विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/नन
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ननंद
संज्ञा स्त्री० [सं०ननन्दृ] दे० 'ननद'।
⋙ ननंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० गनन्दृ] दे० 'ननद' [को०]।
⋙ ननँद
संज्ञा स्त्री० [सं० ननन्दृ] ननद। पति की बहन।
⋙ नन पु †
अव्य० [सं० ननु] दे० 'ननु'। उ०—नन चलै चित्त ज्यौं ज्यों अचल, करत क्रिया त्यों त्यों अमित।—ह० रासो, पृ० २५।
⋙ ननका †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नन्हा'।
⋙ ननकारना पु †
क्रि० अ० [हिं० न + करना] इनकार करना। अस्वीकार करना। मंजूर न करना।
⋙ ननकारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] नकारने की क्रिया। नकार। अस्वीकार। उ०—कहि जोधराज यह अंस मैं ननकारी नाहिन करत।—हम्मीर रा०, पृ० १६३।
⋙ ननकारु पु
संज्ञा पुं० [हिं०] नकारने का भाव। अस्वीकार। उ०—जिंह सिमरन नाही ननकारु।—कबीर ग्रं०, पृ० २९०।
⋙ ननकिलाट †
संज्ञा पुं० [अ० लाग क्लाथ] एक प्रकार का सूती कपड़ा। उ०—ननकिलाट दस गज।—मैला०, पृ० १०५।
⋙ ननकिलाठ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ननकिलाट'।
⋙ ननद
संज्ञा स्त्री० [सं० ननन्दृ] पति की बहिन।
⋙ ननदिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ननद + इया (प्रत्य०)] ननद। पति की बहन। उ०—उठो मोरी लहुरी ननदिया तुम ठकुराइन हो।—धरम०, पृ० ६३।
⋙ ननदी †
संज्ञा स्त्री० [सं० ननन्द्द] दे० 'ननद'।
⋙ ननदोई
संज्ञा पुं० [सं० ननन्दृपति या ननन्दुःपति, प्रा० णनंदा + वह (= पति), हिं० ननद + आई (प्रत्य०)] ननद का पति। पति का बहनोई।
⋙ ननसार
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाना + शाला] ननिहाल। नाना का घर। उ०—रामचंद्र लक्ष्मण सहित घर राखे दशरत्य। बिदा कियो ननसार को सँग शत्रुघ्न भरत्थ।—केशव (शब्द०)।
⋙ नना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माता। २. कन्या। लड़का। ३. वाक्य।
⋙ ननिअउरा†
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ननिहाल'।
⋙ ननिआउर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ननिहाल'।
⋙ ननियाससुर
संज्ञा पुं० [हिं० नानी + इया (प्रत्य०) + ससुर] स्त्री या पति का नाना।
⋙ ननिया सास
संज्ञा स्त्री० [हिं० नान + या (प्रत्य०) + सास] स्त्री या पति की नानी।
⋙ ननिहारी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की ईंट।
⋙ ननिहाल
संज्ञा पुं० [हिं० नाना + आलय] नाना का घर। ननसार।
⋙ ननु
अव्य० [सं०] एक अव्यय जिसका व्यवहार कुछ पूछने, संदेह प्रकट करने अथवा वाक्य के आरंभ में किया जाता है (क्व०)।
⋙ ननुआ पु †
वि० [सं० लावण्य] सुंदर। सलोना। उ०—ननुआ नयन निलिनि जनु अनुपम बंक निहारइ थोरा।—विद्यापति, पृ० ६२७।
⋙ ननुकारना पु
क्रि० अ० [हिं०] इनकार करना। अस्वीकार करना। उ०—जनु ननुकारति मानिनि तिया। आन युवति रत जान्यौ पिया।—नंद०, ग्रं०, पृ० ११९।
⋙ ननुनच
क्रि० वि० [सं० नुनु + न + च] आनाकानी। आगापीछा। उ०—द्रोणाचार्य जैसे गुरुजनों के वध करने में भी उन्होंने ननुनच नहीं की।—बी० श० महा०, पृ० २३४।
⋙ ननोई
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली धान जो बिना जोते बोए वर्षा में जलाशयों में स्वयं पैदा होता है। पसही। तिन्नी।
⋙ नन्ना † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नाना'।
⋙ नन्ना † (२)
वि० [हिं०] दे० 'नन्हा'।
⋙ नन्यौरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ननिहाल'।
⋙ नन्हा
वि० [सं० न्यञ्च या न्यून] [वि० स्त्री० नन्हीं] छोटा। मुहा०—नन्हा सा = बहुत छोटा। जैसे, नन्हा सा बच्चा, नन्हा सा हाथ।
⋙ नन्हाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० नन्हा + ई (प्रत्य०)] १. छोटापन। छोटाई। २. अप्रतिष्ठा। बदनामी। हेठी। उ०—(क) वृद्ध वयस सुत भयो कन्हाई। नंदमहर की करै नन्हाई।—सूर (शब्द०)। (ख) ब्रज परगम सरदार महर तू तिनकी करत नन्हाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ नन्हिया †
संज्ञा पुं० [हिं० नन्हा] १. एक प्रकार का धान। २. इस धान का चावल।
⋙ नन्हैया पु †
वि० [हिं०नन्हा + ऐया (प्रत्य०)] दे० 'नन्हा'। उ०—चुटकी देहि नचावै सुत जानि नन्हैया।—सूर (शब्द०)।
⋙ नपत †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नपाई'।
⋙ नपता
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसके डैनों पर काली या लाल चित्तियाँ होती हैं।
⋙ नपना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नाप] दे० 'नपुआ'।
⋙ नपना (२)
क्रि० अ० [हिं०] नप जाना। नापने का काम होना।
⋙ नपरका
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसकी गरदन और पेट लाल, और पैर तथा चोंच पीली होती है।
⋙ नपराजित
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव। शिव।
⋙ नपाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाप + आई (प्रत्य०)] १. नापने की मजदूरी।
⋙ नपाक पु †
वि० [फां० नापाक] अपवित्र। अशुद्ध।
⋙ नपात
संज्ञा पुं० [सं०] देवयान पथ।
⋙ नपुंस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नपुंसक' [को०]।
⋙ नपुंसक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैद्यक के अनुसार वह पुरुष जिसमें कामेच्छा बिल्कुल न हो अथवा बहुत ही कम हो और किसी विशेष उपाय से जाग्रत हो। विशेष—नपुंसक पाँच प्रकार के माने गए हैं। आसेव्य, सुंगंधी, कुंभीक, ईर्षक और षंड। २. वह जो न पुरुष न स्त्री। षंड। क्लीब। हिजड़ा। नामर्द। विशेष—मनुष्यो में कुछ ऐसे भी होते है जो न तो पूरे पुरुष कहे जा सकते हैं न स्त्री। उनमें मूत्र की कोई इंद्रिय स्पष्ट नहीं होती और न मूँछ दाढ़ी या पुरुषत्व ही होता है। वैद्यक के अनुसार जब पिता का वीर्य और माता का रज दोनों समान होते हैं तब संतान नपुंसक होती हैं। ३. कायर। डरपोक। (क्व०)। ४. संस्कृत व्याकरण में एक लिंग (को०)।
⋙ नपुंसकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नपुंसक होने का भाव। हिजड़ापन। २. एक प्रकार का रोग जिसमें मनुष्य का वीर्य बिल्कुल नष्ट हो जाता है और वह स्त्रीसंभोग के योग्य नहीं रह जाता। नामर्दी।
⋙ नपुंसकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] नामर्दी। नपुंसकता।
⋙ नपुंसकमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० नपुंसक मन्त्र] जैनियों के अनुसार वह मंत्र जिसके अंत में 'नमः' हो।
⋙ नपुंसक वेद
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार एक प्रकार का मोहनीय कर्म जिसके उदय से स्त्री के साथ भी संभोग करने की इच्छा होती है और बालक या पुरुष के साथ भी।
⋙ नपुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० नाप + उआ (प्रत्य०)] नापने का पात्र। वह बरतन जिसमें रखकर कोई चीज नापी जाय। मान।
⋙ नपुत्री पु †
वि० [हिं०] दे० 'निपुत्री'।
⋙ नपूँसा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नपुंसक'। उ०—क्या किरपन मूँजी की माया नाँव न होय नपूंसे से।— सुँदर० ग्रं०, भा० १, पृ०२३।
⋙ नप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं० नप्तृ] [स्त्री० नप्त्री] लड़की या लड़के की संतान। नाती या पोता।
⋙ नप्तृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पक्षी। विशेष—इसका मांस हलका, ठंढ़ा, मीठा, कसैला और दोषनाशक माना जाता है।
⋙ नप्स पु
संज्ञा पुं० [अ० नफ्स] काम। वासना। शहवत। उ०— (क) वह बंदगी तब होयगी इस नप्स कौ गहि मार।— सुंदर ग्र०, भा० १, पृ० २८३ (ख) नप्स सैतान कौ आपुनी कैद करि क्या दुनी में पराया खाइ गोता। है गुनहगार भी गुनह ही करत है खाइगा मार तब फिरैगा रोता।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ३९५।
⋙ नफर
संज्ञा पुं० [अ० नफ़र] १. दास। सेवक। जैसे,— नौकर के आगे चाकर, चाकर के आगे नफर। उ०— कबिरा भूलि बिगारिया करि करि मैला चित्त। साहब गरुआ चाहिए नफर बिगारो नित्त।— कबीर (शब्द०)। २. व्यक्ति। जैसे, दस नफर मजदूर। विशेष— इस अर्थ में इस शब्द का व्यवहार केवल बहुत छोटा काम करनेवालों की संख्या आदि प्रकट करने के लिये होता है।
⋙ नफरत
संज्ञा स्त्री० [अ० नफरत] घिन। घृणा।
⋙ नफरीँ
संज्ञा स्त्री० [फा० नफ्रीं] फटकर। लानत [को०]।
⋙ नफरी
संज्ञा स्त्री० [फा० नफरी] १. एक मजदूर की एक दिन की मजदूरी। २. एक मजदूर का एक दिन का काम। ३. मजदूरी का दिन। जैसे,— दो नफरी में वह चोकी तैयार हो जायगी।
⋙ नफस
संज्ञा पुं० [अ० नफस] दम। श्वास। साँस। [को०]।
⋙ नफसानफसी
संज्ञा स्त्री० [अ० नफस] १. वह विवाद या झगड़ा जो केवल व्यक्तिगत स्वार्थ का ध्यान रखकर किया जाय। खींचतान। २. चखाचखी। वैमनस्य। लड़ाई।
⋙ नफा
संज्ञा पुं० [अ० नफअ] लाभ। फायदा। उ०— (क) अजा मोल लै नीचन देई। चर्म नफा पर अमना लेइ।— रघुनाथ (शब्द०)। (ख) घनहित उद्यम किहिस आपारा। होय नफा नहीं घटा निहारा।— रघुनाथ (शब्द०)। क्रि० प्र०— उठाना।— करना।
⋙ नफाखोर
वि० [अ० नफअ + फा० खोर] १. लाभ या नफा खाने वाला। २. अनुचित रीति मुनाफा करने या कमानेवाला। उ०— क्या हिंदू क्या मुसलमान, हैं एक प्राण, है भूख वही। हिंदू मुसलिम नफाखोर की धन दौलत में भेद नहीं।— हंस०, पृ० ३३।
⋙ नफासत
संज्ञा स्त्री० [अ० नफासत] नफीस होने का भाव। उम्दापन।
⋙ नफीरी
संज्ञा स्त्री० [फा० नफीरी] तुरही। शहनाई।
⋙ नफीस
वि० [अ० नफीस] १. उत्तम। उमदा। बढ़िया। २. साफ। स्वच्छ। ३. जिसकी बनावट बहुत उच्छी हो। सुंदर।
⋙ नफेरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नफीरी'। उ०— सितार कमायच अरु मुहचंगा। ताल मृदंग नफेरी संगा।— कबीर सा०, पृ० २४९।
⋙ नफ्फेरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नफीरी'। उ०— नबं नद्द नफ्फेरि भेरी सभालं। तरक्कंत तेगं मनौं बिज्जु वालं।— पृ० रा०, १२। ८०।
⋙ नफ्स
संज्ञा पुं० [अ० नफ्स़] १. अस्तित्व। २. सत्यता। ३. कामेच्छा। कामवासना। ४. खुलासा। ५. लिग। शिश्न। ६. आला [को०]। यौ०— नफ्सकुश = इंद्रियनिग्रही। नफ्सकुशी = इंद्रियनिग्रह। नफ्सपरस्त = कामी। विषयी। नफ्सपरस्ती = कामुकता। लंपटता। नफ्समजमून = लेखा का आभिप्राय या खुलासा।
⋙ नफ्सानफ्सी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नफसानफसी'।
⋙ नफ्सानियत
संज्ञा स्त्री० [अ० नफ्सानियत] १. कामशक्ति। २. अभीमान [को०]।
⋙ नफ्सानी
वि० [अ० नफ्सानी] वासनात्मक [को०]।
⋙ नबात
संज्ञा स्त्री० [अ०] वनस्पति। पेड़ पौधे। उ०— वो बहरे करम हैं व आबेहयात। हुए जिंदा इन्साँ व हैवाँ नबात।—दक्खिनी पृ० २१३।
⋙ नबी
संज्ञा पुं० [अ०] ईश्वर का दूत। पैगंबर। रसूल।
⋙ नबीन पु
वि० [हिं०] दे० 'नवीन'। उ०— बेग चलो, न बिलंब करो, लखि बाल नबेलि को नेह नबीनो।— मति० ग्रं०, पृ० ३१२।
⋙ नबेड़ना
क्रि० स० [सं० निवारण, हिं० निपटाना] १. निपटाना तै करना। (झगड़ा आदि) समाप्त करना। जैसे,— तुम्हें दूसरे की क्या पड़ी है, तुम अपनी नबेड़ो। २. अपने मतलब की चीज ले लेना और बाकी छोड़ देना। चुनना। (क्व०)। दे० 'निबेरना'।
⋙ नबेड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० नबेड़ना] फैसला। न्याय। निपटारा।
⋙ नबेरना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'नबेड़ना'।
⋙ नबेरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नबेड़ा'।
⋙ नबेली पु
वि० स्त्री० [हिं० नवेली] १. नई। नवीना। २. नई उम्र सकी। उ०— दिपैं देह दीपति गयौ दीप बयारि बुझाइ। अंचल ओट किए तऊ चली नबेली जाइ।— मति० ग्रं०, पृ० ४५२।
⋙ नब्दीगर
संज्ञा पुं० [फा० नमदागर] चारजामा बनानेवाला आदमी।
⋙ नब्ज
संज्ञा स्त्री० [अ० नब्ज] हाथ की बह रक्तवह नाली जिसकी चाल से रोग को पहचान की जाती है। नाड़ी। क्रि० प्र०—देखना।—दिखाना। मुहा०—नब्ज चलाना = नाड़ी में गति होना। नब्ज न रहना = नाडी की गति का अंत हो जाना। नाड़ी में दति न रह जाना। प्राण न रहना। नब्ज छूटना = दे० ' नब्ज न रहना'।
⋙ नब्बे (१)
वि० [सं० नवति] जो गिनती में पचास और चालीस हो। सौ से दस कम।
⋙ नब्बे (२)
संज्ञा पुं० [सं० नवति] चालिस और पचास की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—९०।
⋙ नभःकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ नभःक्रांत
संज्ञा पुं० [सं० नभःक्रान्त] सिंह [को०]।
⋙ नभःक्रांती
संज्ञा पुं० [सं० नभःक्रान्तिन्] सिंह।
⋙ नभःपांथ
संज्ञा पुं० [सं० नभःपान्थ] सूर्य।
⋙ नभःप्रभेद
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम। विशेष—ये विरूप के वंशज थे। ऋग्वेद में इनके कई मंत्र मिलते हैं।
⋙ नभःप्राण
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। हवा।
⋙ नभःश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। हवा [को०]।
⋙ नभःसद
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता। २. आकाश में विचरनेवाले पक्षी आदि।
⋙ नभःसरित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशगंगा।
⋙ नभःसुत
संज्ञा पुं० [सं०] पवन। हवा।
⋙ नभःस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. आकाश [को०]।
⋙ नभःस्थित (१)
वि० [सं०] जो आकाश में स्थित हो। आकाशस्थ [को०]।
⋙ नभःस्थित (२)
संज्ञा पुं० एक नरक का नाम [को०]।
⋙ नभःस्पृक्
वि० [सं० नभःस्पृश्] गगनचुंबी। आकाश को छूनेवाला [को०]।
⋙ नभ (१)
संज्ञा पुं० [सं० नभन्] १. पंच तत्व में से एक। आकाश। आसमान। पर्या०—आकाश। गगन। ब्योम। २. शून्य स्थान। आकाश। ३. शून्य। सुन्ना। सिफर। ४. श्रावण मास। सावन का महीना। ५. भादों का महीना। उ०—नभसित हरिब्रत करो नरेशा।—रघुनाथ (शब्द०)। ६. आश्रय। आधार। ७. पास। निकट। नजदीक। उ०— नभ आश्रय नभ भाद्रपद नभ श्रावण को मास। नभ अकाश नभ निकट ही घट घट रमा निवास।—नंददास (शब्द०)। ८. राजा नल के एक पुत्र का नाम। ९. हरिवंश के अनुसार रामचंद्र के वंश के एक राजा का नाम। १०. हरिवंश के अनुसार चाक्षुस मुनि के एक पुत्र का नाम। ११. चाक्षुस मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक का नाम। १२. शिव। महादेव। १३. अभ्रक। १४. जल। १५. जन्मकुंडली में लग्न स्थान से दसवाँ स्थान। १६. मेघ। बादल। १७. वर्षा। १८. मृणाल सूत्र। कमल की जड़ के सूत्र या सुतला। १९. विष- तंतु। २०. वाष्प। कुहरा (को०)। २१. जीवन की अवधि। आयु (को०)। २२. घ्राण (को०)।
⋙ नभ (२)
वि० [सं०] हिंसक।
⋙ नभग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षी। २. हवा। ३. बादल। ४. भागवत के अनुसार वैवस्वत मनु के एक पुत्र का नाम।
⋙ नभग (२)
वि० [सं०] १. आकाशगामी। आकाश में विचरनेवाला। २. भाग्यहीन। अभागा।
⋙ नभगनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़। उ०—बोलेउ कागभुसुंडि बहोरी। नभगनाथ पर प्रीति न थोरी।—मानस, ७। ७०।
⋙ नभगामी
संज्ञा पुं० [सं० नभोगोमिन्] १. चंद्रमा। (ड़िं०)। २. पक्षी। ३. देवता। ४. सूर्य। ५. तारा।
⋙ नभगेश
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़।
⋙ नभचर
संज्ञा पुं० [हिं० नभ + सं० चर] दे० 'नक्षश्चर'।
⋙ नभधुज पु
संज्ञा पुं० [सं० नभध्वज] मेघ। बादल।
⋙ नभध्वज
संज्ञा पुं० [हिं० नभ + सं० ध्वज] दे० 'नभोध्वज'।
⋙ नभनदी
संज्ञा स्त्री० [सं० नभोनदी] आकाशगंगा। उ०—कहै 'मतिराम' नभनदी के कुसुम सम, उड़े उड़गन सुंड अनिल उड़ाये तैं।—मति०, ग्रं०, पृ० ३८९।
⋙ नभनीरप
संज्ञा पुं० [सं० नभोनीरप] चातक। पपीहा।
⋙ नभश्चक्षु
संज्ञा पुं० [सं० नभश्चक्षुस] सूर्य।
⋙ नभश्चमस
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. इंद्रजाल।
⋙ नभश्चर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षी। २. बादल। ३. हवा ४. देवता, गंधर्व और ग्रह आदि।
⋙ नभश्चर (२)
वि० आकाश में चलनेवाला।
⋙ नभसंगम
संज्ञा पुं० [सं० नभसङ्गम] चिड़िया। पक्षी।
⋙ नभस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरिवंश के अनुसार दसवें मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक का नाम। २. आकाश (को०)। ३. पावस (को०)। ४. समुद्र (को०)।
⋙ नभस (२)
वि० बाष्पमय। कुहरेवाला [को०]।
⋙ नभस्तल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश का निचला भाग। २. वायुमंडल [को०]।
⋙ नभस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश। २. शिव।
⋙ नभस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाश। उ०—उसके ऊपर है नभस्थली।—साकेत, पृ० ३२१।
⋙ नभस्थित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम।
⋙ नभस्थित (२)
वि० जो आकाश में हो। आकाश में ठहरा हुआ।
⋙ नभस्मय
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ नभस्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भादों का महीना। २. हरिवंश के अनुसार स्वरोचिष मनु के एक पुत्र का नाम।
⋙ नभस्य (२)
वि० कुहरेवाला। वाष्पमय [को०]।
⋙ नभस्वान्
संज्ञा पुं० [सं० नभस्वत्] वायु। हवा।
⋙ नभाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अँधेरा। अँधकार। २. राह। ३. एक ऋषि का नाम। ४. मेघ। बादल (को०)। ५. आकाश (को०)।
⋙ नभि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पहिया। चक्र।
⋙ नभोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश में चलनेवाले पक्षी, देवता, ग्रह आदि। २. जन्मकुंडली में लग्नस्थान से दसवाँ स्थान। ३. दसवें मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक का नाम।
⋙ नभोगति
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो आकाश में चलता हो। जैसे, पक्षी, देवता, ग्रह आदि।
⋙ नभोद
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार एक विश्वदेव का नाम।
⋙ नभोदुह
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल।
⋙ नभोदेश
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश। उ०—नभोदेश में विमल चंद्रमंडल सा संस्थित विंध्यपृष्ठ पर है मनोज्ञ बांघव अति विस्तृत।—प्रेमांजलि, पृ० ४२।
⋙ नभोद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] बादल।
⋙ नभोध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] बादल।
⋙ नभोनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशगंगा।
⋙ नभोमणि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ नभोयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव। शिव।
⋙ नभोरूप
वि० [सं०] नीले रंग का। जिसका रंग नीला हो।
⋙ नभोरेणु
संज्ञा पुं० [सं०] कुहरा। कुहासा।
⋙ नभोलय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] धुआँ।
⋙ नभोलय (२)
वि० [सं०] जो आकाश में लीन हो जाय।
⋙ नभोवट
संज्ञा पुं० [सं०] आकाशमंडल।
⋙ नभ्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहिए के बीच का भाग। २. धुरी। अक्ष। ३. वह तेल या चिकनाई जो पहिए में दी जाय।
⋙ नभ्य (२)
वि० १. मेघमय। २. वाष्पयुक्त। कुहरेवाला [को०]।
⋙ नभ्यसी
संज्ञा पुं० [सं० नभस्य] भाद्रपद। भादों का महीना। उ०—फिरे दास भारी बुलै राग बैन। मनो नभ्यसी मास केंबिज गैन।—पृ० रा०, १४। ११३।
⋙ नभ्राज
संज्ञा पुं० [सं०] बादल। मेघ।
⋙ नमः (१)
क्रि० वि० [सं० नमस्] प्रणाम या स्वागत आदि का व्यंजक शब्द [को०]।
⋙ नमः (२)
संज्ञा पुं० दे० 'नम (२)' [को०]।
⋙ नम (१)
वि० [फा०] [संज्ञा नमी] गीला। तर। भीगा हुआ। आर्द्र।
⋙ नभ (२)
संज्ञा पुं० [सं० नमस्] १. नमस्व। २. त्याग।३. अन्न। ४. वज्र। ५. यज्ञ। स्तोत्र।
⋙ नमक
संज्ञा पुं० [फा० या सं० लवणक] १. एक प्रसिद्ध क्षार पदार्थ जिसका व्यवहार भोज्य पदार्थों में एक प्रकार का स्वाद उत्पन्न करने के लिये थोड़े मान में होता है। लवण। नोन। विशेष—नमक संसार के प्रायः सभी भागों में दो रूपों में पाया जाता है—एक तो जमीन में, चट्टानों या स्तरों के रूप में और दूसरा समुद्रों, झीलों और तालाबों आदि के खारे जल था। भारत में पंजाब, कोहाट, तथा काँगड़े की मंडी नामक रियासत में नमक की खानें हैं। जिनमें से बहुत प्राचीन काल से नमक नाकाला जाता है। सिंध भी नमक के लिये प्रसिद्ध था। इसी से वहाँ के नमक को सैंधव (सेंधा) कहते थे। पंजाब की खानि का नमक भी सेंधा कहलाता है। यह प्रायः साफ और सफेद रंग का होता है और इसमें किसी प्रकार की गंध नहीं रहती। इसके अतिरिक्त समुद्र या झीलों के खारेपानी आदि को सुखाकर भी कई प्रकार के नमक निकाले जाते हैं। इस प्रकार का नमक करकच कहलाता है। कहीं कहीं रेह या मिट्टी में से भी एक प्रकार का नमक निकाला जाता है जो खारी कहलाता है। एक और प्रकार का नमक होता है जो काला नमक कहलाता है। यह साधारण नमक को हड़, बहेड़े और सज्जी के साथ गलाकर बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त ओषधि और रसायन आदि के काम के लिये और भी अनेक वनस्पतियों और दूसरे पदार्थों को जलाकर खार या नमक तैयार करते हैं। वैद्यक में सैधव (सेंघा), शार्कमरी (साँधर), समुद्र- लवण (करकच), विडलवण सौवचंड, (काला नमक, सींचर), काचलवण (नीनी मिट्टी से बनाया हुआ कचिया नमक), औदभिद्, औषर, रौमक और द्रोणी आदि कई प्रकार के लवण गिनाए गए हैं जिनमें से सेंधा नमक सबसे अच्छा माना गया है। मुहा०—नमक अदा करना = अपने पालक या स्वामी के उपकार का बदला चुकाना। मालिक के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना। (किसी का) नमक खाना = (किसी के द्वारा) पालित होना। (किसी का) दिया खाना। जैसे,— आपने पाँच बरस तक उनका नमक खाया है, आज नगर उन्होंने आपको दो बातों कह ही दीं तो क्या हो गया? नमक मिर्च मिलाना या लगाना = किसी बात को अधिक रोचक या प्रभावशाली बनाने के लिये उसमें अपनी ओर से भी कुछ बढ़ा देना। किसी बात को बढ़ाकर कहना। जैसे,—उन्होंने यहाँ का सार हाल तो कह ही दिया, साथ ही अपनी तरफ से भी नमक मिर्च लगा दिया। नमक फूटकर निकलना = नमकहरामी की सजा मिलना। कृतध्नता का दंड मिलना। नमक से या नमक पानी से अदा होना = दे० 'नमक अदा करना'। कटे पर नमक छिड़कना = किसी दुःखी को और भी दुःख देना। पीड़ित को और भी पीड़ित करना। नमक का सहरा = थोड़ा सहारा। थोड़ी सहायता। यौ०—नमकख्वार। नमकहराम। नमकहरामी। नमकहलाल। नमकहलाली। २. कुछ विशेष प्रकार का सौदर्य जो अधिक मनोहर या प्रिय हो। लावण्य। सलोनापन।
⋙ नमकख्वार
वि० [फा० नमकख्वार] नमक खानेवाला। पालित होनेवाला। जिसका किसी दूसरे के द्वारा पालनपोषण या जीविकानिर्वाह हो।
⋙ नमकदान
संज्ञा पुं० [फा० नमकदान (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० नमकदानी] पिसा हुआ नमक रखने का पात्र।
⋙ नमकसार
संज्ञा पुं० [फा०] वह स्थान जहाँ नमक निकलता या बनता हो।
⋙ नमकहराम
संज्ञा पुं० [फा० नमक + अ० हराम] वह जो किसी का दिया हुआ अन्न खाकर उसी का द्रोह करे। अपने अन्नदाता को ही हानि पहुँचानेवाला मनुष्य। कृतघ्न।
⋙ नमकहरामी
संज्ञा स्त्री० [फा० नमक + अ० हराम + ई (प्रत्य०)] नमकहरामपन। कृतध्नता।
⋙ नमकहलाल
संज्ञा पुं० [फा० नमक + अ० हलाल] वह जो अपने स्वामी या अन्नदाता का कार्य धर्मपूर्वक करे। सदा अपने मालिक की भलाई करनेवाला मनुष्य। स्वामिनिष्ठ। स्वामिभक्त।
⋙ नमकहलाली
संज्ञा स्त्री० [फा० नमक + अ० हलाल + फा० ई (प्रत्य०)] नमकहलाल होने का भाव। स्वामिनिष्ठा। स्वामिभक्ति।
⋙ नमकीन (१)
वि० [फा०] १. जिसमें नमक का सा स्वाद हो। जैसे,— चने का साग चमकीन होता है। २. जिसमें नमक पड़ा हो। जैसे, नमकीन बुँदिया नमकीन सुरमा। ३. जिसके चेहरे पर नमक हो। सुंदर। खूबसूरत। सलोना।
⋙ नमकीन (२)
संज्ञा पुं० वह पकवान आदि जिसमें नमक पड़ा हो। जैसे, समोसा, सेव पापड़, दालमोट आदि।
⋙ नमगीरा
संज्ञा पुं० [फा० नमगीरह्] वह कपड़ा जिसे ओस आदि से रक्षित रहने के लिये पलंग के ऊपरी भाग में तान देते हैं। २. पाल या तिरपाल आदि जिसे धूप और वर्षा से रक्षित रखने के लिये स्थान के ऊपर तानते हैं।
⋙ नमत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभु। स्वामी। २. नट। अभिनेता। ३. धूआँ। ४. मेघ (को०)।
⋙ नमत (२)
वि० १. नम्र। जो झुके। २. वक्र। टेढ़ा (को०)।
⋙ नमदा
संज्ञा पुं० [फा० नम्दह्] जमाया हुआ ऊनी कंबल या कपड़ा। मुहा०—दुम में नमदा बाँधना = दे० 'दुम' के मुहा०।
⋙ नमन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० नमनीय, नमित] १. प्रणाम। नमस्कार। २. झुकाव। ३. नमस्कार करना (को०)। ४. झुकने की क्रिया (को०)।
⋙ नमन (२)
वि० १. झुकनेवाला। झुका हुआ। २. पराजित होनेवाला। पराभूत। ३. झुकानेवाला। नत करनेवाला [को०]।
⋙ नमना पु †
क्रि० अ० [सं० नमन] १. झुकना। २. प्रणाम करना। नमस्कार करना।
⋙ नमनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नमत] दे० 'नमन'।
⋙ नमनीय
वि० [सं०] १. नमस्कार करने योग्य। आदरणीय। पूजनीय। माननीय। जिसे नमस्कार किया जाय। उ०— किन्नरी नटी सुनारि पन्नगी नगी कुमारि आसुरी सुरीन हू निहारि नमनीय है।—केशव (शब्द०)। २. जो झुक सके या झुकाया जा सके।
⋙ नमनीयता
संज्ञा स्त्री० [सं०] लचक। लोच। भंगिमा। उ०—नववधू की पुलक भरी मृदु-मृदु लज्जा उसके मुख पर प्रभासित होकर उसे ऐसी कमनीय नमनीयता प्रदान कर रही थी जो मेरे प्रति रक्तकण को एक अनिर्वचनीय हर्ष की अनुभूति से तरंगित करती थी।—जिप्सी, पृ० १७३।
⋙ नमस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. झुकना। नमन। २. प्रणाम। नमस्कार।३. त्याग। छोड़ देना। ४. यज्ञ। ५. अन्न। ६. वज्र। ७. स्तोत्र।
⋙ नमस
वि० [सं०] प्रसन्न [को०]।
⋙ नमसकारना पु
क्रि० स० [सं० नमस्कार से नामिक धातु] नमस्कार करना।
⋙ नमसित
वि० [सं०] जिसे नमस्कार किया गया हो। पूजित।
⋙ नमस्करण
संज्ञा पुं० [सं०] आदरपूर्वक या श्रद्धापूर्वक नमस्कार करने की क्रिया या स्थिति [को०]।
⋙ नमस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. झुककर अभिवादन करना। प्रणाम। २. एक प्रकार का विष।
⋙ नमस्कारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लज्जावंती। लजालू। २. वराहक्रांता। ३. खदिरी या खदरिका नामक क्षुप।
⋙ नमस्कार्य
वि० [सं०] १. जो नमस्कार करने योग्य हो। पूज्व। बंदनीय। २. जिसे नमस्कार किया जाय।
⋙ नमस्कृत
वि० [सं०] जिसे आदर सहित नमस्कार किया गया हो [को०]।
⋙ नमस्कृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नमस्करण' [को०]।
⋙ नमस्क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नमस्कार'।
⋙ नमस्ते
[सं०] एक वाक्य जिसका अर्थ है—आपको नमस्कार है।
⋙ नमस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. नमस्कार करने के योग्य। पूज्य। आदरणीय। २. नम्र। विनयशील (को०)।
⋙ नमस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूजा। श्रद्धा। २. आदर। संमान [को०]।
⋙ नमास्यित
वि० [सं०] दे० 'नमसित'।
⋙ नमस्यु
वि० [सं०] १. पूजा या श्रद्धा करनेवाला। २. आदर मान करनेवाला [को०]।
⋙ नमाज
संज्ञा स्त्री० [फा० नमाज, मि० सं० नमस्] मुसलमानों की ईश्वर प्रार्थना जो नित्य पाँच बार होती है। विशेष—दैनिक पाँच बार की नमाज के अतिरिक्त सूर्य या चंद्रग्रहण के समय, ईद के दिन, किसी के मरने पर तथा इसी प्रकार के और अवसरो पर भी नमाज पढ़ी जाती है। क्रि० प्र०—अदा करना।—गुजारना।—पढ़ना। मुहा०—नमाज कजा होना=नयत समय पर नमाज न पढा जा सकना।
⋙ नमाजगाह
संज्ञा स्त्री० [फा० नमाजगाह] मजजिद में वह जगह जहाँ नमाज पढ़ी जाती है।
⋙ नमाजबंद
संज्ञा पुं० [फा० नमाजबंद] कुश्ती का एक प्रकार का पेच।
⋙ नमाजी
संज्ञा पुं० [फा० नमाजी] १. नमाज पढ़नेवाला। २. वह वस्त्र जिसपर खड़े होकर नामज पढ़ी जाती है।
⋙ नमाना पु †
क्रि० स० [सं० नमन] १. झुकाना। २. दबाकर अपने अधीन करना। पस्त करना। काबू में करना।
⋙ नमित
वि० [सं०] १. झुका हुआ। २. टेढ़ा। वक्र (को०)।
⋙ नमिस
संज्ञा स्त्री० [फा़० नमिश्क] एक विशेष प्रकार से तैयार किया हुआ दूध का फेन जो जाड़े में खाया जाता है। विशेष—पहले दूध को उबाल लेते हैं तब उसमें चीनी या मिसरी, इलायची, केसर आदि मिलाकर रात भर उसे मथानी से मथते हैं जिससे फेन निकलता है।
⋙ नमी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] गीलापन। आर्द्रता। तरी। जैसे,—इस जमीन में बहुत नमी है।
⋙ नमुचि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम। २. एक दानव का नाम जो विप्रचित्ति नामक दानव का पुत्र था। विशेष—यह पहले इंद्र का सखा था। इंद्र ने इससे प्रतिज्ञा की थी कि मैं न तो तुम्हें दिन में मारुँगा और न रात में, न सूखे अस्त्र से मारुँगा न गीले अस्त्र से, पर पीछे इसने उनका बल हरण कर लिया था। इंद्र ने सरस्वती और अश्विनी- कुमारों से समुद्र के झाग के समान एक बज्रास्त्र लेकर उससे इसे मारा था। यौ०—नमुचिद्विष्, नमुचिहन् = इंद्र। ३. पुराणानुसार एक दैत्य का नाम जो शुंभ और निशुंभ का छोटा भाई था। ४. कामदेव।
⋙ नमुचिसुदन
संज्ञा पुं० [सं०] नमुचि को मारनेवाला इंद्र।
⋙ नमूद
संज्ञा स्त्री० [फा़० नुमुद] १. आविर्भाव। २. धुमधाम। तड़क भड़क। ३. उगना। ४. अस्तित्व। हस्ती। ५. ख्याति। शोहरत। उ०—माता, मुझे नाम नमुद की बहुत चाह नहीं हैं।—मान०, पृ० २७७।
⋙ नमूदार
वि० [फा०] जो उदित हुआ हो। प्रकट। द्दग्गोचर।
⋙ नमूना
संज्ञा पुं० [फा० नमुनह्] १. किसी बड़े या अधिक पदार्थ में से निकाला हुआ वह छोटा़ या थोड़ा अंश जिसका उपयोग उस मुल पदार्थ के गुण और स्वरूप आदि का ज्ञान कराने के लिये होता है। बानगी। जैसे, कपड़े का नमुना, चावल का नमूना। २. वह जिससे उसके सदृश दूसरी वस्तुओं के स्वरूप और गुण आदि का ज्ञान हो जाय। जैसे, नमुने का थान, नमूने की टोपी। ३. वह जिसके अनुकरण पर वैसी ही और वस्तुएँ बनाई जायँ। ४. ढाँचा। ठाट। खाका।
⋙ नमेरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुद्राक्ष का पेड़। २. एक प्रकार का पुत्राग।
⋙ नमेरु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नमेरु'।
⋙ नमोगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण। २. दीक्षा देनावाला गुरु [को०]।
⋙ नम्य
वि० [सं०] १. दे० 'नमस्य'। २. झुकने या टेढ़ा होनेवाला [को०]।
⋙ नम्यता
संज्ञा स्त्री० [सं० नम्य + ता] झुकने या टेढ़ा होने की क्रिया या गुण [को०]।
⋙ नम्र
वि० [सं०] १. विनीत। जिसमें नम्रता हो। २. झुका हुआ। ३. वक्र। टेढ़ा (को०)। ४. पुजा करनेवाला (को०)। ५. श्रद्धालु (को०)।
⋙ नम्रक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बेत।
⋙ नम्रक (२)
वि० नत। झुका हुआ। टेढ़ा [को०]।
⋙ नम्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नम्र होने का भाव।
⋙ नम्रत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नम्रता'।
⋙ नम्रांग
वि० [सं० नम्राङ्ग] टेढ़ा। झुका हुआ [को०]।
⋙ नम्रित
वि० [सं०] झुका हुआ [को०]।
⋙ नय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीति। २. नम्रता। ३. एक प्रकार का जुआ। ४. विष्णु। ५. जैन दर्शन में प्रमाणों द्वारा निश्चित अर्थ को ग्रहण करने की वृत्ति। विशेष—यह सात प्रकार की होती है—नैगम, संग्रह, व्यवहार ऋजुसुत्र, शब्द, समभिरुढ़ औऱ एवंभुत। ६. ले जाने की क्रिया या स्थिति (को०)। ७. नेतृत्व या नायकत्व करने की क्रिया या स्थिति (को०)। ८. राजनीति (को०)। ९. व्यवहार। चलावा [को०]। १०. सिंद्वात। मत (को०)। ११. दुररदर्शिता (को०)। १२. पद्धति। ढंग। विधि (को०)। १३. योजना (को०)। नैतिकता (को०)।
⋙ नय पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नद] नदी। उ०—इक भीजे चहले पड़े बूड़े बहे हजार। केते औगुन जग करत नब वय चढ़ती बार।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ नय पु (३)
वि० [हिं०] नया। नवीन। उ०—नय मुदिय कुमुदिय अचित प्रमुदिय, सत्त पत्त सुभासर्य।—पृ० रा०, २४।११९।
⋙ नयऋति पु
संज्ञा पुं० [सं० नैऋत] दे० 'नैऋत'।
⋙ नयक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अच्छी व्यवस्था करनेवाला ब्यक्ति। २. कुशल या निपुण राजनीतिज्ञ [को०]।
⋙ नयकारी पु
संज्ञा पुं० [सं० नृत्यकारी] २. नर्तकों के दल का नायक। नाचनेवालों का मुखिया। उ०—कितनी बार हुआ मैं तेरा नृत्य खेल दल नयकारी।—श्रीधर पाठक (शब्द०)। २. नाचनेवाला। नचनिया। उ०—निज शिशुगण को मोद चक्र में साथ नचावे नयकारी।—श्रीधर पाटक (शब्द०)।
⋙ नयकोविद्
वि० [सं०] १. नीतिनिपुण। २. राजनिती में कुशल [को०]।
⋙ नयग
वि० [सं०] नीति के अनुसार चलनेवाला या व्यवहार करनेवाला [को०]।
⋙ नयचक्षुस्
वि० [सं०] राजनीति में दक्ष। दुरदर्शी [को०]।
⋙ नयज्ञ
वि० [सं०] राजनीति में प्रवीण [को०]।
⋙ नयन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चक्षु। नेत्र। आँख। यौ०—नयनगोचर। विशेष—'नयन' के मुहाविरों के लिये देखो 'आँख' के मुहाविरे। २. ले जाना। ३. नेतृत्व करना (को०)। ४. शासन करना (को०)। ५. बिताना। यापन (को०)।
⋙ नयन (२)
वि० १. ले जानेवाला। २. मार्गदर्शन करनेवाला। नायकत्व करनेवाला। ३. व्यवस्था करनेवाला [को०]।
⋙ नयन (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
⋙ नयनगोचर
वि० [सं०] दिखाई पड़नेवाला। जो आँखों के सामने हो। समक्ष।
⋙ नयनपट
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की पलक। उ०—छबि समुद्र हरि रुप बिलोकी। एकटक रहे नयनपट रोकी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नयानांचल
संज्ञा पुं० [सं० नयनाञ्चल] १. आँख का कोना। २. तिरछी चितवन [को०]।
⋙ नयनांत
संज्ञा पुं० [सं० नयानान्त] दे० 'नयनांचल' [को०]।
⋙ नयना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कनीनिका। आँख की पुतली [को०]।
⋙ नयना पु † (२)
क्रि० अ० [सं० नमन] १. नम्र होना। २. झुकना। लटकना। उ०—नए जु फल फुलनि के भार। लगि लगि रही धरनि द्रुम-डार।—नद० ग्रं०, पृ० २७६। ३. नमस्कार करना।
⋙ नयना (२) †
संज्ञा पुं० [सं० नयन] आँख। नेत्र। चक्षु।
⋙ नयनागर
वि० [सं०] नीतिज्ञ। नीतिनिपुण।
⋙ नयनाभिघात
संज्ञा पुं० [सं०] आँख का एक रोग [को०]।
⋙ नयनाभिराम
वि० [सं०] नयनों को सुंदर लगनेवाला। प्रिय- दर्शन [को०]।
⋙ नयनामोषी
वि० [सं० नयनामोषिन्] आँखों को दृष्टिशुन्य करनेवाला [को०]।
⋙ नयनिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० नयन] लोचनत्व। नेत्रों का धर्म। उ०— निखर उठी नीलिमा, नयनिमा सी अनंत की।—रजत०, पृ० १४१।
⋙ नयनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँख की पुतली।
⋙ नयनी (२)
वि० स्त्री० आँखवाली। विशेष—इस शब्द का प्रयोग यौगिक शब्द के अंत में होता है। जैसे, मृगनयनी, कमलनयनी।
⋙ नयनू
संज्ञा पुं० [सं० नवनीत] १. मक्खन। २. एक प्रकार की मलमल जिसपर सफेद सुत की बुटियाँ बनी होती हैं।
⋙ नयनेता
वि०, संज्ञा पुं० [सं० नयनेतृ] राजनीति का ज्ञाता [को०]।
⋙ नयनौषध
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्प कसीस। पीला कसीस।
⋙ नयनोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] १. दीपक। २. आँखों का आनंद। ३. सुदर्शन दृश्य या वस्तु [को०]।
⋙ नयनोपांत
संज्ञा पुं० [सं० नयनोपान्त] आँख की कोर। अपांग [को०]।
⋙ नयन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० नयन] दे० 'नयन'। उ०—घरे तृणदंत कि दीन ब्यन्न। किये नियरुप लखे जु नयन्न।—ह० रासो, पृ०८।
⋙ नयपीठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतरंज की बिसात [को०]।
⋙ नयप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] राजनीति में कुशलता। [को०]।
⋙ नयवादी
वि० संज्ञा पुं० [सं० नयवादिन्] राजनीतिज्ञ [को०]।
⋙ नयविद्, नयविशारद
वि० संज्ञा पुं० [सं०] राजनितिज्ञ [को०]।
⋙ नयर पु
संज्ञा पुं० [सं० नगर, प्रा, नअर, नयर] शहर। पुर।नगर। उ०—जोयो छै तोड़उ जेसलमेर। जउओ छह नयर अयोध्या को देश।—बी० रासो, पृ० ७।
⋙ नयशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजनीति शास्र। राजनीति विषयक कोई ग्रंथ। ३. नीतिविषक ग्रंथ [को०]।
⋙ नयशाली
वि० [सं० नयशालिन्] सदाचारवाला। विनयशील [को०]।
⋙ नयशील
वि० [सं०] १. नीतिज्ञ। २. विनीत।
⋙ नयसील पु
वि० [सं० नयनशील] १. नीतिज्ञ। २. विनीत। उ०—तुम कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नया
वि० [सं० नव, मि० फा० नौ] १. जिसका संगठन, सृजन, आविष्कार या आविर्भाव बहुत हाल में हुआ हो। दजो थोड़े समय से बना, चला या निकला हो। नवीन। नुतन। ताजा। हाल का। पुराना का उलटा। जैसे, नया कपड़ा, नया पान, नए विचार नई (हाल की बनी या छपी हुई) किताब। मुहा०—नया करना = (१) कोई नया फल या अनाज मौसम में पहले पहला खाना। मौसम की नई चीज पहलै पहल खाना (२) कपड़ा आदि फाड़ या जल देना। जैसे,—इसे कपड़ा पहनाओ वहीं नया करके रख देता है। विशेष—इस मुहावरे का प्रयोग स्त्रियाँ प्रायःअशुभ बात मुँह से निकालने से बचने के लिये करती हैं। नया पुराना करना = (१) पुराना हिसाब साफ करके नया हिसाब चलाना (महाजनी)। (२) पुराने को हटाकर उसके स्थान पर नया करना या रखना। यौ०—नया नवेला = नदयुवक। नौजवान। २. जिसका अस्तित्व तो पहले से हो परंतु परिचय हाल में मिला हो। जो थोड़े समय से मालुम हुआ हो या सामने आया हो। जैसे,—(ख) कोलंबस ने एक नए महाद्विप का पता लगाया था। (ख) अशोक का एक नया शिलालेख मिला है। (ग) नए आदमी को देखकर यह लड़का घबरा जाता है। ३. पहलेवाले से भिन्न। जो पहले था उसके स्थान पर आनेवाला दुसरा। जैसे,—(क) मैने कल एक नया घोड़ा खरीदा है। (ख) बंगाल में नए लाट आए हैं। ४. जो पहले किसी के व्यवहार में न आया हो। जिससे पहले किसी ने काम न लिया हो। जैसे,—पहली किताब इसने खो दी थई, यह तो इसे नई लेकर दी गई है। ५. जिसका आरंभ पहले पहल अथवा फिर से, परंतु बहुत हाल में हुआ हो। जैसे, नई जिंदगी पाना, नए सिरे से कोई काम करना, नया चाँद देखना। ६. जिसका नामकरण किसी पुराने नाम पर हुआ हो। जिसका नाम किसी पुराने (स्थान आदि) के नाम पर रखा गया हो। जैसे, नया गोदाम, नई बस्ती, नग्रा बाजार आदि।
⋙ नयापन
संज्ञा पुं० [सं० नव, हिं० नया + पन (प्रत्य०)] नया होने का भाव। नवीनता। नुतनत्व।
⋙ नयाबत
संज्ञा स्त्री० [अ० नियाबत] नायब का पद और कार्यालय। उ०—दिल्लीशाही जमाने में नयाबत का सदर मुकाम बरियागढ़ रक्खा गया था।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० ७१।
⋙ नयाम
संज्ञा पुं० [फा०] तलवार का म्यान। तलवार की खोल।
⋙ नय्या पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] देखो 'नैया'। उ०—निर्दय हलकोरों से डममग बहती मेरी नय्या।—हिल्लोल, पृ० १०२।
⋙ नरंग
संज्ञा पुं० [सं० नारङ्ग] १. नारंगी का पेड़। २. पुरुषेद्रिय (को०)। ३. मुहासा।
⋙ नरंद पु
संज्ञा पुं० [सं० नरेद्र] राजा। उ०—प्रीत नरंदा देह पण रीत समंदा बंध।—रा० रु०, पृ० ४३।
⋙ नरंधि
संज्ञा पुं० [सं० नरन्धि] सांसारिक जीवन [को०]।
⋙ नरंधिष
संज्ञा पुं० [सं० नरन्धिष] विष्णु [को०]।
⋙ नरंम पु
वि० [फा़० नर्म] नरम। मुलायम। चिकना। कोमल। उ०—रेसमी डोरि पट्टी नरंम। रहै सीत छाँह दुष्षित गरंम।—पृ० रा०, ७।७८।
⋙ नर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव। महावेद। ३. अर्जुन। ४. धर्मराज और दक्षप्रजापति की एक कन्या से उत्पन्न एक पौराणिक ऋषि। विशेष—पौराणिक गाथानुसार यह ईश्वर के अंशावतार माने जाते थे। ये और नारायण दोनों भाई थे।—विशेष—दे० 'नरनारायण'। ५. एक देव योनि। ६. पुरुष। मर्द। आदमी। ७. एक प्रकार का क्षुप। विशेष—इसे रायकपुर, रोहिस, सेंधिया और गंधेल भी कहते है। विशेष—दे० 'गंधेल'। ८. वह खुँटी जो छाया आदि जानने के लिये खड़े बल गाड़ी जाती है। शंकु। ९. सेवक। १०. गय राक्षस के पुत्र का नाम। ११. सुधृति के पुत्र का नाम। १२. भवन्मन्य के पुत्र का नाम। १३. दोहे का एक भेद जिसमें १५ गुरु और १८ लघु होते है। जैसे—विश्वंभर नामै नहीं, मही विश्व में नाहिं। दुइ मँह झुठी कौन है, यह संशय जिय माहिं।—(शब्द०)। १४. छप्पय का एक भेद जिसमें १० गुरु और १३ लघु होते हैं। १५. मनुष्य। आदमी (को०)। १६. शतरंज का मोहरा (को०)। १७. परम पुरुष। पुराण पुरुष (को०)। १८. आदमी की लंबाई का परिमाण। पुरुष। १९. घोड़ा (को०)। २०. जीवात्मा (को०)।
⋙ नर (२)
वि० जो (प्राणी) पुरुष जाति का हो। मादा का उलटा।
⋙ नर (३)
संज्ञा पुं० [हिं० नल] नल जिसमें से होकर पानी जाता है। उ०—नर की अरु नर नीर की एकै गति कर जोइ। जेतो नीचे ह्वै चले तेतो ऊँचे होइ।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ नर (४)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नरकट'।
⋙ नर (५)
संज्ञा पुं० [सं० नीर] जल। पानी। उ०—पुत्री वनिक सराप दिय भर पुहकर नर लोइ। असुर होई बीसल नृपति नरपल- चारी सोई।—पृ० रा०, १। ४९१।
⋙ नरई
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. गेहुँ की बाल या डंठल। २. किसी घास का डंठल जो अंदर से पोला हो। ३. एक प्रकार कीघास जो प्रायः जलाशयों के पास होती है। उ०—घोंघन के जाल, जामें नरई सेवाल ब्याल, ऐसे पापी ताल को मराल लै कहा करै।—इतिहास, पृ० २७३।
⋙ नरकंत पु
संज्ञा पुं० [सं० नरकान्त] राजा। नृप।
⋙ नरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणों और धर्मशास्त्रों आदि के अनुसार वह स्थान जहाँ पापी मनुष्यों की आत्मा पाप का फल भोगने के लिये भेजी जाती है। वह स्थान जहाँ दुष्कर्म करनेवालों की आत्मा दंड देने के लिये रखी जाती है। दोजख। जहन्नुम। विशष—अनेक पुराणों और धर्मशास्त्रों में नरक के संबंध में अनेक बातें मिलती हैं। परंतु इनसे अधिक प्राचीन ग्रंथों में नरक का उल्लेख नहीं है। जान पड़ता है कि वैदिक काल में लोगों में इस प्रकार की नरक की भावना नहीं थी। मनुस्मृति में नरकों को संख्या २१ बतलाई गई है जिनके नाम ये हैं— तामिस्त्र, अंधनामिस्त्र, रौरव, महारौरव, नरक, महानरक, कालसुत्र, संजीवन, महावीचि, तपन, प्रतापन, संहात, काकोल, कुड्मल, प्रतिमुर्तिक, लोहशंकु, ऋजीष, शाल्मली, वैतरणी, असिपत्रवन और लोहदारक। इसी प्रकार भागवत में भी २१ नरकों का वर्णन है जिनके नाम इस प्रकार हैं—तामिस्त्र, अंधतामिस्त्र, रौरव, महारौरव, कुंभीपाक, कालसुत्र, असिपत्रवन, शूकरमुख, अंधकुप, कृमिभोजन, संदेंश, तप्तशुर्मि, वज्रकंटक- शाल्मली, वैतरणी, पुयोद, प्राणरोध, विशसन, लालभक्ष, सारमेयादन, अवीची और अयःवान। इसके अतिरिक्त क्षार- मर्दन, रसोगणभोजन, शुलप्रोत, दंदशुक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन और सुचीमुख ये सात नरक और भी माने गए हैं। इसके अतिरिक्त कुछ पुराणों में और भी अनेक नरककुंड माने गए हैं जैसे,—वसाकुंड, तप्तकुंड, सुर्यकुंड, चक्रकुंड। कहते हैं, भिन्न भिन्न पाप करने के कारण मनुष्य की आत्मा को भिन्न भिन्न नरकों में सहस्त्रों वर्ष तक रहना पड़ता है जहाँ उन्हें बहुत अधिक पीड़ा दी जाती है। मुसालमानों और ईसाइयों में भी नरकत की कल्पना है, परंतु उनमें नरक के इस प्रकार के भेद नहीं हैं। उनके विश्वाल के अनुसार नरक में सदा भीषण आग जलती रहती है। वे स्वर्ग को ऊपर और नरक को नीचे (पाताल में) मानते हैं। मुहा०—नरक होना = नरक मे भेजा जाना। नरक भोगने का दंड होना। क्रि० प्र०—भोगना। २. बहुत ही गंदा स्थान। ३. वह स्थान जहाँ बहुत ही पीड़ा या कष्ट हो। ४. पुराणानुसार कलि के पौत्र का नाम जो कलि के पुत्र भय और कलि की पुत्री मृत्यु के गर्भ से उत्पन्न हुआ था और जिसने अपनी बहन यातना के साथ विवाह किया था। ५. विप्रचित्ति दानव के एक पुत्र का नाम। ६. निकृत कते गर्भ से उत्पन्न अनृत के एक पुत्र का नाम। ७. दे० 'नरकासुर'।
⋙ नरककुंड
संज्ञा पुं० [सं० नरककुण्ड] नरक का वह कुंड जिसमें पापी जीव को यंत्रणा देने के लिये डाला जाता है [को०]।
⋙ नरकगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन शास्त्र के अनुसार वह कर्म जिसके करने से मनुष्य को नरक में जाना पड़े।
⋙ नरकगामी
वि० [सं० नरकगामिन्] नरक में जानेवाला।
⋙ नरकचतुर्दशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी जिस दिन घर का सारा कुड़ा कतवार निकालकर फेंका जाता है।
⋙ नरकचूर
संज्ञा पुं० [सं० नर + हिं० कचुर] दे० 'कचुर'।
⋙ नरकजित्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नरकांतक' [को०]।
⋙ नरकट
संज्ञा पुं० [सं० नल] बेंत की तरह का एक प्रसिद्ध पौधा जिसकी पत्तियाँ बाँस की पत्तियों की तरह पतली और लंबी होती हैं। विशेष—इसके डठल लंबे, मजबुत और बीच से पोले होते हैं और कलमें तथा चटाइयाँ आदि बनाने के काम में आते हैं। इसके अतिरिक्त इसके डंठलों का उपयोग हुक्के की निगालियाँ, दोरियाँ और बैठने के लिये मोढ़े आदि बनाने और छतें पाटने में भी होता है। कहीं कहीं इसके रेशों से रस्से भी बनाए जाते हैं।
⋙ नरकदेवता
संज्ञा पुं० [सं० नरक + देव + ता] निऋति [को०]।
⋙ नरकपाल
संज्ञा पुं० [सं०] आदमी की खोपड़ी [को०]।
⋙ नरकभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमपुरी। यमलोक की भूमि [को०]।
⋙ नरकभूमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नरक लोक (जैन)।
⋙ नरकल
संज्ञा पुं० [सं० नल] दे० 'नरकट'।
⋙ नरकस
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नरकट'।
⋙ नरकस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैतरणी नदी।
⋙ नरकांतक
संज्ञा पुं० [सं० नरकान्तक] विष्णु।
⋙ नरकामय
संज्ञा पुं० [सं०] १. नरक रुपी रोग। २. प्रेत [को०]।
⋙ नरकारि
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण [को०]।
⋙ नरकावास
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो नरक में हो। २. नरक में वास [को०]।
⋙ नरकासुर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रसिद्ध असुर। विशेष—कहते हैं, जिस समय भगवान् ने बारह का अवतार लिया था उस समय उन्होने पृथ्वी के साथ गमन किया था जिससे उसे गर्भ रह गया था। जब देवताओं को मालुम हुआ कि इस गर्भ में एक बड़ा और बली असुर है तब उन्होंने पृथ्वी का प्रसव रोक दिया। इसपर पृथ्वी ने भगवान् से प्रार्थना की। भगवान् ने वर दिया कि त्रेता में जब रामचंद्र के हाथ से रावण का वध होगा तब तुम्हारे गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न होगा। और इस बीच में तुम्हें कोई कष्ट न होगा। जिस समय रावण मारा गया उस समय पृथ्वी के गर्भ से उसी स्थान पर इस असुर का जन्म हुआ जिस स्थान पर सीता का जन्म हुआ था। पृथ्वी के इस बालक को राजा जनक ने १६ वर्ष के आयु तक अपने यहाँ रखकर पाला पोसा और पढ़ाया लिखाया था। जब नरक १६ वर्ष का हो गया तब पृथ्वी उसे जनक के यहाँ से ले आई। उस संमय पृथ्वी नेअपने पुत्र को उसके जन्म के संबंध की सारी कथा सुनाई और विष्णु सा स्मरण किया। विष्णु नरक को लेकर प्राग्ज्योतिष- पुर गए और उन्होने उसे वहाँ का राजा बना दिया। उसी समय विदर्भ की राजकुमारी माया के साथ नरक का विवाह भी हो गया। उस समय विष्णु ने उसे समझा दिया था कि तुम ब्राह्मणों और देवताओं आदि के साथ कभी विरोध न करना, उन्होंने उसे एक दु्र्भेद्य रथ दिया था। नरक कुछ दिनों तक तो बहुत अच्छी तरह राज्य करता रहा पर जब बाणासुर घुमता फिरता प्राग्ज्योतिषपुर पहुँचा तब नरक भी उसके संसंर्ग के कारण दुष्ट हो गया और देवताओं आदि को कष्ट देने लगा। उसी अवसर पर एक बार वशिष्ठ कामाक्षा देवी का दर्शन करने के लिये वहाँ गए थे लेकिन नरक ने उन्हें नगर में घुसने तक नहीं दिया। इसपर वशिष्ठ ने बहुत नाराज होकर शाप दिया था कि शीघ्र ही तुम्हारे पिता के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी। इसपर बाणासुर की सम्मति से नरक तपस्या करने लगा जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसे वर दिया कि तुम्हें देवता, असुर, राक्षस आदि में से कोई न मार सकेगा और तुम्हारा राज्य सदा बना रहेगा। इसके बाद उसे भगदत्त, महाशीर्ष, मद्दवान औऱ सुमाली नामक चार पुत्र हुए। तब उसने हयग्रीव, गुरु और उपसुंद आदि असुरों की सहायता से इंद्र को जीता और बहुत ही अत्याचार करना आरंभ किया। अंत में श्रीकृष्ण ने अवतार लेकर प्राग्ज्योतिषपुर पर चढ़ाई की और विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से नरक का सिर काट डाला। कहते हैं कि इसके भांडार में जितना धन आदि था उतना कुबेर के भांडार में भी नहीं था। वह सब धन रत्न आदि श्रीकृष्ण अपने साथ द्वारका ले गए थे।
⋙ नरकी
वि० [सं० नारकी] दे० 'नारकी'।
⋙ नरकुल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नरकट'।
⋙ नरकेशरी
संज्ञा पुं० [सं० नरकेशरिन्] नृसिंह जो विष्णु के अवतार माने जाते हैं।
⋙ नरकेसरी
संज्ञा पुं० [सं० नरकेसरिन्] दे० 'नरकेशरी'। उ०— राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकालु। जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसालु।—मानस, १।२७।
⋙ नरकेहरी
संज्ञा पुं० [सं० नरकेसरिन्] दे० 'नरकेसरी'।
⋙ नरकौतुक
संज्ञा पुं० [सं०] मदारी का खेल।
⋙ नरखड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] गला।
⋙ नरगण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में नक्षत्रों का एक गण जिसमें उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, पुर्वभाद्रपद, रोहिणी, भरणी और आर्द्रा नक्षत्र सम्मलित हैं। विशेष—इस गण में जन्म लेनेवाला सुशील और बुद्धिमान होता है। राक्षसगण के साथ इस गण का विरोध माना जाता है। इसे मनुष्य गण भी कहते हैं।
⋙ नरगण (२)
वि० [हिं० नर + गण] दे० 'गण'—७।
⋙ नरगिस
संज्ञा पुं० [फा०] १. एक पौधा जो ठीक प्याज के पेड़ सा होता हैं। विशेष—इसकी जड़ भी प्याज की गाँठ सी होती है। इसमें कटोरी के आकार का सफेद रंग का फुल लगता है जिसमें गोल काला धब्बा होता है। नरगिस की सुंगध भी बड़ी मनोहर होती हैं। फारसी और उर्दु के कवि इस फुल के साथ आँख की उपमा देते हैं। इसके फुल का इत्र बहुत अच्छा बनता है। २. इस पौधे का फुल। उ०—कुश्तए हसरतदार हैं या रब किस्के, नख्ल ताफूत में जो फूल लगे नरगिस के।—श्री निवास ग्रं०, पृ० ८५।
⋙ नरगिसी (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. एक प्रकार का कपड़ा जिसपर नरगिस की तरह के फूल बने होते हैं। २. एक प्रकार का तला हुआ अंडा।
⋙ नरगिसी (२)
वि० नरगिस की तरह या रंग आदि का। नरगिस संबंधी। उ०—अपनी नरगिसी निमानी आँखो का बीमार किया।—भारतेंदु ग्रं०, भा०,२, पृ० ५६२।
⋙ नरग्गिस पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० नरगिस] दे० 'नरगिस'। उ०— आचीन नरग्गिस औ असोक।—ह० रासो, पृ० ६३।
⋙ नरचा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पाट या पटुआ।
⋙ नरजी पु
वि० [हिं०] तौल करनेवाला। उ०—नैन किये नरजी दिन रैन रतीबल कंचन-रुपहि तोलै।—घनानंद, पृ० ५६२।
⋙ नरतना पु
क्रि० अ० [सं० नर्त्तन] नाचना। उ०—जहँ चंचल तुरंग नरतत मन मुग्ध बनावत।—प्रेमघन०, भा०१, पृ० ११।
⋙ नरतात
संज्ञा पुं० [सं०] राजा। नृपति। उ०—इमि अनेक उत्पात, भए श्यामपुर जात तँह। तिहि न गिन्यो नरतात समर सूर विख्यात भुव—गोपाल (शब्द०)।
⋙ नरत्राण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नरपाल। राजा। २. श्रीकृष्ण।
⋙ नरत्व
संज्ञा स्त्री० [सं०] नर होने का भाव। नरता।
⋙ नरद (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०नर्द] १.चौसर खेलने की गोटी। उ०— तुरत डारिये मार नरद कच्ची करि दीजै।—गिरधर (शब्द०)। २. एक पौधा जिसके फुलों का अरक खींचा जाता है और जिसकी पत्तियाँ मसाले के काम में आती हैं।
⋙ नरद (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नर्द्द] शब्द। ध्वनि। नाद।
⋙ नरदन
संज्ञा स्त्री० [सं० नर्द्दन (=नाद) नाद करना। गरजना। उ०—वनपति सम नरदन अमित बल निसि मानमाला गरे।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ नरदवाँ
संज्ञा पुं० [फा० नाबदान] नल। पनाला।
⋙ नरदा †
संज्ञा पु० [फा० नाबदान] मैला पाना बहने की नाली।
⋙ नरदारा
संज्ञा पुं० [सं० नर + सं० दारा] १.जनाना। जनखा। हिजड़ा। नपुंसक। २. जो पुरुष होकर भी स्त्रियों का काम करे। डरपोक। कायर। उ०—वेष भयानक लखि बिकरारा। चहुँ दिसि भागि चले नरदारा।—सबल (शब्द०)।
⋙ नरदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। नृपति। २. ब्राह्मण।
⋙ नरदेवकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि जिनकी कथा श्रीमद्- भागवत में है।
⋙ नरद्विष्
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस [को०]।
⋙ नरनाइक पु
संज्ञा पुं० [सं०] संसार। जगत्। विश्व [को०]।
⋙ नरधि
संज्ञा पुं० [सं० नरनायक] दे० 'नरनायक'। उ०—सिगरे नरनाइक असुर बिनाइक राकसपति हिय हारि गए।— केशव ग्रं०, पृ० १७१।
⋙ नरनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] राजा। नृपति। नृपाल।
⋙ नरनायक
संज्ञा पुं० [सं०] नृप। राजा। भूपति।
⋙ नरनारायण
संज्ञा पुं० [सं०] नर और नारायण नाम के दो ऋषि जो विष्णु के अवतार माने जाते हैं। विशेष—कहते हैं, ये दोनों भाई थे और नारायण इनमें से बड़े थे। महाभारत में लिखा है कि एक बार नर और नारायण गंधमादन पर्वत पर तपस्या कर रहे थे। उस समय दक्ष का यज्ञ हो रहा था। इस यज्ञ में दक्ष ने रुद्र के भाग की कल्पना नहीं की थी जिससे क्रुद्ध होकर दक्ष का यज्ञ नष्ट करने के लिये रुद्र ने एक शुल फेंका था। वह शुल यज्ञ नष्ट करने के उपरांत जाकर बड़े जोर से नारायण के वक्षस्थल पर गिरा और उसी समय नारायण के हुंकार से पराजित और आहत होकर फिर शंकर के हाथ में जा पहुँचा। इसपर रुद्र क्रोध करके नरनारायण पर चढ़ दौड़े। नारायण ने तो रुद्र का गला पकड़ लिया और नर ने उन्हें मारने के लिये एक सींक उड़ाई जो बड़ा भारी पशु बन गई। नारायण और रुद्र में भीषण युद्ध होने लगा। उसमें पृथ्वी तथा आकाश में अनेक प्रकार के उपद्रव होने लगे। जब ब्रह्मा ने आकर रुद्र को समझाया कि ये स्वयं नारायण के अवतार हैं और किसी समय तुम्हारी भी सृष्टि इन्हीं के क्रोध से हुई थी तब रुद्र ने प्रार्थना करके नारायण को प्रसन्न किया। इसके उपरांत ऱुद्र के साथ नरनारायण की घनिष्ठ मित्रता हो गई। महाभारत के नारायणो- पाख्यान में यह भी लिखा है कि परब्रह्म के अवतार नर और नारायण नामक दो ऋषियों ने नारायणी अर्थात् भागवत् धर्म का प्रचार किया था और उनके कहने से जब नारद ऋषि श्वेतद्विप गए थे तब स्वयं भगवान् ने उनको इस धर्म का उपदेश किया था। देवीभागवत में लिखा है कि ब्रह्मा के पुत्र धर्म ने दक्ष की दस कन्याओं से विवाह किया था जिनके गर्भ से हरि, कृष्ण, नर और नारायण नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए थे। इनमे से हरि और कृष्ण तो योगाभ्यास करते थे और नरनारायण हिमालय पर कठिन तपस्या करते थे। उस समय इंद्र ने डरकर इनकी तपस्या भंग करने के लिये काम, क्रोध और लोभ की सृष्टि की और उन तीनों को नर नारायण के सामने भेजा, परंतु नरनारायण की तपस्या भंग नहीं हुई। तब इंद्र ने कामदेव की शरण ली। कामदेव अपने साथ वसंत और रंभा, तिलोत्तमा आदि अप्सराओं को लेकर नरनारायण के पास पहुँचे। उस समय अप्सराओं के गाने आदि से नरनारायण की आँखे खुली। उन्होने सब बातें समझ ली और इंच को खज्जित करने के लिये तुरंत अपनी जाँच से एक बहुत सुंदर अप्सरा उत्पन्न की जिसका नाम उर्वशी पड़ा। इसके उपरांत उन्होने इंद्र की भेजी हुई हजारों अप्सराओं की सेवा करने के लिये उनसे भी अधिक हजारों दासियाँ उत्पन्न की। इसपर सब अप्सराएँ नरनारायण की स्तुति करने लगीं। इन अप्सराओं ने नारायण से यह भी वर माँगा था कि आप हम लोगों के पति हों। इसपर उन्होनें कहा था कि द्वापर में जब हम अवतार लेंगे तब तुम लोग राजकुल में जन्म लोगी। उस समय तुम्हारी इच्छा पुर्ण होगी। तदनुसार नारायण तो श्रीकृष्ण और नर अर्जुन हुए थे। कालिका- पुराण में लिखा है कि महादेव ने जब शरभ पक्षी का रुप धारण करके अपने दाँतों की चोट से नरसिंह के दो टुकड़ें कर दिए थे तब नरसिंह के नररूपी आधे शरीर से नर तथा सिंहरूपी आधे शरीर से नारायण की उत्पत्ति हुई थी।
⋙ नरनारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नरनारी] नर अर्थात् अर्जुन की स्त्री। द्रोपदी। पांचाली। उ०—विपुल भुपति सदसि मँह नरनारि कह्यो प्रभु पाहि। सकल समरथ रहे काहु न वसन दीन्हों ताहि।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नरनारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अर्जुन की स्त्री। द्रोपदी। २. पुरुष और स्त्री [को०]।
⋙ नरनाह पु
संज्ञा पुं० [सं० नरनाथ] राजा। नृप। नृपाल। उ०— उदर भरन रत, ईस-विमुख सब भए प्रजा नरनाह।—भारतेंदु ग्रं०, भा०,२, पृ० ४८५।
⋙ नरनाहर
संज्ञा पुं० [सं० नर + हिं० नाहर] नृसिंह भगवान्।
⋙ नरनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा।
⋙ नरपति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा। नृपति। नृपाल। भूप।
⋙ नरपत्ती पु
संज्ञा पुं० [सं० नरपति] दे० 'नरपति'। उ०—साह दिलासा मोकलै, अब क्युँ राखौ दुर। नरपती जसराज रौ, लावो पुत्र हजुर।—रा० रु०, पृ० २७।
⋙ नरपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. नगर। २. देश।
⋙ नरपलचारी
वि० पुं० [सं० नर + पल + चारी] मनुष्य के मांस को खानेवाला। नरमांसभक्षक। उ०—पुत्री बनिक सराप दिय भर पुहकर नर लोइ। असुर होइ बीसल नृपति नरपलचारी सोइ।—पृ० रा०, १।४९१।
⋙ नरपशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. नृसिंह।२ . वह मनुष्य जो पशु ऐसा आचरण करे। नराधम। नीच आदमी (को०)। ३. यज्ञ आदि में बलिदान के योग्य या उपयुक्त मनुष्य (को०)।
⋙ नरपाल
संज्ञा पुं० [सं० नृपाल] नृप। राजा। भूपाल। भूपति।
⋙ नरपालि
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा शंख।
⋙ नरपिशाच
संज्ञा पुं० [सं०] जो मनुष्य होकर भी पिशाचों का सा काम करे। बड़ा भारी दुष्ट और नीच मनुष्य।
⋙ नरपुर
संज्ञा पुं० [सं०] भुलोक। मनुष्यलोक।
⋙ नरप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] नील का पेड़।
⋙ नरबदा
संज्ञा स्त्री० [सं० नर्मदा] दे० 'नर्मदा'।
⋙ नरभक्षी
संज्ञा पुं० [सं० नरभक्षिन्] मनुष्यों को खानेवाला राक्षस। दैत्य।
⋙ नरभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नरभूमि'।
⋙ नरभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारतवर्ष।
⋙ नरम पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० नर्मन]दे० 'नर्म'। उ०—प्रानसन सहचरि विसाखा नरम बचननि बोलि। भावना नवबधु मुख तें देति घूँघट खोलि।—घनानद, पृ० ३००।
⋙ नरम (२)
वि० [फा़० नर्म] १. कोमल। मृदु। २. लोचदार। ३. शिथिल। ढीला। ४. नजाकत से युक्त (प्रेम प्रसंग का हास- परिहास)। उ०—लहि जाको आघात गात मुरझात नरम झट।—प्रेमघन०, भा०१, पृ० ९।
⋙ नरमट
संज्ञा स्त्री० [हिं० नरम] वह जमीन जहाँ कि मिट्टो मुलायम हो।
⋙ नरमदा
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'नर्मदा'।
⋙ नरमरोआँ
संज्ञा पुं० [हिं० नरम + रोआँ] बुनाई के लिये लाल या सफेद रंग का रोआँ जो सदा बहुत मुलायम होता है।
⋙ नरम लोहा
संज्ञा पुं० [हिं० नरम + लोहा] अग्नि में लाल करके हवा में ठंढा किया हुआ लौह जो मुलायम हो जाता है।
⋙ नरमा
संज्ञा स्त्री० [हिं० नरम] १. एक प्रकार की कपास जिसे मनवा, देवकपास या रामकपास भी कहते हैं। २ . सेमर की रुई। ३. कान के नीचे का भाग। लौल। ४. एक प्रकार की ईख।
⋙ नरमाई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नरम + आई (प्रत्य०)]दे० 'नरमी'। उ०—अधम पुरुष बदरी फल समान जाके बाहिर सौ दिसै नरमाई दिल तंग है।—सुंदर ग्रं०, (जी०), भा०१, पृ० १०१।
⋙ नरमाना (१)
क्रि० स० [हिं० नमर + आना (प्रत्य०)] १. नरम करना। मुलायम करना। २. शांत करना। धीमा करना।
⋙ नरमाना (२)
क्रि० अ० १. नरम होना। मुलायम होना। शांत होना। ठढा होना।
⋙ नरमाबड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] बन कपास।
⋙ नरमानिका
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'नरमानिनी'।
⋙ नरमानिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसे मुँछ या दाढ़ी हो।
⋙ नरमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनुष्यों के कपाल या खोंपड़ी की माला [को०]।
⋙ नरमालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नरमुंडों की माला पहननेवाली स्त्री। २. दाढ़ी मुँछवाली स्त्री। नरमानिका [को०]।
⋙ नरमा रोहा
संज्ञा पुं० [हिं०] एक प्रकार का नया गेहुँ जो नया विकसित हुआ है और जिसकी उपज ज्यादा होती है।
⋙ नरमी
संज्ञा स्त्री० [फा़० नर्मी] नरम होने का भाव। मुलाय- मियत। कोमलता। मृदुता।
⋙ नरमेघ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जिसमें प्राचीनकाल में मनुष्य के मांस की आहुति दी जाती थी। विशेष—यह यज्ञ चैत्र शुक्ला दशमी से आरंभ होता था और चालीस दिन में समाप्त होता था।
⋙ नरयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० नरयन्त्र] सुर्यसिद्धांत के अनुसार एक प्रकार का शंकुयंत्र जिसका व्यवहार धुप में समय जानने के लिये होता था।
⋙ नरयान
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसी सवारी (पालकी या डोली) जिसे आदमी खींचे या ढोए।
⋙ नररथ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नरयान' [को०]।
⋙ नरलोक
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्यलोक। मृत्युलोक। संसार।
⋙ नरवई पु
संज्ञा पुं० [सं० नरपति, प्रा० णरवई] नरपति। राजा। उ०—भयउ न होइहि, है न, जनक सम नरवइ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४५।
⋙ नरवध
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्यों का वध या हत्या [को०]।
⋙ नरवर
संज्ञा पुं० [सं०] उत्कृष्ट मनुष्य। नर श्रेष्ठ।
⋙ नरवरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] क्षत्रीयों की एक जाति।
⋙ नरवा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
⋙ नरवा पु † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० नाला] दे० 'नाला'। उ०—गाँव ते गाँव बढी पुर ते पुर लाँघि नदी नरवा घर को तन।— श्यामा०, पृ० १७०।
⋙ नरवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नरई'। उ०—बालि छाँड़ि कै सूर हमारे अब नरवाई को लुनै।—सूर (शब्द०)।
⋙ नरवाह
संज्ञा पुं० [सं०] वह सवारी जिसे मनुष्य खींच या ढोकर ले चले। जैसे, पालकी, तामजान इत्यादि।
⋙ नरवाहन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह सवारी जिसे मनुष्य खींच या ढोकर ले चले। २. कुबेर। ३. किन्नर। ४. वत्सनरेश उदयन का पुत्र।
⋙ नरवाहन (२)
वि० मनुष्यों द्वारा खींची या ढोई जानेवाली सवारी पर चलनेवाला।
⋙ नरविष्वण
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस [को०]।
⋙ नरवीर
संज्ञा पुं० [सं०] वीर मनुष्य। बहादुर आदमी। योद्धा [को०]।
⋙ नरव्याघ्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्यों में श्रेष्ठ। २. जल में रहनेवाला एक प्रकार का जानवर। विशेष—इसके शरीर के नीचे का भाग मनुष्य के आकार का और ऊपर का भाग बाघ के आकार का होता है।
⋙ नरशक्र
संज्ञा पुं० [सं०] नरेंद्र। राजा। नृप।
⋙ नरशार्दूल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नरव्याघ्र' [को०]।
⋙ नरशृंग
संज्ञा पुं० [सं० नरश्रृङ्ग] असंभव बात। खपुष्प [को०]।
⋙ नरसंसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्यसमाज [को०]।
⋙ नरसख
संज्ञा पुं० [सं०] नारायण जो नर के सखा हैं [को०]।
⋙ नरसल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नरकट'।
⋙ नरसार
संज्ञा पुं० [सं०] नौसादर।
⋙ नरसिंग
संज्ञा पुं० [हिं०] एक प्रकार का विलायती फूल।
⋙ नरसिंगा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नरसिंघा'।
⋙ नरसिंघ
संज्ञा पुं० [सं० नरसिंह] दे० 'नृसिंह'।
⋙ नरसिंघा
संज्ञा पुं० [हिं० नर (= बडा़) + सिंघा (= सींग का बना एक प्रकार का बाजा)] तुरही की तरह का एक प्रकार का नल के आकार का ताँबे का बडा़ बाजा जो फूँककर बजाया जाता है।विशेष—यह जिस स्थान से फूँककर बजाया जाता है उस स्थान पर बहुत पतला होता है और उसके आगे का भाग बराबर चौडा़ होता जाता है। बीच में से इसके दो भाग भी कर/?/लिए जाते हैं और बजाने के बाद पतला भाग अलग करके मोटे भाग के अंदर रक लिया जाता है। प्राचीन काल में इसका व्यवहार रणक्षेत्र में होता था और आजकल यह देहात में विवाह आदि के अवसर पर बजाया जाता है।
⋙ नरसिंह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नृसिंह'।
⋙ नरसिंहज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का ज्वर जो चौथिया या चातुर्थिक का उलटा है। विशेष—यह ज्वर तीन दिन तक चढा़ रहता है और चौथे दिन उतर जाता है, और फिर वही क्रम चलता है।
⋙ नरसिंहपुराण
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नृसिंहपुराण'।
⋙ नरसी पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नरसल'। उ०—नरसी जल में घर करै मनसा चढै़ पहाड़।—रामानंद०, पृ० १२।
⋙ नरसेज
संज्ञा पुं० [देश०] तिधारा नामक थूहर जिसमें पत्ते नहीं होते। विशेष—दे० 'अतिधारा'।
⋙ नरसों †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अतरसों'।
⋙ नरसोँ
संज्ञा पुं० १. बीते हुए परसों के पहले का दिन। २. आनेवाले परसों के बाद का दिन।
⋙ नरस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० नरस्कन्ध] जनसमुदाय [को०]।
⋙ नरहड़ †
संज्ञा पुं० [सं० नलक + हिं० हड़] घुटने और पाँव के बीच की लंबी हड्डी।
⋙ नरहत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनुष्यवध। नरवध [को०]।
⋙ नरहय
संज्ञा पुं० [सं०] घोडे़ और मनुष्य में होनेवाला युद्ध [को०]।
⋙ नरहर (१)
संज्ञा स्त्री० [देश० अथवा सं० नलक + हिं० हड़ या हर] पैर की वह हड्डी जो पिंडली के ऊपर होती है।
⋙ नरहर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० नरहरि] दे० 'नरहरि'। उ०—नरहर समरतां नह बीते नाणों, लवसूँ तिको न लेवै।—रघु० रू०, पृ० २७।
⋙ नरहरि
संज्ञा पुं० [सं०] नृसिंह भगवान जो दस अवतारों में चौथे अवतार हैं। उ०—तब ले खड्ग खंभ में मारयो शब्द भयौ अति भारी। प्रगट भए नरहरि वपु धरि कटकट करि उच्चारी।—सूर (शब्द०)।
⋙ नरहरी (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] एक छंद का नाम जिसके प्रत्येक पद में १४ और ५ के विराम से १९ माञाएँ और अंत में १ नगण १ गुरू होता है। जैसे,—हरि सुनत भक्त की बानी, दुख भरी। झट प्रगटे खंबा फारी, तिहि घरी। रिपु हन्यो दीन सुख भारी, दुख हरी। मन सदा भजौ चित लाई, नरहरी (शब्द०)।
⋙ नरहरि पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० नरहरि] दे० 'नरहरि'। उ०—परधन परदारा परिहरी। तके निकट बसहि नरहरी।—कबीर सा०, पृ० ३१।
⋙ नरहा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली वृक्ष।
⋙ नरहा (२)
वि० दे० 'चिल्ली'।
⋙ नरहा † (३)
वि० [हिं० नाला] नालेवाला या नाले से संबंधित।
⋙ नरहीरा
संज्ञा पुं० [हिं० नर (= बडा़) + हिं० हीरा] वह आठ पहल या छह पहल का बडा़ हीरा जिसके किनारे खूब तेज हों। विशेष—कहते हैं, ऐसा हीरा जिसके पास होता है वह राजा हो जाता है और उसका वैभव बहुत बढ़ जाता है।
⋙ नरांग
संज्ञा पुं० [सं० नराङ्ग] १. पुरुष की इंद्रीय। २. मुँहासा [को०]।
⋙ नरांतक
संज्ञा पुं० [सं० नरान्तक] रावण के एक पुत्र का नाम जो राम-रावण-युद्ध में अँगद के हाथ से मारा गया था।
⋙ नरा
संज्ञा पुं० [हिं० नल या नरकट] नरकट की एक छोटी नली सिसके उपर सूत लपेटा रहता है (जोलाहे)।
⋙ नराच
संज्ञा पुं० [सं० नाराच] १. तीर। बाण। शर। २. पंच चामर या नागराज नामक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में जगण, रगण, जगण, और अंत में एक गुरु होता है। जैसे,— जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं। सुगीत नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।
⋙ नराचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वितान वृत्त का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में तगण, रगण, लघु और गुरु होता है। जैसे, तोरी लगै नाराचिका। मोरी कटै भववाधिका।
⋙ नराज †
वि० [फा़० नाराज] दे० 'नाराज'।
⋙ नराजना पु (१)
क्रि० स० [फा़० नाराज] अप्रसन्न करना। नाराज करना। उ०—उठी हिलोर जो चाल्ह नराजी। लहरि अकास लागि भुइँ बाजी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ नराजना (२)
क्रि० अ० अप्रसन्न होना। नाराज होना।
⋙ नराट पु †
संज्ञा पुं० [सं० नरराट्] नरेंद्र। राजा। नृपाल। उ०— अभिवादन तब करत नराटा। मिले पार्थसुत द्रुपद विराटा।—सबल (शब्द०)।
⋙ नराधिप
संज्ञा पुं० [सं०] राजा। नरपति। नृपाल।
⋙ नरायन
संज्ञा पुं० [सं० नारायण] दे० 'नारायण'।
⋙ नराश
संज्ञा पुं० [सं०] मानवभक्षी राक्षस [को०]।
⋙ नराशन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नराश'।
⋙ नरिंद पु †
संज्ञा पुं० [सं० नरेन्द्र] राजा। नराधिप। नरपति।
⋙ नरिअर †
संज्ञा पुं० [सं० नारिकेर या नारिकेल] दे० 'नारियल'।
⋙ नरिअरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नारियल] नारियल की खोपडी़ का आधा भाग।
⋙ नरिबाहना पु †
क्रि० अ० [सं० निर्वाह] निर्वाह करना। उ०— ज्युँ बोलइ ते नरिबाहज्यो, बचन तुमारइ लागी छइ नार।— बी० रासो, पृ० ७८।
⋙ नरियर †
संज्ञा पुं० [सं० नारिकेर था नारिकेल] दे० 'नारियल'।
⋙ नरियरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नरियर + ई (प्रत्य०)] दे० 'नरिअरी'।
⋙ नरिया †
संज्ञा पुं० [हिं० नाली] एक प्रकार का मिट्टी का खपडा़ जो मकान की छाजन पर रखने के काम में आता है। विशेष—यह अर्धवृत्ताकार और लंबा होता है और इसे 'थपुआ' खपडे़ की संधियों पर औंधाकार रख देते हैं जिससे उन संधियों में से पानी नहीं टपकने पाता।
⋙ नरियाना †
क्रि० अ० [सं० नर्दन तुलनीय अ० नअरह्] चिल्लाना। शोर मचाना। हल्ला करना।
⋙ नरी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. बकरी या बकरे का रँगा हुआ चमडा़। २. लाल रंग का चमडा़। ३. सिझाया हुआ चमडा़। मुलायम चमडा़। ४. नार। ढरकी के भीतर की नली जिसपर तार लपेटा रहता है (जुलाहा)। ५. एक प्रकार की धास जो ताल या नदी के किनारे होती है।
⋙ नरी † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नलिका] १. नली। बाली। छुच्छी। पुपली। २. वह बाँस की नली जिससे सुनार लोग आग सुलगाते हैं। फुँकनी।
⋙ नरी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० नर] स्त्री। नारी।
⋙ नरी (४)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बगुला।
⋙ नरु पु
संज्ञा पुं० [सं० नर] दे० 'नर'।
⋙ नरुई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नली] छुच्छी। पुपली। छोटी नली।
⋙ नरुवा †
संज्ञा पुं० [हिं० नल] अनाज के पौधों की डंडी जो अंदर पोली होती है।
⋙ नरेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० नरेन्द्र] १. राजा। नृप। नरेश। २. वह जो साँप बिच्छू आदि के काटने का इलाज करे। विषवैद्य। ३. श्योनाक वृक्ष। ४. एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं, जिसमें सोलह मात्राओं पर विराम और अंत में दो गुरु होते हैं। जैसे,—मीत चौतनी धरे सीस पै, पीतांबर मन मानो। पीत यज्ञ उपवीत विराजत, मनो बसंती बानो। विशेष—इसे सार और ललितपद भी कहते हैं।
⋙ नरेतर
संज्ञा पुं० [सं०] पशु। जानवर [को०]।
⋙ नरेबी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़। विशेष—इस पेड़ की छाल से एक प्रकार का खाकी रंग का गोंद निकलता है जो शीघ्र सूख जाता है और चमकीला होता है। यह प्रायः शिवसागर और सिलहट (आसाम) में पाया जाता है।
⋙ नरेली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. नारियल का हुक्का। २. छोटा नारियल।
⋙ नरेश
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्यों का स्वामी। राजा। नृप।
⋙ नरेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नरेश' [को०]।
⋙ नरेस पु
संज्ञा पुं० [सं० नरेश] दे० 'नरेश' [को०]।
⋙ नरेसर पु
संज्ञा पुं० [सं० नरेश्वर] दे० 'नरैस'। उ०—सेतराम सकबंध नरेसर। इल(ण) लग राजस पूरब अंतर।—रा० रू०, पृ० ११।
⋙ नरेह पु
वि० [हिं०] १. निरीह। २. निष्कपट। उ०—दोढी सिरै दिवार नरेह निहारती।—रघु० रू०, पृ० ९५।
⋙ नरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नरसों] परसों से पहले या बाद का एक दिन। अतरसों।
⋙ नरोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर। भगवान। विष्णु। २. श्रेष्ठ नर या मनुष्य (को०)।
⋙ नरोह
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. पिंडली की हड्डी। नली। २. कोल्हू की वह नली जिसमें से रस गिरती है।
⋙ नर्क (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नक्र। नाक [को०]।
⋙ नर्क पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० नरक] दे० 'नरक'।
⋙ नर्कट
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नरकट'।
⋙ नर्कुटक
संज्ञा पुं० [सं०] नासिका। नाक। घ्राणेंद्रिय।
⋙ नर्गिस
संज्ञा पुं० [फा़० नरगिस] दे० 'नरगिस'।
⋙ नर्गिसी
संज्ञा पुं०, बि० [फा़० नरगिसी] दे० 'नरगिसी'।
⋙ नर्जीव
वि० [सं० निर्जीव] दे० 'निर्जीव'। उ०—नर्जीव शब्द धारा।—पृ० रा०, १४।१५।
⋙ नर्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नाचनेवाला। जो नाचता हो।
⋙ नर्त (२)
संज्ञा पुं० नृत्य। नाच [को०]।
⋙ नर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० नर्तकी] १. नट। नाचनेवाला। नृत्य करनेवाला। २. एक प्रकार का नरकट। ३. चारण। बंदीजन। ४. केलक। खड्ग की धार पर नाचनेवाला। ५. हाथी। ६. महादेव का एक नाम। ७. महुआ। ८. नरकट। ९. महुआ। १०. एक प्रकार की संकर जाति जिसकी उत्पत्ति धोबी पिता और वेश्या माता से मानी जाती है। ११. राजा। १२. मयूर। मोर। (को०)। १३. अभिनेता (को०)।
⋙ नर्तकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाचनेवाली, रंडी। वेश्या। नटी। २. नलिका नामक सुंगध द्रव्य। नली। ३. अभिनेत्री (को०)। ४. हथिनी (को०)। ५. मोरिनी (को०)।
⋙ नर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नृत्य। नाच। २. वह जो नृत्य करै (को०)।
⋙ नर्तनगृह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नर्तनशाला' [को०]।
⋙ नर्तप्रिय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का एक नाम। २. मयूर। मोर [को०]।
⋙ नर्तनप्रिय
वि० नृत्य का शौकीन। नाच का प्रेमी [को०]।
⋙ नर्तनशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ पर नाच होता हो। नाचघर।
⋙ नर्तनशील
वि० [सं०] नाचने के गुणवाला। नाचनेवाला।
⋙ नर्तनसाला पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नर्तनशाला] दे० 'नर्तनशाला'। उ०— नर्तनसाला जाव किन, इत पौरुष परकास।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १०९।
⋙ नर्तना पु
क्रि अ० [सं० नर्त्तन] नृत्य करना। नाचना। उ०— लरत कहूँ नायक सुभट कहुँ नर्तन नटराज।—केशव (शब्द०)।
⋙ नर्तित (१)
वि० [सं०] १. नाचता हुआ। नृत्यशील [को०]।
⋙ नर्तित (२)
संज्ञा पुं० नृत्य। नाच [को०]।
⋙ नर्तिता
वि० [सं०] नाचती हुई। उ०—नर्तिता अपवर्ग की अप्सरा सी वह शिखा मेरा भाल छूती है।—इत्यलम्, पृ० १०८।
⋙ नर्तु
वि० [सं०] तलवार की धार पर नाचनेवाला [को०]।
⋙ नर्तु, नर्तू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नर्तकी। २. अभिनेत्री [को०]।
⋙ नर्द (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] चौसर की गोटी।
⋙ नर्द (२)
वि० [सं०] डकरने या गरजनेवाला [को०]।
⋙ नर्दकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास जिसे कटील, निभरी और नगई भी कतहते हैं।
⋙ नर्दटक
संज्ञा पुं० [सं०] ७० अक्षरों का एक वृत्त या छद [को०]।
⋙ नर्दन
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाद। गरज। भीषण ध्वनि। २. उच्च स्वर में गुणकीर्तन।
⋙ नर्दबान
संज्ञा [देश०] १. काठ की सीढी़। २. मार्ग। रास्ता (लश०)।
⋙ नर्दा †
संज्ञा पुं० [देश०] मैला बहने की नाली।
⋙ नर्दित (१)
वि० [सं०] गरजा हुआ [को०]।
⋙ नर्दित (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का पासा या पासे का हाथ [को०]।
⋙ नर्दा
वि० [सं० नर्दिन्] गरजनेवाला [को०]।
⋙ नर्बदा
संज्ञा स्त्री० [सं० नर्मदा] दे० 'नर्मदा'।
⋙ नर्म (१)
संज्ञा पुं० [सं० नर्मन्] १, परिहास। हँसी ठट्ठा। दिल्लगी। २. सखाओं का एक भेद। हँसी ठट्टा करनेवाला सखा। उ०— नर्म सखन लै अपने संगा। आवै करन फागु रस रंगा।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ नर्म (२)
वि० [फा़०] १. जो कडा़ न हो। मुलायम। कोमल। २. सहल। सरल। ३. धीमा। सुस्त। ४. विनीत। नम्र। यौ०—नर्म नर्म = भला बुरा या सस्ता महँगा। नर्मदिल = मुलायम हृदयवाला।
⋙ नर्मकील
संज्ञा पुं० [सं०] पति [को०]।
⋙ नर्मगर्भ (१)
वि० [सं०] परिहासपूर्ण। विनोदपूर्ण [को०]।
⋙ नर्मगर्भ (२)
संज्ञा पुं० १. गुप्त प्रेमी। २. नायक द्वारा वह कार्य जो गुप्त रहे [को०]।
⋙ नर्मट
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. मिट्टी का पात्र। खप्पर (को०)।
⋙ नर्मठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिल्लगीबाज। वह जो परिहास आदि में कुशल हो। २. उपपति। स्त्री का यार। ३. ठोढी़। ४. स्तन का अग्रभाग। ५. संभोग। मैथुन (को०)।
⋙ नर्मद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दिल्लगीबाज। मसखरा। भाँड़। हँसोड़। विदूषक।
⋙ नर्मद (२)
वि० आनंद देनेवाला। मनोरंजन करनेवाला।
⋙ नर्मदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृक्का या असवर्ग नामक गंधद्रव्य। २. एक गंधर्व स्त्री जो सुंदरी, केतुमती और वसुदा की माता थी। ३. मध्यप्रदेश की एक नदी जो अमरकंटक से निकलकर भड़ौंच के पास खंभात की खाडी़ में गिरती है।
⋙ नर्मदेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के शिवलिंग जो नर्मदा नदी से निकलते हैं। विशेष—ये प्रायः स्फटिक के या लाला अथवा काले रंग के पत्थर के और बिलकुल अंडाकार होते हैं। पहाड़ों पर से पत्थर के जो टुकडे़ नदी में गिरते हैं वे ही जलपात के स्थान पर भँवर में पड़कर अंडाकृति हो जाते हैं। पुराणानुसार इस प्रकार के लिंगों के पूजन का बहुत माहात्म्य है।
⋙ नर्नद्युति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाटय शास्त्र के अनुसार प्रतिमुख संधि के तेरह अंगो में से एक। वह परिहास जो किसी पहले परिहास से उत्पन्न आनंद अथवा दोष छिपाने के लिये किया जाय। जैसे,—रत्नावली में सुसंगता के यह कहने पर कि 'प्यारी सखी, तू बडी़ निठुर है। महाराज तेरी इतनी खातिर करते हैं, तो भी तू प्रसन्न नहीं होती।' सागरिका भौंह चढा़कर कहती है—'अब भी तू चुप नहीं रहती, सुसंगता'। २. परिहासप्रियता। परिहास का आनंद (को०)।
⋙ नर्मद्युति (२)
वि० आनंद से उल्लसित। उल्लसित [को०]।
⋙ नर्मसचिव
संज्ञा पुं० [सं०] वह मनुष्य जो राजा के साथ उसे हँसाने के लिये रहता है। विदूषक।
⋙ नर्मसुहृद्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नर्मसचिव'।
⋙ नर्मसाचिव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनोरंजन। प्रियवादिता। २. किसी राजा, राजकुमार या सरदार के मनोविनोद संबंधी सचिव का पद [को०]।
⋙ नर्मस्फूर्ज
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्यदर्पण के अनुसार कैशिकी वृत्ति के चार भेदों में से एक।
⋙ नर्मस्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्यदर्पण के अनुसार कैशिकी वृत्ति के चार भेदों में से एक। विशेष—कैशिकी वृत्ति के चार भेद ये हैं, नर्म, नर्मस्फूर्ज, नर्मस्फोट और नर्मगर्भ।
⋙ नर्मी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दे० 'नरमी'।
⋙ नर्री
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की बारहमासी घास जो ऊसर जमीन में भी होती है। २. एक प्रकार का पाहाडी़ बाँस जो हिमालय में होता है।
⋙ नर्स
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. वह जो रोगियों, घायलों या वृद्धों आदि की देखभाल या परिचर्या करे। २. रोगी परिचर्या में विधिवत् प्रशिक्षित व्यक्ति। वह स्त्री जो दूसरों के बच्चों आदि का पालन करे। ३. घाय। धात्री।
⋙ नल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नरकट। २. पद्म। कमल। ३. निषध। देश के चंद्रवंशी राजा वीरसेन के पुत्र का नाम। विशेष—ये बहुत सुंदर और बडे़ गुणवान थे और विशेषतः घोड़ों आदि की परिक्षा और संचालन में बडे़ दक्ष थे। ये विदर्भ देश के तत्कालिन राजा भीम की कन्या दमयंती के रूप और गुणों की प्रशंसा सुनकर ही उसपर आसक्त हो गए थे। एक दिन जब ये बाग में दमयंती की चिंता में बैठे हुए थे तब कहीं से कुछ हंस उड़ते हुए आकर इनके सामने बैठ गए। नलने उनमें से एक हंस को पकड लिया। उस हंस ने कहा— महाराज, आप मुझे छोड़ दें, मैं विदर्भ देश में जाकर दमंयती के सामने आपके रूप और गुण की प्रशंसा करूँगा। इनके छोड़ देने पर हंस विदर्भ देश में गया और वहाँ दमयती के बाग में जाकर इसने उसके सामने नल के रूप और गुण की खूब प्रशंसा की, जिसे सुनकर नल के प्रति उसका पहला अनुराग और भी बढ़ गया और उसने हंस से कह दिया कि मैं नल के साथ ही विवाह करूँगी, तुम यह बात जाकर उनसे कह देना। हंस ने वैसा ही किया। जब राजा भीम ने दमयंती का स्वयंवर रचा तब उसमें बहुत से राजाओं के अतिरिक्त अनेक देवता भी आए थे। जब इंद्र, यम, आग्नि और वरुण स्वयंवर में जा रहे थे तब उन्हें मार्ग में नल भी जाते हुए मिले। इन चारों देवताओं ने नल को आज्ञा दी कि तुम जाकर दमयंती से कहो कि हमलोग भी आ रहे हैं, हममें से ही किसी को तुम वरण करना। नल ने जब दमयंती से जाकर यह बात कही तब उसने कहा कि मैं तो तुम्हें ही पति बनाने की प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ, यही बात देवताओं से तुम कह देना। नल ने उसे देवताओं की ओर से बहुत समझाया पर दमयंती ने नहीं माना और कहा कि देवता धर्म के रक्षक होते हैं उन्हें मेरे धर्म की रक्षा करनी चाहिए। नल ने ये सब बातें देवताओं से कह दीं। इसपर वे चारों देवता नल का रूप धरकर स्वयंवर में पहुँचे और नल के समीप ही बैठे। दमयंती पहले तो नल के समान पाँच मनुष्यों को देखकर घबराई, पर पीछे से उसने असली नल को पहचानकर उन्हीं के गले में जयमाला पहनाई। इस पर चारों देवताओं मे प्रसन्न होकर नल को आठ वर दिए। दमयंती के साथ नल का विवाह तो हो गया पर कलियुग और द्वापर ने असंतुष्ट होकर नल को कष्ट पहुँचाना चाहा। कलियुग सदा नल के शरीर में प्रवेश करने का अवसर ढूँढा़ करता था। पर बारह वर्ष तक उसे अवसर ही न मिला। इस बीच में नल को इंद्रसेन नामक एक पुत्र और इंद्रसेना नामक एक कन्या भी हुई। एक दिन अवसर पाकर कलि ने स्वय तो नल के शरीर में प्रवेश किया और उधर उनके भाई पुष्कर को उनके साथ जूआ खेलकर निषध जीत लेने के लिये उभाडा़। तद- नुसार जूए में नल अपना सर्वस्व हार गए। पुष्कर ने आज्ञा दे दी कि नल या उनके परिवार के लोगों को कोई आश्रय या भोजन आदि न दे। दमयंती ने अपने पुत्र और कन्या को पिता के घर भेज दिया। जब तीन दिन तक नल दमयंती को अन्न भी न मिला तब वे दोनों जंगल में निकल गए। वहाँ वंपति को बडे़ बडे़ कष्ट मिले। एक दिन नल ने सोने के रंग के कुछ पक्षी देखे और उन्हें पकड़ने के लिये उनपर अपना कपडा़ डाला। पर ये पक्षी उनका कपडा़ लेकर ही उड़ गए। बहुत दुःखी होकर नल ने दमयंती से विदर्भ जाने के लिये कहा, पर उसने नहीं माना। उस समय उन दोनों के पास एक ही वस्त्र बच गया था। उसी को पहनकर दोनों चलने लगे। एक स्थान पर दमयंती थककर जब सो गई तब नल उसका आधा वस्त्र फाड़कर और उसे उसी दशा में छोड़कर चले गए। जब दमयंती सोकर उठी तब बहुत विलाप करती हुई अपने पति को ढूँढती ढूँढती और अनेक प्रकार के कष्ट उठाती अपने पिता के घर पहुँची। उधर नल भी अनेक कष्ट भोगते हुए अयोध्या पहुँचे और राजा ऋतुपर्ण के यहाँ सारथि हुए। बहुत पता लगाने पर दमयंती को सूत्र लगा कि ऋतुपर्ण के यहाँ बाहुक नामक जो सारथि है वह कदाचित् नल हो। भीम ने ऋतुपर्ण के यहाँ कहलाया कि कल हमारी कन्या का फिर से स्वयंवर होगा। उनके सारथि बाहुक (या नल) ने एक ही दिन में उन्हें विदर्भ पहुँचा दिया। वहाँ दमयंती ने नल को पहचाना और तीन वर्ष तक घोर कष्ट भोगने के उपरांत दंपति फिर मिले। उस समय तक कलि ने भी उनका पीछा छोड़ दिया था। इसके उपरांत ऋतुपर्ण ने नल से क्षमा माँगी। एक मास तक विदर्भ में रहने के उपरांत नल ने फिर पुष्कर के पास जाकर उससे जुआ खेला और फिर अपना राज्य जीत लिया। तब से दोनों फिर सुखपूर्वक रहने लगे। दमयंती का पातिव्रत आदर्श माना जाता है और घोर कष्ट भोगने के लिये नल दमयंती प्रसिद्ध हैं। ४. राम की सेना का एक बंदर जो विश्वकर्मा का पुत्र माना जाता है। विशेष—कहते हैं, इसी ने पत्थरों को पानी पर तैराकर रामचंद्र की सेना के लिये लंकाविजय के समय समुद्र पर पुल बाँधा था। पुराणानुसार यह ऋतुध्वज ऋषि के शाप के कारण घृताची के गर्भ से बंदर के रूप में उत्पन्न हुआ था। ५. एक दानव का नाम लो विप्रचित्ति का चौथा पुत्र था और सिंहिका के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। ६. यदु के एक पुत्र का नाम। ७. एक नद का नाम। ८. प्राचीन काल में एक प्रकार का चमडे़ का मढा़ हुआ बाजा जो घोडे़ की पीठ पर रखकर युद्ध के समय बजाया जाता था।
⋙ नल (२)
संज्ञा पुं० [सं० नाल] १. डंडे के रूप में कुछ दूर तक गई हुई वस्तु जिसके भीतर का स्थान खाली हो। पोली लंबी चीज। २. धातु, काठ या मिट्टी आदि का बना हुआ पोला गोल खंड। विशेष—यह कुछ लंबा होता है और एक स्थान से दूसरे स्थान तक पानी, हवा, धुआँ, गैस आदि के ले जाने के काम में आता है। ३. इसी प्रकार का इँट पत्थर आदि का बना हुआ वह मार्ग जो दूर तक चला गया हो और जिसमें से होकर गंदगी और मैला आदि बहता हो। पनाला। ४. पेड़ू के अंदर की वह नली जिसमें से होकर पेशाब नीचे उतरता है। नली। मुहा०—नल टलना = किसी प्रकार के आघात आदि के कारण पेशाब की उक्त नली में किसी प्रकार का व्यतिक्रम होना जिससे बहुत पीडा़ होती है।
⋙ नल पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नर'। उ०—जो चीन्है तेहि निर्मल अंगा। अनचीन्हे नल भए पतंगा।—कबीर बी०, पृ० २५।
⋙ नलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह गोलाकार हड्डी जिसके अंदर मज्जाहो। नली के आकार की हड्डी। २. कालदेवल के भतीजे का नाम जिसे बुद्ध ने उपदेश दिया था।
⋙ नलका †
संज्ञा स्त्री० [सं० नलिका] नली। नाल।
⋙ नलकिनी
संज्ञा पुं० [सं०] जंघा। जाँघ।
⋙ नलकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] छोटी नली। नलिका। उ०—क्षुद्र नलकी में समाता है कहीं बेथाह।—हरी घास०, पृ० १४।
⋙ नलकील
संज्ञा पुं० [सं०] जानु। घुटना।
⋙ नलकूप
संज्ञा पुं० [हिं०] पानी निकालने के लिये जमीन के नीचे गहराई तक छेदकर बैठाया गया एक विशेष प्रकार का नल जो मशीन द्वारा संचालित होता है। टयूबवेल।
⋙ नलकूबर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर के एक पुत्र का नाम। विशेष—इसका उल्लेख महाभारत में है। महाभारत में लिखा है कि एक बार यह अपने भाई मणिग्रीव के साथ खूब शराब पीकर कैलास पर्वत पर गगा के किनारे एक उपवन में स्त्रियों के साथ क्रीडा़ कर रहा था। उन दोनो को इस दुदंशा में देखकर नारद ने शाप दिया था कि तुम अर्जुन वृक्ष हो जाओ। कहते हैं, इसी शाप रके अनुसार ये दोनों वृंदावन मे यमलार्जुन हुए। यहाँ श्रीकृष्ण न उन्हें स्पर्श करक शाप- मुक्त किया। रामायण में लिखा है कि एक बार जब रावण दिग्विजय करके लौट रहा था तब रास्ते में उसे नलकूबर के यहाँ जाती हुई रंभा नामक अप्सरा मिली। रावण उसे जबरदस्ती पकडकर अपने साथ ले गया। उसी समय रंभा ने उसे शाप दिया था कि यदि तुम किसी स्त्री के साथ बलात्कार करोगे तो तुरंत मर जाओगे। कहते हैं, इसी भय से रावण ने सीता के साथ बलात्कार नहीं किया था। २. संगीत ताल के सात मुख्य भेदों में से एक जिसमें चार गुरु और चार लघु मात्राएँ होती हैं।
⋙ नलकोल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बैल।
⋙ नलदंबु
संज्ञा पुं० [सं० नलदम्बु] नीम का पेड़।
⋙ नलद
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुष्परस। मकरंद। २. उशीर। खस। ३. जटामासी। बालछड़। ४. लामज्जक नामक घास।
⋙ नलदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी। बालछड।
⋙ नलनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नलिनी] दे० 'नलिनी'। उ०—कहैं कबीर नलनी के सुगना तोहि कवन पकरो।—कबीर श०, भा० २, पृ० १४०।
⋙ नलनीरुह
संज्ञा पुं० [सं० नलिनीरुह] मृशाल। कमल की नाल।
⋙ नलपुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर का नाम जिसका उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में है।
⋙ नलबाँस (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नल + बाँस] हिमालय की तराई में होनेवाला एक प्रकार का बाँस जिसे विधुली और देवबाँस भी कहते हैं।
⋙ नलबाँस (२)
वि० दे० 'देवबाँस'।
⋙ नलमीन
संज्ञा पुं० [सं०] झींगा मछली।
⋙ नलवा
संज्ञा पुं० [हिं०] बाँस की टोटी जिसमें बैल को घी पिलाया जाता है। चोंगा।
⋙ नलसेतु
संज्ञा पुं० [सं०] रामेश्वर के निकट का समुद्र पर बँधा हुआ वह पुल जो रामचंद्र ने नल नील आदि से बनवाया था।
⋙ नला
संज्ञा पुं० [हिं० नल] १. पेड़ के अंदर की वह नाली जिसमें से होकर पेशाब नीचे उतरता है। मुहा०—नला टलना = किसी प्रकार के आघात आदि के कारण पेशाब की उक्त नाली में किसी प्रकार का व्यतिक्रम होना जिससे बहुत पीडा़ होती है। २. हाथ या पैर की नली के आकार की लंबी हड्डी।
⋙ नलाना
क्रि० स० [हिं० निराना] जिस खेत में फसल बोई गई हो इसमें की निरर्थक घास आदि दूर करना।
⋙ नलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० नलाना] १. नलाने या निराने का भाव। २. नलाने की क्रिया। ३. नलाने की मजदूरी।
⋙ नलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नल के आकार की कोई वस्तु। चोंगा। नली। २. मूँगे के आकार का एक प्रकार का गंधद्रव्य। विशेष—वैद्यक में यह तीता, कडुवा तीक्ष्ण, मधुर और कृमि, वात, अर्श और शूल रोग का नाशक और मलशोधक माना गया है। पर्या०—विद्रुमलतिका। कपोलचरणा। नलिनी। रक्तदला। नर्तक। नटी। प्रवाली। ३. प्राचीन काल का एक अस्त्र। विशेष—इसके विषय में कुछ लोगों का अनुमान है कि यह आजकल की बंदूक के समान होता था और इसके द्वारा लोहे की बहुत छोटी छोटी गोलियाँ या तीर छोडे़ जाते थे। इसका उल्लेख रामायण और महाभारत के अतिरिक्त वेदों तक में पाया जाता है। शुक्रनीति में इसका अच्छा वर्णन हैं। इसे नालक और नाल भी कहते थे। ४. तरकश जिसमें तीर रखते हैं।५. करेमू का साग। ६. पुदिना। ७. वैद्यक में एक प्रकार का प्राचीन यंत्र जिसकी सहायता से जलोदर के रोगी के पेट से पानी निकाला जाता था।
⋙ नलित
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साग जो नाड़िका साग भी कहलाता है। विशेष—वैद्यक में यह तिक्त, पित्तनाशक और शुक्रवर्धक माना गया है।
⋙ नलिन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० नलिनी] १. पद्म। कमल २. नीलिका। नील। ३. जल। पानी। ४. नीम। ५. सारस पक्षी। ६. करौंदा।
⋙ नलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमलिनी। कमल। २. वह देश जहाँ कमल अधिकता से होता हों। ३. पुराणानुसार गंगा की एक धारा का नाम। देवगंगा। ४. नारियल की शराब। ५. नखिनी नामक गंधद्रव्य। ६. नाक का बायाँ नथना।७. नदी। ८. एक वृत का नाम जिसके प्रत्येक चरण में पाँच सगण होते हैं। विशेष—इसे मनहरण और भ्रमरावली भी कहते हैं। ९. कमलों का समूह (को०)। १०. कमलनाल (को०)। ११. इंद्रपुरी (को०)।
⋙ नलिनीनंदन
संज्ञा पुं० [सं० नलिनीनन्दन] कुबेर के उपवन का नाम।
⋙ नलिनीरुह
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृणाल। कमल की नाल। २. ब्रह्मा।
⋙ नलिनेशय
संज्ञा पुं० [सं०] बिष्णु का एक नाम।
⋙ नलिया †
संज्ञा पुं० [हिं०] बहेलिया।
⋙ नली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मैनसिल। २. नलिका नाम का गंधद्रव्य।
⋙ नली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नल का स्त्री० अल्पा०] १. छोटा या पतला नल। छोटा चोंगा। २. नल के आकार की भीतर से पोली हड्डी जिसमें मज्जा भी होता है। ३. घुटने से नीचे का भाग। पैर की पिंडली। ४. बंदूक की नली जिसमें होकर गोली पहले गुजरती है। ५. जुलाहों की नाल। विशेष—दे० 'नाल'। ६. दे० 'नल'।
⋙ नलीमोज
संज्ञा पुं० [फा़०] वह कबूतर जिसकै पंजे तक पर होते हैं।
⋙ नलुआ
संज्ञा पुं० [हिं० नल (= गला)] १. पशुओं का एक रोग जिसमें सूजन हो जाती है। २. छोटा नल या चोंगा। ३. बाँस की पोर। बाँस की दो गाँठों के बीच का टुकडा़।
⋙ नलुवा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नलुआ—२'। उ०—वा थान कों बाँस के एक नलुवा में धरि कै लाठी करि वह बाहिर निकस्यो।—दो सौ बावन, भा० १, पृ० १६९।
⋙ नलोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] देवनल। बडा़ नरसल।
⋙ नल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० नली] १. दे० 'नली'। २. एक प्रकार की घास जिसे पलवान भी कहते हैं। विशेष—दे० 'पलवान'।
⋙ नल्व
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की जमीन की एक प्रकार की नाप या परिमाण। विशेष—यह किसी के मत से सौ हाथ का और किसी के मत से चार सौ हाथ का होता है।
⋙ नल्वण
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का मान। विशेष—यह किसी के मत से सोलह सेर का और किसी के मत से बत्तीस सेर का होता है।
⋙ नल्ववत्मँगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकजंघा।
⋙ नवंबर
संज्ञा पुं० [अं०] अँगरेजी मास का ग्यारहवाँ महीना जो ३० दिनों का तथा अक्टूबर के बाद और दिसंबर से पहले होता है।
⋙ नव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्तव। स्तोत्र। २. लाल रंग की गदहपूरना। विशेष-दे० 'पुनर्नवा'। ३. हरिवंश के अनुसार उशीनर नामक राजा के लड़के का नाम। ४. काक। कौआ (को०)।
⋙ नव (२)
वि० [सं०] नया। नवीन। नूतन।
⋙ नव (३)
वि० [सं०] नौ। आठ और एक। दस से एक कम। विशेष—'नव' शब्द से कहीं ग्रह और रत्न आदि उन पदार्थों का भी अभिप्राय लिया जाता है जो गिनती में नौ होते हैं। जैसे—स्तर किरीट अति लसत जटित नव नव कनगूरे।—गिरधर (शब्द०)।
⋙ नवक (१)
वि० [सं०] दे० 'नौ'।
⋙ नवक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक ही तरह की नौ चीजों का समूह। जैसे, (नौ) धातुओं का नवक, (नौ) ग्रहों का नवक।
⋙ नवका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नौका, प्रा० हिं० नवका] दे० 'नाव'। उ०—उड्डप पोत, नवका, पलन, तरि, वहित्र जलजान। नाम नाव चढे़ भव उदधि, केते तरे अजान।—नंद० ग्रं०, पृ० ९१।
⋙ नवकार
संज्ञा पुं० [सं०] जौनियों का एक मंत्र।
⋙ नवकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्री। नवोढा स्त्री।
⋙ नवकार्षि गूगल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का चूर्ण जिसमें गूगल, त्रिफला और पिप्पली सब चीजें बराबर होती हैं। विशेष—इसका व्यवहार शोथ, गुल्म, भगंदर और बवासीर आदि को दूर करने में होता है।
⋙ नवकालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. युवा स्त्री। नवयौवना। नौजवान औरत। २. वह युवती जो हाल में पहले पहल रजस्वला हुई हो।
⋙ नवकुमारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नौ रात्र में पूजनीय नौ कुमारियाँ जिनमें निम्नलिखित नौ देवियों की कल्पना की जाती है कुमारिका, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, काली, चंडिका, शांभवी, दुर्गा और सुभद्रा। विशेष—दे० 'नवरात्र'।
⋙ नवखंड
संज्ञा पुं० [सं० नवखण्ड] भूमि के नौ विभाग, यथा— भरत, इलावर्त, किंपुरुष, भद्र, केतुमाल, हरि, हिरण्य, रम्य और कुश।
⋙ नवग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में सूर्य चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु ये नौ ग्रह। विशेष— दे० 'ग्रह'।
⋙ नवच्छिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नवद्वार'।
⋙ नवछावरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'न्योछावर'। उ०—लेति बलाय करति नवछावरि बलि भुजदंड कनक अति भासी। नरनारी के नैन निरखि करि चातक तृषित चकोर प्यासी।— सूर (शब्द०)।
⋙ नवजात
वि० [सं०] सद्यःउत्पन्न। तुरंत का पैदा हुआ [को०]।
⋙ नवज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] आरंभिक ज्वर। चढ़ता बुखार। वह बुखार जिसका अभी आरंभ हुआ हो। विशेष—दे० 'ज्वर'।
⋙ नवडा़
संज्ञा पुं० [देश०] मरसा।
⋙ नवढा़ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नवोढा] दे० 'नवोढा़'। उ०—नित्या- नित्य विचार सहित सब साधन साधै। कै इह नवढा़ नारि धारि उर में आराधै।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ९१।
⋙ नवतन
संज्ञा पुं० [सं० नवतन्तु] महाभारत के अनुसार विश्वामित्र के एक लड़के का नाम।
⋙ नवता पु
वि० [सं० नवीन] नवीन। नया। ताजा।
⋙ नवता (१)
संज्ञा पुं० [सं० नमन] ढालुआँ जमीन। उतार (कहार)।
⋙ नवता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नवीनता। नयापन।
⋙ नवति (१)
वि० [सं०] अस्सी और दस। सौ से दस कम। नब्बे।
⋙ नवति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नब्बे की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—९०।
⋙ नवदंड
संज्ञा पुं० [सं० नवदण्ड] राजाओं के तीन प्रकार के छत्रों में से एक प्रकार के छत्र का नाम।
⋙ नवदंडक
संज्ञा पुं० [सं० नवदण्डक] दे० 'नवदंड' [को०]।
⋙ नवदल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल का वह पत्ता जो उसके केसर के पास होता है। २. नया पत्ता (को०)।
⋙ नवदीधिति
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल ग्रह।
⋙ नवदुर्गा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार नौ दुर्गाएँ जिनकी नवरात्र में नौ दिनों तक क्रमशः पूजा होती है। यथा—शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदा। विशेष—दे० 'दुर्गा'।
⋙ नवद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर में के नौ द्वार, यथा—दो आँखें, दो कान, दो नाक, एक मुख एक गुदा और एक लिंग या भग। विशेष—प्राचीनों का विश्वास था और अब भी कुछ लोगों का विश्वास है कि जब मनुष्य मरने लगता है तब उसका प्राण इन्हीं नौ द्वारों में से एक द्वार से निकलता है।
⋙ नवद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] बंगाल का एक प्रसिद्ध नगर और विद्यापीठ जो राजा लक्ष्मणसेन की राजधानी थी। विशेष—यह नगर गंगा नदी के बीच में एक चर पर बसा हुआ है। कहते हैं, वहाँ छोटे छोटे नौ गाँव हैं जिनके समूह को पहले नवद्वीप कहते थे। आधुनिक 'नदिया' शब्द इसी का अपभ्रंश है। यह स्थान विशेषतः न्यायशास्त्र के लिये बहुत प्रसिद्ध है।
⋙ नवघा अंग
संज्ञा पुं० [सं० नवधा अङ्ग] शरीर के नौ अंग—यथा- दो आँखें, दो कान, दो हाथ, दो पैर और एक नाक।
⋙ नवधातु
संज्ञा स्त्री० [सं०] नव धातुएँ। विशेष—हेमतारारनागाश्च ताम्ररंगे च तीक्ष्णकम्। कांस्यक कांतलोहं च धातवो नव कीर्तिता।
⋙ नवधा भक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] नौ प्रकार की भक्ति। यथा— श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, सख्य, दास्य और आत्मनिवेदन। विशेष-दे० 'भक्ति'।
⋙ नवन पु
संज्ञा पुं० [सं० नमन] दे० 'नमन'।
⋙ नवना पु †
क्रि० अ० [सं० नमन] १. झुकना। २. नम्र होना।
⋙ नवनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नवना] १. झुकने की क्रिया या भाव। २. नम्रता। दीनता। उ०—नवनि नीच की अति दुखदाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नवनिधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निधि'।
⋙ नवनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नवनीत। मक्खन।
⋙ नवनीत
संज्ञा पुं० [सं०] १. मक्खन। २. श्रीकृष्ण।
⋙ ननीतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. घृत। घी। २. मक्खन।
⋙ नवनीत गणप
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक गणेश या गणपति का नाम।
⋙ नवनीत धेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार दान के लिये एक प्रकार की कल्पित गौ जिसकी कल्पना मक्खन के ढेर में की जाती है। विशेष—कहते हैं, इस गौ के दान से शिवसायुज्य प्राप्त होता है और विष्णुलोक में वास होता है। वराह पुराण में इसका विस्तृत विवरण हुआ है।
⋙ नवपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] केले, अनार, धान, हल्दी, मानकच्चू, कच्चू, बेल, अशोक और जयंती इन नौ वृक्षों के पत्ते। विशेष—इनका व्यवहार नवदुर्गा के पूजन में होता है।
⋙ नवपद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मूर्ति जिसकी उपासना जैन लोग करते हैं।
⋙ नवपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौपई या जनकरी छंद का एक नाम। विशेष—दे० 'चौपई'।
⋙ नवप्राशन
संज्ञा पुं० [सं०] नया अन्न या फल आदि खाना।
⋙ नवफलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नवकालिका'।
⋙ नवभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नवधा भक्ती'।
⋙ नवम
वि० [सं०] जो गिनती में नौ के स्थान पर हो। नवाँ।
⋙ नवमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमेली। २. नेवारी।
⋙ नवमांश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नवांश'।
⋙ नवमालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण, नगण, जगण, भगण और यगण (/?/) होता है। इसे 'नवमालिनी' भी कहते हैं। २. नेवारी का फूल।
⋙ नवमालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नवमल्लिका'।
⋙ नवमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चांद्र मास के किसी पक्ष की नवीं तिथि। विशेष—धार्मिक कृत्यों के लिये अष्टमीविद्धा नवमी ग्राहय होती है। कुछ विशिष्ट मासों के विशिष्ट पक्ष की नवमी के अलग अलग नाम हैं। जैसे, माघ के शुक्ल पक्ष की नवमी का नाम महानंदा, चैत्र शिक्ला नवमी का नाम रामनवमी।
⋙ नवयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] वह यज्ञ जो नए अन्न के निमित्त किया जाय।
⋙ नवयुवक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० नवयुवती] नौजवान। तरुण।
⋙ नवयुवा
संज्ञा पुं० [सं०] जवान। तरुण।
⋙ नवयोनिन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] तत्र के अनुसार एक प्रकार का न्यास।
⋙ नवयौवना
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके यौवन का आरंभ हो। नौजवना औरत।
⋙ नवरंग
वि० [सं० नव + हिं० रंग] १. सुंदर। रूपवान। नई छटावाला। उ०—सूरदास युगभरि बीतत छिनु। हरि नवरंग कुरंग पीव बिनु।—सूर (शब्द०)। २. नए ढंग का। नवेला। नई शोभायुक्त। उ०—आज बनी नवरंग किसोरी।—सूर (शब्द०)।
⋙ नवरंगी (१)
वि० [हिं० नवरंग + ई (प्रत्य०)] १. नित्य नए आनंद करनेवाला। उ०—ऐसे हैं त्रिभंगी नवरंगी सुखदाई री। सूर स्याम बिन न रहौं ऐसी बनि आई री।—सूर (शब्द०)। २. रँगीली। हँसमुख। खुशमिजाज। उ०— नाउति बोलहु महावर वेग। लाख टका अरु झूमक सारी देहु दाई को नेग।—सूर (शब्द०)।
⋙ नवरंगी (२)
संज्ञा स्त्री०दे० 'नारंगी'।
⋙ नवरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोती, पन्ना, मानिक, गोमेद, हीरा, मूँगा, लहसुनिया, पद्मराग और नीलम ये नौ रात्न या जवाहिर। विशेष—पुराणानुसार ये नौ रत्न अलग अलग एक एक ग्रह के दोषों की शांति के लिये उपकारी हैं। जैसे, सूर्य के लिये लहसुनिया, चंद्रमा के लिये नीलम, मंगल के लिये मानिक, बुध के लिये पुखराज, बृहस्पति के लिये मोती, शुक्र के लिये हीरा, शनि के लिये नीलम, राहु के लिये गोमेद और केतु के लिये पन्ना। २. राजा विक्रमादित्य की एक कल्पित सभा के नौ पंडित जिनके नाम ये हैं—धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेतालभट्ट धटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि। विशेष—ये सब पंडित एक ही समय में नहीं हुए हैं बल्र्कि भिन्न भिन्न समयों में हुए हैं। लोगों ने इन सबको एकत्र करके कल्पना कर ली है कि ये सब राजा विक्रमादित्य की सभा के नौ रत्न थे। ३. गले में पहनने का एक प्रकार का हार जिसमें नौ प्रकार के रत्न या जवाहारात होता हैं।
⋙ नवरस
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य के नौ रस, यथा शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शांत। विशेष—दे०'रस'
⋙ नवरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० नकुल] दे० 'नेवला'।
⋙ नवरा पु † (२)
वि० [सं० नवल] नया। उ०—हाटे बाटे मिले बटोही लया बरद है नवरा।—सं० दरिया, पृ० १४१।
⋙ नवरात पु
संज्ञा पुं० [सं० नवरात्र] दे० 'नवरात्र'। उ०—लखि अग्गम नवरात को सबको मन हुलसात। लखन रामलीला ललित सजि सजि सबही जात।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६९०।
⋙ नवराता †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नवरात्र'।
⋙ नवरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का नौ दिनों तक होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ। २. चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से नवमी तक और आश्र्विन शुक्ला प्रतिपदा से नवमी तक के नौ नौ दिन जिसमें लोग नवदुर्गा का व्रत, घटस्थापन तथा पूजन आदि करते हैं। विशेष—हिंदुओं में यह नियम है कि वे नवरात्र के पहले दिन घटस्थापन करते हैं और देवी का आवाहन तथा पूजन करते हैं। यह पूजन बराबर नौ दिनों तक होता रहता है। नवें दिन भगवती का विसर्जन होता है। कुछ लोग नवरात्र में व्रत भी करते हैं। घटस्थापन करनेवाले लोग अष्टमी या नवमी के दिन कुमारीभोजन भी करते हैं। कुमारी- भोजन में प्रायः नौ कुमारीयाँ होती हैं जिनकी अवस्था दो और दस वर्ष के बीच की होती है। इन नौ कुमारीयों के के कल्पित नाम भी हैं। जैसे,—कुमारिका, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, काली, चंडिका, शांभवी, दुर्गा और सुभद्रा। नवरात्र में नवदुर्गा में से नित्य क्रमशः एक एक दुर्गा के दर्शन करने का भी विधान है।
⋙ नवराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश जिसे सहदेव ने दक्षिण की ओर दिग्विजय करते समय जीता था।
⋙ नवरिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] नाव। उ०। उ०—गँग जमुन दोउ बहइय तीक्षण धार। सुमति नवरिया बैसल उतरब पार।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३७९।
⋙ नवल (१)
वि० [सं०] १. नवीन। नूतन। नव्य। नया। २. सुंदर। ३. जवान। युवा। नवयुवक। ४. उज्वल। शुद्ध। साफ। स्वच्छ।
⋙ नवल (२)
संज्ञा पुं० [अं० नेवल (जहाजी) ?] माल का किराया जो जहाजवालों को दिया जाता है (लश०)।
⋙ नवल अनंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० नवल अनङ्ग] केशव के अनुसार मुग्धा नायिका के चार भेदों में से एक।
⋙ नवलकिशोर
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्णचंद्र।
⋙ नवलवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] केशव के अनुसार मुग्धा नायिका के चार भेदों में से एक।
⋙ नवला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नवीन स्त्री। तरुणी।
⋙ नवला (२)
वि० स्त्री० नई। नवीना। चढ़ती वय की। उ०—का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि। चाँद सरग पर सोहत यहि अनुहारि।—तुलसी ग्रं०, पृ० २०।
⋙ नवलेवा †
संज्ञा पुं० [सं० नव + सं० लेप, हिं० लेवा (= कीचड़ का लेप)] वह कीचड़ जो बढी़ हुई नदीं के उतरने से किनारे पर रह जाता है। नदी के किनारे की दलदल।
⋙ नववर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वर्ष' (पृथ्वी के विभाग का देश)।
⋙ नववल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अगर जिसे दाह अगर कहते हैं, और जिसकी गिनती गंधद्रव्यों में होती है।
⋙ नववासुदेव
संज्ञा पुं० [सं०] रत्नसारानुसार जैन लोगों के नव वासुदेव जिनके नाम ये हैं—त्रिपृष्ठ, द्विपष्ट, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, सिंहपुरुष, पुडंरीक, दत्त, लक्ष्मण और श्रीकृष्ण। विशेष—कहते हैं कि ये सब ग्यारहवें, बारहवें, चौदहवें, पंद्रहवें, अठरहवें, बीसवें और बाईसवें तीर्थकरों के समय में नरक गए थे।
⋙ नववास्तु
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक राजर्षि का नाम।
⋙ नवविंश
वि० [सं०] उनतीसवाँ। जो क्रम में अट्ठाईस के बाद हो।
⋙ नवविंशति (१)
वि० [सं०] बीस और नौ। तीस से एक कम।
⋙ नवविंशति (२)
संज्ञा स्त्री० बीस और नौ की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—२९।
⋙ नवविष
संज्ञा पुं० [सं०] वत्सनाभ, हारिद्रक, सक्तुक, प्रदीपन, सौराष्ट्रिक, श्रंगक, कालकूट, हलाहल और ब्रह्मपुत्र ये नौ विष।
⋙ नवव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।
⋙ नवशक्ति
स्ज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार प्रभा, माया, जया, सूक्ष्मा, विशुद्धा, नंदिनी, सुप्रभा, विजया और सर्वसिद्धिदा ये नौ शक्तियाँ।
⋙ नवशायक
संज्ञा पुं० [सं०] पराशर संहिता के अनुसार ग्वाला, माली, तेली, जोलाहा, हलवाई, बरई, कुम्हार, लोहार और हज्जाम ये नौ जातियाँ। विशेष—अक्त संहिता के अनुसार ये नौ जातियाँ संकर हैं और शुद्ध शूद्र जाति के अंतर्गत हैं। बंगाल में नवशायकों के हाथ का जल ब्राह्मण लोग पीते ओर उनका दान ग्रहण करते हैं।
⋙ नवशिक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने अभी हाल में कुछ पढा़ या सीखा हो। नौसिखुआ। २. वह जिसे आधुनिक ढंग की शिक्षा मिलि हो।
⋙ नवशोभ
संज्ञा पुं० [सं०] नई शोभावाला। तरुण। जवान। युवक।
⋙ नवश्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] एक श्राद्ध जो प्रेत के लिये किया जाता है। विशेष—यह मरनेवाले दिन से आरंभ किया जाता है तथा एक एक दिन के अंतर पर अर्थात् तीसरे, पाँचवे, सातवें नवें और ग्यारहवें दिन किया जाता है।
⋙ नवसंगम
संज्ञा पुं० [सं० नवसङ्गम] प्रथम समागम। नया मिलाप। पति से पत्नी की पहली भेंट।
⋙ नवसत पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० नव + हिं० सत (= सप्त)] नव और सात, सोलह शृंगार। उ०—नवसत साजि भई सब ठाढी को छवि सकै बखानी। सूर (शब्द०)।
⋙ नवसत (२)
वि० सोलह। षोडस। क्रि० प्र०—सजना, साजना = सोलहों शृंगार करना। उ०— नवसत साजि सिंगार युवति सब दधि मटुकी लिए आवत। सूर (शब्द०)।
⋙ नवसप्त
संज्ञा पुं० [सं०] नौ और सात, सोलह शृंगार। क्रि० प्र०—सजना, साजना = सोलहो शृंगार करना। उ०— (क) चलि ल्याह सीतहिं सखी नादर सजि सुमंगल भामिनी। नवसप्त साजे सुंदरी सब मत कुंजर गामिनी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जहँ तहँ जूथ मिलि भामिनि। सजि नवसप्त सकल दुति दामिनि।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नवसर (१)
संज्ञा पुं० [सं० नव + हिं० नौ] नौ लड़ का हार। उ०— कंठसिरी दुलरी तिलरी को और हार एक नवसर।— सूर (शब्द०)।
⋙ नवसर (२)
वि० [सं० नव + वत्सर] नववयस्क। जिसकी नई उमर हो। उ०—सूरस्याम स्यामा नवसर मिलि रीझे नंदकुमार।—सूर (शब्द०)।
⋙ नवससि पु
संज्ञा [सं० नवशशि] द्वितीया का चंद्रमा। दूज का चाँद। नया चाँद।
⋙ नवसात पु
संज्ञा पुं० [सं० नव + सप्त] दे० 'नवसत'। क्रि० प्र०—करना = सोलहो शृंगार करना। उ०—पातरे गात किये नवसात निकाई सों नाक चढा़एँई बोलै।—घनानंद, पृ० २०९।
⋙ नवसिखा
संज्ञा पुं० [सं० नव + हिं० सीखना] दे० 'नौसिखुआ'।
⋙ नवहड़ पु †
संज्ञा पुं० [सं० नव + हिं० हँड़ (= हाँडी़)] मिट्टी का नया बरतन। नई हाँडी़। नौहँड़। उ०—कोउ सीधा, नवहड़ ल्यावत मोदीखानो सन।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २६।
⋙ नवांग
संज्ञा पुं० [सं० नवाङ्ग] सोंठ, पीपल, मिर्च, हड़, बहेडा़, आँवला, चाव, चीता और बायविडंग ये नौ पदार्थ।
⋙ नवांगा
संज्ञा स्त्री० [सं० नवाङ्गा] काकडासिंगी।
⋙ नवांश
संज्ञा पुं० [सं०] एक राशि का नवाँ भाग जिसका व्यवहार फलित ज्योतिष में किसी नवजात बालक के चरित्र, आकार और चिह्न आदि का विचार करने में होता है।
⋙ नवाँ
वि० [सं० नवम] जो गिनती में नौ के स्थान पर हो। आठवें के बाद और दसवें के पहले का नौवाँ।
⋙ नवा †
वि० [हिं०] दे० 'नया'।
⋙ नवाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नवना] विनीत होने का भाव। उ— सूर नवाई नवखंड वहे। सात दीप दुनी सब नए।—जायसी (शब्द०)।
⋙ नवाई पु † (२)
वि० नया। नवीन। उ०—यह मति आप कहाँ धौं पाई। आजु सुनी यह बात नवाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ नवागत
वि० [सं०] [वि० स्त्री० नवागता] नया आया हुआ। जो अभी आया हो।
⋙ नवागतसैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] नई भरती की हुई फौज। रंगरूटों की सेना। विशेष—कौटिल्य ने लिखा है कि नवागत तथा दूरयात (दूर से आने के कारण थके) सैन्य में से नवागत सैन्य दूसरे देश से आकर पुरानों के साथ मिलकर युद्ध कर सकती है। दूरयात सैन्य के संबंध में यह बात नहीं है; क्योंकि यह थकावट के कारण लडा़ई के अयोग्य होती है।
⋙ नवाज
वि० [फा़० नवाज] कृपा करनेवाला। दया दिखानेवाला। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रोयग केवल यौगिक शब्दों के अंत में होता है। जैसे, बंदानवाज। गरीबनवाज = दीन- दयालु। उ०—मुझको पूछा तो कुछ गजब न हुआ। में गरीब और तू गरीबनवाज।—गालिब०, पृ० १५७।
⋙ नवाजना पु †
क्रि० स० [फा़० नवाज] कृपा करना। दया दिखलाना।
⋙ नवाजिश
संज्ञा स्त्री० [फा़० नवाजिश] मेहरबानी। कृपा। दया। उ०—नवाजिश हाए बेजा देखता हूँ। शिकायत हाए रंगी का गिला क्या।—गालिब, पृ० ५५।
⋙ नवाडा़ †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की नाव। नवारा। उ०— घावों से लोहू की नदी बह निकली, जिसमें भुजाएँ मगरमच्छी सी जनाती थीं, कटे हुए हाथियों के मस्तक घड़ियाल से डूबते उछलते जाते थे। बीच रथ बडे़ नवाडे़ से बहे जाते थे।—लल्लू (शब्द०)।
⋙ नवान †
संज्ञा पुं० [सं० नवान्न] दे० 'नवान्न'। मुहा०—नवान करना = फसल का नया आया हुआ अन्न भून या पकाकर पहले पहल खाना। उ०—जौ की कच्ची बालों को भूनकर गुड़ मिलाकर लोग नवान कर रहे हैं।—तितली, पृ० १३३।
⋙ नवाना
क्रि० स० [सं० नवन या नमन] झुकाना। विनीत करना। जैसे, सिर नवाना।—उ०—गज तबहिं कछू दुष पावा। अंकुश कै ओर नवावा।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १२२।
⋙ नवान्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. फसल का नया आया हुआ अनाज। २. एक प्रकार का श्राद्ध जो प्रचीन काल में नया अन्न तेयार होने पर पितरों के उद्देश्य से होता था। ३. ताजा पकाया हुआ अन्न। रींधा हुआ अन्न।
⋙ नवाब (१)
संज्ञा पुं० [अ० नव्वाब] १. बादशाह का प्रतिनिधि जो किसी बडे़ प्रदेश के शासन के लिये नियुक्त हो। विशेष—भारत में इसका प्रयोग पहले पहल मुगल सम्राटों के समय उनके प्रतिनिधियों के लिये हुआ था। जैसे, लकनऊ के नवाब, सूरत के नवाब। २. एक उपाधि जो आजकल छोटे मोटे मुसलमानी राज्यों के मालिक अपने नाम के साथ लगाते हैं। जैसे, रामपुर के नवाब। ३. एक उपाधि जो भारतीय मुसलमान अमीरों को अँगरेजी सरकार की ओर से मिलती थी और जो प्रायः राजा की उपाधि के समान होती थी।
⋙ नवाब (२)
वि० बहुत शान शौकत और अमीर ढंग से रहने तथा खूब खर्च करनेवाला। जैसे,—(क) जब से उनके बाप मर गए हैं तब से वे नवाब बन गए हैं। (ख) ऐसे नवाब मत बनो नहीं तो साल दो साल में भीख माँगने लगोगे।
⋙ नवाबजादा
संज्ञा पुं० [फा़० नवाबजादह्] १. नवाब का पुत्र। नवाब का बेटा। २. वह जो बहुत बडा़ शौकीन हो— (व्यंग्य)।
⋙ नवाबपसंद
संज्ञा पुं० [फा़०] एक प्रकार का दान जो भादों के अंत या क्वार के आरंभ में तौयार होता है।
⋙ नवाबी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नवाब + ई (प्रत्य०)] १. नवाब का पद। २. नवाब का काम। ३. नवाब होने की दशा। ४. नवाबों का राजत्वकाल। जैसे,—नवाबी में अबध की हालत कुछ और ही थी। ५. नवाबों की सी हुकूमत। जैसे—चुपचाप बैठो, यहाँ तुम्हारी नवाबी नहीं चलेगी। ६. बहुत अधिक अमीरी या अमीरों का सा अपव्यय। जैसे,—अभी कहीं से सौ दो सौ रुपए उन्हें मिल जायँ, फिर देखिए उनकी नवाबी। ७. एक प्रकार का कपडा़ जिसे पहले अमीर लोग पहना करते थे।
⋙ नवारना †
क्रि० अ० [हिं०] १. चलना। टहलना। २. यात्रा करना। सफर करना।
⋙ नवारा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बडी़ नाव।
⋙ नवारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नेवारी'।
⋙ नवासंज
संज्ञा पुं० [फा़०] गायक। उ०—किसी को दे के दिल कोई नवासंजे फुगाँ क्यों हो। न हो जब दिल ही सीने में तो मुँह में फिर जबाँ क्यों हो।—गालिब०, पृ० २५३।
⋙ नवासा
संज्ञा पुं० [फा़० नावसह्] [स्त्री० नवासी] बेटी का बेटा। दौहित्र।
⋙ नवासाज
संज्ञा पुं० [फा़० नवासाज] गायक [को०]।
⋙ नवासी (१)
वि० [सं० नवाशोति] नौ और अस्सी। एक कम नब्बे।
⋙ नवासी (२)
संज्ञा पुं० नौ और अस्सी की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—८९।
⋙ नवासी † (३)
वि० स्त्री० [हिं० नाना(= डालना)] संभोग की तीव्र इच्छा या लालसावाली। (बाजारू)।
⋙ नवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामायण का वह पाठ जो नौ दिन में समाप्त किया जाता है। २. किसी सप्ताह, पक्ष, मास या वर्ष आदि का नया दिन।
⋙ नवि पु
अ० [प्रा० णवि] न। नहीं तो। अन्यथा। उ०— पावस आयउ साहिबा, बोलर लागा मोर। कंता तूँ घरि आव नवि, जीवन कोधउ जोर।—ढोला०, दू० ३८।
⋙ नवी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह रस्सी जिससे गाय के पैर में बछडे का गला बाँधकर दूध दुहते हैं। नोई।
⋙ नवी पु † (२)
वि० [सं० नव, तुलनीय फा़० नवी (= नया, आधुनिक)] दे० 'नई'। उ०—नवी बाली कू नली (?) कदम में भेजे, प्रीत प्याले भरकर पियाला बसंत।—दक्खिनी०, पृ० ७४।
⋙ नवीन (१)
वि० [सं०] १. जो अभी का या थोडे़ समय का हो। प्राचीन का उलटा। हाल का। ताजा। नया। नूतन। २. विचित्र। अपूर्व।
⋙ नवीन (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री० नबीना] नवयुवक। तरुण। जवान।
⋙ नवीनता
संज्ञा स्त्री० [सं० नवीनत्व] नूतनत्व। नूतनता। नवीन या नया होने का भाव।
⋙ नवीस
संज्ञा पुं० [फा़०] लिखाई। लिखने की क्रिया य़ा भाव। विशेष—इस शब्द का प्रयोग शब्दों के अंत में होता है। जैसे, अरजीनवीस।
⋙ नवीसी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] लिखाई। लिखने की क्रिया या भाव।विशेष—इस शब्दों का प्रयोग शब्दों के अंत में होता है। जैसे, अरजीनवीसी।
⋙ नवेद
संज्ञा स्त्री० [सं० निवेदन अथवा फा़०] १. निमंत्रण। न्योता। २. वह चिट्टी जिसमें न्योता लिखकर भेजा जाय। निमंत्रण- पत्र। ३. शुभ सूचना। खुशखबरी (को०)।
⋙ नवेला
वि० [सं० नवल] [स्त्री० नवेली] १. नवीन। नया। २. तरुण। जवान।
⋙ नवेली (१)
वि० स्त्री० [सं० नवल] नई उमर की। तरुणी।
⋙ नवेली (२)
संज्ञा स्त्री० नई स्त्री। युवती। तरुणी।
⋙ नवैग्रह पु
संज्ञा पुं० [सं० नवग्रह] दे० 'नवग्रह'। उ०—प्रसन नवैग्रह सिव प्रसन, हिर आग्या सुर राय।—रा० रू०, पृ० ३६६।
⋙ नवैयत
संज्ञा स्त्री० [अ०] प्रकार। भेद। किस्म।
⋙ नवोढा़
संज्ञा स्त्री० [सं० नवोढा] १. विवाहिता स्त्री। बधू। २. नवयौवना। युवती स्त्री। ३. साहित्य में मुग्धा के अंतर्गत ज्ञातयौवना नायिका का एक भेद। वह नायिका जो लज्जा और भय के कारण नायक के पास न जाना चाहती हो।
⋙ नवोदधृत
संज्ञा पुं० [सं०] मक्खन।
⋙ नव्य (१)
वि० [सं०] १. नया। नवीन। नूतन। ताजा। २. स्तुति करने के योग्य।
⋙ नव्य (२)
संज्ञा पुं० गदहपूर्ना। रक्त पुनर्नवा।
⋙ नव्वाब
संज्ञा पुं० [अ०] १. बादशाह का प्रतिनिधि या नायब जो उसकी ओर से किसी क्षेत्र का शासन करता हो। २. किसी रियासत का मुसलमान शासक।
⋙ नव्वाबी
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. नव्वाब का पद। २. राज्य। शासन। हुकूमत। समृद्धि। संपन्नता। ४. अपव्यय। फिजूलखर्ची।
⋙ नश, नशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाश, विनाश। २. हानि। क्षति। ३. विलोप। लोप। [को०]।
⋙ नशना पु
क्रि० अ० [सं० नाश] नष्ट होना। बरबाद होना। बिगड़ जाना।
⋙ नशा
संज्ञा पुं० [अ० नश्शहू] १. वह अवस्था जो शराब, भाँग, अफीम या गाँजा आदि मादक द्रव्य खाने या पीने से होती है। मादक द्रव्य के व्यवहार से उत्पन्न होनेवाली दशा। विशेष—शराब, भाँग, गाँजा, अफीम आदि एक प्रकार के विष हैं। इनके व्यवहार से शरीर में एक प्रकार की गरमी उत्पन्न होती है जिससे मनुष्य का मस्तिष्क क्षुब्ध और उत्तेजित हो उठता है, तथा स्मृति (याद) या धारणा कम हो जाती है। इसी दशा को नशा कहते हैं। साधारणतः लोग मानसिक चिंताओं से छूटने या शारीरिक शिथिलता दूर करने के अभिप्राय से मादक द्रव्यों का व्यवहार करते हैं। बहुत से लोग इन द्रव्यों के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि वे नित्य़ प्रति इनका व्यवहार करते हैं। साधारण नशे की अवस्था में चित्त में अनेक प्रकार की उमंगें उठती हैं, बहुत सी नई नई और विलक्षण बातें सूझती हैं और चित्त कुछ प्रसन्न रहता है। लेकिन जब नशा बहुत हो जाता है तब मनुष्य कै करने लग जाता है अथवा बेहोश हो जाता है। मुहा०—नशा उतरना = नशे का न रहना। मादक द्रव्य के प्रभाव का नष्ट हो जाना। नशा किरकिरा हो जाना = किसी अप्रिय बात के होने के कारण नशे का मजा बीच में बिगड़ जाना। नशे का बीच में ही उतर जाना। नशा चढ़ना = नशा होना। मादक द्रव्य का प्रभाव होना। (आँखों मे) नशा छाना = नशा चढ़ना। मस्ती चढ़ना। नशा जमना = अच्छी तरह नशा होना। नशा टूटना = नशा उतरना। नशा हिरन होना = किसी असंभावित घटना आदि के कारण नशे का बिलकुल उतर जाना। २. वह चीज जिससे नशा हो। मादक द्रव्य। नशा चढा़नेवाली चीज। नशीली वस्तु। यौ०—नशापाती = मादक द्रव्य और उसकी सामग्री। नशे का सामान। ३. धन, विद्या, प्रभुत्व या रूप आदि का घमंड। अभिमान। मद। गर्व। मुहा०—नशा उतरना = गर्व या घमंड चूर होना। नशा उता- रना = घमंड दूर करना।
⋙ नशाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कौआ [को०]।
⋙ नशाखोर
संज्ञा पुं० [फा़० नशाखोर] वह जो किसी प्रकार के नशे का सेवन करता हो। नशेबाज।
⋙ नशाना पु (१)
क्रि० स० [सं० नशन] नष्ट करना। बरबाद करना। बिगाड़ डालना।
⋙ नशाना † (२)
क्रि० अ० खो जाना।
⋙ नशावन †पु
वि० [सं० नाश] नाश करना। विशेष—समास में 'नष्ट करनेवाला' अर्थ भी होता है।
⋙ नशीन
वि० [फा़०] बैठनेवाला। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग यौगिक शब्दों के अंत में होता है। जैसे, गद्दीनशीन, तख्तनशीन।
⋙ नशीनी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बैठने की क्रिया या भाव। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग यौगिक शब्दों के अंत में होता है। जैसे, तख्तनशीनी। गद्दीनशीनी।
⋙ नशीला
वि० [फा़० नशा + हिं० ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० नशीली] १. नशा उत्पन्न करनेवाला। नशा लानेवाला। मादक। २. जिसपर नशे का प्रभाव हो। मुहा०—नशीली आँखें = वे आँखें जिनमें मस्ती छाई हो। मदमत्त आँखें।
⋙ नशेडी़ †
वि० [हिं०] नशेबाज।
⋙ नशेबाज
संज्ञा पुं० [फा़० नशेबाज] वह जो बराबर किसी प्रकार के नशे का सेवन करता हो। वह जिसे कोई नशा करने की आदत हो।
⋙ नशेमन
संज्ञा पुं० [फा़०] घोंसला। नीड़। आवास। आश्रय स्थल। उ०—कबाबी सीख समझैं बुलबुलें शाखे नशेमन को।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४०७।
⋙ नशोहर †
वि० [सं० नशा + ओहर] नाश करनेवाला। उ०— सुमति सृष्टि कर निपुन विधाता। विघन नशोहर विमल विधाता।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ नश्तर
संज्ञा पुं० [फा़०] एक प्रकार का बहुत तेज छोटा चाकू जिसका अगला भाग नुकीला और टेढा़ होता है और प्रायः जिसके दोनों ओर धार रहती है। इसका व्यवहार फोडे़ आदि चीरने और फसद खोदने में होता है। मुहा०—नश्तर देना या लगागा = नश्तर से फोडा़ चीरना। नश्तर लगना = फोडे़ का चीरा जाना।
⋙ नश्यत्प्रसूतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिसका बच्चा मर गाय हो। मृतपुत्रिका।
⋙ नश्वर
वि० [सं०] नष्ट होनेवाला। जो नष्ट हो जाय या जो नष्ट हो जाने के योग्य हो। जो ज्यों का त्यों न रहे। जैसे,— शरीर नश्वर होता है।
⋙ नश्वरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नश्वर होने का भाव।
⋙ नष पु
संज्ञा पुं० [सं० नख] दे० 'नख'।
⋙ नषत पु
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्र, हिं० नखत] दे० 'नक्षत्र'।
⋙ नषसिष पु
संज्ञा पुं० [सं० नखशिख] दे० 'नख सिख'।
⋙ नषाना पु
क्रि० स० [?] नचाना। चलाना। घुमाना। उ०— जाके घर ताजी तुरकीन कौ तबेला बँध्यौ ताकै आगे फेरि फेरि टटुवा नषाइए।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ४६६।
⋙ नष्ट
वि० [सं०] १. जो अदृश्य हो। जो दिखाई न दे। २. जिसका नाश हो गया हो। जो बरबाद हो गया हो। जो बहुत दुर्दशा को पहुँच गया हो। जैसे,—आग लगने के कारण सारा महल्ला नष्ट हो गया। ३. अधम। नीच। बहुत बडा़ दुरा- चारी या पापी। ४. निष्फल। व्यर्थ। ५. धनहीन दरिद्र। ६. पलायित (को०)। विशेष—यौगिक में यह शब्द पहले लगता है। जैसे, नष्टवीर्य, नष्टबुद्धि।
⋙ नष्टक्रिय
वि० [सं०] कृतघ्न [को०]।
⋙ नष्टचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० नष्टचन्द्र] भादों के महीने की दोनो पक्षों की चतुर्थी को दिखाई पड़नेवाला चंद्रमा जिसका दर्शन पुराणा- नुसार निषिद्ध है। विशेष—कहते हैं, उस दिन चंद्रमा को देखने से कोई न कोई कलंक या अपवाद लगता है। कुछ लोग केवल शुक्ल चतुर्थी के चंद्रमा को ही नष्ट चंद्रमा मानते हैं।
⋙ नष्टचित्त
वि० [सं०] उन्मत्त।
⋙ नष्टचेतन
संज्ञा पुं० [सं०] अचेत। बेहोश। बेखबर।
⋙ नष्टचेष्ट
वि० [सं०] जिसकी चेष्टा वा गति नष्ट हो गई हो।
⋙ नष्टचेष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूर्च्छा। बेहोशी। २. प्रलय। ३. एक प्रकार का सात्विक भाव।
⋙ नष्टजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० नष्टजन्मन्] जारज। वर्णसंकर। दोगला।
⋙ नष्टजातक
संज्ञा [सं०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार की क्रिया या उपाय जिसके अनुसार ऐसे मनुष्य की जन्मकुंडली आदि बनाई जाती है जिसके जन्म के समय और तिथि आदि का कुछ भी पता नहीं रहता।
⋙ नष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नष्ट होने का भाव। २. बाहियातपन। दुराचारिता।
⋙ नष्टदृष्टि
वि० [सं०] जिसकी दृष्टि नष्ट हो गई हो। अंधा। दृष्टिहीन।
⋙ नष्टधन
वि० [सं०] जिसका धन नष्ट हो गया हो [को०]।
⋙ नष्टप्रभ
वि० [सं०] तेजहीन। कांतिरहित।
⋙ नष्टबुद्धि
वि० [सं०] मूर्ख। मूढ़। बेवकूफ। बुद्धिहीन।
⋙ नष्टभ्रष्ट
वि० [सं०] जो बिलकुल टूटफूट या नष्ट हो गया हो।
⋙ नष्टराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक देश का नाम।
⋙ नष्टविष
वि० [सं०] (वह जहरीला जानवर) जिसका विष नष्ट हो गया हो।
⋙ नष्टवीज
वि० [सं०] फसल या अन्न जो बोने पर न उगा हो।
⋙ नष्टशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] बाण का वह अगला टुकडा़ जो टूटकर शरीर के भीतर ही रह गया हो [को०]।
⋙ नष्टशुक्र
वि० [सं०] जिसकी वीर्य नष्ट हो गाय हो।
⋙ नष्टसंज्ञ
वि० [सं०] बेहोश [को०]।
⋙ नष्टस्मृति
वि० [सं०] जिसकी याददाश्त कमजोर या नष्ट हो गई हो [को०]।
⋙ नष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या। रंडी। २. व्यभिचारिणी। कुलटा।
⋙ नष्टाग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] वह साग्निक ब्राह्मण या द्विज जिसके यहाँ की अग्नि प्रमाद या आलस्य के कारण लुप्त हो गई हो।
⋙ नष्टात्मा
वि० [सं० नष्टात्मन्] दुष्ट। खल।
⋙ नष्टाप्तिसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] खोई हुई चीजों का कुछ अंश मिलना जिससे बाकी चीजों का भी सूत्र मिले।
⋙ नष्टार्थ
वि० [सं०] जिसका धन नष्ट हो गया हो। दरिद्र।
⋙ नष्टाशंक
वि० [सं० नष्टाशङ्क] शंकारहित। निर्भय। भयशून्य [को०]।
⋙ नष्टाश्वदग्धरथन्याय
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत शास्त्रों में प्रसिद्ध एक न्याय जिसका तात्पर्य है दो आदमियों का इस प्रकार मिलकर काम करना जिसमें दोनों एके दूसरे की चीजों का उपयोग करके अपना उद्देश्य सिद्ध करें। विशेष—यह न्याय निम्नलिखित घटना या कहानी के आधार पर है। दो आदमी अलग अलग रथ पर सवार होकर किसी वन में गए। वहाँ संयोगवश आग लगने के कारणएक आदमी का रथ जल गया और दूसरे का घोडा़ जल गया। कुछ समय के उपरांत जब दोनों मिले तब एक कै पास केवल घोडा़ और दूसरे के पास केवल रथ था। उस समय दोनों ने मिलकर एक दूसरे की चीज का उपयोग किया। घोडा़ रथ में जोता गया और वे दोनों निर्दिष्ट स्थान तक पहुँच गए।
⋙ नष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाश। विनाश। बरबादी।
⋙ नष्टेंदुकला
संज्ञा स्त्री० [सं० नष्टेन्दुकला] १. प्रदिपदा। परिवा। २. अमावस्या। कुहू [को०]।
⋙ नष्टेंद्रिय
वि० [सं० नष्टेन्द्रिय] संज्ञारहित। संज्ञाशून्य [को०]।
⋙ नसंक पु †
वि० [सं० निःशङ्क] निर्भय। निडर। बेखौफ।
⋙ नस्
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाक। नासिका [को०]। यौ०—नसक्षुद्र = छोटी नासिका।
⋙ नस (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्नायु, तुलनीय अ० नसा (= वह रग जो कमर के नीचे से टखने तक है)] १. शरीर के भीतर तंतुओं का वह बंध या लच्छा जो पेशियों के छोर पर उन्हें दूसरी पेशियों या अस्थि आदि कडे़ स्थानों से जोड़ने के लिये होता है (जैसे, घोडा़ नस)। साधारण बोलचाल में कोई शरीर- तंतु या रक्तवाहिनी नली। विशेष—नसों के ततु दृढ़ और चीमड़ होते हैं, लचीले नहीं होते। वे खींचने से बढ़ते नहीं। नसें शरीर की सबसे दृढ और मजबूत सामग्री हैं। कभी कभी वे ऐसे आघात से घी नहीं टूटतीं जिनेसे हड्डियाँ टूट जाती और पेशियाँ कट जाती हैं। मुहा०—नस चढ़ना या नस पर नस चढ़ना = खिंचाव, दबाब या झटके आदि के कारण शरीर में किसी स्थान की, विशेषतः पैर का पिंडली या बाँह की किसी नस का अपने स्थान से इधर उधर हो जाना या बल खा जाना जिसके कारण उस स्थान पर तनाव और पीडा़ होती है और कभी कभी सूजन भी हो जाती है। नसें ढीली होना = थकावट आना। शिथिलता होना। पस्त होना। नस नस में = सारे शरीर में। सर्वांग में। जैसे,—उनसी नस नस में शरारत भरी पडी़ है। नस नस फड़क उठना = बहुत अधिक प्रसन्नता होना। अति आनंद होना। उमंग होना। जैसे,— आपके चुटकुले सुनकर तो नस नस फड़क उठती है। नस भड़कना = (१) दे० 'नस चढना'। (२) विक्षिप्त होना। पागल होना। यौ०—घोडा़नस = पैर की वह बडी़ नस जो पीछे की ओर पिंडली के नीचे होती है। इसके कट जाने से बहुत अधिक खून बहता है जिससे लोग कहते हैं, आदमी मर जाता है। २. लिंग। पुरुष की मूत्रेंद्रिय। (क्व०)। मुहा०—नम या नसें ढीली पड़ जाना = लिंगेंद्रिय का शिथिल हो जाना। पुंसत्व की कमी हो जाना। ३. पतले रेशे वा तंतु जो पत्तों बीच बीच में होते हैं।
⋙ नस पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० निश] दे० 'निशा'। उ०—लागे साव सुहाँमणउ, नस भर कुंझड़ियाँह। जल पोइणिए छाइयउ, कहउ त पूगल जाँह।—ढोला०, दू० २४५।
⋙ नसकटा
संज्ञा पुं० [हिं० नस = लिंग + कटना] नपुंसक। हिजडा़।
⋙ नसतरंग
संज्ञा पुं० [हिं० नस + तरंग] शहनाई के आकार का पीतल का एक प्रकार का बाजा। विशेष—इसके पतले सिरे पर एक छोटा सा छेद होता है। इस छेद पर मकडी़ के अंडों के ऊपर सफेद छत्ता रखते हैं, फिर उस सिरे को गले की घंटी के पास की नसों पर रखकर गले से स्वर भरते हैं जिससे उस बाजे में शब्द उत्पन्न होता है। ऐसे दो बाजे गले की घंटी के दोनों ओर रखकर एक ही साथ बजाए जाते हैं।
⋙ नसतालीक
संज्ञा पुं० [अ० नस्तालीक] १. फारसी या अरबी लिपि लिखने का वह ढंग जिसमें अक्षर खूब साफ और सुंदर होते हैं। 'घसीट' या 'शिकस्त' का उलटा। २. वह जिसका रंग ढंग बहुत अच्छा और सुंदर हो। सभ्य या शिष्ट व्यक्ति।
⋙ नसना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० नशन] १. नष्ट होना। बरबाद होना। २. बिगड़ जाना। खराब हो जाना।
⋙ नसना पु (२)
क्रि० अ० [पं० तुल० हिं० नटना] भागना। दौड़ना।
⋙ नसफाड़
संज्ञा पुं० [हिं० नस + फाड़ना] हाथियों का एक रोग जिसमें उनके पैर सूज जाते हैं।
⋙ नसर
संज्ञा स्त्री० [अ० नस्र] गद्य। पद्य या नज्म का उलटा। यौ०—नसरनिगार = गद्यलेखक। नसरनिगारी = गद्यरचना।
⋙ नसरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की मधुमक्खी। २. इस मक्खी के छत्ते का मोम। विशेष—दे० 'कुंतली'।
⋙ नसल
संज्ञा स्त्री० [अ० नस्ल] वंश। खानदान।
⋙ नसवार
संज्ञा स्त्री० [हिं० नास + वार (प्रत्य०)] सूंघने के लिये तमाकू के पीसे हुए पत्ते। सुँघनी। नास।
⋙ नसहा †
संज्ञा पुं० [सं० नस + हा० (प्रत्य०)] जिसमें नसें हों।
⋙ नसा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नासिका। नासा। नाक।
⋙ नसा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० नशा] दे० 'नशा'।
⋙ नसाना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० नाश] १. नाश को प्राप्त होना। नष्ट हो जाना। २. बिगड़ जाना। खराब हो जाना।
⋙ नसाना पु † (२)
क्रि० स० १. नष्ट करना। २. नाश करना। ३. बिगाड़ना। खराब करना।
⋙ नसावना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'नसाना'।
⋙ नसी
संज्ञा स्त्री० [देश०] कुसी की नोक। हल के फार की नोक।
⋙ नसीठ †
संज्ञा पुं० [देश०] बुरा शकुन। असगुन।
⋙ नसीत †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नसीहत'।
⋙ नसीनी†
संज्ञा स्त्री० [सं० निःक्षेणी] सीढी़। जीना। नसेनी।
⋙ नसीपूजा
संज्ञा पुं० [हिं० नसी (= कुसी का नोक) + पूजा] हल की पूजा जो बोने के मौसम के पीछे की जाती है। हल पूजा।
⋙ नसीब
संज्ञा पुं० [अ०] भाग्य। प्रारब्ध। किस्मत। तकदीर।मुहा०—किसी को नसीब होना = किसी को प्राप्त होना। जैसे,— ऐसा मकान तुम्हें नसीब कहाँ है ? ('नसीब' के बाकी मुहाविरों के लिये देखिए 'किस्मत' के मुहा०।)
⋙ नसीबजला
वि० [अ० नसीब + हिं० जलना] जिसका भाग्य खराब हो। अभागा।
⋙ नसीबवर
वि० [अ०] भाग्यवान्। सौभाग्यशाली। जिसका नसीब अच्छा हो।
⋙ नसीबा †
संज्ञा पुं० [अ० नसीबह्] दे० 'नसीब'।
⋙ नसीम
संज्ञा पुं० [अ०] ठंढी, धीमी और बढ़िया हवा। यौ०—नसीम आसा = जिसकी चाल नसीम की तरह धीमी और मृदु हो।
⋙ नसीला (१)
वि० [हिं० नस + ईला (प्रत्य०)] जिसमें नसें हों। नसदार।
⋙ नसीला † (२)
वि० [हिं० नशीला] दे० 'नशीला'।
⋙ नसीहत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. उपदेश। शिक्षा। सीख। २. अच्छी संमति। क्रि० प्र०—करना।—देना।—पाना।— मिलना।—होना। यौ०—नसीहतगर, नसीहतगुजार, नसीहतगी = उपदेशक। सीख देनेवाला।
⋙ नसीहा †
संज्ञा पुं० [देश०] मुलायम मिट्टी के जोतने के लिये हलका हल।
⋙ नसूड़िया †
वि० [हिं० नासूर + इया (प्रत्य०)] जिसके देखने, छूने अथवा किसी प्रकार के संबंध से कोई दोष या हानि हो। मनहूस। जैसे,—तुम हर एक चीज में बिना अपना नसूड़िया हाथ लगाए नहीं मानते।
⋙ नसूर
संज्ञा पुं० [हिं० नासूर] दे० 'नासूर'।
⋙ नसेनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० निःश्रेणी] सीढी़। जीना।
⋙ नस्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाक। २. सुँघनी [को०]।
⋙ नस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] जानवरों की नाक में नाथ पहनाने के लिये किया हुआ छेद [को०]।
⋙ नस्तकरण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यंत्र जिसका व्यवहार भिक्षु लोग नाक में दवा डालने कै लिये करते थे।
⋙ नस्तरन
संज्ञा पुं० [फा़०] सफेद गुलाब। सेवती। २. एक प्रकार का कपडा़।
⋙ नस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पशुओं की नाक का छेद जिसमें रस्सी डाली जाती है।
⋙ नस्तित
संज्ञा पुं० [सं०] वह पशु जिसकी नाक में छेद करके रस्सी डाली जाय। जैसे, बैल, ऊँट आदि।
⋙ नस्तोत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नस्तित'।
⋙ नस्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नास। सुँघनी। २. बैलों की नाक की रस्सी। नाथ। ३. धी आदि में बनी हुई वह दवा या चूर्ण आदि जिसे नाक के रास्ते दिमाग में चढा़ते हैं। यह दो प्रकार का होता है। दे० 'शिरोविरेचन' और 'स्नेहन'। ४. नाक के बाल (को०)।
⋙ नस्य (२)
वि० १. नासिका से संबंध रखनेवाल। नाक का। २. नाक से बहने या निकलनेवाला [को०]।
⋙ नस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाक। २. नाक का छेद। ३. नाथ।
⋙ नस्याधार
संज्ञा पुं० [सं०] वह पात्र जिसमें सुँघनी रखी जाती है। नासदानी।
⋙ नस्योत
संज्ञा पुं० [सं०] वह पशु जिसकी नाक में रस्सी आदि डालने के लिये छेद किया गया हो।
⋙ नस्वर पु †
वि० [सं० नश्वर] दे० 'नश्वर'।
⋙ नहँ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बढ़िया चावल जो उत्तर प्रदेश में होता है।
⋙ नहँ † (२)
संज्ञा पुं० [सं० नख] दे० 'नाखून'।
⋙ नहछू
संज्ञा पुं० [सं० नसक्षौर] १. विवाह की एक रस्म जिसमें वर की हजामत बनती है, नाखून काटे जाते हैं और उसे मेंहदी आदि लगाई जाती है। २. विवाह के पूर्व की एक रस्म जिसमें कन्या के नाखून काटे जाते हैं और उसे स्नान कराया जाता है।
⋙ नहट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० नहँ(= नाखून)] नाखून से की हुई खरोंच। नखक्षत।
⋙ नहन
संज्ञा पुं० [देश०] पुरवट खींचने की मोटी रस्सी। नार।
⋙ नहना पु †
क्रि० स० [हिं० नाधना]। लगाना। जोतना। काम में तत्पर करना। उ०—पसु लौं पसुपाल ईस वाँत छोरत नहत।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नहनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० नहना] दे० 'नहना'। उ०—चलनि कहनि बिहँसनि रहनि गहनि सहनि सब ठाम। चहनि नेह की नहनि सों कियो जगत वश राम।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ नहन्नी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नहरनी] दे० 'नहरनी'।
⋙ नहर
संज्ञा स्त्री० [अ० नह्न] १. वह कुत्रिम नदींया जलमार्ग जो खेतों की सिंचाई या यात्रा आदि के लिये तैयार किया जाता है। २. जल बहाने के लिये बनाया हुआ रास्ता। उ०— (क) राम अरु यादवन सुभंट ताके हते रुधिर के नहर सरिता बहाई।—सूर (शब्द०)। (ख) बाग तडा़ग सुहावन लागे। जल की नहर सकल महि भागे।—रघुराज (शब्द०)। मुहा०—नहर काटना या खोदना = नहर तैयार करना। विशेष—साधारणतः एक स्थान से दूसरे स्थान तक पानी ले जाने, खेत सींचने आदि के लिये नदियों में जोड़कर जल- मार्ग तैयार किया जाता है। बडी़ बडी़ नहरें प्रायः साधारण नदियों के समान हुआ करती हैं और उनमें बडी़ बडी़ नावें चलती हैं। कहीं कहीं दो झीलों या बडे़ जलाशयों का पानी मिलाने के लिये भी नहरें बनाई जाती हैं।
⋙ नहरनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नखहरणी] १. हज्जामों का एक औजार जिससे नाखून काटे जाते हैं। विशेष—यह लोहे का एक लंबा गोल टुकडा़ होता है और जिसका एक सिरा चपटा और धारदार होता है। २. इसी प्रकार का पोस्ते की डोंढी़ चीरने का एक औजार।
⋙ नहरम
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो भारतवर्ष की सब नदियों में पाई जाती है। विशेष—पहाडी़ झरनों में यह अधिकता से होती है।
⋙ नहरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] छोटी। नहर। उ०—आगे की खड्ड से एक नहरिया निकाली है।—किन्नर०, पृ० १२।
⋙ नहरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नहर + ई (प्रत्य०)] वह जमीन जो नहर के पानी से सींची जाय।
⋙ नहरी (२)
वि० नहर से संबंध रखनेवाला।
⋙ नहरी † (३)
संज्ञा स्त्री० नहर।
⋙ नहरुआ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का रोग जो प्रायः कमर के निचले भाग में होता है। उ०—अहंकार अति दुखद डमरुआ। दभ कपट मद मान नहरुआ।—मानस, ७।१२१। विशेष—पानी के साथ एक विशेष प्रकार के कीडे़ शरीर में प्रविष्ट हो जाने के कारण यह रोग होता है। इसमें पहले किसी स्थान पर सूजन होती है। फिर छोटा सा घाव होता है और तव उस घाव में से डोरी की तरह का कीडा़ धीरे धीरे निकलने लगता है जो प्रायः गजों लंबा होता है। इस रोग से कभी पैर आदि अंग बेकाम हो जाते हैं। विशेष—दे० 'नारू'।
⋙ नहरुवा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नहरुआ'।
⋙ नहरू †
संज्ञा पुं० [हिं० नारू] दे० 'नहरुआ'।
⋙ नहल पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] नहर। उ०—घसि चंदन चंद्रक चहल महलनि नहल फिराइ। विषम गरम ग्रीषम तऊ नैकु न गरम लखाइ।—स० सप्तक, पृ० ३६२।
⋙ नहला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नौ] ताश के खेल में वह पत्ता जिसपर नौ चिह्न या बूटियाँ हों। मुहा०—नहले पर दहला = इँट का जवाब पत्थर। बढ़कर होना। उ०—सही आँख तुम्हीं दिखे पहले। नहले पर तुम्हीं रहे दहले।—अर्चना, पृ० ५८।
⋙ नहला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] करनी की तरह का एक औजार जो नक्कासी बनाने के काम में आता है।
⋙ नहलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० नहलाना + ई (प्रत्य०)] १. नहलाने की क्रिया या भाव। २. वह धन जो नहलाने के बदले में दिया जाय।
⋙ नहलाना
क्रि० स० [हिं० नहाना का प्रे० रूप] दूसरे को स्नान में प्रवृत्त करना। स्नान कराना। नहवाना।
⋙ नहवाना
क्रि० स० [हिं० नहाना का प्रे० रूप] दे० 'नहलाना'।
⋙ नहस
वि० [अ० नहस] अशूभ। अमांगलिक। मनहूस [को०]। यौ०—नहसकदम = जिसका आना अशुभ हो। नहसरू = अशुभ दर्शन। जिसका दर्शन खुभ न हो।
⋙ नहसुत (१)
क्रि० स० [सं० नखसुत] नख की रेखा। नाखून का निशान। उ०—नहसुत कील कपाट सुलच्छन दै दृगद्वार अगोट।—सूर (शब्द०)।
⋙ नहसुत (२)
संज्ञा पुं० [सं० नख(= एक पेड़)] पलाश की तरह का एक पेड़ जिसे फरहद भी कहते हैं। दे० 'फरहद'।
⋙ नहाँ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. पहिए के ठीक बीच का सूराख जिसमें धुरी पहनाई जाती है। २. † घर के आगे का आँगन।
⋙ नहाँ † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० नहँ] दे० 'नाखून'।
⋙ नहान
संज्ञा पुं० [सं० स्नान] १. नहाने की क्रिया। जैसे, कुंभ का नहान, छट्ठी का नहान। २. स्नान का पर्व। क्रि० प्र०—लगना।—होना।
⋙ नहाना (१)
क्रि० अ० [सं० स्नान, प्रा० हाररण, बुंदे० हनाना] १. पानी के स्रोत में, बहती हुई धार के नीचे या सिर पर से पानि ढालकर शरीर को स्वच्छ करने या उसकी शिथिलता दूर करने के लिये उसे धोना। स्नान करना। संयो० क्रि०—डालना। मुहा०—दूधों नहाना पूतों फलना = धन और परिवार से पूर्ण होना। (आशीर्वाद)। विशेष—शरीर में जितने रोमकूप हैं, नहाने से उन सबका मुँह खुल और साफ हो जाता है और शरीर की थकावट दूर हो जाती है। भारत सरीखे गरम देशों में लोग नित्य सबेरे उठकर शौच आदि से निवृत्त होकर नहाते हैं और कभी सबेरे और संध्या दोनों समय नहाते हैं। पर ठंढे देशों के लोग प्रायः नित्य नहीं नहाते, सप्तार में एक या दो बार नहाते हैं। २. रजोधर्म से निवृत्त होने पर स्त्री का स्नान करना। ३. किसी तरल पदार्थ से सारे शरीर का आलुप्त हो जाना। शराबोर हो जाना। बिलकुल तर हो जाना। जैसे, पसीने से नहाना। खून से नहाना। विशेष—इस अर्थ में 'नहाना' शब्द के साथ प्रायः 'उठाना' या 'जाना' संयोज्य क्रिया लगाई जाती है।
⋙ नहाना पु † (२)
क्रि० स० [हिं०] नाधना। उ०—सूरत निरत के बैल नहायन, जोत खेत निर्बानी। दुबिधा दूब छोलकर बाहर, बोया नाम की धानी।—कबीर श०, भा०, पृ० ५१।
⋙ नहानी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नहाना] १. रजस्वला स्त्री। २. स्त्री का रजस्वला होना।
⋙ नहार
वि० [फा़० नाहार (= जो सबेरे से भूखा हो) का लघु रूप, मि० सं० निराहार] जिसने सबेरे से कुछ खाया न हो। जिसने जलपान आदि कुछ न किया हो। बासी मुँह। मुहा०—नहार तोड़ना = जलपान करना। सबेरे के समय हलका भोजन करना। नहार मुँह = बिना जलपान आदि किए हुए। नहार रहना = भूखे रहना। बिना अन्न के रहना। उपवास करना।
⋙ नहारी
संज्ञा स्त्री० [फा़० नहार] १. वह हलका भोजन जो सबैरे किया जाता है। जलपान। कलेवा। नाश्ता। २. वह गुड या गुड़ मिला आटा जो घोडे़ को सबेरे, अथवा आधा रास्ता पार कर लेने पर खिलाया जाता है (एक्केवान)। ३. मुसलमानों के यहाँ बननेवाला एक प्रकरा का शोरबेदारसालन जो रात भर एकता है और जिसके साथ खमीरी रोटी खाई जाती है।
⋙ नहावन पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नहान'। क्रि० प्र०—लगना।—होना।
⋙ नहीं पु
अव्य० [सं० नहि] दे० 'नहीं'।
⋙ नहिँन पु
अव्य० [हिं०] दे० 'नहीं'। उ०—आनहि रंग पुहुए मैं देखे। अपनी बारी नहिंन सुपेखे।—नंद० ग्रं०, पृ० १२७।
⋙ नहिअन †
संज्ञा पुं० [हिं० नह (= नख)] विछिया की तरह का एक गहना जो पैर की छोटी उँगली में पहना जाता है।
⋙ नहि
अव्य० [सं०] नहीं। बिलकुल नहीं। निश्चित रूप से नहीं [को०]।
⋙ नहियाँ † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नह = नख] बिछिया की तरह का एक गहना जिसे नहिअन भी कहते हैं।
⋙ नहियाँ (२)पु
अव्य० दे० 'नहीं'। उ०—नैनन मैं चाह करे, बैनन में नहियाँ।—मति० ग्रं०, पृ० ३४८।
⋙ नहिरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नहरनी'।
⋙ नहीँ (१)
अव्य० [सं० नहिं०] एक अव्यय जिसका व्यवहार निषेध या अस्वीकृति प्रकट करने के लिये होता है। जैसे,—(क) उन्होंने हमारी बात नहीं मानी। (ख) प्रश्न—आप वहाँ जायँगे ? उत्तर—नहीं। मुहा०—नहीं तो = उस दशा में जब कि वह बात न हो। इसके न होने की दशा में। जैसे,—आप सबेरे ही मेंरे पास पहुँच जाइएगा, नहीं तो मैं भी न जाऊँगा। नहीं सही = यदि यह बात न हो तो कोई चिंता नहीं। यदि ऐसा न हो तो कोई परवा या हानि नहीं। जैसे,—(क) अगर वे नहीं आते हैं तो नहीं सही। (ख) यदि आप न पढ़ें तो नहीं सही।
⋙ नहीँ पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नह] नख। नाखून। उ०—तुम रँगभीने सुनत ही गई मेरै पाय की नहीं। सुनिहौ कुँवर और काहि लगाऊँ आधि रैनि गई, इहाँ हम तुम ही।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५३।
⋙ नहुर पु
संज्ञा स्त्री० [प्रा० नहर नाखून] नाखून। नख। उ०— किंसुक कलिन देखि भम पाई। नाहर की सी नहुरे माई।— नंद० ग्रं०, पृ० १३९।
⋙ नहुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा का नाम जो अंबरीष का पुत्र और ययाति का पिता था। महाभारत में इसे चंद्रवंशी आयु राजा का पुत्र माना जाता है। विशेष—पुराणानुसार यह बडा़ प्रतापी राजा था। जब इंद्र ने वृत्रासुर को मारा था उस समय इंद्र को ब्रह्महत्या लगी थी। उसके भय से इंद्र १००० वर्ष तक कमलनाल में छिपकर रहा था। उस समय इंद्रासन शून्य देख गुरु बृहस्पति ने इसको योग्य जान कुछ दिनों के लिये इंद्र पद दिया था। उस अवसर पर इंद्राणी पर मोहित होकर इसने उसे अपने पास बुलाना चाहा। तब बृहस्पति की सम्मति से इंद्राणी ने कहला दिया कि 'पालकी पर बैठकर सप्तर्षियों के कंधे पर हमारे यहाँ आओ तब हम तुम्हारे साथ चलें'। यह सुन राजा ने तदनुसार ही किया और घबराहट में आकर सप्तर्षियों से कहा—सर्प सर्प (जल्दी चलो), इसपर अगस्त्य मुनि ने शाप दे दिया कि 'जा, सर्प हो जा'। तब वह वहाँ से पतित होकर बहुत दिनों तक सर्प योनि में रहा। महाभारत में लिखा है कि पाँडव लोग जब द्वैतवन में रहत थे तब एक बार भीम शिकार खेलने गए थे। उस समय उन्हें एक बहुत बडे़ साँप ने पक़ड लिया। जब उनके लौटने में देर हुई तब युधिष्ठिर उन्हें ढूँढ़ने निकले। एक स्थान पर उन्होंने देखा कि एक बडा़ साँप भीम को पकडे़ हुए हैं। उनके पूछने पर साँप ने कहा कि मैं महाप्रतापी राजा नहुष हूँ; ब्रह्मर्षि, देवता, राक्षस और पन्नग आदि मुझे कर देते थे। ब्रह्मर्षि लोग मेरी पालकी उठाकर चला करते थे। एक बार अगस्त्य मुनि मेरी पालकी उठाए हुए थे, उस समय मेरा पैर उन्हें लग गया जिससे उन्होंने मुझे शाप दिया कि जाओ, तुम साँप हो जाओ। मेरे बहुत प्रार्थना करने पर उन्होंने कहा कि इस योनि से राजा युधिष्ठिर तुम्हें मुक्त करेंगे। इसके बाद उसने युधिष्टिर से अनेक प्रश्न भी किए थे जिनका उन्होंने यथेष्ट उत्तर दिया था। इसके उपरांत साँप ने भीम को छोड़ दिया और दिव्य शरीर धारण करके स्वर्ग को प्रस्थान किया। २. एक नाग का नाम। ३. एक ऋषि का ना जो मनु के पुत्र और ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के द्रष्टा माने जाते हैं। ४. पुराणोँ- नुसार कुशिकदंशी एक ब्राह्मण राजा का नाम। ५. एक राजर्षि का नाम जिसका उल्लेख ऋग्वेद में है। ६. हरिवंश के अनुसार एक मरुत् का नाम। ७. विष्णु का एक नाम। ८. मनुष्य। आदमी।
⋙ नहुषाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] तगर पुष्प।
⋙ नहुषात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] राजा ययाति [को०]।
⋙ नहुष्य (१)
वि० [सं०] मानव संबंधी [को०]।
⋙ नहुष्य (२)
संज्ञा पुं० मनुष्य। आदमी [को०]।
⋙ नहूर
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की भेड़। विशेष—यह तिब्बत में होती है और कभी कभी नैपाल में भी आ जाती है। बहुत बर्फ पड़ने पर इसके झुंड पर्वत की चोटी से उतरकर सिंधु नदी के किनारे तक भी आ जाते हैं।
⋙ नहूसत
संज्ञा पुं० [अ०] १. मनहूस होने का भाव। उदासीनता। खिन्नता। मनहूसी। जैसे,—आपके चेहरे से नहूसत बरसती है। क्रि० प्र०—टपकना।—बरसना। २. अशुभ लक्षण।