विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/निर
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ निर्
अव्य० [सं०] दे० 'निस्'।
⋙ निरंकार पु
संज्ञा पुं० [सं० निराकार] दे० 'निराकार'।
⋙ निरंकुश
वि० [सं० निरङ्कुश] जिसके लिये कोई अंकुश या प्रति- बंध न हो। जिसपर कोई दबाव न हो। जिसके लिये कोई रोक या बंधन हो। बिना डर दाब का। बेकहा। स्वेच्छाचारी। ल०—निपट निरंकुश अबुध असंकू।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निरंकुशता
संज्ञा स्त्री० [सं० निरङ्कुश + ता (प्रत्य०)] अनियंत्रण। अराजकता। बदइंतजामी। स्वेच्छाचारिता।
⋙ निरंग (१)
वि० [सं० निरङ्ग] अंगरहित। २. केवल। खाली। जिसमें कुछ न हो। जैसे,—यह दूघ निरंग पानी है। ३. रूपक अलंकार का एक भेद। विशेष—रूपक दो प्रकार का होता है—एक अभेद दूसरा ताद्रूत्य। अभेद रूपक भी तीन प्रकार का होता है—सम, अधिक और न्यून। इनमें से 'सम अभेंद रूपक' के तीन भेद हैं—संग या सावयब, निरंग या निरवयव और परंपरित। जहाँ उपमेय में उपमान का इस प्रकार आरोप होता है कि उपमान के और सब अंग नहीं आते वहाँ निरवयव या निरंग रूपक होता है—जैसे, 'रैन न नींद न चैन हिए छिनहूँ घर में कछु और न भावै। सीचन को अब प्रेमलता यहि के हिय काम प्रवेश लखावै'। यहाँ प्रेम में केवल लता का आरोप है उसके और अंगों या सामग्रियों का कथन नहीं है। निरंग या निरवयव रूपक भी दो प्रकार का होता है—शुद्ध और मालाकार। ऊपर जो उदाहरण है वह शुद्ध निरवयव का है क्योंकि उसमें एक उपमेय में एक ही उपमान का (प्रेम में लता का)। आरोप हुआ है। मालाकार निरवयव वह है जिसमें एक उपमेय में बहुत से उपमानों का आरोप हो—जैसे, 'भँवर सँदेह की अछेह आपरत, यह गेह त्यों अनम्रता की देह दुति हारि है। दोष की निधान, कोटि कपट प्रधान जामें, मान न विश्वास द्रुम ज्ञान की कुठारी है। कहै तोष हरि स्वर्गद्बार की विघन धार, नरक अपार की विचार अधिकारी है। भारी भयकारी यह पाप की पिटारी नारी क्यों करि विचारि याहि भाखैं मुख प्यारी हैं। यहाँ एक स्त्री उपमेय में संदेह का भँवर; अविनय का घर, इत्यादि बहुत से आरोप किए गए हैं।
⋙ निरंग (२)
वि० [हिं० उप० नि (= नहीं) + रंग] १. बेरंग। बद- रंग। विवर्ण। २. फीका। उदास। बेरौनक। उ०—सो धनि पान चून भई चोली। रंग रंगील, निरंग भई डोली।— जायसी (शब्द०)।
⋙ निरंजन (१)
वि० [सं० निरञ्जन] १. अंजन रहित। बिना काजल का। जैसे, निरंजन नेत्र। २. कल्मषशून्य़। दोषरहित। ३. माया से निर्लिप्त (ईश्वर का एक विशेषण)। ४. सादा। बिना अंजन आदि का।
⋙ निरंजन (२)
संज्ञा पुं० १. परमात्मा। २. महादेव।
⋙ निरंजना
संज्ञा स्त्री० [सं० निरञ्जना] १. पूर्णिमा। २. दुर्गा का एक नाम।
⋙ निरंजनो
संज्ञा स्त्री० [सं० निरञ्जनी] १. साधुओं का एक संप्रदाय। विशेष—कहते हैं, इस संप्रदाय के प्रवर्तक कोई निरानंद स्वामी थे। उन्होंने निरंजन, निराकार ईश्वर की उपासना चलाई थी, इससे उनके संप्रदाय को निरंजनी संप्रदाय कहने लगे। किंतु आजकल निरंजनी साधु रामानंद के मतानुसारसाकार उपासना ग्रहण करके उदासी वैष्णवों में हो गए हैं। ये कौपीन पहनते तथा तिलक और कंठी धारण करते हैं। मारवाड़ में इनके अखाड़े बहुत हैं।
⋙ निरंतर (१)
वि० [सं० निरन्तर] १. अंतररहित। जिसमें या जिसके बीच अंतर या फासला न हो। जो बराबर चला गया हो। अत्रिच्छिन्न (देश के संबंध में)। २. निबिड़। घना गझिन। ३. जिसकी परंपरा खंड़ित न हो। अविच्छिन्न। लगातार होनेवाला। बराबर होनेवाला। जैसे, निरंतर प्रवाह (काल के संबंध में)। ४. सदा रहनेवाला। बराबर बना रहृनेवाला। स्थायी। जैसे, निरंतर नियम, निरंतर प्रेम। ५. जिसमें भेद या अंतर न हो। जो समान या एक ही हो। ६. जो अंतर्धान न हो। जो द्दष्टि से ओझल न हो।
⋙ निरंतर (२)
क्रि० वि० लगातार। बराबर। सदा। हमेशा। जैसे,— उन्नति निरंतर होती आ रही है।
⋙ निरंतरता
संज्ञा स्त्री० [सं० निरन्तर + ता] क्रम, गति या प्रवाह का लगातार चलने रहने का भाव। सातत्य।
⋙ निरंतराभ्यास
संज्ञा पुं० [सं० निरन्तराभ्यास] अनवरत चलनेवाला किसी कार्य, पाठ या अध्ययन आदि का क्रम। स्वाध्याय [को०]।
⋙ निरंतराल
वि० [सं० निरन्तराल] १. अंतरालरहित। व्यवधान- विहीन। घना। २. तंग। संकीर्ण [को०]।
⋙ निरंत्र पु †
वि० [सं० निरन्तर] दे० 'निरंतर'। उ०—देहि असीस सखी हित प्यासी। रमा निरंत्र रहै तोहि दासी।—इंद्रा०, पृ० १६६।
⋙ निरंध (१)
वि० [सं० निरन्ध (= जिससे बढकर अंधा न हो)] १. भारी अंधा। २,महामूर्ख। ज्ञानशून्य। उ०—जाका गुरु है आँधरा चेला खरा निरंध। अंधे की अंधा मिला परा काल के फंद।—कबीर (शब्द०)। ३.बहुत अंधेरा। उ०—अंध ज्यों अंधनि साथ निरंध कुऔ परिहुँ न हिए पछितानो।—केशव (शब्द०)।
⋙ निरंध (२)
वि० [सं० निरन्धस्] बिना अन्न का। निरन्न।
⋙ निरंब पु
संज्ञा पुं० [सं० निरभ्बु] दे० 'निरंबु'।
⋙ निरंबकारी पु
वि० [सं० निर्विकार] दे० 'निर्विकार'। उ०— अति निरलंब अति निरंबकारी, महा निराशा महा निराधारी। प्राण०, पृ० ७४।
⋙ निरंबंर
वि० [सं०] वस्त्ररहित। दिगंबर। नंगा [को०]।
⋙ निरंबु
वि० [सं०निरम्बु] १. निर्जल। बिना पानी का। २. जो जल न पिए। जो बिना पानी के रहे। ३. जिसमें बिना जल के रहना पडें। जैसे निरंवु व्रत। उ०—ब्रत निरवु तेहि दिन प्रभु कोन्हा। मुनिहु कहें जल काहु न लीन्हा।—मानस, २। २४६।
⋙ निरंभ
वि० [सं० निरभ्मस्] १.निर्जल। २. जो पानी न पिए। बिना पानी पिए रह जानेवाला। उ०— प्रात अरभ की खभ लगी निरदंभ निरंभ सँभारै न सामुनि।— देव (शब्द०)
⋙ निरंश
वि० [सं०] १. जिसे उसका भाग न मिला हो। विशेष—स्मृतियों में लिखा है कि पतित, क्लीव आदि निरंश है; इन्हें संपत्ति का भाग न मिलना चाहिए। २. बिना अक्षांश का।
⋙ निरंश (२)
संज्ञा पुं० राशि के भोगकाल का प्रथम और शिष दिन। सक्रांति।
⋙ निरंस पु
वि० [सं० निरंश] १. अंशरहित। विभागरहित। २. अक्षांश रहित। ३. जिसे अपना प्राप्य भाग न मिला हो। उ०—शेष सहस फन नाथि ज्यों सुरपति करे निरंस। अग्नि- पान कियो साँवरे कहा बापुरो कंस।—सूर (शब्द०)।
⋙ निरँजन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० निरञ्जन] दे० 'निरंजन'। उ०— हरिया बाल न बृद्ध ऊ ना तरणाऊ तन्न। निरालंब सुन में रमै निराकार निरँजन्य।—राम० धर्म०, पृ० ६१।
⋙ निरअंक पु
वि० [हिं० निर + सं अङ्क] बिना रूप रेख वाला। अरूप। बिना चिह्नवाला। उ०—निरंकार निरअंक निरंजन निर्विकार निरलेस।—केशव० अमी०, पृ० ४।
⋙ निरश्अंकुस पु
वि० [सं निरङ्कुश] दे० 'निरंकुश'। उ०— निरअंकुस अति निडर, रसिक जस झरना झरना गायो।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४१८।
⋙ निरकलप पु
वि० [सं० निः + कल्प्य] कल्पनारहित। उ०— करम उपाइ बौहोत करि देखे, मति निरकलप तृपति नहिं आई।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३८२।
⋙ निरकेवल †
वि० [सं० निस् + केवल] १. खाली। खालिस। बिना मेला का। २. स्वच्छ। साफ।
⋙ निरक्षदेश
संज्ञा पुं० [सं०] भूमध्य रेखा के आसपास के देश जिनमें रात और दिन बराबर होता हैं। विशेष—पूर्व में भद्राश्ववर्ष और यमकोटि, दक्षिण में भारतबर्ष और लंका, पश्चिम में केतुमालवर्ष, रोमक, उत्तर, कुरु और सिद्धपुरी निरक्ष देश कहे गए हैं। (सूर्यसिद्धांत)।
⋙ निरक्षन पु
संज्ञा पुं० [सं० निरीक्षण] दे० 'निरीक्षण। उ०—होत विलक्षण यज्ञ विदेह की जात निरक्षन अपने अक्षन।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ निरक्षर
वि० [सं०] १. अक्षरशून्य। २. जिसने एक अक्षर भी न पढा़ हो। अनपढ़। मूर्ख। यौ०—निरक्षर भट्टाचार्य = पंडित बना हुआ मूर्ख।
⋙ निरक्षरता
संज्ञा स्त्री० [सं० निरक्षर] अक्षरज्ञान का अभाव।
⋙ निरक्षरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाड़ीमंडल। निरक्षवृत्त। क्रांतिवृत्त।
⋙ निरखना पु
क्रि० सं० [सं० निरीक्षण] देखना। ताकना। अवलोकन करना। उ०—बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखाहिं गगन बिमान।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निरग पु
संज्ञा पुं० [सं० नृग] दे० 'नृग' (राजा)।
⋙ निरगुन पु
वि०, संज्ञा पुं० [सं० निर्गुण] दे० 'निर्गुण'। उ०— निलल नीच निरधन निरगुन कहै जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ।—तुलसी गं०, पृ० ५३६।
⋙ निरगुनिया
वि० [हिं० निरगुन + इया (प्रत्य०)] दे० 'निरगुनी'।
⋙ निरगुनी
वि० [सं०] निर्गुण या हिं० (प्रत्य०) निर + गुणी] जिसमें गुण न हो या जो गुणी न हो। अनाड़ी। उ०—रंक निरगुनी नीच जितने निवारने हैं।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५४६। २. निर्गुण ब्रह्म की उपासना करनेवाला।
⋙ निरग्नि
वि० [सं०] अग्निहोत्र न करनेवाला। जो श्रौत और स्मातँ विधि के अनुसार अग्निकर्म न करता हो।
⋙ निरघ
वि० [सं०] निष्पाप। दोषरहित।
⋙ निरधिन पु
वि० [सं० निर्घृण] १. क्रूर। कृपाहीन। २. आति घृणित। उ०—इहवाँ राजकुँवर सुख भोगी। हों परदेसी निरधिन जोगी।—चित्रा०, पृ० १७६।
⋙ निरघृन पु
वि० [सं० निर्धुण] दे० 'निराधिन'। उ०—जदापि बास तव मैं अहैं जीवहिं दोसी नाथ। पै निरघृन कौतुक लखत तुम क्यों वाके साथ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५३७।
⋙ निरघोष
संज्ञा पुं० [सं० निर्घोष] दे० 'निर्घोष'।
⋙ निरचू
वि० [सं० निश्चिंत] निश्चिंत। खाली। जिसे फुरसत मिल गई हो। जिसने छुट्टी पाई हो। उ०—इस काम से तो में निरचू हुई अब चलकर उस राजर्लि का वृत्तांत दखूँ।— लक्ष्मणसिंह (शब्द०)।
⋙ निरच्छ पु
वि० [सं० निरक्षि] बिना आँख का। अंधा।
⋙ निरच्छर
वि० [सं० निरक्षर] दे० 'निरक्षर'। उ०—बिप्र निरच्छर लोलुप कामी।—मानस, ७।१००।
⋙ निरछेह पु
वि० [हिं० निर + छोह] बिना माया मोह का। बे- लगाव। जिसे ममता या स्नेह न हो। उ०—दुइ अक्षर का सकल पसारा यामें कौन सनेहा। एके लागि सकल जगमोहया एक रहा निरछैहा।—राम०, धर्म०, पृ० १३५।
⋙ निरज
संज्ञा पुं० [सं०] रजोहीन। रजोगुण से रहित। निर्मल। उ०—मोहन दरस हियो अभिलाखै। रज कों परस द्दगनि रज राखै।— घनानंद, पृ० २६१।
⋙ निरजन पु
वि० [सं० निर्जन] दे० 'निर्जन'। उ०—निरजन जंगलों और पर्वतों के ......हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ५।
⋙ निरजर पु (१)
वि० [सं० निर्जर] दे० 'निर्जर'। उ०—पसुपति प्रियाहि प्रबोध करन निरजर गिननायक।—दीन० ग्रं०, पृ० ९१।
⋙ निरजर (२)
संज्ञा पुं० देवता। निर्जर।
⋙ निरजल
वि० [सं० निर्जल] [वि० स्त्री० निरजला] दे० निर्जल।
⋙ निरजास पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्यास] निचोड़। नित्याप्त। उ०— लह्यौ परम रस को निरजास। श्री ब्रज बृंदाविपिन विलास। घनानंद, पृ० २३७।
⋙ निरजासु पु
वि० [सं० नि + रजस्क] रजोहीन। शुद्ध। निर्मल।
⋙ निरजिउ पु
वि० [सं० निर्जीव] दे० 'निर्जीव'। उ०—मौन गँवाए गएउ बिमोही। भा निरजिउ जिउ दीन्हेसि ओही।— पद्मावत, पृ० २७७।
⋙ निरजिव पु
वि० [सं० निर्जीव] दे० 'निर्जीव'। उ०—को चितवै को बोलै कासों, निरजिव रूप कहूँ का री।—कबीर श०, भा० २, पृ० १०४।
⋙ निरजी
संज्ञा स्त्री० [देश०] संगतराशों की महीन टाँकी जिससे संगमर्मर पर काम बनाया जाता है।
⋙ निरजुर †
संज्ञा पुं० [सं० निर्जर] दे० 'निर्जर'। उ०—इधक अनुराग कर पुरष निरजुर अही।—रघु० रू० पृ० ५७।
⋙ निरजोस
संज्ञा पुं० [सं० निर्यास] १. निचोड़। २. निर्णय।
⋙ निरजोसी
वि० [हिं० निरजोस] १. निचोड़ निकालनेवाला। २. निर्णय करनेवाला।
⋙ निरजोसु पु
संज्ञा पुं० [हिं० निरजोस] दे० 'निरजोस'। उ०—राम तुम्हहिं प्रिय तुम प्रिय रामहिं। ओह निरजोसु दोसु बिधि बामहिं।—मानस, २।२००।
⋙ निरझर पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्झर] दे० 'निझँर'।
⋙ निरझरनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्झरिणी] दे० 'निर्झरिणी'।
⋙ निरझरी
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्झरी] दे० 'निर्झरी'।
⋙ निरत (१)
वि० [सं०] १. किसी काम में लगा हुआ। तप्पर। लीन। यशगूल। २. प्रसन्न (को०)। ३. विश्रांत (को०)।
⋙ निरत पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० नृत्य] दे० 'नृत्य'। उ०—बिन पग नटरा निरत करत हैं, बिन कर बाजै ताल।—घरम०, पृ० ५९।
⋙ निरत पु (३)
अव्य [हिं०] लगातार। अनवरत।
⋙ निरत पु (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० निरति] दे० 'निरति'। उ०—अध ऊरध बिच सुरति समानी। निरखा सब्द निरत अलगानी।—घट० पृ० १०८।
⋙ निरतना पु
क्रि० सं० [सं० नर्त्तन] नाचना। नृत्य करना।
⋙ निरताना †
क्रि० स० [सं० निर्णीत से नामिक थातु]। निर्णीत करना। निश्चित करना। स्थिर करना। उ०—उतपति कारण हम सब पावा। वंश अंश दूनौ निरतावा।—कबीर सा०, पृ० ९०१।
⋙ निरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.अत्यंत रति। अधिक प्रीति। २. लिप्त होने का भाव। लीन होने का भाव।
⋙ निरतिशय (१)
वि० [सं०] जिससे और अतिशय न हो सके। हद दरजे का।
⋙ निरतिशय (२)
संज्ञा पुं० परमेश्वर।
⋙ निरत्थ पु
वि० [सं० निरर्थ] दे० 'निरर्थ'।
⋙ निरत्यय (१)
वि० [सं०] १. बिना बाधा के। २. जिसमें कोई दोष न हो। त्रुटिरहित। हर प्रकार से सफल [को०]।
⋙ निरत्यय (२)
संज्ञा पुं० रोक या बाधा का अभाव [को०]।
⋙ निरथाना पु
क्रि० अ० [हिं० निर + अरथाना] निश्चय करना। स्थिर करना या होना। निर्धारण करना। उ०—गगन मंदिल चलि थिर ह्वै रहिए, तकि छबि छकि निरथाई।—जग० श०, पृ० ७९।
⋙ निरथु पु †
वि० [सं० निरर्थक] बेकार। निष्प्रयोजन। निरर्थक। उ०—देह विलौईअ निकलै तथु। जल मथीअ जस देखु निरथु।—प्राण०, पृ० २६४।
⋙ निरदई
वि० [सं० निर्दयी, निरदई] दे० 'निर्दय'। उ०—यो दलमलियतु निरदई दई कुसुम सौ गातु। कर धरि देखौ, धर- धरा उर कौ अजों न जातु।—बिहारी र०, दो० ६५१।
⋙ निरदय पु
वि० [सं० निर्दय] दे० 'निर्दय'।
⋙ निरदाइ पु
वि० [हिं० निरदई] दे० 'निर्दय'। उ०—वे निरदाइ नं दाया करहीं। जीना सबै सपन करि देहीं।—हिंदी प्रेम०, पृ० २३९।
⋙ निरदाग पु
वि० [हिं० निर + अ० दाग] बेदाग। बिना धव्बे का। अछूता। उ०—जग से रहें उदासी बासी मोह माया निरदाग।—संत तुरसी०, पृ० २१४।
⋙ निरदाव पु
वि० [हिं० निर + दाँव] बिना दाँव के। बिना अवसर के। उ०—जहाँ गोरख जहाँ ज्ञान गरीबी दुंद बाद नहीं कोई। निसप्रेही निरदावै पेलै गोरष कहीयै सोई।— गोरख०, पृ० ६५।
⋙ निरदुंद
वि० [सं० निर्द्वन्द्ब] दे० 'निर्द्बद्ब'। उ०—निरंदुद रहो गहो सोई मारग जो जेही घाट उतार।—संत तुरसी०, पृ० २१९।
⋙ निरदुंदी
वि० [सं० निर् + द्बन्द्विन्] दे० 'निर्द्वन्द्ब'। उ०—निरदुंदी को मुक्ति है, निरलोभी निर्बान।—कबीर सा० सं०, पृ० ३७।
⋙ निरदोखी पु
वि० [सं० निर्दोष] दे० 'निर्दोष'। उ०—का मैं कीन्ह जो काया पोखी। दूखन मोहि आपु निरदोखी।—जायसी ग्रं०, पृ० २५८।
⋙ निरदोषी पु
वि० [सं० निर्दोष] दे० 'निर्दोष'। उ०—भृगुनंदन सुनिये मन मँह गुनिये रघुनंदन निरदोषी।—केशव (शब्द०)।
⋙ निरधन पु
वि० [सं० निर्धन] दे० 'निर्धन'। उ०—छिन् ही मैं धन होत होत छिनहीं मैं निरधन।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १२७।
⋙ निरधातु
वि० [सं० निर्धातु] वीर्यहीन। शक्तिहीन। अशक्त। उ०— धातु कमाय सिखे तू जोगी। अब कस अस निरधातु वियोगी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ निरधार पु (१)
संज्ञा [सं० निर्धारण] निश्चय करने या ठहराने का कार्य।
⋙ निरधार पु (२)
वि० अवश्यमेव। निश्वयपूर्वक।
⋙ निरधार (३)
वि० [सं० निराधार] आधारविहीन। आधाररहित।
⋙ निरधारना
क्रि० सं० [सं० निर्धारण] १. निश्चय करना। ठहरना। स्थिर करना। २. मन में धारण करना। सम- झना। उ०—एक एक नग देखि अनेकन उड़ुगन वारिय। बसत मनहु सिसुमार चक्र तन इमि निरधारिय।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ निरधिष्ठांन
वि० [सं०] १. निराधार। बिना सहारा। २. स्वतंत्र [को०]।
⋙ निरनय पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्णय] दे० 'निर्णय'। उ०—होत पंचमी के दिन निरनय इंन कलान को।—प्रेमघन०, पृ० २८।
⋙ निरना
वि० [हिं०] दे० 'निरन्ना'।
⋙ निरनुक्रोश (१)
वि० [सं०] दयाहीन। क्रूर ह्वदयवाला [को०]।
⋙ निरनुक्रोश (२)
संज्ञा पुं० दयाहीनता। निष्ठुरता। क्रूरता [को०]।
⋙ निरनुग
वि० [सं०] जिसका कोई अनुगमन करनेवाला न हो [को०]।
⋙ निरनुग्रह
वि० [सं०] अनुदार। निष्ठुर [को०]।
⋙ निरनुनासिक
वि० [सं०] जिसका उच्चारण नाक के संबंध से न हो। जैसे, निरनुनासिक वर्ण। विशेष—वर्णमाला के प्रत्येक वर्ग के अंतिम वर्ण और अनुस्वार को छोड़कर शेष सभी वर्ण निरनुनासिक हैं।
⋙ निरनुबंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० निरनुबन्ध] अर्थ का एक भेद। वह सिद्घि या सफलता जिससे अपना लाभ आवश्यक न हो। दंग्र या अनुग्रह द्बारा किसी उदासीन का अर्थ सिद्ब करना (कौटि०)।
⋙ निरनुबंध (२)
वि० बिना अनुबंधका बिना करार या शर्तनामा का।
⋙ निरनयोज्य
वि० [सं०] निर्दोष। त्रुटिरहित [को०]।
⋙ निरनुरोध
वि० [सं०] १. अमैत्रीपूर्ण। अस्निग्ध। विप्रिय [को०]।
⋙ निरनुयोज्यानुयोग
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय मेँ एक निग्रहस्थान। दे० 'निग्रहस्थान'।
⋙ निरनै पु †
संज्ञा पुं० [सं० निर्णय] दे० 'निर्णय'। उ०—आतपत्र को चिह्व जोइ ब्रह्मलोक सो जान। येहि बिधि श्रुति निरनै करत चरन चिह्न परमान।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १८।
⋙ निरन्न
वि० [सं०] १.अन्नरहित। बिना अन्न का। २. निराहार। जो अन्न न खाए हो। जैसे,—उस दिन वह निरन्न रह गया।
⋙ निरन्ना
वि० [सं० निरन्न] जो अन्न न खाए हो। निराहार। मुहा०—निरन्ने मुँह = बिना मुँह में अन्न डाले। बिना कुछ खाए। बासी मुँह। जैसे,—यह दवा निरन्ने मुँह पानी चाहिए।
⋙ निरन्वय
वि० [सं०] १. संतानहीन। २. अयुक्त। असंबद्ध। ३. संदर्भविरुद्ध। अप्रासंगिक। जैसे,—वाक्य में कोई शब्द। ४. तर्कविरुद्ध। अयुक्तियुक्त। ५. दृष्टि से परे। नजर से दूर। ६. असंग। बिना संगी साथी का। ७. सहसा। अनपेक्षित। ८. निश्चिह्न। संपूर्ण लोप [को०]।
⋙ निरपख पु
वि० [सं० निष्पक्ष हिं०, निर + पख] दे० 'निष्पक्ष'। उ०—सोई निरपख होइगा, जाकै नाँव निरंजन होइ।— दादू०, पृ० ३१९।
⋙ निरपच्छो पु
वि० [सं० निष्पक्ष] दे० 'निष्पक्ष'। उ०—निरपच्छी को भक्ति है निरमोही को ज्ञान।—कबीर सा० सं०, पृ० ३७।
⋙ निरपत्रप
वि० [सं०] १. निर्लज्य। बेशर्म। २.धृष्ट। ढीठ [को०]।
⋙ निरपना
वि० [सं० उप० निस्, निर + हिं० अपना] १. जो अपना न हो। जो आत्मीय न हो। २. बिराना। गैर। बेगाना। उ०—जानकी जीवन। मेरे रावरे बदन फेरे ठाउँ न समाउँ कहाँ सकल निरपने।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निरपराध (१)
वि० [सं०] अपराधरहित। बेकसूर निर्दोष।
⋙ निरपराध (२)
क्रि० वि० बिना अपराध के। बिना कोई कसूर किए। जैसे,—तुमने उसे निरपराध मारा।
⋙ निरपराधी पु
वि० [हिं०] दे० 'निरपराध'।
⋙ निरपवर्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जिसमें भाजक के द्बारा भाग लगे। (गणित)।
⋙ निरपवर्त (२)
वि० [सं०] जिसका अपवर्त न हो सके। जिसका लौटना न हो सके [को०]।
⋙ निरपवर्तन
वि० [सं०] दे० 'निरपर्वत'।
⋙ निरपवाद
वि० [सं०] १. अपवादशून्य। जिसकी कोई बुराई न की जाय। २. निर्दोष। ३. जिसका कभी अन्यथा न हो। जैसे निरपवाद नियम।
⋙ निरपाय
वि० [सं०] जिसका विनाश न हो। जिसका विश्लेष न हो।
⋙ निरपेक्ष (१)
वि० [सं०] १.जिसे किसी बात की अपेक्षा या चाह न हो। बेपरवा। २. जो किसी पर अवलंबित न हो। जो किसी पर निर्भर न हो। ३. जिसे कुछ लगाव न हो। अलग। तटस्थ।
⋙ निरपेक्ष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनादर। २.अवहेलना।
⋙ निरपेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपेक्षा या चाह का अभाव। २. लगाव का न होना। ३. अवज्ञा। परवा न होना। ४. निराशा।
⋙ निरपेक्षित
वि० [सं०] १. जिसकी अपेक्षा या चाह न की गई हो। २. जिसके साथ लगाव न रखा गया हो।
⋙ निरपेक्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०निरपेक्षा] दे० 'निरपेक्षा'।
⋙ निरपेक्षी
वि० [सं० निरपेक्षिन्] १. निरपेक्षा या चाह न रखनेवाला। २. लगाव न रखनेवाला।
⋙ निरपेच पु
वि० [हिं०] १. बिना पैच का। बिना उलझाव का। साफ साफ। सुस्पष्ट उ०—कहे दरिया निरपेच निरबान सर्वग गहु ज्ञान सनमुख ठाढ़े।—सं० दिरया, पृ० ७३।
⋙ निरपेछ पु †
वि० [सं० निरपेक्ष] दे० 'निरपेक्ष' (१)। उ०—सुंदर भजन सबै करहु नारायण निरपेछ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ३७९।
⋙ निरबंध पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० निर + बन्ध] ईश्वर या परमात्मा (जो बंधनहीन है)। उ०—बंधे को बंधा मिलै, छूटै कौन उपाय। कर सेवा निरबंध की, पल में लैत छुड़ाय।—कबीर सा० सं०, पृ० १४।
⋙ निरबंध पु (२)
वि० उन्मुक्त। स्वतंत्र। बंधनहीन। उ०—आतमा कहत गुरु शुद्ध निरबंध नित्य, सत्य करि मानै सु तौ शब्द हूँ प्रमाण है।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६२५।
⋙ निरबंधन पु
वि० [निर + बन्धन] बंधनरहित। उ०—निरबंधन बंधा रहै, बंधा निरबँध होय। करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय।—कबीर सा० सं०, पृ० स २१।
⋙ निरबंसी
वि० [सं० निर्वश] जिसे वंश या संतान न हो।
⋙ निरबर्ती पु
संज्ञा पुं० [सं० निवृत्त] विरागी। त्यागी।
⋙ निरबल पु
वि० [सं० निर्बल] दे० 'निर्बल'।
⋙ निरबहना पु
क्रि० अ० [सं० निर्बहना] निभना। चला चलना। निर्वाह करना। उ०—ताते न तरनि ते, न सरे सुधाकर हूँ ते सहज समाधि निरबही है।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निरबात पु
वि० [सं० निर्वात] दे० 'निर्वात'। उ०—चंद्रुमुखी न हलै न चलै निरबात निवास मै दीपसिखा सी।—मति० ग्रं०, पृ० ३४३।
⋙ निरबान पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्वाण] दे० 'निर्वाण'।
⋙ निरबार पु †
संज्ञा पुं० [हिं० निरवार] दे० 'निरवार'। उ०— तुम्हरे चरन मोर निरबारा। पकरि हाथ करिहो निस्तारा।—घर०, पृ० २५१।
⋙ निरबाहना पु
क्रि० सं० [सं० निर्वाह] निर्वाह करना। निभाना। चलाए चलना। उ०—देह लग्यौ ढिग गेहपति तऊ नेह निर- बाहि। नीची अँखियनु ही इतै गई कनखियनु चाहि।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ निरबिसी
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्विषी] दे० 'निर्विषी'।
⋙ निरबेरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निबेरा'।
⋙ निरबोध पु
वि० [सं० निर्बोघ] बिना बोध का। मूर्ख। उ०— स्वारथपन आग्रह मलीनता लोभ काम अरु क्रोध। कमादिक सब नित्य धरम हैं तन मन के निरबोध।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६५०।
⋙ निरभय पु
वि० [सं० निर्भय] दे० 'निर्भय'।
⋙ निरभर पु
वि० [सं० निर्भर] दे० 'निर्भर।
⋙ निरभाग पु
वि० [हिं०] बिना भाग्य का। बदकिस्मत भाग्य- हीन। अभागा। उ०—निरभाग पुरुष जित जात तित बैर बिपति। अगनित लहत।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ७६।
⋙ निरभिभव
वि० [सं०] १. जिसका अभिभव या अपमान न हो सके। २. जिसका अतिक्रमण न हो सके। अद्बितीय [को०]।
⋙ निरभिमान
वि० [सं०] अहंकारशून्य। अभिमानरहित। २. चेतनारहित। संज्ञाशून्य (को०)।
⋙ निरभिलाष
वि० [सं०] अभिलाषारहित। इच्छाशून्य।
⋙ निरभिसंधान
संज्ञा पुं० [सं० निरभिसन्धान] अभिसंधान का अभाव [को०]।
⋙ निरभ्र
वि० [सं०] बिना बादल का। मेघशून्य जैसे, निरभ्र आकाश।
⋙ निरमत्सर पु
वि० [सं० निर्मत्सर] बिना मत्सर का। उ०— निरमत्सर जे संत तिनकि चूड़ा़मणि गोपी।—नंद० ग्रं०, पृ० १७।
⋙ निरमना पु
क्रि० सं० [सं० निर्माण] निर्माण करना। बनना। उ०—रूपरसि मनु विधि निरमई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ निरमर पु
वि० [सं० निर्मल] दे० 'निर्मल'। उ०—(क) पद- मिनि चाहि घाटि दुह करा। और सबै गुन ओहि निरमरा।— जायसी (शब्द०)। (ख) तिमिर गए जग निरमर देखा।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २८८।
⋙ निरमर्ष
नि० [सं०] १.अमर्ष से रहित। क्रोधहीन। बीतराग। निःस्पृह। उदासीन [को०]।
⋙ निरमल पु
वि० [सं० निर्मल] [वि० स्त्री० निरमलौ] दे० 'निर्मल'।
⋙ निरभली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्मली] 'निर्मली'।
⋙ निरमसोर
संज्ञा पुं० [देश०] एक औषधि या जड़ी जिससे अफिम के विष का प्रभाव दूर हो जाता है। यह पंजाब में होती है।
⋙ निरमान पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्माण] दे० 'निर्माण'।
⋙ निरमाना पु
क्रि० सं० [सं० निर्माण] बनाना। तैयार करना। रचना।
⋙ निरमायल पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्माल्य] दे० 'निर्माल्य'।
⋙ निरमित्र (१)
वि० [सं०] जिसका कोई शत्रु न हो।
⋙ निरमित्र (२)
संज्ञा पुं० १. त्रिगर्तराज के एक पुत्र का नाम जो कुरुक्षेत्र की लड़ाई में मारा गया था। २. चौथे पांडव नकुल के पुत्र का नाम।
⋙ निरमूल पु
वि० [सं० निर्मूल] दे० 'निर्मूल'।
⋙ निरमूलना पु
क्रि० सं० [सं० निर्मूलन] १. निरर्मूल करना। उखाड़ना। २. नष्ट करना।
⋙ निरमोल
वि० [सं० उप० निस, निर + हिं० मोल]। जिसका मोल न हो। अनमोल। अमूल्य। २. बहुत बढ़िया।
⋙ निरमोलक पु
वि० [हिं० निरमोल + क (प्रत्य०) दे० 'निर- मोल'। उ०—नाम तुम्हारा निरमला, निरमोलक हीरा। तू सहिब समरत्थ हम मल मुत्र कै कीरा।—दादू०, पृ० १०२।
⋙ निरमोलिका, पु निरमोलिका पु
वि० [हिं० निरमोल + इक (प्रत्य०)] अनमोल। बेशकीमत। उ०—(क) निकटाहि निरमोलिक नग जैसैं। नैन हीन तिहि पावै कैसै।—नंद० ग्रं०, पृ० १४४। (ख) जीव अछित जोबन गया कछू किया ना नीका। यह हीरा निरमोलिका, कौड़ी पर बीका।—कबीर ग्रं०, पृ० १४८।
⋙ निरमोली पु
वि० [हिं० निरमोल] दे० 'निरमोल'। उ०— पहिरावति। झकझोरि, बेसरि निरमोली है।—नंद ग्रं०, पृ० ३८६।
⋙ निरमोह पु
वि० [सं० निर्मोह] दे० 'निर्मोह'। उ०—अजर अजावन सो निःस्वादी। निःकामी निरमोह अनादी।—कबीर सा०, पृ० ३९३।
⋙ निरमोहडा़ †
वि० [हिं० निरमोह + ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'निर्मोही'। उ०—जावो हरि निरमोहड़ा रे जानी थाँरी प्रीति।—संतवाणी०, पृ० ७४।
⋙ निरमोही पु
वि० [सं० निर्मोही] दे० 'निर्मोही'।
⋙ निरय
संज्ञा पुं० [सं०] नरक। दोजख।
⋙ निरयण
संज्ञा पुं० [सं०] अयनरहित गणना। ज्योतिष में गणना की एक रीति। विशेष—सूर्य राशिचक्र में निरंतर धूमता रहता है। उसके एक चक्कर पूरे होने को वर्ष कहते हैं। ज्योतिष की गणना के लिये यह आवश्यक है कि सूर्य के भ्रमण का आरंभ किसी स्थान से माना जाय। सूर्य के मार्ग में दी स्थान ऐसे पड़ते हैं जिनपर उसके आने पर रात और दिन बराबर होते हैं। इन दो स्थानों में से किसी स्थान से भ्रमण का आरंभ माना जा सकता है। पर विषुवरेखा (सूर्य का मार्ग) के जिस स्थान पर सूर्य कै आने से दिनमान की वुद्बि होने लगाती है उस वासंतिक विषुवपद कहते हैं। इस स्थान से आरंभ करके सूर्यमार्ग को ३६० अंशों में विभक्त करते है। प्रथम ३० अंशों को मेष, द्बितीय को वृष इत्यादि मानकर राशिविभाग द्बारा जो लग्नस्फुट और ग्रहस्फुट गणना करते है उसे "सायन' गणना कहते है। पर गणना की एक दूसरी रीति भी है जो अधिक प्रचलित है। ज्योतिषगणना के आरंभकाल में मेषराशिस्थित अश्विनी नक्षत्र में आरंभ में दिन औकर रात्रिमान बराबर स्थिर हुआ था। पर नक्षत्रगण खसकता जाता है। अतः प्रतिवर्ष अश्विनी नक्षत्र विषुवरेखा से जहां खसका रहेगा बहीं से राशिचक्र का आरंभ ओर वर्ष का प्रथम दिन मानकर जो लग्नस्फुट गणना की जाती है उसे 'निरयण गणना' कहते है। भारतवर्ष में अधिकतर पंचाग निरयण गणना के अनुसार बनाए जाते हैं। ज्योतिषियों में 'सायन' और 'निरयण' ये दो पक्ष बहुत दिनों से चले आ रहे है। बहुत से विद्बानों का राय है कि साय़न मत ही ठीक है।
⋙ निरर्थ (१)
वि० [सं०] १. अर्थहीन। २. व्यर्थ। निष्फल।
⋙ निरर्थ (२)
संज्ञा पुं० १. हानि। २. नासमझी [को०]।
⋙ निरर्थक
वि० [सं०] १. अर्थशून्य। बेमानी। विशेष— निरर्थक वाक्य़ काव्य का एक दोष माना गया है (चंद्रालोक)। २. न्याय में एक निग्रह स्थान। दे० 'निग्रहस्थान'। ३. निष्प्र— योजन। व्यर्थ। बिना मतलब का। ४. निष्फल।जिससे कोई कार्य़ सिद्ब न हो। बेफायदा।
⋙ निरर्बुद
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम।
⋙ निरलंकार
वि० [सं० निर् + अलङ्कार] अलंकारशून्य। सादा। उ०— अलकमंड़ल में यथा मुखचंद्र निरलंकार। —गीतिका पृ० २४।
⋙ निरलंकृति
संज्ञा स्त्री० [सं० निर् + अलङ्कृति] काव्य में अलंकार या अलंकारण का न होना।
⋙ निरलस
वि० [सं०] जिसे आलस्य न हो। बिना आलस्य का [को०]।
⋙ निरवक पु
वि० [सं० निर्मल, हिं० निरमर] शुद्ब। निरा। केवल। खालिस। उ०— समुझ परी नहि रामकहानी। निरवक दूघ कि सरवक पानी। — कबीर बी०, पृ० १७१।
⋙ निरवकाश
वि० [सं०] १. अवकाशरहित। जिसमें स्थान न हो। २. जिसे अवकाश न हो [को०]।
⋙ निरवग्रह
वि० [सं०] १.प्रतिवंधरहित। स्वतंत्र। स्वच्छंद। २. जो दूसरे की इच्छा पर न हो। ३. बिना विघ्न या बाधा का।
⋙ निरवच्छिन्न
क्रि० वि० [सं०] १. अनवच्छिन्न। जिसका सिल— सिला न टुटे। २. निरंतर। लगातार। ३. विशुद्ब। निर्मल।
⋙ निरवद्य
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निरवद्या] १. जिसे कोई बुरा न कहे। अनिद्य। निर्दोंष। जिसमें कोई ऐव या बुराई न हो। २. ईश्वर का एक विशेषण (को०)।
⋙ निरवध पु
वि० [सं० निरवधि] दे० 'निरवधि'। उ०— निरवध नेह, अवधि अति प्रगटी मूरति सब सुखदाई।— नंद०, ग्रं० पृ०३४४।
⋙ निरवधि
वि० [सं०] १. अपार। असीम। बेहद। २. निरंतर। लगातार। बराबर। ३. सदा। सतत। हमेशा।
⋙ निरवयव
वि० [सं०] १. अंगों से रहित। निराकार। २. अभाज्य। जो बाँटा न जा सके (को०)।
⋙ निरवलंब
वि० [सं० निरवलम्ब] १. अवलंबहीन।आधाररहीत। बिना सहारे का। २ निराक्षय। जिसे कहीं ठिकाना न हो। जिसका कोई सहायक न हो।
⋙ निरवशेष
वि० [सं०] पूरा। समय। संपूर्ण [को०]।
⋙ निरवसाद
वि० [सं०] अवसाद से रहित। प्रसन्न [को०]।
⋙ निरवसित
वि० [सं०] जो ऊँची जातियों से अलग हो। (चांडाल आदि) जिसके भोजन या स्पर्श से प्रात्र आदि अशुद्ब हो जायँ।
⋙ निरवस्कृत
वि० [सं०] परिष्कृत। साफ किया हुआ।
⋙ निरवहानिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निरवहालिका'।
⋙ निरवहालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीर।
⋙ निरवाना †
क्रि० सं० [हिं० निराना का प्रे० रूप] निराने का काम कराना।
⋙ निरवार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० निरवारना] १. निस्तार। छुटकारा। बचाव। उ०— यही सोच सब पगि रहै कहुँ नहीं निरवार। ब्रज भीतर नँदभवन में घर घर यहै विचार।—सूर (शब्द०)। २. छुड़ाने या सुलझाने का काम। ३. निबटेरा। फैसला।
⋙ निरवार (२)
वि० निश्चित। निश्चित। मुक्त। उ०— पलटू सतगुरू पाय के दास भया निरवार। —पलटू,० पृ० ३।
⋙ निरवारना पु
क्रि० सं० [सं० निवारण] १. टालना। रोकनेवाली वस्तु को हटाना। छेंकने या बाधा डालनेवाली वस्तु को दूर करना। उ०— आगे आगे लाल लता निरवारत, पाछे पाछे आवत नवल लाड़िली। —नंददास (शब्द०)। २. बंधन आदि खोलना। मुक्त करना। छुड़ाना। उ०— ये सुकुमार बहुत दुख पाए सुत कुबेर के तारों। सुरदास प्रभु कहत मनहिं मन कर बंधन निरवारौं। —सुर (शब्द०)।३. छोड़ना। त्यागना। किनारे करना। उ०— राना देसपति लाजै, बापकुल रती, जाति, मानि लीजै बात वेगि सँग निरवारिए।— प्रियादास (शब्द०)। ४. गाँठ आदि छुड़ाना। सुलझाना। उ०— कबहुँ कान्ह आपने कर सों केसपास निरवारत।— सूर (शब्द०)। ५. निबटाना। निर्णय करना। तै करना।
⋙ निरवाह पु †
संज्ञा पुं० [सं० निर्वाह] दे० 'निवाँह'।
⋙ निरविष पु
वि० [सं० निर्विष] दे० 'निर्विष'। उ०— दादू मनभुवँग यहु विष भरयों, निरविष क्यों ही न होइ। दादू मिल्या गुरु गारड़ी, निरविष कीया सोई।— दादू० पृ० १५।
⋙ निरवेद पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्वेद] दे० 'निर्वेद'। उ०— यह विचारि चहुंआन के, मन उपज्य़ौ निरवेद। —हम्मीर० पृ० ६४।
⋙ निरव्यय़
वि० [सं०] शाश्वत। जिसका नाश न हो। अनश्वर [को०]।
⋙ निरशन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन का न करना। न खाने का भाव। लंधन। उपवास।
⋙ निरशन (२)
वि० २. भोजनरहित। जिसने खाया न हो या जो न खाय। २. जिसके अनुष्ठान में भोजन न किया जाय। जो बिना कुछ खाए किया जाय। जैसे, निरशन व्रत।
⋙ निरश्रि
वि० [सं०] जो बराबर हो। सम (कौटि०)।
⋙ निरष्ट (१)
वि० [सं०] निर्वीर्य। वेदम [को०]।
⋙ निरष्ट (२)
संज्ञा पुं० चौबीस साल का घोडा़ [को०]।
⋙ निरसंक पु †
वि० [हिं० निर + संक] दे० 'निःशकं'।
⋙ निरसंध पु
वि० [हिं० निर + संध] संधिरहित।एक समान। समरस। उ०— व्य़ापक अखड एक रस निरसंध जु।— सुंदर, ग्रं० भा०, १,पृ० ५८८।
⋙ निरस
वि० [सं०] १. जिसमें रस न हो। रसविहीन। २. बिना स्वाद का। बदजायका। फीका। ३. असार। निस्तत्व। ४. रागहीन। ५. रूखा सूखा। ६. जो आनंद न दे। जिससे आनंद न मिले। ७. विरक्त। उ०— रे मन जग सों निरस ह्वै सरस राम सों होहि। भलो सिखावन हेतु है निसि दिन तुलसी तोहि।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निरसन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निरसनीय, निरस्य] १.फेकना। दूर करना। हटाना। २.खारिज करना। रद करना। ३. निराकरण। परिहार। उ०— सांगतार्थ तहँ करत भे कुँवर चारि गोलच्छ।प्रतिग्रह फल निरसन हितै दीने द्बिजन प्रतच्छ। —रधुराज (शब्द०)। ४. निकालना। ५. थुकना। ६. नाश। ७. वध। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ निरसना पु
क्रि० अ० [सं० निरस] रसशून्य होना। नीरस उ०— परसै पै निरसै नहि ऐसै। कष्टनि पाइ कुष्नजन जैसे।—नंद० ग्रं०, पृ० २८९।
⋙ निरसहाय पु †
वि० [सं० निःसहाय] असहाय। उ०—इक राह चाह लागौ असुर निरसहाय प्राकार नव। —रा०, रु०, पृ० २०।
⋙ निरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] निःश्रोणिका नाम की घास जो कोंकण देश में होती हैं।
⋙ निरस्त (१)
वि० [सं०] १. फेंका हुआ। छोड़ा हुआ (जेसे, शर)। २. त्याग किया हुआ। अलग किया हुआ। निकाला हुआ। दूर किया हूआ। ३. खारिज किया हुआ। रद किया हुआ। बिगाड़ा हुआ। निराकृत। ४. वर्जित। रहित। ५. थुकाहुआ। उगला हुआ। ४. मुँह से अस्पष्ट रूप से जल्दी जल्दी बोला हुआ। शीघ्र उच्चारित (वाक्य आदि) ।
⋙ निरस्त (२)
संज्ञा पुं० १. फेंकना। फेंकने की क्रिया। २. फेका हुआ शर। ३. परित्याग। त्याग। ४. अस्वीकरण।५. शीघ्र कथन या उच्चारण [को०]।
⋙ निरस्ति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० निर (= नहीं) + सं० अस्ति] अस्तित्व का अभाव। नास्ति। उ०— आपु आपु चेते नहीं, कहुँ तो रुसुआ होय। कहहि कबीर जो स्वप्ने, निरस्ति अस्ति न होय।—कबीर बी० (शिशु०) , पृ० २९६।
⋙ निरस्त्र
वि० [सं०] अस्त्रहीन। बिना हथियार का।
⋙ निस्थि
वि० [सं०] जिसमें हड्डी न हो। बिना हड्डी का।[को०]।
⋙ निरस्य
वि० [सं०] निरसन के योग्य।
⋙ निरहंकार
वि० [सं० निरहङ्कार] अभिमान ते रहित।
⋙ निरहंकृत
वि० [सं० निरहड़्कृत] दे० 'निरहंकार'।
⋙ निरहंकृति
वि० [सं० निरहङ्कृति] दे० 'निरहंकार'।
⋙ निरहम्
वि० [सं०] अहंभावशून्य।अंहकाररहित।
⋙ निरहेतु
वि० [सं० निर्हेतु] दे० 'निर्हेतु'।
⋙ निरहेल †
वि० [सं० हेय] अनादृत। तुच्छ। जिसकी कोई कदर न हो।
⋙ निरात्रं
वि०[सं० निरात्र] १.अँतड़ीविहीन। जिसके आंत न हो। २. जिसकी अँतड़ियाँ बाहर झुल रही हों [को०]।
⋙ निरा
वि० [सं० निरालय, पू०, हिं० निराल] [वि० स्त्री० निरी] १. विशुद्ब। बिना मेल का। खालिस। २.जिसके साथ और कुछ न हो। केवल। एकमात्र। जैसे ,—निरी बकवाद से काम नहीं चलेगा। ३. निपट। नितांत। सर्वतोभाव। एकदम। बिलकुल। जैसे— वह निरा बेवकूफ है।
⋙ निराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० निराना] १. निराने का काम। फसल के पौधों के आस पास उगनेवाले तुण, घास आदि को दूर करने का काम। २. निराने की मजदूरी।
⋙ निराकरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निराकरणीय, निराकृत] १. छाँटना। अलग करना। २. हटाना। दुर करना। ३. मिटाना। रद करना। ४. किसी बुराई को दूर करने का का काम। शमन। निवारण। परिहार। ५.खंडन। युक्ति या दलील की काटने का काम। जैसे, किसी सिद्बांत का निराकरण।
⋙ निराकांक्ष
वि० [सं० निराकाङ्क्ष] जिसे अपेक्षा, इच्छा या आकाँक्षा न हो।
⋙ निराकांक्षी
वि० [सं० निराकङि्क्षन्] [वि० स्त्री० निराकांक्षिणी] निःस्पृह। जिसे कुछ इच्छा न हो।
⋙ निराकार (१)
वि० [सं०] १. जिसका कोई आकार न हो। जिसके आकार की भावना न हो। २. विरुप। भद्दा। बदशक्ल (को०)। ३. छिपा हुआ। छदमयुक्त (को०)। ४. सीधा सादा। सरल (को०)।
⋙ निराकार (२)
संज्ञा पुं० १. ब्रह्म। इश्वर। २. आकाश। ३. शिव (को०)। ४. विष्णु [को०]।
⋙ निराकाश
वि० [सं०] जिसमें अवकाश न हो। जिसमें खाली जगह न हो [को०]।
⋙ निराकुल
वि० [सं०] १.जो आकुल न हो। जो क्षुब्ध या डाँवाडोल न हो। २. जो घबराया न हो। अनुद्बिग्न। ३. बहुत व्याकुल। बहुत घबराया हुआ। उ०— व्याकुल बाहु निराकुल वुद्बि थक्यो बलिविक्रम लंकपती को। — केशव (शब्द०)। ४. व्याप्त। भरा हुआ। परिपूर्ण (को०)।
⋙ निराकृत
वि० [सं०] १. मिटाई हुई। रद की हुई। २. दूर की हुई। हटाई हुई। ३.खंडन की हुई।
⋙ निराकृति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] निराकरण। परिहार।
⋙ निराकृति (२)
वि० १. आकृतिरहित। निराकार। २. स्वाध्याय— रहित। वेदपाठरहित। ३. कुरूप। बदशक्ल (को०)। ४. पंचमहायज्ञ के अनुष्ठान से रहित (मनु०)।
⋙ निराकृति (३)
संज्ञा पुं० रोहित मनु के पुत्र (हरिवंश)।
⋙ निराकृती
वि० [सं० निराकृतिन्] निराकरण करनेवाला [को०]।
⋙ निराक्रंद (१)
वि० [सं० निराक्रन्द] जहाँ कोई पुकार सुननेवाला न हो। जहाँ कोई रक्षा या सहायता करनेवाला न हो।२. जो पुकार न सुने। जो रक्षा या सहायता न करे। ३. जिसकी पूकार न सुनी जाय। जिसकी कोई सहायता न करे।
⋙ निराक्रंद (२)
संज्ञा पुं० वह स्थान जहाँ कोई शब्द न सुनाई पड़ सके।
⋙ निराक्रोश
वि० [सं०] जिसपर कोई आरोप न हो। निर्दोष [को०]।
⋙ निराखर पु †
वि० [सं० निरक्षर] १. जिसमें अक्षर न हों। बिना अक्षर का।२. बिना अक्षर था शब्द का। मौन। ३. जिसे अक्षर का बोध न हो। अपढ़।
⋙ निराग
वि० [सं०] रागरहित। रागविहीन। विरक्त [को०]।
⋙ निरागस्
वि० [सं०] पापरहित। निष्पाप।
⋙ निराचार
वि० [सं०] आचारहीन। नियमहीन। अनैतिक। असभ्य। उ०— निराचार जो श्रुतिपथ त्यागी। कलियुग सोइ ज्ञान बैरागी।—मानस, ७। ९८।
⋙ निराजी
संज्ञा स्त्री० [देश०] जुलाहों के करघे की वह लकड़ी जो हत्थे और तरौछी को मिलाने के लिये दोनों के सिरों पर लगी रहती है।
⋙ निराजुकार पु †
वि० [सं० निराकार] दे० 'निराकार'। उ०— निराजुकार नाम के अकार में अलुझिए।—राम० घर्म०, पृ० ३२७।
⋙ निराट
वि० [हिं० निराल] जिसके साथ और कुछ न हो। अकेला। एकमात्र। निरा। बिलकुल। निपट। उ०— (क) प्रथम एक जो है किया भया सो बारह बाट। कसत कसौटी ना टिका पीतर भया निराट।— कबीर (शब्द०)। (ख) साधत देह पनेह निराट कहै मति कोई कहूँ अटकी सी।—देव (शब्द०)।
⋙ निराडंबर
वि० [सं० निराडम्बर] १.बिना ढोल का। जिसके पास ढोल न हो। २. जिसमें दिखावा न हो। सादा। आडंबर— हीन [को०]।
⋙ निरातंक (१)
वि० [सं० निरातङ्क] १. भयरहित। निर्भय। २. रोगशून्य। निरोग। ३. आतंकरहित। आनियंत्रित (को०)।
⋙ निरातंक (२)
संज्ञा पुं० शिव [को०]।
⋙ निरातप
वि० [सं०] धूप या गरमी से रक्षित या बचा हुआ। छायादार [को०]।
⋙ निरातपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात्रि। रात।
⋙ निरादर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आदर का अभाव। अपमान। बेइज्जती। क्रि० प्र०—करना।
⋙ निरादर (२)
वि० अपमानवाला। आदररहित।
⋙ निरादान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आदान वा लेने का अभाव। २. बुद्ब का एक नाम।
⋙ निरादान (२)
वि० कुछ न लेनेवाला।
⋙ निरादिष्ट
वि० [सं०] (कर्ज) जो पूरा पूरा चुका दिया गया हो [को०]।
⋙ निरादेश
संज्ञा पुं० [सं०] भुगताना। अदा करने या चुकाने का काम।
⋙ निराधार
वि० [सं०] १.अवलंब या आश्रयरहित। जिसे सहारा न हो या जो सहारे पर न हो। जैसे,— वह निराधार ठहरा रहा। २. जो प्रमाणों से पुष्ट न हो। बे जड़ बुनियाद का। अयुक्त। मिथ्या। झुठ। जैस, निराधार कल्पना।३. जिसे या जिसमें जीविका आदि का सहारा न हो।४. जो बिना अन्न जल आदि के हो। जैसे,— उसने दूघ तक न पिया, नीराधार रह गया।
⋙ निराधि
वि० [सं०] १.रोगशून्य। नीरोग। २. चिंतारहित।
⋙ निरानंद (१)
वि० [सं० निरानन्द] आनंदरहित। जिसे आनंद न हो। खीन्न।
⋙ निरानंद (२)
संज्ञा पुं० १. आनंद का अभाव। २. दुःख।
⋙ निराना † (१)
क्रि० अ० [हिं० नियराना] नियराना। नजदीक होना। उ०— हित न लखाय कहों हुँ धाय हाय कहा करौं जरों विषज्वाल पै न काल कैसें हुँ निराय। —घनानंद, पृ० ३५।
⋙ निराना (२)
क्रि० स० [सं० निराकरण] फसल के पौधों के आसपास उगी हुई घास को खोदकर दूर करना जिसमें पौधौं की बाढ़ न रुके। नींदना। निकाना। उ०— कृषी नि़रावहि चतुर किसाना।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निरानी पु
वि० [हिं० निराला] पृथक्। अलग। उ०— सुरति सत सान्नी अगम समानी। जाइ निरानी राह लए। —घट०, पृ० २९४।
⋙ निरापद
वि० [सं०] १. जिसे कोई आपदा न हो। जिसे कोई आफत या डर न हो। सुरक्षित। २. जिससे किसी प्रकार विपत्ति की संभावना न हो। जिससे हानि या अनर्थ की आशंका न हो। जैसे, निरापद उपाय, निरापद औषध। ३. जहाँ अनर्थ या विपत्ति की आशंका न हो। जहाँ किसी बात का डर या खतरा न हो। जैसे, निरापद स्थान।
⋙ निरापन पु
वि० [सं० उप० निर् + हिं० आपन, अपना] जो अपना न हो। पराया। बेगाना। उ०— (क) ज्यों मुख मुकुर बिलोकिए चित न रहै अनुहारि। त्यों सेवतहुँ निरापने ये मातृ पिता सुत नारि।— तुलसी (शब्द०)। (ख) सब दुःख आपने निरापने सकल सुख जौ लों जन भयों न वजाय राजा राम को।—तुलसी (शब्द०)। (ग) ऐसन देह निरापन बौरे मुए छुवै नहिं कोई हो।— कबीर (शब्द०)।
⋙ निरापुन पु
वि० [हिं०] दे० 'निरापन'। उ०— जउ लहि जिउ आपुन सब कोई। बिनु जिय सबइ निरापुन होई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ निरबाध
वि० [सं०] १. बाधा से मुक्त या रहित। २. अबाध। ३. बिना उपद्रव का [को०]।
⋙ निरामय (१)
वि० [सं०] जिसे रोग न हो। नीरोग। भला चंगा। तंदुरुस्त।
⋙ निरामय (२)
संज्ञा पुं० १. जंगली बकरा। २. सुअर। ३.कुशल।
⋙ निरामयता
संज्ञा स्त्री० [सं० निरामय + ता (प्रत्य०)] नीरोग होने की स्थिति। आरोग्य। तंदुरुस्ती। उ०— जहाँ चित्य हैं जीवन के क्षण, कहाँ निरामयता, संचेतन ? अपने रोग भोग से रहकर, निर्यातन के कर मलने दो। —गीत०, पृ० ४९।
⋙ निरामालु
संज्ञा पुं० [सं०] कैथ का पेड़। कपित्थ।
⋙ निरामिष
वि० [सं०] १. माँसरहित। जिसमें माँस न मिला हो। जैसे, निरामिष भोजन। २. जो मांस न खाय। उ०— वायस पालिय अति अनुरागा। होहि निरामिष कबहुं कि कागा।— तुलसी (शब्द०)। ३. जो कामुक या लोलुप न हो (को०)। ४. जिसे पारिश्रमिक न मिलता हो (को०)। यौ०—निरामिषभोजी, निरामिषाशी = मांस न खानेवाला। जो मांस न खाय। शाकाहारी।
⋙ निराय
वि ०[सं०] १. लाभरहित। जिसमें मुनाफा न हो। २. जिसे कुछ आय न हो [को०]।
⋙ निरायत
वि० [सं०] १. पूरा फैला हुआ। विस्तृत। २. संकुचित। सिकुडा़ हुआ [को०]।
⋙ निरायति
वि० [सं०] जिसका अंत निकट हो। जिसका कोई भविष्य न हो [को०]।
⋙ निरायत्व
संज्ञा पुं० [सं०] संकोच। ह्नस्वता। छोटाई [को०]।
⋙ निरायास
वि० [सं०] बिना श्रम का। आसान। जिसमें मेहनत न हो। सरल [को०]।
⋙ निरायुध
वि० [सं०] निरस्त्र। जिसके पास शस्त्रास्त्र न हो। निहत्था [को०]।
⋙ निरारंभ
वि० [सं० निरारम्भ] जो हर तरह के काम से दूर हो। २.आंरभरहित। अनारंभ [को०]।
⋙ निरार †
वि० [हिं० निराल या निआरा, न्यारा] अलग। पृथक्। जुदा।
⋙ निरारा पु
वि० [हिं० निरार] दे० 'निरार'। उ०—(क) नीर खीर छानै दरबारा। दूर पानि सब करै निरारा।— जायसी (शब्द०)। (ख) बातहि जानहु बिषम पहरा। हिरदै मिला न होइ निरारा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ निरालंब (१)
वि०[सं० निरालम्ब] [वि० स्त्री० निरालंबा] १. बिना आलंब या सहारे का। निराधार। २. निराश्रय। बिना ठिकाने का। ३. जो अपनी मदद आप करता हो [को०]।
⋙ निरालंब (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्म [को०]।
⋙ निरालंबा
संज्ञा स्त्री० [सं० निरालम्बा] छोटी जटामासी।
⋙ निराल पु
वि० [हिं० निराला] १. निराला। अद्बितीय। उ०— साहब आपै आप निराल। आतम राम क्रो नाम गुलाल।— भीखा श०, पृ० २०।२. अलग। पृथक्। अलिप्त। उ०— भवसागर में यों रहौ ज्यों जल कँवल निराल।—संतवाणी०, पृ०३७।
⋙ निरालक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की समुद्री मछली।
⋙ निरालम पु
वि० [सं० निरालम्ब] १. निराधार। बिना आलंब का। अपने आप। उ०— अउघट घाटि निरालम जोति। दीपक बिन उजियारा होति। —प्राण०, पृ० १३४।
⋙ निरालस
वि० [हिं०] दे० 'निरालस्य'।
⋙ निरालसी
संज्ञा पुं० [हिं० निरालस] जो आलसी न हो।
⋙ निरालस्य (१)
वि० [सं०] जिसमें आलस्य न हो। तत्पर। फुरतीला। चुस्त।
⋙ निरालस्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] आलस्य का अभाव।
⋙ निराला (१)
संज्ञा पुं० [सं० निरालय या देश०] [वि० स्त्री० निराली] एकांत स्थान। ऐसा स्थान जहाँ कोई मनुष्य या बस्ती न हो। जैसे—(क) वहाँ निराला पड़ता है, चोर डाकू होंगे। (ख) चलो, निराले में बात करें।
⋙ निराला (२)
वि० १. जहाँ कोई मनुष्य या बस्ती न हो। एकांत। निर्जन। २.जिसके ऐसा दुसरा न हो। विलक्षण। सबसे भिन्न। अदुभुत। अजीब। जैसे, निराला ढंग, निराली चाल। ३. जिसके जोड़ का दूसरा न हो। अनोखा। अनुपम। अनुंठा। अपूर्व। बहुत बढ़िया।
⋙ निरालाप
वि० [सं०] जो बात न करता हो। आलापरहित। मौन [को०]।
⋙ निरालेप पु
वि० [सं० निर्लेप] दे० 'निर्लेप'। उ०— निरालेप निरगुन नाम। निज बैठे अमरा धाम।— स० दरीया, पृ० ८।
⋙ निरालोक (१)
वि० [सं०] १. आलोकरहित। अँधेरा। २.जो दिखाई न दे। अद्दश्य। ३. अंधा। द्दष्टिहीन [को०]।
⋙ निरलोक (२)
संज्ञा पुं० शिव [को०]।
⋙ निरावधि
वि० [सं० निरावधि] दे० 'निरवधि'। उ०— विरह निरावधि, में मतवारी, चिर तरुणी बावली, व्यथित मन।— रेणुका, पृ० ८१।
⋙ निराबना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'निराना'।
⋙ निराबरण
नि० [सं०] अनाच्छादित। खुला हुआ।
⋙ निरावलंब
वि०[सं० निरावलम्ब] बिना सहारे का। निराधार।
⋙ निरावृत
वि० [सं०] अनाच्छादित। खुला हुआ [को०]।
⋙ निराशंक
वि० [सं० निराशङ्क] निर्भय। जिसे आशंका न हो।
⋙ निराश
वि० [सं०] आशाहीन। जिसे आशा न हो। नाउम्मीद। क्रि० प्र०—करना। होना।
⋙ निराशक
वि० [सं०] बिना आशा का [को०]।
⋙ निराशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाउम्मेदी। आशा का अभाव।
⋙ निराशाबाद
संज्ञा पुं० [सं० निराशा + वाद] १. निराशा का सिद्बांत। २. आदर्शोन्मुख साहित्य के अपने स्थापित मुल्यों से च्युत हो जाने पर और यथार्थ की वास्तविक स्थिति से उसका साक्षात्कार होने पर उन स्थितियों में व्यक्त निराशा का सिद्बांत। ३. मनोज्ञान के अनुसार एक मानसिक रोग। मैलंकोलिया। विशेष— इसमें रोगी में आत्मविश्वास की कमी हो जाती है। वह अपने वर्तमान जीवन से असंतुष्ट होकर भविष्य के प्रति भी आस्थाहीन बन जाता है।
⋙ निराशवादी
थि० [सं० निराशावादिन्] निराशावाद का सिद्बांत माननेवाला। उ०— पश्चिमी साहित्य के निराशावदियों से हमे सावधान करते हुए शुक्ल जी कहते हैं। —आचार्य०, पृ०, १५।
⋙ निराशिष
वि० [सं०] १. आशीर्वादशून्य। २. तृष्णारहित।
⋙ निराशी
वि० [सं० निराशिन्] १ हताश। नाउम्मीद।२. आशा— तृष्ण —रहित। उदासीन। विरक्त।उ०— तुम्हें कौन पति— आएगा अब, जब तुम हुए निराशी से ? — अपलक, पृ० ७०।
⋙ निराश्रम
वि० [सं०] जो, चार आश्रमों में से किसी में भी न हो [को०]। यौ०— नीराश्रमपंद = वह जंगल जिसमें एक भी आश्रम न हो।
⋙ निराश्रमी
वि० [सं० निराश्रमिन्] दे० 'निराश्रम' [को०]।
⋙ निराश्रय
वि० [सं०] १.आश्रयरहित। आधारहिन। बिना सहारे का। २. जिसे कहीं ठिकाना न हो। असहाय। अशरण। ३. जिसे शरीर आदि पर ममता न हो। निर्लिप्त।
⋙ निराश्रित
वि० [सं० निराश्रय] दे० 'निराश्रय'। उ०— किंतु विश्व की भ्रातृभावना यहाँ निराश्रित ही रोती। —साकेत, पृ० ३७१।
⋙ निरासंग
वि० [सं० निरासङ्ग] १. कौटिल्य के अनुसार अप्रतिहत (सेना)। २. आसंग अर्थात् आसक्ति से रहित।
⋙ निरास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूर करना। निराकरण।२. खंडन। ३. विरोध (को०)। ४. वमन (को०)।
⋙ निरास पु (२)
वि० [सं०निराश] दे० 'निराश'
⋙ निरासन (१)
संज्ञा पु० [सं०] १. दूर करना। नीराकरण।२. खंडन। निरसन।
⋙ निरासन (२)
आसनरहित।
⋙ निरासा पु
स्त्री० संज्ञा [सं० निराशा] दे० 'निराशा'।
⋙ निरासी पु
वि० [सं० निराशी] १ दे० 'निराशी'। २. उदासीन। विरक्त। उ०— तनक नही तिय को सुख जानत संसृति विषय निरासी। —रघुराज (शब्द०)। ३. उदास। बेरौनक। जहाँ या जिसमें चित्त प्रसन्न न हो। उ०— सूर श्याम बिनु यह बन सूनो शशि बिनु रैन बिरारी। —सूर (शब्द०)।
⋙ निरास्वाद
वि० [सं०] वेस्वाद। बदजायका। बेमजा [को०]।
⋙ निरास्वाद्य
वि० [सं०] जो कुछ भी आनंद न दे। जो आस्वाद के अयोग्य हो [को०]।
⋙ निराहार (१)
वि० [सं०] १. आहाररहित। जो बिना भोजन के हो। जिसने कुछ खाया न हो या जो कुछ न खाय। २. जिसके अनुष्ठान में भोजन न किया जाता हो। जैसे, निरा— हार व्रत।
⋙ निराहार (२)
संज्ञा पुं० आहाररहित रहना। उपवास। अनशन [को०]।
⋙ निराह्लाद
वि० [सं० निर् + आह्लाद] अप्रसन्न। दुःखी। उ०— जन जीवन बना न विशद, रहा वह निराह्लाद। विकसित नर वर अपवाद नहीं, जन गुण विवाद। —ग्राम्या, पृ० ५९।
⋙ निरिग
वि० [सं० निरिङ्ग] निश्चल। अचल।
⋙ निरिंगिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० निराङ्गिणी] चिक। झिलमिली। परदा।
⋙ निरिंद्रिय
वि० [सं० निरिन्द्रिय] १. इंद्रियशून्य। जिसे कोई इंद्रिय न हो। २. जिसके हाथ, पैर, आँख, कान आदि न हों। या काम के न हों। विशेष— मनु ने जन्मांध, क्लीव पतित, जन्मवधिर, उन्मत्त, जड़, मूक इत्यादि को निरिंद्रिय कहा है और इन्हें पितृघन का अनधिकारी ठहराया है। ३. प्रमाण या साघनहीन (को०)। ५. अनुर्वर (को०)। ६. नपुंसक (को०)।
⋙ निरंधन
वि० [सं० निरिग्घन] बिना ईंधन का [को०]।
⋙ निरिच्छ
वि० [सं०] इच्छारहित। जिसे कोई इच्छा न हो।
⋙ निरिच्छना पु
क्रि० स० [सं० निरीक्षण] देखना। उ०— सुनि कै प्रतच्छ बीस अच्छ बध रच्छसनि, बैठा जो समच्छ अच्छ अच्छनि र्सो लक्ष्यो है।...... पच्छवान शौल र्सो बिपच्छ पर पच्छिन पै, कीश को निरिच्छौ क्षमा छोहरी जो रक्ष्यो है।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ निरी
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'निरा'।
⋙ निरीक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. देखनेवाला।२. देखरेख करनेवाला।
⋙ निरीक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निरीक्षित, निरीक्ष्य, निरीक्ष्यमाण] १. देखना। दर्शन। २. देखरेख। निगरानी। क्रि० प्र०—करना।—होना। ३. देखने की मुद्रा या ढग। चितवन। ४. नेत्र। आँख।
⋙ निरीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देखना। दर्शन।
⋙ निरीक्षित
वि० [सं०] १. देखा हुआ। २. देखामाला हुआ। जाँच किया हुआ।
⋙ निराक्ष्य
वि० [सं०] १. देखने योग्य।२. जाँच के लायक। निगरानी के लायक।
⋙ निरीक्ष्यमाण
वि० [सं०] जिसको देखते हों। जो देखा जाता हो।
⋙ निरीखन पु
संज्ञा पुं० [सं० निरीक्षण] दे० 'निरीक्षण'।उ०— बरनै दीनदयाल तेज सब करै निरीखन।—दीन० ग्रं० पृ० १९७।
⋙ निरीछन पु
संज्ञा पुं० [सं० निरीक्षण] दे० 'निरीक्षण'। उ०— गौरि तेरे तीछन द्बँ ईछन निरीछन तें पापी सुरलोक जाय पाय के विमान को।— दीन० ग्रं० पृ० १३१।
⋙ निरीति
वि० [सं०] ईतिरहित। अतिवृष्टि आदि से रहित।
⋙ निरीश (१)
वि० [सं०] १. जिसे ईश या स्वामी न हो। बिना मालिक का। २. जिसकी समझ में ईश्वर न हो। अनीश्वर— वादी। नास्तिक।
⋙ निरीश (२)
संज्ञा पुं० हल का फाल।
⋙ निरीश्वरवाद
संज्ञा पुं० [सं०] यह सिद्बांत कि कोई ईश्वर नहीं है। भारतीय दर्शन के उन दर्शनों का सिद्बांत जिनमें ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकृत है।
⋙ निरीश्वरवादी
संज्ञा पुं० [सं० निरीश्वरवादिन्] जो ईश्वर का आस्तित्व न माने।
⋙ निरीष
संज्ञा पुं० [सं०] हल का फाल।
⋙ निरीह
वि० [सं०] १. चेष्टारहित। जो किसी बात के लिये प्रयत्न न करे। २. जिसे किसी बात की चाह न हो। ३. उदासीन। विरक्त। जो सब जातों से किनारे रहे। ४.जो किसी बखेड़े में न पड़े। तटस्थ।५. शांतिप्रिय।
⋙ निरीहता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निरीहा'। उ०— छाया पथ में तारक द्युति सी, झिलमिल करने की मघुलीला। अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रमशीला। —कामायनी, पृ० १०४।
⋙ निरीहत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निरीहा' [को०]।
⋙ निरीहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चेष्टा का अभाव। २. चाह का न होना। विरक्ति।
⋙ निरुआर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निरूवार'।
⋙ निरूआरना
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'निरूवारना'।
⋙ निरूक्त (१)
वि०[सं०] १. निश्वय रूप से कहा हुआ। व्याख्या किया हूआ। २. नियुक्त। ठहराया हुआ।
⋙ निरूक्त (२)
संज्ञा पुं० छह वेदांगों में से एक। वेद का चौथा अंग। विशेष— वैदिक शब्दो के निधंटु की जो व्याख्या यास्क मुनि ने की है उसे निरूक्त कहते हैं। इसमें वैदिक शब्दों के अर्थों का निर्णय किया गया है। वेद के शब्दों का अर्थ प्रकट करनेवाला प्राचीन आर्ष ग्रंथ यही है। यद्यपि यास्क ने शाकपूर्णि और स्थौलष्ठीवी आदि अपने से पहले के निरुक्तकारो का उल्लेख किया है, तथापि उनके ग्रंथ अब प्राप्त नहीं है। सायणाचार्य के अनुसार जिसमें एक शब्द के कई अर्थ या पर्याय कहे गए हों वह निरूक्त है। काशिका वृत्ति के अनुसार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है— वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना), वर्णाधिकार (अक्षरों को वदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ब करना। निरुक्त के बारह अध्याय है। प्रथम में व्याकरण और शब्दशास्त्र पर सुक्ष्म विचार हैं। इतने प्राचीन काल में शब्दशास्त्र पर ऐसा गूढ़ विचार और कहीं नहीं देखा जाता। शब्दशास्त्र पर/?/मन प्रचलित थे इसका पता यास्क के निरूक्त से लगता है। कुछ लोगों का मत था कि सब शब्द धातुमूलक हैं और धातु क्रियापद मात्र हैं जिनमें प्रत्ययादि लगाकर भिन्न शब्द बनते हैँ। यास्क ने इसी मत का खंडन किया है। इस मत के विरोधियों का कहना था कि कुछ शब्द धातुरुप क्रियापदों से बनते है पर सब नहीं, क्योंकि यदि 'अंश' से अश्व माना जाय तो प्रत्य़ेक चलने या आगे बढ़नेवाला पदार्थ अश्व कहलाएगा। यास्क मुनि ने इसके उत्तर में कहा है कि जब एक क्रिया से एक पदार्थ का नाम पड़ जाता है तब वही क्रिया करनेवाले और पदार्थ को वह नाम नहीं दिया जाता। दूसरे पक्ष का एक और विरोध यह था कि यदि नाम इसी प्रकार दिए गए है तो किसी पदार्थ में जितने में जितने गुण हों उतने ही उसका नाम भी होने चाहीए। यास्क इसपर कहते है कि एक पदार्थ किसी एक गुण या कर्म से एक नाम को धारण करता है। इसी प्रकार और भी समझिए। दूसरे और तीसरे अध्याय में तीन निधंटुओं के शब्दों के अर्थ प्रायः व्यख्या सहित है। चौथे से छठें अध्याय तक चौथे निघंटु की व्याख्या है। सातवें से बारहवें तक पाँचवें निघंटु के वैदिक देवताओं की व्याख्या है।
⋙ निरुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निरुक्त की रीती से निर्वचन। किसी पद या वाक्य की ऐसी व्याख्या जिसमें व्युत्पत्ति आदि का पूरा कथन हो। व्युत्पत्ति। किस शब्द का व्याकरण संबंध और ऐतिहासिक विकास क्रम। २.एक काव्यालंकार जिसमें किसी शब्द का मनमाना अर्थ किया जाय परंतु वह अर्थ सयु— क्तिक हो। जैसे,—रूप आदि गुण सो भरी तजि कै ब्रज बनितान। उद्बव कुब्जा बस भए, निर्गुण वहै निदान। तात्पर्य यह कि गुणवती ब्रजवनिताओं को छोड़कर 'गुणरहित' कुब्जा के वश होने से कृष्ण सचमुच 'निर्गुण' हो गए है।
⋙ निरूच्छवास
वि० [सं०] १. (स्थान) जहाँ बहुत से लोग न अट सकें। सँकरा। संकीर्ण। २. जहाँ ठसाठस लोग भरे हों। जहाँ खड़े होने तक की जगह न हो। ३. मृत। मरा हुआ (को०)।
⋙ निरुज पु
वि० [सं० नीरूज] दे० 'नीरूज'।
⋙ निरूत्कंठ
वि० [सं० निरूत्कणठ] जिसे कोई कामना या इच्छा न हो [को०]।
⋙ निरूत्तर
वि० [सं०] १. जिसका कुछ उत्तर न हो। लाजवाब। २. जो उत्तर न दे सके। जो कायल हो जाय। उ०—बंधु— बधूरत कहि कियों वचन निरूत्तर बालि। —तुलसी (शब्द०)। ३. जिससे कोई उत्तम या बड़ा न हो (को०)।
⋙ निरुत्थ
वि० [सं०] जिसका उद्बार न हो सके [को०]।
⋙ निरूत्पात
[सं०] उत्पातरहित। अनिष्ट से परे। [को०]।
⋙ निरुत्सव
वि० [सं०] बिना उत्सव का। धूमधाम रहित [को०]।
⋙ निरूत्साह (१)
वि० [सं०] उत्साहहीन।जिसे उत्साह न हो।
⋙ निरूस्ताह (२)
संज्ञा० पुं० शक्ति या उत्साह का अभाव [को०]।
⋙ निरुस्तुक
वि० [सं०] १. लापरवाह। उदासीन। २. शांत। अनुत्सुक [को०]।
⋙ निरूदक
वि० [सं०] जलहीन [को०]।
⋙ निरुदर
वि० [सं०] १. बिना पेट का। २. कृश।पतला [को०]।
⋙ निरूद्देश्य
वि० [सं०] बिना किसी लक्ष्य या उद्देश्य का। उद्देश्य— हीन [को०]।
⋙ निरूद्ध (१)
वि० [सं०] १. रुका हुआ। बँधा हुआ। प्रतिबद्ब। २. जो रोका गया हो (को०)।
⋙ निरूद्ध (२)
संज्ञा पुं० योग में पाँच प्रकार की मनोवृत्तियों में से एक। चित्त की वह अवस्था जिसमें वह अपनी कारणीभूत प्रकृति को प्राप्त कर निश्चेष्ट हो जाता है। विशेष— मन की वृत्तियाँ योग में पाँच मानी गई है— क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ब। चित के डाँवाडोल रहने को क्षिप्तावस्था, कर्तव्याकर्तव्य ज्ञानशून्य होने को मुढा़वस्था, चंचलता के बीच बीच में चित्त की स्थिरता को विक्षिप्तावस्था, और एक वस्तु पर निश्चल रूप से स्थिर होने को एकाग्रावस्था कहते है। एकाग्र के उपरांत फिर निरूद्घ अवस्था की प्राप्ति होती है जिसमें स्थिर होने के लिये किसी वस्तु के आलंबन की आवश्यकता नहीं होती, चित्त अपनी प्रकृति में ही स्थिर हो जाता है।
⋙ निरूद्धकंठ
वि० [सं० निरूद्बकणठ] रूँधे गलेवाला। जिसका कंठ रूँध गया हो।
⋙ निरूद्बगुद
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें मलद्बार बंद सा हो जाता है और मल बहुत थोड़ा थोड़ा और कष्ट से निकलता है।
⋙ निरुद्धप्रकश
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें मुत्रद्बार बंद सा हो जाता है और पेशाब बहुत रूक रूक्कर और थोड़ा थोड़ा होता है।
⋙ निरूद्बमान
वि० [सं०] रोका हुआ। जिसे रोक दिया गया हो [को०]।
⋙ निरूद्बवीर्य
वि० [सं०] जिसकी शक्ति रोक दी गई हो। जिसकी शक्ति को स्तंभित कर दिया गया हो।
⋙ निरूद्यम
वि० [सं०] जिसके पास कोई उद्यम न हो। उद्योगरहित। बेकाम।
⋙ निरूद्यमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निरूद्यम होने की क्रिया या भाव। बेकारी।
⋙ निरूद्यमी
संज्ञा पुं० [सं० निरुद्यमिन्] जो कोई उद्यम न करता हो। बेकार। निकम्मा।
⋙ निरूद्योग
वि० [सं०] जिसके पास कोई उद्योग न हो। उद्योग— रहित। बेकार। निकम्मा।
⋙ निरूद्योगी
संज्ञा पुं० [सं० निरुद्योगिन्] जो कुछ उद्योन न करे। निकम्मा। बेकार।
⋙ निरूद्धेग
वि० [सं०] उद्बेग से रहित। निश्चित।
⋙ निरून्माद
वि० [सं०] १. उन्मादरहित।२. जो घमंडी न हो। दपहीन [को०]।
⋙ निरूपकारआधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह थाती या धरोहर जो किसी आमदनीवाले काम में न लगी हो।
⋙ निरुपकारी
वि० [सं० निरूपकरिन्] उपकार न करनेवाला [को०]।
⋙ निरूपक्रम
वि० [सं०] जो ठीक हो सके। असाध्य [को०]।
⋙ निरूपचार
वि० [सं० निर् + उपचार] जो उपचार के परे हो। उपचाररहित। असाध्य। उ०— यदि आत्मा को दे डुबा प्राण वासना ज्वार। जीवन निरीह, सँधर्ष विरत हों निरूपचार।—युगपथ, पृ० १३६।
⋙ निरूपजीव्य
वि० [सं०] निर्वाह के अयोग्य। जिससे गुजारा न हो [को०]।
⋙ निरूपजीव्या भूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि जिसपर किसी की गुजर न हो सकती हो (कौटि०)।
⋙ निरूपद्रव
वि० [सं०] १. जिसमें या जहाँ उपद्रव न हो। विध्नरहित। शांतिमय। २.जो उत्पात या उपद्रव न करता हो। ३. शुभ। कल्याणमय (को०)।
⋙ निरूपद्रवता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निरूपद्रव होने की क्रिया या भाव।
⋙ निरूपद्रवी
संज्ञा पुं० [सं० निरूपद्रविन्] जो उपद्रव न करे। शांत।
⋙ निरुपधि
वि० [सं०] १. जिसमें किसी प्रकार की उपाधि न हो। बैशिष्ट्य रहित। विशेषण से अनवाछिन्न। २. जो उपद्रव न करता हो।
⋙ निरूपपत्ति
वि० [सं०] जिसकी कोई उपपत्ति न हो। अयोग्य।
⋙ निरूपपद
वि० [सं०] १. जिसमें उपपद न हो। उपपदरहित। २. बिना उपाधि या पदवी का [को०]।
⋙ निरूपप्लब
वि० [सं०] जो क्षतिग्रस्त न हो। उत्पातरहित। निरूपद्रव [को०]।
⋙ निरूपभोग
वि० [सं०] जिसका कोई उपभोग न हो।
⋙ निरूपम (१)
वि० [सं०] जिसकी उपमा न हो। उपमारहित। बेजोड़।
⋙ निरूपम (२)
संज्ञा पुं० राष्ट्रकूट वंश के एक राजा का नाम।
⋙ निरुपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गायत्री का एक नाम।
⋙ निरूपमिता
वि० [सं० निर् + उपमिता] बेजोड़। अद्बितीय। उ०— छवि बेला की नम की ताराएँ निरूपमिता। —अपरा, पृ० ६७।
⋙ निरूपयोग
वि० [सं०] जो किसी काम का न हो। व्यर्थ [को०]।
⋙ निरुपयोगी
वि० [सं०] जो उपभोग में न आ सके। व्यर्थ। निरर्थक।
⋙ निरूपल
वि० [सं०] बिना पत्थर को [को०]।
⋙ निरूपलेप
वि० [सं०] १. उपलेपरहित। अवरोध या बाधारहित। २. बिना लेपवाला। लेपरहित [को०]।
⋙ निरूपसर्ग
वि० [सं०] १. उपसर्गरहित। उपद्रवरहित। २. जो (धातु या शब्द) उपसर्गयुक्त न हो (को०)।
⋙ निरूपस्कृत
वि० [सं०] शुद्ब। पवित्र। पूत। जो उपस्कृत न हो [को०]।
⋙ निरूपहत
वि० [सं०] १. जिसे कोई क्षति न पहुँची हो। २. भाग्यवान् [को०]।
⋙ निरूपहित
वि० [सं०] (दर्शन में) बिना उपाधिवाला [को०]।
⋙ निरुपाख्य (१)
वि० [सं०] १. जिसकी व्याख्या न हो सके। २. जो बिल्कुल मिथ्या हो और जिसके होने की कोई संभावना न हो।
⋙ निरूपाख्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्म।
⋙ निरूपादान
वि० [सं०] इच्छा या कामना से मुक्त [को०]।
⋙ निरूपाधि (१)
वि० [सं०] १. उपाधिरहित। बाधारहित। २. मायारहित।
⋙ निरूपघि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्म। विशेष— उपाधि के नष्ट हो जाने पर जीव को ब्रह्म का रूप प्राप्त हो जाता है।
⋙ निरूपाघिक
वि० [सं०] दे० 'निरूपाधि' [को०]।
⋙ निरूपाय
वि० [सं०] १. जो कुछ उपाय न कर सके। २. जिसका कोई उपाय न हो।
⋙ निरूपेक्ष
वि० [सं०] १. जिसमें उपेक्षा न हो। उपेक्षारहित।२. छल या धूर्तता से रहित (को०)।
⋙ निरूवरना पु †
क्रि० अ० [सं० निवारण] कठिनता आदि का दूर होना। सुलझना। उ०—अस संयोग ईश जब करई। तबहु कदाचित सो निरूवरई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निरूवार †
संज्ञा पुं० [सं० निवारण] १. छुड़ाने का काम। मोचन। २. छुटकारा। बचाव। ३. सुलझाने का काम। उलझन मिटाने का काम। ४. तै करने का काम। निबटाने का काम। ५. निर्णय। फैसला। उ०— कहौ जाय करै युद्ब विचार। साँच झूठ होयहै निरुवार।—सूर (शब्द०)।
⋙ निरूवारना पु
क्रि० स० [हिं० निरूवार] १.छुड़ाना। मुक्त करना। बंधन आदि खोलना। २. सुलझाना। फँसी या गुथी हुई वस्तुओं को अलग अलग करना। उलझन मिटाना।उ०— तब सोइ बुद्धि पाय उजियारा। उर गृह बैठि ग्रंथि निरु— वारा।—तुलसी (शब्द०)। ३. तै करना। निबटाना। निर्णय करना। फैसला करना। वि० दे० 'निरवारना'।
⋙ निरूष्णता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गरमी या ताप का अभाव [को०]।
⋙ निरूष्णीष
वि० [सं०] बिना पगड़ी का। बिना टोपीवाला [को०]।
⋙ निरुष्मा
वि० [सं० निरूष्मन्] जो गरम न हो। ठंढा [को०]।
⋙ निरुढ़ (१)
वि० [सं० निरूढ] १. उत्पन्न। २. प्रसिद्ब। विख्यात। साफ या शुद्ब किया हुआ (को०)। ४. अविवाहित। कुँआरा।
⋙ निरूढ़ (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का पशुयाग।
⋙ निरूढलक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं० निरूढ लक्षणा] वह लक्षणा जिसमें प्रयोगपरंपरा के कारण शब्द का पुराना लक्ष्यार्थ रुढ़ हो गया हो अर्थात् वह केवल मुख्यार्थबाध या प्रयोजन के कारण ही न ग्रहण किया गया हो। रूढ़ि या प्रसिद्घ को प्राप्त अभिधेयार्थ तुल्य लक्ष्यार्थ बोधक लक्षण। जैसे, कर्मकुशल।'कुशल' शब्द का मुख्य अर्थ है कुश उखाड़ने में प्रवीण। पर यहाँ लक्षणा द्बारा वह साधारणतः दक्ष या प्रवीण के अर्थ में ग्रहण किया जाता है।
⋙ निरूढवस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० निरूढवस्ति] वैद्यक में एक प्रकार की वस्ति या पिचकारी जिसमें रोगी की गुदा में एक विशेष प्रकार की नली के द्बारा कुछ ओषधियाँ पहुँचाई जाती हैं। यह क्रिया डाक्टरी एनिमा की क्रिया के समान ही होती है।
⋙ निरूढा़ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० निरूढा] दे० 'निरूढ़लक्षणा'।
⋙ निरुढ़ा (२)
वि० स्त्री० [सं०] अविवाहिता।कुँआरी।
⋙ निरुढ़ि
संज्ञा स्त्री० [सं० निरूढि] १. निरुढ़लक्षणा। २. प्रसिद्बि। ३. पटुता। दक्षता (को०)। ४. सत्यापन। प्रमाणीकरण। पुष्टिकरण (को०)।
⋙ निरूता पु
वि० [सं० नि + रूत] बिना शब्दवाला। चुप। मौन। उ०— घटि घटि गोरष फिरै निरूता को धट जागे को धट सूता। —गोरख०, पृ० १५।
⋙ निरूप (१)
वि० [हिं० नि + रूप] १. रूपरहित। निराकार। उ०— मोहन माँग्यो अपनो रूप। यहि ब्रज बसत अँचे बैठी ता बिन वहाँ निरूप।—सूर (शब्द०)। २. कुरूप। बद— शकल। उ०—मदन निरुपम निरुपन निरुप भयो चंद बहुरुप अनुरुप कै बिचारिए। —केशव (शब्द०)।
⋙ निरूप (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. देवता। ३. आकाश।
⋙ निरूपक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निरूपिका] किसी विषय का निरूपण करनेवाला।
⋙ निरूपण
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाश। २. किसी विषय का विवेचना— पूर्वक निर्णय न या निर्धारण। विचार। प्रमेय,पदार्थ आदि का भेदोपभेदकथन पूर्वक विस्तृत विवेचन। ३. अन्वेषण। ढुँढ़ना (को०)। ४. आकार। आकृति। रूप (कौ०)। ५. निदर्शन।
⋙ निरूपणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निरूपण' [को०]।
⋙ निरूपना पु
क्रि० अ० [सं० निरूपण] निर्णय करना। ठहरना। निश्चित करना। उ०—(क) नेति नेति जेहि वेद निरूपा। तुलसी (शब्द०)। (ख) भगति निरूपहि भगत कलि निंदहि वेद पुरान। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ निरूपम
वि० [सं०] दे० 'निरूपम'।
⋙ निरूपित
वि० [सं०] निरूपण किया हुआ। जिसकी विस्तुत विवेचना हो चुकी हो। जिसका निर्णय हो चुका हो।
⋙ निरूपिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व्याख्या। २. अनुसंघान। परीक्षण। छानबीन [को०]।
⋙ निरूप्य
वि० [सं०] जो निरूपण करने योग्य हो।
⋙ निरूप्यमाण
वि० [सं०] जिसका निरूपण किया जा रहा हो। जिसपर विचार चल रहा हो। जो विवेचन का विषय हो।
⋙ निरूह
संज्ञा पुं० [सं०] १.एक प्रकार की वस्ति या एनिमा। २. तर्क।३. निश्चय। ४. पूर्ण वाक्य [को०]।
⋙ निरूहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्ति चढ़ाना। एनिमा देना। २. निश्चय करना। ४. तर्क करना (को०)।
⋙ निरूहवस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निरूढ़वस्ति'।
⋙ निरेखना पु
क्रि० स० [सं० निरीक्षण] देखना। निरखना। निरीक्षण करना। उ०—(क) हनुमान भए द्दग औरई से गज लौं गति मंद निरेखयो री। —हनुमान (शब्द०)। (ख) न टरै मन मोहनौ चाहि रहैं सब सोतैं सकानी निरेखियो री।—हनुमान (शब्द०)।
⋙ निरेभ
वि० [सं०] बिना शब्द का। बिना आवाज का [को०]।
⋙ निरै पु
संज्ञा पुं० [सं० निरय] नरक।
⋙ निरैठी पु
वि० [हिं० निरी + ऐठी] गुमान भरी। मस्त। उ०— रूप गुन ऐंठी सु अमैठी उर पैठी बैठी, लाड़नि निरैठी मति बौलनि हरै हरी।— घनानंद, पृ० ५७।
⋙ निरोग †
वि० [नीरोग] रोगरहित। जिसे कोई रोग न हो। स्वस्थ।
⋙ निरोगी †
संज्ञा पुं० [सं० नीरोग] वह व्यक्ति जिसे कोई रोग न हो। स्वस्थ। तंदुरुस्त।
⋙ निरोठा †
वि० [देश०] बदसुरत। बदशकल। कुख्प।
⋙ निरोद्धव्य
वि० [सं०] निरोध करने के योग्य [को०]।
⋙ निरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोक। अवरोध। रुकावट। बंधन। २. घेरा। घेर लेना। उ०— तब रावण सुनि लंका निरोध। उपज्यो तन मन अति परम क्रोध।— केशव (शब्द०)। ३. नाश। ४. योग में चित्त की समस्त वुत्तियों को रोकना जिसमें अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता होती हैं। चित्त— वृत्तियों के निरोध के उपरांत मनुष्य को निर्वीज समाधि प्राप्त होती है। ५. दंड देना। चोट पहुँचाना (को०)।६. वशिभुत करना। निग्रह (को०)। ७. अरुचि। नापसंदगी (को०)। ८. नैराश्य (को०)।
⋙ निरोधक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निरोधिका] रोकनेवाला। जो रोकता हो। निरोध करनेवाला।
⋙ निरोधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोक। रुकावट। २.पारे का छठा संस्कार (वैद्यक)। ३. दे० 'निरोध'।
⋙ निरोधपरिणाम
संज्ञा पुं० [सं०] योग शास्त्र के अनुसार चित्तवृत्ति की वह अवस्था जो व्युत्थान और निरोध के मघ्य में होती है। विशेष— योगशास्त्र में क्षिप्त,मुढ़, विक्षिप्त इन तीन राजसिक परिणामों को व्युत्थान कहते हैं और विशुद्ब सत्वगुण की प्रधानता होने पर जो अवस्था प्राप्त होती है उसे निरोध कहते हैं। जब वयुत्थान से उत्पन्न संस्कारों का अंत हो जाता है और निरोध का आरंभ होने को होता है तब चित्त का थोड़ा थोड़ा संबंध दोनों ओर रहता है। उस अवस्था की निरोधपरिणाम कहते है।
⋙ निरोधी
वि० [सं० निरोधिन्] निरोध करनेवाला। प्रतिबंध या रुकावट करनेवाला।
⋙ निरौनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० निराना + औनी(प्रत्य०)] १. खेत निराने के समय गाया जानेवाला एक प्रकार का ग्राम्य गीत। उ०— वह निरौनी आदि कई प्रकार की ग्राम्य गीतों से भी मिलती हैं।— प्रेमघन०, भा०, २. पृ० ३५२। २. निराने की क्रिया। उ०—होत निरौनी जबै धान के खेतन माही।— प्रेमधन०, भा० १. पृ० ४८। ३. निराने की मजदूरी।
⋙ निरौषध
वि० [सं० निर् + औषध] १. बिना औषध का। २. जिसका कोई उपचार न हो। उ०— गरीबदास जी ने देख लिया कि यह रोग निरौषध है। —कबीर मं, पृ०, ६०७।
⋙ निर्क्रृत
वि० [सं] १. क्षरित। नष्ट। २. क्षीण। दुर्बल। कमजोर [को०]।
⋙ निर्क्रृति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नैर्क्रुत कोण की स्वामिनी। २. राक्षसी। ३. मृत्यु। ४. दरिद्रता। ५. विपत्ति। ६. पृथ्वी का निम्न तल (को०)। ७. मूल नक्षत्र का एक नाम। दे० 'निक्रुति'।
⋙ निर्क्रृती (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अष्ट वस्तुओँ का नाम। २. एक रुद्र [को०]।
⋙ निर्कवल पु
वि० [हिं० निर् + केवल] १. निखालिस। बिना मिलावट का। २. शुद्ब। उ०— निर्कवल निर्भय नाम सहाई।—दरिया०, पृ० ३१।
⋙ निर्ख
संज्ञा पुं० [फा़०] भाव। दर। यौ०— निर्ख दारोगा। निर्खनामा। निर्खबंदी। क्रि० प्र०— मुकर्रंर करना। — बाँघना।
⋙ निर्खदारोगा
संज्ञा पुं० [फा़०] मुसलमानों के राजत्वकाल में बाजार का वह दारोगा जो चीजों के भाव या दर आदि की निगरानी करता था।
⋙ निर्खनामा
संज्ञा पुं० [फा०] मुसलमानों के राजत्वकाल की वह सुची जिसमें बाजार की प्रत्येक वस्तु का भाव लिखा रहता था।
⋙ निर्खबंदी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] किसी चीज का भाव या दर निश्चित करने की क्रिया।
⋙ निर्गंध
वि० [सं० निर्गंन्ध] जिसमें किसी प्रकार का गंध न हो। गंधहीन। यौ०— निर्गंधपुष्पी।
⋙ निर्गंधता
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्गन्धता] निर्गंध होने की क्रिया या भाव।
⋙ निर्गंधन
संज्ञा पुं० [सं० निर्गन्धन] बध। घातन। हत्या करना [को०]।
⋙ निर्गंधपुष्पी
संज्ञा पुं० [सं० निर्गन्धपुष्पी] सेमर का पेड़।
⋙ निर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] देश।
⋙ निर्गत (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निर्गता] निकला हुआ। बाहर आया हुआ।
⋙ निर्गत (२)
संज्ञा पुं० दे० 'निर्यात'। जैसे—निर्गत कर।
⋙ निर्गन पु
वि० [सं० निर्गुण] दे० 'निर्गुण' उ०— सुबर बीर संग्राम गुन अति गुन निर्गन बंधी। —पृ० रा०,२५।६४७।
⋙ निर्गम
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकास। निकलने का मार्ग। २. गमन। पयान (को०)। ३. द्बार। दरवाजा। ४. बह स्थान जहाँ से वस्तुओं का निर्यात होता है (को०)।
⋙ निर्गमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकलने का काम। निकलना। २. द्बार जिसमें से होकर निकलते है। ३. द्बारपाल (को०)। यौ०— निर्गमन मार्ग = निकलने, बाहर जाने का रास्ता।
⋙ निर्गमना पु
क्रि० अ० [सं० निर्गमन] निकलता। उ०— इक प्रविशाहि इक निर्गमहि भीर भूप दरबार।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ निर्गर्व
वि० [सं०] जिसे किसी प्रकार का गर्व या अभिमान न हो।
⋙ निर्गलित
वि० [सं०] १. बहा हुआ। २. निकल गया हुआ। ३.घुला हुआ। मिला हुआ। गला हुआ [को०]।
⋙ निगवाक्ष
वि० [सं०] बिना झरोखे का। जिसमें वातायन या खिड़की न हो [को०]।
⋙ निर्गुंठी
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्गुण्ड़ी] दे० 'निर्गुंड़ी'।
⋙ निर्गुंड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्गुण्ड़ी] एक प्रकार का क्षुप। संभालू। सम्हालु। सिंदुवार। विशेष— इसके प्रत्येक सोके में अरहर को पत्तियों के समान पाँच पाँच पत्तियाँ होती है। जिनका ऊपरी भाग नीला और नीचे का भाग सफेद होता है। इसकी अनेक जातियाँ है। किसी में काले और किसी में सफेद फूल लगते हैं। फूल आम के बौर के समान मंजरी के रूप में लगते है और केसरिया रंग के होती है। वैद्यक में इसे स्मरणशक्ति वर्धक, गरम, रुखी, कसैली, चरपरी, हलकी, नेत्रों के लिये हितकारी तथा शूल, सूजन, आमवात, कृमि, प्रदर, कोढ़, अरुचि, कफ और ज्वर के दूर करनेवाली माना है। औषधियों में इसकी जड़ का व्यवहार होता है। पर्या०—नीलिका। नीलिनिगुंड़ी। सिंदुक। निलसिंदुक। पीतसहा। भूतकेशी। इंद्रोणी। कपिका। शोफालिका। शीतभीरू। नीलमंजरी। बनज। मरूत्पुत्री। कर्तरीपत्रा। इंद्राणिका। सिंदुवार।
⋙ निर्गुंड़ीकल्प
संज्ञा पुं० [सं० निर्गुण्ड़ीकल्प] वैद्यक के अनुसार निर्गुंड़ी और शहद को मिलाकर एक विशेष प्रकार से तैयार की हुई औषध। विशेष— यह आँखों की ज्योति बढ़ानेवाली, और कोढ़, गुल्म, शूल प्लीहा, उदर आदि रोगों को दुर करनेवाली तथा बहुत हो पौष्टिक समझी जाती है।
⋙ निर्गुंड़ीतैल
संज्ञा पुं० [सं० निर्गुण्ड़ीतैल] वैद्यक में एक विशेष प्रकार से तैयार किया हुआ निगुँड़ी का तेल। विशेष— यह सब प्रकार के फोड़े, फुंसियों, अपची तथा कंठमाला आदि को अच्छा करनेवाला माना जाता है।
⋙ निर्गुण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सत्व, रज और तम इन तीन गुणों से परे। परमेश्वर।
⋙ निर्गुण (२)
वि० १. जो सत्व, रज ओर तम तीन गुणों से परे हो। २. जिसमें कोई अच्छा गुण न हो। बुरा। खराब। ३. प्रत्यंचरहित। (धनुष) जिसमें रौंदा न हो (को०)। ४. विशेषता या गुणों से रहित (को०)।
⋙ निर्गुणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्गुण होने की क्रिया या भाव।
⋙ निर्गुणभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भुमि जिसपर कुछ भी पैदा न होता हो। ऊसर जमीन (कौटि०)।
⋙ निर्गुणिया
वि० [सं० निर्गुण + हिं० इया (प्रत्य०)] वह जो निर्गुण ब्रह्म की उपासना करता हो।
⋙ निर्गुणी
वि० [सं० निर्गुण] जिसमें कोई गुण न हो। गुणों से रहित। मुर्ख।
⋙ निर्गुन
वि० [सं० निर्गुण] दे० 'निर्गुण'।
⋙ निर्गुल्म
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निर्गुल्मा] क्षुप या झाड़ी से रहित [को०]।
⋙ निर्गुढ़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० निर्गुढ] वृक्ष का कोटर।
⋙ निर्गुढ़ (२)
वि० जो बहुत गुढ़ हो।
⋙ निर्गुह
वि० [सं०] गृहहीन। बिना घर का [को०]।
⋙ निर्गुही
वि० [सं० निर्गुह] दे० 'निर्गुह' [को०]।
⋙ निर्गौरव
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निर्गौरवा] १. गौरव रहित। सम्मान रहित। २. जिसमें बड़प्पन न हो [को०]।
⋙ निर्ग्रंथ (१)
संज्ञा पुं० [सं० निर्ग्रन्थ] १. बौद्ब क्षपणक। २. दिगंबर। ३. एक प्राचीन मुनि का नाम। ४. जुआडी़ (को०)। ५. मुर्ख व्यक्ति (को०)। ६. मारण। वध (को०)।
⋙ निर्ग्रंथ (२)
वि० २, निर्धन। गरीब। २. मुर्ख। बेवकूफ। ३. जिसे कोई सहायता देनेवाला न हो। निःसहाय। ४. वस्त्रहीन। ५. नग्न (को०)। ६. बध करनेवाला (को०)। ७. जिसे किसी प्रकार का बंधन न हो (को०)। ८. फलरहित। निष्फल (को०)।
⋙ निर्ग्रंथक (१)
वि० [सं० निग्रंन्थक] १. एकाकी। अलग। २.फल— हीन।— निष्फल। ३. चतुर। कुशल। ५. त्याग या छोड़ा हुआ। त्यक्त।
⋙ निर्ग्रंथक (२)
संज्ञा पुं० १. बौद्ब क्षपणक। २. दिगंबर जैन। ३. जुआड़ी [को०]।
⋙ निर्ग्रंथन
संज्ञा पुं० [सं० निर्ग्रन्थन] बध [को०]।
⋙ निर्ग्रंथिक (१)
वि० [सं० निर्ग्रन्थिक] १. चतुर। २. जिसमें गाँठ न हो [को०]।
⋙ निर्ग्रंथिक (२)
संज्ञा पुं० दे० 'निर्ग्रन्थक' [को०]।
⋙ निर्ग्रंथिका
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्ग्रन्थिका] बौद्ब भिक्षुणी [को०]।
⋙ निर्ग्राह्य
वि० [सं०] १. प्रत्यक्ष या साक्षात् करने योग्य।२. अनुभव के योग्य। ३. लेने या अपनाने लायक [को०]।
⋙ निर्घंट
संज्ञा पुं० [सं० निर्धण्ट] १.शब्द या ग्रंथसुची। फिहरिस्त। २. दे० 'निघंदु' [को०]।
⋙ निघट
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह हाट या बाजार जहाँ किसी प्रकार का राजकर न लगता हो। २. भरा हुआ या भोड़ भाड़ से युक्त हाट (को०)।
⋙ निर्धात
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह शब्द जो हवा के बहुत तेज चलने से होता है। विशेष— फलित ज्योतिष के अनुसार दिन के भिन्न भिन्न भागों में इस प्रकार के शब्द होने के भिन्न भिन्न शुभ अशुभ परिणाम होते हैं। जिस समय निर्घात होता हो उस समय किसी प्रकार का मंगल कार्य करना निषिद्ब है। २. बिजली की कड़क। ३. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। ४. बरबादी। विनाश (को०)। ५. तूफान। वात्याचक्र। बवंडर (को०)। ६. भूकंप। भूचाल (कौ०)। ७. आघात। धक्का (को०)।
⋙ निर्घातन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार अस्त्रचिकित्सा की एक क्रिया का नाम। २. बाहर करना। निकालना (को०)।
⋙ निर्घुष्ट
वि० [सं०] घोषित [को०]।
⋙ निर्घिन पु
वि० [सं० निर्घृण] दे० 'निर्घृण'। उ०—निर्घिन थे हम क्योंकि राग से था संघर्ष हमारा।—सम०, पृ० २२। (ख) ओ स्वर्वासी अमर मनुज सा निर्घिन होता तू भ।—साम०, पृ० २२।
⋙ निर्घृण
वि० [सं०] १. जिसे घृणा न हो। जिसे गंदी और बुरी वस्तुओं से घिन न लगे। २. जिसे बुरे कामों से घृणा या लज्जा न हो। ३. बिना घृणावाले मनुष्यों का। अति नीच। अयोग्य। निकम्मा। निंदित। उ०—ज्यों त्यों करके अपने निर्धृण जीवन को बिताने का मनसूबा मैंने ठान लिया।— सरस्वती (शब्द०)। ४. निर्दय। बेरहम। दयाहीन। उ०—रावण क्यों न तज्यो तब ही इन। सीय हरी जबहीं वह निर्घृण।—केशव (शब्द०)।
⋙ निर्घृणा
संज्ञा पुं० [सं०] निर्दयता। क्रूरता। धृष्टता। अवि- नीतता [को०]।
⋙ निर्घोष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निर्घोषित] शब्द। आवाज।
⋙ निर्घोष (२)
वि० [सं०] शब्दरहित।
⋙ निर्चा
संज्ञा पुं० [हिं०] चंचु नामक साग। विशेष—दे०'चंचु'।
⋙ निर्छल पु †
वि० [सं० निश्छल] जिसे किसी प्रकार का छल या कपट न आता हो। निष्कपट।
⋙ निर्जतु
वि० [सं० निर्जन्तु] जंतुओं या कीटाणुओं से मुक्त [को०]।
⋙ निर्जन (१)
वि० [सं०] १. जहाँ कोई मनुष्य न हो। सुनसान। २. सेवकरहित (को०)।
⋙ निर्जन (२)
संज्ञा पुं० उजाड़ जगह। मरुस्थल। सुनसान स्थान [को०]।
⋙ निर्जय
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्ण विजय [को०]।
⋙ निर्जर (१)
वि० [सं०] जिसे कभी बुढा़पा न आवे। कभी बुड्ढा न होनेवाला।
⋙ निर्जर (२)
संज्ञा पुं० १. देवता। विशेष—देवता लोग जरा अर्थात् बुढापे से सदा रक्षित माने जाते हैं, इसीलिये वे 'निर्जर' कहलाते हैं। उनको चिरकिशोर या चिर तरुण भी इसी कारण कह दिया जाता है। २. सुधा। अमृत।
⋙ निर्जरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गडुच। गिलोय। २. तालपर्णी। ३. संचित कर्म का तप द्वारा निर्जरण या क्षय करना। (जैन)।
⋙ निर्जरायु
वि० [सं०] (साँप) जिसने केंचुल छोड़ दिया हो। बिना चमडे़ का [को०]।
⋙ निर्जल (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निर्जला] बिना जल का। जल के संसर्ग से रहित। २. जिसमें जल पीने का विधान न हो। जैसे, निर्जल व्रत।
⋙ निर्जल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ जल बिल्कुल न हो।
⋙ निर्जलद
वि० [सं०] मेघ से रहित। बिना बादल का [को०]।
⋙ निर्जल व्रत
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्रत या उपवास जिसमें व्रती जल तक न पीए।
⋙ निर्जला एकादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जेठ सुदी एकादशी तिथि, जिस दिन लोग निर्जल व्रत रखते हैं।
⋙ निर्जाड्य
वि० [सं०] १. जड़ता या मूर्खता से रहित। २. पाला या तुषार से रहित। ३. शीत से मुक्त। ठंढक से रहित [को०]।
⋙ निर्जिज्ञास
वि० वि० [सं०] जानने या समझने की इच्छा न रखनेवाला [को०]।
⋙ निर्जित
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीता हुआ। जिसे जीत लिया गया हो। २. जो वश में कर लिया गया हो।
⋙ निर्जिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निर्जय' [को०]।
⋙ निर्जितेंद्रियग्राम
संज्ञा पुं० [सं० निर्जितेन्द्रियग्राम] वह व्यक्ति जिसने इंद्रियों को जीत लिया हो। यति [को०]।
⋙ निर्जिह्व
संज्ञा पुं० [सं०] मंडूक। मेढक [को०]।
⋙ निर्जीव
वि० [सं०] १. जीवरहित। बेजान। मृतक। प्राण- हीन। २. अशक्त या उत्साहहीन।
⋙ निर्जीवन
वि० [सं० निर + जीवन] दे० 'निर्जीव'। उ०—पृथ्वी की बहती लू, निर्जीवन जड़ चेतन।—अपरा, पृ० ६०।
⋙ निर्जीवित
वि० [सं० निर्जीत्र] दे० 'निर्जीव'। उ०—प्रेयसि कविते ! हे निरुपमिते ! अधरामृत से इन निर्जीवित शब्दों में जीवन लाओ।—वीणा, पृ० १।
⋙ निर्ज्ञाति
वि० [सं०] जिसके बंधुबाधव या संबंधी न हों [को०]।
⋙ निर्ज्ञान
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निर्ज्ञाना] मूर्ख। असभ्य [को०]।
⋙ निर्ज्वर
वि० [सं०] ज्वरविहीन [को०]।
⋙ निर्झर
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी ऊँचे स्थान या पर्वत से निकला हुआ पानी का झरना। सोता। चश्मा। झरना। २. सूर्य के एक घोडे़ का नाम (को०)। ३. हाथी (को०)। ४. तुषाग्नि। भूसी की आग (को०)।
⋙ निर्झरिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पहाडी़ नदी। झरने के रूप से निकलकर बहनेवाली नदी [को०]।
⋙ निर्झरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निर्झरिणी '[को०]।
⋙ निर्झरी (२)
संज्ञा पुं० [सं० निर्झरिन्] पर्वत। पहाड़ [को०]।
⋙ निर्णय
संज्ञा पुं० [सं०] १. औचित्य और अनौचित्य आदि का विचार करके किसी विषय के दो पक्षों में से एक पक्ष को ठीक ठहराना। किसी विषय में कोई सिद्धांत स्थिर करना। निश्चय। २. वादी और प्रतिवादी की बातों को सुनकर उनके सत्य अथवा असत्य होने के संबंध में कोई विचार स्थिर करना। फैसला। निबटारा। (स्मृतियों में यह चतुष्पाद व्यवहार का अंतिम पाद है)। ३. मीमांसा में किसी स्थिर सिद्धांत से कोई परिणाम निकालना। ४. हटाना। दूर करना (को०)। यौ०—निर्णयपाद = दे० 'निर्णय-२'।
⋙ निर्णयन
संज्ञा पुं० [सं०] निर्णय करना। निबटाना [को०]।
⋙ निर्णयोपमा
संज्ञा पुं० [सं०] एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय और उपमान के गुणों और दोषों की विवेचना की जाती है।
⋙ निर्णर
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य के एक घोडे़ का नाम [को०]।
⋙ निर्णायक
पि० [सं०] निर्णय करनेवाला [को०]।
⋙ निर्णायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निश्चय करना। स्थिर करना। २. गंडस्थल। हाथी के कान का बाहरी किनारा [को०]।
⋙ निर्णिक्त
बि० [सं०] १. धौत। धुला हुआ। साफ। शुद्ध किया हुआ। २. जिसके लिये प्रायश्चित्त किया गया हो। [को०]।
⋙ निर्णिक्तमना
वि० [सं० निर्णिक्तमनस्] शुद्ध या पवित्र हृदयवाला [को०]।
⋙ निर्णिक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धोना। साफ करना। २. प्राय- श्र्चित्त [को०]।
⋙ निर्णीत
वि० [सं०] निर्णय किया हुआ। जिसका निर्णय हो चुका हो।
⋙ निर्णेक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निर्णेजन' [को०]।
⋙ निर्णेजक
संज्ञा पुं० [सं०] धोबी [को०]।
⋙ निर्णेजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धोने या नहाने का जल। २. प्राय- श्र्चित्त। ३. शुद्ध करना या धोना [को०]।
⋙ निर्णेता (१)
वि० [सं० निर्णेतृ] [वि० स्त्री० निर्णेत्री] निर्णय करनेवाला [को०]।
⋙ निर्णेता (२)
संज्ञा पुं० १. विचारपति। जज। २. मार्गदर्शक। ३. प्रमाणपत्र। लेखलक्ष्य [को०]।
⋙ निर्णोद
संज्ञा पुं० [सं०] बहिष्कार। निष्कासन [को०]।
⋙ निर्त पु †
संज्ञा पुं० [सं० नृत्य] नृत्य। नाच।
⋙ निर्तक पु †
संज्ञा पुं० [सं० नर्त्तक] १. नाचनेवाला। नट। २. भाँड़।
⋙ निर्तना पु †
क्रि० अ० [सं० नृत्य] नाचना। नृत्य करना।
⋙ नर्दड (१)
वि० [सं० निर्दण्ड] जिसे सब प्रकार के दंड दिए जा सकें।
⋙ निर्दड (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र जिसे सब प्रकार के दंड दिए जा सकते हैं।
⋙ निर्दंभ
वि० [सं० निर्दम्भ] जिसे दंभ या अभिमान न हो। दभहीन।
⋙ निर्दई पु †
वि० [हिं० निर्दयी] दे० 'निर्दय'।
⋙ निर्दग्ध
वि० [सं०] १. जला हुआ। दग्ध। २. जो न जला हो। अदग्ध [को०]।
⋙ निर्दट, निर्दड
वि० [सं०] १. दुर्धर्ष। उग्र। २. निष्ठुर। दयाशून्य। ३. पागल। ४. अनावश्यक। बेकाम का। ५. ईर्ष्यालु [को०]।
⋙ निर्दय
वि० [सं०] जिसे कुछ भी दया न हो। निष्ठुर। बेरहम।
⋙ निर्दयता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्दय होने की क्रिया या भाव। बेरहमी। निष्ठुरता।
⋙ निदयी पु †
वि० [हिं०] दे० 'निर्दय'।
⋙ निर्दर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. झरना। २. कंदरा। गुफा। ३. तत्व। सार [को०]।
⋙ निर्दर (२)
वि० १. निर्दय़। २. कठोर। कठिन। ३. बेशर्म। निर- भय [को०]।
⋙ निर्दल
वि० [सं०] १. जिसमें पत्ता न हो। २. गुटबंदी से दूर।
⋙ निर्दलन
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वंस। वध। विनाश [को०]।
⋙ निर्दशन
वि० [सं०] बिना दाँत का [को०]।
⋙ निर्दहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिलावें का पेड़। २. जलाना (को०)।
⋙ निर्दहन
वि० १. दाहरहित। अग्निरहित। २. जलानेवाला। ज्वलनशील [को०]।
⋙ निर्दहना पु †
क्रि० स० [सं० दहन] जला देना। उ०—को न क्रोध निर्दहो काम बस केहि नहिं कीन्हा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निर्दहनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्वा लता। चूरनहार। मुर्रा। मरोड़फली।
⋙ निर्दाता
संज्ञा पुं० [सं० निर्दातृ] १. देनेवाला। दाता। २. खैत गिराने या काटनेवाला [को०]।
⋙ निर्दारित
वि० [सं०] १. सुपोषित। मोटा ताजा। २. निर्लिप्त। बिना लगाव का [को०]।
⋙ निर्दिष्ट
वि० [सं०] १ जिसका निर्देश हो चुका हो। २. बतलाया या नियत किया हुआ। जिसके संबंध में पहले ही कुछ बतलाया या निश्चय कर दिया गया हो। ठहराया हुआ। जैसे,—(क) सब लोग निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गए। (ख) आप निर्दिष्ट समय पर आ जाइएगा।
⋙ निर्दूषण
वि० [सं०] दे० 'निर्दोष'।
⋙ निर्देश
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ को बतलाना या दिखाना। संकेत करना। २. ठहराना या निश्चित करना। ३. आज्ञा। हुकुम। ४. कथन। ५. उल्लेख। जिक्र। ६. वर्णन। ७. नाम। संज्ञा। ८. उपांत। सामीप्य (को०)।
⋙ निर्देशक
वि० [सं०] १. निर्देश करनेवाला। दिखानेवाला। २. पथप्रदर्शक [को०]।
⋙ निर्देश्य
वि० [सं०] १. १. निर्देश करने योग्य। २. बतलाने या दिखाने योग्य। ३. प्रायश्चित करने योग्य [को०]।
⋙ निर्देष्टा
वि० [सं० निर्देष्टू] [वि० स्त्री० निर्देष्ट्री] १. बताने या दिखानेवाला। २. मार्ग दिखानेवाला [को०]।
⋙ निर्दैन्य
वि० [सं०] दीनतारहित। जो दीन न हो [को०]।
⋙ निर्दोष
वि० [सं०] १. जिसमें कोई दोष न हो। बेऐब। बे दाग। २. जिसने कोई अपराध न किया हो। बेकसूर।
⋙ निर्दोषता
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्दोष + ता (प्रत्य०)] निर्दोष होने की क्रिया या भाव। अकलंकता। शुद्धता। दोषविहीनता।
⋙ निर्दोषी
वि० [हिं०] दे० 'निर्दोष'-२।
⋙ निर्द्रव्य
वि० [सं०] १. जो भौतिक न हो। २. द्रव्यरहित। धनहीन। गरीब [को०]।
⋙ निर्द्रुम
वि० [सं०] वृक्षहीन [को०]।
⋙ निर्द्रोह
वि० [सं०] द्वेष या मत्सर से रहित [को०]।
⋙ निर्द्वद
वि० [सं० निर्द्वन्द्व] दे० 'निर्द्वद्व'।
⋙ निर्द्वद्व
वि० [सं० निर्द्वन्द्व] १. जिसका कोई विरोध करनेवाला न हो। जिसका कोई द्वंद्वी न हो। २. जो राग, द्वेष, मान, अपमान आदि द्वद्वों से रहित या परे हो। ३. स्वच्छद। बिना। बाधा का।
⋙ निर्धन (१)
वि० [सं०] जिसके पास धन न हो। धनहीन। गरीब। दरिद्र। कंगाल।
⋙ निर्धन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वृषभ। बैल [को०]।
⋙ निर्धनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्धन होने की क्रिया या भाव। गरीबी। कंगाली। दरिद्रता।
⋙ निर्धर्म
संज्ञा पुं० [सं०] जो धर्म से रहित हो।
⋙ निर्धातु
वि० [सं०] हीनवीर्य। अशक्त [को०]।
⋙ निर्धार, निर्धारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ठहराना या निश्चित करना। २. निश्चय। निर्णय। ३. न्याय के अनुसार किसी एक जाति के पदार्थों में से गुण या कर्म आदि के विचार से कुछ को अलग करना। जैसे,—काली गौएँ बहुत दूध देनेवाली होती हैं। यहाँ गो जाति में से अधिक दूध देनेवाली होने के कारण काली गौएँ पृथक् की गई हैं।
⋙ निर्धारना
क्रि० स० [सं० निर्धारण] निश्चित करना। निर्धारित करना। ठहराना।
⋙ निर्धारित
वि० [सं०] जिसका निर्धारण हो चुका हो। निश्चित किया हुआ। ठहराया हुआ।
⋙ निर्धार्य
वि० [सं०] १. निर्धारण के योग्य। जिसका निर्धारण किया जा सके। २. उद्योगी। उद्यमी। उत्साह से काम करनेवाला। ३. निर्भय। निर्भीक [को०]।
⋙ निर्धूत (१)
वि० [सं०] धोया हुआ। बहाया हुआ। दूर किया हुआ। उ०—साधु पद सलिल निर्धूत कल्मष सकल स्वपच जवनादि कैवल्यभागी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निर्धूत (२)
वि० [सं०] १. खंडित। टूटा हुआ। २. जिनका त्याग कर दिया गया हो। ३. फेंका हुआ। प्रक्षिप्त (को०)। ४. हिलाय या झकझोरा हुआ। (को०)।
⋙ निर्धूत (३)
संज्ञा पुं० वह व्यक्ति जिसे उसकै संबंधियों ने त्याग दिया हो [को०]।
⋙ निर्धूम
वि० [सं०] बिना धुएँ वाला [को०]।
⋙ निर्धौत
वि० [सं०] धुला हुआ। साफ। २. चमकदार। चमकीला।
⋙ निर्नर
वि० [सं०] जिसे मनुष्यो ने त्याग दिया हो [को०]।
⋙ निर्नाथ
वि० [सं०] अनाथ। बिना अभिभावक का [को०]।
⋙ निर्नाथता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रँडा़पा। वैधव्य। २. सुरक्षा का अभाव। ३. अनाथ की दशा [को०]।
⋙ निर्नायक
वि० [सं०] नायकरहित। बिना राजा का। शासक- हीन [को०]।
⋙ निर्निद्र
वि० [सं०] निद्रारहित। बिना नींद का। जागरूक [को०]।
⋙ निर्निमित्त, निर्निमित्तक
वि० [सं०] अकारण। बिना वजह।
⋙ निनिंमेष (१)
क्रि० वि० [सं०] बिना पलक झपकाए। एकटक।
⋙ निर्निमेष (२)
वि० १. जो पलक न गिरावे। २. जिसमें पलक न गिरे। जैसे, निर्निमेष दृष्टि।
⋙ निर्पक्ष पु †
वि० [हिं० निर + पक्ष] दे० 'निष्पक्ष'।
⋙ निर्फल
वि० [हिं० निर + फल] दे० 'निष्फल'।
⋙ निर्बेध (१)
संज्ञा पुं० [सं० निर्बन्ध] १. रुकावट। अड़चन। २. जिद। हट। ३. आग्रह।
⋙ निर्बंध
वि० बंधनहीन। अबाध। स्वतंत्र।
⋙ निर्बंधी
वि० [सं० निर्बन्ध] बिना किसी बंधन के। बिना किसी बाधा या रुकावट के। उ०—पवना खेलै तहाँ निबँधी।— प्राण०, पृ० ११।
⋙ निर्बर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] मारण [को०]।
⋙ निर्बल
वि० [सं०] बलहीन। कमजोर।
⋙ निर्बलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कमजोरी।
⋙ निर्बहना पु
क्रि० अ० [सं० निर्बहन] १. पार होना। अलग होना। दूर होना। उ०—जे नाथ करि करुणा बिलोके त्रिविध दुख ते निर्बहे।—तुलसी (शब्द०)। २. क्रम का चलना। निभना। पालन होना। उ०—जासों बात राम की कही। प्रीति न काहू सो निर्बही।—कबीर (शब्द०)।
⋙ निर्बाचन
संज्ञा पुं० [सं० निर्वाचन] दे० 'निर्वाचन'।
⋙ निर्बाण
संज्ञा पुं० [सं० निर्वाण] दे० 'निर्वाण'।
⋙ निर्बाध
वि० [सं०] बेरोक। अबाध। २. निर्जन। एकांत। ३. बिना उपद्रव का। निरुपद्रव [को०]।
⋙ निर्बाधित
वि० [सं० निर्बाध] बाधाहीन।
⋙ निर्बास पु
वि० [सं० निर+ वास] जिसके कोई खास रहने की जगह न हो। अनिकेत। उ०—निदुँदी निबैंरता सहजो अरु निर्बास। संतोषी निर्मल दसा तकै न पर की आस।— सहजो०, पृ० १६।
⋙ निर्बोज
वि० [सं०] जिसमें बीज न हो। दे० 'निर्वीज' [को०]।
⋙ निर्बुद्धि
वि० [सं०] जिसे बुद्धि न हो। मूर्ख। बेवकूफ।
⋙ निर्बैरता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्बैर + ता (प्रत्य०)] बैर या द्वेष- राहित्य। वैरविहीनता। उ०—निदुँदी निर्बैरता सहजो अरु निर्बास। संतोषी निर्मल दसा तकै न पर की आस।— सहजो०, पृ० १६।
⋙ निर्बोध
वि० [सं० ] किसे कुछ भी बोध न हो। जिसे अच्छे बुरे का कुछ भी ज्ञान न हो। अज्ञान। अनजान।
⋙ निर्भग्न
वि० [सं०] १. टूटा फूटा। २. झुका हुआ। टेढा़। ३. हीन। निकृष्ट [को०]।
⋙ निर्भट
वि० [सं०] कठोर। दृढ़ [को०]।
⋙ निर्भय (१)
वि० [सं०] १. जिसे कोई डर न हो। निडर। बेखौफ।
⋙ निर्भय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार रौच्य मनु के एक पुत्र का नाम। २. बढ़िया घोडा़।
⋙ निर्भयता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निडरपन। निडर होने का भाव। २. निडर होने की अवस्था।
⋙ निर्भर (१)
वि० [सं०] १. पूर्ण। भरा हूआ। उ०—सबके उर निर्भर हरष पूरित पुलक शरीर। कबहिं देखिबे नयन भरि। राम लषन दोउ बीर।—तुलसी (शब्द०)। २. युक्त। मिला हुआ। ३. अवलंबित। आश्रित। मुनहसर। ४. गाढ़। जैसे, निर्भर परिरंभ (को०)। ५. अतिशय तीव्र। गहरा। अत्यधिक। जैसे, निर्भर निद्रा (को०)।
⋙ निर्भर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह सेवक जिसे वेतन न दिया जाता हो। बेगार। २. आधिक्य। अतिशयता (को०)।
⋙ निर्भरना पु
क्रि० स० [हिं०] आप्लावित होना। अत्यंत भार जाना। उ०—अमृत निर्झ (र) लाई। उलट दरियाव निर्भरिया।—रामानंद०, पृ० १०।
⋙ निर्भर्त्सन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भर्त्सन। डाँट डपट। तिरस्कार। २. निंदा। ३. अलता।
⋙ निर्भर्त्सना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डाँट डपट। बुरा भला कहना। २. निंदा। बदनामी।
⋙ निर्भाग्य
वि० [सं०] भाग्यहीन [को०]।
⋙ निर्भास
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकाशित होना। उदभासित होना [को०]।
⋙ निर्भिन्न
वि० [सं०] १. प्रकट। उद्घाटित। २. छिद्रित। ३. विदीर्ण। फटा हुआ [को०]।
⋙ निर्भीक
वि० [सं०] बेडर। निडर। जिसे डर न हो।
⋙ निर्भीकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्भीक होने की क्रिया या भाव।
⋙ निर्भीत
वि० [सं०] जिसे भय न हो। निडर।
⋙ निर्भूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंतर्धान होना। गायब होना।
⋙ निर्भृति
वि० [सं०] बिना तनखाह का (सेवक)। (मजूरा) जो बिना उजरत के काम करे [को०]।
⋙ निर्भेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. फाड़ना। २. छेद करना। वेधन। ३. खोलना। पर्दाफाश करना। ४. पता लगाना। ५. नदी का पेटा। ६. भेदरहित कथन। स्पष्ट कथन (को०)।
⋙ निर्भ्रम (१)
वि० [सं०] भ्रमरहित। शंकारहित। जिसमें कोई संदेह न हो।
⋙ निर्भ्रम (२)
क्रि० वि० निधड़क। बेखटके। बिना संकोच के। स्वच्छंदता से। बेडर। उ०—श्यामा श्याम सुभग जमुना जल निर्भ्रम करत विहार।—सूर (शब्द०)।
⋙ निर्भ्रात
वि० [सं० निर्भ्रान्त] १. भ्रमरहित। निश्चित। जिसमें कोई संदेह न हो। २. जिसको कोई भ्रम न हो।
⋙ निर्मथ, निर्मथन, निर्मथ्य
संज्ञा पुं० [सं० निर्मन्थ, निर्मन्थन, निर्मन्थ्य] दे० 'निर्मथ' [को०]।
⋙ निर्मक्षिक
वि० [सं०] जहाँ कोई (अर्थात् मक्खी तक) न हो। एकांत। सुनसान [को०]।
⋙ निर्मज्ज
वि० [सं०] मज्जा या चरबी से रहित। दुबला पतला [को०]।
⋙ निर्मथ
संज्ञा पुं० [सं०] अरणि जिसे रगड़कर यज्ञों के लिये आग निकालते हैं।
⋙ निर्मथन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निर्मथ'।
⋙ निर्मथ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] नालिका या नली नाम का गंधद्रव्य।
⋙ निर्मद
वि० [सं०] १. जिसे घमंड न हो। २. अप्रमत्त। ३. खिन्न [को०]।
⋙ निर्मना † पु
क्रि० स० [ सं० निर्माण] दे० 'निर्माना'।
⋙ निर्मनुज, निर्मनुष्य
वि० [सं०] १. जहाँ आदमी न हों। गैर आबाद। २. आदमियों द्वारा त्यक्त [को०]।
⋙ निर्मम
वि० [सं०] जिसे ममता न हो। जिसको कोई वासना न हो।
⋙ निर्मर्याद
वि० [सं०] १. मर्यादाहीन। जिसने मर्यादा छोड़ दी हो। २. उद्धत। अशिष्ट [को०]।
⋙ निर्मल (१)
वि० [सं०] १. मलरहित। साफ। स्वच्छ। २. पापरहित। शुद्ध। पवित्र। ३. दोषरहित। निर्दोष। कलंकहीन।
⋙ निर्मल (२)
संज्ञा पुं० १. अभ्रक। २. निर्मली।
⋙ निर्मलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सफाई। स्वच्छता। २. निष्कलंकता। ३. शुद्धता। पवित्रता।
⋙ निर्मला
संज्ञा पुं० [सं० निर्मल] १. एक नानकपंथी संप्रदाय। विशेष—इसके प्रवर्तक रामदास नामक एक महात्मा थे। इस संप्रदाय के लोग गेरुए वस्त्र पहनते और साधु संन्यासियों की भाँति रहते हैं। २. इस संप्रदाय का कोई व्यक्ति।
⋙ निर्मली
संज्ञा पुं० [सं० निर्मल] १. एक प्रकार का मझोला सदाबहार वृक्ष जो बंगाल, मध्यभारत, दक्षिण भारत और बरमा में पाया जाता है। कतक। पाय पसारी। चाकसू। विशेष—इसकी लकडी़ बहुत चिकनी, कडी़ और मजबूत होती है, और इमारत, खेती के औजार और गाड़ियाँ आदि बनाने के काम में आती है। चीरने के समय इसकी लकडी़ का रंग अंदर से सफेद निकलता है परंतु हवा लगते ही कुछ भूरा या काला हो जाता है। इस वृक्ष के फल का गूदा खाया जाता है और इसके पके हुए बीजों का, जी कुचले की तरह के परंतु उससे बहुत छोटे होते हैं, आँखों, पेट तथा मूत्रयंत्र के अनेक रोगों में व्यवहार होता है। गँदले पानी को साफ करने के लिये भी ये बीज उसमें धिसकर डाल दिए जाते हैं जिससे पानी में मिली हुई मिट्टी जल्दी बैठ जाती है। २. रीठे का वृक्ष या फल।
⋙ निर्मलोपल
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक।
⋙ निर्मल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्पृक्का। असबरग।
⋙ निर्मास
संज्ञा पुं० [सं०] वह मनुष्य जो भोजन के अभाव के कारक बहुत दुबला हो गया हो। जैसे, तपस्वी या दरिद्र भिखमंगा आदि।
⋙ निर्माण
संज्ञा पुं० [सं०] १. रचना। बनावट। २. बनाने का काम।
⋙ निर्माणविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] इमारत, नहर, पुल इत्यादि बनाने की विद्या। वास्तुविद्या। इंजीनियरी।
⋙ निर्माता
संज्ञा पुं० [सं० निर्मातृ] निर्माण करनेवाला। बनानेवाला। स्रष्टा। जो बनावे।
⋙ निर्मात्रिक
वि० [सं०] बिना मात्रा का। जिसमें मात्रा न हो।
⋙ निर्मान पु
वि० [सं० निर् + मान] जिसका मान न हो। बेहद। अपार। उ०—नित्य निर्मय नित्ययुक्त निर्मान हरि ज्ञान घन सच्चिदानंद मूलं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ निर्माना पु
क्रि० स० [सं० निर्माण] बनाना। रचना। उत्पन्न। करना। उ०—ब्रह्मा ऋषि मरीचि निर्मायो। ऋषि मरीचि कश्यप उपजायो।—सूर (शब्द०)।
⋙ निर्मायल पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० निर्माल्य] दे० 'निर्माल्य'।
⋙ निर्मायल पु (२)
वि० [सं० निर्मल] दे० 'निर्मल'। उ० गुर द्रयाउ सरोवर सत पूरा। अति निर्मायल अमृत भरपूरा।—प्राण, पृ० १८४।
⋙ निर्माल्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदार्थ जो किसी देवता पर चढ़ चुका हो। देवता पर चढ़ चुकी हुई चीज। देवापिंत वस्तु। विशेष—(क) जो पुष्प, फल और मिष्ठान्न आदि किसी देवता पर चढा़ए जाते हैं वे विसर्जन से पहले 'नैवद्य' और विसर्जन के उपरांत 'निर्माल्य' कहलाते हैं। (ख) शिव के अतिररिक्त और सब देवताओं के निर्माल्य पुष्प और मिष्टान्न आदि ग्रहण किए जाते हैं।
⋙ निर्माल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्पृक्का। असबरग।
⋙ निर्मित
वि० [सं०] बनाया हुआ। रचित।
⋙ निर्मिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निर्माण। बनाने की क्रिया। रचना। २. बनाने का भाव।
⋙ निर्मुक्त (१)
वि० [सं०] १. जो मुक्त हो गया हो। जो छूट गया हो। २. जिसके लिये किसी प्रकार का बंधन न हो।
⋙ निर्मुक्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वह साँप जिसने अभी हाल में केंचुली छोडी़ हो।
⋙ निर्मुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुक्ति। छुटकारा। २. मोक्ष।
⋙ निर्मूल
वि० [सं०] १. जिसमें जड़ न हो। बिना जड का। २. जिसकी जड़ न रह गई हो। जड़ से उखाडा़ हुआ। जैसे, निर्मूल करना। ३. जिसका कोई आधार, बुनियाद या असलियत न हो। बेजड़। जैसे, निर्मूल बात। ४. जिसका मूल ही न रह गया हो। जो सर्वथा नष्ट हो गया हो। जैसे, रोग को निर्मूल करना।
⋙ निर्मूलक
वि० [सं० निर्मूल + क (प्रत्य०)] दे० 'निर्मूल'।
⋙ निर्मूलन
संज्ञा पुं० [सं०] निर्मूल होना या करना। विनाश।
⋙ निर्मृष्ट
वि० [सं०] जो अच्छी तरह धुला, पोछा या साफ किया हो। मिटाया हुआ [को०]।
⋙ निर्मेंध
वि० [सं०] मेघरहित। अनभ्र। बादल से रहित। उ०— शुभ्र जो था निर्मेघ गगन, सुभग मेरी संगी जीवन।—माया, पृ० ४१।
⋙ निर्मेध
वि० [सं०] जिसे मेधा न हो। मूर्ख। बेंवकूफ [को०]।
⋙ निर्मोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँप की केंचुली। २. शरीर के ऊपर की खाल। ३. पुराणानुसार सावर्णि मनु के एक पूत्र का नाम। ४. तेरहवें मनु के सप्तर्षियों में से एक का नाम।५ आकाश। ६. कवच। सन्नाह। जिरहबरख्तर (को०)। ७. मुक्त करना। छोड़ना। त्यागना (को०)।
⋙ निर्मोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्ण मोक्ष जिसमें कुछ भी संस्कार बाकी न रह जाय। २. त्याग।
⋙ निर्मोल पु †
वि० [सं० निर्मूल्य; सं० निः + हिं० मोल] जिसके मूल्य का अनुमान न हो सके। अमूल्य। उ०—नैना लोभहिं लोभ भरे।...जोइ देखै सोइ सोइ निर्मोलै कर लै तहीं धरै।—सूर (शब्द०)।
⋙ निर्मोह (१)
वि० [सं०] १. जिसके मन में मोह या अज्ञान हो। २. दया, ममता से रहित। निष्ठुर।
⋙ निर्मोह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रैवत मनु के एक पुत्र का नाम। २. सावर्णि मनु के एक पुत्र का नाम। ३. शिव (को०)।
⋙ निर्मोहिनी
वि० स्त्री० [हिं० निर्मोही + इनी (प्रत्य०)] निर्दय। जिसके चित्त में ममता दया न हो। कठोरहृदय। उ०— वा निर्मोहिनी रूप की राशि जो ऊपर के उर आनति ह्वै है।.... आवत हैं नित मेरे लिये इतनो ते विशेष हू जानति ह्वै हैं।—ठाकुर (शब्द०)।
⋙ निर्मोहिया †
वि० [हिं० निर्मोही + इया (प्रत्य०)] दे० 'निर्मोंही'।
⋙ निर्मोही
वि० [सं० निर्मोह] जिसके हृदय में मोह या ममता न हो। निर्दय। कठोरहृदय।
⋙ निर्यंत्रण
वि० [निर्यन्त्रण] १. जो नियंत्रण न माने। बिना रुकावट का। २. निरंकुश। स्वेच्छाचारी [को०]।
⋙ निर्यत्न
वि० [सं०] अक्रिय। सुस्त। आलसी। बोदा [को०]।
⋙ निर्याण
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाहर निकलना। २.यात्रा। रवानगी। प्रस्थान। विशेषतः सेना का युद्धक्षेत्र की ओर अथवा पशुओं का चराई की ओर प्रस्थान। ३. वह सड़क जो किसी नगर से बाहर की ओर जाती हो। ४. अदृश्य होना। गायब होना। ५. शरीर से आत्मा का निकलना। मृत्यु। ६. मोक्ष। मुक्ति ७. हाथी की आँख का बाहरी कोना। ८. पशुओं के पैरों में बाँधने की रस्सी। बंधन। ९. लौह। लोहा (को०)।
⋙ निर्यात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह वस्तु या माल जो बेचने के लिये विदेश भेजा गया हो। आयात का उल्टा। रफ्तनी। निर्गत। जैसे,—निर्यात कर। निर्यात व्यापार। यौ०—निर्यात कर = विक्रयार्थ बाहर भेजी जानेवाली वस्तुओं पर लगनेवाला कर।
⋙ निर्यात (२)
वि० बाहर गया हुआ। प्रस्थित।
⋙ निर्यातन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बदला चुकाना। २. प्रतीकार। ३. मार डालना। ४. ऋण चुकाना। ५. (न्यस्त या धरोहर की वस्तु को) लौटाना। वापस करना (को०)। ६. उपहार। भेंट (को०)।
⋙ निर्याति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुक्ति। निर्याण। २. जाना। गमन। प्रयाण। ३. मृत्यु [को०]।
⋙ निर्यातित
वि० [सं०] वापस किया हुआ। लौटाया हुआ [को०]।
⋙ निर्यापित
वि० [सं०] १. जाने के लिये बाध्य किया हुआ। २. अपवारित। समाप्त किया हुआ।
⋙ निर्याम
संज्ञा पुं० [सं०] मल्लाह।
⋙ निर्यामक
संज्ञा पुं० [सं०] सहायक। वह जो किसी काम में मदद करे [को०]।
⋙ निर्यामकत्व
संज्ञा पुं० [सं० निर्याम] सहायकत्व। मदद (संतरण में) मल्लाहीं। उ०— सुप्पारक के कुशल निर्यामकत्व में सात सौ यात्रियों की नौयात्रा का उल्लेख है।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २९७।
⋙ निर्यामणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहाय्य। सहायकत्व। सहायक होने का भाव [को०]।
⋙ निर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्षों या पौधों में से आपसे आप अथवा उसका तना आदि चीरने से निकलनेवाला रस। २. गोंद। ३. बहना या झरना। क्षरण। ४. क्वाथ। काढा़।
⋙ निर्युक्तिक
वि० [सं०] १. विच्छिन्न किया हुआ। अलग किया हुआ। २. निरर्थक। जिसमें कोई तर्क न हो। ३. अयोग्य। जो उचित न हो [को०]।
⋙ निर्यूथ
वि० [सं०] झुंड से भटका हुआ। दल से बिछुडा हुआ। जैसे, हाथी [को०]।
⋙ निर्यूष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निर्यास'।
⋙ निर्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्वाथ। काढा़। २. द्वार। दरवाजा। ३. सिर पर पहनी जानेवाली कोई चीज। जैसे, मुकुट आदि। ४. दिवार में लगाई हुई वह लकडी़ आदि जिसके ऊपर कोई चीज रखी या बनाई जाय। खूँटी।
⋙ निर्लज्ज
वि० [सं०] लज्जाहीन। बेशर्म। बेहया।
⋙ निर्लज्जता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेशर्मी। बेहयाई। निर्लज्ज। होने का भाव।
⋙ निर्लिंग
वि० [सं० निर्लिंङ्ग] लिंग अर्थात् लक्षणरहित। जिसमें पहचानने का कोई चिह्न न हो [को०]।
⋙ निर्लिप्त (१)
वि० [सं०] १. राग द्वेष आदि से मुक्त। जो किसी विषय में आसक्त न हो। २. जो लिप्त न हो। जो कोई संबंध न रखता हो। बेलौस।
⋙ निर्लिप्त (२)
संज्ञा पुं० १. कृष्ण का एक नाम। २. संत [को०]।
⋙ निर्लुंचन
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्लुञ्चन] छीलना। नोचना [को०]।
⋙ निर्लुंठन
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्लुण्ठन] १. लूटना। पददलित करना। २. छेदना। फाड़ना। विद्ध करना [को०]।
⋙ निर्लेखन
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी चीज पर जमी हुई मैल आदि खुरचना। २. वह चीज जिससे मैल खुरची जाय (सुश्रुत)।
⋙ निर्लेप
वि० [सं०] १. विषयों आदि से अलग रहनेवाला। निर्लिप्त। २. लेपरहित। कलईरहित। (को०)।
⋙ निर्लोभ
वि० [सं०] जिसे लोभ न हो। लालच न करनेवाला।
⋙ निर्लोभी
वि० [सं० निर्लोभ + ई (प्रत्य०)] दे० 'निर्लोभ'।
⋙ निर्लोम
वि० [सं०] बिना रोएँ का [को०]।
⋙ निर्लोमा
वि० [सं० निर्लोमन्] [वि० स्त्री० निर्लोम्नी] बिना रोएँ का [को०]।
⋙ निर्वंश
वि० [सं०] जिसके आगे वंश चलानेवाला कोई न हो।
⋙ निर्वंशता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्वंश होने का भाव।
⋙ निर्वचन (१)
वि० [सं०] १. मौन। २. निर्दोष। निष्कलंक [को०]।
⋙ निर्वचन (२)
क्रि० वि० चुपचाप [को०]।
⋙ निर्वचन (३)
संज्ञा पुं० [वि० निर्वचनीय] १. उच्चारण। २. कहावत। लोकोक्तियाँ। ३. शब्दसूची। ४. निरुक्ति। ५. प्रशंसा [को०]।
⋙ निर्वचनीय
वि० [सं० ] कहने योग्य। व्याख्या करने योग्य। निर्वचन के योग्य [को०]।
⋙ निर्वण
वि० [सं०] १. जंगल से बाहर। २. नग्न। खुला हुआ। ३. जंगल से रहित [को०]।
⋙ निर्वत्सल
वि० [सं०] जो बच्चों को प्यार न करे। जिसमें वत्सलता न हो [को०]।
⋙ निर्वन
वि० [सं०] दे० 'निर्वण' [को०]।
⋙ निर्वपण (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निर्वपणी] १. तर्पण संबंधी। २. देनेवाला [को०]।
⋙ निर्वपण (२)
संज्ञा पुं० १. तर्पण। २. देना। दान। प्रदान। ३. वितरण [को०]।
⋙ निर्वयनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सर्प की केचुल। निर्मोक [को०]।
⋙ निर्वर
वि० [सं०] १. निर्लज्ज। बेशरम। २. निर्भय। निडर।
⋙ निर्वर्णन
संज्ञा पुं० [सं०] १. देखना। लक्ष्य करना। २. सावधानी से देखना [को०]।
⋙ निर्वर्तित
वि० [सं०] जिसकी निष्पत्ति हो चुकी हो। निष्पन्न [को०]।
⋙ निर्वसन
वि० [सं०] वस्त्रहीन। नग्न [को०]।
⋙ निर्वसु
वि० [सं०] धनहीन। गरीब [को०]।
⋙ निर्वहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निबाह। गुजर। निर्वांह। २, समाप्ति। ३. नाटक में कथा की समाप्ति उपसंहृति [को०]। यौ०—निर्वहण संधि = नाटक की पाँच संधियों में से अंतिम इन पाँच संधियों के नाम हैं—मुख, प्रतिमुख, गर्भ अवमर्श और निर्वहण। अंतिम को उपसंहति भी कहा गया हैं।
⋙ निर्वहना †
क्रि० अ० [सं० निर्वहन] गुजर करना या होना। निभना। चला चलना। परंपर का पालन होना।
⋙ निर्वाक्
वि० [सं० निर्वाच्] जिसके मुँह से बात न निकले। जो चुप हो।
⋙ निर्वाक्य
वि० [सं०] जो बोल न सकता हो। गूँगा।
⋙ निर्वाचक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसे किसी प्रतिनिधिक संस्था के सदस्य या प्रतिनिधि के निर्वाचन में वोट या मत देने का अधिकार प्राप्त हो। वह जिसे किसी कार्यकर्ता या प्रतिनिधि को वोट या मत देने का अधिकार प्राप्त हो। मताधिकारप्राप्त मनुष्य़। निर्वाचन करनेवाला।
⋙ निर्वाचकसंघ, निर्वाचकसमूह
संज्ञा पुं० [सं०] उन लोगों का समूह या समाज जिन्हें मताधिकार अर्थात् वोट देने का अधिकार प्राप्त हो। एलेक्टरेट।
⋙ निर्वाचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुतों में से एक या अधिक को चुनने। या पसंद करने का काम। चुनाव। जैसे,—कविताओं का निर्वाचन सुंदर हुआ है। २. किसी को किसी पद या स्थान के लिये, उसके पक्ष में 'वोट' देकर, हाथ उठाकर या चिट्ठी डालकर चुनने या पसंद करने का काम। जेसे,—व्यवस्थापिका सभा के इस बार के निर्वाचन में अच्छे आदमी निर्वाचित हुए हैं। यौ०—निर्वाचनक्षेत्र = चुनाव का क्षेत्र।
⋙ निर्वाचनी संस्था
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'निर्वाचक संघ'।
⋙ निर्वाचित
वि० [सं०] १. निर्वाचन किया हुआ। चुना हुआ। जैसे,—इस पुस्तक में उनेक निर्वाचित लेखों का संग्रह है। २. जिसका (किसी स्थान या पद के लिये लोगों द्वारा निर्वाचन हुआ हो। जो किसी पद या स्थान के लिये लोगों द्वारा) चुना गया हो। जैसे,—वे बनारस डिवीजन से व्यव- स्थापिका परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए हैं।
⋙ निर्वाच्य
वि० [सं०] १. न कहने योग्य। २. जिसपर आपत्ति न की जा सके। निर्दोष [को०]।
⋙ निर्वाण (१)
वि० [सं०] १. बुझा हुआ (दीपक अग्नि, आदि)। २. अस्त। डूबा हुआ। ३. शांत। धीमा पडा़ हुआ। ४. मृत। मरा हुआ। ५. निश्चल। ६. शून्यता को प्राप्त। ७. बिना बाण का।
⋙ निर्वाण (२)
संज्ञा पुं० १. बुझना। ठंढा होना। २. समाप्ति। न रह जाना। ३. अस्त। गमन। डूबना। ४. हाथी को धोना या नहाना (को०)। ५. संगम। संयोग। मिलन (को०)। ६. समाप्ति। पूर्णता (को०)। ७. शांति। ८. मुक्ति। मोक्ष। विशेष—यद्यपि मुक्ति के अर्थ में निर्वाण शब्द का प्रयोग गीता, भागवत, रघुवंश, शारीरक भाष्य इत्यादि नए पुराने ग्रंथों में मिलता है, तथापि यह शब्द बौद्धों का पारिभाषिक है। सांख्य, न्याय, वैशेषिक, योग, मीमांसा (पूर्व) और वेदांत में क्रमशः मोक्ष, अपवर्ग, निःश्रेयस, मुक्ति या स्वर्गप्राप्ति तथा कैवल्य शब्दों का व्यवहार हुआ है पर बौद्ध दर्शन में बराबर निर्वाण शब्द ही आया है और उसकी विशेष रूप से व्याख्या की गई है। बौद्ध धर्म की दो प्रधान शाखाएँ हैं—हीनयान (या उत्त- रीय) और महायान (या दक्षिणी)। इनमें से हीनयान शाखा के सब ग्रंथ पाली भाषा में हैं और बौद्ध धर्म के मूल रूप का प्रतिपादन करते हैं। महायान शाखा कुछ पीछे की है और उसके सब ग्रंथ सस्कृत में लिखे गए हैं। महायान शाखा में ही अनेक आचार्यों द्वारा बौद्ध सिद्धांतों का निरूपण गूढ़ तर्कप्रणाली द्वारा दार्शनिक दृष्टि से हुआ है। प्राचीन काल में वैदिक आचार्यों का जिन बौद्ध आचार्यों से शास्त्रार्थ होता था वे प्रायः महायान शाखा के थे। अतः निर्वाण शब्द से क्या अभिप्राय है इसका निर्णय उन्हीं के वचनों द्वारा हो सकता है। बोधिसत्व नागार्जुन ने माध्यमिक सूत्र में लिखा है कि 'भवसंतति का उच्छेद ही निर्वाण है, अर्थात् अपने संस्कारों द्वारा हम बार बार जन्म के बंधन में पड़ते हैं इससे उनके उच्छेद द्वारा भवबंधन का नाश हो सकता है। रत्नकूटसूत्र में बुद्ध का यह वचन हैः राग, द्वेष और मोह के क्षय से निर्वाण होता है।बज्रच्छेदिका में बुद्ध ने कहा है कि निर्वाण अनुपधि है, उसमें कोई संस्कार नहीं रह जाता। माध्यमिक सूत्रकार चंद्रकीर्ति ने निर्वाण के संबंध में कहा है कि सर्वप्रपंचनिवर्तक शून्यता को ही निर्वाण कहते हैं। यह शून्यता या निर्वाण क्या है ! न इसे भाव कह सकते हैं, न अभाव। क्योंकि भाव और अभाव दोनों के ज्ञान के क्षप का ही नाम तो निर्वाण है, जो अस्ति और नास्ति दोनों भावों के परे और अनिर्वचनीय है। माधवाचार्य ने भी अपने सर्वदर्शनसंग्रह में शून्यता का यहि अभिप्राय बतलाया है—'अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभय इस चतुष्कोटि से विनिमुँक्ति ही शून्यत्व है'। माध्यमिक सूत्र में नागार्जुन ने कहा है कि अस्तित्व (है) और नास्तित्व (नहिं है) का अनुभव अल्पबुद्धि ही करते हैं। बुद्धिमान लोग इन दोनों का अपशमरूप कल्याण प्राप्त करते हैं। उपयुक्त वाक्यों से स्पष्ट है कि निर्वाण शब्द जिस शून्यता का बोधक है उससे चित्त का ग्राह्यग्राहकसंबंध ही नहीं है। मै भी मिथ्या, संसार भी मिथ्या। एक बात ध्यान देने की है कि बौद्ध दार्शनिक जीव या आत्मा की भी प्रकृत सत्ता नहीं मानते। वे एक महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। यौ०—निर्वाणभूयिष्ठ = लुप्त। निर्वाणमस्तक = मोक्ष। निर्वाण- रुचि = मोक्ष की प्राप्ति में लगा हुआ।
⋙ निर्वाणप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक गंधर्वी का नाम।
⋙ निर्वाणी
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के एक शासन देवता।
⋙ निर्वात
वि० [सं०] १. जहाँ हवा न हो। जहाँ हवा का झोंका न लग सके। २. जो चंचल न हो। स्थिर। शांत।
⋙ निर्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपवाद। निंदा। २. अवज्ञा। लापरवाई।
⋙ निर्धाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. दान। २. वह दान जो पितरों के उद्देश्य से किया जाय। ३. (बीज आदि) बोना। वपन (को०)। ४. बुझाना। शांत करना (आग, दीया आदि)। दे० 'निर्वपण'।
⋙ निर्वापक
वि० [सं०] बुझानेवाला [को०]।
⋙ निर्वापण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ठंढा करने की क्रिया। २. तरोताजा करना। ३. बुझाना (प्यास)। ४. आनंदित करना। ५. वध करना। ६. (आग आदि) बुझाना। शांत करना। ७. बीज आदि का बोना। वपन (को०)।
⋙ निर्वापित
वि० [सं०] शांत। बुझा हुआ। उ०—उनके सहारे की अंतिम किरण भी निर्वापित हो जायगी।—प्रतिमा, पृ० ११४।
⋙ निर्वार्य
वि० [सं०] १. जिसका निवारण न किया जा सके। २. जो निर्भय काम करे [को०]।
⋙ निर्वास
संज्ञा पुं० [सं०] १. निर्वासन। निकाल देना। २. प्रवास। विदेशयात्रा। ३. हिंसन। वध। मारण [को०]।
⋙ निर्वासक
वि० [सं०] निर्वासन करनेवाला।
⋙ निर्वासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार डालना। वध। २. गाँव, शहर या देश आदि से दंडस्वरूप बाहर निकाल देना। देश- निकाला। ३. निकालना। ४. विसर्जन।
⋙ निर्वासित
वि० [सं०] निकाला हुआ। बहिष्कृत [को०]।
⋙ निर्वास्य
वि० [सं०] निर्वासन के योग्य [को०]।
⋙ निर्वाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी क्रम या परंपरा का चला चलना। किसी बात का जारी रहना। निबाह। जैसे, प्रीति का निर्वाह, कार्य का निर्वाह। २. किसी बात के अनुसार बराबर आचरण। पालन। जैसे, प्रतिज्ञा का निर्वाह, वचन का निर्वाह। ३. समाप्ति। पूरा होना। ४. गुजारा।
⋙ निर्वाहक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी काम का निर्वाह करे।
⋙ निर्वाहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौटिल्य के अनुसार ऐसे पदार्थों का नगर में ले जाना जिनके ले जाने का निषेध हो। २. नाटक की पाँच सधियों में एक। निर्वहण संधि (को०)। ३. निभाना। निबाहना। पूरा करना (को०)।
⋙ निर्वाहना पु
क्रि० अ० [सं० निर्वाह + हिं० ना (प्रत्य०)] निर्वाह करना। उ०—दोष न कछू है तुम्हैं नेह निर्वाहे को।— पद्याकर (शब्द०)।
⋙ निर्विध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्विन्ध्या] विंध्याचल से निकली हुई एक छोटी नदी जिसका उल्लेख मेघदूत में है।
⋙ निर्विकल्प (१)
वि० [सं०] १. जो विकल्प, परिवर्तन या प्रभेदों आदि से रहित हो। २. स्थिर। निश्चिंत।
⋙ निर्विकल्प (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'निर्विकल्प समाधि'।
⋙ निर्विकल्प (३)
संज्ञा पुं० दे० 'निर्विकल्पक'।
⋙ निर्विकल्पक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेदांत के अनुसार वह अवस्था जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रह जाता, दोनों एक हो जाते हैं। २. न्याय के अनुसार वह अलौकिक आलोचनात्मक ज्ञान जो इंद्रियजन्य ज्ञान से बिलकुल भिन्न होता है। बौद्ध शास्त्रों के अनुसार केवल ऐसा ही ज्ञान प्रमाण माना जाता है।
⋙ निर्विकल्प समाधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की समाधि जिसमें ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञाता आदि का कोई भेद नहीं रह जाता और ज्ञानात्मक सच्चिदानंद ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता। विशेष—इस समाधि की तुलना योग की सुषुप्ति अवस्था के साथ की जा सकती है।
⋙ निर्विकार (१)
वि० [सं०] विकाररहित। जिसमें किसी प्रकार का विकार या परिवर्तन न हो।
⋙ निर्विकार (२)
संज्ञा पुं० परब्रह्म।
⋙ निर्विकास
वि० [सं०] जो खिला न हो। अनखिला [को०]।
⋙ निर्विघ्न (१)
वि० [सं०] विघ्नबाधा रहित। जिसमें कोई विघ्न न हो।
⋙ निर्विघ्न (२)
क्रि० वि० बिना किसी प्रकार के विघ्न या बाधा के। जैसे,—सब कार्य निर्विघ्न समाप्त हो गया।
⋙ निर्विचार (१)
वि० [सं०] विचाररहित। जिसमें कोई विचार न हो।
⋙ निर्विचार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] योगदर्शन के अनुसार एक प्रकार की सजीव समाधि।विशेष—यह किसी सूक्ष्म आलंबन में तन्मय होने से प्राप्त होती है और इस समाधि में उस आलंबन के नाम और संकेत आदि का कोई ज्ञान नहीं रह जाता, केवल इसके आकार आदि का ही ज्ञान होता है। ऐसी समाधि सबसे उत्तम समझी जाती है और उससे चित्त निर्मल होता है और बुद्धि सर्वप्रका- शक हो जाती है।
⋙ निर्विचिकित्स
वि० [सं०] १. संदेह से रहित। संशयहीन। २. चिंतन से रहित [को०]।
⋙ निर्विचेष्ट
वि० [सं०] जिसमें कोई चेष्टा या हरकत न हो। संज्ञा- हीन [को०]।
⋙ निर्विण्ण
वि० [सं०] १. खिन्न। २. खेद या दुःख से पराभूत। ३. विरागयुक्त। ४. नम्र। ५. ज्ञात। निश्चित [को०]।
⋙ निर्वितर्क
वि० [सं०] वितर्करहित। जिसपर तर्क वितर्क न हो सके [को०]।
⋙ निर्वितर्क समाधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] योगदर्शन के अनुसार एक प्रकार की सवीज समाधि जो किसी स्थूल आलंबन में तन्मय होने से प्राप्त होती है और जिसमें उस आलंबन के नाम और संकेत आदि का कोई ज्ञान नहीं रह जाता, केवल उसके आकार आदि का ही ज्ञान होता है।
⋙ निर्विद्ध
वि० [सं०] १. घायल। आहत। २. वियुक्त। एकाकी [को०]।
⋙ निर्विद्य
वि० [सं०] विद्याहीन। जो पढा़ लिखा न हो।
⋙ निर्विरोध
वि० [सं०] विरोधरहित। खंडनरहित। जिसका विरोध न हो [को०]।
⋙ निर्वित पु
वि० [सं० निवृत्त] दे० 'निवृत्त'। उ०—माया से निर्वित भजन को करैं बडा़ई।—पलटू०, भा० १, पृ० १३।
⋙ निर्विवाद
वि० [सं०] जिसमें कोई विवाद न हो। बिना झगडे़ का।
⋙ निर्विवेक
वि० [सं०] जो किसी बात की विवेचना न कर सकता हो। विवेकहीन।
⋙ निर्विवेकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्विवेक होने का भाव।
⋙ निर्विशेष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. परब्रह्म। परमात्मा। २. भेद या अंतर का अभाव (को०)।
⋙ निर्विशेष
वि० जिसमें कोई अंतर न हो। समान। बिना भेद का [को०]।
⋙ निर्विशेषण
वि० [सं०] विशेषणरहित। विशेषताविहीन। जिसमें कोई गुण न हो [को०]।
⋙ निर्विष
वि० [सं०] विषहीन। जिसमें विष न हो।
⋙ निर्विषय
वि० [सं०] १. जो अपने स्थान से दूर कर दिया गया हो। २. जिसे कार्य करने को कोई क्षेत्र न हो। ३. वासना से रहित। जैसे, मन [को०]।
⋙ निर्विषा
संज्ञा संज्ञा [सं०] दे० 'निर्विषी'।
⋙ निर्विषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] असवर्ग की जाति की एक धास। जदवार। विशेष—यह पश्चिमोत्तर हिमालय, काश्मीर और मलयागिरि में अधिकता से होती है। इसकी जड़ अतीस के समान होती है जिसका व्यवहार साँप बिच्छू आदि के विषों के अतिरिक्त शरीर के और भी अनेक प्रकार के विषों का नाश करने के लिये होता है। वैद्यक के अनुसार यह जड़ कटु, शीतल, व्रण को भरनेवाली और कफ, वात, रुधिरविकार, विष को नष्ट करनेवाली मान जाती है। पर्या०—निर्विषा। अवविषा। विविषा। विषहा। विषहंत्री। विषाभावा। अविषा। विषवैरिणी।
⋙ निर्विष्ट
वि० [सं०] १. जो भोग कर चुका हो। २. जो विवाह कर चुका हो। ३. जो अग्निहोत्र कर चुका हो। ४. जो मुक्त हो गया हो। ५. जो पा चुका हो। जैसे, वेतन (को०)। ६. बैठा हुआ (को०)।
⋙ निर्विहार
वि० [सं०] आनँदहीन। निरानंद [को०]।
⋙ निर्वीज
वि० [सं०] १. बीजरहित। जिसमें बीज न हो। २. पुंस्त्व- हीन। पुरुषत्व रहित (को०)। ३. जो कारण से रहति हो।
⋙ निर्वीज समाधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पातंजल के अनुसार समाधि की वह अवस्था जिसमें चित्त का निरोध करते करते उसका अवलंबन या बीज भी विलीन हो जाता है। इस अवस्था में मनुष्य को सुख दुःख आदि का कुछ भी अनुभव नहीं होता और उसका मोक्ष हो जाता है।
⋙ निर्वीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] किशमिश नाम का मेवा।
⋙ निर्वीर
वि० [सं०] वीरों से रहित। वीरहीन [को०]।
⋙ निर्वीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका पति और पुत्र न हो।
⋙ निर्वीर्य
वि० [सं०] वीर्यहीन। बल या तेज से रहित। कमजोर। निस्तेज। नपुंसक।
⋙ निर्वृत
वि० [सं०] वृक्षहीन [को०]।
⋙ निर्वृत (१)
वि० [सं०] १. संतुष्ट। प्रसन्न। २. बेपरवाह। चिंताहीन ३. समाप्त। पूर्ण [को०]।
⋙ निर्वृत (२)
संज्ञा पुं० घर। आवास [को०]।
⋙ निर्वृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संतोष। आनंद। २. विश्रांति। शांति। ३. मोक्ष। ४. पूर्णता। ५. स्वतंत्रता। मुक्ति। ३. मरण। नाश [को०]।
⋙ निर्वृत्त
वि० [सं०] जो पूरा हो गया हो। जिसकी निष्पत्ति हो गई हो।
⋙ निर्वृत्तात्मा
संज्ञा पुं० [सं० निर्वृत्तात्मन्] विष्णु।
⋙ निर्वृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्पत्ति।
⋙ निर्वेक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] भृति।
⋙ निर्वेग
वि० [सं०] जिसमें वेग या गति न हो। स्थिर।
⋙ निर्वेतन
वि० [सं०] अवैतनिक। बिना वेतन का [को०]।
⋙ निर्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना अपमान। २. वैराग्य। ३. खेद। दुःख। ४. अनुताप। ५. साहित्य में शांत रस का स्थायी भाव।
⋙ निर्वेध
संज्ञा पुं० [सं०] चुभना। भेदन की क्रिया [को०]।
⋙ निर्वेधिम
संज्ञा [सं०] सुश्रुत के अनुसार काम छेदने का एक औजार।
⋙ निर्वेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोग। २. वेतन। तनखाह। ३. विवाह। ब्याह। शादी। ४. मूर्छा। बेहोशी।
⋙ निर्वेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] ढरकी, जुलाहे जिसपर बाने का सूत लपेटते हैं [को०]।
⋙ निर्वैयक्तिकता
संज्ञा स्त्री० [सं० निर + वैयाक्तिक + ता (प्रत्य०)] वैयक्तिक या निज का न होने का भाव।
⋙ निर्वैर (१)
वि० [सं०] जिसमें वैर न हो। द्वेष से रहित।
⋙ निर्वैर— (२)
संज्ञा पुं० वैर का अभार [को०]।
⋙ निर्वैरता
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्वैर + ता (प्रत्य०)] वैर का अभाव। निर्वैर। उ०—आपा मेटै हरि भजै तन मन तजै विकार।—सब ही सूँ निवैंरता दादू यो मत सार।—राम० धर्म०, पृ० २८५।
⋙ निर्व्यथ
वि० [सं०] दे० 'निर्व्यथन '[को०]।
⋙ निर्व्यथन (१)
वि० [सं०] १. पीडा़ से मुक्त। २. स्थिर। शांत [को०]।
⋙ निर्व्यथन (२)
संज्ञा पुं० १. छिद्र। विवर। गुफा। २. अत्यंत पीडा़ [को०]।
⋙ निर्व्यलीक
वि० [सं०] निष्कपट। छलरहित। उ०—शंकर हृद पुंडरीक निवसत हरि चंचरीक निर्व्यलीक मानस गृह संतत रहे छाई।—तुलसी (लब्द०)। २. तत्परता के साथ काम करनेवाला। प्रसन्न। (को०)।
⋙ निर्व्यवधान
वि० [सं०] व्यवधानरहित। बाधारहित। खुला हुआ। उन्मुक्त[को०]।
⋙ निर्व्यवस्थ
वि० [सं०] क्रमरहित। कभी यह, कभी यह करनेवाला [को०]।
⋙ निर्व्यसन
वि० [सं०] जिसमें बुरी लत न हो। दुर्व्यसन से मुक्त [को०]।
⋙ निर्व्याज
वि० [सं०] १. निष्कपट। छलरहित। उ०—पूजा यहै उर आनु। निर्व्याज धरिए ध्यानु।—केशव (शब्द०)। २. बाधारहित। ३. नैसर्गिक (को०)। ४. शुद्ध। सच्चा (को०)।
⋙ निर्व्याधि
वि० [सं०] व्याधि या रोग से मुक्त।
⋙ निर्व्यापार
वि० [सं०] १. बेकार। २. निष्क्रिय। गतिहीन [को०]।
⋙ निर्व्यूढ़
वि० [सं० निर्व्यूढ] १. समाप्त या पूरा किया हुआ। २. परिवर्धित। बढा़ हुआ। ३. प्रमाणित या चरितार्थ किया हुआ। सिद्ध किया हुआ। ४. परित्यक्त [को०]।
⋙ निर्व्यूढ़ि
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्व्यूढि] १. समाप्ति। २. द्वार। दरवाजा। ३. खूँटी। ४. शीर्षबिंदु। ५. क्वाथ। काढा़। ६. कलगी [को०]।
⋙ निर्व्रण
वि० [सं०] अक्षत। बिना धाव या व्रण का [को०]।
⋙ निर्हरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निर्हारी] १. शव को जलाने के लिये ले जाना। २. निकालना। बाहर करना (को०)। ३. जलाना। ४. नाश करना।
⋙ निर्हाद
संज्ञा पुं० [सं०] मलत्याग। पुरीषोत्सर्ग [को०]।
⋙ निर्हार
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाहर निकालना। २. काढ़ना। खींच निकालना। ३. निर्मूलन। उपारना (जड़ आदि)। ४. मलमूत्र का त्याग। ५. व्यक्तिगत निधि। ६. घटाना [को०]।
⋙ निर्हारक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शव को गृह से बाहर करे या स्मशान तक ले जाय [को०]।
⋙ निर्हारी
संज्ञा पुं० [सं० निर्हारिन्] १. निकालनेवाला। २. दूर तक फैलनेवाला। ३. महकनेवाला [को०]।
⋙ निर्हेतु, निर्हेतुक
वि० [सं०] जिसमें कोई हेतु या कारण न हो।
⋙ निर्ह्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वनि। आवाज [को०]।
⋙ निर्ह्वास
संज्ञा पुं० [सं०] सँक्षिप्ति। छोटा करना [को०]।
⋙ निर्ह्वीक
वि० [सं०] जिसे लाज न हो। निर्लज्ज। बेहया [को०]।