विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/अख
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हिन्दी शब्दसागर |
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⋙ अखंग पु
वि० [सं० अखण्ड़] न खँगनेवाला । न चुकनेवाला । कम न होनेवाला । अविनाशी ।
⋙ अखंड़
वि० [सं० अखण्ड़] १. जिसके खंड़ या टुकड़े न हों । अटूट । अविछिन्न । संपूर्ण । समूचा । पूरा । उ०—ज्ञान अखंड़ एक सीताबर । मायावस्य जीव सचराचर । —मानस, ७ ।७८ । २. जिसका क्रम या सिलसिला न टूटे । जो बीच में न रुके । लगातर । अनवरत । उ०—जहाँ अखंड़ शांति रहती है वहाँ ११सदा स्वच्छंद रहें ।—प्रेम०, पृ० ३२ । ३. निर्विघ्न । बेरोक । उ०—रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड़ । जरत बिभीषन राखेउ दीन्हेउ राज अखंड़ । —मानस ५ ।४९ । यौ०—अखंड़ ऐश्वर्य । अखंड़ कीर्ति । अखंड़ पुण्य । अखंड़ प्रताप । अखंड़ यश । अखंड़ राज्य । अखंड़ वृष्टि ।
⋙ अखंड़ द्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं० अखंड़द्वादशी] अगहन सुदी द्वादशी । मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की बारहवीं तिथि [को०] ।
⋙ अखंड़धार
संज्ञा पुं० [सं० अखण्ड़धार] न टूटनेवाली धार । झड़ी । लगातार वृष्टि । उ०—सलिल अखंड़धार धर टूटत किए इंद्र मन सादर ।—सूर० १० ।८५८ ।
⋙ अखंड़न (१)
वि० [सं० अखण्ड़न] १. खंड़ित न होनेवाला । अखंड़नीय । २. समग्र । पूर्ण । ३. अखंड़ित । अविच्छिन्न [को०] ।
⋙ अखंड़न (२)
संज्ञा पुं० १. विरोध का अभाव । अविरोध । २. काल । समय । ३. परमात्मा । ४. खंड़न न करना [को०] ।
⋙ अखंड़नीय
वि० [सं० अखण्ड़नीय] १. जिसके टुकड़े न हो सकें ।जिसका खंड़ न हो सके । जो काटा न जा सके । २. जिसके विरुद्ध न कहा जा सके । पुष्ट । अकाट्य ।
⋙ अखंड़पाठ
संज्ञा पुं० [सं० अखण्ड़+पाठ] वह पाठ जो विना क्रम टूटे लगातार चले ।
⋙ अखंड़र पु
संज्ञा पुं० [सं० आखण्ड़ल] इंद्र । सुरपति । उ०—नहिं सुमंत कैमास राय गोयंद अखँड़र ।—पृ० रा०, ६६ । २३८ ।
⋙ अखंड़ल (१) पु
वि० [सं० अखण्ड़+हिं० ल (प्रत्य०)] १. अखंड़ । अटूट । अविच्छिन्न । उ०—मनु नखत मंड़ल में अखंड़ल पूर्ण चंद्र सुहाय ।—रघुनाथ (शब्द) २. समुचा । संपूर्ण । पूरा । उ०—तवा सो तपत धरा मंड़ल अखंड़ल औ मारतंड़ मंड़ल हवा सो होत भोर तें ।—बेनी (शब्द) ।
⋙ अखंड़ल (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० आखण्ड़ल; प्रा० अखंड़ल] इंद्र । सुरपति । उ०—जाय बृजमंड़ल के बीच मैं अखंड़ल ह्वाँ मरजी तिहारी मानी रह्यो बहु भाँति हैं ।—दीन० ग्र०, पृ० ६० ।
⋙ अखंड़ सौभाग्य
संज्ञा पुं० [सं० अखंड़+सौभाग्यवती] जीवन पर्यत स्त्रियों के अविधवा होने का सौभाग्य । जीवन पयँत अविधवा रहने की स्थिति [को०] ।
⋙ अखंड़ सौभाग्यवती
वि० [सं० अखंड़+सौभाग्यवती] जीवन पर्यंत सुहागिनी रहनेवाली [को०] ।
⋙ अखंड़ा द्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं० अखंड़ा द्वादशी] अगहन सुदी द्वादशी दे० 'अखंड़द्वादशी' [को०] ।
⋙ अखंड़ानंद
वि० [सं० अखंड़+आनंद] पूर्ण आनंदस्वरूप । उ०— जदपि अखंड़ानंद नंदनंदन ईश्वर हरि ।—नंद० ग्र०, पृ० ४६ ।
⋙ अखंड़ित
वि० [सं० अखण्ड़ित] जिसके टूकड़े न हो । विभाग- रहित अविच्छिन्न । उ०—सोइ सर्वज्ञ तज्ञ सोइ पंड़ित । सोइ गुन गृह विज्ञान अखंड़ित ।—मानस, ७ ।४९ । २. संपूर्ण । समूचा । पूरा । परिपूर्ण । उ०—वे हरि सकल ठौर के बासी । पूरन ब्रह्म अखंड़ित पंड़ित मुनिन बिलासी ।—सूर०, १० ।३०६६ । जिसमें कोई रुकावट न हो । बाधा- रहित । निर्विघ्न; जैसे—उसका व्रत अखंड़ित रहा (शब्द) । उ०—सुआ असीस दीन्ह बड़ साजू । बड़ परताप अखंड़ित राजू ।—जायसी ग्र०, पृ० ३२ । ४. लगातार । अनवरत । सिलसिलेवार । उ०—(क) धार अखंड़ित बरसत झर । कहत मेघ धावहु ब्रज गिरिवर ।—सूर०, १० ।९३९ । (ख) उमड़ी अँखियान अखंड़ित धार ।—कोई कवि (शब्द) ।
⋙ अख
संज्ञा पुं० [देश०] बाग । बगीचा । (ड़ि०) ।
⋙ अखगर
संज्ञा पुं० [फा० अख्गर] चिनगारी । अग्निकण । स्फुलिंग । उ०—अखगर को छिपा राख में मैं देख के समझा । 'ताबाँ' तो तहे खाक भी जलता ही रहेगा ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २१८ ।
⋙ अखगरिया
संज्ञा पुं० [फा० अख्गर+हिं० इया (प्रत्य०) ] वह घोड़ा जिसके बदन से मलते वक्त चिनगारी निकलती है । विशेष—अस्वशास्त्र या शालिहोत्र के अनुसार ऐसा घोड़ा ऐबी समझा जाता है ।
⋙ अखज पु
वि० [स० अखाद्य; प्रा० अखज्ज] १. न खाने योग्य । अभक्ष्य । उ०—झख मारत ततकाल ध्यान मुनिवर सो धारत । बिहरत पंख फुलाय नहीं खज अखज बिचारत ।—दीन० ग्रं०, पृ० २०९ । २. निकृष्ट । बुरा । खराब । उ०—बैराग अस चाल बताउँ । तजे अखज तब हंस कहाउँ ।—कबीर सा०, पृ० २२१ ।
⋙ अखट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] प्रियाल का पेड़ [को०] ।
⋙ अखट्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अशिष्ट व्यवहार । २. बचपन की बात [को०] ।
⋙ अखड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० अखात] ताल के बिच का गड़हा जिसमें मछ- लिय़ाँ पकड़ौ जाती हैं । चँदवा ।
⋙ अखड़ैत (१) पु †
संज्ञा पुं० [हि० अखाड़ा+ऐत (प्रत्य०)] मल्ल । पहलवान । बलवान पुरुष । उ०—जंगा जीत तपोबल जालम ओप बड़ै अखड़ैत । उ०—रघु० रू० ६२ ।
⋙ अखड़ेत (२) पु †
वि० अखाड़ा में कुश्ती लड़नेवाला जोर करनेवाला । अखाड़िया ।
⋙ अखत
वि० [सं० अक्षत] बिना टूटा हुआ । अक्षत । संपूर्ण । समग्र । उ०—गिणजै सद ज्यारी जिँदगाणी, उभै विरद धरियाँ अखत ।—रघु० रू०, २४ ।
⋙ अखतियार पु †
संज्ञा पुं० [अ० इख्तयार] दे० 'इख्तियार' उ०— अब नाटक करनेवालों को अखतियार है कि सब नाटक हिंदी भाषा में करें चाहे हिंदी, उर्दू, मारवाड़ी और ब्रजभाषा में करें ।—श्रीनिवास ग्रं० (नि०), पृ० १० ।
⋙ अखती †
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षय तृतीया; प्र० अवखय— तइया; तीय] अक्षय तृतीया । उ०—अखती की तीज तजबीज कै सहेली जुरीं, वर के निकट ठाढ़ी भावते को घेर को । ठाकुर०, पृ० १७ ।
⋙ अखतीज
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्ष्य तृतीय; प्रा० अक्खय—तइया; तीय] अक्षय तृतीया; । आखातीज ।
⋙ अखत्यार †
संज्ञा० पु० [हि०] दे० 'इख्तियार' । उ०—'हम तो आज्ञाकारिणी दासी ठहरी, हमारो का अखत्यार है' ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४४७ ।
⋙ अखनकुमारी पु †
वि० स्त्री० [सं० अक्षत, अक्षय+कुमारिका] अक्षत कुमारी । जिसका कौमार्य भंग न हुआ हो । उ०—सुंदर सबही सौं मिली कन्या अखनकुमारि । वेश्या फिरि पतिब्रत लियौ भई सुहागनि नारि ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७५५ ।
⋙ अखना पु
क्रि० सं० [हि०] दे० 'अखाना' । उ०—आद चरण की कला आठारह अरट गोत कवि मंछ आखैं ।—रघु० रू०, पृ० ६२ ।
⋙ अखनी
संज्ञा स्त्री० [अ० यखनी] माँस का रसा । शोरबा । उ०— अषनी बटि वीसति मांस परे । हठिवास सुवासिनी आभ भरै ।— पृ० रा०, ६३ ।१०० ।
⋙ अखबार
संज्ञा पुं० [अ० खबर का बहु०] १. समाचारपत्र । संवाद पत्र । उ०—खींचो न कमानों को न तलवार निकालो । जब तोप मुकबिल है तो अकबार निकाली । —कविता को० भा० ४, पृ० ६२० । २. दे० 'खबर' । उ०—हैंगे इस नाब में बहुत अखबार । कुछ मैं लिखता हूँ उनसते यार ।—दक्खिनी०, पृ० २१८ ।
⋙ अखबारनवीस
संज्ञा पुं० [अ० अख्बार, फा०+ नवीस] वह जो समाचार लिखता हो । लमाचारलिखेक । समाचारपत्र संपादक । पत्रकार ।
⋙ अखबारनवीसी
संज्ञा स्त्री० [अ० अख्बार, + फा० नवीसी] अखबारनवीस का काम । पत्रकारिता [को०] ।
⋙ अखबारी
वि० [अ० अख्बार+हि० ई (प्रत्य०) ] अखबार संबंधी । अखबार का [को०] ।
⋙ अखय पु
वि० [सं० अक्षय; प्रा० अक्खय] जिसका क्षय न हो । न छीजनेवाला । अविनाशी । नित्य । चिरस्थायी । उ०—खसमहि छोड़ि छेम ह्वै रहई । होय अखीन अखय पद गहई ।—कबीर (शब्द) ।
⋙ अखयकुमारी पु
वि० स्त्री० [सं० अक्षयकुमारी] दे० 'अखनकुमारी' । उ०—माह मास सीय पड़े अति सार । समजती धन अखयकुमारि ।—बी० रासो०, पृ० २१ ।
⋙ अखयबट पु
संज्ञा पुं० [सं० अक्षयबट] दे० 'अक्षयबट' । उ०—संगम सिंघासन सुठि सुहा । छत्र अखयबट मुनि मन मोहा ।— मानस, २ ।१०५ ।
⋙ अखर (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अक्षर; पा०, प्रा० अक्खर] अक्षर । वर्ण । हरफ । उ०—म द प अखर ए मध्य तज झ ट क अंत मत आण ।—रघु० रू०, पृ० ८ ।
⋙ अखर (२) पु
वि० दे० 'अक्षर' ।
⋙ अखर (३) पु
संज्ञा स्त्री० [हि० अखरना] अखरने का भाव या स्थिति । उ०—हाँ, संदूक खोलकर लाना कोई कठिन काम न हीं । अखर तो उसे होती है जिसे कुआँ खोदना पड़ता है ।— काया०, पृ० ३० ।
⋙ अखरताली †
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षर+तल] हस्ताक्षर । हस्तलेख ।
⋙ अखरना
क्रि० अ० [सं० खर = तीव्र कटु] १. दुखदाई होना । कष्टकर होना । उ०—चहचह चिरी धुनि कहकह केकिन की घहघह घनसोर सुनतै अखरिहै ।— भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० २२९ । २. बुरा लगना । खलना । उ०— 'चिट्ठी लगाना सत्तीदीन की स्त्री को अखरता ।'—बिल्ले०, पृ० १६ ।
⋙ अखरा (१) पु
वि० [सं० अ = नहीं+खरा = सच्चा] जो खरा या सच्चा न हो । झूठा । कृत्रिम । बनावटि । उ०—बार बिलासिनी ती के जपे अखरा अखरा नखरा अखरा के ।— पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ अखरा (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अक्षर] वर्ण । अक्षर । हरफ । उ० (क)—जीते कौन, कौन अखरा की रेफ, कैकै, कहा कहै क्रर मीत राखै कहा कहि द्याष दस ।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० १९६ । (ख) रसवंत कवितन को रस ज्यों अखरान के ऊपर ह्वै झलके ।—काई कवि (शब्द०) ।
⋙ अखरा (३) †
संज्ञा पुं० [देश०] बिना कुटे हुए जौ का भूसी मिला आटा जिस गरीब लोग खाते हैं ।
⋙ अखरावट
संज्ञा पुं० [सं० अक्षरावलिः ; अक्षरावर्त] १. वर्णमाला । अक्षरसमुह । २. वर्णानुक्रम के आधार पर निर्मित पद्यसमूह; जैसे जायसी का अखरावट ।
⋙ अखरावटी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अखरावट+ई (प्रत्य०) ] दे० 'अक्षरौटी'—१ । उ०—पंड़ित पढ़ अखरावटी टूटा जोरेहु दोखि ।—जायसी ग्रं०, ३०३ ।
⋙ अखरावलि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षरावलि] अक्षरपंक्ति । उ०— प्रकटित पृथिमी पृथु मुख पंकज अखरावलि मिसि थाइ एकत्र ।— बेलि०, दू० २९३ ।
⋙ अखरोट (१) पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अखरावट'— १. । उ०—पुणजै, सुध अखरोट पिण औ दस दोष अगाध ।—रघु० रू०, पृ० १३ ।
⋙ अखरोट (२)
संज्ञा पुं० [सं० अक्षोट; प्रा० अक्खोड़] एक बहुँत ऊँचा पेड़ जो हिमालय पर भूटान से लेकर कश्मीर और आफगानि- स्तान तक होता है । विशेष—खासिया की पहाड़ियों तथा अन्य स्थानों पर भी यह लगाया याता है । इसकी लकड़ी बहुत ही अच्छी, मजबुत और भूरे रंग की हती है और उसपर बहुत सुँदर धारियाँ पड़ी होती है । इसकी मेज, कुरसी, बंदूक के कुंदे, संदूक आदि बनते है । इसकी छाल रंगने और दवा के काम में भी आती है । इसका फल अंड़ाकार, बहेड़े के समान होता है । सूखने पर इसका छिलका बहुत कड़ा हो जाता है जिसके भीतर से टेड़ा मेड़ा गूदा व मीठी गरी निकलती है । गदे में तेल भी बहुत निकलता है । ड़ंठल और पत्तियों को गाय बैल खाता है । अखरोट बहुत गर्म होता है ।
⋙ अखरोट जंगली
संज्ञा पुं० [हिं०] जायफल ।
⋙ अखरौटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अखरावटी' ।
⋙ अखर्ब
वि० [सं०] १.जो छोटा न हो । बड़ा । लंबा । २. जो क्षुद्र या बौना न हो [को०] ।
⋙ अखर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा [को०] ।
⋙ अखल
संज्ञा पुं० [सं०] गुणी एवं अच्छा वैद्दा या ड़ाक्टर [को०] ।
⋙ अखलाक
संज्ञा पुं० [अ० अखलाक] १. सदाचार । उत्तम आचार । २. सुजनता । शिष्टता [को०] ।
⋙ अखलि
विं० [देश० अक्खलिय] आकुल । व्याकुल । उ०— दुतिया द्वै कुल उधरन धीर, उनमन मनवाँ अखलि सरीर ।— गोरख०, पृ० १८१ ।
⋙ अखसत
संज्ञा पुं० [सं० अक्षत] चावल (ड़ि०) ।
⋙ अखाँगना (१) पु
क्रि० स० [ हि० खाँगना] मारना । उ०—कहै पदमाकर अखाँग्यों तुम लंकपति ।—पदमाकर ग्रं०, पृ० २४८ ।
⋙ अखाँगना (२) पु
क्रि० स० [ सं० अ = नहीं+हि० खाँग = कमी, त्रुटि] त्रुटि न करना । कोताही या कमी न करना । उ०—हमहूँ कलंकपति ह्वैबोई अखाँग्यों है ।— पदमाकर ग्रं०, पृ० २४८ ।
⋙ अखा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आखा' ।
⋙ अखाज पु
वि० [हिं०] दे० 'अखाद्य' । उ०—गम्य अगम्य बिचार न करहीं, खाज अखाज नहीं चित धरहीं ।—कबीर सा०, पृ० ४६४ ।
⋙ अखाड़ पु
संज्ञा पुं० दे० 'अखाड़ा' । उ०—छुद्र घंटि मोहहि नर राजा । इंद्र अखाड़ आइ जनु साजा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ४७ ।
⋙ अखाड़ा
संज्ञा पुं० [सं० अक्षवाट; प्रा०अक्खाड़य] १. वह स्थान जो मल्लयद्ध के लिये बना हो । कुश्ती लड़ने या वसरत करने के लिये बनाई हुई चौखूँटी जगह जहाँ की मिट्टी खोदकर मुलायम कर दी जाती है । मल्लशाला । उ०—चौदह पंद्रह साल के लड़के अखाड़ा गोड़ चुके थे छप्पर की थूनियाँ पकड़े हुए बैठक कर रहे थे ।—काले०, पु० ३ ।२. साधुओं की सांप्रदायिका मंड़ली । जमायत; जैसे—निरंजनी अखाड़ा, निर्वाणी अखाड़ा, पंचायती, अखाड़ा ।३. साधुओं के रहने का स्थान । संतो का अड्डा । ४. तमाशा दिखानेवालों और गाने- बजाने वालों की मंड़ली । जमायत । जमावड़ा । दल; जैसे— 'आज पटेबाजों के दो अखाड़े निकले' (शब्द०) । ५. सभा दरबार । मजलिस । ६. रंगभूमि । रंगशाला । परियों का अखाड़ा । नृत्यशाला । उ०—लड़ते है परियों से कुश्ती पहल- वाने इश्क है, हमको नसिख राजा इंदर का अखाड़ा चाहिए ।—कविता को०, भा० ४, पृ० ३५४ । ७. आँगन । मैदान । मुहा०—अखाड़ा उखाड़ना = अखाड़े के काम में लोगों द्वारा रुचि न लेना । अखाड़ा न जमना । अखाड़ा गरम होना = अखाड़े में काफि लोगों का आना या भीड़भाड़ होना । अखाड़ा जमना = १. अखाड़े काम ठीक ढ़ंग से होना । २. अखाड़े में शामिल होनेवाले और दर्शकों की चहल पहल होना । ३.किसी जगह बहुत से आदमियों का इकट्टा होना । ४. किसी मजलिस, सभा या गोष्ठी में चहल पहल रहना । अखाड़ा न लगना = अखाड़े का काम न होना । अखाड़ा बंद रहना । उ—'और लड़कों को समझ दिया कि कोइ आवे तो कह दें कि अखाड़ा न लगेगा' ।—काले०, पृ० २७ । अखाड़ा निकलना = अखाड़े से संबद्ध लोगों का सामूहिक रूप में निकलना । अखाड़ा बदना = चुनौती देना । ललकारना । अखाड़ा न लगना = दे० 'अखाड़ा जमना' । अखाड़े का जवान = कुश्ती या कसरत से पुष्ट शरीर का व्यक्ति । अखाड़े में आना = लड़ने के लिये सामने आना । अखाड़े में उतरना = दे० 'अखाड़े मे आना' ।
⋙ अखाड़िय़ा (१)
विं० [हिं० अखाड़ा+इया (प्रत्य०)] १. अखाड़े के कामों में सधा हुआ । दंगली पहलवान । २. केवल खाड़ अअपने में हीं लड़नेवाला । दंगल में लड़नेवाला । ३. किसी विषय के ज्ञान में बेजाड़ ।
⋙ अखाड़िया (२)
संज्ञा पुं० कुश्ती लड़नेवाला पहलवान ।
⋙ अखाढ़ पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अषाढ़' । उ०—मास अखाढ़ उन्नत नवेमेघ ।—विद्यापति, पृ० १३१ ।
⋙ अखात (१)
संज्ञा पुं० [पुं०] १. बिना खोदा हुआ स्वाभाविक जलाशय । ताल । झील । २. खाड़ी । ३. मनुष्य द्वारा निर्मित जलाशय [को०] ।
⋙ अखात (२)
विं० बिना खोदा हुआ [को०] ।
⋙ अखाद पु
वि० [हिं०] दे० 'अखाद्य' । उ०— खाद अखाद न छाँड़े अब लौं सब मैं साधु कहावै ।—सूर० १ । १८६ ।
⋙ अखाद्य
विं० [सं०] १. न खाने योग्य । अभक्ष्य; जैसे, गोमांस आदि । २. खाने की वस्तु से भिन्न (को०) ।
⋙ अखाधि पु
विं० [अखाद्य, प्रा० अखादिम] दे० 'अखाद्य' । उ०— की ब्रह्म ज्ञान होये मेथुन मथन करे खाधि अखाधि सनचारा ।—सं० दरिया, पृ० १२१ ।
⋙ अखानी
संज्ञा स्त्री० [सं० अखान+हिं० ई (प्रत्य०)] एक टेढी छड़ी या लकड़ी जिससे दँवरी या गल्ला पीटने के समय खेत से कटकर आए हुए डंठलों को बीच में करते जाते हैं ।
⋙ अखार (१)
संज्ञा पुं० [सं० अक्ष; पा०, प्रा० अक्ख = धुरी+हिं० आर (प्रत्य०)] मिट्टी की छोटा सा लोंदा जिसे कुम्हार लोग चाक के बीच में रख देते हैं और जिसपर थोथा रखकर नरिया उतारते है ।
⋙ अखार (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं० अखाड़ा] दे० 'अखाड़ा' उ०— नट नाटक पतुरिन ओ बाज़ा । आनि अखार सबै तहँ साजा ।— पदमावत, पृ० ६०१ ।
⋙ अखारना †
क्रि० स० [सं० अक्षालना] चारों ओर से अच्छी तरह धोना; जैसे अखारना, पखारना ।
⋙ अखारा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अखाड़ा' । उ०—तहाँ देखि आसरा अखारा । नृपति कछू नहिं बचन उचारा ।—सूर०, ९ । ४ ।
⋙ अखित पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० दे० 'अक्षता' । उ०— दिय अखित सिस केदार साज ।—पृ० रा०, ५८ । ९१ ।
⋙ अखिद्र
वि० [सं०] जो थका न हो । खेदरहित [को०]
⋙ अखिन्न
वि० [सं०] १. खिन्नतारहित । खेदविहिन । उ०—संकेत किया मैने अखिन्न जिस ओर कुंडली छिन्न भिन्न ।—अनामिका, पृ० १२५ । २. क्लेशरहित । दुःखरहित । ३. प्रसन्न । विमल । उ०— तेहिँ प्रौढोक्ति कहै सदा जिन्ह की बुद्धि अखिन्न ।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४९ । ४. अश्रांत । अक्लांत (को०) ।
⋙ अखियात (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अख्यात] आश्चर्य । अचंभा । उ०— ए अखियात जु आउधि आउध, सजै रुकम हरि छेदै सोजि ।— बेलि० दू० १३३ ।
⋙ अखियात (२) पु
वि० १. प्रसिद्ध । आख्यात । उ०— अखियाताँ बाताँ बचै जरा काल डर छड्ड ।—बाँकीदास ग्रं०, भा० ३, पृ० ४६ । २. समग्र । सब । संपूर्ण । उ०—रिण पड़िया ध्रम राख अभँग अखियात उबारै ।—रा रू०, पृ० ३८ । ३. दे० 'अक्षय' उ०—पात सुजस अखियात पयंपै दातव असमर बात दुवै ।— रघु० रू०, पृ० १९ ।
⋙ अखिर पु
वि० [सं० अक्षर, प्रा० अक्खर, पु अख्खिर+हिं०ई (प्रत्य०)] अक्षरवाला । आखर । उ०— प्यंड ब्रह्मांड सम तुलि व्यापीले, एक अषिरी हम गुरमुषि जाँणीं ।—गोरख०, पृ० १०१ ।
⋙ अखिल
वि० [सं०] १. संपूर्ण । समग्र । बिलकुल । पूरा । सब । उ०—अखिल विश्व यह मोर उपाया ।—मानस, ७ ।८७ । २. सर्वांगपूर्ण । अखंड । उ०— तुमही ब्रह्म अखिल अबिनासी भक्तन सदा सहाय ।—सूर (शब्द०) । ३. जो अकृष्ट या बिना जोता हुआ न हो । खेती के योग्य (को०) । यौ०— अखिल विग्रह = समग्र विश्व जिसका शरीर हो, ईश्वर ।
⋙ अखिलात्मा
संज्ञा पुं० [सं०] समग्र विश्व जिसकी आत्मा हो । विश्वात्मा । ब्रह्म [को०] ।
⋙ अखिलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वनस्पति । करैला [को०] ।
⋙ अखिलेश
संज्ञा पुं० [सं०] समग्र सृष्टि का स्वामी । ईश्वर [को०] ।
⋙ अखिलेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'अखिलेश' । उ०—संग सती जग जननी भवानी । पूजे रिषि अखिलेश्वर जानी ।—मानस, १ । ४८ ।
⋙ अखीन पु
विं० [सं० अक्षीण; अक्खीण] न छीजनेवाला । न घटनेवाला । चिरस्थायी । अविनाशी । नित्य । स्थिर । उ०—खसमहि छोड़ि छेम ह्वै रहई । होय अखीन परमपद गहई ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अखीर (१)
संज्ञा पुं० [ अ० अखीर] १. अंत । छोर । २. समाप्ति ।
⋙ अखीर (२)
वि० खत्म । समाप्त । उ०—अखीर हो गए गफलत में दिन जवानी के, बहारे उम्र हुई कब खिजाँ नहीं मालूम ।—कविता कौ०, भा ४, पृ० ३८० ।
⋙ अखीरी (१)
विं० [अ० अखीर+ई (प्रत्य०)] दे० 'अखिरी' ।
⋙ अखीरी (२) पु
वि० [हिं०] दे० 'अखिरी' । उ०— एक अखीरी एकंकार जपीला, सुँनि अस्थूल दोइ वाँणीं ।—गोरख०, १०१ ।
⋙ अखुटना पु
क्रिं० अ० [सं० आ+√ क्षोट (क्षेपे), प्रा० खोट खुट (ला०) अथवा देश०] लड़खड़ना । उ०—अखुटत परत सु विहवल भयौ, डरत डरत सूती गृह गयौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २३१ ।
⋙ अखुटित पु
विं० [ स० अ+कुण्ठ, प्रा०* अखुंट, > अखुंट; अथवा सं० अ = नहीं+√ क्षोट = क्षय, प्रा०*अखोट>अखुट+इत (प्रत्य०)] लगातार । अनवरत । निरंतर । उ०—अखुटित रटत सभाति ससंकित, सुकृत शब्द नहिं पावै ।—सूर० १ । ४८ ।
⋙ अखूट
विं० [सं० अ+√ खुड् = तोड़ना अथवा सं० *अखोडच, प्रा० *अखुडु, अखुड्ड>अखूट] १. जो तोड़ा या खंडित न किया जा सके । अटूट । उ०— सात दीप सात सिंधु थरक थरक करै जाकै डर टूटत अखूट गढ़ राना के । —अकबरी०, पृ०१४३ ।२.जो न घटे या न चुके । अखंड । अक्षय । बहुत । अधिक । उ०—(क) नैना अतिहीं लोभ भरे । संगहिँ संग रहत वै जहँ तहँ बैठत चलत खरे । काहू की परतीति न मानत जानत सबहिनि चोर । लूटत रूप अखूट दाम कौ स्याम बस्य यौँ भोर ।—सूर०, १० । २८८४ । (ख) झूट न कहिए साँच को साँच न कहिए झूट । साहब तो मानै नहीं लागै पाप अखूट ।—दादू (शब्द०) ।
⋙ अखेट पु
संज्ञा पुं० [सं० आखेट] दे० 'आखेट' । उ०— मंत्री कहै अखेट सो करै, विषय भोग जीवन संहरै ।— सूर०, ४ । १२ ।
⋙ अखेटक पु
संज्ञा पुं० [सं० आखेटक]दे० 'आखेटक' । उ०—(क) एक दिवस को अखेटक गयो, जाइ अंबिका बन तिय भयो ।— सूर०, ९ । २ । (ख) इक दिन राव अखेटक चढ़यौ, बिरही मृग मारन रिस भरयौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० १४० ।
⋙ अखेटकी पु
वि० [हिं० अखेटक+ई (प्रत्य०)] शिकारी । अहेरी । आखेटी । उ०—पेट को पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि, अटत गहन बन अहन अखेटकी ।— तुलसी ग्रं०, पृ० २२० ।
⋙ अखेटिक
संज्ञा पुं० [सं० आखेटिक] १. शिक्षित शिकारी कुत्ता । २. कोई भी वृक्ष [को०] ।
⋙ अखेद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दुःख का अभाव । प्रसन्नता । निर्द्वद्वता ।
⋙ अखेद (२)
वि० दुःखरहित । प्रसन्न । हर्षित । उ०—है हरता करतार प्रभु कारण करन अखेद । यह बिचारि चहुँआन के मन उपज्यौ निरबेद ।—हम्मीर० पृ० ६४ ।
⋙ अखेदित्व
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मत में लगातार भाषण देने का वाणी का एक गुण [को०] ।
⋙ अखेदी
वि० [सं०] क्लांतिरहित । अथकित [को०] ।
⋙ अखेलत पु
वि० [सं० अ+खेल = खेलना = बिना खेलते हुए] १. अचंचल । अलोल । भारी । २. आलस्य भरा । उनींदा । उ०— भारी रस भीजे भाग भायनि भुजन भरे, भावते सुभाइ उपभोग रस मोइगे । खेलत हीं खेलत अखेलत हीं आँखिन सोँ खिनखिन खीन ह्नै खरे ही खिन खोइगे ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अखै पु
वि० [सं० अक्षय,पा० प्रा० अक्खय] अक्षय । अविनाशी । उ०—मन मस्त हरती मिलाइ अवधू त्ब लूटि लै अषै भंडारं ।—गोरख०, पृ० २७ । यौ०—अखैपद = निर्वाण । अखैपुरष = ईश्वर । अखैवट, अखै— वर = अक्षयवट ।
⋙ अखै तीज पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षय तृतीया] अखती की तीज । अक्षय तृतीया । उ०—अखै तीज तिथि के दिना गुरु होवै संजूत । तौ भाखै यों भड्डरी निपजै नाज बहूत ।—घ घ०, पृ० १४५ ।
⋙ अखैनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अखान] चार पाँच हाथ लंबी बाँस की लग्गी जिसके एक छोर पर एक टेढ़ी छोटी लकड़ी चोंच की तरह बँधी होती है । खलिहान में जब अनाज कटकर आता है तब इसी से उलट फेरकर उसे सुखाते हैं । अखानी ।
⋙ अखैबट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अक्षयवट' । उ०— सु अखैबट बीज लौँ फैलि परयो बनमाली कहाँ धौं समोय चले ।—घनानंद, पृ० ११४ ।
⋙ अखैबर †
संज्ञा पुं० [सं० अक्षयबट, प्रा० अखयवड] अक्षयवट ।
⋙ अखैवड़ पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० अखैवट' । उ०— कवण अखैवड़ विगर, प्रलै सागर सिर सोभै ।—रा० रू०, पृ० ५३ ।
⋙ अखोट
वि० [सं०अ+*√ क्षोट, प्रा० खोट] दोषरहित । शुद्ध । निश्छल । उ०—चढ़ी अटारी बाम वह कियो प्रनाम अखोट । तरनि किरन तें दृगन कौँ कर सरोज की ओट ।—मति० ग्रं०, पृ० २८८ ।
⋙ अखोर (१) पु
वि० [हिं० अ = नहिं+फा० ख्वार] १. अच्छा । भद्र । सज्जन । २. सुंदर । स्वरूपवान । ३. बुराई से बचा हुआ । निर्दोष । बेऐब ।
⋙ अखोर (२)
वि० [फा० अखोर] निकम्मा । तुच्छ । बुरा । सड़ा गला । आखोर ।
⋙ अखोर (३)
संज्ञा पुं० १. कूड़ा करकट । निकम्मी चीज; जैसे—'कहाँ का अखोर बाजार से उठा लाए' ।—(शब्द०) । २. खराब घास मुरझाई घास । बुरा चारा । बिचाली । उ०—खाय अखोर भूख नित टारी, आठ गाठ को लगी पिछारी ।— लल्लू० (शब्द०) ।
⋙ अखोल पु
वि० [हिं० अ = नहीं+खोलना] जिसे खोला न जा सके । कसा हुआ । दृढ़ । उ०—रसना जुगल रसनिधि बोल । कनक बेलि तमाल अरुभी सुभुजबंध अखोल ।—सूर०, १० । २१३२ ।
⋙ अखोला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अकोला' ।
⋙ अखोह
संज्ञा पुं० [सं० क्षोभ = असमानता] ऊची नीची भूमि । ऊबड़ खाबड़ पृथ्वी । असम भूमि ।
⋙ अखौट
संज्ञा पुं० [सं० अक्ष, पा० प्रा० अक्ख = घुरा+हिं० ओट (प्रत्य०)] १. जाँता या चक्की के बीच की खूँटी जिसपर ऊपर का पाट घूमता है । जाँते की किल्ली । २. लकड़ी या लोहे का डंडा जिसपर गड़ारी पाट घूमती है ।
⋙ अखौटा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अखौट' ।
⋙ अख्खना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'अखना' ।
⋙ अख्खर
संज्ञा पुं० [सं० अक्षर; प्रा० अक्खर] अक्षर । हरफ । वर्ण । उ०—एकै अख्खर पीव का सोई सत करि जाणि । राम नाम सतगुरु कह्या दादू सो परवाणि ।—दादू०, भा० १, पृ० ३२ ।
⋙ अख्खाह
अव्य० [अ० अखअख > अख्खाह] उद्वेग या आश्चर्यसूचक शब्द । उ०—'अख्खाह । आईए बैठिए । अख्खाह आप भी इसमें लगे हुए है ।'—(शब्द०) । विशेष—जब एक व्यक्ति किसी से सहसा मिलता है अथवा उसे स्वभावविरुद्ध काम करते देखता है तब इस शब्द का प्रयोग करता है । वास्तव में यह फारसीवालों का किया हुआ 'अहा' शब्द का रूपांतर है ।
⋙ अख्खिर पु
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'अख्तर' । उ०—जे वेधे गुर अख्खिरां तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध ।—कबीर ग्रं०, पृ० २२ ।
⋙ अख्खै पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अख्खर' । उ०— दौरि राज पृथिराज सु आयो । खमा खमा अख्खै उच्चायो ।—पृ० रा०, ४ ।६ ।
⋙ अख्ज
संज्ञा पुं० [अ० अख्ज] लेना । ग्रहण । क्रि० प्रं०— १. लेना । ग्रहण करना । २. निष्कर्म निकालना । सारांश निकालना ।
⋙ अख्तयार
संज्ञा पुं० [अ० इख्तियार] दे० 'इख्तियार' । उ०— मिलने को तुझसे दिल तो मेरा बेकरार है । तू आके मिल न मिल ये तेरा अख्तयार है ।—शेर०, भा० १,पृ० ३६३ ।
⋙ अख्तर
संज्ञा पुं० [फा० अख्तर] नक्षत्र । तारा । सितारा । उ०— सीन-ए-चर्ख में हर अख्तर अगर दिल है तो क्या । एक दिल होता मगर दर्द के काबिल होता ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४२२ । २. भाग्य । प्रारब्ध । किस्मत (को०) । मुहा०—अख्तर चमकना = भाग्योदय होना । नसीब खुलना । अच्छे दिन आना ।
⋙ अख्तरशुमार
संज्ञा पुं० [फा० अख्तरशुमार] नक्षत्रों को विद्या का जानकार । ज्योतिषी [को०] ।
⋙ अख्तरशुमारी
संज्ञा स्त्री० [फा० अख्तरशुमारी] १.नक्षत्रगाणना की विधा । भाग्य जानने की विद्या । २.आसमान से तारों को गिन गिनकर रात काटना । बेचैनी से रात काटना । उ०— शब उसने तोड़कर मोती के सुमरन मुझसे से गिनवाए । दिखाया वस्ल में आलम नया अख्तरशुमारी का । —शेर०, भा०१,पृ०२१७ ।
⋙ अख्तावर
संज्ञा पुं० [फा० आख्ता+वर(प्रत्य०)] वह घोड़ा जिसे जन्म से ही अडकोश की कोड़ी न हो या कृत्निम उपाय से नष्ट कर दी गई हो । विशेष—जन्म से नपुंसक घोड़ा ऐबी समाझा जाता हैं ।
⋙ अख्तियार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'इख्तियार' । उ०—कुछ हाथ उठा के माँग न कुछ हाथ उठा के देख । फिर अख्तियार खातिरे बेमुद्दआ के देख । —शेर० भा० ४, पृ० ५८ ।
⋙ अख्त्यार पु
संज्ञा पुं० [हि०]दे० 'इख्तियार' । उ०— कीजे कया हाली न कीजे सादगी गर अख्त्यार । बोलना आए ना जब रंगीं बयानों की तरह । —कविता कौ०, भा०४, पृ०५६९ ।
⋙ अख्यात
वि० [सं०] १.अप्रसिद्ध । अज्ञात । २.जिस कोई जानता न हो । अविदित । ३.अख्यातियुक्त । अप्रतिष्ठित [को०] ।
⋙ अख्याति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्रसिद्धि । प्रसिद्धि का अभाव [को०]
⋙ अख्यातिकर
वि० [सं०] १. अपमानकर । अप्रसिद्धि करनेवाला । अकीतिंकर । बदनामी फैलानेवाला ।
⋙ अख्यान पु
संज्ञा पुं० [सं० आख्यान; प्रा० अक्खाण] दे० 'आख्यान' । उ०— अब अख्यान बखानहूँ भुवन सिंह चौहान ।— रामरसिक०, पृ० ६९९ ।
⋙ अख्यायिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अख्यायिका] दे० 'अख्यायिका' ।
⋙ अगंज पु
वि० [स० अ = नहीं+ √ गञ्ज] न जीता जानेवाला । अपराजेय । उ०—पंत्नह सहस पसबान साहि । अंगन अगंज को सकै गाहि । —पृ,० रा, १३ । १९ ।
⋙ अगंड़
संज्ञा पुं० [सं० अगण्ड] बिना हाथ पैर का कबंध । धड़ जिसके हाथ पैर कट गए हों ।
⋙ अगंत पु †
क्रि० वि० [सं० अग्रतः प्रा० अग्गत अगंत] सामने । आगे । उ०—मेल्हन उजीर पहुँच्यौ तुरंत रनथंभ कोट देख्यौ अगंत । —हम्मीर०,पृ० १७ ।
⋙ अगंता (१)
वि० [सं० अगन्ता] चलने या गमन न करनेवाला [को०] ।
⋙ अगंता (२) †
वि० [सं० अग्र+गंता] १.आगे बढा़ हुआ । अगाड़ी । २. पेसागी । अगता । अग्रिम ।
⋙ अगंध
वि० [सं० अगन्ध] गंधरहित । गंधहीन [को०] ।
⋙ अग (१)
वि० [सं०] १. न चलनेवाला । अचर । स्थावर । उ०—तव विषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे । —मानस, ७ । १३ । २. टेढ़ा चलनेवाला । ३.पहुँच के बाहर । [को०] ।
⋙ अग (२)
संज्ञा पुं० १. पेड़ । वृक्ष । २. पर्वत । पहाड़ । — गए पूरि सर धूरि भूरि भय अग थल जलधि समान । —तुलसी ग्रं, पृ० ३८१ । ३. पत्थर (को०) । ४.वृक्ष । पादप (को०) । ५.सूर्य(को०) । ६. जलपात्न (को०) । ७.सात की संख्या का वाचक शब्द (को०) ।
⋙ अग (३)पु
वि० [सं० अज्ञ] अनजान अनाड़ी । मूढ़ ।
⋙ अग (४)पु
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग] शरीर । अंग (डि०) ।
⋙ अग (५) †
संज्ञा पुं० [सं० अग्र; प्रा० अग्ग] ऊख के सिरे पर का पतला भाग जिसमें गाँठ बहुत पास पास होती हैं और जिसका रस फीका होता हैं । अगौरा ।
⋙ अग (६) पु †
क्रि० वि० [हि०] दे० 'आगे' । उ०—संबत नब सत अद्ध बरष दास तीय सत्त अग । पुर प्रविष्ट वीसल नरिंद राजंत सयल जग । — पृ० रा०, १ । ४७२ ।
⋙ अगई पु †
वि० [सं० अग्रिम] अगला । आगे का । अग्रिम । उ०— राजा पाड्यो लीयो हो बालाई । अगइं बात कहौ समझाय । — बी० रासा, पृ०८९ ।
⋙ अगई
संज्ञा पुं० [देश०] चलता जाति का एक पेड़ । विशेष—यह अवध, बंगाल, मध्यप्रदेश और मद्रास में बहुतायत से होता हैं । इसकी लकड़ी भीतर सफेदी लिए हुए लाल रंग की होती हैं और जाहाजों तथा मकानों में लगती हैं । इसका कोयला भी बहुत अच्छा होता है । इसके पत्ते दो दो फुट लंबे होते हैं और पत्तल का भी काम देते हैं । इसकी कली और कच्चे फलों की तरककारी भी बनती है ।
⋙ अगच्छ (१)
वि० [सं०] जान न चले । अगमनशील [को०] ।
⋙ अगच्छ (२)
संज्ञा पुं० वृक्ष । पेड़ [को०] ।
⋙ अगज (१)
वि० [सं०] पर्वत से उत्पन्न होनेवाला । २. वृक्ष से उत्पन्न (को०) । ३.पर्वतों पर घूमनेवाला । गिरिचर (को०) ।
⋙ अगज (२)
संज्ञा पुं० १.शिलाजीत । २. हाथी ।
⋙ अगज (३)पु
संज्ञा पुं० [अ० अगश] श्वेत रंग के सिरवाला अश्व । उ०—अबलक अबसर अगज सिराजी । चौधर चाल समुँद सब ताजी । — पदमावत, ५१६ ।
⋙ अगजग
संज्ञा पुं० [सं अग+जग] चराचर । जड़ चेतन । उ०— अगजन उनका कण कण उनका । पल भर वे निर्मम हों । झरते नित लोचन मेरे हों । —यामा, पृ१८१ ।
⋙ अगजा
संज्ञा स्त्री० [सं०अग = पर्वत+जा = पुत्नी] हिमालय की पुत्नी, पार्वती [को०] ।
⋙ अगट (१)
संज्ञा पुं० [देश०] चिक या मांस बेचनेवाले की दूकान ।
⋙ अगट (२)पु
क्रि० अ० [सं० एकत्र, एकस्थ, प्रा०एकट्ठ] इकट्ठा होना । एकत्र होना । ज़मा होना ।
⋙ अगड़ पु
संज्ञा पुं० [सं०, अर्गल, प्रा० अग्गल] सिक्कड़ जिसमें हाथी बाँधे जाते हैं । उ०—चिहूँ ओर हरषी छुटे, परै अगड सुमार । गोला लगै गिलोल गुरु छुटैन तो इसरार । —पृ० रा०, ६ । ३२५ ।
⋙ अगड़ पु
संज्ञा पुं० [हि० अकड़ या अ० मा० अगड] अकड़ । ऐंठ । दर्प । उ०— सोभ मान जाग पर किए सरजा सिवा खुमान । साहिन सों बिनु उर अगड़ बिनु गुमान को दान ।— भूषण(शब्द०) ।
⋙ अगड़धत्त
वि० [हि०] दे० 'अगड़धत्ता । ' ।
⋙ अगड़धत्ता
वि० [देशी] १. लंबा तड़ंगा । ऊँचा । २.श्रष्टा । बाढा़- चढा़ । उ०—एक पेड़ अगड़धत्ता । जिसमों जड़ ना पत्ता । — पहेली [उतर-अमरबेल ।]
⋙ अगड़बगड़ (१)
वि० [सं० अकृत+विकृत, अकड+विकड, अगड़ विकड़] अंड बंड । बे सिर पैर का । ऊलजलूल । क्रमविहीन ।
⋙ अगड़बगड़ (२)
संज्ञा पुं० १अंडबंड बात । बे सिर पैर की बात । प्रलाप । २. अंडबंड काम । व्यर्थ का कार्य । अनुपयोगी कार्य । उ०—'वह दूकान पर नहीं बैठता, दिन रात अगड़बगड़ किया करता है (शब्द०) । ' ।
⋙ अगड़म बगड़म (१) †
वि० [हि०] दे० 'अगड़बगड़' ।
⋙ अगड़म बगड़म (२)
संज्ञा पुं० [सं० अकृतम्+विकृतम् अथवा अनु०] १. दे० 'अगड़बगड़' । २.टूटे फूटे सामान और काठकवाड़ का ढेर ।
⋙ अगड़ा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० अकण अथवा देश०] ज्वार बाजरा आदि अनाजों की बाल जिसमें दाना झाड़ लिया गया हो । खुखड़ी । अखरा ।
⋙ अगड़ा (२)
वि० [सं० अग्र; प्रा० अग्गला] दे० 'अगरा,' 'अगला' ।
⋙ अगड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अगरी २' ।
⋙ अगण
संज्ञा पुं० [सं०] अशुभ गण । बुरा गण । विशेष— पिंगल या छेदशास्त्र में तीन तीन अक्षरों के जो आठ गण माने गए हैं, उनमें से चार अर्थात्-जगण, रगण, सगण और तगण अशुभ माने गए हैं और अगण कहलाते हैं । इनको कविता के आदि में रखना बुरा समझा जाता । पर यह गणागण का दोष मात्निक छंदों में ही माना जाता है, वर्ण वृत्तों में नहीं । उ०—इहाँ प्रयोजन गण अगण और द्विगण को काहि । — छंदः ०, पृ० ११२ ।
⋙ अगणत पु †
वि० [हिं०] दे० 'अगणित' । उ०— हेक बिदर पैदा हुवै अगणत मिलिया अंस । —बाँकी० ग्रं, भा० २,पृ०८५ ।
⋙ अगणन
वि० [सं०] असंख्य । अनगिनत । उ० — प्रलय के समय में जब ज्ञान- ज्ञेय- ज्ञाता- लय होता है अगणन ह्रह्मांड ग्रास करके ।—अनामिका, पृ १०१ ।
⋙ अगणनीय
वि० [सं०] १. गिनने योग्य । सामन्य । २. अनगिनती । असंख्य बेशुमार ।
⋙ अगणित
वि० [सं०] १. जिसकी गणना न हो । अनगिनत । असंख्य । बेशुमार । बहुत । बेहिसाब । अनेक । उ०—ऐसे ही अगणित यत्नों से तुम्हें जागत ने पाया है । —साकेत,पृ० ३७० । २. जो गिना न गया हो । जो गिनती में न आया हो (को०) । ३. उपेक्षित । तुच्छ (को०) ।
⋙ अगणित प्रतिंयात
वि० [सं०] सूचना न प्राप्त होने के कारण या ध्यान आकृष्ट न होने के कारण वापस [को०] ।
⋙ अगणितलज्ज
वि० [सं०] लज्जा का ध्यान न रखनेवाला । निर्लज्ज [को०] ।
⋙ अगण्य
वि० [सं०] १. न गिनने योग्य । सामान्य । तुच्छ । २. असंख्य । बेशुमार । उ०— गूँजे गगनांगण में ये अगण्य गान ।— गीतिका, पृ०८७ ।
⋙ अगत (१) पु
नि० [सं० अगति] जहाँ गति न हो । अगम्य । —(क) उनकी मेहर से वे मिले सब जो अगत गाई जिनन । —संत तुरसी०, पृ०४३ ।
⋙ अगत (२)
अव्य० [सं० अग्रतः, प्रा० अग्गत] अगे चलो । हाथियों को आगे बाढ़ाने के लये महावतों द्वार प्रयुक्त शब्द । महावत लोग हाथी को आगे बढ़ाने के लिये 'अगत', 'अगत' कहते हैं ।
⋙ अगत (३) पु †
स्त्री० [सं० अगति] बुरी गति । दुर्दशा । दुर्गति । उ०—मन प्रकार सुख शक्र लख जन रामा हरि बिन अगत । — राम० धर्म, पृ० २४५ ।
⋙ अगता (१)
वि० [सं० अग्रतः] १. आगे स्थित । अगाड़ी । उ०—बाएँ सो दहिने पीछे सोइ अगता । अर्ध अर्ध सम घटत न बढ़ता । — भीखा श०, भा० ३, पृ०४२ । २. अग्रिम । पेशगी ।
⋙ अगता (२)
संज्ञा पु० [फु० आख्तः] बधिया किया हुआ घोड़ा [को०] ।
⋙ अगति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.बुरी गति । दुर्गति । दुर्दशा । दुरवस्था । उ०—ऋधि सिधि चारि सुगति जा बिनु गति अगति ।—तुलसी ग्रं०, पृ०३६० । क्रि० प्र०— करना । —होना । २.गति का उलटा । मरने के पीछे शव की दाह आदि किया का यथाविधि न होना । मृत्यु के पीछे की बुरी दशा । मोक्ष की अप्रप्ति । बंधन । नरक । उ०—काल कर्म गति अगति जीव की सब हरि हाथ तुम्हारे । —तुलसी (शब्द०) । । क्रि० प्र०— करना उ०— कहों तो मारि संहारि निशाचर रावण करौ अगति को । —सूर०(शब्द०) । ३.स्थिर या अचल पदार्थ । केशव के अनुसार २८ वर्ण्य विषय है । इनमें से जो स्थिर या अचल हों उनकी अगति संज्ञा दी हैं; यथा—अगति सिंधु गिरि ताल तरु वापी कूप बखानि । —केशव (शब्द०) । उ०—कौलौं राखौं थिर वपु, वापी कूप सर सम, हरि बिनु कीन्हें बहु बसिर व्यतीत मैं । —केशव (शब्द०) । ४. गति का अभाव । स्थिरता । उ०— न तो अगति ही हैं न गति आज किसी भी ओर, इस जीवन के झाड़ में रही एक झकझोर । — साकेत, पृ, २८९ । ५. पहुँच या सहायता की कमी (को०) । ६. पूर्णता का अभाव या कमी (को०) ।
⋙ अगति (२)
वि० १ जिसकी गति न हो । निरुपाय । अगतिक । उ०— इस पिता ही की चिंता के पास, मुझ अगति को भी मिले चिरवास । — साकेत, पृ, २०० । २. सहायता का । असहाय (को०) ।
⋙ अगतिक
वि० [सं०] १. जिसकी कहीं गति या पैठ न हो । जिसे कहीं ठिकीना न हो । बेठिकाना । अशरण । अनाथ । निराश्रय । उ०—अगतिक की गति दीनदयाल । —कोई कवि (शब्द०) । २. मरने पर जिसकी अंत्येष्टि क्रिया आदि न हुई हों ।
⋙ अगतिकगति
वि० [सं०] गतिहीन या निरूपायों का आश्रय । अशरण शरण (भगवान्) [को०] ।
⋙ अगतिमय
[वि० सं० अगति+मय] गतिहीन । जड़ । उ०— अरे पुरातन अमृत अगतिमय मोह मुग्ध जर्जर अवसाद । —कामायनी, पृ०१८ ।
⋙ अगती (१) पु
वि० [सं० अगति] १. जो गति या मोक्ष का अधिकारी न हो । बुरी गतिवाला । २. पापी । कुमार्गीं । दुराचारी । कुकर्मी । ३. दे० 'अगति' ।
⋙ अगती (२)
संज्ञा पुं० पापी मनुष्य । कुकर्मी कुमार्गी व्यक्ति । पातकी मनुष्य । उ० (क) जय जय जय जय माधव बेनी । जगहित प्रगट करी करुनामय अगतिन को गति देनी ।—सूर०,९ ।११ । (ख)दे्खि गति गोपिका की भूलि जाति निज गति अगतिन कैसे धौँ परम गति देत हैं ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ अगती (३)
संज्ञा स्त्री० चकवँड़ । दादमर्दन । दद्रुध्न । चक्रमर्द ।
⋙ अगती (४) †
वि० स्त्री० [सं०अग्रतः] अगाऊ । पेशगी ।
⋙ अगती (५)
क्रि० वि० आगे से । पहले से ।
⋙ अगतीक
वि० [सं०] १. जिसपर चलना । अनुचित हो कुपथ । कुमार्ग । २. दे० 'अगतिक' [को०] ।
⋙ अगत्तर †
वि० [सं० अग्रतर] आनेवाला ।
⋙ अगत्ती †
संज्ञा पुं० [सं० अरतीक] शरारती । नटखट ।
⋙ अगत्या
कि० वि० [सं०] १.आगे से । भविष्य में । २. अगे चलकर । पीछे से । अंत में । अकस्मात् । सहासा ।
⋙ अंगदकार
संज्ञा पुं० [सं० अगदङ्कार] वैद्य । चिकित्सक [को०] ।
⋙ अगद (१)
वि० [सं०] १. नारोग । चंगा । स्वस्थ । २. न बोलने या कहनेवाला (को०) ।३.न्याय द्वार मुक्त । अभियोगमुक्त । (को०) । ४. व्याधिरहित । निष्कंटक । निर्दोष । उ०—रीझि दियौ गुरु जाहि अगद वृंदाबन पद कौं ।—ब्रजमाधुरी०, पृ० २५२ ।
⋙ अगद (२)
संज्ञा पुं० १. औषधि । दवा । २. स्वास्थ्य । रोग का अभाव (को०) ।३. अष्टांग आयुर्वेद का एक अंग । अगद तंत्न (को०) ।
⋙ अगदतंत्न
संज्ञा पुं० [सं० अगदतंत्न] आयुर्वेद के आठ आंगों में से एक जिसमें सर्प, बिच्छू आदि के विष से पीड़ित मनुष्यों की चिकित्सा का विधान हैं ।
⋙ अगदराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. ओषधियों का राजा । चंद्रमा । उ०— एकादश अध्याय यह अगदराज की धार । पान करहु नर चित्त दै मिटै रोग संसार ।—नंद० ग्रं०, पृ० २५९ । २.उत्तम या अव्यर्थ ओषधि (को०) ।
⋙ अगदवेद
संज्ञा पुं० [सं०] आयुर्वेद [को०] ।
⋙ अगदित
वि० [सं०] न कहा हुआ । अकथित [को०] ।
⋙ अगन (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि] १. दे० 'अग्नि' । उ०—इम लगन ऊपर आविया मझ अगन लागो मेह ।—रघु० रू०, पृ०३७ । २. अगिन नाम की एक चिड़िया । उ०—अगन से मेरे पुलकिन प्राण, सहस्त्रों सरस स्वरों में कूक तुम्हारा करते हैं आह्वान ।—पल्लव, पृ०१९ ।
⋙ अगन (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अगण] दे० 'अगण' । उ०—मन यम शभ चारि हैं र स ज त अगनौ चारि ।—भिखारी० ग्रं०, भा०१. पृ० १७० ।
⋙ अगन (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गण] दे० 'आँगन' ।
⋙ अगन पु
वि० [सं० अगण्य; प्र० अगन्न] असंख्य । बेशुमार । उ०—(क) साँब कौं लक्षमना सहित ल्याए बहुरि दियौ दाइज अगन गनि न जाई ।— सूर०, १० ।४२०९ । (ख) सासि अखंड मंडल जु गगन मैं । राजत भयौ नक्षत्र अगन मै ।— नंद० ग्रं, पृ०२९२ ।
⋙ अगनइता पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अगनेत' ।
⋙ अगनत पु
वि० [हि०] दे० 'अगणित' ।
⋙ अगनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि] दे० 'अग्नि' । उ०—अगनि तें दीपक अनगन बरैं । बहुरि आनि सब तिन मैं ररैं ।—नंद० ग्रं०, पृ०१४४ ।
⋙ अगनिउ पु
संज्ञा पुं० [सं० आग्नेय] आग्नेय को कोण । दक्षिण पूर्व का कोना । उ०— तीज एकादसि अगनिउ मौर । चौथ दुआदसि नैऋत बौर ।— जायसी(शब्द०) ।
⋙ अगनित पु
वि० [हिं०] दे० 'अगणित' । उ०—उमा महेस विवाह बराती । ते जलचर अगनित बहु भाँती ।—मानस, पृ०२६ ।
⋙ अगनिया पु †
वि० [अगणित, प्रा० अगणिय] दे० 'अगणित' । उ०— बारी, बरा, बेसन बहु भाँतिनि, व्यजन बिबिध अगनिया ।— सूर०,१० ।२३८ ।
⋙ अगनी (१) पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि] दे० 'अग्नि' । उ० —स्रवननि बचन सुनत भइ उनकै ज्यौं घृत नाए अगनी ।— सूर०, १० ।४१२५ ।
⋙ अगनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्र] घोड़े के माथे पर की भौँरी या घूमे हुए बाल ।
⋙ अगनी (३)पु
वि० [सं० अगणित] अनगिनत । असंख्य ।
⋙ अगनू पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आग्नेय] अग्निकोण । उ०— तीज एकादसि अगनू मारी । चौथ दुआदश नेऋत बारी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अगनेउ पु
संज्ञा पु० [सं०आग्नेय; अप० अगनेउ] आग्नेय दिशा । अग्निकोण । उ०—छठएँ नेऋत दच्छिन सतें । बसे जाय अगनेउ सो अठें ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अगनेत पु
संज्ञा पुं० [सं० आग्नेय] आग्नेय दिशा । अग्निकोण । उ०— भौम काल पच्छिम बुध नैरिता । दच्छिन गुरु शुक्र अगनेता ।— जायसी (शब्द०)
⋙ अगनेव पु
वि० [सं० आग्नेय] अग्नि संबधी । उ०— सीत भीत आदीत बास अगनेव कोण किय ।—पृ० रा०, ६३ । १९९० ।
⋙ अगबान पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अग्निबाण' । उ०—बज्जि गहर नीसांन अग्नि अगवान बिछुट्टिया ।—पृ० रा० १ ।६२९ ।
⋙ अगम (१)
वि० [सं० अगम्य] १. जहाँ कोई जा न सके । न जाने योग्य । पहुँच के बाहर । दुर्गम । अवघट । गहन । उ०— (क) अव अपने यदुकुल समेतलै दूरि सिधारे जीति जवन । अगम सू पंथ दूरि दक्षिण दिसि तहँ सुनियत सखि सिंधु लवन ।—सूर (शब्द०) ।(ख) है आगै परबत की पाटी । बिषम पहार अगम सुटि घाटी — जायसी (शब्द) । २. विकट । कठिन । मुश- किल । उ०— एक लालसा बड़ि उर माही । सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ।—तुलसी । (शब्द०) । ३.न मिलने योग्य । दुर्लभ । अलभ्य । उ०— सुनु मुनीसबर दरसन तोरे । अगम न कछु प्रतीति मन मोरे । —तुलसी (शब्द०) । ४. अपार । अत्यंत । बहुत । उ०— समुझि अब निरखि जानकी मोहिं । बड़ो भाग गुनि अगम दसानन सिव बर दीनौ तोहिं । —सूर०, ९ । ७७ ।५. न जानने योग्य । बुद्धि के परे । दुर्बोध । उ०—अवि- गत गति कछु कहत न आवै । सब विधि अगम बिचारहिं तातै सूर सगुन लीला पद गावै ।—सूर०, १ । ९ । ६. बहुत गहरा । अथाह । उ०—'यहाँ पर नदी में अगम जल है' (शब्द०) । उ०— तिन कहुँ मानस अगम अति जिन्हहिं न प्रिय रघुनाथ ।— मानस, १ ।३८ ।७.विशाल । बड़ा । उ० —कैसे बचे अगम तरु कैं तर मुख चूमति यह कहि पछितावतिँ ।— सूर०, १० ।३९० । ८.जिसे वश में न किया जा सके । सुदृढ़ । उ०—लंका बसत दैत्य अरु दानव उनके अगम सरीर ।— सूर०, ९ ।८६ ।
⋙ अगम (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० आगम] १शास्त्र । आगम । उ०— तुलसी महेस को प्रभाव भाव ही सुगम, निगम अगम हू को जानिबो गहनु है ।— तुलसी ग्रं०, पृ० २३७ । यौ०— अगम निगम = आगम निगम । उ०—चितयौ चित दुज- राज तब अगम निगम करि कढ्ढयौ ।— पृ० रा०, ३ ।२० २. आगम । आवाई । उ०— देखौ माई स्याम सुरति अब आवै । दादुर मोर कोकिला बोलैं पावस अगम जनावै ।—सूर०, १० ।३३१२ ।
⋙ अगम (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष । २. पर्वत [को०] ।
⋙ अगम (४)
वि० १. न चलनेवाला । चलने के अयोग्य । अगंता ।२. अजंगम । स्थावर (को०) ।
⋙ अगमति पु
वि० [सं० अगम+अति] बहुत विशाल । अत्यंत अगम । उ०—मोहन, मुर्छन, बसीकरन पढ़ि अगमति देह बढ़ाउँ ।—सूर०१० ।४९ ।
⋙ अगमन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गति या गमन का अभाव । न चलना [को०] ।
⋙ अगमन (२)
क्रि० वि० [सं० अग्रवान्] १. आगे । पहले । प्रथम । उ०— (क) नाम न जानै गाँव का भूला मारग जाय । काल्ह गड़ैगा काँटवा अगमन कस न कराय ।— कबीर सा०, पृ० ७३ । (ख)तब अगमन ह्वै गोरा मिला । तुइ राजा लै चल बादला ।—जायसी (शब्द०) । (ग) पग पग मग अगमन परत चरन अरुनदुति झूलि । ठौर ठौर लाखियत उठे दुपहरिया से फूलि ।—बिहारी र०, दो० ४९० । २. आगे से । पहले से । उ०— पिय आगम ते अगमनहिं करि बैठी तियमान ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ अगमना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'आगमना' ।
⋙ अगमनीया
वि० स्त्री० [सं०] न गमन करने योग्य (स्त्री) । जिस स्त्री के साथ संभोग करने का निषेध हो । अगम्या ।
⋙ अगमने पु
क्रि० वि० [हि०] दे० 'अगमन' । उ०—पौढे़ हुत पर्यक परम रुचि रुक्मिणि चमर ड़ुलावाति तीर । उठि अकुलाइ अगमने लीने मिलत नैन भरि आए नीर । —सूर (शब्द०) ।
⋙ अगमनो पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अगमन' । उ०— निसिचर सलभ कृसानु राम—सर उड़ि उड़ि परत जरत खल जैहैं । रावन करि परिवार अरमनो जमपुर जात बहुत सकुचैहैं ।—तुलसी ग्रं०, पृ०३९३ ।
⋙ अगमानी (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्र+मानी] अगुआ । नायक । सरदार । उ०— (क) है यह तेरे पुत्र कौ रन अगमानी भूप । नाम जासु दुष्यंत है कीरति जासु अनूप । —शकुंतला, पृ० १४८ ।(ख) जीत्यो गयो न इंद्न पै बल सों जो रिपु बंस । रन अगमानी तुम किए करन ताहि विध्वंस ।—शकुंतला,पृ० १२९ ।
⋙ अगमानी (२) पु †
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अगवानी' । उ०—जबती करने आइया हम भी यह जानी, बीबी साहब संगलै हू वे अगमानी ।— सुजान०, पृ० ६९ ।
⋙ अगमासी पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अगवाँसी' ।
⋙ अगमी †
वि० [हि०] दे० 'आगमी' । उ०—ना मै पंडित पढ़ि गुणि जानौ ना कुछ ज्ञान विचार । ना मैं अगमी जोतिग जानौं ना मुझ रूप सिंगार ।—दादू०, पृ० ५६९ ।
⋙ अगमैया पु †
वि० [सं० अगम्य] बुद्धि से परे । न जानने योग्य । अज्ञेय । दुर्बोध । उ०—ब्रज मैं को उपज्यो यह भैया । संग सखा सब कहत परसर इनके गुन अगमैया ।—सूर० १० ।४२८ ।
⋙ अगम्य
वि० [सं०] १. न जाने योग्य । २. जहाँ कोई जा न सके । पहुँच के बाहर । अवघाट । गहन ।३. विकट । कठिन । मुश- किल ।४.अपार । बहुत । अत्यंत ।५. जिसमें बुद्धि न पहुँचे । बुद्धि के बाहर । अज्ञेय । दुर्बोध । उ०—गम्य अगम्य अंश दो रहई । तीन देव वहाँ लगि कहई ।—कबीर सा०, पृ० ९०९ । ६. अथाह । बहुत गहरा । ७. जिससे विषय भोग अनुचित हो [को०] ।
⋙ अगम्यगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसने वर्जित या अपात्र पुरुष से संप्रयोग किया हो [को०] ।
⋙ अगम्यरूप
वि० [सं०] जिसकी स्थति या रूप बोध से परे हो [को०] ।
⋙ अगम्या (१)
वि० स्त्री० [सं०] नगमन करने योग्य । मैंथुन के अयोग्य ।
⋙ अगम्या
संज्ञा स्त्री० १. न गमन करने योग्य स्त्री । वह स्त्री जिसके साथ संभोग करना निषिद्ध है; जैसे—गुरूपत्नी, राजपत्नी, सौतेली माँ, माँ, कन्या, पतोहू, सास, गर्भवती स्त्री, बहिन, सती, सगे भाई की स्त्री, भांजी, भतीजी, चेली, शिष्य़ की स्त्री, भांजे की स्त्री, भतीजे की स्त्री, इत्यादि ।२. अंत्यज स्त्री । अंत्यजा (को०) ।
⋙ अगम्यागमन
संज्ञा पुं० [सं०] अगम्या स्त्री से सहवास । उस स्त्री के साथ मैथुन जिसके साथ संभोग का निषेध है ।
⋙ अगम्यागमनीय
वि० [सं०] अगम्यागमन से संबंधित [को०] ।
⋙ अगम्यागामी
वि० अगम्या स्त्री के साथ सह वास करनेवाला [को०] ।
⋙ अगयार
वि० [अ० गैर का बहु० व०] पराया । गैर । उ०—हो यार वही उसका जो इस जग में सबसे अगयार बने ।— भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ ५६५ ।
⋙ अगर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अगरु] एक पेड़ जिसकी लकड़ी सुगंधित होती है । ऊद । उ०— चंदन अगर सुगंध और घृत विधि करि चिता बनायो ।— सूर०, ९ ।५० । विशेष—यह पेड़ भूटान, आसाम, पूर्वी बंगाल, खसिया और मर्तबान की पहाड़ियों में होता हैं । इसकी ऊँचाई ६० से १०० फुट और घेरा ५ से८ फुट तक होता हैं । जब यह २० वर्ष का होता है तब इसकी लकड़ी अगर के लिय काटी जाती है । पर कोई कोई कहते हैं कि इसकी लकड़ी ५०-६० वर्ष के पहले नहीं पकती । पहले तो इसकी लकड़ी बहुत साधारण पीले रंग की और गंधरहित होती हैं, पर कुछ दिनों में धड़ और साखाओं में जगह जगह एक प्रकार का रस आ जाता हैं जिसके कारण उन, स्थानों की लकड़ियाँ भारी हो जाती हैं । इन स्थानों से लकड़ियाँ काट ली जाती हैं और अगर के नाम से बिकती हैं । यह रस जितना अधिक होता है उतनी ही लकड़ी उत्तम और भारी होती है । पर ऊपर से देखने से यह नहीं जाना जा सकता कि किस पेड़ में लकड़ी अच्छी निकलेगी । बिना सारा पेड़ काटे इसका पता नहीं लग सकता । एक अच्छे पेड़ में (३००) तक का अगर निकल सकता है । पेड़ का हल्का भाग जिसमें यह रस या गोंद कम होता है, 'दूम' कहलता है और सस्ता अर्थात् (१). (२) सेर बिकता हैं, पर असली काली काली लकड़ी, जो गोंद अधिक होने के कारण भारी होती है, 'गरकी' कहलाती है और (१६) या (२०) सेर बिकती है । यह पानी में डूब जाती है । लकड़ी का बुरादा धूप, दसांग आदि में पड़ता है । बंबई में जलाने के लिये इसकी अगरबत्ती बहुत बनती है । सिलहट में अगर का इत्र बहुत बनता है । चोवा नाम का सुगंधित लेप इसी से बनता है ।
⋙ अगर (२)
संज्ञा पुं० [सं० अक्षर] अक्षर । वर्ण । हर्फ (डिं) । उ०— उठारे सहज जोधार असुंसरा लड़े हरि चापड़े मार लीधा उचार दध अगर रो ।—रघु० रू०, पृ० १३१ ।
⋙ अगर (३)
संज्ञा पुं० [सं० आगार डिं० अग्गर] आगार । गृह । उ०— जे सँसार अँधियार अगर में भए मगनबर ।—का० कौमुदी १, ।
⋙ अगर (४)
अव्य [फ़ा०] यदि । जो । उ०— उसे हमने बहुत ढूँढ़ा न पाया । अगर पाया तो खोज अपना न पाया ।—शेर०, भा० १, पृ० ४१२ । मुहा०—अगर मगर करना=(१) हुज्जत करना । तर्क करना । (२) आगा पीछा करना ।
⋙ अगर (५) पु
क्रि० वि० [सं० अग्र, प्रा० अग्गर] आगे । जैसे 'अगरज' में 'अगर' ।
⋙ अगरई
वि० [हिं० अगर+ई (प्रत्य०)] श्यामता लिए हुए सुनहले संदली रंग का । अगर के रंग का ।
⋙ अगरचे
अव्य० [फा०] गो कि । यद्यपि । हरचंद । बावजूद कि । उ०—काबा अगरचे टूटा क्या जाय गम है शेख ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ९८ ।
⋙ अगरज पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्रज] दे० 'अग्रज' । उ०— ताहि ते अगरज भयउ सब विधि तेहि परचार ।—स० सप्तक, पृ० ४३ ।
⋙ अगरजानी †
वि० [सं० अग्र+ज्ञानी] पहले से ही किसी बात को समझने या जाननेवाला । आगमजानी । उ०—ऐसे अगरजानी आदमी की बात काटने का नतीजा सारा गाँव भोग रहा है ।—मैला० पृ० ३७४ ।
⋙ अगरना पु †
क्रि० अ० [सं० अग्र] आगे होना । आगे जाना । अगाड़ी बढ़ना । आगे आगे भागना । उ०—प्यारी अगरि चली हरि धाए । पकरि न पावत पैर थकाए ।—गिरधरदास (शब्द०) ।
⋙ अगरपार पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्र?] क्षत्रियों की एक जाति । उ०—क्षत्री औ बचवान बघेलि । अगरपार चौहान चँदेली ।-जायसी (शब्द०) ।
⋙ अगर बगर पु †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अगल बगल' ।
⋙ अगरबत्ती
संज्ञा स्त्री० [सं० अगरुवर्त्तिका] सुगंध के निमित्त जलाने की पतली सीँक या बत्ती ।विशेष—इसमें अगर तथा कुछ और सुगंधित वस्तु पीसकर लपेटते हैं । इसका व्यापार मद्रास और बंबई में बहुत होता है ।
⋙ अगरवाला
संज्ञा पुं० [हिं० अगरोहावाला, आगरेवाला] [स्त्री० अगरवालिन] वैश्यों की एक जाति जिसका आदि निवास दिल्ली से पश्चिम अगरोहा नाम का स्थान कहा जाता है । अग्रवाल ।
⋙ अगरसार
संज्ञा पुं० [सं० अगरु+सार] अगर । ऊद ।
⋙ अगरा (१) पु †
वि० [सं० अग्र] [स्त्री० अगरी] १. अगला । प्रथम । अगुआ । उ०— सूर स्याम तेरी अति गुननि माहिं अगरौ ।— सूर०, १० । ३३६ । २. बढ़ा चढ़ा । बढ़कर । श्रेष्ठ । उत्तम । उ०—हम तुम सब एक बैस काते कौन अगरौ । लियौ दियौ सोई कछु डारि देहु झगरौ ।—सूर०, १० ।३३६ । ३. अधिक । ज्यादा । बड़ा । भारी । ४. उग्र । ५. अग्रिम । पेशगी । अगाऊ । उ०—बैल लीजे कजरा, दाम दाजै अगरा ।—घाघ०, पृ० १०७ ।
⋙ अगरा (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० आकर] खान । आकर । उ०—सूरदास प्रभु सब गुननि अगरौ ।—सूर० (राधा०), १०५६ ।
⋙ अगरा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० अँगरा] रगरा । अंडबंड बात । अनुचित व्यवहार । उ०—दल्ल कहा अगरा कह कीजै । साहब बचन मानि के लीजे ।—संत दरिया, पृ० ५ ।
⋙ अगराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० अगरना] आगे होने का भाव । अग्रता । श्रेष्ठत्व । उ०—गोबिंद गुसाईं यौँ ही माँगत हौँ गोद गेह गिरी अगराई गुन गरिमा गगन कौँ ।—घनानंद पृ० १६४ ।
⋙ अगरान
संज्ञा पुं० [हिं०] पीला लिए हुए लाल रंग का घोड़ा जिसमें सफेदी विशेष न झलकती हो । उ०—खुरमुज नोकिरा जरदा भले । औ अगरान बोलसिर चले ।—पदमावत, पृ० ५१६ ।
⋙ अगराना (१) पु
क्रि० स० [देशी] १. अधिक स्नेह या दुलार के कारण किसी को धृष्ट बनाना ।
⋙ अगराना (२) पु
क्रि० अ० स्नेहाधिक्य से ढिठाई करना ।
⋙ अगरना (३) †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अँगड़ाना' ।
⋙ अगरासन †
संज्ञा पुं० [सं० अग्र+अशन] दे० 'अग्राशन' । उ०— 'सास को दिखाने के लिये बल्लेसुर रोज अगरासन निकालते थे ।—बिल्ले० पृ० ८४ ।
⋙ अगरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की घास या पौधा जो चूहे आदि के विष को दूर करता है । देवताड़ । २. विष हरनेवाला कोई भी द्रव्य [को०] ।
⋙ अगरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अर्गला, अर्गलिका] लकड़ी या लोहे का छोटा डंडा जो किवाड़ के पल्ले में कोढ़ा लगाकर डाला रहता है । इसके इधर उधर खींचने से किवाड़ खुलते और बंद होते हैं । किल्ली । ब्योंड़ा ।
⋙ अगरी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्र] फूस की छाजन का एक ढंग जिसमें जड़ ढाल या उतार की ओर रखते हैं ।
⋙ अगरी (४) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अगीर्य=अवाच्य] १. अंड बंड बात । बुरी बात । अनुचित बात । २. ढिठाई । धृष्टता ।
⋙ अगरी (५) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अगरना] अगराई हुई बात । स्नेह के कारण धृष्टता से की हुई क्रिया उ०—गेँडुरि दइ फटकारि कै हरि करत है लँगरी । नित प्रति ऐसई ढंग करै हमसो कहै अगरी ।—सूर० (शब्द०) ।
⋙ अगरु
संज्ञा पुं० [सं० अगुरु] अगर लकड़ी । ऊद । उ०—अगरु चंदन की चीता थी सेज । —साकेत, पृ० १९८ ।
⋙ अगरू
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अगर' [को०] ।
⋙ अगरे †
क्रि० वि० [सं० अग्रे] सामने । आगे । उ०—चेला पूछँ गुरू कहँ तेहि कस अगरे होइ । —जायसी (शब्द०) ।
⋙ अगरेल †
वि० [हि० अगर + ऐल (प्रत्य०)] अगर संबधी । अगर की । उ०—रवि भैरव जावणी, घणे आणंद चहक्की । संग वेल सूरमा, वास अगरेल महक्की ।— रा०, रू०, पृ० १७३ ।
⋙ अगरी पु
वि० [सं० अग्र] १. अगला । प्रथम । २. बढ़कर । श्रेष्ठ । उत्तम । उ०—सूर सनेह ग्वारि मन अटक्यो छाँड़हु दिये परत नहि पगरो । परम मगन ह्ल रही चितै मुख सब तें भाग यही को अगरो । —सूर (शब्द०) । ३. चतुर । दक्ष । निपुण । ४. अधिक । ज्य़ादा । उ०—योजन बीस एक अरु अगरो डेरा इहि अनुसान । ब्रजवासी नर नारि अंत नहि मानो सिंधु समान ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अगर्चे
अव्य० [फा० अगरचे] दे० 'अगरचे' । उ०— अगर्चे उम्र की दस दिन से लब रहे खामोश । सुखन रहेगा सदा मेरी कम जबानी का । —कविता को०, भा० ४, पृ० १७२ ।
⋙ अगर्दभ
संज्ञा पुं० [सं०] खच्चर [को०] ।
⋙ अगर्व
वि० [सं० ] गर्व या अभिमान से रहित । निरभिमान । सीधा सादा ।
⋙ अगर्हित
वि० [सं०] १. जो गर्हित या निंदित न हो । २. शुद्ध [को०] ।
⋙ अगल (१)
क्रि० वि० [सं० अग्रतः, प्रा० अग्गल] १. आगे । उ०— यकायक कहे काफिराँ साथ चला अबू जहल आया नबी के अगल ।—दक्खिनी०, पृ० ३४८ ।
⋙ अगल (२) पु
वि० [प्रा० अग्गल] अधिक । ज्यादा । उ०—सब तिन बरष्ष असी अगलं । —पृ० रा०, ५९ । ५५ ।
⋙ अगल बगल
क्रि० बि [फा०] १. दोनो पार्श्व में, दोनों ओर । दोनों किनारे । २. इधर उधर । आसपास ।
⋙ अगलहिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक चिड़िया ।
⋙ अगला (१)
वि० [सं अग्र, प्रा० अग्गल] [स्त्री० अगली] १. आगे का । सामने का । अगाड़ी का । पिछला का उलटा । जैसे—घोड़े का अगला पैर सफेद हे (शब्द०) । उ० —वह अगला समतल जिसपर है देवदारु, का कानन । —कामायनी, पृ० २७९ । २. पहले का । पूर्वावर्ती । प्रथम । उ०—आवै औरँगसाह नूँ अगली मुहराँ याद । —रा० रू०, पृ० ३५० । ३. विगत समय का । प्राचीन । पुराना । उ०—रेखते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो गालिब । कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था । —कविता को०, भा० ४, पृ० १२२ । यौ०—अगले समय । अगले लोग । ४. आगमी । आनेवाला । भविष्य । जैसे—मैं अगले साल बहाँ जाऊँगा (शब्द०) । ५. अपरा । दूसरा । एक के बाद का । जैसे— 'उससे अगला हमारा घर है' (शब्द०) ।
⋙ अगला (२)
संज्ञा पुं० १. अगुआ । अग्रगण्य । प्रधान । जैसे—वे सब बातों में अगले बनते हैं । (शब्द०) । २. चतुर आदमी । चालाक । चुस्त आदमी । जैसे—'अगला अपना काम कर गया, हम लोगदेखते हो रह गएँ (शब्द०) । ३. पूर्वज । पुरखा (बहु० व० में ही प्रयुक्त) । जैसे—जो अगले करते हैं उसे करना चाहिए (शब्द०) । मुहा०—अगले पिछलोँ की रोना = पूर्वजो और औलाद के नाम र रोना या मातम करना । उ०—'खाक अच्छा गाती है । गाती है या रोती है अपने अगले पिछलोँ की डायन' । —सैर कु०, पृ० २० । ४. अपने पति को सूचित करने के लिये स्त्रियों द्बारा प्रयुक्त शब्द । ५. करनफूल के आगे लगी हुई जंजीर । ६. गाँव और उसकी हद के बीच में पड़नेवाले खेतों का समह ।
⋙ अगलूँणी पु †
वि० [सं० अग्र, प्रा० अग्ग; (राज० आगलो + ऊणी (प्रत्य०) = वाली] आगेवाली । पूर्व की । उ०—जिण दिन ढोलउ आवियउ तिण अगलूँणी रात । मारू सुहिणउ लहि कह्यउ, सखियाँ सूँ परमात ।—ढोला०, ५०१
⋙ अगवड़ †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अगौढ़' ।
⋙ अगवढ़ †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अगौढ़' ।
⋙ अगवन पु
संज्ञा पुं० [सं० आगमन] दे० 'आगमन' ।
⋙ अगवना †
क्रि० अ० [हिं० आगे + ना] कोई काम करने के लिये उद्यत होना । आगे बढ़ना ।
⋙ अगवनिहरवा
वि० [हिं० अगवना] किसी को बुलाने के लिये आया हुआ । उ०—सतगुरु पठवा अगवनि हरवा । —कबीर श०, भा० ३, पृ० ४६ ।
⋙ अगवाँई (१)
संज्ञा पुं० [हि० अगुआ] उ०—इसमाइल राजेंद्र गुसांई । सफ़दरजंग भये अगबाई । —सुजान०, पृ० १४१ ।
⋙ अगवाँई (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अगवानी] दे० 'अगवाई' ।
⋙ अगवाँसी
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्रवासी] १. हल की वह लकड़ी जिसमें फाल लगा रहता है । २. हलवाहे को पैदावार में से अंशरूप में मिलनेवाली मजदूरी ।
⋙ अगवा
क्रि० वि० [सं० अग्र] आगे । अगाड़ी । उ०—हरि जू की गैल यह मेरी पौर अगवा सौं, ह्याँ हुवै कढ़ै चाहौं मोहि काम घनो घर को ।—ठाकुर०, पृ० २ ।
⋙ अगवाई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्र = आगे + हिं० अवाई] अगवानी । अभ्य- र्थना । आगे से जाकर लेना । उ०—अगवाई के हेतु कुँवर के सब नर नारी ।—बुद्ध च०, पृ० १८० ।
⋙ अगवाई (२)
संज्ञा पुं० [सं० अग्रगामी] आगे चलनेवाला व्यक्ति । अगुवा । अग्रसर ।
⋙ अगवाड़ा
संज्ञा पुं० [सं० अग्रवाट् अथवा अग्रवर्त्त (प्रत्य०)] घर के आगे का भाग । द्बार के सामने की भूमि । पिछवाड़ा शब्द का उलटा ।
⋙ अगवान (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्र + हिं० वान (आवना आदि के मूल में स्थित द्बिधातु का अंश)] १. अगवानी या अभ्यर्थना करनेवाला व्यक्ति । आगे से जाकर लेनेवाला व्यक्ति । २. विवाह में कन्यापक्ष के वे लोग जो बरात का आगे बढ़कर स्वागत करते है । उ०—(क) अगवानन्ह जब दीखि बराता । उर आनंद पुलक भर गाता । —मानस, १ । ३०५ । (ख) सहित बरात राउ सनमाना । आयेसु माँगि फिरे अगवाना । — मानस, १ । ३०९ ।
⋙ अगवान (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्र + हिं० वान] १. आगे से जाकर लेना । अगवानी । अर्भ्थना । उ०—महाराज जयसिंह जय मे सिंह के समान, नीरयान समय जासु गंग लीनी अगवान । —रघुराज (शब्द०) । २. विवाह में कन्यापक्ष के लोगों का बरात की अभ्यर्थना के लिये जाना । उ०—लै अगवान बरातहि आए । दिए सबहिं जनवास सुहाए । —मानस, १ । ६९ । क्रि० प्र०— करना । —लेना । —होना ।
⋙ अगवानी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्र + हिं० वान] १. अपने यहाँ आते हुए किसी अतिथि से निकट पहुँचने पर सादर मिलना । आगे बढ़कर लेना । अभ्यर्थना । पेशवाई । २. विवाह में जब बारात लड़कीवाले के घर के पास आती है, तब कन्यापक्ष के लोग सज धजकर बाजे गाजे के साथ आगे जाकर उससे मिलते हैं । इसी को अगवानी कहते हैं । उ०—नियरानि नगर बरात हरषी लेन अगवानी गए । —तुलसी ग्र०, पृ० १३५ ।
⋙ अगवानी (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्रगामी] आगे पहुँचनेवाला व्याक्ति । दूत । उ०—(क) सखी री पूरनता हम जानी । याही तै अनुमान करति हैं षट्पद से अगवानी । —सूर०, १० । ४०३९ । (ख) अगवानी तो आइया ज्ञान विचार विवेक । पीछे हरि भो आयँगे भारी सौंज सभेक । —कबीर (शब्द०) ।
⋙ अगवानी (३)
संज्ञा पुं० आगे रहनेवाला । अगुवा । पेशवा । उ०— बिरह अथाह होत निसि हम कोँ, बिनु हरि समुद समानी । क्यों करि पावहि बिरहिनि पारहि बिनु केवट अगवानी । — सूर०, १० । ३२७१ ।
⋙ अगवार (१) †
संज्ञा पुं० [सं० अग्र + हि० वार (प्रत्य०)] १. खलिहान में अन्न का वह भाग जो राशि से निकालकर हलवाहे आदि के लिये अंलग कर दिया जाता है । २. वह हल्का अन्न जो ओसाने में भूसे के साथ चला जाता है । ३. गाँव का चमार ।
⋙ अगवार (२) †
संज्ञा पुं० दे० 'अगबाड़ा' । उ०— वेऊ आये द्वारे हो हूँ हुती अशवारेँ और द्वारेँ अगबारेँ कोऊ तौ न तिहि काल मैँ । — पद्माकर ग्रं,० पृ० २०० । यौ०— अनवार पछवार ।
⋙ अगवाह
वि० [सं० अग्र + वाह] आगे पहुँचानेवाला । पहले पहुँचनेवाला । उ०—कंपित स्वर लहरी आत्मनिवेदन की सहज स्निग्ध कमनीयता के अगवाह रास्ते को अनायास हो पकड़ लेती' । — नई पौध, पृ० १११ ।
⋙ अगवैया †
वि० [सं० अग्र + हिं० वेया (प्रत्य०)] आगे आगे चलनेवाला । किसी के आगमन की पूर्वसूचना देनेवाला । उ०— अभी माघ भी चुका नहीँ पर मधु का गरवीला अगवैया कर उन्नत शिर । —इत्यलम्, पृ० २०९ ।
⋙ अगव्यूति
वि० [ सं०] जहाँ पशुओं का चरागाह न हो । बंजर [को०] ।
⋙ अगसत पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अगस्त्य' । उ०— आकिल गुरु अगसत है, सिख समुंद मन लीन । —रज्जब० पृ०, ९ ।
⋙ अगसर पु
क्रि० विं० [सं० अग्रसर] आगे । पहले । उ०— अगसर खेती अगसर मार । कहै घाघ ते कबहुँ न हार । —घाघ०, पृ० ४१ ।
⋙ अगसरना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अगुसरना' ।
⋙ अगसार पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अगसारी' ।
⋙ अगसारी पु
क्रि० वि० [सं० अग्रसर] आगे । सामने । उ०—हस्ति क जूह आय अगसारी । हनुवँत तबै लँगूर पसारी । —जायसी ग्रं०, पृ० ११६ ।
⋙ अगस्त (१)
संज्ञा पुं० [सं० औगुस्ट,] रोम के सम्राट् औगुस्टस् के नाम पर चलाया गया अंग्रेजी का आठवाँ महीना जो भादों में पड़ता है ।
⋙ अगस्त (२)
संज्ञा पुं० [सं० अगस्त्य] १. अगस्त्य ऋषि । उ०— मधवानल वहि अगिन समानी । अगिन अगस्त सोखावत पानी । —हिंदी प्रेमा०, पृ० २७५ । २अगस्त्य तारा । उ०—उदित अगस्त पंथ जल सोषा । जिमी लोभहिँ सोखै संतोषा । —तुलसी (शब्द०) । ३. अगस्त्य वृक्ष । उ०— फूल करील कली पाकर नम । फरी अगस्त्य करी अंमृत सम । —सूर०, १० । १२१३ ।
⋙ अगस्ति पु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगस्त्य तारा । उ०— उए अगस्ति हस्ति घन गाजा । तुरै पलानि चढ़े रन राजा । —जायसी ग्रं०, पृ० ३५६ । २. अगस्त्य ऋषी । उ०—हुत जो अपार बिरह दुख दोखा । जनहुँ अगस्ति उदधि जल सोखा । —जायसी ग्रं०, पृ० ३४० । ३. अगस्त्य या बक वृक्ष [को०] ।
⋙ अगस्तिद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्ति या बक वृक्ष [को०] ।
⋙ अगस्तिया †
संज्ञा पुं० [सं० अगस्त्ति] दे० 'अगस्त्य ३' । उ०—द्वैज सुधा दीधिति कला वह लखि दीठि लखाई । मनौ अकास अगस्तिया एकै कली लखाइ । —बिहारी र०, दौ, ९२ ।
⋙ अगस्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम जिनके पिता मित्रावरुण थे । विशेष—ऋग्वेद में लिखा है कि मित्रावरुण ने उर्वशी को देखकर कामपीड़ित हो वीर्यपात किया जिससे अगस्त्य उत्पन्न हुए । सायणाचायं ने अपने भाष्य में लिखा है कि इनकी उत्पत्ति एक घड़े में हुई । इसी से इन्हें मैत्रावरुणि, और्वशेय, कुंभज घटोद्- भव और कुंभसंभव कहते हैं । पुराणों में इनके अगस्त्य नाम पड़ने की कथा यह लिखी है कि इन्होंने बढ़ते हुए विंध्य पर्वत को लिटा दिया । अतः इनका एक नाम विंध्यकूट भी है । पुराणों के अनुसार इन्होंने समुद्र को चुल्लू में भरकर पी लिया था जिससे ये समुद्रचुलुक और पीताब्धि भी कहलाते है । कही कहीं पुराणों में इन्हे पुलस्य का पुत्र भी लिखा है । ऋग्वेद में इनकी अनेक ऋचाएँ है । २. एक तारे या नक्षत्र का नाम । विशेष—यह भादों में सिंह के सूर्य के १७ अंश पर उदय होता है । इसका रंग कुछ पीलापन लिए हुए सफेद होता है । इसका उदय दक्षिण की ओर होता है इससे बहुत उत्तर के निवासियों को यह नहीं दिखाई देता । आकाश के स्थिर तारों में लुब्धक को छोड़कर दूसरा कोई तारा इसकी तरह नहीं चमचमाता । यह लुब्धक से ३५° दक्षिण है । ३. एक प्रसिद्ध पेड़ । विशेष—यह पेड़ ऊँचा और घेरेदार होता है । इसकी पत्तियाँ सिरिस के समान होती हैं । इसके टेढ़े मेढ़े फूल अर्धचंद्राकार, लाल और सफेद होते हैं । इसके छिलके का काढ़ा शीतला और ज्वर में दिया जाता है । पत्तियाँ इसकी रेचक हैं । पत्ती और फूल के रस की नास लेने से बिनास फूटना, सिर दर्द और ज्वर अच्छा होता है । आँखों में फूल का रस डालने से ज्योति बढ़ति है । इसके फूलों की तरकारी और अचार भी बनाता है । ४. शिव का एक नाम [को०] ।
⋙ अगस्त्यकूट
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण मद्रास प्रांत में एक पर्वत जिससे ताम्रपर्णी नदी निकली है ।
⋙ अगस्त्यगीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के शांति पर्व में अगस्त्य ऋषि द्वारा कथित विद्या [को०] ।
⋙ अगस्त्यचार
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य तारे का मार्ग [को०] ।
⋙ अगस्त्यतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान [को०] ।
⋙ अगस्त्यमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अहस्त्यचार' [को०] ।
⋙ अगस्त्यवट
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय पर स्थित एक पवित्र स्थान का नाम [को०] ।
⋙ अगस्त्यसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अगस्त्य द्वारा प्रणीत धर्म विषयक एक ग्रंथ [को०] ।
⋙ अगस्त्यहर्र
संज्ञा पुं० [सं० अगस्त्य हरीतकी] कई द्रव्यों के संयोग से जिनमें हर्र मुख्य है, बनी हुई एक आयुर्वेदिक औषधि जो खाँसी, हिचकी, संग्रहणी आदि रोगों में दी जाती है ।
⋙ अगस्त्योदय
संज्ञा पुं० [सं०] १.भाद्रपद के शुक्ल पक्ष में अगस्त्य नामक तारे का उदय । २. भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी [को०] ।
⋙ अगस्थ पु †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अगस्त्य'१. । उ०— मुगता तठै कर सनमान, आया अगस्थ रे असथांन । — रघु, रू०, पृ० १२४ ।
⋙ अगह पु
वि० [सं० अग्राह्य] १. न पकड़ने योग्य । हाथ में न आने लायक । उ०—अलह को लहना, अगह को गहना । — दरिया० बानी, पृ० ६७ । २ चंचल । उ०— माधव जू नेकु हटकौ गाय । निसि वासर यह भरमति इत उत अगह गही नहिँ जाय । —सूर (शब्द०) । ३. जो वर्णन और चिंतन के बाहर हो । उ०— कहै गधिनंदन मुदित रघुनंदन सों नृपगति अगह गिरा न जाति गही है । —तुलसी (शब्द०) । ४. न धारण करने योग्य । कठिन । मुश्किल । उ०— ऊधो जो तुम हमाहिँ बतायो । सोहम निपट कठिनई करि करि या मन को समुझायो । योग याचना जबहिं अगह गहि तबहीं सो है ल्यायो । सूर (शब्द०) ।
⋙ अगहन
संज्ञा पुं० [सं० अग्रहायण] प्राचीन वैदिक क्रम के अनुसार वर्ष का अगला वा पहला महीना । मार्गशीर्ष । मगसिर । उ०— अगहन अम्मर देखेउ जुग जुग जीवै सोइ । —जग० श०, भा० २.पृ० ६५ । विशेष—गुजरात आदि में यह क्रम अभी तक है, पर उत्तरी भारत में गणना चैत्न मास से आरंभ होती है । इस कारण यहाँ नवाँ मास पड़ता है ।
⋙ अगहनिया
वि० [सं० अग्रहायणीक] अगहन में होनेवाला ।
⋙ अगहनी (१)
वि० [सं० अग्रहायणीय] अगहन में तैयार होनेवाला ।
⋙ अगहनी (२)
संज्ञा स्त्री० वह फसल जो अगहन में काटी जाती है । जैसे जड़हन धान, उरद इत्यादि । उ०—जब लों पृथिवी है तब लों बोना और लोता, शादी और गमी, अगहनी और वैशाखी, दिन और रात बंद न होंगे ।— कबीर मं०, पृ० १९५ ।
⋙ अगहर पु †
क्रि० वि० [सं० अग्र; प्रा० अग्ग + हि० हर (प्रत्य०)] १. आगे । २. पहले । प्रथम । उ०—राजत दौवा रायमनि, बाई तरफ़ अडोल । उमगत अगहर जूझ को, ताकत प्रति भट गोल । —लाल (शब्द०) ।
⋙ अगहाट
संज्ञा पुं० [सं० अग्राह्य अथवा सं० अग्रहार] वह भूमि जो किसी के आधिकार में चिरकाल के लेये हो और जिसे वह अलग न कर सके ।
⋙ अगहार †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अग्रहार' ।
⋙ अगहुँड़ (१)
वि० [सं० अग्र पा० अग्ग + हि० हुँड़ (प्रत्य०) ] अगुआ । आगे चलनेवाला । उ०—बिलोके दूरि तें दोउ बीर । ......मन अगहुँड़ तन पुलकि सिथिल भयो नलिन नयन भरे नीर ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३४६ ।
⋙ अगहुँड़ (२)
क्रि० वि० आगे । आगे की ओर । 'पिछहुँड़' का उलटा । उ०— कोप भवन सुनि सकुचेऊ राऊ । भय बस अगहुँड़ परै न पाऊ । —तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अगा (१)
वि० [सं०] न चलनेवाला [को०] ।
⋙ अगा (२)
क्रिं० विं० [सं० अग्र] आगे । पहले । उ०—सोवत कहा चेत रे रावन अब क्यों खात दगा । कहत मँदोदरि सुनु पिय रावन मेरी बात अगा । —सूर० ९ । १४४ ।
⋙ अगाई †
वि० [सं० अग्र, हिं० आई (प्रत्य०)] आगे । पहले । उ०— अगाई सो सवाई । —घाघ० पृ० ७४ ।
⋙ अगाउनी (१) पु
क्रि० विं० [हिं० ] दे० 'अगौती-१' । उ— मुरली मृदंगन अगाउनी भरत स्वर भावती सुजागरे भरी है गुन आगरे । —देव (शब्द०) ।
⋙ अगाउनी (३)
संज्ञा स्त्री० दे० 'अगौनी-२ ।
⋙ अगाऊँ
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अगाऊ' । उ०— न्हान समै जब मेरी लखै तब साज लै बैठत आनि अगाऊँ । —भिखारी० ग्रं०, भा० १पृ० १२३ ।
⋙ अगाऊ (१)
वि० [सं० अग्र; प्रा० अग्ग + हि० आऊ (प्रत्य०)] † १. अग्रिम । पेशगी । जैसे; 'उसे कुछ अगाऊ दाम दे दो' (शब्द०) । २. पु अगला । अगे का । उ०—धरि वाराह रूप रिपु मारयो लै छिति दंत अगाउ । —सूर० (शब्द०) ।
⋙ अगाऊ (२) पु
क्रि वि० १. आगे । पहले । प्रथम । उ०— (क) कबिरा करनी आपनी, कबहुँ न निष्फल जाय । सात समुद्र आड़ा परै मिलै अगाऊ आय । —कबीर (शब्द०) । (ख) 'उग्रसेन' भी सब यदुवंशियों समेत गाजे बाजे से अगाउ जाय मिले' । — लल्लू० (शब्द०) । २. अगाड़ी से । आगे से । उ०—(क) साखी सखा सब सुबल सुदामा देखो धौँ बूझि बोलि बलदाऊ । यह तो मोहिं खिझाइ कोटि बिधि उलटि बिबादन आइ आगऊ । -तुलसी ग्रं०, पृ० ४३४ । (ख) कौन कौन को उत्तर दीजै तातें भग्यों अगाऊ । —सूर० (शब्द०) ।
⋙ अगाड़
संज्ञा पुं० [सं० अग्र, प्रा० अग्ग + हिं० आड़ (प्रत्य०) ] १. हुक्के की टोँटी या कुहनी में लगाने की सीधी नली जिसे मुँह में रखकर धुआँ खींचते हैं । निगाली । २. खेत सींचने की ढ़ेंकली की छोर पर लगी हुई पतली लकड़ी । ३. किसी वस्तु के आगे का भाग । अगाडी ।
⋙ अगाड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अगाड़; तुल० कुमा० गाड़ा = खेत ] कछार । तरी ।
⋙ अगाड़ा (२)
संज्ञा पुं० [अग्र + हिं० आड़ा (प्रत्य०) । १. यात्री का वह सामान जो पहले से आगे के पड़ाव पर भेज दिया जाता है । पेशखेमा । २. आगे का भाग या हिस्सा ।
⋙ अगाड़ा (३) †
वि० आगे का । आगेवाला ।
⋙ अगाड़ी (१)
क्रि० वि० [सं० अग्र प्रा० अग्ग + हिं० आड़ी (प्रत्य०)] १. आगे; जैसे-इस घर के अगाड़ी एक चौराहा मिलेगा (शब्द०) । २. भविष्य में; जैसे—अभी से इसका ध्यान रखो नहीं तो अगाड़ी मुशकिल पड़ेगी (शब्द०) । ३. पूर्व । पहले; जैसे-अगाड़ी के लोग बड़े सीधे सादे होते थे (शब्द०) । ४. सामने । समक्ष; जैसे—उनके अगाड़ी यह बात न कहना (शब्द०) ।
⋙ अगाड़ी (२)
संज्ञा पुं० १. किसी वस्तु के आगे का भाग । २. अँगरखे या कुरते के सामने का भाग । ३. घोड़े के गँराव में बंधी हुई दो रस्सियाँ जो इधर इधर दो खूँटों से बँधी रहती है । ४. सेना का पहला धावा । हल्ला; जैसे—फौज की अगाड़ी आँधी की पिछाड़ी (शब्द०) । यौ०—अगाडी पिछाड़ी=आगे और पीछे का भाग ।
⋙ अगाड़ू
क्रि० वि० [सं० अग्र, प्रा, अग्ग अग + हि० आड़ू (प्रत्य०)] दे० 'अगाड़ी' ।
⋙ अगाता
वि० [सं०] अच्छा न गानेवाला [को०] ।
⋙ अगात्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शैलपुत्नी । पार्वती [को०] ।
⋙ अगाद पु
वि० दे० 'अगाध' । उ०— आवसनि बत्त अगाद भय तं निबलह द्रिग छिनक कर । —पृ० रा०, ६१ । १२६५ ।
⋙ अगाध (१)
वि० [सं०] १. अथाह । बहुत गहरा । अतल स्पर्श । उ०— जलधि अगाध मौलि बह फेनू । संतत धरनि धरत सिर रेनु । — मानस, १ । १६७ । २. आपार । असीम । अत्यंत । बहुत । अधिक उ०—देखि मिटै अपराध अगाध निमज्जत सधु समाज भलो रे ।—तुलसी (शब्द०) । ३. जिसका कोई पार न पा सके । समझ में न आने योग्य । दुर्बोंध । उ०—अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा । अकथ अगाध अनादि अरुपा ।—मानस, १२३ ।
⋙ अगाध (२)
संज्ञा पुं० १. छेद । २. गड्ढा । ३. स्वाहाकार की पाँच अग्नियों में से एक का नाम [को०] ।
⋙ अगाधजल
संज्ञा पुं० [सं०] गहरा तालाब या झील । ह्रद [को०] ।
⋙ अगाधरुधिर
संज्ञा पुं० [सं०] रुधिर का अधिक्य । अत्यधिक । रक्त [को०] ।
⋙ अगाधसत्व
वि० [सं०] अत्यधिक शक्तिसंपन्न [को०] ।
⋙ अगाधा
वि० स्त्री० [सं०] अत्यंत । बहुत । अधिक । उ०— लाल गुलाल घलाघल मैं दृग ठोकर दै गई रूप अगाधा । -पद्माकर (शब्द०)
⋙ अगाधित्व
संज्ञा पुं० [पुं०] गांभीर्य । गहराई [को०] ।
⋙ अगान (१)पु
वि० [सं० अज्ञान] अनजान । अज्ञान । नासमझ । उ०— बालक अगाने हठी और की न माने बात, बिना दिए मातु हाथ भोजन न पाइए । —हनुमन्नाटक (शब्द०) ।
⋙ अगान (२)पु
संज्ञा पुं० ज्ञान का आभाव । अज्ञान ।
⋙ अगामै पु
क्रि० विं० [सं० अग्रिम, प्रा० अग्गम्मि] आगे ।
⋙ अगार (१)
संज्ञा पुं० [सं० आगार] १. निवासस्थान । धाम । गृह । उ०—दुख आवत कछु अटक न मानत, सूनौ देखि अगार ।—सूर०, १० । ३३७६ । २. ढेर । राशि । समूह । अटाला । उ०— मीँजि मीँजि हाथ धुनै माथ दसमाय तिय, तुलसी तिलौ न भयो बाहिर अगार का । —तुलसी ग्र,० पृ०, १७३ ।
⋙ अगार (२)
संज्ञा पुं० [सं० अग्र] आगे का स्थान । अगला हिस्सा । अग्रभाग । उ०— अरु जो तुमरे मन में यह बात तो काहे कौ मोहि अगार दयौ । —सुजान०, पृ० ७१ ।
⋙ अगार (३)
क्रि० विं० आगे । अगाड़ी । पहले । प्रथम । उ०—प्रीतम को अरु प्रानन को हठ देखनो है अब होत सकारो । कैधौं चलैंगो अगार सखी यहि देह ते प्रान किगेह ते प्यारी । —कोई कवि (शब्द०) ।
⋙ अगार (४)
वि० [सं० अग्रय ?] अगुआ । नेता । मुखिया । उ०—तब सितसिनवार दे अवारिया अगार और खुंटैला जुझार बीर चाहर आपार । —सुजान० पु०, ६७ ।
⋙ अगारदाही
संज्ञा पुं० [सं० अगरदाहीत्] मकान को जालानेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ अगारि
वि० [सं० अ = नहीं + अ० गार = गड्ढा] अगंभीर । कम गहरा । उ०—दिन दिन सरोवर होइ अगारि, अबहु नई वरिषइ मही भरि बारि । —विद्यापति, पु० ५२९ ।
⋙ अगारी (१)
क्रि० वि० [हिं० ] दे० 'अगाड़ी (१)' । उ०—देखी दीठि, उठाय कुँवर पुनि भोर अगारी । रावति पीटति जाति नदी की ओर सिधारा । —बुद्ध च०, पृ० ७० ।
⋙ अगारी (२)
वि० [सं० अगारिन्] मकान मालिक । मकानवाला [को०] ।
⋙ अगारू
क्रि० वि० [हिं० अगार] आगे । पहले प्रथम । उ०—जौ लौँ चक्रधारी चक्र चाहत चलाइबो को, तौ, लौँ ग्राह ग्रीवा पै अगारू चक्र चलि गो । —गंग ग्रं०, पृ० १ ।
⋙ अगाव †
संज्ञा पुं० [सं० अग्र] ऊख के उपर का पतला और नीरस भाग जिसमें गाँठे बहुत पास पास होती हैं । अगौरा । अघोरी । अँगोरी ।
⋙ अगास (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्र; प्रा० अग्ग + आस (प्रत्य०)] द्बार के आगे का चबूतरा ।
⋙ अगास (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० आकाश] आकाश । उ०—हौं सँग साँवरे के जैहौँ । का यह सूर अजिर अवनी तनु तजि अगास पिय भवन समैहौँ । का यह व्रज वापी क्रीड़ा जल भजि नँदनंद सबै सुख लैहौं । —सूर० (शब्द०) ।
⋙ अगासी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अकासी' । उ०—दौड़े बंदर बने मुंछदर कूदै चढ़ै अगासी । —भारतेंदु ग्रं०, भा० १ पृ० ३३३ ।
⋙ अगाह (१)पु
वि० [सं० अगाध, प्रा० अगाह] १. अथाह । बहुत गहरा । उ०—अब लेइ गए देइ ओहि सूरी । तेहि सौं अगाह बिया तुम्ह पूरी । —पद्मावत, पृ० २९२ । २. अत्यंत । बहुत । उ०— जो जो सुनै धुनै सिर राजहिं प्रीति अगाह । —जायसी (शब्द०) । ३. गंभीर । चिंतित । उदास । उ०—जबाहि सुरुज कइ लागा राहू । तबहि कमल मन भयो अगाहू । —जायसी (शब्द०) ।
⋙ अगाह (२)पु
क्रि० वि० [हिं० आगे] आगे से । पहले से । उ०— चाँद क गहन अगाह जनावा । —जायसी (शब्द०) ।
⋙ अगाह (३)पु
वि० [फा० आगाह] विदित । प्रकट । ज्ञात मालूम । उ०—जस तुम काया कीन्हेंउ दाहू । सो सब गुरु कहँ भयउ अगाहू । —जायसी (शब्द०) ।
⋙ अगाही †
संज्ञा स्त्री० [फा० आगाह] किसी बात की पहले से सूचना या संकेत ।
⋙ अगि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि, प्रा० अग्नि] अग्नि । उ०—चहु- आना रे सेन समुद बिच बड़बा गोरं । अगि सुखग्ग खग्गयौ सुत मरन धन धन कोरं ।— पृ०, १२ । ५१६ । विशेष— पुरानी हिंदी तथा बोलचाल में यह समस्त रूप में मिलता है । जैसे अगिदधा, अगिदाह आदि ।
⋙ अगिआँ †
संज्ञा स्त्री० [सं० आज्ञा] आदेश । हुक्म ।
⋙ अगिआना पु
क्रि०, अ० [हिं०] दे० 'अगियाना' । उ०—और कवन अबलन ब्रत धारयौ जोग समाधि लगाई । इहि उर आनि रूप देखे की आगि उठै अगिआई । —सूर (शब्द०) ।
⋙ अगिदधा †
वि० [सं० अग्नि + दग्ध] आग से जला हुआ । दग्ध । उ०— तेहिँ सौँपा राजा अगिदधा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अगिदाह पु
संज्ञा पु० [हिं०] दे० 'अग्निदाह' । उ०— तन मन सेज करे अगिदाहू । सब कहँ चंद, खएउ मोहिँ राहू । —जायसी ग्रं०, पृ० १५३ ।
⋙ अगिनंत पु
वि० [सं० अगणित] अनगिनत । बेशुमार । उ०— जलचरा थलचरा नभचरा जंत जी । च्यारि हू षांनि के जीव अगिनंत जी । —सुंदर० ग्रं०, भा० १ पृ०, २६० ।
⋙ अगिन (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि] [क्रि० अगियाना] पु १ आग । उ०—तुरी बीस ऐराक तेज अगिन पवन मन । — पृ० रा०, १४ । २४ । २. गौरैया या बया के आकार की छोटी चिड़िया । विशेष—इसका रंग मटमैला होता है । इसकी बोली बहुत प्यारी होती है । लोग इसे कपड़े से ढँके हुए पिँजरें में रखते है । ३. एक प्रकार की घास जिसमें नींबू की सी मीठी महँक रहतीं है । अगिया घास ।
⋙ अगिन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अंगारिका] ईख से ऊपर का पतला नीरस भाग । अगौरी ।
⋙ अगिन (३)
वि० [सं० अ = नहीं + हि० गिनना] अंगणित । बेशुमार । उ०—साँब को लक्ष्मणा सहित लाए बहुरि, दियो दायज अगिन गिनी न जाई । —सूर (शब्द०) ।
⋙ अगिनगोला
संज्ञा पुं० [हि० अगिन + गोला] वह बम जो फटने पर आग लगा दे ।
⋙ अगिनझाल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अगिन + झाल०] दे० 'अग्निज्वाल' ।
⋙ अग्निबाव
संज्ञा पुं० [हिं० अगिन + बाव = वायु] एक रोग का नाम जो चौपायों में, विशेषतः घोड़ी को, होता है ।
⋙ अगिनबोट
संज्ञा स्त्री० [हिं० अगिन + अं० बोट] एक प्रकार की बड़ी नाव या जहाज जो भाप के इंजिन के जोर चलती है । स्टीमर । धुआँकश ।
⋙ अगिनहोत्र पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अग्निहोत्न' । उ०—गरगहिँ अरग गए लै नंद । अगिनहोत्न करि मंदहि मंद । —नंद० ग्रं०, पृ० २४४ ।
⋙ अगिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नी; प्रा० अगिणि] आग । उ०—जल नहिँ बूड़त अगिनि न दाहत है ऐसो हरिनाम । — सूर० १ । ९२ ।
⋙ अगिनिकोन पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अग्निकोण' । उ०— पूस दिनन में ह्वै रहै अगिनिकोन में भानु । —भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० ८८ ।
⋙ अगिनित पु
वि० [हि०] दे० 'अगणित' । उ०— कटक अगिनित जुरयौ, लंक खरभर परयौ, सूर कौ तेज धर धूरि ढाँप्यौ । — सूर०, ९ । १०६ ।
⋙ अगिनिबान पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अग्निबण' । उ०—अगिनिबाण दुइ जानौ, साधे । जग बेधहिँ जो होहि न बांधे । —जायसी ग्रं०, पृ० ४६ ।
⋙ अगिनिबास पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्नि + हि० बास] १. बाज की जाति का एक पक्षी । उ०—इनको तौ हाँसो वाके अंग में अगिनिबासो । लीलहीं जु सारी सुख सिंधु बिसराये री । — भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० १९० । २. अग्नि का निवास ।
⋙ अगिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि, प्रा० अगिणि] दे० 'अगिनि' । उ०— लगन बुझाऊँ मैं मन की कैसे, लगी यो अगिनी इकंत की है ।—पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ८८८ ।
⋙ अगिनेव पु
संज्ञा पुं० [सं० आग्नेय] पूर्व दक्षिण का कोना । अग्नि- कोण । उ०—अगिनेव दिसा बतसिंह अवाइ । तिनके मुख मडिय निड्ढुर राइ । —पु० रा० २५ । ५०८ ।
⋙ अगिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि, प्रा० अग्नि, अगि + या] १. एक प्रकार की घास या खर । विशेष—इसमें पीले रंग के फूल लगते हैं और यह घास खेतों में उत्पन्न होकर कोदो और ज्वार के पौधों को जला देती है । २. अगिन नामक घास । यज्ञकुश । नीली चाय । विशेष—इसमें से नीबू की सी मीठी सुगंधि निकलती है । इससे तेल बनता है और यह दवाओं में भी प्रयुक्त होती है । २. †अग्नि । आग ।
⋙ अगिया (२)
संज्ञा पुं० १. एक ६ से १० फुट लंबा दृढ़ पौधा । विशेष—यह हिमालय आसाम और ब्रह्मा (बर्मा) से मिलता है । इसके पत्ते और डंठलों में जहरीले रोएँ होते है जिनके शरीर में धँसने से पीड़ा होती है । इसीसे चौपाए इसे नहीं छूते । नैपाल आदि देशों में पहाड़ी लोग इसकी छाल से रेशे निकालकर भँगरा नामक मोटा कपड़ा बनाते है । २. एक प्रकार का छोटा रोएँदार कीड़ा जिसके शरीर में लगने से पिले पीले छाले पड़ जाते है । ३. एक रोग जिसमें पैर में पीले पीले छाले पड़ जाते है । ४. घोड़ों और बैलों का एक रोग । ५. विक्रमादित्य के दो बैतालों में से एक का नाम ।
⋙ अगिया कोइलिया
संज्ञा पुं० [हि० अगिया + कोयला] दो बैताल जिन्हें विक्रमादीत्य ने सिद्ध किया था और जो स्मरण करते ही उनकी सेवा में उपस्थित हो जाते थे । कथासरित्सागर और बैलालपचीसी में इनकी कहानी है ।
⋙ अगियाना
क्रि० अ० [हिं० अगिया से नाम०] जल उठना । गरमाना । जलन या दाह से युक्त होना; जैसे—चलते चलते उसका पैर अगिया गया (शब्द०) ।
⋙ अगिया बैताल
संज्ञा पुं० [सं० अग्नि हिं० अगिया+सं० बैताल] १. विक्रमादित्य के दो वैतालों में से एक । २. एक कल्पित बैताल जिसके संबंध मे अनेक प्रकार की कथाएँ प्रचलित है । कहते है यह बड़ा दुष्ट था और बड़े आश्चर्यजनक कृत्य करता था । ३ मुहे से लुक या लपट निकालनेवाला भूत । उल्कामुख प्रेत । ४. दलदल या तराई में इधर उधर घूपते हुए फासफरस के अंश जो दूर से जलते हुए लुक के समान जान पड़ते हैं । ये कभी कभी कबरि- स्तानों में भी अँधेरी रात में दिखाई देते हैं । ५. वह जिसका स्वभाव बहुत क्रोधी और चिड़ा चिड़ा हो । क्रोधी व्यक्ति ।
⋙ अगियार (१) †
वि० [हिं० आग+इयार (प्रत्य०)] (लकड़ी, कोयला, कंडा आदि) जिसकी आग बहुत देर तक ठहरे या तेज हो ।
⋙ अगियार (२)
संज्ञा पुं० दे० 'अगियारी' ।
⋙ अगियारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० आग+ इयारी (प्रत्य०)] वह पदार्थ या वस्तु जो अग्नि में वायु को सुंगंधित करने के लिये डाली जाय । धुप देने की वस्तु ।
⋙ अगियासन
संज्ञा पुं० [हिं० अगिया+ सन] १. एक प्रकार का सन की जाति का पौधा । २. एक कीड़ा जिसके छू जाने से शरीर में जलन होती है । ३. एक चर्म रोग जिसमें झलकते हुए फफोले निकलते हैं ।
⋙ अगिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. अग्नि । ३. स्वर्ग । ४. एक राक्षस [को०] ।
⋙ अगिरीं
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्र=आगे] मकान के आगे का भाग । द्वार । उ०—तुलसी सेव जाति चबि छाए । बरसाने मनमोहन आए । चारि दुआरे उन्नत भारे । करिवर बहु झूमत मतवारे । इमि देखत अगरी छबि छाए । अंतःपुर महँ माधव आए- गोपाल० (शब्द०) ।
⋙ अगिरौकस्
वि० [सं०] १. स्वर्ग में निवास करनेवाला (देवतादि) । २. शोर गुल करने पर भी न रुकनेवाला [को०] ।
⋙ अगिला †
वि० [हिं०] दे० 'अगला' ।
⋙ अगिलाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि+हिं० लाय=लपट] अग्नि की ज्वाला । आग की लपट । उ०—जारति अंग अनंग की आँचनि जोन्ह नहीं सु नई अगिलाई ।—घनानंद पृ० ६४ ।
⋙ अगिवाँण पु †
वि० [सं० अग्र+वान्] प्रधान । मुख्य । अगुआ उ०— तेहिं लंबोदर वीनमूँ । चउसठि जोगिनी का अनिवाँण ।—बी० रासो, पृ० ३ ।
⋙ अगिवान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अगवान'-२ । उ०—आदर संयुत बोल मुक्कि मंत्री अगिवानं ।—पृ० रा०, १२ ।६७ ।
⋙ अगिहर †
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि+गृह; प्रा० अग्नि+हर] अग्नि का निवास । चिता । उ०—विनति करओं साहिलोनिरे मोहि देहे अगिहर साजि ।—विद्यापति, पृ० १५८ ।
⋙ अगिहाना †
संज्ञा पुं० [सं० अग्निधान, अग्न्याधान] वह स्थान जहाँ आग जलाई जाती हो । आग रखने का स्थान ।
⋙ अगीठा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा ।विशेष—इसके पत्ते पान के आकार के पर उसमे कुछ बड़े होते है । इसमे कैथ की तरह का एक प्रकार का कुछ चिपटा फल लगता है जिसकी सतह पर छोटे छोटे दाने रहते है ।
⋙ अगीठा (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्र+इष्ट] आगे का भाग ।
⋙ अगिठि
संज्ञा पुं० [हिं० अगीत=आगे अथवा सं० अग्र, प्रा०, अग्ग+हिं० इठ्ठ] आगे का भाग । अगवाड़ा । आगे । उ०—मंगल मूरति कंचन पत्र कैं मैन रच्यो मन अक्त नीठि है । काटि किधौं कदली दल गोंफ को दीन्होँ जमाय निहारि अगीठि है ।—भिखारी० ग्रं० भा० १, पृ० ९८ ।
⋙ अगीठी पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगीठा' । उ०—कांमिनि जलैं, अगीठी तापै बिचि बैसंदर थरहर काँपै ।—गोरख०, पृ० १४२ ।
⋙ अगीत (१)
वि० [सं० अग्रतः?] आगे का आगामी । उ०—आइ अगीत, पछीत गई, क्षित रेटत मोहिँ सनेह के कूकन ।—ठाकुर०, पृ० १ ।
⋙ अगीत (३)
वि० [सं० अ०+गीत] गीतरहित । न गाया हुआ । उ०— एक अस्फुट अस्पषट अगीत सुप्ति की ये स्वप्निल मुसुकान ।— पल्लव पृ० २ ।
⋙ अगीतपछीत (१)
क्रि० वि० [सं० अग्रतः पश्चात्] आगे और पीछे की ओर । आगे पीछे । उ०—चौहट की मिलिबौं तो रह्यो, मिलिबो रह्यो औचक साँझ सबेरो । और इती बिनती तुम सौ हरि अगितपछीत न घेरा ।—ठाकुर०, पृ० ७ ।
⋙ अगीतपछीत (२)
संज्ञा पुं० आगे का भाग और पीछी का भाग । अग— वाड़ा पिछवाड़ा ।
⋙ अगीह पु
वि० [सं० अगृह] गृहहीन । अगेह । उ०—जल प्रलय लोयत लीह । घर बियरि हात अगीह । —पृ० रा०, ६१ ।१०७१ ।
⋙ अगुंठित
वि०— [सं० अ+गुंठित=आवृत्त] अनावृत्त । खुला हुआ । उ०—भारत की नारी उषा सी आज अगुंठइत, भारत की मानवता नव आभा से मंड़ित ।—युगपथ, पृ० ७६ ।
⋙ अगु— (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राहु ग्रह । २. प्रकाश का अभाव । अंधकार (को०) ।
⋙ अगु (२)
वि० १. जिसके पास गाय न हो । गोहीन । २. गरीब । ३. दुष्ट । बदमाश [को०] ।
⋙ अगुआ
संज्ञा पुं० [सं० अग्र+हिं० उआ (प्रत्य०)] [कि० अगुआना । संज्ञा अगुआई, अगुआनी ] १. अग्रसर । आगे चलनेवाला व्यक्ति । अग्रणी । २. मुखिया । प्रधान । नायक । सरदार । नेता । ३. पथप्रदर्शक । मार्गं बतानेवाला । रहनुमा । उ०—ततखन बोला सुआ सरेखा । अगुआ सोइ पंथ जेइ देखा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ५७ । ४. विवाह की बातचीत चलाने— वाला । विवाह ठीक करनेवाला । घटक । कौतुकी । ५. आगा । आगे का भाग ।
⋙ अगुआई
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्र, प्रा० अग्ग+आई (प्रत्य०)] १. अग्रणी होने की क्रिया । अग्रसरता । २. प्रधानता । सरदारी । ३. मार्ग प्रदर्शन । रहनुमाई । उ०—कियैउ निषादनाथु अगुआई । मातु पालकी सकल चलाई ।—मानस, २ ।२१२ ।
⋙ अगुआना (१)
क्रि० स० [हिं० 'अगुआ' से नाम०] [संज्ञा अगुआनी] आगे करना । अगुआ बनाना । सरदार नियत करना ।
⋙ अगुआना (२) †
क्रि० अ० आगे होना या बढ़ना ।
⋙ अगुआनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अगुवानी' । उ०—यह महीप मेरी अगुआनी के लिये महासागर तक आया ।—श्यामा०, पृ० ७६ ।
⋙ अगुण (१)
वि० [सं०] १. सत्व रज, तम आदि गुणों से रहित । धर्म या व्यापारशून्य । गुणरहित । निर्गुण । २. निर्गुणी । अनाड़ा । मूर्ख । बेहुनर ।
⋙ अगुण (२)
संज्ञा पुं० अवगुण । बुरा गुण । दुषण । दोष ।
⋙ अगुणज्ञ
वि० [सं०] जो गुणाज्ञ न हो । जिसे गुण की परख न हो । अनाड़ी । गँवार । नाकदरदान ।
⋙ अगुणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुणहीनता । गुणों का अभाव । उ०— सोंद्रिया मैं, अगुणता से नित्य उकता ही रही थी; सजन मैं आ ही रही थी ।—क्वासि, पृ० ८५ ।
⋙ अगुणत्व
संज्ञा पुं० [सं०] अगुणता । गुणराहित्य [को०] ।
⋙ अगुणवादी
वि० [सं०] अवगुण कहनेवाला । दोष निकालने या कहनेवाला । छिद्रान्वेषी [को०] ।
⋙ अगुणवान्
वि० [सं०] गुणरहित [को०] ।
⋙ अगुणशील
वि० [सं०] विशेषतारहित । अयोग्य । अगुणी [को०] ।
⋙ अगुणी
वि० [सं०] १. निर्गुणी । गुणरहित । २. अनाड़ी । मूर्ख ।
⋙ अगुताना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उकताना' । उ०—तू जानि मोहिं अगुतावहु नरक जनि नावहु हो ।—पलटू० बानी, भा० ३, पृ० ७४ ।
⋙ अगुन (१)पु
वि० [सं० अगुण] १. सत्व रज तम आदि गुणों से रहित । निर्गुण । उ०—अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा ।—मानस, १ । २३ । २ अनाड़ी । बेहुनर । निर्गुणी । उ०—अगुन अमान जानि तोहिँ दीन्ह पिता बनवास ।—मानस, ६ । ३० ।
⋙ अगुन (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अगुण] दे० 'अगुण' २ । उ०—खल अघ अगुन साधु गुनगाहा ।—मानस, १ । ६ ।
⋙ अगुनी पु
वि० [सं० अ+हिं० गुनना] जिसे गुना या विचारा न जा सके । जिसका वर्णन न किया जा सके । उ०—ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायक की अगुनी गुन गाहैं । आरत दीन अनाथन को रघुनाथ करै निज हाथ की छाहै ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २०० ।
⋙ अगुमन पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अगमन (१)' । उ०—मन हित अगुमन दिहल चलाई ।—धरनी०, पृ० २ ।
⋙ अगुरु (१)
वि० [सं०] १. जो भारी न हो । हलका । सुबुक । २. जिसने गुरु से उपदेश न पाया हो । बिना गुरु का । निगुरा । ३ लघु या ह्रस्व (वर्ण) ।
⋙ अगुरु (२)
संज्ञा पुं० १. अगर वृक्ष । ऊद । २ शीशम का पेड़ ।
⋙ अगुवा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अगुआ' । उ०—अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन गियानू ।—जायसी ग्रं०, पृ० ८ ।
⋙ अगुवानी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अगवानी' ।
⋙ अगुसरना पु †
क्रि० अ० [सं० अग्रसरण] अग्रसर होना । आगे बढ़ना । उ०—एकौ परग न सो अगुसरई ।—जायसी (शब्द०) । १३ ।
⋙ अगुसारना पु †
[सं० अग्रसारण] आगे बढ़ना । आगे रखना । उ०—रँग कै राजैं दुख अगुसारा । जियत जीव नहिँ करौं निनारा ।—पदमावत, पृ ७०३ ।
⋙ अगुठना पु
क्रि० स० [सं० अवगुण्ठन] चारों और से घेर लेना ।
⋙ अगूठा पु
संज्ञा पुं० [सं० अवगुण्ठक] घेरा । मुहासिरा ।
⋙ अगूठी पु
वि० [सं० अवगुण्ठित अथवा हिं० अगूठ] घेरायुक्त । उ०—जेहि कारन गढ़ कीन्ह अगूठी ।—जायसी (शव्द०) ।
⋙ अगूठी (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अगूठा] कारागारा । बंधन ।
⋙ अगूढ़ (१)
वि० [सं० अगूढ] जो छिपा न हो । स्पष्ट । प्रकट । सहज । आसान ।
⋙ अगूढ़ (२)
संज्ञा पुं० अलंकार में गुणीभूत व्यंग्य के आठ भेदों में से एक । विशेष—वह वाच्य के समान ही स्पष्ट होता है । जैसे—'उदया- चल चुंबत रवी, अस्ताचल को चंद ।' यहाँ प्रभात का होना व्यंग्य होने पर भी स्पष्ट है ।
⋙ अगूढ़गंध
संज्ञा पुं० [सं० अगूढगन्ध] हींग [को०] ।
⋙ अगूढ़गधा
संज्ञा स्त्री० [सं० अगूढगन्धा] हींग । गाँधी ।
⋙ अगूढ़भाव
वि० [सं० अगूढभाव] जिसका भाव या विचार छिपा हुआ न रह सके ।
⋙ अगूता पु
क्रि० वि० [सं० अग्र+ हिं० ऊता (प्रत्य०)] आगे । सामने । उ०—बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता ।—जायसी ग्रं०, पृ० २९९ ।
⋙ अगृभीत
वि० [सं०] १. अगृहीत । जो पकड़ा या गिरफ्तार न किया गया हो । २. अपराजित । अपराभूत [को०] ।
⋙ अगृह (१)
वि० [सं०] गृहविहीन । बिना घर का । उ०—क्या पूछो हो पता हमारा? हम हैं अगृह, अकाम ।—अपलक, पृ० ७३ ।
⋙ अगृह (२)
संज्ञा पुं० गृहस्थाश्रम के बाद का आश्रम । वानप्रस्थ [को०] ।
⋙ अगृहता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिना घर का होने की स्थिति या दशा । बेघरबारपन [को०] ।
⋙ अगेंथ
संज्ञा पुं० [सं० अग्निमन्थ] अरनी का पेड़ । गनियारी ।
⋙ अगद्र
संज्ञा पुं० [सं० अगेद्र] पर्वतों का राजा । हिमालय ।
⋙ अगेज (१)
वि० [फा० अंग्रेज] मिला हुआ ।
⋙ अगेज (२)
संज्ञा स्त्री० सहन । अँगेज ।
⋙ अगय
वि० [सं०] जो गेय न हो या जिसका गान न किया जा सके [को०] ।
⋙ अगेयान पु †
वि० [सं० अज्ञान] अज्ञ । अजान । अनजान । उ०— ए सखि पिआ मोर बड़ा अगेयान, बोलथि बदन तोर चाँद समान ।—विद्यापति, पृ २८ ।
⋙ अगेला
संज्ञा पुं० [सं० अग्र+ हिं० एला (प्रत्य०)] १. आगेवाली माठिया जिन्हे नीच जाति की स्रियाँ कलाई में पहनती है । इसका उलटा 'पछेला' है । २. हलका अन्न जो ओसाते समय भूसे के साथ आगे जो पड़ता है और जिसे हलवाहे आदि ले जाते है ।
⋙ अगेह
वि० [सं०] जिसे घर द्वार न हो । गृहरहित । बेठिकाने का । उ०—अकुल अगेह दिगंबर व्याली ।—मानस, १ ।७२ ।
⋙ अगैरा †
संज्ञा पुं० [सं० अग्र+ हिं० औरा (प्रत्य०)] नई फसल की पहली आँटी जो प्रायः जमींदार को भेंट की जाती है ।
⋙ अगोई (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्रवर्ती] अगुआ । सरदार । नायक । उ०—उदैकरन रन भयो अगोई ।—छत्र०, पृ० २१७ ।
⋙ अगोई (२) पु
वि० स्त्री० [सं० अगोपित, प्रा० अगोइअ, हिं० अगोइ] जो छिपी न हो । प्रकट । जाहिर । व्यक्त । उ०—संतन की गति अगत अगोई ।—घट० पृ० ७२ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ अगोच पु
वि० [सं० अगोचर] दे० 'अगोचर' । उ०—देहुरे मंझे देव पायो, बस्त अगोच लखायो ।—दादु० पृ० ५३० ।
⋙ अगोचर (१)
वि० [सं०] १. जिसका अनुभव इँद्रियों को न हो । जिसका बोध न हो सके । इंद्रियातीत । उ०—मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कवि कैसे करै ।—मानस, १ ।३२३ । २. अप्र- गट । अप्रत्यक्ष । अव्यक्त । उ०—'अगोचर बातों या भावनाओं को भी, जहाँ तक हो सकता है, कवीता स्थूल गोचर रूप में रखने का प्रयास करती है ।—रस०, पृ० ४१ ।
⋙ अगोचर (२)
संज्ञा पुं० १. ब्रह्म । २. वह वस्तु जो इंद्रियों का विषय न हो । ३. वह वस्तु जिसे देखा, समझा या जाना न जा सके [को०] ।
⋙ अगोचरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गोचर] हठयोगियों की पाँच मुद्राओ में से 'गोचरी' नाम की एक मुद्रा । उ०—वाचरी, भूचरी, षेचरी, अगोचरी, उन्मुनी पाँच मुद्रा साधते सिद्ध राजा ।— रामानंद०, पृ० ५ ।
⋙ अगोट (१)
संज्ञा पुं० [सं० अग्र=आगे+हिं० ओट=आड़] [क्रि० अगोटना] १. रोक । ओट । आड़ । उ०—रही दै घूघट पट की औट । नहसुत कील, कपाट सुलच्छन, दै दृग द्वार अगोट ।—सूर०, १० ।२७६९ ।
⋙ अगोट (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्र+हिं० ओट=सहारा] आश्रय । आधार । उ०—रहिहै चंचल प्रान ए, कहि कौन की अगोट । बिहारी र०, पृ० ३९५ ।
⋙ अगोट (३)
वि० [सं० अ=नहीं+हिं० गोट=जोट, साथी] एकाकी । अकेला ।
⋙ अगोटना (१) पु †
क्रि० स० [हिं० अगोट से नाम० अथवा सं० अग्र, प्रा० अग्ग+हिं० ओट+ना (प्रत्य०)] १. रोकना । छेँकना । उ०—सत्रु कोट जो पाय अगोटी । मीठी खाँड़ जेँवाए रोटी ।—जायसी (शब्द०) । २. बंद कर रखना । रोक रखना । पहरे में रखना । कैद रखना । उ०—जौ गुनही, तौ रखियै आँखिनु माँझ अगोटि ।—बिहारी र०, दो० २५० । ३. छिपाना । ढाँकना । उ०—कीजै किन ब्यौत अगोटन को । है चोर यही मनमोहन को ।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० २४२ ।
⋙ अगोटना पु (२)
क्रि० स० [सं० आक्रोड, प्रा० अक्कोड़, हिं० 'अगोट' से नाम०] १. अंगीकार करना । स्वीकार करना । २. पसंद करना । चुनना । उ०—लगत कल्प शतकोटि एक एक के गुन गनत । मन में लेहि अगोटि जो सुंदर नीकी लगै ।— गुमान (शब्द०) ।
⋙ अगोटना पु (३)
क्रि० अ० [हिं० अगोट (= रोक) से नाम०] रुकना ठहरना । अड़ना । फँसना । उलझना । उ०—सुनत भावती बात सुतनि की झूठहिँ धाम के काम अगोटी ।— सूर०, १० । १६५ ।
⋙ अगोणी †
वि० [हिं० अगोनी] आगेवाली । आगे की । उ०—एता कमाम लै अगोणी भुमि आया ।—शिखर० पृ० ६ ।
⋙ अगोता (१) पु
क्रि० वि० [सं० अगतः] दे० 'अगूता' ।
⋙ अगोता (२)पु
संज्ञा स्री० [हिं०] अगवानी । पेशवाई ।
⋙ अगोत्र
वि० [सं०] कारण हित । अकारण [को०] ।
⋙ अगोपा
वि० [सं०] जिसके पास गाय न हो । गोधन से रहित [को०] ।
⋙ अगोपि पु
वि० [सं० अगोप्य] प्रकट । जाहिर । व्यक्त । उ०—गोपि कहूँ तो अग पि क्हा यह गोपि अगोपि न ऊभौ न बैसा ।— सुंदर० ग्रं०, भा०२, पृ० ६१७ ।
⋙ अगोरई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अगोरना] १. खेत आदि की देखभाल करने की मजदूरी । २. अगोरने की क्रिया या स्थिति ।
⋙ अगोरदार
संज्ञा पुं० [हिं० अगोरना+फा० दार] रखवाली करनेवाला पहरा देनेवाला चौकसी करनेवाला । रखवाला ।
⋙ अगोरना (१)
क्रि० स० [सं० आघूर्णन=देखना या सं० अग्र+ रक्ष या देशी] १. रह देखना बाट जोहना इंतजार करना । प्रतीक्षा करना । उ०—तेरी बाट अग रते आँखे हुई चकोर की ।—हरं घास०, । २ रखवाली करना । पहरा देना । चौकसी करना । उ०—कुँवार लाख दुई बार अगोरे । दुहुँ तिसि पँवर ठाढ़ कर जोरे ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अगोरना
क्रि० स० [हिं०] रोकना । अगोरना । छेँकना । उ०— जउ में कोटि जतन करि राखति, घूघट ओट अगोरि । तउ उड़ि मिले बाधिक के खग ज्यौँ, पलक पीँजरा तोरि ।— सूर०, १० ।२३५७ ।
⋙ अगोरा †
संज्ञा पुं० [हिं० अगोर+आ (प्रत्य०)] १. अगोरने या रखवाली करने की क्रीया । चौकसी । निगरानी । २. खेत की कटाई या फसल की दँवाई के समय की वह निगरानी जो जमींदार लोग काश्तकार से उपज का भाग लेने के लिये अपनी और से कराते है ।
⋙ अगोराई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अगोर+आई (प्रत्य०)] दे० 'अगोरई' ।
⋙ अगोरिया †
संज्ञा पुं० [हिं० अगोर+ (प्रत्य०)] खेत की रखवाली करनेवाला फसल रखनेवाला । रखवाला ।
⋙ अगोही †
संज्ञा पुं० [सं० अग्रवर्ती या अग्रवाही] वह बैल जिसके सींग आगे की और निकले हों ।
⋙ अगोह्य
वि० [सं०] जो गोपनीय या ढँका न हो । प्रकट [को०] ।
⋙ अगौड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अग+औड़ी (प्रत्य०)] ईख के ऊपर का पतला भाग । अधोरी । अगाव । अगौरा ।
⋙ अगौका (१)
वि० [सं०] पर्वत पर रहनेवाला [को०] ।
⋙ अगौका (२)
१. शरभ । २. सिंह । ३. पक्षी [को०] ।
⋙ अगौढ †
संज्ञा पुं० [सं० अगु, प्रा०, अग्ग+ वढ़ (प्रत्य०)] रुपया जो आसामी जमींदार को नजर या पेशगी की तरह देता है । पेशगी । अगाऊ ।
⋙ अगौनी (१)पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अगाउनी' । उ०—देव दिखावत कंचन सो तन औरन को मन लावै अगौनी—देव (शव्द०) ।
⋙ अगौनी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० अगवानी] १. अगवानी । पेशवाई । २. वह आतिशबाजी जो बरात आने पर द्वारपुजा के समय छोड़ी जाती है ।
⋙ अगौरा †
संज्ञा पुं० [ स०अग्र+हिं० औरा (प्रत्य०)] ऊखके ऊपर का पतला नं रस भाग जिसमें गाँठे नजदीक होती है । अगाव । अगौड़ी कौंचा ।
⋙ अगौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अगौरा' । २. दे० 'अगाँली' ।
⋙ अगौली
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. ईखकी एक छेटी और कड़ी जाति ।
⋙ अगौवा पु
क्रि० वि० [हिं० अग+औआ (प्रत्य०)] आगै । उ०—बिरच्यौ बिकट रायमनि दौवा । घाई खाइ अरि हनै अगौवा ।—छत्र०, पृ० २१५ ।
⋙ अगौहैं पु †
क्रि० वि० [सं० अग्रमुख] आगै की ओर । आगे । अगाड़ी । उ०—(क) भीतर भौंन ते प्रान प्रिया सो कितो चहै पैग पड़ै न अगौहौ ।-बैनी प्रवीन (शब्द०) ।
⋙ अग्ग पु
क्रि० वि० [सं० अग्र; प्रा० अग्ग] अगाड़ी । आगे । उ०— अग्ग गयौ गिरि निकट बिकट उद्यान भयकर—पृ० रा०, ६ ।९४ ।
⋙ अग्गई
संज्ञा स्त्री० [देश०] अवध में अधिकता से होनेवाला एक प्रकार का मझोले आकार का वृक्ष । विशेष—इसकी पत्तियाँ प्राय? हाथ भर लंबी होती है । यह नेपाल भूटान, बरमा और जावा में भी पाया जाता है । इसमें पीले रंग के २-३ इंच चोड़े फूल और छौटे अमरूद के आकार के फल लगते है ।
⋙ अग्गम †
[सं० अगम्या] दे० 'अगम' । उ०—अग्गम बदरिया आई रसिया, पच्छम धरस गये मेंह ।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १५६ ।
⋙ अग्गय पु
क्रि० वि० [सं० अग्य] दे० 'अग्र' या आगे । उ०— तहाँ अप्प अग्गय धरं तंत रथ्थं ।—पृ० रा०, ६४ ।१०० ।
⋙ अग्गर (१)पु
वि० [देश० अग्गल] [वि० स्त्री० अग्गरी] अगुआ । अग्रणी । उ०—गय सलषानी राव बीर अग्गर गढ़ रष्षे ।— पृ० रा०, १२ ।५८ ।
⋙ अग्गर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० आगार] निवास । धाम । प्रासाद । उ०— अग्गर जेहा झूँपड़ा तउ आसंगे मोइ ।—ढोला० दू० ३१४ ।
⋙ अग्गाल पु
संज्ञा पुं० [सं० अकाल] असमय । अनवसर । उ०—कँइ तूं सीँची सज्जणे, कँइ बूठउ अग्गाल ।—ढोला० दू०, ३८१ ।
⋙ अग्गि पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्नि, प्रा० अग्गि] दे० 'अग्नि' । उ०— पवन अग्गि जलधर अकाश । सरिता समृद्द तिथि गिरि निवास ।—पृ० रा०, १ ।१ ९ ।
⋙ अग्गियां पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आज्ञा] दे० 'आज्ञा' । उ०—अग्गिया दीन जद्दवह जाम ।—पृ० रा०, ६१ ।१६०७ ।
⋙ अग्ग पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'आगे' । उ०—बहुराइ देव कवियन प्रबल मिलन पिथ्थ अग्गे चलिय ।—पृ० रा०, ६ ।९३ ।
⋙ अग्नायी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अग्नि की स्त्री स्वाहा । २. वेतायुग (को०) ।
⋙ अग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आग । तेज का गोचर रूप । उष्णता । पृथ्वी, जल, वायु, आकाश आदि पंचभूतों या पंचतत्वों में से एक । २. वैद्यक के मत से तीन प्रकार की अग्नि । विशेष—आयुर्वेद में अग्नि के तीन प्रकार माने गए है । यथा—(क) भौम, जो तृष्ण, काष्ठ आदि के जलने से उप्नन्न होती है । (ख) दिव्य, जो आकाश में बिजली से उत्पन्न होती है । (ग) उदर या जठर, जो पित्त रूप से नाभि के ऊपर और हृदय के नीचे रहकर भोजन भस्म करती है । इसी प्रकार कर्मकांड में भी अग्नि तीन प्रकार की मानी गई है । यथा— गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि । स्भ्याग्नि, आवसथ्य और औपासनाग्नि—इन तीन को मिलाकर उनके छह भेद है जिनमें प्रथम तीन प्रधान है । ३. वेद के प्रधान देवताऔं में से एक । विशेष—ऋगवेद का प्रादुर्भाव इसी से माना जाता है । वेद में अग्नि के मंत्र बहुत आधिक है । अग्नि की सात जिह्वाएँ मानी गई है जिनके अलग अलग नाम है, जैसे—काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णा, उग्रा और प्रदीप्ता । भिन्न भिन्न ग्रंथों में य नाम भिन्न भिन्न दिए है । यह देवता दक्षिण पूर्व कोण का स्वामी है और आठ लोकपालों में से एक है । पुराणों में इसे वसु से उत्पन्न धर्म का पुत्र कहा है । इसकी स्त्री स्वाहा थी जिससे पावक, पवमान और शुचि ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए । इन तीनों पुत्रों के भी पैतालीस पुत्र हुए । इस प्रकार सब मिलाकर ४९ अग्नि माने गए है जिनका विवरण वायुपुराण में विस्तार के साथ दिया है । क्रि० प्र०—जलना । जलाना ।—डालना ।—फूँकना ।—बालना ।— वुझना ।—बूझाना ।—भड़कना ।—भडकाना ।—लगना । — लगाना ।—सुलगाना । ४. जठराग्नि । पाटन शक्ति । जैसे—'अग्नि तो मंद हो गई है । भूख कहाँ से लगे (शब्द०) । ५. पित्त । ६. तीन की संख्या क्योंकि कर्मकांड़ के अनुसार तीन अग्नि मुख्य है । ७. सोना । ८. चित्रक । चीता । ९. भिलावा । १०. नीबू । ११. अग्नि- कर्म (को०) । १२. 'र्' का गूढ प्रतीक (को०) । १३. प्रकाश (को०) ।
⋙ अग्निक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीरबहूटी नाम का कीड़ा । २. एक प्रकार का पौधा (को०) । सर्पों की एक किस्म (को०) ।
⋙ अग्निकण
संज्ञा पुं० [सं०] चिनगारी । स्फुलिंग [को०] ।
⋙ अग्निकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्निहोत्र । हवन । २. अग्निसंस्कार । शवदाह । ३. गरम लोहे से दागने का कार्य (को०) ।
⋙ अग्निकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की दस कलाओं में कोई एक [को०] ।
⋙ अग्निकल्प
वि० [सं०] अग्नि की प्रकृति या स्वभाववाला [को०] ।
⋙ अग्निकांड
संज्ञा पुं० [सं० अग्नि+ कांड] आग लगाना ।
⋙ अग्निकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ऋग्वेदक्त अग्निसूक्त जो 'अग्नि दूतं पुरोदधे' से प्रारंभ होता है । २. अग्निकार्य [को०] ।
⋙ अग्निकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रतिसारण' २ ।
⋙ अग्निकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] अगर का पेड़ ।
⋙ अग्निकीट
संज्ञा पुं० [सं०] समंदर नाम का कीड़ा जिसका निवास अग्नि में माना जाता है ।
⋙ अग्निकुंड़
संज्ञा पुं० [सं० अग्निकुण्ड] अग्निहोत्र के लिये निर्मित कुंड [को०] ।
⋙ अग्निकुक्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] जलता हुआ तृण या पयाल का पूला । लुकारी । लुक ।
⋙ अग्निकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिकेय । षड़ानन । २. आयुर्वेद के अनुसार एक रस जो विभिन्न अनुपानों के साथ देने से अरुचि, मंदाग्नि, श्वास, कास, कफ, प्रमेह आदि रोगों को दूर करता है ।
⋙ अग्निकुल
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रियों का एक कुल या वंशविशेष । विशेष—ऐसी कथा है कि ऋषियों के तप में जब देत्य विघ्न डालने लगे तब उन्होंने वशिष्ठ की अध्यक्षता में आबू पर्वत पर एक यज्ञ किया । उस यज्ञकुंड से एक एक करके चार पुरुष उप्तन्न हुए जिनसे चार वंश चले अर्थात् प्रमार, परिहार, चालुक्य या सोलंकी और चौहान । इन चार क्षत्रियों का कुल अग्निकुल कहलाता है ।
⋙ अग्निकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का एक नाम । २. रावण की सेना का एक राक्षस । ३. धूम्र । धुआँ [को०] ।
⋙ अग्निकोण
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्व और दक्षिण का कोना ।
⋙ अग्निक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शव का अग्नि में दाह । मुर्दा जलाना । २. अग्निहोत्र या अग्निकर्म [को०] ।
⋙ अग्निक्रीडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आतशबाजी ।
⋙ अग्निगर्भ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यकांत मणि । २. सूर्यमुखी शीशा । आतशी शीशा । ३. शमी वृक्ष । ४. अग्निजार या गजपिप्पली का पौधा [को०] ।
⋙ अग्निगर्भ (२)
वि० जिसके भीतर अग्नि हो । जो अग्नि उत्पन्न करे, जैसे अग्निगर्भ पर्वत ।
⋙ अग्निगर्भ पर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] ज्वालामुखी पहाड़ ।
⋙ अग्निगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शमी वृक्ष । २. पृथिवी । धरा । ३. महाज्योतिष्मती नाम की लता [को०] ।
⋙ अग्निगृह
संज्ञा पुं० [सं०] वह गृह जहाँ हवन की अग्नि, रखी रहती हो [को०] ।
⋙ अग्निघृत
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि उद्दीपन करने के लिये निर्मित एक प्रकार का घृत [को०] ।
⋙ अग्निचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. योग में शरीर के भीतर माने हुए छः चक्रों में से एक । विशेष—इसका स्थान भोहों का मध्य, रंग बिजली का सा और देवता परमात्मा माने गए है । इस चक्र में जिस कमल की भावना की गई है उसके दलों (पंखुड़ियों) की संख्या दो और उनके अक्षर 'ह' और 'क्ष' है । २. अग्नि का चक्र या गोला । उ०—विमल व्योम में देव दिवाकर अग्निचक्र से फिरते है ।—कानन०, पृ० २४ ।
⋙ अग्निचय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अग्निचयन' [को०] ।
⋙ अग्निचयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञार्थ अग्नि को रखना । अग्न्याध्यान । २. अग्न्याध्यान कार्य में प्रयुक्त होनेवाले मंत्र [को०] ।
⋙ अग्निचित्
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निहोत्री ।
⋙ अग्निचूड
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि के समान लाला शिखावाला पक्षी । कुक्कुट । अरुणचूड़ [को०] ।
⋙ अग्निज (१)
वि० [सं०] १. अग्नि से उत्पन्न । २. अग्नि को उत्पन्न करनेवाला । ३. अग्निसंदीपक । पाचक ।
⋙ अग्निज (२)
संज्ञा पुं० १. अग्निजार वृक्ष । समुद्रफल का पेड़ । २. कार्तिकेय का नाम (को०) । ४. सोना । स्वर्ण (को०) ।
⋙ अग्निजन्मा
संज्ञा पुं० ; वि० [सं०] दे० 'अग्निज' [को०] ।
⋙ अग्निजात
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे० 'अग्निज' [को०] ।
⋙ अग्निजार
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] समुद्र फल का पेड़ ।
⋙ अग्निजाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अग्निज्वाल' [को०] ।
⋙ अग्निजित्
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर [को०] ।
⋙ अग्निजिह्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । अमर । २ विष्णु [को०] ।
⋙ अग्निजिह्व (२)
वि० अग्नि के समान जीभवाला [को०] ।
⋙ अग्निजिह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आग की लपट । २. अग्नि देवता की सात जिह्वाएँ । विशेष—मुँडकोपनिषद् में इनको नाम ये दिए है—काली, कराली, मनोजवा, लोहिता, धमवर्णा, स्फलिंगिनीं और विश्वरूपी । बृहत्सांहिता में अंतिम दो नामों के स्थान में उग्रा और प्रदीप्ता ३. कलियारी विषय़ । लांगली । नाम दिए है ।
⋙ अग्निजीवी
संज्ञा पुं० [सं०] आग के सहारे काम करनेवाले जैसे—लुहार, सुनार आदि ।
⋙ अग्निज्वाल
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । शंकर [को०] ।
⋙ अग्निज्वाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आग का लपट । उ०—इडा अग्निज्वाला सी आगे जलती है उल्लास भरी ।—कामायनी, पृ० १८१ । २. धव का पेड़ जिसमें लाला फूल लगते है । ३. जलपिप्पली का पेड़ ।
⋙ अग्निझाल
संज्ञा पुं० [सं० अग्नि+ ज्वाल प्रा० झाल] जलपिप्पली का पेड़ ।
⋙ अग्नितुं डावटी
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नितुण्डावटी] वैद्यक के अनुसार अजीर्ण दूर करनेवाली गोली ।
⋙ अग्नितेजा
वि० [सं०] अग्नितुल्य तेजवाला [को०] ।
⋙ अग्नित्रय
संज्ञा पुं० [सं०] विधिपूर्वक स्थापित गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिण नामक अग्नि [को०] ।
⋙ अग्नित्रेता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अग्नित्रय' [को०] ।
⋙ अग्निदंड
संज्ञा पुं० [सं० अग्निदण्ड] आग में जलाने का दंड ।
⋙ अग्निद
संज्ञा पुं० [सं०] आग लगानेवाला ।
⋙ अग्निगग्ध (१)
वि० [सं०] चिताग्नि में सविधि जलाया हुआ [को०] ।
⋙ अग्निदग्ध (२)
संज्ञा पुं० पितृगणों का एक वर्ग [को०] ।
⋙ अग्निदमनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गनियारी क्षुप । एक प्रकार का क्षुप जिसे दमनी कहते है ।
⋙ अग्निदाता
संज्ञा पुं० [सं०] चिता पर शव को अग्नि देनेवाला या दाहकृत्य करनेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ अग्निदान
संज्ञा पुं० [सं०] चिता में अग्नि लगाने का कार्य [को०] ।
⋙ अग्निदाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. आग में जलाने का कार्य । भस्म करने का कार्य । जलाना । भस्मीकरण । २. शवदाह । मुर्दा जलाना ।
⋙ अग्निदिव्य
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि के प्रयोग द्वारा सत्यासत्य का निर्णय । अग्निपरीक्षा [को०] ।
⋙ अग्निदीपक
वि० [सं०] जठराग्नि को उत्तेजित करनेवाला । पाचन- शक्ति बढ़ानेवाला ।
⋙ अग्निदीपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्निवर्धन । जठराग्नि की वृद्धि । पाचनशक्ति की बढ़ती । २. अग्निवर्धक औषध । पाचनशक्ति को बढ़ानेवाली दवा । वह दवा जिसके खाने से भूख लगे ।
⋙ अग्निदीप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाज्योतिष्मती । अग्निगर्भा [को०] ।
⋙ अग्निदूत
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ में आवाहित देवगण । २. यज्ञकार्य । यजन [को०] ।
⋙ अग्निदूषित
वि० [सं०] दग्ध । जला हुआ [को०] ।
⋙ अग्निदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवरूप में अग्नि को प्रधान माननेवाला अग्निपूजक । २. अग्नि [को०] ।
⋙ अग्निदेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृत्तिका नक्षत्र [को०] ।
⋙ अग्निद्वारा
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्वदक्षिण कोण में स्थित मकान का दरवाजा [को०] ।
⋙ अग्निधान
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि रखने का पवित्र स्थान [को०] ।
⋙ अग्निनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कृत्तिका नाम का तृतीय नक्षत्र [को०] ।
⋙ अग्निनयन
संज्ञा पुं० [सं०] हवन की अग्नि का विधिपूर्वक संस्कार करना [को०] ।
⋙ अग्निनिर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निजार वृक्ष [को०] ।
⋙ अग्निनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] देवगण [को०] ।
⋙ अग्निपक्व
वि० [सं०] अग्नि पर पकाया हुआ [को०] ।
⋙ अग्निपरिक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि में हवन और उसकी सुरक्षा करना [को०] ।
⋙ अग्निपरिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निहोत्र लेना [को०] ।
⋙ अग्निपरिधान
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ की अग्नि को परदे से आवृत्त करना या घेरना [को०] ।
⋙ अग्निपरीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जलती हुई आग द्वारा परीक्षा या जाँच । जलती हुई आग पर चलाकर अथवा जलता हुआ पानी, तेल या लोहा छुलाकर किसी व्यक्ति के दोषी या निर्दोष होने की जाँच । विशेष—प्राचीन काल में जब किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का संदेह होता था तब यह देखने के लिये कि वह यथार्थ में दोषी है या नहीं, लोग उसे आग पर चलने को कहते थे, अथवा उसके ऊपर जलता हुआ तेल या जल डालते थे । उनका विश्वास था कि यदि वह निरपराध होगा तो कुछ आँच न आवेगी । २. भयप्रदायक एवं कठिन परीक्षा । ३. सोने, चाँदी आदि धातुऔं की आग में तपा कर परख ।
⋙ अग्निपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] ज्वालामुखी पर्वत [को०] ।
⋙ अग्निपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] १८ पुराणों में से एक । विशेष—इसका नाम अग्निपुराण इस कारण है कि इसे अग्नि नेवशिष्ठ जी को पहले पहल सुनाया था । इसके श्लोकों की संख्या कोई १४,०००, कोई १५,००० और कोई १६,००० मानते हैं । इसमें यद्यपि शिव का माहात्म्यवर्णन प्रधान है पर कर्मकांड, राजनीति, धर्मशास्त्र, आयूर्वेद, अलंकार, छंदः शास्त्र, व्याकरण, तंत्र आदि अनेक फुटकर विषय भी इसमें संमिलित हैं ।
⋙ अग्निपूजक
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि की पूजा करनेवाला व्यक्ति, जाति या धर्म ।
⋙ अग्निप्रणयन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अग्निनयन' [को०] ।
⋙ अग्निप्रतिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ, विवाहादि धार्मिक अवसरों पर कुंड या वेदी पर अग्नि को रखने की क्रिया [को०] ।
⋙ अग्निप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर त्याग की इच्छा से अग्नि में प्रवेश करना । २. किसी स्त्री का पति शव आदि के साथ चिता में प्रवेश करना [को०] ।
⋙ अग्निप्रस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि उत्पन्न करनेवाला पत्थर । वह पत्थर जिससे आग निकले । चकमक पत्थर ।
⋙ अग्निबाण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अस्त्र । वह बाण जिसमें से अग्नि की ज्वाला प्रकट हो । वह तीर जिससे आग की लपट निकले । भस्म करनेवाला बाण । विशेष—ऐसा कहा कहा जाता है यह बाण मंत्र द्वारा चलाया जाता था और इससे अग्नि की वर्षा होने लगती थी ।
⋙ अग्निबाव
संज्ञा पुं० [सं० अग्नि + वायु, प्रा० बाव] १. घोड़ों और चौपायों का एक रोग जिसमें उनके शरीर पर छोटे आबले निकलते हैं और फूट फूटकर फैलते हैं । यह रोग अधिकतर घोड़ों को ही होता है । २. मनुष्यों का एक चर्मरोग जिसमें शरीर पर बड़े बड़े लाल चकत्ते या ददोरे निकल आते हैं । पित्ती । जुड़पित्ती । ददरा । ३. अग्नि की ज्वाला या लपट । उ०—पुंडीर चंद जनु अग्निबाव । —पृ० रा०, ८ । १४ ।
⋙ अग्निबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूम्र । धुआँ । २. प्रथम मनु के पुत्र [को०] ।
⋙ अग्निबीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । विशेष—मनु आदि प्राचीन ग्रंथों में सोने की उत्पत्ति अग्नि के संयोग से लिखी है । २. अग्नि का बीजाक्षर 'र' [को०] ।
⋙ अग्निभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्निसंबंधी नक्षत्र । कृत्तिका । २. सोना । स्वर्ण [को०] ।
⋙ अग्निभ (२)
वि० अग्नि की तरह दीप्त [को०] ।
⋙ अग्निभू
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय ।
⋙ अग्निभूति
संज्ञा पुं० [सं०] अंतिम जैन तीर्थंकर के शिष्य [को०] ।
⋙ अग्निमंथ
संज्ञा पुं० [सं० अग्निमंथ] १. अरणी वृक्ष जिसकी लकड़ी को परस्पर घिसने से आग बहुत जल्द निकलती है । २. अरणी नामक यंत्र जिससे यज्ञ के लिये आग निकाली जाती है ।
⋙ अग्निमंथन
संज्ञा पुं० [सं० अग्निमन्थन] दे० 'अग्निमंथ' [को०] ।
⋙ अग्निमणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यकांत मणि । एक बहुमूल्य पत्थर । २. सूर्यमुखी शीशा । आतशी शीशा ।
⋙ अग्निमथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ में अरणि का मंथन करनेवाला याज्ञिक ब्राह्मण । २. अरणिमंथन के अवसर पर प्रयुक्त होने वाले मेंत्र । ३. अरणि का कांड [को०] ।
⋙ अग्निमांद्य
संज्ञा पुं० [सं० अग्निंमान्द्य] मंदाग्नि । जठराग्नि की कमी । पाचनशक्ति की कमी । भूख न लगने का रोग ।
⋙ अग्निमान् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विधिपूर्वक अग्नि रखनेवाला द्विज । अग्निहोत्री [को०] ।
⋙ अग्निमान् (२)
वि० अच्छी पाचनशक्तिवाला [को०] ।
⋙ अग्निमारुति
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्यमुनि का नाम ।
⋙ अग्निमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] शुंग वंशीय पुष्यमित्र का पुत्र । मालवि- काग्निमित्र नाटक में इसकी कथा है [को०] ।
⋙ अग्निंमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । २. अग्निहोत्री (को०) । ३. प्रेत । ४. ब्राह्मण । ५. चीते का पेड़ । ६. भिलावे का पेड़ । ७. वैद्यक में अजीर्ण नाशक चूर्ण का नाम जो जवाखार, सज्जी, चित्रक, लवण आदि कई वस्तुऔं के मेल से बनता है । ८. एक रस ओषधि का नाम जिससे वातशूल दूर होता है । ९. खटमल (को०) ।
⋙ अग्निमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भल्लातक । भिलावाँ । २. गायत्री का मंत्र । ३. ब्राह्मण । ४. अग्नि आदि देवगण । ५. पाक- शाला [को०] ।
⋙ अग्नियंत्र
संज्ञा पुं० [सं० अग्नियन्त्र] आग उगलनेवाला यंत्र । बंदूक [को०] ।
⋙ अग्नियान
संज्ञा पुं० [सं०] विमान । व्योमयान । वायुयान [को०] ।
⋙ अग्नियुग
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में पाँच वर्ष के जो बारह युग माने गए हैं । उनमे से एक । इस युग के वर्षो के नाम क्रम से चित्रभानु, सुभानु, तारण, पार्थिव और व्यय है ।
⋙ अग्नियोजन
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञार्थ अग्नि प्रकट करने का कार्य [को०] ।
⋙ अग्निरक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अग्न्याधान' [को०] ।
⋙ अग्निरजा
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीरबहूटी कीड़ा । २. स्वर्ण [को०] ।
⋙ अग्निरहस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अकल्प की उपासना को बतानेवाला शास्त्र या ग्रंथ । २. शतपथ ब्राह्मण का दशम कांड [को०] ।
⋙ अग्निरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मांसरीहिणी नामक लता [को०] ।
⋙ अग्निरूप
वि० [पुं०] अग्नितुल्य तेजोमय स्वरूपवाला [को०] ।
⋙ अग्निरेता
संज्ञा पुं० [सं० अग्निरेतस्] अग्नि का रेतस् या तेज । सोना [को०] ।
⋙ अग्निरोहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक मतानुसार एक रोग जिसमें अग्नि और समान झलकते हुए फफ़ोले पड़तै हैं और रोगी को दाह और ज्वर होता है ।
⋙ अग्निलिंग
संज्ञा पुं० [सं० अग्निलिङ्ग] आग की लपट की रंगत और झुकाव देखकर शुभाशुभ फल बतलाने की विद्या ।
⋙ अग्निलोक
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि द्वारा अधिष्ठित मेरु पर्वत के शृंग के नीचे का लोक [को०] ।
⋙ अग्निवंश
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निकुल ।
⋙ अग्निवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की स्त्री स्वाहा [को०] ।
⋙ अग्निवर्च (१)
संज्ञा पुं० [अग्निवर्चस्] अग्नि का तेज [को०] ।
⋙ अग्निवर्च (२)
वि० अग्नि की तरह दीप्त [को०] ।
⋙ अग्निवर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] इक्ष्वाकुवंशीय एक राजा जो रघु के प्रपोत्र तथा सुदर्शन के पुत्र थे ।
⋙ अग्निवर्ण (२)
वि० आग के रंग का । अंगारे के समान । रक्तवर्ण । लाल ।
⋙ अग्निवर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीखी मदिरा । तेज शराब [को०] ।
⋙ अग्निवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणों के अनुसार एक प्रकार का मेव [को०] ।
⋙ अग्निवर्धक
वि० [सं०] जठराग्नि को बढ़ानेवाला । पाचन शक्ति को बढ़ानेवाला [को०] ।
⋙ अग्निवर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. युद्ध में आग्नेयास्त्रों की वर्षा या प्रयोग । २. भयंकर धूप पड़ना ।
⋙ अग्निवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. साल का वृक्ष । साखू का पेड़ । २. साल से निकली हुई गोंद । राल । धूप ।
⋙ अग्निवासा
वि० [सं० अग्निवासस्] अग्नि की तरह शुद्ध या लाल वस्त्रवाला [को०] ।
⋙ अग्निवाह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बकरा । छाग । २. धूम्र [को०] ।
⋙ अग्निवाह (२)
वि० ज्वलनशील (पदार्थ) [को०] ।
⋙ अग्निवाहन
संज्ञा पुं० [सं] बकरा । छाग [को०] ।
⋙ अग्निविंदु
संज्ञा पुं० [सं०] चिनगारी । स्फुलिंग [को०] ।
⋙ अग्निविद
संज्ञा पुं० [सं० अग्निवित्] अग्निहोत्री ।
⋙ अग्निविद्
वि० अग्निहोत्र आदि की क्रियाओं का ज्ञाता [को०] ।
⋙ अग्निविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रातःकाल और सायंकाल मंत्रों द्वारा अग्नि की उपासना की विधि । अग्निहोत्र । यौ.—पंचाग्निविद्या = छांदोग्य उपनिषद् में सूर्य, बादल; पृथ्वी पुरुष और स्त्री संबंधी विज्ञान को 'पंचाग्निविद्या' कहा है ।
⋙ अग्निविश्वरूप
संज्ञा पुं० [सं०] वहत्संहिता के अनुसार केतु ताराओं का एक भेद । ये ज्वाला की माला से युक्त और संख्या में १२० कहे गए हैं ।
⋙ अग्निविंसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] शोथ या फोड़े के कारण होनेवाली जलन या दर्द (को०) ।
⋙ अग्निवीर्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नितुल्य पराक्रम । २. स्वर्ण [को०] ।
⋙ अग्निवीर्य (२)
वि० अग्नि के सदृश तेजस्वी [को०] ।
⋙ अग्निवेश
संज्ञा पुं० [सं०] आयुर्वेद के आचार्य एक प्राचीन ऋषि का नाम जो अग्नि के पुत्र कहे जाते हैं ।
⋙ अग्निव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] वेद की एक ऋचा का नाम ।
⋙ अग्निशरण
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निशाला [को०] ।
⋙ अग्निशर्मा (१)
वि० [सं०] बहुत शीघ्र उत्तेजित होनेवाला [को०] ।
⋙ अग्निशर्मा (२)
संज्ञा पुं० एक ऋषि [को०] ।
⋙ अग्निशाल
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निशाला [को०] ।
⋙ अग्निशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह घर जिसमें अग्निहोत्र या हवन करने की अग्नि स्थापित हो । उ०—देखते थे अग्निशाला से कुतूहलयुक्त । —कामायनी, पृ० ८३ ।
⋙ अग्निशिख
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुसुम या बर्रे का पेड़ । २. कुंकुम । केसर । ३. सोना । ४. दीपक । ५. बाण । तीर । ६. अग्नि- बाण [को०] ।
⋙ अग्निशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अग्नि की ज्वाला । आग की लपट । उ०— अग्निशिखा बुझ गई जागने पर जैसे सुख सपने । — कामायनी, पृ० १३६ । २. कलियारी या करियारी नामक पौधा जिसकी जड़ में विष होता है ।
⋙ अग्निशुद्धि
संज्ञा स्त्री [सं०] १. अग्नि से पवित्र करने की क्रिया । आग छुलाकर किसी वस्तु को शुद्ध करना । २.अग्निपरीक्षा ।
⋙ अग्निशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुसुम या बर्रे का पेड़ । २. केसर । ३. जांगली वृक्ष । ४. सोना । सेवर्ण [को०] ।
⋙ अग्निश्री
वि० [सं०] अग्नि की तरह दीप्त या शोभ वाला [को०] ।
⋙ अग्निष्टुत्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जो एक दिन में पूरा होना है । यह अग्निष्टोम का ही संक्षेप है ।
⋙ अग्निष्टोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक यज्ञ जो ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का रूपान्तर है । विशेष—इसका काल वसंत है । इसके करने का अधिकार अग्निहोत्री ब्राह्मण को है । द्रव्य इसका सोम है । देवता इसके इंद्र और वायु आदि हैं और इसमें ऋत्विजों की संख्या १६ है । यह यज्ञ पाँच दिन में समाप्त होना है ।
⋙ अग्निष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. रसोईघर । २. अँगीठी [को०] ।
⋙ अग्निष्बात्ता
संज्ञा पुं० [सं०] १. पितरों का एक भेद । २. अग्नि, विद्यत् आदि विद्याओं का जाननेवाला ।
⋙ अग्निसंकाश
वि० [सं०] अग्नितुल्य वर्ण या दीप्तिवाला [को०] ।
⋙ अग्निसंदीपन
वि० [सं०] दे० 'अग्निवर्धक' [को०] ।
⋙ अग्निसंभव (१)
वि० [सं०] अग्नि द्वारा उत्पन्न [को०] ।
⋙ अग्निसंभव (२)
संज्ञा पुं० १. स्वर्ण । २. अरण्य कुसुम । ३. कार्तिकेय । ४. भोज्यपदार्थ या भोजन का रस [को०] ।
⋙ अग्निसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. आग का व्यवहार । आग जलाना । २. तपाना । तप्त करना । ३. शुद्धि के लिये अग्नि स्पर्श कराने का विधान । ४. मृतक के शव को भस्म करने के उसपर अग्नि रखने की क्रिया । दाहकर्म । ५. श्राद्ध में पिंड रखने की वेदी पर आग की चिनगारी घुमाने की रीति या क्रिया ।
⋙ अग्निसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निवेश ऋषि द्वारा प्रणीत चिकित्सा संबंधी एक ग्रंथ [को०] ।
⋙ अग्निसखा
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अग्निसहाय' ।
⋙ अन्गिसहाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंगली कबुतर (क्योंकि उसके मांस से जठाराग्नि तीब्र होती है) । २. वायु । हवा । ३. धुआँ [को०] ।
⋙ अग्निसाक्षिक
वि० [सं०] १. जिसका साक्षी अग्नि हो । २. जिसकी प्रतिज्ञा अग्नि को साक्षी देकर की गई हो । जो अग्नि देवता के सामने संपादित हो । विशेष—जो बात अग्नि के सामने उसको साक्षी मानकर कही जाती है वह बहुत पक्की समझी जाती है और उसका पालन धर्म- विचार से अत्यंत आवश्यक होता है । विवाह में वर कन्या की जो प्रतिज्ञाएँ होती हैं वे अग्नि को साक्षी देकर की जाती है ।
⋙ अग्निसात्
वि० [सं०] आग में जलाया हुआ । भस्म किया हुआ । क्रि० प्र०—करना । —होना ।
⋙ अग्निसार
संज्ञा पुं० [सं०] नेत्रों के लिये आयुर्वेदकथित एक औषध । रसांजन (को०) ।
⋙ अग्निसुत
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय [को०] ।
⋙ अग्निसूनु
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय [को०] ।
⋙ अग्निसेवन
संज्ञा पुं० [सं०] आग तापना ।
⋙ अग्निस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० अग्निस्तंभ] १. अग्नि के प्रभाव को रोकने का कार्य । २. अग्निप्रभाव रोकनेवाले मंत्र । ३. अग्नि-प्रभाव- निरोधक चूर्ण या लेप [को०] ।
⋙ अग्निस्तंभन
संज्ञा पुं० [सं० अग्निस्तम्भ] दे० 'अग्निस्तंभ' [को०] ।
⋙ अग्निस्ताक
संज्ञा पुं० [सं०] स्फुलिंग । चिनगारी [को०] ।
⋙ अग्निहोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वेदोक्त मंत्रों से अग्नि में आहुति देने की क्रिया । एक यज्ञ । उ०—जलने लगा निरंतर उनका अग्निहोत्र सागर के तीर । —कामायनी, पृ० ३१ ।
⋙ अग्निहोत्री (१)
वि०— संज्ञा पुं० [सं० अग्निहोत्रिन्] अग्निहोत्र करनेवाला । सबेरे संध्या अग्नि में वेदोक्त विधि से हवन करनेवाला । अहितागिन ।
⋙ अग्निहोत्री (२)
संज्ञा स्त्री० यज्ञप्रयुक्त गाय [को०] ।
⋙ अग्नीध्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ में ऋविकविशेष जिसका काम अग्नि की रक्षा करना हे । २. स्वायंभुव मनु के पुत्र एक राजा का नाम । ३. मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत का बेटा । उ०— प्रियव्रत के अग्नीध्र सू भयौ । —सूर०, ५ । २ । ४ । दे० 'आग्नीध्र' ।
⋙ अग्नीय
वि० [सं०] १. अग्नि का समीपवर्ती । २. अग्निसंबंधी । अग्नि का [को०] ।
⋙ अग्न्यगार
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञाग्नि को रखने का स्थान । अग्निहोत्र का गृह [को०] ।
⋙ अग्न्यस्त्र
संज्ञा पुं० [सं० अग्नि + अस्त्र] १. मंत्र द्वारा फेँका जानेवाला अस्त्र जिससे आग निकले । अग्निघटित अस्त्र । आग्नेयास्त्र । २. वह अस्त्र जो आग से चलाया जाय, जैसे बंदुक ।
⋙ अग्न्यागार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अग्न्यगार' [को०] ।
⋙ अग्न्याधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि की विधानपूर्वक स्थापना । २. अग्निहोत्र ।
⋙ अग्न्यालय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अग्न्यागार' [को०] ।
⋙ अग्न्याशय
संज्ञा पुं० [सं०] जठराग्नि का स्थान । पक्वाशय ।
⋙ अग्न्याहित
संज्ञा पुं० [सं०] अहिताग्नि । अग्निहोत्री [को०] ।
⋙ अग्न्युत्पात
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाशीय अग्नि द्वारा उपद्रव । विशेष—नक्षत्र, उल्का, वज्र या पत्थर, बिजली और तारा के रूप में यह पाँच प्रकार का होता है । २. अग्निकांड । आग लगना [को०] ।
⋙ अग्न्युत्सादी
वि० [सं०] जो अग्निहोत्र या यज्ञ की अग्नि को बुझ जाने देता है [को०] ।
⋙ अग्न्युद्धार
संज्ञा पुं० [सं०] अरणिमंथन द्वारा आग उत्पन्न करने का कार्य [को०] ।
⋙ अग्न्युपस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि की पूजा या प्रार्थना । २. अग्निपूजा में प्रयुक्त होनेवाले मंत्र [को०] ।
⋙ अग्य पु †
वि० [सं० अज्ञ; पु० हिं० अग्य] राम बिरोधा बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य । —मानस, ६ । ८३ ।
⋙ अग्याँ पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० आज्ञा; पु अग्याँ] दे० 'आज्ञा' । उ०— अग्याँ भई रिसान नरेसू । —पदमावत, पृ० ४६३ ।
⋙ अग्याँन पु †
संज्ञा पुं० [सं० अज्ञान, पु अग्याँन, अगेयान] दे० 'अज्ञान' । उ०—जोबन गुन गर्वित सुनि सजनी तज्यो नाहिं अग्याँन । — पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १४८ ।
⋙ अग्या पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अग्याँ' । उ०—जो अग्या सामंत स्वामि दीनी सु मानि लिय । —पृ० रा०, ३१ । ४८ ।
⋙ अग्याकारिनि पु
वि० स्त्री [सं० आज्ञाकारिणी] आदेश माननेवाली । सेविका । उ०—हूँ तौ तिहारी अग्याकारिनि साँचि बात मोसौं कहा करौ महराज । —नंद० ग्रं०, पृ० ३६८ ।
⋙ अग्यात पु
क्रि० वि० [सं० अज्ञात, पु अग्यात] दे० 'अज्ञात' ।
⋙ अग्यान पु
वि० दे० [हिं०] 'अग्यंन' । उ०—मैं अग्यान अकुलाइ, अधिक लैं, जरत माँझ, घृत नायौ । —सूर०, १ । १५४ ।
⋙ अग्यारी †
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि + कारिका, प्रा० अग्गिआरिया= होमकर्म] १. अग्नि में धूप, गुड़ आदि सुगंध द्रव्य देने की क्रिया । धूपदान । २. अग्निकुंड ।
⋙ अग्यौन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अगवान' २ । उ०— सुनि आबत चहुआँन, करिय अग्यौन सलष बर । —पृ० रा०, १४ । २२ ।
⋙ अग्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आगे का भाग । अगला हिस्सा । आगा । उ०—बहुरि करि कोप हल अग्र पर बक्र धरि कटक को सकल चाहत डुबायो । —सूर० (शब्द०) । २. सिरा । नोक । उ०— जैसे जव के अग्र ओस कन प्राण रहत ऐसे अवधिहि के तट । — सूर (शब्द०) । ३. स्मृति के अनुसार अन्न की भिक्षा का एक परिमाण जो मोर के ४८ अंडों के बराबर होता है । ४. शृंग । शिखर (को०) । ५.श्रेष्ठता । उत्कर्ष (को०) । ६.आलंबन । अवलंबन (को०) । ७.प्रारंभ । शुरुआत (को०) । ८. समूह । भाड़ (को०) । ९. पल नाम की एक तौल (को०) । १०. अपने वर्ग या जाति का सर्वोत्तम पदार्थ (को०) । ११. सूर्य का घेरा या मंडल (को०) ।
⋙ अग्र (२)
क्रि० वि० आगे । उ०—चली अग्र करि प्रिय सखि सोई । प्रीत पुरातन लखइ न कोई । —तुलसी० (शब्द०) ।
⋙ अग्र (३)
वि० १. अगला । प्रथम । २. श्रेष्ठ । उत्तम । ३. प्रधान । मुख्य । ४. अधिक । ज्यादा । [को०] ।
⋙ अग्रकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ का अगला भाग । २. हाथ की उँगलियाँ । ३. सूर्य की प्रथम किरण । प्रकाश [को०] ।
⋙ अग्रकाय
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का अगला भाग [को०] ।
⋙ अग्रग
संज्ञा पुं० [सं०] अगु्श्रा । नेता [को०] ।
⋙ अग्रगण्य
वि० [सं०] जिसकी गिनती पहले हो । प्रधान । मुखिया । श्रेष्ठ । बड़ा ।
⋙ अग्रगामी (१)
संज्ञा पुं० [सं० अग्रगामिन्] वह जो आगे चले । प्रधान व्यक्ति । अग्रसर । अगुआ । नेता ।
⋙ अग्रगामी (२)
वि० [स्त्री० अग्रगामिनी] आगे चलनेवाला । अगुआ । उ०—रहे सदा तुम तो अनुगामी, आज अग्रगामी न बनो । — साकेत, पृ० ३९६ ।
⋙ अग्रगामी दल
संज्ञा पुं० [सं०] [अँ० फारवर्ड ब्लाक] वह संस्था वा संघटन जिसकी स्थापना सुभाषचंद्र वसु ने कांग्रेस से संबंध- विच्छेद करने के बाद की ।
⋙ अग्रजंघा
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्रजङ्घा] जाँघ का अगला भाग [को०] ।
⋙ अग्रज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो भाई पहले जन्मा हो । बड़ा भाई । ज्येष्ठ भ्राता । अनुज का उलटा । उ०—अग्रज परतिग्या करी तुव उरु तोड़न हेत । —भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ११४ । २. पु नायक । नेता । अगुआ । उ०—सेना अग्रज हत्यो पंच भट अक्ष कुमारहि घाता । —रामस्वयंवर (शब्द०) । ३. ब्राह्मण ।
⋙ अग्रज (२) पु
वि० १. श्रेष्ट । उत्तम । उ०—बैठे विशुद्ध गृह अग्रज अग्र जाई । देखी बसंत ऋतु सुंदर मोददाई । —केशव (शब्द०) । २. आपै पैदा होनेवाला । उ०—रोवत तैं बरजे सबै मोहन अग्रज भाई । —सूर०, १० । ५८९ ।
⋙ अग्रजन्मा
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा भाई । २. ब्राह्मण । ३. ब्रह्मा ।
⋙ अग्रजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बडी बहन । उ०—प्रभु कहाँ, कहाँ किंतु अग्रजा, कि जिसके लिये था मुझे तजा । —साकेत, पृ० ३१२ ।
⋙ अग्रजात
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण । २. बड़ा भाई [को०] ।
⋙ अग्रजातक
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण [को०] ।
⋙ अग्रजाति
संज्ञा पुं० [सं०] अग्रजातक । ब्राह्मण [को०] ।
⋙ अग्रजिह्वा
संज्ञा स्त्री [सं०] जीभ का अगला भाग [को०] ।
⋙ अग्रणी (१)
वि० [सं०] अगुआ । श्रेष्ठ । प्रधान । मुखिया ।
⋙ अग्रणी (२)
संज्ञा पुं० १. प्रधान पुरुष । मुखिया । अगुआ । २. वह्नि । अग्नि [को०] ।
⋙ अग्रतः
क्रि० वि० [सं०] आगे से । पहले से ।
⋙ अग्रदानी
संज्ञा पुं० [सं०] वह पतित ब्राह्मण जो प्रेत या मृतक के निमित्त दिए हुए तिल आदि के दान को ग्रहण करे ।
⋙ अग्रदूत
संज्ञा पुं० [सं०] वह दूत जो किसी के आने की सूचना आनेवाले व्यक्ति के पूर्व ही पहुँचकर दे । उ०—मैं ही वसंत का अग्रदूत । —अपरा, पृ० २६ ।
⋙ अग्रनख
संज्ञा पुं० [सं०] नख का अगला भाग [को०] ।
⋙ अग्रनिरूपण
संज्ञा पुं० [सं०] भविष्य या भावी का कथन [को०] ।
⋙ अग्रनी पु
वि० [हि०] दे० 'अग्रणी' । उ०—बीटन को नायक सहायक बरूथिनी को अनुज विराग वर अग्रनी बनायो है । — दीन० ग्रं०, पृ० १३४ ।
⋙ अग्रपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजलोमा । केवाँच [को०] ।
⋙ अग्रपा
वि० [सं०] सबसे प्रथम पानेवाला [को०] ।
⋙ अग्रपाद
संज्ञा पुं० [सं०] पैर का अगला हिस्सा । अँगूठा [को०] ।
⋙ अग्रपूजा
संज्ञा पुं० [सं०] १. सबसे पहले पूजन । सर्वप्रथम अर्चना । २. सबसे अधिक पूज्यता या मान्यता [को०] ।
⋙ अग्रबीज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वृक्ष जिसकी डाल काटकर लगाने से लग जाय । पेड़ जिसकी कमल लगे । २. कलम ।
⋙ अग्रबीज (२)
वि० कलम से होनेवाला [को०] ।
⋙ अग्रभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. आगे का भाग । अगला हिस्सा । २. सिरा । नोक । छोर । ३. श्राद्ध आदि में पहले दिया जानेवाला द्रव्य [को] । ४. शेष अंश या भाग [को०] ।
⋙ अग्रभागी
वि० [सं०] सर्वप्रथम हिस्सा या भाग पानेवाला [को०] ।
⋙ अग्रभुक्
वि० [सं०] १. देवपितर को अपंण किए बिना पहले स्वयम् खानेवाला । २. पेटू । औरिक । ३. सबसे पहले भोजन करने वाला [को०] ।
⋙ अग्रभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अग्रभूमि' [को०] ।
⋙ अग्रभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घर की छत । पाटन । २. लक्ष्य या प्राप्य स्थान [को०] ।
⋙ अग्रमहिषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रधान रानी । पटरानी [को०] ।
⋙ अग्रमांस
संज्ञा पुं० [सं०] १. उदर के भीतर मांसवृद्धि का एक रोग । २. हृदय [को०] ।
⋙ अग्रमुख
संज्ञा पुं० [सं०] मुख का अग्रभाग । मुखाग्र [को०] ।
⋙ अग्रयान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेना का आगे बढ़ना । सेना का पहला धावा । २. आगे बढ़ती हुई सेना । धावा करती हुई फौज ।
⋙ अग्रयान (२)
वि० अग्रगामी । अगुआ [को०] ।
⋙ अग्रयायी
संज्ञा पुं० [सं० अग्रयायिन्] १. अगुआ । अग्रसर । २. प्रधान । श्रेष्ठ [को०] ।
⋙ अग्रयोधी
संज्ञा पुं० [सं०] १. आगे बढ़कर युद्ध करनेवाला वीर । २. प्रधान योद्ध । प्रमुख वीर [को०] ।
⋙ अग्रलेख
संज्ञा पुं० [सं० अग्र + लेख] दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्रों में संपादकीय स्तंभ के अंतर्गत संपादक द्वारा लिखित प्रमुख लेख । उ०—'जीवन चरित्र लिख अग्रलेख अथवा छापते विशाल चित्र' । —अपरा, पृ० ६३ । विशेष—यह शब्द अग्रेंजी के 'लीङ्गि आर्टिकल' का अनुवाद है ।
⋙ अग्रलोहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिल्ली या बथुआ नामक शाक [को०] ।
⋙ अग्रवक्त
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत में वर्णित चीरफाड़ का एक यंत्र ।
⋙ अग्रवर पु
क्रि वि० [सं० अग्र + पर, प्रा० वर] आगे । पहले । उ०—उमड़ि अग्रवर पैयर दिन्ह्यउ, जिय हठि प्रथम जुद्ध ब्रत लिन्ह्यउ । —हिम्मत०, पृ० ६५७ ।
⋙ अग्रवर्ती
वि० [सं० अग्रवर्तिन्] आगे रहनेवाला । अगुआ ।
⋙ अग्रवात
संज्ञा पुं० [सं०] स्वच्छ एवं ताजा वायु [को०] ।
⋙ अग्रवान्
वि० [सं०] सबसे आगे या श्रेष्ठ [को०] ।
⋙ अग्रवाल
संज्ञा पुं० [हिं०] अगरवाला ।
⋙ अग्रशः
कि० वि० [सं०] आगे से ही । पहले से ही । शुरू से ही [को०] ।
⋙ अग्रशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] निवास का अगला भाग । ओसारी [को०] ।
⋙ अग्रशोची
संज्ञा पुं० [सं०] आगे से विचार करनेवाला । दूरदर्शी । दूरंदेश, जैसे—'अग्रशोची सदा सुखी' (शब्द०) ।
⋙ अग्रशोभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्कृष्ट सौंदर्य । अपूर्व शोभा [को०] ।
⋙ अग्रसख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रथम स्थान या श्रेणी [को०] ।
⋙ अग्रसंधानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमराज की एक पुस्तिका या पंजिका जिसमें प्राणिवर्ग का शुभाशुभ लिखा रहता है [को०] ।
⋙ अग्रसंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रातःकाल । प्रभात । ऊषाकाल । २. सायंकाल का पूर्ववर्ती समय [को०] ।
⋙ अग्रसर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आगे जानेवाला व्यक्ति । अग्रगामी । अगुआ । २. आरंभ करनेवाला । पहले पहले करनेवाला व्यक्ति । ३. मुखिया । प्रधान व्यक्ति । क्रि० प्र०—होना = आगे बढ़ना । उ०—हुए अग्रसर उसी मार्ग से छुटे तीर से फिर वे । —कामायनी, पृ० १०९ ।
⋙ अग्रसर (२)
वि० १. जो आगे जाय । अगुआ । २. जो आरंभ करे । ३. प्रधान । मुख्य । उ०—अग्रसर हो रही यहाँ फूट, बाधाएँ कृत्रिम रहीं टूट । —कामायनी, पृ० २३९ ।
⋙ अग्रसारण
संज्ञा पुं० [सं० अग्रसर] १. आगे बढ़ना । किसी का आवेदनपत्र आदि आगेवाले अधिकारी के पास भेजने का कार्य ।
⋙ अग्रसारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिना फल या पत्ते की टहनी । २. अनंत संख्याओं की गिनती करने का एक सरल तरीका [को०] ।
⋙ अग्रसारित
वि० [सं० अग्रसर] आगे बढ़ाया हुआ ।
⋙ अग्रसूची
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूई का अगला भाग या हिस्सा । सूच्यग्र [को०] ।
⋙ अग्रसोची
संज्ञा पुं० [सं० अग्र + हि० सोचना] आगे से विचार करनेवाली प्राणी । दूरंदेश । दूरदर्शी । उ०—पहले कुछ आटे की कमी मालूम हुई किंतु अग्रसोची सदा सुखी । —किन्नर०, पृ० ७७ ।
⋙ अग्रस्थान
संज्ञा पु० [सं०] शीर्षस्थान । प्रथम स्थान या मूर्धन्य स्थान [को०] ।
⋙ अग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. गार्हस्थ को न धारण करनेवाला पुरुष । २. वानप्रस्थ । ३. ज्ञानशून्य (को०) । ४. गृहशून्य या गृहहीन व्यक्ति (को०) ।
⋙ अग्रहर
वि० [सं०] (वस्तु या पदार्थ)जो पहले जाय । सर्व- प्रथम दी जाने योग्य [को०] ।
⋙ अग्रहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० १. 'अग्रकर' । २. हाथी के सूँड़ का अगला सिरा या नोक [को०] ।
⋙ अग्रहायण
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ष का अगला या पहला महीना । अग- हन । मार्गशीर्ष । विशेष—प्राचीन वैदिक क्रम के अनुसार वर्ष का आरंभ अग्रहन से माना जाता था । यह प्रथा अब तक भी गुजरात आदि देशों में है । पर उत्तरीय भारत में वर्ष का आरंभ चैत्र मास से लेने के कारण यह नवाँ पड़ता है ।
⋙ अग्रहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा की ओर से ब्राह्मण को योगक्षेम के लिये किया हुआ भूमि का दान । २. वह गाँव या भूमि जो किसी ब्राह्मण को माफी दी जाय । ३. ब्राह्मण को देने के लिये कृषि की पैदावार से निकाला या अलग किया हुआ अन्न (को०) ।
⋙ अग्रहारिक
संज्ञा पुं० [सं०] अग्रहार का निरीक्षक अधिकारी [को०] ।
⋙ अग्रांश
संज्ञा पुं० [सं० अग्र + अंश] १. आगे का भाग । २. चंद्रमा का वह भाग जो पृथ्वी पर से सदैव नहीं दिखाई पड़ता वरन् कभी कभी चंद्रमा की अनियमित गति या कंप से दिखाई पड़ जाता है । विशेष—चंद्रमा में यह विलक्षणता है कि उसका प्रायः एक नियत भाग ही सदैव पुथ्वी की ओर रहता है । केवल कभी कभी वह कुछ काल के लिये हिल जाता है जिससे उसका कुछ और भाग भी दिखाई पड़ जाता है ।
⋙ अग्रांशु
संज्ञा पुं० [सं०] किरण का संघात केंद्र [को०] ।
⋙ अग्रक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] अपांगवीक्षण [को०] ।
⋙ अग्रक्षि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अग्राक्षण' [को०] ।
⋙ अग्राज
संज्ञा स्त्री० [सं० आ + गर्जन्] गर्जना । उ०—अंबर की अग्रज सूँ, केहर खीज करंत । —बाँकी० ग्रं० भा० १. पृ० १० ।
⋙ अग्रणीक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अग्रानिक' [को०] ।
⋙ अग्रन †
संज्ञा पुं० [देश०] ऊबने की स्थिति या भाव । हैरान । उ०—जिन्हें सुनते सुनते मैं इतना अग्रान हो गया कि वहाँ बैठना कठिन प्रतीत होने लगा । —प्रेमघन० भा० २, पृ० १४६ । क्रि० प्र०—करना । —होना ।
⋙ अग्रनीक
संज्ञा पुं० [सं०] सेना का आगे जानेवाला भाग [को०] ।
⋙ अग्राम्य
वि० [सं०] १. जो गाँव का नही । नगर का । शहरी । २. सुसंस्कृत । स्भ्य ३. जो पाला पोसा न हो । जंगली [को०] ।
⋙ अग्राशन
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन का वह अंश जो देवता के लिये पहले निकाल दिया जाता है । यह अग्राशन पशुओं और सन्यासियों को दिया जाता है ।
⋙ अग्रासन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रधान आसन । मुख्य स्थान । सबसे आगे का या मानपूर्ण आसन ।
⋙ अग्राह्य
वि० [सं०] १. न ग्रहण करने योग्य । अग्रहणिय । धारण करने के अयोग्य । २. न लेने लायक । ३. त्याज्य । छोड़ने लायक । ४ न मानने योग्य । अविचारणीय (को०) । ५. विश्वास के अयोग्य । अविश्वसनीय (को०) ।
⋙ अग्राह्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] शौचादि के कार्य में प्रयुक्त न होनेवाली मृत्तिका [को०] ।
⋙ अग्रिम (१)
वि० [सं०] १. अगाऊ । पेशगी । २. आगे आनेवाला । आगमी । उ०— यही बात अग्रिम सूत्रों से सिद्ध करेंगे । — हरिश्चंद्र (शब्द०) । ३. प्रधान । श्रेष्ठ । उत्तम । ४. सर्वश्रेष्ठ । सबसे बड़ा (को०) । ५. अगला । आगे का (को०) ।
⋙ अग्रिम (२)
संज्ञा पुं० बड़ा भाई । अग्रज ।
⋙ अग्रिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रीष्मजा । लोषा या रामफल [को०] ।
⋙ अग्रिय (१)
वि० [सं०] १. पहले उत्पन्न । पहले होनेवाला । २. श्रेष्ठ । उतम [को०] ।
⋙ अग्रिय (२)
संज्ञा पुं० १. बड़ा भाई । २. पहला फल । ३. सर्वोत्तम भाग [को०] ।
⋙ अग्रीय (१)
वि० [सं०] दे० 'अग्रिय़ (१)' [को०] ।
⋙ अग्रीय (२)
संज्ञा पुं० दे० 'आग्रिय (२)' [को०] ।
⋙ अग्रु
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अग्रू] वह व्याक्ति जिसका विवाह न हुआ हो । कुँवारा आदसी [को०] ।
⋙ अग्रे
क्रि० वि० [सं०] १. आगे । पहले । २. पहले से । आगे । से [को०] ।
⋙ अग्रेणी
संज्ञा पुं० [सं०] नेता । अगुआ । [को०] ।
⋙ अग्रेदिधिषु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसी स्त्री से विवाह करनेवाला पुरुष जो पहले किसी और को ब्याही रही हो ।
⋙ अग्रेदिधिषु (२)
संज्ञा स्त्री० वह कन्या जिसका विवाह उसकी बड़ी बहिन के पहले हो जाय ।
⋙ अग्रेसर
वि० [सं०] दे० 'अग्रसर' [को०] ।
⋙ अग्रेसरिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नेता । अगुआ । २. अपने मालिक के आगे आगे जानेवाला सेवक [को०] ।
⋙ अग्रसुर
संज्ञा पुं० [सं० अग्र + ईश्वर] देवाताओं में अग्रणी या प्रथम पूज्य गणेश । उ०—संभरि तिण पाछे अग्रेसुर दया क्रपा कर श्री लंबोदर । —राज० पृ० ४ ।
⋙ अग्र्य
वि० [सं०] १. प्रधान । श्रेष्ठ । २. अगला । ३. कुशल [को०] ।
⋙ अग्र्य (२)
संज्ञा पुं० १. बड़ा भाई । २. सबसे बड़ा भई (को०) । ३. सब वेदों की अनन्यमन होकर एकरस पढ़ने में समर्थ ब्राह्मण जो श्रद्धा के साधकों में गिना गया हो । ४. छत । पाटन (को०) ।
⋙ अघंनिका
वि० [सं० अघ] पापयुक्त । पापिनी । उ०— प्रसिद्ध होँ अघंनिका । —भिखारी० ग्रं० भा० १, पृ० १८४ ।
⋙ अघ (१)
वि० [सं०] १. पापात्मा । २. बुरा । बदमाश । ३. दोषी । दुष्कर्मी [को०] ।
⋙ अघ (२)
संज्ञा पुं० १ पाप । पातक । अधर्म । उ०—सुनि अध नरकहु नाक सिकोरी । —मानस १ २९ । २. दोष । गुनाह दुष्कर्म । उ०—जेहिँ अध बधेउ व्याध जिमि बाली । —मानस १२९ ३. दुःख विपत्ति । उ०—बरखि बिस्व हरपित करत हरत ताप अध प्यास । —तुलसी ग्रं०, पृ० १३४ । ४. व्यसन । ५. अशौच (को०) । ६. मुथुरा के राजा कंस का सेनापति़ अघासुर जिसे कृष्ण ने मारा था ।
⋙ अघओघ
संज्ञा पुं० [सं० अघौघ] पातकसमुह । पापराशि । उ०— सिय निदक अघओध नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए ।—मानम १ । १६ ।
⋙ अघकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्रत जो प्रायश्चित्त के रूप में किया जाता है । अघमर्षण कुच्छ [को०] ।
⋙ अघकृत्
वि० [सं०] पातकी । पाप करनेवाला [को०] ।
⋙ अघघ्न (१)
वि० [सं०] अघ या पाप का विनाशक [को०] ।
⋙ अघघ्न (२)
संज्ञा पुं० विषणु [को०] ।
⋙ अघट (१)
वि० [सं० अ = नहीं + घट् = होना] १. जो कार्य में परिणत न हो सके । जो घटित न हो । न होने योग्य । उ०—अघट घटना सुघट, सुघट विघटन बिकट, भूमि, पाताल, जल, गगन गंता । —तुलसी ग्रं०, पृ० ४६७ । २. दुर्घट । कठिन । ३. पु जो ठीक न घटे । जो ठीक न उतरे । अनुपयुक्त । बेमेल । अयोग्य । उ०—भूषण पट पहिरे विपरीता । कोउ अँग अघट कोउ अँग रीता । —विश्रामसागर (शब्द०) ।
⋙ अघट (२)
वि० [सं अ = नहीं + घट् = हिंसा] १. जो न घटे । जो कम न हो । न चुकने योग्य । अक्षय । उ०—माटी मिलै न गगन बिलाई । अघट एकरस रहा न जाई । —दादू, पृ० ५७३ । २. जो समभाव रहे । एकरस स्थिर । उ०—(क) कबिरा यह गति अटपटी, चटपट लखी न जाय । जो मन की खटपट मिटै, अघट भए ठहराय । —कबीर (शब्द०) । (ख) जहँ तहँ मुनि- वर निज मर्यादा थापी अघट अपार—सूर० (शब्द०) । ३. पूरा । पूर्ण । उ०—सूर स्याम सुजान सुकिया अघट उपमा दाव । —सा० लहरी, पृ० १ ।
⋙ अघटन पु
संज्ञा पुं० [सं० अ + हि० घटना] कम न होगा । न घटना कम न होने का भाव ।
⋙ अघटित (१)
वि० [सं०] १. जो घटित न हुआ हो । जो हुआ न हो । उ०— पाकर पुत्रों में प्रेम अटल अघटित सा । —साकेत, पृ० २२६ । २. जिसके होने की संभावना न हो । न होने योग्य । असंभव । कठिन । उ०—हरि माया बस जगत भ्रमाहीं । तिन्हहिं कहत कछु अघटित नाहीँ । — तुलसी (शब्द०) । ३. पु अयोग्य । अनुचित । अनुपयुक्त । ना मुनासिब । उ०— रसना स्वाद सिथिल लंपट ह्ले अघटित भोजन करतो । — सूर० १ । २०३ ।
⋙ अघटित (२) पु
वि० [सं० आ + घटित] अवश्य होनेवाला । अमिट । अनिवार्य । उ०—जनि मानहु हिय हानि गलानी । काल करम गति अघटित जानी । —तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अघटित (३) पु
वि० [हि० अघट] न घटने योग्य । बहुत अधिक । उ०— अघटित सोभा यदपि तदपि मनि घटित बिराजत ।—गि० दा० (शब्द०) ।
⋙ अघटितघटनापटीयसी
वि० [सं०] जो कभी न हुआ हो उसे भी करने में पटु या चतुर । माया का विशेषण [को०] ।
⋙ अघट्ट पु
वि० [सं० अघटय] जो न घटे या न चुके । अक्षय । उ०— दीपक दीन्हा तेल भरि बाती दई अघटु । कबीर सा० सं०, भा०, १ पृ० ६ ।
⋙ अघड़ पु
वि० [सं० अ = नहीं + घट, प्रा, घड़, हि० घड़] जो गढ़ा न जा सके । निर्माण के अयोग्य । उ०—अघड़ घड़ावै उलटे चाकि । —प्राण० पृ० १७० ।
⋙ अघन
वि० [सं०] १. जो घना या ठोस न हो । तरल । २. जो अशिथिल ओर अविरल न हो [को०] ।
⋙ अघनाशक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अघघ्न' [को०] ।
⋙ अघनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अघ का नाश करे । विष्णु [को०] ।
⋙ अघनाशन (२)
वि० पापों का नाश करनेवाला [को०] ।
⋙ अघनासी पु
वि० स्त्री० [सं० अघ + नाशिन्] पाप का नाश करनेवाली । पापनाशिनी । उ०—बासी, अबिनासी अघनासी ऐसी कासी है । —भारतेंगदु ग्रं० भा० १. पृ० २८२ ।
⋙ अघभोजी
वि० [सं० अघभोजिन्] १. देवपितर आदि के लिये न बनाकर अपने ही लिये बनाने और खानेवाला । २. पाप की कमाई खानेवाला [को०] ।
⋙ अघमरषण पु
संज्ञा पुं० [सं० अघमर्षण] दे० 'अघमर्षण' । उ०— बाढ़ै पुन्य आध अघमरषण आखरनि, मतिराम करत जगत जप नाम को । —मतिराम ग्रं० पृ० ४१२ ।
⋙ अघमर्षण (१)
वि० [सं०] पापनाशक ।
⋙ अघमर्षण (२)
संज्ञा पुं० १. ऋग्वेद का एक सूक्त जिसका उच्चारण संध्यावंदन के समय द्विज पाप की निवृत्ति के लिये करते है । २. मंत्र द्वारा हाथ में जल लेकर नासिका से छुलाकर विसर्जन करने की पापनाशिनी क्रिया ।
⋙ अघमर्षणकृच्छु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कठिन व्रत जो प्रायश्चित्त रूप में किया जाता था । विशेष—इसमें तिन दिन तक कुछ न खाने, त्रिकाल स्नान करने और पानी में डूबकर अघमर्षण मंत्र जपने का विधान है— (स्मृति) ।
⋙ अघमार
वि० [सं०] पापों का नाश करनेवाला [को०] ।
⋙ अघरूप
संज्ञा पुं० [सं० अघ + रूप] पापरूप । महापातकी । उ०— तदपि महीसुर स्त्राप बस भए सकल अधरूप । —मानस, १ ।१७६ ।
⋙ अघर्म
वि० [सं०] उष्णतारहित । शीतल [को०] ।
⋙ अघर्मांशु
संज्ञा पुं० [सं०] हिमांशु । चंद्रमा [को०] ।
⋙ अघल
वि० [सं०] पाप का नाश करनेबाला [को०] ।
⋙ अघवान्
वि० [सं०] पापी । अधी ।
⋙ अघवाना
क्रि० स० [हि० अघाना का प्रे०] १. भरपेट खिलाना । भोजन से तुप्त करना । छकाना । २. संतुष्ट करना । मन भरना । उ०—कीनौ घमसान समसान फर मंडल मैं घाइनु अघाइ अघवाए वीर वास मैं । —सुजान०, पु० १३ ।
⋙ अघविष
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत तीव्र विषवाला सांप [को०] ।
⋙ अघरंस
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुष्कर्म या पाप कहनेवाला व्याक्ति । २. दुष्कर्म की इच्छा करनेवाला व्याक्ति, जैसे चोर । ३. बुरा व्यक्ति [को०] ।
⋙ अघशंसी
वि० [सं०] बुराई या पाप की वार्ता करनेवाला [को०] ।
⋙ अघहर
वि० [सं० अघ + हर] पापों को हरणा करनेवाला । पाप को नष्ट करनेबाला । उ०—सत्यासक्त दयाल द्बिज प्रिय अघहर सुखकंद । —भारतेंदु ग्रं०, पु० २५० ।
⋙ अघहरन पु
वि० [सं०] अघहरण दे० 'अघहर' । उ०—अति प्रताप महिमा समाज जस, सोक, ताप, अघहरन । —नदं० ग्र०, पृ० ३२६ ।
⋙ अघहार
संज्ञा पुं० सं० १. कुख्यात डाकू या लुटेरा । २. अपराध विषयक अपवाद या अफवाह [को०] ।
⋙ अघाँवरी पु
संज्ञा स्त्री० [हि० अघाना] तृप्त होना । संतुष्ट होना । उ०—कवि ठाकुर नैन सो नैन लगे अब प्रेम सों क्यों न अघाँवरी री । —ठाकुर श०, पृ० १८ ।
⋙ अघा पु
संज्ञा पुं० हि० दे० 'अघासुर' । उ०—बीते वर्ष कहत सब ग्वाला । आज अधा मारयो नँदलाला । —ब्रज०, पृ० १३३ ।
⋙ अघा (२)
संज्ञा स्त्री सं० पाप की देवी । पाप की अधिष्ठात्री देवी को० ।
⋙ अघाउ पु †
संज्ञा पुं० [प्रा० अग्घव = पूरा करना] संतुष्ट या तृप्त होने का भाव । संतोष । तृप्ति । उ०—भरत सभा सनमानि सराहत होत न हृदय अघाउ । —तुलसी ग्रं० पु० ५०९ ।
⋙ अघाट
संज्ञा पुं० [देश०] वह भूमि जिसे बेचने या अलग करने का अधिकार उसके स्वामी को न हो । अगहाट ।
⋙ अघात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] क्षति या घात का अभाव को० ।
⋙ अघात (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अघात] चोट । मार । प्रहार । उ०—बूँद अघात सहहिँ गिरि कैसे । —मानस, ४ । १४ ।
⋙ अघात (३
वि० [हि० अघाना] पेट भर । खूब । ज्यादा । अधिक । बहुत । उ०—तब उन माँगी इन नहिं दीन्हीं बाढ़यो बैर अघात । —सूर० (शब्द०) ।
⋙ अघाती
वि० [सं०] घात या क्षति न करनेवाला [को०] ।
⋙ अघाना (१)
क्रि० अ० [सं० आध्राण] १. भोजन या पान से तृप्त होना । पेट भर खाना या पीना । छकना । अफरना । उ०—पुरुष को भोग लगाय सखा मिलि पाइए । जुग जुग छुधा बुझाइ तो पाइ अघाइए । —कबीर (शब्द०) । विशेष— सं० आ + घ्रा का अर्थ अन्छी तरह सूंघना है । यहाँ 'सुगंधि सूँघकर तृप्त होना' लाक्षणिक अर्थ धीरे धीरे अर्थ- विस्तारण प्रक्रिया से 'अघाना' का अर्थ देने लगा । २. संतुष्ट होना । तृप्त होना । मन का भरना । इच्छा का पूर्ण होना । उ०—नखसिख रुचिर बिंदु माधव छबि निरखहि नयन अधाई । —तुलसी ग्रं० पु० ४९१ । ३. प्रसन्न होना । हर्ष से परिपूर्ण होना । उ०—ख्याल दली ताडुका देखि ऋषि देत असीस अघाई । —तुलसी ग्रं, पु० २९६ । ४. पु थकना । ऊबना । उ०—प्रभ बचनामृत सुनि न अघाऊँ । मानस, ७ ।८८ । ५. पु पूर्णता को पहुँचना । उ०—सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि । —मानस २ । ६३ ।
⋙ अघाना (२)
क्रि० सं० संतुष्ट करना । तृप्त करना । उ० —परै भहराइ भभकंत रिपु घाइ सौँ करि कदन रुधिर भैरोँ अघाऊ । —सूर०, १ । १२९ ।
⋙ अघायु
वि० सं० १. हिंसानिरत । २. दूसरे की अहितकामना करने वाला । पापमय जीवन व्यतीत करनेवाला । ३. सभी अवस्थाओं में पापकर्म करनेवाला [को०] ।
⋙ अघारी (१)
वि० [सं० अघारिन्] व्यसन या दुःख से युक्त [को०] ।
⋙ अघारी (२)
संज्ञा पुं० [सं० अघ + अरि] १. पाप का शुत्रु । पापनाशक । पाप दूर करनेवाला । उ०—तुम्हरेइ भजन प्रभाव अघारी । — मानस, ३ ।७ । २. अध नामक दैत्य को मारनेवाले श्रीकृष्ण या विष्णु ।
⋙ अघाल पु
वि० [सं० अघालु] पापी । दुष्कर्मी । उ०—साखी कंध कुल्हाड़ अघाल मतक दुनियाँ भार । गरिबदासं शाह यों कहे बखशो अबकी बार । —कबीर मं० पु० १२७ ।
⋙ अघाव †
संज्ञा पुं० [हि० अघाना] अघाने की स्थिति या भाव ।
⋙ अघावर †
संज्ञा पुं० [हि अघा + वर (प्रत्य०)] १. अघाने या पूर्ण तुप्त होने की स्थिति या भाव । २. ऊब ।
⋙ अघासुर
संज्ञा पुं० [सं०] कंस का सेनापति अघ नामक दैत्य जिसे श्री कृष्ण ने मारा था ।
⋙ अधी
वि० [सं०] पापी । पातकी । कुकर्मी । उ०—कूर, कुजाति, कपूत, अघी सबकी सुधरै जो करै नर पूजो । —तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अघेरन †
संज्ञा पुं० [देश०] जौ का मोटा आटा ।
⋙ अघोर (१)
वि० [सं०] १. जो भीषण या भयंकर न हो (को०) । २. सौम्य । प्रियदर्शन । सुहावना । —उ०—'तब श्रीकृष्ण ने अघोर बंसी बजाई' । — पोद्दार अभि० ग्रं, पृ० ४८३ ।
⋙ अघोर (२)
वि० [सं० घोर ] १. घोर । कठिन । कठोर । उ०—खौंचो राम धनुष चढ़ो जबहीं । महा अघोर शब्द भयो तबहीं । —कबीर सा० पृ० ३७ । २. भयंकर । भयानक । उ०—दर्ब हरहिं पर सोक न हरहीं । सो गुरु नर्क अघोरहि परहीं । — सं० दरिया, पृ० ७ ।
⋙ अघोर (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का नाम या एक रूप । २. एक पंथ या संप्रदाय । विशेष—इसके अनुयायी न केवल मद्य मांस का व्यवहार अत्याधिक करते हैं, वरन् वे नरमांस, मल मूत्र आदि तक से घिन नहीं करते । कीनाराम इस संप्रदाय के बडे प्रसिद्ब पुरुष हुए हैं । ३. अघोर पंथ का उपासक । अघोरी । उ०—मति के कठोर मानि धरम को तौर करै, करम अघोर डरै परम अघौर को । —भिखारी ग्रं० भा० २ पु० ३४ ।
⋙ अघोरघोररूप
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०] ।
⋙ अघोरनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] भूतनाथ । शिव ।
⋙ अघोरपंथ
संज्ञा पुं० [सं० अघोर + पंथ] अघोरियों का पंथ या संप्रदाय वि० दे० 'अघोरमार्ग' ।
⋙ अघोरपंथी
संज्ञा पुं० [सं० अघोरपंथी] अघोर मत का अनुयायी । अघोरी । औघड़ ।
⋙ अघोरपथ
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का उपासक एक संप्रदाय [को०] ।
⋙ अघोरमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] अघोर मतावलंबिय़ों की साधना का ढंग । अघोरियों का साधन मार्ग । उ०—सारूप्य मुक्ति सो तब पावै, अघोरमार्ग को जो कोई ध्यावै ।— कबीर सा० पृ० ९०५ । विशेष—अघोरमार्ग में शिव की अघोरीश्वर रूप में उपासना होती है । श्मशानसाधन, शवसाधन, मंत्रसाधन, पंचमकार सेवन, चितभस्म और रुद्राक्षधारण आदि इस मार्ग में विहित है । तांत्रिक वीराचारियों से इनके आचार विचार मिलते है ।
⋙ अघोरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाद्र कृष्ण चतुर्दशी । भादों वदी चौदस । विशेष—इस तिथि को शिवपूजन का विशेष महत्व है ।
⋙ अघोरी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री अघोरिन्] १ अघोर मत का अनुयायी । अघोर पंथ पर चलनेवाला साधक जो मद्य मांस के सिवाय मल, मूत्र, शव आदि घिनौनी वस्तुओं को भी खा जाता है और अपना वेश भी भयंकर और घिनौना बनाए रहता है । औघड़ । कीनारामी । २. घिनौनी वस्तुओं का व्यवहार करनेवाला व्यक्ति । भक्ष्याभक्ष्य का विचार न करनेवाला । सर्वभक्षी । घृणित व्यक्ति ।
⋙ अघोरी (२)
वि० जो घिनौनी वस्तुओं का व्यवहार करे । घृणित । घिनौना । उ०—बन्यौ धर्म आपहिँ तुम हित चंडाल अघोरी । — रत्नाकर, भा० १ पृ० ९२ ।
⋙ अघोष (१)
वि० [सं० ] १. शब्दरहित । नीरव । २. अल्पध्वनि युक्त । ३. ग्वाल या अहीरों से रहित ।
⋙ अघोष (२)
संज्ञा पुं० १.व्याकरण में एक वर्णसमूह का नाम । विशेष—इसमें प्रत्येक वर्ग का पहला और दूसरा अक्षर तथा श, ष, स, भी हैं, यथा, —क, ख, च, छ, ट, ठ त, थ, प, फ, श, ष, स । २. तेरह की संख्या का सूचक शब्द क्योंकि अघोष वर्ण १३ होते है [को०] ।
⋙ अघोषित
वि० [सं०] बिना कहा या घोषणा किया हुआ ।
⋙ अघोषितयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] दो राज्यों का वह सशस्त्र संघर्ष या युद्घ जिसमें कोई भी राज्य संघर्ष की पूर्वसूचना अथवा नियमित घोषणा नही करते ।
⋙ अघौघ
संज्ञा पुं० [सं०] पापों का समूह । पाप का ढेर । उ०—पावस समय कछु अवध बरनत सुनि अघौघ नसावहीं । —तुलसी ग्रं०, पृ०, ४१९ ।
⋙ अघ्न्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा । २. बलीबद । साँड [को०] ।
⋙ अघ्न्य (२)
वि० न हनने या मारने के योग्य ।
⋙ अघ्न्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गौ । गाय [को०] ।
⋙ अघ्रान पु
संज्ञा पुं० [सं० अघ्राण] १. गंघ लेने की क्रिया या भाव । सूँघने का कार्य । गंधग्रहण । २. गंध । महक । अरघान । उ०—नर अघ्रान तहाँ तिन्ह लगी । संत सुकृत बोले अनुरागी । —कबीर सा० पृ० ६७ ।
⋙ अघ्रानना पु
क्रि सं० [सं० आघ्राण] आघ्राण करना । महँक लेना । सूँघना । उ०— असंख रवि जहाँ, काटि दमिनि, पुहुप सेज अघ्रानियाँ । —कबीर (शब्द०) ।
⋙ अघ्रोय (१)
वि० [सं०] न सूँघने योग्य ।
⋙ अघ्रोय (२)
संज्ञा पुं० मद्य । शराब । [क्रो०] ।
⋙ अचंचल
वि० [सं० अचञ्चल] [स्त्री० अचंचला० संज्ञा अचंचलता] १. जो चंचल न हो । चंचलतारहिन । स्थिर । ठहरा हुआ । उ०—भए विलोचन चारु अचंचल । —तुलसी (शब्द०) । २. धीर । गंभीर ।
⋙ अचंचलता
संज्ञा स्त्री० [सं० अचञ्चलता] १. स्थिरता । ठहराव । २. धीरता । गंभारिता ।
⋙ अचंड
वि० [सं० अचण्ड] [स्त्री० अचंडी] जो चंड न हो । उग्रता रहित । शांत । सुशील । सौम्य ।
⋙ अचंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० अचण्डी] १. सीधी गाय । शांत गौ । २. अकोपना स्त्री [को०] ।
⋙ अचंती पु
वि० [सं० अचिन्तित, प्रा०, अचिंतिय, अचिंतिइ] अतर्कित । आकम्सिक । उ०—का, प्री राँगा, प्राँण करि, काँइ अचंती हाँण । —ढोला दू० ६२७ ।
⋙ अचंद्र
वि० [सं० अचन्द्र] चंद्रमा से रहित । बिना चाँद का [को०] ।
⋙ अचंभम पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अचंभव' । उ० —हुअ धरा नरां नर हैमरां, उरध अचंभम अम्मरां । —रा० रु,० पृ० २५ ।
⋙ अचंभव पु
संज्ञा पुं० [सं० अत्यद्भुत, प्रा० अच्चब्भुअ, अचंभव] अचंभा । आश्चर्य । विस्मय । तअज्जुब । उ०—अगम अगोचर समुझि परै नहिं भयो अचंभव भारी । —कबीर (शब्द०) ।
⋙ अचंभा
संज्ञा पुं० [सं० अत्यद्भुत, प्रा० अच्चब्भुअ] १. आश्चर्य । अचरज । विस्मय । तअज्जुब । २. विस्मय उत्पन्न करनेवाली बात । उ०—एक अचंभा देखा रे भाई, ठाढ़ा सिंघ चरावै गाई ।—कबीर ग्रं०, पृ० ९१ ।
⋙ अचंभित पु
वि० [हिं० अचंभा] आश्चर्यित । चकित । विस्मित ।
⋙ अचंभो
संज्ञा पुं० [सं० असंभव अथवा हिं० अचंभव] दे० 'अचंभा' । उ०—(क) देखत रहे अचंभो, योगी हस्ति न आय । योगिहि कर अस जूझब भूमि न लागत पाय । —जायसी (शब्द०) । (ख) अचंभो इन लोगनि के आवै । छाँड़ै खान अमीरस फलको माया विष फल भावै । —सूर (शब्द०) ।
⋙ अचंभौ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अचंभव' । उ०—नसै धर्म मन बचन काय करि सिंधु अचंभौ करई । —सूर० ९ ।७८ ।
⋙ अच्
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत व्याकरणा में स्वरों के लिये प्रयुक्त पारिभाषिक शब्द जिसे प्रत्याहार भी कहते है [को०] ।
⋙ अचक(१)
वि० [सं० चक्र, प्रा० चक्क = समूह, ढेर] भरपूर । पूर्ण । ज्यादा । जैस—जिनके घर अचक माया धरी है ।— हिं० प्र० (शब्द०) ।
⋙ अचक (२) †
क्रि० वि० [सं० अ = नहीं चक् + भ्रांत होना] बिना भ्रांत हुए । बिना हिले डुले । उ०—घोड़ी लै चलु अचक बैठारि, सजन के खेत में । पोद्दार अभि० ग्रं० पृ० ९३५ ।
⋙ अवक (३)
संज्ञा पुं० [सं० √ चक् = भ्रांत होना] घबराहट । भौचक्कापन । विस्मय । उ०—तोम तन छाए, सुलतान दल आए, सो तो समर भजाए उन्हे छाई है अचक सी । — सूदन (श्ब्द०) ।
⋙ अचकचाना
क्रि० अ० [हिं० अचक (३) से नाम०] घबराना । विस्मित होना ।
⋙ अचकचाहट
वे० [हिं० अचक] घबराहट । भौचकापन । उ०— 'अपनी अचकचाहट का मुसकराहट से ढकने का प्रयत्न कर ही रहा था' । —दहकते, पृ० २७ ।
⋙ अचकन
संज्ञा पुं० [अ०'चिकन' का 'परिधान' से] एक प्रकार का लंबा अंगा । विशेष—इसमें पाँच कलियाँ और एक बालाबर होता है । जहाँ बालाबर मिलता है वहाँ दो बंद बाँधे जाते है । अब बंदों के स्थान पर बटन भी लगाने लगे हैं ।
⋙ अचकना पचकना
क्रि० वि० [हिं० अचक + अनु० पचक] हिच- किचाना । घबराना । उ०—अचक पचक यो धर धोरे पग सुधि भी लगी उतरने । —मिट्टी० पृ० ३५ ।
⋙ अचकाँ पु
क्रि० वि० [हि० अचानक, अचक्का] अचानक । अचक्के में । एकाएक । सहसा । उ०— जानत हौं तुम हौ बल पूरे । पै अचकाँ आए नहिं सूरे । —सदन (शब्द०) ।
⋙ अचकित
वि० [सं०] जो चकित या विस्मित न हो [को०] ।
⋙ अचक्का
संज्ञा पुं० [सं० आ = भले प्रकार + चक् = भ्राँति] ऐसी दशा जिसमें चित्त दूसरी ओर हो । असावधानी की अवस्था । अनजान । यौ०— अचक्के में = अचानक । सहसा । एकाएका ।
⋙ अचक्र
वि० [सं०] १. बिना चक्का या पहिए का । चक्रहीन । २. स्थिर । अचल । निष्कंप [को०] ।
⋙ अचक्षु (१)
वि० [सं०] १. बिना आँख का । नेत्ररहित । अंधा । २. अतींद्रिय । इंद्रियरहित ।
⋙ अचक्षु (२)
संज्ञा पुं० असौम्य नेत्र [को०] ।
⋙ अचक्षुदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] आँख को छोड़ अन्य आभ्यंतरिक इंद्रियों द्बारा प्राप्त ज्ञान ।
⋙ अचक्षुंदर्शनावरण
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर्म जिससे अचक्षुदर्शन नामक ज्ञान न प्राप्त हो । अचक्षुदर्शन का निरोधकारक कर्म ।
⋙ अचक्षुदर्शनावरणीय
वि० [सं०] जैन शास्त्रकारों ने जीव के जो आठ मूल कर्म माने हैं उनमें से दर्शनावरणीय कर्म के नौ भेदों में से एक । अचक्षुतर्शन नामक ज्ञान का वाधक ।
⋙ अचक्षुविषय
वि० [सं०] जो नेत्र का विषय न हो । दृष्टि से परे [को०] ।
⋙ अचक्षुष्क
वि० [सं०] चक्षुविहीन । नेत्रहीन [को०] ।
⋙ अचख पु
वि० [सं० अचुक्ष ; प्रा० अचक्खु] नेत्रहीन । दृष्टिरहित । उ०—भय युत बालक प्रिय अबख सुनत अनाय सदीव -राम० धर्म० पृ० ५९ ।
⋙ अचगरा
वि० [सं० अत्यर्गल, प्रा० अच्चगल; देश०] छेड़खानी करनेवाला । नटखट । शाख । चंचल । उ०—ऐसी नाहिँ अचगरौं मेरौ कहा बनावति बात । —सूर०, १० । २९० ।
⋙ अचगरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अचगरा] ज्यादती । नटखटी । शरारत । छेड़छाड़ । उ०—(क) जौ लरिका कछु अचगरि करहीं । — मानस, १ ।२७७ । (ख) माखन दधि मेरो सब खायो बहुत अचगरी कीन्हीं । —सूर० १० ।२९७ ।
⋙ अचतुर
वि० [सं०] १. जो चतुर न हो । २. अनाड़ी । अकुशल । ३. चार से रहित [को०] ।
⋙ अचना पु
क्रि० स०[ सं० आचमन अथवा हि० अचवना] १. आचमन करना । पीना । उ०—(क) पैठि विवर मिलि ताप- सिहि अचई पानि, फलु खाई—तुलसी ग्रं, पु०, ८० । २. छोड़ देना । खो बैठना । बाकी न रखना; जैसे—'तुम तो लाज शरम अचै गए (शब्द०) उ०—लाज कोँ अचै कैं कुलधरम पचै कै बिथा वृंदनि सचै कै भई मगन गुपाल मैं । —भिखारी ग्रं०, भा० २, पृ० ९ ।
⋙ अचपल (१)
वि० [सं०] अचंचल । धीर । गंभीर । उ०—मेरे श्रम- सिंचित देखोगे अचपल, पलकहीन नयनों से तुमको प्रतिपल हेरेंगे अज्ञात । —गीतिका ।
⋙ अचपल (२) †
वि० [सं० आ + चपल] [स्त्री० अचपली] चंचल । शोख । उ०—क्या काम उन्हें जो हँस, बोले या शोखी में अचपल निकले । —नजीर (शब्द०) ।
⋙ अचलपता
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. चपलता का अभाव । अचापल्य । २ †शोखपन । चुलबुलाहट ।
⋙ अचपली (१) †
संज्ञा स्त्री०[हिं० अचपल] अठखेली । किलोल । क्रीड़ा । उ०— गुलाल अबीर से गुलजार हैं सभी गलियाँ । कोई किसी के साथ कर रहा है अचपलियाँ । —नजीर (शब्द०) ।
⋙ अचपली (२) †
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'अचपल (२)' । उ०— जाकी छोटी नँनद बड़ी अचपली । —पोद्दार अभि० ग्र० पृ० ९२१ ।
⋙ अचभौन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अचंभा' । उ०— कहा कहत तू नंद ढुटौना । सखी सुनहु री बातें जैसी करत अतिहि अचभौना ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अचमन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आचमन' । उ०—भोजन करि नँद अचमन लीन्हौ माँगत सूर जुठनिया । —सूर०, १० ।३४१ ।
⋙ अचर (१)
वि० [सं० ] न चलनेवाला । स्थावर । जड़ ।
⋙ अचर (२)
संज्ञा पुं० १.चलनेवाला पदार्थ । जड़ पदार्थ । स्थावर द्रव्य । उ०—जे सजीव जग चर अजर, नारि पुरुष अस नाम ।—मानस १ ।८४ । २. ज्योतिष के अनुसार वृष, सिंह वृश्चिक और कुंभ राशियाँ जो स्थिर हैं (को०) ।
⋙ अचरचे
क्रि० वि० [सं० अ = नहीं + हिं० चरचना] बिना पूजा के । अपूजित । उ०—और तौ अचरचे पाइँ धरौं सी तो कहौ कौन के पड़ भरि । —पोद्दार अभि० ग्रं० पृ० २९० ।
⋙ अचरज (१)
संज्ञा पुं० [सं० आश्चर्य, प्रा० अच्चरिअ] आश्चर्य । अचंभा । विस्मय । उ०—अचरज कहा पार्थ जो बेधै तीनि लोक इक बान । —सूर०, १ ।२६८ ।
⋙ अचरज (२)
वि० आश्चर्ययुक्त अनोखा । क्रि० प्र०— करना । उ० —बहुरि कहहु करुनायतन कोन्ह जो अचरज राम । —मानस १ ।११० । —मानना । —में आना- में पड़ना । —होना । उ०—वह अगाध यह क्यौं कहै भारी अचरज होय । —कबीर (शब्द०) ।
⋙ अचरम
वि० [सं०] जो चरम या अंतिम न हो [को०] ।
⋙ अचरा पु
वि० [सं० अचला] दे० 'अचला' । उ०—अचरा न चरै धेन कटरा न षाई । —गोरख० पृ० १५८ ।
⋙ अचरा (२)
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अँचरा' । उ०—अचरा डारयौ वदन पै मधुर मधुर मुसिकाई । —नंद० ग्रं०, पृ० १९९ ।
⋙ अचरिज पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अचरज' । उ०—मित्र कहत अचरिज मो हिए । —नंद० ग्रं, पृ० ३०८ ।
⋙ अचरित (१) पु
वि० [सं०] १. जिसपर कोई चला न हो । २. जो खाया न गाया हो । ३. अछुता । नया ।
⋙ अचरित (२)
संज्ञा पुं० कामकाज छोड़ अड़कर बैठना । धरना देना । गतिनिरोध ।
⋙ अचर्ज पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अचरज' । उ०—बेनु के बंस भई बँसुरी जो अनर्थ करै तो अचर्ज कहा है । —भारतेंदु ग्रं०, भा० २ पृ० ८२१ ।
⋙ अचल (१)
वि० [सं०] १. जो न चले । स्थिर । जो न हिले । ठहरा हुआ । निश्चल । उ०—जिहिँ गोविंद अचल ध्रुव राख्यौ, रबि—ससि किए प्रदच्छिनकारी । —सूर० १ ।३४ । २. सब दिन रहनेवाला । चिरस्थायी । उ०— लंका अचल राज तुम्ह करहू । —मानस ६ २३ । यौ०—अचल कीर्ति । अचल राज्य । अचल समाधि । ३. न डिगनेवाला । न बदलनेवाला । अटल । ध्रुव । दृढ़ । पक्का । उ०—(क) रघुपति पद परम प्रेम तुलसी चह अचल नेम । —तुलसी ग्रं० पृ० ४६२ । (ख) 'उसकी यह अचल प्रतिज्ञा है' (शब्द०) । ४, जो नष्ट न हो । मजबूत । पुख्ता । अटूट । अजेय । उ०—(क) गरम भाजि गढ़वै मई तिय कुच अचल मवास । —बिहारी र०, दो० ३४४ । (ख) 'अब इसकी नींव अचल हो गई (शब्द०)' ।
⋙ अचल (२)
संज्ञा पुं० १. पर्वत । पहाड़ । उ०—जितना चह्यौ उरजनि अचल कटि कटि केहर बेस । —भिखारी० ग्र० भा० १. पृ० ६ । २. शिव । स्थाण (को०) । ३. ब्रह्मा (को०) । ४. आत्मा (को०) । ५. शंकु । खूँटा । कील (को०) । ६.सात की संख्या का वाचक शब्द (को०) ।
⋙ अचलकन्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिमज्ञान् की पुत्री । पार्वती [को०] ।
⋙ अचल कन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अचलकन्यका' [को०] ।
⋙ अचलकीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवो । धरित्री । विशेष—पृथिवी का यह नाम प्राचीन विद्धानों के इस विचार पर आधारित है कि पृथिवी को स्थिर रखने के लिये उसमें जहाँ तहाँ पहाड़ कीलों के समान जड़े हुए हैं ।
⋙ अचलज
वि० [सं०] पर्वतोत्पन्न [को०] ।
⋙ अचलजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती [को०] ।
⋙ अचलजात
वि० [सं०] दे० 'अचलज' [को०] ।
⋙ अचलतनया
संज्ञा स्त्री० [सं०] उमा [को०] ।
⋙ अचलात्विट् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कोकिल [को०] ।
⋙ अचलात्विद् (२)
वि० सदा समान शाभावाला । स्थिर कांतिवाला [को०] ।
⋙ अचलदुहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती [को०] ।
⋙ अचलद्धिट्
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वतों के शत्रु इंद्र [को०] ।
⋙ अचलधुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में ५ नगण और १ लघु इस प्रकार १६ लधु मात्राएँ रहती हैं, यथा—षट दस लघुहि अचलधृति मन गुनि' ।— भिख री० ग्रं०, भा० १ रपृ० १९६ । उ०—लखि भव भयद छवि पुर वटु कहत । सुधति बर लखि जिन वपु जिउ रहत (शब्द०) ।
⋙ अचलन
संज्ञा स्त्री० [सं० अ=बुरा+ हिं० चलन] कुचाल बुरा आचरण । उ०—तिन्ह की नाकि रमहिं पचीस भंग अचलनि वहुत करहिं री ।—जग० बानी, पृ० ८२ ।
⋙ अचलपति
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वतों का स्वामी हिमालय [को०] ।
⋙ अचलराज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अचलपति' [को०] ।
⋙ अचलव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] असंहत ब्यूह का एक भेद जिसमें हाथी, घो़ड़े और रथ एक दुसरे के आगे पीछे रखे जाते थे ।
⋙ अचलसंपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह संपत्ति जो चल न हो । स्थिर संपत्ति । जिसे हटाया न जा सके वह संपत्ति । गैरमनकूला जायदाद; जैसे—मकान, खेत वृक्षादि ।
⋙ अचलसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती [को०] ।
⋙ अचला (१)
वि० स्त्री० [सं०] जो न चले । स्थिर । ठहरी हुई ।
⋙ अचला (२)
संज्ञा स्त्री० पृथिवी । धरती । विशेष—प्राचीन लोग पृथिवी को स्थिर मानते थे । आर्यभट्ट ने पृथिवी को चल कहा पर उनकी बात को उस समय लोगों ने दवा दिया । अचला नाम का कारण आर्यभट्ट ने पृथिवी पर अचल अर्थात् पर्वतों का होना अथवा उसका अपनी कक्षा के बाहर न जाना बतलाया है ।
⋙ अचलाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वतों के राजा हिमालय [को०] ।
⋙ अचलासप्तमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ शुक्ला सप्तमी । इस तिथि को स्नान दान आदि करते हैं ।
⋙ अचवन पु †
संज्ञा पुं० [सं० आचमन, अप० अचवन] [क्रि० अचवना] १. आचमन । पानी । पीने की क्रिया । उ०—अचवन करी पुनिजल अचवायो तब नृप बीरा लीन्हों ।—सूर (शब्द०) । २. भोजन के पीछे हाथ मुँह धोकर कुल्ली करने की क्रिया । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ अचवना पु †
क्रि० स० [सं० आचमन] १. आचमन करना । पान करना । पीना । उ०—सुनु रे तुलसीदास, प्यास पपीयहि प्रेम की । परिहरि चरिउ मास जो अचवै जल स्वाति को ।—तुलसी (शब्द०) । २. भोजन के पीछे हाथ मुह धोकर कुल्ली करना । ३. छोड़ देना । खो बैठना । बाकी न रखना ।
⋙ अचवाई पु
वि० [हिं० अचवना] धोई हुई । साफ । स्वच्छ । उ०— रुप सरुप सिंगार सवाई । अप्सर कँसी रहि अचवाई ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ अचवाना पु
क्रि० स० [हिं० अचवना का प्रेर०] १. आचमन कराना । पान कराना । पिलाना । २. भोजन पर से उठे हुए मनुष्य के हाथ पर मुँह हाथ धोने और कुल्ली कराने के लिये पानी डालना । भोजन करके उठे हुए मनुष्य का हाथ मुँह धुलाना और कुल्ली कराना । उ०—अचवन करि पुनि जल अचवायो तब नृप बीरा लीनो ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अचांक पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अचानक' । उ०—जौ अचांक मग भेटती विहँमति करि बहुरंग ।—श्याम पृ १६७ ।
⋙ अचांचक पुं
क्रि० वि० [हिं० अचान+सं० √ चक्= भ्रांति] बिना पूर्वसूचना के । अचानक । एकबारगिं । सहसा । एकाएक । अकस्मात् । हठात् । उ०—कोई गनीमत का मौका हाथ आया देख अचांचक अपने यार वफादार को पाकर ............ ।— प्रेमधन० भा० २ पृ० ११४ ।
⋙ अचांनचक पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अचांचक' । उ०—परिहै वज्रोगि ताके ऊपर अचांनचक धूरि उड़ि जाइ कहूँ ठौहरन पाइहै ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ५०० ।
⋙ अचाक पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अचाका' ।
⋙ अचांका पु †
क्रि० वि० [सं० आ+चक्=भ्रांति] अचानक । अकस्मात् । सहसा । दैवात् । उ०—(क) दिनहिँ राति अस परी अचाका । भा रवि अस्तु चंद्र रथ हाँका ।—जायसी (शब्द०) । (ख) कहै पदमाकर नहीं तोय भकोरैं लगैं औरे लौं अचाका बिन धोरे धुरि जायगी ।—पदमाकर (शब्द०) ।
⋙ अचाक्षुष
वि० [सं०] चक्षु के विषय से परे । अदृश्य [को०] ।
⋙ अचाख पु
वि० [सं० अ=नहीं+हिं० चाखना] न चखा जा सकनेवाला । खाने के अयोग्य । उ०—तीखा तेज महा अचाख ।— प्राण० पृ० ४० ।
⋙ अचातुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] चतुराई का अभाव । मुर्खपन । अनाड़ीपन [को०] ।
⋙ अचान पु
क्रि० वि० [हिं० अचागक] अचानक । सहसा । अकस्मात् । उ०—देव अचान भई पहिचान चितौत ही श्याम सुजान के सौहैं ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अचानक
क्रि० वि० [सं० आ=अच्छी तरह+ चक्=भ्रांत अथवा सं० अज्ञामात्] बिना पूर्वसूचना के । एकबारगी । सहसा । अकस्मात् । दैवात् । हठात् । औचट में । अनाचित्ते में । उ०—(क) हरि जू इते दिन कहाँ लगाए । तबाहिँ अवधि मैं कहत न समुझी गनत अचानक आए ।—सूर०, १० ।४२८८ । (ख) नाचि अचानक हीँ उठे बिनु पावस बन मोर ।—बिहारी र०, दो० ४६९ ।
⋙ अचानिक पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अचानक' । उ०—आइ अचानिक राज पाइ लग्गो करि प्रनपति ।—पृ० रा० १ ।३८६ ।
⋙ अचापल (१)
वि० [सं०] चपलतारहित । अचंचल [को०] ।
⋙ अचापल (२)
संज्ञा पुं० चपलता का अभाव । स्थिरता । अचपलता [को०] ।
⋙ अचापल्य
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अचापल' [को०] ।
⋙ अचार (१)
संज्ञा पुं० [पोर्तु० आचार] मिर्च, राई, लहसुन आदि मसालों के साथ तेल, नमक, सिरका या अर्कनाना में कुछ दिन रस कर खट्टा किया हुआ फल या तरकारी । कचूमर । अथाना ।
⋙ अचर (२) पु †
संज्ञा पुं० [सं० आचार] आचरण । आचर । उ०— दंभ सहित कलि धरम सब, छल सभेत ब्यवहार । स्वारथ सहित सनेह सव, रुचि अनुहरन आचार ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १५० ।
⋙ अचार (३)
संज्ञा पुं० [सं० चार] चिरौंजी का पेड़ । पियाल द्रुम ।
⋙ अचारज पु
संज्ञा पुं० [सं० आचार्य प्रा० आचारज] दे० 'आचार्य' । उ०—ईश्वपुरी प्रकाश भट्ठ रघुनाथ अचारज । तिपुर गंग श्री जैव प्रवाधानंद सु आरज ।—भारतेंन्दु ग्रं०, भा० २, पृ० २३० ।
⋙ अचार विचार पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आचार विचार' । उ०— जे मद मार बिकार भरे ते अचार विचार समीप न जाहीं ।— तुलसी ग्रं०, पृ० २२० ।
⋙ अचारी (१) पु
वि० [सं० आचारी] अचार करनेवाला ।
⋙ अचारी (२) पु
संज्ञा पुं० आचार बिचार से रहनेवाले आदमी । वह य्वक्ति । जो अपना नित्यकर्म विधि और शुद्धतापूर्बक करता है ।
⋙ अचारी (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० आचार्य] १. यज्ञ के समय कर्मोपदेशक । वेदज्ञ । उ०—पांडव जज्ञ सुफल ना होई कोटिन जुरे प्रचारी ।—धरनी०, पृ० ५. २. रामानुज संप्रदाय का वैष्णोव जिसका काम हरिपूजन में विशेष विधानों का संपादन करना है ।
⋙ अचारी (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० अचार का अल्पा०] छिले हुए कच्चे आम की फाँक जो नमक और मसालों के साथ धप में सिझाकर तैयार की जाती हैं । यह मीठी भी बनाई जाती हैं ।
⋙ अचारु
वि० [सं०] असुंदर । अशोभन [को०] ।
⋙ अचालू (१)
संज्ञा पुं० [सं० अ=नहीं+चालन] अनचालु जहाज । कम चलनेवाला भारी जहाज ।
⋙ अचात्रु (२)
वि० अप्रचलित । प्रचलनरहित ।
⋙ अचाह (१) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अ=नहीं+ प्रा० चाह] अनिच्छा । अप्रीति । अरुचि । उ०—नहीं अचाह नहि चाहना चरनन लौ लोना रे —कवोर श०, भा० १, पृ० ६८ ।
⋙ अचाह (२)
वि० जिसको कुछ अभिलाषा न हो । बिना चाह का । इच्छा रहित । निष्काम ।
⋙ अचाहा (१) पु
वि० [हिं०] [स्त्री० अचाही] १. चाहा हुआ । अवाछित । आनिच्छित । २. जिसपर रुचि या प्रीति न हो । जो प्रेमपात्र न हो ।
⋙ अचाहा (२)
संज्ञा पुं० १. वह व्यक्ति जिसकी चाह न हो । वह व्यक्ति जो प्रेमपात्र न हो । २. न चाहने या प्रीति न करनेवाला व्यक्ति । निमोंही । उ०—रावलि कहाँ हो किन, कहत हो काते अरी रोष तज, रोष कै कियों मैं का अचाहै को ।— पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ अचाही (१) पुं
वि० [हिं० अचाह] किसी बात की चाह न रखनेवाला । निरीह । निस्पृह । निष्काम ।
⋙ अचाही (२)
संज्ञा स्त्री० न चाही गई या अवांछित बात । उ०—कवि ठाकुर लाला अचाहि करी तिहि तै सहिए जसही नहिया ।— ठाकुर०, पृ० २५ ।
⋙ अचिंत
वि० [सं० अचिन्त] चिंतारहित । निश्चित । बैफिक्र । उ०—चिंता न करु अचिंत रहु, देनहार समरेत्थ ।—कवीर (शब्द०) ।
⋙ अचिंतनशील
वि० [सं० अचिंन्तन+शील] चिंतारहित । विचार- शक्तिहीन । उ०—वह भी अन्य प्रणियों की भाँति जड़ या अचिंतनशील ही रह जाता ।—शैली, पृ० ५ ।
⋙ अचिंतनीय
वि० [सं० अचिन्तनीय] १. जिसका चिंतन न हो सके । जो ध्यान में न आ सके । अज्ञेय । दुबोंध । २. आकस्मिक । अतर्किक (को०) ।
⋙ अचिंता
संज्ञा स्त्री० [सं० अचिन्ता] चिंता का अभाव । लापर- वाही [को०] ।
⋙ अचिंतित
वि० [सं० अचित्नित] १. जिसका चिंतन न किया गया हो । जिसका विचार न हुआ हो । बिना सोचा बिचारा । २. अपंभावित । आकस्मिक । ३. निश्चिंत । बैफिक्र । ४. उपेक्षित (को०) ।
⋙ अचिंत्य (१)
वि० [सं० अचिन्त्य] १. जिसका चिंतन न हो सके । जो ध्यान में न आ सके । बौधागम्य । अज्ञेय । कल्पनातीत । २. जिसका अंदाजा न हो सके । अकूत । अतुल । ३. आशा से अधिक । ४ बिना सोचा बिचारा । आकस्मिक ।
⋙ अचिंत्य (२)
संज्ञा पुं० १. एक अलंकार । विशेष—इसमें अविलक्षण या साधारण कारण से विलक्षण कार्य की उत्पत्ति कहा जाता है; जैसे—'कोकिल को वाचालता विरहिनि मौन अतंत' । देनहार यह देखिए आयो समय बसंत (शब्द०) । इस दोहे में साधारण वंसत के आगमन रुप कारण से मौ और वाचालता रुप विलक्षण कार्यौ की उत्पति है । २. वह जो चिंतन से परे हो । ईश्वर । उ०—छठौ कसल अचिंत्य को बासा ।—कबीर सा०, पृ० ११ । ३. शिव (को०) । ४. पारद । पारा (को०) ।
⋙ अचिंत्यकर्म
संज्ञा पुं० [सं० अचिन्त्यकर्म] वह कर्म या कार्य जो चितन से परे हो [को०] ।
⋙ अचिंत्यकर्मा
वि० [सं० अचिन्त्यकर्मा] अचिंत कार्य करनेवाला [को०] ।
⋙ अर्चित्यरुप
वि० [सं० अचिन्त्यरुप] जिसका चिंतन या ध्यान न हो सके ऐसे रुप तथा आकारवाला [को०] ।
⋙ अचिंत्यात्मा
संज्ञा पुं० [सं० अचिन्त्य+ आत्मा] वह जिसका स्वरुप ठिक ठीक ध्यान में न आ सके । परमात्मा । ईश्वर ।
⋙ अचिकित्स्य
वि० [सं०] चिकित्सा के अयोग्य । जसकी दवा न हो सके । असाध्य ।
⋙ अचिकीर्षु
वि० [सं०] न करने की इच्छावाला । काम न करने की इच्छावाला । कार्य में अनिच्छृक [को०] ।
⋙ अचिज्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० आषर्च्य] अचरज । अचंभा । उ०— सतंपत्र पुंत्र अचिज्जं सुहित्तं नियं तप्प लग्ग हरे बच्छ भर्ग्ग ।—पृ० रा०, २ ।६१ ।
⋙ अचित् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जडप्रकृति । अचेतन । 'चित्' का उलटा । २. रामानजाचार्य के अनुसार तीन पदार्थों में से एक । विशेष—यह भोग्य, दृष्य, अचेतन स्वरुप, जड़ात्मक और भोग्यत्व विकार से युक्त माना जाता है । इसके भोग्य, भोगदोपकरण और भोगायन ये तीन प्रकार माने गए है ।
⋙ अचित् (२)
वि० अचेतन । चेतनारहित । जड़ [को०] ।
⋙ अचित
वि० [सं०] १. गया हुआ । २. जो सोंचा न गया हो । ३. जो एकत्र न किया गया हो [को०] ।
⋙ अचितवन
वि० [सं० अ=नहीं+ हिं० चितवन] चितवन रहित । निर्मिमेष । अपलक ।
⋙ अचित्त
वि० [सं०] १. विचार या ध्यान में न आने योग्य । २. बुद्धिरहित । अज्ञ । ३. अविचारित । जिसपर विचार न किया गया हो । ४. चेतनारहित । अचेत [को०] ।
⋙ अचित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्ञान का अभाव [को०] ।
⋙ अचित्त
वि० [सं०] १. जिसमें अलगाव या भेद न किया जा सके । २. जो चित्र न हो । जो बहुरंगा न हो [को०] ।
⋙ अचिर (१)
क्रि० वि० [सं०] १. शीघ्र । जल्दी । २. थोड़ा ही समय पूर्व । कुछ काल पहले [को०] ।
⋙ अचिर (२)
वि० १. थोड़े समय का । क्षणस्थायी । २. हालका । ताजा । ३. नया [को०] ।
⋙ अचिरज पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अचरज' । उ०—ऐ परि याकी नेम सुनहि जो । लाड़िलि अचिरज लाड़ रहै तो ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३३ ।
⋙ अचिरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अचिर का भाव । क्षणिकता ।
⋙ अचिरद्युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षणप्रभा । बिजली ।
⋙ अचिरप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिजली ।
⋙ अचिरप्रसूता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सद्यः प्रसूता गौ । हाल की ब्याई गाय [को०] ।
⋙ अचिरभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्युत् [को०] ।
⋙ अचिरम्
क्रि० वि० [सं०] दे० 'अचिरात्' [को०] ।
⋙ अचिरमृत
वि० [सं०] कुछसमय पुर्व मृत [को०] ।
⋙ अचिररोचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौदामिनी । बिजली [को०] ।
⋙ अचिरांश
संज्ञा पुं० [सं०] विद्युत् । बिजली [को०] ।
⋙ अचिरात्
क्रि० वि० [सं०] शीघ्र । जल्दी । तुरंत । २. कुछ समय पूर्व । कुछ पहले (को०) ।
⋙ अचिराभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षणप्रभा । बिजली [को०] ।
⋙ अचिरेण
क्रि० वि० [सं०] दे० 'अचिरात्' [को०] ।
⋙ अचींतिया पु †
वि० [सं० अचिंतिन; प्रा० अचिंतिय] आकस्मिक । असंभावित । उ०—आवी खबर अचींतियाँ विसमें जैसी बत्त ।—रा० रु०, पृ० ९२ ।
⋙ अचीता (१)
वि० [सं० अचिंतिन] [स्त्री० अचीती] १. बिना सोचा विचारा । असंभावित । आसस्मिक । जिसका पहले से अनुमान न हो । २. अचित्य । जिसका अंदाजा न हो । बहुत । अधिक । उ०—लिखी खबर जैसीम इत्र बीती । परी मुलक पर धार अचीती ।—लाला (शब्द०) ।
⋙ अचीता (२) पु
वि० [सं० अचिन्त] निश्चित । बेफित्र । उ०—सुनो मेरे मीता सुख सोइए अचीता कहो सीता सोधि लाउँ कहो सी मिलाऊँ राम को ।—हृदयराम (शब्द०) ।
⋙ अचीर
वि० [सं०] तीरविहीन । वस्त्ररहित [को०] ।
⋙ अचुवाना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'अचवाना' । उ०—पुनि जल शीतल अचुवावै । ता मांहि सुगंध मिलावै ।—सुंदर० ग्रं० भा० १, पृ० १३५ ।
⋙ अचूक (१)
वि० [सं० अच्युत अथवा सं० अ=नहीं+प्रा० √ चुक्क=चूकना] १. जो न चुके । जो खाली न जाय । जो ठीक बैठे । जो अवश्य फल दिखावे । जो अपना निर्दिष्ट कार्य अवश्य करे । उ०— बाँकी तेग कबीर की, अनी परै द्धै टूक । मारे बीर महाबली, ऐसी मूठि अचूक ।—कबीर (शब्द०) । २. निर्श्रांत । जिसमें भूल न हो । ठीक । भ्रमरहित । निश्चत । पक्का । उ०—'वह समझता है कि जिस बात को सब लोग निभ्राँत कहतै है वह अवश्य ही अचूक होगी ।'—(शब्द०) ।
⋙ अचूक (२)
क्रि० वि० १ सफाई से । पटुता से । कौशल से । उ०—मूँदे तहाँ एक अलबेली के अनोखे दृग सुदृग मिचावनी के ख्यालन हितै हितै । नैसुक नवाई ग्रौवा धन्य धनि दूसरी कोँ औचका अचूक मुख चूमत चितै चितै ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ९५ । २. निश्चय । अवश्य । जरुर । उ०—जहाँ मुख मुक, राम राम ही की कूक जहाँ सवै सुखधूप तहाँ है अचूक जानकी—हृदयराम (शब्द०) ।
⋙ अचेत (१)
वि० [सं०] १.चेतनारहित । संज्ञाशून्य । बैसुध । बैहोश । मूर्च्छित । २. व्याकुल । विह्वल । विकल । उ०—भी यह ऐसोई समौ, जहाँ सुखद दुखु देत । चैत चाँद की चाँदनी डारति किए अचेत ।—बिहारी र०, दो० ५१९ । ३. असावधान बेपरवाह । उ०—यह तन हरियर खेत, तरुनी हरिनी चर गई । अजहुँ चेत अचेत, यह अधचरा बचाइ ले ।—सम्मन (शब्द०) । ४. अनजान । बेखबर । उ०—वृंदावन की वीथिन तकि तकि रहत गुमान समेत । इन बातन पति पावत मोहन जानन होहु अचेत ।—सूर (शब्द०) । ५. नासमझ । मूढ । उ०—मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सु सूकरखेत । समुझी नहीँ तसु बालपन तब आति रहेउँ अचेत ।—तुलसी (शब्द०) । पु ६. जड़ । उ०—(क) असन अचेत पखान प्रगट लै बनचर जल महँ डारत ।—सूर (शब्द०) । (ख) कामातुर होत है सदा हीं मतिहीन तिन्हैं चेत औ अचेत माँह भेद कहाँ पावैगो ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) ।
⋙ अचेत (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अचित्] १. जड़ प्रकृति । जड़त्व । २. माया । अज्ञान । उ०—कह लौं कहौं अचेते गयऊ । चेत अचेत झगर थर भयऊ ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अचेतन (१)
वि० [सं०] १. चेतनारहित । जिसमें चेतना का अभाव हो । जिसमें सुख दुःख आदि किसी प्रकार के अनुभव की शक्ति न हो । जड़ । 'चेतन' का उलटा । उ०—सब में एक अचेतन गति थी जिससे पिछड़ा रहे समीर ।—कामायनी, पृ० ११ । २. अज्ञान (को०) । ३. जीवरहित । निर्जीव (को०) । ४. संज्ञाशून्य । मूर्च्छित । जैसे—'वह अचेतन अवस्था में पाया गया ।' (शब्द०) ।
⋙ अचेतन (२)
संज्ञा पुं० अचैतन्य पदार्थ । जड़ द्रव्य ।
⋙ अचेता
वि० [सं० अचेतस्] १. चेतनाविहीन । अचेत । २. चित्त- रहित । चित्तविहीन । ३. जीवरहित । निर्जीव [को०] ।
⋙ अचेतान
वि० [सं०] १. ज्ञानविहिन । न जाननेवाला । २. मूर्ख । अज्ञ [को०] ।
⋙ अचेती †
संज्ञा स्त्री० [सं० अ=नहीं+हिं० चेत+ई (प्रत्य०)] असावधानी । बेखबरी । गफलत ।
⋙ अचेलक
संज्ञा पुं० [सं० अचेलक] वस्त्र न रखनेवाला या स्वल्प श्वेत वस्त्र रखनेवाले भिक्षु । भिक्षुओं का एक भेद । उ०— भिक्षुओं । कुछ अचेलक, आजीविक निगंठ आदि भिक्षु हैं ।— हिंदु० सभ्यता, पृ० २३१ ।
⋙ अचेलपरीसह
संज्ञा पुं० [सं० अचैलपरिसह] आगम में कहे हुए वस्त्रादि धारण करने और उनके फटे और पुराने होने पर भी चित्त में ग्लानि न लाने का नियम ।
⋙ अचेष्ट
वि० [सं०] १. चेष्टारहति । २. बिना प्रयास का । ३. गति- रहित [को०] ।
⋙ अचेष्टित
वि० [सं०] १.प्रयत्न या चेष्टारहित । २. बिना प्रयास का [को०] ।
⋙ अचैतन्य (१)
वि० [सं०] चेतनारहित । आत्माविहीन । जड़ ।
⋙ अचैतन्य (२)
संज्ञा पुं० १. निश्चेतनता । चेतना का अभाव । २. अज्ञान । ३. चेतनाविहीन द्रव्य या वस्तु । जड़ पदार्थ (को०) । ४. होश हवास न रहना । बैहोशी (को०) ।
⋙ अचैन (१)
संज्ञा पुं० [सं० अ=नहीं+ देश० चैन] बेचैनी । व्याकुलता । विकलता । दुःख । कष्ट । उ०—खिचैं मान अपराध हूँ चलियै, बढ़ै अचैन । जृरत डीठि तजि रिस खिसी, हँसे दुहुनु के नैन ।—बिहारी र०, दो० ६४९ ।
⋙ अचैन (२)
वि० [हिं० अ=नहीं+ चैन=आराम] [स्त्री० अचैनी] बेचैन । ब्याकुल । विकल । उ०—चौके चिकेँ चितवै चहुँ ओर चलाचल चंचल चित्त अचैनी ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अचैना
संज्ञा पुं० [सं० छिन्न=कटा हुआ] १. लकड़ी का मोटा कुंदा जो जमीन में गड़ा रहता है और जिसपर रखकर गड़ाँसे से चारा काटा जाता है । घासा । निहठा । ठीहा । हँसुआ । २. लकड़ी का कुंदा जिसपर रखकर बढ़ई दुसरी लकड़ी को काटते और छीलते या गढ़ते । निसुहा । ठींहा ।
⋙ अचोना पु
संज्ञा पुं० [सं० आचमनक प्रा० आचवँनअ<अचउनअ <अचौना] आचमन करने का पात्र । पीने का बरतन । कटोरा । उ०—ना खिन टरत टारे, आँखि न लगत पल, आँखि न लगे री श्याम सुंदर सलोने से । देखि देखि गातन आधात न अनुप रस भरि भरि रुप लोचन अचोने से ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अचौकी
वि० [सं० अ=नहीं+हिं० चौंकना= चकित होनाम ] अरु- कित । स्थिर । उ०—रहत अचौंकी चित्त नित ही ध्यान सु रावरो ।—ब्रज०, ग्रं०, पृ० ३८ ।
⋙ अचौन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अचवन (१)' । उ०—चातक उमाहै धन आनँद अचौन को ।— घनानंद, पृ० १५८ ।
⋙ अचौनि
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अचवन' ।
⋙ अच्चड †
वि० [सं० आश्चर्य; प्रा० अच्चर] अचंभा । अचरज । उ०— भाँण तणौ हरनाथ महाभड आयां परव उबारण अच्चड़ ।— रा० रु०, पृ० १३४ ।
⋙ अच्छंद
वि० [सं० अच्छन्दस्] १. वेदाध्ययन न करनेवाला । २. वेदाध्ययन के अधिकार से विहीन । ३. छंद या पद्य से रहित । छंदबिहीन । ४ छलाविहन । छद्मरहित [को०] ।
⋙ अच्छ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्फटिक । २ भाल । ३ स्वच्छ जल (ड़िं०) । ४. आभिमुख्य । संमुख होना (को०) । ५. एक प्रकार का पौधा (को०) ।
⋙ अच्छ (२)
वि० स्वच्छ । निर्मल । पवित्र । अच्छा । उ०—(क) उदधि नाकपति शत्र को, उदित जानि वलंवंन । अंतरिक्ष ही लक्षि पर अच्छ छुयो हनुमंचत—केशव (शब्द०) (ख) मानह विधि तन अच्छ छवि स्वचन राखिबै काज दृग-पग-पोंछन कौँ करे भूषन पायदाज ।—बिहारी र० द०,४१३ ।
⋙ अच्छ (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० अक्ष प्रा० अच्छ] १. आँख । नेत्र उ०— (क) कहै पदमाकर न स्वच्छन प्रतच्छ होत अच्छन के आगे हू अधिच्छ गाइयतु है ।—पद्माकर (शब्द०) । (ख) जो तव अच्छ समच्छ सकत कर पकरि कृपानी ।—रत्नाकर, भा० १, पृ० १०१ । २ रुद्राक्ष । उ०—मौंजी औ उपवित अच्छ कंठा कल धारे ।—रत्नाकर, भा० १, पृ० १०१ । ३ अक्षकुमार नामक रावण का बेटा । उ०—रखवारे हति विपिन उजारा । देखत तोहि अच्छ तोहि मारा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अच्छत (१) †
संज्ञा पुं० [सं० अक्षत; प्रा० अच्छत] बिना टुटा हुआ चावल जो मंगल द्रव्यों में गिना जाता है और देवताऔ को चढ़ाया जाता है । उ०—अच्छत अंकुर रोचन लाजा । मंजुल मंगल तुलसि बिराजा ।—मानस १ ।१४६ ।
⋙ अच्छत (२)
वि० अखंड़ित । लगातार । उ०—राधौ हेरत जो गयो, अच्छत हिये समाधि । वह तन राघव घाघ भी, सकै न कै अपराध ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अच्छत (३) पु
क्रि० वि० [हिं० अछत] रहते हुए । उपस्थिति में । विद्यामानता में । उ०—जुद्धौं कौं करत छाजत नहीं है तुम्हें सुनि महाराज अच्छत हमारे ।—सूर०, १० ।४१९४ ।
⋙ अच्छभल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] भालू । भल्लुक [को०] ।
⋙ अच्छम पु
वि० [सं० अक्षम] असमर्थ । अशक्त । लाचार । उ०— सबहि समरथहि सुखद प्रिय अच्छम प्रिय हितकारी ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९२ ।
⋙ अच्छय पु
वि० [हिं०] दे० 'अक्षय' । उ०—पै रच्छक रन दच्छ देखि अच्छय वल साली ।—रत्नाकर, भा० १, पृ० १६४ ।
⋙ अच्छयतृतिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अक्षय तृतिया' । उ०— अच्छय तृतीया, अच्छय सुखनिधि पिय कों प्यारी चढ़ाबै चंदन ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७१ ।
⋙ अच्छर (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० अक्षर; पा० अक्खर; प्रा० अच्छर] अक्षर । वर्ण । हरफ । उ०—द्वादस अच्छर महामंत्र के अबिकल जापी ।— रत्नाकर, भा० १, पृ० २१६ ।
⋙ अच्छर (२) पु
वि० दे० 'अक्षर (१)' । उ०—अच्छर ब्रह्मा सु्न्न दरबारा ।— कबीर श०, पृ० ५८ ।
⋙ अच्छर (३) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्सर] अप्सरा । उ०—रूप सरूप सिंगार सवाई । अच्छर जैसी रहि अछवाई ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अच्छरा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्सरस्, पा० प्रा० अच्छरा] अप्सरा । उ०—तोरि के छरा सों अच्छरा सी यों निचोरि कहै 'तमने कहे ते' कंत मुकता में पानी है' ।—भूषण ग्रं०, पृ० २२४ ।
⋙ अच्छरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अच्छरी' । उ०—धन अच्छरि अच्छ कुलच्छ करै ।—पृ० रा०, २४ ।१ ६४ ।
⋙ अच्छरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्सरस् पा० प्रा० अच्छरा] अप्सरा । स्वर्ग की वारवनिता । उ०—बनि नाचतीं सुर अच्छरी जिन भाव मोहा । सिद्ध हैं ।—गुमान (शब्द) ।
⋙ अच्छा (१)
वि० [सं० अच्छक, प्रा० अच्छश्र=स्वच्छ, निर्मल] १. उत्तम । भला । बाढ़िया । उमदा । खरा । चोखा । मुहा०—अच्छा आना=(१) ठीक या उपयुक्त अवसर पर आना । जैसे—तुम अच्छे आए, अब सब ठीक हो जायगा (शब्द०) । (२) ठीक उतरना । सुंदर बनना; जैसे—इस कागज पर चित्र अच्छा नहीं आता (शब्द०) । अच्छा करना=अच्छा काम करना । जैसे,—तुमने अच्छा नहीं किया जो चले आए (शब्द०) । अच्छा कहना प्रशंसा करना; जैसे—कोई तुम्है अच्छा नहीँ कहता (शब्द०) । अच्छा घर=संपन्न घर । प्रतिष्ठित कुल । अच्छा दिन=सुख संपत्ति का दिन; जैसे—उसने अच्छे दिन देखे हैं (शब्द०) । अच्छी काटना, गुजरना या बीतना=अच्छी तरह बीतना । आनंद से दिन काटना, जैसे—यहाँ से वहाँ अच्छी बीतेगी (शब्द०) । अच्छा रहना=अच्छी दशा में रहना । लाभ वा आराम में रहना; जैसे—तुम से तो हमी अच्छे रहे जो कहीं नहीं गए (शब्द०) । अच्छा लगना=(१) भला जान पड़ना । सजना । सोहना; जैसे—तुम्हारे सिर पर यह टोपी नहीं अच्छी लगती (शब्द०) (२) रुचिकर होना । पसंद आना; जैसे—हमें यह फल नहीं अच्छा लगता । हमें तुम्हारी यह चाल नहीं अच्छी लगती (शब्द०) । अच्छी वक्त=ठीक समय से । आवशयकता के समय । जरुरत के वक्त । अच्छे से पाला पड़ना=बेढ़गे व्याक्ति से काम पड़ना । अच्छे हालों गुजरना=साधारणतः सुख से दिन बितना । विशेष—इस शब्द का प्रयाग व्यग्य रूप से बहुत होता है । जैसे— 'आप भी अच्छी कहनेवाले आए वा मिले' । जब कोई बात किसी को नहीं जँचती तब उसके कहन वा करनेवाले के प्रति प्रायः कहना है कि 'अच्छे आए' वा 'अच्छे मिले' । २. स्वस्थ । चंगा । तंदुरुस्त । नीरोग । आरोग्य; जैसे—'तुम किसकी दवा मे अच्छे हुए' (शब्द०)? क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ अच्छा (२)
संज्ञा पुं० १. बड़ा आदमी श्रेष्ठ पुरुष । जैसे—मैने अच्छे अच्छे को निकाले जाते देखा है, तुम क्या हो (शब्द०) ।२. गुरुजन । बापदादा । बड़ा बूढ़ा; जैसे—दोगे क्यों नहीं? मैं तो तुम्हारे अच्छे अच्छों से लूँगा (शब्द०) ।
⋙ अच्छा (३)
क्रि० वि० अच्छी तरह । खूब । बहुत । जैसे—तुमने यहाँ बुलाकर हमें अच्छा तंग किया (शब्द०) ।
⋙ अच्छा
अव्य० १. प्रार्थना या आदेश के उत्तर में (प्रश्न के नहीं) स्वीकृतिसूचक शब्द । जैसे—'(आदेश)—तुम कल आना (उत्तर)—अच्छा' (शब्द०) । उ०—फिर बोले—अच्छा याही कैं कर बैचत तन ।— रत्नाकर, भा० १, पृ० ७३ । २. इच्छा के विरुद्ध कोई बात हो जाने पर अथवा उसे होती हुई या होनेवाली सुन या देखकर भी यह शब्द कहा जाता है । खैर । जैसे—(क) अच्छा जो हुआ सो हुआ अब आगे से सावधान रहना चाहिए । (ख) अच्छा हम देख लेंगे (शब्द०) ।
⋙ अच्छाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० अच्छा+ ई (प्रत्य०)] अच्छापन । उत्तमता । श्रेष्ठता । सुंदरता । सुधराई ।
⋙ अच्छाखासा
वि० [हिं० अच्छा+ खासा] पूर्णातः स्वस्थ तंदुरुस्त । काफी अच्छा । पुरा । बढ़ा चढ़ा ।
⋙ अच्छापन
संज्ञा पुं० [हिं० अच्छा+ पन] (प्रत्य०)] अच्छे होने का भाव । उत्तमता । सुधराई ।
⋙ अच्छाबुरा
वि० [हिं०] सुंदर या खराब । भङला बुरा ।
⋙ अच्छावाक
संज्ञा पुं० [सं० अच्छावाक्] १. आह्वान करनेवाला । यज्ञ करानेवाले होता, अध्वर्यु आदि सोलह ऋत्विजों में से एक । २. दे० 'ऋत्विज' ।
⋙ अच्छाबिच्छा
वि० [हिं० अच्छा+बीछना=चुनना] १. दुरुस्त । खासा । चुना हुआ । २ भला चंगा । नीरोग ।
⋙ अच्छि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षि; प्रा० अच्छि] नेत्र । आँख । उ०— जष्णिराज की अच्छि पिंग इक भई सर्प खत ।—पृ० रा०, ६३ । १४९ ।
⋙ अच्छित पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अच्छत' । उ०—कंचन थार में कुंकुम अच्छित तिलकु कराति नंदलाल के ।—छीत०, पृ० ३० ।
⋙ अच्छिद्र (१)
[सं०] १. छिद्ररहित । रंध्रविहिन । २. अखंडित । अक्षत । ३. फुट प्रमाद आदि से रहित । ४. सच्चा । ५. त्रुटिरहित [को०] ।
⋙ अच्छिद्र (२)
संज्ञा पुं० १. अक्षुण स्थिति या अवस्था । २. दोषरहित कार्य [को०] ।
⋙ अच्छिन्न
वि० [सं०] १. छिद्ररहित । २. जो कटा न हो । अखंडित । साबित । ३. जो टुटा या विभक्त न हो । अविभक्त (को०) । ४. लगातार गतिशील (को०) ।
⋙ अच्छिन्नपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. शाखोटक वृक्ष जिसमें पत्तियाँ बराबर रहती है । २. बिना कटे टुटे पंखवाला पक्षी [को०] ।
⋙ अच्छिन्नपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अच्छिन्नपत्र' [को०] ।
⋙ अच्छिय पु
वि० [हिं०] दे० 'अक्षर' । उ०—देइ द्रव्य लै अच्छी अच्छिय ।—पृ० रा०, १ ।४०२ ।
⋙ अच्छिर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अक्षर' । उ०—वंचि विचारिय दाहिमा निंम्रित अच्छिर नृत ।—पृ० रा० (उ०), भा० १, पृ० २१२ ।
⋙ अच्छुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनी की १६ देवियों में से एक ।
⋙ अच्छूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मंडल या घेरा । २. चक्र या रथांग [को०] ।
⋙ अच्छेदिक
वि० [सं०] काटने या छेदने के अयोग्य [को०] ।
⋙ अच्छेद्य
वि० [सं०] अविभाज्य । विभाग न करने लायक [को०] ।
⋙ अच्छैदिक
वि० [सं०] दे० 'अच्छेदिक' [को०] ।
⋙ अच्छै बिरिछ पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अक्षय वृक्ष' । उ०—सत्त पुरुष अच्छै बिरिछ निरंजन डारा ।—संतवाणी०, भा०२, पृ० १८ ।
⋙ अच्छोटन
संज्ञा पुं० [सं०] आखेट । मृगाया । शिकार [को०] ।
⋙ अच्छोत पु
वि० [सं० अक्षत, प्रा० अच्छत ?] १. पूरा । २. अधिक । बहुत । उ०—वृषभ धर्म पृथ्वी सो गाइ । वृषभ कह्यो तासों या भाइ । मेरे हेतु दुखी तू होत । कै अधर्म तुम पर अच्छोत ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अच्छोद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वाणभट्ट द्वारा कादंबरी में उल्लिखित हिमालयस्थ एक सरोवर ।
⋙ अच्छोद (२)
वि० स्वच्छ या निर्मल जलवाला [को०] ।
⋙ अच्छोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणों में वर्णित एक नदी [को०] ।
⋙ अच्छोहिन पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अक्षौहिणी' ।
⋙ अच्छोहिनी पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] अक्षौहिणी सेना ।
⋙ अच्यंत पु
वि० [हि०] दे० 'अचित्य (१)' । उ०— अच्यंत च्यंत ए माधौ सो सब माहि समाना ।—कबीर ग्रं०, पृ० १०० ।
⋙ अच्यंता पु
क्रि० वि० [सं० अचिन्तित] अकस्मात् । आकस्मिक रूप से । उ०—काल अच्यंता झड़पसी ज्यूँ तीतर को बाज ।— कबीर ग्रं०, पृ० ७२ ।
⋙ अच्युत (१)
वि० [सं०] १. जो गिरा न हो । २. दृढ़ अटल । स्थिर । ३. नित्य । अमर । अविनाशी । ४. जो न चूके । जो त्रुटि न करे । जो विचलित न हो । ५. न चूने या टपकने वाला (को०) ।
⋙ अच्युत (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु और उनके अवतारों का नाम । २. वासु देव । कृष्ण (को०) ।३. जैनियों के चार श्रेणी के देवताओं में चौथी अर्थात् बैमानिक श्रेणी के कल्यभव नामक देवताओं का एक भेद । ४. एक पौधे का नाम । ५. एक प्रकार की पद्य रचना जिसमें १२ बंध होते हैं (को०) ।
⋙ अच्युतकुल
संज्ञा पुं० [सं० अच्युत + कुल] वैष्णवों का समाज और उपकी शिष्यपरंपरा । विशेषकर रामानंदी संप्रदाय के वैष्णव लोग अपने को अच्युतकुल या अच्युतगोत्र कहते हैं ।
⋙ अच्युतगोत्र
संज्ञा पुं० [ हिं० ] दे० 'अच्युतकुल'
⋙ अच्युतज
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों का एक देववर्ग जो विष्णु से उत्पन्न कहा गया है [को०] ।
⋙ अच्युतपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव । अनंग । २. कृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न [को०] ।
⋙ अच्युतमध्म
संज्ञा पुं [सं०] संगीत में एक विकृत स्वर जो मार्जनी नामक श्रुति से आरंभ होता है और जिसमें दो श्रुतियाँ होती हैं ।
⋙ अच्युतमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।
⋙ अच्युतवास
संज्ञा पुं० [सं०] वह वृक्ष जिसमें अत्युत अर्थात् विष्णु का निवास हो । पिपल का वृक्ष [को०] ।
⋙ अच्युतषड़ज
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक विकृत स्वर जो छंदवंत्य नामक श्रुति से आरंभ होता है और जिसमें दो श्रुतियाँ होती हैं ।
⋙ अच्युतांगज
संज्ञा पुं० [सं० अच्युतांङ्गज] १. कामदैव । २. कृषणपुत्र प्रद्युम्न [को०] ।
⋙ अच्युताग्रज
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु के बड़े भाई इंद्र । २. श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम ।
⋙ अच्युतात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अच्युतपुत्र' [को०] ।
⋙ अच्युतानंद (१)
वि० [सं० अच्युतान्नद] जिसका आनंद नित्य हो ।
⋙ अच्युतानंद (२)
संज्ञा पुं० आनंदस्वरुप परमात्मा । ईश्वर ।
⋙ अच्युतावास
संज्ञा पुं० [सं०] पिपल वृक्ष [को०] ।
⋙ अछभो पु
संज्ञा पुं० [सं० असम्भव या अत्यदभुत, प्रा० अच्चभुअ> अचभव] दे० 'अचंभो' (डिं०) ।
⋙ अछक पु
वि० [सं० अ=नहीं + चष, प्रा० चख, चक, छक,] बिना छका हुआ । अतृप्त । भूखा । उ०—तेग या तिहारी मतवारी है अछक तौलौं जौं लौं गजराजन की गजक करै नहीं ।—भूषण (शब्द०) ।
⋙ अछकना पु
क्रि० वि० [हिं० अछक से नाम०] अतृप्त होना । तृप्त न होना । न अघाना । उ०—चंपक बेलि चमेलिन में मधु छाक छक्यो अछक्यो अनुकूलै । कालती मंजु गुलाब समीर धरय्यौ नहिं धीर मनोज की हूलै । —(शब्द०) ।
⋙ अछग्ग पु
वि० [हिं०] दे० 'अछक' । उ०—परै के अछग्गे । न बैरीन सग्गे ।—पृ० रा०, ८ ।५२ ।
⋙ अछत (१) पु
क्रि० वि० [सं० *√ आक्षी, प्रा० √ अच्च] [क्रि० अ० 'अछना' का कृदंत रुप जिसका प्रयोग क्रि० वि० की तरह होता है ।] १. रहते हुए । उपस्तिति में । विद्यमानाता में । संमुख । सामने । उ०—(क) खसम अछत बहु पिपर जाय ।—कबीर (शब्द०) । (ख) आपु अछत जुबराज पद रामहिं देउ नरेसु ।—मानस, २ ।१ । (ग) तिनहि अंछत तुम अपने आलस काहैं कंत रहत कृस गात ।—सूर०, १० ।४२१५ । २. सिवाय । अतिरिक्त ।—लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा । तुम्हहि अच्छ को बरनै पारा ।—मानस १ ।२७४ ।
⋙ अछत (२)पु
क्रि० वि० [सं० अ=नहीं+अस्ति, प्रा० अचछइ=है] न रहते हुए । अनुपस्थित । उ०—गनती गनिबे तैं रहे छतहूँ अछत समान ।—बिहारी र०, दो० २७५ ।
⋙ अछताना पछताना
क्रि० अ० [सं० पश्चात्ताप, प्रा० पच्छाताव से विषम द्विरुक्त नाम०] बार बार किसी भूल या किसी बीती हुई बात पर खेद करना । पछताना । उ०—ऐसे सोच समझ अछताय पछताय मेघों सहित इंद्र अपते स्थान को गया । — लल्लूलाल (शब्द०) ।
⋙ अछन (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अ + क्षण] क्षण मात्र नहीं । बहुत दिन । दीर्घकाल । चिरकाल । उ०—दैन कहहि फिर देत न जो है । अजस अछन को भाजन सो है ।— पदमाकर (शब्द०) ।
⋙ अछन (२)पु
क्रि० वि० [अ० (उच्चा०) + सं० क्षण ; प्रा०, अप० छन] धिरे धिरे । ठहर ठहरकर । उ० — प्यारे इन घन गलियन आव । नैनन जल सो धोइ सँवारी अछन अछन धरि पाव ।—रसिक- बिहारी (शब्द०) ।
⋙ अछना पु
क्रि० अ० [सं० अस् का समानार्थक √ सं० आक्षे० √ प्रा० अच्छ, अप० अछ = होना] होना रहना । विद्यमान रहना । उ०— (क) आतम तुझ पासइ अछइ ओलग रुडा रक्ख ।— ढोला०, ११४ । (ख) अछहि बेहंस तंबूल सों राती । जनु गुलाल देखै बिहँसाती ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अछप पु
वि० [सं० आ + *छद्य = छिपना] न छिपने योग्य । प्रकट । प्रकाशमान । जाहिर । उ०—खोद ख्याल समरत्थ कर, रहे सो अछप छपाइ । सोइ संधि लै आयउ सेवत जगहि जगाइ ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ अछय पु
वि० [सं० अक्षय] दे० 'अछय' । उ०—करषत सभा द्रुपद- तनया कौ अंबर अक्षय कियौ —सूर०, १ ।१३१ ।
⋙ अछयकुमार पु
संज्ञा पुं० [ हिं०] दे० 'अक्षकुमार' ।
⋙ अछयबृच्छ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अक्षयवृक्ष' । उ० —तिरबेनी से नीर मंगावो अछय बृच्छ के डार हो ।—धरम०, पृ० ५७ ।
⋙ अछर (१)पु
वि० [सं० अक्षर] दे० 'अक्षर (१)' । उ०—अछर अच्युत अविकार है निराकार हे जोइ ।—सूर०, १० ।११७५ ।
⋙ अछर (२) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अप्सर' । उ०—मधुकर माधवि मदन मत्त म न मैंन अछर से डोलैं ।— श्यामा०, पृ० ११८ ।
⋙ अछरना पु
क्रि० अ० [सं० उच्छलन, पु० हिं उछरना] उपटना । स्पष्ट होना । प्रकट होना । अंकित देख पड़ना । उ० —बैठि भैवर कुच नारँग लारी । लागी मुख अछरै रँगराती ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ अछरा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्सरा, प्रा० अच्छरा] अप्सरा । स्वर्ग की वारवनिता । उ०—ओहि भउँहहिँ सरि कोउ न जिता अछरई छपीं, छपीं गोपीता । —जायसी (शबद०) ।
⋙ अछरी पु
संज्ञा स्त्री [सं० अप्सर, प्रा० अच्छर + ई (प्रत्य०)] अप्सरा । स्वर्ग की वारवनिता । उ०—(क) मानउं मयन मूरती, अछरी बरन अनूप ।—जायसी (शब्द०) । (ख) सुता एक अछरी कै नाईँ । —हिंदी० प्रेमा०, पृ० २५१ ।
⋙ अछरौटी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं अक्षर, प्रा० अच्छर + हिं० औटी (प्रत्य०)] वर्णमाला । उ०—रसिक पपीहा साछी आछो अछरौटी के । —घनानंद, पृ० २०५ । मुहा. —अछरौटी बर्तनी= किसी शब्द के प्रत्येक वर्ण को अलग अलग कहना । हिज्जे करना ।
⋙ अछल
वि० [सं०] छलरहित । निष्कपट । सीधासादा । भोलाभाला ।
⋙ अछवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० अच्छा<अच्छ + वाई (प्रत्य०)] अच्छाई । सुंदरता । उ०—रति साँचें ढरी अछवाई भरी पिडुरीन गुराईये पेखि पगै । —घनानद, पृ० १५ ।
⋙ अछवाना पु
क्रि० स० [हिं० अंछ से नाम०] साफ करना । सँवारना । उ०—रुप सरूप सिंगार सवाई । अच्छर जैसी रहि अछवाई ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अछवानी
संज्ञा स्त्री० [सं० यवानिका वा यमानी हि० अजवाइन] अजवाइन, सोंठ तथा गेवों को पीसकर घृत में पकाया हुआ मसाला जो प्रसूता स्त्रियों को पिलाय जाता है ।
⋙ अछाम पु
वि० [सं० अक्षाम] १. जो पतला न हो । मोटा । बड़ा । भारी । २. जो क्षीण या दुबला न हो । हृष्ट पुष्ट । मोटा ताजा बलवान् ।
⋙ अछित पु
क्रि० वि० [हिं अछत] दे० 'अछत' । उ०—जीव अछित जोबन गया, कछू कीया न नीका ।—कबीर ग्रं, पृ० १४८ ।
⋙ अछिद्र
वि० [सं०] १. छिद्र या रंध्ररहित । २. बेऐब । निदोंष [को०] ।
⋙ अछियार
संज्ञा पुं० [हिं० छीर=किनारा ?] एक प्रकार की गजी की साड़ी जिसमें लाल किनारे होते हैं ।
⋙ अछी
संज्ञा स्त्री० [देश०] आल का पेड़ ।
⋙ अछूत (१)
वि० [सं० अ = नहीं + छुप्त हुआ; प्रा० छुत्त] १. बिना छुआ हुआ । जो छुआ न गया हो । अस्पृष्ट । उ०—भीजे हार चीर हिय चोली । रही अछूत कंत नहिं खाली ।—जायसी (शब्द०) । २. जो काम में न लाया गया हो । जो बर्ता त गया हो । नया । ताजा । कोरा । पवित्र । उ०—अस के अधर अमी भरि राखे । अबहिं अछूत, न काहू चाखे ।—जायसी ग्रं०, पृ०४४ । ३. न छूने योग्य । नीच जाति का । अंत्यज जाति का । अस्पृश्य । जैसे—मेहतर, डोम, चमार, आदि अछूत जातियाँ भी अपना संगठन कर रही है ।—(शब्द०) ।
⋙ अछूत (२)
संज्ञा पुं० वह जो छूने योग्य न हो । अछूत या अस्पृश्य जाति का मनुष्य । जैसे—'आर्य समाज ने तीन सौ अछूतों को शुद्व कर अपने में मिला लिया ।'— (शब्द०) ।
⋙ अछूतपन
संज्ञा पुं० [हिं० अछूत + पन] अछूत या अस्पृश्य हाने का भाव । जैसे—'समज उनके साथ अछूतपन का व्यवहार करता है ।'—आ० अ० रा०, पृ० ८७ ।
⋙ अछूता
वि० [हिं० अछूत] [स्त्री० अछूती] १. बिना छुआ हुआ । जो छुआ न गया न गया हो । अस्पृष्ट । २.जो काम में न लाया गया हो । जो बर्ता न गया हो । नया । कोरा । ताजा । पवित्र उ० —दधि माखन द्वे; माट अछूते तोहि सौंपति हौं सहियौ— सूर, १० ।३१३ ।
⋙ अछूतोद्वार
संज्ञा पुं० [हिं० अछूत + उद्वार] १. अस्पृश्य जातियों के सुधार का कार्य । अछूतों से अन्य जातिवत् व्यवहार कार्य । २. अछूतों के उद्वार का आंदोलन ।
⋙ अछेद (१) पु
वि० [सं० अच्छेद्य] जीसका छेदन न हो सके । जो कट न सके । अभेद । अखंडय्य । उ०—अभिन अछेद रुप मम जान जो सब घट है एक सामान ।—सूर०, ३ ।१३ ।
⋙ अछेद (२)
संज्ञा पुं० अभेद । अभिन्नता । छल छिद्र का अभाव । उ०— चेला सिद्धि सो पावै, गुरु सौं करै अंछेद ।—जायसी ग्रं०, पृ० १०९ ।
⋙ अछदन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आच्छादन' । उ०—पाँच बासन श्वेत बस्तर कदलिपत्र अछैदना ।— कबीर सा०, पुं०, ५९ ।
⋙ अछेद्य
वि० [सं०] १. जिसका छेदन न हो सके । जो कट न सके । अभेद्य । अखंडय्य । २. अविनाशी । अविनश्वर ।
⋙ अछेरा पु
संज्ञा पुं० [सं० आश्चर्य; प्रा० अच्छेर] वीस्मयजनक । अपूर्व । उ०—जावै पिण जावै नहीं, एह अछेरा गल्ल ।— बाकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ९ ।
⋙ अछेव पु
वि० [सं अ+छेव या अछिद्र] छिद्र या दूषणरहित, निर्दोष । बेदाग । उ०—बसन सपेद स्वच्छ पैन्हे आभऊषण सब हीरन को मोतिन को रसमि अछेव को ।—रघुनाथ (शब्द०) ।
⋙ अछेह पु
वि० [सं० अच्छेद्य] १. अखंडय । निरंतर । लगातार । उ०—यौं बिजुरी मनु मेह, आनि इहाँ बिरहा धरे । आठौं जाम अछेह, दृग जु बरत बरसत रहत ।—बिहारी र०, दो० ४४५ २. अनंत । बहुत अधिक अत्यंत । ज्यादा । उ०—(क) धरे रूप गुन को गरबु फिरै अछेह उछाह ।—बिहारी र०, दो० ६०० । (ख) दरस दौरि पिय पग परसि, आदर कियो अछेह ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ९३ ।
⋙ अछै पु
वि० [हिं०] दे० 'अक्षय' । उ०—डर मेटे तब बिषम काल का, अछै अमर पद लहिए ।—कबीर श०, पृ० २६ ।
⋙ अछोप पु
वि० [सं० अ+छुप] आच्छादनरहित । नंगा । नीच । तुच्छ । दीन । उ०—सेवा संजम कर जप पूजा, सबद न तिनको सुनावै । मैं अछोप हीन मति मेरी, दादू को दिखलावै ।— दादू (शब्द०) ।
⋙ अछोभ पु
वि० [सं० अक्षोभ] १. क्षोभरहित । चंचलतारहित । उद्वेगशून्य । उ०—बीर ब्रती तुम धीर अछोभा । गारी देत न पावहु शोभा ।—तुलसी (शब्द०) । २. स्थिर । गंभीर । शांत । ३. मोहरहित । मायारहित । खेदरहित । उ०—जबते ब्राह्मण जनमिया, तब तें परधन लोभ । दे अक्षर कबहूँ नहीं इन्हे तें कौन अछोभ । कबीर—(शब्द०) । ४. निडर । निर्भय । ५. जिसे बुरा कर्म कते हुए क्षोभ या ग्लानि नाहो । नीच ।
⋙ अछोर पु
वि० [सं० अ=नहीं+हिं छोर=किनारा] अपार । अकूल । बिना ओर छोर का ।
⋙ अछोह (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० अक्षोभ, प्रा० अच्छोह] १. क्षोभ का अभाव । २. शांति स्थिरता । ३. मोह का अभाव । दया- हीनता । करुणाशून्यता । निर्दयता ।
⋙ अछोह (२)पु
वि० क्षोभरहित । २. स्थिर । शांत । ३. मोहशून्य । ४. करुणारहित । निर्दय ।
⋙ अछोही पु
वि० [हिं०] दे० 'अछोह' ।
⋙ अजंगम
संज्ञा पुं० [सं० अजङ्गम] छप्पय नामक मात्रिक छंद के ७१ भेदों में से एक । विशेष इसमें कुल ११४ वर्ग हैं जिनमें ३८ गुरु और ७६ लघु होते हैं । मात्राओं की संख्या १५२ है ।
⋙ अचंट
संज्ञा पुं० [अं एजेंट] १. प्रतिनिधि । किसी दूसरे की ओर से कार्य करनेवाला । २. किसी राजा या सरकार की ओर से किसी दूसरे राजा या सरकार के यहाँ नियुक्त किया हुआ व्यक्ति, जिसका कर्यव्य आवश्यकतानुसार अपने राजा या सरकार की इच्छाओं को प्रकट करना और उनके अनुसार कार्य करना है । ३. किसी सौदागर की ओर से कमिशन या कुछ लेकर उसका सौदा बेचनेवाला । गुमाश्ता । अढ़तिया ।
⋙ अजंटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अजंट+ई (प्रत्य०)] १. अजंट का कार्यालय । अजंट का दफ्तर या उसकी कचहरी । २. अजंट का पद या काम ।
⋙ अजंत
वि० पुं० [सं० अच्+अन्त=अजंत] वह शब्द जिसके अंत में अच् प्रत्याहार हो । वह शब्द जिसके अंत में स्वर हो । स्वरांत (व्या०) ।
⋙ अजंता
संज्ञा पुं० [देश०] दक्षिण भारत में सह्याद्रि पर्वत की गोद में बहनवाली वागुरा नदी की घाटी में स्थित एक स्थान जो अपने १९ कलात्मक गुफामंदिरो के लिये जर्गाद्विख्यात है । विशेष—मध्य रेलवे की इंटारसी बंबई शाखा पर स्थित जलगाँव स्टेशन से उतरकर फरदापुर होते हुए अजंता जाने का मार्ग है । गुफाएँ प्राकृतिक नहीं हैं, बल्कि पत्थर के ठोस पहाड़ों को काट- काट कर भारतीय कारीगरों द्वारा निर्मित हैं । वास्तु, शिल्प और चित्र इन तीनों कलाओं का चरमोत्कर्ष इन गुफाओं में दृष्टिगोचर होता है जिसका निर्माणकाल ई० पू० दूसरी शती (गुहा संख्या १०, १२, १३) सं लेकर ७वीं शती तक (बिहार गुहा १, २) है । आरंभिक गुहाओं में बोद्धों की हीनयान शाखा के प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं । शिल्प और चित्रों में भगवान् बुद्ध की प्रधानना है । १९वीं गुहा सर्वोत्कृष्ट है । इसके भित्तिचित्रों में भगवान् बुद्ध और उनके जीवन की विविध घटनाएँ एवं विभिन्न जातक कथाओं के चित्र अत्यंत सधे हाथों से अंकित हैं । रंग ऐसे पक्के और चटकीले हैं, मानों कारीगर न उन्हें अभी अभी समाप्त किया है । ५० फुट से अधिक प्रशस्त मंडप के ऊपर की छत तक अलंकृत है । अन्यान्य गुफाओं की चित्रसमृद्धि भी अत्यंत उच्च कोटि की है । ये गुफाँएँ भारतीय स्वर्णयुग के सांस्कृतिक, कलात्मक और आध्यात्मिक उपलब्धियों की प्रत्यक्ष साक्षी हैं ।
⋙ अजंतुक
वि० [सं० अजन्तुक] जंतुविहीन । प्राणीरहित । उ०—अजंतुक; जब पृथ्वी पर किसी प्रकार का जीवन न था ।— हिंदु० सभ्यता, पृ० ८ ।
⋙ अजंभ (१)
वि० [सं० अजम्भ] बिना दाँत का । दंतरहित ।
⋙ अजंभ (२)
संज्ञा पुं० १. मेढक । २. सूर्य (को०) । ३. बालक की वह अवस्था, जब उसके दाँत न निकले हों (को०) ।
⋙ अजंमत्त पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अजमत' । उ०—अजंमत्त भारी हमीरं सु जानी ।—ह० रासो, पृ० ८५ ।
⋙ अजंसी
संज्ञा स्त्री० [अं० एजेंसी] १. अजंट के रहने का स्थान । अजंट का दफ्तर या उसकी कचहरी । २. आढ़त की दूकान । वह दूकान जिसमें किसी दूसरे सौदागर या कारखाने की चीज बेचने के लिये रखी जाय ।
⋙ अज (१)
वि० [सं०] जिसका जन्म न हो । जन्म के बंधन से रहित । अजन्मा । स्वयंभू । उ०—ब्रह्मा जो व्यापज विरज अज अकल अनीह अभेद ।—मानस, १ । ५० ।
⋙ अज (२)
संज्ञा पुं० १. ब्रह्मा । उ०—लगन बाचि अज सबहि सुनाई ।— मानस, १ । ९१ । २. विष्णु । ३. शिव । ४. ईश्वर (को०) । ५. कामदेव । ६. चंद्रमा (को०) ७. एक सूर्यवंशी राजा जो दशरथ के पिता थे । विशेष—वाल्मीकि रामायण में इन्हें नाभाग का पुत्र लिखा है पर रघुवंश आदि के अनुसार ये रघु के पुत्र थे । ८. बकरा । उ०—तदपि न तजत स्वान, अज, खर ज्यों फिरत विषय अनुरागे ।—तुलसी ग्रं०, पु० ५१६ । ९. भेँड़ा ।१०. माया शक्ति ।११. जीव (को०) ।१२. ज्योतिष में शुक्र की गति के अनुसार तीन तीन नक्षत्रों की जो एक वीथी मानी गई है, उनमें से एक, जो हस्त, विशाखा और चित्रा नक्षत्र में होती है ।१३. एक ऋषि (को०) ।१४. मेंषराशि (को०) । १५. अग्नि (को०) ।१६. एक प्रकार का धान्य (को०) ।१७. माक्षइक धातु (को०)१८. सूर्य का रथ (को०) ।
⋙ अज (३) पु
क्रि० वि० [सं० अद्य; प्रा० अज्ज] अब । अभी तक । विशेष—इस शब्द को 'हूँ' के साथ देखा जाता है, स्वतंत्र रूप में नहीं; जैसे—(को) उठी कबीरा बिरहिनी अजहूँ ढढै खेह ।— कबीर (शब्द०) । (ख) अजहूँ जागु अजाना होत आउ निसि भोर ।—जायसी (शब्द०) । (ग) रे मन, अजहूँ क्यौं न सम्हारै ।—सूर० १ । ६३ । (घ) अजहूँ मानहूँ कहा हमारा ।— मानस, १ ।८० ।
⋙ अज (४)
प्रत्य० [फा० अज] से । उ०—लिये खाँदे ऊपर अज जान होर दिल ।—दक्खिनी०, पृ० ११४ ।
⋙ अजक (१)
वि० वि० [सं० अ=नहीं+फा० जक=पराजय] अपराजेय । उद्धत । उ०—अजक अपीधा ज्यूँ विण कीधा रणताल । उ०—राज०, पृ० ७४ ।
⋙ अजक †
संज्ञा स्त्री० रोग । पीड़ा । उ०—एक जड़ी नोइ ऐसी री दुंग्गौ, मिटि जाइ अजक तिहारी ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९६५ ।
⋙ अजक (३)
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुरवा के वंश का एक राजा । [को०] ।
⋙ अजकजा
संज्ञा पुं० [फा० अज+अ० कजा] संयोगवश । उ०— अजकजा जब शेख गए बस्ती भीतर ।—दक्खिनी०, पृ० २०१ ।
⋙ अजकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अजकर्णक' [को०] ।
⋙ अजकर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] १. साल का पेड़ । सालवृक्ष । २. असन का वृक्ष [को०] ।
⋙ अजकव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अजगव' ।
⋙ अजका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कम उग्रवाली बकरी ।२. बकरी के गले से लटकनेवाली माँस की ग्रंथि । अजागलस्तन ।३. नेत्रों का एक रोग । अजकाजात [को०] ।
⋙ अजकाजात
संज्ञा पुं० [सं०] आँख में होनेवाली लाल फूली जो पुतली को ढँक लेती है । टेटड़ वा ढेंढड । नाखुना ।
⋙ अजकाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का धनुष । अजगव ।२. बबूल का वृक्ष ।३. काष्ठनिर्मित एक यज्ञ पात्र जो मित्र और वरुण से संबद्ध है (को०) ।४. एक नेत्ररोग । अजकाजात [को०] । ५. अजका रोग का विष [को०] ।
⋙ अजखुद
क्रि० वि० [फा०] । स्वयं । आप से आप । उ०—'गुया अजखुद गाली न देकर' ।—प्रेमघन,० भा० २, पृ० १०१ ।
⋙ अजगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० अजगन्धा] अजमोदा ।
⋙ अजगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अजगन्धिका] १. बनतुलसी का पौधा । बर्बरी ।
⋙ अजगंधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अजगन्धिनी] १. काकड़ासींगी ।२. बनतुलसी का पौधा [को०] ।
⋙ अजग
संज्ञा पुं०[ सं०] १. शिव का धनुष ।२. विष्णु का नाम । ३. अग्नि [को०] ।
⋙ अजगर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बकरी निगलने वाला साँप । बहुत मोटी जाति का एक सर्प । उ०—(क) बैठि रहेसि अजगर इव पापी ।—मानस, ७ । १०७ । (ख) बिना आशा बिन उद्यम कीने अजगर उदर भरै ।—सूर०, १ । १०५ । अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम । दास मलूका कहि गए सब के दाता राम ।—मलूक (शब्द०) । विशेष—यह अपने शरीर के भारीपन के कारण फुर्ती से इधर उधर डाल नहीं सकता और बकरी, हिरन ऐसे बड़े पशुओं को निगल जाता है । और सर्पों के समान इसके दाँतों में विष नहीं होता । यह जंतु अपनी स्थूलता और निरुद्यमता के लिये प्रसिद्ध है । २. एक दानव (को०) ।
⋙ अजगरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अजगरीय] अजगर की सो निरुद्यम वृत्ति । बिना परिश्रम की जीविका । उ०—उत्तम भीख जो अजगरी, सुनि लीजो निज बैन । कहै कबीर ताके गहे महा परम सुख चैन ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अजगरी (२)
वि० १. अजगर की सी ।२. बिना परिश्रम की ।
⋙ अजगरी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधे का नाम [को०] ।
⋙ अजगरीवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिना श्रम की जीविका । अजगरी ।
⋙ अजगलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूगँ के दानें के बराबर छोटी पीड़ारहित फुंसी जो कफ और वात के प्रकोप से शरीर पर निकलती है ।
⋙ अजगलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजगलिका' [को०] ।
⋙ अजगव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव जी का धनुष । पिनाक । उ०—नहीं इसी से चढी शिंजिनी अजगव पर प्रतिशोध भरी ।—कामायनी पृ० १०५२. अजवीथी (को०) ।
⋙ अजगाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का धनुष ।२. नागों के एक गुरु ।३. एक प्रकार यज्ञपात्र ।४. अजवीथी [को०] ।
⋙ अजगुत
संज्ञा पुं० [सं० अयुक्त हिं अजगुति] १. युक्ति विरुद्ध बात । अचंभे की बात । आश्चर्यजनक भेद । असाधारण बात । अस्वाभाविक व्यापार । अप्रकृतिक घटना । उ०— आई करगी भो अजगूता । जनम जनम जम पहिरे बूता ।— कबीर (शब्द०) ।२. अयुक्त बात । अनुचित बात । बेजोड़ बात । उ०—सरबस लूटि हमारो लीनो राज कूबरी पावै । तापर एक सुनो री अजगुत लिख लिख जोग पठावै । —सूर (शब्द०) ।
⋙ अजगुत (२) पु †
वि० १, आश्चर्यजनक । अदभुत । विलक्षण ।२. अनुचित । अयुवत । बेजोड़ । उ०—पापी जाउ जीभ गलि तेरी अजगुत बात बिचारी । सिंह को भक्ष्य श्रृगाल न पावँ हौं सम- रथ की नारी ।—सूर० (शब्द०) ।
⋙ अजगुथ्था पु †
वि० [हिं०] दे० 'अजगुत' । उ०—विभीषण भेद कहो अजगुथ्था ।—कबीर सा०, पृ० ४१ ।
⋙ अजगैब (१)
क्रि० वि० [फा०] अलक्षइत स्थान से । गैब से । अदृष्ट से [को०] ।
⋙ अजगैब (२) पु
संज्ञा पुं० [फा० अज+अ० गैब] अलक्षइत स्थान । अदृष्ट स्थान । उ०—दादू डरिए लोक तें, कैसी धरहिं उठाइ । अनदेखी अजगैब, कैसी कहइ बनाइ ।—दादू (शब्द०) ।
⋙ अजगैबी पु
वि० [फा० अज+अ० गैबी+ई (प्रत्य०)] रहस्य- पूर्णाता । अलौकिकता । उ०—कहै पदमाकर त्यों तारन बिचारन की बिगर गुनाह अजगैबी गैर आब की ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३२४ । यौ०—अजगैबी गोला, अजगैबी तमाचा=दैवी विपत्ति आकस्मिक कष्ट । अजगैबी तमाशा=आश्चर्य करनेवाला खेल । अजगैबी मार=दे० 'अजगैबी गोला' ।
⋙ अजघन्य
वि० [सं०] जो जघन्य अर्थात् जो निम्नतम, तुच्छ और अंतिम या उपेक्ष्य न हो [को०] ।
⋙ अजघोष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सन्निपात जिसमें रोगी के शरीर से बकरे की गंध आती हैं ।—(माधव०) ।
⋙ अजजीव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अजजीविक' [को०] ।
⋙ अजजीविक
संज्ञा पुं० [सं०] बकरे पालकर उनके विक्रयादि के द्वारा अपनी जीविका चलानेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ अजटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूम्यामलकी । कपिकच्छू [को०] ।
⋙ अजड (१)
वि० [सं०] जो जड़ न हो । चेतन ।
⋙ अजड (२)
संज्ञा पुं० चेतन पदार्थ ।
⋙ अजड़ (३)
वि०, संज्ञा पुं० [सं० अजड] दे० 'अजड' ।
⋙ अजण
संज्ञा पुं० [सं० अर्जुन] राजा सहस्त्रार्जुन ।—(डिं०) ।
⋙ अजथ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पीले रंग की जूही का पेड़ और फूल । २. पीली चमेली । जर्द चमेली ।३. बकरों का समूह (को०) ।
⋙ अजदंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० अजदण्डी] एक प्रकार का पौधा । ब्रह्म- दंड़ी [को०] ।
⋙ अजदर
संज्ञा पुं० [फा० अजदर] दे० 'अजदहा' । उ०—अजदर है भभूका है जहन्नुम है बला है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५२२ ।
⋙ अजदहा
संज्ञा पुं० [फा०] बडा मोटा और भारी साँप । अजगर ।
⋙ अजदाह
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अजदहा' । उ०—संत की प्रीति अजदाह की चाहिए, चले बिन फिर आहार आवँ ।—पलटू०, पृ० २६ ।
⋙ अजदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि ।२. पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र का एक नाम [को०] ।
⋙ अजधाम
संज्ञा पुं० [सं अज+धाम] ब्रह्मालोक । उ०—(को) पद पाताल सीस अजधामा ।—मानस ६ । १५ । (ख) पद है पताल दिग श्रुति अजधाम भाल बाल घन माल काल भृकुटी बिलास है ।—दीन० ग्रं०, पृ० १५५ ।
⋙ अजनंदन
संज्ञा पुं० [सं० अज+नन्दन] रघुबंश के राजा अज के पुत्र दशरथ । उ०—त्याग दिया आज अजनंदन ने एक साथ पुत्र हेतु प्राण सत्य कारण अपत्य है ।—साकेत, पृ० २०१ ।
⋙ अजन (१)
वि० [सं०] १. जन्म के बंधन से मुक्त । जन्मरहित । अजन्मा । अनादि । स्वयंभू । उ०—सकललोक नायक, सुख- दायक, अजन, जन्म धरि आयौ ।—सूर०, १० ।४ ।२. निर्जन । सुनसान । उ०—मो उर अजन अजिर मैं निज जोतिहि जमाय जागौगे ।—घनानंद, पृ० १६२ ।
⋙ अजन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अयोग्य व्यक्ति । अप्रिय व्यक्ति । तुच्छ जन । उ०—हँसे खुलकर हाल बाहर अजन जन के बने मंगल ।—अर्चना, पृ० २७ ।२. पितामह । ब्रह्मा (को०) । ३. गति गमन (को०) ।
⋙ अजनक
वि० [सं०] उत्पादन न करनेवाला । अनुत्पादक [को०] ।
⋙ अजननि
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्पन्न या पैदा न होनेकी स्थिति । उत्पन्न न होना [को०] ।
⋙ अजननीय
वि० [सं०] जनन के अयोग्य । जो उत्पादनीय न हो ।
⋙ अजननी
वि० [अ०] १. अज्ञान । अपरिचित । जिसे कोई जानता न हो । बिना जान पहिचान का । नया । परदेशी । २. अनजान । नावाकिफ ।
⋙ अजनबीपन
संज्ञा पुं० [अ० अनजबी+हिं० पन (प्रत्य०)] अजनबी होने का भाव । उ०—उसपर दो भाषाओं के अजनबीपन की छाप दिखाई पड़ी ।—चिंतामणि, भा० २, पृ० १४२ ।
⋙ अजनयोनिज
संज्ञा पुं० [सं०] दक्ष प्रजापति [को०] ।
⋙ अजनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] भारतवर्ष का एक प्राचीन नाम [को०] ।
⋙ अजनामक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का खनिज द्रव्य [को०] ।
⋙ अजनाशक
संज्ञा पुं० [सं०] भेड़िया [को०] ।
⋙ अजन्म (१)
वि० [सं० अजन्मा] दे० 'अजन्मा' । उ०—आत्म अजन्म सदा अबिनासी । ताकौं देह मोह बड़ फाँसी ।—सूर० ५ । ४ ।
⋙ अजन्म (२)
संज्ञा पुं० [सं०] जन्म का अभाव । जन्म न होना [को०] ।
⋙ अजन्मा
वि० [सं०] जन्मरहित । जिसका जन्म न हुआ हो । जो जन्म के बंधन में न आवे । अनादि । नित्य । अविनाशी ।
⋙ अजन्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शुभाशुभ सूचक सृष्टिव्यापार जैसे— भूकंप आदि ।
⋙ अजन्य (२)
वि० १. जन्य या मनुष्य के लिये अनुपयुक्त । २. उत्पादन के अयोग्य । अजननीय [को०] ।
⋙ अजप
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुपाठक । बुरा पढ़नेवाला ब्राह्मण । २. बकरी, भेंड पालनेवाला । गडेरिया ।
⋙ अजपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्तम एवं श्रेष्ट बकरा ।२. भौम । मंगल [को०] ।
⋙ अजपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. छायापथ । अजवीथी (को०) २. वह पथ जिसपर केवल बकरी ही चल सकेल । अत्यंत सँकरा मार्ग । विशेष—अजपथ के विषय में बृहत्कथा श्लोकसंग्रह में लिखा है कि यह रास्ता इतना कम चौड़ा होना था कि आमने सामने से आनेवाले दो व्यक्ति एक साथ उसपर से निकल नहीं सकते थे ।
⋙ अजपथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अजपथ' [को०] ।
⋙ अजपद
संज्ञा पुं० [सं०] अजैंकपाद नामक रुद्र [को०] ।
⋙ अजपा (१)
वि० [सं०] १. जिसका उच्चारण न किया जाय । उ०— जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम नाम ।—अपारा, पृ० ४१ ।२. जो न जपे या भजे ।
⋙ अजपा (२)
संज्ञा पुं० १. उच्चारण न किया जानेवाला तांत्रिकों का मंत्र । वह जप जिसके मूल मंत्र 'हंसः' का उच्चारण श्वास- प्रश्वास के गमनागमन मात्र से होता जाय । हंस मंत्र । उ०—अजपा जपत सुंनि अभिअंतरि, यहु तत जानै सोई ।—कबीर ग्रं०, पृ० १५९ । विशेष—इसका देवता अर्धनारीश्वर अर्थात् शिव और शक्ति का संयुक्त रूप है । इस जप की संख्या एक दिन और रात में २१,६०० मानी गइ है । यौ०—अजपाजप, अजपाजाप = हंसः मंत्र का जप । उ०—अजपा- जाप उनमनी तारी । —कबीर ग्रं०, पृ० १५८ । अजपामाला=अजपा जपने की माला या प्रक्रिया । उ०—तिलक उनमनी भ ल जपत है भजपा माला । —पलटू०, भा० १, पृ० १०० । २. बकरियों का पालक । गड़ेरिया ।
⋙ अजपाद
संज्ञा पु० [सं०] एक रुद्र [को०] ।
⋙ अजपाल
संज्ञा पु० [सं०] बकरी पालने का व्यवसाय करनेवाला व्यक्ति । उ०—'कृषक, अजपाल और व्यापारी लोगों के लिये शुभाशीर्वाद सूचक मंत्र है' । —हिंदु० सभ्यता, पृ० ९२ ।
⋙ अजबंधु
संज्ञा पु० [सं० अजबन्धु] मूर्ख । अज के समान मंद बुद्धिवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ अजब (१)
वि० [अ०] विलक्षण । अद्भुत । आश्चर्यजनक । विचित्र । अनोखा । अनूठा । उ०—कारी निशि कारी घटा, कच रति कारे नाग । कारे कन्हर पै चली, अजब लगन की लाग । — पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ अजब (२)
संज्ञा पु० अचंभा । अचरच [को०] ।
⋙ अजबस
क्रि० वि० [फा०] एकाएक । उ०—लगे गुलशन पे अजबस गम के होल्याँ । —दक्खिनी०, पृ० १९१ ।
⋙ अजभक्ष
संज्ञा पु० [सं०] बबूल का पेड़ जिसकी पत्ती बकरियाँ अधिक चाव से खाती हैं ।
⋙ अजम
संज्ञा पु० [अ०] अरब के अलावा ईरान, तूरान आदि देश अथवा वहाँ के निवासी । उ०—अरब और अजम तुर्कों ताजिक व रूम । —दक्खिनी, पृ० २१३ ।
⋙ अजमत
संज्ञा पुं० [अ० अजमत] १. प्रभुत्व । प्रताप । शान । महत्व । उ०—आपकी उल्फत ईसा की सब अजमत आज मिटाएगी । —भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५६ । २. चमत्कार ।
⋙ अजमाइश †
संज्ञा स्त्री० [फा० आजमाइश] दे० 'आजमाइश' ।
⋙ अजमाना †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'आजमाना' ।
⋙ अजमायु
वि० [सं०] बकरे की तरह मिमियानेवाला [को०] ।
⋙ अजमार
संज्ञा पु० [सं०] १. कसाई । २. अजमेर का एक नाम । 3. एक जाति [को०] ।
⋙ अजमी (१)
वि० [अ०] अजम संबंधी । अजम का [को०] ।
⋙ अजमी (२)
संज्ञा पु० अजम का निवासी व्यक्ति । ईरानी तूरानी [को०] ।
⋙ अजमीढ़
संज्ञा पु० [सं० अजमीढ़] १. अजमेर का पुराना नाम । २. पुरुवंशीय हरिता के ज्येष्ठ पुत्र का नाम । ३. सुहोत्र के पुत्र का नाम । ४. युधिष्ठिर की उपाधि [को०] ।
⋙ अजमुख (१)
संज्ञा पु० [स०] दक्ष प्रजापति का एक नाम [को०] । विशेष—यज्ञ में शिव का अपमान करने पर सती के देहत्याग के बाद वीरभद्र ने दक्ष के यज्ञ का घ्वंस किया और उसे मार डाला । बाद में शिव की आज्ञा से उसे जीवित करने के लिये बकरे का सिर लगा दिया था । 'काशीखंड़' में इसका विस्तृत विवरण है ।
⋙ अजमुख (२)
वि० बकरी की तरह मुखवाला । बकरमुहाँ [को०] ।
⋙ अजमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राक्षसी जो अशोकवटिका में सीता की देखरेख के लिये नियुक्त थी [को०] ।
⋙ अजमूदा
वि० [फा० आजमूदा] दे० 'आजमूदा' ।
⋙ अजमोद
संज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० अजमोदिका] अजवाइन की तरह का एक पेड़ और उसका फल । बड़ी अजवाइन । विशेष—यह सारे भारत में लगाया जाता है । इसके बींज या दाने मसाले और ओषधि के काम आते हैं । यह अजीर्ण, संग्रहणी तथा शरीर की पीड़ा दूर करने के लिये प्रसिद्ध है । पर्या०—उग्रगंधा । गंधदला । शिखिमोदा । वह्निदीपिका । मर्कटी । मायूरी । वनयमानी । हस्तिकारवी ।
⋙ अजमोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजमोद' [को०] ।
⋙ अजमोदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजमोद' [को] ।
⋙ अजय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पराजय । हार । जय का अभाव । २. अग्नि (को०) । ३. विष्णु (को०) । ४. एक कोशकार का नाम (को०) । ५. छप्पय छंद के ७१ भेदों में से पहला जिसमें ७० गुरु और १२ लघु मिलाकर ८२ वर्ण और १५२ मात्राएँ हैं ।
⋙ अजय (२)
वि० न जीतने योग्य । जो जीता न जा सके । अजेय । उ०—जीति को सकै अजय रघुराई । माया तें असि रची न जाई । —मानस, ६ ।१३ ।
⋙ अजयपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. संगीत में भैरव राग का पुत्र । विशेष—यह संपूर्ण जाति का राग है । इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं । २. एक राजा का नाम । ३. जमालोगोटा ।
⋙ अजया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विजया । भाँग । २. दुर्गा की एक सखी का नाम (को०) । ३. माया (को०) ।
⋙ अजया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अजा] बकरी । उ०—खोज पकरि विश्वास गहु, धनी मिलैंगे आय । अजया गज मस्तक चढ़ी, निर्भय कोंपल खाय । —कबीर (शब्द०) ।
⋙ अजय्य
वि० [सं०] १.अजेय । जो जीता न या सके । २. क्रिड़ा में अजेय (को०) ।
⋙ अजर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. निर्जर । देवता (को०) । २. परब्रह्म । ईश्वर का एक नाम । ३. वृद्धदारक या जीर्णफंजी नामक पौधा (को०) ।
⋙ अजर (२)
वि० १.जरारहित । जो बूढ़ा न हो । उ०—अजर अमर सो जीति न जाई । हारे सुर करि विविध लराई । —मानस, १ ।८१ । २. नाशरहित । क्षयरहित ।
⋙ अजर (३)
वि० [सं० अ = नहीं + जृ (जर) = पचना] अपाच्य । गरिष्ठ । उ०—अजर अंस अतीथ का गृही करै जो अहार । निश्चय होय दरिद्री कहै कबीर बिचार । —कबीर (शब्द०) ।
⋙ अजर (४)
संज्ञा पुं० [अ०] इनाम । पुरस्कार । फल । उ०—जे मुकर्रर है सबूरे को अजर । —दक्खिनी०, पृ० १७३ ।
⋙ अजर (५)पु
संज्ञा पुं० [सं० अजिर] दे० 'अजिर' । —नागर जू मेरे भौन छाए हैं उछाह युत, और सोभा ह्वै गई हैं काल्हि ते अजर की —नट०, पृ० ६९ ।
⋙ अजरक
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निमांद्य । मंदाग्नि [को०] ।
⋙ अजरद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पवृक्ष [को०] ।
⋙ अजरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घृतकुमारी । घीकुआर । २. विधारा । ३. गृहगोधा । छिपकली (को०) ।
⋙ अजरायल (१)
वि० [सं० अजर +हिं० आयल (प्रत्य०)] जो जीर्ण न हो । जो पुराना न हो । जो सदा एक सा रहे । अमिट । पक्का । चिरस्थायी । उ०—दिना चारि मेँ सब मिटि जैहैं । श्याम रंग अजरायल रैहैं । —सूर० (शब्द०) ।
⋙ अजरायल (२) †
वि० [सं० अ = नहीं + दर = भय] १. निर्भय । बेडर । निःशंक । उ०—तस कुठार द्रग तायल राह बरात ईख अजरायल । —रघु० रु० पृ० ८९ । २. बलवान् । शक्तिशाली । उ०—रीठ बागो उभय ओड़ अजरायलां । —रघु० रू०, पृ० १८३ ।
⋙ अजराल
वि० [सं० अ = नहीं + जृ पुराना पड़ना] बलवान् । जोरावर । —डिं० ।
⋙ अजरावन
वि० [सं० अजर + आवन (प्रत्य०)] दे० 'अजर' । उ०— भलैं सु दिन भयौ पूत अमर अजरावन रे । —सूर०, १० ।२८ ।
⋙ अजरावर पु
वि० [सं० अजरामर] जरा मरण से रहित । उ०— आत्मा माहि दीदार दरसता रहै यूँ अजरावर होय आपु जीया । —रामानंद०, पृ० ५ ।
⋙ अर्जय (१)
वि० [सं०] १. जराविहीन । २. पचाने के अयोग्य । अपाच्य । ३. चिरकाल तक रहनेवाला । चिरस्थायी [को०] ।
⋙ अर्जय (२)
संज्ञा पुं० मैत्री । दोस्ति [को०] ।
⋙ अजलंबन
संज्ञा पुं० [सं० अजलम्बन] सुरमा [को०] ।
⋙ अजल
संज्ञा स्त्री० [अ० अजल] मृत्यु । मौत । उ०—ऐ सनम तू ही मेरी शक्ल से रहता है रुसा, है अजल भी तो खफा । — श्यामा०, पृ० १०२ ।
⋙ अजलचर
वि० [सं० अ = नहीं + जलचर] जो जलचर न हो । जो जल में न रहता हो । स्थलचर । थलचर उ०—अरु तहँ बहुत जगनि कौ कह्यौ । सर्प अजलचर क्यों जंल रह्यौ । —नंद० ग्रं०, पृ० २७९ ।
⋙ अजलोमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] केवाँच का पेड़ ।
⋙ अजलोमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजलोमी' [को.] ।
⋙ अजव
वि० [सं०] वेगरहित । गतिहीन [को०] ।
⋙ अजवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजशृंगी' [को०] ।
⋙ अजवाइन
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अजवाइन' । उ०—रोटी रुचिर कनक बेसन करि । अजवाइनि सैंधो । मिलाइ धरि । — सूर०, १० ।१२१३ ।
⋙ अजवायन
संज्ञा स्त्री० [सं० यवानिका] यवानी । एक पौधा । जवाइन । विशेष—यह पौधा सारे भारत में, विशेषकर बंगाल में लगाया जाता है । यह पौधा अफगानिस्थान, फारस और मित्र आदि देशों में भी होता है । भारतवर्ष में इसकी बोआई कार्तिक, अगहन में होती है । इसके बीज जिनमें एक विशेष प्रकार की महक होती है और जो स्वाद में तीक्ष्ण होते हैं, मसाले और दवा के काम आते हैं । भभके पर उतारने से बीज में से अर्क(अमूम का पानी) और तेल निकलता है । भभके से उतारते समय तेल के ऊपर एक सफेद चमकीली चीज अलग होकर जमैं जाती है जो बाजार में 'अजवायन के फूल' के नाम से बिकती है । अजवायन का प्रयोग हैजा, पेट का दर्द, बात की पीड़ा आदि में किया जाता है ।
⋙ अजवाह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कच्छ, कठियावाड़ का एक प्राचीन नाम [को०] ।
⋙ अजवाह (२)
वि० अजवाह देश का [को०] ।
⋙ अजवीथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजवीथी' [को०] ।
⋙ अजवीथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूर्यादि के गमन के तीन दक्षिणी मागों में से एक । छायापथ । गगनसेतु । २. बकरे के चलने की राह या मार्ग [को०] ।
⋙ अजशृंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० अजश्रृङ्गी] एक वृक्ष । मेढ़ासिंगी । विशेष—यह भारतवर्ष में प्रायः समुद के किनारे होता है । इसकी छाल 'संकोचक' है और ग्रहणी आदि रोगों में दी जाती हैं । इसका लेप घाव और नासूर को भी भरता है ।
⋙ अजस पु
संज्ञा पुं० [सं० अयश प्रा० अजस] अयश । अपयश । अपकीर्ति । बुरी ख्याति । बदनामी । उ०—सिय बरनिय तेइ उपमा देई । कुववी कहाइ अजस को लेइ । —मानस, १ ।२४७ । यौ०—अजम पेटारी = अ यश की भागिनी । उ०—अजस पेटारी ताही करि गई गिरा मति फेरि । —मानस २१२ ।
⋙ अज सरे नौ
क्रि० वि० [फा० अज सरे नौ] लए सिरे से । नए ढंग से [को०] ।
⋙ अजसी पु
वि० [सं० अयशिन्] जिसकी बुरी कीर्ति हो बदनाम । निंद्य । अपयशी । उ०—कौल कामबस कृपन बिमूढ़ा । आते दरिद्र अजसी अती बूढ़ा । —मानस, ६ ।३१ ।
⋙ अजस्त्र
क्रि० वि० [सं०] सदा । निरंतर । हमेशा । लगातार । उ०— आहुतियाँ विश्व की अजस्त्र लुटाती रहा । —लहर, पृ० ५६ ।
⋙ अजस्त्रता
संज्ञा स्त्री० [सं० अजस्त्र + ता (प्रत्य०)] अजस्त्र होने का भाव या क्रिया । नैरंतर्य । उ०— 'तुममें या मुझमें या हमारे प्रेम में ही अजस्त्रता नही हैं' । चिंता०, पृ० ९४ ।
⋙ अजहत्
वि० [सं०] त्याग न करनेवाला । न छोड़नेवाला [को०] ।
⋙ अजहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दें० 'अजहत्स्वार्था' ।
⋙ अजहल्लक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजहत्स्वार्था'[को०] ।
⋙ अजहल्लिंग
संज्ञा पुं० [सं० अजहल्लिङ्ग] संस्कृत व्याकरण में वह शब्द या संज्ञा जो अन्य लिंग के शब्द के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने पर भी अपने लिंग का त्याग न करे [को०] ।
⋙ अजहत्स्वार्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] अलंकार शास्त्र में लक्षणा के दी भेदों में से एक । विशेष—इसमें लक्षक शब्द अपने वाच्यार्थ को न छोड़कर उससे संपृक्त या कुछ भिन्न या अतिरिक्त अर्थ प्रकट करे । जैसे— 'भालों के आते ही शत्रु भाग गए' । यहाँ भालों से तात्पर्य भाला लिए सिपाहियों से हैं । इसे उपादान लक्षणा भी कहते हैं ।
⋙ अजहद
क्रि० वि० [फा० अज +अ० हद्द] हद से ज्यादा । बहुत अधिक । उ०— सब पंखियों में मैं हूँ अजहद पाक तन । — दक्खिनी०, पृ० १७९ ।
⋙ अजहुँ पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अजहूँ' । उ०—तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं तारा गयंद जाके अर्धनायँ । —तुलसी ग्रं०, पृ० ५०२ ।
⋙ अजहूँ पु
क्रि० वि० [सं० अद्य, प्रा० अज्ज +हिं० हूँ (प्रत्य०)] अब भी अद्यपि । आज भी । उ०—किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी । —सूर० १० । १७५ ।
⋙ अजांत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० अजान्त्री] नीलपुष्पी नामक पौधा [को०] ।
⋙ अजांबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अजाम्बिका] भाद्र कृष्ण एकदाशी का नाम जो एक ब्रत का दिन ।
⋙ अजाँ
संज्ञा स्त्री० [अ० अजाँ] दे० 'अजान (३)' । उ०—तुझे ही शेख ने प्यारे अजाँ देकर पुकारा है । —भारतेंदु ग्रं०, भाग२, पृ० ८५१ ।
⋙ अजा (१)
वि० स्त्री० [सं०] जिसका जन्म न हुआ हो । जो उत्पन्न न की गई हो । जन्मरहित । उ०—अजा अनादि सक्ति अबि- नासिनि । —मानस, १ ।८७ ।
⋙ अज (२)
संज्ञा स्त्री० १बकरी । २. सांख्य मतानुसार प्रकृति या माया जो किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं की गई और अनादि हैं । ३. शक्ति । दुर्गा । ४. भादो बदी एकादशी जो एक ब्रत का दिन है ।
⋙ अजा (३)
संज्ञा पुं० [अ० अजा] १. मृत्शोक । मातम । २. मातम- पुर्सी [कों०] ।
⋙ अजाइब पु
संज्ञा पुं० [अ० अजायब] दे० 'अजायब' । उ० —अजब अजाइब नूर दीदम दादू है हैरान । —दादू, पृ०५७७ ।
⋙ अजाखाना
संज्ञा पुं० [अ० अजाखानह्] वह स्थान विशेष जहाँ मातम किया जाय, ताजिया रखा जाय या मर्सिया पढ़ा जाय [को०] ।
⋙ अजागर (१)
वि० [सं०] न जागनेवाला [को०] ।
⋙ अजागर (२)
संज्ञा पुं० भृंगराज । भैगरैया [को०] ।
⋙ अजागलस्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बकरी के गले में लटकने वाली मांस की स्तनकार छीमी । २. देखने में उपयोगी किंतु निरर्थक वस्तु (लाक्ष०)[को०] ।
⋙ अजाच पु
वि० [हिं०] दे० 'अयाच्य' । उ० —जाचक भए अजाच प्रजा परिजन मुद छाए । —रत्नाकर, भा० १. पृ०२५४ ।
⋙ अजाचक पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० अयाचक] न माँगनेवाला । वह जिसे कुछ माँगने की आवश्यकता न हो । संपन्न व्यक्ति ।
⋙ अजाचक पु (२)
वि० जो न माँगे । जिसे माँगने की आवश्यकता न हो । संपन्न । भरापूरा । उ०—बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे । जाचक सकल अजाचक कीन्हे । —मानस, ७ ।१३ ।
⋙ अजाची पु (१) †
संज्ञा पुं० [सं० अयाचिन्] न माँगनेवाला । संपन्न पुरुष ।
⋙ अजाची पु (२)
वि० जो न माँगे । जिसे माँगने की आवश्यकता न हो । धन धान्य से पुर्ण । संपन्न । भरापूरा । उ०—(क) कपि सबरी सुग्रीव विभीषन को जो कियो अजाची । —तुलसी (शब्द०) । (ख) गुरुसुत आनि दिए जमपुर तै बिप्र सुदामा कियौ अजाची ।—सूर०, १ ।१८ ।
⋙ अजाजि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजाजी' [को०] ।
⋙ अजाजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद और काला जीरा । जीरा ।
⋙ अजाजील
संज्ञा पुं० [अ० अजाजील] शैतान [को०] ।
⋙ अजाजीव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अजजीवक' [को०] ।
⋙ अजात
वि० [सं०] १. जो पैदा न हुआ हो । अनुत्पन्न । २. जन्मरहित । अजन्मा ।
⋙ अजातककुत्
संज्ञा पुं० [सं०] वह बछड़ा जिसकी पीठ पर पर डिल न निकला हो । छोटा बछड़ा बछवा । उ०—जब तक बछड़ा बड़ा नहीं हो जाता था अर्थात् उसकी पीठ पर डिल नहीं निकल आता था तब तक वह अजातककुत् और युवा होने पर पूर्णक्कुत् कहलाता था । —संपू० अभि० ग्रं०, पृ० २४८ ।
⋙ अजातदंत
वि० [सं० अजातदन्त] जिसे दाँत पैदा न हुए हों । बिना दाँत का । दंतविहीन [को०] ।
⋙ अजातपक्ष
वि० [सं०] बिना पंखवाला । जिसे पंख उत्पन्न न हुए हो [को०] ।
⋙ अजातरि पु
वि० [सं०] दे० 'अजातशत्रु' [को०] ।
⋙ अजातव्यंजन
वि० [सं० अजातब्यञ्जन] अस्पष्ट आकृति या चिन्हवाला । जिसकी आकृति सुस्पष्ट न हो, (पक्षी)[को०] ।
⋙ अजातव्यवहार
वि० [सं०] जिसका व्यवहारिक ज्ञान न हो या जो बालिग न हो [को०] ।
⋙ अजातशत्रु (१)
वि० [सं०] जिसका कोई शत्रु उत्पन्न न हुआ हो । बिना बैरी का । शत्रुविहीन ।
⋙ अजातशत्रु (२)
संज्ञा पुं० १. राजा युधिष्ठिर । २. शिव । ३. बृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित काशी का एक क्षत्रिय राजा जो बड़ा ज्ञानी था और जिसने गार्ग्य बालाकि ऋषि को बहुत से उपदेष दिए थे । ४. राजगृह (मगध) के राज बिंबिसार का पुत्र जो गौतमबुद्ध का समकालीन था ।
⋙ अजातश्मश्रु
वि० [सं०] जिसे दाढ़ी मूछ न निकली हो । छोटी उम्रवाला । अल्पवय [को०] ।
⋙ अजातारि
संज्ञा पुं० वि० [सं०] दे० अजातशत्रु [को०] ।
⋙ अजाति (१)
वि० [सं०] १. जाति से निकला हुआ । जाति से बाहर । जतिरहित । पतित । पंत्किच्युत । उ० —कहहु काह सुनि रीझिहु बरु अकुलीनहिं । अगुन अमान अजति मातुपितु हीनहिं—तुलसी ग्रं०, पृ० ३३ । २. जो जात या उत्पन्न न हो [को०] ।
⋙ अजाति (२)
संज्ञा स्त्री० उत्पति का अभाव । अनुत्पत्ति [को०] ।
⋙ अजाती (१)
वि० [सं० अजाति] दे० 'अजाति' । उ०—चंद न सूर दिवस नहिं राती । बरन भेद नहिं जाति अजाती । —कबीर सा., पृ०२ । क्रि० प्र०—करना । जैसे—'उसको बिरादरी ने अजाती कर दिया है ।' —(शब्द०) । —होना ।
⋙ अजाती (२)
संज्ञा पु० जाति से अलग किया हुआ आदमी । जातिच्युत व्यक्ति ।
⋙ अजाद पु
वि० [फा० आजाद] दे० 'आजाद' । उ०—हमैं नँदनंदन मोल लिए । जम के फंद काटि मुकराए, अभय अजाद किए ।—सूर०, १ ।७१ ।
⋙ अजादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवास या जवासा का एक भेद [को०] ।
⋙ अजादार
वि० [अ० अजा + फा० दार] मृत्युशोक करनेवाला । मातम मनानेवाला [को०] ।
⋙ अजादारी
संज्ञा स्त्री० [अ० अजा + फ० दार + ई (प्रत्य०)] शोक । मातम [को०] ।
⋙ अजान (१)
वि० [सं० अज्ञान, प्रा० अजाण [स्त्री० अजानी] १. जो न जाने । अनजान । अबोध । अनभिज्ञ । अबूझ । नासमझ । उ०—(क) तुम प्रभु अजित, अनादि लोकपति, हौं अजान मतिहीन । —सूर०, १ ।१८१ । (ख) भक्त अरु भगवत एक है बूझत नहीं अजान । —कबीर (शब्द०) । २. न जाना हुआ । अपरिचित । अज्ञात । उ०—उसे दिखाती जगती का सुख, हँसी और उल्लास अजान । —कामायनी पृ० ३० ।
⋙ अजान (२)
संज्ञा पुं० १. अज्ञानता । अनभिज्ञता । उ०—(क) 'मुझसे यह काम अजान में हो गया ।' —(शब्द०) । (ख) धीरे धीरे आती है जैसे मादकता आँखों के अजान में ललाई में ही छिपती । —लहर, पृ० ७४ । विशेष—इसका प्रयोग इस अर्थ में 'में' के साथ ही होता है और दोनों मिलकर क्रियाविशेषणवत् हो जाते हैं । कहीं कहीं इसका स्वतंत्र प्रयोग भी प्राप्त होता है; जैसे—'जान अजान नाम जो लेइ । हरि बैकुंठ बास तिहिँ देइ । —सूर०, ६ ।४ । २. एक पेड़ जिसके नीचे जाने से लोग समझते हैं कि बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । उ०—कोइ चंदन फूलहिं जनु फूली । कोइ अजान बीरउ तर भूली । —जायसी (शब्द०) । विशेष—यह पीपल के बराबर ऊँचा होता है और इसके पत्ते महुए के से होते हैं । इसमें लंबे लंबे मौर लगते हैं ।
⋙ अजान (३)
संज्ञा स्त्री० [अ० अजान] वह पुकार जो प्रायः मसजिद की मीनारों पर मुसलमानों को नमाज के समय की सूचना देने और उन्हें मसजिदों में बुलाने के लिये की जाती है । बाँग । मुहा०—अजान देना = (१) किसी ऊँचे स्थान या मसजिद का मीनार से उच्चस्वर में नमाज करने के समय कीः सूचना देना । (२) प्रातःकाल मुर्गे का बोलना । मुर्गे का बाँग देना ।
⋙ अजानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अज्ञान । अजानपन । नासमझी । उ०— मोहि मेरे जिय की जनायबो अजानता है, जानराय जानत हौ सकल कला प्रबीन । —घनानंद, पृ० ३९ ।
⋙ अजानपन
संज्ञा पुं० [हिं अजान + पन] (प्रत्य०) ] अनजानपन । अज्ञानता । नासमझी । उ०—जो लोग औरों की निंदा सुनकर काँपते हैं वह आप भी अपने अजानपने मैं औरों की निंदा करते हैं' । —श्रीनिवास ग्रं० पृ० ३२९ ।
⋙ अजानि
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिना पत्नी का व्यक्ति । वह व्यक्ति जिसे पत्नी न हो । २. विधुर [को०] ।
⋙ अजानिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गड़ेरिया । छागपालक । २. दे० 'अजानि' । [को०] ।
⋙ अजानी
वि० [हिं०] दे० 'अज्ञानी' । उ०—रानी मैं जानी अजानी महा पबि पाहत हू ते कठोर हियो है । —तुलसी ग्रं०, पृ० १६६ ।
⋙ अजानीय
वि० [सं०] दे० 'अजानेय' । उ०—गांधार के दश नाग- रिकों का शिष्टदल दश अजानीय असाधारण अश्व और बहुत सी उपायन सामग्री देकर भेजा था । —वैशाली०, पृ० १२३ ।
⋙ अजानेय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अच्छी नस्ल का घोड़ा [को०] ।
⋙ अजानेय (२)
वि० अच्छी जाति का । ताकतवर । निर्भय (घोड़ा) ।
⋙ अजापक्व
संज्ञा पुं० [सं०] ओषधि के लिये निर्मित एक प्रकार का घी [को०] ।
⋙ अजापालक
संज्ञा पुं० [सं०] गड़ेरिया । मेषपालक [को०] ।
⋙ अजापुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बकरी का बच्चा । बकरा । उ०—नित्य एक अजापुत्र के भक्षण की सामर्थ्य आप में बढ़ती जाय । — भारतेंदु ग्रं०, पृ० ७३ ।
⋙ अजाब
संज्ञा पुं० [अ० अजाब] १. सजा । पीड़ा । यातना । उ०— कर अब तो रहम अजाब के बदले । —भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २०३ । २. पाप । कष्ट । प्रायश्चित । उ०—पलटू खुदा हक राह यही । और खाना अजाब है जी । — पलटू पृ० १० । मुहा०—मोल लेना = व्यर्थ झंझट में पड़ना । यौ०—अजाब के फरिश्ते = पापियों को दंड देने के लिये नियुक्त यमदूत ।
⋙ अजामिल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराण के अनुसार एक पापी ब्राह्मण का नाम जो मरते समय अपने पुत्र 'नारायण' का नाम लेकर तर गया ।
⋙ अजाय (१) पु
वि० [सं० अ = कुत्सित + फा० जाय = जगह] बेजा । अनुचित । बुरा । उ०—द्वै सुत निर्धन देखि कै मातु कह्यो अनखाय । भए पुत्र द्वै रंक मम, कीन्हों कंत अजाय ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ अजाय (२)
वि० [सं०] जायारहित । पत्नीविहीन [को०] ।
⋙ अजायब (१)
संज्ञा पुं० [अ० 'अजब' का बहुवचन] अद्भुत वस्तु । विलक्षण पदार्थ या व्यापार । विचित्र वस्तु या कार्य ।
⋙ अजायब पु (२)
वि० अजीब । विचित्र । विलक्षण । उ०—अबिगत रूप अजायब बानी । ता छबि का कहि जाई । —भीखा श०, पृ० ३७ ।
⋙ अजायबखाना
संज्ञा पुं० [अ० अजायब + फा० खाना] वह भवन या घेरा जिसमें अनेक प्रकार के अद्भुत पदार्थ रखे जाते हैं । अद्भुत—वस्तु—संग्रहालय । म्यूजियम ।
⋙ अजायबघर
संज्ञा पुं० [अ० अजायब + हिं० घर] दे० 'अजायब- खाना ।
⋙ अजायबी पु
वि० [हिं०] दे० 'अजायब (२)' । उ०—अंग सुखमूल, रंग रुचिर गुलाब फूल कोमल दुकुल तूलपूरित अजायबी । — घनानंद, पृ० २०६ ।
⋙ अजाया पु
वि० [सं० अजातक] गतप्राण । मृत । मरा हुआ ।
⋙ अजार पु
संज्ञा पुं० [फा० आजार] १. रोग । बीमारी । उ०—कबकी अजब अजार में, परी बाम तन छाम । तित कोऊ मति लीजियो चंद्रोदय को नाम । —पद्माकर (शब्द०) । २. कष्ट । दुःख (को०) । ३. दुर्व्यसन । लत (को०) ।
⋙ अजार †
संज्ञा पुं० [अ० इजारा] दे० 'इजारा' । उ०—कृपण संतोष करैं नहीं लालच अंक । सुपण बभीषण सूँ मिलै लिए अजारे लंक । —बाँकीदास ग्रं०, भा०२, पृ० ३१ ।
⋙ अजावन पु
वि० [सं० अजायमान] न जनमनेवाला । उत्पन्न न होने— वाला । अजन्मा । उ०—(क) निरमल अभी क्रांति अद्भुत छबि अकह अजावन सोई । —कबीर श०, भा. ४, पृ० २६ । (ख) पुरुष अजावन रहा जो देहा । —कबीर सा०, पृ० १५३३ ।
⋙ अजि (१)
वि० [सं०] चलनेवाला । गमन करनेवला; जैसे—पदाजि = पैर से चलनेवाला [को०] ।
⋙ अजि (२)
संज्ञा स्त्री० १. चलना की क्रिया या स्थिति । गति । २. फेंकने की क्रिया । फेंकना [को०] ।
⋙ अजिआउर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अजिऔरा' ।
⋙ अजिऔरा पु †
संज्ञा पुं० [सं० आर्यिका + पुर, प्रा० अज्जिया + औरा (प्रत्य०)] आजी या दादी के पिता का घर ।
⋙ अजित (१)
वि० [सं०] १. अपराजित । जो जीता न गया हो । उ०— इंद्री अजित बुद्धि विषयारत मन की दिन दिन उलटी चाल ।—सूर०, १ ।१२७ । २. जो जीता न जा सके । अजेय(को०) ।
⋙ अजित (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु ।२. शिव ।३. बुद्ध ।४. विषघ्न ओषधि (को०) । ५. जहरीला मूसा (को०) । ६. प्रथम मन्वंतर के देवो की एक श्रेणी या वर्ग (को०) ।
⋙ अजितनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के दूसरे तीर्थंकर का नाम ।
⋙ अजितबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन संप्रदाय का एक देवी [को०] ।
⋙ अजितविक्रम (१)
वि० [सं०] अपराजित विक्रमवाला [को०] ।
⋙ अजितविक्रम (२)
संज्ञा पुं० चंद्रगुप्त द्वितीय का एक नाम या विरद [को०] ।
⋙ अजिता
संज्ञा पुं० [सं०] भादों बदी एकादशी का नाम जो ब्रत का दिन है ।
⋙ अजितात्मा
वि० [सं०] दे० 'अजितेंद्रिय' [को०] ।
⋙ अजितचापीड़
वि० [सं० अजितापीड] अजेय मुकुटवाला । बेजोड़ मुकुट का [को०] ।
⋙ अजितेंद्रि पु
वि० [सं० अजितेन्द्रिय] दे० 'अजितेंद्रय' । उ०— असुर अजितेंद्रि जिहिं देखि मोहित भए, रूप सो मोहिं दीजै दिखाई । सूर०,१ ।४३७ ।
⋙ अजितेंद्रिय
वि० [सं० अजितेन्द्रिय] जिसने इंद्रियों को जीता न हो । जो इंद्रियों के वश में हो । इंद्रियलोलुप । विषयासक्त । उ०— कृपन दरिद्र कुटुंबी जैसैं । अजितेंद्रिय दुख भरत हैं तैसैं । — नंद० ग्रं०, पृ० २९१ ।
⋙ अजिन
संज्ञा पुं० [सं०] १.चर्म । चमड़ा । खाल । उ०—गज अजिन दिव्य दुकूल जोरत सखी हँसि मुख मोरि कै । —तुलसी ग्रं०, पृ०३४ । २. ब्रह्मचारी आदि के धारण करने के लिये कृष्णमृग और व्याघ्र आदि का चर्म । उ०—अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात । —मानस, २ । २११ । ३. चमड़े का एक प्रकार का थैला (को०) । ४.भाथी । धौंकनी (को०) । ५. छाल ।
⋙ अजिनपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिसके पंख अजिन की तरह सुश्लिष्ट हों । चमगादड़ [को०] ।
⋙ अजिनपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजिनपत्री' [को०] ।
⋙ अजिनपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमगादड़ । गादुर [को०] ।
⋙ अजिनफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाथीं की तरह फलवाला एक प्रकार का वृक्ष [को०] ।
⋙ अजिनयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] मृग । हिरन ।
⋙ अजिनवासी
वि० [सं०] कृष्ण मृग का चर्म धारण करनेवाला [को०] ।
⋙ अजिनसंध
संज्ञा पुं० [ग्रं० अजिनसन्ध] मृगचर्म का व्यापारी । अजिन का व्यवसायी [को०] ।
⋙ अजिर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १.आँगन । सहन । उ०—घुटुरूनि चलत, अजिर महँ बिहरत, मुख मंडित नवनीत । —सूर०, १० । ९७ । २. वायु । हवा । ३. शरीर । ४. मेंढक । ५. इंद्रियों का विषय । ६. छछूँदर (को०) ।
⋙ अजिर (२)
वि० शीघ्रगामी [को०] ।
⋙ अजिरा
संज्ञा वि० [सं०] १. दुर्गा का एक नाम । २. वेगवती नदी [को०] ।
⋙ अजिरीय
वि० [सं०] आँगन से संबंधित । सहन या आँगन का [को०] ।
⋙ अजिह्म (१)
वि० [सं०] १. जो जिह्मया टेढा़ न हो । सीधा । सरल । २.ईमानदार । सच्चा । खरा [को०] ।
⋙ अजिह्म (२)
संज्ञा पुं० १. एक मछली । २. मेढ़क । दादुर [को०] ।
⋙ अजिह्मग (१)
वि० [सं०] सीधा चलनेवाला । टेढ़े मेढे़ न चलनेवाला [को०] ।
⋙ अजिह्मग (२)
संज्ञा पुं० वारण । इषु [को०]
⋙ अजिह्व (१)
संज्ञा पु० [सं०] मेढक । दादुर [को०] ।
⋙ अजिह्व (२)
वि० जीभरहित । जिह्वाविहीन [को०] ।
⋙ अजी
अव्य० [सं० अयि] संबोधन शब्द । जी जैसे—'अजी, जाने दो' (शब्द०) ।
⋙ अजीकव
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का धनुष [को०] ।
⋙ अजीगर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि जो शुनःशेप के पिता थे । २. वह जो छिद्र में प्रविष्ट होता । साँप । सर्प [को०] ।
⋙ अजीज (१)
वि० [अ० अजीज] प्यारा । प्रिया ।
⋙ अजीज (२)
संज्ञा पुं० १. संबंधी । २. मित्र । सुहृद् । क्रि० प्०—करना = प्रिय समझना । —जानना या रखना = संमान करना । प्रिय समझना । —होना = (१) प्रिय होना (२) कोई वस्तु देने में सकोच होना ।
⋙ अजीजदार
संज्ञा पुं० [अ० अजीज + फा० दार] दे० 'अजीज' [को०] ।
⋙ अजीजदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० अजीज + फा० दारी] १. मित्रता । दोस्ती । २. संबंध । रिश्तेदारी [को०] ।
⋙ अजीटन
संज्ञा पुं० [अं० अडजुटेंट] सेना का एक सहायक कर्मचारी जो कर्नल या सेनापति को सहायता देता है ।
⋙ अजीत (१)
वि० [सं०] जो कुम्हलाया हुआ या मंद न हो [को०] ।
⋙ अजीत (२) पु
वि० [हि०] दे० 'अजित' । उ०—जीति उठि जायगी अजीत पांडूपूतनि की, भूप दुरजोधन की भीति उठि जायगी ।—रत्नाकर, भा० १, पृ० १४२ ।
⋙ अजीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संमृद्धि । अभ्युदय । २.क्षय का अभाव [को०] ।
⋙ अजीब
वि० [अ०] विलक्षण । विचित्र । अनोखा । अनूठा । आश्चर्यजनक । विस्मयकारक ।
⋙ अजीब वो गरीब
वि० [अ० अजीब + फा० ओ + अ० गरीब] १. अनूठा । आश्चर्यजनक । २. दुष्प्राप्य [को०] ।
⋙ अजीमुश्शान
वि० [अ० अमीम + उल् + शान] बहुत हो शानदार । उ०—'एक बड़ी अजीमुश्शान सुर्ख पत्थर की मस्जिद थी' । — प्रेमधन०, भ० २, पृ० १५८ ।
⋙ अजीयत
संज्ञा स्त्री० [अ०] कष्ट । पीड़ा । उ०—जो मुझे देवेगा अजीयत गम । —दक्खिनी०, पृ० २१८ ।
⋙ अजीरन (१)
वि० [सं० अजीर्ण, प्रा० अजीरण] दे० अजीर्ण । उ०— होइ न कहूँ अनंद अजीरन । तासो धरु धीरज चंचल मन ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६०७ ।
⋙ अजीरन (२)
संज्ञा पुं० दे० 'अजीर्ण' । मुहा०—अजीरन होना = दुर्वह होना । कठिन होना ।
⋙ अजीर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपच । अध्यसन । बदहजमी । विशेष—प्रायः पेट में पित्त के बिगड़ने से यह रोग होना है जिससे भोजन नहीं पचता और वमन, दस्त शूल आदि उपद्रव होते हैं । आयुर्वेद में इसके छह भेद बतलाए हैं? —(१) आमा- जीर्ण = जिसमें खाया हुआ अन्न कच्चा गिरे । (२) विदग्धा जीर्ण = जिसमें अन्न जल जाता है । (३) विष्टब्धाजीर्ण = जिसमें अन्न के गोटे या कंडे बँधकर पेट में पीड़ा उत्पन्न करते हैं । (४) रसशेषाजीर्ण = जिसमें अन्न पानी की तरह पतला होकर गिरता है । (५) दिनपाकी अजीर्ण = जिसमें खाया हुआ अन्न दिन भर पेट में बना रहता है और भूख नहीं लगती । (६) प्रकृत्याजीर्ण या सामान्य अजीर्ण । २. अत्यंत अधिकता । बहुतायत (व्यंग्य) । जैसे—'उसे बुद्धि का अजीर्ण हो गया है ।' —(शब्द०) । ३. शक्ति । ताकत (को०) । ४, जीर्ण न होने का भाव । क्षयाभाव (को०) ।
⋙ अजीर्ण (२)
वि० जो पुराना न हो । नया ।
⋙ अजीर्णि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बदहजमी [को०] ।
⋙ अजीर्णी
वि० [सं०] अपच या अजीर्ण रोगवाला [को०] ।
⋙ अजीर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजीर्ण' [को०] ।
⋙ अजीव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अचेतन । जीव तत्व से भिन्न जड़ पदार्थ ।२. मृत्यु । मौत (को०) । ३. जैन मतानुसार जड़ जगत् (को०) । ४. अस्तित्वविहीनता (को०) ।
⋙ अजीव (२)
वि० १. बिना प्राण का । मृत । २. जड़ (को०) ।
⋙ अजीवकल्प
संज्ञा पुं० [सं० अजीव + कल्प] वह युग या काल जिस समय पृथिवी पर जीव नहीं रहते थे । उ०—बहुत समय तक वह इतनी गर्म थी उसपर कोई जीव पैदा न हो सकता था, उस काल को अजीव कल्प (एजोइक एज) कहते हैं । — भारत० नि०, पृ० १८ ।
⋙ अजीवन (१)
वि० [सं०] जीविकाहीन । योगक्षेम की व्यवस्था से रहित [को०] ।
⋙ अजीवन (२)
संज्ञा पुं० जीवन का अभाव । मृत्यु [को०] ।
⋙ अजीवनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अस्तित्व का अभाव । मृत्यु [को०] ।
⋙ अजीवित (१)
वि० [सं०] मृत । जीवनहीन [को०] ।
⋙ अजीवित (२)
संज्ञा पुं० मृत्यु । अजीवन [को०] ।
⋙ अजु पु
अव्य० [हिं०] दे० 'और' । उ०—अति अंब मौर तोरण अजु अंबुज । कली सुमंगल कलस करि । —बेलि०, दू० २३३ ।
⋙ अजुगत
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अजगुत' ।
⋙ अजुगति †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अजगुत' ।
⋙ अजुगुत (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अजगुत' । उ०—देखि देखि लोग हीय सब कूटा । भा अजुगुत दलगंजन छूटा । —चित्रा०, पृ० १८९ ।
⋙ अजुगुत (२)पु †
वि० [सं० अयुक्त] दे० 'अयुक्त' । उ०—तोर नयन एँ पथहु न संचर अजुगुत कह न जाइ । —विद्यापति०, पृ० ३८७ ।
⋙ अजुगुप्सित
वि० [सं०] जो निंदित, घृणित या बुरा न हो । जो नापसंद न हो [को०] ।
⋙ अजुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आनंद या प्रसन्नता का अभाव । २. असंतुष्टि । निराशा [को०] ।
⋙ अजूँ पु †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अजौं', 'अजहूँ' । उ०—समुझै क्यों न अजूँ समझाऊँ भूल मती हिव भाया । —रघु० रू०, पृ० १६ ।
⋙ अजू पु †
अव्य० [सं० अयि] संवोधन शब्द । 'अजी !' का ब्रज रूपांतर । उ०—जीतौ जौ चहै अजू तौ रीतौ घरो लै चलु नहीँ तौ सही तो सिर अजस वै परे मरै । —भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० ११० ।
⋙ अजूजा पु
संज्ञा पुं० [देश०] बिज्जू की तरह का एक जानवर जो मुर्दा खाना हैं । उ०—कहै कवि दूलह समुद्र बढ़े सोनित के जुग्गिनि परेतैं फिरै जंबुक अजूबा से । —दूलह (शब्द०) ।
⋙ अजूनी पु
वि० [सं० अयोनि] उत्पन्न न होनेवाला । अजन्मा । उ०—अमर अजूनी थिरु धनी काल कर्म सिरि नाहि । — प्राण०, पृ० १०६ ।
⋙ अजूब पु
वि० [अ० अजूबह्] दे० 'अजूबा' । उ०—वाकिफ हो सो गमि लहै वाजिब सखुन अजूब । —कबीर श०, पृ० ३० ।
⋙ अजूबा (१)
वि० [अ० अजूबह्] अद्भुत । अनोखा । अनूठा ।
⋙ अजूबा (२)
संज्ञा पुं० अनूठी वस्तु । अद्भुत चीज [को०] ।
⋙ अजूरा पु (१)
वि० [सं० अ + जुट = जोड़ना] १. बिना जुटा हुआ । पृथक् । अलग । जुदा । उ०—रहा जो राजा रतन अजूरा । केह क सिंहासन केह क पटूरा । —जायसी (शब्द०) । २. अप्राप्त । अनुपस्थित ।
⋙ अजूरा पु (२)
संज्ञा पुं० [अ० अजूरह् = पारिश्रमिक] मजदूरी । भाड़ा । उ०—आठ पहर रहै ढाढ़ सोई है चाकर पूरा । का जानी केहि घरी हरी दै देइ अजूरा । —पलटू० बानी भा० १, पृ० ४५ । यौ०—अजूरादार = भाड़े या मजदूरी पर काम करनेवाला ।
⋙ अजूह पु
संज्ञा पुं० [सं० युद्ध, प्रा० जुज्झ, जूझ, जूह] युद्ध । लड़ाई । उ०—ताको जु हिमाऊँ साहि हूअ । तासों पठान सों भयो अजूह । —सूदन (शब्द०) ।
⋙ अजे पु (१)
क्रि० वि० [सं० अद्यापि; प्रा० अज्जवि] आज भी । अभी भी । उ०—तेणि न राखी सासरइ अजे स मारू बाल । — ढोला०, दू० ११ ।
⋙ अज पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अजय' ।
⋙ अजे पु (३)
वि० [हिं०] दे० 'अजेय' । उ०—मुनि मानस पंकज भृंग भजे, रघुबीर महा रन धीर अजे । —मानस, ७ ।१४ ।
⋙ अजेइ पु
वि० [हिं०] दे० 'अजेंय' । उ०—कियौ सबै जगु कामबस जीते जिते अजेइ । कुसुमसरहिं सर धनुष कर अगहनु गहन न देइ । —बिहारी र०, दो० ४९५ ।
⋙ अजेतव्य
वि० [सं०] अजेय । जो जीता न जा सके [को०] ।
⋙ अजेय (१)
वि० [सं०] न जीते जाने योग्य । जिसे कोई जीन न सके । उ०—द्विस्वभाव अश्लेष में ब्राह्मण जाति अजेय । —राम चं०, पृ० २६० ।
⋙ अजय (२)
संज्ञा पुं० सुश्रुत में कथित एक विघघ्न घृत [को०] ।
⋙ अजै (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अजय' ।
⋙ अजै पु (२)
वि० [हिं०] दे० 'अजेय' । उ०—हौं हार्यौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै । —तुलसी ग्रं०, पृ० ५०४ ।
⋙ अजैकपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. एकादश रुद्र में से एक । २. उक्त रुद्र द्वारा अधिष्ठित पूर्वामाद्रपदा नाम का नक्षत्र । ३. विष्णु [को०] ।
⋙ अजैव
वि० [सं०] जीव से असंबंधित । जो जीव संबधी न हो [को०] ।
⋙ अजोख पु
वि० [सं० अ = नहीं + हि० जोखना] जो जोखा न जा सके । अमाप । उ०—लीन्ही जिन मोल भाय चोखै । दीन्ही तुमको बिया अजोखे । —भिखारी. ग्रं०, भा० १, पृ० २१५ ।
⋙ अजोग पु
वि० [सं० अयोग्य; प्रा० अजोग] १. जो योग्य न हो । अनुचित । नामुनासिब । बे ठीक । उ०—सुनि यह बात अजोग जोग की ह्वै है समुद्र नदी वै । —भिखारी. ग्रं०, भा० १, पृ० २१० । २. अयुक्त । बेजोड़ । बेमेल । उ०—जोगहिं जोग मिलाइऐ हम या जोग अजोग । —सूर०, १० ।३५२ । ३. नालायक । निकम्मा । उ०— पती नारी का देवता है, वह कैसा ही क्यों न हों, पर तिरिया उसको अजोग और बुरा नहीं कह सकती । —ठेठ०, पृ० ४३ ।
⋙ अजोगी पु
वि० [सं० अयोगी] जोग को न जाननेवाला । जोग से रहित । उ०—मूरख कायर और अजोगी सो ये नेक न पावै । चरण० बानी, भा० २, पृ० १२६ ।
⋙ अजोड़ पु
वि० [सं० अ = नहीं + जोड़ना] जिसे जोड़ा न जा सके उ०—नि?भर भरै अजोड़ कौ जोड़े । —प्राण०, पृ० ६४ ।
⋙ अजोत †
संज्ञा स्त्री० [सं० अ = नहीं + हिं० जोत] वह भूमि जो जोतने के उपयुक्त न हों । परती भूमि ।
⋙ अजोतर
वि० [हिं० अजोता] स्वच्छंद निरर्गल । उ०—आनँद घन पिय नई घमँड सों देने दरबारयो डोलत अजौं अजोतर ।— घनानंद, पृ० २९० ।
⋙ अजोता (१)
संज्ञा पुं० [सं० अयुक्त, प्रा० अजुत्त] चैत की पूर्णिमा का दिन । इस दिन बैल नहीं नाधे जाते ।
⋙ अजोता †
वि० बिना जोता या नाधा हुआ स्वच्छंद ।
⋙ अजोनि पु
वि० [सं० अयोनि] जो योनि से उत्पन्न न हो । स्वयंभू । उ०—जम जस पुरुष प्रगटे अजोनि । कर खग्ग धनुष कटि लसै तोनि । —हम्मीर रा०, पृ० ११ ।
⋙ अजोन्य पु
वि० [सं० अयोनि] अयोनिज । स्वतःसंभूत । उ०— अजोन्यं अनायास पाए अनादू । नमो देव दादू नमो देव दादू ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० २५६ ।
⋙ अजोरना पु
क्रि० स० [हिं० हिं० अँजोर से नाम०] दे० 'अँजोरना' ।
⋙ अजोष
वि० [सं०] अपरितोष । अतृप्ति [को०] ।
⋙ अजौं पु †
क्रि० वि० [हिं० अजहुँ] अब भी । अद्यापि । अब तक । उ०—सघन कुंज छाया सुखद, सीतल सुरभी समीर । मन ह्वै दातु अजौं वहै उहि जमुना के तीर । —बिहारी र०, दो० ६०१ ।
⋙ अज्ज पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० आर्य या अज] ब्रह्मा । उ०—हूँ बंदो जाकूँ सदा सबकी सुणै पुकार । अज्ज कीट पर्यंत लों भय भंजन भरतार । —राम० धर्म०, पृ० २५६ ।
⋙ अज्ज (२)पु
क्रि० वि० [सं० अद्य, प्रा० अज्ज] आज । उ०—जेहा सज्जण काल्ह था तेहा नाँही अज्ज । — ढोला०, दू० २१६ ।
⋙ अज्ज (३)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अज्झल' [को०] ।
⋙ अज्जाण पु
वि० [सं० अज्ञान] दे० 'अजान' । उ०—गाफिल समझ रे अज्जाण । माथै राख पति कूँ जाण । —राम० धर्म०, पृ० १६६ ।
⋙ अज्जान पु
वि० [सं० आजान] घुटने तक लंबा । जानु पर्यत लंबा उ०—राजीव नयन विशाल । अज्जानबाहु रसाल । —प० रा० पृ० ७९ ।
⋙ अज्जुका
संज्ञा स्त्री० [सं० 'आर्यिका' का प्राकृत रूप संस्कृत में गृहीत] वेश्या । बारवधू [को०] । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग केवल रूपकों में प्राप्त होता है ।
⋙ अज्जूका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अज्जुका' [को०] ।
⋙ अज्झटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूम्यामल की [को०] ।
⋙ अज्झल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलता हुआ कोयला । अंगारा । २. ढाल [को०] ।
⋙ अज्ञ (१)
वि० [सं०] १. अज्ञानी । ज्ञान रहित । २. जड़ । अचेतन । मूर्ख । ३. अनजान नासमझ । नादान । उ०—तैसेइ आयु तैसेइ लरिका, अज्ञ सबनि मति थोरी । —सूर०, १ ।८७१ ।
⋙ अज्ञ (२)
संज्ञा पुं० मूर्ख मनुष्य । जड़ ब्यक्ति । अनजान मनुष्य । नादान आदमी । उ०—अज्ञ जानि रिस उर जनि धरहू । जेहि विधि मोह मिटै सोइ करहू । —(शब्द०) ।
⋙ अज्ञका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्ख औरत । नादान या अनजान स्त्री [को०] ।
⋙ अज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूर्खता । नादानी । नासमझी । अजान— पन । अनाड़ीपन । २. जड़ता । अचेतनता ।
⋙ अज्ञताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अज्ञता +हिं० आई (प्रत्य०)] दे० 'अज्ञता' । उ०—अहो ! अज्ञताई नीति मन मैं न आइए । — भक्तमाल (श्री०) पृ० ६६ ।
⋙ अज्ञत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अज्ञता' [को०] ।
⋙ अज्ञा पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'आज्ञा' । —उ०—(क) होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ । —जायसी (शब्द०) । (ख) गुरु को सिर पर राखिए चलिए अज्ञा माँही । —कबीर सा० सं०, भा० १, पृ० २ ।
⋙ अज्ञाकारी पु
वि० [हिं०] दे० 'आज्ञाकारी' । उ०—तेऊ चाहत कृपा तुम्हरी । जिनकैं बस अनिमिष अनेक गन अनुचर अज्ञाकारी । सूर०, १ ।१६३ ।
⋙ अज्ञात (१)
वि० [सं०] १. बिना जाना हुआ । अविदित । अप्रकट । नामालुम । अपरिचित । उ०—किसी अज्ञात विश्व की विकल वेदना दूती सी तुम कौन । —झरनास पृ० २८ । २. जिसे ज्ञात न हो । उ०—सो अज्ञात जोबन वर बाला । —नंद० ग्रं०, पृ० १२२ । ३. अप्रत्याशित । आकस्सिक (को०) ।
⋙ अज्ञात पु (२)
क्रि० वि० बिना जाने । अनजान में । उ०—अनुचित बहुत कहेऊँ अज्ञाता । छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता । — मानस, १ ।२८५ ।
⋙ अज्ञातक
वि० [सं०] अविदित । अप्रसिद्ध । अज्ञात [को०] ।
⋙ अज्ञातकुल
वि० [सं०] जिसके वंश कुल आदि का पता न हो [को०] ।
⋙ अज्ञातचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अज्ञातवास [को०] ।
⋙ अज्ञातजौबना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अज्ञातयौवना] दे० 'अज्ञातयौवना' । उ०—इहि परकार तिया जो लहिए । सो अज्ञातजौबना कहिए । । —नंद ग्रं०, पृ० १४६ ।
⋙ अज्ञातनामा
वि० [सं०] १. जिसके नाम का पता न हो । जिसका नाम विदित न हो । २. जिसे कोई न जानता हो । अवि- ख्यात । तुच्छ ।
⋙ अज्ञातपितृक
वि० [सं०] जिसके पिता का पता न हो । नामालूम बापवाला [को०] ।
⋙ अज्ञातपूर्व
वि० [सं०] जो पहले से जानकारी में न हो । जिसका पहले से ज्ञान न हो [को०] ।
⋙ अज्ञातयौवना
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुग्धा नायिका के दो भेदों में से एक । जिसे अपने यौवन के आगमन का ज्ञान न हो ।
⋙ अज्ञातवास
संज्ञा पुं० [सं०] छिपकर रहना । ऐसे स्थान का निवास जहाँ कोई पता न पा सके; जैसे—'विराट के यहाँ पांडवों ने एक वर्ष अज्ञातबास किया था' (शब्द०) ।
⋙ अज्ञातस्वामिक (धन)
संज्ञा पुं० [सं०] वह धन जिसके मालिक का पता न हो । जैसे, मार्ग में पड़ा हुआ या जमीन में गड़ा धन ।
⋙ अज्ञाता
वि० स्त्री० [सं० अज्ञात] जिसे ज्ञात न हो । मुग्धा । उ०— अज्ञाता—की केशराशि में इन्हे न कस कस बँधवाओं । वीणा, पृ० १ ।
⋙ अज्ञाति
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो अपनी जाति या संबंध का न हो । अन्य जातीय व्यक्ति । परजात [को०] ।
⋙ अज्ञान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बोध का अभाव । जड़ता । मूर्खता । अविद्या । मोह । अजानपन । उ०—अज्ञान भला जिसमें सोहं तो क्या, स्वयं अहं भी कब है । —साकेत, पृ०, ३१६ । २. जीवात्मा को गुण और उनके कार्यों से पृथक् न समझने का अविवेक । ३. न्याय में एक निग्रहस्थान । यह उस समय होता है जब प्रतिवादी के तीन बार कहने पर भी वादी किसो ऐसे विषय को समझने में असमर्थ हो जिसे सब लोग जानते हों ।
⋙ अज्ञान (२)
वि० ज्ञानशून्य । मूर्ख । जढ़ । नासमझ । अनजान । उ०— मैं अज्ञान कछू नहिं समुझ्यौं, परि दुख पुंज सह्यौ । — सूर० १ । ४६ ।
⋙ अज्ञानकृत
वि० [सं०] १. अज्ञान में किया हुआ । अनजाने में किया हुआ । २. अज्ञान या मूर्खतावश किया हुआ [को०] ।
⋙ अज्ञानतः
क्रि० वि० [सं०] अज्ञान या मूर्खता के कारण । मोहवश । २. अनजान में । नासमझी के कारण [को०] ।
⋙ अज्ञानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्बोंधता । जड़ता । मूर्खता । अविद्या । नासमझी । नादानी । उ०—'इन सब बातों में बहुत सी स्वर्थपरता और बहुत सी अज्ञानता मिली हुई है' । — श्रीनिवास० ग्रं०, पृ० २०० ।
⋙ अज्ञानतिमिर
संज्ञा पुं० [सं०] अज्ञानरूपी अंधकार । मोहरूपी अँधेरा [को०] ।
⋙ अज्ञानपन
संज्ञा पुं० [सं० अज्ञान + हिं० पन (प्रत्य०)] मूर्खता । जड़ता । नादानी । नासमझी । अजानपन ।
⋙ अज्ञानी
वि० [सं०] ज्ञानशून्य । मूर्ख । जड़ । अविद्याग्रस्त । अनाड़ी । नादान । नासमझ । अबोध ।
⋙ अज्ञेय
वि० [सं०] न जानने योग्य । जो समझ में न आ सके । बुद्धि की पहुँच के बाहर का । ज्ञानातीत । बोधागम्य ।
⋙ अज्ञेयवाद
संज्ञा पुं० [सं०] परमतप्व की ज्ञानातीत स्थिति या अज्ञेयता का प्रतिपादक मत [को०] ।
⋙ अज्ञेयवादी
वि० [सं०] अज्ञेयवाद को माननेवाला । अज्ञेयवाद का अनुयायी [को०] ।
⋙ अज्म
संज्ञा पुं० [अ०] संकल्प । दृढ़ निश्चय । उ०—यों अज्म किया था वह शैतान ता कर देवे कावा बीरान । —दक्खिनी०, पृ० २२० ।
⋙ अज्यास पु
संज्ञा पुं० [सं० अध्यास = मिथ्याज्ञान, भ्रांति] अविश्वास । धूर्तपन । ठगहाई । उ०—जग आसवास अज्यास दिस विदिस प्राण उदास । —रा० रू०, पृ० ६८ ।
⋙ अज्यासुत पु
संज्ञा पुं० [सं० अजासुत] बकरा । उ०—बड़े ब्रह्म औ कांध जनेऊ अज्यासुत कंह मारी । —सं० दरिया पृ० ११६ ।
⋙ अज्येष्ठ
वि० [सं०] १. जो सबसे ज़ेठा न हो । २. जिसे बडा भाई न हो (को०) । ३. जो सर्वश्रेष्ठ न हो (को०) ।
⋙ अज्येष्ठवृत्ति
वि० [सं०] १. बड़े भाई का कार्य या ब्यवहार न करनेवाला । २. उस ब्यक्ति की तरह कार्य या व्यवहार करनेवाला । जिसे बड़ा भाई न हो [को०] ।
⋙ अज्यौं पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अजौँ' ।
⋙ अज्र
संज्ञा पुं० [सं०] भलाई का बदला । प्रत्युपकार [को०] ।
⋙ अज्वाल
वि० [अ + ज्वाल] ज्वालाविहीन । लपटरहित । ज्वालारहित । लपटविहीन । उ०—ज्वाल उपजावन अज्वाल दरसावन सुभाल यह पावक न जावक दिढ़ाए हौ । —भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १२८ ।
⋙ अझर पु
वि० [सं० अ = नहीं + झरना = गिरना] जो न झरे । जो न गिरे । जो न बरसे । उ०—चलि सुकेलि घर घन अझर कारी निसी सुखदानि । कामिनि सोभावानि तूँ, दामिनि दीपति वानि । —स० सप्तक, पृ० २४३ ।
⋙ अझुरना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अरुझना' । उ०—कामिनि कनक तला लपटाना । अझुरत सझुरत संत सुजान । —सं० दरिया० पृ० १२ ।
⋙ अझना पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० अधूम = जलतीं हुई अग्नि] आग । अग्नि । उ०—बिलखत छाडी द्यौंस चारिक चिन्हारी करि, बारि दियौ हिए में उदेग को अझनी है । —घनानंद प० १३८ ।
⋙ अझूना पु (२)
वि० [सं० अजीर्ण, प्रा० अजण्णु = अजुन्न] जो ज़ीर्ण न हो । जो सदा एक सा बना रहे । हमेशा एक सा रहनेवाला । उ०—तुम्हैं बिन साँवरे ये नैन सूनै, हिये मै लै दिए बिरहा अझूनै । —घनानंद, पृ० १६७ ।
⋙ अझोरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० दोल = झूलना] झोली । कपड़े की लंबी थैली जो कंधे पर लटकाई जाती है । उ०—बोझरी अझोरी काँधे आँतिन्ह की सेली बाँधे, मूंड़ के कमंडल खपर किए कोरि कै । —तुलसी (शब्द०) ।