धूँकल पु
संज्ञा पुं० [?] उपद्रव। उ०—तुरक घडा़ नव तेरही तेरह साख कमंध। इल धूँकल कलि ऊपजे ज्याँ कपिदल दसकंध। रा० रू०, पृ० ७०।

धूँड़ना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'ढूँढ़ना'। उ०—बम्मन आया धूँडत धूँडत लगत लगत गाँव मों। दक्खिनी०, पृ० ४५।

धुँण पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुन'। उ०—रज्जब पीवै धूँण दे। दीरघ दावे गाय। रज्जब०, पृ० १०।

धूँध
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुँध'। उ०—धूम धूँध छाई धर अंबर चमकत बिच बिच जाल। सूर (शब्द०)।

धूँधय पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुँध'। उ०—भिरे भय धोम सु धूँधय भार। पृ० रा०, १९। २०।

धूँधर (१)
वि० [सं० धुंध] धुँधला।

धूँधर (२)
संज्ञा स्त्री० १. हवा में छाई हुई धूल। उ०—झिर पिचकारी की मची आँधी उड़त गुलाल। यह धूँधरि धँसि लीजिए पकरि छबीले लाल। स० सप्तक, पृ० ३६०। २. अँधेरा जो हवा में छाई हुई धूल के कारण हो। ३. धूमधाम। उत्सव। उ०— धूँधर करो भली हिलि मिलि कै अंधाधुँध मचो री। न सूझत कछु चहुँ ओरी। भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७९२।

धूँधरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूँधर'। उ०—धूँधरि चिलक चौंध बीच कौंध सों टिकै। घनानंद, पृ० ४४।

धूँधरी
वि० स्त्री० [हिं० धूँधर] दे० 'धुँधली'। उ०—कुसुम धूरि धूँधरी सु कुंजै। नंद० ग्रं० पृ० १६५।

धूँधला †
वि० [हिं० धुँधला] दे० 'धुँधला'।

धूँधाना पु
क्रि० अ० [हिं० धुँध] धुआँ देना। धुआँ देते हुए धीरे धीरे जलना। उ०—दव की दाधी लाकड़ी सिलग सिलग धूँधाय। राम० धर्म०, पृ० १९।

धूँधूँकार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुँधुकार'। उ०—उनमन जोगी दसवैं द्वार। नार ब्यंद ले धूँधूँकार। गोरख०, पृ० ४७।

धूँसा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धौंसा'।

धू पु (१)
वि० [सं० ध्रुव] स्थिर। अचल।

धू पु (२)
संज्ञा पुं० १. ध्रुव तारा। २. दे० 'ध्रुव'। उ०—रामकथा बरनी न बनाय, सुनी कथा प्रहलाद न धू की। तुलसी (शब्द०)। ३. धुरी। उ०—श्री हरिदास के स्वामी स्यामा को समयो अब नीको हिलि मिलि केलि अटल भई धू पर। स्वामी हरिदास (शब्द०)।

धू (३)
संज्ञा पुं० [?] सिर। उ०—मृदुल महान बातैं सुनि धू धुन्यौ करै। नट०, पृ० ९९।

धू पु (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहिना] दे० 'धी'। उ०—पिंगल राजा तास धु मेल्ह्या थाँकइ पास। ढोला०, दू० १९९।

धूआँ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धूआँ'। मुहा०—धूआँ धक्कड़ मचाना = हलचन पैदा करना। उपद्रव करना।

धूआँधार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुआँधार'।

धूँई
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूआँ] धूनी।

धूक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. धूर्त मनुष्य। ३. काल। ४. अग्नि (को०)।

धूक (२)
संज्ञा पुं० [फा़० दूक (= तकला)] कलाबत्तू बटने की सलाई।

धूकना पु †
क्रि० अ० [हिं० ढुकना] किसी ओर बढ़ना या झुकना। उ०—हस्ती घोड़ धाइ जो धूका। ताहि कीन्ह सों रुहिर भभूका। जायसी (शब्द०)।

धूजट पु
संज्ञा पुं० [सं० धूर्जटि] शिव। महादेव।

धूड़ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'धुल'। उ०—मोती धूड़ मिलाविया, तैं सादूल तमांम। बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ३५।

धूड़ि
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूल'। उ०—खोजे बाबू हथ्थड़ा धूड़ि मरेसी मूठि। ढोला०, दू० ३६१।

धूणक
संज्ञा पुं० [सं०] धूप का धुआँ या धूनी [को०]।

धूत (१)
वि० [सं०] १. कंपित। कँपता हुआ। थरथराता हुआ। डग- मगाता हुआ। हिलता हुआ। २. जो धमकाया गया हो। जो डाँटा गया हो। ३. त्यक्त। छोड़ा हुआ। ४. तर्कित। सुविचारित। उ०—धो दिया श्रेष्ठ कुल धर्म धूत। अपरा, पृ० २०२।

धूत पु † (२)
वि० [सं० धूर्त] धूर्त। दगाबाज। उ०—(क) ऐसेई जन धूत कहावत। सूर (शब्द०)। (ख) समय सगुन मारग मिरहिं छन मलीन खल धूत। तुलसी (शब्द०)।

धूत पु (३)
वि० [सं० धावन] दौड़ा हुआ। दौड़कर पहुँचा हुआ। उ०—धूत दूत कलधीत तन हँस सरूप विराज। पृ० रा०, २५। २।

धूत पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० द्यूत] जुआ। उ०—कै करि चोरी धूत हिं खेलौ। कै काहु को गुस्सा झेलौ। चरण० बानी, पृ० २१८।

धूतकल्मष
वि० [सं०] पापमुक्त। निष्पाप। पवित्र [को०]।

धूनगुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सदाचार। २. सद्विचार। सदुपदेश [को०]।

धूतना पु (१)
क्रि० स० [हिं० धूत] धूर्तता करना। धोखा देना। ठगना। उ०—(क) हों तेरे ही संग जरौंगी थह कहि त्रिया धूति धन खायो। सूर (शब्द०)। (ख) सत्य वचन मानस विमल कपट रहित करतूति। तुलसी रघुबर सेवकहिं सकै न कलियुग धूति। तुलसी (शब्द०)। (ग) तुम गलानि जिय जनि करहु समुझि मातु करतूति। तात कैकइहि दोष नहिं गई गिरा मति धूति। तुलसी (शब्द०)।

धूतना पु (२)
वि० वंचना करनेवाली। छलनेवाली। उ०—इनके वेषमात्र पूतना। महापापिनी जगत धूतना। नंद० ग्रं०, पृ० २७३।

धूतपाप
वि० [सं०] जिसके पाप दूर हो गए हों। जो पाप या दोष से रहित हो गया हो।

धूतपापा
संज्ञा स्त्री० [सं०] काशी की एक पुरानी छोटी नदी या नाला जिसके विषय में कहा जाता है कि वह पंचगंगा के पास गंगा में मिलती थी। यह नदी अब पट गई है। विशेष—काशीखंड में इसके महात्म्य के संबंध में एक कथा है। पूर्व काल में वेदशिरा नामक एक ऋषि वन में तपस्या कर रहे ते। उस वन में शुचि नाम की एक अप्सरा को देख मुनि ने कामातुर होकर उसके साथ संभोग किया। संभोग से धूतपापा नाम की कन्या उत्पन्न हुई। पिता की आज्ञा से वह कन्या घोर तप करने लगी। अंत में ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर उसे वर दिया तू संसार में सबसे पवित्र होगी, तेरे रोम रोंम में सब तीर्थ निवास करेंगे। एक दिन धूतपापा को अकेले देख धर्म नामक एक मुनि उससे विवाह करने के लिये कहने लगे। धूतपापा ने पिता की आज्ञा लेने के लिये कहा। पर धर्म बार- बार उसी समय गाँधर्व विवाह करने का हठ करने लगे। इस पर धूतपापा ने क्रुद्ध होकर शाप दिया, 'तुम जड़ नद होकर बहो'। धर्म ने धूतपापा को शाप दिया', तुम पत्थर हो जाओ'। पिता ने जब यह वृतांत सुना तब कन्या से कहा, 'अच्छा तू काशी में चंद्रकांत नाम की शिला होगी। चंद्रोदय होने पर तुम्हारा शरीर द्रवीभूत होकर नदी के रूप में बहेगा और तुम अत्यंत पवित्र होगी। उसी स्थान पर धर्म भी धर्मनद होकर बहेगा और तुम्हारा पति होगा। महाभारत (भीष्म पर्व ९ अ०) में भी धूतपापा नाम की एक नदी का उल्लेख है पर कुछ विवरण नहीं है। इससे कह नही जा सकता कि इसी नदी से अभिप्राय है या किसी दूसरी से।

धूता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्री। भार्या।

धूता पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूर्तता'। उ०—माता सों इन कीन्हीं धूता। कबीर सा०, पृ० २४८।

धूतारा पु
वि० [हिं०]दे० 'धूर्त'। उ०—धूतारा ते जे धूतै आप, भिष्या भोजन नहीं संताप। गोरख०, पृ० १६।

धूताई
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूत] धूर्तता। छल। कपट।

धूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कंपन। हिलना। २. हवा करना। ३. हठयोग के अंतर्गत शरीरशुद्धि की एक क्रिया [को०]।

धूती
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक चिड़िया। उ०—बाँसा बटेर लव और सिचान। धूती रु चिप्पका चटक भान। सूदन (शब्द०)।

धूधल पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूँधर' (२)। उ०—मै भइ धूधल तू सूरज मेरा। माधवानल०, पृ० १९६।

धूधू
संज्ञा पुं० [अनु०] आगे के दहकने का शब्द। आग की लपट उठने का शब्द। उ०—चार जने मिल खाट उठाइन चहुँ दिस धूधू ऊठल हो। कहल कबीर सुनो भाई साधो जग से नाता छूटल हो। कबीर श०, भा० १, पृ० ३।

धून (१)
वि० [सं०] १. कंपित। २. गरमी अथवा प्यास से पीड़ित (को०)।

धून (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दून'।

धूनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिलाने डुलानेवाला। चालाक। २. साल का गोंद। राल। ३. धूप।

धूनन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हवा। २. कंपन। ३. विचलन। क्षोभ [को०]।

धूनना पु (१)
क्रि० स० [हिं० धूनी] धूनी देना। किसी वस्तु को जलाकर उसका धुआँ उठाना। सुलगाना। जलाना। उ०— पाँवरनि पाँवड़े परे हैं पुर पौरि लगि धाम धाम धूपनि के धूम धूनियत हैं। देव (शब्द०)।

धूनना (२)
क्रि० स० [हिं० धुनना] दे० 'धुनना'।

धूना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धूनी] गुग्गुल की जाति का एक बड़ा पेड़ जो आसाम तथा खसिया की पहाड़ियों पर बहुत होता है। विशेष—इसका गोंद भी धूप की तरह जलाया जाता है और यह वारनिश बनाने के काम में आता है।

धूना (२)पु
संज्ञा [हिं०] दे० 'धूनी'। उ०—पंचम नाम हरी पद सूना। छठवाँ चदर अधर पर धूना। घट०, पृ० १६।

धूनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिलाना। कँपाना [को०]।

धूनित पु
वि० [हिं०] दे० 'ध्वनित'। उ०—ताकरि सब बन धूनित कियौ। काहू माँझ रह्यौ नहिं हियौ। नंद० ग्रं०, पृ० २९३।

धूनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूई] १. गुग्गुल, लोबान आदि गंधद्रव्यों या और किसी वस्तु को जलाकर उठाया हुआ धुआँ। धूनी। धूप। मुहा०—धूनी देना = गंध मिश्रित या विशेष प्रकार का धुआँ उठाना या पहुँचाना। जैसे, इसे मिर्चों की धूनी दो तो भूत छोड़ेगा। २. वह आग जिसे साधु या तो ठंढ से बचने के लिये अथवा शरीर को तपाने या कष्ट पहुँचाने के लिये अपने सामने जलाए रहते हैं। साधुओं के तापने की आग। उ०—विहरागिन धूनी चारों ओर लगाई। भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४५९। मुहा०—धूनी जगना या लगना = (साधुओं के पास की) (१) आग जलना। (२) शरीर तपाना। तप करना। (३) साधु होना। विरक्त होना। योगी होना। धूनी रमाना = (१) सामने आग जलाकर शरीर तपाने बैठना। तप करना। (२) साधु हो जाना। विरक्त हो जाना। घर बार छोड़ देना।

धूनी पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुनिया'। उ०—रजं मोद बंकी करक्की कमानं। धुनै तूल धूनी मनो कट्ठ यानं। पृ० रा०, १२। १६।

धूप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवपूजन में या सुगंध के लिये कपूर, आग, गुग्गुल, आदि गंधद्रव्यों को जलाकर उठाया हुआ धुआँ। सुगंधित धूम। क्रि० प्र०—देना। . गंधद्रव्य जिसे जलाने से सुगंधित धुआँ उठता और फैलता है। जलाने पर महकवाली चीज। विशेष—धूप के लिये पाँच प्रकार के द्रव्यों में से किसी न किसी का व्यवहार होता है—(१) निर्यात अर्थात् गोंद। जैसे, गुग्गुल, राल। (२) चूर्ण। जैसे, जायफल का चूर्ण। (३) गंध। जैसे, कस्तूरी। (४) काष्ठ। जैसे, अगर की लकड़ी। (५) कृत्रिम अर्थात् कई द्रव्यों के योग के बनाई हुई धूप। कृत्रिम धूप कई प्रकार की होती है; जैसे, पंचांग धूप, अष्टांग धूप, दशांग धूप, द्वादशांग धूप, षोडशांग धूप। इनमें से दशांग धूप अधिक प्रसिद्ध है जिसमे दस चीजों का मेल होता है। ये इस चीजें क्या क्या होनी चाहिए इसमें मतभेद है। पद्यपुराण के अनुसार कपूर, कुष्ठ, अगर, चंदन, गुग्गुल, केसर, सुगंधबाला तेजपत्ता, खस और जायफल से दस चीजें होनी चाहिएँ। सारांश यह कि साल और सलई का गोंद, मैनसिल, अगर, देवदार, पद्याख, मोचरस, मोथा, जटामासी इत्यादि सुगंधित द्रव्य धूप देने के काम में आते हैं।

धूप (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. सूर्य का प्रकाश और ताप। घाम। आतप। जैसे,—धूप में मत निकलो। मुहा०—धूप खाना = इस स्थिति में होना कि धूप ऊपर पड़े। धूप में गरम होना या तपना। जैसे,—(क) चार दिन धूप खायगी तो लकड़ी सूख जायगी। (ख) जाड़े में लोग बाहर धूप खाते हैं। धूप खिलाना = धूप में रखना। धूप लगने देना। धूप चढ़ना = सूर्योदय के पीछे प्रकाश और ताप फैलना। घाम आना। धूप पड़ना = सूर्य का ताप अधिक होना। धूप में बाल या चूँड़ा सफेद करना = बूढ़ा हो जाना और कुछ जानकारी न प्राप्त करना। बिना कुछ अनुभव प्राप्त किए जीवन का बहुत सा भाग बिता देना। धूप लेना = गरमी के लिये शरीर को धूप में रखना। धूप ऊपर पड़ने देना। जैसे, जाड़े में धूप लेने के लिये बाहर बैठना। २. चीढ़ या धूप सरल नाम का वृक्ष जिससे गंधाबिरोजा निक- लता है। वि० दे० 'चीढ़'।

धूपक
संज्ञा पुं० [सं०] धूप आदि सुगंधित वस्तुएँ बेचनेवाला। गंधी [को०]।

धूपघड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूप + घड़ी] एक यंत्र जिससे धूप में समय का ज्ञान होता है। विशेष—काठ या धातु का एक गोल चक्कर बनाकर उसके चार भाग कर ले और एक एक भाग में छह छह समान भाग करे और उस चक्कर की कोर थोड़ा छोड़ दे। उस कोर में साठ भाग करे और बीच में एक एक अंगुल चौड़ी दो पट्टियाँ ऐसी लगावे जिनसे उस चक्कर के चार विभाग पूरे हो जायँ। दोनों पट्टियाँ जहाँ मिलें वहीं बीचोबीच एक छेद करके एक कील लगा दे और चुंबक की सुई से या और किसी प्रकार उत्तर दक्षिण दिशा ठीक ठीक जान ले। उस स्थान के जितने अक्षांश हों उतनी वह कील उत्तर की ओर उठी रहे। उस कील की छाया मध्याह्न से पहले पश्चिम की ओर और मध्याह्न के पीछे पूर्व की ओर पड़ेगी। मध्याह्न के चिह्न से पश्चिम की ओर जिस चिह्न पर छाया हो उतनी ही घड़ी मध्याह्न में घटती जाने। इसी प्रकार पूर्व का भी जान ले।

धूपछाँव
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूप + छाँव] धूप और छाया। प्रकाश और छाया। मुहा०—धुपछाँव होना = कभी धूप कभी छाया की तरह बराबर बदलते रहना। उ०—जमाना क्या धूपछाँव है। यही जोगिन अभी कल तक खाना खराब थी आज यह ठाठ हैं कि सदहा आदमी इनके सबब से परिवरिश पाते हैं। फिसाना०, भा० ३, पृ० १।

धूपछाँह
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूप + छाँह] एक रंगीन कपड़ा जिसमें एक ही स्थान पर कभी एक रंग दिखाई पड़ता है कभी दुसरा। विशेष—यह कपड़ा इस प्रकार बुना जाना है कि ताने का सूत एक रंग का होता है और बाने का दूसरे रंग का। इसी से देखनेवाले की स्थिति और कपड़े की स्थिति के अनुसार कभी एक रंग दिखाई पड़ता है, कभी दूसरा। दो रंगों में से एक रंग लाल होता है, दूसरा हरा, नीला या बैंगनी। यौ०—धूपछाँह का रंग = दो इस प्रकार मिले हुए रंग कि एक ही स्थान पर कभी एक रंग दिखाई पड़े, कभी दूसरा।

धूपछाँही
वि० [हिं० धूपछाँह] विविध। वह रूप जिसमें एक प्रकट होता है और दूसरा छिपता है। उ०—उन सभी साहित्यकारों की वाणी में ओज, शक्ति, आशा तथा सरल आकांक्षा के अनेक धूपछाँही रूप सजीव हो उठे हैं। इति०, पृ० २२।

धूपट पु
क्रि० वि० [?] पूर्ण रुप से। उ०—धूपट तीनूँ लोक धुजायो, जैत करी जम जीत। रघु०, रू०, पृ० २११।

धूपदान
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूपदान] १. धूप रखने का डिब्बा या बरतन। २. वह बरतन जिसमें गंधद्रव्य या धूपबत्ती रखकर सुंगध के लिये जलाई जाती है। अगियारी।

धूपदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूपदान] धूप रखने का छोटा बरतन।

धूपन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० धूपित] १. धूप देने की क्रिया। गंधद्रव्य जलाकर सुगंधित धुआँ उठाने का कार्य। २. धूप द्रव्य (को०)। ३. केतु का अदर्शन (ज्योतिष) (को०)।

धूपना पु० † (१)
क्रि० अ० [सं० धूषन] धूप देना। गंधद्रव्य जलाना।

धूपना (२)
क्रि० स० धूप देना। गंधद्रव्य जलाकर सुगंधित धुआँ पहुँ- चाना। सुगंधित धुएँ से बासना। उ०—बारन धूपि अगारन धूपि कै धूम अँध्यारी पसारी महा है। मतिराम (शब्द०)।

धूपना (३)
क्रि० स० [सं० धूपन (= संतप्त वा श्रांत होना)] दौड़ना। हैरान होना। विशेष—केवल समस्त पद में इसका प्रयोग होता है। यौ०—दौड़ना धूपना।

धूपपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] धूप रखने का बरतन। वह बरतन जिसमें गंध द्रव्य जलाकर धूप देते हैं।

धूपबत्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूप + बत्ती] मसाला लगी हुई सींक या बत्ती जिसे जलाने से सुगंधित धुआँ उठकर फैलता है।

धूपवास
संज्ञा पु० [सं०] स्नान के पीछे सुगंधित धुएँ से शरीर, बाल आदि बासने का कार्य। विशेष—प्राचीन काल में भारतवासी स्नान के उपरांत कुछ काल सुगंधित धुएँ में रहकर गीले शरीर या बाल को सुखाते थे जिसमें वह सुगंध से बस जाय। रघुवंश, मेघदूत आदि काव्यों में इस प्रथा का उल्लेख है।

धूपवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सलई या गुग्गुल का पेड़ जिसका गोंद धूप की सामग्री है। सरल वृक्ष।

धूपसरल
संज्ञा पुं० [सं० सरल] चीड़ का वृक्ष जिससे गंधाबिरोजा निकलता है। वि दे० 'चीढ़'।

धूपांग
संज्ञा पुं० [सं० धूपाङ्ग] सरल का पेड़ [को०]।

धूपाथित
वि० [सं०] १. सुगंधित धुएँ से बसा हुआ। धूप दिया हुआ। २. चलने आदि से थका हुआ। हैरान। श्रांत और संतप्त।

धूपिक
संज्ञा पुं० [सं०] धूप आदि सुगंधित वस्तुएँ बेचनेवाला।

धपित
वि० [सं०] १. धूप दिया हुआ। सुगंधित धुएँ से बसा हुआ। उ०—सेज बसन सब धूपित करै। नंद० ग्रं०, पृ० १५५। २. चलने आदि से थका हुआ। हैरान। श्रांत और संतप्त।

धूम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धुआँ। धूआँ। पर्या०—मरुद्धाह। खतमाल। शिखिध्वज। अग्निवाह। तरी। २. अजीर्ण या अपच में उठनेवलाली डकार। ३. विशेष प्रकार का धुआँ जिसका कई रोगों में सेवन कराया जाता है। विशेष—सुश्रुत ने पाँच प्रकार के धूम कहे हैं—प्रायोगिक (जो मसाले से लपेटी हुई सींक जलाने से हो); स्नेहन (जो बत्ती में मसाला लपेटकर घी या तेल में जलाने से हो), वैरेचन (जो पिप्पली, विडंग, अपामार्ग इत्यादि नस्य द्रब्यों की बत्ती से हो), कासघ्न (जो काकड़ासिंगी, कंटकारी, बृहती आदि कासघ्न औषधों की बत्ती से हो), और वामनीय (जो स्नायु, चमड़े, सींग, सूखी मछली या कृमि आदि को जलाने से हो)। ४. धूमकेतु। ५. उल्कापात। ६. एक ऋषि का नाम।

धूम२
संज्ञा स्त्री० [सं० धूम (= धूआँ)] १. बहुत से लोगों के इकट्ठे होने, आने जाने, शोर गुल करने, हिलने डोलने आदि का व्यापार। रेलपेल। हलचल। अंदोलन। जैसे, मेले तमाशे की धूम, उत्सव की धूम। लूटमार की धूम। क्रि० प्र०—मचना। मचाना। २. हल्ला और उछल कूद। उपद्रव। उत्पात। ऊधम। जैसे,—यहाँ धूम मत मचाओ, और जगह खेलो। उ०—बंदर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा। हरिश्चंद्र (शब्द०)। मुहा०—धूम डालना = ऊधम करना। हल्ला गुल्ला करना। उ०—तेरे रुखसार व कद में धूम डाला है गुलिस्ताँ में। उधर बुलबुल सिसकती है इधर कुमरी बिलकती है। कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४३। ३. भीड़ भाड़ और तौयारी। ठाट वाट। समारोह। भारी आयो- जन। जैसे,—बारात बड़ी धूम से निकली। उ०—धाई धाम धाम धूम धौसा की धुकार धूरि। हम्मीर०, पृ० २४। यौ०—धूमधड़क्का। धूमधाम। ४. कोलाहल। हल्ला। शोर। उ०—टूटयो धनुष धूम भइ भारी। कबीर सा०, पृ० ३७। ५. चारों ओर सुनाई देनेवाली चर्चा। जनरव। शुहरत। प्रसिद्धि। जैसे,—शहर में इस बात की बड़ी धूम हैं। मुहा०—धूम होना = धाक या प्रतिष्ठा होना। प्रभाव होना। उ०—स्वर्ग में हमारी धूम थी। चुभते० (दो दो बातें), पृ० १।

धूम (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक घास जो तालों में होती है।

धूमक
संज्ञा पुं० [सं०] १. धुआँ। २. एक शाक का नाम।

धूमकधूया
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूम] उछल कूद और हल्ला गुल्ला। उपद्रव। उत्पात। शोरगुल। क्रि० प्र०—मचना। मचाना।

धूमकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि (जिसकी पताका धुआँ है)। १. केतु ग्रह।

धूमकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि (जिसकी पताका धुआँ है)। २. केतुग्रह (जिसका चिह्न है धुएँ या भाप के आकार की पुँछ)। पुच्छल तारा। विशेष—दे० 'केतु'। ३. शिव। महादेव। ४. वह घोड़ा जिसकी पूँछ में भँवरी हो। विशेष—ऐसा बोड़ा बहुत अमंगल समझा जात है। ५. रावण की सेना का एक राक्षस। उ०—कुमुख, अकंपन, कुलि- सरद, धूमकेतु अतिकाय। तुलसी (शब्द०)।

धूमगंदि
संज्ञा पुं० [सं० धूमगन्धि] रोहिष तृण। रूसा घास।

धूमगंधिक
संज्ञा पुं० [सं० धूमगन्धिक] धूमगंधि [को०]।

धूमग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] राहुग्रह।

धूमज
संज्ञा पुं० [सं०] १. (धुएँ से उत्पन्न) बादल। २. मुस्तक। मोथा।

धूमजांगज
संज्ञा पुं० [सं० धूमजाङ्गज] वज्रक्षार। नौसादर।

धूमजात
संज्ञा पुं० [सं०] बादल। उ०—रुख रूखे भौहें सतर नहिं सोहे ठहरात। मान हितू हरि बात तें धूमजात लों जात। स० सप्तक, पृ० २६७।

धूमदर्शी
संज्ञा पुं० [सं० धूमदर्शिन्] वह मनुष्य जिसकी आँख के सामने धुआँ सा दिखाई पड़ता हो। धुँधला देखनेवाल आदमी। विशेष—सुश्रुत के अनुसार धुँधला दिखाई पड़ने का रोग शोक, श्रम और सिर की पीड़ा के कारण होता है।

धूमधड़क्का
संज्ञा पुं० [हिं० धूम + धड़ाका] भीड़ भाड़ और तौयारी समारोह। बारी आयोजन। ठाट बाट। जैसे,—ब्याह में धूम धड़क्का मत करना। क्रि० प्र०—करना। होना।

धूमधर
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि। आग।

धूमधाम
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूम + अनु० धाम] भीड़ भाड़ और तैयारी। टाठ बाट। समारोह। भारी आयोजन। जैसे,—बड़ी धूम धाम से सवारी निकली। उ०—धूमधाम धुंधारित भूमि असमान न सुज्झै। हम्मीर०, पृ० ३१। क्रि० प्र०—करना। होना।

धूमधामी
वि० [हिं० धूमधाम] १. धूमधाम से युक्त। तड़क भड़कवाला। २. आडंबरपूर्ण। दिखावटी।

धूमध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि। आग।

धूमन
संज्ञा पुं० [सं०] केतु का अदर्शन या अस्पष्टता [को०]।

धूमप
वि० [सं०] केवल होम का धुआँ पीकर तपस्या करनेवाला [को०]।

धूमपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूआँ निकलने का रास्ता। २. पितृयान।

धूमपान
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार विशेष प्रकार का धुआँ जो नल के द्वारा रोगी को सेवन कराया जाता है। विशेष—नेत्ररोग तथा फोड़े फुंसी आदि में सुश्रुत ने कुछ मसालों तथा ओषधियों के धुएँ को नल के द्वारा मुँह में खींचने का विधान बताया है। २. तमाकू, चुरुट आदि पीने का कार्य।

धूमपोत
संज्ञा पुं० [सं०] धुआँकस। अगिनबोट।

धूमप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नरक जो सदा धुएँ से भरा रहता है।

धूमयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] (धुएँ से उत्पन्न) बादल।

धूमर † (१)
वि० [हिं०] दे० 'धूसल'। उ०—धूमर धूलि आन रन जोती। हिं०, क० का०, पृ० २२३।

धूमर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० धूम्र] दे० 'धूम्र'। उ०—उण ठोड जिण रा रिषां आश्रय जाग धूमर जागिया। रघु० रू०, पृ० १२६।

धूमरज
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर का धुआँ। २. घर के धुएँ की कालिख जो छत और दीवार में लग जाती है।

धूमरा †
वि० [सं० धूम्र] [वि० स्त्री० धूमरी] कृष्ण लोहित वर्ण का। धुएँ के रंग का। कालापन लिए हुए लाल। सुँधनी रंग का।

धूमरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक प्रकार का खेल। वि० दे० 'झूमर'। उ०—बड़े खिरकि में धूमरि खेलत। नंद० ग्रं०, पृ० ३८७।

धूमरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुहरा [को०]।

धूमल (१)
वि० [सं०] धुएँ के रंग का। लालिमा युक्त काले रंग का। सुँधनी रंग का।

धूमल (२)
संज्ञा पुं० १. बैंगनी रंग। २. एक वाद्य [को०]।

धूमलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] टेढ़े मेढ़े धुएँ की राशि। कुँचित धूमराशि [को०]।

धूमला
वि० [सं० धूजल] [स्त्री० धूमली] १. धुएँ के रँग का। ललाई लिए काले रंग का। सुँधनी रंग का। २. धुँधला। जो चटकीला न हो। जो शोख न हो। ३. जिसकी कांति मंद हो। मलिन। उ०—जैसे, यह बात सुनते ही उसकी चेहरा धूमला पड़ गया। क्रि० प्र०—करना। पड़ना। होना।

धूमली (१)
वि० [हिं० धूमिल] धुँधला। धूमिल। उ०—धूमली रत्ति में बँक षग, मनों चंद ह्वै विस्तिरिय। पृ० रा०, ११। ५३।

धूमली (२)
क्रि० स० [?] कँपाना। हिलाना। उ०—धजा पताष धूमली, समूह सेन संमली। दईत दूत दौरयं, करै सनाह जोरयं। पृ० रा०, २। १५।

धूमवान्
वि० [सं० धूमवत्] [स्त्री० धूमवती] जिसमें या जहाँ धुआँ हो। धुएँवाला। विशेष—बाहुल्य या अधिकता के अर्थ में धूमी विशेषण होता है।

धूमसंहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] धूमराशि [को०]।

धूमसपूत पु
संज्ञा पुं० [हिं० धूम + सपूत] मेष। उ०—मुदिर बलाहक तड़ितपति कामुक धूमसपूत। अनेकार्थ०, पृ० ८२।

धूमसार
संज्ञा पुं० [सं०] घर का धुआँ।

धूमसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धुआँस। उरद का आँटा। विशेष—यह शब्द भावप्रकाश में मिलता है, किसी प्राचीन ग्रंथ में नहीं; इससे गढ़ा हुआ जान पड़ता है। २. उरद का बड़ा (को०)।

धूमांग (१)
वि० [सं० धूमाङ्ग] जिसका अंग धुएँ के सामन हो।

धूमांग (२)
संज्ञा पुं० शीशम का पेड़।

धूमाक्ष
वि० [सं०] [वि० स्त्री० धूमाक्षी] धुएँ कै रंग की आँखोंवाला [को०]।

धूमाग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] बिना ज्वाला या लपट की आग (जैसी लपट निकल जाने पर गोहरे या उपले की होती है।

धूमाभ
वि० [सं०] धुएँ के रंग का।

धूमायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धुआँ देना। भाप देना। २. गरमी। ताप [को०]।

धूमायमान
वि० [सं०] धुएँ से परिपूर्ण [को०]।

धूमावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दश महा विद्याओं में से एक देवी। विशेष—तंत्रों में इसकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है। एक बार पार्वती को बहुत भूख लगी और उन्होंने महादेव से कुछ खाने को माँगा। महादेव ने थोड़ा ठहरने के लिये कहा। पर पार्वती क्षुधा से अत्यंत आतुर होकर महादेव को निगल गई। महादेव को निगलने पर पार्वती के शरीर से धुआँ निकलने लगा। अंत में महादेव ने प्रकट होकर कहा—'तुमने जब हमें खाया तब विधवा हो चुकी। हमारे वर से तुम इस वेश में पूजी जाओगी। धूमावती देवी का ध्यान बड़ा मलिन और भयंकर बताया गया है।

धूमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोहरा [को०]।

धूमित (१)
वि० [सं०] १. जिसमें धूआँ लगा हो। २. जो धुएँ से धुँधला हो गया हो (को०)।

धूमित (२)
संज्ञा पुं० तंत्रों के अनुसार वह दूषित मंत्र जो सादे अक्षरों का हो।

धूमिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह दिशा जिसमें सूर्य जानेवाला हो।

धूमिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'धूमी (२)' [को०]।

धूमिल †पु
वि० [सं० धूमल] १ धूएँ के रंग का। ललाई लिएकाला रंग का। २. धुँधला। उ०—मुख अरविंद धार मिलि सोभित धूमिल नील अगाध। मनहु बाल रवि रस समीर संकित तिमिर कूट ह्वै आध। सूर (शब्द०)।

धूमिलता
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूमिल+ ता (प्रत्य०)] धुमिल होने का भाव। धुँधलापन। उ०—तुम विश्वास करो मेरे कंचन तन, चंदन मन पर, धूमिलता की रेख नहीं लग पाएगी। ठंडा०, पृ० ४३।

धूमी (१)
वि० [सं० धूमिन्] जिसमें या जहाँ बहुत धुआँ हो। धुएँ से भरा हुआ। विशेष—जहाँ बाहुल्य या अधिकता का भाव नहीं होता वहाँ धूमवान् रूप होता है।

धूमो (२)
संज्ञा स्त्री० १. अजमीढ की एक पत्नी का नाम। २. अग्नि की एक जिह्वा का नाम।

धूमोत्थ (१)
वि० [सं०] धुएँ से निकला हुआ।

धूमोत्थ (२)
संज्ञा पुं० वज्रक्षार। नौसादर।

धूमोदगार
संज्ञा पुं० [सं०] अजीर्ण या अपच के कारण आनेवाली धुएँ की सी कड़वी डकार।

धूमोपहत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग [को०]।

धूमोपहत (२)
वि० धुएँ के कारण जिसका गला घुट गया हो [को०]।

धूमोर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यमपत्नी। २. मार्कडेय पत्नी।

धूम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] धूमराशि [को०]।

धूम्याट
संज्ञा पुं० [सं०] एक पक्षी। भिंगराज नाम की एक चिड़िया। भृंग।

धूम्र (१)
वि० [सं०] धुएँ के रंग का। कृष्णलोहित। ललाई लिए काले रंग का। सुँघनी या भूरे रंग का। बैंगनी।

धूम्र (२)
संज्ञा पु० १. कृष्णालोहित वर्ण। ललाई लिए काला रंग। सुँघनी या भूरा रंग। २. शिलारस नाम का गंधद्रव्य। ३. एक असुर का नाम। ४. शिव। महादेव। ५. मेढ़ा। ६. कुमार के एक अनुचर का नाम। ७. फलित ज्योतिष में एक योग का नाम। ८. मानिक या लाल का धुँधलापन जो एक दोष समझा जाता है। ९. राम की सेना का एक भालू। १०. पाप (को०)। ११. शरारत। दुष्टता (को०)। १२. ऊँट (को०)।

धूम्रक
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट।

धूम्रकांत
संज्ञा पुं० [सं० धूम्रकान्त] एक रत्न या नग का नाम।

धूम्रकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] भरतराजा के पुत्र का नाम (भागवत)।

धूम्रकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा पृथु के एक पुत्र का नाम। २. कृष्णाशव का एक पुत्र जो अर्चि नाम की स्त्री से उत्पन्न हुआ था (भागवत)।

धूम्रपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधे का नाम जो आयुर्वेद में तीता, रुचिकारक, गरम, अग्निदीपक तथा शोथ, कृमि और खाँसी को दूर करनेवाला माना गया है। पर्या०—सुलभा। स्वयभुवा। गृध्रपत्रा। गृध्राणी। कृमिध्नी।

धूम्रपान
संज्ञा पुं० [सं० धूम्रपान] दे० 'धूम्रपान' [को०]।

धुम्रमलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूली नामक तृण।

धूम्ररुक्
वि० [सं० धूम्ररुच्] कृष्ण लोहित वर्ण का [को०]।

धूम्रलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कबूतर। २. शुंभ नामक दानव का एक सेनापति। विशेष—शुंभ निशुंभ के वध के लिये जब देवी ने एक परम सुंदरी का रूप धारण करके कहा था कि जो मुझे युद्ध में जीतेगा उसे मैं वरमाला पहनाऊँगी तब शुंभ ने उन्हें पकड़ने के लिये इसी धूम्रलोचन को भेजा था।

धुम्रलोहित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शंकर। शिव [को०]।

धूम्रलोहित (२)
वि० गहरा लाल या गुलाबी [को०]।

धूम्रवर्ण (१)
वि० [सं०] धुएँ के रंग का। ललाईपन लिए काला। धूमला।

धूम्रवर्ण (२)
संज्ञा पुं० १. धुएँ का रंग। ललाई लिये काला रंग। २. लोबान (को०)।

धूम्रवर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] माँद में रहनेवाला एक जानवर। लोमड़ी [को०]।

धूम्रवर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।

धूम्रशूक
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट।

धूम्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की ककड़ी। २. दुर्गा (को०)। ३. सूर्य की बारह कलाओं में से एक (को०)।

धूम्राक्ष (१)
वि० [सं०] जिसकी आँखें धूमले रंग की हों।

धुम्राक्ष (२)
संज्ञा पुं० १. रावण का एक सेनापति जो राम-रावण-युद्ध में हनुमान के हाथ से मारा गया था। २०. विंदुवंशीय राजा हेमचंद्र के पुत्र। (भागवत)।

धूम्राक्षि
संज्ञा पुं० [सं०] भद्दे रंग का मोती [को०]।

धूम्राट
संज्ञा पुं० [सं०] धूम्याट पक्षी। भिंगराज।

धूम्राभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. वायुमंडल [को०]।

धूम्रार्चि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की दस कलाओं में से एक। (शारदातिलक)।

धूम्राश्व
संज्ञा पुं० [सं०] इक्ष्वाकुवंशीय एक राजा।

धूम्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीशम का पेड़।

धूर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूल'। उ०—मानुस हो कोइ मुवा नहिं मुवा सो डगर घूर। कबीर ग्रं०, पृ० ३६५।

धूर (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक घास।

धूर (२)
अव्य० [हिं०] दे० 'धुर'। उ०—गर्व गुमान में जो है पूरा रहैं सदा सो धूर अधूरा। कबीर सा०, पृ० ५८९।

धूरकट
संज्ञा पुं० [हिं०] मकान का कुछ पेशगी जिसे असामी जेठ असाढ़ में बनोदर को देते हैं।

धूरजटी पु
संज्ञा पुं० [सं० धूर्वटि] दे० 'धूर्जटि'।

धूरडाँगर
संज्ञा पुं० [देश०] सौंगवाला चौपाया। डोर।

धूरत पु †
वि० [सं० धूर्त] दे० 'धूर्त'। उ०—कपट रूप तुझ सौं मिले करि धूरत का भेष। अर्ध०, पृ० ४४।

धूरतताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूरत + ताई (प्रत्य०)] धूर्तता। छल। उ०—धूरतताई करि नंदलाल। प्रेमघन०, भा० १, पृ० ९८।

धूरधान
संज्ञा पुं० [हिं० धूर + धान] धूल की राशि। गर्द का ढेर। उ०—बानन के वाहिबे की कर में कमान कसि धाई धूरधान आसमान में मढ़ै लगी। पद्माकर (शब्द०)।

धूरधानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूरधान] १. गर्द की ढेरी। धूल की राशि। २. ध्वंस। विनाश। उ०—लंकपुर जारि, मकरी विदारि बार बार जातुधान धारि धूरधानी करि डारी हैं। तुलसी (शब्द०)। ३. पथरकला बंदूक।

धूरवा पु
वि० [हिं०] दे० 'ध्रुव'। उ०—तीजै सुनी जब धूरवा मीति, कछू बिभिचार को मारग लीजै। नट०, पृ० ५६।

धूरसंझा †
संज्ञा स्त्री० [सं० धूलि + संध्या] गोधूली का समय। संध्या।

धूरा
संज्ञा पुं० [हिं० धूर] १. धूल। गर्द। २. चूर्ण। बुकनी। चूरा। मुहा०—धूरा करना या देना = शीत से अंग सुन्न होने पर गरम राख, सोंठ की बुकनी आदि मलना। धूरा देना = इधर उधर की बात कहकर या चापलूसी करके गौं पर लाना। अपने अनुकूल करना। बहकाना। धोखा देना।

धूरि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० धूलि] दे० 'धूल'। उ०—कंटरे कवलु कलेवर मुख माखल धूरि। विद्यापति, पृ० २६५। मुहा०—धूर लपेटा मानिक = धूलि में लिपटने से छिपा हुआ माणिक। सामान्य वेश में असामान्य जन। उ०—फेरे भेख रहै भा तपा। धूरि लपेटा मानिक छपा। जायसी ग्रं०, पृ० ९।

धूरक्षेत्र
संज्ञा पुं० [हिं० धूरि + क्षेत्र] पृथ्वी। धरती। उ०— धूरिक्षेत्र में आइ कर्म करि, हरिपद पावै। नंद० ग्रं०, पृ० १७६।

धूरियाबेला
संज्ञा पुं० [हिं० धूर + बेला] एक प्रकार का बेला।

धूरिया मल्लार
संज्ञा पुं० [हिं० धूर + मल्लार] मल्लार राग का एक भेद।

धूरीण पु
वि० [हिं०] दे० 'धुरीण'। उ०—धूरीण विद्वान् बना दिया। कबीर ग्रं०, पृ० २४७।

धूर्जेटि
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

धूर्जटी
संज्ञा पुं० [सं० धूर्जटि] दे० 'धूर्जटि'। उ०—जटी, पिनाकी, धूर्जटी, नीलकंठ, मृदु, सोइ। नंद० ग्रं०, पृ० ९२।

धूर्त (१)
वि० [सं० धूर्त] १. मायावी। जलौ। //। २. बंचक। प्रतारक। धोका देनावाला। ///। ३. संकट (को०)। ४. क्षतिग्रस्त (को०)। धुर्त (२)— संज्ञा पुं० १. साढित्य में शठ नाटक का एक भेद। २. किए/?/लवण। खारी नमक। ३. लोहकिट्ट। लौहकिट्टी। लोहे की मैल। ४. धतूरा। ५. चोर नामक गंधद्रव्य। ६. जुआरी। ७. दाँवपेंच करनेवाला आदमी। ८. क्षति पहुँचाना (को०)।

धूर्तक
संज्ञा पुं० [सं० धूर्तक] १. जुआरी। २. शृगाल। गीदड़। ३. कौरव्य कुल का नाग। (महाभारत)।

धूर्तकितव
संज्ञा पुं० [सं०] जुआरी [को०]।

धूर्तकृत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा [को०]।

धूर्तकृत् (२)
वि० बेईमान। चालबाज [को०]।

धूर्तचरित
संज्ञा पुं० [सं० धूर्तचरित] १. धूर्तों का चरित्र। २. संकीर्ण नाटक का एक भेद।

धूर्तजंतु
संज्ञा पुं० [सं० धूर्तजन्तु] मनुष्य [को०]।

धूर्तता
संज्ञा स्त्री० [सं० धूर्तता] माया। चालबाजी। वंचकता। ठगपना। चालाकी।

धूर्तमता पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूर्त + मता (मति या बुद्धि)] धूर्तता। धोखा। उ०—धूर्तमता तीन लोक मह आना। कबीर सा०, पृ० ३९७।

धूर्तमानुषा
संज्ञा स्त्री० [सं० धूर्त्तमानुषा] रास्ता।

धूर्तरचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] छल। कपट। धौखा। दुष्टता [को०]।

धूर्कर
संज्ञा पुं० [सं०] बोझा ढोनेवाला। भारवाही।

धूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

धूर्वह (१)
वि० [सं०] १. भार ढोनेवाला। २. कार्य का भार सँभालनेवाला [को०]।

धूर्वह (२)
संज्ञा पुं० बोझ ढोनेवाला जानवर [को०]।

धूर्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रथ का अगला भाग।

धूल
संज्ञा स्त्री० [सं० धूनि] १. मिट्टी, रेत आदि का महीन चूर। रेणु। रज। गर्द। मुहा०—(कहीं) धूल उड़ाना = (१) ध्वंस होना। सत्यानाश होना। बरबादी होना। तबाही आना। (२) उदासी छाना। चहल पहल न रहना। सन्नाटा होना। रौनक न रहना। (किसी की) धूल उड़ाना = (१) दोषों और त्रुटियों का उधेड़ा जाना। बुराइयों का प्रकट किया जाना। बदमासी होना। (२) उपहास होना। दिल्लगी उड़ाना। किसी की धूल उड़ाना = (१) दोषों और त्रुटियों को उधेड़ना। बुराइयों को प्रकट करना। बदनामी करना। (२) उपहास करना। हँसी करना। धूल उड़ाते फिरना = मारा मारा फिरना। जीविका या अर्थसिद्धि के लिये इधर उधर धूमना। दीन दशा में फिरना। ब्याकुल घूमना। धूल उड़ाई जाना रही = तिरस्कार या अवहेलना होना। उ०—धूल उनकी है उडा़ई जा रही। धूल में मिल धूल वे हैं फाँकते। चुमते०, पृ० २७। धूल की रस्सी बटना = ऐसी बात के लिय श्रम करना जो कभी न हो सके। अनहोनी बात के पीछे पड़ना। व्यर्थ परिश्रम करना। धूल चाटना = (१) बहुत गिड़गिड़ाना। बहुत विनती करना। (२) अत्यंत नम्रता दिखाना। धूल छानना = मारा मारा फिरना। हैरान घूमना। जैसे,—तुम्हारी खोज में कहाँ कहाँ कीधूल छानते रहे। (किसी की) धूल झड़ना = (किसी पर) मार पड़ना। पिटना। (विनोद)। (किसी की) धूल झाड़ना = (१) (किसी को) मारना। पीटना। (विनोद)। (२) सूश्रूषा करना। खुशामद करना। जैसे,—उसका तो दिन भर अमीरों की धूल झाड़ते जाता है। (किसी बात पर) धूल डालना = (१) (किसी बात को) इधर उधर प्रकट न होने देना। फैलने न देना। दबाना। (२) ध्यान न देना। जैसे, अपराधों पर धूल डालना। धूल फाँकना = (१) मारा मारा फिरना। दुर्दशा में होना। उ०—धूल उनकी है उड़ाई जा रहो। धूल में मिल धूल वे हैं फाँकते। चुभते०, पृ० २७। (२) सरासर झूठ बोलना। जैसे,—क्यों धूल फाँकते हो, मैने तुम्हें खुद देखा था। धूल में फूल उगाना = निकृष्ट जगह में भी अच्छाई या अच्छी बात दिखाना। उ०—दूसरे धूल में फूल उगाते हैं, हमें फूल में भी धूल ही हाथ आती है। चुभते० (दो दो बातें), पृ० ५। (कहीं पर) धूल बरसना = उदासी बरसना। चहल पहल न रहना। रौनक न रहना। उ०—आज दिन धूल है बरसती वाँ। हुन बरसता रहा जहाँ सब दिन। चुभते०, पृ० २४ धूल में मिलना = नष्ट होना। चौपट होना। खराब होना। ध्वस्त होना। जाता रहना। न रह जाना। उ०—धूल उनकी है उड़ाई जा रही। धूल में मिल धूल वे हैं फाँकते। चुभते०, पृ० २७। धूल में मिल जाना = दे० 'धूल में मिलना'। ड०—धुल में धाक मिल गई सारी। रह गए रोब दाब के न पते। चुभते०, पृ० २४। धूल में मिला देना = दे० 'धूल में मिलाना'। उ०—बीज को धूल में मिलाकर भी। लो नहीं धूल में मिला देते। चुभते०, पृ० ८। धूल में मिलाना = नष्ट करना। चौपट करना। खराब करना। बरबाद करना। धूल में रस्सी बटना = दे० 'धूल की रस्सी बटना'। उ०—धूल में मत बटा करो रस्सी। आँख में धूल डालते क्यों हों। चोखे०, पृ० १६। (कहों की) धूल ले डालना = (कहीं पर) बहुत अधिक और बार बार जाना। बराबर पहुँचा रहना। बहुत फेरे लगाना। धूल हाथ आना = निःसार वस्तु का हाथ लगना। निरर्थक चीज पाना। उ०—दूसरे धूल में फूल उगाते हैं, हमें फूल में भी धूल ही हाथ आती है। चुभते० (दो दो बातें), पृ० ५। धूलि में मिला देना = दे० 'धूल में मिलाना'। उ०— आर्य जाति को धूलि में मिला दिया। प्रेमघन०, भा० २, पृ० २९१। पैर की धूल = अत्यंत तुच्छ वस्तु या व्यक्ति नाचीज। सिर पर धूल डालना = पछताना। सिर धुनना। उ०—पदमिनी गवन हंस गए दूरी। हस्ति लाज मेलहिं सिर धूरी। जायसी (शब्द०)। २. धूल के समान तुच्छ वस्तु। जैसे,—इनके सामने वह धूल है। मुहा०—धूल समझना = अत्यंत तुच्छ समझना। किसी गिनती में न लाना। बिलकुल नाचीज लयाल करना।

धूलक
संज्ञा पुं० [सं०] विष। जहर।

धूलधक्कड़
संज्ञा पुं० [हिं० धूल + धक्का] चारों ओर लड़नेवाली धूल। गर्द गुबार।

धूलधानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धल + धान] चूर चूर होने का भाव। ध्वंस। विनाश। क्रि० प्र०—करना। होना।

धूला
संज्ञा पुं० [देश०] टुकड़ा। खंड। कतरा। उ० इंद्री बस रस कीन्हौ धूला। घट०, पृ० २८७।

धूलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] धूल। गर्द। रेणु। रज।

धूलिकदंब
संज्ञा पुं० [सं० धूलिकदम्ब] एक प्रकार का कदंब।

धूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. महीन जलकणों की झड़ी। २. कुहरा।

धूलिकुट्टिम
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढूह। धुस्स। २. जोता हुआ खेत [को०]।

धूलिकेदार
संज्ञा पुं० [सं०] ढूह। धुस्स। २. जोता हुआ खेत [को०]।

धूलिगुच्छक
संज्ञा पुं० [सं०] अबीर जो होली में डाला जाता है।

धूलिधूसर
वि० [सं० धूलि + धूसर] १. जो धूल से सना हुआ हो। २. जो धूल लगने में भूरे रंग का हो गया हो (को०)।

धूलिधूसरित
वि० [सं० धूलि + धूसरित] दे० 'धूलिधूसर' [को०]।

धूलिध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] वायु।

धूलिपटल
संज्ञा पुं० [सं०] धूल या गंद का बादल [को०]।

धूलिपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] केतकी।

धूलिपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] केतकी [को०]।

धूलियापीर
संज्ञा पुं० [हिं० धूलि + फा़० पीर] एक प्रकार का कल्पित पीर जिसका नाम बच्चे खेल खेल में लिया करते हैं।

धूवाँ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुआँ'।

धूसना †
क्रि० स० [ध्वंसन] १. मर्दित करना। मलना दलना। गींजना। २. ठूसना।

धूसर (१)
वि० [सं०] १. धूल के रंग का। खाकी। ईषत् पांडु वर्ण। मटमैला। मटीला। उ०—संध्या है आज भी तो धूसर क्षितिज में। लहर०, प० ६५। २. धूल लगा हुआ। जिसमें धूल लिपटी हो। धूल से भरा। उ०—(क) धसर धूरि घुटुरुवन रेंगनि बोलनि वचन रसाल की। सूर (शब्द०)। (ख) धुसर धूरि भरे तनु आए। भूपति विहँसि गोद बैठाए। तुलसी (शब्द०)। यौ०—धूलधूसर = धूल से भरा। जिसे गर्द लिपटी हो।

धूसर (२)
संज्ञा पुं० १. मटमैला रंग। पीलापन लिए सफेद रंग। भूरा रंग। २. गदहा। ३. ऊँट। ४. कबूतर। ५. बनियों की एक जाति। ६. तेली (को०)। ७. मटीले रंग की कोई वस्तु (को०)।

धूसरच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद बोना।

धूसरता
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूमर + ता (प्रत्य०)] मटमैलापन। मलिनता। उ०—संध्या की उस धूसरता में उमड़ा करुणा। का उद्रेक। साकेत, पृ० ३६९।

धूसरपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथीसूँड़ का पौधा।

धूसरा (१)
वि० [सं० धसर] [स्त्री० धूसरी] १. धूल के रंग का। मटमैला। खाकी। २. धूल लगा हुआ। जिसमें धूल लिपटी हो। उ०—नियम करत बीते दिवस दूबर अंग लखात। सीस एक बेनी धरे वसन धूसरे गात। लक्ष्मणसिंह (शब्द०)।

धूसरा (२)
संज्ञा स्त्री० पांडुफली।

धूसरित
वि० [सं०] १. धूसर किया हुआ। जो धूल से मटमैला हुआ हो। २. धूल से भरा हुआ। जिसमें धूल चिपटी हो। उ०—बाल विभूषण वसन धर धूरि धूसरित अंग। बालकेलि रघुपति करत बालबंधु सब संग। तुलसी (शब्द०)।

धूसरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक किन्नरी।

धूसरी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूसर'। उ०—धूरि धूसरी खेह रज पाँसु सरकरा मंद। अनेकार्थ०, पृ० ४४।

धूसला
वि० [हिं०] दे० 'धूसरा'। उ०—धुंधी धरा धूसली धूम गुबार। मानौ प्रलैकाल कौ घोर अंध्यार। सूदन (शब्द०)।

धूस्तुर
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा [को०]।

धूस्तूर
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा।

धूह †
संज्ञा पुं० [हिं० दुह] दे० 'ढूह'।

धूहा
संज्ञा पुं० [हिं० ढूह] १. ढूह। २. चिड़ियों को डराने का पुतला, काली हाँड़ी आदि।

धृक
अव्य० [सं० धिक्] दे० 'धिक'। उ०—तुमहि बिना मन धृक अरु धृक घर। तुमहि बिना धृक धृक माता पितु घृक घृक कुल की कान लाज डर। सूर (शब्द०)।

धृग †
अव्य० [हिं०] दे० 'घृक'। उ०—अरु ह्याँ सब कोउ घृग घृग करै। नंद० ग्रं०, पृ० २२५।

घृत (१)
वि० १. धरा हुआ। पकड़ा हुआ। उ०—हुए जीवन मरण के मध्य घृत से वे। साकेत, पृ० ५१। २. धारण किया हुआ। ग्रहण किया हुआ। ३. स्थिर किया हुआ। निश्चित। ४. पतित। ५. तौला हुआ (को०)। ६. तैयार किया हुआ। प्रस्तुत (को०)।

धृत (२)
संज्ञा पुं० १. तेरहवें मनु रौच्य के पुत्र का नाम। २. द्रुह्यु वंशीय धर्म का पुत्र (भागवत)।

धृत (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरना। पतन। २. अस्तित्व। स्थिरता। ३. ग्रहण। पकड़। ४. धारण करने की क्रिया। पहनना। ५. लड़ने की एक पद्धति [को०]।

धृतकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] वसुदेव के बहनोई (गर्गसंहिता)।

धृतदंड
वि० [सं० धृतदण्ड] १. दंड देनावाला। २. जिसको दंड दिया जाय [को०]।

धृतदीधिति
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०]।

धृतदेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवक की एक कन्या का नाम।

धृतपट
वि० [सं०] जिसने वस्त्र धारण किया हो [को०]।

धृतमानस
वि० [सं०] द्दढ़निश्चय [को०]।

धृतमाली
संज्ञा पुं० [सं० धृतमालिन्] अस्त्रों को निष्फल करने का एक अस्त्र। अस्त्रों का एक संहार (रामायण)।

धृतराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह देश जो अच्छे राजा के शासन में हो। २. वह जिसका राज्य द्दढ़ हो। ३. एक कौरव राजा जो दुर्योधन के पिता और विचित्रवीर्य के पुत्र थे। विशेष—इनकी कथा महाभारत में इस प्रकार आई है। पुरुवंश में शांतनु नाम के एक राजा हुए जिन्होंने गंगा से विवाह किया। गंगा से उन्हें देवव्रत नामक पुत्र हुए जो भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए। भीष्म ने विवाह न करने की प्रतिज्ञा करके अपने पिता का विवाह सत्यवती या मत्स्यगंधा से होने दिया। यह सत्यवती जब क्वाँरी थी तभी उसे पराशर से एक पुत्र उत्पन्न हुआ था जिसका नाम द्धैपायन पड़ा था। यही द्वैपायपन महाभारत के कर्ता प्रसिद्ध महर्षि वेदव्यास हुए। सत्यवती के गर्भ से शांतनु को दो पुत्र हुए। विचित्रवीर्य और चित्रांगद। चित्रांगद युवावस्था के पूर्व ही एक गंधर्व द्वारा मारे गए। विचित्रवीर्य राजा हुए और उन्होंने काशिराज की अंबिका और अंबालिका नाम की दो कन्याओं से विवाह किया। कुछ दिन पीछे विचिञवीर्य बिना कोई संतान छोडे़ मर गए। वंश स्थिर रखने के लिये सत्यवती ने अपने पुत्र वेदव्यास को बुलाकर दोनों पुत्रबंधुओं के साथ नियोग करने के लिये कहा। अंबिकाने समागम के समय वेदव्यास का कृष्णवर्ण और जटाजूट देख आँखें मूँद लीं। इसपर वेदव्यास ने कहा कि इसके गर्भ से परम प्रतापी पुत्र उत्पन्न होगा, पर वह अपनी माता के दोष से अंधा होगा। अंबालिका के साथ नियोग होने पर पांडु की उत्पत्ति हुई और सुदेष्णा दासी के साथ नियोग होने पर विदुर का जन्म हुआ। धृतराष्ट्र अंधे थे, इसलिये पांडु राजा हुए। धृतराष्ट्र का विवाह गांधार देश के राजा की कन्या गांधारी से हुआ था। इन्हीं गांधारी के गर्भ से दुर्योधन, दुःशासन, विकर्ण, चित्रसेन इत्यादि सौ पुत्र हुए जो कौरव कहलाए और महाभारत के युद्ध में पांडवों के हाथ से मारे गए। ४. एक नाग का नाम। ५. गंधर्वों के एक राजा का नाम (बौद्ध)। ६. जनमेजय के एक पुत्र का नाम। ७. एक प्रकार का हंस।

धृतराष्ट्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कश्यप ऋषि की पत्नी ताम्रा से उत्पन्न ५ कन्याओं में से एक जो हंसों की आदिमाता थी। २. धृतराष्ट्र की स्त्री।

धृतलक्ष्य
वि० [सं०] जो अपना लक्ष्य प्राप्त करने में लगा हो [को०]।

धृतवर्मा
संज्ञा पुं० [सं० धृतवर्म्मन्] १. वह जो कवच धारण किए हों। २. त्रिगर्त का राजकुमार जिसके साथ अर्जुन को उस समय युद्ध करना पड़ा था जब वे अश्वमेध के घोड़े के साथ गए थे।

धृतविक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तौलकर कोई पदार्थ बेचना (को०)।

धृतव्रत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने व्रत धारण किया हो। २. पुरुवंशीय जयद्रथ के पुत्र विजय का पौत्र। ३. इंद्र (को०)। ४. वरुण (को०)। ५. अग्नि (को०)।

धृतव्रत (२)
वि० १. जिसने कोई व्रत धारण किया हो। धार्मिक क्रिया करनेवाला। निष्ठाशील। जिसकी निष्ठा द्दढ़ हो।

धृतात्मा (१)
वि० [सं० धृतात्मन्] आत्मा को स्थिर रखनेवाला। धीर।

धृतात्मा (२)
संज्ञा पुं० १. धीर पुरुष। २. विष्णु।

धृति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धारण। धरने या पकड़ने की क्रिया। २.स्थिर रहने की क्रिया या भाव। ठहराव। ३. मन की द्दढ़ता चित्त की अविचलता। धैर्य। धीरता। उ०—कृश देह, विभा भरी भरी, धृति सूखी, स्मृति ही हरी हरी। साकेत, पृ० ३२१। विशेष—साहित्यपदर्पण के अनुसार यह व्यभिचारी भावों में से एक है। मनु ने इसे धर्म के दस लक्षणों में कहा है। ४. सोलह मातृकाओं में से एक। ५. अठारह अक्षरों के वृत्तों की संज्ञा। ६. दक्ष की एक कन्या और धर्म की पत्नी। ७. अश्वमेध की एक आहुति का नाम। ८. फलित ज्योतिष में एक योग। ९. चंद्रमा की सोलह कलाओं में से एक। १०. संतोष। आनंद (को०)। ११. विचार। सावधानता (को०)। १२. अठारह (१८) की संख्या (को०)। १३. यज्ञ (को०)।

धृति (२)
संज्ञा पु० १. जयद्रथ राजा का पौत्र। २. एक विश्वदेव का नाम। ३. यदुवंशीय वभु का पुत्र।

धृतिगृहीत
वि० [सं०] धृतिशील। धृतिमान् [को०]।

धृतिमान्
वि० [सं० धृतिमत्] १. धैर्यवान। धीर। उ०—देखकर भी न कदापि अधीर हुए तुम लोकोत्तर धृतिमान्। सागरिका, पृ० ८। २. संतुष्ट (को०)।

धृतिहोम
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह कार्य में किया जानेवाला होम [को०]।

धृत्वरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी [को०]।

धृत्वा
संज्ञा पुं० [सं० धृत्वन्] १. विष्णु। २. ब्रह्मा। ३. सदगुण। धार्मिकता। ४. आकाश। ५. समुद्र। ६. चतुर आदमी [को०]।

धृम पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धर्म'। उ०—च्यारि अंग लछी प्रमान धृम द्वादश अँग दिट्ठा। पृ० रा०, २४। ५७।

धृमजघट पु †
संज्ञा पुं [?] धर्मयुद्ध। उ०—उठे सुण धृमजघट धायो धींग क्रोध उर दारै। रधु० रू०, पृ० १५३।

धृषित
वि० [सं०] बाहादुर। वीर। साहसी [को०]।

धृषु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ढेर। राशि। समूह [को०]।

धृषु (२)
वि० १. बहादुर। वीर। २. चतुर। होशियार [को०]।

धृष्ट (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० धृष्टा] १. संकोच या लज्जा न करनेवाला। जो कोई अनुचित या बेढंगा काम करते हुए कुछ भी न सहमे। निर्लज्ज। बेहया। प्रगल्भ। विशेष—साहित्य में 'धृष्ट नायक' उसको कहते हैं जो अपराध करता जाता है, अनेक प्रकार का तिरस्कार सहता जाता है, पर अनेक बहाने करेक बातें बनाकर नायिका के पीछे लगा ही रहता है। २. अनुचित साहस करनेवाला। ढीठ। गुस्ताख। उद्धत। ३. बहादुर। साहसी (को०)। ४. आत्मविश्वासी (को०)। ५. निर्दयी। क्रूर।

धृष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. चेदिवंशीय कुति का पुत्र (हरिवंश)। २. सप्तम मनु के एक पुत्र का नाम (भागवत)। ३. अस्त्रों का संहार (वाल्मीकि०)। ४. साहित्य के अनुसार वह नायक जो बार बार अपराध करता है, अनेक प्रकार के अपमान सहता है, पर फिर भी किसी न किसी प्रकार बातें बनाकर नायिका के साथ लगा रहता है। उ०—लाज धरै मन में नहीं, नायक धृष्ट निदान। मतिराम (शब्द०)।

धृष्टकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १.चेदि देश के राजा शिशुपाल का पुत्र जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों की ओर से लड़ा था और द्रोणाचार्य के हाथ से मारा गया था। २. जनकवंशीय सुध्वति के पुत्र (रामायण)। ३. मनु रोहित के पुत्र। ४. सन्नति राजवंशीय सुकुमार का एक पुत्र (हरिवंश)।

धृष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ढिठाई। अनुचित साहस। गुस्ताखी। २. निर्लज्जता। संकोच का भाव। बेहयाई।

धृष्टद्युम्न
संज्ञा पुं० [सं०] राजा द्रुपद का पुत्र और द्रौपदी का भाई जो पांडवों की सेना का एक नायक था। विशेष—पृषत राजा का द्रुपद नामक एक पुत्र था। पृषत राजा से भरद्वाज ऋषि की बहुत मित्रता थी, इससे वे नित्य द्रुपद को लेकर ऋषि के आश्रम पर जाया करते थे। क्रमशः द्रुपद और ऋषिपुत्र द्रोण में बड़ा स्नेह हो गया था। द्रुपद जब राजा हुआ तब द्रोण उसके पास गए; पर उसने उनकी अवज्ञा की। इसपर द्रोण दीन भाव से इधर उधर घूमने लगे और अंत में उन्होने कौरवों और पांडवों की अस्त्रशिक्षा का भार लिया। अर्जुन गुरु के अपमान का बदला चुकाने के लिये द्रुपद को बंदी करके लाए। द्रुपद ने द्रोण की आधा राज्य देकर छुटकारा पाया। इस अपमान का बदला लेने के लिये द्रुपद ने याज और अनुयाज नामक दो ऋषिकुमारों की सहायता से एक बड़े यज्ञ का अनुष्ठान किया। इस यज्ञ से एक अत्यंत तेजस्वी पुरुष खड्ग, चर्म, धनुवणि से सुसज्जित उत्पन्न हुआ। देववाणी हुई कि यह राजपुत्र द्रुपद के शोक का नाश करेगा और द्रोणाचार्य का वध इसी के हाथ से होगा। कुरुक्षेत्र के युद्ध में जिस समय द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु की बात सुनकर योग में मग्न हुए थे उस समय इसी धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काटा था। महाभारत के युद्ध के पीछे अश्वत्थामा ने अपने पिता का बदला लिया और सोते में धृष्टद्युम्न का सिर काट लिया।

धृष्टधी
वि० [सं०] निर्लज्ज। बेहया [को०]।

धृष्टमानी
वि० [सं० धृष्टमानिन्] १. अपने को बहुत बड़ा समझनेवाला। २. धृष्ट। ढीठ [को०]।

धृष्टवादी
वि० [सं० धृष्टवादिन्] १. अशिष्टतापूर्वक बात करनेवाला। २. दृढ़ता या साहस से बात करनेवाला [को०]।

धृष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] असती स्त्री। कुलटा [को०]।

धृष्टि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिरण्याक्ष का एक पुत्र। २. दशरथ के एक मंत्री का नाम। ३. एक यज्ञपात्र।

धृष्टि (२)
वि० द्दढ़। साहसी [को०]।

धृष्टि (३)
संज्ञा स्त्री० द्दढ़ता। साहस [को०]।

धृष्णक्
वि० [सं० धृष्णज्] १. बहादुर। साहसी। २. निर्लज्ज। बेहया [को०]।

धृष्णता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धृष्टता।

घृष्णत्व
संज्ञा पुं० [सं०] धृष्टता।

धृणि
संज्ञा पुं० [सं०] किरण।

धृष्णु (१)
वि० [सं०] १. धृष्ट। प्रगल्भ। २. ढीठ। उद्धत। ३. निर्लज्ज। बेहया (को०)। ४. द्दढ़। शक्तिशाली (को०)।

धृष्णु (२)
संज्ञा पुं० १. वैवस्वत मनु के एक पुत्र। २. सावर्ण मनु के एक पुत्र। ३. एक रुद्र का नाम।

धृष्णवोजा
संज्ञा पुं० [सं० धृष्णवोजस्] कातंवीर्य के एक पुत्र।

धृष्य
वि० [सं०] धर्षण योग्य। धर्षणीय।

धेख पु
संज्ञा पुं० [सं० द्वेष ? ] ईर्ष्या। उ०—करबा एक राह मन कीधौ। लेख प्रमाण धेख व्रत लीधौ। रा० रू०, पृ० ५७।

धेठाँ पु
वि० [सं० धृष्ट] ढीठ। धृष्ट। उ०—धेठाँ भणाँ इसारत धारे। बात करै उर घात विचारे। रा० रू०, पृ० २२५।

धेड़ पु
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'धेर'। उ०—जा तन सूँ मुजे कछु नहिं प्यार। असते के नहिं हिंदु धेड चँभार। दक्खिनी०, पृ० १००।

धेड़ी कौवा
संज्ञा पुं० [देश० धेड़ी + हिं० कोवा] बड़ा काला कौवा। डोम कौवा।

धेधक धीना पु
संज्ञा पुं० [अनु०] रास रंग। ताल धिनाधिन। नाच। गान। उ०—धेधक धीना ह्वै गये सु हरिबोलौ हरिबोल। सुंदर ग्रं०, भाग १, पृ० ३१६।

धेन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र। २. नद।

धेन पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० धेनु] दे० 'धेनु'। उ०—बधी धेन मारै। प्रलंबं प्रहारै। पृ० रा० २। ९।

धेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नदी। २. वाणी। ३. दुही गाय [को०]।

धेनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनिया [को०]।

धेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह गाय जिसे बच्चा जने बहुत दिन न हुए हों। सवत्सा गो। पर्या०—नवप्रसूतिका। नवसूतिका। २.गाय। उ०—कौसल्यादि मातु सब आई। निरखि बच्च जनु धेनु लवाई। तुलसी (शब्द०)। ३. पृथ्वी (को०)। ४. भेट (को०)।

धेनुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राक्षस का नाम जिसे बलदेव जी ने मारा ता (हरिवंश)। २. महाभारत के अनुसार एक तीर्थ। यहाँ स्नान करके तिल की धेनु दान करने का विधान है। ३. रतिमंजरी के अनुसार सोलह प्रकार के रतिबंधों में से एक।

धेनुकसूदन
संज्ञा पुं० [सं०] बलराम [को०]।

धेनुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धेनु। २. हस्तिनी स्त्री। ३. उपहार। भेंट (को०)। ४. मादा पशु (को०)। ५. धनिया (को०)। ६. कटार (को०)। ७. पार्वती (को०)।

धेनुदुग्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १.गाय का दूध। २. चिभिंटा।

धेनुदुग्धकर
संज्ञा पुं० [पुं०] बाजार।

धेनुमाक्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़े मच्छड़ जो चौपायों को लगते हैं। डाँसा। डंस।

धेनुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोमती नदी। २. भरतवंशीय देवद्युम्न की पत्नी।

धेनुमुख
संज्ञा पुं० [सं०] गोमुख नाम का बाजा। उ०—बाजे विपुल शंख घरियारा। भेरि धेनुमुख पँवरि दुबारा। सबलसिंह (शब्द०)।

धेनुष्टरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह सवत्सा गाय जिसने दूध देना बंद कर दिया [को०]।

धेनुष्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जो बंधक रखी हो।

धेय (१)
वि० [सं०] १. धारण करने योग्य। धार्य। ध्येय। उ०— धेय सदा पद अंबुज सार। अगणित गुण महिमा जु अपार। नंद० ग्रं०, पृ० ३२६। २. पोषण करने योग्य। पोष्य। ३. पीने योग्य। पीने का। पेय।

धेय (२)
संज्ञा पुं० १. पोषण। २. पान। ३. पकड़। ग्रहण (को०)।

धेयना पु
क्रि० अ० [सं० ध्यान] ध्यान करना। उ०—सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद प्रीति सुधारी। पाइ सुसाहिब राम सो भरि पेट बिगारी। तुलसी (शब्द०)।

धेर
संज्ञा पुं० [देश०] एक अनार्य जाति। विशेष—इस जाति के लोग राजस्थान पंजाब और कहीं कहीं उत्तर प्रदेश के बाहर रहते हैं। राजस्थान में मरे हुए गाय बैल आदि का चमड़ा निकालकर ये चमारों के हाथ बेचते हैं। राजस्थान के धेर सूअर का मांस नहीं खाते।

धेरा †
वि० [देश०] भेंगा।

धेरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घी] लड़की। पुत्री।

धेलचा †
संज्ञा पुं० [हिं० धेला] पुराने आधे पैसे के बराबर का सिक्का। अधेले के मूल्य का सिक्का। विशेष—अब यह सिक्का कहीं नहीं बनता।

धेला †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अधेला'।

धेली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अधेल] आधा रुपया। आठ आने का सिक्का। अठन्नी।

धैताल †
वि० [अनु० धैं + हिं० ताल] १. चपल। चंचल। ३. उजड्ड। उ०—छोड़ विचारे को धैंताल। प्रताप (शब्द०)।

धैनव (१)
वि० [सं०] गाय से उत्पन्न।

धैनव (२)
संज्ञा पुं० गाय का बछड़ा।

धैना (१)
क्रि० स० [हिं० धरना] पकड़ना। उ०—बिहतर कद्दू होय संत से नइ कै चलिए। जुरै सो आगै धरै गोड़ धै सेवा करिए। पलटू०, भा० १, पृ० ५३। यौ०—धै मै = पकड़ पकड़कर। उ०—मँदिल सून पिउ अनतै बसा। सेल नागिनी धै धै डसा। जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३५६।

धैना पु † (२)
क्रि० स० [हिं० धरना या धंधा] १. पकड़ी हुई टेव। आदत। स्वभाव। उ०—कह गिरधर कबिराय फूहर केयाही धैना। कजरौटा नहिं होइ लुकाठै आँजै नैना। गिरिधर (शब्द०)। २. काम धंधा।

धैनु पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धेनु'। उ०—धौरी धूमरि धैनु बिबिध रंग सोभित ठाऊँ ठाऊँ। नंद० ग्रं०, पृ० ३४६।

धैनुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक रतिबंध। २. गायों का झुंड। संपूर्ण० अभि० ग्रं०, पृ० २४९।

धैया धामक धौया पु
संज्ञा पुं० [अनु०] नृत्य का ताल। उ०— धुधुकट धुधुकट धुधुकट धुधुकट घुधुकट धुधुकट। गरे जाल झाँझि परझन कत्त कत्त त्त त्त त्त त्त त्त धैया धामक धैया। अकबरी०, पृ० ४५।

धैर्य
संज्ञा पुं० [सं० धैर्य्य] १. धीरता। चित्त की स्थिरता। संकट, बाधा, कठिनाई या विपत्ति आदि उपस्थित होने पर घबराहट का न होना। अव्यग्रता। अव्याकुलता। धीरज। जैसे,— बुद्धिमान् विपत्ति में धैर्य रखते हैं। २. उतावला न होने का भाव। हड़बड़ी न मचाने का भाव। सब्र। जैसे, थोड़ा धैर्य धरो, अभी वे आते होंगे। ३. चित्त में उद्वेग न उत्पन्न होने का भाव। निर्विकारचित्तता। विशेष—साहित्यदर्पण के अनुसार धैर्य नायक या पुरुष के आठ सत्वज गुणों में से एक है। क्रि० प्र०—छोड़ना। धरना। रखना। ४. साहस (को०)। ५. धृष्टता (को०)।

धैवत
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत के सात स्वरों में से छठा स्वर जो मध्यम के आगे खींचा जाता है। विशेष—नारदीय शिक्षा के अनुसार घोड़े के हिनहिनाने के समान जो स्वर निकले वह धैवत है। तानसेन ने इस स्वर को मेढ़क के स्वर के समान कहा है। संगीतदामोदर के मत से जो स्वर नाभि के नीचे जाकर बस्ति स्थान से फिर ऊपर दौड़ता हुआ कंठ तक पहुँचे वह धैवत है। संगीतदर्पण के मत से यह स्वर ऋषिकुल में उत्पन्न और क्षत्रिय वर्ण का है। इसका वर्ण पीत, जन्मस्थान श्वेतद्वीप, ऋषि तुंबरु, देवता गणेश और छंद उष्णिक् (मतांतर से जगती) माना गया हैं। यह षाड़व जाति का स्वर माना गया हैं। इसकी ७२० तानें मानी गई हैं जिनमें प्रत्येक के ४८ भेद होने से सब ३४,५६० तानें हुईं। श्रुतियाँ इसकी तीन हैं—रम्या, रोहिणी और मदती।

धैवत्य
संज्ञा पुं० [सं०] चतुराई। होशियारी [को०]।

धोँक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धोखा'। उ०—सत गुरु के परताप सो, मिट गए सबही घोंक। कबीर सा०, पृ० ८५७।

धोँडाल
वि० [हिं० धोंधा ? ] (जमीन या मिट्टी) जिसमें ढेले, कंकड़ पत्थर के ढोंके हों।

जोँधका †
संज्ञा पुं० [सं० धूम्र, हिं० धुआँ] [स्त्री० धोंधकी] घर का धुआँ निकलने के लिये चोंगे की तरह निकला हुआ छेद।

धोँधा
संज्ञा पुं० [सं० ढुण्ढि] १. लोंदा। बेडौल पिंडा। उ०—मैं भी मिट्टी का धोंधा ही हूँ। सरस्वती (शब्द०)। २. भद्दा और बेडौल शरीर। मोटी और बेडौल मूर्ति। मुहा०—मिट्टी का धोंधा = (१) मूर्ख। नासमझ। जड़। (२) निकम्मा। आलसी।

धोँधोँ पोँपोँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] धोंधों पोंपों की ध्वनि। उ०—इतने में बाजों की धोंधों पोंपों सुनाई दी। कया०, पृ० ३५८।

धोअन पु
संज्ञा पुं० [हिं] दे० 'धोवन (२)'। उ०—दूसरी ने कहा था, रमानाथ तो उसके पाँवों का धोअन भी नहीं है। ठेठ, पृ० ३१।

धोआउरि पु
वि० [हिं० धोना] धुला हुआ। उ०—बोआउरी धाने मदिरा सांध, देउरी भाँगि मसीद बाँध। कीर्ति०, पृ० ४४।

धोई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धोना] १. छिलका निकाली हुई उरद या मूँग की दाल। विशेष—पानी में भिगोई हुई दाल को हाथ से मलकर छिलका अलग करते हैं इसी लिये दाल को धोई कहते हैं। २. अफीम के बरतन का धोवन।

धोई पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० थवई] राजगीर। थवई। उ०—राजा केर लाग गढ धोई। फूटै जहाँ सँवारै सोई। जायसी (शब्द०)।

धोक पु (१)
संज्ञा पुं० [?] नमस्कार। साष्टांग प्रणाम। उ०—गह चढ़िया संतोष गज, धर पड़ ज्याँ नूँ धोक। चढिया ज्याँ नूँ चहरजे, लालच गरधभ धोक। बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ५६।

धोक पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धोखा'। उ०—आ काठां चढ़सी अवस, धरणीधर दे धोक। बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० २।

धोकड़
वि० [देश०] हट्टा कट्ट। मोटा ताजा। हृष्ट पुष्ट। मुस्टंडा।

धोकड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो राजस्थान में होता है।

धोका † (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तोक, प्रा० थोक] पाँच मुट्ठी भर डंठलों का पूला।

धोका (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धोखा'।

धोख पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धोखा'। उ०—(क) धोख दगा माया काया में, एक तखत बना है। रामानंद०, पृ० ३६। (ख) भाइहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहिं। सुनि सरोष बोले सुभट वीर अधीन न होहिं। तुलसी (शब्द०)।

धोखा
संज्ञा पुं० [सं० धूकता (= धूर्तता)] १. मिथ्या व्यवहार जिससे दूसरे के मन में मिथ्या प्रतीति उत्पन्न हो। धूर्तता या छल जिससे दूसरा भ्रम में पड़े। ऐसी युक्ति या चालाकी जिसके कारण दूसरा कोई अपना कर्तव्य भूल जाय। भुलावा। छल। दगा। जैसे, हमारे साथ ऐसा घोखा। यौ०—घोखा घड़ी। धोखेबाज। २. किसी की धूर्तता, चालाकी, झूठ बात आदि से उत्पन्न मिथ्या प्रतीति। ऐसी बात का विश्वास जो ठीक न हो और जो किसी के रंग ढंग या बात चीत आदि से हुआ हो। दूसरी के छल द्वारा उपस्थित भ्रांति। डाला हुआ भ्रम। भुलावा। मुहा०—धोखा खाना = किसी की धूर्तता था चालाकी न समझकर कोई ऐसा काम कर बैठना जो विचार करने पर ठीक वठहरे। किसी के छल या कपट के कारण भ्रम में पड़ना। ठगा जाना। प्रतारित होना। उ०—और न धोखा देत जो आपुहिं धोखा खात। व्यास (शब्द०)। घोखा देना = (१) ऐसी मिथ्या प्रतीति उत्पन्न करना जिससे दूसरा कोई अयु्क्त कार्य कर बैठे। भ्रम में डालना। भुलावा देना। बुत्ता देना। छलना। जैसे,—लोगों को धोखा देने के लिये उसने यह सब ढंग रचा है। (२) भ्रम में डाल या रखकर अनिष्ट करना। झूठा विश्वास दिलाकर हानि करना। विश्वासघात करना। किसी को ऐसी हानि पहुँचाना जिसके संबंध में वह्न सावधान न हो। जैसे, यह नौकर किसी न किसी दिन धोखा देगा। उ०—रहिए लटपट काटि दिन बरु घामहिं में सोय। छाँह न वाकी बैठिए जो तरु पतरो होय। जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा दैहै। जा छिन बहै बयार टूटि वह जर से जैहै। गिरिधर (शब्द०)। (३) अकस्मात् मरकर या नष्ट होकर दुःख पहुँचाना। जैसे,—(क) इस बुढ़ापे में वह पुत्र को लेकर दिन काटता था, उसने भी धोखा दिया (अर्थात् वह चल बसा)। (ख) यह चिमनी बहुत कमजोर है किसी दिन धोखा देगी। ३. ठीक ध्यान न देने या किसी वस्तु के बाहरी रूप रंग आदि से उत्पन्न मिथ्या अतीति। असत् धारणा। भ्रम। भ्रांति। भूल। जैसे, (क) इस रँगे पत्थर को देखने से असल नग का धोखा होता है। (ख) तुम्हारे सुनने में धोखा हुआ, मैने ऐसा कभी नहीं कहा था। उ०—पंडित हिये परै नहिं धोखा। जायसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—होना। मुहा०—धोखा खाना = भ्रम में पड़ना। भ्रांत होना। और का और समझना। उ०—जिमि कपूर के हंस सों हंसी धोखा खाय। हरिश्चंद्र (शब्द०)। धोखा पड़ना = भूल चूक होना। भ्रम होना। ४. ऐसी वस्तु या विषय जिससे मिथ्या प्रतीति उत्पन्न हो। भ्रांति उत्पन्न करनेवाली वस्तु या आयोजन। भ्रम में डालनेवाली वस्तु। असत् वस्तु। माया। जैसे,—(क) यह संसार धोखा है। (ख) राम भरोसा भारी है और सब धोखा धारी है। मुहा०—धोखे की टट्टी = (१) वह परदा या टट्टी जिसकी ओट में छिपकर शिकारी शिकार खेलते हैं। (२) यथार्थ वस्तु या बात को छिपानेवाली वस्तु। भ्रम में डालनेवाली चीज। उ०—मैं उनके आगे से धोखे की टट्टी हटाता हूँ। शिवप्रसाद (शब्द०)। (३) ऐसी वस्तु जिसमें कुछ तत्व न हो। दिखाऊ चीज। धोखा खड़ा करना या रचना = भ्रम में डालने के लिये आडंबर खड़ा करना। माया रचना। उ०—चित चोखा, मन निर्मला, बुधिं उत्तम, मति धीर। सो धोखा नहि विरचहीं सतगुरु मिले कबीर। कबीर (शब्द०)। ५. जानकारी का अभाव। ध्यान का न होना। अज्ञान। मुहा०—धोखे में या धोखे से = जान में नहीं। जान बूझकर नहीं। भूल से। जैसे,—धोखे से लग/?/क्षमा करना। उ०—(क) जिमि धोखे मदपान करि सचिव सोच तेहि भाँति। तुलसी (शब्द०)। (ख) काज कहा नरतन धरि सास्यो। पर-उपकार सार श्रुति को सो धोखेहु में न विचारयो। तुलसी (शब्द०)। ६. अनिष्ट की संभावना। जोखों। जैसे,—(क) यह बड़े धोखे का काम है। (ख) इसमें जान जाने का धोखा रहता है। मुहा०—धोखा उठाना = झूठी बात का विश्वास करके हानि सहना। भ्रम में पड़कर हानि या कष्ट उठाना। सावधान न रहने के कारण नुकसान सहना। उ०—अच्छी तरह जान लिया करो, नहीं तो धोखा उठाओगे। शिवप्रसाद (शब्द०)। ७. अन्यथा होने की संभावना। जैसा समझा या कहा जाय उसके विरुद्ध होने की आशंका। संशय। शक। उ०—(क) या में कछु धोखो नहीं नेही सूर समान। दोऊ सम्मुख सहत हैं द्दग अनियारे बान। रतनहजारा (शब्द०)। मुहा०—धोखा पड़ना = अन्यथा होना। और का और होना। जैसा समझा या कहा जाय उसके विरुद्ध होना। उ०— पंडितन कहा परा नहिं धोखा। कौन अगस्त समुद्रहिं सोखा। जायसी (शब्द०)। ८. मूल। चूक। प्रमाद। त्रुटि। कसर। जैसे,—जितना काम मुझसे हो सकेगा उसमें धोखा नहीं लगाऊँगा। मुहा०—धोखा लगना = चूक या कसर होना। त्रुटि होना। कमी होना। उ०—हीरामन तैं प्रान परेवा। धोख न लाग करत तुब सेवा। जायसी (शब्द०)। धोखा लगाना = चूक या कसर करना। त्रुटि करना। कमी करना। जैसे,—कहने में अपनी ओर से मैं धोखा नहीं लगाऊँगा। विशेष—इन दोनों मुहावरों का प्रयोग प्रायः निषेध वाक्य (या काकु से प्रश्व) में ही होता है। ९. लकड़ी में पयाल, कपड़ा आदि लपेटकर बनाया हुआ पुतला जिसे किसान चिड़ियों को डराने के लिये खेत में खड़ा करते हैं। बिजूखा। भुचकाक। उ०—तुला पिनाक साहु नृप त्रिभुवन भट बटोरि सबके बल जोखे। परसुराम से सूर सिरोमनि पल महँ भए खेत के धोखे। तुलसी (शब्द०)। १०. रस्सी लगी हुई लकड़ी जो फलदार पेड़ों पर इसलिये बाँधी जाती है कि नीचे से रस्सी खीचने से खट खट शब्द हो और चिड़िया दूर रहें। खटखटा। ११. बेसन का एक पकवान जिसके भीतर नरम कटहल, मसाला आदि इस प्रकार भरा रहता है कि देखने से कबाब का भ्रम होता है।

धोखेबाज
वि० [हिं० धोखा + फा़० बाज] [वि० संज्ञा धोखेबाजी] धोखा देनेवाला। छली। कपटी। धूर्त।

धोखेबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धोखेबाज] छल। कपट। धूर्तता।

धोटा
सं० पु० [हिं० या देश०] दे० 'डोटा'।

धोड़
संज्ञा पुं० [सं० धोड] एक प्रकार का खाँच।

धोतर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अधोवस्व] एक मोटा कपड़ा जो गाढ़े की तरह का होता है। अधोहर।

धोतर † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धोती'।

धोतरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धतूरा'। उ०—धोतरा न पीवो रे अववू भाँगि न खावौ रे भाई। गोरख०, पृ० ७६।

धोति
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धोती'। उ०—गजमोतियन को चौंक सो तहाँ पुराइए। तापर नारियर धोति, मिष्टान्न धराइए। कबीर श०, भा० ४, पृ० ४।

धोती
संज्ञा स्त्री० [सं० अधोवस्त्र, हिं० अधोतर या सं० धौत (धौत- वस्त्र)] नौ दस हाथ लंबा और दो ढाई हाथ चौड़ा कपड़ा जो पुरुष की कटि से लेकर घुटनों के नीचे तक का शरीर और स्त्रियों का प्रायः सर्वाग ढाकने के लिये कमर में लपेटकर खोंसा या ओढ़ा जाता है। उ०—सूरज जेहि की तपै रसोई। नितहि बसंदर धोती धोई। जायसी (शव्द०)। (ख) पीत पुनित मनोहर धोती। हरत बाल रवि दामिनि जोती। तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—पहनना। मुहा०—धोती बाँधना = (१) धोती पहनना। उ०—मुद्रा श्रवन जनेऊ काँधे। कनक पत्र धोती कटि बाँधे। जायसी (शब्द०)। (२) तैयार होना। सन्नद्ध होना। धोती ढीली करना = डर जाना। भयभीत होना। डरकर भागना। धोती ढीली होना = भय होना। डर होना। उ०—यह सामान देखकर चंद्रापीड़ की धोती ढीली हुई। गदाधरसिंह (शब्द०)।

धोती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० धौति] १. योग की एक क्रिया। दे० 'धौति'। २. एक अँगुल चौड़ी और चौवन (५४) अंगुल लंबी कपड़े की धज्जी जिसे हठयोग की 'धौति' क्रिया में मुँह से निगलते हैं।

धोती (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाज जिसकी मादा को बेसरा कहते हैं।

धोना
क्रि० स० [सं० धावन] पानी डालकर किसी वस्तु पर से मैल गर्द आदि हटाना। पानी से साफ करना। जल से स्वच्छ करना। प्रक्षालित करना। पखारना। विशेष—जिस वस्तु पर से गर्द मैल आदि हटाई जाती है तथा जो लगी हुई वस्तू (गर्द मैल आदि) हटाई या छुड़ाई जाती है, दोनों का प्रयोग कर्म में होता है। जैसे, हाथ धोना, कपड़ा धोना, घर धोना, बरतन धोना। इसी प्रकार मैल धोना, कालिख धोना, रंग धोना इत्यादि। उ०—(क) जिन एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल विगोए। तुलसी (शब्ज०)। (ख) सूरदास हरि कुपा बारि सों कलिमल धोय बहावै। सूर (शब्द०)। संयो० क्रि०—डालना। देना। लेना। मुहा०—(किसी वस्तु से) हाथ धोना = खो देना। गँवा देना। वंचित रहना। जैसे,—जो कुछ उनके पास था वे उससे भी हाथ धो बैठे। हाथ धोकर पीछे पड़ना = सब काम धाम छोड़कर प्रवृत्त होना। सब छोड़कर लब जाना। धोवा धाया = (१) निष्कलंक। निर्दोष। साफ। (२) ऐसा मनुष्य जो बुराई करके भी औरों के सामने उसी प्रकार लज्जिल न हो जिस प्रकार निर्दोष आदमी/?/२. दूर करना। हटाना। मिटाना। उ०—(क) करी गोपाल की सब होय। जो अपने पुरुषारथ मानत अति झूठो है सोय। साधन मंत्र, यंत्र, उद्यम, बल यह सब डारौ धोय। जो कछु लिखि राखी नँदानँदन मेटि सकै नहिं कोय। सूर (शब्द०)। (ख) तू ने शकुंतला के अपमान का दुख सब धो दिया है। लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। संयो० क्रि०—डालना। मुहा०—धो बहाना = न रहने देना। छोड़ देना या खो देना।

धोप पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० धूर्वा; धर्वन् (= काटनेवाला)? ] तलवार। खंग। उ०—(क) छत्रसाल जेहि दिसि पिलै काढ़ि धोप कर माहि। तेहि दिसी सीस गिरीस पै बनत बटोरत नाहि। लाल (शब्द०)। (ख) भूषण हालि उठे गढ़ भूमि पठान कबंधन के धमके ते। मीरन के अवसान गये मिटि धोपनि सों चपला चमके ते। भूषण (शब्द०)। (ग) एक हाथ धोप द्वै सों कोप यह जनावत है एक तीय हाथ पर ठोंक्यो एक भाल सौ—हनुमान (शब्द०)। (ध) अंगद सुग्रीव एऊ दोनों गए राम ढिग सुनो महराज सिंधु करी बात धोप की। हनुमान (शब्द०)।

धोब
संज्ञा पुं० [हिं० धोवना] धुलावट। धोए जाने की क्रिया। मुहा०—धोब पड़ना = धोया जाना। धुलने की क्रिया होना। जैसे,—इस कपड़े पर कई धोब पड़े पर रंग नहीं उड़ा।

धोबइन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धोबिन] दे० 'धोबिन'-३। उ०— धोबइन, तलीचटैया, कौड़ेनी, चब्भा इत्यादि। प्रेमघन०, भा० २, पृ० २०।

धोबन †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धोबिन'।

धोबिघटा
संज्ञा पुं० [हिं० धोबी + धाट] वह घाट जहाँ धोबी कपड़ा धोते हैं।

धोबिन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धोबी] १. कपड़ा धोनेवाली स्त्री। धोबी जाति की स्त्री। २. धोबी की स्त्री। ३. दस बारह अंगुल लंबी एक चिड़िया जो जल के किनारे रहती है। उ०—बाएँ अकासी धोबिनि आई। लोवा दरसन आइ देखाई। जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २१२। विशेष—यह पत्थर आदि कै नीचै अंडे देती है और ऋतु के अनुसार रंग बदलती है।

धोबिन (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] शीशम की जाति का एक प्रकार का बड़ा वुक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम में आती है। विशेष—इसकी लकड़ी परतदार होती है। अर्थात इसमें एक मोटी तह सफेद लकड़ी की होती है और तब उसपर काले रंग की बहुत पतली एक और तह होती है। इसी तह पर से इस लकड़ी के तख्ते बहुत सहज में चीरे जा सकते हैं।

धोबिया
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धोबी'। उ०—नैहर में दगा लगाय आइ चुँदरी। ऊ रँगरेजवा को मरम न जानै, नहिं मिलै धोबिया कौन करै उजरी। कबीर श०, भा० १. पृ० २३।

धोबी
संज्ञा पुं० [हिं० धोवन] [स्त्री० धोबिन] १. कपड़ा धोनेवाला। वह जो मैले कपड़ों को धो और साफ करके अपनी जीविका करता हो। रजक। उ०—गुरु धोबी, सिख कापड़ा साबुन सिरजनहार। सुरति सिला पर धोइए निकसै रंग अपार। कबीर (शब्द०)। २. वह जाति जो कपड़ा धोने का व्यवसाय करती है। विशेष—हिंदुओँ में यह जाति पहले नीच और अस्पृश्य समझी जाती थी। मुहा०—धोबी का कुत्ता = वह जो एक ठिकाने जमकर कोई काम न करै। व्यर्थ इधर उधर फिरनेवाला। निकम्मा आदमी। धोबी का छैला = (१) दूसरे के माल पर इतरानेवाला। मँगनी या पराई चीज का घमंड करनेवाला। (२) मँगनी कपड़े पहनकर निकलनेवाला।

धोबीघास
संज्ञा स्त्री० [हिं० धोबी + घास] बड़ी दूब। दूर्वा।

धोबी पछाड़
संज्ञा पुं० [हिं० धोबी + पछाड़ना] कुश्ती का एक पेंच जिसमें जोड़ का हाथ पकड़कर कंधे की ओर खींचते हैं और उसे कमर पर लादकर चित गिरा देते हैं।

धोबीपाट
संज्ञा पुं० [हिं० धोबी + पाट] दे० 'धोबोपछाड़'।

धोम
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धूम'। उ०—मंगाय अगिनि तब कियौ होम। षरु स्वान मांस प्रतिवास धोम। पृ० रा०, १। ७७।

धोयी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत का एक कवि। विशेष—इसका उल्लेख जयदेव ने गीत गोविंद में किया है जिससे यह पता चलता है कि यह कहीं का राजा था। इसका रचा हुआ वायुदूत ग्रंथ अब तक मिलता है और मेधदूत के ढंग का है।

धोयी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धोया] उड़द, मूँग आदि की बिना छिलके की दाल।

धोर
संज्ञा स्त्री० [सं० धर (= किनारा)] १. पास। सामीप्य। निकटता। २. किहारा। धार। बाढ़। उ०—खोदि लई मणिकर्णिका, भूमि चक्र की धोर। सो थल भरयो प्रस्वेदजल भयो हरन अध धोर। केशव (शब्द०)।

धोरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सवारी। २. घोड़े की सरपट चाल। ३. दौड़।

धोरणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्रेणी। परंपरा। २. निरंतर गति। अबाध गति (को०)।

धोरणी
संज्ञा स्त्री [सं०] दे० 'धोरणि' [को०]।

धोरित
संज्ञा पुं० [सं०] १. आघात करना। चोट पहुँचाना। २. गति। गमन। ३. घोड़े की दुलकी चाल। घोड़े की तेज चाल [को०]।

धोरी
संज्ञा पुं० [सं० धौरेय] १.धुरे को उठानेवाला। भार उठानेवाला। उ०—(क) फेरत मनहिं मातुकृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी। तुलसी (शब्द०)। (ख) तिन महँ प्रथम। रेख जग मोरी। धिग धरमध्वज धंधक धोरी। तुलसी (शब्द०)। २. बैल। वृषभ। उ०—समरथ धोरी कंध धरि रथ ले और निबाहि। मारग माहिं न मेलिए पीछहिं विरुद लजाहि। दादू (शब्द०)। ३. प्रधान। मुखिया। सरदार। उ०—(क) मन मैं मंजु मनोरथ जोरी। सोहर गौरि प्रसाद एक तें कौसिक कृपा चौगुनी भोरी। कुअँर कुअँरि सब मंगल मूरति नृप दोउ धरम धुरंधर धोरी। राज समाज भूरि भागी जिन्ह चौगुन लाहु लही एहि ठौरी। तुलसी (शब्द०)। (ख) अब यह फौज लूट ही लौजै। घोरिन घाउ न कोऊ कीजै। लाल (शब्द०)। ४. श्रेष्ठ पुरुष। बड़ा आदमी। उ०—म्लेच्छ चमार चूहरे कोरी। तिनतें झरवावत द्विज घोरी। निश्चल (शब्द०)।

धोरे पु †
क्रि० वि० [सं० धर (= किनारा)] पास। निकट। समीप। उ०—उज्जवल देखि न घीजिए बग ज्यों माँडे ध्यान। धोरै बैठि चपेटसी थों लै बूड़े़ ज्ञान। कबीर (शब्द०)। (ख) बिनवै चतुरानन कहि भोरैं। तुब प्रताप जा-यों नहि प्रभु जू कर स्तुति कर जोरैं। अपराधी मतिहीन नाथ हौं चूक परी निज धोरैं। हम कृत दोष छमौ करुणामय ज्यों भू परसत ओरे। सूर (शब्द०)। (ग) झाँझरियाँ झनकैंगी खरी खनकैंगी चुरी तनिकौ तन तोरै। दास जू जागतीं पास अलीं परिहास करैगीं सबै उठि भोरे। सौंह तिहारी हौं भागि न जाहुँगी आइ हौं लाल तिहारे ही धोरै। केलि कौ रैनि परी है घरीक गई करि जाहु दई के निहोरे- दास (शब्द०)। यौ०—धोरे धोरे = आस पास।

धोरे पु (२)
वि० [सं० धवल] १. धवल। २. धुले हुए। उ०—देखन के सब गोरे नव नव पानिप धोरे। नंद० ग्रं०, पृ० २०५।

धोल पु (१)
वि० [हिं०] दे० 'धवल'। उ०—मौति सु आई नीयरी भयौ श्याम तें धोल। सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३१७।

धोल † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धौल'।

धोलधक
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ का नाम।

धोलहरा पु
संज्ञा पुं [हिं० धौरहर] महल। भवन। उ०—धोलहराँ चमराँ ढुलै, उ भाराणी भाल। बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० २।

धोला
संज्ञा पुं० [सं० दुरालभा] जवासा। धमासा। हिंगुवा।

धोलाना †
क्रि० स० [हिं० धुलाना] दे० 'धुलाना'।

धोली पु
वि० स्त्री० [पं०] भोली। सीधी सादी। उ०—मैंडरी जिंद तुसाडे नाल लगी मैं धोली ब्रजमोहन मतवालिया। धनानंद, पृ० ५१९।

धोवती †
संज्ञा स्त्री० [सं० अधोवस्त्र] धोती। (क्व०)। उ०— टटकी धोई धोवती, चटकीली मुख जोति। फिरति रसोई के बगर जगर मगर दुति होति। बिहारी (शब्द०)।

धोवन
संज्ञा पुं० [हिं० धोना] १. धोने का भाव। पछारने की क्रिया। २. वह पानी जिससे कोई वस्तु धोई गई हो। जैसे, पैर का धोवन, चावल का धोवन। मुहा०—किसी के पैर का धोवन होना = किसी की अपेक्षा अत्यंत तुच्छ होना। किसी के मुकाबले बिलकुल नाचीज होना।

धोवना पु †
क्रि० स० [हिं० धोना] जल की सहायता से साफ करना। धोना। उ०—मुँह धोवति एड़ी घसति हँसति अनगवति तीर। धँसति न इंदीवर नयनि कालिंदी कै नीर। बिहारी (शब्द०)।

धोवा पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धोना] १. धोवन। २. जल। अर्क। उ०—संग नौल बधू लिये दोई अटा पर बैठे बिलोकत जोन्ह धरी। रघुनाथ (शब्द)।

धोवा (२)
वि० स्त्री० धोई हुई। जैसे, धोवा दाल।

धोवाना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० धोना] धुलान। उ०—कोउ परात कोउ लोटा लाई। शाह सभा सब हाथ धोवाई। जायसी (शब्द)।

धोवाना (२)
क्रि० स० [हिं० धोना का अकर्कम०] धुलन। धो जाना। साफ होना। उ०—गोये गोय न जाहिं से धोये ते न धोवाहिं। भली लाल लाली जुहैं लोयन कोयन माहिं। शृं० सत० (शब्द०)।

धोसा
सं पुं० [हिं० ठोस] गुड़ आदि का सूखा हुआ लोंदा। भिस्सा। भेली।

धौँ पु †
अव्य० [सं० अथवा हिं० दँव, दहुँ] १. एक अव्यय जो ऐसे प्रश्नों के पहले लगाया जाता है जिनमें जिज्ञासा का भाव कम और संशय का भाव अधिक होता है। विचिकित्सा सूचक एक शब्द। न जाने। कौन जाने। मालूम नहीं। कहा नहीं जा सकता। उ०—(क) कौन मोहनी धौं हुत तोही। जो तोहि बिथा सो उपजा मोहीं। जायसी (शब्द०)। (ख) कला निधान सकल गुन आगर गुरु धौं कहा पढ़ाए। सूर (शब्द०)। (ग) सीय स्वयंवर देखिय जाई। ईस काहि धौं देहिं बड़ाई। तुलसी (शब्द०)। (घ) चिंतवत मोहि लगी चौंधी सी जानौं न कौन कहाँ ते धौं आए। तुलसी (शब्द०)। २.प्रश्न के रूप में आनेवाले दो विकल्प या संदेहसूचक वाक्यों में से दूसरे या दोनों के पहले लगनेवाला शब्द। कि। या। अथवा। (इस अर्थ में प्रायः 'कि' या 'के' के साथ आता है)। उ०—(क) सुनत सुदामा जात मनहि मन चीन्हैगे धौं नाहीं। सूर (शब्द०)। (ख) की धौं वह पर्णकुटी कहुँ और, किधौं वह लक्ष्मण होय नहीं। केशव (शब्द०)। ३. एक शब्द जिसका प्रयोग जोर देने के लिये ऐसे प्रश्नों के पहले तो' या 'भला' के अर्थ में होता है जिनका उत्तर काकु से 'नहीं' होता है। यह प्रायः 'कहु' या 'कहो' के साथ आता है और 'कहो तो' का अर्थ देता है। उ०—(क) तुलसी जेहि के रघुबीर से नाथ समर्थ सो सेवत रीझत थोरे। कहा भवभीर परी तेहि धौं बिचरैं धरनी तिनसों तिन तोरे। तुलसी (शब्द०)। (ख) कंध न देइ मसखरी करई। कहु धौं कौन भाँति निस्तरई। जायसी (शब्द०)। (ग) मोहिं परतीति यहि भाँति नहिं आवई। प्रीति कहु धौं सु नर वानरहि क्यों भई। केशव (शब्द०)। (घ) बानी जगरानी की उदारता बखानी जाय ऐसी मति कहौ धौं उदार कौन की भई। केशव (शब्द०)। ४. किसी वाक्य के पूरे होने पर उससे मिले हुए प्रश्नवाक्य का आरंभसूचक शब्द जो 'कि' अर्थ देता है। उ०—(क) हमहु न जानौ धौं सो कहाँ। जायसी (शब्द०)। (ख) कहो सो विपिन है धौं केति दूर ?— तुलसी (शब्द०)। ५. विधि, आदेश आदि वाक्यों के पहले आनेवाला एक शब्द जो केवल जोर देने के लिये उसी प्रकार आता है जिस प्रकार 'सोचिए तो', 'कर तो', 'समझ तो' आदि वाक्यों में 'तो'। उ०—जिमि भानु बिनु बिनु दिन, प्रान बिनु तनु, चंद बिनु जिमि जामिनी। तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझ धौं जिय भामिनी। तुलसी (शब्द०)।

धौंक
संज्ञा स्त्री० [हिं० धौंकना] १. आग दहकाने के लिये भाथी को दबाकर निकाला हुआ हवा का झोंका। अग्नि पर पहुँचाया हुआ वायु का आघात। क्रि० प्र०—मारना। लगाना। २. गरमी की लपट। ताप। लू। मुहा०—धौंक लगना = शरीर पर ताप का प्रभाव पड़ना। लू लगाना।

धौँकना
क्रि० स० [सं० धमू(= धौकना, फूँकाना)। धमक = धौंकनेवाला] १.आग पर, उसे दहकाने के लिये, भाथी दबाकर हवा का झोंका पहुँचाना। अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये उसपर वायु का आघात पहुँचाना। संयो० क्रि०—देना। लेना। २. ऊपर डालना। भार डालना या सहन कराना। ३. दंड आदि लगाना। जैसे, किसी पर जुरमाना धौंकना।

धौँकनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धौंकना] १. बाँस या धातु की एक नली जिससे लोहार सोनार आदि आग फूँकते हैं। फुँकनी। २. भाथी। मुहा०—धौंकनी लगना = साँस चढ़ना। दम फूलना।

धौँकल पु
वि० [देश०] उपद्रव। उ०—अजबशाह असपत्तियाँ, प्रगट दिखायौ पाँण। ऊगै दिन धौंकल इला, ऊगै दिन आराँण। रा० रू०, पृ० २०२।

धौँका †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धौंकना] गरमी में चलनेवाली गरम हवा। तप्त वायु। लू। क्रि० प्र०—चलना। मुहा०—धौँका लगना = गरमी के दिनों में तपी हुई हवा का शरीर में असर करना। लू लगना।

धौँकिया
संज्ञा पुं० [हिं० धौंकना] १. भाथी चलानेवाला। आग फूँकनेवाला। २. एक प्रकार के व्यापारी जो भाथी आदि लिए नगरों की गलियों में फिरकर फूटे बरतनों की मरम्मत किया करते हैं।

धौँकी
संज्ञा स्त्री० [सं० धौंकना] धौंकनी।

धौँज
संज्ञा स्त्री [हिं० धौँजना] १. दौड़ धूप। धाव धूप। उ०—एक करै धौंज एक सौज लै निकारै एक औंजि पानी पीकै सीकै बनत न आवनो। तुलसी (शब्द०)। २. घबराहट। उद्विग्नता। हैरानी। ब्याकुलता। उ०—आयो आयो आयो सोइ बानर बहुरि भयो सोर चहुँ ओर लंका आये युवराज के। एक काढ़ैसौज एक धौंज करै कह ह्वै है पोच भई महा सोच सुभट समाज के। तुलसी (शब्द०)।

धौँजन
संज्ञा स्त्री० [हिं० धौंज] दे० 'धौंज'।

धौँजना (१)
क्रि० स० [सं० ध्वञ्जन (= चलना फिरना)] दौड़ना धृपना। दौड़धूप करना।

धौँजना (२)
क्रि० स० १. किसी वस्तु को पैरों से रौंदना। २. रौंदकर या मल दलकर तह बिगाड़ना (कपड़े आदि की)। जैसे, बिस्तर धौंजना।

धौँटा
संज्ञा पुं० [हिं० अंध + ओट] कोल्हू में चलनेवाले बैल की आखों का ढक्कन। अँधियारी। ढोका।

धौँताल
वि० [हिं० धनु + ताल] १. जिसे किसी बात की धुन लग जाय। फुरतीला। चुस्त चालाक। काम को कुछ न समझनेवाला। २. साहसी। द्दढ़। ३. हट्टा कट्टा। मजबूत। हेकड़। ४. निपुण। पटु। तेज। जैसे,—वह खाने में बड़ा धौंताल है। ५. शरारती। उ०—होरी के दिन चारिक तें तुम भए हो निपट धौंताल हौ। धनानंद, पृ० ५६२।

धौँधौँ
संज्ञा पुं० [अनु०] दमामा बजाने से निकलनेवाली आवाज। उ०—बसन धुजा पताका अति फरफरात गरजि गरजि धौं धौं दमामो री बजायौ। नंद० ग्रं० पृ० ३७३।

धौँधौँमार
संज्ञा स्त्री० [अनु० धमधम + हिं० मार] हड़बड़ी। उतावली। शीघ्रता। क्रि० प्र०—करना। मचाना। होना।

धौँना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'धोना'। उ०—ना थिर रहै न हटका मानै, पलक पलक उठि घौंना। जग० श०, पृ० ९५।

धौँर
संज्ञा स्त्री० [सं० धवल] एक प्रकार की ईख जो सफेद होती है।

धौँस
संज्ञा स्त्री० [सं० दंश] १. धमकी। धुड़की। डाँट। डपट। उ०—कोई रोता है कोई हँसता है कोई नाचै है कोई गाता है। कोई छीने झपटे ले भागे कोई धौंस का डर दिखलाता है। नजीर (शब्द०)। क्रि० प्र०—दिखाना। देना। २. धाक। अधिकार। रोब दाब। क्रि० प्र०—जमना। जमाना। बँधना। बाँधना। ३. झाँसा पट्टी। भुलावा। धोखा। छल। क्रि० प्र०—देना। यौ०—धौंसपट्टी। मुहा०—धौंस की चलना = चाल चलना। ४. वह रुपया जो मालगुजारी या लगान ठीक समय पर न देने के कारण दंडस्वरूप जमींदार या असामी से वसूल किया जाय। वाकी वसूल होने का खर्च जो जमींदार या असामी को देना पड़े। मुहा०—धौंस बाँधना = खर्च जिम्मे करना। खर्चा मढ़ना।

धौँसना
क्रि० स० [सं० दवंसन, दंशन] १. दबाना। दंड देना। दमन करना। धमकी देना। घुड़की देना। डराना। उ०— अपने नृप को यहै सुनायो। व्रजनारी वटपारिन हैं सब चुगली आपुहि जाय लगायो। राजा बड़े बात यह समझी तुम को हम पै धौंसि पठायो। फँसिहारिन कैसे तुम जानी तुम कहुं नाहिन प्रकट देखायो। ब्रजवनिता फँसिहारी जो सब महतारी काहे न बनायो। फंदा फाँसि धनुष बिष काहु सूर श्याम नहिं हमै बतायो। सूर (शब्द०)। ३. मारना। पीटना।

धौँसपट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धौंस + पट्टी] भुलावा। झाँसा पट्टी। दम दिलासा। क्रि० प्र०—देना। मुहा०—धौंस पट्टी में आना=भुलावे में आना। बहकाने से कोई काम कर बैठना।

धौँसा
संज्ञा पुं० [हिं० धौंसना] १. बड़ा नगारा। डंका। उ०— (क) दादुर दमामें झाँझ झिली गरजनि धौंसा दामिनि मसालै देखि दुरै जगजीव से। देव (शब्द०)। (ख) जरासंध सब असुर सेना ले धौंसा दे चला। लल्लु (शब्द)। (ग) धुंकार धौंसन की बढ़ी हुंकार भूमिपतीन की। गोपाल (शब्द०)। (घ) धौंसा लगे घहरान संख लगे हहरान छत्र लागे थहरान केतु लगे फहरान। गोपाल (शब्द०)। क्रि० प्र०—बजवाना। बजाना। मुहा०—धौसा देना या बजाना=चढ़ाई का डंका बजाना। चढ़ाई की घोषणा करना। उ०—जरासंध सब असुर सेना ले धौसा दे चला। लल्लू (शब्द०)। २. सामर्थ्य। शक्ति। इख्तियार। बूता। उ०—उसका क्या धौंसा है जो इतना खर्च उठावे।

धौँसिया
संज्ञा पुं० [हिं० धौंसना] १. धौंस जमानेवाला। धौंस से काम चलानेवाला। २. झाँसा पट्टी देनेवाला। धोखेबाज। ३. धौंसेवाला। नगारा बजानेवाला। ४.वह जो मालगुजारी के बाकीदारों से मालगुजारी वसूल करने का खर्च लेता है।

धौ
संज्ञा पुं० [सं० धव] एक ऊँचा झाड़ या सदाबाहार पेड़ जो हिमालय पर ५००० फुट की ऊँचाई तक होता है और भारतवर्ष में प्रायः सर्वत्र जंगलों में मिलता है। विशेष—इसकी पत्तियाँ अमरूद की पत्तियों से मिलती जुलती होती हैं और छाल सफेद होती है जो चमड़ा सिझाने के काम में आती है। इसके फूल को रंगसाज आल के रंग में मिलाकर लाल रंग बनाते हैं। इससे एक प्रकार का गोंद निकलता है जिसे छीपी रंगों में मिलाकर कपड़ा छापते हैं। लकड़ी इसकी सफेद होती है और हल, मूसल, कुल्हाड़ी का बेट आदि बनाने के काम में आती है। इसका प्रयोग औषध में भी होता है और वैद्यक में यह चरपरा, कसैला, कफ—वात— नाशक, रुचिकारक और दीपन बतलाया गया है। वैद्य लोंग इसका प्रयोग पांडुरोग, प्रमेह, अर्श और वात रोग में करते हैं। पर्या०—पिशाचवृक्ष। धुरंधर। गौर। पांडुर। नंदितरु। स्थिर। शुष्क तरु। धवल। शाकटाख्या।

धौकरा
संज्ञा पुं० [सं० धव] बाकली की जाति का एक प्रकार का वृक्ष जो अवध, बुंदेलखंड और मघ्यप्रदेश में पाया जाता है। िशेष—इसकी लकड़ी खेती के सामान बनाने के कम में आती है।

धौत (१)
वि० [सं०] १. धोया हुआ। साफ। जैसे, धोत वसन। धौत पाप इत्यादि। २. उजला। जैसे, घौत शिला। ३. नहाया हुआ। स्नात। उ०—हरि को विमल यश गावत गोपांगना। मणिमय आँगन नंदराय को बाल गोपाल तहाँ करै रंगना। गिरि गिरि परत घुटुरुवनि टेकत खेलत हैं दोउ छगन मंगना। धूसरि धूरि धौत तनु मंडित मानि यशोदा लेत उछंगना। सूर (शब्द०)।

धौत (२)
संज्ञा पुं० रूपा। चाँदी।

धौतकट
संज्ञा पुं० [सं०] मोटे कपड़े का थैला [को०]।

धौतकोषज
संज्ञा पुं० [सं०] माड़ी किया हुआ या स्वच्छ किया हुआ रेशम [को०]।

धौतकौशेय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धौतकोषज' [को०]।

धौतखंड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० घौतखण्ड़ी] मिश्री [को०]।

धौतय
संज्ञा पुं० [सं०] सेंधा नमक [को०]।

धौतशिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्फटिक। बिल्लौर।

धौतात्मा
वि० [सं० धौतात्मन्] जिसकी आत्मा शुद्ध हो गई हो। पवित्रात्मा।

धौति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुद्ध। २. हठयोग की एक क्रिया जो शरीर को भीतर और बाहर से शुद्ध करने के लिये की जाती है। विशेष—घेरंडसंहिता में इसका पूरा वर्णन है। उसमें घौति चार प्रकार की कही गई है—अंतधौंति; दंतधौति; हृद्धौति और सार, वह्निसार, और वहिष्कृत। वातसार में मुँह को कौवे की चोंच की तरह निकालकर हवा खींचकर पेट में भरते हैं और उसे फिर मुँह से निकालते हैं। वारिसार में गले तक पानी पीकर अधोमार्ग से निकालते हैं। अग्निसार में साँस को रोककर और पेट को पचकाकर नाभि को सौ बार मेरुदड (रीढ़) से लगाना पड़ता है। बहिष्कृत में कौवे की चोंच की तरह मुँह करके पेट में हवा भरते हैं और उसे चार दंड वहाँ रखकर अधोमार्ग से निकालते हैं। इसके पीछे नाभि तक जल में खड़े होकर आँतों को बाहर निकालकार मल धोते हैं और फिर उन्हें उदर में स्थापित करते हैं। दंतधौति भी पाँच प्रकार की होती है—दंतमूल, जिह्वामूल, रंध्र, कर्णद्रार और कपालरंध्र। इनमें से जिह्वामूल की शुद्धि जीभ की चिमटी से खींचकर करते हैं। रंध्र धौति में नाक से पानी पीकर मुँह से और मुँह से सुड़ककर नाक से निकालना पड़ता है। इसी प्रकार और भी शुद्धियों को समझिए। ३. योग की एक क्रिया। विशेष—इसमें दो अंगुल चौड़ी और आठ दस हाथ लंबी कपड़े की धज्जी मुँह से पेट के नीचे उतारते हैं, फिर पानी पीकर उसे धीरे धीरे बाहर निकालते हैं। इस क्रिया से आँतें शुद्ध हो जाती हैं। ४. योग की क्रिया में काम आनेवाली कपड़े की लंबी धज्जी।

धौती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'धौति' [को०]।

धौतेय
संज्ञा पुं० [सं०] सेंधा नमक [को०]।

धौम्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि जो देवल के भाई और पाँडवों के पुरोहित थे। विशेष—ये उत्कोच नामक तीर्थ में रहते थे। चित्रस्थ के आदेशा- नुसार युधिष्ठिर ने इन्हें अपना पुरोहित बनाया था। २. एक ऋषि जो महाभारत के अनुसार व्याघ्रपद नामक ऋषि के पुत्र और बड़े शिवभक्त थे। विशोष—ये सतयुग में थे और बचपन में ही माँ से रुष्ट होकर शिव का तप करके अजर अमर और दिव्यज्ञान संपन्न हो गए थे। ३. एक ऋषि का नाम जिन्हें आयोद भी कहते थे। विशेष—इनकी आरुणि, उपमन्यु और वेद नामक तीन पुत्र थे। ४. एक ऋषि जो तारा रूप में पश्चिम दिशा में स्थित हैं। विशेष—इनका नाम महाभारत में उषंगु, कवि और परिव्याध के साथ आया है।

धौम्र (१)
वि० [सं०] धुएँ के रंग का। धुमैला [को०]।

धौम्र (२)
संज्ञा पुं० धूम्र वर्ण [को०]।

धौर (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धौरा (=सफेद)] एक चिड़िया। सफेद परेवा।

धौर पु (२)
वि० [सं० धवल] श्वेत। सफेद। उ०—हाड़ देखि के तजत तिय ज्यौं कोली कै कूप। ्यौं ही धौरे केस लखि बुरो लगत नर रूप। ब्रज० ग्रं०, पृ० ७८।

धौरहर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धौराहर'। उ०—नए धौरहर सुखद सुपासा। जनु धर पर दूसर कैलासा। नंद० ग्रं०, पृ० ११९।

धौरहरिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धौराहर'। उ०—सैयाँ मोर सुतल धौरहरिया। धरम०, पृ० ६३।

धौरा (१)
वि० [सं० धवल] [वि० स्त्री० धौरी] श्वेत। सफेद। उजला। उ०—धूम, श्याम, धवरे धन धाए। श्वेत धुजा बग पाँति दिखाए। जायसी (शब्द०)। (ख) धौरी धेनु बजावन कारन मधुरे बेनु बनावै। सूर (शब्द०)। (ग) आयो जौन तेरी धौरी धारा में धँसत जात तिनको न होत सुरपुर ते निपात है। पद्माकर (शब्द०)।

धौरा (२)
संज्ञा पुं० १. धौ का पेड़। २. सफेद रंग का बैल। ३. एक पक्षी। एक प्रकार का पंडुक जो कुछ बड़ा और खुलते रंग का होता है। उ०—धौरी पंडुक कहि पिय ठाऊँ। जो चित रोख न दूसर नाऊँ। जायसी (शव्द०)।

धौरा (३)
संज्ञा पुं० दे० 'बाकली'।

धौरादित्य
संज्ञा पुं० [सं०] शिवपुराण के अनुसार एक तीर्थ का नाम।

धौराहर
संज्ञा पुं० [हिं० धर (= ऊपर) + घर] ऊँची अटारी। भवन का वह भाग जो खँभे की तरह बहुत ऊँचा गया हो और जिसपर चढ़ने के लिये भीतर सीढ़ियाँ बनी हों। धरहरा। बुर्ज। उ०—(क) पदमावति धौराहर चढ़ी। जायसी(शव्द०)। (ख) राम जपु राम जपु राम जपु बावरे। घोर भव नीर निधि नाम निज नाव रे। .. जग नभ वाटिका रही है फलि फूलि रे। धुआँ कैसौ धौराहर देखि तू न भूलि रे। तुलसी (शब्द०)। (ग) बौरे मन रहन अटल करि जाना। धन दारा सुत बंधु कुटुँब कुल निरखि निरखि बौराना। जीवन जन्म सपनों सो समुझि देखि अल्पमन माहीं। बादर छाहँ धूम धौराहर जैसे थिर न रहाहीं। सूर (शव्द०)।

धौरितक
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े की पाँच चालों में से एक।

धौरिया पु
संज्ञा पुं० [सं० धौरेय] बैल। उ०—नैनन कंधे धौरियन अरे नहीं धुर लाइ। कैसे मन को बोझ धरि धर लों सकै चलाइ। रसनिधि (शब्द०)।

धौरिया †
संज्ञा पुं० [सं० धौरेय] दे० 'धौरेय'।

धौरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धौरा] १. सफेद रंग की गाय। कपिला। उ०—साँझ की कारी घटा धिरि आई महा झर सों बरसे भरि सावन। वौरिहु कारिहु आइ गई सु रस्हाइ कें धाइ कें लागी चुखावन। देव (शब्द०)। २. एक प्रकार की चिड़िया। उ०—धौरी पंडुक कहु पिउ नाऊँ। जौ चित रोख न दूसर ठाऊँ। जायसी (शब्द०)।

धौरी (२)
वि० स्त्री० श्वेत। सफेद।

धौरी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बाकली'।

धौरे
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'धोरे'।

धौरेय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० धौरेयी] १. धुर खींचनेवाला। रथ आदि खींचनेवाला। २. भार या बोझ ले जाने योग्य (को०)।

धौरेय (२)
संज्ञा पुं० १. वह बैल जो गाड़ी खींचता है। २. घोड़ा (को०)। ३. बोझ ले जानेवाला जानवर (को०)। ४. मुखिया। प्रधान। निता (को०)।

धौरेहरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धौराहर'। उ०—पलटू नर तन जात है धास के ऊपर सीत। धूआँ का घौरेहरा ज्यों जालू की भीत। पलटू०, भा० १, पृ० २२।

धौर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] धूर्तता। बेईमानी। दुष्टता [को०]।

धौर्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] धूर्तता [को०]।

धौर्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] धूर्तता।

धौर्य
संज्ञा पुं० [सं० धौर्य्य] धोड़े की एक चाल। धोरण।

धौल (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. हाथ के पंजे का भारी आघात जो सिर या पीठ पर पड़े। धप्पा। चाँटा। थप्पड़। उ०—पुनि भाषइ तो इक धौल लगै सब पद्धति दूर दुरै चट तें। गोपाल (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना। पड़ना। मारना। लगना। लगाना। यौ०—धौल धप्पड़। धौल धप। धौल धक्का। धौल धप्पा। मुहा०—धौल कसना, या जमाना = चाँटा लगाना, थप्पड़ मारना। धौल खाना = चाँटा सहना। थप्पड़ की मार सहना। २. हानि का आघात। नुकसान का धक्का। हानि। टोटा। जैसे,—बैठे बैठाए५००) की धौल पड़ गई। क्रि० प्र०—पड़ना। लगना।

धौल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० धवल] १. धौर नाम की ईख जिसकी खेती कानपुर, बरेली आदि में हीती है। २. ज्वार का हरा डंठल।

धौल (३)
संज्ञा पुं० [सं० धवल] धौ का पेड़। धौरा। बकली।

धौल (४)
वि० [सं० धवल] उजला। सफेद। उ०—देव कहैं अपनी अपनी अवलोकन तीरथराज चलो रे। देखि मिटै अपराध अगाध निमज्जत साधु समाज भलो रे। सोहै सितासित को मिलिबो तुलसी हुलसै हिय हेरि हिलोरे। मानो हरी तृन चारु चरैं बगरे सुरधेनु के धौल कलोरे। तुलसी (शब्द०)। मुहा०—धौल धूत = गहरा धूर्त। पक्का चालबाज। उ०—ऊधो हम यह कैसे मानें। धूत धौल लंपट जैसे पट हरि तैसे औरन जाने। सूर (शब्द०)।

धौल (५)
संज्ञा पुं० [हिं० धौराहर] धरहरा। धौराहर। उ०—कंटक बनाए वेश राम ही को जायो पापी मेरो मन धुआँ को सो धौल नभ छायो है। हनुमान (शब्द०)।

धौल पु (६)
संज्ञा पुं० [सं० धवल] हाथी। उ०—धौल मंदलिया बैलर बाबी। कबीर र्ग्र०, पृ० ९२।

धौलधक्कड़
संज्ञा पुं० [हिं० धौल + धक्का] मारपीट। दंगा। ऊधम। उपद्रव।

धौलधक्का पु
संज्ञा पुं० [हिं० धौल + धक्का] आघात। चपेट। उ०—तुलसी जिन्है धाए धुकै धरनी धर, धौलधकान तें मेरु हलै हैं। तुलसी (शब्द०)।

धौलधक्का
संज्ञा पुं० [हिं० धौल + धक्का] आघात। चपेट।

धौलधप्पड़
संज्ञा पुं० [हिं० धौल + धप्पा] १. मारपीट। धक्का मुक्का। २. दंगा। उपद्रव। ऊधम। क्रि० प्र०—करना। मचना। मचाना।

धौलधप्पा
संज्ञा पुं० [हिं० धौल + धप्पा] दे० 'धौलधप्पड़'। उ०— धौलधप्पा उस शरापा नाज का शेवा नहीं। हम ही कर बैठे थे गालिब पेशदस्ती एक दिन। गालिब०, पृ० १८५।

धौलहर पु
संज्ञा पुं [हिं० धौराहर] धौराहर। उ०—कबिरा हरि की भाक्ति बिनु धिक जीवन संसार। धूँआ का सा धौलहर जात न लागै बार। कबीर (शब्द०)।

धौलहरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धौरहर'।

धौलांजर
संज्ञा पुं० [सं० धवलाचल] एक पर्वत जो पंजाब के कांगड़ा जिले में है।

धौला (१)
वि० [सं० धवल] [वि०स्त्री० धौली] सफेद। उजला। श्वेत। उ०—दादू काले थै धौला भया। दादू०, पृ० २०७।

धौला (२)
संज्ञा पुं० १. धौ का पेड़। धौरा। २. सफेद बैल।

धौल पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० धवल] धवलता। श्वेतता। सफेदी। उ०— सहजो धौले आइया झड़ने लागे दाँत। तन गुँझल पड़ने लगी सूखन लागी आँत। सहजो० पृ० २९।

धौलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० धौल + आई (प्रत्य०)] सफेदी। उजलापन।

धौला खैर
संज्ञा पुं० [हिं० धौला + खैर] बबूल की जाति का एक पेड़जिसकी छाल सफेद होती है। यह बंगाल, बिहार, आसाम और दक्षिण भारत में होता है।

धौलागिरि
संज्ञा पु० [सं० धवलगिरि] दे० 'धवलगिरि'।

धौलाधर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धौराहर'। उ०—साठ कोठा धौलाधर नाऊँ। तीनो लोक मही तेहि ठाँऊँ। घट०, पृ० ४६।

धौली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० धवल] एक बड़ा पेड़ जो जाड़े में पत्तियाँ झाड़ता है। विशेष—इसकी लकड़ी नरम और भूरी होती है तथा पालकी, खिलौने, खेती के सामान बनाने के काम में आती है। इसकी भीतर की छाल दवाओं में पड़ती है और चमड़ा सिझाने के काम में भी आती है। यह पेड़ पंजाब, अवध, मध्यप्रदेश तया मद्रास में भी थोड़ा बहुत होता है।

धौली (२)
संज्ञा पुं० [सं० धवलगिरि] एक पर्वत जो उड़ीसा में भुव- नेश्वर के दक्षिण में है। विशेष—यहाँ अनेक प्राचीन मंदिर हैं। इसके शिखर पर महाराज अशोक के अनुशासन खुदे हैं।

ध्मांक्ष
संज्ञा पुं० [सं० ध्माङ्क्ष] दे० 'ध्वांक्ष'।

ध्मांक्षजंघा
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्माङ्क्षजङ्घा] काकजंघा [को०]।

ध्मांक्षजंबु
संज्ञा पुं० [सं० ध्माङ्क्षजम्बु] काकजंबु [को०]।

ध्मांक्षतुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्माङ्क्षतुण्डी] एक प्रकार की लता। काकनासा [को०]।

ध्मांक्षदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्माङ्क्षदन्ती] काकतुंडी [को०]।

ध्मांक्षनखी
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्माङ्क्षनखी] काकतुंडी [को०]।

ध्मांक्षनाशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्माङ्क्षनाशिनी] हाऊबेर।

ध्मांक्षपुष्ट
संज्ञा पुं० [सं० ध्माङ्क्षपुष्ट] कोकिल [को०]।

ध्मांक्षवल्ली
संज्ञा स्त्री० [ध्माङ्क्षवल्ली] कौआठोठी। काकनासा।

ध्मांक्षादनी
संज्ञा पुं० [सं० ध्माङ्क्षादनी] काकतुंडी।

ध्मांक्षाराति
संज्ञा पुं० [सं० ध्मांक्षाराति] उल्लू [को०]।

ध्मांक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्माङ्क्षी] १. कक्कोलिका। शीतलचीनी। १. कौवे की मादा [को०]।

ध्मांक्षोली
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्माङ्क्षोली] काकोली।

ध्माकार
संज्ञा पुं० [सं०] लोहार।

ध्मात
वि० [सं०] १. फुलाया हुआ। २. फूँककर बजाया हुआ। ३. उत्तेजित किया हुआ। उभारा हुआ। क्षुब्ध किया हुआ [को०]।

ध्मान
संज्ञा पुं० [सं०] (फूँककर) बजाने की क्रिया [को०]।

ध्मापन
संज्ञा पुं० [सं०] फूँककर फुलाने की क्रिया [को०]।

ध्मापित
वि० [सं०] राख किया हुआ। राख में परिणत [को०]।

ध्यंम पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धम'। उ०—नाचंत तेन पैरव सुथल धरनि ध्यंम धुज्जिय धसकि। पृ० रा०, ९। १३।

ध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] विचार। चिंतन [को०]।

ध्यात
वि० [सं०] चिंतित। विचारा हुआ। ध्यान किया हुआ।

ध्यातव्य
वि० [सं०] १. ध्यान देने योग्य। विचारणीय। २. जिसपर ध्यान दिया जाय। ध्यान देने योग्य। विचारणीय। ३. ध्यान में लाने योग्य [को०]।

ध्याता
वि० [सं० ध्यातृ] [वि० स्त्री ध्यातृ] १. ध्यान करनेवाला। २. विचार करनेवाला। ड०— ज्ञाता ज्ञेयषरु ज्ञान जो ध्याता धेयरु ध्यान। द्रष्टा दृश्यरु दरश जो त्रिपुरी शब्दा- भान—कबीर (शब्द०)।

ध्यात्व
संज्ञा पुं० [सं०] विचार। मनन [को०]।

ध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाह्म इंद्रियों के प्रयोग कि बिना केवल मन में लाने की क्रिया या भाव। अतःकरण में उपस्थित करने की क्रिया या भाव। मानसिक प्रत्यंक्ष। जैसे, किसी देवता का ध्यान करना, किसी प्रिय व्यक्ति का ध्य़ान करना। उ०— बहुरि गौरि कर ध्यान करेहु। भूप किशोर देखि किन लेहु? —तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०— करना। —लगना। लगाना। मुहा०— ध्यान में डुबाना या मग्न होना = कोई बात इतना मन में लाना कि और सब बातें भुल जायँ। ध्यान धरना= मन में स्थापित करना। स्वरुप आदि को मन में लाना। (किसी के) ध्यान में लगना= मन में लाकर मन्न होना। उ०— परसन पोंछत लखि रहत लगि कपोल के ध्यान। कर लै पिय पाटल विमल प्यारी पठए पान। बिहारी (शब्द०)। २. सोच विचार। चिंतन। मनन। जैसे,— आजकल तुम किस ध्यान में रहते हो। ३. भावना। प्रत्यय। विचार। ख्याल। जैसे,— (क) चलते समय तुम्हें यह ध्यान न हुआ कि धोती लेते चलें ?। (ख) मन में इस बात का ध्यान बना रहता है। क्रि० प्रं०— होना। मुहा०— ध्यान आना = भावना होना। विचार उत्पन्न होना। ध्यान जमना = विचार स्थिर होना। खयाल बैठना। ध्य़ान बँधना = विचार का बराबर या बहुत देर तक बना रहना। लगातार खयाल बना रहना। जैसे— उसे जिस बात का ध्यान बंध जाता है, वह उसके पोछे पड़ जाता है। ध्यान रखना = विचार बनाए रखना। न भुलना। ध्य़ान लगना = मन में विचार बराबर बना रहना। बराबरा खयाल बना रहना। जैसे, मुझे तुम्हारा ध्य़ान बराबर लगा रहता है। उ०— ध्यान लगो मोहि तोरा रे। गीत (शब्द०)। ४. रूपों या भावों की भीतर लेने या उपस्थित करनेवाला अंतः करण विधान। चित्त की ग्रहण बृत्ति। चित्त। मन। जैसे,— तुम्हारे ध्यान में यह बात कैसे आई कि मैने तुम्हारे साथ ऐसा किया होगा। क्रि० प्र०— में आना। —में लाना। मुहा०— ध्यान में न लाना = (१) चिंता न करना। परवाह न करना। (२) न सोचना समझना। न विचारना। ५. चित्त का अकेले या इंद्रियों के सहित किसी विषय की ओरलक्ष्य जिससे उस बिषय का स्थान अंतःकरण में सबके ऊपर हो जाय। किसी के संबंध में अंतःकरण की जाग्रत स्थिति, चेतना की प्रववृत्ति। चेत। खयाल। जैसे,— (क)इसकी कारी- गरी को ध्यान से देखो तब खूबी मालूम होगी। (ख) मेरा ध्यान दूसरी ओर था, फिर से कहिए। (ग) इधर ध्यान दो और सुनो। मुहा०— ध्यान जमना=मन का एक ही विषय के ग्रहण में बराबर तत्पर रहना। खयाल इधर उधर न जाना। चित्त एकाग्र होना। ध्यान जाना=चित्ता का किसी ओर प्रवृत्त होना। द्दष्टि पड़ना और बोध होना। जैसे,— जब मेरा ध्यान उधर गया तब मैने उसे टहलते देखा। ध्यान दिलाना= दूसरे का चित्ता प्रवृत करना। खयाल कराना, दिखाना या जताना। चेत कराना। चेताना। सुझाना। ध्यान देना= (अपना) चित्त प्रवृत्त करना। चित्त प्रवृत्त करना। चित्त एकाग्र करना। खय़ाल करना। गौर करना। ध्यान पर चढ़ना =मन में स्थान कर लेना। चित्त से न हटना। अच्छे लगने या और किसी विशेषता के कारण न भुलना। जैसे,— तुम्हारे ध्यान पर तो वही चीज चढ़ी हुई है, और कोई चीज पसंद ही नहीं आती। ध्यान बँटना=चित्त का इधर भी रहना उधर भी। चित्त एकाग्र न रहना। खयाल इधर उधर होना। जैसे —काम करते समय कोई बातचीत करता है तो ध्यान बँट जाता है। ध्यान बँटाना=चित्त को एकाग्र न रहने देना। खयाल इधर उधर ले जाना। ध्यान बंधना= किसी ओर चित्त स्थिर होना। चित्त एकाग्र होना। ध्यान लगाना=चित्त प्रवृत्त होना। मन का विषय के ग्रहण से तत्पर होना। चित्त एकाग्र होना। जैसे, —उसका ध्यान लगे तब तो वह पढ़े। ध्यान लगाना=दे० "ध्यान देना'। . बोध करनेवाली वृत्ति। समझ। बुद्धि। मुहा०— ध्यान पर चढ़ना=दे० 'ध्यान मे आना'। ध्यान में जमाना=मन में बैठना। चित्त में निश्चिंत होना। विश्वास के रूप में स्थिर होना। ७. धारण। स्मृति। य़द। क्रि० प्रं०— होना। मुहा०— ध्यान आना=स्मरण होना। याद होना। ध्यान दिलाना=स्मरण कराना। यद दिलाना। जैसे, —जब भुलोगे तब तुम्हें ध्यान दिला देगें। ध्यान पर चढ़ाना= स्मृति में आना। स्मरण होना। याद होना। ध्यान रहना= स्मृति में न रहना। याद न रहना। विस्मृत होना। भूलना। ८. चित्त को चारो ओर से हटाकर किसी एक विषय (जैसे, परमात्मचिंतन) पर स्थिर करने की क्रीया। चित्त को एकाग्र करके किसी और लगाने की क्रिया। जैसे, योगियों का ध्य़ान लगाना। विशेष— योग के आठ अंगों में 'ध्यान' सातबाँ अंग है। यह धारण और समाधि के बीच की अवस्था है। जब योगी प्रत्य़ाहार दारा क्षपने चित्त की वृत्तियों पर अधिकार प्राप्त कर लेता है तब उन्हें चारों ओर से हटाकर नाभि आदि स्थानों में से किसी एक में लगाता है। इसे धारण कहते है। धारण जब इस अवस्था को पहुँचती है कि धारणीय वस्तु के साथ चित्त के प्रत्यय की एकतानता हो जाती है तब उसे ध्यान कहते है। यही ध्यान जब चरमावस्थों को पहुँच जाता है तब समाधि कहलाता है जिसमें ध्येय के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाता अर्थात् ध्याता ध्येय में इतना तन्मय हो जाता है कि उसे अपनी सत्ता भूल जाती है। बोद्ध और जैन धमों में भी ध्यान एक आवश्यक अंग है। जैन शास्त्र के अनुसार उत्तम संहनन युक्त चित्त के अवरोध का नाम ध्यान हैं। क्रि० प्र०— करना। लगना। लगाना। मुहा०— ध्यान छुटना=चित्त की एकाग्रता का नष्ट होना। चित्त इधर उधर हो जाना। उ०—रोवन लग्यो सुत मृतक जान। रूदन करत छुटयों ऋषि ध्यान। सुर (शब्द०)। ध्यान धरना=ध्यान लगाना। परमात्मचिंतन आदि के लिये चित्त को एकाग्र करके बैठना।

ध्यानगम्य
वि० [सं०] केवल ध्यान से प्राप्य [को०]।

ध्यानतत्पर
वि० [सं०] ध्यानस्थ। ध्यानलीन। विचारों में डुबा हूआ [को०]।

ध्यानना पु
क्रि० सं० [सं० ध्यान] ध्यान करना। (क्व०)। उ०—बिनु हरि भक्त सब जगत की यही रीति भयो हरि भक्ति की अंनंत पद ध्यानिये। प्रियादास (शब्द०)।

ध्याननिष्ठ
वि० [सं०] ध्यानलीन। विचारों में ड़ुबा हुआ [को०]।

ध्यानमग्न
वि० [सं०] ध्य़ानलीन। ध्याननिष्ठ [को०]।

ध्यानमुद्रा
संज्ञा स्त्री०[सं०] किसी देवी या देवता का ध्यान करने की विहित मुद्रा [को०]।

ध्य़ानयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह योग जिसमें ध्यान ही प्रधान अंग हो। २. तंत्र या इंद्रजाल की एक क्रिया जिसके द्बारा मन में किसी आकृति की कल्पना करके शत्रु का नाश किया जाता है।

ध्यानरत
वि० [सं०] ध्यान में ड़ुबा हुआ। ध्यानमग्न [को०]।

ध्यानरम्य
वि० [सं०] [ध्यान+रम्य] ध्यान करने में प्रिय। जिसका ध्य़ान करना अच्छा लगे। उ०— नहि ज्ञे ज्ञाता नहि ज्ञान गम्य नहि ध्ये ध्यान नहिं ध्यान रम्य। —सुंदर ग्रं० भा०, १. पृ० ७८।

ध्यानलीन
वि० [सं०] ध्यानरत। ध्यानमग्न [को०]।

ध्यानशील
वि० [सं०] ध्यानस्थ। ध्याननिष्ठ [को०]।

ध्यानसाध्य
वि० [सं०] ध्यान से साधित या सिद्ध होनेवाला [को०]।

ध्यानस्थ
वि० [सं०] ध्यानरत। ध्य़ानलीन [को०]।

ध्याना पु
क्रि० स० [सं० ध्यान] १.ध्यान करना। उ०— (क) हिंदू ध्यावहि देहरा, मुसलमान मसीत। दास कबीर तहँ ध्यावहि जहाँ दोनों परतीत। —कबीर (शब्द०)। (ख) भजुमन नंद नंदन चरन। परम पंकज अति मनोहर सकल सुख के करन। सनक शंकर जाहि ध्थावत निगम अवरन बरन। शेषशारद ऋषि सुनारद संत चिंतत चरन। —सूर (शब्द०)। २. स्मरण करना। सुमरना। उ०— हरि हरि हरि सुमरों सब कोई। हरि हरि सिमिरत सब सुख होई। हरिहि मित्रबिंदा चित ध्यायो। हरि तहाँ जाइ बिलंब न लायो। सूर (शब्द०)।

ध्यानाभ्यास
संज्ञा पुं० [सं०] ध्यान लगाने का अभ्यास। समाधि [को०]।

ध्यानावचार
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ब शास्त्रानूसार एक प्रकार के देवता।

ध्यानावस्थित
वि० [सं० ध्यान + अवस्थित] ध्यान में डुबा हुआ। ध्यान में मग्न। उ०— अथवा बैठे होगे आप रहस्य शिखर पर। अमर सोक के, निभृत भौन में ध्यानावस्थित। —युगपथ, पृ० ११४।

ध्यानिक
वि० [सं०] ध्यानसाध्य। जिसकी प्राप्त ध्यान द्बारा हो। ध्यान से सिद्धु होने योग्य।

ध्य़ानिबुद्ब
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के बुद्ध। विशेष— इनकी संख्या कोई ५ या ९ और कोइ १० से भी अधिक बताते है।

ध्यानिबोधिसत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ध्यानिबुद्ध' [को०]।

ध्यानी
वि० [सं० ध्यानिन्] १. ध्यानयुक्त। समाधिस्थ। २. ध्यान करनेवाला। जो ध्यान मे रहता है।

ध्यान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दमनक। दौना। २. गंधतृण।

ध्याम (२)
वि० १. श्यामल। साँवला। २. गंदा। मैला (को०)।

ध्यामक
संज्ञा स्त्री० [सं०] रोहिस घास। रोहिस सोधिया।

ध्यावना पु
क्रि० सं० [हि०] दे० 'ध्याना'। उ०— सदा निरभय राज नित सुख, सोई केसद ध्यावन। —केशव० अमी०, पृ० २।

ध्येय (३)
वि० [सं०] १. ध्यान करने योग्य। २. जिसका ध्यान किया जाय़। जो ध्यान का विषय हो।

ध्येय (२)
संज्ञा पुं० १. ध्यान की वस्तु। ध्यान का विषय। २. लक्ष्य। ध्येय [को०]।

ध्रंगड़ा पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'दुर्ग'। उ०— कै जासी सूर घ्रंगड़ै, कै आसी रणजीत—बाँकी ग्रं० भा०, १. पृ० ८।

ध्र
वि० [सं०] धारण करनेवाला। विशेष— यह समासांत में प्रयुक्त होता है। जैसे, महीध्र् क्रुध।

ध्रजि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेणपुर्ण गति। (वायु आदि की) [को०]।

ध्रतारा पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'ध्रुवतारा'। उ०— ध्रातारो कम छंडइ ठामि ? —बी० रासी० पृ० ६०।

ध्रम पु
संज्ञा पुं० [सं० धर्म] दे० 'धर्म'। उ०— रहि जुगल वीच सुचित्त, ध्रम स्वामि धरि हरि मित्त। —पृ० रासी पृ० ८०।

ध्रमसुत पु
संज्ञा पुं० [सं० धर्मसुत] दे० 'धर्मसुत'। उ०— एकादस सै पंचदह विक्रम जिमि ध्रमसुत्त। त्रतिय साक प्रथिराज कौ लिष्यौ विप्र गुन गुत्त। पृ० रा०, १। ३९५।

ध्रवना पु
वि० सं० [सं ध्रै + ध्रापय्] तुप्त करना। उ०— धुन मुधरी पुहमी घ्रवै, दुसह निवार दुकाल। वाँकी० ग्रं, भा०, १, पृ० ५३।

ध्राद्दा
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्राक्षा। दाख।

ध्राजि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेगपूर्ण गति। २. प्रवृति। ३. आँधी। तूफान [को०]।

ध्रीह पु
संज्ञा स्त्री० [?] ध्वनि। आवाज। धाह। उ०— सखी अमीणौ साहिबौ सुणे नगरा ध्रीह। —बाँकी० ग्रं०, भा० १. पृ० ६।

ध्रुश्र पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'ध्रुव'। उ०— ध्रुअ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायेउ अचल अनूपम ठाऊँ। —मानस, १। २६।

ध्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विधि। भाग्य। २. अधोगति। कदाचार [को०]।

ध्रुपद
संज्ञा पुं० [सं० ध्रुवपद] एक गति जिसके चार तुक होते है। अस्थायी, अंतरा संचारी औक आभोग। कोई मिलातुक नामक इसका एक पाँचवाँ तुक भी मानते है। इसके द्बारा देवताओँ की लीला, राजाओँ के यज्ञ तथा युद्धादि का वर्णन गूढ़ राग रागिनियों से युक्त गाया जाता है। विशेष—इसके गाने कि लिये स्त्रियों के कोमल स्वर की आवश्य- कता नहीं। इसमें यद्यपि द्रुतलय ही उपकारी है, तथापि यह विस्तृत स्वर से तथा विलंबित लय से गाने पर भी भला मालूम होता है। किसी किसी ध्रुपद में अस्थायी और अंतरा दी ही पद होते हैं। ध्रुपद कानड़ा, ध्रृपद केदार, ध्रुपद एमन आदि इसके भेद हैं। इस राग को संकृत में ध्रुवक कहते हैं। जयंत, शेखर, उत्साह, मधुर, निर्मल, कुंतल, कमल, सानंद, चंद्रशेखर, सुखद, कुमुद, जायी, कदर्प, जय- मंगल, तिलक और ललित। इनमें से जयंत के पाद में ग्यारह अक्षर होते है फिर आगे प्रत्येक में पहले से एक एक अक्षर अधिक होता जाता है; इस प्रकार ललित में सब २६ अक्षर होते हैँ। छह पदों का ध्रुपद उत्तम, पाँच का मध्यम और चार का अधम होता है।

ध्रुव (१)
वि० [सं०] १. सदा एक ही स्थान पर रहनेवाला। इधर उधर न हटनेवाला। स्थिर। चल। २. सदा एक ही अवस्था में रहनेवाला। नित्य। . निश्चित। दुढ़। ठोक। पक्का। जैसे— उनका आना ध्रुव है।

ध्रुव (२)
संज्ञा पुं० १. आकाश। २. शंकु। कील। ३. पर्वत। ४. स्थाणु। खंमा। थून। ५. वट। बरगद। ६. आठ वस्तुओं में से एक। ७.ध्रुवक। ध्रुपद। ८.एक यज्ञपात्र। ९. शरारि नामक पक्षी। १०. विष्णु। ११. हार। १२. फलित ज्योतिष में एक शुभ योग जिसमें उत्पन्न बालक बड़ा विद्बान, बुद्धिमान् और प्रसिद्ब होता है। १३. ध्रृवतारा। १४. नाक का अगला भाग। १५. गाँठ। १६. पुराणों के अनुसार राजा उत्तानपाद के एक पुत्र जिनकी माता का नाम सुनीति था। विशेष— राजा उत्तानपाद को दो स्त्रियां थो? सुरूचि और सुनीति। सुरुचि से उत्तम और सुनीति से ध्रुव उत्पन्न हुए। राजा सुरुचि को बहुत चाहते थे। एक दिन राजा उत्तम को गोद में लिए बैठे थे इसी बीच मे ध्रुव खेलते हुए वहाँ आपहुँचे ओर राजा की गोद बैठ गए। इसपर उनकी विमाता सुरूचि ने उन्हें अवज्ञा के साथ वहाँ से उठा दिया। ध्रुव इस अपमान को सह न सके; ओर घर से निकलकर तप करने चले गए। विष्णु भगवान उनकी भक्ति से बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें वर दिया कि 'तुम सब लोकों और ग्रहों नखत्रों के ऊपर उनके आधार स्वरुप होकर अचल भाव से स्थित रहोगे और जिस स्थान पर तुम रहोगे वह ध्रृब लोक कहलावेगा। इसके उपरांत ध्रुव ने घर आकर पिता से राज्य प्राप्त किया और शिशुमार को कन्या भ्रमि से विवाह किया। इला नाम की इनकी एक और पत्नी थी। भ्रमि के गर्म से कल्प और बत्सर तथा इला के गर्भ से उत्कल नामक पुत्र उत्पन्न हुए। एक बार इनके सौतेले भाई उत्तम को यक्षों ने मार ड़ाला इसलिये इन्हें उनसे युद्ब करना पड़ा जिसे पितामह मनु ने शांत किया। अंत में छत्तीस हजार वर्ष राज्य करक ध्रुव विष्णु के दिए हुए। ध्रुवलोक में चले गए। १७. शरीर की भोंरी। विशेष— वक्षस्थल, मस्तक, रंध्र, उपरंध्र, माल और अपान इन स्थानों की भौरियां ध्रुव कहलाती हैं। (शव्दार्थचिंतामणि)। १८. भूगोल विद्या में पृथ्वी का अक्ष देश। पृथ्वी के वे दोनों सिरे जिससे होकर अक्षरेखा गई हुई मानी जाती हैं। विशेष— सूर्य की परिक्रमा पृथ्वी लट्टू की तरह घुमती हुई करती है। एक दिन रात में उसका इस प्रकार का धूमना एक बार हो जाता है। जिस प्रकार लटूठ् के बीचोबीच एक कील गई होती है जिसपर वह घुमता है उसी प्रकार पृथ्वी के गर्भकेंद्र से गई हुई एक अक्षरेखा मानी गई है। यह अक्षरेखा जिन दो सिरों पर निकली हुई मानी गई है उन्हें 'ध्रुव' कहते है। ध्रुव दो हैं—उत्तर ध्रुव या सुमेरु और दक्षिण ध्रुव या कुमेरु। इन स्थानों से २२ १/२ अंश पर पृथ्वी के तल पर एक एक वृत्त माने गए हैं। जिन्हें उत्तर और दक्षिण शितकटिवंध कहते हैं। ध्रुवों और इन वृतों के बीच के प्रदेश अत्यंत ठंड़े हैं। उनमें समुद्र आदि का जल सदा जमा रहता है। घ्रुव प्रदेश में दिन रात २४ घंटों का नहीं होता, वर्ष भर का होता है। जब तक सूर्य उत्तरायण रहते है तब तक उत्तर ध्रुव पर दिन और दक्षिण ध्रुव पर रात और जब तक दक्षिणायन रहते हैं तब तक दक्षिण ध्रुव पर दिन और उत्तर ध्रुव पर रात रहती है। अर्थात् मोटे हिसाब से कहा जा सकता है कि वहाँ छइ महीने की रात और छह महीने का दिन होता है। इसी प्रकार वहाँ संध्या और उषा काल भी लंबा होता है। वहाँ सूर्य और चंद्रमा पूर्व से पश्चिम जाते हुए नहीं मालूम होते बल्कि चारों ओर कोल्हू कै बैल की तरह घुमते दिखाई पड़ते हैं। ध्रुव प्रदेश में उषा काल और संध्या काल की ललाई क्षितिज के ऊपर वीसों दिन तक घुमती दिखाई पड़ती है। वहीं तक नहीं वह नक्षत्र युक्त राशिचक्रभी ध्रृव के चारों ओर चुकना दिखाई पड़ता है। शब्द की गति ध्रुव प्रदेश में बहुत तेज होती है, मीला पर होनेवाला शब्द ऐसा जान पड़ता है कि पास ही हुआ है। इस भूभाग में सबसे मनोहर मेरुज्योति है जो चित्र विचित्र और नाना वणों के आलोक के रूप में कुछ काल तक दिखाई देती है। १९. फलित ज्योतिष में एक नक्षत्रगण जिसमें उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तर भाद्रपद और रोहीणी है। २०. रगण का अठारहवाँ भेद जिसमें पहले एक लघु, फिर एक गुरु और फिर तीन लघु होते हैं। २१. तालू का एक रोग जिसमें ललाई और सूजन आ जाती हैं। २२. सोमरस का वह भाग जो प्रातःकाल से सायंकाल तक बिना किसी देवता को अर्पित हुए रखा रहें।

ध्रुवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थाणु। थून। खंभा। २. ध्रुपद नामक गीत। ३. ध्रुपद की टेक (को०)। ४. नक्षत्र की दुरी। विशेष— मीन राशि के शेष से जिस नक्षत्र का योग तारा जितनी दूर पर रहता है उतने को उस नक्षत्र का ध्रुवक कहते हैं।

ध्रुवका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ध्रुपद।

ध्रुवकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक प्रकार का केतु तारा। विशेष— इस प्रकार के केतुओं का न तो आकार नियत है, न वर्ण या प्रमाण, यहाँ तक कि उनकी गति भी नियत या विचमित नहीं होती। देखने में वे स्निग्ध होते हैं और फलित ज्योतिष में इनके बीच भेद माने मए है, दिव्य, आंतरिक्ष और भोम। हलका फल भी अनियत है०— कभी अच्छा, कभी कृत, कभी/?/।

ध्रुवगति
संज्ञा पुं० [सं०] द्दढ वा अयुत स्थिति [को०]।

ध्रुवचरण
संज्ञा पुं० [सं०] बद्रताल के बारह भेदों में से एक भेद।

ध्रुवका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्थिरता। अचलता। उ०— किस मकथ करुव से मानव तेरी ध्रुवता को गाते, हो प्रार्थी, प्रत्याशी वे उसकी है शिल नवाते। —इत्यलमु, पृष्ठ ७४। २. दृढ़ता। पक्कापन। ३. निश्चय।

ध्रुवतारक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ध्रुवतारा' [को०]।

ध्रुवतारा
संज्ञा पुं० [सं० ध्रुव+तारक, हि० तारा] वह तारा जो सदा ध्रुव अर्थात् मेरु के ऊपर रहता है,क कभी इधर उधर नहीं होता हैँ। विशेष— यह तारा बहुत चमकीला नहीं हैं और सप्तर्षि के सिरे पर के दो तारों की सीध में उत्तर की ओर कुछ दुर पर दिखाई पड़ता है। इसकी पहचान यही है कि यह अपना स्थान नहीं बदलता। सारा राशिचक्र इसके किनारे फिरता हुआ जान पड़ता है और यह अपने स्थान पर अचल रहता है। रात के प्रत्येक पहर में उठ उठकर इसके साथ सप्तर्षि को ही देखने से इसका अनुभव हो सकता है। जिस आकार सप्तर्षि में सात तारे हैं उसी प्रकार जिस शिशुमार नामक तारकपुंज के अंतर्गत ध्रृब है उसमें भी सात तारे हैं। इन सातों में ध्रुवपहला और उज्वल है। ध्रुव तारा सदा एक ही नहीं। रहता। पृथ्वी के अक्ष या मेरु से जिस तारे का व्यवधान सबसे कम होता है अर्थात् पृथ्वी के अक्षबिंदु की सीघ से जो तारा सबसे कम हटकर होता है वही ध्रुवतारा होता है। आजकल जो ध्रुवतारा हैं वह मेरु या अक्षबिंदु से १ १/२ अंश पर है। अयनवृत्त के चारों और नाड़ीमंड़ल के मेरु को पीछे छोड़ता हुआ उसकी सीध से बहुत हट जायगा ओर तब अभिजित् नामक नक्षत्र ध्रुवतारा होगा। आज से पाँच हजार बर्ष पहले थूवन नामक तारा ध्रुवतारा था। वर्तमान ध्रुव का व्यवधानांतर आजकर मेरु से १ १/४ अंश हो पर सन् १७८५ ई० में २. अंश २. कला था और दो हजार वर्ष पहले १२ अंश था। भारतवासियों के ध्रुव का परिचय अत्य़ंत प्राचीन काम से है। विवाह के वेदिक मंत्र में ध्रुवतारा का नाम आता है। भारतीय ज्योतिर्विदों के मतानुसार दो ध्रुवतारों हैं। एक उत्तर ध्रुव की सीध में, दुसरा दक्षिण ध्रुव का सीध में।

ध्रूवत्व
संज्ञा पुं० [सं०] ध्रुवता [को०]।

ध्रुवदर्शक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सप्तर्षिमंड़ल। २. कुतुबनुमा।

ध्रुवदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह के संस्कार के अंतर्गत एक कृत्य जिसमें वर वधु को मंत्र पढकर ध्रुवतारा दिखाया जाता है।

ध्रुवधार्य
वि० [सं० ध्रुव + धार्य] निश्चित रुप से धारण करने योग्य। उ०—इस रसकलस में भी ध्रुवधार्य आर्य़ काल के आदर्श उपस्थित कर..........सफल प्रयास किया है। —रसक०, पृ० ५।

ध्रुवधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जो दुहते समय चुपचाप खड़ी रहे।

ध्रुवनंद
संज्ञा पुं० [सं० ध्रुवनन्द] नंद के एक भाई का नाम।

ध्रुवना पु
क्रि० सं० [हि० धुरवा] बरसना। उ०— पूछै पाहण रुख पखेरु धुवे चथाँ जलधारा। —रघु० रू०, पृ० १३९।

ध्रुवपद
संज्ञा पुं० [सं०] ध्रुवत। ध्रुपद।

ध्रुवमत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक यंत्र जिसके द्वारा दिशायों का ज्ञान होता है। कुतुबनुमा (नवीन)।

ध्रुवस्त्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक मातृका जो कुमार या कार्तिकेय की अनुचरी है।

ध्रुवलोक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक लोक जो सत्यलोक के अंतर्गत है और जिसमें ध्रुव स्थित हैं।

ध्रुवसंधि
संज्ञा पुं० [सं० ध्रुवसन्धि] सुर्यवंशीय राजा सुसंधि के पुत्र (रामायण)।

ध्रुवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यज्ञपात्र जो वैकंड़ की लकड़ी का बनता है। २. मूर्वा। मरोड़फली। ३. शालपर्णी। सरिवन। ४. ध्रुपदगीत। ५. साध्वी स्त्री। सती स्त्री। ६. दोहनकाल में स्थिर रहनेवाली गाय (को०)। . प्रत्यंचा। धनुष की डोरी (को०)। . संगीत का एक ताल जिसमें मात्रा का निश्चय करतल की ध्वनि से होता है (को०)। ९. ऊर्ध्व स्थिति (को०)।

ध्रुवाद्दार
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।

ध्रुवाधिकरण
संज्ञा पुं० [सं० ध्रुव + अधिकरण] भूमिकर का अधिकारी। आ० भा० पृ० ४४५।

ध्रुववार्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़ों की भौरी जी ललाट, केश, रंध्र उपरंध्र, वक्ष इत्यादि में होती है। २. वह घोड़ा जिसके ऐसी भौरिय़ाँ होती है।

ध्रुवि
वि० [सं०] ध्रुव। अचल। अटल। निश्चित [को०]।

ध्रुवीय
वि० [सं० ध्रुव] १. ध्रुव संबंधित। २. ध्रुव प्रदेश का [को०]।

ध्रु पु
संज्ञा पुं० [हि०] ध्रुव। उ०— फिरि ध्रू प्रहलाद विभीषन से मन धारि कै नाथ यो भीर करी। नट०, पृ० ३१।

ध्रुव पु
वि० [हि०] दे० 'घ्रूव'। उ०— दिष्षे सु नयन पुह करि प्रसिद्ध। कियौ पाप इन ध्रुब करि। पृ० रा० १। ५८२।

ध्रोह पु
स्त्री० पुं० [हि०] दे० 'द्रोह'। उ०—जाल पसारया सगला ध्रोह। प्राण०, पृ० ३।

ध्रौव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १.ध्रुवत्व। ध्रुवता। २. निश्चयत्व। ३. स्थायित्व [को०]।

ध्वंस
संज्ञा पुं० [सं०] १. विनाश। नाश। क्षय। हानि। विशेष— न्याय और वौशेषिक मे 'ध्वंस' एक अभाव माना गया है। पर सत्कार्यवादी सांख्य और वेदांत ध्वंस का अभाव नहीं मानते केवल तिरोभाव मानते हैँ। वे वस्तु का नाश नहीं मानते; उसका अवस्थांतर माने हैं। २. भावन या इमारत का ढहना या गिरना [को०]।

ध्वंसक
वि० [सं०] नाश करनेवाला।

ध्वंसन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० ध्वंसनीय, ध्वंसित, ध्वस्त] १. नाश करने की क्रिया। २. नाश होने का भाव। क्षप। विनाश। तबाही।

ध्वंसाविशेष
संज्ञा पुं० [सं० ध्वस + अवशेष] ध्वंस से बचे हुए भाग। खँड़हर।

ध्वंसित
वि० [सं०] १. विनाशित। नष्ट किया हुआ। २. अलग किया हुआ। हटाया हुआ। [को०]।

ध्वंसी (१)
वि० [सं० ध्वंसिनी] १. नाश करनेवाला। विनाशक। २. नश्वर। नष्ट हो जानेवाला। (को०)।

ध्वंसी (२)
संज्ञा पुं० पहाड़ी पीलू का पेड़।

ध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिह्न। निशान। २. वह लंबा या ऊँचा डंडा जिसे किसी बात का चिह्न प्रकट करने के लिये खड़ा करते है या जिसे समारोह के साथ लेकर चलते है। बाँस, लोहे, लकड़ी आदी की लंबी छड़ जिसे सेना की चढ़ाई या ओर किसी तैयारी के समय़ साथ लेकर चलते है और जिसके सिरे पर कोई चिह्न बना रहता है, या पताका बँधी रहती है। निशान। झ़ड़। विशेष— राजाओं की सेना का चिह्नस्वरुप जो लंबा दंड़ होता है वह ध्वज (निशान) कहलाता है। यह दो प्रकार का होता है। सपताक और निष्पताक। ध्वजदंड़ बकुल, पलाश, कदंब आदि कई खकडि़यों का होता है। ध्वजा परिमाणभेद से आठ प्रकार की होती है— जया, विजाया, भीमा, चपला,वैजयंतिका, दीर्घा, विशाला और लोला। जया पाँच हाथ की होती है, विजया छह हाथ की, इसी प्रकार एक एक हस बढता जाता है। ध्वज मे जो चौखूँटा या तिकोना कपड़ा कंवा होता है उसे पताका कहते हैं। पताका कई वर्ण की होती है और उनमें चित्र आदि भी बने रहते है। जिस पताका मे हाथी, सिह आदि बने हो वह जयंती, जिसमें मोर, आदि बने हो बह अष्टमंगला कहलाती है; इसी प्रकार और भी समझिए। (युक्तिकल्पतरु)। ३. ध्वजा लेकर चलनेवाला आदमी। शौड़िक। विशेष— मनु ने शौड़िक को अतिशय नीच लिखा है। ४.खाट की पट्टी। ५. लिंग। पूरुषेंद्रिय। यौ०— ध्वजभंग ६. दर्प। गर्व। घमंड़। ७. वह घर जिसकी स्थिति पूर्व की ओर हो। ८. हदबंदी का निशान। ९. मदिरा का व्यवसायी। कलाल (को०)।

ध्वजगृह
संज्ञा पुं० [सं०] वह कमरा जिसमें झँड़ा रखा जाय [को०]।

ध्वजग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस (रामायण)।

ध्वजदंड़
संज्ञा पुं० [सं० ध्वज+दंड़] ध्वजा का ड़ंड़ा। उ०— दृढ ध्वजदंड़ बना यह तिनका, सूने पथ का एक सहारा। इत्यलमु, पृ० १४७।

ध्वजद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] ताल। ताड़ का पेड़।

ध्वजनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वज + नी (प्रत्य०)] सेना। उ०— प्रतनी, ध्वजनी, बाहिनी, चमु बरुथिन ऐन। नंद० ग्रं०, पृ० ८८।

ध्वजपट
संज्ञा पुं० [सं०] झंड़ा [को०]।

ध्वजपात
संज्ञा पुं० [सं०] क्लीबता। नपुंसकता [को०]।

ध्वजप्रहरण
संज्ञा पुं० [सं०] वायु [को०]।

ध्वजभंग
संज्ञा पुं० [सं० ध्वजभङ्ग] एक रोग जिसमें पुरूष की स्त्रीसंभोग की शक्ति नहीं रह जाती। कलीबता। नपुंसकता। विशेष—इस रोग में पुराषेंद्रिय की पोशियाँ ओर नाड़ियाँ शिथिल पड़ जाती है। चरक आदि आयुर्वेद के आचाय़ों के मता- नुसार यह रोग अम्ल, क्षार आदि के अधिक भोजन से दुष्ट योनि-गमन से, क्षत आदि लगने से, वीर्य के प्रतिरोध से तथा ऐसे हो ओर कारणों से होता है। भावप्रकाश में लिखा है कि संयोग के समय भय, शोक, क्रोध आदि का संचार होने से अनभिप्रेता या द्वेष रखनेवाली स्त्री के साथ गमन करने से मानस क्लैब्य उत्प्न्न होता है। यह रोग अधिकार अधिक शुक्रक्षय ओर इंद्रियचालन से उत्प्न्न होता है।

ध्वजमूल
संज्ञा पुं० [सं०] चुंगीघर की सीमा [को०]।

ध्वजयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ध्वजा का डंडा [को०]।

ध्वजवान्
वि० [सं० ध्वजवत्] [वि० स्त्री० ध्वजवती] १. ध्वजवाला। जो ध्वजा या पताका लिए हो। २. चिह्नवाला। चिह्नयुक्त। ३. जो (ब्राह्मण) अन्य ब्राह्मण की हत्या करके प्रायश्चित्त के लिये उसकी खोपड़ी लेकर भिक्षा माँगता हुआ तीथों में धुमे (स्मृति)। ४.शौड़िक। कलवार।

ध्वजाशुक
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वजपट [को०]।

ध्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वज] १. पताका। झंड़ा। निशान। उ०— (क) ध्वजा फरवकै शून्य में बाजै अनहद तूर। तकिया है मैदान मे पहुँचेगे कोहनुर। कबीर (शब्द०)। (ख) करि कपि कटक चले लंका को छिन में बाँध्यो सेत। उतरि गए पहुंचे लंका पै विजय ध्वजा संकेत। सूर (शब्द०)। विशेष— दे० 'ध्वज'। मुहा०— ध्वजा फहराना = कीर्ति प्राप्त करना। यशस्वी बनना। उ०— श्वासा सार तार जोरिआना। अधर अमान ध्वजा फहराना। कबीर सा०, पृ० १५३८। २. एक प्रकार की कसरत। विशेष— यह दो प्रकार होती है एक मलखंभ पर की दुसरी चौरंगी। मलखंभ पर यह कसरत तौल के ही समान की जाती है। केवल विशेष इतना ही करना पड़ता है कि इसमें मलखभ को हाथ से लपेटकर उसकी एक बगल में सारा शरीर सीधा दंड़ाकर तौलना पड़ता है। इसे संस्कृत में 'ध्वज' कहते हैं। चौरंगी में हाथ पाँव अंटी से बाँध खड़े रखे जाते है। ३. छंदःशास्त्रानूसार ठगण का पहला भेद जिसमें पहले लघु फिर गुरु आता है।

ध्वजादि गणना
संज्ञा स्त्री० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक प्रकार की गणना जिससे प्रश्न के फल कहे जाते है। विशेष— इसमें नौ कोष्ठो का एक ध्वजाकार चक्र बनाया जाता है। इनमें से पहले घर में प्रश्न रहता है, फिर आगे यथा- क्रम ध्वज, घुम, सिह, श्वान, बृष, खर, गज और ध्वांक्ष रहते है। प्रश्नकर्ता को किसी फल का नाम लेना पड़ता है, फिर फल के आदि वर्ण के अनुसार उसका वर्ग निश्चय करके ज्योतिषी राशी ग्रहादि द्बारा फल बतलाता है। 'ध्वज' के कोठे में स्वर, धूम में कवर्ग सिह में तवर्ग, श्वान में टवर्ग, वृष में तवगे खर में पवर्ग, गज मे अंतस्थ, ध्वांक्ष में श ष स ह समझना चाहिए।

ध्वजारोपण
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वजा स्थापित करना। झंड़ा गाड़ना [को०]।

ध्वजारोहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ध्वजा स्थापित करना। झंड़ा गाड़ना [को०]। २. झंडा फहराना। ध्वजोत्तोलन।

ध्वजाहृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्मृतियों के अनुसार पंद्रह प्रकार के दासों में से एक। वह दास जो लड़ाई में जीतकर पकड़ा गय़ा हो। २. वह धन जो लड़ाई में शत्रु को जीतने पर मिले। विशेष— यह धन अविभाज्य कहा गया है।

ध्वजिक
वि० [सं०] धर्मध्वजी। पाखंड़ी।

ध्वजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाँच प्रकार की सीमाओं में से एक। वह सीमा या हद जिसपर निशान के लिये पेड़ आदि लगे। ो। २. सेना का एक भेद जिसका परिमाण कुछ लोग वाहिनी का दुना मानते है।

ध्वजी (१)
वि० [सं० ध्वजिन्] [वि० स्त्री,० ध्वजिनी] १. ध्वजवाला। जो ध्वजा पताका लिए हो। २. चिह्नवाला। चिह्नयुक्त।

ध्वजी (२)
संज्ञा पुं० १. ब्राह्मण। २. पर्वत। ३. रण। संग्राम। ४० साँप। घोड़ा। मयुर। मोर। ७. सीपी। ८. ध्वजा लेकर चलनेवाला। शोंड़िक। कलवार।

ध्वजोत्तोलन
संज्ञा पुं० [सं० ध्वज+उत्तोलन] झंड़ा फहराना। झंड़ोत्तोलन [को०]। ध्वजारोहण।

ध्वजोत्थान
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र के संमान में उत्सव। इंद्रध्वज महोत्सव [को०]।

ध्वन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ध्वनि। २. गुंजार। भनभनाहट।

ध्वनमोदी
संज्ञा पुं० [सं० ध्वनमोदिन्] भोँरा [को०]।

ध्वनन
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वनि। ध्वनि करना। उ०— शब्द विपद्बापी सत्ता है। जिसका व्यापार ध्वनन है। ०— संपूर्ण० अभि०, ग्रं० पृ० ११२।

ध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्रवणेंद्रिय मे उत्पन्न संवेदन अथवा वह विषय जिसका ग्रहण श्रवणोद्रिय में हो। शब्द। नाद। आवाज। जैसे,मृदंग की ध्वनि, कंठ की ध्वनि। विशेष— भाषापरिच्छेद के अनुसार श्रवण के विषय मात्र को ध्वनि कहते है, चाहे वह वर्णात्मक हो, चाहे अवर्णात्मक। दे० 'शब्द'। क्रि० प्र०— करना। होना। मुहा०— ध्वनि उठना=शब्द उत्पन्न होना या फैलना। २. शब्द का स्फोट। शब्द का फूटना। आवाज की गूँज। नाद का तार। लय। जैसे, मृदंग की ध्वनि, गीत की ध्वनि। विशेष— शऱीरक भाष्य में ध्वनि उसी की कहा है जो दूर से ऐसा सुना जाय कि वर्ण बर्ण अलग और साफ न मालूम हो। महाभाष्यकार ने भी शब्द के स्फोट को हो ध्वनि कहा है। पाणिनि दर्शन में वर्णो का वाचकत्व न मानकर स्फोट ही के बल से अर्थ की प्रतिपत्ति मानी गई है। वर्णों द्बारा जो स्फुटित या प्रकट हो उसकी स्फोट कहते है, वह वर्णातिरिक्त है। जैसे ' कमल' कहने से अर्थ की जो प्रतीति होती है वह 'क' 'म' और 'ल' इन बर्णों के द्बारा नहीं, इनके उच्चारण से उप्तन्न स्फोट द्बारा होती है। वह स्फोट नित्य है। ३. वह काव्य या रचना जिसमें शब्द और उसके साक्षात् अर्थ से व्यंग्य में विशेषता या चमत्कार हो। वह काव्य जिसमें वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ अधिक विशेषतावाला हो। विशेष— जिस काव्य में शब्दों के नियत अर्थों के योग से सूचित होनेवाले अर्थ को अपेक्षा प्रसंग से निकलनेवाले अर्थ में विशेषता होती है। वह 'ध्वनि' कहलाता है। यह उत्तम माना गया है। वाच्यार्थ या अभिधेयार्थ से अतिरिक्त जो अर्थ सुचित होता है वह व्यंजना द्बारा। जैसे, छुटयो सबै कुच के तट चंदन, नैन निरंजन दूर लखाई। रोम उठे तव गात लखात/?/रु साफ भई अधरान ललाई। पीर हितुन की जानति तु न, अरी ! वच बोलत झुठ सदाई। न्हायबै बापी गई इतसों, तिहि पापी के पास गई न तहाँई। (शब्द०)। अपनी दुती से नायीका कहती है कि तेरी पान की ललाई, चंदन, अंजन आदि छुटे हुए है, तू बावली में नहाने गई, उधर ही से जरा उस पापी के यहाँ नहीं गई. यहाँ चंदन, अंजन आदि का छुटना नायक के साथ समागम प्रकट करता है। 'पापी शब्द भी 'तु समागम करने गई थी' यह बात व्यंग्य से प्रकट करता है। इस पद्य में ब्यंग्य ही प्रधान है— इसी में चमत्कार है। ४. आशय। गूढ़ अर्थ। मतलब। जैसे,—उनकी बातों से यह ध्वनि निकलती थी कि बिना गए रुपया नहीं मिल सकताष

ध्वनिक
वि० [सं० ध्वनि] ध्वनि से संबंधित [को०]।

ध्वनिकार
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वनि सिद्धांत के प्रवर्तक आर्नदवर्षना- चार्य़। इनका ग्रंथ 'ध्क्नयालोक' है। उ०—फिर भी ध्वनिकार ने कहा है कि कवि को एकमात्र रस में सावधानी के साथ प्रयत्नशील होना वाँछनीय है। बी० श० महा०, पृ० ३।

ध्वनिकाव्य
संज्ञा पुं० [सं० ध्वनि+काव्य] वह काब्य जिसमें व्यंग्य की प्रधानता है। व्यंग्यप्रधान काव्य [को०]।

ध्वनिकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] 'ध्वन्यालोक' के रचयिता आनंदवर्धना- चार्य [को०]।

ध्वनिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] कान।

ध्वनित (१)
वि० [सं०] १. शब्दित। २. व्यंजित। प्रकट किया हुआ। ३. बजाया हुआ। वादित। क्रि० प्र०— करना। होना।

ध्वनित (२)
संज्ञा पुं० बाजा। जैसे मृदंग आदि।

ध्वनिनाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वीणा। २. वेणु।

ध्वनिवाद्
संज्ञा पुं० [सं० ध्वनि + वाद] ध्वनि को काब्य का मुख्य गुण मानने का सिद्धांत।

ध्वनिसिद्धात
संज्ञा पुं० [सं० ध्वनि + सिद्धान्त] दे० 'ध्वनि'।

ध्वन्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यंग्यार्थ। २. एक प्राचीन राजा जो लक्षमण का पुत्र था। इसका नाम ऋग्वेद में आया है। ३. ध्वनित होने योग्य (को०)। ४. ध्वनित होनेवाला [को०]।

ध्वनिविकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. भव या दुःखजन्य स्वरपरिवर्तन। २. काकु [को०]।

ध्वन्यमान
वि० [सं०] ध्वनित होनेवाला। साहित्य शास्त्रानुसार जिसकी ध्वनि निकले। उ०— आचा्र्यो ने कुछ दिन के बाद तीसरा भेद किया जिसे वे ध्वन्यमान अर्थ कहने लगे। —सं० शास्त्र। पृ०— ४।

ध्वन्यात्मक
वि० [सं०] १. ध्वनि स्वरूप या ध्वनिमय। २. (काव्य) जिसमें व्यंग्य प्रधान हो। उ०— अतएव ऐसे शब्द को ध्वन्यात्मक कहते हैं क्योंकि वह ध्वनि पर ही अवलंवित है। रस० क० पृ० २।

ध्वन्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं० ध्वन्यार्थ] वह अर्थ जिसका बोध वच्यार्थ से न होकर केवल ध्वनि य़ा व्यंजना से हो।

ध्वस्त
वि० [सं०] १. च्युत। गलित। गिरा पड़ा। २. खंड़ित टुटा फूटा। भान। ३. नष्ट। भ्रष्ट। ४. परास्त। पराजित। उ०— जय जयकरा किया मुनियों ने, दस्युराज यों ध्वस्त हुआ —साकेत, पृ० ३७९। क्रि० प्र०— करना। होना।

ध्वस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वाड़क्ष] १. काक। कौआ। २.मछली खानेवाली एक चिड़िया। ३. तक्षक। ४. भिक्षुक।

ध्वांत
संज्ञा पुं० [सं० ध्वान्त] १. अंधकार। अँधेरा। उ०— वह पावन सारस्वत प्रदेश दुःस्वप्न देखता पड़ा क्लांत। फैला था चारों ओर ध्वांत। —कामयानी, पृ० १६०। २. एक नरक का नाम। तमिस्त्र। ३. एक मरूत् का नाम।

ध्वांतचर
संज्ञा पुं० [सं० ध्वान्तचर] निशाचर। राक्षस उ०— जैति मंगलगार संसार भारापहर वानराकार विग्रह पुरारी। राम रोषनल ज्वालमालाभिध्वांतचर सलभ संहारकारी। तुलसी (शब्द०)।

ध्वांतवित्त
संज्ञा पुं० [सं० ध्वान्तवित्त] खद्दोत। जुगुनू।

ध्वांतशत्रु
संज्ञा पुं० [सं० ध्वान्तशत्रु] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. चंद्रमा। ४. श्वेत वर्ण। ५, श्योनाक। छोटा।

ध्वांतशात्रव
संज्ञा पुं० [सं० ध्वान्तशात्रव] दे० 'ध्वांतशत्रु' [को०]।

ध्वांतारात्ति
संज्ञा पुं० [सं० ध्वान्ताराति] दे० 'ध्वांतशत्रु' [को०]।

ध्वांतोन्मेष
संज्ञा पुं० [सं० ध्वान्तोन्मेष] जुगनू। खद्दोत [को०]।

ध्वान
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द०। २. गुंजन। भनभन (को०)।