विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/बा
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ बांछना पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाञ्छा या वाञ्छना] इच्छा। अभिलाषा। कामना। आकांक्षा। उ०—यह बांछना होइ क्यों पूरन दासी ह्वै बरु ब्रज रहिए।—सूर (शब्द०)।
⋙ बांछना पु † (२)
क्रि० स० [सं० वाञ्छन] दे० 'बाँछना'।
⋙ बांछा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाञ्छा] इच्छा। कामना। अभिलाषा। आकांक्षा।
⋙ बांछित पु
वि० [सं० वाञ्छित] इच्छित। अभिलपित। आकांक्षित।
⋙ बांछी
वि०, संज्ञा पुं० [सं० वाञ्छिन्] इच्छुक। इच्छा करनेवाला। अभिलाषा करनेवाला।
⋙ बांड
संज्ञा पुं० [अं० बाँन्ड] १. अनुबंध। एकरारनामा। २. दृढ़ या पक्का आश्वासन। ३. ऋणपत्र। हुंडी [को०]।
⋙ बांधकिनेय
संज्ञा पुं० [सं० बान्धकिनेय] जारज संतान। पुंश्चली- पुत्र [को०]।
⋙ बांधकेय
संज्ञा पुं० [सं० बान्धकेय] दे० 'बांधकिनेय'।
⋙ बांधव
संज्ञा पुं० [सं० बान्धव] १. भाई। बंधु। २. नातेदार। रिश्तेदार। ३. मित्र। दोस्त। †४. दे० 'बांधोगढ'। उ०— (क) विंघ्य पृष्ठ पर है मनोज्ञ बांधव अति विस्तृत।—प्रेमांजलि, पृ० ४२। (ख) है यह बांधव मही स्वयं निज छबि पर मोहित।—प्रेमांजलि, पृ० ४३।
⋙ बांधवक
वि० [सं० बान्धवक] बंधुजन संबंधी [को०]।
⋙ बांधवजन
संज्ञा पु० [सं० बान्धवजन] नातेदार। रिश्तेदार। भाई बंधु।
⋙ बांधवधुरा
संज्ञा स्त्री० [सं० बान्धवधुरा] सदुभाव। हितकामना।
⋙ बांधव्य
संज्ञा पुं० [सं० बान्धव्यम्] बंधुता। भाईचारा। भ्रातृत्व। नातेदारी [को०]।
⋙ बांधोगढ़
संज्ञा पुं० [हिं० बांधव + गढ़] एक प्रदेश। वर्तमान रीवाँ राज्य (मध्यप्रदेश)। उ०—बांधोगढ़ कै आमिन बिनवै धनि हो कबीर गोसाई।—धर्म० श० पृ० ५६।
⋙ बाँ (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] गाय के बोलने का शब्द।
⋙ बाँ † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बेर] बार। दफा। बेर। उ०—(क) कै बाँ आवत यहि गली रह्वौ चलाय चलैं न। दरसन की साधै रहै सूधे रहत न नैन।—बिहारी (शब्द०)। (ख) मैं तोसों कै बाँ कह्यो तू जन इन्हें पत्याय। लगा लगी करि लोयननि उर में लाई जाय।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बाँक (१)
संज्ञा पुं० [सं० बङ्क] १. चंद्राकार बना हुआ टाँड़ जो बच्चों की बाँह में पहनाया जाता है। भुजदंड पर पहनने का एक आभूषण। २. एक प्रकार का चाँदी का गहना जो पैरों में पहना जाता है। ३. हाथ में पहनने की एक प्रकार की पटरी या चौड़ी चूड़ी़। ४. लोहारों का लोहे का बना हुआ शिकंजा जिसमें जकड़कर किसी चीज को रेतते हैं। ५. नदी का मोड़। ६. सरौते के आकार का वह औजार जिससे गन्ना छीलते हैं। ७. कमान। धनुष। ८. टेढ़ापन। ९. एक प्रकार की छोटी छुरी जो आकार में कुछ टेढ़ी होती है। १०. बाँक नामक हथियार चलाने की विद्या। यौ०—बाँक बनौट = बाँक चलाने की कला। उ०—और बाँक बनौट से वाकिफ न होते तो भंडारा खुल जाता।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १३६। ११. एक प्रकार की कसरत जिसमें बाँक चलाने का अभ्यास किया जाता है। यह कसरत बैठकर या लेटकर होती है।
⋙ बाँक (२)
वि० [सं० बङ्क] १. टेढ़ा। घुमावदार। उ०—कुच जुग धरए कुंभथल कांति। बाँक नखर खत अंकुश भाँति। विद्यापति, पृ० १८। २. बाँका। तिरछा। उ०—बाँक नयन अरु अंजन रेखा। खंजन जान सरद रितु देखा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बाँक (३)
संज्ञा पुं० [सं० वक्रक] जहाज के ढांचे में वह शहतीर जो खड़े बल में लगाया जाता है।
⋙ बाँक (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।
⋙ बाँकड़ा † (१)
वि० [बाँक + ड़ा (प्रत्य०)] बीर। साहसी। बहादुर। दे० 'बाँकुरा'।
⋙ बाँकड़ा (२)
संज्ञा पुं० [ हिं० बाँक + ड़ा (प्रत्य०)] छकड़े के आँक की वह लकड़ी जो धुरे के नीचे आड़े बल में लगी होती है।
⋙ बाँकड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० बङ्क + हिं० ड़ी (प्रत्य०)] बादले और कलाबत्तू का बना हुआ एक प्रकार का सुनहला या रुपहला फीता जिसका एक सिरा कँगूरेदार होता है और जो स्त्रियों की धोती आदि में शोभा के लिये डाँका जाता है।
⋙ बाँकडोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँक] एक प्रकार का शस्त्र। उ०— बाँकडोरी फरस्सानि लै दाव कौं। खंजरौ पंजरौं में करै घाव कौं।—सूदन (शब्द०)।
⋙ बाँकनल
संज्ञा पुं० [सं० बङ्कनाल] सोनारों का एक औजार जिसे फूँक मारकर टाँका लगाते हैं। बकनाल। विशेष—यह पीतल की बनी हई एक छोटी सी नली होती है। इसके एक और से फूँक मारी जाती है और दूसरी सिरे से, जो टेढ़ा होता है, दीए की लौ से टाँका गलाकर लगाते हैं।
⋙ बाँकना † (१)
क्रि० स० [सं० बङ्क + हिं० ना (प्रत्य०)] टेढ़ा करना। उ०—जेहि जिय मनहि होय सतभारू। परें पहार नहिँ बाँकै बारू।—जायसी (शब्द०)। मुहा०—बाल बाँकना = दे० 'बाल' के अंतर्गत 'बाल बाँका' करना'।
⋙ बाँकना † (२)
क्रि० अ० टेढ़ा होना।
⋙ बाँकपन
संज्ञा पुं० [हिं० बाँका + पन (प्रत्य०)] १. टेढ़ापन। तिरछापन। २. छैलापन। अलबेलापन। ३. बनावट सजावट। वजअदारी। ४. छवि। शोभा।
⋙ बाँकपना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाँकपन'। उ०—स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भरकर बाँकपना।—कामायनी, पृ० ९८।
⋙ बाँका (१)
वि० [सं० बङ्क] १. टेढ़ा। तिरछा। २. अत्यंत साहसी। बहादुर। वीर। ३. सुंदर और बना ठना। जो अपने शरीर को खूब सजाए हो। छैला। उ०—तौर क्या पूछते हो काफिर का। शोख है बाँका है सिपाही है।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० १०। ४. गुंडा। उ०—बड़ो भाई बाँकों हतो।—दो सौ बावन०, भा० १ पृ० २०९।
⋙ बाँका (२)
संज्ञा पुं० [सं० बङ्क] १. लोहे का बना हुआ एक प्रकार का हथियार जो टेढ़ा होता है और जिससे बाँसफोड़ लोग बाँस काटते छाँटते हैं। उ०—खिन खिन जीव सँडासन आँका। औ नित डोम छुवावहिं बाँका।—जायसी (शब्द०)। २. एक प्रकार का कीड़ा जो धान की फसल को हानि पहुँचाता है। ३. बारात आदि में अथवा किसी जुलूस में वह बालक या युवक जो खूब सुंदर वस्त्र और अलंकार आदि से सजाकर तथा पालकी पर बैठाकर शोभा के लिये निकाला जाता है।
⋙ बाँकिया
संज्ञा पुं० [सं० बङ्क + हिं० इया (प्रत्य०)] नरसिंहा नाम का फूँककर बजानेवाला बाजा जो आकार में कुछ टेढ़ा होता है। यह पीतल या ताँबे का बनता है।
⋙ बाँकी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँका] लोहे का बना हुआ एक औजार जिससे बँसफोड़ लोग बाँस की फट्टियाँ काटते, छीलते या दुरुस्त करते हैं।
⋙ बाँकी (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० वाकी] १. भूमिकर। लगान। २. दे० 'बाकी'।
⋙ बाँकुड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बाँकड़ी'।
⋙ बाँकुर पु †
वि० [हिं० बाँका] दे० 'बाँकुरा'।
⋙ बाँकुरा
वि० [हिं० बाँका अथवा सं० वङ्कर (= मोड़, घुमाव)] १. बाँका। टेढ़ा। २. पैना। पलती धार का। ३. कुशल। चतुर। उ०—प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रण बाँकुरा बालिसुत बंका।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बाँग
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. आवाज। शब्द। २. पुकार। चिल्लाहट। ३. वह ऊँचा शब्द या मंत्रोच्चारण जो नमाज का समय बताने के लिये कोई मुल्ला मसजिद में करता है। अजान। क्रि० प्र०—देना। ४. प्रातःकाल मुरगे के बोलने का शब्द। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। उ०—आहट जो पाई तो घबरा के कुकुड़ूकूं की बाँग लगाई।—फिसाना०, भा० १, पृ० १।
⋙ बाँगड़ (१)
संज्ञा पुं० [राज० बाघड़] बिना बस्ती का देश। वह देश जहाँ बस्ती दूर दूर पर हो।
⋙ बाँगड़ (२)
संज्ञा पुं० [देश०] हिसार, रोहतक और करनाल का प्रांत।
⋙ बाँगड़ू †
वि० [हिं० बाँगर] मूर्ख। बेवकूफ। दुर्बुद्धि।
⋙ बाँगड़ू (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँगड़ (प्रदेश)] हिसार, रोहतक और करनाल के जाटों की वोली जिसे जाटू या हरियानी भी कहते हैं।
⋙ बाँगर
संज्ञा पुं० [देश०] १. छकड़ा गाड़ी का वह बाँस जो फड़ के ऊपर लगाकर फड़ के साथ बाँध दिया जाता है। २. खादर के विरुद्ध वह भूमि जो कुछ ऊँचे पर अवस्थित हो। वह भूमि जो नदी, झील आदि के बढ़ने पर भी कभी पानी में न डूबे। ३. अवध में पाए जानेवाले एक प्रकार के बैल।
⋙ बाँगा
संज्ञा दे० [देश०] वह रूई जो ओटी न गई हो। बिनौले समेत रूई। कपास।
⋙ बाँगुर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] पशुओं या पक्षियों को फँसाने का जाल। फंदा। उ०—बाँगुर विषम तोराइ, मनहु भाग मृग भाग बस।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बाँचना † (१)
क्रि० स० [सं० वाचन] पढ़ना। उ०—(क) जाइ विधिह तिन दीन्ह सो पाती। बाँचत प्रीति म हृदय समाती।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तर झुरसी ऊपर गरी कज्जल जल छिरकाय। पिय पाती बिन ही लिखी बाँची बिरह बलाय।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बाँचना (२)
क्रि० अ० [सं० वञ्चन] १. शेष रहना। बाकी रहना। बच रहना। उ०—सत्यकेतु कुल कोउ न बाँचा। विप्र साप किमि होय असाँधा।—तुलसी (शब्द०)। २. जीवित रहना। बचा रहना। उ०—तेहि कारण खल अब लगि बाँचा। अब तव काल सीस पर नावा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बाँचना (३)
क्रि० स० [हिं० बचाना] बचाना। छोड़ देना। उ०— बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यह मरनिहार भा साँचा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बाँचनिहार
वि० [हिं० बचना + हार (प्रत्य०)] बचनेवाला। उ०—दिया खता न प्यान किया मंदर भया उनार। मरे गए ते मर गए बाँचे बाँचनिहार।—कबीर बी० (शिशु०), पृ० २३६।
⋙ बाँछ
संज्ञा स्त्री० [देश०] ओंठ की कोर। दे० 'बाछ'। उ०— नवाब साहब की बाँछें खिल गईं।—झाँसी०, पृ० १८४।
⋙ बाँछना †पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाञ्छन] इच्छा। अभिलाषा। कामना। आकांक्षा।
⋙ बाँछना (२)
क्रि० स० [सं० वाञ्छन] १. चाहना। इच्छा करना। अभिलाषा करना। उ०—महा मुक्ति कोऊ नहौं बाँछै यदपि पदारथ चारी। सूरदास स्वामी मन मोहन नूरात की बलि- हारी।—सूर (शब्द०)। २. अच्छी या बुरी चीजें चुनना। छाँटना।
⋙ बाँछा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाञ्छा] इच्छा। कामना।
⋙ बाँछित पु
वि० [सं० वाञ्छित] दे० 'वांछित'। उ०—जो बाँछित ही रैनि दिन सो कीनी करतार।—नंद० ग्रं० पृ०, १३३।
⋙ बाँछी
संज्ञा पुं० [सं० वाञ्छिन्] अभिलाषा करनेवाला।
⋙ बाँझ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्ध्या] १. वह स्त्री जिसे संतान होती ही न हो। वंध्था। २. कोई मादा जिसे बच्चा न होता हो।
⋙ बाँझ (२)
वि० १. बिना संतान का। संततिरहित। २. निष्फल। फलरहित (वृक्ष)। ३. व्यर्थ। बेकार। फिजूल। मुहा०—बाँझ होना = व्यर्थ होना। उ०—नंददास लटकत पिय प्यारी, छबि रची बिरंचि, मनो निपुनता भई बाँझ।—नंद० ग्रं०; पृ० ३७४।
⋙ बाँझ (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष जिसके फलों की गुठलियाँ बच्चों के गले में, उनको रोग आदि से बचाने के लिये बाँधी जाती हैं।
⋙ बाँझककोली
संज्ञा स्त्री० [सं० बन्ध्याकर्कोटकी] बन ककोड़ा। खेखसा। बन परवल।
⋙ बाँझपन
संज्ञा पुं [सं० वन्ध्या, हिं० बाँझ + पन (प्रत्य०)] बाँझ होने का भाव। वंध्यात्व।
⋙ बाँझपना
संज्ञा पुं० [हिं० बाझ + पन (प्रत्य०)] दे० 'बाँझपन'।
⋙ बाँट (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बाँटना का भाव] १. किसी वस्तु को बाँटने की क्रिया या भाव। २. भाग। हिस्सा। बखरा। मुहा०—बाँट पड़ना = हिस्से में आना। किसी में, या किसी के पास बहुत परिमाण में होना। उ०—विप्रद्रोह जु बाँट परयो हठि सबसे बैर बढ़ावौं।—तुलसी (शब्द०)। बाँठ में पड़ना = दे० 'बाँठ पड़ना'। उ०—दिलेरी हमारे बाँठ में पड़ी थी।—चुभते०, पृ० २। बाँटे पड़ना = हिस्से में आना। उ०—काँटे भी हैं कुसुम संग बाँटे पड़े।—साकेत, पृ० १३८। ३. घास या पयाल का बना हुआ एक मोडा सा रस्सा जिसे गाँव के लोग कुवार सुदी १४ को बनाते हैं और दोनों ओर से कुछ लोग इसे पकड़कर तव तक खींचातानी करते हैं जब तक वह टूट नहीं जाता। यौ०—बाटा चौदस = कुँवार सुदी १४ जिस दिन बाँट खींचा जाता है।
⋙ बाँट पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वटक] दे० 'बाट (२)'।
⋙ बाँट (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. गौओं आदि के लिये एक विशेष प्रकार का भोजन जिसमें खरी बिनौला आदि चीजें रहती हैं। इससे उनका दूध बढ़ जाता है। २. ढेढ़र नाम की घास जो धान के खेतों में उगकर उसकी फसल को हानि पहुँचाती है।
⋙ बाँट बखरा
संज्ञा पुं० [हिं० बाट + बखरा] बाँट। अलग अलग हिस्सा मिलना।
⋙ बाँटचूँट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँट + चूँट (अनुव्व०)] १. भाग। हिस्सा। बखरा। २. लेन देन। देना दिलाना।
⋙ बाँटनहार
वि० [हिं० बाँटना + हार (प्रत्य०)] वितरणकर्ता। बाँटनेवाला। उ०—निश्चय निधी मिलाय तव, सतगुरु साहस धीर। निपजी में साझी घना, बाँटनहार कबीर।—कबीर सा० सं०, पृ० ५।
⋙ बाँटना (१)
क्रि० स० [सं० वितरण, वर्तन या वणटन] १. किसी चीज के कई भाग करके अलग् अलग रखना। २. हिस्सा लगाना। विभाग करना। जैसे,—उन्होंने अपनी सारी जायदाद अपने दोनों लड़कों और तीनों भाइयों में बाँट दी। ३. थोड़ा थोड़ा सबको देना। वितरण करना। जैसे,—चने बाँटना, पैसे बाँटना। संयो० क्रि—डालना।—देना।
⋙ बाँटना (२)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बाटना'।
⋙ बाँटबूँट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाट + बूँट (द्रिरुक्तिमूल अनु०)] दे० 'बाँटचूँट'।
⋙ बाँटा
संज्ञा पुं० [हिं० बाँटना] १. बाँटने की क्रिया या भाव। २. भाग। हिस्सा। ३. गाने बजानेवालों आदि का वह इनाम जो वे आपस में बाँट लेते हैं। हर एक के हिस्से का मिला हुआ पुरस्कार। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—लगना।—लगाना।—लेना।
⋙ बाँड़ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दो नदियों के संगम के बीच की भूमि जो वर्षा में नदियों के बढ़ने से डूब जाती है और फिर कुछ दिनों में निकल आती है। इस भूमि पर खेती अच्छी होती है।
⋙ बाँड़ (२)
वि० [सं० वण्ट] जिसके पूँछ न हो।
⋙ बाँड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. बिना पूँछ की गाय। २. कोई मादा पशु जिसकी पूँछ न हो या कट गई हो। ३. छोटी लाठी। छड़ी। ४. दो नदियों के संगम के बीच का भूभाग। बाँड़। उ०—बाँड़ी जो नदी को नाम जैं की सीम कीनी।— शिखर०, पृ० ५।
⋙ बाँड़ीबाज
संज्ञा पुं० [हिं० बाँड़ी + फा़० बाज] १. लाठीबाज। लकड़ी से लड़नेवाला। २. उपद्रवी। शरारती।
⋙ बाँद †
संज्ञा पुं० [फा़० बंदह] [स्त्री० बाँदी] सेवक। दास। उ०—जहाँगीर वह चिस्ती निहकलंक जस चाँद। वै सखदूम जगत के हौं वहि घर को बाँद।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बाँदना पु ‡
क्रि० स० [देश०] केंद्रित करना। बाँधना। उ०—कोई नाक के ऊपर ज्यों, नित बाँदते नजर क्यों। दिसते ही जोत कर यों, नित हँसत रह तूँ मीराँ।—दक्खिनी०, पृ० ११०।
⋙ बाँदर †
संज्ञा पुं० [सं० वानर]दे० 'बंदर'। उ०—बाँदर मैं बाँदर भयौ मच्छ माँहि पुनि मच्छ। सुंदर गाइनि मैं गऊ बच्छनि माँहै बच्छ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७७। मुहा०—बाँदर काटे = बंदर काटे अर्थात् बुरा हो। उ०—सुंदर जाइहि राजघर जोगिहि बाँदर काटु।—जायसी ग्रं०, पृ० ९५।
⋙ बाँदा
संज्ञा पुं० [सं० बन्दाक] १. एक प्रकार की वनस्पति जो अन्य वृक्षों की शाखाओं पर उगकर पुष्ट होतो है। पर्या०—तरुभुक्। शिखरी। वृक्षरुहा। गंधमादनी। वृक्षादनी। श्यामा। २. किसी वृक्ष पर उगी हुई कोई दूसरी वनस्पति।
⋙ बाँदी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बंदह्] लौड़ी। दासी।मुहा०—बाँदी का बेटा वा जना = (१) परम अधीन। अत्यंत आज्ञाकारी। (२) तुच्छ। हीन। (३) वर्णसंकर। दोगला।
⋙ बाँदू पु
संज्ञा पुं० [सं० बन्दी] बँधुवा। कैदी। उ०—पाँखन फिर फिर परा सो फाँदू। उड़ि न सकहिं उरझे, भए वाँदू।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बाँध
संज्ञा पुं० [हिं० बाँधना (= रोकना)] नदी या जलाशय आदि के किनारे मिट्टी, पत्थर आदि का बनाया हुआ धुस्स। यह पानी की बाढ़ आदि को रोकने के लिये बनाया जाता है। धुस्स। बंद। उ०—खेत फटिक जस लागै गढ़ा। बाँध उठाय चहूँ गढ मढ़ा।—जायसी (शब्द०)। कि० प्र०—बाँधना।
⋙ बाँधना
क्रि० स० [सं० बन्धन] १. रस्सी, तागे, कपड़े आदि की सहायता से किसी पदार्थ को बंधन में करना। रस्सी, डोरे आदि की लपेट में इस प्रकार दबा रखना कि कहीं इधर उधर न हो सके। कसने या जकड़ने के लिये किसी चीज के घेरे में लाकर गाँठ देना। जैसे, हाथ पैर बाँधना। घोड़ा बाँधना। २. रस्सी, तागा आदि किसी वस्तु में लपेटकर द्दढ़ करना जिससे वह वस्तु अथवा रस्सी या तागा इधर उधर हट या सरक न सके। कसने या जकड़ने के लिये रस्सी आदि लपेटकर उसमें गाँठ लगाना। जैसे, रस्सी बाँधना। जंजीर बाँधना। ३. कपड़े आदि के कोनों को चारों ओर से बटोरकर और गाँठ देकर मिलाना जिसमें संपुठ सा बन जाय। जैसे, गठरी बाँधना। ४. तारों ओर से बटोरे या लपेटे हुए कपड़े के भीतर करना। जैसे,—यह धोती गठरी में बाँध लो। ५. कैद करना। पकड़कर बंद करना। ६. नियम, प्रभाव, अधिकार, प्रतिज्ञा या शाथ आदि की सहायता से मर्यादित रखना। ऐसा प्रबंध या निश्चय कर देना जिससे किसी को किसी विशेष प्रकार से व्यवहार करना पड़े। पाबंद करना। जैसे,—(क) आपको तो उन्होंने वचन लेकर बाँध लिया है। (ख) सब लोग एक ही नियम से बाँध लिए गए। ७. मंत्र तंत्र आदि की सहायता से अथवा और किसी प्रकार प्रभाव, शक्ति या गति आदि को रोकना। जैसे,—(क) वह देखते ही साँप को बाँध देते हैं, उसे अपनी जगह से आगे बढ़ने ही नहीं देते। (ख) आजकल पानी नर्ही बरसता मालूम पड़ता है कि किसी ने बाँध दिया है। ८. प्रेमपाश में बद्ध करना। ९. नियत करना। मुकर्रर करना। ऐसा करना जिससे कोई वस्तु किसी रूप में स्थिर रहे या कोई बात बराबर हुआ करे। जैसे, हद बाँधना, महसूल बाँधना, महीना बाँधना। १०. पानी का बहाव रोकने के लिये बाँध आदि बनाना। ११. चूर्ण आदि को हाथों से दबाकर पिंड़ के रूप में लाना। जैसे, लड़डू बाँधना, गोली बाँधना। १२. मकान आदि बनाना। जैसे, घर बाँधना। १३. किसी विषय का, वर्णन आदि के लिये, ढाँचा या स्थूल रूप तैयार करना। रचना के लिये सामग्री जोड़ना। उपक्रम करना। योजना करना। न्यास करना। बैठाना। बंदिश करना। जैसे, रूपक बाँधना। मजमून बाँधना। १४. क्रम या व्यवस्था आदि ठीक करना। जैसे, कतार बाँधना। १५. ठीक करना। दुरुस्त करना। मन में बैठाना। स्थिर करना। जैसे, मंसूता बाँधना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। १६. किसी प्रकार का अस्त्र या शस्त्र आदि साथ रखना। जैसे, हथियार बाँधना। तलवार बाँधना। १७. किसी कार्य की दृष्टि से लोगों को इकट्ठा करना। जैसे, दल बाँधना। गोल बाँधना। १८. संपुटित करना। एक में करना। मिलाना। जैसे, हाथ बाँध कर निवेदन करना। १६. किसी एक बिंदु या स्थान पर केंद्रित करना। जैसे, दीठ बाँधना।
⋙ बाँधनीपौरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँधनी + पौरि] पशुओं के बाँधने का स्थान। पशुशाला। उ०—कवि ग्वाल चरायो लै आयो घरै फिरि बाँधनीपौरि सुहावनी है।—ग्वाल (शब्द०)।
⋙ बाँधनू
संज्ञा पुं० [हिं० बाँधना + ऊ (प्रत्य०)] १. वह उपाय जो किसी कार्य को आरंभ करने से पहले सोचा या किया जाय। पहले से ठीक की हुई तरकीब या विचार। उपक्रम। मंसूबा। क्रि० प्र०—बाँधना। २. कोई बात होनेवाली मानकर पहले से ही उसकी संबंध में तरह तरह के विचार। ख्याली पुलाव। क्रि० प्र०—बाँधना। ३. झूठा दोष। मिथ्या अभियोग। तोहमत। कलंक। ४. कल्पित बात। मन में गढ़ी हुई बात। ५. कपड़े की रँगाई में वह बंधन जो रँगरेज लोग चुनरी या लहरिएदार रँगाई आदि रँगने के पहले कपड़े में बाँधते हैं। क्रि० प्र०—बाँधना। ६. चुनरी या और कोई ऐसा वस्त्र जो इस प्रकार बाँधकर रँगा गया हो। उ०—कहै पद्माकर त्यौं बाँधसू बसनवारी वा ब्रज बसनवारी ह्मो हरनवारी है।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ बाँन्योटा †
संज्ञा पुं० [हिं० वनिया + ओटा (प्रत्य०)] वणिक का कार्य। व्यापार। कारबार। रोजगार। वनियौटा। उ०—साह रमइया अति बड़ा खोलै नहीं कपाट। सुंदर बाँन्योटा किया दीन्हीं काया हाट।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७४२।
⋙ बाँब
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो साँप के आकार की होती है।
⋙ बाँबी
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्मीक] १. दीमकों के रहने का भीटा। दीमकों का बनाया हूआ मिट्टी का भीटा। बँबीठा। उ०— (क) बाँबी फिर अंगहबली अंग उदैही जाम। झीन सबद मुख निक्कसे धीर धीर कै राम।—पृ० रा०, १।१९१। (ख) आधे तन बाँबी चढ़ि आई। सर्प तुचा छाती लपटाई।—शकुंतला, पृ० १३६। २. वह बिल जिसमें साँप रहता हो। साँप का बिल। उ०—मन मनसा मारै नहीं, काया मारण जाँहि। दादू बाँबी मारिए सरप मरै क्यौं माहिं।—दादू० बानी, पृ० ३४८।
⋙ बाँभन †पु
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण, प्रा० बंभन] दे० 'ब्राह्मण'। उ०—(क) धरि आनए बाँभन बटुआ।—कीर्ति०, पृ० ४४। (ख) बाँभनन देखि करत सुदामा सुधि, मोहि देखि काहे सुधि भृगु की करत हौ।—भूषण ग्रं०, पृ० १६।
⋙ बाँमा
संज्ञा स्त्री० [सं० वामा] वामा। स्त्री। नारी। उ०— आदि हु राम हि अंतहु राम हि, मध्य हु राम हि पृंस न बाँमै।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५०२।
⋙ बाँमी
संज्ञा स्त्री० [सं० बल्मीक] दे० 'बाँबी'।
⋙ बाँय †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाय] वावड़ी। उ०—यो औ है सौदागर ने यूसुफ कूँ काड़ी बाँय सूँ।—दक्खिनी०, पृ० १४९।
⋙ बाँयाँ
वि० [सं० बाम] दे० 'बायाँ'। उ०—उससे मनमानी करा लेना उसके बाँयें हाथ का खेल होता है।—रसकलश, पृ० ६।
⋙ बाँव †
वि० [सं० वाम] वाम। बायाँ। उ०—विधि परसाद कुँअर एकसरा। बाँव पंथ तजि दाहिन परा।—चित्रा०, पृ० २७।
⋙ बाँधना पु
क्रि० स० [?] रखना।
⋙ बाँवली
संज्ञा स्त्री० [सं० बब्बुल, राज० बाँवल, हिं० बबूल] बबूल की जाति का एक प्रकार का वृक्ष। उ०—बाँवलि काइ न सिरिजिआँ, मारूँ मँझ थलौह। प्रातम बाढ़त काँबड़ी फल सेवंत कराँह।—ढोला०, दू० ४१४। विशेष—यह वृक्ष सिंध, पंजाब और मारवाड़ में सूखे तालों के तलों में होता है। इसकी छाल चमड़ा सिझाने के काम में आती है और इसमें से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है। इसकी पत्तियाँ चारे के काम में आती हैं।
⋙ बाँवाँ †
वि० [सं० वाम] दे० 'वार्या'। उ०—(क) लोक कहै राम को गुलाम हों कहावौं। एतो बड़ो अपराध भो न मन बाँवों।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जो दसकंठ दियो बाँवों जेहि हरगिरि कियो है मनाकु।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३१५।
⋙ बाँवाँछोड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का रत्न जो लहसुनिया की जाति का होता है।
⋙ बाँवारथी
संज्ञा पुं० [सं० बावन] वामन। बौना। बहुत ठिगना।
⋙ बाँस
संज्ञा पुं० [सं० वंश] १. तृण जाति की एक प्रसिद्ध वनस्पति जिसके कांडों में थोड़ी थोड़ी दूर पर गाँठें होती हैं और गाँठों के बीच का स्थान प्रायः कुछ पोला होता है। विशेष—भारत में इसकी ठोस, पोली, मोटी, पतली, लंबी, छोटी आदि प्रायः २८ जातियाँ और १०० से ऊधर उपजातियाँ होती हैं। जैसे,—नरी, रिंगल, कँटबाँस, बोरो, नलबाँस, देवबाँस, बाँसिनी, गोबिया, लतंग (तिनवी), कोकवा, सेजसई (तीली), खाँग, तिरिया, करैल, भूली (पैवा), बुलंगी आदि। यह गरम देशों में अधिक होता है और बहुत से कामों में आता है। इससे चटाइयाँ, टोकरियाँ, पंखे, कुरसियाँ, टट्टर, छप्पर, छड़ियाँ, आदि अनेक चीजें बनती हैं। कहीं कहीं तो लोग केवल बाँस से ही सारा मकान बना लेते हैं और कहीं कहीं कच्चे बांस के चोंगों में भरकर चावल तक पका लेते हैं। इसके पतले रेशों से रस्सिया भी बनती हैं। इसके कोपलों का मुरब्बा और अचार भी तैयार किया जाता है। इसके रेशों से मजबूत कागज बनता है। प्रायः एक ही स्थान पर बहुत से बाँस एक साथ एक झुरमुट में उत्पन्न होते हैं जिसे 'कोठी' कहते हैं। गरम देशों में प्रायः बहुत बड़े तथा मोटे और ठढे देशों में छोटे और पतले बाँस होते हैं। कुछ बाँस ऐसे होते है जो जड़ की ओर अधिक मोटे और सिरे की ओर पतले होते जाते हैं। कुछ ऐसे भी होते है जिनकी मोटाई सब जगह बराबर रहती है। ऐसे बाँस प्रायः छड़ियाँ और छाते की डंडियाँ बनाने के काम में आते हैं। बहुत बड़े बड़े बाँस प्रायः सौ हाथ तक लंबे होते हैं। कुछ छोटे बाँस लता के रूप में भी होते हैं। सब प्रकार के बाँसों में एक प्रकार के फूल लगते हैं, पर कुछ बाँस, विशेषतः बड़े बाँस, फूलने के पीछे प्रायः तुरंत नष्ट हो जाते है। बाँस के फूल आकार मे जई की बालों के समान होते हैं और उनमें छोटे छोटे दाने होते हैं जो चावल कहलाते हैं और पीसकर ज्वार आदि के आटे में मिलाकर खाए जाते हैं। यह एक विलक्षण बात है कि प्रायः अकाल के समय बाँस अधिकता से फूलते हैं, और उस समय इन्हीं फूलों को खाकर सैकड़ों आदमी अपने प्राण बचाते हैं। भारत में बाँसों का फूलना बहुत ही अशुभ माना जाता है। बाँसों की पत्तियाँ पशुओं को चारे और औषध के रूप में खिलाई जाती है। तबाशीर या वंशलोचन भी बाँसों से ही निकलता है। मुहा०—बाँस पर चढ़ना = बदनाम होना। बाँस पर चढ़ाना = (१) बदनाम करना। (२) बहुत बढ़ा देना। बहुत उन्नत या उच्च कर देना। (३) मिजाज बढ़ा देना। बहुत आदर करके धृष्ट या घर्मडी बना देना। बाँसों उछलना = बहुत अधिक प्रसन्न होना। खूब खुश होना। २. एक नाप जो सवा तीन गज की होती है। लाठा। ३. नाव खेने की लग्गी। ४. पीठ के बीच की हड्डी जो गरदन से कमर तक चली गई है। रीढ़। ५. भाला (डिं०)।
⋙ बाँसपूर
संज्ञा पुं० [सं० वंशपर्व, हिं० बाँस + पोर या पूरना] एक प्रकार का महीन कपड़ा। उ०—चँदनौता औ खरदुक भारी। बाँसपूर झिलमिल की सारी।—जायसी ग्रं०, पृ० १४५। विशेष—कहते हैं, यह इतना महीन होता था कि इसका एक थान बाँस के चोंगे में भरा जा सकता था।
⋙ बाँसपोर †
संज्ञा पुं० [हिं० बाँसपूर] दे० 'बाँसपूर'।
⋙ बाँसफल
संज्ञा पुं० [हिं० बाँस + फल] एक प्रकार का धान जो संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में पैदा होता है। इसे 'बाँसी' भी कहते हैं।
⋙ बाँसली
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँस + ली (प्रत्य०)] १. बाँस की बनी हुई बजाने की बंशी। बाँसुरी। मुरली २. इसी आकार प्रकार का पीतल लोहे आदि का बना हुआ बजाने का बाजा। बंशी। ३. एक प्रकार की जालीदार लंबी पतली थैली जिसमें रुपया पैसा रखा जाता है और जो कमर में बाँधी जाती है। हिमयानी।
⋙ बाँसा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पंशक, हिं० बाँस] बाँस का बना हुआ चोंगे के आकार का वह छोटा नल जो हल के साथ बँधा रहता है। अरना। तार। विशेष—इसी में बोने के लिये अन्न भरा रहता है जो नीचे की ओर से गिरकर खेत में पड़ता है।
⋙ बाँसा (२)
संज्ञा पुं० [सं० वंश (= रीढ़)] १. नाक के ऊपर की हड्डी जो दोनों नथनों के ऊपर बीचोबीच रहती है। मुहा०—बाँसा फिर जाना = नाक का टिढ़ा हो जाना (जो मृत्यु काल के समीप होने का चिह्व माना जाता है)। २. पीठ की लंबी हड्डी जो गरदन के नीचे से लेकर कमर तक रहती है। रीढ़।
⋙ बाँसा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० प्रिय + बाँस] एक प्रकार का छोटा पौधा। पियाबाँसा। उ०—मोथा नीब चिरायत बाँसा। पीतपापरा पित कहँ नासा।—इद्रा०, पृ० १५१। विशेष—इस पौधे में चंपई रंग के बहुत सुंदर फूल लगते हैं। इसके बीज बहुत छोटे और काले रंग के होते हैं। इसकी लकड़ी के कोयलों से बारूद बनती है।
⋙ बाँसा † (४)
क्रि० वि० [सं० पार्श्व, हिं० पास, राज० वास] पास। समीप। बगल। उ०—प्रीतम वाँसइ जाइ नइँ मुई सुणाए मुझ्झ।—ढोला०, दू० ६२५।
⋙ बाँसागड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० बाँस + गाड़ना] कुश्ता का एक पेंच।
⋙ बाँसिनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँस] एक प्रकार का बाँस जिसे बरियाल, ऊना अथवा कुल्लुक भी कहते हैं।
⋙ बाँसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँस + ई (प्रत्य०)] १. एक प्रकार का मुलायम पतला बाँस जिससे हुक्के के नेचे आदि बनते हैं। २. एक प्रकार का गेहूँ जिसकी बाल कुछ काली होती है। ३. एक प्रकार का धान जिसका चावल बहुत सुगंधित, मुलायम और स्वादिष्ट होता है। यह संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में अधिकता से होता है इसे बाँसफल भी कहते हैं। ४. एक प्रकार की घास। इसके डंठल मोटे और कड़े होते हैं, इसीलिये पशु इसे कम खाते हैं। ५. एक प्रकार का पक्षी। ६. एक प्रकार पत्थर जिसका रंग सफेदी लिए पीला होता है और जो बड़ी बड़ी सिलों के रूप में पाया जाता है। ७. बंसुरी। बाँसुरी।
⋙ बाँसुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँस + उरी (प्रत्य०)] बाँस का बना हुआ प्रसिद्ध बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है। मुरली। वंशी। बाँसली। विशेष—यह बाज प्रायः डेढ़ बालिश्त लंबा होता है और इसका एक सिरा बाँस की गाँठ के कारण बंद रहता है। बंद सिरे की ओर सात स्वरों के लिये सात छेद होते हैं और दूसरी और वजाने के लिये एक विशेष प्रकार से तैयार किया हुआ छेद होता है। उसी छेदवाले सिरे को मुँह में लेकर फूँकते हैं और स्वरोंवाले छेदों पर उँगालियाँ रखकर उन्हें बंद कर देते हैं। जब जो स्वर निकालना होता है तब उस स्वरवाले छेद पर की उँगली उठा लेते हैं।
⋙ बाँसुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँस] १. एक प्रकार की घास जो अंतर्वेद में होती है। विशेष—फसल के लिये यह घास बड़ी ही हानिकारक होती है; इसका नाश करना बहुत ही कठिन होता है। २. 'बाँसुरी'।
⋙ बाँसुलीकंद
संज्ञा पुं० [हिं० बाँसुली + सं० कन्द] एक प्रकार का जंगली सूरन या जमीकंद जो गले में बहुत अधिक लगता है और प्रायः इसी के कारण खाने के योग्य नहीं होता।
⋙ बाँह
संज्ञा स्त्री० [सं० बाहु] १. कंधे से निकलकर दंड के रूप में गया। हुआ अंग जिसके छोर पर हथेली या पंजा लगा होता है। भुजा। हाथ। बाहु। मुहा०—वाँह गहना या पकड़ना = (१) किसी की सहायता करने के लिये हाथ बढ़ाना। सहारा देना। हर तरह से मदद देने के लिये तैयार होना। अपनाना। उ०—बिन सतगुर बाचै नहीं, फिरि बूड़ै भव माँह। भवसागर के त्रास में, सतगुरु पकड़ै बाँह।—कबीर सा० सं०, भा० १, पृ० ११। (२) विवाह करना। पाणिग्रहण करना। शादी करना। बाँह की छाँह लेना = शरण में आना। बाँह के सहारे रहना = पौरुष का भरोसा करना। अपने बल का विश्वास करना। उ०—है करम रेख मूठियों में ही। बेहतरी बाँह के सहारे हैं।—चुभते०, पृ० १०। बाँह चढ़ाना = (१) किसी कार्य के करने के लिये उद्यत होना। कोई काम करने के लिये तैयार होना। (२) लड़ने के लिये तैयार हेना। बाँह दिखाना = हाथ की नाड़ी दिखाना। रोग का निदान कराना। उ०—बाबुल वैद बुलाइया रे, पकड़ दिखाई म्हाँरी बाँह। मूरख वैद मरम नहिं जानै, करक कलेजे माँह।—संतवाणी०, भा० २, पृ० ७२। बाँह देना = सहायता देना। सहारा देना। मदद करना। उ०—(क) नूपुर जनु मुनिवर कलहसन रचे नीड़ दै बाँह।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कीन्ह सखा सुग्रीव प्रभु दीन्ह बाँहु रघुबीरतु।—लसी (शब्द०)। बाँह वुलंद होना = (१) बलवान या साहसी होना। (२) हृदय उदार होना। दान देने के लिये उठनेवाला हाथ होना। यौ०—वाँह बोल = रक्षा करने या सहायता देने का वचन। सहायता देने का वादा। उ०—लाज बाँह बोल की, नेवाजे की सँभार सार, साहेब न राम सो, बलैया लीजै सीस की।— तुलसी (शब्द०)।२. बल। शक्ति। भुजबल। उ०—मैन महीप सिँगार पुरी निज बाँह बसाई है मध्य ससी के।—(शब्द०)। ३. सहायक। मददगार। मुहा०—बाँह टूटना = सहायक या रक्षक आदि का न रह जाना। शक्तिहीन होना। ४. भरोसा। आसरा। सहारा। शरण। उ०—(झ) तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब, तेरो नाम लिए रहै आरति न काहु की।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तिनकी न काम सकै चाँपि छाँह। तुलसी जे बसें रघुबीर बाँह।—तुलसी (शब्द०)। ५. एक प्रकार की कसरत जो दो आदमी मिलकर करते हैं। विशेष—इसमें बारी बारी से हर एक आदमी अपनी बाँह दूसरे के कंधे पर रखता है और उसे अपनी बाँह के जोर से वहाँ से हटाता है। इससे बाहों पर जोर पड़ता है और उसमें बल आता है। ६. कुरते, कमीज, अंगे, कोट आदि में लगा हुआ वह मोहरीदार टुकड़ा जिसमें बाँह डाली जाती है। आस्तीन। जैसे,—इस कुरते की बाँह छोटी हो गई है।
⋙ बाँह (२)
संज्ञा पुं० दे० 'बाह' या 'बाही'।
⋙ बाँहतोड़
संज्ञा पुं० [हिं०] कुश्ती का एक पेंच। विशेष—इसमें जब गरदन पर जोड़ के दोनों हाथ आते हैं तब उन हाथों पर से अपना एक हाथ उलटकर उसकी जाँघ में अड़ा देते हैं और दूसरा हाथ उसकी बगल से ले जाकर गरदन पर से घुमाते हुए उसकी पीठ पर ले जाते हैं। फिर उसे टाँग पर मारकर गिरा देते हैं।
⋙ बाँहना पु (१)
क्रि० स० [सं० वपन] बाहना। बोना। उ०—राम नाम करि बोंहड़ा, बाँही बीज अघाइ। अंति कालि सूका पड़ै तौ निरफल कदे न जाइ।—कबीर ग्रं०, पृ० ५८।
⋙ बाँहना पु (२)
क्रि० स० [सं० वाहन (= चालन)] संवान करना। चलाना। उ०— सतगुर लई कमांण करि, बाँहण लागा तीर। एक जु बाह्या प्रीति सूँ, भीतरि रह्या शरीर।—कबीर ग्रं०,।
⋙ बाँहमरोड़
संज्ञा स्त्री० [हिं०] कुश्ती का पेंच। विशेष—इसमें जब जोड़े का हाथ कंधे पर आता है तब अपना हाथ उसकी बगल में ले जाकर उसकी उँगलियाँ पकड़कर मरोड़ देते है और दूसरी हाथ से उसकी कोहनी पकड़कर टाँग मारते हैं, जिससे जोड़ गिर जाता है। यह पेंच उसी समय किया जाता है जब जोड़ शरीर से नहीं सटा रहता, कुछ दूर पर रहता है।
⋙ बाँही ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बाँह'।
⋙ बा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वार् > वाः (= जल)] जल। पानी। उ०— राधे तै कत मान कियो री। धन हर हित रिपु सुत सुजान को नीतन नाहिं दियो री। बा जा पति अग्रज अंबा के भानुथान सुत हीन हियो री।—सूर (शब्द०)। (ख) राधा कैसे मान बचावै। सेसभार धर जा पति रिपु तिय जलयुत कबहुँ न हेरै। बा निवास रिपु धर रिपु लै सर सदा सूल सुख पैरै। बा ज्वर नीतन ते सारँग अति बार बार भर लावै।—सूर (शब्द०)।
⋙ बा (२)
संज्ञा पुं० [फा़० बार] बार। दफा। मरतबा। उ०—कारे बरन डरावने कत आवत यहि गेह। कै बा लख्यौ, सखी ! लखे लगै थरथरी देह।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बा (३)
उप० [फा़०] साथ। वाला। पूर्ण। विशेष—संज्ञावाचक शब्दों के पूर्व लगने पर यह उपरिलिखित अर्थ देता है। जैसे,—बाअदब, बाअसर, बाआबरू, बाईमान, आदि।
⋙ बा (४)
संज्ञा स्त्री० [देश बाइया, गुज० बाई, बा] १. माता। मा। २. श्रेष्ठ या बड़ी स्त्रियों के लिये आदराथंक शब्द। ३. महात्मा गांधी की धर्मपत्नी। कस्तूरबा गांधी।
⋙ बाइ †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बाई'।
⋙ बाइक पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वाचक, प्रा० वायक] दे० 'बायक'। उ०—सतगुरु रहना सकल सूँ सब गुन रहिता बैन। रज्जब मानी साखि सो उस बाइक में चैन।—रज्जब०, बानी, पृ० ६।
⋙ बाइक पु (२)
वि० [सं० वाचिक, प्रा० वाइअ] दे० 'वाचिक'। उ०— काइक बाइक मानसी कर्म न लागै ताहि।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८०७। यौ०—बाइकविलास = वाग्विलास। वाग्जाल। वाणी का विलास। उ०—तीजौ बाइकबिलास सु तौ सब वेद माँहि। बरनि के जहाँ लग बचन तै कह्यौ है।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६२२।
⋙ बाइका †
संज्ञा स्त्री० [तु० बायको, मरा० बायको, तुल० गुज०, हिं० बाई, वा] सुंदर स्त्री। पण्यनारी। उ०—बाइकाँ बनेंगी राँडाँ बेगले फिरेंगे छोरे।—दक्खिनी०, पृ० २९७।
⋙ बाइगी
संज्ञा स्त्री० [देश०] औरत। स्त्री। उ०—कौन बाइगी सुनै, ताहि किन मोंहि बतायो। परपंचिनि तुम ग्वालि ! झूठ ही मोहि बुलायौ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९८।
⋙ बाइनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बयना'।
⋙ बाइप्लेन
संज्ञा पुं० [अं०] एरोप्लेन या वायुयान का एक भेद।
⋙ बाइबिरंग †
संज्ञा स्त्री० [सं० वायु बिडङ्ग, हिं० बाय बिडंग] बिड़ंग।
⋙ बाइबिल
संज्ञा स्त्री० [यू० बाइबिल (= पुस्तक)] ईसाइयों की धर्मपुस्तक। इंजील। विशेष—यह दो भागों में विभक्त है। एक प्राचीन जो हिब्रू या इब्रानी भाषा में थी और जिसे यहूदी भी मानते हैं। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति मूसा के ईश्वरदर्शन आदि की कथा है। दूसरी नवीन या अर्वाचीन, जो यूनानी भाषा में थी और जिसमें ईसा की उत्पत्ति, उपदेश, करामात आदि का वर्णन है। ये दोनों ही भाग कई पोथियों के संग्रह हैं। ये संग्रहईसा की दूसरी और तीसरी शताब्दी में हुए थे। इन दोनों का अनुवाद संसार की प्रायः सभी भाषा ओं में हो गया है।
⋙ बाइस (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] १. सबब। कारण। वजह। उ०— लोग पूँछते हैं बाइस बस सुनकर चुप हो जाऊँ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १९२। २. मूल कारण। बुनियाद।
⋙ बाइस (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाईस'।
⋙ बाइसवाँ
वि० [हिं०] दे० 'बाईसवाँ'।
⋙ बाइसिकिल
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रसिद्ध गाड़ी। पैरगाड़ी। साइकिल। विशेष—इसमें आगे पीछे केवल दो ही पहिए होते हैं। इसके बीच में केवल बैठने भर को स्थान होता है और आगे की ओर दोनों हाथ टेकने और गाड़ी को घुमाने के लिये अड्डी के आकार की एक टेक होती है। इसमें नीचे की ओर एक चक्कर लगा रहता है जो पैर के दबाव से घूमता है, जिससे गाड़ी बहुत तेजी से चलती है।
⋙ बाई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वायु] त्रिदोषों में से वातदोष जिसके प्रकोप से मनुष्य बेसुध या पागल हो जाता है। दे० 'वात'। क्रि० प्र०—आना।—उतरना। मुहा०—बाई का दखल, बाई की झोंक = (१) वायु का प्रकोप। सन्निपात। (२) आवेश। बाई चढ़ना = (१) वायु का प्रकोप होना। (२) घमंड आदि के कारण व्यर्थ की बातें करना। बाई पचना = (१) वायुप्रकोप शांत होना। (२) घमंड टूटना। शेखी मिटना। बाई पचाना = घमंड तोड़ना। गर्व चूर करना।
⋙ बाई (२)
संज्ञा स्त्री० [देशी बाइया, गुज० बाई, बा, हिं० बाबा, बाबी] स्त्रियों के लिये एक आदरसूचक शब्द। जैसे,—लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग राजपूताने, गुजरात और दक्षिण आदि देशों में अधिक होता है। २. एक शब्द जो उत्तरी प्रांतों में प्रायःवेश्याओं के नाम के साथ लगाया जाता है।
⋙ बाईजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाइका] पण्यस्त्री। वेश्या। नायका।
⋙ बाईस (१)
संज्ञा पुं० [सं० द्वविंशति, प्रा० बाईसा] बीस और दो की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—२२।
⋙ बाईस (२)
वि० जो बीस और दो हो। बीस से दो अधिक।
⋙ बाईसवाँ
वि० [हिं० बाईस + वाँ (प्रत्य०)] गिनने में बाईस के स्थान पर पड़नेवाला। जो क्रम में बाईस के स्थान पर हो।
⋙ बाईसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाईस + ई (प्रत्य०)] १. बाईस वस्तूओं का समूह। २. बाईस पद्यों का समूह। जैसे, खटमल बाईसी।
⋙ बाउंटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह सहायता या मदद जो व्यापार या उद्योग धंधे को उत्तेजन देने के लिये दी जाय। सहायता। मदद।
⋙ बाउ ‡
संज्ञा पुं० [सं० वायु] हवा। पवन। उ०—(क) मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।— मानस, २।२००। (ख) ताति बाउ लागै नहीं, आठी पहर अनंद।—संतबानी०, भा० १, पृ० १३५।
⋙ बाउर †
वि० [सं० बातुज] [वि० स्त्री० बाउरी] १. बावला पागल। उ०—करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइय काहू।—मानस, १।९७। २. भोला भाला। सीधा सादा। ३. मूर्ख। अज्ञान। ४. जो बोल न सके। मूक। गूँगा। † ५. बुरा।
⋙ बाउरि, बाऊरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाउर] बौरी। पगली।
⋙ बाउरी † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बावली'।
⋙ बाउरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।
⋙ बाउलि †
वि० [हिं०] पगली। बावरी। उ०—हृदय का बाउलि कहिए पर जनु तोंहौं कहौ सयानी।—विद्यापति, पृ० २१३।
⋙ बाऊ ‡ (१)
संज्ञा पुं० [सं० वायु] हवा। पवन। उ०—सीतल मंद सुरभि बह बाऊ।—मानस, १।१९१।
⋙ बाऊ ‡ (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] पिता। बाबू। बापू।
⋙ बाएँ
क्रि० वि० [हिं० बायाँ] बाइँ ओर। बाईं तरफ।
⋙ बाक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बकपंक्ति। बकयूथ [को०]।
⋙ बाक पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० वक्त्र; प्रा० वक्क, राज० बाक] मुख। उ०—बाक घणा फाटा रहै, नाहर डाच निहाल।—बाँकी०, ग्रं०, भा० १. पृ० २६।
⋙ बाक पु (३)
संज्ञा स्ञी० [सं० वाक्, प्रा० बाक] वाक्। वाणी। उ०—नटनागर की न गली तजिहौं, गुरु लोक के बाक गजै न गजै।—नट०, पृ० ५८। मुहा०—बाक न आना = कुछ कह न पाना। मुख से बोल न निकलना। उ०—बंध नाहिं औ कंध न कोई। बाक न आव कहौं केहि रोइ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३६२।
⋙ बाकचाल
वि० [सं० वाक् + चल] बहुत अधिक बोलनेवाला। बक्की। बातूनी। मुँहजोर। उ०—बड़ो बाकचाल याहि सूझत न काल निज, कहौ तों बिचारि कपि कौन विधि मारिए।—हनुमान (शब्द०)।
⋙ बाकता पु
वि० [सं० वक्ता] बोलनेवाला। कहनेवाला। वक्ता। उ०—सत्य बैन को बाकता, बुल्लिव जगनिक राय।—प० रासो, पृ० ९७।
⋙ वाकना पु ‡
क्रि अ० [सं० वाक् से हिं० बकना, बांकना] बकना। प्रलाप करना। उ०—साँवरे जू रावरे यों बिरह बिकानी बाल, बन बन बावरी लौं बाकिबो करति है।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ बाकबानी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाक् + वाणी] वाक्यरूपा वाणी। वचनरूपा सरस्वती। उ०—आसन मिल्यो है पाकसासन कौ सेय तिन्हैं, जिन की कृपा तैं बोल कढ़ैं बाकबानी के।— ग्रं०, ब्रज० पृ० १२९।
⋙ बाकमाल
वि [फा़० या + अ० कमाल] कमालवाला। चमत्कारी। गुणी। उ०—ऐसे ऐसे बाकमाल पड़े हुए हैं।—मान०, भा० ५, पृ० २०६।
⋙ बाकरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पाँच महीने की ब्याई गाय।
⋙ बाकरी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बकरी] दे० 'बकरी'। उ०—सहजो नन्हीं बाकरी, प्यार करै संसार।—संतबानी०, भा० १, पृ० १६०।
⋙ बाकल पु
संज्ञा पुं० [सं० बल्कल, प्रा० बक्कल] दे० 'वल्कल'। उ०—सिरसि जटा बाकल बपु धारी।—केशव (शब्द०)।
⋙ बाकला
संज्ञा पुं० [अ०] एक प्रकार की बड़ी मटर के समान दालों वाली छीमी जिसकी फलियों की तरकारी बनती है।
⋙ बाकली
संज्ञा स्त्री० [सं० बकुल] एक प्रकार का वृक्ष जिसके पत्तो रेशम के कीड़ों को खिलाए जाते हैं। विशेष—यह वृक्ष बहुत ऊँचा होता है। इसकी लकड़ी भूरे रंग की और बहुत मजबूत होती है तथा खेती आदि के औजार बनाने के काम में आती है। इसकी छाल से चमड़ा भी सिझाया जाता है। यह आसाम और मध्यप्रदेश में बहुत अधिकता से होता है। इसे धौरा और बोंदार भी कहते हैं।
⋙ बाकस ‡
संज्ञा पुं० [अं० बाँक्स] दे० बक्स'।
⋙ बाकसो
क्रि० अ० [अं० बैकसेल] जहाज के पाल को एक ओर से दूसरी ओर करने का काम।
⋙ बाका पु् ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० वाक्] वाणी। बोलने की शक्ति।
⋙ बाकायदा
क्रि० वि० [फा़० बाकायदह्] कायदे के साथ। ढंग से। नियमानुकूल। उ०—वह वहाँ क्यों है, उसे बाकायदा दीवार पर टँगा होना चाहिए था।—सुनाता, पृ० १५१।
⋙ बाकी (१)
वि० [अ० बाकी़] जो बच रहा हो। अवशिष्ट। शेष। उ०—मन धन हानो बिसात जो सो तोहि दियो बताय। बाकी बाकी बिरह की प्रीतम भरी न जाय।—रसनिधि (शब्द०)। क्रि० प्र०—निकलना।—बचना।—रहना। यौ०—बाकीदार = जिसके यहाँ लगान बकाया हो। बाकी- साकी = बचा खुचा। शेष। उ०—दुजा डोला नमाज अपनी भी बाकी। गुजारें बारिवरात बाकी साकी।—दक्खिनी०, पृ० २०९।
⋙ बाकी (२)
संज्ञा स्त्री० १. गणित में वह रीति जिसके अनुसार किसी एक संख्या या मान को किसी दूसरी संख्या या मान में से घटाते हैं। दो संख्याओं या मानों का अंतर निकालने की रीति। २. वह संख्या जो एक संख्या को दूसरी संख्या में से घठाने पर निकले। घटाने के पीछे बची हुई संख्या या मान। क्रि० प्र०—निकालना।
⋙ बाकी (३)
अब्य० [अ० बाकी] लेकिन। मगर। पंरतु। पर। (बोलचाल)। उ०—मन धन हतो बिसात जो सो तोहि दियो बताय। बाकी बाकी बिरह की प्रीतम भरी न जाय।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ बाकी (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का धान। इसे बक्की भी कहते हैं। उ०—पाही सो सीघी लाची बाकी। सुभटी बगरी बरहन हाकी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बाकुंभा
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुंभी] कुंभी के फूल का सुखाया हुआ केसर जो खाँसी और सर्दी में दवा की तरह दिया जाता है।
⋙ बाकुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बकुल वृक्ष का फल। मौलसिरी का फल [को०]।
⋙ बाकुल (२)
संज्ञा पुं० [सं० वल्कल] दे० 'वल्कल'। उ०—बाकुल बसतर किता पहिरबा, का तप वनखंडि बासा।—कबीर ग्रं०, पृ० ११६।
⋙ बाकुला
संज्ञा पुं० [सं० वल्कल, हिं० वकला, बोकला] पेड़ की छाल। २. फल के ऊपर का छिलका। उ०—ऐसा एक अनूप फल, बीज बाकुला नाँहिं।—दादू० बानी, पृ० १०१।
⋙ बाक्सी
क्रि० वि० [? या अं० प्राक्सी] पृष्ठ भाग। पीछे। (लश०)।
⋙ बाखर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार की घास जो रुहेलखंड में अधिकता से होती है। २. घोड़े की पीठ पर पलानी के नीचे रखी जानेवाली सूखी घास आदि का मुट्ठा जो टाट से लपेटा रहता है। बखरा।
⋙ बाखर पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बखरी'। उ०—बन उपवन ब्रज बाखर खरिक खोरि, गिरि गहवर उफनाति प्रेम रौरई।— घनानंद, पृ० १९६।
⋙ बाखरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बखरी'। उ०—(क) जानति हौं गोरस को लेबो वाही बाखरि माँझ।—सूर (शब्द०)। (ख) छाँडो क्यों करि छैल छबीले सूनी बाखरि पायौ।— छीत०, पृ० २१।
⋙ बाखुदा
वि० [फा़० बाखुदा] पुण्यात्मा। ईश्वरभक्त [को०]।
⋙ बाख्तर
संज्ञा पुं० [फा़० पाख्तर] हिंदूकुश की ओर का एक प्राचीन प्रदेश। बैक्ट्रिया। बलख [को०]।
⋙ बाग (१)
संज्ञा पुं० [अ० बाग] वह स्थान जहाँ शोभा और मनो- विनोद आदि के लिये अनेक प्रकार के छोटे बड़े पेड़ पौधे लगाए गए हो। उद्यान। उपवन। बाटिका। बारी।
⋙ बाग (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्गा] लगाम। मुहा०—बाग उठाना = कूच करना। यात्रा करना। बाग छूटना = बेकावू होना। बाग मोड़ना = किसी ओर प्रवृत्त करना। किसी ओर घुमाना। उ०—महमूद गजनवी ने अपने लश्कर की बाग हिंदुस्तान की तरफ मोड़ी।—शिव- प्रसाद (शब्द०)।
⋙ बागड़
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाँगड़'। उ०—बागड़ देस लूवन का घर है। तहाँ जिनि जाइ दाझन का डर है।—कबीर ग्रं०, पृ० १०९।
⋙ बागडोर
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाग + डोर (= रस्सी)] १. वह रस्सी जो घोड़े की लगाम में बाँधी जाती है और जिसे पकड़कर साईस लोग उसे टहलाते हैं। २. लगाम। वल्गा।
⋙ बागडोरि †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बागडोर'। उ०—वा धोड़ा की बागडोरि पकरि कै चाबुक लै आइ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १९३।
⋙ बागना † (१)
क्रि० अ० [सं० बक (= चलना)] चलना। फिरना। घूमना। टहलना। उ०—देश देश हम बागिया ग्राम ग्राम की खोरि। ऐसा जियरा ना मिला जो लेइ फटकि पछोरि। कबीर (शब्द०)।
⋙ बागना ‡ (२)
क्रि० अ० [सं० वाक् (= बोलना)] १. कहना। बोलना। उ०—जागत बागत सुख सपने न सोइहै जनम जनम जुग जुग जग रोइहै।—संतबानी०, भा० २, पृ० ८८। २. बजना। ध्वनित होना। उ०—(क) मेरा मन के मन सौ मन लागा। सबद के सबद सौं नाद बागा।—दादू० बानी, पृ० ६२३। (ख) पिय कौं ढूँढे बारी बागा।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३५१।
⋙ बागबाँ पु
संज्ञा पुं० [फा़० बागवान] दे० 'बागवान'। उ०— बाग इक रखता हूँ ज्यों बागे इरम। बागबाँ हो ले मेरे सूँ दस दिरम।—दक्खिनी०, पृ० २०१।
⋙ बागबाग
वि० [फा़० बागबाग] अत्यानंदित। अत्यंत खुश। बहुत प्रसन्न। उ०—(क) वह गुलबदन परी जामें में फूले न समाई बागबाग हो गई।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २९२। (ख) कर्मचारियों के हाथ तो खुजला रहे थे। वसूली का हुक्म पाते ही बागबाग हो गए।—काया०, पृ० १६५। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ बागबाणी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाच् + वाणी] सरस्वती। उ०— बागबाणी मो बर दीयो।—बी० रासो, पृ० ६२।
⋙ बागबान
संज्ञा पुं० [फा़० बागबान] वह जो बाग की रखवाली, प्रबंध और सजावट आदी करता है। माली।
⋙ बागबानी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़० बागबानी] १बागबान का पद। माली की जगह। २. बागबान का काम। माली का काम।
⋙ बागबानी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाक् वाग्] दे० 'बाकबानी'।
⋙ बागमी पु
संज्ञा पुं० [सं० वाग्मी] दे० 'वाग्मी'।—नंद० ग्रं०, पृ० ११२।
⋙ बागर
संज्ञा पुं० [देश०] १. नदी किनारे के वह ऊँची भूमि जहाँ तक नदी का पानी कभी पहुँचता ही नहीं। उ०—बागर ते सागर करि राखै चहुँदिसि नीर भरै। पाहन बीच कमल बिकसाहीं जल में अगिनि जरै।—सूर (शब्द०)। २. दे० 'बाँगुर'।
⋙ बागल पु †
संज्ञा पुं० [पू० हिं० बकुला] बगला। बक। उ०—(क) बिन विद्या सों नर सोहत यों। बहु हंसन में इक बागल ज्यों।—रघुनाथदास (शब्द०)। (ख) लिन हरि की चोरी करी गए राम गुन भूलि। ते बिधना बागल रचे रहे उरधमुख झूलि।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बागवान
संज्ञा पुं० [हिं०] माली। दे० 'बागबान'।
⋙ बागवानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बागवान + ई] दे० 'बागबाना'।
⋙ बागा
संज्ञा पुं० [फा़० बाग] अंगे की तरह का पुराने समय का एक पहनावा जो घुटनों तक लंबा होता है और जिसमें छाती पर तीन बंद लगते हैं। जामा। उ०—अनंत नाम का सिऊँ बागा। जो सीवत जम का डर भागा।—दक्खिनी०, पृ० ३२। २. पोशाक। पहनावा। वस्त्र। उ०—कहिसि कि तजहु जोग वैरागा। पहिरहु अब छत्री कर बागा।—चित्रा०, पृ० १४९।
⋙ बागी
संज्ञा पुं० [अ० बागी] वह जो प्रचलित शासनप्रणाली अथवा राय के विरुद्ध विद्रोह करे। विद्रोही। राजद्रोही।
⋙ बागीचा
संज्ञा पुं० [फा़० बागीचह्] छोटा बाग। वाटिका। उपवन। उद्यान।
⋙ बागीसा पु
संज्ञा पुं० [सं० वागीश] दे० 'वागीश'। उ०— मिलिहि जबहिं अब सप्तरिषीसा। जानिहु तब प्रमान बागीसा।—मानस, १।७५।
⋙ बागुर पु †
संज्ञा पुं० [देश०] पक्षी या मृग आदि फँसाने का जाल जिसे बागौर भी कहते हैं। उ०—बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृग भागबस।—मानस, २।७५।
⋙ बागेसरी ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० वागीश्वरी] १. सरस्वती। २. संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो किसी के मत से भैरव, केदार, गोरी और देवगिरि आदि कई रागों तथा रागिनियों के मेल से बनी हुई संकर रागिनी है।
⋙ बाघंबर
संज्ञा पुं० [सं० व्याघ्राभ्बर] १. बाघ की खाल जिसे लोग विशेषतः साधु, त्यागी और अमीर बिछाने आदि के काम में लाते हैं। २. एक प्रकार का रोएँदार कंबल जो दूर से देखने पर बाघ की खाल के समान जान पड़ता है।
⋙ बाघंबरी पु
वि० [सं० व्याघ्राम्बर, हिं० बाघंबर + ई (प्रत्य०)] वह (साधु) जो बाघंबर धारण करता है। बाघबर ओढ़नेवाला (साधु)। उ०—लाखों मौनी फिरै लाखों बाघंबरी।—पलटू० बानी, पृ० ९३।
⋙ बाघ
संज्ञा पुं० [सं० व्याघ्र] [स्त्री० बाधिन, बाधिनी] शेर नाम का प्रसिद्ध हिंसक जतु। विशेष—दे० 'शेर'।
⋙ बाघनख
संज्ञा पुं० [सं० व्याघ्रनख] दे० 'बघनखा'।
⋙ बाघा
संज्ञा दे० [हिं० बाघ] १. चौपायों का एक रोग। इसमें पशुओं का पेट फूल जाता है और वे साँस रुकने से मर जाते हैं। २. कबूतरों की एक जाति का नाम।
⋙ बाघी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की गिलटी जो अधिकतर गरमी के रोगियों को होती है। विशेष—यह पेड़ू और जाँघ की संधि में होती है। यह बहुत कष्टदायक होती है और जल्दी दबती नहीं। बहुधा यह पक जाती है और चीरनी पड़ती है।
⋙ बाघुल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली।
⋙ बाच पु
वि, संज्ञा पुं० [सं० वाच्य] दे० 'वाच्य'। उ०—तत पद त्वं पद और असी पद, बाच लच्छ पहिचानें।—कबीर श०, पृ० ६६।
⋙ बाचक पु
वि० [सं० वाचक] बोलने वाला। वक्ता। उ०—बाचक ज्ञानी बहुतक देखे। लच्छ ज्ञानी कोइ लेखे लेखे।—चरण० बानी, पृ० ४२।
⋙ बाचना ‡ (१)
क्रि० अ० [हिं० बचना] बचना। सुरक्षित रहना। उ०—धोखा दै सब को भरभावै सुर नर मुनि बाचै।— कबीर० श०, भा० ४, पृ० २७।
⋙ बाचना (२)
क्रि० स० बचाना। सुरक्षित रखना।
⋙ बाचना (३)
क्रि० स० [सं० वाचन] पढ़ना। पाठ करना। बाँचना।
⋙ बाचय †
संज्ञा पुं० [सं० वाक्य या वाच्य] वह बात जो कहना है। कथनीय बात। उ०—करी जु अग्ग सेख भेंट बुल्लियौ सु बाचयं।—ह० रासो, पृ० ५१।
⋙ बाचा
संज्ञा स्त्री० [सं० वाचा] १. बोलने की शक्ति। २. वचन। बातचीत। वाक्य। उ०—(क) रावन कुंभकरन वर माँगत शिव विरंचि बाना छले।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तब कुमार बोल्यो अस बाचा। मैं कंगाल दास हौं साचा।— रघुराज (शब्द०)। ३. प्रतिज्ञा। प्रण। उ०—बाचा पुरुष तुरुक हम बूझा। परगट मेरु, गुप्त छल सूझा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बाचाबंध पु
वि० [सं० वाचा + बद्ध] जिसने किसी प्रकार का प्रण किया हो। प्रतिज्ञाबद्ध। उ०—बाढ़ चढ़ती बेलरी उरझी आसा फंद। टूटै पर जूटै नहीं भई जो बाचाबंध।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बाच्छाह †
संज्ञा पुं० [फा़० बादशाह] दे० 'बादशाह'। उ०—आलम का बाच्छाह दुहाई मुलुक में।—पलटू० बानी, पृ० ३०।
⋙ बाछ (१)
संज्ञा पुं० [सं० वत्स, प्रा० बच्छ (= वर्ष)] इजमाल। गाँव में मालगुजारी, चंदे, कर आदि का प्रत्येक हिस्सेदार के हिस्से के अनुसार परता। बछौटा। बेहरी। मुहा०—बाछ करना = चंदा या बेहरी एकत्र करना या होना। बाछ डालना = चंदे के द्वारा इकट्ठा करके लगान जमा करना। २. मुख। ३. होठ। ४. विभाग। हिस्सा।
⋙ बाछ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाछे] होठ के दोनों कोर। होठ का सिरा। मुहा०—बाछें आना = होठों का सिरा बाल आने से ढँक जाना। मसें भीनना। बाछें खिलना = प्रसन्नता व्यक्त करते हुए हँसना। हँसी आना। मुस्कुराना। उ०—नवाब साहब की बाछें खिल गइँ।—झाँसी०, पृ० १८५।
⋙ बाछ (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाछा'।
⋙ बाछ (४)
संज्ञा पुं० [सं० वास (= निवास)] वास। स्थिति। उ०— सतगुरु के सदकै करूँ, दिल अपनी का साछ। कलियुग हमस्यूँ लड़ि पड़या, मुहकम मेरा बाछ।—कबीर ग्रं०, पृ० १।
⋙ बछड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बछड़ा'।
⋙ बछरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] 'बछड़ा'। उ०—कोउ करै पय पान कौं कौन सिद्धि कहि बीर। सुंदर बालक बाछरा ये नित पीवहिं खीर।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३३।
⋙ बाछा
संज्ञा पुं० [सं० वत्सक, प्रा० बच्छ] १. गाय का बच्चा। बछड़ा। उ०—गऊ निकसि बन जाहीं। बाछा उनका घर ही माहीं।—जग० श०, पृ० ५१। २. लड़का। बच्चा। उ०—में आवत हौं तुम्हरे पाछे। भवन जाहु तुम मेरे वाछे।—सूर (शब्द०)।
⋙ बाछायत पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० बादशाहत] दे० 'बादशाहत'। उ०— हत्ती, घोड़े, दौलत दक्खन मुलूख बाछायत, बेदर सरीखा तखत इस वक्त जाएगा।—दक्खिनी०, पृ० ४७।
⋙ बाजत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० वदित्र, प्रा० बालित्र] वाद्य। बाजा। उ०—बजि बाजत्र अनेक स बीरं।—ह० रासो, पृ० १०५।
⋙ बाज (१)
संज्ञा पुं०[अ० बाज] १. एक प्रसिद्ध शिकारी पक्षी जो प्रायः सारे संसार में पाया जाता है। विशेष—यह प्रायः चील से छोटा, पर उससे अधिक भयंकर होता है। इसका रंग मटमैला, पीठ काली और आँखें लाल होती हैं। यह आकाश में उड़ती हूई छोटी मोटी चिड़ियों और कवूतरों आदि को झपटकर पक्ड़ लेता है। पुराने समय में आखेट और युद्ध में भी इसका प्रयोग होता था जिसके उल्लेख ग्रंथों में मिलते हैं। प्रायः शौकीन लोग इसे दूसरे पक्षियों का शिकार करने के लिये पालते भी है। इसकी कई जातियाँ होती हैं। २. एक प्रकार का बगला। ३. तीर में लगा हुआ पर। शरपुंख।
⋙ बाज (२)
प्रत्य० [फा़० बाज] एक प्रत्यय जो शब्दों के अंत में लगकर रखने, खेलने, करने या शौक रखनेवाले आदि का अर्थ देता है। जैसे,—दगाबाज, कबूतरबाज, नशेबाज, दिल्लगीबाज, आदि।
⋙ बाज (३)
वि० [फ़ा० बाज] वंचित। रहित। मुहा०—बाज आना = (१) खोना। रहित होना। जैसे,—हम दस रुपए से बाज आए। (२) दूर होना। अलग होना। पास न जाना। जैसे,—तुमको कई बार मना किया पर तुम शरारत मे बाज नहीं आते हो। बाज करना = रोकना। मना करना। वंचित करना। उ०—देखिबे ते अँखियान को बाज के लाज के भाजि के भीतर आई।—रघुनाथ (शब्द०)। बाज रखना = रोकना। मना करना। बाज रहना = दूर रहना। अलग रहना।
⋙ बाज (४)
वि० [अ० बअज] कोई कोई। कुछ विशिष्ट। जैसे,—(क) बाज आदमी बड़े जिद्दी होते हैं। (ख) बाज मौकों पर चुप से भी काम बिगड़ जाता है। (ग) बाज चीजें देखने में तो बहुत अच्छी होती हैं पर मजवूत बिलकुल नहीं होतीं।
⋙ बाज (५)
क्रि० वि० बगैर। बिना। (क्व०)। उ०—अब तेहि वाज राँक भा डोलौं। होय सार दो बरगों बोलों।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बाज (६)
संज्ञा पुं० [सं० वाजिन्] घोड़ा। उ०—इततें सातो जात हरि उतते आवत राज। देखि हिए संशय कह्यो गह्यो चरन तजि बाज।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ बाज (७)
संज्ञा पुं० [सं० बाद्य] १. वाद्य। बाजा। उ०—महामधुर बहु बाज बजाई। गावहिं रामायन सुर छाई।— रघुराज (शब्द०)। २. बजने या बाजे का शब्द। ३. बजाने की रीति। ४. सितार के पाँच तारों में से पहला जो पक्के लोहे का होता है।
⋙ बाज (८)
संज्ञा पुं० [देश] ताने के सूतों के बीच में देने की लकड़ी।
⋙ बाज पु (९)
वि० [सं० बाज] गति। वेग।—अनेकार्थ०, पृ० ९८।
⋙ बाजड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाजरा'।
⋙ बाजदाबा
संज्ञा पुं० [फ़ा० बाजदावह्] अपने अधिकारों का त्याग। अपने दावे या स्वत्व से बाज आना। क्रि० प्र०—लिखना।—लिखाना।
⋙ बाजन पु †
संज्ञा पुं० [सं० वादन (= बाजा)] दे० 'बाजा'। उ०—कोटिन्ह बाजन बाजहिं दसरथ के गृह हो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३।
⋙ बाजना (१)
क्रि० अ० [हिं० बजना] १. बाजे आदि का बजना। उ०—गुंजत अलिंगन कुंज बिहंगा। बाजत बाजन उठत तरंगा।—विश्राम० (शब्द०)। २. लड़ना। भिड़ना। झगड़ना। ३. कहलाना। प्रसिद्ध होना। पुकारा जाना। ४. लगना। आघात पहुँचना। उ०—उठि बहोरि भारुति युवराजा। हने कोपि तेहि घाव न बाजा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बाजना ‡ (२)
वि० बजनेवाला। जो बजता हो।
⋙ बाजना (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० √ ब्रज] जा पहुँचना। सामने मौजूद हो जाना। (क्व०)।
⋙ बाजनि पु
संज्ञा स्त्रीं० [हिं०]
बजने का कार्य, भाव या स्थिति। उ०—पृयु कटि कल किंकिने को बाजनि। बिलुलित वर कबरी की राजनि।—नंद०, ग्रं० पृ० २४८।
⋙ बाजरा
संज्ञा पुं० [सं० वर्जरी] एक प्रकार की बड़ी घास जिसकी बालो में हरे रंग के छोटे छोटे दान लगते हैं। इन दानों की गिनती मोटे अन्नों में होती है। प्रायाः सारे उत्तरी, पश्चिमी और दक्षिणी भारत में लोग इसे खाते हैं। जोंघरिया। बजड़ा। विशेष—इस अनाज की खेती बहुत सी बातों में ज्वार की खेती से मिलती जुलती होती है। यह खरीफ की फसल है और प्रायः ज्वार के कुछ पीछे वर्षा ऋतु में बोई और उससे कुछ पहले अर्थात् जाड़े के आरंभ में काटी जाती हैं। इसके खेतों में खाद देने या सिंचाई करने की विशेष आवश्यकता नहीं होती। इसके लिये पहले तीन चार बार जमीन जोत दी जाती है और तब बीज बो दिए जाते हैं। एकाध बार निराई करना अवश्य आवश्यक होता है। इसके लिये किसी बहुत अच्छी जमीन की आवश्यकता नहीं होती और यह साधारण से साधारण जमीन में भी प्रायः अच्छी तरह होता है। यहाँ तक कि राजपूताने की बलुई भूमि में भी यह अधिकता से होता है। गुजरात आदि देशों में तो अच्छी करारी रूई बोने से पहले जमीन तयार करने के लिय इसे बोते हैं। बाजरे के दानों का आटा पीसकर और उसकी रोटी बनाकर खाई जाती है। इसकी रोटी बहुत ही बलवर्धक और पुष्टिकारक मानी जाती है। कुछ लोग दानों को यों ही उबालकर और उसमें नमक मिर्च आदि डालकर खाते हैं। इस रुप में इसे 'खिचड़ी' कहते हैं। कहीं कहीं लोग इसे पशुओं के चारे के लिये ही वोते हैं। वैद्यक में यह वादि, गरम, रूखा, अग्निदीपक पित्त को कुपित करनेवाला, देर में पचनेवाला, कांतिजनक, बलवर्धक और स्त्रियों के काम को बढा़नेवाला माना गया है।
⋙ बाजहर
संज्ञा पुं० [हिं० बाज (= वेग) + हर] दे० 'जहर- मोहरा—१'।
⋙ बाजा
संज्ञा पुं० [सं० वाद्य] कोई ऐसा यंत्र जो गाने के साथ यों ही, स्वर (विशेषतः राग रागिनी) उत्पन्न करने अथवा ताल देने के लिये बजाया जाता हो। बजाने का यंत्र। वाद्य। विशेष—साधारणतः बाजे दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जिनमें से स्वर या राग रागिनियाँ आदि निकलती हैं। जैसे, बीन, सितार, सारंगी, हारमोनियम, बाँसुरी आदि और दूसरे वे जिनका उपयोग केवल ताल देने में होता है। जैसे, मृदंग, तबला, ढोल, मजीरा, आदि। विशेष—दे० 'वाद्य'। क्रि० प्र०—बजना।—बजाना। यौ०—बाजा गाना = अनेक प्रकार के बजते हुए बाजों का समूह।
⋙ बाजाब्ता (१)
क्रि० वि० [फा़० बाजाब्तह्] जाब्ते के साथ। नियमा- नुसार। कायदे के मुताबिक। जैसे,—बाजाब्ता दरखास्त दो।
⋙ बाजाव्ता (२)
वि० जो जाब्ते के साथ हो। जो नियमानुकूल हो। जैसे,—अभी बाजाब्ता नकल नहीं मिली है।
⋙ बाजार
संज्ञा पुं० [फ़ा० बाजार] १. वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार के पदार्थों को दुकानें हों। वह जगह जहाँ सब तरह की चीजों की, अथवा किसी एक तरह की चीज की बहुत सी दूकानें हों। २. भाव। मूल्य। मुहा०—बाजार करना = चीजें खरीदने के लिये बाजार जाना। बजार गर्म होना = (१) बाजार में चीजों या ग्राहकों आदि की अधिकता होना। खूब लेन देन या खरीद बिक्री होना। (२) खूब काम चलना। काम जोरों पर होना। जैसे,— आजकल गिरपतरियों का बाजार गर्म है। बाजार तेज होना = (१) बाजार में किसी चीज की माँग बहुत होना। ग्राहकों की अधिकता होना। (२) किसी चीज का मूल्य वृदि्ध पर होना। (३) काम जोरों पर होना। खूब काम चलना। बाजार मंद या मदा होना = (१) बाजार मे किसी चीज की माँग कम होना। ग्राहकों की कमी होना। (२) किसी पदार्थ के मूल्य में निरंतर ह्रास होना। दाम घटना। (३) कारबार कम चलना। बाजर लगाना = बहूत सी चीजों का इधर उधर ढेर लगना। बहुत सी चीजों का यों ही सामने रखा होना। बाजार लगाना = चीजों को इधर उधर फैला देना। अटाला लगाना। यौ०—बाजार भाव = वह मूल्य जिसपर कोई चीज बाजार में मिलती या बिकती है। प्रचलित मूल्य।वह स्थान जहाँ किसी निश्चित समय, तिथि, वार या अवसर आदि पर सब तरह की दूकानें लगती हों। हाठ। पैठ। मुहा०—बाजार लगना = बाजार में दूकानों का खुलना।
⋙ बाजारण पु
वि० [हिं० बाजार + न (प्रत्य०)] बाजारू। निम्न। उ०—रे बाजारण छोहरी, काँइ खेलाड़इ घाति।— ढोला०, दू० ३३४।
⋙ बाजारी
वि० [फ़ा० बजारी] १. बाजार संबंधी। बाजार का। २. मामूली। साधारण। जो बहुत अच्छा न हो। ३. बाजार में इधर उधर फिरनेवाला। मर्यादारहित। जैसे, बाजारी लोंडा। ४. अशिष्ट। जैसे, बाजारी बोली, बाजारी प्रयोग। यौ०—बाजारी औरत = वेश्या। रंडी।
⋙ बाजारू
वि० [हिं०] दे० 'बाजारी'।
⋙ बाजि †
संज्ञा पुं० [सं० बाजित्] १. घोड़ा। उ०—बाजि चारि महि मारि गिराए।—राम, पृ० ५३६। २. बाण। ३. पक्षी। ४. अडूसा।
⋙ बाजि (२)
वि० चलनेवाला।
⋙ बाजित्र
संज्ञा पुं० [सं० बादित्र] दे० 'वादित्र'। उ०—गुरु गीत बाद बाजित्र नृत्य।—पृ० रा०, १।७३२।
⋙ बाजी (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० बाजी] १. दो व्यक्तियों या दलों में ऐसी प्रतिज्ञा जिसके अनुसार यह निश्चित हो की अमुक बात होने या न होने पर हम तुमको इतना धन देगे अथवा तुमसे इतना धन लेंगे। ऐसी शर्त जिसमें हार जीत के अनुसार कुछ लेन देन भी हो। शर्त। दाँव। बदान। क्रि० प्र०—बदना।—लगना।—लगाना। मुहा०—बाजी पर बाजी जीतना = लगातर विजयी होना। उ०—वह बड़े शहसवार हैं। कई घुड़दौड़ों में बाजियों पर बाजियाँ जित चुके हैं।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २२। बाजी बीस होना = (१) अन्य खेलनेवालों से अधिक जीतना। (२) व्यापार में गहरा मुनाफा कमाना। बाजी मारना = बाजी जीतना। दाँव जीतना। बाजी ले जाना = किसी बात में आगे बढ़ जाना। श्रेष्ठ ठहरना। २. आदि से अंत तक कोई ऐसा पूरा खेल जिसमें शर्त या दाँव लगा हो। जैसे, —दो बाजी ताश हो जाय, तो चलें। ३. खेल में प्रत्येक खिलाड़ी के खेलने का समय जो एक दूसरे के बाद क्रम से आता है। दाँव। मुहा०—बाजी आना = गंजीफे या ताश आदि के खेल में अच्छे पत्ते मिलना। ३. कौतुक। तमाशा। ४. धोखा। छल। असत्य। माया। उ०—अविगति अगम अपार और सब दीसै वार्जी। पढ़ि पढ़ि बेद कितेब भुले पंडित औ काजी।—धरम श०, पृ० ८९। ५. मसखरापन (को०)।
⋙ बाजी (२)
संज्ञा पुं० [सं० वाजिन्] घोड़ा।
⋙ बाजी (३)
संज्ञा पुं० [हिं० बाजा] वह जिसका काम बाजा बजाना हो। बजनिया।
⋙ बाजीगर
संज्ञा पुं० [फ़ा० बाजीगर] जादू के खेल करनेवाला। जादूगर। ऐद्रंजालिक। उ०—कै कहुं रंक, कहुँ ईश्वरता नठ बाजीगर जैसे।—सूर (शब्द०)।
⋙ बाजीगरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० बाजीगरी] बाजीगर का काम। चालाकी। धूर्तता।
⋙ बाजीदार
संज्ञा पुं० [हिं० बाली (= बाल) + फ़ा दार] वह हलवाहा जिसे वेतन के स्थान में उपज का अंश मिलता हो। बालीदार।
⋙ बाजु पु
अव्य० [सं० बर्ज्य, मि० फ़ा० बाज] १. बिना। बगीर। उ०—(क) नख शिख सुभग श्यामघन तन को दरसन हरत बिथा जु। सूरदास मन रहत कौन बिधि बदन बिलोकनि बाजु।—सूर (शब्द०)। (ख) का भा जोग कहानी कथे। निकस न धीउ बाजु दधि मथे।—जायसी (शब्द०)। २. अतिरिक्त। सिवा।
⋙ बाजू
संज्ञा पुं० [फ़ा० बाजू] १. भुजा। बाहु। बाँह। विशेष— दे० 'बाँह'। उ०—तब कुरता बाजू तन खोला। पहिरायों सो बसन अमोला।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २४१। यौ०—बाजूबद। २. बाँह पर पहनने का बाजूबंद नाम का गहना। विशेष—दे० 'बाजूबंद'। ३. सेना का किसी ओर का एक पक्ष। ४. वह जो हर काम में बराबर साथ रहे और सहायता दे। जैसे, भाई, मित्र आदि। (बोलचाल)। ५. एक प्रकार का गोदना जो बाँह पर गादा जाता है और बाजूबंद के आकार का होता है। ६. पक्षी का डैना।
⋙ बाजूबंद
संज्ञा पुं० [फ़ा० बाजूबंद] बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना जो कई आकार का होता है। इसमें बहुधा बीच में एक बड़ा चौकोर नग या पटरी होती है और उसके आगे पीछे छोटे छोटे और नग या पटरियाँ होती हैं जो सब की सब तागे या रेशम में पिरोई रहती हैं। बाजू। बिजायठ। भुजबद। उ०—झबिया कर फूलन के बाजूबंद दोऊ। फूलन की पहुँची कर राजत अति सोऊ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४०।
⋙ बाजूबीर ‡
संज्ञा पुं० [फ़ा० बाजू] दे० 'बाजूबंद'।
⋙ बाजेगिरी †
वि० [फ़ा० बाजीगरी] बाजीगर विद्या खेल।—दक्खिनी०, पृ० ६१।
⋙ बाझ †
अव्य० [हिं०] दे० 'बाज' या 'बाजु'।
⋙ बाझन पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बझना (= फँसना)] १. बझने या फँसने का भाव। फँसावट। २. उलझन। पेंच। ३. झझट। बखेड़ा। ४. वड़ाई। झगड़ा।
⋙ बाझना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बझना'। उ०—नकबेसार बंसी के संभ्रम भौंह मीन अकुलात। मनु ताटंक कमठ घूँघट उक जाल बाझि अकुलात।—सूर (शब्द०)।
⋙ बाझु पु
अव्य० [हिं० बाजु] दे० 'बाजु'। उ०—जेह वाझु न जीयाजाई। जी मिलै तो घाल अघाई।—कबीर ग्रं०, पृ० २९२।
⋙ वाट (१)
संज्ञा पुं० [सं० बाट(= मार्ग)] मार्ग। रास्ता। पथ। मुहा०—बाट करना = रास्ता खोलना। मागं बनाना। उ०— जीत्यो जरासंध वँदि छोरी। जुगल कपाट बिदारि बाट करि लतनि जुही सँधि चोरी।—सूर (शब्द०)। बाट जोहना या देखना = प्रतिक्षा करना। आसरा देखना। उ०—तुम पथिक दूर के श्रांत और मैं बाट जोहती आशा।—अपरा, पृ० ७१। बाट पड़ना = (१) रास्ते में आ आकर बाधा देना। तंग करना। पीछे पड़ना। (२) डाका पड़ना। हरण होना। उ०—तरनिउँ मुनि धरनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।—तुलसी (शब्द०)। बाट पारना = डाका मारना। मार्ग में लूट लेना। उ०—राम लों न जान दीनी बाट ही में खरी कीनी घाट पारिबे का बली अंगद प्रवीन है।—हनुमान (शब्द०)। सिर के केश या बालों से) बाट बुहारना = अत्यंत ही प्रिय और इच्छित व्यक्ति के आने पर स्वागत सत्कार करना। (स्त्रियाँ)। उ०—एकसाँरा घरि आवज्यो, बाट बूहारूँ सीर का केस।—बी० रासो, पृ० ७५। बाट लगाना = (१) रास्ता दिखलाना। मार्ग बतलाना। (२) किसी काम के करना का ढंग बतलाना। (३) मूर्ख बनाना।
⋙ बाट (२)
संज्ञा पुं० [सं० वटक] १. पत्थर आदि का वह टूकड़ा जो चीजें तोलन के काम आता है। बटखरा। २. पत्थर का वह टूकड़ा जिससे सिल पर कोई चीज पीसी जाय।
⋙ बाट † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बटना] बटने का भाव। रस्सी आदि में पड़ी हूई ऐंठन। बटन। बल।
⋙ बाटका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाटक] पात्र। बटलोई। बर्तन। उ०— दस बार कनक प्रतिबिंब सूर। बाटका बीसविअ अभुत सूर।—पृ० रा०, १४।२३।
⋙ बाटकी
संज्ञा स्त्री० [सं० वाटक] दे० 'बाटका'।
⋙ बाटना (१)
क्रि० स० [हिं० बट्टा या बाट] सिल पर बट्टे आदि से चूर्ण करना। उ०—कुच विष वाटि लगाय कपट करि बालघातिनी परम सुहाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ बाटना (२)
क्रि० सं [हिं०] १. दे० 'बटना'। उ०—कह गिरिधर कविराय सुनो हो धूर की बाटी।—गिरिधर (शब्द०)। पु२. दे० 'बाँटना'। उ०—कूपक पानि अधिक होअ काटि। नागर गुने नागरि रति बाटि।—विद्यापति, पृ० ३००।
⋙ बाटली (१)
संज्ञा स्त्री [अं० बंटलाइन] जहाज के पाल में ऊपर की और लगा हूआ वह रस्सा जो मस्तूल के ऊपर से होकर फिर नीचे की और आता है। इसी रस्से खींचकर पाल तानते है। (लश०)। मुहा०—बाटली चापना = रस्से को खींचकर पाल तानना।
⋙ बाटली (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० बाँटल] बोतल। बड़ी शीशी।
⋙ बाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाग। फुलबारी। २. गद्य काव्य का एक भेद। वह गद्य जिसमें गद्य और कुसुमगुच्छ गद्य मिला हो।
⋙ बाटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बटी, बटिका] १. गोली। पिंड। २. अंगारों या उपलों आदि पर सेंकी हुई एक प्रकार की गोली या पेड़े के आकार की रोटी। अंगाकड़ी। लिट्टी। उ०—दूध वरा उत्तम दधि वाटी दाल मसूरी की रुचिकारी।—सूर (शब्द०)।
⋙ बाटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्तुल; मि० हिं० बटुआ] १. चौड़ा और कम गहरा कटोरा। २. तसला नाम का बरतन।
⋙ बाडकिन
संज्ञा पुं० [अं०] १. छापेखाने में काम आनेवाला एक प्रकार का सूआ जिसमें पीछे की ओर लकड़ी का दस्ता लगा रहता है। इससे कंपोजिटर लोग कंपोज किए हुए मैटर में से गलती लगा हुआ अक्षर निकालते और उसकी जगह दूसरा अक्षर बैठाते है। १. दफ्तरीखाने में काम आनेवाला एक प्रकार का सूआ जिसका पीछला की सिरा बहुत मोटा होता है। यह किताबों और दफ्तियों आदि में ठोककर छेद करने के काम में आता है।
⋙ बाड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाढ़] १. वृद्धि। २. तेजी। जोर। उ०— बाढ़ चलंती बेलरी उरझी आसाफंद। टूटे पर जूटे नहीं भई जो वाचाबंध।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बाड़ † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाट] फसल की हिफाजत के लिये खेतों के चारों तरफ बास, काटे आदि बनाया हूआ मजबूत घेरा। टट्टी। आड़।
⋙ बाड़ (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] स्त्रियों का बाँह पर पहनने का टाँड़ नामक गहना।
⋙ बाड़व (१)
संज्ञा पुं० [सं० बाड़व] १. ब्राह्मण। २. बड़वग्नि। बड़वानल। ३. घोड़ियों का झुंड।
⋙ बाड़व (२)
वि० बड़वा संबंधी।
⋙ बाड़वानल
संज्ञा पुं० [सं० बाड़वानल] दे० 'बड़वानल'। उ०— मम बाड़वानल कोप। अब कियो चाहत लोप।—केशव (शब्द०)।
⋙ बाड़ा
संज्ञा पुं० [सं० बाट] १. चारों और से घिरा हुआ कुछ विस्तृत खाली स्थान। २. वह स्थान जिसमें पशु रहते हैं। पशुशाला।
⋙ बाडिस
संज्ञा स्त्री० [अं० बाँडिस] स्त्रियों के पहनने की एक प्रकार की अँगरेजी ढ़ग की कुरती।
⋙ बाड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० बाँडिस का संक्षिप्त रूप] एक प्रकार की अँगिया या कुरती जो मेमें पहनती हैं और आजकल बहुतेरी भारतीय स्त्रियाँ भी पहनने लगी हैं। बाडिस।
⋙ बाडी (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०] शरीर। देह। जिस्म।
⋙ बाडीगार्ड
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी राजा या बहुत बड़े राजकर्म- चारी के साथ रहनेवाले उन थोड़े से सैनिकों का समूह जिनका काम उसके शरीर की रक्षा करना होता है। शरीर रक्षक। २. इन सैनिकों में से कोई एक सैनिक।
⋙ बाडीर
संज्ञा पुं० [सं०] सेवक। मजदूर। नौकर [को०]।
⋙ बाड़ी †
संज्ञा स्त्री० [सं० बाटी] १. बाटिका। बारी। फुलवारी। २. फलदायक वृक्षों का बाग या समूह। बारी। उ०—वह बागों के उस परवाले किनारे की बाड़ियों में मिलते हूए दीमक के ठिकाने पर गए।—काले०, पृ० २५। ३. घर। मकान। गृह (बंगाल)।
⋙ बाड़ौ पु
संज्ञा पुं० [सं० बाडव] दे 'बाड़व'।
⋙ बाढ़ (१)
वि० [सं० बाढ] १. शक्तिशाली। मजबूत। २. अधिक। ज्यादा। ३. कर्कश। तीव्र। तुमुल [को०]।
⋙ बाढ़ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बढ़ना] १. बढ़ने की क्रिया या भाव। बढ़ाव। वृद्धि। अधिकता। २. अधिक वर्षा आदि के कारण नदी या जलाशय के जल का बहुत तेजी के साथ और बहुत अधिक मान में बढ़ना। जल प्लावन। सैलाब। संयो० क्रि०—आना।—उतरना। ३. वह धन जो व्यापार आदि में बड़े। व्यापार आदि से होनेवाला लाभ। ४. बदूक तोप आदि का लगातार छूटना। मुहा०—बाढ़ दगना = तोप बंदूक का लगातार छूटना। बाढ़ मरना = किसी कारणवश बढ़ाव का रुकना। बाढ़ मारना = बंदूकों से एक साथ गोलियाँ दागना। उ०—तुर्को ने, जो कमीनगाह और झाड़ियों की आड़ में छिपे थे, बाढ़ मारी, रूसी घबरा उठे।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १७५। बाढ़ रुकना = दे० 'बाढ़ मरना'। बाढ़ रोकना = आगे बढ़ने से रोकना। आगे न बढ़ने देना।
⋙ बाढ़ (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० बाट, हिं० बारी] १. तलवार, छुरी आदि शस्त्रों की धार। सान। २. कोर। किनारा। मुहा०—बाढ़ का डोरा = तलवार या कटारी के धार की लकीर या रेखा। बाढ़ पर चढ़ाना = (१) धार पर चढ़ाना। सान देना। (२) उत्तेजित करना। उकसाना।
⋙ बाढ़ई पु
संज्ञा पुं० [सं० बार्धकि] दे० 'बढ़ई'। उ०—सोने पकरि सुनार कीं काढ़्यौ ताइ कलंक। लकरी छील्यो बाढ़ई सुंदर निकसी बंक।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७५०।
⋙ बाढ़कढ़
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. तलवार। २. खड्ग।
⋙ बाढ़ना पु † (१)
क्रि० अ० [हिं० बढ़ना] १. दे० 'बढ़ना'। उ०— (क) मंडल बाँधि दिनहुँ दिन बाढ़त लहरदार जंन ताप नेवारे।—देवस्वामी (शब्द०)। (ख) एक बार जल बाढ़त भयऊ। सब ब्रह्मांड़ बूड़ि तहँ गयऊ।—विश्वास (शब्द०)। २. दे० 'बहुना'।
⋙ बाढ़ना पु † (२)
क्रि० स० [सं० वर्धन प्रा० बढ्ढ्ण, गुज० बाढवुँ] काटना। चीरना। हिस्सा करना। फाड़ना। उ०—बाबहिया निल पंखिया बाढ़त दइ दइ लूण।—ढोला०, दू ३३।
⋙ बाढ़ाली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. तलवार। उ०—सुंदर बाडाली वहैं होइ कडाकडि मार। सूरबीर सनमुख रहैं जहाँ खलक्के सार।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७४०। २. खड्ग। उ०—बीजल य्यों चमकै बाढाली काइर काँदरि भाजै।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८८५।
⋙ बाढ़ि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. दे० 'बाड़ (१)'। उ०—भुज सिर बाढ़ि देखि रिपु केरी।—तुलसी (शब्द०)। २. बाढ़। जलप्लावन। सैलाब। उ०—बाढ़ि क पानी काढ़ि जा जानि ठाम रहल गए जे नि/?/जानि।—विद्यापति, पृ० ५१।
⋙ बाढ़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाढ़] १. बाढ़। बढ़ाव। २. अधिकता। वृद्धि। ज्यादती। ३. वह व्याज जो किसी को अन्न उधार देने पर मिलता है। ४. लाभ। मुनाफा। नफा।
⋙ बाढ़ी (२)
संज्ञा पुं० [सं० बार्धकि] बढ़ई। उ०—बाढ़ी आवत देख- करि तरिबर डोलन लाग। हमें कटे की कुछ नहीं, पंखेरू घर भाग।—वितामणि, भा० २, पृ० ६९।
⋙ बाढ़ीवान ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बाढ़ (= धार) + सं० वान] वह जो छुरी, कैची आदि की धार तेज करता हो। औजारों पर सान ऱखनेवाला।
⋙ बाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक लंबा और नुकीला अस्त्र जो धनुष पर चढ़ाकर चलाया जाता है। तीर। सायक। शर। विशेष—प्राचीन काल में प्रायः सारे संसार में इस अस्त्र का प्रयोग होता था; ओर अब भी अनेक स्थानों के जंगली ओर अशिक्षित लोग अपने शत्रुओं का संहार या आखेट आदि करने में इसी का व्यवहार करते हैं। यह प्रायः लकड़ी या नरसल की डेढ़ हाथ की छड़ होती है। जिसके सिरे पर पैना लोहा, हड्डी, चकमक आदि लगा रहता है जिसे फल या गाँसी कहते हैं। यह फल कई प्रकार का होता है। कोई लंबा, कोई अर्धचंद्राकार और कोई गोल। लोहे का फल कभी कभी जहर में बुझा भी लिया जाता है। जिससे आहत की मृत्यु प्रायः निश्चित हो जाती है। कहीं इसके पिछले भाग में पर आदि भी बाँध देते हैं जिससे यह सीधा तेजी के साथ जाता है। हमारे यहाँ धनुर्वेद में वाणों और उसके फलों सा विशद रूप मे बर्णन है। वि० दे० 'धनुर्वेद'। पर्या०—पृथक्क। विशिख। खग। आशुग। कलंब। मार्गण। पत्री। रोप। वीरतर। फांड। विपर्पक। शर। बाजी। पत्र- बाह। अस्त्रकंटक। २. गाय का धन। ३. आग। ४. भद्रमुंज नामक तृण। रामसर। सरपत। ५. निशाना। लक्ष्य। ६. पाँच की संख्या। (कामदेव के पाँच बाण माने गए हैं; इसी से बाण से ५ की संख्या का बोध होता है)। ७. शर का अगला भाग। ८. नीली कटसरैया। ९. इक्ष्वाकुवंशीय विकुजक्षि के पुत्र का नाम। १०. राजा वलि के सौ पुञों में से सबसे बडे़ पुञ का नाम। विशेष—इनकी राजधानी पाताल की शोणितपुरी थी। इन्होंने शिव से वर प्राप्त किया था जिससे देवता लोग अनुचरों के समान इनके साथ रहते थे। कहते हैं, युद्ध के समय स्वयं महादेव इनकी सहायता करते थे। उषा, जो अनिरुद्ध को व्याही थी, इन्हिं की कन्या थी। ११. संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि। वि० दे० 'बाणभट्ट'। १२. स्वर्ग। १३. निर्वाण। मोक्ष।
⋙ बाणक ‡
संज्ञा पुं० [सं० वणिक] १. महाजन। २. बनिया (डि०)।
⋙ बाणगंगा
संज्ञा स्त्री० [ = गणगड्गा] हिमालय के सोमेश्वर गिरि से निकली हूई एक असिद्घ नदि। कहते हैं, यह रावण के बाण चलाने से मिल्ली थी, इसी से उसका यह नाम पड़ा।
⋙ बाणगोचर
संज्ञा पुं० [सं०] बाण के मार की दूरी या पहुँच। तीर के मार की दूरी/?/[को०]।
⋙ बाणजित्
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम। [को०]।
⋙ बाणधि
संज्ञा पुं० [सं०]/?/कस। निषंग [को०]।
⋙ बाणपति
संज्ञा पुं० [सं०] बाणासुर के स्वामी, महादेव। (डिं०)।
⋙ बाणपत्र
संज्ञा पुं० [सं०]/?/नाम का एक पक्षी [को०]।
⋙ बाणापथ
संज्ञा पुं० [सं०]/?/'बाणागोचर'। [को०]।
⋙ बाणापात
संज्ञा पुं० [सं०]/?/बाण की मार या पहुँच। २. बाण की शय्पा। शरतल्क। [को०]।
⋙ बाणपुंखा
संज्ञा स्त्री० [सं०/?/बाणापुडं खा] बाण की छोर या अंतिम सिरा जहाँ पंख लगे रहते हैं [को०]।
⋙ बाणापुर
संज्ञा पुं० [सं०] बणासुर की राजधानी। शोणितपुर।
⋙ बाणाभट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध संस्कृत कबि जो कादंबरी के पूर्वार्ध का रचयिता था। विशेष—यह सम्राट हर्षवर्धनन की सभा का पंडित था ओर इसने कई काव्य तथा/?/लिखे थे। कादंबरी को समाप्त करने से पहले ही इसके मृत्यु हो गई थी, जिसे कहते हैं, बाण- भट्ट के पुत्र ने पुरा किया। बाणभट्ट का यह ग्रंथ और हर्षचरित दोनों गद्य काव्य हैं। हर्षचरित में इसने हर्षवर्धन का चरित्र लिखा है इस ग्रंथ में बाणभट्ट का अपना चरित्र भी संक्षेपतः आ गया है।
⋙ बाणमुक्ति
संज्ञा स्त्री० [(?)] तीर को लक्ष्य पर छोड़ना [को०]।
⋙ बाणमोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] बाण छोड़ना। बाणमुक्ति [को०]।
⋙ बाणायोजन
संज्ञा पुं० [सं०] तरकश। भाथा [को०]।
⋙ बाणरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाण से लगा से लगा हुआ लंबा घाव [को०]।
⋙ बाणलिंग
स्त्री० पुं० [सं० बाणलिड़्ग] नर्मदा नदी में मिलनेवाला श्वेतवर्ण का प्रस्तर लिंग जिसे शिव के रूप में पूजते हैं [को०]।
⋙ बाणवर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बाणवृष्टि'।
⋙ बाणवर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बाणवृष्टि']।
⋙ बाणवर्षी
वि० [सं० बाणबर्धन्] बाण की बर्षा करनेवाला [को०]।
⋙ बाणावार
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाण का निधारक—कवच। जिरह वख्तर। २. बार्णो के पुंज, समूह या सिलसिला [को०]।
⋙ बाणविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह विद्या जिससे बाण चलाना आए। बाण चलाने का विद्या। तीरंदाजी।
⋙ बाणवृष्टी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाणों की वर्षा। वाणवर्षण।
⋙ बाणसंधान
संज्ञा पुं० [सं० बाणसन्धान] चलाने के लिये बाण को धनुष पर चढ़ाने [को०]।
⋙ बाणसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाण द्वारा लक्ष्य का भेदन करना। निशाने पर तीर साधाना/?/[को०]।
⋙ बाणसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाणासुर की कन्या उषा जो अनिरुद्ध की पत्नी थी। वि० दे० 'उषा'।
⋙ बाणहा
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ बाणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [संज्ञा पुं० बाण] नीलझिंटी नाम का एक क्षुप [को०]।
⋙ बाणाभ्यास
संज्ञा पुं० [सं०] बाण चलाना और लक्ष्यभेद सीखना [को०]।
⋙ वाणारसी
संज्ञा स्त्री० [सं० वाराणसी, प्रा० (वर्णविपर्यय-वणारसि, बाणारसि] दे० 'बाराणसी'। उ०—अति चतुराई, दीसइ घणी, गंग गया छै तीरथ योग। बाणारसी तिहाँ परसजे तिणि दरसण जाइ पतिग न्हासि।—वी० रासो, पृ० ३५।
⋙ बाणावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाणासुर की पत्नी का नाम।
⋙ बाणाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तूणीर। तरकश [को०]।
⋙ बाणासन
संज्ञा पुं० [सं०] धनु। धनुष [को०]।
⋙ बाणासुर
संज्ञा पुं० [सं०] राजा बलि के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र का नाम। बाण। विशेष—यह बहुत ही बीर, गुणी ओर सहश्रबाहु था। पाताल की शोणितपुरी इसकी राजधानी थी। इसने हजारों वर्ष तक तपस्या करके शिव से वर प्राप्त किया था। युद्ध में स्वयं शिव आकर इसकी सहायता किया करते थे। श्रीकृष्ण के पोत्र अनिरुद्ध की पत्नी उषा इसी बाण की कन्या थी। उषा के कहने से जब उसकी सखी चित्रलेखा आकाशमार्ग से अनिरुद्ध को ले आई थी तब समाचार पाकर बाण ने अनिरुद्ध को कैद कर लिया। यह सुनते ही श्रीकृष्ण ने बाण पर आक्रमण किया ओर युद्क्षेञ में उसके सब हाथ काट डाले। शिवजी के कहने से केवल चार हाथ छोड़ दिए गए थे। इसके उपरांत बाण ने अपनी कन्या उषा का विवाह अनिरुद्ध के साथ कर दिया। विभेप दे० 'बाण'।
⋙ बाणि
संज्ञा स्त्री० [सं० बाणी] दे० 'वाणी'।
⋙ वाणिजक
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाणिज्य करनेवाला व्यापारी।
⋙ बाणिज्य
संज्ञा पुं० [सं०] व्यापार। रोजगार। सौदागरी।
⋙ बाणिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नर्तकी। २. धूर्त और मत्त स्त्री। ३.पुश्चली। कुलटा। ४. एक वर्णवृत्त का नाम [को०]।
⋙ बाणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वाणी'।
⋙ बाणी (२)
वि० [सं० बाणिन्] बाणयुक्त तीरवाला [को०]।
⋙ बात
संज्ञा स्त्री० [सं० वार्ता] १. सार्थक शब्द या वाक्य। किसी वृत्त या विषय को सूवत करनेवाला शब्द या वाक्य। कथन। वचन। बाणी। वोल। जैसे,—(क) उसके मुह से एक बात न निकली। (ख) तुम्हारी बातें मैं क्यों सहूं? क्रि० प्र०—कहना।—निकलना।—निकालना। यौ०—बातचीत। मुहा०—बात उड़ना = (१) कड़वी बातें सहना। कठोर वचन सहना। सख्त सुस्त वर्दाश्त करना। (२) कथन का पालन करना। बात पर चलना। मान रखना। (३) बात नमानना। वचन खाली करना। बात उलटना = (१) कहे हुए वचन के उत्तर में उसके विरुद्ध बात कहना। बात का जबाब देना। जैसे,—बड़ों की बात नहीं उलटनी चाहिए (२) एक बार कुछ कहकर फिर दूसरी बार कुछ और कहना। बात पलटना। बात कहते = उतनी देर में जितने में मुँह से बात निकले। तुरंत। झठ। फौरन। पल भर में। बात काटना = (१) किसी के बोलते समय बीच में बोल उठना। बात में दखल देना। (२) कथन का खंडन करना। जो कहा गया हो उसके विरुद्ध कहना। बात कान पड़ना = बात का सुना या जाना जाना। जैसे,—जहाँ यह बात किसी के कान पड़ी, तुरंत फैल जायगी। बात का पुल बाँधना = दे० 'बातो की झड़ी लगाना'। उ०—सब जगह बात रह नहीं सक्ती। बात का बाँध दें भले ही पुल।—चीखे०, पृ० ७२ बात की बात में = दम भर में। झट। फौरन। तुरंत। बात खाली जाना = प्रार्थना या कथन का निष्फल होना। बात का न माना जाना। बात गढ़ना = झुठ बात कहना। मिथ्या प्रसंग की उद्भावना करना। बात बनाना। उ०— झूठै कहत स्याम अंग सुंदर बातें गढ़त बनाय।—सूर (शब्द०)। बात गाँठ या आँचल में बाँधना = बात को न भूलना। कहा हुआ बराबर याद रखना। बात घूँट जाना = दे० बात पी जाना'। बात चबा जाना = (१) कुछ कहते कहते रुक जाना। (२) एक बार कही हुई बात को ढ़ग से दूसरे रूप में ला देना। (मन में) बात जमाना या बैठाना = दृढ़ निश्वय कराना कि यह बात ठीक है। बात टलना = कथन का अन्यथा होना। जैसा कहा गया हो वैसा न होना। बात टालना = (१) पूछी हुई बात का ठीक जवाब न देकर इधर उधर की (?) बात कहना। सुनी अनसुनी करना। (२) आदेश, प्रार्थना या शिक्षा के अनुकूल कार्य न करना। कही हूई बात पर न चलना। जैसे,—वे कभी हमारी बात नहीं टाल सकते। बात डालना = कहना न मानना। कथन का पालन न करना। बात दुहराना या दोहराना = (१)पूछी हुई बात फिर कहना। (२) किसी को कही हुई बात का उलटकर जवाब देना। जैसे,—बड़ों की बात दुहराते हो। उ०—है बिना हारे हराना आपको। है बड़ों की बात दोहराना बुरा।—चुभते०, पृ० ४३। मुँह से बात न आना = मुँह से शब्द न निकलना। बात न पूछना = अवज्ञा से ध्यान न देना। तुच्छ समझकर बात तक न करना। कुछ भी कदर न करना। जैसे,—तुम्हारी यही चाल रही तो मारे मारे फिरोगे, कोई बात चन पूछेगा। उ०—सिर हेठ, ऊपर चरन संकट, बात नहिं पूछै कोऊ।—तुलसी (शब्द०)। बात न करना = घमंड के मारे न बोलना। बात नीचे डालना = अपनी बात का खंडन होने देना। अपनी बात के ऊपर किसी और की बात होने देना। जैसे—वह ऐसी मुँहजोर है कि एक बात नीचे नहीं डालती। बात पकड़ना = (१) कथन में परस्पर विरोध या दोप दिखाना। किसी के कथन को उसी के कथन द्वारा अयुक्त सिद्ध करना। बातों मे कायल करना। (२) तर्क करना। हुज्जत करना। (किसी की) बात पर जाना = (२) बात का ख्याल करना। बात पर ध्यान देना। बात का भला बुरा मानना। जैसे,—तुम भी लड़कों की बात पर जाते हो। (२) कहने पर भरोसा करना। कथन के अनुसार चलना। जैसे,—उसकी बात पर जाओगे तो धोखा खाओगे। बात पलटना = दे० 'बात बदलना'। बात पी जाना = (१) बात सुनकर भी उसपर ध्यान न देना। सुनी अनसुनी कर देना। (२) अनुचित या कठोर वचन सुनकर भी चुप हो रहना। दर गुजर करना। जाने देना। बात पूछना = (१) खोज ऱखना। खबर लेना। सुख या दुःख है इसका ध्यान रखना। (२) कदर करना। बात फूटना = (१) शब्द मुँह से निकलना। (२) भेद खुलना। बात प्रकट हो जाना। उ०—और अगर बात फूटी तो बडी रुसवाई जगत हँसाई होगी।—सैर०, पृ० २६। बात फेंकना = व्यंग्य छोडना। ताने मारना। बोली ठोली मारना। बात फेरना = (१) चलते हुए प्रसंग को बीच से उडाकर दूसरा विषय छेड़ना। बात पलटना। (२) बात बडी करना। बात का समर्थन करके उसका महत्व बढा़ना। बात बटना = (१) बात में बात बनाना। बात गढ़ना। (२) बातों को इस प्रकार परस्पर मिला देना कि असत्य होते हुए भी वे सत्य प्रतीत हों। उ०—हजूर वह बात बटी है कि अल्ला ही अल्ला।—सेर०, पृ० ४२। बात बढ़ाना = बात का विवाद के रूप में हो जाना। झगड़ा हो जाना। तकरार होना। जैसे—पहले तो लोग यों ही आपस में कह सुन रहे थे, धीरे धीरे बात बढ़ गई। बात बढ़ाना = विवाद करना। कहासुनी करना। झगड़ा करना। जैसे,—तुम्हीं चुप रह जाओ, बात बढ़ाने से क्या फायदा। (किसी की) बात बढ़ाना = बात का समर्थन करना। बात की पुष्टि करके उसे महत्व देना। बात बदलना = एक बार एक बात कहना दूसरी बार दूसरी। काटकर पलटना। मुकरना। उ०—आप तो बात ही बदलते थे। आँख अब किसलिये बद- लते हैं।—चोखे०, पृ० ४६। बात बनना = काम होना। काम निकलना। काम सध जाना। उ०—बात बनती नहीं बचन से ही। काम सध कब सका सदा घन से।—चोखे०, पृ० २४। बात बनाना = मिथ्या प्रसग की उद्भावना करना। झुठ बोलना। बहाना करना। व्यर्थ वाग्विस्तार करना। उ०— तुम जो राजनीति सब जानत बहुत बनावत बात।—सूर (शब्द०)। बात बात में = (१) हर एक बात में। जो कुछ कहता है, सबमें। जैसे,—वह बात बात में झूठ बोलता है। (२) बार बार। हर बार। पुनः पुनः। बात बेठना = कही हूई बातों का असर पड़ना जिससे कार्यरसिद्धि की आशा हो। बात मारना = (१) बात दबाना घुमा फिराकर असल बात न कहना। (२) व्यंग्य बोलना। ताना मारना। बात मुँह पर लाना = बात बोलना। वाक्य का उच्चारण करना। बात में बात निकालना = बाल की खाल निकालना। किसी के कथन में दोष निकालना। (किसी की) बात रखना = (१) कहना मानना। कथन या आदेश का पालनकरना। (२) मनोरथ पूरा करना। मन रखना। अपनी बात रखना = (१) अपने कहे अनुसार करना। जैसा कहा था वैसा करना। (२) हठकरना। दुराग्रह करना। जैसे,—तुम अपनी ही बात रखोगे कि दूसरे की भी मानोगे ? बात लगाना = किसी के विरुद्ध इधर उधर बात कहना। लगाई बझाई करना। कान भरना। निंदा करना। पिशुनता करना। बात है = कथन मात्र है। मत्य नहीं है। ठीक नहीं है। जैसे,—वह निराहार रहते, यह तो बात है। बातें छाँटना = (१) बहुत बातें करना। व्यर्थ बोलना। (२) बढ़ बढ़कर बोलना। बातें बघारना = (१) बातें बनाना। बहुत बोलना। ऐसी बातें करना। जिसमें तत्व न हो। (२) बढ़ बढ़कर बोलना। डींग हाँकना। शेखी मारना। बातें बनाना = (१) व्यर्थ बोलना। ऐसी बातें कहना जिनमें तत्व न हो। झूठमूठ इधर उधर की बातें कहना। (२) बहाना करना। खुशामद करना। चापलूसी करना। (३) डींग हाँकना। बढ़ चढ़कर बोलना। बातें मिलाना—हाँ में हाँ मिलाना। प्रसन्न करने के लिये सुहाती बातें कहना। बातें सुनना = कठोर बचन सहना। दुर्वचन सहना। कड़वी बात बरदाश्त करना। बातें सुनाना = ऊँचा नीचा सुनाना। भला बुरा कहना। कठोर बचन कहना। यातों आना = दे० 'बातों में आना'। बातों की झड़ी बाँधना = बात पर बात कहते जाना। लगातार बोलते जाना। बातों का धनी = सिर्फ जबानी जमा खर्च करनेवाला। बहुत कुछ कहनेवाला पर करनेवाला कुछ नहीं। बातें बनानेवाला। बतों पर जाना = (१) बातों पर ध्यान देना। (२) कहने के अनुसार चलना। बातों में धाना = बातों पर विश्वास करके उनके अनुकूल चलना। बातों में उड़ाना = (१) किसी विषय को हँसी में टालना। इधर उधर की अनावश्ष्क बातें कहकर असल बात पर ध्यान न देना। (२) बहाली देना। टाल- मटूल करना। बातों में धर लेना = कही हूई बातों में से किसी अंश को लेकर यह सिद्ध कर देना कि बातें यथार्थ नेहीं है। युक्ति से बातों का खंडन कर देना। कायल करना। बातों में फुसलाना या बहलाना = केवल वचनों से संतुष्ट या दूसरी ओर प्रवृत्त करना। बातें कहकर संतोष या समाधान करना। बातों में लगाना = बातें कहकर उसमें लीन रखना। बार्तालाप में प्रवृत्त करना। उ०—वातन ही सुत लाय लियो। तब लों मथि दधि जननि जसोदा माखन करि हरि हाथ दियो।—सूर (शब्द०)। २. चर्चा। जिक्र। प्रसंग। मुहा०—बात आना = दे० 'बात उठाना'। बात उठना = चर्चा छिड़ना। प्रसंग आना। किसी विषय पर कुछ कहा सुना जाना। बात उठाना = चर्चा चलाना। जिक्र करना। किसी विषय पर कुछ कहना आरंभ करना। उ०—अब समझो में बात सबन की झूठे ही यह बात उठावति।—सूर (शब्द०)। बात चलना = प्रसंग आना। चर्चा छिड़ना। किसी विषय पर कुछ कहा सुना जाना। बात चलाना = चर्चा छेड़ना। जिक्र करना। किसी प्रसंग की चर्चा चनाना या छेड़ना। उ०—(२) फिरि फिरि नृपति चलावत बात। कहो सुमत कहाँ तें पलटे प्रान- जिनव कैसे बन जात।—सूर (शब्द०)। (ख) ऊधो कत ये बातें चाली। कछु मीठी कछु करुई हरि की अंतर में सब साली।—सूर (शब्द)। (अमुक की) बात मत चलाओ = इस संबंध में (अमुक की) चर्चा करना (द्दष्टांत या उदारहण के लिये व्यर्थ है। (अमुक का) दृष्टांत देना ठीक नहीं है। जैसे,—उनकी बात मत चलाओ; वे रुपए बाले हैं सब कुछ खर्च कर सकते हैं। (अमुक की) बात क्या चलाते हो = दे० 'बात मत चलाओ'। बात छिड़ना = दे० 'बात चलना'। बात छेड़ना = दें 'बात चलाना'। बात निकालना = बात चलाना। बात पड़ना = किसी किसी विषय का प्रसंग प्राप्त होना। चर्चा छिड़ना। जैसे,—बात पड़ी इसलिये मैंने कहा, नहीं तो मुझपे क्या मतलब ? बात मुँह पर लाना = (कसी विषय की) चर्चा कर बैठना। जैसे,—किसी के सामने यह बात मुँह पर न लाना। ३. फैली हूई चर्चा। प्रचलित प्रसंग। खबर। अफवाह। किंव- दंती। प्रवाद। मुहा०—बात उड़ना = चारों ओर चर्चा फैलना। किसी विषय का लोगों के बीच प्रसिद्ध होना या प्रचार पाना। उ०— झूठी ही यह बात उड़ी है राधा कान्ह नर नारी। रिस की बात सुता के मुख सों सुनत हँसी मन ही मन भारी।—सूर (शब्द०)। (किसी पर) बात आना = दोषा- रोपण होना। दोष लगना। कलंक लगना। बुराई आना। बात फैलाना = चर्चा फैलना। बात लोगों के मुँह से चारों ओर सुनाई पड़ना। प्रसिद्ध होना। बात फैलाना = इधर उधर लोगों में चर्चा करना। प्रसिद्ध करना। बात बहना = चारों ओर चर्चा फैलना। बात उड़ना। उ०—जे हम सुनति रही सो नाहिं ऐसी ही यह बात बहानी।—सूर (शब्द०)। (किसी पर) बात रखना, लगाना या लाना = दोष लगाना। कलंक मढ़ना। इलजाम लगाना। लांछत रखना। ४. खोई वृत्त या विषय जो शब्दों द्वारा प्रकट किया जा सके या मन में लाया जा सके। जानी जाने या जताई जानेवाली वस्तु या स्थिति। मामला। माजरा। हाल। व्यवस्था। जैसे,—(क) बात क्या है कि वह अबतक नहीं आया ? (ख) उनकी क्या बात है ! (ग) इस चिट्ठी में क्या बात लिखी है ? उ०—क्यों करि झूठो मानिए सखि सपने की बात— पद्माकर (शब्द०)। मुहा०—बात का बतंगड़ करना = (१) साधारण विषय या घटना को व्यर्थ विस्तार देकर वर्णन करना। छोटे से मामले को बहुत बढ़ाकर कहना। (२) किसी साधारण घटना को बहूत बड़ा या भीषण रूप देना। छोटे से मामले को व्यर्थ बहुत पेवोदा या भारी बना देना। बात ठहरना = किसी विषय में यह स्थिर होना कि ऐसा होगा। मामला तै होना। जैसे—हमारे उनके यह बात ठहरी है कि कल सवेरे यहाँ से चल दें। बात डालना = विषय उपस्थित करना। मामला पेश करना। जैसे,—यह बात पँचों के बीच डाली जाय।बात न पूछना = दशा पर ध्यान न देना। ख्याल न करना। परवा न करना। उ०—मीन वियोग न सहि सकै नीर न पूछै बात।—सूर (शब्द०)। बात पर धूल डालना = किसी काम या घटना को भूल जाना। मामले का ख्याल न करना। गई कर जाना। बात पी जाना = जो कुछ हो गया हो उसका ख्याल न करना। जाने देना। दर गुजर करना। बात बतंगड़ होना = किसी साधारण घटना का अर्थ कुछ का कुछ कर लिया जाना या समझना। उ०—जहाँआरा बेगम देख लेंगी तो क्या जाने क्या बात बतंगड़ हो।— फिसाना०, भा० ३, पृ० ३०२। बात बढ़ना = मामले का
तूल खींचना। किसी प्रसंग या घटना का घोर रूप धारण करना। जैसे,—प्रब बात बहुत बढ़ गई है, समझाना बुझाना व्यर्थ है। बात बढ़ाना = मले को तूल देना। किसी प्रसंग, परिस्थिति या घटना को घोर रूप देना। जैसे,—जो हूआ सो हुआ, अब अदालत में जाकर क्यों बात बढ़ाते हो ? बात बनना = (१) काम बनना। प्रयोजन सिद्ध होना। मामला दुरुस्त होना। सिद्धि प्राप्त होना। उ०—खोज मारि रथ हाँकहु ताना। आन उपाय बनहि नहिं बाता।—तुलसी (शब्द०)। (२) संयोग या घटना का अनुकूल होना। अच्छी परिस्थिति होना। बोलबाला होना। अच्छा रंग होना। बात बनाना या सँवारना = काम बनाना। कार्य सिद्ध करना। मतलब गाँठना। सिद्धि प्राप्त करना। संयोग या परिस्थिति को अनुकूल करना। जैसे,—यह तो सारा मामला बिगाड़ चुका था, तुमने आकर बात बना दी। उ०—(क) चतुर गंभीर राम महतारी। बीच पाय निज बात सँवारी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) भरत भगति तुम्हरे मन आई। तजहु सोच विधि बात बनाई।—तुलसी (शब्द०)। बात बात पर या बात बात में = प्रत्येक प्रसंग पर। थोड़ा सा भी कुछ होने पर। हर काम में। जैसे,—तुम बात बात में विगड़ा करते हो, कैसे काम चलेगा ? बात विगड़ना = (१) कार्य नष्ट होना। काम चौपट होना। मामला खराब होना। अच्छी परिस्थिति न होकर वुरी परिस्थिति हो जाना। (३) प्रयोजन सिद्ध न होना। विफलता होना। जैसे—तुम्हारे वहाँ न जाना में सारी बात बिगड़ गई। बात बिगाड़ना या बिगारना = कार्य नष्ट करना। काम चौपट करना। मामला खराब करना। बुरी परिस्थिति लाना। उ०—विधि बनाइ सब बात बिगारी।—तुलसी (शब्द०)। ५. घटित होनेवाली अवस्था। प्राप्त संयोग। परिस्थिति। जैसे,—(क) इससे एक बात होगी कि वह फिर कभी न आवेगा। (ख) रास्ते में कोई बात हो जाय तो कौन जिम्मेदार होगा। ६. दूसरे के पास पहुँचाने के लिये कहा हुआ वचन। संदेश। संदेसा। पैगाम। उ०—ऊवो ! हरि सों कहियो बात।—सूर (शब्द०)। ७. परस्पर कथोपकथन। संवाद। वार्तालाप। गपशप। वाग्विलास। जैसे,—क्यों बातों में दिन खोते हो ? यौ०—बातचीत। मुहा०—बातों बातों में = बातचीत करते हुए। कथोपकथन के बीच में। जैसे,—बातों ही बातों में वह बिगड़ खड़ा हुआ। ८. किसी के साथ कोई व्यवहार या संबंध स्थिर करने के लिये परस्पर कथोपकथन। कोई मामला तै करने के लिये उसके संबंध में चर्चा। जैसे—(क) ब्याह की बात। (ख) इस मामले में मुझसे उनसे बात हो गई है। (ग) जिससे पहले बात हुई है उसी के साय सीदा बेचेंगे। यौ०—बातचीत। मुहा०—बात ठहरना = (१) ब्याह ठीक होना। विवाह संबंध स्थिर होना। (२) किसी प्रकार का निश्चय होना। बात लगना = विवाह के संबंध में प्रस्ताव आदि होना। बात लगाना = विवाह का प्रस्ताव करना। ब्याह संबंध स्थिर करने के लिये कहीं कहना सुनना। बात लाना = वर या कन्या पक्ष से विवाह का प्रस्ताव लाना। ९. फँसाने या धोखा देने के लिये कहे हुए शब्द या किए हुए व्यवहार। जैसे,—तुम उसकी बातों में न आना। मुहा०—बातों में आना या जाना = कथन या व्यबहार से धोखा खाना। १०. झूठ या बनावटी कथन। मिस। बहाना। जैसे,—यह सब तो उसकी बात है। ११. अपने भावी आचरण के संबंध में कहा हुआ वचन। प्रतिज्ञा। कौल। वादा। जैसे,—वह अपनी बात का पक्का है। मुहा०—बात का धनी, पक्का या पूरा = प्रतिज्ञा का पालन करनेवाला। कौल का सच्चा। मुँह से जो कहे वही करनेवाला। दृढ़प्रतिज्ञा। बात का कच्चा या हेठा = प्रतिज्ञा भंग करनेवाला। (अपनी) बात नक्की करना = दे० 'बात पक्की करना'। बात पर न रहनेवाला = प्रतिज्ञा भंग करनेवाला। कौल पूरा न करनेवाला। बात पक्की करना = (१) परस्पर स्थिर करना कि ऐसा ही होगा। द्दढ़ निश्चय करना। (२) प्रतिज्ञा या संकल्प पुष्ट करना। वचन देकर और वचन लेकर किसी विषय में कर्तव्य स्थिर करना। बात पक्की होना = (१) स्थिर होना कि ऐसा ही होगा। (२) प्रतिज्ञा या संकल्प का दृढ़ होना। बात पर आना = अपने कहे हुए धचन के अनुसार ही काम करने के लिये उतारू होना। जैसा मेंने कहा बैसा ही हो, ऐसा हठ या आग्रह करना। बात पर जाना = कथन या प्रतिज्ञा पर विश्वास करना। कहे का भरोसा करना। (अपनी) बात रखना = वचन पूरा करना। प्रतिज्ञा का पालन करना। उ०—वेद विदित बहु धर्म चलाउव राखु हमारी बाता।—रघुराज (शब्द०)। बात हारना = प्रतिज्ञा करना। वादा करना। वचन देना। जैसे,—मैं बात हार चुका हूँ नहीं तो तुम्हीं को देता। १२. वचन का प्रमाण। साख। प्रतीति। विश्वास। जैसे,— जिसकी कबात गई उसकी जात गई।मुहा०—(किसी की) बात जाना = बात का प्रमाण न रहना। (लोगों को) एतबार न रह जाना। बात खोना = साख बिगाड़ना। ऐसा काम करना जिससे लोग एतबार करना छोड़ दें। बात बनना = साख रहना। विश्वास रहना। जैसे,—अभी बाजार में उनकी बात बनी है। बाद हेठी होना = बात का प्रमाण था साख न रह जाना। वचन का विश्वास या प्रतिष्ठा उठ जाना। बात की कदर न रह जाना। १३. मानमर्यादा। छाप। प्रतिष्ठा। इज्जत। कदर। जैसे,— अपनी बात अपने हाथ। उ०—सुनो राजा लंकपति, आज तेरी बात अति, कौन, सुरपति, धनपति, लोकपति है।— तुलसी (शब्द०)। मुहा०—बात खोना = प्रतिष्ठा नष्ठ करना। इज्जत गँवाना। ऐसा काम करना जिससे लोग आदर प्रतिष्ठा करना छोड़ दें। बात जाना = प्रतिष्ठा नष्ट होना। इज्जत न रह जाना। उ०—उचित यासु निग्रह अब भाई। नतरु बात जदुकुल की जाई।—गोपाल (शब्द०)। बात बनना = प्रतिष्ठा प्राप्त होना। इज्जत पैदा होना। रंग जमना। लोगों पर अच्छा प्रभाव होना। जैसे,—दस आद- मियों में उनकी बात बनी हुई है। (अपनी) बात बना लेना = लोगों में प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेना। लोगों के बीच इज्जत पैदा करना। नाम या यश प्राप्त करना। बात बिगाड़ना = (१) प्रतिष्ठा न रहना। इज्जत न रहना। लोगों के वीच वैसा आदर या संमान न होना। (२) हैसियत बिगड़ना। दिवाला निकलना। बात बिगाढ़ना = प्रतिष्ठा नष्ट करना। इज्जत खोना। ऐसा काम करना जिससे साख या मर्यादा न रह जाय़। बात रख लेना = प्रतिष्ठा नष्ट न होने देना। इज्जत न बिगड़ने देना। बात रह जाना = मान मर्यादा रह जाना। इज्जत रह जाना। १४. अपनी हैसियत, योग्यता, गुण, सामर्थ्य आदि के संबंध में कथन या वाक्य। जैसे,—अब तो वह बहुत लंबी चौड़ी बातें करता है। १५. आदेश। उपदेश। सीख। नसीहत। जैसे,— बड़ों की बात माना करो। क्रि० प्र०—पर चलना।—मानना। मुहा०—बात उठाना = बात न मानना। कथन या आदेश का पालन न करना। कहे अनुसार न चलना। १६. रहस्य। भेद। मर्म। गुप्त विषय। जैसे,—इसके भीतर कोई बात है। मुहा०—बात खुलना = गुप्त विषय प्रकट होना। छिपी व्यवस्था ज्ञात होना। छिपा मामला जाहिर होना। बात फूटना = गुप्त विषय का कई आदमियों पर प्रकट हो जाना। रहस्य प्रकाशित होना। १७. तारीफ की बात। प्रशंसा का विषय। जैसे,—उससे पहले पहुँचो तब तो बात। १८. उक्ति। चमत्कारपूर्ण कथन। १९. गूढ़ अर्थ। अभिप्राय। मानी। उ०—चतुरन की कहिए कहा बात बात में बात।—(शब्द०)। मुहा०—बात पाना = छिपा हुआ अर्थ समझ जाना। गुढ़ार्थ जान जाना। जैसे,—वह बात पाकर हँसा है, यों ही नहीं। २०. गुण या विशेषता। खूबी। जैसे,—यह भी अच्छा है; पर उसकी कुछ बात ही और है। २१. ढंग। ढब। तौर। २२. प्रश्न। सवाल। समस्या। जैसे,—उनकी बात का जवाब दो। २३. अभिप्राय। तात्पर्य। आशय। विचार। भाव। जैसे,—किसी के मन की बात क्या जानूँ ? २४. कामना। इच्छा। चाह। उ०—ऊधो मन की (बात) मन ही माहिं रही।—सूर (शब्द०)। २५. कथन का सार। कहने का सार। कहने का असल मतलब। तत्व। मर्म। जैसे,—तुमने अभी बात नहीं पाई, यों ही बिना समझे बोल रहे हो। मुहा०—बात तक पहुँचना = दे० 'बात पाना'। बात पाना = असल मतलब समझ जाना। २६. काम। कार्य। कर्म। आचरण। व्यवहार। जैसे,—(क) उसे हराना कोई बड़ी बात नहीं है। (ख) एक बात करो तो वह यहाँ से चला जाय़। (ग) कोई बात ऐसी न करो जिससे उन्हें दुःख पहुँचे। २७. संबंध। लगाव। तअल्लुक। जैसे,— उन दोनों के बीच जरूर कोई बात है। २८. स्वभाव। गुण। प्रकृति। लक्षण। जैसे,—उसमें बहुत सी बुरी बातें हैं। २९. वस्तु। पदार्थ। चीज। विषय। जैसे,उन्हें कमी किस बात की है जो दूसरों के यहाँ माँगने जायेगे। उ०—कितक बात यह धनुष रुद्र को सफल विश्व कर लैहों। आज्ञा पाय देव रघुपति की छिनक माँझ हठि गैहों।—सूर (शब्द०)। ३०. बेचनेवाली वस्तु का मूल्य कथन। दाम। मोल। जैसे,— यहाँ तो एक बात होती है लीजिए या न लीजिए। ३१. उचित पथ उपाय। कर्तव्य। जैसे,—तुम्हारे लिये तो अब यही बात है कि जाकर उनसे क्षमा मांगो। उ०—परयो सोच भारी नृप निपठ खिसानो भयो गयो उठि 'सागर में बूडो' यही बात है।—प्रियादास (शब्द०)।
⋙ बात (२)
संज्ञा पुं० [सं० बात] वायु। हवा। उ०—दिग्देव दहे बहु बात बहे।—केशब (शब्द०)।
⋙ बातकंटक
संज्ञा पुं० [सं० वातकण्टक] एक वायुरोग।
⋙ बातचीत
संज्ञा स्त्री० [हिं० बात + चिंतन] दो या कई मनुष्यों के बीच कथोपकथन। दो या कई आदमियों का एक दूसरे से कहना सुनना। वार्तालाप। मुहा०—बातचीत चलना या छिड़ना = दे० 'बात-२' का मुहा० 'बात चलना'।
⋙ बातड़ †
[सं० बातल] वायुयुक्त। बायुवाला।
⋙ बातप
संज्ञा पुं० [सं० वातप?] हिरन।—अनेकार्थ (शब्द०); नंद ग्रं०, पृ० ९१।
⋙ बातफरोश
संज्ञा पुं० [हिं० बात + फा़० फ़रोश] १. बात बनानेवाला। बात गढ़नेवाला। झूठ मूठ इधर उधर की बात कहनेवाला।
⋙ बातमीज
वि० [फा़० बा + तमीज़] शिष्ट। सभ्य। उ०—कितनी बातमीज बाशऊर हसीन लड़की थी।—काया, पृ० ३३६।
⋙ बातय
संज्ञा पुं० [सं० बातायु] हिरन। मृग।—अनेकार्थ०, पृ० ८१।
⋙ बातर
संज्ञा पुं० [देश०] पंजाब में धान बोने का एक ढंग।
⋙ बातलारोग
संज्ञा पुं० [सं०] एक योनिरोग जिसमें सुई चुभने की सी पीड़ा होती है।
⋙ बातायन पु
संज्ञा पुं० [सं० बातायन] झरोखा। खिड़की। उ०— कबि मतिराम देखि बातायन बीच आयो।—मति० ग्रं०, पृ० ३३६।
⋙ बातास †
संज्ञा स्त्री० [सं० वात, बं० बातस; हिं बतास] बतास। वायु। उ०—वन उपवन में लेती उसाँस, चलती है अब बातास नहीं।—तीर०, पृ० ३४।
⋙ बाति पु
संज्ञा स्त्री० [सं०, वतिंका, हिं० बाती] दे० 'बाती—२'। उ०—ज्ञान का थाल और सहज मति बाति है, अधर आसन किया अगम डेरा।—कबीर श०, भा० २, पृ० ९७।
⋙ बातिन
संज्ञा पुं० [अ०] १. अंतकरण। उ०—नई अगर बातिन में मेरा राजदाँ। सर पै उसके ला सहूँ गम के पहाड़।—दक्खिनी०, पृ० १७८। २. भीतर। अंदर। अप्रकट। उ०—जाहिर बातिन हाजिर नाजिर, दाना तूँ दीवान।—दादू० बानी, पृ० ५७७।
⋙ बातिल
वि० [अ०] झुठ। मिथ्या। गलत। बेकार। उ०—रहा नूरे नवी आ जिस बशर में। बुताँ दिसते थे बातिल उस नजर में।—दक्खिनी०, पृ० १६३। यौ०—बातिल परस्त = प्रत्य या मिथ्या का उपासक।
⋙ बाती †
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्ती] १. लंबी सलाई के आकार में बटी हुई रुई या कपड़ा। २. कपड़े या रुई को बटकर बनाई हुई सलाई जो तेल में डुबाकर दिया जलाने का काम में आती है। बत्ती। उ०—(क) परम प्रकाश रूप दिन राती। नहिं कछु चहिय दिया घृत बाती।—तुलसी (शब्द०)। (ख) यही सराव सप्तसागर घृति बाती शैल धनी।—सूर (सब्द०)। ३. वह लकड़ी जो पान के खेत के ऊपर बिछाकर छप्पर छाते हैं।
⋙ बातुल
वि० [सं० वातुल] १. पागल। सनकी। बौड़हा। उ०— (क) बातुल मातुल की न सुनी सिष का तुलसी कपि लंक न जारी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नाहिं बोलहिं बचन बिचारे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बातूनिया
वि० [हिं० बात + ऊनियाँ (प्रत्य०)] दे० 'बातूनी'।
⋙ बातूनी
वि० [हिं० बात + ऊनी (प्रत्य०)] बकवादी। बहुत बोलने या बात करनेवाला।
⋙ बातूल
संज्ञा पुं० [सं० वातूल] बवंडर। तूफान। वातचक्र। उ०—ज्यौ तूल मध्य बातूल पवन जिम पत्त भ्रमाइय।—पृ० रा०, ७।८४।
⋙ बाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० वस्ति(= कटि या वक्ष)] १. गोद। अंक। अँकवार। उ०— दृग मिहचत मृगलोचनी भरयौ उलटि भुजबाथ। जानि गई तिय नाथ के हाथ परस ही हाथ।—बिहारी (शब्द०)। मुहा०— बाथ भरना=लिपटना। आलिंगन करना। उ०— विन हाथन सब बाथ भरि, तन मन लीए जाय।—व्रज० ग्र०, पृ० ५१। २. दोनों भुजाओँ का घेरा। करपाश । उ०— इत सामंतन नाथ बाथ बड़वानल घल्लन।—पृ० रा०, ७।२०। ३. छाती। वक्ष। ४. भुजा। बाहु। कर। उ०—और अमरेस गहै आसमान बाथूँ।—रा० रू०, पृ० १२०।
⋙ बाथ (२)
संज्ञा पुं० [अं०] स्नान। नहाना। यौ०— बाथरूम=स्नानगृह। नहाने का स्थान। उ०— कानजी कंबल औढ़े बाथरूम में आकार उन दोनों का निरीक्षण करने लगे थे।—तारिका, पृ० १६९।
⋙ बाथू
संज्ञा पुं० [सं० वास्तुक, प्रा० वात्थुअ] बथुआ नाम का साग।
⋙ बाद (१)
संज्ञा पुं० [सं० बाद] १. बहस। तर्क। खंड़न मंडन की बातचीत। उ०— सजल कठौता भरि जल कहत निषाद। चढ़हु नाव पर घोइ करहु जनि बाद।—तुलसी (शब्द०)। २. विवाद। झगड़ा। हुज्जत। उ०— गोतम की घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी, प्रभु सौं विवाद कै बाद न बढ़ायहीं।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०— बाद बढ़ाना=झगड़ा बढ़ाना। उ०— जे अबूझ ते बाद बढ़ावैं।—विश्राम (शब्द०)। ३. नाना प्रकार के तर्क वितर्क द्वारा बात का विस्तार। झक- झक। तूलकलामी। उ०— त्यों पदमाकर वेद पुरान पढ्यो पढ़ि कै बहु बढ़ायो।— पद्माकर (शब्द०)। ४. प्रतिज्ञा। शर्त। बाजी। होड़ाहोड़ी। उ०— कूदत करि रघुनाथ सपथ उपरा उपरी करि बाद।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०— बाद मेलना=शर्त बदना। बाजी लगाना उ०— बाद मेलि कै खेल पसारा। हार देय जो खेलत हारा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बाद पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वाद्य] दे० 'वाद्य'। उ— गुरु गीत बाद बाजित्र नृत्य।—पृ० रा०, १। ३७१।
⋙ बाद (३)
अध्य० [सं० वाद; हि० वादि(=वाद करके, हठ करके, व्यर्थ)] व्यर्थ। निष्प्रयोजन। फिजूल। बिना मतलब। उ०— भए बटाऊ नेह तजि बाद बकति बेकाज। अब अलि देत उराहनो उर उपजति अति लाज।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बाद (४)
अव्य [अ०] पश्चात्। अनंतर। पीछे।
⋙ बाद (५)
वि० १. अलग किया हुआ। छोड़ा हुआ।। जैसे,—खर्चा बाद देकर तुम्हारा कितना रुपया निकलता है। क्रि० प्र०—करना।—देना। २. दस्तूरी या कमीशन जो दाम में से काटा जाय। ३. अतिरिक्त। सिवाय। ४. असल से अधिक दाम जो व्यापारी लिख देते और दाम बताते समय घटा देते हैं।
⋙ बाद (६)
संज्ञा पुं० [फा० बाद, तुज, सं० बात] वायु। पवन। उ०— (क) है दिल में दिलदार सही, आँखियाँ उलटी करि ताहि चितइए। आब में, खाक में, बाद में आतस, जान में सुंदर जानि जनइए।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६१५। (ख) थे जल्दी में घाड़े से जियाद। थे दोड़ में वह मानिद बाद।— दाक्खिनी० पृ० २२०। यौ०— बादगीर । बादनुमा। बादेबहारी=वासंती वायु। मस्ती भरी हवा।
⋙ बादकाकुल
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के मुख्य ६० भेदों में से एक भेद। विशेष—संगीत दामोदर में इसका लक्षण निम्नांकित है— प्लुतो लघु चतुष्कच मोनौ द्रुत युगं लघुः। लघु चतुष्क बिना शब्द तालस्याद्वादकाकुलः।
⋙ बादगीर
संज्ञा पुं० [फा०] झरोखा। वातायन [को०]।
⋙ बादना पु
क्रि० अ० [सं० वाद + हि० ना (प्रत्य०)] १. बकवाद करना। तर्क वितर्क करना। २. झगड़ा करना। हुज्जत करना। उ०— (क) बादहि सूद दिजन्ह सन हम तुम्ह तै कछु घाटि।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बादति है बिन काज ही वृथा बढ़ावति रार।—सूर (शब्द०)। ३. बोलना। ललकारना। उ०— बादत बड़े सूर की नाई अबहिं लेत हों प्रान तुम्हारे।— सूर (शब्द०)।
⋙ बादनुमा
संज्ञा पुं० [फा०] वायु की दिशा सुचित करनेवाला यंत्र। हवा किस ओर से बहती है, यह बतानेवाली कल। पवनप्रकाश। पवनप्रचार।
⋙ बादफरोश
वि० [फा० बादफरोश] इधर उधर की बात करनेवाला। खुशामदी। चापलूस। बातफरोश।
⋙ बादबान
संज्ञा पुं० [फा०] पाल। उ०— बादबान तानी पलकों ने, हा ! यह क्या व्यापार ?—हिम कि० पृ्० २३।
⋙ बादबानी
संज्ञा स्त्री० [फा०] पाल से चलनेवाली नाव [को०]।
⋙ वादर †पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वारिद, वर्णविपर्यय द्वारा बादरि] बादल। मेघ। उ०—(क) देति पाँवड़े अरघ चलीं लै सादर। उमगि चल्यो आनंद भुवन भुइँ बादर।—तुलसी (शब्द०)। (ख) लाल बिन कैसे लाल चादर रहैगी, हाय ! कादर करत मोहि बादर नए नए।—श्रीपति (शब्द०)।
⋙ बादर (२)
वि० [सं०] १. बदर या बेर नामक फल का। उससे उत्पन्न या संबंध रखनेवाला। २. कपास का। कपास या रुई का बना हुआ। ३. मोटा या खद्दड़। 'सूक्ष्म' का उलटा (कपड़ा)।
⋙ बादर (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बदरी या बेर का पेड़। २. कपास का पौधा। ३. कपास की रूई का बना हुआ सूत या वस्त्र। ४. जल। पानी। ५. रेशम। ६. दक्षिणावर्त शंख। ७. बृहत्सं- हिता के अनुसार नैऋत्य कोण में एक देश।
⋙ बादर (४)
वि० [देश०] आनंदिन। प्रसन्न। आह्लादित। उ०— सादर सखी के साथ बादर बदन ह्वै कै भूपति पधारे महारानी के महल को।—(शब्द०)।
⋙ बादरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कापास का पौधा। २. कपास की रूई का सूत या वस्त्र।
⋙ बादरायण
संज्ञा पुं० [सं०] वेदव्यास का एक नाम। यौ०—बादरायण संबंध=किसी प्रकार खींच तानकर किया हुआ संबंध। बादरयण सूत्र=व्यासरचित सूत। ब्रह्मासूत्र।
⋙ बादरायणिक
संज्ञा पुं० [सं०] व्यास के पुत्र शुकदेव [को०]।
⋙ बादरि
संज्ञा पुं० [सं०] दर्शनशास्त्र के एक आचार्य का नाम [को०]।
⋙ बादरिक
वि० [सं०] [स्त्री० बादरिकी] बेर के फलों को एकत्र करनेवाला [को०]।
⋙ बादरिया ‡
संज्ञा स्त्री० [हि० बादर + इया (स्वा० प्रत्यय)] दे० 'बदली'। उ०— बरसन लागी कारी बादरिया।—गीत (शब्द०)।
⋙ बादरी ‡
संज्ञा स्त्री० [हि० बादर] दे० 'बदली'।
⋙ बादल
संज्ञा पुं० [सं० वारिद, (वर्ण वि०) > हि० बादर] १. पृथ्वी पर के जल (समुद्र, झील, नदी आदि के) से उठी हुई वह भाप जो घनी होकर आकाश में छा जाती है और फिर पानी की बूँदों के रूप में गिरती है। मेघ। घन। विशेष— सूक्ष्म जलसीकर रूप की इस प्रकार की भाप जो पृथ्वी पर छा जाती है, उसे नीहार या कुहरा कहते हैं। बादल साधारणतः पृथ्वी से ड़ेढ़ कोस की उँचाई पर रहा करते हैं। ये आकाश में अनेक विलक्षण रूप रंग धारण किया करते हैं जिनकी शोभा अनिर्वचनीय होती है। क्रि० प्र०—आना।—छाना। मुहा०—बादल उठना=बादलों का किसी ओर से समूह के रूप में बढ़ते बुए दिखाई पड़ना। बादल चढ़ना=दे० 'बादल उठना'। बादल गरजना= मेघों के संघर्ष का घोर शब्द। घरघराहठ की आवाज जो बादलों से निकलती है। बादल घिरना=मेघों का चारों ओर छाना। बादल फटना=मेघों का घटा के रूप में फैला न रहना, तितर बितर हो जाना। बादल छँटना=मेघों का खंड खंड होकर हट जाना। आकाश स्वच्छा होना। बादलों में थिगली लगाना=असंभव काम करना। कठिन काम कर डालना। बादलों से बातें करना= बहुत उँचा उठना। २. एक प्रकार का पत्थर जो दुधिया रंग का होता है और जिसपर बैगनी रंग की बादल की सी धारियाँ पड़ी होती हैं। यह राजपूताने में निकलता है।
⋙ बादला
संज्ञा पुं० [हि० पतला?] सोने या चाँदी का चिपटा चमकीला तार जो गोटे बुनने या कलाबत्तू बटने के काम में आता है। कामदानी का तार। यह तार एक तोले में ५०० गज के लगभग होता है। उ०— करि असनान पन्हाबा जोरा। तास बादला जीत अंजीरा।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २७२।
⋙ बादली ‡
संज्ञा स्त्री० [हि० बादल] दे० 'बदली'।
⋙ बादशाह
संज्ञा पुं० [फा० तुल० सं० पाटशासक] १. तख्त का मालिक। राजसिंहासन पर बैठनेवाला। राजा।शासक। २. सबसे श्रेष्ठ पुरुष। सरदार। सबसे बड़ा आदमी। जैसे, झूठीं के बादशाह। ३. स्वतंत्र। मनमाना। करनेवाला जैसे, तबीयत का बादशाह। ४. शतरंज का एक मुहारा जो किस्त लगने के पहले केवल एक बार घोड़े की चाल चलता है और दौड़धूप से बाचा रहता है। ५. ताश का एक पत्ता जिसपर बादशाह की तसवीर बनी रहती है।
⋙ बादशाहजादा
संज्ञा पुं० [फा० वादाशाहजादड्] राजकुमार। कुँवर। कुमार।
⋙ बादशाहजादी
संज्ञा स्त्री० [फा० बादशाहजादी] राजकुमारी।
⋙ बादशाहत
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. राज्य। राज्यधिकार। २. शासन। हुकूमत।
⋙ बादशाहपसंद
संज्ञा पुं० [फा०] १. खशखाशी रंग। दिलबहार हलका आसमानी रंग। २. एक प्रकार का आम। ३. एक प्रकार का चावल।
⋙ बादशाही (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. राज्य। राज्याधिकार। २. शासन। हुकूमत। ३. मनमाना व्यवहार।
⋙ बादशाही (२)
वि० १. बादशाह का। राजा का। जैसे, बादशाही झंडा। २. राजाओं के योग्य। यो०— बादशाही खर्च=अत्यधिक व्यय। बहुत अधिक खर्च। फिजूल खर्च। बादशाही फरमान या हुक्म=रजाज्ञा। राज्यादेश।
⋙ बादहवाई
क्रि० वि० [फा० बाद + अ० हवा] यों ही। व्यर्थ। फिजूल। निष्प्रयोजन।
⋙ बादाम
संज्ञा पुं० [फा०] १. मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष और उसका फल। विशेष—यह वृक्ष पश्चिमी एशिया में अधिकता से और पश्चिमी भारत (काश्मीर और पंजाब आदि) में कहीं कहीं होता है। इसमें एक प्रकार के छोटे छोटे फल लगते हैं। जिनके ऊपर का छिलका बहुत कड़ा होता है और जिसके तोड़ने पर लाल रंग के एक दूसरे छिलके में लिपटी हुई सफेद रंग की गिरी रहती है। यह गिरी बहुत मीठी होती है और प्रायः खाने के काम में आती है। यह पौष्टिक भी होती है और मेवों में गिनी जाती है। इसका व्यवहार औषधों में और पकवानों आदि के स्वादिष्ट करने में होता है। इसकी एक और जाति होती है जिसका फल या गिरी कड़वी होती है। दोनों प्रकार के बादामों में से एक प्रकार का तेल निकलता है जो औषधों, सुगंधियों और छोटी मशीनों के पुरजों आदि में ड़ालने के काम में आता है। इस वृक्ष में से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है जी फारस से हिंदुस्तान आता और यहाँ से युरोप जाता है। वैद्यक में बादाम (गिरी) गरम, स्निग्ध, वातनाशक, शुक्रवर्धक, शुक्रवर्धक, भारी और सारक माना गया है और इसका तेल मृदुरेची, बाजीकर, मस्तक-रोग-नाशक पित्तनाशक, वातघ्न, हलका, प्रमेहकारक और शीतल कहा गया है। यौ०—बादाम वाक=बादाम ओर ओषधियों के संमिश्रण से निर्मित एक बलकारक ओषधि। बादामफरोश=बादाम बेचनेवाला।
⋙ बादामा
संज्ञा पुं० [फा० बादामह] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
⋙ बादामी (१)
वि० [फा० बादाम + ई (प्रत्य०)] १. बादाम के छिलके के रंग का। कुछ पीलापन लिए लाल रंग का। २. बादाम के आकार का। अंडाकार। जैसे, बादामी आँख। ३. बादाम के योग से निर्मित। जैसे, बादामी बर्फी।
⋙ बादामी (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का धान। २. बादाम के आकार की एक प्रकार की छोटी डिबिया जिसमें गहने आदि रखते है। ३. वह ख्वाजासरा जिसकी इंद्रिय बहुत छोटी हो। ४. एक प्रकार की छोटी चिड़िया जो पानी के किनारे होती है ओर मछलियाँ खाती है। किलकिला। वि० दे० 'किलकिला'। ५. बादाम के रंग का घोड़ा। उ०— लीले लक्खी, लक्ख बीज, बादामी चीनी।— सूदन (शब्द०)। ६. बादाम के छिलके को तरह का रंग। यौ०— बादामी आँख= बादम की तरह छोटू आँख।
⋙ बादि
अव्य० [सं० वादि, हिं० वादी (हठ करके)] व्यर्थ। निष्प्रयोजन। फिजूल। निष्फल। उ०— सो श्रम बादि बाल कवि करहीं।—तुलसी (शब्द०)। २. बिना। छोड़कर। उ०— बादि हरि नाम कोऊ काज नाहि अंत कै।—केशव० अमी० पृ० १२।
⋙ बादित पु
वि० [सं० वादित] बजाया हुआ।
⋙ बादित्य पु
संज्ञा पुं० [सं० वादित्र] वाद्य। बाजा। उ०— हज्जार बीस बादित्य साथ, सब जुरे आय रणघीर हाथ।—ह० रासी० पृ० ८१।
⋙ बदिया
संज्ञा पुं० [देश०] लुहारों का पेंच बनाने का एक औजार।
⋙ बादिसाह †
संज्ञा पुं० [फा० बादशाह] बादशाह। राजा। उ०— नो नो लाष फोजाँ बादिसाहाँ कै बताया।— शिखर०, पृ० १८।
⋙ बादी (१)
वि० [फा०] १. वात संबंधी। २. वायुविकार संबंधी। जैसे बादी बवासीर। ३. वायु कुपित करनेवाला, वात का विकार उत्पन्न करनेवाला। जैसे,—बैगन बहुत बादी होता है।
⋙ बादी (२)
संज्ञा स्त्री० शरीरस्थ वायु। बात। वातविकार। वायु का दोष। जैसे,—उनका शरीर बादी से फूला है।
⋙ बादी (३)
संज्ञा स्त्री० [फा० वादी] घाटी। वादी। उ०—इस बादिये खुशनुमा के अंदर लहराता है धान का समंदर।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४५५।
⋙ बादी (४)
संज्ञा पुं० [फा० बाजी] बाजीगर। साँप पकड़नेवाला। उ०— औरंग भगे अथाह बाई वध बादी बणे।—नट०, पृ० १७२।
⋙ बादी (५)
संज्ञा पुं० [सं० वादिन्, वादी] १. किसी के विरुद्घ श्रभियोग लानेवाला। मुद्दई। २. प्रतिद्वंद्वी। शत्रु। बैरी। विशेष— दे० 'वादी'। ३. राग में प्रधान रूप से लगनेवाला स्वर जिसके कारण राग शुद्ध होता है।
⋙ बादी (६)
संज्ञा पुं० [देश०] लुहारों का सिकली करने का औजार।
⋙ बादीगर †
संज्ञा पुं० [फा० बाजीगर] इंद्रजाल करनेवाला। बाजीगर। उ०—चापड़े मचै रिग निसाचर बनतरों। बीर कोतिक रचे जाण बादीगराँ।—रघु० रू० पृ० १८३।
⋙ बादुर
संज्ञा पुं० [देश०] चमगाद़ड़। चमचटक। उ०— लटकि बादुर हुआ पटकि जम मारिया चरन भौ चारिया चरख नाधा।— संत० दरिया , पृ० ८४।
⋙ बादूना
संज्ञा पुं० [देश०] एक औजार जो घेवर नाम की मिठाई बनाने के काम में आता है। विशेष—यह साँचा चढ़ाने के कालबूत के समान लोहे या पीतल का बना होता है। इसे भट्ठी के मुँह पर रखकर उसमें धी भरते और पतला मैदा ड़ाल देते हैं। मैदा पक जाने पर उसे चीनी की चाशनी में पाग लेते हैं।
⋙ बाध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाधा। रुकावट। अड़वन। २. पीड़ा। कष्ट। ३. कठिनता। मुश्किल। ४. अर्थ की असंगति। मानी का ठीक न बैठना। व्याघात। जैसे,—जहाँ वाच्यार्थ लेने से अर्थ में बाधा पड़ती है वहाँ लक्षणा से अर्थ निकाला जाता है। ५. न्याय में वह पक्ष जिसमें साध्य का अभाव सा हो। ६. विरोध। खिलाफत (को०)। ७. खडन (को०)।
⋙ बाध † (२)
संज्ञा पुं० [सं० बद्ध] [स्त्री० बाधी] मूँज की रस्सी।
⋙ बाधक (१)
वि० [सं०] १. प्रतिबंधक। रुकावट डालनेवाला। रोकनेवाला। विघ्नकर्ता। उ०— तो हम उनके बाधक क्यों हों।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २६८। २. दुःखदायी। हानिकारक। हिंसक। मार ड़ालनेवाला। उ०— बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।—मानस।
⋙ बाधक (२)
संज्ञा पुं० स्त्रियों का एक रोग जिसमें उन्हें संतति नहीं होती या संतति होने में बड़ी पीड़ा या कठिनता होती है। विशेष— वैद्यक के अनुसार चार प्रकार के दोषों सें बाधक रोग होता है— रक्तमाद्री, यष्ठी, अंकुर और जलकुमार। रक्तमाद्री में कटि, नाभि, पेड़ू आदि में वेदना होती है और क्रेतु ठिक समय पर नहीं होता। यष्ठी बाधक में ऋतुकाल में आँखों, हथेलियों और योनि में जलन होती है, और रक्तस्राव लाल युक्त (झुग मिला) होता है तथा ऋतु, महीने में दो बार होता है। अंकुर बाधक में ऋतुकाल में उद्वेग रहता है, शरीर भारी रहता है। रक्तस्राव बहुत होता है। नाभि के नीचे शूल होता है तीन तीन चार चार महीने पर ऋतु होता है, हाथ पैर में जलन रहती है। जलकुमार में शरीर सूज जाता है, बहुत दिनों में ऋतु हुआ करता है, सो भी बहुत थोड़ा; गर्भ न रहने पर भी गर्भ या मालूम होता है। इन चारों बाधकों सले प्रायः गर्भ रहता।
⋙ बाधकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाधा।
⋙ बाधन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० बाधित, बाधनीय, बाध्य] १. रुकवट या विध्न डालना। २. पीड़ा पहुँचाना। कष्ट देना।
⋙ बाधना पु (१)
क्रि० सं० [स० बाधन] बाधा ड़ालना। रुकावट डालना। रोकना। उ०—(क) सुमिरत हरिहि सापगति बाधी। सहज विमल गन लागि समाधी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) देखते ही आधे पल बाधी जात बाधा सब राधाजू की रसना सुरूप की सी रानी है।—केशव (शब्द०)। २. विघ्न करना। बाधा ड़ालना। उ०— (क) काम सुभासुभ तुमहिँ न बाधा। अब लगि तुमहि न काहू साधा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) दुख सुख ये बाधैं जेहि नाहीं तेहि तुम जानौ ज्ञानी। नानक मुकुत ताहि तुम मानौ यहि विधि को जो प्राणी।—नानक (शब्द०)।
⋙ बाधना पु (२)
कि० अ० [ सं० वर्द्धन, प्रा० वद्धण] अभिवृद्ध होना। बढ़ना। उ०— (क) बलि नंद अति आनद बाघ्यौ चढ़ि हिंडोरे गवई।— नंद०, ग्र० पृ० ३७५। (ख) मित मित बाधे रिध मिले जय मित दास सुजाण।—रघु० रू०, पृ० ९।
⋙ बाधयिता
संज्ञा पुं०, वि० [सं० बाधयितृ] बाधा देनेवाला। बाधक [को०]।
⋙ बाधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विघ्न। रुकवट। रोक। अड़चन। उ०— द्विज भोजन मख होम सराघा। सब के जाइ करहु तुम बाधा।— तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—आना।—करना।—होना। मुहा०—बाधा करना, ड़ालना या देना=रुकावट खड़ी करना। विघ्न उपस्थित करना। बाधा पड़ना=रुकावट खड़ी होना। विघ्न उपस्थित होना। वाधा पहुँचना=दे० 'बाधा पड़ना'। २. संकट। कष्ट। दुःख। पीड़ा। उ०— (क) छुधा व्याधि बाधा भइ भारी। वेदन नहिं जानै महतारी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोइ। जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होइ।—बिहारी (शब्द०)। ३. भय। डर। आशंका। उ०—(क) मारेसि निसिचर केहि अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कै बाधा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) आजु ही प्रात इक चरित देख्यों नयों तबहि ते मोहि यह भई बाधा।—सूर (शब्द०)।
⋙ बाधाहर
वि० [सं०] बाधाओं को दूर करनेवाला। उ०—भर उद्दाम वेग से बाधाहर तू कर्कश प्राण, दूर कर दे दुर्बल विश्वास।—अनामिका, पृ० ६८।
⋙ बाधित (१)
वि० [सं०] १. जो रोका गया हो। बाधायुक्त। २. जिसके साधन में रुकावट पड़ी हो। ३. जिसके सिद्ध होने या प्रामाणित होने में रुकावट हो। जो तर्क से ठीक न हो। असंगत। ४. ग्रस्त। गृहीत। प्रभावहीन। जैसे,— व्याकरण में वह सूत्र जो किसी अपवाद या बाधक सूत्र के कारण किसी स्थलविशेष में न लगता हो।
⋙ बाधित (२)
वि० [सं० वद्धित, हिं० बाधना(=बढ़ना)] (किसी के प्रति) आभारी या अनुगृहीत।
⋙ बाधिता
संज्ञा पुं० वि० [सं० वाधितृ] दे० 'बधयिता' [को०]।
⋙ बाधिर्य
संज्ञा पुं० [सं०] बहिरापन।
⋙ बाधी (१)
वि० [सं० बाधिन्] १. बाधा करनेवाला। बाधक। २. कष्ठ या पीड़ा देनेवाला [को०]।
⋙ बाधी पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ब्याधि] दे० 'व्याधि', 'बिआधि'। उ०— बोलै झूठ महा अपराधी। धर्म छुटे उठि लागै बाधी।—भक्ति प०, पृ० २१५।
⋙ बाध्य
वि० [सं०] १. जो रोका या दबाया जानेवाला हो। २. विवश किया जानेवाला। मजबूर होनेवाला। ३. रद्द या नष्ट करने लायक [को०]।
⋙ बान (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. शालि या जड़हन को रोपने के समय उतनी पेड़ियाँ जो एक साथ लेकर एक थान में रोपी जाती हैं। जड़हन के खेत में रोपी हुई धान की जूरी। क्रि० प्र०—बैठाना।—रोपना। २. एक बहुत ऊँचा और मजवूत लकड़ीवाली पहाड़ी वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष अफगानिस्तान में तथा हिमालय में आसाम तक सात हजार से नौ हजार फुट की ऊँचाई तक होता है। इसके पेड़ बहुत उँचे होते हैं और यद्यपि इसका पतझड़ नहीं होता तो भी वसंत ऋतु में इसकी पतियाँ रंग बदलती हैं। इसकी लकड़ी ललाई लिए सफेद रंग की होती है और बहुत मजबूत होती है। इसका वजन प्रति घनफुट तीस सेर तक होता है और यह घर और खेती के सामान बनाने में काम आती है। इसकी छड़ियाँ भी बनती हैं। पत्तियाँ और छाल चमड़े सिझाने के काम आती है।
⋙ बान (२)
संज्ञा पुं० [सं० बाण] १. बाण। तीर। २. एक प्रकार की आतशबाजी जो तीर के आकार की होती है। इसमें आग लगते ही यह आकाश की ओर बड़े वेग से छूट जाती है। ३. समुद्र या नदी उँची लहर। ४. वह गुंबदाकार छोटा डंडा जिससे धुनकी (कमान) की ताँत को झटका देकर रुई धुनते हैं। ५. मूँज की बटी हुई रस्सी। बाध। ६. बाना नाम का हथियार जो फेंककर मारा जाता है। उ०— गोली बान सुमंत्र सर समुझि उलटि मन देखु। उत्तम मध्यम नीच प्रभु बचन बिचारि बिसेखु।— तुलसी (शब्द०)। ७. स्वर्ग।—अनेकार्थ, पृ० १४५।
⋙ बान (३)
संज्ञा पुं० [देश०] गोला। उ०— तिलक पलीता माथे दमन बज्र के बान। जेहि हेरहि तेहि मारहि चुरकुस करहिं निदान।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बान (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनना] १. बनावट। ढंग। आकार। उ०— सकट को बान बनायो ऐसी। सुंदर अर्धचंद्र होइ जैसो।— नंद०, ग्रं०, पृ० २५७। २. सजधज। वेश विन्यास। उ०— सब अंग छीटै लागी नीको बन्यो बान।— नंद०, ग्रं०, पृ० ३९४। ३. टेव। आदत। अभ्यास। उ०— भक्त बछल है बान तिहारी गुन औगुन न बिचारो।—गुलाल०, पृ० ४५। क्रि० प्र०—ड़ालना।—पड़ना।—लगना।
⋙ बान (५)
संज्ञा पुं० [सं० वर्ण] रंग। आब। कांति। उ०— कनकहि बान चढ़ै जिमि दाहे। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बानइत † (१)
वि० [हि० बाना + इत (प्रत्य०)] बाना चलाने या खेलनेवाला। दे० 'बानैत'।
⋙ बानइत (२)
वि० [हिं० बान + इत (प्रत्य०)] १. बाण चलानेवाला। उ०— रोपे रन रावन बुलाए बीर बानइत, जानत जे रोति सब सुजुग समाज की।—तुलसी (शब्द०)। २. योद्धा। वीर। बहादुर। उ०— लोकपाल महिपाल बान बानइत दसानन सके न चाप चढ़ाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बानक
संज्ञा स्त्री० [हिं०बनाना] १. वेष। भेस। सजधज। उ०— या बानक उपमा दैबे को सुकवि कहा टकटोहै। देखत अंग थके मन में शशि कांटि मदनछबि मोहै।— सूर (शब्द०)। (ख) आपने अपाने थल, आपने अपाने साद आपनी अपानी बर बानक बनाइए।— तुलसी (शब्द०)। २. एक प्रकार का रेशम जो पीला या सफेद होता है। (यह तेहुरी से कुछ घटिया होता है और रामपुर हाट बंगाल से आता है।) ३. संयोग। अवसर। साज। उ०—सहज भाव की भेट अचानक बिघना सदा बनावत बानक।—घनानंद० पृ० २६०।
⋙ बानगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बयाना + गी (प्रत्य०)] किसी माल का वह अंश जो ग्राहक को देखने के लिये निकालकर दिया या भेजा जाय। नमूना।
⋙ बानना पु (१)
क्रि० सं० [सं० वर्णन, प्रा० वण्णण] वर्णन करना। कहना। उ०—कर्मठ ज्ञानी ऐंचि अर्थ कौ अनरथ बानत।—भक्तमाल (प्रि०), पृ० ५३२।
⋙ बानना † (२)
क्रि० सं० [सं० बन्धन] दे० 'बाँधना'। उ०— तब बसुदेव देवकी आनि। पाइनि सुदृढ़ शृंखला बानि।— नंद० ग्रं०, पृ० २२३।
⋙ बनना (३)
क्रि० सं० [हि० बाना(=व्याज) + ना(प्रत्य०)] बनाना। ठानना। उ०— तब नहिं सोचै इहि बिधि बानत। अब हो नाथ बुरौ क्यों मानत।— नंद० ग्रं० पृ० २८२।
⋙ बानबे (१)
वि० [सं० द्विनवति, प्रा० बाणबइ] जो गिनती में नब्बे से दो अधिक हो। दो ऊपर नब्बे।
⋙ बानर †
संज्ञा पुं० [सं० वानर] [स्त्री० बानरी] बंदर।
⋙ बानरेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० वानर + इन्द्र] १. सुग्रीव। उ०— वानरेंद्र तब ही हँसि बोल्यो।—केशव (शब्द०)। २. हनुमान।
⋙ बाना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बानाना या सं० वर्ण(=रूप)] १. पहनावा। वस्त्र। पोशाक। वेशविन्यास। भेस। उ०—(क) बाना पहिरे सिंह का चलै भैड़ की लार। बोली बौलै स्यार की कुत्ता खाए फार।—कबीर (शब्द०)। (ख) विविध भाँति फूले तरु नाना। जनू बानैत बने बहु बाना।—तुलसी (शब्द०)। (ग) यह है सुहाग का अचल हमारे बाना। असगुन की मुरति खाक न कभी चढ़ाना।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। २. अगीकार किया हुआ धर्म। रीति। चाल। स्वभाव। उ०—(क) राम भक्त वत्सल निज बानो। जाति, गीत, कुल, नाम गनत नहिं रंक होय कै रानी।—सूर (शब्द०)। (ख) जासु पतितपावन बड़ बाना। गावहिं कवि श्रुति संत पुराना।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बाना (२)
संज्ञा सं० [सं० वाणा] १. एक हथियार जो तीन साढे़ तीन हाथ लंबा होता है।विशेष—यह सीधा और दुधारा तलवार के आकार का होता है। इसकी मूठ के दोनों ओर दो लट्टू होते हैं जिनमें एक लट्टू कुछ आगे हटकर होता है। इसे बानइत गकड़कर बड़ी तेजी से घुमाते हैं। २. साँग या भाले के आकार का एक हथियार। उ०—(क) रोह मृगा संशय वह हाँकै पारथ बाना मेलै। सायर जरै सकल बन दाहै, मच्छ अहेरा खेलै।— कबीर (शब्द०)। (ख) बाने फहराने घहराने घंटा राजन के नाहीं ठहराने राव राने देस देस के।— भूषण (शब्द०)। विशेष—यह लोहे का होता है और आगे की और बराबर पतला होता चला जाता है। इसके सिरे पर कभी कभी झंड़ा भी बाँध देते हैं और नोक के बल जमीन में गाड़ भी देते हैं।
⋙ बाना (३)
संज्ञा पुं० [सं० वयन(=बुनना)] १. बुनावट। बुनन। बुनाई। २. कपड़े की बुनावट जो ताने में की जाती है। ३. कपड़े की बुनावट में वह ताग जो आडे बल ताने में भरा जाता है। भरनी। उ०— सूत पुराना जोड़ने जेठ बिनत दिन जाए। बरन बीन बाना किया जुलदा पड़ा भुलाय।—कबीर (शब्द०)। ४. एक प्रकार का बारीक महीन सूत जिससे पतंग उड़ाई जाती है। ५. वह जुनाई जो खेत में एक बार या पहली बार की जाय।
⋙ बाना (४)
क्रि० सं० [सं० व्यापन] किसी सुकड़ने फैलनेवाले छेद को फैलाना। आकुंचित और प्रसारित होनेवाले छिद्र को विस्तृत करना। जैसे, मुँह बाना। उ०—(क) पुत्रकलत्र रहैं लब लाए। जंबुक नाईँ रहैँ मुँह बाए।— कबीर (शब्द०)। (ख) हा हा करि दिनता कही द्वार द्वार बार बार, परी न छार मुँह बायो।—तब तनु तजि तजि मुख माहिं समायो।— सूर (शब्द०)। मुहा०—(किसी वस्त्रु के लिये) मुँह बाना=लेने की इच्छा करना। पाने का अभिलाषि होना।
⋙ बनात
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाना] एक प्रकार का मोटा चिकना ऊनी कपड़ा।
⋙ बानारसी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाराणासी वर्ण वि० > वाणारसी हिं० बनारस + ई(प्रत्य०)] उ०—नाभी कुंडर बानारसी। सौंह को होइ मीचु तहँ बसी।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० १९६।
⋙ बानावरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाणा + फा० आवरी (प्रत्य०)] बाण चलान की विद्या या ढंग। उ०— सुनि भालु कपि धाए कुधर गहि देखि सो मारन लगा। लखि तासु बानावरी सब अकुलाइ मरकट दल भगा।—रघुनाथ दास (शब्द०)।
⋙ बानि (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनना या बनाना] १. बनावट। सजधज उ०— वा पटपीत की फहरानि। कर धर चक्र चरन की धावनि नहिं बिसरति वह बानि।—सूर (शब्द०)। २. टेव। आदत। स्वभाव। अभ्यास। उ०—(क) बन ते भागि बिहड़े पर खरहा अपनी बानि। बेदन खरहा कासों कहैं को खरहा को जानि।—कबीर (शब्द०)। (ख) पहले ही इन हनी पूतना बाँधे वलि सो दानि। सूपनखा ताड़ु का सँहारी श्याम सहज यह बानि— सूर (शब्द०)। (ग) थोरेई गुन रीझते बिसराई वह बानि। तुमहूँ कान्ह मनो भए आजु कालि के दानि।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ बानि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्ण] रंग। चमक। आभा। कांति। उ०—(क) सुवा ! बानि तारी जस सोना। सिंहलदीप तोर कस लोना।—जायसी (शब्द०)। (ख) हीरा भुजातावीज में सोहत है यहि बानि। चद लखन मुखमीत जनु लग्यो भुजा सन आनि।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ बानि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाणी] बाणी। बचन। उ०— करति कछु न कानि बकति है कटु बानि निपट निसज बैन बिलखहूँ।— सूर (शब्द०)।
⋙ बानिक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्णक या हि० बनना] वेश। भेस। सज- धज। बनाव। सिंगार। उ०— (क) बानिक तैसी बनी न बनावत केशव प्रत्युत ह्वै गइ हानी।—केशव (शब्द०)। (ख) यों बानि बानिक सों पदमाकर आए जु खेलन फाग तो खेली।—पद्माकर (शब्द०)। (ग) यहि बानिक मो मन वसो सदा बिहारीलाल।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बानिक पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वर्णिक] दे० 'वणिक'। उ०— नयर मध्य कीटीस बसै बानिक अनंत लछि।—पृ० रा०, २५। १७६।
⋙ बानिज
संज्ञा पुं० [सं० वाणिज] बानिया। वाणिज। उ०— एक आँख आज के बानिज की पराधीन होकर उसपर पड़ी।— बेला, पृ० ५३।
⋙ बानिज्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० वाणिज्य, प्रा० वाणिज्ज] दे० 'वाणिज्य'। उ०—बानिज्ज बिनय भाषित्त देस।—पृ० रा०, १। ७३४।
⋙ बानिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनी (=बनिया)] बनिये की स्त्री।
⋙ बनिनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बनिन'। उ०— बानिनि चली सेंदुर दिए माँग।—जायसी ग्रं०, पृ० ८१।
⋙ बानिया पु
स्त्री० [सं० वणिक्] [स्त्री० बनिन] एक जाति का नाम जो व्यापार, दूकानदारी तथा लेन देन का कार्य करती है। वैश्य। उ०—बैठ रहे सो बानियाँ, खड़ा रहै सो ग्वाल। जागत रहै सो पाहरू तीनहुँ खोयो काल।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बानी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाणी] १. वचन। मुँह से निकला हुआ शब्द। २. मनौती। प्रतिज्ञा। उ०— रहों एक द्विज नगर कहुँ सो असि बानी मानि। देहु जो मोहि जगदीस सुत तो पूजों सुख मानि।— रघुराज (शब्द०)। मुहा०— बानी मानना=प्रतिज्ञा करना। मनौती मानना। ३. सरस्वती। ४. साधु महात्मा का उपदेश या वचन। जैसे,— कबीर की बानी, दादू की बानी। दे० 'वाणी'।
⋙ बानी (२)
संज्ञा पुं० [सं० वर्ण] १. वर्ण। रंग। आभा। दमक। जैसे, बारहबानी का सोना। उ०— उतरहिं मेघ चढ़ाहिं लै पानी। चमकाहिं मच्छ बीजु की बानी।—जायसी(शब्द०)। २. एक प्रकार की पीली मिट्टी जिससे मिट्टी के बरतन पकाने के पहले रँगते हैं। कपसा।
⋙ बानी (३)
संज्ञा पुं० [सं० बणिक्] बनिया। उ०—(क) ब्राह्मण छत्री औरी बानी। सो तीनहु तो कहल न मानी।—कबीर (शब्द०)। (ख) इक बानी पूरब धनी भयो निर्धनी फेरि।— (शब्द०)।
⋙ बानी (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'वाणिज्य'। उ०— अपने चलन सो कोन्ह कुबानी। लाभ न देख मुर भइ हानी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बानी (५)
संज्ञा पुं० [अं०] १. बुनियाद डालनेवाला। जड़ जमानेवाला। २. आरंभ करनेवाला। चलानेवाला। प्रवर्तक।
⋙ बानैत (१)
संज्ञा पुं० [हिं०बान + ऐत (प्रत्य०)] १. बाना फेरनेवाला। २. बाणा चलानेवाला। तीरंदाज। ३. योद्धा। सैनिक। वीर। उ०—मानहुँ मेघ घटा अति गाढ़ी। बरसत बान बूँद सेनापति महानदी रन बाढ़ी। जहाँ बरन बादर बानैत अरु दामिनि करि करि बार। उड़त धूर धुरवा धुर हींसत सूल सकल जलधार।—सूर (शब्द०)। (ख) विविध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बानैत (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बाना] बाना धारण करनेवाला।
⋙ बाप
संज्ञा पुं० [सं० वप्ता, प्रा० बप्पा, बप्प, अथवा सं० वापक(=बीज बोनेवाला)] पिता। जनक। उ०— (क) प्रथमै यहाँ पहुँचते परिगा सोक सँताप। एक अचंभो औरी देखा बेटी ब्याहै बाप।—कबीर (शब्द०)। (ख) बाप दियों कानन आनन सुमानन सों बैरी भी दसानन सो तीय को हरन भो।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—बाप दादा=पूवँज। पूर्वपुरुष। बापदादा बखानना= पूर्वजों को गाली देना या उनकी निंदा करना। बाप माँ= रक्षक। पालन करनेवाला। बाप रे=दुःख, भय या आश्चर्य- सूचक वाक्य। बाप बनाना=(१) मान करना। आदर करना। (२) खुशामद करना। चापलूसी करना। बाप तक जाना=बाप की गाली देना। वाप का=पैतृक।
⋙ बापड़ा
वि० [प्रा० बप्पुड़, गुज, बापड़ु, हि० बपुरा, बापुरा] [बि० स्त्री० बापड़ी] दे० 'बापुरा'। उ०— जाके गण रंधर्व ऋषि बापड़े ठाडिया। गावत आछै सर्वशास्त्र बहुरूप मंड़लीक आछे।—दक्खिनी०, पृ० ३०।
⋙ बापरना †
क्रि० सं० [सं० व्यापारण] व्यवहृत करना। प्रयोग में लाना।
⋙ बापा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाप्पा'।
⋙ बापिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वापिका] दे० 'वपिका'। उ०— बन उपवन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा।—तूलसी (शब्द०)।
⋙ बापी
संज्ञा स्त्री० [सं० वापी] दे० 'वापी'।
⋙ बापु ‡
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बाप'।
⋙ बापुरा
वि० [सं० बर्बर (=तुच्छ, मुछः) या देश०] [स्त्री, बापुरी] १. तुच्छ। जिनकी कोई गिनती न हो। उ०— तब प्रताप महिमा भगवाना। का बापुरी पिनाक पुराना।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कहाँ तुम त्रिभुवनपति गोपाल। कहाँ बापुरी नर शिशुपाल।—सूर (शब्द०)। २. दीन। बिचारा। उ०— संसय साउज देह संगहि खेल जुआरि। ऐसा घायल वापुरा जीवन मारै झारि।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बापू
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'बाप'। २. दे० 'बाबू'। ३. महात्मा गांधी का एक आदरसूचक संबोधन।
⋙ बाप्पा
संज्ञा पुं० [देश०] चारणों द्वारा वर्णित इतिहास के अनुसार बल्लभी वंश के महाराज गुहादित्य से आठवीं पीढ़ी में उत्पन्न नगादित्य का पुत्र। विशेष—जब वह छोटा था तब इसके पिता को भीलों ने मार ड़ाला था। इसकी रक्षा इसकी माता ने और ब्राह्मण पुरोहितो ने की थी। यह नागोद में ब्राह्मणों की गाएँ चराया करता था, जहाँ इसको हारित ऋषि और एकलिंग शिव का दर्शन चित्तौर जाकर वहाँ अपना अधिकार जमाया और पश्चिम के देशों का भी विजय किया। मेवाड़ के राज- वंश का यह आदिपुरुष था। इसका जन्मकाल टाड साहब ने सं० ७६९ वि० या ७४४ ई० लिखा है।
⋙ बाफ †
संज्ञा स्त्री० [सं० वाष्प] कोई तरल पदार्थ खौलाने से उसमें से उठा हुआ धुएँ के आकार का पदार्थ। विशेष— दे० 'भाप'।
⋙ बाफक पु
संज्ञा पुं० [सं० बाष्पक] अश्रु। आँसू। उ०— मिलत परस्पर दोउब रानिय। वाफक भीज बसन रस सानिय।— प० रा०, पृ० १२२।
⋙ बाफता
संज्ञा पुं० [फा० वाफतह, बाफ्तह्] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जिसपर कलाबत्तू और रेशम सी बूटियाँ होती हैं। यह दोरुखा भी होता है। उ०—सुंदर जाकै बाफता खासा मलमल ढेर। ताकै आगे चौसई आनि धरै बहुतेर।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३७।
⋙ बाब (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. पुस्तक का कोई विभाग। परिच्छेद। अध्याय। उ०—दरीता तूँ इस बाब का मुज पो खोल। मिल उस यार सूँ क्यूँ गहुँ मुज कूँ बोल।— दक्खिनी०, पृ० ८४। २. मुकदमा। ३. प्रकार। तरह। ४. विषय। ५. आशय। मतलब। अभिप्राय। ६. द्वारा। दरवाजा।
⋙ बाब पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वायु] वायु। पवन। उ०— दिण परषौ दिस पालटइ सखी बाब फरूकती जाइ संसार।— बी०, रासो, पृ० ६८।
⋙ बाबची
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'बकुची'।
⋙ बाबत
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. संबंध। २. विषय। जैसे,— इस आदमी की बाबत तुम क्या जानते हो।विशेष—इस शब्द का प्रयोग अधिकरण का चिह्न 'में' लुप्त करके अव्ययवत् ही होता है।
⋙ बाबननेट
संज्ञा स्त्री० [अं० बाबिननेट] एक प्रकार का जालीदार कपड़ा जिसमें गोल गोल पटकोण छोटे छोटे छेद होते हैं। यह मसहरी आदि के काम आता है।
⋙ बाबर (१)पु
वि० [सं० वातुल] दे० 'बाउर'। उ०— आपुहिं बाबर आपु सयाना। हृदय वसु तेहि राम न जाना।—कबीर बी० (शिशु०), पृ० १६२।
⋙ बाबर (२)
संज्ञा पुं० [तु० बाबुर, फा० बाबर] पहला मुगल सम्राट् जिसने राणा साँग को पराजित किया था। हुमायूँ इसका पुत्र था।
⋙ बाबर † (३)
वि० [सं० बर्बर] निम्न जाति का। क्रूर। अंत्यज।
⋙ बाबरची
संज्ञा पुं० [फा० बाबरची] दे० 'बाबरची'। यौ०— बाबरचीखाना=पाकशाला।
⋙ बाबरलेट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाबननेट] दे० 'बाबननेट'।
⋙ बाबरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बावला'। उ०— कोउ बाबरे भए गुलालाहिं गगन उड़ावत।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८९५।
⋙ बाबरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बबर(=सिंह)] लंबे लंबे बाल जो लोग सिर पर रखते हैं। जुल्फ। पट्टा।
⋙ बाबल †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाबुल'। उ०— बाबल बैद बुला- इया रे, पकड़ दिखाई म्हाँरी बाँह। मूरख वैद मरम नहिं जाने, करक कलेजे माँह।—संतवानी०, भा० २, पृ० ७१।
⋙ बावहिया पु †
संज्ञा पुं० [अप० बप्पीहा, राज० बाबीहा, पपीहा, पपइया] दे० 'पपीहा'। उ०—(क) वाबहियउ आसाढ़ जिम विरहणि करइ विलाप।—ढोला०, दू०, २६। (ख) बाबहिया चढ़ि डूँगरे चढ़ि ऊँचहरी पाज।—ढोला०, दू० २९। (ग) बाबहियउ पिउ पिउ करइ करइ कोयल सुरँगइ साद।—ढोला०, दू० २५२।
⋙ बाबा (१)
संज्ञा पुं० [तु० तुल० अप० बप्पा, बब्बा] १. पिता। उ०— (क) दादा बाबा भाई के लेखे चरन होइगा बंधा। अब की बेरियाँ जो न समुझे सोई है अंधा।—कबीर (शब्द०)। (ख) बैठे संग बाबा के चारों भइया जेंवन लागे। दसरथ राय आपु जेंवत हैं अति आनँद रस पागे।— सूर (शब्द०)। २. पितामह। दादा। ३. साधु संन्यासियों के लिये एक आदरसूचक शब्द। जैसे, बाबा रामानंद। ४. बुढ़ा पुरुष। उ०— केशव केशन अस करी, बैरी हूँ न कंरहिं। चंद्राबदन मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं।—केशव (शब्द०)। ५. एक सबोधन जिसका व्यवहार साधु फकीर करते हैं। जैसे,—भला हो, बाबा। विशेष— झगड़े या बातचीत में जब कोई कोई बहुत साधु या शांत भाव प्रकट करना चाहता है और दूसरे से न्यायपूर्वक विचार करने या शांत होने के लिये कहता है तब वह प्रायः इस शब्द से संबोधन करता है। जैसे,— (क) बाबा ! जो कुछ तुम्हारा मेरे जिम्मे निकलता हो वह मुझसे ले लो। (ख) एक—अभी थका माँदा आ रहाँ हूँ फिर शहर जाउँ ? दूसरा— बाबा ! यह कौन कहता है कि तुम अभी जाओ ?
⋙ बाबा (२)
संज्ञा पुं० [अ०] लड़कों के लिये प्यार का शब्द।
⋙ बाबार
वि० [सं० बर्बर, प्रा० बव्बर] बर्बर। झगड़ालू। संघर्ष- प्रिय उ०— वावरौं बर तुंग खग्ग साहै बिरुझाना। लंगी लहारराव अदघराजी चहुआना।—पृ० रा०, ६१। १००८।
⋙ बाबिल
संज्ञा पुं० [अ०] एशिया खंड़ का एक अत्यंत प्राचीन नगर। विशेष— यह नगर फारस के पश्चिम बगदाद से लगभग ६० मील की दूरी पर फरात नदी के किनारे था। ३००० वर्ष पूर्व यह एक अत्यंत सभ्य और प्रतापी जाती की राजधानी था और उस समय़ सवसे बड़ा नगर गिना जाता था।
⋙ बाबी पु ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाबा] १. साधु स्त्री। संन्यासिन। उ०— कामी से कुत्ता भला ऋतु सिर खोलै काँच। राम नाम जाना नहीं बाबी जाय न बाँच।—कबीर (शब्द०)। २. लड़कियों के लिये प्यार का शब्द।
⋙ बाबीहा पु †
संज्ञा पुं० [देश०] 'बाबद्दिया'। उ०— जिण दोहे पावस झरइ, बाबीहउ कुरलाइ।—ढोला० दू०, २५१।
⋙ बाबुना
संज्ञा पुं० [देश०] पीले रंग का एक पक्षी जिसकी आँख के ऊपर का रंग सफेद, चोंच काली और आँखें लाल हतो हैं।
⋙ बाबुल (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बाबू] १. बाबू। उ०— धरही में बाबुल ! बाढ़ी रारि। अंग उठि उठि लागै चपल नारि।— कबीर (शब्द०)। २. पिता। बाप। उ०— (क) बाबुल जो मैं पैया तोरी लागो अबकी गवन दे डार।—कबीर श०, पृ० ४। (ख) वाबुल मोरा ब्याह करा दो, अनजाया वर लाय।— कबीर श०, पृ० १०१।
⋙ बाबुल (२)
संज्ञा पुं० [अ० बाबिल] दे० 'बाबिल'।
⋙ बाबू
संज्ञा पुं० [हिं० बाप या बाबा] १. राजा के नीचे उनके बंधु बांधवों या और क्षेत्रिय जमीदारों के लिये प्रयुक्त शब्द। २. एक आदरसूचक शब्द। भलामानुस। उ०—(क) बाबू ऐसी है संसार तुम्हारा ये कलि है व्यवहारा। को अब अनख सहै प्रतिदिन को नाहिन रहनि हमारा।—कबीर (शब्द०)। (ख) 'आयसु' आदेश,' बाबू (?) भलो भलो भाव सिद्ध तुलसी विचारी जोगी कहत पुकारि हैं।—तुलसी (शब्द०)। विशेष— आजकल अंगरेजी पढ़े लिखे लोगों के लिये इस शब्द का व्यवहार अधिक होता है। यौ०—बाबूपन=प्रतिष्ठित या सभ्य या शिक्षित होने का भाव। उ०— हट जाओ सामने से, नहीं तो सारा बाबूपन निकास दूँगा।—काया० पृ० २४०। बाबूसाहव=एक आदरसूचक संबोधन। †३. पिता का संबोधन। बापू।
⋙ बाबूड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० बाबू + ड़ा (प्रत्य०)] बाबू के लिये हास्य, व्यंग्य या घृणासूचक शब्द।
⋙ बाबूना
संज्ञा पुं० [फा० बावूनह्] औषध के काम में आनेवाला एक छोटा पौधा। विशेष— यह पौधा यूरोप और फारस में होता है। इसको पंजाब में भी बोते हैं। इसका सूखा फूल बाजारों में मिलता है और सफेद रंग का होता है। इसमें एक प्रकार की गंध होती है और इसका स्वाद कड़ुवा होता है। इसके फूल को तेल में डालकर एक तेल बनाया जाता है जिसे 'बावूने का तेल' कहते हैं। यह पेट की पीड़ा, शूल और निर्बलता को हटाता है। इसका गरम काढ़ा वमन कराने के लिये दिया जाता है और स्त्रियों के मासिक धर्म बंद होने पर भी उपकारी माना जाता है।
⋙ बाभन
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण] १. दे० 'ब्राह्मण'। २. दे० 'भूमिहार'
⋙ बाभ्रवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम (को०)।
⋙ बाभ्रुक
वि० [सं०] [स्त्री० बाभ्र की] भरे वर्ण का। भूरा।
⋙ बाम (१)
वि० [सं० वाम] १. दे० 'वाम'। उ०— बिधि बाम की करनी कठिन जेहि मातु कीन्हीं बावरी।—मानस, २। २००।
⋙ बाम (२)
संज्ञा पुं० [फा०] १. अटारी। कोठा। २. मकान के ऊपर की छत। घर के ऊपर का सबसे ऊँचा भाग। घर की चोटी। उ०— तूर पर जैसे किसी वक्त में चमकै थी झलक। कुछ सरेबाम से वैसा ही उजाला निकाला।— नजीर (शब्द०)। ३. साढे़ तीन हाथ का एक मान। पुरसा।
⋙ बाम (३)
संज्ञा स्त्री०[सं० ब्राह्मी] एक मछली जो देखने में साँप सी पतली और लंबी होती है। विशेष— इसकी पीठ पर काँटा होता है। यह खाने में स्वादिष्ट होती है और इसमें केवल एक ही काँटा होता है।
⋙ बाम (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० बाम] १. दे० 'वामा'। २. स्त्रियों का एक गहना जिसे वे कानों में पहनती हैं।
⋙ बामकी
संज्ञा स्त्री० [सं० बामकी] एत देवी जिसकी पूजा प्रायः जादूगर आदि करते हैं।
⋙ बामदेव
संज्ञा पुं० [सं० वामदेव] दे० 'वामदेव'।
⋙ बामन
संज्ञा पुं० [सं० वामन] दे० 'वामन'। मुहा०— बामन होकर भी चाँद छूना=असंभव काम कर दिखाना। छोटा होते हुए भी बड़ा काम कर दिखाना। उ०— मैं समझूँगा कि मैने बामन होकर भी चाँद को छू लिया।— चुभते० (दो दो०), पृ० ९।
⋙ बामा
संज्ञा स्त्री० [सं० बामा] दे० 'वामा'। उ०— जौं हठ करहु प्रेमवस बामा।—मानस। २। ६२।
⋙ बामी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँवी] दे० 'बाँबी'।
⋙ बामी (२)
संज्ञा पुं० [सं० वामिन्] वाममार्गी। अघोरी या अधोरपंथी उ०—(क) कलि की कुचाल निशा खंडे हैं पखंड, तम दुरिगे अभक्त चोर पंथ घोर बामी हैं।—भक्तमाल (श्री०), पृ० ४२०। (ख) भावति है हरि भक्तनि भारी। निंदत है तव नामनि बानी।—राम चं०, पृ० १६३।
⋙ बाम्हन †
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण] दे० 'ब्राह्मण' उ०— पहिली पठौनी तीन जने आए नौवा बाम्हन बार।—कबीर श०, पृ० ४।
⋙ बायँ
वि० [सं० वाम] १. वायाँ। २. खाली। चूका हुआ। दाँव या लक्ष्य पर न बैठा हुआ। मुहा०— बायँ देना=(१) बचा जाना। छोड़ना। (२) तरह देना। कुछ ध्यान न देना। (३) फेरा देना। चक्कर देना। उ०— निंदक न्हाय गहन कुरखेत। अरपै नारी सिंगार समेत। चौसठ कूआँ बायँ दिखावे। तौ भी निंदक नरकहि जावे।—कहीर (शब्द०)।
⋙ बाय † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वायु] १. वायु। हवा। उ०—(क) एक बान वेग ही उड़ाने जातुधान जात, सूखि गए गात हैं पतौआ भए बाय के।—तुलसी (शब्द०)। (ख) हित करि तुम पठयो लगे वा बिजना की बाय। ठरी तपन तन की तऊ चली पसीना न्याय।— बिहारी (शब्द०)। २. बाई। वात का कोप जो प्रायः संनिपात होने पर होता है और जिसमें लोग बकते झकते हैं। उ०— जीवन जुर जुवती कुपथ्य करि भयो त्रिदोष भरि मदन बाय।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बाय (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वापी] बाउली। बेहर। उ०— अति अगाध अति ओथरो नदी कूप सर बाय। सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ बाय (३)
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का लोहे का पीपा जो समुद्र में या उन नदियों में जिनमें जहाज चलते हैं स्थान स्थान पर लंगर द्वारा बाँध दिए जाते हैं और सिगनल का काम देते हैं। २. दे० 'लाइफबाय'।
⋙ बायक पु
संज्ञा पुं० [सं० वाचक, प्रा० वायक] १. कहनेवाला। बतलानेवाला। २. पढ़नेवाला। बाँचनेवाला। उ०— गूँगा बायक अविंरल बोल्या राग अनेक उचारू।—राम० धर्म०, पृ० ३६८। ३. दूत।
⋙ बायकाट
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह व्यवस्थित बहिष्कार जो किसी व्यक्ति, दल या देश आदि को अपने अनुकूल बनाने या उससे कोई काम कराने के उद्देश्य से उसके साथ उस समय तक के लिये किया जाय जबतक वह अनुकूल न हो जाय या माँग पूरी न करे। २. संबंध आदि का त्याग या बहिष्कार।
⋙ बायड़
संज्ञा पुं० [सं० वायु + हिं० ड़ (प्रत्य०)] महक। गंध। वायु का गंधयुक्त उद् गार। उ०— भौरों ने कहा मेरे को तो मेरे ही खान पान की बायड़ आ रही है।—राम० धर्म०, पृ० २९२।
⋙ बायन (१)
संज्ञा पुं० [सं० बायन] १. वह मिठाई या पकवान आदि जो लोग उत्सवादि के उपलक्ष में अपने इष्टमित्रों के यहाँ भेजते है। २. भेट। उपहार।
⋙ बायन (१)
संज्ञा पुं० [अं० बयानह्] १. मुल्य का कुछ अंश जो किसीचीज को मोल लेनेवाला उसे ले जाने या पूरा दाम तुकाने के पहले मालिक को दे देता है जिसमें बात पक्की रहे ओर वह दूसरे के हाथ न बेचे। अगाऊ। पेशगी। विशेष— व्यापारी जब किसी माल को पसंद करते हैं और उसका भाव पट जाता है तब मूल्य का कुछ अंश माल के मालिक को पहले से दे देते हैं और शेष माल ले जाने पर या अन्य किसी समय पर देते हैं। इससे माल का मालिक उस माल को किसी दूसरे के हाथ नहीं बेच सकता है। वह धन जो माल पसंद होने और दाम पटने पर उसके मालिक की दिया जाता है बयाना कहलाता है। २. मजदूरी का थोड़ा अंश जो किसी को कोई काम करने की आज्ञा के साथ इसलिये दे दिया जाता है जिसमें वह समय पर काम करने आवे, और जगह न जाय। मुहा०—बायन देना—छेड़छाड़ं करना। उ०— भले भवन अव बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा।—मानस, १। १३७।
⋙ बायब
वि० [हिं० बायवी] बाहरा। विरूद्ध। खिलाफ। उ०— संत कहैं सोइ करैं राम ना करते बायब।—पलटू० भा० १, पृ० १२।
⋙ बायबरंग
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बायबिडंग'।
⋙ बायबिडंग
संज्ञा पुं० [सं० बिड़ड्ग] एक लता जो हिमालय पर्वत, लंका और बर्गा में मिलती है। विशेष—इसमें छोटे छोटे मटर के बराबर गोल गोल फल गुच्छों में लगते हैं जो सूखने पर ओपध के काम आते हैं। ये सूखे फल देखने में कबाबचीनी की तरह लगते हैं। पर उससे अधिक हलके और पोले होते हैं। वैद्यक में इसका स्वाद चरपरा कड़वा लिखा है और इसे रूखा, गरम और हलका माना है। यह कृमिनाशक, कफ और वात की दूर करनेवाला, दीपक तथा उदररोग, प्लीहा आदी आदि में लाभकारी होता है। पर्या०—भस्मक। मोथा। कैराल। केवल। वेल्लतंडुला। घोपा, इत्यादि।
⋙ बायबिल
संज्ञा स्त्री० [अं० बाइबिल] दे० 'बाइबिल'।
⋙ बायबी
वि० [सं० वायवीय] १. बाहरी। अपरिचित। अजनबी। अज्ञात। गैर। २. नया आया हुआ। विशेष— इस देश में जितनी विदेशीय जायियाँ आई वे सबकी सब प्रायः वायव्य कोण ही से आई। अतः बायबी शब्द, जो वायवीय का अपभ्रंश है गैर, अज्ञात, अजनबी इत्कादि अर्थों में रूढ़ हो गया है।
⋙ बायब्य
संज्ञा पुं० [सं० वायव्य] दे० 'वायव्य'।
⋙ बायभिरंग पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बायविड़ंग'। उ०— अजमोदा चितकरना, पतरज, बायाभिरंग। सेंधा सोठ त्राफला, नासिहिं मारूत अंग।—इंद्रा०, पृ० १५१।
⋙ बायरा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] कुश्ती का एक पेंच।
⋙ बायरा पु (२)
अव्य० [हिं० बाहर, वायल (=खाली)] बिना। उ०— दस जूता दस जूतणा दस पाखती बहंत। हेकण धवला बायरा, खेचताणा करत।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ४५।
⋙ बायल (१)
वि० [हिं० बायाँ बायाँ] (दाँव) जो खाली न जाय। (दाँव) जो किसी का न पड़े। (जुआड़ी)। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ बायल (२)
संज्ञा पुं० [अं० वायल] झीनी बिनावट का एक प्रकार का बारिक कपड़ा।
⋙ बायलर
संज्ञा पुं० [अं०] भाप के इंजन में लोहे आदि धातु का बना हुआ बहा बड़ा कोठा जिसमें भाप तैयार करने के लिये जल भरकर गरम किया जाता है।
⋙ बायला †
वि० [हि० बाय + ला (प्रत्य०)] वायु उत्पन्न करनेवाला। वायु का दिकार बढ़ानेवाला। जैसे,— किसी को बैगन बायला किसी को बैगन पथ्य।
⋙ बायलिन
संज्ञा पुं० [अं० बायलिन] एक विशेष प्रकार का विला- य़ती तंतुवाद्य। इसे वेला या बेहला भी कहते हैं। उ०— बायलिन मुझसे बजा।— कुकुर०, पृ० ९।
⋙ बायस (१)
संज्ञा पुं० [सं० वायस] दे० 'वायस'। उ०—लघु बायस बपु धरि हरि संगा।—मानस, ७। ७५।
⋙ बायस (२)
संज्ञा पुं० [अं० बाइस] वजह। कारण। उ०—नालए रश्क न हो बायसे दरदे सरे मर्ग। गैर के सर पै लगाता है वह संदल घिस्के।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ८३।
⋙ बाय स्काउट
संज्ञा पुं० [अं०] विद्यार्थियों का एक प्रकार का सौनिक ढंग से संघटन जिसका प्रधान उद्देश्य विविध प्रकार से समाज की सेवा करना है। जैसे,— कहीं आग लगने पर तुरंत वहाँ पहुँचकर आग बुझाना, मेले ठेले और पर्वों पर यात्रियों को आराम पहुँचाना, चोर उचक्कों को गिरपतार करना। आहत या अनाथ रोगियों को यथास्थान पहुँचाना, उनके दवादारू और सेवा सुश्रुषा की समुचित व्यवस्था करना, आदि। बालचर। चमू। २. उक्त चमू या सेना का सदस्य।
⋙ बायस्कोप
संज्ञा पुं० [अं०] एक यंत्र जिसके द्वारा पदेंपर चलते- फिरते हिलते डोलते (विशेषतः मुक) चित्र दिखालाए जाते हैं। विशेष— इस यंत्र में एक छोटा सा छेद होता है जिसमें होकर सामने के पर्दें पर बिजली का प्रकाश डाला जाता है, फिर एक पतला फीता जिसे 'फिल्म' कहते हैं चरखी से उस छेद के ऊपर तेजी से फिराया जाता है। यह फीता पतला, पार- दर्शक और लचीला होता है। इसपर चित्रों की आकृति भिन्न भिन्न चेष्टा की बनी रहती है जिसके शीघ्रता से फिराए जाने से चित्र चलतेफिरते हिलते डोलते दिखलाई पड़ते है।
⋙ वायाँ
वि० [सं० वाम] [वि० स्त्री० बाई] १. किसी मनुष्य या और प्राणी के शरीर के उस पार्श्व में पड़नेवाला जोउसके पूर्वाभिमुख खडे होने पर उत्तर की ओर ही। 'दहना' का उलटा। जैसे,—बायाँ पैर, बायाँ हाथ, बाई आँख। मुहा०—बायाँ देना=(१) किनारे से निकल जाना। बचा जाना जैसे,—रास्ते में कहीं वे दिखाई भी पड़े तो बायाँ दे जाते हैं। (२) जान बूझकर छो़ड़ना। मिलते हुए का त्याग करना। उ०— बायों दियों विभव कुरुपति को भोजन जाय बिदुर धर कीन्हों।—तुलसी (शब्द०)। बायाँ पाँय पूजना=धाक मानाना। हार मानना। २. उलटा। ३. प्रतिकूल। विरुद्ध। खिलाफ। अहित में प्रवृत्त। उ०—बहुरी बंदि खलगन सति भाये। जे जिनु काज दाहिने बायें।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ बायाँ (२)
संज्ञा पुं० वह तबला जो बायँ हाथ से बजाया जाता है यह मिट्टी या ताँबे आदि धातु का होता है। इसे अकेला भी लोग ताल के लिये बजाते हैं। उ०—जहाँ तबले की थाप स बायें की गमक सुनी वहीं जा धमके।—फिसाना०, भा०, १, पृ० ४।
⋙ बायु
संज्ञा स्त्री० [सं० वायु] दे० 'वायु'।
⋙ बायेँ
क्रि० वि० [हिं० बायाँ] १. बाई ओर। २. विपरीत। विरुद्ध। मुहा०—बायें होना=(१) प्रतिकूल होना। विरुद्ध होना। (२) अप्रसन्न होना। रुष्ट होना।
⋙ बारंबार
क्रि० वि० [सं० बारम्वार] बार बार। पुनः पुनः। लगातार।
⋙ बार (१)
संज्ञा पुं० [सं० वार] १. द्वार। दरवाजा। उ०—(क) अकिल बिहूना आदमी जानैं नहीं गँवार। जैसे कपि परबस परयो नाचै घर घर बार।—कबीर (शब्द०)। (ख) सुवर सेन चहुआन सिंग जबुदून नवाई। जनु मदिर बिय बार ढंकि इक बार बनाई।—पृ० रा०, ३५। ४७४। (ग) गोपिन के अँसुवन भरी सदा असोस अपार। डगर डगर ने ह्वै रही बगर बगर भरी के बार।—बिहारी (शब्द०)। यौ०— दरबार। २. आश्रयस्थान। ठिकाना। उ०— रहा समाइ रूप वह नाऊँ। और न मिलै बार जहँ जाऊँ।—जायसी (शब्द०)। ३. दरबार।
⋙ बार (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वार] १. काल। समय। उ०— (क) कबिरा पूजा साहु की तू जनि करै खुआर। खरी। बिगूचनि होयगी लेखा देती बार।—कबीर (शब्द०)। (ख) सिर लंगूर लपेटि पछारा। निज तन प्रगटेसि मरती बारा।— तुलसी (शब्द०)। (ग) इक भीजे चहले परे बूड़ै बहे हजार। कितने औगुन जग करत नय बय चढ़ती बार।—बिहारी (शब्द०)। २. अतिकाल। देर। विलंब। बेर। उ०—(क) निधड़क बैठा राम बिनु चेतन करों पुकार। यह तन जल का बुदबुदा बिनसत नाहीं बार।— कबीर (शब्द०)। (ख) देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी।— तुलसी (शब्द०)। (ग) अबही और की और हीत कछु लागे बारा। तातें में पाती लिखी तुम प्रान आधारा।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—लगना।—लाना।—होना। ३. समय का कोई अंश जो गिनती में एक गिना जाय। दफा। मरतवा। जैसे,— मैं तुम्हारे यहाँ तीन बार आया। उ०— (क) मरिए तों मरि जाइए छूटि परै जंजार। ऐसा मरना को मरै दिन में सौ सौ बार।— कबीर (शब्द०)। (ख) जहँ लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग। बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०— बार बार=पुनः पुनः। फिर फिर। उ०—(क) तुलसी मुदित मन पुरनारि जिती बार बार हेरै मुख अवध मृगराज को।—तुलसी (शब्द०)। (ख) फूल बिनन मिल कुज मे पहिरि गुंज को हार। मग निरखति नदलाल को सुबलि बार ही बार।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ बार (३)
संज्ञा पुं० [सं० वाट(=घेरा या किनारा हिं बाड़)] १. घेरा या रोक जो किसी स्थान के चारों ओर हो। जेसै, बाँध, टट्टी आदि। दे० 'बाड़', 'बाढ़'। २. किनारा। छोर। बारी। ३. धार। बाढ़। उ०—एक नारि वह है बहुरगी। घर से बाहर निकसे नंगी। उस नारी का यहा सिंगार। सिर पर नथनी मुँह पर बार।— रहीम (शब्द०)। ४. नाव, थाली, आदि की अवँठ। किनारा। ५. बाँगर। उँची पक्की जमीन जिसे नदियों ने न बनाया हो। उ०— मनुष्यों के विभिन्न झुंड़ों की तीन तरह की विभिन्न परिस्थितियाँ थीं—समुद्र तट, सघन वन और सूखे बागर या बार।—भारत नि०, पृ० ४।
⋙ बार (४)
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'बाला'। केश। उ०— भ्रूपर अनूप मसि बिंदु बारे बार बिलसत सीस पर हेरि हरै हियो है।—तुलसी ग्रं०, पृ० २७३।
⋙ बार (५)
संज्ञा पुं० [फा० मि० सं० भार] १. बोझा। भार। उ०— जेहि जल तृण पशु बार बूड़ि अपने सँग बोरत। तेहि जल गाजत महावीर सब तरत अँग नहिं डोलत।— सूर (शब्द०)। यौ०—बारबरदार। बारबरदारी। बारदाना। मुहा०—बार करना=जहाज पर से बोझ उतारना। (जहाजी)। २. वह माल जो नाव पर लाजा जाय। (लश०)। ३.ऋण का बोझ। ४. वृक्ष की शाखा या टहनी (को०)। ५. फल (को०)। ६. इजलास। दरबार। सभा (को०)। ७. गर्भ। भ्रूण (को०)। ८. गुजर। पहुँच। प्रवेश। रसाई। पैठ। उ०— देस देस के राजा आवहिं। ठाढ़ तँवाहि बार नहिं पाबहिं।— चित्रा०, पृ० ६०।
⋙ बार (६)
प्रत्य० [फा०] बरसनेवाला। विशेष— संज्ञा पदों में प्रयुक्त होकर यह प्रत्यय उक्त अर्थ देता है जैसे,— गोहरबार, दरियाबार आदि।
⋙ बार (७)
वि० [हिं०] दे० 'बाल' और 'बाला'।
⋙ बार † (८)
संज्ञा पुं० [सं० वारि] जल।
⋙ बार (९)
संज्ञा पुं० [सं०] छिद्र। छेद। दरार। बिल [को०]।
⋙ बार (१०)
संज्ञा पुं० [फा० बह् ह् (=अंश) या बह्(=छंद)] अंश। भाग। हिस्सा। उ०— मेच्छ मसूरति सत्ति कै बंच कुरानी बार।— पृ० रा०, २६।
⋙ बार (११)
संज्ञा पुं० [फा० वार] वार। आक्रमण। हमला। उ०— पसुन प्रहार बहु। कष्ठ तैं बचाय राख्यो बालपन बीच तोको सूलन की बार मै।— मोहन०, पृ० १३४।
⋙ बार (१२)
क्रि० वि० [सं० वहि; वाह्य] दे० 'बाहर'। उ०— मगर हैं आमिना के सात बेजार, उसे आने कते देना नहीं बार।— दक्खिनी०, पृ० १६३।
⋙ बार (१३)
संज्ञा पुं० [अं०] १. वकीलो, बैरिस्टरों का समूह, उनका पेशा और कचहरी में उनके उठने बैठने, आराम करने का स्थान। २. वह स्थान जहाँ नृत्य होता हो। नाचघर। ३. शराब- खाना। मदिरालय। यौ०— बार असोसिएशन=वकीलों का संघ। बार ऐट लाँ= बैरिस्टर। बार रूम=कटहरी में वकीलो के उठने बैठने का कमरा। बार लाइब्रेरी=कचहरी में वरीलों वैरिस्टरों का पुस्तकालय।
⋙ बार आवर
[फा०] फलयुक्त। फलदार। फलनेवाला [को०]।
⋙ बारक (१)
क्रि० वि० [हिं० बार + एक] एक बेर। एक बार। एक दफा। उ०—बारक बिलोकि बलि कीजै मोहि आपना। राम दशरथ के तू उथपन थापनो।— तुलसी ग्रं०, पृ०५४८।
⋙ बारक (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० बैरक] छावनी आदि में सैनिकों के रहने के लिये बना हुआ पक्का मकान।
⋙ बारककंत
संज्ञा पुं० [देश०] एक पौधा जो साँप काटने की औषध है। इसकी जड़ पीसकर उस स्थान पर लगाई जाती है जहाँ साँप काटता है।
⋙ बारगह
संज्ञा स्त्री० [फा० बारगाह] १. डेवढी। २. डेरा। खेमा। तबू। उ० चितौर सौंप वारगह तानी। जहँ लग सुना कूच सुलतानी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ बारगाह
संज्ञा पुं० [फा० बारगाह] खेमा। शामियाया। उ०— तंबू बरगाह छत्र मेहराब आदि खड़े किए गए।— हमायूँ०, पृ० १०९।
⋙ बारगीर
संज्ञा पुं० [फा०] १. वह जो घोड़े के लिये घास लाता ओर उसकी रक्षा आदि में साईस को सहायता देता हो। घसियारा। २. बोझा ढोनेवाला जानवर।
⋙ बारचा
संज्ञा पुं० [फा० बारचह्] १. छोटा दरवाजा। दे० 'बारचा' [को०]।
⋙ बारजा
संज्ञा पुं० [हिं० बार(=द्वार) + जा(=जगह)] १. मकान के सामने के दरवाजों के ऊपर पाटकर बढ़या हुआ बरामदा। २. कोठा। अटारी। ३. बरामदा। ४. कमरे के आगे का छोटा दालान।
⋙ बारट †
संज्ञा पुं० [देश०] भाट। बारहठ। बारठ। उ०— बारट एक स्वरूपा नामू। जाका भया अड़ाणा धामू।— राम० धर्म०, पृ० ३५७।
⋙ बारठ †
संज्ञा पुं० [हि० बार (=द्वार) + हठ] दे० 'बारट'। उ०— कहियो बारठ केहरी, बिध रचताँ करियाँम। पाऊँ बोल पँचायती, हूँ लाऊँ संगराम।—रा०, रू०, पृ० २६३।
⋙ बारडह †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बारट।
⋙ बारण
संज्ञा पुं० [सं० वारण] दे० 'वारण'।
⋙ बारता पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वार्ता] दे० 'वार्ता'।
⋙ बारातय पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० वार + तिया] दे० 'वारस्त्री'।
⋙ बारतुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० वारतुण्ढी] आल का पेड़।
⋙ बारदाना
संज्ञा पुं० [फा० वारदानह्] १. व्यापार की चीजों के रखने का बरतन। जैसे, भाँड़ा, खुरजी, थैला, थैली आदि। २. फोज के खाने पीने का सामान। रसद। ३. अंगड़ खंगड़, लोहे, लकड़ी आदि के टूटे फूटे सामान। ४. वह अस्तर जो बँधी हुई पगडी के नीचे रहता है।
⋙ बारन पु
संज्ञा पुं० [सं० वारण] दे० 'वारण' उ०— प्रघ बारन कंठीरव दारुन दुखदल विदारन गुन अपारन को सकत बिचारि।—घनानंद, पृ०४०९।
⋙ बारना (१)
क्रि० सं० [सं० वारण] निवारण करना। मना करना। रोकना। उ०— लिखि सो बात सखित सों कहीं। यही ठाँव हौं बारति रही।—जायसी (शब्द०)। (ख) चोरी कैसी बात चंद्रमा हुते चुराइत नपनलि आदि तै बयारि बारियतु है।— मति० ग्रं०, पृ० २९६।
⋙ बारना (२)
क्रि० सं० [हिं० बरना] बालना। जलाना। प्रज्वलित करना। उ०—(क) साँझ सकार दिया लै बारै। खसम छोड़ि सुमिरै लगवारे।—कबीर (शब्द०)। (ख) करि शृंगार सधन कुंजन में निसिदिन करत बिहार। नीराजन बहुबिधि बारत हैं ललितदिक ब्रजपार।— सूर (शब्द०)।
⋙ बारना (३)
क्रि० सं० [हिं०] न्योंछावर करना। दे० 'वारना'। उ०— सकल संपदा बारूँ तुम पर प्यारी चतुर सुजान।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६९९।
⋙ बारना (४)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जिसके फलों का गूदा इमारत की लेई में मिलाया जाता है। वि० दे० 'विलासी'।
⋙ बारनारि
संज्ञा स्त्री० [सं०वारनारि] वेश्या। उ०— इति विधि सदागति बास बिगलित गात, मिसिर की शीभा किधों बारनारि नागरी।— केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १३८।
⋙ बारनिश
संज्ञा स्त्री० [अं०] फैला हुआ रोगन या चमकीला रंग जैसे बारनिशदार जूता कुरसियों पर बारनिश करना। मुहा०—बारनिश करना=रोगन या चमकीला रंग चढ़ाना।
⋙ बारबँटाई
संज्ञा स्त्री० [फा० बार (=बोझ)+हि० बाँटना] वह विभाग जो फसल को दाने के पहले किया जाय। बोझ बँटाई।
⋙ बारबधू पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वारवधू] वेश्या। उ०—(क) नाम अजामिल से खल तारन तारन बारन बारबधू को।— तुलसी (शब्द०)। (ख) कहुँ गोदान करत कहुँ देखे कहुँ कछु सुनत पुरान। कहुँ नर्तत सब बारबधू औ कहुँ गँधरब गुनगान।— सूर (शब्द०)। (ग) जनु अति नील अलकिया बसी लाइ। मी मन बारबाधुआवा मीन बझाइ।— रहीम (शब्द०) ।
⋙ बारबधूटी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वारवधूटी] वेश्या। उ०— त्यों न करै करतार उवारक ज्यों चितवै वह बारबधूटी।—केशव (शब्द०)।
⋙ बारबरदार
संज्ञा पुं० [फा०] वह जो सामान आदि ढोने का काम करता हो। बोझा ढोनेवाला मजदूर।
⋙ बारबरदारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. सामग्री आदि ढोने की क्रिया। सामन ढोने का काम। २. सामान ढोने की मजदूरी।
⋙ बारबर्दार
संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'बारबारदार'। उ०— एक प्यादे को सवारे और बारबर्दार ठीक करने को भेज दिया।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५३।
⋙ बारबिलासिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वारविलासिनी] दे० 'वार- विलासिनी'। उ०— बारबिलासिनि को बिसरै न बिदेस गयौ पिय प्रानपियारी।— मति० ग्रं०, पृ० २०७।
⋙ बारबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० वालबुद्धि] लड़कपन का ज्ञान। बाल्या- वस्था का बोध। उ०— बारबुद्धि वारनि के साथ हो बढ़ी है बीर, कुचनि के साथ ही सकुच उर आई है।— केशव ग्रं० भा० १, पृ० १७९।
⋙ बारमा पु
वि० [हिं० वारह] दे० 'बारहवा'। उ०—बारमैं सूर सो करन रंग। अनमी नमाइ तिन करै भंग।—पृ० रा०, १। ७०१।
⋙ बारमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं० वारमुख्या] वेश्या। उ० (क) बार मुखी लई संग मानी वाही रंग रँगे जानी यह बात करी उर अति भीर की।— प्रियादास (शब्द०)। (ख) बारमुखी मुनिवर विलोकि कै करत चली कल गानै।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ बारयाब (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. नमस्कार। सलाम। उ— बारयाब कर चाली सने ज साह ही।—नट०, पृ० १६६।
⋙ बारयाब (२)
वि० पहुँचनेवाला। आनेवाला। आगंतुक।
⋙ बारयाबी
संज्ञा स्त्री० [फा०] प्रवेश। आगमन। पहुँच [को०]।
⋙ बारली
वि० [हिं० बार (=बाहर) + ली (प्रत्य०)] बाहरी। बाहर की।— वी० रासो०, पृ० ५।
⋙ बारवा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक रागिनी जिसे कुछ लोग श्रीराग की पुत्रवधू मानते है।
⋙ बारस † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वादश, प्रा०, बारस] दे० 'द्वादशी'। उ०— नया ऊगा चाँद बारस का लजीली चाँदनी लंबी।— इत्यलम्, पृ० २१९।
⋙ बारस (२)
वि० दे० 'बारह'। उ०— बारस मास जहाँ चौमासौ। हित किसान कें कहुँ न साँसौ।— घनानंद० पृ० २८७।
⋙ बारह (१)
वि० [सं० द्वादश, प्रा० बारस, अप० बारह] [वि० बारहवा] जो संख्या में दस और दा हो। उ०— जहँ बारह मास बसंत होय। परमारथ बूझँ बिरला कोय।— कबीर (शब्द०)। मुहा०— बारह पानी का=बारह बरस का सूअर। बारह बच्चे वाली=सूअरी। वारह बाट=इधर उधर। उ०— बारहबटै बहत हैं, दरिया जगत औ भेष। तू बहता सँग मत बहै रहता साहब देख।— दरिया०, बानी०, पृ० ३२। बारह बाठ करना= तितर बितर या छिन्न भिन्न करना। इधर उधर कर देना। बारह बाट घालना=छिन्न भिन्न करना। तितर बितर या नष्ट भ्रष्ट करना। उ०— मोहि लगि यह कुठाट तेनि ठाटा। घालोसि सब जग बारहबाटा।—तुलसी (शब्द०)। बारह बाट जाना=(१) तितर बितर होना। छिन्न भिन्न होना। उ०— मन बदले भवसिंधु ते बहुत लगाए घाट। मनही के घाले गए वहि घर बारहबाट।— रसनिधि (शब्द०)। (२) नष्ट भ्रष्ट होना। उ०— (क) लंक असुभ चलति हाट बाट घर घाट। रावन सहित समाज अब जाइहि बारहबाट।—तुलसी (शब्द०)। (ख) राज करत बिनु काजहीं ठटहीं जे ठाट कुठाट। तुलसी ते कुरुराज ज्यों जैहैं बारहबट।—तुलसी (शब्द०)। बारह बाट होना=तितर बितर होना। नष्ट होना। उ०—प्रथम एक जे हौं किया भया सो वारहबाट। कसत कसौटी ना टिका पीतर भया निराट।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बारह (२)
संज्ञा पुं० १. बारह की संख्या। २. बारह का अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—१२।
⋙ बारह आना
संज्ञा पुं० [हिं०] तीन चोथाई। पचहत्तर प्रतिशत। उ०— हमारे आनंद बारह आने क्लेश ही हो जायँ तो क्या ?—चिंतामणि, भा० २, पृ० ५०।
⋙ बारहखड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वादश + अक्षरी, हिं० वारह + खड़ी] वर्णामाला का वह अंश जिसमें प्रत्येक व्यंजन में अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः इन बारह स्वरों को, मात्रा के रूप में लगाकार बोलते या लिखते हैं।
⋙ बारहदरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बारह + फा० दर(=दरवाजा)] चारों ओर से खुली और हवादार वह बैठक जिसमें बारह द्वार हों। उ०— बारहदरीन बीच चारहू तरफ जैसी बरफ बिछाय तापै सीतल सुपाटी है।— पद्माकर (शब्द०)। विशेष— बारह दरवाजों से कम की बैठक भी यदि चारों ओर से खुली और हवादार हो तो वारहदरी कहलाती है। इसमें अधिकतर खभे होते है, दरवाजे नहीं होते।
⋙ बारहपत्थर
संज्ञा पुं० [हिं० बारह + पत्थर] १. वह पत्थर जो छावनी की सरहद पर गाड़ा जाता है। सीमा। २. छावनी। मुहा०— बारहपत्थर बाहर करना=निकालना। सीमा बाहर करना।
⋙ बारहबान
संज्ञा पुं० [सं० द्वादशवर्ण] एक प्रकार का सोना जो बहुत अच्छा होता है। बारहबानी का सोना।
⋙ बारहबाना
वि० [सं० द्वादशवर्ण] १. सूर्य के समान दमकवाला। २. खरा। चोखा (सोने के लिये)। उ०— सूरदास प्रभु हम हैं खोटी तुम तो बारहबाने हो।— सूर (शब्द०)। विशेष— दे० 'बारहबानी'।
⋙ बारहबानी (१)
वि० [सं० द्वादश (आदित्य) + वर्ण, पा०, बारस वण्ण] १. सूर्य के समान दमकवाला। २. खरा। चोखा (सोने के लिये)। उ०—(क) सोहत लोह परसि पारस ज्यों सुबरन बारहबानि।—सूर (शब्द०)। (ख) सिंघल दीपमहँ जेती रानी। तिन्ह महँ दीपक बारहबानी।—जायसी (शब्द०)। ३. निर्दोप। सच्चा। जिसमें कोई बुराई न हो। पापरहित। ४. जिसमें कुछ कसर न हो। पूरा। पूर्ण। पक्का। उ०— है वह गुन बारहबानी। ए सखि। साजन, ना साखि, पानी।— खुसरी (शब्द०)।
⋙ बारहबानी (२)
संज्ञा स्त्री० सूर्य की सी दमक। चोखी चमक। जैसे, बारहबानी का सोना।
⋙ बारहमासा
संज्ञा पुं० [हिं० बारह + मास] [स्त्री० बारहमासी] वह पद्य या गीत जिसमें बारह महीनों की प्राकृतिक विशेष- ताओँ का वर्णन किसी विरहिणी के मुख से कराया गाया हो। उ०— गाती बारहमासी, सावन ओर कजलियाँ।— अपरा, पृ० १९४।
⋙ बारहमासी
वि० [हि० बारह + मास] १. जिसमें बारहो महीनों में फल, फूल लगा करते हों। सब ऋतुओँ में फलने, फूलनेवाला। सदाबहार। सदाफल। जैसे, बारहमासी। आम, बारहमासी गुलाब। २. बारही महीने होनेवाला। उ०— उ०— कुबाजा कान्ह दोउ मिलि खेलै बारहमासी फाग।— सूर (शब्द०)।
⋙ बारह मुकाम
संज्ञा पुं० [फा०] ईरानी संगीत के १२ स्थान या पदें।
⋙ बारहवफात
संज्ञा स्त्री० [हिं० बारह + अ० वफात] अरबी महीने 'रबी उल अव्वल' की वे बारह तिथियाँ जिनमें मुसलमानों के विश्वास के अनुसार, मुहम्मद साहू बीमार होकर मरे थे।
⋙ बारहवाँ
वि० [हिं० बारह] [वि० स्त्री० बारहवीं] जो स्थान में ग्यारहवें के बाद हो। जैसे,— बारहवाँ दिन, बारहवीं, तिथि, बारहवाँ महीना इत्यादि।
⋙ बारहसिंगा
संज्ञा पुं० [हिं० बारह + सींग] हिरन की जाति का एक पशु जो तीन चार फुट उँचा और सात आठ फुट लंबा होता है। विशेष— इस पशु जाति के नर के सींगों में कई शाखाएँ निकलती हैं, से बारबसिंगा नाम पड़ा। और चौपायों के सींगों के समान, इसके सींगों पर कड़ा आवरण नहीं होता, कोमल चमड़ा होता है जिसपर नरम महीन रोएँ होते हैं। इसके सींग का आवरण प्रति बर्ष फागुन चैत में उतरता है। आवरण उतरने पर सीग में से एक नई शाखा का अंकुर दिखाई पड़ता है। इस प्रकार हर साल एक नई शाखा का अंकुर दिखाई पड़ता है और हर साल एक नई शाखा निकलती है जो कुआर से कार्तिक तक पूरी बढ़ जाती है। मादा, जिसे सींग नहीं होते, चैत वैशाख में बच्चा देती है।
⋙ बारहाँ
वि० [हिं० बारह] १. दे० 'बारहवाँ'। २. श्रेष्ठ। बड़ा। (व्यंग्य में)।
⋙ बारहा (१)
क्रि० वि० [फा० बार + हा (प्रत्य०)] अनेक बार। कई बार। अक्सर। जैसे,—मैं बारहा उनके यहाँ गया, पर वे नहीं मिले। उ०—प्यार तो हम किया करेंगे ही। बारहा क्यों न जाय दिल फेरा।—चोखे०, पृ० ६४।
⋙ बारहा † (२)
संज्ञा पुं० [फा० बार (=महान्) + हिं० हा (प्रत्य०)] ताकतवर। बहादुर। वीर।
⋙ बारहीँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० बारहाँ] बच्चे के जन्म से बारहवाँ दिन जिसमें उत्सव आदि किया जाता है। बरही। उ०— छठी बारहीं लोक वेद विधि करि सुबिधान विधानी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बारहोँ
संज्ञा पुं० [हिं० बारह] १. किसी मनुष्य के मरने के दिन से बारहवाँ दिन। बारहवाँ। द्बादशाह। २. कन्या या पुत्र के जन्म से बारहवाँ दिन। बरही। विशेष— इस दिन कुल व्यवहार के अनुसार अनेक प्रकार की पूजा होती है। बहुतों के यहाँ इसी दिन नामकरण भी होता है। इसे बरही भी कहते है।
⋙ बारा (१)
वि० [सं० बाल] बालक। जो सयाना न हो। जिसकी बाल्यावस्था हो। यौ०—नन्हाबारा। मुहा०—बारे तें, बारेहि ते=जब बालक रहा हो तभी से। बचपन से। बाल्यावस्था से। उ०— (क) परम चतुर जिन कीन्हें मोहेन अल्प बैस हो थोरी। बारे तें जिन जहँ पढ़ायों बुधि, बल, कल, बिधि चोरी।—सूर (शब्द०)। (ख) बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी। तुलसी (शब्द०)।
⋙ बारा (२)
संज्ञा पुं० [सं० बालक] बालक। लड़क। उ०— रोवत माय न बहुरै बारा।— जायसी ग्रं०, पृ० ५५।
⋙ बारा (३)
संज्ञा पुं० [फा० बालह्(=ऊँचा) लोहे की कँगनी जो बेलन के सिरे पर लगाई जाती है और जिसके फिरने से बेलन फिरता है।
⋙ बारा (४)
संज्ञा पुं० [हिं० बार] वह दूध जो चरवाहा चौपाए को चराने के बदले में आठवें दिन पाता है।
⋙ बारा (५)
संज्ञा पुं० [देश०; अथवा सं० बार, प्रा० बार(=द्वार अर्थात् कूपमुख] १. एक गीत जिसे कुएँ से मोट खींचते समय गाते हैं। २. वह आदमी जो कुएँ पर खड़ा होकर भरकर निकले हुए चरसे या मोट का पानी उलटकर गिराता है। ३. जंतरे से तार खींचने का काम।
⋙ बारा (६)
संज्ञा पुं० [हिं० बारह] दे० 'बारह'। उ०— (क) वारा कला, सोषै, सोला बला पोषै।— गोरख०, पृ० ३१। (ख) बारा मते काल ने कीन्हा। आदि अंत फाँसी जिव दीन्हा।—घट०, पृ० २१२। यौ०— बाराकला=बारह कलाओंवाला—सूर्य।
⋙ बारा (७)
संज्ञा पुं० [फा० बाररः, बारह्] १. बार। बेला। उ०— भूत भविष्य कौं जाननिहारा। कहतु है बन सुभ गवन की बारा। नंद० ग्रं० पृ० १५६। २. विषय। संबंध। मामला। ३. परकोटा। घेरा। हाता (को०)।
⋙ बारा (८)
संज्ञा स्त्री० [फा० बारन्, बाराँ] १. बर्षा। बरसात। वृष्टि। उ०— जहे तिस फैल का बारा भया है। जमीन होर आसमान सब भर रह्या है।— दक्खिनी०, पृ० १५४। २. वर्षा का जल। ३. वर्षा का मौसम। वर्षा ऋतु (को०)। यौ०—बारागीर=सायबान। छज्जा। बारादीदा=अनुभवी। तदुर्बेंकार। बाराबार=अधिक बर्षावाला देश ।
⋙ बारात
संज्ञा स्त्री० [सं० वरयात्रा, प्रा० बरयत्ता] १. किसी के विवाह में उसके घर के लोगों, संबंधियों, इष्टमित्रों का मिलकर बधू के घर जाना। २. वह समाज जो वर के साथ उसे ब्याहने के लिये सजकर बधू के जाता है। क्रि० प्र०—निकलना।—सजना। मुहा०—बारात उठना=बारान का प्रस्थान करना। बारात बिदा होना=(१) कन्या के पिता के घर से बारात का प्रस्थान होना। (२) निधन होना। मर जाना। (३) शान शोकत समाप्त होना।
⋙ बाराती
संज्ञा पुं०, वि० [हिं०] दे० 'बराती'।
⋙ बारादरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बारहदरी'।
⋙ बारानसी
संज्ञा स्त्री० [सं० वाराणासी] दे० 'वाराणासी'। उ०— ससी सम जसी, असी बरना में बसी, पाप खसी हेतु असी, ऐसी लती बारानसी है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१।
⋙ बारानी (१)
वि० [फा० बारान् + ई(प्रत्य०)] बरसाती।
⋙ बारानी (२)
संज्ञा स्त्री० १. वह भूमि जिसमें केवल बरसात के पानी के फसल उत्पन्न होती है और सींचने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। २. वह फसल जो बरसात के पानी से, बिना सिंचाई किए उप्तन्न होती हो। ३. वह कपड़ जो पानी से बचने के लिये बरसात में पहना या ओढ़ा जाता हो। यह ऊन को जमाकर या सूती कपड़े पर मोम आदि लपेटकर बनाया जाता है। बरसाती कोट।
⋙ बारामीटर
संज्ञा पुं० [अं० बैरोमीटर] दे० 'बैरोमीटर'।
⋙ बाराह पु
संज्ञा पुं० [सं० वाराह] दे० 'वाराह'। उ०— करि बिरूप बाराह पुरनि पुर अविगत खिल्लिय।—पृ० रा०, २। १५३। यौ०—बारहकंद=वाराहीकंद।
⋙ बाराही
संज्ञा स्त्री० [सं० वाराही] दे० 'वाराही'।
⋙ बारहीकंद
संज्ञा स्त्री० [सं० वाराहीकन्द] दे० 'वाराहीकंद'।
⋙ बारि पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वारी] दे० 'वारि'।
⋙ बारि (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बारी'।
⋙ बारिक
संज्ञा पुं० [अं० बारक] ऐसे बँगलों या मकानों की श्रेणी या समूह जिनमें फोज के सिपाही रहते है। छावनी।
⋙ बारिक मास्टर
संज्ञा पुं० [अं०] वह प्रधान कर्मचारी जो बारिक की देखभाल या प्रबंध करता हो।
⋙ बारिगर पु
संज्ञा पुं० [हिं० बारी + गर] हथियारों पर बाढ़ रखनेवाला। सिकलीगर। उ०— मदन बारिगर तुव दृगन धरी बाढ़ जो मित्त। याके हेरत जात है कटि कटि नेही चित्त।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ बारिगह
संज्ञा स्त्री० [फा० बारगह, बारगाह] शाही खेमा।
⋙ बारिचर
संज्ञा पुं० [सं० बारिचर] जल के जंतु—मछली। दे० 'बारिचर'।
⋙ बारिचर केतु
संज्ञा पुं० [सं० वारिचर (=मछली) +केतु (पताका)] मीनकेतु। कामदेव। झषकेतु। उ०—कोपेउ जबहिं बारि- चरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुतिसेतू।—मानस, १। ८४।
⋙ बारिज पु
संज्ञा पुं० [सं० वारिज] दे० 'वारिज'। उ०—बारिज लोचन मोचन बारी।—मानस, २। ३१६।
⋙ बारिद
संज्ञा पुं० [सं० वारिद] दे० 'वारिद'। यौ०—बारिदनाद=मेघनाद। उ०—बारिदनाद जेठ सुत तामू।—मानस, १।
⋙ बारिधर
संज्ञा पुं० [सं० वारिधर] १. बादल। वारिद। मेघ। उ०— हृदय हरिनख अति विराजत छवि न बरनी जाइ। मनो बालक बारिधर नवचद लई छपाइ।—सूर (शब्द०)। २. एक वर्णवृत जिसके प्रत्येक चरण में रगण, नगण ओर दो भगण होते हैं। इसे केशवदास ने माना है। जैस,—राजपुत्र इक बात सुनी पुनी। रामचंद्र मन माँहि कही गुनि। राति दीह जमराज जनी जनु। जातनानि तन जातन कैं भनु।—केशव (शब्द०)।
⋙ बारिधि
संज्ञा पुं० [सं वारिधि] दे० 'वारिधि'।
⋙ बारिबाह
संज्ञा पुं० [सं० वारी + वाह] बादल। उ०—पौन बारिवाह पर, संभु रतिनाह पर ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज है।—भूषण ग्रं०, पृ० ३७।
⋙ बारिश
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. वर्षा। वृष्टि। २. वर्षा ऋतु।
⋙ बारिस
संज्ञा स्त्री० [फा० बारिश] वर्षा। उ०—बारिस बसिल बीसवधारा धरि जलधर कोपि।—विद्यापति, पृ० २५७।
⋙ बारिस्टर
संज्ञा पुं० [अ० बैरिस्टर] वह वकील जिसने विलायत में रहकर कानून की परीक्षा पास की हो। विशेष—ऐसे वकील दीवानी, फौजदारी और माल आदि की सारी छोटी बड़ी अदालतों में वादी प्रतिवादी की ओर से मामलों और मुकदमों में पैरवी, बहस तथा अन्य कारंवाइयाँ कर सकते हैं। ऐसे वकीलों के लिये वकालतनामे या मुख्तारनामे की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
⋙ बारिस्टरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बारिस्टर] बैरिस्टरा का काम। वकालत।
⋙ बारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अवार] १. किनारा। तट। उ०—जियत न नाई नार चातक घन तजि दूसरेहि। सुरसरिहू की बारि मरत न माँगेउ अरध जल।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—बारी रहो=किनारे होकर चलो। बचकर चलो। विशेष—पालकी के आगेवाले कहार काँटे आदि चुभने पर 'बारी रहो' कहते हैं जिससे पीछे का वाहक उसे बचाकर आवे।२. वह स्थान जहाँ किसी वस्तु के विस्तार का अंत हुआ हो। किसी लंबाई चौड़ाईवाली वस्तु का बिलकुल छोर पर का भाग। हाशिया। ३. बगीचे, खेत आदि के चारों ओर रोक के लिये बनाया हुआ घेरा। बाड़ा। ४. किसी बरतन के मुँह का घेरा या छिछले बरतन के चारों ओर रोक के लिये उठा हुआ घेरा या किनारा। औंठ। जैसे, थाली की बारी, लोटे की बारी। ५. धार। बाढ़। पैनी वस्तु का किनारा।
⋙ बारी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाटी, वाटिका (=बगीचा, घेरा घर)] १. पेड़ों का समूह या वह स्थान जहाँ से पेड़ लगाए गए हों। बगीचा। जैसे, आम की बारी। उ०—(क) सरग पताल भूमि लै बारी। एकै राम सकल रखवारी।—कबीर (शब्द०)। (ख) जरि तुमहरि चह सवति उखारी। रूँधहुँ करि उपाय बर बारी।—तुलसी (शब्द०)। (ग) लग्यो सुमन है सुफल तह आतप रोस निवारि। बारी बारी आपनी सींच सुहृदता वारि।—बिहारी (शब्द०)। २. मेंड़ से घिरा स्थान। क्यारी। उ०—गेंदा गुलदावदी गुलाब आबदार चारु चंपक चमेलिन की न्यारी करी बारी मैं।— व्यंग्यार्थ०, पृ० ३७। ३. घर। मकान। दे० 'बाड़ी'। ४. खिड़की। झरोखा। ५. जहाजों के ठहरने का स्थान। बंदरगाह। ६. रास्ते में पड़े हुए काँटे, झाड़ इत्यादि। (पालकी के कहार)।
⋙ बारी (३)
संज्ञा पुं० [स्त्री० बारिन, बारिनी पु] एक जाति जो अब पत्तल, दोने बनाकर ब्याह, शादी आदि में देती है और सेवा करती है। पहले इस जाति के लोग बगीचा लगाने और उनकी रखवाली आदि का काम करते थे इससे कामकाज में पत्तल बनाना उन्हीं के सुपुर्द रहता था। उ०—नाऊ बारी, भाट, नट राम निछावरि पाइ। मुदित असीसहिं नाइ सिर हरष न हृदय समाइ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) लिए बारिन पत्रावली जात मुसकाती।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १७।
⋙ बारी (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बार] बहुत बातों में से एक एक बात के लिये समय का कोई नियत अंश जो पूर्वापर क्रम के अनुसार हो। आगे पीछे के सिलसिले के मुताबिक आनेवाला मौका। अवसर। ओसरी। पारी। जैसे,—अभी दो आदमियों के पीछे तुम्हारी बारी आएगी। उ०—(क) धरी सो बैठि गनइ धरियारी। पहर पहर सो आपनि बारी।—जायसी (शब्द०)। (ख) काहू पै दुःख सदा न रह्यो, न रह्यो सुख काहू के नित्त अगारी। चक्रनिमी सम दोउ फिरै तर ऊपर आपनि आपनि बारी।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। मुहा०—बारी बारी से=कालक्रम में एक के पीछे एक इस रीति से। समय के नियत अंतर पर। जैसे,—सब लोग एक साथ मत आओ, बारी बारी से आओ। बारी बँधना=आगे पीछे के क्रम से एक एक बात के लिये अलग अलग समय नियत होना। उ०—तीनहु लोकन की तरुनीन की बारी बँधी हुती दंड दुहू की।—केशव (शब्द०)। बारी बाँधना=एक एक बात के लिये परस्पर आगे पीछे समय नियत करना।
⋙ बारी (५)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बारा (=छोटा)] १. लड़की। कन्या। वह जो सयानी न हो। २. थोड़े वयस की स्त्री। नवयौवना। उ—बुढ़िया हँस कह मैं नितहि बारि। मोहिँ अस तरुनी कहु कौन नारि ?—कबीर (शब्द०)।
⋙ बारी (६)
वि० स्त्री० थोड़ी अवस्था की। जो सयानी न हो। उ०—बारी वधू मुरझानी बिलोकि, जिठानी करै उपचार कितै कौ।— पद्माकर (शब्द०)।
⋙ बारी † (७)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बाली'।
⋙ बारीक
वि० [फा० बारीक] [संज्ञा बारीकी] १. जो मोटाई या घेरे में इतना कम हो की छूने से हाथ में कुछ मालूम न हो। महीन। पतला। जैसे, बारीक तार या तागा, बारीक कपड़ा। २. बहुत ही छोटा। सूक्ष्म। जैसे, बारीक अक्षर। ३. जिसके अणु बहुत ही छोटे या सूक्ष्म हों। जैसे,—(क) बारीक आटा। (ख) इस दवा को खूब बारीक पीसकर लाओ। ४. जिसकी रचना में दृष्टि की सूक्ष्मता और कला की निपुणता प्रकट हो। जैसे,—उस मंदिर में पत्थर पर बहुत बारीक काम बना है। ५. जिसे समझने के लिये सूक्ष्म बुद्धि आवश्यक हो। जो बिना अच्छी तरह ध्यान सोचे समझ में न आए। जैसे, बारीक बात।
⋙ बारीका
संज्ञा पुं [फा० बारीक] बालों की वह महीन कलम जिससे चित्रकारी में पतली पतली रेखाएँ खींची जाती हैं।
⋙ बारीकी
संज्ञा स्त्री० [फा० बारीक + ई] १. महीनपन। पतलापन। २. साधारण दृष्टि से न समझ में आनेवाला गुण या विशेषता। खूबी। जैसे, मजमून की बारीकी। मुहा०—बारीकी निकालना=ऐसा बात निकालना जो साधारण दृष्टि से देखने पर समझ में न आ सकी। सूक्ष्म उद् भवना करना।
⋙ बारीखाना
संज्ञा पुं० [हिं० बरी + फा० खानह्] नील के कारखाने में वह स्थान जहाँ नील की बरी या टिकिया सुखाई जाती है।
⋙ बारीस पु
संज्ञा पुं० [सं० बारीश] समुद्र। दे० 'बारिश'। उ०— बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।— मानस, ६। १०।
⋙ बारुका
संज्ञा स्त्री० [सं० बालुका] बालू। रेन। उ०—नेह नवोढ़ा नारि कौ वारि बारुका न्याय। खलराए पै पाइए नीपीड़े न रसाय।—नंद० ग्रं०, पृ० १४१।
⋙ बारुणी
संज्ञा पुं० [सं० बारुणी] पश्चिम दिशा। उ०—जहाँ बारुणी की करी, रंचक रुचि द्विजराज। तहीं कियो भागवत बिन, संपति शोभा साज।—राम चं०, पृ० १०।
⋙ बारुनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वारुणी] १. दे० 'वारुणी'। २. हाथी की गति। गयत गति। मस्तानी चाल। ३. मदिरा। सुरा। ४. पश्चिम दिशा। उ०—गजपति कहिए बारुनी,सुरा बारुनी नाउँ। पश्चिम दिसि पुनि बारुनी, बरुन बसैं जोहीं गाँउ।—अनेकार्थ०, पृ० १४६।
⋙ बारू †पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बालू'। उ०—बारू भीत बनाई रचि पचि रहत नहीं दिन चार। तैसे ही यहि सुख माया के उरझयो कहा गँवार ?—तेगबहादुर (शब्द०)।
⋙ बारूत †पु
संज्ञा स्त्री० [तु०] दे० 'बारूद'।
⋙ बारूद (२)
संज्ञा स्त्री० [तु०] एक प्रकार का चर्ण या बुकनी जो गंधक, शोरे ओर कोयले को एक में पीसकर बनती है और आग पाकर भक से उड़ जाती है। तोप बंदूक इसी से चलती है। दारू। विशेष—ऐसा पता चलता है कि इसका प्रयोग भारतवर्ष और चीन में बंदूक आदि अगन्यस्त्र और तमाशे में बहुत पुराने जमाने से किया जाता था। अशोक के शिलालाखों में 'अग्गिखंध' या या अग्निस्कंध शब्द तमाशे (आतशबाजी) के लिये आया है, पर इस बात का पता आजतक नहीं लगा है कि सबसे पहले इसका आविष्कार कहाँ, कब और किसने किया है। इसका प्रचार युरोप में चौदहवीं शताब्दी में मूर (अरब) के लोगों ने किया और सोलहवीं शताब्दी तक इसका प्रयोग केवल बंदूकों को चलाने में होता रहा। आजकल अनेक प्रकार की बारूदें मोटी, महीन, सम, विषम रवे की बनती हैं। उसके संयोजक द्रव्यों की मात्रा निश्चित नहीं है। देश देश में प्रयोजनानुसार अंतर रहता है पर साधारण रीति से बारूद बनाने में प्रति सेकड़ ७५ से ७८ अंश तक शोरा, १० या १२ अंश तक गंधक और १२ से १५ अंश तक कोयला पड़ता है। ये तीनों पदार्थ अच्छी तरह पीस छानकर एक में मिलाए जाते हैं। फिर तारपीन का तेल या स्पिरिट डालकर चूर्ण को भलीभाँति मलना पड़ता है। इसके पीछे उसे धूप से सुखाते हैं। तमाशे की बारुद में कोयले की मात्रा अधिक डाली जाती है। कभी कभी लोहचुन भी फूल अच्छे बँधने के लिये डालते हैं। भारतवर्ष में अब बारुद बंदूक के काम की कम बनती है, प्रायः तमाशे की ही बारूद बनाई जाती है। मुहा०—गोली बारूद= (१) लड़ाई की सामग्री। युद्ध का सामान। (२) सामग्री। आयोजन।
⋙ बारूद (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का धान।
⋙ बारूदखाना
संज्ञा पुं० [हिं० बारूद+फा० खानह्] वह स्थान जहाँ गोला बारूद आदि लड़ाई का सामान रहता है।
⋙ बारूदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बालूदानी'।
⋙ बारे
क्रि० वि० [फा०] १. अंत को। आखिरकार। उ०—आने न दिया बारे गुनह ने पैदल। तावूत में काँधों पै सवार आया हूँ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५९। २. खैर। अस्तु। जैसे,—वारे जो हुआ, भला हुआ।
⋙ बारे में
अव्य० [फा० बारह् + हिं० में] प्रसंग में। विषय में। संबंध में। जैसे,—मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।
⋙ बारै पु
वि०, संज्ञा पुं० [हिं० बारह] बारह। उ०—बारै अरु द्वै बरश परि सुदि अषाढ़ सनि सोइ।—ह० रासो, पृ० ७६।
⋙ बारोंबार पु †
क्रि० वि० [सं० वारम्वार] दे० 'बारबार'। उ०— राम को नाम जो लेब बारोंबार। त्याके पाऊँ मेरे नन की पैजार।—दक्खिनी०, पृ० १०१।
⋙ बारोठा
संज्ञा पुं० [सं० द्वार+रथ (प्रत्य०)] १. वह रस्म जो विवाह के समय वर के द्वार पर आने के समय की जाती है। २. द्वार। दरवाजा। उ०—बारोठे को चार करि कहि केशव अनुरूप। द्विज दूलह पहिराइयो पहिराए सब भूप।—केशव (शब्द०)।
⋙ बारोमीटर
संज्ञा पुं० [अं० बैरोमीटर] दे० 'बैरोमीठर'।
⋙ बार्जा
संज्ञा पुं० [फा० बारजह् या अं० बाज (=हाउसबोट)] दे० 'बारजा'। उ०—जालपा भी सँभलकर बाजें पर खड़ी हो गई।—गबन, पृ० ३५२।
⋙ बार्डर
संज्ञा पुं० [अं०] किसी चीज के किनारों पर बना हुआ बेल बूटा। हाशिया। किनारा।
⋙ बार्बर (१)
वि० [सं०] बर्बर देश का। बर्बर देशोत्पन्न।
⋙ बार्बर (२)
संज्ञा पुं० [फा० बार (=हुँच)+बर (बाला)] वजीर। सलाहकार। उ०—तारीखे फिरोजशाही से जान पड़ता है कि सुलतान तुगलकशाह (गयासुद्दीन) ने गद्दी पर बैठते ही अपने भतीजे असदुद्दीन को नायब बार्बर (वजीर) बनाया था।—राज०, पृ० ५०२।
⋙ बाबरीट
संज्ञा पुं० [सं०] १. आम की कोइली। आम की गुठली। २. कल्ला। कनखा। कोपल। ३. पुंश्चली या वेश्या का पुत्र। ४. टिन [को०]।
⋙ बार्ह
वि० [सं०] [वि० स्त्री० बार्ही] बर्ह अर्थात् मोरपंख का। मयूरपंख संबंधी। मोरपंख का बना हुआ [को०]।
⋙ बार्हद्रथ
संज्ञा पुं० [सं०] वृहद्रथ का पुत्र जरासंध [को०]।
⋙ बार्हस्पत (१)
वि० [सं०] वृहस्पति से संबद्ध। बृहस्पति संबंधी।
⋙ बार्हस्पत्य (२)
संज्ञा पुं० एक संवत् का नाम [को०]।
⋙ बार्हस्पत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहस्पति का एक भौतिकवादी अनुयायी। २. अग्नि। ३. बृहस्पति द्वारा रचित एक अर्थ- शास्त्र। ४. भौतिकवादी। नास्तिक।
⋙ बार्हिण
वि० [सं०] [वि० स्त्री० बार्हिणी] मयूर संबंधी [को०]।
⋙ बालंगा
संज्ञा पुं० [फा० बालिंगू] जीरे की तरह काले रंग का एक बीज जो बहुत पुष्टिकर माना जाता है और औषध के काम में आता है। इसे पानी में डालने से बहुत लासा निकलता है। तुख्मबालंगू। तूतमलंगा।
⋙ बाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० बाला] १. बालक। लड़का। वह जो सयाना नहो। वह जो जवान न हुआ हो। उ०—बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा।—मानस, १। विशेष—मनुष्य जन्मकाल से प्रायः सोलह वर्ष की अवस्था तक बाल या बालक कहा जाता है।२. वह जिसको समझ न हो। नासमझ आदमी। ३. मुक। अनेकार्थ०, पृ० १४७। ४. सुगंधवाला नामक गंध। ५. किसा पशु का बच्चा। बछेड़ा। ६. करम। हाथी का पाँचवर्षीय बच्चा (को०)। ७. नारियल (को०)। ८. दुम। ९. हाथी या घोड़े की दुम (को०)।
⋙ बाल पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बाला] दे० 'बाला'। उ०—तन मन मेटैं खेद सब तज उपाधि की चाल। सहजो साधू राम के तजै कनक और बाल।—सहजा०, पृ० १७।
⋙ बाल (३)
वि० १. जो सयाना न हो। जो पूरी बाढ़ का न पहुँचा हो। २. जिस उग या न निकल हुए थोड़ा ही दूर हो। जैसे, बालरवि।
⋙ बाल (४)
संज्ञा पुं० [सं०] सूत की सी वस्तु जो दूध पिलानेवाले जंतुओं के चमड़े का ऊपर इतनी अधिक होती है कि उनका चमड़ा ढका रहता है। लोम ओर केश। विशेष—नाखून, सीग, पर आदि के समान बाल भी कड़े पड़े हुए त्वक् के विकार ही हैं। उनमें न तौ संवेदनसूत्र होते हैं न रक्तवाहिनी नालियाँ। इसी से ऊपर से बाल को कतरने से किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। बाल का कुछ भाग त्वचा से बाहर निकला रहता है और कुछ भीतर रहता है। जिस गड्ढे में बाल की जड़ रहती है उसे रोमकूप, लोमकूप कहते हैं। बाल की जड़ का नीचे का सिरा मोटा और सफेद रंग का होता है। बाल के दो भाग होते हैं, एक तो बाहरी तह और दूसरा मध्य का सार भाग। सार भाग आड़े रेशों से बना हुआ पाया जाता है। वहाँ तक वायु का संचार होता है। मुहा०—बाल बाँका न होना=कुछ भी कष्ट या हानि न पहुँचना। पूर्ण रूप से सुरक्षित रहता। उ०—होय न बाँकी बार भक्त की जो कोउ कोटि उपाय करै।—तुलसी (शब्द०) बाल न बाँकना=बाल बाँका न होना। उ०—जेहि जिय मनहिं होय सत भारू। परै पहार न बाँके बारू।—जायसी (शब्द०)। नहाने बाल न खिसना=कुछ भी कष्ट या हानि न पहुँचना। उ०—निन उठि यही मनावति देवत न्हात खसै जनि बार।—सूर (शब्द०)। (किसी काम में) बाल पकाना= (कोई काम करते करते) बुड्ढा हो जाना। बहुत दिनों का अनुभव प्राप्त करना। जैसे,—मैंने भी पुलिस की नौकरी में ही बाल पकाए हैं। बाल बराबर=बहुत सूक्ष्म। बहुत महीन या पतला। बाल बराबर न सम्झना=कुछ भी परवा न करना। अत्यंत तुच्छ समझना। बाल बराबर फर्क होना=जरा सा भी भेद होना। सूक्ष्मतम अंतर होना। उ०—जो कह दे वही हो जाए। मजाल क्या जो बाल बराबर फर्क हो।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १४४। बाल बाल बचना=कोई आपत्ति पड़ने या हानि पहुँचने में बहुत थोड़ी कसर रह जाना। जैसे,—पत्थर आया, वह बाल बाल बच गया।
⋙ बाल (५)
संज्ञा पुं० [देश०] कुछ अनाजों के पीधों के डंठल का वह अग्र भाग जिसके चारों ओर दाने गुछे रहते हैं। जैसे, जौ, गेहूँ या ज्वार की बाल।
⋙ बाल (६)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
⋙ बाल (७)
संज्ञा पुं० [अं० बॉल] १. अँगरेजी नाच। उ०—कत्थक हो या कथकली या बल डान्स।—कुकुर०, पृ० १०। २. कंदुक। गेंद। जैसे, फुटबाल।
⋙ बालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लड़का। पुत्र। २. थोड़ी उम्र का बच्चा। शिशु। ३. अबोध व्यक्ति। अनजान आदमी। ४. हाथी का बच्चा। ५. घोड़े का बच्चा। बछेड़ा। ५. सुगंध- बाला। नेत्रबाला। ७. कंगन। ८. बाल। केश। ९. अँगूठा। १०. हाथी की दुम।
⋙ बालकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बालक का भाव। लड़कपन। उ०— अति कोमल केशव बालकता।—केशव (शब्द०)।
⋙ बालकताई
संज्ञा स्त्री [सं० बालकता + ई (प्रत्य०)] १. बाल्या- वस्था। २. लड़कपन। नासमझी। उ०—तुव प्रसाद रघुकुल कुसलाई। छमा करहु गुनि बालकताई।—रघुराजसिंह (शब्द०)।
⋙ बालकपन †
संज्ञा पुं० [सं० बालक + पन (प्रत्य०)] १. बालक होने का भाव। २. लड़कपन। नासमझी।
⋙ बालकप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केला। २. इंद्रवारुणी।
⋙ बालकबि
संज्ञा पुं० [सं० बाल (=मूढ़) + कबि] १. मूढ़ कवि। अज्ञ कवि। उ०—जो प्रवंध बुध नहिं आदरहीं। सो स्रम बादि बालकबि करहीं।—मानस, १। १४। २. वह जो बाल्यावस्था से ही कविता करे।
⋙ बालकमानी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक बहुत ही महीन कमानी जो घड़ी आदि की गति के नियंत्रण के लिये लगाई जाती है। अँगरेजी में इसे 'हेयरस्प्रिंग' अर्थत् बाल की तरह महीन स्प्रिंग कहते हैं।
⋙ बालकांड
संज्ञा पुं० [सं० बालकाण्ड] रामायण का वह भाग जिसमें रामचंद्र जी के जन्म तथा बाललीला आदि का वर्णन है।
⋙ बालका
संज्ञा पुं० [सं० बालक] एक जातिविशेष का अश्व। टाँगन। उ०—(क) जाति बालका समुद थहाए। सेतपूँछ जनु चँवर वनाए।—जायसी ग्रं०, पृ० २२८। (ख) सोरह सहस घोर असवारा। साँवकरन बालका तुखारा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३७।
⋙ बालकाल
संज्ञा पुं० [सं०] बालक होने की अवस्था। बाल्यावस्था। बचपन। शिशुता।
⋙ बालकी
संज्ञा स्त्री० [सं० बालक] कन्या। लड़की। पुत्री।
⋙ बालकीय
वि० [सं०] बच्चों से संबद्ध। बच्चों का। बालक संबंधी [को०]।
⋙ बालकृमि
संज्ञा पुं० [सं०] जूँ।
⋙ बालकृष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] उस समय के कृष्ण जिस समय वे छोटी अवस्था के थे। बाल्यावस्था के कृष्ण।
⋙ बालकेलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लड़कों का खेल। खिलवाड़। उ०—बालकेलि करता हूँ तुम्हारे साथ।—अनामिका, पृ० ९६। २. ऐसा काम जिसके करने में कुछ भी परिश्रम न पडे। बहुत ही साधारण या तुच्छ काम।
⋙ बालक्रीड़नक
संज्ञा पुं० [सं० बालक्रीड़नक] बालकों के खेलकूद की वस्तु। खिलौना [को०]।
⋙ बालक्रीड़ा
संज्ञा पुं० [सं० बालक्रीडा] वे कार्य जो छोटे छोटे बच्चे किया करने हैं। लड़कों के खेल और काम।
⋙ बालखंडी
संज्ञा पुं० [देश०] वह हाथी जिसमें कोई दोष हो।
⋙ बालखिल्य
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार ब्रह्मा के रोएँ से उत्पन्न ऋषियों का एक समूह। विशेष—इस समूह का प्रत्येक ऋषि डीलडौल में अँगूठे के बराबर है। इस समूह में साठ हजार ऋषि माने जाते हैं। ये सब के सब बडे भारी तपस्वी और उर्द्ध्वरेता हैं। ऐसा माना जाता है कि ये सभी सूर्य के आगे आगे चलते है।
⋙ बालखोरा
संज्ञा पुं० [फा० बाल + खोरह्] एक रोग जिसमें सिर के बाल झड़ जाते हैं।
⋙ बालगर्भिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पहिली बार गर्भिणी। २. वह गाय जो पहिली बार गाभिन हो [को०]।
⋙ बालगोपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाल्यावस्था के कृष्ण। २. परिवार के लड़के लड़कियाँ आदि। बाल बच्चे।
⋙ बालगोबिंद
संज्ञा पुं० [सं० बालगोविन्द] कृष्ण का बालक स्वरूप। बालकृष्ण।
⋙ बालग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] बालकों के प्राणघातक नौ ग्रह जिनके नाम ये हैं—(१) स्कंद, (२) स्कंदापस्मार, (३) शकुनी, (४) रेवती, (५) पूतना, (६) गंधपूतना, (७) शीतपूतना, (८) मुखमंडिका और (९) नैगमेय। विशेष—कहते हैं, जिस घर में देवयाग और पितृयाग आदि न हो, देवता, ब्राह्मण और अतिथि का सत्कार न हो आचार विचार आदि का ध्यान न रहता हो, उसमें इन ग्रहों में से कोई ग्रह घुसकर गुप्त रूप से बालक की हत्या कर डालता है। यद्यपि बालक पर भिन्न भिन्न ग्रहों के आक्रमण का भिन्न भिन्न परिणाम होता है, तथापि कुछ लक्षण ऐसे हैं जो सभी ग्रहों के आक्रमण के समय प्रकट होते हैं। जैसे, बच्चे का बार बार रोना, उद्विग्न होना, नाखूनों या दाँतों से अपना या दूसरे का बदन नोचना, दाँत पीसना, होंठ चबाना, भोजन न करना, दिल धड़कना, बेहोश हो जाना इत्यादि। बालग्रह का प्रकोप होते ही उनकी शांति के लिये पूजन आदि किया जाना चाहिए। साधारणतः ये कुछ विशिष्ठ रोग ही हैं जो ग्रहों के रूप में मान लिए गए हैं।
⋙ बालचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० बालचन्द्र] द्वितीया का चाँद।
⋙ बालचंद्रमा
संज्ञा पुं० [सं० बालचन्द्नमस्] दे० 'बालचंद्र'।
⋙ बालचर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वाय स्काउट'।
⋙ बालचरित
संज्ञा पुं० [सं०] बाल्यावस्था का आचरण, खेल आदि। उ०—बालचरित हरि बहु बिधि कीन्हा। अति आनंद दासन्ह कहँ दीन्हा।—मानस, १। २०३।
⋙ बालचर्य
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय।
⋙ बालचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बालचरित। २. बच्चों की देख रेख।
⋙ बालचुंबाल
संज्ञा पुं० [सं० बालचुम्बाल] मत्स्य। मछली [को०]।
⋙ बालछड़
संज्ञा स्त्री० [देश०] जटामासी।
⋙ बालज
वि० [सं०] केशनिर्मित। रोमनिर्मित। रोएँ का बना हुआ [को०]।
⋙ बालजातीय
वि० [सं०] बचपने का। बच्चों जैसा। साधारण। मूर्खतापूर्ण [को०]।
⋙ बालटी
संज्ञा स्त्री० [अं० बकेट] एक प्रकार की डोलची जिसका पैंदा चिपटा और जिसका घेरा नीचे की ओर सँकरा और ऊपर की ओर अधिक चौड़ा होता है। इसमें ऊपर की ओर उठाने के लिये एक दस्ता भी लगा रहता है।
⋙ बालटू
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बाल्टू'।
⋙ बालतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० बालतन्त्र] बालकों के लालन पालन आदि की विद्या। कौमारभृत्य। दायागिरी।
⋙ बालतनय
संज्ञा पुं० [सं०] खैर का पेड़।
⋙ बालतृण
संज्ञा पुं० [सं०] नई नई उगी हुई हरी घास [को०]।
⋙ बालतोड़
संज्ञा सं० [हिं० बाल + तोड़ना] एक प्रकार का फोड़ा जो शरीर में का कोई बाल झटके के साथ टूट जाने के कारण उस स्थान पर हो जाता है। इसमें कभी पीड़ा होती है और यह कभी कभी पक भी जाता है। बरटुट। बरतोर।
⋙ बालद †
संज्ञा पुं० [सं० बलद] बैल।
⋙ बालदलक
संज्ञा पुं० [सं०] खैर का पेड़।
⋙ बालदि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बालद + ई (प्रत्य०)] दे० 'बरदी', 'बलदी'। उ०—छाड़ि पुरानी जिद्द अजाना बालदि हाँकि सबेरियाँ बे।—रै० बानी, पृ० २७।
⋙ बालधन
संज्ञा पुं० [सं०] वह संपत्ति या धन जो नाबालिग का हो। बालक की संपत्ति [को०]।
⋙ बालधि
संज्ञा पुं० [सं०] दुम। पूँछ। उ०—कानन दलि होली रचि बनाइ। हठि तेल बसन बालधि बँधाइ।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बालधी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बालधि] पूँछ। दुम। उ०—बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल जाल मानौं लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है—तुलसी ग्रं०, पृ० १७०।
⋙ बालना
क्रि० सं० [सं० ज्वलन] १. जलाना। जैसे, आग बालना। २. रोशन करना। प्रज्वलित करना। जैसे, दीआ बालना।
⋙ बालपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. खैर का पैड़। २. जवासा।
⋙ बालपन
संज्ञा पुं० [सं० बाल + हिं० पन या पना (प्रत्य०)] १. बालक होने का भाव। २. बालक होने की अवस्था। लड़कपन। बचपन। उ०—बालपना सब खेल गवाया तरुन भया नारी बस भा रे।—कबीर० श०, पृ० २९।
⋙ बालपाश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिर के बालों में पहनने का प्राचीन काल का एक प्रकार का आभूषण।
⋙ बालपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जूही।
⋙ बालबच्चे
संज्ञा स्त्री० [सं० बाल + हिं० बच्चा] लड़के बाले। संतान। औलाद।
⋙ बालबिधवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो बाल्यावस्था ही में विधवा हो गई हो।
⋙ बालबिवाह
संज्ञा पुं० [सं०] वह विवाह जो बाल्यावस्था ही में हो। छोटी अवस्था में होनेवाला विवाह।
⋙ बालबुद्धि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बालकों की सी बुद्धि। छोटी। बुद्धि। थोड़ी अक्ल। उ०—तुम्हारी बालबुद्धि की मुष्टि; सह रहा था, कह इसे विनोद।—अभिशप्त, पृ० ४। २. अल्पज्ञान या बुद्धि।
⋙ बालबुद्धि (२)
वि० जिसकी बुद्धि बच्चों की सी हो। बहुत ही थोड़ी बुद्धिवाला। मंदबुद्धि।
⋙ बालबोध (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवनागरी लिपि।
⋙ बालबोध (२)
वि० जो बालकों की समझ में भी आ जाय। बहुत सहज।
⋙ बालब्रह्मचारी
संज्ञा पुं० [सं० बालब्रह्मचारिन्] वह जिसने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया हो। बहुत ही छोटी उम्र से ब्रह्मचर्य रखनेवाला। उ०—बालब्रह्मचारी अति कोही। विश्वबिदित छत्रिय कुल द्रोही।—मानस, १। २७२।
⋙ बालभद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का विष जिसे 'शांभव' भी कहते हैं।
⋙ बालभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. बचपन। नासमझी। २. बाल्या- वस्था। ३. चापल्य [को०]।
⋙ बालभु †
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ] वल्लभ। प्रिय। पति। उ०— अचिरे मिलत तोहि बालभु पुरत मनोरथ रे।—विद्यापति, पृ० ३५५।
⋙ बालभैषज्य
संज्ञा पुं० [सं०] रसांजन।
⋙ बालभोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह नैवेद्य जो देवताओं, विशेषतः बालकृष्ण आदि की मूर्तियों के सामने प्रातःकाल रखा जाता है। उ०—तब वा डोकरी ने नाग जी को बालभोग की महाप्रसाद अनसखड़ी तथा दूध की (सामग्री) आगे धरी।— दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ८। २. जलपान। कलेवा। नाश्ता।
⋙ बालभोज्य
संज्ञा पुं० [सं०] चना।
⋙ बालम
संज्ञा सं० पुं० [सं० वल्लभ] १. पति। स्वामी। २. प्रणयी। प्रेमी। जार।
⋙ बालमखीरा
संज्ञा पुं० [हिं० बालम + खीरा] एक प्रकार का बड़ा खीरा। इसकी तरकारी बनती है और बीज यूनाना दवा के काम में आते हैं। उ०—नारँग दारिउँ तरंज जँभीरा। औ हिंदवाना बालमखीरा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बालममत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की छोटी मछली जिसके ऊपर छिलका नहीं होता। इसका मांस पथ्य और बलकारक माना जाता है।
⋙ बालमरण
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों में प्रचलित (अज्ञों) मूर्खों की मृत्यु का ढंग या तौर तरीका जो १२ प्रकार का कहा गया है [को०]।
⋙ बालमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेणी, पेणी, कुक्कुर, रक्तसारी, प्रभुता, स्वरिता, और रजनी नाम की सात मातृकाएँ। विशेष—इनके विषय में प्रसिद्ध है कि ये बालकों को पकड़ती हैं और उन्हें रोगी बनाती हैं।
⋙ बालमाक पु
संज्ञा पुं० [सं० बल्मीक] वल्मीक। बाँबी। उ०— अहि सुरंग मनि दुत्ति देवि मंडय तंडव गति। बलमीक बिल अग्र इक्क फानि कुटिल क्रोध मति।—पृ० रा०, १७। ३०।
⋙ बालमुकुंद
संज्ञा पुं० [सं० बालमुकुन्द] १. बाल्यावस्था के श्रीकृष्ण। २. श्रीकृष्ण की शिशुकाल की वह मूर्ति जिसमें वे घुटनों के बल चलते हुए दिखाए जाते हैं।
⋙ बालमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] छोटी ओर कच्ची मूली। विशेष—वैद्यक के अनुसार यह कटु, उष्ण, तीक्ष्ण, तथा श्वास, अर्श, क्षय और नेत्र रोग आदि की नाशक, पाचक तथा बलबर्धक मानी जाती है।
⋙ बालमूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आमड़े का पेड़।
⋙ बालमृग
संज्ञा पुं० [सं०] हिरन का शिशु। मृगछोना [को०]।
⋙ बालयज्ञोपवीतक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बालोपवीत' [को०]।
⋙ बालरंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० बालरण्डा] दे० 'बालविधवा'। उ०— ट्रेजड़ी की लालसा से नायक को मार डालेंगे, और नायिका को बालरंडा बनावेंगे।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३०।
⋙ बालरवि
संज्ञा पुं० [सं०] उगता हुआ सूर्य। उषःकालीन सूर्य। उ०—पीत पुनीत मनोहर धोनी। हरति बालरबि दामिनि जोती।—मानस, १। ३२७।
⋙ बालरस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक अनुसार एक प्रकार की औषध जो पारे, गंधक और सोनामक्खी से बनाई जाती है और बालकों को पुराने ज्वर, खाँसी और शूल आदि में दी जाती है।
⋙ बालराज
संज्ञा पुं० [सं०] वैदूर्य मणि।
⋙ बालरोग
संज्ञा पुं० [सं०] बच्चों की व्याधि या रोग।
⋙ बालक्षीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बालकों के खेल। बालकों की क्रीड़ा।
⋙ बालव
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार दूसरा करण जिसमें शुभ कर्म करना वर्जित नहीं है। विशेष—कहते हैं, इस करण में जिसका जन्म होया है वह बहुत कार्यकुशल, अपने परिवार के लोगों का पालन करनेवाला, कुलशील संपन्न, उदार तथा बलवान् होता है। दे० 'करण'।
⋙ बालवत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाय का कुछ दिनों का बछड़ा। २. कबूतर। कपोत [को०]।
⋙ बालवत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] कबूतर।
⋙ बालवाह्य
संज्ञा पुं० [सं०] जवान या जंगली बकरा [को०]।
⋙ बालविधु
संज्ञा पुं० [सं०] अमावास्या के पीछे का नया चंद्रमा। शुक्ल पक्ष की द्वितीया का चंद्रमा।
⋙ बालवैधव्य
संज्ञा पुं० [सं०] बालविधवापन। बाल्यावस्था में ही विवाह के बाद विधवा हो जाना [को०]।
⋙ बालव्यजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चामर। चँवर। २. छोटा पंखा।
⋙ बालव्रत
पुं० [सं०] मंजुश्री या मंजुघोष का एक नाम।
⋙ बालसंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० बालसन्ध्या] सायंकाल की शुरुआत। गोधूलिवेला। रजनीमुख [को०]।
⋙ बालसखा
संज्ञा पुं० [सं०] बाल्यावस्था का मित्र। लँगोटिया दोस्त। उ०—बालसखा सुनि हिय हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहिं।—मानस, २। २४।
⋙ बालसफा
वि० [सं० बाल + हिं० सफा] बाल या रोएँ को उड़ानेवाला। बाल को साफ करनेवाला (साबुन, दवा आदि)।
⋙ बालसाँगड़ा
संज्ञा पुं० [सं० बालश्रृङ्खला] कुशी में एक प्रकार का पेंच या दाँव। विशेष—इसमें विपक्षी की कमर पर पहुँचकर उसकी एक टाँग उठाई जाती है और उसपर अपना एक पैर रखकर और अपनी जाँधों में से खींचने और मरोड़ते हुए उसे जमीन पर गिरा देते हैं।
⋙ बालसात्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] दुग्ध। क्षीर। दूध [को०]
⋙ बालसिँगड़ा
संज्ञा पुं० [सं० बालश्रृङ्खला] कुश्ची का एक पेंच। बालसाँगड़ा।
⋙ बालसुहृद्
संज्ञा पुं० [सं०] बालसखा। बालमित्र [को०]।
⋙ बालसूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. उदयकाल के सूर्य। प्रातःकाल के उगते हुए सूर्य। २. वैदूर्य मणि।
⋙ बालस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. बचपना। किशोरावस्था। २. अनुभवहीनता। अज्ञता [को०]।
⋙ बालहठ
संज्ञा पुं० [हिं०] बच्चों का हठ या जिद।
⋙ बाला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. युवती स्त्री। जवान स्त्री। बारह तेरह वर्ष से सोलह सत्रह वर्ष तक की अवस्था की स्त्री। २. पत्नी। भार्या। जोरू। ३. स्त्री। औरत। ४. बहुत छोटी लड़की। नौ वर्ष तक की अवस्था की लड़की। ५. पुत्री। कन्या। ६. नारियल। ७. हलदी। ८. बेले का पौधा। ९. खैर का पेड़। १०. हाथ में पहनने का कड़ा। ११. घीकुआर। १२. सुगंधबाला। १३. मोइया वृक्ष। १४. नीली कटसरैया। १५. एक वर्ष की अवस्था की गाय। १६. इलायची। १७. चीनी ककड़ी। १८. दस महाविद्याओं में से एक महाविद्या का नाम। १९. एक प्रकार की कीड़ी जो गेहूँ की फसल के लिये बहुत नाशक होती है। २०. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन रगण और एक गुरु होता है।
⋙ बाला (२)
वि० [फा० बालह् ?] ऊपर की ओर का। ऊँचा। मुहा०—बोल बाला रहना=संमान और आदर का सदा बढ़ा रहना। बाला बाला= (१) ऊपर ही ऊपर। उनसे अलग जिनके द्वारा कोई काम होना चाहिए या कोई वस्तु भेजी जानी चाहिए। जैसे,—तुमने बाला बाला दरखास्त भेज दी। (२) बाहर बाहर। वहाँ से होते हुए नहीं जहाँ से होते हुए जाना चाहिए था। जैसे—तुम बाला बाला चले गए, मेरे यहाँ उतरे नहीं। (३) इस प्रकार जिसमें किसी को मालूम न हो। यौ०—बालाए ताक=अलग। दूर। उपेक्षित। उ०—साहित्यिक युद्ध की नीति को बालाए ताक रख मेरी मशहूर पुस्तक 'चाकलेट' पर महात्मा गांधी की राय २५ वर्षों तक छिपा न रखी होती तो मेरी एक भी पुस्तक किसी दूसरे प्रकाशक के हाथ न लगी होती।—खुदाराम (प्रका०)। बालानशीन= (१) सबसे उत्तम। सर्वश्रेष्ठ। बढ़िया। (१) ऊँचा (स्थान)। बालाबंद= (१) एक प्रकार का अँगरखा। (२) सिरपेंच। कलंगी। (३) एक प्रकार की रजाई या लिहाफ।
⋙ बाला (३)
संज्ञा पुं० [हिं० बाल] जो बालकों के समान अज्ञान हो। बहुत ही सीधा सादा। सरल। निश्छल। यौ०—बाला जोबन=उठती जवानी। वह जवानी जो अभी किशोर या अज्ञ हो। बाला भोला, बाली भोली = बहुत ही सीधा सादा। उ०—तन बेसँभार केस औ चोली। चित अचेत जनु बाली भोली।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बाला (४)
संज्ञा पुं० [हिं० बाल] १. कान का एक गहना। बाली। उ०—बाला के जुग कान मैं बाला सोभा देत।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३८८। २. जौ और गेहूँ की बाल में लगनेवाला एक कीड़ा।
⋙ बालाई (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'मलाई'।
⋙ बालाई (२)
वि० १. ऊपरी। ऊपर का। २. वेतन या नियत आय के अतिरिक्त। निश्चित आय के अलावा। जैसे, बालाई आमदनी।
⋙ बाला कुप्पी
संज्ञा स्त्री० [फा० बाला(=ऊँचा) + कुप्पी] प्राचीन काल का एक प्रकार का दंड जो अपराधियो को शारीरिक कष्ट पहुँचाने के लिये दिया जाता था। विशेष—इसमें अपराधी को एक छोटी पीढ़ी पर, जो एक ऊँचे खंभे से लटकती होती थी, बैठा देते थे; फिर उस पीढ़ी को रस्सी के सहारे ऊपर खींचकर एकदम से नीचे गीरा देते थे। इसमें आदमी के प्राण तो नहीं जाते थे, पर उसे बहुत अधिक शारीरिक कष्ट होता था।
⋙ बालाखाना
संज्ञा पुं० [फा०] कोठे का ऊपर की बैठक। मकान के ऊपर का कमरा।
⋙ बालाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] मकान के बाहर दीवार में बने मोखे जिसमें पंडुक कबूतर आदि रहते हैं।
⋙ बालातप
संज्ञा पुं० [सं०] प्रातःकालीन धूप [को०]।
⋙ बालादस्त
वि० [फा०] पद में श्रेष्ठ। बड़ा [को०]।
⋙ बालादस्ती
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. अनुचित रूप से हस्तगत करना। नामुनासिब तोर से वसूल करना। २. जबरदस्ती। बल- प्रयोग।
⋙ बालादित्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रभातकालीन सूर्य।
⋙ बालापन †
संज्ञा पुं० [सं० बाल + हिं० पन] लड़कपन। बचपन।
⋙ बालाबर †
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अँगरखा जिसमें चार कलियाँ और छह बंद होते हैं। दे० 'अँगरखा'।
⋙ बालामय
संज्ञा पुं० [सं०] बच्चों का एक रोग [को०]।
⋙ बालारुण
वि० [सं०] प्रातःकालीन ललाई के समान। उ०— सोहता स्वस्थ मुख बालारुण।—अपरा, पृ० १४८।
⋙ बालारोग †
संज्ञा पुं० [हिं० बाल (=लोम) + रोग] नहरुआ, नाहरू या नहारू रोग।
⋙ बालाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रातःकालीन सूर्य। २. कन्या राशि में स्थित सूर्य।
⋙ बालि
संज्ञा पुं० [सं०] पंपा किष्किंधा का वानर राजा जो अंगद का पिता और सुग्रीव का बड़ा भाई था। विशेष—कहते हैं, एक बार मेरु पर्वत पर तपस्या करते समय ब्रह्मा की आँखों से गिरे हुए आँसुओं से एक बंदर उत्पन्न हुआ जिसका नाम ऋक्षराज था। एक बार ऋक्षराज पानी में अपनी छाया देखकर कूद पड़ा। पानी में गिरते ही उसने एक सुंदर स्त्री का रूप धारण कर लिया। एक बार उस स्त्री को देखकर इंद्र और सूर्य मोहित हो गए। इंद्र ने अपना वीर्य उसके मत्सक पर और सूर्य ने अपना वीर्य उसके गले में डाल दिया। इस प्रकार उस स्त्री को इंद्र के वीर्य से बालि और सूर्य के वीर्य से सुग्रीव नामक दो बंदर उत्पन्न हुए। इसके कुछ दिनों पीछे उस स्त्री ने फिर अपना पूर्व रूप धारण कर लिया। ब्रह्मा की आज्ञा से उसके पुत्र किष्किंधा में राज्य करने लगे। एक बार रावण ने किष्किंधा पर आक्रमण किया था। उस समय बालि दक्षिण सागर में संध्या कर रहा था। रावण को देखते ही उसने बगल में दबा लिया। अंत में उसके हार मैनने पर बालि ने उसे छोड़ दिया। एक बार बालि मय नामक दैत्य के पुत्र मायावी का पीछा करने के लिये पाताल गया था। उसके पीछे सुग्रीव ने उसका राज ले लिया, पर बालि ने आते ही उसे मार भगाया और वह अपनी स्त्री तारा तथा सुग्रीव की स्त्री रूमा को लेकर सुख से रहने लगा। सुग्रीव ने भागकर मतंग ऋषि के आश्रम में आश्रय लिया। जिस समय रामचंद्र सीता को ढूँढ़ते हुए किष्किंधा पहुँचे, उस समय मतंग के आश्रम में सुग्रीव से उनकी भेंट हुई थी। उसी समय सूग्रीव के कहने से उन्होंने बालि का वध किया था, सुग्रीव को राज्य दिलाया था और बालि के लड़के अंगद को वहाँ का युवराज बनाया था। रावण के साथ युद्ध करने में सुग्रीव और अंगद ने रामचंद्र की बहुत सहातया की थी।
⋙ बालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी लड़की। कन्या। २. पुत्रा। कन्या। बेटी। ३. छोटी इलाइची। ४. कान में पहनने की बाली। ५. बालू। रेत।
⋙ बालिकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] बालि नामक बंदर का लड़का अंगद जो रामचंद्र की सेवा में था।
⋙ बालिग
संज्ञा पुं० [अ० बालिग] [स्त्री० बालिगा] वह जो बाल्यावस्था को पार कर चुका हो। जो अपनी पूरी अवस्था को पहुँच चुका हो। जवान। प्राप्तवय। वयस्क। नाबालिग का उलटा। विशेष—कानून के अनुसार कुंछ बातों के लिये २१ वर्ष और कुछ बातों के लिये १८ वर्ष या इसके अधिक अवस्था का मनुष्य बालिग माना जाता है।
⋙ बालिध
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बलदी', 'बरदी'। उ०—बनिजारा हो बालिध लाए ताकी करी सँभारी है। साखि सुनो रैदास चमारा सो जग में उजियारी है।—भक्ति प०, पृ० ३१३।
⋙ बालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्विनी नक्षत्र का एक नाम।
⋙ बालिमा
संज्ञा पुं० [सं० बालिमन्] बाल्यभाव। शिशुता [को०]।
⋙ बालिश (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०, तुल० सं० वालिशम्, बँग० बालिश] तकिया। मसनद। शिरोपधान।
⋙ बालिश (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बालक। शिशु। २. मूर्ख या अबोध व्यक्ति। नासमझ।
⋙ बालिश (२)
वि० [सं०] अबोध। अज्ञान। नासमझ। बेवकूफ।
⋙ बालिश्त
संज्ञा पुं० [फा०] एक प्रकार की माप जो प्रायः बारह अंगुल से कुछ ऊपर ओर लगभग आध फुट के होती है। हाथ के पंजे को भरपूर फैलाने पर अंगूठे की नोक से लेकर कानी उँगली की नोक तक की दूरी। बिलस्त। बीता। बित्ता। उ०—कहावत प्रसिद्ध है कि बालिश्त भर की खूँटी, क्या जमील में गाड़ै और क्या आसमान में।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४६२।
⋙ बालिश्तिया
संज्ञा पुं० [फा० बालिश्तियह्] बोना आदमी। नाटा व्यक्ति।
⋙ बालिश्य
संज्ञा पुं० [सं०] बचपना। मूर्खता। अज्ञानता। नासमझी। बेवकूफी।
⋙ बालिस पु
वि० [सं० बालिश] दे० 'बालिश'। उ०—(क) कुलहि लजावै वाल बालिस बजावैं गाल कैधों कूर बस तमकि त्रिदोष है।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मालिस करत अग बालिस कुसंग महि सालिस भयो न अजो चालिस बरिस मैं।—दीन० ग्रं०, पृ० १३५।
⋙ बालिस (२)
संज्ञा पुं० [अं० बैलास्ट] गिट्टी। पत्थर के टुकड़े।
⋙ बालिस ट्रेन
संज्ञा स्त्री [अं० बैलास्ट ट्रेन] वह रेलगाड़ी जिस पर सड़क बनने के सामान (कंकड़ आदि) लादकर भेजे जाते हैं।
⋙ बालीं
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. तकिया। मसनद। शिरोपधान। २. सिरहाना। उ०—वक्ते रेहलत जो आए बाली पर, खूब रोए गले लगा करके।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २०।
⋙ बाली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बालिका, बाली] कान में पहनने का एक प्रसिद्ध आभूषण जो सोने या चाँदी के पतले तार का गोलाकार बना होता है। इसमें शोभा के लिये मोती आदि भी पिरोए जाते हैं।
⋙ बाली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाल] जो, गेहूँ, ज्वार आदि के पौधों का वह ऊपरी भाग या सीका जिसमें अन्न के दाने लगते हैं। दे० 'बाल'। २. वह अन्न जो हलवाहों आदि को उनके परिश्रम के बदले में धन की जगह दिया जाता है। यौ०—बालोदार।
⋙ बाली (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] हथोड़े के आकार कसेरों का एक औजार जिससे वे लोग बरतनों की कोर उठाते हैं।
⋙ बाली (४)
संज्ञा पुं० [सं० बालिन्] दे० 'बालि'।
⋙ बाली (५)
वि० [हिं० बालका (=अश्व)] बालका जाति का (अश्व)। उ०—नवदून अप्पि मदझर गयंद, कज्वल सकोट उज्जल अमंद। सै पंच दिन्न बाली पवंग।—पृ० रा०, ४।१०।
⋙ बालीदार
संज्ञा पुं० [हिं० बाली (=अन्न)+फा० दार] वह हलवाहा जो नगद पारिश्रमिक न लेकर उपज का कुछ भाग ले। बाजीदार।
⋙ बालीश
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्र का रुकना। मूत्रावरोध [को०]।
⋙ बाली सबरा
संज्ञा पुं० [हिं० बाली (=बारी, किनारा)+हिं० सबरा] वह सबरा जिससे कसेरे थाली या परात की कोर उभारते हैं।
⋙ बालुंकी, बालुंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० बालुङ्की, बालुङ्गी] एक प्रकार की लौकी या ककड़ी [को०]।
⋙ बालु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बालुक'।
⋙ बालुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एलुवा। २. पनिवालू।
⋙ बालुक पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बालक'। उ०—अद्ध रैनि अनु जानि लियौ बालुक सिर सिद्धिय। गयन बयन धन सद्द युद्ध जीवन जय दिद्धिय।—पृ० रा०, १। ६८६।
⋙ बालुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रेत। बालू। २. एक प्रकार का कपूर। ३. ककड़ी।
⋙ बालुकायंत्र
संज्ञा पुं० [सं० बालुकायन्त्र] औषध आदि को फूँकने का वह यंत्र जिसमें औषध को बालू भरी हाँड़ी में रखकर आग पर रखते या आग चारों ओर से ढँकते हैं।
⋙ बालुकास्वेद
पुं० [सं०] भावप्रकाश अनुसार पसीना कराने के लिये गरम बालू से गरमी पहुँचाने की क्रिया।
⋙ बालुकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ककड़ी।
⋙ बालू (१)
संज्ञा पुं० [सं० बालुका] पत्थर या चट्टानों आदि का बहुत ही महीन चूर्ण या कण जो वर्षा के जल आदि के साथ पहाड़ों पर से बह आता और नदियों के किनारों आदि पर अथवा ऊपर जमीन या रेगिस्तानों में बहुत अधिक पाया जाता है। रेणुका। रेत। उ०—धूआ का घोरेहरा ज्यों बालू की भीत।—पलटू० बानी, भा० १, पृ० २०। मुहा०—बालू की भीत=ऐसी वस्तु जो शीघ्र ही नष्ट हो जाय अथवा जिसका कोई भरोसा न किया जा सके। उ०— बिनसत बार न लागही ओछे जनकी प्रीत। अबर डंबर साँझ के ज्यों बालू की भीत।—कबीर (शब्द०)।
⋙ बालू (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो दक्षिण भारत और लंका के जलाशयों में पाई जाती है।
⋙ बालूक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का विष।
⋙ बालूचर
संज्ञा पुं० [बालूचर (=एक स्थान)] बंगाल के बालूचर नामक स्थान का गाँजा जो बहुत अच्छा समझा जाता है। (अब यह गाँजा और स्थानों में भी होने लगा है।)
⋙ बालूचरा
संज्ञा पुं० [हिं० बालू + चर] वह भूमि जिसपर बहुत उथला या छिछला पानी भरा हो। चर। (लश०)।
⋙ बालूदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बालू + फा० दानी] एक प्रकार की झँझरीदार डिबिया जिसमें लोग बालू रखते हैं। इस बालू से के स्याही सुखाने का काम लेते हैं। विशेष—साधारणतः बहीखाता लिखनेवाले लोग, जो सोख्ते का व्यवहार नहीं करते, इसी बालूदानी से तुरंत के लिखे हुए लेखों पर बालू छिडकते हैं। और फिर उस बालू को उसी डिबिया की झंझरी पर उलटकर उसे डिबिया में भर लेते हैं। प्राचीन काल में इसी प्रकार लेखों की स्याही सुखाई जाती थी।
⋙ बालूबुर्द (१)
वि० [हिं० बालू+फा० बुर्द (=ले गया)] बालू द्वारा नष्ट किया हुआ।
⋙ बालूबुर्द (२)
संज्ञा पुं० दह भूमि जिसकी उर्वरा शक्ति बालू पड़ने के कारण नष्ट हो गई हो।
⋙ बालूसाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० बालू + साही (=अनुरूप)] एक प्रकार की खस्ती मिठाई। विशेष—इसके लिये पहले मैदे की छोटी छोटी टिकिया बना लेते हैं और उनको घी में तलकर दो तार के शीर में डुबाकर निकाल लेते हैं। यह खाने में बालू सी खसखसी होती है।
⋙ बालेंदु
संज्ञा पुं० [सं० बालेन्दु] द्वितीया का चंद्रमा। दूज का चाँद [को०]।
⋙ बालेमियाँ
संज्ञा पुं० [हिं०] गाजी मियाँ।
⋙ बालेय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० बालेया] १. गदहा। खर। २. चावल। ३. बलि राजा का पुत्र (को०)।
⋙ बालेय (२)
वि० १. मृदु। कोमल। २. जो बालकों के लिये लाभदायक हो। ३. जो बलि देने के योग्य हो। बलिदान करने लायक। ४. बलि से उत्पन्न। बलि का (को०)।
⋙ बालेयशाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की घास। भँगरैया। भृंगराज। भँगरा [को०]।
⋙ बालेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] बेर।
⋙ बालोपचरण
संज्ञा पुं० [सं०] बालकों की चिकित्सा या सुश्रूषा [को०]।
⋙ बालोपचार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बालोपचरण'।
⋙ बालोपवीत
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञोपवीत। जनेऊ। २. कौपीन। कछनी। लँगोटी [को०]।
⋙ बालोबाल
क्रि० वि० [हिं०] बाल बाल। रोम रोम। जर्रा जर्रा। उ०—काशी पंडत प्यारेलाल मेरे जान कूँ सँबाल। पीर फकीर हक्ताल बालोबाल गुन्हेगार हूँ।—दक्खिनी०, पृ० ४९।
⋙ बाल्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बालटी'।
⋙ बाल्टू
संज्ञा पुं० [अ० बोल्ट] एक प्रकार की लोहे की कील जिसके एक और रोक के लिये घुंडी बनी रहती है और दूसरी ओर चूड़ियों की रेखा। इसी में ढिबरी (नट) कसी जाती है।
⋙ बाल्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाल का भाव। लड़कपन। बचपन। २. बालक होते की अवस्था। ३. नासमझी। अज्ञता (को०)।
⋙ बाल्य (२)
वि० १. बालक संबंधी। बालक का। २. बालक की अवस्था से संबंध रखनेवाला। बचपन का। यौ०—बाल्यकाल=दे० 'बाल्यावस्था'।
⋙ बाल्यावस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रायः सोलह सत्रह वर्ष तक की अवस्था। बालक होने की अवस्था। युवावस्था से पहले की अवस्था। लड़कपन।
⋙ बाल्हीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बलख का प्राचीन नाम। २. बाल्हीक का निवासी।
⋙ बाव (१)
संज्ञा पुं० [सं० वायु, प्रा० बाव] १. वायु। हवा। पवन। उ०—दादू बलि तुम्हारे बाप जी गिणत न राणा राव। मीर मलिक प्रधान पति तुम बिन सब ही बाव।—दादू (शब्द०)। २. बाई। ३. अपान वायु। पाद। गोज। मुहा०—बाव रसना=अपान वायु का निकलना। पाद निकलना।
⋙ बाव (२)
संज्ञा पुं० [फा० बाब] जमींदारों का एक हक जो उनको असामी की कन्या के विवाह के समय मिलसा है। मँड़वच। भुरस।
⋙ बावजा
वि० [फा० वावजअ] सभ्य। शिष्ट [को०]।
⋙ बावजूद
क्रि० वि० [फा०] होते हुए भी।/द्यपि। उ०—समस्त पच्चीकारी और मीनाकारी के बावजूद प्रकृति और प्रेम संबंधी रचनाओं में भी प्रकट होता है।—बंदन०, पृ० २०।
⋙ बावड़ना पु †
क्रि० अ० [हिं० बहुरना] बहुरना। लोटना। वापस होना। उ०—मन मेरू से बाव, त्रिकुटी लग ओंकार।—संतबानी०, भा० १, पृ० १३१।
⋙ बावड़ाना †
क्रि० स० [हिं० बावड़ना का प्रे० रूप] वापस कराना। घूमने या वापस होने के लिये प्रेरित करना। उ०—काला नाग को सो पूँछ पाछा सूँ दबायो। फोजाँ नावड़ी कै जाठ पाछो बावड़यायो।—शिखर०, पृ० ८९।
⋙ बावड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० बाप + हिं० ड़ी (प्रत्य०)] १. वह चौड़ा और बड़ा कुआँ जिसमें उतरने के लिये सीढ़ियाँ होती हैं। बावली। २. छोटा तालाब। उ०—क्या पोखर क्या कुआँ बावड़ी क्या खाइँ क्या कोर।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ७३।
⋙ बावदूकता पु
संज्ञा पुं० [सं० बावदूक + ता] वाग्मिता। वक्तृता। उ०—कृस्न कृस्न बानी को भूषन, या बिन बावदूकता दूषन।—घनानंद, पृ० २५०।
⋙ बावन (१)
संज्ञा पुं० [सं० वामन] दे० 'वामन'।
⋙ बावन (२)
संज्ञा पुं० [सं० द्विपंचाशत्, पा० द्विपण्णासा, प्रा० बिवण्णा] पचास और दो की संख्या या उसका सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—५२।
⋙ बावन (३)
वि० पचास और दो। छब्बीस का दूना। मुहा०—बावन तोले पाव रत्ती=जो हर तरह से बिलकुल ठीक हो। बिलकुल दुरुस्त। जैसे,—आपकी सभी बातें बावन तोले पाव रत्ती हुआ करती हैं। उ०—उन विदेशियों के अनुमान और प्रमाण बावन तोले पाव रत्ती सटीक और सच्चे ही हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७२। बावन परकार=भोजनार्थ बावन प्रकार की वस्तुएँ। उ०—पुनि बावन परकार जो आए। ना अस देखे कबहूँ खाए।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१३। बावन बीर= (१) बहुत अधिक वोर या चतुर। बड़ा बहादुर या चालाक। (२) एक प्रकार के अपदेवता जिनकी संख्या ५२ कही जाती है। पृथ्वीराज रासो के 'आषेटक बीर बरदान' शीर्षक समय में इनके नाम और गुण निरूपित हैं।
⋙ बावनवाँ
वि० [हिं० बावन + वाँ (प्रत्य०)] गिनती में बावन के स्थान पर पड़नेवाला। जो क्रम में बावन के स्थान पर हो।
⋙ बावना (१)
वि० [सं० वामनक, प्रा० बावपणअ] दे० 'बोना'।
⋙ बावना पु † (२)
क्रि० अ० [सं० वहन, हिं० बाहना, मि० भोज० उआना, उवाना] चलाना। फेंकना। मारना। उ०— दरिया सुमिरै नाम को, साकित नाहिं सोहात। बीज चमक्के गगन में, गधिया बावै लात।—दरिया० बानी, पृ० ९।
⋙ बावफा
वि० [फा० बावफा] प्रेम करनेवाला। वफादार। प्रेमी। उ०—सवी खीश बेगाना हमसे खफा, जो थे बावफा हो गए बेवफा।—दक्खिनी०, पृ० २११।
⋙ बावभक
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाव (=वायु) +अनु भक् अथवा सं० वायु + भक्ष्य] पागलपन। सिड़ीपन। झक।
⋙ बावर पु † (१)
वि० [सं० वातुल, प्रा० बाउल, हिं० बावला, बाउर] १. पागल। बावला। उ०—पिय वियोग अस वावर जीऊ, पपिहा जस बोलै पिउ पीऊ।—जायसी (शब्द०)। २. मूखँ। बेवकूफ। निर्बुद्धि। उ०—राजै दुहू दिसा फिर देखा। पंडित बावर कौन सरेखा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ बावर (२)
संज्ञा पुं० [फा०] यकीन। विश्वास। उ०—गर नहीं बावर तो करना दुक कयास। क्या गंदे मछली नमन तेरे है बास।—दक्खिनी०, पृ० १८०।
⋙ बावर (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वागुर (=जाल)] जाल। फंदा। उ०—बावरिया ने बावर डारी, फंद जाल सब कीता रे।— कबीर० श०, भा० २, पृ० ८।
⋙ बावरची
संज्ञा पुं० [फा०] भोजन पकानेवाला। रसोइया। यौ०—बावरचीखाना।
⋙ बावरचीखाना
संज्ञा पुं० [फा० बाबरचीखानह्] भोजन पकने का स्थान। पाकशाला। रसोईघर।
⋙ बावरा
वि० [हिं०] दे० 'बावला'। उ०—बावरो रावरो नाह भवानी। दानि बड़ो दिन, देत दए बिनु बेद बड़ाई भानी।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४५६।
⋙ बावरि पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बावली'।
⋙ बावरि पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बागुर] जाल। उ०—मोहमया की बावरि संडी भरम करम का फंदा। जाया जीव सब काल अहेरै के छटा के बंधा।—राम० धर्म०, पृ० १४९।
⋙ बावरिया पु †
वि० [सं० बागुरिक] जालवाला। अहेरी। उ०— बावरिया ने बावर डारी, फंद जाल सब कीता रे।—कबीर श०, भा० २, पृ० ८।
⋙ बावरी † (१)
वि० [हिं०] दे० 'बावली'।
⋙ बावरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश० अथवा सं० वाल्वज] एक प्रकार की बारहमासी घास जो उत्तरी भारत के रेतीले और पथरीले मैदानों में पाई जाती है और पशुओं के चारे के लिये अच्छी समझी जाती है। सरदाला।
⋙ बावरी † (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक जाति। उ०—सरदारों को चाहिए कि वे चोरों डकैतों, थोरियों, बावरियों, मोगियों और बागियों को आश्रय न दें।—राज० इति०, पृ० १०६५।
⋙ बावल
संज्ञा पुं० [सं० वायु] आँधी। अँधड़। (डिं०)। उ०— सांख जोग पपील मति, बिघन पड़ै बहु आय। बावल लागै गिर पड़ै मँगल न पहुंचै जाय।—दरिया० बानी, पृ० ३५।
⋙ बावला
वि० [सं० वातुल, प्रा० बाउल] [वि० स्त्री बावली] जिसे वायु का प्रकोप हो। पागल। विक्षिप्त। सनकी।
⋙ बावलापन
संज्ञा पुं० [हिं० बावला + पन (प्रत्य०)] पागलपन। सिड़ीपन। झक।
⋙ बावली
संज्ञा स्त्री० [सं० बाप + हिं० डी या ली (प्रत्य०)] १. चौड़े मुँह का कुआँ जिसमें पानी तक पहुँचने के लिये सीढ़ियाँ बनी हों। उ०—वावली तो बनी नहीं मगरों ने डेरा डाल दिया।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४३७। २. छोटा गहरा तालाब जिसमें पानी तक सीढ़ियाँ हों। ३. हजामत का एक प्रकार जिसमें माथे से लेकर चोटी के पास तक के बाल चार पाँच अँगुल चौड़ाई में मूड़ दिए जाते हैं जिससे सिर के ऊपर चूल्हे का सा आकर बन जाता है।
⋙ बावाँ पु †
वि० [सं० वाम या वामक] १. बाई ओर का। २. प्रतिकूल। विरुद्ध। उ०—(क) प्रभु रुख निरख निरास भरत भए जान्यो है सबहि भाँति बिधि बावों।—तुलसी (शब्द०)। (ख) धरहु धीर बलि जाऊँ तात मोकौ आजु विधाता बावों।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बावीस †
संज्ञा पुं० [सं० द्वाविंशति, प्रा० बवीस] दे० 'बाईस'।
⋙ बावीसमोँ
वि० [प्रा०] दे० 'बाइसवाँ'। उ०—अस्टम दीप बावीस- माँ अकाशा।—कबीर सा०, पृ० ९२३।
⋙ बावेला †
संज्ञा पुं० [फा० बावैलह्] शोरगुल। कुहराम।
⋙ बाशऊर
वि० [फा०] गुणी। शऊरदार। उ०—कितनी बातमीज बाशऊर, हसीन लड़की थी।—काया०, पृ० ३३६।
⋙ बाशिंदा
संज्ञा पुं० [फा० बाशिंदह्] रहनेवाला। निवासी।
⋙ बाष्कल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक दैत्य का नाम। २. वीर। योद्धा। ३. एक उपनिषद् का नाम। ४. एक ऋषि का नाम।
⋙ बाष्प
संज्ञा पुं० [सं० बाष्प] १. भाप। २. लोहा। ३. अश्रु। आँसू। ४. एक प्रकार की जड़ी। ५. गौतम बुद्ध के एक शिष्य का नाम। यौ०—बाष्पकंठ=गदगद कंठ। जिसका गला अश्रु के कारण भर आया हो। बाष्पकल=अश्रु आने के कारण अस्पष्ट और मधुर (ध्वनि)। बाष्पपूर, बाष्पप्रकर=आँसू की अधिकता या वेग। बाष्पमोक्ष, बाष्पमोचन=रुदन। रोना। आँसू गिरना। बाष्पविप्लव=अश्रुपूरित। अश्रु से छलकता हुआ बाष्पसंदिग्ध=दे० 'बाष्पकल'।
⋙ बाष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाप। वाष्प। २. हिंदुपत्री। ३. एक शाक। माठ। मरसा [को०]।
⋙ बाष्पका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिंगुपत्री [को०]।
⋙ बाष्पांबु
संज्ञा पुं० [सं० बाष्पाम्बु] अश्रु। आँसू [को०]।
⋙ बाष्पाकुल
वि० [सं०] अश्रु से भरा हुआ था परिव्याप्त [को०]।
⋙ बाष्पाप्लुत
वि० [सं०] दे० 'वाष्पाकुल'।
⋙ बाष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक शाक जिसे मराठी माठ कहते हैं। मरसा [को०]।
⋙ बाष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिंगुपत्री।
⋙ बासंत
संज्ञा पुं० [वासन्त] दे० 'बसंत'। उ०—मनहु पाइ बासंत पालास फूले।—प० रासो, पृ० ८३।
⋙ बासंतिक
वि० [सं० वासन्तिक] १. वसंत ऋतु संबंधी। २. बसंत ऋतु में होनेवाला।
⋙ बासंती
संज्ञा स्त्री० [सं० बासन्ती] १. अड़ूसा। बास। २. माधवी लता।
⋙ बास (१)
संज्ञा पुं० [सं० वास] १. रहने की क्रिया या भाव। निवास। २. रहने का स्थान। निवासस्थान। ३. बू। गंध। महक। उ०—फूली फूली केतकी भौरा लीजै बास।—पलटू०, भा० १, पृ० ५२। ४. एक छंद का नाम। ५. वस्त्र। कपड़ा। पोशाक। उ०—(क) जहाँ कोमलै बल्कलै बास सोहैं। जिन्हें अल्पधी कल्पशाखी विमोहैं।—केशव (शब्द०)। (ख) पाँच धरी चौथे प्रहर पहिरति राते बास। करति अंगरचना बिबिध भूषण भेष विलास।—देव (शब्द०)।
⋙ बास (२)
संज्ञा पुं० [सं० वसन] छोटा वस्त्र। उ०—दासि दास बासरोम पाट को कियो। दायजो बिदेहराज भाँति भाँति को कियो।—केशव (शब्द०)।
⋙ बास (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वासना] वासना। इच्छा। लालच। उ०—तिय के सम दूजो नहीं मुख सोई त्रिरेख लिख्यो बिधि बास धरे।—सेवक स्याम (शब्द०)।
⋙ बास (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाशिः] १. अग्नि। आग। २. एक प्रकार का अस्त्र। उ०—गिरिधनरदास तीर तुपक तमंचा लिए लरैं बहु भाँति बास धार बरसैं अखड।—गिरधर (शब्द०)। ३. तेज धारवाली छुरी, चाकू, कैंची इत्यादि छोटे छोटे शस्त्र जो रण में तोपों में भरकर फेंके जाते हैं।
⋙ बास (५)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पर्वतीय वृक्ष जो बहुत ऊँचा होता हैं। बिपरसा। विशेष—इस वृक्ष की लकड़ी रंग में लाली लिए काली और इतनी मजबूत होती है कि साधारण कुल्हाड़ियो से नहीं कट सकती। यह लकड़ी पलग के पावे और दूसरे सजावटी सामान बनाने के काम में आती है। इसमें बहुत ही सुगंधित फूल लगते हैं और गोद निकलता जो कइ कामों में आता है। पहाड़ों में यह वृक्ष ३००० फुट की ऊँचाई तक होता है।
⋙ बासक पु
संज्ञा पुं० [सं० बासक] वस्त्र। दे० 'वासक'।
⋙ बासकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञशाला।
⋙ बासकसज्जा
संज्ञा स्त्री० [सं० बासकसज्जा] वह नायिका जो अपने प्रिय या प्रियतम के आने के समय कालसामग्री सज्जित करे। नायक के आने के समय उससे मिलने की तैयारी करनेवाली नायिका।
⋙ बासकसज्या पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वासकसज्जा] दे० 'बासकसज्जा'।
⋙ बासठ (१)
वि० [सं० द्विषष्ठि, प्रा० द्वासट्ठि बासठ्ठि] साठ ओर दो। इकतीस का दूना।
⋙ बासठ (२)
संज्ञा पुं० साठ और दो की संख्या या उसको सूचित करनेवाला अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—६२।
⋙ बासठवाँ
वि० [सं० द्विषाष्ठितम, हिं बासठ + वाँ (प्रत्य०)] जो क्रम में बासठ के स्थान पर हो। गिनती मे बासठ के स्थान पर पड़नेवाला।
⋙ बासदेव (१)
संज्ञा पुं० [सं० वाशिःदेव] अग्नि। आग। (डिं०)।
⋙ बासदेव (२)
संज्ञा पुं० [सं० वासुदेव] दे० 'वासुदेव'।
⋙ बासन (१)
संज्ञा पुं० [सं० वासन] बरतन। भाँड़ा। उ०—कचन भाजन बिष भरा, सो मेरे किस काम। दरिया बासन सो भला, जामे अमृत नाम।—दरिया० बानी, पृ० ३८।
⋙ बासन (२)
संज्ञा पुं० [सं० वसन] वसन। वस्त्र। परिधान। उ०— बसुधा सब उज्वल रूप कियं। सित बासन जाति बिछाय दियं।—ह० रासो, पृ० २१।
⋙ बासना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वासना] १. इच्छा। वांछा। चाह। दे० 'वासना'। २. गंध। महक। बू। उ०—आपु भँवर आपुहि कमल आपुहि रंग सुबास। लेत आपुही बासना आपु लसत सब पास।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ बासना (२)
क्रि० स० [सं० वासन या बास] सुगंधित करना। महकाना। सुवासित करना। उ०—दै दै सुमन तिल बासि कै अरु खरि परिहरि रस लेत।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बासना (३)
क्रि० अ० [हिं० बास + ना (प्रत्य०), अथवा सं० वसन (=निवास)] बसना। रहना। निवास करना। उ०—क्या सराय का बासना, सब लोग बेगाना है।—कबीर श०, पृ० ४।
⋙ बासना ‡
क्रि० स० किसी के बसने वा निवास की व्यवस्था करना। (बोल०)।
⋙ बसनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बसना (=थैली)] रुपए पैसे रखने की जालीदार लंबी एक थैली जिसमें रुपए रखकर कमर में बाँध लेते थे। नोटों के अधिक चलन से अब यह जाती रही। दे० 'बसना'। उ०—कहा करौं अति सुख द्वै नैना, उमँगि चलत पल पानी। सूर सुमेरु समाइ कहाँ लौं बुधि बासनी पुरानी।—सूर०, १०। १७८४।
⋙ बासफूल
संज्ञा पुं० [हिं० बास (=गंध)+ फूल] १. एक प्रकार का धान। २. इस धान का चावल।
⋙ बासमती
संज्ञा पुं० [हिं० बास (=महक)+ मती (प्रत्य०)] १. एक प्रकार का धान। २. इस धान का चावल जो पकाने पर अच्छी सुगंध देता है।
⋙ बासर
संज्ञा पुं० [सं० वासर] १. दिन। २. सबेरा। प्रातःकाल। सुबह। २. वह राग जो सबेरे गाया जाता है। जैसे, प्रभाती, भैरवी इत्यादि। उ०—सर सो प्रतिबासर बासर लागै। तन घाव नहीं मन प्राणन खाँगै। केशव (शब्द०)।
⋙ बासलोका
वि० [फा० बासलीकह्] ढंग से काम करनेवाला। सहूरदार (को०)।
⋙ बासव
संज्ञा पुं० [सं० वासव] इंद्र।
⋙ बासवी
संज्ञा पुं० [सं० वासवि] अर्जुन। (डिं०)।
⋙ बासवी दिशा
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्व की दिशा जो इंद्र की दिशा मानी जाती है।
⋙ बासस
संज्ञा पुं० [सं० वासस्] वस्त्र। दे० 'वासस्'।—नंद० ग्रं०, पृ० ८४।
⋙ बाससी पु
संज्ञा पुं० [सं० वाससि] कपड़ा। वस्त्र। उ०—तूल तेल बोरि बोरि जोरि जोरि बाससी। लै अपार रार ऊन दून सूत सों कसी।—केशव (शब्द०)।
⋙ बासा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पक्षी। २. अड़ूसा।
⋙ बासा (२)
संज्ञा पुं० [सं० वास] वह स्थान जहाँ मूल्य लेकर भोजन का प्रबंध हो। भोजनालय। विशेष—कलकत्ता, बंबई आदि बड़े बड़े व्यापारप्रधान नगरों में भिन्न भिन्न जातियों के ऐसे बासे हैं। इनमें वे लोग, जो बिना गृहस्थी के हैं, निर्धारित मूल्य देकर भोजन करते हैं।
⋙ बासा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० बाँस] एक प्रकार की घास जो आकर में बाँस के पत्तों के समान होती है। यह पशुओं को खिलाई जाती है।
⋙ बासा (४)
संज्ञा पुं० दे० 'बास'।
⋙ बासा (५)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पियाबाँस'।
⋙ बासिग पु
संज्ञा पुं० [सं० वासुकि, प्रा० वासुगि] दे० 'वासुकी'। उ०—कहि महिपल बल किसी एक दट्ठँ हरि धारिय। कहि बासिग बल कित्तौ सु पुनि करि नेत्रों सारिय।—पृ० रा०, १। ७८०।
⋙ बासित
वि० [सं० वासित] सुगंधित किया हुआ। सुवासित। उ०—तिनकी बास वायु लै गयौ। ता करि सब बन बासित भयौ।—नंद० ग्रं, पृ० २९२।
⋙ बासिष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं० वशिष्ट] बन्नास (बनास) नदी का एक नाम। ऐसा माना जाता है कि बसिष्ठ जी के तप के प्रभाव से ही यह नदी प्रकट हुई थी।
⋙ बासी (१)
वि० [सं० वासर या बाँस (=गध)] १. देर का बना हुआ। जो ताजा न हो। (खाद्य पदार्थ) जिसे तैयार हुए अधिक समय हो चुका हो और जिसका स्वाद बिगड़ चुका हो। जैसे,—बासी भात, बासी पूरी, बासी मिठाई। २. जो कुछ समय तक रखा रहा हो। जैसे, बासी पानी। जो सूखा या कुम्हलाया हुआ हो। जो हरा भरा न हो। जैसे, बासी फूल, बासी साग। ४. (फल आदि) जिसे डाल से टूटे हुए अधित समय हो चुका हो। जिसे पेड़ से अलग हुए ज्यादा देर हो गई हो। जैसे, बासी अमरूद, बासी आम। मुहा०—बासी कढ़ी में उबाल आना=(१) बुढ़ापे में जवानी का उमंग आना। (२) किसी बात का समय बिलकुल बीत जाने पर उसके संबंध में कोई वासना उत्पन्न होना। (३) असमर्थ में सामर्थ्य के लक्षण दिखाई देना। बसी बचे न कुत्ता खाय=इतना अधिक न बनाना कि बाकी बचे। चाट पोंछकर सब कुछ स्वयं खा जाना। अन्य के लिये गुंजाइश न रहना। बासी मुँह=(१) जिस मुँह में सबेरे से कोई खाद्य पदार्थ न गया हो। जैसे, बासी मुँह दवा पी लेना। (२) जिसने रात के भोजन के उपरांत प्रातःकाल कुछ न खाया हो। जैसे,—मुझे क्या मालूम कि आप अभी तक बासी मुँह हैं। यौ०—बासी ईद=ईद का दूसरा दिन। बासी तिबासी=कई दिनों का सड़ा गला।
⋙ बासी (२)
वि० [सं० वासिन्] रहनेवाला। निवास करनेवाला। बसनेवाला। उ०—खासी परकासी पुनवाँसी चंद्रिका सी जाके, बासी अबिनासी अघनासी ऐसी कासी है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २८२।
⋙ बासु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० वास] महक। गंध। दे० 'वास'। उ०— तिनकी बासु बायु लै गयौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९२। २. निवास। बास। उ०—बासु छंडि कनवज कहँ चल्लिय। राजा दल पाँगुल सह मिल्लिय।—प० रासो, पृ० ११९।
⋙ बासुक पु
संज्ञा पुं० [सं० वासुकि] दे० 'वासुकि'। उ०—सेसनाग औ राजा बासुक बराह मुर्छित होइआ है।—कबीर श०, भा० ३ पृ० १२।
⋙ बासुकी
संज्ञा स्त्री० [सं० वासुकि] दे० 'वासुकि'।
⋙ बासुदेव
संज्ञा पुं० [सं० वासुदेव] दे० 'वासुदेव'। उ०—इन सबहिन ते बासुदेव अच्युत है न्यारे।—नंद० ग्रं० पृ० १७८।
⋙ बासुरि पु
संज्ञा पुं० [सं० वासर] दिन। दे० 'बासर'। उ०— बासुरि गमि न रैणि गमि ना सुपनैं तरगम। कबीर तहाँ बिलबिया जहाँ छाँहड़ी न धन।—कबीर ग्रं०, पृ० ५४।
⋙ बासौंधी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बसौंधी'।
⋙ बास्त
वि० [सं०] [वि० स्त्री० बास्ति] बकरे का। बकरे से संबंध रखनेवाला [को०]।
⋙ बास्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] बकरों का झुंड़ या समूह। अजयूथ [को०]।
⋙ बास्तुक पु
वि० [सं० वास्तुक] शिल्प या वास्तुशास्त्र संबंधी। उ०—मनि मंत्र जंत्र बास्तुक बिनोद। नैपथ विलास सु नितत्त मोद।—पृ० रा०, १। ७३२।
⋙ बाह † (१)
संज्ञा पुं० [सं० बाह] १. खेत जोतने की किया। खेत की जोताई। चास। २. प्रवाह। निकास।
⋙ बाह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'बाँह'। उ०—सरकी सारी सीस ते सुनतहिं आगम नाह। तरकी बलया कंचुकी दरकी फरकी बाह।—स० सप्तक, पृ० २४८। २. अश्व (वहन करनेवाला)।
⋙ बाहक पु
संज्ञा पुं०, वि० [सं० वाहक] १. सवार। २. वहन करनेवाला। ढोनेवाला।
⋙ बाहकी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाहक + ई (प्रत्य०)] पालकी ले चलनेवाली स्त्री। कहारिन। उ०—सजी बाहकी सखी सुहाई। लीन्ही शिविका कंध उठाई।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ बाहड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह खिचड़ी जो मसला और कुम्हड़ौरी डालकर पकाई गई हो।
⋙ बाहन (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक बहुत लंबा पेड़ जिसके पत्ते जाड़े के दिनों में झड़ जाते हैं। विशेष—इसके हीर की लकड़ी बहुत ही लाल और भारी होती है और प्रायः खराद और इमारत के काम में आती है। २. सफेदा नाम का एक पेड़ जो बहुत ऊँचा होता है और बहुत जल्दी बढ़ जाता है। विशेष—यह काश्मीर और पंजाब के इलाकों में अधिकता से पाया जाता हैं। इसकी लकड़ी प्रायः आरायशी सामान बनाने के काम में आती हैं।
⋙ बाहन पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वाहन] दे० 'वाहन'। उ०—असवार डिगत बाहन फिरै भिरैं भूत भैरव बिकट।—हम्मीर०, पृ० ५८।
⋙ बाहनहारा पु
वि० [हिं०] धारण करनेवाला। सहन करनेवाला। उ०—जाय पूछ वा घायलै, दिवस पीर निसि जागि। बाहन- हारा जनिहै, कै जानै जिस लागि।—कबीर सा० सं०, भा० १, पृ० २७।
⋙ बाहना
क्रि० स० [सं० वहन] १. ढोना, लादना या चढ़ाकर ले जाना या ले आना। २. जलाना। फेंकना। (हथियार)। उ०—(क) लखि रथ फिरत असुर बहु धाए। बाहत अस्त्र नृपति पर आए।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) करि क्रोध जोध बाहत सार।—ह० रासो, पृ० ८२। (ग) नेही सनमुख जुरत ही तहँ मन की गिरवान। बाहन हैं रन बावरे तेरे दृग किरवान।—रसनिधि (शब्द०)। (घ) इहित संग उभ्भारि बिरचि बाही गज मथ्थह।—पृ० रा०, १। ६५३। ३. गाड़ी, घोड़े आदि को हाँकना। ४. धारणा करना। लेना। पकड़ना। ५. बहना। प्रवाहित होना। उ०—(क) तजै रँग ना रँग केसरि को अंग धोवत सो रँग बाहन जात।—देव (शब्द०)। (ख) नातरु जगत सिंधु महँ भंगा। बाहत कर्म बीचिकन संगा।—रघुनाथ (शब्द०)। (ग) मैं निरास औ बिनु जिउ आहा। आस दई तै जिउ घट बाहा।—चित्रा०, पृ० ६५। ६. खेत जोतना। खेत में हल चलाना। जैसे,—आज तो उसने चार बीघा बाह के दम लिया। ७. वपन करना। बीज आदि बोना। उ०—जो बाहै लुनिएगा सोई। अंमृत खाइ कि विष फल होई।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३३६। ८. गौ, भैस आदि को गाभिन कराना। ९. कघी करना। बाछना। उ०—बालों को बाहकर उनमें तेल डालते थे।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ८०। १०. लगाना। आँजना। सारना। उ०—दादू सतगुरु अंजन बाहि करि, नैन पटल सब खौलै। बहरे कानो सुँणने लागे, गूँगे मुख सौं बोले।—दादू० बानी, पृ० ३।
⋙ बाहनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाहिनी] १. सेना। फौज। २. नदी।
⋙ बाहबली
संज्ञा सं० [हिं० बाँह + बल] कुश्ती का एक पैंच।
⋙ बाहम
क्रि० वि० [फा०] आपस में। परस्पर। एक दूसरे के साथ।
⋙ बाहर
क्रि० वि० [सं० बाह्य या बहिर] १. स्थान, पद, अवस्था या संबध आदि के विचार से किसी निश्चित अथवा कल्पित सीमा (या मर्यादा) से हटकर, अलग या निकला हुआ। भीतर या अंदर का उलटा। उ०—तुलसी भीतर बाहरहुँ जौ चाहेसि उजियार।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—बाहर आना या होना=सामने आना। प्रकट होना। बाहर करना=अलग करना। दूर करना। हटाना। बाहर बाहर=ऊपर ऊपर। बाहर रहते हुए। अलग से। बिना किसी को जताए। जैसे,—वे कलकत्ते से आए तो थे पर बाहर बाहर दिल्ली चले गए। २. किसी दूसरे स्थान पर। किसी दूसरी जगह। अन्य नगर या गाँव आदि में। जैसे,—(क) आप बाहर से कब लौटेंगे। (ग) उन्हें बाहर जाना या, तो मुझसे मिल तो लेते। उ०— जेहि घर कंता ते सुखी तेहि गारू तेहि गर्व। कंत पियारे बाहरे हम सुख भूला सर्ब।—जायसी (शब्द०)। मुहा०—बाहर का=ऐसा आदमी जिससे किसी प्रकार का संपर्क न हो। बेगाना। पराया। ३. प्रभाव, अधिकार या संबंध आदि से अलग। जैसे,—हम आपसे किसी बात में बाहर नहीं हैं, आप जो कुछ कहेंगे, वही हम करेंगे। उ०—साई मैं तुझ बाहरा कौड़ी हूँ नहि पाँव। जो सिर ऊपर तुम धनी महँगे मोल बिवाँव।—कबीर (शब्द०)। ४. बगैर। सिवा। (क्व०)। ५. से अधिक। प्रभाव, शक्ति आदि से अधिक। जैसे, शक्ति से बाहर, बूते से बाहर आदि।
⋙ बाहर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बाहा] वह आदमी जो कुएँ की जगत पर मोट का पानी उलटता है।
⋙ बाहरजामी पु †
संज्ञा पुं० [सं० बाह्ययामी] ईश्वर का सगुण रूप। राम, कृष्ण, नृसिंह इत्यादि अवतार। उ०—अतरजामिहु ते बड़ बाहरजामी हैं राम जो नाम लिए तें।—तुलसी ग्रं०, पृ० २२९।
⋙ बाहरी
वि० [हिं० बाहर + ई (प्रत्य०)] १. बाहर का। बाहरवाला। २. जो घर का न हो। पराया। गैर। ३. जो आपस का न हो। अजनबी। ४. जो केवल बाहर से देखने भर को हो। ऊपरी। जैसे,—यह सब बाहरी ठाठ है, अंदर कुछ भी नहीं है।
⋙ बाहरीटाँग
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाहरी + टाँग] कुश्ती का एक पेंच जिसमें प्रतिद्वंद्वी के सामने आते ही उसे खींचकर अपनी बगल में कर लेते हैं और उसके घुटनों के पीछे की और अपने पैर से आघात करके उसे पीठ की और ढकेलते हुए गिरा देते हैं।
⋙ बाहस
संज्ञा पुं० [देश०] अजगर। (डिं०)।
⋙ बाहाँजोरी
क्रि० वि० [हिं० बाँह + जोड़ना] भुजा से भुजा मिलाकर। हाथ से हाथ मिलाकर। उ०—(क) बाहाँजोरी निकसे कुंज ते प्रात रीझि रीझि कहैं बात।—सूर (शब्द०)। (ख) राजत हैं दोउ बाहाँजोरी दपति अरु ब्रज बाल।—सूर (शब्द०)।
⋙ बाहाँबाहीं
क्रि० वि० [सं० बाहाबाहि] १. दे० 'बाहाँजोरी'। २. बाहुयुद्ध। बाहुसंघर्ष।
⋙ बाहा (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भुजा। बाहु [को०]।
⋙ बाहा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बाँधना] वह रस्सी जिससे नाव का डाँड़ बँधा रहता है।
⋙ बाहा (३)
संज्ञा पुं० [सं० वह] नाला। प्रवाह। उ०—उधर से एक बाहा पड़ता था। उसे लाँघने के लिये वह क्षण भर के लिये रुकी थी कि पीछे से किसी ने कहा—कौन है !—तितली, पृ० १६०।
⋙ बाहिज (१)
क्रि० वि० [सं० बाह्य] ऊपर से। बाहर से। देखने में। बाहरी तौर पर। उ०—बाहिज नम्र देखि मोहिं भाई। विप्र पढ़व पुत्र की नाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बाहिज (२)
वि० [सं० बाह्यज, प्रा० हिं० बाहिज] बाह्य। बाहरी। बाहर की। बाहर से संबद्ध। उ०—(क) बाहिज चिंता कीन्ह बिसेखी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कोउ कहै यह ऐसेहि होते है क्यों करि मानिए बात अनिष्टी। सुंदर एक किएअनुभौ बिनु जानि सकै नहिं बाहिज दृष्टी।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६१९।
⋙ बाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वाहिनी] १. वह सेना जिसमें तीन गण अर्थात् ८१ हाथी, ८१ रथ, १४३ सवार और ४०५ पैदल हों। २. सेना। फौज। ३. सवारी। यान। ४. नदी।
⋙ बाहिर
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बाहर'। उ०—लगी अंतर मैं करै बाहिर को बिन जाहिर कोऊ न मानत है।—ठाकुर०, पृ० ३।
⋙ बाहिरी पु †
क्रि० वि० [हिं० बाहर] बिना। सिवा। विरहित। उ०—ढोला हूँ तुझ बाहिरी झीलण गइय तलाइ। ऊजल काला नाग जिऊँ, लहिरी ले ले खाइ।—ढोला०, दू० ३९३।
⋙ बाही † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बाँह'।
⋙ बाही पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वाह] अश्व। तुरंग।
⋙ बाहीक (१)
वि० [सं०] बाहर का बाह्य संबंद्ध। बाहरी [को०]।
⋙ बाहीक (२)
संज्ञा पुं० १. पंजाब की एक प्राचीन जाति। २. उस जाति का व्यक्ति [को०]।
⋙ बाहु
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुजा। हाथ। बाँह। यौ०—बाहुक्ठं, बाहुकुब्ज=लूला : बाहुतरण=तैरकर नदी या जलाशय पार करना। बाहुदंड=भुजा। बाहुपाशा=भुजाओं का बंधन। अँकवार। बाहुप्रसर, बाहुप्रसार=भुजाओं का फैलाव या विस्तार। बाहुभूपण, बाहुभूपा=भुजा का गहना। अगद। बाहुयोध, बाहुयोधी=कुश्ती लड़नेवाला। बाहुलता, बाहुवल्ली=कोमल। भुजाएँ। बाहुविमर्द=मल्लयुद्ध। बाहुवीर्य=भुजबल। बाहुव्यायाम=कसरत। दंड। जोर। बाहुशिखर=स्कध। कंधा।
⋙ बाहुकंटक
संज्ञा पुं० [सं० बाहुकण्टक] मल्लयुद्ध का एक दाँव [को०]।
⋙ बाहुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा नल का उस समय का नाम जब वे कर्कोटक द्वारा इसे जाने पर वामनाकृति हुए थे और अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण के सारथी बने थे। २. नकुल का नाम। ३. एक नाग का नाम। ४. बंदर (को०)।
⋙ बाहुक (१)
वि० १. बाहु द्वारा तैरनेवाला। २. निर्भर। आश्रित। ३. बौना। वामनाकार [को०]।
⋙ बाहुकुंथ
संज्ञा पुं० [सं० बाहुकुन्थ] पक्ष्म। पखना। पंख [को०]।
⋙ बाहुगुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] अनेक गुँणों की स्थिति। बहुत गुणों की स्थिति। बहुत गुणों का रहना या होना।
⋙ बाहुज
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रिय, जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के हाथ से मानी जाती है।
⋙ बाहुजता
संज्ञा स्त्री० [सं० बाहुज + ता (प्रत्य०)] क्षत्रियत्व। वीरता। उ०—बस बाहुजता विलीन है, वसुधा वीरविहीन दीन है।—साकेत, पृ० ३५४।
⋙ बाहुजन्य
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत से जनों की अवस्थिति। भीड़ [को०]
⋙ बाहुड़ना ‡
क्रि० अ० [देश०] दे० 'बहुरना'। उ०—(क) गई दसा सब बाहुड़ै, जे तुम प्रगटहु आइ। दादू ऊजड़ सब बसै, दरसन देहु दिखाइ।—दादू०, पृ० ६३। (ख) कुँवर बलावे बाहुड़या राजमती मूकलावी सुभाई।—बी० रासो, पृ० २७।
⋙ बाहुड़ि †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'वहुरि'। उ०—दादू यौं फूटे थैं सारा भया संधे संधि मिलाइ। बाहुड़ि विषै न भूँचिए तौ कबहूँ फूटि न जाइ।—दादू०, पृ० १९७।
⋙ बाहुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बाहुत्राण'।
⋙ बाहुत्राण
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़े या लोहे आदि का वह दस्ताना जो युद्ध में हाथों की रक्षा के लिये पहना जाता है।
⋙ बाहुदंती
संज्ञा पुं० [सं० बाहुदन्तिन्] इंद्र।
⋙ बाहुदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक नदी का नाम। २. राजा परीक्षित की पत्नी का नाम।
⋙ बाहुप्रलंब
वि० [सं० बाहुप्रलव्ब] जिसकी बाहें बहुत लंबी हों। आजानुबाहु। (एसा व्यक्ति बहुत वीर माना जाता है।)
⋙ बाहुबल
संज्ञा पुं० [सं०] पराक्रम। बहादुरी। उ०—श्री हरिदास के स्वामी श्याम कुंजबिहारी कहत राशि लै बाहुबल हो बपुरा काम दहा।—स्वा० हरिदास (शब्द०)।
⋙ बाहुभेदी
संज्ञा पुं० [सं० बाहुभेदिन्] विष्णु।
⋙ बाहुमूल
संज्ञा पुं० [सं०] कंधे और बाँह का जोड़।
⋙ बाहुयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] कुश्ती।
⋙ बाहुरना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बहुरना'। उ०—उन ते कोई न बाहुरा, जा से बूझूँ धाय।—कबीर सा० सं०, पृ० ५८।
⋙ बाहुरूप्य
संज्ञा पुं० [सं०] अनेकरूपता [को०]।
⋙ बाहुल (१)
वि० [सं०] बहुत। अनेक। अधिक। प्रचुर [को०]।
⋙ बाहुल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ध के समय हाथ में पहनने की एक वस्तु जिससे हाथ की रक्षा होती थी। दस्ताना। २. कार्तिक मास। ३. अग्नि। आग। ४. अनेकरूपता (को०)।
⋙ बाहुलग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] मोर।
⋙ बाहुली
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिक मास की पूर्णिमा [को०]।
⋙ बाहुलेय
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय का एक नाम [को०]।
⋙ बाहुलोह
संज्ञा पुं० [सं०] काँसा धातु। कांस्य [को०]।
⋙ बाहुल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुतायत। अधिकता। ज्यादती। २. अनेकरूपता। विविधता (को०)।
⋙ बाहुविस्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] ताल ठोंकना।
⋙ बाहुशाली
संज्ञा पुं० [सं० बाहुशालिन्] १. शिव। २. भीम। ३. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। १. एक दानव का नाम।
⋙ बाहुशोप
संज्ञा पुं० [सं०] बाँह में होनेवाला एक प्रकार का वायु- रोग जिसमें बहुत पीड़ा होती है।
⋙ बाहुश्रुत्य
संज्ञा पुं० [सं०] बहुश्रुत होने का भाव। बहुत सी बातों को सूनकर प्राप्त की हुई जानकारी।
⋙ बाहुसंभव
संज्ञा पुं० [सं० बाहुसम्भव] क्षत्रिय जिनकी उप्तत्ति ब्रह्मा की बाँह से मानी जाती है।
⋙ बाहुहजार
संज्ञा पुं० [सं० बाहु + फा० हजार] दे० 'सहस्त्रबाहु'।
⋙ बाहू
संज्ञा स्त्री० [सं० बाहु] दे० 'बाहु'।
⋙ बाहेर
क्रि० वि० [हिं० बाहर] अपने स्थान या पद आदि से च्युत। पतित। निकृष्ट। उ०—कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक वेद बाहेर सब भाँती।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ बाह्मन
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण] दे० 'ब्राह्मण'।
⋙ बाह्य (१)
वि० [सं०] १. बाहरी। बाहर का। २. दिखावटी। ३. प्रदर्शनात्मक। बहिष्कृत।
⋙ बाह्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भार ढोनेवाला पशु। जैसे, बैल, गधा, ऊँट, आदि। २. सवारी। यान।
⋙ बाह्यकरण
संज्ञा पुं० [सं०] बाहरी इंद्रियाँ [को०]।
⋙ बाह्यकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक नाग का नाम।
⋙ बाह्यकुंड
संज्ञा पुं० [सं० बाह्यकुण्ड] एक नाग का नाम।
⋙ बाह्यकोप
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार राष्ट्र के मुखियों, अंतपाल (सीमारक्षक), आटविक (जंगलों के अफसर) और दडोपनत (पताजित राजा) का विद्रोह।
⋙ बाह्यतपश्चर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनियों के अनुसार तपस्या का एक भेद। विशेष—यह छह प्रकार की होती है—अनशन, औनोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और लीनता।
⋙ बाह्यद्रुति
संज्ञा पुं० [सं०] पारे का एक संस्कार (वैद्यक)।
⋙ बाह्यपटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवनिका। नाटक का परदा।
⋙ बाह्यविद्रधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर के किसी स्थान में सूजन और फोड़े की सी पीड़ा होती है। विशेष—इस रोग में रोगी के मुँह अथवा गुदा से मवाद निकलता है। यदि मवाद गुदा से निकले तब तो रोगी साध्य माना जाता है, पर यदि मवाद मुँह से निकले तो वह असाध्य समझा जाता है।
⋙ बाह्यविषय
संज्ञा पुं० [सं०] प्राण को बाहर अधिक रोकना।
⋙ बाह्यवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राणायाम का एक भेद जिसमें भीतर से निकलते हुए श्वास को धीरे धीरे रोकते हैं।
⋙ बाह्याचरण
संज्ञा पुं० [सं०] केवल दिखौआ आचरण। आडंबर। ढकोसला।
⋙ बाह्याभ्यंतर
संज्ञा पुं० [सं० बाह्य + अभ्यन्तर] प्राणायाम का एक भेद जिसमें भीतर से निकलते हुए श्वास को धीरे धीरे रोकते हैं।
⋙ बाह्याभ्यंतरापेक्षी
संज्ञा पुं० [सं० बाह्याभ्यन्तरापेक्षिन्] प्राणायाम का एक भेद। जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तब उसे निकलने न देकर उलटे उलटे लौटना; और जब भीतर जाने लगे तब उसको बाहर रोकना।
⋙ बाह्यायाम
संज्ञा पुं० [सं०] वायु संबंधी एक रोग जिसमें रोगी की पीठ की नसें खिंचने लगती हैं और उसका शरीर पीछे की और भुकने लगता है। अनुस्तंभ।
⋙ बाह्लीक
संज्ञा पुं० [सं०] कांबोज के उत्तर के प्रदेश का प्राचीन नाम जहाँ आजकल बलख है। विशेष—यह स्थान काबुल से उत्तर की ओर पड़ता है। इसका प्राचीन पारसी नाम बक्तर है जिससे यूनानी शब्द बैक्ट्रिया बना है।