विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/हर
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संकेतावली देखें |
⋙ हर (१)
वि० [सं०] १. हरण करनेवाला। ले लेनेवाला। छीनने या लूटनेवाला। जैसे,—धनहर, वस्त्रहर, पश्यतोहर। २. दूर करनेवाला। मिटानेवाला। न रहने देनेवाला। जैसे,—रोगहर, पापहर। ३. बध करनेवाला। नाश करनेवाला। मारनेवाला। जैसे,—असुरहर। ४. ले जानेवाला। लानेवाला। पहुँचानेवाला। वाहक। जैसे,—संदेशहर। ५. आकर्षक। ६. अभ्यर्थी। दावेदार। हकदार (को०)। ७. कब्जा या अधिकार करनेवाला (को०)। ८. विभाजक। बाँटनेवाला (को०)।
⋙ हर (२)
संज्ञा पुं० १. शिव। महादेव। २. एक राक्षस जो वसुदा के गर्भ से उत्पन्न माली नामक राक्षस के चार पुत्रों में से एक था और विभीषण का मंत्री था। ३. गणित में वह संख्या जिससे भाग दें। भाजक। ४. गणित में भिन्न में नीचे की संख्या। ५. अग्नि। आग। ६. गदहा। ७. छप्पय के दसवें भेद का नाम। ८. टगण के पहले भेद का नाम। ९. ग्रहण करना या लेना (कौ०)। १०. हरण करना (को०)। ११. ग्रहण करनेवाला व्यक्ति। ग्राहक (को०)।
⋙ हर † (३)
संज्ञा पुं० [सं० हल] हल। यौ०—हरवाहा। हरवल। हरौरी। हरहा।
⋙ हर पु (४)
वि० [हिं० हरा या सं० हरित]दे० 'हरा' और 'हरियर'। उ० —बोलि विप्र सोधे लगन्न, सुध घटी परट्ठिय। हर बाँसह मंडप बनाय करि भाँवरि गंठिय। —पृ० रा०, २०। ६९।
⋙ हर (५)
वि० [फा०] प्रत्येक। एक एक। जैसे, (क) हर शख्स के पास एक एक बंदूक थी। (ख) वह हर रोज आता है। यौ०—हरकारा। हरजाई। मुहा०—हर एक=प्रत्येक। एक एक। हर कोई या हर किसी= प्रत्येक मनुष्य। सब कोई या सब किसी। सर्वसाधारण। जैसे,—हर किसी के पास ऐसी चीज नहीं निकल सकती। हर कोई=सर्व- साधारण। जैसे,—हर कोई यह काम नहीं कर सकताहर। तरह= प्रत्येक ढंग से। हर हालत में। हर फन मौला=हर एक फन जाननेवाला। प्रत्येक काम में माहिर। हर दफा, हर बार या हर मर्तबा=प्रत्येक अवसर पर। हर रोज=प्रतिदिन। नित्य। हर वक्त=हर समय। हर दम। निरंतर। हर हाल में=प्रत्येक दशा में। हर दम=प्रतिक्षण। सदा। जैसे,—वह हर दम यहीं पड़ा रहता है। हर यक=दे०'हर एक'। हर हमेशा=सदा। सर्वदा।
⋙ हर (६)
संज्ञा पुं० [जर०] अंग्रेजी के मिस्टर शब्द का जरमन समानार्थवाची शब्द। महाशय। जैसे, —हर स्ट्रस्मैन, हर हिटलर।
⋙ हरई ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलका, हलकी] हलकापन। लघुता। अगुरुता। उ०—किहि नेह बिरोध बढय़ौ सबसों उर आवत कौन के लाज गई। जेहि के भरि भार पहार दबै, जग माँझ भई तिन तें हरई। —नानद, पृ० ८३।
⋙ हरएँ पु
अव्य० [हिं० हरुवे] १. धीरे धीरे। मदं गति से। आहिस्ते से। उ०—हेरत ही हरि को हरषाय हिये हिये हठि कै हरएँ चलि आई। —बेनी (शब्द०)। २. तीव्रता से नहीं। जोर से नहीं।
⋙ हरक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपहरण करनेवाला। चोर। तस्कर। २. धूर्त। प्रतारक। वंचक। शठ। ३. भाजक। हर। ४. शिव का एक नाम। ५. लंबी और लचनेवाली तलवार [को०]।
⋙ हरक (२)
वि० हरण करनेवाला।
⋙ हरकत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. गति। चाल। हिलना। डोलना। २. चेष्टा। कर्म। क्रिया। ३. स्वर या स्वरबोधक चिह्व, मात्रा आदि (को०)। ४. बुरी चाल। बेजा कार्रवाई। दुष्ट व्यवहार। नटखटी। उ०— (क) तुम्हारी सब हरकतें हम देख रहे हैं। (ख) यह सब उसी की हरकतें हैं (ग) नाशाइस्ता हरकत, बेजा हरकत। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हरकना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० हटक (=रोक)+ना]दे० 'हटकना'। उ०—भट रुद्रगन, भूत गनपति सेनापति, कलिकाल की कुंचाल काहू तौ न हरकी।—तुलसी ग्रं०, पृ० २४१।
⋙ हरकना † (२)
क्रि० अ० [हिं० हड़क+ना]दे० 'हड़कना'।
⋙ हरकारा
संज्ञा पुं० [फा़० हरकारह्] १. चिट्ठी पत्री ले जानेवाला। सँदेसा ले जानेवाला। उ०—हरकारा घोड़े पर सवार होते ही आँखों से ओझल हो गया।—पीतल०, पृ० ३८३। २. चिट्ठी- रसाँ। डाकिया।
⋙ हरकेस
संज्ञा पुं० [सं० हरिकेश] एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है।
⋙ हरक्कत पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] नुकसान। हानि। उ०—तिन तिन चले छिपाय प्रकट में होय हरक्कत।—पलटू०, भा० ३, पृ० ५५।
⋙ हरख पु †
संज्ञा पुं० [सं० हर्ष, प्रा०, अप., हिं० हरख]दे० 'हर्ष'। उ०—(क) छिन महिं अगिनि छिनक जलपात, त्यौं यह हरख शोक की बात।—अर्ध०, पृ० ४०। (ख) मतिराम सुकवि सँदेसो अनुमानियत, तेरे नख सिख अंग हरख कटीटे सों। — मतिराम ग्रं०, पृ० ३९९।
⋙ हरखना पु
क्रि० अ० [हिं० हरख+ना (प्रत्य०)] हर्षित होना। प्रसन्न होना। खुश होना। उ०—कौतुक देखि सकल सुर हरखे।—तुलसी (शब्द०)
⋙ हरखनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हर्षण] हरखने की क्रिया या भाव। हर्ष। आनंद। उ०—नेत्र की करखनि, बदन की हरखनि, तैसियै सिर तै कुसुम सुबरखनि। —नंद० ग्रं०, पृ० २४८।
⋙ हरखाना (३)
क्रि० अ० [हिं० हरखना]दे० 'हरखना'। उ०—तुरत उठे लछमन हरखाई। —तुलसी (सब्द०)।
⋙ हरखाना (२)
क्रि० सं० प्रसन्न करना। खुश करना। आनंदित करना।
⋙ हरखित पु
वि० [सं० हर्षित]दे० 'हर्षित'। उ०—द्बिजहिं दूरि तै निरखि निरखि हरि हरखित होई। —नंद० ग्रं०, पृ० २०४।
⋙ हरगिज
अव्य० [फा़० हरगिज] किसी दशा में। कदापि। कभी। जैसे,— वह वहाँ हरगिज न जायगा।
⋙ हरगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास पर्वत। उ०—जौ हठ करउ त निपट कुकरमू। हरगिरि ते गुरु सेवक धरमू। —मानस, २। २५३।
⋙ हरगिला †
संज्ञा पुं० [हिं० हा़ड़]दे० 'हड़गीला'।
⋙ हरगिस पु
अव्य० [फा़० हरगिज]दे० 'हरगिज'। उ०—करत न हरगिस लाडिले वा बिन सेज न सैन। —भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७८५।
⋙ हरगौरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिव का अर्धनारीश्वर रूप। अर्धनारीनटेश्वर की मूर्ति [को०]।
⋙ हरगौरी रस
संज्ञा पुं० [सं०] रससिंदूर। (आयुर्वेद)।
⋙ हरचंद
अव्य० [फा०] १. कितना ही। बहुत या बहुत बार। जैसे,— मैने हरचंद मना किया, पर उसने न माना। २. यद्यपि। अगरचे।
⋙ हरचंदन पु
संज्ञा पुं० [सं० हरिचन्दन]दे० 'हरिचंदन'। उ०— गुलक विराजत कर्ण महँ शीरष शुभद नियार। हरचंदन कौ तिलक बर, उर सुमनन के हार। —प० रासो, पृ० ९।
⋙ हर चुड़ामणि
संज्ञा पुं० [सं० हरचूड़ामणि] शिव का शिरोभूषण, चंद्रमा [को०]।
⋙ हरज †
संज्ञा पुं० [अ०] १. दे० 'हर्ज'। २. उपद्रव। गड़बड़ (को०)।
⋙ हरजा (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० हर+जा (=जगह)] संगतराशों की यह टाँकी जिससे वे सतह को हर जगह बराबर करते हैं। चौरस करने की छेनी। चौरसी।
⋙ हरजा (२)
अव्य० हर जगह। हर एक स्थान पर [को०]।
⋙ हरजा (३)
संज्ञा पुं० [अ० हरज, हर्ज] १. हरज। हर्ज। २. हरजाना। ३. हानि। नुकसान।
⋙ हरजाई (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. हर जगह घूमनेवाला। जिसका कोई ठीक ठिकाना न हो। २. बहल्ला। आवारा।
⋙ हरजाई (२)
संज्ञा स्त्री० १. व्यभिचारिणी स्त्री। कुलटा। २. वेश्या। रंडी। खानगी।
⋙ हरजाना
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. नुकसान पूरा करना। हानि का बदला। क्षतिपूर्ति। २. वह धन या वस्तु जो किसी को उस नुकसान के बदले में (उसके द्बारा जिससे या जिसके कारण नुकसान पहुँचा हो) दी जाय, जो उसे उठाना पड़ा हो। हानि के बदले में दिया जानेवाला धन। क्षतिपूर्ति का द्रव्य। जैसे,—अगर तुमने वक्त पर सभी चीज न दी तो १००) हरजाना देना पड़ेगा। क्रि० प्र०—देना।—माँगना।—लेना।
⋙ हरजेवड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी झाड़ी जिसे बाख भी कहते हैं। निरविषी। पुरही। विशेष—यह झाड़ी प्रायः सारे भारत और सभी गरम प्रदेशों में पाई जाती है। इसकी डालियों और पत्तियों पर बहुत से रोएँ होते हैं। इसकी जड़ और पत्तियों का व्यवहार ओषधि के रूप में होता है।
⋙ हरट्ट पु
वि० [सं० हृष्ट] दृढ़ अंगोंवाला। मजबूत। मोटा ताजा। हट्टाकट्टा। हृष्ट पुष्ट। उ०—हैबर हरट्ट साजि, गैबर गरट्ट सम, पैदर के ठट्ट फौज जुरी तुरकाने की। —भूषण (शब्द०)।
⋙ हरटिया पु
संज्ञा पुं० [सं० अरहट्ट]दे० 'हरठिया'।
⋙ हरठिया †
संज्ञा पुं० [हिं० रहँट] रहँट के बैल हाँकनेवाला व्यक्ति।
⋙ हरड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० हरीतकी]दे० 'हड़' और 'हर्रा'।
⋙ हरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. जिसकी वस्तु हो उसकी इच्छा के विरुद्ध लेना। छीनना। लूटना या चुराना। र्जसे,—धनहरण, वस्त्रहरण। २. दूर करना। हटाना। न रहने देना। मिटाना। जैसे,—रोगहरण, संकटहरण, पापहरण। ३. नष्ट करना। नाश। विनाश। संहार। ४. ले जाना। वहन। जैसे,—संदेशहरण। ५. (गणित में) भाग देना। तकसीम करना। ६. दायजा जो विवाह में दिया जाता है। ७. वह भिक्षा जो यज्ञोपवीत के समय ब्रह्मचारी को दी जाती है। ८. वीर्य। शुक्र (को०)। ९. सोना। स्वर्ण (को०)। १०. कपर्दिका। कौड़ी (को०)। ११. उबलता हुआ जल (को०)। १२. बलपूर्वक किसी को भगा ले जाना। जैसे, संयोगिता- हरण, सुभद्राहरण। १३. घोड़े का दानापानी। घोड़े का चारा (को०)। १४. कर। हस्त। हाथ (को०)।
⋙ हरणकसीप पु †
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यकशिपु] दे० 'हिरण्यकशिपु'। उ०—हरणकसीप वध कर अधपती देही। इंद्र को बीभो प्रहलाद न लही। —दक्खिनी०, पृ० २८।
⋙ हरणहार पु
वि० [सं० हरण+हिं० (प्रत्य०) हार (=वाला)] दूर करनेवाला। हरनेवाला। उ०—विपदा हरणहार हरि हे करो पार। —आराधना, पृ० २१।
⋙ हरणाखी पु
वि० [सं० हरिणाक्षी] हरिणाक्षी। मृगनयनी। उ०—काछी करह विथूँभिया घड़ियउ जोइण जाइ। हरणाखी जउ हसि कहइ, आणिसि एथि विसाइ। —ढोला०, दू० २२८।
⋙ हरणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मरण। मृत्यु। मौत। २. पानी के निकास की नाली। जलप्रणाली [को०]।
⋙ हरणीय
वि० [सं०] हरण करने या ले लेने योग्य [को०]।
⋙ हरता पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० हर्त्ता] दे० 'हर्ता'। उ०—तुं धाता करतार तु भरता हरता देव। तु दत्ता गोरस तुही प्रसन होउ प्रभु मेव। —पृ० रा०, ६। २१। (ख) हैं हरता करतार प्रभु कारन करन अखेद। —हम्मीर०, पृ० ६४।
⋙ हरता (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरत्व। शिवत्व।
⋙ हरताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हर+हिं० ताई (प्रत्य०)] शिवत्व। हरत्व। महादेवत्व। उ० —अब याकै बल करउँ लराई। हरउँ छनक मैं हर हरताई।—नंद० ग्रं०, पृ० १२२।
⋙ हरता धरता
संज्ञा पुं० [सं० हर्त्ता+धर्त्ता (वैदिक)] १. रक्षा और नाश दोनों करनेवाला। वह जिसके हाथ में बनाना बिगाड़ना या रखना मारना दोनो हों। सब अधिकार रखनेवाला स्वामी। २. सब बात का अधिकार रखनेवाला। सब कुछ करने की शक्ति या अधिकार रखनेवाला। पूर्ण अधिकारी। जैसे,— आजकल वही उनकी सारी जायदाद के हरता धरता हो रहे हैं।
⋙ हरतार पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिताल] दे० 'हरताल'। उ०—का हरतार पार नहि पावा। गंधक काहे कुरकुटा खावा। —जायसी (शब्द०)।
⋙ हरतार पु (२)
वि० [सं० हर्तृ (हर्ता) का बहुवचन हर्तारः] दे० 'हर्ता' उ०—भावी हरतार करतार प्रभु लेषियै। —हम्मीर०, पृ० ६४। यौ०—हरतार करतार=जो हर्ता और कर्ता हो।
⋙ हरताल
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिताल] एक खनिज पदार्थ जिसमें सौ में ६१ भाग संखिया और ३९ भाग गंधक का रहता है। विशेष—यह खनिज पदार्थ एक उपधातु है जो खानों में रोड़ों के रूप में स्वाभाविक मिलता है और बनाया भी जा सकता है। यह पीले रंग का और चमकीला होता है। इसमें गंधक और संखिया दोनों के सम्मिलित गुण होते हैं। वैद्य लोग इसको शोध कर गलित कुष्ट, वातरक्त आदि रोगों में देते हैं जिससे घाव भर जाते हैं। आयुर्वेद में हरताल की गणना उपधातुओं में है। इसमें स्याही या रंग उड़ाने का गुण होता है, इससे पुराने समय में पोथी लिखनेवाले किसी शब्द या अक्षर को उड़ाने के स्थान पर उसपर घुली हुई हरताल लगा देते थे जिससे कुछ दिनों में अक्षर उड़ जाते थे। रँगाई में भी इसका व्यवहार होता है और छींट छापनेवाले भी अपनी प्रक्रिया में इसका व्यवहार करते हैं। पर्या०—पिंजर। ताल। गोदंत। विड़ालक। चित्रगंध। मुहा०—(किसी बात पर) हरताल लगाना या फेरना=नष्ट करना। किया न किया बराबर करना। रद्द करना। जैसे,— तुमने तो मेरे सब कामों पर हरताल फेर दी।
⋙ हरताली (१)
वि० [हिं० हरताल+ई] हरताल के रंग का।
⋙ हरताली (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का पीला या गंधकी रंग।
⋙ हरतालेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक रसौषध जो हरताल के योग से बनती है। विशेष—पहले पुनर्नवा (गदहपूरना) के रस से हरताल को खरल करके टिकिया बनाते हैं। फिर उस टिकिया को पुनर्नवा की राख में रखकर मिट्टी के बरतन में डाल मंद आँच पर चढ़ा देते हैं। इस प्रकार पाँच दिन तक वह टिकिया पकता है; फिर ठंढी करके रख ली जाती है। इस भस्म की एक स्त्री गिलोय के काढ़े के साथ सेवन करने से वातरक्त, अठारह कार के कुष्ठ, फिरंग वात, विसर्प और फोड़े आराम हो जाते हैं।
⋙ हरतेज
संज्ञा पुं० [सं० हरतेजस्] पारा। पारद। विशेष—पुराणों और वैद्यक में यह शिव का वीर्य कहा गया है। विशेष विवरण के लिये दे०'पारा'।
⋙ हरद पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिद्रा] दे० 'हल्दी'। उ०—कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब, दधि, अच्छत माला। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ हरदग्धमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव का नाम जिसके शिव जी ने भस्म कर दिया था [को०]।
⋙ हरदा
संज्ञा पुं० [सं० हरिद्रा] फसल में लगनेवाले कीटाणुओं का समूह। फसल का एक रोग। गेरुई।विशेष—यह पीले या गेरुए रंग की बुकनी रूप में फसल की पत्तियों पर जम जाता है और उसे बड़ी हानि पहुँचाता है। इसे गेरुई भी कहते हैं। मुहा०—हरदा बैगनी होना=लाल पीला होना। उ०—तुम तो हरदा बैगनी हो। तुम्हारे मुँह कौन लगे। —फिसाना०, भा० ३, पृ० १७।
⋙ हरदिया † (१)
वि० [पू० हिं० हरदी] हल्दी के रंग का। पीला।
⋙ हरदिया (२)
संज्ञा पुं० पीले रंग का घोड़ा।
⋙ हरदिया देव पु
संज्ञा पुं० [सं० हरदत्त+देव] दे० 'हरदौल'।
⋙ हरदी †
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिद्रा]दे० 'हल्दी'।
⋙ हरदू
संज्ञा पुं० [देश०] एक बड़ा पेड़ जो हिमालय में जमुना के पूर्व तीन हजार फुट तक के उँचे लेकिन तर स्थानों में होता है। विशेष—इस वृक्ष की छाल अंगुल भर मोटी बहुत मुलायम, खुर- दुरी और सफेद होती है। भीतर की लकड़ी बहुत मजबूत और पीले रंग की होती है और साफ करने से बहुत चमकती है। इससे खेती के और सजावट के सामान, बंदूक के कुंदे, कंघियाँ और नावें बनती हैं।
⋙ हरदौल
संज्ञा सं० [सं० हरदत्त] ओड़छा के राजा जुझारसिंह (सन् १६२६-३५ ई०) के छोटे भाई। विशेष—ये बड़े सच्चे और भ्रातृभक्त थे। एक बार जब महाराज जुझारसिंह दिल्ली के बादशाह के काम से गए थे, तब वे राज्य का प्रबंध अपने छोटे भाई हरदत्तसिंह या हरदौल सिंह के उपर छोड़ गए थे। इनके सुशासन में बेईमानों की नहीं चलने पाई थी। इससे जब महाराज जुझारसिंह लौटकर आए, तब उन सब ने मिलकर राजा को यह सुझाया कि हरदौल के साथ महारानी (उनकी भावज) का अनुचित संबंध है। महारानी अपने देवर को बहुत प्यार करती थीं और हरदत्त भी उन्हें अपनी माता के समान मानते थे। राजा ने अपने संदेह की बात रानी से कही, और यह भी कहा कि हम तुम्हें सच्ची तभी मान सकते हैं जब तुम अपने हाथ से हरदौल को विष दो। रानी ने अपने सतीत्व की मर्यादा के विचार से स्वीकार किया और हरदौल को विषमिश्रित मिठाई खिलाने को बुलाया। हरदौल के आने पर रानी ने सब व्यवस्था कही। सुनते ही हरदौल ने कहा कि माता तुम्हारे सतीत्व की मर्यादा की रक्षा के लिये मैं सहर्ष इसे खाऊँगा। इतना कहकर वे भावज के हाथ से मिठाई लेकर झट से खा गए और थोड़ी देर में परलोक सिधारे। इस घटना का प्रजा पर बड़ा प्रभाव पड़ा और सब लौग हरदौल की देवता के समान पूजा करने लगे। धीरे धीरे इनकी पूजा का प्रचार बहुत बढ़ा और सारे बुंदेलखंड में ही नहीं बल्कि संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) और पंजाब तक ये पुजने लगे। इनकी चौरी या वेदी स्थान स्थान पर बनी मिलती हैं और बहुत से घरानों में ये कुलदेवता के रूप में पूज्य माने जाते हैं। इन्हें हरदिया देव भी कहते हैं।
⋙ हरद्बान पु
संज्ञा सं० [देश०] एक स्थान का नाम जहाँ की तलवार प्रसिद्ध थी।
⋙ हरद्बानी पु
वि [हिं० हरद्बान+ई] हरद्बान का बना हुआ। उ०—हाथन्ह गहे खड़ग हरद्बानी। चमकहि सेल बोजु कै वानी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ हरद्बार
संज्ञा पुं० [सं० हरिद्बार]दे० 'हरिद्बार'।
⋙ हरनछि, हरनछि्छ पु
वि० [सं० हरिणाक्षी] हरिणाक्षी। मृगनैनी। उ०—हरि मागहि हरनछि्छ, करहि तलपत्त पत्त धर। पृ० रा०, २। ३०८।
⋙ हरनर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] एक छंद का नाम।
⋙ हरना (१)
क्रि० स० [सं० हरण] १. जिसकी वस्तु हो, उसकी इच्छा के विरुद्ध ले लेना। छीनना, लूटना या चुराना। २. दूर करना। हटाना। न रहने देना। ३. मिटाना। नाश करना। जैसे,— दुःख या पीड़ा हरना, संकट हरना। उ०—मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोइ।—बिहारी (शब्द०)। ४. ले जाना। उठाकर के जाना। वहन करना। ५. अपनी ओर आकर्षित करना। खींचना। मुहा०—मन हरना=मन खींचना। किसी के मन को अपनी ओर आकर्षित करना। मोहत करना। लुभाना। उ०—हरि दिखराय मोहनी मूरति मन हरि लियो हमारो।—सूर। (शब्द०)। प्राण हरना=(१) मार डालना। (२) बहुत संताप या दुःख देना। उ०—मिलत एक दारुन दुख देही। बिछुरत एक प्रान हरि लेही।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हरना (२)
क्रि० अ० [हिं० हारना] १. जुए आदि में हारना। २. पराजित होना। परास्त होना। ३. थकना। शिथिल होना। हिम्मत हारना।
⋙ हरना पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० हरिण] दे० 'हिरन'।
⋙ हरनाकस पु
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यकशिपु] दे० 'हिरण्यकशिपु'। उ०—हरनाकस औ कंस को गयो दुहुन को राज।—गिरिधर (शब्द०)।
⋙ हरनाच्छ पु †
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्याक्ष] दे० 'हिरण्याक्ष'।
⋙ हरनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरिन+ई (प्रत्य०)] हिरन की मादा। मृगी।
⋙ हरनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हड़+नी (प्रत्य०)] कपड़ों में हड़ (हर्रा) का रंग देने की क्रिया।
⋙ हरनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव के नेत्र। शंकर का नेत्र। २. तीन की संख्या का वाचक शब्द [को०]।
⋙ हरनौटा
संज्ञा पुं० [हिं० हिरन+औटा (प्रत्य०)] हिरन का बच्चा। छोटा हिरन।
⋙ हरपरेवरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हर, हल+परना(=पड़ना)+री (प्रत्य०)] किसानों की औरतों का एक टोटका जो वे पानी न बरसने पर करती हैं।
⋙ हरपा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. सुनारों का तराजू रखने का डिब्बा। २. सिंदूर रखने की डिबिया। सिँधोरा।
⋙ हरपारेउरी
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिपर्वरी]दे० 'हरफारेवड़ी'। उ०—लागि सोहाई हरपारेउरी। ओनइ रही केरन्ह की घउरी।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १४३।
⋙ हरपुजी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हर, हल+पूजा] कार्तिक में हल का पूजन जो किसान करते हैं। विशेष—किसान लोग इस पूजन में उत्सव करते और मिठाई आदि बाँटते हैं।
⋙ हरप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] करवीर। कनेर।
⋙ हरफ (१)
संज्ञा पुं० [अ० हरफ़, हर्फ़] मनुष्य के मुँह से निकलनेवाली ध्वनियों के संकेत जिनका व्यवहार लिखने में होता है। अक्षर। वर्ण। उ०—सोहत अलक कपोत पर बढ़ छबि सिंधु अथाह। मनौ पारसी हरफ इक लसत आरसी माह।—स० सप्तक, पृ० २४६। २. शब्द। बात (को०)। ३. दोष। बुराई। ऐब (को०)। ४. व्याकरण में अव्यय। प्रत्यय (को०)। मुहा०—किसी पर हरफ आना=दोष लगना। कसूर लगना। जैसे,—तुम बेफिक्र रही, तुम पर जरा भी हरफ न आवेगा। हरफ उठाना=अक्षर पहचानकर पढ़ लेना। जैसे,—अब तो बच्चा हरफ उठा लेता है। हरफ पकड़ना=(१) किसी की त्रुटि पकड़ना। गलती पकड़ना। (२) बोलने में टोकना। हरफ बैठाना=छापे के अक्षरों को क्रम से रखना। टाइप जमाना। हरफ बनाना=(१) सुंदर अक्षर लिखना। (२) अक्षर लिखने का अभ्यास करना। (३) किसी दस्तावेज में जाल के लिये फेरफार करना। किसी पर हरफ लाना=दोष देना। इलजाम लगाना। लांछित करना।
⋙ हरफगीर
वि० [अ० हर्फ+फा० गीर] १. अक्षर अक्षर का गुण दोष देखनेवाला। बहुत बारीकी से दोष देखने या पकड़नेवाला। २. बाल की खाल निकानेवाला।
⋙ हरफगीरी
संज्ञा स्त्री० [अ० हर्फ+फा० गीरी] बहुत बारीकी से गुण दोष देखना। बड़ी सूक्ष्म परीक्षा। बाल की खाल निकालना।
⋙ हरफा
संज्ञा पुं० [देश०] कटा चारा या भूसा रखने का घर जो लकड़ी के घेरे से बनाया जाता है।
⋙ हरफारेवड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिपर्वरी] १. कमरख की जाति का एक पेड़। लवली। विशेष—इसमें आँवलों के से छोटे छोटे फल लगते हैं जो खाने में कुछ खटमीठे होते हैं। २. उक्त पेड़ का फल जो खाया जाता है।
⋙ हरफारयोरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिपर्वरी]दे० 'हरफारेवड़ी'। उ०—लागी सोहाई हरफारयोरी। उनै रही केरा कै घौरी।— जायसी ग्रं०, पृ० १३।
⋙ हरबर † (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'हड़बड़', 'हड़बड़ी'।
⋙ हरबर (२)
क्रि० वि० हड़बड़ी या उतावली से।
⋙ हरबरा पु
वि० [हिं०] उतावला उ०—तहँ युद्ध को भे हरबरे।— हिम्मत०, पृ० २।
⋙ हरबराना पु †
क्रि० अ० [हिं० हरबर]दे० 'हड़बड़ाना'।
⋙ हरबरिया †
वि० [हिं० हरबर] उतावला।
⋙ हरबरी पु
संज्ञा स्त्री०, पुं० [हिं० हरबर+ई (प्रत्य०)]दे० 'हड़बड़ी'। उ०—बाढ़ी चोप चुहल की हिय मैं हरबरी।—घनानंद, पृ० १९।
⋙ हरबल (१)
संज्ञा पुं० [अ० हरावल]दे० 'हरावल'। उ०—चढ़ि चले साह हरबल सभीर। —ह० रासो, पृ ७०।
⋙ हरबल पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० हरबर] दे० 'हरबर'। उ०—गर्व गुमान महंत कहावे, भक्ति करन को हरबल धाए।—कबीर सा०, भा० ३, पृ० २९२।
⋙ हरबा
संज्ञा पुं० [अ० हरबह्] अस्त्र। हथियार। यौ०—हरबा हथियार। २. पुरुषेंद्रिय। लिंग। (बाजारू)।
⋙ हरबासार पु
संज्ञा पुं० [सं० हरि अथवा हर (=विष्णु या शिव 'रुद्र') +वासर (=तिथि)] एकादशी। उ०—हरबासर दिन पहूँतो छइ आय। चंद्र बदन धन लागइ छै पाय।—बी० रासो, पृ० ५१। विशेष—संस्कृत में हरिवासर शब्द का प्रयोग एकादशी के लिये हुआ है, अथवा हर का अर्थ शिव या रुद्र है। रुद्र ग्यारह माने गए हैं अतः हर का अर्थ ग्यारह होगा और बासर का अर्थ दिन या तिथि इस प्रकार 'हरबासर' का अर्थ ग्यारहवाँ दिन या एकादशी है।
⋙ हरबीज
संज्ञा पुं० [सं०] पारा। पारद।
⋙ हरबोंग (१)
वि० [हिं० हर(=हल) +बोँग (=बंगड़, लंठ)] १. गँवार। लट्ठमार। अक्खड़। २. मुर्ख। जड़।
⋙ हरबोँग (२)
संज्ञा पुं० १. अंधेर। कुशासन। गड़बड़ी। २. उपद्रव। उत्पात। ३. अव्यवस्था। बदअमली। गड़बड़ी। उ०—किसी ने मोहनभोग का थाल उठाया किसी ने फलों का, कोई पंचामृत बाँटने लगा। हरबोँग सा मच गया।—काया०, पृ, १३८। क्रि० प्र.—मचना।—मचाना।
⋙ हरभूली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का धतूरा जिसके बीज फारस से बंबई में आते और बिकते हैं।
⋙ हरम (१)
संज्ञा पुं० [अ०। तुल० सं० हर्म्य] १. अंतःपुर। जनानखाना। २. काबा। मसजिद (को०)। ३. मक्के के आस पास का क्षेत्र जहाँ जीवहत्या महापाप है (को०)। ४. गुंबद। गुंबज (को०)। यौ०—हरमखाना, हरमगाह= दे० 'हरमसरा'। हरमसरा= अंतःपुर। जनानखाना।
⋙ हरम (२)
संज्ञा स्त्री० १. जनानखाने में दाखिल की हुई स्त्री। मुताही। रखेली स्त्री। २. दासी। ३. स्त्री। बेगम। ४. प्राचीन कोठी। पुरानी इमारत (को०)। ५. वृद्धावस्था। जरा। बुढ़ापा (को०)।
⋙ हरमल
संज्ञा पुं० [देश०] डेढ़ दो हाथ ऊँची एक प्रकार की झाडी़। विशेष—यह झाड़ी सिंध, पंजाब, काश्मीर और दक्षिण भारत में बहुतायत से पाई जाती है। इसकी पत्तियाँ ओषधि के रूप में काम आती हैं और उसके बीजों से एक प्रकार का लाल रंग निकलता है।
⋙ हरमजदगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० हरामदादगी] शरारत। नटखटी। बदमाशी।
⋙ हरमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृत्त। दे० 'हलमुखी'।
⋙ हरयाल, हरयाला पु
संज्ञा स्त्री [हिं०] हरियाली। हरीतिमा।
⋙ हरये पु
अव्य० [हिं०]दे० 'हरएँ'।
⋙ हरवल (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हर+ओल (प्रत्य०)] वह रुपया जो हल- वाहों को बिना ब्याज के पेशगी या उधार दिया जाता है।
⋙ हरवल पु (२)
संज्ञा पुं० [तु० हरावल] दे० 'हरावल'।
⋙ हरवली
संज्ञा स्त्री० [तु० हरावल] सेना की अध्यक्षता। फौज की अफसरी। उ०—जौ नहि देतौ अतन कहुँ दृगन हरवली आय। मन मवास जे सुतिन के को सर करतौ जाय।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ हरवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. संगीत दामोदर के अनुसार ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक का नाम। २. श्वेत धतूरा का पुष्प या फल जो शिव को प्रिय है (को०)।
⋙ हरवा ‡ (१)
संज्ञा पुं० [सं० हार+हिं० वा (प्रत्य०)] दे० 'हार'। उ०—चंपक हरवा अँग मिलि अधिक सुहाइ। जानि परै सिय हियरे जब कुँभिलाइ।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हरवा पु (२)
वि० [सं० लघुक] दे० 'हरुवा'। उ०—(क) सुंदर मौन गहे रहै जानि सकै नहिं कोइ। बिन बोलै गुरवा कहैं बोले हरवा होइ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७३५। (ख) नैकहि मैं हरवो होइ जात, खिसै अध विंद ज्यौं जोग जती कौ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ४७५।
⋙ हरवाइ पु
वि० [हिं० हरवा] शीघ्रतापूर्वक। उ०—हरवाइ जाय सिय पाइँ परी। ऋषिनारि सूँघि सिर गोद धरी।—राम चं०, पृ० ६५।
⋙ हरवाना
क्रि० अ० [हिं० हड़बड़] जल्दी करना। शीघ्रता करना। उतावली करना। हड़बड़ी मचाना।
⋙ हरवाल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जिसे 'सुरारी' भी कहते हैं।
⋙ हरवाह †
संज्ञा पुं० [सं० हर, हल+वाह] दे० 'हरवाहा'।
⋙ हरवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का वाहन। शिव की सवारी। वृषभ। बैल।
⋙ हरवाहा
संज्ञा पुं० [हिं० हर, हल+सं०वाह] हल चलानेवाला मज- दूर या नौकर। हलवाहा। उ०—मन कै बैल सुरत हरवाहा।— कबीर० श०, भा० २, पृ० २४।
⋙ हरवाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरवाह+ई (प्रत्य०)] १. हलवाहे का काम। २. हलवाहे की मजदूरी।
⋙ हरशंकरी
संज्ञा स्त्री० [सं० हरणङ्कर] पीपल और पाकर (पक्कड़) के एक साथ लगे हुए पेड़ जो बहुत पवित्र माने जाते हैं।
⋙ हरशृंगारा
संज्ञा स्त्री० [सं० हरश्रृङ्गारा] संगीत शास्त्र में एक रागिनी का नाम [को०]।
⋙ हरशेखरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा जो शिव के सिर पर रहती हैं।
⋙ हरष पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० हर्ष] दे० 'हर्ष'।
⋙ हरषना पु (१)
क्रि० अ० [सं० हर्ष, हिं० हरष+ना (प्रत्य०)] १. हर्षित होना। प्रसन्न होना। खुश होना। उ० —हरषे पुर नरनारि सब मिटा मोहमय सूल। —तुलसी (शब्द०)। २. पुलकित होना। रोमांच से प्रफुल्ल होना। उ० —नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गात। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ हरषना पु (२)
क्रि० स० [हिं० हरषाना] हर्षित करना। उ०—अपनौ जीवन जग मैं बरषै। दुख करषै, सब जंतुन हरषै।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०५।
⋙ हरषाना पु (१)
क्रि० अ० [सं० हर्ष, हिं० हरष+आना (प्रत्य०)] हर्षित होना। प्रसन्न होना। खुश होना। उ० —जे पर भनित सुनत हरषाहीं। —तुलसी (शब्द०)। २. पुलकित होना। रोमांच से प्रफुल्ल होना।
⋙ हरषाना (२)
क्रि० स० हर्षित करना। प्रसन्न करना।
⋙ हरषित पु
वि० [सं० हर्षित] दे० 'हर्षित'।
⋙ हरसख
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर का एक नाम [को०]।
⋙ हरसना पु
क्रि० अ० [सं० हर्षण] प्रसन्न होगा। दे० 'हरषना'। उ० —सहन सौरभ से समीरण पर सहस्रों किरण हरसी।—अर्चना, पृ० १६।
⋙ हरसाना पु
क्रि० स० [हिं० हरसना] दे० 'हरषाना'। उ० —ही मै धारे श्याम रंग ही को हरसावैं जग। —प्रेमघन०, भा० १, पृ० १९८।
⋙ हरसिंगार
संज्ञा पुं० [सं० हार+शृंगार] मझोले कद का एक पेड़ और उसका पुष्प इसे परजाता भी कहते हैं। विशेष —इसकी पत्तियाँ चार पाँच अंगुल लंबी, तीन-चार अंगुल चौड़ी और किनारों पर कुछ कटावदार होती हैं। पतली नोंक कुछ दूर तक निकली होत है। यह पेड़ फूलों के लिये बगीचों में लगाया जाता है और विंध्य पर्वत के कई स्थानों पर जंगली होता है। यह शरद् ऋतु में कुआर से अगहन तक फूलता है। फूल में छोटे छोटे पाँच दल और नारंगी रंग की लंबी पोली डाँडी होती है। फूल पेड़ में बहुत काल तक लगे नहीं रहते, बराबर झड़ा करते हैं। डाँड़ियों को लोग पीला रंग निकालने के लिये सुखाकर रखते हैं। इसकी पत्ती ज्वर की बहुत अच्छी ओषधि समझी जाती है।
⋙ हरसूनु
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्कंद का एक नाम। कार्तिकेय। २. गणपति। गणेश [को०]।
⋙ हरसौंधा †
संज्ञा पुं० [हिं० हरिस] कोल्हू में वह स्थान या पाटा जिसपर बैठकर बैल हाँके जाते हैं।
⋙ हरहंस पु
संज्ञा पुं० [सं० हर+हंस] सूर्य। उ०—हुवै जेम हरहंस सूँ वासर कमल विकास। —बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ५२।
⋙ हरहट †
वि० [हिं० हरकना] नटखट (बैल) जो बार बार खेत चरने दौड़े या इधर उधर भागता फिरे (चौपाया)। हरहाई। जैसे,—हरहट गैया।
⋙ हरहर (१)
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] १. पानी एवं हवा के तीव्र वेग से बहने की ध्वनि। उ०—नीचे प्लावन की प्रलय धार ध्वनि हरहर। —तुलसी०, पु० ४। २. जोरों से हँसने की घ्वनि। उ० — (क) प्रभु जी की प्रभुताई, इंद्र हू की जड़ताई, मुनि हँसै हेरि हेरि हरि हँसै हरहर। —नंद० ग्रं०, पृ० ३६२। (ख) नंद कुँवर तब हरहर हँसै। हँसत जु रदन वदन में लसे। — नंद० ग्रं०, पृ० ३०१। (ग) काम कुटिलता ही कहि गावैं हरहर हाँसा। —रै० बानी, पृ० १२।
⋙ हरहराट पु †
संज्ञा पुं० [अनु०] थरथराहट। कंपन।
⋙ हरहराना
क्रि० अ० [अनुध्व०] नदियों का हरहर शब्द करते हुए द्रुत गति से बहना। उ० —नदियाँ बाढ़ की बाढ़ पर आ खसी खास्णक (घासपात) बहाती हरहराती चद्दरै फेकती। — प्रेमघन०, भा० २, पृ० १२।
⋙ हरहा †
वि० [हिं० हरकना] नटखट। दे० 'हरहट'।
⋙ हरहा (२)
संज्ञा पुं० हर में न नधनेवाले बैल। उ०—धीरे धीरे चल दीं, सारी दुनियाँ छल दीं, पीछे भाई के हरहों के डगले।— आराधना, पृ० ८०।
⋙ हरहा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] भेड़िया। वृक।
⋙ हरहाई पु (१)
वि० स्त्री० [हिं० हरहा] नटखट (गाय) जो बार बार खेत चरने दौड़े या इधर उधर भागती फिरे। हरहट। उ०— जिमि कपिलहिं घालै हरहाई। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ हरहाई (२)
संज्ञा पुं० खूँटे से अपने को छुड़ाकर या राह चलते लोगों के खेत खलिहान चर डालनेवाली आदत या स्वभाव। नटखटी। नटखट होने का भाव। उ०—ज्यौं पशु हरहाई करहिं षेत बिराने खाहि। —सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १६९।
⋙ हरहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का हार, सर्प। उ०— हठि हित करि प्रीतम हियो कियो जू सौति सिंगार। अपने कर मोतिन गुह्मो भयो हरा हरहार। —बिहारी (शब्द०)। २. शेषनाग।
⋙ हरहारा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हर+हार (वाला)] हलधर। कुषक। किसान। उ० —राजे, आयौ ऐ जेठ असाढ़, हरहारे नें हरु रे सम्हारिए। — पोद् दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१९।
⋙ हरहोरवा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
⋙ हराँस †
संज्ञा पुं० [अ० हर (=गरम होना)+सं० अंश] १. मंद ज्वर। हरारत। २. शैथिल्य। थकान। थकावट।
⋙ हरा (१)
वि० [सं० हरित, प्रा० हरिअ] [वि० स्त्री० हरी] १. घास या पत्ती के रंग का। हरित। सब्ज। जैसे, —हरा कपड़ा, हरी पत्ती। यौ० —हरामन। हराभरा=(१) हरीतिमा या हरियाली से भरा हुआ। (२) सद्यः प्रसुत। ताजा। टटका। (३) खिला हुआ। प्रसन्न। प्रफुल्ल। विकसित। जैसे —हरा भरा चेहरा। २. प्रफुल्ल। प्रसन्न। ताजा। जैसे, —(क) नहाने से जी हरा हो गया। (ख) माँ बेटे को देख हरी हो गई। (ग) हरा भरा चेहरा। क्रि० प्र० —करना।—होना। ३. जो मुरझाया न हो। सजीव। ताजा। जैसे, —पानी देने से पौधे हरे हो गए। ४. (घाव) जो सुखा या भरा न हो। जैसे — घाव लगने से धाव फिर हरा हो गया। ५. दाना या फल जो पका न ही। जैसे—हरा दाना, हरे अमरुद, हरे बूट। मुहा०—हरा करना=तरो ताजा करना। खुश कर देना। हरा दिखाई पड़ना या सुझना=झूठी आशा करना। व्यर्थ की कल्पना करना। हरा बाग=केवल अभी लुभानेवाली पर पीछ कुछ न ठहरनेवाली बात। व्यर्थ आशा बँधानेवाली बात। हरा भरा=(१) जो हरे पेड़ पौधों और घाल आदि से भरा हो। (३) जो बाल बच्चों से भरी पूरी हो। जिसकी गोद में शिशु किलकते हों। जैसे,—तेरी गोद हरी भरी रहे। हरे में आँखें होना या फूलना=हरियाली सूझना। मन बढ़ा रहना और आगम का ध्यान न रहना।
⋙ हरा (२)
संज्ञा पुं० १. घास या पत्ती का सा रंग। हरित वर्ण। जैसे,— नीला और पीला मिलाने से हरा बन जाता है। २. चौपायों को खिलाने का ताजा चारा।
⋙ हरा पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० हार] हार। माला। उ०—(क) अपने कर मोतिन गुह्मो भयो हरा हरहार।—बिहारी (शब्द०)। (ख) कुच दुंदन को पहिराय हरा मुख सोँधी सुरा महकावति है—श्रीधर पाठक (शब्द०)।
⋙ हरा (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] हर या महादेव की स्त्री पार्वती।
⋙ हरा (५)
संज्ञा पुं० [सं० हरित] हरे रंग का घोड़ा। सब्जा। उ०— हरे कुरंग महुअ बहु भाँती। गरर कोकाह बुलाह सुपाँती।—जायसी (शब्द०)।
⋙ हराई † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हर, हल] खेत का उतना भाग जितना एक हल के चक्कर में जुत जाता है। बाह। जैसे—चार हरांई हो गई। मुहा०—हराई फाँदना=जुताई की कूँड़ शुरू करना।
⋙ हराई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हारना] हारने की क्रिया या भाव। हार।
⋙ हराद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास पर्वत। हरगिरि [को०]।
⋙ हरानत
संज्ञा पुं० [सं०] रावण का एक नाम।
⋙ हराना
क्रि० स० [हिं० हारना, या हरना] युद्ध में प्रतिद्बंद्बी को हटाना। मारना या बेकाम करना। परास्त करना। पराजित करना। शिकस्त देना। जैसे,—लड़ाई में हराना। २. शत्रु को विफलमनोरथ करना। दुश्मन को नाकामयाब करना। ३. प्रयत्न में शिथिल करना। और अधिक श्रम के योग्य न रखना। थकाना। संयो० क्रि०—देना ।
⋙ हरापन
संज्ञा सं० [हिं० हरा+पन (प्रत्य०)] हरे होने का भाव। हरितता। सब्जी।
⋙ हराम (१)
वि० [अ०] निषिद्ध। विधिविरुद्ध। बुरा। अनुचित। दूषित। जैसे,—मुसलमानों के लिये सूद खाना हराम है। उ०—खात है हराम दाम करत हराम काम घट घट तिनहीं के अवयश छानेंगे।—अकबरी०, पृ० ३२।
⋙ हराम (२)
संज्ञा पुं० १. वह वस्तु या बात जिसका धर्मशास्त्र में निषेध हो। वर्जित बात या वस्तु। २. शूकर। सूअर जिसके छूने खाने आदि का इसलाम में निषेध है। उ०—आँधरो, अधम, जड़ जाजरो जरा जवन, सुकर के सावक ढका ढकेल्यो मग में। गिरो हिये हहरि हराम हो हराम हन्यो हाय हाय करत परीगो काल फँग में।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—(कोई बात) हराम करना=किसी बात का करना मुश्किल कर देना। ऐसा करना कि कोई काम आराम से न कर सके। जैसे,—तुमने तो काम के मारे खाना पीना हराम कर दिया। (कोई बात) हराम होना=किसी बात का करना मुश्किल हो जाना। कोई बात न करने पाता। जैसे—रात भर इतना शोर हुआ कि नींद हराम हो गई। ३. बेईमानी। अधर्म। बुराई। पाप। जैसे,—(क) हराम का रुपया हम नहीं लेते। (ख) हराम की छूना बुरा है। (ग) हराम की कमाई खाते शर्म नहीं आती। मुहा०—हराम का या हराम का खाना=(१) जो बेईमानी से प्राप्त हो। जो पाप या अधर्म से कमाया गया हो। जैसे—हराम का माल उड़ाते शर्म नहीं आती। (२) मुफ्त का। जो बिना मिहनत का या काम के मिले। जैसे—पड़े पड़े हराम का खाना खाओ। हरामघाट उतारना=किसी को बुराई की राह पर ले जाना।—अपनी०, पृ० ८९। हराम का माल या कमाई=दे० 'हराम का' और 'हराम'—३। यौ०—हरामखोर। ४. स्त्री पुरुष का अनुचित संबंध। व्यभिचार। जैसे,—हराम का लड़का। यौ०—हरामजादा। मुहा०—हराम का जना, पिल्ला या बच्चा=(१) दोगला। वर्णसंकर। (२) दुष्ट। पाजी। बदमाश। (गाली)। हराम का पेट=व्यभिचार से रहा हुआ गर्भ।
⋙ हरामकार
संज्ञा पुं० [अ० + फा०] १. निषिद्ध कर्म करनेवाला। बुरे काम करनेवाला। २. व्यभिचारी। पर-स्त्री-लंपट।
⋙ हरामकारी
संज्ञा स्त्री० [अ० + फा०] निषिद्ध कर्म। पाप। बुराई। २. व्यभिचार। पर-स्त्री-गमन।
⋙ हरामखोर
वि०, संज्ञा पुं० [अ० + फ़ा०] १. पाप की कमाई खानेवाला। अनुचित रूप से धन पैदा करनेवाला। २. बिना मिहनत मजदूरी किए यों ही किसी का धन लेनेवाला। मुफ्तखोर। ३. अपना काम न करनेवाला। आलसी। निकम्मा।
⋙ हरामखोरी
संज्ञा स्त्री० [अ० + फा० + ई (प्रत्य०)] १. मुफ्त का माल खाने की प्रवृत्ति। मुफ्तखोरी। २. घूस खाना या लेना। घूसखोरी। ३. नमकहराम का काम। नमकहरामी [को०]।
⋙ हरामजदगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० हरामजदगी] १. दोगलापन। २. धूर्तता।
⋙ हरामजादा
संज्ञा पुं० [अ० हराम+फ्रा़०जादा] [संज्ञा स्त्री० हरामजादी] १. व्यभिचार से उत्पन्न पुरुष। दोगला। वर्णसंकर। २. दुष्ट। पाजी। बदमाश। खल। (गाली)। उ०—भकुआ भरंकी अरु हिलसी हरामजादे लावर दगैल स्यार आँखिन दिखाए तैं।—ठाकुर०, पृ० २७।
⋙ हरामी
वि० [अ० हराम+ई (प्रत्य०)] १. व्यभिचार से उत्पन्न। २. दुष्ट। पाजी। नटखट। (गाली)। उ०—हिंदू हरामी की कहूँ। कुफरान बुत पूजै नकल।—तुरसी० श०, पृ० २७। यौ०—हरामी का पिल्ला या बच्चा=दे० हराम का जना, पिल्ला या बच्चा।
⋙ हरामुद्दालह
वि० [अ० हरामुद्दहर] अत्यंत या शरारती दुष्ट। बहुत पाजी। (गाली)।
⋙ हरारत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. गर्मी। ताप। जोश। २. हलका ज्वर। ज्वरांश। मंद ज्वर।
⋙ हरावर पु (१)
संज्ञा स्त्री० [दि० हड़ावर]दे० 'हड़ावरि'।
⋙ हरावर (२)
संज्ञा पुं० [तु० हरावल]दे० 'हरावल'।
⋙ हरावरि पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हा़ड़]दे० 'हड़ावरि'।
⋙ हरावरि (२)
संज्ञा पुं० [तु० हरावल]दे० 'हरावल'।
⋙ हरावल
संज्ञा पुं० [तु०] १. सेना का अगला भाग। सिपाहियों का वह दल जो फौज में सबके आगे रहता है। उ०—ज्ञान निस्सान को चढ़ै बजाय कै, हरावल छमा घर घाट चीन्हा।—पलटू०, भा० २, पृ० १४। २. ठगों या डाकुओं का सरदार जो आगे चलता है।
⋙ हरास
संज्ञा पुं० [फ़ा० हिरास] १. भय। डर। २. आशंका। खटका। अंदेशा। उ०—अंतहु उचित नृपहिं बनबासू। बय बिलोकि हिय होइ हरासू। —तुलसी (शब्द०)। ३. विषाद। दुःख। रंज। उ०—राज सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भएउ न हरष हरासू। —तुलसी (शब्द०)। ४. नैराश्य। नाउम्मेदी।
⋙ हराहर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० हलाहल]दे० 'हलाहल'।
⋙ हराहर पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरना] छीना झपटी। उ०—दिन होरी खेल की हराहर भरयौ हो सु तौ, भाग जागेँ सोयौ निधरक नैन ढाँपि कै।—घनानंद, पृ० २१०।
⋙ हराहरि
संज्ञा स्त्री० [अ० हरारत] क्लांति। थकावट। शैथिल्य। उ०—कछु मेरे तबै परिरंभन सो सुठि अंग हराहरि खोइ गई।—उत्तर०, पृ० १३।
⋙ हरि (१)
वि० [सं०] १. पिंगल (वर्ण)। भूरा या बादामी। २. पीला। ३. हरे रंग का। हरा। हरित्। ४. हरीतिमायुक्त पीला। ५. वहन करनेवाला। ढोने या ले जानेवाला (को०)।
⋙ हरि (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु। भगवान्। २. इंद्र। ३. घोड़ा। ४. बंदर या बनमानुस। ५. सिंह। ६. सिंह राशि। ७. सूर्य। ८. किरण। ९. चंद्रमा। १०. गीदड़। ११. शुक। सूआ। तोता। १२. मोर। मयूर। १३. कोकिल। कोयल। १४. हंस। १५. मेढक। मंडूक। १६. सर्प। साँप। १७. अग्नि। आग। १८. वायु। १९. विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण। २०. श्रीराम। उ०—हरि हित हरहु चाप गरुआई।—तुलसी (शब्द०)। २१. शिव। २२. यम। २३. शुक्र। २४. गरुड के एक पुत्र का नाम। २५. एक पर्वत का नाम। २६. एक वर्ष या भूभाग का नाम। २७.अठारह वर्णों का एक छंद या वृत्त। उ०—बानर गन बानन सन केशव जबहीं मुरयौ। रावन दुखदावन जगपावन समुहें जुरयो (शब्द०)। २८. बौद्धशास्त्रों में एक बड़ी संख्या का नाम। २९. ब्रह्मा का नाम (को०)। ३०. मनुष्या मनुज। मानव (को०)। ३१. भर्तृहरि कवि। ३२. उच्चैश्रवा। इंद्र का अश्व (को०)। ३३. पीत वर्ण या हरापन लिए पीला रंग [को०]। ३४. एक लोक का नाम (को०)। ३४. तामस मन्वंतर के एक देववर्ग का नाम (को०)।
⋙ हरि पु (३)
वि० [फा० हर] प्रत्येक। उ०—कहेसि ओहि सँवरौं हरि फेरा।—जायसी ग्रं०, पृ० १११।
⋙ हरि पु (४)
अव्य० [हिं० हरुए] धीरे। आहिस्ते। उ०—सूखा हिया हार भा भारी। हरि हरि प्रान तजहिं सब नारी—जायसी (शब्द०)। यौ०—हरि हरि=धोरे धीरे। शनैः शनैः।
⋙ हरिअर पु † (१)
वि० [सं० हरितर अथवा सं० हरित्+हिं० र (प्रत्य०)] पेड़ की पत्ती के रंग का। हरा। सब्ज।
⋙ हरिअर (२)
संज्ञा पुं० एक रंग का नाम जो पेड़ की पत्तियों के समान हरा होता है। उ०—अजगव खंडेउ ऊख जिमि मुनिहि हरिअरइ सूझ।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हरिअराना †
क्रि० अ० [हिं० हरिअर से ना० धा०]दे० 'हरिआना' दे० 'हरिआना'।
⋙ हरिअरि पु †
क्रि० [हिं० हरिअर] हरित् वर्ण का। हरा। सब्ज। उ०—हरिअरि भूमि कुसुंभी चोला।—जायसी (शब्द०)।
⋙ हरिअरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरिअर+ई (प्रत्य०)] १. हरे रंग का विस्तार। २. घास और पेड़ पौधों का समूह। हरियाली।
⋙ हरिआना †
क्रि० अ० [हिं० हरिअर] १. हरा होना। सब्ज होना। २. मुरझाया न रहना। ताजा होना। ३. शेथिल्य या क्लांति न रहना। थकावट दूर होना। ४. हर्षित होना। खुश होना। प्रसन्न होना। संयो० क्रि०—आना।—उठना।
⋙ हरिआली
संज्ञा स्त्री० [सं० हरित्+आलि] १. हरेपन का विस्तार। २. घास और पेड़ पौधा का फौला हुआ समूह। जैसे,—सड़क के दोनों ओर बड़ी सुंदर हरिआली है।
⋙ हरिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल या भूरे रंग का घोडा़। २. चौर। तस्कर (को०)। ३. जुआड़ी, जो पासे के साथ हो (को०)।
⋙ हरिकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगवान् या उनके विविध अवतारों का चरित्रवर्णन।
⋙ हरिकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ।
⋙ हरिकांत
वि० [सं० हरिकान्त] १. जो हरि को प्रिय हो। २. जिसे इंद्र चाहते हों। इंद्रप्रिय। ३. सिंह की तरह सुंदर [को०]।
⋙ हरिकारा †
संज्ञा पुं० [फा० हरकारह्, हिं० हरकारा] दे० 'हरकारा'। उ०—आवत हरिकारन हूँ को जगदिशी पग थहरत।— प्रेमघन०, भा०१, पृ० २७।
⋙ हरिकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] भगवान् या उनके अवतारों की स्तुति का गान। भगवान् का भजन।
⋙ हरिकेलीय
संज्ञा पुं० [सं०] वंग देश का एक नाम।
⋙ हरिकेश (१)
वि० [सं०] भूरे बालोंवाला।
⋙ हरिकेश (२)
संज्ञा पुं० १. सूर्य की सात प्रधान कलाओं में से एक। २. शिव का एक नाम। ३. सविता का एक नाम। सूर्य का नाम (को०)। ४. एक यक्ष का नाम जो शिव को प्रसन्न करके गणों का एक नायक हुआ था। दंडपाणि। ५. श्यामक नामक यादव का पुत्र जो वसुदेव का भतीजा लगता था।
⋙ हरिक्रांता
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिक्रांता] एक प्रकार की लता। विष्णु क्रांता।
⋙ हरिक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पटना के पास एक तीर्थ का नाम।
⋙ हरिखंड पु
संज्ञा पुं० [सं० हरि+खण्ड] मयूरपिच्छ। मोरपंख।
⋙ हरिगंध
संज्ञा पुं० [सं० हरिगन्ध] पीला चंदन।
⋙ हरिगण
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वयूथ। घोड़ों का समूह [को०]।
⋙ हरिगीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह मत या सिद्धांत जिसे नारायण ने नारद मुनि को बताया था। २. एक वृत्त का नाम। दे० 'हरिगीतिका'।
⋙ हरिगीतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोलह और बारह के विराम के अट्ठाइस मात्राओं का एक छंद जिसकी पाँचवीं, बारहवीं, उन्नीसवीं और छब्बीसवीं मात्रा लघु होनी चाहिए। अंत में लघु गुरु होता है। जैसे—निज दास ज्यों रघुबंस भूषन कबहुँ मम सुमिरन करयो।—मानस ७।२।
⋙ हरिगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का मंदिर। २. एक नगर का नाम जिसे एकचक्र भी कहते हैं [को०]।
⋙ हरिगोपक
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रगोप। बीरबहूटी [को०]।
⋙ हरिचंद
संज्ञा पुं० [सं० हरिश्चन्द्र] दे० 'हरिश्चन्द्र'।
⋙ हरिचंदन
संज्ञा पुं० [सं० हरिचन्दन] १. एक प्रकार का चंदन। २. स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक। विशेष—स्वर्ग के पाँच वृक्षों के नाम इस प्रकार कहे गए हैं— पारिजात, मंदार, हरिचंदन, संतान और कल्पवृक्ष। ३. कमल का पराग। ४. केसर। ५. चंद्रिका। चाँदनी।
⋙ हरिचर्म
संज्ञा पुं० [सं०] व्याघ्रचर्म। बाघंबर।
⋙ हरिचाप
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रधनुष।
⋙ हरिज
संज्ञा पुं० [सं०] क्षितिज [को०]।
⋙ हरिजच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० हर्यक्ष] सिंह। उ०—कंठीरव हरि केहरी पुंडरीक हरिजच्छ।—अनेकार्थ०, पृ०, ९८।
⋙ हरिजटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक राक्षसी जिसे रावण ने सीता को समझाने के लिये नियत किया था।
⋙ हरिजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भगवान् का दास। ईश्वर का भक्त। उ०—धर्मशास्त्र तीरथ हरिजन कर, निंदा करत मुनहु दुख तिनकर।—कबीर सा०,पृ० ४६५। २. अछूत कही जानेवाली जाति का व्यक्ति। निग्नवर्ण का व्यक्ति। शूद्र।
⋙ हरिजान पु
संज्ञा पुं० [सं० हरियान] दे० 'हरियान'। उ०—सुनु हरिजान ग्यान निधि कहौं कछुक कलिधर्म।—मानस, ७।९७।
⋙ हरिण (१)
संज्ञा पुं० [स्त्री० हरिणी] १. मृग। हिरन। २. हिरन की एक जाति। विशेष—शेष चार जातियों के नाम ये हैं—ऋष्य, रुरु, पृषत् और मृग। ३. हंस। ४. सूर्य। ५. एक लोक का नाम। ६. विष्णु का एक नाम। ७. शिव का एक नाम। ८. एक नाग का नाम। ९. नकुल। नेवला (को०)। १०. शिव के एक गण का नाम। ११. श्वेत वर्ण जो पीलापन लिए हो (को०)।
⋙ हरिण (२)
वि० १. भूरे या बादामी रंग का। २. पीलापन लिए श्वेत वर्ण का (को०)। ३. किरणों से युक्त। किरणवाला (को०)।
⋙ हरिणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृग। हिरन। २. छोटा हरिना [को०]।
⋙ हरिणकलंक
संज्ञा पुं० [सं० हरिणकलङ्क] चंद्रमा। मृगलांछन।
⋙ हरिणचर्म
संज्ञा पुं० [सं० हरिणचर्मन्] हिरन का चमंड़ा। मृगछाल [को०]।
⋙ हरिणधामा
संज्ञा पुं० [सं० हरिणधामन्] चंद्रमा। चंद्र [को०]।
⋙ हरिणनयन,
वि० पुं० [सं०] हरिण के सदृश नेत्रवाला।
⋙ हरिणनयना, हरिणनयनी
वि० स्त्री० [सं०] हिरन की आँखों के समान सुंदर आँखोंवाली। सुंदरी। हरिणाक्षी।
⋙ हरिणनर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] किन्नर जाति [को०]।
⋙ हरिणनेत्र
वि० पुं० [सं०] दे० 'हरिणनयन'।
⋙ हरिणनेत्रा
वि० स्त्री० [सं०] हरिण के समान सुंदर आँखों वाली। हरिणनयना [को०]।
⋙ हरिणप्लुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णार्धसम वृत्त का नाम जिसके विषम चरणों में ३ सगण, एक लघु और एक गुरु होता है तथा सम में एक नगण,दो भगण और एक रगण होता है।
⋙ हरिणलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ हरिणलांछन
संज्ञा पुं० [सं० हरिशलाञ्छन] मृगलांछन। चंद्रमा।
⋙ हरिणलोचन
वि० पुं० [सं०] [वि० स्त्री० हरिणलोचना]दे० 'हरिणनयन'।
⋙ हरिणलोचना
वि० स्त्री० [सं०] हिरन के तुल्य सुंदर नेत्रवाली। हरिणाक्षी। हरिणनयनी [को०]।
⋙ हरिणलोलाक्षी
वि० स्त्री० [सं०] हिरन जैसी चंचल आँखवाली [को०]।
⋙ हरिणहृदय
वि० [सं०] हिरन सा। डरपोक। बुजदिल।
⋙ हरिणांक
संज्ञा पुं० [सं० हरिणाङ्क] १. मृगांक। चंद्रमा। चंद्र। २. कपूर। कर्पूर [को०]।
⋙ हरिणाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ हरिणाक्षी
वि० स्त्री० [सं०] हिरन की आँखों के समान सुंदर आँखोंवाली। सुंदरी।
⋙ हरिणाखी पु ‡
वि० स्त्री० [सं० हरिणाक्षी, प्रा०, अप० हरिणाखी] दे० 'हरिणाक्षी'। उ०—धन हरिणाखी ईम कही।—बी० रासो, पृ० ५९।
⋙ हरिणाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] मृगेंद्र। सिंह [को०]।
⋙ हरिणारि
संज्ञा पुं० [सं०] हरिण का शत्रु, सिंह [को०]।
⋙ हरिणाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। पवन [को०]।
⋙ हरिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मादा हिरन। हिरन की मादा। २. मंजिष्ठा। मँजीठ। मजीठ। ३. जर्द चमेली। ४. कामशास्त्र के अनुसार स्त्रियों की चार जातियों या भेदों में से एक जिसे चित्रिणी भी कहते गैं। विशेष—दो अच्छी जाति की स्त्रियों में यह मध्यम है। यह पद्मिनी की अपेक्षा कम सुकुमार तथा चंचल और क्रीड़ाशील प्रकृति की होती है। ५. सुंदरी या तरुणी स्त्री (को०)। ६. एक वर्णवृत्त का नाम जिसमें सत्रह वर्ण होते है। इसका स्वरूप इस प्रकार है— न स म र स ल गु (III IIS SSS SIS IIS IS)। ७. दस वर्णों का एक वृत्त। जैसे,—फूलन की सुभ गेंद नई। सुँघि सची जनु डारि दई।—केशव (शब्द०)। ८. सोने की प्रतिमा। स्वर्ण- प्रतिमा (को०)। ९. हरित वर्ण। हरा रंग (को०)। १०. हरदी। हरिद्रा (को०)। यौ०—हरिणीदूक्=हरिनी के समान चंचल नेत्रवाला। हरिणी- दृशी, हरिणीनयना=हरिणी के समान चंचल नेत्रवाली स्त्री।
⋙ हरिणेश
संज्ञा पुं० [सं०] मृगराज। मृगेंद्र। सिंह [को०]।
⋙ हरित् (१)
वि० [सं०] १. भूरे या बादमी रंग का। कपिश। २. हरे रंग का। हरा। सब्ज। ३. कुछ हरा रंग लिए पीला (को०)।
⋙ हरित् (२)
संज्ञा पुं० १. सुर्य के घोड़े का नाम। २. मरकत। पन्ना। ३. सिंह। ४. सूर्य। ५. विष्णु। ६. एक प्रकार का तृण। घास। तृण। ७. द्रुतगामी अश्व (को०)। ८. मूँग (को०)। ९. हरा, पीला या पिंगल वर्ण (को०)। १०. जैनों के अनुसार हरिक्षेत्र की नदी का नाम।
⋙ हरित् (३)
संज्ञा स्त्री० १. हरिद्रा। हलदी। हरदी। २. दिक्। दिशा (को०)। ३. तृण। घास (को०)।
⋙ हरित (१)
वि० [सं०] १. भूरे या बादामी रंग का। २. पीला। जर्द। ३. हरे रंग का। हरा। सब्ज। ४. ताजा। नवीन। नया।
⋙ हरित (२)
संज्ञा पुं० १. सिंह। २. कश्यप के एक पुत्र का नाम। ३. यदु के एक पुत्र का नाम। ४. युवनाश्व के एक पुत्र का नाम। ५. द्बादश मन्वंतर का एक देवगण। ६. सेना। ७. सब्जी। हरि- याली। ८. सब्जी। शाक भाजी। ९. हरित वर्ण (को०)। १०. कपिश या भूरा रंग (को०)। ११. सोना। स्वर्ण (को०)। १२. पांडु रोग (को०)। १३. एक सुगंधित पौधा। स्थौणेयक (को०)। १४. रोहिताश्व के पुत्र का नाम (को०)। १५. हरित या भूरे रंग का पदार्थ (को०)। एक तृण। मंथानक (को०)।
⋙ हरितक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरा तृण। २. शाक। सब्जी [को०]। यौ०—हरितच्छद= हरे पत्तोंवाला। हरितपत्र युक्त। हरित- पत्रिका—मरकपत्री। हरितप्रभ=पांडु वर्ण का। पीला। हरितभेषज=कमल रोग की औषध। हरितलता=दे०'हरित- पत्रिका'। हरितशाक=दे० 'शिग्रु'।
⋙ हरितकपिश
वि० [सं०] पीलापन या हरापन लिए भूरा। लीद के रंग का।
⋙ हरितकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'हरीतकी' [को०]।
⋙ हरितगोमय
संज्ञा पुं० [सं०] गोभिल गृह्मसूत्र के अनुसार ताजा गोबर।
⋙ हरितनेमी
संज्ञा पुं० [सं० हरितनेमिन्] वह जिसके रथ के चक्के सोने के हों, शिव [को०]।
⋙ हरितपण्य
संज्ञा पुं० [सं०] शाक सब्जी का व्यापार। शाक विक्रयण।
⋙ हरितमणि
संज्ञा पुं० [सं०] मरकत। पन्ना।
⋙ हरितमनि पु
संज्ञा पुं० [सं० हरितमणि] एक रत्न। पन्ना। उ०—हरितमनिन्ह के पत्र फल पदुम राग के फूल। रचना देखि विचित्र अति मन विरंचि कर भूल।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हरितहरि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।
⋙ हरिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूर्वा। दूब। नीलदूर्वा। २. हरिद्रा। हल्दी। ३. हरे या भूरे रंग का अंगूर। ४. भूरे रंग की गाय। ५. स्वरभक्ति का एक भेद। ६. हरि या विष्णु का भाव। विष्णुपन। हरित्व। उ०—हरिहि हरिता बिधिहि बिधिता सिवहि सिवता जो दई। सो जानकीपति मधुर मूरति मोदमय मंगलमई।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५२३।
⋙ हरिताभ
वि० [सं०] हरित वर्ण का। हरे रंग का। हरा। उ०— आज उल्लसित धरा, पल्लवित विटपों में बहु वर्ण विकास। पीपल, नीम, अशोक, आम्र से फूट रहा हरिताभ हुलास।— युगवाणी, पृ० ८०।
⋙ हरिताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरताल नाम की धातु। विशेष दे० 'हरताल'। २. एक प्रकार का कबूतर जिसका रंग कुछ पीलापन या हरापन लिए होता है।
⋙ हरितालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'हरताल'। २. नाटक के अभिनय में शरीर में रंग आदि में पोतने का कर्म।
⋙ हरितालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भादों की शुक्ल पक्ष की तृतीया। तीज। विशेष—स्त्रियों को इस व्रत को करने का विधान है। इस दिन स्त्रियाँ निर्जल व्रत रखती हैं और नये वस्त्र पहनकर शिव- पार्वती का पूजन करती हैं। २. दूर्वा नामक घास। दूब। दूर्वा (को०)।
⋙ हरिताली
संस्त्रा स्त्री० [सं०] १. मालकंगनी। २. तलवार का वह भाग जो धारदार होता है। ३. भादों के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि। विशेष दे० 'हरितालिका'। ४. आकाश में मेघ आदि की पतली धज्जी या रेखा। ५. वायु। पवन।
⋙ हरिताश्म
संज्ञा पुं० [सं० हरिताश्मन्] १. पन्ना। मरकत। २. नीला थोथा या कसीस [को०]।
⋙ हरिताश्मक
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हरिताश्म' [को०]।
⋙ हरिताश्व
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।
⋙ हरितुरंगम
संज्ञा पुं० [सं० हरितुरङ्गम] १. इंद्र का एक नाम। २. इंद्र का अश्व [को०]।
⋙ हरितुरग
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का अश्व [को०]
⋙ हरितोपल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हरिताश्म'।
⋙ हरितोपलेपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरे वर्ण का लेपन, रेखांकन या आवरण [को०]।
⋙ हरित्पति
संज्ञा पुं० [सं०] दिशाओं के पति। दिग्पति। दिगीश [को०]।
⋙ हरित्पर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] मुरई। मूली [को०]।
⋙ हरिदंत
संज्ञा पुं० [सं० हरिदन्त] दिगंत। दिशाओं का अंत [को०]।
⋙ हरिदंतर
संज्ञा पुं० [सं० हरिदन्तर] विभिन्न दिशाएँ। दिशांतर। दिगंतर [को०]।
⋙ हरिदंबर
वि० [सं० हरिदम्बर] हरा या पीत वस्त्र पहननेवाला [को०]।
⋙ हरिदर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. सब्जा घोड़ा। २. सूर्य जिनका घोड़ा हरित् माना गया है।
⋙ हरिदश्व
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का एक नाम [को०]।
⋙ हरिदास
संज्ञा पुं० [सं०] भगवान् का सेवक या भक्त।
⋙ हरिदिक्
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिदिश्] इंद्र की दिशा। पूर्व दिशा जिसका अधिपति इंद्र है [को०]।
⋙ हरिदिन, हरिदिवस
संज्ञा पुं० [सं०] एकादशी।
⋙ हरिदिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्व दिशा, जिसके लोकपाल या अधिष्ठाता इंद्र हैं।
⋙ हरिदेव
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विष्णु। २. श्रवण नामक नक्षत्र जिसके अधिष्ठाता इंद्र हैं।
⋙ हरिद्गर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'हरिदर्भ।' २. हरा या पीताभ कुश जिसकी पत्तियाँ चौड़ी हों (को०)।
⋙ हरिद्दंतावल
संज्ञा पुं० [सं० हरिद्दन्तावल] हरदी। हरिद्रा [को०]।
⋙ हरिद्रंजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिद्रञ्जनी] हरिद्रा। हरदी [को०]।
⋙ हरिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] पीला चंदन।
⋙ हरिद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीला चंदन। २. एक नाग का नाम।
⋙ हरिद्रखंड
संज्ञा पुं० [सं० हरिद्रखण्ड] एक औषध जिसके सेवन से दाद, खुजली, फोड़ा फुंसी और कुष्ट रोग दूर होता है। विशेष—सोंठ, काली मिर्च, पिप्पली, तज, पत्रज, वायबिडंग, नागकेसर, निमोथ, त्रिफला, केसर और नागरमोथा सब टके टके भर लेकर चूर्ण करे और गाय के घी में सान डाले तथा ४. टके भर हरदी का चूर्ण ४ सेर दूध में मिलाकर खोया बना ले। फिर मिस्त्री की चाशनी में सबको मिलाकर टके टके भर की गोलियाँ बाँध ले।
⋙ हरिद्रांग
संज्ञा पुं० [सं० हरिद्राङ्ग] एक प्रकार का कबूतर।
⋙ हरिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हलदी। २. एक नदी का नाम। ३. वन। जंगल।—अनेकार्थ (शब्द०)। ४. मंगल।—अनेकार्थ (शब्द०)। ५. सीसा धातु।—अनेकार्थ (शब्द०)। ६. निशा। उ०—कहत हरिद्रा बनथली, निशा हरिद्रा होइ। बहुरि हरिद्रा मंगली, हरद हरिद्रा सोइ।—अनेकार्थ०, पृ० १६१।
⋙ हरिद्राक्त
वि० [सं०] हरिद्रा से लिप्त या पुता हुआ [को०]।
⋙ हरिद्रागणपति
संज्ञा पुं० [सं०] गणपति या गणेश जी की एक मूर्ति जिनपर मंत्र पढ़कर हलदी चढ़ाई जाती है।
⋙ हरिद्रागणेश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हरिद्रागणपति' [को०]।
⋙ हरिद्राद्बय
संज्ञा पुं० [सं०] हलदी और दारु हलदी।
⋙ हरिद्राप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] प्रमेह का एक भेद जिसमें पेशाब हलदी के समान पीला आता है और जलन होती है।
⋙ हरिद्राभ (१)
वि० [सं०] पीतवर्ण का। पीला।
⋙ हरिद्राभ (२)
संज्ञा पुं० १. पीला रंग। पीत वर्ण। २. आमा हलदी। कचूर। कर्चूर [को०]।
⋙ हरिद्रामेह
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हरिद्राप्रमेह'।
⋙ हरिद्राराग
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में पूर्व राग का एक भेद। वह प्रेम जो हलदी के रंग के समान कच्चा हो, स्थायी या पक्का न हो। विशेष—पूर्व राग के कुसुंभ राग, मंजिष्ठा राग आदि कई भेद किए गए हैं। हलायुध में 'क्षणमात्रानुरागश्च हरिद्राराग उच्यते' अर्थात् क्षणिक अनुराग को हरिद्रा राग कहा है।
⋙ हरिद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरा द्रव या रस। २. नागकेसर के पुष्पों का चूर्ण [को०]।
⋙ हरिद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष। पेड़। २. दारुहल्दी [को०]।
⋙ हरिद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] एख अत्यंत पवित्र पुरी जो प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। विशेष—यहाँ से गंगा पहाड़ों के छोड़कर मैदान में आती हैं। इसी से इसे 'गंगाद्वार' भी कहते हैं। 'हरिद्वार' इसलिये कहते हैं कि इस तीर्थ के सेवन से विष्णुलोक का द्वार खुल जाता है।
⋙ हरिद्विष्
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का द्रोही, असुर [को०]।
⋙ हरिद्वेषी
संज्ञा पुं० [सं० हरिद्वेषिन्] १. वह जो विष्णु का द्वेषी हो। वह जो विष्णु के प्रति द्रोहभावना से युक्त हो। २. असुर।
⋙ हरिधनु, हरिधनुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्रधनुष। उ०—बकराजि राजति गगन हरिधनु तड़ित दिसि दिसि सोहई। नभनगर की सोभा अतुल अवलोकि मुनि मन मोहई।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४१८। २. विष्णु का धनुष जो समुद्रमंथन से उत्पन्न हुआ था और जिसका नाम शार्ङ्ग है।
⋙ हरिधाम
संज्ञा पुं० [सं० हरिधामन्] विष्णुलोक। वैकुंठ।
⋙ हरिन
संज्ञा पुं० [सं० हरिण] [स्त्री० हरिणी] खुर और सींगवाला एक चौपाया जो प्रायः सुनसान मैदानों, जंगलों और पहाड़ों में रहता है। मृग। विशेष—हरिन की बहुत जातियाँ होती हैं, जैसे—कृष्णसार, एण, कस्तूरी मृग, बारहसिंगा, साँभर इत्यादि। यह जंतु अपनी तेज चाल, कुदान और चंचलता के लिये प्रसिद्ध है। यह झुंड बाँधकर रहता है और स्वभावतः डरपोक होता है। मादा हरिन के सींग नहीं बढ़ते, अंकुर मात्र रह जाते हैं, इसी से पालनेवाले अधि कतर मादा हरिन पालते हैं। इसकी आँखें बहुत बड़ी बड़ी और काली होती हैं; इसी से कवि लोग बहुत दिनों से स्त्रियों के सुंदर नेत्रों की उपमा इसकी आँखों से देते आए हैं। शिकार भी जितना इस जंतु का संसार में हुआ और होता है, उतना शायद ही और किसी पशु का होता हो। 'मृगया' जिस प्रकार यहाँ राजाओं का एक साधारण व्यसन रहा है, उसी प्रकार और देशों में भी। हिंदुओं के यहाँ इसका चमड़ा बहुत पवित्र माना जाता है, यहाँ तक कि उपनयन संस्कार में भी इसका व्यवहार होता है। प्राचीन ऋषिमुनि भी मृगचर्म धारण करते थे और आजकल के साधु संन्यासी भी।
⋙ हरिनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] श्रवण नक्षत्र, जिसके अधिष्ठाता देवता विष्णु हैं।
⋙ हरिनख
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह या बाघ का नाखून। २. वह ताबीज जिसमें बाघ के नाखून लगाए गए हों। विशेष—स्त्रियाँ यह ताबीज बच्चे को नजर आदि से बचाने के खयाल से पहनाती हैं। इसे बघनहाँ भी कहते हैं। सूरदास ने केहरिनख शब्द का इस अर्थ में प्रयोग किया है।
⋙ हरिनग पु
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प का मणि।
⋙ हरिननैनी पु
वि० स्त्री० [सं० हरिणनयनी] मृग के सदृश नेत्रवाली। मृगनैनी। उ०—हाहा कै निहोरे हूँ न हेरति हरिननैनी।—मति० ग्रं०, पृ० ३२२।
⋙ हरिनबारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिन+वारि] मृगजल। मृगतृष्णा। उ०—पायो केहि घृत बिचारु हरिनबारि महत। तुलसी तकु तासु सरन जाते सब लहत।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५२२।
⋙ हरिनहर्रा
संज्ञा पुं० [देश०] सोहाग नामक बड़ा सदाबहार वृक्ष जिसके बीजों से जलाने का तेल निकलता है। विशेष दे० 'सोहाग'।
⋙ हरिना पु
संज्ञा पुं० [सं० हरिणक] दे० 'हरिन'। उ०—कहाँ दीन हरिनान के अति ही कोमल प्रान। ये तेरे तीखे कहाँ सायक वज्र समान।—शकुंतला, पृ० ९।
⋙ हरिनाकुस पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यकशिपु] विष्णु का प्रबल विरोधी दैत्यराज जो प्रह्लाद का पिता था। विशेष दे० 'हिरण्यकशिपु'। उ०—हरिनाकुस औ कंस को गयो दुहुन को राज।—गिरिधर (शब्द०)।
⋙ हरिनाक्ष पु
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्याक्ष] एक दैत्यराज जो हिरण्य- कशिपु का भाई था। विशेष दे० 'हिरण्याक्ष'।
⋙ हरिनाच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्याक्ष]दे० 'हिरण्याक्ष'। उ०— मारि हरिनाच्छ उर फार कर नखन सों, भार हर भूमि अति शोक टारयो।—भारतेंद्र ग्रं०, भा० २, पृ० ४३८।
⋙ हरिनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] (बंदरों में श्रेष्ठ) हनुमान्।
⋙ हरिनाम
संज्ञा पुं० [सं० हरिनामन्] भगवान् का नाम। उ०— भजता क्यों नाहीं हरिनाम। तेरी कौड़ी लगे न दाम।—(शब्द०)।
⋙ हरिनामा
संज्ञा पुं० [सं० हरिनामन्] मूँग। मुदग [को०]।
⋙ हरिनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरिन] १. मादा हिरन। स्त्री जाति का मृग। मृगी। उ०—(क) यह तन हरियर खेत, तरुनी हरिनी चरि गई। अजहूँ चेत, अचेत, यह अधचरा बचाइ ले।—सम्मन (शब्द०)। (ख) हरिनी के नैनान सों हरि नीके नैनान।—बिहारी (शब्द०)। २. जूही का फूल। युथिका।—अनेकार्थ (शब्द०)। ३. बाज पक्षी की मादा।—अनेकार्थ (शब्द०)। ४. स्वर्णप्रतिमा। सोने की मूर्ति। उ०—हरिनी प्रतिमा हेम की, हरिनी मृग की तीय हरिनी जूथी जासु की फूल माल हरि हीय। —अनेकार्थ०, पृ० १६१। ५. सोतजुही। स्वर्णयुथिका। ६. गणिका। वेश्या। उ०—हरिनी गनिका जूथिका हेमपुष्पिका जाय।—अनेकार्थ०, पृ० १०५।
⋙ हरिनेत्र (१)
वि० [सं०] कपिश या भूरी और हरी आँखोंवाला [को०]।
⋙ हरिनेत्र (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु का नेत्र। २. वह आँख जो हरे या भूरे वर्ण की हो। ३. कुमुद। श्वेत कमल। ४. उलूक। उल्लू [को०]।
⋙ हरिन्मणि
संज्ञा पुं० [सं०] पन्ना। मरकतमणि [को०]।
⋙ हरिन्मुदग
संज्ञा पुं० [सं०] हरित वर्ण की मूँग। शारद [को०]।
⋙ हरिपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु लोक। वैकुंठ। उ०—जो यह मंगल गावहिं हरिपद पावहिं हो।—तुलसी (शब्द०)। २. विष्णु के चरण। उ०—धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।—मानस, १।१८४। ३. गया जिले में पड़नेवाला फल्गु नदी का तटवर्ती एक तीर्थ जिसे विष्णुपद कहते हैं। ४. मेष की संक्रांति। वासंतिक विषुव। दे० 'महाविषुव'। ५. एक छंद का नाम जिसके चारों पदों में मिलकर कुल ५४ मात्राएँ होती हैं। विशेष—हरिपद छंद के विषम (पहले और तीसरी) चरणों में १६ तथा सम (दूसरे और चौथे) चरणों में ११ मात्राएँ होती हैं और अंत में गुरु लघु होता है—'विषम हरिपद कीजिय सोरह सम शिव (११) दै सानंद।' जैसे,—रघुपति प्रभु तुम हौ जग में नित, पालौ करके दास। परम धरम ज्ञाता पर- मानहु येही मन की आस।—छंदः०, पृ० ८२।
⋙ हरिपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके पत्ते हरे हों। हरे पत्तोंवाला। २. मूलक। मुरई। विशेष दे० 'मूली'।
⋙ हरिपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम [को०]।
⋙ हरिपिंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिपिण्डा] स्कंद की एक मातृका का नाम [को०]।
⋙ हरिपुर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णुलोक। वैकुंठ। उ०—हरिपुर गएउ परम बड़भागी।—मानस, ४।२७।
⋙ हरिपैड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरि+पैड़ी (=सीढ़ी)] हरिद्बार तीर्थ में गंगा का एक विशेष घाट जहाँ के स्नान का बहुत माहात्म्य है।
⋙ हरिप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रप्रस्थ।
⋙ हरिप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कदब। २. बंधूक। गुलदुपहरिया। ३. शिव (को०)। ४. शंख। ५. मूर्ख आदमी। ६. पागल। ७. सनाह। बकतर। ८. खस का मूल (को०)। ९. एक प्रकार का चंदन (को०)। १०. एक प्रकार का बड़ा कंद जो कोंकण की ओर होता है। दे० 'विष्णुकंद'।
⋙ हरिप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी। २. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १२+१२+१२+१० के विराम से ४६ मात्राएँ होती हैं और अंत में गुरु होता है। इसे 'चंचरी' भी कहते हैं। उ०—पौढ़िये कृपानिधान देव देव रामचंद्र चंद्रिका समेत चंद्र चित्त रैनि मोहै।—(शब्द०)। ३. तुलसी। ४. पृथ्वी। ५. मधु। ६. मद्य। ७. द्बादशी। ८. लाल चंदन।
⋙ हरिप्रीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष में एक मुहूर्त का नाम। उ०—नवमी तिथि मधुमास पुनीता। सुकुल पच्छ, अभिजित, हरिप्रीता।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हरिबालुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक सुगंधित द्रव्य। एलवालुक [को०]।
⋙ हरिबीज
संज्ञा पुं० [सं०] हरताल।
⋙ हरिबोध
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का बोधन या जागरण [को०]। यौ०—हरिबोधदिन=देवोत्थान का दिन। हरिबोधिनी एकादशी।
⋙ हरिबोधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक शुक्ल एकादशी। देवोत्थान एकादशी।
⋙ हरिभक्त
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु या भगवान् का भक्त। ईश्वर का प्रेमी। ईश्वर का भजन करनेवाला।
⋙ हरिभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विष्णु या ईश्वर की भक्ति। ईश्वरप्रेम।
⋙ हरिभगत पु
संज्ञा पुं० [सं० हरिभक्त] भगवान् का भक्त। भगवद्- भक्त। उ०—कहहु कवन बिधि भा संवादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा।—मानस, ७।५५।
⋙ हरिभगति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिभक्ति] भगवान् की भक्ति। भगवदभक्ति। उ०—सो हरिभगति काग किमि पाई। विश्वनाथ मोहि कहहु बुझाई।—मानस, ७।५४।
⋙ हरिभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] हरिबालुक। एलवालुक [को०]।
⋙ हरिभाविणी, हरिभाविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो हरि की भक्ति करती हो। हरि की भावना करनेवाली महिला। भगवद्- भक्त स्त्री [को०]।
⋙ हरिभुज
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो मेढक खाता है। साँप। सर्प।
⋙ हरिमंथ
संज्ञा पुं० [सं० हरिमन्थ] १. गनियारी का पेड़ जिसकी लकड़ी रगड़ने से आग निकलती है। अग्निमंथ। २. मटर। ३. चना। ४. एक प्रदेश का नाम।
⋙ हरिमंथक
संज्ञा पुं० [सं० हरिमन्थक] चणक। चना [को०]।
⋙ हरिमंथज
संज्ञा पुं० [सं० हरिमन्थज] १. चना। चणक। २. एक प्रकार की मूँग। काली मूँग [को०]।
⋙ हरिमंदिर
संज्ञा पुं० [सं० हरिमन्दिर] १. समुद्र जो विष्णु का निवास है। उ०—कंजज की मति सी बड़भागी। श्री हरि- मंदिर मौं अनुरागी।—रामचं०, पृ०३९। २. विष्णु का मंदिर या देवस्थान।
⋙ हरिमणि
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प मणि।
⋙ हरिमा
संज्ञा पुं० [सं० हरिमन्] १. पीतता। पीलापन। २. पीत वर्ण। पीत राग। ३. काल। समय। ४. पांडु रोग। पीलिया [को०]।
⋙ हरिमेध
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वमेध यज्ञ। २. विष्णु या नारायण का एक नाम।
⋙ हरिय
संज्ञा पुं० [सं०] पिंगल वर्ण का अश्व। पीताभ घोड़ा [को०]।
⋙ हरियर ‡ (१)
संज्ञा पुं० [अ० हरीरह्]दे० 'हरीरा'।
⋙ हरियर (२)
वि० [सं० हरिततर या हिं० हरा]दे० 'हरा'। उ०—(क) नाम भजो तो अब भजो, बहुरि भजोगे कब्ब। हरियर हरियर रुखड़ै, ईंधन हो गए सब्ब।—कबीर सा०, पृ० १८।
⋙ हरियराना
क्रि० अ० [हिं० हरियर]दे० 'हरिअराना'।
⋙ हरियल पु
वि० [हिं० हरिअर]दे० 'हरिअर'। उ०—गैल गली सब हरियल भूमि। नील सिखर चढ़ि सूरति घूमि।—घट०, पृ० २६७।
⋙ हरिया † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० हर (=हल)+इया (प्रत्य०)] हल जोतनेवाला। हलवाहा।
⋙ हरिया (२)
संज्ञा पुं० [सं० हरितक] हराभरापन। प्रफुल्लता। उ०— आगे आगे दौं जलै रे पीछे हरिया होय। कहत कबीर सुनो भाइ साधो हरि भज निर्मल होय।—संतवाणी०, पृ० २६।
⋙ हरियाई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० हरित+आली, प्रा० हरिय+आली, हि० हरियाली] हरीतिमा। हरियाली। उ०—लसति लहलही जहाँ सघन सुंदर हरियाई।—श्रीधर पाठक (शब्द०)।
⋙ हरियाथोथा
संज्ञा पुं० [हिं० हरा+थोथा] नीला थोथा। तुतिया।
⋙ हरियाणा †
संज्ञा पुं० [देश०] स्वतंत्र भारत का एक प्रांत। उ०— देसा मा देस हरियाण। जित दूध दही का खाण।— लोकोक्ति। विशेष—स्वतंत्र भारत का एक प्रदेश जो पहले संयुक्त पंजाब का एक छोटा सा डिविजन था। सन् १९६६ की पहली नवंबर को इस राज्य या प्रदेश को स्वतंत्र भारत के १७ वें राज्य के रूप में मान्यता मिली ।
⋙ हरियान
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु के वाहन, गरुड।
⋙ हरियानवी (१)
वि [हिं० हरियाना] हरियाना प्रदेश के। जैसे,— हरियानवी बोली।
⋙ हरियानवी (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'हरियानी'।
⋙ हरियाना (१)
क्रि० अ० [हिं० हरा] दे० 'हरिआना'।
⋙ हरियाना (२)
संज्ञा पुं० [देश०] स्वतंत्र भारत का एक प्रांत। विशेष दे० 'हरियाणा'।
⋙ हरियानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरियाना(एक प्रांत)] हिसार, रोहतक करनाल आदि क्षेत्रों की बोली जिसे जाटू या बाँगड़ू भी कहते हैं।
⋙ हरियायल पु †
संज्ञा पुं० [देश० हारिल] एक पक्षी। दे० 'हारिल'। उ०—नहिं चौन परै पल देखे बेना हरियायल ज्यों पकरी लकरी।—नट०, पृ० ३०।
⋙ हरियारी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० हरितालि, प्रा० हरियाली]दे० 'हरियाली'। उ०—नयो नेह, नयो मेह, नई भूमि हरियारो, नवल दूलह प्यारो, नवल दुल्हैया।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७३।
⋙ हरियाल पु
वि० [हिं० हरा] हरित। हरा भरा। उ०—जन दरिया गुरदेव जी, मोहिं ऐसे किया निहाल। जैसे सूखी बेलड़ीं, बरस किया हरियाल।—दरिया० बानी, पृ० ३।
⋙ हरियाली
संज्ञा स्त्री० [सं० हरित + आलि (= पंक्ति, समूह)] १. हरे- पन का विस्तार। हरे रंग का फैलाव। २. हरे हरे पेड़ पौधों या घास का समूह या विस्तार। जैसे,—बरसात में चारों ओर हरियाली छा जाती है। मुहा०—हरियाली सूझना = चारों ओर आनंद ही आनंद दिखाई पड़ना। मौज की बातों की ओर ही ध्यान रहना। आनंद में मग्न रहना। जैसे,—अभी तो हरियाली सुझ रही है; जब रुपये देने पड़ेंगे, तब मालूम होगा। ३. हरा चारा जो चौपायों के सामने डाला जाता है। ४. दूर्वा। दे० 'दूब'। ५. कजली का पर्व। दे० 'हरियाली तीज'। उ०—उसी दिन से कजली अथवा 'हरियाली' की स्थापना होती।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४६।
⋙ हरियाली तीज
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरियाली + तीज] सावन बदी तीज जिसे 'कजली' भी कहते हैं।
⋙ हरियावँ †
संज्ञा पुं० [देश०] फसल की एक बँटाई जिसमें ९ भाग असामी और ७ भाग जमींदार लेता है।
⋙ हरियोजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र का एक नाम। २. रथ आदि में घोड़े को जोतना या नाधना [को०]।
⋙ हरिरोमा
वि० [सं० हरिरोमन्] जिसके शरीर पर नवीन एव सुंदर रोम हों, जो नित्यतरुण हो [को०]।
⋙ हरिल †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'हारिल'।
⋙ हरिलीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भगवान् की लीला। ईश्वर की लीला। २. चौदह अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसका स्वरूप इस प्रकार है—'साँची कही भरत बात सबै सुजान'।—केशव (शब्द०)। विशेष—यदि अंतिम वर्ण लघु लें तब तो इसे अलग छंद कह सकते हैं; पर यदि अंतिम लघु वर्ण को गुरु के स्थान पर मानें तो यह प्रसिद्ध वसंततिलका वृत्त ही है। केशव ने ही इसका यह नाम दिया है।
⋙ हरिलोक
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णुलोक। वैकुंठ।
⋙ हरिलोचन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. केकड़ा। २. उलूक। उल्लू। ३. एक रोग ग्रह [को०]।
⋙ हरिलोचन (२)
वि० भूरी आँखोंवाला। पिंगाक्ष [को०]।
⋙ हरिलोमा
वि० [सं० हरिलोमन्] जिसके केश पिंगलवर्ण के हों। पिंगलकेश [को०]।
⋙ हरिवंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृष्ण का कुल। २. एक ग्रंथ जो महाभारत का परिशिष्ट माना जाता है और जिसमें कृष्ण तथा उनके कुल के यादवों का सविस्तार वृत्तांत दिया गया है। संतानप्राप्ति के लिये इसका श्रवण विधिपूर्वक किया जाता है। ३. कपि या बंदरों का वंश [को०]।
⋙ हरिव
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक बड़ी संख्या [को०]।
⋙ हरिवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] जंबू द्विप के नौ खंडों में से एक खंड का नाम। विशेष—इसकी स्थिति निषध और हेमकूट पर्वत के मध्य में कही गई है। यहाँ भगवान् नरहरि रूप में स्थित माने गए हैं।
⋙ हरिवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी। २. तुलसी। ३. अधिक मास की कृष्णा एकादशी। ४. जया। नाम का पौधा (को०)।
⋙ हरिवालुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हरिबालुक' [को०]।
⋙ हरिवास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वत्थ। पीपल।
⋙ हरिवास (२)
वि० पीला वस्त्र धारण करनेवाला। पीतांबरधारी (विष्णु)।
⋙ हरिवासर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुर्य का दिन। रविवार। २. विष्णु का दिन। एकादशी।
⋙ हरिवासुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हरिबालुक' [को०]।
⋙ हरिवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गरुड़। २. सूर्य का एक नाम। ३. इंद्र का एक नाम। यौ०—हरिवाहन दिशा = पूर्वदिक्। पूर्व दिशा।
⋙ हरिवीज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हरिबीज' [को०]।
⋙ हरिवृष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हरिवर्ष' [को०]।
⋙ हरिशंकर
संज्ञा पुं० [सं० हरिशङ्कर] १. विष्णु और शिव। २. एक रसौषध जो पारे और अभ्रक के योग से बनती है और प्रमेह में दी जाती है। विशेष—शुद्ध पारे और अभ्रक को लेकर सात दिन तक आँवले के रस में घोंटते हैं, फिर सुखाकर एक रत्ती की मात्रा में देते हैं।
⋙ हरिशयन
संज्ञा पुं० [सं०] हरि का शयन। विष्णु का शयन करना।
⋙ हरिशयनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आषाढ़ शुक्ल एकादशी। विशेष—पुराणों के अनुसार इस दिन विष्णु भगवान् शेष की शय्या पर सोते हैं और फिर कार्तिक की प्रबोधिनी एकादशी को उठते हैं।
⋙ हरिशर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव। विशेष—त्रिपुरविनाश के समय शिव ने विष्णु भगवान् को अपने धनुष का बाण बनाया था; इसी से इनका यह नाम पड़ा है।
⋙ हरिश्चंद्र (१)
वि० [सं० हरिश्चन्द्र] सोने की सी चमकवाला। स्वर्णाभ। (वैदिक)।
⋙ हरिश्चंद्र (२)
संज्ञा पुं० सूर्यवंश का अट्ठाईसवाँ राजा जो त्रिशंकु का पुत्र था। विशेष—पुराणों में ये बड़े ही दानी और सत्यव्रती प्रसिद्ध हैं। मार्कंडेय पुराण में इनकी कथा विस्तार से आई है। इंद्र ने ईर्ष्यावश विश्वामित्र की इनकी परीक्षा के लिये भेजा। विश्वामित्र ने इनसे सारी पृथ्वी दान में ली और फिर ऊपर से दक्षिणा माँगने लगे। अत में राजा ने रानी सहित अपने को बेचकर ऋषि की दक्षिणा चुकाई। वे काशी में डोम के सेवक होकर श्मशान पर मुर्दा लानेवालों से कर वसूल करने लगे। एक दिन उनकी रानी ही अपने मृत पुत्र को श्मशान में लेकर आई। उसके पास कर देने के लिये कुछ भी द्रव्य नहीं था। राजा ने उससे भी कर नहीं छोड़ा और आधा कफन फड़वाया। इसपर भगवान् ने प्रकट होकर उनके पुत्र को जिला दिया और अंत में अयोध्या की प्रजा सहित सबको वैकुंठ भेज दिया। महाभारत में राजसूय यज्ञ करके राजा हरिश्चंद्र का स्वर्ग प्राप्त करना लिखा है। ऐतरेय ब्राह्मण में 'शुनःशेप' की गाथा के प्रसंग में भी हरिश्चंद्र का नाम आया है; पर वहाँ कथा दूसरे ढंग की है। उसमें हरिश्चंद्र इक्ष्वाकु वंश के राजा वेधस् के पुत्र कहे गए हैं। गाथा इस प्रकार है— नारद के उपदेश से राजा ने पुत्र की कामना करके वरुण से यह प्रतिज्ञा की कि जो पुत्र होगा, उसे वरुण को भेंट करूँगा। वरुण के वर से जब राजा को पुत्र हुआ, तब उसका नाम उन्होंने रोहित रखा। जब वरुण पुत्र माँगने लगे, तब राजा बराबर टालते गए। जब रोहित बड़ा होकर शस्त्र धारण के योग्य हुआ, तब वह मरना स्वीकार न कर जंगल में निकल गया और इंद्र के उपदेशानुसार इधर उधर फिरता रहा। अंत में वह अजीगर्त नामक एक ऋषि के आश्रम पर पहुँचा और उनसे सौ गायों के बदले में शुनःशेप नामक उनके मझले पुत्र को लेकर अपने पिता के पास आया जिन्हें वरुण के कोप से जलोदर रोग हो गया था। शुनःशेप को यज्ञ में बलि देने के लिये जब सब तैयारियाँ हो चुकीं, तब शुनःशेप अपने छुटकारे के लिये सब देवताओं की स्तुति करने लगा। अंत में इंद्र के उपदेश से उसने अश्विवनीकुमार का स्मरण किया जिससे उसके बंधन कट गए और रोहित के पिता हरिश्चंद्र का जलोदर रोग भी दूर हो गया। जब शुनःशेप मुक्त होकर अपने पिता के साथ न गया, तब विश्वामित्र ने उसे अपना बड़ा पुत्र बनाया।
⋙ हरिश्मश्रु
संज्ञा पुं० [सं०] हिरण्याक्ष दैत्य के नौ पुत्रों में से एक जो ब्रह्मकल्प में परावसु गंधर्व के नौ पुत्रों में से एक था।
⋙ हरिष पु
संज्ञा पुं० [सं० हर्ष] प्रसन्नता। आनंद। दे० 'हर्ष'। उ०—संपति विपति नहीं मैं मेरा हरिष सोक दोइ नाहीं।— दादू०, पृ० ५९४।
⋙ हरिषेण
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु पुराण के अनुसार दसवें मनु के पुत्रों में से एक। २. जैन पुराणों के अनुसार भारत के दस चक्रवर्तियों में से एक। ३. एक प्राचीन भट्ट या कवि का नाम जिसने गुप्तवंशीय सम्राट् समुद्रगुप्त की वह प्रशस्ति लिखी थी जो प्रयाग के किले में भीतर के खंभे पर है।
⋙ हरिसंकरी
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिशङ्करी] १. विष्णु और शिव की सम्मिलित स्तुति। उ०—रुचिर हरिसंकरी नाम मंत्रावली द्वंद्व दुख हरनि आनंदखानी।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४८१। २. देवी की एक मूर्ति।
⋙ हरिसंकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं० हरिसङ्कीर्तन] विष्णु के नामों का सस्वर बार बार कीर्तन। भगवान् के नामों का बार बार सस्वर कथन।
⋙ हरिस
संज्ञा स्त्री० [सं० हलीषा] हल का वह लंबा लट्ठा जिसके एक छोर पर फालवाली लकड़ी आड़ी जुड़ी रहती है और दूसरे छोर पर जूवा अटकाया जाता है। ईषा।
⋙ हरिसख
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधर्व का नाम।
⋙ हरिसा पु †
संज्ञा पुं० [सं० हलीषा] दे० 'हरिस'। उ०—काँध जुआठे रसरी लाए हरिसा बना सुड़वरा।—संत० दरिया, पृ० १४३।
⋙ हरिसिंगार
संज्ञा पुं० [सं० हार/?/श्रृङ्गार] एक पुष्पवृक्ष। परजाता। विशेषदे० 'हरसिंगार'।
⋙ हरिसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम।
⋙ हरिसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न। २. इंद्र के अंश से उत्पन्न अर्जुन। ३. जैन मतानुसार भारत के दशम चक्रवर्ती।
⋙ हरिसूनु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हरिसुत' [को०]।
⋙ हरिसौरभ
संज्ञा पुं० [सं०] मृगमद। कस्तूरी [को०]।
⋙ हरिहय
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। शक्र। २. सूर्य। ३. गणेश। ४. इंद्र का अश्व [को०]।
⋙ हरिहर
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु और शिव का संयुक्त रूप। हरे- श्वर। २. एक नदी का नाम [को०]।
⋙ हरिहर क्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बिहार में सोन नदी के किनारे पर स्थित एक तीर्थस्थान। विशेष—यहाँ कार्तिक पूर्णिमा को गंगास्नान और बड़ा भारी मेला होता है। यह मेला पंद्रह दिन तक रहता है और बहुत दूर दूर से यहाँ दूकानें आती हैं। हाथी, घोड़े आदि जानवर भी बिकने के लिये आते हैं।
⋙ हरिहरात्मक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गरुड़ का एक नाम। २. शिव का वाहन, वृषभ [को०]।
⋙ हरिहरात्मक (२)
वि० जिसमें हरि (विष्णु) और हर (शिव) दोनों संयुक्त हों।
⋙ हरिहाई पु (१)
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'हरहाई'।
⋙ हरिहाई (२)
संज्ञा स्त्री० हरहाईपन। परेशान करने की आदत।
⋙ हरिहित
संज्ञा पुं० [सं०] बीरबहूटी। इंद्रवधू। उ०—स्याम सरीर रुचिर स्रमसीकर सोनितकन बिच बीच मनोहर। जनु खद्योत निकर हरिहित गन भ्राजत मरकत सैल सिखर पर।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४००।
⋙ हरी (१)
वि० स्त्री० [हिं० 'हरा' का स्त्री०] हरित। सब्ज।
⋙ हरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वृत्त का नाम जिसमें १४ वर्ण होते हैं तथा जिसके प्रत्येक चरण में जगण, रगण, जगण, रगण, और अंत में लघु गुरु होते हैं। इसे 'अनंद' भी कहते हैं। २. कश्यप की क्रोधवशा नाम की पत्नी के गर्भ से उत्पन्न दस कन्याओं में से एक जिससे सिंह, बंदर आदि पैदा हूए थे।
⋙ हरी पु † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हर (= हल)] जमींदार के खेत की जुताई में असामियों का हल बैल देकर या काम करके सहायता करना।
⋙ हरी (४)
संज्ञा पुं० [सं० हरि] दे० 'हरि'।
⋙ हरी कसीस
संज्ञा स्त्री० [हिं० हीरा + कसीस] दे० 'हीरा कसीस'।
⋙ हरीकेन
संज्ञा पुं० [अं०] १ एक प्रकार की लालटेन जिसकी बत्ती में हवा का झोंका आदि नहीं लगता। २ बवंडर। अंधवायु। महावात [को०]।
⋙ हरी चाह
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरी + चाह] १. एक प्रकार की घास जिसकी जड़ में नीबू की सी सुगन्ध होती है। गंध तृण। २. एक प्रकार की चाय जिसकी पत्तियाँ हरी होती हैं।
⋙ हरीचुग †
संज्ञा पुं० [हिं० हरी (= हरियाली) + चुगना] वह जो केवल अच्छे समय में साथ दे। संपन्न अवस्था में साथ देनेवाला।
⋙ हरीछाल केला
संज्ञा पुं० [हिं०] बंबइया केला जिसकी छाल हरी होती है और पकने पर भी उसका रंग नहीं बदलता। विशेष दे० 'केला'।
⋙ हरीत
संज्ञा पुं० [सं० हारीत] दे० 'हारीत'।
⋙ हरीतकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हड़। हर्रे।
⋙ हरीतक्यादि क्वाथ
संज्ञा पुं० [सं०] हड़ के प्रधान योग से बना हुआ एक प्रकार का काढ़ा। विशेष—हड़ का छिलका, अमलतास का गूदा, गोखरू, पखानभेद, धमासा और अड़ूसा इन सब का चूर्ण लेकर पानी में काढ़ा उतारा जाता है। यह मूत्रकृच्छ्र और बंधकुष्ठ रोग में दिया जाता है।
⋙ हरीतिमा
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरा, हरी] हरियाली। हरापन।
⋙ हरिफ
संज्ञा पुं० [अ० हरीफ़] १. दुश्मन। शत्रु। २. प्रतिद्वंद्वी। प्रति- स्पर्धी। विरोधी। उ०—दास पलटू अहैं हरीफ पक्का।—पलटू०, पृ० ८। ३. एक ही नायिका के दो प्रेमी। रकीब (को०)।
⋙ हरीम
संज्ञा पुं० [अ०] १. घर की चहारदिवारी या प्राचीर। २. घर। मकान [को०]।
⋙ हरीर
संज्ञा पुं० [अ०] एक प्रकार का अत्यंत बारीक रेशमी कपड़ा [को०]।
⋙ हरीरा (१)
संज्ञा पुं० [अ० हरीरह्] एक प्रकार का पेय पदार्थ जो दूध में सूजी, चीनी और इलायची आदि मसाले और मेवे डालकर औटाने से बनता है। यह अधिकतर प्रसूता स्त्रियों को दिया जाता है।
⋙ हरीरा पु (२)
वि० [हिं० हरिअर] [स्त्री० हरीरी] १. हरा। सब्ज। २. हर्षित। प्रसन्न। प्रफुल्ल।
⋙ हरीरी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० हरीरह्] दे० 'हरीरा' (१)।
⋙ हरीरी (२)
वि० स्त्री० [हिं० हरियर] १. दे० 'हरीरा'। २. हर्षित। प्रसन्न। उ०—छन होत हरीरी मही को लखे, छन जोवति है छनजोति छटा। अवलोकति इंद्र बधू की पँत्यारी, बिलोकति है छिन कारी घटा।—कोई कवि (शब्द०)।
⋙ हरील †
संज्ञा पुं० [हिं०] एक पक्षी। दे० 'हारिल'।
⋙ हरीश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बंदरों के राजा। २. हनुमान। ३. सुग्रीव।
⋙ हरीश (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] एक प्रकार का पतला कीड़ा। कनसलाई [को०]।
⋙ हरीष पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हर्ष] दे० 'हर्ष'।
⋙ हरीषना पु †
क्रि० अ० [सं० हर्ष] हर्षित होना। आनंदित होना। उ०—सुकन सूणी हरीष्यो मन माँहि।—बी० रासो०, पृ० ६०।
⋙ हरीषा
सं० स्त्री० [सं०] एक प्रकार का सामिष व्यंजन [को०]।
⋙ हरीस (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हलीषा] हल का वह लंबा लट्ठा जिसके एक छोर पर फालवाली लकड़ी आड़े बल जड़ी रहती है और दूसरे छोर पर जूआ लगाया जाता है। हरिस।
⋙ हरीस (२)
वि० [अ०] लालची। लिप्सु। लोभी।
⋙ हरुआ पु †
वि० [सं० लघुक, पा० लहुअ, विपर्यय 'हलुअ'] [वि० स्त्री० हरुई] जो भारी न हो। जिसमें गुरुत्व न हो। हलका। (क) निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहिं निहारी।—मानस, १।२५८। (ख) सोन नदी अस पिउ मोर गरुआ। पाहन होइ परै जो हरुआ।—जायसी (शब्द०)।
⋙ हरुआई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरुआ + ई (प्रत्य०)] १. हलकापन। उ०—देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर ते मंदिर चढ़ धाई।— मानस, ५।२६। २. फुरती। शीघ्रता।
⋙ हरुआना †
क्रि० अ० [हिं० हरुआ + ना (प्रत्य०)] १. हलका होना। लघु होना। २. फुरती करना। जल्दी करना। उ०—कर धनु लै किन चंदहि मारि। तू हरुआय जाय मंदिर चढ़ि ससि सम्मुख दर्पन विस्तारि। याही भाँति बुलाय, मुकुर महि अति बल खंड खंड करिडारि।—सूर (शब्द०)।
⋙ हरुई †
वि० स्त्री० [हिं० हरुआ का स्त्री०] दे० 'हरुआ'।
⋙ हरुए पु †
क्रि० वि० [हिं० हरुआ] १. धीरे धीरे। आहिस्ता से। २. इस प्रकार जिसमें आहट न मिले। हलकेपन से। चुपचाप। उ०—(क) ना जानौं कित तें हरुए हरि आय मूँदि दिए नैन।— सूर (शब्द०)। (ख) आपहि तें तजि मान तिया हरुए हरुए गरवै लगि जैहै।—पदमाकर (शब्द०)।
⋙ हरुण
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध मतानुसार एक बहुत बड़ी संख्या।
⋙ हरुवा †
वि० [सं० लघुक] दे० 'हरुआ'। उ०—कीन्हेसि जो अति गिरवर गरुवा। चहइ तो करै तृणहु से हरुवा।—चित्रा०, पृ० २।
⋙ हरू पु †
वि० [सं० लघु] दे० 'हरुअ'। उ०—कंचन देके काँच बिसाहै, हरू गरू नहिं तौलै।—कबीर शा०, भा० ४, पृ० २४। यौ०—हरू गरू = हलका और वजनी।
⋙ हरूफ
संज्ञा पुं० [अ० हरूफ़] हरफ का बहुवचन। अक्षर। वर्ण। हरफ।
⋙ हरेँ पु †
क्रि० वि० [हिं० हरुए] आहिस्ता। धीरे। यौ०—हरेँ हरेँ = धीरे धीरे। शनैः शनैः।
⋙ हरे (१)
संज्ञा पुं० [सं०] 'हरि' शब्द का संबोधन का रूप। उ०—(क) जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे।— मानस, ६।११०। (ख) हति नाथ अनाथन्ह पाहि हरे। बिषया बन पामर भूलि परे।—मानस, ७।१४।
⋙ हरे पु (२)
क्रि० वि० [हिं० हरुए] १. धीरे से। आहिस्ता से। तेजी के साथ नहीं। मंद मंद। उ०—लाज के साज धरेई रहे तब नैनन लै मन ही सों मिलाए। कैसी करौं अब क्यों निकसै री हरेई हरे हिय में हरि आए।—केशव (शब्द०)। २. जो ऊँचा या जोर का न हो। जो तीव्र न हो (ध्वनि, शब्द आदि)। उ०—दूरि तें दौरत, देव, गए सुनि के धुनि रोस महा चित चीन्हों। संग की औरै उठी हँसि कै तब हेरि हरे हरि जू हँसि दीन्हों।—देव (शब्द०)। ३. जो कठोर या तीव्र न हो। हलका कोमल। (आघात, स्पर्श आदि)। यौ०—हरे हरे = धीरे धीरे। उ०—रोस दरसाय बाल हरि तन हेरि हेरि फूल की छरी सों खरी मारती हरे हरे।— (शब्द०)।
⋙ हरेई पु
संज्ञा पुं० [?] घोड़ों की एक जाति। उ०—हंसा हरेई बाजि। ती तुरिय ताँबी साजि।—ह० रासो, पृ० ३२५।
⋙ हरेक
वि० [फ़ा० हर + एक] प्रत्येक। हरएक।
⋙ हरेणु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मटर। २. बाड़ जो ग्राम आदि का हद बाँधने के लिये लगाई जाय। ३. लंका का एक नाम (को०)।
⋙ हरेणु (२)
संज्ञा स्त्री० १. संमाननीय स्त्री। कुलस्त्री। २. हरिणी जो ताम्र वर्ण की हो। ताँबे के रंग की मृगी। ३. एक सुगंधित वस्तु। रेणुका नामक गंधद्रव्य [को०]।
⋙ हरेणुक
संज्ञा पुं० [सं०] मटर। मंटर [को०]।
⋙ हरेना †
संज्ञा पुं० [हिं० हरा] वह विशेष प्रकार का चारा जो ब्यानेवाली गाय को दिया जाता है।
⋙ हरेरा †
वि० [हिं० हरा + एरा (प्रत्य०)] दे० 'हरा', 'हरिअर'।
⋙ हरेरी †
वि० [हिं० हरा] दे० 'हरिअरी'।
⋙ हरेव
संज्ञा पुं० [देश०] १. मंगोलों का देश। २. मंगोल जाति। उ०—पछिउँ हरेव दीन्हि जो पीठी। सो पुनि फिरा सौँह कै दीठी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ हरेवा
संज्ञा पुं० [हिं० हरा] हरे रंग की एक चिड़िया। हरी बुलबुल। उ०—षचै बाग उठ्टे चुटक्के हरेवं। मनौं मंडियं मोज केकी परेवं।—पृ० रा०, १२।१७५। विशेष—इस पक्षी की चोंच काली, पैर पीले और लंबाई १४ या १५ अंगुल होती है। यह युक्तप्रांत, मध्यप्रदेश और बंगाल में पाई जाती है। यह पेड़ की जड़ और रेशों से कटोरे के आकार का घोंसला बनाती और दो अंडे देती है। यह बहुत अच्छा बोलती है, इससे इसे 'हरी बुलबुल' भी कहते हैं।
⋙ हरैँ पु
क्रि० वि० [हिं० हरुए] दे० 'हरे'।
⋙ हरैना
संज्ञा पुं० [हिं० हर (= हल) ऐना (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० अल्पा० हरैनी] १. वह टेढ़ी गावदुम लकड़ी जो हल के लट्ठे (हरिस) के एक छोर पर आड़े बल में लगी रहती है और जिसमें लोहे का फाल ठोंका रहता है। २. बैलगाड़ी के सामने की ओर निकली हुई लकड़ी।
⋙ हरैनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हर = हल] दे० 'हरैना'।
⋙ हरैया पु
संज्ञा पुं० [हिं० हरना] हरनेवाला। दूर करनेवाला। उ०— दसरत्थ के नंद हैं दुःख हरैया।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हरोना
संज्ञा पुं० [हिं० हरा + ओना] एक प्रकार की अरहर जो रायपुर जिले में बहुत होती है।
⋙ हरोल
संज्ञा पुं० [तु० हरावल] दे० 'हरावल' उ०—प्रेम है हरोल आगे आवन सबन के जू भागे छल यूथ सील बल सों भगायो है।— दीन० ग्रं०, पृ० १३४।
⋙ हरौती
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरा + औती (प्रत्य०)] एक प्रकार की छड़ी। हरी लकड़ी की छड़ी। उ०—हाथ में हरौती की पतली सी छड़ी, आँखों में सुरमा, मुँह में पान, मेंहदी लगी हुई लाल दाढ़ी, जिसकी सफेद जड़ दिखलाई पड़ रही थी।—इंद्र०, पृ० ९५।
⋙ हरौल
संज्ञा पुं० [तु० हरावल] दे० 'हरावल'। उ०—जुरे दुहन के दृग झमकि रुके न झीने चीर। हलकी फौज हरौल ज्यों परत गोल पर भीर।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ हर्कत
संज्ञा स्त्री० [अ० हरकत] दे० 'हरकत'।
⋙ हर्गिज
अव्य० [फ़ा० हरगिज] दे० 'हरगिज'। उ०—मिलो जब गाँव भर से, बात कहना, बात सुनना, भूल कर मेरा, न हर्गिज नाम लेना।—ठंडा०, पृ० १८।
⋙ हर्ज
संज्ञा पुं० [अ०] १. काम में रुकावट। बाधा। अड़चन। जैसे,— नौकर के न रहने बड़ा हर्ज हो रहा है। २. हानि। नुकसान। जैसे—इनके यहाँ रहने से आपका क्या हर्ज है। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हर्जा (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० हर्जह्] तावान। क्षतिपूर्ति। हरजाना [को०]।
⋙ हर्जा (२)
संज्ञा पुं० [फा़० हर्जह्] व्यर्थ। अनर्गल। बेहूदा।
⋙ हर्जा (३)
संज्ञा पुं० [अ० हर्ज] दे० 'हर्ज', 'हरज'।
⋙ हर्जाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० हर्जानह्] दे० 'हरजाना'।
⋙ हर्तव्य
वि० [सं०] हरण करने लायक [को०]।
⋙ हर्ता
संज्ञा पुं० [सं० हर्तृ] [संज्ञा स्त्री० हर्ती]। १. हरण करनेवाला। २. नाश करनेवाला। ३. काटकर अलग करनेवाला। विच्छिन्न करनेवाला। ४. तस्कर। चोर (को०)। ५. डकैत। डाकू (को०)। ६. सूर्य (को०)। ७. वह जो कर लगाए। राजा (को०)।
⋙ हर्तार
संज्ञा पुं० [सं० हर्तार] हरण करनेवाला। हर्ता।
⋙ हर्तु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरण। मृत्यु। २. गाढ अनुराम। [को०]।
⋙ हर्तृ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हर्ता' [को०]।
⋙ हर्द
संज्ञा पुं० [सं० हरिद्रा] दे० 'हलदी'।
⋙ हर्दी
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिद्रा] दे० 'हलदी'।
⋙ हर्फ
संज्ञा पुं० [अ० हर्फ़] दे० 'हरफ'।
⋙ हर्ब
संज्ञा पुं० [अ०] युद्ध। लड़ाई। संग्राम [को०]। यौ०—हबंगाह = युद्धस्थल। लड़ाई का मैदान।
⋙ हर्बा
संज्ञा पुं० [अ० हरबह्] दे० 'हरबा'।
⋙ हम
संज्ञा पुं० [सं० हर्मन्] जृभा। जँभाई [को०]।
⋙ हर्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी स्तूप पर बना हुआ ग्रीष्मभवन [को०]।
⋙ हर्मित
वि० [सं०] १. फेका हुआ। क्षिप्त। २. छोड़ा हुआ। डाला हुआ। ३. भेजा हुआ। प्रेषित। ४. जलाया हुआ [को०]।
⋙ हर्मुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कछुआ। कच्छप। २. सूर्य [को०]।
⋙ हर्म्य
संज्ञा पुं० [स्त्री०] १. राजभवन। महल। प्रासाद। २. बड़ा भारी मकान। हवेली। ३. नरक। ४. यंत्रणागृह (को०)। ५. अग्निकुंड। ६. तंदूर। अँगीठी (को०)।
⋙ हर्म्यगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] राजप्रासाद का अंतः पुर। उ०—'तालाब होते थे और खुली छत की इमारतें भी होती थी शिविकागर्भ, नलिकागर्भ और हर्म्यगर्भ—हिं० पुं० स० पृ० २८८।
⋙ हर्म्यचर
वि० [सं०] प्रासाद या हर्म्य में रहनेवाला। बड़ी कोठी या हवेली में रहनेवाला [को०]।
⋙ हर्म्यतल
संज्ञा पुं० [सं०] प्रासाद की ऊपरी मंजिल या छत [को०]।
⋙ हर्म्यपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] मकान की पाटन या छत। दे० 'हर्म्यतल'।
⋙ हर्म्यवलभी
संज्ञा स्त्री० दे० 'हर्म्यतल' [को०]।
⋙ हर्म्यभाज्
वि० [सं०] प्रासाद में रहनेवाला [को०]।
⋙ हर्म्यस्थ
वि० [सं०] जो हर्म्य में वर्तमान हो।
⋙ हर्म्यस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हर्म्यतल'।
⋙ हर्यंककुल
वि० [सं० हर्यङ्ककुल] जिसका प्रतीक सिंह हो उस कुल अर्थात् सूर्य वंश में उत्पन्न होनेवाला [को०]।
⋙ हर्यक्ष (१)
वि० [सं०] भूरी आँखोंवाला [को०]।
⋙ हर्यक्ष (२)
संज्ञा पुं० १. सिंह। शेर। २. सिंह राशि। ३. बंदर। ४. कुबेर। ५. रोग उत्पन्न करनेवाला दैत्य। ६. एक असुर। ७. पृथुके एक पुत्र। ८. शिव का एक नाम [को०]।
⋙ हर्यत
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्व। घोड़ा। २. अश्वमेध यज्ञ के उपयुक्त अश्व। ३. यज्ञ [को०]।
⋙ हर्यश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र का घोड़ा। २. शिव। ३. इंद्र [को०]। यौ०—हर्यश्वचाप, हर्यश्वधनु = इंद्रचाप। इंद्रधनुष।
⋙ हर्या पु †
वि० [हिं० हरा] दे० 'हरा'। उ०—जमीं के तले यक ठरा कर मकान,हर्या उस तले एक पत्थर अहै जान।—दक्खिनी०, पृ० ३३६।
⋙ हर्यात्मा
संज्ञा पुं० [सं० हर्यात्मन्] व्यास का एक नाम [को०]।
⋙ हरयारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हरा, हरियर] दे० 'हरियाली'। उ०— चोप हरयारी हिलमिल बाढ़ी। पावस निज संपति है काढ़ी।—घनानंद, पृ० ३९०।
⋙ हर्र
संज्ञा स्त्री० [हिं०] हड़। दे० 'हर्रे'।
⋙ हर्रा
संज्ञा पुं० [सं० हरीतकी] बड़ी जाति की हड़ जिसका उपयोग त्रिफला में होता है और जो रँगाई के काम में आती है। विशेष दे० 'हर्रे', 'हड़'। मुहा०—हर्रा कदम में = रास्ते में मैला या गोबर है। (पालकी के कहार)। हर्रा लगे न फिटकरी और रंग चोखा होय =बिना किसी प्रयास या व्यय के कोई कार्य बन जाना। उ०— अतः 'हर्रा लगे न फिटकरी और रंग चोखा होय' वाली कहावत '।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २१७।
⋙ हर्रे
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'हड़'।
⋙ हर्रैया
संज्ञा स्त्री० [हिं० हर्रै] १. हाथ में पहनने का एक गहना जिसमें हड़ के से सोने या चाँदी के दाने पाट में गुथे रहते हैं। २. माला या कंठे के दोनों छोरों पर का चिपटा दाना जिसके आगे सुराही होती है।
⋙ हर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रफुल्लता या भय आदि के कारण रोंगटों का खड़ा होना। २. प्रफुल्लता। आनंद। चित्तप्रसादन खुशी। क्रि० प्र०—करना।—मनाना।।—होना। ३. ३३ संचारी भावों में से एक का नाम। विशेष—साहित्य में 'हर्ष' की गिनती संचारी भावों में की गई है। ३. धर्म के पुत्रों में से एक। ४. भागवत के अनुसार कृष्ण के एक पुत्र का नाम। ५. काम के वेग से इंद्रिय का उत्तेजित होना। कामोत्तेजना। कामोद्दीपन (को०)। ६. तीव्र आकांक्षा। उत्कट इच्छा (को०)। ७. एक दैत्य का नाम। ८. कान्यकुब्ज के एक नरेश का नाम। दे० 'हर्षवर्धन'। यौ०—हर्षविषाद = खुशी और रंज।
⋙ हर्षक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चित्रगुप्त के एक पुत्र का नाम। २. मगध के शिशुनाक वंश का एक प्राचीन राजा।
⋙ हर्षक (२)
वि० [वि० स्त्री० हर्षका, हर्षिका] हर्ष प्रदान करनेवाला। आनंददायक।
⋙ हर्षकर
वि० [सं०] खुश करनेवाला। आनंद देनेवाला। हर्षकारक।
⋙ हर्षकारक
वि० [सं०] दे० 'हर्षकर'।
⋙ हर्षकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] कामशास्त्र में वर्णित एक प्रकार के आसन का नाम।
⋙ हर्षगदगद्
वि० [सं०] जिसकी वाणी आनंद के कारण कंपित हो [को०]।
⋙ हर्षगर्भ
वि० [सं०] प्रसन्न। खुश। आनंदित [को०]।
⋙ हर्षचरित
संज्ञा पुं० [सं०] वाण कवि का रचित एक प्रसिद्ध गद्य- काव्य जिसमें उनके आश्रयदाता कान्यकुब्जाधिपति सम्राट् हर्षवर्धन का वृत्तांत है।
⋙ हर्षचल
वि० [सं०] हर्षातिरेक से चंचल या कंपित।
⋙ हर्षज (१)
वि० [सं०] जो हर्ष के कारण उत्पन्न हो।
⋙ हर्षज (२)
संज्ञा पुं० शुक्त। वीर्य [को०]।
⋙ हर्षण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रफुल्लता या भय से रोंगटों का खड़ा होना। जैसे,—लोमहर्षण। २. प्रफुल्लित करना या होना। ३. कामदेव के पाँच बाणों में से एक। ४. आँख का एक रोग। ५. एक प्रकार का श्राद्ध। ६. फलित ज्योतिष में विष्कंभ आदि २७ योगों में से एक योग। ७. काम के वेग से इंद्रिय का तनाव। ८. श्राद्घ के देवता। श्राद्धदेव (को०)। ९. आनंद। हर्ष। प्रसन्नता (को०)। १०. सेना या दल का उत्साह बढाना। ११. अस्त का एक संहार।
⋙ हर्षण (२)
वि० [वि० स्त्री० हर्षणा, हर्षणी] १. प्रफुल्लताकारक। आनद देनेवाला। २. रोमांचित करनेवाला [को०]।
⋙ हर्षणीय
वि० [सं०] हर्षप्रद। आनंददायक [को०]।
⋙ हर्षद
वि० [सं०] आनंददायक।
⋙ हर्षदान
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसन्नतापूर्वक दिया हुआ दान [को०]।
⋙ हर्षदोहल
संज्ञा पुं० [सं०] वासनात्मक इच्छा। कामेच्छा [को०]।
⋙ हर्षधारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक ताल जो चौदह प्रकार के तालों में से एक है।
⋙ हर्षध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] उल्लास, आनंद आदि के कारण की जानेवाली आवाज [को०]।
⋙ हर्षना पु
क्रि० अ० [सं० हर्षण] प्रफुल्लित होना। खुश होना। प्रसन्न होता। उ०—लखि प्रतीति मन मँह भइय, हर्षे महिमा मीर।—ह० रासो, पृ० ५०।
⋙ हर्षनाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हर्षध्वनि'।
⋙ हर्षनिष्वनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक प्रकार की रागिनी का नाम।
⋙ हर्षनिःस्वन, हर्षनिस्वन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हर्षध्वनि' [को०]।
⋙ हर्षपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक राग।
⋙ हर्षप्रद
वि० [सं०] हर्षित करनेवाला। आनंददायक।
⋙ हर्षभाक्
वि० [सं० हर्षभाज्] आनंद का भागी। खुश। प्रसन्न।
⋙ हर्षमाण
वि० [सं०] प्रसन्न। हर्षित। खुश [को०]।
⋙ हर्षयित्नु (१)
वि० [सं०] आनंददायक [को०]।
⋙ हर्षयित्नु (२)
संज्ञा पुं० १. सोना। सुवर्ण। २. पुत्र। संतान [को०]।
⋙ हर्षवर्द्घन, हर्षवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] भारत का वैस क्षत्रिय वंशीय एक समाट् जिसकी सभा मे बाण कवि रहते थे। विशेष—हर्षचरित नामक ग्रंथ बाणकवि ने इनके जीवन पर लिखा है। यह बौद्ध था और इसका राज्य विक्रम की सातवीं शताब्दी में था। प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएन्सांग इसी के समय में भारतवर्ष मे आया था।
⋙ हर्षविवर्धन
वि० [सं०] हर्ष, आनंद, प्रसन्नता आदि की वुद्धि करनेवाला [को०]।
⋙ हर्षविह्वल
वि० [सं०] आनंदातिरेक में निमग्न। आनंदमग्न [को०]।
⋙ हर्षसंपुट
संज्ञा पुं० [सं० हर्षसम्पुट] एक रतिबंध [को०]।
⋙ हर्षसमन्वित
वि [सं०] दे० 'हर्षान्वित'।
⋙ हर्षस्वन
संज्ञा पुं० [सं०] आनंद की ध्वनि। दे० 'हर्षध्वनि' [को०]।
⋙ हर्षाकुल
वि० [सं०] हर्ष से आकुल। आनंदमग्न [को०]।
⋙ हर्षातिरेक, हर्षातिशय
संज्ञा पुं० [सं०] आनंदातिरेक। हर्ष की अधिकता। [को०]।
⋙ हर्षाना पु (१)
क्रि० अ० [सं० हर्ष + हिं० आना (प्रत्य०)] आनंदित होना। प्रसन्न होना। प्रफुल्ल होना।
⋙ हर्षाना (२)
क्रि० स० हर्षित करना। आनंदित करना।
⋙ हर्षान्वित
वि० [सं०] प्रसन्न। खुश [को०]।
⋙ हर्षाविष्ट
वि० [सं०] हर्षयुक्त। प्रसन्न। आनंदित [को०]।
⋙ हर्षाश्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वस्तु जिसके ग्रहण से आनंद की अनुभूति हो। २. विजया। सिद्धि। भाँग [को०]।
⋙ हर्षित (१)
वि० [सं०] १. आनंदित। प्रसन्न। प्रफुल्ल। खुश। २. जो प्रसन्न किया गया हो (को०)। ३. रोमांचयुक्त। रोमांचित (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हर्षित (२)
संज्ञा पुं० आनंद। आह्लाद [को०]।
⋙ हेर्षी
वि० [सं० हर्षिन्] १. आनंदित। खुश। प्रसन्न। हर्षित। २. आनंदकारक। प्रसन्न करनेवाला [को०]।
⋙ हर्षीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृत्त का नाम [को०]।
⋙ हर्षुल (१)
वि० [सं०] हर्षित रहनेवाला। खुशमिजाज।
⋙ हर्षुल (२)
संज्ञा पुं० १. प्रेमी। नायक। प्रियतम। २. हिरन। मृग। ३. एक बुद्ध का नाम।
⋙ हर्षुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कन्या जिसकी ठुड्डी में बाल या दाढ़ी हो। विशेष—शास्त्रों में ऐसी कन्या विवाह के अयोग्य कही हई है।
⋙ हर्षोत्कर्ष
संज्ञा पुं० [स०] हर्षातिशय। आनंदातिरेक [को०]।
⋙ हर्षोत्फुल्ल
वि० [सं०] हर्ष से विकसित। खुशी से फूला हुआ।
⋙ हर्षोदय
संज्ञा पुं० [सं०] आनंद की उत्पत्ति [को०]।
⋙ हर्सा †
संज्ञा पुं० [सं० हलीषा] हल का लंबा लट्ठा। हरिस। हलीषा।
⋙ हल्
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध व्यंजन जिसमें स्वर न मिला हो। विशेष—लिखने में अक्षर के नीचे एक छोटी तिरछी लकीर बना देने से यह सूचित होता है। जैसे 'पृथक्' शब्द में 'क' के नीचे।
⋙ हलंत
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध व्यंजन जिसके उच्चारण में स्वर न मिला हो। दे० 'हल्'। विशेष—व्यंजन दो रूपों में आते हैं—स्वरांत और हलंत।
⋙ हल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह यंत्र या औजार जिससे बीज बोने के लिये जमीन जोती जाती है। वह औजार जिसे खेत में सब जगह फिराकर जमीन को खोदते और भुरभुरी करते हैं। सीर। लांगल। विशेष—यह खेती का मुख्य औजार है और सात आठ हाथ लंबे लट्ठे के रूप में होता है, जिसके एक छोर पर दो ढाई हाथ का लकड़ी का टेढ़ा टुकड़ा आड़े बल में जड़ा रहता है। इसी आड़ी लकड़ी में जमीन खोदनेवाला लोहे का फाल ठोंका रहता हैं। लंवे लट्ठे को 'हरिस' या 'हर्सा' और आड़ी जड़ी लकड़ी को 'हरैना' कहते हैं। क्रि० प्र०—चलाना। मुहा०—हल जोतना = (१) खेत में हल चलाना। (२) खेती करना। २. एक अस्त्र का नाम। विशेष—श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का यह प्रसुख अस्त्र था। इसी से उनका एक नाम 'हल्ली' भी है। ३. जमीन नापने का लट्ठा। ४. बृहत्संहिता के अनुसार उत्तर के एक देश का नाम। ५. सामुद्रिक के अनुसार पैर की एक रेखा या चिह्व। ६. प्रतिषेध। विघ्न। बाधा (को०)। ७. कुरूपता। विकृतियुक्तता। भद्दापन (को०)। ८. एक नक्षत्रसमूह (को०)। ९. कलह। विवाद। झगड़ा (को०)।
⋙ हल (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. हिसाब लगाना। गणित करना। २. किसी कठिन बात का निर्णय। किसी समस्या का समाधान (या उत्तर)। जैसे—यह मुश्किल किसी तरह हल होती दिखाई नहीं देती। ३. मिलकर एकमेक हो जाना। घुलना। उलझन का सुलझना या खुल जाना (को०)। ४. किसी गणित या अन्य विषय के प्रश्न का उत्तर या जवाब (को०)।
⋙ हलकंप
संज्ञा पुं० [हिं० हलना (= हिलना) + कंप] १. भारी हल्ला या उथलपुथल। हलचल। आंदोलन। हड़कंप। उ०—जब अहेर सों आयो नाहीं। तब हलकंप परयो पुर माँहीं।— रघुराज (शब्द०)। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना। २. चारों ओर फैली हुई घबराहट। लोगों के बीच फैला हुआ आवेग या आकुलता। उ०—शत्रुन के दल में हलकंप परयो सुनि कै नृप केरी अवाई।—(शब्द०)। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना।
⋙ हलक
संज्ञा पुं० [अ० हलक] गले की नली। कंठ। उ०—ऐसा यार हरीफ रहत मन हलक में।—पलटू०, पृ० ३००। २. गला। गरदन। ३. मुंडन। मूँड़ना। क्षौर कर्म (को०)। मुहा०—हलक के नीचे उतरना = (१) मुँह में डाली हुई वस्तु का पेट में ले जानेबाले स्त्रीत में जाना। पेट में जाना। (२) किसी बात का मन में बैठना। असर होना। हलक तक भरना = आवश्यकता से अधिक खाना। ठूँस ठूँसकर भोजन करना। हलक पर छुरी फेरना = दे० 'गला रेतना' और 'गले पर छुरी फेरना'। हलक में डालना। हलक से उतरना = (१) गले के नीचे उतारना। पेट में पहुँचना। (२.) मन में बैठना।
⋙ हलकई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलका + ई (प्रत्य०)]। १. हलकापन। गुरुत्वाभाव। २. ओछापन। तुच्छता। ३. हेठी। अप्रतिष्ठा। जैसे—वहाँ जाने से कोई हलकई न होगी।—बालकृष्ण भट्ट (शब्द०)।
⋙ हलककुद्
संज्ञा पुं० [सं०] हल की वह लकड़ी जो लट्ठे के एक छोर पर आड़े बल में जड़ी रहती है और जिसमें फाल ठोंका रहता है। हरैना। विशेष दे० 'हल'-१।
⋙ हलकन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलकना] १. हलकने की स्थिति। हिलने डुलने की क्रिया। छलकन।
⋙ हलकना पु †
क्रि० अ० [सं० हल्लन (= हिलना) अथवा 'हल हल' अनु०] १. किसी वस्तु में भरे जल का हिलाने से हिलना डोलना या शब्द करना। जैसे,—दौड़ने से पेट में पानी हलकता है।२. हिलोरें लेना। तरंग मारना। लहराना। ३. बत्ती की लौ का झिलमिलाना। ४. हिलना। डोलना। उ०—पानिप के भारत सँभारत न गात, लंक लचि लचि जाति कचभारन के हलकैं।—द्विजदेव (शब्द०)।
⋙ हलकम †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हड़कंप', 'हलकंप'।
⋙ हलका (१)
वि० [सं० लघुक, प्रा० लहुक, लहुअ; विपर्यय 'हलुक'] [वि० स्त्री० हलकी] १. जो तौल में भारी न हो। जिसमें वजन या गुरुत्व न हो। 'भारी' का उलटा। जैसे,—यह पत्थर हलका है, तुम उठा लोगे। उ०—गरुवा होय गुरू होय बैठे हलका डग- मग कर डोलै।—कबीर श०, भा० १, पृ० १०३। २. जो गाढ़ा न हो। पतला। जैसे,—हलका शरबत। ३. जो गहरा या चटकीला न हो। जो शोख न हो। जैसे,—हलका रंग, हलका हरा। ४. जो गहरा न हो। उथला जैसे,—किनारे पर पानी हलका है। ५. जो उपजाऊ न हो। जो उर्वरा न हो। अनुर्वर। जैसे,—यहाँ की जमीन हलकी है, पैदावार कम होती है। ६. जो अधिक न हो। कम। थोड़ा। जैसे,—(क) हलका भोजन। (ख) हमें हलके दामों का एक घोड़ा चाहिए। ७. जो जोर का न हो। मंद। थोड़ा थोड़ा। जैसे,—हलका दर्द, हलका ज्वर। ८. जो कठोर या प्रचंड न हो। जो जोर से न पड़ा या बैठा हो। जैसे,—हलकी चपत, हलकी चोट। ९. जिसमें गंभीरता या बड़प्पन न हो। ओछा। तुच्छ। टुच्चा। जैसे,—हलका आदमी, हलकी बात। १०. जो करने में सहज हो। जिसमें कम परिश्रम हो। आसान। सुखसाध्य। जैसे,— हलका काम। ११. जिसके ऊपर किसी कार्य या कर्तव्य का भार न हो। जिसे किसी बात के करने की फिक्र न रह गई हो। निश्चिंत। जैसे,—कन्या का विवाह करके अब वे हलके हो गए १२. प्रफुल्ल। ताजा। जैसे,—नहाने से बदन हलका हो जाता है। १३. जो मोटा न हो। झीना। पतला। महीन। जैसे,—हलका कपड़ा १४. कम अच्छा। घटिया। जैसे,—यह माल उससे कुछ हलका पड़ता है। १५. निंदित। अप्रतिष्ठित। १६. जिसमें कुछ भरा न हो। खाली। छूँछा। उ०—सखि ! बात सुनौ इक मोहन की, निकसे मटकी सिर लै हलकै। पुनि बाँधि लई सुनिए नत नार कहूँ कहूँ कुंद करी छलकै।—केशव (शब्द०)। मुहा०—हलका करना = अपमानित करना। तुच्छ ठहराना। लोगों की दृष्टि में प्रतिष्ठा कम करना। जैसे,—तुमने दस आदमियों के बीच में हलका किया। हलकी बात = (१) ओछी या तुच्छ बात। (२) बुरी बात। हलके भारी होना = (१) ऊबना। भार अनुभव करना। बोझ सा समझना। जैसे,—चार दिन में तुम्हारे यहाँ से चले जायँगे, क्यों हलके भारी हो रहे हो। (२) तुच्छता प्रकट करना। लोगों की नजर में ओछा बनना। हलकी भारी बोलना = खोटे वचन कहना। खरी खोटी सुनाना। बुरे शब्द मुँह से निकालना। लोगों की दृष्टि में हलका होना = ओछा या तुच्छ समझा जाना। प्रतिष्ठा खोना। बुरा समझा जाना। हलके हलके = धीरे धीरे। मंद गति से। आहिस्ता आहिस्ता। हलका सोना = हलका सुनद्दरी रंग। (रँगरेज)।
⋙ हलका † (२)
संज्ञा पुं० [अनु० 'हल हल' या 'हिलना'] पानी की हिलोर। तरंग। लहर।
⋙ हलका (३)
संज्ञा पुं० [अ० हलकह्] १. वृत्त। मंडल। गोलाई। २. घेरा। परिधि। उ०—जुल्फ के हलके में देखा जब से दाना खाल का। मुर्ग दिल आशिक का तब से सैद है इस जाल का।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २३। ३. मंडली। झुंड। दल। उ०—औ वाहरुआँ आफलै, कुंजर हलकाँ काय।— बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० २९। ४. हाथियों का झुंड। उ०— सत्ता के सपूत भाऊ तेरे दिए हलकनि बरनी ऊँचाई कविराजन की मति मैं। मधुकर कुल करटनि के कपोलन तें उड़ि उड़ि पियत अमृत उडुपति मैं।—मतिराम (शब्द०)। ५. कई गाँवों या कस्बों का समूह जो किसी काम के लिये नियत हो। इलाका। क्षेत्र। जैसे,—थाने का हलका। पटवारियों का हलका। ६. गले का पट्टा। ७. लोहे का बंद जो पहिए के घेरे में जड़ा रहता है। हाल। ८. लोहे या लकड़ी का गोलाकार कुंडा (को०)।
⋙ हलकाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलका + ई (प्रत्य०)] १. हलकापन। लघुता। २. ओछापन। नीचता। ३. अप्रतिष्ठा। हेठी।
⋙ हलकान †
वि० [हिं० हलका (= हिलना, कंपन ?) अ० हलाकत या हैरान] दे० 'हैरान'। उ०—गिरह माँहि धंधा घना, भेस माँहि हलकान। जन दरिया कैसे भजूँ, पूरन ब्रह्म निदान।—दरिया० बानी, पृ० ४०।
⋙ हलकाना † (१)
क्रि० अ० [हिं० हलका + ना (प्रत्य०)] हलका होना। बोझ कम होना।
⋙ हलकाना (२)
क्रि० स० हलका करना। गुरुत्व या वजन कम करना।
⋙ हलकाना (३)
क्रि० स० [हिं० हलकना] १. किसी वस्तु में भरे हुए पानी को हिलाना या हिलाकर आवाज पैदा करना या बुलाना। २. हिलोरा देना।
⋙ हलकाना (४)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'हिलगाना'।
⋙ हलकानी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलकान + ई] हलकान होने की क्रिया या भाव। हैरानी।
⋙ हलकापन
संज्ञा पुं० [हिं० हलका + पन (प्रत्य०)] १. हलका होने का भाव। भार का अभाव। लघुता। २. ओछापन। नीचता। तु्च्छता बुद्धि क्षुद्रता। खोटाई। ३. अप्रतिष्ठा। हेठी। इज्जत की कमी।
⋙ हलकार
संज्ञा पुं० [हिं० हरकारा] दूत। चर। उ०—प्रणधि, दूत, जासूस ए छबि पावत हलकार।—नंद० ग्रं०, पृ० १०८।
⋙ हलकारा ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हरकारा'।
⋙ हलकारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हड़ + कारी] कपड़ा रँगने के पहले उसमें फिटकरी, हड़ या तेजाब आदि का पुट देना जिसमें रंग पक्का हो।
⋙ हलकारी (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० हलकह् (= घेरा)] हलदी के योग से बने हुए रंग के द्वारा कपड़ों के किनारे पर की छपाई।
⋙ हलकोरा †
संज्ञा पुं० [अनु० हल हल] हिलोरा। तरंग। लहर। उ०—धान के हलकोरों ने रंग की लहरै ला ला कर...।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १२।
⋙ हलगोलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कीड़ा।
⋙ हलग्राही (१)
वि० [सं० हलग्राहिन्] हल पकड़नेवाला। हल की मूँठ पकड़कर खेत जोतनेवाला। विशेष—हल पकड़ना बहुत स्थानों में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिये निषिद्ध समझा जाता है।
⋙ हलग्राही (२)
संज्ञा पुं० खेती करनेवाला। किसान।
⋙ हलचल (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलना + चलना] १. लोगों के बीच फैली हुई अधीरता, घबराहट, दौड़ धूप, शोरगुल आदि। खलबली। धूम। जैसे,—सिपाहियों के शहर में घुसते ही हलचल मच गई। क्रि० प्र०—डालना। जैसे,—शिवाजी ने मुगलों की सेना में हल- चल डाल दी। पड़ना।—मचना।—मचाना। २. उपद्रव। दंगा। ३. हिलना। डोलना । कंप। विचलन।
⋙ हलचल (२)
वि० इधर उधर हिलता डोलता हुआ। डगमगाता हुआ। कंपायमान।
⋙ हलजीवी
वि० [सं० हलजीविन्] हल चलाकर अर्थात् खेती करके निर्वाह करनेवाला। किसान।
⋙ हलजुता
संज्ञा पुं० [हिं० हल + जोतना] १. तुच्छ कृषक। मामूली किसान। २. गँवार।
⋙ हलड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० आरा] दे० 'हलरा'।
⋙ हलदंड
सं० पुं० [सं० हलदण्ड] हल का लंबा लट्ठा। हरिस। उ०— गिरि कंदर सम नासा अंत। हल दंड से बड्डे दंत।—नंद० ग्रं०, पृ० २३९।
⋙ हलद †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'हलदी'। उ०—मुशाजा मुस्तरी होकर हलद सूरज लगाया है।—अली आदिल०, पृ० २७।
⋙ हलद हात
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलदी + हाथ] विवाह के तीन या पाँच दिन पहले वर और कन्या के शरीर में हल्दी और तेल लगाने की रस्म। हल्दी चढ़ना।
⋙ हलदिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० हलदी] १. एक पित्त रोग जिसमें शरीर पीला पड़ जाता है। पीलिया रोग। विशेष—दे० 'कामल'। २. एक प्रकार का जहर। एक विष का नाम।
⋙ हलदिया (२)
वि० हलदी के रंग का। पीला।
⋙ हलदी
संज्ञा स्त्री० [सं० हरिद्रा] ३. डेढ़ दो हाथ ऊँचा एक पौधा जिसमें चारों ओर टहनियाँ नहीं निकलतीं, कांड के चारो हाथ पौन हाथ लंबे और तीन चार अंगुल चौड़े पत्ते निकलते हैं। विशेष—इसकी जड़, जो गाँठ के रूप में होती है, व्यापार की एक प्रसिद्ध वस्तु है, क्योंकि वह मसाले के रूप में नित्य के व्यवहार की भी वस्तु है और रँगाई तथा औषध के काम में भी आती है। गाँठ पीसने पर बिलकुल पीली हो जाती है। इससे दाल, तरकारी आदि में भी यह डाली जाती है और इसका रंग भी बनता है। इसकी खेती हिंदुस्तान में प्रायः सब जगह होती है। हलदी की कई जातियाँ होती हैं। साधारणतः दो प्रकार की हलदी देखने में आती है—एक बिलकुल पीली, दूसरी लाल या ललाई लिए जिसे रोचनी हलदी कहते हैं। वैद्यक में यह गरम, पाचक, अग्निवर्धक और कृमिघ्न मानी जाती है। रँगाई में काम आनेवाली हलदी की जातियाँ ये हैं—लोकहाँड़ी हलदी, मोयला हलदी, ज्वाला हलदी और आँबा हलदी। २. उक्त पौधे की गाँठ जो मसाले आदि के रूप में व्यवहार में लाई जाती है। मुहा०—हलदी उठना या चढ़ना = विवाह के तीन या पाँच दिन पहले दूल्हे और दुलहन के शरीर में हलदी और तिल लगाने की रस्म होना। हलदी लगना = विवाह होना। हलदी लगा के बैठना = (३) कोई काम न करना, एक जगह बैठा रहना। (२) घमंड में फूला रहना। अपने को बहुत लगाना। हलदी लगी न फिटकिरी = बिना कुछ खर्च किए। मुफ्त में।
⋙ हलदू
संज्ञा पुं० [हिं० हल्द (= हलदी)] एक बहुत बड़ा और ऊँचा पेड़ जिसकी छाल डेढ़ अंगुल मोटी, सफेद और खुरदुरी होती है। विशेष—इसके भीतर की लकड़ी पीली और बहुत मजबूत होती है। यह पेड़ तर जगहों में, जैसे हिमालय की तलहटी में, होता है। इसकी लकड़ी बहुत वजनी होती है तथा साफ करने से चमकती है। इससे खेती और सजावट के सामान जैसे, मेज, कुरसी, आलमारी, कंघियाँ, बंदूक के कुंदे इत्यादि बनते हैं। इस पेड़ को करम (दे० 'करम' का विशेष) भी कहते हैं।
⋙ हलद्दी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हलदी। हरिद्रा [को०]।
⋙ हलधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. हल को धारण करनेवाला। २. बलराम जी जो हल नामक अस्त्र धारण करते थे। उ०—मारो हलधर अगिनित बीरा।—कबीर सा०, पृ० ४८।
⋙ हलना पु †
क्रि० अ० [सं० हल्लन (= डोलना, करवट लेना)] १. हिलना डोलना। उ०—अंगनि उतंग जंग जैतवर जोर जिन्है चिक्करत दिक्करि हलत कलकत हैं।—मतिराम (शब्द)। २. घुसना। प्रवेश करना। पैठना। जैसे,—पानी में हलना, घर में हलना। ३. समूह में घुसकर लड़ना। भिड़ना। टूट पड़ना। उ०—प्यादन सों प्यादे पखरैतन सो पखरैत, बखतर- वारे बखतरवारे हलतें।—भूषण ग्रं०, पृ० ६९।
⋙ हलपत †
संज्ञा पुं० [हिं० हल + पट्ट (= पाटा)] हल की आड़ी लगी हुई लकड़ी जो बीच में चौड़ी होती है। परिहत।
⋙ हलपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] बलराम जो हाथ में हल लिए रहते थे। हलधर।
⋙ हलफ
संज्ञा पुं० [अ० हलफ़] वह बात जो ईश्वर को साक्षी मानकर कही जाय। किसी पवित्र वस्तु की शपथ। कसम। सौगंध। मुहा०—हलफ उठवाना या देना = शपथ खिलाना या खाने को कहना। हलफ उठाना या लेना = शपथपूर्वक कहना। कसम खाना। ईश्वर को साक्षी देकर कहना।
⋙ हलफदरोगी
संज्ञा स्त्री० [अ० हलफ़दरोगी] अदालत में झूठी शपथ लेना। झूठी कसम खाना [को०]।
⋙ हलफन
क्रि० वि० [अ० हलफ़न] कसम से। कसम खाकर। शपथ- पूर्वक [को०]।
⋙ हलफनामा
संज्ञा पुं० [अ० हलफ़ + फ़ा० नामह्] वह कागज जिसपर कोई बात ईश्वर को साक्षी मानकर अथवा शपथ- पूर्वक लिखी गई हो।
⋙ हलफल
संज्ञा स्त्री० [अनु० प्रा० हल्लफ्फल्ल, हल्लफल] त्वरा। शीघ्रता। व्यग्रता। हड़बड़ी। उ०—रह रह सुंदरि, माठ करि, हलफल लग्गी काइ। डाँभ दिरावइ करइलउ, से कंता मरि जाइ।—ढोला०, दू० ३२१।
⋙ हलफा
संज्ञा पुं० [अनु० हल हल] १. हिलोर। लहर। तरंग। २. एक प्रकार का बच्चों रोग जिसमें साँस तेज चलती है। क्रि० प्र०—उठना। मुहा०—हलफा मारना = लहरें लेना। लहराना। हलफा चलना = बहुत तेजी से साँस चलना। उलटी साँस चलना। विशेष—किसी किसी रोग की घातक स्थिति में साँस उलटी चलने लगती है।
⋙ हलफी
वि० [अ० हलफ़ी] हलफ के साथ। शपथयुक्त [को०]।
⋙ हलब
संज्ञा पुं० [अ० हलब देश] [वि०, हलबी; हलब्बी] फारस की ओर के एक देश का नाम। सीरिया, जहाँ का शीशा प्रसिद्ध था। दे० 'शाम'। उ०—कधीं सौदा लेकर आवे अरब का। कधीं शीसा लेवे जलब का हलब का।—दक्खिनी०, पृ० २७७।
⋙ हलबल पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हल + बल] खलबली। हलचल। धूम।
⋙ हलबला
वि० [हिं० हलबल] अधीर। व्यग्र। व्याकुल। उ०—तब बनारसी ह्वै हलबले। बरसत मेह बहुरि उठि चले।—अर्ध०, पृ० २८।
⋙ हलबलाना (१)
क्रि० अ० [हिं० हलबल] भय या शीघ्रता आदि के कारण घबराना। हड़बड़ाना।
⋙ हलबलाना (२)
क्रि० स० दूसरे को घबड़ाने में प्रवृत्त करना।
⋙ हलबलाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलबलाना] हलबलाने की क्रिया या भाव। खलबली। घबराहट।
⋙ हलबी
वि० [अ० हलबी] हलब देश का (शीशा)। बढ़िया (शीशा)। उ०—नैन सनेहन के मनौ हलबी सीसा आइ। गुपुत प्रगट तिन मैं सदा मीत सुमुख दरसाइ।—स० सप्तक, पृ० १९५।
⋙ हलब्बी (१)
वि० [अ० हलबी] दे० 'हलबी'। जैसे—हलब्बी शीशा।
⋙ हलब्बी ‡ (२)
वि० [?] पर्याप्त। काफी। बहुत। जैसे,—उसने घूस में हलब्बी रकम पिलाई है।
⋙ हलभल †
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'हलबल'।
⋙ हलभली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलबल] खलबली। हलचल। घबराहट। हलभल।
⋙ हलभली (२)
संज्ञा स्त्री० [प्रा० हलहलअ] त्वरा। जल्दी। हड़बड़ी।
⋙ हलभूति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शंकराचार्य का एक नाम।
⋙ हलभूति (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'हलभृति'।
⋙ हलभृत
संज्ञा पुं० [सं० हलभृत्] १. बलराम। २. किसान। कृषक [को०]।
⋙ हलभृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृषि का काम। किसानी [को०]।
⋙ हलमरिया
संज्ञा स्त्री० [पुर्त० आलमारी] जलयान या जहाज के नीचे का खाना। (लश०)।
⋙ हलमलना †
क्रि० अ० [हिं० हिलना + मलना] काँपना। डगमगाना। उ०—सुरग रसातल भूतल जितौ। सब हलमल्यौ कलमल्यौ तितौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २३८।
⋙ हलमा
संज्ञा स्त्री० [अ० हलमह्] कुचाग्र। चूचुक। भिटनी [को०]।
⋙ हलमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] हल की रेखा। हल जोतने से बनी रेखा। लांगलपद्धति। कूँड [को०]।
⋙ हलमिल लैला
संज्ञा पुं० [सिंहली] एक प्रकार का बड़ा पेड़ जो सिंहल या सीलोन में होता है। विशेष—इस वृक्ष की लकड़ी बहुत मजबूत होती है और खेती के सामान आदि बनाने के काम में आती है। मैसूर में भी यह पेड़ पाया जाता है।
⋙ हलमुख
संज्ञा पुं० [सं०] हल का फाल।
⋙ हलमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, नगण और समण आते हैं। उ०—एनि सीख न धर हरी, बार सौ बरजत अरी। होहिंगे हम सब सुखी, जो तजै वह हलमुखी।—छंदः०, पृ० १४७।
⋙ हलरद
वि० [सं०] हल की तरह बेडौल लंबे दाँतोंवाला। बड़े बड़े दातोंवाला [को०]।
⋙ हलरा
संज्ञा पुं० [सं० हिल्लोल] दे० 'हिलोर', 'हिलोरा'।
⋙ हलराक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पौधा। आहुल्य [को०]।
⋙ हलराना
क्रि० स० [हिं० हिलोरा] (बच्चों को) हाथ पर लेकर इधर उधर हिलाना डुलाना। प्यार से हाथ पर झुलाना। उ०— (क) जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोई कछु गावै।—सूर०, १०।४३। (ख) लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहु पालने घालि झुलावै।—मानस, १।२००।
⋙ हलवंश
संज्ञा पुं० [सं०] हल का लंबा लट्ठा। हरिस [को०]।
⋙ हलवत
संज्ञा स्त्री० [हिं० हल + वत या औत (प्रत्य०)] वर्ष में पहले पहल खेत में हल ले जाने की रीति या कृत्य। हरौती।
⋙ हलवा
संज्ञा पुं० [अ०] १. एक प्रकार का मीठा भोजन या मिठाई जो मैदे या सूजी को घी में भूनकर उसे शरबत या चाशनी में पकाने से बनती है। मोहनभीग। २. गीली और मुलायम चीज। ३. आसान कार्य। सरल काम। यौ०—सोहन हलवा। मुहा०—हलवे माँडे से काम = केवल स्वार्थ साधन से ही प्रयोजन। अपने लाभ ही से मतलब। जैसे,—तुम्हें तो अपने हलवे माँडे से काम; किसी का चाहे कुछ हो। हलवा निकल जाना = कचूमर निकल जाना। अत्यंत दुर्गति होना। हलवा निकालना = बहुत पीटना। खूब मारना। जैसे,—मारते मारते हलवा निकाल देंगे। हलवा समझना = सरल और आसान समझना।
⋙ हलवाइन
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलबाई] १. हलवाई की स्त्री। २. वह स्त्री जो मिठाई बनाने का काम करती हो।
⋙ हलवाई
संज्ञा पुं० [अ० हलवा + ई (प्रत्य०)] [स्त्री० हलवाइन] मिठाई बनाने और बेचनेवाला। मिठाई बनाकर या बेचकर जीविका चलानेवाला। मुहा०—हलवाई की दूकान पर दादा का फातेहा पढ़ना = अपने पास कुछ नहीं है, इस आशय की कसम खाना। उ०— चौधरी—माँग न लेता तो क्या करता, हलवाई की दूकान पर दादा का फातेहा पढ़ना मुझे पसंद नहीं।—मान०, भा० ५, पृ० १९५।
⋙ हलवाह
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो दूसरे के यहाँ हल जोतने का काम करता हो। हल चलाने का काम करनेवाला मजदूर या नौकर। विशेष—हल चलाने के लिये गाँवों में चमार आदि जाति के लोग ही रखे जाते है।
⋙ हलवाहा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] जमीन की एक नाप जिसका व्यवहार प्राचीन काल में होता था।
⋙ हलवाहा ‡ (२)
संज्ञा पुं० दे० 'हलवाह'।
⋙ हलहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] हल चलाना। जुताई [को०]।
⋙ हलहर पु
संज्ञा पुं० [सं० हलधर] खेत जोतने का हल। उ०— जैसे हलहर बिना जिमी नहिं बोइए। सूत बिना कैसे मणी पिरोइए।—कबीर ग्रं० पृ० २९२।
⋙ हलहल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हल चलाना। कर्षण करना। २. धूम। हलचल। खलबली।
⋙ हलहल (२)
संज्ञा पुं० [अनु० या देशी हल्लोहल्ल] १. किसी वस्तु में भरे जल के हिलने डोलने का शब्द। २. हलचल। त्वरा शीघ्रता। उ०—ऊँमर दीठा जावता, हलहल करइ करूर। एराकी ओखंभिया जइसइ केती दूर।—ढोला०, दू० ६४१।
⋙ हलहला ‡
संज्ञा स्त्री० [सं०] आनंदसूचक ध्वनि। किलकार।
⋙ हलहलाना †
क्रि० स० [हिं० हलना या अनु० हलहल] १. ऐसी वस्तु को हिलाना जिसके भीतर पानी भरा हो। २. खूब जोर से हिलाना डुलाना। झकझोरना। ३. जोरों से भीतर घुसेड़ना या प्रवेश कराना।
⋙ हलहलाना (२)
क्रि० अ० काँपना। थरथराना। कंपित होना। जैसे,— मारे बुखार के हलहला रहा है। २. भयादि के कारण अपने स्थान से एकदम हिल उठना या च्युत होना। उ०— धमकंत धरनि अहि सिर निहाय। हलहलिय द्रिग्ग उदि्द्रग्ग थाय।—पृ० रा०, १।६२५।
⋙ हला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वयस्या। सहेली। सखी। २. पृथ्वी। ३. जल। ४. सोमरस [को०]।
⋙ हला (२)
अव्य० सखी के लिये नाटक में प्रयुक्त संबोधन [को०]।
⋙ हलाक (१)
वि० [अ०] १. मरा हुआ। मृत। २. मारा हुआ। बध किया हुआ। उ०—प्राण प्रयाण किया पछै, ह्वै नर नाम हलाक।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ५२। ३. आकांक्षा- युक्त। इच्छुक (को०)।
⋙ हलाक (२)
संज्ञा पुं० १. मार डालना। वध करना। २. मृत्यु। मौत। ३. बरबाद होना। नष्ट भ्रष्ट होना। बरबादी। विनाश [को०]। मुहा०—हलाक करना = मार डालना। वध करना। हलाक होना = (१) मर जाना। मृत होना। (२) बरबाद होना।
⋙ हलाकत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. हत्या। वध। मार डालना। २. मृत्यु। विनाश। ३. परिश्रम। मेहनत (को०)। ४. शिथिलता। शैथिल्य। थकान (को०)।
⋙ हलाकान ‡
वि० [अ० हलाकत या हैरान + ई] परेशान। हैरान। तंग। उ०—क्यों निर्दोषियों के हलाकान करने की ठान ठानते हो।—प्रेमघन०, भाग २, पृ० ४६७। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हलाकानी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलाकान] तंग होने की क्रिया या भाव। परेशानी। हैरानी।
⋙ हलाकी
[अ० हलाक + हिं० ई (प्रत्य०)] हलाक करनेवाला। मार डालनेवाला। मारू। घातक। उ०—जोग कथा पठई ब्रज को, सब सो सठ चेरी की चाल चलाकी। ऊधो जू ! क्यों न कहैं कुबरी जो बरी नटनागर हेरि हलाकी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हलाकी (२)
संज्ञा स्त्री० १. विनाश। बरबादी। २. मृत्यु। मौत [को०]।
⋙ हलाकू (१)
वि० [अ० हलाक + ऊ (प्रत्य०)] हलाक करनेवाला। वध करनेवाला।
⋙ हलाकू (२)
संज्ञा पुं० एक तुर्क सरदार वा बादशाह जो चंगेज खाँ का पोता था और उसी के समान क्रूर तथा हत्याकारी था।
⋙ हलाचली
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'हलचल'।
⋙ हलाना †
क्रि० स० [हिं० हिलना] दे० 'हिलाना'। उ०—डर तें नैन सजल ह्वै आए ! जनु अरविंद अलिंद हलाए।—नंद० ग्रं०, पृ० २५०।
⋙ हलाभ
संज्ञा पुं० [सं०] वह घोड़ा जिसकी पीठ पर काले या गहरे रंग के रोएँ बराबर कुछ दूर तक चले गए हों।
⋙ हलाभला
संज्ञा पुं० [हिं० भला + (अनु०) हला] निबटारा। निर्णय। जैसे,—बहुत दिनों से यह पीछे लगा है, इसका भी कुछ हलाभला कर दो। २. परिणाम। फल। उ०—भले ही भले निबहै जो भली यह देखिबे ही को हला हु भला। मिल्यौ मन तौ मिलिबोई कहूँ, मिलिबो न अलौकिक नंदलला।—केशव (शब्द०)।
⋙ हलाभियोग
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ष में पहले पहल खेत में हल ले जाने की रीति या कृत्य। हलवत। हरौती।
⋙ हलायुध
संज्ञा पुं० [सं०] १. बलराम का एक नाम। २. संस्कृत का एक कोश ग्रंथ।
⋙ हलाल (१)
वि० [अ०] १. जो धर्मशास्त्र के अनुसार उचित हो। जो शरअ या मुसलमानी धर्मपुस्तक के अनुकूल हो। २. जो हराम न हो। विधिविहित। जायज। ३. जिसे स्वीकार किया जा सके। जिसे ग्रहण किया जा सके। स्वीकरणीय। यौ०—हलालखोर। नमकहलाल।
⋙ हलाल (२)
संज्ञा पुं० वह पशु जिसका मांस खाने की मुसलमानी धर्म- पुस्तक में आज्ञा हो। वह जानवर जिसके खाने का निषेध नहो।मुहा०—हलाल करके खाना = ईमानदारी से अर्जन करके उपयोग में लाना। जैसे,—जिसका खाना, उसका हलाल करके खाना। हलाल करना = (१) ईमानदारी के साथ व्यवहार करना। बदले में पूरा काम करना। (२) खाने के लिये पशुओं को मुसलमानी शरअ के मुताबिक, धीरे धीरे गला रेतकर मारना। जबह करना। उ०—सब मैं खुदा कुरान बतावै। करौ हलाल सो दरद न आवै।—घट०, पृ० २११। (३) गला काटना। गरदन उतारना। (४) कष्ट देना। अत्यंत पीड़ा पहुँचाना। हलाल का = (१) जो जारज न हो। वैध। जायज। (२) धर्मशास्त्र के अनुकूल ईमानदारी से पाया हुआ। जैसे—हलाल का रुपया। हलाल की कमाई = ईमानदारी से किया हुआ अर्जन। मिहनत की कमाई।
⋙ हलालखोर
संज्ञा पुं० [अ० हलाल + फ़ा० खोर + ई] १. हलाल की कमाई खानेवाला। मिहनत करके जीविका करनेवाला। २. मैला या कूडा़ करकट साफ करने का काम करनेवाला। मेहतर। भंगी।
⋙ हलालखोरी
संज्ञा स्त्री० [अ० हलाल + फ़ा० खोर + ई] १. हलालखोर की स्त्री। २. पाखाना उठाने या कूड़ा करकट साफ करने का काम करनेवाली स्त्री। ३. हलालखोर का काम। ४. हलाल- खोर का भाव या धर्म।
⋙ हलाह
संज्ञा पुं० [सं०] चितकबरा घोड़ा। दे० 'हलाभ'।
⋙ हलाहल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह प्रचंड विष जो समुद्रमंथन के समय निकला था। विशेष—इस विष की तीव्र उष्मा या ज्वाला के प्रभाव से सारे देवता और असुर व्याकुल हो गए थे। अंत में शिव जी ने देवा- सुर की प्रार्थना पर इसे अपने कंठ में धारण किया था। इसी से उनका नाम नीलकंठ पड़ा। २. महाविष। भारी जहर। उ०—धिक तो कहँ जो अजहूँ तु जियै। खल, जाय हलाहल क्यों न पियै ?—केशव (शब्द०)। ३. एक जहरीला पौधा। विशेष—भावप्रकाश के अनुसार इस पौधे के पत्ते ताड़ के से, कुछ नीलापन लिए तथा फल गाय के थन के आकार के सफेद लिखे गए हैं। इसका कंद या जड़ की गाँठें भी गाय के थन के आकार की कही गई हैं। लिखा है कि इसके आसपास घास या पेड़ पौधे नहीं उगते और मनुष्य केवल इसकी महक से मर जाता है। ४. एक प्रकार का सर्प। ब्रह्मसर्प (को०)। ५. अंजना नाम की एक प्रकार की छिपकली (को०)। ६. एक बुद्ध (को०)।
⋙ हलि
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा हल। २. हल की रेखा। कूँड़। ३. कृषि। खेती [को०]।
⋙ हलिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हल चलानेवाला। हलवाहा। किसान। २. एक नाग असुर [को०]।
⋙ हलिक्ष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सिंह।
⋙ हलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हलसंतति या समूह। २. लांगली वूक्ष। कलियारी नाम का पौधा [को०]।
⋙ हलिप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] कदंब का वृक्ष [को०]।
⋙ हलिप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मद्य। मदिरा। २. ताड़ी, जो बल- राम जी को प्रिय थी।
⋙ हलिभ
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्घों के मत से एक बड़ी संख्या का वाचक शब्द [को०]।
⋙ हलिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्कंद या कुमार की मातृकाओं में से एक।
⋙ हलिवइ पु
क्रि० वि० [सं० लघुक, प्रा० लहुअ, अप० हलुअ, गुज० हणुवे] धीरे। दे० 'हरुए (१)'। उ०—सज्जण दुज्जण के कहे, भड़िक न दीजइ गालि। हलिवइ हलिवइ छंडियइ, जिमि जल छंडइ पालि।—ढोला०, दू० १९९। यौ०—हलिवइ हलिवइ = शनैः शनैः। धीरे धीरे।
⋙ हली (१)
संज्ञा पुं० [सं० हलिन्] १. हल नाम का अस्त्र धारण करनेवाले, बलराम। २. एक ऋषि का नाम। ३. किसान।
⋙ हली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कलिकारी या कलियारी नाम का पौधा।
⋙ हलीक्ष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक पशु। २. अंत्र। आँत [को०]।
⋙ हलीन
संज्ञा पुं [सं०] १. केतकी। २. शाक वृक्ष। शाल वृक्ष। सागौन का पेड़ [को०]।
⋙ हलीप्रिय पु
संज्ञा पुं० [सं० हलिप्रिय] कदंब वृक्ष।
⋙ हलीप्रिया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हलिप्रिया] मदिरा। सोमरस।
⋙ हलीम (१)
संज्ञा पुं० [देश०] मटर के डंठल जो बंबई की ओर काटकर चौपायों को खिलाए जाते हैं।
⋙ हलीम (२)
वि० [अ०] [वि० स्त्री० हलीमा] जो सहनशील हो। सीधा। गंभीर। शांत।
⋙ हलीम (३)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का खाना (खिचड़ी) जो मुहर्रम में बनाता है। (मुसलमान)। २. मोटा पशु (को०)। ३. अल्लाह। ईश्वर। खुदा।
⋙ हलीमक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पांडु रोग का एक भेद। उ०—अन्न में अप्रीति और भ्रम ये उपद्रव वातपित्त से प्रकट हलीमक रोग के हैं।—माधव०, पृ० ७६। विशेष—यह वातपित्त के कोप से उत्पन्न कहा गया है। इसमें रोगी के चमड़े का रंग कुछ हरापन, कालापन या धूमिलपन लिए पीला हो जाता है। उसे तंद्रा, मंदाग्नि, जीर्णज्वर, अरुचि और भ्रांति होती है तथा उसके अंगों में पीड़ा रहती है। २. एक नाग असुर (को०)।
⋙ हलीशा, हलीषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरिस। हल के बीचवाली लकड़ी। उ०—बीचवाली सीधी लंबी लकड़ी को ईषा, हलीषा, लांगलीषा, कहते थे।—संपूर्णानंद अभि० ग्रं०, पृ० २४८।
⋙ हलीसा
संज्ञा पुं० [सं० हलीषा] नाव खेने का छोटा डाँड़ा जिसका एक जोड़ा लेकर एक ही आदमी नाव चला सकता है। चप्पू। (लश०)। मुहा०—हलीसा तानना = डाँड़ चलाना। चप्पू चलाना।
⋙ हलुआ
संज्ञा पुं० [अ० हलवा] दे० 'हलुवा'। उ०—नेह मौन छबि मधुरता मैदा रूप मिलाय। बेचत हलुवाई मदन हलुआ सरस बनाय।—स० सप्तक, पृ० १८०।
⋙ हलुआइन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलुआई] १. हलवाई की स्त्री। हलवाई का काम करनेवाली औरत।
⋙ हलुआई
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलुआ +ई] दे० 'हलवाई'।
⋙ हलुक पु †
वि० [सं० लघुक] दे० 'हलका'। उ०—पत्र तोल में हलुक उठाना। तौ यहि विधि झूठी कर जाना।—घट०, पृ० २३२।
⋙ हलुकई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] हलकापन। दे० 'हलकाई'।
⋙ हलुका पु †
वि० [हिं०] हलका।
⋙ हलुवा
संज्ञा पुं० [अ० हलवा]दे० दे० 'हलवा'।
⋙ हलुवाई †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हलवाई'। उ०—बेचत हलुवाई मदन हलुआ सरस बनाय।—स० सप्तक, पृ० १८०।
⋙ हलुहार
संज्ञा पुं० [सं०] वह घोड़ा जिसके अंडकोश काले हों और जिसके माथे पर दाग हो।
⋙ हलू †
क्रि० वि० [सं० लघुक] दे० 'हौले'। उ०—सो जूँ मोम उसके पिघल ध्यान में। कही उस बुडढी कूँ हलू कान में।—दक्खिनी०, पृ० ८३।
⋙ हलूक
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. उतना पदार्थ जितना एक बार वमन में मुँह से निकले। २. वमन। कै। जैसे,—दो हलूकों में जान निकल गई।
⋙ हलूर पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० हलोर] दे० 'हिलोर'। उ०—धन धंधा व्यौहार सब, माया मिथ्यावाद। पाँणी नीर हलूर ज्यूँ, हरिनाँव बिना अपवाद।—कबीर ग्रं०, पृ० १८८।
⋙ हलेरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हलोर] दे० 'हिलोर'।
⋙ हलेषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'हलीषा' [को०]।
⋙ हलेसा
संज्ञा पुं० [सं० हलीषा] दे० 'हलीसा'।
⋙ हिलोर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हिलना या अनु० हलहल] हिलोरा। तरंग। लहर।
⋙ हलोरना
क्रि० स० [हिं० हिलोर + ना (प्रत्य०)] १. पानी में हाथ डालकर उसे हिलाना डुलाना। जल को हाथ के आघात से तरंगित करना। २. मथना। ३. अनाज फटकना। हाथ या सूप के द्वारा मिली हुई मिट्टी और कूड़े से अनाज को अलग करना। ४. दोनों हाथों से या बहुत अधिक मान में किसी पदार्थ का, विशेषतः द्रव्य का, संग्रह करना। जैसे— आजकल वह रंग के व्यापार में खूब रुपए हलोर रहे हैं।
⋙ हलोरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० हलना या अनु० हलहल] हिलोरा। तरंग। लहर। उ०—सोहै सितासित को मिलिबो, तुलसी हुलसै हिय हेरि हलोरे। मानौं हरे तृन चारु चरै बगरे सुरधेनु के धौल कलोरे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ हलोहल्ल पु
संज्ञा पुं० [अनु०] हलचल। व्याकुलता। हलबल। उ०—बहै धार धारं करै मार मारं। हलोहल्ल मीरं नयौ नाग पीरं।—पृ० रा०, २४।१७६।
⋙ हल्क
संज्ञा पुं० [अ० हल्क़] दे० 'हलक'।
⋙ हल्का (१)
वि० [सं० लघुक, प्रा० लहुक, विपर्यय हलुक] दे० 'हलका'।
⋙ हल्का (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० हल्कह्] इलाका। हलका। क्षेत्र। उ०— अब चलो शराब पिला दो और जल्द इस हल्के से कुछ कमा लो।—चोटी०, पृ० १९। (अन्य अर्थों के लिये दे० 'हलका' (३))।
⋙ हल्द
संज्ञा स्त्री० [सं० हलदी] दे० 'हलद'।
⋙ हल्दहात
संज्ञा स्त्री० [हिं० हल्दी + हाथ] विवाह के तीन या पाँच दिन पहले वर और कन्या के शरीर में हल्दी की रीति। हल्दी चढ़ाना।
⋙ हल्दी
संज्ञा स्त्री० [सं० हलदी या हरिद्रा] दे० 'हलदी'।
⋙ हल्य (१)
वि० [सं०] १. जोती जानेवाली (जमीन)। २. भद्दा। कुरूप। ३. हल संबंधी [को०]।
⋙ हल्य (२)
संज्ञा पुं० १. जोती हुई जमीन। २. खेत, जो जोतने योग्य हो। ३. भद्दापन। कुरूपता [को०]।
⋙ हल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनेक हल। हल समूह [को०]।
⋙ हल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल।
⋙ हल्लन
संज्ञा पुं० [सं०] १. करवट बदलना। २. इधर से उधर हिलना डोलना।
⋙ हल्लना पु
क्रि० अ० [हिं० हिलना] दे० 'हिलना'। उ०—कभू हल्लवै भुम्मि गज्जंत वीरं। कभू घोर अंधार वर्षत पीरं।—ह० रासो, पृ० ८४।
⋙ हल्लर फल्लर पु
संज्ञा पुं० [अनु०] टालमटोल। हीलाहवाली। उ०—माहव सूम मिलाव मत, औड़ा घराँ हिसाब। के हल्लर फल्लर करै, पावै कल्लर राब।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ८१।
⋙ हल्ला
संज्ञा पुं० [अनु०] १. एक या अधिक मनुष्यों का ऊँचे स्वर से बोलना। चिल्लाहट। शोरगुल। कोलाहल। क्रि० प्र०—करना।—मचना।—मचाना।—होना। यौ०—हल्ला गुल्ला = शोर गुल। २. लड़ाई के समय की ललकार। धावे के समय किया हुआ शोर। हाँक। ३. सेना का वेग से किया हुआ आक्रमण। धावा। हमला। जैसे,—राजपूतों ने एक ही हल्ले में किला ले लिया। मुहा०—हल्ला बोलना = सेना का हमला करना। ललकारते हुए शत्रु टूट पड़ना।
⋙ हल्लीश, हल्लीष
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक। विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं। २. मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का नाच जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
⋙ हल्लीस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हल्लीश' [को०]।
⋙ हल्लीशक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'हल्लीशक'। २. एक प्रकार का वाद्य [को०]।
⋙ हल्लीषक, हल्लीसक
संज्ञा पुं० [सं०] मंडलाकार नृत्य। घेरा बनाकर नाचना। उ०—उनका प्रधान नृत्य हल्लीषक कहलाता था। प्रा० भा० प०, पृ० ८६।
⋙ हल्लूँ हल्लू †
क्रि० वि० [हिं० हौले हौले] धीरे धीरे। उ०—मिट्ठा मिट्ठा मोट का पानी। मैं मोट चलावउँ हल्लू हल्लू।— दक्खिनी०, पृ० ३८७।
⋙ हवंग
संज्ञा पुं० [सं० हवङ्ग] फूल नामक मिश्रित धातु के पात्र में दधि और ओदन खाना [को०]।
⋙ हव
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी देवता के निमित्त अग्नि में दी हुई आहुति। बलि। २. अग्नि। आग। ३. स्तुतिपूर्वक आवाहन करना (को०)। ४. आह्वान। पुकार (को०)। ५. आदेश। आज्ञा (को०)। ६. चुनौती (को०)।
⋙ हवदा पु
संज्ञा पुं० [अ० हौदज, हौदा] दे० 'हौदा'। कसियं हवदा ध्वजधार बली।—ह० रासो, पृ० १२६।
⋙ हवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी देवता के निमित्त मंत्र पढ़कर घी, जौ, तिल आदि अग्नि में डालने का कृत्य। होम। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. अग्नि। आग। ३. अग्निकुंड। ४. अग्नि में आहुति देने का यज्ञपात्र। हवन करने का चमचा। श्रुवा। ५. हवन करना (को०)। ६. स्तवन या प्रार्थनापूर्वक आवाहन (को०)। ७. लड़ने के लिये चुनौती या ललकार (को०)।
⋙ हवनायु
संज्ञा पुं० [हवनायुस्] आग। अग्नि [को०]।
⋙ हवनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निकुंड। हवित्री [को०]।
⋙ हवनीय (१)
वि० [सं०] जो हवन के योग्य हो। जिसे आहुति के रूप में अग्नि में डालना हो।
⋙ हवनीय (२)
संज्ञा पुं० वह पदार्थ जो हवन करने के समय अग्नि में डाला जाता है। जैसे,—घी, जौ, तिल आदि।
⋙ हवन्नक
वि० [अ० हवन्नक़] १. अहमक। गावदी। बुद्धू। बौड़म। २. बदशकल। भद्दी आकृति का [को०]।
⋙ हवलदार
संज्ञा पुं० [अ० हवाल (= सुपुर्दगी) + फा० दार (= रखनेवाला)] १. बादशाही जमाने का वह अफसर जो राजकर की ठीक ठीक वसूली और फसल की निगरानी के लिये तैनात रहता था। २. फौज में वह सबसे छोटा अफसर जिसके मातहत थोड़े से सिपाही रहते हैं। उ०—रंग महल में जंग खड़े हैं, हवलदार और सूबेदार।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ५०।
⋙ हवले पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'हौले'। उ०—ओछा कुल में ऊपना, दोभा डावड़ियाह। हवले बोलै होट में, मूरख मावड़ियाह।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १७।
⋙ हवस
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. लालसा। कामना। चाह। जैसे,—हमें अब किसी बात की हवस नहीं है। उ०—हवस करै पिय मिलन की, औ सुख चाहै अंग। पीड़ सहे बिनु पदि्मनी पूत न लेत उछंग।—कबीर सा० सं०, पृ० ४२। २. लोभ। लालच (को०)। ३. उमंग। हौसला (को०)। ४. झूठी कामना। झूठी या दिखा- वटी आस क्ति (को०)। ५. साहस। बहादुरी। दिलेरी (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—हवसदार = आकांक्षायुक्त। आकंक्षी। इच्छुक। हवस- परस्त = अत्यंत लोभी या लालची। मुहा०—हवस निकलना = इच्छा पूरी होना। हौसला पूरा होना। हवस निकालना = इच्छा पूरी करना। हौसला पूरा करना। हवस पकाना = व्यर्थ कामना करना। केवल मन में ही किसी कामनापूर्ति का अनुमान किया करना। मनमोदक खाना। हवस पूरी करना = इच्छा पूरी करना। हवस पूरी होना = इच्छा पूर्ण होना। हवस बुझना या बुतना = हौसला खत्म होना। ६. बुद्धिविकार। खब्त। ७. तृष्णा। जैसे—बुड्ढे हुए पर हवस न गई।
⋙ हवा
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. वह सूक्ष्म प्रवाह रूप पदार्थ जो भूमंडल को चारों ओर से घेरे हुए है और जो प्राणियों के जीवन के लिये सब से अधिक आवश्यक है। वायु। पवन। विशेष—दे० 'वायु'। क्रि० प्र०—आना।—चलना।—बहना। यौ०—हवाखोरी। हवाचक्की। हवागाड़ी = मोटर गाड़ी। मुहा०—हवा उड़ना = खबर फैलना। बात फैलना या प्रसिद्ध होना। हवा उड़ाना = (१) अधोवायु छोड़ना। पादना। (२) किंवदंती उड़ाना। अफवाह फैलाना। हवा करना = पंखे से हवा का झोंका लाना। पंखा हाँकना। हवा के रुख जाना = जिस ओर को हवा बहती हो उसी ओर जाना। हवा के मुँह पर जाना = दे० 'हवा के रुख जाना'। (लश०)। हवा के घोड़े पर सवार होना = बहुत उतावली में होना। बहुत जल्दी में होना। उ०—यह नादिरी हु्क्म ! तुम हवा के घोड़ों पर सवार हो, कुछ ठिकाना है क्या हुक्म दिया कि फौरन जगा दो।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३६२। हवा गिरना = हवा थमना। तेज हवा का चलना बंद होना। हवा खाना = (१) शुद्ध वायु के लिये बाहर निकलना। बाहर घूमना। टहलना। उ०—अच्छा, उनको यहाँ ला सकती हो या कहो तो हवा खाते हुए हम ही चले चलें।—सैर०, पृ० १८। (२) प्रयोजन सिद्धि तक न पहुँचना। बिना सफलता प्राप्त किए यों ही रह जाना। अकृतकार्य होना। जैसे,—वक्त पर तो आए नहीं, अब जाओ हवा खाओ। हवा गाँठ में बाँधना = असंभव बात के लिए प्रयत्न करना। अनहोनी बात के पीछे हैरान होना। हवा चलना = समय की धारा का प्रवाहित होना। समय का आना। उ०—अजी किबला, अब तो हवा ही ऐसी चली है कि जवान तो जवान बुडढों तक को बुड़भस लगा है।—फिसाना०, भा० १, पृ० ९। हवा फाँककर रहना या हवा पीकर रहना = बिना आहार के रहना। (व्यंग्य)। जैसे,—कुछ खाने को नहीं पाते तो क्या हवा पीकर रहते हो ? हवा पकड़ना = पाल में हवा भरना (लश०)। हवा बताना = किसी वस्तु से वंचित रखना। टाल देना। इधर उधर की बात कहकर हटा देना। जैसे,—वह अपनाकाम निकालकर तुम्हें हवा बता देगा। हवा बाँधकर जाना = हवा की चाल से उलटा जाना। जिस ओर से हवा आती हो, उस ओर जाना (विशेषतः नाव के लिये)। हवा बाँधना = (१) लंबी चौड़ी बातें कहना। शेखी हाँकना। बढ़ बढ़कर बोलना। (२) बिना जड़ की बात कहना। गप हाँकना। झूठी बातें जोड़कर कहना। हवा पलटना, फिरना या बदलना = (१) दूसरी ओर की हवा चलने लगना। (२) दशांतर होना। दूसरी स्थिति वा अवस्था होना। हालत बदलना। हवाबदली = स्थानपरिवर्तन। जलवायु परिवर्तन। उ०—हवाबदली के इरादे से आज ही यहाँ आया हूँ।— जिप्सी, पृ० १। हवा भर जाना = खुशी या घमंड से फूल जाना। हवा बिगड़ना = (१) संक्रामक रोग फैलना। वबा या मरी फैलना। (२) रीति या चाल बिगड़ना। बुरे विचार फैलना। दिमाग में हवा भर जाना = सिर फिरना। उन्माद होना। बुद्धि ठीक न रहना। हवा देना = (१) मुँह से हवा छोड़कर दहकाना। फूँकना (आग के लिये)। (२) बाहर हवा में रखना। ऐसे स्थान में लाना जहाँ खूब हवा लगे। जैसे—इन कपड़ों को कभी कभी हवा दे दिया करो। (३) झगड़े का बढ़ाना। झगड़ा उकसाना। हवा सा = बिल्कुल महीन या हलका। हवा लगते गल जाना = जरा सी बात में इधर का उधर हो जाना। रंच मात्र बाधा से डाँवाडोल हो जाना। लेश मात्र प्रतिकूल प्रभाव से नष्ट हो जाना। उ०—हम नहीं हैं फूल जो वे दें मसल। हैं न ओले जो हवा लगते गलें।—चुभते०, पृ० १६। हवा से लड़ना = किसी से अकारण लड़ना। हवा से बातें करना = (१) बहुत तेज दौड़ना या चलना। (२) आप ही आप या व्यर्थ बहुत बोलना। हवा लगना = (१) हवा का झोंका बदन पर पड़ना। वायु का स्पर्श होना। (२) वात रोग से ग्रस्त होना। (३) उन्माद होना। सिर फिर जाना। बुद्धि ठीक न रहना। (४) आसेब, प्रेत आदि का आवेश होना। प्रेताविष्ट होना। (५) किसी के प्रभाव में आना। (किसी की) हवा लगना = किसी की संगत का प्रभाव पड़ना। सुहबत का असर होना। किसी के दोषों का किसी में आना। जैसे,—तुम्हें भी उसी की हवा लगी। हवा हो जाना = (१) झटपट चल देना। भाग जाना। (२) बहुत तेज दौड़ना या चलना। जैसे,—चाबुक पड़ते ही वह घोड़ा हवा हो जाता है। (३) न रह जाना। एक बारगी गायब हो जाना। अभाव हो जाना। जैसे,—बहुत आशा लगाए थे, पर सारी बातें हवा हो गईं। उ०—गुजारे के लिये मोटी रकम पेंशन में मिलनेवाली है वह भी हवा हो जायगी।— किन्नर०, पृ० २४। हवा होना = दे० 'हवा हो जाना'। उ०— यह कहकर शहसवार हवा हुआ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ९०। कहीं की हवा खाना = कहीं जाना। (किसो को) कहीं की हवा खिलाना = कहीं भेजना। जैसे,—तुम्हें जेलखाने की हवा खिलावेंगे। २. भूत। प्रेत। (जिनका शरीर वायव्य माना जाता है)। ३. अच्छा नाम। प्रभाव। प्रसिद्धि। ख्याति। ४. व्यापारियों या महाजनों में धाक। बड़प्पन या उत्तम व्यवहार का विश्वास। साख। मुहा०—हवा उखड़ना = (१) नाम न रह जाना। प्रसिद्ध न रहना। (२) साख न रह जाना। बाजार में विश्वास उठ जाना। हवा बँधना = (१) अच्छा नाम हो जाना। लोगों के बीच प्रसिद्ध हो जाना। (२) बाजार में साख होना। व्यवहार में लोगों के बीच अच्छी धारणा होना। ५. किसी बात की सनक। धुन। ६. इच्छा। स्पृहा आकांक्षा (को०)। ७. लोभ। लालच (को०)।
⋙ हवाई (१)
वि० [अ० अथवा अ० हवा + हिं० ई (प्रत्य०)] १. हवा का। वायु संबंधी। २. हवा में चलनेवाला। जैसे,—हवाई जहाज। ३. बिना जड़ का। जिसमें सत्य का आधार न हो। कल्पित या झूठ। निर्मूल। जैसे,—हवाई खबर, हवाई बात। यौ०—हवाई किला = अयथार्थ बात। अव्यावहारिक चोचला। हवाई खबर = झूठी सूचना। अफवाह। हवाई महल = दे० 'हवाई किला'। हवाई बात = दे० 'हवाई खबर'। मुहा०—हवाई किले बनाना = अयथार्थ कल्पनाएँ करना। अव्यव- हार्य योजना बनाना। हवाई महल बनाना = दे० 'हवाई किले बनाना'।
⋙ हवाई (२)
संज्ञा स्त्री० हवा में कुछ दूर तक बड़े झोँक से जाकर बुझ जानेवाली एक प्रकार की आतशबाजी। बान। आसमानी। उ०—सत्त नाम लै उड़ै पलीता, हरदम चढ़त हवाई।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ४९। मुहा०—(मुँह पर) हवाइयाँ उड़ना = चेहरे का रंग फीका पड़ जाना। आकृति से भय, लज्जा या उदासी प्रकट होना। विवर्णता होना। (मुँह पर) हवाइयाँ छूटना = दे० (मुँह पर) 'हवाइयाँ उड़ना'। उ०—ऐसा फरमाइशी कहकहा लगाया कि छम्मी जाना के मुँह पर हवाइयाँ छूटने लगीं।—फिसाना०, भा० १, पृ० ५। हवाई गुम होना = घबड़ा जाना। अक्ल गायब हो जाना। हवाई छोड़ना = आतिशबाजी छोड़ना।
⋙ हवाई अड्डा
संज्ञा पुं० [हिं० हवाई + अड्डा] हवाई जहाज के उड़ने और उतरने का स्थान। वायुयान केंद्र।
⋙ हवाई आक्रमण
संज्ञा पुं० [हिं० हवाई + सं० आक्रमण] दे० 'हवाई हमला'।
⋙ हवाईगर
संज्ञा पुं० [फ़ा० हवाईगीर] दे० 'हवागीर'। उ०—सिकली- गर हवाईगर सुनार लुहार। धीमर चमार एई छत्तीस पउनिया।—अर्ध०, पृ० ४।
⋙ हवाई जहाज
संज्ञा पुं० [हिं० हवाई + अ० जहाज़] वायुयान।
⋙ हवाई डाक
संज्ञा पुं० [हिं० हवाई + डाक] हवाई जहाज से जानेवाली डाक या चिट्ठी पत्री।
⋙ हवाई फायर, हवाई फैर
संज्ञा पुं० [हिं० हवाई + अं० फायर] लोगों को डराने के लिये हवा में झूठी बंदूक चलाना।
⋙ हवाई बंदूक
संज्ञा स्त्री० [हिं० हवाई + फ़ा० बंदूक] झूठी बंदूक। नकली बंदूक।
⋙ हवाई बेड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० हवाई + बेडा़] युद्धक विमानों का दल [को०]।
⋙ हवाई मार्ग
संज्ञा पुं० [हिं० हवाई + सं० मार्ग] आकाश में हवाई जहाज के आने जाने का रास्ता।
⋙ हवाई युद्ध
संज्ञा पुं० [हिं० हवाई + सं० युद्ध] हवाई जहाजों द्वारा आकाश में होनेवाली लड़ाई।
⋙ हवाई हमला
संज्ञा पुं० [हिं० हवाई + अं० हमला] आकाश मार्ग से हवाई जहाजों द्वारा होनेवाला आक्रमण।
⋙ हवाखोरी
संज्ञा स्त्री० [अ० हवा + फ़ा० ख़ोर + ई (प्रत्य०)] १. हवा खाना। टहलना। खुली हवा में घूमना। उ०—सबेरे ही लाला मदनमोहन हवाखोरी के लिये कपड़े पहन रहे थे।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २१५। २. निरर्थक घूमना। आवारागर्दी करना।
⋙ हवागीर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] आतशबाजी के बान बनानेवाला।
⋙ हवाचक्की
संज्ञा स्त्री० [हिं० हवा + चक्की] आटा पीसने की वह चक्की जो हवा के जोर से चलती हो। पवन चक्की।
⋙ हवादार (१)
वि० [फ़ा०] जिसमें हवा आती जाती हो। जिसमें हवा आने जाने के लिये काफी छेद, खिड़कियाँ या दरवाजे हों। जैसे,—हवादार कमरा, हवादार मकान, हवादार पिँजरा।
⋙ हवादार (२)
संज्ञा पुं० वह हलका तख्त जिसपर बैठाकर बादशाह को महल या किले के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते थे।
⋙ हवादार † (३)
वि० [अ० हवा + फ़ा० दार] १. शुभचिंतक। हितू। हित चाहनेवाला। खैरख्वाह। उ०—वली मोसिल में था इक शख्स मक्कार। उठा जाहिर में वह शह का हवादार।— दक्खिनी०, पृ० १९०। २. मित्र। दोस्त (को०)।
⋙ हवादारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. हितचिंतन। कल्याणकामना। शुभ- कामना। २. दोस्ती। मैत्री [को०]।
⋙ हवान
संज्ञा पुं० [अ० हवा, हवाई] एक प्रकार की छोटी तोप जो जहाजों पर रहती है। कोठी तोप। (लश०)।
⋙ हवाना
संज्ञा पुं० [हवाना द्विप] तंबाकू का एक भेद। अमेरिका के हवाना नामक स्थान की तंबाकू।
⋙ हवापानी
संज्ञा पुं० [हिं०] १. जलवायु। आबोहवा। २. सैर सपाटा। घूमना फिरना।
⋙ हवाबाज
संज्ञा पुं० [अ० हवा + फ़ा० बाज़] १. वायुयान। उ०— हवाबाज ऊपर घहराते हैं। डाक सैनिक आते जाते हैं।— बेला, पृ० ५२।
⋙ हवाबाजी
संज्ञा स्त्री० [अ० हवा + फ़ा० बाज़ी] हवाबाज का काम। वायुयान चलाने का काम, पद या पेशा [को०]।
⋙ हवाम
संज्ञा पुं० [अ०] जमीन के भीतर बिल में रहनेवाले प्राणी। जैसे,—साँप, चूँटा, मूषक आदि [को०]।
⋙ हवाल
संज्ञा पुं० [अ० अहवाल] १. हाल। दशा। अवस्था। २. गति। परिणाम। उ०—बकरी पाती खाति है ताकी काढ़ी खाल। जो नर बकरी खात हैं तिनका कौन हवाल।—कबीर (शब्द०)। ३. संवाद। समाचार। वृत्तांत। यौ०—हाल हवाल = हालचाल।
⋙ हवालदार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हवलदार'।
⋙ हवाला
संज्ञा पुं० [अ० हवालह्] १. किसी बात की पुष्टि के लिये किसी के बचन या किसी घटना की ओर संकेत। प्रमाण का उल्लेख। २. उदाहरण। दृष्टांत। मिसाल। नजीर। क्रि० प्र०—देना। ३. अधिकार या कब्जा। सुपुर्दगी। जिम्मेदारी। मुहा०—(किसी के) हवाले करना = किसी को दे देना। किसी को सुपुर्द करना। सौंपना। जैसे,—जिसकी चीज है, उसके हवाले करो। किसी के हवाले पड़ना = वश में आ जाना। चंगुल में आ जाना। उ०—अब ह्वै हैं कहा अरबिंद सो आनन इंदु के आय हवाले परयो।—पद्माकर (शब्द०)। (किसी के) हवाले रहना = अधिकार में रहना। उ०—सो मुलुक कौ पैसा सब गोपालदास के हवाले रहे।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २४२।
⋙ हवालात
संज्ञा पुं०, स्त्री० [अ०] १. पहरे के भीतर रखे जाने की क्रिया या भाव। नजरबंदी। २. अभियुक्त की वह साधारण कैद जो मुकदमे के फैसले के पहले उसे भागने से रोकने के लिये दी जाती है। हाजत। ३. वह मकान जिसमें ऐसे अभियुक्त रखे जाते हैं। क्रि० प्र०—में देना। मुहा०—हवालात करना = पहरे के भीतर बंद करना।
⋙ हवालाती
वि० [अ०] १. जो हवालात में रखा जा चुका हो। जो हवालात में रह चुका हो। २. जो हवालात में हो।
⋙ हवाली
संज्ञा पुं० [अ०] आस पास की जगह। चारों ओर का स्थान [को०]।
⋙ हवाली मवाली
संज्ञा पुं० [अ० हवाली + अनु० या अ० मवाली] साथी। हमराही। आसपास के यार दोस्त। उ०—मिर्जा और साजिद और अख्तर और हवाली मवाली की एक न चली।—सैर० पृ० ३६।
⋙ हवास
संज्ञा पुं० [अ०] १. इंद्रियाँ। २. संवेदन। ३. चेतना। संज्ञा। होश। सुध। यौ०—हवासगुम = हतसंज्ञ। स्तंभित। होश हवास। मुहा०—हवास गुम होना = होश ठिकाने न रहना। भय आदि से स्तंभित होना। ठक रह जाना। हवास पैतरा होना = दे० 'हवास गुम होना। उ०—काने को देखते ही दारोगा साहब के हवास पैतरा हुए। काटो तो लहू नहीं बदन में।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ५४।
⋙ हवासबाख्ता
वि० [अ० हवास + फ़ा० बाख्त़ह्] जो होश हवास में न हो। घबड़ाया हुआ [को०]।
⋙ हविःशेष
संज्ञा पुं० [सं०] हवि का बचा हुआ भाग [को०]।
⋙ हविःश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० हविःश्रवस्] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम [को०]।
⋙ हवि
संज्ञा पुं० [सं० हविस्] १. देवता के निमित्त अग्नि में दिया जानेवाला घी, जौ या इसी प्रकार की सामग्री। वह द्रव्य जिसकी आहुति दी जाय। हवन की वस्तु। २. आज्य। घी (को०)। ३. जल। पानी (को०)। ४. शिव (को०)। ५. यज्ञ (को०)। ६. भोजन (को०)।
⋙ हविमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हवनकुंड।
⋙ हविरद
वि० [सं०] हवि का भक्षण करनेवाला [को०]।
⋙ हविरशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. घी अथवा द्रव्य सामग्री। २. पावक। अग्नि। कृशानु। ३. चित्रक नाम का एक वृक्ष [को०]।
⋙ हविराहुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] हवि की आहुति [को०]।
⋙ हविर्गंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० हविर्गन्धा] शमीवृक्ष [को०]।
⋙ हविर्गृह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हविर्गेह' [को०]।
⋙ हविर्गेह
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ यज्ञ हो। यज्ञस्थल [को०]।
⋙ हविर्दान
संज्ञा पुं० [सं०] हवि प्रदान करना।
⋙ हविर्धानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामधेनु। सुरभी।
⋙ हविर्धूम
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि में हवि देने से उत्पन्न धूम।
⋙ हविर्निर्वपण पात्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पात्र जिससे हवि प्रदान करते हैं। श्रुवा [को०]।
⋙ हविर्भाज्
वि० [सं०] हविष्य ग्रहण करनेवाला [को०]।
⋙ हविर्भुज्
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. विष्णु, शिव आदि देवता जो हवि को प्राप्त करते हैं (को०)। ३. क्षत्रियों के पितृ वर्ग (को०)।
⋙ हविर्भू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हवन की भूमि। २. कर्दम की पुत्री जो पुलस्त्य की पत्नी थी।
⋙ हविर्मंथ
संज्ञा पुं० [सं० हविर्मन्थ] गनियारी का वृक्ष। गणिकारी नाम का वृक्ष [को०]।
⋙ हविर्यज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] घृत का हवन करना। घी की आहुति जो एक प्रकार का यज्ञ है [को०]।
⋙ हविर्याजी
संज्ञा पुं० [सं० हविर्याजिन्] यज्ञ करानेवाला। हवन करानेवाला, पुरोहित [को०]।
⋙ हविर्वर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वर्ष अर्थात् भूखंड का नाम। २. अग्नीध्र के एक पुत्र का नाम [को०]।
⋙ हविर्हुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] हवि का हवन। आज्य की आहुति [को०]।
⋙ हविष्पात्र
संज्ञा पुं० [सं०] हवि रखने का बरतन। हवि का पात्र।
⋙ हविष्मती
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामधेनु।
⋙ हविष्मान् (१)
वि० [सं० हविष्मत्] [वि० स्त्री० हविष्मती] जो हवन करता हो। हवन करनेवाला।
⋙ हविष्मान् (२)
संज्ञा पुं० १. अंगिरा के एक पुत्र का नाम। २. छठे मन्वं- तर के सप्तर्षियों में से एक। ३. पितरों का एक गण।
⋙ हविष्यंद
संज्ञा पुं० [सं० हविष्यन्द] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ हविष्य (१)
वि० [सं०] १. हवन करने योग्य। २. जो हविष्य पाने के योग्य हो (को०)। ३. जिसकी आहुति दी जानेवाली हो।
⋙ हविष्य (२)
संज्ञा पुं० १. वह वस्तु जो किसी देवता के निमित्त अग्नि में डाली जाय। बली। हवि। उ०—देव दम्भ के महामेध में सब कुछ ही बन गया हविष्य।—कामायनी, पृ० ७। २. घृत। घी (को०)। ३. नीवार। मुन्यनन। तिन्नी का चावल (को०)। ४. घृत मिश्रित चावल, यव आदि साकल्य (को०)।
⋙ हविष्यभक्ष, हविष्यभुज् (१)
वि० [सं०] यज्ञ की सामग्री का भक्षण करनेवाला।
⋙ हविष्यभक्ष, हविष्यभुज् (२)
संज्ञा पुं० अग्नि। पावक [को०]।
⋙ हविष्यशन्न
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में शेष बचे हुए पदार्थ।
⋙ हविष्यान्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह अन्न या आहार जो यज्ञ के समय किया जाय। खाने की पवित्र वस्तुएँ। जैसे,—जौ, तिल, मूँग, चावल इत्यादि।
⋙ हविष्याशी
वि०, संज्ञा पुं० [सं० हविष्याशिन्] दे० 'हविष्यभक्ष', 'हवि ष्यभुज्' [को०]।
⋙ हविस ‡
संज्ञा स्त्री० [अ० हवस] दे० 'हवस'।
⋙ हवीत
संज्ञा पुं० [देश० ?] लकड़ियों का बना हुआ एक यंत्र जिसमें लंगर डालने के समय जहाज की रस्सियाँ बाँधी या लपेटी जाती हैं (लश०)।
⋙ हवेली
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. पक्का बड़ा मकान। प्रसाद। हर्म्य। २. पत्नी। स्त्री। जोरू।
⋙ हवोला पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० हिल्लोल] लहर। उ०—महल तिस दोला रागूँ के हवोला।—रघु० रू०, पृ० २३८।
⋙ हव्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घृत। घी। २. आहुति। ३. हवन की सामग्री। वह वस्तु जिसकी किसी देवता के अर्थ अग्नि में आहुति दी जाय। जैसे,—घी, जौ, तिल आदि। विशेष—देवताओं के अर्थ जो सामग्री हवन की जाती है, वह हव्य कहलाती है और पितरों को जो आर्पित की जाती है वह कव्य कहलाती है। यौ०—हव्य कव्य = देवताओं और पितरों को क्रमशःदी जानेवाली आहुति।
⋙ हव्य (२)
वि० हवनीय। हवन के योग्य [को०]।
⋙ हव्यप
संज्ञा पुं० [सं०] तेरहवें मन्वंतर के सप्तर्षियों में एक ऋषि का नाम [को०]।
⋙ हव्यपाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पात्र जिसमें यज्ञान्न पकाया जाय। २. वह वस्तु जो हवन करने के लिये पकाई जाय। चरु [को०]।
⋙ हव्यभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।
⋙ हव्ययोनि
संज्ञा पुं० [सं०] देवता।
⋙ हव्यलेही
संज्ञा पुं० [सं० हव्यलेहिन्] अग्नि का एक नाम [को०]।
⋙ हव्यवाट्
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि देवता।
⋙ हव्यवाह्, हव्यवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. अश्वत्थ वृक्ष। पीपल जिसकी लकड़ी की अरणी बनती है।
⋙ हव्याश, हव्याशन
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।
⋙ हशफा
संज्ञा पुं० [अ० हशफ़ह, हश्फ़ह] लिंग का अग्रभाग [को०]।
⋙ हशम
संज्ञा पुं० [अ०] १. नौकर चाकर। सेवक। २. मालिक के लिऐ युद्ध में लड़नेवाले नौकर। भुति सैनिक [को०]।
⋙ हशमत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. गोरव। श्रेष्ठता। बड़ाई। वैभव। ऐश्वर्य। उ०—क्या माल खजाने मुल्क मकाँ क्या दौलत हशमत फौजे लश्कर।—राम० धर्म०, पृ० ९०। २. प्रताप। रोब। दबदबा (को०)। ३. नौकर चाकर, टहलुए आदि (को०)। ४. फौज। सेना। लावलश्कर।
⋙ हशरात
संज्ञा पुं० [अ० हशरह का बहु व०] वर्षा ऋतु में पैदा होनेवाले कीड़े मकोड़े [को०]।
⋙ हश्त
वि० [फ़ा०] अष्ट। आठ। उ०—कर नियत अव्वल मुज कूँ क्या हश्त तूँ आखिर। पाया मगर हूँ पाँच जनम छूट ई जनम ते।— दक्खिनी०, पृ० ३२९। यौ०—हश्तंगुश्त, हश्तअंगुशत = आठ अंगुल का। हश्तगोशा = अष्टकोणात्मक। हश्तपहलू = आठ पहल का। हश्तबिहिश्त = आठो स्वर्ग।
⋙ हश्तुम
वि० [फ़ा०] अष्टम। आठवाँ [को०]।
⋙ हश्र
संज्ञा पुं० [अ०] १. कयामत। महाप्रलय। २. विपत्ति। मुसीबत। उ०—कर दूँगा अभी हश्र बर्पा देखिए जल्लाद। धब्बा य मेरे खूँ का छुड़ाना नहीं अच्छा।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५४। मुहा०—हश्र ढाना = कयामत लाना। आफत पैदा करना। हश्र बरपा करना = दे० 'हश्र ढाना'। हश्र बरपा होना = आफत पैदा होना। उपद्रव मचना।
⋙ हसंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० हसन्तिका] अँगीठी। गोरसी। बोरसी।
⋙ हसंती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हसन्ती] १. अँगीठी। गोरसी। बोरसी। उ०— कालागुरु की सुरभी उड़ाकर मानों मंगल तारे। हँसे हसंती में खिलखिलकर अनलकुसुम अंगारे।—साकेत, पृ० २८३। २. वह आधार जिसपर दीपक रखा जाय। दीवट (को०)। ३. मल्लिका का एक प्रकार या भेद (को०)। ४. एक प्रकार की शाकिनी (को०)।
⋙ हसंती (२)
वि० स्त्री० हास्ययुक्त। हँसती हुई [को०]।
⋙ हस
संज्ञा पुं० [सं०] १. हँसी। हास। २. आनंद। उल्लास। खुशी। ३. अवमानना। अपहास। उपहास [को०]।
⋙ हसत् (१)
वि० [सं०] हँसता हुआ। उपहास करता हुआ।
⋙ हसत् (२)
संज्ञा स्त्री० वह अग्निपात्र (चूल्हा) या बोरसी जो इधर उधर ले जाने के लायक हो [को०]।
⋙ हसत पु
संज्ञा पुं० [सं० हस्ती] दे० 'हस्ती'। उ०—हसत चढ़ै चारण हुवै, माया सरसत मेल।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ७५।
⋙ हसद
संज्ञा पुं० [अ०] ईर्ष्या। डाह।
⋙ हसन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हास करना। हँसना। २. परिहास। दिल्लगी। ३. विनोद। ४. स्कंद के एक अनुचर का नाम।
⋙ हसन (२)
संज्ञा पुं० [अ०] अली के दो बेटों में से एक जो अजीद के साथ लड़ाई करने में मारे गए थे और जिनका शोक शीया मुसलमान मुहर्रम में मनाते हैं। इनके दूसरे भाई का नाम हुसेन था। उ०—एक दिवस जबरैल जो आए। हसन हुसेन को दुःख सुनाए।—हिंदी प्रेमा०, पृ० २३३।
⋙ हसन (३)
वि० १. सुंदर। सौंदर्ययुक्त। शोभन। प्रियदर्शन। २. अच्छा। श्रेष्ठ [को०]।
⋙ हसनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अँगीठी। गोरसी। बोरसी। [को०]।
⋙ हसनीमणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि। आग [को०]।
⋙ हसनीय
वि० [सं०] हँसने योग्य। उपहास्य [को०]।
⋙ हसब (१)
अव्य० [अ०] अनुसार। रू से। मुताबिक। हस्ब। जैसे— हसब हैसियत, हसब कानून। यौ०—हसब हाल = समयानुसार। उपयुक्त। उ०—गजल जबानी शुतुर्मुर्ग परी हसब हाल अपने के।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७९०।
⋙ हसब (२)
संज्ञा पुं० १. गणना। गिनती। शुमार। २. अंदाज। अनुमान ३. बड़प्पन। बड़ाई। श्रेष्ठता [को०]। यौ०—हसबोनसब = कुलीनता और श्रेष्ठता। वंश एवं प्रतिष्ठा।
⋙ हसब (३)
संज्ञा स्त्री० जलाने की लकड़ी। ईंधन [को०]।
⋙ हसम पु
संज्ञा पुं० [अ० हशम] स्वामी का काम करनेवाले नौकर। वेतनभोगी सेवक। नौकर चाकर। उ०—अब गढ़ कोट हसम पुर जेते। तुम रक्षक हम जानत तेते।—ह० रासो, पृ० ७७।
⋙ हसर (१)
संज्ञा पुं० [अं० हजर] रिसाले के सवारों के तीन भेदों में से एक जो हल्के होते हैं और जिनके अस्त्र तथा घोड़े भी हलके होते हैं। अन्य दो भेद लैसर और ड्रैगून हैं।
⋙ हसर (२)
संज्ञा पुं० [अ० हस्त्र] दे० 'हस्त्र'।
⋙ हसरत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. रंज। अफसोस। शोक। २. दुःख। कष्ट। मुसीबत (को०)। ३. नौराश्य। नाउम्मेदी। ४. अरमान। इच्छा। चाह। लालसा। उ०—न आया वो दिलवर औ आई घटा। तो हसरत की बस दिल पै छाई घटा।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४८९। यौ०—हसरत भरा = अरमानों से भरा हुआ। आकांक्षायुक्त। जैसे,—हसरत भरा दिल। हसरत भरी जिंदगी। मुहा०—हसरत टपकना = अरमान या इच्छा व्यक्त होना। हसरत निकलना = अकांक्षा या इच्छा पूरी होना। हसरत निकालना = मन की लालसा पूरी करना। हसरत बाकी रहना = इच्छा अपूर्ण रहना। हसरत मिटाना = हवस पूरी करना।
⋙ हसावर †
संज्ञा पुं० [हिं० हंस] खाकी रंग की एक बड़ी चिड़िया। विशेष—इस पक्षी की गरदन एक हाथ लंबी और चोँच केले के फल के समान होती है। इसके बगल के कुछ पर और पैर लाल होते हैं।
⋙ हसिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हँसने की क्रिया या भाव। हँसी। २. दिल्लगी। मजाक। ३. उपहास। ठट्ठा।
⋙ हसित (१)
वि० [सं०] १. जो हँसा गया हो। जिसपर लोग हँसते हों। २. जो हँस रहा हो। हँसता हुआ। ३. विकसित। प्रफृल्लित। ४. जो हँसा हो।
⋙ हसित (२)
संज्ञा पुं० १. हँसना। हास। हास्य। २. हँसी। ठट्ठा। उपहास। ३. कामदेव का धनुष।
⋙ हसिता
वि० [सं० हसितृ] हँसने या उपहास करनेवाला [को०]।
⋙ हसिर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चूहा।
⋙ हसीन
वि० [अ०] १. सुंदर। रूपवान। खूबसूरत। २. प्रियदर्शन। शोभन। खुशनुमा। यौ०—हसीन तरीन = अत्यंत रूपवान। सुंदरतम।
⋙ हसीना
संज्ञा स्त्री० [अ० हसीनह्] सुंदरी स्त्री। खूबसूरत औरत [को०]।
⋙ हसीर (१)
संज्ञा पुं० [अ०] चटाई। बोरिया। उ०—पगफूर बी मैं फकीर बी मैं। जरबफ्त जुबूँ हसीर बी मैं।—दक्खिनी०, पृ० १७३।
⋙ हसीर (२)
वि० १. दुःखी। रंजीदा। २. क्लांत। थका माँदा [को०]।
⋙ हसील †
वि० [देश०] सीधा। सरल।
⋙ हसुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० हँसुली] दे० 'हँसुली'। उ०—स्त्री पुरुष दोनों ही हसुली और छाप पहनते थे।—हिं० पु० स०, पृ० २१।
⋙ हस्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर। हाथ। २. हाथी की सूँड। ३. कुहनी से लेकर उँगली के छोर तक की लंबाई या नाप। एक नाप जो २४ अंगुल की होती है। हाथ। ४. हाथ का लिखा हुआ लेख। लिखावट। ५. एक नक्षत्र जिसमें पाँच तारे होते हैं और जिसका आकार हाथ का सा माना गया है। विशेष—दे० 'नक्षत्र'। ६. संगीत या नृत्य में हाथ हिलाकर भाव बताना। विशेष—यह संगीत का सातवाँ भेद कहा गया है और दो प्रकार का होता है—लयाश्रित और भावाश्रित। ७. वासुदेव के एक पुत्र का नाम। ८. छंद का एक चरण। ९. गुच्छ। समूह। जैसे,—केश हस्त। १०. मदद। सहयोग। सहायता (को०)। ११. एक वृक्ष का नाम (को०)। १२. चमड़े की धौकनी। भाथी (को०)। १३. आभास। संकेत। प्रमाण (को०)।
⋙ हस्त (२)
वि० जो हस्त नक्षत्र में उत्पन्न हो [को०]।
⋙ हस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ। २. संगीत का ताल। ३. प्राचीन काल का एक बाजा जो हाथ में लेकर बजाया जाता था। करताल। ४. हाथ से बजाई हुई ताली। उ०—बहु हाव भाव हस्तक सुदेव। यह चंद्र कला पातुर सुभेव।—ह० रासो, पृ० १११। ५. एक हाथ या २४ अंगुल की माप (को०)। ६. हाथ का अवलंबन, टेक या सहारा (को०)। ७. हाथों की स्थिति (को०)।
⋙ हस्तकमल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल के समान हाथ। २. कमल जो हाथ में लिया हुआ हो (को०)।
⋙ हस्तकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथ से किया हुआ कलापूर्ण कार्य। दस्तकारी।
⋙ हस्तकार्य, हस्तकार्य्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ का काम। हाथ से किया हुआ कार्य। २. दस्तकारी।
⋙ हस्तकोहली
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर और कन्या की कलाई में मंगल- सूत् बाँधने की क्रिया या रीति।
⋙ हस्तकौशल
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी काम में हाथ की सफाई। किसी काम में हाथ चलाने की निपुणता। २. हाथ से किया हुआ कलापूर्ण काम। दस्तकारी।
⋙ हस्तक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथ का काम। २. दस्तकारी। ३. हाथ से इंद्रिय संचालन। सरका कूटना। हस्तमैथुन।
⋙ हस्तक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] किसी काम में हाथ डालना। किसी होते हुए काम में कुछ कार्रवाई कर बैठना या बात भिड़ाना। दखल देना। जैसे,—हमारे काम में तुम हस्तक्षेप क्यों करते हो ? हम जैसे चाहेंगे वैसे करेंगे। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हस्त खस्त पु
वि० [फ़ा० हस्त (= है = अस्तित्वयुक्तता) + खस्त(= खस्ता) क्षणभंगुर। नश्वर। उ०—यह तन हस्त खस्त खराब खातिर अंदेसा बिसियार।—रै० बानी, पृ० २९।
⋙ हस्तग
वि० [सं०] १. जो किसी के अधिकार में जानेवाला हो। २. किसी के हाथ में जानेवाला [को०]।
⋙ हस्तगत
वि० [सं०] १. हाथ में आया हुआ। प्राप्त। लब्ध। हासिल। जैसे,—वह पुस्तक किसी प्रकार हस्तगत करो। २. अपने पक्ष, अधिकार या वश में आया हुआ। अधिकृत। वशीभूत। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ हस्तगामी
वि० [सं० हस्तगामिन्] १. किसी के हाथ या अधिकार में जानेवाला। हस्तग। २. दे० 'हस्तगत' [को०]।
⋙ हस्तगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम [को०]।
⋙ हस्तग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ पकड़ना। २. पाणिग्रहण। विवाह।
⋙ हस्तग्राह (१)
वि० [सं०] हाथ ग्रहण करानेवाला। सहारा देनेवाला।
⋙ हस्तग्राह (२)
संज्ञा पुं० हाथ में ग्रहण करना [को०]।
⋙ हस्तग्राहक
वि० [सं०] हाथ पकड़नेवाला। सहारा चाहनेवाला। मदद की याचना करनेवाला [को०]।
⋙ हस्तचापल्य
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ की फुरती। हाथ की सफाई।
⋙ हस्तचालन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ चलाना या हिलाना। २. हाथों से संकेत करना। हाथ से इशारा करना।
⋙ हस्तजोड़ी
संज्ञा पुं० [सं० हस्तज्योडि] करजोड़ी नामक पौधा। विशेष दे० 'हत्थाजड़ी'।
⋙ हस्तज्योडी
संज्ञा पुं० [सं० हस्तज्योडि] करजोड़ी नामक पौधा। विशेष दे० 'हत्थाजड़ी' [को०]।
⋙ हस्ततल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ का तल भाग। हथेली। २. हाथी की सूँड़ का एकदम निचला भाग [को०]।
⋙ हस्तताल
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ से ताली बजाना। करताली [को०]।
⋙ हस्ततुला
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ से तौलने या वजने करने की छोटी तराजू। काँटा [को०]।
⋙ हस्तत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हस्तत्राण'।
⋙ हस्तत्राण
संज्ञा पुं० [सं०] अस्त्रों के आघात से रक्षा के लिये हाथ में पहना जानेवाला दस्ताना।
⋙ हस्तदक्षिण (१)
वि० [सं०] १. दाहिनी ओर स्थित। दाहिनी ओर बैठा हुआ। २. ठीक। सही [को०]।
⋙ हस्तदक्षिण (२)
संज्ञा पुं० दाहिना हाथ [को०]।
⋙ हस्तदीप
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ का दीपक। हाथ की लालटेन या दीपक।
⋙ हस्तदोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ से डाँड़ी मारने या नाप में फर्क डालने का अपराध। २. हाथ से लिखने में गलती हो जाना। उ०—कजली त्योहार में कृत्यादि के विरुद्ध शुक्ला तृतीया का उल्लेख निःसंदेह हस्तदोष वा भ्रम का होना प्रमाणित करता है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४४।
⋙ हस्तधारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ पकड़ना। २. हाथ का सहारा देना। ३. पाणिग्रहण करना। विवाह करना। ४. वार को हाथ पर रोकना।
⋙ हस्तपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ताड़।
⋙ हस्तपाद
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ और पैर। हाथपाँव।
⋙ हस्तपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] मणिबंध के नीचे का हिस्सा। पंजा [को०]।
⋙ हस्तपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] हथेली का पिछला या उलटा भाग।
⋙ हस्तप्रद
वि० [सं०] मदद देनेवाला। सहायता करनेवाला। मददगार। सहायक [को०]।
⋙ हस्तप्राप्त
वि० [सं०] दे० 'हस्तगत'।
⋙ हस्तप्राप्य
वि० [सं०] १. हाथ से प्राप्त करने योग्य। जहाँ तक हाथ पहुँच सके। २. जो सरलता से प्राप्त हो सके।
⋙ हस्तबिंब
संज्ञा पुं० [सं० हस्तबिम्ब] शरीर में सुगंधित द्रव्यों का लेपन।
⋙ हस्तभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] किसी काम को करने के अवसर पर हाथ का बहक जाना।
⋙ हस्तभ्रंशी
वि० [सं० हस्तभ्रंशिन्] १. हाथ से गिरा हुआ। जो हाथ से गिरा या फिसल गया हो। २. जो हाथ में आकर निकल गया हो। ३. काम करने में जिसका हाथ बहक जाता हो [को०]।
⋙ हस्तभ्रष्ट
वि० [सं०] दे० 'हस्तभ्रंशी' [को०]।
⋙ हस्तमणि
संज्ञा पुं० [सं०] कलाई में पहनने का रत्न। कलाई में पह- नने का रत्नाभरण।
⋙ हस्तमैथुन
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ के द्वारा इंद्रिय का संचालन। सरका कूटना। हस्तक्रिया।
⋙ हस्तयोग
संज्ञा पुं० [सं०] किसी काम में हाथों का प्रयोग करना या हाथ का अभ्यास होना [को०]।
⋙ हस्तरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हथेली में पड़ी हुई लकीरें। विशेष—हाथ में पड़ी हुई इन रेखाओं के विचार से सामुद्रिक में संबद्ध व्यक्ति के संबंध में जानकारी और शुभाशुभ फल का निर्णय होता है। इसके विद्वान् केवल हस्तरेखाओं के आधार पर जन्मकुंडली का निर्माण और भूत तथा भविष्य कथन करते हैं।
⋙ हस्तरोधी
संज्ञा पुं० [सं० हस्तरोधिन्] शिव का एक नाम।
⋙ हस्तलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हथेली की रेखाओं द्वारा शुभाशुभ आदि की सूचना। २. अथर्ववेद का एक प्रकरण।
⋙ हस्तलाघव
संज्ञा पुं० [सं०] किसी काम में हाथ चलाने की निपूणता। हाथ की फुरती। २. हाथ की सफाई।
⋙ हस्तलिखित
वि० [सं०] हाथ का लिखा हुआ (ग्रंथ आदि)।
⋙ हस्तलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथ की लिखावट। लेख।
⋙ हस्तलेख
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ की लिखावट। २. हाथ के लिखे हुए प्राचीन ग्रंथ।
⋙ हस्तलेपन
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ से लेप करना।
⋙ हस्तवत्
वि० [सं०] हाथवाला अर्थात् दक्ष। चतुर। कुशल। प्रवीण।
⋙ हस्तवर्ती
वि० [सं० हस्तवर्तिन्] हाथ में का। हाथ में स्थित। जो हाथ में हो। दे० 'हस्तगत'।
⋙ हस्तवात रक्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें हथेलियों में छोटी छोटी फुंसियाँ निकलती हैं और धीरे धीरे सारे शरीर में फैल जाती हैं।
⋙ हस्तवाप
संज्ञा पुं० [सं०] हाथों से बाण आदि शस्त्रावस्त्र का संचा- लन या क्षेपण [को०]।
⋙ हस्तवाम
वि० [सं०] १. बाई दिशा में अथवा गलत ढंग से स्थित। २. जो सही या उचित न हो। त्रुटिपूर्ण [को०]।
⋙ हस्तवारण
संज्ञा पुं० [सं०] वार या आघात को हाथ पर रोकना।
⋙ हस्तविन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] हाथों का विन्यास या स्थिति [को०]।
⋙ हस्तविषमकारी
संज्ञा पुं० [सं० हस्तविषमकारिन्] हाथ की सफाई से बाजी जीतना।
⋙ हस्तवेश्य
संज्ञा पुं० [सं०] हाथों का श्रम।
⋙ हस्तसंज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथ का इशारा या संकेत।
⋙ हस्तसंवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ से मर्दन या मालिश करना।
⋙ हस्तसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथ का या शारीरिक श्रम। हाथ से काम करना। २. भाड़ा। भृति। मजदूरी [को०]।
⋙ हस्तस्थ, हस्तस्थित
वि० [सं०] जो हाथ में हो। हाथ में ग्रहण किया हुआ [को०]।
⋙ हस्तसूत्र, हस्तसूत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूत का कंगन जिसमें कपड़े की पोटली बँधी होती है और जो विवाह के समय वर और कन्या की कलाई में पहनाया जाता है। २. बलय। कंकण। कटक (को०)।
⋙ हस्तस्वस्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० हस्तस्वस्तिका] हाथों को स्वस्तिक के आकार में छाती पर रखना। हाथों से स्कस्तिक का आकार बनाना [को०]।
⋙ हस्तहार्य
वि० [सं०] १. जो हाथों से ग्रहण करने योग्य हो। २.जो हाथ से हरण किया जा सके। ३. व्यक्त। सुस्पष्ट। स्फुट। प्रकट [को०]।
⋙ हस्तांकित
वि० [सं० हस्ताङ्कित] हाथ से लिखा हुआ।
⋙ हस्तांगुलि
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्ताङ्गुलि] हाथ की अंगुलियाँ।
⋙ हस्तांजलि
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्ताञ्जलि] हाथ का संपुट। हथेलियों की अंजलि। हथेलियों को मिलाकर बनाई हुई अंजुलि [को०]।
⋙ हस्तांतर
संज्ञा पुं० [सं० हस्तान्तर] दूसरा हाथ। अन्य हाथ।
⋙ हस्तांतरण
संज्ञा पुं० [सं० हस्तान्तरण] संपत्ति या अधिकार का दूसरे व्यक्ति के हाथ जाना या दूसरे को देना। कोई वस्तु अन्य व्यक्ति के हाथ में देना [को०]।
⋙ हस्तांतरित
वि० [सं०] १. जो दूसरे को प्रदत्त हो। दूसरे को दिया हुआ। उ०—चक्र हस्तांरित कर चक्रकांत चलने लगा और उसने आभार के साथ उन चरवाहों पर विदा की दृष्टि की।—चक्रकांत, पृ० २६। २. जो एक से दूसरे के हाथ में गया या दिया गया हो। जैसे,—संपत्ति, अधिकार आदि।
⋙ हस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] हस्त नामक नक्षत्र। दे० 'हस्त'-५।
⋙ हस्ताक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] अपने हाथ से लिखा हुआ अपना नाम जो किसी लेख आदि के नीचे लिखा जाय। दस्तखत।
⋙ हस्ताग्र
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ का अगला भाग। हाथ की अंगुलियाँ।
⋙ हस्तादान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ से किसी वस्तु को ग्रहण करना।
⋙ हस्तादान (२)
वि० जो हाथ से ग्रहण करे।
⋙ हस्ताभरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ का आभरण या गहना। हाथ का आभूषण। २. एक साँप [को०]।
⋙ हस्तामलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ में लिया हुआ आँवला। २. वह वस्तु या विषय जिसका अंग प्रत्यंग हाथ में लिए हुए आँवले के समान, अच्छी तरह समझ में आ गया हो। वह चीज या बात जिसका हर एक पहलू साफ साफ जाहिर हो गया हो। जैसे,—यह पुस्तक पढ़ जाइए; सारा विषय हस्ता- मलक हो जायगा।
⋙ हस्तामलकवत्
वि० [सं०] जो हस्तामलक के समान हो। जो अच्छी तरह समझ में आ गया हो।
⋙ हस्तारूढ
वि० [सं०] जो बिलकुल साफ या व्यक्त हो।
⋙ हस्तालंब
संज्ञा पुं० [सं० हस्तालम्ब] हाथ का सहारा। सहारा [को०]।
⋙ हस्तालंबन
संज्ञा पुं० [सं० हस्तालम्बन] किसी का सहारा प्राप्त करना। भरोसा पाना [को०]।
⋙ हस्तावलंब
संज्ञा पुं० [सं० हस्तावलम्ब] सहारा। आश्रय [को०]।
⋙ हस्तावलग्न
वि० [सं०] हाथों में या हाथ पर लगा हुआ।
⋙ हस्तावाप
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तावार। दे० 'हस्तत्राण'।
⋙ हस्तावार
संज्ञा पुं० [सं० हस्त + आवार (= रक्षा)] एक प्रकार का हस्तत्राण जो धनुष की प्रत्यंचा की रगड़ से बाँह को बचाने के लिये धारण किया जाता है। उ०—महाराज, हस्तावार सहित धनुष यह है।—शकुंतला, पृ० १२७।
⋙ हस्ताहस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथाबाँहीं। हाथापाई। मुठभेड़। चाँटे या घूँसे की लड़ाई। गुत्थमगुत्थी।
⋙ हस्ताहस्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हस्ताहस्ति'।
⋙ हस्ति
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिन्]दे० 'हस्ती'।
⋙ हस्तिकंद
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिकन्द] एक पौधा जिसका कंद खाया जाता है। हाथीकंद।
⋙ हस्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी के आकार का खिलौना। खेल या क्रीड़ा के लिये बना हुआ हाथी। २. हाथियों का समूह। हस्तियूथ। ३. मामूली नौकर चाकर। साधारण कोटि का सेवक [को०]।
⋙ हस्तिकक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत में वर्णित एक प्रकार का जहरीला कीड़ा।
⋙ हस्तिकक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह। २. व्याघ्र। बाघ।
⋙ हस्तिकरंज
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिकरञ्ज] बड़ी जाति का करंज या कंजा। विशेष दे० 'करंज'।
⋙ हस्तिकरंजक
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिकरञ्जक] दे० 'हस्तिकरंज'।
⋙ हस्तिकरणक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार हथियारों का वार रोकने का एक प्रकार का पटल या ढाल।
⋙ हस्तिकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंडी का पेड़। एरंड। रेंड़। २. टेसू का पेड़। पलाश। ३. कच्चू। बंडा। ४. शिव के गणों में से एक का नाम। ५. एक राक्षस का नाम। ६. गण देवताओं में से एक।
⋙ हस्तिकर्णकदल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पलाश या टेसू।
⋙ हस्तिकर्णिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक योगासन। हस्तिकर्णिका [को०]।
⋙ हस्तिकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हठयोग का एक आसन।
⋙ हस्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन बाजा जिसमें बजाने के लिये तार लगा रहता था। एक प्रकार का तंत्रवाद्य।
⋙ हस्तिकोलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का बेर का फल [को०]।
⋙ हस्तिकोशातकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तरोई या तोरई का एक भेद [को०]।
⋙ हस्तिगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] १. कांची नाम की नगरी जो मुक्ति- दायक और सप्तपुरियों में एक है। २. एक पर्वत का नाम [को०]।
⋙ हस्तिघात
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी को मारना। हाथी का वध [को०]।
⋙ हस्तिघोषा, हस्तिघोषातकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की तरोई। बड़ी तरोई। बृहदघोषा [को०]।
⋙ हस्तिघ्न (१)
वि० [सं०] हस्तिघात करनेवाला। जो हाथी का वध कर सके। हाथी को मारनेवाला [को०]।
⋙ हस्तिघ्न (२)
संज्ञा पुं० मनुज। मनुष्य। आदमी [को०]।
⋙ हस्तिचार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शस्त्र जो शरभ की आकृति का होता था और जिससे हस्तियों को भयभीत करके भगा देते थे [को०]।
⋙ हस्तिचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाकरंज। दे० 'करंज'।
⋙ हस्तिचारी
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिचारिन्] हाथी चलानेवाला। महावत। पीलवान [को०]।
⋙ हस्तिजागरिक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों का निरीक्षक। हाथियों की देखभाल करनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ हस्तिजिह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथी की जीभ। २. दाहिनी आँख की एक नस।
⋙ हस्तिजीवी
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिजीविन] महावत। पीलवान [को०]।
⋙ हस्तिदंत
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिदन्त] १. हाथीदाँत। २. दीवार में गड़ी हुई कपड़े आदि टाँगने की खूँटी। ३. मूलिका। मूली। यौ०—हस्तिदंतफला = एर्वारु। फूट। ककड़ी।
⋙ हस्तिदंतक
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिदन्तक] मूलिका मूली [को०]।
⋙ हस्तिदंती
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिदन्ती] मूली।
⋙ हस्तिद्वयस
वि० [सं०] जो हाथी की तरह ऊँचा हो। हाथी के समान बड़ा या लंबा [को०]।
⋙ हस्तिनख
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी के नाखून। २. वह बुर्ज या टीला जो गढ़ की दीवार के पास उन स्थानों पर बना होता है जहाँ चढ़ाव होता है।
⋙ हस्तिनपुर, हस्तिनापुर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रवशियों या कौरवों की राजधानी जो वर्तमान दिल्ली नगर से कुछ दूर पर थी। पर्या०—गजाह्वय। नाग साह्वय। नागाह्व। हस्तिनीपुर। विशेष—यह नगर हस्तिन्नामक राजा का बसाया हुआ था। इसका स्थान दिल्ली से उत्तरपूर्व २८ कोस पर निश्चित किया गया है।
⋙ हस्तिनासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथी की सूँड़। नागनासा।
⋙ हस्तिनिषदन
संज्ञा पुं० [सं०] योग का एक आसन [को०]।
⋙ हस्तिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मादा हाथी। हथिनी। २. एक प्रकार का सुगंधित द्रव्य। हट्टविलासिनी। ३. कामशास्त्र के अनुसार स्त्री के चार भेदों में से सबसे निकृष्ट भेद। विशेष—इसका शरीर स्थूल, ओंठ और उँगलियाँ मोटी और आहार, कामवासना अन्य प्रकार की सब स्त्रियों से अधिक कही गई है। अ] अन्य भेद पदि्मनी, चित्रिणी और शंखिनी है। विशेष के लिये वे शब्द द्रष्टव्य।
⋙ हस्तिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी पर बैठनेवाला या उसे अपने अनुकूल करनेवाला व्यक्ति। २. हाथी की देखभाल करनेवाला व्यक्ति। महावत।
⋙ हस्तिपक
संज्ञा पुं० [सं०] महावत। फीलवान। उ०—सावत्सर, अश्ववाहक, हस्तिपक, क्रीडक, नर्म्म सचिव।—वर्ण०, पृ० ९।
⋙ हस्तिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिकंद। हाथीकंद [को०]।
⋙ हस्तिपद
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी के पैर। सबसे विशाल पैर।
⋙ हस्तिपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुरई। तरोई। कोषातकी।
⋙ हस्तिपर्णिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तरोई।
⋙ हस्तिपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ककाड़ी। २. मूर्वा या मोरटा नामक लता (को०)। विशेष दे० 'मूर्वा'।
⋙ हस्तिपादिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ओषधि।
⋙ हस्तिपाल, हस्तिपालक
संज्ञा पु० [सं०] हाथीवान्। फीलवान [को०]।
⋙ हस्तिपिंड
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिपिण्ड] एक नाग असुर [को०]।
⋙ हस्तिपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक ओषधि। गजपिप्पल।
⋙ हस्तिपृष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर जिसके पास कुटिका नाम की नदी बहती थी।
⋙ हस्तिप्रधान
वि० [सं०] कौटिल्य के अनुसार जो मुख्तः हाथी पर ही निर्भर हो [को०]।
⋙ हस्तिप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रमेह जिसमें मूत्र के साथ हाथी के मद का सा पदार्थ बिना वेग के तार सा निकलता है और पेशाब ठहर ठहरकर होता है।
⋙ हस्तिप्रमेही
वि० [सं० हस्तिप्रमेहिन्] जिसे हस्तिप्रमेह रोग हो [को०]।
⋙ हस्तिबंध
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिबन्ध] वह स्थान जहाँ हाथियों को फँसाया जाता है [को०]।
⋙ हस्तिबंधनी
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्तिबन्धनी] कौटिल्य अर्थशास्त्रानुसार वह सिखाई हुई हथिनी जो जंगली हाथियों को फँसाकर बंधन में डालती है [को०]।
⋙ हस्तिभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] एख नाग असुर [को०]।
⋙ हस्तिमकर
संज्ञा पुं० [सं०] दरियाई हाथी। जलहस्ती [को०]।
⋙ हस्तिमद
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी के गंडस्थल या कनपटी से बहनेवाला मद। दान [को०]।
⋙ हस्तिमयूरक
संज्ञा पुं० [सं०] एक पौधा। दे० 'अजमोदा' [को०]।
⋙ हस्तिमल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐरावत। २. गणेश। ३. पाताल- स्थित आठ प्रधान नागों में से एक नाग जिसे संख भी कहते हैं। ४. राख का ढेर। ५. धूल की वर्षा। ६. पाला। हिमपात।
⋙ हस्तिमाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रजाल। माया [को०]।
⋙ हस्तिमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. गजानन। गणपति। गणेश। २. एक राक्षस का नाम (को०)।
⋙ हस्तिमेह
संज्ञा पुं० [सं०] प्रमेह रोग का एक भेद। दे० 'हस्तिप्रमेह'।
⋙ हस्तियूथ
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों का झुंड या दल।
⋙ हस्तिराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथियों के झुंड का प्रधान हाथी। २. बह विशाल हाथी [को०]।
⋙ हस्तिरोध्रक
संज्ञा पुं० [सं०] लोध का वृक्ष। लोध्र वृक्ष [को०]।
⋙ हस्तिरोहरणक
संज्ञा पुं० [सं०] महाकरंज। दे० 'करंज' [को०]।
⋙ हस्तिलोध्रक
संज्ञा पृं० [सं०] लोध या लोध्र वृक्ष [को०]।
⋙ हस्तिवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] गजानन। गणेश [को०]।
⋙ हस्तिवर्चस
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी की गरिमा, गति, शान और उसके शरीर की विशालता [को०]।
⋙ हस्तिवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंकुश जिससे महावत हाथी का नियंत्रण करता है। २. पीलवान। महावत। हस्तिपक [को०]।
⋙ हस्तिविषाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] केला। कदली [को०]।
⋙ हस्तिव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार हाथियों का एक व्यूह। विशेष—इस ब्यूह में आक्रमण करनेवाले हाथी उरस्य में, तेज भाग- नेवाले (अपवाह्म) मध्य में और व्याल (मतवाले) पक्ष में रहते हैं।
⋙ हस्तिशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] फीलखाना। हथिसार [को०]।
⋙ हस्तिशुंड
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिशुण्ड] हाथी की सूँड़। सूँड़ [को०]।
⋙ हस्तिशुंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्तिशुण्डा] दे० 'हस्तिशुंडी'।
⋙ हस्तिशुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० हस्तिशुण्डी] इंद्रवारुणी लता। विशेष दे० 'इंद्रायण'।
⋙ हस्तिश्यामाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. काला सावाँ। २. बाजरा।
⋙ हस्तिषड्गण
संज्ञा पुं० [सं०] छह हाथियों का झुंड [को०]।
⋙ हस्तिसोमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम [को०]।
⋙ हस्तिस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथियों का नहाना। २. व्यर्थ का काम। दे० 'गजस्नान'। (लाक्ष०)।
⋙ हस्तिहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का हाथ अर्थात् सूंड़ [को०]।
⋙ हस्ती (१)
संज्ञा पुं० [सं० हस्तिन्] [स्त्री० हास्तिनी] १. हाथी। विशेष—हेमचंद्र ने कहा है कि हस्ती चार प्रकार के कहे गए हैं- भद्र, मंद्र, मृग और मिश्र। पृथ्वीराज रासो में भद्र, मंद, मृग, और साधारण ये चार भेद कहे हैं। भोजराजकृत युक्तिकल्परु में इनके संबंध में विशेष विवरण द्रष्टव्य है। २. अजमोदा। ३. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ४. चंद्रवंशी राजा सुहोत्र के एक पुत्र जिन्होंने हस्तिनापुर नगर बसाया था।
⋙ हस्ती (२)
वि० १. जिसको हाथ हों। हस्तयुक्त। हाथवाला। २. सूँड़वाला। शुंडयुक्त। ३. कार्यकुशल। चतुर। होशियार [को०]।
⋙ हस्ती (३)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. अस्तित्व। होने का भाव। जैसे,—इसमें तो उनकी हस्ती ही मिट जायगी। २. बड़ा व्यक्तित्व। मुहा०—(किसी की) क्या हस्ती है = क्या गिनती है। कोई महत्व नहीं। तुच्छ है। हस्ती मिटना = (१) अस्तित्व समाप्त होना। (२) रोबदाब खतम होना। हस्ती मिटाना = (१) नष्ट करना। (२) व्यक्तित्व समाप्त करना। हस्ती रखना = (१) अस्तित्व रखना (२) रोबदाब होना। दबदबा होना। हस्ती होना = दे० 'हस्ती रखना'।
⋙ हस्ते
अव्य० [सं०] १. हाथ से। मारफत। जैसे,—१०० रुपये उसके हस्ते मिले। २. हाथ में। हस्त शब्द का संस्कृत में सप्तमी (अधिकरण कारक) का रूप।
⋙ हस्तेकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ में या मारफत करना। २. पाणि- ग्रहण करना। विवाह [को०]।
⋙ हस्त्य
वि० [सं०] १. हाथ से संबंधित। हाथ संबधी। २. हाथ के द्वारा या हाथ से किया हुआ। शारीरिक (श्रम आदि)। ३. हाथ से दिया हुआ या प्रदत्त [को०]।
⋙ हस्त्यध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों का प्रधान निरीक्षक [को०]।
⋙ हस्त्यशन
संज्ञा पुं० [सं०] लोबान का पौधा।
⋙ हस्त्याजीव
संज्ञा पुं० [सं०] फीलवान। महावत [को०]।
⋙ हस्त्यायुर्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] हथियों की चिकित्सा का शास्त्र।
⋙ हस्त्यारोह
संज्ञा पुं० १. हाथी पर सवार व्यक्ति। हाथी पर बैठनेवाला व्यक्ति। २. फीलवान। महावत [को०]।
⋙ हस्त्यारोही (१)
वि० [सं० हस्त्यारोहिन्] हाथी पर बैठने या सवार होनेवाला।
⋙ हस्त्यारोही (२)
संज्ञा पुं० हाथी का सवार। वह व्यक्ति जनो हाथी पर बैठा हुआ हो [को०]।
⋙ हस्त्यालुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कंद [को०]।
⋙ हस्पताल
संज्ञा पुं० [अं० हाँस्पिटल] अस्पताल। चिकित्सालय। दवा- खाना। उ०—निदान जो वे मरीं, हस्पताल में गईं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १९१।
⋙ हस्ब
वि० [अ०] अनुसार। माफिक। यौ०—हस्बे कायदा = नियम, कायदे के अनुसार। हस्बे कानून = विधि या कानून के मुताबिक। हस्बे जाबिता = (१) नियमानुसार। विधि के अनुकूल। हस्बे जैल = नीचे लिखे अनुसार। हस्बे दस्तूर = विधि या नियम के अनुसार। हस्बे मंशा = इच्छानुकूल। हस्बें- मामूल = यथानियम। हस्बे रिवाज = रिवाज और रस्म के अनुसार। हस्बे हाल = दे० 'हसब हाल'। हस्बे हुक्म = आज्ञा- नुसार। हस्बे हैसियत = (१) हैसियत ता वित्त के मुताबिक। २. शक्ति या सामर्थ्य के अनुसार। हस्बे हौसला = हिम्मत या उत्साह के माफिक।
⋙ हस्र (१)
वि० [सं०] १. हँसनेवाला। मुस्करानेवाला। हासयुक्त। २. अज्ञ। मूर्ख। बेवकूफ [को०]।
⋙ हस्र (२)
संज्ञा पुं० [अ०] अवलंबन। निर्भरता। सहारा [को०]।
⋙ हस्सम पु
संज्ञा पुं० [अ० हशम] स्वामी के लिये लड़नेवाले सेवक। सेना। दे० 'हसम'। उ०—हस्सम हय गय मुक्कि तक्कि षट्टू बन धाइय।—पृ० रा०, १०।१६।
⋙ हहर
संज्ञा स्त्री० [हिं० हहरना] १. थर्राहट। कँपकँपी। २. भय। डर। ३. चकपकाने या चकित होने की स्थिति। ४. घबराहट। ५. प्रसन्नता या हर्ष के कारण होनेवाली हड़बड़ी।
⋙ हहरना
क्रि० अ० [अनु०] १. काँपना। थरथराना। उ०—पहल पहल जौ रूई झाँपै। हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै।— जायसी (शब्द०)। २. डर के मारे काँप उठना। दहलना। बहुत डर जाना। थर्रान। उ०—नाथ भलो रघुनाथ मिले रजनीचर सेन हिये हहरी।—(शब्द०)। ३. दंग रह जाना। चकित रह जाना। आश्चर्य से ठक रह जाना। ४. कोई बात बहुत अधिक देखकर क्षुब्ध होना। डाह करना। सिहाना। उ०— काम बन नंदन की उपमा न देत बनै, देखि कै विभव जाको सुरतरु हहरत।—तोई कवि (शब्द०)। ५. कोई वस्तु बहुत अधिक देखकर दंग होना। अधिकता देखकर चकपकाना। उ०— ठहर ठहर परे कहरि कहरि उठैं, हहरि हहरि हर सिद्ध हँसे हेरि कै।—तुलसी (शब्द०)।६. परेशान होना। हैरान होना। ७. हर्ष और आह्लादपूर्वक किसी व्यक्तिविशेष से मिलना। संयो० क्रि०—उठना।—जाना।
⋙ हहराना (१)
क्रि० अ० [अनु०] १. काँपना। थरथराना। २. डर के मारे काँपना। दहलना। थर्राना। उ०—चंचल चपेट चरनचकोट चाहैं, हहरानी फौजैं भजरानी जातुधान की।—तुलसी (शब्द०)। ३. डरना। भयभीत होना। ४. दे० 'हरहराना'।
⋙ हहराना (२)
क्रि० स० दहलाना। भयभीत करना।
⋙ हहल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भयंकर विष। मारक विष। हलाहल [को०]।
⋙ हहल (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु० हहर] हहरने की स्थिति, भाव या क्रिया। भय। खौफ। कँपकँपी। थरथराहट। थर्राहट।
⋙ हहलाना
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'हहरना'।
⋙ हहलाना
क्रि० अ०, क्रि० स०, दे० 'हहराना'।
⋙ हहव
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध मतानुसार एक नरक [को०]।
⋙ हहा
१) संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधर्व जाति। हाहा [को०]।
⋙ हहा (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. हँसने का शब्द। ठट्ठा। जैसे,—क्यों 'हहा हहा' करते हो ? उ०—तुलसी सुनि केवट के बरबैन हँसे प्रभु जानकी ओर हहा हैं।—तुलसी। २. दीनतासूचक शब्द। गिड़गिड़ाने का शब्द। अत्यंत अनुनय विनय का शब्द। ३. विनती। चिरौरी। गिड़गिड़ाहट। क्रि० प्र०—करना। मुहा०—हहा खाना = बहुत गिड़गिड़ाना। बहुत विनती करना। हहा खवाना पु = विनती कराना। निवेदन कराना। उ०— तेरे मनाइबे बीच उनिंदित, सोच मैं क्यों पलकै तू मिलाई। काल के लालन भूखे हुते, सुभली करी तैने हहा तौ खवाई।— नट०, पृ० ८८। ४. हाहाकार।