विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/भु
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ भुइँदग्धा
संज्ञा पुं० [हिं० भुइँ + दग्ध] १. वह कर जो भूमि पर चिता जलाने के लिये मृतक के सबंधियों से लिया जाता है। मसान का कर। २. वह कर जो भूमि का मालिक किसी व्यवसायी से व्यवसाय करने के लिये ले।
⋙ भुइँधरा
संज्ञा पुं० [भुँइ + धरना] १. आवाँ लगाने की वह रीति या ढंग जिसके अनुसार बिना गड्ढा खोदे ही भूमि पर बरतनों वा अन्न पकाने की चीजों को रखकर आग सुलगाते हैं। २. तहखाना।
⋙ भुइँनास
संज्ञा पुं० [सं० भून्यास] १. किसी वस्तु के एक छोर को भूमि में इस प्रकार दबाकर जमाना कि उसका कुछ अश पृथ्वी के भीतर पड़ जाय। क्रि० प्र०—करना।—देना। २. किवाड़ों की वह सिटकिनी जो नीचे की ओर पत्थर के गड्ढे में बैठती है। ३. अनार। ४. एक छोटा पौधा जो बिना जड़ का होता है और खेतों में प्रायः उगता है।
⋙ भुइँफोर †
संज्ञा पुं० [हिं०] खुभा। कुकुरमुत्ता।
⋙ भुइँया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नुई'। उ०—एक पड़ा भुइया में लोटै दूसर कहै चीखी दे माई।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ८२।
⋙ भुइँहार
संज्ञा पुं० [सं० भूमि + हार] १. मिरजापुर जिले के दक्षिण भाग में रहनेवाली एक अनाथ जाति। २. दे० 'भूमिहार'।
⋙ भुई
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूआ] एक कीड़ा जिसे पिल्ला भी कहते हैं। इसके शरीर पर लंबे बाल होते हैं जो छू जाने पर शरीर में गड़ जाते और खुजलाहट उत्पन्न करते हैं। कमला। भुइली।
⋙ भुक पु
संज्ञा पुं० [सं० भुज्] १. भोजन। खाद्य। आहार। उ०— ए गुसाइँ तूँ ऐस बिधाता। जावँत जीव सबन भुक दाता।— जायसी। (शब्द०)। २. अग्नि। आग। उ०—अस कहि भे भुक अतर्धाना। सुनि समाज सकलौ सुख माना।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ भुकड़ी
संज्ञा स्त्री० [? या देश०] सफेद रंग की एक प्रकार की वनस्पति जो प्रायः बरसात के दिनों में अनाज, फल या अचार आदि पर उसके सड़ जाने के कारण उत्पन्न होती है। फफूँदी। क्रि० प्र०—लगना।
⋙ भुकतान ‡
संज्ञा पुं० [हिं० भुगताना] दे० 'भुगतान'। उ०— अग्नि, धरन, आकाश, पवन, पानी का कर भुकतान चले।—पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ८९२।
⋙ भुकराँद, भुकरायँध †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] किसी पदार्थ में फफूँदी पड़ जाने से उत्पन्न दुर्गंध।
⋙ भुकान ‡
वि० [हिं० भूख] जिसे भूख लगी हो। बुभुक्षित।
⋙ भुकाना (१)
क्रि० स० [हिं० भूकना] किसी को भूकने अर्थात् विशेष बोलने में प्रवृत्त करना। बकवाना।
⋙ भुकाना ‡ (२)
क्रि० अ० [हिं० भूख] दे० 'भुखाना'।
⋙ भुक्कड़ †
वि० [हिं० भूख] दे० 'भुक्खड़'।
⋙ भुक्करना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'भूँकना'। उ०—ढुँढत डढाल डढ्ढाल त्रिय भुक्कारन बहु भुक्करहि।—पृ० रा०, ६।१०२।
⋙ भुक्कार ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] भूकने की क्रिया। पुकार। उ०— भुक्कारन बहु भुक्करहिं।—पृ० रा०, ६।१०२।
⋙ भुक्खड़
वि० [हिं० भूख + अड़ (प्रत्य०)] १. जिसे भूख लगी हो। भूखा। २. वह जो बहुत खाता हो। पेटू। ३. दरिद्र। कंगाल।
⋙ भुक्त
वि० [सं०] १. जो खाया गया हो। भक्षित। २. भोगा हुआ। उपभुक्त।
⋙ भुक्तकांस्य
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्रानुसार फूल या काँसे का बरतन जिसमें खाद्य पदार्थ रखकर खाया जाता हो।
⋙ भुक्तपीत
वि० [सं०] जो खा, पी चुका हो। जिसका खाना पीना हो चुका हो।
⋙ भुक्तपूर्व
वि० [सं०] १. जो पहले खाया वा भागा जा चुका हो। २. जो भाग कर चुका हो [को०]।
⋙ भुक्तभोगी
वि० [सं० भुक्तभोगिन्] [वि० स्त्री० भुक्तभोगिनी] जो किसी चीज का सुख दुःख उठा चुका हो।
⋙ भुक्तवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुक्त वस्तु की वृद्धि अर्थात् पेट में अन्न का फूलना।
⋙ भुक्तशेष
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न आदि जो खाने से बचा हुआ हो। २. उच्छिष्ट। जूठ।
⋙ भुक्तसुप्त
वि० [सं०] भोजन करके सोनेवाला [को०]।
⋙ भुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भोजन। आहार। २. विषयोपभोग। लौकिक सुख। ३. धर्मशास्त्रानुसार चार प्रकार के प्रमाणों में से एक। कब्जा। दखल। ४. ग्रहों का किसी राशि में एक एक अंश करके गमन वा भोग। ४. सीमा [को०]।
⋙ भुक्तिपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन का पात्र। खाने का बरतन।
⋙ भुक्तिप्रद (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० भुक्तिप्रदा] भाग देनेवाला। भोगदाता।
⋙ भुक्तिप्रद (२)
संज्ञा पुं० मृँग।
⋙ भुक्तिवर्जित
वि० [सं०] जिसका भोग उपभोग वर्जित हो [को०]।
⋙ भुक्तीच्छिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] जूठन। जूठ [को०]।
⋙ भुखमरा
वि० [हिं० भूख + भरना] १. जो भूखों मरता हो। मरभुक्खा। भुक्खड़। २. जो खाने के पीछे मरा जाता हो। पेटू।
⋙ भुखमरी
संज्ञा स्ञी० [हिं०] दे० अन्न आदी खाद्य पदार्थों के अभाव में भूखों मरने की स्थिति। अकाल।
⋙ भुखमहा
वि० [हिं०] दे० 'भुखमरा'।
⋙ भुखान ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूख] बुभुक्षित होने की स्थिति या भाव।
⋙ भुखाना ‡
क्रि० अ० [हिं० भूख] भूख से पीड़ित होना। भूखा होना। क्षुधित होना। उ०—सुनहु एक दिन एक ठिकाने। गए चरावन सखा भुखाने।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ भुखालू
वि० [हिं० भूख + आलू (प्रत्य०)] जिसे भूख लगी हो। भूखा। उ०—तो भी भुखालू और गुरसैल है।—जतुप्रबध (शब्द०)।
⋙ भुगत पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० भुक्ति] दे० 'भुक्ति'।
⋙ भुगतना पु (१)
क्रि० स० [सं० भुक्ति] भोग करना। विषय करना। उ०—बालक ह्वै भग द्वारे आवा। भग भुगतन कूँ पुरिष कहावा।—कबीर ग्रं०, पृ० २४४।
⋙ भुगतना (२)
क्रि० स० [सं० भुक्ति] सहन। झेलना। भोगना। उ०— (क) देह धरे का दंड है सब काहू को होय। ज्ञानी भुगतै ज्ञान करि अज्ञानी भुगते रोय।—कबीर (शब्द०)। (ख) हम तौ पाप कियो भुगतै को पुण्य प्रगट क्यों निठुर दियो री। सूरदास प्रभु रूप सुधानिधि पुट थोरी विधि नहीं बियो री।—सूर (शब्द०)। (ग) पहले हों भुगतौं जो पाप। तनु धरि कै सहिहौं संताप।—लल्लू (शब्द०)। (घ) ओरतो लोग दुखी अपने दुख मैं भुगत्यों जग क्लेश अपारा।— निश्चल (शब्द०)। विशेष—इस क्रिया का प्रयोग 'अनिष्ट भोग' के सहने में होता है। जैसे, सजा भुगतना। दुःख भुगतना। सं० क्रि०—लेना। मुहा०—भुगत लेना = समझ लेना। निपट लेना। जैसे,—आप चिंता न करें, मैं उनसे भुगत लूँगा।
⋙ भुगतना (३)
क्रि० अ० १. पूरा होना। निबटना। जैसे, देन का भुगतना; काम का भुगतना। २. बीतना। चुकना। जैसे, दिन भुगतना।
⋙ भुगतान
संज्ञा पुं० [हिं० भुगतना] १. निपटारा। फैसला। २. मूल्य या देन चुकाना। बेबाकी। जैसे, हुंडी का भुगतान; कपड़े का भुगतान। ३. देना। देन।
⋙ भुगतान घर
संज्ञा पुं० [हिं० भुगतान + घर] [अं० क्लियरिंग हाउस] बैक व्यवस्था का एक आवश्यक अग जहाँ पर बैंकों के पारस्परिक भुगतान् की रकम का निबटारा किया जाता है।
⋙ भुगताना
क्रि० स० [हिं० भुगतना का सक० रूप] १. भुगतने का सकर्मक रूप। पूरा करना। संपादन करना। उ०—घाम धूप नीर औ समीर मिले पाई देह, ऐसो घन कैसे दूत काज भुगतावैगो।—लक्ष्मण सिंह (शब्द०)। २. बिताना। लगाना। जैसे,—जरा से काम में सारा दिन भुगता दिया। ३. चुकाना। देना। बेबाक करना। जैसे, हुंडी भुगताना। ४. भुगतना का प्रेरणार्थक रूप। दूसरे को भुगतने में प्रवृत्त करना। झेलाना। भाग कराना। ५. दुःख देना। दुःख सहने के लिये बाध्य करना।
⋙ भुगति पु
संज्ञा स्त्री [सं० भुक्ति] दे० 'भुक्ति'। उ०—भुगति भूमि किय क्यार बेद सिंचिय जल पूरन।—पृ० रा०, १।४।
⋙ भुगाना
क्रि० स० [हिं० भोगना का प्रे० रूप] भोगना का प्रेरणार्थक रूप। भाग कराना।
⋙ भुगुत †
संज्ञा स्त्री० [सं० भुक्ति] औकात। बिसात।
⋙ भुगुति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भुक्ति] दे० 'भुक्ति'। उ०—चला भुगुति माँगै कह साजि कथा तप जोग।—पदमावत, पृ० १२२।
⋙ भुगुभुगु
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि के प्रज्वलन की ध्वनि। आग जलने की आवाज [को०]।
⋙ भुग्गाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'भोगना'। उ०—जीवै सो धर भुग्गवै जुझ्झे सुरपुर बास।—ह० रासो, पृ० १२१।
⋙ भुग्गा † (१)
वि० [देश०] बुदधू। मूर्ख। उ०—यह है भुग्गा, वह बहत्तर घाट का पानी पिए हुए।—गोदान, पृ० ७५।
⋙ भुग्गा (२)
संज्ञा पुं० तिल आदि का एक प्रकार तैयार किया हुआ मीठा चूरा। क्रि० प्र०—कूटना।
⋙ भुग्न
वि० [सं०] १. टेढा़। वक्र। २. रोगी। रुग्न।
⋙ भुग्नेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का असाध्य सन्निपात। विशेष—इस सन्निपात में रोगी की आँखें टेढ़ी हो जाती हैं। इस रोग में रोगी का ज्वर अधिक बढ़ जाता है, उन्माद के कारण वह बक झक करता है ओर उसके अवयवों में सूजन आ जाती है। यह असाध्य रोग है और इसकी अवधि शास्त्रों में आठ दिन कही गई है।
⋙ भुच्च
वि० [हिं० भुच्चड़] दे० 'भुच्चड़'।
⋙ भुच्चड़
वि० [हिं० भूत + चढ़ना] जो समझाने पर भी न समझता हो। मूर्ख। बेवकूफ।
⋙ भुजंग
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्ग] १. साँप। २. स्त्री का यार। जार। ३. राजा का एक पार्श्ववर्ती अनुचर। विदूषक। ४. सीसा नामक धातु। ५. पति। खाविंद (को०)। ६. आश्लेषा नक्षत्र (को०)। ७. आठ की संख्या (को०)।
⋙ भुजंगघातिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्गघातिनी] काकोली।
⋙ भुजंगजिह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्गजिह्वा] महासमंगा। कँगहिया।
⋙ भुजंगदमनी
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्गदमनी] नाकुली कंद।
⋙ भुजंगपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्गपर्णी] नागदमनी।
⋙ भुजंगपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गपुष्प] १. एक फूल के पेड़ का नाम। २. सुश्रुत के अनुसार एक क्षुप का नाम।
⋙ भुजंगप्रयात
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गप्रयात] एक वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में बारह वर्ण होते हैं, जिनमें पहला, चौथा, सातवाँ और दसवाँ वर्ण लघु और शेष गुरु होते है; अथवा प्रत्येक चरण चार यगण का होता है। उ०—कहूँ शोभना दुंदभी दीह बाजै। कहूँ भीम भकार कर्नाल साजै। कहूँ सुंदरी वेनु बीना बजावैं। कहूँ किन्नरी किन्नरी लय सुनावै।
⋙ भुजंगभुज्
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गभुज्] १. गरुड़। २. मयूर।
⋙ भुजंगभोगी
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गभोगिन्] दे० 'भुजगभाजी'।
⋙ भुजंगभोजी
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गभोजिन्] [स्त्री० भुजंग- भोजिनी] १. गरुड़। मयूर। मोर।
⋙ भुजंगम
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गम] [स्त्री० भुजंगमी (= सर्पिणी)] १. साँप। २. सीसा। ३. राहु (को०)। ४. अश्लेषा नक्षत्र (को०)। ५. आठ की संख्या (को०)।
⋙ भुजंगलता
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्गलता] पान की बेल। तांबूली [को०]।
⋙ भुजंगविजृंभित
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २६ वर्ण इस क्रम से होते हैं—आदि में दो मगण, फिर एक तगण, तीन नगण, फिर रगण, सगण और अंत में एक लघु ओर एक गुरु।
⋙ भुजंगशत्रु
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गशत्रु] सापों का शत्रु—गरुड़।
⋙ भुजंगशिशु
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गशिशु] वृइती छंद का एक भेद [को०]।
⋙ भुजंगसंगता
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्गसङ्गता] एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में नौ नौ वर्ण होते हैं, जिनमें पहले सगण, मध्य में जगण और अंत में रगण होता है।
⋙ भुजंगा
संज्ञा पुं० [हिं० भुजंग] १. काले रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी। भुजंटा। कोतवाल। विशेष—इसकी लंबाई प्रायः डेढ़ बालिश्त होती है। यह कीड़े मकाड़े खाता है और बड़ा ढीठ होता है। यह भारत, चीन और श्याम देश में पाया जाता है। यह प्रातःकाल बोलता है और इसकी बोली सुहावनी लगती है। यह एक बार में चार अंडे देता है। इसकी अनेक अवातर उपजातियाँ होती हैं; जैसे, केशराज, कृष्णराज इत्यादि। २. दे० 'भुजग'।
⋙ भुजंगाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्गाक्षी] रास्ना।
⋙ भुजंगाख्य
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गाख्य] नागकेशर।
⋙ भुजंगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्गिनी] १. गोपाल नामक छंद का दूसरा नाम। २. साँपिन। नागिन।
⋙ भुजगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सापिन। नागिन। २. एक वर्णिक वृत्ति का नाम जिसके प्रत्येक चरण में ग्यारह वर्ण होते हैं जिनमें पहले तीन यगण आते हैं ओर अंत मे एक लघु और एक गुरु रहता है।
⋙ भुजगेरित
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गेरित] एक छंद का नाम।
⋙ भुजंगेश
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गेश] १. वासुकि। २. शेष। ३. पिंगल मुनि का नाम। ४. पतंजलि का एक नाम।
⋙ भुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाहु। बाँह। सुहा०—भुज में भरना = आलिंगन करना। अंक भरना। गले लगाना। उ०—कहा बात कहि पियहि जगाऊँ। कैसे भुज भरि कठ लगाऊँ।—(शब्द०)। २. हाथ। ३. हाथी का सूँड़। ४. शाखा। डाली। ५. प्रांत। किनारा। मेड़। ६. लपेट। फेंटा। ७. ज्यामिति या रेखागणित के अनुसार किसी क्षेत्र का किनारा वा किनारे की रेखा। यौ०—द्विभुज। त्रिभुज। चतुर्भुज, इत्यादि। ८. त्रिभुज का आधार। ९. छाया का मूल वा आधार। १०. समकोणों का पूरक कोण। ११. दो की संख्या का बाधक शब्दसंकेत। १२ ज्योतिषशास्त्र के अनुसार तीन राशियों के अंतर्गत ग्रहो की स्थिति वा खगोल का वह अश जो तीन राशि से कम हो।
⋙ भुजइल †
संज्ञा पुं० [हिं० भुजंगा] भुजंगा नामक पक्षी।
⋙ भुजकोटर
संज्ञा पुं० [सं०] बगल। काँख।
⋙ भुजग
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँप। २. अश्लेषा नक्षत्र। ३. सीसा। यौ०—भुजगदारण, भुजगभोजी = (१) गरुड़। (२) मयूर। मोर। ३. नेवला। भुजगपति। भुजगराज। भुजगवल = सर्प का कंकण।
⋙ भुजगनिसृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णिक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में नौ अक्षर होते हैं। जिनमें छटा, आठवाँ और नवाँ अक्षर गुरु ओर शेष लघु होते हैं।
⋙ भुजगपति
संज्ञा पुं० [सं०] वासुकि। अनत।
⋙ भुजगपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का फूल। २. इस फूल का पौधा।
⋙ भुजगराज
संज्ञा पुं० [सं०] शेष नाग का नाम। यौ०—भुजगराजभूपण = शिव।
⋙ भुजगशिशुभृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णिक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में नौ अक्षर होते हैं जिनमें पहले दो नगण और अंत में एक मगण होता है। इसे भुजगशिशुसुता भी कहते हैं।
⋙ भुजगांतक
संज्ञा पुं० [सं० भुजगान्तक] १. नेवला। २. मयूर। ३. गरुड़ [को०]।
⋙ भुदगाभोजी
संज्ञा पुं० [सं० भुजगाभोजिन्] दे० 'भुजगांतक' [को०]।
⋙ भुजगाशन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भुजगांतक'।
⋙ भुजगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अश्लेषा नक्षज्ञ। २. सर्पिणी (को०)।
⋙ भुजगेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० भुजगेन्द्र] १. शेष। २. वासुकी।
⋙ भुजगेश, भुजगेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भुजगेंद्र। २. वासुकी।
⋙ भुजच्छाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुजाओं की छाँह अर्थात् निरापद आश्रय।
⋙ भुजज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रिकोणमिति के अनुसार भुज की ज्या।
⋙ भुजदंड
संज्ञा पुं० [सं० भुजदण्ड] १. बाहुदंड। २. लंबा हाथ। ३. बाहे में पहनने का फेरवा नाम का एक गहना।
⋙ भुजदल
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ। बाहु।
⋙ भुजपाश
संज्ञा पुं० [सं०] भुजाओं का पाश या बंधन। गलबाहीं। गले में हाथ डालना। बाहों में भर लेना।
⋙ भुजप्रतिभुज
संज्ञा पुं० [सं०] सरल क्षेत्र की समानांतर या आमने सामने की भुजाएँ।
⋙ भुजबंद
संज्ञा पुं० [सं० भुजबन्ध] १. दे० 'भुजबध'। २. एक गहना। बाजूबंद। उ०—टाँड भुजबंद चूड़ा बलयादि भूषित, ज्यों, देखि देखि दुरहुर इंद्र निदरत है।—हनुमान (शब्द०)।
⋙ भुजबंध
संज्ञा पुं० [सं० भुजबन्ध] १. अंगद। २. भुजवेष्ठन।
⋙ भुजबधन
संज्ञा पुं० [सं० भुजबन्धन] दे० 'भुजपाश'।
⋙ भुजबल
संज्ञा पुं० [हिं० भुज + बल] १. शालिहोत्र के अनुसार एक भोरी जो घोडे के अगले पैर में ऊपर की ओर होती है। लोगों का विश्वास है कि जिस घोड़े को यह भौंरी होती है, वह अधिक बलवान होता है। २. भुजाओं की शक्ति। बहुबल।*****
⋙ भुजबाथ पु
संज्ञा पुं० [हिं० भुज+बाँधन] अँकवार। उ०— दृग मोचन मृगलोचनी भरेउ उलटि भुजबाथ। जान गई तिय नाथ को हाथ परस ही हाथ। —बिहारी (शब्द०)।
⋙ भुजमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] क्रोड़। वक्षास्थल [को०]।
⋙ भुजमूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. खवा। पक्खा। मोढ़ा। कबा। २. काँख। कुक्षि।
⋙ भुजयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुजारुपी य़ष्टि। भुजदंड़।
⋙ भुजरिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] जरई।
⋙ भुजलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] लगा जैसे लंबी कोमल और पतली बाँह।
⋙ भुजवा †
संज्ञा पुं० [हि० भुनना] भड़भुँजा। उ०— भुजवा पढ़े कवित्त जीव दस बीस जराबै।—बैराल (शब्द०)।
⋙ भुजवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भुजवल'।
⋙ भुजशिखर
संज्ञा पुं० [सं०] स्कध। कघा।
⋙ भुजशिर
संज्ञा पुं० [सं०] कंधा।
⋙ भुजसंभोग
संज्ञा पुं० [सं० भुजसम्मोग] आलिंगन।
⋙ भुजस्तभ
संज्ञा पुं० [सं० भुलस्तम्भ] बाहु का अकड़ना। भुजाओं का अकड़ जाना [को०]।
⋙ भुजांतर
संज्ञा पुं० [सं० भुलान्तर] १. क्रोड़। गोद। २. वक्ष छाती। ३. दो भुलाओँ का अबर।
⋙ भुजांतराल
संज्ञा पुं० [सं० भुजान्तराल] दे० 'भुजांतर'।
⋙ भुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँह। हाथ। मुहा०— भुला उठाना = प्रितिज्ञा करना। प्रण करना। उ०— चल न ब्रह्मकुल सन बरिवाई।सत्य कहउँ दोउ भुवा उठाई।— तुलसी (शब्द०)। भुजा देकना =प्रतिज्ञा करना। प्रण करना। उ०— भुला टेकि कै पंड़ंत बोला। छाड़िहि देस बचन दो ड़ोला।—जायसी (शब्द०)।
⋙ भुजाकंट
संज्ञा पुं० [सं० भुजाकणट] हाथ की उँगली का नाखून।
⋙ भुजाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ [को०]।
⋙ भुजादल
संज्ञा पुं० [सं०] करपल्लव।
⋙ भुजना ‡
क्रि० सं० [हि० भँजाना] दे० 'भुलाना'।
⋙ भुजामध्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुहनी। २. वक्ष [को०]।
⋙ भुजामूल
संज्ञा पुं० [सं०] कधे का वह अगला भाग जहाँ हाथ और कधे का जोड़ हाता है। बाहुमूल।
⋙ भुजालो
संज्ञा स्त्री० [हि० भुज+आली (प्रत्य०)] एक प्रकार की बड़ी टेड़ी छुरी जिसका व्यवहार प्रायः नेपाली आदि करते हैँ। इसे कुकरी या खुखरी भी कहते हैं। २. छोटी बरछी।
⋙ भुजिया †
संज्ञा पुं० [हि० भूजना(=भूनना)] १. उबाला हुआ धान। क्रि० प्र०— करना।— बैठाना। २. उबाले हुए धान का चावल। वि दे० 'घान' और "चावल'। ३. वह तरकारी जो सूखू ही भूतकर बनाई जाती है और जिसमें रसा या शोबा नहीं होता। सूखी तरकारी। जैसे, आलू का भूजिया, परवल का सुजिया।
⋙ भुंजष्य
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० भुजिष्या] १. दास। सेवक। २. रोग। व्याधि (को०)। २. साथी। मित्र (को०)। ४. हस्तसूत्र। कलाई पर बँधा हुआ सूत्र (को०)।
⋙ भुजिष्या
संज्ञा पुं० [सं०] १. दासी। सेविकाष २. गणिका। बेश्या।
⋙ भुजेना ‡
संज्ञा पुं० [हि० भूजना] भूना हुआ दाना। चबैना। भूना।
⋙ भुजैल
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्ग; हि० भुजइल] भुजंगा नामक पक्षी। उ०— भँवर पतग जरे औ नागा। कोकिल भुजैल औ सब कागा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ भुजौना पु ‡
संज्ञा पुं० [हिं० भूजना] १. भुना हुआ अन्न। भूना। भूजा। भुजैना। उ०— फेर फेर तन कीन भुजौना। औटि रकत रँग हिरदे औना।—जायसी (शब्द०)। २. वह धन या अन्न जो भूनने के बदले में दिया जाया। मूनने की मजदूरी। ३. वह धन जो रूपया या नोट आदि भूनाने के बदले में दिया जाय।
⋙ भुज्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन। २. पात्र। ३. अग्नि। ४. यज्ञ (को०)। ५. वैदिक काल के एक राजा का नाम। यह तुमु का एक पुत्र था और अश्विनी ने इसे समुद्र में डूबने ले बचाया था।
⋙ भुटिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकरा की धारी जो डोरिए और चारखाने के बुनने में डाली जाती है। (जुलाहे)।
⋙ भुट्टा
संज्ञा पुं० [सं० भृष्ट, प्रा०, भुट्टी] १. मक्के की हरी बाल। वि० दे० 'मक्का'। २. जुआर वा बाजरे की बाल। उ०— श्री कृष्णचंद्र ने तिरछी कर एक हाथ ऐसा मारा कि उसका सिर भुट्टा सा उड़ गया।—लल्लू (शब्द०)। ३. गुच्छा। घौद। उ०— कहीं पुखराजों को डडियों से पन्ने के पत्ते निकाल मोतियों के मुट्टे लगाए हैं।—शिवप्रसाद (शब्द०)।
⋙ भुठार
संज्ञा पुं० [हि० भूड़ा] वह घोड़ा जो ऐसे प्रदेश में उत्पन्न हुआ हो जहाँ की भूमि बलुई वा रेतीली हो।
⋙ भुठौर
संज्ञा पुं० [हि० भूड़ + ठौर] घोड़ों की एक जाति जो गुज- रात आदि मरुस्थल देशों में होती है। उ०— मुसकी औ हिरमिजी इराकी। तरकी कंगी भुठोर बुलाकी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ भुड़ली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का फूल।
⋙ भुड़ारी †
संज्ञा पुं० [हिं० भू + डालना] वह अन्न जो राशि के दाने पर बाल में डठल के साथ लगा रहता है। लिड़ूरी। दोबरी। पकूटी। चित्ती। विशेष— इस शब्द का प्रयोग प्रायः रबी की फसल के लिये होता है।
⋙ भुतनी †
संज्ञा स्त्री० [हि० भूत] भूतिन। भूतिनी।
⋙ भूतिहा †
वि० [भूत + हा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० भुतही] भूत प्रेत संबंधी। भूत प्रेत आदि का। जैसे, भूतहाँ मकान, भुतही इमली। उ०— लोग उसे भुतहा जंगल कहते हैं।— मैला०, पृ० ८।
⋙ भुथरा
वि० [हि०] दे० 'मोथरा'।
⋙ भुथराई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुथरा] भोथरापन। भोथरा होना। कुंद होना। उ०— पैने कटाछनि बोज मनोज के बानन बीच बिंधी भुथराई।—घनानंद०, पृ० ११०।
⋙ भुन
संज्ञा पुं० [अनु०] मक्खी आदि का शब्द। अव्यक्त गुंजार का शब्द। मुहा०— भुन भुन करना = कुढ़कर अस्पष्ट स्वर में कुछ कहना।
⋙ भुनगा
संज्ञा पुं० [अनु०] [स्त्री० भुनगी] १. एक छोटा उड़नेवाला कोड़ा जो प्रायः फूलों और फलों में रहता है और शिशिर ऋतु में प्रायः उड़ता रहता है। २. कोई उड़नेवाला छोटा कीड़ा। पतिंगा। २. बहुत ही तुच्छ या निबल मनुष्य उ०— बड़ा जरार आदमी है। एक भुनगे के लिये इतने सवारों को लाना पड़ा।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १०५।
⋙ भुनगी
संज्ञा स्त्री० [हि० भुनगा] एक छोटा कीड़ा जो ईख के पौधों के हानि पहुँचाता है।
⋙ भुनना (१)
क्रि० अ० [हिं० भूनना] १. भूनने का अकर्मक रूप। भूना जाना। २. आग की गर्मी से पक्कर लाल होना। पकना। भुनना।
⋙ भुनना (२)
क्रि० अ० [सं० भञ्जन] भुमाने का अकर्मक रूप। रुपए आदि के बदले मे अठन्नी, चवन्नी, पैसे आदि का मिलना। अवयवी का अवयव में विभाजित वा परिणात होना। बड़े सिक्के आदि का छोटे छोटे सिक्कों में बदला जाना।
⋙ भुनभुनाना
क्रि० अ० [अनु०] १. भुन भुन शब्द करना। २. किसी बिरोधी वा प्रतिकूल दबाव में पड़कर मुँह से अव्यक्त शब्द निकालना। मन ही मन कुढ़कर अस्पष्ट स्वर में कुछ कहना। बड़बड़ाना।
⋙ भुनवाई, भुनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० भुनवाना] १. भुनवाने की क्रिया या भाव। २. वह धन जो भुनवाने के बदले में दिया जाय। भुनाई। भाँज।
⋙ भुनाना (१)
क्रि० सं० [हिं० भूनना] भूनने का प्रेरणार्थक रूप। दूसरे को भूनने के लिये प्रेरणा करना।
⋙ भुनाना (२)
क्रि० सं० [सं० भञ्जन] रुपए आदि को अठन्नी, चवन्नी आदि मनें परिणत करना। बड़े सिक्के आदि को छोटे सिक्कों आदि से बदलना। उ०— जो इक रतन भुनावै कोई। करे सोई जो मन महँ होई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ भुनुगा
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'भुनगा'।
⋙ भुन्नास
संज्ञा पुं० [देश०] पुरुष की इंद्रिय।(बाजरू)।
⋙ भुन्नासी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा देशी ताला दो प्रायः दूकानों आदि में बंद किया जाता है।
⋙ भुबि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० 'भू' शब्द का सप्तमी एकवचन रूप 'भुवि] पृथ्वी। भूमि। उ०— जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पर करि होतेउँ न हँसाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ भुमिया †
संज्ञा पुं० [सं० भूमि] दे० 'भूमिया'।
⋙ भुमुँह †
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्र, प्रा०, भमुह] दे० 'भोंह'। उ०— भुमुहाँ ऊपरी सोहली, परिठिउ जाणि क चग।—ढोला०, दू० ४६५।
⋙ भुम्मि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि] दे० 'भूमि'। उ०— राजा कर भल मानहिं भाई। जे हम वहँ यह भुम्मि देखाई।—जायसी ग्रं०, (गुप्त) पृ० ३४५।
⋙ भुयग्गि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्ग, प्रा० भुअग्ग, भुयग्ग] भुजंयिनी। सर्पिणी। उ०— मोहण बेली मारुई पीधो नाग भुयग्गि।—ढोला०, दू०, ६०१।
⋙ भुरकना
क्रि० अं० [सं० भुरण (=गति) या हिं० भुरका] १. सुखकर भुरभुरा हो जाना। २. भूलना। उ०— थोरिए बैस बैथोरी भटू ब्रजभोरी सी बानन में भुरकी है।— देव (शब्द०)। संयो० क्रि—जाना। ३. चूर्णा के रूप के किसी पदार्थ को छिड़कना। भुरभुराना। बुरकना। उ०— जहाँ तहँ लसत महा मदमत। वर बानर कारन दल दत्त। अंग अंग चरचे अति चदन। मुंडन भुरके देखिय बंदन।—केवश (शब्द०)। संयो० क्रि—देना।
⋙ भुरकस
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भुरकुम'।
⋙ भुरका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भुरकना वा सं० धूरि] बुकनी। अबीर।
⋙ भुरका (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भरना] १. मिट्टी का बड़ा कसोरा। कुज्जा। कुल्हड़। २. मिट्टी आदि का वह पात्र जिसमें लड़के लिखने के लिये खड़िया। मट्टी पोलकर रखते है। बुदका। बुदकना।
⋙ भुरकाना
क्रि० सं० [हिं० भुरकना] १. भुरभुरा करना। २. छिड़कना। भुरभुराना। ३. भुलवाना। बहकाना। उ०—कही हँसि देव शठ कूर ऐबी बड़े आइ कोई बाल भुरकाय दीन्हा।—विश्वास (शब्द०)।
⋙ भुरकी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भुरका] १. अन्न रखने के लिये छोटा कोठिला। धुनकी। २. पानी का छोटा गड्ढा। हौज। ३. छोटा कुल्हड़।
⋙ भुरकी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भुरका] धुप। रद। उ०— दादू भुरकी राम है, सबद कहै गुरु ज्ञान। तिन सबदौं मन मोहिया उन मन लग्गा ध्यान।—दादू० बानी, पृ० ३६४।
⋙ भुरकुटा
संज्ञा पुं० [हिं० भुरकुस] छोटा कोड़ा वा मच्छड़। छोटा मकोड़ा।
⋙ भुरकुन
संज्ञा पुं० [हिं० भुरकना] चूर्ण। चूरा।
⋙ भूरकुस
संज्ञा पुं० [सं० अनु० या हिं० भुरकना] चूर्ण। वह वस्तु जो चूर चूर हो गई हो। मुहा०—भुरकुस निकलना =(१) चूर चूर होना। (२) इतना मार खाना कि हड़्डी पसली चूर चूर हो जाय। बेदम होना। (३) नष्ट होना।। बरबाद होना। भुरकुस निकालना=(१) इतना मारना कि हड्डी पसली चूर चूर हो जाय। मारते मारते बेदम करना। (२) बेकाम करना। किसी काम का न रहने देना। (३) नष्ट करना। बरबाद करना।
⋙ भुरज †
संज्ञा पुं० [फा० बुर्जं] दे० 'बुर्जं'।
⋙ भुरजाल ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बुर्ज + आल] गढ़। उ०— अप भुरजालाँ भुरजसा, गढ़ चोतीड़ कँगूर।— बाँकी ग्रं० भा० २, पृ० ६।
⋙ भुरजी †
संज्ञा पुं० [हिं० भुजना] भडभूँजा।
⋙ भुरत
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास। भरोट।विशेष— यह बरसात में होती है। यह स्वच्छद उगती है और जब एक नरम रहती है, तब तक पशु इसे बड़े चाव से खाते हैं। यह सुखाने के काम की नहीं होती।
⋙ भुरता
संज्ञा पुं० [हिं० भुरकना या भुरभुरा] १. दबकर वा कुचलकर विकृतावस्था को प्राप्त पदार्थ। वह पदार्थ जो बाहारी दबाव से दबकर या कुचलकर ऐसा बिगड़ा गया हो कि उसके अवयव और आकृति पूर्व के समान न रह गए हों। मुहा०—भुरता करना वा कर देना = कुचलकर पीस डालना। दबाकर चूर चूर कर देना। २. चोखा या भरता नाम का सालन। वि० दे० 'चोखा'।
⋙ भुरभुर (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक घास का नाम जो ऊपर या रेतीली भूमि में हाती है। इसे भुरभुरोई या झुलनी भी कहते हैं। दे० 'भुरभुरा (२)'।
⋙ भुरभुर (२)
संज्ञा पुं० [अनु० वा सं० धूरि] बुक्का।
⋙ भुरभुर पु † (३)
वि० दे० 'भुरभुरा (१)'।
⋙ भुरभुरा (१)
वि० [अनु०] [स्त्री० भुरभुरी] जिसके कण थोड़ा आघात लगने पर भी बालू के समान अलग अलग हो जायँ। बलुआ। जैसे,—यह लकड़ी बिलकुल भुरभुरी हो गई है।
⋙ भुरभुरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] उत्तरी भारत में होनेवाली एक प्रकार की बरसाती घास जिसे गौएँ, बैल और घोड़े बहुत पसंद करते हैं। इसका मेल देने से कड़े चारे नरम हो जाते हैं। पलंजी। झूसा। गलगला।
⋙ भुरभुराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० भुरभुरा + आहट (प्रत्य०)] भुरभुरा। होने की क्रिया या भाव। भुरभुरापन।
⋙ भुरभुरोई
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो ऊसर और रेतीली भूमि में उपजती है। इसे झुलनी या भुरभुर भी कहते हैं।
⋙ भुरली
संज्ञा स्त्री० [हिं० भुड़ली] १. भुड़ली। सूँड़ी। कमला। २. एक कीड़ा जो खेती की फसल को हानि पहुँचाता है।
⋙ भुरवना पु
क्रि० सं० [सं० भ्रमण, हिं० भरमना का प्रे० रूप] भूलवाना। भ्रम में ड़ालना। फुसलाना। उ०—(क) सूरदास प्रभु रसिक सिरोमणि बातन भुरई राधिका भोरी। सूर— (शब्द०)। (ख) ऊधी अब यह समझि भई। नंदनँदन के अंग अंग प्रति उपमा न्याइ दई। कुंतल कुटिल भँवर भामिनि वर मालति भुरै लई। तजत न गहरु कियो तिन कपटी जानि निराश भई।—सूर (शब्द०)। संयो० क्रि—देना।—लेना।—रखना।
⋙ भुरसना पु
क्रि० अ० [हिं० भुलसना] दे० 'झुलसना'; 'भुलसना'।
⋙ भुरहरा †
संज्ञा पुं० [हिं० भोर] भोर। सुबह। तड़का।
⋙ भुराई पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भोला] भालापन। सीधापन। उ०— (क) लखहु ताड़ुकहि लछिअन भाई। भुजनि भयंकर भेष भुराई।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) मोचन लागी भुराई की बातन सौतिनी सीच भुरावन लागी।—मतिराम (शब्द०)। (ग) राई नौंन वारति भुराई देखि आँगनि मैं दुरै न दुराई पै भुराई सो भरति है।—देव (शब्द०)।
⋙ भुराई (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भूरा] भूरापन। भूरा होने का भाव। उ०— मैं अपनी सब गाय चरँहौं। प्रात होत बल के सँग जैहौं तेरे कहे न भुरँहौं।—सूर (शब्द०)। २. दे० 'भुरवना'। उ०— तुम भुरए ही नंद कहत है तुमसी ढोटा। दधि ओदन के काज देह धरि आए छोटा।—सूर (शब्द०)।
⋙ भुरावना पु †
क्रि० सं० [हिं० भुलाना] १. दे० 'भुराना'। उ०— मोचन लागी भुराई की बातन सौतिन सोच भुरावन लागी। —मतिराम (शब्द०)। २. दे० 'भुरवना'।
⋙ भुरुंड
संज्ञा पुं० [सं० भुरूण्ड़] १. एक गोत्रप्रर्वतक ऋषि का नाम २. भारुंड़ पक्षी।
⋙ भुरुकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भुरका'।
⋙ भुर्भुरिका, भुर्भुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मिठाई।
⋙ भुर्रा (१)
वि० [हिं० भूरा या भवँरा?] बहुत अधिक काला। घोर कृष्ण। जैसे,— बिलकुल काला भुर्रा सा आदमी तुम्हें ढ़ूँढने आया था।
⋙ भुर्रा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बूरा, भुरा] चीना को पकाकर बनाई हुई चीनी। भूरा।
⋙ भुलक्कड
वि० [हिं० भूलना + अवकाड़ (प्रत्य०)] भूलने के स्वभाववाला। विस्मरणाशील। बहुत भूलनेवाला।
⋙ भूलना †
संज्ञा पुं० [हिं० भूलना] १. एक घास का नाम। विशेष— इसके विषय में लोगों में यह प्रावाद है कि इसके खाने से लोग सब बातें भूल जाते हैँ। मुहा०—भुलाना खर खाना = विस्मरणशील होना। २. वह जो भूल जाता हो। भूलनेवाला व्यक्ति।
⋙ भुलभुला †
संज्ञा पुं० [अनु०] आगा का पलका। गरम राख।
⋙ भुलवाना
क्रि० सं० [सं० भूलना का प्रे० रूप] १. भूलना का प्रेरणार्थक रूप। भूलने के लिये प्रेरणा करना। भ्रम में ड़ालना। २. विस्मृत करना। बिसारना। दे० 'भुलाना'।
⋙ भुलसना
क्रि० अ० [हिं० भुलभुला] पलके में झुलसना। गरम राख में झुलसना। उ०—लाल गुलाब अँगारन हूँ पुनि कछु न भुरसी। सुकवि नेह की बेल विरह झर नेकु न झुरसी।— व्यास (शब्द०)।
⋙ भुलाना (१)
क्रि० सं० [हिं० भूलना] १. भूलने का प्रेरणार्थक रूप। भ्रप में डालना। धोखा देना। उ०— बंधु कहत घर बैठे आवैं। अपनी माया माहि भुलावैं।—लल्लू (शब्द०)। २. भूलना। विस्मृत करना। उ०—(क) हँसि हँसि बोली टेके काँधा। प्राति भुलाइ चहै जल बांधा।—जायसी (शब्द०)। (ख) ये हैं जिन सुख वे दिए, करति क्यों न हित होस। ते सब अबहि भुलाइयतु तनक दृगन के दोस।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ भुलाना पु (२) †
क्रि० अ० १. भ्रम में पड़ना। उ०—(क) हाथ बीनसुनि मिरग भुलाहीं। नर मोहहिं सुनि पैग न जाहीं।— जायसी (शब्द०)। (ख) पँड़ित भुलान न जानहिं चालू। जीव लेत दिन पूछ न कालू।—जायसी (शब्द०)। (ग) यसुदा भरम भुलानी झूले पालना रे।—गीत (शब्द०)। २. भटकना। भरमना। राह भूलना। उ०— सो सयान मारग रहि जाय। करै खोज कबहूँ न भुलाय।— कबीर (शब्द०)। ३. भूल जाना। विस्मरण होना। विसरना। उ०— (क) मात महातम मान भुलाना। मानत मानत गवना ठाना।— कबीर (शब्द०)। (ख) घड़ी अचेत होय जो आई। चेतन की सब चेत भुलाई।—जायसी (शब्द०)। (ग) एवमस्तु, कहि कपट मुनि बोला कुटिल कठोर। मिलब हमार भुलाब जनि कहहु त हमाहि न खोरि।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ भुलावा
संज्ञा पुं० [हिं० √ भूला + आवा (प्रत्य०)] छल। धोखा। चक्कर। जैसे,—इस तरह भुलावा देने से काम नहीं चलेगा। क्रि० प्र०—देना।—में डालना।
⋙ भुवंग
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्ग प्रा०, भुअंग] [स्त्री० भुअंगिनि भुविगिन] साँप। उ०— साकट का मुख बिंत है निकसत। बचन भुवंग। ताकी औषधि मौन है बीप नहि व्यापै अँग।— कबीर (शब्द०)।
⋙ भुवंगम
संज्ञा पुं० [सं० भ्रुजङ्गम, प्रा० भुअंगम] साँप। उ०— (क) कपट करि ब्रजहि पूतना आई। गई मूरछा परौ धरनि तै मनों भुंवंगम खाई। सरदास प्रभु तुम्हारी लीला भागतन गाइ सुनाई— सूर (शब्द०)। (ख) माइ री मोहिं डस्यो भुवगम कारो।— सूर (शब्द०)।
⋙ भुवः
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह आकाश या अवकाश जो भूमि और सूर्य के अंतर्गत है। अतरिक्ष लोक। यह सात लोकों के अंतर्गत दूसरा लोक है। २. सात महा व्याहतियों के अतर्गत दूसरी महाव्याहृति। मनुस्मृति के अनुसार यह महाव्याहृति ओंकार की उकार मात्रा के संग यजुर्वेद से निकाली गई है।
⋙ भुव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि। आग।
⋙ भुव पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भू का सुप्तभ्यंत रूप भुवि वा भुमि] पृथ्वी। उ०— (क) रोवैं वृषभ तुरंग अरु नाग। स्यार दिवस निसि बोलें काग। कपैं भुव बर्षा नहि नहिं होई। भए शोच चित यह नृप जोई।—सूर (शब्द०)। (ख) भार उतारन भुब पर गए। साधु संत को बहु सुख दए।—लल्लू (शब्द०)।
⋙ भुव पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रू] भोंह। भ्रू। उ०—(क) गहन दहन निदंहन लक निःसंक बंक भुव।—तुलसी (शब्द०)। (ख) भुव तेग सुनैन के बान लिए मति बेसारि की सँग वासिका हैं।—हरिश्चद्र (शब्द०)।
⋙ भुवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. जगत् २. जल। ३. जन। लोग। ४. लोक। विशेष— पुराणानुसार लोक चौदह हैं—सात सर्ग और सात पाताल। भुः भुवः स्वः, महः तपः और सत्य से सात सर्ग लोक है और अतल, सुतल, वितल, गभस्तिमत्, महातम, रसातल और पाताल के सात पाताल है। ५. चौदह की संख्या का द्योतक शब्दसंकेत। ६. सृष्टि। भूवजात। ७. एक मुनि का नाम। ८. आकाश। (को०)। ९. समृद्दि (को०)।
⋙ भुवनकोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूमंड़ल। पृथिवी। २. चौदही भुवन की समष्टी। ब्रह्माड़। उ०— मो सी दोस कोस को भुवनकोस दूसरे न आपनी सपुझि सूझि आयो टकटोरि हों।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ भुवनत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तीनों भुवन,—स्वर्ग, मत्य और पाताला।
⋙ भुवनपति
संज्ञा पुं० [सं०] एक देवता का नाम जो महीधर के अनुसार अग्नि का भाई है।
⋙ भुवनपावनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा।
⋙ भुवनभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० भुवनभर्तुं] जगत के भरण पोषण करनेवाला।
⋙ भुवनभावन
संज्ञा पुं० [सं०] लोकनिर्माता लोकस्त्रष्टा।
⋙ भुवनमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० भुवनमातृ] दुर्गा का नाम।
⋙ भुवनमोहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जगत् के मोहित करनेवाली।
⋙ भुवनशासी
संज्ञा पुं० [सं० भुवनशासिन्] राजा। शासक।
⋙ भुवनाथ
संज्ञा पुं० [हिं० भुव+नाथ] दे० 'भुवनेश'। उ०—हे भारत भुवनाथ भूमि निज बूड़त आनि बचाओ।—भारतेंदुं ग्रं०, भा० १. पृ० ५०१।
⋙ भुवनाधीश
संज्ञा पुं० [सं०] एत रुद्र का नाम।
⋙ भुवनेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव की एक मूर्ति का नाम। २. ईश्वर।
⋙ भुवनेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शक्ति की एक मूर्ति का नाम।
⋙ भुवनेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान का नाम। विशेष— यह तीर्थस्थान उड़ीसा में पुरी के पास है। यहाँ अनेक शिवमंदिर है जिनमें प्रधान और प्राचीन मंदिर भुवनेश्वर शिव का है। २. शिव की वह प्रधान मुर्ति जो भुवनेश्वर में है। ३. शिव (को०)।४. राजा। भूपति (को०)।
⋙ भुवनेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्रानुसार एक देवी का नाम जो दस महाविद्याओं में एक मानी जाती है।
⋙ भुवनौका
संज्ञा पुं० [सं० भुवनौकस्] देवता।
⋙ भुवन्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. चंद्र। ४. प्रभु।
⋙ भुवपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देवता का नाम। महिधर के अनुसार यह अग्नि का भाई है। २. राजा।
⋙ भुवपत्ति पु
संज्ञा पुं० [सं० भु > भ्रुव+पति] दे० 'भूपति'। उ०— चारू बक्कि चालुक्क राइ भोरा भुवपत्तिय।— पृ० रा०, १२। ५४।
⋙ भुवपाल पु
संज्ञा पुं० [हिं० भुव+पाल] दे० 'भुपाल'।
⋙ भुवलोक
संज्ञा पुं० [सं०] सात लोकों में से दुसरे लोक का नाम। पृथ्वी और सूर्य का मध्यवर्ती पोला भाग। अंतरिक्ष लोक।
⋙ भुवा
संज्ञा पुं० [हिं० घूआ] घूआ। रूई। उ०— रानी धाइ आइ के पासा। सुआ भुवा सेमर की आसा। जायसी (शब्द०)।
⋙ भुवार पु
संज्ञा पुं० [सं० भूपाल] दे० 'भुवाल'। उ०— राम लखन सम दैत्य सँहारा। तूम हलधर बलभद्र भुवारा। —जायसी (शब्द०)।
⋙ भुवाल पु
संज्ञा पुं० [सं० भूपाल, प्रा० भु्आल] राजा उ०— (क) कालिंदी के तीर एक मधुपुरी नगर रसाल हो। कालनेमि उग्रसेन वंश कुल उपजं कंस भुवाला हो। —सूर (शब्द०)। (ख) यों दल काढ़ें बलख तें तैं जयसाह भुवाल। उदरप अघासुर के पड़े ज्यों हरि गाय़ गुवाल।— बिहारी (शूब्द०)।
⋙ भुवि
संज्ञा स्त्री० [सं०भु का सप्तमी रूप अथवा भूमि] भूमि। पृथिवी। उ०— एक काल एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। सुर रंजन सज्जन सृखद हरि, भजन भ्रुवि भार।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ भुविसू
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।
⋙ भुविस्थ
वि० [सं०] जो पृथ्वी पर स्थित हो। पृथ्वी पर रहने वाला [को०]।
⋙ भुशुंड़ि (१)
संज्ञा पुं० [सं० भुशुणिड़] काक भुशुंड़ी। विशेष— इनके विषय में यह प्रसिद्ध है कि ये अमर और त्रिकालज्ञ है ओर कलियुग में होनेवाली सब बातों देखा करते है।
⋙ भुशुड़ि (२)
संज्ञा स्त्री० एक अस्त्र का नाम जिसका प्रयोग महाभारत के काल में होता था। विशेष— यह अस्त्र चमड़े का बनाया जाता था। इसके बीच में एक गोल चंदवा होता था जिसे चमड़े के कड़े तसमों में बाँधकर दो लबी डोरियों में लगा देते थे। यह अस्त्र डोरी समेत एक छोर से दूसरे छोर तक तीन हाथ लबा होता था। इसके चँदवे में पत्थर भरकर और ड़ोरियों को दाहने हाथ से घुमाकर लोग शत्रु रक फेकते थे। कुछ लोग भ्रमवश इस शब्द से बंदुक का अर्थ लेते हैं।
⋙ भुसना पु ‡
क्रि० अ० [देश०] दे० 'भूँकना'। उ०— सरस काव्य रचना रचों खल जन सूनि न हसंत। जैसे सिंघुर देखि मग स्वान सुभाव भुसंत। —पृ० रा०, १। ५१।
⋙ भुस
संज्ञा पुं० [सं० बुस] भूसा। उ०— बनजारे के बैल ज्यों भरमि फिरेउ चहुँ देस। खाँड़ लादि भुस खात हैं बिनु सतगुरु उपदेश।— कबीर (शब्द०)।
⋙ भुसिल पु
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'भोंसला'। उ०— जा दिन जनम लीन्हों भू पर भूसिल भूप ताही दिन जीत्यो आरि उर के उछाह को।— भूषण ग्रं०, पृ० १०।
⋙ भुसी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूसा] भूसी। उ०— कबिरा संगति साधु की जौ की भुसी जो खाय। खीर खाँड़ भोजन मिलै साकट सभा् न जाय। — कबीर (शब्द०)।
⋙ भुसुंड़
संज्ञा स्त्री० [सं० शुणड़] सूँड़।
⋙ भुसुंड़ी
संज्ञा पुं० [सं० भुशुण्ड़ि] दे० 'भुशुडि (२)'।
⋙ भुसेहरा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० भुला+घर] दे० 'भुसौरा'।
⋙ भुसौरा
संज्ञा पुं० [हिं० भुसा + घर] [स्त्री० भुसौरी] वह घर जिसमें भुसा रखा जाता हो। भूमा रखने का स्थान।
⋙ भूँकना
क्रि० अ० [अनु०] १. भूँ भूँ या भौ भौं शब्द करना (कुर्तों का)। [इस शब्द का प्रयोग कुत्तों की बोली के लिये होता है] २. व्य़र्थ बकना।
⋙ भूँख †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूख] दे० 'भूख'।
⋙ भूँखा
वि० [हिं० भूख?] दे० 'भूखा'।
⋙ भूँच †
वि० [देश० या हिं० भुच्च] ऊजड़। उजड्ड। भुड़ रेते से भरा। उ०—भुच देश में रमि रहे श्रीनारायण दास।— सुंदर० ग्र० (जी०) , भा० १. पृ० ७४।
⋙ भूचनहार
संज्ञा पुं० [सं० भुञ्जन] भोग करनेवाला। उ०— सकामी सेवा करै, माँगे मृगध गँवार। दादु ऐसे बहुत है, फल के भूँचनहार। —दादु पृ० २७०।
⋙ भूँचना पु †
क्रि० सं० [भुञ्जन] भुगतना। भाग करना। उ०— सगुरा सति संजम रहै, सनमुख सिरजहार। निगुरा लोभी लालची, भुंचै विषै विकार।—दादु०, पृ० ४१४।
⋙ भूँचाल
संज्ञा पुं० दे० [सं०भू+हिं० चाल] दे० 'भुकप'।
⋙ भूँछ
वि० [देश०] दे० 'भुच्चड़'। उ०— खातहिं खात भए इतने दिन। जानत नाहि न भूँछ कहीं कौ। —सूंदर ग्रं०, भा०, १, पृ० ४३२।
⋙ भूँजना † (१)
क्रि० सं० [हिं० भुनना] १. किसी वस्तु को आग में ड़ालकर या और किसी प्रकार गर्मी पहुँचाकर पकाना। २. तलना। पकाना। उ०— ऐं परि जो मो इच्छा होई। भुँज्यो बीज तियजि परै स्रोई।—नंद०, ग्रं, पृ०, २९९। ३. दुःख देना। सताना।
⋙ भूँजना
क्रि० स० [सं० भोग] भोगना। भोग करना।उ०—(क) राज कि भुँजब भरतपुर नृप कि जियहि बिन राम।— तुलसी (शब्द०)। (ख) कीन्हेसि राजा भूँजहि राजू। कीन्हेसि हस्ति घोर तिन्ह साजू। —जायसी (शब्द०)।
⋙ भूँजा †
संज्ञा पुं० [हिं० भुनना] १. भुना हुआ अन्न। चबेना। २. भड़भुँजा।
⋙ भूँड़
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भू़ड'।
⋙ भूँड़री
संज्ञा स्त्री० [सं० भू+हिं० ड़+री (प्रत्य०)] वह भृमि जो जमीदार नाऊ, बारी, फकीर वा किसी संबंधी को माफी के तौर पर देता है।
⋙ भूँड़िया
संज्ञा पुं० [हिं० भूँड़री(=माफी की जमीन] वह व्यक्ति जो मँगनी के हल बौलों से खेती करता हो।
⋙ भुँडो़ल
संज्ञा पुं० [सं भु + हिं० ड़ोलना] दे० 'भुकंप'।
⋙ भुँभर †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'भुमुरि'। उ०— पथिहि कहा धुप औ छाहाँ। चलै जरत पग भूँभर माहाँ। —चित्रा० पृ० ८९।
⋙ भूँभाई †
संज्ञा पुं० [सं० भु + भाई?] वह मनुष्य जिसे गाँव का स्वामी किसी दूसरे स्थान से बुलाकर अपने यहाँ बसावे और उसे निर्वाह के लिये कुछ माफी जमीन दे।
⋙ भूँरो
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] भ्रमर। सोरा। (ड़ि०)।
⋙ भूँसना ‡
क्रि० अ० [देश०] दे० 'भूँकना'।
⋙ भूँह पु
संज्ञा स्त्री० [सं भ्रूहु०] भौह। उ०— जल मे भिजि भूँह कला दूसरी। सूलरे सनु बाल अलीन खरी। —पृ० रा०, १४।४३।
⋙ भू (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। यौ०— भूपति। भूसुर। २. स्थान। जगह। जमीन। ३. सीता जो की एक सखी का नाम। ४. सत्ता। ५. प्राप्ति। ६. एक की संख्या (को०)। ७. यज की अग्नि।
⋙ भू (२)
वि० उत्पन्न या पैदा होनेवाला। जैसे, अंगभू, मनोभू, स्वयंभू।
⋙ भू (३)
संज्ञा पुं० रसातल।
⋙ भू (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्र] मौह। उ०—कीर नासा इंद्र घनु भू भवर सी अलकावली। अधर विद्रुप वज्रकन दाड़िम किधों दशनावली।—सूर (शब्द्०)।
⋙ भूआ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० घूआ] रूई के समान हलकी और मूलायम वस्तु का बहुत छोटा टुकड़ा। जैसे, सेमर का भूआ।
⋙ भूआ (२)
वि० भूआ के समान। श्वेत।
⋙ भूआ ‡ (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पिता की बहिन। फूआ। बूआ। उ०— अरी भुआ बैहिन करति आरती, उन री झगरत अपने नेग, रंग मैहेल में।— पद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० ९३२।
⋙ भूई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुआ या भूआ] २. ऱूई के समान मुलायम वस्तु का बहुत छोटा टुकड़ा। २. किसी जली हुई वस्तु (रस्सी, लकड़ी आदि) की भुही। उ०— तुहँ पै मरहि होई जरि भुई। अबहूँ अघेल कान कै रूई। —जायसी (शब्द०)।
⋙ भूकंद
संज्ञा पुं० [सं० भूकन्द] जमीकंद। सूरन। ओल।
⋙ भूकप
संज्ञा पुं० [सं० भूकम्प] पृथ्वी कै ऊपरी भाग का सहसा कुछ प्राकृतिक कारणों से हिल उठाना। भूचाल। भूड़ोल। जलजला। विशेष— अद्यापि पृथ्वी का ऊपरी भाग बिलकुल ठढ़ा हो गया है, तथापि इसके गर्भ में अभी बहुत अधिक आग तथा गरमी है। यह आग या गरमी कई रुपों में प्रकट होती है, जिसमें से एक रूप ज्वालामुखी पर्वत भी है। जब कुछ विशेष कारणों से भूगर्भ की यह अग्नि विशेष प्रज्वलित अथवा शीतल होती है तब भूगर्भ में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं जिनके कारण पृथ्वी का ऊपरी भाग भी हिलने या काँपने लगता है। इसी को भूकंप कहते हैं। कभी तो इस कंप का मान इतना सुक्ष्म होता है कि साधारणतः हम लोगों को बिना यत्रों की सहायता के उसका ज्ञान भी नहीं होता, और कभी इतना भीषण होता है कि उसके कारण पृथ्वी में बड़ी बड़ी दरारें पड़ जाती हैं, बड़ी बड़ी इमारतें गिर जाती है और यहाँ तक कि कभी कभी जल के स्थान में स्थल और स्थल के स्थान में जल हो जाता है। कुछ भुकपों का विस्तार तो दस बीस मील तक ही होता है और कुछ का सैकड़ों हजारों मीलों एक। कभी तो एक ही दो सेकेंड़ में दो चार बार पृथ्वी हिलने के बाद भुकंप रुक जाता है और कभी लगातार मिनटों तक रहता है। कभी कभी तो रह रहकर लगातार सप्ताहों और महीनों तक पृथ्वी हिलती रहती है। भुकंप से कभी कभी सैकड़ों हजारों मनुष्यों के प्राण तक चले जाते है, और लाखों कराड़ों की संपत्ति का नाश हो जाता है। जिन देशों में ज्वालामुखी पर्वत अधिक होते हैं उन्हीं में भूकप भी अधिक होते हैं। भूमध्यसागर, प्रशांत महामागर के तट, ईस्ट- इंड़ीज टापुओं में प्रायः भूकंप हुआ करते है; और उत्तरी अमेरिका के उत्तरपश्र्चिमी भाग, दक्षिण अमेरिका के पूर्वी भाग, एशिया के उत्तरी भाग और अफीका के बहुत बड़े भाग में बहुत कम भुकंप होता है। स्थल के अतिरिक्त जल में भी भूकंप होता है जिसका रूप कभी बहुत भीषण होता है। हिंदुओं में से बहुतों का विश्वास है कि पृथ्वी को उठानेवाले दिग्गजो अथवा शेषनाग के सिर के हिंलने से भूकप होता है। क्रि० प्र०— आना।—होना।
⋙ भूक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काल। समय। २. बसंत। बसंत ऋतु। ३. छिद्र। छेद। दरार। ४. अधकार। तम [को०]।
⋙ भूक † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भूख'।
⋙ भूकदंब
संज्ञा पुं० [सं० भूकदम्ब] दे० 'भूनीप' [को०]।
⋙ भूकना †
क्रि० अ० [देश०] दे० 'भूँकना'। उ० कन्न फड़ाप न मुंड़ मुड़ाया। घरि घरि फिरत न भूकण वाया।— प्राण०, पृ० १११।
⋙ भूकपित्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कैथ।
⋙ भूकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी का व्यास।
⋙ भूकर्बुदारक
संज्ञा पुं० [सं०] लिसोड़ा।
⋙ भूकल
संज्ञा पुं० [सं०] बिगड़ैल घोड़ा [को०]।
⋙ भूकश्यप
संज्ञा पुं० [सं०] वसुदेव।
⋙ भूका †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] भूख। उ०— पंच परजारि भसम करि भूका।— कबीर ग्रं०, पृ० १५८ष
⋙ भूकाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का छोटा कंक या बाज। २. नीला कबूतर। ३. क्रौंच पक्षी।
⋙ भूकुंभी
संज्ञा स्त्री० [सं० भूकुम्भी] भूपाटली।
⋙ भृकुष्मांड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० भूकुष्माणड़ी] भुइँ कुम्हड़ा। बिदारी।
⋙ भुकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेवार। २.वट वृक्ष, जिसकी जटाएँ जमीन पर लटकती रहती हैं।
⋙ भूकेशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] राक्षसी।
⋙ भुकेशी
संज्ञा पुं० [सं०] सोमराज नामक वृक्ष।
⋙ भूक्षित्
संज्ञा पुं० [सं०] सूअर।
⋙ भूख
संज्ञा स्त्री० [सं० बुभुत्दा] १. वह शारीरिक बेग जिसमें भोजन की इच्छा होता है। खाने की इच्छा। क्षृधा। यौ०— भूख प्यास।मुहा०— भूख मरना =भूख लगने पर अधिक समय तक भोजन न मिलने के कारण उसका नष्ट हो जाना। पेठ में अन्न न होने पर भोजन की इच्छा न रह जाना। भूख लगना =भोजन की इच्छा होना। खाने को जो चाहना। भूखों मरना = भूख लगने पर भोजन न मिलने के कारण कष्ट उठाना या मरना। भूख पियास बिसरना =सुध बुध खो बैठना। मस्त हो जाना। उ०—तन की सुधि रहि जात जाय मन अँतै अटका। बिसरी भूख पियास किया सुतगुरु ने टोटका। पलटु, भा०, १. पृ० ३२। २. आवश्यकता। जरुरत (व्यापारी)। जैसे,— अब तो इसे सौदे की भूख नहीं है। ३. समाई।— गुंजइश। (क्व०)। ४. कामना। अभिलाषा। उ०— मुख रुखी बातें कहैं जिय में पिय की भूख।—केशव (शब्द०)।
⋙ भूखण
संज्ञा पुं० [सं० भूपण] आभूषण।
⋙ भूखन पु
संज्ञा पुं० [सं० भुपण] दे० 'भुषण'। उ०—पहिरि फूल की माल रतन के भूखन साजन। ये नहिं सोभा देत नैक बोलत जे लाजत।—व्रज ग्रं०, पृ० १००।
⋙ भूखना पु †
क्रि० सं० [सं० भूषण] भूषित करना। सुसज्जित करना। सजाना। उ०—(क) लाखन की बकसीस करिबे को उदित है भूखिवे को अंग भूषं भूषन न गनते।— रधुनाथ (शब्द०)। (ख) लै तेहि काल अभूषन अंग में हीरा विलास के भूषन भूखे।— रधुनाथ (शब्द०)। (ग) भूखन भूखे जरायन के पहिरै फरिया रंगि सौरभ मीली। —गोकुल (शब्द०) ।
⋙ भूखर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूख] १. भूख। क्षुधा। २. इच्छा। ख्वाहिश।
⋙ भूखर्जूरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोठा खजुर।
⋙ भूख हड़ताल
संज्ञा पुं० [हिं०] अनशन।
⋙ भूखा (१)
वि० पुं० [हिं० भूख+आ (प्रत्य०)] [स्त्री० भूखी] १. जिसे भोजन की प्रबल इच्छा हो जिसे भूख लगी हो। क्षृधित। मुहा०— भुखा रहना = निराहार रहना। भाजन न करना। भूखे प्यासे = बिना खाए पिए। बिना अन्न जल ग्रहण किए। २. जिसे किसी बात की इच्छा या चाह हो। चाहनेवाला। इच्छुक। जैसे,— हम तो प्रेम के भुखे है। उ०— दानि जो चारि पदारथ को त्रिपुरारि तिहुँ पुर में सिर टीको। भोरो भलो भले भाय को भूखों भलोई कियो सुमिरे तुलसी को।—तुलसी (शब्द०)। ३.जिसके पास खाने तक को न हो। दरिद्र। यौ०— भूखा नगा। ४. रिक्त। अभावपुर्ण। उ०— क्या तुम अपने अकेलेपन में अपने को कभी कभी भूखा नहीं पाते।— सूनीता, पृ० २७।
⋙ भूखा पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूख] दे० 'भूख'। उ०— कैसे सहब खिनहि खिन भूखा।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १२९।
⋙ भुगंधपति
संज्ञा पुं० [सं० भूगन्धपति] शिव।
⋙ भुगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० भूगन्धा] मुरा नामक गंधद्रव्य।
⋙ भूमर
संज्ञा पुं० [सं०] विष। जहर।
⋙ भुगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी का भोतरी भाग। २. विष्णु।
⋙ भुगभगृह
संज्ञा पुं० [सं०] तहखाना। तलघर।
⋙ भूगर्भशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसके द्बारा इस बात का ज्ञान होता है कि पृथ्वी का संघटन किस प्रकार हुआ है, उसके ऊपरी और भोतरी भाग किन किन तत्वों के बने है, उसका आंरभिक रूप क्या था और उसका वर्त्तमान विकसित रुप किस प्रकार और किन कारणों से हुआ है। विशेष— इसमें पृथ्वी की आदिम अवस्था से लेकर अब तक का एक प्रकार का इतिहास होता है जो कई युगों में विभक्त होता है और जिनमें से प्रत्येक युग की कुछ विशेषताओं का विवेचन होता है। बड़ी बड़ी चट्टानों, पहाड़ों तथा मैदानों के भिन्न भिन्न स्तरों की परीक्षा इसके अंतर्गत होती है; और इसी परीक्षा के द्बारा यह निश्चित होता है कि कौन सा स्तर या भूभाग किस युग का बना है। इस शास्त्र में इस बात का भी विवेचन होता है कि पृथ्वी पर जलवाय़ु और वातावरण आदि का क्या प्रभाव पड़ता है।
⋙ भूगृह
संज्ञा पुं० [सं०] भूगर्भगृह। तहखाना [को०]।
⋙ भूगेह
संज्ञा पुं० [सं०] तहखाना।
⋙ भूगोल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी। २. वह शास्त्र जिसके द्बारा पृथ्वी के ऊपरी स्वरुप और उसके प्राकृतिक विभागों आदि (जैसे, पहाड़, महादेश, देश, नगर, नदी, समुद्र, झील, ड़मरु- मध्य, उपत्यका अधित्यका, वन आदि) का ज्ञान होता है। विशेष— विद्बानों ने भूगोल के तीन मुख्य विभाग किए हैं। पहले विभाग में पृथ्वी का सौर जगत के अन्यान्य ग्रहों और उपग्रहों आदि से संबंध बतलाया जाता और उन सबके साथ उसके सापेक्षिक संबंध का वर्णन होता है। इस विभाग का बहुत कुछ संबंध गणित ज्योतिष से भी है। दूसरे विभाग में पृथ्वी के भौतिक रूप का वर्णन होता है और उससे यह जाना जाता है कि नदी, पहाड़, देश नगर आदि किसी कहते है और अमुक देश, नगर, नदी य़ा पहाड़ आदि कहाँ हैं। साधारणतः भूगोल से उसके इसी विभाग का अर्थ लिया जाता है। भूगोल का तीसरा विभाग राजनीतिक होता है और उसमें इस बात का विवेचन होता है कि राजनीति, शासन, भाषा, जाति और सभ्यता आदि के विचार से पृथ्वी के कौन विभाग है और उन बिभागों का विस्तार और सीमा आदि क्या है। ३. वह ग्रंथ जिसमें पृथ्वी के ऊपरी स्वरुप और प्राकृतिक विभागों आदि का वर्णन होता है।
⋙ भूगोलक
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वीमंड़ल।
⋙ भूघन
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर।
⋙ भूध्नी
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक मिट्टी को स्लेट या पट्टिका।
⋙ भूचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी की परिधि। २. बिषुवत् रेखा। ३. अयनवृत्त। ४. क्रांतिवृत्त।
⋙ भूचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. दीमक। ३. वह जो पृथ्वी पर रहता हे। भूमि पर रहनेवाला प्राणी। ४. तंत्र के अनुसार एक प्रकार की सिद्धि। विशेष— कहते है, यह सिद्धि प्राप्त हो जाने पर मनुष्य के लिये न तो कोई स्थान अगम्य रह जाता है, न कोई पदार्थ अप्राप्य रह जाता है और न कोई बात अप्रत्यक्ष रह जाती है।
⋙ भूचरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] योगशस्त्रानुसार समाधि अंग की एक मुद्रा जिसका निवास नाक में है और जिसके द्बारा प्राण और अपान वायु दोनों एकत्र हो जाती है। उ०—दुसरी मुद्रा भुबरी नासा जासु निवास। प्राण अपान जुदी जुदी करि देवै एक पास।— विश्वास (शब्द०)।
⋙ भूचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी की छाया जिसे लोग राहु कहते हैं। २. अंधकार।
⋙ भूचाल
संज्ञा पुं० [सं० भू+हि० चाल(=चलना)] भूकंप। भूडो़ल।
⋙ भूची
संज्ञा पुं० [सं० भूचर] पृथ्वी पर निवास करनेवाला। दे० 'भूचर' उ०— निसा एक रत्ती असी जंग धायौ। पलं श्रोन षोचीन भूची अघायौ।— पृ० रा०, १२। ३०६।
⋙ भूच्छाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'भूचर्या'। २. तम।
⋙ भूच्छाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथिवी की छाया। भूचर्या। २. अंधकार [को०]।
⋙ भूछित पु †
वि० [सं० भूषित] दे० 'भूषित'। उ०—भुगति दैन जन विभव भूर भूछित तन सोभित। त्रिपुर दहन कवि चंद केन कारन क्रत लोकित।— पृ० रा०, ७।८।
⋙ भूजंतु
संज्ञा पुं० [सं० भूजन्तु] १. सीसा। २. हाथी। ३. एक प्रकार का घोंघा।
⋙ भूजंबु
संज्ञा पुं० [सं० भूजम्बु] १. गेहुँ। २. बनजामुन।
⋙ भूजना
क्रि० अ० [सं० भोग] भोगना। भोग करना। उपभोग करना। उ०— मों उर निकट बैठि अव साई। भुजहु राज़ इंद्र की नाई।— चित्रा, पृ० २०७।
⋙ भूजात
संज्ञा पुं० [सं०] पृथिवी से उत्पन्न, वृक्ष।
⋙ भूजी ‡
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'भुजिया'।
⋙ भूटा †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'भुट्टा'। उ०—होइ निबीन निंदा तें साधु, अध क्रम जरि भे भूटा। —जग बानी०, पृ० १६।
⋙ भूटान
संज्ञा पुं० [सं० भोटस्थान या भोटायन] हिमालय का एक प्रदेश जो नेपाल के पूर्व और आसाम के उत्तर में है। इस देश के निवासी बहुत बलवान और साहसी होते हैं और घोड़े बहुत प्रसिद्ब हैं।
⋙ भूटानी (१)
वि० [हि० भुटाना+ई (प्रत्य०)] भूटान देश का। भूटान संबंधी।
⋙ भूटानी (२)
संज्ञा पुं० १. भूटान देश का निवासी। २. भूटान देश का घोड़ा।
⋙ भूटानी (३)
संज्ञा स्त्री० भूटान देश की भाषा।
⋙ भूटिया बादाम
संज्ञा पुं० [हि० भूटाना+ फा़,० बादाम] एक पहाड़ी वृक्ष जिसे कपासी भी कहते है। विशेष— यह वृक्ष पाँच हजार से लेकर दस हजार फुट तक की ऊँचाई तक पहाड़ों पर होता है। यह मझोले आकार का होता है। इसकी लकड़ी मजबुत और रंग में गुलाबी होती है, जिससे मेज, कुरसी आदि चीजे बनाई जाती है। इस वृक्ष का फल खाया जाता है।
⋙ भूड़
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की भूमि जिसमें बालू मिला हुआ होता है। बलूई भूमि। २. कूएँ का सोत। झिर।
⋙ भूड़ोल
संज्ञा पुं० [सं० भू + हि० ड़ोलना] भुकंप।
⋙ भूण
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमण] १. जलयात्रा। समुद्री सफर। २. जल- भ्रमण। जलविहार (ड़ि०)।
⋙ भूत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वे भूल द्रव्य जो सृष्टि के मुख्य उपकरण है और जिनकी सहायता से सारी सृष्टि की रचना हुई है। द्रव्य। महाभूत। विशेष— प्राचीन भारतीयों ने सावयव सृष्टि के पाँच मूलभूत या महाभूत माने है जो इस प्रकार है— पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश। पर आधुनिक बैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि वायु और जल मूल भूत या द्रव्य़ नहीं है, बल्कि कई मूल भूतों या द्रव्यों के संयोग से बने हैं। पाश्चात्य बैज्ञानितों ने प्रायः ७५ मूल भूत माने हैं जिनमें से पाँच वाष्प, दो तरल तथा शेष ठोस है। पर इन समस्त भूल भूनों में भी एक तत्व ऐसा है जो सब में समान रूप से पाया जाता है, जिससे सिद्ध होता है कि ये मुल भूल भी वास्तव में किसी एक ही भूत के रुपांतर हैं। अभी कुछ ऐसे भूतों का भी पता लगा है जो भूल भूल हो सकते है, पर जिनके विषय में अभी तक पूर्णा रूप से कुछ निश्चय नहीं हुआ है। वि० दे० 'द्रव्य०'। २. सृष्टि का कोई जड़ वा चेतन, अचर वा चर पदार्थ वा प्राणी। यौ०— भूतदया = जड़ और चेतन सबके साथ के जानेवाली दया। ३. प्राण। जीव। ४. सत्य। ५. वृत्त। ६. कातिंकेय। ७. योगिद्र। ८. वह औषध जिसके सेवन से प्रेतों और पिशाचों का उपद्रव शांत होता है। ९. लोध। १०. कृष्ण पक्ष। ११.पुराणानुसार पौरवी के गर्भ से उत्पन्न वसुदेव के बारह पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र का नाम। १२. बीता हुआ समय। गुजरा हुआ जमाना १३. व्याकारण के अनुसार क्रिया के तीन प्रकार के मुख्य कालों में से एक। क्रिया का वह रुप जिससे यह सूचित होता हो कि क्रिया का व्यापार समाप्त हो चुका। जैसे,— मैं गया था; पानी बरसता था। १४. पुराणानुसार एक प्रकार के पिशाच य़ा देव जो रुद्र केअनुचर हैं और जिसका मुँह नीचे की और लटका हआ या ऊपर की और उठा हुआ माना जाता है। ये बालकों को पीड़ा देनेवाले ग्रह भी कहे जाते है। १५. मृत शरीर। शव। १६. मृत प्राणी की आत्मा। ५७. वे कल्पित आत्माएँ जिनके विषय में यह माना जाता है कि वे अनेक प्रकार के उपद्रव करती और लोगों को बहुत कष्ट पहुँचाती है। प्रेत। जिन। शैतान। विशेष— भूतों और प्रेतों आदि की कल्पना किसी न किसी रूप मे प्रायः सभी जातियों और देशों में पाई जाती है। साधारणतः लोग इनके रुपों और व्यापारो आदि के संबध में अनेक प्रकार की विलक्षण कल्पनाएँ कर लेते हैं और इनके उपद्रव आदि से बहुत ड़रते हैं। अनेक अवसरों पर इनके उपद्रवों से बचने तथा इन्हें प्रसन्न रखने के लिये अनेक प्रकार के उपाय भी किए जाते है। साधारणतः यह माना जाता है कि मृत प्राणियों की जिन आत्माओं को मुक्ति नहीं मिलती, वही आत्माएँ चारों और घुमा करती है और समय समय पर उपद्रव आदि करके लोगों को कष्ट पहुँचाती है। इनका विचरणकाल रात और निवासस्थान एकांत या भीषण वन आदि माना जाता है। यह भी कहा जाता है के ये भूत कभी कभी किसी के सिर पर, विशेषतः स्त्रियों के सिर पर, आ चढते है उनसे उपद्रव तथा बकवाद कराते हैं। क्रि० प्र०— उतरना।—उतारना।— चढ़ना।—झाड़ना।— लगना। मुहा०— (किसी बात का) भूत चढ़ना या सवार होना = (किसी बात के लिये) बहुत अधिक आग्रह या हठ होना। जैसे,— तुम्हें तो हर एक बात का इसी तरह भूत चढ़ जाता है। भूत चढ़ना या सवार होना =बहुत अधिक क्रोध होना। कुपित होना।जैसै,— उनसे मत बोलो, इस समय उनपर भूत बढा है। विशेष— इन दोनों मुहावरों में 'चढना' के स्थान पर 'उतरना' होने से अर्थ बिलकुल उलट जाता है। मुहा०— भूत बनना(१) नशे में चूर होना। (२) बहुत अधिक क्रोध में होना। (३) किसी काम में तन्मय होना। भूत बनकर लगना =बुरी तरह पीछे लगना। किसी तरह पीछा न छोड़ना। भूत की मिठाई या पकवान = (१) वह पदार्थ जो भ्रम से दिखाई दे, पर वास्तव में जिसका अस्तित्व न हो। विशेष— लोग कहते है कि भूत प्रेत आकार मिठाई रख जाते है, जो देखने में तो मिठाई ही हीती है, पर खाने या छुने पर मिठाई नहीं रह जाती, राख मिट्टी बिष्ठा, आदि हो जाती है। (२) सहज में मिला हुआ धन जो शीघ्र ही नष्ट हो जाय। उ०—भूत की मिठाई जैसी साधु की भुठाई तैसी स्यार की ढिठाई ऐसी क्षीण छहुँ ऋतु है।— केशव (शब्द०)।
⋙ भूत (२)
वि० १. गत। बीता हुआ। जैस, भूतपूर्व। भूतकाल। २. युक्त। मिला हुआ। ३. समान। सद्दश। ४. जो हो चुका हो। हो चुका हुआ। विशेष— इन अथों में इसका व्यवहार प्रायः यौगिक शब्दों के अंत में होता है।
⋙ भूतक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार सुमेरु पर के २१ लोकों में से एक लोक।
⋙ भूतकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० भूतकर्तृ] प्रजापति। ब्रह्मा।स्रष्टा [को०]।
⋙ भूतकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की शक्ति जो पचभूतो को उत्पन्न करनेवाली मानी जाती है।
⋙ भूतकाल
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में क्रिया का एक काल। दे० 'भूत'—१३।
⋙ भूतकलिक
वि० [सं०] भृतकाल संबंधी।
⋙ भूतकृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता। २. विष्णु।
⋙ भूतकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार दक्ष सावर्णि के एक पुत्र का नाम।
⋙ भूतकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद दुब। २. इंद्रावारुणी। ३. सफेद तुलसी। ४. जटामासी।
⋙ भूतकोटि
संज्ञा पुं० [सं०] जो पूर्णतया सत्वयुक्त या सत्तायुक्त न हो [को०]।
⋙ भूतक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० भूतक्रान्ति] भूतावेश।
⋙ भूतखाना
संज्ञा पुं० [हिं० भूत+फा० खाना(=घर)] बहुत मैला कुचँल या अँधेरा घर।
⋙ भूतगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० भूतगन्धा] पुरा नामक गंधद्रव्य।
⋙ भूतगण
संज्ञा पुं० [सं०] १.शिव के गण। २. भूगों का समूह।
⋙ भूतगत्या
वि० [सं०] विश्वासपूर्वक। सत्यतापूर्वक [को०]।
⋙ भूतग्रस्त
वि० [सं०] जिसे भूत लगा हो।
⋙ भूतग्राम
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर। देह। २० संसार। जगत्। प्राणिसमुह।
⋙ भूतघ्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उँट। २. लहसुन। ३. भोजपत्र का पेड़।
⋙ भूतघ्न (२)
वि० भूतों का नाश करनेवाला।
⋙ भूतघ्नी
संज्ञा स्त्री [सं०] तुलसी।
⋙ भृतचतुर्दशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी। नरक चौदस। (इस दिन यम की पूजा और तर्पण होता है।)
⋙ भूतचारी
संज्ञा पुं० [सं० भूतचारिन्] महादेव। शिव।
⋙ भूतचिंतक
संज्ञा पुं० [सं० भूतचिन्तक] मूल भूतों की चिता या अन्वेषण करनेवाला। स्वभाववादी।
⋙ भूतचिंता
संज्ञा स्त्री० [सं० भूतविन्ता] तत्वों का अन्वेषण और उनकी छानबीन [को०]।
⋙ भूतज
वि० [सं०] भूतों से उत्पन्न। भूत का। भूत संबंधी। यौ०— भूतज उन्माद =दे० 'भूतोन्माद'।
⋙ भुतजटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी।
⋙ भूतजननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जगज्जननी। समस्त विश्व की माता [को०]।
⋙ भूतजय
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभूतों या तत्वों पर प्राय विजय [को०]।
⋙ भूततंत्र
संज्ञा पुं० [सं० भूततन्न] जिन या प्रेतो की विद्या [को०]।
⋙ भूततृण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का विष। २. एक प्रकार का गधद्रव्य।
⋙ भूतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूत होने का भाव। २. भूत धर्म। ३. भूमि संबंधी तत्व।
⋙ भूतत्वविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूमि के तत्वों को बतानेवाली विद्या। दे० 'भूगर्भशास्त्र'।
⋙ भूतदमनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिव की एक शक्ति का नाम [को०]।
⋙ भूतदया
संज्ञा स्त्री० [सं०] चराचर के प्रति दयालुता। प्राणियों के प्रति दया [को०]।
⋙ भूतद्रावी
संज्ञा पुं० [सं० भूतद्राविन्] लाल कनेर।
⋙ भूतद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] श्लेष्मांतक वृक्ष।
⋙ भूतघरा
संज्ञा पुं० [सं०] १.धरती। पृथ्वी।
⋙ भूतधात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। २. निद्रा जो सबको सुला देती है (को०)।
⋙ भूतधारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भूतधरा'।
⋙ भूतधाम
संज्ञा पुं० [सं० भूतधामन्] पुराणानुसार इंद्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ भूतनगरी
संज्ञा स्त्री० [सं० भूत+नगरी] कावेरी नदी के किनारे का एक गाँव। उ०— पृथ्वी में द्रविड़ देश में कांचीपुरी के पास श्री कावेरी गंगा के तट 'भूतनगरी'। ग्राम में।— भक्तमाल०, पृ० २८८।
⋙ भूतनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ भूतनायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।
⋙ भूतनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १.रुद्राक्ष। २. सरसों। ३. मिलावों। ४. हींग।
⋙ भूतनिचय
संज्ञा पुं० [सं०] भूल भूतों। समुह शरीर [को०]।
⋙ भुतनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूत] चुड़ैल। स्त्री भूत। भूतिनी।
⋙ भूतपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मास का कृष्ण पक्ष। अँधेरा पक्ष। अँधेरा पाख। बदी।
⋙ भूतपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव। २. काली तुलसी। ३. अग्नि (को०)। ४. आकाश (को०)।
⋙ भूतपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुलसी।
⋙ भूतपाल
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ भूतपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] श्योनाक वृक्ष।
⋙ भूतपुर्णिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आश्विन की पूर्णिमा। शरदपुर्णिमा।
⋙ भूतपूर्व
वि० [सं०] वर्तमान से पहले का। इससे पहले का। जैसे०,— भुतपूर्व मंत्री, भूतपूर्व संपादक।
⋙ भूतप्रकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] संसार की मूल प्रकृति [को०]।
⋙ भूतप्रतिषेध
संज्ञा पुं० [सं०] भूत प्रेतादि दूर करना [को०]।
⋙ भूतप्रेत
संज्ञा पुं० [सं०] भूत और प्रेत आदि।
⋙ भूतबलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूतयज्ञ [को०]।
⋙ भूतब्रह्मा
संज्ञा पुं० [सं० भूतब्रह्मन्] देवल। एक प्रकार का दान लेनेवाला ब्राह्मण।
⋙ भूतभर्त्ता
संज्ञा पुं० [सं० भूतमर्तृं] शिव।
⋙ भूतभव्य
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ भूतभावन
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव। शंकर। २. ब्रह्मा (को०)। ३. विष्णु।
⋙ भूतभावी
वि० [सं० भूतभाविह] १. जीवों की सृष्टि करनेवाला। २. भूत या अतीत और भावी।
⋙ भूतभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पैशाची भाषा। वि० दे० 'पेशाची'।
⋙ भूतमृत्
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ भूतभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] १. भैरव की एक मूर्ति का नाम। २. वैद्यक मेँ एक प्रकार का रस। विशेष— यह हरताल और गंधक आदि से बनाया जाता है। इसके सेवन से ज्वर, दाह, वात प्रकोप और कुष्ट आदि का दूर होना माना जाता है।
⋙ भूतमहेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ भूतमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० भूतमातृ] गौरी।
⋙ भूतमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
⋙ भूतमात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाँचो तन्मात्राएँ। वि० दे० 'तन्मात्र'।
⋙ भूतयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] गृहस्थ के लिये कर्तव्य पंचयज्ञ में से एक यज्ञ। भूतबलि। बलिबैश्व।
⋙ भूतयोनि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] परमेश्वर।
⋙ भूतयोनि (२)
संज्ञा स्त्री० प्रेतयोनि।
⋙ भूतराज
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ भूतल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी का ऊपरी तल। धरातल। २. संसार। दुनिया। जगत्। ३. पाताल।
⋙ भूतलशायी
वि० [सं० भूतलशायिन्] दे० 'धराशायी'।
⋙ भूतलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] असवर्ग।
⋙ भूतवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणियों का समुदाय या परिवार।
⋙ भूतवाद
संज्ञा पुं० [सं०] भूत संबंधी मान्यता। भौतिकवाद।
⋙ भूतवादी
वि० [सं० भूतवादिन्] पूर्णातया सत्य या तथ्य कहनेवाला [को०]।
⋙ भूतवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव। २. विष्णु। ३. विभीतक वृक्ष। बहेड़े का पेड़ (को०)।
⋙ भूतवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव।
⋙ भूतविक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपस्मार रोग। २. भूतग्रस्तता। भूतबाधा। प्रेतबाधा (को०)।
⋙ भूतविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] आयुर्वेद का वह विभाग जिसमें देवता, असुर, गंधर्व, यक्ष, पिशाच, नाग, ग्रह, उपग्रह आदि के प्रभाव से उत्पन्न होनेवाला मानसिक रोगो का निदान और उपाय होता है। यह उपाय बहुआ ग्रहशांति, पूजा, जप, होमदान, रत्न पहनने और औषध आदि के सेवन के रूप में होता हैं।
⋙ भूतविनायक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ भूतविभु
संज्ञा पुं० [सं०] राजा [को०]।
⋙ भूतवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] श्योनाक।
⋙ भूतवेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्गुंडी।
⋙ भूतशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों के अनुसार शरीर की वह शुदि्ध जो पूजन आदि से पहले की जाती है और जिसे बिना किए पूजा का अधिकार नहीं होता। भिन्न भिन्न तंत्रों में इस शुदि्ध के भिन्न विधान दिए गए हैँ। इसमें कई प्रकार के जप और अगन्यास आदि करने पड़ते हैं।
⋙ भूतसंचार
संज्ञा पुं० [सं० भूतसञ्चार] भूतोन्माद नामक रोग।
⋙ भूतसचारी
संज्ञा पुं० [सं० भूतसञ्च्चारिन्] वनाग्नि। दावानल।
⋙ भूतसंताप
संज्ञा पुं० [सं० भूतसन्ताप] पुराणानुसार एक दानव का नाम।
⋙ भूतसंप्लव
संज्ञा पुं० [सं० भूतसम्प्लव] प्रलय।
⋙ भूतसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] सृष्टि। जगत [को०]।
⋙ भूतसाक्षी
संज्ञा पुं० [सं० भूतसाक्षिन्] सब कुछ अपनी आँखों देखनेवाला। समस्त प्राणियों की जिसने अपनी आँखों से देखा हो।
⋙ भूतसिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] तात्रिकों के अनुसार वह जिसने भूत प्रेत आदि को सिद्ध और वश में कर लिया हो।
⋙ भूतसूक्ष्म
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तन्मात्र'।
⋙ भूतसृज्
संज्ञा पुं० [सं०] सृष्टिकर्ता ब्रह्मा [को०]।
⋙ भूतसृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. महाभूतों की सृष्टि। समय महाभूत। २. भूतावेशजन्य भ्रांति [को०]।
⋙ भूतस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणियों के रहने का स्थान। मनुष्यों के रहने का स्थान। २. प्रेतों का निवासस्थान [को०]।
⋙ भूतहंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० भूतहन्त्री] १. नीली दूब। २. बाँझ ककोड़ी।
⋙ भूतहत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राणिवध। जीववध [को०]।
⋙ भूतहन्
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र का वृक्ष।
⋙ भूतहर
संज्ञा पुं० [सं०] गुग्गुल।
⋙ भूतहा
संज्ञा पुं० [सं० भूतहनू] भोजपत्र का वृक्ष।
⋙ भूतहारी
संज्ञा पुं० [सं० भूतहरिन्] १. देवदार। २. लाल कनेर।
⋙ भूतहास
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सन्निपात जिसमें इंद्रियाँ अपना काम नहीं करती, रोगी व्यर्थ बहुत बकता है, उसे बहुत हँसी आती है।
⋙ भूतांकुश
संज्ञा पुं० [सं० भूताङ्कुश] १. कश्यप ऋषि। २. गाव- जुबान। गावजुबाँ।
⋙ भूतांकुश रस
संज्ञा पुं० [सं० भूताङ्कुशरस] वैद्यक में एक प्रकार का रस जिसमें पारा, लोहा, ताँबा, मोती, हरताल, गंधक मैनसिल, रसाजन आदि पदार्थ पड़ते हैं। इससे भूतोन्माद आदि अनेक रोग दूर होते हैं।
⋙ भूतांतक
संज्ञा पुं० [सं० भूतान्तक] १. यम। २. रुद्र।
⋙ भूता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृष्ण पक्ष की चतुदंशी तिथि।
⋙ भूताक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ भूतात्मा
संज्ञा पुं० [सं० भूतान्मन्] १. शरीर। २. परमेश्वर। ३. शिव। ४. विष्णु। ५. ब्रह्म (को०)। ६. जीवात्मा। ७. युद्ध।
⋙ भूतादि
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमेश्वर। २. अहंकार। (सांख्य)।
⋙ भूतानुकंपा
संज्ञा स्त्री० [सं० भूत + अनुकम्पा] जीवदया। प्राणियो पर दया।
⋙ भूतापि
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमेश्वर। २. सांख्य के अनुसार अहंकार तत्व जिससे पंचभूतों की उत्पत्ति होती है।
⋙ भूतायन
संज्ञा पुं० [सं०] नारायण। परमेश्वर।
⋙ भूतारि
संज्ञा पुं० [सं०] हींग।
⋙ भूतार्ता
वि० [सं०] भूताविष्ट। भूत से पीड़ित [को०]।
⋙ भूतार्थ
वि० [सं०] जो हुआ हो। वस्तुतः घटित।
⋙ भूतावास
संज्ञा पुं० [सं०] १. संसार। दुनिया। २. शरीर। देह। ३. बहेड़े का वृक्ष। ४. विष्णु।
⋙ भुताविष्ट
वि० [सं०] १. जिसे भूत या पिशाच लगा हो। २. जो भूतों आदि के प्रभाव से रोगी हुआ हो।
⋙ भूतावेश
संज्ञा पुं० [सं०] भूत का आवेश। भूत लगना। प्रेतबाधा।
⋙ भूतावेस पु
संज्ञा पुं० [सं० भूतावेश] भूत का आवेश। भूत लगना। उ०— भूतावेस अवसि है भाई। दौरहु कछु इक करहु उपाई।—नंद० ग्रं०, पृ० १३८।
⋙ भूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैभव। धनसंपत्ति। राज्यश्री। उ०— धरमनीति उपदेशिय ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही।—तुलसी (शब्द०)। २. भस्म। राख। उ०—भव अंग भूनि मसान को सुमिरत सोहावनि पावनी।—तुलसी (शब्द०)। ३. उत्पत्ति। ४. वृद्धि। अधिकता। ५. अणिमा आदि आठ प्रकार की सिद्धियाँ। ६. हाथी का मस्तक रँगकर उसका शृंगार करना। ७. पुराणानुसार एक प्रकार के पितृ। ७. लक्ष्मी। ९. वृद्धि नाम की औषधि। १०. भूतृण। ११. सत्ता। १२. पकाया हुआ मांस। १३. विष्णु। १४. रूसा घास।
⋙ भूतिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कटहल। २. अजवायन। ३. चंदन। ४. कर्पूर (को०)। ५. भूनिंब। चिरायता। ५. रूसा घास।
⋙ भूतिकाम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का मंत्री। २. बृहस्पति।
⋙ भूतिकाम (२)
वि० जिसे ऐश्वर्य की कामना हो। विभूति की अभि- लाषा रखनेवाला।
⋙ भूतिकाल
संज्ञा पुं० [सं०] समृद्धि का समय। शुभकाल।
⋙ भूतिकील
संज्ञा पुं० [सं०] खाई। परिखा। २. तहखाना।
⋙ भूतिकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ भूतिगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] भवभूति।
⋙ भूतितीर्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
⋙ भूतिद
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ भूतिदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा।
⋙ भूतिनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूत] दे० 'भूतिनी'।
⋙ भूतिनिधान
संज्ञा पुं० [सं०] धनिष्ठा नक्षत्र।
⋙ भूतिनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूत] १. भूत योनि में प्राप्त स्त्री भूत की स्त्री। २. शकिनी, डाकिनी इत्यादि।
⋙ भूतिभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ भूतियुवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार कूर्मचक्र के एक देश का नाम। २. इस देश का निवासी।
⋙ भूतिलय
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ भूतिवर्धन
वि० [सं०] ऐश्वर्य बढ़ानेवाला।
⋙ भूतिवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ भूतिसित
वि० [सं०] भस्म लगाने के कारण श्वेत वर्णवाले। (शिब)। जो भस्म लगने से श्वेत हो [को०]।
⋙ भूती
संज्ञा पुं० [हिं० भूत + ई (प्रत्य०)] भूतपूजक।
⋙ भूतीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिरायता। २. अजवायन। ३. भूतृण। ४. कपूर।
⋙ भूतीबानी
संज्ञा स्त्री० [सं० विभूति] भस्म। राख। (ड़ि०)।
⋙ भुतुंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० भूतुम्बा] कर्कंटी। एक प्रकार की ककरी।
⋙ भूतृण
संज्ञा पुं० [सं०] रूसा घास जिसका तेल बनता है। वैद्यक में इसे कटु और तिक्त तथा विषदोषनाशक माना है। पर्या०— रोहिष। भूति। कुटुंबक। मालातृण। छत्र। अहि- छत्रक। सुगंध। अतिगंध। बधिर। करेदुक।
⋙ भूतेज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेतपूजा। प्रेतों की पूजा अर्चना। २. वह जो प्रेतों का पूजक हो। प्रेतपूजा करनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ भूतेज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेतपूजा।
⋙ भूतेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमेश्वर। २. शिव। ३. कार्तिकेय।
⋙ भतेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव। २. एक तीर्थ का नाम।
⋙ भूतेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी। २. आश्विन कृष्ण चतुर्दशी।
⋙ भूतोन्माद
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार वह उन्माद रोग जो भूतों या पिशाचों के आक्रमण के कारण हो। वि० दे० 'माधव निदान,' पृ० १२४।
⋙ भूतोपदेश
संज्ञा पुं० [सं०] किसी बीती हुई यचा उपस्थित बात का निर्देश। अतीत या वर्तामान बात का संकेत [को०]।
⋙ भूतोपसृष्ट, भूतोपहत
वि० [सं०] भूतादि से ग्रस्त। जिसे भूत लगा हो [को०]।
⋙ भूत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] सोना। स्वर्ण।
⋙ भूदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी का दान। २. एक आंदोलन जिसके प्रवर्तक विनोबा जी हैं। अधिक भूमिवालों से भूमि दान में लेकर भूमिहीनों में इसका वितरण किया जाता है। दे० 'भूमिदान'।
⋙ भूदार
संज्ञा पुं० [सं०] सूअर। शूकर।
⋙ भूदारक
संज्ञा पुं० [सं०] शूर। वीर।
⋙ भूदेव, भूदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण।
⋙ भूधन
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।
⋙ भूधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहाड़। २. शेष नाग। ३. विष्णु। ४. राजा। ५. वाराह अवतार। ६. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का यंत्र जिसमें किसी पात्र में पारा रखकर, मिट्टी से उस पात्र का मुँह बद करके उसे आग में पकाते हैं। ७. सात की संख्या या वाचक शब्द। ८. शिव। महादेव। उ०— भूधर पर्वत, वाह मेघ, अथवा भूधर राजा। वाह तुरंग। अथवा भूधर महादेव वाह वृषभ।— दीन० ग्रं०, पृ० १७८।
⋙ भूधरराज
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय।
⋙ भूधरेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वतों का राजा, हिमालय।
⋙ भूधात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूईं आँवला।
⋙ भूध्र
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत। पहाड़।
⋙ भून पु †
संज्ञा पुं० [सं० भ्रृण] गर्भ का बच्चा।
⋙ भूनना
क्रि० सं० [सं० भजँन] १. अग्नि में डालकर पकाना। आग पर रखकर पकाना। जैसे, पापड़ भूनना। २. गरम बालू में ड़ालकर पकाना। जैसे, चना भूनना। ३. गरम घी या तेल आदि मे डालकर कुछ देर तक चलाना जिससे उसमें सोधांपन आ जाय। तलना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। ४. बहुत अधिक कष्ट देना। तकलीफ पहुँचाना। ५. गोली, गोले और मशीन गनों से बहुत से लोगों का वध करना।
⋙ भूनाग
संज्ञा पुं० [सं०] केंचुआ। भूमिनाग [को०]।
⋙ भूनिंब
संज्ञा पुं० [सं० भूनिम्ब] चिरायता।
⋙ भूनीप
संज्ञा पुं० [सं०] भूमिकदंब।
⋙ भूनेता
संज्ञा पुं० [सं० भूनेतृ] राजा।
⋙ भूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। उ०— भूप भवन भोर भई सब को जोउ जियों।—घनानंद, पृ० ५५२। २. सोलह की संख्या का वाचक शब्द (को०)।
⋙ भूपग
संज्ञा पुं० [सं० भूप] राजा (डिं०)।
⋙ भूपटल
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी का पटल या ऊपरी स्तर।
⋙ भूपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। भूप। २. हनुमत के मत सेएक राग जो मेघ राग का पुत्र माना जाता है। ३. शिव (को०)। ४. इद्र (को०)। ५. बटुक भैरव।
⋙ भूपतित
वि० [सं०] पृथ्वी पर गिरा हुआ। उ०— दीन नमस्कार दिया भूपतित हो जिसने, क्या वह भी कवि ?।—अनामिका पृ० १४०।
⋙ भूपद
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष। पेड़।
⋙ भूपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मल्लिका। चमेली।
⋙ भूपरा
संज्ञा पुं० [सं० भूप] सूर्य। (डिं०)।
⋙ भूपरिधि
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी का घेराव। पृथ्वी की परिधि [को०]।
⋙ भूपल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चूहा। घूस [को०]।
⋙ भूपलाश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वृक्ष।
⋙ भूपवित्र
संज्ञा पुं० [सं०] गोबर। गोमय।
⋙ भूपाटली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा [को०]।
⋙ भूपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। २. राजा भोज का एक नाम (को०)।
⋙ भूपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रसिद्ध रागिनी जिसका स्वरग्राम इस प्रकार है — सा, ग, म, ध, नि, सा। अथवा— रि, ध, सा, रि, ग, म, प। विशेष— इस राँगिनी के विषय में आचार्यो में बहुत मतभेद है। कुछ लोग इसे हिंडोल राग की रागिनी और कुछ माल- कोश की पूत्रवधू मानते हैं। कुछ का यह भी मत है कि यह संकर रागिनी है और कल्याण, गोंड़ तथा बिलावल के मेल से बनी है। कुछ लोग इसे संपूर्ण जाति की और कुछ ओड़व जाति की मानत हैं। यह हास्य रस की रागिनी मानी जाती है; पर कुछ लोग इसे धार्मिक उत्सवों पर गाने के लिये उपयुक्त बतलाते है। इसके गाने का समय रात को ६ दंड से १० दड तक कहा गया है।
⋙ भूपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मगल ग्रह। २. नरकासुर नामक राक्षस।
⋙ भूपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] जानकी। सीता।
⋙ भूपेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० भूपेन्द्र] राजाओं का इंद्र। सम्राट।
⋙ भूपेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] खिरनी का वृक्ष। राजादनी वृक्ष [को०]।
⋙ भूप्रकंप
संज्ञा पुं० [सं० भूप्रकम्प] भूकंप।
⋙ भूफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरा मूँग। २. एक प्रकार का चूहा। दे० 'भूपल' (को०)।
⋙ भूबदरी
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का छोटा बेर।
⋙ भूभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० भू + भर्तृ] १. पृथ्वी का स्वामी। राजा। २. पर्वत। भूधर [को०]।
⋙ भूभर
संज्ञा पुं० [सं० भू + भर(=भार)] भूमि का भार। उ०— तिनहि निदरिही भूभर हरिहौ। संतन की रखवारी करिही।— नद०, ग्रं०, पृ० २२८।
⋙ भूभल
संज्ञा स्त्री० [सं० भू + भूर्ज या अनु०?] गर्म राख वा धूल। गर्म रेत। ततूरी। उ०— तेरे गृह चलत न दुख सुख जान गिन्यौ, सीतल बानउ ताहि सुरत सवादिनी। मखमल भूभल भी लूह सीरी पास भाई दूरी भई तेरे धूप भई चाँदनी।—भारतेदु ग्रं० भाग० २, पृ० १६९।
⋙ भूभाग
संज्ञा पुं० [सं०] भूखंड़। प्रदेश।
⋙ भूभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।
⋙ भूभुरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भू + भुर्ज] भूभल। ततूरी। गर्म रेत। उ०—(क) पोंछि पसेऊ बयारि करौं अरु पायँ पखारिहों भूभुरि ड़ाढ़े।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जायहु बितै दुपहरी मै बलि जाऊँ। भुई भूभुरि कस धरिहौ कोमल पाउँ।—प्रतापनारायण (शब्द०)।
⋙ भूभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। २. पहाड़। विष्णु (को०)। ४. सात की संख्या (को०)।
⋙ भूभ्रत्त पु
संज्ञा पुं० [सं० भूभृत्] भूभृत। पर्वत। उ०— भय भूभ्रत्त असत्त चढ़िय जुग्गिन तिन उप्पर।—पृ० रा०, ७। ११२।
⋙ भूमंडल
संज्ञा पुं० [सं० भूमण्डल] १. पृथ्वी। २. पृथ्वी की परिधि (को०)।
⋙ भूम
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी।
⋙ भूमणि
संज्ञा पुं० [सं०] राजा (को०)।
⋙ भूमय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० भूमयी] धरती का। धरती संबंधी धरती की मिट्टी का बना हुआ [को०]।
⋙ भूमयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्यँ की पत्नी, छाया।
⋙ भूमा
संज्ञा पुं० [सं० भूमन्] १. अधिकता। बहुत्व। विशालता। प्रचुरता। २. ऐश्वर्य। संप्तत्ति। ३. विराट् पुरुष। ब्रह्म। ४. धरती। पृथ्वी। उ०— यही दुख सुख विकास का सत्य यही भूगा का मधुमय दान।— कामायनी०, पृ० ५४। ५. जीव। प्राणी। ६. बहुवाचकता (को०)।
⋙ भूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। जमीन। वि० दे० 'पृथ्वी'। मुहा०—भूमि होना = पृथ्वी पर गिर पड़ना। उ०— बीर मूछि तब भूमि भयो जू।—केशव (शब्द०)। २. स्थान। जगह। यौ०—जन्म भूमि। ३. आधार। जड़। बुनियाद। ४. देश। प्रदेश। प्रांत। जैसे, आर्य भूमि। ५. योगशास्त्र के अनुसार वे अवस्थाएँ जो क्रम क्रम से योगी की प्राप्त होती हैं और जिनको पार करके वह पूर्ण योगी होता है। ६. जीभ। ७. क्षेत्र। ८. मूमि। भूर्पपत्ति। (को०)। ९. एक का संख्याबोधाक शब्द (को०)।१०. खंड। मंजिल। तल्ला (को०)। ११. नाटक में पात्र का अभिनय। भूमिका (को०)।
⋙ भूमिकंदक
संज्ञा पुं० [सं० भूमिकन्दक] कुकुरसुत्ता।
⋙ भूमिकंदर
संज्ञा पुं० [सं० भूमिकन्दर] छत्रक। कुकुरमुत्ता [को०]।
⋙ भूमिकंदली
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमिकन्दली] एक प्रकार की लता।
⋙ भूमिकंप
संज्ञा पुं० [सं० भूमिकम्प] भूकंप। भूडोल।
⋙ भूमिकदंब
संज्ञा पुं० [सं० भूभिकदम्ब] एक प्रकार का कदम जोवैद्यक में कटु उष्ण, वृष्य और पित्त तथा वीर्यवर्धक माना जाता है।
⋙ भूमिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रचना। २. अभिनय करना। भेस बदलना। ३. वक्तव्य के संबंध में पहले की हुई सूचना। ४. किसी ग्रंथ के आरभ की वह सूचना जिससे उस ग्रंथ के संबंध की आवश्यक और ज्ञातव्य बातों का पता चले। मुखबध। दीवाचा। ५. स्थान। प्रदेश (को०)। ६. मरातिब। मंजिल। तल्ला। खंड (को०)। ७. लिखने की तखती या पाटी (को०)। ८. नाटक में प्रयुक्त वेशभूषा (को०)। ९. वेदांत के अनुसार चित्त की पाँच अवस्थाएँ जिनके नाम ये हैं— क्षिप्त, मूढ़ विक्षिप्त एकाग्र और निरुद्व। विशेष— जिस समय मन चंचल रहता है, उस समय उसकी अवस्था क्षिप्त; जिस समय वह काम, क्रोध आदि के वशी- भूत रहता है और उसपर तम या अज्ञान छाया रहता है, उस समय मूढ़; जिसे मन चंचंल होने पर भी बीच में कुछ समय के लिये स्थिर होता है, उस समय विक्षिप्त; जिस समय मन बिलकुल निश्चल होकर किसी एक वस्तु पर जम जाता है, उस समय एकाग्र; और जिस समय मन किसी आधार की अपेक्षा न रखकर स्वतः बिलकुल शांत रहता है, उस समय निरुद्ध अवस्था कहलाती है। १०. पृथ्वी। जमीन। भूमि। धरती। उ०— रसा अनंता भूमिका विलाइला कह जाहि।— नंददास (शब्द०)। मुहा०— भूमिका बाँधना = किसी बात को कहने के लिये पृष्ठ- भूमि तैयार करना। किसी बात को थोड़े में न कहकर उसमें इधर उधर की बहुत सी बातें लाकर जोड़ तोड़ भिड़ाना। यौ०—भूमिकागत = अभिनय में निर्दिष्ट नाटकीय वस्त्र पहननेवाला। भूमिकाभाना = कुट्टिम। (१) फर्श। (२) किसी ग्रंथादि का वह अंश जिसमें प्रस्तावना लिखी हो।
⋙ भूमिकुष्मांड
संज्ञा पुं० [सं० भूमिकूष्माण्ड़] गरमी के दिनों में होनेवाला कुम्हाड़ा जो जमीन पर होता है। भुइँ कुम्हड़ा।
⋙ भूमिखर्जूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूमिखर्जूरी। छोटी खजूर [को०]।
⋙ भूमिखर्जूरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की छोटी खजूर।
⋙ भूमिगत
वि० [सं०] १. जमीन पर गिरा हुआ। भूपतित। २. छिपा हुआ। लुका हुआ।
⋙ भूमिगम
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँठ।
⋙ भूमिगर्त
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी के अंदर का गर्त। गुहा। गुफा।
⋙ भूमिगृह
संज्ञा पुं० [सं०] तहखाना। भूधरा।
⋙ भूमिगोचर
संज्ञा पुं० [सं०] मानव। मनुष्य [को०]।
⋙ भूमिचंपक
संज्ञा पुं० [सं० भूमिचम्पक] एक प्रकार का फूलवाला पौधा। भुइँचंपा। विशेष—यह पौधा भारत, बरमा, लंका, जावा, आदि में प्रायः होता है। इसके लंबे लबें पत्ते बहुत ही सुंदर और फूल बहुत सुगंधित होते है; और इसी लिये यह प्रायः बगीचों में लगाया जाता है। इसकी छाल, पत्ते और जड़ आदि का अनेक रोगों में ओषधि के रूप में प्रयोग होता है। इसको पीसकर फोड़े पर लगाने से फोड़ा बहुत जल्दी पक जाता है। छाल का चूर्ण प्रायः घाव भरने में उपयोगी होता है।
⋙ भूमिचल, भूमिचलन
संज्ञा पुं० [सं०] भूकंप।
⋙ भूमिछत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कुकुरमुता। छत्रक [को०]।
⋙ भूमिजंबु
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमिजम्बु] छोटा जामुन।
⋙ भूमिज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना। २. मंगल ग्रह। ३. भूमि- कदब। ४. सीसा। ५. चिरायता। भूनिंब (को०)। ६. मनुष्य (को०)। ७. नरकासुर का एक नाम।
⋙ भूमिज (२)
वि० भूमि से उप्तन्न। जो जमीन से पैदा हुआ हो।
⋙ भूमिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता जी।
⋙ भूमिजात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष। पेड़।
⋙ भूमिजात (२)
वि० भूमि से उत्पन्न। जो जमीन से पैदा हुआ हो।
⋙ भूमिजीवी
संज्ञा पुं० [सं० भूमिजीविन्] १. वह जो भूमि जोत बोकर अपना निर्वाह करता हो। कृषक। खेतिहर। २. वैश्य।
⋙ भूमितल
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी की सतह।
⋙ भूमित्व
संज्ञा पुं० [सं०] भूमि का भाव या धर्म।
⋙ भूमिदंड
संज्ञा पुं० [सं० भूमि + दण्ड] साधारण दंड या डंड नाम की कसरत जो दोनों हाथ जमीन पर टेककर और बार बार उन्हीं हाथों के बल झुक और उठकर की जाती है। वि० दे० 'डंड'।
⋙ भूमिदंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमिदण्डा] चमेली।
⋙ भूमिदाग ‡
संज्ञा पुं० [सं० भूमि + हि० दाग] शव को भूमि में दवा देने की क्रिया। उ०— सतदास जी आदि के शवों का दाह कर्म न देखकर उनका 'हवादाग' या 'भूमिदाग' देखकर भी अपने शब को 'हवादाग' के लिये आज्ञा क्यों नहीं दे गए।—सुंदर ग्रं० (जी०) भा० १, पृ० १२५।
⋙ भूमिदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. जमीन का दान। २. पुनः वितरण के लिये भूस्वामियों द्वारा स्वेच्छया किसी को भूमि देना। ३. भूमिदान संबंधी वह आंदोलन जिसके प्रवर्तक विनोबा भावे जो हैं। इसे 'भूदान' भी कहते हैं।
⋙ भूमिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण। २. राजा।
⋙ भूमिधर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत। २. शेषनाग।
⋙ भूमिधर (२)
संज्ञा पुं० [सं० भूमि + हिं० धरना(=रखना)] १. वह काश्तकार वा खेतिहार जिसे भूमि पर स्वामित्व प्राप्त हो। सीरदार। २. वह काश्तकार जिसने दसगुना लगान जमाकर भूमि पर स्वामित्व प्राप्त किया हो।
⋙ भूमिनाग
संज्ञा पुं० [सं०] केचुआ। उ०— सो मैं कहउ कवन बिधि बरनी। भूमिनाग सिर घरै की धरनी।— मानस, १। ३५५।
⋙ भूमिप
संज्ञा पुं० [सं०] भूप। राजा।
⋙ भूमिपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] तीव्र गति का अश्व। तेज घोड़ा [को०]।
⋙ भूमिपति
संज्ञा पुं० [सं०] भूपति।
⋙ भूमिपाल
संज्ञा पुं० [सं०] राजा। भूपाल।
⋙ भूमिपिशाच
संज्ञा पुं० [सं०] तालवृक्ष। ताड़ का पेड़ [को०]।
⋙ भूमिपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर का एक नाम। ३. श्योनाक वृक्ष।
⋙ भूमिपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता।
⋙ भूमिपुरंदर
संज्ञा पुं० [सं० भूमिपुरन्दर] १. राजा। २. दिलीप का एक नाम [को०]।
⋙ भूमिप्रचल
संज्ञा पुं० [सं०] भूमि का प्रचलन या कंपन। भूकंप [को०]।
⋙ भूमिबुध्न
वि० [सं०] जिसकी पेंदी या तल धरती हो [को०]।
⋙ भूमिभाग
संज्ञा पुं० [सं०] भूभाग। पृथ्वी का कोई भाग या अंश। प्रदेश [को०]।
⋙ भूमिभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] राजा [को०]।
⋙ भूमिभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत। पहाड़। २. भूपति। राजा [को०]।
⋙ भूमिभोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह राष्ट्र या राजा जिसके पास भूमि बहुत हो। विशेष— पुराने आचार्य भूमिभोग की अपेक्षा हिरण्यभोग (जिसके पास सोना या धन बहुत हो) को अच्छा मानते थे, क्योंकि उसे प्रबंध का व्यय भी कम उठाना पड़ता है और काम के लिये धन भी उसके पास पर्याप्त रहता है। पर कौटिल्य ने भूमि को ही सब प्रकार के धन का आधार मानकर भूमिभोग को ही अच्छा बताया है।
⋙ भूमिमड़पभूषणा
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमिमण्ड़पभूपणा] माधवी नाम की लता।
⋙ भूमिमंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि + इया (प्रत्य०)] १. भूमि का अधिकारी। भूमि का असल मालिक। २. जमीदार। ३. ग्रामदेवता। उ०— गाँब भूमिया हित करि धायँ, जा बटोही दौरे।—चरण० बानी०, पृ० ७२। ४. किसी देश के मध्य और प्राचीन निवासी।
⋙ भूमिरक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. देश की रक्षा करनेवाला। देश का रक्षक। २. तीव्रगामी अश्व [को०]।
⋙ भूमिरुडी
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमिरुण्ड़ी] हरितनी नामक वृक्ष।
⋙ भूमिरुज पु
संज्ञा पुं० [सं० भूमिरुह] वृक्ष।
⋙ भूमिरुह
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष।
⋙ भूमिरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूब। दूर्वा [को०]।
⋙ भूमिलग्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद फूल की अपराजिता।
⋙ भूमिलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शखपुष्पी।
⋙ भूमिलवण
संज्ञा पुं० [सं०] शोरा।
⋙ भूमिलाभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. धरती में पुनः मिलना अर्थात् मृत्यु। २. भूमि की प्राप्ति।
⋙ भूमिलेप
संज्ञा पुं० [सं०] गोबर।
⋙ भूमिलेपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धरती लीपना। २. गोमय। गोबर [को०]।
⋙ भूमिवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] मृत शरीर। शव। लाश।
⋙ भूमिवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूइँ आँवला।
⋙ भूमिशय (१)
वि० [सं०] १. भूमि पर सोनेवाला।
⋙ भूमिशय (२)
संज्ञा पुं० १. बालक। शिशु। २. जंगल कबूतर। ३. जमीन में रहनेवाला कोई पशु [को०]।
⋙ भूमिशयन
संज्ञा पुं० [सं०] जमीन पर सोना।
⋙ भूमिशय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० भूमिशयन।
⋙ भूमिसंध
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमिसन्धि] १. वह संधि जो परस्पर मिलकर कोई भूमि प्राप्त करने के लिये की जाय। २. शत्रु के साथ वह संधि जो कुछु भूमि देकर को जाय। विशेष— कौटिल्य ने लिखा है कि इस संधि में शत्रु को ऐसी ही भूमि देनी चाहिए जो प्रत्यादेया हो या जिसपर शत्रु य़ा असमर्थ और अशक्त बसे हों अथवा जिसके सँभालने में घन जन का व्यय अधिक हो।
⋙ भूमिसंभव
संज्ञा पुं० [सं० भूमिसम्भव] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर।
⋙ भूमिसंभवा
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमसम्भावा] सीता भूमिपुत्री।
⋙ भूमिसमीकृत
क्रि० [सं०] जमीन पर गिराया हुआ [को०]।
⋙ भूमिसत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रात्य स्तोम या यज्ञ।
⋙ भूमिसात्
वि० [सं० भूमिसात्] जमीदोज। पटपर। जो गिरकर जमीन के साथ मिल गया हो। उ०—केदार ने वह सारा निर्माण भूमिसात् कर दिया था।— यामिनी, पृ० २०।
⋙ भूमिसिज्या †
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि शय्या > हिं० सिज्या] पृथ्वी की सेज। भूमिशय्या। उ०— सो दिन तीन लों नारायनदास भूमिसिज्या रहे।—दो सौ बाबन०, पृ० १३४।
⋙ भूमिसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर का एक नाम। २. वृक्ष। पेड़। ४. केवाँच। कौच।
⋙ भूमिसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] जानकी जी।
⋙ भूमिसुर
संज्ञा पुं० [सं०] भूसुर। ब्राह्मण।
⋙ भूमिसेन
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार दसवें मनु के एक पुत्र का नाम।
⋙ भूमिस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक दिन में संपन्न होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
⋙ भूमिस्थ
वि० [सं०] पृथ्वी पर रहनेवाला। पृथ्वी पर अवस्थित या खड़ा हुआ [को०]।
⋙ भूमिस्नु
संज्ञा पुं० [सं०] भूमिनाग। केंचुआ [को०]।
⋙ भूमिस्पर्श
संज्ञा पुं० [सं०] उपासना के लिये बोद्धों का एक आसन। वज्रासन।
⋙ भूमिस्पृश (१)
वि० [सं०] १. नेत्रहीन। अंधा। २. लंगड़ा। पंगु। खज [को०]।
⋙ भूमिस्पृश (२)
पु० [सं०] १. मनुष्य। मानव। २. वैश्य। ३. तस्कर। चोर [को०]।
⋙ भूमिस्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] कुकुरमुत्ता। छत्रक [को०]।
⋙ भूमिहार
संज्ञा पुं० [सं० भूमिहार] एक जाति जो प्रायः बिहार में और कहीं कहीं संयुक्त प्रात में भी पाई जाती है। विशेष— इस जति के लोग अपने आपको 'बाभन' कहते हैं। इस जाति की उत्पत्ति के संबध में अनेक प्रकार की बातें सुनने में आती है। कुछ लोग कहते हैं कि जब परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया था, तब जिन ब्राह्मणों को उन्होंने राज्य का भार सौपा था उन्हीं के वंशधर ये भूमिहार या बाभन है। कुछ लोगों का कहना है कि मगध के राजा जरासंध ने अपने यज्ञ में एक लाख ब्राह्मण बुलाए थे। पर जब इतनी संख्या में ब्राह्मण न मिले, तब उनके एक मंत्री ने छोटी जाति के बहुत से लोगों को यज्ञोंवीत पहनाकर ला खड़ा किया था, और उन्हीं की संतान ये लोग हैं। जो हो, पर इसमें संदेह नहीं कि इस जाति में ब्राह्मणों के यजन याजन आदि कर्मो का नितांत अभाव देखने में आता है और प्रायः क्षत्रियों की अनेक बातों इनमें पाई जाती है। ये लोग दान नहीं लेते और प्रायः खेती बारी या नौकरी करके अपना निर्वाह करते हैं।
⋙ भूमींद्र
संज्ञा पुं० [सं० भूमिन्द्र] राजा।
⋙ भूमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भूमि'। यौ०—भूमिकदब =दे० 'भूमिकदंब'। भूमिपति, भूमिभुज्= दे० 'भूमिपति'। भूमीरुइ =दे० 'भृमिरुह'। भूमीसह= औषध कार्य में प्रयुक्त वृक्षविशेष। खरच्छद।
⋙ भूमींद्र
संज्ञा पुं० [सं० भूमिन्द्र] १. राजा। २. पर्वत।
⋙ भूमीच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जमीन पर सोने की इच्छा [को०]।
⋙ भूमीध्र
संज्ञा पुं० [सं०] महीध्र। पर्वत [को०]।
⋙ भूमीरुह
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष। पेड़।
⋙ भूमीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भूमींद्र'।
⋙ भूम्न
वि० [सं०] विराट्। विस्तृत। व्यापक। उ०— श्री वृंदावन की लीला एक ही साथ नित्य भी है और ऋमिक भी है, भूम्न या व्यापक भी है और परिच्छिन्न भी है।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ६३७।
⋙ भूम्यनृत
संज्ञा पुं० [सं०] भूमि संबंधी भूठ साक्ष्म। असत्य गवाही [को०]।
⋙ भूम्थाफली
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपराजिता लता।
⋙ भूम्यामलकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुइँ आँवला।
⋙ भूम्याली
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूम्यामलकी। भुँइ आवला [को०]।
⋙ भूम्यालीक
संज्ञा पुं० [सं०] धरती संबंधी मिध्या भाषण। किसी की जमीन को अपना बताना (जैन)।
⋙ भूयः
अव्य० [सं० भूयस्] १. पुनः फिर। २. बहुत। अधिक। (डिं०)।
⋙ भूयण
संज्ञा स्त्री० [सं० भू] पृथ्वी। (डिं०)।
⋙ भूयक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूमिखर्जुरी। भुइँखजूर।
⋙ भूयशः
अव्य० [सं० भूयशस्] अधिकतर। बहुत करके। अतिशय।
⋙ भूयसी
वि० स्त्री० [सं०] बहुत अधिक।
⋙ भूयसी दक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मकृत्य के अत में उपस्थित बहुत से ब्राह्मणों को दी जानेवाली दक्षिण। भूरसी दक्षिणा।
⋙ भूयस्त्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधिकता। प्रचुरता। २. प्राधान्य। प्रधानता [को०]।
⋙ भूयिष्ठ
वि० [सं०] अत्यधिक। बहुत अधिक [को०]।
⋙ भूयोभूय
अव्य० [सं० भूयस् + भूयस्] बारंबार। फिर फिर। पुनः पुनः।
⋙ भूर (१)
वि० [सं० भूरि] बहुत। अधिक। उ०—श्रीफल दाख अँगूर अति नूत तूत फल भर। तजि कै सुक सेमर गयो भई आस चकचूर।—सं० सप्तक, पृ० १६९।
⋙ भूर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भुरभुरा] रेत। बालू। उ०— भूरहु भूरि नदीनि के पूरनि नावनि मैं बहुते बनि वैसे।— केशव (शब्द०)।
⋙ भूर (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] गाय की एक जाति।
⋙ भूरज पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० भूर्ज] भोजपत्र का पेड़। उ०— भूरज तर सम संत कृपाला। पर हित नित सह बिपति बिसाला।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ भूरज (२)
संज्ञा पुं० [सं० भू + रज] पृथ्वी की धूलि। गर्द। मिट्टी। उ०— भूरज तो जाके सोधि परै बहुतेरे हमैं देखि द्वार भूज्ज के चित्त चित्त चाह है।—(शब्द०)।
⋙ भूरजपत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० भूर्जपत्र] भोजपत्र। उ०—लालत लता दल भूरजपत्रा। विविध बिछाइत बटतरु छत्रा।— पद्माकर (शब्द०)।
⋙ भूरति
संज्ञा पुं० [सं०] कृशाश्व के एक पुत्र का नाम।
⋙ भूरपुर पु † (१)
वि० [सं० भूरि + पूर्ण] भरपूर। परिपूर्ण।
⋙ भूरपूर (२)
क्रि० वि० पूरी तरह से। पूर्ण। रूप से।
⋙ भूरमण
संज्ञा पुं० [सं०] नरेश। राजा [को०]।
⋙ भूरला
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यो की एक जाति।
⋙ भूरलोखरिया
संज्ञा स्त्री० [हि भूर (=बालू) + लोखरी(= लोमड़ी)] वह बलुई मिट्टी जिसमें लोमंड़ी माँद बनाती है।
⋙ भूरसी दक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं० भूयसी + दक्षिणा] १. वह थोड़ी थोड़ी दक्षिणा जो किसी बड़े दान, यज्ञ या दूसरे धर्मकृत्य के अत में उपस्थित ब्राह्मणों को दी जाती है। २. वे छोटे छोटे खर्च जो किसी बड़े खर्च के बाद हाते है। क्रि० प्र०—देना।—बाँटना।
⋙ भूरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वभ्रु] १. मिट्टी का सा रंग। खाकी रंग। मटमैला रंग। धूमिल रंग। २. यूरोप देश का निवासी। यूरोपियन। गोरा। (ड़ि०) २. एक प्रकार का कबूतरजिसकी पीठ काली पेट पर सफेद छोटे होते हैं। ४. कच्ची चीली को पकाकर और साफ करके बनाई हुई चीनी। ५. कच्ची चीनी। खाँड़। ६. चीनी।
⋙ भूरा (२)
वि० मिट्टी के रंग का। मटमैले रंग का। खाकी।
⋙ भूराकुम्हड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० भूरा + कुम्हाड़ा] सफेद रंग का कम्हड़ा। थेठा।
⋙ भूराजस्व
संज्ञा पुं० [सं०] कृषि भूमि पर लगनेवाला सरकारी कर। लगान।
⋙ भूरि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। ४. इंद्र। ५. सोमदत्त के एक पुत्र का नाम। ६. स्वर्ण। सोना।
⋙ भूरि (२)
वि० [सं०] १. प्रचुर। अधिक। बहुत। २. बड़ा। भारी।
⋙ भूरी (३)
अव्य० [सं०] १. बहुत अधिक। अत्यधिक। २. अकसर। प्रायः [को०]।
⋙ भूरिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गायत्री छंद का एक भेद।
⋙ भूरिक (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भूरिक या भूरिज्] पृथ्वी।
⋙ भूरिकाल
क्रि० वि० [सं०] बहुत समय के लिये [को०]।
⋙ भूरकृत्व
क्रि० अ० [सं० भूरिकृत्वस्] बहुत बार। प्रायः। बार बार [को०]।
⋙ भूरिगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूरा नामक गंधद्रव्य।
⋙ भूरिगम
संज्ञा पुं० [सं०] गधा।
⋙ भूरिज्
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
⋙ भूरिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूरि अथवा अधिक होने का भाव। अधिकता। ज्यादती।
⋙ भूरितेजस (१)
संज्ञा पुं० [सं० भूरितेजस्] १. अग्नि। उ०—विंगेश विश्वा नर प्लवर्ग सू भूमितेजस सर्वजू। सुकुमार सू भगवान् रुद्र हिरण्य- गर्भ अखर्व जू।—विश्राम (शब्द०)। २. सोना। स्वर्ण।
⋙ भूरितेजस (२)
वि० अत्यधिक तेजोयुक्त।
⋙ भूरितेजा
संज्ञा पुं० वि० [सं० भूरितेजम] दे० 'भूरितेजस'।
⋙ भूरिद
वि० [सं०] बहुत उदार वा दानी [को०]।
⋙ भूरिदक्षिण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ भूरिदक्षिण (२)
वि० [सं०] १. जिसमें बहुत दक्षिणा दी गई हो। २. दानशील। उदार। वदान्य [को०]।
⋙ भूरिदा पु
वि० [सं० भूरिद] बहुत बड़ा दानी। बहुत देनेवाला। उ०— प्रबुध प्रेम की राशी भूरिदा आविरहोता।—नाभा (शब्द०)।
⋙ भूरिदान
वि० [सं०] उदारता। बहुत दानी होना [को०]।
⋙ भूरिदुग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृश्चिकाली।
⋙ भूरिद्युम्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक चक्रवर्ती राजा जिसका नाम मैत्र्युपनिषद्में आया है। २. नवें मनु के एक पुत्र का नाम।
⋙ भूरिधन
वि० [सं०] धनवान। धनी [को०]।
⋙ भूरिधाम (१)
संज्ञा पुं० [सं० भूरिधामन्] नवें मनु के एक पुत्र का नाम।
⋙ भूरिधाम (२)
वि० [सं०] ओजस्वी। कांतिवाला। अधिक शक्तिवाला।
⋙ भूरिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] उखवंल तृण।
⋙ भूरिपलितदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पांड़ुर फली।
⋙ भूरिपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतपुष्पा।
⋙ भूरिप्रयोग
वि० [सं०] बहुप्रचलित।
⋙ भूरिप्रेमा
संज्ञा पुं० [सं० भूरिप्रेमन्] चक्रवाक।
⋙ भूरिफेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सप्तला। शिकाकाई [को०]।
⋙ भूरिबल
संज्ञा पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ भूरिबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिबला। कँगही। कक्ही।
⋙ भूरिभाग
वि० [सं०] धनवान। समृद्ध।
⋙ भूरिभाग्य
वि० [सं०] भाग्यशाली। बड़भागी।
⋙ भृरिभिन्नता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अत्याधिक भिन्न होना। पूर्णातः असमानता। उ०—भूरिभिन्नता में अभिन्नता छिपा स्वार्थ में सुखमय त्याग।—वीण, पृ० ३४।
⋙ भूरिमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० भूरिमञ्जरी] सफेद तुलसी।
⋙ भूरिमल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मणी या पाढ़ा नाम की लता।
⋙ भूरिमाय (१)
वि० [सं०] बड़ा मायावी। भारी मायवी।
⋙ भूरिमाय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शृगाल। सियार। २. लोमड़ी।
⋙ भूरिमूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मणी लता। पाढ़ा।
⋙ भूरिरस
संज्ञा पुं० [सं०] ईख। ऊँख।
⋙ भूरिलग्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद अपराजिता।
⋙ भूरिलाभ
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जो बहुत लाभदायक हो। बहुत बड़ा लाभ। अधिकतम लाभ।
⋙ भूरिविक्रम
वि० [सं०] बहुत बड़ा वीर।
⋙ भूरीवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक राजा का नाम।
⋙ भूरिशः
वि० [सं० भूरिशप्] अत्यंत। बहुत। उ०—विपत्ति से संकुल उक्त पथ भी। उन्हें बनाया भय भीत भूरिशः।— प्रिय०, पृ० १५१।
⋙ भूरिश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० भूरिश्रवप्] बाह्लीक के चंद्रवंशी राजा सोम- दत्त का पुत्र जो कौरवौ की ओर से महाभारत में ल़ड़ा था। विशेष— महाभारत द्रोणपर्व के अनुसार भयंकर युद्ध में इसने अर्जुन के प्रिय शिष्य साय्यकि को पराजित किया और उसको अशक्त करके मारना चाहता था। इसी बीच अर्जुन ने कृष्ण का संकेत पाकर बाण से इसकी भुजा काट दी तदनंतर उठकर सात्यकि ने इसे मार डाला।
⋙ भूरिषेण
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत के अनुसार एक मनु का नाम।
⋙ भूरिसख
वि० [सं०] जिसके बहुत से मित्र हो।
⋙ भूरिसेन
संज्ञा पुं० [सं०] राजा शर्याति के तीन पुत्रों में एक पुत्र का नाम।
⋙ भूरुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० भूरुण्डी] हस्तिनी नामक वृक्ष। हाथी सुँड़।
⋙ भूरुह
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष। पेड़। २. अर्जुन वृक्ष। ३. शाल का वृक्ष।
⋙ भूरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूब।
⋙ भूर्ज
संज्ञा स्त्री० [सं०] भोजपत्र का वृक्ष।
⋙ भूर्जकंटक
संज्ञा पुं० [सं० भूर्जकण्टक] मनु के अनुसार एक वर्ण- संकर जाति।
⋙ भूर्जपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र।
⋙ भूर्णि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। २. मरुभूमि। रेगिस्तान।
⋙ भूर्भुव
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा के एक मानसपुर का नाम।
⋙ भूर्लोक
संज्ञा पुं० [सं०] मर्त्यलोक संसार। जगत्।
⋙ भूल
संज्ञा स्त्री० [हि० भूलना] १. भूलने का भाव। २. गलती। चूक। जैसे,— इस मामले में आपने बड़ी भूल की। उ०— कियो सयानी सखिन सौं नहिं सयान यह भूल। दूरै दुराई फूल लौं क्यों पिय आगम फूल —जायसी (शब्द०)। यौ०—भूल चूक। मुहा०—भूल के कोइ काम करना = कोइ ऐसा काम करना जो पहले न करते रहे हों। भ्रम में पड़कर कोई काम कर बैठना। जैसे,—आज हम भूल के तुह्मरे साथ चल पड़े। भूल के कोई काम न करना = कदापि कोई काम न करना। हरगिज कोई काम न करना। जैसे,— हम तो कभी भूल के भी उनके घर नहीं जाते। भूलकर = भूल से गलती से भूलकर नाम न लेना = कभी याद न करना। भूले भटके= कभी कभी। २. कसूर। दोष। अपराध। ४. अशुद्धि। गलती। जैसे,— हिसाब में (२) की भूलं है। क्रि० प्र०—निकलना।—पड़ना।
⋙ भूलक पु †
संज्ञा पुं० [हिं० भूल + क (प्रत्य०)] भूल करनेवाला। जिससे भूल होती हो।
⋙ भूलाग्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] शंखपूष्पी।
⋙ भूलचूक
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूख + चूक] भूल। भ्रम। गलती। मुहा०—भूलचूक लेनी देनी = हिसाब में भूल चूक हो तो लेन देन की कभी वेशी ठीक कर ली जाय। (यह पुरजे, बिल, बीजक आदि पर लिखा जाता है।)
⋙ भूलड़
संज्ञा पुं० [हिं०] भूल जानेवाला। भुलक्कड़।
⋙ भूलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] केंचुआ नाम का कीड़ा।
⋙ भूलना (१)
क्रि० सं० [सं० विह्वल ? या सं० भ्रंश, प्रा० धात्व०/?/भूल्ल] विस्मरण करना। याद न रखना। ध्यान् न रखना। जैसे,— (क) आप तो बहुत सी बातें यों ही भूल जाते हैं। (ख) कल रात को लौटते समय मैं रास्ता भूल गया था। २. गलती करना। ३. खो देना। गुम कर देना।
⋙ भूलना (२)
क्रि० अ० १. विस्मृत होना। याद न हिना। जैसे,— अब वह बात भूल गई। २. चूकना। गलती होना। ३. धोखे में आना। जैसे— आप उनकी बातों में मत भूलिए। ४. अनुरक्त होना। आसक्त होना। लुभाना। ५. घमंड में होना। इतराना। जैसे,— आप (१००) की नौकरी पर ही भूले हुए हैं। ६. गुम होना। खो जाना। उ०— जैसे चाँद गोहन सब तारा। परयो भुलाय देखि उँजियारा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ भूलना (२)
वि० जिसे स्मरण न रहता हो। भूलनेवाला। जैसे, भूलना स्वभाव; भूलना आदमी।
⋙ भूलभुलैयाँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूल + भूलाना + ऐयाँ(प्रत्य०)] १. वह घुमावदार और चक्कर में डालनेवाली इमारत जिसमें एक ही तरह के बहुत से रास्ते और बहुत से दरवाजे आदि होते है और जिसमें जाकर आदमी इस प्रकार भूल जाता है। कि फिर बाहर नहीं निकल सकता। २. चकाबू। ३. बहुत घुमाव फिराव की बात या घटना। बहुत चक्करदार और पेचीली बात।
⋙ भूलोक
संज्ञा पुं० [सं०] मृर्त्यलोक। भूतल। संसार। जगत्।
⋙ भूलोटन
वि० [हिं० भू + लोटना] पृथ्वी पर लोटनेवाला।
⋙ भूव पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रू] दे० 'भ्रू'। भौंह। उ०—हलंत नेंन भूव ले धरंत चंद जुब ले।— पृ० रा०, २५। १४२।
⋙ भूव पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० भूप, प्रा०, भूव] भूप। राजा।
⋙ भूवलय
संज्ञा पुं० [सं०] भूमि की परिधि।
⋙ भूवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।
⋙ भूवल्लूर
संज्ञा पुं० [सं०] कुकुपरमुत्ता।
⋙ भूवा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० घूआ] १. रूई। उ०— सेंवर सेव न चेत कर सूवा। पुनि पछतास अंत हो भूवा।—जायसी (शब्द०)
⋙ भूवा (२)
वि० रुई के समान उजला। सफेद। उ०—भँवर गए केशहि दै भूवा। जीवन गयो जीत लै जूवा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ भूवा (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० फूआ] दे० 'बूपा'। उ०—अंगद बहिनि लागँ वाकी भूवा पागँ तासौं देवो विष मारो फेरि तुही पग छिप हैं।— प्रिया० (शब्द०)।
⋙ भूवायु
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी पर की हवा। वायु। पवन।
⋙ भूवारि †
संज्ञा पुं० [ड़ि०] वह स्थान जहाँ हाथी पकड़कर रखे या बाँधे जाते हैं।
⋙ भूवाल पु
संज्ञा पुं० [सं० भूपाल, प्रा० भूवाल] दे० 'भूपाल'। उ०—तब भैरव भूवाल बीर वर। कीन हुकुम कालीय ऊँच कर।—पृ० रा०, ६। १६३।
⋙ भूविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भूगर्भ शास्त्र'।
⋙ भूशक
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।
⋙ भूशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. नेवला, गोध आदि बिल में रहनेवाले जानवर। विशेष— वैद्यक मे इस वर्ग के जंतुओं का मांस गुरु, ऊष्ण, मधुर, स्तिग्ध, वायुनाशक और शुक्रवर्धक माना जाता है।
⋙ भूशय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शयन करने की भूमि। २. भूमि पर सोना।
⋙ भूशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का कंद।
⋙ भूशायी
वि० [सं० भूशायिन्] १. पृथ्वी पर सोनेवाला। २. पृथ्वी पर गिरा हुआ। ३. मृतक। मरा हुआ।
⋙ भूशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] लीपने पोतने, और मंत्र द्वारा मार्जन आदि से पृथिवी की शुद्धि [को०]।
⋙ भूशेलु
संज्ञा पुं० [सं०] लिसोड़े का वृक्ष [को०]।
⋙ भूश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० भूश्रवप्] वल्मीक। बाँबी। बमौट [को०]।
⋙ भूषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अलंकार। गहना। जेवर। २. वह जिससे किसी चीज की शोभा। बढ़ती हो। जैसे,— आप अपने कुल के भूषण हैं। ३. विष्णु।
⋙ भूषणपेटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आभूषण आदि रखने की मंजूषा।
⋙ भूषणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूषण का भाव या धर्म।
⋙ भूषन पु
संज्ञा पुं० [सं० भूषण] १. दे० 'भूषण'। हिंदी के एक प्रसिद्ध कवि जो शिवाजी के दरबार में थे।
⋙ भूषना पु
क्रि० सं० [सं० भूषण] भूषित करना। अलंकृत करना। सजाना। उ०—अरुण पराग जलज भरि नीके। शशि भूक्त अहिं लोभ अमी के।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ भूषा
संज्ञा पुं० [सं०] १. गहना। जेवर। भूषण। २. अलंकृत करने की क्रिया। सजाने की क्रिया। यौ०—वेश भूपा।
⋙ भूषित
वि० [सं०] १. गहना पहने हुए। अलंकृत। २. सजाया हुआ। सँवारा हुआ। सज्जित। उ०—राम भक्ति भूषित जिय जानि। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ भूष्णु
वि० [सं०] १. ऐश्वर्य का इच्छुक। ऐश्वर्य चाहनेवाला। २. भविष्णु। आगे उन्नत होने वाला।
⋙ भूष्य
वि० [सं०] भूषित करने के योग्य। अलंकार पहनाने या सजाने के योग्य।
⋙ भूसंपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० भूसम्पत्ति] संपत्ति जो जमीन के रूप में हो। जैसे, खेत, जमीन, जमींदारी आदि।
⋙ भूसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] यज करने से पहले भूमि को परिष्कृत करने, नापने, रेखाएँ खींचने आदि की क्रियाएँ। भूमि का वह संस्कार जो यज्ञ से पहले किया जाता है।
⋙ भूस ‡
संज्ञा पुं० [हिं० भूसा] दे० 'भूसा'।
⋙ भूसन पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० भूषन] दे० 'भूषण'। उ०— चानन भेल बिसम सर रे सूसन भेल भारी।—विद्यापति०, पृ० ५४६।
⋙ भूसन ‡ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भूँकना] कुत्तों का शब्द करना। भूँकना।
⋙ भूसना †
क्रि० अ० [हिं० भूँकना] भूँकना। कुतों का बोलना। उ०— कूकर ज्यों भूसत फिरै, तामस मिलवाँ बोल। घर बाहर दुख रूप है बुधि रहै डाँवाडोल।—सहजो०, पृ० ३९।
⋙ भूसा
संज्ञा पुं० [सं० तुप] १. गेहूँ, जो आदि का महीन और टुकड़े टुकड़े किया हुआ डंठल, जो पशुओं और विशेषतः गोऔं, भेसों को खिलाया जाता है। भुस। भूसी।
⋙ भूसी
सज्ञा स्त्री० [हिं० भूसा] १. भूमा। २. किसी प्रकार के अन्न या दाने के ऊपर का छिलका जैसे, कँगनी की भूपी। उ०— आटा तजि भूमी गहै, चलनी देखु निहार।— सतबानी, पृ० ३।
⋙ भूसीकर
सज्ञा पुं० [हिं० भूसी + कर?] एक प्रकार का धान जो अगहन के महीने में तैयार होता है और जिसका चावल सालों रह सकता है।
⋙ भूसुत (१)
सज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष। पेड़। पौधा। २. मंगल ग्रह। ३. नरकासुर।
⋙ भूसुत (२)
वि० जो पृथ्वी से उत्पन्न हो।
⋙ भूसुता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता।
⋙ भूसुर
सज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी के देवता। ब्राह्मण। उ०— भूसुर मीर देखे सब रानी।— मानस।
⋙ भूस्तृण
सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की घास। खबी। घटियारी।
⋙ भूस्पृक्
सज्ञा पुं० [सं० भूस्पृश्] मनुष्य। मानव।
⋙ भूस्थ
सज्ञा पुं० [सं०] मनुष्य।
⋙ भूस्फोट
सज्ञा पुं० [सं०] छत्रक। कुकुरमृत्ता।
⋙ भूस्वर्ग
सज्ञा पुं० [सं०] १. सुमेरु पर्वत। २. धरती का वह कोई स्थान जो स्वर्ग के समान सुखद हो।
⋙ भूस्वामी
सज्ञा पुं० [सं०] भूमिया। भूमिपति। जमीदार।
⋙ भूहारा पु
सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भुहँहरा'।