हिंदी वर्णंमाला का चोबीसवां ओर पवर्ण का चोथा वर्ण। इसका उच्चारण स्थान ओष्ठ है ओर इसका प्रयत्न संवार, नाद ओर घोष है। यह महाप्राण है ओर इसका अल्पप्राण 'ब' है।

भंक
वि० [अनु० या सं० वक्र, हिं० बंक] भोपण। भयंकर। भयानक। उ०—समसान लोटना बीर बंक। तिहि पीर भीत अनसंक भंक।—पृ० रा०, ६। ७०।

भंकार
संज्ञा पुं० [अनु० भ + कार (प्रत्य०)] विकट शब्द। भीषण नाद। उ०—कहूँ भीम भकार कर्नाल साजै।— केशव (शब्द०)।

भंकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० भङ्कारी] १. डाँस। मशक। गोमक्षिका। २. दे० 'भँकारी'।

भंक्ता (१)
वि० [सं० भङक्तृ] तोड़नेवाला। भंग करनेवाला।

भंक्ता (२)
संज्ञा पुं० वह व्यक्ति जो विध्वंसक हो। तोड़फोड़ करनेवाला व्यक्ति [को०]।

भंक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० भांङ्गक्त] टूटना। नष्ठ होना। खंडित होना [को०]।

भंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० भङ्ग] १. तरंग। लहर। २. पराजय। हार। ३. खंड। टुण्डा़। ४. भेद। ५. कुटिलता। टेढा़पन। ६. रोग। ७. गमन। ८. जलनिर्गम। स्त्रोत। ९. एक नाग का नाम। १०. भय। ११. टूटने का भाव। विनाश। विध्दंस। उ०—(क) अकिल विहूना सिंह ज्यों गयो शसा के संग। अपनी प्रतिमा देखिके भयो जो तन को भग।—कवीर (शब्द०)। (ख) प्रभु नारद संबाद कहि मारूति मिलन प्रसंग। पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान को भंग।—तुलसी (शब्द०)। (ग) देवराज भख भंग जानि कै बग्स्यो व्रज पै आई। सूर श्याम राखे सब निज कर गिरि लै भए सहाई।—सूर (शब्द०)। १२. वाधा। उच्छत्रि। अड़चन। रोक। उ०—(क) कबीर छुवा हे कूकरी करत भजन में भंग। याको टुकडा़ डारि के सुमरन करो सुसंग।—कवीर (शब्द०)। (ख) छाडि़ मर हरि विमुखन को सग। जिनके संग कुबुधि उपजति है परत भजन में भंग।—पूर (शब्द०)। १३. टेढे़ होने या झुकने का भाव। १४. लकवा नामक रोग जिसमें रोगी के अंग टेढे़ ओर वेकाम हो जाते है। यौ०—अस्थभंग। कर्णभंग। गात्रभंग। ग्रीवाभंग। भ्रूभंग। प्रसवभंग। वस्त्रभंग।भंगनय। भंगसाय।

भँग (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भड्गा] दे० 'भाँग'।

भंगकार
संज्ञा स्त्री० [सं० भड्गकार] १. हरिवंश के अनुसार सत्राजित के पुत्र का नाम। २. महाभारत के अनुसार राज अभिक्षित् के पुत्र का नाम।

भंगड (१)
बि० [हिं० भाँग + अढ़(प्रत्य०)] जो नित्य ओर बहुत भाँग पोता हो। बहुत भाँग पीनेवाला। भँगेडी़।

भंगड़ (२)
संज्ञा पुं० एक कवि का नाम। उ०—भंगड़ ज्यों रान कै। बिहारी जयसिह जू के। गंग हो प्रवीन अकबर सुलतान कै।—बाँकी० ग्र०, भा० ३, पृ० १३३।

भंगना † (१)
क्रि० अ० [हिं० भंग + ना (प्रत्य०)] १. टूटना। २. दबना। हार मानना। उ०—कहि न जाय छबि कवि मति भगी। चपला मनहुं करति गति संगी।—गोपाल (शब्द०)।

भंगना (२)
क्रि० स० १. तोड़ना। २. दबाना। उ०—राम रंग ही से रँगरेजवा मोरी अँगिया रँगा दे रे। ओर रंग द्वै दिन चटकीले, देखत देखत होत मटीले, नही अमीरी नहि महकीले, उन रंगन की भंगि दे रे।—देवस्वामी (शव्द)।

भंगराज
संज्ञा पुं० [सं० भृड्गराज] १. काले रंग की कोयल के आकार की एक चिड़िया जो सिरे से दुम तक १२ इच लंबी होती है ओर जिसमे ७ इच केवल पूँछ होती है। विशेष— यह भारत वर्ष के प्रय?सभी भागों में होती है। यह अच्यंत सुरीली ओर मधुर बोली बोलती है ओर प्रायः सभी पशुपक्षियों की बोलियों का अनुकरण करती है। यह लड़ती भी हे। इसका रंग बिलकुल काला होती हें, केवल पख पर दो एक पीली वा सफेद धारियाँ होती है। इसकी पूँछ गुजेटे की पूँछकी तरह कैचीनुमा होती हें। यह प्रय? जाडे़ में अधिक देख पड़ती है ओर कीडे़ मकोडे़ खाकर रहती हें। २. भँगरैया नाम की एक वनस्पति। दे० 'भँगरा (२)'।

भंगरैया †
संज्ञा स्त्री० [सं० भृड्गराज] दे० 'भँगरा'।

भंगवासा
संज्ञा स्त्री० [सं० भड्गवासा] हलदी।

भंगसार्थ
वि० [सं० भड्गसार्थ] कुटिल।

भंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० भड्गा] भाँग। यौ०—भंगाकट =भाँग का पराग।

भंगान
संज्ञा पुं० [सं० भड्गान] एक प्रकार की मछली।

भंगारी
संज्ञा स्त्री० [सं० भड्गारी] दे० 'भकारी'।

भंगास्वन
संज्ञा पुं० [सं० भड्गास्वन] महाभारत के अनुसार एक राजा जिसने पुत्र की कामना से अग्निष्टुत् यज्ञ किया था और जिसे सौ पुत्र हिए थे।

भंगि
संज्ञा स्त्री० [सं० भङि्ग] १. विच्छेद। २. कुटिलता। टेढाई। ३. विन्यास। अंगनिवेश। अंदाज। ४. कल्लोल। लहर। ५. भंग। ६. व्याज। बहाना। ७. प्रातिकृति। ८. तरीका। युक्ति। ढंग। उपाय। उ०—जोग किए का होय भंगि जो आवे नाहीं।—पलटू० बानी, पृ० १७।

भंगिमा
[सं० भंड़्गिमन्] कुटिलता। वक्रता। भगि [को०]।

भंगी (१)
संज्ञा पुं० [सं० भङ्गिन् [स्त्री० भगिनी] १. भंगशील। नष्ट होनेवाला। २. भग करनेवाला। भगकारी। उ०— रसना रसालिका रसत हस मालिका रतन ज्योति जालिका सो देव दुख भंगिनी।—देव (शब्द०)। ३. रेखाओं के झुकाव से खींचा हुआ चित्र वा बेलवूटा आदि।

भंगी (२)
संज्ञा० पुं० [सं० देश०] [स्त्री० भंगिन] एक पिछडी जाति जिसका काम मलमूत्र आदि उठाना है।

भंगी (३)
वि० [हिं० भाँग] भाँग पीनेवाला। भँगेडी़। उ०— लोग निकम्में भंगी गंजड़ लुच्चे बे बिसवासी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३३३।

भंगील
संज्ञा० पुं० [सं० भड्गील] ज्ञानेंद्रिय की विकलता या दोष।

भंगुर (१)
वि० [सं० भङ्गुर] १. भंग होनेवाला। नाशवान्। जैसे,— क्षणभगुर। २. कुटिल। ३. टेढ़ा। वक्र।

भंगुर
संज्ञा पुं० नदी का मोड़ या घुमाव।

भंगुरा
संज्ञा० स्त्री० [सं०] १. अतिविषा। अतीस। २. प्रियंगु।

भंग्य (१)
वि० [सं० भडग्य] जो भँग किया या तोडा़ जाय। तोड़ने लायक। भंजन के योग्य [को०]।

भंग्य
संज्ञा पुं० माँग का खेत। वह खेत जिसमें भाँग बोई हो [को०]।

भंजक
वि [सं० भञ्जक] [स्त्री० भंजिका] भंगकारी। तोड़नेवाला।

भंजन (१)
संज्ञा० पुं० [सं० भञ्जन] १. तोड़ना। भंग करना। २. भंग। ध्वंस। ३. नाश। ४. मंदार। आक। ५. भाँग। ६. दाँत गिरने का रोग। दे० 'भंजनक'। ७. व्रण की वह पीडा़ जो वायु के कारण होती है। ८. दूर करना। हटाना। जैसे, पीडा़ या दुःख।

भंजन (२)
वि० भंजक। तोड़नेवाला। जैसे, भवभंजन, दुःखभंजन। उ०—राजिव नयन धरे धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।—मानस, १।१८।

भंजनक
संज्ञा० पुं० [सं० भञ्जनक] एक रोग जिसमें मुँह टेढा़ हो जाता है जिससे दाँत गिर जाते हैं। लकवा। भंग।

भंजना (१)
स्त्री० [सं० भञ्जना] विवृति। स्पष्टीकरण। विवरण [को०]।

भंजना पु (२)
क्रि० अ० [सं० भञ्जन] तोड़ना। टुकडे़ करना। उ०—उठह राम भंजहु भनचापा। मेटहु तात जनक संतापा।—तुलसी (शब्द०)।

भंजनागिरि
संज्ञा० पुं० [सं० भञ्जनागिरि] एक पर्वत का नाम।

भंजा
संज्ञा० पुं० [सं० भञ्जा] अन्नपूर्णा का एक नाम।

भंजिका
वि० [सं० भञ्जिका] भंग करनेवाली। तोड़नेवाली। उ०—प्रेजुडीस लेश मात्र भंजिका। मद्यपान घोर रंग रजिका।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ८४५।

भंजिता
संज्ञा० पुं० [सं० भञ्जन] भग करनेवाला। नाशक। दूर करनेवाला। उ०—दादू मैं भिखारी मंगिता, दरसन देहु दयाल। तुम दाता दुख भंजिता, मेरी करहु सँभाल।—दादू० बानी, पृ० ५९।

भंझा
संज्ञा० पुं० [देश०] वह लकडी जो कूएँ के किनारे के खंभे वा ओटे के ऊपर आडी़ रखी जाती है ओर जिसपर गडारी लगाकर धुरे टिकाए जाते हैं।

भंटक
संज्ञा० पुं० [सं० भण्टक] मरसा नामक साग।

भंटा †
संज्ञा० पुं० [सं० वृन्ताक] बैगन।

भंटाकी
संज्ञा० स्त्री० [सं० भण्टाकी] वैगन। भंटा [को०]।

भंटुक, भंटूक
संज्ञा० पुं० [सं० भण्टुक, भण्टूक] श्योनाक।

भंड (१)
संज्ञा० पुं० [सं० भण्ड] १. भाँड़। बि० दे० 'भाँड़'। २. भाँट। ३. उपकरण। सामान। बर्तन भाँडा़।

भंड (२)
वि० १. अश्लील या गंदी बातें बकनेवाला। २. धूर्त पाखंडी। उ०—बैठा हूँ में भंड साधुता चारण करके।—साकेत, पृ० ४०२।

भंडन †
संज्ञा० पुं० [सं० भण्डन] १. हानि। क्षति। २. युद्ध। ३. कवच। उ०—सेल सोधकर रग बिनु, पाए भडन जूद। बहुरि सुभट जे सुभट सौं सिंह रूप है कूद।—हिं० प्रेंमगाथा०, पृ० २२३।

भंडना
क्रि० स० [सं० भण्डन] १. हानि पहुँचाना। बिगाड़ना। २. भंग करना। तोड़ना। ३. गडबड करना। नष्ठ भ्रष्ठ करना। ४. बदनाम करना। अपकीर्ति फैलाना।

भंडपना
संज्ञा पुं० [हिं० भाँड + पना] १. भाँड़ों की क्रिया या भाव। भँडै़ती। २. भ्रष्टता। उ०—भला और क्या चाहेंगे, हमारा भडपना जारी ही रहा।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३६७।

भंडर †
संज्ञा० पुं० [सं०भट्ट] दे० 'भड्डर'।

भंडरिया †
संज्ञा० स्त्री० [हिं० भंडार + इया (प्रत्य०)] दीवाल में बनी हुई छोटी अलमारी। भंडारी।

भंडा
संज्ञा० पुं० [सं० भाण्ड] १. बर्तन। पात्र। भाँडा। उ०— हम गृह फोरहिं शिशु बहु भंडा। तिनहि न देत नेक कोउ दंडा।—गोपाल (शब्द०)। २. भंडारा। ३. भेद। रहस्य। मुहा०—भंडा फूटना = गुप्त रहस्य खुलना। भेद खुलना। भंडा फोड़ना = गुप्त रहस्य खोलना। ४. वह लकडी वा बल्ला जिसका सहारा लगाकर मोटे और भारी बल्लों को उठाते वा खसकाते हैं।

भंडाकी
संज्ञा० स्त्री० [सं० भण्डाकी] भंटा। भंटाकी [को०]।

भंडार
संज्ञा० पुं० [सं० भाण्डागार] १. कोष। खजाना। २. अन्नादि रखने का स्थान। कोठार। ३. वह स्थान जहाँ व्यंजन पकाकर रखे जाते हैं। पाकशाला। भंडारा। उ०— कबीर जैनी के हिये बिल्ली को इतबार। साधन ब्यंजन मोक्षहित सोपेउ तेहिं भंडार।—कबीर (शब्द०)। ४. पेट। उदर। ५. अग्निकोण। ६. दे० 'भंडारा'। यौ०—भंडारघर = (१) कोप। खजाना। (२) कोठार। (३) पाठशाला।

भंडारा
संज्ञा पुं० [हिं० भंडार] १. दे० 'भंडार'। २. समूह। झुंड। क्रि० प्र०—जुड़ना वा जुटना।—जोडना। ३. साधुओं का भोज। वह भोज। जिसमें संन्यासी ओर साधु आदि खिलाए जाते है। उ०—विजय कियो भरि आनंद भारा। होय नाथ इत ही भंडारा।—रघुराज (शब्द०)। कि० प्र०—करना।—देना।—होना।—जुड़ना।—खाना। ४. पेट। उ०—उक्त पुरुष ने अपने स्थान से उचककर चाहा कि एक हाथ कटार का ऐसा लगाए कि भंडार खुल जाय, पर पथिक ने झपटकर उसके हाथ से कटार छिन लिया।— अयोध्यासिंह (शब्द०)। मुहा०—भंडारा खुल जाना = पेट फटने से आँतों का निकल पड़ना। उ०—और बाँक बनौट से वाकिफ न होते तो भंडारा खुल जाता।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १३६।

भंडारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भंडार +ई (प्रत्य०)] १. छोटी कोठरी। २. कोश। खजाना। ३. दीवाल में बनी हुई छोटी अलमारी। भंडरिया।

भंडारी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भंडार + ई (प्रत्य०)] १. खजानची। कोषाध्यक्ष। २. तोशाखाने का दारोगा। भंडारे का प्रधान अध्यक्ष। ३. रसोइया। रसोईदार।

भंडारी (३)
संज्ञा पुं० [?] जैनियों की एक शाखा। उ०—भंडारी आया परब, रायाचंद सहास।—रा० ख०, पृ० २२।

भंडासुर
संज्ञा पुं० [?] पाखंडी राक्षस। उ०—जै चमुंड जै चंड मुंड भंडासुर खंडिनि।—भूषण ग्रं०, पृ० ३।

भंडि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भण्डि] १. तरगं। लहर। वीचि। २. मजीठ। मंजिष्ठा।

भंडि (२)
संज्ञा पुं० सिरिक का वृक्ष [को०]।

भंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० भण्डिका] मंजिष्ठा। मजीठ [को०]।

भंडित (१)
संज्ञा पुं० [सं० भण्डित] एक गोञकार ऋषि का नाम।

भंडित (२)
वि० [सं०] १. तिरस्क्रत। तिरस्करणीय। २. भँडैती करनेवाला। भाँड़। उ०—पंडित भडित अर कतवारी, पलटी सभा विकलता नारी। अपढ बिपर जोगी घरवारी, नाथ कहे रे पूता इनका संग निबारी।—गोरख०, पृ० २६१।

भंडिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० भण्डिमन्] छल। धोखा।

भंडिर
संज्ञा पुं० [सं०] सिरसा। शिरीप।

भंडिल (१)
संज्ञा पुं० [सं० भण्डिल] १. सिरस का पेड। २. दूत। ३. शिल्पी। ४. प्रसन्नता। ५. भाग्य। किस्मत।

भंडिल (२)
बि० अच्छा। शुभ।

भंडी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भण्डी] दे० 'भंडि' [को०]।

भंडी (२)
संज्ञा पुं० [सं० भण्ड] भाँट। मागध। स्तुतिपाठक। उ०— कवि एक भंडी भिडिभी प्रमान। किते तार झंकार विद्या सुजान।—पृ० रा०, १९।२।

भंडीतको
संज्ञा स्त्री० [सं० भण्डीतकी] मजीठ।

भंडोर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोलाई। २. सिरसा। ३. बट। बरगद। ४. भँड़भाँड। ५. भांडीर वन। बरगद का वन। उ०— बट भँडीर निवास नित, राधारसिक प्रसंस।—घनानंद, पृ० २६८।

भंडोरलतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० भण्डीरलतिका] मजीठ।

भंडीरी
संज्ञा स्त्री० [सं० भण्डीरी] मजिष्ठा। मजीठ।

भंडील
संज्ञा पुं० [सं० भण्डील] मंजिष्ठा। भंडीरी [को०]।

भंडुक, भंडूक
संज्ञा पुं० [सं० भण्डुक, भण्डूक] १. भाकुर नामक मछली। २. श्योनाक।

भंडेरिया ‡
संज्ञा पुं०[हिं०] दे० 'भँडरिया'।

भंडेरियापन
संज्ञा पुं० [हिं० भँडेरिया + पन (प्रत्य०)] १. ढोंग। मक्कारी। २. चालाकी।

भंत †
संज्ञा स्त्री० [सं० भक्ति; प्रा० भत्ति; अप० भंति, भंत] दे० 'भाँति'। उ०—ढाढी़ रात्यूँ ओलग्या गाया बहु बहु भंत।— ढीला०, दू० १८६। (ख) जाके ऐसे लोक अनंता, रचि राखे बिधि बहु भता।—दादू०, पृ० ५८४।

भंति
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँति] दे० 'भाँति'। उ०—जुरे बर बीर दसों दिसि पंति। मनो धन भद्दव बर्तन भति।—पृ० रा० १२।३३४।

भंते
संज्ञा पुं० [हिं०] बौद्धों द्वारा प्रयुक्त आदरसूचक शब्द। उ०—परंतु आप भंते, यहाँ उस सुरक्षित कोष्ठ में बिना अनुमति आ कैसे पंहुचे।—वैशाली०, पृ० ११४।

भंद
संज्ञा पुं० [सं० भन्दिल] १. प्रसन्नता। खुशी। २. अभ्युदय। सौभाग्य [को०]।

भंदिल
संज्ञा पुं० [सं० भन्दिल] १. अभ्युदय। भाग्य। २. दूत। संदेशवाहक। ३. चंचल गति। स्खलित गति [को०]।

भंभ
संज्ञा पुं० [सं० भम्भ] १. भ्रमर। मक्षिका। २. धूम्र। धुआँ। ३. चूल्हे का मुँह [को०]।

भंभर
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] विह्वल। चंचल। तरल। यौ०—भंभरनेनी(पु) = चंचल नेत्रवाली। भ्रमभंभर = भ्रम से चंचल उ०—इक बंधिय इक बधिय एक भ्रमिय भ्रमभंभर।—पृ० रा० (उ०), पृ० १०३।

भँभरालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० भम्भरालिका] १. गोमक्षिका। मक्षिका। २. मशक। मच्छड़ [को०]।

भंभराली
संज्ञा स्त्री० [सं० भम्भराली] दे० 'भँभरालिका'।

भंभली
संज्ञा पुं० [देशी] मूर्ख।—देशी०, पृ० २५६।

भंभा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भम्भा] भेरी। डिडिम। डुग्गी [को०]।

भंभा (२)
संज्ञा पुं० [सं० भम्भ = (चूल्हे का छेद); या० अनुध्व०] बहुत बडा़ बिल या गर्त।

भंभारव
संज्ञा पुं० [सं० भम्भारव] गाय के रँभाने का शब्द [को०]।

भमना † पु
क्रि० अ० [सं० भ्रमण, हिं० भँवना] इधर उधर घूमना। भँवना। उ०—इक बंधिय इक बधिय एक भंमिय भ्रम भीभर।—पृ० रा०, ६।१२।

भँइस ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० भैंस] दे० 'भैंस'।

भँकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० भड्कारी] १. भुनगा। २. एक प्रकार का छोटा मच्छर।

भँगरा (१)
संज्ञा पुं० [प्रि० भाँग + रा (= का)] भाँग के रेशे से बना हुआ एक प्रकार का मोटा कपडा़ जो बिछाने या बोरा बनाने के काम में आता है।

भँगरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० भृड्गराज] एक प्रकार की वनस्पति जो बरसात में, विशेषकर प्रयः ऐसी जगह, जहाँ पानी का सोता बहता है, या कूएँ आदि के किनारे, उगती हे। भँगरैया। भृंगराज। विशेष—इसको पत्तियाँ लँवोतरी, नुकीली, कटावदार और मोटे दल की होती हैं, जिनका ऊपरी भाग गबरे हरे रंग का और नीचे का भाग हलके रंग का खुर्दरा होता है। इसकी पत्तियों को निचोड़ने से काले रंग का रस निकलता है। वैद्यक में इसका स्वाद कड़वा और चरपरा, प्रकृति रूखी और गरम तथा गुण कफनाशक, रक्तशोधक, नवरोग और शिर की पीडा़ को दूर करनेवाला लिखा है और इसे रसायन माना है। यह तीन प्रकार का होता है—एक पीले फूल का जिसे स्वर्ण भृंगार, हरिवास, देवप्रिय आदि कहते है; दूसरा सफेद फूल का और तीसरा काले फूल का जिसे नील भृंगराज, महानील, सुनीलज, महाभृंग, नीलपुष्प या श्यामल कहते हैं। सफेद भँगरा तो प्रयः सब जगाह और पीला भँगरा कहीं कहीं होता है; पर काले फूल का भँगरा जल्दी नहीं मिलता। यह अलभ्य है और रसायन माना गया है। लोगों का विश्वास है कि काले फूल के भँगरे के प्रयोग से सफेद पके बाल सदा के लिये काले हो जाते हैं। सफेद फूल के भँगरे की दो जातियाँ हैं— एक हरे डंठलवाली, दूसरी काले डंठलवाली। पर्या०—मार्कव। भृंगराज। केशरंजन। रंगक। कुवेलवर्धन। भृंगार। मर्कर।

भँगार (१)
संज्ञा पुं० [सं० भड्न] १. जमीन में का वह गड्ढा जो बरसात के दिनों मे आपसे आप हो जाता है और जिसमें वर्षा का पानी समाता हें। २. वह गड्ढा जो कुआँ बनाते समय खोदा जाता है।

भँगार (२)
संज्ञा सं० [हिं० भाँग] घास फूस। कूडा़ करकट। उ०— (क) माला फेरे कुछ नहीं डारि मुआ गल भार। ऊपर ढेला ही गल भीतर करा भँगार।—कबीर (शब्द०)। (ख) वैष्णवभया तो क्या भया माला पहिरी चार। ऊपर कलो लपेट के भीतर भरा भँगार।—कबीर (शब्द०)।

भँगारि पु
संज्ञा स्त्री० [प्रा० भंगा + र; कुमा० भंगार (= राख)] गंदगी। राख। छार। उ०—सुंदर देह मलीन है राष्यो रूप सँवारि। ऊपर ते कलई करी भीतरि भरी भँगारि।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७२०।

भँगारी
संज्ञा स्त्री० [सं० भड्गारी] मच्छड। दे० 'भँकारी'।

भगिया
संज्ञा स्त्री० [सं० भड्ग + हिं० इया] दे० 'भाँग'। उ०— जोगिया भँगिया खवाइल, बौरानी फिरों दिवानी।—जग० बानी, पृ० १३५।

भगिरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भँगर'।

भँगेडी़
वि० [हिं० भाँग + एड़ी (प्रत्य०)] जिसे भाँग पीने की लत हो। बहुत अधिक भाँग पीनेवाला। भाँगड़।

भँगेरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भाँग + एरा (प्रत्य०)] भाँग की छाल का बना हुआ कपडा़। भगरा। भँगेला।

भँगेरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० भृड्गराज] भँगरा। भँगरैया।

भँगेला
संज्ञा पुं० [हिं० भाँग + एला(प्रत्य०)] भाँग की छाल का बना हुआ कपडा़। भँगेरा। भँगरा।

भँजना
क्रि० अ० [सं० भञ्जन] १. किसी पदार्थ के संयोजक अंगों का अलग होना। टुकडे टुकडे़ होना। टूटना। २. किसी बडे़ सिक्के का छोटे छोटे सिक्कों के रूप में बदला जाना। भुनना। जैसे, रुपया भँजना।

भँजना
क्रि० अ० [हिं० भाँजना] १. बटा जाना। जैसे, रस्सी बा तागे का भँजना। २. कागज के तख्तों का कई परतों में मोड़ा जाना। भाँजा जाना।

भँजनी †
संज्ञा० स्ञी० [हिं० भाँजना] करघे का एक अंग जो ताने को विस्तृत रखने, के लिये उसके किनारे पर लगाया जाता है। यह बाँस की तीन चिकनी, सीधी और दृढ़ लकड़ियों से बनता है जो पास पास समानांतर पर रहती हें। इन्हीं तीनों लकड़ियों के बीच की संधियों में से ऊपर नीचे होकर ताना लगाया जाता है। यह बुननेवाले के सामने किनारे पर रहता है। भँसरा।

भँजाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँजना] १. रूपया नोट आदि को भँजाने के लिये दी जानेवाली रकम। २. माँजने की मजदूरी। ३. भाँजने की क्रिया या भाव।

भँजाना† (१)
क्रि० स० [हिं० भँजना] १. भँजने का सकर्मक रूप। भागों वा अंशों में परिणत कराना। तुड़वाना। २. बडा़ सिक्का आदि देकर उतने ही मूल्य के छोटे सिक्के लेना। भुनाना। जैसे, रुपया भँजाना।

भँजाना (२)
क्रि० सं० [हिं० भाँजना] भाँजने का प्रेरणार्थक रूप। दूसरे को भाँजने के लिये प्रेरणा करना वा नियुक्त करना। जैसे, रस्सी भँजाना, कागज भँजाना।

भँटकटैया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भटकठैया'।

भँडताल †
संज्ञा पुं० [हिं० भाँड़ + ताल] एक प्रकार का निम्न कोठि का गाना और नाच जिसमें गानेवाला गाता है और शेष समाजी उसके पीछे तालियाँ पीटते हैं। भँडतिल्ला। उ०— साँग संगीत भँडताल रहस होने लगा।—इंशाअल्ला (शब्द)।

भँड़तिल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० भाँड] दे० 'भँडताल'।

भँड़फाड़
संज्ञा पुं० [हिं० भाँडा़ + फोड़ना] १. मिट्टी के बर्तन को गिराना या तोड़ना फोड़ना। उ०—जब हम देत लेत नहिं छोरा। पाछे आह करत भँड़फोरा।—गिरधरदास (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—मचना।—मचाना।—होना। २. मिट्टी के बर्तनों का टूटता फूटना। ३. भेद खोलने का भाव। रहस्योद्घाटन। भंडाफोड़ करना।

भँडभाँड
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डीर] एक कँटीला क्षुप जिसकी पत्तियाँ नुफीली, लबी और कँटीली होती हैं। यह जाडे़ के दिनों में उगता हैं। भड़भाँड। विशेष—इसका फूल पोस्त के फूल के आकार का पीले या बसती रंग का होता है। फूल के झड़ जाने पर पोस्त की तरह लंबी और काँटों से युक्त ढेढी लगती हैं जिसमें पकने पर काले रंग के पोस्त से और कुछ बडे़ दाने निकलते हैं। इन दानों को पेरने से तेल निकलता है जो जलाने और दवा के काम आता है। इसके पौधे से पीले रंग का दूध निकलता है जो घाव और चोट पर लगाया जाता है। उसकी जड़ भी फोडे़ फुंसियों पर पीसकर लगाई जाती है। इसके नरम डंठल की गूदी की तरकारी भी बनाई जाती है।

भँडरिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भडुरी] एक जाति का नाम। भडुर। विशेष—इस जाति के लोग फलित ज्योतिष या सामुद्रिक आदि की सहायता से लोगों को भविष्य बताकर अपना निर्वाह करते हैं और शनैश्चरादि ग्रहों का दान भी लेते हैं। कहीं कहीं इस जाति के लोग तीर्थों में यात्रियों को स्नान और दर्शन आदि भी कराते हैं। इस जाति के लोग माने तो व्राह्मण ही जाते हैं, पर ब्राह्मणों में बिलकुल अतिंम श्रेणी के समझे जाते है।

भँडरिया (२)
वि० १. ढोंगी। पाखंडी। २. धूर्त। मक्कार।

भँडरिया (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भंडार + इया (प्रत्य०)] दीवारों अथवा उनकी संधियों में बना हुआ ताख या छोटी कोठी जिसके आगे छोटे छोटे दरवाजे लगे रहते हैं और जिसमें छोटी मोटी चीजें रखी जाती हैं। भंडरिया।

भँड़सार, भँड़साल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँड़ + शाला] वह गोदाम जहाँ सस्ता अन्न खरीदकर महँगी में बेचने के लिये इक्टठा किया जाता है। खत्ता। खत्तो। उ०—पूँजी कौ अंत न पारा। हम करी बहुत। भँड़सारा।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८८८।

भँड़हर
संज्ञा पुं० [सं० भाण्ड] १. कच्ची मिट्टी का पकाया हुआ पात्र। मिट्टी के बर्तन। २. पिंड। शरीर। (लाक्ष०)। उ०—चढ़त चढा़वत भँडहर फोरी। मन नहिं जाने केकर चोरी।—कबीर० बी० (शिशु०), पृ० २१४।

भँडा़ना
क्रि० स० [हिं० भाँड़] १. उछल कूद मचाना। उपद्रव करना। २. दौड़ धूप करके वस्तुओं को अस्त व्यस्त करना वा तोड़ना फोड़ना। नष्ट करना। उ०—नंद घरनि सुत भलो पढा़यो। ब्रज की बीथिन पुरनि धरनि घर बाट घाट सब शोर मचायो। लरिकन मारि भजन काहू के काहू को दधि दूध लुटायो। काहू के घर करत बडा़ई मैं ज्यों त्यों करि पकरन पायो। अब तो इन्हें जकरिं बाँधोंगी इहि सब तुम्हारो गाँव भँडायो सूरश्याम भुज गहि नँदरानी बहुरि कान्ह सपने ढिग आयो।—सूर (शब्द०)।

भँडारा
संज्ञा पुं० [हिं० भंडार] १. दे० 'भंडार'। २. समूह। झुंड। उ०—पान करत जल पाप अपारा। कोटि जनम कर जुरा भँडारा। नास होइ दिन मह महिपाला। सत्य सत्य यह बचन रसाला।—(शब्द)। ३. दे० 'भडारा'। क्रि० प्र०—जुटना।—जुड़ना।—जुरना।—जोड़ना।

भँडारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. छोटी कोठरी। २. कोश। खजाना। उ०—कौरव पासा कपट बनाए। धर्मपुत्र को जुवा खेलाए। तिन हारी सब भूमि भँडारी। हारी बहुरि द्रोपदी नारी।—सूर (शब्द)।

भँडारी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भडारी] १. कोषाध्यक्ष। उ०—(क) शेरशाह सम दूज न कोऊ। समुँद्र सुमेरु भँडारी दोऊ।— जायसी (शब्द०)। (ख) बोलि सचिव सेवक सखा पटधारि भँडारी।—तुलसी (शब्द०)। २. तोशखाने का दारोगा। उ०—पद्मावति पहँ आइ भँडारी। कहेसि मँदिर महँ परी मँजारी।—जायसी (शब्द०)।

भँड़िहा पु
संज्ञा पुं० [?] चोर।

भँडुआ
संज्ञा पुं० [सं० भण्ड] दे० 'भडुआ'।—वर्ण० पृ० २।

भँड़र
संज्ञा पुं० [देश०] घूट नामक झाड़ या वृक्ष जिसकी छाल चमडा़ रंगने के काम में आती है। वि० दे० 'घूँट'।

भँडे़रिया †
संज्ञा पुं० [हिं० भाँढ़] दे० 'भँडरिया'।

भँडे़हर †
संज्ञा पुं० [सं० भाण्ड] मिट्टी का पात्र जो रँगा गया हो।

भँडौआ
संज्ञा पुं० [हिं० भाँड़] १. भाँड़ों के गाने का गीत। ऐसा गीत जो सभ्य अथवा शिष्ट समाज में गाने के योग्य न समझा जाय। २. हास्य आदि रसों की साधारण अथवा निम्नकोटि की कविता। जैसे, भडौआ संग्रह।

भँवूरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बबूर] बबूल की जाति का एक पेड़ जिसे फुलाई भी कहते हैं। दे० फुलाई'।

भँभरना
क्रि० अ० [हिं० भय + रना (प्रत्य०)] [संज्ञा भँभेरिया] भयभीत होना। डरना।

भँभा
संज्ञा पुं० [सं० भंसस्] भंभा। बिल छेद।

भँभाका
संज्ञा स्त्री० [हिं० भंभा] अधिक अवस्था को स्त्री की भग (बाजारू)।

भँभाना
क्रि० अ० [अनु०] गो आदि पशुओं का चिल्लाना। रँभाना। उ०—सपने में गई सखि देखन हौं सुनु नाचत नंद जसोमति को नट। वा मुसुकाय कै भाव बताय कै मैं रोई एँचि खरो पकरो पट। तो लगि गाय भँभाय उठी कवि देव बधू न मथ्यो दधि को मट। जागि परी तौ न कान्ह कहूँ न कदब को कुंज न कालिंदी को तट।—देव (शब्द०)।

भँभीरी (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] एक प्रकार का पतिंगा इसे जुलाहा भी कहते हैं। उ०—बाल अवस्था को तुम धाई। उड़त भँभीरी पकरी जाई।—सूर० (शब्द०)। विशेष—इसकी पूँछ लंबी और पतली, रंग लाल और बिलकुल झिल्ली के समान पारदर्शक चार पर होते हैं। इसकी आँखे टिड्डी की आँखों की तरह बडी़ और ऊपर निकली रहती है। यह वर्षा के अंत में दिखाई पड़ता है और प्रायः पानी के किनारे घासों के ऊपर उड़ता है। पकडने पर यह अपने परों को हिलाकर भन भन शब्द करता है।

भँभीरी (२)
संज्ञा स्त्री० फिरहरी। फिरकी। फिरेरी। उ०—बाट असूझ अथाह गँभीरी। जिउ बाउर भा फिरै भँभीरी।—जायसी ग्रं०, पृ० १५२।

भँभेरि पु
संज्ञा स्त्रीं० [हिं० भँभरना] भय। डर। उ०—राज मराल को बालक पेलि कै पालत लालत पूसर को। सुचि सुंदर सालि सकेलि सुवारि कै बीज बटोरत ऊसर को। गुन ज्ञान गुमान भँभेरि बडी़ कल्पद्रुम काटत मूसर को। कलिकाल अचार बिचार हरी नहीं सूझे कछू धमधूसर को।—तुलसी (शब्द०)।

भँमर,भँमरा †
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] १. बडी़ मधुमक्खी। सारंग। डंगर। २.बरैं। भिड़।

भँवनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रमण] धूमना फिरना। उ०—देखत खग निकट मूग खनन्हि जुत थकित बिसारि जहाँ तहाँ की भँवनि।—तुलसी (शब्द०)।

भँवना
क्रि० अ० [सं० भ्रमण] १. घूमना। फिरना। उ०—(क) लंपट लुवुव मन भव से भँवत कहा करि भूरि भाव ताकी भावना भवन में।—मतिराम (शब्द०)। (ख) भौर ज्यों जगत निशि चातक ज्यों भँवत श्याम नाम तेरोई जपत है।—केशव (शब्द०)। २. चक्कर लगाना। उ०— केशौदास आसपास भँक्त भँवर जल केलि में जलजमुखी जलज सी सोहिए।—केशव (शब्द०)।

भँवर
संज्ञा पुं [सं० भ्रमर, प्रा० भँवर] १. भौंरा। उ०—कुदरत पाई खीर सो चित सों चित्त मिलाय। भँवर विलंबा कमल रस अव कैसे उड़ि जाय।—कबीर (शब्द०)। २. पानी के बहाव में वह स्थान जहाँ पानी की लहर एक केंद्र पर चक्राकार घूमती है। ऐसे स्थान पर यदि मनुष्य या नाव आदि पहुँच जाय, तो उसके डूबने की संभावना रहती है। आवर्त। चक्कर। यमकातर। उ०—(क) तडित विनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीन। नाभि मनोहर लेत जनु जमुन भँवर छबि छीन।—तुलसी (शब्द०)। (ख) भागहु रे भागौ भैया भागनि ज्यों भाग्यो, परै भव के भवन माँझ भय को भँवर है।—केशव (शब्द०)। क्रि० प्र०—पड़ना।—परना। मुहा०—भँवर में पड़ना = चक्कर में पड़ना। घबरा जाना।उ०—यह सुठि लहरि लहरि पर धावा। भँवर परा जिउ थाह न पादा।—जायसी ग्रं०, पृ० २८९। यौ०—भँबरकली। भँवरजाल। भँवरभीख। ३. गड्ढा। गर्त। उ०—उरज भँवरी मानो मीनमणि कांति। भृगुचरण हृदय चिह्न ये सब, जीव जल बहु भाँति।—सूर (शब्द०)।

भँवरकली
संज्ञा स्त्री० [हिं० भँवर + कली] लोहे वा पीतल की वह कडी जो कील में इस प्रकार जडी़ रहती है कि वह जिधर चाहे, उधर सहज में घुमाई जा सकती है। विशेष—यह प्रायः पशुओं के गले की सिकडी़ या पट्टी आदि में लगी रहती है। पशु चाहे जितने चक्कर लगावें, पर इसकी सहायता से उसकी सिकडी़ में बल नहीं पड़ने पाता। घूमने वाली कुंडी या कडी़।

भँवरगीत
संज्ञा पुं० [हिं० भँवर(= भ्रमर) + गीत] दे० 'भ्रमरगीत'।

भँवरगुंजार
संज्ञा पुं० दे० [देश०] एक प्रकार का डिंगल गीत। इसके पहले पद में १६, दूसरे पद के अंत में दो लघु सहित १४, तीसरे में १४ और चतुर्थ पद के अंत में २ गुरु सहित ९ मात्राएँ होती हैं। जैसे,—निज धनुष गह कर जगत नायक, सात बेधे ताड़ सायक। महक दुंदभ करक नभ मग, जमे जस जागे।—रघु० रू०, पृ० १५०।

भँवरगुफा
संज्ञा स्त्री० [हिं०] योगियों द्वारा साधना में एक कल्पित गुफा। ब्रह्मरंध्र। उ०—(क) पिय की मीठी बोल सुनत मैं भई दिवानी। भँवरगुफा के बीच उठत है सोहं बानी।—पलटू०, भा० १, पृ० २। (ख) भँवरगुफा में है तिवेनी सुरति निरति लै धावो।—चरण० बानी, पृ० ६९।

भँवरजाल
संज्ञा पुं० [हिं० भवर + जाल] संसार और सांसारिक झगडे बखेडे़। भवजाल। भ्रमजाल। उ०—भँवरजाल में आसन माडा़। चाहत सुख दुख संग ने छाडा़।—कबीर (शब्द०)।

भँवरभीख
संज्ञा पुं० [हिं० भँवर + भीख] वह भीख जो भौरे के समान धूम फिरकर माँगी जाय। तीन प्रकार की भिक्षा में से दूसरी। उ०—भँवरभीख मध्यम कही सुनौ संत चित लाय। कहै कबीर जाको गही मध्यम माहिं समाय।— कबीर (शब्द०)।

भँवरा
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] दे० 'भौरा'।

भँवरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भँवरा] १. पानी का चक्कर। भँवर। उ०—जहँ नदि नीर गँभीर तहाँ भल भँवरी परइ। छिल छिल सलिल न परै परै छबि नहिं करई।—नद० ग्रं०, पृ० १३। २. जंतुओं के शरीर के ऊपर वह स्थान जहाँ के रोएं और बाल एक केंद्र पर घूमे हुए हों। बालों का इस प्रकार का घुमाव स्यानभेद से सुभ अथवा अशुभ लक्षण माना जाता है। उ०—स्याम उर सुधा दह मानौ।......उरजु भँवरी भँवर, मीनौ नील मनि की कांति। भृगुचरन हिय चिह्न ये सब जीव जल बहु भाँति।—सूर०, १०।१८३८।

भँवरो (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भँवरना वा भँवना] १. दे० 'भाँवर'। २. बनियों का सौदा लेकर घूम घूमकर बेचना। फेरी। ३. रक्षक, कोतवाल या अन्य कर्मचारियों का प्रजा की रक्षा के लिये चक्कर लगाना। फेरी। गश्त। उ०—फिरै पाँव कुतवार सु भँवरी। काँपे पाउँ चंपत वह पौंरी।—जायसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—फिरना।—लगाना। ४. परिक्रमा। (स्त्रियाँ)। क्रि० प्र०—देना।

भँवा
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रू, हिं० भौं] दे० 'भौ'। उ०—बरिज भँवाँ अलक टेढ़ी मनो अति सुगंधि रस अटके।—संतबानी०, भा० २, पृ० ७६।

भँवाना पु
क्रि० स० [हिं० भँवना] १. घुमाना। फिराना। चक्कर देना। उ०—(क) ग्यारे चंद्र पूर्व फिर जाय। बहु कलेस सों दिवस भँवाय।—जायसी (शब्द०)। (ख) तेहि अंगद कह लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भँवाई।—तुलसी (शब्द०)। २. भ्रम में डालना। उलझन में डालना।

भँवारा †
वि० [हिं० भँवना + आरा (प्रत्य०)] भ्रमणशील। घूमनेवाला। फिरनेवाला। उ०—बिलग मत मानो ऊधो प्यारे। यह मथुरा काजर की डाबरि जे आवै ते कारे। तुम कारे सुफलक सुत कारे कारे मधुप भँवारे। ता गुण श्याम अधिक छबि उपजत कमल नैन मणि पारे।—सूर (शब्द०)। (ख) बिबरन आनन अरिगनी निरखि भँवारे मोर। दरकि गई आँगी नई फरकि उठे कुच कोर।—शृं० सत० (शब्द०)।

भँसना
क्रि० अ० [हिं० बहना] १. पानी के ऊपर तैरना। जैसे, भँसता जहाज। (लश०)। २. पानी में डाला या फेंका जाना। दे० 'भसाना'।

भँसरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भँजनी'।

भँसान †
वि० पुं० [बंग० भासान] पूजित देवमूर्ति का जल में विसर्जन। भसान।


संज्ञा पुं० [सं०] १. नक्षत्र। २. ग्रह। ३. राशि। ४. शुक्राचार्य। ५. भ्रमर। भौंरा। ६. भूधर। पहाड़। ७. भ्रांति। ८. छदशास्त्रानुसार एक गण का नाम जिसके आदि का वर्ण गुरु और शेष दो लघु/?/होते हैं। भगण।

भइआ †
संज्ञा पुं० [हिं० भाई] दे० 'भैया'। उ०—अरेरे पथिक भइया समाद लए जइह, जाहि देस बस मोर नाह।— विद्यापति, पृ० ११८।

भइरव †
संज्ञा पुं० [सं० भैरव] दे० 'भैरव'। उ०—तोही आँणू भइरव चाँपा का फूल, चोवा चंदन अंग कपूर।—बी० रासो, पृ० २१।

भइया
संज्ञा पुं० [हिं० भाई + इया (प्रत्य०)] १. भाई। उ०— भोर के आए दोऊ भइया। कीनों नाहिन कलेऊ दइया।—नंद० ग्रं०, पृ० २५५। २. एक आदरसूचक शब्द जिसका व्यवहार प्रायः बराबरवालों के लिये होता है।

भउँह †
संज्ञा स्त्री० [अप० भउँह (भ० पु०, १।२२), हिं० भौंह)] दे० —'भौ'। उ०—भउँह धनु गुन काअर रेख। मार नम व पुंख अपशेष।—विद्यापति, पृ० १६।

भउजाई ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० भौजाई< सं० भातृजाया]दे० 'भौजाई।

भउजी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भौजाई'। उ०— रामशंकर जी ने दूसरा द्दश्य जो उनका असली है दिखाया। कहा काछिन भउजी, वही आज फिर दे जाओ। यह तुम्हारे भतीजे हैं, इनका कुछ आदर स्वागत करना है।—काले०, पृ० १९।

भउरा †
संज्ञा० पुं० [हिं०] १. दे० 'भौरा'। उ०—जो जन जाय, रहै तहँ शिव होय ज्यौं अलीअल पर भउरा।—प्राण०, पृ० ६५। २. कंडे की निर्धूम अग्नि।

भक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] सहसा अथवा रह रहकर आग के जल उठने अथवा वेग से धुएँ के निकलने के कारण उत्पन्न होनेवाला शब्द। इसका प्रयोग प्रायः 'से' विभक्ति के साथ होता है। जैसे लंप भक से जल उठा।

भकक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नक्षत्रकक्षा।

भकटाना ‡
क्रि० अ० [?] दे० 'भकसाना'।

भकठना ‡
क्रि० अ० [सं० विकार] दे० 'भगरना'।

भकति
संज्ञा स्त्री० [सं० भक्ति] दे० 'भक्ति'। उ०—बहु बिभूति हरि द्विज क्यों दीनी। दया भकति पतनी सुभ कीनी।— नंद० ग्रं०, पृ० २१२।

भकभक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'भक'।

भकभकाना
क्रि० अ० [अनु०] भक भक शब्द करते हुप जलना। चमकना या भभकना।

भकराँध †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भगरना अथवा भक्त (= भात) ? + गंध] अनाज के सड़ने की गंध। सड़े हुए अनाज की गंध।

भकराँधा †
सं० [हिं० भकराँध + आ (प्रत्य०)] सड़ा हुआ अन्न।

भकसा †
वि० [हिं० भकसाना या भकटाना] (खाद्य पदार्थ) जो अधिक समय तक पड़ा रहने के कारण कसैला हो गया हो और जिसमें से एक विशेष प्रकार की दु्र्गंध आती हो। बुसा हुआ।

भकसाना †
क्रि० अ० [हिं० कसाव] किसी खाद्य पदार्थ का अधिक समय तक पड़े रहने अथवा और किसौ कारण से बदबूदार और कसैला हो जाना।

भकाऊँ
संज्ञा पुं० [अनु० या हिं० बीध (= भेड़िया)] बच्चों को डराने के लिये एक कल्पित व्यक्ति। हौवा।

भकुआ †
वि० [देश०] मूर्ख। मूढ़। हतबुद्धि। बुद्धू। बेवकूफ। उ०—अपने देश की बनी वस्तुओं को छोड़कर विदेशी पदार्थ ले लेकर भकुआ बनने के प्रत्यक्ष प्रमाण बनते हुए।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २३५।

भकुआना (१)
क्रि० अ० [हिं० भकुआ + ना (प्रत्य०)] चकपका जाना। घबरा जाना।

भकुआना (२)
क्रि० स० १. चकपका देना। घबरा देना। २. मूर्ख बनाना।

भकुड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० भाँकुट] मोटा गज जिससे तोप में बत्ती आदि ठूँसी जाती है।

भकुड़ाना †
क्रि० स० [हिं० भकुड़ा + आना (प्रत्य०)] १. लोहे के गज से तोप के मुँह में बत्ती भरना। २. लोहे के गज से तोप के मुँह का भीतरी भाग साफ करना।

भकुरना †
क्रि० अ० [देश०] मुँह लटकाना। रूठ जाना। उ०— निनी ने मनाया, अरी ठहर भी, यों ही भकुरने लगी।—मृग०, पृ० ४८।

भकुरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] मूर्ख। भकुआ। अज्ञानी। उ०—मान गवाए सोड सब, जो संपति हुति साथ। अजहुँ जागु न धर बसे, भकुरे है कछु हाथ।—चित्रा०, पृ० ३५।

भकुवा †
वि० [देश०] भकुआ। मूढ़। हतबुद्धि।

भकुवाना पु
क्रि० अ० [हिं० भकुवा + ना] दे० 'भकुआना'। उ०—कासी में जो प्रान तिंयागे सो पत्थर भे आई। कहैं कबीर सुनो भाई साधो भरमे जन भकुवाई।—कबीर० श०, भा० ३, पृ० ५४।

भकूट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की राशियों का समूह जो विवाह की गणना में शुब माना जाता है। (फलित ज्यो०)।

भकोसना
क्रि० स० [सं० भक्षण] १. किसी चीज को बिना अच्छी तरह कुचले हुए जल्दी ज्लदी खाना। निगलना। ठूँसना। २. खाना (व्यंग्य)।

भक्किका
स्त्री० [सं०] झिल्ली। झींगुर।

भक्कुड़
संज्ञा पुं० [सं० भक्कुड] एक प्रकार की मछली। भाकुर [को०]।

भक्कू †
वि० [सं० भेक] भकुआ। बोदा। मूर्ख। उ०—दूल्हा भक्कू थोड़े था।—नई, पृ० १४०।

भक्खना पु
क्रि० स० [सं० भाषण] भाखना। कहना। उ०— राव हमीर नजरि सब रक्खिय। बचन सेख की यहि बिधि भक्खिय।—ह० रासो, पृ० ५२।

भक्त
वि० [सं०] १. वाटा हुआ। भागों में बाँटा हुआ। २. बाँटकर दिया हुआ। प्रदत्त। ३. अलग किया हुआ। ४. पक्षपाती। ५. अनुयायी। ६. सेवा करनेवाला। भजन करनेवाला। भक्ति करनेवाला।

भक्त
संज्ञा पुं० १. पका हुआ चावल। भात। २. धन। ३. अन्न। ४. भाग। हिस्सा। ५. वेतन। ६. सेवा पूजा करनेवाला पुरुष। उपासक। विशेष—भगवदगीता के अनुसार आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी औरज्ञानी चार प्रकार के भक्त तथा भागवत के अनुसार नवधा भक्ति के भेद से नौ प्रकार के भक्त माने गए हैं।

भक्तकंस
संज्ञा पुं० [सं०] भात (पके हुए चावलों) से भरी काँसे की थाली।

भक्तकर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सुगंधित द्रव्य जो अनेक दूसरे द्रव्यों के योग से बनाया जाता है।

भक्तकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. रसोइया। पाचक। २. भक्तकर नामक सुंगधित द्रव्य।

भक्तकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन पकाना [को०]।

भक्तच्छंद
संज्ञा पुं० [सं० भक्तच्छन्द] खाने की इच्छा। बुवुक्षा। भूख [को०]।

भक्तजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमृत।

भक्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भक्ति।

भक्ततूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो भोजन करते समय बजाया जाता था।

भक्तत्व
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के अंग वा भाग होने का भाव। अव्ययीभूत होना। अंगत्व।

भक्तदाता
वि० [सं० भक्तदातृ] भरण पोषण करनेवाला। पालक। भक्तदायक [को०]।

भक्तदायक
वि० [सं०] १. पालन पोषण करनेवाला। सँभाल रखनेवाला। २. समर्थन और सहयोग देनेवाला।

भक्तदायी
वि० [सं० भक्तदायिन्] दे० 'भक्तदायक'।

भक्तदास
संज्ञा पुं० [सं०] वह दास जो केवल भोजन लेकर ही काम करता हो। विशेष—सात प्रकार के दासों में से यह मनु के अनुसार दूसरे प्रकार का दास है।

भक्तद्वेष
संज्ञा पुं० [सं०] मंदाग्नि। भोजन में अरुचि। उ०— अन्न का स्मरण, श्रवण, दर्शन और वास आदि इनसे जिसको त्रास होय उसको भक्तद्वेष कहते हैं।—माधव०, पृ० १०२।

भक्तपन
संज्ञा पुं० [सं० भक्त + हिं० पन (प्रत्य०)] भक्ति।

भक्तपुलाक
संज्ञा पुं० [सं०] माँड़। पीच।

भक्तबच्छल पु
वि० [सं० भक्तवत्सल] दे० 'भक्तवत्सल'।

भक्तबछल पु
वि० [सं० भक्त + हिं० बछल] दे० 'भक्तवत्सल'। उ०—राम गरीब नेवाज गरीबन सदा निवाजा। भक्तबछल भगवान करत भक्तन के काजा।—पलटू० बानी, पृ० १५।

भक्तबस्यता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भक्त + वश्यता] भक्त के वश में होने का भाव। उ०—भक्तवस्यता निगम जु गाई। सो श्रीकृष्ण प्रगट दिखराई।—नंद० ग्रं०, पृ० २५०।

भक्तमड
संज्ञा पुं० [सं० भक्तमण्ड] चावल का माड़।

भक्तमंडक
संज्ञा पुं० [सं० भक्तमण्डक] माँड़। दे० 'भक्तमंड'।

भक्तमाल
संज्ञा पुं० [सं० भक्त + माल] वह ग्रंथ जिसमें हरिभक्तों का वर्णन हो। इस नाम का एक ग्रंथ जिसमें भक्तों का चरित वर्णन है। इसके रचनाकार नाभादास जी हैं। उ०— 'भक्तमाल' में भी इनका वर्णन मिलता है।—अकबरी०, पृ० ३९।

भक्तराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरिभक्तों में श्रेष्ठ व्यक्ति। २. भक्तों के आश्रयदाता। भगवान। उ०—दीन जानि मंदिर पगु धारो। भक्तराल तुम बेगि पधारो।—कबीर० सा०, पृ० ४८७।

भक्तरुचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बोजन की इच्छा। बुमुक्षा [को०]।

भक्तवत्सल (१)
वि० [सं०] [संज्ञा भक्तवत्सलता] जो भक्तों पर कृपा करता हो। भक्तों पर स्नेह रखनेवाला।

भक्तवत्सल (२)
संज्ञा पुं० विष्णु।

भक्तशरण
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ भात पकाकर रखा जाता है। रसोईधर।

भक्तशाला
संज्ञा स्त्री० [पुं०] १. पाकशाला। २. वह स्थान जहाँ भक्त लोग बैठकर धर्मोपदेश सुनते हो।

भक्तसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] पात्र जिसमें दाल रखी हो। दाल का बर्तन।

भक्तसिक्थ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भक्तमंड'।

भक्ता
वि० [सं० भक्तृ] पूजक। आराधक।

भक्ताई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भक्त + (प्रत्य०)] भक्ति।

भक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनेक भगों में विभक्त करना। बाँटना। २. भाग। विभाग। ३. अंग। अवयव। ४. खंड। ५. वह विभाग जो रेखा द्वारा किया गया हो। ६. विभाग करनेवाली रेखा। ७. सेवा सुश्रूषा। ८. पूजा। अर्चन। ९. श्रद्धा। १०. विश्वास। ११. रचना। १२. अनुराग। स्नेह। १३. शांडिल्य के भक्तिसूत्र के अनुसार ईश्वर में अत्यंत अनुराग का होना। विशेष—यह गुणभेद से सात्विकी, राजसी और तामसी तीन प्रकार की मानी गई है। भक्तों के अनुसार भक्ति नौ प्रकार की होती है जिसे नवधा भक्ति कहते हैं। वे नौ प्रकार ये हैं— श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। १४. जैन मतानुसार वह ज्ञान जिसमें निरतिशय आनंद हो और जो सर्वप्रिय, अनन्य, प्रयोजनविशिष्ट तथा वितृष्णा का उदयकारक हो। १५. गौण वृत्ति। १६. भंगी। १७. उपचार। १८. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में तगण, यगण और अंत में गुरु होता है।

भक्तिकर
वि० [सं०] १. भक्ति के योग्य। २. जिसे देखकर भक्ति उत्पन्न। भकत्युत्पादक।

भक्तिगम्य
वि० [सं०] जो भक्ति के द्वारा प्राप्त किया जा सके। भक्ति के द्वारा प्राप्य।

भक्तिगंधि
वि० [सं० भक्ति + गन्धि] साधारण भक्तिवाला।

भक्तिचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] रेखांकन। रेखाचित्र [को०]।

भक्तिच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] वह चित्रकारी जो रेखाओं द्वारा की जाय। २. भक्तों के विशेष चिह्न। जैसे, तिलक, मुद्रा आदि।

भक्तिन
संज्ञा स्त्री० [सं० भक्त + हिं० इन (प्रत्य०)] उ०—भक्तन के भक्तिन होय बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी। कहैं कबीर सुनो भाइ साधो यह सब अकथ कहानी।—कबीर० श०, भा० १, पृ० १५।

भक्तिनम्र
वि० [सं०] भक्तिपूर्वक झुका हुआ [को०]।

भक्तिपूर्व, भक्तिपूर्वक
क्रि० वि० [सं०] भक्ति के साथ। भक्ति- सहित।

भक्तिप्रवण
वि० [सं०] भक्ति में तन्मय या लीन।

भक्तिभाजन
वि० [सं०] भक्ति का पात्र। श्रद्धेय। जिसके प्रति भक्ति की जाय। श्रद्धा के योग्य [को०]।

भक्तिमान्
वि० [सं० भक्तिमत्] [स्त्री० भक्तिमती] भक्ति से युक्त। भक्तिवाला।

भक्तिमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] मोक्ष की प्राप्ति का एक मार्ग। भक्ति का पथ।

भक्तियाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपास्य देव में अत्यंत अनुरक्त रहना। सदा भगवान् में श्रद्धापूर्वक मन लगाकर उनकी उपासना करना। २. भक्ति का साधन।

भक्तियोग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भक्तियाग'।

भक्तिरस
संज्ञा पुं० [सं०] उपास्य के प्रति उत्कृष्ठ अनुराग। रति। विशेष—संस्कृत के परवर्ती विद्वानों ने भक्ति को रस के रूप में मान्यता दी है।

भक्तिराग
संज्ञा पुं० [सं०] १. भक्ति का पूर्वानुराग। २. पूर्ण रूपेण भक्ति में तल्लीन होना।

भक्तिल (१)
वि० [सं०] भक्तिदायक।

भक्तिल (२)
संज्ञा पुं० उत्तम घोड़ा। विश्वासी अश्व।

भक्तिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. भक्ति विषयक वार्ता या कथा। २. भक्ति को रस, रूप और ईश्वरप्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट साधन माननेवाला मतवाद।

भक्तिसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णव संप्रदाय का एक सूत्र ग्रंथ। विशेष—यह ग्रथ शांडिल्य मुनि के नाम से प्रख्यात है। इसमें भक्ति का वर्णन है।

भक्तोद्देशक
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के प्राचीन संघाराम का एक कर्मचारी जो इस बात की जाँच करता था कि आज कौन क्या भोजन करेगा।

भक्तोपसाधक
संज्ञा पुं० [सं०] १. रसोइया। २. परिवेशक।

भकत्यानंद
संज्ञा पुं० [सं० भक्ति + आनन्द] भक्ति का आनंद। उ०—अब विधि भक्तयानंद जु पग्यौ। ब्रज कौ भाग सराहन लग्यौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २७२।

भक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाने का पदार्थ। भक्ष्य। खाना। भोजन। २. खाने का काम। भक्षण। उ०—शबरी कटुक बेर तजि मीठे भाषि गोद भरि लाई। जूठे की कछु शंक न मानी भक्ष किए सतभाई।—सूर (शब्द०)। ३. पान करना। पान। पीना। यौ०—भक्षकार। भक्षपत्री।

भक्षक
वि० सं० [स्त्री० भक्षिका] खानेवाला। भोजन करनेवाला। खादक।

भक्षकार
संज्ञा पुं० [सं०] हलवाई। सूपकार। रसोइया।

भक्षटक
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा गोखरू।

भक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० भक्ष्य, भाक्षित, भक्षणीय] १. भोजन करना। किसी वस्तु को दाँतों से काटकर खाना। जैसे, पुआ आदि का खाना। २. आहार। भोजन।

भक्षन पु
संज्ञा पुं० [सं० भक्षण] दे० 'भक्षण'। उ०—गो भक्षन द्विज श्रुति हिंसन नित जासु कर्म मै।—भारतेंदु ग्र, भा० १, पृ० ५४०।

भक्षना पु
क्रि० स० [सं० भक्षण] भोजन करना। खाना। उ०—(क) छहूँ रसहूँ धरत आगे बहै गंध सुहाइ। और अहित अभक्ष भक्षति गिरा वरणि न जाइ।—सूर (शब्द०)। (ख) अति तनु धनु रेखा नेक नाकी न जाकी। खल शर खर धारा क्यों सहै तिच्छ ताकी। बिड़ कन घन घूरे भक्षि क्यों बाज जीवै। शिव सिर शशि श्री को राहु कैसे सु छीवै।— केशव (शब्द०)। (ग) जाति लता दुहूँ आँख रहि नाम कहै सब कोय। सूधे सुख मुख भक्षिए उलटे अंबर होय।—केशव (शब्द०)।

भक्षयिता
वि० पुं० [सं० भत्तयितृ] भक्षण करनेवाला। खानेवाला।

भक्षिका
वि० [सं०] खानेवाली। भोजन करनेवाली। उ०—मातृ पितृ बंधु शील भक्षिका। लोक लाज नाश हेतु तक्षिका।— भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ८४४।

भक्षित (१)
वि० [सं०] खाया हुआ। शेष।

भक्षित (२)
संज्ञा पुं० दे० 'भक्ष्य (२)'। यौ०—भक्षितशेष, भक्षितान्न = उच्छिष्ट। खाने से बचा हुआ।

भक्षी
वि० [सं० भक्षिन्] [स्त्री०भक्षिणी] खानेवाला। भक्षक।

भक्ष्य (१)
वि० [सं०] भक्षण करने योग्य। खाने के योग्य।

भक्ष्य (२)
संज्ञा पुं० खाद्य। अन्न। आहार।

भक्ष्यकार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भक्षकार'।

भक्ष्याभक्ष्य
वि० [सं० भक्ष्य + अभक्ष्य] खाने और न खाने योग्य। खाद्य अखाद्य (पदार्थ)।

भख पु
संज्ञा पुं० [सं० भक्ष, प्रा० भक्ख] आहार।भक्ष्य। भोजन। उ०—(क) आनँद ब्याह कटै मस खावा। अब भख जन्म जन्म कहँ पावा।—जायसी (शब्द०)। (ख) वेद वेदांत उपनिषद् अरपै सो भख भोक्ता नाहिं। गोपी, ग्वालिन के मंडल में सो हँहि जूठनि खाहिं।—सूर (शब्द०)। (ग) पट पाखै भख काँकरै सफर परेई संग। सुखी परेवा जगत में एकै तुहीं बिहंग।—बिहारी (शब्द०)। मुहा०—भख करना = खाना। उ०—आछे देहु जो गढ़ तौ जनिचालहु यह बात। तिनहिं जो पाहन भख करहिं अस केहि के मुख दाँत।—जायसी (शब्द०)।

भखना पु
क्रि० स० [सं० भक्षण> प्रा० भक्खण] १. खाना। भोजन करना। उ०—(क) नीलकंठ कीड़ा भखै मुख वाके है राम। औगुन वाके लगै नहिं दर्शन से ही काम।—कबीर (शब्द०)। (ख) कृमि पावक तेरो तन भखिहैं समुझि देखु मन माँही। दीनदयालु सूर हरि भजि ले यह ओसर फिर नाहिं।—सूर (शब्द०)। (ग) क्यों खरि सीतल बास करै मुख ज्यों भखिए घनसार के साटे।—केशव (शब्द०)। २. निगलना।

भखी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो दलदलों में उत्पन्न होती है। खवी। विशेष—यह नैनीताल में बहुत होती है और छप्पर छाने के काम में आती है। इसकी ट्टियाँ भी बनती हैं। इसके फल में नारंगी की सी महक होती है। पकने पर यह लाल रंग की हो जाती है। इसे चौपाए बड़े चाव से चरते हैं। इसे 'खवी' भी कहते हैं।

भखु पु
संज्ञा पुं० [सं० भक्ष्य] भक्ष्य। आहार। दे० 'भक्ष'। उ०— जूड़ कुरकुटा पै भखु चाहा।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २१०।

भख्ख पु
संज्ञा पुं० [सं० भक्ष] दे० 'भक्ष', 'भक्ष्य'। उ०—बावघ्न अजा सुत भख्ख आनि। दीने सु आदि भैरव निदानि।—पृ० रा०, ६।१६९।

भख्खना पु
क्रि० स० [सं० भाषण] भाखना। कहना। उ०— पंथी एक संदेसड़उ, भल माणस नइ भख्ख।—ढोला०, दू०, ११४।

भगंदर
संज्ञा पुं० [सं० भगन्दर] एक रोग का नाम जो गुदावर्त के किनारे होता है। विशेष—यह एक प्रकार का फोड़ा है जो फूटकर नासूर हो जाता है और इतना बढ़ जाता है उसमें से मल मूत्र निकलता है। जब तक यह फोड़ा फूटता नहीं, तब तक उसे पिड़िका वा पीड़िका कहते है; और जब फुट जाता है तब उसे भगंदर कहते हैं। फूटने पर इससे लगातर लाल रंग का फेन और पीर निकलता है। यहाँ तक कि यह छेद गहरा होता जाता है और अंत को मल और मूत्र के मार्ग से मिल जाता है और इस राह से मल का अश निकलने लगता है। वैद्यक में भगंदर की उत्पत्ति पाँच कारणों से मानी गई है और तदनुसार उसके भेद भी पाँच ही माने गए हैं—वात, पित्त, कफ, सन्निपात औऱ आगंतु; और इनसे उत्पन्न होनेवाले भगंदर क्रमशः शतपानक, उष्ट्रग्रीव, परिस्रावी, शंबूकावर्त और उन्माग कहलाते है। वैद्यक में यह रोग विशेषकर सन्निपातज असाध्य माना गया है। वैद्यों का मत है कि भगंदर रोग में फुन्सियों के होने पर बड़ी खुजलाहट उत्पन्न होती है; फिर पीड़ा, जलन और शोथ होता है। कमर में पीड़ा होती है और कपोल में भी पीड़ा होती है। वैद्यक में इस रोग की चिकित्सा व्रण के समान ही करने का विधान है। डाक्टर लोग इसे एक प्रकार का नासूर समझते हैं और चीर फाड़ के द्वारा उसकी चिकित्सा करते हैं।

भग
संज्ञा पुं० [सं०] १. योनि। २. सूर्य। ३. बारह आदित्यों में से एक। ४. ऐश्वर्य। ५. छह प्रकार की विभूतियाँ जिन्हें सम्य- मैश्वर्य, सम्यगबीर्य सम्यग्यश, सम्यगश्रिव और सम्यगज्ञान कहते हैं। ६. इच्छा। ७. माहात्म्य। ८. यत्न। ९. धर्म। १०. मोक्ष। ११. सौभाग्य। १२. कांति। १३. चंद्रमा। १४. धन। १५. गुदा। १६. पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र। १७. एक देवता का नाम। पुराणानुसार दक्ष के यज्ञ में वीरभद्र ने इनकी आँख फोड़ दी थी। १८. शिव का एक रूप [को०]। १९. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र (को०)। २०. अंडकोश और गुदा का मध्य भाग (को०)।

भगई ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० भगवा] लँगोटी।

भगकाम
वि० [सं०] संभोग करने का इच्छुक।

भगघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।

भगण
संज्ञा पुं० [सं०] १. खगोल में ग्रहों का पूरा चक्कर। विशेष—यह ३६० अंशका होता है जिसे ज्योतिषीगण यथेच्छ राशियों और नक्षत्रों में विभक्त करते हैं। इस चक्कर को शीघ्रगामी ग्रह स्वल्प काल में और मंदगामी दीर्घ काल में पूरा करते हैं। आजकल के ज्योतिषी इस चक्कर का प्रारंभ रेवती के योगतारा से मानते हैं। सूर्यसिद्धांत में ग्रहों का भगण सतयुग के प्रारंभ से माना गया है; पर सिद्धांत- शिरोमणि आदि में ग्रहों के भगण का हिसाब कल्पादि से लिया जाता है। २. छंदःशास्त्रानुसार एक गण जिसमें आदि का एक वर्ण गुरु और अंत के दो वर्ण लघु होते हैं। जैसे, पाचन, भोजन आदि।

भगत (१)
वि० [सं० भक्त] [हिं० भगतिन] १. सेवक। उपासक। उ०—बचंक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के।—तुलसी (शब्द०)। २. साधु। ३. जो मांस आदि न खाता हो। संकट या साकट का उलटा। ४. विचारवान्।

भगत (२)
संज्ञा पुं० १. वैष्णव वा वह साधु जो तिलक लगाता और माँस आदि न खाता हो। २. राजपूताने की एक जाति का नाम। इस जाति की कन्याएँ वेश्यावृत्ति और नाचने गाने का काम करती हैं। दे० 'भगतिया'। ३. होली में वह स्वाँग जो भगत का किया जाता है। विशेष—इस स्वाँग में एक आदमी को सफेद बालों की दाढ़ी मोछ लगाकर उसके सिर पर तिलक, गले में तुलसी वा किसी और काठ की माला पहनाते हैं और उसके सारे शरीर पर राख लगाकर उसके हाथ में एक तूँबी ओर सोंटा देते हैं। वह भगत बना हुआ स्वाँगी निचोड़े में नाचनेवाले लौंड़े के साथ रहता है और बीच बीच में नाचना और भाँड़ों की तरह मसखरापन करता जाता है।४. भूत प्रेत उतारनेवाला पुरुष। औझा। सयाना। भोपा। ५. वेश्या के साथ तबला आदि बजाने का काम करनेवाला पुरुष। सफरदाई। (राजपूताना)। मुहा०—भगतबाज = (१) लौडों को नचानेवाला। २. स्वाँग भरकर लौंडों को अनेक रूप का बनानेवाला पुरुष।

भगत (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० भक्ति, हिं० भगत, जैसे, आवभगत] सत्कार। खातिर। दे० 'भक्ति'। उ०—पूगल भगताँ नव नवी कीधो हरख अपार।—ढोला०, दू०,५९४।

भगतबछल पु
वि० [सं० भक्तवत्सल] दे० 'भक्तवत्सल'। उ०— भगतबछल प्रभु कृपा निधाना। बिश्वाबास प्रगटे भगवाना।—मानस, १।१४६।

भगतराव
वि० [सं० भक्तराज] भक्तराज। भक्तों में श्रेष्ठ। उ०—काशी पंडत धरो पाव बहोत तहें से मनाव। नामदेव भगतराव ये बला दूर करो।—दक्खिनी०, पृ० ४९।

भगतावन पु †
क्रि० स० [सं० भुज्] भुगताना। पहुँचाना। कहना। उ०—मारुवणी भगताविया मारू राग निपाइ। ढोला०, दू० १०९।

भगति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भक्ति] दे० 'भक्ति'। उ०—भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तचन दीना।—कबीर ग्रं०, पृ० ३२४।

भगतिया
संज्ञा पुं० [हिं० भक्त] [स्त्री० भगतिन] राजपूताने की एक जाति का नाम। उ०—सेठ की दौलत पर गीध के समान ताक लगाए बैठे हुए शिकार भाँड़ भगतिए दूर दूर से आ जमा होने लगे।—बालकृष्ण भट्ट (शब्द०)। विशेष—इस जाति के लोग वैष्णव साधुओं की संतान हैं जो अब गाने बजाने का काम करेत हैं और जिनकी कन्याएँ वेश्याओं की वृत्ति करके अपने कुटंब का भरण पोषण करती हैं और भगतिन कहलाती हैं। (बंगाल में भी वैष्णव साधुओं की लड़कियाँ वेश्यावृत्ति से अपना जीवन निर्वाह करती हैं और अपनी जाति बोष्टम वा बैष्णव बतलाती हैं।)

भगती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भक्ति'।

भगदड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाग + दौड़] दे० 'भगदर'।

भगदत्त
संज्ञा पुं० [सं०] प्राग्ज्योतिषपुर के एक राजा एक नाम। विशेष—इसके पिता का नाम नरक वा नरकासुर था। महाभारत में युधिष्छिर के राजसूय यज्ञ के समय इसका अर्जुन से आठ दिन तक लड़कर अंत में पराजित होना लिखा है। महाभारत युद्ध में यह कौरवों की ओर था और बड़ी वीरता से लड़कर अर्जुन के हाथ से मारा गया था ।

भगदर
संज्ञा स्त्री० [हिं० भगदड़ (= भागते हुए दौड़ना)] अचानक बहुत से लोगों का किसी कारण से एक और अस्तव्यस्त होकर भागना। भागने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—पड़ना।—मचना।

भगदारण
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग। भगंदर [को०]।

भगदेव
वि० [सं०] कामी। विषयी।

भगदैवत
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र [को०]।

भगन (१)
वि० [सं० भग्न] दे० 'भग्न'। उ०—भगन कियो भव धनुष, साल तुमको अब सालौ।—केशव (शब्द०)।

भगन (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] भागने का कार्य या स्थिति। उ०—दुरि मुरि भगन, बचावन, छबि सों आवन, उलटन सोहैं।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३८१।

भगनंदन
संज्ञा पुं० [सं० भगनन्दन] विष्णु का उपनाम।

भगनहा
संज्ञा पुं० [सं० भग्नहा] करेरुआ नामक कँटीली बेल। वि० दे० 'करेरुआ'।

भगना † (१)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'भागना'।

भगना (२)
संज्ञा पुं० [सं० भागनेय] बहिन का लड़का। भानजा।

भगनासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगीष्ठ के ऊपरी संधिस्थान का समीपवर्ती भाग [को०]।

भगनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० भगिनी] दे० 'भगिनी'।

भगनेत्रघ्न, भगनेत्रहर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

भगपुर
संज्ञा पुं० [सं०] मुलतान व मूलस्थान नाम का नगर [को०]।

भगभक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] कुटना। भड़ुवा [को०]।

भगयुग
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति के बारह युगों में से अंतिम युग। इसके पाँच वर्ष दुंदुभि, उदगारी, रक्ता, क्रोध और क्षय है। इनमें पहले को छोड़ शेष चार वर्ष उत्तरोत्तर भयानक माने जाते हैं।

भगर पु (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. छल। फेरब। ढोंग। उ०—काटे जो कहत सीस, काटत घनेरे घाघ, भगर के खेले महाभठ पद पावहीं।—केशव (शब्द०)। २. इंद्रजाल। बाजीगरी। भगल। उ०—हय हिंसहिं गज चिकारि भगर सम दिषि कुलाहल।—पृ० रा०, ८।५४। ३. † चूर जो सूखा हो। मोटा चूर। उ०—नामदेव का स्वामी भानी न्हागरा। राम भाई न परी भगरा।—दक्खिनी०, पृ० ३६।

भगर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भगरना] सड़ा हुआ अन्न।

भगरना
क्रि० अ० [सं० विकरण, हिं० बिगड़ना] खत्ते में गर्मी पाकर अनाज का सड़ने लगना। संयो० क्रि०—जाना।

भगल
संज्ञा पुं० [देश०] १. छल। कपट। ढोंग। २. हाथ की सफाई। जादू। इंद्रजाल। बाजीगरी। उ०—दंभ मकर छल भगल जो रहत लोभ के संग।—चरण० बानी, पृ० ३२।

भगलो
संज्ञा पुं० [हिं० भगल + ई(प्रत्य०)] १. ढोंगी। छली। उ०—कोउ कहै भिच्छुक कोउ कहै भगली, अपकीरति गोहरावै।—जग० श०, पृ० १०९। २. बाजीगर। उ०— जाग्रत जाग्रत साँच है सोवत सपना साँच। देह गए दोऊ गए ज्यो भगली को नाच।—कबीर (शब्द०)।

भगवंत † पु
संज्ञा पुं० [सं० भगवत् का बहुव० भगवन्त] भगवान। ईश्वर। दे० 'भगवत्'। उ०—ब्रह्म निरूपण धर्म विधि बरनहिं तत्व विभाग। कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ज्ञान बिराग।—तुलसी (शब्द०)।

भगवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवी। २. गौरी। ३. सरस्वती। ४. गंगा। ५. दुर्गा। ६. सामान्य स्त्री।

भगवत् (१)
वि० [सं०] [स्त्री० भगवती] ऐश्वर्ययुक्त। भगवान्। पूजनीय।

भगवत् (२)
संज्ञा पुं० १. ईश्वर। परमेश्वर। २. विष्णु। ३. शिव। ४. बुद्ध। ५. कार्तिकेय। ६. सूर्य। ७. जिन।

भगवत्पदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा।

भगवत्स्मरन
संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णवों में परस्पर अभिवादन सूचित करने का एक शब्द। उ०—गाछे वह वैष्णव ने भगवत्स्मरन करयो।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३४।

भगवदीय
संज्ञा पुं० [सं०] भगवदभक्त। भगवान का भक्त। उ०— वह वीराँ श्री गुसाई जी, श्री ठाकुर जी की ऐसी कृपापात्र भगवदीय हती।—दो सौ बावन०, भा १, पृ० १२१।

भगवदगीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के भीष्मपर्व के अंतर्गत अठारह अध्यायों का एक प्रकरण। विशेष—इसमें उन उपदेशौं और प्रश्नोत्तरों का वर्णन है जो भगवान् कृष्णचंद्र ने अर्जुन का मोह छुड़ाने के लिये उससे युद्धस्थल में किए थे। इसमें अठारह अध्याय हैं। यह ग्रंथ प्रस्थान- चतुष्टय में चौथा है और बहुत दिनों से महाभारत से पृथक् माना जाता है। इसपर शंकराचार्य, रामानुज, वल्लभादि आचार्यों के भाष्य हैं। हिंदू धर्म में यह ग्रंथ सर्वश्रेष्ठ और सब संप्रदायों का मान्य ग्रंथ है।

भगवदद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] महाबोधि वृक्ष।

भगवद्धर्म
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत् धर्म। उ०—ता करि भगवद्धर्म सिद्ध होइगो।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १३७।

भगवदभक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. भगवान् का भक्त। ईश्वरभक्त। २. विष्णुभक्त। ३. दक्षिण भारत के वैष्णवों का एक संप्रदाय।

भगवदभक्ति
संज्ञा स्त्री० भगवान् की भक्ति।

भगवदभाव
संज्ञा पुं० [सं० भगवत् + भाव] ईश्वरभक्ति। भगवत्प्रेम। उ०—पाछे वह निष्किंचन स्त्री पुरुष कौ संग करन लाग्यो। सो याकौ भगवदभाव बढ़यो।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३२।

भगवद्रस
संज्ञा पुं० [सं०] भगवदभक्ति का आनंद। उ०—भगवद्रस में सदा मगन रहित हैं।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २२८।

भगवद्वार्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगवान् की चर्चा। उ०—सो आप- कै दरसन करि कै बैठयो। पाछे ब्यास कराइ कै भगवद्वार्ता करि फेरि सेन कियो।—दो सौ बाबन०, भा० १, पृ० ४७।

भगवद्विग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] भगवान् का विग्रह। भगवान् की मूर्ति।

भगवन्मय
वि० [सं०] भगवान में तन्मय।

भगबल्लीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगवान् की लीला। उ०—एक ठौर कहूँ रहै नाहीं। सदा भगवल्लीला के आवेस में छक्यो रहे।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ४३।

भगवा (१)
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकारका काषाय रंग। गैरिक रंग।

भगवा (२)
वि० भगवा रंग का। साधु संन्यासियों की तरह वस्त्रवाला। जैसे, भगवा झंडा, भगवा वस्त्र। उ०—एक तो भगवा भेस बनाए और वेद वेदांत ले हाथ में खप्पर लिए फिरते।—कबीर मं०, पृ० ३५९।

भगवान्, भगवान (१)
वि० [सं० भगवत्का कर्ता एकव० भगवान्] १. भगवत्। ऐश्वर्ययुक्त। २. पूज्य। ३.ऐश्वर्य, बल, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य से संपन्न।

भगवान् भगवान (२)
संज्ञा पुं० १. ईश्वर। परमेश्वर। २. विष्णु। ३. शिव। ४. बुद्ध। ५. जिन। ६. कार्तिकेय। ७. कोई पूज्य और आदरणीय व्यक्ति। जैसे, भगवान् वेदव्यास।

भगवृत्ति
वि० [सं०] भग द्धारा जीविका करनेवाला [को०]।

भगशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] कामशास्त्र।

भगहर ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० भागना] दे० 'भगदर'।

भगहा
संज्ञा पुं० [पुं० भगहन्] दे० 'भगहारी'।

भगहारी
संज्ञा पुं० [सं० भगहारिन्] १. शिव। महादेव। २. विष्णु का एक नाम (को०)।

भगांकुर
संज्ञा पुं० [सं० भगाङ्कुर] अर्श रोग। बवासीर।

भगाई ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० भागना] भागने की किया। भागना।

भगाड़
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भँगार'।

भगाना (१)
क्रि० स० [सं० √ भञ्ज] १. किसी को भागने में प्रवृत्त करना। दौड़ना। २. हटाना। दूर करना। खदेड़ना। उ०— दरस भूख लागै द्दगन भूखहि देत भगाइ।—रसानांध (शब्द०)। ३. बहलाकर या फुसलाकर ले जाना।

भगाना (२)
क्रि० अ० दे० 'भागना'। उ०—(क) उछरत उतरात छहरात मरि जात भभरि भगात जल थल मीचु मई है।—तुलसी (शब्द०)। (ख) समय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान।—तुलसी (शब्द०)।

भगाल
संज्ञा पुं० [सं०] आदमी की खोपड़ी।

भगाली
संज्ञा पुं० [सं० भगालिन्] आदमी की खोपड़ी धारण करनेवाले, शिव।

भगास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक अस्त्र।

भगिनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगिनी। सहोदरा। [को०]।

भगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहन। सहोदरा। उ०—शूर्पणखा रावण की भगिनी पहुँची वहाँ विमोहित सी।—साकेत, पृ० ३७८। यौ०—भगिनीपति, भगिनीभर्ता = बहनोई। भगिनीपुत्र, भगिनी- सुत = भाँजा।

भगिनीय
संज्ञा पुं० [सं०] बहन का लड़का। भगिनेय। भानजा।

भगीत ‡
वि० [हिं० भागना] भागा हुआ। पलायित। उ०—विषय बासना छाड़ भगीता। चरण प्रताप काल तुम जीता।—कबीर सा०, पृ० २८४।

भगीरथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अयोध्या के एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा जो राजा दिलीप के पुत्र थे। विशेष—कहते हैं, कपिल के शाप से जल जाने के कारण सगरवंशी राजाओं ने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रयत्न किया था, पर उनको सफलता नहीं हुई। अंत में भगीरथ घोर तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर लाए थे और इस प्रकार उन्होंने अपने पुरखाओं का उद्धार किया था। इसीलिये गंगा का एक नाम 'भागीरथी' भी है।

भगीरथ (२)
वि० [सं०] भगीरथ की तपस्या के समान। भारी। बहुत बड़ा। जैसे, भगीरथ परिश्रम।

भगेड़ू
वि० [हिं० भागना + ऐड़ू (प्रत्य०)] भागनेवाला। दे० 'भगेलू'। उ०—जो न दूसरे को अपने पास बुलाता और न भगेड़ू ओं का पीछा करता।—प्रेमघन० पृ० २७३।

भगेलू
वि० [हिं० भागना + एलू (प्रत्य०)] १. भागा हुआ। जो कहीं से छिपकर भागा हो। २. जो काम पड़ने पर भाग जाता हो। कायर।

भगेश
संज्ञा पुं० [सं०] ऐश्वर्य का देवता।

भगोड़ा
वि० [हिं० भागना + औड़ा (प्रत्य०)] १. भागा हुआ। २. भागनेवाला। कायर।

भगोल
संज्ञा पुं० [सं०] नक्षत्रचक्र। वि० दे० 'खगोल'।

भगोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] भग के बाहरी हिस्से का किनारा।

भगौती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भगवती] दे० 'भगवती'।

भगौहाँ (१)
वि० [हिं० भागना + औहाँ (प्रत्य०)] १. भागनेवाला। भागने को तैयार या उद्यत। २. कायर।

भगौहाँ (२)
वि० [हिं० भगवा] गेरू से रँगा हुआ। भगवा। गेरुआ। उ०—बरुनी बघबर में गूदरी पलक दोऊ, कोए राते बसन भगौहें भेष रखियाँ।—देव (शब्द०)।

भग्नना पु
क्रि० अ० [हिं० भागना] भागना। पलायन करना। उ०—भागा नाहर राइ पाई मुक्के नाहर जिग। जिम जिम भर कट्टई रोस लग्गा तिम तिम।—पृ० रा०,७।१६५।

भग्गर †
संज्ञा पुं० [देश०] 'भगर' और 'भगल'। उ०—फिरें रुँड बिनमुँड रस रोस राचे। मनौं भग्गर नट्ट विद्या कि नाचे।—पृ० रा०, १३।८९।

भग्गल
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'भगर', 'भगल'। उ०—रिनं राइ चामुंड षेल करूरं। मनो भग्गल नट्ट मँडयौ बिरूरं।— पृ० रा०, १२।३७७।

भग्गा
संज्ञा पुं० [हिं० भागना] लड़ाई से भगा हुआ पशु या पक्षी।

भग्गी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भागना] बहुत से लोगों के साथ मिलकर भागने की क्रिया। भागल। क्रि० प्र०—पड़ना।—मचना।

भग्गुल पु
[हिं० भागना] १. रण से भागा हुआ। भगोड़ा। भग्गू। उ०—प्राय भग्गुल लोग बरनैं युद्ध की सब गाथ।— केशव (शब्द०)। २. भागनेवाला। कायर।

भग्गू
वि० [हिं० भागना + ऊ (प्रत्य०)] जो विपत्ति देखकर भागता हो। कायर। डरपोक। भागनेवाला।

भग्न (१)
वि० [सं०] १. टूटा हुआ। २. नष्ट (को०)। ३. जो हारा या हराया गया हो। पराजित। ४. हताश। निराश।

भग्न (२)
संज्ञा पुं० हड्डियों अथवा उनके जोड़ों का टूट जाना। यौ०—भग्नक्रम = क्रमरहित। जिसका क्रम टूट गया हो। भग्नचित्त = निराश। भग्नचेष्ट = विफल होकर चेष्टा से विरत। भग्नताल = संगीत में एक प्रकार का ताल। भग्नदंष्ट्र = जिसके दाँत टूटे हों। भग्ननिद्र = जिसकी नींद टूट गेई हो। जो सोते समय जगाया गया हो। भग्नपरिणाम = जो फल से वंचित हो। भग्नपार्श्व = बगल के दर्द से पीड़िन। भग्नपृष्ठ = (१) जिसकी रीढ़ टूट गई हो। (२) सामने से आनेवाला। संमुखागत। भग्नप्रतिज्ञ = जिसने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी हो। भग्न- मन = हतोत्साह। भग्नमनोरथ = विफल मनोरथ। भग्नाश भग्नमान = अवमानित। तिरस्कृत। भग्नवत = जिसका व्रत भंग हो गया हो। भग्नश्री = जिसकी शोभा नष्ट हो गई हो। भग्न सधि। भग्नसंधिक। भग्नहृदय = जिसका मन टूट गया हो। भग्नचित्त। निराश।

भग्नदूत
संज्ञा पुं० [सं०] १. रणक्षेत्र से हारकर भागी हुई वह सेना जो राजा के पराजय का समाचार देने आती हो। २. वह दूत जो विफल होकर आया हो। उ०—जैसे थक्कर सांध्य विहग घर वापस आए। वैसे ही वे मेघदूत अब, भग्नदूत से वापस आए।—ठंडा०, पृ० ५४।

भग्नपाद
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार पुनर्वसु, उत्तराषाढ़, कृत्तिका उत्तराफाल्गुनी, पूर्वभाद्रपद और विशाखा ये छह नक्षत्र जिनमें से किसी एक में मनुष्य के मरने से द्विपाद दोष लगता है। इस दोष की शांति अशौच काल के अंदर ही कराने का विधान है।

भग्नप्रक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. काव्य का एक दोष। रचना का क्रम बिगड़ जाना। २. क्रमरहित। भग्नक्रम।

भग्नसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० भग्नसन्धि] हड्डी का जोड़ पर से टूट जाना।

भग्नसंधिक
संज्ञा पुं० [सं०] मठा।

भग्नांश
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूल द्रव्य का कोई अलग किया हुआ भाग वा अंश। २. गणित शास्त्र के अनुसार किसी वस्तु के दो या अधिक किए हुए विभागों में से एक या अधिक विभाग। जैसे,—किसी वस्तु के किए हुए सात विभागों में से दो विभाग, अर्थात् २/७ मूल वस्तु का भग्नांश है।

भग्नात्मा
संज्ञा पुं० [सं० भग्नात्मन्] चंद्रमा।

भग्नापद
वि० [सं०] जिसने विपत्तियों को चूर कर दिया हो।

भग्नावशेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी टूटे फूटे मकान या उजड़ीहुई बस्ती का बचा हुआ अंश। खँडहर। २. किसी टूटे हुए पदार्थ के बचे हुए टुकड़े।

भग्नाश
वि० [सं०] हताश।

भग्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगिनी। बहन।

भग्नोत्साह
वि० [सं०] निरुत्साह। जिनका उत्साह नष्ट हो गया हो।

भग्नोत्सृष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] वे गोप जो साझीदार के समान अनुपयोगी गायों का पालन करते थे। विशेष—कौटिल्य के समय में ऐसे लोगों के अधीन बीमार, लँगड़ी, लूली, दूध दुहने में बहुत तंग करनेवाली या किसी विशेष आदमी के हाथ से ही लगनेवाली और बछड़े को मार डालनेवाली गौएँ रखी जाती थीं।

भचक
संज्ञा स्त्री० [हिं० भचकना] भचककर चलने का भाव। लँगड़ापन।

भचकना (१)
क्रि० अ० [हिं० भौंचक] आश्चर्य्य में निमग्न होकर रह जाना।

भचकना (२)
क्रि० अ० [भच् अनु०] चलने के समय पैर का इस पकार रुककर टेढ़ा पड़ना कि देखने में लँगड़ापन मालूम हो। लँगड़ाना।

भचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. राशियों या ग्रहों के चलने का मार्ग। कक्षा। २. नक्षत्रों का समूह। उ०—२७ नक्षत्रों में भचक्र होने से २७X२१ हैं।—बृहत्०, पृ० ४९।

भचभचा
संज्ञा पुं० [अनु०] वह खाट, माचा, मचिया आदि जिससे भच् भच् की आवाज हो। उ०—नहीं तो वह गुढ़ गुढ़ी की गुढ़गुढ़ाहट वा बड़े भचभचे की भचभचाहट।—प्रेमघन० भा० २, पृ० २५८।

भचभचाना
क्रि० अ० [अनु०] भच् भच् करना।

भचभचाहट
संज्ञा पुं० [अनु०] भचभच करने का स्वर।

भच्छ पु
वि० संज्ञा पुं० [सं० भक्ष्य] दे० 'भक्ष्य'।

भच्छक पु
संज्ञा पुं० [सं० भक्षक] दे० 'भक्षक'।

भच्छन पु †
संज्ञा पुं० [सं० भक्षण] दे० 'भक्षण'। उ०—आजु सबन्हि कहुँ भच्छन करऊँ।—मानस, ४।२७।

भच्छना पु †
क्रि० स० [सं० भक्षण] खाना। भक्षण करना। उ०—कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।—मानस, ५।३।

भछन †
संज्ञा पुं० [सं० भक्षण] भोजन। भक्षण। भच्छन। उ०— रिषिजन पकरि भछन करि डारौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२३।

भछना †
क्रि० स० [सं० भक्षण] भक्षना। भच्छना। खाना। उ०—कंद मूल भछि पवन अहारी, पय पी तनहिं दहाहीं।—जग० बानी, पृ० ३९।

भजक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भजन करनेवाला। भजनेवाला। २. विभाग करनेवाला।

भजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाग। खड। विभाजन। २. सेवा। पूजा। ३. स्वत्व। अधिकार (को०)। ३. बार बार किसी पूज्य या देवता आदि का नाम लेना। स्मरण। जय। ४. वह गीत जिसमें ईश्वर अथवा किसी देवता आदि के गुणों का कीर्तन हो। उ०—भजन सुनै भजनीन सों निर्मित निज बहु संत।—रघुराज (शब्द०)।

भजना (१)
क्रि० स० [सं० भजन] १. सेवा करना। २. पु आश्रय लेना। आश्रित होना। उ०—(क) विधिवश हठि अविवेकहिं भजई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तजो हठ आनि भजौ किन मोहिं।—केशव (शब्द०)। ३. देवता आदि का नाम रटना। स्मरण करना। जपना। ४. अधिकार करना। जीतना। उ०—कहै बत्त मोर सुनोराति नामं। भज्यौ इक्क अब्बू लग्यो सीस तामं।—पृ० रा०, १२।१२७।

भजना पु (२)
क्रि० अ० [सं० वजन, पा० बजन] १. भागना। भाग जाना। उ०—भजन कह्यौं तातें भज्यौ न एको बार। दूरि भजन जातें कहौ सो तैं भज्यो गँवार।—बिहारी (शब्द०)। (ख) दीजै दरस दयाल दया करि, गुन ऐगुन न बिचारो। धरनी भजि आयो सरनागति, तजि लज्जा कुल गारो।—संतवाणी०, पृ० १२८। २. पहुँचना। प्राप्त होना। उ०—चित्रकूट तब राम जू तज्यो। जाय यज्ञथल अत्रि को भज्यो।—केशव (शब्द०)।

भजनानंद
संज्ञा पुं० [सं० भजनानन्द] वह आनद जो परमेश्वर का नाम स्मरण करने से प्राप्त होता है। भजन से मिलनेवाजा आनद।

भजनानंदी
संज्ञा पुं० [सं० भजनानन्द + ई (प्रत्य०)] वह जो दिन रात भजन करने में ही मगन रहता हो। भजन गाकर सदा प्रसन्न रहनेवाला।

भजनो
संज्ञा पुं० [हिं० भजन + ई (प्रत्य०)] भजन गानेवाला। उ०—करन लगै जप जेहि समय तब मरि गोद अनत। भजन सुनै भजनीन सों निर्मित निज बहु संत।—रघुराज (शब्द०)।

भजनीक
संज्ञा पुं० [हिं० भजन + इक (प्रत्य०)] भजन करनेवाला या भजन गानेवाला।

भजनीय
वि० [सं०] १. सेवा करने योग्य। २. आश्रय लेने योग्य। ३. भजने के योग्य। उ०—उनको तो सब साधन छोड़कर एक श्रीकृष्ण ही भजनीय हैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ७७७।

भजनोपदेशक
संज्ञा पुं० [सं० भजन + उपदेशक] भजन गाकर उपदेश करनेवाला। वह जो भजन गाकर उपदेश करता है।

भजमान
वि० [सं०] १. विभाग करनेवाला। २. सेवा करनेवाला। २. न्याय्य। उचित।

भजाना (१)
क्रि० अ० [सं० √ भञ्ज + हिं० अन०, हिं० भजना (= दौड़ना)] दौड़ना। भागना। उ०—भाग को भजाने अलि, छूटे लट केश के।—भूषण (शब्द०)।

भजाना (२)
क्रि० स० [सं० √ भज्ज + हिं० अन, हिं० भजना का सक० रूप] भगाना। दूर कर देना। उ०—(क) पिय जियहिं रिझावै दुखनि भजावै, बिबिध बजावै गुण गीता।—केशव (शब्द०)। (ख) सर बरसत रव करै जलद मद दूरि भजावै।—गोपाल (शब्द०)।

भजितव्य
वि० [सं०] दे० 'भजनीय'।

भजियाउर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाजी + चावर (= चावल)] चावल, दही, घी आदि एक साथ पकाकर बनाया हुआ भोजन जिसनें नमक भी पड़ता है। इसे 'उझिया' और 'भिजियाउर' भी कहते हैं। उ०—भइ जाउर भजियाउर सीझी सब ज्यौनार।—जायसी (शब्द०)।

भजी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] खौपड़ी के भीतर की गुद्दी। भेजी। उ०—लगै युर्ज सींस भजी भति छुड्डें। मनो मंषन दद्धि मंथान उड्डें।—पृ० रा०, १३।९०।

भज्जना पु
क्रि० अ० [सं० भग्न, प्रा० भग्ग, भज्ज] दे० 'भजना (२)'। उ०—किते जीव समूह देखत भज्जै।—ह० रासो, पृ० ३६।

भज्य
वि० [सं०] १. विभाग करने के योग्य। २. सेवा करने के योग्य। ३. भजने के योग्य।

भटंत पु
संज्ञा पुं० [सं० भणिति] काव्यपाठ। रचनापाठ। उ०— भाँटन जोरि भटंत सुनावा। गुनियन उहैं गीति पुनि गावा।—चित्रा०, पृ० १८१।

भट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ध करने या लड़नेवाला। योद्धा। २. सिपाही। सैनिक। ३. प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति। ४. रजनीचर (को०)। ५. नौकर। दास (को०)।

भट (२)
संज्ञा पुं० दे० 'भटनास'।

भटकटाई
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकारि] दे० 'भटकटैया'।

भटकटैया
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टकारि, हिं० कटेरी या कटाई] एक छोटा और काँटेदार क्षुप जो बहुधा औषध के काम में आता है। विशेष—इसके पत्तों पर भी काँटे होते हैं। इसके फूल बैगनी होते हैं और फूल का जीरा पीला होता है। कहीं कहीं सफेद फूल की भी भटकटैया मिलती है। इसमें एक प्रकार के छोटे फल भी लगते हैं जो पहले कच्चे रहते हैं, पर पकने पर पीले हो जाते हैं। वैद्यक में इसे सारक, कड़वी, चरपरी, रूखी, हलकी, अग्निदीपक तथा खाँसी, ज्वर, कफ, वात, पीनस तथा हृदय रोग का नाश करनेवाली माना है। पर्या०—कटकारी। कुली। क्षुद्रा। कासघ्नी। कंटतारिका। स्पृही। धावानिका। व्याघ्री। दुःस्पर्शी। दुप्प्रघर्षिणी। कंटश्रेणी। चित्रफला। बहुकंटा। प्रयोदिनी। भंटाकी। घावनी। सिंही।

भटकना (१)
क्रि० अ० [देश०] १. व्यथ इधर उधर घूमते फिरना। उ०—अरे बैठि रहु जाय घर कत भटकत बेकाज। चितवन टोना को अऱे होना नहीं हलाज।—रसनिधि (शब्द०)। २. रास्ता भूल जाने के कारण इधर उधर घूमना। ३. किसी को खोजने में इधर उधर घूमना। ४. चूक जाना। ५. भ्रम में पड़ना। उ०—साँवरी मरति सों अटकी भटकी सी बधू बट की भरै भाँवरी।—दत्त (शब्द०)।

भटका पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] व्यर्थ घूमना। इधर उधर व्यर्थ चक्कर लगाना।

भटकाना
क्रि० स० [हिं० भटकना का सक० रूप] १. गलत रास्ता बताना। ऐसा रास्ता बताना जिसमें आदमी भटके। २. धोखा देना। भ्रम में डालना।

भटकैया पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भटकना + ऐया (प्रत्य०)] १. वह जो भटक रहा हो। २. भटकानेवाला।

भटकैया † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भटकटैया] दे० 'भटकटैया'।

भटकौहाँ पु
वि० [भटकना + औंहाँ (प्रत्य०)] भटकानेवाला। भुलावे में डालनेवाला। उ०—तुम भटकौहें वचन बोलि हरि करत रिसौहें।—अंबिकादत्त (शब्द०)।

भटक्कना
क्रि० अ० [देश०] भड़क उठना। भड़कना। उ०—नव- हत्थो मत्थो बड़ो रीस भटक्कै रार।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ११।

भटतीतर
संज्ञा पुं० [हिं० भट (= बड़ा) + तीतर)] प्रायः एक फुट लंबा एक प्रकार का पक्षी जो उत्तर पश्चिम भारत में पाया जाता है। इसकी मादा एक बार में तीन अडे देती है। लोग प्रायः इसके मांस के लिये इसका शिकार करते हैं।

भटधर्मा
वि० [सं० भटधर्मन्] वीर धर्म का पालन करनेवाला। सच्चा बाहदुर।

भटनास
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की लता जो चीन, जापान और जावा में बहुत अधिकता से होती है। विशेष—अब बरमा, पूर्वी बंगाल, आसाम, गोरखपुर, बस्ती आदि में भी इसकी खेती होने लगी है। इसमें एक प्रकार की फलियाँ लगती है; और उन्हीं फलियों के लिये इसकी खेती की जाती है। फलियों के दानों की दाल भी बनाई जाती है और सत्तू भी। ये फलियाँ बहुत पुष्ट होती हैं और पशुओं को भी खिलाई जाती है। यह दो प्रकार की होती है—एक सफेद और दूसरी काली। मैदानों में यह प्रायः खरीफ के साथ बोई जाती है।

भटनेर
संज्ञा पुं० [सं० भट + नगर] एक प्राचीन राज्य का मुख्य नगर जो सिंध नदी के पूर्वी तट पर स्थित था। इस नगर को तैमूर ने चढ़ाई के समय लूटा था। उ०—भटनेर राय की आई भेट।—पृ० रा०, १।१३३।

भटनेरा
संज्ञा पुं० [हिं० नट + नगरा] १. भटनेर नगर का निवासी। २. वैश्यों की एक उपजाति।

भटपेटक
संज्ञा पुं० [सं०] सेना की टुकड़ी। गुल्म [को०]।

भटबलाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीर। श्रेष्ठ वीर। २. सेना। चभू [को०]।

भटभटी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] भटकने की स्थिति। देखते हुए भीन दिखाई पड़ना। उ०—बात अटपटी बढ़ी चाह चटपटी रहै, भटभटी लागै जै पै बीच बरुनी बसे।—घनानंद, पृ० २९।

भटभेर पु
संज्ञा पुं० [हिं० भटभेरा] मुठभेड़। मिलन। दे० 'भटभेरा'। उ०—धधे आनँद क्यौं बचिए भटभेर अचानक होत गरयारें गली।—घनानंद, पृ० १४४।

भटभेरा †पु
संज्ञा पुं० [हिं० भट + भिड़ना] १. दो वीरों का सामना। मुकाबला। भिडंत। उ०—एक पिशाचिनि है यहि बीच चलो किन तात करो भटभेरो।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। २. धक्का। टक्कर। ठोकर। उ०—कबहुँक हौं संगति सुभाव तें जाउ सुमारग नेरी। तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरी।—तुलसी (शब्द०)। ३. आकस्मिक मिलन। ऐसी भेंट अनायास हो जाय। आमने सामने से आते हुए मिलन। संयोग। उ०—गली अँधेरी काँकरी भो भटभेरो आनि।—बिहारी (शब्द०)।

भटबाँस
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भटनास'।

भटरा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. भाट। २. भीटा या मिट्टी का ढूहा जिसपर ग्राम्य देवताओं की मूर्तियाँ वा पिंडी रहती हैं। उ०—भोये भटरे के पग लागै, साधु संत की निंदा। चेतन को तजि पाहन पूजै, ऐसा यह जग अघा।—चरण० बानी०, पृ० ७३।

भटा † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रवारुणी। इंद्रायन। इनारू। विशेष दे० 'इंद्रायन'।

भटा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भटा] दे० 'बैगन'।

भटाश्वपति
संज्ञा पुं० [सं०] सेना की चारो शाखाओं का प्रधान। उ०—सेना में पैदल, घुड़सवार, हाथियों के समूह तथा रथदल,ऐसी चार शाखाएँ होती थीं। इसके प्रधान कर्म- चारी को अश्वपति, भटाश्वपति या हस्त्वध्यक्ष कहते थे।—पूर्व० म० भा०, पृ० १०३।

भटियारा
संज्ञा पुं० [हिं० भट्टा + इयारा (प्रत्य०)] [स्त्री० भटियारिन, भटियारी] दे० 'भठियारा'।

भटियारी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] संपूर्ण जाति की एक संकर रागिनी जिसमें ऋषभ कोमल लगता है।

भटियारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भटियारा] भटियारे की स्त्री। उ०— भटियारियों का कायदा है कि जब लड़ाई को जी चाहता है तो ख्वाही न ख्वाही छेडखानी करती हैं।—सैर०, पृ० ३८। मुहा०—भटियारियों की तरह लड़ना = बेसबब गंदी बातें कहते हुए झगड़ना। उ०—लाड़ो, तुम तो भटियारियों की तरह लड़ती हो।—सैर०, पृ० ३८।

भटियाल
क्रि० वि०[हिं० भाटा + इयाल (प्रत्य०)] धार की ओर। धार के साथ साथ। जिस ओर भाटा जाता हो, उस ओर। (लश०)।

भटियारी, भटिहारिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० भटियारा] दे० 'भटियारी'।

भटू †
संज्ञा स्त्री० [सं० वधू, ब्रज०] १. स्त्रियों के संबोधन के लिये एक आदरसूचक शब्द। उ०—या ब्रज मंडल में रसखानि सु कौन भटू जो लटू नहिं कीनी।—रसखान०, पृ० १४। २. सखी। गोइयाँ। उ०—अरी भटू गड़ी है कटीली वह दीठि मोहिं सुपने लखति फिरि जाति ढुरि ढुरि कै।—दीन० ग्रं०, पृ० ९। ३. प्रिय व्यक्ति।

भटेरा
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति।

भटैया
संज्ञा स्त्री० [हिं० भटकटैया] दे० 'भटकटैया'। उ०—भौंर भटैया जाहु जनि काँट बहुत रस थोर।—गिरिधर (शब्द०)।

भटोट
संज्ञा पुं० [देश०] यात्रियों के गले में फाँसी लगानेवाला ठग। (ठगों की बोली)।

भटोला † (१)
वि० [हिं० भाट + ओला (प्रत्य०)] १. भाट का। भाट संबंधी। २. भाट के योग्य।

भटोला (२)
संज्ञा पुं० वह भूमि जो भाट को इनाम के तौर पर दी गई हो।

भट्ट
पुं० [सं० भट, भट्ट] १. ब्राह्मणों की एक उपाधि जिसके धारण करनेवाले दक्षिण भारत, मालव, आदि कई प्रांतों में पाए जाते हैं। २. महाराष्ट्र ब्राह्मण। ३. भाट। ४. योद्धा। शूर। भट। ५. शिक्षित ब्राह्म्णों का एक संबोधन [को०]। ६. शिक्षित व्यक्ति विद्वान् या दार्शनिक [को०]। ७. स्वामी। प्रभु। नाटक आदि में राजाओं का आदरार्थक संबोधन (को०)। यौ०—भट्टनारायण—वेणीसंहार संस्कृत नाटक के रचयिता का नाम। भट्टप्रयाग = प्रयाग। भट्टाचार्य।

भट्टाचार्य
संज्ञा पुं० [सं० भट्ट + आचार्य] १. दर्शनशास्त्र का पंडित। २. सम्मानित अध्यापक या विद्वानों के लिये पदवी रूप में प्रयुक्त शब्द। २. बंगीय ब्राह्ममों की एक उपाधि।

भट्टार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूज्य व्यक्ति। माननीय पुरुष। २. आदरार्थ पदवी रूप में प्रयुक्त शब्द।

भट्टारक (१)
वि० [सं०] [स्त्री० भट्टारिका] पूज्य। माननीय।

भट्टारक (२)
संज्ञा पुं० १. पूज्य व्यक्ति के आदरार्थ प्रयुक्त (पदवी रूप में)। २. मुनि। तपस्वी। ३. पंडित। ४. सूर्य। ५. देवता। ६. नाटक में राजा और प्रधान पुरुषों के लिये आदरार्थ संबोधन [को०]। यौ०—भट्टारक वार, भट्टारक वासर = आदित्य वार। रविवार।

भट्टारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सम्माननीया महिला। समादृता स्त्री।

भट्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] संस्कृत के भट्टि महाकाव्य के लेखक। श्रीधर स्वामी के पुत्र।

भट्टिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाटक की भाषा में राजा की वह पत्नी जिसका अभिपेक न हुआ हो। स्वामिनी। २. सम्माननीय महिला। ३. ब्राह्मण की पत्नी [को०]।

भट्टी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्राष्ट] दे० 'भट्ठी'।

भट्टी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'भाटिया' 'भाटी'। उ०—मारू बजाइ भट्टीन थान। घल भोमि लई बल चाहुवान।—पृ० रा०, १। ६१३।

भट्टोजि
संज्ञा पुं० [सं०] भट्टोजी। सिद्धांत कौमुदी के कर्ता भट्टोजि दीक्षित।

भट्टोत्पल
संज्ञा पुं० [सं०] वराहमिहिर के ग्रंथों की टीका करनेवाले एक आचार्य का नाम।

भट्ठा
संज्ञा पुं० [सं० भ्राष्ट, प्रा० भट्ठ] १. बड़ी भट्ठी। २. ईंटे वा खपड़े इत्यादि पकाने का पजावा। वह बड़ी भट्ठी जिसमें ईंटे आदि पकती हों, चूना फूँका जाता हो, लोहा आदि गलाया जाता हो या इसी प्रकार का और कोई काम होता हो।

भट्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्राष्ट, प्रा० भठ्ठ] १. विशेष आकार और प्रकार का ईंटों आदि का बना हुआ बड़ा चूल्हा जिसपर हलवाई पक्वान्न बनाते, लोहार लोहा गलाते, वैद्य लोग रस आदि फूँकते अथवा इसी प्रकार के और और काम करते हैं। (भिन्न भिन्न कार्यों के लिये बट्ठियों का आकार और प्रकार भी भिन्न भिन्न हुआ करता है।) मुहा०—भट्ठी दहकना = किसी का कारबार जोरों पर होना। बहुत आय होना (व्यंग्य)। २. देशी मद्य टपकाने का कारखाना। वह स्थान जहाँ देशी शराब बनती हो।

भट्यानी ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० भट्टिनी] भट्ट की स्त्री। उ०—तब वा भटयानी ने कही, जो मेरे कछू द्रव्य नाही है।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ११।

भठ (१)
वि० [सं० भ्रष्ट] दे० 'भ्रष्ट'। उ०—साधु मतो क्यों मानै दुरमति जाको सबै सयान परयो भठ।—घनानंद पृ० ४७१।

भठ (२)
संज्ञा पुं० [सं० भ्राष्ट] गहरा गड्ढा या अंधा कुआँ, जो थोड़ा या पूरा पट गया हो। भाठ। उ०—जा करि हम द्विज ह्वै मद भरे। गुरु कहाइ सठ भठ मैं परै।—नंद० ग्रं० पृ० ३०४।

भठियाना †
क्रि० अ० [हिं० भाठा + इयाना (प्रत्य०)] समुद्र में भाटा आना। समुद्र में पानी का नीचे उतरना।

भठियारपन
संज्ञा पुं० [हिं० भटियारा + पन (प्रत्य०)] १. भठियारे का काम। २. भठियारों की करह लड़ना और अश्लील गालियाँ बकना।

भठियारा
संज्ञा पुं० [हिं० भट्ठा + इयार (प्रत्य०)] [स्त्री० भठियारन, भठियारिन, भठियारी] सराय का प्रबध करनेवाला वा रक्षक जो यात्रियों के खाने पीने और ठहरने आदि की व्यवस्था करता है।

भठियारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. भठियारे की स्त्री। २. अत्यंत लड़ाकू स्त्री।

भठियाल
संज्ञा पुं० [हिं० भाटा] समुद्र के पानी का उतरना। ज्वार का उलटा। भाटा।

भठिहारा
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० भठिहारिन, भठिहारी] दे० 'भठिथारा'। उ०—मए सब मतवारे मतवारे। अपुनो अपुनो मत लै लै सब झगरत ज्यौं भठिहारे।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १३९।

भठुली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भट्ठी + उली (प्रत्य०)] ठठेरों की मिट्टी की बनी हुई वह छोटी भट्ठी जिसमें किसी चीज को गढ़ने से पहले तपाते या लाल करते है।

भड़ंबा
संज्ञा पुं० [सं० विडम्बा] दिखौआ ज्ञान। आडंबर।

भड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० बार्ज] एक प्रकार की नाव जो बहुत हल्की होती है (लश०)।

भड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० भट] वीर। योद्धा। (डिं०)। उ०—साल्ह कुवर सुरपति जिसउ, रूपे अधिक अनूप। लाखाँ बगसइ मागणाँ लाख भड़ाँ सिर भूप।—ढोला०, दू० ९३।

भड़ (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० भड] प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति जिसकी उत्पत्ति लेट पिता और तीवर माता से हुई थी।

भड़क
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. दिखाऊ चमक दमक। चमकीला- पन। भड़कीले होने का भाव। २. भड़कने का भाव। सहम। जैसे,—अभी इसमें कुछ भड़क बाकी है। ३. क्रुद्ध होना। ४. चौंकना। बिदकना।

भड़कदार
वि० [हिं० भड़क + फा० दार] १. जिसमें खूब चमक दमक हो। भड़कीला। २. रोबदार।

भड़कना
क्रि० अ० [अनु० भड़क + ना (प्रत्य०)] १. प्रज्वलित हो उठना। तेजी से जल उठना। जैसे, आग भड़कना। २. झिझिकना। चौंकना। डरकर पीछे हटना। विशेषतः घोड़े आदि पशुओं के लिये बोलते हैं। ३. क्रुद्ध होना। ४. बढ़ जाना। तेज होना। संयो० क्रि०—उठना।—जाना।

भड़काना
क्रि० स० [हिं० भड़कना का सक० रूप] १. प्रज्वलित करना। जलाना। ज्वाला को बढ़ना। उत्तेजित करना। उभारना। ३. भयभीत कर देना। चमकाना। चौंकाना। (घोड़े आदि पशुओं के लिये)। ४. बढ़ावा देना। ५. किसी को इस प्रकार भ्रम में डालना कि वह कोई काम करने के लिये तैयार न हो। बहकाना। संयो० क्रि०—देना।

भड़कीला
वि० [हिं० भड़क + ईला (प्रत्य०)] १. भड़कदार। चमकीला। जिसमें खूब चमक दमक हो। २. चौकन्ना होनेवाला। डरकर उत्तेजित होनेवाला। जैसे, भड़कीला बैल वा घोड़ा। (क्व०)।

भड़कीलापन
संज्ञा पुं० [हिं० भड़कीला + पन (प्रत्य०)] चमक दमक। भड़कीले होने का भाव।

भड़कैल
वि० [हिं० भड़क + ऐल (प्रत्य०)] १. भड़कनेवाला। उत्तजित होनेवाला। २. चौंकनेवाला।

भड़तल्ला
वि० [हिं०] दे० 'भँड़तिल्ला'। उ०—कहीं जोगीड़े होली मचाए भड़तल्ले की ताल पर ललकार रहे हैं।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११५।

भड़भड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. भड़भड़ शब्द जो प्रायः एक चीज पर दूसरी चीज जोर जोर से पटकने अछवा बड़े बड़े ढोल बजाने से उत्पन्न होता है। आघातों का शब्द। उ०—कड कड़ बजत टाप हयंद। भड़भड़ होत शब्द बलंद।—सूदन(शब्द०)। २. जनसमूह जिसमें छोटे बड़े वा खोटे खरे का विचार न हो। भीड़। भब्मड़। ३. व्यर्थ की और बहुत अधिक बातचीत।

भड़भड़ाना (१)
क्रि० स० [अनु] भड़ भड़ शब्द करना।

भड़भड़ाना (२)
क्रि० अ० किसी चीज में भड़भड़ शब्द उत्पन्न होना।

भड़भड़ाहट
संज्ञा पुं० [अनु भड़भड़] भड़भड़ शब्द होने या करने का स्वर। जैसे, नैचे की भड़भड़ाहट का आनंद।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५८।

भड़भड़िया
वि० [हिं० भड़भड़ + इया (प्रत्य०)] बहुत अधिक और व्यर्थ की बातें करनेवाला। गप्पी। बड़बड़िया।

भड़भाँड़
संज्ञा पुं० [सं० भाएडीर] एक कँटीला पौधा। सत्या- नासी। घमोय। वि० दे० 'घमोय' या 'भँड़भाँड़'।

भड़भूँजा
संज्ञा पुं० [हिं० भाड़ + भूँजना] हिंदुओं की एक जाति जो भाड़ झोंकने और अन्न भूनने का काम करती है। पर्या०—भुजवा। भुरजी।

भड़री
संज्ञा पुं० [देश० भडुरी] दे० 'भड़रिया'। उ०—ऐसे मदारी के खेल बहुत देख चुका हूँ। भड़री भी आपको ऐसी बातें बता देता है जो आपको आश्चर्य में डाल देती हैं। यह सब माया लीला है।—काया०, पृ० ३३९।

भड़वा
संज्ञा पुं० [हिं० भाड़] दे० 'भड़ुआ'।

भड़साईं
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाड़ + साईं] भड़मूजी की भट्ठी जिसमें वे अनाज भूनते हैं। वि० दे० 'भाड़'। मुहा०—भड़साईं धिकना = कारबार का खूब चलना। अच्छी आय होना। (व्यंग्य)।

भड़सार
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँड़ + शाला] १. भोज्य पदार्थ रखने के लिये किवाड़ीदार आला या ताक। भड़रिया। भँडरिया। ‡ २. दे० 'भाड़', 'भड़साई'।

भड़साल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँड़ + साला] दे० 'भड़सार'। उ०—गुरुमुखि सचु सची धर्मशाला। सचु कारीगरु सचु भड़साला।—नानक (शब्द०)।

भड़हर
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँड़ा] दे० 'भँडेहर'।

भड़ाभड़
संज्ञा स्त्री० [अनु० शब्द०] दे० 'भड़भड़'। उ०—भड़ाभड़ भड़ाभड़ भड़ा त्यों मचावैं।—हिम्मत०, पृ० ९।

भड़ार पु †
संज्ञा पुं० [?] दे० 'भंडार'।

भड़ाल †
संज्ञा पुं० [सं० भट] सुभट। योद्धा। लड़ाका।

भड़ास
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना] मन में बैठा हुआ दुःख या सोच। मुहा०—भड़स निकालना =कुछ कह सुनकर या फीर किसी प्रकार मन में बैठा हुआ दुःख दूर करना। जैसे,—तुम भी बक झककर अपने मन की भड़ास निकालो।

भड़िक †
क्रि० वि० [अनु०] एकाएक। अचानक। झट। बिना सोचे बूझे। उ०—सज्जण, दुज्जण के कहे भड़िक न दीजइ गालि।—ढोला०, दू० १९९।

भड़िल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीर। योद्धा। २. सेवक। चाकर [को०]।

भड़िहा †
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डहर] चोर। तस्कर। (बुंदेलखडी)।

भड़िहाईं (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भड़िहा + ई] चोरी। तस्करी।

भड़िहाईं पु (२)
क्रि० वि० [हिं० भड़िहा + आई] चोरों की तरह। लुक छिप या दबकर। उ०—इत उतचिते चला भड़िहाई।—तुलसी (शब्द०)।

भड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बढ़ाना या भड़काना] वह उत्तेजना जो किसी को मूर्ख बनाने या उत्तेजित करने के लिये दी जाय। झूठा बढ़ावा। धोखा। उ०—बस चलिए हटिए यह भड़ी किसी ऐसे वैसे को दीजिए। यहाँ बड़े बड़ों की आखे देखी हैं।—फिसाना०, भा० १, पृ० ५। क्रि० प्र०—देना।—में आना। जैसे—सबके सब मेरी भड़ी में आ गए।

भड़ आ
संज्ञा पुं० [हिं० भाँड़+उआ] १. वह जो वेश्याओं की दलाली करता हो। पुंश्चली स्त्रियों की दलाली करनेवाला। २. वेश्याओं के साथ तबला या सारंगी आदि बजानेवाला। सफरदाई।

भड़ेरिया
संज्ञा पुं० [हिं०] एक जाति जो हाथ देखने, शकुन बताने आदि का कार्य करके अपनी जीविका चलाती है। भड़रिया। उ०—आगम कहै न संत भड़ेरिया कहत हैं।—पलटू०, पृ० ७६।

भड्डर
संज्ञा पुं० [सं० भद्र] ब्राह्मणों में बहुत निम्नकर्मा श्रेणी की एक जाति। इस जाति के लोग ग्रहादिक का दान लेते हैं अथवा यात्रियों को दर्शन आदि कराते हैं। भडंर।

भड्डरी
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'भड्डर'। २. दे० 'भड़ेरिया'। ३. भड़ेरिया जाति का व्यक्ति। ४. एक कहावत कहनेवाले का नाम। जैसे, घाघ और भड्डरी की कहावतें।

भण
संज्ञा पुं० [?] ताड़ का वृक्ष। (डिं०)।

भणक्कना †
क्रि० अ० [सं० भण वा अनुध्व०] भनकना। ध्वनि करना। बज उठना। उ०—मंदिर बोली मारुवी, जाँणि भणक्की वीण।—ढोला०, दू० ४६२।

भणन
संज्ञा पुं० [सं०] कहना। वर्णन।

भणना पु
क्रि० अ० [सं० भण] कहना। बोलना। उ०—मन लोभ मोह मद काम बस भए न केशवदास भणि। सोई परब्रह्म श्रीराम हैं अवतारी अवतारमणि।—केशव (शब्द०)। २. पढ़ना। बोलना। उ०—भणवा कारण भरत नै, मेले नृप मूसाल।—रघु० रू०, पृ० ९९।

भणित (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कही हुई बात। वार्ता। कथा।

भणित (२)
वि० [सं०] कहा हुआ। जो कहा गया हो। कथित।

भणिता
वि०, संज्ञा पुं० [सं० भणितृ] बोलनेवाला। वक्ता। विद्वान्।

भणिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कथन। वार्ता। भनिति।

भणिया †
संज्ञा पुं० [सं० भणितृ > भणिता] विद्वान्। वक्ता। बोलनेवाला। उ०—सावल अणियाँ साँकही, चोरँग बणियाचेत। भणियाँ सूँ भेलप नहीं, हुरकणियाँ सूँ हेत।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १।

भत †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँति] दे० 'भाँति'।

भतरौड़
संज्ञा पुं० [हिं० भात + रौड़? ] १. मथुरा और वृंदावन के बीच का एक स्थान जिसेक विषय में यह प्रसिद्ध है कि यहाँ श्रीकृष्ण ने चौबाअनों से भात मँगवाकर खाया था। उ०—भटू जमुना भतरौड़ लौं औंड़ी।—रसखान (शब्द०)। २. ऊँचा स्थान। ३. मंदिर का शिखर।

भतवान
संज्ञा पुं० [हिं० भात + दान (प्रत्य०)] विवाह की एक रीति जिसमे बिवाह के पहले कन्यापक्ष के लोग भात, दाल आदि कच्ची रसोई बनाकर वर और उसके साथ चार कुँआरे लड़कों को बुलाकर भंजन कराते हैं। ब्याह के पूर्व होनेवाली कच्ची ज्योनार।

भताय ‡
संज्ञा पुं० [सं० भतरि] दे० 'भतार'। उ०—प्रेम प्रीति मन रातल हो, हमरो मरल भताय।—गुलाल० बानी पृ० ८१।

भतार †
संज्ञा पुं० [सं० भर्त्तृ, भर्त्ता] पति। खाविंद। खसम। उ०—ज्यौं तिय सुरत समय सितकारा। निफल जाहिं जौ बधिर भतारा।—नंद० ग्रं०, पृ० ११८।

भति पु †
संज्ञा स्त्री० [पुं० भणिति] कथन। विचार। भनिति। उ०—भति सुनी भीम सब अमरसीह।—पृ० रा०, १२। २०८।

भतीज
संज्ञा पुं० [सं० भ्रातृज, भ्रातृजात] दे० 'भतीजा'। उ०— भीमलणौ हरनाथ भयंकर। जसो भतीज महा जोरावर।—रा० रू०, पृ० २६२।

भतीजा
संज्ञा पुं० [सं० भ्रातृज, भ्रातृजात] [स्त्री० भतीजी] भाई का पुत्र। भाई का लड़का।

भतुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] सफेद कुम्हड़ा। पेठा।

भतुला
संज्ञा पुं० [देश०] गकरिया। बाटी।

भत्ता
संज्ञा पुं० [सं० भरण या भृति] १. दैनिक व्यय जो किसी कर्मचारी को यात्रा के समय दिया जाता है। २. वेतन के अतिरिक्त वह धन जो किसी को यात्राकाल में विशेष रूप से दिया जाता है।

भदंत (१)
वि० [सं० भद्र] १. पूजित। २. सम्मानित।

भदंत (२)
संज्ञा पुं० बौद्ध भिक्षु।

भदई (१)
वि० [हिं० भादों] भादों संबधी। भादों का।

भदई (२)
संज्ञा स्त्री० वह फसल जो भादों में तैयार होती है।

भदभद
वि० [अनु०] १. बहुत मोटा। २. भद्दा।

भदयल ‡
संज्ञा पुं० [हिं० भादों] मेंढक।

भदवरिया
वि० [हिं० भदावर + इया (प्रत्य०)] भदावर प्रात का। भदौरिया।

भदाक
संज्ञा पुं० [सं०] उन्नति। सौभाग्य। अभ्युदय [को०]।

भदावर
संज्ञा पुं० [वि० भद्रवर] एक प्रांत जो आजकल ग्वालियर राज्य में है। विशेष—यहाँ के क्षत्रियौं का एक विशिष्ट वर्ग है। यहाँ के बैल भी बहुत प्रसिद्ध होते हैं।

भदेस †
वि० [हिं० भद्दा+बेस (=वेष)] भद्दा। भोंडा। कुरूप। बदशकल। उ०—भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी।—मानस, १। १०।

भदेसिल †
वि० [हिं० भद्दा + देसिल (=देश का)] दे० 'भदेस'।

भदैल ‡
संज्ञा पुं० [हिं० भदों ?] मेंढक।

भदैला †
वि० [हिं० भादों + ऐला (प्रत्य०)] भादों मास में उत्पन्न होनेवाला। भादों का।

भदौंह †
वि० [हिं० भादों + ह (प्रत्य०)] भादों मास में होनेवाला। उ०—वह रस यह रस एक न होई जैसे आम भदौंह।—देवस्वामी (शब्द०)।

भदौंहाँ †
वि० [हिं० भादों + हाँ (प्रत्य०)] भादों में होनेवाला। भदौंह।

भदौरिया (१)
वि० [हिं० भदावर] भदावर पाँत का। भदावर संबंधी।

भदौरिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भदावर] १. क्षत्रियों की एक जाति २. भदावर प्रांत की निवासी।

भद्द (१)
वि० [सं० भद्र, प्रा० भद्द] दे० 'भद्र'। उ०—रचि रूप भद्द तरु अद्द अली मनि दामिनि गोपी सु हर।—पृ० रा०, २। ३८५।

भद्द (२)
संज्ञा पुं० [सं० भाद्र] दे० 'भादों'। उ०—कितिक दिवस अंतरह रहिय आधान रानि उर। दिन दिन कला बढंत मेघ ज्यों बढ़त भद्द धुर।—पृ० रा०, १। ६८४।

भद्दा
वि० पुं० [सं० भद्र] [स्त्री० भद्दी] १. जिसकी बनावट में अंग प्रत्यंग की सापेक्षिक छोटाई बड़ाई का ध्यान न रखा गया हो। २. जो देखने में मनोहर न हो। वेढगा। कुरूप।

भद्दापन
संज्ञा पुं० [हिं० भद्दा + पन (प्रत्य०)] १. भद्दे होने का भाव। २ अशिष्टता। असामाजिकता। अनौचित्य।

भद्रंकर
वि० [सं० भद्रङ्कर] भद्र करनेवाला। मंगलकारक। शुभकर्ता [को०]।

भद्रंकरण
संज्ञा पुं० [सं० भद्रङ्करण] मंगलसाधन।

भद्र (१)
वि० [सं०] १. सभ्य। सुशिक्षित। २. कल्याणकारी। ३. श्रेष्ठ। ४. साधु। ५. सुंदर (को०)। ६. प्रिय (को०)। ७. अनुकूल (को०)।

भद्र (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कल्याण। क्षेम। कुशल। २. चंदन। ३. हाथियों की एक जाति जो पहले विंध्याचल में होती थी। उ०—च्यारि प्रकार पिष्षि बन बारन। भद्र मंद मृग जाति सधारन।—पृ० रा०, २७। ४। ४. बलदेव जी का एक सहोदर भाई। ५. महादेव। ६. एक प्राचीन देश का नाम। ७. उत्तर देश के दिग्गज का नाग। ८. खंजन पक्षी। ९. बैल। १०. विष्णु के एक पारिषद् का नाम। ११. राम जी के एक सखा का नाम। १२. स्वरसाधन की एक प्रणाली जो इस प्रकार है—सा रे सा, रे ग रे, ग म ग, म प म, प ध प, ध नि ध, नि सा नि, सा रे सा। सा नि सा, नि ध नि, धप ध, प म प, म ग म, ग रे ग, रे सा रे, सा नि सा। १३. ब्रज के ८४ वनों में से एक वन। २४. सुमेरु पर्वत। १५. कदंब। १६. सोना। स्वर्ण। १७. मोथा। १८. रामचंद्र की सभा का वह सभासद जिसके मुँह से सीता की निंदा सुनकर उन्होंने सीता को वनवास दिया था। १९. विष्णु का वह द्वार- पाल जो उनके दरवाजे पर दाहिनी ओर रहता है। २०. देवदारु वृक्ष (को०)। २१. दाँभिक। दंभी। कपटी। छली। धूर्त (को०)। २२. लोह। लोहा (को०)। २३. ज्योतिष में सातवाँ करण। २४. पुराणानुसार स्वायभुव मन्वतर में विष्णु से उत्पन्न एक प्रकार के देवता जो तुषित भी कहलाते हैं।

भद्र (३)
संज्ञा पुं० [सं० भद्राकरण] सिर, दाढ़ी, मूछों आदि सबके बालों का मुंडन। उ०—लीन्हों हृदय लगाय सूर प्रभु पूछत भद्र भए क्यौं भाई।—सूर (शब्द०)।

भद्रअवज्ञा
संज्ञा पुं० [सं० भद्र + अवज्ञा] दे० 'सविनय कानून भंग'।

भद्रकंट
संज्ञा पुं० [सं० भद्रकण्ट] गोक्षुर। गोखरू।

भद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम। २. चना, मूँग इत्यादि अन्न। ३. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में/?/(भ र न र न र न ग) और ४, ६, ६, ६, पर जति होती है। ४. नागर- मोथा। ५. देवदार।

भद्रकपिल
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

भद्रकल्पिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।

भद्रकांत
संज्ञा पुं० [सं० भद्रकान्त] रूपवान प्रेमी या पति।

भद्रका
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रजव।

भद्रकाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम। २. वह जिसके शरीर की गठन सुंदर हो।

भद्रकार
वि० [सं०] मंगल या कल्याण करनेवाला।

भद्रकारक (१)
वि० [सं०] दे० 'भद्रकार'।

भद्रकारक (२)
संज्ञा पुं० एक प्राचीन देश का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।

भद्रकाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा देवी की एक मुर्ति जो १६ हाथोंवाली मानी जाती है। २. कात्यायिनी। ३. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम। विशेष—पुराणानुसार इसकी उत्पत्ति दक्ष यज्ञ के समय भगवती के क्रोध से हुई थी। इसने उत्पन्न होते ही वीरभद्र के साथ मिलकर यज्ञ का ध्वंस किया था। ४. गधप्रसारिणी। ५. नागरमोथा।

भद्रकाशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भद्रमुस्ता। नागरमोथा [को०]।

भद्रकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु वृक्ष।

भद्रकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० भद्रकुम्भ] वह स्वर्णकलश जिसमें तीर्थों का (विशेषतः गंगा का) पवित्र जल रहा हो जिसका उपयोग राजा के संस्कारार्थ होता था [को०]।

भद्रगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० भद्रगन्धिका] नागरमोथा [को०]।

भद्रगणित
संज्ञा पुं० [सं०] बीज गणित के अंतर्गत एक प्रकार का गणित जो चक्रविन्यास की सहायता से होता है।

भद्रगौड़
संज्ञा पुं० [सं० भद्रगौड़] एक प्राचीन देश जो पुराणानुसार पूर्वी भारत में था।

भद्रगौर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।

भद्रघट
संज्ञा पुं० [सं०] वह ड्रम या घट जिसमें से लाटरी निकाली जाती है।

भद्रघन
संज्ञा पुं० [सं०] नागरमोथा।

भद्रचारु
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम जो रुक्मिणी से उत्पन्न था।

भद्रज
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रजौ।

भद्रजन
संज्ञा पुं० [सं०] भला व्यक्ति। शिष्ट जन।

भद्रतरुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का गुलाब। विशेष—पाटल, कुंजिका, भद्रतरुणी इत्यादि गुलाब की कई जातियाँ हैं।

भद्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भद्र होने का भाव। शिष्टता। सभ्यता। शराफत। भलमनसी।

भद्रतुंग
संज्ञा पुं० [सं० भद्रतुङ्ग] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ।

भद्रतुरग
संज्ञा पुं० [सं०] जंबू द्वीप के नौ वर्षों में से एक वर्ष।

भद्रदंत
संज्ञा पुं० [सं० भद्रदन्त] हाथी।

भद्रदंती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दंती वृक्ष का एक भेद। विशेष—वैद्यक में इसे कटु, उष्ण, रेचक और कृमि, शूल, कुष्ठ, आमदोष आदि का नाशक माना है। पर्या०—केशरुहा। भिषग्भद्रा। जयावहा। आवर्त्तकी। जरांगी। भद्रदतिका।

भद्रदारु
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु।

भद्रदेह
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।

भद्रद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार कुरु वर्ष के अंतर्गत एक द्वीप का नाम।

भद्रनाम
संज्ञा पुं० [सं० भद्रनामन्] १. खंजन पक्षी। खँडरिच। २. दे० 'कठफोड़वा'।

भद्रनामिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लता। त्रायंती। वि० दे० 'त्रायमाणा'।

भद्रनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रकार का महादान। विशेष—अग्निपुराण में 'भद्रनिधिदान' शीर्षक अध्याय में इसकी विस्तृत विधि आदि वर्णित है।

भद्रपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भाद्रपदा' (नक्षत्र)।

भद्रपर्णा, भद्रपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रसारिणी। कंटभरा वृक्ष।

भद्रपाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।

भद्रपीठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. आसन जिसपर बैठी जाय। २. वह सिंहासन आदि जिसपर राजाओं या देवताओं का अभिपेक होता है।

भद्रबन
संज्ञा पुं० [सं०] मथुरा के पास का एक बन।

भद्रबलन, भद्रवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] बलराम।

भद्रबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रसारिणी लता। २. माधवी लता।

भद्रबाहु
संज्ञा स्त्री० [सं०] रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न वसुदेव के एक पुत्र का नाम।

भद्रभीमा
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार कश्यप की एक कन्या का नाम जो दक्ष की कन्या क्रोधा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी।

भद्रभूषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवी की एक मूर्ति का नाम।

भद्रमंद
संज्ञा पुं० [सं० भद्रमन्द] हाथियों की एक जाति।

भद्रमनसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐरावत की माता का नाम।

भद्रमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रवारुनी। गवाक्षी [को०]।

भद्रमुंज
संज्ञा पुं० [सं० भद्रमुञ्ज] सरपत।

भद्रमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक नाग का नाम। २. [स्त्री० भद्रमुखी] श्रीमान्। एक शिष्ट संबोधन।

भद्रमुस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] नागरमोथा। भद्रमुस्ता [को०]।

भद्रमुस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागरमोथा।

भद्रमृग
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों की एक जाति।

भद्रयव
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रजौ।

भद्रयान
संज्ञा पुं० [सं०] शाखाप्रवर्तक एक बौद्ध आचार्य।

भद्ररेणु
संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत।

भद्ररोहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कटुका।

भद्रवट
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

भद्रवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटहल। २. नाग्नजिती के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण की एक कन्या का नाम।

भद्रवर्मा
संज्ञा पुं० [सं० भद्रवर्मन्] चमेली। नवमल्लिका [को०]।

भद्रवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनंतमूल।

भद्रवल्लो
संज्ञा [सं०] १. माधवी लता। २. मल्लिका।

भद्रवान्
संज्ञा पुं० [सं० भद्रवत्] देवदारु वृक्ष [को०]।

भद्रविंद
संज्ञा पुं० [सं० भद्रविन्द] पुराणानुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।

भद्रविराट्
संज्ञा पुं० [सं० भद्रविराज] वर्णार्धसम वृत का नाम जिसके पहले और तीसरे चरण में १० और दूसरे तथा चौथे चरण में ११ अक्षर होते हैं।

भद्रवेश
संज्ञा पुं० [सं० भद्र + वेश] वह जो मुंडित हो। भद्र। उ०—इनके दश चिह्न होते हैं—भद्रवेष अर्थात् दाढ़ी, मूँछ, सिर के बाल मुड़े हुए।—कबीर सं०, पृ० ६१।

भद्रशाख
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय।

भद्रश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] चंदन।

भद्रश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० भद्रश्रवस्] पुराणानुसार धर्म के एक पुत्र का नाम।

भद्रश्रिय, भद्रश्री
संज्ञा पुं० [सं०] चंदन का वृक्ष।

भद्रश्रेण्य
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार वाराणासी के प्राचीन राजा जो दिवोदास से भी पहले हुए थे।

भद्रपष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।

भद्रसमाज
संज्ञा पुं० [सं०] शिष्ट जनों का समाज। उ०—उनके संसर्ग से भद्रसमाज मे औरों को भी इसका अनुराग न्यून न था।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३८९।

भद्रसेन
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवकी के गर्भ से उत्पन्न वसुदेव के एक पुत्र का नाम जिसे कंस ने मार डाला था। २. भागवत के अनुसार कुंतिराज के पुत्र का नाम। ३. बौद्धों के अनुसार मार, पापीय आदि कुमति दलपति का नाम।

भद्रसीमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंगा का एक नाम। २. मार्कंडेय पुराण के अनुसार कुरुवर्ष की एक नदी का नाम।

भद्रांग
संज्ञा पुं० [सं०] बलराम।

भद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केकयराज की एक कन्या जो श्रीकृष्ण जी को ब्याही थी। २. रास्ता। ३. आकाशगंगा। ४. द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी तिथियों की संज्ञा। ५. प्रसारिणी लता। ६. जीवती। ७. बरियारी। ८. शमी। ९. बच। १०. दती। ११. हलदी। १२. दूर्वा। १३. चंसुर। १४. गाय। १५. दुर्गा। १६. छाया से उत्पन्न सूर्य की एक कन्या। १७. पिंगल में उपजाति वृत्त का दसवाँ भेद। १८. कटहल। १९. कल्याणकारिणी शक्ति। २०. पृथ्वी। २१. पुराणानुसार भद्रश्ववर्ष की एक नदी का नाम जो गंगा की शाखा कही गई है। २२. बुद्ध की एक शक्ति का नाम। २३. सुभद्रा का एक नाम। २४. कामरूप प्रदेश की एक नदी का नाम। २५. फलित ज्योतिष के अनुसार एक योग जो कृष्ण पक्ष की तृतीया और दशमी के शेषार्ध में तथा अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वाद्ध में रहता है। विशेष—जब यह कर्क, सिंह, कुंभ और मीन राशि में होता है, तब पृथ्वी पर जब मेष, वृष, मिथुन और वृश्चिक राशि में होता है, तब स्वर्ग लोक में और जब कन्या, धन, तुला और मकर राशि में होता है, तब पाताल में रहता है। इस योग के स्वर्ग में रहने के समय यदि कोई कार्य किया जाय तो कार्यसिद्धि और पाताल में रहने के समय किया जाय तो धन की प्राप्ति होती है। पर यदि इस योग के इस पृथ्वी पर रहने के समय कोई कार्य किया जाय तो वह बिलकुल नष्ट हो जाता है। अतः भद्रा के समय लोग कोई शुभ कार्य नहीं करते। इसे धिष्टिभद्रा भी कहते हैं। २६. बाधा। रोक। (बोल चाल)। मुहा०—किसी के सिर की भद्रा उतारान =किसी प्रकार की हानि विशेषतः आर्थिक हानि होना। भद्रा लगाना =बाधा उत्पन्न करना।

भद्राकरण
संज्ञा पुं० [सं०] मुंडन। सिर मुँडाना।

भद्राकार
वि० [सं०] दे० 'भद्राकृति'।

भद्राकृति
वि० [सं०] सुंदर। सौम्य आकृतिवाला।

भद्रात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] खड्ग।

भद्रानंद
संज्ञा पुं० [सं० भद्रानन्द] एक प्रकार की स्वरसाधना प्रणाली जो इस प्रकार है—आरोहा—सा रे ग म, रे ग म प, ग म प ध, म प ध नि, प ध नि सा। अवरोही—सा नि ध प, नि ध प म, ध प म ग, प म ग रे, म ग रे सा।

भद्राभद्र
वि० [सं०] अच्छा बुरा। भला बुरा।

भद्रायुध
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस का नाम।

भद्रारक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार अठारह क्षुद्र द्वीपों में से एक द्वीप का नाम।

भद्रालपत्रिका, भद्रावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंधाली [को०]।

भद्रावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटफल का पेड़। २. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन नगरी।

भद्रावह
वि० [सं०] जिससे मंगल हो। मंगलकारक।

भद्राश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] चंदन।

भद्राश्व
संज्ञा पुं० [सं०] जंबू द्वीप के नौ खंडों या वर्षों में से एक खंड। उ०—प्रथम मडल में उदित शुक्राचार्य के ऊपर जो कोई ग्रह होय तौ भद्राश्व, शूरसेनक, यौधेयक और कोटि- वर्ष देश के राजा का नाश होता है।—बृहत्, पृ० ५६।

भद्रासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मणियों से जड़ा हुआ राजसिंहासन जिसपर राज्याभिषेक होता है। २. योगसाधन का एक आसन।

भद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिंगल में एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरम में रगण, नगण और रगण होते हैं। २. भद्रा तिथि। द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी तिथि। ३. फलित ज्योतिष के अनुसार योगिनी दशा के अंदर्गत पाँचवीं दशा।

भद्री
वि० [सं० भद्रिन्] भाग्यवान्। उ०—समरथ महा मनोरथ पूरत होन अभद्री भद्री।—रघुराज (शब्द०)।

भद्रेश
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

भद्रेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वारह पुराण के अनुसार कल्पग्रामस्थ शिव। २. वामन पुराण के अनुसार दुर्गा द्वारा शिवप्राप्ति के निमित्त आराधित पार्थिव शिवलिंग [को०]।

भद्रैला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी इलायची। [को०]।

भद्रोदनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बला। २. नागबला।

भनक
संज्ञा स्त्री० [सं० भणन या अनु०] १. धीमा शब्द। ध्वनि। २. अस्पष्ट या उड़ती हुई खबर। जैसे—हमारे कान में पहले ही इसकी कुछ भनक पड़ गई थी।

भनकना पु
क्रि० स० [हिं० भनक] बोलना। कहना।

भनकंत
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भनभाहट'। उ०—बलाय मंजु पैजनी भँवर भनकंत की।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २२२।

भनना पु
क्रि० स० [सं० भणन] कहना।

भनभन
संज्ञा स्त्री० [अनु०] गुंजारने की ध्वनी। भनभनाहट।

भनभनाना
क्रि० अ० [अनु०] भन भन शब्द करना। गुंजारना।

भनभनाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० भनभनाना + आहट (प्रत्य०)] भनभनाने का शब्द। धीमी आवाज की ध्वनि। गुंजार।

भनसा †
संज्ञा पुं० [सं० महानस, म्हानस, भनस] रसोई। यौ०—भनसाघर = रसोईघर। रसोई बनाने का स्थान। उ०— भनसाघर और एक घर पालतू।—मैला०, पृ० १३।

भनित पु
वि० [सं० भणित] दे० 'भणित'।

भनिति पु
वि० [सं० भणित] दे० 'भणिति'। उ०— (क) जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते वर पुरुष बहुत जग नाहीं।— मानस, १। ८। (ख) भाषा भनिति भोरि मति मोरी।— मानस, १। ९।

भनुजा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भानुजा] यमुना। उ०—भनुजा पै नट- नागर जू, बनसीबट पास हमेस रहा करै।—नट० पृ० ५९।

भनैजी †
संज्ञा स्त्री० [सं० भागिनेयी] भानजी। उ०—बोलि उठी देवकि छबिमई। भैया न डर भनैजी भई।—नंद० ग्रं०, पृ० २३१।

भबका
संज्ञा पुं० [हिं० भाप] अर्क उतारने या शराब आने चुआने का बंद मुँह का एक प्रकार का बड़ा घड़ा जिसके ऊपरी भाग में एक लबी नली लगी रहती है। विशेष—जिस चीज का अकं उतारना होता है वह चीज पानी आदि के साथ इसमें डालकर आग पर चढ़ा दी जाती है और उसकी भाप बनती है। तब वह भाप उस नली के रास्ते से ठंढो होकर अर्क आदि के रूप में पास रखे हुए दूसरे बर्तन में गिरती है।

भबकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भभकी'।

भबूड़ा †
संज्ञा [सं० बाष्प + हिं० ऊड़ा (प्रत्य०)] १. दे० 'भभूका'। २. दे बपूरा या बगूला और भूभल। उ०—उठिऐ ज्वानी या ढब से जैसे आँधी में भपूड़ो बल खाई।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८७६।

भब्भड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीड़ + भाड़ अनु०] भीड़ भाड़। अव्यव- स्थित जनसमुदाय।

भभक
संज्ञा स्त्री० [हिं० भक से अनु०] किसी वस्तु का एकाएक गरम होकर ऊपर को उबलना। उबाल। उ०—नए जुते खेतों से आती हुई भभक सी मन का भार बनी यह काफी। मन को ड्डबा रही यह काफी।—बंदन०, पृ० १६१।

भभकना
क्रि० अ० [अनु०] १. उबलना। २. गरमी पाकर किसी चीज का फूटना। २. प्रज्वलित होना। जोर से जलना। भड़कना। उ०—बुद्धि विवेक कुलीनता तबहीं लौं मन माहिं। काम बान की अगनि तन, जौ लौं भभकत नाहिं।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ९६।

भभका
संज्ञा पुं० [हिं० भाप] दे० 'भभका'।

भभकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भभका] झूठी धमकी। घुड़की। जैसे, बँदरभभकी।

भभ्भड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीड़माड़] दे० 'भभ्भड़'।

भभरना पु
क्रि० अ० [हिं० भय या अनु०] १. भयभीत होना। डरना। उ०—(क) समय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तरि जात काम करि बरि जात कोप करि, कर्म कीलकाल तीन कंटक भभरि जात।—सुंदर० ग्रं० (जी०) भा० १, पृ० ९५। २. घबरा जाना। ३. भ्रम में पड़ना। उ०—(क) अब ही सुधि भूलिहो मेरी भटू भभरौ जिन मीठी सी तानन में। कुल कानि जो आपनी राखो चहौ अँगुरी दै रहो दोउ कानन में।—नेवाज (शब्द०)। (ख) कहै पद्माकर सुमंद चलि कँधहू ते भ्रमि भ्रमि भाँई सी भुजा में त्यौं भभरि गो।—पद्माकर (शब्द०)।

भभाना † (१)
क्रि० वि० [अनु०] भाँय भाँय करते हुए। बहुत जोर से। उ०—एक बार पूछा, दो बार पूछा। तीसरी दफे मोकिल भभाकर हँस पड़ा।—नई०, पृ० ९७।

भभाना † (२)
क्रि० अ० जले हुए अंग आदि बाप के कारण प्रदान होना।

भभीखन
संज्ञा पुं० [सं० विभीषण] दे० 'विभीषण'। उ०— ध्रु प्रहलाद भभीखन पीया और पिया रैदासा।—कबीर० श०, भा० २, पृ० ७।

भभीरी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] झींगुर। दे० 'भँभीरी'। उ०—बरषा भएँ ते जैसे बोलत भभीरी स्वर।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २२५।

भभूका
संज्ञा पुं० [हिं० भभक + उल्का] १. ज्वाला। लपट। उ०— चातुर शत्रु कहावत वे ब्रज सुंदरी सोहि रही ज्यौं भभूकैं। जानी न जात मसाल औ बाल गोपाल गुलाल चलावत चूकै।—शभू (शब्द०)। २. चिनगारी। चिनगी।

भभूखा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भभूका'।

भभूत
संज्ञा स्त्री० [सं० विभूति] १. वह भस्म जो शिव जी लगाया करते थे। २. शिव की मूर्ति के सागने जलनेवाली अग्नि की भस्म जिसे शैव लो मस्तक और भुजा आदि पर लगाते हैं। भस्म। क्रि० प्र०—मलना।—रमाना।—लगाना। ३. दे० 'विभूति'।

भभूदर
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भूभल'।

भभर
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] भौरा। भ्रमर। उ०—जनु अगनित नग छबि तन बिसाल। रसना कि बैठि जनु भमर व्याल।—पृ० रा०, ६। ३६।

भयंक
वि० [सं० भयङ्कर] दे० 'भयंकर'। उ०—बज्रपाट ता नाम गन घन तन घोर भयंक। प्रयुक्त नाम बरनत सबन सुनत मिटै तन सक।—पृ०, ६। ६५।

भयंकर (१)
वि० [सं० भयङ्कर] जिसे देखने से भय लगता हो डरावना। भयानक। भीषण। बिकराल। खोफनाक। उ०— अग्ग गयो गिरि निकट बिकट उद्यान भयकर।—पृ० रा० ६। ९४।

भयंकर (२)
संज्ञा पुं० १. एक अस्त्र का नाम। २. डुंडुल पक्षी।

भयंकरता
संज्ञा स्त्री० [सं० भयङ्करता] भयंकर होने का भाव। डरावनापन। भयानकता। भाषणता।

भयंद पु
वि० [सं० भयद] भयदायक। भयंकर। उ०—बजै नद्द नीसान भेरी भयंर्द, गजै शृंग रीसं मनौ मेघ नद्दं।—पृ० रा०, ९। १४८।

भय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध मनोविकार जो किसी आनेवाली भीषण आपत्ति अथवा होनेवाली भारी हानि की आशंका से उत्पन्न होता है और जिसके साथ उस आपत्ति अथवा हानि से बचने की इच्छा लगी रहती है। भारी अनिष्ट या विपत्ति की संभावना से मन में होनेवाला क्षोभ। डर। भीति। खौफ। विशेष—यदि यह विकार सहसा और अधिक मान में उत्पन्न हो तो शरीर कांपने लगता है, चेहरा पीला पड़ जाता है, मुँह से शब्द नहीं निकलता और कभी कभी हिलने डुलने तक की शक्ति भी जाती रहती है। मुहा०—भय खाना = डरना। भयभीत होना। यौ०—भयभीत। भयानक। भयंकर। २. बालकों का वह रोग जो उनके कहीं डर जाने के कारण होता है। ३. निऋति के एक पुत्र का नाम। ४. द्रोण के एक पुत्र का नाम जो उसकी अभिमति नामक स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। ५. कुब्जक पुष्प। मालती।

भय पु (२)
वि० [सं० भू (=होना)] दे० 'भया' या 'हुआ'। उ०— भय दस मास पूरि भइ धरी। पद्मावत कन्या अवतारी।—जायसी (शब्द०)।

भजकंप
संज्ञा पुं० [सं० भयकम्प] भयजन्य कँपकँपी। डर के कारण कँपना [को०]।

भयकर
वि० [सं०] जिसे देखकर भय लगे। भय उत्पन्न करनेवाला। भयानक।

भयचक
वि० [सं० भय + चक/?/] दे० 'भौचक'।

भयज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] भय और शोक से उत्पन्न होनेवाला ज्वर।—माधव०, पृ० २९।

भयडिंडिम
संज्ञा पुं० [सं० भयडिण्डिम] प्राचीन काल का एक प्रकार का लड़ाई का बाजा।

भयत †
संज्ञा पुं० [सं० मयङ्क हिं०] चंद्रमा। (डिं०)।

भयत्रस्त
वि० [सं०] अत्यंत भयभीत। बहुत डरा हुआ।

भयत्राता
वि० पुं० [सं० भयत्रातृ] भय से रक्षा करनेवाला। डर मिटानेवाला या छुड़ानेवाला।

भयद
वि० [सं०] भय उत्पन्न करनेवाला। भयानक। डरावना। खौफनाक। उ०—गिद्ध गरुड़ हड़गिल्ल भजत लखि निकट भयद रव।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २९८।

भयदर्शी
वि० [सं० भयदर्शिन्] भय करनेवाला। भयानक [को०]।

भयदान
संज्ञा पुं० [सं०] वह दान जो भय के कारण किया जाय।

भयदोप
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार एक प्रकार का दोषजो उस समय होता है जब मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं बल्कि केवल लोकापवाद के भय से सामयिक कर्म आदि करता है।

भयन
संज्ञा पुं० [सं०] भय। डर। खौफ [को०]।

भयनाशन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

भयनाशन (२)
वि० भय का नाश करनेवाला।

भयनाशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रायमाणा लता।

भयप्रतीकार
संज्ञा पुं० [सं०] डर को दूर करना। भयनिवारण।

भयप्रद
वि० [सं०] जिसे देखकर भय उत्पन्न हो। भय उत्पन्न करनेवाला। भयानक। खोफनाक।

भयप्रदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] डराना। भयभीत करना [को०]।

भयब्राह्मण
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो अपना ब्रह्मणत्व बताकर आगत भय से बचने की चेष्टा करे [को०]।

भयभी
वि० [सं०] जिसके मन में भय उत्पन्न हो गया हो। डरा हुआ।

भयभ्रष्ट
वि० [सं०] जो भय से पश्चात्पद् हो [को०]।

भयमोचन
वि० [सं०] भय छुडानेवाला। डर दूर करनेवाला। निर्भय करनेवाला।

भयवर्जिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यवहार में दो गाँवों के बीच की वह सीमा जिसे वादी और प्रतिवादी आपस में मिलकर ही मान लें और जिसका निर्णय किसी दूसरे को न करना पड़ा हो।

भयवाद
संज्ञा पुं० [हिं० भाई + आद (प्रत्य०)] १. एक ही गोत्र या वंश के लोग। भाईबंदी। २. बिरादरी का आदमी। सजातीय।

भयविप्लुत, भयविह्वल
वि० [सं०] आतंकित। भयभीत। भया- कुल [को०]।

भयव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का व्यूह जो युद्धकाल में इसलिये रचा जाता था जिसमें भय उपस्थित होने पर राजा उसमें आश्रय लेकर अपनी रक्षा करे।

भयशील
वि० [सं०] डरपोक। भयालु।

भयशून्य
वि० [सं०] निडर। निर्भय।

भयस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] भय की जगह। भय का कारण।

भयहरण
वि० [सं०] भय का नाश करनेवाला। भय दूर करनेवाला।

भयहारी
वि० [सं० भयहारिन] डर छुड़ानेवाला। भयहरण। डर दूर करनेवाला।

भयहेतु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भयस्थान'।

भया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राक्षसी जो काल की बहन और हेति की स्त्री थी। विद्युत्करा इसी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। २. एक प्रकार की नाव। ६२ हाथ लंबी, ५६ हाथ चौड़ी ३६ हाथ ऊँची नाव। (युक्तिंकल्पतरु)।

भया पु † (२)
वि० [सं०/?/भू (=होना)] दे० 'हुआ'। उ०—(क) भयो सचेत हेत हित लाग्यौ सत दरसन रस पाग्यो रे।— जग० श०, पृ० ८७। (ख) जैसे कलपि कलपि के भए है गुड़ की माखी।—धरनी० श०, पृ० ८४। (ग) भयो द्रोपदी को बसनु बासर नाहिं बिहाय।—मति० ग्रं०, पृ० ३०८। (घ) जँह भए शाक्य हरिचद अरु नहुष ययाती।—हरिश्चंद्र (शब्द०)।

भया (३)
संज्ञा पुं० [सं० भ्राता] भ्राता। भाई। उ०—लेहु भया गहि सीसन ते दधि की मटुकी अब कानि करौ कित। जैसे सों तैसे भए ही बनै घनआनंद धाय धरौ जित की तित।— घनानंद, पृ० २५४।

भयाउनि पु †
वि० स्त्री० [हिं० भयावनी] भयावत का स्त्री लिंग। डरावनी। उ०—अति भयाउनि निबिल राति। कइसे अँगीरति जीवन साति।—विद्यापति, पृ० ६९।

भयाकुल
वि० [सं०] भय से व्याकुल। डर से घबराया हुआ। भयभीत।

भयाक्रांत
वि० [सं० भयाक्रान्त] दे० 'भयाकुल'।

भयातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] अतिसार का एक भेद जिसमें केवल भय के कारण दस्त आने लगते हैं। उ०—यहाँ माधवाचार्य ने भयातिसार की वातज अतिसार में गणना की है।— माधव०, पृ० ४४।

भयातुर
वि० [सं०] डर से घबराया हुआ। भयभीत।

भयान पु
वि० [सं० भयानक] डरावना। भयानक। उ०—तुम बिना सोभा न ज्यों गृह बिना दीप भयान। आस स्वास उसास घट में अवध आशा प्रान।—सूर (शब्द०)।

भयानक (१)
वि० [सं०] जिसे देखने से भय लगता हो। भीषण। भयंकर। डरावना।

भयानक (२)
संज्ञा पुं० १. बाध। २. राहु। ३. भय। डर (को०)। ४. साहित्य में नौ रसों के अंतर्गत छठा रस। विशेष—इसका स्थायी भाव भय है। इसमें भोषण दृश्यों (जैसे, पृथ्वी के हिलने या फटने, समुद्र में तुफान आने आदि) का वर्णन होता है। इसका वर्ण श्याम, अधिष्ठाता देवता यम, आलंबन भयकर दर्शन, उद्दीपन उसके घोर कर्म और अनुभाव कंप, स्वेद, रोमांच आदि माने गए हैं।

भयाना पु (१)
क्रि० अ० [सं० भय + हिं० आना (प्रत्य०)] डरना। भयभीत होना। उ०—जो अहि कबहुँ न देखिया रज्जु में नहिं दरसाय। सर्प ज्ञान जाको भया सो जहँ तहँ देखी भयाय।— कबीर (शब्द०)।

भयाना (२)
क्रि० स० भयभीत करना। डराना।

भयान्वित
वि० [सं०] भययुक्त। डरा हुआ [को०]।

भयापह (१)
वि० [सं०] दे० 'भयनाशन'।

भयापह (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु। २. राजा [को०]।

भयारा
वि० [सं० भयालु] भयंकर। डरावना। भीषण। उ०— दानव आयो दगा करि जावली दीह भयारो लहामद भारयो।भूषन बाहुबली सरजा तेहि भेटिबो को निरसंक पधारयो।— भूषन ग्रं०, पृ० ७९।

भयार्त, भयावदीर्ण
वि० [सं०] दे० 'भयविह्वल'। डरा हुआ।

भयावन पु †
वि० [हिं० भय + आवन (प्रत्य०)] डरावना। भयानक। भयंकर। उ०—ढहे धाम अभिराम देखि वै लगत भयावन।—प्रेमघन०, पृ० ३८।

भयावह
वि० [सं०] भयंकर। डरावना। खौफनाक। उ०— विमाता बन गई आँधी भयावह, हुआ चंचल न तो भी श्याम घन वह।—साकेत, पृ० ५७।

भय्या †
संज्ञा पुं० [सं० भ्रातृक] दे० 'भैया'।

भरंड
संज्ञा पुं० [सं० भरण्ड] १. मालिक। स्वामी। प्रभु। २. राजा। नरेश। ३. कीट। कीड़ा। ४. वृषभ। बैल [को०]।

भरंत पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रान्ति] भ्रम। संदेह। शक। उ०— लीला राजा राम की खेलहिं सबहिं सत। आपा पर एकइ भए छूटी सबइ भरत।—दादू (शब्द०)।

भरंत ‡ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना] दे० 'भराई'।

भर (१)
वि० [हिं० भरना] कुल। पूरा। सब। तमाम। जैसे, सेर भर, जाड़े भर, शहर भर। उ०—(क) अति करुणा रघुनाथ गुसाई युग भर जात घड़ी।—सूर (शब्द०)। (ख) रहै तो करौं जनम भर सेवा। चलै तो यह जिव साथ परेवा।— जायसी (शब्द०)।

भर † (२)
क्रि० वि० [हिं० भार] भार से। बल से। द्वारा। उ०— (क) सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरम कठोरा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) गिरिगो मुँह के भर भूमि तहाँ। चलि बैठि पराय लजाय जहाँ।—रघुराज (शब्द०)।

भर (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भार। बोझ। वजन। २. पृष्टि। मोटाई। पीनता। उ०—भर लाग्यो परन उरोजनि मैं रघुनाथ, राजी रोमराजी भाँति कल अलि सैनी की।— रघुनाथ (शब्द०)। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। ४. वह जो भरण पोषण करता हो। ५. युद्ध। लड़ाई। आक्रमण। ६. तील (को०)। ७. आधिक्य। अतिशयता। प्रचुरता (को०) । ८. राशि। ढेर। पुंज (को०)। ९. चाय। चोरी (को०)। १०. स्तुतिगान या एक प्रकार की ऋचा (को०)।

भर (४)
संज्ञा पुं० [सं० भरत या भरतपुत्र] एक छोटी और अस्पृश्य जाति जो संजुक्त प्रांत और बिहार में पाई जाती है। आजकल इस जाति के कुछ लोग अपने आप की भरद्वाज के वंशज बतलाते हैं।

भरई †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'भरदूल'।

भरइत ‡
वि० [हिं० भाड़ा + इत (प्रत्य०)] भाड़े वा किराए पर रहनेवाला। भरैत।

भरक (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दलदलो में रहनेवाला एक प्रकार का पक्षी। विशेष—यह पंजाब और बगाल में अधिकता से पाया जाता है। यह प्रायः अकेला रहना है, पर कभी कभी दो या तीन भी एक साथ दिखाई देते हैं। मांस के लिये इसका शिकार किया जाता है।

भरक (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'भड़क'।

भरकना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'भड़कना'।

भरकम
वि० [हिं० भारी] मोटा ताजा। स्थूल। उ०—तुम मेरे पथ के बीच लिए काया भारी भरकम क्यों जमकर बैठ गए कुछ बोलो तो।—मिलन० पृ० १८६। यौ०—भरी भरकम।

भरका
संज्ञा पुं० [देश०] १. वह जमीन जिसकी मिट्टी काली और चिकनी हो, परतु सूख जाने पर सफेद और भुरभुरी हो जाय। यह प्रायः जोती नहीं जाती। २. दे० 'भरक'। †३. खड्ड। करार। गह्वर।

भरकाना पु
क्रि० स० [हिं० भड़क, भटक] दे० 'भड़काना'।

भरकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भरका'।

भरकूट
संज्ञा पुं० [डिं०] मस्तक। माथा।

भरके
अव्य० [हिं० भरका (=खड्ड)] एक संकेत जो पालकी ढोनेवाले कहार नाली आदी से बचकर चलने के लिये कहते हैं।

भरखमा †
वि० [सं० भर (=भार)+ क्षमा] भार सहनेवाली। क्षमा से भरा हुई। सहनशील। उ०—धरती जेहा भरखमा, नमणा जेही केलि।—ढोला०, दू० ५६३।

भरचिंटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] हिसार प्रांत में होनेवाली एक प्रकार की घास जो वर्षा ऋतु में अधिकता से होती है। पशुओं के लिये यह बहुत पुष्टिकारक होती है। यह छोटी और बड़ी दो प्रकार की होती है।

भरट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुम्हार। २. सेवक। नौकर।

भरटक
संज्ञा पुं० [सं०] सन्यासियों का एक संप्रदाय।

भरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पालन। पोषण। भरन। २. ज्योतिष में २७ नक्षत्रों में से दूसरा नक्षत्र। यमदैवत। यम भू। भरणी नक्षत्र। ३. वेतन। तनख्वाह। भृति। ४. किसी वस्तु के बदले में जो कुछ दिया जाय। भरती। ५. धारण। वहन करना (को०)। ६. पुष्टिदायक अन्न या आहार (को०)।

भरण (२)
वि० [सं०] १. भरण पोषण करनेवाला। २. वहन करनेवाला [को०]।

भरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घोषक लता। कड़वी तरोई। पिया तरोई। २. सत्ताइस नक्षत्रों में दूसरा नक्षत्र। तीन तारों के कारण इसकी आकृति त्रिकोण सी है। इसकै अधिष्ठाता देवता यम है। यमदैवत। यमभू। ३. एक लग्न जो भूमि खोदने के लिये अच्छा माना जाता है।

भरणी (२)
वि० भरण करनेवाली। पालन करनेवाली। उ०— तोहीं कर्णि हरणी। तोहीं विश्वभरणी।—विश्राम (शब्द०)।

भरणीभू
संज्ञा पुं० [सं०] राहु।

भरणीय
वि० [सं०] भरण करने के योग्य। पोषण के योग्य। पालने पोसने के लायक।

भरण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पालन। पोषण। २. मूल्य। दास। ३. एक नक्षत्र। भरणी (को०)। ४. वेतन। तनखाह। यौ०—भरण्यभुक् = वेतन पर काम करनेवाला। नौकर। मजदूर।

भरण्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भृति। वेतन। २. औरत। स्त्री [को०]।

भरण्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर। २. स्वामी। प्रभु (को०)। ३. चंद्रमा। ४. अग्नि। ५. सूर्य (को०)। ६. मित्र।

भरत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कैकेयी के गर्भ से उत्पन्न राजा दशरथ के पुत्र और रामचंद्र के छोटे भाई जिनका विवाह मांडवी के साथ हुआ था। विशेष—ये प्रायः अपने मामा के यहाँ रहते थे और दशरथ के देहांत के उपरांत अयोध्या आए थे। दशरथ का श्राद्ध आदि इन्हीं ने किया था। कैकेयी ने इन्हीं को अयोध्या का राज्य दिलवाने के लिये रामचंद्र को बनवास दिलाया था; पर इसके लिये इन्होंने अपनी माता की बहुत कुछ निंदा की थी। रामचंद्र की ये सदा अपने बड़े भाई के तुल्य मानते थे और उनके प्रति बहुत श्रद्धा रखते थे। पिता के देहांत के उपरांत रामचंद्र को अयोध्या वापस लाने के लिये भी यही चित्रकूट गए थे। जब रामचंद्र किसी प्रकार आने के लिये तैयार नहीं हुए, तब ये अपने साथ उनकी पादुका लेते आए और उसी पादुका को सिंहासन पर रखकर रामचंद्र के आने के समय तक अयोध्या का शासन करते रहे। जब रामचंद्र लौट आए तब इन्होंने राज्य उन्हें सौंप दिया। इनको तक्ष और पुष्कर नामक दो पुत्र थे। उन्हीं पुत्रों को साथ लेकर इन्होने गंधर्व देश के राजा शैलुश के साथ युद्ध किया था और उसे परास्त करके उसका राज्य अपने दोनों पुत्रों में बाँट दिया था। पीछे ये रामचंद्र के साथ स्वर्ग चले गए थे। २. भागवत के अनुसार ऋषभदेव के पुत्र का नाम। वि० दे० 'जड़भरत'। ३. शकुंतला के गर्भ से उत्पन्न दुष्यंत के पुत्र का नाम जिसका जन्म कण्व ऋषि के आश्रम में हुआ था। विशेष—जन्म के समय ऋषि ने इनका नाम सर्वदमन रख था और इनको शकुंतला के साथ दुष्यंत के पास भेज दिया था। दे० 'दुष्यंत'। बड़े होने पर ये बड़े प्रतापी और सार्वभौम राजा हुए। विदर्भराज की तीन कन्याओं से इनका विवाह हुआ था। इन्होंने अनेक अश्वमेध और राजसूय यज्ञ किए थे। इस देश का 'भारतवर्ष' नाम इन्हीं के नाम पर पड़ा है। यौ०—भरतखंड। भरतभूमि। ४. एक प्रसिद्ध मुनि जो नाट्यशास्त्र के प्रधान आचार्य माने जाते है। विशेष— संभवतः ये पाणिनि के बाद हुए थे; क्योंकि पाणिनि के सूत्रों में नाट्यशास्त्र के शिलालिन् और कृशाश्व दो आचार्यों का तो उल्लेख है, पर इनका नाम नहीं आया है। इनका लिखा हुआ नाट्यशास्त्र नामक ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध और प्रामाणिक माना जाता है। कहा जाता है, इन्होंने नाट्य- कला ब्रह्मा से और नृत्यकला शिव से सीखी थी। यौ०—भरतपुत्र। भरतपुत्रक। भरतवाक्य। भरतवीणा। भरत- शास्त्र= नाट्यशास्त्र। ५. संगीत शास्त्र के एक आचार्य का नाम। ६. वह जो नाटकों में अभिनय करता हो। नट। ७. शबर। ८. तंतुवाय। जुलाहा। ९. क्षेत्र। खेत। १०. वह जो शस्त्रादि आयुधों से जीविकार्जन करता हो। सैनिक। आयुधजीवी (को०)। ११. आग्नि (को०)। १२. प्राचीन काल का उत्तर भारत का एक देश जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है। १३. जैनों के अनुसार प्रथम तीर्थकर ऋषभ के ज्येष्ठ पुत का नाम।

भरत (२)
संज्ञा पुं० [सं० भरद्वाज] लवा पक्षी का एक भेद जो प्रायः सारे भारत में पाया जाता है। विशेष— यह पक्षी लंबा होता है और झुंड में रहता है। जाड़े के दिनों में खेतों और खुले मैदानों में इसके झुंमड बहुत पाए जाते हैं। इसका शब्द बहुत मधुर होता है और यह बहुत ऊँचाई तर उड़ सकता है। यह प्रायः अंडे देने के समय जमीन पर घास से घोसला बनाता है और एक बार में ४-५ अंडे देता है। यह अनाज के दाने या कीड़े मकोड़े खाकर अपना निर्वाह करता है।

भरत (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. काँसा नामक धातु। कसकुट। वि० दे० 'काँसा'। †२. काँसे के बरतन बनानेवाला। ठठेग।

भरत (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना] मालगुजारी। (दिल्ली)।

भरतखंड
संज्ञा पुं० [सं० भरतखण्ड] १. राजा भरत के किए हुए पृथ्वी के नौ खंडों में से एक खंड। भारतवर्ष। हिंदुस्तान। २. भारतवर्ष के अंतर्गत कुमारिका खंड।

भरतज्ञ
वि० [सं०] नाटयशास्त्र का जानकार। भरत की नाटय- कला का ज्ञाता।

भरतपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक में नाट्य करनेवाला पुरुष। नट।

भरतप्रसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] भरत की माता। कैकेयी [को०]।

भरतभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारतवर्ष [को०]।

भरतरी †
संज्ञा स्त्री० [डिं०] पृथ्वी।

भरतर्पभ
वि० [सं०] भरत के वंश में श्रेष्ठ।

भरतवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भारतवर्ष'।

भरतवाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] नाटकों के अंत में भरत मुनि के सम्मान में गेय आशीर्वाद पद्य [को०]।

भरतवीणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की वीणा जो कच्छपी वीणा से बहुत कुछ मिलती जुलती होती है। यह बजाई भी कच्छपी वीणा की तरह ही जाती है।

भरतशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] नाटयशास्त्र [को०]।

भरता (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का सालन जो बैगन, आलू या अरुई आदि को भूनकर, उनमें नमक मिर्च आदि मिलाकर और कभी कभी उसे घी या तेल आदि में छोंककर तैयार किया जाता है। चोखा।

भरता (२)
संज्ञा पुं० [सं० भर्तृ] दे० 'भर्ता'।

भरताग्रज
संज्ञा पुं० [सं०] भरत के अग्रज। राम।

भरतार
संज्ञा पुं० [सं० भर्त्ता] १. पिति। खसम। खाविंद। २. स्वामी। मालिक। उ०— मेरे तौ सदाई करतार भरतार हौ।— घनानंद० पृ० १५७।

भरतिया (१)
वि० [हिं० भरत + इया (प्रत्य०)] भरत धातु अर्थात् कसकुट धातु का बना हुआ।

भरतिया (२)
संज्ञा पुं० कसकुट के वर्तन या घटे आदि ढालनेवाला। भरत धातु से चीजें बनानेवाला।

भरती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना] १. किसी चीज में भरे जाने का भाव। भरा जाना। मुहा०—भरती करना =किसी के बीच में रखना, लगाना या बैठाना। जैसे,— (क) इसमें (५) की और भरती करो। (ख) टाँका भरती करना। भरती का= जो केवल स्थान पूरा करने के लिये रखा जाय। बहुत ही साधारण या रद्दी। २. नक्काशी, चित्रकारी या कशीदे आदि में बीत का खाली स्थान इस प्रकार भरना जिसमें उसका सौंदर्य बढ़ जाय। जैसे, कशीदे के बूटों में की भरती, नैचे में की भरती। ३. दाखिल या प्रविष्ट होने का भाव। प्रवेश होना। जैसे, लड़कों का स्कूल में भरती होना, फौज में भरती होना। ४. वह नाव जिसमें माल लादा जाता हो। (लश०)। ५. वह माल जो ऐसी नाव में भरा या लादा जाय। (लश०)। ६. जहाज पर माल लादने की क्रिया। (लश०)। ७. समुद्र में पानी का चढ़ाव। ज्वार। (लश०)। ८. नदी के पानी की बाढ़। (लश०)।

भरती (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. साँवाँ नामक कदन्न। २. एक प्रकार की घास जो पशुओं के चारे के काम में आती है।

भरतोद्धता
संज्ञा पुं० [सं०] केशव के अनुसार एक प्रकार के छंद का नाम।

भरत्थ पु †
संज्ञा पुं० [सं० भरत, प्रा० भरत्थ] दे० 'भरत'।

भरय †पु
संज्ञा पुं० [सं० भरत] १. दे० 'भरत'। २. भारत। अर्जुन। उ०— करि पेडौ की पैज भरथ कौ दिया जिताई।—पलटू० बानी, पृ० ११२।

भरथर ‡ भरथरी
संज्ञा पुं० [सं० भर्तृहरि] दे० 'भर्तृहरि'। उ०— (क) सुणि भरथर नानक एह बाणि। जित पावहिं सो निरवाणि।—प्राण०, पृ० ७८। (ख) मिले भरथरी अरु पिंगला।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २२६।

भरथरी सतक
संज्ञा पुं० [सं० भर्तृहरि शतक] एक ग्रंथ। दे० 'भर्नृहरि शतक'। उ०— करी भरथरी सतक पर, भाषा भली प्रताप, नीति महल रस गोख मैं, बीतराग प्रभु आप।— ब्रज० ग्रं०, पृ० १२८।

भरद्वल
संज्ञा पुं० [सं० भरद्वाज] भरद्वाज पक्षी। दे० 'भरत' (२)।

भरद्वाज
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंगिरस गोत्र के उत्थ्य ऋषि की स्त्री ममता के गर्भ में से उतथ्य के भाई बृहस्पति के वीर्य से उत्पन्न एक वैदिक ऋषि जो गोत्रप्रवर्तक और मंत्रकार थे। विशेष— कहते हैं, एक बार उतथ्य की अनुपस्थिति में उनके भाई बृहस्पति ने ममता के साथ संसर्ग किया था जिससे भरद्वाज का जन्म हुआ। अपना व्यभिचार छिपाने के लिये ममता ने भरद्वाज का त्याग करना चाहा था, पर बृहस्पति ने उसको ऐसा करने से मना किया। दोनों में कुछ विवाद भी हुआ, पर अत में दोनों ही नवजात बालक को छोड़कर चले गए। उनके चले जाने पर मरुदगण इनको उठा ले गए और उन्हीं ने इनका पालन किया। जब भरत ने पुत्रकामना से मरुत्स्तोम यज्ञ किया, तब मरुद्गण ने प्रसन्न होकर भरद्वाज को उनके सुपुर्द कर दिया। महाभारत में लिखा है, एक बार ये हिमालय में गंगा स्नान कर रहे थे। उधर से जाती हुई धृताची अप्सरा को देखकर इनका वीर्यपात हो गया, जिससे द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। एक बार इन्होंने भ्रम में पड़कर अपने मित्र रैभ्य को शाप दे दिया था; और पीछे से पछताकर जल मरे थे। पर रैभ्य के पुत्र उर्वावसु ने अपनी तपस्या के प्रभाव से इनको फिर जिला लिया था। वनवास के समय एक बार रामचंद्र इनके आश्रम में भी गए थे। भावप्रकाश अनुसार अनेक ऋषियों के प्रार्थना करने पर ये स्वर्ग जाकर इंद्र से आयुर्वेद सीख आए थे। ये राजा दिवोदास के पुरोहित और सप्तर्षियों में से भी एक माने जाते हैं। २. बौद्धौं से अनुसार एक अहंत का नाम। ४. एक प्राचीन देश का नाम। ५. भरद्वाज ऋषि के वशज या गोत्रापत्य। ६. भरत पक्षी।

भरन पु (१)
वि० [सं० भरण] भरण करनेवाला। उ०— पुष्टि भ्रजाद भजन, रस, सेवा, निज पोषन भरन।— नंद० ग्रं०, पृ० ३२६।

भरन (२)
संज्ञा पुं० पालन। पोषण। भरण। उ०— विश्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।— तुलसी (शब्द०)।

भरना (१)
क्रि० स० [सं० भरण] १. किसी रिक्त पात्र आदि में कोई पदार्थ इस प्रकार डालना जिसमें वह पूर्ण हो जाय। खाली जगह को पूरा करने के लिये कोई चीज डालना। पूर्ण करना। जैसे, लोटे में पानी भरना; गड्ढे में मिट्टी भरना, गाड़ी में माल भरना, तकिए में रुई भरना। २. उँडेलना। उलटना। डालना। ३. रिक्त स्थान को पूर्ण अथवा उसकी अंशतः पूर्ति करना। स्थान को खाली न रहने देना। जैसे,— (क) सेनापति ने अपनी सेना से सारा शहर भर दिया। (ख) जुलाहे नली में सूत भरते हैं। (ग) तस्वीर में रंगभर दो। ४. दो पदार्थों के बीच के अवकाश या छिद्र आदि में कुछ डालकर उसे बंद करना। जैसे, दरज भरना। ५. तोप या बंदूक आदि में गोली बारूद आदि डालना। जैसे, बंदूक भरना। ६. पद पर नियुक्त करना। रिक्त पद की पूर्ति करना। जैसे,— उन्होंने अपने संबधियों को लाकर ही सारे पद भर दिए। ७. ऋण का परिशोध या हानि की पूर्ति करना। चुकाना। दैना। जैसे,—(क) यदि आपकी कोई हानि होगी तो मैं भर दूँगा। (ख) अभी तो वे अपने भाई का देना ही भर रहे हैं। मुहा०— (किसी का) घर भरना = (किसी की) खूब धन देना। जैसे,— पहले आप अपने सबधियो का तो घर भर लीजिए। ८. खेत में पानी देना। ९. गुप्त रूप से किसी की निंदा करना अथवा कोई बुरी बात मन में बैठाना। जैसे,— किसी ने उनको भर दिया है, इसी लिये वे सीधे मुँह से नही बोलते। १०. धातु के छड़ आदि को पीटकर अथवा और किसी प्रकार छोटा और मोटा करना। ११. किसी प्रकार व्यतीत करना। कठिनता से बिताना। उ०— नैहर जनम भरब बरु जाई। जियति न करब सवति सेवकाई।— मानस, २। १२. निर्वाह करना। निबाहना। उ०— तेरे ही किए मान व्याप होत तनक ही कैसे कै भरौं।—हरिदास (शब्द०)। १३. काटना। डसना। उ०— जहाँ सो नागिन भर गई काला करै सो अंग।— जायसी (शब्द०)। १४. सहना। झेलना। जैसे, (क) दुःख भरना। (ख) करे कोई, भरे कोई। १५. पशुओं पर बोझ आदि लादना। १६. सारे शरीर में लगाना। पोतना। उ०— भूषण कराल कपाल कर सब सद्य सोनित। तन भरे।— तुलसी (शब्द०)। सयो० क्रि०—डालना।—देना।

भरना (२)
क्रि० अ० १. किसी रिक्त पात्र आदि का किसी और पदार्थ पड़ने के कारण पूर्ण होना। जैसे,— (क) गगरा भर गया। (ख) तालाब भर गया। (ग) गड्ढा भर गया। यौ०—भरा पूरा =(१) जो सब प्रकार से सुखी और सपन्न हो। (२) सब प्रकार से पूर्ण। जिसमें किसी प्रकार की त्रुटि न हो। भरा महीना। भरा मास। भरी गोद =संतानयुक्त। बच्चेवाली। भरी जवानी = युवावस्था से पूर्ण। जवान। २. उँडला या डाला जाना। ३. रिक्त स्थान की पूर्ति होना। स्थान का खाली न रहना। जैसे,— थिएटर की सब कुरसियाँ भर गई। ४. पदार्थों के बीच के छिद्र या अवकाश का बंद होना। ५. तोप या बदूक आदि में गोली, बारूद आदि का होना। जैसे, भरा हुआ तमचा। ६. ऋण आदि का परिशोध होना। जैसे,— सारा देना भर गया। ७. मन में क्रोध होना। असतुष्ट या अप्रसन्न रहना। जैसे,— जरा उन्हें जाकर देखो तो सहो, कैसे भरे बैठ हैं। ८. धातु के छड़ आदि का पीटकर मोटा और छोटा किया जाना। ९. पशुओं पर बोझ आदि लदना। १०. चेचक के दानों का सारे शरीर में निकल आना। ११. किसी अंग का बहुत काम करने के कारण दर्द करने लगना। जैसे,— लोटा उठाए उठाए हाथ भर गया। १३. शरीर का हष्ठ पुष्ट होना। १४. पशुओं का गर्भ धारण करना। गाभिन होना। १५. जितना चाहिए, उतना हो जाना। कुछ कमी या कसर न रह जाना। जैसे,— मेला भर गया। उ०— जो कुछ किया भले भर पाया सोच सोच सकुचाऊँ।— प्रेमघन०, भा० १. पृ० १९६। १६. भेंटना। मिलना। उ०— भरी सखी सब भेंटत फेरा। अंत कंत सौं भएउ गुरेरा।—जायसी (शब्द०)। विशेष— भिन्न भिन्न शब्दों के साथ अकर्मक और सकर्मक दोनों रूपों में आकर यह शब्द भिन्न भिन्न अर्थ देता है। जैसे, अंक भरना, दम भरना। ऐसे अर्थों के लिये उन शब्दों को देखना चाहिए।

भरना (३)
संज्ञा पुं० १. भरने की क्रिया या भाव। जैसे,—अपना भरना भरते हैं। २. रिश्वत। घूस।

भरनि †पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भन्ण] पहनावा। पोशाक। कपड़े लत्ते। उ०— मंजु मेवक मृदुल तनु अनुहरति भूषन भरनि।— तुलसी (शब्द०)। २. भरने का कार्य या स्थिति। उ०— बाढ़यो है परसपर रग, उमगि उमगि रस भरनि में।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३९५।

भरनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना] १. करघे की ढरकी। नार। उ०— सुरति ताना करै पवन भरनी भरै, माँडी प्रेम अग अंग भीनै।— पलटू० बानी, पृ० २५। २. खेतों में बीज आदि बोने की क्रिया। ३. खेतों में पानी देने की क्रिया। सिंचाई।

भरनी (२)
संज्ञा स्त्री० [?] १. छछूँदर। २. मोरनी। ३. गारुडी मंत्र। ४. एक प्रकार की जंगली बूटी।

भरनी पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० भरणी] भरणी नक्षत्र। दे० 'भरणी'।

भरपाई (१)
क्रि० वि० [हिं० भरना + पाना (भर पाना)] पूर्ण रूप से। भली भाँति। उ०— आपुन वज्र समान भए हरि माला दुखित भई भरपाई।— सूर (शब्द०)।

भरपाई (२)
संज्ञा स्त्री० १. भर पाने का भाव। जो कुछ बाकी हो, वह पूरा पूरा पा जाना। २. वह रसीद जो पूरी पूरी वसूली हो जाने पर दी जाय। कुल बाकी चुक जाने पर दी जानेवाली रसीद।

भरपूर (२)
[हिं० भरना + पूरना] १. जो पूरी तरह से भरा हुआ हो। पूरा पूरा। २. जिसमें कोई कमी न हो। परिपूर्ण।

भरपूर (२)
क्रि० वि० १. पूर्ण रूप से। अच्छी तरह पूरा करके। २. भली भाँति। अच्छी तरह।

भरपूर (३)
संज्ञा पुं० समुद्र की तरंगों का चढ़ाव। ज्वार। भाटा का उलटा। (लश०)।

भरपेट
क्रि० वि० [हिं० भरना + पेट] खूब अच्छी प्रकार। भली भाँति। उ०— इद्रिन को परितोष करन हित अघ भर पेट कमाया।—भारतेदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५५२।

भरभंड †
वि० [हिं० भर + भंड सं० < भ्रष्ट] पूर्णतः भ्रष्ट या नष्ट। अपवित्र।

भरभंडा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक कौटीला पौधा। भड़भाँड़। उ०— भरभंड़ा भटकैया फूले फूले।—प्रेमघन, भा० १, पृ० ७५।

भरभराना
क्रि० अ० [अनु०] १. (रोआँ) खड़ा होना। रोमांच होना। (इस अर्थ में इसका प्रयोग केवल 'रोआँ' शब्द के साथ होता है।) २. व्याकुल होना। घबराना। उ०— भर- भराय देखे बिना देखे पल न अघार्य। रसनिधि नेही नैन ये क्यों समुझाए जायँ।—रसनिधि (शब्द०)।

भरभराहट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] सूजन। वरम।

भरभष्ट †
वि० [हिं० भर + सं० भ्रष्ट] भ्रष्ट। अपवित्र। नष्ट। उ०— बोले, तो क्या भीतर चली आएगी। हो तो चुकी पूजा यहाँ आकर भरभष्ट करेगी।— मान० भा०, पृ० ४।

भरभूजा
संज्ञा पुं० [हिं० भड़भूजा] दे० 'भड़भूँला'।

भरभेंट पु †
संज्ञा पुं० [हिं० भर + भेटना] दे० सामना। मुकाबला। मुठभेंड। उ०—तारे ताडुका को जाको देवहू डेराते हुते गयो पंथ ही में परि तापु भरभेंटा।—रघुराज (शब्द०)।

भरभ पु
संज्ञा पुं० [हिं० भ्रम] १. भ्राति संशय। संदेह। धोखा। २. भेद। रहस्य। उ०— उधरि परैगी बात भरम की लखि लैहैंगी सब री।—घनानंद०, पृ० ५३३। मुहा०—भरम गँवाना =अपना भेद खोलना। अपनी थाह देना। भरम बिगाड़ना = भंड़ा फोडना। रहस्य खोलना।

भरमना पु † (१)
क्रि अ० [सं० भ्रमण] १. घूमना। चलना। फिरना। २. मारा मारा फिरना। भटकना। ३. धोखे में पड़ना।

भरमना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रम] १. भूल। गलती। २. धोखा। भ्रांति। भ्रम।

भरमाना (१)
क्रि० स० [हिं० भरमना का सक० रूप] १. भ्रम में डालना। चक्कर में डालना। बहकाना। उ०— कोऊ निरखि रही चारु लोचन निमिष भरपाई। सूर प्रभु की निरखि सोभा कहत नहिं आई।—सूर (शब्द०)। २. भटकाना। व्यर्थ इधर उधर घुमाना। उ०— माधो जू मोहि काहे की लाज। जन्म जन्म यों हीं भरमान्यो अभिमानी वेकाज।— सूर (शब्द०)।

भरमाना (२)
क्रि० अ० १. चकित होना। हैरान होना। अचंभे में आना। उ०— सूर श्याम छबि निरखि कै युवती भरमाहीं।— सूर (शब्द०)। २. भटकना।

भरमार
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना + मार (=अधिकता)] बहुत ज्यादती। अत्यंत अधिकता।

भरमिक †
वि० [हिं० भरम] भ्रमात्मक। भ्रमपूर्ण। उ०— भरमिक बोली (द्वादस प्रकार के बबन दुष्ट के)। — सहजो०, पृ० १९।

भरमी
वि० [सं० भ्रमिन्] भ्रमित। भ्रम में पड़ा हुआ।

भरराना (१)
क्रि० अ० [अनु०] १. भरर शब्द के साथ गिरना। अरराना। २. पिल पड़ना। टूट पड़ना। उ०— भररान भीर भारी। ढहरान ग्रीब सारी।— सूदन (शब्द०)।

भरराना (२)
क्रि० स० १. भरर शब्द के साथ गिराना। २. दूसरों का पिल पड़ने अथवा टूट पड़ने में प्रवृत्त करना।

भरल
संज्ञा स्त्री० [देश०] नीले रंग की एक प्रकार की जंगली भेड़ जो हिमालय में भूटान से लद्दाख तक होती है।

भरवाई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भरवाही] बोझ उठाने की दौरी। वह डलिया या टोकरी जिसमें बोझ रखा जाता है।

भरबाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरवाना] १. भरवाने की क्रिया या भाव। २. भरवाने की मजदूरी।

भरवाना
क्रि० स० [हिं० भरना का प्रे० रूप] भरने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को भरने में प्रवृत्त करना।

भरसक
क्रि० वि० [हिं० भर(=पूरा)+ सक (शक्ति)] यथाशक्ति। जहाँ तक हो सके।

भरसन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भर्त्सन, भर्त्सना] डाँट फटकार। उ०— मित्र चितहिं हाँस हेरि सत्रु तेजहिं करि भरसन।— (शब्द०)।

भरसाई
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भाड़'।

भरहरना
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'भरभराना'। उ०— (क) जाको सुयश सुनत अरु गावत पाप वृंद जैहैं भजि भरहरि।— सूर (शब्द०)। (ख) दानौ दल छल प्रबल सुपेमि करि भजै सूर सकल भ्रमित भर भरहरि।—अकबरी० पृ० ३२७। २. दे० 'भहराना'।—फूटयो पहार मत रंक ह्वै अग्ध खंड गढ़ भरहरयो।— हम्मीर०, पृ० ४३।

भरहराना
क्रि० अ० [अनु०] १. दे० 'भरभराना'। २. भहराना।

भराँति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रान्ति] दे० 'भ्रांति'। उ०— अपनी अपनी जाति सों सब कोइ वैसइ पाँति। दादू सेवक राम का ताकौ नहीं भराँति।— दूदू० (शब्द०)।

भरा
वि० [हिं० भरना] १. भरा हुआ। पूर्ण। २. पुष्ट। ३. आबाद। ४. सपन्न।

भराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना] १. एक प्रकार का कर जो पहले बनारस में लगता था और जिसमें से आधा कर उगाहनेवाले कर्मचारी को मिलता था और आधा सरकार में जमा होता था। २. भरने की क्रिया या भाव। ३. भरने की मजदूरी।

भरापूरा
वि० [हिं० भरना + पूरा] १. जिसे किसी बात की कमी न हो। संपन्न। २. जिसमें किसी बात की कमी या न्यूनता न हो। बाल बच्चों से सुखी। मुहा०—भरा महीना = भरा मास। भरी जवानी =पूर्ण युवा- वस्था। भरी थाली में लात मारना = लगी नौकरी छोडना।

भरामहीना
संज्ञा पुं० [हिं० भरना + महीना] बरसात के दिन जिसमें खेतों में बीज बोए जाते हैं।

भरामास पु
संज्ञा पुं० [हिं० भरना + सं० मास] दे० 'भरामहीना'। उ०— लेइ किछु स्वाद जानि नहिं पावा। भरामास तेइ सोइ गँवावा।— जायसी (शब्द०)।

भराव
संज्ञा पुं० [हिं० भरना + आव (प्रत्य०)] १. भरने का भाव। भरत। २. भरने का काम। ३. कसीदा काढ़ने में पत्तियों के बीच के स्थान को तागों से भरना।

भरित
वि० [सं०] [वि० स्त्री० भरिता] १. जो भरा गया हो। २. भरा हुआ। पूर्ण। उ०— (क) चली सुभग कविता सरिता सो। राम विमल जस जल भरिता सो।— मानस, १। ३९। (ख) सुंदर हरित पत्रावलियों से भरिन तरु गनों की।— प्रेमघन०, पृ० ११। ३. हरा। हरे रंग का (को०)। ४. जिसका भरण या पालन पोषण किया गया हो। पाला पोसा हुआ।

भरिपूर पु
वि० [हिं० भरा + पूरा] दे० 'भरपूर'। उ०— मनो नूर भरिपूर की लटकि रहीं कंडील।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३८९।

भरित्र
संज्ञा पुं० [सं०] बाहु। भुजा [को०]।

भारिमा
संज्ञा पुं० [सं० भरिमन्] १. भरण करने का भाव। भरण पोषण। २. कुटुंब। परिवार। ३. विष्णु का नाम [को०]।

भारिया (१)
वि० [हिं० भरना+इया (प्रत्य०)] १. भरनेवाला। पूर्ण करनेवाला। २. ऋण भरनेवाला। कर्ज चुकानेवाला।

भरिया (२)
संज्ञा पुं० वह जो बरतन आदि ढालने का काम करता हो। ढलाई करनेवाला। ढालिया।

भरिया † (३)
संज्ञा पुं० [हिं० भार] भारवाहक। भार ढोनेवाला। उ०— उनके साथ भार लेकर पंद्रह भरिया गए।—रति०, पृ० ११२।

भरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भर] एक तौल जो दश माशे या एक रुपए के बराबर होती है।

भरी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भड़काना] बहकावा। दे० 'भड़ी'। उ०— हुजूर भी इम भरी में आ जाते हैं। खैर जाने दीजिए इस झगड़े को।— सेर०, पृ० ३६।

भरीली पु
वि० [हिं०] भरनेवाली या भरी हुई। उ०— राधा हरि कै गर्ब गहीली। मंद मंद गति मत मतंग ज्यों अंग अंग सुख पुंज भरीली।— सूर०, १०। १७७२।

भरु पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० भार] बोझ। वजन। बोझा। उ०— (क) विविध सिंगार किए आगे ठाढ़ी ठाढ़ी प्रिये सखी भयो भरु आनि रतिपति दल दलके।— हरिदास (शब्द०)। (ख) भावक उभरौहौं भवो कछू परयो भरु आय। सीपहरा के मिस हियो निसि दिन हेरत जाय।— बिहारी (शब्द०)।

भरु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. समुद्र। ३. स्वामी। पति। ४. मालिक। ५. सोना। स्वर्ण। ६. शकर।

भरुआ पु (२)
संज्ञा पुं० [देश०] टसर।

भरुआ † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भाँड+ उवा (प्रत्य०)] दे० 'भड़ुआ'। उ०— चोर चतुर बटपार नट प्रभु प्रिय भरुआ भड। सब भक्षक परमारथी कलि कुपंथ पाखंड।—तुलसी (शब्द०)।

भरुआ † (३)
वि० [हिं० भरना] [वि० स्त्री० भरुई] भरा हुआ। जो भरा गया हो।

भरुआना
क्रि० अ० [हिं० भारी + आना (प्रत्य०)] १. भारी होना। वजनी होना। २. भार का अनुभव करना।

भरुकच्छ
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देश का नाम। भृगुकच्छ।

भरुका
संज्ञा पुं० [सं० भरना] पुरवे के आकार का मिट्टी का बना हुआ कोई छोटा पात्र। मटकना। चुक्कड़।

भरुच
संज्ञा पुं० [सं० भरुकच्छ या देश०] भृगुकच्छ। भरुकच्छ। उ०— वहाँ से एक तरफ नर्मदा घाटी के साथ साथ भरुच (भृगुकच्छ या भरुकच्छ) के प्राचीन बंदरगाह (पट्टन या तीर्थ) तक रास्ता है।—भारत० नि०, पृ० ७५।

भरुज
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा स्त्री० भरुजा] १. श्रृगाल। २. यव जो भुना हुआ हो।

भरुजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'भरुज'। २. श्रृगाली।

भरुटक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० भरुटा] भूना हुआ मांस।

भरुहाना † (१)
क्रि० अ० [हिं० भार या भारी + आना या हरना (प्रत्य०)] घमंड करना। अभिमान करना। उ०— (क) अब वे भरुहाने फिरै कहुँ डरत न माई। सूरज प्रभु मुँह पार कै भए ढीठ बजाई।— सूर (शब्द०)। (ख) नीच एहि बीच पति पाइ भरुहाइगो बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को।— तुलसी (शब्द०)। (ग) गे भरुहाय तनिक सुख पाए।—जग० बानी, पृ० ६७।

भरुहाना (२)
क्रि० स० [हिं० भ्रम] २. बहकाना। धोखा देना। भ्रम में डालना। उ०— तुमको नंद महर भरुहाए। माता गर्भ नहीं उपजे तौ कहौ कहाँ ते आए।— सूर (शब्द०)। २. उत्तेजित करना। बढ़ावा देना। उ०— भरुहाए नट भाट के चपरि चढ़ै संग्राम। कै वे भाजे आइहैं कैं बाँधे परिनाम।— (शब्द०)।

भरुही (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कलम बनाने की एक प्रकार की कच्ची किलक या किलिक।

भरुही (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भ्रम] दे० 'भरत' (पक्षी)। उ०— हरिचंद ऐसे भए राजा, डोम घर पानी भरे। भारथ में भरुही के अडा, घंटा टूटि परे।— घट०, पृ० २६५।

भरेँड़ †
संज्ञा पुं० [सं० एरण्ड] दे० 'रेंड़'।

भरेठ †
संज्ञा पुं० [हिं० भार + काठ] दरवाजे के ऊपर लगी हुई वह लकड़ी जिसके ऊपर दीवार उठाई जाती है। इसे 'पटाव' भी कहते हैं।

भरैत
संज्ञा पुं० [हिं० भाड़ा + ऐत (प्रत्य०)] किराए पर रहनेवाला।

भरैया † (१)
वि० [सं० भरना + ऐया (प्रत्य०)] पालन करनेवाला। पोषक। पालक। रक्षक।

भरैया (२)
वि० [हिं० भरना + ऐया (प्रत्य०)] भरनेवाला। जो भरता हो।

भरोंट
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की जंगली घास। भुरत। भरौंट।

भरोटा †
संज्ञा पुं० [हिं० भार + ओटा (प्रत्य०)] घास या लकड़ियों आदि का गट्ठा। बोझ।

भरोस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भरोसा'। उ०— सोइ भरोस मोरे मन आवा। केहि न सुसंग बडत्तनु पावा।—मानस, १। १०।

भरोसा
संज्ञा पुं० [सं० वर + आशा] १. आश्रम। आसरा। २. सहारा। अवलब। ३. आशा। उम्मेद। ४. दृढ़ विश्वास। यकीन। क्रि० प्र०—करना।—रखना। मुहा०—भरोसे का = विश्वस्त। जिसपर यकीन किया जाय। (किसी के) भरोसे भूलना = विश्वास पर रह जाना। उ०— यह बेजबान के भरोसे भूले हैं। आपसे अच्छा है।— फिसाना०, भा० ३, पृ० २३। भरोसे होना =आशा या उम्मीद करना। उ०— आप जो इस भरोसे हो कि हमें तहजीब सिखाएँ तो यह खैर सलाह है।— फिसाना०, भा० १, पृ० ५।

भरोसी †
वि० [हिं० भरोसा + ई (प्रत्य०)] १. भरोसा या आसरा रखनेवाला। जो किसी बात की आशा रखता हो। २. जो आश्रय में रहता हो। आश्रित। ३. जिसका भरोसा किया जाय। विश्वास करने योग्य। विश्वसनीय।

भरौंट
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की जंगली घास। भुरत। विशेष— यह राजपूताने में अधिकता से होती है और पशुओं के खाने का काम में आती है। इसमें छोटे छोटे दाने या फल भी लगते हैं जिनके चारों और काँटे होते हैं।

भरौती
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना + औतो (प्रत्य०)] वह रसीद जिसमें भरपाई की गई हो। भरपाई का कागज।

भरौना †
वि० [हिं० भार + भौना (प्रत्य०)] बोझल। वजनी। भारी।

भर्ग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। शंकर। उ०— अमेय तेज भर्ग भक्त सर्गवंस देखिए।— केशव (शब्द०)। २. ब्रह्मा (को०)। ३. भूनना (को०)। ४. वीतिहोत्र के पुत्र का नाम। ५. सूर्य। ६. सूर्य का तेज। ७. एक प्राचीन देश का नाम।

भर्ग (२)
संज्ञा पुं० [सं० भर्गस्] ज्योति। दीप्ति। चमक।

भर्गाजन
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

भर्ग्य
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

भर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाड़ में भूना हुआ अन्न। २. उच्छेद। अवसादन। ३. कड़ाही। ४. भूजने की क्रिया। भूनना (को०)।

भर्तव्य
वि० [सं० भर्तव्य, भर्त्तब्य] १. पोषणीय। भरणीय। भरण करने योग्य वाहनीय। वहन करने योग्य [को०]।

भर्त्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं० भर्तृ] [स्त्री० भर्त्री] १. अधिपति। स्वामी। मालिक। २. पिति। खाविंद। ३. विष्णु। ४. वह जो भरण करता है। ५. नेता। नायक। अगुआ।

भर्त्ता (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'भरता' (चोखा)।

भर्त्तार
संज्ञा पुं० [सं० भर्तृ] स्त्री का पति। स्वामी। मालिक। खाविंद। उ०— काम आति तन बहत दीजै सूरश्याम भर्तार।—सूर (शब्द०)।

भर्त्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० भरना] दे० 'भरती'।

भर्तृघ्न
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वामी का हत्यारा।

भर्तृघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो अपने पति की हत्या करे। पतिघ्नी। पतिघातिनी [को०]।

भर्तृत्व
संज्ञा पुं० [सं०] पति का भाव। स्वामित्व।

भर्तृदारक
संज्ञा पुं० [सं०] राजपुत्र। युवराज [को०]।

भर्तृदारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजपुत्री। राजकुमारी।

भर्तृदेवता, भर्तृदैवता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो पति को देवता रूप में माने [को०]।

भर्तृमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुहागिन। सधवा स्त्री।

भर्तृव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] पतिव्रत [को०]।

भर्तृव्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पतिव्रता [को०]।

भर्तृहरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रसिद्ध कवि जो उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के छोटे भाई और गधर्वसेन के दासीपुत्र थे। विशेष— कहते हैं, ये अपनी स्त्री के साथ बहुत अनुराग रखते थे। पर पीछे से उसकी दुश्वरित्रता के कारण संसार से विरक्त हो गए थे। यह भी कहा जाता है की काशी में आकर योगी होने के उपरांत इन्होंने शृंगारशतक, नीतिशतक, वैराग्यशतक, वाक्यपदीय और भट्टिकाव्य आदि कई ग्रंथों की रचना की थी। कुछ लोगों का यह भी विश्वास है कि ये अपने भाई विक्रमादित्य के ही हाथ से मारे गए थे। आजकल कुछ योगी या साधु हाथ में सारंगी लेकर इनके संबंध के गीत गाते और भीख माँगते हैं। ये लोग अपने आपको इन्हीं के संप्रदाय का बतलाते हैं। २. एक प्रसिद्ध वैयाकरण। विशेष— संस्कृत व्याकरण की एक शाखा पाणिनीय व्याकरण के ये बहुत बड़े आचार्य थे। 'वाक्यपदीय' नामक व्याकरण दर्शन के अत्यंत प्रौढ़ ग्रंथ की उन्होंने रचना की है जो व्याकरण में ही नहीं अन्य संस्कृत दर्शन के ग्रंथों में प्रमाणरूप से आदर- पूर्वक उद्धृत किया गया है। 'हरि' संभवतः इनका नाम- संक्षेप था और इसी नाम से इनका उल्लेख किया गया है। महाभाष्यकार द्वारा निर्दिष्ट स्फोटवाद या शब्दब्रह्मवाद मत के प्रौढ़ प्रतिष्ठापक के रूप में 'हरि' का नाम प्रसिद्ध है। कहते हैं कि व्याकरण महाभाष्य की टीका भी इन्होंने लिखी थी जिसकी पूर्ण प्रति अब तक उपलब्ध नहीं है। ३. एक संकर राग जो ललित और पुरज के मेल से बनता है इसमें सा वादी और म संवादी होता है।

भर्त्सक
संज्ञा पुं० [सं०] भर्त्सना करनेवाला।

भर्त्सन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भर्त्सना'।

भर्त्सना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निंदा। शिकायत। २. डाँट डपट।

भर्त्सित (१)
वि० [सं०] निंदित। तिरस्कृत।

भर्त्सित † (२)
संज्ञा पुं० दे० 'भर्त्सना'।

भर्थरि †
संज्ञा पुं० [सं० भतृंहरि] दे० 'भतृंहरि'।

भर्म (१)
संज्ञा पुं० [सं० भ्रम] दे० 'भ्रम'।

भर्म (२)
संज्ञा सं० पुं० [सं०] १. सोना। स्वर्ण। २. नाभि। ३. वेतन। भृति। मजदूरी (को०)। ४. एक सिक्का।

भर्म (३)
संज्ञा पुं० [सं० भर्मन्] १. पोषण भरण। २. मजदूरी। वेतन। ३. सोना। ४. स्वर्णमुद्रा। सोने का सिक्का। ४. धतूरा। ५. नाभि। ६. बोझा। वजन। ७. गृह। भवन। मकान [को०]।

भर्मन पु
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमण] दे० 'भ्रमण'।

भर्मना †
क्रि० अ० [सं० भ्रमण, हिं० भ्रमना] चक्कर खाना। डाँवाडोल होना। उ०— काम बान सौं भर्मि चित कैसे मिटिंहै खेद।— ब्रज० ग्रं०, पृ० ९९।

भर्य
संज्ञा पुं० [सं०] भरण पोषण का व्यय। खर्चा। गुजारा। विशेष— कौटिल्य ने लिखा है कि विशेष अवस्थाओं में राज्य की ओर से पत्नी को पति से 'भय' दिलाया जाता था।

भर्रा
संज्ञा पुं० [भा० भर शब्द से अनु०] १. पक्षियों की उड़ान। २. एक प्रकार की चिड़िया। ३. झाँसा। पट्टी। दम। चकमा। जैसे,— एक ही भरें में तो वह सारा रुपया चुका देंगे। क्रि० प्र०—पाना।

भर्राना
क्रि० अ० [भर्र से अनु०] भर्र भर्र शब्द होना। जैसे,—आवाज भर्राना। उ०— उसका गला भर्राने लगा।— कंकाल, पृ० १५०।

भर्सन पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० भर्त्सन] १. निदा। अपवाद। शिकायत। २. फटकार। डाँट डपट।

भलंदन
संज्ञा पुं० [सं० भलन्दन] पुराणानुसार कन्नौज के एक राजा का नाम जिसको यज्ञकुंड से कलावती नाम की एक कन्या मिली थी।

भल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार डालने की क्रिया। वध। २. दान। ३. निरूपण।

भल (२)
क्रि० वि० [हिं० भला] दे० 'भला'। उ०— तन मन दिया तो भल किया, सिर का जासी भार। कबहूँ कहै कि मैं दिया, धनी सहैगा मार।— कबीर सा० स०, पृ० २।

भल (३)
अव्य [सं० भल] अवश्य। निश्चिय। तत्वतः। (वैदिक)।

भलका † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक विशेष आकार का बना हुआ सोने या चाँदी का कड़ा जो शोभा के लिये नथ में जड़ा जाता है। २. एक प्रकार का बाँस।

भलका पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भल्ल(=वाणाग्र)] तीर का फल। गाँसी। उ०— दादू भलका मोरे भेद सौं, सालै मंझि पराण।— दादू० बानी, पृ० १७।

भलटी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] हँसिया नाम का लोहे का औजार।

भलपति
संज्ञा पुं० [हिं० भला + सं० पति] भाला रखनेवाला। नेजेबरदार। उ०— ऊपर कनक मंजूसा, लाग चँवर औढार। भलपति बैठ भाल लै और बैठ धन्कार।— जायसी (शब्द०)।

भलमनसत
संज्ञा स्त्री० [हिं० भला + मनुष्य + त (प्रत्य०)] भलेमानस होने का भाव। मज्जनता। शराफत।

भलमनसाहत
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भलमनसहत'।

भलमनसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भला + मानस + ई (प्रत्य०)] दे० 'भलमनसत'।

भलहल †
वि० [देश०] दीप्त। प्रकाशित। ज्योतित। उ०— जेहल तो दिस बिदिस जस, भलहल छायो भाल।— बाँकी०, ग्रं० भा० ३, पृ० १०।

भलहलना †
क्रि अ० [देश०] दीप्त होना। झलमलाना। प्रकाशित होना। उ०—काने कुंडल भलहलइ कंठ टँकावल हार— ढोला०, दू० ४८०।

भला (१)
वि० [सं० भद्र अपय भल्ल, भल्ला] १. जो अच्छा हो। उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे, भला काम। भला आदमी। उ०— भलो भलाइहि पै लहै लहे निचाइहि नीचु।— मानस, १। ५। यौ०—भला चंगा = शरीर से स्वस्थ। २. बढ़िया। अच्छा। यौ०—भला बुरा =(१) उलटी सीधी बात। अनुचित बात। (२) डाँट फटकार। जैसे,— जब तुम भला बुरा सुनोगे तब सीधे हागे।

भला (२)
संज्ञा पुं० १. कल्याण। कुशल। भलाई। जैसे,— तुम्हारा भला हो। २. लाभ। नफा। प्राप्ति। जैसे,— इस काम में उनका भी कुछ भला हो जायगा। यौ०—भला बुरा = हानि और लाभ। नफा नुकसान। जैसे,— तुम अपना भला बुरा समझ लो।

भला (३)
अव्य० १. अच्छा। खैर। अस्तु। जैसे,— भला मैं उनसे समझ लूँगा।उ०— भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनि- वृंद समेता।— तुलसी (शब्द०)। २. नहीं का सूचक अव्यय जो प्रायः वाक्यों के आरंभ अथवा मध्य में रखा जाता है। जैसे,— (क) भला कहीं ठंढा लोहा भी पीटने से दुरुस्त होता है। (अर्थात् नहीं होता)। (ख) वहाँ भला चित्रकारी को कौन पूछता है। (अर्थात् कोई नहीं पूछता)। मुहा०—भले ही=ऐसा हुआ करे। इससे कोई हानि नहीं। अच्छा ही है। जैसे,— भले ही वे चले जायँ। उ०— हृदय हेरि हारेउ सब ओरा। एकहिं भाँति भलेहि भल मोरा।— तुलसी (शब्द०)। (इस प्रयोग से कुछ उपेक्षा या संतोष का भाव प्रकट होता है।)

भलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० भला + ई (प्रत्य०)] १. भले होने का भाव। भलापन। अच्छापन। २. उपकार। नेकी। ३. सौभाग्य।

भलापन
संज्ञा पुं० [हिं० भला + पन] दे० 'भलाई'।

भलामानुष
संज्ञा पुं० [हिं० भला + सं० मानुष] अच्छा व्यक्ति। भला आदमी। सभ्य पुरुष। उ०— कोई भलामानुष उनसे बात नहीं करता।—सेवा०, पृ० २२।

भलीभाँत
क्रि० वि० [हिं०] अच्छी तरह। भली भाँति। उ०— गीले कपड़े उसने देह से उतारे, उनको भली भाँत गारा, देह को पोंछा, पीछे उन्हीं कपडों को पहन लिया।—ठेठ०, पृ० ३४।

भलीभाँति
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'भलीभाँत'।

भले (१)
क्रि० वि० [हिं० भला] १. भली भाँति। अच्छी तरह। पूर्ण।रूप से। जैसे,— आप भी भले रुपया देने आए। (व्यंग में)। (कविता में इसका प्रायः 'भलि कै' हो जाता है)। उ०— हाथ हरि नाथ के बिकाने रघुनाथ जनु सील सिंधु तुलसीस भली मान्यौ भलि कै।— तुलसी (शब्द०)।

भले (२)
अव्य० खूब। वाह। जैसे,— (क) तुम कल शाम को आनेवाले थे, भले आए। (ख) भले रे भले।

भलेमानस
संज्ञा पुं० [हिं०] भला आदमी। अच्छा मनुष्य। उ०— लकड़ी बेचकर धन नहीं कमाया जाता। यह नीचों का काम है, भलेमानसों का नहीं।—काया०, पृ० २५४।

भलेरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० भला + एरा (प्रत्य०)] दे० 'भला'। उ०— ह्वैहै जब तब तुम्हहि ते तुलसी को भलेरी।— तुलसी (शब्द०)।

भल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वध। हत्या। २. घाव। ३. दान। ४. भालू। यौ०—भल्लनाथ = जांबवान्। भल्लपति =भल्लनाथ। भल्ल- पुच्छी। भल्लबाण = ४. बृहत्संहिता के अनुसार एक प्राचीन देश। ५. पुराणानुसार एक प्राचीन तीर्थ। ६. प्राचीन काल की एक जाति। ७. प्राचीन काल का एक शस्त्र जिससे शरीर में धँसा हुआ तीर निकाला जाता था। ८. शिव (को०)। ९. भिलावाँ। भल्लातक (को०)। १०. एक प्रकार का बाण। ११. दे० 'भाला'।

भल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भालू। २. इंगुदी का वृक्ष। ३. भिलावाँ। ४. एक प्रकार की चिड़िया। ५. एक प्रकार का सन्निपात। दे० 'भल्लु'।

भल्लपुच्छी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोरखमुंडी।

भल्लय
संज्ञा पुं० [सं०] ईशान दिशा का एक प्राचीन प्रदेश।

भल्लाक्ष
वि० [सं०] जिसे कम दिखाई देता हो। मंददृष्टि।

भल्लाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. भालू। २. एक पहाड़।

भल्लात, भल्लातक
संज्ञा सं० [सं०] भिलावाँ।

भल्लो
संज्ञा स्त्री० [सं०] भल्लातक। भिलावाँ।

भल्लु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर। विशेष— इस सन्निपात ज्वर में शरीर के अंदर जलन और बाहर जाड़ा मालूम होता है, प्यास बहुत लगती है, सिर, गले और छाती में बहुत दर्द रहता है, बड़े कष्ट से कफ ओर पित्त निकलता है, साँस और हिचकी बहुत आती है और आँखें प्रायः बंद रहती है।

भल्लुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भालू। २. बंदर (को०)।

भल्लूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भालू। २. सुश्रुत के अनुसार शंख की तरह कोश में रहनेवाला एक प्रकार का जीव। ३. एक प्रकार का श्योनाक। ४. कुत्ता।

भवंग पु
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्ग] साँप। सर्प।

भवंगम पु
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गम] दे० 'भवंग'।

भवंगा पु
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गम, प्रा० भुअंगम] सप। उ०— विष सागर लहर तरगा। यह अइसा कूप भवंगा।— दादू (शब्द०)।

भवंत
वि० [सं० भवत्] भवत् का बहुवचन। आप लोगों का। आपका। उ०— अवलंब भवंत कथा जिन्हके। प्रिय संत अनंत सदा तिन्हके।— तुलसी (शब्द०)।

भवंता पु †
वि० [सं० भ्रमण, हिं० भँवना, भँवाना] घूमता हुआ। इधर उधर आता जाता हुआ। उ०— भउर भवंता भलिए भरम भुला उद्यान।—प्राण०, पृ० १०५।

भवँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० भौं] दे० भौंह।

भवँर
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] दे० 'भँवर'।

भवँरकली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भँवरकली'।

भवँरी
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रमरी] दे० 'भँवरी'।

भवँलिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० भँवर + इया (प्रत्य०)] एक प्रकार की नाव जो बजरै की तरह की, पर उससे कुछ छोटी होती है। इसमें भी बजरे की तरह ऊपर छत पटी होती है। भौलिया।

भव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] उत्पत्ति। जन्म। २. शिव। उ०— भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी।—मानस, १। १०। ३. मेघ। बादल। ४. कुशल। ५. संसार। जगत्। ६. सत्ता। ७. प्राप्ति। ८. कारण। हेतु। ९. कामदेव। १०. संसार का दुःख। जन्म मरण का दुःख। उ०— कमला कमल नयन मकराकृत कुंडंल देखत ही भव भागै ।—सूर (शब्द०)। ११. सत्ता। १२. अग्नि। १३. मांस। (डिं०)।

भव (२)
संज्ञा पुं० [सं० भय] डर। उ०— (क) राजा प्रजा भए गति भागी। भव सभवित भूरि भव भागी।— रघुराज (शब्द०)। (ख) भव भजन रंजन सुर जूथा। त्रातु सदा नो कृपा बरूथा।—तुलसी (शब्द०)।

भव (३)
वि० १. शुभ। कल्याणकारक। २. उत्पन्न। जन्मा हुआ।

भवक
वि० [सं०] १. उत्पन्न। जात। २. जीवित। ३. आशीर्वाद देनेवाला। दुआ देनेवाला [को०]।

भवकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक पुच्छल तारा जो कभी कभी पूर्व में दिखाई देता है और जिसकी पूँछ शेर की पूँछ की भाँति दक्षिणावर्त होती है। कहते हैं, जितने मुहूर्त तक यह दिखाई देता है, उतने महीने तक भीषण अकाल या महामारी आदि होती है।

भवक्षिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ जन्म हुआ हो। जन्मस्थान [को०]।

भवघस्मर
संज्ञा पुं० [सं०] दावानल।

भवचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार वह कल्पित चक्र जिससे यह जाना जाता है कि कौन कौन कर्म करने से जीवात्मा को किन किन योनियों में भ्रमण करना पड़ता है। (भिन्न भिन्न बौद्ध संप्रदायों के अनुसार ये भवचक्र भी कुछ भिन्न भिन्न हैं)।

भवचाप
संज्ञा पुं० [सं०] शिव जी के धनुष का नाम। पिनाक। उ०— भंजि भवचाप दलि दाप भूपावली सहित भृगुनाथ नतमाथ भारी।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४७६।

भवच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] जन्म मरण या आवागमन से मुक्ति [को०]।

भवछित्त †
वि० [सं० भविष्यत्] भावी। होनेवाली। उ०—भवछित्त बत्त मिट्टै न को क्रत क्रम्भ नह जानयौ।— पृ० रा०, ३। २।

भवजल
संज्ञा पुं० [सं०] संसाररूपी समुद्रा। भवसमुद्र।

भवत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूमि। जमीन। २. विष्णु।

भवत् (२)
वि० मान्य। पूज्य।

भवतव्यता
संज्ञा स्त्री० [सं० भवितव्यता] दे० 'भवितव्यता'। उ०— भली बुरी न्निमित कछू मेटि न सक्कै कोइ। याही ते भवतव्यता कहत सयाने लोइ।—पृ० रा०, ६। २७।

भवतारन †
वि० [सं० भव + तारण] संसाररूपी समुद्र से तारनेवाला। उ०— यह भवतारन ग्रंथ है, सत गुरु को उपदेश।— कबीर सा०, पृ० ८५७।

भवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का जहरीला बाण। २. श्रीमती। आदरणीय महिला। भ्रवत् का स्त्री रूप (को०)। ३. चमक। दीप्ति (को०)।

भवदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका का नाम।

भवदारु
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु।

भवदीय
सर्व [सं०] आपका। तुम्हारा। उ०— नाहिनै नाथ अवलंब मोहि आनकी। करम मन बचन प्रन सत्य करुनानिधे एक गति राम भवदीय पदत्रान की।— तुलसी (शब्द०)।

भवधरण
संज्ञा पुं० [सं०] संसार को धारण करनेवाला— परमेश्वर।

भवधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विश्वप्रवाह। संसारचक्र। उ०— भवधारा के भीतर भीतर चलनेवाली जो भावधारा है मनुष्य के हृदय को द्रवीभूत करके उसमें मिलानेवाली भावना माधुर्य की है।— रस०, पृ० ८७।

भवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर। मकान। उ०— भवन एक पुनि दीख सुहावा।— मानस, ५। ५। २. प्रासाद। महल। ३. तर्कशास्त्र में भाव। ४. जन्म। उत्पत्ति। ५. सत्ता। ६. छप्पय का एक भेद। ७. क्षेत्र (को०)। ८. स्वभाव। प्रकृति (को०)। ९. जन्मपत्रिका। जन्मांग (को०)। १०. श्वान। कुत्ता (को०)। ११. स्थान । अधिष्ठान (को०)। यौ०—भवनकर = नगरपालिका की ओर से मकानों पर लगाया हुआ कर (अं० हाउसटैक्स)। भवनदीर्धिका = भवन के भीतर की वापी। भवनद्वार =प्रवेशद्वार। फाटक। दरवाजा। भवनपति। भवन-भूमि-कर =प्रदेश शासन द्वारा लगाया हुआ एक कर।

भवन (२)
संज्ञा पुं० [सं० भुवन] जगत्। संसार। उ०— हरि के जे वल्लभ हैं दुर्लभ भवंन माँझ तिनही की पदरेणु आशा जियकारी है।— प्रियादास (शब्द०)।

भवन (३)
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमण] कोल्हू के चारों ओर का वह चक्कर जिसमें बैल घूमते हैं।

भवनपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैनियों के दस देवताओं का एक वर्ग जिनके नाम इस प्रकार हैं— असुरकुमार, नागकुमार, तडित्कुमार, सुपर्णकुमार, वह्निकुमार, अनिलकुमार, स्तनि- त्कुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार। २. गृहस्वामी। घर का मालिक। ३. राशिचक्र के किसी घर का स्वामी (ज्यो०)।

भवनवासी
संज्ञा पुं० [सं० भावनवासिन्] जैनों के अनुसार आत्मा के चार भेदों में से एक।

भवना
क्रि० अ० [सं० भ्रमण] घूमना। फिरना। चक्कर खाना, उ०— भौंर ज्यों भवत भृत वासुकी गणेश युत मानों मकरंद वृंद माल गंगाजल की।— केशव (शब्द०)।

भवनाशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार सरयू नदी का एक नाम।

भवनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भवन + ई (प्रत्य०)] गृहिणी। भार्या। स्त्री। उ०— देखि बड़ो आचरज पुलकि तनु कहति मुदित मुनि भवनी।—तुलसी ग्रं०, पृ० २९८।

भवनीय
वि० [सं०] होनेवाला। भावी [को०]।

भवन्नाथ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

भवपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों के अनुसार भुवनेश्वरी देवी जो संसार की रक्षा करनेवाली शक्ति मानी जाती है।

भवप्रत्यय
संज्ञा स्त्री० [सं०] समाधि की अवस्था जो प्रकृति लयों को प्राप्त होती है।

भवबंधन
संज्ञा पुं० [सं० भवबन्धन] संसार का झंझट। सांसारिक दुःख और कष्ट।

भवबन्धेश
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

भवभंग
संज्ञा पुं० [सं० भवभङ्ग] १. संसार का नाश वा ध्वंस। २. संसारचक्र से मुक्ति। जन्म मरण की परंपरा से छुटकारा। उ०— बिनहि प्रयास होइ भवभंगा।— तुलसी (शब्द०)।

भवभंजन
संज्ञा पुं० [सं० भवमञ्जन] १. परमेश्वर। २. संसार का नाश करनेवाला। काल।

भवभय
संज्ञा पुं० [सं०] संसार में बार बार जन्म लेने और मरने का भय। कष्ट। उ०— त्रिपुरारि त्रिलोचन दिगवसन विषभोजन भवभय हरन।— तुलसी (शब्द०)।

भवभामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती। भवभामिनी। उ०— जग- दंबिका जानि भवभामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा।—मानस, १। १००।

भवभामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती। भवाना। उ०— अंत- जामिनी भवभामिनी स्वामिनि सो ही कहीं चहौं बातु मातु अंत तौ हौं लरिकै।— तुलसी (शब्द०)।

भवभीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जन्म मरण का भय। सांसारिक भय।

भवभीर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भव + हिं० भीर] आवागमन का दुःख। संसार का संकट। उ०— मो सम दीन न दीनहित तुम समान रघुबीर। अस बिचारि रघुवंसमनि, हरहु विषम भवभीर।— मानस, ७। १३०।

भवभूत
संज्ञा पुं० [सं०] परमेश्वर [को०]।

भवभूति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐश्वर्य।

भवभूति (२)
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत के एक प्रसिद्ध नाट्यकार जिनके अन्य नाम श्रीकंठ और कभी कभी उब्बेक भो कहा गया है। इनेक लिखे उत्तररामचरित, महाबीरचरित ओर मालतीमाधव नाटक हैं।

भवभूष पु
संज्ञा पुं० [सं०] संसार के भूषण। उ०— भवभूष दुरंतरनंत हते दुःख मोह मनोज महा जुर को।—केशव (शब्द०)।

भवभूषण
संज्ञा पुं० [सं० भव + भूषण] १. दे० 'भवभूष'। २. शिव जी का भूषण। भस्म। क्षार। राख। उ०— भवभूषण भूषित होत नहीं मदमत गजादि मसी न लगै।— रामचं०, पृ० २०।

भवभोग
संज्ञा पुं० [सं०] सांसारिक सुखोपभोग।

भवमन्यु
संज्ञा पुं० [सं०] सांसारिक सुख से विराग [को०]।

भवमोचन
वि० [सं०] संसार के बंधनों से छुड़ानेवाले, भगवान्। उ०— होइहहिं सुफल आज मम लोचन। देखि वदनपंकज भवमोचन।— तुलसी (शब्द०)।

भवरुत्
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो मृतक की अंत्येष्टि क्रिया के समय बजाया जाता था। प्रेतपटह।

भववामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिव जी की स्त्री, पार्वती। भवानी।

भववारिधि
संज्ञा पुं० [सं०] संसाररूपी समुद्र। संसारसागर। उ०— मारकर हाथ भववारिधि तरो, प्राण।—आराधना, पृ० २४।

भवविलास
संज्ञा पुं० [सं०] १. माया। २. संसार के सुख जो ज्ञान के अंधकार से उदित होते हैं। उ०— मनहु ज्ञानघन प्रकास बीते सब भवविलास आस वास तिमिर तोष तरनि तेज जारे।— तुलसी (शब्द०)।

भवव्यय
संज्ञा पुं० [सं०] उत्पत्ति एवं नाश। जन्म और लय [को०]।

भवशूल
संज्ञा पुं० [सं०] सांसारिक दुःख और क्लेश।

भवशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।

भवसंगी
वि० [सं० भवसङ्गिन्] संसार से अनुरक्त। लौकिक सत्ता में लिप्त [को०]।

भवसंभव
वि० [सं० भवसम्भव] संसार में होनेवाला। सांसारिक। उ०— तजि माया सेइय परलोका। मिटहि सकल भवसंभव सोका।—तुलसी (शब्द०)।

भवसमुद्र, भवसागर
संज्ञा पुं० [सं०] भवसिंधु।

भवसिंधु
संज्ञा पुं० [सं० भव + सिन्धु] संसार रूपी समुद्र। भव- वारिधि। उ०— नामु लेत भवसिंधु सुखाही। करह विचार सुजन मन माहीं। मानस, १। २५।

भवसिवत्त पु
संज्ञा पुं० [सं० भविष्यत्] भावी। भविष्य। होनहार। उ०— अनगपाल पृथ्वी नरेस अविज्ज सू मानौ। भवसिवत्त जो होय, सोय ब्रह्मान न जानौ।—पृ० रा०, ३। २४।

भवाँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भवना] भौरी। फैरी। चक्कर। उ०— जनु यमकात करहिं सब भवाँ। जिय पै चीन्ह स्वर्ग अपसवाँ।—जायसी (शब्द०)।

भवाँना †
क्रि० स० [सं० भ्रमण] घुमाना। फिराना। चक्कर देना। उ०— (क) या विधि के सुनि बेन सुरारी। मुष्टिक एक भवाँइ कै मारी।—विश्राम (शब्द०)। (ख) तेहि अंगद कहँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँहि।— तुलसी (शब्द०)।

भवांगण
संज्ञा पुं० [सं० भावङ्गण] शिवमंदिर का आँगन।

भवांतर
संज्ञा पुं० [सं० भवान्तर] वर्तमान शरीर से पूर्व या परवर्ती जन्म [को०]।

भवांबुनाथ
संज्ञा पुं० [सं० भवाम्बुनाथ] संसाररूपी समुद्र। उ०— भवांबुनाथ मंदरम्।— मानस, ३। ४।

भवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती। भवानी। दुर्गा।—नंद० ग्रं०, पृ० २२४।

भवाचल
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास पर्वत जो पुराणानुसार मंदर पर्वत के पूर्व मे है।

भवातिग
वि० [सं०] वीतराग [को०]।

भवात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिकेय। २. गणेश [को०]।

भवानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भव की भार्या, दुर्गा। यौ०—भवानीकांत = शिव। भवानीगुरु, भवानीतात =हिम- वान्। भवानीनंदन =(१) कार्तिकेय। (२) गणेश। भवानी- पति, भवानीवल्लभ, भवानीसख=शिव।

भवाब्धि
संज्ञा पुं० [सं०] संसार रूपी समुद्र।

भवाभीष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] गुग्गुल।

भवायन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का उपासक या भक्त। शैब।

भवायना, भवायनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिव के सिर पर रहनेवाली, गंगा।

भवि पु
वि० [सं० भव्य] दे० 'भव्य'। उ०— कशव की भाव भूषण की भवि भूषण भू-तन में तनया उपजाई।— केशव (शब्द०)।

भविक
वि० [सं०] मंगलकारी। धार्मिक। मंगलकर। कल्याणकर [को०]।

भवित
संज्ञा पुं० [सं०] जो हो चुका हो। बीता हुआ। भूत।

भवितव्य
संज्ञा पुं० [सं०] अवश्य होनेवाली बात। भवनीय। होनहार।

भवितव्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. होनी। भावी। होनहार। २. भाग्य। किस्मत।

भविता
वि० [सं० भवितृ] होनेवाला। होनहार [को०]।

भविन
संज्ञा पुं० [सं०] कवि [को०]।

भविल (१)
वि० [सं०] १. होनेवाला। भावी। २. उत्पन्न। भात। जीवित। ३. सुंदर। भला। भव्य [को०]।

भविल (२)
संज्ञा पुं० १. मकान। घर। २. उपपात। जार। ३. विषयासक्त। भोगासक्त। विलासी [को०]।

भविष पु
संज्ञा पुं० [सं० भविष्य] दे० 'भविष्य'। उ०— भूत भविष कौ जाननिहारा। कहतु है बन सुभ भवन की बारा।— नंद० ग्रं०, पृ० १५६।

भविष्य (१)
वि० [सं० भविष्यत्] वर्तमान काल के उपरात आनेवाला। (काल)। वह (काल) जो प्रस्तुत काल के समाप्त हो जाने पर आनेवाला हो। आनेवाला (काल)।

भविष्य (२)
संज्ञा पुं० दे० 'भविष्यत्'। यो०—भविष्यकाल = व्याकरण में वह काल जो अभी न आया हो। आनेवाला काल। भविष्यज्ञान =भविष्य की जानकारी। भविष्य या होनहार का ज्ञान। भविष्यपुराण = १८ पुराणों में से एक का नाम। वि० दे० 'पुराण'।

भविष्यगुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] काल के अनुसार गुप्ता नायिका का एक भेद। वह नायिका जो रति में प्रवृत्त होनेवाली हो और पहले से उसे छिपाने का उपयोग करे। भविष्यसुरतिगुप्ता।

भविष्यत्
संज्ञा पुं० [सं०] वर्तमान काल के उपरांत आनेवाला काल। आनेवाला समय। आगामी काल। भविष्य।

भविष्यद्वक्ता
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो होनेवाली बात पहले से ही कह दे। भविष्यद्वाणी करनेवाला। २. ज्योतिषी।

भविष्यद्वाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भविष्य में होनेवाली वह बात जो पहले से ही कह दी गई हो।

भविष्यद्वादी
संज्ञा पुं० [सं० भविष्यद्वादिन्] दे० 'भविष्यद्वक्ता'।

भविष्यसुरतिगोपना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भविष्यगुप्ता'।

भवा (१)
वि० [सं० भविन्] जीवित। सत्तायुक्त।

भवी (२)
संज्ञा पुं० १. मनुष्य। मानव। २. प्राणधारी। जीव- धारी [को०]।

भवीला पु †
वि० [हिं० भाव + ईला (प्रत्य०)] १. जिसमें कोई भाव हो। भावयुक्त। भावपूर्ण। २. बाँका। तिरछा।

भवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. संसार का स्वामी। २. महादेव। शिव।

भवेस पु
संज्ञा पुं० [सं० भवेश] १. दे० 'भवेश'। २. शिव। उ०— पावनि करौं सो गाइ भवेस भवानिहिं।— तुलसी (शब्द०)।

भवैया †
वि० [सं० भ्रमण] घूमनेवाला। उ०—सो वस्या भवैयान के साथ रह्यो।— दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २२८।

भव्य (१)
वि० [सं०] १. जो देखने में भारी और सुंदर जान पड़े। शानदार। २. मंगलसूचक। ३. सत्य। सच्चा। ४. योग्य। लायक। ५. भविष्य में होनेवाला। ६. श्रेष्ठ। बड़ा। ७. प्रसन्न। ८. वर्तमान। विद्यमान (को०)।

भव्य (२)
संज्ञा पुं० १. भलता नामक वृक्ष। २. कमरख। ३. नीम। ४ करेला। ५. वह जिसे लिंगपद की प्राप्ति हो। भवसिद्धक। (जैन)। ६. वह जो जन्म ग्रहण करता हो। शरीर धारण करनेवाला। ७. नवें मन्वेतर के एक ऋषि का नाम। ८. पुराणानुसार ध्रुव के एक पुत्र का नाम। ९. मनु चाक्षुष् के अंतर्गत देवताओं के एक वर्ग का नाम।

भव्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भव्य होने का भाव।

भव्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उमा। पार्वती। २. गजपीपल।

भष पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० भक्ष्य] आहार। भोजन। उ०— अति आतुर भष कारण धाई धरत फनन समाई।— सूर (शब्द०)।

भष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता।

भषण
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता। श्वान [को०]।

भषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ता। २. कुत्ते का भूँकना। भूँकना [को०]।

भषना
क्रि० सं० [सं० भक्षण > हिं० भखना] खाना। भोजन करना।

भषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णक्षीरी [को०]।

भषित
संज्ञा पुं० [सं०] भूँकने की क्रिया। भूँकना।

भषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुनी। कुतिया [को०]।

भसंत
संज्ञा पुं० [सं० भसन्त] काल। समय।

भसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० भ + सन्धि] अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती नक्षत्रों के चौथे चरण की वाद के नक्षत्रों से संधि।

भसकना †
क्रि० स० [सं० भक्षण < भवषण] दे० 'भषना'। उ०— चली है कुलबोरनी गंगा नहाय। सेतुआ कराइन बहुरी भुँजाइन, घूँघट ओटे भसकत जाय।— कबीर० श०, भा० २, पृ० ५५।

भसन
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रमर। भौंरा।

भसना †
क्रि० अ० [बँग०] १. पानी के ऊपर तैरना। २. पानी में डूबना। ३. बैठ जाना। नीचे की ओर घँस जाना।

भसमत पु
वि० [सं० भस्म + अन्त] जिसका भस्म ही शेष रह जाय। भस्मावशेष। उ०— आइ जो प्रीतम फिरि गएउ मिला न आइ वसंत। अब तन होरी घालि कै जारि करौं भसमंत।— पदमापत, पृ०, १९५।

भसम
संज्ञा पुं० [सं० भस्म] दे० 'भस्म'।

भसमा (१)
संज्ञा पुं० [सं० भस्म] १. पीसा हुआ आटा। (साधुओं की परिभाेषा)। २. नील की पत्ती की बुकनी।

बसमा (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० वस्मह्, वस्मा का अनु०] एक प्रकार का खिजाब जिससे बाल काले किए जाते हैं।

भसमी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भस्म] भस्मक नाम की व्याधि। दे० 'भस्मक'। उ०— देखिए दसा असाध अँखिया निपेटिन की, भसमी बिथा पै नित लंघन करति हैं।— घनानंद, पृ० ८५।

भसल
संज्ञा पुं० [सं०] काला भ्रमर। बड़ा भौरा [को०]।

भसाकू
संज्ञा पुं० [हिं० तमाकू का अनु०] पीने का वह तमाकू जो बहुत कड़ुवा या कड़ा न हो। हलका और मीठा तमाकू।

भसान †
संज्ञा पुं० [बँग० भासान, हिं० भसाना] पूजा के उपरांत काली या सरस्वती आदि की मूर्ति को किसी नदी में प्रवाहित करना।

भसाना
क्रि० स० [बँग०] १. किसी चीज को पानी में तैरने केलिये छोड़ना। जैसे, जहाज भसाना। (लश०)। मूर्ति भसाना। २. किसी चीज को पानी में डालना।

भसिँड, भसीँड
संज्ञा स्त्री० [सं० बिसदण्ड] कमलनाल। मुरार। कमल की जड़।

भसित
संज्ञा पुं० [सं०] भस्म। राख [को०]।

भसुंड
संज्ञा पुं० [सं० भुसुण्ड] हाथी। गज। उ०— (क) लाखन चले भुसुंड सुंड सो नभतल परसत।— गोपाल (शब्द०)। (ख) बटै खंड खंड भसुंड़न्न भारै।— प० रासो, पृ० ४४।

भसुर
संज्ञा पुं० [हिं० ससुर का अनु०] पति का बड़ा भाई। जेठ। उ०— सासु ससुर और भसुर ननद देवर सों डरती।— पलटू०, पृ० ३३।

भसूँड़
संज्ञा पुं० [सं० भुशुण्ड] हाथी की सूँड़। (महावत)।

भस्त्रका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भस्त्रा'।

भस्त्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आग सुलगाने की माथी। २. मशक जिसमें जल रखा जाय (को०)। पर्या०—भस्त्रका। भस्त्राका। भस्त्रि। भस्त्रिका।

भस्म (१)
संज्ञा पुं० [सं० भस्मन्] १. लकड़ी आदि के जलने पर बची हुई राख। २. चिता की राख जिसे पुराणानुसार शिव जी अपने सारे शरीर में लगाते थे। ३. विशेष प्रकार से तैयार की हुई अथवा अग्निहोत्र में की राख जो पवित्र मानी जाती है और जिसे शिव के भक्त मस्तक तथा शरीर में लगते अथवा साधु लोग सारे शरीर में लगते हैं। क्रि० प्र०— रमाना। — लगाना। ४. एक प्रकार का पथरी रोग। ५. (आयुर्वेद) फूँकी हुई धातु जो ओषधि रूप में प्रयुक्त की जाती है। कुश्ता।

भस्म (२)
वि० जो जलकर राख हो गया हो। जला हुआ।

भस्मक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भावप्रकाश के अनुसार एक रोग जिसमें भाजन तुरंत पच जाता है। भस्माग्नि। विशेष— कहते हैं, बहुत अधिक और रूखा भोजन करने से मनुष्य का कफ क्षीण हो जाता है और वायु तथा पित्त बढ़कर जठराग्नि को बहुत तीव्र कर देता है; और तब जो कुछ खाया जाता है, वह तुरत भस्म हो जाता है, परंतु शौच बिलकुल नहीं होता। इसमें रोगी को प्यास, पसीना, दाह और मूर्छा होती है और वह शीघ्र मर जाता है। इस रोग को भस्मकीट भी कहते हैं। २. बहुत अधिक भूख। ३. सोना। ४. रजत। चाँदी। ५. विडंग। ५. एक नेत्ररोग। आँखों की एक व्याधि (को०)।

भस्मकार
संज्ञा पुं० [सं०] धोबी। रजक [को०]।

भास्मकारि
वि० [सं० भ्समकारिन्] भस्म करनेवाला। जलानेवाला।

भस्मकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. राख का ढेर। २. एक पर्वत का नाम [को०]।

भस्मगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० भस्मगन्धा] रेणुका नामक गंधद्रव्य। पर्या०—भस्मगंधिका। भस्मगंधिनी।

भस्मगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] तिनिश नामक वृक्ष।

भस्मगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रेणुका नामक गंधद्रव्य। २. शीशम।

भस्मगात्र
संज्ञा पुं० [सं०] जिसका शरीर भस्म हो गया हो। कामदेव [को०]।

भस्मचय
संज्ञा पुं० [सं०] भस्मराशि।

भस्मजावाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।

भस्मता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भस्म होने का कर्म।

भस्मतूल
संज्ञा पुं० [सं०] तुषार। हिम।

भस्मप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

भस्मबाण
संज्ञा पुं० [सं०] ज्वर [को०]।

भस्मभून
वि० [सं०] मृत। जो भस्म हो चुका हो [को०]।

भस्ममेह
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का अश्मरी रोग जो मेह के कारण होता है।

भस्मवेधक
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर।

भस्मशयन, भस्मशय्या
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

भस्मशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पोटास [को०]।

भस्मशायी
संज्ञा पुं० [सं० भस्मशायिन्] शिव।

भस्मसात्
वि० [सं०] जो भस्मरूप हो गया हो। भस्मीभूत।

भस्मस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] राख से नहाना। सारे शरीर में राख मलना।

भस्मांग
संज्ञा पुं० [सं० भस्माङ्ग] १. एक प्रकार का कपोत। २. एक रत्न। भस्म के रंग का पिरोजा [को०]।

भस्माकार
संज्ञा पुं० [सं०] धोबी।

भस्मकूट
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार कामरूप का एक पर्वत जिसपर शिव जी का वास माना जाता है।

भस्माग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भस्मक रोग।

भस्माचल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार कामरूप के एक पर्वत का नाम।

भस्मावशेष
वि० [सं० भस्म + अवशेष] जो जलकर राख मात्र रह गया हो। राख के रूप में बचा हुआ [को०]।

भस्मासुर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रसिद्ध दैत्य। विशेष— शिव से वर प्राप्त करने से पहले इसका नाम 'वृकासुर' था। इसने तप करके शिव जी से यह वर पाया था कि तुम जिसके सिर पर हाथ रखोगे, वह भस्म हो जायगा। पीछे से यह असुर पार्वती पर मोहित होकर शिव को ही जलाने पर उद्यत हुआ। तब शिव जी भागे। यह देखकर श्रीकृष्ण। ने बटु का रूप धरकर छल से इसी के सिर पर इसका हाथ रखवा दिया जिससे यह स्वयं भस्म हो गया।

भस्माहव्य
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर।

भस्मित
वि० [सं०] १. जलाया हुआ। २. जला हुआ।

भस्मीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वस्तु को राख के रूप में परिणत करना। पूर्ण रूप से जलाना।

भस्मीभूत
वि० [सं०] जो जलकर राख हो गया हो। बिलकुल जला हुआ।

भस्सड़
वि० [अनु० भस्म] बहुत मोटा और भद्दा। (विशेषतः आदमी)।

भरसी
संज्ञा स्त्री० [?] कोयले आदि का चूरा।

भहरा †
संज्ञा पुं० [देश०] गुफा। खोह। उ०— ये महात्मा उन नौ संतों में से थे जो सुंदरदास जी के साथ फजहपुर के भहरे (गुफा) में १२ वर्ष तक तप (योगसाधन) में रहे थे।— सुंदर० ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० ८४।

भहराना
क्रि० अ० [अनु०] १. टूट पड़ना। १. झोंक से गिर पड़ना। एकाएक गिरना। उ०— (क) मलूक कोटा माँझरा भात परी भहरान। ऐसा कोई ना मिला जो फेरि उठावै आन।— मलूक० बानी, पृ० ४०। (ख) आगि लगे वहि घाटे बाटे जहवाँ किहेउ पयान। छींकत बरदी लादेहु नायक माँग सेदुर भहरान।— पलटू० बानी, भा० ३, पृ० ८५।

भहूँ
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रूः] दे० 'भौंह।'