विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/अंभ
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ अंभ?
संज्ञा पुं० [सं० अम्भ?] अंभस् का समासगत रूप, जैसे, अंभ?पति, अंभ?सार में ।
⋙ अंभ?पति
संज्ञा पुं० [सं० अम्भं?पति] जलपति । वरुण [को०] ।
⋙ अंभ?सार
संज्ञा पुं० [सं० अम्भ?सार] मोती [को०] ।
⋙ अँभ?सू
संज्ञा पुं० [सं० अम्भ?सू] दे० 'अंभसू' [को०] ।
⋙ अंभ? स्थ
वि० [सं० अम्भ?स्थ] जल में स्थित [को०] ।
⋙ अंभ
संज्ञा पुं० [सं० अम्भस्] १. जल । पानी । उ०— नौ तत्वनि कौ लिंग पुनि माँहि भरयों है अंभ ।— सुंदर ग्रं०, भा०, २, पृ०, ७२१ । २. पितृलोक । ३. पितर । ४. लग्न से चोथी राशी । ५. चार की संज्ञा । ६. सांख्य में आध्यात्मिक तुष्टि के चार भेदों में से एक । दे० 'अभस्तुष्टि' । ७. देव । ८. असुर । ९.ॉ एक राक्षस या असुर (को०) । १०. शक्ति (को०) ११. तैज (को०) । १२. मनुष्य । मानव । (को०) १३. एक वैदिक छंद (को०) । १४. आकाश । उ०— करि मंत साह गोरि अचंभ । आरंभ तक्क भुजदंड़ । अंभ । — पु० रा०, १९ । ८४ ।
⋙ अंभनिधि
संज्ञा पुं० [सं० अम्भम्+निधि] दे० 'अंभोनिधि' ।
⋙ अंभस्
संज्ञा पुं० [सं० अम्भस्] पानी [को०] ।
⋙ अंभसार
संज्ञा पुं० [सं० अम्भा?सार] मोती?
⋙ अंभसू
संज्ञा पुं० [सं० अम्भस्+सु] १. धूआँ । २. भाप ।
⋙ अंभस्तुष्टि
संज्ञा पुं० [सं० अम्भस्+तुष्टि] साख्य में चार आध्यात्मिक तुष्टियों में से एक । जब कोई व्यक्ति माया के प्रपंच में फँसकर यह संतोष करता है कि उसे होते होते प्रकृति की गति के अनुसार विवेक आदि की अवस्था प्राप्त ही जाएगी तब उनकी इस तुष्टि को अंभस्तुष्टि कहते है ।
⋙ अभस्सार
संज्ञा पुं० [सं० अम्भस्सार] मोती । मुक्ता [को०] ।
⋙ अंभु पु
संज्ञा पुं० [सं० अम्बु] पानी । ओप । तेज । कांति । उ०— सदा दान किरवान में,जाके आनन अंभु । —भूषण ग्रं०, पृ०, ६ ।
⋙ अँभो
संज्ञा पुं० [सं० अम्भस्] 'अभस्' का समाससगत रूप ।
⋙ अँभोज (१)
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोज] १. कमल । पद्य । २. सारस पक्षी । ३. चंद्रमा । ४. कपूर । ५. शंख ।
⋙ अंभोज (२)
वि० जल में उत्पन्न ।
⋙ अंभोजखंड़
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोजखंड़] कमल समूह [को०] ।
⋙ अंभोजजनि
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोज + जनि] अभोजजन्मा ब्रह्मा । चतुरानन [को०] ।
⋙ अंभोजजन्म
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोजजन्मन्] ब्रह्मा [को०] ।
⋙ अंभोजजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोजजन्मन्] ब्रह्मा [को०] ।
⋙ अंभोजयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्भोज्योनि] ब्रह्मा [को०] ।
⋙ अंभोजा
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्भोजा] १. कमलिनी । २. जेठी मधु । मृलेठी [को०] ।
⋙ अंभोजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्भोजिनी] १. कामल का पौधा । कमलिनी । पद्यिनी । २, कमल का समूह । ३. वह स्थान जहाँ पर बहुत से कमल हों ।
⋙ अंभोद
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोद] १. बादल । मेघ । २. मोथा । नागरमोथा । यौ०— अंभोदानाद = मेघ नाद । राबण का पुत्र । अंभोदनादध्न = अंभोदनाद को सारनेवाले लक्ष्मण ।
⋙ अंभोधर
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोधर] १. बादल । २. मोथा ।
⋙ अंभोधि
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोधि] अंबुधि । समुद्र । उ०— जयति अंजनी गर्भ अभोधि संभूत विधु विबुध कुल कैरवानदकारी ।— तुलसी ग्रं०, या, २, पृ०, ३९० ।
⋙ अंभोधिपल्लव
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोधिपल्लव] विद्रुम मूँगा । प्रवाल [को०] ।
⋙ अंभोधिवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोधिवल्लभ] मुँगा । प्रवाल ।
⋙ अंभोनिधि
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोनिधि] समुद्र । सागर ।
⋙ अंभोयोनि
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोयोनी] ब्रह्मा [को०] ।
⋙ अभोराशी
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोराशी] समुद्र ।
⋙ अंभोरुह
संज्ञा पुं० [सं० अम्भोरुह] १. कमल । उ०— बदन इंदु, अंमोरुह लोचन, स्याम गौप सोभा सदन सरीर ।— तुलसी ग्रं०, पृ०, २९९ । २, सारस पक्षी ।
⋙ अंम पु
संर्व० [सं० अस्मन्; प्रा अम्ह] हमारा । मेरा । उ— जै जंपि तांप पेरंभ राव । बूझँ न मंत की अंमठाव ।—पृ०, रा०, १२ ।१९८ ।
⋙ अंमर (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अम्बर] आकाश । नभ । उ०— चालुक्क राह चालंत दल अंमर घुंमर घुमर वर । —पृ०, रा०, १२ । ७६
⋙ अंमर (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अमर] देवता । उ०— संभारि सौं लग्गे समर अंमर कौतिग एव । —पृ०, रा०, १२ ।३२६ ।
⋙ अंमर (३) †
वि० दे० 'अमर' ।
⋙ अंमर (४) †
संज्ञा पुं० [सं० अमृत, अम्मरक्ष] अमृत ।
⋙ अंमर डंमर
संज्ञा पुं० दे० 'अंबर ड़ंबर' उ०— धनं अंमरं डंमरं दिसी प्रमानं । उठै जत्र तीनो नीधानं । पृ रा० १४ ।९१ ।
⋙ अंमरीपु
संज्ञा स्त्री० [सं० अमरी = देवांगना] देवांगना । अप्सरा । उ०— अंमरिय़ रहसि दल दुअ बिहसि । करसि बीर लग्गे स बर । —पृ० रा०, ३१ ।१५४ ।
⋙ अंमह पु
सर्व० [सं० अस्मत्; प्रा० अम्मह] हमें । उ०— अंमह एत्ता दुष्ख सुनि ।—कीर्ति०, पृ०, ७२ ।
⋙ अंमृत पु †
संज्ञा पुं० [सं० अमृत] अमृत । सुधा । उ०— गगन मंड़ल में ऊँधा कृधा तहाँ अमृत का बासा । —गौरख०, पृ० ९ ।
⋙ अंमृत्त पु
संज्ञा पु० दे० 'अंमृत' । उ०—अंमृत आवहि जाहि, पप्पील रंगहि चाहि ।—पृ० रा० भा० २. पृ०, ५६४ ।
⋙ अंमोल पु
वि० [हि० अनमोल] दे० 'अमोल' । उ०— इसे अस्व अंमोल लिये पुँड़ीर चंद्र कहि । —पूरा०, ६४ ।४५२० ।
⋙ अंभ्रित पु
संज्ञा पुं० दे० अमृत । उ—मनहुँ कला ससि भांन, कला सोलह सोबन्निय । बाल बेस ससिता सभीप अंभ्रित रस पिन्निय ।—पृ० रा० २० । ५ ।
⋙ अंवटना पु †
क्रि० सं० दे० 'औटना' । उ०— अंवटि छीर अनल पर जाई । जोरन दे तब दही जमाई ।— सं० दरिया, पृ०, ६ ।
⋙ अंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाग । खंड़ । अवयव । अंग । २. दाय या उत्तराधिकार का भाग । हिस्सा । बखरा । बांटा । ३. भाज्य अंक । ४. भिन्न की लकीर के ऊपर की संख्या । ५. चौँथा भाग । ६. सोलहवाँ भाग । ७. वृत्त की परिधि का ३६० वाँ भाग जिसे इकाई मानकर कोण या चाप का प्रमाण बताया जाता है । विशेष— पृथ्वी की विषृवत् रेखा को ३६० भागों में बाँटकर प्रत्येक विभ जक बिंदु पर से एक एक लकीर उत्तर दक्षिण को खींचते है । इसी प्रकार इन उत्तर दक्षिण लकीरों को ३६० भागों में बाँटकर विभाजक बिंदुओं पर से पूर्व पश्चिम लकीर खीचते हैं । इन उत्तर दक्षिण और पूर्व पश्चिम की लकीरों के परस्पर अंतर को अंश कहते हैं । इसी रीति से राशिचक्र भी ३६० अंशों में बाँटा गया है । राशियों १२ हैं, इससे प्रत्येक राशि प्राय? ३० अंश की होती है । अंश के ६० वें भाग को कला और कल को ६०वें भाग को विकला कहते हैँ । ८.कंधा । ९. सूर्य । १२. आदित्यों में से एक, जैसे—अंश- सुता = अर्थात् सूर्य की पुत्री यमुना । १०. किसी क रबार का हिस्सा । ११. फायदे का हिस्सा । १२. राग वा मुख्य स्वर (संगीत) । १३. एक यदुवंशी राजा (को०) । १४. दिन (को०) । यौ०— अंशवंश = धन परिवार ।
⋙ अंशक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अंशिका] १. भाग । टुकड़ा । २. दिन । सौर दिवस । ३. हिस्सेदार । साझीदार पट्टीदार । उ०— दाय या उत्तराधिकार में कई वय्क्ति हिस्सा बाँटनेवाले हों तो प्रत्येक का भाग अंश और पानेवाला अंशक कहलाता । था ।— पाणिनि०, पृ०, ४१३ ।
⋙ अंशक (२)
वि० १. अंश धारण करनेवाला । अंश रखनेवाला । अंश— धारी । २. बाँटनेवाला । विभाजक ।
⋙ अशकरण
संज्ञा पुं० [सं०] विभाजन । बँटवारा या विभाग करने का कार्य [को०] ।
⋙ अंशकल्पना
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंश या विभाग प्रदान करने का कार्य [को०] ।
⋙ अंशत
त्रि वि० [सं० अंशतस्] किसी अंश तक । कुछ हद तक । आंशिक रूप में । खंड़ो में । टुकड़ों में । खड़श? । असपूर्ण रुप से ।
⋙ अंशतीसु
संज्ञा पुं० [देश०] एक तीर्थ का नाम ।
⋙ अंशधारी
वि० [सं०] अंश धारण करनेवाला । अंशक । उ०— प्रगट्यो कवीद्र अंशधारी नरहरि तहाँ दिल्लीपति मान्यो तिन्हे गुण की प्रभाते हैं । —अकबरी०, पृ०, ७५ ।
⋙ अंशन
संज्ञा पुं० [सं०] बिभाजन । विभाग या बँटवारा करने का कार्य [को०] ।
⋙ अंशपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह कागज जिसमें पट्टीदारों का अंश या हिस्सा लिखा है ।
⋙ अंशप्रल्पना
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अंशकल्पना' [को०] ।
⋙ अंशप्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] हिस्सा या अंश देने का कार्य । अंशकाल्पना [को०] ।
⋙ अंशभागी
वि० [सं०] दे० 'अंशभाग' ।
⋙ अंशभाग्
वि० [सं०] अंशी । दायाद । हिस्सेदार [को०] ।
⋙ अंशभू
वि० [सं०] पट्टीदार साझीदार [को०] ।
⋙ अंशभूत
वि० [सं०] अंशरुप । अंशमय । अंश [को०] ।
⋙ अंशयिता
वि० [सं० अंशयितृ, अंशयिता] हिस्सा बाँटनेवाला दायद । हिस्सेदार ।
⋙ अंशल
वि० [सं०] १. हिस्सेदार । दायाद । २. पुष्ट कंधोंवाला बलवान ।शक्तिसंपन्न [को०] ।
⋙ अंशवत्
संज्ञा पुं० [सं०] अंशुमत सोम का एक भेद [को०] ।
⋙ अंशसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमुना नदी ।
⋙ अंशस्वर
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में मुख्य स्वर । [को०] ।
⋙ अंशहर
वि० [सं०] हि सेदार । हिस्सा पानेवाला [को०] ।
⋙ अंशहारी
वि० [अंशहारिन्] दे० 'अशाधारी' [को०] ।
⋙ अंशांश
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंश का भाग (किसी देवता को) । २. अमृख्य अपूण या गौण अवतार । अंशावतार [को०] ।
⋙ अंशाशि
क्रि० वि० [सं०] विभागश? । विभागानुक्रम से [को०] ।
⋙ अंशावतरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'अंशावतार' । २. महाभारतके आदि पर्व के ६४ से ६७ अध्यायो का अभिधान [को०] ।
⋙ अंशावतार
संज्ञा पुं० [सं०] वह अवतार जिसमें परमात्मा की शक्ति का कुछ भाग ही आय़ा हो । पूर्णावतार से भिन्न ।
⋙ अंशी (१)
वि० [सं० अंशिन्] [वि० स्त्री० अंशिनी] १. अंशधारी । अंश रखनेवाला । २. शक्ति या सामर्थ्य रखनेवाला । ३. अवतारी ।
⋙ अंशी
संज्ञा पुं० १. हिस्सेदार । साझीदार । २. अवयवी ।
⋙ अंशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. किरण । प्रभा । यौ०— अंशुधर, अंशुपति, अंशुभर्ता, अंशुभृत् अंशुत्वामी, अंशुहस्त = सूर्य । २. लता का कोई भाग । ३. सूत । सूत्र । ताग । धागा पतली रस्सी । ४. तागे का छोर । छोर । ५. लेश । बहुत सूक्ष्म अंश या भाग । ६. लता और विशेष रूप से सोमलता ता सुतरा (को०) । ७. सूर्य । ८. एक ऋषि या राजा ता नाम । ९. वेग (को०) । १०. वेश (को०) ।११. आमंड़न वस्त्र (को०) ।
⋙ अंशुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपड़ा । वस्त्र । २. पतला कपड़ा । महीन कपड़ा । ३. किरन । अल्प प्रकाश । किरणासमूह । ४.रेशमी कपड़ा । ५. उपरना । उत्तरीय । दुपट्टा । ६. धोती या अधोवस्त्र । ७. औढ़ना । ओढ़नी । ८. मुखवस्त्र घूँघट (को०) । ९. तेजपात ।
⋙ अंशुकोष्णीषपट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अंशुक + अष्णीषपट्टिका] उष्णीष पर बाँधी जानेवाली अंशक नामक महीन वस्त्र की पटटी ।—हर्ष०, प०, १७ ।
⋙ अंशुजाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. किरणसमूह । प्रकाशपुंज । २. प्रकाश की दीप्ति या चमक [को०] ।
⋙ अंशुनाभि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह बिंदु जिस पर समानांतर प्रकाश की कीरणों तिरछी और संकुचित होकर मिलें । विशेष—सूर्यमुखी शीशे को जब सूर्य के सामने करते हैं तब उसकी दूसरी ओर इन्हीं किरणों का समूह गोल । वृत्त या बिंदु बन जाता है जिसमें पड़ने से चीजें जलने लगती है ।
⋙ अंशुपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] वस्त्रविशेष । एक प्रकार का रेशमी कपड़ा [को०] ।
⋙ अंशुमंत
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. अंशुमान राजा ।
⋙ अंशुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक नदी । यमुना । कलिंदी २. सालपर्णी [को०] ।
⋙ अंशुमत्फला
संज्ञा स्त्री० [सं०] केले का वुक्षं और उसका फल [को०] ।
⋙ अंशुमर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में ग्रहयुद्ब के चार भेदों में से एक । इस ग्रहयुद्ब में राजाओं से युद्ध, रोग और भूख की पीड़ा आदि होती है । दे० 'ग्रहवुद्ध' ।
⋙ अंशुमान (१)
वि० [सं०] १. रेशेदार । २. सोम से संपन्न । सोमरस से भरा हुआ । ३., चमकीला । दीप्तिमान् । ४. नुकीला [को०] ।
⋙ अंशुमान (२)
संज्ञा पुं० [सं० अंशमत्] १. सूर्य । २. चंद्रमा [क्व०] । ३. अयोध्या के सूर्यवंशी राजा सगर के पौत्र । असमंजस के पुत्र और दिलीप के पिता । सगर के अश्वमेध का घोड़ा ये ही ढ़ूँढ़कर लाए थे और सगर के ६०,००० पुत्रों के शव को इन्हीं ने पाया था ।
⋙ अंशुमाला
संज्ञा पुं० [सं०] ज्यातिर्वलय । प्रकाश का घेरा । तेजोवलय [को०] ।
⋙ अंशुमाली
संज्ञा पुं० [सं० अंशुमालिन्] १. सूर्य । २. बारह की संख्या [को०] ।
⋙ अंशुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चाणक्य मुनि । २. मुनि [को०] ।
⋙ अंशुल (२)
वि० प्रकाशपूर्ण [को०] ।
⋙ अंशुविमर्द
संज्ञा पुं० [सं०] किरणों के मंद या धुँधली होने की स्थिति [को०] ।
⋙ अंशूदक
संज्ञा पुं० [सं०] धूपया चाँदनी में रखा हुआ जल । [को०] ।
⋙ अंश्य
वि० [सं०] १. बाँटने योग्य । विभाजनीय । २. विभाग प्राप्य । [को०] ।
⋙ अंस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाग । अंश । खंड । अवयव । उ० —ईश्वर अंस, जीव अविनासी ।—मानस, ७ ।११७ । २. स्कंध । कंधा । उ०— अभयद भुजंदड़ मूल । अंस पीन सानुकूल, कनक मेखला दुकूल दमिनि धरखी री । —सूर०, १० । १३८४ । ३. चतुर्भुज का कोई कोण (को०) । ४. वेदी के कोईदी स्कंध या कोण (को०) ।
⋙ अंस (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अंश] १. कला । उ०— तापर उरग ग्रसित तव सोभित पूरन अंस ससी ।— सूर०, १० । ११९६ । २. सूर्य । जैसे 'अंससुता' में । ३. अपनत्व । संबंध । अधिकार । उ०— अब इन कृपा करी ब्रज आए जाने आपनो अंस— सूर०, १० । ३५८७ ।
⋙ अंस (३) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अंशु] किरण ।—उ० सित कमल बंस सी सीतकर अंस सी ।— भिखारी० ग्रं, भा०, १. पृ०, २३४ ।
⋙ अंस पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० अश्रया अश्रु] आँसू । अश्रु । उ०— भुज फरकनि तरकनि कंचुकि कच छरि जू रेहे ढुरि अंस । —पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० ३८३ ।
⋙ अंसकूट
संज्ञा पुं० [सं०] साँड़ के कंधों के बीच का ऊपर उठा हुआ भाग । कूबड़ । कुब । ककुद ।
⋙ अंसटपाटी †
संज्ञा स्त्री० [सं० अनशन + हि० पाटी] दे० 'खटपाटी' । क्रि० प्र०—लेना = खटपाटी लेना । क्रोध या हठ के कारण काम— काज न करना । काम धाम से विरक्ति होना । उ०—तो बाकी मा अंसटपाटी लै के परि गई । —पोद्दार अभि० ग्रं० पृ०, १००६ ।
⋙ अंसत्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्कंधत्राण । कंधों की रक्षा के लिये धारण किया जानेवाला लौहपट्ट । २. धनुष । [को०] ।
⋙ अंसधन
संज्ञा पुं० [सं० अंशधन] हिस्से का धन । उ०—जुकछु अंसधन हुतौ जो साथ । सी दीनों माता के हाथ ।— अर्ध० ।
⋙ अंसपुरसां पु
संज्ञा पुं० [सं० अंश+पुरुष] अंशपुरुष । बलवान् व्यक्ति । उ०— तदवार अंसपुरसां तणी, आय वणी जग ऊपरा । —रा० रू०, पृ० २३ ।
⋙ अंसफलक
संज्ञा पुं० [सं०] रीढ़ का ऊपरी भाग [को०] ।
⋙ अंसभार (१)
वि० कंधों पर बोझा ढोनेवाला । बहँगीदार [को०] ।
⋙ अंसभार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कधों का बोझ । बोंझ जो कंधे पर ढ़ोया जाय [को०] ।
⋙ अंसभारिक
वि० [सं०] कंधों पर बोझ ढोनेवाला [को०] ।
⋙ अंसभारी
वि० [सं०] दे० 'अंशभारिक' [को०] ।
⋙ अंसर पु
संज्ञा पुं० [अ० उनसुर] तत्व । उ०— के हैं पाँच अंसर सू फला योतन, के माटी होर पानी व बारा तु गिन ।— दक्खिनी०, पृ० २०८ ।
⋙ अंसल
वि० [सं०] पुष्ट कंधोंवाला । दुढंस्कंध । बलवान् [को०] ।
⋙ अंससुता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अंशु (= सूर्य) + सुता] कालिंदी । जमुना । सूर्यतयना । उ० —सूरदास प्रभु अससुता तट क्रीड़त राधा । नंगकुमार । —सूर० १० । १८०२ ।
⋙ अंसिक पु
[सं० अंशक] अंश धारण करनेवाला । अंशसंभूत । उ०— सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा । जिए सकल रघुपति की इंछा ।— मानस, ६ । ११३ ।
⋙ अंसी पु
वि० [सं० अंशी] अंशवाला । अंशधारी । उ०— द्बारपाल इहै कही, जोधा कोउ बचे नहीं,काँधे गजदंत धरे सूर ब्रह्म अंसी ।—सूर० १० । ३०७४ ।
⋙ अंसु (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० अंशु, प्रा० अंसु] किरण । उ०— सरद निसि को अंसु अगनित इंदु आभा हरनि । —सूर० १० । ३५१ । यौ०— अंसुपति, अंसुमान, अंसुमाल = सूर्य ।
⋙ अंसु (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अंस] भाग । अंश । उ०— लोभा लई नीचे ज्ञान चलाचल ही की अंसु अंत है क्रिया पाताल निंदा रस ही को खानि ।— भिखारी०, ग्रं०, भा०, २. पृ० २१२ ।
⋙ अंसु (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० अंस] स्कंध । कंधा । उ०— सखा अंसु पर भुज दिन्हें लीन्हें मुरलि अधर मधुर विश्व भरन । — सूर०, १० । ६२४ ।
⋙ अंसु (४)पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्रु; प्रा० अस्सु, अंसु] आँसू । अश्रु । उ०— गहत बाल पिय पानि सु गुरू जन संभेर । लोचन मोचि सुरंग सु अंसु बहे खरे । —पृ० रा०, २५ । २७५ ।
⋙ अंसु (७)पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्व, प्रा०, अस्स] अश्व । धोड़ा । उ०— पय मंड़िहि अंसु धरै उलटा । मनौ विंटय देषि चलै कुलटा ।— पृ० रा० २७ ।३५ ।
⋙ अंसुक
संज्ञा पुं० [सं० अंशुक,प्रा० अंसुक, अंसुग] वस्त्र । कपड़ा । उ०— औ अंसुक जिमि फूल सलोना । —इद्रा०, पृ०, १२८ ।
⋙ अंसुग पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंसुक' । उ०— कासमीर अंसुग दए सब जोधन पहिराय । —प० रा०, पृ० १६४ ।
⋙ अंसुमाल पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अंशु० प्रा० अंसु+सं० प्रा० माल] किरण समुह । उ०— जागियै गोपाललाल, प्रगट भई अंसुमाल मिटयों अंधकाल उठौ जननी सुखदाई । —सूर० १० । ६१९ ।
⋙ अंस्य (१)
वि० [सं० अंस्य] विभाज्य ।
⋙ अंस्य (२)
वि० [सं०] कंधा संबंधी [को०] ।
⋙ अंह
संज्ञा पुं० [सं० अंहस्] १. पाप । दुष्कर्म । अपराध । २. दु?ख । चिंता । कष्ट । व्याकुलता । ३. विघ्न ।बाधा ।
⋙ अंहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दान । त्याग । परित्याग । ३. रोग । ४. कष्ट । दु?ख [को०] ।
⋙ अंहती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अंहति' [को०] ।
⋙ अंहद पु
वि० [हि० अन + अ० हद्] जिसकी हद न हो । असीम । अनंत । अनहद । उ०—नाद अनाहद अंहद, सुनै अनाहद कौन ।—इंद्रा०, पृ० १२१ ।
⋙ अंहस्पति
संज्ञा पुं० [सं०] क्षप मास [को०] ।
⋙ अंहिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दान [को०] ।
⋙ अंहिती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अहिति' [को०] ।
⋙ अंह्नि
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाँव । पैर । २. वृक्ष की जड़ मूल [को०] ।
⋙ अंह्निप
संज्ञा पुं० [सं०] पादप । पेड़ [को०] ।
⋙ अंह्निशिर
संज्ञा पुं० [सं०] 'अह्निस्कंद' [को०] ।
⋙ अंह्निस्कंध
संज्ञा पुं० [सं०] गुल्फ । घुट्ठी टखना [को०] ।
⋙ अँकखरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] कंकड या पत्थर का महीन टुकड़ा या चूरा । अंकटी । अँकरो । अंकरौरी ।
⋙ अँकटा †
संज्ञा पुं० [सं० कर्कर, प्रा० कक्कर या सं० अंकुर, हि० अंकुर > अँकड़ अथवा सं० अंक+काण्ड़ >, प्रा० *अंक+अंड़ = अंकड़ या देश] १. कक़ड़ का छोटा टकड़ा । २. कंकड़ पत्थर आदि का महिन टुकड़ा या चूरा जो आनाज में से चुनकर निकाल दिया जाता है ।
⋙ अँकटी †
संज्ञा स्त्री० [अँकटा शब्द का अल्पार्थक प्रयोग] छोटा अँकटा ।
⋙ अँकड़ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हुङ्कार > प्रा० उंकड़ > अंकड़] अकड़ । ऐंठ । उ०— अँकड़ जीव लब सुक सु किया था जुल्लाब ।—दक्खिनी०, पृ० १४९ ।
⋙ अँकडा †
संज्ञा पुं० दे० अँकटा (बोल०) ।
⋙ अँकड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्कुर = अंखुआ = टेढ़ी नोक; अथवा सं० अङ्कुटक प्रा० अङ्कुड़ग, अंकुड़य] १. अँकटी । २. हुक । कँटिया । ३. तीर का मुड़ा हुआ फल । टेढ़ी गाँसी । ४. बेल । लता । ५. लग्गी । फल तोड़ने कता बाँस का डंड़ा जिसके सिरे पर फँसाने के लिए एक टेढी छोटी लकड़ी बँधी रहती है ।
⋙ अँकना (१)पु०
क्रि० सं० [सं० अङ्कन] दे० 'आँकना' ।
⋙ अँकना (२)पु
क्रि० अ० १. आँका जाना या कूता जाना । २. लिखा जाना या अंकित होना ।
⋙ अँकना (३)पु
क्रि० सं० [सं० आकर्णन] सुनना । श्रवण करना । उ०—अबध सकल नर नारि बिकल अति अँकानि बचन अनभाए ।— तुलसी ग्रं०, भा०, २., पृ० ३६२ ।
⋙ अँकमाल पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंकमाल' ।उ०— सूर स्याम बन तै ब्रज आए जननि लिए अँकमाल । —सूर०, १० । १३९० ।
⋙ अँकरवरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० अंकर+ बरी या औरों (प्रत्य०)] अँकड़ी । कंकड़ी । उ०—काँट न चुभै न गड़ै अँकरवरी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त०) छँद १३७ ।
⋙ अँकरा
संज्ञा पुं० [सं०अङ्कृर] [स्त्री० अँकरी] १. एक खर वा कुधान्य । विशेष— यह रबी की फसलों में गेहूँ के पौधों के बीच जमता है । इसे काटकर बैलों की खिलाते हैं और इसका साग भी खाते हैं । इसका दाना या बीज काला, चिपटा छोटी मूँग के बराबर होता है और प्राय; गेहूँ के साथ मिल जाता है । इसे गरीब लोग खाते भी है । खेसारी इसी का एक रुपांतर है । २. कंकड़ ।
⋙ अँकरास †
संज्ञा पुं० दे० 'अकरास' ।
⋙ अँकरी
संज्ञा स्त्री० [अँकरा का अल्पार्थक प्रयोग] छोटा अँकरा या कंकड़ी । यौ०— अँकरी + पथरी = कंकड़ी । अँकटी ।
⋙ अँकरोरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कंकड़ी । सिटकी । कंकड़ या खपड़े का बहुत छोटा टुकड़ा । अँकरवरी ।
⋙ अँकरौरी पु †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँकरौरी' । उ० —अँकरौरी सम गनौं पहारा, लेखौ समुद हिये महाँ नारा । —चित्रा०ष पृ०, २९५ ।
⋙ अँकवरी †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँकरोरी ।
⋙ अंकवाई
संज्ञा स्त्री० [हि० + आँकना+वाई प्रत्य०] १. अँकवाने । की क्रिय़ा या स्थिति । २. आँकने का परिश्रमिक या मजदूरी । अँकाई (बोल०) ।
⋙ प्रँकवाना
क्रि० सं० [हि० आँकना का प्रेरणार्थक] १. मूल्य निर्धारित करना । २. कुतवाना । अंदाज कराना । ३. परीक्षा कराना । जँचवाना । परखवाना । ५. चिह्ना । छापा आदि लगवाना ।
⋙ अँकवार
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्कपालि, अङ्कमाल,प्रा० अंकवालि, अंकवाल] १. गोद । अंक । २. छाती । वक्षस्थल । मुहा०—देना = गले लगाना । छाती से लगना । आलिंगन करना । भेंटना ।—भरना = आलिंगन करना । भेंटना । गलें मिलना । उ०— बनमाला पहिरावत स्यामहि बार बार अँकवार भरत धरि ।— सूर० १० । ४०९ ।—भरी होना=गोंद में बच्चा रहना । संतानयुक्त होना । उ०— बहु तुह्मारी अँकवार भरी रहे, (आशीर्वाद) (शब्द०) । ३. आलिंगन । भेंट । मिलना । जैसे—चिट्ठी में हमारी भेंट अँकवार लिख देना ।— (शब्द०) ।
⋙ अँकवारना †
क्रि० सं० [हिं० अंकवार + ना] गले लगाना । भँटना । आलिंगन करना ।
⋙ अँकवारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्कपालि, प्रा० अंकवालि] उ०— खेलत तै मोहि वोलि लियौ इहि दोउ भुज भरि दीन्हीं अँकवारी । —सूर० १० । ३०४ ।
⋙ अँकवारी (१) पु
संज्ञा स्त्री० १. दे० 'अँकवार' । उ०— अब के गौना बहुरि नहि औना करि ले भेंट अंकवारी । —संतवाणी, भा०, २. पृ० ९ । २. हाथाबाही । हाथापाई । मुठभेड़ । संघर्ष (लाक्षणिक प्रयोग) । उ०— बीर अगुमने भुजा पसारी । दुइ दल माँह भई अँकवारी ।—चित्रा०, पृ० १५३ ।
⋙ अँकस †
संज्ञा पुं० दे० 'अकस' ।
⋙ अँकसदीया †
संज्ञा पुं० दे० 'अकासदीया' ।
⋙ अँकाई
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रङ्क, हि० अँक (आँक, आँकना, अँकना) + आई (प्रत्य०)] १. कूत । अंदाजा । अटकल । तखमीना । २. फसल में से जमींदार और, काश्तकार के हिस्सों का ठहराव । मूल्य लिखा जाना । क्रि० प्र०— करना । —होना । ३. आँकने का पारिश्रमिक या मजदूरी ।
⋙ अँकाना
क्रि० स० [ सं० अंकना] [संज्ञा —अँकाई अँकाव] १. अंदाज कराना । कुतवाना । २. परीक्षा कराना । परखाना । ३. मूल्य निर्धारित कराना । उ०— मन आग्रह करने लगा, लगा पूछने दाम । चला अँकाने के लिये वह लोभी बेकाम ।— झरना, पृ०, ७४ । ४. चिह्न छापा आदि लगवाना ।
⋙ अँकाव
संज्ञा पुं० [सं० अङ्क+हिं० आव (प्रत्य०) ] [क्रि० —अँकाना] कूतने वा आँकने का काम । कुताई । अंदाज वा तखमीना करने का काम । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ अँकावना पु †
क्रि० स० दे० 'अँकवाना', अँकाना । उ०— यह प्रेम बजार के अंतर सो पर नैन दलाल अँकावने है ।— ठाकुर०, पृ० २५ ।
⋙ अँकिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० आँख अँखिया] आँख । नेत्र । उ०— अँकिया के नहर सूँ दीदे का पानी वर ऐसे लागे गम की बाग- बानी ।— दकिखर्नी०, पृ० २३७ ।
⋙ अँकुड़ा
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कुर] १. लोहे झुका हुआ टेढ़ा काँटा । २. लोङे का भुवा हुआ टेढ़ा छड़ जिससे चुड़िहार लोग भट्ठी से गला हुआ काँच निकालते हैं । ३. टेढ़ी झुकी हुई कील वा कँटिया जिसमें तागे अँटकाकर पटवा वा पटहार काम करते है । ४. लोहे का एक टेढ़ा । काँटा जो लकड़ी आदि तौलनेवाली बड़ी तराजू की ड़ाँड़ी के बीचोबीच लगा रहता है । ५. कुलाबा । पायजा । ६. लोहे का एक गोल पच्चड़ जो किवाड़ की चूल में ठोंका रहता है । ७. लोहे का एक छड़ जिसका एक सिरा चिपटा होता है और दूसरा टेढ़ा औप झुका हुआ । चिपटे सिरे को काँटे से किवाड़ के पल्ले में जड़ देते है ओर झुके हिस्से को साह के कोढ़ों में ड़ाल देते है । इसी पर पल्ला घूमता है अर्थात् खुलता और बंद होता है । ८. रेशमी कपड़ा बुननेवालों का मछली के आकार का काठका एक औजार जिसके सिरे पर एक छेद होता है । इस छेद में एक खूंटी गड़ी । रहती है जिसमें दलथंभन से बँधी हुई रस्सी लपेटी रहती है । ९. गाय बैल के पेट का दर्द या मरोड़ जिसे एँचा भी कहते हैँ । १०.खूँटी । नागदंत ।— (कौ०) ।
⋙ अँकुड़ी
संज्ञा स्त्री० [हि० अँकुड़ा का अल्पार्थक प्रयोग] [वि० अँकुड़ी- दार] १. छोटा अँकुड़ा । टेढी कँटिया । हुक । २. लोहे का एक छड़ जिसका सिरा कुछ झुका रहता है और जिससे लोहर लोग भट्ठी की आग खोदते है । ३. हल की वह लकड़ी फाल लगाया जाता है । ४. एक्के के पहिए के जोड़े पुर लगी हुई लोहे की कील या जोंकी ।
⋙ अँकुड़िदार
वि० [हि० अँकुड़ी + फा० दार] १. जिसमें अंकुड़ी वा कँटिया लगी हो । जिसमें अँटकाने के लिये हुक लगा हो । हुकदार । २. एक प्रकार का कसीदा जिसे गड़ारी भी कहते है ।
⋙ अँकुर पु
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कुर] अंकुर अँखुआ । उ०— अदभुत राम नाम के अंक । धर्मअँकुर के पावन द्बै दल मुक्ति—बधू ताटंक ।—सूर० १ । ९० ।
⋙ अँकुरना पु
क्रि० अं० [सं,० अङ्करणा] अंकुरित होना । अंकुर का अत्पन्न होना या निकलना । किसी वस्तु की आरंभिक उत्पत्ति या उत्पन् होना ।
⋙ अँकुराना (१)पु
क्रि० सं० [सं० अङ्करण] पानी में भिगोकर चने आदि को अँकुरयुत्त होने में प्रबृत्त करना । अंकुर उत्पन्न कराना ।
⋙ अँकुराना (२)पु
क्रि० अं० दे० 'अँकुरना' ।
⋙ अँकुराना (३)पु
क्रि० अं० [सं० आकुल] आकुल होना । व्याकुल होना । उ०— माइ बापे दय़ हलु नेपुर गढ़इ । नेपुर भँगवड़ते जिव अँकुराई ।—बिद्यापति, पृ०, २०३ ।
⋙ अँकुरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० अंङ्कुर + ई (हि०)] १. भिगोकर अंकुरिच किए गए चने, मूँग गेहुँ आदि की घुँघनी । २. वंश में एकमात्र बची हुई संतान ।
⋙ अँकुवार
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्कुर,० हि० अँखुआ+आर (प्रत्य)] अँकुर । अँखुआ । उ०— प्रेम बिना नही उपज हिय, प्रेम बीज अँकुवार— रसखान०, पृ० १ ।
⋙ अँकुसा
संज्ञा पुं० दे० 'अँकुश' ।
⋙ अँकुसी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्कुश० हिं० अंकुस + ई (प्रत्य०)] १. टेढ़ी करके झुकाई हुई लोहे की कील जिसमें कोई चीज लटकाई या फँसाई जाय । हुक । वटिया । २. पीतल वा लोहे का एक लंबा छड़ जिसका एक सिर घुमावदार होता है । इससे ठठेरे भटुली की राख निकालते है । ३. लोहे का टेढा़ । छड़ जिसको किवाड़ के छेद में ड़ालकर बाहर सै आगरी या सिटविनी खोलते है । यह कुंजी का काम देता है । ४. वह छोटी लकड़ी जो फल तोड़ने की लग्गी के सिरे पर बँधी रहती है । ५. लोहे का एक बित्ता लंबा सूजा जिसका सिरा झुका होता है । इससे नारियल के भीतर की गरी निकालतै है ।
⋙ अँकूर
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कुर] १. अंक । भाग्य । उ०— जथा जोग सब मिलत है जो विधि लिख्यो अँकूर । खल गुर भोग गवारनी रानी पान वपूर ।—सं० सप्तक, पृ० ३४१ । २. अंकुर । अँखवा । उ०— जु बंकिय भोंह न तुच्छ गरूर । उठे मन मच्छ धनंक अँकूर ।— पृ०, रा० २१ ।२२ ।
⋙ अँकोड़ा
संज्ञा पृं० [सं० अङ्कुर या प्रा० अँकुडग] १. एक प्रकार का लोहे का काँटा जो पाल की रस्सी खीचने में काम आता है । २.एक प्रकार का लंगड़ । बड़ी कँटिया । कोंढ़ा ।
⋙ अँकोर (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कमाल या अङ्कपालि, हि० अँकवार] १. अँक । गोद । छाती । उ०— खेलत रहौं कत्हु मै बाहिर चितै रहति सब मोरी ओर । बोलि लेति भीतर घर अपने मुख चूमति भरि लेति अँकोर ।—सूर (शब्द०,) ।२. दे० 'अँकवार' । ३. भेट । नजर । उपहार । उ०— सूरदास प्रभु के जो मिलन की, कुच श्रीफल सों करति अँकोर । —सूर (शब्द०) । ३. घूस । रिशवत । उ०— (क) लीन्ह अँकोर हाथ जेहि जीउ दीन्ह तेहि हाथ । —जायसी ग्रे० पृ०, २८७ । (ख) विथुरित सिररुह बरूथ, कुंचित बिच सुमन जुथ मनि जुत सिसु फनि अनीक, ससि समिप आई । जन् सभीत दै अँकोर, राखे जुग रुचिर मोर, कुंडल छबि निरखि चोर सकुचत अधिकाई ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४०५ ।
⋙ अँकोर (२) †
संज्ञा पुं० [ सं० कवल; हिं० कौर अथवा कोर (देश०) ] खोराक या कलेवा जो खेत में काम करनेवालों के पास भेजा जाता है । छाक । कोर । दुपहरिया । जलपान ।
⋙ अँकोरी
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्कपालि प्रा० अंकवालि, अथवा सं० अङ्कोलिका ] १. गोद । अक । २. आलिंगन । अँकवार । कौली । उ०— गावत हँसत रिझावत हिलिमिलि पुनि पुनि भरत अँकोरी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४९७ ।
⋙ अँकौर
संज्ञा पुं० [ सं० अंङ्कपालि या अङ्कोलिका, प्रा० अंकवालि ] आलिंगन । अँकवार । उ०— मुख चूमत ललचाइ कबहुँ पुनि कबहूँ भरत अँकोर । —भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ४९९ ।
⋙ अँकौल पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंकोल' ।
⋙ अँखडी †
संज्ञा स्त्री० [ सं० अक्षि; प्रा० अक्खि, अक्ख; डिं और पं० अंख + डी़ (प्रत्य०) ; अथवा हिं० आँख + डी़ (प्रत्य०) ] १. आँख । नेत्र । उ०— मेरी इन दुखिया अँखडि़यो के सामने । लहर, पृ० ७२ ।२. चितवन । उ०— तुझ अँखडि़याँ के देखे आलम खराब होगा ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ८ ।
⋙ अँखमीँचनी पु †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० आँख+ मीचनी ] दे० 'अँखमिचौली' ।
⋙ अँखमूदन पु
संज्ञा पुं० दे० 'अँखमूदनो' ।
⋙ अँखमूदनो
संज्ञा पुं० [ हिं० आँख + मूँदना ] आँखमीचनी । आँख- मिचौली ।
⋙ अँखाना पु
क्रि० अ० दे० 'अनखाना' ।
⋙ अँखि पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अखि' । उ०— जिम सुकिया दुति बचन, दूत तरिय अँखि अग्गी ।—पृ० रा०, ६१ ।१०११ ।
⋙ अँखिया †
संज्ञा स्त्री० [ सं० अक्षि, प्रा० अक्खि, हिं० आँखी, अँखिया, पं० अंख ] १. आँख । नेत्र । उ०— अंखिया निरखि स्याम मुख भूलीं ।—सूर०, १० ।२४०१ । विशेष—दुलार या स्नेहयुक्त अभिव्यक्ति के प्रसंग में प्राय? इस रुप का प्रयोग होता है । २. लोहे का एक ठप्पा या कमल जिससे बरतन पर हथौडी़ से ठोंक ठोंककर नक्काशी बनाते हैं ।
⋙ अँखियारा †
वि० [ हिं० अँखिया + रा (प्रत्य०) ] आँखवाला (अंधा का विलोम) ।
⋙ अँखुआ
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्करक ] १. बीज से फूटकर निकली हुई टेढी़ नोक जिसमें से पहली पत्तियाँ निकलती हैं । अंकुर । उ०— खोल खेत में आँख वही अँखुआ कहलाता मिट्टी मुह में डाल फूल अंगों न समाता ।—बुद्ध० च० । २. बीज से पहले पहल निकली हुई मुलायम बँधी पत्ती । डाभ । कल्ला । कनखा । कोपल । फुनगी । क्रि० प्र०—आना ।—उगना ।—जमना ।—निकलना ।— फूटना ।—फेंकना ।—फोड़ना ।—लेना ।—लेना ।
⋙ अँखुआना
क्रि० अ० [ हिं० अँखुआ से नाम० ] १. अंकुर फोड़ना या फेंकना । उगना । जमना । अंकुरित होना । २. उभड़ना । उठाना ।
⋙ अँग
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्ग ] १. शरीर । देह । अवयव । अंग । उ०— फूले अँग न समात, सबन को भाग उघारि रह्यो ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३३ । २. पक्ष । तरफ । उ०— अपने अँग कै जानि कै जोबन-नृपति प्रवीन ।—बिहारी र०, दो० २ ।
⋙ अँगऊँ †
संज्ञा पुं० दे० 'अँगौंगा' ।
⋙ अँगऊ †
संज्ञा पुं० [सं० अग्रिम] दे० 'अँगौंगा' ।
⋙ अँगडा़ई
संज्ञा स्त्री० [ हिं० अँगडा़ना + ई (प्रत्य०) ] [ क्रि० अँगडा़ना ] आलस से जम्हाई के साथ अंगों को फैलाना, मरोड़ना या तानना । देह के बंद या जोड के भारीपन को हटाने के लिये अवययों को पसारना या तानना । शरीर के लगातार एक स्थिति में रहने के कारण जोडों या बंदों के भर जाने पर अवयवों को फैलाना । अँगडा़ने की क्रिया या भाव । देह टूटना । टूटना । उ०— जलधि लहरियों की अँगडाई बार बार जाती सोने ।—कामायनी, पृ० २३ । विशेष—सोकर उठने पर या ज्वर आने से कुछ पहले यह प्राय? आती है । क्रि० प्र०—आना ।—लेना । उ०— खुदा के वास्ते तनकर न ले तू अँगडा़ई । कि बंद बंद बुते बेहिजाब चटकेगा (फै०) । मुहा०—अँगडाई तोड़ना = (१) आलस्य में बैठे रहना । कुछ काम न करना । (२) किसी के कंधे पर हाथ रखकर अपने शरीर का भार उसपर देना ।
⋙ अँगडा़ना
क्रि० अ० [ सं० अङ्ग + अट् ] शरीर के बंद या जोडों के भारीपन को हटाने के लिये अंगों को पसारना या तानना । शरीर के लगातार एक स्थिति में रहने के कारण जोडों या बंदों के भर जाने पर अवयवों को फैलाना या तानना । देह तोड़ना । सुस्ती से या थकावट से ऐंठना वा ऐंडाना ।
⋙ अँगधातु पु
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्गधातु ] प्रस्वेद । पसीना । उ०—मुकुट उतारि धरयौ लै मंदिर पोंछति है अँगधातु ।—सूर० १० ।५११ ।
⋙ अँगन पु
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्गण, अङ्गन ] आँगन । चौक । उ०— डहडहे बदन निरखि सिसु भूले । कंचन जलज अँगन जनु फूले ।—नंद ग्रं०, पृ० ३०२ ।
⋙ अँगनई
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगनाई' । उ०— और अब तरक्की करते करते सेक्रेटरियट की अँगनई में दाखिल हो बैठे थे ।—नई पौ०, पृ० ८ ।
⋙ अँगनवाँ पु †
संज्ञा पुं० [ हिं० अँगन + वाँ (प्रत्य०) ] दे० 'अँगन' । उ०— खेलत रहलू अँगनवाँ सखी सँग साथी हो ।—धरम० शब्दा०, पृ० ६४ ।
⋙ अँगना (१) †
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्गण, अङ्गन ] आँगन । चौक । उ०— घर अँगना करि डार्याँ मो घर सब जोरे हाथ ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३८४ ।
⋙ अँगना (२)पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्गना ] स्त्री । नारी । उ०— उडत गुडी़ लखि ललन की अँगना अँगना माँह ।—बिहारी र०, दो० ३७३ ।
⋙ अँगनाई †
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्गन; हिं, आंगन, अँगना + ई (प्रत्य०) ] आँगन । अजिर । अँगना । उ०— बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई ।—मानस ७ ।७६ ।
⋙ अँगनैत †
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्गन, हिं० आँगन, अँगना + ऐत (प्रत्य०)] आँगन का स्वामी । घर का मालिक । गृहस्वामी । गृहपति ।
⋙ अँगनैया †
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्गन; हिं० आँगन—अँगन + ऐया (प्रत्य०) ] आँगन । अँगना । उ०— मनि खंभनि प्रतिबिंब झलक, छबि छलकिहै भरि अंगनैया ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २७३ ।
⋙ अँगबंदन पुं
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्ग + बन्धन; तु० फा० बंद ] अंगबंधन । शरीर का बंधन । उ०— ज्यों अहिपति केंचुरि कौ लघु लघु छोरत है अँगबंदन ।—सूर०, १० ।११५८ ।
⋙ अँगबलित
वि० [ सं० अङ्कवलित ] अंगों से लिपटा हुआ । उ०— ब्रज अधिप अंगबलित सुरति समय सोहती बाला ।—भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० १३१ ।
⋙ अँगरँग
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्गरङ्ग ] शरीर का कांति या दीप्ति । उ०— तेरे ही नव—जोबन के अँगरँग सुभ लागत परम सुहाए ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३४९ ।
⋙ अँगरखा
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्ग = देह+ रक्षक = बचानेवाला, प्रा० रक्खअ, हिं० रखा ] एक पुराना मर्दाना पहिनावा जो घुटनों के नीचे तक लंबा होता है और जिसमें बाँधने के लिये बंद टँके रहते हैं । बंददार अंगा । चपकन । विशेष—इसे हिंदू और मुसलमान दोनों बहुत दिनों से पहले पहनते आते हैं । इसके दो भेद हैं— (१) छहकालिया, जिसमें छह कलियाँ होती है और चार बंद लगे रहते हैं । इसके बगल के बंद भीतर वा नीचे की ओर बाँधे जाते हैं, ऊपर नहीं दिखाई पड़ते, अर्थात् इसका पल्ला जिसका बंद बगल में बाँधा जाता है भीतर वा नीचे होता है, उसके ऊपर वह पल्ला होता है जिसका बंद सामने छाती पर बांधा जाता है । (२) बाला वर, जिसमें चार कलियाँ होती है और छह बंद लगे रहते हैं । इसका बगल में बाँधनेवाला पल्ला नीचे रहता है और दूसरा उसके ऊपर छाती पर से होता हुआ दूसरी बगल में जाकर बाँधा जाता है । अतः उसके सामने के और एक बगल के बंद दिखाई पड़ते हैं ।
⋙ अंगरखी †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगरखा' ।
⋙ अँगरना पु †
क्रि० अ० दे० 'अँगराना' ।
⋙ अँगरा †
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्गार ] १. अँगार । अँगारा । दहकता हुआ कोयला । २. कोयला । मुहा०—अँगरा दरना = अनुचित कार्य की हद करना । अशोभन या अशुभ कार्य करना । विशेष—स्त्रियाँ परस्पर कल्ह में सोहागिनों के प्रति अशुभ भाव व्यक्त करती हुई 'माँग में अँगरा दर दूँगी' प्रायः ऐसा कहती हैं । ३. बैल के पैर टपकने या रह रहकर दर्द करने का एक रोग । इस रोग में बैल बार बार पैर उठाया करता है ।
⋙ अँगराई †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगडाई' । उ०— है रात घूम आई मधुबन यह आलस की अँगराई है ।—लहर, पृ० २० ।
⋙ अँगराग पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंगराग'—१ । उ०— नृप द्वार कुमारि चलीं पुर की, अँगराग सुगंध उडै गहरी ।—बुद्ध व०, पृ० २४ ।
⋙ अँगराना पु †
क्रि० अ० दे० 'अँगडाना' । उ०— (क) बारबधू पिय पंथ लखि अँगरानी अँग मोरि ।—मति० ग्रं०, पृ० ३०६ । (ख) पलक अधखुली दृगनि सों अँग अंगरात जम्हात ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ६३ ।
⋙ अँगरी पु †
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्ग + री ] कवच । झिलम । बख्तर । बक्तर । उ०— अँगरी पहिरि कूँडी सिर धरहीं । फरसा बाँस सेल सम करहीं ।—मानस, २ । १९१ ।
⋙ अँगरी (२)
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्गरीय ] उँगलियों को धनुष की रगड़ से बचाने के लिये गोह के चमडे का दस्ताना । अंगुलित्नाण ।
⋙ अँगरेज
संज्ञा पुं० [ फ्रें० आंगलेज, पुर्त इंगलेज, अं० इंगलिश ] [ वि० अँगरेजी ] इंगलैड देश का निवासी । इंगलिस्तान का रहनेवाला आदमी । उ०— असिबर अँगरेजै घलि घलि तेजै अरिगन भेजैं सुरपुर को ।—हिम्मत०, पृ० ४२ ।
⋙ अँगरेजियत
संज्ञा स्त्री० [ हिं० अंगरेज + फा० इयत (प्रत्य०) ] अंगरेजीपन । अँगरेजी रंगढंग की । उ०— हमसे तो भाई यह अँगरेजियन नहीं देखी जाती ।—गबन, पृ० ११२ । विशेष— कभी कभी शासक और शासित के बीच अँगरेज शासकों की अकड़ या अपने को श्रेष्ठ समझने का अभिमान भी इस अर्थ में मिला रहता है ।
⋙ अँगरेजी (१)
संज्ञा स्त्री० [ हिं० अँगरेज + ई (प्रत्य०) ] अंगरेजों की भाषा । इंगलिश भाषा ।
⋙ अँगरेजी (२)
दे० अँगरेज संबंधी । अंगरेजों का ।
⋙ अँगलेट
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्ग, हिं० अंग + लेट ? ] शरीर की गठन । काठी । उठान । देह का ढाँचा । अँगेट ।
⋙ अँगवना पु †
क्रि० स० [ सं० अङ्ग से नाम ] १. अंगीकार करना स्वीकार करना । उ०— दीप पतँग होइ अँगएउ आगी ।— जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० ३२८ । २. ओढना । अपने सिर पर लेना । ३. सहना । बरदाश्त करना । उ०— अपना घर सुख छाडि़ के अँगवै दुख को भार ।—कबीर श०, भा० ४, पृ० २७ । ४. उठाना । उ०— धरती भार न अँगवै पाँव धरत उठ हाल । कूर्म टूट मुँह फाटी तिन हस्तिन की चाल ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अँगवनिहारा
वि० [हिं० अँगनवा + हारा (प्रत्य०) । सहनेवाला । सहन करनेवाला । बरदास्त करनेवाला । उ०— सूल कुलिस असि अंगवनिहारे । तेरतिनाथ सुमन सर मारे ।—मानस, २२५ ।
⋙ अँगवाना पु
क्रि० स० [ हिं० अँगवाना ] अंग में लगाना या मलना । उ०— चंदन और अरगजा आन्यौ अपनै कर बल कै अंगवान्यौ ।—सूर०, १० ।१२१३ ।
⋙ अँगवारा †
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्ग = भाग, सहायता + कार या हिं० वारा = वाला ] १. गाँव के एक छोटे भाग का मालिक या हिस्सेदार । २. खेत की जुलाई में एक दूसरे की सहायता ।
⋙ अँगसँग पु
संज्ञा पुं० दे० 'अँगसँग' । उ०— यह जग अँगसँग में मतन वारा, चावें विषय भोग अनुसारा ।—रत्न०, पृ० ९० ।
⋙ अँगाकरि पु †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगाकडी' । उ०— अबहीं अँगाकरि तुरंत बनाईं । जे भजि भजि ग्वालिनि सँग खाई ।—सूर०, १० ।१२१३ ।
⋙ अँगाना पु
क्रि० स० [सं० अँङ्ग] अंगीकार करना । स्वीकार करना । उ०—मनहुँ एक कौ रंग एक निज अंग अँगाए ।—रत्नाकर, भा० १, पृ० १८२ ।
⋙ अँगार पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंगार' । उ०—जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ ।—मानस, ६ ।५२ ।
⋙ अँगारा पु
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गारक, प्रा० अंगारय] आग का जलता टुकड़ा । अंगार । उ०—नभ चढ़ बरषै विपुल अँगारा ।— मानस, ६ । ५१ । विशेष—'अंगारा' शब्द के मुहावरों का प्रायः 'अँगारा' शब्द के साथ भी प्रयोग होता है ।
⋙ अँगारी
संज्ञा स्त्री० [से० अङ्गारिका प्रा० अंगालिय, इंगाली] १. ईख के सिर पर की हरी पत्ती जिसे काटकर पशुओं को खिलाते हैं ।२. गड़ाँसे कटे हुए ईख के छोटे छोटे टुकड़े जो पत्थर के कोल्हू में पेरने के लिये तैयार किए जाते हैं । गँडेरी । गेंड़ी । ३. चिनगारी । अग्निकण । उ०—खुले घाव पै ताके मानो परी अँगारी ।—बुद्ध च०, पृ० १५१ । दे० 'अंगारी' ।
⋙ अँगाली पु
वि० [सं० अग्रणी, प्रा० अग्गाणी, हिं० अगाड़ी, अगारी] आगे । प्रथम । उ०—मुअज्जम इसम अँगाली हमेशा ।— दक्खिनी०, पृ० ११४ ।
⋙ अंगिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गिका; प्रा० अंगिआ] स्त्रियों का एक पहिनावा जिससे केवल स्तन ढँके रहते है, पेट और पीठ खुली रहती है । इसमें चार बंद होते हैं जो पीछे बाँधे जाते हैं । छोटा कपड़ा । चोली । कंचुकी । काँचली । उ०—अँगिया नील, माँड़नी राती, निरखत नैन चुराई ।—सूर०, १० । १०५३ । यौ०—अँगिया का कंठा या अँगिया की कठी=दे० 'अँगिया का घाट' । अँगिया की कटोरी या मुलकट=अँगिया का वह भाग जो स्तानों के ऊपर पड़ता है । अँगिया की खवासी या खसी= वह सीवन जो कटोरियों को आस्तीन से मिलाती है । अँगिया का घाट=अँगिया का गला या गरेबान, गले के नीचे का खुला हिस्सा । अँगिया की चिड़िया=दोंनों कटोरियों के बीच की सीवन । अँगिया का ठर्रा=वह बटा हुआ धागा जो अँगिया के नीचे की गोट मे लगाया जाता है । अँगिया की डोरी= कंठे और पुट्ठे में शोभा के लिये टाँकी जानेवाली डोरी । अँगिया की दीवार=दे० 'अँगिया का पान' । अँगिया का पछुआ=अँगिया की पीठ की ओर के टुकड़े । अँगिया का पान=अँगिया की कटोरी का छोटा टुकड़ा । अँगिया का पुट्ठा=अँगिया की आस्तीन की चौड़ी गोट । अँगिया के बंद=पीठ की ओर का ठर्रा जिससे अँगिया कसी जाती है । अँगिया का बँगला=कटोरी की कली या फाँक जो जोड़ों पर गोखरू टाँकने से बन जाता है । दो कलियाँ होने पर बँगला और दस बारह होने पर खरबूजा करहते है । अँगिया के बाजू=अँगिया का वह भाग जो दोनों बगल छिपाता है । अँगिया की लहर=कटोरियों पर तिकोनी कटी हुई सज्जा ।
⋙ अँगिया (२)
संज्ञा स्त्री [हिं० अँघिया] झीने कपड़े से मढ़ी हुई चलनी ।
⋙ अँगिरना पु †
क्रि० स० [सं० अङ्गीकरण ?] स्वीकार करना । उ०—जे अँगिरिअ तो न होइअ उदास ।—विद्यापति, पृ० ४४ ।
⋙ अँगिराना
दे० 'अँगड़ाना' । उ०—लागि गरें अँगिरात जँभात है, आरस गात भरे गिरि जात हैं ।—भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० ४२ ।
⋙ अँगीठ पु
संज्ञा पुं० [सं० अग्निष्ठ; पा०, प्रा० अग्गिट्ठ] दे० 'अँगीठा' । उ०—या मन को बिसमिल करूँ दीठ करूँ अदीठ । जो सिर राखूँ आपना पर सिर जलौ अँगीठ ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अँगीठा
संज्ञा पुं० [सं० अग्नि=आग+स्था=ठहरना>अग्निस्था, अग्निष्ठा, प्रा० अग्गिठ्टा अथवा सं० अग्निष्ठिका, प्रा० अग्गिट्ठिया] बड़ी अँगीठी । बड़ा आतिशदान । बड़ी बोरसी । आग रखने का बरतन ।
⋙ अँगीठि पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगीठी' । उ०—सुंदर एक अचंभा हूवा पानी माँहैं जरै अँगीठि ।—सुंदर ग्रं० भा० २, पृ० ५२१ ।
⋙ अँगीठी
संज्ञा स्त्री० [सं० अग्निष्ठिका, प्रा० अग्गिट्ठिआ] आग रखने का छोटा बरतन । आतिशदान । उ०—धरी अँगीठी स्वच्छ धूम बिन गावत अपने रंग ।—भारतेंदु ग्रं०, भाग २, पृ० ८३० । विशेष—यह मिट्टी और लोहे की गोल, चौखूँटी अठपहली आदि कई आकार्रों की बनती है । मुहा०—अँगीठी होना=अँगीठी के समान तप्त होना । उ०— सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु जरि बरि भईअँगीठी ।— सूर०, १० । ३६७२ ।
⋙ अँगु पु
संज्ञा पुं० दे० 'अँग' (१) । उ०—सैल सँभारयौ लला अँगुरी धरि पै अबला अँगु रीन सँभारयौ ।—देव ग्रं०, पृ० ११ ।
⋙ अँगुछा पु †
संज्ञा पुं० दे० 'अँगोछा (१)' । उ०—'तब वा माली ने याकी अँगुछातो फेरि दियौ' ।—दौ सौ बावन०, भा० १, पृ० २२६ ।
⋙ अँगुछाना
क्रि० स० [सं० अँगुछा से नाम०] दे० 'अँगोछना' उ०—मनन सुनीर अन्हवाह अँगुछाय दया, नवनि बसन प्रन सोधी ले लगाइये ।—भक्तमाल (प्रि०), छं० ३ ।
⋙ अँगुठा
संज्ञा पुं० दे० 'अंगूठा' । उ०—कर पग गहि अँगुठा मुख मेलत ।—सूर०, १० । ६४ । मुहा०—अँगूठा चटाना=दे० 'अँगूठा चटाना' । उ०—अँगुठा चटाय दफादार के रे साँवलिया ।—प्रेमघन० भा० २, पृ० ३४० ।
⋙ अँगुठी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुष्ठिका, प्रा० अँगुठ्टी] १. काँसे का ढालकर बनाया हुआ एक गहना जो पैर अँगूठे में अनवट के स्थान पर पहना जाता है । इसका व्यवहार नीच जाति की स्त्रियों में है ।२. दे० 'अंगूठी' ।
⋙ अँगुरि पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगुरी' । उ०—कानन कुंडल चलत अँगुरि दल ललित कपोलन मैं कछु झलकै ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५२ ।
⋙ अँगुरिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० अङअगरिका, प्रा० अंगुरिया] छोटी उँगली । उ०—गहे अँगुरिया ललन की नँद चलन सिखावत ।—सूर०, १० । १२२ ।
⋙ अँगुरियाना
क्रि० सं० [हिं० अँगुरी से नाम?०] हैरान करना । तंग करना । परेशान करना (बोल०) ।
⋙ अँगुरिया बेल
संज्ञा पुं० [फा० अंगूर] कालीन या गलीचे के किनारे पर की एक बेल या नक्काशी जो अंगूर की लता के ढ़ंग पर बनाई जाती है ।
⋙ अँगुरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गरी] १. उँगली । उ०—तीजे मास हस्त पग होंहिं चौथ मास कर अँगुरी सोहिं ।—सूर०, ३ ।३ । क्रि० प्र०—चटकाना=दे० 'उँगली चटकाना' । उ०—योवन के मद संग ढरै अँग अंग मुरै अँगुरी चटकावै ।—देव ग्रं०, पृ० १२ । २. वरक पीटने की चाँदी । यौ०—अँगुरी की चाँदी=यह चाँदी सिल की चाँदी को खब साफकरके बनाई जाती है । इसी को पीटकर चाँदी का वरक बनाते हैं ।
⋙ अँगुली
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुलौ; प्रा० अंगुली] †१. अँगुली । उँगली । २. हाथी की सुँड़ का अगला भाग । ३. एक नदी का नाम ।
⋙ अँगुष्ठ पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंगुष्ठ' । उ०—सुभग अँगुष्ठ अंगुली अबिरल, कछुक अरुन नखज्योति जगमगति ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४१५ ।
⋙ अँगुसा †
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कुश=टेढ़ी नोक, प्रा० अंकुसय] अंकुर । अँखुआ ।
⋙ अंगुसाना †
क्रि० अ० [हिं० 'अँगुसा से नाम०] बोए हुए अनाज का अँखुआ फोड़ना । जमना । अंकुरित होना । अँखूआना ।
⋙ अँगुसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अँगुसा+ई (प्रत्य०)] १. हल का फाल । २. सोनारों की बकनाल या टेढ़ी नली जिससे दिए की लौ को फूँककर टाँका जोड़ते हैं ।
⋙ अँगूठा
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुष्ठ; प्रा० अंगुठ्ट] १. मनुष्य के हाथ की सबसे छोटी और मोटी उँगली । पहली उँगली जिससे दूसरा स्थान तर्जनी का है । तर्जनी की बगल में छोर पर की वह उँगली जिसका जोड़ हथेली में दूसरी उँगलियों के जोड़ों के नीचे होता है । उ०—हथफूल पीठ पर करके धर, उँगलियाँ मुंदरियों से सब भर, आरसी अँगूठे में देकर—ग्राम्या, पृ० ४० । विशेष—मनुष्य के हाथ में दूसरे जीवों के हाथो से इस अँगूठे की बनावट में बड़ी भारी विशेषता है । यह बड़ी सुगमता से इधर उधर फिरता है और शेष चार उँगलियों में से प्रत्येक पर सटीक बैठ जाता है । इस प्रकार यह पकड़ने में चारों उँगलियों को एक साथ भी और अलग अलग भी सहायता देता है । बिना इसकी शक्ति और सहायता के उँगलियाँ कोई वस्तु अच्छी तरह नहीं पकड़ सकतीं । मुहा—अँगूठा चूमना=१. आदर करना । विनय प्रकट करना । २. अधीन होना ।३. खुशामद करना । सुश्रूषा करना । अँगूठा चूसना=बड़ा होकर बच्चों की सी नासमझी करना । अँगूठा दिखाना=१. किसी वस्तु को देने से अवज्ञापूर्बक नहिं करना ।२. किसी कार्य को करने से हट जाना । किसी कार्य को करने से अस्वीकार करना ।३. अवज्ञा करना । ४. चिढ़ाना । उ०— ऐसी उपाय गई निमुकाय, चितै मुसुकाय दिखाय अँगूठो ।—सुधानिधि, पृ० । अँगूठा नचाना=चिढ़ाना । अँगूठे पर मारना=तुच्छ समझना । परवाह न करना ।
⋙ २. मनुष्य के पैर की सबसे मोटी उँगली ।
⋙ अँगूठी
संज्ञा स्त्री० [हिं अँगूठा+ई (प्रत्य०)] १. उँगली में पहनने का एक गहना । एक प्रकार का छल्ला । मुँदरी । मुद्रिका । अँगुश्तरी । उ०—औ पहिरे नगजरी अँगूठी— पदु०, पृ० ५० । यौ०—अँगूठी का नगीना=महत्वपूर्ण व्यक्ति या वस्तु । उ०—देखो, जैसा ईश्वर ने यह सुंदर अँगूठी के नगीने सा नगर बनाया है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८२ । २. उँगली में लपेटा छुआ राछ में जोड़ने का तागा । विशेष—जुलाहे जब पाई को राछ में जोड़ने लगते हैं तब पाई के थोड़े थोड़े तागों को ऐंठकर उँगली में लपेट लेते हैं और फिर उँगली में से एक एक तागा निकालकर राछ में जोड़ते हैं । ईस उँगली में लपेटे हुए तागे को अँगूठी या अँगुठी कहते हैं ।
⋙ अँगूर (१)पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंगूर' । उ०—चूसे अधर अँगूर दोउ गालन पै प्रगट निसानी सी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ८६३ ।
⋙ अँगूर (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कुर] अंकुर । अँखुवा । उ०—सो पै जानै नैन रस, हिरदै प्रैम अँगूर ।—जायसी (शब्द) । 'अंगूर' ।
⋙ अँगे पु
क्रि० वि० [सं० अग्रे; प्रा० अग्गे] आगे । भविष्य में । उ०—के जैसा अँगे होनेहारा है काम ।—दक्खिनी०, पृ० ७९ ।
⋙ अँगेजना पु
क्रि० सं० [सं० अङ्ग=शरीर+एज=हिलना, कँपना] १. सहना । बरदाश्त करना । उठना । उ०—रह सका काम का सुखी सुंदर, कौन सा अंग दुख अँगेजे पर ।—चोखे०, पृ० २१ । २. अंगीकार करना । स्वीकार करना । उ०—इक मरिबै कौ छाड़ि कहा जौ नाहिं अँगेज्यौं ।—रत्नाकर, भा० १, पृ० ८० ।
⋙ अँगेट पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्ग] अंगो की दीप्ति या कांति । उ०— (क) एड़ी तें सिखा लों है अनूठिए अँगेट आछी ।—रसखान०, पृ० १२० । (ख) साँवरे छैल की आछी अँगेट पै काम करोरिक वारियै जोहि कै ।—घनानंद०, पृ० ४७ ।
⋙ अँगेठा †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगीठी' ।
⋙ अँगेठी †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगीठी' ।
⋙ अँगेरना पु
क्रि० स० [सं० अङ्ग=देह+ईर=जाना; अथवा सं० अङ्ग=स्वीकार या सं० अङ्कीकरण प्रा० अंगीअरण या अंगीरण] १. अंगीकार करना । स्वीकार करना । मंजूर करना ।२. सहना बरदाश्त करना ।
⋙ अँगोछना
क्रि० स० [सं० अङ्गोञ्च्छन] गीले कपड़े से देह पोछना । शरीर पर गीला वा भीगा वस्त्र रखकर मलना । गीला कपड़ा फेरकर बदन साफ करना । उ०—पीत पट लै लै के अँगोछत सरीर करु कंजन सौं पोछत भुसुंड गजराज कौ ।—रत्नाकर, भा० २, पृ० १०० ।
⋙ अँगोछा
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गोच्छ] [स्त्री० अँगोछी] [पू० गमछा- गमछी] १. दह पोछने का कपड़ा । तौलिया ।२. ऊपर रखने के लिये एक कपड़े का टुकड़ा । इसे प्रायः लोग कंधे पर रखते हैं । उपरना । उपवस्त्र । उ०—वासन ढाँकि अँगोछा डारा । हाँ से भोजन काढ़ि निकारा ।—रत्न० पृ० १९८ । कि० प्र०—लेना=पोंछना । उ०—चरन पखारि अँगोछा लीन्हा ।—कबीर सा० ।
⋙ आँगोछी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गोछा+ हिं० ई (प्रत्य०)] १. देह पोंछने के लिऐ छोटा कपड़ा२. बच्चों की छोटी धोती जिससे कमर से आधी जाँघ तक ढक जाय । यह प्राय? छोटे लड़के लड़कियों के लिये होती है ।
⋙ आँगोजना पु
क्रि० स० दे० 'अँगेजना' ।
⋙ अँगोट पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्ग+वर्त्म, प्रा० अंग+वट्ट] शरीर की गठन । देह की बनावट ।
⋙ अँगोटना पु
क्रि० स० दे० 'अगोटन' । उ०—देखि री देखि अँगोटि कै नैननि कोटि मनोज मनोहर मूरति ।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १३७ ।
⋙ अँगोरा (१) †
संज्ञा पुं० [देश०] मच्छर । भुनगा ।
⋙ अँगोरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गार] अँगारा । अँगार । उ०—भयउ अदग सो लाल अँगोरा । कहे आगि में अगिनि अँजोरा ।— सं० दरिया, पृ० २३ ।
⋙ अँगोरी
संज्ञा स्त्री० दे० अँगारी' ।
⋙ अँगौंगा
संज्ञा पुं० [सं० अग्र=अगला+अंग=भाग] अन्न या और किसी वस्तु का वह भाग जो धर्मार्थ पहले निकाल लिया जाय । धर्मार्थ बाँटने या देवता को चढ़ाने के लिये अलग निकाला हुआ अंश । अँगऊँ । पुजौरा ।
⋙ अँगौछना पु †
क्रि० स० दे० 'अँगोछना' । उ०—उत्तम विधि सौं मुख पखरायौ, ओदे बसन अँगौछि ।—सूर०, १० ।६०९ ।
⋙ अँगौछा †
संज्ञा पुं० दे० 'अँगोंछा' । उ०—अँगौछे में मांस ओर पोथी के चोंगे में मद्य छिपाई जाती है ।—भारतेंदु ग्रं०, भां १, पृ० ८२ ।
⋙ अँगौछी †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगोछी' । उ०—एक अँगोछी अपने अपने गले में डाले आकर सत्यगुरु के चरणों पर गिरे ।—कबीर मं० पृ० ५०९ ।
⋙ अँगौटी †
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गाकृति या अङ्गवर्त्म?] अंग का गठन । आकृति । बनावट । अँगोट ।
⋙ अँगौड़ा †
संज्ञा पुं० [?] किसी देवता को अर्पण करने के लिये निकाला गया पदार्थ । देवांश ।
⋙ अँगौरिया
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गं=भाग] १. बह हलवाहा जिसे कुछ मजदूरी न देकर हल बैल देते हैं जिनसे वह अपने खेत भी जोत लेता है । २. मजदुरी के स्थान पर हल बैल मँगनी देना ।
⋙ अँग्रेज
संज्ञा पुं० दे० अँगरेज ।
⋙ अँघड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० अँघ्रि] काँसे का एक प्रकार का छल्ला जिसे एक वर्ग की स्त्रियाँ पैर के अँगूठे में पहनती हैं ।
⋙ अँघराई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक कर जो पहले पशुओं पर लगाया जाता था ।
⋙ आँघिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] झीने कपड़े से मढ़ी हुई आटा या मैदा चालने की चलनी । आँगीया । आखा
⋙ अँचना पु
क्रि० स० दे० 'अँचवना' । उ०—पुट एकै इत मद उत अंमृत आपु अँचै अँचवावै ।—सूर०, १० । १२४९ ।
⋙ अँचर पु
संज्ञा पुं० दे० 'अँचरा' । उ०—गज गति चाल अँचर गति धुजा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ०, ३४७ ।
⋙ यौ०—अँचर धरैया=दे० 'अँचरा' पकडाई ।
⋙ अँचरा पु †
[सं० अञ्चल] १. साड़ी का वह छोर जो छाती पर रहता है । साड़ी या ओढ़नी का वह भाग जो सिर पर होता हुआ सामने छाती पर फैला हो । पल्ला । २. दुपट्टे या दुशाले के दोनें छोर । छीर । उ०—कब मेरौ अँचरा गहि मोहन जोइ सोइ कहि मोसौं झगरे ।—सूर०, १० । ७६ । यौ०—अँचरा पकड़ाई=विवाह की एक प्रथा जिसमें वर कन्या की माता तथा उसके कुटुबं की और स्त्रियों का अंचल पकड़ता है और कुछ लेने पर छोड़ता है । इस रीति को तथा उस वस्तु को जो वर को मिलती है, अँचरा पकड़ाई या अँचर धरैया कहते हैं । मुहा०—अँचरा पसारना=(१) किसी बड़े या देबता से कुछ माँगते समय (स्त्रियों का) अपसे अँचल को आगे फैलाना जिससे दीनता और उद्बेग सूचित होता है । विनती करना । दीनता दिखाना । उ०—ए विधिना तो सों अँचरा पसारी माँगों जनम जनम दीजो या ही व्रज बासिबो—छीतस्वामी (शब्द्०) । (२) भीख माँगने की एक मुद्रा । कोई वस्तु लेने के लिये देनेवाले के सामने अंचल रोपना । (3) दीनता और विनय के साथ माँगना ।
⋙ अँचल पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंचल'—१ । उ०—अँचल ध्वज अवलोकि नाहीं धरत पिय मन धीर ।—सूर०, १० । २४४९ ।
⋙ अँचला
संज्ञा पुं० [सं० अञ्चल] १. दे० 'अँचरा' । २. कपड़े का एक टुकड़ा जिसे साधु लोग नाभि के ऊपर धोती के स्थान पर लपेटे रहते है ।
⋙ अँचली पु
संज्ञा स्त्री० [हीं० अंचल+ ई (प्रत्य०)] दे० दे० 'अँचरा', 'अँचला' । उ०—उलटत पलटत जग की अँचली । जैसे फेरै पान तमोली ।—मलूक०, पृ० १३ ।
⋙ अँचवन पु †
संज्ञा पुं० दे० 'अचवन' । उ०—हंसन को विश्राम; पुरुष दर्श अँचवन सुधा ।—कबीर सा०, पृ० १५ ।
⋙ अँचवना पु †
क्रि० स० दे० 'अचवना' । उ०—परिहरि चारिउ मास जो अँचवै जल स्वाति को ।—तुलसी ग्रं०, पृ०१०७ ।
⋙ अँचवनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आचमनी] आचमन करने का छोटा पात्र । आचमनी ।
⋙ अँचवाना पु †
क्रि० स० दे० 'अचवाना' । उ०—अँचवाइ दीन्हे पान गवने व स जहँ जाको रह्यो ।—मानस, १ ।९९ ।
⋙ अँचार पु †
संज्ञा पुं० दे० 'अचार (१)' ।—उ०—पापर, बरी, अँचार परम सुचि । अदरख अरु निबुआनि ह्वैहै रुचि ।—सूर०, १० ।२१३ ।
⋙ अँचुली पु
संज्ञा स्त्री० दे० अँजली (१)' । उ०—जनम यही धोखे बीता जात, जस जल मै अँचुली में भल सीझै ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ३७ ।
⋙ अँजना पु
क्रि० अ० [सं० अञ्ज, प्रा० अंज] स्निग्ध होना । उ०— देखत रूप निरंजन अँजेऊ ।—द० सागर, पृ० ६४ ।
⋙ अँजली †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंजली' ।
⋙ अँजवाना
क्रि० स० [हिं० आँजना का प्रेर०] अंजन लगवाना । सुरमा लगवाना ।
⋙ अँजाना
क्रि० स० दे० 'अँजवाना' । उ०—आँख अँजाइ पहिरि कर चुरी, हारि मोहन गिरधारी ।—भारतेदुं ग्रं० भा २, पृ० ३८१ ।
⋙ अँजीर पु
संज्ञा पुं० [सं० अजिर] अंजिर । आँगन । उं—अमृत बुंद तहँ झैर निकंदा । नैन अँजीर मगन मन चंदा ।—द० सागर, पृ०, ६८ ।
⋙ अँजुरी पु †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंजली' । उ०—जोबन मेरा जात है ज्यों अँजुरी का नीर ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६८५ ।
⋙ अँजुली पु †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँजली' । उं—जैसे मोती ओस की, पानी अँजुली माहिं ।—संतबानी०, भा०२, पृ० १६३ ।
⋙ अँजोर पु †
संज्ञा पुं० [सं० उज्ज्वल] उजाला । उजेला । प्रकाश । रोशनी । चाँदनी । उ०—मारग हुता अँधेर असूझा । भा अँजोर सब जाना बूझा ।—पदु०, १ ।१३९ ।
⋙ अँजोरना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० अंजुरी से नाम०] १. बंटोरना । समे— टना । उ०—करौं जो कछु धरौं सचि पचि सुकृत सिला बटोरी । पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरी ।—तुलसी (शब्द०) । २. छीनना । हरण करना । ले लेना । मूसना । उ०—ठाढ़ी भई बिथकी मारग में माँझहाट मटकी सो फोरि । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि चित चिंतामणि लियो अँजोरी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अँजोरना (२) †
क्रि० स० [सं० उज्ज्वलन; हिं० 'अँजोर' से नाम०] जलाना । प्रकाशित करना । बालना । जैसे—'दीपक अँजोरना' (शब्द०) ।
⋙ अँजोरबा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० अँजोर+ वा (प्रत्य०)] उजाला । प्रकाश । उ०—जब लगि तेल दिया में बाती, ये ही अँजोरवा बिछाय घलतू ।—संतबानी०, भा० २, पृ० २३ ।
⋙ अँजोरा (१) †
वि० [सं० उज्ज्वल, हिं० अँजोर] उजेला । प्रकाशमान । यौ०—अँजोरा पाख=शुक्ल पक्ष ।
⋙ अँजोरा (२) पु †
संज्ञा पुं० प्रकाश । रोशनी । उ०—दिया मँदिर निसि करै अँजोरा । दिया नहिं घर मूसही चोरा ।—जायसी (शब्द्०) ।
⋙ अँजौरिया (१) पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अँजोर+इया (प्रत्य०)] चाँदनी । ज्योत्सना ।
⋙ अँजोरिया (२) पु †
वि० उजेली । शुक्ल पक्ष की । यौ०—अँजोरीया रात=शुक्ल पक्ष की रात ।
⋙ अँजोरी (१) पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अँजोर+ई (प्रत्य०)] १. प्रकाश । रोशनी । चमक । उजाला । उ०—महिमा अमित मोरि मति थोरी रबि सनमुख खद्योत अँजोरी ।—मानस, ३ ।५ (क) । २. चाँदनी । चंद्रिका । चंद्रमा का प्रकाश ।
⋙ अँजोरी (२) पु
वि० स्त्री० उजियाली । उजेली । प्रकाशमय । उज्ज्वल । देदीप्यमान । उ०—(क) अँजोरी रात आने दो (शब्द्०) । (ख) पदिक पदारथ लिखी सो जोरी । चाँद सुरुज जस होइ अँजोरी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अँजौरना पु
क्रि० स० दे० 'अँजोरना (१)' । उ०—सूर स्याम की बुधि चतुराई लीन्ही सबै अँजौरी ।—सूर०, १० । १२४३ ।
⋙ अँट पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० आँट] लागडाँट । हठ । जिद । उ०— निकसे स्याम सदन मेरे तैं इनि अँट करि पहिचानी ।—सूर०, १० ।२०४३ ।
⋙ अँटकना
क्रि० अ० [देश०] १. रुकना । अड़ना । उ०—गोरख अँटके कालपुर कौन कहावैं साहु ।—कबीर बी०, पृ० 95 । २. फैसना । उलझना । उ०—सूं० सनेह ग्वाली मन अँटक्यो अंतर प्रीति जाति नहीं तोरी ।—सूर०, १० ।३०५ । दे० 'अटकना' ।
⋙ अँटकाना †
क्रि० स० दे० 'अटकाना' ।
⋙ अँटना
क्रि० अ० [देश०] १. समाना । किसी वस्तु के भीतर आना । उ०—(क) दूध इस बरतन में न अँटेगा (शब्द०) । (ख) आनंद हृदय मे अँटना नहीं था ।—भक्तमाल (श्रीं०) पृ० ५५० ।२. किसी वस्तु के ऊपर सटीक बैठना । ठीक चपकना । उ०—यह जूता मेरे पैर में नही अँटता है (शब्द०) । ३. भर जाना । ढँक जाना । छा जाना । उ०—कूड़े से कूआँ अँट गया (शब्द०) । ४. पूरा पड़ना । काफी होना । बस होना । चलना । उ०—(क) इतना कमाते है पर अँटता नहीं (शब्द०) । (ख) अकेले हम इतने कामों को नहीं अँट सकते (शब्द०) । ५. पु. पुरा होना । खपना । लग जाना ।
⋙ अँटिया
संज्ञा स्त्री० [प्रा० अट्ठा, 'आँट', हिं० अँटी+ इया (प्रत्य०)] घास, खर या पतली लकड़ियों आदि का बँधा हु्आ मुट्ठा । छोटा गट्ठा । गठिया । पूली ।
⋙ आँटियाना
क्रि० स० [हिं० 'आँटिया' से नाम० या अँटी] १. उँगलियों के बीच में छिपाना । हथेली में छिपाना । २. चारो उँगलियों में लपेटकर ड़ोरे की पिंड़ी बनाना । ३. घास, खर या पतली लकड़ियों का मुट्ठा बाँधना । ४. टेंट में रखना । अंटी में रखना । ५. गायब करना । हजम करना ।
⋙ अँटौतल
संज्ञा पुं० [देश०] ढक्कन जिन्हें तेली लोग कोल्हू में जोतने के समय बैल की आँखों पर चढ़ा देते है ।
⋙ अँठई †
संज्ञा स्त्री० [सं० अष्टपदी प्रा० अट्ठअई, अंठई] छोटे छोटे कीड़े जो प्राय? कुत्तों के बदन में चिपटे रहते है । किलनी । चिचड़ी ।
⋙ अँठली
संज्ञा स्त्री० [सं० अष्ठि=गुठली, गाँठ, अष्ठीलिका] नवयुवती के निकलते हुए स्तन ।
⋙ आँठियाना †
क्रि० स० [सं० अष्ठि प्रा० अट्ठि, 'अंठि' से नाम०] १. गुठली पड़ना । गिलटी पड़ना । गाँठ पड़ना । २. दही का थक्का जमना ।
⋙ अँड पु
संज्ञा पुं० [सं० अण्ड] अँडा । बैजा । उ०—जिन सब्द सोध सिहार सोचे अलल अँड़ उलटे सही ।—रत्न०, पृ० ९ ।
⋙ अँडखँड
संज्ञा पु० दे० 'अंड़ खंड' । उ०—कस कुरम सेस अकार अँड़— खँड नौ निरंजन कस रह्यौ ।—रत्न०, पृ० १ ।
⋙ अँड़दार
वि० [हिं० अड़ना+ दार (प्रत्य०)] रुकनेवाला । अड़ने— वाला । उ०—ज्यौं मतंग अँड़दार को लिये जात गँड़दार ।— मति०, ग्रं०, प० ३१२ ।
⋙ अँड़रना †
क्रि० अ० [देश०] धान के पौधे का उस अवस्था में पहुँचना जब वाल निकलने पर हो । रेंड़ना । गरभाना ।
⋙ अँडलाना †
क्रि० अ० [हिं० अड़ना] इठलाना । शोखी दिखाना ।
⋙ अँडवाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अंड या अंडा+ वाई (प्रत्य०)] मुर्गी या कोई अन्य चिड़िया जो अंड़ा देनेवाली हो ।
⋙ अँड़ाना
क्रि० स० दे० 'अड़ाना' । उ०—माया जाल में बांधि अँड़ाया क्या जानै नर अंधा ।—मलूक०, पृ० २० ।
⋙ अँड़िया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. बाजरे की पकी हुई बाला२. परेते पर लपेटा हुआ सूत । कुकड़ी ।
⋙ अँड़ुआ (१)
संज्ञा पुं० [सं० अण्ड, हिंदी अँड़+उआ (प्रत्य०)] वह पशु जो बधिया न किया गया हो । आँड़ू ।
⋙ अँड़ुआ (२)
वि० जो बधिया न किया गया हो । आँड़ू ।
⋙ अँड़आना
क्रि० स० [सं० अण्ड से नाम०] बैल के अंड़कोश के कुचलना जिसमें बह नटखटी न करे और ठीक चले । बधीयाना । बधिया करना ।
⋙ अँड़ुआ बैल
संज्ञा पुं० [हिं० अड़ुआ+ बैल] १.बिना बधिया किया हुआ बैल । साँड़ । २. बहुत बड़े अंड़कोशवाला आदमी जो उसके बोझ से चल न सके । ३. सुस्त आदमी ।
⋙ अँड़ुवा †
वि० दे० अँड़ुआ' ।
⋙ अँडुवारी
संज्ञा स्त्री० [सं० अण्ड़ज>अंडअ>अंडव>अँडउ+वारी>] एक प्रकार की बहुत छोटी मछली ।
⋙ अँतड़ी
संज्ञा स्त्री० [प्रा० अप० अत्रड़ी] आँत । नली । दे० आँत । मुहा०—अँतड़ी टटोलना=१. भूख को समझना । उ०—जोरू टटोले गटढ़ी, माँ टट ले अँतड़ी (कहाबत) । २ रोग की पह- चान के लिये पेट को दबाकर देखना । अँतड़ी जलना=पेट जलना । बहुत भूख लगाना । अँतड़ी गले में पड़ना=किसी आपत्ति में फँसना । संकटग्रस्त होना । अँतड़ियों का बल खोलना=बहुत दिन के बाद भोजन मिलने पर खूब पेट भर खाना । अँतड़ियों को मसोसकर रह जाना=भूख की कठिन तकलीफ सहना । अँतड़ियों में आग लगना=दे० 'अँतड़ी जलना' । अँतड़ीयों में बल पड़ना=अँतड़ियों का ऐठना या दुखना । पेट में दर्द होना । उ०—हँसते हँसते अँतड़ियों में बल पड़ गए । (शब्द०) ।
⋙ अँतर (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अंतर] दूरी । अंतर । उ०—आरोपित हार घणौ थियौ अँतर उरस्थल कुंभस्थल आज ।—बोलि० दू०, ९४ ।
⋙ अँतर (२) †
संज्ञा पुं० दे० 'इत्र' ।
⋙ अँतरजामी पु
वि० दे० 'अँतरजामी' । उ०—कमल नैन करुनामय सकल अँतरजामी । विनय कहा करै सूर कूर कुटिल कामी ।— सूर०, १ ।१२४ ।
⋙ अँतरधान पु
वि० दे० 'अंतरधान' । उ०—ह्वै अँतरधान हरि मोहिनी रुप धरि जाइ बन माँहि दीन्हें दिखाई ।-सूर०, ८ ।१० ।
⋙ अँतरपट पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरपट] १. औट । आड़ । उ०—सीय भीख रावन कहँ दीन्हीं । तू असि निठुर अँतरपट कीन्हीं ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३२९ । २. छिपाव । दुराव । उ०— तासौं कौन अँतरपट जो अस पीतम पीउ ।-जायसो ग्रं०, पृ० १३८ । ३. कपड़मिट्टी कपड़ौटी । उ०—का पूछौ तुम धातु निछोही, जो गुरु कीन्ह अँतरपट औही ।-जायसी (शब्द०) ।
⋙ अँतरा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरा] १. अंझा । नागा । अंतर । बीच । क्रि० प्र०—करना ।—डालना ।—पड़ना । २. वह ज्वर जो एक दिन नागा देकर आता है । क्रि० प्र०- उ०—आना उसे अँतरा आता है । ३. कोना ।
⋙ अँतरा (२) †
वि० एक वीच में छोड़कर दूसरा ।विशेष—विशेषण में इसका प्रयोग साधु भाषा में केवल 'ज्वर' शब्द के साथ और प्रांतीय भाषाऔं में कालसूचक शब्दो के साथ होता है; जैसे, अँतरा ज्वर । अँतरे दिन । यौ०—अँतरे खोतरे=बीच में नागा करते हुए । दूसरे तीसरे । उ०—अँतरे खोतरै डंडै करै, तालु नहाय औस माँ परै । दैव न मारे अपुव [न] इ मरै ।—घाघ०, पृ० ४७ ।
⋙ अँतराना (१) पु †
क्रि० स० [सं० अन्तर से नाम०] १. अलग करना । जुदा करना । २. भीतर करना । भीतर ले जाना ।
⋙ अँतराना (२) पु
क्रि० अ० अँतर या भेद ड़ालना । फर्क डालना । उ०— हौं हौं कहत धोख अँतराहीं । ज्यौं भा सिद्ध कहाँ परीछाहीं ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ०, २८४ ।
⋙ अँतरिख पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंतरिख' । उ०—चंद सुरुज औ नखत तराई । तेहि उर अँतरिख फिरै सवाईं ।-जायसी ग्रं०, पृ० २२९ ।
⋙ अँतरिछ पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंतरिच्छ' । उ०—जाकी कुरीया अँतरिछ छाई । सो हरिचंद देखल नहि जाई ।-कबीर बी०, पृ० १८ ।
⋙ अँतरी †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँवड़ी' । मुहा०—अँतरी का बल खोलना=जी भर खाना । पेट भर खाना । कडी भूख मिटाना । अँतरियाँ जलना=जोरों की भूख लगना । अँतरियों में आग लगना=दे० 'अँतरियाँ जलना' ।
⋙ अँतरिखा पु †
संज्ञा पुं० दे० 'अंतरिक्ष—१' । उ०—बहुतक फिरा करहिं अँतरीखा । अहे जो लाख भए ते लीखा ।-पदु०, पृ० १२० ।
⋙ अँतरौटा
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरपट] महीन साड़ी के नीचे पहनने का कपड़ा । वह कपड़े का टुकड़ा जिसे स्त्रियाँ इसलिये कमर में लपेट लेती है जिसमें महीन साड़ी के ऊपर से शरीर न दिखाई दे । अस्तर । छनना । उ०—चोली चतुरानन ठग्यो श्रमर उपरना राते । अँतरोटा अबलोकि कै असुर महा मद माते (हो) ।-सूर०, १ ।४४ ।
⋙ अँतहकरण पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंतहकरण' । उ०—वर नारि नेत्र निज वदन विलासा, जाणियौ अँतहकरण जई ।-बेलि दू० १७२ ।
⋙ अँत्रिख पु †
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरिक्ष] आकाश । अंतरिक्ष । उ०—दूजी अमर बेलि जग आई । जहाँ तहाँ अँत्रिख लपटाई । -चित्रा०, पृ० १४२ ।
⋙ अँथऊ †
संज्ञा पुं दे० 'अथऊ' ।
⋙ अँथवना पु
क्रि० अ० दे० अथवना' । उ०—कोइँ यह बसत बसंत उजारा । गा सो चाँद अँथबा लै तारा ।-जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ०, २५५ ।
⋙ अँदरसा
संज्ञा पुं० [फ्रा० अंदर+ सं० रस, अथबा सं० अन्न+रस] एक प्रकार की मिठाई । उ०—सुंदर अति सरस अँदरसे । ते धृत दधि मधु मिलि सरसे ।-सूर०, १० ।१८३ । विशेष—यह मिठाई चौरेठे या पिसे हुए चावल की बनती है । चौरेठे को चीनी के कच्चे शरीर में डालकर थोड़ा घी देकर पकाते है । जब वह गाढ़ा हो जाता है तब उतारकर दो दिन तक रखकर उसका खमीर उठाते हैं । फिर उसी की छोटी छोटी टिकिया बनाकर उनपर पोस्ते का दाना लेपटकर उन्हें घी में निकालते हैं ।
⋙ अँदली †
वि० [प्रा० अँधल] अंधा । उ०—यहाँ बी अँदली आखिर कुँ बी अँदले ।—दक्खिनी०, पृ० ४३३ ।
⋙ अँदाज पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंदाज' (१) । उ०—एकै जीव जीवत हैं उमर अँदाज भर एकैजीव होतै हिंसु होत चटपट है ।—ठाकुर० पृ० १३ ।
⋙ अँदाना पु
क्रि० स० [सं० अंद या अदि=बाँधना, बंधन करना] बचाना । बरकाना । उ०—परिवा नवमी पुरुब न भाए । दूइज दसमी उतर अँदाए ।—जायसी (शब्द्०) ।
⋙ अँदुआ
संज्ञा पुं० [सं० अन्दुक, प्रा० अंदुया] हाथियों के पिछले पैरों में डालने के लिये लकड़ी का बना एक काँटेदार यंत्र । विशेष—यह दो धनुषाकार लकड़ियों का बना होता है जिनके मुहँ एक ओर कील से मिले रहते है । इसे हाथी के पैर में डालकर दूसरे छारों को भी बाँध देते हैं ।
⋙ अँदेशा
संज्ञा पु० [फा० अंदेशह्] आशंका । खटका । उ०— मोह कैसा ? छोह कैसा? गुप्त पथ का क्या अँदेशा ।—क्वासि, पृ० १० ।
⋙ अँदेस पु †
संज्ञा पुं० दे० 'अँदेशा' । उ०—जिस करमनि करि अधिक क्लेस । फल अति तुच्छ मिटै न अँदेस ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०१ ।
⋙ अँदेसवा †
संज्ञा पुं० दे० 'अँदेशा' । उ०—तुम बिन प्रान रहै वा नाहीं यह जिय म हिं अँदेसवा रे ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, प० ३७४ ।
⋙ अँदोरा पु †
संज्ञा पुं० दे० 'अदोर' । उ०—घरी एक सुठि भयउ अँदोरा । पुनि पाछे बीता हाइ रोरा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अँदोल पु
संज्ञा पुं० [प्रा० अंदोल=झूलना] आनंद । प्रसन्नता । उ०—चहल पहल सी देखि कै मान्यो बहुत अँदोल ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ३१६ ।
⋙ अँदोलना पु
क्रि० स० [सं० अन्दोलन] हिलाना । डुलाना । उ०—लगि पिपास स्रम अंग वारि पिन्नो अँदोलि कर ।—पृ० रा०, १ ।५५९ ।
⋙ अँधकाल पु
संज्ञा पुं [सं० अन्ध+काल] अंधकार । अँधेरा । उ०— सूर कंचन गिरि बिचनि मनु रह्यो है अँधकाल ।— सूर० १० । १०८३ ।
⋙ अँधबाई पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँधबाई'
⋙ अँधबाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धवायु] धूल लिए हुए वेगयुक्त पवन । ऐसी तेज हवा जिसमें गर्द के कारण कुछ सूझ न पड़े । आँधी तूफान । उ०—श्याम अकेले आँगन छाँड़े आपु गई कछु काज घरै । यहि अंतर अँधबाई उठी इक गरजत गगन सहित घहरै ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अँधरा (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० अन्ध, प्रा० अंधरअ] अंधा । नेत्रविहीन प्राणी । दृष्टिरहित जीव ।
⋙ अँधरा (२) पु †
वि० अंधा । बिना आँख का । दृष्टिरहित ।
⋙ अँधरी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हि० अँधरा+ई (प्रत्य०)] अँधी । अँधी स्त्रो ।
⋙ अँधरी (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० आधारित, प्रा० आधारिअ>आधरी>अँधरी] पहिए की पुंट्टीयों अर्थात् गोलाई को पुरा करनेवाली धनुषाकारलकड़ियों की चूल जो दूसरी पुट्ठी के भीतर ऐसे धुसी रहती है कि ऊपर से मालूम नहीं देती ।
⋙ अँधला पु
संज्ञा पुं० [प्रा० अँधल] दे० 'अँधरा'—१ । उ० (क) तिवैं उद्र महि दुख सहै अँधलउ कालि ग्रसीतु ।—प्राण०, पृ० २१० । (ख) कौने म्रम भूलें अँधला ।—सुंदरं ग्रं०, भा० २, पृ० ९०९ ।
⋙ अँधवायु पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्धवायु] आँधी । उ०—तेरी सुत अँधवायु उठायो ।—ब्रज०, पृ० ३८ ।
⋙ अँधवाह पु
संज्ञा पुं० दे० 'अँधबाई' । उ०—धावहु नंद गोहारि लगौ किन तेरौ सुत अँधवाह उड़ायौ ।—सूर०, १० ।७७ ।
⋙ अँधार (१) पु †
संज्ञा पुं [सं० अन्धकार, प्रा० अंधार] अंधकार । तम । अँधेरा । अँधियारा । उ०—मृगनैनी कामिनि बिना लागत सबै अँधार ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ९९ ।
⋙ अँधार (२) पु †
संज्ञा पुं० [सं० आधार=सहारा] रस्सी का जाल जिसमें घास भूसा आदि भरकर बैल की पीठ पर लादते हैं ।
⋙ अँधारी पु
संज्ञा स्त्री० आँधी । तेज हवा । तूफान (डिं०) ।
⋙ अँधिअर पु
वि० [सं० अन्धकार, प्रा० अंधकार] अँधेरा । अँधकारमय । उ०—हिएँ की जोती दीप वह सूझा । यह जो दीप अँधिअर भा बूझा—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ०, २०४ ।
⋙ अँधिआरा पु
संज्ञा पुं० [सं० अंधकार, प्रा० अंधयार] अधकार । अँधेंरा । उ०—बरषि धूरि कीन्हेसि आँधियारा ।—मानस, ६ ।५१ ।
⋙ अँधिआरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्ध+कारी] आँख बंद करने का आवरण या पट्टी । अँधेरी । उ०—छलि आँखिन्ह आँधिआरी भेली । धक्कारहिं गडदार सहेली ।—चित्रा०, पृ० २०२ ।
⋙ अँधियरवा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० आँधियर+वा (प्रत्य०)] दे० 'अँधि यार' उ०—अँधियरवा में ठाढ़ि गोरी का करलू । जब लगि तेल दिया में बाती, ये ही अँजोरवा बिछाय घलतू ।—संत वानी०, भा० २, पृ० २३ ।
⋙ अँधियरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० आँधियर+इया (प्रत्य०)] १. अँधेरी रात । २. अँधेरा । तम । उ०—खुली किवरिया मिटि अँधियरिया ।—धरम०, पृ० ३३ ।
⋙ अँधियार (१) †
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकार; प्रा० अंधयार] [स्त्री० आंधियारी] अँधेरा । अँधकार । तम । उ०—पसरि परचौ आँधियार सकल संसार घुमड़ि घिरि ।—नंद ग्रं०, पृ० ४ ।
⋙ अँधियार (२)
वि० प्रकाशरहित । अँधेरा । तमाच्छादित । दे० 'अँधेरा' । उ०—भय उदधि जमलोक दरसै निप्ट ही आँधियार ।—सूर०, १ ।८८ ।
⋙ अँधियारक टोला
संज्ञा पुं० [सं० अँधियारक+हि० टोला] अंधक नामक यदुवंशियों की एक शाखा का निवासस्थान । अंधकों का निवास ।
⋙ अँधियारा (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकार; प्रा० अंधकार] १. अँधेरा । अंधकार । तम । २. धुंधलापन धुंध ।
⋙ अँधियारा (२) पु †
वि० १. प्रकाशरहित । अँधेरा । तमाच्छादित । उ०—पक्ष अँधियारा जगत का जब मनुज अध में निरत था ।—हंस०, पृ० ११ । २. धुंधला । ३.उदास । सुना । मनहूस । उ०— बीर कीर, सिय राम लखन बिनु लागत जग अँधियारो । — तुलसी ग्रं०, भा० २, पृ० ३५२ ।
⋙ अँधियारी (१) पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० आँधियार] १. अंधकार । उ०— जब करि थक्यौ सरलौ नहिं एकौ नाहिं मिटी अँधियारी ।— जग० श०, भा० २, पृ० १०८ । २. अंधकार फैला देनेवाली आँधी । उ०— आँधियारो आई तहँ भारी । दनुज सुता तिहिं तै न निहारी । — सूर० ९ ।१७४ । ३. दे० 'अंधिआरि' । उ०— जोबन गज अपसर मद कीन्हें । अब न रहै आँधियारी दीन्हें । चित्रा०, पृ०१६४ ।
⋙ अँधियारी (२)
वि० स्त्री० अंधकारपूर्ण । उ०—अँधियारी भादौं की रात ।—सूर०, १० ।१२ ।
⋙ अँधियारी कोठरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० आँधियारी+कोठरी] १. अँधेरा छोटा कमरा । २.पालकी का अगला कहार जब रास्ते में पानी देखता है तब पीछेबाले कहारों को सावधान करने के लये 'अँधियारी कोठरी' कहता है । ३.पेट । उदर । गर्भस्थान । कोख । धरन ।
⋙ अँधियाली
वि० दे० 'अँधियारी' (२) । उ०—आधी रात का समा, बडी़ अँधियालो रात, सब ओर सन्नाटा, इसपर बादलों की घेरघार, पसारने पर हाथ भी न सूझता ।— ठैठ, पृ०३२ ।
⋙ अँधुला पु †
वि० दे० 'अँधरा' । उ०— जैनी अँधुले भ्रमत खै कालु ।— प्राण०, पृ० १८० ।
⋙ अँधेर
संज्ञा पुं० दे० अँधेरा (१) । उ०— वहि देसवा में नित्त पूनिमा, कबहु न हो़इ अँधेर ।— कबीर० श०,भा० २, पृ० ६४ ।
⋙ अँधेरना पु
क्रि० स० [अंधेर+ना] अँधेरा करना । अंधकार- मय करना । तमाच्छादित करना । उ०— अरी, खरी सटपट परी, बिध आधै मग हेरि । संग लगैं मधुपनु लई भागन गली अँधेरिं ।—बिहारी र०, दो० ४५९ ।
⋙ अँधेरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकार, प्रा० अंधयार] १. अंधकार । तम । प्रकाश का अभाव । उजाले का विलोम । उ०—मीन, नाश, विध्वंस, अँधेरा शून्य बना जो प्रकट अभाव ।—कामायानी, पृ० १८ । २. धूँधलापन । धुंध । उ० —उसकी आखों में अँधेरा छाया रहता है (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना । —छाना । —दौड़ना । —पड़ना । —फैलना ।—होना । मुहा०—अँधेरा छोड़ना = प्रकाश के सामने से हट जाना । उजाला छोड़ना । ३. छाया परछाईं । उ०— चिराग के सामने से हट जाओ, तुम्हारा अँधेरा पड़ता है (सब्द०) । ४. उदासी । शोक । उ०— उसके मरते ही समाज में अँधेरा छा गया (शब्द०) ।
⋙ अँधेरा (२)
वि० अंधकारमय । प्रकाशरहित । तमाच्छादित । यौ०—अँधेरा कुप = कूएँ की तरह अँधेरा । बहुत गहरा अँधेरा । अँधेरा पाख, अँधेरा पक्ष = कृष्ण पक्ष । बादी । अँधेरे उजाले, अँधेरे उजेले = अबेर सबेर । समय कुसमय । वक्त, बेवक्त । उ०— अच्छा जमादार अँधेरे उजाले समझ लूँगा । — फिसाना०, पृ०४८९ । अँधेरे मुहँ, मुहँ अँधेरे = सूर्योदय के पहले जब मनुष्य एक दूसरे का मुँह अच्छी तरह न देख सकते हों । बडे़ तड़के । बड़े सबेरे ।मुहा०— अँधेरे घर का उजाला = (१) अत्यंत कांतिमान । अत्यंत सुंदर । (२) शुभ लक्षणवाला । सुलक्षण । कुलदीपक । वंश की मर्यादा बढ़ानेवाला ।(३) इकलौता बेटा । अँधेरे घर का चिराग या दिया = दे० 'अँधेरे घर का उजाला' ।
⋙ अँधेरा उजाला
संज्ञा पुं० [हिं० अँधेरा+उजाला] एक खिलौना जो श्वेत और रंगीन कागजों से बनता है । रात दिन का खिलौना । विशेष—कागज को एक विशेष प्रकार से कई तहों में लपेटकर बनाया हुआ एक प्रकार का खिलौना जिसके भीतरी दो भाग सादे और दो भाग रंगीन होते हैं और जो हाथ की चारों उँगलियों कि सहायत से खोला और मूँदा जाता है । इससे कभी तो उसका सादा अंस दिखाई पड़ता हैं और कभी रंगीन ।
⋙ अँधेरा गुप
संज्ञा पुं० [हिं० अँधेरा+कूप] इतना अधिक अंधकार कि कुछ दिखाई न दे । घोर अंधकार, जैसे—इस कोठरी में तो बिलकुल अँधेरा गुप है (शब्द०) ।
⋙ अँधेरिया †
संज्ञा स्त्री०[सं० अन्धकार] १. अंधकार । अँधेरा । उ०— झलकि चमकि तहँ रूप बिराजै मिटिगै सकल अँधेरियाँ री ।— जग० श०, भा० २,पृ० १०९ ।
⋙ अँधेरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० अँधेरा+ई] [पू० अँधियरिया] १. अंधकार । तिमिर । प्रकाश का अभाव । तम । अंधियारी । उ०— मालती कुंज में मिलती चंद्रिका अंधेरी जैसे । —आँसू० पृ० ४८ । २.काली रात । अंधकार भरी रात्रि । क्रि० प्र०—छाना । —झुकना । —दौड़ना । —फैलना । ३. आँधी । अंधड़ । ४. घोड़ों और बैलों की आँख पर डाला जानेवाला पर्दा । अंधारी । क्रि० प्र०—डालना । —देना । मुहा०—अँधेरी डालना, अँधेरी देना = (१) किसी की आँखों को मूँदकर उसकी दुर्गति करना । इसी को कंबल ओढ़ाना भी कहते हैं । (२) आँख में धुल डालना । धोखा देना ।
⋙ अँधेरी (२)
वि० प्रकाशरहित । अंधकारयुक्त । बिना उजेले की । उ०— रजनी अँधेरी है न सूझति हथेरी रंच चोर करे फेरी लखि मुख ना लुकोवौ तूँ । —दीन० ग्रं०,पृ० १३८ । यौ०—अँधेरी कोठरी= १. पेट । गर्भ । कोख । धरन । २. गुप्त भेद । रहस्य । मुहा०—अँधेरी कोठरी का यार = गुप्त प्रेमी । जार ।
⋙ अँधोटी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्ध+पटी, प्रा० अंधवटी, अँधोटी, अँधोटी] बैल या घोडे की आँख बंद करने का ढक्कन या परदा ।
⋙ अँधौटा
संज्ञा पुं० [सं अन्ध+पट्टक, प्रा० अंधवट्टअ] दे० 'अँधोटी' । उ०— रहट बिसह एक मूढ़ मन दिएँ अँधौटा बैल ।—चित्रा— वली, पृ० १७५ ।
⋙ अँधौरी †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अम्हौरी' ।
⋙ अँध्यार पु †
संज्ञा पुं० दे० अँधियार । उ०—दिपक हजारन अँध्यार लुनियतु हैं ।— ब्रजमाधुरी० पृ० ३०८ ।
⋙ अँध्यारी— (१) पु †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँधियारी' । उ० — भई एक बारं अपारं अँध्यारी ।— हम्मीर रा०, पृ०२० ।
⋙ अँध्यारी (२)
वि० अंधकारयुक्त । अँधेरी । उ०— भाढौं की अधराति अँध्यारी । —सूर०, १० । ११ ।
⋙ अँब पु
संज्ञा पुं० [सं० आम्र, प्रा० अंब] आम । उ०— तहाँ सु अँब तर रिष्ष इक क्रम तम अंग सुरंग । पृ० रा०, ६ । १७ ।
⋙ अँबराई †
संज्ञा स्त्री० [सं० आम्र = आम + राजी = पंक्ति, प्रा० अंब + राई] आम का बगीचा । आम की बारी ।
⋙ अँबराउँ पु
संज्ञा पुं० दे० 'अँवराई' । उ०— घन अँबराउँ लाग चहुँ पासा । जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २७ ।
⋙ अँबराव पु
संज्ञा पुं० दे० 'अँबराई' । उ० —अस अँमराव सघन बन, बरनि न पारौं अंत ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अँबली
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की गुजराती कपास जो ढोलेरा नामक स्थान में होती है ।
⋙ अँववा †
संज्ञा पुं० [सं० आम्र, प्रा० अँव + बा (प्रत्य०) ] आम । आम्र । उ०— यहाँ अँबवा तरे रुक एक पल विश्राम लेना । —उंडा०, पृ० १९ ।
⋙ अँबा पु
संज्ञा पुं० दे० 'आँवा' । उ० ब्रज करि अँबा जोग ईंधन करि सुरति आगि सुलगाए । —सूर०, १० । ३७८१ ।
⋙ अँबाड़ा
संज्ञा पुं० दे० 'आमड़ा' ।
⋙ अँबारी
संज्ञा स्त्री० [अ० अमारी] दे० 'अंबारी—१' । उ०— कलित करिवरन्हि परी अँबारीं । —मानस, १ । ३०० ।
⋙ अँबिया
संज्ञा स्त्री० [सं० आम्र; प्रा० अंब + इया (प्रत्य०)] आम का छोटा कच्चा फल जिसमें जाली न पड़ी हो । टिकोरा । केरी । अमिया । विशेष—इसकी खटाई कुछ हल्की होती है । इसे लोग दाल में डालते तथा चटनी और अचार भी बनाते हैं ।
⋙ अँबिरती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अमृतिका, प्रा० अमिरितिआ] तार का एक पुराना बाजा । अमृत कुंडली । उ०— बीन पिनाक कुमाइच कही । बाज अँबिरती अति गहगही । —पदमावत, पृ० ५६२ ।
⋙ अँबिरथा पु †
वि० [सं० वृथा + अँ (उच्चा०) पु बिरथा] वृथा । व्यर्थ । बेफायदा । फजूल । उ०—प्रेम कि आगि जरै जो कोई । ताकर दुख न अँबिरथा होई । —जायसी (शब्द०) ।
⋙ अँबिलि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्लिका; प्रा० अंबिलिया] इमली का वृक्ष । उ० —कोई अँबिलि कोई महुव खजूरी । —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २४७ ।
⋙ अँबुआ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० अंब + उवा + त्य०)] आम्र । आम । उ०— मौंरे अँबुआ अरु द्रुम बैली मधुकर परिमल भूले ।—सूर० (राधा०), २३९१ ।
⋙ अँभौरी †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अम्हौरी' ।
⋙ अँमर पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंबर—६' । उ० —दाहिने अतर और अँमर तमोर लीन्हें । सामुहे लपेटे लाज भोजन के थार गहें ।— भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १६८ ।
⋙ अँवदा पु— †
वि०— [सं० अवाध; पुअँवधा] १. नीचे की ओर मुँहवाला । उ० — आकाशे अँवदा कुआ पाताले पनिहार । —कबीर (शब्द०) । २. औंधा । उलटा ।
⋙ अँवधाना पु
क्रि० सं० [ पु अँवधा से नाम०] औंधा करना । उलटा करना । उ० —मुरत मनोज देखि कैहारा । निज अँवधाय सो रख्यौ नगारा । —हिं० प्रेमा०, पृ० २५५ ।
⋙ अँवरा †
संज्ञा पुं० दे० 'आँवला' । उ०— कोई अँवरा कोई बेर करौंदा । —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २४७ ।
⋙ अँवराई पु †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँबराई' । उ०—संत सभा चहुँ दिसि अँवराई —मानस, १ । ३७ ।
⋙ अँवलउ
वि० [सं० प्रा० अबल] अस्वस्थ । व्यथित । उ० —सज्जण चाल्या हे सखी पड़हउ वाज्यउ द्रंग । काँही रली बधाँमणाँ, काँही अँवलउ अंग । —ढोला०, दू० ३४१ ।
⋙ अँवला †
संज्ञा पुं० दे० 'आँवला' ।
⋙ अँवली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० आमलकी, प्रा० आमलाई] छटा आँवला । उ०— पक गये सुनहले मधुर बेर, अँवली से तरु की डाल जड़ीं । —ग्राम्या, पृ० ३६ ।
⋙ अँवली— पु (२)
वि० [ ? ] उलटी । उ०—लगन लगी जब और प्रीत छी, अब कुछअँवली रीति । —संत० सार०, भा० २, पृ० ७४ ।
⋙ अँवहलदी
संझ स्त्री० दे० आमाहल्दी' । उ०—आलूचा अमिली अँवहलदी, आल आँवरा साल अफलदी । —सुजान० पृ० १६१ ।
⋙ अँवा— पु †
संज्ञा पुं० दे० 'आँवा' । उ०— अँवा अगिनि जिमि अंतर जरै । —नंद० ग्रं०, पृ० १३३ ।
⋙ अँवारना पु
क्रि० सं० [हिं० वारना] न्यौछावर करना । वारना । उ० —आय रामियो शरण तुम्हारी । पल पल ऊपर प्राण अँवारी । —राम० धर्म०, पृ० ३२२ ।
⋙ अँविरथा— पु †
वि० दे० 'अँबिरथा' । उ०—उधर न नैन तुमहिं बिनु देखे । सबहि अँविरथा मोरे लेखे । —जायसी ग्रं०, पृ० ३५७ ।
⋙ अँस पु
संज्ञा पुं० [सं० अंस] स्कंध । कंधा । उ०— वाम भजहिं सखा अँस दीन्हें, दच्छिन कर द्रुम डरियाँ । सूर०, १० । ४७० ।
⋙ अँसुआ पु †
संज्ञा पुं० [सं० अश्रु, प्रा० अंसु, अंसुय] आँसू । अश्रु । उ०— तन काँपे लोचन भरे अँसुआ झलके आय । — श्यामा०, पृ० १२८ ।
⋙ अँसुपात पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्रुपंक्ति] आँसुओं की कतार । आँसू की पक्ति या पाँत । उ०—इतनी सुन्त सिमिटि सब आये, प्रेम सहित धारे अँसुपात । सूर०,९ । ३८ ।
⋙ अँसुवा पु †
संज्ञा पुं० दे० 'आँसुआ' । उ०— यह छवि निरखि रही नँदरानी अँसुवा ढरि ढरि परत करोटनि । —सूर०, १० । १८७ ।
⋙ अँसुवाना पु
क्रि० सं० [हिं० आँसू से नाम०] अश्रुपूर्ण होना । डबडबा आना । आँसू से भर जाना । उ०—उनहीं बिन ज्यों जलहीन ह्वै मीन सी आँखि मेरी अँसुवानी रहैं ।— रसखान (शब्द०) ।
⋙ अँहड़ा †
संज्ञा पुं० [देश०] तोलने का बटखरा ।
⋙ अँहस
संज्ञा पुं० [सं० अंहस्] दे० 'अंह' ।
⋙ अँहुड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक लता जिसमें छोटी छेटी गोल पेटे की फलियाँ लगती हैं । इन फलियों की तरकारी बनती है और इनके बीज दबा में पड़ते हैं । बाकला ।
⋙ अ (१)
उप० संज्ञा और विशेषण शब्दों के पहले लगकर यह उनके अर्थों में फेरफार करता है । जिस शब्द के पहले यह लगाया जाता है उस शब्द के अर्थ का प्रायः अभाव सूचित करता है; जैसे, अकर्म, अन्याय, अचल । कहीं कहीं यह अक्षर शब्द के अर्थ को दूषित भी करता है जै०—अभागा, अकाल, अदिन । स्वर से आरंभ होनेवाले शब्दों के पहले जब इस अक्षर को लगाना होता है तब उसे 'अन्' कर देते है; जैसे, अनंत, अनेक अनीश्वर । पर हिंदी में कभी व्यंजन के पहले भी 'अन्' के 'न्' को सस्वर 'न' करके 'अन' लगा देते हैं; जैसे, अनबन, अनरीति, अनहोनी आदि । संस्कृत वैयाकरणों ने इस निषेधसूचक उपसर्ग का प्रयोग इन छह अर्थों में माना हैः (१) सादृश्य; यथा—अब्राह्मण = ब्राह्मण के समान आचर रखनेवाला अन्य वर्ण का मनुष्य । (२) अभाव; यथा—अफल = फलरहित; अगुण = गुणरहित । (३) अन्यत्व; यथा— अघट = घट से भिन्न, पट आदि । (४) अल्पता; यथा—अनुदरी कन्या = कृशोदरी कन्या । (५) अप्राशस्त्य । बुरा; यथा—अभाग । अधन = बुरा धन । (६) विरोध; यथा—अधर्म = धर्म के विरुद्ध आचरण । अन्याय, आदि । हिंदी में इसका प्रयोग कुछ लोग स्वार्थिक रूप में भी मानते है, जैसे अलोप = लोप ।
⋙ अ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. शिव (को०) । ३. ब्रह्मा । ४. विराट । ५. इंद्र । ६. वायु । ७. कुबेर । ८. अग्नि । ९. विश्व ।१०. सरस्वती ।११. अमृत । १२. कीर्ति । १३. ललाट । १४. प्रणव (को०) । १५. यम (को०) । १६. प्राण (को०) ।
⋙ अ (३)
वि० १. रक्षक । २. उत्पन्न करनेवाला ।
⋙ अइ पु
सर्व० [सं० एतत्; अप० एइ, एअ] ये । उ०—करि कइराँ ही पाराणउ अइ दिन यूँ ही ठेलि ।—ढोला०, दृहा०, ४३० ।
⋙ अइयपन पु †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० दे० 'ऐपन' । उ०—पउंअनाल अइयपन भल भेल ।—विद्यापति; पृ०२२१ ।
⋙ अइया †
संज्ञा स्त्री० दे० 'ऐया' ।
⋙ अइल †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० दे० 'अइला' ।
⋙ अइला †
संज्ञा पुं० [देश०] चूल्हे का मुँह या छेद ।
⋙ अइस पु †
वि० [सं ईदृश, अप० अइस] ऐसा । इस प्रकार का ।
⋙ अइसइ पु †
क्रि० वि० [सं० ईदृशो हि] ऐसे ही । इस प्रकार ही ।
⋙ अइसन †
वि० [सं० ईदृश्; अप० अइस] ऐसा । इस प्रकार का ।
⋙ अइसना पु †
वि० [अप० अइश] दे० 'अइसन' । उ०—अइसना देह गेह ना सोहावये ।—विद्यापति, पृ० ११० ।
⋙ अइसा †
वि० दे० 'ऐसा' ।
⋙ अइसिउँ पु †
वि० [सं० ईदृशी अपि] ऐसी भी । इस प्रकार का भी
⋙ अइहइ पु †
वि० [अप०] [सं० ईदृश] ऐसा । इस प्रकार का । उ०—मृगरिपु कटि सुंदर वणी, मारू अइहइ घाट ।—ढोला०, दू० ४६६ ।
⋙ अईगई पु †
वि० [हिं० अई+गई] दे० दे० 'आई गई' । मुहा०—अई गई करना = 'आई गई करना' । उ०—चित आन की आन कही चहै पै हित जान अई गई कीजतु हैं ।—ठाकुर० पृ०३ । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ अउँध †
वि० दे० 'औंधा' । उ०—फिरहु का फूले फूले फूले । जब दस मास अउँध मुख होते सो दिन काहे भूले ।—कबीर बी०, पृ० ५४ ।
⋙ अउँरा पु †
संज्ञा पुं० दे० 'औंरा' । उ०—कोइ अउँरा कोइ राइ करउँदा ।—पदुमा० पृ० ८५ ।
⋙ अउ (१)
संयो० अव्य० [सं० अपर या अवर] और । तथा । उ०— जस हथ्थ भुगुति अउ मुकुति दोउ कहि नरहरि नित संभरिय ।—अकबरी०, पृ० ७४ ।
⋙ अउ (२)पु
सर्व १. वह । उ०— सारीखी जोड़ी आ जुड़ी नारी अउ नाह ।—ढोला०, दू० ६ । २. यह । उ०—राजा राणी सूँ कहइ कीजइ अउ वीमाँह ।—ढोला०, दू० ६ ।
⋙ अउखतु पु
संज्ञा पुं० दे० 'औषध' । उ०—औसा अउखतु खाह गवाँरा । जितु खाधे तेरे जाँहि बिकारा ।—प्राण०, पृ० २७४ ।
⋙ अउगाह पु †
संज्ञा पुं० दे० 'अवगाह' । उ०—नयनहिं जानउँ नीअरे कर पहुँचत अउगाह ।—पदुमा०, पृ० ५४ ।
⋙ अउगुण पु
संज्ञा पुं० दे० 'अवगुण' । उ०—सजण मिल्या मण ऊमग्यउ, अउगुण सहि गलियाह ।—ढोला० दू० ५६० ।
⋙ अउझक पु †
क्रि० वि० दे० 'औझक' । उ०—मारू दीठी अउझकइ जाणि खिवींघण संझ ।— ढोला० दू० ८६ ।
⋙ अउठा
संज्ञा पुं० [देश०] नापने की दो हाथ की एक लकड़ी जिसे जुलाहे लिए रहते हैं ।
⋙ अउत (१)पु
वि० दे० 'अऊत' । उ०—नानक लेखै माँगीऔ अउत जणेंदी जाय ।—प्राण० पृ० २१८ ।
⋙ अउत (२)पु
वि० [सं० अयुक्त] अनुचित । अयुक्त । उ०—अउत होइ घरि छोड़ हे राय ।—वी० रा० पृ० ४९ ।
⋙ अउधान पु †
संज्ञा पुं० [सं अवधान] गर्भाधान । गर्भस्थिति ।
⋙ अउधू पु †, अउधूत पु †
संज्ञा पुं० दे० 'अवधूत' ।
⋙ अउपन पु †
संज्ञा पुं० [प्रा० ओप्पा] सान पर घिसना । सान देना ।
⋙ अउर पु †
अव्य० दे० और' । उ०—मकरध्वज वाहणि चढ्यौ अहिमकर उत्तर वाउ वाए अउर ।—बेलि० दू० २२२ ।
⋙ अउरउ पु †, अउरौ पु †
क्रि० वि० [सं अपर+अपि] और भी ।
⋙ अउलग पु †
संज्ञा पुं० [सं *अपालग प्रा०अवलग्ग,अप०अउलग] प्रवास । दूर गमन ।
⋙ अउलगना पु †
क्रि० सं० [अउलग से नाम०] प्रवास करना । यात्रा करना । उ०—ईडर की घर अउलगउँ, जइतूँ कहइ तु जाँह ।—ढोला० दू० २२४ ।
⋙ अउहेर †, अउहरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० अवहेला] अवहेलना । अपमान ।
⋙ अउहेरना †
क्रि० अ० [हिं० अवहेर से नामधातु] अपमान करना । तिरस्कार करना ।
⋙ अऊत (१)पु
वि० [सं० अपुत्र, प्रा० अपुत्त, अउत्त] निपूता । बिना पुत्र का । निःसंतान । उ०—(क) धन्य सों माता सुंदरी, जिन जाया वैष्णव पूत । राम सुमिरि निर्भय भया, और सब गया अऊत । ।—कबीर (शब्द०) । (ख) गये हुये माँगन कौ पूत । यहु फल दीनौ सती अऊत ।—अर्धं०, पृ०९ ।
⋙ अऊत (२)पु
संज्ञा पुं० अपुत्रत्व । निपुत्रता । उ०—यह ताकौं निस्तारिहै, उनते जाइ अऊत ।—सुंदर ग्र०, भा १, पृ० १८३ ।
⋙ अऊलना (१)
क्रि० अ० [सं० उल् = जलना] १. जलना । गरम होना । २. गरमी पड़ना । दे० 'औलना' ।
⋙ अऊलना (२)
क्रिया अ० [सं० आ = अच्छी तरह+शूल, प्रा० सूल, हिं० हूलना] छिलना । छिदना । चुभना । उ०—छत आजु की देखि कहौगी कहा, छतिया नित ऐसे अऊलति है ।—रघुनाथ (शब्द०) ।
⋙ अऋण
वि० [सं०] बिना कर्ज का । जिसपर कर्ज न हो । ऋणमुक्त ।
⋙ अऋणी
वि० [सं०] जिसपर कर्ज न हो । ऋणमुक्त ।
⋙ अएरना पु
क्रि० सं० [सं० अङ्गीकरण; प्रा० अंगीअरण, हिं० अँगेंरना] अंगीकार करना । अँगेरना । स्वीकार करना । धारण करना । उ०—दियौ सुसीस चढ़ाइ लै आछी भाँति अएरि । जापै सुखू चाहतु लियो ताके दुखाहिं न फेरि ।— बिहारी० पृ० ३८ ।
⋙ अओंध पु
वि० दे० 'अँउध' । उ०—अधर मंगइते अओंध कर माथ । सहए न पार पयोधर हाथ ।—विद्यापति, पृ० २८३ ।
⋙ अओंधा पु
वि० दे० 'औधा' उ०—अओंधा कमल कांति नहि पूरए हेरहू त जुग बहि जाइ ।—विद्यापति, पृ०३९ ।
⋙ अकंटक
वि० [सं० अकण्टक] १. बिना काँटे का । कंटकरहित । २. बाधारहित निर्विघ्न । बिना रोक टोक का । बेधड़क । उ०—समुझि काम सुख सोचहिं भोगी । भये अकंटक साधक जोगी ।—मानस, १८७ । ३. शत्रुरहित । उ०—जानाहिं सानुज रामाहिं मारी । करौं अकंटक राज सुखारी ।—मानस, २ ।१८९ ।
⋙ अकंठ
वि० [सं० अकण्ठ] १. कंठरहित । जिसे कंठ न हो । स्वर— हीन । कर्कश [को०] ।
⋙ अकंड
वि० [हिं० अकड़] तेज । अकड़दार । उ०—'इंशा' बदल के काफिये रख खेड़छाड़ के, चढ़ बैठ एक और बछेड़े अकंड पर ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २७८ ।
⋙ अकंप
वि० [सं० अकम्प] न काँपनेवाला । स्थिर । उ०—सत्य भी शव—सा अकंप कठोर ।—साकेत, पृ० १९१ ।
⋙ अकंपत्व
संज्ञा पुं० [अकम्पत्व] १. काँपने का अभाव । न काँपने की दशा । कंपहीनता । २. बंशी वजाने में उँगलियों का एक गुण । अकंपत्व । न काँपना ।
⋙ अकंपन (१)
वि० [सं० अकम्पन] [वि० अकम्पित, अकम्प्य; संज्ञा अकम्पत्व] न काँपनेवाला । स्थिर ।
⋙ अकंपन (२)
संज्ञा पुं० रावण का अनुचर एक राक्षस जिसने खर के वध का वृत्तातं उससे कहा था ।
⋙ अकंपित (१)
वि० [सं० अकम्पित] जो कँपा न हो । अटल । निश्चल ।
⋙ अकंपित (२)
संज्ञा पुं० वौद्ध गणाधिपों का एक भेद ।
⋙ अकंप्य
वि० [सं० अकम्प्य] न काँपनेवाला । हिलने या डिगनेवाला । अटल स्थिर । अचल ।
⋙ अक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाप । पातक । यौ०—अकहीन = पापहीन । उ०—बरबस करत विरोध हठि होन चहत अकहीन ।—स० सप्तक, पृ० ४७ । अकबस = पापवश ।उ०—तुलसी सठ अक्बस बिहठि दिन दिन कद मलीन ।— स० सप्तक, पृ० ४७ । २. दुःख । ३. सर्प (को०) । ४. चिन्ह (को०) ।
⋙ अक (२) पु
वि० दे० 'एक' । उ०—कहौं फकीर अक खुदा गुसाई ।—घट०, पृ० ८५ ।
⋙ अकच (१)
वि० [सं०] बिना बाल का । गंजा । खल्वाट ।
⋙ अकच (२)
संज्ञा पुं० केतुग्रह ।
⋙ अकचकाना
क्रि० अ० [सं० (अक० अकस्मात)+चक् = चकितहोना] विस्मित होना । हक्काबक्का होना । उ०—(क) युवक के कहने पर बालक भी अकचकाता हुआ बैठ गया ।— छाया, पृ० १०७ । (ख) वह अक्चकराकर अंबपाली की ओर ताकता रह गया ।—वै० न०, पृ० २५५ ।
⋙ अकच्छ
वि० [सं० अ = रहित+कच्छ या कक्ष = धोती, परिधान] १. नग्न । नंगा । २. व्यभिचारी । परस्त्रीगामी ।
⋙ अकटुक
वि० [सं०] १. जो कटु न हो । मधुर । २. अश्रांत । अक्लांत [को०] ।
⋙ अकटोटा
संज्ञा पुं० [सं० अङ्क = छाप, तिलक+देश० टोटा = कंकड़, ढोला] कंकड़, मिट्टी से तैयार किया हुआ चंदन । उ०— अकटोटा को घसि तिलक, लंबी लिये लगाया ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १५२ ।
⋙ अकठोर
वि० [सं०] जो कठोर न हो । मुलायम । कोमल [को०] ।
⋙ अकडम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तांत्रिक चक्र [को०] ।
⋙ अकडमचक्र
संज्ञा पुं० [ सं० ] दे० 'अकडम' [को०] ।
⋙ अकडोड़ा
संज्ञा पुं० [सं० अर्क+तुंड, प्रा० अक्क+तोंड] मदार का फल । मदार की ढोंढ़ी । उ०—आँवन की हौस कैसे अकडोड़े जात है ।—सुंदर०, ग्रं, भा० २, पृ० ४५७ ।
⋙ अकड़ंत
संज्ञा स्त्री० [हिं० अकड़+अंत (प्रत्य)] अकड़ । दर्प । घमंड । उ०—तकले की तरह बल निकल जावे । तेरे आगे जो दो करे अकड़ंत ।—कविता कौ० भा० ४, पृ० ९४ ।
⋙ अकड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [ सं० आ = अच्छी तरह+काण्ड = गाँठ, पोर,> अकड़ = गाँठ की तरह कड़ा] ऐंठ । तनाव । मरोड़ । बल ।
⋙ अकड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. घमंड । अंहकार । शेखी । मुहा०—अकड़ दिखाना = घमंड वा शेखी दिखाना । उ०—मार खाव तो बदन झाड़कर फिर भी अकड़ दिखाओ ।—प्रेमघन०, भा० २, ३०८ । २. धृष्ठता । ढिठाई । ३. हठ । अड़ । जिद ।
⋙ अकड़ तकड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० अकड़+तकड़<तगड़ा] १. ऐठन । २. तेजी । ताव । घमंड । अभिमान । उ०—'अकड़ तकड़ उसमें बहुत सारी थी' ।—इंशा० पृ० ९१ ।
⋙ अकड़ना (१)
क्रि० अ० [हिं० 'अकड़ से नाम०] १. सूखकर सिकुड़ना और वड़ा होना । खरा होना । ऐंठना । जैसे, पट— रियाँ धूप में रखने से अकड़ गईं (शब्द०) । २. ठिठुरना । स्तब्ध होना । सुन्न होना, जैसे— सरदी से अकड़ जाओगे (शब्द०) । ३. छाती को उभाड़कर डील को थोड़ा पीछे की ओर झुकाना । तनना, जैसे—वह अकड़कर चलता है (शब्द०)
⋙ अकड़ना (२)
क्रि० अ० [देश०] १. शेखी करना । घमंड दिखाना । अभिमान करना, जैसे—वह इतने ही में अकड़ा जाता है (शब्द०) । २. ढिठाई करना । ३. हठ करना । जिद करना । अड़ना । जैसे—सब जगह अकड़ना ठीक नहीं, दूसरे की बात भी माननी चाहिए (शब्द०) । ४. फिर पड़ना । मिजाज बोलना । चिटकना, जैसे—तुम तो जरा सी बात पर अकड़ जाते हो (शब्द०) ।
⋙ अकड़फों
वि० [हिं० अकड़+फों = फुफकारना] ऐंठ और अभिमान से भरा हुआ [को०] ।
⋙ अकड़बाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० अकड़+ बाई = वायु] शरीर की नसों का पीड़ा के सहित एकबारगी खिंचना । ऐंठन । कुड़ल ।
⋙ अकड़बाज
वि० [हिं० अकड़+ फा० बाज = वाला] अकड़ दिख नेवाला । अपने को लगानेवाला । नोंक झोंकवाला । ऐंठदार । शेखोबाज । अभिमानी ।
⋙ अकड़बाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अकड+ फा० बाजी] अकड़ने की प्रवृत्ति । ऐंठ । अभिमान । शेखी ।
⋙ अकड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० अकाण्डक या हिं० अकड़] चौपायों का एक छूतवाला रोग । विशेष—जब चौपाए तराई की धरती में बहुत दिनों तक चरकर सहसा किसी जोरदार धरती की घास पा जाते हैं तब यह बीमारी उन्हें हो जाती है ।
⋙ अकड़ा (२)
वि० [हिं० अकड़] अकड़ से भरा । ऐंठ भरा । उ०— हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये अकड़े अणु टहल रहे ।—कामायनी, पृ० २६६ ।
⋙ अकड़ाव
संज्ञा पुं० [हिं० अकड़+आव (प्रत्य०)] ऐंठन । खिंचाव ।
⋙ अकडू़ †
वि० [हिं० अकड़+ऊ (प्रत्य०) ] अकड़बाज । अकड़दिखानेवाला ।
⋙ अकडै़त
वि० [हिं० अकड+ ऐत । (प्रत्य०)] अकड़बाज । अकड़ू ।
⋙ अकत (१) †
वि० [सं० अक्षत; प्रा० अप० अक्खत अथवा सं० अकृत, प्रा० अकत्त, हिं० अकत] समग्र । समूचा । आखा । सारा ।
⋙ अकत (२) †
क्रि० वि० बिलकुल । सरासर ।
⋙ अकती
संज्ञा स्त्री० दे० 'अखती' । उ०—अकती को तीज तजबीज के सहेली जुरी ।—ठाकुर (शब्द०) ।
⋙ अकत्थ पु †
वि० सं० अकत्थ्य; प्रा० अकत्थ] जो कहा न जा सके । न कहने योग्य । अकथनीय । उ०—मसि नैना लिखनी बरुनि रोई रोई लिखा अकत्थ ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अकत्थन
वि० [सं०] जो डींग न हाँके । अविक्त्थन [को०] ।
⋙ अकथ
वि० [सं० अकथ्य, प्रा० अकत्थ] जो कहा न जा सके । कहने की सामर्थ के बाहर । अकथनीय । अवर्णनीय । अनिर्वचनीय । उ०—नाम रूप दुई ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामूझि साधी ।—मानस, १ ।२१ । यौ०—अकथ कथा; अकथ कहानी = अनिर्वचनीय आख्यान ।
⋙ अकथनीय
वि० [सं०] न कहे जाने योग्य । जो कहने में न आ सके । अनिर्वचनीय । अवर्णनीय़ । वर्णन के बाहर । जिसका वर्णन न हो सके । उ०—एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी । अकनोय दारुन दुखु भारी ।—मानस, २ ।६० ।
⋙ अकथह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अकडम' [को०] ।
⋙ अकथह (२) पु
वि० दे० 'अकथ' । उ०—नानक गुर मिल अकथह क थ् ।—प्राण०, पृ० ५३ ।
⋙ अकथित
वि० [सं०] जो न कहा गया हो ।
⋙ अकथ्थ पु
वि० दे० 'अकत्थ' । उ०—बाल वच पुन आल्ह सी आनँद कियव अकथ्थ ।—प० रा०, पृ० १३९ ।
⋙ अकथ्य
वि० [सं०] न कहने योग्य । अवर्णनीय, अनिर्वचनीय ।
⋙ अकद
संज्ञा पुं० [अ० अकद] इकरारा । प्रतिज्ञा । वादा ।
⋙ अकदन (१)
क्रि० वि० दे० 'कदन' ।
⋙ अकदन (२)
वि० [सं० अ+ कदन] विनाशरहित । उ०—कदन बिदन अकदन तुदा गहन ब्रजन क्लेशाहि । दुख जनि दे अब जानि दे कत बैठी अनखाहि ।—नंददास (शब्द०)] ।
⋙ अकदबंदी
संज्ञा स्त्री० [अ० अक्द+ फा० बंदी] करारनामा । प्रतिज्ञपत्र ।
⋙ अकधक पु †
संज्ञा पुं० [देश० अनु०] आशंका । आगा पीछा । सोच विचार । भय । डर । उ०—ह्वै कै लोभी लोभ बस, छवि मुकुताहल लैन । कूदत रूप समुद्र मै अकधक करत न नैन ।—रतन० दो० ४५२ ।
⋙ अकनना †
क्रि० स० [सं आकर्णन प्रा० आकण्णण] १. सुनना । कर्णागोचर करना । उ०—पुरजन आवत अकनि बराता । मुदित सकल पुलकावलि गाता ।—मानस १ ।३ ४४ । २आहट लेना । उ०—नगर सोर अकनत सुनत अति रुचि उपजावत ।—सूर० (राधा०) २५६१ । ३. कान लगाकर सुनना । चुपचाप सुना । उ०—आलस गात जानि मनमोहन बैठे छाँह करत सुख चैन । अकनि रहत कहु सुनत नहीं कछु नहिं गौ रंभन बालक बैन ।—सूर० (शब्द०) ।
⋙ अकना (१) †
क्रि अ० [सं० या देश०] ऊबना । उकताना । घबराना । उ०—दौड़ दौड़ आने से जुअरत के अकोमत क्या करे । उस विचारे की तबियत तुम पे है आइँ हुई ।—जुअरत (शब्द०) ।
⋙ अकना (२)
संज्ञा पुं० [सं० अड़्कु रण] ज्वार की वह बाल जिसके दाने निकाल लिये गए हों ।
⋙ अकनिष्ठ (१)
वि० [सं०] १. जो कनिष्ठ न हो । कनिष्ठ भिन्न । २. जिससे कोई कनिष्ठ न हो । सबसे छोटा [को०] ।
⋙ अकनिष्ठ (२)
संज्ञा पुं० १. गौतम बुद्ध का एक नाम । २. बौद्ध देवगणो का एक वर्ग [को०] ।
⋙ अकनिष्ठग
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध [को०] ।
⋙ अकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कन्या जो कुमारी न हो [को०] ।
⋙ अकपट
वि० [सं०] कपट से रहित । निष्कपट । उ०—हरी डाल के सुखद हिंडोले में परिवर्धित होकर, जो अकपट विकासित भाव दिखाती है कैसी आनंदमयी ।—प्रेम०, पृ० ७ ।
⋙ अकबक (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अनु० अक+ बंक = असंबद्ध बकना] [क्रि० अकबकाना] १. निरर्थक वाक्य । असंबद्ध प्रलाप । अंड बंड । अनाप शनाप । उ०—जैसे कछु अकबक बकत है आज हरि, तैसई जानि नावँ मुख काहू की निकसी जाय ।—केशव (शब्द०) । २. घबड़ाहट । चिंता । धड़क । खटका । उ०—इंद्र जू के अकबक, धाता ज के धकपक, शंभु जू के सकपक, केसोदास को कहै । जब जब मृगया लोक की राम के कुमार चढै, तब तब कोलाहल होत लोक है ।—केशव (शब्द०) । ३ होश हवाश । छक्का पंजा । अक्की बक्की । चतुराई । सुध । उ०—सकपक होत पंकजासन परम दीन, अकबक भूलि जात गरुडनसीन के ।— चरणचंद्रिका (शब्द०) ।
⋙ अकबक (२)
वि० [सं० आवाक्] भीचक्का । चकित । निस्तब्ध, जैसे— 'यह वृत्तांत सुन वह अकबक रह गया' (शब्द०) ।
⋙ अकबकाना
क्रि० अ० [हिं० अकबक से नाम०] चकित होना । भीचक्का होना । घबराना । उ०—(क) सकसकात तन, धक— धकात उर, अकबकात सब ठाढ़े । सूर उपँग सुत बोलत नाहीं अति हिरदै ह्व गाढ़े ।—सूर (शब्द०) । (ख) 'रामेसरी अकबका गई, कौन सी ऐसा बात उसके मुंह से निकली जिससे बीसों के जा को आघात पहुँचा है' ।—नई पौध, पृ० ६९ ।
⋙ अकबत
संज्ञा स्त्री० दे० 'आकबत' । उ०—अकबति अलह सों जानि सुबुक सों बोलना ।—गुलाल०, पृ० ६२ ।
⋙ अकबर (१)
वि० [अ०] श्रेष्ठतम [को०] ।
⋙ अकबर (२)
संज्ञा पुं० मुगल सम्राट अकबर जिसने भारत में १५५५ ई० से १६०५ ई० तक शासन किया ।
⋙ अकबरी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० अकबर+ ई० (प्रत्य०)] १. एक फलाहारी मिठाई । तीखुर और उबाली अरुई का घी के साथ फेंटकर उसकी टिकिया बनाकर, घी में तलकर चाशनी में पाग देते है । कहीं कहीं इसे चौरेठे से भी बनाया जाता है । २. एक प्रकार की लकड़ी की न्क्काशी जिसका व्यवहार पंजाब में बहुत है । सहारनपुर के कारखानों में भी इसका चलन है ।
⋙ अकबरी (२)
वि० अकबर संबंधी । यौ०—अकबरी अशरफी = सोने का एक पुराना सिक्का जिसका मूल्य पहले १६ रुपए था, पर अब २५ रुपए हो गया है । अकबरी मोहर = १. एकाक्ष व्यक्ति । एक आँख का आदमी । २. अकबरी असरफी ।
⋙ अकबार †
संज्ञा पुं० दे० 'अखबार' । उ०—'बालदेव भी अकबार पढ़ता है' । —मै० आँ०, पृ० २५४ ।
⋙ अकबाल
संज्ञा पुं० दे० 'इकबाल' ।
⋙ अकर (१)
वि० [सं०] १. हस्तरहित । बिना हाथ का । उ—अकर कहावत धनुख धरे देखियत परम कृपाल पै कृपान कर पति है ।—केशव ग्रं०, भा० १ पृ० १५१ । २. बिना कर या महसूल का । जिसका महसूल न लगता हो । ३. दुष्कर । न करने योग्य । कठिन । विकट । उ०—भारत अकर करतूतिन निहारि लही, यातें धनस्याम लाल तोते बाज आये री ।—भिखारी ग्रं०, भा० २, पृ० १९० । ४. क्रियारहित । निष्क्रिय ।
⋙ अकर (२)
संज्ञा पुं० [सं० आकर] १. खान । आकर । २. समूह । राशि । उ०—हिमकर सोहै तेरे जस के अकर सो ।—भूषण ग्रं०, प० १० ।
⋙ अकरकरा
संज्ञा पुं० [सं० आकरकरभ] एक पौधा जो अफ्रिका के उत्तर अलजीरिया मे बहुत होता है । इसकी जड़ पुष्ट और कामौददीपक औषधि है । इससे मुंह में थूक आता है और दाँत की पीड़ा भी शांत होती है । पर्या०—आकल्लक ।
⋙ अकरखन पु
संज्ञा पुं० [सं० आकर्षण] दे० 'आकर्षण' । उ०— कियो अकरखन मंत्र सो वंशी धुनि बृजराज । उठि उठि दौरीं बाल सब तजै लाज गृहकाज ।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० ७९ ।
⋙ अकरखना पु
क्रि० सं० [हिं० अकरखन से नाम०] १. खीचना आकर्षण करना । तानना । २. चढ़ाना ।
⋙ अकरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्म का न किए हुए के समान होना । कर्म का फल रहित होना । कर्म का अभाव । विशेष—सांख्य के अनुसार सम्यक् ज्ञानप्राप्ति हो जाने पर फिर कर्म अकरण अर्थात् बिना किए हुए के समान जाते है और उनका कुछ फल नहीं होता । २. इंद्रियों से रहित । ईश्वर । परमात्मा ।
⋙ अकरण (२)
वि० १. न करने योग्य । कठिन । २. इंद्रियरहित [को०] ।
⋙ अकरण (३) पु
वि० [सं० अकारण] बिना कारण । अकारण बेसबब ।
⋙ अकरणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नैराश्य । असफलता । अपूर्णता २. अक्रोश विशेष । शाप [को०] ।
⋙ अकरणीय
वि० [सं०] न करने योग्य । न करने लायक । करने के अयोग्य ।
⋙ अकरन (१) पु
वि० [सं० अकारण] बिना कारण । बेसबब । उ०— कर कुठार मैं अकरन कोही । आगे अपराधी गुरुद्रोही ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अकरन (२) पु
वि० [सं० अ+करण = कर्म] न करने योग्य । जिसका करना कठिन या असंभव हो । उ०—दयानिधि तेरी गति लखि न परै । धर्म अधर्म अधर्म, धर्म करि अकरन करन करे ।— सूर०, १ ।१०४ ।
⋙ अकरना पु
क्रि० अ० दे० 'अकड़ना' । उ०—मिथ्यावाद आपजस सुनि सुनि मूछहिं पकरि अकरतौ ।—सूर०, १० ।२०३ ।
⋙ अकरनीय पु
वि० दे० 'अकरणीय' ।
⋙ अकरब
संज्ञा पुं० [अ० अकरब] १. घोड़ा जिसके मुँहपर सफेद रोएँ होते है । और उन सफेद रोओं के बीच में दूसरे रंग के भी रोएँ होते है । यह घोड़ा ऐबी समझा जाता हैं । २. बिच्छू (को०) । ३. वृश्चिक राशि (को०) ।
⋙ अकरम पु
संज्ञा पुं० दे० 'अकम (१)' । उ०—अकरम करम करै मन आपहिं पीछे जिव दुख पावै ।—कबीर श०, भा० ४, पृ० २९ ।
⋙ अकरमी पु
संज्ञा पुं० दे० 'अकर्मी' । उ०—महा अकरमी जीव हम सबहि लेहु मुकुताय ।—कबीर सा०, पृ० ५५० ।
⋙ अकरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] आमलकी । आँवला [को०] ।
⋙ अकरा (२) †
वि० [सं० अक्रय्य प्रा० अकरय्य, अकरय] [स्त्री० अकरी] १. न मोल लेने योग्य । महँगा । अधिक दाम का । कीमती । उ०—लै आये हो नफा जानि कै सबै वस्तु अकरी ।—सूर०, १० ।३१०४ । २. खरा । श्रेष्ठ । उत्तम । अमूल्य । उ०—आरतपालु कृपालु जो राम, जेही सुमिरे, तेहि को तहँ ठाढ़े, नाम प्रताप महा महिमा, अकरे किये खोटेउ, छोटेउ बाढ़े ।—तुलसी ग्रं०, भा० २, पृ० २२९ ।
⋙ अकराथ पु
वि० [सं० अकार्य्यार्थ; पा० अकारियत्थ] अकारथ । व्यर्थ । निष्फल । उ०—आपा राखि प्रबाधिए, ज्ञान सुनै अकराथ ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अकराम
संज्ञा पुं० [अ०करम का ब० व०] बख्शिष । कृपा । अनुग्रह [को०] ।
⋙ अकरार पु (१)
वि० [हिं० अकराल] भयानक । उ०—कह्यौ प्रिया एकंत सुपन पायौ अकरारिय ।—पृ० रा०, ६६ ।२१०५ ।
⋙ अकरार (२) †
संज्ञा पुं० [अ० इकरार या करार] कौल । प्रतिज्ञा इकरार ।
⋙ अकराल (१)
वि० [सं०] जो भयंकर न हो । सौम्य । सुंदर । अच्छा ।
⋙ अकराल (२) पु
वि० [सं० कराल] भयंकर । भयानक । डरावना । [डिं०] ।
⋙ अकरास (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अकड़+ आस (प्रत्य०)] अँगड़ाई । देह टूटना ।
⋙ अकरास (२)
संज्ञा पुं० [सं० अकर] आलस्य । सुस्ती । कार्यशिथिलता ।
⋙ अकरासा †
संज्ञा पुं० दे० 'अकरास (२)' । उ०—छुट्टी में आपउ चली गई रहीं । हमका बहुत अकरासा लागत रहा ।—भस्मा० चि०, पृ० ६१ ।
⋙ अकरासू †
वि० स्त्री० [सं० अकर = आलस्य] गर्भवती । जो हमल से हो ।
⋙ अकरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० आ = भलीभाँति+किरण (√ कृ) बिखेरना] बीज गिराने के लिये हल में जो पोला बाँस लगा रहता है उसके ऊपर का लकड़ी का चोंगा जिसमें बीज डाला जाता है ।
⋙ अकरी (२)
संज्ञा स्त्री० [?] असगंध की जाति का एक पौधा या झाड़ी जो पंजाब सिध और अफगानिस्तान आदि देशों में होती है ।
⋙ अकरी (३) पु
वि० [हिं० अकर+ ई] न करनेवाला । अकर्ता । अक्रिय । उ०—अकरी अलख अरूप अनादी तिमिर नहीं उजीयारा ।—चरण०, भा०२, पृ० १४० ।
⋙ अकरुण
वि० [सं०] करुणाशून्य । निर्दयी । निष्ठुर । कठोर । उ०— अकरुण वसुधा से एक झलक । वह स्मित मिलने को रहा उ०—ललक ।—लहर, पृ० ३४ ।
⋙ अकरुर पु
संज्ञा पुं० दे० 'अकूर' । उ—लै अकरूर चले मधुबन कौ, सब ब्रज अति भै भोत ।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २३७ ।
⋙ अकर्कश
वि० [सं०] जो कठोर न हो । मृदु । मुलायम । नरम [को०] ।
⋙ अकणं (१)
वि० [सं०] १. कान से रहित । कर्णहीन । उ०—जो अकर्ण अहि को भी सहसा कर दे मंत्रमुग्ध मतफन ।—प्रबंध० । २ छोटे कानोंवाला । लघकर्ण (को०) । ३. सुनने की शक्ति से रहित । बधिर । बहिरा (को०) । ४. पतवार विहीन । बिना पतवार का ।
⋙ अकर्ण (२)
संज्ञा पुं० सर्प । साँप [को०] ।
⋙ अकर्णक
वि० [सं०] कान से रहित । कर्णहीन [को०] ।
⋙ अकर्णधार
वि० [सं०] पतवार चलानेवाले से रहित । चालकाविहीन [को०] ।
⋙ अकर्ण्य
वि० [सं०] वह जो कानों न सुना जाय । अश्राव्य [को०] ।
⋙ अकर्तन
वि० [सं०] १. बौना । २. जो न काटे [को०] ।
⋙ अकर्तव्य (१)
वि० [सं०] न करने योग्य । करने के अय़ोग्य । जिसका करना उचित न हो ।
⋙ अकर्तव्य
संज्ञा पुं० न करने योग्य कार्य । अनुचित कर्म । उ०— सिद्ध होत बिनहू जतन मिथ्या मिश्रित काज । अकर्तव्य से स्वनहू मन धरो महराज ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २६७ ।
⋙ अकर्ता (१)
वि० [सं०] कर्म का न करनेवाला । कर्म से अलग । उ०— चेतन ज्यों की त्यों सदा सदा अकर्ता होय ।—भक्ति० पृ० २८० ।
⋙ अकर्ता (२)
संज्ञा पुं० सांख्य के अनुसार पुरुष का नाम जो कर्मो से निर्लिप्त रहता है ।
⋙ अकर्तृक
संज्ञा पुं० [सं०] बिना कर्ता का । जिसका कोई कर्ता या रचयिता न हो । जो किसी के द्वारा रचा न गया हो । कर्ता- विहीन ।
⋙ अकर्तृत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्तृत्व का अभाव । २ कर्तृत्व का अभिमान न होना [को०] ।
⋙ अकर्तृभाव
संज्ञा पुं० [सं०] कुछ न करने का भाव । कर्म से पृथक्ता ।
⋙ अकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. न करने योग्य कार्य । दुष्कर्म । बुरा काम । उ०—यह अकर्म शास्त्र के विरुद्ध है ।—कबीर सा०, पृ० ९६४ । २. कर्म का अभाव ।
⋙ अकर्मक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अकर्मिका] व्याकरण में क्रिया के दो मुख्य भेदों में से एक । यह उस क्रिया को कहते हैं जिसे किसी कर्म की आवश्यकता न हो, कर्ता तक ही क्रिया का कार्य समाप्त हो जाय; जैसे—'लड़का दौड़ता है,' इस वाक्य में 'दौड़ता है' अकर्मक क्रिया है ।
⋙ अकर्मक (२)
संज्ञा पुं० परमात्मा [को०] ।
⋙ अकर्मण्य
वि० [सं०] कुछ काम न करनेवाला । बेकाम । निकम्मा । आसली । उ०—संघ ऐसे अकर्मण्य युवक को आर्य साम्राज्य के सिंहासन पर नहीं देखना चाहता ।—स्कंद० पृ० १४० ।
⋙ अकर्मण्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अकर्मण्य होने का भाव । निकम्मापन । आलसीपन [को०] ।
⋙ अकर्मभोग
संज्ञा पुं० [सं०] कर्मफल के भोगने से मुक्ति या स्वात्रंत्त्य [को०] ।
⋙ अकर्मशील
वि० [सं०] काम न करनेवाला । आलसी । सुस्त [को०] ।
⋙ अकर्मा
वि० [सं०] १. काम न करनेवाला । निकम्मा । बेकाम । कार्य के लिये अनुपयुक्त । २. कुकर्मी । बुरा काम करनेवाला (को०) । ३. स्वेच्छाचारी [को०] ।
⋙ अकर्मान्वित
वि० [सं०] १. दुष्कर्मी । अपराधी । २. अयोग्य । बेकार [को०] ।
⋙ अकर्मिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाप करनेवाली । पापिन, अपराधिनी ।
⋙ अकर्मी
वि० [सं० अकर्मिन्] [स्त्री० अकर्मिणी] बुरा काम करनेवाला । पापी । दुष्कर्मी । अपराधी । उ०—राजा वेश्या जात शिकारी । महा अकर्मी विषय बिकारी ।—कबीर मं०, पृ० ४५९ ।
⋙ अकर्षण पु
संज्ञा पुं० दे० 'आकर्षण' ।
⋙ अकर्षना पु
क्रि० अ० [सं० आकर्षण] आकर्षण करना । खीचना । आकर्षना । उ०—देवकि गर्भ अकर्षि रोहिनी आप बास करि लीनौ । सूर०, १० ।६२२ ।
⋙ अकलक (१)
वि० [सं० अकलङ्क्] [संज्ञा अकलंकता, वि० अकलंकित] निष्कलक । दोषरहित । बेऐब । निर्दोष । बेदाग । उ०— अस बिचारि सब तजहु असंका । सबाहि भाँति संकरु संकरु अकलंका ।—मानस, १ ।७२ ।
⋙ अकलंक (२)
संज्ञा पुं० एक जैन लेखक जिनका नाम भट्ट अकलंक देव था [को०] ।
⋙ अकलंक (३) †
संज्ञा पुं० [सं० अकलङ्क्] दोष । । लांछन । ऐब । दाग । उ०—ठाने अठान जेठानिन हूँ सब लोगन है अकलंक लगाए ।—कोई कवि (शब्द०) ।
⋙ अकलंकता
संज्ञा स्त्री० [सं० अकलङ्क्ता] निर्दोषता । सफाई । कलंक- हीनता । उ०—लोभी लोलुप कल कीरति चहई । अकलंकता कि कामी लङई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अकलंकित
वि० [सं० अकलङि्कत] निष्कलंक । निर्दोष । बेदाग । साफ । शुद्ध । बेऐब । उ०—तामहँ पैँठि जो नीकसै, अकलंकित सो साधु ।—रामचं० पृ० १५० ।
⋙ अकलंकी
वि० [सं० अकलङि्क्न्] जिसपर कोई कलंक न हो । निर्दोष । बेऐब [को०] ।
⋙ अकल (१)
वि० [सं० अ+कल] १. जिसके अवयव न हों । अवयवरहित । उ०—ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अनीह अभेद ।—मानस १५० । २. जिसके खंड न हों । र्स्वांगपूर्ण । अखंड । उ०— अकल कला को खेल बनिया, अनंत रूप दिखाइया ।— गुलाल०, पृ० ३८ । ३. जिसका अनुमान न लगाया जा सके । परमात्मा का एक विशेषण । उ०—व्यापक अकल अनीह अज निरगुन नाम न रूप ।—मानस, १ ।२०५ । ४. पु बिना गुण या चतुराई का कलाहीन ।
⋙ अकल (२)पु
वि० [सं० अ+ हिं० कल = चैन] विकल । व्याकुल । बैचैन । उ०—कामिनी के अकल नूपुर, भामिनी के हृदय में भय ।—अर्चना, पृ० ६३ ।
⋙ अकल (३)पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अकल' । उ०—मरदूद तुझे मरना सही । काइम अकल करके कही—संत तुरसे० पृ० १४ । मुहा०—अकल गुद्दी में होना = बुद्धि का काम न करना । अकल का छिप रहना । उ०—'इन्होंने सब कुछ कहा । आपकी अकलक्या गुद्दी में थी? आपको क्या हो गया था ?'—सैर०, पृ० ४१ । अकल घास चरने जाना = दे० 'अकल का चरने जाना' । उ०—'यहाँ प्लेग का बड़ा प्रकोप है, इसलिये अकल घास चरने चली गई है' ।—पोद्दार अभि० ग्रं० पृ० ८९७ । अकल गुजर जाना = बुद्धि खत्म होना । समझ कान रह जाना । उ०—अकल जाती है इस कूचे में अय 'जामिन' गुजर पहले ।—कविता कौ० भा० ४ पृ० ६६२ ।
⋙ अकलखुरा
वि० [हिं० अकेल+फा० खोर = खानेवाला] १. अकेले खानेवाला । स्वार्थी । मतलबी । लालची । २. जो मिलनसार न हो । रूखा । मनहूस । ३. ईर्ष्यालु । उ०—'अकलखुरा किसी को देख नहीं सकता' । 'अकलखुरा जग से बुरा (शब्द०) ।
⋙ अकलना पु
क्रि० स० [सं० अकलन] जानना । समझना । उ०— बीसल नरिंद इह भय अकलि लहै न कहु निस दिन चयन ।— पृ० रा०, १ । २०४ ।
⋙ अकलप (
<१)पु वि० [सं० अकल्प्य] जिसकी कल्पना न की जा सके । कल्पनातीत । उ०—मैमंता अविगत रता अकलप आसा जीति । राम अमलि माता रहै जीवत मुकति अतीति ।— कबीर ।
⋙ अकलप (
<२)पु संज्ञा पुं० [सं० आकल्प] कल्प पर्यत । अनेक युगों तक । उ०—अ सन तजि अनत जिनि जावौ । अकलप भिछ्या बैठा खावौ ।—गोरख०, पृ० २३९ ।
⋙ अकलबर
संज्ञा पुं दे० 'अकलबीर ' ।
⋙ अकलबीर
संज्ञा पुं० [सं० करबीर] भाँग की तरह का एक पौधा । विशेष—यह हिमालय पर काश्मीर से लेकर नैपाल तक होता है । इसकी जड़ रेशम पर पीला रंग चढ़ाने के काम में आती है । पर्या०—कलबीर । बज्र । भंगजल ।
⋙ अकलीम
संज्ञा स्त्री० [अ० इक्लीम] १. महाद्विप । उ०—साह तणा खूनी सबल आय बचै इण ठेर । औ सांतू अकलील में चावो गढ़ चीतौड़ ।—बाँकी० ग्रं०, भा ३, पृ० ९२ । २. बादशाहत । राज्य । उ०—आवै जो अकलीम सात हेक सुरताँणरै । नहीं जिका दे नाम ईछै लेवा आठमी ।—बाँकी, ग्र०, भा० ३. पृ० ५८ ।
⋙ अकलुष
वि० [सं०] कलषता से रहित । निर्मल । शूद्ध । साफ । उ०—स्नेह सुख में बढ़ सखि चिरकाल, दीप की अकलुष शिखी समान ।—गुंजन, पृ० ३१ ।
⋙ अकलुषित
वि० [सं०] जो कलुषित न हुआ हो । पवित्र । उ०— फिरन चाहौं धरा पै मैं धरि अकलुषित पाँव । धरि ह्वैहै सेज मेरी, बास सूनो ठाँव ।—बुद्ध च०, पृ० ८६ ।
⋙ अकलेस पु
वि० [सं० अखिलेश] समग्र विश्व के स्वामी । उ०— ऊँ नामों सिव सकल । नमो अकलेस अकल मति ।—पृ० रा०, १ ।१८४ ।
⋙ अकलैमूल पु
वि० [प्रा० एक्कलइ = एक ही+सं०मूल] जिस घे आगे पीछे कोई न हो । अकेला । तनहा उ०—मचला अकलैमूल पातर खाउँखाउँ करै भूखा ।—सूर०, १ ।१८६ ।
⋙ अकल्क
वि० [सं०] [स्त्री० अकल्का] १. बिना तलछट का । शुद्ध । २. पापरहित । निष्पाप [को०] ।
⋙ अकल्कक
वि० [सं०] दे० 'अकल्कल' [को०] ।
⋙ अकल्कन
वि० [सं०] दे० 'अक्ल्कल' [को०] ।
⋙ अकल्कल
वि० [सं०] १. विनम्र । सरल । २. अहंकारशून्य । दंभ रहित । ३. ईमानदार [को०] ।
⋙ अकल्कता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ईमानदारी । शु्द्धता [को०] ।
⋙ अकल्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योत्सना । चाँदनी । [को०] ।
⋙ अकल्प
वि० [सं०] १. जो नियम और प्रतिबंध का विषय न हो । अनियंत्रित । निर्बंध । २. दु्र्बल । कमजोर । ३. जिसकी तुलना न की जा सके । अतुलनीय । ४. अयोग्य । अक्षम [को०] ।
⋙ अकल्पनीय
वि० [सं०] जिसकी कल्पना न की जा सके । कल्पना से परे । उ०—बिपुल अलौकिक कलान ते कलित बनि, रेल तार काज क्यों अकल्पनीय करते ।—रसक०, पृ० ३१६ ।
⋙ अकल्पित
वि० [सं०] १. कल्पनारहित । अकल्पनीय । उ०—बीर— कुल बाल ह्वै न सहिहौं त्रिकाल माँहि, लोक प्रतिकूल की अकल्पित कुचाली को ।—रसक०, पृ० ३२३ । २. अकृत्रिम । स्वाभाविक (को०) । ३. प्राकृतिक । नैसर्गिक (को०) ।
⋙ अकल्मष
वि० [सं०] पापरहित । निर्दोष । निर्विकार । बेऐब ।
⋙ अकल्य
वि० [सं०] १. अस्वस्थ । रुग्ण । २. सत्य । सच [को०] ।
⋙ अकल्याण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अमंगल । अहित ।
⋙ अकल्याण (२)
वि० १. कल्याणरहित । अशुभ । २. असुंदर [को०] ।
⋙ अकव
वि० [सं०] १. अवर्णनीय । २. अतुच्छ । ३. अकृपण । जो कृपण न हो [को०] ।
⋙ अकवच
वि० [सं०] विना कवच का । कवचरहित [को०] ।
⋙ अकवन पु †
संज्ञा पुं० [हिं० आक] आक का पेड । मदार ।
⋙ अकवाम
संज्ञा पुं० [अ० अकवाम कौम का बहुवचन] जातियाँ । उ०—'दोनों अकवाम मिस्ल शीर व शकर के मिल जायँ' ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ९० ।
⋙ अकवार †
संज्ञा स्त्री दे० 'अँकवार' । उ०—धरमदास से छुटल भव- सागर, सब सों भेटि अकवार हो ।—धरम०, शब्दा०, पृ० ५१ ।
⋙ अकवारि (१)
वि० [सं०] दे० 'अकवारी' [को०] ।
⋙ अकवारी (२)
वि० [सं०] १. निस्स्वार्थ । स्वार्थहीन । २. अकृपण । जो कंजूस न हो । ३. जिसे शत्रु तुच्छ न समझे । ४. प्रबल शत्रुवाला [को०] ।
⋙ अकवि
वि० [सं०] जो बुद्धिमान या सुबुद्ध न हो । मूर्ख [को०] ।
⋙ अकस (१)
संज्ञा पुं० [अ० अक्स] १. बैर । अदावत । विरोध । शत्रुता । उ०—काम कोह लाई कै देखाइयत आँखि मोहि, एते मान अकस कीबे को आपु आहि को ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २२२ । २. लाँगडाँट । होड़ । स्पर्धा । उ०—हानि लाहु अनखु उछाहु बाहुबल कहि बंदी बोले बिरद अकस उपजाइकै ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३१२ । ३. ईर्ष्या । डाह । उ०—मोर मुकट की चंद्रि- कनु यौं राजत नँद नंद । मनु ससि सेखर की अकस किय सेखर सतचंद ।—बिहारी र०, दो० ४१९ ।
⋙ अकस (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० आकाश] नभ । आकाश । उ०—सकसे का जैतवार अकसे का वाई ।—रा० रू०, पृ० ९७ । क्रि० प्र०—ठानना ।—दिलाना ।—पड़ना ।—मानना—रखना । यौ०—अकसदीया । अकसदियता ।
⋙ अकसना
क्रि० स० [हिं० अकस से नाम०] १. अकस रखना । बैर रखना । शत्रुता रखना । २. लाँगड़ाँटरखना । बराबरी करना । आँट रखना । उ०—साहनि सौं अकसिबों हाथिन को बकासिबो, राव भाव सिंह जू को सहज सुभाव है ।—मतिराम ग्रं०, पृ० ४३५ ।
⋙ अकसमात पु
क्रि० वि० दे० 'अकस्मात्' । उ०—(क) औसे में इह भावई अकसमात हुअ आइ ।—पृ० रा०, ६ ।२८ । (ख) जे द्रुम नभ सों बातें करै । ते तरु अकसमात भूंई परै ।—नंद० ग्रं०, पृ० २७६ ।
⋙ अकसर (१)
क्रि० वि० [अ०] प्रायः । बहुधा । अधिकतर । बहुत करके । विशेष करके उ०—बदन पर अकसर गाते, भौं मिंहदी से रँगते है ।—भारतेन्दुँ ग्रं०, भा० १, पृ० २४९ ।
⋙ अकसर (२) पु †
[सं० एक+ सर (प्रत्य०)] अकेले । बिना किसि को साथ लिए । तनहा । उ०—धनि सो जीव दगध इमि सहा । अकसर जरइ न दूसर कहा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अकसर (३)पु †
वि० अकेला । एकाकी । उ०—करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात । कवन हेतु मन व्यग्र अति अकसर आयहु तात—मानस, ३१८ ।
⋙ अकसरुआ †
वि० [हिं० अकसर] दे० अकेला । बिना साथ का ।
⋙ अकसवा †
संज्ञा पुं० [हिं० अकास] दे० आकाश' । उ०—ना हुवाँ धरती न पौन अकसवा ।—कबीर श०, भा०, १, पृ० ४७ ।
⋙ अकसी †
वि० [हिं० अकस] अकस रखनेवाला । बैरी ।
⋙ अकसीर (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० इकसीर] १. वह रस या भस्म जो धातु को सोना या चाँदी बना दे । रसायन । कीमिया । उ०—हमसे हो जरो सीम की तदबीर सो क्या खाक? दुनियाँ में बड़ी चीज है अकसीर सो क्या खाक ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४४ । २. वह औषधि जो प्रत्येक रोग को नष्ट करे । वह औषधि जिसके खाने से मनुष्य कभी बीमार न हो । उ०—अगर अकसीर विन रोगी दर्द कबहूँ न जावेगा —संत तुरसी०, पृ० ३३ ।
⋙ अकसीर (२)
वि० अव्यर्थ । अत्यंत गुणकारी । अत्यंत लाभकारी ।
⋙ अकसीरगर
वि० [हिं० अकसीर+ फा० गर] कीमिया बनानेवाला । रसायनी [को०] ।
⋙ अकस्मात्
क्रि० वि० [सं०] १. अचानक । एकबारगी । यकायक । उ०—सब उतरना चाहते हैं, कुभा में अकस्मात् जल बढ़ जाता है, सब बहते हुए दिख ई देते हैं ।—स्कदं०, पृ० १०७ । २. संयोगवश । दैवयोग से । उ०—महादेवी आज मैने अपने हृदय के मार्मिक रहस्य का अकस्मात् उदघाटन कर दिया है ।—स्कंद०, पृ० २८ ।
⋙ अकस्मात्
क्रि० वि० [सं० अकस्मात्] १. अचानक । अनायास । एकबारगी । यकायक । सहसा । तत्क्षण । बैठे बिठाए । औचक । अतर्कित । अनचित्ते में । २. दैवात् । दैवयोग से । संयोगवश । हठात् । आपसे आप । अकारण ।
⋙ अकह (१)
वि० [सं० अकथ; प्रा० अकह] न कहमें योग्य । जो कही न जा सके । अकथनीय । अनिर्वचनीय । अवर्णनीय । उ०— नहीं ब्रह्म, नहिं जीव न माया ज्यों का त्यों वह जाना । मन, बुधि, गुन, इंद्रिय, नहिं जाना अलख अकह निर्वाना ।—कबीर (शब्द०) । यौ०—अकह कहानी = अनिर्वचनीय कथा । उ०—निज दल जागौ ज्योति पर दल दूनी होती, अचला चलति यह अकह कहानी है । पूरण प्रताप दीप अंजन की राजै रेख राजन श्री रामचंद्र पानिन कृपानी है ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ अकह (२) पु
वि० [सं० अकत्थ्य] मुँह पर न लाने योग्य । बुरी । अनुचित । उ०—शील सुधा वसुधा लहिकै अकहै कहिकै यह जीभ बिगारिए ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अकहन †
वि० [हिं०] कहना न माननेवाला । बेकहला ।
⋙ अकहनी
वि० [हिं० अकह] न कहने योग्य । उ०—जो सब कहनी अकहनी थी' ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १९४ ।
⋙ अकहुआ पु †
वि० दे० 'अकहुवा' ।
⋙ अकहुवा पु †
वि० [सं० अकथ; प्रा० अकह+ उवा (प्रत्य०)] जो कहा न जा सके । अकथनीय । उ०—जाकर नाम अकहुवा भाई । ताकर कही रमैनी भाई ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अकांड (१)
वि० [सं० अकाण्ड] बिना डाली या शाखा का ।
⋙ अकांड (२)
क्रि० वि० अकस्मात् । सहसा । बिना कारण ।
⋙ अकांडजात
वि० [सं० अकाण्डजात] होते ही मर जानेवाला । जन्मते ही मर जानेवाला ।
⋙ अकांडतांडव
संज्ञा पुं० [सं० अकाण्ड+ ताण्डव] १. असामयिक उद्धत नृत्य । आकस्मिक उद्धत नृत्य । उ०—हरिऔध हर के अकांड तांडवों के भये, भांड़ के समान सारो ब्रह्मांड फूटैगी ।—रसक०, पृ० ३५१ २. व्यर्थ की उछल कूद । व्यर्थ की बक्वाद । वितंडा ।
⋙ अकांड पात
वि० [सं० अकाण्डपात] होते ही मर जानेवाला । जन्मते ही मर जानेवाला ।
⋙ अकांडपातजात
वि० [सं० अकाण्डपातजात] जन्म लेते ही मरने वाला [को०] ।
⋙ अकांडशूल
संज्ञा पुं० [सं० अकाण्डशूल] आकस्मिक तीव्र पीडा़ या वेदना [को०] ।
⋙ अकांत
वि० [सं अकान्त] जो कांत न हो । जो सुंदर न हो । उ०— हरिऔध कांत को अकांत अवलोकिहै तो, मृदुल करेजो कुल- कामिनी को छिलेहै ।—रसक०, पृ० २९५ ।
⋙ अकाउंट
संज्ञा पुं० [अं०] हिसाब । लेखा । हिसाब किताब ।
⋙ अकाउंटबुक
संज्ञा पुं० [अं०] हिसाब की किताब । बही खाता । लेखा ।
⋙ अकाउंटेंट
संज्ञा पुं० [अं०] हिसाब जाँचनेवाला । निरीक्षक । मुनीम । लेखा लेखनेवाला ।
⋙ अकाज (१)
संज्ञा पुं० [सं० अकार्य; प्रा० अकज्ज] १. कार्य की हानी । नुकसान । हर्ज । विघ्न । बिगाड़ । उ०—हरि हरजस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ।—तुलसी (शब्द०) । २. बुरा कार्य । दुष्कर्म । खोटा काम (क्क०) ।
⋙ अकाज (२)
क्रि० वि० [हिं० अ+ काज] व्यर्थ । बिना काम । निष्प्रयोजन । उ०—बीति जैहै बीति जैहै जनम अकज । रे ।—तेगबहादुर (शब्द०) ।
⋙ अकाजना (१) पु
क्रि० अ० [हिं० अकाज से नामधातु] १ हानि होना । खो जाना । २ गत होना । जाता रहना । मरना । उ०—सोक विकल अति सकल समाजू । मानहुँ राज अकाजेउ आजू ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अकाजना (२)
क्रि० स० अकाज करना । हर्ज करना । हानि करना । विघ्न करना । नुकसान करना ।
⋙ अकाजी पु
वि० [हिं० अकाज+ई (प्रत्य०)] [स्त्री० अकाजिन अकाजिनी] अकाज करनेवाला । हर्ज करनेवाला । कार्य की हानि करनेवाला । नुकसान करनेवाला । बाधक । विघ्नकारी । उ०—लाज न लागाति लाज अहै तुहि जानी मैं आज अकाजिनि एरी ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अकाट
वि० [हिं० अ+ काटय] जिसकी काट न हो । जिसका खंडन न हो । अखडनीय (युक्ति तर्क इत्यादि) ।
⋙ अकाटय
वि० [सं० अ+ काटय] न काटने योग्य । जिसका खंडन न हो सके । दृढ़ । मजबूत । अटल । उ०—भाई कहने को तर्क अकाटय तुम्हारा । पर मेरा ही विश्वास सत्य है सारा ।— साकेत, पृ २१९ । यौ०—अकाटय युक्ति ।
⋙ अकातर
वि० [सं०] जो कायर न हो । जो भयभीर न हो । उ०— गति अनाहत तू सखा मत सहज संयत रे अकातर ।—अर्चना, पृ० ८८ ।
⋙ अकाथ (१) पु
क्रि० वि० [सं०अकृतार्थ प्रा० अकआरथ] अकारथ । व्यर्थ । निष्फल । निरर्थक । वृथा । फजूल । उ०—रह्यो न परै प्रेम आतर अति जानी रजनी जात अकाथ ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अकाथ (२) पु
वि० [सं० अकथ्य] न कहने योग्य । अकथनीय । अनिर्व- चनीय । उ०—आपनों ज्यों हीरा सो पर ये हाथ व्रजनाथ । दै कै तो अकाथ हाथ मैने ऐसी मन लेहु ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ७४ ।
⋙ अकादर †
वि० [सं० अकातर] जो कादर न हो । शूरवीर । साहसी । हिम्मतवर ।
⋙ अकाम (१)
वि० [सं०] बिना कामना का । कामनाविर्हन । इच्छा- रहित । निस्पृह । उ०—हमरें जान सदा सिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ।—मानस, १ ।८९ ।
⋙ अकाम (२) पु
क्रि० वि० [सं० अ+ हिं० काम] बिना काम के । निष्प्र- योजन व्यर्थ । उ०—बिना मान नर जगत में धावत फिरे अकाम ।— (शब्द०) ।
⋙ अकाम (३)
संज्ञा पुं० दुष्कार्म । बुरा काम (क्क०) । उ०—गज परयौ धरनि साहन सिँगार । कित्नी अकाम परताप पार-पृ० रा०, ५ ।२४ ।
⋙ अकामत
क्रि० वि० [सं०] अनिच्छापूर्बक । अनचाहे [को०] ।
⋙ अकामतः
संज्ञा पुं० [अ० इकामत] ठहरने का स्थान । निवास । आवास । उ०—उम्र अपनी रवाँ है तो अकामत से सरकार । समझे अगर इंसान तो दिन रात सफऱ है ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ५७४ ।
⋙ अकामता
संज्ञा स्त्री० [सं०] काम या इच्छा का अभाव [को०]० ।
⋙ अकामनिर्जरा
संज्ञा स्त्री० [ सं० ] जैन मत के अनुसार तपस्या से जो निर्जरा या कर्म का नाश होता है उसके दो भेदों में से एक । यह निर्जरा सब प्राणियों को होती है क्योंकि उन्हे बहुत से क्लेशों को विवश होकर सहना पड़ता है ।
⋙ अकामहत
वि० [सं०] जो काम से प्राभावित न हो । अक्षुब्ध । शांत [को०] । जो काम से आहत न हो । [को०] ।
⋙ अकामा (१)
वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री) जिसमें काम का प्रादुर्भाव न हुआ हो । योवनावस्था के पूर्व की ।
⋙ अकामा (२)
संज्ञा स्त्री० कामचेष्टा से रहित स्त्री ।
⋙ अकामी
वि० [सं० अकामिन्] [स्त्री० अकामिनी] १. कामना- रहित । इच्छाविहीन । निस्पृह । जिसे किसी बात की आकांक्षा न हो । निःस्वार्थ । उ०—भजामि ते पदांबुजम् । अकामिनां स्वधामदम् ।—तुलसी (शब्द०) । २. जो कामी न हो । जितेंद्रिय ।
⋙ अकाय
वि० [सं०] १. बिना शरीरवाला । देहरहित । उ०—सत्त पुरुष एक रहै अकाया । अंस तास सोइ निरगुन आया ।— घट०, पृ० २७४ । २. अशरीर । शरीर न धारण करनेवाला । जन्म न लेनेवाला । ३. रूपरहित । निराकार । उ०—माँगात बामन रूप धरि परबत भयौ अकाय । सत्त धर्म सब छाँडि के धरयौ पीठ पै पाया ।—नंद० ग्रं०, पृ० १८१ ।
⋙ अकायिक
वि० [सं० अ+ कायिक] शरीर से संबंध न रखेनेवाला । उ०—आज अव्यभिचारिणी निज भक्ति का वरदान दो तो, निज अपार्थिव अति अकायिक स्नेह का स्मरदान दो तो ।— अपलक, पृ० ४६ ।
⋙ अकार (१)
संज्ञा पुं [सं०] अक्षर 'अ' ।
⋙ अकार (२)
संज्ञा पुं० [सं० आकार] आकार । स्वरूप । आकृति । उ०— बिना आकार रूप नहिं रेखा कौन मिलेगी आय ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ७४ ।
⋙ अकार (३)
वि० [सं० अ+ हिं० कार = कार्य] क्रियारहित [को०] ।
⋙ अकारक मिलाव
संज्ञा पुं० [सं० अकारक+ हिं० मिलाव] ऐसा रासायनिक मिश्रण या मिलावट जिसमें मिली हुई वस्तुओं के पृथक् गुण बने रहे और ये अलग की जा सकें ।
⋙ अकारज पु
संज्ञा पुं० [सं० अकार्य] कार्य की हानि । हानि । नुकसान । हर्ज । उ०—(क) आप अकारज आपनो करत कुसंगत साथ । पायँ कुल्हाड़ी देत है मूरख अपने हाथ ।—सभाबिलास (शब्द०) । (ख) ताते न मान समान अकारज जाको अयानु बड़ो अधिकारी, देव कहै कहिहौं हित की हरि जू सो हितू न कहूँ हितकारी ।—देव (शब्द०) ।
⋙ अकारण (१)
वि० [सं०] १. बिना कारण का । हेतुरहित । बिना वजह का; जैसे, 'संसार' में अकारण प्रीति दुर्लभ होती है' ।— (शब्द०) । उ०—'तात' कहाँ थे? इस बालक पर अकारण क्रोध करके कहाँ छिपे थे'?—स्कंद०, पृ० ७८ । २. जिसकी उत्पत्ति का कोई कारण न हो । जो किसी से उत्पन्न न हो । स्वयंभू ।
⋙ अकारण (२)
क्रि० वि० बिना कारण के । बेसबब । व्यर्थ । अनायास । निष्प्रेयोजन; जैसे—'क्यों अकारण हँसते हो?' (शब्द०) ।
⋙ अकारत †
वि० दे० 'अकारथ' ।
⋙ अकारथ (१) †
वि० [सं० अकार्यार्थ प्रा० अकारयथ्थ, अकारअथ] बेकाम । निष्फल । व्यर्थ । निष्प्रयोजन । फजूल । उ०—बिना ब्याह यह तपस्या अकारथ होती है ।—सदल मिश्र (शब्द०) । क्रि० प्र० करना ।—होना ।
⋙ अकारथ (२)
क्रि० वि० व्यर्थ । बेकार । निष्प्रयोजन । फजूल । बेफा- यदा । उ०—स्वारथ हू न कियो परमारथ यों ही अकारथ बैस बिताई ।—पदमाकर (शब्द०) । क्रि० प्र०—खोना ।—गारना = व्यर्थ ही गलाना या नष्ट करना । उ०—आछौ गात अकारथ गारयो । करी न प्रीति कमललोचन सो जन्म जुआ ज्यों हारयो ।—सूर (शब्द०) ।—जाना उ०—ते दिन गये अकारथै संगति भई न संत ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ अकारन पु
वि० दे० 'अकारण' । उ०—जिमी चह कुशल अकारन कोही ।—मानस, १ ।२६७ ।
⋙ अकारना पु
क्रि० स० दे० 'करना' । उ०—करि साधन इह साध, व्याधि नासत फल धारिय । गुरु उपदेसह पाइ, सकल आधीन अकारिय ।—पृ० रा०, ६ ।२६ ।
⋙ अकारांत
वि० [सं० अकारान्त] जिसके अंत में 'अ' अक्षर हो [को०] ।
⋙ अकारादि
वि० [सं०] 'अ' वर्ण से आरंभ होनेवाला [को०] ।
⋙ अकारी पु
वि० [सं० अ+कारिन्] १. अनर्थ करनेवाला । अनर्थकारी । उ०—गौर मुष्ष वपु स्याम गिरन सम नख्य अकारिय ।—पृ० रा०, २ ।२८७ । २. तीक्ष्ण (डिं०) । उ०—आरंभ अति फौज अकारी दिल्लीपति पूगौ रहबारी ।—राज रू०, पृ० ५६ ।
⋙ अकार्पण्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृपाणता का अभाव । २. दीनता का अभाव [को०] ।
⋙ अकार्पण्य (२)
वि० जो निम्नता या दीनता दिखाए बिना प्राप्त हो [को०] ।
⋙ अकाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्य का अभाव । अकाज । हर्ज । हानि । २. बुरा कार्य । कुकर्म । दुष्कर्म ।
⋙ अकार्य (२)
वि० १. जिसका कोई परिणाम न हो । फलरहित । २. अकरणीय । न करने लायक ।
⋙ अकार्यचिंता
संज्ञा स्त्री० [सं० अकार्यचिन्ता] अनुचित कार्य करने का सोचविचार । अपराध करने की मनोवृत्ति [को०] ।
⋙ अकाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अकालिक] १. अनुपयुक्त समय । अनवसर । अनियमित समय । ठीक समय से पहले या पीछे का समय । उ०—तूँ रहि, हौं ही सखि लखौं, चढ़ि न अटा, बलि बाल । सबहिनु बिनु ही ससि उदय, दीजतु अरघु अकाल ।—बिहारी र०, दौ० २६८ ।२. दुष्काल । दु्र्भिक्ष । महँगी । कहत । जैसे—'भारतवर्ष में कई बार अकाल पड़ चुका है'—(शब्द०) । क्रि० प्र०—पड़ना । ३. घाटा । अत्यधिक कमी । न्यूनता । जैसे—'यहाँ कपड़ों का अकाल नहीं है ।'—(शब्द०) । ४. अशुद्ध समय (ज्यो०) ।
⋙ अकाल (२)
वि० १. जो काला न हो । श्वेत । २ अनवसर का । असामयिक [को०] ।
⋙ अकालकुसुम
[सं०] १. बिना समय या ऋतु में फूला हुआ फूल । उ०—भयदायक खल के प्रिय बानी । जिमि अकाल के कुसुम भवानी ।—मानस, ३ ।१८ । विशेष—यह दुर्भिक्ष या उपद्रवसूचक समझा जाता है । २. असमय में किसी वस्तु की प्राप्ति या दिखाई पड़ना (लाक्ष०) । ३. बेसमय की चीज ।
⋙ अकाल कुष्मांड
संज्ञा पुं० [सं० अकाल कुष्माण्ड] १. असमय या बेमौ- सम का कुम्हड़ा । २. वह कुम्हड़ा जो बलिदान के काम न आए । ३. बेकार वस्तु । ४. व्यर्थ या निरर्थक जन्म [को०] ।
⋙ अकाल कूष्मांड
संज्ञा पुं० [सं० अकालकूष्माण्ड] दे० 'अकाल कुष्माड़'[को०] ।
⋙ अकालज
वि० [सं०] दे० 'अकालजात' [को०] ।
⋙ अकालजलद
संज्ञा पुं० [सं०] असामयिक मेघ । असमय के बादल । उ०—सुखदेव चौबै ने अकालजलद की तरह उसके संयम के दिन को मलिन कर दिया था ।—तितली, पृ० १५३ ।
⋙ अकालजलदोदय
संज्ञा पुं० [सं०] १. असमय मेघों का छा जाना । २. कुहरा [को०] ।
⋙ अकालजात
वि० [सं०] जो नियत समय पर उत्पन्न न हो [को०] ।
⋙ अकालज्ञ
वि० [सं०] काल या समय के ज्ञान से रहित । कालज्ञान- विहीन [को०] ।
⋙ अकालपक्व
वि० [सं०] समय से पूर्व पका हुआ [को०] ।
⋙ अकालपुरुष
संज्ञा पुं० [सं० अकाल+ पुरुष] परमात्मा । ईश्वर (सिख) ।
⋙ अकालभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृति के अनुसार १५ दासों में से एक । दास बनाने के लिये जिसकी रक्षा दुर्भिक्ष में की गई हो । अकाल में मिला हुआ दास ।
⋙ अकालमूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुरुष जिसकी स्थापना काल या समय में न हो सके । नित्य । अविनाशी ।
⋙ अकालमृत्यु
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेसमय की मृत्यु । ठीक समय से पहले की मृत्यु । थोड़ी अवस्था का मरना । अनायास मृत्यु । असामयिक मृत्यु । उ०—अकालमृत्यु सो मरे । अनेक नर्क मों परै । —राम चं०, पृ० १६९ ।
⋙ अकालमेघोदय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कालजलदोदय' [को०]
⋙ अकालवृद्ध
वि० [सं०] समय से पूर्व वृद्ध हानेवाला [को०] ।
⋙ अकालवेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उचित या नियत समय का अभाव । २. बुरा समय [को०] ।
⋙ अकालसह
वि० [सं०] १. जो देर या बिलंब न सह सके । अधीर । २. जो अधिक समय तक आक्रमण न सह सके [को०] ।
⋙ अकालिक
वि० [सं०] असामयिक । बिना समय का । बेमौके का ।
⋙ अकाली
संज्ञा पुं० [सं० अकाल+ ई (प्रत्य०)] नानकपंथी साधु जो सिर में चक्र के साथ काले रंग की पगड़ी बाँधै रहते हैं ।
⋙ अकालोत्पन्न
वि० [सं०] जो समय से पूर्ब उत्पन्न हुआ हो [को०] ।
⋙ अकाल्य
वि० [सं०] असामयिक । असमय का [को०] ।
⋙ अकाव †
संज्ञा पुं० [सं० अर्क; प्रा० अक्क] आक । मदार ।
⋙ अकाश पु
संज्ञा पुं० दे० 'आकाश' । उ०—हरि कर तू गमने महि माहीं । मैं आकाश ह्वै चलौं तहाँहीं—रामरसिका०, पृ० ८५९ ।
⋙ अकास
संज्ञा पुं० दे० 'आकाश' । उ०—रामचरन अवलंबन बिनु परमारथ की आस । चाहत वारिद बुंद गहि तुलसी चढ़न आकास ।—स० सप्तक, पृ० ४ । मुहा०—अकाश गहना = अनहोनी या असंभव बात करना । उ०— बातनि गहौ अकास, सुनहि न आवै साँस । बोली तौ कछू न आवै ताते मौन गाहिये ।—सूर (राधा०), १२७३ । अकास बाँधना = असंभव काम करने की कौशिश करना ।
⋙ अकासकृत
संज्ञा पुं० [सं० आकाश+ कृत] बिजली (अनेका०) ।
⋙ अकासदीया
संज्ञा पुं० [सं० आकाशदीपक] वह दीपक या लालटेन जो बाँस के ऊपर आकाश में लटकाया जाता है । आकाशदीप ।
⋙ अकासनदी पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'आकाशनदी' । उ०—उछलै जल उच्च अकास चढ़ै जल जोर दिसा बिदिसान मढ़ै । जनु सिंधु अकासनदी अरि कै, बहु भाँति मनावत पाँ परि कै ।—राम चं०, पृ० १०९ ।
⋙ अकासनीम
संज्ञा पुं० [सं० आकाशनिम्ब] एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ बहुत सुंदर होती है । उ०—कुहरा झीना और महीन, झर झर पड़ै अकासनीम ।—हरी घास०, पृ० ।
⋙ अकासबानी पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'आकाशवाणी' । उ०—परुसन जबहिं लाग महिपाला । भै अकासबानी तौहि काला ।—मानस, १ ।१७३ ।
⋙ अकासबेल
संज्ञा स्त्री० [सं० आकाश+ वैल्लि] अबरबेलि । अमर- बेल । अकासबौंर ।
⋙ अकासवादी पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अकासबानी' । उ०—दस हत्थी सुबिहान साहि गोरी मुख किन्नौं । कर अकासवादी ततार चबकौद सदिन्नौं ।—पृ० रा०, २७ १२५ ।
⋙ अकासी
संज्ञा स्त्री० [सं० आकाश] १. चील नामक पक्षी । यौ०—धौरी अकासी या सफेद अकासी = एक प्रकार की चील जिसे क्षेमकारी भी कहते हैं । इसका सिर सफेद और शेष सारे अंग लाल होते हैं इसका दर्शन शुभ माना गया है । उ०—बाँएँ अकासी धोरी आई ।—जायसी (शब्द०) । २. ताड़ के वृक्ष या फलों का रस । ताड़ी ।
⋙ अकाह पु
वि० दे० 'अकाथ (२)' । उ०—कबहूँ यौ बियोग बिथा को सहै जीउ जोगिन हूँ कौं अकाह सी है ।—ठाकुर०, पृ० १० ।
⋙ अकिंचन (१)
वि० [सं० अकिञ्चन] १. जिसके पास कुछ न हो । निर्धन । धनहीन । दीन । कंगाल । दरिद्र । गरीब । मुहँताज । उ०—देख अकिंचन जगत लूटता तेरी छवि भोली भाली ।—कामायनी, पृ० ४० । २. आवश्यकता से आधिक धन का सग्रह न करनेवाला । परिग्रहत्यागी । ३. जिसे भोगने के लिये कुछ कर्म न रह गए हों । कर्मशून्य ।
⋙ अकिंचन (२)
संज्ञा पुं० १. निर्धन मनुष्य । गरीब आदमी । दरिद्र मनुष्य । २. जैन मत के अनुसार परिग्रह का त्याग या ममता से निवृत्ति जा दस प्रकार के साधुधर्मों में से एक है । ३. वह वस्तु जिसका कुछ मूल्य न हो (को०) ।
⋙ अकिंचनता
संज्ञा स्त्री० [सं० अकिञ्चनता] १. दरिद्रता । गरीबी । निर्धनता । उ०—हरिऔध कैसे अकिंचनता तृनावली मैं लसति हरीतिमा विभूतिवती महती ।—रस क०, पृ० ३३१ । २. परिग्रह का त्याग जो योग का एक यम है ।
⋙ अकिंचनत्व
संज्ञा पुं० [सं० अकिंञ्चनत्व] १. निर्धनता । गरीबी २. अपरिग्रह (जैन) [को०] ।
⋙ अकिचिज्ज्ञ
वि० [सं० अकिंञ्चिज्ज्ञ] जा कुछ न जानता हो । ज्ञान- शून्य [को०] ।
⋙ अकिंचितकर
वि० [सं० अकिञ्चित्कर] १. जिसका किया कुछ न हो । असमर्थ । २. तुच्छ । अशक्त । उ०—'जो अकिंचितकर था वह भी अपरूप हो गया ।'—टैगोर०, पृ० २४ ।
⋙ अकि पु †
अव्य [हिं० कि] या । अथवा । कि । उ०—(क) पातक शत्रु विनाशकरी अकि राघव की उधरी तरवार है ।—श्री भक्त०, पृ० ५७९ । (ख) अगि जरौं अकि पानी परौ अब कैसी करौं हिय का बिधि धीरौं ।—घनानंद, पृ० १२७ ।
⋙ अकितव
वि० [सं०] १. जो जुआरी न हो (को०) । २. निश्छल । सरल [को०] ।
⋙ अकिति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अकीर्ति] अपयश । अकीर्ति । उ०—क्रम बढ्ढत बढ्ढै अकिति । अकिति बढ्ढहि त्रक दिज्जै ।—पृ० रा०, ६१ ।१५६२ ।
⋙ अकिन पु
संज्ञा दे० 'यकीन' । उ०—आरति बुंद अकिन जब वारा । सुरति विसुरति गयो सब भारा ।—गुलाल०, पृ० १२९ ।
⋙ अकिल पु
संज्ञा स्त्री० दे० अक्ल' । उ०—(क) अकिल आरसी लै के सजनी पिया को रूप निहार हा ।—कबीर श०, पृ० १३५ । (ख) 'मियाँ साहब ने उत्तर दिया, भाई बात तो सच है, खुदा ने हमें भी अकिल दी है' ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६७७ । यौ०—अकिल अजीरन = बृद्धि का अजीर्ण । बुद्धिहीनता । उ०— चूरन खाते लाला लोग, जिनको अकिल अजीरन रोग ।— भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ६६३ ।
⋙ अकिलदाढ़
संज्ञा स्त्री० [हिं० अकिल+ दाढ़] वह दाँत जो मनुष्यों के वयस्क होने पर ३२ दाँतों के अतिरिक्त निकलता है । विशेष—कहते है इस दाँत के निकलने पर मनुष्य का लड़कपन जाता रहता है और वह समझदार हो जाता है ।
⋙ अकिलबहार
संज्ञा पुं० [अ० अकीलकुल बह्र] वैजयंती का पौधा या दाना
⋙ अकिलवान पु †
वि० [हिं० अकिल+ वान] बुद्धिमान् । अक्लवाला । अक्लमंद । उ०—सखा दरद के री हरी, हरी को दरद खास । सदा अकिलवानै गनै गनै बाल किअ दास ।—भिखारी ग्रं०, भा० २, पृ० २०७ ।
⋙ अकिला पु
वि० [स्त्री० अकिली] दे० 'अकेला १' । उ०—(को०) अकिले घूमत तर अस अंधे ।—नंद० ग्रं० पृ० १४० । (ख) अकिली बन घन बसि न डेराई ।—नंद० ग्रं० पृ० १४० ।
⋙ अकिल्विष (१)
वि० [सं०] १. पापशून्य । निष्पाप । पवित्र । २. निर्मल । शुद्ध ।
⋙ अकिल्विष (२)
संज्ञा पुं० पापशून्य मनुष्य । शुद्ध प्राणी ।
⋙ अकीक
संज्ञा पुं० [अ० अकीक] एक प्रकार का प्रायः लाल बहुमूल्य पत्थर या नगीना ।विशेष—इसपर मुहर भी खोदी जाती है । यह बंबई, बाँदा और खंभात से आता है । इसकी कई किस्में यमन और बगदाद से भी आती हैं ।
⋙ अकीदत
संज्ञा स्त्री० [अ० अकीदत] श्रद्धा । आस्था । उ०— 'मौलाना ने कृष्ण से अपनी अकीदत का इजहार किया था' ।— गौदान, पृ० २५ ।
⋙ अकीदतमंद
वि० [अ० अकीदत+ फा० मंद] श्रद्धावान् । श्रद्धा- युक्त । श्रद्धालु [को०] ।
⋙ अकीदा
संज्ञा पुं० [अ० अकीदह्] श्रद्धा । विश्वास । उ०—दर्द दिवाने बावरे अलमस्त फकीरा । एक अकीदा लै रहे ऐसे मन धीरा ।—मलूक०, पृ० ७ ।
⋙ अकीधा पु
वि० [सं० अकृत] बिना किया हुआ । न किया हुआ । उ०—जिम सिणागार अकीधै सौहित्रि प्रा आगमि जाणियै प्रिया ।—वेलि० दु० २२८ ।
⋙ अकीन पु †
संज्ञा पुं० [अ० यकीन] विश्वास । श्रद्धा । उ०— अकीन इमान जौहर जाहीर दोजक सवाल ना डारियै रे ।— सं० दरिया, पृ० ६८ ।
⋙ अकीरति पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अकीर्ति' ।
⋙ अकीर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अयश । अपयश । बदनामी ।
⋙ अकीर्तिकर
वि० [सं०] अकार्ति करनेवाला । अपयश देनेवाला । वदनाम करनेवाला । अपयश का भागी बनानेवाला । जिससे बदनामी हो ।
⋙ अकीर्त्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अकीर्ति' ।
⋙ अकुंठ
वि० [सं० अकुण्ठ] १. जा कुठित या गुठला न हो । तेज । चोखा । २. तीव्र । तीक्ष्ण । खरा । उ०—गएउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुड़ी । मति अकुंठ हरि भगति अखडी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. उत्तम । श्रेष्ठ । उ०—जीवत ही बिधिलोक जीवत हो शिवलाक जीवत बैकुंठ लोक जो अकुंठ गायो है ।—सुंदर० ग्रं०, भा०२, पृ० ६२३ । ४. कार्यक्षम । शक्तिशाली (को०) । ५. नवीन । शाश्वत । नित्य (को०) ।
⋙ अकुंठधिष्ण्य
संज्ञा पुं० [सं० अकुण्ठधिष्ण्य] नित्य निवास । स्वर्ग [को०] ।
⋙ अकुंठि
वि० [सं० अकुण्ठ] दे० 'अकुंठ' ।
⋙ अकुंठित
वि० [सं० अकुण्ठित] १. जो कुंठित न हो । तेज । उ०— परम अकुंठित विरोधिनी सकंठता की, कुलिस सी कठिन कठोरता में ढाली है ।—रसक०, पृ० ३१३ । २. जिसे टाला न जा सके । अटल । उ०—हैं दानव दल दंडन खल खंडन ए । अरि—कुल कंठ—कुठार—अकुंठित व्रत धरे ।— पारिजात, पृ० ७ ।
⋙ अकुचना पु
क्रि० अ० [सं० आकुञ्चन] आकुंचित होना । संकुचित होना । उ०—काहे कौ पीय संकुचत हौ । अब ऐस जिनि काम करौ कहुँ जौ अति हीं जिय अकुचत हौ ।—सुर०, १० ।२७३२ ।
⋙ अकुटिल
वि० [सं०] १. जो कुटिल या टेढ़ा न हो । सीधा । सरल । २. साफ दिल का । निष्कपट । निश्छल । भोला भाला । सीधा साधा ।
⋙ अकुटिलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुटिलता का अभाव । सिधाई । २. सादापन । निष्कपटता ।
⋙ अकुठाना पु
[सं० कुण्ठन] शिथिल होना । सुस्त होना । उ०—का सों कहों कहे को मानै अंग अंग अकुठाई ।—धरनी० बा०, पृ० ५ ।
⋙ अकुताना पु
क्रि० अ० दे० 'उकताना' । उ०—पलटू कौनो कछु कहै तनिकौ ना अकुताहिं ।—पलटू०; भा० १, पृ० १२ ।
⋙ अकुतोभय
वि० [सं०] जिसे किसी से अथवा कही भय न हो । निर्भय । निडर [को०] ।
⋙ अकुत्सित
वि० [सं०] जो निंदित वा निम्न न हो [को०] ।
⋙ अकुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो धातु निम्न श्रेणी की न हो, सेना या चाँदी । २. कोई भी साधारण धातु, ताँबा, पीतल आदि [को०] ।
⋙ अकुप्यक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अकुप्य' [को०] ।
⋙ अकुमार (१)
वि० [सं०] जो कुमार या बालक न हो । वयस्क । प्राप्तवय [को०] ।
⋙ अकुमार (२)
संज्ञा पुं० इंद्र [को०] ।
⋙ अकुल (१)
वि० [सं०] १. जिसको कुल में कोई न हो । कुलरहित । पारिवारविहीन । उ०—निर्गुन निलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली ।—मानस, १ ।७ ।९ २. बुरे कुल का । नीच कुल का । अकुलीन । उ०—अकुल कुलीन होत, पाँवर प्रवीन होत, दिन होत चक्कवै चलत छत्रछाया के ।—देव, (शब्द०) ।
⋙ अकुल (२)
संज्ञा पुं० १. बरा कुल । नीच कुल । बुरा खानदान । २. परम तत्व । शिव । उ०—अकुल शरानि पूरी मति होय ।— प्राण०, पृ० १८१ ।
⋙ अकुलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुल की निम्नता [को०] ।
⋙ अकुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] गिरिजा । पाबती [को०] ।
⋙ अकुलाता पु
वि० [सं० आकुल] अकुलता से युक्त । व्याकुल । उ०— गज्जि भग्ग प्रथिराज चित्त करयौ अकुलातं ।—पृ० रा०, २७ ।१२७ ।
⋙ अकुलाना
क्रि० अ० [सं० आकुलन] १. ऊबना । जल्दी करना । उतावला होना । उ०—(क) 'चलते है, क्यों अकुलाते हो' (शब्द०) । (ख) पुनि पुनि मुनि उव सहि अकुलाहीं । —मानस, १ १३५ । २. घबड़ाना । व्याकुल होना । व्यग्र या बेचैन होना । दुखी होना । उ०—(क) अतिसै देखि धर्म कै ग्लानी । परम सभीत धरा अकुलानी ।—मानस, १ ।१८३ । (ख) इन दुखिया आँखियानुकौँ सुख सिरजौई नाँहि । देखै बनै न देखतै अनदेखे अकुलाँहि ।—बिहारी र०, दो ६६३ । ३. बिह्वल होना । मग्न होना । लीन होना । आवेग में आना । उ०— बोलि गुरु भसुर समाज सो मिलन चले,जानि बड़े भाग अनुराग अकुलाने हैं ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २९९ ।
⋙ अकुलिनी पु
वि० स्त्री० [सं० अकुलीना] जो कुलवती न हो । कुलटा । व्यभिचारिणी ।
⋙ अकुलीन
वि० [सं०] १. बुरे कुल का । नीच कुल का । तुच्छ वंश में उत्पन्न । कमीना । क्षुद्र । उ०—कोऊ कहौ कुलटा कुलीन अकुलीन कहौ कोऊ कहौं रंकिनि कलंकिनी कुनारी ही ।—ब्रजमा- धुरी० पृ० ३१४ । २. धरती से असंबद्ध । अपार्थिव (को०)
⋙ अकुशल (१)
संज्ञा पुं० १. अमंगल । अशुभ । बुराई । अहित्र । २ बुरा शब्द । अपशब्द (को०) ।
⋙ अकुशल (२)
वि० १. जा दक्ष न हो । अनिपुण । अनाड़ी । २. भाग्य- हीन । अभागा (को०) । ३. अप्रिय (को०) ।
⋙ अकुशलधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध धर्मानुसार प्राणियों का पाप करने का स्वभाव ।
⋙ अकुसल पु
वि० दे० 'अकुशल—१' उ०—कबि या भाँति, चितेरनि लौं लिखिबै मै अकुशल ।—रत्नाकर, भा०१, पृ० ३१ ।
⋙ अकुसाद
वि० [सं०] सूद न लेनेवाला । लाभ न लेनेवाला [को०] ।
⋙ अकुसुम
वि० [सं०] पुष्पहीन । बिना फूल का [को०] ।
⋙ अकुह
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो धोखा नहीं देता । ईमानदार व्यक्ति [को०] ।
⋙ अकुहक
वि० [सं०] दे० 'अकुह' [को०] ।
⋙ अकूज
वि० [सं०] चुप । कूजन रहित । शांत [को०] ।
⋙ अकूट
वि० [सं०] [स्त्री० अकूटा] १. जो प्राकृतिक हो । अकृत्रिम । दिव्य । अलौकिक । उ०—उतर को देइ देव मरि गएऊ । सनद अकूट मँडप महँ भएऊ ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २५० । २ जो व्यर्थ न हो अमोघ (शस्त्र) (को०) । ३. जो खोटा या नकली न हो (सिक्का) (को०) ।
⋙ अकूत
वि० [सं० अ+ हिं० कूतना] जो कूता न जा सके । जिसकी गिनती या परिमाण न बतलाया जा सके । बेअंदाज । अपरि मित । अगणित । उ०—धन्य भूमि, ब्रजबासी धनि धनि, आनँद करत अकूत ।—सूर०, १० ।३६ ।
⋙ अकूपार
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । २. वह कच्छप जो पृथ्वी के नीचे माना जाता है । बड़ा कढ़ कछुआ । ३. पत्थर या चट्टान । ४. सूर्य (को०) ।
⋙ अकूपार (२)
वि० १. अच्छे परिणाम या फल से युक्त । शुभ परिणाम वाला (को०) । २. असीम । अपरिमित (को०) ।
⋙ अकूफ पु
संज्ञा पुं० [अ० बुकूफ] ज्ञान । बुद्धि । समझ । उ०—तिल में घास केहु नहिं जाना । कोई अकूफ ही सो पहचाना ।— संत० दरिया, पृ० ४१ ।
⋙ अकूर पु
संज्ञा पुं० दे० 'अकुर' । उ०—पुनि यहै अकूरं नाही ऊरं प्रेम हिलूरं बरषाशी ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० २४१ ।
⋙ अकूर्च (१)
वि० [सं०] १. कपट या धोखा न करनेवाला । अबपटी । २. गंजा । खल्वाट । ३. जिसे दाढ़ी न हो [को०] ।
⋙ अकूर्च (२)
संज्ञा पुं० बुद्ध [को०] ।
⋙ अकूल
वि० [सं० अ+कुल] १. जिसका किनारा या ओर छोर न हो । उ०—आकुल अकूल बनने आती, अब तक तो है वह आती ।—लहर, पृ० १३ । २. अनंत । असीम । उ०—साथी मै हो गया अकूल का, भूल गया निज सीमा ।—अनामिका, पृ० ६९ ।
⋙ अकूवार
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे० 'अकूपार' [को०] ।
⋙ अकूहल पु
वि० [देश०] बहुत अधिक । असंख्य । उ०—खेलत हँसत करत कौतूहल । जुरे लोग जहाँ तहाँ अकूहल ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ अकृच्छ्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्लेश का अभाव । २. आसानी । सुगमता । असंकोच ।
⋙ अकृच्छ्र (२)
वि० १. क्लेशशून्य । जिसे किसी प्रकार का संकोच या कष्ट न हो । २. आसान । सुगम ।
⋙ अकृच्छ्री
वि० [सं०] कठिनाई और भय या घबराहट से मुक्त । क्लेश- विहीन [को०] ।
⋙ अकृत (१)
वि० [सं०] १. बिना किया हुआ । असंपादित । २. अन्यथा किया हुआ । अंडबँड किया हुआ । बिगाड़ा हुआ । ३. जो किसी का बनाया न हो । नित्य । स्वयंभू । ४. प्राकृतिक । ५. जिसकी कुछ करनी करतूत न हो । निकम्मा । बेकाम । कर्महीन । बरा । मंद । उ०—नाहिं मेरे और कोउ बलि, चरन कमल बिनठाउँ । हौं अँसौच, अकृत, अपराधी संमख होत लजाउँ ।— सूर (शब्द०) । ६. कच्चा । अपक्व (भोजन) (को०) । ७. अविकसित । जो विकसित न हो (को०) ।
⋙ अकृत (२)
संज्ञा पुं० १. कारण ।२. मोक्ष । ३. स्वभाव । प्रकृति । ४. जो पूर्ण न किया गया हो । अधूरा या अपूर्ण कार्य (को०) ।
⋙ अकृतकार
क्रि० वि० ऐसे ढंग से जो पहले न किया गया हो [को०] ।
⋙ अकृतकार्य
वि० [सं० अ+ कृतकार्य = सफल] असफल । विफल । उ०—'चाबी मुझे कहीं मिली नहीं । अकृतकार्य होकर मैं बैचैन हो आई' ।—सुखदा, पृ० १९९ ।
⋙ अकृतकाल
वि० [सं०] आधि या गिरवी के दो भेदों में से एक । जिसके लिये काल नियत न हो । जिसके लिये कोई समय या मियाद न बाँधी गई हो । बोमियाद । विशेष—धर्मशास्त्र में आधिया गिरवी के दो भेद किए गए गए हैं जिसमें एक अकृतकाल है अर्थात् जिसका रखानेवाला वस्तु के छुड़ाने के लिये कोई अवधि नहीं बाँधता । गैरमियादी (रेहन) ।
⋙ अकृतचिकीर्षा (संधि)
संज्ञा स्त्री० [सं०] साम आदि उपायों से नई संधि करना तथा उसमें छोटे, और बड़े समान राजाऔं के अधिकारों का उचित ध्यान रखना ।
⋙ अकृतज्ञ
वि० [सं०] १. जो कृतज्ञ न हो । किए हुए उपकारी को जो न माने । कृतघ्न । नाशुकरा । २. अधम । नीच । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ अकृतज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपकार न मानने का भाव । कृतघ्नता । नाशुकरापन । क्रि० प्र०—करना—होना ।
⋙ अकृतधी
वि० [सं०] अपरिपक्व बुद्धिवाला [को०] ।
⋙ अकृतबुद्धि
वि० [सं०] अनजान । अज्ञ । अपरिपक्व बुद्धि । उ०— असहाय (सहायकों—मंत्रियों—से रहित); मूढ़, लुब्ध, अकृतबुद्धि और विषयासक्त (राजा) उस (दंड) का न्याय में संचालन नहीं कर सकता' ।—भा० इ० रू०, पृ० ९९५ ।
⋙ अकृतबुद्धित्व
संज्ञा पुं० [सं०] अज्ञान । अज्ञता [को०] ।
⋙ अकृतव्रण
वि० [सं०] जिसे घाव या व्रण न हो [को०] ।
⋙ अकृतशुल्क
वि० [सं०] १. जिसने महसूल या चुंगी न दी हो । २. जिसपर महसूल न लगा हो (माल) ।
⋙ अकृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह लड़की जो पुत्र के अधिकारवाली मान ली गई हो ।
⋙ अकृतात्मा
वि० [सं०] अपरिपक्व मतिवाला । अज्ञ । असंयत । उ०—'दंड का बड़ा तेज है, अकृतात्मा उसे धारण नहीं कर पाते' ।—भा० ई० रू०, पृ० ९९५ । २. ब्रह्म को न जानने— वाला । जो ब्रह्मज्ञ न हो (को०) ।
⋙ अकृताभ्यागम
संज्ञा पुं० [सं०] बिना किए हुए कर्मफल की प्राप्ति । विशेष—न्याय या तर्कशास्त्र में यह दोष माना गया है ।
⋙ अकृतार्थ
वि० [सं०] १. जिसका कार्य न हुआ हो । जिसका कार्य पूरा न हुआ हो । अकृतकार्य । २. जिसको कुछ फल न मिला हो । फल से वंचित । फलरहित । ३. कार्य में अदक्ष । अपटु । अकुशल ।
⋙ अकृतार्थता
संज्ञा स्त्री० [सं०] असफलता । विफलता । उ०—'असत- र्कता कलालक्ष्मी का अपमान करती है और कलालक्ष्मी उसका बदला अकृतार्थता देकर लेती है ।'—टैगोर०, पृ० ४१ ।
⋙ अकृतास्त्र
वि० [सं०] जो अस्त्र का प्रयोग करने में कुशल न हो [को०] ।
⋙ अकृतित्व
संज्ञा पुं० [सं०] अकर्मण्यता [को०] ।
⋙ अकृती (१)
वि० [सं० अकृतिन्] [स्त्री० अकृतिनी] काम न करने योग्य । निकम्मा । उ०—कहाँ जायँ, क्या करें अभागे अकृती अब ये?—साकेत, पृ० ४०५ ।
⋙ अकृती (२)
संज्ञा पुं० वह आदमी जो किसी काम लायक न हो । निकम्मा मनुष्य ।
⋙ अकृतैनस्
वि० [सं०] निष्पाप । निरपराध [को०] ।
⋙ अकृतोद्वाह
वि० [सं०] अविवाहित [को०] ।
⋙ अकृत्त
वि० [सं०] जो कटा न हो । जिसमें कोई काट छाँट न की गई हो [को०] ।
⋙ अकृत्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बुरा काम । अपराध ।
⋙ अकृत्य (२)
वि० जो करने योग्य न हो । अकरणीय [को०] ।
⋙ अकृत्यकारी
वि० [सं०] अकृत्य करनेवाला । दुष्कर्मी [को०] ।
⋙ अकृत्रिम
वि० [सं०] १. अपने आप उत्पन्न । प्रकृतिसिद्ध । बे बना- वटी । प्राकृतिक । नैसर्गिक । स्वाभाविक । २. असली । सच्चा । यथार्थ । वास्तविक । ३. हार्दिक । आंतरिक । जैसे—'हमारा उसके ऊपर अकृत्रिम प्रेम है ।' (शब्द०) ।
⋙ अकृत्स्न
वि० [सं०] जो पूरा या समग्र न हो । अपूर्ण [को०] ।
⋙ अकृप
वि० [सं०] कृपारहित । निर्दय । निष्ठुर [को०] ।
⋙ अकृपण
वि० [सं०] जो कृपण या कंजूस न हो । उदार [को०] ।
⋙ अकृपणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृपणता का अभाव । उदारता [को०] ।
⋙ अकृपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृपा का अभाव । कोप । क्रोध । नाराजी । उ०—'पशिच्मोत्तर प्रदेश पर अधिकतर परमेश्वर की अकृपा प्रतीत होती है' ।—प्रेमघन०, भा०२, प० ५१ ।
⋙ अकृपालु
संज्ञा पुं० [सं० अ+ कृपालु] जो कृपालु न हो । कृपारहित । निर्दय । उ०—दीनबंधु दूसरो कहँ पावों? प्रभु अकृपाल, कृपाल, अलायक जहँ जहँ चितहिं डोलावों ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५४७ ।
⋙ अकृश
वि० [सं०] कृश राहित । स्वस्थ । भरापूरा । उ०— जीवन में पुलकित प्रणय सदृश, यौवन की पहली कांति अकृश ।—झरना, पृ० १० ।
⋙ अकृशलक्ष्मी (१)
वि० [सं०] प्रभूत लक्ष्मीवाल । समृद्ध । संपन्न । वैभवशाली [को०] ।
⋙ अकृशलक्ष्मी (२)
संज्ञा स्त्री० अत्यधिक समृद्धि या ऐश्वर्य [को०] ।
⋙ अकृषीवल
वि० [सं०] जो खेतिहर न हो । गैर किसान । कृषकेतर [को०] ।
⋙ अकृष्ट (१)
वि० [सं०] १. जो जुता न हो । जो खींचा न गया हो । जो जोता न गया हो [को०] ।
⋙ अकृष्ट (२)
संज्ञा पुं० वह भूमि जो जोती न जाती हो । परती भूमि [को०] ।
⋙ अकृष्टपच्य
वि० [सं०] [स्त्री० अकृष्टपच्या] विना जोती हुई भूमि में पैदा होने ओर पक जानेवाला । जो बिना जोते पैदा हो । उ०—फसलें दो प्रकार की थी, कृष्टपच्य जो खोती से उत्पन्न हों, अकृष्टपच्य जैसे नीवार आदि जंगली धान्य ।—पाणिनि०, पृ० २०५ ।
⋙ अकृष्टपच्या
वि० [सं०] १. (विशेषचः भूमि) जो बिना जोते हुए धान्य, फल आदि पैदा करे । २. अत्यधिक उपजवाली । बहुत उपजाऊ [को०] ।
⋙ अकृष्टरोही
वि० [सं०] अकृष्ट या परती भूमि में स्वतः उगने या अकुरित होनेवाला [को०] ।
⋙ अकृष्ण (१)
वि० [सं०] १. जो कृप्ण या काला न हो । श्वेत । सफेद २. शुद्ध । निर्मल [को०] ।
⋙ अकृष्ण (२)
संज्ञा पुं० निष्कलंक चाँद [को०] ।
⋙ अकृष्णकर्मा
वि० [सं०] काला (पाप) कर्म न करनेवाला । निर्दोष । निरपराध । निष्पाप । पुण्यात्मा [को०] ।
⋙ अकेतन
वि० [सं०] बिना घरबार का । खान बदोश । बेठिकाना ।
⋙ अकेतु
वि० [सं०] १. जिसका कोई चिह्न न हो । आकारशून्य । २. अपरिचेय । जिसकी पहचान न हो सके [को०] ।
⋙ अकेल पु
वि० दे० 'अकेला' । उ०—रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न नाहु ।—मानस, १ ।१७० ।
⋙ अकेला (१)
वि० [सं० एकल; प्रा० अक्केल्लय, एकल्लप] [स्त्री० अकेली] जिसके साथ कोई न हो बिना साथी का । दुकेले का उलटा । एकाकी । तनहा; जैसे—'वह अकेला आदमी इतनी चीजैं कैसे ले जायेगा' (शब्द०) । उ०—मै अकेला, देखता हूँ आ रही मेरे दिवस की साध्य वेला ।—अणिमा, पृ० २० । मुहा०—अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता = एकाकी या अकेले व्यक्ति द्वारा बड़ा काम न होना । अकेला हँसता भला न रोता = एकाकी या त्नहा किसी प्रकार बात न बन पड़ना । २. अद्वितीय । यक्ताँ । निराला; जैसे—'वह इस हुनर में अकेला है' ।—(शब्द) । । यौ०—अकेला दम = एक ही प्राणी । बिलकुल एकाकी । जैसे— 'हमारा तो अकेला व्म है, जब तक जाते है खर्च करते है ।'— (शब्द०) । अकेला दुकेला = (१) एक या दो । इक्का दुक्का । (२) एकाकी ।
⋙ अकेला (२)
संज्ञा पुं० निराला । एकांत । शून्य स्थान । निर्जन स्थान; जैसे—'वह तुम्हैं अकेले में पावेग तो जरूर मारेगा' (शब्द०) ।
⋙ अकेली
वि० स्त्री० १. दे० 'अकेला—, १' । उ०—अकेली भूलि परी बन माहिँ ।—सूर०, १० ।११०४ । २. केवल । सिर्फ । मात्र । उ०—इंद्रिय सहित चित्त हू लै गइ रही अकेली हमहीं ।— सूर०, १० ।२०९६ । मुहा०—अकेली लकड़ी भी नही जलती = अकेले कोई भी काम नहीं हो सकता । यौ०—अकेली कहानी = एक पक्ष की ओर से किसी ऐसे समय कही गई बात जब उसको काटनेवाला दूसरे पक्ष का कोई न हो । एकतरफा बात । एकपक्षीय वार्ता; जैसे—'अकेली कहानी गुड़ से मीठी' (शब्द०) । अकेली दुकली = दे० 'अकेला दुकेला', जैसे—कोई अकेली दुकेली सवारी मिले तो बैठा लेना (शब्द०) अकेली जान = दे० अकेला दम' ।
⋙ अकेले
क्रि० वि० [हिं० अकेला] १. किसी साथी के बिना । एकाकी । आप ही आप । तनहा । उ०—अदेखे अकेले । किते दिन ह्वै गए, चाह गई चित सो काढ़ि सोऊ ।—ठाकुर० पृ०७ । २ मात्र । सिर्फ । केवल; जैसे—'अकेले चिट्ठी लिखने से काम न चलेगा' (शब्द०) । यौ०—अकेले अकेले = अलग अलग । उ०—बिना समाजबद्ध हुए देश की दशा सुधारने का प्रयत्न अकेले अकेले व्यर्थ होगा' — प्रेमघन० भा०२, प० २७१ । अकेले दम = दे० 'अकेल दम'; जैसे—'हम तो अकेले दम है, चाहे जहाँ रहैँ' (शब्द०) । अकेले दुकेले = दे० अकेला दुकेला' । उ०—किंतु जहाँ अकेले दुकेले या थोड़े आदमी कोई नया धंधा अख्तियार करते.....'— भा० इ० रू० पृ० १०२१ ।
⋙ अकेश
वि० [सं०] १. बिना केश का । केशरहित । २. अल्पकेश । थोड़े केशवाला । ३. बुरे या असुंदर बालोँवाला [को०] ।
⋙ अकेहरा †
वि० दे० 'एकहरा' ।
⋙ अकैतव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कपट का अभाव । निष्कपटता । सिधाई ।
⋙ अकैतव
वि० कपटरहित । सीधा । छलहीन [को०] ।
⋙ अकैया †
संज्ञा पुं० [सं० अक्ष = प्रा० अक्ख, अक्क, हिं० अक+ऐया (प्रत्य०)] वस्तु लादने के लिये थैला या टोकरा । खुरजी । गोन । कजावा ।
⋙ अकोट (१) पु
वि० [सं० कोटि] करोड़ों । असंख्य । उ०—बाजे तबल अकोट जुझाऊ । चढ़ा कोप सब राजा राऊ ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अकोट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पुंगीफल का वृक्ष या सुपारी [को०] ।
⋙ अकोढ़ई †
संज्ञा स्त्री० [सं० अकठोर = सरल,+ई (हिं० प्रत्य०)] वह भूमि जो सींचने से बहुत जल्दी भर जाती है । वह भूमि जिसमें पानी ठहरा रहता है ।
⋙ अकोतरसौ (१) पु
वि० [सं० एकोत्तरशत] सौ के ऊपर । एक सौ एक । उ०—खँड़रा खाँड जो खड़े खंड़े । बरी अकोतर सौ कह हंडै ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ अकोतरसौ (२) पु
संज्ञा पुं० एक सौ एक की संख्या—१०१ ।
⋙ अकोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोप का अभाव । प्रसन्नता । खुशी । २. राजा दशरथ के आठ मंत्रियों में से एक ।
⋙ अकोपन
वि० पुं० [सं०] [ स्त्री० अकोपना] क्रोध से रहित । अक्रोधी [को०] ।
⋙ अकोप्यापणयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिक्कों का चलन । सिक्के के चलने में किसी प्रकार की रुकावट न होना ।
⋙ अकोबिद पु
वि० दे० 'अकोविद' । उ०—अज्ञ अकोबिद अंध अभागी । काई बिषय मुकुर मन लागी ।—मानस, १ ।११५ ।
⋙ अकोर पु
संज्ञा पुं० [सं० क्रोड, प्रा० कोड>हिं० अकोर अथवा सं० अङ्कक्रोड, प्रा० अँककोड, अंककोर> हिं० अँकोर, अकोर] १ आलिंगन । अँकवारा । उ०—पान करत कहुँ तप्ति न मानत पलकनि देत अकोर ।—सूर०, १० । १७६१ । २. भेंट । नजर । उपहार, उ०—माया प्रान अकोर देकर सतगुरु पूरा ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ३७ । ३. रिश्वत । घूस । उ०—फूले फिरत दिखावत औरन निडर भये दे हँसनि अकोर ।—सूर० (राधा०), २१३१ ।
⋙ अकोरना पु
क्रि० स० [हिं० अकोर से नाम०] आलिंगन करना । उ०—मौन भली कहि कौन सकै घन आनंद जान सु नाक सकोरै । रीझ बिलोइए डारति है हिय, मोहति टोहति थारी अकोरै ।—घनानंद, पृ० ५७ ।
⋙ अकोरी पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँकवारी' । उ०—यहि ते जो नेक लबु- धिर्या री । गहत सोई जा समात अकोरी ।—सूर० (राधा०), ३३४५ ।
⋙ अकोल पु
संज्ञा पुं० [हिं० अकोर] भेंट । नजर । उपहार । उ०— अछै रंग में रंगिया दीन्ह्यो प्रान अकोल ।—संतबानी०, भा०१, पृ० १४० ।
⋙ अकोला (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कोल] अँकोल का पेड़ ।
⋙ अकोला (२)
संज्ञा पुं० [सं अग्र, प्रा० अगर, अकर>हिं० अकोर अथवा सं० कोटि प्रा० कोर>हिं० अकोर, अकोला] ऊख के सिरे पर की पत्ती । अँगारी, अकोला । अगौला । गेंड़ा ।
⋙ अकोविद
वि० [सं०] जो जानकर न हो । मूर्ख । अज्ञानी । अनाड़ी ।
⋙ अकोसना †पु
क्रि० स० [सं० अक्रोशन; प्रा० अक्कोस] बुरा भला कहना । गालियाँ देना । कोसना ।
⋙ अकौआ †
संज्ञा पुं० [सं० अर्क; प्रा० अक्क+ औआ (वा) (प्रत्य०)] १. मदार । आक । २. ललरी । घंटी । कौआ ।
⋙ अकौटा †
संज्ञा पुं० [सं० अक्ष, प्रा० अक्ख, अक्क अक = धुरा+ अटन = घूमना] डंडा जिस पर गड़ारी घूमती है । धुरा ।
⋙ अकौटिल्य
संज्ञा पुं० [सं०] कुटिलता का अभाव । निष्कपटता । सिधाई । सरलता ।
⋙ अकौता †
संज्ञा पुं० [हिं० उकवत] दे० 'उकवत' ।
⋙ अकौवा †
संज्ञा पुं० [हिं० अकौवा] दे० 'अकौआ' ।
⋙ अकौशल
संज्ञा पुं० [सं०] कुशलता या दक्षता का अभाव । अद- क्षता [को०] ।
⋙ अक्क (१) पु
संज्ञा पं० [सं० अर्क प्रा० अक्क] १. सूर्य । रवि । उ०— गतिधीर धीर वह चली सेन, रजरंजित अंबर अक्क ऐन ।—सुजान०, पृ० १८ । २. आक । मदार । उ०—दहिसी गात कुवाँरियाँ, थल जाली वलि अक्क ।—ढोला०, दू० २८९ ।
⋙ अक्क (२)
संज्ञा पुं० [सं०] घर का कोना [को०] ।
⋙ अक्क (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अक्का (माँ) का संबोधन रूप; जैसे— 'हे अक्क' ।
⋙ अक्का (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] माता । माँ ।
⋙ अक्का (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] बहन [को०] ।
⋙ अक्कास
संज्ञा पुं० [अ०] चित्रकार । फोटाग्राफर [को०] ।
⋙ अक्कासी (१)
वि० [ अ०] चित्तकारी । चित्र उतारना [को०] ।
⋙ अक्कासी (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अकास] वह डाल जो नीचे झुकी हुई हो । उ०—अक्कासी आती हुई देखकर, रामलाल बोले एक डंड़े से टेककर ।—कुकुर०, पृ० ५५ ।
⋙ अक्कित्त पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अकीर्ति] अकीर्ति । अपयश । उ०— अकिक्त्त राह पच्छै फिरग । चक्र तेग सद्धिय सुबुधि ।— पृ० रा०, २५ । ३३५ ।
⋙ अक्किल †
संज्ञा स्त्री० [अ० अक्ल हिं० अकिल] दे० 'अक्ल' । उ०—मेरी बिटिया के कुछ अक्किल नहीं है । बड़ी सीधी है ।—दहकते०, पृ० ७९ ।
⋙ अक्के दुक्के †
क्रि० वि० दे० 'इक्के दुबके' ।
⋙ अक्ख पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्ष; प्रा० अक्ख] आँख । नेत्र । उ०— जो कोई मेरे बच्चे को तक्के । उसकी फूटें दोनों अक्के (शब्द०) ।
⋙ अक्खड़
वि० [सं० अक्षर = न टलेनवाला । डटा रहनेवाला; प्रा० अक्खड़] १. न मुड़नेवाला । अड़नेवाला । किसी का कहना न माननेवाला । उग्र । उद्धत । उच्छृंखल । २. बिगड़ैल । झग- डालू । ३. निःशंक । निर्भय । बेडर । उ०—'कंही बनारसी गुंड़े और अक्खड़ों की बोली ठोलियाँ उड़तीं' ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११४ । ४. असभ्य । अशिष्ट । दुःशील । ५. उजड्ड । अनगढ़ । जड़ मूर्ख । ६. जिसे कुछ कहने या करने में संकोच न हो । स्पष्टवक्ता । खरा ।
⋙ अकखड़पन
संज्ञा पुं० [हिं० अकखड़+ पन (प्रत्य०)] १ अक्खड़ होने का भाव । अशिष्टता । असभ्यता । दुःशीलता । उच्छृं- खलता । २. जड़ता । उजड्डपन । अनगढ़पना । ३. उग्रता । कड़ाई । उध्दतपन । कलहप्रियता । ४. निःशंकता । निर्भयता । स्पष्टवादिता । खरापन ।
⋙ अक्खाना पु
क्रि० स० [सं० अख्यान, प्रा० अक्खाण, पं० आखना] कहना । बोलना । उ०—जो उपजै यहि बार सोई प्रभु आपनु अक्खिय—हम्मीर रा०, पृ० ६४ ।
⋙ अक्खर पु
संज्ञा पुं० [सं० अक्षर; प्रा० अक्खर] अक्षर । हरफ । वर्ण । उ०—अक्खर आवै जाय अखर को ताहिं ठिकाना ।— पलटू० पृ० ११० ।
⋙ अक्खरिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षरिका] एक प्रकार की क्रीड़ा या खेल । उ०—'बोद्धों के शील' ग्रंथ में बोद्ध साधुओं के लिये जिन जिन बातों का निषेध किया गया है, उनमें अक्खरिका नामक खेल भी शामिल है' ।—भा० प्रा० लि०, पृ० ४ ।
⋙ अक्खा
संज्ञा पुं० [सं० √ अक्ष = संग्रह करना] टाट या कंबल का दोहरा थैला जो अनाज आदि लादने के लिये घोड़ों या बैलों की पीठ पर रखा जाता है । खुरजी । गोन । अकैया ।
⋙ अक्खोमक्खो
संज्ञा पुं० [सं० अक्षि+ मुख प्रा० अक्ख+ मुख, पु अक्खोमक्खो] दिपक की लौ तक हाथ ले जाकर बच्चे के मुहँ पर फेरना ताकि उसे कुदृष्टि न लगे । विशेष—बुरी नजर से बचाने के लिये स्त्रियाँ संध्या के समय छोटे बच्चों के चेहरे पर इस प्रकार हाथ फेरती हुई कहती है— 'अक्खो मक्खो दिया बरक्खो' । जो कोई मेरे बच्चे को तक्के उसकी फूटें दोनों अक्खें,' इत्यादि ।
⋙ अक्टोबर
संज्ञा पुं० [अं०] अंग्रेजी वर्ष का दसवाँ महीना जो कुआर में पड़ता है । विशेष—पहले यह वर्ष का आठवाँ मास था । रोमन सम्राटों के नाम से जुलाई और अगस्त के दो मास और जुड़ जाने से यह दसवाँ महीना हुआ ।
⋙ अक्त
वि० [सं०] १. व्याप्त । संकुल । २ लिप्त । लिया हुआ । ३. भरा हुआ । परिपूर्ण । ४. संयुक्त । युक्त । सहित । ५. सफल । ६. रँगा हुआ । ७. गत (को०) ८. अंजनयुक्त (को०) । ९. स्पष्ट किया हुआ (को०) । १०. चलने के लिये प्रेरित किया हुआ । चलाया हुआ (को०) । विशेष—यह शब्द प्रत्यय की भाँति शब्दों के पीछे जोड़ा जाता है; जैसे, विषाक्त, रक्ताक्त ।
⋙ अक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात्रि [को०] ।
⋙ अक्तूबर
संज्ञा पु० [हिं०] दे० 'अक्टोबर'
⋙ अक्तु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंधकार । २. रात्रि । ३. प्रकाश । किरण । ४. मलहम [को०] ।
⋙ अक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] कवच । वर्म [को०] ।
⋙ अक्दे
संज्ञा पुं० [अ० अक्द] १. विवाह । पाणिग्रहण । २. गाँठ । ग्रंथि । ३. वचन । प्रतिज्ञा । इकरार [को०] ।
⋙ अक्दनामा
संज्ञा पुं० [अ०अक्द+फा० नामा] १. विवाह का प्रतिज्ञापत्र । इकरारनामा [को०] ।
⋙ अक्दबंदी
संज्ञा स्त्री० [अ० अक्द+ फा० बंदी] विवाहसूत्र में बँधना [को०] ।
⋙ अक्र (१)
वि० [सं०] १. स्थिर । निष्क्रिय । अकर्मण्य । २. अहितकर । अलाभकर [को०] ।
⋙ अक्र (२)
संज्ञा पुं० १. झंड़ा । पताका । २. प्राचीर । प्राकार [को०] ।
⋙ अक्रतु
वि० [सं०] १. क्रतु से रहित । यज्ञविहीन । २. शक्तिहीन । बलरहित । ३.मूर्ख । अज्ञ । ४. इच्छारहित । संकल्प रहित [को०] ।
⋙ अक्रम (१)
वि० [सं०] १. क्रमरहित । बिना क्रम का । अंडबंड । उलटा सीधा । बेतरतीबा । बेसिलसिले । २. गतिहीन । पादशून्य (को०) ।
⋙ अक्रम (२)
संज्ञा पुं० १. क्रम का अभाव । व्यतिक्रम । विपर्यय । अव्यवस्था । बेतरतीबी । २. गति का अभाव । गतिहीनता [को०] ।
⋙ अक्रम (३)पु
संज्ञा पुं० दे० 'अकर्म' ।
⋙ अक्रमसंन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] दो प्रकार के सन्यासों में से एक ।वह संन्यास जो क्रम से ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ के पीछे न लिया गया हो वरन् बीच हो में धारण किया गया हो ।
⋙ अक्रमातिशयोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिशयोक्ति नामक अलंकार का एक भेद जिसमें कारण के साथ ही कार्य हो; जैसे— उठयों संग गज कर कमल चक्र चक्रधर हाथ । कर तैं चक्र सु नक्र सिर धरतै बिलग्यो साथ (शब्द०) ।
⋙ अक्रव्याद
वि० [सं०] १. निरामिष भोजी । जो मांसाहारी न हो । २. राक्षसेतर [को०] ।
⋙ अक्रांत
वि० [सं० अक्रान्न] १. अपराजित । अविजित ।२. जो दुहरा न हो [को०] ।
⋙ अक्रांता
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्रान्ता] कंटकारी । बुहती । भटकैटया का पौधा [को०] ।
⋙ अक्रित पु
वि० [सं० अकृत] दे० 'अकृत' ।
⋙ अक्रिय
वि० [सं०] १. क्रियारहित । जो कर्म न करे । व्यापार- रहित । २. चेष्टारहित । निश्चोट जड़ । स्तब्ध । ३. निकम्मा । बेकार (को०) । क्रि० प्र०—करना—होना ।
⋙ अक्रियता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रिया या कर्म का अभाव । २. कर्म- कांड का अभाव [को०] ।
⋙ अक्रियवाद
संज्ञा पुं० [सं० अक्रिय+ वाद] यज्ञादि क्रियाओं का कुछ फल न माननेवाला सिद्धांत । उ०—मै तो तीर्थकर पूरण कश्यप के सिद्धांत अक्रियवाद को मानता हूँ ।—इंद्र०, पृ० १३० ।
⋙ अक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निष्क्रियता । कर्मशून्यता । २. कर्तव्य या कार्य की उपेक्षा [को०] ।
⋙ अक्रियवाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्रियवाद' । उ०—वे अक्रियवाद मत या अकर्म के प्रचारक थे ।—हिंदु० सभ्यता, प० २१६ ।
⋙ अक्री पु
वि० [सं० अक्रिय] दे० 'अक्रिय' ।
⋙ अक्रूर (१)
वि० [सं०] जो क्रुर न हो । सरल । दयालु । सुशील कोमल ।
⋙ अक्रूर (२)
संज्ञा पुं० शवफल्क और गांदिनी का पुत्र एक यादव । विशेष—यह श्रीकृष्ण का चाचा लगता था । इसी के साथ कृष्ण और बलदेव मथुरा गए थे । सत्रजित का स्यमंतक मणि लेकर यह काशी चला गया था ।
⋙ अक्रोध (१)
वि० [सं०] क्रोधविहीन । कोपरहित [को०] ।
⋙ अक्रोध (२)
संज्ञा पुं० १. क्रोध का अभाव । २. धर्म के १० लक्षणों में एक [को०] ।
⋙ अक्रोधन (१)
वि० [सं०] क्रोध न करनेवाला । कोपरहित [को०] ।
⋙ अक्रोधन (२)
संज्ञा पुं० आयुतायु का पुत्र एक राजा [को०] ।
⋙ अक्ल
संज्ञा स्त्री० [अ० अक्ल] बुद्धि । समझ । सूझबूझ । ज्ञान । प्रज्ञा । उ०—मै तो दिवाना था उसकी अक्ल को क्या हो गया ।—शेर०, भा० १, पृ० ४५१ । २. चतुरता । होशियारी (को०) । ३. विवेक । तमीज (को०) । क्रि० प्र०—आना ।—खोना ।—गँवाना ।—जाना ।—देना ।—पाना ।—रहना ।—होना । मुहा०—अक्ल आना = (१) समझ का आना । (२) सही रास्ते पर आना । अक्ल उड़ जाना = (१) समझ में न आना । अक्ल काम न देना । (२) घबरा जाना । अक्ल उड़ाना = (१) हैरान करना । (२) त्रस्त करना । अक्ल उलटी होना = (१) मूर्ख या नासमझ होना । (२) कुछ का कुछ समझना । अक्ल औंधी होना = दे० 'अक्ल उल्टी होना । अक्ल का अंधा = अत्यंत मूर्ख' । अक्ल का काम न करना = समझ में न आना । कर्तव्य—ज्ञान—शून्य होना । उ०—'महरी' हुजूर अक्ल नहीं काम करती' ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १ । अक्ल का चक्कर में आना = (१) घबराना । (२) विस्मित होना । अक्ल का चरने जाना = (१) समझ जाती रहना । (२) बदहवास होना । अक्ल का चिराग गुल होना = समझ में फर्क आना । अक्ल का दुश्मन = अत्यंत मूर्ख । बुद्धिविरोधी काम करनेवाला । अक्ल का पुतला = बहुत बुद्धिमान या ज्ञानी । उ०—बस, सारी बात यह है कि यह लाग अक्ल के पुतले हैं । कोई शै दुनियाँ के पर्दे पर ऐसी नही जिससे यह वाकिफन हों ।—फिसाना० भा०३, पृ० १७ । अक्ल का पूरा = बुद्धू । मूर्ख । (व्यंग्य) । अक्ल का मारा = बहुत ही मूर्ख । अक्ल की कोताही = बुद्धिहीनता । मूर्खता । अक्ल की मार = बेबकूफी । अक्ल के घोड़े दौड़ाना = (१) बहुत सोचना या विचार करना । (२) ख्याली पुलाव पकाना । अक्ल के तोते उड़ना = होश ठिकाने न रहना । घबरा जाना । अक्ल के पीछे लट्ठ लिए फिरना = बुद्धिविरोधी काम करना । अक्ल के बखिए उधेड़ना = अक्ल गँवा देना । अक्ल के होश उड़ना = दे० 'अक्ल' के तोते उड़ना' । उ०—'और मुकाम बुलंद इस कदर कि अक्ल का होश उड़ते है' ।—फिसाना०, भा०३, पृ० २१३ । अक्ल को रोना = नासमझी पर अफसोस करना । उ—'अक्ल को तो हुस्नआरा रो चुकी' ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३२० । अक्ल खर्च करना = सोचने समझने की कोशिश करना । अक्ल गुम होना = होशहवाश जाते रहना । अक्ल गुद्दी में होना = बेवकूफ या कमअक्ल होना । अक्ल छू जाना = थोड़ी सी समझ होना । अबल जाती रहना = दे० 'अक्ल जाना' । अक्ल जाना = (१) समझ न रहना । (२) घबरा जाना । अक्ल ठिकाने रहना = होशहवास दुरुस्त होना । उ०—अब मैं, उसका समझाऊँ कि बहन अक्ल ठिकाने किसकी है' ।—फिसाना०, भा०३, पृ० ३२० । अक्ल ठिकाने न रहना = होश दुरुस्त न रहना । अक्ल ठीक करना = शक्ति या नीति द्वारा किसी का गर्व तोड़ना । अक्ल दंग होना = दे० 'अक्ल हैरान होना' । उ०—'बेगम' अक्ल दंग है ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ५ । अक्ल देना = सीख देना समझाना बुझाना । अक्ल दौड़ाना = सोच विचार करना । जुगत बैठना । अक्ल पर झाडू फेरना = नासमझी का व्यवहार करना । अक्ल पर पत्थर पड़ना = निहा- यत बेअक्ल होना । अक्ल पर पर्दा पड़ना = समझ जाती रहना । उ०—पूछा जो उनसे आपका पर्दा वो क्या हुआ, कहने लगी कि अक्ल पै मर्दों के पड़ गया ।—कविता कौ० भा० ४, पृ० ६३१ । अक्ल भिड़ाना = दे० 'अक्ल दौड़ाना' । अक्ल मारी जाना = बुद्धि बेकार होना । अक्ल रफूचक्कर होना = अक्ल का काम न करना । अक्ल लड़ाना = दे० 'अक्ल दौड़ाना' । अक्ल सठीयाना = बुद्धि भ्रष्ट हो जाना; जैसे—'इस बुडढ़े कीअक्ल तो सठिया गई है?'—(शब्द०) । विशेष—ऐसा कहते हैं के साठ वर्ष बाद मनुष्य की बुद्धि जीर्ण या बेकाम हो जाती है । अक्ल से दूर होना = समझ या बुद्धि से बाहर होना । 'अक्ल से बाहर होना = दे० 'अक्ल से दुर होना' । यौ०—अक्ले इंसानी = मनुष्य की बुद्धि । अक्ले कुल = (१) देवदूत । फरिश्ता । (२) मूर्ख । घामड़ (व्यंग्य) । अक्ले सलीम = संतुलित बुद्धि । सदबुद्धि । अक्ले हैवानी = पशुतुल्य बुद्धि । पशुबुद्धि ।
⋙ अक्लमंद
संज्ञा [अ० अक्ल+फा० मंद] बुद्धिमान् । चतुर । सयाना । विज्ञ । समझदार । होशियार । मुहा०—अकलमंद की दुम = मूर्ख (व्यंग्य) ।
⋙ अक्लमंदी
संज्ञा स्त्री० [अं० अक्ल+ फा० मंदी] बुद्धिमानी । समझदारी । चतुराई । सयानापन । विज्ञता ।
⋙ अक्लम (१)
वि० [सं०] जो थका न हो । अक्लांत । उ०—लाज का आज भूषण, अक्लम नारी का ।—तुलसी०, पृ० ५० ।
⋙ अक्लम (२)
संज्ञा पुं० कल्म या थकावट का अभाव [को०] ।
⋙ अक्लांत
संज्ञा वि० [सं०] १. जो थका न हो । क्लांतिरहित । उ०— भाभी की अक्लांत परिचर्या से प्रायः एक सप्ताह बाद मैं ज्वर— मुक्त हो गया' ।—जिप्सी, पृ० ५५३ ।२ । अम्लान जो मुर— झाया न हो (को०) ।
⋙ अक्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नील का पौधा [को०] ।
⋙ अक्लिन्न
वि० [सं०] जो गीला या नम न हो [को०] ।
⋙ अकिलन्नवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं०] एक नेत्ररोग जिसमें पलकें चिपक जाती है ।
⋙ अविलष्ट
वि० [सं०] १. बिना क्लेश का । कष्टरहित । २. सुगम । सहज । आसान । सरल । सीधा ।३. विवादरहित । निर्विवाद (को०) । ४. क्लांतिरहित । जिसे थकान न हो (को०) ।
⋙ अक्लिष्टकर्मा
वि० [सं०] जो कार्य करते हुए न थके [को०] ।
⋙ अक्लिष्टकारी
वि० [सं०] [स्त्री० अक्लिष्टकारिणी] दे० 'अक्लिष्टकर्मा' [को०] ।
⋙ अक्लिष्टवर्ण
वि० [सं०] जो संदेहास्पद न हो । प्रामाणिक [को०] ।
⋙ अक्लिषअटव्रत
[सं०] जो व्रत करने में न थके [को०] ।
⋙ अक्ली
वि० [अ०] १. अक्ल की । बुद्धिसगत । २. बुद्धिसंबंधी [को०] । मुहा०—क्ली गद्दा या गुददा लगाना = अटक्ल से बात करना ।
⋙ अक्लीब (१)
वि० [सं०] १. जो नपुंसक या नामर्द न हो । २. जो कायर या कम हिम्मतवाला न हो । ३. सच्चा । जो झूठा न हो [को०] ।
⋙ अक्लीब (२)
क्रि० वि० निर्भयतापूर्वक [को०] ।
⋙ अक्लेद (१)
वि० [सं०] जो आर्द्र या गीला न हो । २. अलिप्त (ला०) । उ०—'अरूप अंश, वर्णानाभेद के रखने परभी पूर्ववत् अक्लेद रहा' ।—प्रबध०, पृ० १६४ ।
⋙ अक्लेद (२)
संज्ञा पुं० गीलेपन या आर्द्रता का अभाव [को०] ।
⋙ अक्लेद्द
वि० [सं०] जो भिगोया न जा सके [को०] ।
⋙ अक्लेश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] क्लेश का अभाव । क्लेशहीनता [को०] ।
⋙ अक्लेश (२)
वि० क्लेशरहित [को०] ।
⋙ अक्षंतव्य
वि० [सं० अक्षन्तव्य] क्षमा न हो सकने योग्य । जिसे क्षमा न किया जा सके । क्षमा न करने योग्य । अक्षम्य । उ०—यह सुंदर ग्रंथावली टीका टिप्पणी, जीवनचरित्र, भूमिका, चित्रादि सहित अक्षंतव्य विलंब और दीर्घसूत्रता के साथ सामने आई है' । —सुन्दर० ग्रं०, भा० १, (भू०), पृ० २०२ ।
⋙ अक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अक्षा] १. खेलने का पासा ।२. पासों का खेल । चौसर ।३. छकड़ा । गाड़ी ।४. किसी गोल वस्त्र के बीचोबीच पिरोया हुआ वह छड़ या दंड जिसपर वह वस्तु घूमती है । धुरी ।५ पहिए की धुरी ।६ वह कल्पित स्थिर रेखा जो पृथिवी के भीतरी केंद्र से होती हुई, उसके आर पार दोनों ध्रृवों पर निकलती है और जिसपर पृथिवी घूमती हुई, मानी गई हैं ।७. तराजू की डाँड़ी ।८. व्यवहार । मामला । मुदमा ।९. इंद्रिय ।१०. तूतिया ।११ सोहागा ।१२. आँख । नेत्र । उ०—एक कह्या अनुमानि करि एक देखिए अक्ष । सुंदर अनुभव होइ जब तब देखिए प्रत्यक्ष । —सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८१४ ।१३. बहेड़ा ।१४. रुद्राक्ष ।१५ साँप ।१६. गरुड़ ।१७. आत्मा ।१८. कर्ष नाम की १६ माशे की एक तौल । १९. जन्मांध ।२०. रावण का पुंत्र अक्षयकुमार । उ० —रूख निपातत खात फल रक्षक अक्ष निपाति । —तुलसी ग्रं०, पृ० २८ ।२१. सौवर्चल या सोचर नमक (को०) ।२२. कानून (को०) ।२३. द्यूत (को०) ।२४. ज्ञान (को०) ।२५. नाप का एक मान (को०) ।२६. किसी मंदिर का निचला हिस्सा (को०) ।२७. शिव (का०) ।
⋙ अक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] तिनिश का वृक्ष [को०] ।
⋙ अक्षकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] समकोण त्रिभुज में समकोण के सामने की भुजा, विशेषतया धूपघड़ी के लिये बनी त्रिभुजाकृत कर्ण रेखा, जिसकी छाया से समय का पता लगता है (ज्यौ०) ।
⋙ अक्षकाम
वि० [सं०] जिसे द्यूतक्रीड़ा प्रिय हो । द्यूतप्रिय [को०] ।
⋙ अक्षकितव
वि० [सं०] द्यूत कुशल [को०] ।
⋙ अक्षकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] रावण का एक पुत्र जिसे हनुमान ने लंका का प्रमोदवन उजाड़ते समय मारा था ।
⋙ अक्षकुशल
वि० [सं०] जुआ खेलने में प्रवीण । द्यूतकुशल [को०] ।
⋙ अक्षकूट
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की पुलली । अक्षितारा [को०] ।
⋙ अक्षकोविद
वि० [सं०] दे० 'अक्षकुशल' [को०] ।
⋙ अक्षक्रीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पासे का खेल । चौसर । चौपड़ ।२. द्यूतक्रीड़ा [को०] ।
⋙ अक्षचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रियों का समूह [को०] ।
⋙ अक्षज
संज्ञा पुं० [सं०] १. हीरा ।२. वज्र ।३. प्रत्यक्ष ज्ञान ।४. विष्णु [को०] ।
⋙ अक्षण
वि० [सं०] असमय । अनवसर [को०] ।
⋙ अक्षणा
त्रि० वि० [सं० अक्ष्णा (अक्षि का तृतीया एक व०)] आँख द्वारा । उ०—सुनै न कान और की दृशै न और अक्षणा ।— सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २५ ।
⋙ अक्षणिक
वि० [सं०] १. दृढ़ । स्थिर । स्थायी ।२. जो क्षणिक न हो [को०] ।
⋙ अक्षत (१)
वि० [सं०] क्षत या घाव से रहित । व्रणशून्य । उ०— 'ब्राह्मण को कभी नहीं मारना पर सब धन को बचाकर अक्षत केवल राज से बाहर कर देना चाहिये' । —श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १० । २ बिना टूटा हुआ । अखड़ित । सर्वांगपूर्ण । समूचा ।
⋙ अक्षत (२)
संज्ञा पुं० १. बिना टूटा हुआ चावल जो देवताओं की पूजा में चढ़ाया जाता है ।२. धान का लावा ।३. जौ ।४. कोई भी धान्य (को०) ।५. हानि या अशुभ का अभाव, कल्याण (को०) ।६. शिव (को०) ।७. हिजड़ा (को०) ।
⋙ अक्षतत्व
संज्ञा पुं० [सं० अक्षतत्व] द्यूत । द्यूत विद्या । जुआ [को०] ।
⋙ अक्षतयोनि (१)
वि० स्त्री० [सं०] जिसका पुरुष में संसर्ग न हुआ हो ।
⋙ अक्षतयोनि (२)
संज्ञा स्त्री० १. वह कन्या जिसका पुरुष से संसर्ग न हुआ हो ।२. वह कन्या जिसका विवाह हो गया हो किंतु पति से समागम न हुआ हो ।
⋙ अक्षतवीर्य (१)
वि० [सं०] जिसका वीर्यपात न हुआ हो । जिसने स्त्री- संसर्ग न किया हो ।
⋙ अक्षतवीर्य (२)
संज्ञा पुं० १. शिव ।२. क्षयाभाव ।३ नपुंसक । पुंस्त्व- विहीन (व्यंग्य) [को०] ।
⋙ अक्षता (१)
वि० [सं०] जिसका पुरुष से संयोग न हुआ हों ।
⋙ अक्षता (२)
संज्ञा स्त्री० १. वह स्त्री जिसका पुरुष से संयोग न हुआ हो । २. धर्मशास्त्र के अनुसार वह पुनर्भू स्त्री जिसने पुनर्विवाह तक पुरुषसंयोग न किया हो ।३. काकड़ासींगी ।
⋙ अक्षत्र
वि० [सं०] १. क्षत्रियरहित ।२. राजाहीन [को०] ।
⋙ अक्षदंड
संज्ञा पुं० [सं० अक्षदण्ड] धुरी [को०] ।
⋙ अक्षदर्शक
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्माध्यक्ष । न्यायाधीश । न्यायकर्ता । २. द्यूत क्रीड़ा का निरीक्षक (को०) ।
⋙ अक्षदाय
संज्ञा पुं० [सं०] पासे को दूसरे हाथ में देना [को०] ।
⋙ अक्षदृक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षदर्शक' [को०] ।
⋙ अक्षदेवी
वि० [सं०] जूआ खेलनेवाला । जुआरी ।
⋙ अक्षद्यू
संज्ञा पुं० [सं०] द्यूत । जुआ [को०] ।
⋙ अक्षद्यूत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षद्यू' [को०] ।
⋙ अक्षद्यूतिक
संज्ञा पुं० [सं०] द्यूतक्रीड़ा में होनेवाला झगड़ा [को०] ।
⋙ अक्षद्रुग्ध
वि० [सं०] १. जुए के कारण तिरस्कृत ।२. जुए में अस- फल रहलेवाला ।३. जुए द्धारा ठगनेवाला [को०] ।
⋙ अक्षद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] धुरी का सूराख [को०] ।
⋙ अक्षधर (१)
वि० [सं०] चक्र या धुरा को धारण करनेवाला [को०] ।
⋙ अक्षधर (२)
संज्ञा पुं० १. पहिया ।२. एक वृक्ष । शाखोट । सिहोर । ३. विष्णु ।४. चक्रया पासे को धारण करनेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ अक्षधुर
संज्ञा पुं० [सं०] पहिए को धुरी ।
⋙ अक्षधूर्त
वि० [सं०] दे० 'अक्षकुशल' [को०] ।
⋙ अक्षधूर्तिल
संज्ञा पुं० [सं०] वृष । बैल [को०] ।
⋙ अक्षनैपुण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षनैपुण्य' [को०] ।
⋙ अक्षनैपुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] अक्षकुशलता । अक्षकौशल [को०] ।
⋙ अक्षपटल
संज्ञा पुं० [सं०] १. न्यायालय ।२. न्याससंबंधी कागज पत्र रखने का स्थान ।३. न्यायकर्ता । न्यायाधीश ।४. अभिलेखों (रेकार्ड़न) को सुरक्षित रखने का स्थान ।५. वह कार्यालय या स्थान जहाँ आय व्यय आदि का विवरण रखा जाय [को०] ।
⋙ अक्षपटलाधिकृत
संज्ञा पुं० [सं०] राजकीय अभिलेख पत्रादि का तथा आय व्यय आदि का निरीक्षण करनेवाला प्रधान आधिकारी [को०] ।
⋙ अक्षपटलिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षपटलाधिकृत' [को०] ।
⋙ अक्षपराजय
संज्ञा पुं० [सं०] जुए की हार । जुए में हार [को०] ।
⋙ अक्षपरि
संज्ञा पुं० [सं०] हार का पासा । पासे की वह स्थिति जिससे हार सूचित हो ।
⋙ अक्षपाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुआखाना । द्यूतगृह ।२. अखाड़ा । मल्लशाला [को०] ।
⋙ अक्षपाटक
संज्ञा पुं० [सं०] न्यायाधीश । धर्माध्यक्ष [को०] ।
⋙ अक्षपात
संज्ञा पुं० [सं०] पासा फेकने या डालने का कार्य [को०] ।
⋙ अक्षपातन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षपात' [को०] ।
⋙ अक्षपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोलह पदार्थवादी । न्यायशास्त्र के प्रवर्तक गौतम ऋषि । विशेष—ऐसा कहा जाता है कि गौतम ने अपने मत का खंडन करनेवाले व्यास का मुख न देखने कि प्रतिज्ञा कि थी । पीछे से जब व्यास ने इन्हें प्रसन्न किया तब इन्होंने अपने चरणों में नेत्र करके उन्हें देखा अर्थात् अपने चरण उन्हें दिखलाया । इसी से गौतम का नाम अक्षपाद हुआ । २. तार्किक । नैयायिक ।
⋙ अक्षपीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इंद्रियों की वा शरीर की पीड़ा । २. एक लता । यवतिक्त लता [को०] ।
⋙ अक्षप्रिय
वि० [सं०] जुआरी । जुआबाज [को०] ।
⋙ अक्षबंध
संज्ञा पुं० [सं०] वह विद्या जिससे आसपास के लोग कुछ देख नहीं सकते नजरबंदी ।
⋙ अक्षभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अक्षांश की छाया [को०] ।
⋙ अक्षक्षाग
संज्ञा पुं० [सं०] अक्षांश का विभाग [को०] ।
⋙ अक्षभार
संज्ञा पुं० [सं०] गाड़ी का बोझ [को०] ।
⋙ अक्षभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] जुआ खेलने का स्थान [को०] ।
⋙ अक्षम
वि० [सं०] १. क्षमारहित । असहिष्णु ।२. असमर्थ । अशक्त । लाचार ।३. ईर्ष्यालु (को०) ।
⋙ अक्षमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्षमा का अभाव । असहिष्णुता ।२. ईर्ष्या । डाह ।३. असामर्थ्य ।
⋙ अक्षमद
संज्ञा पुं० [सं०] जुआ खेलने का व्यसन या उत्साह [को०] ।
⋙ अक्षमा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं ] १. अधैर्य । अधीरता ।२. क्रोध । रोष । ३. ईर्ष्या । डाह ।४. असमर्थता । लाचारी [को०] ।
⋙ अक्षमा (२)
वि० क्षमारहित [को०] ।
⋙ अक्षमात्र
संज्ञा पुं० [सं०] निमेष । निमिष [को०] ।
⋙ अक्षमापक
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रह नक्षत्रों के निरीक्षण का यंत्र [को०] ।
⋙ अक्षमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रुद्राक्ष की माला ।२. 'अ' से 'क्ष' अक अक्षरों की वर्णमाला ।३. वशिष्ठ की पानी अरुंधती ।
⋙ अक्षमाली (१)
वि० [सं०] जो रुद्राक्ष की माला धारण करे ।
⋙ अक्षमाला (२)
संज्ञा पुं० शिव [को०] ।
⋙ अक्षम्य
वि० [सं०] जिसे क्षमा न किया जाय । क्षमा के अयोग्य । उ०—'यह तुम्हारा अक्षम्य अपराध है' । —स्कंद०, पृ० ८२ ।
⋙ अक्षय (१)
वि० [सं०] १. जिसका क्षय न हो । अनश्वर । सदा बना रहनेवाला । कभी न चुकनेवाला ।२. कल्पातस्थायी । क्लप के अंत तक रहनेवाला । उ०—दिवा रात्रि या मित्र वरुण की बाला का अक्षय शृंगार । —कामायनी पृ० ३६ ।
⋙ अक्षय
संज्ञा पुं० १. परमात्मा ।२. संन्यासी ।३. दरिद्र ।४. एक योग जिसमें किया हुआ पाप या पुण्य का नाश नहीं होता [को०] ।
⋙ अक्षयकुमार पु
संज्ञा पुं० दे० 'अक्षकुमार' ।
⋙ अक्षयगुण(१)
संज्ञा— पुं० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ अक्षयगुण (२)
वि० क्षय न होनेवाले गुणों से युक्त [को०] ।
⋙ अक्षयता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाश या क्षय का अभाव [को०] ।
⋙ अक्षयतूणीर
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा तरकस जिसके बाण कभी समाप्त नहीं होते । उ०—'अक्षय तृणीर अक्षय कवच सब लोगों ने सुना होगा, परंतु इस अक्षय मंजूषा का हाल मेरे सिवा कोई नही जानता । —स्कंद०, पृ० १७ ।
⋙ अक्षयतृतीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैशाख शुक्ल तृतीया । आखा तीज । सतयुग के प्रारंभ की तिथि । विशेष—इस तिथि को लोग स्नान, दान आदि करते है । सतयुग का आरंभ इसी तिथि से माना जाता है । यदि इस तिथि को कृतिका वा रोहिणी नक्षत्र पड़े तो वह बहुत ही उत्तम समझी जाती है ।
⋙ अक्षयत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षयता' [को०] ।
⋙ अक्षयधाम
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैकुंठ ।२. मोक्ष [को०] ।
⋙ अक्षयनवमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी । विशेष—इस तिथि को लोग स्नान, दान आदि करते है । त्रेता युग की उत्पति इसी तिथि से मानी गई है ।
⋙ अक्षयनीवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थायी दान वा निधि । वह मूल संपत्ति जिसका ब्याज मात्र व्यय किया जाय । उ०—साथ ही श्रीमती ने यह इच्छा प्रकट की कि इस संबंध में हिंदी उत्तमोत्तम ग्रथों के प्रकाशन के लिये एक अक्षय नीवी की व्यवस्था का भी सूत्रपात हो जाय । —मु० द०, परिचय, पृ० २ ।
⋙ अक्षयपद
संज्ञा पुं० [सं०] मोक्ष [को०] ।
⋙ अक्षयपुरुहूत
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०] ।
⋙ अक्षयलोक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग । बैकुठ [को०] ।
⋙ अक्षयवट
संज्ञा पुं० [सं०] प्रयोग और गया में एक बरगद का पेड । विशेष—यह अक्षय इस लिये कहलाता है कि पौराणिक लोग इसका नाश प्रलय में भी नहीं मानते । ।
⋙ अक्षयवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षयवट' ।
⋙ अक्षया
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पुण्य तिथि [को०] ।
⋙ अक्षयिणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] उमा । पार्वती [को०] ।
⋙ अक्षयिणी (२)
वि० स्त्री० क्षय न होनेवाली [को०] ।
⋙ अक्षयी
वि० [सं०] जिसका । नाश न हो । अनश्वर [को०] ।
⋙ अक्षय्य
वि० [सं०] १. अक्षय, अविनाशी ।२. सदा बना रहनेवाला । समाप्त न होनेवाला ।
⋙ अक्षय्यनवमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अक्षयनवमी' [को०] ।
⋙ अक्षय्योदक
संज्ञा पुं० [सं०] श्राद्ध में पिंडदान के अनंतर ब्राह्मण के हाथ पर 'अक्षय्य हो' कहकर छोड़ा जानेवाला मधु—तिल—युक्त जल ।
⋙ अक्षर (१)
वि० [सं०] १. अच्युत । स्थिर । अविनाशी । नित्य । २. क्रियाशून्य [को०] ।
⋙ अक्षर (२)
संज्ञा पुं० १. अकारादि वर्ण । हरफ । मनुष्य के मुख से निकली हूई ध्वनि को सूचित करने का संकेत या चिह्न । क्रि० प्र०—जाना । —जोड़ना । —टटोलना । —पढ़ना । —लिखना । मुहा०—अक्षर घोंटना = अक्षर लिखने का अभ्यास करना । अक्षर से भेंट न होना = अपढ़ रहना । मूर्ख रहना । बिधना के अक्षर = कर्मरेख । भाग । लिखन । २. ओंकार । ऊँ । उ०—बिन अक्षर कोई न छूटे अक्षर अगम अगाध । —कबीर सा०, पृ० ९६० । ३. आत्मा । ४. ब्रह्म । चैतन्य पुरुष । ५. आकाश । ६. जल । ७. धर्म । ८. तपस्या । ९. मोक्ष । १०. अपामार्ग । चिचड़ा । ११. शिव (को०) । १२. विष्णु (को०) । १३. जीव (को०) । १४. परमात्मा (को०) । १५. खड्ग (को०) । १६. स्वर (को०) । १७. शब्द (को०) । १८. समय का एक परिमाण । काष्ठा का पाँचवाँ हिस्सा (को०) ।
⋙ अक्षरक
संज्ञा पुं० [सं०] अक्षर । स्वर [को०] ।
⋙ अक्षरकर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धार्मिक ध्यान [को०] ।
⋙ अक्षरक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] अक्षरों का अनुक्रम । वर्णानुक्रम [को०] ।
⋙ अक्षरगणित
संज्ञा पुं० [सं०] बीजगणित [को०] ।
⋙ अक्षरचंचु
संज्ञा पुं० [सं० अक्षरचञ्चु] साफ और स्पष्ट लिखनेवाला व्यक्ति । सुलेखक [को०] ।
⋙ अक्षरचट्टा पु
वि० [सं० अक्षर + देश० चट्ट = चाटना] अक्षर चाटने— वाला । कोरा पढ़ा लिखा । पठित मूर्ख । उ०—'तब रूपचंद नंदा ने अपने मन में विचारी, जो यह बात परमानंद सोनी कहा जाने? यहतो अक्षरचट्टा है' । —दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १९० ।
⋙ अक्षरचरण
संज्ञा पुं० [सं०] सुलेखक [को०] ।
⋙ अक्षरचन
संज्ञा पुं० दे० 'अक्षरचण' [को०] ।
⋙ अक्षरचुंचु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० ' 'अक्षरचंचु' [को०] ।
⋙ अक्षरच्युतक
संज्ञा पुं० [सं०] किसी अक्षर को हटा देने से भिन्न अर्थ देनेवाला अक्षरों का एक प्रकार का खेल [को०] ।
⋙ अक्षरछंदे
संज्ञा पुं० [सं० अक्षरछन्द] वार्णिक छंद । वर्णावृत्त (को०) ।
⋙ अक्षरजननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लेखनी । कलम [को०] ।
⋙ अक्षरजीवक
संज्ञा पुं० [सं०] लिखकर जीविका कमानेवाला व्यक्ति । लेखक । लिपिकार [को०] ।
⋙ अक्षरजीविक
संज्ञा पुं० [सं०] अक्षरजीवक । लेखक [को०] ।
⋙ अक्षरजीवी
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षरजीवक' [को०] ।
⋙ अक्षरज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] लिखने और पढ़ने की योग्यता । अक्षरबोध [को०] ।
⋙ अक्षरतूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अक्षर जननी । लेखनी [को०] ।
⋙ अक्षरधाम
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोक्ष । निर्वाण । २. ब्रह्मलोक [को०] ।
⋙ अक्षरन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. लेख । लिखावट । २. तंत्र की एक क्रिया जिसमें किसी मंत्र के एक एक अक्षर को पढ़कर हृदय, नाक, कान, आँख आदि छूते है । ३. वर्ण । अक्षर (को०) ।
⋙ अक्षरपंक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षरपङ्क्ति] पंक्ति नामक वैदिक छंद का एक भेद जिसके चार पादों के वर्णों का योग २० होता है ।
⋙ अक्षरपूजक
वि० सं० [सं०] पुराण अदि प्राचीन धर्मग्रंथों में लिखी बातों को पूरी तोर से माननेवाला [को०] ।
⋙ अक्षरबंध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वर्णावृत [को०] ।
⋙ अक्षरभूमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लिखने की वस्तु । पटिया । पाटी [को०] ।
⋙ अक्षरमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्णमाला [को०] ।
⋙ अक्षरमुख (१)
वि० [सं०] जो अक्षरों का अभ्यास करता हो । अक्षर सीखनेवाला ।
⋙ अक्षरमुख (२)
संज्ञा पुं० १. शिष्य । छात्र । २. अक्षरों का आरंभ अर्थात् 'अ' (को०) ।
⋙ अक्षरमुष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौंसठ कलाओ में से एक कला । मुष्टिका के विशेष आकार से अक्षरों को जानने की कला । उँगलियों के संकेत द्वारा भावव्यंजना की पद्धति । उ०—'अक्षर मुष्टिका देशभाषा ज्ञान दोहदकरण' । —वर्ण०, पृ० २० ।
⋙ अक्षरयोजना
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्णों की योजना । अक्षरविन्यास [को०] ।
⋙ अक्षरवजिंत
वि० [सं०] १. अपढ़ । निरक्षर । २. परमात्मा का एक विशेषण [को०] ।
⋙ अक्षरविन्यासा
संज्ञा पुं० [सं०] १. लिपि । लिखावट । २. हिज्जे । वर्णाविन्यास । वर्ण क्रम [को०] ।
⋙ अक्षरवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वर्णवृत' [को०] ।
⋙ अक्षरव्यक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अक्षर का स्पष्ट उच्चारण [को०] ।
⋙ अक्षरशः
क्रि० वि० [सं०] अक्षर अक्षर । एक एक अक्षर । लपज ब लपज । संपूर्णतया । बिलकुल । सब । उ०—'उसका कहना अक्षरशः सत्य है (शब्द०) ।
⋙ अक्षरशत्रु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] निरक्षर या मूर्ख व्यक्ति । अनपढ़ और जाहिल आदमी ।
⋙ अक्षरशत्रु (२)
वि० जिन्हें अक्षर का ज्ञान न हो । निरक्षर । अक्षर शून्य । उ०—हमारा संगीत अक्षरशत्रु अपढ़ व्यात्तियों के हाथ में चला गया ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं० पृ० २३२ ।
⋙ अक्षरसंस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] लिखावट । लिखन । लिखा [को०] ।
⋙ अक्षरसमाम्नाय
संज्ञा पुं० [सं०] 'अ' से 'ह' तक के वर्णों का समूह । वर्णमाला [को०] ।
⋙ अक्षरांग
संज्ञा पुं० [सं० अक्षराङ्ग] १. लिखावट । लिपि । २. लिखने का साधन । [को०] ।
⋙ अक्षरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भाषा । २. शब्द [को०] ।
⋙ अक्षराक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] ध्यान का एक प्रकार या प्रक्रिया [को०] ।
⋙ अक्षराज
संज्ञा पुं० [सं०] द्दुत क्रीड़ा में आसत्क व्यक्ति [को०] ।
⋙ अक्षरारंभ
संज्ञा पुं० [सं० अक्षरारम्भ] एक संस्कार जिसमें पहले पहल बालकों को अक्षर लिखना सिखाया जाता है [को०] ।
⋙ अक्षरार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वर्णों का अभिप्राय । शब्दों का अर्थ । वाच्यार्थ वा र्यागिक अर्थ [को०] ।
⋙ अक्षरी (१)पु
वि० [सं० अक्षर + ई] अक्षरयुक्त । वर्णावाली । उ०— द्धै अक्षरी दुजी नाड़ी । दोय पष पांन अमान । —गोरख०, पृ० २५१ ।
⋙ अक्षरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बरसात । वर्षा ऋतु (को०) । २. किसी शब्द के लिखने या उच्चारण करने में अक्षरों का ऋम । हिज्जे ।
⋙ अक्षरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह सीधी रेखा जो किसी गोले पदार्थ के भीतर केंद्र से होती हुई दोनों पृष्ठों पर लंब रुप से गिरे । धुरी की रेखा ।
⋙ अक्षरौटी
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षरावर्त्तन, प्रा० अकखरावट्ठन] १. वर्णमाला । २. लेख लिपि का ढंग । अछरौटी । ३. सितार पर गीत निकालने या बोल बजाने की क्रिया ।
⋙ अक्षर्य (१)
वि० [सं०] वर्ण या अक्षर से संबद्ध [को०] ।
⋙ अक्षर्य (२)
संज्ञा पुं० साम का एक भेद [को०] ।
⋙ अक्षवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्दुत क्रीड़ा । पासों का खेल [को०] ।
⋙ अक्षवाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुआ खेलने का स्थान । पासे का फलक । द्दुतगृह । जुआखाना । २. वह वस्तु जिसपर पासा खेला जाय (को०) । ३. कुशती लड़ने की जगह । अखाड़ा ।
⋙ अक्षवाम
संज्ञा पुं० [सं०] बैईमान जुआड़ी । वह जो द्दुतकर्म में कपट करे [को०] ।
⋙ अक्षविक्षेप
संज्ञा पुं० [सं० अक्ष+ विक्षेप] कटाक्ष । अपांग दृष्टि [को०] ।
⋙ अक्षविद्
वि० [सं०] [स्त्री० अक्षवेत्ती] १. जुआ खेलने के ढंग को जाननेवाला । द्दृतकुशल । २. व्यहारकुशल [को०] ।
⋙ अक्षाविद्दा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. द्दुतकला । २. जुआ [को०] ।
⋙ अक्षवृत्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] राशिचक्र रुपी कोणव्हीन क्षेत्र [को०] ।
⋙ अक्षवृत्त (२)
वि० १. जुआ खेलने का आदी । द्दुतासक्त । २. जुए के समय घटित [को०] ।
⋙ अक्षशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्दुतक्रीड़ागृह । जआखाना [को०] ।
⋙ अक्षशालिक
संज्ञा पुं० [सं०] जुआघर का प्रधान अधिकारी [को०] ।
⋙ अक्षशाली
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षशालिक' [को०] ।
⋙ अक्षशौंड
संज्ञा पुं० [सं० अक्षशौण्ड] दे० 'अक्षकुशल' [को०] ।
⋙ अक्षसुक्त
संज्ञा पुं० [सं०] ऋग्वेद के अंतर्गत अक्ष या द्दुत संबंधी सुक्त [को०] ।विशेष—यह अक्षसुक्त ऋग्वेद मंड़ल १०, अध्याय ३ का ३४ वाँ सुक्त है जिसमें १४ ऋचाएँ हैं । इनमें १, ७, ६ ओर १२ वीं ऋचा पासे की स्तुतिपरक है और १३ वीं कृषि की स्तुति में है । शेष ऋचाऔ में जुए का खेल और जुआड़ियों की स्तिति का अंकन किया गया है ।
⋙ अक्षसुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुद्राक्ष की माला । २. जपमाला जिसमें गुँथी जाय वह सुत (को०) ।
⋙ अक्षसेन
संज्ञा पुं० [सं०] भारत वर्ष का एक प्राचीन राजा जिसका नाम मैत्युनिषद् में आया है ।
⋙ अक्षस्तुष
संज्ञा पुं० [सं०] बैहड़ा [को०] ।
⋙ अक्षहीन
वि० [सं०] नेत्ररहित । अंधा ।
⋙ अक्षहृदय
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुए के खेल की दक्षता । २. जुए की भीतरी बातें या चालें [को०] ।
⋙ अक्षहृदयज्ञ
वि० [सं०] जुए में पुरी तौर से दक्ष [को०] ।
⋙ अक्षांति
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षान्ति] १. ईर्ष्या । डाह । जलन । हृदस । २. दे० 'अक्षमा' (को०) ।
⋙ अक्षांश
संज्ञा पुं० [सं०] १. भुगोल पर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव से होती हिई एक रेखा मान कर उसके ३६० भाग किए गए है । इन ३६० अंशो पर से होती हुई ३६० रेखाएँ पुर्व पशचिम भुमध्यरेखा के समानांतर मानी गई है जिनको अक्षांश कहते है । अक्षांश की गिनती बिषुवत् या भुमध्यरेखा से की जाती है । २. वह कोण जहाँ पर क्षितिज का तल पृथ्वी के अक्ष से कटता है । ३. भुमध्यरेखा और किसी नियत स्थान के वीच में याम्योत्तर का पुर्ण झुकाव या अंतर । ४. किपी नक्षत्र का क्रांतिवृत्त के उत्तर या दक्षिण की और का कोणांतर । ५. कोई स्थान जो अक्षांशों के समानांतर पर स्थित हो ।
⋙ अश्राग्र
संज्ञा पुं० [सं०] धुरा या धुरे का सिरा [को०] ।
⋙ अक्षाग्रकील
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जुए और लट्ठे को जोड़नेवाली खुँटी । २. पहिए को रोकने के लिये लगाई हुई खुँटी या कील [को०] ।
⋙ अक्षाग्रकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षाग्रतकील' [को०] ।
⋙ अक्षार (१)
वि० [सं०] क्षारशुन्य । जिसमें क्षार न हो ।
⋙ अक्षार (२)
संज्ञा पुं० प्राकृतिक लवण या नमक [को०] ।
⋙ अक्षारलवण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह लवण जिसमें क्षार न हो । वह लवण जो मिट्टी से न निकला हो । विशेष—कोइ कोई सेधा और समुद्री लवण को अक्षार लवण मानते है और व्रतादि में उसको ग्राह्य समझते है । २. वह हविष्य भोजन नमक न हो और जो अशौच और यज्ञ में काम आता हो; जैसे—दुध, घी, चावल, तिल, मूँग जौ आदि ।
⋙ अक्षावपन
संज्ञा पुं० [सं०] वह फलक जिसपर पासा फेंका जाय [को०] ।
⋙ अक्षावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुद्राक्ष की जपमाला [को०] ।
⋙ अक्षावाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुआरी । जुआ खेलनेवाला । २ द्दतगृह का स्वामी या निरीक्षण । ३. द्दुत का निरीक्षण करनेवाला सरकारी कर्मचारी [को०] । ४. आय व्यय का गणनाध्यक्ष । —हिंदु० स०, पृ० १०५ ।०
⋙ अक्षावापन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षपटल' [को०] ।
⋙ अक्षि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आँख । नेत्र ।२ दो की संख्या । — भा० प्रा० लि०, पृ० १२० ।
⋙ अक्षिकंप
संज्ञा पुं० [सं० अक्षिकम्प] पलकों के काँपने की स्थिति । आँख की फडकन । आँख चमकाना [को०] ।
⋙ अक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वृक्ष । आल का पेड़ ।२. दे० 'अक्षक' (को०) ।
⋙ अक्षिकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँख के ऊपर का ललाट का मूख्य भाग ।२. आँख की पुतली ।३. नेत्रगोलक [को०] ।
⋙ अक्षिकूटक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षिकूट' [को०] ।
⋙ अक्षिगत
वि० [सं०] १. देख हुआ । दृष्ट ।२. विद्यमान । उपस्थित । ३. द्वेष का पात्र । द्वेष्य [को०] ।
⋙ अक्षिगोल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षिगोलक' [को०] ।
⋙ अक्षिगोलक
संज्ञा पुं० [सं०] आँख का डेला । आँख की पुतली ।
⋙ अक्षिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गैरनमकूला जायदाद या अचल संपत्ति से संबंद्ध आठ प्रकार की शर्तों या सुविधाऔ में से एक [को०] ।
⋙ अक्षित (१)
विं० [सं०] १ क्षय न होनेवाला । जिसका क्षय न हुआ हो ।२. अघट । न घटनेवाला ।३. जिसे चोट आदि न लगी हो [को०] ।
⋙ अक्षित (२)
संज्ञा पुं० १ जल ।२. दस लाख की संख्या [को०] ।
⋙ अक्षितर
संज्ञा पुं० [सं०] पानी । जल [को०] ।
⋙ अक्षितवसू
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम [को०] ।
⋙ अक्षितारक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षितारा' [को०] ।
⋙ अक्षितारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँख की पुतली ।
⋙ अक्षितावसु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षितवसु' । [को०] ।
⋙ अक्षिति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० अनश्वरता [को०] ।
⋙ अक्षिति (२)
वि० अनश्वर । नाश न होनेवाला [को०] ।
⋙ अक्षिनिमष
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँख की चमक ।२. क्षण । पल [को०] ।
⋙ अक्षिपक्षम
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की पलकों के अग्रभाग के बाल । बरौनी [को०] ।
⋙ अक्षिपटल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँख के कोए पर की झिल्ली । आँख का परदा ।२ आँख का एक रोग । माँड़ा (को०) ।
⋙ अक्षिपाक
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की सूजन [को०] ।
⋙ अक्षिब
संज्ञा पुं० वि० [सं०] दे० 'अक्षीब' [को०] ।
⋙ अक्षिभू
वि० [सं०] १ प्रत्यक्ष । दृश्य । प्रगट ।२. सत्य । वास्त— विक [को०] ।
⋙ अक्षिभेषज
संज्ञा पुं० [सं०] १ आँख की दवा ।२. पट्टिकालोध्र नामक वृक्ष [को०] ।
⋙ अक्षिमत्
वि० [सं०] आँखवाला [को०] ।
⋙ अक्षिलोम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षिपक्ष्म' [को०] ।
⋙ अक्षिव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षीब' [को०] ।
⋙ अक्षिविकूणित
संज्ञा पुं० [सं०] कटाक्ष [को०] ।
⋙ अक्षिविकूशित
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षिविकूणित' [को०] ।
⋙ अक्षिविक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] कटाक्ष [को०] ।
⋙ अक्षिश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० अक्षिश्रवस्] सर्प । चक्षुश्रवा [को०] ।
⋙ अक्षिस्पंदन
संज्ञा पुं० [सं० अक्षिस्पन्दन] आँख फड़कना ।
⋙ अक्षीक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षक' या 'अक्षिक' [को०] ।
⋙ अक्षीण
वि० [सं०] १. जो न घटे । क्षीण न होनेवाला । जो कम न हो ।२. अविनाशी । नाशरहित ।
⋙ अक्षीब (१)
वि० [सं०] जो मतवाला न हो । चैतन्य । धीर । शांत ।
⋙ अक्षीब (२)
संज्ञा पुं० १. सहिजन का पेड़ ।२. समुद्री नमक ।
⋙ अक्षीव
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे० 'अक्षीब' [को०] ।
⋙ अक्षु (१)
वि० [सं०] शीघ्र । तुरंत । [को०] ।
⋙ अक्षु (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का जाल [को०] ।
⋙ अक्षुण
विं० [सं०] दे० 'अक्षुण' [को०] ।
⋙ अक्षुणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १ अक्षयता ।२. अनुभवहीनता [को०] ।
⋙ अक्षुण्ण
वि० [सं०] १. बिना टूटा हुआ । अभगन । उ०—अक्षुण्ण अतुलता रहे सदैव अतुल की । —साकेन, पृ० २१९ ।२. अकुशल । अनुभवशून्य । अनाड़ी ।३. अपराजित । सफल (को०) ।४. समुचा । अन्यून (को०) ।५. लगातार । व्यवधान रहित (को०) ।
⋙ अक्षुद्र (१)
वि० [सं०] १. जो क्षुद्र या छेटा न हो ।२. जो नीच या तुच्छ न हो [को०] ।
⋙ अक्षुद्र (२)
संज्ञा पुं० शिव का एक नाम [को०] ।
⋙ अक्षुध्य
वि० [सं०] १. जिससे क्षुधा न लगे । भूख मिटानेवाला, भूख नष्ट करनेवाला ।२. जिसको भूख न लगती हो । क्षुधारहित [को०] ।
⋙ अक्षुध्य
वि० [सं०] क्षोभरहित । जिसे क्षोभ न हो [को०] ।
⋙ अक्षेत्र (१)
वि० [सं०] १. क्षेत्रशून्य । बिना क्षेत्र का ।२. परती । अकृष्ट [को०] ।
⋙ अक्षेत्र (२)
संज्ञा पुं० १. निकृष्ट या बुरी भूमि ।२. ज्योमिति की विकृत आकृति । मंद बुद्धि का छात्र । उपदेश के अयोग्य शिष्य [को०] ।
⋙ अश्रत्रेज्ञ
वि० [सं०] १ पथभ्रांत । भटका हुआ ।२. आध्यात्मिक ज्ञान से शन्य ।३. क्षेत्र या शरीर के तत्व को न जाननेवाला । देहाभिभानी [को०] ।
⋙ अक्षेत्रविद्
वि० [सं०] दे० 'अक्षेत्रज्ञ' [को०] ।
⋙ अक्षेत्री
वि० [सं०] बिना क्षेत्र का । बिना खेतवाला [को०] ।
⋙ अक्षेम
संज्ञा पुं० [सं०] अमंगल । अशुभ । अकुशल । बराई ।
⋙ अक्षै पु
वि० [सं० अक्षय] दे० 'अक्षय' । उ०—अक्षै वृक्ष एक राशि बनाई । अग्रबास तहाँ रही समाई । —कबीर सा०, पृ० १५३४ ।
⋙ अक्षोट
संज्ञा पुं० [सं०] अखरोट का वृक्ष या फल । पर्या०—कर्पराल । कंदराल । अक्षोड । आक्षोट । आक्षोड ।
⋙ अक्षोड
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षोट' [को०] ।
⋙ अक्षोडक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अक्षोट' [को०] ।
⋙ अक्षोधुक
वि० [सं०] जो भूखा न हा । क्षुधाराहित । क्षुधाहीन [को०] ।
⋙ अक्षोनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षौहिणी] दे० 'अक्षौहिणी' । उ०—जुरे नृपति, अक्षानि अठारह, भयो युद्ध अति भारी । —सूर (शब्द०) ।
⋙ अक्षोभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षोभ का अभाव । अनुद्वेग । शांति । दृढ़ता । धीरता । स्थिरता । २. हाथी बाँधने का खूँटा ।
⋙ अक्षोभ (२)
वि० १. क्षोभरहित । चंचलता से रहित । उद्वेगशून्य ।२. शांत । स्थिर गंभीर ।
⋙ अक्षोभ्य (१)
वि० [सं०] धीर । शांत । गंभीर [को०] ।
⋙ अक्षोभ्य (२)
संज्ञा पुं० १. तंत्रोक्त एक ऋषि । २. बुद्ध का एक नाम । ३. बौद्धों के मत से एक बहुत बड़ी संख्या [को०] ।
⋙ अक्षोभ्यकवच
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्राशास्त्रोक्त एक प्रकार का कवच [को०] ।
⋙ अक्षौरिम
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष शास्त्रोक्त वे नक्षत्र जिसमें क्षौर- कर्म वर्जित है [को०] ।
⋙ अक्षौहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूरी चतुरंगिनी सेना । सेना का एक परिमाण । सेना की एक नियमित संख्या । इसमें १०९३५०, पैदल, ६५६१० घोड़े, २१८७० रथ और २१८७० हाथी होते थे । २. ग्यारह की संख्या ।—भा० प्रा० लि०, पृ० १२० ।
⋙ अक्ष्ण (१)
वि० [सं०] अखंड़ । व्यापक [को०] ।
⋙ अक्ष्ण (२)
संज्ञा पुं० काल । समय [को०] ।
⋙ अक्स
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. प्रतिबिंब । छाया । परछाई । उ०— नाजुक है, न खिंचवाऊँगा तस्वीर मैं उसकी । चेहरा न कहीं अवस के बदले उतर आए ।—कविता को०, भा० ४, पृ० ६९२ । क्रि० प्र०—आना । —ड़ालना । —पड़ना । —लेना । २. तसबीर । चित्र । उ०—आईनए दिल में हे तेरा अक्स । दिन रात मैं तुझको देखता हूँ । —शेर०, भा० १, पृ० ३०९ । क्रि० प्र०—उतारना । —खींचना । ३. फोटो [को०] ।
⋙ अक्सर
क्रि० [अ०] वि० दे० 'अकसर' । उ०—आँखों से अक्सर उनकी आँसू निकल गए हैं । क्या क्या भरे गुलिस्ताँ सावन में जल गए हैं । —शेर०, भा० ४, १८२ ।
⋙ अक्सी
वि० [फा०] १. प्रतिबिंब या छाया संबंधी । २. अक्स संबंधी । अक्स से बना [को०] ।
⋙ अक्सी तसबीर
संज्ञा पुं० [फा०] फोटो । आलोक चित्र ।
⋙ अक्सीर (१)
वि० [अ०] अव्यर्थ । अकसीर । उ०—जाहिद शराबे नाब की तासीर कुछ न पूछ । अक्सीर है जो हल्क के नीचे उतर गई । —कविता को०, भा० ४, पृ० ५५५ ।
⋙ अक्सीर (२)
संज्ञा पुं० कीमिया । अकसीर । एक दवा [को०] ।