स्मदिभ
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक ऋषि का नाम।

स्मय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्व। अभिमान। शेखी। २. विस्मय। आश्चर्य। अचंभा। (को०)। ३. मंद हास। मुसकान (को०)। यौ०—स्मयदान=(१) गर्वयुक्त या घमंड से भरा हुआ दान। (२) किसी को देखकर या अनुकूल भाव से मुस्कुराना। स्मय- नुत्ति= गर्वहीन करना। घमंड चूर करना।

स्मय (२)
वि० [सं०] अद् भुत। विलक्षण।

स्मयन
संज्ञा पुं० [सं०] मुसकान। मृदुहास [को०]।

स्मयमान
वि० [सं०] मुसकराता हुआ। उ०—तव मुख स्मयमान बिना, लगन खिन्न खिन्न स्मरण।—क्वासि, पृ० ९४।

स्मयी
वि० [सं० स्मयिन्] १. स्मययुक्त। अभिमानी। घमंडी। २. मंदहास से युक्त। मुसकराता हुआ [को०]।

स्मर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। मदन। उ०—(क) मदन मनोभव मन मथन, पंचसर स्मर मार। मीनकेतु कंदर्प हरि व्यापक विरह बिदार।—अनेकार्थ (शब्द०)। (ख) स्मर अरचा की हित माल। ताको कहत विसाल।—गुमान (शब्द०)। २. स्मरण। स्मृति। याद। ३. (संगीत में) शुद्ध राग का एक भेद। ४. प्रेम। प्रीति। प्रशाय (को०)। ५. ज्यौतिष में लग्न से सप्तम स्थान जो पुरुष के लिये स्त्रीस्थान और स्त्री के लिये पतिस्थान का द्योतक है (को०)।

स्मरकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्रियों के संबंध की या शृंगार रस की ऐसी बातें जिनसे काम उत्तेजित हो। प्रेमालाप।

स्मरकर्म
संज्ञा पुं० [सं० स्मरकर्मन्] कामुक आचार व्यवहार।

स्मरकार
वि० [सं०] जिससे काम का उद्दीपन हो। कामोद्दीपक।

स्मरकूप
संज्ञा पुं० [सं०] भग। योनि।

स्मरकूपक
संज्ञा स्त्री० [सं०] भग। योनि [को०]।

स्मरकूपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भग। योनि।

स्मरगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीकृष्ण का एक नाम। २. वह जो कामकला की शिक्षा दे।

स्मरागृह
संज्ञा पुं० [सं०] भग। योनि।

स्मरचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० स्मरचन्द्र] एक प्रकार का रतिबन्ध।

स्मरचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रीसंभोग के लिये एक प्रकार का रतिबंध।

स्मरच्छत्र
संज्ञा पुं० [सं०] भगनासा। भग की शिश्निका [को०]।

स्मरच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] भग। योनि।

स्मरज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कामज्वर [को०]।

स्मरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी देखी, सुनी बीती या अनुभव में आई बात का फिर से मन में आना। याद आना। आध्यान। जैसे,—(क) मुझे स्मरण नहीं आता कि आपने उस दिन क्या कहा था। (ख) वे एक एक बात भली भाँति स्मरण रखते हैं। मुहा०—स्मरण दिलाना=भूली हुई बात याद कराना। जैसे,—उनके स्मरण दिलाने पर मैं सब बातें समझ गया। २. नौ प्रकार की भक्तियों में से एक प्रकार की भक्ति जिसमें उपासक अपने उपास्यदेव को बराबर याद किया करता है। उपास्य का अनवरत चिंतन। उ०—श्रवण, कीर्तन स्मरणपाद- रत, अरचन बंदन दास। सख्य और आत्मानिवेदन, प्रेम लक्षणा जास। —सूर (शब्द०) ३. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें कोई बात या पदार्थ देखकर किसी विशिष्ट पदार्थ या बात का स्मरण हो आने का वर्णन होता है। जैसे,— कमल को देखकर किसी के सुंदर नेत्रों के स्मरण हो आने का वर्णन। उ०—(क) सूल होत नवनीत निहारी। मोहन के मुख जोग बिचारी। (ख) लखि शशि मुख की होत सुधि तन सुधि धन को जोहि। ४. स्मृतिशक्ति। याददाश्त। स्मरणाशक्ति (को०)। ५. परंपराप्राप्त विधान। परंपरागत विधि (को०)। ६. किसी देव का मानसिक जाप (को०)। ७. खेद के साथ याद करना (को०)।

स्मरणपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्र जो किसी को कोई बात स्मरण दिलाने के लिये लिखा जाय।

स्मरणपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पत्र जो किसी को किसी विषय का स्मरण दिलाने के लिये लिखा या भेजा जाय। २. वह पत्र जिसमें कोई बात याद रखने के लिये लिखी जाय। याददाश्त।

स्मरणपदवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृत्यु। मौत। मरण [को०]।

स्मरणभू
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो स्परण से पैदा होता हो। कामदेव [को०]।

स्मरणशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह मानसिक शक्ति जो अपने सामने होनेवाली घटनाओं और सुनी जानेवाली बातों को ग्रहण करके छो़ड़ती है; और आवश्यकता पड़ने, प्रसंग आने या मस्तिष्क पर जोर देने से वह घटना या बात फिर हमारे मन में, स्पष्ट कर देती है। याद रखने की शक्ति। याददाश्त। जैसे,—(क) आपकी स्मरणशक्ति बहुत तीव्र है। (ख) अभ्यास से किसी विशिष्ट विषय में स्मरणशक्ति बहुत बढ़ाई जा सकती है।

स्मरणानुग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्मरण करने की कृपा। स्मरण संबधी अनुकंपा। २. कृपापूर्वक याद करना। अनुग्रहपूर्वक स्मरण करना [को०]।

स्मरणापत्यतर्पक
संज्ञा पुं० [सं०] कछुवा। कच्छप [को०]।

स्मरणासक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगवान के स्मरण में होनेवाली आसक्ति जिसके कारण भक्त दिन रात भगवान् या इष्टदेव का स्मरण करता है। उ०—(यह भक्ति) एक रूप ही होकर गुणमाहात्मासक्ति, रूपासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासक्ति, दासासक्ति, सख्यासक्ति, कांतासक्ति, वात्सल्यासक्ति, रूप से एकादश प्रकार की होती है। — हरिश्चंद्र (शब्द०)।

स्मरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुमिरिनी। जपमाला। जप करने की माला [को०]।

स्मरणीय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्मरणीया] स्मरण रखने योग्य। याद रखने लायक। जो भूलने योग्य न हो। जैसे,—यह घटना भी स्मरणीय है।

स्मरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्मर या कामदेव का भाव या धर्म। २. स्मरण का भाव या धर्म।

स्मरदशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह दशा जो प्रेमी या प्रेमिका के न मिलने पर उसके विरह में होती है। विरह की अवस्था। विशेष—यह दस प्रकार की मानी गई हैं —असौष्ठव, ताप, पांडुता, कृशता, अरुचि, अधृति, अनालंबन, तन्मयता, उन्माद और मरण।

स्मरदहन
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव को भस्म करनेवाले, शिव।

स्मरदायी
वि० [सं० स्मरदायिन्] कामोत्तेजक।

स्मरदीपन
वि० [सं०] जिससे काम का दीपन हो। जिससे काम उत्तेजित हो। कामोत्तेजक।

स्मरदुर्मद
वि० [सं०] कामोन्मत्त [को०]।

स्मरध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरुष का लिंग। २. स्त्री की योनि। भग। ३. वाद्य। बाजा। ४. कामदेव का चिह्व मत्स्य जो उनकी ध्वजा में है (को०)।

स्मरध्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चाँदनी रात। २. कामदेव का चिह्न। काम की पताका।

स्मरना पु
कि० स० [सं० स्पर (=स्मरण, याद)+हिं० ना (प्रत्य०) स्मरण करना। याद करना। उ०—तुम्हैं देखिबे की महा चाह बाढ़ी, बिलापै, बिचारै, सराहै, स्मरै जू। रहै बैठि न्यारी,घटा देखि कारी, बिहारी, बिहारी, बिहारी, ररै जू। भई काल- बौरी सि दौरी फिरी, आजु बाढ़ी दसा ईस का धौं करै जू। बिथा मैं ग्रसी सी भुजंगै डसी सी, छरी सी, मरी सी, घरी सी, मरै जू। —रसकुसुमाकर (शब्द०)।

स्मरनिपुण
वि० [सं०] कामकला में प्रवीण। रतिकुशल [को०]।

स्मरपीड़ित
वि० [सं० स्मरपीडित] काम द्वारा पीड़ित या सताया हुआ। काम का मारा [को०]।

स्मरप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामदेव की पत्नी —रति।

स्मरबाणपंक्ति
संज्ञा पुं० [सं० स्मरबाण पंक्ति] कामदेव के पाँचों बाण [को०]।

स्मरभासित
वि० [सं०] कामव्यथित। कामतप्त। कामोत्तेजित [को०]।

स्मरभू
वि० [सं०] स्मरजन्य। कामजन्य। काम के कारण उत्पन्न।

स्मरमंदिर
संज्ञा पुं० [सं० स्मरमन्दिर] योनि। भग।

स्मरमय
वि० [सं०] जो स्मर या काम के कारण उत्पन्न हो। कामजन्य। स्मरजन्य [को०]।

स्मरमुट्
संज्ञा पुं० [सं० स्मरमुषु] शिव [को०]।

स्मरमोह
संज्ञा पुं० [सं०] कामजन्य मूर्छा। प्रणयोन्माद [को०]।

स्मररुक्
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं० स्मररुज्] कामजन्य पीड़ा या व्याधि [को०]।

स्मरलखे
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेमपत्र [को०]।

स्मरलेखनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शारिका पक्षी। मैना।

स्मरवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेमासक्त या कामलुब्धा स्त्री [को०]।

स्मरवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामदेव की पत्नी, रति।

स्मरवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव का प्रिय मित्र, वसंत [को०]। २. अनिरुद्ध का एक नाम।

स्मरवीथिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।

स्मरवृद्धि
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामभावना का अभिवर्धन या उत्तेजन। २. कामवृद्धि या कामज नामक क्षुप।

स्मरशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव का दहन करनेवाले, महादेव।

स्मरशबर
संज्ञा पुं० [सं०] शबर लोगों का प्रेम। बर्बर या क्रूर प्रेम।

स्मरशर
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव के बाण जो संख्या में पाँच कहे गए हैं। इसी से कामदेव का नाम पंचबाण और पंचशर भी है। [को०]।

स्मरशासन
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव का शासन करनेवाले, शिव [को०]।

स्मरशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें कामकला का विवेचन हो। कामशास्त्र।

स्मरसख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. ऋतुपति वसंत। (को०)।

स्मरसख (२)
वि० [सं०] जिससे काम की उत्तेजना हो। कामोद्दीपक।

स्मररस
वि० [सं०] जो काम की उत्तेजना करने में समर्थ हो। जिससे काम का दीपन संभव हो [को०]।

स्मरस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० स्मरस्तम्भ] पुरुष की इंद्रिय। लिंग।

स्मरस्मरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेवती।

स्मरस्मर्य
संज्ञा पुं० [सं०] गधा।

स्मरहर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

स्मरांकुश
संज्ञा पुं० [सं० स्मराङकुश] १. लिंग। २. नख (को०)। ३. कामपीड़ित। कामातुर व्यक्ति (को०)।

स्मरांध
वि० [सं० स्मरान्ध] कामांध।

स्मराकुल
वि० [सं०] कामपीड़ित। कामग्रस्त [को०]।

स्मराकृष्ट
वि० [सं०] प्रेम द्वारा आकर्षित। प्रेमाभिभूत [को०]।

स्मरागार
संज्ञा पुं० [सं०] भग। योनि।

स्मरातुर
वि० [सं०] कामार्त। कामातुर [को०]।

स्मराधिवास
संज्ञा पुं० [सं०] अशोक वृक्ष।

स्मराम्र
संज्ञा पुं० [सं०] कलमी आम। राजाम्र।

स्मरारि
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव के शत्रु, महादेव। उ०—स्मरारि संस्मर निज रूपा। यथा दिखावहिं विमल स्वरुपा। —शंकर- दिग्विजय (शब्द०)।

स्मरार्त
वि० [सं०] कामपीड़ित [को०]।

स्मरासव
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताड़ में से निकलनेवाला ताड़ी नामक मादक द्रव्य। २. थूक। लार। लाला

स्मरोत्सुक
वि० [सं०]दे० 'स्मरातुर' [को०]।

स्मरोद्दीपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो काम का उद्दीपन करता हो। काम को उद्दीप्त करनेवाला। २. एक प्रकार का तेल। केश- तैल [को०]।

स्मरोन्माद
संज्ञा पुं० [सं०] कामजन्य उन्माद [को०]।

स्मरोपकरण
संज्ञा पुं० [सं०] सुगंधित पदार्थ आदि कामवर्धक वस्तुएँ [को०]।

स्मर्ण पु
संज्ञा पुं० [सं० स्मरण]दे० 'स्मरण'।

स्मर्त्तव्य
वि० [सं०] १. स्मरण रखने योग्य। याद रखने लायक। २. जिसकी स्मृति मात्र शेष रह गई हो (को०)।

स्मर्त्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्मर्त्तृ] १. वह जो स्मरण रखे। याद रखनेवाला। स्मरण रखनेवाला व्यक्ति। २. आचार्य। गुरु (को०)।

स्मर्त्ता (२)
वि० स्मरण रखनेवाला।

स्मर्य, स्मर्य्य
वि० [सं०] स्मरण रखने योग्य। याद रखने लायक। स्मरणीय।

स्मशान पु
संज्ञा पुं० [सं० श्मशान] मरघट दे०'श्मशान'। विशेष—'श्मशान' के योग से बनानेवाले शब्दों के लिये देखो 'श्मशान' के शब्द।

स्मार (१)
वि० [सं०] कामदेव संबंधी। स्मर संबंधी।

स्मार (२)
संज्ञा पुं० स्मृति। याद। स्मरण [को०]।

स्मारक (१)
वि० [सं०] वि स्त्री० [स्मारिका] स्मरण करानेवाला। याद दिलानेवाला। जैसे, कोशोत्सव स्मारक संग्रह।

स्मारक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कृत्य, पदार्थ या वस्तु आदि जो किसी की स्मूति बनाए रखने के लिये प्रस्तुत किया जाय।यादगार। जैसे,—महाराज शिवा जी का स्मारक। महारानी विक्टोरिया का स्मारक। २ . वह चीज जो किसी को अपना स्मरण रखने के लिये दी जाय। यादगार। जैसे,—मेरे पास यही एक पुस्तक तो आपका स्मारक है।

स्मारकनिधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी की स्मृति की रक्षा के लिये एकत्र की गई धनराशि। जैसे,—कस्तुरबा स्मारकनिधि। गांधी स्मारकनिधि।

स्मारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्मरण कराने की क्रिया। याद दिलाना। २. परिसंख्यान करना। फिर से गिनना या जाँच करना (को०)।

स्मारणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मी या ब्रह्मी नाम की वनस्पति जिसके सेवन से स्मरण शक्ति का बढ़ना माना जाता है।

स्मारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कार्य या वस्तु (विशेषतः पत्रिकाएँ, पुस्तिकाएँ आदि) जो किसी विशिष्ट कार्य की स्मृति बनाए रखने के निमित्त प्रस्तुत की गई हो।

स्मारित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कृतसाक्षी के पाँच भेदों में से एक। वह साक्षी जिसका नाम पत्र पर न लिखा हो, परंतु अर्थी अपने पक्ष के समर्थन के लिये स्मरण करके बुलावे।

स्मारित (२)
वि० जिसकी याद कराई गई हो। स्मरण कराया हुआ [को०]।

स्मार्त्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वे कृत्य आदि जो स्मृतियों में लिखे हुए हैं। वह जो स्मृतियों में लिखे अनुसार सब कृत्य करता हो। ३. स्मृतियों के अनुसार चलनेवाला व्यक्ति या संप्रदाय ४. वह जो स्मृतियों आदि का अच्छा ज्ञाता हो। स्मृति शास्त्र का पंडित।

स्मार्त (२)
वि० १. स्मृति संबंधी। स्मृति का। २. स्मृतियों में विहित या कहा हुआ (को०)। ३. विधिविहित। वैंध (को०)। ४. स्मृतियों को माननेवाला [को०]। ५. जो स्मरण में हो। जो स्मृत हो (को०)। ६. गृह संबंधी (को०)।

स्मार्तकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृतियों में विहित कर्म।

स्मार्तकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह समय जब एक स्मरण बना रह सके। याददाश्त बने रहने की अवधि। २. १०० वर्ष का समय। शताब्दी [को०]।

स्मार्तिक
वि० [सं०] स्मृति संबंधी। स्मृति का।

स्मार्य
वि० [सं०] स्मरणीय। स्मरण करने योग्य [को०]।

स्माल
वि० [अं०] छोटा। लघु। यौ०—स्माल काटेज इंडस्ट्री=छोटे या लघु गृहोद्योग।

स्माल काज कोर्ट
संज्ञा पुं० [अं० स्माल काजेज कोर्ट] वह दीवानी अदालत जहाँ छोटे छोटे मामले हेने हैं। छोटी अदालत। अदालत खफीफा। विशेष—हिंदुस्तान में कलकत्ता, बंबई आदि बड़े शहरों में स्माल काज कोर्ट है।

स्मित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मंद हास्य। धीमी हँसी। उ०—श्रम अभिलाष सगर्व स्मित क्रोध हरष भय भाव। उपजत एकहिं बार जहँ तहँ किलकिचित हाव। —केशव (शब्द०)।

स्मित (२)
वि० [सं०] १. मुस्कराता हुआ। मंद मंद हँसता हुआ। २. खिला हुआ। विकसित। प्रस्फुटित। स्मितदृश=विकसित या प्रसन्न दृष्टिवाला। यौ०—स्मितदृशी=स्त्री सिजकी आँखें प्रसन्न या हँस रही हों। हँसमुखी औरत। स्मितपूर्व=मृदुहास या मुसकराहट के साथ। स्मितमुख=प्रसन्नवदन। हँसमुख। स्मितवाक्=मुसकराहट के साथ बोलनेवाला। स्मितशालो=मंदहासयुक्त। स्मित युक्त। स्मितशौभी=मंदहास या मुसकराहट के कारण सुंदरी।

स्मितानन
संज्ञा पुं० [सं०] हँसता हुआ चेहरा। उ०—मेखला की ओर स्मितानन से बड़ी प्रीति के साथ निहारा। —चक्रकांत., पृ० १२।

स्मिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुसकान। मृदु हास। मंद मुसकान। २. प्रफुल्लता। प्रसन्नता। उ०—वह मेरी स्मिति थी उसका भी मैं हँसता संसार बना था। —प्रवासी०, पृ० ५४।

स्मृत
वि० [सं०] १. जो स्मृति का विषय हो। याद किया हुआ। जो स्मरण में आया हो। उ०—(क) एक बात यह भी स्मृत रक्खो कि जहाँ संवित् होती है, वहाँ ये सात गुण और उसके साथ निवास कहते हैं। —श्रद्धाराम (शब्द०)।(ख) ... जो अब तक स्मृत थे, अत्यंत प्रसन्नता प्राप्त होती थी।—अयोध्या सिंह (शब्द०)। २. निर्विष्ट । कथित। कीर्तित (को०)। ३. अधिकृत। कल्पित। उल्लिखित (को०)। ४. स्मृतिकथित या विहित (को०)।

स्मृत (२)
संज्ञा पुं० १. स्मरण। स्मृति। याद। २. एक प्रजापति का नाम [को०]।

स्मृतमात्र
वि० [सं०] जिसकी सिर्फ स्मृति की गई हो। जिसकी केवल याद की गई हो [को०]।

स्मृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्मरण शक्ति के द्वारा संचित होनेवाला ज्ञान। २. स्मरण। याद। ३. दक्ष की कन्या और अंगिरा की पत्नी के गर्भ से उत्पन्न एक कन्या। ४. हिंदुओं के धर्मशास्त्र जिनकी रचना ऋषियों और मुनियों आदि ने, वेदों का स्मरण या चिंतन करके की थी और जिसमें धर्म, दर्शन, आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त, शासन, नीति आदि के विवेचन हैं। विशेष—हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथ दो भागों में विभक्त है —श्रुति और स्मृति। इनमें से वेद, ब्राह्मण और उपनिषद् आदि श्रुति के अंतर्गत है (दे० 'श्रुति'); और शेष धर्मशास्त्रों को स्मृति कहते हैं। स्मृति के अंतर्गत नीचे लिखे ग्रंथ आते हैं — (क) छह वेदांग। (ख) गृह्म, आश्वलायन, सांख्यायन, गोभिल पारस्कर, बौधायन, भारद्वाज और आपस्तंबादि सूत्र। (ग) मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्ण, हारीत, उशनस, अंगिरा, यम, कात्यायन, बुहस्पति, पराशर, व्यास, दक्ष, गौतम, वशिष्ठ, नारद और भृगु आदि के रचे हुए अठारह धर्मशास्त्र। (घ) रामायण और महाभारत आदि इतिहास। (च) अठारह पुराणऔर (छ) सब प्रकार के नीतिशास्त्र के ग्रंथ। ५. (अठारह धर्मशास्त्रो के कारण) अठारह की संख्या की संज्ञा-१८। ६. एक प्रकार का छंद। ७. इच्छा। कामना। ८. चिंतन। ध्यान (को०)। ९. सदृश वस्तु के अवलोकन, चिंतन आदि से पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण। एक संचारी भाव (को०)।

स्मृतिक
संज्ञा पुं० [सं०] सलिल। उदक। जल। पानी [को०]।

स्मृतिकार
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृति या धर्मशास्त्र बनानेवाला।

स्मृतिकारक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह औषध जिसके सेवन से स्मरण- शक्ति तीव्र होती है।

स्मृतिकारक (२)
वि० स्मृति करनेवाला। स्मरण शक्ति बढानेवाला। याददाश्त देनेवाला [को०]।

स्मृतिकारी
वि० [सं० स्मृतिकारिन्] [वि० स्त्री० स्मृतिकारिणी] स्मरण करानेवाला। स्मृतिकारक।

स्मृतिजात
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम का देवता। कामदेव। रतिपति [को०]।

स्मृतितत्र
संज्ञा पुं० [सं० स्मृतितन्त्र] स्मृतिशास्त्र। नीतिशास्त्र। धर्मशास्त्र [को०]।

स्मृतिद
वि० [सं०] जो स्मृतिदायक हो। स्मृति देनेवाला [को०]।

स्मृतिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्मरणपत्र', 'स्मरणपत्रक'।

स्मृतिपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्मृतियों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग। स्मृतिविहित रास्ता। २. वह जो स्मरण का विषय हो। स्मृति का पथ [को०]।

स्मृतिपाठक
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृति या नीतिशास्त्र का जानकार। नीति या विधिशास्त्र का ज्ञाता। विधिज्ञ व्यक्ति [को०]।

स्मृतिप्रत्यवमर्श
संज्ञा पु० [सं०] वह शक्ति जिससे स्मृति बनी रहती है। स्मृति या धारणा शक्ति। मेधा शक्ति [को०]।

स्मृतिप्रबंध
संज्ञा पुं० [सं० स्मृतिप्रबन्ध] स्मृति शास्त्र। विधि या नीति शास्त्र [को०]।

स्मृतिभू
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव। मनजात। स्मृतिजात [को०]।

स्मृतिभ्रश
संज्ञा पुं० [सं०] स्मरण शक्ति का नष्ट होना। ज्ञान का नाश [को०]।

स्मृतिमान्
वि० [सं० स्मृतिमत्] १. जो पूर्णतः स्मूतियुक्त हो। जिसकी स्मरण शक्ति ठीक हो। २. अतीत जीवन की याद करनेवाला। चितनयुक्त। चिंताविशिष्ट। ३. मनस्वी। दीर्घदर्शी। विचक्षण। विचारशील ४. विधि या स्मृतिशास्त्र में विशारद। विधि शास्त्र में निष्णात या कुशल। ५. जो स्मृति का कारण हो [को०]।

स्मृतिरोध
संज्ञा पुं० [सं०] किसी कारण स्मरण न रहना। कुछ देर के लिये अथवा समय पर याद न रहना [को०]।

स्मृतिलोप
संज्ञा पुं० [सं०] स्मरण शक्ति विस्मृत होना। वस्तु, विषय आदि का कुछ काल लिये विस्मरण [को०]।

स्मृतिवर्धनी, स्मृतिवर्धिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मी नामक वनस्पति जिसके सेवन से स्मरणशक्ति तीव्र हीती। स्मृतिशक्ति बढानेवाली ओषधि।

स्मृतिविद्
वि० [सं०] स्मृति शास्त्र का जानकर या ज्ञाता। धर्मशास्त्र का जानकार।

स्मृतिविनय
संज्ञा पुं० अपने कर्म के प्रति अनवधान व्यक्ति को उपालंभ या वाग्दंड देना [को०]।

स्मृतिविभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'स्मृतिम्रंश'। २. ठीक याद न पड़ना [को०]।

स्मृतिविरुद्ध
वि० [सं०] जो स्मृति या विधि के विरुद्ध हो। जो धर्मशास्त्र के विपरीत हो [को०]।

स्मृतिविरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्मृति या विहित विधि से विपरीत होना। अवैधता। अशास्त्रीयता। २. किसी विषय पर दो स्मृतियों का अलग अलग विचार [को०]।

स्मृतिविषय
संज्ञा पुं० [सं०]दे० स्मृतिपथ।

स्मृत्तिवेत्ता
वि० [सं० स्मृतिवेत्तृ] दे० 'स्मृतिविद्'।

स्मृतिशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मशास्त्र। विशेष दे० 'स्मृति'।

स्मृतिशेष
वि० [सं०] जिसकी केवल स्मृति या याद ही रह गई हो। मृत [को०]।

स्मृतिशैथिल्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृति की शिथिलता। स्मरण शक्ति की कमजोरी [को०]।

स्मृतिसंमत
वि० [सं० स्मृतिसम्मत] स्मृतिशास्त्र के अनुकूल। धर्म- शास्त्र द्वारा अनुमोदित [को०]।

स्मृतिसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृति का संस्कार। स्मरण शक्ति की छाप [को०]।

स्मृतिसाध्य
वि० [सं०] जो स्मृति या धर्मशास्त्र द्वारा साध्य हो। जिसे स्मृतियों द्वारा प्रमाणित किया जा सके [को०]।

स्मृतिसिद्ध
वि० [सं०] स्मृतिशास्त्र द्वारा कथित। शास्त्र द्वारा प्रमाणित [को०]।

स्मृतिहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्मरण शक्ति के लिये हितकारक शंख- पुष्पी नाम की लता।

स्मृतिहीन
वि० [सं०] जो स्मरण शक्ति से कमजोर हो। जो स्मृति- मान् न हो [को०]।

स्मृतिहेतु
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृति का कारणभूत पदार्थ, वस्तु आदि। स्मृति का अंकन, चिह्न या संस्कार [को०]।

स्मृत्यंतर
सं० पु० [सं० स्मृत्यन्तर] अन्य स्मृतिशास्त्र। दूसरा धर्म शास्त्र या विधिशास्त्र [को०]।

स्मृत्यपेत
वि० [सं०] १. जो स्मृतियों के विरुद्ध हो। शास्त्रविरुद्ध। २. जो याद न पड़े। जिसकी याद न हो। विस्मृत। ३. जो विधिविहित न हो। अवैध। अन्याय्य। असत्य [को०]।

स्मृत्युक्त
वि० [सं०] स्मृतियों में कथित। शास्त्रविहित। शास्त्रोक्त।

स्मेर (१)
वि० [सं०] १. खिला हुआ। प्रफुल्लित। विकसित। २. मुस्कराता हुआ। मंद हास्य से युक्त। ३. घमंडी। अभिमानी। ४. स्पष्ट। प्रत्यक्ष। व्यक्त [को०]।

स्मेर (२)
संज्ञा पुं० १. मंद हास। मृदु हास। मुस्कराहट। १. प्रकाशन। आविष्करण। व्यक्ति। सुस्पष्टता [को०]।

स्मेरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुसकुराना। मंद हास करने की क्रिया या भाव। २. मृदु हास। मंद हँसी [को०]।

स्मेरमुख
वि० [सं०] मंद हास से युक्त। मुसकुराता हुआ। हँस- मुख [को०]।

स्मेरविष्किर
संज्ञा पुं० [सं०] गर्वयुक्त पक्षी —मोर। मयूर [को०]।

स्यंद
संज्ञा पुं० [सं० स्पन्द] १. टपकना। चूना। रसना। २. प्रवाहित होना। बहना। ३. गलना। पानी होना। ४. पसीना निकलना। स्वेदोद् गम। ५. रथ। स्यंदन (को०)। ६. शीघ्रतापूर्वक जाना। त्वरित गति (को०)। ७. एक प्रकार का चक्षुरोग। ८. चंद्रमा।

स्यंदक
संज्ञा पुं० [सं० स्पन्दक] तेंदु। तिंदुक वृक्ष।

स्यंदन (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्पन्दन] १. चूना। टपकना। रसना। क्षरण। स्त्राव। २. गलना। पानी हो जाना। ३. रथ। गाड़ी। ४. जाना। चलना। गमन। ५. तेजी से जाना या बहना। ६. युद्ध रथ। विशेषतः युद्ध में काम आनेवाला रथ। उ०—चढ़ि स्यंदन चंदन सीस दै बंदन करि द्विजवर पदहिं। नंदनँदनपुर तकतो भयो सुभट सुसर्मा धरि मदहि। —गोपाल (शब्द०)। ७. वायु। हवा। ८. गत उत्सार्पिणी के २३ वें अर्हत् का नाम। (जैन)। ९. तिनिश वृक्ष। तिनसुना। १०. जल। ११. चित्र। तसवीर। १२. घोड़ा। तुरंग। १३. एक प्रकार का मंत्र जिससे अस्त्र अभिमंत्रित किए जाते थे। १४. तेंदू। तिंदुक वृक्ष।

स्यंदन (२)
वि० १. जल्दी से जानेवाला। तीव्रगामी। द्रुतगामी। २. चुस्त। फुर्तीला। ३. प्रवाहित होने या बहनेवाला। गलनेवाला। ४. क्षरणशील। रसनेवाला [को०]।

स्यंदन तैल
संज्ञा पुं० [सं० स्यदन्न तैल] वैद्यक में एक प्रकार की तैलौषध जो भगंदर के लिये उपकारी मानी जाती है। विशेष—इसके बनाने की विधि इस प्रकार है —चीता, आक, किसौत, पाढ़, कठूमर, सफेद कनेर, थूहर, हरताल, कलिहारी, बच, सज्जी, और मालकँगनी, इन सबका कल्क, जो कुल मिलाकर एक सेर हो, ४ सेर तिल के तेल में पकाया जाता है। इसके लगाने से भगंदर सूख जाता है। इसे निस्यंदन तैल भी कहते हैं।

स्यंदनद्रुम
संज्ञा पुं० [सं० स्यन्दनद्रुम] १. तिनसुना। तिनिश वृक्ष। विशेष—इस वृक्ष की लकड़ी रथ के पहिए आदि बनाने के काम में आती थी; इसी से इसका नाम स्यंदनद्रुम पड़ा। २. तेंदू। तिंदूक।

स्यंदनध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं० स्यन्दनध्वनि] रथ के चलने की आवाज या ध्वनि [को०]।

स्यंदना
वि० स्त्री० [सं० स्यन्दना] दे० 'स्यंदन (२)'।

स्यंदनारुढ़
वि० [सं० स्यन्दनारुढ़] जो रथ पर सवार हो। रथा- रूढ़ [को०]।

स्यंदनारोह
संज्ञा पुं० [सं० स्यन्दनारोह] वह योद्धा जो रथ पर चढ़कर युद्ध करता हो। रथी।

स्यंदनाह्वय
संज्ञा पुं० [सं० स्यन्दनाह्वय] १. तिनसुना। तिनिश वृक्ष। २. तेंदू। तिंदुक वृक्ष।

स्यंदनि
संज्ञा पुं० [सं० स्यन्दनि] तिनसुना। तिनिश वृक्ष।

स्यंदनिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्यन्दनिका] १. छोटी नदी। नहर। २. लार की बूँद।

स्यंदनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्यन्दनी] १. थूक। लार। २. मूत्रनाड़ी।

स्यंदिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्यन्दिका] रामायण के अनुसार एक प्राचीन नदी का नाम।

स्यंदिता
वि० [सं० स्यन्दितृ] तीव्र गति से जानेवाला। शीघ्रगामी [को०]।

स्यदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्यन्दिनी] १. थूक। लार। २. वह गाय जिसने एक साथ दो बछड़ों को जन्म दिया हो।

स्यंदी
वि० [सं० स्यन्दिन्] [वि० स्त्री० स्यंदिनी] १. रिसनेवाला। क्षरणशील। २. वेग से गति करने या बहनेवाला [को०]।

स्यंदूर पु
संज्ञा पुं० [सं० सिन्दूर]दे० 'सिंदूर'। उ०—कंचु कसण ते खोलिया कूँ कूँ चंदन सीरह स्यंदूर। —बी० रासो, पृ० ९८।

स्यंदलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्यन्दोलिका] १. झूलने की क्रिया। झूलना। २. झुलना। हिंडोला (को०)।

स्यद
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षरण। स्यंदन। बहना। २. तेजी से चलना। तीव्र गति। वेग [को०]।

स्यन्न
वि० [सं०] १. रिसनेवाला। बहनेवाला। २. रिसा हुआ टपका हुआ [को०]।

स्यमंतक
संज्ञा पुं० [सं० स्यमंतक] पुराणोक्त एक प्रसिद्ध मणि। विशेष—भागवत पुराण में इस मणि की कथा इस प्रकार है —यह मणि सत्राजित् नामक यादव ने अपनी तरस्या से सूर्यनारायण को प्रसन्न कर प्राप्त की थी। यह सूर्य के समान प्रभाविशिष्ट थी। यह प्रति दिन आठ भार (१ भार=२० तुला=२००० पल) सोना देती थी। जिस स्थान या नगर में यह रहती थी, वहाँ रोग, शोक, दुःख, दारिद्रय आदि का नाम न रहता था। यादवों को कहने से श्रीकृष्ण ने राजा उग्रसेन के लिये यह मणि माँगी; पर सत्राजित् ने नहीं दी। सत्राजित् से उसके भाई प्रसेन ने यह मणि ले ली और कंठ में धारण कर आखेट करने गया। वहाँ एक सिंह ने उसे मार डाला। मणि लेकर सिंह एक गुफा में घुसा। गुफा में रीछों का राजा जांबवंत रहता था। मणि के प्रकाश से गुफा को प्रकाशमान् देखकर जांबवंत आ पहुँचा और उसने सिंह को मारकर मणि हस्तगत की। इधर श्रीकृष्ण पर यह कलंक लगा कि उन्होंने प्रसेन को मारकर मणि ले ली है। यह सुनकर खोजते हुए श्री कृष्ण जांबवंत की गुफा में पहुँचे और उसे परास्त कर उन्होंने मणि का उद्धार किया। जांबवंत ने श्रीकृष्ण को साक्षात् भगवान् जानकर अपनी कन्या जांबवंती उनको अर्पण की। श्रीकृष्ण ने लौटकर वही मणि सत्राजित् को दे दी। सत्राजित् इसलिये बहुत लज्जित और दुःखी हुआ कि मैने श्रीकृष्ण पर झूठा कलंक लगाया था। उसने भक्तिभाव से अपनी कन्या सत्यभामा और मणि श्रीकृष्ण को भेंट की। सत्यभामाको तो श्रीकृष्ण ने अंगीकार कर लिया, पर मणि लौटा- दी। इसके अनंतर सत्राजित् को मार शतधन्वा ने उक्त मणि ले ली। अंत में शतधन्वा श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया और मणि सत्यभामा को मिल गई। कहते हैं, श्रीकृष्ण ने भादों की चौथ का चंद्रमा देख था, इसी से उनपर मणि के हरण का झूठा कलंक लगा था। इसी से भादों महीने की चौथ का चंद्रमा लोग नहीं देखते।

स्यमंतपंचक
संज्ञा पुं० [सं० स्यमन्तपञ्चक] एक तीर्थ का नाम जहाँ भागवत के अनुसार, परशुराम ने पितरों का शोशित से तर्पण किया था।

स्यमिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चींटियों या दीमकों का बनाया हुआ मिट्टी का घर। बाँबी। वल्मीक। २. एक प्रकार का वृक्ष। ३. मेघ। बादल (को०)। ४. काल। समय (को०)।

स्यमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नील का पौधा। नीली। स्यमीका [को०]।

स्यमीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँबी। वल्मीक। २. समय। काल। ३. बादल। मेघ। ४. जल। जीवन। पानी। ५. एक प्राचीन राजवंश का नाम।

स्यमीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नील का पौधा। २. एक प्रकार का कीड़ा।

स्याँप
संज्ञा पुं० [हिं० साँप] दे० 'साँप'। उ०—सो एक दिन वा लरिकिना को स्याँप ने काटी। —दो सौ बावन०, भा० पृ० ६९।

स्यात्
अव्य० [सं०] कदाचित्। शायद।

स्याद्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] जैन दर्शन जिसमें एक वस्तु में नित्यत्व अनित्यत्व, संदृर्शत्व, विरुपत्व, सत्व, असत्व आदि अनेक विरुद्ध धर्मी का सापेक्ष स्वीकार किया जाता है और कहा जाता है कि स्यात् यह भी है स्यात् वह भी है आदि। अनेकांतवाद।

स्याद् वादिक
संज्ञा पुं० [सं०] स्याद्वाद के सिद्धांत का अनुयायी। स्याद्वादी। जैन [को०]।

स्याद्वादी
संज्ञा पुं० [सं० स्यादावदिन्] स्याद्वाद को माननेवाला। स्याद्वादिक [को०]।

स्यान पु
वि० [सं० सज्ञान] दे० 'स्याना'। उ०—(क) भे सुत सुता स्यान सुख पागे। —रघुराज (शब्द०)। (ख) विषम शर वेधत न स्यान के। देव (शब्द०)।

स्यानप पु
संज्ञा पुं० [हिं० सयानपन]दे० 'स्यानपन'।

स्यानपत
संज्ञा स्त्री० [हिं० स्याना+पत (प्रत्य०)] १. चतुरता। चतु- राई। २. चालाकी। धूर्तता।

स्यानपन
संज्ञा पुं० [हि० स्याना+पन (प्रत्य०)] १. चतुरता। बुद्धिमानी। होशियारी। २. चालाकी। धूर्तता।

स्याना (१)
वि० [सं० सज्ञान] [वि० स्त्री० स्यानी] १. चतुर। बुद्धिमान्। होशियार। जैसे,—(क) तुम स्याने होकर ऐसी बातें करते हो।(ख) वे बड़े स्याने हैं; उनके आगे तुम्हारी दाल नहीं गलने की। २. चालाक। काइयाँ। धूर्त। जैसे,—उसे तुम कम मत समझो; वह बड़ा स्याना हो। ३. जो अब बालक न हो। बड़ा। वयस्क। बालिग। जैसे,— (क) जब लड़का स्याना हो जाय, तब उसका ब्याह करना चाहिए।(ख) ज्यों ज्यों वह स्याना हो रहा है, त्यों त्यों बिगड़ रहा है।

स्याना (२)
संज्ञा पुं० १. बड़ा बुढ़ा। वृद्ध पुरुष। जैसे,— (क) स्यानों का कहना मानना चाहिए।(ख) पहले घर के स्यानों से पूछ लो; फिर यह काम करो। २. वह जो झाड़ फूँक करता हो। झाड़ फूँक करनेवाला। जंतर मंतर करनेवाला। ओझा। ३. गाँव का मुखिया। नंबरदार। ४. चिकित्सक। हकीम।

स्यानाचारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० स्याना+चार (प्रत्य०)] वह रसूम जो गाँव के मुखिया को मिलता है।

स्यानापन
संज्ञा पुं० [हिं० स्याना+पन (प्रत्य०)] १. स्याने होने की अवस्था। लड़कपन के बाद की अवस्था। बालिग होने की अवस्था। युवावस्था। जैसे,—उसका ब्याह स्यानेपन में हुआ था। २. चतुराई। चातुरी। होशियारी। ३. चालाकी। धूर्तता।

स्यापा
संज्ञा पुं० [फा० स्याहपोश] मरे हुए मनुष्य के शोक में कुछ काल तक घर की तथा नाते रिश्ते की स्त्रियों के प्रति दिन एकत्र होकर रोने और शोक मनाने की रीति। विशेष—मुसलमानों तथा पंजाब के हिंदुओं में यह चाल है कि धर पर स्त्रियाँ एकत्र होकर रोती पीटती हैं। वे दिन रात में एक हो बार भोजन करती हैं और घर के बाहर नहीं निकलतीं। इसी की स्यापा कहते हैं। मुहा०—स्यापा छाना, स्यापा पड़ना। (१) रोना चिल्लाना मचना। (२) बिलकुल उजाड़ या सुनसान होना। जैसे,—इस बाजार में तो सरेशाम हो स्यापा पड़ जाता है।

स्याबास पु
अव्य० [फा० शाबाश]दे० 'शाबाश'। उ०—बार बार कह मुख स्याबासू। कियो सत्य पितु विष्णु विसासू। —रघुराज (शब्द०)।

स्याम (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० श्याम]दे० श्याम। उ०—विधु अति प्यारी रोहिनी तामै जनमें स्याम। अति सन्निधि कै चंद्र के पुरन मन के काम। —व्यास (शब्द०)।

स्याम (२)
वि०दे० 'श्याम (२)'। उ०—नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन। करहु सी मम उर धाम सदा छीर सागर सयन।—तुलसी (शब्द०)।

स्याम (३)
संज्ञा पुं० भारतवर्ष के पूर्व के एक देश का नाम।

स्यामक पु
संज्ञा पुं० [सं० श्यामक]दे० 'श्यामक'। उ०—स्यामक नामक वीर चलेउ वसुदेव अनुज बढ़ि। —गोपाल (शब्द०)।

स्यामकरन पु
संज्ञा पुं० [सं० श्यामकर्ण]दे० 'श्यामकर्ण'। उ०— स्यामकरन अगनित हम होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जीते। —तुलसी (शब्द०)।

स्यामकर्म पु
संज्ञा पुं० [सं० श्यामकर्ण]दे० 'श्यामकर्ण'। उ०— कहूँ अरुन तन तुरँग बरूथा। कितहूँ स्यामकर्न के जुथा। — रामाश्वमेध (शब्द०)।

स्यामता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामता] दे० 'श्यामता'। उ०—मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई। —तुलसी (शब्द०)।

स्यामताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामता] दे० 'श्यामता'।

स्यामल पु
संज्ञा [सं० श्यामल]दे० 'श्यामल'। उ०—लता ओट तब सखिन लखाये। स्यामल गौर किसोर सुहाये। —तुलसी (शब्द०)।

स्यामलता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामलता]दे० 'श्यामलता' उ०— स्वच्छता सोहि रही इनमै उन अक मै श्यामलता सरसावत।—रसकुसुमाकर (शब्द०)

स्यामलिया पु
संज्ञा पुं० [सं० श्यामल, हिं० स्यामल+इया (प्रत्य०)] दे० 'साँवला'। उ०—रँगौ गयौ मन पट अरी स्यामलिया के रंग। कारी कामर पै चढ़ै अब क्यों दूजो रंग। —रसनिधि (शब्द०)।

स्यामा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामा] १. राधिका। वृषभानुजा। उ०— निज निज उर छू छू करी सौहैँ स्यामा स्याम। —भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० २२। २. एक पक्षी। दे० 'श्यामा'। उ०—स्यामा बाम सुतरु पर देखी। —मानस, १। ३०३। ३. सोलह वर्ष की तरुणी। षोडशी। उ०—दास पियनेह छिन छिन भाव बदलति स्यामा सविराग दीन मति कै मखाति है। —भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० ४३।

स्यार
संज्ञा पुं० [हिं० सिय़ार] [स्त्री० स्यारनी] सियार। गीदड़। शृगाल। उ०—स्यार कटकटै लगे सबन सों डटै लगे, अंग खंड तटै लगे सोनित को चटै लगे। —गोपाल (शब्द०)। यौ०—स्यारजन=श्रृगाल की तरह कायर व्यक्ति। स्यारपन। स्यार लाठी।

स्यारकाँटा
संज्ञा पुं० [स्यार+हिं० काँटा] सत्यानासी। स्वर्णक्षीरी।

स्यारपन पु
संज्ञा पुं० [हिं० सियार+पन (प्रत्य०)] सियार या गीदड़ का सा स्वभाव। श्रृगालप्रकृति। उ०—आयो सुनि कान्ह भूल्यो सकल हुस्यारपन, स्यारपन कंस को न कहत सिरातु है। —रस कुसुमाकर (शब्द०)।

स्यारलाठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० स्यार+लाठी] अमलतास।

स्यारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सियारी] १. सियार की मादा। सियारी। सियारिन। गीदड़ी। श्रृगाली। उ०—बोलहिं मारजार अरु स्यारी। हारहुगे मनु कहत पुकारी। —गोपाल (शब्द०)। २. कातिक अगहन में तैयार होनेवाली फसल। खरीफ की फसल।(बुंदेल०)।

स्याल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पत्नी का भाई। साला। श्याल। श्यालक। उ०—सुनत स्याल के वचन महीपति पढ़ै सुमंत तुरंता। भ्रातन सहित राम बुलवायो आये अति विलसंता। —रघुराज (शब्द०)।

स्याल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० स्यार] दे० 'सियार' या 'स्यार'। उ०— सरमा से कुत्ते, स्याल आदि उत्पन्न हो गए। —सत्यार्थ प्रकाश (शब्द०)।

स्यालकंटा
संज्ञा पुं० [स्याल+सं० कण्टक] दे० 'स्यारकाँटा'।

स्यालक
संज्ञा पुं० [सं०] पत्नी का भाई। साला।

स्याला (१)
संज्ञा पुं० [देश०] बहुतायत। अधिकता। ज्यादती।

स्याला (२)
संज्ञा पुं० [सं० शीतकाल] शीतकाल। जाड़े का मौसिम।

स्यालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्नी की छोटी बहन। साली।

स्यालिया
संज्ञा पुं० [हिं० सियार] सियार। गीदड़। श्रृगाल। उ०—श्रीकृष्ण के पुत्र ढंढण मुनि को स्यालिया ले गया।—सत्यार्थप्रकाश (शब्द०)।

स्याली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्नी की बहन। साली। श्यालिका।

स्यालू †
संज्ञा पुं० [हिं० सालू] स्त्रियों के ओढ़ने की चादर। ओढ़नी। उपरैनी।

स्यालो
संज्ञा पुं० [सं० स्यालक, हिं० साला] पत्नी का भाई। साला।(डिं०)।

स्यावज पु
संज्ञा पुं० [हिं० सावज] दे० 'सावज'।

स्याह (१)
वि० [फा०] काला। कृष्णा वर्ण का।

स्याह (२)
संज्ञा पुं० घोड़े की एक जाति। उ०—सिरगा समंदा स्याह सेलिया सूर सुरंगा। मुसकी पँचकल्यानि कुमेता केहरि रंगा।—सूदन (शब्द०)।

स्याह करवा गुलकट
संज्ञा पुं० [?] लकड़ी का बना हुआ एक प्रकार का ठप्पा जिससे कपड़ों पर बेल बूटे छापे जाते हैं।

स्याह काँटा
संज्ञा पुं० [फा० स्याह+हिं० काँटा] किंगरई नाम का कँटीला पौधा। आल। विशेष दे० 'किंगरई'।

स्याहगोसर
संज्ञा पुं० [फा० सियाहगोश]दे० 'सियाहगोश'। उ०— चीते सुरोझ साबर दवंग। गैडा गलीनु डोलत अभंग। अरु स्याहगोसर विशृंग अंग। रिच्छादि खैरिहा छुटे अंग। — सुदन (शब्द०)।

स्याह जबान
संज्ञा पुं० [फा० स्याह+जबान] वह हाथी या घोड़ा जिसकी जबान स्याह हो। विशेष—स्याह जबानवाले हाथी घोड़े ऐबी समझे जाते हैं।

स्याह जीरा
संज्ञा पुं० [फा० स्याह+हिं० जीरा] काला जीरा। विशेष दे० 'काला जीरा'।

स्याह तालू
संज्ञा पुं० [फा० स्याह+हिं० तालू] वह हाथी या घोड़ा जिसका तालू बिलकुल स्याह हो। विशेष दे० 'स्याह जवना'।

स्याहदिल
वि० [फा०] जो दिल का काला हो। खोटा। दुष्ट।

स्याह भूरा
वि० [फा० स्याह+हिं० भूरा] काला। (रंग)।

स्याहा
संज्ञा पुं० [फा० सियाह] दे० 'सियाहा'। उ०—प्रभु जू मै ऐसी अमल कमायो। साबिक जमा हुती जो जोरी मित जालिक तल लाया। वासिलबाकी स्याहा मुजमिल सब अधर्म की की। चित्रगुप्त होत सुस्तौफी शरण गहूँ मै काकी। — सूर (शब्द०)।

स्याही (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. एक प्रसिद्ध रंगीन तरल पदार्थ जो प्रायः काला होता है और जो लिखने, छापने आदि के काम मेंआता है। लिकने या छापने की रोशनाई। मसि। उ०—हरि जाय चेत चित सूखि स्याही झरि जाइ, करि जाय कागद कलम टाँक जरि जाय। —काव्यकलाधर (शब्द०)। २. कालापन। कालिमा। उ०—स्याही बारन तै गई मन तैं भई न दूर। समुझ चतुर चित बात यह रहत बिसूर बिसूर। — रसनिधि (शब्द०)। मुहा०—स्याही जाना=बालों का कालापन जाना। जवानी का बीतना। उ०—स्याही गई सफेदी आई दिल सफेद अजहूँ न हुआ। —कबीर (शब्द०)। ३. बदनामी का टीका। कलंक। कालिख। कालिमा। जैसे,—उसने अपने बाप दादों के नाम पर स्याही पोत दी। क्रि० प्र०—पोतना।—फेरना।—लगना।—लगाना।—लेपना। ४. कड़ु वे तेल के दीए में पारा हुआ एक प्रकार का काजल जिससे गोदना गोदते हैं। ५. अंधकार। अँधेरा। ६. दाग। दोष। ऐब।

स्याही (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शल्यकी, हिं० स्याही] साही। शल्यकी। सह। विशेषदे० 'साही'।

स्याहीचट
संज्ञा पुं० [फा० स्याही+हिं० चाटना] सोख्ता।

स्याहीचूस
संज्ञा पुं० [फा० स्याही+हिं० चूसना] सोख्ता। स्याही सोख। उ०—परंतु मिसल के बजाय स्याहीचुस पर दस्तखत कर बैठते। —वो दुनिया, पृ० ३४।

स्याहीदान
संज्ञा पुं० [फा०] दावात। मसिपात्र [को०]।

स्याहीसाज
संज्ञा पुं० [फा० स्याहीसाज] स्याही बनानेवाला कारीगर [को०]।

स्याहीसोख
संज्ञा पुं० [फा० स्याहीसोख्] सोख्ता।

स्युवक
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णुपुराण में वर्णित एक प्राचीन जनपद।

स्यू
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूत। सूत्र।

स्यूत (१)
वि० [सं०] १. बुना हुआ। २. सीया हुआ। सूत्रित। ३. विद्ध। बींधा या भिदा हुआ (को०)। ४. संश्लिष्ट। संपृक्त (को०)।

स्यूत (२)
संज्ञा पुं० मोटे कपड़े का थैला। थैली।

स्यूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीना। सीवन। २. बुनना। वयन। ३. थैला। ४. संतति। संतान। औलाद। ५. वंशावली। परिवार (को०)।

स्यूत्न
संज्ञा पुं० [सं०] आनंद। हर्ष [को०]।

स्यून
संज्ञा पुं० [सं०] १. किरण। रश्मि। २. सूर्य। ३. थैला।

स्यूना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किरण। मरीचि। रश्मि। २. कांची। मेखला। करधनी [को०]।

स्यूम
संज्ञा पुं० [सं०] १. किरण। रश्मि। २. जल। सलिल। ३. आनंद। सुख। हर्ष (को०)।

स्यूमक
संज्ञा पुं० [सं०] सुख। प्रसन्नता। हर्ष [को०]।

स्यूमरश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम।

स्यों
अव्य० [सं० सह] दे० 'स्यो'।

स्यो पु (१)
अव्य० [सं० सह] १. सह। सहित। उ०—(क) सुनि शिष कंत दंत तृन धरिकै स्यो परिवार सिधारो। —सूर (शब्द०)। (ख) राम कहयो उठि वाबरराई। राजसिरी सखि स्यो तिय पाई। —केशव (शब्द०)। विशेष दे० 'सौं'। २. पास। समीप। उ०—बिनती करै आइ हौं दिल्ली। चितवर कै मोहि स्यो है किल्ली। —जायसी (शब्द०)।

स्यो पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० शिव] शिव। उ०—स्यो सकती दोउ मुख जीवंत। —रामानंद०।

स्योत
संज्ञा पुं० [सं०] मोटे कपड़े का थैला। थैली।

स्योती
संज्ञा स्त्री० [सं० शतपत्नी, सेमन्ती, सेवती] दे० 'सेवती'।

स्योन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किरण। रश्मि। २. सूर्य। ३. थैला ४. सुख। आनंद। ५. सुखप्रद आसन (को०)।

स्योन (२)
वि० १. सुंदर। उत्फुल्ल। सुखद। ३. शुभद। मंगलदायक [को०]।

स्योनाक
संज्ञा पुं० [सं०] सोनापाढ़ा। श्योनाक वृक्ष।

स्योनाग
संज्ञा पुं० [सं० स्योनाक] सोनापाठा। श्योनाक वृक्ष।

स्योहार
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति।

स्यौ पु
संज्ञा पुं० [सं० शिव] दे० 'शिव'। उ०—न तहाँ ब्रह्मा स्यौ विसन। — रामानंद०, पृ० ८।

स्रंग पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्ग] दे० 'शृंग'। उ०—अँगिया झुनकारी खरी सित जारी की सेद कनी कुच दूपर लौं। मनो सिंधु मथे सुधा फेन बढय़ो सो चढय़ो गिरि स्रगनि ऊपर लौं। —सुंदरी सर्वस्व (शब्द०)।

स्रस
संज्ञा पुं० [सं०] १. पात। भ्रंश। पतन। २. सोना। शयन [को०]।

स्रसन (१)
वि० [सं०] १. मलभेदक। दस्त लानेवाला। दस्तावर। विरेचक। २. शिथिल, स्रस्त या ढीला करनेवाला।

स्रंसन (२)
संज्ञा पुं० १. वह औषध जो कोठे के वात आदि दोष तथा मल को नियत समय के पहले ही बलात् गुदा मार्ग से निकाल दे। मलभेदक औषध। दस्त लानेवाली दवा। विरेचन। २. अधः- पतन। भ्रंश। ३. कच्चे गर्भ का गिरना। गर्भपात। गर्भस्राव। ४. शिथिल या ढीला करना (को०)।

स्रंसित
वि० [सं०] १. गिराया हुआ। २. स्रस्त या ढीला किया हुआ।

स्रंसिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भावप्रकाश के अनुसार एक प्रकार का योनिरोग जिसमें प्रसंग के समय रगड़ लगने पर योनि बाहर निकल आती है और गर्भ नहीं ठहरता। प्रस्रंसिनी।

स्रंसिनीफल
संज्ञा पुं० [सं०] सिरस। शिरीष वृक्ष।

स्रंसी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्रंसिन्] १. पीलू वृक्ष। २. सुपारी का पेड़। पूग वृक्ष।

स्रंसी (२)
वि० १. गिरनीवाला। पतनशील। २. असमय में गिरनेवाला (गर्भ)। ३. इधर उधर हिलने या लटकनेवाला (को०)। ४. शिथिल या ढीला पड़नेवाला (को०)।

स्रक्
संज्ञा स्त्री०, पुं० [सं० स्रज्] १. फूलों की माला। पुष्पहार। २. सिर पर लपेटी या धारण की जानेवाली माला (को०)।३. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में चार नगण और एक सगण होता है तथा ६ और ९ पर यति होती है। उ०— नचहु सुखद यशमति सुत सहिता। लहहु जनम इह साखि सुख अमिता। —छंदप्रभाकर (शब्द०)। ४. एक प्रकार का वृक्ष। ५. ज्योतिष में एक प्रकार का योग।

स्रंक पु
संज्ञा स्त्री०, पुं० [सं० स्रक्] फूलों की माला। दे० 'स्रक्'—१। उ०—(क) स्रंक चंदन वनितादिक भोगा। देखि हरख विसमय बस लोगा। —तुलसी (शब्द०)। (ख) स्रक चंदन वनिता विनोद सुख यह जर जरन बितायो। —सूर (शब्द०)।

स्रक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोण। कोटि [को०]।

स्रग पु
संज्ञा स्त्री०, पुं० [सं० स्रज्>स्रग्] दे० 'स्रक्' —१। उ०— अँचइ पान सब काहू पाये। स्रग चंदन भूषित छबि छाये। — तुलसी (शब्द०)।

स्रगाल पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रृगाल] सियार। गीदड़।(डिं०)।

स्रगजीह्व
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

स्रग्ण
संज्ञा पुं० [सं०] स्रक् के रूप में लिखित मंत्र। मालाकार लिखा हुआ मंत्र [को०]।

स्रग्दाम
संज्ञा पुं० [सं० स्रग्दामन्] माला का सूत [को०]।

स्रग्धर
वि० [सं०] हार धारण करनेवाला। मालाधारी [को०]।

स्रग्धरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में (म र भ न य य य)/?/होता है और ७, ७, ७, पर यति होती है। उ०—मोरे भौने ययू यो कहहु सुत कहाँ तें लिये आवते हो। भा का आनंद आजी तुम फिरि फिरि कै माथ जो नावते हो। बोले माता ! विलोक्यो फिरत सह चमू वाग में स्नग्धरे ज्यों। काढ़ी माला रू मारे विपुल रिपुबली अश्वलो जीति केत्यों।—छंदप्रभाकर (शब्द०)। २. एक बौद्ध देवी का नाम।

स्रग्वान्
वि० [सं० स्रग्वत्] माला से युक्त। मालाधारी।

स्रग्विणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में चार रगण होते हैं। उ०—रार री राधिका स्याम सों क्यों करै। सीख मो मान ले मान काहे धरै। चित्त यें सुंदरी क्रोध मत आनिये। स्रग्विणी मूर्त्ति को कृष्ण की धारिये। — छंद प्रभाकर (शब्द०)। २. एक देवी का नाम।

स्रग्वी
वि० [सं० स्रग्विन्] [स्त्री० स्रग्विणी] माला से युक्त। मालाधारी।

स्रज्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्रक्'।

स्रज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक विश्वदेवा का नाम।

स्रज पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्रज्] माला। उ०—व्यरथसुमन स्रज पहिरी जैसे। समरथ राज रहित नृप तैसै। —पद्माकर (शब्द०)।

स्रजन पु
संज्ञा पुं० [सं० सृजन] दे० 'सृजन'।

स्रजना पु
क्रि० स० [सं० सृजन] दे० 'सृजना'। उ०—(क) बिस्व स्रजहु पालहु पुनि हरहू। त्रिकालज्ञ संतत सुख करहू। —रामाश्वमेध (शब्द०)। (ख) धरि सत रज तम रूप स्रजति पालति संघारति। —सूदन (शब्द०)।

स्रजा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्रज्र] फूलों की माला। उ०—पहनातीं वह ज्येष्ठ माँ स्रजा। —साकेत, पृ० ३४०।

स्रज्वा (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्रज्वन्] १. माला बनानेवाला। माली। मालाकार। २. रस्सा। रज्जु। ३. प्रजापति। ४. एक प्रकार का वस्त्र। (को०)।

स्रज्वा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] रस्सी। रज्जु।

स्रणिका
वि० [सं० शोणित] लाल। (डिं०)।

स्रद्धा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रद्धा] दे० 'श्रद्धा'। उ०—स्रद्धा। बिना धरम नहिं होई। बिनु गहि गंध कि पावइ कोई। — तुलसी (शब्द०)।

स्रदधू
संज्ञा स्त्री [सं०] अपना वायु का त्याग [को०]।

स्रपाटी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] पक्षी की चोंच। (डिं०)।

स्रम पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रम] दे० 'श्रम'। उ०—(क) स्वारथ सुकृत न स्रम बृथा देख बिहंग बिचार। बाज पराये पानि परि तू पंछी हि न मार। — बिहारी (शब्द०)। (ख) रामचरित सर विन अन्हवाये। सो स्रम जाइ न कोटि उपाये। — तुलसी (शब्द०)।

स्रमकन पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रमकण] पसीने की बूँद। उ०—अति मुचत स्रमकन मुखनि। —गीता० ७।१८।

स्रमबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० श्रमविन्दु] दे० 'स्रमकन'। उ०—स्रमर्बिदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी। —मानस, ६। ७०।

स्रमित पु
वि० [सं० श्रमित] दे० 'श्रमित'। उ०—व्रह्म धाम सिवपुर सब लोका। फिरे स्रमित व्याकुल भय सोका। —तुलसी (शब्द०)।

स्रवंती
संज्ञा स्त्री० [सं० स्रवन्ती] १. नदी। दरिया। २. प्रवाह। धारा ३. एक प्रकार की वनस्पति। ४. प्लीहा का क्षेत्र। यकृत् प्रदेश (को०)।

स्रव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहना। बहाव। प्रवाह। २. झरना। निर्झर। प्रस्रवण। ३. मूत्र। प्रस्राव। पेशाब। ४. क्षरण। स्राव (को०)।

स्रव (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण] दे० 'श्रवण'।

स्रवण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहना। बहाव। प्रवाह। २. कच्चे गर्भ का गिरना। गर्भपात। गर्भस्राव। ३. मूत। मूत्र। पेशाब। ४. पसीना। प्रस्वेद। घर्मबिंदु।

स्रवण पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण]दे० 'स्रवन'।

स्रवत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहता हुआ। चूता हुआ [को०]।

स्रवत्तोया
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुदंती। रुद्रवंती।

स्रवत्पाणिपादा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके हाथ पैर (पसीने से) गोले रहते हों [को०]।

स्रवद्गर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री या गाय आदि पशु जिसका गर्भ गिर गया हो।

स्रवद्मध्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह रत्न जिसमें से अपने आप जल का स्राव हो। २. चंद्रकांत मणि [को०]।

स्रवद्रंग
संज्ञा पुं० [सं० स्रवद्रङ्ग] १. मेला। प्रदर्शनी। नुमाइश। २. बाजार। हाट।

स्रवन पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण] सं० 'श्रवण'। उ०—(क) रामचरित- मानस एहि नामा। सुनत स्रवन पाइय बिस्रामा। —तुलसी (शब्द०)। (ख) स्रवन नाहिं, पै सब किछु सुना। हिया नागिं पै सब किछु गुना। —जायसी (शब्द०)।

स्रवना पु (१)
क्रि० अ० [सं० स्रवण] १. बहना। चूना। टपकना। उ०—(क) कुछ काल के पीछे हम उस ढेर को टीला बना देखते हैं और वहाँ से जल स्रवने लगता है। —श्रद्धाराम (शब्द०)। (ख) प्रेम बिवस जनु रामहिं पायौ। स्रवत भयहु पय उर जन छायौ। —पद्माकर (शब्द०) (ग) लज्जावश नहिं रहेउ सँभारा। स्रवत नयन मग ते जलधारा । —सबल० (शब्द०)। २. गिरना। छूट जाना। उ०—अति गर्व गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ तें। —तुलसी (शब्द०)।

स्रवना (२)
क्रि० स० १. बहाना। टपकाना उ०—(क) अमृत हू ते अमल अति गुन स्रवति निधि आनंद। सूर तीनों लोक परस्यो सुर असुर जस छंद। —सूर (शब्द०)। (ख) गोद राखि पुनि हृदय लगाये। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाये। —तुलसी (शब्द०)। २. गिराना। उ०—चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुररवनी। —तुलसी (शब्द०)।

स्रवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मरोड़फली। मुरहरी। मूर्व्वा। २. डोडी। जीवंती।

स्रष्टव्य
वि० [सं०] सृष्टि करने के योग्य। सृष्टि करने या रचने के लिये उपयुक्त। जिसकी सृष्टि की जा सके।

स्रष्टा (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्रष्ट्ट] १. सृष्टि या विश्व की रचना करनेवाले, ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव।

स्रष्टा (२)
वि० १. सृष्टि करनेवाला। निर्माता। रचयिता। टपकने या चूनेवाला। २. स्राव करनेवाला (को०)।

स्रष्टार
संज्ञा पुं० [सं०] सृष्टिकर्ता। दे० 'स्रष्टा' [को०]।

स्रष्ट्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'स्रष्ट्रत्व'।

स्रष्ट्रत्व
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्रष्टा का कार्य। सूष्टि करने या रचने का काम।

स्रसतर †
संज्ञा पुं० [सं० स्रस्तर] घास पात का बिछावन। (डिं०)।

स्रस्त
वि० [सं०] १. गिरा हुआ। पतित। च्युत। २. शिथिल। ढीलाढाला। ३. हिलता हुआ। ४. धँसा हुआ, जैसे—स्रस्त नेत्र। ५. अलग किया हुआ।

स्रस्तकर
वि० [सं०] १. जिसकी सूँड़ हिल रही हो २. जिसका हाथ हिल रहा हो [को०]।

स्रस्तगात्र
वि० [सं०] १. जिसके शिथिल अंग हों। ढीले अंगोंवाला २. मूर्छित। बेहोश [को०]।

स्रस्तनेत्र
वि० [सं०] धँसी हुई आँखोंवाला।

स्रस्तमुष्क
वि० [सं०] जिसका अंडकोश लटका हुआ हिल रहा हो [को०]।

स्रस्तस्कंध
वि० [सं० स्रस्तस्कन्ध] १. जिसके कंधे नम्र या झुक गए हों। नम्रीभूत। २. शरमिंदा। लज्जित।

स्रस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] बैठने का आसन।

स्रस्तहस्त
वि० [सं०] जिसके हाथों की पकड़ ढीली पड़ गई हो [को०]।

स्रस्तांग
वि० [सं० स्रस्ताङ्ग]दे० 'स्रस्तगात्र' [को०]।

स्रस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गिरना। पतन। २. लटकना या हिलना। ३. स्रस्त होना या ढीला पड़ना [को०]।

स्राक्
अव्य० [सं०] तुरत। शीघ्रता से [को०]।

स्राकिशमिशी
संज्ञा स्त्री० [फा०] हलके बैगनी रंग का एक प्रकार का छोटा अंगूर जो क्वेटा जिले में होता है और जिसको सुखाकर किशमिश बनाते हैं।

स्राद्ध पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रद्धा]दे० 'श्राद्ध'। उ०—किय स्राद्ध नंदि मुख बेदि वृद्धि। सब जात जर्म किन्नौसु सुद्धि। —ह० रासो, पृ० ३२।

स्राप पु
संज्ञा पुं० [सं० शाप]दे० 'शाप'। उ०— विप्र स्राप से दूनउँ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई। —तुलसी (शब्द०)।

स्रापित पु
वि० [सं० शापित]दे० 'शापित'। उ०—(क) नृप त्रिशंकु गुरु स्रापित ये है। कहहु जाइ किमि स्वर्ग सदेहै। — पद्माकर (शब्द०)।(ख) तू सारे ढोर और वन के पशु से भी अधिक स्रापित होगा। —सत्यार्थ० (शब्द०)।

स्राम
वि० [सं०] जिसकी नाक या आँखों से बराबर पानी गिरता हो। बीमार। रुग्ण [को०]।

स्राम्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीमारी। रुग्णता। दौर्बल्य। २. खंजता। गति या चलने में विकलता। लँगड़ापन [को०]।

स्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. (खून, मवाद आदि का) बहना। झरना। क्षरण। २. कच्चे गर्भ का गिरना। गर्भपात। गर्भस्राव। ३. वह जो बहकर, रसकर या चूकर निकला हो। ४. निर्यास। रस।

स्रावक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्राविका] बहाने, चुआने या टपकानेवाला। स्राव करानेवाला।

स्रावक (३)
संज्ञा पुं० काली मिर्च। गोल मिर्च।

स्रावक पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रावक]दे० 'श्रावक'। उ०—राम ह्वै दसास्यबंस कान्ह ह्वै सँहारय़ो कंस बौध ह्वै कै कीनो निज स्रावक प्रकास है। —भिखारी० ग्रं० भा० १, पृ० ८९।

स्रावकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] पदार्थों का वह धर्म जिसके कारण कोई अन्य पदार्थ उनमें से होकर निकल या रस जाता है। जैसे,— बलुए पत्थर में से पानी जो रस रसकर निकल जाता है, वह उसके स्रावकत्व गुण के कारण ही।

स्रावण
वि० [सं०]दे० 'स्रावक'।

स्रावणी
संज्ञा स्त्री [सं०] १. ऋद्धि नामक अष्टवर्गीय औषध।

स्रावणी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षावणी]दे० 'श्रावणी'।

स्रावनी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रावणी] दे० 'श्रावणी'।

स्रावित
वि [पुं०] बहा, रसा या चुआकर निकाला हुआ। जिसका स्राव कराया गया हो।

स्रावी
वि० [सं० स्राविन्] बहानेवाला। चुआनेवाला। रसानेवाला। स्राव करानेवाला। क्षरण करानेवाला।

स्राव्य
वि० [सं०] बहाने योग्य। क्षरण के योग्य।

स्रिंग पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्ग] दे० 'शृंग'। उ०—सत सक मारे दस भाला। गिरि स्रिगन्ह जनु प्रविसहिं ब्याला। —तुलसी (शब्द०)।

स्रिजन पु
संज्ञा पुं० [सं० सृजन]दे० 'सृजन'। उ०—विस्व स्रिजन आदिक तुम करहू। मोहि जन जानि दुसह दुख हरहू।—रामाश्वमेध (शब्द०)।

स्रिय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्री]दे० 'श्रिय'। उ०—सुख मकरंद भरे स्रिय मूला। निरखि राम मन भँवर न भूला। —तुलसी (शब्द०)।

स्रीखंड पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रीखण्ड] दे० 'श्रीखंड। उ०—स्रीखंड मेद केसर उसीर। तिहि परसि ताप मिट्टत सरीर। —ह० रासी, पृ० १९।

स्रुक्
संज्ञा स्त्री० [सं०] खदिर या पलास की लकड़ी की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। स्रुवा।

स्रुक्प्रणालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्रुवा की नाली जिससे घृताहुति दी जाती है। [को०]।

स्रुग्जिह्व
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०]।

स्रुग्दारु
सं० पुं० [सं०] कंटाई। विकंकत वृक्ष।

स्रुघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर का नाम जो बृहत्संहिता के अनुसार हस्तिनापुर के उत्तर में स्थित था।

स्रुघ्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सज्जी [को०]।

स्रुघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सज्जी मिट्टी। सर्जिका क्षार।

स्रुच्
संज्ञा स्त्री०[सं०]दे० 'स्रुक्'।

स्रुत (१)
वि० [सं०] १. बहा हुआ। चुआ हुआ। क्षरित। २. गत।

स्रुत पु (२)
वि० [सं० श्रुत]दे० 'श्रुत'। उ०—तदपि जथा स्रुत कहउ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी। —तुलसी (शब्द०)।

स्रुतजल
वि० [सं०] जिसमें से जल रसकर बह गया हो।

स्रुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिंगपत्री। हिंगुपत्री।

स्रुति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहाव। क्षरण। २. निर्यास (को०)। ३. स्रोत। प्रवाह (को०)। ४. वेदी के चारों ओर खींची जानेवाली रेखा (को०)। ५. पथ। राह। मार्ग। सड़क (को०)।

स्रुति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रुति] दे० 'श्रुनि'। उ०—एहि मह रघुपति नाम उदारा। अति पावन स्रुति सारा। —तुलसी (शब्द०)।

स्रुतिकीरति, सुतिकीर्ति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रुतिकीर्ति]दे० 'श्रुतिकीर्ति'। उ०—मांडवी स्रुतिकीर्ति उर्मिला कुआँरि लई हँकारि कै।—तुलसी (शब्द०)।

स्रुतिमाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रुति + मस्तक] विष्णु। उ०—छीरसिंधु गवने मुनिनाथ। जहँ बस श्रीनिवास स्रुतिमाथा।—तुलसी (शब्द०)।

स्रुव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्रुवा'।

स्रुवतरु
संज्ञा पुं० [सं०] विकंकत वृक्ष।

स्रुवदंड
संज्ञा पुं० [सं० स्तुवदण्ड] स्तुवा का दंड या हत्था।

स्रुवद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्रुवतरु'।

स्रुवप्रग्रहण
वि० [सं०] जो सब कुछ अपने लिये रख ले। सब कुछ स्वयं ले लेनेवाला [को०]।

स्रुवहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।

स्तुवहोम
संज्ञा पुं० [सं०] स्रुवा द्वारा किया हुआ हवन या आहुति।

स्रुवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। सुरवा। उ०— चाप स्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानू।— तुलसी (शब्द०)। विशेष—इस अर्थ में हिंदी में यह शब्द प्रायः पुंल्लिग बोला जाता है। २. झरना। निर्झर (को०)। ३. सलई। शल्लकी वृक्ष। ४. मरोड़- फली। मूर्वा।

स्रुवा वृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] विकंकत वृक्ष [को०]।

स्रू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। स्रुव। स्रुवा। सुरवा। २. झरना। निर्झर।

स्रेनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रेणी] दे० 'श्रेणी'। उ०—देव दनुज किन्नर नर स्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी।—तुलसी (शब्द०)।

स्रैय पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रेय] दे० 'श्रेय'। उ०—जदपि देह वल्लभ सबहिं, चहत जासु जग स्रेय। तदपि धरम धुर धरन कौ, लहि कछु अहै अदेय।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४९१।

स्रैनी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रेणी] दे० 'श्रेणी'। उ०—बन्यो हे जलज स्रैनी खेला छुटी है रंग की धार।—नंद० ग्रं०, पृ० ३९५।

स्रोत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] झरना। सोता। जलप्रवाह। दे० 'स्रोत' (२)।

स्रोत (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्रोतस्] १. पानी का बहाव या झरना। जलप्रवाह। धारा। २. नदी। ३. वैद्यक के अनुसार शरीरस्थ छिद्र या मार्ग जो पुरुषों में प्रधानत ९ और स्रियों में ११ माने गए हैं। इनके द्वारा प्राण, अन्न, जल, रस, रक्त, मांस, मेद, मल, मूत्र शुक्र और आर्तव का शरीर में संचार होना माना जाता है। ४. वंशपरंपरा। कुलधारा। ५. ऊर्मि। तरंग। लहर (को०)। ६. जल (को०)। ७. ज्ञानेंद्रिय (को०)। ८. हाथी की सूँड़ (को०)। ९. तीव्र गति या वेग (को०)। १०. पशुओं के शरीर का छेद (को०)। ११. गति। गमन (को०)।

स्रोतआपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्ध शास्त्र के अनुसार निर्वाण साधना की प्रथम अवस्था जिसमें सांसारिक बंधन शिथिल होने लगते हैं।

स्रोतआपन्न
वि० [सं०] जो निर्वाण साधना की प्रथम अवस्था पर पहुँचा हो।

स्रोतईश
संज्ञा पुं० [सं०] नदियों का स्वामी, समुद्र। सागर।

स्रोतनदीभव
संज्ञा पुं० [सं०] यमुना में उत्पन्न अंजन। सुरमा [को०]।

स्रोतपत
संज्ञा पुं० [सं० स्रोत + पति] समुद्र। (डिं०)।

स्रोतस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का एक नाम। २. चोर। चौर।

स्रोतस्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी।

स्रोतस्विनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी।

स्ञोतंजान
संज्ञा पुं० [सं० स्रोताञ्जन] दे० 'स्रोतोंज्जन'।

स्रोता पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रोता] दे० 'श्रोता'। उ०—ते स्रोता बकता समसीला। समदरसी जानहिं हरिलीला।—तुलसी (शब्द०)।

स्रोतापत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्रोतआपत्ति'।

स्रोतोंज्जन
संज्ञा पुं० [सं० स्रोतोञ्जन] आँखों में लगाने का एक प्रकार का सुरमा।

स्रोतोनुगत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि। (बौद्ध)।

स्रोतोज
संज्ञा पुं० [सं०] आँखों में लगाने का सुरमा।

स्रोतोजव
संज्ञा पुं० [सं०] स्रोत का वेग। धारा का बहाव।

स्रोतोद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] सुरमा।

स्रोतोनदीभव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्रोतनदीभव'।

स्रोतोवह
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी।

स्रोतोवहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी।

स्रोन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण]' दे० 'श्रवण'। उ०—जीह कहै बतियाँई कियो करौं स्रोन कहै, उनहीं की सुनीजै।— रसकुसुमाकर (शब्द०)।

स्रोन पु (२)
संज्ञा पुं० [?] रक्त। शोणित।

स्रोनित पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रोणित] रक्त। दे० 'शोणित'। उ०—मारि तरवारि प्रान पर के निकारि लेत, भल्ल डारि भरै भूमि स्रोनित के ठोप सों।—गोपाल (शब्द०)।

स्रौग् मत
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

स्रौघ्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सज्जी। सर्जिका क्षार।

स्रौत
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

स्रौतिक
संज्ञा पुं० [सं०] सीप। शुक्ति।

स्रौतोवह
वि० [सं०] धारा या नदी संबंधी [को०]।

स्रौन (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण] श्रवण। कान। उ०—पूरन न होत स्रौन वाकी सुन बात ते।—नट०, पृ० ६२।

स्रौन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शोणित। रक्त।

स्रौव
वि० [सं०] १. यज्ञ संबंधी। २. स्रुवा का। स्रुवा संबंधी।

स्लिप
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. परचा। चिट। २. कागज का लंबा टुकड़ा जिसपर कंपोज करने के लिये कुछ लिखा जाय। जैसे,—उनकी तीन स्लिपों में एक पेज मैटर निकलता है। (कंपोजीटर)।

स्लीपर (१)
संज्ञा पुं० [अं० स्लिपर] एक प्रकार की जूती जो एड़ी की ओर से खुली होती है। चट्टी। यौ०—फुल स्लीपर = स्लीपर के आकार का एक प्रकार का जूता जो पीछे एड़ी की ओर भी साधारण जूतों की भाँति बंद रहता है।

स्लीपर (२)
संज्ञा पुं० [अं०] १. लकड़ी का वह चौपहल लंबा टुकड़ा या धरन जो प्रायः रेल की पटरियों के नीचे बिछी रहती है। २. रेल का वह डब्बा जिसमें अतिरिक्त शुल्क देने पर यात्रियों के शयन करने की व्यवस्था रहती है। रेलवे विभाग द्वारा उसका शायिका या शयनयान नामकरण किया गया है (आधुनिक)।

स्लेज
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार की बिना पहिए की गाड़ी जो बर्फ पर घसिटती हुई चलती है।

स्लेट
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. एक प्रकार के चिकने पत्थर की चौकोर चौरस पतली पटरी जिसपर प्रारंभिक श्रेणियों के विद्यार्थी अक्षर और अंक लिखकर अभ्यास करते हैं। जो हाथ या कपड़े से पोंछने अथवा पानी से धोने से मिट जाता है। विशेष—आजकल टीन पर भी समेट पत्थर के चूर्णं को जमा करके बच्चों के लिखने की पूर्बोक्त पटरी बनाई जाती है। २. एक विशेष प्रकार का पत्थर जिससे उक्त पटरी बनाई जाती है।

स्लेसम अंग
संज्ञा पुं० [सं० श्लेष्मा + अङ्ग] लसूड़े का वृक्ष। (डि०)।

स्लो (१)
वि० [अं०] १. धीमी चाल से चलनेवाला। मंदगति। जैसे,— स्लो पैसेंजर। २. सुस्त। काहिल।

स्लो (२)
संज्ञा पुं० घड़ी की चाल का मंद या धीमा होना।

स्लोथ
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का बहुत सुस्त जानवर। विशेष—यह दक्षिण अमेरिका के जंगलों में पाया जाता है। इसके दाँत बहुत कम होते हैं और प्रायः कटीले नहीं होते। किसी किसी के तो बिल्कुल दाँत ही नहीं होते। यह पेड़ों की पत्तियाँ खाकर गुजारा करता है। जब तक पेड़ की सब पत्तियाँ नहीं खा लेता, तब तक उस पेड़ से नहीं उतरता। यह हिंसक जंतु नहीं है। पर यदि कोई इसपर आक्रमण करे तो यह अपने नाखूनों से अपनी रक्षा कर सकता है।

स्वंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वङ्ग] १. आलिंगन। २. वह जिसका शरीर सुंदर हो। अच्छे अंगोंवाला [को०]।

स्वंजन
संज्ञा पुं० [सं० स्वञ्जन] आलिंगन। भेंटना [को०]।

स्वंत
वि० [सं० स्व] १. जिसका अंत या परिणाम शुभद हो। २. शुभ। मांगलिक [को०]।

स्वः
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग।

स्वः पति
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग का स्वामी-इंद्र [को०]।

स्वः पथ
संज्ञा पुं० [सं०] (स्वर्ग का मार्ग) मृत्यु।

स्वः पाल
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग का रक्षण करनेवाला।

स्वः पृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] कई सामों के काम।

स्वः साद
संज्ञा पुं० [सं०] देवता, जिनका स्वर्लोक निवास है।

स्वः सरिता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वःसरिता] गंगा।

स्वःसिंधु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वःसिन्धु] स्वर्नदी। गंगा [को०]।

स्वःसुंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वःसुन्दरी] अप्सरा।

स्वःस्यंदन
संज्ञा पुं० [सं० स्वःस्यन्दन] इंद्ररथ [को०]।

स्वःस्रवंती
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वःस्रवन्ती] गंगा [को०]।

स्व (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वः] १. अपना आप। निज। आत्म। २. विष्णु का एक नाम। ३. भाई बंधु। गोती। संबंधी। ज्ञाति। ४. धन। दौलत। जैसे,—निःस्व = निर्धन। ५. आत्मा। ६. गणित में धन राशि (को०)। ७. अहं (को०)। ८. प्रकृति। स्वभाव (को०)।

स्व (२)
वि० १. अपना। निज का। जैसे,—स्वदेश, स्वराज्य, स्वजाति। उ०—वृंद वृंद गोपिका, चलीं स्वसाज साजिकर मद मंद हास हैं, लजावै इंस गति को।—लल्लू० (शब्द०)। २. प्राकृतिक। नैसर्गिक (को०)। ३. जो अपने कुटुंब या कबीले का हो (को०)। यौ०—स्वकार्य। स्वकाल = ठीक समय। स्वगुप्त।

स्वकंपन
संज्ञा पुं० [सं० स्वकम्पन] वायु। हवा।

स्वकंबला
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वकम्बला] मार्कंडेयपुराण में वर्णित एक नदी का नाम।

स्वक (१)
वि० [सं०] स्वयं का। अपना। व्यक्तिगत। निजी [को०]।

स्वक (२)
संज्ञा पुं० १. संगी। साथी। दोस्त। मित्र। २. निजी धन- दौलत [को०]।

स्वकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौटिल्य के अनुसार किसी वस्तु पर अपना स्वत्व जताना। दावा करना। २. किसी स्त्री को अपना बनाना। विवाह करना।

स्वकरण भाव
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वस्तु पर बिना अपना स्वत्व सिद्ध किए अधिकार करना। बिना हक साबित किए कब्जा करना।

स्वकरण विशुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदार्थ जिसपर किसी व्यक्ति का स्वत्व न हो।

स्वकर्म
संज्ञा पुं० [सं० स्वकर्मन्] अपना कर्तव्य। अपना काम [को०]। यौ०—स्वकर्मकृत् = अपना काम करनेवाला। वह जो स्वतंत्र रूप से अपना काम करता हो।

स्वकर्मा
वि० [सं० स्वकर्मन्] अपना कर्तव्य पूर्ण करनेवाला [को०]।

स्वकर्मी
वि० [सं० स्वकर्मिन्] केवल अपने ही काम से मतलब रखनेवाला। स्वार्थी। खुदगरज।

स्वकामी
वि० [सं० स्वकामिन्] १. अपना स्वार्थ देखनेवाला। मत- लबी। २. अपने इन्छानुसार आचरण करनेवाला [को०]।

स्वकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] अपना या निज का काम। व्यक्तिगत काम। निजी काम।

स्वकाल
संज्ञा पुं० [सं०] ठीक समय। उपयुक्त काल।

स्वकिया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वकीया] दे० 'स्वकीया'। उ०—हे सखि औरन के जे पिया। बात सुनहिं स्वकिया परिकिया।—नंद० ग्रं०, पृ० १५७।

स्वकीय
वि० [सं०] १. अपना। निज का। २. अपने कुटुंब या गोत्र का।

स्वकीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपनी विवाहिता स्त्री। पत्नी। २. साहित्य में नायिका के दो प्रधान भेदों में से एक। वह नायिका या स्त्री जो अपने ही पति में अनुरराग रखनेवाली हो। विशेष—स्वकीया दो प्रकार की कही गई हैं—१. ज्येष्ठा और २. कनिष्ठा। अवस्थानुसार इनके तीन और भेद किए गए हैं— मुग्धा, मध्या और प्रौढ़ा। (विशेष दे० ये शब्द)।

स्वकुल
संज्ञा पुं० [सं०] अपना कुल, खानदान या वंश।

स्वकुलक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] मत्स्य। मछली (जो अपने वंश का आप ही नाश करती है)।

स्वकुल्य
वि० [सं०] अपने खानदान या वंश का [को०]।

स्वकृतंभुक्
वि० [सं० स्वकृतम्भुज] अपने किए को, प्रारब्ध को भोगने वाला [को०]।

स्वकृत
संज्ञा पुं० [सं०] अपना कर्तव्य। अपना काम [को०]।

स्वक्त
वि० [सं०] अच्छी तरह लिप्त [को०]।

स्वक्ष पु (१)
वि० [सं० स्वच्छ] दे० 'स्वच्छ'। उ०—अति स्वक्ष सुंदर हेम फटिक की शिला गसि कै गली।—गुमान (शब्द०)।

स्वक्ष (२)
वि० [सं०] १. सुंदर आँखोंवाला। २. जिसका अक्ष या धुरा। सुंदर हो। ३. जिसके अवयव पुष्ट एवं पूर्ण हों [को०]।

स्वक्ष (३)
संज्ञा पुं० १. एक प्राचीन जाति। २. वह रथ जिसका धुरा अच्छा हो [को०]।

स्वक्षत्र
वि० [सं०] १. जिसमें सहजात या प्राकृतिक शक्ति हो। २. जो स्वाधीन हो। [को०]।

स्वगत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वगतकथन'।

स्वगत (२)
वि० १. अपने आपमें या अपने प्रति कहा हुआ। २. निजी। व्यक्तिगत। ३. आत्मीय। अपना।

स्वगत (३)
क्रि० वि० आप ही आप (कहना या बोलना)। इस प्रकार (कहना या वोलना) जिसमें और कोई न सुन सके। अपने आपसे।

स्वगतकथन
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक में प्रात्र का आप ही आप बोलना। विशेष—जिस समय रंगमंच पर कई पात्र होते हैं, उस समय यदि उनमें से कोई पात्र अन्य पात्रों से छिपाकर इस प्रकार कोई बात कहता है, मानों वह किसी को सुनाना नहीं चाहता और न कोई उसकी बात सुनता ही है, तो ऐसे कथन को स्वगत, स्वगतभाषण, अश्राव्य या आत्मगत कहते हैं।

स्वगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का छंद [को०]।

स्वगुप्त
वि० [पुं०] आत्मरक्षित [को०]।

स्वगुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कौंछ। केवाँछ। २. लजालू। लज्जालू।

स्वगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलिकार नामक पक्षी। २. अपना गृह। अपना घर (को०)।

स्वगोचर
वि० [सं०] अपना विषय [को०]।

स्वगोप
वि० [सं०] आत्मरक्षित [को०]।

स्वग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] बालकों को होनेवाला एक प्रकार का रोग।

स्वचर
वि० [सं०] अपने आप चलनेवाला [को०]।

स्वचित्तकारु
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह शिल्पी जो किसी श्रेणी के अंतर्गत होते हुए भी स्वतंत्र रूप से काम करता हो। स्वतंत्र कारीगर। (कौ०)।

स्वच्छंद (१)
वि० [सं० स्वच्छन्द] १. जो किसी दूसरे के नियंत्रण में न हो और अपनी ही इन्छा के अनुसार सब कार्य करे। स्वाधीन। स्वतंत्र। आजाद। उ०—(क) सबहि भाँति अधिकार लहि अभिमानी नृप चंद। नहिं सहिहै अपमान सब, राजा होइ स्वच्छंद।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। (ख) सुख सों ऐसो मोद रमै रीतें मन माहीं। विघ्न, ईरषा, अवधि रहित स्वच्छंद सदाहीं।—श्रीधर (शब्द०)। (ग) "कुतुबुद्दीन ऐबक के समय तक यह स्वच्छंद राज्य था।—बालकृष्ण (शब्द०)। २. अपने इच्छ नुसार चलनेवाला। मनमाना काम करनेवाला। निरंकुश। ३. (जंगलों आदि में) अपने आपसे होनेवाला। जंगली (पौधा या वनस्पति)।

स्वच्छंद (२)
संज्ञा पुं० १. स्कंद का एक नाम। २. अपना मनोरथ। अपनी पसंद (को०)।

स्वच्छंद (३)
क्रि० वि० मनमाना। बेधड़क। निर्द्वद। स्वतंत्रतापूर्वक। उ०—(क) बालक रूप ह्वै के दसरथसुत करत केलि स्वच्छंद।—सूर (शब्द०)। (ख) इस पर्वत की रम्य जटी में मैं स्वच्छंद विचरता हूँ।—श्रीधर (शब्द)।

स्वच्छंदचर
वि० [सं० स्वच्छन्दचर] आजाद। स्वतंत्र [को०]।

स्वच्छंदचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वच्छन्दचारिणी] वारस्त्री। गणिका। वेश्या। रंडी।

स्वच्छंदचारी
वि० [सं० स्वच्छन्दचारिन्] [वि० स्त्री० स्वच्छंद- चारिणी] अपने इच्छानुसार चलनेवाला। स्वेच्छाचारी। मनमौजी।

स्वच्छंदता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वच्छन्दता] स्वच्छंद होने का भाव। स्वतंत्रता। आजादी।

स्वच्छंदतावाद
संज्ञा पुं० [सं० स्वच्छन्दता + वाद (अं० रोमांटिसिज्म)] नवीनता, वैयाक्तिकता, असाधारणता, भव्यता आदि के चित्रण को काव्य का प्रधान लक्षण मानने का सिद्धांत जिसके अनुसार रचना में परंपरा और नियम का विरोध तथा अस्पष्टता को प्रश्रय दिया जाता है। उ०—काव्य की पुरानी बँधी रूढ़ियों को हटाकर केवल मुक्त कल्पना और भावों की अप्रतिबद्ध गति को लेकर योरप में स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) का प्रचार हुआ।—चिंतामणि, भा० २, पृ० १०८।

स्वच्छंदतावादी
वि० [सं० स्वच्छन्दता + वादिन्] स्वच्छंदतावाद का सिद्धांत माननेवाला।

स्वच्छंदनायक
संज्ञा पुं० [सं० स्वच्छंदनायक] सन्निपात ज्वर की एक औषध। विशेष—इसके बनाने की विधि इस प्रकार है—पारा, गंधक, लोहा और चाँदी बराबर बराबर लेकर हुड़हुड़, सम्हालू तुलसी, सफेद चीता, लाल चीता, अदरक, भाँग, हर्रे, मकोय और पंचपित्त में भावना दे, मूषा में बंद कर बालुका यंत्र में पाक करते हैं। इसकी मात्रा एक माशे की कही गई है।

स्वच्छंदभैरव
संज्ञा पुं० [सं० स्वच्छन्दभैरव] उग्र सन्निपात ज्वर की एक औषध का नाम। विशेष—इसके बनाने की विधि इस प्रकार है—पारा १ तोला, गंधक १ तोला, दोनों की कज्जली कर उसमें शोधित स्वर्णमाक्षिक १ तोला मिलाते हैं; फिर क्रम से रुद्रजटा, सम्हालू, हर्रे, आँवला और विषकंठाली के रस (एक एक तोला) में घोटते हैं। इसकी मूँग के बराबर गोली बनती है।

स्वच्छ (१)
वि० [सं०] १. जिसमें किसी प्रकार की मैल या गंदगी आदि न हो। निर्मल। साफ। २. उज्वल। शुभ्र। ३. स्पष्ट। साफ। ४. स्वस्थ। निरोग। ५. शुद्ध। पवित्र। ६. सुंदरता से युक्त। सौंदर्यपूर्ण। ७. निष्कपट।

स्वच्छ (२)
संज्ञा पुं० १. बिल्लौर। स्फटिक। २. बेर। बदरी वृक्ष। ३. मोती। मुक्ता। ४. अभ्रक। अबरक। ५. सोनामाखी। स्वर्णमाक्षिक। ६. रूपामाखी। रौप्यमाक्षिक। ७. विमल नामक उपधातु। शुद्ध खटिका या खड़िया। ८. सोने और चाँदी का मिश्रण।

स्वच्छक
वि० [सं०] अत्यंत निर्मल। अत्यंत स्वच्छ या साफ (को०)।

स्वच्छता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वच्छ होने का भाव। निर्मलता। विशुद्घता। सफाई।

स्वच्छत्व
संज्ञा पुं० [दे०] स० 'स्वच्छता'।

स्वच्छद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेतवर्ण की शरीरधातु (को०)।

स्वच्छधातुक
संज्ञा पुं० [सं०] सोने तथा चाँदी का मिश्रण (को०)।

स्वच्छना पु
क्रि० सं० [सं० स्वच्छ + हिं० ना (प्रत्य०)] निर्मल करना। शुद्ध करना। पवित्र करना। साफ करना। उ०— दंडक बन मुनि जात, भोगी सुनि दिय शाप तिन। गिरि बालू दिन सात, जरेउ देश सो स्वच्छिये।—विश्राम (शब्द०)।

स्वच्छपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] अबरक। अभ्रक।

स्वच्छभाव
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत स्वच्छ होना। अत्यंत निर्मल वा पारदर्शी होना।

स्वच्छमणि
संज्ञा पुं० [सं०] बिल्लौर। स्फटिक।

स्वच्छवालुक
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध खटिका या खड़िया। दे० 'स्वच्छवालुका' (को०)।

स्वच्छवालुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विमल नामक उपधातु।

स्वच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेतदूर्वा। सफेद दूब।

स्वच्छी पु
वि० [सं० स्वच्छ] दे० 'स्वच्छ'। उ०—एक बृक्ष में सम द्वै पक्षी। फल भोगै इक दूजो स्वच्छी।—विचारसागर (शब्द०)।

स्वज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुत्र। बेटा। २. खून। रक्त। ३. पसीना। स्वेद। ४. एक प्रकार का विषैला साँप (को०)।

स्वज (२)
वि० १. अपने से उत्पन्न। २. प्राकृतिक। स्वाभाविक (को०)।

स्वजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपने परिवार के लोग। आत्मीय जन। २. सगे संबंधी। रिश्तेदार।

स्वजनगंधी
वि० [सं० स्वजनगन्धिन्] जिससे दूर की रिश्तेदारी या संबंध हो [को०]।

स्वजनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वजन होने का भाव। आत्मीयता। २. नातेदारी। रिश्तेदारी।

स्वजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वजन] सखी। उ०—स्वजनि, क्या कहा—'वे यहाँ कहाँ ?' तदपि दीखते हैं जहाँ तहाँ ?-साकेत, पृ० ३१३।

स्वजन्मा
वि० [सं० स्वजन्मन्] जो अपने आप उत्पन्न हुआ हो। अपने आपसे उत्पन्न (ईश्वर आदि)। उ०—तुम अज्ञात सर्वज्ञ हो, तुम स्वजन्मा सबके कर्ता हो, तुम अनीश सबके ईश हो, एक सर्वरूप हो।-लक्ष्मण (शब्द०)।

स्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या। पुत्री। बेटी।

स्वजात (१)
वि० [सं०] अपने से उत्पन्न।

स्वजात (२)
संज्ञा पुं० पुत्र। बेटा।

स्वजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपनी जाति। अपनी कौम। जैसे,— उन्होंने अपनी कन्या का विवाह स्वजाति में न करके दूसरी जाति में किया।

स्वजातिद्विष्
संज्ञा पुं० [सं०] (अपनी जाति से द्वेष करनेवाला) कुत्ता।

स्वजातीय
वि० [सं०] १. अपनी जाति का। अपने वर्ग का। जैसे,— अपने स्वजातियों के साथ खान पान करने में कोई हानि नहीं है। २. एक ही वर्ग या जाति का। जैसे,—ये दोनों पौधे स्वजातीय हैं।

स्वजात्य
वि० [सं०] अपनी जाति या वर्ग का [को०]।

स्वजाति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपनी जाति। स्वजाति।

स्वज्ञाति (२)
संज्ञा पुं० [सं०] रिश्तेदार। संबंधी [को०]।

स्वतंत्र
वि० [सं० स्वतन्त्र] [वि० स्त्री० स्वतंत्रा] १. जो किसी के अधीन न हो। स्वाधीन। मुक्त। आजाद। जैसे,—(क) आयरलैंड पहले अँगरेजों के अधीन था, पर अब स्वतंत्र हो गया। (ख) नैपाल राज्य ने सब गुलामों के स्वतंत्र कर दिया। २. अपने इच्छानुसार चलनेवाला। मनमानी करनेवाला। स्वेच्छाचारी। निरंकुश। जैसे,—वहाँ के राज्याधिकारी परम स्वतंत्र हैं, खूब मनमानी कर रहे है। उ०—परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावहि मनहिं करहु तुम्ह सोई।—तुलसी। ३. अलग। जुदा। भिन्न। पृथक्। जैसे,—(क) राजनीति का विषय ही स्वतंत्र है। (ख) इसपर एक स्वतंत्र लेख होना चाहिए। ४. किसी प्रकार के बंधन या नियम आदि से रहित अथवा मुक्त। जैसे,—वे स्वतंत्र विचार के मनुष्य हैं। ५. वयस्क। स्याना। बालिग।

स्वतंत्रता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वतन्त्रता] १. स्वतंत्र होने का भाव। स्वाधीनता। आजादी। उ०—हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती।— झरना, पृ० १। २. मौलिकता। निजता (को०)। ३. कामाचार। स्वेच्छाचारिता। स्वच्छंदता (को०)।

स्वतंत्रता संग्राम
संज्ञा पुं० [सं० स्वतन्त्रता संग्राम] वह लड़ाई या संघर्ष जो देश से किसी अन्य देश के अधिकार या शासन को हटाने के लिये किया जाय।

स्वतंत्रद्वैधीभाव
संज्ञा पुं० [सं० स्वतन्त्रद्वैधीभाव] वह जो स्वतंत्र रूप से अपना हित समझकर दो शत्रुओं से मेलजोल रखता हो।

स्वतंत्री
वि० [सं० स्वतन्त्रिन्] स्वाधीन। मुक्त। आजाद। दे० 'स्वतंत्र'।

स्वतः
अव्य० [सं० स्वतस्] अपने आप। आप ही। जैसे,—(क) उसने मुझसे कुछ माँगा नहीं, मैंने स्वतः उसे दस रुपए दे दिए। (ख) वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए, इससे वे स्वतः नित्य स्वरूप हैं। (ग) वेद ईश्वरकृत होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं। (घ) पक्षी का उड़ना स्वतः सिद्ध है। यौ०—स्वतःप्रमाण = जो अपना प्रमाण या सबूत खुद हो। स्वतःसिद्ध = जो स्वयं सिद्ध हो। जिसे सिद्ध करने के लिये साध्य की जरूरत न हो। स्वतः स्फूर्त = जो स्वयं स्फूर्त या स्फुरणशील हो।

स्वता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वामित्व। अधिकार। हक [को०]।

स्वतोविरोध
संज्ञा पुं० [सं० स्वतः + विरोध] आप ही अपना विरोध या खंडन करना।

स्वतोविरोधी
संज्ञा पुं० [सं० स्वतः + विरोधिन्] अपना ही विरोध या खंडन करनेवाला। उ०—नास्तिकों के विषय में ऐसा नियम बनाना स्वतोविरोधी है, वह खुद ही अपना खंडन करता है।—द्विवेदी (शब्द०)।

स्वत्र (१)
वि० [सं०] अपना त्राण करनेवाला। आत्मरक्षक [को०]।

स्वत्र (२)
संज्ञा पुं० नेत्रहीन व्यक्ति। अंधा व्यक्ति [को०]।

स्वत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु को पाने, पास रखने या व्यवहार में लाने की योग्यता जो न्याय और लोकरीति के अनुसार किसी को प्राप्त हो। किसी वस्तु को अपने अछिकार में रखने, काम में लाने या लेने का अधिकार। अधिकार। हक। जैसे,—(क) इस संपत्ति पर हमारा स्वत्व है। (ख) उन्होंने अपनी पुस्तक का स्वत्व बेच दिया। (ग) भारतवासी अपने स्वत्वों के लियेआंदोलन कर रहे हैं। २. 'स्व' का भाव। अपना होने का भाव। उ०—तृतीय यह कि जो स्वत्व, परत्व, नीच, ऊँच का विचार त्याग कर समस्त जीवों पर समान द्रवीभूत हो।—श्रद्धाराम (शब्द०) ३. स्वतंत्रता। स्वाधीनता (को०)।

स्वत्वज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] अपनेपन का ज्ञान। मैं का ज्ञान। अहं का बोध।

स्वत्वनिवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वमित्व का न रहना। अधिकार की समाप्ति [को०]।

स्वत्वबोधन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वत्व को साबित करनेवाला, प्रमाण। अधिकार या हक को पुष्ट करनेवाला सबूत [को०]।

स्वत्वरक्षा
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वामित्व की रक्षा। अधिकार को कायम रखना। २. अपनी स्वतंत्रता या स्वाधीनता को बनाए रखना [को०]।

स्वत्वहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वत्वनिवृत्ति'।

स्वत्वहेतु
संज्ञा पुं० [सं०] स्वामित्व का कारण। स्वत्व या अधिकार का आधार [को०]।

स्वत्वाधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० स्वत्वाधिकारिन्] १. वह जिसके हाथ में किसी विषय का पूरा स्वत्व हो। २. स्वामी। मालिक।

स्वदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वाद लेना। आस्वादन। खाना। भक्षण। २. लोहा। लौह धातु।

स्वदित
वि० [सं०] आस्वादित। भक्षणीकृत। चखा हुआ [को०]।

स्वदेश
संज्ञा संज्ञा [सं०] वह देश जिसमें किसी का जन्म और पालन- पोषण हुआ हो। अपना और अपने पूर्वजों का देश। मातृभूमि। वतन। यौ०—स्वदेशज = अपने देश या वतन का। अपनी मातृभूमि का व्यक्ति। स्वदेशप्रेम = दे० 'स्वदेशभक्ति'। स्वदेशबंधु = दे० 'स्वदेशज'। स्वदेशभक्ति = अपनी मातृभूमि के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा। स्वदेश- स्मारी = अपने देश का स्मरण करनेवाला। स्वदेशस्मृति = अपने देश या वतन की याद।

स्वदेशाभिष्यदव
संज्ञा पुं० [सं० स्वदेशाभिष्यन्दव] कौटिल्य के अनुसार स्वराष्ट्र में जहाँ आबादी बहुत अधिक हो गई हो, वहाँ से कुछ जनता को दूसरे प्रदेश में बसाना।

स्वदेशी
वि० [सं० स्वदेशीय] १. अपने देश का। अपने देश संबंधी। जैसे,—स्वदेशी भाई। स्वदेशी उद्योग धंधा। स्वदेशी रीति। २. अपने देश में उत्पन्न या बना हुआ। जैसे,—स्वदेशी वस्त्र। स्वदेशी औषध।

स्वदेशीय
वि० [सं०] दे० 'स्वदेशी'।

स्वधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना धर्म। अपना कर्मव्य। कर्म। २. अपनी निजता या विशेषता। यौ०—स्वधर्मच्युत = अपने धर्म, कर्तव्य या विशेषता से रहित। स्वधर्म से गिरा हुआ। स्वधर्मत्याग = अपने कर्म का परित्याग करना। स्वधर्मत्यागी = स्वधर्म का परित्याग कर अन्य धर्म स्वीकार करनेवाला। स्वधर्मवर्ती = अपने कर्तव्य या कर्म में लगा रहनेवाला। स्वधर्मस्खलन = कर्तव्य कर्म की उपेक्षा करना। स्वधर्मस्थ = अपने कर्म में लगा हुआ।

स्वधर्माभिमानी
वि० [सं० स्वधर्म + अभिमानिन्] जिसे अपने धर्म पर अभिमान हो। उ०—तो किसी स्वदेश, स्वजाति व स्वधर्मा- भिमानी आर्य्य संतान की समझ में।—प्रेमघन० भा० २, पृ० २८६।

स्वधा (१)
अव्य० [सं०] एक शब्द या मंत्र जिसका उच्चारण देवताओं या पितरों को हवि देने के समय किया जाता है। विशेष—मनु के अनुसार श्राद्ध के उपरांत स्वधा का उच्चारण श्राद्धकर्ता के लिये बड़ा आशीर्वाद है।

स्वधा (२)
संज्ञा स्त्री० १. पितरों को दिया जानेवाला अन्न या भोजन। पितृ अन्न। उ०—मेरे पीछे पिंड का लोप देख मेरे पुरखे स्वधा इकट्ठी करने में लगे हुए, श्राद्ध में इच्छापूर्वक भोजन नहीं करते।—लक्ष्मण (शब्द०)। २. दक्ष की एक कन्या जो पितरों की पत्नी कही गई है। ३. अपनी प्रकृति या स्वभाव। अपनी इच्छा या रुचि (को०)। ४. अन्न या आहुति (को०)। ५. पितरों को दी जानेवाली आहुति या हवि (को०)। ६. अपना अंश या भाग (को०)। ७. श्राद्ध। मृतककर्म (को०)। ८. सांसारिक भ्रम। माया (को०)।

स्वधाकर
वि० [सं०] श्राद्ध करनेवाला। श्राद्धकर्ता।

स्वधाकार (१)
वि० [सं०] दे० 'स्वधाकर'।

स्वधाकार (२)
संज्ञा पुं० स्वधा शब्द का उच्चारण।

स्वधानिनयन
संज्ञा पुं० [सं०] पितरों के निमित्त हवि बनाते समय प्रयोग में आनेवाला सूत्र या सूक्त मंत्र [को०]।

स्वधाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

स्वधाप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. काला तिल। ३. पितृगण। पितर जिन्हें स्वधा प्रिय हैं (को०)। ४. पितृलोक (को०)।

स्वधाभुक्
संज्ञा पुं० [सं० स्वधाभुज्] १. पितर। २. देवता।

स्वधाभोजी
संज्ञा पुं० [सं० स्वधाभोजिन्] १. पितर। पितृगण। २. देवता। देवगण (को०)।

स्वधामन्
संज्ञा पुं० [सं०] १. भागवत के अनुसार सूनृता के एक पुत्र का नाम। २. तृतीय मन्वंतर का एक देवगण [को०]।

स्वधाशन
संज्ञा पुं० [सं०] पितर। पितृगण।

स्वधित
वि० [सं०] दृढ़। ठोस [को०]।

स्वधिति
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं०] १. कुल्हाड़ी। कुठार। २. वज्र। ३. आरा (को०)। ४. कड़ी लकड़ियोंवाला एक विशाल वृक्ष (को०)।

स्वधितिहेतिक
संज्ञा पुं० [सं०] परशुधारी योद्धा। कुठार घारण करनेवाला सैनिक।

स्वधिती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्वधिति' [को०]।

स्वधिष्ठान
वि० [सं०] जो अच्छी स्थिति में हो। जों अच्छे स्थान से युक्त हो। जैसे, युद्धरथ।

स्वधिष्ठित
वि० [सं०] १. जो ठहरने या रहने के लिये उत्तम हो। २. अच्छी तरह सधाया वा सिखाया हुआ [को०]।

स्वधीत (१)
वि० [सं०] अच्छी तरह पढ़ा हुआ। सम्यक् रूप से अध्ययन किया हुआ।

स्वधीत (२)
संज्ञा पुं० अच्छी तरह पढ़ा हुआ शास्त्र [को०]।

स्वधीति
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्तम वेदपाठी या ब्रह्मचारी [को०]।

स्वधीन पु
वि० [सं० स्वाधीन] दे० 'स्वाधीन'। उ०—भूमिं संकि स्वधीन पुन्य तनयं देवा रहस्यं मनं।—पृ० रा०, १।४७८।

स्वधुर्
वि० [सं०] जो पराधीन न हो। स्वाधीन [को०]।

स्वनंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वनन्दा] दुर्गा।

स्वन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द। ध्वनि। आवाज। जैसे, शंख स्वन। उ०—सुरगन मिलि जय जय स्वन कीन्हा। असुरहि कृष्ण परम पद दीन्हा।—गोपाल (शब्द०) २. एक प्रकार की अग्नि [को०]।

स्वन (२)
वि० बुरा शब्द करनेवाला [को०]।

स्वनचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का संभोग आसन या रतिबंध।

स्वनाभक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अस्त्र-संचालन-मंत्र [को०]।

स्वनाम
संज्ञा पुं० [सं० स्वनामन्] अपना नाम या अभिधान।

स्वनामधन्य
वि० [सं०] अपने नाम के कारण धन्य होनेवाला। जो अपने नाम के कारण धन्य हो। जैसे,—स्वनामधन्य पं० बाल गंगाधर तिलक।

स्वनामा
वि० [सं० स्वनामन्] जो अपने नाम के कारण प्रसिद्ध हो। अपने नाम से विख्यात होनेवाला।

स्वनाश
संज्ञा पुं० [सं०] अपना नाश। अपने पक्ष का विनाश [को०]।

स्वनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द। आवाज। २. अग्नि। आग।

स्वनिक
वि० [सं०] ध्वनि या शब्द करनेवाला। जैसे, पाणिस्वनिक = हथेलियों को बजाने वाला [को०]।

स्वनिघ्न
वि० [सं०] अपने तई रहनेवाला। अपने भरोसे रहनेवाला। आत्मनिर्भर [को०]।

स्वनित (१)
वि० [सं०] ध्वनित। शब्दित।

स्वनित (२)
संज्ञा पुं० १. शब्द। ध्वनि। आवाज। २. मेघगर्जन। बादलों की गड़गड़ाहट। ३. गर्जन। गरज।

स्वनिताह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] चौलाई का शाक। तंडुलीय शाक।

स्वनिर्मित
वि० [सं०] स्वयं का बनाया हुआ। जिसे खुद निर्मित किया गया हो। उ०—जब आकर्षक बहुत न थे प्रासाद मनोहर, जब प्रिय थे अत्यंत स्वनिर्मित बालू के घर।— सागरिका, पृ० २१।

स्वनोत्साह
संज्ञा पुं० [सं०] गैड़ा। गंडक।

स्वन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० सु + अन्न] सुअन्न अच्छा। भोजन। अच्छा आहार [को०]।

स्वपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना पक्ष। अपना दल। २. मित्र। दोस्त। ३. किसी विषय पर अपना विचार या पक्ष [को०]।

स्वपक्षीय
वि० [सं०] जो अपने दल या विचार का हो। २. मित्र। सखा। सहाय।

स्वपच पु
संज्ञा पुं० [सं० श्वपच] दे० 'श्वपच'। उ०—स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात। राम कहत पावन परम होत भुवन विख्यात।—तुलसी (शब्द०)।

स्वपण
संज्ञा पुं० [सं०] अपना भंडार या द्रव्य [को०]।

स्वपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नींद। निद्रा। २. सपना। स्वप्न। ख्वाब। ३. त्वचा की संज्ञाहीनता (को०)।

स्वपना पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्वपन, स्वप्नन,] दे० 'सपना' या 'स्वप्न'। उ०—स्वपना में ताहिं राज मिलो है हाकिम हुकुम दोहाई। जागि परै कहुँ लाव न लसकर पलक खुले सुधि पाई।—कबीर (शब्द०)।

स्वपनीय
वि० [सं०] निद्रा के योग्य। सोने लायक।

स्वपरमंडल
संज्ञा पुं० [सं० स्वपरमण्डल] अपने और शत्रु के सहायक देश या राज्य [को०]।

स्वपिंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वपिण्डा] पिंड खजूर। पिंड खर्जुरी।

स्वप्तव्य
वि० [सं०] निद्रा के योग्य।

स्वप्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोने की क्रिया या अवस्था। निद्रा। नींद। २. निद्रावस्था में कुछ मूर्तियों, चित्रों और विचारों आदि की संबद्ध या असंबद्ध शृंखला का मन में आना। निद्रावस्था में कुछ घटना आदि दिखाई देना। जैसे,—इधर कई दिनों से मैं भीषण स्वप्न देखा करता हूँ। ३. वह घटना आदि जो इस प्रकार निद्रित अवस्था में दिखाई दे अथवा मन में आवे। जैसे,—उन्होंने अपना सारा स्वप्न कह सुनाया। विशेष—प्रायः पूरी नींद न आने की दशा में मन में अनेक प्रकार के विचार उठा करते हैं जिनके कारण कुछ घटनाएँ मन के सामने उपस्थित हो जाती हैं। इसी को स्वप्न कहते हैं। यद्यपि वास्तव में उस समय नेत्र बंद रहते हैं और इन बातों का अनुभव केवल मन को होता है, तथापि बोलचाल में इसके साथ 'देखना' क्रिया का प्रयोग होता है। ४. शिथिलता। अकर्मण्यता। निरुत्साह। आलस्य (को०)। ५. मन में उठनेवाली ऊँची कल्पना या विचार, विशेषतः ऐसी कल्पना या विचार जो सहज में कार्य रूप में परिणत न हो सके। जैसे,—आप तो बहुत दिनों से इसी प्रकार के स्वप्न देखा करते हैं। मुहा०—स्वप्न टूट जाना = (१) नींद से जाग उठना। (२) कल्पना लोक से यथार्थ में उतर आना।

स्वप्नक्
वि० [सं० स्वप्नज्] सोनेवाला। निद्राशील।

स्वप्नकर
वि० [सं०] नींद लानेवाला। जिससे नींद आए। [को०]।

स्वप्नकल्प
वि० [सं०] सपने के समान। सपने जैसा। स्वप्न के सदृश [को०]।

स्वप्नकाम
वि० [सं०] जो सोना चाहता हो। निद्रातुर [को०]।

स्वप्नकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्न अर्थात् नींद लानेला,वा शिरियारी। सुनिषण्णक शाक। विशेष—कहते हैं, इस शाक के खाने से नींद आती है, इसी से इसका नाम स्वप्नकृत् (नींद लानेवाला) पड़ा।

स्वप्नगत
वि० [सं०] सोया हुआ। निद्राग्रस्त।

स्वप्नगृह
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का कमरा। शयनागार। शयनगृह।

स्वप्नज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्न। सपना [को०]।

स्वप्नज (२)
वि० नींद में उत्पन्न [को०]। यौ०—स्वप्नज ज्ञान = दे० 'स्वप्नज्ञान'।

स्वप्नज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्न का फल जाननेवाला। शकुनज्ञ। ज्योतिषी।

स्वप्नज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्न में होनेवाला ज्ञान या अनुभूति [को०]।

स्वप्नतंद्रिता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वप्नतन्द्रिता] निद्रा या स्वप्नजन्य आलस्य।

स्वप्नदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्न देखना। ख्वाब देखना [को०]।

स्वप्नदर्शी
वि० [सं० स्वप्नदर्शिन्] १. स्वप्न देखनेवाला। २. बड़ी बड़ी कल्पनाएँ करनेवाला। मनमोदक खानेवाला।

स्वप्नदृक्
वि० [सं० स्वप्नदृश्] १. निद्रा से जिसके नेत्र मुँद गए हों। निद्रित। निद्रायुक्त। २. जो स्वप्न देखता हो। सपना देखनेवाला [को०]।

स्वप्नदोष
संज्ञा पुं० [सं०] निद्रावस्था में वीर्यपात होना जो एक प्रकार का रोग माना जाता है। विशेष—स्वप्नावस्था में स्त्रीप्रसंग या कोई कामोद्दीपक दृश्य देखकर अथवा यों ही दुर्बलेंद्रिय लोगों का प्रायः वीर्यपात हो जाता है। यह एक भयंकर रोग है जो अधिक स्त्रीप्रसंग या अस्वाभाविक कर्म से धातुक्षीणता होने के कारण होता है। कभी कभी बहुत गरम चीज खाने और कोष्ठबद्धता से भी स्वप्नदोष हो जाता है।

स्वप्नधीगम्य
वि० [सं०] जो स्वप्नज ज्ञान द्वारा बोधगम्य हो। जो स्वप्न या निद्रा जैसी स्थिति में अनुभूत हो [को०]।

स्वप्ननंशन
संज्ञा पुं० [सं०] (निद्रा का नाश करनेवाले) सूर्य।

स्वप्ननिकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का कमरा। शयनगूह। शयनागार।

स्वप्ननिदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्न देखना। स्वप्नदर्शन [को०]।

स्वप्नप्रपंच
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्नप्रपञ्च] स्वप्न में दृश्यमान् जगत्। स्वप्न में दिखाई पड़नेवाला संसार [को०]।

स्वप्नभाक्
वि० [सं० स्वप्नभाज्] स्वप्न या नींद में पड़ा हुआ। सपना देखता या सोया हुआ।

स्वप्नमाणव
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्न या निद्रापूर्ण करनेवाला मंत्र या विधि [को०]।

स्वप्नमाणवक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्वप्नमाणव'।

स्वप्नलब्ध
वि० [सं०] जो स्वप्न में प्राप्त हो। जो निद्रा में प्राप्त या लब्ध हो [को०]।

स्वप्नविकार
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्नजनित परिवर्तन। निद्राजन्य विकृति [को०]।

स्वप्नविचार
संज्ञा पुं० [सं०] सपने के शुभाशुभ विचार या विवेचन करनेवाले ग्रंथादि।

स्वप्नविचारी
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्नविचारिन्] [वि० स्त्री० स्वप्न- विचारिणी] वह व्यक्ति जो स्वप्न के शुभाशुभ फल का विचार करता हो। स्वप्नशास्त्री। स्वप्नज्ञ। शकुनज्ञ [को०]।

स्वप्नविनश्वर
वि० [सं०] स्वप्नके समान नष्ट होनेवाला। क्षण- भंगुर [को०]।

स्वप्नविपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्न या निद्रा के समय का बदलना [को०]।

स्वप्नवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्न में अनुभूत होनेवाली घटना [को०]।

स्वप्नशील
वि० [सं०] निद्रातुर। नींद से जिसकी आँखें भरी हों [को०]।

स्वप्नसंदर्शन
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्नसन्दर्शन] दे० 'स्वप्नदर्शन'।

स्वप्नसात्
वि० [सं०] सोया हुआ। स्वप्न में लीन [को०]।

स्वप्नस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का कमरा। शयनगृह। शयनागार।

स्वप्नांत
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्ननान्त] १. सपना टूटना। स्वप्न का समाप्त या खत्म होना। २. स्वप्न या निद्रा की अवस्था। स्वप्नावस्था (को०)।

स्वप्नांतर
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्नान्तर] दे० 'स्वप्नांत' या 'सुपनंतर'। यौ०—स्वप्नांतरगत = स्वप्नावस्था में घटित।

स्वप्नांतिक
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्नान्तिक] स्वप्न की चेतना या ज्ञान [को०]

स्वप्नादेश
संज्ञा पुं० [सं०] स्वप्नसंबंधी आज्ञा। स्वप्नावस्था का आदेश [को०]।

स्वप्नाना
क्रि० स० [सं० स्वप्न + हिं० आना (प्रत्य०) पु ] सपना देना। स्वप्न देना। स्वप्न दिखाना। उ०—हारि गयो हीरा नहि पायो। तब अंगद को हरि स्वप्नाथो।—रघुराज (शब्द०)।

स्वप्नालु
वि० [सं०] सोनेवाला। निद्राशील। निद्रालु।

स्वप्नावस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वप्न की अवस्था या स्थिति। सपने की अवस्था [को०]।

स्वप्नाविष्ट
वि० [सं० स्वप्न + आविष्ट] १. उनींदा। २. मोहा- विष्ट। ३. कल्पनालोक में विचरण करता हुआ। ४. स्वप्न देखता हुआ। उ०—मेरी यह सोयी अवस्था फिर लौट आई है, पर वैसी जड़ नहीं—मैं मानो स्वप्नाविष्ट हूँ।—नदी०, पृ० २१२।

स्वप्निल
वि० [सं० स्वप्न + हिं० इल (प्रत्य०)] १. स्वप्न संबधी। स्वप्न का। संपनोंवाला। उ०—सुप्ति की ये स्वप्निल मुस्कान।—पल्लव, पृ०। २. अर्धसुप्त। उनींदा। असत्य हो। अवास्तविक। तथ्य रहित [को०]।

स्वप्रकाश
वि० [सं०] जो आप ही प्रकाशमान् हो। २. जो अपने आप स्पष्ट या व्यक्त हो। ३. जो बिना अपने ही तेज से प्रकाशमान् हो। जो स्वयं ही के तेज से दीप्त हो।

स्वप्रकृतिक
वि० [सं०] जो बिना किसी कारण के स्वयं अपनी प्रकृति से ही हो। प्राकृतिक रूप से होनेवाला।

स्पप्रमितिक
वि० [सं०] जो बिना किसी की सहायता के अपना सारा काम स्वयं करता हो। जैसे,—सूर्य जो आप ही प्रकाश देता है।

स्वबरन पु
संज्ञा पुं० [सं० सुवर्ण] दे० 'सुवर्ण'।

स्वबंधु
संज्ञा पुं० [सं० स्वबन्धु] अपना संबंधी। सजातीय [को०]।

स्वबीज
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मा।

स्वभट
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपनी रक्षा स्वयं करनेवाला। २. अपना योद्धा। स्व-अंग-रक्षक [को०]।

स्वभद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंभारी। गँभारी वृक्ष।

स्वभाउ पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वभाव] दे० 'स्वभाव'। उ०—शूर को स्वभाउ बिना युद्ध न करे बखान कायर ज्यों कहा घर बैठे शोच हरिये।—हनुमन्नाटक (शब्द०)।

स्वभाग्य
संज्ञा पुं० [सं० स्व + भाग्य] अपना भाग्य। यौ०—स्वभाग्य निर्णय = अपने बारे में खुद निर्णय करना।

स्वभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसन्नता। आह्लाद। प्रहर्ष [को०]।

स्वभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. सदा बना रहनेवाला मूल या प्रधान गुण। तासीर। जैसे,—जल का स्वभाव शीतल होता है। २. मन की प्रवृत्ति। मिजाज। प्रकृति। जैसे,—(क) उसका स्वभाव बड़ा कठोर है। (ख) कवि स्वभाव से ही सौंदर्य- प्रिय होते हैं। (ग) आजकल उनका स्वभाव कुछ बदल गया है। ३. आदत। टेव। बान। जैसे,—उसे लड़ने का स्वभाव पड़ गया है। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। ४. अपनी स्थिति या स्थान। अपना राष्ट्र या देश [को०]।

स्वभावकृत्
वि० [सं०] स्वाभाविक। प्राकृतिक [को०]।

स्वभावकृपण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा का एक नाम। २. वह व्यक्ति जो स्वभावतः कंजूस हो। कृपण व्यक्ति।

स्वभावज
वि० [सं०] जो स्वभाव या प्रकृति से उत्पन्न हुआ हो। प्राकृतिक। स्वाभाविक। सहज।

स्वभावजनित
वि० [सं०] दे० 'स्वभावज'।

स्वभावतः
अव्य० [सं० स्वभावतस्] स्वभाव से। प्राकृतिक रूप से। सहज ही। जैसे,—कोई अन्याय होता हुआ देखकर मनुष्य को स्वभावतः क्रोध आ जाता है।

स्वभावद्वेष
संज्ञा पुं० [सं०] स्वाभाविक या प्रकृतिजन्य द्वेषभाव। जैसे, सर्प और नकुल का।

स्वभावप्रभव
वि० [सं०] दे० 'स्वभावज'।

स्वभावसिद्ध
वि० [सं०] स्वभाव से हो होनेवाला। सहज। प्राकृतिक। स्वाभाविक। उ०—भ्रमपूर्ण बातों का संशोधन करने की योग्यता मनुष्य में स्वभावसिद्ध है।—द्विवेदी (शब्द०)।

स्वभाविक
वि० [सं० स्वाभाविक] दे० 'स्वाभाविक'।

स्वभावोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी का जाति या अवस्था आदि के अनुसार यथावत् और प्राकृतिक स्वरूप का वर्णन किया जाय। विशेष—किसी की जाति, गुण, क्रिया के अनुसार उसके स्वभाव के वर्णन को स्वभावोक्ति अलंकार कहते हैं। इसके दो भेद कहे गए हैं—सहज और प्रतिज्ञाबद्ध। जहाँ किसी विषय का बिलकुल सहज और स्वाभाविक वर्णन होता है, वहाँ सहज स्वभावोक्ति अलंकार होता है और जहाँ अपने सहज स्वभाव के अनुसार प्रतिज्ञा या शपथ आदि के साथ कोई बात कही जाती है, वहाँ प्रतिज्ञाबद्ध स्वाभावोक्ति होती है। उ०—(क) सीस मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल। यहि बानक मों उर सदा बसौ बिहारीलाल। (सहज)। (ख) तोरौं छत्रक दंड जिमि तुव प्रताप बलनाथ। जौ न करौं प्रभु पद सपथ पुनि न धरौं धनु हाथ। (प्रतिज्ञाबद्ध)।

स्वभू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा का एक नाम। २. विष्णु का एक नाम। ३. शिव का एक नाम।

स्वभू (२)
संज्ञा स्त्री० अपना देश। स्वदेश [को०]।

स्वभू (३)
वि० जो अपने आपसे उत्पन्न हुआ हो। आपसे आप होनेवाला।

स्वभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपना ऐश्वर्य। अपना कल्याण [को०]।

स्वभूमि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णुपुराण के अनुसार उग्रसेन के एक पुत्र का नाम।

स्वभूमि (२)
संज्ञा स्त्री० स्वभू। अपना देश [को०]।

स्वमनीषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपनी बुद्धि, मत या विचार [को०]।

स्वमनीषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] उदासीनता। निःसंगता। तटस्थता [को०]।

स्वमेक
संज्ञा पुं० [सं०] संवत्सर वर्ष।

स्वयं
अव्य० [सं० स्वयम्] १. खुद। आप। उ०—(क) मैं स्वयं तुम्हारे साथ चलकर देखूँगा कि इस पहली परीक्षा में कैसे उतरते हो।—अयोध्या० (शब्द०)। (ख) आप स्वयं अपनी कृपा से सब जीवों में प्रकाशित हूजिए।—दयानंद (शब्द०)। २. आपसे आप। अपने ही से। खुद बखुद। जैसे,—आपके सब काम तो स्वयं ही हो जाते हैं।

स्वयंकृत (१)
वि० [सं० स्वयम्कृत] १. स्वयं या खुद किया हुआ। आत्मकृत। २. प्राकृतिक। स्वाभाविक। ३. गोद लिया हुआ [को०]।

स्वयंकृत (२)
संज्ञा पुं० गोद लिया हुआ लड़का [को०]।

स्वयंकृती
वि० [सं० स्वयमकृतिन्] स्वभावतः काम करनेवाला [को०]।

स्वयंकृष्ट
वि० [सं० स्वयम्कृष्ट] स्वयंकर्षित। खुद जोता हुआ [को०]।

स्वयंगुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वयम्गुप्ता] कौंछ। केवाँच।

स्वयंग्रह, स्वयंग्रहण
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्ग्रह, स्वयम्ग्रहण] बलपूर्वक ग्रहण। बलात् ले लेना [को०]।

स्वयंग्राह (१)
वि० [सं० स्वयम्ग्राह] १. बलात् ग्रहण करनेवाला। २. स्वयं या इच्छानुसार चुननेवाला [को०]।

स्वयंग्राह (२)
संज्ञा पुं० स्वयं चुन लेना। स्वयं ग्रहण करना [को०]।

स्वयंग्राहदान
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्ग्राहदान] कौटिल्य के अनुसार सेना आदि के द्वारा आपसे आप सहायता पहुँचाना।

स्वयंचलित
वि० [सं० स्वयम्चालित] जो अपने आप संचालित हो। जैसे, स्वयंचालित मशीन आदि।

स्वयंजात
वि० [सं० स्वयम्जात] जो स्वय उदभूत हो। अपने आप उत्पन्न होनेवाला [को०]।

स्वयंज्योति (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्ज्योतिस्] परमेश्वर। परमात्मा।

स्वयंज्योति (२)
वि० अपने आप प्रकाशित होनेवाला [को०]।

स्वयंदत्त (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्दत्त] वह पुत्र जो अपने मातापिता के मर जाने अथवा उनके द्वारा परित्यक्त होने पर अपने आपको किसी के हाथ सौंप दे और उसका पुत्र बन जाय।

स्वयंदत्त (२)
वि० अपने को स्वयं दे देनेवाला [को०]।

स्वयंदान
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्दान] स्वेच्छामूलक दान। जैसे—विवाह में कन्या का दान [को०]।

स्वयंदूत
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्दूत] वह नायक जो अपना दूतत्व आप ही करे। नायिका पर अपना कामवासना स्वय ही प्रकट करनेवाला नायक। उ०—जपत हूँ ता दिन सो रघुनाथ की दोहाई जा दिन सों सुन्यौ है मैं प्यारी तेर नाम को। सोई भयो सिद्धि आजु औचक मिली हो मीहि ऐसी दुपहरी में चली हो काहु काम को। यह वर मा‌गत हो मेर पर कृपा करि मेरी कही कीजै सुख दीजे तन छाम का। यह सुख ठाम का आराम का निहारो नेक मेरे कहे घरिक निवारि लाजै घाम को।—रघुनाथ (शब्द०)।

स्वयंदूतो
संज्ञा स्त्री० [सं० स्ययम्दूता] वह परकीया नायिका जो अपना दूतत्व आप ही करती हो। नायक पर स्वय ही वासना प्रकट करनेवाली नायिका। उ०—ऐसे बने रघुनाथ कहै हरि कामकलानिधि के मद गारे। झाकि झराखे सों आवत देखि खरी भई आइकै आपने द्वारे। रीझि सरूप सों भीजो सनेह सों बोली हरें रस आखर भारे। ठाढ़ हो तासों कहोंगी कछू अर ग्वाल बड़ा बड़ी आखिनवार।—सुदरीसर्वस्व (शब्द०)।

स्वयंदृक्
वि० [सं० स्वयमदृश्] अपने आप व्यक्त या प्रकट होनेवाला [को०]।

स्वयंदेव
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्देव] साक्षात् या प्रत्यक्ष देवता [को०]।

स्वयपातत
वि० [सं० स्वयम्पातित] जो आपसे आप गिरे। जैसे— वृक्ष मे पककर (आपसे आप) गिरा हुआ फल।

स्वयंपाका
वि० [सं० स्वयंम्पाकिन्] जो अपना भोजन स्वयं बनाता हो। किसी दूसरे का बनाया हुआ भोजन न करनेवाला [को०]।

स्वयंपाठ
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्पाठ] मूल पाठ [को०]।

स्वयप्रकाश (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्प्रकाश] १. वह जो आप ही आप बिना किसा दूसरे की सहायता के प्रकाशित हो। उ०—(क) जो आप स्वयप्रकाश और सूर्यादि तेजस्वी लोकों का प्रकाश करनेवाला है, इससे उस इश्वर का नाम 'तेजस' है।—सत्यार्थ० (शब्द०)। (ख) "सो उस परम शक्तिमान सर्वज्ञ स्वयंप्रकाश परमात्मा के समीप जाते ही प्रश्न शक्ति से रहित काष्ठवत् मौन होके खड़ा रहा।—केनोपनिषद् (शब्द०)। २. परमात्मा। परमेश्वर।

स्वयंप्रकाश (२)
वि० जो अपने आप प्रकाशित ता ज्योतिर्मय हो।

स्वयंप्रकाशमान
संज्ञा पुं०, वि० [सं० स्वयम्प्रकाशमान] दे० 'स्वयंप्रकाश'।

स्वयंप्रकाशित
वि० [सं० स्वयम्प्रकाशित] जो स्वयं द्योतित या दीप्त हो। जो खुद प्रकाशमान हो।

स्वयंप्रज्वलित
वि० [सं० स्वयम्प्रज्वलित] जो अपने आप दीप्त या जल रहा हो [को०]।

स्वयंप्रभ (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्प्रभ] १. जैनियों के अनुसाप भावी २४ अर्हतों में से चौथे अर्हत् का नाम। २. दे० 'स्वयंप्रकाश'।

स्वयंप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वयम्प्रभा] १. इंद्र की एक अप्सरा का नाम। विशेष—इसे मय दानव हर लाया था और इसके गर्भ से उसने मंदोदरी नामक कन्या उत्पन्न की थी। जब हनुमान आदि वानर सीता को ढूँढ़ने निकले थे, तव मार्ग में एक गुफा में इससे उनकी भेंट हुई थी। २. मय की एक कन्या (को०)।

स्वयंप्रभु (१)
वि० [सं० स्वयम्प्रभु] जो अपना स्वामी स्वयं हो। जो स्वयं समर्थ या प्रमु हो।

स्वयंप्रभु (२)
संज्ञा पुं० विधाता। ब्रह्मा [को०]।

स्वयंप्रमाण
वि० [सं० स्वयम्प्रमाण] जो आप ही प्रमाण हो और जिसके लिये किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता न हो। जैसे,— वेद आदि स्वयंप्रमाण हैं।

स्वयंप्रस्तुत
वि० [सं० स्वयम्प्रस्तु] १. जो अपने आपको स्वयं प्रस्तुत करे। २. स्वयं प्रशंसित [को०]।

स्वयंफल
वि० [सं० स्वयम्फल] जो आप ही अपना फल हो और किसी दूसरे कारण से उत्पन्न न हुआ हो।

स्वयभु (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्भु] १. ब्रह्मा। २. वेद। ३. महादेव। शिव। ४. अज। ५. जैनियों के नौ वासुदेवों में से एक। ६. बनमूँग।

स्वयंभु (२)
वि० जो आपसे आप उत्पन्न हो। अपने आप पैदा होनेवाला।

स्वयंभुव
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्भुव] १. प्रथम मनु। आदि मनु। दे० 'स्वयंभुवा'। २. ब्रह्मा। ३. शिव [को०]।

स्वयंभुवा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वयम्भुवा] १. तमाकू का पत्ता। शिव- लिंगी नाम की लता। ३. माषपर्णी। मखवन।

स्वयंभू (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्भू] १. ब्रह्मा। २. काल। ३. कामदेव ४. विष्णु। ५. शिव। ६. माषपर्णी। मखवन। ७. शिवलिंगी नाम की लता। ८. परब्रह्म। ईश्वर [को०]। ९. प्रथम मनु। दे० 'स्वायंभुव'। उ०—बहुरि स्वयंभू मनु तप कीनो। ताहू को हरिजू बर दीनो।—सूर (शब्द०)। १०. व्यास का एक नाम (को०)। ११. बुद्ध का एक नाम (को०)। १२. आदि या प्रथम बुद्ध (को०)। १३. प्रत्येक् या प्रत्येक- बुद्ध का एक नाम (को०)। १४. जैनों के अनुसार तृतीय कृष्ण वासुदेव (को०)। १५. अंतरिक्ष। व्योम (को०)। १६. स्त्रियों का कुच। स्तन (को०)।

स्वयंभू
वि० १. जो आपसे आप उत्पन्न हुआ हो। २. बुद्ध संबंधी। बुद्ध का (को०)।

स्वयंभूत (१)
वि० [सं० स्वयम्भूत] जो आपसे आप उत्पन्न हुआ हो। अपने आप पैदा होनेवाला।

स्वयंभूत (२)
संज्ञा पुं० शिव। शंकर [को०]।

स्वयंभूरमण
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्भूरमण] जैनों के अनुसार अंतिम महाद्वीप और समुद्र का नाम।

स्वयंभृत
वि० [सं० स्वयम्भृत] जो स्वयं पुष्ट हो। जो स्वयं पोषित हो।

स्वयंभोज
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्भोज] भागवत के अनुसार राजा शिवि के एक पुत्र का नाम।

स्वयंभ्रमि
वि० [सं० स्वयम्भ्रमि] स्वयं चक्कर खाने या घूमनेवाला [को०]।

स्वयंभ्रमी
वि० [सं० स्वयम्भ्रमिन्] दे० 'स्वयं भ्रमि'।

स्वयंमृत
वि० [सं० स्वयम्मृत] १. जो स्वेच्छा से मरा हो। २. प्राकृ- तिक मृत्य पानेवाला (को०)। स्वाभाविक मौत पानेवाला (को०)।

स्वयंम्लान
वि० [सं० स्वयम्म्लान] जो स्वयं या प्रकृतिवशात् म्लान हो गया हो। अपने आप म्लान या मुरझाया हुआ।

स्वयंयान
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्यान] अन्य देश के ऊपर स्वयं आक्रमण या हमला करना [को०]।

स्वयंवर
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्वर] १. प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध, विधान जिसमें विवाह योग्य कन्या कुछ उपस्थित व्यक्तियों में से अपने लिये स्वयं वर चुनती थी। उ०— (क) सीय स्वयंवर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जनक विदेह कियो जु स्वयंवर बहु नृप विप्र बोलाए। तोरन धनुष देव त्र्यंबक को काहू यतन न पाए।—सूर (शब्द०)। (ग) मारि ताड़का यज्ञ करायो विश्वामित्र आनंद भयो। सीय स्वयंवर जानि सूर प्रभु को ऋषि लै ता ठौर गयो।—सूर (शब्द०)। विशेष—प्राचीन काल में भारतीय आर्यों, विशेषतः क्षत्रियों या राजाओं में यह प्रथा थी कि जब कन्या विवाह योग्य हो जाती थी, तब उसकी सूचना उपयुक्त व्यक्तियों के पास भेज दी जाती थी, जो एक निश्चित समय और स्थान पर आकर एकत्र होते थे। उस समय वह कन्या उन उपस्थित व्यक्तियों में से जिसे अपने लिये उपयुक्त समझती थी, उसके गले में वरमाल या जयमाल डाल देती थी; और तब उसी के साथ उसका विवाह होता था। कभी कभी कन्या के पिता की ओर से, बलपरीक्षा के लिये, कोई शर्त भी लगा दी जाती थी; और वह शर्त पूरी करनेवाला ही कन्या के लिये उपयुक्त पात्र समझा जाता था। सीता जी और द्रौपदी का विवाह इसी प्रथा के अनुसार हुआ था। यौ०—स्वयंवरपति = स्वयंवर प्रथा द्वारा चुना हुआ पति। स्वयंवरविवाह = वह विवाह जो स्वयंवर प्रथा द्वारा पति चुन लिए जाने पर हो। २. वह स्थान, सभा या उत्सव जहाँ इस प्रकार लोगों के एकत्र करके कन्या के लिये वर चुना जाय।

स्वयंवरण
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्वरण] कन्या का अपने इच्छानुसार अपने लिये पति मनोनीत करना। स्वयं वरण करना। विशेष— दे० 'स्वयंवर-१'।

स्वयंवरयित्री
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वयम्वरयित्री] वह कन्या जो अपने पति का चुनाव स्वयमेव करे [को०]।

स्वयंवरा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वयम्वरा] वह स्त्री जो अपने लिये स्वयं ही उपयुक्त वर को वरण करे। अपने इच्छानुसार अपना पति नियत करनेवाली स्त्री। पतिंवरा। वर्या। उ०—ये हम लोगों के देश की प्राचीन स्वयंवरा थीं।—हिंदीप्रदीप (शब्द०)।

स्वयंवश
वि० [सं० स्वयम्वश] जो स्वाधीन हो। जिसपर किसी अन्य का वश या अधिकार न हो।

स्वयंवह (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्वह] वह बाजा जो चाबी देने से आपसे आप बजे। जैसे,—अरगन आदि।

स्वयंवह (२)
वि० १. स्वयं अपने आपको धारण करनेवाला। जो अपने आपको वहन करे। २. स्वयं गतिशील। स्वयं चलनेवाला। स्वयं- चालित (को०)।

स्वयंवादिदोष
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्वादि दोष] न्यायालय में झूठ बात को बार बार दुहराने का अपराध।

स्वयंवादी
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्वादिन्] मुकदमे में जिरह के समय किसी झूठ बात को बार वार दुहरानेवाला।

स्वयंविक्रीत
वि० [सं० स्वयम्विक्रीत] (दास आदि) जिसने स्वयं ही अपने आपको बेचा हो।

स्वयंविशीर्ण
वि० [सं० स्वयम्विशीर्ण] अपने आप गिरा हुआ। जैसे, वृक्ष के पत्ते, फल आदि [को०]।

स्वयंश्रृत
वि० [सं० स्वयम्श्रृत] अपने आप पक्व [को०]।

स्वयंश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्श्रेष्ठ] शिव।

स्वयंसंयोग
संज्ञा पुं० [सं०स्वयम्संयोग] वह संयोग या संबंध जो अपने आप हो। स्वयं होनेवाला विवाह आदि संबंध [को०]।

स्वयंसिद्ध
वि० [सं० स्वयम्सिद्ध] १. (बात) जो आप ही आप सिद्ध हो। जिसकी सिद्धि के लिये और किसी तर्क, प्रमाण या उपकरण आदि की आवश्यकता न हो। जैसे,—आग से हाथ जलता है, यह तो स्वयंसिद्ध बात है। २. जिसने आप ही सिद्धि प्राप्त की हो। जो बिना किसी की सहायता के सिद्ध या सफल हुआ हो।

स्वयंसेवक
संज्ञा पुं० [सं० स्वयम्सेवक] [स्त्री० स्वयंसेविका] वह जो बिना किसी पुरस्कार या वेतन के किसी कार्य में अपनी इच्छा से योग दे। स्वेच्छासेवक।

स्वयंसेविका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वयम्सेविका] महिला स्वेच्छासेवक।

स्वयंहारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वयम्हारिका] पुराणानुसार दुःसह की पत्नी निर्माष्टि के गर्भ से उत्पन्न आठ कन्याओं में से एक। विशेष—कहते हैं, यह भोजनशाला में से अधपका अन्न, गौ के स्तन में से दूध, तिलों में से तेल, कपास में से सूत आदि हरण कर ले जाती है, इसी से इसका यह नाम पड़ा।

स्वयमधिगत
वि० [सं०] जिसे स्वयंप्राप्त किया गया हो [को०]।

स्वयमर्जित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृतियों के अनुसार वह धन संपत्ति जो स्वयं उपार्जित की गई हो और जिसमें अपने किसी संबंधी या दायाद आदि को कोई हिस्सा न देना पड़े। खास अपनी कमाई हुई दौलत।

स्वयमर्जित (२)
वि० जिसका उपार्जन स्वयं किया गया हो [को०]।

स्वयमवदीर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो अपने आप फट गया हो। २. अपने आप धरती फट जाने के कारण बना हुआ छिद्र या रंध्र [को०]।

स्वयमागत
वि० [सं०] १. बिना बुलाए दो व्यक्तियों के बीच दखल देनेवाला। २. जो अपने आप आ गया हो [को०]।

स्वयमानीत
वि० [सं०] स्वयं लाया हुआ। जो किसी की सहायता के बिना खुद ब खुद लाया गया हो [को०]।

स्वयमाहृत
वि० [सं०] दे० 'स्वयमानीत' [को०]। यौ०—स्वयमाहृत भोजन = स्वयं ले आकर भोजन करनेवाला।

स्वयमिंद्रियमोचन
संज्ञा पुं० [सं० स्वयमिन्द्रियमोचन] अपने आप वीर्यपात होना [को०]।

स्वयमीश्वर
[सं०] परमेश्वर, जो अपना ईश्वर स्वयं है [को०]।

स्वयमीहितलब्ध
वि० [सं०] जो अपने प्रयत्न या चेष्टा द्वारा प्राप्त हो। स्मृतियों के अनुसार अपने श्रम से उपर्जित (धन)। स्वयंकृत चेष्टा से प्राप्त [को०]।

स्वयमुक्ति
संज्ञा पुं० [सं०] पाँच प्रकार के साक्षियों में से एक प्रकार का साक्षी। वह साक्षी जो बिना वादी या प्रतिवादी के बुलाए स्वयं ही आकर किसी घटना या व्यवहार आदि के संबंध में कुछ कहे। (व्यवहार)।

स्वयमुज्ज्वल
वि० [सं०] स्वयंप्रकाश [को०]।

स्वयमुदित
वि० [सं०] जो आपसे आप उदित हुआ हो [को०]।

स्वयमुदुगीर्ण
वि० [सं०] जो म्यान या कोश से अपने आप बाहर आ गया हो। जैसे, असि [को०]।

स्वयमुद्घाटित
वि० [सं०] आप ही आप खुल जानेवाला [को०]।

स्वयमुपगत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अपनी इच्छा से किसी का दास हो गया हो।

स्वयमुपस्थित
वि० [सं०] जो स्वयं उपस्थित हो। अपनी इच्छा से आया हुआ [को०]।

स्वयमुपागत (१)
वि० [सं०] स्वेच्छा से आया हुआ [को०]।

स्वयमुपागत (२)
संज्ञा पुं० वह लड़का जो स्वयं दत्तक बन जाने के लिये कहे [को०]।

स्वयमुपेत
वि० [सं०] दे० 'स्वयमुपस्थित'।

स्वयमेव
क्रि० वि० [सं०] आप हो आप। खुद ही। स्वयं ही।

स्वयोनि
वि० [सं०] जो अपना कारण अथवा अपनी उत्पत्ति का स्थान आप ही हो।