विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/माप
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ माप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ माप (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मापना] १. मापने की क्रिया या भाव। नाप। यौ०—मापतौल=जाँच। २. वह मान जिससे कोई पदार्थ मापा जाय। अहँड़ा। मान। ३. परिमाण।
⋙ मापक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मान। माप। इहँड़ा। पैसाना। २. वह जिससे कुछ मापा जाय। मापने की चीज। ३. वह जो मापता हो।
⋙ मापक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न मापने का काम करनेवाला। बया। विशेष— प्राचीन काल में भारत में अन्न तुला से नहीं तौला जाता था। भिन्न भिन्न तौलों के बरतन रहते थे, उन्हीं में अनाज भऱ भरकर बेचा जाता था। कौटिल्य ने लिखा है कि माप में भेद आने पर २०० पण जुरमाना किया जाता था।
⋙ मापत्य
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव [को०]।
⋙ मापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नपना। तराजू।
⋙ मापना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मापन' [को०]।
⋙ मापना (२)
क्रि० सं० [सं० मापन] १. कसी पदार्थ के विस्तार, आयत वा वर्गत्व और घनाव का किसी नियत मान से परिमाण करना। नापना। जैसे,— अंगुल के मान के किसी पटरी की लंबाई और चौड़ाई का मान निकालना कि इसकी लंबाई इतने अंगुल वा चौड़ाई इतने अंगुल है। किसी कोठरी के वर्गत्व का मान करना कि वह इतने वर्ग गज की है । उ०— (क) कहि धी शुक्र कहा धौं कोजै आपुन भए भिखारा। जै जैकार भयो भुव मापत तीन पैंड भइ सारो।— सूर (शब्द०)। (ख) वावन को पद लोकन मापि ज्यों बावन के वपु माँह सिवायी।— केशव (शब्द०)। (ग) हँमन लगों सहचरि सवै देखाहिं नयन दुराइ। मानों मापति लोयननि कर परसनि फैलाइ।— गुमान (शब्द०)। २. किसी मान वा पैमाने में भरकर द्रव वा चूर्ण वा अन्नादि पदार्थ का नापना। जैसे, दूध मापना, चूना मापना। ३. पदार्थ के परिमाण को जानने के लिय कोई क्रिया करना। नापना।
⋙ मापना (३)
क्रि० अ० [सं० मत्त] मतवाला होना। उ०— नयन सजल तन थर थर काँपी। माँजहि खइ मीन जनु मापी।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ माफ
वि० [अ० मुआफ] जो क्षमा कर गया हो। क्षमित। मुहा०—माफ करना=क्षमा करना। उ०—(क) प्रभु जू मैं ऐसी अमल कमायो। साबिक जमा हुती जो जोरी मीजा कुल तल लायो।......बड़ो तुम्हार वरामद हू को लिखि कीन्हों है साफ। सूरदास को वह मुहासिबा दस्तक कीजो माफ।—सूर (शब्द०)। (ख) खलनि को योग जहाँ नाज ही में देखियतु माफ करिबेही माहँ होत कर नाशु है।—गुमान (को०)।
⋙ माफकत
संज्ञा स्त्री० [अं० मुआफिकत] १. अनुकूल होने का भाव। अनुकूलता। २. मेल। मैत्री। यौ०—मेल माफकत।
⋙ माफल
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का खट्टा नीबू।
⋙ माफिक †
वि० [अ० मुआफिक] १. अनुकूल। अनुसार। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—होना। २. योग्य। मुनासिब।
⋙ माफिकत
संज्ञा स्त्री० [अं० मुआफिकत] दे० 'माफकत'।
⋙ माफी
संज्ञा स्त्री० [अं० मुआफी] १. क्षमा। मुहा०—माफी चाहना वा माँगना=क्षमा माँगना। माफ किए जाने के लिये प्रार्थना करना। २. वह भूमि जिसका कर सरकार से माफ हो। बाध।यौ०—माफीदार=माफी की भूमि का मालिक। जिसकी भूमि को मालगुजारी सरकार ने माफ की गई ही। ३. वह भूमि जो किसी को दिना कर के दी गई हो। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।
⋙ माबृत
संज्ञा पुं० [अं० मअबूद] ईश्वर। परमात्मा। वह जिसकी उपासना की जाय।—दादू०, पृ० १०८।
⋙ माम पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मामक] १. ममता। अहंकार। उ०— रहहु सँभारे राम विचारे कहत अहौ जो पुकारे हो। मूँड़ मुड़ाय फूलि कै बैठे मुद्रा पहिर मंजूसा हो। ताह उपर कछु छार लपेटे भितर घर मूसा हो। गाउँ बसत है गर्व भारती माम काम हंकारा हो। मोहनि जहाँ तहाँ लै जेहै नाही रही तुम्हारा हो।—कबीर (शब्द०)। २. शक्ति। अधिकार। इख्तियार। उ०— भगी साह सेना तजे ग्रव्व मामं।—पृ० रा०, ५७। २०८। ३. प्रिय मित्र वा दोस्त (को०)। ४. चाचा। ताऊ। (संबोधन में प्रयुक्त)।
⋙ मामक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेरा। हमारा या अपना की बुद्धि। स्व की बुद्धि। २. मातुल। मामा। ३. कृपण। कंजूस [को०]।
⋙ मामक (२)
वि० [वि० स्त्री० मामिका] १. मेरा। स्वयं का। २. लालची। स्वाथी। ३. ममतायुक्त [को०]।
⋙ मामकीन
वि० [सं०] मेरा। स्वयं का [को०]।
⋙ मामता
संज्ञा स्त्री० [सं० ममता] १. अपनापन। आत्मीयता। २. प्रेम। मुहब्बत। अनुराग।
⋙ मामरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पेड़। विशेष—यह हिमालय की तराई में रावी नदी से पूर्व की और तथा मद्रास और मध्य भारत में होता है। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत और चिकनी होती है, जिसपर रोगन करने से बहुत अच्छी चमक आती है। इसकी लकड़ी से मेज, कुरसी आलमारी आदि आरायशी चीजें बनाई जाती हैं। इसकी छाल ओषधि के काम में आती है और जड़ साँप के काटने की ओषधि है। यह बीजों से उगता है। इसे 'चौरी' और 'रूही' भी कहते हैं।
⋙ मामलत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुआमिलत्] दे० 'मालति'।
⋙ मामलति पु
संज्ञा स्त्री० [अं० मुआमिलत्] १. मामिल। व्यवहार की बात। २. विवादास्पद विषय। उ०—वही जो मामलति पहले चुकाई। करौ सो जाइ तेरे हाथ भाई।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मामला
संज्ञा पुं० [अ० मुआमिलह्] १. व्यापार। काम धंधा। उद्यम। मुहा०—मामला बनाना=काम साधना। २. पारस्परिक व्यवहार। जैसे, लेन देन, क्रय विक्रय इत्यादि। ३. व्यावहारिक, व्यापारिक या विवादास्पद विषय। मुहा०—मामला करना=(१) बातचीत करना। बात पक्की करना। (२) पारस्परिक वैषम्य दूर करके निश्चयपूर्वक कुछ निर्धारण करना। फैसला करना। मामला बनना=काम ठीक करना। बात पक्की करना। ४. पक्की या तै की हुई बात। कौल करार। ५. झगड़ा। विवाद। मुकदमा। मुहा०— दे० 'मुकदमा' के मुहा०। ६. बात। घटना। ३. कुँअर को देखते ही बधाई का चारों ओर से शोर मच गया। कुँअर बहुत चकपकाया कि यह मामला क्या है।—भारतेंदु ग्रं०, भा०, ३, पृ० ८०८। ७. प्रधान विषय। मुख्य बात। ८. सुंदर स्त्री। युवती (बाजारू)। ९. संभाग। स्त्रीप्रसंग। मुहा०— मामला बनाना=संभोग करना। प्रसंग करना।
⋙ मामा (१)
संज्ञा पुं० [अनु० मि० सं० मातुल] [स्त्री० मामी] माता का भाई। माँ का भाई।
⋙ मामा (२)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. माता। माँ। उ०— आदम आदि सिद्धि नहिं पावा। मामा हौवा कहँ ते आवा।— कबीर (शब्द०)। २. रोटी पकानेवाली स्त्री। यौ०—मामागीरी=दूसरों की रोटी पकाने का काम। ३. बुड़ढी स्त्री। बुढ़िया। ४. नौकरानी। दाई। दासी। लौड़ी।
⋙ मामिला
संज्ञा पुं० [अ० मुआमिला] दे० 'मामला'।
⋙ मामी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० मा (=निषेधार्थक)] आरोप को ध्यान में न लाना। अपने दोष पर ध्यान न देना। मुहा०—मामी पीना=दोषारोपण को ध्यान में न लाना। मुकर जाना। अपने दोष पर ध्यान न देना। उ०—(क) ऊधी हरि काहे के अंतर्यामी। अजहुँ न आइ मिले यहि औसर अवधि बतावत लामी। कीन्हीं प्रीति पुहुप संडा की अपने काज के कामी। तिनको कौन परेखा कीजै जे हैं गरुड़ के गामी। आई उछरि प्रीति कलई सो जैसे खाटी आमी। सूर इते पर खुनसनि मरियत ऊधो पोवत मामी।— सूर (शब्द०)। (ख) लाज कि और कहा कहि केशव जे सुनिए गुण ते सब ठाए। मामी पिए इनकी मेरी माइ को हे हरि आठहू गाँठ अठाए।— केशव (शब्द०)।
⋙ मामी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मामा] मातुलानी। मामा की स्त्री।
⋙ मामी (३)
वि० [सं०] हामी। स्वीकृति। उ०— आँनदघन अघओघ बहावन सुदृष्टि जियावन वेद भरत हैं मामी।—घनानंद, पृ० ४१८।
⋙ मामू
संज्ञा स्त्री० [अनु० मि० सं० मातुल] [स्त्री० ममानी] माता का भाई। (मुसलमान)।
⋙ मामूर
वि० [सं०] आबाद। भरा हुआ। समृद्ध। उ०— हो मुक्ति से मामूर सारी जमीन।— कबीर मं०, पृ० १३१।
⋙ मामूल (१)
संज्ञा पुं० [अं०] देव। लत। उ०— इनका दीवानखाने में बैठकर खाना खाने का मामूल है।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८५। २. रीति। रिवाज। परिपाटी। ३. वह धन जो किसी को रवाज आदि के कारण मिलता हो। ४. संमोहित या वशीकृत व्यक्ति। वह व्यक्ति जिसके ऊपर संमोहन किया गया हो (को०)।
⋙ मामूल (२)
वि० जिसपर अमल किया जाय। अमल किया हुआ।
⋙ मामूली
वि० [अ० मामूल+ई] १. नियमित। नियत। २. सामान्य। साधारण।
⋙ मायँ पु
अव्य० [बि० मध्य, प्रा०, मज्झ] दे० 'माहिं'।
⋙ माय पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ] १. माता। माँ। जननी। उ०— जसुमति माय लाल अपने को शुभ दिन डोल झुलायो।— सूर (शब्द०)। २. किसी बड़ी वा आदरणीय स्त्री के लिये संबोधन का शब्द। उ०— तब जानकी सासु पग लागो। सुनिय माय मै परम अभागी।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ माय (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० माया] दे० 'माया'। उ०— (क) ईश माय बिलोकि कै उपजाइयो मन पूत।—केशव (शब्द०)। (ख) मुनि वेप किए किधौं ब्रह्म जीव माय हैं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ माय (३)
अव्य० [सं० मध्य] दे० 'माहि'। उ०— पाछे लोक पाल सब जीते सुरपति दियो उठाय। बरुण कुबेर अग्नि यम मारुत स्वबस किए क्षण माय।—सूर (शब्द०)।
⋙ माय (४)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीतांबर। २. असुर।
⋙ माय (५)
वि० [सं०] मायावी। माया करनेवाला [को०]।
⋙ मायक (१)
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] माय करनेवाला। मायावी। उ०— (क) सायक सम मायक नयन रँगे त्रिविध रँग गात। झरनौ लखि दुरि जाति जल लखि जलजात लजात।—बिहारी (शब्द०)। (ख) हंस गति नायक कि गूढ़ गुण गायक कि श्रवण सुहायक कि मायक हैं मय के।— केशव (शब्द०)।
⋙ मायक †' (२)
संज्ञा पुं० [सं० मातृ+क] दे० 'मायका'।
⋙ मायका
संज्ञा पुं० [सं० मातृ+का (प्रत्य०)] नैहर। पीहर। उ०— (क) पठई समुझाय सहेलिन यों कोऊ मायके में मिलतीं न कहा।— दूलह (शब्द०)। (ख) सो जा सखी भरमै मति री यह खाजा हमारे ही मायक वारी।— दूलह (शब्द०)। (ग) मायके में मन भावन की रति कीरति शंभु गिरा हू न गावति।—शंभु (शब्द०)।
⋙ मायण
संज्ञा पुं० [सं०] वेद का भाष्य करनेवाले सायण और माधव के पिता का नाम। इन्हें मायन भी कहते थे।
⋙ मायन पु †
संज्ञा पुं० [सं० मातृक+आनयन] १. वह दिन वा तिथि जिसमें विवाह में मातृकापूजन और पितृनिमंत्रण होता है। उ०— बनि बनि आवत नारि जान गृह मायन हो।— तुलसी (शब्द०)। २. उपर्युक्त दिन का कृत्य। मातृकापूजन या पितृनिमंत्रण आदि कार्य। उ०— अभ्युदयिक करवाय श्राद्ध विधि सब विवाह के चारा। कृत्य तेल मायन करवैहें व्याह बिवान अपारा।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ मायनी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मा. यन्] दे० 'मायाविनी'। उ०— प्रचंड कोप ताड़का अखंड ओज मायनी। गिरी धरा धड़ाक दै सुरेश शाक दायनी।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ मायनी (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० मानी] अर्थ। मतलब। आशय।
⋙ मायल
वि० [अं० माइल, फा०] १. झुका हुआ। रुजु। प्रवृत्त। --
3893 — उ०— इक तो हायल रहत हौं मायल ह्वै वा चाय। तापर घायल कै गई पायल वाल बजाय।— रामसहाय (शब्द०)। २. मिश्रित। मिल्ला हुआ। जैसे,— सज्जी मायल सफेद रंग का पक्षी देखने में बहुत सुंदर लगता है।
⋙ मायव
संज्ञा पुं० [सं०] मायु के गोत्र के लोग।
⋙ माया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी। २. द्रव्य। धन। संपत्ति। दौलत। उ०— (क) माया त्यागे क्या भया मान तजा नहिं जाय।—कबीर (शब्द०)। (ख) बड़ माया को दोष यह जो कबहूँ घटि जाय। तौ रहीम मरिबो भलो दुख सहि जियैं बलाय।—रहीम (शब्द०)। (ग) जो चाहै माया बहु जोरी करै अनर्थ सो लाख करोवी।—निश्चल (शब्द०)। ३. अविद्या। अज्ञानता। भ्रम। ४. छल। कपट। धोखा। चाल- बाजी। उ०— (क) सुर माया बस केकई कुसमय कीन्ह कुचाल।— तुलसी (शब्द०)। (ख) धरि कै कपट भेष भिक्षुक को दसकंधर तहँ आयो। हरि लीन्हों छिन में माया करि अपने रथ बैठयो।—सूर (शब्द०)। (ग) तब रावण मन में कहै करौं एक अव काम। माया का परपंच के रचौं सु लछमन राम।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। (घ) साहस, अनृत चपलता माया।—तुलसी (शब्द०)। ५. सृष्टि को उत्पत्ति का मुख्य कारण। प्रकृति। उ०— (क) माया, ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) माया माहि नित्य लै पावै। माया हरि पद माहिं समावै।—सूर (शब्द०)। (ग) माया जीव काल के करम के सुभाव के करैया राम वेद कहै ऐसी मन गुनिए।—तुलसी (शब्द०)। ६. ईश्वर की वह कल्पित शक्ति जो उसकी आज्ञा से सब काम करती हुई मानी गई है। उ०— तहँ लखि माया की प्रभुताई। मणि मंदिर सुच सेज सुहाई। —(शब्द०)। ७. इंद्रजाल। जादू। छलमय रचना। उ०—जीती कौ सकै अजय रघुराई। माया ते अस रची न जाई।—तुलसी (शब्द०)। ८. ईद्रवज्रा नामक वर्ण- वृत्त का एक उपभेद। यह वर्णवृत इद्रवज्रा और उपेंद्रवज्रा के मेल से बनता है। इसके दूसरे तथा तीसरे चरण का प्रथम वर्ण लघु होता है। जेसे,— राधा रमा गौरि गिरा सु सीता। इन्है विचारे नित नित्य गीता। कटैं अपारे अघ ओध मीता। ह्वै है सदा तोर भला सुवीता। ९. एक वर्णवृत्त जिसमें क्रमशः मगण तगण, यगण, सगण और एक गुरु होता है। जैसे,— लीला ही सों बासव जी में अनुरागौ। तीनौ लेकै पालत नीके सुख पागौ। जो जो चाहो सो तुम वासों सब लीजौ। कीजै मेरी और कृपा सो सर भीजौ।—गुमान (शब्द०)। १०. मय दानव की कन्या जो विश्रवा को ब्याही थी और जिससे खर, दूषण, त्रिशिरा और सूर्पनखा पैदा हुए। उ०—माया सुत जन में करि लेखा। खर, दूषण, त्रिशिरा सुपनेखा।— विश्राम (शब्द०)। ११. देवताओं में से किसी की कोई लीला, शक्ति, इच्छा वा प्रेरणा। अ०—(क) रामजी की माया, कहीं धूप कही छाया। (कहावत)। (ख) अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया।— तुलसी (शब्द०)। (ग)तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज माया बसंत निरयमऊ।—तुलसी (शब्द०)। (घ) बोले बिहँसि महेश हरि माया वल जानि जिय।—तुलसी (शब्द०)। १२. कोई आदरणीय स्त्री। १३. प्रज्ञा। बुद्धि। अकल। १४. शाठ्य। शठता (को०)। १४. दंभ। गर्व (को०)। १३. दुर्गा का एक नाम। १७. बुद्धदेव (गौतम) की माता का नाम। .यौ०—मायाकार। मायाजीवी।
⋙ माया पु† (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० माता] माता। माँ। जननी। उ०— बिनवै रतनसेन की माया। माथे छात पाट नित पाया।—जायसी (शब्द०)।
⋙ माया पु † (३)
संज्ञा स्त्री० [हि० ममता] १. किसी को अपना समझने का भाव। उ०— उसपर तुम्हें न हो, पर उसकी तुमपर ममता माया है।—साकेत, पृ० ३७०। २. कृपा। दया। अनुग्रह। उ०— (क) भलेहिं आय अब माया कीजै। पहुँनाई कहँ आयसु दीजै।— जायसी (शब्द०)। (ख) साँचेहु उनके मोह न माया। उदासीन धन धाम न जाया।— तुलसी (शब्द०)। (ग) डंड एक माया कर मोरे। जोगिनि होउँ चलै संग तोरे।—जायसी (शब्द०)।
⋙ माया (४)
संज्ञा पुं० [फा० मायह्] १. उपकरण। सामान। २. योग्यता। काविल होना। ३. पूँजी। धन। दौलत [को०]। यौ०—मायादार =धनी। पूँजीवाला। मालदार।
⋙ मायाकार
संज्ञा पुं० [सं०] जादूगर। ऐंद्रजालिका।
⋙ मायाकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मायाकार' [को०]।
⋙ मायाकृत
वि० [सं०] माया द्वारा किया हुआ। मायारचित। उ०— सुनहु तात मायाकृत गुन अरु दोष अनेक।—मानस, ७। ४१।
⋙ मायाक्षोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण के एक तीर्थ का नाम।
⋙ मायाचार
संज्ञा पुं० [सं०] मायावी [को०]।
⋙ मायाजाल
संज्ञा पुं० [सं०] सासांरिक मोह, माया, घर गृहस्थी आदि का जंजाल।
⋙ मायाजीवी
संज्ञा पुं० [सं० मायाजीविन्] जादूगरी से जीविका निर्वाह करनेवाला। जादूगर।
⋙ मायातंत्र
संज्ञा पुं० [सं० मायातन्त्र] एक प्रकार का तंत्र।
⋙ मायाति
संज्ञा पुं० [सं०] तात्रिकों की वह नरबलि जो अष्टमी या नवमी को दुर्गा के सामने दी जाती है।
⋙ मायाद
संज्ञा पुं० [सं०] कुंभीर। मगर।
⋙ मायादेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्ध की माता का नाम।
⋙ मायाधर
संज्ञा पुं० [सं०] मायावी। मायापटु।
⋙ मायापटु
संज्ञा पुं० [सं०] मायावी।
⋙ मायापति
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर। परमेश्वर। उ०— मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया।—मानस, २। २१७।
⋙ मायापात्र
संज्ञा पुं० [सं० माया(=धन)+पात्र] वह जिसके पास बहुत धन हो। धनवान। अमीर।
⋙ मायापाश
संज्ञा पुं० [सं०] मायाजाल माया का फंदा।
⋙ मायापुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नगरी का नाम।
⋙ मायाप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. छल का प्रयोग। धूर्तता। २. इंद्रजाल करना। जादू का प्रयोग करना [को०]।
⋙ मायाफल
संज्ञा पुं० [सं०] माजूफल।
⋙ मायामय
वि० [सं०] मायायुक्त। उ०— मायामय तेहि कीन्हि रसोई। विंजन बहु गनि सकै न कोई।—मानस, १। १७३।
⋙ मायामृग
संज्ञा पुं० [सं०] माया का हिरन। सीता को छलने के लिये मारीच राक्षस का स्वर्णमृग रूप। कपट मृग। उ०— मायामृग पाछे सोइ धावा।—मानस, ३। २१।
⋙ मायामोह
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार विष्णु के शरीर से निकला हुआ एक कल्पित पुरुष जिसकी सृष्टि असुरों का दमन करने के लिये हुई थी।
⋙ मायायंत्र
संज्ञा पुं० [सं० मायायन्त्र] कसी को मोहने की विद्या। संमोहन।
⋙ मायायुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] माया की लड़ाई। माया के बल अथवा छल से किया जानेवाला युद्ध [को०]।
⋙ मायारवि
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
⋙ मायावचन
संज्ञा पुं० [सं०] कपटपूर्ण कथन। झूठा वचन। छल से भरी बात [को०]।
⋙ मायावत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. मायावी। २. राक्षस। असुर। ३. कंस का एक नाम।
⋙ मायावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामदेव की स्त्री रति का एक नाम।
⋙ मायावाद
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर के अतिरिक्त सृष्टि की समस्त वस्तुओँ को अनित्य और असत्य मानने का सिद्धांत जिसके अनुसार यह सारी सृष्टि केवल माया या मिथ्या समझी जाती है। उ०— मेष मायावाद सिंह वादी अतुल धर्म वृख जयति गुणरासि बल्लभ सुअन।— भारतेंदु, ग्रं०, भा० ३, पृ० ८२७।
⋙ मायावादी
संज्ञा पुं० [सं० मायावादिन्] ईश्वर के सिवा प्रत्येक वस्तु को अनित्य माननेवाला। वह जो मायावाद के अनुसार सारे सृष्टि को माया या भ्रम समझाता हो।
⋙ मायावान्
संज्ञा पुं० [सं० मायावत्] दे० 'मायावत्'।
⋙ मायाविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छल वा कपट करनेवाला स्त्री। ठगिनी।
⋙ मायावी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मायाविन्] [स्त्री० मायाविनी] १. बहुत बड़ा चालाक। छलिया। धोखेबाज। फरेबी। २. एक दानव का नाम जो मय का पुत्र था ओर बालि से लड़ने के लिये किष्किंधा में आया था। वाल्मीकि के अनुसार यह दुंदुभी नामक दैत्य का पुत्र था। उ०— मयसुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरे गाऊँ।—तुलसी (शब्द०)। ३. परमात्मा। ४. माजूफल (को०)। ५. बिल्ली।
⋙ मायावी (२)
वि० २. छलिया। फरेबी। २. माया या जादू करनेवाला [को०]।
⋙ मायावीज
संज्ञा पुं० [सं०] 'ह्रो' नामक तांत्रिक मंत्र।
⋙ मायासीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार वह कल्पित सीता। जिसकी सृष्टि सीताहरण के समय अग्नि के योग से हुई थी। माया द्वारा निर्मित सीता। उ०— पुनि मायासीता कर हरना। श्री रघुबीर बिरह कछु बरना।—मानस ७। ६६। विशेष— कुछ पुराणों तथा रामायणों में यह कथा है कि सीता- हरण के समय अग्नि ने वास्तविक सीता को हटाकर उनके स्थान पर माया से एक दूसरी सीता खड़ी कर दी थी।
⋙ मायासुत
संज्ञा पुं० [सं०] माया देवी के पुत्र, बुद्ध।
⋙ मायासृष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] मायावदियों के अनुसार दृश्यमान भ्रमात्मक जगत् जो 'नाशामान' है। उ०— यह मायासृष्टि सदैव बंधन में रहतो है।—कबीर मं०, पृ० ३९।
⋙ मायास्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कल्पित अस्त्र जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि इसका प्रयोग विश्वमित्र ने श्रीरामचंद्र जो को सिखाया था।
⋙ मायिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] माजूफल।
⋙ मायिक (२)
वि० [सं०] १. माया से बना हुआ। जो वास्तविक न हो बनावटी। जाली। उ०— कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा।— तुलसी (शब्द०)। २. मायावी। माया करनेवाला।
⋙ मायी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मायिन्] १. माया का अधिष्ठता, परब्रह्म। ईश्वर। २. माया करनेवाला व्यक्ति। ३. जादूगर। ४. अग्नि (को०)। ५. शिव (को०)। ६. कामदेव (को०)।
⋙ मायी (२)
वि० दे० 'मायिक'।
⋙ मायी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ, प्रा० माइ] दे० 'माई'।
⋙ मायु
संज्ञा पुं० [सं०] १. पित्त। २. शब्द। ३. वाक्य। ४. सूर्य।
⋙ मायुक
वि० [सं०] शब्द करनेवाला।
⋙ मायुराज
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर के एक पुत्र का नाम।
⋙ मायूर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह रथ जो मयूरों से चलता हो। २. मयूर। मोर।
⋙ मायूर (२)
वि० २. मयूर संबंधी। मोर का। २. मयूरप्रिय। मोर को प्रेय (को०) ३. मयूरपंख का। मोर के पंख से बना हुआ (को०)।
⋙ मायूरक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो जंगली मोरों को पकड़ता हो।
⋙ मायूरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कठूमर।
⋙ मायूरिक
संज्ञा पुं० [सं०] मायूरक। मोर पकड़नेवाला [को०]।
⋙ मायूरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा।
⋙ मायूस
वि० [फा०] निराश। नाउम्मेद। उ०—मायूस नजर से कब किसने दुनिया की सच्चाई देखी।—मिलन०, पृ० ९६।
⋙ मायूसी
संज्ञा स्त्री० [फा० मायूस+ई (प्रत्य०)] निराशा। नाउम्मेदी।
⋙ मायोभव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुभ। अच्छा। २. सौभाग्य।
⋙ मार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। उ०—(क) क्रीडत गिलोल जब लाल कर तब मार जानि चापक सुमन।—पृ० रा०, १। ७२७। (ख) ऐसौ और न जानिवी जग अनिति कर नार। जामँ उपज्यौ सरन सौ ताकौ वेधन मार।— स० सप्तक, पृ० ३६५। २. विघ्न। ३. विष। जहर। ४. धतूरा। ५. मारण। मार डालना। वध (को०)। ६. मृत्यु। मौत। मरण (को०)।
⋙ मार (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मारना] १. मारने की क्रिया या भाव। २. आघात। चोट। ३. जिस वस्तु पर मार पड़े। निशाना। ४. मार पीट। ५. कष्ट। पीड़ा। क्लेश। ६. युद्ध। लड़ाई। यौ०—मारकाट। मारधाड़=मारपीट। मारपछड़=लड़ाई झगड़ा या मार पेच। मारपेच।
⋙ मार (३)
अव्य० [हि० मारना] १. अत्यंत। बहुत। उ०— (क) सुनत द्वारावती मार उतसाँ भयो...।—सूर (शब्द०)। (ख) सान की अटारी चित्रसारी मार जारी जैसे घास की अटारी जर गई फिरे बाँस ते।— राम (शब्द०)।
⋙ मार पु (४)
संज्ञा स्त्री० [हि० पाला] माल। उ०— असल कपोलै आरसी बाहू चंपक मार।—केशव (शब्द०)।
⋙ मार (५)
संज्ञा स्त्री० [देश०] काली मिट्टि की जमिन। करैल। मट्टी का भूमि। मरवा भूमि।
⋙ मार
संज्ञा पुं० [फा०] सर्प। साँप। उ०— कई मार हुआ है कई नवल कई प्यासा झूका कँई जल।— दक्खिनी पृ० ३२४।
⋙ मार्कंड़
संज्ञा पुं० [सं० मार्कण्ड़] दे० 'मारकंड़ेय' [को०]।
⋙ मारकंड़ेय
संज्ञा पुं० [सं० मार्कण्ड़ेय] पुराणानुसार एक ऋषि का नाम। मार्कड़ेय। विशेष—ये अष्ट चिरंजीवियों में से एक माने जाते है इनके पिता का नाम मृकंड़ था। इनके विषय में यह प्रसिद्ध है कि ये सदा जिवित रहते हैं और रहेमगे। मुहा०— मारकंड़ेय की आयु होना=दीर्घजीवी होना। चिरायु होना। (आर्शर्वाद)।
⋙ मारक (१)
वि० [सं०] १. मार ड़ालनेवाला। मृत्युकारक। संहारक। उ०—(क) लै उतारि यातैं नृपति भलो चढ़ायो बान। निर- दोषिन मारक नहीं यह तारक दुखियान।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। (ख) सुकवि मिलन की आस एक अवलंब उधारक। नहिं तो कैसे बचती माख्यौ मार सुमारक।—व्यास (शब्द०)। २. किसी के प्रभाव आदि को नष्ट करनेवाला। घात पर प्रति- घात करनेवाला। जैसे, —यह औपध अनेक प्रकार के विषों का मारक है।
⋙ मारक (२)
संज्ञा पुं० १. वध करनेवाला। जल्लाद। २. कामदेव का एक नाम। ३. श्येन पक्षी। बाज। ४. महामारी। ५. प्रलयकालीन प्राणिनाश। ६. सिंदूर [को०]। यौ०— मारकस्थान=कुंड़ली में वे स्थान जिनमें क्रूर ग्रहों की स्थिति से कष्ट एवं मृत्यु होती है।
⋙ मारका (१)
संज्ञा पुं० [अं० मार्क] १. चिह्न। निशान। २. किसी प्रकार का चिह्न जिससे कोई विशेषता सूचित हो।
⋙ मारका (२)
संज्ञा पुं० [अं०] १. युद्ध। लड़ाई। २. युद्धस्थल। लड़ाई का मैदान (को०)। ३. लड़ाई झगड़ा। हँगामा (को०)। ४. बहुत बड़ी या महत्वपूर्ण घटना। महा०—मारके की बीत या काम=कोई महत्वपूर्ण या बड़ी बात या काम। मारक जीतना या सर करना=मैदान फतह करना। महत्व का काम अपने अनुकूल कर लेना।
⋙ मारकाट
संज्ञा स्त्री० [हि० मारना+काटना] १. युद्ध। लड़ाई। जंग। २. मारने काटने का काम। ३. मारने काटने का भाव।
⋙ मारकयिक
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार मार के अनुचर।
⋙ मारकीन
संज्ञा स्त्री० [अं० मैनकिन्] एक प्रकार का मोटा कोरा कपड़ा जो प्रायः गरीबों को पहनने के काम में आता है। उ०— मारकीन मलमल बिना चलत कछू नहिं काम। परदेसी जुलहान कै मानहु भए गुलाम।— भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ७३५।
⋙ मारकेश
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार जन्म कुंड़ली में पड़नेवाले कुछ विशिष्ट ग्रहों का योग जिसके परिणाम- स्वरूप उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है अथवा वह मरणासन्न हो जाता है।
⋙ मारखोर
संज्ञा पुं० [फा० मारखोर] एक प्रकार की बकरी वा भेड़ जो काश्मीर और अफगानिस्तान में होती है। विशेष— यह प्रायः दो तीन हाथ ऊँची होती है और ऋतु के अनुसार रंग बदलती है। इसके सींग जड़ में प्रायः सटे रहते है और इसकी दाढ़ी बहुत लंबी और घनी होती है।
⋙ मारग पु †
संज्ञा पुं० [सं० मार्ग] राह। रास्ता। मार्ग। उ०— (क) मारग हुत जो अँधेर असूझा। भा उजेर सब जाना बूझा।— जायसी (शब्द०)। (ख) मारग चलहिं पयादेहि पाएँ। कोतल संग जाहि ड़ोरियाएँ।—तुलसी (शब्द०)। (ग) सवहि भाँति पिय सेवा करिहौं। भारग जनित सकल श्रम हरिहौं।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—मारगचीन्हना=मार्ग पहचानना। उद्देश्यसिद्धि के लिये रास्ता जान लेना। उ०— दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा। भा निरमल जग मारग चीन्हा।—जायसी (शब्द०)। मारग मारना=रास्ते में पाथिक को लूट लेना। उ०— मारग मारि महिसुर मारि कुमारग कोटिक के धन लीयो।—तुलसी (शब्द०)। मारग लगाना=रास्ते लगना। रास्ता लेना। चला जाना। उ०—(क) जोगी होहु तो जुक्ति यो माँगहु। भुगुति लेहु लै मारग लागहु।— जायसी (शब्द०)। (ख) यह सुनि मुनि मारग लगे सुख पायो नरदेव।— केशव (शब्द०)। मारग लेना=दे० 'मारग लगना'।
⋙ मारगन पु
संज्ञा पुं० [सं० मार्गण] १. बाण। तीर। उ०— तानेउ चाँप स्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल। राम मारगन गन चले लहलहात जनु व्याल। —तुलसी (शब्द०)। २. भिक्षुक। याचक। भिखमंगा।
⋙ मारगीर
संज्ञा पुं० [फा़०] मदारी। संपेरा [को०]।
⋙ मारजन
संज्ञा पुं० [सं० मार्जन] दे० 'मार्जन'।
⋙ मारजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्जनी] दे० 'मार्जनी'।
⋙ मारजार
संज्ञा पुं० [सं० मार्जर] दे० 'मार्जार।
⋙ मारजित
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने कामदेव को जीत लिया हो। २. शिव [को०]। ३. युद्ध।
⋙ मारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार ड़ालना। प्राण लेना। हत्या करना। २. एक कल्पित तांत्रिक प्रयोग जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि जिस मनुष्य के मारने के लिये यह प्रयोग किया जाता है, वह मर जाता है। उ०— (क) मारण मोहन बसिकरण उच्चाटन अर अँभ। आकर्षण बहु भाँति के पढ़ै सदा करि दंभ।—रधुनाथदास (शब्द०)। (ख) सीखौ सबै मिलि धातु कर्मनि द्रव्य बाढत जाइ। आकर्षणादि उचाट मारण वशीकरण उपाइ।— केशव (शब्द०)।
⋙ मारतंड़ पु
संज्ञा पुं० [सं० मार्तणड़] दे० 'मार्तड़'। उ०— मारतंड़ परचंड़ महँ फरकत जुग भुजदंड़। रघुनंदन दसकंध लखि टंकोरयो कोदंड़।—सं० सप्तक, पृ० ३६७।
⋙ मारतंडमंड़ल
संज्ञा पुं० [सं० मार्तणढम़णडल] दे० 'मार्तड़मंड़ल'।
⋙ मारतंड़सुत
संज्ञा पुं० [सं० मार्तणाड़सुत] दे० 'मातँड़सुत'।
⋙ मारतौल
संज्ञा पुं० [पूर्त० मार्टेली] एक प्रकार का बड़ा हथौड़ा। उ०— जब मै परेग की मारतौल से मारता है।—वेलेन्टाइन (शब्द०)।
⋙ मारन पु
संज्ञा पुं० [सं० मारण] १. माप डा़लना। उ०— धाय सुवा लै मारन गई। समुझि ज्ञान हिये महँ भई। —जायसी (शब्द०)। २. दे० 'मरण'। उ०— सतगुरु शब्द सहाई। मारन मोहन उचाटन बसिकरन मनहि माहि पाछिताई।—कबीर श०, भा०, २. पृ० २८।
⋙ मारना
क्रि० सं० [मारण] १. वध करना। हनन करना। घात करना। प्राण लेना। उ०— (क) जिन बेधत सुख लक्ष लक्ष नृप कुँवर कुँवरमनि। तिन वानन बाराह बाध मारत नहि सिंहनि।—केशव (शब्द०)। (ख) सुआ सो राजा कर बिसरामी। मारि न जाय चहै जेहि स्वामी।—जायसी (शब्द०)। २. दंड़ देने के लिये किसी को किसी वस्तु से पीटना या आघात पहुँचाना। जैसे लात, थप्पड़, मुक्का, लाठी, जूता, तलवार आदि मारना। उ०—(क) एक ठौर देखत भयों वृषभ एक एक गाय। भय वस भागे जात एक नर मारत जाय। —विश्राम (शब्द०)। (ख) जो न मुदित मन आज्ञा देही। लाग्यों मारन तुरतै तेही।—विश्राम (शब्द०)। ३. जरब लगाना। ठोंकना। उ०— जब मै परेग को मारतौल से मारता हुँ, ती यह परेग इस लकड़ी में घुस जाती है।—वेलेन्टाइन (शब्द०)। ४. दुख देना। सताना। जैसे,— मुझे तुम्हारी चिंता मार रही है।उ०— देखो राम दुखित महतारी। जनु सुवेलि अवली हिम मारी। -तुलसी (शब्द०)। ५. कुश्ती या मल्लयुद्ध में विपक्षी को पछाड़ देना। जैसे,—इस पहलवान को मेरे पहलवान ने दो वार मारा है। ६. बंद कर देना। दैसे, किवाड़ा मारना। ७. शस्र आदि चलाना। फेंकना। जैसे— उसने कई तीर मारे। उ०— पारथ बाणा चहुँ दिशि मारै। यूथ यूथ छत्री संहारै।— सवल सिंह (शब्द०)। मुहा०—गोली मारना=(१) किसी को बंदुक की गोली से मार देना। किसी पर बंदुक चलाना या छोड़ना। (२) जाने देना। त्याग देना। ध्यान न देना। तुच्छ वा अनावश्यक समझना जैस,—मारो गोली इस वात में धरा ही क्या है। बंदुक मारना=किसी पर बंदुक की गोली छोड़ना। बंदुक दागना। फैर करना। उ०— दुश्मनों ने भी हर तरफ से वहाँ आकार मुकाबिले के वास्ते दीवारै और वुरजे बनाई जिनमें बंदुकों के मारने के वास्ते जगह रखी। —देवीप्रसाद (शब्द०)। ८. किसी शारीरिक आवेग या मनोविकार आदि को रोकना। ९. नष्ट कर देना। अंत कर देना। न रहने देना। जैसे, —(क) पाले ने फसल मार दी। (ख) तुमने उनका रोजगार मार दिया।(ग) उसने बार बार उपवास करके अपनी भूख मार ली है।(घ) भूख मारने से अरुचि, तंद्रा, दाह और बल का नाश होता है। (ङ) उसने बहुतेरे घर मारे है। १०.शिकार करना। अहेर करना। आखेट करना। जैसे, मछ्ली मारना, हिरन मारना। ११. किसी वस्तु को इस प्रकार फैंकना कि वह किसी दूसरी वस्तु से जोर से टकरा जाय। उ०— उसने ढोके को ऊँचा करके जोर से उस खंभे पर मारा जिससे खंभा हिल उठा।— देवकीनंदन (शब्द०)। मुहा०— दे मारना=(१) पटकना। (२) पछाड़ना। वह मारा= बस अब कार्य सिद्ध हो गया। विजय प्राप्त हुई। जो चाहते थे सो हो गया। उ०—यह आपकी मेहरबानी है, मै किस काबील हूँ (मन में) वह मारा, अब कहाँ जाती है। आज का शिकार तो बहुत हो नफीस है। —राधाकृष्ण दास (शब्द०)। १२. गुप्त रखना। छिपाना। दवाना। उ०—(क) रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसै तापस के साजा। तुलसी (शब्द०)।(ख) खोज मारि रथ हाँकहु ताता। आन उपाय बनहि नहि वाता। —तुलसी (शब्द०)। १३. चलाना। संचा- लित करना। मुहा०— गाल मारना=सीटना। बढ़ बढ़कर बातें करना। उ०—(क) मूढ़ मृपा जनि मारेसि गाला। राम बैर होइहि अस हाल। —तुलसी (शब्द०)। (ख) काहु को सर सुधो न परै मारत गाल गली गली हाट। —हरिदास (शब्द०)।(ग) मारत गाल कहा इतनो मन मोहन जू अपने मन ऊटे— रघुनाथ (शब्द०)। कुछ पढ़कर मारना=मंत्र से फूंककर कोई चीज किसी पर फेंकना। जैसे मूँग मारना। साँप पर सरसों मारना। जादु मारना=किसी पर जादू का प्रयोग करना। किसी पर मंत्र या तंत्र करना। ड़ीग मारना=शेखी बघारना। बड़ी बड़ी बातें करना जिनका होना अंसभव हो। उ०—बाह ऐसा ही था तो चुड़ी पहिर लेतः जवाँमदों की ड़ीग क्यों मारते है।— देवकीनंदन (शब्द०)। मंत्र मारना=जादु करना। मंत्र पढ़कर फूँकना। उ०— गड्डी को एक दिवाल पर फैक देना और ऐसा मत्र मारना कि पहिचाना हुआ ही ताश उसमें चिपक जाय़, वाकी सब गिर पड़े। —रामकृष्ण (शब्द०)। १४. बातु आदि को जलाकर उसका भस्म तैयार करना। जैसे, पारा मारना, सोना मारना। १५. अनुचित रूप से, विना परिश्रम के अथवा बहुत अधिक प्राप्त करना। (इस अर्थ मे इसका प्रयोग प्रायः माल या रकम आदि शब्दों के ही साथ होता है।) जेसे, माल मारना, किसी का हक मारना। १६. करना। लगाना। जैसे, गोता मारना, चक्कर मारना। १७. विजय प्राप्त करना। जीतना। जैसे, मैदान मारना। १८. ताश या शतरंज आदि खेलो में विपक्षी के पत्ते या गोट आदि को जीतना। १९. जा कुछ देना बाजिव हा, वह न देना। अनुचित रूप से रख लेना।— जेसे—हमारी (१००) उसने मार लिए। २०. बल या प्रभाव कम करना। मारक होना। जसे,— जहर को जहर मारता है। २१. किसी योग्य न रहने देना। निर्जिव सा कर देना। जेसे,— इन्हे तो फजुलखर्ची न मारा है। २२. ड़सना। कटाना। ड़क मारना। जैसे, बोछी मारना। २३. लगाना। देना। जैसे, टाका मारना। २४. गुदाभंजन करना। पुरुष का पुरुष के साथ संभोग करना। २५. संभोग करना। स्त्रीप्रसंग करना। विशेष— (क) यह शब्द भिन्न भिन्न संज्ञाओं तथा कुछ विशिष्ट क्रियाआ के साथ मुहावरे रे रूप में अनेक प्रकार के अर्थ दता है। जैसे, दम मारना, लकीर मारना, कोर मारना, धार मारना, पीस मारना, सता मारना, आदि। (ख) इसके साथ प्रायः 'ड़ालना' और 'देना' आदि संयोज्य क्रियाएँ आती है।
⋙ मारपीट
संज्ञा स्त्री० [हि० मारना+पींटना] मारने और पीटने की क्रिया। ऐसा लड़ाई जिसमें आघात किया जाय।
⋙ मारपेच
संज्ञा पुं० [हि० मारना+पेच] वह युक्ति जो किसी को धोखे मनें रखकर उसकी हानि करक या उसे नीचा दिखाने के लिये की जाय। धुतता। चालबाजी।
⋙ मारफत (१)
अव्य० [अं० मारफ़त] द्वारा। वसीले से। जरिए से। उ०— (क) तध मागध मारफत यह काज श्रम बिनु आसु।— गोपाल (शब्द०)। (ख) नंपाल म एक अंगरेजा दूत रहता है। उसे रजाड़ेट कहत है। उसी की मारफत नैपाल राज्य और हिंदुस्तान को गवर्नमेँट से आवश्यकतानुसार लिखा पढ़ा होती है।— द्विवंदी (शब्द०)।
⋙ मारफत (१)
संज्ञा स्त्री० आध्यात्माक बुद्धि या ज्ञान अथवा आध्यात्मिक रचना। ईश्वरीय़ ज्ञान।— दादू०, पृ० ११०।
⋙ मारव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरू देवता। २. मरुभूमि। जांगल प्रदेश (को०)। ३. राजतरांगणी के अनुसार एक प्राचीन देश।उ०— मरू मारव महिदेव जवासा।—मानस। १। ६।
⋙ मारवा
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक संकर राग जो परज, विभास और गौरी को मिलाकर बनाया जाता है। कुछ लोग इसे भ्रम से श्री राग का पुत्र मानते है। २. एक प्रकार का खयाल जो तिलवाड़ा ताल पर बजाया जाता है।
⋙ मारवाड़
संज्ञा पुं० [हि० मेवाड़] १. मेवाड़ राज्य। दे० 'मेवाड़'। २. राजपूताने का एक प्रांत जहाँ अब वीकानेर और जोधपुर के राज्य है। मेवाड़ा के आस पास का प्रांत।
⋙ मारवाड़ी (१)
संज्ञा पुं० [हि० मारवाड़+ई] [स्त्री० मारवाडिन] १. मारवाड़ी देश का निवासी। २. मारवाड़ देश की भाषा।
⋙ मारवाड़ी (२)
वि० [हि० मारवाड़] मारवाड़ देश का। मारवा़ड़ देश संबंधी।
⋙ मारबीज
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मंत्र।
⋙ मारा पु
वि० [हि० मारना] जो मार ड़ाल गया हो। मारा हुआ। निहत।उ०— परेसंतु मोह एक पखवारा। नहिं आवहुँ ता जोनेसु मारा। —तुलसी (शब्द०)। मुहा०— मारा फिरना, मारा मारा फरना=व्यर्थ घुमना फिरना। बुरी दशा में इधर उधर घुमना। उ०— टुक हिसे हवा की छोड़ मियाँ मत देश विदेश फिरे मारा।— नजार (शब्द०)।
⋙ मारात्मक
वि० [सं०] १. हिंसक। २. दुष्ट। ३. प्राणनाशक सांघातिक। उ०—वह भारत में मजहब के मारात्मक नशे की व्यापकता हो समझता था।—पिंजरे०, पृ० १५३।
⋙ माराभिभू
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध देव।
⋙ मारामार (१)
क्रि० वि० [हि० मारना] अत्यंत शीघ्रता से। बहुत जल्दी। उ०— मे अयाव्य के राजा का सारथी हुँ। दमयंती का स्वयंवर आज ही सुनके मारामार घोड़ा की य़हा लाया हूँ।— शिवप्रसाद (शब्द०)।
⋙ मारामार (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'मारपीट'।
⋙ मारि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मार डालना। वध करना। २. एक व्याधि। मरा (रोग)।
⋙ मारि (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० मार] १. लड़ाई। युद्ध। २. मारपीट।
⋙ मारिच पु (१)
स्त्री० पुं० [सं० मरीच] दे० 'मारीच'।
⋙ मारिच (२)
संज्ञा पुं० [अं० मार्च] दे० 'मार्च'।
⋙ मारिच (३)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मारिची] काली मिर्च मिश्रित। काली। मिर्च द्वारा निर्मित [को०]।
⋙ मारिचिक
वि० [सं०] जिसमें मिर्च मिला हो। मिर्च का। मिर्च- युक्त [को०]।
⋙ मारित पु
वि० [सं०] १. जो मार ड़ाला गया हो। निहत। २. जो भस्म कर दिया गया हो (वैद्यक)।
⋙ मारिष
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाटक का सुत्रधार। २. नाटक में किसी मान्य या प्रातिष्ठित व्यक्ति का लिये संबोधन। ३. मरसा नामक साग।
⋙ मारिषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्ष की माता का नाम।
⋙ मारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० मारना] कोई ऐसा संक्रामक रोग जिसके कारण बहुत से लोग एक साथ मरें। मरी। जैसे, हैजा, प्लेग, चेचक इत्यादि। दे० 'मरी'। उ०— ईति भिति ग्रह प्रेत चौरनल व्याधि बाधा समन घोर मारी। -तुलसी (शब्द०)। (ख) सब जदपि अमारी धर तदपि मारी सम परदल र्धसत।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ मारी (२)
संज्ञा पुं० [सं० मारिन्] हत्या करनेवाला। घातक।
⋙ मारी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चंड़ी। २. माहेश्वरी शक्ति। ३. मरी। (रोग)।
⋙ मारीच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामायण के अनुसार वह राक्षस जिसने सोने का हिरन बनकर रामचंद्र को धोखा दिया था। २. मिर्च के पौवे। मिर्चि की झाड़ी (को०)। ३. बड़ा हाथी। विशाल गज (को०)। ४. कंकोल (को०)।
⋙ मारीच (२)
वि० मरीचि संबंधी। मरीचि ऋषि निर्मित [को०]।
⋙ मारीचपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] सरल वृक्ष।
⋙ मारीचवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिर्च का पेड़।
⋙ मारीची (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के देवता।
⋙ मारीची (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शाक्य मुनि की माता। माया देवी। २. बुद्ध की देवियाँ। ३. एक अप्सरा का नाम [को०]।
⋙ मारीच्य
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निश्वाता।
⋙ मारीष
संज्ञा पुं० [सं०] मरसा साग।
⋙ मारुंग
संज्ञा पुं० [सं० मारुङ्ग] कोमलता। मृदुता। मार्दव [को०]।
⋙ मारुंड
संज्ञा पुं० [सं० मारुणड] १. साँप का अंडा। २. गोमय। गोबर (को)। ३. गोबर से भरा हुआ रास्ता (को०)। ४. रास्ता। मार्ग। पथ (को०)।
⋙ मारु पु †
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'मार'।
⋙ मारूअ ‡
संज्ञा पुं० [सं०] मरू देश। मारू नाम का देश। मरू धरा देश। उ०— कालि कहल पियाए साझे हिर जाएव मोये मारूअ देस।—विद्यापति, पृ० ११७।
⋙ मारुका
संज्ञा स्त्री० [सं० मारी] तांत्रिकों की एक देवी। मरी। चंड़ी मारी।
⋙ मारूत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। पवन। हवा।२. वायु का अधिपति देवता। य़ौ०— मारूतनंदन=मारूतसुत। वायुपुत्र मारूततनय=हनुमान। ३. विष्णु (को)। ४. हस्ति शुंड़ (को०) ५. स्वाती नक्षत्र (को०)।
⋙ मारूतसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनूमान।ल०— मारुतसुत में कपि हनुमाना।— मानस, ७। ५। २. भीम।
⋙ मारुतात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मारूतसूत'।
⋙ मारूतापह
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण वृक्ष।
⋙ मारूतायन
संज्ञा पुं० [सं०] गवाक्ष। वातायन। खिड़की [को०]।
⋙ मारूताशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिकेय। २. साँप। सर्प।
⋙ मारूति
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान। २. भीम।
⋙ मारुती
संज्ञा स्त्री० [सं०] पश्चिमोत्तर दिशा। वायव्य दिशा [को०]।
⋙ मारूदेव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन पर्वत का नाम।
⋙ मारूध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम।
⋙ मारू (१)
संज्ञा पुं० [हि० मारना] १. राग जो युद्ध के समय बजाय़ा और गाया जाता है। उ०— (क) भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई। —तुलसी (शब्द०)। (ख) सैयद समर्थ भूप अली अकवर दल चलन बजाय मारू दुंदुभी धुकान की।— गुमान (शब्द०)। (ग) मारवणी भगताविया मारू राग निपाई। दूहा संदेश तणों दीया तियाँ सिखाई।—ढ़ोला०, दु० १०९। (घ) रण की टंकार गडे दुंदुंभी में मारू बाजे तेरे जीय ऐसी रुद्र मेरी ओर लरैगी।— हनुमान (शब्द०)। २. बहुत बड़ा डंका या नगाड़ा। जंगी धौसा। उ०— उस काल मारू जो बजाता था, सो तो मेघ सा गजता था।— लल्लू (शब्द०)। विशेष— इसमें सब शुद्ध स्वर लगते है। यह श्री राग का पुत्र माना जाता है। इसे 'माँड़' और 'माँणा' भी कहते है। वीर रस का व्यंजक यह राग शृंगार रस का भी प्रावही है। मारवाड़ में यह राग विशेष लोकप्रिय है।
⋙ मारू (२)
संज्ञा पुं० [सं० मरूभुमि] १. मरुदेश के निवासी। मारवाड़ के रहनेवाले। उ०— प्यासे दुपहर जेठ के थके सबै जल सोध। मरू धर पाय मतीरहु मारू कहत पयोवि। —बिहारी (शब्द०)। २. मरू देश। मारवाड़। उ०—(क) मारू देस उपन्नियाँ सर ज्यउँ पध्यरियाह। — ढोला० दू० ६६७। (ख) मारू काँमिणि दिखणी धर हरि दीपइ तउ होइ।— ढ़ोला०, दु० ६६८।
⋙ मारू (२)
वि० [सं० मारना] १.मारनेवाला। २. ह्वदयवेधक। कटीला। उ०— काजल लगे हुए मारू नयनों के कटाक्ष अपने सामने तरुणियों को क्या समझते थे। गदाधरसिह (शब्द०)।
⋙ मारू (४)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का शाहबलूत। विशेष—यह शिमले और नैनीताल में अधिकता से पाया जाता है। इसकी लकड़ी केवल जलाने और कोयला बनाने के काम में आती है। इसके पत्ते और गोंद चमड़ा रंगने में काम आते है। २. काकरेजी रंग।
⋙ मारूजा
संज्ञा पुं० [अं० मारूजह] १. प्रार्थना। निवेदन। २. प्रार्थनापत्र। अर्जी [को०]।
⋙ मारुत (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० मारना?] धोड़ो के पिछले पैरो की एक भौरि जो मनहुस समझी जाती है।
⋙ मारूत (२)
संज्ञा पुं० [सं० मारूति] हनुमान (ड़ि०)।
⋙ मारूफ
वि० [अ० मारूफ] १. प्रसिद्ध। विश्रुत। ख्यात। उ०— जो कि एक मशहुर और मारूफ खानदानी है। —प्रेमघन०, भा०, २. पृ० ९०। २. जिसका कर्ता मालूम हो (किया)।
⋙ मारे
अव्य [हि० मरना] वजह से। कारण से। उ०— (क) नैन गए फिर, फेन वहै मुख, चैन रह्वो नहि मैन के मारे। पद्माकर (शब्द०)। (ख) परेतु आश्रम की छोड़ते हुए दुःख के मारे पाँव आगे नहीं पड़ती।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। (ग) मेरे नाम से चूल्हे की राख भी रखी रहे, तौ भी लोगों के मारे बचने नहीं पाती।— दुर्गाप्रसाद मिश्र (शब्द०)। (घ) कुँवर कहों वे बुद्ध बिचारे। छाँड़ेन धर्म के मारे।— रघुनाथदास (शब्द०)। (ड़ं) तिस समय एक बड़ी आधी चली कि जिसके सारे पृथ्वी ड़ोलने लगी।— लल्लुलाल (शब्द०)।
⋙ मार्कड़
संज्ञा पुं० [सं० मार्कण्ड़] दे० 'मार्कड़ेय'।
⋙ मार्कड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्कण्ड़िका] परवल के आकार का एक छोटा फल जिसकी तरकारी बनती है। ककोड़ा। विशष दे० 'खेक्सा'।
⋙ मार्कडे़य
संज्ञा पुं० [सं० मार्कण्ड़ेय] मृकंड़ ऋषि के पुत्र जिनके विषय मे यह प्रसिद्ध है कि वे अपने तपोवल से सदा जीवित रहते है और रहेंग।
⋙ मार्कड़ेय पुराण
संज्ञा पुं० [सं० मार्कण्डे़य पुराण] अट्ठारह मुख्य पुराणो मे से एक। विशेष—इसमें तव सहस्त्र श्लोक है। जैमिनी ऋषि के समक्ष शकुनि को संबोधित कर मार्कड़ेय ऋषि ने इसे कहा है। इस प्रकार यह पक्षी और माकेड़ेय ऋषि के संवाद रूप में है। प्रसिद्ध दुर्गा सप्तशती इसी का एक अंश हे।
⋙ मार्क (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. दे० 'मार्का' २. जर्मनी में चलनेवाला चाँदी का एक सिक्का। विशेष— यह प्रायः एक शिलिग या बारह आने मुल्य के बरावर होता है।
⋙ भार्क (२)
संज्ञा पुं० [सं०] भृंगराज। भँगरँया।
⋙ मार्कट
वि० [सं०] मर्कट संबंधी। वानरी। यौ०—मार्कट पिपीलिका=छोटा और काला एक प्रकार की चिउँटा।
⋙ मार्कर, मार्कव
संज्ञा पुं० [सं०] भृंगराज। भँगरीया।
⋙ मार्का
संज्ञा पुं० [अं०] कोई अंक वा चिह्न जो किसी विशेष बात का सूचक हो। चिह्न। संकेत। छाप।
⋙ मार्केट
संज्ञा पुं० [अं०] बाजार। हाट।
⋙ माक्विस
संज्ञा पुं० [अं०] [स्त्री० मार्शीनेस] इंगलैड़ के सामंतों और बड़े बड़े भुन्याधिकारियों को वंशपरंपरा के लिये दी जानेवाली एक प्रतिष्ठासुचक उपाधि जिसका दर्जा ङ्युक के बाद है। विशेष दे० 'ङ्युक'।
⋙ मार्ग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रास्ता। पंथ। २. गुदा। ३. कस्तुरी। ४. अगहन का महीना। उ०— हिम ऋतु मार्ग मास सुखमूला। ग्रह तिथि नखत योग अनुकूला। —रघुनाथदास (शब्द०)। ५. मृगशिरा नक्षत्र। ६. विष्णु। ७. लाल अपामार्ग।
⋙ मार्ग (२)
वि० [सं०] मृग संबंधी।
⋙ मार्गक
संज्ञा स्त्री० [सं०] अगहन का महीना।
⋙ मार्गण
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अन्वेपण। ढुँढंना। २. प्रेम। ३. याचक। भिखमंगा। ४. याचना। निवेदन (को०)। ५. वाण। तीर (को०)। ६. एक संख्या। पाँच की संख्या (को०)।
⋙ मार्गणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. याचक। भिक्षुक। २. निवेदक। निवेदन। करनेवाला [को०]।
⋙ मार्गतोरण
संज्ञा पुं० [सं०] स्वागत, अभिनंदन आदि के निमित्त मार्ग में बनाया हुआ तोरण।
⋙ मार्गद
संज्ञा पुं० [सं०] केवट।
⋙ मार्गदर्शक
वि० पु० [सं०] [वि० स्त्री० मार्गदर्शिका] पथ- प्रदर्शक। रास्ता दिखानेवाला।
⋙ मार्गद्रंग
संज्ञा पुं० [सं० मार्गद्रङ्ग] रास्तें पर बसा हुआ ग्राम शहर, कसवा आदि।
⋙ मार्गधिनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक योजन का परिमाण। चार कोस।
⋙ मार्गधेनुक
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मार्गधेनु'।
⋙ मार्गन पु
संज्ञा पुं० [सं० मार्गण] बाण। तीर।
⋙ मार्गनिरोधक
संज्ञा पुं० [सं०] चलते रास्ते को खराव करना या रोकना। विशेष— कौटिल्य के समय में इसके लिये भिन्न भिन्न दंड़ नियत थे।
⋙ मार्गप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भार्गपति'।
⋙ मार्गपति
संज्ञा पुं० [सं०] राज्य का वह कर्मचारो जो मार्गों का निरीक्षण करता हो।
⋙ मार्गपरिणायक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मार्गदर्शक' [को०]।
⋙ मार्गपाली
संज्ञा पुं० [सं०] राह का रक्षक स्तंभ जिसकी स्थापना और पूजा एक देवी के रूप में की जाती थी [को०]।
⋙ मार्गप्रवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] नदा मार्ग या पंथ चलानेवाला। धर्म या आचार का नया ढ़ंग सिखानेवाला।उ०— गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह में मार्गप्रवर्तको के ये नाम गिनाए गए है।— हतिहास, पृ० १५।
⋙ मार्गबध
संज्ञा पुं० [सं०] रास्ता रोकने के लिये निर्मित प्राचीर या पत्थर, वल्ले आदि का अवरोध।
⋙ मार्गरक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मार्गपति' [को०]।
⋙ मार्गव
संज्ञा पुं० [सं०] एक संकार जाति जिसकी उत्पति निषाद पिता और आयोगवी माता से मानो जाती है।
⋙ मार्गवटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मार्गपती' [को०]।
⋙ मार्गवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह देवी जो मार्ग चलनेवावलों की रक्षा करनेवालो मानी जाती है।
⋙ मार्गवेद
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषिकुमार का नाम।
⋙ मार्गशिर
संज्ञा पुं० [सं०] अगहन का महीना। मार्गशी्र्ष।
⋙ मार्गशिरस्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मार्गशीर्ष'।
⋙ मार्गशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अगहन का महीना।
⋙ मार्गशोधक
संज्ञा पुं० [पुं०] १. आटावेक। २.रास्ता खोजने या समझानेवाला। अग्रणी [को०]।
⋙ मार्गसंस्करण
संज्ञा पुं० [सं०] राह का संस्कार। रास्ते की सफाई। विशेष— शुक्रनीति के अनुसार रास्ते का संस्कार या सफाई प्रतिदिन होनी चाहिए।
⋙ मार्गस्थ
वि० [सं०] रास्ता चलता हुआ। [को०]।
⋙ मार्गहर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] राजमार्ग पर बना हुआ प्रासाद।
⋙ मार्गिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पथिक। यात्री। २. मृर्गा को मारनेवाला, व्याध।
⋙ मार्गित
वि० [सं०] खोजा हुआ। अन्वेषित [को०]।
⋙ मार्गी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक मूर्छना जिसका स्वरग्राम इस प्रकार है,— नि, स, रे, ग, म, प, ध। म, प, ध, नि, स, रे, ग, म, प, ध, नि, स।
⋙ मार्गी (२)
संज्ञा पुं० [सं० मार्गिन] १. मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति। रास्ता चलनेवाला। बटोही। २. पथप्रदर्शक। अगुआ।
⋙ मार्गीयव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सामगन।
⋙ मार्ग्य
वि० [सं०] १. मार्जनीय। मार्जन के योग्य। २. अन्वेषण योग्य। अन्वेषणीय [को०]।
⋙ मार्च
संज्ञा पुं० [अं०] १. अँगरेजी तीसरा मास जो प्रायः फागुन में पड़ता है। फरवरी के बाद और अप्रैल के पहल पड़नेवाला अंगरेजी महीना। २. गमन। गति। ३. सेना का कूच। सेना का प्रस्थान।
⋙ मार्ज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार्जन। २. विष्णु। ३. धोबी।
⋙ मार्जक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माजिका] माजँन या सफाई करनेवाला [को०]।
⋙ मार्जन
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साफ करने का भाव। निर्मल करना। स्वच्छ करना। २. मंत्रो द्वारा शरीर पर जल छिड़कना जो कुश द्वारा किया जाता है। उ०— फिर इस जल से मै मार्जन करुँगा। —भारतेंदु०, ग्रं, भा० १, पृ० २७१। २. सफाई। ३. लोध का वृक्ष। ४. लोध। श्वेत और रक्त लोघ्र।५. आतुरीं के लिये विहित एक प्रकार का स्नान जिसमें शिर नहीं भिगाते थे अथवा गीले वस्त्र से शरीर पोछते थे (को०)। ७. नहाना। स्नान करना।
⋙ मार्जना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सफाई। मार्जन। २. क्षमा। माफी। ३. मृदंगध्वनि।
⋙ मार्जनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झाड़ू। संभार्जनी। बुहारी। उ०— उ़ड़ती अलकै जटा बनी, बनने को प्रिय पाद मार्जनी—साकेत, पृ० ३२२। २. संगीत में मध्यम स्वर की चार श्रुतियों में से अंतिम श्रुति। ३. रजकी। धोबिन (को०)।
⋙ मार्जनी (२)
संज्ञा पुं० [सं० माजनिन्] अग्नि। अनल [को०]।
⋙ मार्जनीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।
⋙ मार्जनीय (१)
वि० मार्जन करने योग्य।
⋙ मार्जार
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मार्जारी] १. बिलार। बिल्ली। २. लाल चीता (वृक्ष) ३. पूतिसाखा।
⋙ मार्जारकंठ
संज्ञा पुं० [सं० मार्जारकण्ठ] मोर।
⋙ मार्जारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोर। २. बिल्ली।
⋙ मार्जारकरण
संज्ञा पुं० [सं०] रति को एक मुद्रा। एक प्रकार का रतिबंध [को०]।
⋙ मार्जारकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चांमुंड़ा का एक नाम।
⋙ मार्जारकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चामुंड़ा [को०]।
⋙ मार्जारगंधा
संज्ञा पुं० [सं० मार्जारगन्धा] मुदगपर्णी।
⋙ मार्जारपाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का घोड़ा जो बुरे लक्षणवाला होता है।
⋙ मार्जारलिंगी
संज्ञा पुं० [सं० मार्जारलिङ्गिन्] वह जो बिल्ली के स्वभाववाला हो [को०]।
⋙ मार्जाराक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का रत्न।
⋙ मार्जारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कस्तुरी। २. गंध नाकुली। ३. बिल्ली। मादा बिल्ली।
⋙ मार्जारी टोड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मार्जारीं+हि० टोड़ी] संपुर्ण जाति करी एक रागिनी जिसमें सब कोमल स्वर लगते है।
⋙ मार्जारीय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिल्ली। २. शुद्र। ३. वह दो अपना मार्जन करता हे। कार्यशोधन (को०)।
⋙ मार्जाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मार्जार'।
⋙ मार्जालीय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिल्ली। २. शूद्र। ३. शिव। ४. एक ऋषि का नाम। ५. दे० 'मार्जारीय'।
⋙ मार्जित (१)
वि० [सं०] स्वच्छ किया हुआ। साफ किया हुआ।
⋙ मार्जित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मार्जित] एक प्रकार का प्राचीन खाद्य पदार्थ। विशेष— यह दही, चीनी, शहह, धृत और मिर्च आदि की मिलाकर और उसमें कपुर ड़ालकर बनाया जाता था। इसको 'रसाला' भी कहते हैं।
⋙ मार्तड़
संज्ञा पुं० [सं० मार्त्तण्ड़] १. सूर्य। २.आक या मदार का वृक्ष। ३. सुअर। ४. सोनामक्खी। ५. एक सख्या। २१ की संख्या। क्योंकि सूर्य १२ कहे गए है (को०)।
⋙ मार्तड़वल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं० मार्त्तँणाड़वल्लभा] सूर्य की पत्नी। छाया।
⋙ मार्तिक
वि० [सं०] मृर्तिकानिर्मित। मिट्टी से बना हुआ [को०]। यौ०— मर्तिकशकल= मिटी् का टुकड़ा। मृतिका पिंड़।
⋙ मार्तिक (३)
संज्ञा पुं० १. कसोरा। पुरवा। २. शराब।
⋙ मार्त्तकावत
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार चेदि नामक राज्य का एक प्राचान नगर। २. उस देश का निवासी।
⋙ मार्त्य (१)
वि० [सं०] नश्वर। मरणाशील।
⋙ मार्त्य (२)
संज्ञा पुं० [सं० नश्वरता] अनित्यता। मरणाशीलता।
⋙ मार्दग
संज्ञा पुं० [सं० मादङ्ग] वह व्यक्ति जो मृदंग बजाता हो। मृदंग बजानवाला। २. नगर। शहर [को०]।
⋙ मार्दगिक
वि० [मादाङ्गिक] मृदंगवादक। मृदंग बजानेवाला।
⋙ मादव
संज्ञा पुं० [सं०] १. अहंकार का त्याग। अभिमान रहित होना। २. दुसरे को दुःखी देखकर दुःखी होना। ३. सरलता। ४. एक प्राचीन संकर जाति। इस जाति के लोग बहुत मृदु स्वभाव के होते थे। ५. मृदुता। कोमलता (को०)।
⋙ मार्दीक
संज्ञा पुं० [सं०] अंगूर को शराब।
⋙ मार्फत
अव्य० [अ० मार्फंत] द्वारा। जरीए से। जैसे,—आपकी मार्फत सब काम हो जायगा।
⋙ मार्बल
संज्ञा पुं० [अं०] संगत्परसर।
⋙ मार्मिक
वि० [सं०] १. मर्म की जाननेवाला। मर्मज्ञ। २. मर्मस्थान पर प्रभाव डालनेवाला। जिसका प्रभाव मर्म पर पड़े। विशेष प्रभावशाली। जैसे, मार्मिक व्याख्यान। मार्मिक कवित्त। उ०—किसी अर्थपिशाच, कृपण को देखिए जिसने केवल अर्थ- लोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, श्रद्धा, भक्ति आत्माभिमान आदि भावों को एकदम दबा दिया है और संसार के मार्मिक पत्त से मुँह लिया है।—रस०, पृ० २४।
⋙ मार्मिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मार्मिक होने का भाव। २. किसी वस्तु के मर्म तक पहुँचने का भाव। पुर्ण अभिज्ञता। जैसे,— संगीत के संबंध में आपकी मार्मिकता प्रसिद्ध है।
⋙ मार्मिकपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मर्मस्पर्शी अंश। हृदय को प्रभावित करनेवाला भाग। मन को द्रवित करनेवाला अंग। उ०—औऱ संसार के मार्मिक पत्त से मुँह मोड़ लिया है।—रस०, पृ० २४।
⋙ मार्शल
संज्ञा पुं० [अं०] सेना का एक बहुत बड़ा अफसर जो प्रधान सेनापति या समरसचिव के अधनी होता है।
⋙ मार्शल ला
संज्ञा पुं० [अं०] सैनिक व्यवस्था या शासन। फौजी कानुन या हुकुमत। विशेष—समर, विद्रोह या इसी प्रकार के आपत्काल में साधारण कानुन या दंडविधान से काम चलता न देखकर देश का शासन- सुत्र सैनिक अधिकारियों के हाथ में दे दिया जाता है और इसकी घोषणा कर दी जाती है। सैनिक अधिकारी इस संकट काल में विद्रोह आदि दमन करने में, कठोर से कठोर उपायों का अवलंबन करते हैं।
⋙ मार्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मारिष'।
⋙ मार्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] मरसा का साग। मारिष शाक [को०]।
⋙ मार्ष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मार्जिन। शोधन। २. शरीर में तैल लगाना [को०]।
⋙ माल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षेत्र। ऊँचा क्षेत्र। ऊँचा भुखंड। २. कपट। ३. बन। जंगल। उ०—चकित चहुँ दिसि चहति, विधुर जनु मृगी माल तै।—नंद० ग्रं०, पृ० २७०। ४. हरताल। ५. विष्णु। ६. एक प्राचीन अनार्य जाति। भागवत में इसे म्लेच्छ लिखा है। ७. एक देश का नाम जो बंगाल के पश्चिम वा दक्षिणपश्चिम की ओर है। इसे मेदिनी- पुर कहते हैं।
⋙ माल (२)
संज्ञा पुं० [सं० मल्ल] कुश्ती लड़नेवाला। दे० 'मल्ल'। उ०—(क) कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अति बल गर्जहीं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) योगी घर मेले सब पाछे। उतरे माल आए रनं काछे।—जायसी (शब्द०)। ‡२. राजपथ या सड़क के आस पास की वह भूमि जो कच्चा हो।
⋙ माल (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० माला] १. माला। हार। उ०—(क) विनय प्रेम बस बई भवानी। खसी माल मुरति मुसुकानी।— तुलसी (शब्द०)। (ख) पहिर लियो छन माँझ असुर बल औरउ नखन बिदारी। रुधिर पान करि आँत माल धरि जय जयशब्द पुकारी।—सुर (शब्द०)। (ग) चंदन चित्रित रंग, सिंधु राज यह जानिए। बहुत बाहिनौ संग मुकुता माल विसाल उर।—केशव (शब्द०)। (घ) कितने काज चलाइयतु चतुराई की चाल कहे देत गुन रावरे सब गुन निर्गुन माल।—बिहारी (शब्द०)। २. वह रस्सी वा सुत की डोरी जो चरखे में मुड़ी वा वेलन पर से होकर जाती है और टेकुए को घुमाती है। †२. चौड़ा मार्ग। चौड़ी सड़क। ४. पंक्ति। पाँती। उ०— (क) सेवक मन मानस मराल से। पावनं गंग तरंग माल से।— तुलसी (शब्द०)। (ख) बालधी विसाल बिकराल ज्वाल माल मानो लंक लीलिबे को काल रसान पसारी है।—तुलसी (शब्द०)।(ग) धाम धामनि आगि की बहु ज्वाल माल बिरा- जहीं। पवन के झकझोर ते झँझरी झतोखे बाजहीं।—केशव (शब्द०)। (घ) गीधन की माल कहुँ जंबुक कराल कहुँ नाचत बैताल लै कपाल जाल जात से।—हनुमत्राटक (शब्द०)।
⋙ माल (४)
संज्ञा पुं० [अ०] १. संपत्ति। धन। उ०—(क) भली करी उन श्याम बंधाएँ। बरज्यो नहीं कह्यो उन मेरी अति आतुर उठि धाए। अल्प चोर बहु माल लुभाने संगी सबन धराए। निदारे गए तैसो फल पायो अब वे भए पराए।—सूर (शब्द०)। (ख) धाम औ धरा को माल बाल अबला को असि तजत परात राह चहत परान की।—गुमान (शब्द०)। (ग) माखन चोरी सों अरी परकि रहेउ नँदलाल। चोरन लागै अब लखौ नेहिन को मन माल।—रसनिधि (शब्द०)। यौ०—मालखाना। मालगाड़ी। मालगोदाम। मालजामिन, माल मनकूला। माल गैरमनकूला।मालदार आदि। मुहा०—माल उड़ाना=(१) बहुत रुपया खर्च करना। घन का अपव्यय करना। (२)किसी की संपत्ति को हड़प लेना। दुसरे का माल अनुचित रुप से ले लेना। माल काटना=किसी के धन को अनुचित रुप से अधिकार में लाना। माल उड़ाना। माल चीरना=पराया धन हड़पना। माल उड़ाना। माल मारना। माल मारना=अनुचित रुप से पराए घन पर अधिकार करना। पराया धन हड़पना। दुसरे की संपत्ति दबा बैठना। २. सामग्री। समाना। असबाब। उ०—(क) कहो तुमहिं हम को का वुझाते। लै लै नाम सुनावहु तुम हीं मो सों कहा अरुझति। तुम जानति मैं हुँ कछु जानत जी जो माल तुम्हारे। डारि देहु जा पर जो लागै मारग चलै हमारे।—सुर (शब्द०) (ख) मिती ज्वार भाटा हु की शीघ्र ही निकारै। लोग कहत हैं भरे माल कुँ कुति हु डारै।—श्रीधर (शब्द०)। मुहा०—माल काटना=चलती रेल गाड़ी में से या मालगुदाम आदि में से माल चुराना। माल टाल=धन संपत्ति। माल असबाब माल मता=माल असबाब। माल मस्ती=धन का मद। माल की मस्ती। माल महकमा=माल का महकमा या विभाग। राजस्व संबंधी विभाग। ३. क्रय विक्रय का पदार्थ। ४. वह धन जो कर में मिलता है। ५. फसल को उपज। ६. उत्तम और सुस्वादु भोजन। मुहा०—माल उड़ाना=सुस्वादु और बहु मुल्य भोजन करना। ७. गणित में वर्ग का घात। वर्ग अंक। ८. किसी वस्तु का सार द्रव्य। वह द्रव्य जिससे कोई चीज बनी हो। जैसे,—(क) इस अंगुँठी का माल अच्छा है। (ख) इस कड़े का माल खोटा है। (ग) एक बीधे पोस्त से दो सेर अच्छा माल निकलता है। ९. सुंदर स्त्री। युवती। (बाजारू)।
⋙ माल (४)
प्रत्य० [फा़०] मला दला। मर्दित। जैसे, पामाल=पैरों से मर्दिप या मला दला।
⋙ मालकँगनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० माल+कँगनी] औषध के काम आनेवाली एक लता का नाम। विशेष—यह लता हिमालय पर्वत पर झेलम नदी से आसाम तक ४००० फुट की ऊँचाई तक, तथा उत्तरीय भारत, वर्मा और लंका में पाई जाती है। इसकी पत्तियाँ गोल और कुछ कुछ नुकीली होती है। यह लता पेड़ों पर पैलती है और उन्हें आच्छादित कर लेती है । चैत के महीने में इसमें घौद के घौद फुल लगते हैं औऱ सारी लता फुलों से लदी हुई दिखाई पड़ती है। फुलों के झड़ जाने पर इसमें नीले नीले फल लगते हैं जो पकने पर पीले रंग के और मटर के बराबर होते हैं और जिनके भीतर से लाल लाल दाने निकलते हैं। इन दानों में तेल का अंश अधिक होता है जिससे इन्हें पेरकर तेल निकाला जाता है। मद्रास में उत्तरीय अरकाट तथा विशाखापटम, दलौरा आदि स्थानों में इसका तेल बहुत अधिक तैयार होता है। यह तेल नारंगी रंग का होता है और औषध में काम आता है। वैद्यक के अनुसार इसका स्वाद चरपरापन लिए कड़ुवा, इसकी प्रकृति रुक्ष और गर्म तथा इसका गुण अग्नि, मेघा स्मृतिवर्धक और वात, कफ तथा दाह का नाशक बतलाया गया है। पर्या०—महाज्योतिष्मती। तीक्ष्ण। तेजोवती। कनकप्रभा। सुरलता। अग्निफला। मेघावती। पीता, इत्यादि।
⋙ माल अदालत
संज्ञा स्त्री० [अ० माल+अदालत] वह अदालत जिसमें लगान, मालगुजारी आदि के मुकदमे दायर किए जाते हैं।
⋙ मालकँगुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मालकँगनी१'।
⋙ मालक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थल पद्म। २. नीम। ३. गाँव के समीप का वन (को०)। ४. नारियल का बना पात्र (को०)। ५. पर्ण- शाला। निकुंज। लतामंडप (को०)। ६. माला। माल्य (को०)।
⋙ मालक ‡
संज्ञा पुं० [अं० मालिक] दे० 'मालिक'।
⋙ मालकगुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मालकँगनी'।
⋙ मालका
संज्ञा स्त्री० [सं०] माला।
⋙ मालकुंडा
संज्ञा पुं० [हिं० माल+कुंडा] वह कुंडा जिसमें नील कड़ाहे में डाले जाने से पहले रखा जाता है।
⋙ मालकोश
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग का नाम जिसे कौशिक राग भी कहते हैं। हनुमत ने इसे छह मुख्य रागों के अंतर्गत मानाहैं। उ०—भैरव मालकोश हिंदोल दीपक श्रीराग मेघ सुरहिं ले आऊ।—अकबरी०, पृ० १०५। विशेष—यह संपुर्ण जाति का राग है। इसका स्वरुप वीररस- युक्त, रक्त, वर्ण, वीर पुरुषों से आवोष्टित हाथ में रक्त वर्ण का दंड लिए और गले में मुंडमाला धारण किए लिखा गया है। कोई कोई इसे नील वस्त्रधारी, श्वेत दंड लिए और गले में मोतियों को माला धारण किए हुए मानते हैं। इसकी ऋतु शरद् और काल रात का पिछला पहर है। कोई कोई शिशिर और वसंत ऋतु को भी इसकी ऋतु बतलाते हैं। हनुमत् के मत से कौशिकी, देवगिरी, दरवारी, सोहनी और नीलांबरी ये पाँच इसकी प्रियाएँ और वागेश्वरी, ककुभा, पर्यका, शोभनी और खंभाती ये पाँच भार्याएँ तथा माधव, शोभन, सिंधु, मारु मेवाड़ कुंतल, केलिंग, सोम, बिहार और नीलरंग ये दस पुत्र हैं। परंतु अन्यत्र वागेश्वरी, बाहर, शहाना, अताना, छाया ओर कुमारी नाम की इसकी रागिनियाँ, शंकरी और जयजय- वंती सहचरियाँ, केदारा, हम्मीर नट, कामोद, खम्माच और वहार नामक पुत्र और भुपाली, कामिनी, झिंझोटी, कामोदी और विजया नाम की पुत्रबधुंए मानी गई हैं। कुछ लोग इसे संकर राग मानते है और इसकी उत्पत्ति पटसारंग, हिंडोल, बसंत,जयजयवंती और पंचम के योग से बतलाते हैं। रागमाला में इसे पाटल वर्ण, नीलपरिच्छद, यौवनमदमत्त, यष्टि- धारी और स्त्री गण से परिवेष्ठित, गले में शत्रुओं के मुंड की माला पहने; हास्य में निरत लिखा है; और चौड़ी, गौरी, गुणकरी, खंभाती और ककुभा नाम की पाँच स्त्रियाँ, मारु, मेवाड़, बड़हंस, प्रबल, चंद्रक, नंद, भ्रमर और खुखर नामक आठ पुत्र बतलाए हैं; और भरत ने गौरी, दयावती, देवदाली, खंभावती और कोकभा नाम की पाँच भार्याएँ और गांधार शुद्ध, मकर, त्रिंजन, सहान, भक्तवल्लभ, मालीगौर और कामदेव नामक आठ पुत्र और धनाश्री, मालश्रा, जयश्री, सुधारायी, दुर्गा, गांधरी, भीमपलाशी और कामोदी नाम की उनकी भार्याएँ लिखी हैं।
⋙ मालकोस
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मालकोश'।
⋙ मालकौश
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग। दे० 'मालकोश'। उ०— ज्यों मालकौश नव वीणा पर।—अपरा, पृ० १७६।
⋙ मालखाना
संज्ञा पुं० [फा० मालखानह्] वह स्थान जहाँ पर माल असबाब जमा होता हो वा रखा जाता हो। भंडार।
⋙ मालगाड़ी
संज्ञा पुं० [हिं० माल+गाड़ी] रेल में वह गाड़ी जिसमें केवल माल असबाब भरकर एक स्थान से दुसरे स्थान पर घहुँचाया जाता है। ऐसी गाड़ियों में यात्री नहीं जाने पाते।
⋙ मालगुजार
संज्ञा पुं० [फा़० माल+फा़० गुजार] १. मालगुजारी देनेवाला पुरुष। २.मध्यप्रदेश में एक प्रकार के जमींदार जो किसानों से वसुल करके मालगुजारी सरकार को देते थे।
⋙ मालगुजारो
संज्ञा स्त्री० [फा़० मालगुजार+ई (प्रत्य०)] १. वह भूमिकर जो जमींदार से सरकार लेती हैं। २. लगान।
⋙ मालगुर्जरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संपुर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। कुछ लोग इसे गौरी और सौरठ से बनी हुई संकर रागिनी मानते है।
⋙ मालगोदाम
संज्ञा पुं० [हिं० माल+अं० गोडाउन> हिं० गोदाम] १. वह स्याम जहाँपर व्यापार का माल रखा जाता है या जमा रहता है। २. रेल के स्टेशनों पर वह स्थान जहाँ मालगाड़ी से भेजा जानेवाला अथवा आया हुआ माल रहता है।
⋙ मालचक्रक
संज्ञा पुं० [सं०] पुट्ठे पर का वह जोड़ जो कमर के नीचे जाँघ की हड्डी और कुल्हे में होता है। कुल्हा। चक्का।
⋙ मालची पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मालती] दे० 'मालती'। उ०—(क) कहुँ नागवेली निवेली निवेसलं। कहुँ मालची घेरि भौरं सुवेसं। (ख) कहुँ दाड़िमी पिड षज्जर झुल्ली। कहुँ मालची मल्ल भर भार भल्ली।—पृ० रा०, २। ४७१।
⋙ मालजातक
संज्ञा पुं० [सं०] गंधाविडाल। गंधमार्जार।
⋙ मालजादा
संज्ञा पुं० [फा़० मालजादह्] रंडी का लड़का। वैश्या का पुत्र।
⋙ मालजादी
संज्ञा स्त्री० [फा़० मालजादी] १. वेश्यापुत्री। २. व्यभि- चारिणी औरत। ३. एक गाली [को०]।
⋙ मालजामिन
संज्ञा पुं० [फा़० मालजा़मिन] नकद जमानत देने या करनेवाला।
⋙ मालटा
संज्ञा स्त्री० [अं० माल्टा] एक प्रकार की लाल रंग की नारंगी। विशेष—देखने में यह बहुत सुंदर और खाने में बहुत स्वादिष्ट होती है। गुजराँवाला और लखनऊ में यह बहुतायत से होती है।
⋙ मालत पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मालति] दे० 'मालती'। उ०—है इंद्रावति आप अकेली। कमल चमेली मालत बेली।— इंद्रा०, २७।
⋙ मालति पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मालती'। उ०—(क)सरद राति मालति सघन फुलि रही बन बास। दीपक माला काम की हरि भय मुक्किय त्रास।—पृ० रा०, २। ३९०। (ख) कुसुम माल असि मालति पाई।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ३३५।
⋙ मालतिमाल पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मालतिमाला] मालती के फुलों की माला। उ०—अच्युतचरन तरंगिनी सिव सिर मालतिमाल। हरि न बनायो सुरसरी कीनो इंदव भाल।
⋙ मालतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
⋙ मालती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की लता का नाम जिसके फुलों में भीनी। मधुर सुंगध होती है। उ०—(क) सोनजर्द बहु फुली सेवती। रुपमंजरी और मालती।—जायसी (शब्द०)। (ख) देखहु घों प्राणपति निकल अली की गति, मालती सों मिल्यो चाहै लीने साथ आलिनी।—केशव (शब्द०)। (ग) घाम घरीक निवारिए कलित ललित अलि पुंज। जमुना तीर तमाल तरु मिलित कुंज। बिहारी (शब्द०)।विशेष—यह लता हिमालय और विंघ्य पर्वत के जंगलों में अधि- कता से होती है। इसकी पत्तियाँ लंबोतरी और नुकीली, ढाई तीन अंगुल चौड़ी और चार पाँच अंगुल लंबी होती हैं। यह युग्मपत्रक लता है और बड़े से बड़े वृक्ष पर भी घटाटोप फैलती है। इसमें फुलों के धोद लगते हैं। बरसात के प्रारंभ में फूलती है। फूल सफेद होता है जिसमें पंखुड़ियाँ होती है, जिनके नीचे दो अंगुल का लंबा डंठल होता है। इस फुल में भीनी मधुर सुगंध होती है। फूल झड़ने पर वृक्ष के नीचे फूलों का विछोना सा बिछ जाता है। जब वह लता फूलती है, तब भोरें और मधुमक्खियाँ प्रातःकाल उसपर चारों ओर गुंजारती फिरती हैं। यह उद्यानों में भी लगाई जाती है; पर इसके फैलने के लिये बड़े वृक्ष या मंडप आदि की आवश्यकता होती है। यह कवियों की बड़ी पुरानी परिचित पुष्पलता है। कालिदास से लेकर आज तक प्रायःसभी कवियों ने अपनी कविता में इसका वर्णन अवश्य किया है। कितने कोशकारों ने भ्रमवश इसे चमेली भी लिखा है। २. छह अक्षरों की एक वर्णभुति का नाम। इसके प्रत्येक चरण में दो जगण होते हैं। उ०—जो पय जिय जोर। तजौ सब शोर। सरासन तोरि। लहौ सुख कोरि। केशव (शब्द०)। ३. बारह अक्षरों की एक वर्णिक वृत्ति का नाम। इसके प्रत्येक चरण में नगण, दो जगण और अंत में रगण होता है। उ०— विपिन विराध बलिष्ठ देखिए। नृपतनया भयभीत लेखिए। तब रघुनाथ बाण कै हयो। निज निर्णावा पंथ को ठयो।— केशव (शब्द०)। ४. सवैया के मत्तगयंद नामक बेद का दुसरा नाम। ५. युवती। ६. चाँदनी। ज्योत्स्ना। ७. रात्रि। रात। ८. पाठा। पाढ़ा। ९. जायफल का पेड़। जाती।
⋙ मालतीक्षारक
संज्ञा पुं० [सं०] सोहागा।
⋙ मालतीजात
संज्ञा पुं० [सं०] सोहागा।
⋙ मालती टोड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मालती+टोड़ी] संपुर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
⋙ मालतीतीरज
संज्ञा पुं० [सं०] सोहागा।
⋙ मालतीपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जातीपत्री। जावित्री।
⋙ मालतीफल
संज्ञा पुं० [सं०] जायफल।
⋙ मालतीमाधव
संज्ञा पुं० [सं०] नाट्यकार भवभुति का एक प्रसिद्ध नाटक।
⋙ मालतीमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मालतीपुष्पों की माला। मालती के फुलों का हार। २. एक प्रकार का छंद [को०]।
⋙ मालद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाल्मीकीय रामायण के अनुसार एक प्रदेश का नाम जिसे ताड़का ने उजाड़ दिया था। २. मार्केंडेय पुराण के अनुसार एक अनार्य जाति का नाम।
⋙ मालदह
संज्ञा पुं० [देश०] १. भागलपुर के पास के एक नगर का नाम जहाँ का आम अच्छा होता है। २. उक्त नगर के आसपास होनेवाला एक प्रकार का बड़ा आम जो प्रायः कलमी होता है।
⋙ मालदहा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मालदह'। उ०—तब तक कहीं माल- दहा (लँगड़ा) का भी समय न चला जाए।—किन्नर० पृ० ८२।
⋙ मालदही
संज्ञा स्त्री० [हिं० मालड़ह] १. एक प्रकार की नाव जिसमें माझी छप्पर के नीचे बैठकर खेते हैं। २. एक प्रकार का रेशमी डोरिया (कपड़ा) जो पहले मालदह में वतना था और जिसके लहँगे बनाए जाते थे।
⋙ मालदा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मालदह'।
⋙ मालदार
वि० [फा़०] धनवान। धनी। संपन्न।
⋙ मालद्धीप
संज्ञा पुं० [सं० मलयद्वीप] भारतीय महासागर में भारत- वर्ष के पश्चिम ओर के एक द्वीपपुंज का नाम। इस द्वीपपुंज में चार छोटे छोटे द्वीप हैं।
⋙ मालधनी
संज्ञा पुं० [अ० माल+सं० धनिन्] माल का मालिक। धन का धनी या स्वामी। उ०—पाप पुन्य मिलि करहिं दिवानी, नगरी अदल न हो। दिवस चोर घर मुसन लागे मालधनी गा सोई।—पलटु०, भा० ३, पृ० ९८।
⋙ मालन
संज्ञा स्त्री० [सं० मालिन्] दे० 'मालिन'।
⋙ मालपुआ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मालपुआ'।
⋙ मालपूआ
संज्ञा पुं० [हिं० माल+सं० पूप] एक पकवान का नाम। विशेष—गेहुँ के आटे वा सुजी को शक्कर के रस से गीला घोलते हैं। फिर उसमें चिरौजी, पिस्ता आदि मिलाकर धीमी आँच पर घी में थोड़ा थोड़ा डालकर सिझाकर छान लेते है। कभी कभी पानी की जगह घोलते समय इसमें दुध वा दही भी मिलाते हैं।
⋙ मालपूवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मालपूआ'।
⋙ मालबरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मालबार] एक प्रकार की ईख जो सुरत में होती है।
⋙ मालभंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मालभञ्जिका] प्राचीन काल के एक प्रकार के खेल का नाम। प्राचीन काल की एक क्रीड़ा।
⋙ मालभंडारी
संज्ञा पुं० [हिं० माल + भंडारी] जहाज पर का वह कर्मचारी जिसके अधिकार में लदे हुए माल रहते हैं। (लश०)।
⋙ मालभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं० मल्लभूमि] एक प्रदेश का नाम जो नैपाल के पूर्व में है।
⋙ मालमंत्री
संज्ञा पुं० [अ० माल+सं० सं० मंत्री] राजस्व विभाग का मंत्री।
⋙ मालय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंदन। २. गरुड के पुत्र का नाम। ३. व्यापारियों का झुंड। ४. पथिकों, यात्रियों के ठहरने की जगह (को०)। ५. चंदन निर्मित अभ्यंजन वा अनुलेप (को०)।
⋙ मालय (२)
वि० मलय संबंधी। मलय गिरि संबंधी।
⋙ मालव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मालवा देश। यौ०—मालव गौड़। मालवदेश=मालवा। मालवनुपति। मालव- विषय=मालव देश। मालवाधीश, मालवैंद्र=मालव देश का नृपति। २. एक राग का नाम, जिसे भेंरव राग भी कहते हैं। विशेष—संगीतदामोदर में इसका रुप माला पहने, हरित वस्त्रधारी,कानों में कुंडल धारण किए, संगीतशाला में स्त्रियों के साथ वैठा हुआ लिखा है। इसकी धनाश्री, मालश्री, रामकीरी, सिंघुड़ा, आसावरी और भैरवीनाम को छह रागनियाँ हैं। कोई कोई इसे षाड़व जाति का और कोई संपुर्ण जाति का राग मानते हैं। षाड़व माननेवाले इसमें 'मध्यम' स्वर वर्जित मानते हैं। यह रात को १६ दंड से २० दंड तक गाया जाता है। ३. मालव देशवासी वा मालव देश में उत्पन्न पुरुष। ४. सफेद लोध।
⋙ मालव (२)
वि० मालव देश संबंधी। मालवे का।
⋙ मालवक (१)
वि० [सं०] मालवा देश संबंधी। मालवे का।
⋙ मालवक (२)
संज्ञा पुं० मालव देश का निवासी।
⋙ मालवगौड़
संज्ञा पुं० [सं०] पाड़व जाति का एक संकर राग जिसमें पंचम स्वर नहीं लगता। विशेष—इसका स्वरग्राम म, ध, नि, स, रि, ग, म, है। इसका उपयोग वीर रस में किया जाता है। कुछ लोग इसे संपुर्ण जाति का मानते है और इसके गाने का समय सायंकाल बतलाते हैं।
⋙ मालवर
वि० [अ० माल+फा़० वर (प्रत्य०)] माल वा धन संपत्ति रखनेवाला। मालदार। मालवाला। उ०—यहाँ के लोग तो बड़े मालवर दिखाई पड़ते हैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ६६०।
⋙ मालवर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जाति का नाम।
⋙ मालवश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्री राग की एक रागिनी का नाम। विशेष—यह संपुर्ण जाति की रागिनी है और इसके गाने का समय सायंकाल है। नारद इसे मालव की रागिनी मानते है और हनुमत् इसे हिंडोल राग की रागिनी लिखते हैं। हनुमत् इसे ओड़व जाति की मानते है और इसके गाने में धैवत और गांधार को वर्जित लिखते हैं। इसे मालश्री और मालसी भी कहते हैं।
⋙ मालवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मालव] एक प्राचीन देश का नाम जो अब मध्य भारत में है। विशेष—इसकी प्रधान नगरी अवंती है जो सप्तमोत्तदायिनी पुरियों में गिनी गई है और जिसे आजकल उज्जैन कहतै हैं। इंदौर भुपाल, धार, रतलाम, जावरा, राजगढ़, नृसिंहगढ़, औऱ ग्वालियर का राज्य नीमच तक इसी मालवा राज्य की सीमा के अंतर्गत है। यह बहुत प्राचीन देश है और अथर्व वेद की संहिता तक में इसका नाम मिलता हैं। २. एक राग का नाम। विशेष दे० 'मालव'-२।
⋙ मालवा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम।
⋙ मालविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] निसोथ।
⋙ मावविटपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुंभीवृक्ष।
⋙ मालविभाग
संज्ञा पुं० [अ० माल+सं० विभाग] राजस्व विभाग। उ०—युनुफ आदिल शाह के शासन काल में भी माल विभाग में अनेक हिंदु अधिकारी रख गए थे।—अकबरी०, पृ० २३।
⋙ मालवी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्री राग की एक रागिनी का नाम। विशेष—यह ओड़व जाति की है और हनुमत् के मत इसका स्वरग्राम नि, सा, ग, म, व, नि, है। इसमें ऋषभ और पंचम स्वर वर्जित है। कोई कोई इसे हिंडोल राग की रागिनी मानते हैं। २. आढ़ा नाम की एक लता। विशेष दे० 'पाढ़ा'।
⋙ मालवी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मालव + हिं० ई (प्रत्य०)] मालव देश की भाषा। उ०—विभिन्न राजस्थानी बोलियाँ तथा मालवी, कोशली या पूर्वी हिंदी, भोजपुरी इत्यादि।—पोद्धार अभि० ग्रं०, पृ० ७५।
⋙ मालवी (३)
वि० दे० 'मालवीय'।
⋙ मालवीय
वि० [सं०] मालव देश संबंधी। मालवे का। २. मालव देश का निवासी। मालवे का रहनेवाला।
⋙ मालश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मालवश्री'।
⋙ मालसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'मालवश्री'। २. एक वृक्ष का नाम। दुर्गपुष्पी (को०)।
⋙ मालहायन
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ मालांक
संज्ञा पुं० [सं० मालाङ्क] भूस्तृण।
⋙ माला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पंक्ति। अवली। जैसे, पर्वतमाला। २. फुलों का हार। गजरा। विशेष—मालाएँ प्रायः फुलों, मोतियों, काठ या पत्थर के मनकों, कुछ वृक्षो के बीजों अथवा सीने, चाँदी आदि धातुओं से बने हुए दानों से बनाई जाती है। फुल या मनके आदि धागे में गुँथे होते हैं और धागे के दोनों छोर एक साथ किसी बड़े फुल या उसके गुच्छे या दाने में पिरोकर बाँध दिए जाते हैं। मालाएँ प्रायः शोभा के लिये धारण की जाती है। भिन्न भिन्न संप्रदायों की मालाएँ भिन्न भिन्न आकार और प्रकार की होती है और उनका उपयोग भी भिन्न होता है। हिंदुओं की जप करने की मालाएं १०८ दानों या मनकों की अथवा इसके आधे, चौथाई या छठे भाग की होती है। भिन्न भिन्न संप्रदायों के लोग भिन्न भिन्न पदार्थों की मालाएँ धारण करते हैं। जैसे, वैष्णव तुलसी की, शैव रुद्राक्ष की, शक्ति, रक्त चंदन, स्फटिक या रुद्राक्ष की तथा अन्य संप्रदाय के लोग अन्य पदार्थों की मालाएँ धारण करते हैं। वह माला जिसमें अठारह या नौ दाने होते हैं, सुमिरने कहलाती है। पर्या०—माल्य। स्त्रक। मालिका। गुणिका। गुणंतिका। मुहा०—माला फेरना=जपना। जप करना। भजन करना। ३. समुह। झुंड। जैसे, मेघमाला। ४. एक नदी का नाम। ५. दुर्वा। दुव। ६. भुईँ आँवला। ७. कतार। श्रेणी। लर (को०)। ८. उपजाति छंद के एक भेद का नाम। इसके प्रथम और द्वितीय चरण में जगण, तगण, जगण और अंत में दो गुरु तथातीसरे और चौथे चरण में दो तगण, फिर जगण और अंत में दो गुरु होते हैं। ‡९. काठ की लंबी डोकिया जिसमें बच्चों के लगाने का उबटन और तेल आदि रखा जाता है।
⋙ मालाकंट
संज्ञा पुं० [सं० मालाकण्ड] १. अपमार्ग। २. एक गुल्म का नाम।
⋙ मालाकद
संज्ञा पुं० [सं० मालकन्द] एक प्रकार का कंद। विशेष—वैद्यक में इसे तीक्ष्ण, दीपन, गुल्म और गंडमाल रोग का हरनेवाला तथा वात और कफ का नाशक लिखा है। पर्या०—मालकंद। बलकंद। पंक्ति कंद। त्रिशिखदला। ग्रंथि दला। कंदलता।
⋙ मालकर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मालाकार'।
⋙ मालाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] माला। हार [को०]।
⋙ मालाकार
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मालाकारी] १. पुराणनुसार एक वर्णसंकर जाति का नाम। विशेष—ब्रह्मवेवर्त पुराण के अनुसार यह जाति विश्वकर्मा और शुद्रा से उत्पन्न है, पर पराशर पद्धति के अनुसार यह जाति तेलिन और कर्मकार से उत्पन्न कही गई है। २. माली। उ०—जैसै जल लै बाग का सिंचत मालाकार।— दीन० ग्रं०, पृ० ८९।
⋙ मालागिरी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मलयगारि] एक रंग का नाम। विशेष—यह रंग टेसु और नासफल से बनाया जाता है। सेर भर टेसु का फुल पानी में आठ दिन तक भिगोया जाया है जिसे दिन में दो बार चलाया जाता है। इसी प्रकार आध सेर नासफल की बुकनी पानी में भिगोई जाती और प्रतिदिन दो बार चलाई जाता है। फिर आठ दिन बाद दोना के रंग अलग अलग छान लिए जाते और फिर मिला लिए जाते है। फिर इसमें डेढ़ माशे हरा रंग मिला दिया जाता है और तब उसमें दो बार कपड़ा रंगा जाता है। सुगंध के लिये इसमें कपुर- कचरी की जड़ भी पीसकर मिलाई जाती है।
⋙ मालागिरी (२)
वि० मालगिरी रंग में रँगा हुआ।
⋙ मालागुण
संज्ञा पुं० [सं०] गले का हार।
⋙ मालागुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का असाध्य रोग जिसे 'लुता' कहते हैं।
⋙ मालाग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० मालाग्रंन्थि] दे० 'मालदुर्बा' [को०]।
⋙ मालातृण
संज्ञा पुं० [सं०] भूस्तुण।
⋙ मालदीपक
संज्ञा पुं० [सं०] एक अलंकार का नाम। विशेष—इसमें एक धर्म के साथ उत्तरोत्तर धर्मियों का संबंध वर्णित होता है या पूर्वकथित वस्तु को उत्तरोत्तर वस्तु के उत्कर्ष का हेतु बतलाया जाता है। इस अलंकार को कविराज मुरारिदान ने संकर अलंकार माना है और इसे दीपक तथा शृंखलालंकार का समुच्चय कहा है। जैसे,—रस सों काव्य अरु काव्य सों सोहत बचन महान। वाणी ही सों रसिक जन तिन सों सभा सुजान।
⋙ मालादू्र्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की दूध जिसमें बहुत सी गाँठें होती हैं। विशेष—इसे गंडदूर्वा, ग्रंधिदूर्वा, मालाग्रंथि भी कहते हैं। वैद्यक में इसका स्वाद मधुर, तिक्त और गुण पित्त तथा कफनाशक माना जाता है।
⋙ मालाधर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सत्रह अक्षरों के एक वर्णिक वृत का नाम जिसके प्रत्येक चरण में नगण, सगण, जगण फिर सगण और जगण और अंत में एक लघु और फिर गुरु होता है। जैसे,—फिरत हम साथ बंधु तुम्हरीहिं चिंता भरे।
⋙ मालाधर (२)
वि० जिसने माला धारण की हो। जो माला पहने हुए हो [को०]।
⋙ मालाधार
संज्ञा पुं० [सं०] दिव्यावदन के अनुसार बौद्धों के एक देवता का नाम।
⋙ मालाप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन नगरी का नाम।
⋙ मालाफल
संज्ञा पुं० [सं०] रुद्राक्ष।
⋙ मालामंत्र
संज्ञा पुं० [सं० मालमन्त्र] एक प्रकार का मंत्र।
⋙ मालामणि
संज्ञा पुं० [सं०] रुद्राक्ष।
⋙ मालामनु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मालामंत्र'।
⋙ मालामाल
वि० [फा०] धनवान्य से पूर्ण। संपन्न।
⋙ मालारिष्टा, मालारिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाची या पाटी नाम की लता जिसके पत्तों की गणना सुगंधि द्रव्य में होती है।
⋙ मालालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृक्का। असबरग।
⋙ मालाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृक्का। असवरग।
⋙ मालावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक संकर रागिनी का नाम जो पंचम, हम्मीर, नट और कामोद के संयोग से बनती है। कुछ लोग इसे मेघ राग की पुत्रवधू भी मानते हैं।
⋙ मालिंद्य
संज्ञा पुं० [सं० मालिन्द्य] एक प्राचीन पर्वत का नाम।
⋙ मालिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. माली। २. एक प्रकार की चिड़िया। ३. रजक। धोबी। ४. रंगरेज (को०)।
⋙ मालिक (२)
पुं० [अं०] [स्त्री० मालिका] १. ईश्वर। अधिपति। उ०— माया जीव ब्रह्म अनुमाना। मानत ही मालिक बौराना।— कबीर (शब्द०)। २. स्वामी। ३. पति। शौहर।
⋙ मालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पंक्ति। २. माला। ३. गले में पहनने के एक आभूषण का नाम। ४. पक्के मकान के ऊपर का खंड। रावटी। ५. द्राक्षामद्य। अंगूर की शराब। ६. मद्य। ७. पुत्री। ८. चमेली। चंद्रमल्लिका। ९. अलसी। १०. मलिन। ११. मुरा। १२. राजभवन। प्रासाद (को०)। १३. सप्तला। सातला।
⋙ मालिकाना (१)
संज्ञा पुं० [फा़० मालिकानह्] १. वह कर, दस्तूरी या हक जो मालिक अदना या कब्जेदार मालिक ताल्लुकेदार कोदेता है। २. स्वामी का अधिकार या स्वत्व। मिलकियत। स्वामित्व।
⋙ मालिकाना (२)
क्रि० वि० मालिक की भाँति। मालिक की तरह। जैसे, मालिकाना तौर पर।
⋙ मालिकी
संज्ञा स्त्री० [फा़० मालिक+ई (प्रत्य०)] १. मालिक होने का भाव। २. मालिक का स्वत्व।
⋙ मालित
वि० [सं०] १. जिसे माला या हार पहनाया गया हो। २. जो किसी दे द्वारा घिरा वा घेरा गया हो [को०]।
⋙ मालिन
संज्ञा स्त्री० [सं० मालिन्] १. माली की स्त्री। २. माली का काम करनेवाली स्त्री।
⋙ मालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मालिन+ई (प्रत्य०)] १. मालिन। २. चंपा नगरी का एक नाम। ३. स्कंद की सात माताओं में से (जिन्हें मातृकाएँ कहते हैं) एक माता का नाम। ४. गौरी। ५. एक नदी का नाम जो हिमालय पर्वत में है। विशेष—पुराणानुसार इसी के तट पर मेनका के गर्भ से शकुंतला का जन्म हुआ था। ६. मंदाकिनी। गंगा। ७. कलियारी। करियारी। ८. दुगलभा। जवासा। ९. एक वर्णिक वृत्त का नाम। विशेष—इसके प्रत्येक पद में १५ अक्षर होते हैं जिनमें पहले छह वर्ण, दसवाँ और तेरहवाँ अक्षर लघु और शेष गुरु होते हैं (न न भ य य)। जेसै,—'अतुलित बलधामं स्वर्णशैलाभदेहं' या 'दसरथ सुत द्वेषी रुद्र ब्रह्मा न भासै'। इसे कोई कोई मात्रिक भी मानते हैं। १०. मदिरा नाम की एक वृत्ति का नाम। ११. महाभारत के अनुसार एक राक्षसी का नाम। १२. मार्कंडेय पुराण के अनुसार रौच्य मनु की माता का नाम। १३. विराट के महल में गुप्त वास करते समय द्रौपदी का नाम। १४. विभीषण की माता का नाम। उ०—उनमें पुष्पोत्कटा से रावण, कुंभकर्ण; मालिनी से विभीषण तथा राका से खर और शूर्पणखा हुए।—प्रा० भा० प०, पृ० ८९।
⋙ मालिन्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलीनता। मैलापन। १. अपवित्रता। २. अंधकार। अँधेरा।
⋙ मालिमंडन
संज्ञा पुं० [सं० मालिमण्डन] पुराणानुसार एक राजा का नाम।
⋙ मालियत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कीमत। मूल्य। २. संपत्ति। धन। ३. मूल्यवान् पदार्थ। कीमती चीज।
⋙ मालिया (१)
संज्ञा पुं० [देश०] मोटे रस्सों में दी जानेवाली एक प्रकार की गाँठ जिसका व्यवहार जहाज के पाल बाँधने में होता है। (लश०)।
⋙ मालिया (२)
संज्ञा पुं० [अ० मालियह्] राजस्व। मालगुजारी। लगान [को०]।
⋙ मालियाना
अव्य० [अ० मालियानह्] राजस्व। लगान।
⋙ मालिवान पु
संज्ञा पुं० [सं० माल्यवान्] दे० 'माल्यवान्'।
⋙ मालिश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] मलने का भाव या क्रिया। मलाई। मर्दन।
⋙ माली (१)
संज्ञा पुं० [सं० मालिन्, प्रा० मालिय] [स्त्री० मालिनि, मालिन, मालन, मालिनी] १. बाग को सींचन और पौधों की ठीक स्थान पर लगानेवाला पुरुष। वह जो पौधों को लगाने और उनकी रक्षा करने की विद्या जानता और इसी का व्यवसाय करता हो। उ०—पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु। माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु।—तुलसी (शब्द०)। २. एक छोटी जाति का नाम। इस जाति के लोग बागों में फूल फल के वृक्ष लगाते, उनकी कलमें काटते, फूलों को चुनते और उनकी मालाएँ वनाते और फूल तथा माला बेचते हैं। इस जाति के लोग शूद्र वर्ण के अंतर्गत माने जाते हैं। इसके हाथ का छूआ जल ब्राह्मण क्षत्रियादि पीते हैं।
⋙ माली (२)
वि० [सं० मालिन्] [स्त्री० मालिनी] १. जो माला धारण किए हो। माला पहने हुए। २. युक्त। परिवृत। मालित (को०)।
⋙ माली
संज्ञा पुं० १. वाल्मीकीय रामायम के अनुसार सुकेश राक्षस का पुत्र जो माल्यवान् और सुमाली का भाई था। २. राजी- वगण नामक छंद का दूसरा नाम।
⋙ माली (२)
वि० [फा़०, अ० माल] माल से सबंध रखनेवाला। आर्थिक। धर्मसंबंधी। जैसे,—आजकल उसकी माली हालत खराब है।
⋙ मालीखूलिया
संज्ञा पुं० [यू० मेलांगखोलिया अ० मालनखूलिया, मालीखूलिया, मि० अं० मेलांकोली] एक प्रकार का मान- सिक रोग। खब्त। मस्तिष्कविकृति। चित्त का सशंक रहना। विशेष—इस प्रकार के रोगी प्रायः एकांत में ही रहना चाहते हैं और किसी से अधिक बातचीत नहीं करते।
⋙ मालीगौड़
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मालव गौड़'।
⋙ मालीद
संज्ञा पुं० [अं० मालिबडेना ?] एक धातु का नाम जो चाँदी की भाँति उज्वल और चमकदार होती है। विशेष—यह चाँदी से अधिक कड़ी होती है और बहुत ही तेज आँच में गलती है। इसका अटवी भार ९६ होता है। इसका क्रोमियम, टंग्स्टेन और यूरेनियम से रासायनिक संबंध है और उनके सदृश ही इससे अम्लजित् वनता और क्षार के गुणों को धारण करता है। यह सल्फेट के रूप में मिलता है।
⋙ मालीदा
संज्ञा पुं० [फा़० मालीदह्] १. मलीदा। चूरमा। २. एक प्रकार का ऊनी कपड़ा जो बहुत कोमल और गरम होता है। विशेष—यह कपड़ा काश्मीर और अमृतसर आदि स्थानों में बनता है। उनी चादर को लेकर गरम पानी में खूब मलते हैं जिससे उसके रोएँ बहुत गाढ़े और मुलायम हो जाते हैं। मालीदे की गिनती बढ़िया ऊनी कपड़ों में होती है।
⋙ मालु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक संकर जाति। दे० 'माल्ल—१' [को०]।
⋙ मालु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक लता का नाम जो पेड़ों में लिपटती है। २. नारी। स्त्री। औरत।
⋙ मालुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के मटमैले रंग का राजहंस।
⋙ मालुकाच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] अश्मंतक। वहेड़ा।
⋙ मालुद
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धमतानुसार एक बहुत बड़ी संख्या का नाम।
⋙ मालुधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का साँप। २. आठ नागों में से एक नाग का नाम। ३. महापथ।
⋙ मालुधानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लता का नाम।
⋙ मालुम पु
वि० [अ० मालूम] ज्ञात। मालूम। उ०—रिपि नारि उधार कियो, सठ केवट मीत पुनीत सुकीर्तिं लही। निज लोक दियो सेवरी खग को कपि् थाप्यो सो मालुम है सबही।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ मालू
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बेल जो बागों में शोभा के लिये लगाई जाती है। विशेष—प्रायः सारे भारत मं यह बेल जंगली दशा में पाई जाती है। साल के जंगलों में यह बहुत अधिकता से होती है। यदि इसे छाँटा या रोका न जाय तो यह बहुत जल्दी बढ़ जाती है और वृक्षों को बहुत अधिक हानि पहुँचाती है। इसकी शाखाएँ सैकड़ों फुट तक पहुँचती हैं। इसकी छाल से रेशा निकाला जाता है और उससे रस्से आदि वनाए जाते हैं। इसकी पत्तियाँ और बीज औषध में काम आते हैं और बीज भूनकर खाए भी जाते हैं। इसकी पत्तियों के छाते भी बनाए जाते हैं।
⋙ मालूक
संज्ञा पुं० [सं०] काली तुलसी। कृष्णा तुलसी।
⋙ मालूधानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता।
⋙ मालूम (१)
वि० [अ०] १. जाना हुआ। ज्ञात। उ०—मेरे सनम का किसी को मकाँ नहीं मालूम। खुदा का नाम सुना है निशाँ नहीं मालूम।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३००। २ प्रकट। प्रसिद्ध। ख्यात।
⋙ मालूम (२)
संज्ञा पुं० [अ०] जहाज का अफसर (लश०)।
⋙ मालूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेल का पेड़। २. बेल का फल। उ०— मालूर पंग श्रीखंड धूप।—पृ० रा०, ६०।७६। २. कपित्थ। कैथ।
⋙ मालेय
संज्ञा पुं० [सं०] मालाकार। माली [को०]।
⋙ मालेया
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी इलायची।
⋙ मालोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का उपमालंकार जिसमें एक उपमेय के अनेक उपमान होते हैं और प्रत्येक उपमान के भिन्न भिन्न धर्म होते हैं। जैसे,—परम पवित्र है पुनीत पृथ्वी में आज, पन प्रजापालन में जैसे अवधेस को। जाकें भुज जुगल विराजै धर्म क्षत्रिन को धारैं भुवि भार फन मंडन ज्यों सेस को। भनत मुरार सब जगत उचार रह्यौ देखौ धन्य भाग यहै मरुधर देस को। अथक समंद सो है तापहर चंद सोहै सुखमा सुरिंद सोहै नंद तखतेस को।—मुरारिदान (शब्द०)।
⋙ माल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. फूल। २. माला। ३. वह माला जो सिर पर धारण की जाय।
⋙ माल्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दमनक दौना। २. माला।
⋙ माल्यजीवक
संज्ञा पुं० [सं०] मालाकार। माला बनानेवाला। माली।
⋙ माल्यपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] सन का पेड़। सनई।
⋙ माल्यवंत
संज्ञा पुं० [सं० माल्यवत्>माल्यवान्] एक राक्षस। दे० 'माल्यवान्'। उ०—माल्यवंत अति सचिव सयाना।—मानस, ६। ४०।
⋙ माल्यवत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'माल्यवान्'।
⋙ माल्यवत्
वि० [स्त्री० माल्यवती] जो माला पहने हो।
⋙ माल्यवती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार एक प्राचीन नदी का नाम।
⋙ माल्यवती (२)
वि० स्त्री० जो माला पहने हो।
⋙ माल्यवान् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक पर्वत का नाम। विशेष—सिद्धांतशिरोमणि में इसे केतुमाल और इलावृत वर्ष के बीच का सीमापर्वत लिखा है और पर्वत से निषध पर्वत तक इसका विस्तार कहा है। २. एक राक्षस जो सुकेश का पुत्र था। विशेष—यह गंधर्व की कन्या देववती से उत्पन्न हुआ था। इसके भई का नाम सुमाली था जिसकी कन्या कैकसी से रावण की उत्पत्ति हुई थी। ३. बंबई प्रांत में रत्नगिरि जिले के अंतर्गत एक परगने का नाम।
⋙ माल्यवान् (२)
वि० [सं० माल्यवत्] [वि० स्त्री० माल्यवती] जो माला पहने हो।
⋙ माल्यवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] मालाकार। माली।
⋙ माल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की घास।
⋙ माल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्णसंकर जाति जो ब्रह्मवैवर्त में लेट पिता और धीवरी माता से उत्पन्न कही गई है। २. दे० 'मल्ल'।
⋙ माल्लवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मल्लों की विद्या या कला।
⋙ माल्ह (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'माल'।
⋙ माल्ह (२)
संज्ञा पुं० [सं० मल्ल, हिं० माल] दे० 'मल्ल'।
⋙ मावड़िया पु
संज्ञा पुं० [?] जनखा। मौगा। स्त्रियों के संपर्क में अधिक रहनेवाला। स्त्री स्वभाववाला। उ०—मेछा हंदा मुलक में जो मावड़ियो जाय। महबूबाँ री मिसल में किल सरदार कहाय।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १३।
⋙ मावत पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'महावत'। उ०—दियो पठाय श्याम निज पुर को मावत सह गजराज। आगे चले सभा में पहुँचे जहँ नृप सकल समाज।—सूर (शब्द०)।
⋙ मावली (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दक्षिण भारत की एक पहाड़ी वीर जाति का नाम। इस जाति के लोग शिवाजी की सेना में अधिकता सेथे। उ०—सावन भादों की भारी कुहू की अँध्यारी चढ़ी दुग्ग पर जात मावली दल सचेत हैं।—भूषण (शब्द०)।
⋙ मावली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मयार, मयालु] प्रेमल। स्नेहपूर्ण। उ०— सो पैदा हुई एक दाई भली, मेहरवान होर गुन भरी मावली।—दक्खिनी०, पृ० १६१।
⋙ मावस पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अमावस्या] दे० 'अमावस'। उ०— दुसह दुराज प्रजानु कौं क्यों न धढ़ै दुख दंदु। अधिक अँधेरौ जग करत मि्लि मावस रवि चंदु।—बिहारी र०, दो० ३५७।
⋙ मावा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मण्ड, हिं० माँड़] १. माँड। पीच। २. सत्त। निष्कर्ष। मुहा०—मावा निकालना=खूव पीटना। कचूमर निकालना। ३. वह दूध जो गेहूँ आदि को भिगोकर वा कच्चा मलकर निचोड़ने से निकलता है। ४. प्रकृति। ५. खोया। ६. अंडे के भीतर का पीला रस। जरदी। ७. चंदन का इत्र जिसे आधार बनाकर फूलों और गंधद्रव्यों का इत्र उतारा जाता है। जमीन। ८. वह गाढ़ा लसदार सुगंधित द्रव्य जिसे तमाकू में डालकर उसे सुगंधित करते हैं। खमीर। ९. मसाला। सामान। १०. हीरे की बुकनी जिससे मलकर सोने चाँदी को चमकाते हैं या उनपर कुंदन या जिला करते हैं।
⋙ मावा ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृ] माता। माँ।
⋙ मावा †
संज्ञा पुं० [अ०] रक्षास्थल। आश्रय स्थान। [को०]।
⋙ मावासी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मवास] दे० 'मवासी'।
⋙ माश
संज्ञा पुं० [फा़० मि० सं० माप] दे० 'माष'।
⋙ माशा (१)
संज्ञा पुं [सं० माष, जंद० मप माह; फा० माशह्] आठ रत्ती का एक प्रकार का बाट या मान। विशेष—इसका व्यवहार सोने, चाँदी, रत्नों और ओषधियों के तौलने में होता है। यह आठ रत्ती के बराबर होता है और एक तोले का बारहवाँ भाव होता है।
⋙ माशा (२)
संज्ञा पुं० [सं० महाशय, बँग० मोशाय] १. भला आदमी। सज्जन। शरीफ। (बंगाली)। २. बंग देश का निवासी। बंगाली।
⋙ माशाअल्लाह
पद [अ०] एक प्रशंसासूचक पद। बहुत अच्छा है। क्या कहना है। विशेष—इस पद का प्रयोग दो प्रकार से होता है। एक तो किसी अच्छी चीज को देखकर उसकी प्रशंसा के लिये; और दूसरे किसी अच्छी चीज का जिक्र करते हुए यह भाव प्रकट करने के लिये कि ईश्वर करे, इसे नजर न लगे।
⋙ माशी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० माष (=उड़द)] १. एक रंग जो कालांपन लिए हरा होता है। विशेष—कपड़े पर यह रंग कई पदार्थों में रंगने से आता है जिनमें हड़ का पानी कसीस, हलदी और अनार की छाल प्रधान है। इनमें रँगे जाने के बाद कपड़े को फिटकरी के पानी में डुबाना पड़ता है। २. जमीन की एक नाप जो २४० वर्ग गज की होती है।
⋙ माशी (२)
वि० उड़द के रंग का। कालापन लिए हरा रंग का। माशी रंग का।
⋙ माशूक
संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री० माशूका] वह जिसके साथ प्रेम किया जाय। प्रियतम। प्रेमपात्र। यौ०—माशूके इकीकी = परमात्मा। ईश्वर।
⋙ माशूका
संज्ञा स्त्री० [अ० माशूकह्] प्रेमास्पदा। प्रेयसी। प्रेमिका।
⋙ माशूकाना
वि० [फा़०] नाज नखरे से भरा हुआ। माशूकों जैसा।
⋙ माशूकी
संज्ञा स्त्री० [फा़० माशूकी] माशूक होने का भाव। प्रेम- पात्रता। हाव भाव। यौ०—आशिकी माशूकी।
⋙ माष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उड़द। २. आठ रत्ती के बराबर का बाट या मान। माशा। ३. शरीर के ऊपर काले रंग का उभरा हुआ दाग या दाना। मसा।
⋙ माष (२)
वि० मुर्ख।
⋙ माष पु (३)
संज्ञा स्त्री० दे० [हिं०] 'माख'।
⋙ माषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. माशा। (तौल)। २. उड़द।
⋙ माषकलाय
संज्ञा पुं० [सं०] उरद।
⋙ माषतैल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का तेल जो अर्धांग, कंप आदि रोगों में उपयोगी माना जाता है।
⋙ माषना पु
क्रि० स० [हिं० माख] दे० 'माखना'।
⋙ माषपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'माषपर्णी'।
⋙ माषपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वनमाष। जंगली उड़द। विशेष—वैद्यक में इसको वृष्य, बलकारक, शीतल और पुष्टिवर्धक माना है। पर्या०—सिंहपुच्छी। क्रपिंप्रोक्ता। कृष्णवृंता। पांडु। लोमपर्णी।
⋙ माषबटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उड़द की बनी हुई बड़ी। दे 'बड़ी'।
⋙ माषभक्तबलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार की बलि जो दुर्गा, काली आदि को चढ़ाई जाती है। इसमें उड़द, भात, दही आदि कई पदार्थ होते हैं।
⋙ माषयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पापड़।
⋙ माषरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] माँड़। पीच।
⋙ माषरावि
संज्ञा पुं० [सं०] लाटयायन सूत्रानुसार एक ऋपि का नाम। ये मापराविन ऋषि के गोत्र में थे।
⋙ माषवर्द्धक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्णाकार। सुनार।
⋙ माषाज्य
संज्ञा पुं० [सं०] घृत के योग से पकाई हुई उरद। एक विशिष्ट भोज्य वस्तु [को०]।
⋙ माषाद
संज्ञा पुं० [सं०] कछुआ।
⋙ माषाश
संज्ञा पुं० [सं०] अश्व। घोड़ा।
⋙ माषाशी
संज्ञा पुं० [सं० माषाशिन्] [स्त्री० माषाशिनी] घोड़ा।
⋙ माषीण
संज्ञा पुं० [सं०] उड़द का खेत। माष का खेत।
⋙ माष्य
संज्ञा पुं० [सं०] माष बोने योग्य खेत। मशार।
⋙ मास
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. महीना। मास।
⋙ मास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] काल के एक विभाग का नाम जो वर्ष के बारहवें भाग के बराबर होता है। महीना। विशेष—मास (को) सौर, (ख) चांद्र, (ग) नाक्षत्र या बार्हस्पत्य और (घ) सावन भेद चार प्रकार का होता है। (क) सौर मास उतने काल को कहते हैं जितने काल तक सूर्य का उदय किसी एक राशि में हो; अर्थात् सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति तक का समय सौर मास कहलाता है। यह मास प्रायः तीस इकतीस और कभी कभी उनतीस और बत्तीस दिन का भी होता है। (ख) चांद्र मास चंद्रमा की कला की वृद्धि और ह्वासवाले दो पक्षों का होता है जिन्हें शुक्ल और कृष्ण कहते हैं। यह मास दो प्रकार का होता है—एक मुख्य और दूसरा गौण। जो मास शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होकर अमावास्या को समाप्त होता हैं, उसे मुख्य चांद्र मास कहते हैं। इसका दूसरा नाम अमांत भी है। गौण चांद्र मास कृष्ण प्रतिपदा से आरंभ होता है और पूर्णिमा् को समाप्त होता है। इसे पूर्णिमांत भी कहते हैं। दोनों प्रकार के मास अट्ठाइस दिन के और कभी घट बढ़कर उन्तीस, तीस और सत्ताइस दिन के भी होते हैं। (ग) नाक्षत्र मास उतना काल है जितने में चंद्रमा सत्ताइस नक्षत्रों में भ्रमण करता है। यह मास लगभग २७ दिन का होता है और उस दिन से प्रारंभ होता है जिस दिन चंद्रमा अश्विनी नक्षत्र में प्रवेश करता है; और उस दिन समाप्त होता है, जिस दिन वह रेवती नक्षत्र से निकलता है। (घ) सावन मास का व्यवहार व्यापार आदि व्यावहारिक कामों में होता है और यह तीस दिन का होता है। यह किसी दिन से प्रारंभ होकर तीसवें दिन समाप्त होता है। सौर और चांद्र भेद से इसके भी दो भेद हैं। सौर सावन मास सौर मास की किसी तिथि से और चांद्र सावन मास चांद्र मास की किसी तिथि या दिन से प्रारंभ होकर उसके तीसवें दिन सप्ताह होता है। प्रत्येक संवत्सर में बारह सौर और बारह ही चांद्र मास होते है; पर सौर वर्ष ३६५ दिनों का और चांद वर्ष ३५५ दिनों का होता है, जिससे दोनों में प्रतिवर्ष १० दिन का अंतर पड़ता है। इस वैषम्य को दूर करने के लिये प्रति तीसरे वर्ष बारह के स्थान में तेरह चांद्र मास होते हैं। ऐसे बड़े हुए मास को अधिमास या मलमास कहते हैं। विशेष दे० 'अधिमास' और 'मलमास'। वैदिक काल में मास शब्द का व्यवहार चांद्र मास के लिये होता था। इसी से संहिताओं और ब्राह्मण में कहीं बारह महीने का संवत्सर और कहीं तेरह महीने का संवत्सर मिलता है। २. चंद्रमा (को०)। ३. एक संख्या। १२ की संख्या।
⋙ मास पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मांस] दे० 'मांस'। उ०—बहक न यहि बहनापरे जब तब वीर वीनास। बचै न बड़ी सवीलहु चील्ह घोंसुआ मास।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मासक
संज्ञा पुं० [सं०] महीना। मास। उ०—भेद की बात सुने तें कछू वह मासक ते मुसकान लगी है।—केशव ग्रं०, भा०१, पृ० १७२।
⋙ मासकालिक
वि० [सं०] महीने भर का। महीने भर रहनेवाला।
⋙ मासचारिक
वि० [सं०] १. जो एक मास तक कर्तव्य हो। एक मास तक करणोय।
⋙ मासजात
वि० [सं० मास+जात] जो एक महीने का हो (शिशु)। महीने भर का [को०]।
⋙ मासज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. दात्यूह नामक पक्षी। वनमुर्गा। २. एक प्रकार का हिरन।
⋙ मासताला
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वाजा।
⋙ मासदेय
वि० [सं०] जो एक मास में चुकता किया जाय [को०]।
⋙ मासन
संज्ञा पुं० [सं०] सोमराज के बीज।
⋙ मासना पु †
क्रि० अ० [सं० मिश्रण, हिं० मीसना-मसना] मिश्रित होना। मिलना। उ०—पंडित वूझि पियो तुम पानी। जा माटी के घर में बैठे तामें सृष्टि समानी। छप्पन कोटि जादो जहँ विनसे मुनि जन सहज अठासी। परग परग पैगंबर गाड़े ते सरि मारी मासी।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मासना (२)
क्रि० स० मिलाना।
⋙ मासपाक
वि० [सं०] महीने भर में पकने या प्रौढ़ होनेवाला [को०]।
⋙ मासप्रमित
संज्ञा पुं० [सं०] नया चाँद। अमावस के बाद प्रतिपदा का चंद्रमा [को०]।
⋙ मासप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] महीने का प्रारंभ होना।
⋙ मासफल
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्र जिसमें फलित ज्योतिष के अनुसार महीने भर का शुभाशुभ फल लिखा हो। इसे मासपत्र भी कहते हैं।
⋙ मासभृत
संज्ञा पुं० [सं०] वह मजदूर जिसको मासिक वेतन मिलता हो।
⋙ मासमान
संज्ञा पुं [सं०] वर्ष।
⋙ मासर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कात्यायन श्रौत सूत्र के अनुसार एक प्रकार का पेय पदार्थ जो चावल के माँड़ और अंगूर के उठे हुए रस से बनाया जाता था। इसका प्रयोग यज्ञों में होता था। यह मादक होता था। पर्या०—अचाम। निस्राव। २. काँजी। ३. भात का माँड़।
⋙ मासल
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ष। वत्सर [को०]।
⋙ मासवर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्यामा वा पवई की जाती का एक पक्षी। सषपी।
⋙ मासस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
⋙ मासांत
संज्ञा पुं० [सं० मासान्त] १. महीने का अंत। २. अमावस्या। ३. संक्राति।
⋙ मासा (१)
संज्ञा पुं० [सं० माष, हिं० माशा] दे० 'माशा'।
⋙ मासा †
संज्ञा पुं० [सं० मशक] मच्छड़।
⋙ मासाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] वह ग्रह जो मास का स्वामी हो। मासेश।
⋙ मासानु्मासिक
वि० [सं०] प्रति मास संबंधी। प्रति मास का।
⋙ मासार्क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मास के अंत का नक्षत्र जिसके नाम पर महीनों के नाम हैं, जैसे चित्रा से चैत्र, विशाखा से वैशाख, आदि [को०]।
⋙ मासावधिक
वि० [सं०] १. एक महीने रहनेवाला। २. एक महीने में होनेवाला [को०]।
⋙ मासिक (१)
वि० [सं०] [वि० आ० मासिकी] १. मास संबंधी। महीने का। जैसे, मासिक आय, मासिक कृत्य, मासिक वतन। २. महीने में एक बार होनेवाला। जैसे, मासिक श्राद्ध। ३. महीने में एक बार निकलनेवाला। जैसे, मासिक पत्र। यौ०—द्विमासिक। त्रैमासिक। षाण्मासिक।
⋙ मासिक (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] स्त्रियों को महीने में एक बार होनेवाला रजःस्राव वा रजोधर्म। मासिक धर्म।
⋙ मासिकधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों को प्रतिमास होनेवाला स्राव। स्त्रियों का रजस्वाला होना।
⋙ मासी
संज्ञा स्त्री० [सं० मातृष्वसा, पा० मातुच्छा, प्रा० माउच्छा, माउसिआ, माउस्सिया, माउसी, मासश्रा, हिं० मउसी, मौसी, बंग० मासा] माँ की बहिन। मौसी। उ०—हम तो निपट अहीर बावरी जोग दीजिए जानन। कहा कथन मासी के आगे जानत नानी नानन।—सुर (शब्द०)।
⋙ मासीन
वि० [सं०] १. जिसकी अवस्था एक महीने की हो। महीने भर का। एक महीने का। २. माहवार। प्रतिमास होनेवाला (को०)। यौ०—द्विमासीन, पंचमासीन। पण्मासीन, इत्यादि।
⋙ मासुरकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] मसुकर्ण के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
⋙ मासुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुश्रुत के अनुसार चीर फाड़ के एक शास्त्र या औजार का नाम। २. दाढ़ी श्मश्रु (को०)। ३. मौसी। मातृष्वसा (को०)।
⋙ मासूक
संज्ञा पुं० [फा़० माशूक] दे० 'माशूक'। उ०—मासूक साहव आसिक बंदा।—पल्टू०, भा० २, पृ० १०।
⋙ मासूम
वि० [अ० मासूम] जिसने कोई अपराध या दोष न किया हो। निरपराध। बेगुनाह। जैसे,—मासूम बच्चा।
⋙ मासूर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मासूरी] मसूर का बना हुआ वा मसूर के सदृश।
⋙ मासेष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह इष्टि या यज्ञ जो प्रतिमास हो।
⋙ मास्टर
संज्ञा पुं० [अ०] १. स्वामी। मालिक। २. शिक्षक। गुरु। अध्यापक। उस्ताद। ३. किसी विषय में परम प्रवीण। ४. गृहस्वामी। ५. बालकों के लिये व्यवहृत शब्द। यौ०—मास्टर आव आर्टस्=साहित्य की एक उपाधि वा डिग्री। एम० ए०। मास्टर आव् लाज=विधि वा कानून की उपाधि। एल-एल० एम०। मास्टर आव् साइन्स = विज्ञान की एक डिग्री। एम० एम-सी०। मास्टर की = एक विशिष्ट ताली जिससे विभित्र कुंजियों से खुलनेवाले बहुत से ताले खुल जायँ। मास्टर- पीस = अत्यंत उत्कृष्ट वा कलामय। मास्टरशिप = प्रभुत्व। प्रधानता।
⋙ मास्टरी
संज्ञा स्त्री० [अं० मास्टर + ई (प्रत्य०)] १. मास्टर का काम। अध्यापकी। २. मास्टर का भाव।
⋙ मास्य
वि० [सं०] महीने भर का। जो एक महीने का हो। मासीन।
⋙ माहँ पु
अव्य० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ] बीच में। उ०—यह शिशुपाल भजैत श्री दीनबंधु व्रजनाथ कबै मुख देखिहौं। कहि रुक्मिणि मन माहँ सबै सुख लेखिहौं।—सूर (शब्द०)।
⋙ माह (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. मास। महीना। उ०—सखि हे हामारि दुखेर नाहि ओर। ए भर बादर माह भादर, शून्य मंदिर मोर।—विद्यापति, पृ० ४७३। २. चंद्रमा। चाँद। उ०—छिपी थी सो एक माह मद की छबीली। मशाता हो ईदी निगारत दिखाया।—दक्खिनी०, पृ० ७३।
⋙ माह (२)
संज्ञा पुं० [सं० माष, प्रा० माह] माप। उड़द।
⋙ माह † (३)
संज्ञा पुं० [सं० माघ, प्रा० माह] माघ नाम का महीना। उ०—(क) गहली गरव न कीजिए समै सुहागहि पाय। जिय की जीवनि जेठ सो माह न छाहँ सुहाय।—बिहारी (शब्द०)। (ख) नाचैंगी निकसि शशिबदनी बिहँसि तहाँ को हमैं गनत मही माह में मचति सी।—देव (शब्द०)।
⋙ माह पु (४)
अव्य० [सं० मध्य] दे० 'माहँ'। उ०—सोहत अलक कपोल पर बढ़ छवि सिंधु अथाह। मनौ पारसी हरफ इक लसत आरसी माह।—स० सप्तक, पृ० ३४६।
⋙ माह (५)
संज्ञा पुं० [देशी] कुंद का फूल [को०]।
⋙ माहकस्थलक
वि० [सं०] १. माहकस्थली में रहनेवाला। २. माहकस्थली में उत्पन्न। ३. माहकस्थली संबंधी। माहकस्थली का।
⋙ माहकस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम।
⋙ माहकि
संज्ञा पुं० [सं०] महक नामक ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष। २. एक आचार्य का नाम।
⋙ माहजबीं
वि० [फ़ा०] प्रशस्त ललाटयुक्त। चाँद जैसा उज्वल। चाँद सा सुंदर। उ०—किसी माहजबीं माशूक की फुर्कत में बेकरार है।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० ९२।
⋙ माहत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० महत्ता] महत्व। महत्ता। बड़ाई।
⋙ माहताब
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. चंद्रमा। २. दे० 'महताबी'। ३. चाँदनी। चंद्रिका। उ०—बगल में माहताब हो या आफताब, या साकी हो या शराब।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३६७।
⋙ माहताबी
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. दे० 'महताबी'। २. एक प्रकार का कपड़ा जिसपर सूर्य, चंद्रादि की सुनहरी या रुपहली आकृतियाँ बनी रहती हैं। ३. आँगन में ऊँचा खुला हुआचबूतरा जिसपर लोग चाँदनी में बैठते हैं। ४. तरबूज। ५. चकोतरा नीबू।
⋙ माहन
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण जो अवध्य होता है।
⋙ माहना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उमाहना'।
⋙ माहनामा
संज्ञा पुं० [फ़ा० माहनामह्] मासिक पत्र।
⋙ माहनीय
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण।
⋙ माहर (१)
संज्ञा पुं० [सं० माहिर (= इंद्र)] इंद्रायन। इनारू। मुहा०—माहर का फल = जो देखने में सुंदर हो, पर दुर्गुणों से भरा हो।
⋙ माहर (२)
वि० [अ० माहिर] दे० 'माहिर'।
⋙ माहरुख
वि० [फ़ा०] चाँद की तरह मुखवाला। चंद्रानन [को०]।
⋙ माहरू
वि० [फ़ा०] दे० 'माहरुख'।
⋙ माहली
संज्ञा पुं० [हिं० महल] १.वह पुरुष जो अंद?पुर में आता जाता हो। महली। खोजा। २. सेवक। दास। उ०—तुलसी सुभाइ कहै नहीं किए पक्षपात कौन ईस कियो, कीस भालु खास माहली।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ माहवार (१)
क्रि० वि० [फ़ा०] प्रतिमास। महीने महीने।
⋙ माहवार (२)
वि० हर महीने का। मासिक।
⋙ माहवार (३)
संज्ञा पुं० महीने का वेतन।
⋙ माहवारी
वि० [फ़ा०] हर महीने का। मासिक।
⋙ माहवाह पु †
वि० [सं० मह + बाहु] बड़े हाथोंवाला। उ०—धूप दान क्रित राम माहवाह मोटा धरणी।—रघु रू०, पृ० २४७।
⋙ माहवो, माहवौ
अव्य० [सं० मध्य] बीच बीच में। उ०—माहवौ माहवौ मोह्यो आइ।—दादू०, पृ० ६०१।
⋙ माहसो पु †
वि० [सं० महत्] महान्। बड़ा। उ०—परस, कदमां चली जुगत भवभूम पर, माहसी नदी भव भुगत मेलै।—रघु० रू०, पृ० २६०।
⋙ माहँ पु †
अव्य [हिं०] दे० 'महँ'। उ०—दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहँ।—जायसी ग्रं०, पृ० ४।
⋙ माहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाय [को०]।
⋙ माहाकुल
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माहाकुली] उच्च कुलोत्पन्न ऊंचे कुल में उत्पन्न [को०]।
⋙ माहाकुलीन
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माहाकुलीनी] श्रेष्ठ कुल वा वंश का। माहाकुल [को०]।
⋙ माहाजनिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माहाजनिकी] १. महाजनों अर्थात् व्यापारियों के लिये उचित। २. महान् व्यक्तियों के लिये उचित। महाजनोचित [को०]।
⋙ महाजनीन
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माहाजनीनी] दे० 'माहाजनिक'।
⋙ माहात्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. महिमा। गौरव। महत्व। बड़ाई। २. आदर। मान। ३. व्रत अथवा पूजनादि पुण्य उपाय (को०)। ४. पुण्य फलों का वर्णन करनेवाली रचना। जैसे, देवी माहात्म्य (को०)। ५. विशालता। उच्चता। दीर्घकारिता (को०)।
⋙ माहानस
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माहानसी] १. बहुत बड़े शकट, यान वा रथ से संबंध रखनेवाला। २. भोजनागार संबंधी। रसोईघर का। रसोई विषयक [को०]।
⋙ माहानसिक
संज्ञा पुं० [सं०] भोजनागार का प्रधान अधिकारी।
⋙ माहाना
क्रि० वि० [फ़ा० माहानह्] माहवार। मासिक [को०]।
⋙ माहाभट पु
संज्ञा पुं० [सं० माहा + भट] महाभट। अद्वितीय योद्धा। उ०—दिय बीसल बरदान कुष्ष उपजै माहाभट।—पृ० रा०, १। ५८२।
⋙ माहाभाग्य
संज्ञा पुं० [सं०] महाभाग्य। श्रेष्ठ भाग्य। अच्छी किस्मत [को०]।
⋙ माहायान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'महायान' [को०]।
⋙ माहाराजिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माहाराजिकी] महाराज के योग्य। शाही [को०]।
⋙ माहाराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] राज्यपद। राजसत्ता। [को०]।
⋙ माहाराष्ट्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'महाराष्ट्री' [को०]।
⋙ माहावती पु
संज्ञा पुं० [हिं० महावत] दे० 'महावत'। उ०— सुनहु सर्व माहावतिय, सब हस्ती लै आय।—प० रासी, पृ० १२६।
⋙ माहाव्रती
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाशुपत सिद्धांत वा मत [को०]।
⋙ माहिँ पु †
अव्य० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ] १. भीतर। अंदर। उ०—कर कमान सर सँधिके खैंचि जो मारा माहिं। भीतर विधे सो मारि है जीव पै जीवै नाहिं।—कबीर (शब्द०)। २. अधिकरण कारक का चिह्न में या पर।
⋙ माहिँला पु
वि० [सं० मध्य] आभ्यंतर। भीतरी। उ०—जन दरिया सतगुर चवै देख माहिंला भाव।—दरिया० बानी, पृ० ३।
⋙ माहिक
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक जाति।
⋙ माहित
संज्ञा पुं० [सं०] महित ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
⋙ माहित्थ
संज्ञा पुं० [सं०] शतपथ ब्राह्मण के अनुसार एक ऋषि का नाम।
⋙ माहित्य
संज्ञा पुं० [सं०] महित ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
⋙ माहित्र
संज्ञा पुं० [सं०] मनुस्मृति के अनुसार एक ऋचा का नाम।
⋙ माहिन (१)
वि० [सं०] १. आनंदपूर्ण। मोददायक। २. परम आदरणीय। तत्रभवान् [को०]।
⋙ माहिन (२)
संज्ञा पुं० राज्यसत्ता। राज्यशक्ति [को०]।
⋙ माहियत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. तत्व। भेद। २. प्रकृति। ३. विवरण।
⋙ माहियाना (१)
वि० [फ़ा० माहियानह्] माहवार।
⋙ माहियाना (२)
संज्ञा पुं० मासिक वेतन।
⋙ माहिर (१)
वि० [अ०] १. ज्ञाता। जानकार। तत्वज्ञ। उ०—सूधी सुधा सी सुभाय भरी पै, खरी रति केलि कलान में माहिर।—जवाहिर (शब्द०)। २. कुशल। निपुण। चत्तुर (को०)।
⋙ माहिर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ माहिला पु
संज्ञा पुं० [अ० मल्लाह] माँझी। मल्लाह। उ०— कबिरा मन का माहिला अवला बहै असोस। देखत ही दह में पड़ै देइ किसी को दोस।—कबीर (शब्द०)।
⋙ माहिष (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माहिषी] १.भैंस का (दूध आदि)। २. भैंस संबंधी।
⋙ माहिष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] अंतःपुर। जनानखाना। रनिवास [को०]।
⋙ माहिषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम। २. इस देश में रहनेवाली एक जाति का नाम। ३. भैंस आदि का पालक (को०)।
⋙ माहिषवल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काला विधार। कृष्ण वृद्धदारक।
⋙ माहिषवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिरहटी।
⋙ माहिषस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम।
⋙ माहिषाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] भैंसा गुग्गुल।
⋙ माहिषिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यभिचारिणो स्त्री का पति। २. भैंस से जीविका निर्वाह करनेवाला व्यक्ति। ३. वह व्यक्ति जो पत्नी के व्यभिचार द्वारा उपार्जित धन से जीविका निर्वाह करता हो (को०)।
⋙ माहिषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम।
⋙ माहिषेय
संज्ञा पुं० [सं०] पट्टाभिषिक्त रानी या पटरानी का पुत्र। युवराज [को०]।
⋙ माहिष्मती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षिण देश के एक प्रसिद्ध प्राचीन नगर का नाम। विशेष—इसका उल्लेख पुराणों, महाभारत और बौद्ध ग्रंथों में आया है। यह महिषमंडल नामक जनपद की राजधानी थी। पुराणों में इसे नर्मदा नदी के किनारे लिखा है। सहस्रार्जुन यहीं का रहनेवाला था। महाभारत मैं माहिष्मती और त्रिपुर का नाम साथ आया है। त्रिपुर को आजकल त्रिपुरी कहते हैं; पर माहिष्मती का अबतक ठीक पता नहीं है। पुरातत्वविदु कनिंधम साहव ने 'माहिषमंडल' के 'मंडल' शब्द को लेकर 'मंडला' नगर को माहिष्मती लिखा है।
⋙ माहिष्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृतियों के अनुसार एक संकर जाति। विशेष—याज्ञवल्क्य इसे क्षत्रिय पिता और वैश्या माता की औरस संतान मानते हैं। आश्रलायन इसे सुवर्ण नामक जाति से करण जाति की माता में उत्पन्न मानते हैं। सह्याद्रि खंड में इसको यज्ञोपर्वात आदि संस्कारों का वैश्यों के समान अधिकारी कहा हैं; पर आश्वलायन इसे यज्ञ करने का निषेध करते हैं। इस जाति के लोग अब तक बालि द्वीप में मिलते हैं और अपने को माहिष्य क्षत्रिय कहते हैं। संभवतः ये लोग किसी समय महिष- मंडल देश के रहनेवाले होंगे।
⋙ माहीँ पु
अव्य० [हिं०] दे० 'माहि'। में। पर। उ०—बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ माही (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] मछली। उ०—माही जल मृग के सु तृन सज्जन हित कर जीव। लुब्धक धीवर दुष्ट नर बिन कारन दुख कीव।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ७५। यौ०—माहीगीर। माहीपुश्त। माहीमरातिब।
⋙ माही (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० माहेय] दक्षिण देश की एक नदी का नाम जो खंभात की खाड़ी में गिरती है।
⋙ माहीगीर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] मछली पकड़नेवाला। मछुवा।
⋙ माहीपुश्त (१)
वि० [फ़ा०] जो मछली की पीठ की तरह बीच में उभरा हुआ और किनारे किनारे ढालुआँ हो।
⋙ माहीपुश्त (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का कारचोबी का काम जो बीच में उभरा हुआ और इधर उधर ढालुआँ होता है।
⋙ माहीमरातिब
संज्ञा पुं० [फ़ा०] राजाओं के आगे हाथी पर चलनेवाले सात झंडे जिनपर अलग अलग मछली, सातो ग्रहों आदि की आकृतियाँ कारचोवी की बनी होती हैं। विशेष—इस प्रकार के झंडो का आरंभ मुसलमानों के राजत्व काल में हुआ था। (१) सूर्य, (२) पंजा, (३) तुला, (४) अजगर, (५) सूर्यमुखी, (६) मछली और (७) गोले, ये सात शकलें झंडों पर होता है।
⋙ माहीयत
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'माहियत' [को०]।
⋙ माहीला पु †
वि० [सं० मध्य] बिचला। मध्य का। बीच का। उ०—माहीलै कौये जीमणी अंषी कालौ तिल भमर जीसो।— वी० रासी, पृ० ७७।
⋙ माहुट पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'महावट।' उ०—नैन चुवहिं जस माहुट नीरू।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३५९।
⋙ माहुर
संज्ञा पुं० [सं० मधुर, प्रा० माहुर (= विष) ] विष। जहर। उ०—(क) साँप बीछ की मंत्र है, माहुर झार जाय। बिकट नारि के पाले परा काटि करेजा खाय।—कबीर (शब्द०)। (ख) दानव देव उँच अरु नीचू। अमिय सजीवन माहुर मीचू।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—माहुर की गाँठ = (१) भारी विपैली वस्तु। (२) अत्यंत दुष्ट या कुटिल मनुष्य।
⋙ माहुल
संज्ञा पुं० [सं०] महुल के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
⋙ माहूँ
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक छोटा कीड़ा जो सरसों, राई आदि की फसल पर लगता है। विशेष—यह कीड़ा राई, सरसों, मूली आदि की फसल में उनके डंठलों पर फूलने के समय या उसके पहले अंडे दे देता है, जिससे फसल नितांत हीन होकर नष्ट हो जाती है। यह काले रंग का परदार भुनगे के आकार का कीड़ा होता है और जाड़े के दिनों में फसल पर लगता है। यदि पानी बरस जाय तो ये कीड़े नष्ट हो जाते हैं। प्रायः अधिक बदली के दिनों में, जब पानी नहीं बरसता, ये कीड़े अंडे देते हैं और फसल के डंठलोंपर फुलों के आसपास उत्पन्न हो जाते हैं। इसे माही, माहो आदि भी कहते हैं। मुहा०—माहूँ लगना = माहूँ का फसल के हरे डंठल पर अंडे देना।
⋙ माहू
संज्ञा पुं० [देश०] कनसलाई नाम का बरसाती कीड़ा जो प्रायः कान में घुस जाता है। गिंजाई।
⋙ माहूद पु
वि० [अ०] जो दिल में नक्श हों। उ०—यह माहूद ठीका जो पुरा हुआ।—कबीर मं०, पृ० १३४।
⋙ माहेंद्र (१)
वि० [सं० माहेन्द्र] [वि० स्त्री० माहेंद्रा] १. जिसका देवता महेंद्र हो। २. महेंद्र संबंधी। इंद्र संबंधी।
⋙ माहेंद्र (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैनियों के एक देवता जो कल्पभव नामक वैमानिक देवगण में है। २. एक अस्त्र का नाम। ३. वार के अनुसार भिन्न भिन्न दंडां में पड़नेवाला एक योग जिसमें यात्रा करने का विधान है। विशेष—यह योग प्रति वार को क्रमानुसार पंद्रह बार आता है। प्रतिदिन के दंडों में ये चार चार योग भिन्न भिन्न क्रम से आते रहते हैं—माहेंद्र, वरुण, वायु और यम। ये चारों योग सप्ताह के प्रतिदिन इस प्रकार आया करते हैं— दिन प्रथम दंड द्बितीय दंड तृतीय दंड चतुर्य दंड रवि वायु वरुण यम माहेंद्र चंद्र माहेंद्र वायु
वरुण यम भौम वरुण यम माहेंद्र वायु बुध माहेंद्र वायु
वरुण यम गुरु वायु वरुण
यम माहेंद्र शुक्र माहैंद्र वायु
यम वरुण शनि यम
माहेंद्र
वायु वरुण इन चारों योगों में माहेंद्र योग विजयकारक, वरुण धनप्रद, वायु नित्य फिरानेवाला और यम मृत्युदायक कहा जाता है। ३. सुश्रुत के अनुसार एक देवग्रह जिसके आक्रमण करने से ग्रहग्रस्त पुरुष में माहात्म्य, शौर्य, शास्त्रबुद्धिता, मृत्यमरण आदि गुण एकाएक आ जाते हैं। ५. जैनों के अनुसार चौथे स्वर्ग का नाम।
⋙ माहेंद्रवाणी
संज्ञा स्त्री० [सं० माहेन्द्रवाणा] महाभारत के अनुसार एक नदी का नाम।
⋙ माहेंद्री
संज्ञा स्त्री० [सं० माहेन्द्री] १. इंद्राणी। २. गाय। ३. इंद्रायन। ४. सात मातृका में स एक। यह स्कंद की अनुचरी है। ५. इंद्र की शक्ति। ६.पूर्व दिशा (को०)।
⋙ माहेताबा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] चिलमचा।
⋙ माहेय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० माहेयी] मिट्टी का बना हुआ।
⋙ माहेय (२)
संज्ञा पुं० १. मूंगा। विद्रुम। २. मंगल ग्रह (को०)। ३. पृथ्वी का पुत्र। नरकासुर (को०)।
⋙ माहेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गाय। २. माही नदी।
⋙ माहेल
संज्ञा पुं० [सं०] एक गात्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ माहेश
वि० [सं०] महेश संबंधी। महेश का।
⋙ माहेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।
⋙ माहेश्वर (१)
वि० [सं०] महेश्वर संबंधी। महेश्वर का।
⋙ माहेश्वर (२)
संज्ञा पुं० १. एक यज्ञ का नाम। २. एक उपपुराण का नाम। ३. पाणिनि के वे चौदह सूत्र जिसमें स्वर और व्यंजन वर्णों का संग्रह प्रत्याहारार्थ किया गया है। विशेष—इसके विषय में लोगों का विश्वास है कि ये सूत्र शिव जी के तांडवनृत्य के समय उनके डमरू से निकले थे। सूत्र ये हैं— अइउण्। ऋलृक्। एओङ्। ऐऔच्। हयवरट्। लण्। ञमङ- णनम्। झभज्। घढ़धष्। जबगडदश्। खफछठथचटतव्। कपय्। शपसर्। हल्। ४. शैव संप्रदाय का एक भेद। ५. एक अस्त्र का नाम। माहेश्वरास्त्र।
⋙ माहेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. एक मातृका का नाम। ३. एक पीठ का नाम। ४. यवतिक्ता। शंखिनी लता (को०)। ५. एक नदी का नाम। ६. वैश्यों की एक जाति।
⋙ माहेहिंद
संज्ञा पुं० [फ़ा० माह ए हिंद] १. भारतीय चंद्रमा। भारतेंदु। हिंदुस्तान का चाँद। २. एक संमानपूर्ण खिताब जो हरिश्चंद्र जी को दिया गया था। उ०—यथार्थ खिताब 'माहेहिंद' अर्थात् भारतेंदु पद प्रदान किया।—प्रेमघन०, भा० २, ६३।
⋙ माहों †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'माहूँ'।