड्डी से वज्र बनवाया था। मत्स्य- पुराण के अनुसार जब विश्वरकर्मा ने सूर्य को भ्रमयंत्र (खराद) पर चढ़ाकर खरादा था, तब छिलकर जो तेज निकला था, उसी से विष्णु का चक्र, रुद्र का शूल और इंद्र का वज्र बना था। वामनपुराण में लिखा है कि इंद्र जब दिति के गर्भ में घुस गए थे, तब वहाँ उन्हें बालक के पास ही एक मांसपिंड मिला था। इंद्र ने जब उसे हाथ में लेकर दबाया, तब वह लंबा हो गया और उसमें सौ गाँठें दिखाई पड़ीं। वही पीछे कठिन होकर वज्र बन गया। इसी प्रकार और और पुराणों में भी भिन्न भिन्न कथाएँ हैं। पर्या०—ह्लादिनी। कुलिश। भिदुर। पवि। शतकोटि। स्वरु। शब। दंभोलि। अशनि। स्वरुम्। जंभारि। शतार। शतधार। आपोत्र। अक्षज। गिरिकंटक। गो। अभ्रोत्य। दंभ, इत्यादि। वैदिक निघंटु के अनुसार—विद्युत्। नेमि। हेति। नम। पवि। सृक्। वृक। वच। अर्क। कुत्स। कुलिश। तुज। तिग्म। मेनि। स्वाधिति। सायक परशु। २. विद्युत्। बिजली। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना। मुहा०—वज्र पड़े=दैव से भारी दंड मिले। सत्यनाश हो। (स्त्रियाँ)। ३. हीरा—उ०—मुझे बड़ी दयापूर्वक एक अमोल वज्र की अँगूठी केवल स्मरणार्थ दे गए थे।—श्यामा०, पृ० १२७। ४. एक प्रकार का लोहा। फौलाद। विशेष—वैद्यक के ग्रंथों में वज्रलौह के अनेक भेद कहे गए हैं। यथा—नीलपिंड, अरुणाभ, मोरक, नागकेसर, तित्तिरांग, स्वर्णवज्र, शैवालवज्र, शेणवज्र, रोहिणी, कांकोल, ग्रंथिवज्रक, और मदन। ५. माला। बरछा। उ०—हरन रुक्मिनी होत है, दुहूँ ओर भईं भीर। अति अघात, कछु नाहिंन सूझत, वज्र, चलहिं ज्यों नीर। सूर० (शब्द०)। ६. ज्योतिष में २२ व्यतीपात योगों में से एक। ७. वास्तुविद्या के अनुसार वह स्तंभ (खंभा) जिसका मध्य भाग अष्टकोण हो। ८. विष्णु के चरण का एक चिह्न। ९. अभ्रक। १०. कोलिलाक्ष वृक्ष। ११. श्वेत कुश। १२. काँजी। १३. वज्रपुष्प। १४. धात्री। १५. थूहर का पेड़। सेहूंड। १६. कृष्ण के एकक प्रपौत्र जो अनिरुद्ध के पुत्र थे। १७. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम। १८. बौद्ध मत में चक्राकार चिह्न। १९. बालक। शिशु (को०)। २०. आसन की एक मुद्रा या स्थिति। बैठने का एक प्रकार (को०)। २१. एक प्रकार का सैनिक व्यूह (को०)। २२. रत्न, मणि आदि छेदने का एक औजार (को०)। २३. वज्रवत् कठोर एवं घातक अस्त्र (को०)। २४. कठोर भाषा। वज्र की तरह कठोर भाषा (को०)। २५. अकलबीर नाम का पौधा।
⋙ वज्र (२)
वि० १. वज्र के समान कठिन। बहुत कड़ा या मजबूत। अत्यंत द्दढ़ और पुष्ट। जैसे,—यह मसाला जब सूखेगा, तब वज्र हो जायगा। २. घोर। दारुण। भीषण। ३. वज्र अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दहि कै भइ छारा।— जायसी (शब्द०)। ३. जिसमें अनी या शल्य हो। अनीदार। काँटेदार।
⋙ वज्रकंकट
संज्ञा पुं० [सं० वज्रकङ्कट] हनुमान का एक नाम।
⋙ वज्रकंटक
संज्ञा पुं० [सं० वज्रकण्टक] स्नुही वृक्ष। थूहर। सेंहुड़। २. कोकिलाक्ष वृक्ष।
⋙ वज्रकंटशाल्मली
संज्ञा पुं० [सं० वज्रकण्टशाल्मली] भागवत पुराण के अनुसार अठ्ठाईस नरकों में से एक नरक का नाम।
⋙ वज्रकंद
संज्ञा पुं० [सं० वज्रकन्द] १. जंगली सूरन या जिमीकंद। २. शकरकंद। कंदा। ३. ताल के वृक्ष का फूल।
⋙ वज्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वज्रक्षार। २. फालत ज्योतिष के अनुसार सूये के आठ उपग्रहों में से एक, जो सूर्य से तेईसवाँ नक्षत्र होता है। ३. एक प्रकार का तेल (को०)। ४. हीरा (को०)।
⋙ वज्रकपाली
संज्ञा पुं० [सं० वज्रकपालिन्] बौद्धों की महायान शाखा क अनुसार एक बुद्ध का नाम।
⋙ वज्रकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वज्रकंद' [को०]।
⋙ वज्रकषण
संज्ञा पुं० [सं०] इद्र [को०]।
⋙ वज्रकवच
संज्ञा पुं० [सं०] १. समाध का एक भेद। एक प्रकार का समाधि। २. वह कवच जिसे काटा न जा सके। वज्र क समान दुर्भेद्य कवच [को०]।
⋙ वज्रकारक
सज्ञा सं० [सं०] नख नामक सुगांधत द्रव्य।
⋙ वज्रकालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्ध की माता मायादेवी का नाम।
⋙ वज्रकाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैना की एक शक्ति [को०]।
⋙ वज्रकीट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कीड़ा जो पत्थर या काठ को काटकर उसमें छेद कर देता है। विशेष—कहते हैं, गंडक नदी में इन कीटों के द्वारा काटी हुई शिला ही शालग्राम की बटिया बन जाती है।
⋙ वज्रकील
संज्ञा पुं० [सं०] सौदामिनी। तड़ित्। बिजली [को०]।
⋙ वज्रकुच
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि।
⋙ वज्रकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक पर्वत का नाम। २. हिमालय की चोटी पर का एक प्राचीन नगर।
⋙ वज्रकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कंडेयपुराण के अनुसार एक राक्षस जो नरक का राजा था। नरकासुर।
⋙ वज्रक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक रसायन योग जिसका व्यवहार गुल्म, शूल, अजीर्ण, शोथ तथा मंदाग्नि आदि उदर रोगों में होता है। विशेष—साँभर, सैधव, काच और सौवर्चल लवण तथा जवाखार और सज्जी सम भाग लेकर चूर्णं करते हैं; और उसको थूहर के दूध में भिगोकर तीन दिन तक छाया में सुखाते हैं। इसके उपरांत उस चूर्ण को आक (मदार) के पत्तों में लपेटकरएक धड़े में गजपुट द्वार फूँकते हैं। जब वह भस्म हो जाता है, तब उसमें सोंठ, मिर्च पीपल, त्रिफला, अजवायन, जीरा और चित्रक (चीता) का चूर्ण उतना ही मिलाकर खरल कर लेते हैं और दो टंक मात्रा में सेवन कराते हैं। इसका अनुपान उष्ण जल, गोमूत्र, धी या काँजी है।
⋙ वज्रगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों की महायान शाखा के अनुसार एक वोधिसत्व का नाम।
⋙ वज्रगोप
संज्ञा पुं० [सं०] बीरबहूटी नाम का कीड़ा। इंद्रगोप।
⋙ वज्रघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. वज्र की चोट। २. वह चोट जो वज्र की चोट के समान भयकर हो [को०]।
⋙ वज्रघोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिजली की कड़क। २. बिजली की कड़क के समान भीषण ध्वनि [को०]।
⋙ वज्रचंचु
संज्ञा पुं० [सं० वज्रचञ्चु] गृद्ध [को०]।
⋙ वज्रचर्मा
संज्ञा पुं० [सं० वज्रचर्मन्] गैडा।
⋙ वज्रजित्
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ का एक नाम [को०]।
⋙ वज्रज्वाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरोचन दैत्य की पोत्री का नाम। २. कुंभकर्ण की पत्नी। ३. बिजली जी अग्रि [को०]।
⋙ वज्रटीक
संज्ञा पुं० [सं०] वज्रकपाली बुद्ध का एक नाम [को०]।
⋙ वज्रडाकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महायान शाखा के तांत्रिक बौद्धों की उपास्य डाकिनियों का एक वर्ग। विशेष—इस वर्ग के अंतर्गत ये आठ डाकिनियाँ मानी जाती हैं,— लास्या, माला, गीता, नृत्या, पुष्पा, धूपा, दीपा और गंधा। इनकी पूजा तिब्बत में होती है।
⋙ वज्रतर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृहत्संहिता के अनुसार एक प्रकार का जोड़ने या पलस्तर करने का मसाला। वज्रलेप [को०]।
⋙ वज्रतुंड
संज्ञा पुं० [सं० वज्रतुणड] १. गरुड़। २. गणेश। २. गीध। ४. मशक। मच्छड़। ५. थूहर। सेहुँड़।
⋙ वज्रतुल्य
संज्ञा पुं० [सं०] नीलम [को०]।
⋙ वज्रदंड
संज्ञा पुं० [स० बज्रदण्ड] एक अस्त्र का नाम जिसे इंद्र ने अर्जुन को प्रदान किया था।
⋙ वज्रदंत
संज्ञा पुं० [सं० वज्रदन्त] १. चूहा। २. सूअर।
⋙ वज्रदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० वज्रदन्ती] एक पकार का पेड़ या पौधा। विशेष—इसकी दतुवन अच्छी होती है और वैद्यक में इसकी जड़ वमनकारक कही गई है।
⋙ वज्रदंष्ट्र
देश० पुं० [सं०] १. इंद्रगोप नाम का कीड़ा। बीरबहुटी। २. भागवत के अनुसार एक असुर का नाम।
⋙ वज्रदक्षिण
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम [को०]।
⋙ वज्रदशन
संज्ञा पुं० [सं०] चूहा [को०]।
⋙ वज्रदेह
वि० [सं०] वज्र के समान कठीर शरीरवाला [को०]।
⋙ वजदेहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम।
⋙ वज्रदुम
संज्ञा पुं० [सं०] थूहर का वृक्ष। स्तुही। सेहुँड़।
⋙ वज्रधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. बौद्धों की महायान शाखा के अनुसार आदि बुद्ध। विशेष—तिब्बत के तांत्रिक बौद्ध मतानुसार ये प्रधान बुद्ध, प्रधान जिन, गुह्मपति तथा सब तथागतों के प्रधान मंत्री आदि अनंत और वज्रसत्व हैं। अपदेवताओं ने उनसे हार मानकर प्रतिज्ञा की थी कि बौद्ध धर्म के विरुद्ध कभी प्रयत्न न करेंगे। ३. उल्लू। उलूक।
⋙ वज्रधात्वीश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक देवी जिसकी उपासना तांत्रिक करते हैं। २. वैरोचन की पत्नी [को०]।
⋙ वज्रधार
वि० [सं०] जिसका धार हीरे की तरह कठिन होता है [को०]।
⋙ वज्रधारण
संज्ञा पुं० [सं०] नकली सोना। कुत्रिन कोना [को०]।
⋙ वज्रनख
संज्ञा पुं० [सं०] नृसिंह।
⋙ वज्रनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्कंद के एक अनुचर का नाम। २. एक दानवराज। ३. राजा उक्थ के पुत्र का नाम। ४. विष्णु के चक्र का नाम को (को०)।
⋙ वज्रनिर्घोष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वज्रघोष'।
⋙ वज्रपरीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हीरे की परख [को०]।
⋙ वज्रपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. ब्राह्मण। ३. बौद्धशास्त्रा- नुसार एक प्रकार की देवयोनि। ४. एक बोधिसत्व। ध्यानी बोधिसत्व। ५. उलूक। उल्लू (को०)।
⋙ वज्रपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिजली का गिरना। २. भारी बिपत्ति का आना [को०]।
⋙ वज्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिल का फूल। २. एक विशिष्ट गुणवान कीमती पुष्प [को०]।
⋙ वज्रपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतपुष्पा [को०]।
⋙ यज्रप्रभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक विद्याधर का नाम।
⋙ वज्रबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. रुद्र। ३. अग्नि।
⋙ वज्रबीजक
संज्ञा पुं० [सं०] लता [को०]।
⋙ वज्रभृकुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्धों के अनुसार तंत्र की एक देवी जिसकी उपासाना तांत्रिक करते हैं [को०]।
⋙ वज्रभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र [को०]।
⋙ वज्रभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] महायान शाखा के बौद्धों के एक देवता, जिन्हें भूटान में 'यमांतक शिव' कहते हैं। इनके अनेक मुख और हाथ माने जाते हैं।
⋙ वज्रमणि
संज्ञा पुं० [सं०] हीरा।
⋙ वज्रमय
वि० [सं०] १. कठोर। कठिन। २. क्रूर हृदय। कठिन हृदयवाला [को०]।
⋙ वज्रमति
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व [को०]।
⋙ वज्रमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कीड़ा। वज्रकीट। २. एक प्रकार की समाधि [को०]।
⋙ वज्रमुष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. एक राक्षस का नाम। ३. जंगली सूरन। ४. वीर। क्षत्रिय। योद्धा (को०)। ५. एक अस्त्र(को०)। ६. वज्र के समान हाथ की बँधी हुई मुट्ठी (को०)। ७. तीर चलाने के समय हाथ की मुद्रा (को०)।
⋙ वज्रमूली
संज्ञा स्त्री० [सं०] माषपर्णी।
⋙ वज्रयान
संज्ञा पुं० [सं०, प्रा० वज्जजाण] वह बौद्ध मत जिसपर तंत्र का बहुत अधिक प्रभाव था। उ०—उस काल की रचना के नमूने बौद्धों की वज्रयान शाखा के सिद्धों की कृतियों के बीच मिले हैं।—इतिहास, पृ० ६।
⋙ वज्रयोगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्रानुसार एक देवी। इसे वरदयोगिनी भी कहते हैं।
⋙ वज्ररथ
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रिय।
⋙ वज्ररद
संज्ञा पुं० [सं०] सूकर [को०]।
⋙ वज्रलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] लिखने की एक विशेष रीति [को०]।
⋙ वज्रलेप
संज्ञा पुं० [सं०] एक मसाला या पलस्तर जिसका लेप करने से दीवार, मुर्ति आदि अत्यंत द्दढ़ और मजबूत हो जाती हैं। विशेष—यह दो तरह से बनता है। एक में तो तेंदू और कैथ के कच्चे फल, सेमल के फूल, शल्लकी (सलई) के बीज, धन्वन की छाल और बच को लेकर एक द्रोण पानी में उबालते हैं। जब जलकर आठवाँ भाग रह जाता है, तब उसे उतारकर उसमें गंधाबिरोजा, बोल, गूगल, भिलावाँ, कुंदुरु, गोंद, राल, अलसी और बेल का गूदा घोटकर मिलाते हैं। दूसरा मसाला इस प्रकार है—लाख, कुंदुरु, गोंद, बेल का गूदा, गँगेरन का फल, तेंदू का फल, महूए का फल, मजीठ, राल, बोल और आँवला इन सबको द्रोण भर पानी में उबालते हैं। जब अष्टमांश रह जाता है, तब काम में लाते हैं।
⋙ वज्रलोहक
संज्ञा पुं० [सं०] चुंबक [को०]।
⋙ वज्रवध
संज्ञा पुं० [सं०] १. अशनिपात जन्य मृत्यु। वज्रपात से हुई मौत। २. वज्र के समान कठोर आघात [को०]।
⋙ वज्रवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] अस्थिसंहार नाम की लता [को०]।
⋙ वज्रवारक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार जैमिनि, सुमंत, वैशंपायन, पुलरत्य, और पुलह नामक पाँच ऋषि, जिनका नाम लेने से वज्रपात का भय नहीं रहता।
⋙ वज्रवाराही
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बौद्धों के एक जेवी का नाम। पर्या०—मारीची। त्रिमुखी। वज्रकालिका। विकटा। गौरी। २. बुद्ध की माता मायादेवी का नाम।
⋙ वज्रविष्कंभ
संज्ञा पुं० [सं० वज्रविष्कम्भ] गरुड़ के एक पुत्र का नाम।
⋙ वज्रवीर
संज्ञा पुं० [सं०] महाकाल रुद्र का एक नाम।
⋙ वज्रवृज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] सेहुँड़ [को०]।
⋙ वज्रवेग
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राक्षस का नाम। २. एक विद्याधर का नाम।
⋙ वज्रव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की सेना की रचना, जो दुधारे ख़ड्ग के आकार में स्थित की जाती थी।
⋙ वज्रशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] साही नाम का वन्य जंतु। शल्यक [को०]।
⋙ वज्रशाखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन मत के एक संप्रदाय का नाम जिसे वज्रस्वामी वे चलाया था।
⋙ वज्रश्रृखला
संज्ञा स्त्री० [सं० वज्रश्रृङ्खला] जैन मतानुसार सोलह महाविद्याओं में से एक।
⋙ वज्रसंघात
संज्ञा पुं० [सं० वज्रसङ्घात] १. भीमसेन। २. पत्थर जोड़ने का एक मसाला जिसमें आठ भाग सीमा, दो भाग काँसा और एक भाग पीतल होता था। इससे पत्थर की जोड़ाई की जाती थी।
⋙ वज्रसंहत
संज्ञा पुं० [सं०] ललितविस्तर के अनुसार एक बुद्ध का नाम।
⋙ वज्रसत्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक ध्यानी बुद्ध का नाम।
⋙ वज्रसमाधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्ध धर्म के अनुसार एक प्रकार की समाधि।
⋙ वज्रसार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हीरा।
⋙ वज्रसार (२)
वि० अत्यंत कठोर [को०]।
⋙ वज्रसूची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह सुई जिसकी नोक पर हीरा लगा ही। २. एक उपनिषद। ३. अश्वघोषप्रणीत एक ग्रंथ [को०]।
⋙ वज्रबुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम।
⋙ वज्रसेन
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम [को०]।
⋙ वज्रहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र। २. अग्नि (को०)। ३. मरुत (को०)। ४. शिव (को०)।
⋙ वज्रहृदय
वि० [सं०] कठोर। क्रूर।
⋙ वज्रांक
वि० [सं० वज्राङ्क] हीरा जड़ा हुआ [को०]।
⋙ वज्रांग
संज्ञा पुं० [सं० वज्राङ्ग] १. सर्प। साँप। २. हनुमान। उ०—जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव। वज्रांग तेज घन बना पवन को।—अनामिका, पृ० १५३।
⋙ वज्रांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० वज्राङ्गी] १. गवेधुक। कौड़िल्ला। २. हड़- जोड़ नाम की लता जो चोट लगने पर लगाई जाती है।
⋙ वज्राबुजा
संज्ञा स्त्री० [सं० वज्राम्बुजा] बौद्धों की एक देवी का नाम। [को०]।
⋙ वज्रांशु
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण के एक पुत्र का नाम [को०]।
⋙ वज्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्नुही। थूहर। २. गुड़च। ३. दुर्गा।
⋙ वज्राकर
वि० पुं० [सं०] हीरे की खान [को०]।
⋙ वज्राकार
वि० [सं०] १. वज्र के समान। वज्र जैसा। २. वज्र के आकार का [को०]।
⋙ वज्राक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेहुड़ नाम का कँटीला पौधा [को०]।
⋙ वज्राख्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक रत्न। एक मूल्यवान् पत्थर। [को०]।
⋙ वज्राग
संज्ञा स्त्री० [सं० वज्राग्नि] वज्र की आग। उ०—राठौड़ा उण वार रा जोस पराक्रम जोर। की बड़वाग वज्राग की सिंघन आगन सोर—रा० रू०। ७८।
⋙ वज्रागि
संज्ञा स्त्री० [सं० वज्राग्नि] वज्र की ज्वाला। बिजली की आग। उ०—परि है वज्रागि ताकै ऊपर अचानचक्र धूरि उड़ि जाइ कहूँ ठौहर न पाइ है।—सूंदर ग्रं; भा० २, पृ० ५००।
⋙ वज्राघात
संज्ञा पुं० [सं०] वज्र की चोट। बिजली का आघात [को०]।
⋙ वज्राचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] नैपाली बौद्धों के अनुसार तांत्रिक बौद्ध आचार्य जिसे तिब्बत में लामा कहते हैं। विशेष—यह बौद्ध आचार्य गृहस्थ होता है और अपने पुत्र कलत्र के साथ विहार में रह सकता है। नेपाल और तिब्बत में ऐसे आचार्यों का बड़ा मान है।
⋙ वज्राभ
संज्ञा पुं० [सं०] दुग्ध पाषाण। स्फटिक मृत्तिका। एक मूल्य- वान् पत्थर [को०]।
⋙ वज्राभिषवन
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का अनुष्टान जिसमें तीन दिन तक जौ का सतू पीकर रहते थे।
⋙ वज्राभ्र
संज्ञा [सं०] एक प्रकार का अभ्रक जो काले रंग का होता है।
⋙ वज्रायुध
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ वज्रावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक मेघ का नाम। उ०—सुनत मेघवर्तक सजि सैन लै आए। जलवर्त, वारिवर्त, पवनवतं, वज्रावर्त, आगिवर्तक जलद संग लाए।—सूर। (शब्द०)।
⋙ वज्राशनि
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रात्मा। वज्र [को०]।
⋙ वज्रासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हठ योग के चौरासी आसनों में से एक जिसमें गुदा और लिग के मध्य के स्थान को बाएँ पैर की एड़ी से दबाकर उसके ऊपर दाहिना पैर रखकर पालथी लगाकर बैठते है। २. वह शिला जिसपर बैठकर बुद्धदेव ने बुद्धत्व लाभ किया था। यह गया जी में बोधिद्रुम के नीचे थी।
⋙ वज्रास्थि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेहुँड़ [को०]।
⋙ वज्रास्थिशृंखला
संज्ञा स्त्री० [सं० वज्रास्थिश्रृङ्खला] तालमखाना। कोकिलाक्ष [को०]।
⋙ वज्रिजित्
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़।
⋙ वज्री (१)
संज्ञा पुं० [सं० वज्रिन्] १. इंद्र। २. एक प्रकार की ईंट। ३. वह जो वज्र से युक्त हो (को०)। ४. उल्लू (को०)। ५. बौद्ध भिक्षु [को०]।
⋙ वज्रो (२)
संज्ञा स्त्री० १. थूहर। स्नुही। २. तिधारा। नरसेज।
⋙ वज्रश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बौद्धों की एक देवी। २. एक तांत्रिक अनुष्ठान जिसे वज्रवाहनिका भी कहते हैं। विशेष—इसमें वज्र बनाकर मंत्रों द्वारा अभिषेक करते हैं और उसपर सोने से मंत्र लिखते हैं। इसके उपरांत उस वज्र को किसी जितोंद्रिय पुरुष के हाथ में दे देते हैं और लाख बार मंत्र जाप करके वज्रकुंड में हवन करते हैं। इस प्रयोग से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।
⋙ वज्रोद्ग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि [को०]।
⋙ वज्रोली
संज्ञा [सं० या हि० वज्र+ओली] हठयोग की एक मुद्रा का नाम।
⋙ वट
संज्ञा पुं० [सं०] १. बरगद का पेड़। उ०—लेकर वट का दूध जटा प्रभु ने रची, अब सुमंत्र के लिये न कुछ आशा बची। साकेत, पृ० १२६। २. गोली वस्तु। गेंद। गोल (को०)। ३. एक खाद्य। वड़ा या पकौड़ा (को०)। ४. साम्य। एकरूपता (को०)। ५. शृंखला। लड़ी या डोरी (को०)। ६. एक पक्षी (को०)। ७. कौड़ी। कपर्दक (को०)। ८. गंवक (को०)। ९. शून्य। सिफर (को०)। १०. शतरंज का प्यादा (को०)।
⋙ वटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ी टिकिया या गोला। बट्टा। २. बड़ा। पकौड़ा। ३. एक तौल जो आठ माशे की होती है और सोना तौलने के काम में आती थी। इसे क्षुद्रम, प्रक्षण और कोक भी कहते थे। यह १०. गुजा या शोण के बराबर कही गई है,— १० गुंजा =१ माशा, ४ माशा=१ शोण, २ शोण=१ वटक।
⋙ वटका
संज्ञा पुं० [देश०] टुकड़ा। उ०—दोह घटका खिरै बंट वटका दुवै, आध जगनाथ राजाण अटका हुवै।—रघु० रू०, पृ० १८४।
⋙ वटच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] शवेत बर्बरा। सफेद बनतुलसी।
⋙ वटपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'वटच्छद' २. वट का पत्ता [को०]।
⋙ वटपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृत्तमल्लिका नामक फूल का पौधा।
⋙ वटपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाखानभेद। पथरफोड़।
⋙ वटर (१)
वि० [सं०] दुष्ट। खल। शठ [को०]।
⋙ वटर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोर। २. बटेर नामक पक्षी। ३. पगड़ी। ४. बिस्तर। चटाई। ५. मथानी। ६. एक सुगंधित घास (को०)। ७. मुर्गा (को०)।
⋙ वटवासी
संज्ञा पुं० [सं० वटवासिन्] यक्ष [को०]।
⋙ वटसावित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक व्रत का नाम जिसमें स्त्रियाँ वट का पूजन करती हैं। दे० 'बरसायत'।
⋙ वटाकर, वटारक
संज्ञा पुं० [सं०] रज्जु। रस्सी।
⋙ वटावीक
संज्ञा पुं० [सं०] छझतापस। दांभिक [को०]।
⋙ वटाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर का एक नाम [को०]।
⋙ वटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कृमि। कीट। २. चिउँटी। चींटी। ३. दे० 'वटिका' [को०]।
⋙ वटिक
संज्ञा पुं० [सं०] शतरंज का प्यादा या मोहरा [को०]।
⋙ वटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोली। वटी। २. शतरंज का मोहरा। वटिक (को०)। ३. एक खाद्य पदार्थ जो चावल और उड़द के मिश्रण से बनता है (को०)।
⋙ वटी (१)
वि० [सं० वटिन्] जिसमें डोरी या सिकड़ी लगी हो। वर्तुल या गोलाकार [को०]।
⋙ वटी (२)
संज्ञा पुं० शतरंज की गोटी। वटिक [को०]।
⋙ वटी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोली या टिकिया। बटी। २. रस्सी। सिकड़ी। रज्जु (को०)।
⋙ वटु
संज्ञा पुं० [सं०] १. बालक। २. ब्रह्मचारी। माणवक।
⋙ वटुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बालक। २. माणवक। ब्रह्मचारी।३. एक भैरव। बटुकभैरव। ४. मूर्ख। अज्ञ (लाक्ष०)।
⋙ वटुरी
वि० [सं० वटुरिन्] चौड़ा। विस्तृत। फैलावदार [को०]।
⋙ वटेस्वर
संज्ञा पुं० [सं० वटेश्वर] शिव। महादेव। उ०—पुज्जि वटेश्वर मल्ल सौं परौ सरसव जाय।—प० रासो, पृ० ६१।
⋙ वटोदका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भागवत के अनुसार एक नदी जो पवित्र मानी जाती है।
⋙ वटोरना पु †
क्रि० स० [सं० वर्तुल + करण] दे० 'बटोरना'। उ०— परम ब्रह्म परमत्थ बुज्झइ, वित्ते वटोरइ कित्ति।—कीर्ति०, पृ० ८।
⋙ वट्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्म, प्रा० वट्ट] बाट। मार्ग। रास्ता।
⋙ वट्ट (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. प्याला। कटोरा। (तुल० गुज० वाटको)। २. हानि। नुकसान (तुला० गुज० बट्टो, हिं० बट्टा)। ३. बट्टा। लोढ़ा [को०]।
⋙ वट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] गोली। वटिका [को०]।
⋙ वट्टा
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्मन्, प्रा० वट्टअ] रास्ता। बाट। पथ।
⋙ वठर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंवष्ठ नामक एक वर्णसंकर जाति। २० २. शब्दकार। ३० चिकित्सक। हकीम (को०)। ४. जल- पात्र (को०)।
⋙ वठर (२)
वि० १. मूर्ख।२. शठ। ३. मंद।
⋙ वडफर ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] ढाल। उ०—अति खीजे सुण सुण असुर, जण जण छीजे प्राण। अबदल खाँ पढियौ अकस, कस वडफर केवाँश।—रा० रू०, पृ० २२९।
⋙ वड्ब
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वड्वा] घोड़ा।
⋙ वडबा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वडवा' [को०]।
⋙ वडभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चिड़िया [को०]।
⋙ वडभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह शाला या घर जो किसी प्रासाद के शिखर पर हो। गृहचूड़ा। धौरहर। धरहरा। पर्या०—गोपानसी। चंद्रशाला। कूटागार। वलभी।
⋙ वडवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बड़वा (१)' [को०]।
⋙ वडवाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बड़वाग्नि'।
⋙ वडवाभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० वडवाभर्तृ] इंद्र का अश्व जिसका नाम उच्चैः श्रवा है [को०]।
⋙ वडवामुख
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बड़वाग्नि। २ . शिव। ३ . एक प्राचीन जनपद। ४ . एक पौराणिक समुद्र। दे० 'बड़वामुख' [को०]।
⋙ वडवासुत
संज्ञा पुं० [सं०] अश्विनीकुमार [को०]।
⋙ वडहंसिका, वडहंसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी। दे० 'बड़- हंसिका' [को०]।
⋙ वड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक पक्वान्न। दे० 'बड़ा'। २. छोटा गोला। वटिका [को०]।
⋙ वडिल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० वडिश [को०]।
⋙ वडिश
संज्ञा पुं० [सं०] १. बंसी जिसमें मछली फँसाई जाती है। कँटिया।२. चिकित्सकों का एक अस्त्र जिससे बे बेधते या नश्तर लगाते हैं। (वैद्यक)।
⋙ व़ड्ड
वि० [देशी या सं० वड्र] बड़ा। महान्।
⋙ वड्डिपन पु
संज्ञा पुं० [अप० वडुप्पण, हिं० बड़प्पन] बड़प्पन। बड़ाई। महत्ता। उ०—ता कुल केरा वड़्डिपन कहवा कवन उपाए।—कीर्ति०, पृ० १०।
⋙ वड्र
वि० [सं०] बड़ा। महान्। श्रेष्ठ [को०]।
⋙ वर्ण पु † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] धनुष। उ०—वण छेद सुजेह, कबाण वणी। फब ईस धकै फिर सेस फणी।—रा० रू०, पृ०३४।
⋙ वर्ण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शव्द। ध़्वनि। शोर [को०]।
⋙ वणिक्
देश० पुं० [सं०वणिज्] १. वह जो वाणिज्य के द्वारा अपनी जीविका का निर्वाह करता हो। रोजगार करनेवाला। २. वैश्य। बनिया। उ०—पर हुई गति और ही नृप चित्त की। सोचकर घटना वणिक् के वित्त की।—शकुं०, पृ० ४१। यौ०—वणिक्कटक=कणिक्सार्थ। वणिक्कर्म=सौदागरी। वणिक्- कर्मा।वणिक्क्रिया=वणिक्कर्म। सौदागरी। वणिक्पथ= दे० 'बणिक्पथ'। वणिक्सार्थ=व्यापारियों का काफिला। कारवाँ। वणिग्ग्राम=व्यापारियों का दल। वणिग्जन। वणि- ग्बंधु। वणिग्भाव=व्यापार। वणिग्वह। वणिग्वीथी=हाट। बाजार। वणिग्वृत्ति=वणिक् की जीविका। व्यापार।
⋙ वणिक्कर्मा
संज्ञा पुं० [सं० वणिक्कर्मन्] व्यापारी। सौदागर [को०]।
⋙ वणिग्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैश्य। बनिया। २. व्यापारी। सौदागर [को०]।
⋙ वणिग्बंधु
संज्ञा पुं० [सं० वणिग्बन्धु] नील का पौधा [को०]।
⋙ वणिग्वह
संज्ञा पुं० [सं०] क्रमेलक। ऊँट [को०]।
⋙ वणिग्वृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व्यापार। सौदागरी। २. लाभ की द्दष्टि से काम करना [को०]।
⋙ वणिज
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यापार। बनिज। २. व्यापारी। सौदागर।३. तुला राशि। ४. शिव का एक नाम। ५. ज्योतिष में एक करण [को०]।
⋙ वणिजक
संज्ञा पुं० [सं०] व्यापारी। सौदागर [को०]।
⋙ वणिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौदागरी। व्यापार [को०]।
⋙ वणिजार पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० वणिज + हिं० आर (प्रत्य०)] बन- जारा। व्यापारी। उ०—बहुले भाँति वणिजार हाट हिंडए जवे आवथि।—कीर्ति०, पृ० ३०।
⋙ वणिज्य
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री०वणिज्या] व्यापार। सौदागरी [को०]।
⋙ वतंड
संज्ञा पुं० [सं० वतण्ड] साधु। संत। महात्मा [को०]।
⋙ वतंस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अवतंस'।
⋙ वतंसित
वि० [सं०] अवतंसित। विभूषित [को०]।
⋙ वत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेद। २. अनुकंपा। ३. संतोष। ४. विस्मय। ५. आमंत्रण।
⋙ वत (२)
अव्य० [सं०] शब्दों एवं विचारों पर जोर देने के लिये प्रयुक्त शब्द। विशेष दे० 'बत'। विशेष—हिंदी में इसका प्रयोग नहीं मिलता है।
⋙ वतक
संज्ञा पुं० [देश० या गुज० वाडको] बत्तख के गर्दन के आकार की सुराही जिसमें शराब रखी जाती है। उ०—मतवाला री वतक ज्यऊँ, पिय नइँ परहरियाह।—ढोला०, दू० ४१८।
⋙ वतन
संज्ञा पुं० [अ०] १. निवासस्थान। वासस्थान। २. जन्म- भूमि। स्वदेश। यौ०—वजनपरस्ती=देशभक्ति।
⋙ वतनी
संज्ञा पुं० [अ० वतन] अपने देश का निवासी। उ०—एते जीव ज्याचे वतनी सो ऐसा राजा त्रिभुवन घनी।—दक्खिनी०, पृ० ३०।
⋙ वतास पु †
संज्ञा पुं० [सं० वातसह] दे० 'वातास'। उ०—काहु होअ अइसनो आस कउसे लागन आचर वतास।—कीर्ति०, पृ० ३६।
⋙ वतीरा
संज्ञा पुं० [अ०] १. ढंग। रीति। प्रथा। २. चाल ढाल। ३. लत। टेव। बान।
⋙ वतू (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग की एक नदी [को०]।
⋙ वतू (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सड़क। २. आँख का एक रोग [को०]।
⋙ वतोका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वध्या स्त्री। २. वह स्त्री या गाय जिसका गर्भ किसी दुर्घटना से गिर जाय [को०]।
⋙ वत्
अव्य० [सं०] समान। तुल्य। सद्दश। जैसे, पुत्रवत्। मित्रवत्।
⋙ वत्री †
संज्ञा स्त्री० [सं० वार्ता, प्रा० बत्तड़ी] दे० 'वार्ता'। उ०—दुगम पिनाक सहल तो दीसे विगत हमैं सुण वत्री। खंडे मैं वसुधा विण खत्री कीधो वार इकीसे।—रघु० रू०, पृ० ९०।
⋙ वत्स
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाय का बच्चा। बछड़ा।२. शिशु। बालक। बच्चा। ३. वत्सर। वर्ष। ४. कंस का एक अनुचर। वत्सासुर। ५. इंद्रजौ। ६. वक्ष। उर। छाती। ७. एक देश का नाम जो कोशांबी की राजधानी था और जहाँ का राजा उदयन था।
⋙ वत्सक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुष्प कसीस। २. कुटज। ३. इंद्रजौ। ४. निर्गुंडी। ४. छोटा बछड़ा (को०)। ५. शिशु। बच्चा (को०)।
⋙ वत्सकामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बच्चों को प्यार करनेवाली स्त्री या गाय [को०]।
⋙ वत्सघोष
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम जो नक्षत्रों के प्रथम वर्ग में है।
⋙ वत्सतंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० वत्सतन्त्री] बछड़ा बाँधने की रस्सी। विशेष—मनुस्मृति के अनुसार बछड़ा बाँधने की रस्सी को लाँघना नहीं चाहिए।
⋙ वत्सतर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वत्सतरी] जवान बछड़ा जो जोता न गया हो। दोहान।
⋙ वत्सतरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह बछिया जो तीन वर्ष की हो। कलोर। विशेष—वृषोत्सर्ग में चार वत्सतरी के साथ एक वृष उत्सर्ग करने का विधान है।
⋙ वत्सदंत
संज्ञा पुं० [सं० वत्सदन्त] एक प्रकार का बाण [को०]।
⋙ वत्सनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक विष जिसे 'बछनाग' या 'बच्छनाग' भी कहते हैं। मीठा जहर। विशेष—इसका पौधा हिमालय के कम ठंढे भागों में होता है। इसकी जड़ विशेषतः नैपाल से आती है। इसके पत्ते सँभालू के पत्तों के समान होते हैं। विष जड़ में होता है। यह विष शोधकर औषधों में दिया जाता है। शोधन के लिये जड़ के छोटे छोटे टुकड़े काटकर तीन दिन तक गोमूत्र में भिगोते हैं। फिर छाल अलग करके लाल सरसों के तेल में भिगोए हुए कपड़े में पोटली बाँधकर रखते हैं। उपयुक्त मात्रा और युक्ति के साथ सेवन करने से यह रसायन, योगवाही, वातनाशक और त्रिदोषघ्न कहा गया है। वैद्य लोग इसे ज्वर और लकवा रोग में देते हैं। इसके प्रयोग में बड़ी सावधानी चाहिए; क्योंकि अधिक मात्रा में होने से यह विष प्राणनाशक होता है। इसके योग से मृत्युंजय रस, आनदभैरव रस, पंचवक्त्र रस आदि कई प्रसिद्ध औषधें बनती हैं। पर्या०—अमृत। विष। उग्र। महौषध। गरल। मारण। नाग। ल्तोकक। प्राणहारक। स्थावर। २. एक वृक्ष का नाम।
⋙ बत्सपत्तन
संज्ञा पुं० [सं०] कौशांबी नगरी का प्राचीन नाम। जहाँ का राजा उदयन था [को०]।
⋙ वत्सपद
संज्ञा पुं० [सं०] बछड़े के खुर का निशान। गोपद [को०]।
⋙ वत्सपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो बछ गायों का पालन करता हो। गोपाल। २. कृष्ण। ३. बलराम [को०]।
⋙ वत्सपालक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वत्सपाल'।
⋙ वत्सपीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जिसका दूध बछड़ा पी चुका हो [को०]।
⋙ वत्सबंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० वत्सबन्धा] वह गाय जिसका बछड़ा बंधा हुआ हो। गाय जो अपने बछड़े को पाना चाहती हो [को०]।
⋙ वत्सर
संज्ञा पुं० [सं०] उतना काल या समय जितने में पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है और सब ऋतुओं की एक उद्धरणी हो जाती है। काल का वह मान जो बारह महीनों या ३६५ दिनों का होता है। वर्ष। साल। बरस।
⋙ वत्सरांतक
संज्ञा पुं० [सं० वत्सरान्तक] वर्ष का आखिरी महीना [को०]।
⋙ वत्सराज
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा का नाम। विशेष—इस नाम के अनेक राजा हो गए हैं। एक तो कौशांबी का प्रसिद्ध राजा था, जो गौतम बुद्ध का समसामयिक था। चौहान वंश में भी एक वत्सराज हुआ। लाट देश का एक चौलुक्यवंशी राजा भी इस नाम का हुआ है। महोबे के चंदेल राजाओं का एक मंत्री भी वत्सराज था जो आल्हा गानेवालों में आल्हा का पिता कहा गया है और 'बच्छराज' के नाम से प्रसिद्ध है।
⋙ वत्सरादि
संज्ञा पुं० [सं०] मार्गशीर्ष। अगहन का महीना [को०]।
⋙ वत्सराण
संज्ञा पुं० ऋण जो एक वर्ष के लिये लिया अथवा दिया गया हो [को०]।
⋙ वत्सरूप
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा बछड़ा [को०]।
⋙ वत्सल (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वत्सला] १. पुत्र या संतान के प्रति पूर्ण स्नेह से युक्त। बच्चे के प्रेम से भरा हुआ। जैसे,—पुत्रवत्सल पिता, पुत्रवत्सला माता। २. अपने से छोटों के प्रति अत्यंत स्नेहवान् या कृपालु। जैसे,—प्रजावत्सल राजा।
⋙ वत्सल
संज्ञा पुं० १. साहित्य में कुछ लोगों के द्वारा माना हुआ दसवाँ रस। वात्सल्य रस, जिसमें पिता या माता का अपनी संतति के प्रति रतिभाव या प्रेम प्रदर्शित होता है। २. घास फूस की आग (को०)। ३. विष्णु का एक नाम (को०)।
⋙ वत्सशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बछड़े बाँधने की जगह। वह स्थान जहाँ बछड़े रखे जायँ [को०]।
⋙ वत्साक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तरबूज। कलींदा।
⋙ वत्सादन
संज्ञा पुं० [सं०] वृक। भेड़िया [को०]।
⋙ वत्सादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुडुच। गिलोय।
⋙ वत्सासुर
संज्ञा पुं० [सं०] कंस का अनुचर एक राक्षस जिसे कृषण ने बाल्यावस्था में मारा था।
⋙ वत्सिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बछिया। बाछी [को०]।
⋙ वत्सिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० वत्सिमन्] शिशुता। बचपन [को०]।
⋙ वत्सी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वत्सिन्] विष्णु।
⋙ वत्सी (२)
वि० जिसे बहुत बच्चे हों [को०]।
⋙ वत्सीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गोपालक [को०]।
⋙ वत्सीय (२)
वि० वत्स संबंधी। बछड़ा संबंधी [को०]।
⋙ वदंति, वदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० वदन्ति, वदन्ती] कथा। कहानी। २. बात। वार्ता।
⋙ वद
वि० [सं०] बोलनेवाला। विशेष—यह शब्द समासांत में जुड़ता है। जैसे,—वशंवद, प्रियंवद, आदि।
⋙ वदक
संज्ञा पुं० [सं०] वक्ता। कहनेवाला।
⋙ वदतोव्याघात
संज्ञा पुं० [सं०] कथन का एक दाष, जिसमें कोई एक बात कहकर फिर उसके विरुद्ध बात कही जाती है।
⋙ वदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुख। मुँह। २. अगला भाग। ३. कथन। बात कहना। ४. त्रिभुज का शीर्ष भाग (को०)।५. चेहरा। आकृति। स्वरूप (को०)।
⋙ वदनपवन
संज्ञा पुं० [सं०] मुख की हवा। साँस [को०]।
⋙ वदनमदिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधरासव। अधरामृत [को०]।
⋙ वदनश्यामिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुख का एक रोग। मुँह पर पड़ी हुई झाईं। २. मुँह का कालापन [को०]।
⋙ वदनामय
संज्ञा पुं० [सं०] मुख का रोग [को०]।
⋙ वदनासव
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'वदनमदिरा'। २. लार। लाला।
⋙ वदनोदर
संज्ञा पुं० [सं०] मुखगह्वर। मुख का गड्ढा [को०]।
⋙ वदन्य
वि० [सं०] दे० 'वदान्य' [को०]।
⋙ वदर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बदर' [को०]।
⋙ वदान्य
वि० [सं०] १. अतिशय दाता। उदार। २. मधुरभाषी। अपनी बात से दूसरों को संतुष्ट करनेवाला।
⋙ वदाम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बादाम' [को०]।
⋙ वदाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाठीन मत्स्य। पहिना मछली। २. आवर्त। भँवर (को०)।
⋙ वदालक
संज्ञा पुं० [सं०] पाठीन मत्स्य [को०]।
⋙ वदावद
वि० [सं०] वाग्मी। वाचाल। बड़बड़िया [को०]।
⋙ वदि
संज्ञा पुं० [सं० अवदिन] कृष्ण पक्ष। जैसे—जेठ वदि ४।
⋙ वदितव्य
वि० [सं०] बोलने योग्य। कहने लायक [को०]।
⋙ वदिता
संज्ञा पुं० [सं० वदितृ] बोलनेवाला। कहनेवाला। वक्ता।
⋙ वदीअत
संज्ञा स्त्री० [अ०] अमानत। धरोहर।
⋙ वदुसाना पु
क्रि० स० [सं० विदूषण] दोष देना। भला बुरा कहना। इलजाम लगाना। उ०—हम सब जानत हरि की घातें। तुम जो कहत हरि राज करत नहिं जानत हौ कछु का तें ? उग्रसेन बैठारि सिंघासन लोग कहत कुल नाते। तप तें राज, राज तें आगे तुम सन समुझत बातें। सूरश्याम यहि भाँति सयाने हमही को वदुसाते।—सूर (शब्द०)।
⋙ वदेस पु
संज्ञा पुं० [सं० विदेश] परदेश। विदेश। उ०—वहु धंधालू आव वरि, काँसू करइ वदेस। संपत सघलि संपजे, आ दिन कही लहेस।—ढोला०, दू० १७८।
⋙ वद्दल
संज्ञा पुं० [देशी०] दुदिंन। बरसात।
⋙ वद्य (१)
वि० [सं०] १. कथनीय। २. अनिंद्य। निर्दोष [को०]।
⋙ वद्य (२)
संज्ञा पुं० १. कृष्ण पक्ष।२. बात। कथन [को०]। यौ०—वद्यपक्ष=कृष्णपक्ष।
⋙ वध
संज्ञा पुं० [सं०] १. घात। नाश। मरण। विशेष दे० 'बध'। २. प्रहार। अभिघात। मार (को०)। ३. लकवा (को०)। ४. तिरोधान। लोप। ओझल। ओट (को०)। ५. (गणित मे) गुणन क्रिया (को०)। ६. वधक। मारनेवाला (को०)। ७. जेता। जयी (को०)। ८. मृत्युदंड (को०)। ९. विफलता। हार। पराजय (को०)। १०. दोष। दूषण (को०)। ११. उत्पत्ति। उपज (बीजगणित)।
⋙ वधक
संज्ञा पुं० [सं०] १. धातक। हिंसक। २. व्याध। ३. मृत्यु। ४. एक प्रकार का सरकंडा (को०)।
⋙ वधकर्माधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० वधकर्माधिकारिन्] जल्लाद।
⋙ वधजीवी
संज्ञा पुं० [सं० वधजीविन्] वह जो वध करके जीविका निर्वाह करता हो।
⋙ वधत्र
संज्ञा पुं० [सं०] अस्त्र। हथियार।
⋙ वधनिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्युदंड। फाँसी की सजा [को०]।
⋙ वधनिर्णेक
संज्ञा पुं० [सं०] हत्या का प्राचश्चित्त।
⋙ वधभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बधभूमि'।
⋙ वधांगक
संज्ञा पुं० [सं० वधाङ्गक] कारागार। कैदखाना।
⋙ वधाव पु
संज्ञा पुं० [पा० वद्धव] दे० 'बधावा'। उ०—शोक वधाव जिन सम करि माना। ताकी बात इंद्रहुँ नहिं जाना।—कबीर बी० (शिशु०), पृ० २५४।
⋙ वधावरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० वधाव + रा (प्रत्य०)] दे० 'बधावा'।उ०—सोक को जनम ब्रज ओक में भयो है ऊधो साँवरे बिरह तै वधावरे बजत ये।—दीन० ग्रं०, पृ०४०।
⋙ वधिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृगमद। कस्तूरी। २. दे० 'बधिक' [को०]।
⋙ वधित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. कामासक्ति [को०]।
⋙ वधिर
वि० [सं०] दे० 'बधिर'।
⋙ वधु
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वधुका'।
⋙ वधुवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुत्र की स्त्री। बहू। २. दुलहन। स्त्री।
⋙ वधुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वधूटी'।
⋙ वधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नव विवाहिता स्त्री। दुलहन। २. पत्नी। भार्या। ३. पुत्र की बहू। पतोहू। यौ०—वधूगृहप्रवेश, वधूप्रबेश=विवाहिता स्त्री का पति के घर में पहली बार प्रवेश करने की विधि।वधूधन=स्त्री की निजी संपत्ति। वधूपक्ष=कन्यापक्ष। वधूवस्त्र=विवाह के समय कन्या को दिया जानेवाला वस्त्र।
⋙ वधूटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नई ब्याही हुई स्त्री। दुलहिन। २. भार्या। पत्नी। ३. पुत्रवधू। पतोहू।
⋙ वधूत पु
संज्ञा पुं० [सं० अवधूत] दे० 'अवधूत'। उ०—श्रवन कुंडल गरल कंठ करुणाकंद सच्चिदानंद वंदे वधूतं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ वध्य
वि० [सं०] मार डालने गोग्य। वधार्ह। यौ०—वध्यघ्न=जल्लाद। वध्यचिह्न=प्राणदंड पाए हुए अपराधी का चिह्न। वध्यडिंडिम, वध्यपटह=फाँसी देन के समय की जीनेवाली सूचना। वध्यपट=वध दंड दिए जाने के समय का काला या लाल वस्त्र। वध्यपाल=जेलर। वध्यशिला=वह वेदी या शिला जिसपर वध किया जाता है।
⋙ वध्र
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा नाम की धातु।
⋙ वध्रि
संज्ञा पुं० [सं०] बधिया।
⋙ वध्रिका
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरुष जो बधिया हो। खोजा।
⋙ वध्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमड़े का तसमा [को०]।
⋙ वध्र्य
संज्ञा पुं० [सं०] पदत्राण। जूता [को०]।
⋙ वध्र्यश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. आखता घोड़ा। २. एक प्राचीन राजा का नाम।
⋙ वन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बन। जंगल। २. वाटिका। ३. जल। ४. घर। आलय। ५. तमसा नामक यज्ञपात्र जो काठ का होता था। ६. रश्मि। ७. शंकराचार्य के अनुयायी संन्यासियों की एक उपाधि। ८. फूलों का गुच्छा। ९. समूह। झुंड। १०. काष्ठ। लकड़ी (को०)। ११. बादल (को०)। १२. पहाड़ (को०)। १३. जंगल का निवास (को०)। १४. झरना। सोता। १५. अर्चन। पूजन (को०)।
⋙ वनकणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वनपिप्पली।
⋙ वनकदली
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली केला [को०]।
⋙ वनकरी
संज्ञा पुं० [सं० वनकरिन्] जंगली हाथी [को०]।
⋙ वनकुंजर
संज्ञा पुं० [सं० वनकुञ्जर] दे० 'वनकरी'।
⋙ वनकुंडल
संज्ञा पुं० [सं० वनकुण्डल] अच्छी जाति का सूरन या जिमीकंद।
⋙ वनकोकिलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का छंद [को०]।
⋙ वनकोलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली बेर [को०]।
⋙ वनग
संज्ञा पुं० [सं०] वन में रहनेवाला। वनवासी [को०]।
⋙ वनगज
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली हाथी [को०]।
⋙ वनगमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. संन्यासग्रहण (को०)। २. सब कुछ छोड़कर बन को यात्रा करना।
⋙ वनगव
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली बैल [को०]।
⋙ वनगहन
संज्ञा पुं० [सं०] घना जंगल [को०]।
⋙ वनचंदन
संज्ञा पुं० [सं० वनचन्दन] १. अगुरु। अगर। २. देवदार।
⋙ वनगुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] जासूस [को०]।
⋙ वनगोचर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिकारी। व्याधा। २. वनवासी। बन। ३. जंगल [को०]।
⋙ वनगोचर (२)
वि० १. जगल में रहनेवाला। २. जल में रहनेवाला [को०]।
⋙ वनग्रामक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंगली गाँव। २. गरीब गाँव [को०]।
⋙ वनग्राही
संज्ञा पुं० [सं०] व्याधा। बहेलिया [को०]।
⋙ वनचद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वनचन्द्रिका] मल्लिका।
⋙ वनचंपक
संज्ञा पुं० [सं० वनचम्पक] एक प्रकार का चंपा का पुष्प।
⋙ वनचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वन में भ्रमण करने या रहनेवाला। २. जंगली मनुष्य या प्राणी। ३. शरभ नामक वनजंतु।
⋙ वनचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वन भ्रमण या वनवास [को०]।
⋙ वनछाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंगली बकरा। २. सुअर [को०]।
⋙ वनछिद
संज्ञा पुं० [सं० वनच्छिद] लकड़ी काटनेवाला। लकड़- हारा [को०]।
⋙ वनज
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वन (जंगल या पानी) में उत्पन्न हो। २. कमल। ३. मुस्तक। मोथा। ४. तुबुरु का फल। ५. जंगली बिजौरा नीबू। ६. बनकूलथी।
⋙ वनजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुदगपर्णी। २. निर्गुंडी। ३. सफेद कटकारि। ४. वनतुलसी। ५. अश्वगंधा। ६. वनकपासी।
⋙ वनजीर
संज्ञा पुं० [सं०] काली जीरी।
⋙ वनजीवी
संज्ञा पुं० [सं० वनजीविन्] १. वनवासी। २. लकड़हारा [को०]।
⋙ वनतिक्त
संज्ञा पुं० [सं०] हरीतकी। हड़।
⋙ वनतिक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाठा। २. पथरी नाम का शाक।
⋙ वनद
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल।
⋙ वनदाह
संज्ञा पुं० [सं०] वनाग्नि।
⋙ वनदीप
संज्ञा पुं० [सं०] वनचंपक पुष्प।
⋙ वनदेव, वनदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] वन का अधिष्ठाता देवता।
⋙ वनदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वन की अधिष्ठात्री देवी।
⋙ वनद्विप
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली हाथी [को०]।
⋙ वनद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली पेड़ पौधा [को०]।
⋙ वनधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली गाय। गवय [को०]।
⋙ वनधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली अन्न। श्योमाक धान [को०]।
⋙ वनन
संज्ञा पुं० [सं०] धन संपत्ति। दौलत [को०]।
⋙ वनप
संज्ञा पुं० [सं०] १. लकड़हारा। २. वनरक्षक। उ०—बन जंगल की देखरेख करनेवाली (वनप), जंगली ओग बुझानेवाले (दावप)...। हिंदु० सभ्यता, पृ० ९८।
⋙ वनपल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] शोभांजन वृक्ष। सहिजन [को०]।
⋙ वनपांसुल
संज्ञा पुं० [सं०] शिकारी। व्याध [को०]।
⋙ वनपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बागवान। २. बनपालक। उ०— मुरधर थया वधावणा, हरखे तेरह साख। ज्यूँ वनपालै पीड़ियाँ, सिर आपौ वैसाख।—रा० रू०, पृ० २६।
⋙ वनपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी पीपल।
⋙ वनपूरक
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली बिजौरा नीबू [को०]।
⋙ वनप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] तपस्वी।
⋙ वनप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोकिल। २. बहेड़े का वृक्ष। ३. कपूरकचरी। ४. साँभर हिरन।
⋙ वनभूषणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोकिला। कोयल [को०]।
⋙ वनभक्षिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] डाँस। डंस [को०]।
⋙ वनमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेवती का पौधा या फूल।
⋙ वनमल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वनमल्लिका' [को०]।
⋙ वनमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बन के फूलों की माला। २. एक विशेष प्रकार की माला। विशेष—यह सब ऋतुओं में होनेवाले अनेक प्रकार के फूलों से बनती और घुटने तक लंबी होती थी। ऐसी माला श्रीकृष्ण धारण करते थे।
⋙ वनमालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वारिका पुरी का एक नाम।
⋙ वनमाली (१)
वि० [सं० वनमालिन्] वनमाला धारण करनेवाला।
⋙ वनमाली (२)
संज्ञा पुं० श्रीकृष्ण।
⋙ वनमुक्
संज्ञा पुं० [सं० वनमुच्] बादल। मेघ [को०]।
⋙ वनमुदूग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मूँग [को०]।
⋙ वनमूत
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल।
⋙ वनमूदर्धजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जंगली बिजौरा नीबू। २. काकड़ा- सिंगी।
⋙ वनमोचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वन्य कदली। जंगली केला [को०]।
⋙ वनर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बानर' [को०]।
⋙ वनरक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] जंगल की देखभाल करनेवाला। बनरखा [को०]।
⋙ वनराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह। २. अश्मंतक वृक्ष।
⋙ वनराजि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वन की श्रीणी। वनसमूह। वृक्षसमूह। २. वन के बीच गई हुई पगडडी। ३. वसुदेव की एक दासी का नाम।
⋙ वनराजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वनराजि'।
⋙ वनरुह
संज्ञा पुं० [सं०] कमल।
⋙ वनलक्ष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वन की शोभा। वनश्री। २. कदली। केला।
⋙ वनलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली बेल।
⋙ वनवर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का बत्तक। बटेर। लवा पक्षी [को०]।
⋙ वनवसना
संज्ञा स्त्री० [सं०] धरती जिसका वस्त्र वन है। पृथिवी। उ०—नमित शालि से भरी हुई, सुंदर वनवसना। अपरा, पृ० १९५।
⋙ वनवह्नि
संज्ञा पुं० [सं०] दावाग्नि [को०]।
⋙ वनवास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वन का निवास। जंगल में रहना। २. बस्ती छोड़कर जंगल में रहने की व्यवस्था या विधान। मुहा०—वनवास देना=जंगल में रहने की आज्ञा देना। बस्ती छोड़ने की आज्ञा देना। वनवास लेना=बस्ती छोड़कर जंगल में रहना। अगीकार करना।
⋙ वनवास (२)
वि० जंगल में रहनेवाला। वनवासी
⋙ वनवासक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शाल्मली कंद। २. एक प्राचीन नगर जो कादब राजाओं की राजधानी था।
⋙ वनवासन
संज्ञा पुं० [सं०] गंधबिलाव [को०]।
⋙ थनवासी (१)
वि० [सं० वनवासिन्] [वि० स्त्री० वनवासिनी] वन में रहनेवाला। बस्ती छोड़कर जंगल में निवास करनेवाला।
⋙ वनवासी (२)
संज्ञा पुं० १. ऋपभ नामक ओषधि। २. वाराही कंद। ३. शाल्मली कंद। ४. नीलमहिष कंद। ५. द्रोण काक। डोम कौआ। ६. दक्षिण में तुंगभद्रा की शाखा वरदा नदी के किनारे बसा हुआ एक प्राचीन नगर जो कादंब राजाओं का प्रधान नगर था। ७. वानप्रस्थ आश्रमी। तपस्वी (को०)।
⋙ वनविलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शंखपुष्पी लता।
⋙ वनवीज, वनवीजक
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली नीबू [को०]।
⋙ वनवृंताकी
संज्ञा स्त्री० [सं० वनवृन्ताकी] जंगली बैगन। भंटा [को०]।
⋙ वनव्रीहि
संज्ञा पुं० [सं०] तिन्नी नाम का जंगली अन्न। विशेष—यह अपने आप पैदा होता है और इसे अन्नों में नहीं गिना जाता। इसका व्यवहार फल के रूप में व्रतादि में होता है।
⋙ वनशूकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कपिकच्छु। केवाँच। २. जंगली मादा सूअर।
⋙ वनशृंगाट
संज्ञा पुं० [सं० वनश्रृङ्गाट] गोखरू।
⋙ वनशृंगाटक
संज्ञा पुं० [सं० वनश्रृङ्गाटक] दे० 'वनशृंगाट'।
⋙ वनशोभन
संज्ञा पुं० [सं०] कमल [को०]।
⋙ वनश्वा
संज्ञा पुं० [सं० वनश्वन्] १. स्यार। गोदड़। २. गंध- बिलाव। ३. चीता। बाघ [को०]।
⋙ वनसंकट
संज्ञा पुं० [सं० वनसङ्कट] मसूर।
⋙ वनसंवासी
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो वानप्रस्थ आश्रम का हो। वन में रहनेवाला। वनवासी। [को०]।
⋙ वनसमुह
संज्ञा पुं० [सं०] निविड़ वन। घना जंगल [को०]।
⋙ वनसरोजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनकपासी [को०]।
⋙ वनसिंधुर
संज्ञा पुं० [सं० वनसिन्धुर] जंगली हाथी। वनकुंजर [को०]।
⋙ वनस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. सौंदर्य। लावण्य। २. कीर्ति। यश। ३. धनदौलत।
⋙ वनस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वन में रहनेवाला। २. वानप्रस्थ आश्रम। ३. मृग। हिरन।
⋙ वनस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] वनभूमि। अरण्यदेश। जंगली जमीन।
⋙ वनस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अश्वत्थ। पीपल का पेड़। २. वट। न्यग्रोध वृक्ष [को०]।
⋙ वनस्थी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वनस्था' [को०]।
⋙ वनस्पति (१)
संज्ञा स्त्री०, पुं० [सं०] १. वह वृक्ष जिसमें फूल न हो (अर्थात् न दिखाई पड़े) केवल फल ही हों। जैसे,—गूलर, बड़ पीपल आदि वट वर्ग के वृक्ष। (मनु०)। २. वृक्ष मात्र। पेड़ पौधा। ३. वट वृक्ष। बरगद। ४. सोम नाम का पौधा (को०)। ५. पेड़ का तना। स्कंघ (को०)। ६. धरम। बड़ेर। लट्ठा (को०)। ७. यज्ञस्तंभा। यूप (को०)। ८. काठ का रक्षा कवच (को०)। ९. वध्यपंच। फाँसी का तख्ता (को०)। १०. यती। तपस्वी। योगी (को०)। ११. मूँगफली, बिनौला, नारियल आदि का जमाया हुआ तेल।
⋙ वनस्पति (२)
संज्ञा पुं० धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ वनस्पतिशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसके द्वारा यह जाना जाता हो कि पौधो और वृक्षां आदि के क्या क्या रूप और कौन कौन सी जातियाँ होती हैं, उनके भिन्न भिन्न अंगों की बनावट कैसी होती है और कलम आदि के द्वारा किस प्रकार के नए पौधे या वृक्ष उत्पन्न होते हैं। वनस्पति विज्ञान।
⋙ वनस्त्रक्
संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्त्रज्] दे० 'वनमाला' [को०]।
⋙ वनहरिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली हल्दी।
⋙ वनहव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ। एकाह यज्ञ [को०]।
⋙ वनहास, वनहासक
संज्ञा पुं० [सं०] १. काश। काँस। २. कुंद का फूल।
⋙ वनहुताशन
संज्ञा पुं० [सं०] वनाग्नि। वनवह्नि [को०]।
⋙ वनांत
संज्ञा पुं० [सं० वनान्त] वनप्रांत। जगली भूमि या मैदान।
⋙ वनांतर
संज्ञा पुं० [सं० वनान्तर] १. दूसरा वन। २. वन का भीतरी भाग [को०]।
⋙ वनाखु
संज्ञा पुं० [सं०] खरगोश। शशक [को०]।
⋙ वनाखुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का माष। उरद [को०]।
⋙ वनाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दावानल। वन में अपने आप लगनेवाली आग [को०]।
⋙ वनाज
संज्ञा पुं० [सं०] वन्य अज। जंगली बकरा [को०]।
⋙ वनाटु
संज्ञा पुं० [सं०] नीली जंगली मक्खी [को०]।
⋙ वनानी
संज्ञा स्त्री० [सं० वनाली] वन का समूह। घना और विस्तृत वन। उ०—काफल थे रँग रहे, फूल में थौ फल लिए खुबानी। लाल बुरूसों के मधु छत्तों से थी भरी वनानी।— अतिमा, पृ० १५।
⋙ वनायु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम जहाँ का घोड़ा अच्छा होता था। २. इस देश में रहनेवाली जाति। ३. पुरुरवा के एक पुत्र का नाम।
⋙ वनायुज
संज्ञा पुं० [सं०] वनायु देश का घोड़ा।
⋙ वनारिष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वनहरिद्रा। वनहल्दी [को०]।
⋙ वनार्चक
संज्ञा पुं० [सं०] माली। माला या हार वनानेवाला [को०]।
⋙ वनार्द्रका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वन अदरक जिसे ऐंद्र भी कहते हैं [को०]।
⋙ वनालक्त
संज्ञा पुं० [सं०] गेरू।
⋙ वनालक्तक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वनालक्त' [को०]।
⋙ वनालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हस्तिशुंडी लता। हाथी सूँड़ी।
⋙ वनाश (१)
वि० [सं०] केवल जल पीकर रहनेवाला [को०]।
⋙ वनाश (२)
संज्ञा पुं० १. वनविहार। पिकनिक। २. एक प्रकार का छोटा जौ [को०]।
⋙ वनाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] वानप्रस्थ आश्रम [को०]।
⋙ वनाश्रमी
संज्ञा पुं० [सं० वनाश्रमिन्] वानप्रस्थी। तपस्वी [को०]।
⋙ वनाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. काला कौआ। डोम कोआ। २. वह जो जंगल का निवासी हो (को०)।
⋙ वनाहिर
संज्ञा पुं० [सं०] वन्य शूकर। जंगली सूअर [को०]।
⋙ वनि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. याचना। २. राशि। ढेर। ३. आग। अग्नि [को०]।
⋙ वनि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] इच्छा। कामना [को०]।
⋙ वनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुंजवन। उपवन।
⋙ वनित
वि० [सं०] १. पूजित। २. इच्छित। ३. याचित [को०]।
⋙ वनिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुरक्ता स्त्री। प्रिया। प्रियतमा। २. स्त्री। औरत। ३. छह वर्णों की एक वृत्ति जिसे 'तिलका' और 'डिल्ला' भी कहते हैं। इसमें दो सगण होते हैं। जैसे,—ससि बाल खरो। शिव भाल धरो।४. मादा (को०)।
⋙ वनिताद्विष्
संज्ञा पुं० [सं० वनिताद्विट्] स्त्रीविद्वेषी [को०]।
⋙ वनितामुख
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कंडेयपुराण के अनुसार मनुष्यों की एक जाति।
⋙ वनिताविलास
संज्ञा पुं० [सं०] वनिताओं का विहार। स्त्रियों की क्रीड़ा [को०]।
⋙ वनिष्णु
वि० [सं०] माँगनेवाला। याचक [को०]।
⋙ वनी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वनिन्] १. वानप्रस्थ। २. वृक्ष (को०)। ३. सोमलता (को०)।
⋙ वनी (२)
वि० १. पूजित। २. अभिलषित। ३. दिया हुआ। ४. जल के ऊपर निर्वाह करनेवाला। ५. जंगल में रहनेवाला [को०]।
⋙ वनी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा वन। वनस्थली। उ०—अति चंचल जहँ चलदलै, विधवा वनी, न नारि।—केशव (शव्द०)।
⋙ वनीक
संज्ञा पुं० [सं०] याचक। भिखारी [को०]।
⋙ वनीपक
संज्ञा पुं० [सं०] भिखारी [को०]।
⋙ वनीयक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वनीपक' [को०]।
⋙ वनीयस
वि० [वनीयस्] अत्यंत उदार [को०]।
⋙ वनेकिंशुक
संज्ञा पुं० [सं०] वह वस्तु जो वैसे ही, बिना माँगे मिले जैसे वन में किंशुक बिना माँगे या प्रयास किए मिलता है।
⋙ वनेक्षुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] करंज [को०]।
⋙ वनेचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वन में फिरनेवाला मनुष्य। वनचर। जंगली आदमी। २. यती। तपस्वी (को०)। ३. जंगली पशु। जंगली जानवर (को०)। ४. प्रेत। भूत। पिशाच (को०)।
⋙ वनेजा
संज्ञा पुं० [सं०] १. आम। २. पर्पट। पापड़ा।
⋙ वनेज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पापड़ा। २. उत्तम जाति का आम [को०]।
⋙ वनेसर्ज
संज्ञा पुं० [सं०] पीतसाल का वृक्ष। असन [को०]।
⋙ वनेविल्वक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वनेकिंशुक' [को०]।
⋙ वनोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवमंदिर, वापी, कूप, उपवन, आदि का उत्सगं जो शास्त्रविधि से किया जाता है। मंदिर. कुआँ आदि बनवाकर सर्वसाधारण के लिये दान करना। २. ऐसे दान या उत्सर्ग की विधि।
⋙ वनोत्साह
संज्ञा पुं० [सं०] गैंड़ा [को०]।
⋙ वनोदूधवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वनकपासी जिसे बनोदभवा भी कहा गया है [को०]।
⋙ वनोपप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] वनदाह। जंगल में आग लगना [को०]।
⋙ वनोपल
संज्ञा पुं० [सं०] कंडा। करीष। सूखा गोबर [को०]।
⋙ वनौकस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसका घर घन में हो। वनदासी २. जंगली पशु। बंदर, शूकर आदि। ३. तपस्वी। यती।
⋙ वनौका
संज्ञा पुं० [सं० वनौकस्] दे० 'वनौकस्' [को०]।
⋙ वनौषध
संज्ञा स्त्री० [सं०] वन की ओषधियाँ। जंगली जड़ी बूटी।
⋙ वन्न
संज्ञा पुं० [सं०] हिस्सेदार। साझीदार [को०]।
⋙ वन्य (१)
वि० [सं०] १. वन में उत्पन्न होनेवाला। वनोदभव। २. जंगली। यौ०—वन्य गज=वन्यद्विप। वन्यचर। वन्यद्विप=जंगली हाथी। वन्यपक्षी=वन के पक्षी। वन्यवृत्ति=जंगल में उत्पन्न पदार्थो से जीवननिर्वाह करनेवाला।
⋙ वन्य (२)
संज्ञा पुं० १. बनसूरन। २. क्षीर विदारी। ३. वाराही कंद। ४. शंख। ५. जंगली जानवर (को०)। ६. जंगली पौधा (को०)। ७. बंदर (को०)। ८. जंगल में उत्पन्न होनेवाला फल (को०)। ९त्वचा। छाल (को०)।
⋙ वन्यचर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वनचर'। उ०—बस, पत्र पु्ष्प हम वन्यचरों की सेवा।—साकेत, पृ० २२६।
⋙ वन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुदगपर्णी। २. गोपाल ककड़ी। ३. गुंजा। ४. भद्रमुस्ता। ५. अश्वगंध। असगंध। ६. सघन जंगल। वनसमूह। ७ बाढ़। जलप्लावन।९. अप्रकेत जलराशि। १०. लता। उ०—परंतु मेरा तो निज का कोई स्वार्थ नहीं, हृदय के एक एक कोने को छान डाला—कहीं भी कामना की वन्या—नहीं। स्कंद०, पृ० ९३।
⋙ वन्योपोदकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लताविशेष। बन पोय [को०]।
⋙ वन्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वन्न' [को०]।
⋙ वप
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीज बोना। २. बीज बोनेवाला। ३. क्षौर। मुंडन। ४. बुनाई।
⋙ वपन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वपनीय] १. केशमुंडन। २. बीज बोना। ३. शुक। बीज (को०)। ४. बाल बनाने का अस्तुरा (को०)। ५. क्रम से रखना। रोपना (को०)।
⋙ वपनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्थान नहाँ नाई क्षौरकार्य करते हैं। वह स्थान जहाँ हज्जाम बैठकर हजामत बनाते हैं। २. वह स्थान जहाँ जुलाहे कपड़ा बुनते हैं। ३. कपड़ा बुनने का औजार। करघा (को०)।
⋙ वपनीय
वि० [सं०] १. बोने योग्य। २. वपन के योग्य। मूँड़ने लायक (को०)।
⋙ वपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चरबी। मेद। २. वल्मीक। बाँबी। ३. विवर। छिद्र (को०)। ४. आँतों की झिल्ली। अंत्रावरण (को०)। ४. बाहर निकली हुई नाभि (को०)।
⋙ वपाकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] मज्जा [को०]।
⋙ वपित
वि० [सं०] बोया हुआ [को०]।
⋙ वपिल
संज्ञा पुं० [सं०] पिता। जनक [को०]।
⋙ वपु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वपु] १. शरीर। देह। २. रूप। ३. सौंदर्य (को०)। ४. सत्व। सत्ता। नैसर्गिक प्रवृत्ति (को०)।५. पानी (वेद)। ६. आश्चर्य (को०)। ७. अंश (को०)। यौ०—वपुर्गुणि। वपुःप्रकर्ष। वपुर्धर। वपुःस्त्रव।
⋙ वपु (२)
संज्ञा स्त्री० दक्ष की एक कन्या का नाम जो धर्मराज की पत्नी थी [को०]।
⋙ वपुःप्रकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वपुर्गुण' [को०]।
⋙ वपुःस्त्रव
संज्ञा पुं० [सं०] शरीरस्थ रस धातु [को०]।
⋙ वपुन
संज्ञा पुं० [सं०] देवता [को०]।
⋙ वपुमान
वि० [सं०] १. सुंदर शरीरवाला। २. साकार। मूर्त [को०]।
⋙ वपुरा पु
वि० [देश०] बेचारा। उ०—तुम्हेंण होसउँ असहना जइ सुनिअउँ रिउँ नाम। इअर वपुरा को करओ वीरत्तण निज ठान।—कीर्ति०, पृ० ६०।
⋙ वपुर्गुण
संज्ञा पुं० [सं०] आकृति का सौंदर्य [को०]।
⋙ वपुर्धर
वि० [सं०] १. सौंदर्ययुक्त। सुंदर। २. शरीरी। मूर्त [को०]।
⋙ वपुष पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वपुस्] शरीर। देह। उ०—विन नाथ की मैं दीन। विधवा सु वपुष नवीन। जग सिंधु घोर अपार। ता मद्धि मो तनु डारि।—प० रासो, पृ० ११।
⋙ वपुष (२)
वि० [सं०] १. सुदर। सलोना। २. आश्चर्यजनक [को०]।
⋙ वपुष (३)
संज्ञा पुं० [सं०] आकार या शरीर का सौंदर्य [को०]।
⋙ वपुष्टमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पझचारिणी लता। २. हरिवंश केअनुसार काशिराज की एक कन्या, जो परीक्षित के पुत्र जनमेजध से ब्याही थी। विशेष—हरिवंश में लिखा है कि राजा जनमेजय ने एक अश्वमेध यज्ञ किया। उनकी पत्नी, वपुष्टमा साथ ही बैठी थी। इंद्र ने अश्व के शरीर में प्रविष्ट होकर उसके साथ सहवास किया। जब मरा हुआ अश्व जीवित दिखाई पड़ा, तब इंद्र की चाल का पता लगा। जनमेजय ने कुद्ध होकर इंद्र को शाप दिया कि अब से अश्वमेध में तुम्हारा कोई पूजन न करेगा। उन्होंने ऋत्विक् ऋषयों को भी देश से निकाल दिया और वपुष्टमा का भी तिरस्कार किया। उसी समय गंधर्वराज विश्वावसु ने आकर राजा को समझ या कि इंद्र ने तुम्हारे अश्वमेध यज्ञों से डरकर रंभा अप्सरा को वपुष्टमा का शरीर धारण करा के भेजा है। ऋत्विजों को निकालने से तुम्हारा अश्वमेध का पुण्य क्षीण हो गया।
⋙ वपुष्मत्
वि० [सं० वपुष्मत्] १. मूर्तिमान्। शरीरी। २. सुंदर। ३. हृष्टपुष्ट। ४. पूर्ण। अक्षत। ५. देहात्मवादी [को०]।
⋙ वपोदर
वि० [सं०] तुंदिक। तोंदवाला [को०]।
⋙ वप्ता
संज्ञा पुं० [सं० वप्तृ] १. पिता। जनक। २. कवि। ३. नापित। नाई। ४. बीज बोनेवाला।५. कर्षक। किसान (को०)।
⋙ वप्प पु
संज्ञा पुं० [सं० वप्तृ> वप्ता, प्रा० वप्प, वप्पा] दे० 'बाप'। उ०—जें सत्तु समर सम्मदि कहू वप्प वैर उद्धरिअ धुअ।—कीर्ति०, पृ० ८।
⋙ वप्पीओ पु
संज्ञा पुं० [देशी] चातक। पपीहा।—देशी०, पृ० २८५।
⋙ वप्पो पु
संज्ञा पुं० [सं० वपुस्] शरीर। तनु। देह।—देशी०, पृ० ३०७।
⋙ वप्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिट्टी का ऊँचा धुस्स, जो गढ़ या नगर की खाई से निकली हुई मिट्टी के ढेर से चारों और उठाया जाता है और जिसके ऊपर प्राकार या दीवार होती है। चय। मृत्तिकास्तूप। २. क्षेत्र। खेत। ३. रेणु। धूल। ४. ऊँचा किनारा। कगार। (नदी आदि का)। ५. पहाड़ की चोटी। ६. टीला। भीटा। ७. सीसा नाम की धातु। ८. प्रजापति। ९. द्वापर युग के एक व्यास। १०. चौदहवें मनु के एक पुत्र का नाम। ११. साँड़ अथवा हाथी का अपनी सींग या दाँत से मिट्टी का ढूह गिराना (को०)। १२. पिता। जनक (को०)। १३. सोना (को०)। १४. नींव (को०)। १५. परिखा। खाईं (को०)। १६. घेरा (को०)। १७. मैदान (को०)।
⋙ वप्रक
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्त की परिधि। गोलाई का घेरा। चक्कर।
⋙ वप्रक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वप्रक्रीड़ा'।
⋙ वप्रक्रीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० वप्रक्रीडा] टीले या ऊँचे उठे हुए मिट्टी के ढेर को हाथी, साँड़ आदि का दाँतों या सींगों से मारना, जो उनकी एक क्रीड़ा है।
⋙ वप्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मजीठ। २. जैनों के इक्कीसवें जिन नेमिनाथ की माता का नाम। ३. मिट्टी का चिपटे सिरे का वाँध (को०)। ४. उद्यानशय्या (को०)।
⋙ वप्राभिघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. तटाघात। २. दे० 'वप्रक्रिया' [को०]।
⋙ वप्रि
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षेत्र। २. समुद्र। ३. स्थान की दुर्गमता। दुर्गति।
⋙ वप्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वल्मीक। बाँबी। २. मिट्टी का ढूह (को०)।
⋙ वफा
संज्ञा स्त्री० [अ० वफ़ा] १. वादा पूरा करना। बात निबाहना। यौ०—बफादार। वफादारी। वफापरस्त=दे० 'वफादार'। वफापरस्ती=वफादार होना। वफादारी। वफाशनास=वफा की पहचान रखनेवाला। वफाशनासी=वफा को पहचानना। २. निर्वाह। पूर्णता। उ०—अब कूच ही करना सही इस खेत से न वफा लही।—सूदन (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना। ३. मुरौवत। सुशीलता। उ०—वे खाए ते बेवफा वफा रहै ठहराइ। मीनै कीनै दूर ज्यौं तेही तै रह जाइ।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ वफात
संज्ञा स्त्री० [अ० वफा़त] मौत। मृत्यु। क्रि० प्र०—करना।—पाना।—होना।उ०—नवाब आलिफ खाँ कोट कांगड़े में वफात प्राप्त हुआ और लाश फतेपुर में लाके रक्खी।—सुंदर० ग्रं० (जी०), भाट० १, पृ० ५१।
⋙ वफादार
वि० [अ० वफ़ा + फ़ा० दार] [संज्ञा वफादारी] १. वचन या कर्तंव्य का पालन करनेवाला। २. अपने काम को ईमानदारी से करनेवाला। ३. सच्चा।
⋙ वफादारी
संज्ञा स्त्री० [अ० वफ़ा + फ़ा० दारी] १. प्रतिज्ञापालन। बात को पूरा करना। २. मित्र या स्वामी का तन, मन, धन से साथ निभाना [को०]।
⋙ वफीक
संज्ञा पुं० [अ० वफ़ीक] अनुकूल आचरण करनेवाला, मित्र। दोस्त। उ०—जा को साहब देत वफीक, चारि पियाला करु तहकीक।—धरनी०, पृ० २०।
⋙ वफ्क
संज्ञा पुं० [अ० वफ़्क़] अनुकूल। मुआफिक [को०]।
⋙ वफ्द
संज्ञा पुं० [अ० वफ़्द] दूतमंडल। प्रतिनिधि मंडल [को०]।
⋙ वबर
संज्ञा पुं० [अ०] ऊन। बाल [को०]।
⋙ वबा
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मरी। महामारी। फैलनेवाला भयंकर रोग। जैसे,—हैजा, प्लेग आदि। २. छूत का रोग। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—फैलना।
⋙ वबाई
संज्ञा स्त्री० [अ०] वबा संबंधी। फैलनेवाली। छुतही [को०]।
⋙ वबाल
संज्ञा पुं० [अ०] १. बोझ। भार। २. आपत्ति। कठिनाई। ३. घोर विपत्ति। आफत। ४. ईश्वरीय कोप। ५.पाप का फल। क्रि० प्र०—होना। मुहा०—किसी का वबाल पड़ना=किसी को दुःख पहुँचाने का फल मिलना। दूखिया की आह पड़ना। जैसे,—इसका वबाल तेरे ऊपर पड़ेगा।
⋙ वभ्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का सर्प। (सुश्रुत)। २. एक यदुवंशीय योद्धा। विशेष दे० 'बभ्रु'।
⋙ वभ्रुवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बभ्रुवाहन'।
⋙ वम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वमन' [को०]।
⋙ वमति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वमन करना। वमनक्रिया [को०]।
⋙ वमथु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वमन। २. थूक। ३. हाथी के सूँड़ से निकला हुआ पानी। ४. खाँसी [को०]।
⋙ वमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कै करना। उलटी करना। छर्दन। २. वमन किया हुआ पदार्थ। ३. आहुति। ४. पीड़ा। ५. भाँग (को०)।
⋙ वमना
क्रि० स० [सं० वमन] कै करना। उलटी करना [को०]।
⋙ वमनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जोंक। २. कपास का पौधा (को०)।
⋙ वमनाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] मक्खी।
⋙ वमि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक रोग, जिसमें मनुष्य का जी मतलाता है, मुँह से पानी छूटता है और जो कुछ वह खाता पीता है, उसे मुँह के रास्ते निकालकर बाहर फेंक देता या कै कर देता है। विशेष—यह वमन रोग पाँच प्रकार का माना गया है,—वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, और आगंतुक। वातज में बगल और छाती में दर्द, मस्तक और नाभि में शूल तथा अंगो में सूई छेदने की सी पीड़ा होती है। वमन बड़े वेग से और बड़े शब्द के साथ अधिक मात्रा में निकलता है। पित्तज में मूर्छा, प्यास, मुँह सूखना, तालू और आँखों में जलन और आँखों के सामने अँधेरा छाना आदि लक्षण होते हैं और वमन कुछ हरा और तीता होता है। कफज में मुँह मीठा रहता है, कुछ कफ निकलता है। भोजन की अनिच्छा होती है, शरीर भारी जान पड़ता है। भोजन की अनिच्छा होती है, शरीर भारी जान वमन के समय रोंगटे खड़े हो जाते हैं और बड़ी पीड़ा होती है। आगंतुक वमन कोई बुरी वस्तु खा लेने या घृणित वस्तु देखने या सूँघने से एकबारगी हो जाता है। २. वमन करानेवाली दवा।
⋙ वमि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. धतूरा। ३. दुष्ट।
⋙ वमित
वि० [सं०] वमन किया हुआ। जो वमन किया गया हो [को०]।
⋙ वमी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वमन। छर्दि। दे० 'वमि'।
⋙ वमी (२)
वि० [सं० वमिन्] वमन रोग का रोगी [को०]।
⋙ वम्य
वि० [सं०] (औषध आदी) जिससे वमन हो। वमन करानेवाली [को०]।
⋙ वम्र
संज्ञा पुं० [सं०] दीमक। वम्री [को०]।
⋙ वम्रक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दीमक या चींटा [को०]।
⋙ वम्रक (२)
वि० अत्यंत छोटा। बहुत छोटा [को०]।
⋙ वम्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दीमक।
⋙ वम्रीकूट
संज्ञा [सं०] वल्मीक। बाँबी। बिमौट।
⋙ वम्ह पु †
संज्ञा पुं० [देशी] बल्मीक। बिमौट।—देशी०, पृ० २८४।
⋙ वम्हण पु †
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण, प्रा० बभ्हन] दे० 'ब्राह्मण'। उ०—बहुल वम्हण वहुल काअथ राजपुत्त कुल वहुल वहुल जाति मिलि वइस।—कीर्ति०, पृ० ३०।
⋙ वयं पु
सर्व० [सं० अस्मद् शब्द का प्र० पु० बहुवचन] हम। उ०—विकटतर वक्र छुर धार प्रमदा तीव्र दर्प कंदर्प खर खड़गधारा। धीर गंभीर मन पीर कारक तत्र के वराका वयं विगत सारा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ वयःक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] क्रमागत जीवन काल। अवस्था। उम्र।
⋙ वयःपरिणति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अवस्था की परिपक्वता। प्रौढ़ अवस्था [को०]।
⋙ वयःपरिणाम
संज्ञा पुं० [सं०] वयःपरिणति।
⋙ वयःप्रमाण
संज्ञा पुं० [सं०] जीवन का पूरा समय [को०]।
⋙ वयःसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० वयःसन्धि] बाल्यावस्था और यौवन- वस्था के बीच की स्थिति। लड़कपन और जवानी के बीच का काल।
⋙ वयःस्थ
संज्ञा पुं० वि० [सं०] दे० 'वयस्थ'।
⋙ वयःस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'वयस्था'।
⋙ वयःस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] जवानी। दे० 'वयस्थान' [को०]।
⋙ वय (१)
संज्ञा पुं० [सं० वयस्] १. बीता हुआ। जीवनकाल। अवस्था। उम्र। २. बल। शक्ति। ३. पक्षी। ४. युवावस्था। जवानी (को०)। ५. कौवा (को०)। ६. यज्ञ प्रयुक्त बलि पदार्थ। वलि या अन्न (वेद) (को०)। ७. स्वास्थ्य। पुष्टता (को०)।
⋙ वय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तंतुवाय। जुलाहा। २. बया पक्षी।
⋙ वय (३)
संज्ञा स्त्री० जुलाहों के करघे में सूत का एक जाल। विशेष दे० 'बै' या 'बय'।
⋙ वयताल पु †
संज्ञा पुं० [सं० बैताल] उ०—कालीदास भोज कै ज्यौं विक्रम के वयताल।—बाकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १३३।
⋙ वयन
संज्ञा पुं० [सं०] बुनने की क्रिया या भाव। बुनना।
⋙ वयराट पु
वि० [सं० वेराट] दे० विराट्। उ०—वयराट रूप गावत निगम। निज दासन (दाता) अक्षय।—तट०, पृ० १०।
⋙ वयस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीता हुआ जीवन काल। अवस्था। उम्र। २. पक्षी।
⋙ वयस
संज्ञा पुं० [सं० वयस्] दे० 'वयस्'।
⋙ वयसिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वयस्या'।
⋙ वयस्क
वि० [सं०] [स्त्री० वयस्का] १. उमर का। अवस्थावाला। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग समस्तपद के अंत में होता है। जैसे, अल्पवयस्क, समवयस्क इत्यादि। २. पूरी अवस्था को पहुँचा हुआ। जो अव बालक न हो। सयाना। बालिग।
⋙ वयस्कर
वि० [सं०] दे० 'वयस्कृत्'।
⋙ वयस्कृत
वि० [सं०] आयुः प्रद। जेवन देनेवाला।
⋙ वयस्थ (१)
वि० [सं०] [स्त्री० वयस्था] १. प्राप्तवयस्क। २. युवा। युवक। ३. समवयस्क।
⋙ वयस्थ (२)
संज्ञा पुं० समवयस्क पुरुष।
⋙ वयस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आमलकी। आँवला। २. हरीतकी। हड़। ३. गुड़ुच। ४. छोटी इलायची। ५. काकोली। ६. सेमल। ७. युवती। ८. मत्स्याक्षी (को०)। ९. अत्यम्लपर्णी (को०)। १०. सोमवल्लरी। सोमलता (को०)। ११. आली। सखी। सहेली। (को०)।
⋙ वयस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] यौवन।
⋙ वयस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. समवयस्क। एक उमरवाले। हमजोली। २. मित्र। उ०—प्रिय वयस्य ? आज तुम्हें आए तीन दिन हुए।—स्कंद० पृ० १२७। यौ०—वयस्यभाव=मित्रता। मैत्री। दोस्ती।
⋙ वयस्यक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वयस्य' [को०]।
⋙ वयस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सखी। सहेली। उ०—देखकर अपनी सखी को पलक सी घ्यानलग्ना, एक ने संकेत कर यों वयस्या से दबे स्वर में कहा।—ग्रंथि०, पृ० ७२। २. इष्टका। ईंट।
⋙ वयस्यिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'वयस्या'-१। २. अंतरंग चेटी वा दासी [को०]।
⋙ वया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वयाक' [को०]।
⋙ वयाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. डाली। टहनी। २. लता (को०)।
⋙ वयार पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'वयार'।
⋙ वयाला पु
संज्ञा पुं० [सं० व्याल] १.दे० 'व्याल'। २. वायु। हवा। उ०—अंधा भया बनाय वैद की बात न मानै। विषय वयाला खाय करै संजय का जानै।—पलटू०, पृ० ९०।
⋙ वयुन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्ञान। बुद्धि। बौद्धिक चेतना। २. मंदिर। देवागार। ३. आज्ञा। आदेश। नियम। ४. कर्म। ५. रीति। पद्धति। सरणि। ६. स्पष्टता [को०]।
⋙ वयोगत (१)
वि० [सं०] प्रौढ़। अधिक वय का।
⋙ वयोगत (२)
संज्ञा पुं० युवावस्था का गमन। प्रौढ़ावस्था [को०]।
⋙ वयोधा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वयोधस्] १. अन्न। २. युवा अथवा मध्यम वय का व्यक्ति। प्रौढ़ व्यक्ति [को०]।
⋙ वयोधा (२)
वि० [सं०] १. शक्तिशील। ताकतवर। २. शक्तिदायक वा स्वास्थ्यप्रद। ३. भोजन देनेवाला। अन्न देनेवाला [को०]।
⋙ वयोधा (३)
संज्ञा स्त्री० शक्ति। ताकत। सामर्थ्य [को०]।
⋙ वये बाल
वि० [सं०] छोटी उम्र का। बाल्यावस्था का [को०]।
⋙ वयोरंग
संज्ञा पुं० [सं० वयोरङ्ग] सीसा धातु [को०]।
⋙ वयोवंग
संज्ञा पुं० [सं० यौवङ्ग] सीसक। सीसा धातु [को०]।
⋙ वयोविशेष
संज्ञा पुं० [सं०] वय की विशेषता। उम्र का अंतर [को०]।
⋙ वयोवृद्ध
वि० [सं०] जो अवस्था में बड़ा हो। बड़ा बूढ़ा।
⋙ वयोहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बल या शक्ति का कम होना। २. बुढ़ा़ना। वृद्धावस्था होना [को०]।