विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/सय
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ सय पु
संज्ञा पुं० [सं० शत, प्रा० सय]दे० 'शत'। उ०—दिन दिन सय गुन भूपति भाऊ। देखि सराह महा मुनिराऊ।— मानस, १।३६०। यौ०—सयगुन = सौगुना।
⋙ सयन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बंधन। २. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ सयन (२)
संज्ञा पुं० [सं० शयन] १. शयन करने का आसन। बिस्तर। उ०—निज कर राजीवनयन पल्लव-दल रचित सयन प्यास परस्पर पियूष प्रेम पान की।—तुलसी (शब्द०)। २. लेटने की क्रिया। सोने की क्रिया। उ०—सयन करहु निज निज गृह जाई।—मानस, ६।१४।
⋙ सयन पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० सैन्य] सेना। वाहिनी। सैन्य। उ०— तट कालिंद्री तहँ बिमल करि मुकाम नृपराज। सथ्थ सयन सामंत भर सूर जु आए साज।—पृ० रा०, ६१।१३५।
⋙ सयल पु
संज्ञा पुं० [सं० शैल] पर्वत। शिखर। दे० 'शैल'। उ०— गहि सयल तेहि गढ़ पर चलावहि जहँ सो तहँ निसिचर हए।—मानस, ६।४८।
⋙ सयान पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० सयानापन] दे० 'सयानापन'। उ०—आई गौने कालि ही, सीखी कहा सयान। अब ही तै रूसन लगी, अब ही तै पछितान।—मतिराम (शब्द०)।
⋙ सयान (२)
वि० [सं० सज्ञान] ज्ञानवान्। कुशल। चतुर। जिसे जानकारी हो। चालाक। उ०—सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी।—मानस, ७।१८। यौ०—सयानपन = चतुरता या चालाकी।
⋙ सयानप पु
संज्ञा पुं० [हिं० सयान + प (प्रत्य०)] दे० 'सयानापन'। उ०—(क) हरि तुम बलि को छलि कहा लीन्यौ। बाँधन गए बँधाए आपुन कौन सयानप कीन्यौ।—सूर०, ८।१५। (ख) अति सूधो सनेह को मारग है जहँ नेंकु सयानप बाँक नहीं।— घनानंद, पृ० ८६।
⋙ सयानपत पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सयान + पत (प्रत्य०)] चालाकी। धूर्तता।
⋙ सयानपन
संज्ञा पुं० [हिं० सयान + पन (प्रत्य०)] १. सयाना होने का भाव। २. चतुरता। बुद्धिमानी। होशियारी। ३. चालाकी। धूर्तता।
⋙ सयाना (१)
वि० [सं० सज्ञान] [वि० स्त्री० सयनी] १. अधिक अवस्थावाला। वयस्क। जैसे,—अब तुम लड़के नहीं हो; सयाने हुए। उ०—भली बुद्धि तेरै जिय उपजी, बड़ी बैस अब भई सयानी। सूर०, १०।३६५। २. बुद्धिमान्। चतुर। होशियार। उ०— और काहि बिधि करौं तुमहिं तै कौन सयानो।—सूर०, १०।४९२। ३. चालाक। धूर्त।
⋙ सयाना (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा बूढ़ा। वृद्ध पुरुष। २. वह जो झाड़- फूँक करता हो। जंतर मंतर करनेवाला। ओझा। ३. चिकित्सक। हकीम। ४. गाँव का मुखिया। नंबरदार।
⋙ सयानाचारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सयाना + चार (प्रत्य०)] वह रसूम जो गाँव के मुखिया को मिलता है।
⋙ सयावक
वि० [सं०] लाक्षारंजित। जावकयुत [को०]।
⋙ सयूथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो समान समूह, श्रेणी या वर्ग का हो [को०]।
⋙ सयोग
संज्ञा पुं० [सं०] मेल। मिलाप। संयोग। संगम [को०]।
⋙ सयोनि (१)
वि० [सं०] १. जो एक ही योनि से उत्पन्न हुए हों। २. एक ही जाति या वर्ग आदि के।
⋙ सयोनि (२)
संज्ञा पुं० १. इंद्र का एक नाम। २. सहोदर भ्राता। सगा भाई (को०)। ३. सुपारी आदि काटने का सरौता (को०)।
⋙ सयोनिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सयोनि होने का भाव या धर्म।
⋙ सयोनीय पथ
संज्ञा पुं० [सं०] खेतों में जानेवाला मार्ग।
⋙ सयोषण
वि० [सं०] स्त्रियों से युक्त। स्त्रियों के साथ [को०]।
⋙ सरंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० सरङ्ग] १. चौपाया। चतुष्पद जंतु। २. चिड़िया। पक्षी। ३. एक प्रकार का मृग। सारंग [को०]।
⋙ सरंग (२)
वि० १. अनुनासिक युक्त। सानुनासिक। २. वर्ण या रंगयुक्त। रंगीन [को०]।
⋙ सरंजाम
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'सरअंजाम'।
⋙ सरंड
संज्ञा पुं० [सं० सरण्ड] १. पक्षी। चिड़िया। २. कामुक या लंपट व्यक्ति। ३. कृकलास। ४. धूर्त या खल व्यक्ति। ५. एक प्रकार का आभूषण [को०]।
⋙ सरंडर
वि० [अं० सरंडर्ड] जिसने अपने को दूसरे के हवाले किया हो। जिसने दूसरे के समुख आत्मसर्मपण किया हो। उपस्थित। हाजिर। जैसे,—उनपर गिरफ्तारी का वारंट था; सोमवार को अदालत में सरंडर हो गए। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ सर (१)
संज्ञा पुं० [सं० सरस्] १. बड़ा जलाशय। ताल। तालाब। २. गमन। गति (को०)। ३. तीर। बाण। उ०—सत सत सर मारे दस भाला।—मानस, ६।८२। ४. जमा हुआ दूध। दही का चक्का (को०)। ५. नमक (को०)। ६. लड़ी। हार। माला (को०)। ७. झरना। जलप्रपात ८. जल। सलिल (को०)। ९. वायु (को०)। १०. छंद में लघु मात्रा (को०)।
⋙ सर (२)
वि० १. गतिशील। गमनशील। २. रेचन करनेवाला। रेचक।
⋙ सर पुं० ‡
संज्ञा पुं० [सं० शर] दे० 'शर'। उ०— कागज गरे मेघ मसि खूटी सर दौ लागि जरे। सेवक सूर लिखै ते आधौ पलक कपाट अरे। — सूर (शब्द०)।
⋙ सर (४)
संज्ञा पुं० [फा०] १. सिर। २. सिरा। चोटी। उच्च स्थान। यौ०— सरअंजाम। सरपरस्त। सरपंच। सरदार। सरहद। मुहा०—सर करना = बंदूक छोड़ना। फायर करना। ३. प्रेम। स्नेह। प्रीति (को०)। ४. इरादा। इच्छा। विचार (को०)। ५. श्रेष्ठ। उत्तम (को०)।
⋙ सर (५)
वि० दमन किया हुआ। जीता हुआ। पराजित। अभिभूत। मुहा०—सर करना = (१) जीतना। वश में लाना। दबाना। (२) खेल में हराना।
⋙ सर (६)
संज्ञा पुं० [अं०] एक बड़ी उपाधि जो अँगरेजी सरकार देती है।
⋙ सर पु (७)
संज्ञा स्त्री० [सं० शर] चिता। उ— पाएउँ नहिं होइ जोगी जती। अब सर चढ़ौं जरौं जस सती। — जायसी (शब्द०)।
⋙ सर अंजाम
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. सामान। सामग्री। असबाब। २. प्रबंध। बंदोबस्त (को०)। ३. अंत। पूर्ति। समाप्ति। ४. परिणाम। फल। नतीजा (को०)।
⋙ सरई
संज्ञा स्त्री० [हि० सरहरी] दे० 'सरहरी'।
⋙ सरकंडा
संज्ञा पुं० [सं० शरकाणड] सरपत की जाति का एक पौधा जिसमें गाँठवाली छड़ें होती हैं।
⋙ सरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरकने की क्रिया। खिसकना। चलना। २. मद्यपात्र। शराब का प्याला। ३. गुड़ की बनी शराब। ४. मद्यपान। शराब पीना। ५. यात्रियों का दल। कारवाँ। ६. शराब का खुमार। उ०— बय अनुहरत बिभूषन विचित्र अंग जोहे जिय अति सनेह की सरक सी। — तुलसी (शब्द०)। ७. तालाब। सरोवर। तीर्थ (को०) । ८. आकाश। स्वर्ग (को०)। ९. राजपथ की अटूट पंक्ति। १०. मोती। मुक्ता (को०)।
⋙ सरकना
क्रि० अ० [सं० सरक, सरण] १. जमीन से लगे हुए किसी ओर धीरे से बढ़ना। किसी तरफ हटना। खिसकना। जैसे, — थोड़ा पीछे सरको। २. नियत काल से और आगे जाना। टलना। जैसे, — विवाह सरकना। ३. काम चलना। निर्वाह होना। जैसे, — काम सरकना। संयों क्रि०— जाना।
⋙ सरकफूँद †
संज्ञा पुं० [हि० सरकना + फंदा] सरकनेवाला फंदा। दे० 'सरकवाँसी'।
⋙ सरकर्दा
वि० [फ़ा० सरकर्दह्] अगुआ। मुखिया। नेता [को०]।
⋙ सरकवाँसी †
संज्ञा स्त्री० [हि० सरकना + सं० पाश, पाशक] एक प्रकार का सरकनेवाला फंदा जो किसी चीज में डालकर खींचने से सरक कर उसे जकड़ लेता है।
⋙ सरकश
वि० [फ़ा०] १. उद्धत। उद्दंड। अक्खड़। २. शासन न माननेवाला। विरोध में सिर उठनेवाला। ३. शरारती।
⋙ सरकशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. उद्दंडता। औद्धत्य। २. नटखटी। शरारत।
⋙ सरका (१)
संज्ञा पुं० [अ० सरक़ा] चोरी [को०]।
⋙ सरका पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० सरक (=गगन)] आकाश। मुहा०—सरका कूटना = (१) गगन मंडल में बिहार करना। समाधिस्थ होना। लौ लगाना। (२) † ह्स्तमैथुन करना (बा्जारु)।
⋙ सरकार
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] [वि० सरकारी] १. प्रधान। अधिपति। मालिक। शासक। प्रभु। २. राज्य। राज्य संस्था। शासन- सत्ता। गवर्नमेंट। ३. राज्य। रियासत। जैसे, — निजाम सरकार। ४. न्यायालय। न्यायपीठ (को०)। ५. राजदरबार। राजसभा (को०)। ६. बड़े व्यक्तियों के लिये संबोधन का शव्द०(को०)।
⋙ सरकारी
वि० [फ़ा०] १. सरकार का। मालिक का। २. राज्य का। राजकीय। जैसे,— सरकारी इंतजाम, सरकारी कागज। यौ०—सरकारी अहलकार = राज्य का कर्मचारी। सरकार का मुलाजिम। सरकारी कागज = (१) राज्य के दप्तर का कागज। (२) प्रामिसरी नोट। जैसे, — उसके पास डेढ़ लाख रुपयों के सरकारी कागज हैं। सरकारी साँड = (१) लंपट। धूर्त। मक्कार। (लाक्ष०)। (२) गाय बैलों की नस्ल सुधारने के लिये रखा हुआ अच्छी जाति का सांड़।
⋙ सरखत
संज्ञा पुं० [फ़ा० सरख़त] १. वह कागज या दस्तावेज जिसपर मकान आदि किराए पर दिए जाने की शर्तें होती हैं। २. तनखाह आदि के हिसाब का कागज (को०)। ३. दिए और चुकाए हुए ऋण का ब्योरा। उ०— आयसु भी लोकनि सिधारे लोकपाल सबै तुलसी निहाल कै कै दियो सरख (ष) तुहं।— तुलसी ग्रं०, पृ०१९८।
⋙ सरग पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ग] १. दे० 'स्वर्ग'। उ०— (क) मूल पताल सरग ओहिं साखा। अमर बेलि को पाय को चाखा।— जायसी (शब्द०)। (ख) धरनि धामु धनु पुर परिवारु। सरगु नरकु जह लगि व्यवहारु।— मानस, २।९२। २. आकाश। व्योम। उ०— का घूँघट मुख मूँदहु नवला सारि। चाँद सरग पर सोहत एहिं अनुहा्रि। — तुलसी ग्रं०, पृ० २०। यौ०—सरगतरु = स्वर्गतरु। आकाश वृक्ष। उ।— पात पात को सीचिबो न करु सरग तरु हेत। — तुलसी ग्रं०, पृ० १४०।
⋙ सरगना (१)
क्रि० अ० [देश०] डीग मारना। शेखी बधारना। बढ़ चढ़ कर बाते करना।
⋙ सरगना (२)
संज्ञा पुं० [फा० सरगनह्] मुखिया। सरदार। अगुवा। जैसे, — चोरों का सरगना। विशेष— इस शब्द का प्रयोग प्रायः बुरे अर्थ में ही होता है।
⋙ सरगपताली (१)
वि० [सं०स्वर्ग, हि० सरग + सं० पातालीय] जिसका एक अंग ऊपर और एक नीचे की ओर हो। तिरछा। बांका।
⋙ सरगपताली (२)
संज्ञा पुं० १. वह बैल जिसका एक सींग ऊपर और दूसरा नीचे की ओर झुका हो। २. ऐंची आंखोंवाला।
⋙ सरगम
संज्ञा पुं० [हि० सा, रे, ग, म] संगीत में सात स्वरों के चढ़ाव उतार का क्रम। स्वर ग्राम।
⋙ सरगर्दानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] परेशानी। हैरानी। दिक्कत।
⋙ सरगर्म
वि० [फ़ा०] १. जोशीला। आवेशपूर्ण। २. उमंग से भरा हुआ। उत्साहो। कटिबद्ध। ३. तन्मय। तल्लीन (को०)।
⋙ सरगर्मी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. जोश। आवेश। २. उमंग। उत्साह। ३. तन्मयता। संलग्नता।
⋙ सरगही †
संज्ञा स्त्री० [अ० सहर + फ़ा० गह] व्रत के दिनों में पूर्वरात्रि के उत्तरार्ध का खाना। दे० 'सहरगही'।
⋙ सरगुन पु
वि० [सं० सगुण] गुणयुक्त। दे० 'सगुण'। 'निरगुन' का बिलोम।
⋙ सरगुनिया
वि० [हि० सरगुन + इया (प्रत्य०)] सगुणोपासक। वह जो सगुण की उपासना करता हो। 'निरगुनिया' का विलोम या उल्टा।
⋙ सरधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मधुमक्खी।
⋙ सरज
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुद्ध नवनीत। ताजा मक्खन। २. वह जो धुलियुक्त हो [को०]।
⋙ सरजनहार पु
वि० [हि० सरजना + हार (प्रत्य०)] निर्माता। रचयिता। उ०— आपै आप करत विचारा। को हमको सरजनहारा। — रामानंद०, पृ०११।
⋙ सरजाना पु
क्रि० स० [सं० सृजन] १. सृष्टि करना। २. रचना। बनाना।
⋙ सरजमीन
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सरजमीं] १. पृथ्वी। जमीन। २. देश। मुल्क। सल्तनत [को०]।
⋙ सरजसा, सरजस्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋतुमती स्त्री। रजस्वला स्त्री० [को०]।
⋙ सरजा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सरजस्] ऋतुमती स्त्री [को०]।
⋙ सरजा (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० शरजाह (=उच्च पदवाला) ; अ० शरजह् (=सिंह)] १. श्रेष्ठ व्यक्ति। सरदार। २. सिंह। उ०— सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है। — भूषण (शब्द०)।
⋙ सरजीव पु
वि० [सं० सजीव] जो जीवयुक्त हो। निर्जीव का बिलोम या उलटा।
⋙ सरजीवन †
वि० [सं० सञ्जीवन] १. संजीवन। जिलानेवाला। २. हराभरा। उपजाऊ।
⋙ सरजोर
वि० [फ़ा० सरजोर] १. जबरदस्त। २. उद्दंड। दुर्दमनीय। सरकश।
⋙ सरजोरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सरजोरी] १. जबरदस्ती। २. उद्दंडता।
⋙ सरजोश
वि० [फ़ा०] जो पहले जोश में उतारा जाय। सार। सत [को०]।
⋙ सरट्
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. मेघ। बादल। ३. गिर- गिट। कृकलास। ४. मधुमक्खी। ५. डोरा। सूत [को०]।
⋙ सरट
संज्ञा पुं० [सं०] १. छिपकली। २. गिरगिट। ३. वायु।
⋙ सरटि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. हवा। वायु [को०]।
⋙ सरटु
संज्ञा [सं०] कृकलास। गिरगिट [को०]।
⋙ सरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धीरे धीरे हटना या चलना। आगे बढ़ना। सरकना। खिसकना। २. तीव्र गति से चलना। शीघ्र गमन (को०)। ३. स्थानांतर। गमन (को०)। ४. लोहे का मोर्चा। लौहकिट्ट (को०)।
⋙ सरण (२)
वि० १. गतिशील। गतिमय। २. बहनेवाला [को०]। यौ०—सरणमार्ग = जाने का रास्ता।
⋙ सरणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता [को०]।
⋙ सरणि, सरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मार्ग। रास्ता। २. पगडंडी। ढुर्री। ३. लगातार और सीधी पंक्ति, रेखा या लकीर। ४. ढर्रा। विधि। व्यवस्था (को०)। ५. कंठ का एक रोग (को०)। ६. एक लता। गंध प्रसारणी (को०)।
⋙ सरणयु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. मेघ। ३. जल। पानी। ४. वसंत ऋतु। यमराज। ६. अग्नि [को०]।
⋙ सरत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूत। तागा। धागा। २. वह जो गति- शील हो [को०]।
⋙ सरतराश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] नाई। नापित। क्षौरकार [को०]।
⋙ सरतराशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] क्षौर कर्म। नाई का काम [को०]।
⋙ सरताज
वि० [फ़ा०] १. शिरोमणि। सबसे श्रेष्ठ। २. सरदार। नायक। सिरताज [को०]।
⋙ सरतान
संज्ञा पुं० [अ०] १. केकड़ा। कर्कट। २. कर्क राशि। ३. दूषित व्रण [को०]।
⋙ सरता वरता
संज्ञा पुं० [सं० बर्तन, हिं० बरतना + अनुं सरतना] बाँटा। बँटाई। मुहा०—सरता बरता करना = आपस में काम चला लेना।
⋙ सरतारा पु
वि० [?] निश्चिंत। सावकाश।
⋙ सरत्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की हाथ की माप [को०]।
⋙ सरथ (१)
वि० [सं०] रथपर चढ़ा हुआ। रथयुक्त [को०]।
⋙ सरथ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] रथारोही सैनिक [को०]।
⋙ सरद (१)
वि० [फ़ा० सर्द] दे० 'सर्द'।
⋙ सरद पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शरत्] शरद ऋतु। उ०— (क) सरद रात मालति सधन फूलि रही बन बास। — पृ० रा०, २।३९०। (ख) कंत दुसह दारुन सरद। — पृ० रा०, ६१।४२।
⋙ सरदई
वि० [फ़ा० सरदह्] सरदे के रंग का। हरापन लिए पीला।
⋙ सरदर
क्रि० वि० [फ़ा० सर + दर (=भाव)] १. एक सिरे से। २. सब एक साथ मिला कर। औसत में।
⋙ सरदर्द
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. शिरोवेदना। सिर का दर्द। २. कष्ट। झमेला। झंझट। जंजाल [को०]।
⋙ सरदल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दरवाजे का बाजु या साह।
⋙ सरदल (२)
क्रि० वि० [फ़ा०सरदर] दे० 'सरदर'।
⋙ सरदा
संज्ञा पुं० [फ़ा०सर्दह्] एक प्रकार का बहुत बढ़िया खरबूजा जो काबुल से आता है।
⋙ सरदार
संज्ञा पुं० [फा़०] १. किसी मंडली का नायक। अगुवा। श्रेष्ठ व्यक्ति। २. किसी प्रदेश का शासक। ३. अमीर। रईस। ४. वेश्याओं की परिभाषा में वह व्यक्ति जिसका किसी वेश्या से संबंध हो। ५. वह जो सिख संप्रदाय को मानता हो। सिखों की उपाधि।
⋙ सरदार तंत्र
संज्ञा पुं० [फ़ा०सरदार + सं० तन्त्र] एक प्रकार की सरकार जिसमें राजसत्ता या शासनसूत्र सरदारों, बड़े बड़े ताल्लुकदारों या ऐर्श्वशाली नागरिकों के हाथ में रहता है। कुलीन तंत्र। अभिजात तंत्र। कुलतंत्र। दे० 'ऐगिस्टोक्रैसी'।
⋙ सरदारनी
संज्ञा स्त्री० [हि० सरदार] प्रतिष्ठित सिख महिला। सरदार की पत्नी।
⋙ सरदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] सरदार का भाव। अध्यक्षता। स्वामित्व।
⋙ सरदाला
संज्ञा स्त्री० [देश०] उत्तरी भारत की रेतीली भूमि में होनेवाली एक प्रकार की बारहमासी घास जो चारे के लिये अच्छी समझी जाती है। बादरी।
⋙ सरद्वत्
संज्ञा पुं० [सं०] १.गौतम ऋषि। २. गौतम ऋषि के एक पुत्र का नाम [को०]।
⋙ सरधन पु
वि० [सं० सधन] धनी, अमीर। निर्धन का विपरीत वाचक।
⋙ सरधाँकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो प्रायः रेतीली भूमि में होता है। यह वर्षा और शरद् ऋतु में फूलता है। इसका व्यवहार औषधि के रुप में होता है।
⋙ सरधा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रद्धा] दे० 'श्रद्धा'।
⋙ सरधौकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'सरधाँकी'।
⋙ सरन पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० शरण] दे० 'शरण'। उ०— अब आयौ हौं सरन तिहारी ज्यों जानौ त्यौं तारौ। — सूर०, १।१७८।
⋙ सरनगत पु
वि० [सं० शरणागत] शरण में गया हुआ। जो शरणागत हो। उ०— सूरदास गोपाल सरनगत भएँ न की गति पावत।—सूर०, १।१८९।
⋙ सरनदीप
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण द्विप या सिंहल द्वीप] लंका का एक प्राचीन नाम जो अरबवालों में प्रसिद्ध था। उ०— दिया दीप नहि तम उँजियारा। सरनदीप सरि होइ न पारा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ सरनविश्त
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. भाग्यलिपि। २. हालचाल। वृत्तांत। खबर [को०]।
⋙ सरना (१)
क्रि० अ० [सं० सरण (=चलना, सरकना)] १. चलना। सरकना। खिसकना। २. हिलना। डोलना। ३. काम चलना। पूरा पड़ना। जैसे, — इतने में काम नहीं सरेगा। ४. संपादित होना। किया जाना। निबटना। जैसे, — काम सरना। ५.निर्वाह होना। गुजारा होना। निभना। ६. दे० 'सड़ना'। ७. खत्म होना। बीत जाना। समाप्त होना। उ०— बीतै जाम बोलि तब आयौ, सुनहु कंस तव आइ सरयौ। — सूर० १०।५९।
⋙ सरनाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शरण] शरण। आश्रय। रक्षा। उ०— (क) जौ सभीत आवा सरनाई। — मानस, ६।४४। (ख) सूर कुटिल राखौ सरनाई इहि व्याकुल कलिकाल।— सूर०, १।२०१।
⋙ सरनागत
वि० [सं० शरणागत] दे० 'शरणागत'। उ०— सरनागत कह जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। — मानस, ६।४३। यौ०—सरनागतबच्छल = दे० 'शरणागतवत्सल'। उ०— सरनागत बच्छल भगवाना। — मानस, ६।४३।
⋙ सरनाम
वि० [फ़ा०] जिसका नाम हो। प्रसिद्ध। मशहूर। विख्यात। उ०— तुलसी सरनाम गुलाम है राम को जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ। — तुलसी ग्रं० पृ० २२३।
⋙ सरनामा
संज्ञा पुं० [फ़ा० सरनामह ; तुल सं० शिरोनाम] १. किसी लेख या विषय का निर्देश जो ऊपर लिखा रहता है। शीर्षक। २. पत्र का आरंभ या संबोधन। ३. पत्र आदि पर लिखा जानेवाला पता।
⋙ सरनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सरणी] दे० 'सरणी'। उ०— ब्रज जुवती सब देखि थकित भइँ सुंदरता की सरनी। — सूर०, १०।१२३।
⋙ सरपंच
संज्ञा पुं० [फा़०सर + हि पच] पंचों में बड़ा व्यक्ति। पंचायत का सभापति।
⋙ सरपंजर पु
संज्ञा पु० [सं० शरपञ्जर] बाणों का घेरा। सरपिंजर। उ०— अवघट घाट बाट गिरिकंदर। मायाबल कीन्हेसि सर- पंजर। — मानस, ६।७२।
⋙ सरप पु
संज्ञा पुं० [सं० सर्प] साँप।
⋙ सरपट (१)
क्रि० वि० [सं० सपर्ण] तीव्रगति से। सरपट चाल से। क्रि० प्र०—छोड़ना। —डालना। —दौड़ना। —फेंकना।
⋙ सरपट (२)
संज्ञा स्त्री० घोड़े की बहुत तेज दौड़ जिसमें वह दोनों अगले पैर साथ साथ आगे फेंकता है।
⋙ सरपट (३)
वि० समथर। चौरस। सपाट।
⋙ सरपत
संज्ञा पुं० [सं० शरपत्र] कुश की तरह की एक घास। विशेष— इसमें टहनियाँ नहीं होतीं बहुत पतली (आधे जौ भर) और हाथ दो हाथ लंबी पत्तियाँ ही मध्य भाग से निकलकर चारों ओर घनी फैली रहती हैं। इसके बीच से पतली छड़ निकलती है जिसमें फूल चलगते हैं। यह घास छप्पर आदि छाने के काम में आती है।
⋙ सरपरस्त
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. रक्षा करनेवाला। २. श्रेष्ठ पुरुष। ३. अभिभावक। संरक्षक।
⋙ सरपरस्ती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. संरक्षा। २. अभिभावकता।
⋙ सरपिजर पु
संज्ञा पुं० [सं० शरपिञ्जर] बाणों का पिंजड़ा। बाणों का घेरा। उ०— अर्जुन तब सरपिंजर कियौ। पवन संचार रहन नहिं दियौ।— सूर०, १०।४३०९।
⋙ सरपि, सरपी पु
संज्ञा पुं० [सं० सर्पिष] घी। उ०— सूपोदोन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत। — मानस, १।३२८।
⋙ सरपेंच, सरपेच
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. पगड़ी के ऊपर लगाने का एक जड़ाऊ गहना। २. दो ढाई अंगुल चौड़ा गोटा।
⋙ सरपोश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. थाल या तस्तरी ढकने का कपड़ा। २. गुप्त वस्तु या रहस्य (लाक्ष०)।
⋙ सरफर
वि० [सं० सर (= गतिशील) + हि० फर्र] तेज। त्वरा -युक्त। आनन फानन में करनेवाला।
⋙ सरफराज
वि० [फ़ा० सर फ़राज] १. उच्च पदस्थ। बड़ाई को पहुँचा हुआ। महत्वप्राप्त। २. अभिमानी। घमंडी। गर्वी। ३. धन्य। कृतार्थ। मुहा०— सरफराज करना = वेश्या के साथ प्रथम समागम करना। (बाजारु)।
⋙ सरफराना
क्रि० अ० [हि० सरफर] तड़फड़ाना। व्यग्र होना।
⋙ सरफरोश
वि० [फ़ा० सरफ़रोशी] जो जान देने के लिये तैयार हो। जो किसी खातिर अपना सर कटाने को सत्रद्ध हो।
⋙ सरफरोशी
संज्ञा स्त्री० [फा़ सरफ़रोशी] १. जान देने या बलिदान होने को तैयार रहना। २. वीरत्व।
⋙ सरफा
संज्ञा पुं० [अ० सर्फ़ह्] व्यय। खर्च। सर्फा।
⋙ सरफूँदा †
संज्ञा पुं० [हि० सर + फंदा] दे० 'सरकवाँसी'।
⋙ सरफोका
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'सरकंडा'।
⋙ सरबंगी पुं०
वि० [सं० सर्वज्ञ] दे० 'सर्वज्ञ'। उ०— सूधी कहै सबन समुझावत हे सांचे सरबंगी। — सूर० (राधा०), २९९७।
⋙ सरबंधी
संज्ञा पुं० [सं० शरबन्ध] तीरंदाज। धनुर्धर।
⋙ सरब पु †
वि० [सं० सर्व] दे० 'सर्व'। उ०— एही दरबार है गरब ते सरब हानि, लाभ जोग छेम को गरीबी मिसकीनता। — तुलसी ग्रं०, पृ० ५८९। यौ०—सरबबियापी = सर्वव्यापी।
⋙ सरबग्य, सरबज्ञ पु
वि० [सं० सर्वज्ञ] दे० 'सर्वज्ञ'। —उ०— (क) अंतरजामी राम सिय तुम्ह सरबग्य सुजान। — मानस, २।२५६। (ख) सूर स्याम सरबज्ञ कृपानिधि करुना मृदुल हियौ।— सूर०, १।१२१।
⋙ सरबत्तर†, सरबत्तरि पु
अव्य० [सं० सर्वत्र] दे० 'सर्वत्र'।
⋙ सरबदा पु
अव्य० [सं० सर्वदा] दे० 'सर्वदा'।
⋙ सरबर †
संज्ञा स्त्री० [हि०] १. तुल्यता। बराबरी। समता। २. बढ़ बढ़ कर बोलना।
⋙ सरबरना
क्रि० सं० [हि० सरबर + ना (प्रत्य०)] बराबरी करना। समता देना। उपमा देना।
⋙ सरबराह
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. प्रबंध कर्ता। इंतजाम करनेवाला। कारिंदा। २. राज-मजदूरों आदि का सरदार।
⋙ सरबराहकार
संज्ञा पुं० [फ़ा० सरबराह + कार] किसी कार्य का प्रबंध करनेवाला। कारिंदा।
⋙ सरबराहकारी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दे० 'सरबराही'।
⋙ सरबराही
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. प्रबंध। इंतजाम। २. माल अस- बाब की निगरानी। ३. सरबराह का पद या कार्य।
⋙ सरबस पु
संज्ञा पुं० [सं० सर्वस्व] दे० 'सर्वस्व'।
⋙ सरबसर
अव्य० [फ़ा०] एक दम ठीक। पूरा पूरा। बराबर।
⋙ सरबोर पु
वि० [सं० स्त्राव + हि० बोर] दे० 'सराबोर'।
⋙ सरभक
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न का एक कीड़ा [को०]।
⋙ सरभस
वि० [सं०] १. वेगवान। फुर्तीला। २. उग्र। प्रचंड। ३. क्रोधपूर्ण। ४. प्रसन्न [को०]।
⋙ सरम पु
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शर्म] लज्जा। हया।
⋙ सरमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवताओं की एक कुतिया। विशेष— ऋग्वेद में यह ईंद्र की कुतिया और यमराज के चार आँखेंवाले कुत्तों की माता कही गई है। पणि लोग जब इंद्र की या आर्यों की गौएँ चुरा ले गए थे, तब यह उन्हें जाकर ढूँढ लाई थी। महाभारत में इसका उल्लेख देवशुनी के नाम से हुआ है। सरमा देवशुनी ऋग्वेद के एक मंत्र की द्रष्टा भी है। २. कुतिया। ३. कश्यप की एक स्त्री का नाम। (अग्नि पु०)। ४. दक्ष की पुत्री का नाम (को०)। ५. विभीषण की स्त्री का नाम (को०)। यौ०—सरमापुत्र, सरमासुत = सरमात्मज।
⋙ सरमात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] देवशुनी सरमा के पुत्र।
⋙ सरमाया
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पूँजी। मूलधन [को०]।
⋙ सरमायादार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पूँजीपति। धनी व्यक्ति [को०]।
⋙ सरया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा धान जिसका चावल लाल होता है और जो कुवार में तैयार हो जाता है। सारो।
⋙ सरयु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। हवा [को०]।
⋙ सरयु (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'सरयू'।
⋙ सरयू
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तर भारत की एक प्रसिद्ध नदी जिसके किनारे पर प्राचीन अयोध्या नगरी बसी थी। विशेष— ऋग्वेद में सरस्वती, सिंधु और गंगा आदि नदियों के साथ इसका भी नाम आया है।
⋙ सरर
संज्ञा पुं० [हि० सरकंडा] बाँस या सरकंडे की पतली छड़ी जो ताना ठीक करने के लिये जुलाहे लगाते हैं। सथिया। सतगारा।
⋙ सरराना †
क्रि० अ० [अनु० सरसर] हवा बहने या हवा में किसी वस्तु के वेग से चलने का शब्द होना। उ०— धररान कूर लागे। तररान सूर आगे। चररान बाल उट्ठी। सररान तीर मुट्ठी।— सूदन (शब्द०)।
⋙ सरल (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सरला] १. जो सीधा चला गया हो। २. जो टेढ़ा न हो। सीधा। ३. जो कुटिल न हो। जो चालबाज न हो। निष्कपट। सीधा सादा। भोला भाला। ४. जिसका करना कठिन न हो। सहज। आसान। ५. सही। ठीक। तथ्य- युक्त। सच्चा (को०)। ६. फैलाया हुआ। विस्तारित (को०)। ७. ईमानदार। सच्छा। असली ।
⋙ सरल (२)
संज्ञा पुं० १. चीड़ का पेड़ जिससे गंधाबिरोजा निकलता है। २. एक चिड़िया। ३. अग्नि। ४. एक बुद्ध का नाम। ५. साल का गोंद। गंधाबिरोजा। ६. गणित में समीकरण।
⋙ सरलकद्र
संज्ञा पुं० [सं०] चिरौजी। पियाल वृक्ष।
⋙ सरलकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] चीड़ की लकड़ी।
⋙ सरलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टेढ़ न होने का भाव। सीधापन। २. निष्कपटता। सिधाई। ३. सुगमता। आसानी। ४. सादसी सादापन। भोलापन। ५. सत्यता सच्चाई।
⋙ सरलतृण
संज्ञा पुं० [सं०] भूतृण। गंधतृण।
⋙ सरलद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधाबिरोजा। २. तारपीन का तेल। श्रीवेष्ठ।
⋙ सरलनिर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधाबिरोजा। २. तारपीन का लेल। श्रीवेष्ठ।
⋙ सरलपुंठी
संज्ञा स्त्री० [ सं० सरलपुष्ठी ] पहिना मछली।
⋙ सरलयायिनी
संज्ञा स्त्री० [ सं० ] पौधा जिसका तना सीधा हो [को०]।
⋙ सरलयाया
वि० [सं० सरलयायिन्] जो सीधा सानेवाला हो [को०]।
⋙ सरलरका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विकंकत। कँटाई।
⋙ सरलरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधा बिरोजा। २. तारपीन का तेल।
⋙ सरलस्यंद
संज्ञा पुं० [सं० सरलस्यन्द] १. गंधाबिरोजा। तारपीन का तेल।
⋙ सरलांग
संज्ञा पुं० [सं० सरलाङ्ग] १. गंधाबिरोजा। २. तारपीन का तेल।
⋙ सरला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चीड़ का पेड़। २. काली तुलसी। कृष्ण तुलसी। ३. मल्लिका। मोतिया। ४. सफेद निसोथ।
⋙ सरलित
वि० [सं०] सीधा या सहज किया हुआ।
⋙ सरलीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्लिष्ट विषय को आसान या सुकर बनाना। २. किसी जटिल या कठिन भिन्न को संक्षिप्त करना।
⋙ सरव (१)
वि० [सं०] रव या ध्वनियुक्त [को०]।
⋙ सरव पु (२)
संज्ञा पुं० दे० 'सराव'।
⋙ सरव पु (३)
संज्ञा पुं० [?] दे० 'सरौ'।
⋙ सरवत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. धनाढ्यता। समृद्धि। २. ऐश आराम। भोग विलास [को०]।
⋙ सरवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वितस्ता नदी [को०]।
⋙ सरवन (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रमण] अंधक मुनि के पुत्र जो अपने पिता को एक बहंगी में बैठाकर ढोया करते थे। विशेष— इनकी कथा रामायण के अयोध्या कांड में उस समय आई है जब दशरथ राम के बन जाने के शोक में प्राण त्याग कर रहे थे। दशरथ ने कौशल्या से अंधक मुनि के शाप की कथा इस प्रकार की थी — एक बार दशरथ ने जंगली हाथी के धोखे में सरयू नदी के किनारे जल लेते हुए एक तापसकुमार पर बाण चला दिया। जब वे पास गए तब तापस कुमार ने बतलाया कि मैं अंधे माता पिता को एक जगह रख उनके लिये पानी लेने आया था। दब तापसकुमार मर गया तब राजा दशरथ शोक करते हुए अंधक मुनि के पास गए और सब वृतांत कह सुनाया। मुनि ने शाप दिया कि जिस प्रकार मैं पुत्र के शोक से प्राणत्याग कर रहा हूँ, उसी प्रकार तुम भी प्राणत्याग करोगे। ठीक यही कथा बौद्धों के 'शाम जातक' में भी है। केवल दशरथ का नाम नहीं है और ऊपर से इतना और जोड़ा गया है कि अंधे मुनि ने जब बुद्ध भगवान् और धर्म की दुहाई दी, एक देवी ने प्रकट होकर तापसकुमार को जिला दिया। सरबन की पितृभक्ति के गीत गानेवाले भिक्षुकों का एक संप्रदाय अब भी अवध तथा उसके आसपास के प्रदेशों में पाया जाता है। जान पड़ता है कि यह संप्रदाय पहले बौद्ध भिक्षुओं का ही एक दल था, जैसा कि 'सरवन' या श्रमण नाम से स्पष्ट प्रतीत होता है। बाल्मीकि रामायण में केवल तापसरुमार कहा गया है, कोई नाम नहीं आया है।
⋙ सरवन पु ‡ (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्रवण] दे० 'श्रवण'।
⋙ सरवनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्मरण] दे० 'सुमिरनी'।
⋙ सरवर (१)
संज्ञा पुं० [सं० सरोवर] दे० 'सरोवर', उ०— सभा सरवर लोक कोकनद कोकगन, प्रमुदित मन देखि दिनमनि भोर हैं। — तुलसी ग्रं०, पृ० ३०७।
⋙ सरवर (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] सरदार। अधिपति।
⋙ सरवर (३)
संज्ञा स्त्री० [हि०] सरवर। सरवरि। बराबरी।
⋙ सरवरि पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० सद्दश, प्रा० सरिस+वर] बराबरी। तुलना। समता। उ०— (क) शशि जो होइ नहि सरवरि छारजै। होइ सो अमावस दिनमन लाजे। — जायसी (शब्द०)। (ख) हमहिं तुमहि सरवरि कस नाथ। — तुलसी (शब्द०)।
⋙ सरवरिया
संज्ञा पुं० [हि० सरवार+इया (प्रत्य०)] सरयूपरीण ब्राह्मणों का एक वर्ग जो सरबार का है।
⋙ सरबरी† पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० सरवर+ई] १. तुलना। बराबरी। २. सरदारी। आधिपत्य।
⋙ सरवरी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शर्वरी] रात्रि। रात। शर्वरी।
⋙ सरवरीनाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० शर्वरीनाथ] चंद्रमा।
⋙ सरवा ‡
संज्ञा पुं० [हि० साला] दे० 'साला'।
⋙ सरवाक
संज्ञा पुं० [सं० शरावक (= प्याला)] १. संपुट। प्याला। २. दीया। कसोरा। उ०— राम की रजाय तें रसायनी समीर सूनू उतरि पयोधिपार सोधि सरवाक सो। जातुधान पुट बुट पुटपाक लंकं जातरुप रतन जतन जारि कियों है मृगांक सो। — तुलसी ग्रं०, पृ० १७७।
⋙ सरवान
संज्ञा पुं० [फ़ा० सराचह्; तुल० सरमान (=तंबू) कीर्ति- लता, और वर्णरत्नाकर] तंबु। खेमा। उ०— ऊठि सरवान गगन लगि छाए। जानहु राते मेघ देखाए। — जायसी (शब्द०)।
⋙ सरबार †
संज्ञा पुं० [सं० सरयूपार] सरयू नदी के पार का भूखंड। यहाँ के ब्राह्मण सरयूपारी या सरवरिया कहे जाते हैं।
⋙ सरवाला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की लता जिसे घोड़ाबेल भी कहते हैं। बिलाई कंद चइसी की जड़ होती है। विशेष दे० 'घोड़ा बेल'।
⋙ सरविस
संज्ञा स्त्री० [अं० सर्विस] १. नौकरी। २. खिदमत। सेवा।
⋙ सरवे
संज्ञा स्त्री० [अं० सर्वे] १. जमीन की पैमाइश। २. वह सरकारी विभाग जो जमीन की पैमाइश किया करता है।
⋙ सरव्य
संज्ञा पुं० [सं०] निशाना। लक्ष्य। शरव्य [को०]।
⋙ सरसफ
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०सरशफ़ तुल० सं० सर्षप] सरसो।
⋙ सरशार
वि० [फ़ा०] १. परिपूर्ण। ऊपर तक भरा हुआ। लबरेज। २. उन्मत्त। मत्त। ३. छलकता हुआ [को०]।
⋙ सरशीर
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] दूध कीमलाई। क्षीर सार। बलाई [को०]।
⋙ सरसंप्रत
संज्ञा पुं० [सं०, सरस्म्प्रतः] तिधारा। थूहर। पत्रगुप्त वृक्ष।
⋙ सरस्
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० सरसी] १. सरोवर। तालाब। २. जल। पानी (को०)। ३. बाणी। (को०)।
⋙ सरस (१)
वि० [सं०] १. रसयुक्त। रसीला। २. गीला। भीगा। सजल। ३. जो सूखा या मुरझाया न हो। हरा। ताजा। ४. सुंदर। मनोहर। ५. मधूर। मीठा। ६. जिसमें भाव जगाने की शक्ति हो। भावपूर्ण। जैसे, — सरस काव्य। उ०— (क) सरस काव्य रचना करौं खलजन सुनि न हसंत। — पृ० रा०, १।५१। (ख) निज कवित्त केहि लाग न नीका। सरस होहु अथवा अति फीका। — तुलसी (शब्द०)। ७. छप्पय छंद के ३५ वें भेद का नाम जिसमें ३६ गुरु, ८० लघु, कुल ११६ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं। ८. रसिक। सहृदय। भावुक। ९. बढ़कर। उत्तम। उ०— ब्रह्मानंद हृदय दरस सुख लोचनिन अनुभए उभय सरस राम जागे हैं। — तुलसी (शब्द०)। १०. पसीने से तर (को०)। ११. प्रेमपूर्ण। प्रणयोन्मत्त (को०)। १३. घना। ठस। सांद्र (को०)।
⋙ सरस (२)
संज्ञा पुं० तालाब। सरोवर [को०]।
⋙ सरसइ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सरस्वती, प्रा० सरसई] सरस्वती नदी। उ०— सरसइ ब्रह्मा विचार प्रचार। — तुलसी (शब्द०)।
⋙ सरसई पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सरस्वती, प्रा० सरसई] सरस्वती नदी या देवी।
⋙ सरसई पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सरस+हि० ई (प्रत्य०)] १. सरलता। रसापूर्णता। २. हरापन। ताजापन। उ०— तिय निज हिय जु लगी चलत पिय लख रेख खरोट। मूखन देति न सरसई खोंटि खोंटि खत खोट। बिहारी (शब्द०)।
⋙ सरसई† (३)
संज्ञा० स्त्री० [हि० सरसों] फल के छोटे अंकुर या दाने जो पहले दिखाई पड़ते हैं। जैसे,— आप चकी सरसई।
⋙ सकरसठ
वि० [हि०] दे० 'सड़सठ'।
⋙ सरसठवाँ
वि० [हि०] दे० 'सड़सठवाँ'।
⋙ सरसना
क्रि० अ० [सं० सरस+हि० ना (प्रत्य०)] १. हरा होना। पनपना। वृद्धि को प्राप्त होना। बढ़ना। उ०— सुफल होत मन कामना मिटत बिधन के द्वंद। गुन सरसत बरषत हरष सुमिरत लाल मुकुंद। — (शब्द०)। ३. शोभित होना। सोहाना। उ०— वाको विलोकिए जो मुख इंदु लगै यह इंदु कहूँ लवलेस मैं। बेनी प्रबीन महा सरसै छबि जो परसै कहूँ स्यामल कैस मैं। — बेनी (शब्द०)। ४. रसपूर्ण होना। ५. भाव की उमंग से भरना। ६. रसयुक्त अर्थात् जलपूर्ण होना।
⋙ सरसब्ज
वि० [फा़० सरसब्ज] १. हरा भरा। जो सूखा या मुरझाया न हो। लहलहाता हुआ। २. जहाँ हरियाली हो। जो घास और पेड़ पौधों से हरा हो। ३. समुद्ध। मालदार (को०)। ४. आबाद (को०)। ५. उपजाऊ (को०)।
⋙ सरसमान †
संज्ञा पुं० [फ़ा० सर व समान] दे० 'सरोसामान'।
⋙ सर सर (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. जमीन पर रेंगने का शब्द। २. तीव्र वायु के चलने से उत्पन्न ध्वनि। जैसे, — हवा सर सर चल रही है।
⋙ सर सर (२)
क्रि० वि० सरसर की ध्वनि के साथ।
⋙ सर सर (३)
वि० [सं०] इतस्तत; घूमनेवाला [को०]।
⋙ सर सर (४)
संज्ञा स्त्री० [अ०] आँधी अंधड़। तीखी हवा।
⋙ सरसराना
क्रि० अ० [अनु० सर सर] १. सर सर की ध्वनि होना। २. वायु का सर सर की ध्वनि करते हुए बहना। वायु का तेजी से चलना। सनसनाना। उ०— सरसराती हुई हवा केले के पत्तों को हिलाती है। — रत्नावली (शब्द०)। ३. साँप या किसी कीड़े का रेगँना।
⋙ सरसराहट
संज्ञा स्त्री० [हि० सरसर+आहट (प्रत्य०)] १. साँप आदि के रेगँने का सा अनुभव। २. खुजली। सुरसुराहट। ३. वायु के बहने का शब्द।
⋙ सरसरो (१)
वि० [फ़ा] १. जमकर या अच्छी तरह नहीं। जल्दी में। जैसे — सरसरी नजर से देखना। २. चलते ढंग पर। काम चलाने भर को। स्थूल रुप से। मोटे तौर पर। जैसे,— अभी सरसरी तौर से कर जाओ। यौ०—सरसरी नजर। सरसरी निगाह। सरसरी तौर से।
⋙ सरसरी (२)
संज्ञा स्त्री० १. औरतों की एक सांकेतिक भाषा। २. एक शिरोभूषण।
⋙ सरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद निसोथ। शुक्ल त्रिवृता।
⋙ सरसाई पु
संज्ञा स्त्री० [हि० सरस+आई (प्रत्य०)] १. सरसता। २. शोभा। सुंदरता। ३. अधिकता।
⋙ सरसाना (१)
क्रि० सं० [हि० सरसना] १. रसपूर्ण करना। २. हरा भरा करना।
⋙ सरसाना पु (२)
क्रि० अ० दे० 'सरसना'।
⋙ सरसाना पु (३)
क्रि० अ० शोभित होना। शोभा देना। साजना। उ०— (क) लै आए निज अंक में शोभा कही न जाई। जिमि जलनिधि की गोद में शशिशिशु शुभ सरसाई। — गोपाल (शब्द०)। (ख) सुंदर सूधी सुगोल रची विधि कोमलता अति ही सरसात है।—हरि ग्रौध (शब्द०)।
⋙ सरसाम
संज्ञा पुं० [फ़ा०] सन्निपात। त्रिदोष। बाई।
⋙ सरसार †
वि० [फ़ा० सरशार] १. डुबा हुआ। मग्न। २. गड़ाप। चूर। मदमस्त (नशे में)।
⋙ सरसिक
संज्ञा पुं० [सं०] सारस पक्षी [को०]।
⋙ सरसिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हिंगुपत्री। २. छोटा ताल। बावली।
⋙ सरसिज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो ताल में होता हो। २. कमल। ३. सारस पक्षी (को०)।
⋙ सरसिज (२)
वि० सर में जात। ताल में पैदा होनेवाला।
⋙ सरसिजयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] कमल से उत्पन्न, ब्रह्मा।
⋙ सरसिरुह
संज्ञा पुं० [सं०] (सर में उत्पन्न) कमल। यौ०—सरसिरुहबंधु = सूर्य।
⋙ सरसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा ताल। छोटा सरोवर। तलैया। २. पुष्करिणी। बावली। उ०—कठुला कंठ बघनहा नीके। नयन सरोज नयन सरसी के।—सूर (शब्द०)। ३. एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में न, ज, भ, ज, ज, ज, र होते हैं।
⋙ सरसीक
संज्ञा पुं० [सं०] सारस पक्षी।
⋙ सरसीरुह
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरसी में उत्पन्न होनेवाला, कमल। २. सारस पक्षी।
⋙ सरसुलगोरंटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] सफेद कटसरैया। श्वेत झिंटी।
⋙ सरसेट †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. झगड़ा। तकरार। झंझट। बखेड़ा।
⋙ सरसेटना
क्रि० स० [अनु० सरसेट] १. खरी खोटी सुनाना। फटकारना। भला बुरा कहना। २. रगेदना। रपटना। ३. तेजी से समाप्त करना।
⋙ सरसों
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्षप; तुल० फ़ा० सर्शक] एक धान्य या पौधा जिसके गोल गोल छोटे बीजों से तेल निकलता है। एक तेलहन। विशेष—भारत के प्रायः सभी प्रांतों में इसकी खेती की जाती है। इसका डंठल दो तीन हाथ ऊँचा होता है। पत्ते हरे और कटे किनारेवाले होते हैं। ये चिकने होते और डंठी से सटे रहते हैं। फलियाँ दो तीन अंगुल लंबी और गोल होती हैं जिनमें महीन बीज के दाने भरे होते हैं। कार्तिक में गेहूँ के साथ तथा अलग भी इसे बोते हैं। माघ तक यह तैयार हो जाता है। सरसों दो प्रकार की होती है—लाल और पीली या सफेद। इसे लोग मसाले के काम में भी लाते हैं। इसका तेल, जो कडुवा तेल कहलाता है, नित्य के व्यवहार में आता है। इसके पत्तों का साग बनता है।
⋙ सरसौहाँ †
वि० [हि० सरस + औहाँ (प्रत्य०)] सरस बनाया हुआ। रसयुक्त किया हुआ। रसीला। उ०—तिय तरसौहैं मुनि किए करि सरसौहैं नेह। घर परसौंहैं ह्मै झर बरसौंहैं मेह।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ सरस्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्राचीन नदी जो पंजाब में बहती थी और जिसकी क्षीण धारा कुरुक्षेत्र के पास अब भी है। २. विद्या या वाणी की देवी। वाग्देवी। भारती। शारदा। विशेष—वेदों में इस नदी का उल्लेख बहुत है और इसके तट का देश बहुत पवित्र माना गया है। पर वहां यह नदी अनिश्चित सी है। बहुत से स्थलों में तो सिंध नदी के लिये ही इसका प्रयोग जान पड़ता है। कुरुक्षेत्र के पास से होकर बहनेवाली मध्यदेशवाली सरस्वती के लिये इस शब्द का प्रयोग थोडी ही जगहों में हुआ है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि पारसियों के आवेस्ता ग्रंथ में अफगानिस्तान कि जिस 'हरख्वैती' नदी का उल्लेख है, वास्तव में वही मूल सरस्वती है। पीछे पंजाब की नदी को यह नाम दिया गया। ऋग्वेद में इस नदी के समुद्र में गिरने का उल्लेख है। पर पीछे की कथाओं में इसकी धारा लुप्त होकर भीतर भीतर प्रयोग में जाकर गंगा से मिलती हुई कही गई है। वेदों में सरस्वती नदीयों की माता कही गई है और उसकी सात बहिनें बताई गई हैं। एक स्थान पर वह स्वर्णमार्ग से बहती हुई और वृत्रासुर का नाश करनेवाली कही गई है। वेद मंत्रों में जहाँ देवता रूप में इसका आह्वान है, वहाँ पूषा, इंद्र और सरुत आदि के साथ इसका संबंध है। कुछ मंत्रों में यह इड़ा और भारती के साथ तीन यज्ञदेवियों में रखी गई है। वाजसनेयी संहिता में कथा है कि सरस्वती ने वाचादेवी के द्वारा इंद्र को शक्ति प्रदान की थी। आगे चलकर ब्राह्मण ग्रंथों में सरस्वती वाग्देवी ही मान ली गई है। पुराणों में सरस्वती देवी ब्रह्मा की पुत्री और स्त्री दोनों कही गई है और उसका वाहन हंस बताया गया है। महाभारत में एक स्थान पर सरस्वती को दक्ष प्रजापति की कन्या लिखा है, लक्ष्मी और सरस्वती देवी का वैर भी प्रसिद्ध है। ३. विद्या। इल्म। ४. रागिनी जो शंकराभरण और नट नारायण के योग से उत्पन्न मानी जाती है। ५. ब्राह्मी बूटी। ६. मालकँगनी। ज्योतिष्मती लता। ७. सोमलता। ८. एक छंद का नाम। ९. गाय। १०. वचन वाणी। शब्द। स्वर (को०)। ११. नदी। सरिता (को०)। १२. उत्कृष्ट या श्रेष्ठ स्त्री। सभ्य एवं शिष्ट महिला (को०)। १३. दुर्गा देवी का एक रुप। महासरस्वती (को०)। १४. बौद्धों की एक देवी (को०)।
⋙ सरस्वतीकंठामरण
संज्ञा पुं० [सं० सरस्वतीरणठाभरण] १. ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक। २. भोजकृत अलंकार का एक ग्रंथ। ३. एक पाठशाला जिसे धार के परमारवंशी राजा भोज ने स्थापित किया था।
⋙ सरस्वती पूजन
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सरस्वती पूजा'।
⋙ सरस्वती पूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती का उत्सव जो कही वसंत पंचमी को और कहीं आश्विन के नवरात्र में होता है।
⋙ सरस्वान् (१)
वि० [सं० सरस्वत्] १. जलपूर्ण। जलयुक्त। २. रसमय। रसीला। ३. सुस्वादु। स्वादिष्ट। ४. भव्य। शोभन। चुस्त- दुरुस्त। ५. भावनाप्रधान। भावुक।
⋙ सरस्वान् (२)
संज्ञा पुं० १. सागर। समुद्र। २. तालाब। सरोवर। ३. नद। महानद। ४. भैंसामहिष। ५. वायु [को०]।
⋙ सरहंग
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. सेना का अफसर। नायक। कप्तान। २. मल्ल। पहलवान। ३. जबरदस्त। बलवान्। ४. वह जो किसी से न दबता हो। उद्दंड। सरकश। ५. पैदल सिपाही। ६. चोबदार। ७. कोतवाल।
⋙ सरहंगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] सिपहगिरी। सेना की नौकरी। २. उद्दंडता। ३. वीरता। ४. पहलवानी।
⋙ सरह
संज्ञा पुं० [सं० शलभ, प्रा० सरह] १. पतंग। फतिंगा। २. टिड्डी। उ०—कटक सरह अस छूट।—जायसी (शब्द०)।
⋙ सरहज
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यालजाया] साले की स्त्री। पत्नी के भाई की स्त्री।
⋙ सरहटी
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पक्षी] सर्पक्षी नाम का पौधा। नकुलकंद। विशेष—यह पौधा दक्षिण के पहाड़ों, आसाम, बरमा और लंका आदि में बहुत होता है। इसके पत्ते समवर्ती, २ से ५ इंच तक लंबे तथा १ से १।। इंच तक चौड़े, अंडाकार, अनीदार और नुकीले होते है। टहनियों के अंत में छोटे छोटे सफेद रंग के पल आते हैं। इसके बीज बारीक तथा तिकोने होते हैं। सरहटी स्वाद में कुछ खट्टी और कड़वी होती है। कहते हैं कि जब साँप और नेवले में युद्ध होता है, तब नेवला अपना विष उतारने के लिये इसे खाता है। इसी से हिंदुस्तान और सिहल आदि में इसकी जड़ साँप का विष उतारने की दवा समझी जाती है। इसकी छाल, पत्ती और जड़ का काढ़ा पुष्ट होता है और पेट के दर्द में भी दिया जाता है।
⋙ सरहत ‡
संज्ञा पुं० [देश०] खलिहान में फैला हुआ अनाज बुहारने का झाड़ू।
⋙ सरहतना ‡
क्रि० स० [देश०] अनाज को साफ करने के लिये फटकना। पछोड़ना।
⋙ सरहद
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सर + अ० हद] १. सीमा। २. किसी भूमि की चौहद्दी निर्धारित करनेवाली रेखा या चिह्न। ३. सीमा पर की भूमि। सीमांत। सिवान।
⋙ सरहदी
वि० [फा० सरहद + ई (प्रत्य०)] सरहद का। सरहद संबंधी। सीमा संबंधी। जैसे,—सरहदी झगड़े।
⋙ सरहद्द
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] दे० 'सरहद'।
⋙ सरहना
संज्ञा स्त्री० [देश०] मछली के ऊपर का छिलका। चूई।
⋙ सरहर
संज्ञा पुं० [सं० शर] [संज्ञा स्त्री० सरहरी] भद्रमंजु। रामशर। सरपत।
⋙ सरहरा (१)
वि० [सं० सरल + हि० धड़ अथवा हिं० सरहर] १. सीधा ऊपर को गया हुआ। जिसमें इधर उधर शाखाएँ न निकली हों (पेड़)।
⋙ सरहरा (२)
वि० [सं० सरण] [वि० स्त्री० सरहरी] जिसपर हाथ पैर रखने से न जमे। फिसलाववाला। चिकना।
⋙ सरहरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शर] १. मूँज या सरपत की जाति काएक पौधा जिसकी छड पतली, चिकनी और बिना गाँठ की होती है। २. गंडनी। सर्पाक्षी।
⋙ सरहरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० सरहरा] सर्दी या जुकाम की दशा में गले में होनेवाली खराश। सुरसुरी। सुरहरी।
⋙ सरहस्य
वि० [सं०] १. गूढ़। भेदपूर्ण। २. उपनिषद् के साथ युक्त। ३. दार्शनिक शिक्षा या पराविद्या से युक्त [को०]।
⋙ सरहिंद
संज्ञा पुं० [फ़ा० सर + हिंद] पंजाब का एक स्थान।
⋙ सराँग †
संज्ञा स्त्री० [सं० शलाका] लोहे की एक मोटी छड़ जिसपर पीटकर लोहार बरतन बनाने हैं।
⋙ सरा पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शर] चिता। उ०—चंदन अगर मलयगिर काढ़ा। घर घर कीन्ह सरा रचि ठाढ़ा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ सरा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गति। संचलन। २. निर्झर। प्रपात। ३. प्रसारिणी लता [को०]।
⋙ सरा (३)
संज्ञा पुं० [अ०] पाताल।
⋙ सरा (४)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. सराय। मुसाफिरखाना। २. घर। मकान। ३. जगह। स्थान।
⋙ सरा (५)
वि० [फा़ सरहू] बेमेल। खालिस। खरा [को०]।
⋙ सरा † (६)
संज्ञा स्त्री० [देशी] माला। स्त्रक्।—देशी०, ८१२।
⋙ सराई † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शलाका] १. शलाका। सलाई। २. सरकंडे की पतली छडी़।
⋙ सराई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शराव (=प्याला)] मिट्टी का प्याला या दीया। सकोरा।
⋙ सराई † (३)
[फा़० सराचहू (=एक पहनावा)] पायजामा।
⋙ सराग † (१)
संज्ञा पुं [सं० शलाक] १. लोहे की सीख। पतला सीखचा। नुकीली छड़। २. वह लकडी़ जो कुलाबे के बीच में लगाई जाती है और उसके ऊपर कुलाबा घूमता है।
⋙ सराग (२)
वि० [सं०] १. रागयुक्त। रंगीन। रंगदार। २. अलक्तक से रँगा हुआ। लाक्षारंजित। ३. प्रेमाविष्ट। मुग्ध। ४. शोभायुक्त। सुंदर [को०]।
⋙ सराजाम ‡
संज्ञा पुं० [फा़० सर अंजाम] सामग्री। असबाब। सामान।
⋙ सराध ‡
संज्ञा पुं० [सं० श्राद्ध] दे० 'श्राद्ध'। उ०—(क) जज्ञ सराध न कोऊ करै।—सुर, १।२६०। (ख) द्विज भोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम बाधा।—मानस,१।१८१। यौ०—सराधपख = श्राद्ध का पक्ष या पखवारा जो आश्विन कृ० १ से अमावास्या तक माना जाता है। पितृपक्ष। उ०—जौ लगि काग सराध पख तौ लगि तौ सनमानु।—बिहारी र०, दो० ४३४।
⋙ सराना
कि० स० [हिं० सारना का प्रेर०] पूर्ण कराना। संपादित कराना। (काम) कराना। उ०—तैं ही उनकौ मूड़ चढा़यो। भवन बिपिन सँग ही सँग डोलै ऐसेहि भेद लखायो। पुरुष भँवर दिन चारि आपुनो अपनो चाउ सरायो।—सूर (शब्द०)।
⋙ सराप
संज्ञा पुं० [सं० श्राप] दे० 'शाप'। उ०—तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा।—मानस, १।१३५।
⋙ सरापना पु
क्रि० स० [सं० श्राप, हि० सरापब + ना (प्रत्य०)] १. शाप देना। बददुआ देना। अनिष्ट मनाना। कोसना। २. बुरा भला कहना। गाली देना।
⋙ सरपा (१)
अव्य० [फ़ा०] आपाद मस्तक। पूरा का पूरा। संपूर्ण। यौ०—सरापानाज = नाज नखरे से पूर्ण या भरा हुआ। सरापा- शरारत = शरारत भरा।
⋙ सरापा (२)
संज्ञा पुं० १. नखशिख। नख से शिख तक सर्वांग। २. नख- शिख का वर्णन [को०]।
⋙ सराफ
संज्ञा पुं० [अ० सरफ़ि] १. रुपए पैसे या चाँदी सोने का लेन देन करनेवाला महाजन। २. सोने चाँदी का व्यापारी। ३. सोने चाँदी के बरतन, जेवर आदि का लेन देन करनेवाला। ४. बदले के लिये रुपए पैसे रखकर बैठनेवाला दूकानदार। यो०—सरफखाना = जहाँ सराफे का काम होता हो। सराफ।
⋙ सराफ
संज्ञा पुं० [अ० सर्राफ़] १. सराफी का काम। रुपए पैसे या सोने चाँदी के लेन देन का काम। २. वह स्थान जहाँ सराफों की दूकानें अधिक हों। सराफों का बाजार। जैसे,—अभी सराफ नहीं खुला होगा। ३. कोठी। बंक। क्रि० प्र०—खोलना।
⋙ सराफी
संज्ञा स्त्री० [हि० सराफ + ई (प्रत्य०)] १. सराफ का काम। चाँदी सोने या रुपए पैसे के लेन देन का रोजगार। २. वह वर्णमाला जिसमें अधिकतर महाजन लोग लिखते हैं। महाजनी। मुंडा। ३. नोट रुपए आदि भुनाने का बट्टा जो भुनानेवाले को देना पड़ता है। यौ०—सराफी पारचा = हुंडी।
⋙ सराब (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. मृगतृष्णा। २. धोखा देनेवाली वस्तु। ३. धोखा। वचन।
⋙ सराब ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शराब] दे० 'शराब'।
⋙ सराबोर
वि० [सं० स्त्राव + हि० बोर] बिलकुल भीगा हुआ। तरबतर। नहाया हुआ। आप्लावित।
⋙ सराय (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. रहने का स्थान। घर। मकान। २. यात्रियों के ठहरने का स्थान। मुसाफिरखाना। मुहा०—सराय का कुत्ता = अपने मतलब का यार। स्वार्थी। मतलबी। सराय का भठियारी = लड़की और निर्लज्ज स्त्री।
⋙ सराय (२)
संज्ञा पुं० [देश०] गुल्ला नाम का पहाड़ी पेड़। विशेष—यह वृक्ष बहुत ऊँचा होता है और हिमालय पर अधिक होता है। इसके हीर की लकड़ी सुगंधित और हलकी होती है और मकान आदि बनवाने के काम में आती है।
⋙ सरार
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़ा बेल नाम की लता जिसकी जड़ बिलाई कंद कहलाती है। दे० 'घोड़ा बेल'।
⋙ सराव पु †
संजा पुं० [सं० शराव] १. मद्यपात्र। प्याला। (शराब पीने का)। २. कसोरा। कटोरा। ३. दीया। उ०—हरि जू की आरती बनी। अति बिचित्र रचना रचि राखी परति नगिरा गनी। कच्छप अध आसन अनूप अति डाँड़ी शेष कनी। मही सराव सप्त सागर घृत बाती शैल धनी।—सूर (शब्द०)। ४. एक तौल जो ६४ तोले की होती थी। यौ०—सराब संपुट।
⋙ सराव (२)
वि० [सं०] ध्वनियुक्त। गुंजित। शब्दायमान [को०]।
⋙ सराब (३)
संज्ञा पुं० १. आवरण ढक्कन। २. कसोरा। शराव [को०]।
⋙ सराव (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की पहाड़ी बकरी।
⋙ सरावग
संज्ञा पुं० [सं० श्रावक] जैन। सरावगी। उ०—ईस सीस बिलसत विमल तुलसी तरल तरंग। स्वान सरावग के कहे लघुता लहै न गंग।—तुलसी ग्रं०, पृ० १३५।
⋙ सरावगी
संज्ञा पुं० [सं० श्रावक] श्रावक धर्माविलंबी। जैन धर्म माननेवाला। जैन। विशेष—प्रायः इस मत के अनुयायी आजकल वैश्य ही अधिक पाए जाते हैं।
⋙ सरावन †
संज्ञा पुं० [सं० सरण, हि० सरना] जुते हुए खेत की मिट्टी बराबर करने का पाटा। हेंगा।
⋙ सरावसंपुट
संज्ञा पुं० [सं० शराव + सम्पुट] फूँकने के लिये मिट्टी के दो कसोरों का मुँह मिलाकर बनाया हुआ एक बरतन।
⋙ सराविका
संज्ञा स्त्री० [सं० शराविका] एक प्रकार की फुँसी। दे० 'शरविका'।
⋙ सरास पु
संज्ञा पुं० [?] तुष। भूसी।
⋙ सरासन
संज्ञा पुं० देश० [सं० शरासन] दे० 'शरासन'। उ०—(क) कटि निषंग कर बान सरासन।—मानस, ६।११। (ख) (ख) लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ।—मानस, ६।५१।
⋙ सरासर (१)
वि० [सं०] इधर उधर घूमनेवाला [को०]।
⋙ सरासर (२)
अव्य० [फ़ा०] १. एक सिरे से दूसरे सिरे तक। यहाँ से वहाँ तक। २. बिलकुल। पूर्णातया। जैसे,—तुम सरासर झूठ कहते हो। ३. साक्षात्। प्रत्यक्ष।
⋙ सरासरी (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. आसानी। फुरती। २. शीघ्रता। जल्दी। ३. मोटा अंदाज। स्थूल अनुमान। ४. बकाया लगान का दावा। क्रि० प्र०—करना। होना।
⋙ सरासरी (२)
क्रि० वि० १. जल्दी में। हड़बड़ी में। जमकर नही। इतमीनान से नहीं। २. मोटे तौर पर। स्थूल रुप से।
⋙ सराह पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्लाघा] बड़ाई। प्रशंसा। तारीफ। श्लाघा।
⋙ सराहत
संज्ञा स्त्री० [अ०] स्पष्ट कहना। विवृत करना या व्याख्या करना।
⋙ सराहना (१)
क्रि० स० [सं० श्वाघन] १. तारीफ करना। बड़ाई करना। प्रंशसा करना। उ०—(क) ऊँचे चितै सराहियत गिरह कबूतर लेत। दृग झलकित मुकलित बदन तन पुलकित हित हेत।—बिहारी (शब्द०)। (ख) कजे फल देखी सोइय फीका। ताकर काह सराहे नोका।—जायसी (शब्द०)। (ग) सबै सराहत सीय लुनाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सराहना (२)
संज्ञा स्त्री० प्रशंसा। तारीफ। उ०—श्रीमुख जासु सराहना कीन्ही श्री हरिचंद।—प्रतापनारायण (शब्द०)।
⋙ सरीहनीय पु
वि० [हि० सराहना + ईय (प्रत्य०)] १. प्रशंसा के योग्य। तारीफ के लायक। श्लाधनीय। २. अच्छा। बढ़िया। उम्दा।
⋙ सराहु
वि० [सं०] १. राहु से युक्त। राहु के साथ। २. (चंद्रमा) जो राहु से ग्रस्त हो [को०]।
⋙ सरि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झरना। निर्झर। झालर (को०)। २. दिशा (को०)। ३. दे० 'सरी (१)'।
⋙ सरि पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सरित्] नदी।
⋙ सरि पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० सदृश, प्रा० सरिस] बराबरी। समता। उ०—दाड़िम सरि जो न कै सका फाटेउ हिया दरक्कि।— जायसी (शब्द०)।
⋙ सरि (४)
वि० तुल्य। सदृश। समान।
⋙ सरि (५)
संज्ञा स्त्री० [देशी] हार। लरी। माला।
⋙ सरिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सरिका] गमनशील। जो जा रहा हो [को०]।
⋙ सरिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हींगपत्नी। हींगुपत्नी। २. मोतियों की लड़ी। ३. मुक्ता। ४. रत्न। ५. छोटा ताल या सरोवर। ६. एक तीर्थ। ७. गमन। प्रस्थान (को०)। ८. जानेवाली स्त्री (को०)।
⋙ सरिका (२)
संज्ञा पुं० [अ० सरिक़ह्] चौर्य। चोरी। तस्करता [को०]।
⋙ सरिगम
संज्ञा पुं० [हि० सरगम] दे० 'सरगम'।
⋙ सरित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नदी। २. दुर्गा का एक नाम (को०)। सूत्र। डोरी (को०)।
⋙ सरित पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सरित्] सरिता। नदी। उ०—दुर्गति दुर्गन ही जु कुटिल गति सरितन ही की।—केशव (शब्द०)।
⋙ सरितांपति
संज्ञा पुं० [सं० सरिताम्पति] १. नदियों का पति, समुद्र। २. चार की संख्या का वाचक शब्द [को०]।
⋙ सरिताबरा
संज्ञा स्त्री० [सं० सरिताम्बरा] गंगा, जो नदियों में श्रेष्ठ है [को०]।
⋙ सरिता
संज्ञा स्त्री० [सं० चसरित् (= बहा हुआ)] १. धारा। प्रवाह। २. नदी। दरिया।
⋙ सरित्कफ
संज्ञा पुं० [सं०] नदी का फेन।
⋙ सरित पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सरित्] नदी। सरिता।
⋙ सरित्पति
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र। २. दे० 'सरितांपति'।
⋙ सरित्सुत
संज्ञा पुं० [सं०] (गंगा के पुत्र) भीष्म।
⋙ सरित्वान्
संज्ञा पुं० [सं० सरित्वत्] सिंधु। समुद्र [को०]।
⋙ सरित्सुरंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० सरित्सुरङगा] नहर। कुल्या [को०]।
⋙ सरिद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सरित्'।
⋙ सरिदधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सरित्पति' [को०]।
⋙ सरिदिही
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सर (=सरदार) + देह (= गाँव)] वह नजर या भेंट जो जमींदार या उसका कारिंदा किसानों से हर फसल पर लेता है।
⋙ सरिदुभय
संज्ञा पुं० [सं०] नदी का दोनों किनारा [को०]।
⋙ सरिदभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० सरिदभर्तृ] समुद्र।
⋙ सरिद्वत्
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र। सागर [को०]।
⋙ सरिद्वारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] (उत्तम नदी) गंगा।
⋙ सरिन्नाथ
संज्ञा पुं० [सं०] सागर [को०]।
⋙ सरिन्मुख
संज्ञा पुं० [सं०] नदी का उद्गम। मुहाना [को०]।
⋙ सरिमा
संज्ञा पुं० [सं० सरिमन्] १. सति। गमन। २. वायु। ३. काल। समय [को०]।
⋙ सरिया † (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. ऊँची भूमि। २. पैसा या और कोई छोटा सिक्का। (सोनार)।
⋙ सरिया (२)
संज्ञा पुं० [सं० शर] १. सरकंडे की छड़ जो सुनहले या रुपहले तार बनाने में काम आती है। सरई। २. पतली छड़।
⋙ सरियाना
क्रि० सं० [सं० स्तर] १. तरतीब से लगाकर इकट्ठा करना। बिखरी हुई चीजें ढंग से समेटना। जैसे,—लकड़ी सरियाना, कागज सरियाना। २. मारना। लगाना। (बाजारु)।
⋙ सरिर, सरिल
संज्ञा पुं० [सं०] सलिल। जल।
⋙ सरिवन
संज्ञा पुं० [सं० शालपर्ण] शालपर्ण नाम का पौधा। त्रिपर्णी अंशुमती। विशेष—यह क्षुप जाति की वनौषधि है और भारत के प्रायः सभी प्रांतों में होती है। इसकी ऊँचाई तीन चार फुट होती है। यह जंगली झाड़ियों में पाई जाती है। इसका कांड सीधा और पतला होता है। पत्ते बेल के पत्तों की भाँति एक सींके में तीन तीन होते हैं। ग्रीष्म ऋतु को छोड़ प्रायः सभी ऋतुओं में इसके फल फूल देखे जाते हैं। फूल छोटे और आसमानी रंग के होते हैं। फलियाँ चिपटी, पतली और प्रायः आध इंच लंबी होती हैं। सरिवन औषध के काम में आती है।
⋙ सरिवर, सरिवरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० सरि + सं० प्रति, प्रा० पड़ि, बड़ि] बराबरी। समता। उ०—तुमहि हमहिं सरिवरि कस नाथा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सरिश्क
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. आँसु। २. बूँद [को०]।
⋙ सरिश्त
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. स्वभाव। प्रवृति। २. बनावट। निर्मिति। सृष्टी [को०]।
⋙ सरिश्ता
संज्ञा पुं० [फ़ा० सररिश्तह् का विकृत रुप सरिश्तह्] १. अदालत। कचहरी। २. शासन या कार्यालय का विभाग। महकमा। दप्तर। आफिस।
⋙ सरिश्तेदार
संज्ञा पुं० [फ़ा० सरिश्तह्दार] १. किसी विभाग का प्रधान कर्मचारी। २. अदालतों में देशी भाषाओ में मुकदमों की मिसलें रखनेवाला कर्मचारी।
⋙ सरिश्तेदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. सरिश्ते का भाव। २. सरिश्तेदार का काम या पद।
⋙ सरिषप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सर्षप' [को०]।
⋙ सरिस पु
वि० [सं० सदृश, प्रा० सरिस] सदृश। समान। तुल्य। उ०— (क) जल पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति यह। — तुलसी (शब्द०)। (ख) उठिकै निज मस्तक भयो चालत असुर महान। वात वेग ते फल सरिस महि महँ गिके बिमान। गिरधरदास (शब्द०)।
⋙ सरी (१)
सज्ञा स्त्री० [सं०] १. तलैया। पुष्करिणी। छोटा जलाशय। २. झरना। छोटा प्रपात [को०]।
⋙ सरी (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] अध्यक्षता। सरदारी [को०]।
⋙ सरी (३)
संज्ञा स्त्री० [देशी] माला। हार।
⋙ सरीक †
वि० [फ़ा० शरीक] दे० 'शरीक'।
⋙ सरीकत †
संज्ञा स्त्री० दे० [फ़ा० शिरकत] दे० 'शिरकत'।
⋙ सरीकता पु
संज्ञा स्त्री० [फि़० शरीक + सं० ता (प्रत्य०)] साझा। हिस्सा। शिरकत। उ०— निपट निदरि बोले बचन कुठारपानी मानी त्रास औवनिपन मानो मौनता गही। रौषे माषे लखन अकन अनषौहीं बातैं तुलसी बिनीत बानी बिहँस ऐसी कही। सुजस तिहारो भरे भुअन भृगुतिलक प्रबल प्रताप आपु कहो सो सबै कही। टूटयौ सो न जुरैगो सरासन महैस जू को, रावरी पिनाक में सरिकता कहा रही।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ सरीका †
वि० [सं० सदृक्ष, प्राच सरिक्ख, हि० सरीखा] दे० 'सरीखा'।
⋙ सरीखा
वि० [सं० सदृक्ष, प्रा० सरिक्ख] सदृश। समान। तुल्य।
⋙ सरीफा
संज्ञा पुं० [सं० श्रीफल] एक छोटा पेड़ जिसके फल खाए जाते हैं। विशेष— इसकी छाल पतली खाकी रंग की ह ती है और पत्ते अमरुद के पत्तों के से होते हैं। फूल तीन दलवाले, चौड़े और कुछ अनीदार होते हैं। फल गोलाई लिए हरे रंग का होता है और उसपर उभरे हुए दाने होते हैं जो देखने में बड़े सुंदर लगते हैं। बीजकोशों का गूदा बहुत मीठा होता है। इस फल में बीज अधिक होते हैं। सरीफा गरमी के दिनों में फूलता है और कातिक अगहन तक फल पकते हैं। विंध्य पर्वत पर बहुत से स्थानों में यह आप से आप उगता है। वहाँ इसके जंगल के जंगल खड़े हैं। जंगली सरीफे के फल छोटे होते हैं और उनमें गूदा बहुत कम होता है।
⋙ सरीर (१)
संज्ञा पुं० [सं० शरीर] दे० 'शरीर'। उ०— सरुज सरीर बादि बहु भोगा।— मानस, २।१७८।
⋙ सरीर (२)
संज्ञा पुं० [अ०] सिंहासन। राजगद्दी। तख्त [को०]।
⋙ सरीर (३)
संज्ञा स्त्री० १. पदचाप। पदध्वनि। २. कलम की खरखराहट। यौ०—सरीरेकलम=लिखते समय कागज पर होनेवाली कलम की खरखराहट।
⋙ सरीस पु (१)
वि० [सं० सदृश, प्रा० सरिस] समान। तुल्य। सरीखा। उ०— (क) विक्रम राज सरीस भौ बुद्दि ब्रन्नन कबि चंद।—पृ० रा० १।७०३। (ख) सुनहुलखन भल भरत सरीसा।— मानस, २।२३०।
⋙ सरीस पु (२)
संज्ञा पुं० [देशी] सह। साथ। उ०— परतापसि सातउ भ्रात सरीस। प्रथीपति आइ नमाइय सीस। — पृ० रा० ५।३८।
⋙ सरीसृप
संज्ञा पुं० [सं०] १. रेंगनेवाला जंतु। जैसे, — साँप, कनखजूरा आदि। २. सर्प। साँप। ३. विष्णु का एक नाम।
⋙ सरीसृप (२)
वि० रेंगनेवाला। पेट के बल घिसटते हुए चलनेवाला [को०]।
⋙ सरीह
वि० [अ०] जो प्रत्यक्ष हो। खुला हुआ।
⋙ सरीहन्
अव्य० [अ०] जो प्रत्यक्षतः स्पष्टतः [को०]।
⋙ सरु (१)
वि० [सं०] पतला। लघु। छोटा [को०]।
⋙ सरु (३)
संज्ञा पुं० १. तीर। बाण। २. तलवार या कटार की मूठ। त्सरु [को०]।
⋙ सरुख
वि० [सं० सरुष] सक्रोध। क्रोधयुक्त।
⋙ सरुक्
वि० [सं०] १. दे० 'सरुच्'। २. दे० ' सरुज्'।
⋙ सरुच्
वि० [सं०] शोभायुक्त। कांतिमान्।
⋙ सरुज्
वि० [सं०] कष्टग्रस्त। व्याधिग्रस्त। रोगयुक्त।
⋙ सरुज
वि० [सं०] रोगी। रोगयुक्त। रुग्न। उ०— सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जाय़ँ जप जोगा।— मानस, २।१७८।
⋙ सरुट्, सरुष्, सरुष
वि० [सं०] क्रोधयुक्त। कुपित। उ०— बोले भृगुपति सरुष हँसि तहूँ बंधु सम बाम। — मानस, १२८२।
⋙ सरुबाना पु † (१)
क्रि० अ० [?] अच्छा होना। ठीक होना।
⋙ सरुहाना पु (२)
क्रि० स० चंगा करना। अच्छा करना। उ०— समुझि रहनि सुनि कहनि बिरह ब्रत अनष अमिय औषध सरुहाए। — तुलसी (शब्द०)।
⋙ सरुप (१)
वि० [सं०] [संज्ञा स्त्री० सरुपता] १. रुपयुक्त। आकारवाला। २. एक ही रुप का। सदृश। समान। ३. रुपवान। सुंदर।
⋙ सरुप † (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्वरुप] दे० 'स्वरुप'। उ०— जो सरुप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं।— मानस १।१४६।
⋙ सरुपता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक रुप या समान होने की स्थिति या भाव। सदृशता। २. ब्रह्मरुप होना, चलीन होना जो मुक्ति के चार भेदों में एक है। दे० 'सारुप्य'।
⋙ सरुपत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सरुपता'।
⋙ सरुपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूत की स्त्री जो असंख्य रुद्रों की माता कही गई है।
⋙ सरुपी
वि० [सं० सरुपिन्] समान रुपवाला। सदृश [को०]।
⋙ सरुर
संज्ञा पुं० [फ़ा० सुरुर] १. आनंद। खुशी। प्रसन्नता। २. हलका नशा। लशे की तरंग। मादकता।
⋙ सरेख पु
वि० [सं० श्रेष्ठ] [वि० स्त्री० सरेखी] अवस्था चमें बड़ा और समझदार। श्रेष्ठ। चतुर। चालाक। सयाना। उ०— हँसी हँसि पूछै सखी सरेखी। जनहु कुमुदचंदन मुख देखी। — जायसी (श्बद०)।
⋙ सरेखना
क्रि० सं० [हिं०] १. अच्छी तरह समझा देना। २. दे० 'सहेजना'।
⋙ सरेखा (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्लेषा] दे० 'श्लेषा' (नक्षत्र)।
⋙ सरेखा पु (२)
वि० [सं० श्रेष्ठ]दे० 'सरेख'। उ० — ततखन बोला सुआ सरेखा। अगुवा सोइ पंथ जैहि देखा। — जायसी (शब्द०)।
⋙ सरेदस्त
क्रि० वि० [फ़ा०] १. इस समय। अभी। २. फिलहाल। अभी के लिये। इस समय के लिये। उ०— हाँ, यों तो मेरा खयाल है, सरेदस्त आप किसी संकट में नहीं हैं। — कंठहार, पृ० ९९।
⋙ सरेनौ
क्रि० वि० [फ़ा०] नए ढंग से। पुनः शुरु से।
⋙ सरेबाजार
क्रि० वि० [फ़ा० सरे बाजार] बाजार में। जनता के सामने।२. खुलेआम। सबके सामने।
⋙ सरबाम
संज्ञा पुं० [फ़ा०] अटारी। कोठा [को०]।
⋙ सरेरा, सरेला
संज्ञा पुं० [देश०] १. पाल में लगी हुई रस्सी जिसे ढीला करने से पाल की हवा निकल जाती है। २. मछली की बंसी की डोरी। शिस्त।
⋙ सरेश
वि० संज्ञा पुं० [फ़ा०] दे० 'सरेस'।
⋙ सरेशाम
संज्ञा पुं० [फ़ा०] सायंकाल। संध्याकाल। संध्यामुख [को०]।
⋙ सरेशीर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] मलाई। सरशीर।
⋙ सरेस (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सरेश] एक लसदार वस्तु जो ऊट, गाय, भैस, आदि से चमड़े या मधली के पोटे को पकाकर निकालते हैं। सहरेस। सरेश। विशेष— यह कागज, कपड़े, चमड़े आदि को आपस में जोड़ने या चिपकाने के काम आता है। जिल्दबंदी में इसका व्यवहार बहुत होता है।
⋙ सरेस (२)
वि० चिपकनेवाला। लसीला।
⋙ सरेसमाही
संमज्ञा पुं० [फा़० सरेश-माही] सफेद या काले रंग का गोंद के समान एक द्रव्य। विशेष— यह एक प्रकार की मछ्ली के पेट से निकलता है जिसकी नाक लंबी होती है और जिसे नदी का सुअर कहते हैं। यह दुर्गंधयुक्त और स्वाद में कड़ुवा होता है।
⋙ सरोँट पु †
संज्ञा पुं० [सं० शाट+वर्त, हि० सिलवट] कपड़ों में पड़ी हुई सिलवट। शिकन। वली। चउ०— नट न सीस साबित भई लुटी मुखन की मोट। चुप करिए चारी करति सारी परी सरोँट। — बिहारी (शब्द०)।
⋙ सरो
संज्ञा पुं० [फ़ा० सर्व] एक सीधा पेड़ जो बगीचों में शोभा के लिये लगाया जाता है। बनझाऊ। विशेष— इस पेड़ का स्थान काश्मीर, अफगानिस्तान और फारस आदि एशिया के पश्चिमी प्रदेश हैं। फारसी की शायरी में इसका उल्लेख बहुत अधिक है। ये शायर नायिका के सीधे डीलडौल की उपमा प्रायः इसी से दिया करते हैं। यह पेड़बिलकुल सीधा ऊपर को जाता है। इसकी टहनियाँ पतली होती हैं और पत्तियों से भरो होने के कारण दिखाई नेहीं देतीं। पत्तियाँ टेढ़ी रेखाओं के जाल के रुप में बहुत घनी और सुंदर होती है। यह पेड़ झाऊ की जाती का है, और उसी के से फल भी इसमें लगते है।
⋙ सरोई
संज्ञा पुं० [हि० सरो ?] एक प्रिकार का बड़ा पेड़। विशेष— यह वृक्ष बहुत ऊँचा होता है। इसकी लकड़ी ललाई लिए सफेद होती है और चारपाइयाँ आदि बनाने के काम में आती है। इसकी छाल से रंग भी निकाला जाता है।
⋙ सरोकार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] [वि० सरोकारी] १. परस्पर व्यवहार का संबंध। २. लगाव। वास्ता। प्रोयोजन। मतलब।
⋙ सरोकारी
वि० [फ़ा०] सरोकार रखनेवाल [को०]।
⋙ सरोज पु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल। २. सारस पक्षी [को०]। पुं० ३. मुख। उ०— फूले सरोज बनाइ कै ऊपर तापर खंजन द्वै थिरकाइहौं। — भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० ३१। यौ०—सरोजखंड = कमलों का समूह। सरोजनयन। सरोजमुख। सरोजराग = पद्मराग। सरोजल।
⋙ सरोजना पु
क्रि० सं० [सं० सायुज्य] पाना। उ०— हम सालोक्य स्वरुप सरोज्यो रहत समीप सहाई। सो तजि कहत और की औरे तुम आलि बड़े अदाई। — सूर (शब्द०)।
⋙ सरोजमुखी
वि० स्त्री० [सं०] कमल के समान मुखवाली। सुंदरी। उ०— तो तन मनोज की हो मौज हे सरोजमुखी हाइभाइ साइकै रहे हैं सरसाइ कै। — भिखारी ग्रं०, भा० १ , पृ० ९३।
⋙ सरोजल
संज्ञा पुं० [सं०] तालाब का पानी [को०]।
⋙ सरोजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमलों से भरा हुआ ताल। कमल- पूर्ण सरसी। २. कमलों का समूह। कमलवन। ३. कमल का पौधा (को०)। ४. कमल का फूल।
⋙ सरोजी (१)
वि० [सं० सरोजिन्] [स्त्री० सरोजिनी] १. कमलवाला। २. जहाँ कमल हों।
⋙ सरोजी (२)
संज्ञा पुं० १. (कमल से उत्पन्न) ब्रह्मा। २. बुद्ध का एक नाम।
⋙ सरोतर †
वि० [सं० सर्वत्र, हिं० सरबत्तर] १. निरंतर। लगातार। अनवरत। उ०— रँग छनला जहाँ सरोतर चक। ऊ गुरुन क बनारसी बैठक। — खुदा की०। २. साफ। सुस्पष्ट।
⋙ सरोता †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'सरौता'।
⋙ सरोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] १. बकुला। वक पक्षी। २. सारस।
⋙ सरोद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. बीन की तरह का एक प्रकार का बाजा। विशेष— इसमें ताँत और लोहे के तार लगे रहते हैं और इसके आगे का हिस्सा चमड़ा से मढ़ा रहता है। २. नाचने गाने की क्रिया। गान और नृत्य।
⋙ सरोधा
संज्ञा पुं० [सं० स्वरोदय] श्वास के दाहिने या बाएँ नथने से निकलना देखकर भविष्य की बातें कहने की विद्या।
⋙ सरोपा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. सिर और पैर। २. सिरोपाव। खिलअत [को०]।
⋙ सरोरक्ष, सरोरक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] जलाशय की रक्षा करनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ सरोरुह
संज्ञा पुं० [सं०] कमल।
⋙ सरोला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मिठाई। विशेष— यह पोस्ते, छुहारे, बादाम आदि मेवों के साथ मैदे को घी और चीनी में पकाकर बनाई जाती है।
⋙ सरोवर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सरोवरी] १. तालाब। पोखरा। २. झील। ताल।
⋙ सरोवरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुष्करिशी। छोटी तलैया। सरसी। उ०— नाभि सरोवरी औ त्रिवली की तरंगनि पैरत ही दिन- राति है। — भिखारी ग्र० भा० २, पृ० १२९।
⋙ सरोविंदु
संज्ञा पुं० [सं० सरोविन्दू] एक प्रकार का वैदिक गीत।
⋙ सरोष
वि० [सं०] क्रोधयुक्त। कुपित। उ०— सुनि सरोष भृगुनायक आए। बहुत भाँति तिन आँखि देखाए। — मानस, १।२९३।
⋙ सरोस पु
वि० [सं० सरोष] दे० 'सरोष'।
⋙ सरोसामान
संज्ञा पुं० [फ़ा० सर+व+सामान] सामग्री। उपकरण। असबाब।
⋙ सरोही
संज्ञा स्त्री० [हि० सिरोही] दे० 'सिरोही'।
⋙ सरी (१)
संज्ञा पुं० [सं० शराव] १. कटोरी। प्याली। २. ढ्क्कन। ढकना।
⋙ सरौ (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० सरो] एक वृक्ष विशेष। दे० 'सरो'।
⋙ सरौट पु
संज्ञा स्त्री० [हि० सिलवट] दे० सरोट।
⋙ सरौता
संज्ञा [सं० सार (= लोहा)+पत्र; प्रा० सारवत्त] [स्त्री० अल्पा० सरौती] सुपारी काटने का औजार। विशेष— यह लोहे के दो खंड़ों का होता है। ऊपर का खंड गंड़सी की भाँति धारदार होता है और नीचे का मोटा, जिसपर सुपारी रखते हैं, दोनों खंड़ी के सिरे ढीली कील से जुड़े रहते हैं, जिससे वे उपर नीचे घूम सकते हैं। इन्हीं दोनों खंड़ों के बीच में रखकर और ऊपर से दबाकर सुपारी काटी जाती है।
⋙ सरौती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सरौता] छोटा सरौता।
⋙ सरौती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शरपत्नी] एक प्रकार की ईख जिसकी छड़ पतली होती है। विशेष— इस, ईख की गाँठें काली होती हैं और सब तना फेद होता है।
⋙ सर्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. मन। चित्त। २. वायु। ३. एक प्रजापति का नाम। ४. ब्रह्मा (को०)।
⋙ सर्करा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शर्करा] दे० 'शर्करा'। उ० — ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ बल ते न कोउ बिलगावै। — तुलसी ग्रं०, पृ० ५४२।
⋙ सर्कस
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह स्थान जहाँ जानवरों का खेल और शारीरिक शक्ति का करतब दिखाया जाता है। क्रिड़ांगन। २. वह मंडली जो पशुओं तथा नटों को साथ रखती है और खेल कूद के तमाशे दिखाती है।
⋙ सर्का
संज्ञा पुं० [अ० सर्क़हू] १. चोरी। २. दूसरे के भाव या लेख को चुरा लेने की क्रिया। साहित्यिक चोरी।
⋙ सर्कार
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'सरकार'।
⋙ सर्कारी
वि० [हि०] दे० 'सरकारी'।
⋙ सर्किट
संज्ञा पुं० [अं०] १. मंड़ल। परिधि। परिणाह। घेरा। २. परिभ्रमण। आवर्तन। यौ०— सर्किट हाउस = दे० 'सर्क्युट हाउस'।
⋙ सर्किल
संज्ञा पुं० [अ०] कई महल्लों, गाँवों या कसबों आदि का समुह जो किसी काम के लिये नियत हो। हलका। जैसे,— सर्किल अफसर, सर्किल इन्सपेक्टर। २. घेरा। वृत्त।
⋙ सर्क्युट हाउस
संज्ञा पुं० [अ०] दिले के प्रधान नगर में वह सरकारी मकान यो कोठी जहाँ, दौरा करते हुए उच्च राज्य कर्मचारी या बड़े अफसर लोग ठहरते हैं। सरकारी कोठी।
⋙ सर्क्यूलर
संज्ञा पुं० [अं०] १. गश्ती चिट्ठी। २. सरकारी आज्ञापत्र जो दप्तरों में घुमाया जाता है। ३. वह पत्र, विज्ञाप्ति या सूचना जो बहुत से व्यक्तियों के नाम भेजी जाय। गश्ती चिट्ठी।
⋙ सर्क्ष
वि० [सं०] ऋक्षयुक्त। नक्षत्रमंडित। नक्षत्रयुक्त [को०]।
⋙ सर्ग
वि० [सं०] १. गमन। गति। चलना या बढ़ना। २. संसार। सृष्टी। जगत् की उत्पत्ति। ३. बहाव। झोंक। प्रवाह। ४. छोड़ना। चलाना। फेंकना। ५. छोड़ा हुआ अस्त्र। ६. मूल। उदगम। उत्पत्ति स्थान। ११. प्रयत्न। चेष्टा। १२. संकल्प। १३. किसी ग्रंथ (विशेषतः काव्य) का अध्याय। प्रकरण। परिच्छेद। उ०— प्रथम सर्ग जो सेष रह, दूजे सप्तक होइ। तीजे दोहा जानिए सगुन बिचारब सोइ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ६७। १४. मोह। मूर्छा। १५. शिव का एक नाम। १६. धावा। हमला (सेना का)। १७. स्वीकृति (को०)। १८. युद्धोपकरण, शस्त्रादि का उत्पादन (को०)। १९. रुद्र का एक पुत्र (को०)। १०. जीव। प्राणी (को०)। २१. मलत्याग (को०)।
⋙ सर्ग पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ग] दे० 'स्वर्ग'। यौ०—सर्गपताली।
⋙ सर्गक
वि० [सं०] सर्जन करनेवाला। निर्माता (को०)।
⋙ सर्गकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० सर्गकर्तृ] सृष्टि निर्माता। स्रष्टा [को०]।
⋙ सर्गकालीन
वि० [सं०] जो सृष्टिनिर्माण के काल का यो उससे संबद्ध हो [को०]।
⋙ सर्गक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] सृष्टि का सिलसिला। सर्ग का क्रम [को०]।
⋙ सर्गपताली
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ग+पाताल+हिं० ई (प्रत्य०)] १. जिसकी आँखें ऐंची हों। ऐचाताना। २. वह बैल जिसका एक सींग ऊपर की ओर उठा हो और दूसरा नीचे की ओर झुका हो।
⋙ सर्गपुट
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध राग का एक भेद।
⋙ सर्गबंध
वि० [सं० सर्गबन्ध] जो कई अध्यायों या सर्गों में विभक्त हो। जैसे,—सर्गबंध काव्य।
⋙ सर्गुन ‡
वि० [सं० सगुण] दे० 'सगुण'।
⋙ सर्चलाइट
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार की बहुत तेज बिजली की रोशनी जिसका प्रकाश रिफलेक्टर या प्रकाश-परिवर्तक द्वारा लंबाई में बहुत दूर तक जाता है। अन्वेषक प्रकाश। प्रकाश प्रक्षेपक। विशेष— इसका प्रकाश इतना तेज होता है कि आँखे सामने नहीं ठहरतीं और दूर तक की चीजैं साफ दिखाई देती हैं। दुर्घटना के बचाव के लिये पहले प्रायः जाहाजों पर इसका उपयोग होता था; पर आजकल मेल, एक्सप्रेस आदि ट्रेनों के इंजिनों के आगे भी यह लगी रहती है।
⋙ सर्ज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ी जाति का शाल वृक्ष। अजकण वृक्ष। २. राल। धूना। करायल। ३. शल्लकी वृक्ष। सलई का पेड़। ४. विजयसाल का पेड़। असन वृक्ष। यौ०—सर्जनिर्यास, सर्जनिर्यासिक = दे० 'सर्जमणि'। सर्जरस।
⋙ सर्ज (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार का बढ़िया मोटा ऊनी कपड़ा जो प्रायः कोट आदि बनाने के काम में आता है।
⋙ सर्जक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बडा़ शाल वृक्ष। २. विजयसाल। ३. सलई का पेड़। ४. मट्ठा छोड़ने पर गरम दूध का फटाव।
⋙ सर्जन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० सर्जनीय, सर्जित] १. छोड़ना। त्याग करना। फेकना। ३. निकलना। ४. सृष्टि का उत्पन्न होना। सृष्टि। ४. निर्माण। ५. सेना का पिछला भाग। ६. ठीला करना (को०)। ७. मलत्याग (को०)।८. साल का गोंद।
⋙ सर्जन (२)
संज्ञा पुं० [अं०] अस्त्र चिकित्सा करनेवाला। चीर फाड़ करनेवाला डाक्टर। जरहि।
⋙ सर्जना
संज्ञा स्त्री० [सं०] रचना। निर्माण। सृष्टी [को०]।
⋙ सर्जनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुदा की वलियों में से बीचबाली वली जो मल, पवनादि निकालती है।
⋙ सर्जमणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोचरस। सेमल का गोंद। २. राल। धूना। करायल।
⋙ सर्जरस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सर्जमणि' [को०]।
⋙ सर्जरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] चीर फाड़ करके चिकित्सा करने की क्रिया या विद्या। शल्य चिकित्सा।
⋙ सर्जि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सज्जी।
⋙ सर्जिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सज्जी खार।
⋙ सर्जिकाक्षार, सर्जिक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] सज्जी। क्षार।
⋙ सर्जी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सर्जि'
⋙ सर्जु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वणिक। व्यापारी। २. दे० 'सर्जू'।
⋙ सर्जु (२)
संज्ञा स्त्री० विद्युत्। बिजली।
⋙ सर्जू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वणिक्। व्यापारी। २. गले का हार। कंठहार। ३. गमन। अनुसरण (को०)।
⋙ सर्जू (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'सर्जु (२)'।
⋙ सर्जू पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० सरयू] दे० 'सरयू'।
⋙ सर्जूर
संज्ञा पुं० [सं०] दिन।
⋙ सर्जेट
संज्ञा पुं० [अं०] दे०] 'सारजंट'।
⋙ सर्ज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. राल। धूना [को०]।
⋙ सर्टिफिकेट
संज्ञा पुं० [अं० सर्टिफ़िकेट] १. परीक्षा में उत्तीर्ण होने का प्रमाणपत्र। सनद। २. चाल चलन, स्वास्थ, योग्यत आदि का प्रमाणपत्र।
⋙ सर्णसि, सर्णीक
संज्ञा पुं० [सं०] जल। पानी [को०]।
⋙ सर्त
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शर्त] दे० 'शर्त'।
⋙ सर्ता
संज्ञा पुं० [सं० सर्तृ] घोड़ा।
⋙ सर्द
वि० [फ़ा०] १. ठंढा। शीतल। २. सुस्त। काहिल। ढीला। ३. मंद। धीमा। यो०—सर्द गर्म = (१) ऊँच नीच। (२) काल या दशा का परिवर्तन। सर्दबाई। सर्दबाजारी = बाजार में वस्तुओं की माँग का अभाव। सर्दमिजाज। मुहा०—सर्द होना = (१) ठंडा पड़ना। शीलत होना। (२) मरकर तमाम हो जाना। (३) मंद हो जाना। धीमा हो जाना। (४) उत्साह रहित होना। चुप हो जाना। दब जाना। ४. नपुंसक। नामर्द। ५. बेस्वाद। बेमजा।
⋙ सर्दई
वि० [पं० सर्दा+ई (प्रत्य०)] सर्दा के रंग का। हरिताभा- युक्त पीले रंगवाला।
⋙ सर्दबाई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सर्द+हि० बाई] हाथी की एक बीमारी जिसमें उसके पैर जकड़ जाते है।
⋙ सर्दमिजाज
वि० [फ़ा० सर्द + मिजाज] १. मुर्दा दिल। जिसमें शील न हो। बेमुरौवत। रुखा।
⋙ सर्दा
संज्ञा पुं० [पं०] बढ़िया जाति का लंबोतरा खरबूजा जो काबुल से आता है।
⋙ सर्दाबा
संज्ञा पुं० [फ़ा० सर्दाबह्] १. तहखाना। तलगृह (को०)। २. कब्र। समाधि।
⋙ सर्दार
संज्ञा पुं० [फ़ा० सरदार] दे० 'सरदार'।
⋙ सर्दी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. सर्द होने का भाव। ठंढापन। शीतलता। २. जाड़ा। शीत। मुहा०—सर्दी पड़ना = जाड़ा होना। सर्दी खाना = ठंढ़ सहना। शीत सहना। सर्दी लगना = सर्दी खाना। ३. जुकाम। क्रि० प्र० —होना।
⋙ सर्प
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सर्पिणी] १. रेंगना। २. साँप। यौ०—सर्प्रकंकलिका= दे० 'सर्पकंकाली'। सर्प कोटर = साँप का बिल। सर्पदंश = साँप का काटना। सर्पदष्ट = (१) वह जिसे साँप ने काटा हो। सर्प द्वारा दष्ट। (२) साँप का काटना। सर्पधारक = सँपेरा। सर्पनामा = दे० 'सर्पकंकाली'। सर्पनिर्मीचन =केचुल। सर्पफण, सर्पफणा = साँप का फन। सर्पबलि = साँपों को दी जानेवाली बलि या उपहार। सर्पभृता = पृथ्वी। धरित्री। सर्पमणि = वह मणि या रत्न जो सर्प के सिरपर पाया जाता है। सर्पविद् = सँपेरा। सर्पविवर = साँप का बिल। सर्पवेद = दे० 'सर्प विद्या'। सर्पव्या्पादन = (१) साँप द्वारा काटे जाने से मरना। (२) सर्प का व्यापादन। साँपों को मारना। ३. ज्योतिष में एक प्रकार का बुरा योग। ४. नागकेसर। ५. ग्यारह रुद्रों में से एक। ६. एक म्लेच्छ जाति। ७. सरण। गमन (को०)। ८. वक्र या कुटिल गति (को०)। ९. आश्लेषा नक्षत्र (को)। १०. एक राक्षस (को०)।
⋙ सर्पकंकालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पकङ्कलिका] सर्प लता।
⋙ सर्पकाल
संज्ञा पुं० [सं०] साँपों का काल, गरुड़। उ०— सर्पकाल कालीगृह आए। खगपति बलि बलात सो खाए। — गोपाल (शब्द०)।
⋙ सर्पगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पगन्धा] १. गंध नाकुली। २. नकुल कंद। नाकुली। ३. नागदवन नामक जड़ी।
⋙ सर्पगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सर्प की गति। २. कुटिल गति। कपट की चाल।
⋙ सर्पगृह
संज्ञा पुं० [सं०] साँप का घर। बाँबी।
⋙ सर्पघातिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरहँटी। सर्पाक्षी।
⋙ सर्पच्छत्र, सर्पच्छत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] छत्राक। खुमी। कुकरमुत्ता।
⋙ सर्पेछिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] [सर्प+हि० छिद्र] साँप का बिल। बाँबी।
⋙ सर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० सर्पित, सर्पणीय] १. रेंगना। सरकना। २. धीरे धीरे चलना। ३. छोड़े हुए तीर का भूमि से लगा हुआ जाना। ४. कुटिल या वक्र गति [को०]।
⋙ सर्पतनु
संज्ञा पुं० [सं०] बृहती का एक भेद।
⋙ सर्पतृण
संज्ञा पुं० [सं०] नकुल कंद।
⋙ सर्पदंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पदण्डा] सिरहली पीपल।
⋙ सर्पदंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पदण्डी] १. गोरक्षी। गोरख इमली। २. गँकरेन। नागबला।
⋙ सर्पदंता
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पदन्ता] सिंहली पीपल।
⋙ सर्पदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पदन्ती] नागदंती। हाथी शुंडी।
⋙ सर्पदंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. सांप का दंत। २. जमालगोटा।
⋙ सर्पदंष्ट्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दांती। उदुंबर पर्णी।
⋙ सर्पदंष्ट्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजशृंगी। विषाणी [को०]।
⋙ सर्पदंष्ट्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वृश्चिकाली। २. दंती। उदुंबर- पर्णी। ३. बिंछुआ। वृश्चिका।
⋙ सर्पदमनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंध्या कर्कोटकी [को०]।
⋙ सर्पद्विट, सपंद्विष
संज्ञा पुं० [सं०] मोर। मयूर।
⋙ सर्पनेत्रा
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्पाक्षी। २. गंधनाकुली।
⋙ सर्पपति
संज्ञा पुं० [सं०] शेषनाग।
⋙ सर्पपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागदंती। २. बाँझ खेखसा।
⋙ सर्पप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] चंदन।
⋙ सर्पफणज
संज्ञा पुं० [सं०] सर्पमणि।
⋙ सर्पफेण
संज्ञा पुं० [सं०] अफीम। अहिफेन।
⋙ सर्पबंध
संज्ञा पुं० [सं० सर्पबन्ध] कुटिल या पेचोली चाल।
⋙ सर्पबेलि
संजा स्त्री० [सं०] नागबल्ली। पान।
⋙ सर्पभक्षक
संजा पुं० [सं०] १. नकुल कंद। नाकुली कंद। २. मोर। मयूर पक्षी।
⋙ सर्पभुक्, सर्पभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] १. नकुल कंद। २. मोर। मयूर। ३. सारस पक्षी। ४. एक प्रकार का बहुत बड़ा साँप [को०]।
⋙ सर्पमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरहँटी। सर्पाक्षी।
⋙ सर्पयज्ञ, सर्पयाग
संज्ञा पुं० [सं०] एक यज्ञ जो नागों के संहार के लिये जमेजय ने किया था।
⋙ सर्पराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्पों के राजा, शेषनाग। २. वासुकि।
⋙ सर्पलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागवल्ली। पान।
⋙ सर्पवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागवल्ली। पान।
⋙ सर्पविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] सांप को पकड़ने या उन्हें वश में करने की विद्या।
⋙ सर्पव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] सेना का एक प्रकार का व्यूह जिसकी रचना सर्प के आकार की होती थी।
⋙ सर्पशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की इँट जो यज्ञ की वेदी बनाने के काम में आती थी। २. तांत्रिक पूजा में हाथ और पंजे की एक मुद्रा।
⋙ सर्पसत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सर्पयज्ञ'।
⋙ सर्पसत्री
संज्ञा पुं० [सं० सर्पसत्रिन्] राजा जनमेजय का एक नाम जिन्होंने सर्पयज्ञ किया था।
⋙ सर्पसुगधा,सर्पसुगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पसुगन्धा, सर्पसुगन्धिका] सर्पगंधा। गंधनाकुली।
⋙ सर्पसहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरहँटी। सर्पाक्षी।
⋙ सर्पसारो व्युह
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह भोगव्युह जिसमें पक्ष, कक्ष तथा उरस्य विषम हों।
⋙ सर्पहा (१)
संज्ञा पुं० [सं० सर्पहन्] १. सर्प को मारनेवाला। नेवला। २. गरूड़ (को०)।
⋙ सर्पहा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंड़ेनी। सरहँटी। सर्पाक्षी।
⋙ सर्पांगी
संज्ञा स्त्री०[सं० सर्पाङ्गी] १. सरहँटी। २. सिंहली पीपल। ३. नकुल कंद।
⋙ सर्पांत
संज्ञा पुं० [सं० सर्पान्त] गरूड़ का एक पुत्र [को०]।
⋙ सर्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साँपिन। सर्पिणी। २. फणिलता।
⋙ सर्पाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. रूद्राक्ष। शिवाक्ष। २. सर्पाक्षी। सरहँटी।
⋙ सर्पाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरहँटी। २. गंधनाकुली। ३. सर्पिणी। ४. श्वेत अपराजिता। ५. शंखिनी।
⋙ सर्पाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] नाग केसर।
⋙ सर्पादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंधनाकुली। गंध रास्ना। रास्ना। २. नकुल कंद।
⋙ सर्पाभ
वि० [सं०] १. साँप जैसे रंगवाला। २. जो साँप की तरह का हो [को०]।
⋙ सर्पाराति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सर्पारि' [को०]।
⋙ सर्पारि
संज्ञा पुं० [सं०] सर्पों का शत्रु। १. गरुड़। २. नेवला। ३. मयूर। मोर।
⋙ सर्पावास
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्पो के रहने का स्थान। बाँबी। २. चंदन। मलयज्ञ। संदल।
⋙ सर्पाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मयूर। मोर। २. गरुड़।
⋙ सर्पास्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसका मुँह साँप की तरह हो। साँप के समान मुखवाला। २. खर नामक राक्षस का एक सेनापति जिसे राम ने युद्ध में मारा था।
⋙ सर्पास्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक योगिनी का नाम [को०]।
⋙ सर्पि
संज्ञा पुं० [सं०] १. घृत। घी। २. एक वैदिक ऋषि का नाम। यौ०—सर्पिमंड़ = घी का मट्ठा या फेन। सर्पिसमुद्र = घी का समुद्र।
⋙ सर्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा साँप। २. एक नदी का नाम।
⋙ सर्पिणी
संज्ञा स्त्री०[सं०] १. साँपिन। मादा साँप। २. भुजगी लता। विशंष—यह सर्प के आकार की होती है और इसमें विष का नाश करने और स्तनों को बढ़ाने का गुण होता है।
⋙ सर्पित
संज्ञा पुं० [सं०] साँप के काटने का क्षत। सर्पदंश।
⋙ सर्पिरव्धि
संज्ञा पुं० [सं०] घृत का सागर।
⋙ सर्पिर्मंड
संज्ञा पुं० [सं० सर्पिर्मण्ड] पिघले हुए मक्खन का फेन।
⋙ सर्पिर्मेही
संज्ञा पुं० [सं० सर्पिमेहिन्] एक प्रकार के प्रमेह रोग से ग्रस्त व्यक्ति।
⋙ सर्पिल
वि० [सं०] साँप के समान [को०]।
⋙ सर्पिष्क
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सर्पिस्'।
⋙ सर्पिष्कुंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पिष्कुण्डिक] घी रखने का पात्र। घृतकुंभ।
⋙ सर्पिष्मान्
वि० [सं० सर्पिष्मत्] घृताक्त। घी से तर [को०]।
⋙ सर्पिस्
संज्ञा पुं० [सं० सर्पिष्] घृत। घी।
⋙ सर्पी (१)
वि० [सं० सर्पिन्] [सं० सर्पिणी] रेंगनेवाला। धीरे धीरे चलनेवाला।
⋙ सर्पी (२)
संज्ञा पुं० [सं० सर्पिन्] दे० 'सर्पि' या 'सर्पिस्'।
⋙ सर्पेंट
संज्ञा पुं० [अं०] साँप। सर्प।
⋙ सर्पेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वासुकि का नाम जो साँपों के राजा हैं [को०]।
⋙ सर्पेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] चंदन।
⋙ सर्पोन्माद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का उन्माद जिसमें मनुष्य सर्प की भाँति लोटता, जीभ निकालता और क्रोध करता है। इसमें गुड़, दूध आदि खाने की अधिक इच्छा होती है।
⋙ सर्फ
संज्ञा पुं० [अ० सर्फ़] १. व्यय। खर्च। जैसे,—इस काम में सौ रुपए सर्फ हो गए। २. उपयोग। इस्तेमाल (को०)। ३. व्याकरण में पदव्याख्या। वाक्यविश्लेषण (को०)।
⋙ सर्फा
संज्ञा पुं० [फा़० सर्फ़ह्] १. खर्च। व्यय। २. लाभ। नफा। मुनाफा (को०)। ३. अधिक व्यय। अपव्यय (को०)। ४. कंजूसी। कृपणता (को०)। ५. सत्ताइस नक्षत्रों में १२ वाँ नक्षत्र। उत्तराफाल्गुनी (को०)। ६. इंसाफ। न्याय (को०)।
⋙ सर्फी
वि० [अ० सर्फी़] सर्फ अर्थात् पदव्याख्या, वाक्यविश्लेषण आदि का ज्ञाता। व्याकरण जाननेवाला [को०]।
⋙ सर्बस पु
वि० [सं० सर्वस्व]दे० 'सरबस'।
⋙ सर्म पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० शर्म] दे० 'शर्म'। कल्याण। देहि अवलंब न विलंब अंभोजकर चक्रधर तेज बल सर्म रासी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ सर्म (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गति। गगन। २. आकाश। व्योम। ३. स्वर्ग [को०]।
⋙ सर्म (३)
संज्ञा पुं० [सं० शर्मन्] प्रसन्नता। आनंद। खुशी [को०]।
⋙ सर्मक
संज्ञा पुं० [अ० सर्मक्] एक साग। वास्तुक। बथुआ [को०]।
⋙ सर्मा
संजा पुं० [फ़ा०] शीत ऋतु। शीत काल [को०]।
⋙ सर्माई
वि० [फ़ा०] शीत ऋतु का। जाड़े का। जैसे, कपड़ा, पहनावा [को०]।
⋙ सर्रा
संज्ञा पुं० [अनु० सर सर] लोहे या लकड़ी की छड़ जिसपर गराड़ी घूमती है। धुरी। धुरा।
⋙ सर्राफ
संज्ञा पुं० [अ० सर्राफ़] १. सोने चाँदी या रुपए पैसे का व्यापार करनेवाला। २. बदले के लिये पैसे, रुपए आदि लेकर बैठनेवाला। मुहा०—सर्राफ के से टके = वह सौदा जिसमें किसी प्रकार की हानि न हो। ३. धनी। दौलतमंद। ४. पारखी। परखनेवाला।
⋙ सर्राफ नानुआ
संज्ञा पुं० [अ० सर्राफ़ + ?] विवाह आदि शुभ अवसरों पर कोठीवालों या महाजनों का नौकरों को मिठाई, रुपया पैसा आदि बाँटना।
⋙ सर्राफा
संज्ञा पुं० [अ० सर्राफ़ह्]दे० 'सराफा'।
⋙ सर्राफी
संज्ञा स्त्री० [अ० सर्राफ़ी]दे० 'सराफी'।
⋙ सर्व (१)
वि० [सं०] सारा। सब। समस्त। तमाम। कुल। यौ०—सर्पकांचन = पूरा सोने का बना हुआ। सर्वकाम्य = (१) जिसकी प्रत्येक व्यक्ति इच्छा करे। (२) सर्वप्रिय। सर्वकृत् = सर्वोंत्पादक। ब्रम्हा। सर्वकृष्ण = अत्यंत काला। सर्वक्षय = संपूर्ण प्रलय या विनाश। सर्वक्षित् = जो सब में हो। सर्वजन = सब लोग। सर्वज्ञाता = सब कुछ जाननेवाला। सर्वत्याग = संपूर्ण का त्याग। सर्वपति, सर्वप्रभु = सबका स्वामी। सर्वप्राप्ति = सब कुछ प्राप्त होना। सर्वभयंकर = सबको भय पैदा करनेवाला। सर्वभोगीन, सर्वभोग्य = जिसका उपभोग सभी कर सकें। जो सबके लिये भोग्य हो। सर्वमंगल = सबके लिये मंगलकारक या शुभ। सर्वमहान् = सर्वश्रेष्ठ। जो सबसे महान हो। सर्वरक्षण = जो सब का रक्षण करे या सबसे रक्षा करनेवाला। सर्वरक्षी = सबकी सुरक्षा करनेवाला। सर्ववल्लभ = सबका प्यारा। जो सबको प्रिय हो। सर्ववातसह = पोत या यान जो सभी प्रकार की वायु को सहन करने में सक्षम हो। सर्ववादिसम्मत = जिससे सभी सहमत हों। सर्व- वासक = पूर्णतः वस्त्राच्छदित। सर्वविज्ञान = सभी विषयों का ज्ञान। सर्वविज्ञानी = सभी विषयों का ज्ञाता। सर्वविनाश = सर्वनाश। सर्वविषय = जो सब विषयों से संबद्ध हो। सर्ववीर्य = समग्र शक्ति से युक्त। सर्वशंका = सब के प्रति शक की भावना। सर्वशक = दे० 'सर्वशक्तिमान्'। सर्वशास्त्री = सभी प्रकार के शस्त्रों से युक्त। सर्वशीघ्र = जो सबसे तीव्र या तेज हो। सर्वश्राव्य = जिसे सभी लोग सुन सके। सर्वसंपन्न = जो सभी चीजों में संपन्न या युक्त हो।
⋙ सर्व (२)
संज्ञा पुं० १. शिव का एक नाम। २. विष्णु का एक नाम। ३. पारा। पारद। ४. रसौत। ५. शिलाजतु। सिलाजीत। ६. एक मुनि का नाम (को०)। ७. जल (को०)। ८. एक जनपद (को०)।
⋙ सर्व (३)
संज्ञा पुं० [अ०] एक वृक्ष। दे० 'सरो' [को०]।
⋙ सर्वक
वि० [सं०] सब समस्त। पूरा। तमाम। कुल। समग्र [को०]।
⋙ सर्वकर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ सर्वकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० सर्वकर्त्तृ] १. ब्रह्मा। २. ईश्वर (को०)।
⋙ सर्वकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० सर्वकर्मन्] शिव [को०]।
⋙ सवकर्मीण
वि० [सं०] सब कार्य करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वकाम
संज्ञा पुं० [सं०] १. सब इच्छाएँ रखनेवाला। २. सब इच्छाएँ पूरी करनेवाला। ३. शिव का एक नाम। ४. एक बृद्ध या अहंत् का नाम। यौ०—सर्वकामगम = इच्छानुसार सभी जगह गमन करनेवाला। सर्वकामद। सर्वकामदुध = सभी कामनाएँ पूर्ण करनेवाला। सर्वकामवर।
⋙ सर्वकामद
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सर्वकामदा] सब कामनाएँ पूरी करनेवाला।
⋙ सर्वकामद (२)
संजा पुं० शिव [को०]।
⋙ सर्वकामवर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ सर्वकामिक
वि० [सं०] १. सारी इच्छाएँ पूरी करनेवाला। २. जिसकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गई हो [को०]।
⋙ सर्वकामी
वि० [सं० सर्वकामिन्] सभी इच्छाएँ पूर्ण करनेवाला। २. जिसकी सभी इच्छाएँ पूर्ण हो। ३. स्वेच्छा से काम करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वकारी
वि० [सं० सर्वकारिन्] १. जो सब कुछ करने में समर्थ हो। २. सबका निर्माण करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वकाल
क्रि० वि० [सं०] हर समय। सब दिन। सदा।
⋙ सर्वकालप्रसाद
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ सर्वकालिक, सर्वकालीन
वि० [सं०] सब समय या काल का [को०]।
⋙ सर्वकेशी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वकेशिन्] अभिनेता। एक्टर। नट [को०]।
⋙ सर्वकेसर
संज्ञा पुं० [सं०] बकुल वृक्ष या पुष्प। मौलिसिरी।
⋙ सर्वक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोखा। मुष्कक वृक्ष। २. एक प्रकार का क्षार। महाक्षार (को०)। ३. सब कुछ नष्ट कर देना या काम लायक न रहने देना। यो०—सर्वक्षारनीति = युद्ध में सेना द्वारा पीछे हटते हुए सब समान नष्ट कर देना जिसमें शत्रुपक्ष उसका उपयोग न कर सके और उसे आगे बढ़ने में बाधा हो।
⋙ सर्वगंध
संज्ञा पुं० [सं० सर्वगन्ध] १. दाल चीनी। गुडत्वक्। २. एला। इलायची। ३. तेजपात। ४. नागकेसर। नागपुष्प। ५. शीतल चीनी। ६. लौंग। लवंग। ७. अगर। अगरु। ८. शिलारस। ९. कर्पूर। १०. वह जो सभी प्रकार के गंध से युक्त हो। ११. केसर।
⋙ सर्वगंधिक
संज्ञा पुं० [सं० सर्वगन्धिक] दे० 'सर्वगंध' [को०]।
⋙ सर्वग (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सर्वगा] जिसकी गति सब जगह हो। जो सब जगह जा सके। सर्वव्यापक।
⋙ सर्वग (२)
संज्ञा पुं० १. पानी। जल। २. जीव। आत्मा। ३. ब्रह्म। ४. शिव का एक नाम।
⋙ सर्वगण
संज्ञा पुं० [सं०] खारी मिट्टी। रेह।
⋙ सर्वगत
वि० [सं०] जो सब में हो। सर्वव्यापक।
⋙ सर्वगति
वि० [सं०] जिसकी शरण सब लोग हों। जो सबकी गति हो। जिसमें सब आश्रय ले।
⋙ सर्वगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रियंगु क्षुप।
⋙ सर्वगामी
वि० [सं० सर्वगामिन्]दे० 'सर्वग'।
⋙ सवग्रथि
संज्ञा पुं० [सं० सर्वग्रन्थि] पीपला मूल।
⋙ सवग्रीथक
संज्ञा पुं० [सं० सर्वग्रन्थिक] दे० 'सवग्रथि'।
⋙ सवग्रह
संज्ञा [सं०] एक बार में सब कुछ भक्षण करनेवाला [को०]।
⋙ सवग्रहापहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदमना। नागदीन।
⋙ सवग्रास
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्र या सूर्य का वह ग्रहण जिसमें उनका मंडल पूर्ण रुप से छिप जाता है। पूर्ण ग्रहण। खग्रास ग्रहण। २. वह जो सब कुछ खा जाय, बचा न रहन दे।
⋙ सर्वचक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्धा को एक तांञिक देवी।
⋙ सर्वचमीण
वि० [सं०] १. जो पूर्णतः चमानामतहा। २. जिसमे सभी प्रकार का चमड़ लग हो [को०]।
⋙ सर्वचारी (१)
वि० [सं० सवचारन्] [वि० स्त्री० सर्वचारिणी] सब मे रमनवाला। व्यापक।
⋙ सर्वचारी (२)
संज्ञा पुं० शिव का एक नाम।
⋙ सवच्छंदक
वि० [सं० सवच्छन्दक] सबका अनुकुल या वंशीभूत करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वज
वि० [सं०] जो त्रिदोष के कारण उद्भूत हो [को०]।
⋙ सवजन
संज्ञा पुं० [सं०] सभी जन। सब लोग [को०]।
⋙ सवजनप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ऋद्धि नामक अष्टवर्गीय ओषधि। २. वेश्या, जो सभी लोगो की प्रिया है।
⋙ सर्वजनीन
वि० [सं०] १. सब लोगों से संबंध रखनेवाला। सब का। सार्वजनिक। २. विश्वव्यापी। प्रसिद्ध (को०)। ३. सबका हितकारी। सबका कल्याण करनेवाला (को०)।
⋙ सर्वजनीय
वि० [सं०] दे० 'सर्वजनीन'।
⋙ सर्वजया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सबजय नाम का पौधा जो बगीचों में फूलों के लिये लगाया जाता है। देवकली। २. मार्गशीर्ष महीने में होनेवाला स्त्रियों का एक प्राचीन पर्व।
⋙ सर्वजित् (१)
वि० [सं०] १. सबको जीतनेवाला। २. सबसे बढ़ा चढ़ा। सबसे श्रेष्ठ या उत्तम।
⋙ सर्वजित् (२)
संज्ञा पुं० १. साठ संवत्सरों में से इक्कीसवाँ संवत्सर। २. मृत्यु। काल। ३. एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
⋙ सर्वजीव
संज्ञा पुं० [सं०] सब की आत्मा। सर्वात्मा [को०]।
⋙ सर्वजीवी
वि० [सं० सर्वजीविन्] जिसके पिता, पितामह और प्रपिता- मह तीनों जीते हों।
⋙ सर्वज्ञ (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सर्बज्ञा] सब कुछ जाननेवाला। जिसे कुछ अज्ञात न हो।
⋙ सर्वज्ञ (२)
संज्ञा पुं० १. ईश्वर। २. देवता। सुर। ३. बुद्ध या अर्हत्। ४. शिव का एक नाम।
⋙ सर्वज्ञतर
संज्ञा स्त्री० [सं०] सर्वज्ञ होने का भाव।
⋙ सर्वज्ञत्व
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वज्ञ होने का भाव। सर्वज्ञता।
⋙ सर्वज्ञा (१)
वि० स्त्री० [सं०] सब कुछ जाननेवाली।
⋙ सर्वज्ञा (२)
संज्ञा स्त्री० १. दुर्गा देवी। २. एक योगिनी।
⋙ सर्वज्ञाता
वि० [सं० सर्वज्ञातृ]दे० 'सर्वज्ञ'।
⋙ सर्वज्ञानी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वज्ञानिन्] वह जो सबकुछ जानता हो। सबकुछ जाननेवाला। सर्वज्ञ।
⋙ सर्वज्यानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सब वस्तुओं की हानि। सर्वनाश।
⋙ सर्वतंत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं० सर्वतन्त्र] १. सर्व प्रकार के शास्त्र सिद्धांत। २. वह जिसने सभी शास्त्रों को पढ़ा हो और उनमें निष्णात हो। यो०—सर्वतंत्र स्वतंत्र = सभी तंत्र या शास्त्र जिसके लिये अपना शास्त्र हो। जो सभी तंत्रों में निष्णात हो।
⋙ सर्वतंत्र (२)
वि० दे० जिसे सब शास्त्र मानते हों। सर्वशास्त्रसंमत। जैसे,—सर्वतंत्र सिद्धांत।
⋙ सर्वतः
अव्य० [सं० सर्वतस्] १. सब ओर। चारों तरफ। २. सब प्रकार से। हर तरह से। ३. पूरी तरह से। पूर्ण रूप से। यौ०—सर्वतः पणिपाद = जिसके हाथ पाँव सब ओर हों। सर्वतः शुभा।
⋙ सर्वतःशुभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कँगनी नाम का अनाज। काकुन। प्रियंगु।
⋙ सर्वतमोनुद
वि० [सं०] (सूर्य) जो समग्र अंधकार को हटाने या दूर करनेवाला है।
⋙ सर्वतश्चक्षु
वि० [सं० सर्वतश्चक्षुष्] जिसकी दृष्टि चारों ओर हो। जो सर्वत्र सब कुछ देखता हो।
⋙ सर्वतापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. (सबको तपानेवाला) सूर्य। २. कामदेव।
⋙ सर्वतिक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भंटाकी। बरहंटा। २. मकोय। काकमाची।
⋙ सर्वतूर्यनिनादी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वतूर्यनिनादिन्] शिव [को०]।
⋙ सर्वतोगामी
वि० [सं० सर्वतोगामिन्] जो सभी दिशाओं में जा सके। सब जगह गमन करनेवाला। सर्वव्यापी [को०]।
⋙ सर्वतोदिश
क्रि० वि० [सं०] चारों ओर। चतुर्दिक्।
⋙ सर्वतोधार
वि० [सं०] जिसमें सर्वत्र तेज धार हो।
⋙ सर्वतोधुर
वि० [सं०] जो सब ओर शीर्षस्थानीय हो।
⋙ सर्वतोभद्र (१)
वि० [सं०] १. सब ओर से मंगल। सर्वाश में शुभ य़ा उत्तम। २. जिसके सिर, दाढ़ी, मूँछ आदि सब के बाल मुड़े हों।
⋙ सर्वतोभद्र (२)
संज्ञा पुं० १. वह चौखूँटा मंदिर जिसके चारों ओर दरवाजे हों। २. युद्ध में एक प्रकार का व्यूह। ३. एक प्रकार का चौखूँटा मांगलिक चिह्न जो पूजा के वस्त्र पर बनाया जाता है। ४. एक प्रकार का चित्रकाव्य। ५. एक प्रकार की पहेली जिसमें शब्द के खंडाक्षरों के भी अलग अलग अर्थ लिए जाते हैं। ६. विष्णु का रथ। ७. बाँस। ८. एक गंध- द्रव्य। ९. वह मकान जिसके चारों ओर परिक्रमा का स्थान हो। १०. एक वन का नाम (को०)। ११. एक पर्वत (को०)। १२. इस नाम का एक चक्र (ज्यौतिष)। १३. देवताओं का एक वन (को०)। १४. मुंडन कराना। क्षौरकर्म कराना। १५. हठ योग में बैठने का एक आसन या मुद्रा। १६. नीम का पेड़।
⋙ सर्वतोभद्रकछेद
संज्ञा पुं० [सं० सर्वतोभद्रकच्छेद] भगंदर की चिकित्सा के लिये अस्त्र से लगाया हुआ चौकोर चीरा।
⋙ सर्वतोभद्रचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में शुभाशुभ फल जानने का एक चौखूँटा चक्र [को०]।
⋙ सर्वतोभद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काश्मरी वृक्ष। गंभारी। २. अभिनेत्री। अभिनय करनेवाली। नर्तकी। नटी।
⋙ सर्वतोभद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] काश्मरी वृक्ष। गंभारी। गम्हार वृक्ष।
⋙ सर्वतोभाव, सर्वतोभावेन
अव्य० [सं०] सर्व प्रकार से। संपूर्ण रूप से। अच्छी तरह। भली भाँति।
⋙ सर्वतोभोगी
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह वश्य मित्र जो अमित्रों, आसारों, (संगी साथियों), पड़ोसियों तथा जांगलिकों से रक्षा करे।
⋙ सर्वतोमुख (१)
वि० [सं०] १. जिसका मुँह चारों ओर हो। २. जो सब दिशाओं में प्रवृत्त हो। ३. पूर्ण व्यापक।
⋙ सर्वतोसुख (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार की व्यूह रचना। २. जल पानी। ३. आत्मा। जीव। ४. ब्रह्म। ५. ब्रह्मा (जिनके चार मुँह हैं)। ६. ब्राह्मण। विप्र (को०)। ७. शिव। ८. अग्नि। ९. स्वर्ग। १०. आकाश
⋙ सर्वतोमुखी
वि० स्त्री० [सं० सर्वतोमुख] दे० 'सर्वतोमुख'। जैसे,— आपकी प्रतिभा सर्वतोमुखी है।
⋙ सर्वतोवृत्त
वि० [सं०] सर्वव्यापक।
⋙ सर्वत्र
अव्य० [सं०] १. सब कहीं। सब जगह। हर जगह। २. हर काल में हमेशा।
⋙ सर्वत्रग (१)
वि० [सं०] सर्वगामी। सर्वव्यापक।
⋙ सर्वत्रग (२)
संज्ञा पुं० १. वायु। २. मनु के एक पुत्र का नाम। ३. भीम- सेन के एक पुत्र का नाम।
⋙ सर्वत्रगत
वि० [सं०] जो सब जगह पहुँचा हो [को०]।
⋙ सर्वत्रगामी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वत्रगामिन्] १. वह जो सर्वत्र गमनशील हो। २. वायु। हवा।
⋙ सर्वत्रसत्व
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वात्मकता। विश्वात्मकता। विश्व- रूपता [को०]।
⋙ सर्वत्रापि
वि० [सं०] सब स्थानों में जानेवाला।
⋙ सर्वथा
अव्य० [सं०] १. सब प्रकार से। सब तरह से। २. बिलकुल। सब। ३. सर्वदा। हमेशा। निरंतर (को०)। ४. पूरी तौर से। पूर्णतः (को०)। ५. बहुत अधिक। अत्यंत (को)।
⋙ सर्वदंडधर
वि० [सं० सर्वदण्डधर] सब को दंड देनेवाला (शिव) [को०]।
⋙ सर्वदंडनायक
संज्ञा पुं० [सं० सर्वदण्डनायक] सेना या पुलिस का एक ऊँचा अधिकारी।
⋙ सर्वद (१)
वि० [सं०] सब कुछ देनेवाला।
⋙ सर्वद (२)
संज्ञा पुं० शिव का एक नाम।
⋙ सर्वदमन (१)
वि० [सं०] सबको दमन करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वदमन (२)
संज्ञा पुं० दुष्यंत के पुत्र भरता का एक नाम।
⋙ सर्वदर्शन
वि० [सं०] सब कुछ देखनेवाला [को०]।
⋙ सर्वदर्शी (१)
संज्ञा पुं० [सं० सर्वदर्शिन्] [स्त्री० सर्वदर्शिणी] सब कुछ देखनेवाला।
⋙ सर्वदर्शी (२)
संज्ञा पुं० १. ईश्वर। परमात्मा। २. एक बुद्ध या अर्हत् [को०]।
⋙ सर्वदा
अव्य० [सं०] सब काल में। हमेशा। सदा।
⋙ सर्वदाता
वि० संज्ञा पुं० [सं० सर्वदातृ] सब कुछ दे देनेवाला। सर्वस्व देनेवाला [को०]।
⋙ सर्वदान
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वस्व का दान करना [को०]।
⋙ सर्वदिग्विजय
संज्ञा स्त्री० [सं०] सभी दिशाओं की जीतना। विश्व- विजय [को०]।
⋙ सर्वदेवमय (१)
वि० [सं०] जिसमें सब देवता हों [को०]।
⋙ सर्वदेवमय (२)
संज्ञा पुं० १. शिव। २. कृष्ण।
⋙ सर्वदेवमुख
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०]।
⋙ सर्वदेशीय
वि० [सं०] १. सभी देशों से संबद्ध। २. सभी देशों में होनेवाला या प्राप्य [को०]।
⋙ सर्वदेश्य
वि० [सं०] दे० 'सर्वदेशीय' [को०]।
⋙ सर्वद्रष्टा
वि० [सं० सर्वद्रष्ट्ट] सब कुछ देखनेवाला।
⋙ सर्वद्वारिक
वि० [सं०] जिसकी विजययात्रा के लिये सब दिशाएँ खुली हों। दिग्विजयी।
⋙ सर्वधन्वी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वधन्विन्] कामदेव [को०]।
⋙ सर्वधातुक
संज्ञा पुं० [सं०] ताँबा। ताम्र।
⋙ सर्वधारी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वधारिन्] १. साठ संवत्सरों में से बाइसवाँ संवत्सर। २. शिव का एक नाम।
⋙ सर्वधुरावह
संज्ञा पुं० [सं०] गाड़ी में जोता जानेवाला जानवर।
⋙ सर्वधुरीण
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सभी प्रकार का बोझा ढोने के उपयुक्त हो [को०]।
⋙ सर्वनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अस्त्र।
⋙ सर्वनाम
संज्ञा पुं० [सं० सर्वनामन्] व्याकरण में वह शब्द जो संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होता है। जैसे,—मैं, तू, वह।
⋙ सर्वनाश
संज्ञा पुं० [सं०] सत्यनाश। विध्वंस। पूरी बरबादी।
⋙ सर्वनाशी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वनाशिन] सर्वनाश करनेवाला। विध्वंसकारी। चौपट करनेवाला।
⋙ सर्वनिक्षेपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गणना करने की एक पद्धति विशंष [को०]।
⋙ सर्वनिधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सब का नाश या वध। २. एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
⋙ सर्वनियोजक
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम जो सबके नियो- जक हैं [को०]।
⋙ सर्वनिलय
वि० [सं०] जिसका निलय या निवास सब जगह हो [को०]।
⋙ सर्वनियंता
संज्ञा पुं० [सं० सर्वनियन्तृ] सबको अपने नियम के अनुसार ले चलनेवाला। सब को वश में करनेवाला।
⋙ सर्वपति
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सबका मालिक हो।
⋙ सर्वपथीन
वि० [सं०] १. जो सर्वत्र गमनशील हो। सभी दिशाओं में जानेवाला। २. जो चारों ओर फैला हो [को०]।
⋙ सर्वपा (१)
वि० [सं०] १. सब कुछ पीनेवाला। २. सब की रक्षा करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वपा (२)
संज्ञा स्त्री० दैत्यराज बलि की स्त्री का नाम।
⋙ सर्वपाचक
संज्ञा पुं० [सं०] सुहागा। टंकण क्षार।
⋙ सर्वपारशव
वि० [सं०] पूर्णतः लोहे का बना हुआ [को०]।
⋙ सर्वपार्श्वमुख
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ सर्वपावन
संज्ञा पुं० [सं०] सबको पवित्र करनेवाले, शिव [को०]।
⋙ सर्वपूजित
संज्ञा पुं० [सं०] जो सबके द्वारा पूजित हैं, शिव [को०]।
⋙ सर्वपूत
वि० [सं०] पूर्णतः पवित्र या शुद्ध [को०]।
⋙ सर्वपूण
वि० [सं०] सब कुछ से भरा पूरा।
⋙ सर्वपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ।
⋙ सर्वप्रथम
वि० [सं०] १. सबसे पहिले। २. सभी लोगों में पहला या प्रथम श्रेशी का [को०]।
⋙ सर्वप्रद
वि० [सं०] सर्वस्व देनेवाला [को०]।
⋙ सर्वप्रिय
वि० [सं०] १. सब को प्यारा। जिसे सब चाहें। जो सब को अच्छा लगे। २. जिसे सब कुछ प्रिय हो।
⋙ सर्वबंधविमोचन
संज्ञा पुं० [सं० सर्वबन्धविमोचन] सभी बंधनों से छुड़ानेवाला—शिव [को०]।
⋙ सर्वबल
संज्ञा पुं० [सं०] एक बहुत बड़ी संख्या। (बौद्ध)।
⋙ सर्वबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध करने की एक विधि।
⋙ सर्वबीज
संज्ञा पुं० [सं०] सबका बीज या मूल [को०]।
⋙ सर्वभक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सब कुछ खा डालनेवाला, अग्नि। आग।
⋙ सर्वभक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकरी। छागी।
⋙ सर्वभक्षी (१)
संज्ञा पुं० [सं० सर्वभक्षिन्] [वि० स्त्री० सर्वभक्षिणी] सबकुछ खानेवाला।
⋙ सर्वभक्षी (२)
संज्ञा पुं० अग्नि।
⋙ सवभवोद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ सर्वभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. संपूर्ण सत्ता। सारा अस्तित्व। २. संपूर्ण आत्मा। ३. पूर्ण तुष्टि। मन का पूरा भरना।
⋙ सर्वभावकर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ सर्वभावन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सब का उत्पादक हो। सब की भावना करनेवाला। २. महादेव। शिव।
⋙ सर्वभूत (१)
पुं० [सं०] सब प्राणी या सृष्टि। चराचर।
⋙ सर्वभूत (२)
वि० जो सब कुछ हो या सब में हो। सर्वस्वरूप।
⋙ सर्वभूतगुहाशय
वि० [सं०] सबके हृदय में निवास करनेवाला (को०)।
⋙ सर्वभूतपितामह
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा। प्रजापति [को०]।
⋙ सर्वभूतहर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ सर्वभूतहित
संज्ञा पुं० [सं०] सब प्राणियों की भलाई।
⋙ सर्वभूमिक
संज्ञा पुं० [सं०] दारचीनी। गुड़त्वक्।
⋙ सर्वभृत्
वि० [सं०] जो सबका पालन पोषण करे [को०]।
⋙ सर्वभोग
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह वश्यमित्र जो सेना, कोश तथा भूमि से सहायता करे।
⋙ सर्वभोगसह
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार सब प्रकार से उपयोगी मित्र सब प्रकार के कामों में समर्थ मित्र।
⋙ सर्वभोगी
वि० [सं० सर्वभोगिन्] [वि० स्त्री० सर्वभोगिनी] १. सब का आनंद लेनेवाला। ३. सब कुछ खानेवाला।
⋙ सर्वमंगला (१)
वि० [सं० सर्वमड्गला] सब प्रकार का या सबका मंगल करनेवाली।
⋙ सर्वमंगला (२)
संज्ञा स्त्री० १. दुर्गा। २. लक्ष्मी।
⋙ सर्वमलापगत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि [को०]।
⋙ सर्वमांसाद
वि० [सं०] सभी प्रकार के मांस का भक्षण करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वमूल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौड़ी। कपर्द्दक। २. कोई छोटा सिक्का।
⋙ सर्वमूषक
संज्ञा पुं० [सं०] (सबको मूसने या ले जानेवाला) काल।
⋙ सर्वमेध
संज्ञा पुं० [सं०] १. सार्वजनिक सत्र। २. एक उपनिषद् का नाम (को०)। ३. यज्ञ (को०)। ४. एक प्रकार का सोमयाग जो दस दिनों तक होता था।
⋙ सर्वयंत्री
वि० [सं० सर्वयान्त्रिन्] सभी औजारों से युक्त [को०]।
⋙ सर्वयोगी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वयोगिन्] शिव का एक नाम।
⋙ सर्वयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] सब का मूल। सब की जड़ [को०]।
⋙ सर्वरत्नक
संज्ञा पुं० [सं०] जन शास्त्रानुसार नौ निधियों में एक।
⋙ सर्वरत्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक श्रुति [को०]।
⋙ सर्वरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. राल। धूना। कारायल। २. लवण। नमक। ३. एक प्रकार का बाजा। ४. सब विद्याओं में निपुण व्यक्ति। विद्वान् व्यक्ति। ५. सभी प्रकार के रस, भोज्य पदार्थ आदि। ६. वह जो सब रसों से युक्त हो।
⋙ सर्वरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाजा का माँड़। धान की खीलों का माँड़।
⋙ सवरसोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] नामक। लवण।
⋙ सर्वरास
संज्ञा पुं० [सं०] १. राल। करायल। धूना। २. एक प्रकार का वाद्य [को०]।
⋙ सर्वरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शर्वरी] दे० 'शर्वरी'।
⋙ सर्वरीस पु
संज्ञा पुं० [सं० शर्वरीश] दे० 'शर्वरीश'।
⋙ सर्वरूप (१)
वि० [सं०] जो सब रूपों का हो। सर्वस्वरूप।
⋙ सवरूप (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार की समाधि।
⋙ सवर्थासिद्धि
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार सब से ऊपर का अनुसार या स्वर्गों के ऊपर का लोक।
⋙ सर्वलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] सभी शुभ लक्षण या चिह्न [को०]।
⋙ सवलक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] सभी शुभ लक्षण या चिह्न [को०]।
⋙ सवलक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ सवला
संज्ञा स्त्री० [सं०] लोहे का डंडा।
⋙ सर्वलालस
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ सर्वलिंग
वि० [सं० सर्वलिङ्ग] जो प्रत्येक लिंग में हो। (विशेषण) जो प्रत्येक लिंग (पुं०, स्त्री० और नपुंसक) में होता है।
⋙ सर्वलिंगी (१)
वि० [सं० सर्वलिङ्गिन्] [वि० स्त्री० सर्वलिंगिनी] सब प्रकार के ऊपरी आडंबर रखनेवाला। पाषंडी।
⋙ सर्वलिंगी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] नास्तिक।
⋙ सर्वली
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा लौहदंड या तोमर।
⋙ सर्वलोक
संज्ञा पुं० [सं०] समग्र लोक। चराचर जगत् [को०]। यो०—सर्वलोककृत् = शिव का एक नाम। सर्वलोकगुरु = विष्णु। सर्वलोकपितामह = ब्रह्मा जो सबके पितामह है। सर्वलोक- प्रजापति, सर्वलोकभृत् = दे० 'सर्वकलोककृत्'। सर्वलोकमहेश्वर = (१) शिव। शंकर। (२) विष्णु का एक नाम।
⋙ सर्वलोकेश, सर्वलोकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. ब्रह्मा। ३. विष्णु। ४. कृष्ण।
⋙ सर्वलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ सर्वलोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा जो औषध के काम में आता है। गंधनाकुली।
⋙ सवलोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीर। बाण। २. वह जो पूर्णतः लाल वर्ण का हो [को०]।
⋙ सर्वलौह
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताँबा। ताम्र। २. बाण। तीर।
⋙ सर्ववर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंभारी का पेड़।
⋙ सर्ववर्णी
वि० [सं० सर्ववर्णिन्] वभिन्न वर्ण का। विभिन्न जाति या प्रकार का [को०]।
⋙ सर्ववल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलटा स्त्री।
⋙ सर्ववागीश्वरेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ सर्ववादी
संज्ञा पुं० [सं० सर्ववादिन्] शिव का एक नाम।
⋙ सर्ववास
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम।
⋙ सर्ववासी
संज्ञा पुं० [सं० सर्ववासिन्] शिव [को०]।
⋙ सर्वविक्रयी
वि० [सं० सर्वविक्रयिन्] सभी प्रकार की वस्तुओं को बेचनेवाला।
⋙ सर्वविख्यात, सर्वविग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम।
⋙ सर्वविद (१)
वि० [सं०] सर्वज्ञ।
⋙ सर्वविद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर। २. ओंकार।
⋙ सर्वविद्य
वि० [सं०] समग्र विद्याओं का ज्ञान। सर्वज्ञ [को०]।
⋙ सर्वविश्रंभी
वि० [सं० सर्वविश्रम्भिन्] सबका विश्वास करनेवाला। प्रत्येक का विश्वास करनेवाला [को०]।
⋙ सर्ववीर
वि० [सं०] जिसके बहुत से पुत्र हों। यौ०— सर्ववीरजित् = समस्त वीरों को जीतनेवाला।
⋙ सर्ववेत्ता
वि० [सं० सर्ववेतृ] सर्वविद्। सर्वज्ञ।
⋙ सर्ववेद
वि० [सं०] सब वेदों का जाननेवाल। पूर्णतः ज्ञानवान्।
⋙ सर्ववेदस्
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अपनी यज्ञ में दान कर दे।
⋙ सर्ववेदस
संज्ञा पुं० [सं०] १. सारी संपत्ति। सारा मालमता। २. वह यज्ञ जिसमें समग्र संपत्ति दान कर दी जाय (को०)। ३. दे० 'सर्बवेदस्' [को०]।
⋙ सर्ववेदसी
वि० [सं० सर्ववेदसिन्] जो अपनी समग्र संपत्ति का दान कर दे [को०]।
⋙ सर्ववेदी
वि० [सं० सर्ववेदिन्] जो सब कुछ जानता हो। सर्वज्ञ [को०]।
⋙ सर्ववेशी
संज्ञा पुं० [सं० सर्ववेशिन्] नट। अभिनेता [को०]।
⋙ सर्ववैनाशिक
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मा आदि सबको नाशवान् माननेवाला। क्षणिकवादी। बौद्ध।
⋙ सर्वव्यापक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सर्वव्यापी'।
⋙ सर्वव्यापी (१)
वि० [सं० सर्वव्यापिन्] [वि० स्त्री० सर्वव्यापिनी] सबमें रहनेवाला। सब पदार्थो में रमणशील।
⋙ सर्वव्यापी (२)
संज्ञा पुं० १. ईश्वर। २. शिव।
⋙ सर्वशः
अव्य० [सं० सर्वशस्] १. पूरा पूरा। २. समूचा। पूर्ण रुप से।
⋙ सर्वशक्तिमान् (१)
वि० [सं० सर्वशक्तिमत्] [स्त्री० सर्वशक्तिमती] सब कुछ करने की सामर्थ्य रखनेवाला।
⋙ सर्वशक्तिमान् (२)
संज्ञा पुं० ईश्वर।
⋙ सर्वशांतिकृत्
संज्ञा पुं० [सं० सर्वशान्तिकृत्] दुष्यंत के पुत्र भरत का एक नाम [को०]।
⋙ सर्वशून्य
वि० [सं०] १. बिलकुल खाली। पूर्णतः रिक्त।२. जिसके लिये सब शून्य या अस्तित्वविहीन हो [को०]।
⋙ सर्वशून्यवादी
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध।
⋙ सर्वशून्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दरिद्रता (जिसमें सब कुछ सूना सूना प्रतीत होता है)।
⋙ सर्वशूर
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ सर्वश्री
वि० [सं०] जहाँ सभी लोग श्रीयुक्त हों। अनेक व्यक्तियों का नाम एक साथ आने पर सब के लिये एक बार आरंभ में इसका प्रयोग होता है। जैसे, सर्वश्री अमुक, फलाँ आदि। यह प्रयोग आधुनिक है और अंग्रेजी शब्द 'मेसर्स' का अनुवाद है।
⋙ सर्वश्रेष्ठ
वि० [सं०] सब में बड़ा। सब से उत्तम।
⋙ सर्वश्वेता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक ओषधि का नाम। २. एक प्रकार का विषैला कीड़ा। सर्षपिक। (सुश्रुत)।
⋙ सर्वसंगत
संज्ञा पुं० [सं० सर्वसङ्गत] षष्टिक धान्य। साठी धान।
⋙ सर्वसंज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक बहुत बड़ी संख्या [को०]।
⋙ सर्वसंभव
संज्ञा पुं० [सं० सर्वसम्भव] वह जो सबका उत्पत्तिस्थान या मूल हो। [को०]।
⋙ सर्वसंमत
वि० [सं० सर्वसम्मत] जिसके पक्ष में सभी लोय सहमत हों [को०]।
⋙ सर्वसंमति
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्वसम्मति] सभी सदस्यों की राय [को०]।
⋙ सर्वसंस्थ
वि० [सं०] १. सर्वव्यापक। २. सर्वबिनाशक [को०]।
⋙ सर्वसंस्थान
वि० [सं०] सब रुपों में रहनेवाला। सर्वरुप।
⋙ सर्वसंहार
संज्ञा पुं० [सं०] काल।
⋙ सर्वसंहारी
वि० [सं० सर्वसंहारिन्] दे० सर्व समाहर'।
⋙ सर्वसख
संज्ञा पुं० [सं०] सज्जन। सबका मित्र। साधु पुरुष [को०]।
⋙ सर्वसत्राह
संज्ञा पुं० [सं०] पूरी तौर से सेना को एकत्र और शास्त्र- सज्ज करना।
⋙ सर्वसमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्पश्रता। समता।
⋙ सर्वसमाहर
वि० [सं०] सबका विनाश करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वस पुं
वि० [सं० सर्वस्व] दे० 'सर्वस्व'।
⋙ सर्वसर
संज्ञा पुं० [सं०] मुँह का एक रोग जिसमें छाले से पड़ जाते हैं तथा खुजली तथा पीड़ा होती है। विशेष— यह तीन प्रकार का होता है —वातज, पित्तज और कफज। वातज में मुख में सुई चुभने की सी पीड़ा होती है। पित्तज में पीले या लाल रंग के दाहयुक्त छाले पड़ते हैं। कफज में पीडारहित खुजली होती है।
⋙ सर्वसह
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सब कुछ सहन करे। सहनशील व्यक्ति। २. गूगल। गुग्गुल।
⋙ सर्वसहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धरित्री। सर्वसहा पृथ्वी [को०]।
⋙ सर्वसांप्रत
संज्ञा पुं० [सं० सर्वसाम्प्रत] सर्वत्र वर्तमान रहने का भाव। सर्वव्यापकता [को०]।
⋙ सर्वसाक्षी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वसाक्षिन्] १. वह जो सब कुछ देखता हो। ईश्वर। परमात्मा। २. अग्नि। ३. वायु।
⋙ सर्वसाद
वि० [सं०] १.समग्र जगत् जिसमें लीन हो। २. जिसमें सब कुछ लीन हो (को०)।
⋙ सर्वसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना। स्वर्ण। २. धन। ३. शिव का एक नाम। ४. वह जो सब कुछ का साधन कर सकता हो। सब कुछ सिद्ध करनेवाला (को०)। ५. हर एक प्रकार का साधन या उपकरण।
⋙ सर्वसाधारण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] साधारण लोग। जनता। आम लोग।
⋙ सर्वसाधारण (२)
जो सब में पाया जाता हो। आम। सामान्य।
⋙ सर्वसामान्य
वि० [सं०] जो सब में एक सा पाया जाय। मामूली।
⋙ सर्वसारंग
संज्ञा पुं० [सं० सर्वसारङ्ग] एक नाग का नाम।
⋙ सर्वसार
संज्ञा पुं० [सं०] सब का सारभूत पदार्थ या सार तत्व।
⋙ सर्वसाह
वि० [सं०] जो सब कुछ सह ले। सब कुछ सह लेनेवाला। पूर्णतः सहनशील [को०]।
⋙ सर्वसिद्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी ये तीन तिथियाँ।
⋙ सर्वसिद्धार्थ
वि० [सं०] जिसके सभी अर्थ या प्रयोजन सिद्ध हो चुके हों। जिसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हों [को०]।
⋙ सर्वसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सब कार्यों और कामनाओं का पूरा होना। २. पूर्ण तर्क। ३. बिल्व वृक्ष। श्रीफल। बेल।
⋙ सर्वसुलभ
वि० [सं०] जो सबको सुलभ हो। जिसे सब लोग सुभीते से प्राप्त कर सकें।
⋙ सरिवसौवर्ण
वि० [सं०] जो पूर्णतः स्वर्णनिर्मित हो [को०]।
⋙ सर्वस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रिकार का एकाह यज्ञ।
⋙ सर्वस्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो कुछ अपना हो वह सब। २. किसी की सारी संपत्ति। सब कुछ। कुल मालमता। यौ०— सर्वस्वदंड= सारी संपत्ति जब्त कर लेने का दंड। सर्वस्व- दक्षिण = वह यज्ञ जिसमें सामग्र संपत्ति का दान कर दिया जाय। सर्वस्वसंधि = दे० 'क्रम में'। सर्वस्वहरण, सर्वस्व- हार= (१) सब कुछ हरण करना या मूस लेना। (२) दे० 'सर्वस्वदंड'।
⋙ सर्वस्वसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्वस्वसन्धि] सर्वस्व देकर शत्रु से की हुई संधि। विशंष— कौटिल्य ने कहा है कि शत्रु के साथ यदि ऐसी संधि करनी पड़े तो राजधानी को छोड़ कर शेष सब उसकी सुपुर्द कर देना चाहिए।
⋙ सर्वस्वामी
वि० [सं० सर्वस्वामिन्] सब का स्वामी या प्रभु [को०]।
⋙ सर्वस्वार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
⋙ सर्वस्वी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वस्विन्] [वि० स्त्री० सर्वस्विनी] ब्रह्मावैवर्त- पुराण के अनुसार एक जाती। नपित पिता और गोप माता से उत्पन्न एक संकर जाति।
⋙ सर्वहर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सब कुछ हर लेनेवाला। २. वह जो किसी की सारी संपत्ति का उत्तराधिकारी हो। ३. महादेव। शंकर। ४. यमराज। ५. काल।
⋙ सर्वहरण, सर्वहार
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वस्व का हरण, समग्र संपत्ति का हरण [को०]।
⋙ सर्वहारा
संज्ञा पुं० [सं० सर्व+हि० हारना] वह जिसके पास कुछ भी न हो। समाज का पिछड़ा हुआ निम्नतम श्रमिक वर्ग। कमकर, श्रमिक, मजदूर वर्ग के लोग (अं० प्रोलेटेरियट)।
⋙ सर्वहारी (१)
वि० [सं० सर्वहारिन] [वि० सत्री० सर्वहारिणी] सब कुछ हरण करनेवाला।
⋙ सर्वहारी (२)
संज्ञा पुं० एक प्रेत [को०]।
⋙ सर्वहित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शाक्य मुनि। गौतम बुद्ध। २. सबका कल्याण। ३. मरिच। मिर्च।
⋙ सर्वहित (२)
वि० जो सबके लिये हित पथ्य या कल्याणकारी हो [को०]।
⋙ सर्वहित कर्म
संज्ञा पुं० [सं०] सामाजिक समारोह, उत्सव या जलसा आदि। विशेष— कौटिल्य ने लिखा है कि जो नाटक आदि सामाजिक जलसों में योग न दे, उसे उसमें संमिलित होने या उसे देखने का अधिकार नहीं है; उसे हटा देना चाहिए। यदि न हटे तो वह दंड का भागी हो।
⋙ सर्वांग
संज्ञा पुं० [सं० सर्वाङ्ग] १. संपूर्ण शरीर। सारा बदन। जैसे, — सर्वांग में तैलमर्दन। २. शिव का एक नाम (को०)। ३. सब अवयव या अंश। ४.सब वेदांग।
⋙ सर्वागपूर्ण
वि० [सं० सर्वाङ्गपूर्ण] सब प्रकार से पूर्ण। जिसके सभी अंग या अवयव पूर्ण हों।
⋙ सर्वागरुप
संज्ञा पुं० [सं० सर्वाङ्ग रुप] शिव का एक नाम।
⋙ सर्वागसुंदर
वि० [सं० सर्वाग्ङसुन्दर] जो हर त ह से सुंदर हो।
⋙ सर्वांगिक
वि० [सं० सर्वाङिगक] सभी अंगों का। जो सब अंगों के काम आए। जैसे, गहना [को०]।
⋙ सर्वांगीण
वि० [सं० सर्वाग्ङण] १. जो सभी अंगों में व्याप्त या उनसे संबंधित हो। जैसे, सर्वांगीण स्पर्श। २. वेदांगों से संबद्ध [को०]।
⋙ सर्वांत
संज्ञा पुं० [सं० सर्वान्त] सब का अंत या विनाश। यौ०— सर्वांतकृत् = दे० 'सर्वातक'।
⋙ सर्वांतक
वि० [सं० सर्वान्तक] सब का अंतक या नाशक। सबका विनाशक या अत करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वांतरस्थ
वि० [सं० सर्वान्तरस्थ] सब के अंतर में स्थित या रहनेवाला। सब के भीतर निवास करनेवाला।
⋙ सर्वांतरात्मा
संज्ञा पुं० [सं० सर्वान्तरात्मन्] भगवान्। ईश्वर।
⋙ सर्वांतयार्मो
संज्ञा पुं० [सं० सर्वन्तिर्तामिन्] ईश्वर। परमात्मा।
⋙ सर्वांत्य
संज्ञा पुं० [सं० सर्वान्त्य] वह पद्य जिसके चारों चरणों के अंत्याक्षर एक से हों।
⋙ सर्वाकार
क्रि० वि० [सं०] पूर्ण रुप से। पूर्णतः।
⋙ सर्वाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुद्राक्ष। शिवाक्ष। २. वह जो सबको देखता हो।
⋙ सर्वाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुग्धिका। दुधिया घास। दुद्धी।
⋙ सर्वाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] पारद। पारा।
⋙ सर्वाजीव
वि० [सं०] सबको जीविका देनेवाला। सबके योगक्षेम की व्यवस्था करनेवाला।
⋙ सर्वाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा। पार्वती। शर्वाणी।
⋙ सर्वातिथि
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सबका आतिथ्य करे। वह जो सब आए गए लोगों का सत्कार करे।
⋙ सर्वातिशायी
वि० [सं० सर्वातिशायिन्] सबसे आगे बढ़ जानेवाला। जो सबसे प्रधान या श्रेष्ठतम हो।
⋙ सर्वातोद्यपरिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ सर्वात्मा
संज्ञा पुं० [सं० सर्वात्मन्] १. सबकी आत्मा। सारे विश्व की आत्मा। संपूर्ण विश्व में व्याप्त चेतन सत्ता। ब्रह्म। २. शिव का एक नाम। ३. जिन। अर्हत्।
⋙ सर्वाद्दश
वि० [सं०] सबके समान। अन्यों के समान।
⋙ सर्वाधिक
वि० [सं०] सबसे अधिक। सबसे आगे [को०]।
⋙ सर्वाधिकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सब कुछ करने का अधिकार। पूर्ण प्रभुत्व। पूरा इख्तियार। २. सब प्रकार का अधिकार।
⋙ सर्वाधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० सर्वाधिकारिन्] १. पूरा अधिकार रखनेवाला। वह जिसके अधिकार में पूरा इख्तियार हो। २. हाकिम। ३. निरीक्षणकर्ता। निरीक्षक। ४. सबका प्रधान। अध्यक्ष (को०)।
⋙ सर्वाधिपत्य
संज्ञा पुं० [सं०] सबपर प्रभुत्व या अधिपत्य [को०]।
⋙ सर्वाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सबपर शासन करता हो [को०]।
⋙ सर्वानुकारिणी
संज्ञा पुं० [सं०] शालपर्णी।
⋙ सर्वानुकारि
वि० [सं० सर्वानुकारिन्] [वि० स्त्री० सर्वानुकारिणी] सबका अनुकरण या अनुगमन करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वानुक्रमणिका, सर्वानुक्रमणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सभी वस्तुओं या विषयों की क्रमबद्ध व्यौरेवार सूची।
⋙ सर्वानुभू
वि० [सं०] सबका अनुभव करनेवाला। जो सबकी अनुभूति करता हो।
⋙ सर्वानुभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समग्र की, सबकी अनुभूति। वह अनुभृति जो व्यापक हो। २. श्वेत त्रिवृता या निसोथ [को०]।
⋙ सर्वात्र
संज्ञ पुं० [सं०] हर तरह का अत्र। यौ०— सर्वात्रभक्षक, सर्वात्रभोजी = हर तरह का अन्न या खाद्य पदार्थ खानेवाला।
⋙ सर्वात्रीन
वि० [सं०] सभी प्रकार के भोज्य पदार्थ खानेवाला। सर्वत्रिभोजी [को०]।
⋙ सर्वान्य
वि० [सं०] जो पूर्णतः भिन्न हो [को०]।
⋙ सर्वपरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] मोक्ष। मुक्ति [को०]।
⋙ सर्वाभिभू
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम।
⋙ सर्वाभिशंकी
वि० [सं० सर्वाभिशङ्किन्] शंकालु। शक्की स्वभाव का। सबपर शंका करनेवाला [को०]।
⋙ सर्वाभिसंधक
संज्ञा पुं० [सं० सर्वाभिसन्धक] सबको धोखा देनेवाला (मनु०)।
⋙ सर्वाभिसंधी
वि० [सं० सर्वाभिसन्धिन्] १. सबको धोखा देनेवाला। २.ढोंगी। पाखंडी। बंचक [को०]।
⋙ सर्वाभिसार
संज्ञा पुं० [सं०] चढाई के लिये संपूर्ण सेना की तैया्री या सजाब।
⋙ सर्वामात्य
संज्ञा पुं० [सं०] किसी परिवार या गृहस्थी में रहनेवाले घर के प्राणी, नौकर चाकर आदि सब लोग। (स्मृति)।
⋙ सर्वायनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद निसोथ।
⋙ सर्वायस
वि० [सं०] जो पूर्णतः लौहनिर्मित हो। पूर्णतः लोहे का बना हुआ [को०]।
⋙ सर्वायुध
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ सर्वरिणयक
वि० [सं०] वन में होनेवाली वस्तुओं को ही खानेवाला [को०]।
⋙ सर्वाथे
संज्ञा पुं० [सं०] समग्र विषय या पदार्थ [को०]। यौ०— सर्वार्थकर्ता = जो सब वस्तुओं का निर्माण करता हो। सर्वार्थकुशल = सभी विषयों में चतुर या निष्णात। सर्वार्थ- चितक = सबका चितन करनेवाला। प्रधान अधिकारी। सर्वार्थ- साधक = सभी कार्यों को सिद्ध या पूर्ण करनेवाला। सर्वार्थ- साधिका। सर्वार्थसिद्धि।
⋙ सर्वार्थसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सभी प्रियोजनों को सिद्ध करता हो। २. सब प्रियोजन सिद्ध होना। सारे मतलब पूरे होना।
⋙ सर्वार्थसाधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा [को०]।
⋙ सर्वार्थसिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] सिद्धार्थ। शाक्य मुनि। गौतम बुद्ध।
⋙ सर्वार्थसिद्धि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारे उद्देश्यों का सिद्ध होना। लक्ष्य पूर्ण होना [को०]।
⋙ सर्वार्थसिद्धि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों का एक देव वर्ग (को०)।
⋙ सर्वार्थानुसाधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूर्गा का एक नाम। सर्वार्थ- साधिका [को०]।
⋙ सर्वालोककर
संज्ञा पुं० [सं०] समाधि का एक प्रकार [को०]।
⋙ सर्वावसर
संज्ञा पुं० [सं०] आधी रात।
⋙ सर्वावसु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की एक किरण का नाम।
⋙ सर्वावास
वि० [सं०] दे० 'सर्वावासी'।
⋙ सर्वावासी
वि० [सं० सर्ववासिन्] जिसका निवास सर्वत्र हो [को०]।
⋙ सर्वाशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. सबका शरण या आधारभूत स्थान। २. शिव का एक नाम।
⋙ सर्वायी
वि० [सं० सर्वाशिन्] [वि० स्त्री० सर्वाशिनी] सब कुछ खानेवाला। सर्वभक्षी। (स्मृति)।
⋙ सर्वाश्य
संज्ञा पुं० [सं०] सब कुछ खाना। सर्वभक्षण।
⋙ सर्वाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सबका आश्रय स्थान हो। सबको आश्रय देनेवाला, शिव [को०]।
⋙ सर्वास्तिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] यह दार्शनिक सिद्धात कि सब वस्तुओं की वास्तव सत्ता है, वे असत् नहीं हैं। विशेष— यह बौद्ध मत की वैभाषिक शाखा के चार भिन्न भिन्न मतों में से एक है जिसके प्रवर्तक गौतम बुद्ध के पुत्र राहुल माने जाते हैं।
⋙ सर्वास्तिवादी
वि०, संज्ञा पुं० [सं० सर्वास्तिवादिन] सर्वास्तिवाद मत को माननेवाला बौद्ध।
⋙ सर्वास्त्र
वि० [सं०] सब प्रकार के शास्त्रास्त्रों से युक्त। शास्त्रास्त्रों से सज्जित [को०]।
⋙ सर्वास्त्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनों की सोलह विद्या देवियों में से एक।
⋙ सर्विस
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. नौकरी। चाकरी। २. सेवा। सुश्रूषा। परिचर्या।
⋙ सर्वीय
वि० [सं०] १. सबका। जो सबसे संबद्ध हो। २. जो जन- साधारण के लिये उपयुक्त हो। सर्वोपयुक्त [को०]।
⋙ सर्वे
संज्ञा पुं० [अं०] १.भूमि की नापजोख। पैमाइश।२. वह सरकारी विभाग जो भूमि को नापकर उसका नक्शा बनाता है।
⋙ सर्वेयर
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो सर्वे अर्थात् जमीन की नापजोख करता हो। पैमाइश करनेवाला। अमीन।
⋙ सर्वेश, सर्वेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सबका स्वामी। सबका मालिक। २. ईश्वर। ३. चक्रवर्ती राजा। ४. शिव। ५. एक प्रकार की ओषधि।
⋙ सर्वेसर्वा
वि० [सं० सर्व] १. वह व्यक्ति जिसे किसी मामले में सब कुछ करने का अधिकार हो। २. सर्वप्रधान कर्ता धर्ता।
⋙ सर्वोत्तम
वि० [सं०] सबसे उत्तम। जिससे अच्छा दूसरा न हो [को०]।
⋙ सर्वोदय
संज्ञा पुं० [सं०] सभी के उदय या उत्थान की भावना से आचार्य विनोबा भावे द्वारा प्रवर्तित स्वतंत्र भारत का एक संघटन।
⋙ सर्वोंपकारी
वि० [सं० सर्वोंपकारिन्] सबका मददगार। जो सब- की सहायता करे।
⋙ सर्वोपरि
वि० [सं०] सबसे ऊपर या बढ़कर। सर्वश्रेष्ठ।
⋙ सर्वोपाधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वे गुण जो सबमें साधारणतः पाए जाते हों। सर्वसामान्य गुण [को०]।
⋙ सर्वौंध
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्वागपूर्ण सेना। २. दे० 'सर्वाभिसार'। ३. एक प्रकार का मधु या शहद।
⋙ सर्वौषध
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सर्वौषधि'।
⋙ सर्वौषधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] आयुर्वेद में ओषधियों का एक वर्ग जिसके अंतर्गत दस जड़ी बूटियाँ हैं। विशेष— राजनिघंटु के अनुसार कुष्ठ, मांसी, हरिद्रा, वचा, शैलेय, चंदन, मुरा, रक्त चंदन, कर्पूर और मुस्तक तथा शब्दचंद्रिका के अनुसार मुरा, माँसी, वचा, कुष्ठ, शैलेय, रजनी द्वय, शटी चंपक और मोथा इस वर्ग में गिनाई गई हैं।
⋙ सर्षफ
संज्ञा पुं० [फ़ा० सर्शफ़, तुल० सं० सर्षप] दे० 'सर्षप'।
⋙ सर्शप
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरसों। २. सरसों भर का मान या तौल। ३. एक प्रकार का विष। यौ०— सर्षपकंद। सर्षपकण = सरसों का दाना। सर्षपतैल। सर्षपनाल। सर्षपशाक = सरसों का साग। सर्षपस्नेह = सरसों का तेल।
⋙ सर्षपकंद
संज्ञा पुं० [सं० सर्षपकंद] एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ विष होती है।
⋙ सर्षपक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप।
⋙ सर्षपकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक विर्षला कीड़ा। २. एक प्रकार का चर्म रोग (को०)।
⋙ सर्षपतैल
संज्ञा पुं० [सं०] सरसों का तेल।
⋙ सर्षपनाल
संज्ञा पुं० [सं०] सरसों का साग।
⋙ सर्षपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद सरसों।
⋙ सर्षपारुण
संज्ञा स्त्री० [सं०] पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार असुरों का एक गण।
⋙ सर्षपिक
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बहुत जहरीला कीड़ा जिसके काटने से आदमी मर जाता है।
⋙ सर्षपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का लिंग रोग। विशेष— इस रोग में लिंग पर सरसों के समान छोटे छोटे दाने निकल आते हैं। यह रोग प्रायः दुष्ट मैथुन से होता है। २. मसूरिका रोग का एक भेद। ३. सर्षपिक नाम का जहरीला कीड़ा। दे० 'सर्षपिक'।
⋙ सर्षपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्राविका। २. सफेद सरसों। ३. ममोला। खंजन पक्षी। ४. एक प्रकार के छोटे दाने जो शरीर पर निकल आते हैं।
⋙ सर्सों
संज्ञा स्त्री० [हि० सरसों] दे० 'सरसों'।
⋙ सर्हद
संज्ञा स्त्री० [हि० सरहद] दे० 'सरहद'।