विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/पा
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ पांक्त
वि० [सं० पाङ्क्त] १ पंक्ति से संबंध रखनेवाला। पंक्ति संबंधी। २. पंक्ति का। ३. पाँच बार होनेवाला। पाँच विभागों में होनेवाला (यज्ञ)। ४. दस अवयवोंवाला। दस अंगवाला [को०]।
⋙ पांक्तेय
वि० [सं० पाङ्क्तेय] पंक्ति में बैठनेवाला। पंक्ति में संमिलित होने लायक। पंगत या पाँत में औरों के साथ बैठने योग्य [को०]।
⋙ पाँक्त्य
वि० [सं० पाङ्क्त्य] दे० 'पांक्तेय'।
⋙ पांगुल्य
संज्ञा पुं० [सं० पाङ्गुल्य] लँगडा़पन। पंगुत्व। पंगुल होने का भाव [को०]।
⋙ पांचकपाल
वि० [सं० पाञ्चकपाल] पंचकपाल संबंधी। पंचकपाल यज्ञ संबंधी [को०]।
⋙ पांचजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० पाञ्चजनी] भागवत के अनुसार पंचजन नामक प्रजापति की कन्या का नाम। इसका दूसरा नाम असिकी भी था।
⋙ पांचजन्य
संज्ञा पुं० [सं० पाञ्चजन्य] १ कृष्ण के बजाने का शंख। विशेष— इसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि यह शंख उन्हें पंचजन नामक दैत्य के पास उस समय मिला था जब वे गुरुदक्षिणा में अपने गुरु सांदीपन मुनि को उनका मृत पुत्र ला देने के लिये समुद्र में घुसे थे। कृष्ण ने पंचजन को मारकर अपने गुरु के पुत्र को भी छुडाय था और उसका शंख भी ले लिया था। यौ०— पांचजन्यधर = कृष्ण का एक नाम। २. विष्णु के शंख का नाम। ३. पुराणानुसार हारीत मुनि के वंश के दीर्घबुद्धि नामक ऋषि का एक नाम। ४. अग्नि। ५. पुराणानुसार जंबूद्वीप के एक भाग का नाम।
⋙ पांचदश
वि० [सं० पाञ्चदश] [वि० स्त्री० पांचदशी] १. मास के पंद्रहवें दिन से संबंध रखनेवाला। २. साम के पँद्रह मँत्रों द्वारा दीप्त। [को०]।
⋙ पांचदश्य
संज्ञा पुं० [सं० पाञ्चदश्य] पंद्रह का समूह [को०]।
⋙ पांचनद
संज्ञा पुं० [सं० पाञ्चनद] १. पंचनद प्रदेश। पंजाब प्रांत। २. पंचनद नरेश। ३. पंजाब के निवासी [को०]।
⋙ पांचभौतिक (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाञ्चभौतिक] पाँचों भूतों या तत्वों से बना हुआ शरीर।
⋙ पांचभौतिक (२)
वि० [वि० स्त्री० पाञ्चभौतिकी] पाँच तत्वों या पांच महाभूतों द्वारा निर्मित। जैसे, पांचभौतिकी सृष्टि।
⋙ पांचयज्ञिक (१)
वि० [सं० पाञ्चयज्ञिक] [वि० स्त्री० पांचयज्ञिकी] पंच महायज्ञ संबंधी।
⋙ पांचयज्ञिक (२)
संज्ञा पुं० पाँच महायज्ञों में से कोई एक [को०]।
⋙ पांचरात्र
संज्ञा पुं० [सं० पाञ्चरात्र] १. एक वैष्णव संप्रदाय। २. पांचरात्र संप्रदाय का सिद्धांत [को०]।
⋙ पांचलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पाञ्चलिका] कपडे़ की बनी हुई गुड़िया।
⋙ पांचवर्षिक
वि० [सं० पाञ्चवर्षिक] [वि० स्त्री० पांचवर्षिकी] पाँच बरस का। पंचवर्षीय [को०]।
⋙ पांचशाब्दिक
संज्ञा पुं० [सं० पाञ्चशाब्दिक] १. करताल, ढोल, बीन, घंटा और भेरी आदि पाँच प्राकर के बाजे। २. पाँच प्रकार का संगीत जो स्कंद पुराण में अंगज, कर्मज, तंत्रज, कांस्यज और कूत्कृत कहा गया है (को०)।
⋙ पांचार्थिक
संज्ञा पुं० [सं० पाञ्चार्थिक] शैव। शिवभक्त [को०]।
⋙ पांचाल (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाञ्चाल] १. बढई, नाई, जुलाहा, धोबी और चमार इन पाँचों का समुदाय। २. भारत के पश्चि- मोत्तर का एक देश। विशेष— दे० 'पंचाल'। ३.— पांचाल का नरेश।
⋙ पांचाल (२)
वि० [वि० स्त्री० पांचाली] १. पांचाल देश का रहनेवाला। २. पांचाल देश संबंधी।
⋙ पांचालक (१)
वि० [सं० पाञ्चालक] पंजाब के निवासियों से संबद्ध। पांचाल देश का [को०]।
⋙ पांचालक (२)
संज्ञा पुं० पंचाल का राजा [को०]।
⋙ पांचालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पाञ्चालिका] दे० 'पांचाली'।
⋙ पांचाली
संज्ञा स्त्री० [सं० पाञ्चाली] १. गुड़िया। कपडे़ की पुतली। पंचालिकी। पंचाली। २. साहित्य में एक प्रकार की रीति या वाक्य-रचना-प्रणाली जिसमें बडे़ बडे़ पाँच छह समासों से युक्त और कांतिपूर्ण पदावली होती है। इसका व्यवहार सुकुमार और मधुर वर्णन में होता है। किसी किसी के मत से गौड़ी और वैदर्भी बृतियों के सम्मिश्रण को भी पांचाली कहते हैं। ३. पांडवों की स्त्री द्रौपदी का एक नाम जो पंचाल देश की राजकुमारी थी। ४. छोटी पीपल। ५. इंद्रजाल के छह भेदों में से एक। ६. शास्त्र (को०)। ७. स्वर- साधन की एक प्रणाली जो इस प्रकार है— आरोही— सा रे सा रे स, रे ग रे ग म, ग म ग म प, म प म प ध, प ध प ध नि, ध नि ध नि सा। अवरोही— सा नि सा नि ध, नि ध नि ध प, ध प ध प म, प म प म ग, म ग म ग रे, ग रे ग रे सा।
⋙ पांड
वि० [सं० पाण्ड] निष्फल। फलरहित [को०]।
⋙ पांडर
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डर] १. कुंद का वृक्ष। २. कुंद का फूल। ३. पानड़ी। ४. सफेद रंग। ५. सफेद रंग का कोई पदार्थ। ६. मरुवा बृक्ष। दौना। ७. महाभारत के अनुसार ऐरावत के कुल में उत्पन्न एक हाथी का नाम। ८. पुराणानुसार एक पर्वत का नाम जो मेरु पर्वत के पश्चिम में है। ९. एक प्रकार का पक्षी। १०. गैरिक। गेरु (को०)। ११. शुक्र। वीर्य (को०)।
⋙ पांडरपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पाणडरपुष्पिका] शीतला वृक्ष।
⋙ पांडरमुष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पाणडरमुष्टिका] दे० 'पांडरपुष्पिका'।
⋙ पांडरेतर
वि० [सं० पाणडरेतर] पांडर अर्थात् श्वेतवर्ण से भिन्न। जो सुफेद न हो।
⋙ पांडव
संज्ञा पुं०[सं० पाणडव] १. कुंती और माद्री के गर्भ से उत्पन्न राजा पांडु के पाँचो पुत्र युधिष्ठिर, भीम अर्जुन, नकुल और सहदेव। (इनके जन्मवृत्तात के लिये दे० 'पांडु' और इनेक विशेष चरित् के लिये पृथक् पृथक इन सबके नाम देखें)। २. पांडु के पाँच पुत्रों में से किसी एक की आख्या। ३. प्राचीन काल में पंजाब का एक प्रदेश जो वितस्ता (झेलम) नदी के तीर पर बसा था। ४. उस प्रदेश में रहनेवाले लोग।
⋙ पांडवनगर
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डवनगर] दिल्ली।
⋙ पांडवश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डवश्रेष्ठ] पांडवों में सबसे बडे़ भाई। युधिष्ठिर [को०]।
⋙ पांडवाभील
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डवाभील] कृष्ण।
⋙ पांडवायन
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डवायन] श्रीकृष्ण।
⋙ पांडविक
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डविक] एक प्रकार का चटक पक्षी। गौरा। गौरैया [को०]।
⋙ पांडवीय
वि० [सं० पाण्डवीय] पांडव संबंघी। पांडप का। जैसे, राघवपांडवीय [को०]।
⋙ पांडवेय
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डवेय] १. पांडव। २. अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित।
⋙ पांडित्य
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डित्य] पंडित होने का भाव। विद्वत्ता। पंडिताई।
⋙ पांडिमा
संज्ञा पुं० [सं० पांडिमन्] पांडुता। पांडुत्व [को०]।
⋙ पांडीस
संज्ञा स्त्री० [देश०] तलवार (डिं०)।
⋙ पांडु
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डु] १. पांडुफली। पारली। २. परमल। ३. कुछ लाली लिए पीला रंग। ४. वह जिसका रंग लाली लिए पीला हो। ५. एक नाग का नाम। ६. सफेद हाथी। ७. सफेद रंग। ८. पीलापन लिए सफेद रंग। ९. एक रोग का नाम जिसमें रक्त के दूषित हो जाने से शरीर का चमडा़ पीले रंग का हो जाता है। विशेष— सुश्रुत में लिखा है कि अधिक स्त्रीगमन करने, खटाई और नमक खाने शराब पीने, मिट्टी खाने, दिन को सोने तथा इसी प्रकार के और कुपथ्य करने से यह रोग हो जाता है।चमडे़ का फटना, आँख के गोलक का सूजना और पेशाब पाखाने के रंग का पीला पड़ जाना इस रोग का पूर्वलक्षण है। यह कफज, वातज, पित्तज और सन्निपातज चार प्रकार का होता है। इसके अतिरिक्त भावप्रकाश में इसका एक पाँचवाँ प्रकार मृत्तिकाभक्षणजात भी माना गया है। सुश्रुत ने कामला, कुंतकामला, हलीमक और लाघरक आदि रोगों को इसी के अंदर्गत माना है। इस रोग में रोगी को कंप, पीडा, शूल, भ्रम, तंद्रा, आलस्य, खाँसी, श्वास, अरुचि और अंगों में सूजन आदि भी होती है। १०. प्राचीन काल के एक राजा का नाम जो पांडव वंश के आदिपुरुष थे। विशेष— महाभारत में इनकी कथा बहुत ही विस्तार के साथ दी हुई है। उसमें लिखा है कि जिस समय राजा विचित्रवीर्य युवावस्था में ही क्षय रोगों के कारण मर गए और अंबिका तथा अंबालिका नाम की उनकी दोनों स्त्रियाँ विधवा हो गई, उस समय विचित्रपीर्य की माता सत्यवती ने अपना वंश चलाने के उद्देश्य से अपने दूसरे पुत्र भीष्म से कहा था कि तुम अंबिका और अंबालिका के साथ नियोग करके संतान उत्पन्न करो। परंतु भीष्म इससे बहुत पहलो ही प्रतिज्ञा कर चुके थे कि मैं आजन्म क्वाँरा और ब्रह्मचारी रहूँगा। अतः उन्होंने माता की यह बात तो नहीं मानी पर उन्हें सम्मति दी कि किसी योग्य ब्राह्मण को बुलवाकर और उसे कुछ धन देकर विचित्र वीर्य की स्त्रियों का गर्भाधान करा लो। इसपर सत्यवती ने अपने पहले पुत्र व्यास का जो पराशर ऋषि से उत्पन्न हुए थे, स्मरण किया और उनके आ जाने पर कहा कि तुम एक प्रकार से विचित्रवीर्य के बडे़ भाई हो। अतः तुम ही उसकी दोनों विधवाओं से वंशवृद्धि के लिये संतान उत्पन्न करो। व्यास ने अपनी माता की यह बात स्वीकार करते हुए कहा कि पहले दोनों विधवा स्त्रियाँ व्रतपूर्वक रहें तब मैं उन्हें मित्रावरुण के सदृश पुत्र प्रदान करुँगा। लेकिन सत्यवती ने कहा कि राज्य में राजा के न रहने से अनेक प्रकार का उपद्रव होते हैं, अतः तुम अभी इन दोनों को गर्भ धारण कराओ। तदनुसार व्यास ने पहले तो अंबिका के गर्भ से धृतराष्ट्र को उत्पन्न किया। और तब अंबालिका की बारी आई। जब अंबालिका भी ऋतुमती हो चुकी तब व्यासदेव आधीरात के समय उसके पास गए। उनका उग्र रुप देखकर अंबालिका मारे डर के पीली पड गई। समय पूरा होने पर अंबालिका को पीले रंग का एक लड़का हुआ जिसका नाम 'पांडु' रखा गया। बाल्यावस्था में धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर तीनों को भीष्म ने ही पाला पोसा और पढाया लिखाया था। पांडु का विवाह राजा कुंतिभोज की कन्या कुंती से हुआ था। पीछे से भीष्म ने मद्रकन्या माद्री से इनका एक और विवाह कर दिया था। विवाह के कुछ दिनों के उपरांत पांडु ने समस्त भूमंडल के राजाओं को परास्त करके दिग्विजय किया और बहुत सा धन एकत्र किया। इसके धन से धृतराष्ट्र ने पाँच महायज्ञ किए थे। इसमें से प्रत्येक महायज्ञ में उन्होने इतना धन दान किया था जिससे सैकडों बडे़ बडे़ अश्वमेध यज्ञ किए जा सकते थे। कुछ दिनों तक राज्य करने के उपरांत पांडु अपनी दोनों स्त्रियों को साथ लेकर जंगल में जा रहे और वहीं आमोद प्रमोद और शिकार आदि करके रहने लगे। एक बार शिकार में उन्होंने हिरन को हिरनी के साथ मैथुन करते हुए देखा और तुरंत तीर से उस हिरन को मार गिराया। कहते हैं, ये हिरन और हिरनी वास्तव में ऋषिपुत्र किमिदय और उनकी पत्नि थे। तीर लगते ही उस मृग ने मनुष्यो की बोली में कहा कि तुमने मुझे स्त्री के साथ भोग करते में मारा है अतः तुम भी जब अपनी स्त्री के साथ भाग करोगे तब उसी समय तुम्हारी भी मृत्यु हो जायगी। और जिस स्त्री के साथ भोग करते हुए तुम मरोगे वह तुम्हारे साथ सती होगी। इसपर पांडु बहुत दुःखी हुए और अपनी दोनों स्त्रियों को साथ लेकर नागशत पर्वत पर चले गए। वे सब प्रकार का भोग विलास आदि छोड़कर कठोर तपस्या करने लगे। वहीं एक बार पांडु ने बहुत से ऋषियों के साथ स्वर्ग जाना चाहा था परंतु ऋषियों ने उन्हें मना किया और कहा कि जिसके कोई संतान न हो वह स्वर्ग नहीं जा सकता। इसपर पांडु ने अपनी स्त्री के गर्भ से किसी ब्राह्मण के द्वारा पुत्र उत्पन्न कराने का विचार किया और अपनी स्त्री कुंती से सब हाल कहा। इसपर कुंती ने, जिसे जिस देवता का चाहें स्मरण करके पुत्र प्राप्त करने का वरदान था, धर्म, वायु और इंद्र को आवाहन कर क्रमशः युधिष्ठिकर, भीम और अर्जुन नामक तीन पुत्र जने और माद्री ने अश्विनीकुमार के अनुग्रह से नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र पाए। पीछे से ये ही पाँचों पुत्र पांडव कहलाए और इन्होंने कौरवों से युद्ध किया था (दे० 'पांडव')। इसका कुछ दिनों के उपरांत एक बार वसंत ऋतु में पांडु को बहुत अधिक कामपीडा हुई। उस समय उन्होंने माद्री के बहुत मना करने पर भी नहीं माना और वे बलपूर्वक उसके साथ भोग करने लगे। किमिंदय ऋषि के शाप के अनुसार उसी समय उनके प्राण निकल गए और माद्री ने भी वहीं अपने प्राण दे दिए। पीछे से लोग पांडु और माद्री को हस्तिनापुर ले गए और वहीं धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर ने दोनों का प्रेतसंस्कार किया।
⋙ पांडुकंटक
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुकण्टक] अपामार्ग। चिचड़ा।
⋙ पांडुकंबल
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुकम्बल] १. एक प्रकार का पत्थर जो सफेद होता है। २. श्वेतवर्ण का ऊनी कंबल (को०)। ३. राजकीय गज का आवरण। हाथी की झूल (को०)। ४. श्वेतवर्ण का ऊपरी परिधान (को०)।
⋙ पांडुकंबली
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुकम्बलिन्] १. हाथी की झूल। २. वह रथ आदि जिसपर पांडुवर्ण का ओहार वा आवरण पड़ा हो [को०]।
⋙ पांडुक
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुक] १. दे० 'पंडुक'। २. 'पांडु'। ३. पांडु वर्ण। पीला रंग। ४ परवल।
⋙ पांडु वर्ण
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुवर्पन] सुश्रुत के अनुकार वर्ण-चिकित्सा का एक अंग जिसमें फोडे़ के अच्छे हो जाने पर उसके काले दाग को ओषधि की सहायता से दूर करते और वहाँ के चमडे़ को फिर शरीर के वर्ण का कर देते हैं। इसे पांडुकरण भी कहा है। विशेष— सुश्रुत का मत है कि यदि फोडे़ के अच्छे हो जाने पर दुरुढ़ता के कारण उसके स्थान पर काला दाग रह गया हो तो कडवी तूँबी को तोड़कर उसमें बकरी का दूध डाल दे और उस दूध में सात दिन तक रोहिणी फल भिगोए। इसके बाद उस फल को गीला ही पीसकर फोडे़ के दाग पर लगाए तो वह दाग दूर हो जायगा।
⋙ पांडुकी
वि० [सं० पाण्ड़ुकिन्] पांडुरोगवाला। जिसे पांडु रोग हुआ हो [को०]।
⋙ पांडुक्ष्मा
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुक्ष्मा] पांडु की धरती। हस्तिनापुर का नाम।
⋙ पांडुतरु
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुतरु] धौ का पेड़।
⋙ पांडुता
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुता] पांडु होने का भाव, धर्म या क्रिया। पांडुत्व। पीलापन।
⋙ पाडुतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुतीर्थ] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ पांडुत्व
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुत्व] पांडु होने का भाव। पांडुता।
⋙ पांडुनाग
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुनाग] १. पुन्नाग वृक्ष। २. सफेद रंग का हाथी। ३. सफेद रंग का साँप।
⋙ पांडुपंचानन रस
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुपञ्चानन रस] वैद्यक में एक प्रकार का रस जिसे त्रिकटु, त्रिफला, दंतीमूल, चितामूल, हलदी, मानमूल, इंद्रजौ, बच, मोथा आदि औषधियों को गोमूत्र में पकाकर बनाते हैं और जो पांडु तथा हलीमक आदि रोगों के लिये बहुत ही उपकारक माना जाता है।
⋙ पांडुपत्री
संज्ञा स्त्री० [पुं० पाण्डुपत्री] रेणुका नामक गंधद्रव्य।
⋙ पांडुपुत्र
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुपुत्र] पांडव।
⋙ पांडुपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुपृष्ठ] १. जिसकी पीठ सफेद हो। २. अयोग्य। अकर्मण्य। निकम्मा।
⋙ पांडुफल
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुफल] पटोल। परवल।
⋙ पांडुफला
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुफला] चिर्भिटी। पांडुफली।
⋙ पांडुफली
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुफली] चिर्भिटी [को०]।
⋙ पांडुभूम
वि० [सं० पाण्डुभूम] जहाँ की भूमि श्वेत वर्ण की हो।
⋙ पांडुमृत्
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुमृद्] १. खड़िया। श्वेत खरी। दुधिया मिट्टी। २. पीली मिट्टी। रामरज।
⋙ पांडुमृत्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुमृतिका] दे० 'पांडुमृत्'।
⋙ पांडुरंग
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुरङ्ग] १. एक प्रकार का साग जो वैद्यक के अनुसार तिक्त और लघु तथा कृमि, श्लेष्मा और कफ का नाश करनेवाला माना जाता है। २. पुराणानुसार विष्णु का एक अवतार।
⋙ पांडुर (१)
वि० [सं० पाण्डुर] १. पीला। जर्द। २. सफेद। श्वेत।
⋙ पांडुर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो पीला हो। २. वह जो सफेद हो। ३. धौ का पेड़। ४. सफेद ज्वार। ५. कबूतर। ६. बगला। ७. सफेद खड़िया। ८. कामला रोग। ९. सफेद कोढ़। १०. कार्तिकेय के एक गण का नाम। ११. पांडु वर्ण या रंग।
⋙ पांडुरक
वि० [सं० पाण्डुरक] पांडुवर्ण का। पांडु रंग का।
⋙ पांडुरद्रुम
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुरद्रुम] कुडे़ का वृक्ष। कुटज। कुंरैया।
⋙ पांडुरपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुरपृष्ठ] दे० 'पांडुपृष्ठ'।
⋙ पांडुरफली
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुरफली] एक प्रकार का छोटा़ क्षुप।
⋙ पांडुरा
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुरा] १. मषवन। माषपर्णी। २. ककड़ी। ३. बौद्धों में एक देवी या शक्ति का नाम।
⋙ पांडुराग
संज्ञा पुं० [सं० पाण्ड़ुराग] दौना।
⋙ पांडुरित
वि० [सं० पाण्डुरित] पांडु या पांडुर वर्ण का।
⋙ पांडुरिमा
संज्ञा [सं० पाण्डुरिमन्] १. श्वेत वर्ण। सफेद रंग। २. श्वेत वर्ण युक्त पीत रंग [को०]।
⋙ पांडुरेक्षु
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुरेक्षु] सफेद ईख।
⋙ पांडुरोग
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुरोग] कामला रोग। पीलिया [को०]।
⋙ पांडुलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुलिपि] लेख आदि का वह पहला रुप जो काट छाँट या घटाने बढ़ान आदि के लिये तैयार किया जाय। मसौदा।
⋙ पांडुलेख
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुलेख] पांडुलिपि। मसौदा।
⋙ पांडुलोमशा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुलोमशा] मषवन। माषपर्णी।
⋙ पांडुलोमशा (२)
वि० स्त्री० जिसके रोएँ सफेद हों।
⋙ पांडुलोमा
वि०, संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुलोमा] दे० 'पांडुलोमशा'।
⋙ पांडुलोह
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुलोह] चाँदी। रजत [को०]।
⋙ पांडुवा
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुवा] वह जमीन जिसकी मिट्टी में बालू भी मिली हो। बलुई मिट्टीवाली जमीन। दोमट जमीन।
⋙ पांडुशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुशर्करा] एक प्रकार का प्रमेह।
⋙ पांडुशर्मिला
संज्ञा स्त्री० [सं० पाण्डुशर्मिला] द्रौपदी।
⋙ पांडुसोपाक
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डुसोपाक] प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति, जिसकी उत्पत्ति मनु के अनुसार वैदेही माता और चांडाल पिता से है। कहते हैं, इस जाति के लोग बाँस की चीजें, दौरियाँ, टोकरे आदि बनाकर अपना निर्वाह करते थे।
⋙ पांडूरा †
वि० [सं० पाण्डुरक] श्वेत। सफेद। — उ० दाँत कवाड्या सिर पांडूरा केस।— बी० रासो, पृ० ७१।
⋙ पांडेय
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डेय] दे० 'पाँडे़'।
⋙ पांडो पु
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डव] दे० 'पांडव'। उ०— बंधु घातकर दोष लगावा। पांडो कहँ बहु काल सतावा।— कबीर सा०, पृ० ४९८।
⋙ पांड्य
संज्ञा पुं० [सं०] १ एक देश का नाम। २. उस देश का राजा। ३. पांड्य देश के निवासी जन [को०]।
⋙ पांथ
वि० [सं० पान्थ] १. पथिक। उ०— यह ओघ अमोघ जायगा; पथ तो पांथ स्वयं बनायगा—। साकेत, पृ० ३६३। २. वियोगी। विरही। ३. सूर्य। रवि (को०)।
⋙ पांथनिवास
संज्ञा पुं० [सं० पान्थनिवास] सराय। चट्टी।
⋙ पांथशाला
संज्ञा पुं० [सं० पान्थशाला] सराय। चट्टी।
⋙ पांथागार
संज्ञा पुं० [सं० पान्थागार] दे० 'पांथशाला'। उ०— चंपा के पांथागार में पर्शुपुरी के एक विख्यात रत्नबिक्रेता कई दिन से ठहरे थे। — वैशाली०, पृ० २१६।
⋙ पांशन (१)
वि० [सं०] १. तिरस्कार योग्य। तिरस्करणीय। हेय। २. दुष्ट। बदमाश। ३० कलंकित या भ्रष्ट करनेवाला। अप- मानित करनेवाला। (समासांत में प्रयुक्त) यथा-कुलपांशन, पौलस्त्यकुलपांशन [को०]।
⋙ पांशन (२)
संज्ञा पुं० घृणा। तिरस्कार [को०]।
⋙ पांशव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रेह का नमक।
⋙ पांशव (२)
वि० १. पांशु से उत्पन्न। धूल से उत्पन्न। २. पांशुयुक्त धूल से भरा हुआ [को०]।
⋙ पांशु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धूलि। रज। २. बालू। यौ०— पांशुज। ३. गोबर की खाद। ४. पित्तपापड़ा। ५. एक प्रकार का कपूर। ६. रज। ७. भूसंपत्ति।
⋙ पांशुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] केवडे़ का पौधा।
⋙ पांशुकासीस
संज्ञा पुं० [सं०] कसीस।
⋙ पांशुकुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजपथ। चौड़ा रास्ता। राजमार्ग [को०]।
⋙ पांशुकूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. चीथडो़ आदि को सीकर बनाया हुआ बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का वस्त्र। २. वह दस्तावेज या कागज जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम न लिखा गया हो। निरुपपद शासन। ३. धूलिपुंज। धुल का ढेर (को०)।
⋙ पांशुकृत
वि० [सं०] धूलि से आवृत। धूल से ढका हुआ। [को०]।
⋙ पांशुक्रीडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बालू से खेलना। २. मुष्टियुद्ध। मुक्केबाजी [को०]।
⋙ पांशुक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पांशुज' [को०]।
⋙ पांशुगुंठित
वि० [सं० पांशुगुण्ठित] धुलि से आवृत [को०]।
⋙ पांशुचंदन
संज्ञा पुं० [सं० पांशुचन्दन] दे० 'पांसुचंदन' [को०]।
⋙ पांशुचत्वर
संज्ञा पुं० [सं०] ओला। वर्षोपल।
⋙ पांशुचामर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पांशुचामर'।
⋙ पांशुज
संज्ञा पुं० [सं०] नोनी मिट्टी से निकाला हुआ नमक।
⋙ पांशुजालिक
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम [को०]।
⋙ पांशुधान
संज्ञा पुं० [सं०] धूल की ढेरी [को०]।
⋙ पांशुपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बयुआ (साग)।
⋙ पांशुमर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] थाला। आलवाल। क्यारी।
⋙ पांशुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पांसुर' [को०]।
⋙ पांशुरागिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महामोदा।
⋙ पाशुराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक देश का प्राचीन नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।
⋙ पांशुल (१)
वि० [सं०] १. परस्त्रीगामी। लंपट। व्यभिचारी। २. धूल या मिट्टी से ढका हुआ। जिसपर गर्द पड़ी हो। मलिन। मैला। ३. कलंकित वा भ्रष्ट करनेवाला (को०)।
⋙ पांशुल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूतिकरंज। २. शिव। ३. शिव का एक अस्त्र (को०)। ४. लंपट या व्यभिचारी व्यक्ति (को०)। ५. धूल से भरी जगह (को०)।
⋙ पांशुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुलटा। २. रजस्वला। ३. केतकी। केवडा़। ४. पृथिवी। धरती। भूमि। विशेष— ज्ञातव्य है कि 'पांशन' से 'पांशुला' तक के सभी शब्द दंत्य सकार से भी होते हैं और उनका अर्थ समान होता है। ऐसे कुछ शब्द आगे दिए गए हैं।
⋙ पांसु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पांशु'।
⋙ पांसु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पार्श्व] दे० 'पसली'।
⋙ पांसुकूल
संज्ञा पुं० [सं०] गुदड़ी। चीथडा़। (बौद्ध)। उ०— वे चीथड़ों (पांसुकूल) का चीवर पहनें। — हिंदु० सभ्यता, पृ० २५०। २. दे० 'पांशुकूल'।
⋙ पांसुक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] पाँगा नमक।
⋙ पांसुखुर
संज्ञा पुं० [सं० पांशुक्षुर] घोड़ों का एक रोग जो उनके पैरों में होता है।
⋙ पांसुचंदन
संज्ञा पुं० [सं० पांसुचन्दन] शिव। महादेव।
⋙ पांसुचत्वर
संज्ञा पुं० [सं०] जलोपल। वर्षोपल। ओला।
⋙ पांसुचामर
संज्ञा पुं० [सं०] १. तंबू। बडा़ खेमा। २. धूलिपुंज। धूल का ढेर (को०)। ३. स्तुति। वर्धापन। प्रशंसा (को०)। ४. वह तटभूमि जिसपर दूब जमी हो [को०]।
⋙ पांसुवावक
संज्ञा पुं० [सं०] धूल साफ करनेवाला। सड़क या गली झाड़नेवाला। (कौटि०)।
⋙ पांसुज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पांशुज'।
⋙ पांसुजलिक
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ पांसुमव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पांसुज'।
⋙ पांसुभिक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धौ का पेड़।
⋙ पांसुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बडा़ मच्छर। दंश। डाँस। २. लूला। लँगडा़।
⋙ पांसुरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पसली] सं० दे० 'पसली'।
⋙ पासुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलयुक्त। मलिन। २. पापी। ३. पूति- करंज। कंजा। ४. परस्त्री से प्रेम करनेवाला। ५. शिव। दे० 'पांशुल'।
⋙ पांसुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुलटा। २. रजस्वला। ३. भूमि। ४. केतकी।
⋙ पाँ पु
संज्ञा पुं० [सं० पाद, हिं० पाँव] पैर। पाँव। उ०— (क) प्राणपियारी के पाँ परिकै करि सौंह गरे की गरे लपटाने।— पद्माकर (शब्द०)। (ख) सभा समेत पाँ परे विशेष पूजियो सबै। — केशव (शब्द०)।
⋙ पाँइ पु
संज्ञा पुं० [सं० पाद] पैर। पाँव।
⋙ पाँइता पु
संज्ञा पुं० [हिं० पाँय़+ ता] दे० 'पाँयता'। उ०— कहा कहौं और राति सोवै जब रानी सब आपु बैठयो पाँइते कहानी भावते कहै। — रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ पाँईबाग
संज्ञा पुं० [फा़०] महलों के आस पास या चारो ओर बना हुआ वह छोटा बाग, जिमें प्राया। राजमहल की स्त्रियाँ सैर करने को जाती है। ऐसे बागों में प्रायः सर्वसाधारण के जाने की मनाही होती है।
⋙ पाँउ पु †
संज्ञा पुं० [सं० पाद, हिं० पाँव] पाँव। पैर। मुहा०—पाँउ पसारे सोना = निर्भय रहना। निश्चित रहना। बेखौफ रहना। उ०— मारुत बहहु आज अपने मन सूरज तपहु सुखारे। इंद्र वरुण कुबेर यम सुर गण सोवहु पाँउ पसारे।— रघुराज (शब्द०)।
⋙ पाँक
संज्ञा पुं० [सं० पङ्क] कीचड़।
⋙ पाँका †
संज्ञा पुं० [सं० पङ्क] दे० 'पाँक'।
⋙ पाँख †
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] पंख। पर। पक्षी का डैना। उ०— तापर भमरा पियत रस सजनि गे, बइसल पाँखि पसारि। — विद्यापति, पृ० १८०।
⋙ पाँखडा़
संज्ञा स्त्री० [हिं० पंख+ डा़ (प्रत्य०)] दे० 'पाँख'।
⋙ पाँखडी़
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पखडी़'।
⋙ पाँखी † पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्षी] १. वह पंखदार कीडी़ जो दीपक पर गिरती है। पतिंगा। २. कोई पक्षी। ३. वह औजार जिससे खेतों में क्यारियाँ बनाई जाती है।
⋙ पाँखुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पखडी़'।
⋙ पाँग
संज्ञा पुं० [सं० पङ्क] वह नई जमीन जो किसी नदी के पीछे हट जाने से उसके किनारे पर निकलती है। कछार। खादर। गंगबरार।
⋙ पाँगल
संज्ञा पुं० [सं०पाङ्गुल्य] ऊँट। (डिं०)।
⋙ पाँगला पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] एक डिंगल छंद का नाम। उ०— पांगलों छंद भाषै प्रगट बद घट कला बखाणजै।— रघु० रु०, पृ० १४।
⋙ पाँगा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पाँगा नोन'।
⋙ पाँगानोन
संज्ञा पुं० [सं० पङ्क, हिं० पाँग + नोन] समुद्री नोन। विशेष— वैद्यक में इसे स्वाद में चरपरा और मधुर, भारी, न बहुत गरम और न बहुत शीतल, अग्निप्रदीपक, वातनाशक और कफकारक माना है।
⋙ पाँगुर †
वि, संज्ञा पुं० [सं० पङ्गुल] दे० 'पंगु'।
⋙ पाँगुला
संज्ञा पुं० [सं० पाङ्गुल्य] एक प्रकार का बात रोग जिसमें दोनों पैर बेकार हो जाते हैं। उ०— जो दोनों पैरों को स्तंभित करे उसको पाँगुला कहते हैं। — माधव०, पृ० १४३।
⋙ पाँच (१)
वि० [सं० पञ्च] जो गिनती में चार और एक हो। जो तीन और दो हो। चार से एक अधिक। उ०— पाँच कोष नीचे कर देखो इनमें सार न जानी। — कबीर श०, भा० २, पृ० ६६। मुहा०—पाँचों उँगलियाँ घी में होना= सब तरह का लाभ या आराम होना। खूब बन आना। जैसे,— इस समय तो आपकी पाँचो उँगलियाँ घी में होंगी। पाँचो सवारों में नाम लिखाना = जबरदस्ती अपने से अधिक योग्य व श्रेष्ठ मनुष्यों में मिल जाना। औरों के साथ अपने को भी श्रेष्ठ गिनाना। विशेष— इस मुहावरे के संबंध में एक किस्सा है। कहते हैं, एक बार चार अच्छे सवार कहीं जा रहे थे। उनके पीछे पीछे एक दरिद्र आदमी भी एक गधे पर सवार जा रहा था। थोडी़ दूर जाने पर एक आदमी मिला जिसने उस दरिद्र गधे सवार से पूछा कि क्यों भाई, यो सवार कहाँ जा रहे हैं। उसने बहुत बिगड़कर कहा, हम पाँचों सवार कहीं जा रहे हैं तुम्हें पूछने से मतलब।
⋙ पाँच (२)
संज्ञा पुं० १. पाँच की संख्या। २. पाँच का अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है —५। ३. कई एक आदमी। बहुत लोग। उ०— मोरि बात सब बिधिहि बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई।— तुलसी (शब्द०)। ४. जाति बिरादरी के मुखिया लोग। पंच। उ०— साँचे परे पाँचों पान पाँच में परै प्रमान, तुलसी चातक आस राम श्याम घन की।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाँचक †
संज्ञा पुं० [सं० पञ्चक] दे० 'पंचक'।
⋙ पाँचर
संज्ञा स्त्री० [सं० पञ्जर] १. कोल्हू के बीच में जडे़ हुए लकडी़ के वे छोटे छोटे टुकडे जो गन्ने के टुकडे़ को दबाने में जाठ के सहायक होते हैं। जाठ और पाँचर के बीच में दबने से ही गन्ने के टुकड़ों में से रस निकलता है। २. दे० 'पच्चर'।
⋙ पाँचवाँ
वि० पुं० [हिं० पाँच + वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० पाँचवीं] जो क्रम में पाँच के स्थान पर पडे़। पाँच के स्थान पर पड़नेवाला।
⋙ पाँचमा ‡
वि० पुं० [सं० पञ्चम] दे० 'पाँचवाँ'। उ०— पाछे श्री गुसाँई जी पास पाँचमें दिन नारायणदास कासिद पठावते।— दो सौ बावन०, भा०१, पृ० १०७।
⋙ पाँचा
संज्ञा पुं० [हिं० पाँच + आ (प्रत्य०)] किसानों का एक औजार जिससे वे भूसा, घास इत्यादि समेटते या हटाते हैं। इसमें चार दाँते और एक बेंट होता है इसी से इसे पाँचा कहते हैं। पचंगुरा।
⋙ पाँची
संज्ञा स्त्री० [ देश०] एक प्रकार की घास जो तालाबों में होती है।
⋙ पाँचैँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पञ्चमी] किसी पक्ष की पाँचवीं तिथि।पंचमी। उ०— (क) जब बसंत फागुन सुदी पाँचै गुरु दिन।— तुलसी (शब्द०)। (ख) नाचे बनैगी बसंत की पाँचैं।— देव(शब्द०)।
⋙ पाँछना
क्रि० स० [हिं० पंछा] पाछना। चीरना। चीरा लगाना। उ०— सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई।— मानस, २। १६०।
⋙ पाँजना
क्रि० न० [सरं० प्रणद्ध प्रा० पणझ, पँज्झ] टीन, लोहे, पीतल आदि धातु के दो या आधिक टुकड़ों को टाँके लगाकर जोड़ना। झालना। टाँका लगाना।
⋙ पाँजर
संज्ञा पुं० [सं० पञ्जर] १. बगल और कमर के बीच का वह भाग जिसमें पसलियाँ होती हैं। छाती के अगल बगल का भाग। २. पसली। ३. पार्श्व। पास। बगल। सामीप्य।
⋙ पाँजरा
संज्ञा पुं० १ वह मल्लाह जो मल्लाही में अनाडी़ हो। डंडी। कूली। (ऐसे अनाड़ियों के मल्लाह लोग पाँजरा कहते हैं)।
⋙ पाँजी
संज्ञा स्त्री० [सं० पदाति, हिं० पाजी (=पैदल)। या सं० पाद्य ?] किसी नदी का इतना सूख जाना कि लोग उसे हलकर पार कर सकें। नदी का पानी घुटनों तक या उससे भी कम हो जाना। उ०— अब कबीर पाँजी परे पंथी आवैं जायँ।— कबीर (शब्द०)। क्रि० प्र०— पड़ना।
⋙ पाँझ
वि० [देश०] दे० 'पाँजी'। उ०— नदियों को पाँझ और मार्ग को सूखा करनेवाली शरद ने उसको मन के उत्साह से पहले ही यात्रा निमित्त प्रेरणा की। लक्ष्मणसिंह (शब्द०)।
⋙ पाँड़
वि० स्त्री० [देश०] १. (स्त्री) जिसके स्तन बिलकुल न हो या बहुत ही छोटे हों। २. (स्त्री) जिसकी य़ोनि बहुत छोटी हो और जो संभोग के योग्य न हो।
⋙ पाँड़क
संज्ञा पुं० [हिं० पाण्डुक] दे० 'पंडुक'।
⋙ पाँडर †
संज्ञा पुं० [सं० पाण्डर] १. दौना। मरुवा। दे० 'पांडर'। २. कुंद का पुष्प। उ०— बर बिहार चरन चारु पाँडर चंपक चनार कचनार वार पार पुर पुरंगिनी।— तुलसी ग्रं०, पृ० ३४४।
⋙ पाँडरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की ईख।
⋙ पाँडे़
संज्ञा पुं० [सं० पण्डित] १. सरयूपारी, कान्यकुब्ज और गुजराती आदि ब्राह्मणों की एक शाखा। २. कायस्थों की एक शाखा। ३. पंडित। विद्वान। (क्व०)। ४. अध्यापक। शिक्षक। ५. रसोइया। भोजन बनानेवाला। ६. पानी पिलानेवाला। यौ०— पानीपाँडे़।
⋙ पाँत †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँति] दे० 'पाँति'। उ०— खोवै जगत पाँत अभिमाना। — कबीर सा०, पृ० ९६७।
⋙ पाँति
संज्ञा स्त्री० [सं० पङ्क्ति] १. कतार। पंगत। २. अवली। समूह। ३. एक साथ भोजन करनेवाले बिरादरी के लोग। परिवार समूह। उ०—(क) जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुण चतुराई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) मेरे जाति पाँति न चहों काहू की जाति पाँति मेरे कोऊ काम को न हौं काहू के काम को।—तुलसी (शब्द०) । (ग) वहाँ नहीं है दिन अरु राती। ऊँच न नीच जाति या पाँती।—कबीर सा०, पृ० ८२३।
⋙ पाँमड़ी, पाँमरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रावार] उपरना। दुपट्टा। पामरी। उ०—साँमरी रैन में साँमरीयै घहरै घनघोर घटा छिति छवै कै। साँमरी पाँमरी की दै खुही बलि साँमरे पैं चली सामरी छवै कै।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १३३।
⋙ पाँय † पु
संज्ञा पुं० [सं० पाद] चरण। पाद। पैर। कदम। उ०—सौपे सुत गहि पाँयँ परि हरषाने जाने शेष सयन।—(शब्द०)।
⋙ पाँयँचा
संज्ञा पुं० [फा़० पाँयँचह्] १. पाखानों आदि में बना हुआ पैर रखने का वह स्थान जिसपर पैर रखकर शौच से निवृत्त होने के लिये बैठते हैं। २. पायजामें की मोहरी जिससे जाँघ से लेकर टखने तक का अंग ढका जाता है। मुहा०—पाँयँचों के बाहर होना = दे० 'पाजामे के बाहर होना'।
⋙ पाँलागनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँय + लगना] दे० 'पालागन'। उ०—पाँलागनि दुलहियन सिखावति सरिस सासु सत साता।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३२६।
⋙ पाँवँ
संज्ञा पुं० [सं० पाद] दे० 'पाँव'।
⋙ पाँवँड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पाँवँ + ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'पावँड़ा'।
⋙ पाँवँड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँवँ + ड़ी (प्रत्य०)] दे० 'पावँड़ी'।
⋙ पाँव
संज्ञा पुं० [सं० पाद, प्रा०, पाय, पाव] वह अंग जिससे चलते हैं। पैर। पाद। मुहा०—(किसी काम या बात में) पाँव अड़ाना = किसी बात में व्यर्थ सम्मिलित होना। मामले के बीच में व्यर्थ पड़ना। फजूल दखल देना। पाँव उखड़ जाना = (१) पैर जमे न रहना। पैर हट जाना। स्थिर होकर खड़ा न रह सकना। (२) ठहरने की शक्ति या साहस न रह जाना। लड़ाई में न ठहरना। सामने खड़े होकर लड़ने का साहस न रहना। भागने की नौबत आना। जैसे,—दूसरा आक्रमण ऐसे वेग से हुआ कि सिक्खों के पाँव उखड़ गए। पाँव उखाड़ना = (१) पैर जमा न रहने देना। हटा देना। भगा देना। (२) किसी बात पर स्थिर न रहने देना। द्दढ़ता का भंग करना। पाँव उठ जाना = दे० 'पाँव उखड़ जाना'। पाँव उठाना = चलने के लिये कदम बढ़ाना। डग आगे रखना। चलना आरंभ करना। (२) जल्दी जल्दी पैर आगे रखना। डग भरना। पाँव उठाकर चलना = जल्दी जल्दी पैर बढ़ाना। तेज चलना। पाँव उड़ाना = शत्रु के आघात से पैरों की रक्षा। करना। दुश्मन के वार से पैर बचाना। पाँव उतरना = चोट आदि से पैर का गट्टे से सरक जाना। पैर का जोड़ उखड़ जाना। (२) पैर धँसना। पैर समाना। पाँवकट जाना = (१) आने जाने की शक्ति या योग्यता न रहना। आना जाना बंद होना। (२) अन्न जल उठ जाना। रहने या ठहरने का अंत हो जाना। (३) संसार से उठ जाना। जीवन का अंत हो जाना। (जब कोई मर जाता है तब उसके विषय में दुःख के साथ कहते हैं 'आज यहाँ से उसके पाँव कट गए')। पाँव काँपना = दे० 'पाँव थरथराना'। पाँव का खटका = पैर रखने की आहट। चलने का शब्द। पाँव की जूती = अत्यंत क्षुद्र सेवक या दासी। पाँव की जूती सिर को लगना = छोटे आदमी का बड़े के मुकाबले में आना। क्षुद्र या नीच का सिर चढ़ना। छोटे आदमी का बड़े से बराबरी करना। पाँव की बेड़ी = बंधन। जंजाल। पाँव की मेहँदी न धिस जायगी = कहीं जाने या कोई काम करने से पैर न मैले हो जायँगे अर्थात् कुछ बिगड़ न जायगा। (जब कोई आदमी कहीं जाने या कुछ करने से नहीं करता है तब यह व्यंग्य बोलते हैं)। पाँव खींचना = घूमना फिरना छोड़ देना। इधर उधर फिरना बंद करना। पाँव गाड़ना = (१) पैर जमाना। जमकर खड़ा रहना। (२) लड़ाई में स्थिर रहना। डटा रहना। किसी बात पर द्दढ़ होना। किसी बात पर जम जाना। पाँव घिसना = चलते चलते पैर थकना। जैसे,—तुम्हारे यहाँ दौड़ते दोड़ते पाँव धिस गए पर तुमने रुपया न दिया। पाँव चलना = दे० 'पाँव पाँव चलना'। पाँव छूटना = रजःस्राव होना। रजस्वाला होना। पाँव छोड़ना = उपचार औषध से रजःस्ताव कराना। रुका हुआ मासिक धर्म जारी करना। पाँव जमना = (१) पैर ठहरना। स्थिर भाव से खड़ा होना। (२) द्दढ़ता रहना। हटने या विचलित होने की अवस्था न आना। पैर जमना = (१) स्थिर भाव से खड़ा रहना। (२) द्दढ़ता से ठहरा रहना। न हटना। (३) स्थिर हो जाना। अपने ठहरने या रहने का पूरा बंदोबस्त कर लेगा। जैसे,—अभी से उसे हटाने का यत्न करो, पाँव जमा लेगा तो मुश्किल होगी। पाँव जोड़ना = दो आदमियों का झूले में आमने सामने बैठकर एक विशेष रीति से झूले की रस्सी में पैर उलझाना। पाग जोड़ना। पाँव टिकना = दे० 'पाँव जमना'। पाँव टिकाना = (१) खड़ा होना। (२) स्थिर होना। ठहर जाना। विराम करना। पाँव ठहरना = (१) पैर का जमना। पैर न हटना। जैसे,— पानी का ऐसा तोड़ा था कि पाँव नहीं ठहरते थे। (२) ठहराव होना। स्थिरता होना। पाँव डगमगाना = (१) पैर स्थिर न रहना। पैर ठहरा न रहना। पैर का ठीक न पड़ना। इधर उधर हो जाना। लड़खड़ाना। जैसे,—उस पतले पुल पर से मैं नहीं जा सकता, पाँव डममगाते हैं। (२) दृढ़ न रहना = विचलित हो जाना। पाँव डालना = किसी काम में हाथ डालना। किसी काम के लिये तत्पर होना। पाँव डिगना = पैर ठीक स्थान पर न रहना; इधर उधर हो जाना। स्थिर न रहना। विचलित होना। जैसे,—राजा के पाँव सत्य के पथ से न डिगे। पाँव तले की चींटी = क्षुद्र से क्षुद्र जीव। अत्यंत दीन हीन प्राणी। पाँव तले की धरती सरकी जाती है = (ऐसा घोर मर्मभेदी दुःख या आपत्ति है जिसे सुनकर) पृथ्वी कँपी जाती है। (स्त्रियाँ)। पाँव तले की मिट्टी निकल जाना = (किसी भयंकर बात को सुनकर) स्तब्ध सा हो जाना। होश उड़ जाना। होश ठिकाने न रहना। ठक हो जाना। सन हो जाना। सन्नाटे में आ जाना। पाँव तोड़ना = (१) बहुत चलकर पैर थकाना। जैसे,—मै क्यों इतनी दूर जाकर पाँव तोड़ूँ। (२) बहुत दौड़ धूप करना। इधर उधर बहुत हैरान होना। घोर प्रयत्न करना। (किसी के) पाँव तोड़ना। (१) बहुत चलाकर थकाना। (२) दौड़ाकर हैरान करना। पाँव तोड़कर बैठना = (१) कहीं न जाना। अचल होना। स्थिर हो जाना। जैसे,—भारत में दरिद्रता पाँव तोड़कर बैठी है। (२) प्रयत्न करते करते थककर बैठना। हारकर बैठना। पाँव थरथराना = (१) भय, आशंका, निर्बलता आदि से पैर काँपना। (२) किसी काम में भय, आशंका से आगे पैर न उठना। अग्रसर होने का साहस न होना। पाँव दबाना या दाबना = (१) थकावट दूर करने या आराम पहुँचाने के लिये जंघे से लेकर पंजे तक हथेली रख रखकर दबाब पहुँचाना। पाँव पलोटना। (२) सेवा करना। पाँव धरना = पैर रखना। किसी स्थान पर जाना। पधारना। जैसे,—अब उसके दरवाजे पर पाँव नहीं धरेंगे। किसी काम में पाँव धरना = किसी कार्य में अग्रसर होना। किसी कार्य में प्रवृत्त होना। किसी का पाँव धरना = (१) पैर छूकर प्रणाम करना। (२) दीनता से विनय करना। हा हा खाना। पाँव धारनापु = दे० 'पाँव धरना'। उ०—धन्य भूमि वन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धारा।—तुलसी (शब्द०)। बुरे पंथ पर पाँव (पग) धरना = बुरे काम में प्रवृत्त होना। उ०—रघुवंसिन कर सहज सुभाऊ। मन कुपंथ पग धरै न काऊ।—तुलसी (शब्द०) पाँव धो धोकर पीना = चरमामृत लैना। बड़े आदर भाव से पूजा करना। पाँव निकलना = दुश्चरित्रता की बात फैलना। बदचलनी की बदनामी फैलना। पाँव निकालना = (१) बढ़कर चलना। जिस स्थिति में हो उससे बढ़कर प्रकट करनेवाले काम करना। ऐसी चाल चलना जो अपने से ऊँचे पद और पित्त के लोगों को शोभा दे। इतराकर चलना। जैसे, किसी सामान्य मनुष्य का अमीरों का सा ठाट वाट रखना। (२) बेकहा होना। निरंकुश होना। स्वेच्छाचारी होना। नटखटी और उपद्रव करना। जैसे,— तुमने बहुत पाँव निकाले हैं, चलो तुम्हारे बाप से कहता हूँ। (३) व्यभिचार करना। बदचलनी करना। (४) उत्साद होना। चालाक होना। इधर ऊधर की बातें समझने बूझने योग्य हो जाना। पक्का होना। जैसे,—तुम तो बहुत सीधे और भोले भाले थे, अब तुमने भी पाँव निकाले। किसी काम से पाँव निकालना = किसी काम से किनारे हो जाना। तटस्थ हो जाना। शामिल न रहना। पाँव पकड़ना, पाँव पकरनापु = (१) विनती करके किसी को कहीं जाने से रोकना। उ०—जानति जो न श्याम ऐहैं पुनि पाँव पकरि धरि राखाति।—सूर (शब्द०)। (२) पैर छूना। बड़ीदीनता और विनय करना। हा हा करना। उ०—अब यह बात कहौ जनि ऊधो पकरति पाँव तिहारे।—सूर (शब्द०)। (३) पैर छूकर नमस्कार करना। भक्ति और आदरपूर्वक प्रणाम करना। पाँव पखारना = (१) पैर धोना। पाँव पड़ना = (१) पैरों पर गिरना। साष्टांग दंडवत् करना। (२) अत्यंत दीनता से विनय करना। (भूत, प्रेत आदि का) पाँव पड़ना † = भूत, प्रेत की छाया पड़ना। प्रभाव पड़ना। पाँव पर गिरना = दे० 'पाँव पड़ना'। पाँव पर पाँव रखकर बैठना या सोना = (१) काम धंधा छोड़ आराम से बैठना या पड़ा रहना। चैन से चुपचाप पड़ा रहना। हाथ पैर न चलाना। उद्योग न करना। (२) गाफिल पड़ा रहना। सावधान न रहना। (पाँव पर पाँव रखकर बैठना या सोना कुलक्षण समझा जाता है। लोग कहते हैं, जब यादवों का नाश हो गया तब श्रीकृष्ण पाँव पर पाँव रखकर लेटे)। किसी के पाँव पर पाँव रखना = किसी के कदम ब कदम चलना। किसी की एक एक बात का अनुकरण करना। दूसरा जो कुछ करता जाय वही करते जाना। पाँव पर सिर रखना = दे० 'पाँव पड़ना'। पाँव पलोटनापु † = पैर दबाना। पाँवचप्पी करना। पाँवपसारना = (१) पैर फैलाना। (२) आराम से पड़ना या सोना। (३) मरना। (४) आडंबर बढ़ाना। ठाट बाट कारना। उ०—तेतो पाँव पसारिए जेती लाँबी सौर।—(शब्द०) पाँव पाँव = अपने पैरों से, सवारी आदि पर नहीं। पैदल। पा प्यादा। पाँव पाँव चलना = पैरों से चलना। पाँव पाँव चंदन के पाँव = एक वाक्य जिस बच्चे के पहले पहल खड़े होने पर घर की स्त्रियाँ या खेलानेवाली दासियाँ प्रसन्न हो होकर कहती हैं। पाँव पीटना = (१) क्लेश या पीड़ा से पैर उठाना। बेचैनी से पैर पटकना। छटपटाना। तड़फना। (२) मृत्यु की यंत्रणा भोगना। (३) घोर प्रयत्न करना। हैरान होना। जैसे,—बहुत पाँव पीटा पर एक न चली। पाँव पूजना = (१) बड़ा आदर सत्कार करना। बड़ी श्रद्धा भक्ति करना। बहुत पूज्य मानना। (२) विवाह के कन्यादान के समय कन्याकुल के लोगों का वर का पूजन करना और कन्यादान में योग देना। पाँव फिसलना = पैर का जमा न रहना, सरक जाना। रपटना। जैसे,—कोई पर पाँव फिसल गया और गिर पड़े। पाँव फूँक फूँककर रखना = बहुत बचाकर काम करना। कुछ करते हुए इस बात का बहुत ध्यान रखना कि कोई ऐसी बात न हो जाय जिससे कोई हानि या बुराई हो। बहुत सावधानी से चलना। पाँव फूलना = (१) पैरों का भयं आशंका आदि से अशक्त हो जाना। पैर आगे न उठना। (२) पैर में थकावट आना। थकावट से पैर दुखना। पाँव फेरने जाना। (१) विवाह के पीछे दुलहिन का पहले पहल ससुराल में जाना। (२) दुलहिन का ससुराल से पहले पहल अपने मायके या और किसी संबंधी के यहाँ जाना और वहाँ से मिठाई, नारियल का गोला आदि लेकर लौटना। इसके पहले वह और किसी के यहाँ नहीं जा आ सकती। (३) बच्चा होने के पीछे प्रसूता का कुछ दिनों के लिये अपने माँ बाप या और संबंधियों के यहाँ जाना। पाँव फैलाना = (१) अधिक पाने के लिये हाथ बढ़ाना। मुँहबाना। पाकर भी अधिक का लोभ करना। जैसे,—बहुत पाँव न फैलाओ अव और न देंगे। (२) बच्चों की तरह अड़ना। हठ करना। जिद करना। मचलना। (विशेष दे० 'पाँव पसारना)। पाँव बढ़ाना) = (१) चलने में पैर आगे रखना। (२) बड़े बड़े डग रखना। फाल भरना। जल्दी जल्जी चलना। (३) अधिकार बढ़ाना। अतिक्रमण करना। पाँव बाहर निकालना = दे० 'पाँव निकलना'। पाँव बाहर निकालना = दे० 'पाँव निकलना'। पाँव बिचलना = (१) पैर इधर उधर हो जाना। पैर का ठीक न पड़ना या जमा न रहना। पैर फिसलना। पैर रपटना। जैसे,—कीचड़ में पाँव फिसल गया। (२) स्थिर न रहना। दृढ़ता न रहना। (३) धर्म पर स्थिरता न रहना। ईमान डिगना। नीयत में फर्क आना। पाँव भर जाना = थकावट से पैर में बोझ सा मालूम होना। पैर थकना। पाँव भारी होना = पेट होना। गर्भ रहना। हमल होना। किसी से पाँव भी न धुलवाना = किसी को अपनी तुच्छ सेवा के योग्य भी न सम- झना। अत्यंत तुच्छ और छोटा समझना। पाँव में क्या मेंहदी लगी है? = क्या पैर में मेंहदी लगाकर बैठे हो कि छूटने के डर से जाना या कोई काम करना नहीं चाहते? (व्यंग्य)। पाँव में बेड़ी पड़ना = किसी प्रकार के बंधन या जंजाल में फँसना। जैसे, गृहस्थी या बाल बच्चों के। पाँव में सिर देना = दे० 'पाँव पर सिर रखना'। पाँव रगड़ना = (१) क्लेश या पीड़ा से पैर हिलाना या पीटना। छटपटाना। (२) बहुत दौड़ धूप करना। बहुत हैरान होना। बहुत कोशिश करना। पाँव रह जाना = (१) पैरों का अशक्त हो जाना। पैरों का काम देने लायक न रहना। (२) थकावट से पैरों का बेकाम हो जाना। जैसे,—चलते चलने पाँव रह गए। पाँव रोपना = अड़ना। प्रण करना। प्रतिज्ञा करना। पाँव लगना = (१) पैर छूना। प्रणाम करना। चरण-स्पर्श-पूर्वक नमस्कार करना। (२) पैर पड़ना। विनती करना। पाँव लगा होना = ऐसा स्थान जहाँ अनेक बार पैर पड़ चुके हो, अर्थात् आना जाना हो चुका हो। घूमा फिरा हुआ होना। बार बार आते जाते रहने के कारण परिचित होना। जैसे,— वहाँ की जमीन पाँव लगी हुई है ठीक जगह आपसे आप पहुँच जाता हूँ। पाँव समेटना = (१) पैर खींच कर मोड़ना जिससे वह दूर तक फैला न रहे। पैर सुकेड़ना। (२) किनारा खींचना। दूर रहना। लगाव न रखना। तटस्थ होना। (३) मरना। (४) इधर उधर घूमना छोड़ना। पाँव सुकेड़ना = पाँव समेटना। पैर फैला न रहने देना। पाँव से पाँव बाँधकर रखना = (१) बराबर अपने पास रखना। पास से अलग न होने देना। (२) बड़ी चौकसी रखना। निगाह के बाहर न होने देना। पाँव सो जाना = (१) पैर सुन्न हो जाना। स्तब्ध हो जाना। (२) पैर झन्ना उठना। (किसी के) पाँव न होना = ठहरने की शक्ति या साहस न होना। द्दढ़ता नहोना। जैसे,—चोर या शराबी के पाँव नहीं होते। धरती पर पाँव न रहना = (१) बहुत घमंड होना। घमंड या शेखी के मारे सीधे पैर न पड़ना। (२) आनंद के मारे अंग स्थिर न रहना। फूले अंग न समाना। धरती पाँव न रखना = घमंड के मारे सीधे पैर न धरना। बहुत ऊँचा होकर चलना। घमंड या शेखी से फूलना। इतराना। आनंद के मारे उछलना। बहुत प्रसन्न होना।
⋙ पाँवचप्पी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँव + चापना (= दबाना)] थकावट दूर करने या आराम पहुँचाने के लिये पैर दबाने की क्रिया। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ पाँवर पु
वि० [सं० पामर] पतित। पापी। नीच। अधम। उ०— देखे नरनारि कहैं, साग खाइ जाए, माइ, बाहु पीन पाँवरनि पीना खाइ पोखे हैं।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३१९।
⋙ पाँवरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँव + ड़ा (प्रत्य०)] १. दे० 'पावँड़ी'। २. सोपान। सीढ़ी। ३. पैर रखने का स्थान। ४. जूता। पादुका। खड़ाऊँ। उ०—भो रैदास नाम अस ताको। करै कर्म रचिबो जूता को। रचि पाँवरी संत कहँ देवै। संत चरण जल शिर धरि लेवै।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ पाँबरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पौरि, पौरी] १ पौरी। वह कोठरी जो किसी घर के भीतर घुसते ही रास्ते में पड़ती हो। डयोढ़ी। २. बैठक। दालान। उ०—पैग पैग पर कुआँ बावरी। साजी बैठक और पाँवरी।—जायसी ग्रं०, पृ० ११।
⋙ पाँस
संज्ञा स्त्री० [सं० पांशु] १. राख, गोबर, मल, मुत्र, अस्थि, क्षार, सड़ी गली चीजें आदि जो खेतों को उपजाऊ करने के लिये उनमें डाली जाती है। खाद। क्रि० प्र०—डालना।—देना। २. किसी वस्तु को सड़ाने पर उठा हुआ खमीर। ३. शराब निकाला हुआ महुआ।
⋙ पाँसना †
क्रि० स० [हिं० पाँस + ना (प्रत्य०)] खेत में खाद देना।
⋙ पाँसा
संज्ञा पुं० [सं० पाशक] हाथीदाँत या किसी हड्डी के बने चार पाँच अंगुल लंबे बत्ती के आकार के चौपहल टुकड़े। उ०—(क) चौपर खेलत भवन आपने हरि द्वारिका मँझार। पाँसे डार परम आतुर सों कीन्हें अनत उचार।—सूर (शब्द०)। (ख) कौरव पाँसा कपट बनाए। धर्मपुत्र को जुवा खेलाए।—(शब्द०)। विशेष—इससे चौसर का खेल खेलते हैं। ये संख्या में ३ होते हैं। प्रत्येक पहल में कुछ विंदु से बने रहते हैं। उन्ही बिंदु की गणना से दाँव समझा जाता है। क्रि० प्र०—पड़ना।—फेंकना। मुहा०—पाँसा उलटना = किसी प्रयत्न का उलटा फल होना। पाँसा उलटा पड़ना = दे० 'पाँसा उलटना'।
⋙ पाँसासार †
संज्ञा पुं० [हिं० पाँसा + सं० सारि] चौपड़। उ०— पाँसासारि कुँअर सब खेलहि गीतन सुवन ओनाहिं। चैन चाव तस देखा जनु गढ़ छेंका नाहिं।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पाँसी
संज्ञा स्त्री० [सं० पाश] सूत या डोरी आदि का बना हुआ वह जाल या जाला जिसमें घास भूसा आदि बाँधते हैं।
⋙ पाँसुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पार्श्व] पसली। पासुरी। उ०—(क) कलि को कलुष मन मलिन किए महत मसक की पाँसुरी पयोधि पाटियतु है।—तुलसी ग्रं०, पृ० २२२। (ख) पावै न चैन सु मैन ते बाननि होत छिनौ छिन छिन घनेरी। बूझै जु कंत कहै तो यहै तिय पीउ पिराति है पाँसुरी मेरी।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ११२।
⋙ पाँही पु †
क्रि० वि० [हिं० पँह] निकट। पास। समीप।
⋙ पा
संज्ञा पुं० [हिं० पाद, फा़० पा] पैर। चरण। उ०—(क) परि पा करि बिनती घनी नीमरजा हौं कीन। अब न नारि अर करि सकै जदुबर परम प्रवीन।—स० सप्तक, पृ० २२०। (ख) पा पकरो बैनी तजो धरमै करिए आजु। भोर होत मनभावतो भलो भूलि सुभ काजु।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० ४८।
⋙ पाइंट
संज्ञा पुं० [अं० पाइंट] १. पानी, दूध आदि द्रव पदार्थ नापने का एक अंग्रेजी मान जो डेढ़ पाव का होता है। डेढ़ पाव का एख पैमाना। २. आधी या छोटी बोतल जिसमें प्रायः डेढ़ पाव जल या मदिरा आती है। श्रद्धा।
⋙ पाइ पु
संज्ञा पुं० [सं० पाद] दे० 'पाद'। उ०—चरखी के चहले मै चलि सकत न पाइ।—हम्मीर०, पृ० ५६।
⋙ पाइक पु
संज्ञा पुं० [सं० पादातिक] दे० 'पायक'। उ०—सुंदर ज्ञानी नृपति कै सेना हैं चतुरंग। रथ अश्व गज त्रय अवस्था इंद्रिय पाइक संग।—सुंदर ग्रं०, भा० २२, पृ० ८१३।
⋙ पाइंदा
वि० [फा़० पाइंदह्] अनश्वर। स्थायी। नित्य। सदा रहनेवाला [को०]। यौ०—पाइंदाबाद = एक आशीर्वाक्य। हमेशा रहो। चिरंजीव।
⋙ पाइका
संज्ञा पुं० [अं०] नाप के विचार से छापे के टाइपों का एक प्रकार जिसकी चौड़ाई १/६ इंच होती है। अक्षरों की मोटाई आदि के विचार से इसके और भी कई भेद हाते हैं। साधारण पाइका टाइप का नमूना यह है— यह पाइका टाइप है। यौ०—स्माल पाइका।
⋙ पाइक्क
संज्ञा पुं० [सं० पादातिक] दे० 'पायक', 'पाइक'। उ०— (क) पाइक्कह चक्कह को गणउ चलिय से चतुरंग।— कीर्ति०, पृ० ८२। (ख) पाइक्क संग कायक्क केलि। धरि धूप हथ्य बाहंत झेलि। पृ० रा०, १।७२३।
⋙ पाइग्गाह †
संज्ञा पुं० [फा़० पाएगाह] १. घुड़साल। वाजिशाला। २. कचहरी। उ०—पाइग्गह पअ भरै भउँ पल्लानिञ्जउँ तुरंग।—कीर्ति० पृ० ८४।
⋙ पाइतरी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पादस्थली] पलंग का वह भाग जहाँ सोनेवाले के पैर रहते हैं। पैताना। उ०—भारतादि दुर्योधन अर्जुन भेटन गए द्वारका पुरी। कमलनैन बैठे सुख शंय्या पारथ पाइतरी।—सूर (शब्द०)।
⋙ पाइप
संज्ञा पुं० [अं०] १. नल या नली। २. पानी की कल। नल। ३. बाँसुरी के आकार का एक प्रकार का अंग्रेजी बाजा। ४. हुक्के का नल।
⋙ पाइमाल पु †
वि० [फा़० पामाल, पायमाल] पददलित। बरबाद। उ०—तुलसी गरब तजि, मिलिवे को साज सजि, देहि सिय न तौ पिय पाइमाल जाहिगो।—तुलसी ग्रं०, पृ० १८७।
⋙ पाइरा †
संज्ञा पुं० [हिं० पाव + रा (प्रत्य०)] रकाब जिसपर घोड़े की सवारी के समय पैर रखते हैं। विशेष—दे० 'रकाब'।
⋙ पाइल पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पायल] दे० 'पायल'। उ०—तब या प्रकार नूपुर के सब्द अनवट बिछियान के पाइलन के तथा कटिसूत्रन के सब्दन सों पधारे।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २२०।
⋙ पाह (१)
वि० [फा़०] १. पिछला। पीछे का। आखिरी। २. नीचेवाला। निचला। ३. सिरहाने का उलटा। पायताना। यौ०—पाई परस्सी = दासता। खिदमतगारी। पाईंबाग।
⋙ पाईं बाग
संज्ञा पुं० [फा़० पाई बाग] नजर बाग। मकान से मिला हुआ बगीचा। उ०—अपना पाईंबाग बना लोगे प्रिय इस मन को आकर।—झरना, पृ० ३०।
⋙ पाई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पाद, हिं० पाय] १. किसी एक ही निश्चित घेरे या मंडल में नाचने या चलने की क्रिया। मंडल घूमना। गोड़ापाही। उ०—नीर के निकट रेणु रंजित लसै यो तट एक पट चादर की चाँदनी बिछाई सी। कहैं पदमाकर त्यौं करत कलोल लोक आवरत पूरे राजमंडल की पाई सी।—पद्माकर (शब्द०)। ष २. पतली छड़ियों या बेतों का बना हुआ जोलाहों का एक ढाँचा जिसपर ताने के सूत को फैलाकर उसे खूब माजते हैं। टिकठी। अड्डा। मुहा०—पाई करना = पाई पर फैले हुए ताने को कूँची से माँजना। ३. घोड़ों की एक बीमारी जिसमें उनके पैर सूज जाते हैं और वे चल नहीं सकते। ४. एक पुराना छोटा सिक्का जो आने का १२वाँ, या एक पैसे का तीसरा भाग होता था। ५. एक पैसा। (क्व०)। ६. छो़टी सीधी लकीर जो किसी संख्या के आगे लगाने से इकाई का चतुर्थांश प्रकट करती है, जैसे ४। से चार ओर एक इकाई का चौथा भाग, अर्थात् सवा चार। ७. दीर्घ आकार सूचक मात्रा जिसे अक्षर को दीर्घ करने के लिये लगाते है, जैसे,—क से का, द से दा। ८. छोटी खड़ी रेखा जो किसी वाक्य के अंत में पूर्ण विराम सूचित करने के लिये लगाई जाती है। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। ९. पिटारी जिसमें स्ञियाँ अपने आभूषणादि रखती हैं। १०. छापे के घिसे हुए और रद्दी टाइप। (मुद्रण)। मुहा०—पाई करना = (१) घिसे और बेकार टाइपों को एक में मिला देना। (२) छापे में प्रयुक्त टाइपों को एक में इस तरह मिला देना के उनको अलग अलग न किया जा सके। पाई होना = मुद्रण में प्रयुक्त टाइपों का बेकार हो जाना।
⋙ पाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाया (= पाई कीड़ा)] एक छोटा लंबा कीड़ा जो घुन की तरह अन्न को, विशेषतः धान को, खा जाता अथवा खराब कराता है और उसे जमने योग्य नहीं रहने देता। क्रि० प्र०—लगना।
⋙ पाइता
संज्ञा पुं० [देश०] एक वर्णवृत्त जिसमें एक मगण, एक भगण और एक सगण होता है।
⋙ पाउंड
संज्ञा पुं० [अं०] १. सोने का एक अंग्रेजी सिक्का जो २० शिलिंग का होता है और पहले १५) का माना जाता था, फिर १०) का, परंतु अब १३) का ही माना जाता है। इसका भाव घटता बढ़ता रहता है। अब इसका प्रचलन नहीं है। कागज का ही पौंड नोट चलता है। २. एक अंग्रेजी तौल जो लगभग ७ छटाँक के होती है।
⋙ पाऊँ पु †
संज्ञा पुं० [सं० पाद] दे०' 'पावँ'। उ०—जेन्हे अत्थिजन विमन न किंजिअ, जेइ अतत्थ न भणिआ, जेइ न पाउँ उमग दिजिअ।—कीर्ति०, पृ० १०।
⋙ पाउँड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पावँ + ड़ा] दे० 'पावँड़ा'। उ०—चीर चुरैलन भीर मग नीर गभीर मझाइ। करि पन्नग के पाउँड़े पिय पै पहुँची जाइ।—स० सप्तक, पृ० ३९०।
⋙ पाउ †
संज्ञा पुं० [सं० पाद] १. दे० 'पावँ'। उ०—कहौ तोहि सिंघलगढ़, है खँड सात चढ़ाउ। फिरा न कोई जिअत जिउ, सरग पंथ दै पाउ।—जायसी ग्रं०, पृ० २६४। २. चतुर्थांश। पाव।
⋙ पाउडर
संज्ञा पुं० [अं०] १. कोई वस्तु जो पीसकर धूल के समान कर दी गई हो। चूर्ण। बुकनी। २. एक प्रकार का विलायती बना हुआ मसाला या चूर्ण जो प्रायः स्त्रियाँ और नाटक के पात्र अपने चेहरे पर रंगत बदलने और शोभा बढ़ाने के लिये लगाते हैं।
⋙ पाऊँ पु
संज्ञा पुं० [सं० पाद, प्रा० पाअ, पाअँ, पाउँ] पैर। उ०— गूँगा हुआ बावला, बहरा हुआ कान। पाऊँ थें पंगुल भया, सतगुर भारया बान।—कबीर ग्रं०, पृ० १०।
⋙ पाएल †
वि० [हिं० पैदल] पदाति या पैदल चलनेवाली (सेना)। उ०—अठारह लाख फौद है एता। तुरुकी साजी पाएल केता।—सं० दरिया, पृ० १३।
⋙ पाक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पकाने की क्रिया। रींधना। २. पकनेवा पकाने की क्रिया या भाव। ३. पका हुआ अन्न। रसोई। पकवान। उ०—भोजन भूँजाई बिवध, बिंजन पाक सुरंग। रा० रू०, पृ० ३०३। यौ०—पाककर्म, पाकक्रिया = पकाना। रींधना। पकाने का काम। पाकपंडित = रसोई बनाने में दक्ष। पाकपात्र = दे०'पाकभांड'। पाकपुटी। पाकभांड। पाकशाला। पाकागार। ४. वह औषध जो मिस्त्री, चीनी या शहद् की चाशनी में मिलाकर बनाई जाय। जैसे, शुंठी पाक। ५. खाए हुए पदार्थ के पचाने की क्रिया। पाचन। यौ०—पाकस्थली। ६. एक दैत्य जिसे इंद्र ने मारा था। यौ०—पाकरिपु। पाकशासन। ७. वह खीर जो श्राद्ध में पिंडदान के लिये पकाई जाती है। ८. फोड़ा। व्रण (को०)। ९. परिणति। पल। नतीजा (को०)। १०. उलूक। उल्लू (को०)। ११. वृद्धावस्था के कारण केशों का श्वेत होना (को०)। ११. गृह्वाग्नि। गृह की अग्नि (को०)। १२. पाक का पात्र (को०)। १३. अनाज। अन्न (को०)। १४. बुद्धि की परिपक्व अवस्था (को०)। १५. भीति। आतंक। (को०)। १६. उलट फेर। परिवर्तन (को०)।
⋙ पाक (२)
वि० १. पक्व। पका हुआ। २. स्वल्प। लघु। अल्प। ३. बुद्धिमान्। जिसकी बुद्धि परिपक्व हो। ४. प्रशंसा के योग्य। ५. अकृत्रिम। निष्कपट। शुद्धात्मा। ६. अज्ञ। अनभिज्ञ। अप्राज्ञ [को०]।
⋙ पाक (३)
वि० [फा़०] १. पवित्र। शुद्ध। सुथरा। परिमार्जित। मुहा०—पाक करना = (१) धार्मिक विधि के अनुसार किसा वस्तु को धोकर शुद्ध करना। (२) जबह किए हुए पशु या पक्षी के पास से पर, रोएँ आदि दूर करना। २. पापरहित। निर्मल। निर्दोष। यौ०—पाकदामन। पाकसाफ। ३. जिसका कोई अंग शेष न रह गया हो। समाप्त। बेबाक। मुहा०—झगड़ा पाक करना = (१) किसी ऐसे कार्य को समाप्त कर डालना जिसके लिये विशेष चिंता रही हो। (२) किसी बाधा को हटाकर या शत्रु को मारकर निश्चिंत हो जाना। झगड़ा तै होना। कोई कार्य समाप्त हो जाना। कोई बाधा दूर हो जाना। (३) मार डालना। ४. साफ। जैसे—यह सब झगड़ा से पाक है।
⋙ पाककृष्ण
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जंगली करौंदा। २. करंज।
⋙ पाकज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कचिया नमक। २. भोजन के बाद होनेवाली उदरपीड़ा। परिणामशूल (को०)।
⋙ पाकजात
वि० [फा़० पाकजाद] शुद्धात्मा। पवित्रात्मा। जिसकी आत्मा स्वच्छ हो। उ०—जीव ने पहचान लिया पाकजात, जिससे है कायम यह कुल का ए नात।—कबीर मं०, पृ० ४६।
⋙ पाकट (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० पाकेट] जेब। खीसा। थैली। मुहा०—पाकट गरम करना = (१) घूस लेना। (२) घूस देना। पाकट गरम होना = पास में धन होना। पाकेट में संपत्ति होना। यौ०—पाकटमार = गिरहकट। जेब काटनेवाला।
⋙ पाकट (२)
संज्ञा पुं० [अँ० पैकेट] दे० 'पैकेट'।
⋙ पाकठ †
वि० [हिं० पकना, पकेठ] १. पका हुआ। २. पुराना। तजरबेकार। ३. बली। मजबूत।
⋙ पाकड़
संज्ञा पुं० [सं० पर्कट, प्रा० पक्कड] दे० 'पाकर'।
⋙ पाकड़ी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्कटी] पकड़ी। पर्कटी। पाकड़। उ०—मोरा हि रे अँगना पाकड़ी सुनु बालहिआ।—विद्यापति, पृ० १५४।
⋙ पाकदामन
वि० [फा़०] [संज्ञा पाकदामनी] स्त्री जिसका चरित्र सब प्रकार निष्कलंक और विशुद्ध हो। पतिव्रता। सती।
⋙ पाकदामनी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दे० 'पाकदामिनी' [को०]।
⋙ पाकदामिनी
संज्ञा स्त्री० [फा़० पाकदामनी] सतीत्व। पतिव्रत्य। शुद्धचरित्रता।
⋙ पाकद्विष
संज्ञा पुं० [सं०] पाकशासन। इंद्र।
⋙ पाकना पु †
क्रि० अ० [हिं० पकना] दे० 'पकना'। उ०— कटहर डार पींडसन पाके। बड़हर सो अनूप अति ताके।—जायसी (शब्द०)।
⋙ पाक परवरदिगार
संज्ञा पुं० [फा़०] ईश्वर। अल्लाह।
⋙ पाकपाच
संज्ञा पुं० [सं०] वह बरतन जिसमें भोजन पकाया या रखा जाय। जैसे, बटलोई, थाली आदि।
⋙ पाकफल
संज्ञा पुं० [सं०] करौंदा।
⋙ पाकबाज
वि० [फा़० पाकबाज] [संज्ञा पाकबाजी] सच्चरित्र। उ०—कर कबूल इस बात कूँ ओ पाकबाज। वाग में रहे ज्यों निगाह सरो सरफराज।—दक्खिनी०, पृ० २०२।
⋙ पाकबाजी
संज्ञा स्त्री० [फा़० पाकबाजी] १. पाकबाज होने का भाव। सच्चरित्रता। शुद्धता [को०]।
⋙ पाकबीं
वि० [फा़०] निष्पाप दृष्टि [को०]।
⋙ पाकभांड
संज्ञा पुं० [सं० पाकभाण्ड] वह बरतन जिसमें भोजन पकाया या रखा जाय। जैसे, बटलोई, थाली आदि।
⋙ पाकयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] वृषोत्सर्ग और गृहप्रतिष्ठा आदि के समय किया जानेवाला होम जिसमें खीर की आहुति दी जाती है। २. पंच महायज्ञ में ब्रह्मयज्ञ के अतिरिक्त अन्य चार यज्ञ- वैश्वदेव, होम बलिकर्म, नित्य श्राद्ध और अतिथिभोजन। विशेष—धर्मशास्त्रों के अनुसार शूद्र को भी पाकयज्ञ का अधिकार है।
⋙ पाकयाज्ञिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाकयज्ञ करनेवाला। २. वह पुस्तक जिसमें पाकयज्ञ का विघान हो।
⋙ पाकयाज्ञिक (२)
वि० १. पाकयज्ञ संबंधी। २. पाकयज्ञ से उत्पन्न।
⋙ पाकरंजन
संज्ञा पुं० [सं० पाकरञ्जन] तेजपत्ता।
⋙ पबाकर
संज्ञा पुं० [सं० पर्कटी, प्रा० पक्कड़ी] एक वृक्ष जो पंच वटों में माना जाता है। रामअंजीर। पाखर। जंगली पिपली। पलखन। विशेष—इसके वृक्ष समस्त भारतवर्ष में वर्षा में अधिकता से बोए जाते हैं। इसकी पत्तियाँ खुब हरी और आम की तरह लंबी पर उससे कुछ अधिक चैड़ी होती है। यह वृक्ष आपसे आप कम उगता है, प्रायः लगाने से ही होता है। यह ७-८ वर्ष में तैयार हो जाता है। इसकी छाया बहुत घनी होती है। कवियों ने इसकी घनी छाया की बड़ी ही प्रशंसा की है। इसकी छाल से बड़े बारीक और मुलायम सुत तैयार किए जा सकते हैं। नरम फलों या गोदों को जंगली और दे्हाती मनुष्य प्रायः खाते हैं और पत्तियाँ हाथी और अन्य पशुओं के चारों के काम में आती हैं। लकड़ी और किसी काम में नहीं आती, केवल उससे कोयला तौयार किया जाता है। वैद्यक में इसे कषाय, कटु, शीतल व्रण, योनिरोग, दाह, पित्त, कफ, रुधिरनविकार, सुजन और रक्तपित्त को दूर करनेवाला माना है। छोटे पत्तियोंवाले वृक्ष को अधिक गुणदायक लिखा है।
⋙ पाकरिपु
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र। उ०—काक समान पाकरिपु रीती। छली मलिन कतहुँ न प्रतीती।—मानस, २।३०१।
⋙ पाकरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्कटी] दे० 'पाकर'।
⋙ पाकल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुष्ठ की दवा। वह दवा जिससे कुष्ठ अच्छा होता हो। २. फोड़े को पकानेवाली दवा। ३. वह सन्निपात ज्वर जिसमें पित्त प्रबल, वात मध्यम और कफ हीन अवस्था में होता है और इनके बलाबल के अनुसार इन तीनों ही की उपाधियाँ उसमें प्रकट होती हैं। इसका रोगी प्रायः तीन दिन में मर जाता है। ४. हाथी का बुखार। ५. अग्नि। आग।
⋙ पाकल †
वि० [सं० पाक + ल (हिं० प्रत्य०)] पक्व। पका हुआ। उ०—पाकल बिंब अइसन अधर।—वर्ण०, पृ० ५।
⋙ पाकलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकड़ासिंगी। कर्कटी।
⋙ पाकली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पाकलि'।
⋙ पाकशाला
संज्ञा पुं० [सं०] रसोई का घर। बाबरचीखाना। विशेष—मुहुर्तचिंतामणि के अनुसार घर के पुर्व दक्षिण के कोण में पाकशाला बनाना उत्तम है। सुश्रुत के अनुसार धुआँ बाहर निकलने के लिये ऊफर की ओर इसमें एक छोटी खिड़की भी होनी चाहिए।
⋙ पाकशासन
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ पाकशासनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र का पुतद्र जयंत। २. बालि। ३. अर्जुन [को०]।
⋙ पाकशुक्ला
संज्ञा स्त्री० [सं०] खड़िया मिट्टी।
⋙ पाकसामन पु
संज्ञा पुं० [सं० पाकशासन] इंद्र। पाकशासन। उ०—आसन मिल्यौ है पाकसान कौ सेय तिन्हैं , जिनकी कृपा तै कढ़ै बाकबानी कै।—ब्रज० ग्रं०, पृ० २९।
⋙ पाकसी
संज्ञा स्त्री० [अं० फॉक्स] लोमड़ी। (लश०)।
⋙ पाकस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] उदर का वह स्थान जहाँ आहार द्रव्य जठराग्नि या पाचक रस की क्रिया से पचता है। पक्वाशय।
⋙ पाकस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. रसोईधर। महानस। २. कुम्हार का आवाँ [को०]।
⋙ पाकहंता
संज्ञा पुं० [सं० पाकहन्तृ] पाकशासन। इंद्र।
⋙ पाका ‡ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पकना] फोड़ा।
⋙ पाका (२)
वि० [सं० पक्क] पका हुआ। उ०—भला भला ताजी चढ़ै, आचरै बीड़ा पाका पान।—वी० रासो, पृ० १८।
⋙ पाकागार
संज्ञा पुं० [सं०] रसोईंघर।
⋙ पाकातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] पुराना अतिसार। जीर्ण आमा- तिसार [को०]।
⋙ पाकात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] आँखों का एक रोग जिसमें आँख का काला भाग सफेद हो जाता है। विशेष—आरंभ में इसमें एक फोड़ा होता है और आँखों से गरम गरम आँसू गिरते हैं। पुतली का सफेद हो जाना त्रिदोष का कोप सूचित करता है। इस दशा में यह रोग असाध्य समझा जाता है।
⋙ पाकारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. सफेद कचनार का वृक्ष।
⋙ पाकिम
वि० [सं०] १. पका हुआ। २ पाक क्रिया से प्राप्त, जैसे, नमक। ३. पकाया हुआ [को०]।
⋙ पाकिस्तान
संज्ञा पुं० [फा़०] भारत का वह भाग जिसमें मुसल- मानों की आबादी अधिक है और (१५ अगस्त) सन् १९४७ में जिसे सांप्रदायिक आधार पर एक संघराज्य का रूप दे दिया गया। इसमें सिंध, बिलोचिस्तान, सीमाप्रांत, पंजाब का पश्चिमी भाग और पूर्वी बंगाल हैं। उ०—देश में सांप्रदायिक दंगे हो चले थे और भारत में दो राष्ट्रों के सिद्धांत पर आधारित पाकिस्तान की कल्पना मूर्तिमान स्वरूप धारण कर रही थी।—भा० वि०, पृ० १००।
⋙ पाकिस्तानी
वि० [फा़०] १. पाकिस्तान का। २. पाकिस्तान में होनेवाला। २. पाकिस्तान से संबंद्ध।
⋙ पाकी (१)
वि० [सं० पाकिन्] पकने की ओर अभिमुख। जो पक्व हो रहा हो [को०]।
⋙ पाको (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. निर्मलता। पवित्रता। शुद्धता। २. परहेजगारी। ३. स्वच्छता। सफाई। मुहा०—पाकी लेना = उपस्थ पर के बाल साफ करना।
⋙ पाकोजा
वि० [फा़० पाकीजह्] [संज्ञा पाकीजगी] १. पाक। पवित्र। शुद्ध। २. खुबसूरत। सुंदर। ३. बेऐब। निर्दोष।
⋙ पाकु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पाकुक'।
⋙ पाकुक
संज्ञा पुं० [सं०] रसोइया। पाचक।
⋙ पाकेट (१)
संज्ञा पुं० [अ०] जेब। खीसा।मुहा०—पाकेट गरम करना = (१) घूस देना। (२) घूस देना। पाकेट गरम होना = पास में धन होना। यौ०—पाकेटमार = जेबकट। गिरहकट। पाकेटमारी = गिरह- कटी। जेबकटी का काम।
⋙ पाकेट (२)
संज्ञा पुं० [अँ० पैकेट] दे० 'पैकेट'। २. नियमित दिन को डाक, माल और यात्री लेकर रवाना होनेवाला जहाज। (लश०)।
⋙ पाकेट (३)
संज्ञा पुं० [डिं०] ऊँट।
⋙ पाक्य (१)
वि० [सं०] जो पच सके। पचने योग्य। पचनीय।
⋙ पाक्य (२)
संज्ञा पुं० १. काला नमक। २. साँभर नमक। ३. जवाखार। ४. शोरा।
⋙ पाक्यक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] १. जवाखार। २. शोरा।
⋙ पाक्यज
संज्ञा पुं० [सं०] कचिया नमक।
⋙ पाक्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सज्जी। २. शोरा।
⋙ पाक्ष
वि० [सं०] [वि० स्त्री पाक्षी] १. पक्ष या पाख संबंधी। पाक्षिक। पक्षविशेष से संबंध रखनेवाला [को०]।
⋙ पाक्षपातिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पाक्षपातिकी] पक्षपात करनेवाला। पक्षापाती [को०]।
⋙ पाक्षायण
वि० [सं०] १. जो पक्ष में एक बार हो या किया जाय। २. जो पक्ष से संबंध रखता हो।
⋙ पाक्षिक (१)
वि० [सं०] १. पक्ष या पखवाड़े से संबंध रखनेवाला। २. जो पक्ष या प्रति पक्ष में एक वार हो या किया जाय। जैसे,—पाक्षिक पत्र या बैठक। ३. किसी विशेष व्यक्ति का पक्ष करनेवाला। पक्षवाही। तरफदार। ४. दो मात्राओं का (छंद)। ५. पक्षियों से संबद्ध। पक्षिसंबंधी (को०)। ६. वैकल्पिक। ऐच्छिक (को०)।
⋙ पाक्षिक (२)
संज्ञा पुं० १. पक्षियों को मारनेवाला। ब्याध। बहेलिया। २. विकल्प। पक्षांतर (को०)।
⋙ पाखंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाखण्ड] १. वेदाविरुद्ध आचार। उ०— षट दरसन पाखंड छानबे पकरि किए बेगारी।—धरम०, पृ० ६२। २. वह भक्ति या उपासना जो केवल दूसरों के दिखाने के लिये की जाय और जिसमें कर्ता की वास्तविक निष्ठा वा श्रद्धा न हो। ढोंग। आडंबर। ढकोसला। ३. वह ब्यय जो किसी को धोखा देने के लिये किया जाय। बकभक्ति। छल। धोखा। ४. नीचता। शरारत। ५. जैन या बौद्ध (को०)। मुहा०—पाखंड फैलाना = किसी को ठगने के लिये उपाय रचना। बुरे हेतु से ऐसा काम करना जो अच्छे इरादे से किया हुआ जान पड़े। नजर फैलाना। ढकोसला खड़ा करना। जैसे,— (क) उस (साधु) ने कैसा पाखंड फैला रखा है। (ख) वह तुम्हारे पाखंड को ताड़ गया।
⋙ पाखंड (२)
वि० पाखंड करनेवाला। पाखंडी।
⋙ पाखंडी
वि० [सं० पाखण्डिन्] १. वेदविरुद्ध आचार करनेवाला। वेदाचार का खंडन या निंदा करनेवाला। विशेष—पद्मपुराण में लिखा है कि जो नारायण के अतिरिक्त अन्य देवता को भी वंदनीय कहता है, जो मस्तक आदि में वैदिक चिन्हों को धारण न कर अवैदिक चिह्नों को धारण करता हैं, जो वेदाचार को नहीं मानता, जो सदा अवैदिक कर्म करता रहता है, जो वानप्रस्थाश्रमी न होकर जटावल्कल धारण करता है, जो ब्राह्मण होकर हरि के अत्यंत प्रिय शंख, चक्र, उर्ध्वपुंड्र आदि चिह्न धारण नहीं करता, जो बिना भक्ति के वैदिक यज्ञ करता है, जीवहिंसक, जीवभक्षक, अप्रशस्त दान लेनेवाला, पुजारी, ग्रामयाजक (पुरोहित), अनेक देवताओं की पूजा करनेवाला, देवता के जूठे वा श्राद्ध के अन्न पर पेट पालनेवाला, शूद्र के से कर्म करनेवाला, निषिद्ध पदार्थों को खानेवाला, लोभ, मोह आदि से युक्त, परस्त्रीगामी, आश्रयधर्म का पालन न करनेवाला, जो ब्राह्मण सभी वस्तुओं को खाता या बेचता हो, पीपल, तुलसी, तीर्थस्थान आदि की सेवा न करनेवाला, सिपाही, लेखक, दूत, रसोइया आदि के व्यवसाय और मादक पदार्थों का सेवन करनेवाला ब्राह्मण पाखंडी है। पाखँडी के साथ उठना बैठना, उसके घर जल पीना या भोजन करना विशेष रूप से निषिद्ध है। यदि किसी प्रकार एक बार भी इस निषेध का उल्लंघन हो जाय तो परम वैष्णव भी इस पाप से पाखंडी हो जायगा। मनुस्मृति के मत से पाखंडी का वाणी से भी सत्कार करे और राजा उसे अपने राज्य से निकाल दे। २. बनावटी धार्मिकता दिखानेवाला। जो बाहर के परम धार्मिक जान पड़े पर गुप्त रीति से पापाचार में रत रहता हो। कपटा- चारी। बगलाभगत। ३. दूसरों को ठगने के निमित्त अनेक प्रकार के आयोजन करनेवाला। ठग। धोखेबाज। धूर्त।
⋙ पाख (१)
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] १. महीने का आधा। पंद्रह दिन। पखवाड़ा। २. मकान की चौड़ाई की दीवारों के वे भाग जो ठाठ के सुभीते के लिये लंबाई की दीवारों से त्रिकोण के आकार में अधिक ऊँचे किए जाते हैं और जिनपर लकड़ी का वह लंबा मोटा और मजबूत लट्ठा रखा जाता है जिसको 'बडे़र' कहते हैं। कच्चे मकानों में प्रायः और पक्के में भी कभी कभी पाख बनाए जाते हैं। इनसे ठाठ को ढालू करने में सहायता होती है। पाख के सबसे ऊँचे भाग पर बडे़र रखी जाती है जिसपर सारे ठाठ और खपरैलों का भार होता है। पाख का आकार इस प्रकार का होता है—
⋙ पाख † (२)
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] पक्षी का पंख। डैना। पर।
⋙ पाखती †
संज्ञा पुं० [देश०] पार्श्वरक्षक सैनिक। उ०—पाखती सबल जोधे प्रचंड।—रा० रू०, पृ० १८३।
⋙ पाखर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रक्षर, प्रक्खर] १. लोहे की वह झूल जो लड़ाई के समय रक्षा के लिये हाथी या घोड़े पर डाली जाती है। चार आईना। २. राल चढ़ाया हुआ टाट या उससे बनी हुई पोशाक।
⋙ पाखर (२)
संज्ञा पुं० [सं० पर्कटी] दे० 'पाकर'।
⋙ पाखरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पाखर'। उ०—गिरिबन कुंज खरिक अरु बाखरि, हित मतंग यै परि पन पाखरि।—घनानंद, पृ० २९३।
⋙ पाखरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाखर + इया (प्रत्य०)] दे० 'पाखर'। उ०—बखतर ढाल बँदूक पाखरिया कमधज पडया। करसी कूका कूक नाम घुड़ासी नानिया।—राम० धर्म०, पृ० ७०।
⋙ पाखरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाखर (= झूल)] टाट या बना हुआ वह बिस्तरा जिसको गाड़ी में पहले बिछाकर तब अनाज भरा जाता है।
⋙ पाखा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] १. कोना। छोर। उ०— पावक भाष्यो विष्णुपदी सो शंभु तेज अतिघोरा। तजहुँ हिमाचल के पाखा में यह सम्मत है मोरा।—रघुराज (शब्द०)। २. दे० 'पाख-२।
⋙ पाखा † (२)
संज्ञा पुं० दे० 'पंख'।
⋙ पाखाक
संज्ञा स्त्री० [फा़० पाखाक] चरणरज। पैर की धूल।
⋙ पाखान पु †
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण] पत्थर।
⋙ पाखानभेद
संज्ञा पुं० [सं० पाषाणभेदक] दे० 'पखानभेद'।
⋙ पाखाना
संज्ञा पुं० [फा़० पाखानह्] १. वह स्थान जहाँ मलत्याग किया जाय। २. भोजन के पाचन के उपरांत पता हुआ मल जो आधोमार्ग निकल जाता है। गू। गलीज। पुरीष। मुहा०—पाखाने जाना = मलत्याग के लिये जाना। पाखाना खता होना = बहुत ही भयभीत होना। पाखाना निकलना। पाखाना निकलना = मारे भय के बुरा हाल होना। जैसे,— उन्हें देखते ही इनका पाखाना निकलता है। पाखाना फिरना = मलत्याग करना। पाखाना फिर देना = डर से घबरा जाना। भय से अत्यंत व्याकुल हो जाना। जैसे,— शेर को देखते ही डर के मारे पाखाना फिर दोगे। पाखाना लगना = मल निकलने की आवश्यकता जान पड़ना। मल का वेग जान पड़ना।
⋙ पाग (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पग (= पैर)] पगड़ी। उ०—जूती का दे सर पर मारी, और लपककर पाग उतारी।—दक्खिनी०, पृ० ३११। विशेष—कहते हैं, पगड़ी, पहले पैर के घुटने पर बाँधकर तब सिर पर रखी जाती थी, इसी से यह नाम पड़ा।
⋙ पाग (२)
देश० पुं० [सं० पाक] १. दे० 'पाक'। २. वह शीरा या चाशनी जिसमें मिठाइयाँ या दूसरी खाने की चीजों डुबाकर रखी जाती हैं। उ०—आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम प्रेम पाग पाहगिहैं।—तुलसी (शब्द०)। ३. चीनी के शीरे में पकाया हुआ फल आदि। जैसे, कुम्हड़ा पाग। ४. वह दवा या पुष्टई जो चीनी या शहद के शीरे में पकाकर बनाई जाय और जिसका सेवन जलपान के रुप में भी कर सकें।
⋙ पागड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० पग] १. पैर। चजरण। उ०—प्रबल सुर असुर जिण लगाया पागड़ै।—रघु,० रु०, पृ० ३१। २. रिकाब। ऊँट या घोड़े की काठी का पावदान जिसपर पैर रखकर सवार होते हैं। उ०—ढोलउ हल्लाणए करइ धण हल्लिवा न देह। झब झब झुबइ पागड़इ डबडब नयण भरेह।—ढोला०, दु० ७०।
⋙ पागना (१)
क्रि० स० [सं० पाक] शोरे या किवाम में डुबाना। मीठी चाशनी में सामनना या लपेटना। उ०—आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राग प्रेम पाग पागिहै।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पागना (२)
क्रि० अ० किसी विषय में अत्यंद अनुरक्त होना। डुबना। मग्न होना। तन्मय होना। उ०—(क) तब बसुपदेव देवकी निरखत परम प्रेम रस पागे।—सुर (शब्द०)। (ख) पिय पागे परोसिन के रस में बस में न कहुँ बस मेरे रहैं।— पद्माकर (शब्द०)।
⋙ पागर (१)
संज्ञा पुं० [?] वह रस्सा जिससे मल्लाह नाव को खीचंकर नदी के किनारे बाँधते हैं। गुन (लश०)।
⋙ पागर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पग] रिकाब। घोड़े की काठई का पाय- दान। उ०—निरजै मन आगम जानि मरन्न, पवंगम पागर काटि चरन्न। उपानह छंडिय चावँड राइ, पवन्नह बेग जव- न्नह धाइ।—पृ० रा०, ६६।१२२।
⋙ पागल
वि० सं० [वि० स्त्री० पगली, पागलिनी] १. विक्षिप्त। बौड़हा। सनकी। बावला। सिड़ी। दजिसका दिमाग ठीक न हो। यौ०—पागलखाना। पागलपन। २. क्रोध, शोक या प्रेम आदि के उद्धेग में जिसकी भंला बुरा सोचने की शक्ति जाती रही हो। जिसके होश हवास दुरुस्त न हों। आपे से बाहर। जैसे, —(क) वे उनके प्रेम में पागल हो गए हैं। (ख) वे मारे क्रोध के पागल हो गए हैं। ३. मुर्ख। नासमझ। बेवकुफ। जैसे,—तुम निरे पागल हो।
⋙ पागलखाना
संज्ञा पुं० [हिं० पागल + फा० खानह्] वह स्थान जहाँ पागलों को रखकर उनका इलाज किया जाता है। पागलों के रखने का स्थान।
⋙ पागलपन
संज्ञा पुं० [हिं० पागल + पन (प्रत्य०)] वह भीषण मानसिक रोग जिससे मनुष्य की बुद्धि और इच्छाशक्ति आदि में अनेक प्रकार के विकार होते हैं। उन्माद। बावलापन। विक्षिप्तता। चित्तविभ्रम। विशेषश—दे० 'उन्माद'। २. मुर्खता। बेवकुफी।
⋙ पागली
संज्ञा पुं० [हिं० पागल] दे० 'पगली'।
⋙ पागु पु
संज्ञा पुं० [हिं० पाग दे० 'पाग'। उ०—ललित लसैं सिर पागु तकैं, तक तँह मुरझे।—नंद०, ग्रं०, पृ० २०७।
⋙ पागुर †
संज्ञा पुं० [हिं० पाक] दे० 'जगाली'।
⋙ पाघ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाग] दे० 'पाग'। उ०—पाघ विराजत सीस पर जरकस जोति निहा०। मनों मेर के सिषर पर रह्यौ अहप्पति आय।—पृ० रा०, १।७५०।
⋙ पाचक (१)
वि० [सं०] जो किसी कच्ची वस्तु को पचावे या पकावे। पचाने या पकानेवाला।
⋙ पाचक (२)
संज्ञा पुं० १. वह नमकीन या क्षारयुक्त औषध जो भोजन को पचाने और भुख तथा पाचन शक्ति को बढ़ाने के लिये खाई जाती है। २. [स्त्री० पचिका] भोजन पकानेवाला। रसोइयाँ। बावर्ची। ३. पाँच प्रकार के पित्तों में से एक पित्त। विशेष—वैद्यक में इसका स्थान आमाशय और पक्वाशय माना गया है। यही भोजन को पचाता और उससे उत्पन्न रसवायु, पित्त, कफ, मुत्र, पुरीष आदि को अलग अलग करता है। अपने में स्थित अग्नि द्धारा अन्य चार पितस्थानों की क्रियाओं में सहायता करता है। ४. पाचक पित्त में रहनेवाली अग्नि। विशेष—शरीर की गरमी का घटना बढ़ना इसी अग्नि की सब- लता और निर्बलता पर निर्भर है।
⋙ पाचन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पचाने या पकाने की क्रिया। पचाना या पकाना। २. खाए हुए आहार का पेट में जाकर शरीर के धातुओं के रुप में परिवर्तन। अन्न जिस रुप में वह शरीर का पोषण करता है। विशेष—दे० 'पक्वाशय'। यौ०—पाचनशक्ति। ३. वह औषध जो आम अथवा अपक्व दोष को पचावे। विशेष—पाचन औषध प्रायः काढ़ा करके दी जाती है। यह औषध १६ गुने पानी में पकाई जाती है और चौथाई रह जाने पर व्यवहार में लाई जाती है। वैद्यक में प्रत्येक रोग के लिये अलग अलग पाचन लिखा है जो कुल मिलाकर ३०० से अधिक होते हैं। ४. प्रायशिचत्त। ५. अम्ल रस। खट्टा रस। ६. अग्नि। ७. लाल एरंड। ८. व्रण में से रक्त या मवाद निकालना (को०)। ९. व्रण या घाव का पुरा होना (को०)।
⋙ पाचन (२)
वि० १. पचानेवाला। हाजिम। २. किसी विशेष वस्तु के अजीर्ण को नाश करनेवाली औषध। विशेष—विशेष विशेष वस्तुओं के खाने से उत्पन्न अजीर्ण विशेष पदार्थों के खाने से नष्ट होता है। जो वस्तु जिसके अजीर्ण को नष्ट करती है उसे उसका पाचन कहते हैं। जैसे, कटहल का पाटन केला, केले का घी और घी का जँभीरी, नीबु पाचक है। इसी प्रकार आम और भात के अजीर्ण का दूध, दूध के अजीर्ण का अजवायन, मछली तथा मांस के अजीर्ण का मठ्ठा पाचन है। गरम मसाला, हल्दी, हींग, सोंठ नमक आदि साधारण रीति से सभी द्रव्यों के पाचन हैं।
⋙ पाचनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोहागा। २. पाचन करनेवाला एक पेय (को०)।
⋙ पाचनगण
संज्ञा पुं० [सं०] पाचन औषधियों का वर्ग। जैसे, काली मिर्च, अजवायन, सोंठ, चव्य, गजपीपल, काकड़ासिंगी आदि।
⋙ पाचनशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह शक्ति जो भोजन को पचावे। अमाशय और पक्वाशय में रहनेवाले पित्त तथा अग्नि की शक्ति। हाजमा।
⋙ पाचना पु (१)
क्रि० स० [सं० पाचन] १. पकाना। २. अच्छी तरह पकाना। परिपक्व करना। उ०—निसि दिन स्याम सुमिरि यश गावे कलपन मेटि प्रेमरस पाचै।—सुर (शब्द०)।
⋙ पाचना † (२)
क्रि० अ० निस्तत्व होना। पचना। गलना। त्तीण होना।
⋙ पाचनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पकाने या पचाने की क्रिया [को०]।
⋙ पाचनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हड़।
⋙ पाचनीय
वि० [सं०] जो पचाई या पकाई जा सके। पचाने या पकाने योग्य। पाच्य।
⋙ पाचयिता
वि० [सं० पाचयितृ] १. पाक करनेवाला। रसोइया। २. पचानेवाला। हाजिम।
⋙ पाचर †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पच्चर'।
⋙ पाचल (१)
वि० [सं०] १. पाक करनेवाला। पकानेवाला। २. पचानेवाला। हाजिमा [को०]।
⋙ पाचल (२)
संज्ञा पुं० १. अग्नि। २. पाचक। रसोइया। ३. वायु। ४. रींधने या पकाने की वस्तु [को०]।
⋙ पाचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] राँधना। पकाना [को०]।
⋙ पाचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पाचा' [को०]।
⋙ पाचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] रसोईंदारिन। रसोई करनेवाली।
⋙ पाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता जिसे वैद्यक में कटु- तिक्त, कषाय, उष्ण, वातविकार, प्रेत और भुच की बाधा, चर्मरोग और फोड़े फुंसियों में उपकारक माना है। पाची या पच्ची लता। मर्कतपत्री। हरितपत्रिका।
⋙ पाच्छा †
संज्ञा पुं० [फा० पादशाह] दे० 'बादशाह'।
⋙ पाच्छाई
संज्ञा स्त्री० [फा० पादशाही] राज्य। हुकुमत। बादशाहत। उ०—जिनके लागे शब्द के डंडा त्यागि चले पाच्छाई।— कबीर श०, भा०३, पृ० १९।
⋙ पाच्छाह
संज्ञा पुं० [फा० पादशाह] दे० 'बादशाह'।
⋙ पाच्य
वि० [सं०] जो पाचाया या पकाया जा सके। पचाने या पकाने योग्य। पाचनीय।
⋙ पाछ
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाछना] १. जंतु या पौधे के शरीर पर छुरी की धार आदि मारकर ऊपर ऊपर किया हुआ घाव जो गहरा न हो। २. पोस्ते के डोडे पर नहरनी से लगाया हुआ चीरा जिससे गोंद के रुप में अफीम निकलती है। ३.पाछने की क्रिया अथवा भाव। ४. किसी वृक्ष पर उसका रस निकालने के लिये लगाया हुआ चीरा। क्रि० प्र०—देना।—लगाना।
⋙ पाछ † (२)
संज्ञा पुं० [सं० पश्चात्, प्रा० पच्छा] पीछा। पिछला भाग।
⋙ पाछ (३)
क्रि० वि० पीछे। उ०—ब्रह्मालोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात। जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहिं मोहिं तात।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाछना
क्रि० स० [हिं० पंछा] जंतु या पौधे के शरीर पर छुरी की धार इस प्रकार मारना कि वह दुर तक न धँसे और जिससे केवल ऊपर ऊपर का रक्त आदि निकल जाय। छुरा या नहरनी आदि से रक्त, पंछा या रस निकालने के लिये हल का चीरा लगाना। चीरना। उ०—सुनि सुत बचन कहत कैकेई। मरमु पाछि जनु माहुर देई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाछल पु
वि० [हिं०] दे० 'पिछला'।
⋙ पाछली
वि० [हिं०] दे० 'पिछला'। उ०—भए अंचरधान बीते पाछली निसि जाय।—भारतेंदु ग्रं०, भा०३, पृ० ७८।
⋙ पाछलु पु
वि० [हिं०] दे० 'पिछला'।
⋙ पाछा पु
संज्ञा पुं० [हिं० पाछ] दे० 'पीछा'।
⋙ पाछाई †
संज्ञा स्त्री० [फा० पादशाही] बादशाही। हुकुमत। उ०— लोक तीन नहिं चौथे माही। जा घर संत करै पाछई।— घट०, पृ० २५६।
⋙ पाछिल पु
वि० [हिं० पाछ + इल (प्रत्य०)] दे० 'पिछला'। उ०— पाछिल मोह समुझि पछताना। ब्रह्मा अनादि मनुज कर माना।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाछी पु (१)
क्रि० वि० [हिं० पाछ] पीछे की ओर। पीछे। उ०— यक दिन मृतक राखि यक बाछी। नंददास घर के कछु पाछी।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ पाछी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पक्षी] दे० 'पक्षी'। उ०—रसमा तु अनुरागनि पाछी। गोविंद गुनगन गरिमा साछी।—घनानंद, पृ० २९६।
⋙ पाछू †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'पीछे'।
⋙ पाछें ‡
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'पीछे'। उ०—कान्ह कौ डर जिनि जिय मै आनै। पाछै मोहिं आयो ही जानौ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९१।
⋙ पाछे ‡
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'पीछे'।
⋙ पाछौ ‡
क्रि० वि० [सं० पशचा, प्रा० पच्छा हिं० पाछा] दे० 'पाछा'। उ०—तातें श्री ठाकुर जी ने वा वैष्णव के लरिका कौ पाछौ घर भेज्यो।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ३२७।
⋙ पाज (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाजस्य] पाँजर। उ०—निरखि छवि फुलत हैं ब्रजराज। उत जसुदा इत आपु परस्पर आड़े रहे कर पाज।—सूर (शब्द०)।
⋙ पाज (२)
संज्ञा पुं० [?] १. पंक्ति। पाँती। कतार। (लश०)। पु २. सेतु। पुल। बाँध। उ०—(क) वंधि पाज सागरह हनुअ अंगद सुग्रीवह। —पु० रा०, २। २७१। (ख) ब्रज तिय हिय सरबर रसभरे। लाज पाज तजि उमगनि ढरे।—घनानंद०, पृ० ३२२।
⋙ पाजरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक वनस्पति जिससे रंग निकाला जाता है।
⋙ पाजस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाँजर। छाती और पेट की बगल का भाग। २. पार्श्व। बगल।
⋙ पाजा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पायचा'।
⋙ पाजामा
संज्ञा पुं० [फा० पाजामह्] पैर में पहनने का एक प्रकार का सिला हुआ वस्त्र जिससे टखने से कमर तक का भाग। ढका रहता है। सुथना। तमान। इजार। विशेष—पाजामे के टखने की ओर के अंतिम भाग को मुहरी या मोरी, जितना भाग एक एक पैर में होता है उसे पायचा, दोनों पायचों के मिलानेवाले भाग को मियानी, कमर की ओर के अंतिम भाग को जिसमें इजारवंद रहता है नेफा और जिस सूत या रेशम के बंधनों को नेफे में डालकर कसते हैं, उसे इजारबंद कहते हैं। पाजामे के कई भेद हैं—(क) चुडीदार, जो घुटने के नीचे इतना तंग होता है कि सहज में पहना या उतारा नहीं जा सकता। पहनने पर घुटने के नीचे इसमें बहुत से मोड पड जाते हैं। इसके भी दो भेद होते हैं — आडा़ और खडा़। आजे की काट नीचे से उपर तक आडी और खडे की खडी होती है। कभी कभी इसमें मोहरी की तरफ तीन बटन लगते हैं। उस दशा में मोहरी और भी तंग रखी जाती है। (ख) बरदार, जो घुटने के नीचे और ऊपर बराबर चौडा होता है। इसकी एक एक मुहरी एक हाथ से कम चौडी नहीं होता है। (ग) अरबी, जिसकी मोहरी चूडीदार से अधिक ढीली होती है और जो अधिक लंबा न होने के कारण सहज में पहन लिया जाता है। (घ) पतलूननुमा, जिसकी मोहरी बरदार से कम और अरबी से अधिर चौडी होती है। आजकल इसी पाजामे का रवाज अधिक है। (ड०) कलीदार या जनाना पाजामा, जो नेफे की तरफ कम और मोहरी की तरफ अधिक चौडा़ रहता है। इसके नेफे का घेरा १ गज और मोहरी का २ १/२ गिरह होता है। इसमें बहुत सी कलियाँ होती हैं जिनका चौडा भाग मोहरी की ओर ओर तंग भाग नेफे की ओर होती है। (च) पेशावरी, जो कलीदार का प्रायः उलटा होता है अर्थात् नेफा २ १/४ गज और मोहरी प्रायः २ १/२ गिरह चौड़ी होती है। (छ) काबुली और (ज) नेपाली भी इसी प्रकार के होते हैं। पहले के नेफे का घेरा ४ गज और दूसरे का २ १/२ गज होता है। इनमें कलीयों की स्थापना कलीदार की उलटी होती है। पाजामे का व्यवहार इस देश में कब से आरंभ हुआ, उपलब्ध इतिहासों से इसका निश्चय नहीं होता। अधिकतर लोगों का ख्याल है कि यह मुलमानों के साथ यहाँ आया। पहले यहाँ के लोग धोती ही पहना करते थे। परंतु पहाडि़यों और शीतप्रधान प्रदेशों के रहनेवालों में आजकल इसका जितना व्यवहार है उससे संदेह हो सता है कि पहले भी उनका काम इसके बिना न चलता रहा होगा। आजकल हिंदू, मुसलमाल दोनों पाजामा पहनते हैं, पर मुसलमान अधिक पहनते हैं।
⋙ पाजी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पदाति] १. पैदल सेना का सिपाही। प्यादा। २. रक्षक। चौकीदार। उ०—पउरी नवउ बजर कई साजी। सहस सहस तहँ बइठे पाजी। —जायसी (शब्द०)।
⋙ पाजी (२)
वि० [सं० पाय्य] दुष्ट। लुच्चा। खोटा। कमीना।
⋙ पाजीपन
संज्ञा पुं० [हिं० पाजी+ पन (प्रत्य०)] दुष्टता। खुटाई। कमीनापन। नीचता।
⋙ पाजेब
संज्ञा स्त्री० [फा०] स्त्रियों का एक गहना जो पैरों में पहना जाता है। यह चाँदी का होता है और इसमें घुँघरु टँके होते हैं। मंजीर। नूपुर।
⋙ पाटंबर
संज्ञा पुं० [सं० पाटम्बर] रेशमी वस्त्र। रेशमी कपडा़।
⋙ पाट
संज्ञा पुं० [सं० पठ्ट, पाट] १. रेशम। उ०—झूलत पाट की डोरी गहै पटुली पर बैठन ज्यौं उकुरु की। —भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ३९१। यौ०— पाटंबर। पाटकृमि। २. बटा हुआ रेशम। नख। ३. रेशम के कीडे का एक भेद। ४. पटसन या पाटसन के रेशे। जैसे, पाट की धोती। विशेष— दे० 'पटसन'। ५. राज्यासन। सिंहासन। गद्दी। यौ०— राजपाट। पाटरानी। पाटमहादेइ। पाटमहिषी। ६. चोडाई। फैलाव। जैसे, नदी का पाट, धोती का पाट। ७. पल्ला। पीढा। तख्ता। उ०—पौढ़ता झूला, पाट उलटि कै सरकि परत जब। —प्रेमघन०, भा० १, पृ० १०। ८. कोई शिला या पटिया। ९. वह शिला जिसपर धोबी कपडे़ धोता है। १०.चक्की का एक ओर का भाग। ११.वह चिपटा शहतीर जिसपर कोल्हू हाँकनेवाला बैठता है। १२. वह शहतीर जो कुएँ के मुँह पर पानी निकालनेवाले के खडे़ होने के लिये रखा जाता है। १३. मृदंग के चार वर्णों में से एक। १४. बैलों का एक रोग जिसमें उनके रोओं से रक्त बहता है। क्रि० प्र०—फूटना। १५. वस्त्र। कपडा़। १६. हल में का मछोतर जिसकी सहायता से हरिस में हल जुडा़ रहता है। यह मछली के आकार का होता है।
⋙ पाटक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वरवाद्य। २. गाँव का आधा अथवा कोई भाग। ३. तट। किनारा। ४. पासा। ५. मूलधन का अपचय वा हानि (को०)। ६. तट पर जाने के लिये निर्मित सीढी़ या सोपान (को०)।
⋙ पाटक (२)
वि० [सं०] विभाग करनेवाला। चीने या फाड़नेवाला [को०]।
⋙ पाटकरण
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध जाति के रागों का एक भेद।
⋙ पाटश्चर
संज्ञा पुं० [सं०] चोर।
⋙ पाटण पु
संज्ञा पुं० [सं० पत्तन] नगर।
⋙ पाटद
संज्ञा पुं० [सं०] कपास।
⋙ पाटन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाटना] १. पाटने की क्रिया या भाव। पटाव। २.जो कुछ पाटकर बनाया जाय। कच्ची या पक्की छत। ३. मकानकी पहली मंजिल से ऊपर की मंजिलें।४. सर्पका विष उतारने के मंत्र का एक बेद। जिसको साँप ने काटा हो उसके कान के पास पाटन मंत्र चिल्लाकर पढ़ा जाता है। उ०—काम भुवंग विषय लहरी सी। मणि मयूर पाटन गहरी सी। —विश्राम (शब्द०)। ५. कई प्राचीन नगरों के नाम।
⋙ पाटन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पाटने की क्रिया या भाव। चीरना। भेदना। विदारना। फाड़ना।
⋙ पाटन (३)
संज्ञा पुं० [सं० पत्तन] दे० 'पट्टन'। उ०—ऐसे पाटन आइके सौदा करो बनाय।—कबीर श०, भा० ४, पृ० २४।
⋙ पाटनक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] शल्यचिकित्सा। शल्यक्रिया। घाव आदि चीरना [को०]।
⋙ पाटना
क्रि० स० [हिं० पाट] १. किसी नीचे स्थान को उसके आस पास के धरातल के बराबर कर देना। किसी गहराई को मिट्टी, कुड़े आदि से भर देना। २. किसी चीज की रेल पेल कर देना। ढेर लगा देना। उ०—नाटक नाट्य धार दो दीवारों के बीच या किसी गहरे स्थान के आर पार धरन, लकड़ी के बल्ले आदि बिछाकर आधार बनाना। छत बनाना । ४. तृप्त करना। सींचना। ५. पूर्ण करना। निबाह करना। उ०—जमुना घाटनि गहबर बाटनि। पटुता पाज पैजपन पाटनि। —घनानंद०, पृ० २५९।
⋙ पाटनीय
वि० [सं०] चीरने योग्य। फाड़ने योग्य [को०]।
⋙ पाटमहादेइ पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पट्ट महादेवी] दे० 'पाटमहिषी'। उ०—पाट महादेइ हिएँ न हारु। समुझि जीउ चित चेत सँभारु। —पदमावत, पृ०—३४३।
⋙ पाटमहिषी
संज्ञा स्त्री० [सं० पट्ठ (= सिंहासन) + महिषी (= रानी] वह रानी जो राजा के साथ सिंहासन पर बैठ सकती हो। पटरानी। प्रधान रानी। उ०—जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी। —मानस, १। ३२४।
⋙ पाटरानी
संज्ञा स्त्री० [सं० पट्ठ (= सिंहासन) + रानी] पटरानी। प्रधान रानी।
⋙ पाटल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाड़र या पाडर का पेड़ जिसके पत्ते बेल के समान होते हैं। उ०—भौर रहे भननाय पुहप पाटल के महकत। —ब्रज० ग्र०, पृ० १०१। विशेष—लाल और सफेद फुलों के भेद से यह दो प्रकार का होता है। वैद्यक में इसे उष्ण, कषाय, स्वादिष्ट तथाअरुचि, सूजन, रुधिरविका, श्वास और तृष्णा आदिको दुर करनेवाला माना है। पर्या०—पाटला। कर्बुरा। अमोघा। फलेरुहा। अंथुवासिनी। कृष्णावृंता। कालवृंता। कुंभी। ताम्रपुष्पी। कुवेरक्षी। तोयपुष्पी। वसंतदूती। स्थाली। स्थिरगंधा। अबुवासी। कोकिला। २. पाटल का फुल (को०)। ३. गुलाबी रंग। सफेदी लिए लाल रंग (को०)। ४. एक प्रकार का धान (को०)। ५. केशर (को०)। ६. गुलाब का फूल। ७. लाल लोध्र (को०)।
⋙ पाटल (२)
वि० [सं०] ललाई लिए श्वेत वर्ण का। गुलाबी वर्ण का [को०]।
⋙ पाटलक
वि० [सं०] पाटल वर्ण का [को०]।
⋙ पाटलकोट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कीड़ा।
⋙ पाटलचक्षु
वि० [सं० पाटलचक्षुष्] जिसकी आँख में मोतियाबिंद का रोग हो [को०]।
⋙ पाटलद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] पुन्नाग वृक्ष। राजचंपक।
⋙ पाटला (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाडर का वृक्ष। २. लाल लोध। ३. जलकुंभी। ४. दुर्गा का एक रुप।
⋙ पाटला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बढ़िया सोना जो भारत में ही शुद्ध करके काम में लाया जाता है। यह बंक के सोने से कुछ हलका और सस्ता होता है।
⋙ पाटलावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा।२. प्राचीन काल की एक नदी का नाम।
⋙ पाटलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाडर का वृक्ष। उ०—त्रिविध समीर बहै पाटलि, सुगंधि सनी। —शकुतंला, पृ० ५। २. पांडुफली।
⋙ पाटलिक (१)
वि० [सं०] १. दूसरों की गुप्त बातों को जाननेवाला। २. देशकाल की जानकारी रखनेवाला [को०]।
⋙ पाटलिक (२)
संज्ञा पुं० १.छात्र। विद्यार्थी। शिष्य। २. पाटलिपुत्र।
⋙ पाटलित
वि० [सं०] लाल किया हुआ। लालिमायुक्त [को०]।
⋙ पाटलिपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मगध का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर जो इस समय भी बिहार का मुख्य नगर है। आजकल यह पटना के नाम से प्रसिद्ध है। विशेष—प्राचीन पाटलिपुत्र वर्तमान पटना से प्रायः २ १/२ मील पूर्व गंगा के तट पर जहाँ इस समय कुम्हरर नामक ग्राम है, स्थित था। खुदाई से वहाँ उसके बहुत से चिह्न मिले हैं। बुद्ध की परवर्ती कई शताब्दियों में यह नगर भारत का सर्वप्रधान नगर और अत्यंत उन्नत तात समुद्ध था। विदेशी यात्रियों ने अपने यात्रावृत्तांतों में इसकी बड़ी प्रशंसा लिखी है। प्राचीन पुस्तकों में इसका नाम पुष्पपुर और कुसुमपुर भी लिखा है। वर्तमान पटना शेरशाह सूर का बसाया हुआ है। ब्रह्मपुराण में लिखा है कि महाराज उदायी या उदयन ने गंगा के दाहिने किनारे पर इस नगर को बसाया। यह मगधराज अजातशत्रु का पुत्र था जो वुद्ध का समकालिक था। बौद्धों के 'महानिब्वाहनसुत्त' नामक ग्रंथ में इसेक निर्माण के विषय में यह कथा लिखी हैः भगवान् बुद्ध नालंद से वैशाली जाते हुए पाटली ग्राम में पहुँचे। वहाँ के निवासियों ने उनके लिये एक विश्रामगार बनवा दिया। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि यह ग्राम एक विशाल नगर होगा और अग्नि, जल तथा विश्वास- घातकता के आघात सहन करेगा। मगधराज के दो मंत्री कोई ऐसा नगर बसाने के लिये उपयुक्त स्थान ढूँढ रहे थे जिसमें रहकर निशिव नामक ब्रात्य क्षत्रियों के आक्रमण से देश की रक्षा की जा सके। उपर्युक्त आशीर्वाद की बात सुनते ही उन्होंने पाटली में नगर बसाना आरंभ कर दिया। इसी का नाम पाटलीपुत्र पडा़। भविष्य पुराण के अनुसार विश्वामित्र के पिता गाधि की कन्या पाटनी के इच्छानुसार कौंडिन्य मुनि के पुत्र ने मंत्रबल से इस नगर को बसाया और इसी से पाटलीपुत्र नाम रखा।
⋙ पाटलिमा
संज्ञा पुं० [सं० पाटलिमन्] पाटल वर्ण या गुलाबी रंग [को०]।
⋙ पाटली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाडर। २. पांडुफली। ३. पटना नगर की अधिष्ठात्री देवी। ४. गाधि की पुत्री जिसके अनुरोध से पाटलीपुत्र बसा। यौ०—पाटलीपुत्र = पाटलिपुत्र।
⋙ पाटली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाट] लकडी़ की एक बल्ली जिसमें बहुत से छेद होते हैं और प्रत्येक छेद में से मस्तूल की एक एक रस्सी निकाली जाती है। इससे रात में किसी विशेष रस्सी को अलग करने में कठिनाई नहीं पडती। (लश०)।
⋙ पाटली तैल
संज्ञा पुं० [सं] एक औषध तैल जिसके लगाने से जले हुए स्थान की जलन, पीडा़ और चेप बहना दूर होता है। इससे चेचक की भी शांति होती है। विशेष—इसके बनाने की विधि इस प्रकार है—पाडर या पाढर की छाल के ८ सेर का ६४ सैर पानी में काढा किया जाय। चौथाई रह जाने पर ८ सेर सरसों से तेल में डालकर फिर धीमी आँच में वह पकाया जाय। तेलमात्र रह जाने पर छानकर काम में लाएँ।
⋙ पाटलोपल
संज्ञा पुं० [सं०] एक मणि जिसका रंग सफेदी लिए हुए लाल होता है। लाल।
⋙ पाटल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाटल के फूलों का समूह [को०]।
⋙ पाटव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पटुता। चतुराई। कुशलता। चालाकी। उ०—झलक आया स्वेद भी मकरंत सा, पूर्ण भी पाटव हुआ कुछ मंद सा। —साकेत, पृ० २३। २. दृढता। अजबूती। पक्कापन। ३. आरोग्य। ४. स्फूर्ति। तीव्रता। शीघ्रता (को०)। ५. तीक्ष्णता (को०)।
⋙ पाटविक
वि० [सं०] १. पटु। कुशल। २. धूर्त।
⋙ पाटवी
वि० [हिं० पाट] १. पटरानी से उत्पन्न (राजकुमार)। उ०—तै मम प्रभु सुत पाटवी मैं तुव पितु पद दास।—रघुराज (शब्द०)। २. रेशमी कौषेव। रेशम से बुना हुआ (वस्त्र)। उ०—नल हैकल सिर सुचरख शृंगा। पौठ पाटवी झूल अभंगा। —रघुराज (शब्द०)। ३. वरिष्ठ। श्रेष्ठ। ज्येष्ठ। पट्ट अधिकारी। प्रधान। बडा। उ०— गरीबदास जी दाकू जी के पाटवी पुत्र और प्रधान शिष्य थे।—सुंदर ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० ९१।
⋙ पाटसन
संज्ञा पुं० [सं० पट्ठशण] पटसल। पटुआ।
⋙ पाटहिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] पटह बजानेवाला। सस बडै़ ढोल का बजानेवाला जो लडा़ई आदि में बजता है।
⋙ पाटहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुंजा। घुँघुची।
⋙ पाटा
संज्ञा पुं० [हिं० पाट] १. पीढा। मुहा०—पाटा फेरना = पीढा़ बदलना। विवाह में वर के पीढे़ पर कन्या को और कन्या के पीढे़ पर वर को बिठाना। २. दो दीवारों के बीच बाँस, बल्ली, पटिया आदि देकर बनाया हुआ आधारस्थान जिसपर चीजें रखी जाती हैं। दासा। ३. वह हाथ डेढ़ हाथ ऊँची दीवार जो रसोईंघर में चौके के सामने और बगल में इसलिये बनाई जाती है कि बाहर बैठकर खानेवालों को पकानेवाली स्त्री से सामना न हो। ४. दे० 'पाट'। उ०—ओही छाज छात औ पाटा। सब राजै मुइँ धरा लिलाटा। —जायसी ग्रं०, पृ० ५। †५. दे० 'पट्ट'।
⋙ पाटि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाट] सिंहासन। राजासन। उ०— उदै करण राजा आँबेर पाडि बैठा। —शिखर०, पृ० १।
⋙ पाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक शिव की मजदूरी। २. एक पौधा। ३. छाल या छिलका।
⋙ पाटित
वि० [सं०] काडा हुआ। विदारित।
⋙ पाटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परिपाटी। अनुक्रम। रीति। उ०— सीह छतीसी साँनलै छाके बंस छतीस। बाँके पाढी बीर रस, बरणी बिसवा बीस। —बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १८। २. गणनादि का क्रम। जोड, बाकी गुणा, भाग आदि का क्रम। यौ०—पाटीगणित। ३. श्रेणी। अवलि। पंक्ति। पाँत। ४. बला नामक क्षुप। खरैंटी।
⋙ पाटी (२)
हिं० [सं० पाट, पाटी] १. लकडी़ की वह प्रायः लंवोतरी पट्टी जिसपर विद्यारंभ करनेवालै छान सुर से पाठ लेते ना लिखने का अभ्यास करते हैं। तख्ती। पाटिवा। २. पाठ। सबक। मुहा०— पाटी पडना = पाठ पढना। सबक लेना। शिक्षा पाना। उ०— तुम कौन धों पाडी पढे़ हौ लला मन लेत हौ खेल छटाँक नहीं। —घनानंद (शब्द०)। पाटी पड़ना = पाठ पड़ना। शिक्षा देना। कोई बात सिखा देना। ३. माँग के दोनों ओर तेल, गोद या जल की सहायता से कंधा द्वारा बैठाए हुए बाल, जो देखने में बराबर मालुम हों। पट्टी पटिया। उ०—मुँडली पाटी पारन चाहै नकटी पहिरे वेसर। —सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०— पारना। —बैठाना। ४. लकडी़ का वह गोला, चीपटा या चौकोर पतना बल्ला जो खाट की लंबाई के बल में दोनों ओर रहता है। चारपाई के ढाँचे में लंबाई की ओर की पट्टी। चारपाई के ढाँचे का पार्श्वभाग। उ०—जागत जाति राति सब काटी। लेत करोट सेज की पाटी। —शकुंतला, पृ० २०८। ५. चटाई। यौ०— सीतलपाटी। ६. शिला। चट्टान। ७. मछलियाँ पकड़ने के लिये बहते पानी को मिट्टी के बाँध या वृक्षों की टहनियों आदि से रोककर एक पतले मार्ग से निकालने और वहाँ पहरा बिछाने की क्रिया। क्रि० प्र०— बिछाना। —लगाना। ८. खपरैल की नरिया का प्रत्येक आधा भाग। ९. जंती।
⋙ पाटीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का चंदन। उ०—नटवर श्याम किसोर तन चरचित नव पाटीर। घनानंद, पृ० २७१। २. मेघ। बादल (को०)। ३. क्षेत्र। मैदान (को०)। ४. टीन (को०)। ५. छनना। छलनी। चलनी। (को०)। ६. एक तीक्ष्ण मूलक या मूली (को०)। ७. वेणुसार। बंसलोचन (को०)। ८. नजला। जुकाम (को०)। ९. वह व्यक्ति जो किसी बात को छिपा न सके। पेट का हलका (को०)।
⋙ पाटूनी †
संज्ञा सं०[ देश०] वह मल्लाह जो किसी घाठ का ठेकेदार हो। घटवार।
⋙ पाट्य
संज्ञा पुं० [सं०] पटसन।
⋙ पाठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पढने की क्रिया या भाव। पढा़ई। २. किसी पुस्तक विशेषतः धर्मपुस्तक को नियमपूर्वक पढ़ने की क्रिया या भाव। जैसे, वेदपाठ, स्तोत्रपाठ। ३. बह्ययज्ञ। वेदाध्ययन। वेदपाठ। यौ०—पाठदोष। पाठप्रणाली। ३. जो कुछ पढा़ या पढा़या जाय। पढ़ने या पढा़ने का विषय। ४. उक्त विषय का उतना अंग जो एक दिन में या एक बार पढा़ जाय। सबक। संथा। क्रि० प्र०—देना। —पढना। —पाना। मुहा०— पाठ पढाना = कुछ सीखना, विशेषतः कोई बुरी बात। जैसे,—आजकल ये जुए का पाठ पढ़ रहे हैं। पाठ पढा़ना = अपने मतलब के लिये किसी को बहकाना। पट्टी पढाना। उलटा पाठ पढाना = कुछ का कुछ समझा देना। असलियत के विरुद्ध विश्वास करा देना। बहका देना। ५ पुस्तक का एक अंश। परिच्छेद। अध्याय। ६. शब्दों या वाक्यों का क्रम या योजना। जैसे,—अमुक पुस्तक में इस दोहे का यह पाठ है।
⋙ यो०— पाठभेद। पाठांतर।
⋙ पाठ † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पट्ठा] जवान गाय, भैंस या बकरी।
⋙ पाठक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो पढे़। पढ़नेवाला। वाचक। २. जो पढा़वे। पढा़नेवाला। अध्यापक। ३. धर्मोंपदेशक। ४. गौड़, सारस्वत, सरयूपारीण, गुजराती आदि ब्राह्मणों का एक उपवर्ग। ५. गुप्तकाल में प्रचलित एक बडे़ माप का नाम जो कुल्यावाप से पँचगुना होता था। उ०—पिछले गुप्तकाल में एक बडे़ माप का नाम मिलता है जिसे पाठक कहते थे। — पू० म० भा०,पृ० १२३।
⋙ पाठच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] पाठ के बीच में होनेवाला विराम। यति [को०]।
⋙ पाठदोष
संज्ञा पुं० [सं०] पढ़ने का ढंग या पढ़ने के समय की वह चेष्टा जो निद्य और वर्जित है। जैसे, विकृत या कठोर स्वर से पढ़ना, अव्यक्त, अस्पष्ट, सानुनासिक या बहुत ठहर ठहरकर उच्चारण करना, गाकर पढ़ना, सिर आदि अंगों को हिलाना। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में ऐसे दोषों की संख्या अट्ठारह मानी गई है।
⋙ पाठन
संज्ञा पुं० [सं०] पढाने की क्रिया या भाव। शिक्षण। पढा़ना। अध्यापन। यौ०—पाठनशैली = पढा़ने की शैली या ढंग। पढा़ने की पद्धति।
⋙ पाठना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पाठन ] पढा़ना।
⋙ पाठनिश्चय
संज्ञा पुं० [सं०] पाठ की शुद्धता का निर्णय करना। शुद्ध पाठ निश्चित करना [को०]।
⋙ पाठपद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पढ़ने की रीति या ढंग।
⋙ पाठप्रणाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पढ़ने की रीति या ढंग।
⋙ पाठभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जगह जहाँ वेदादि का पाठ किया जाय। २. ब्रह्मारण्य।
⋙ पाठभेद
संज्ञा पुं० [सं०] वह भेद या अंतर जो एक ही ग्रंथ की दो प्रतियों के पाठ में कहीं कहीं हो। पाठांतर।
⋙ पाठमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पाठमञ्जरी ] एक प्रकार की मैना।
⋙ पाठशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ पढा़ या पढा़या जाय। मदरसा। स्कूल। विद्यालय। चटसाल।
⋙ पाठशालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मैना। शारिका।
⋙ पाठशाली
संज्ञा पुं० [सं० पाठशालिन् ] छात्र। विद्यार्थी [को०]।
⋙ पाठशालीय
वि० [सं०] पाठशाला से संबंध रखनेवाला। पाठ- शाला का।
⋙ पाठांतर
संज्ञा पुं० [सं० पाठान्तर ] १एक ही पुस्तक की दो प्रतियों के लेख में किसी विशेष स्थल पर भिन्न शब्द, वाक्य अथवा क्रम। भिन्न भिन्न स्थलों में लिखे हुए एक ही वाक्य के कुछ शब्दों या एक ही शब्द के कुछ अक्षरों का अदल बदल। अन्य पाठ। दूसरा पाठ। पाठभेद। जैसे,—अमूक दोहे के कई पाठांतर मिलते हैं। २. पाठांतर होने का भाव। पाठ का भेद। पाठभिन्नता।
⋙ पाठा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लता। पाढ़। पाढा़। विशेष—इसके पत्ते कुछ नोकदार गोल, फूल छोटे सफेद और फल मकोय के से होते हैं। फलों का रंग लाला होता है। यह दो प्रकार की होती है—छोटी और बडी़। गुण दोनों के समान हैं। वैद्यक में यह कड़वी, चरपरी, गरम, तीखी, हलकी, टूटी हड्डियों को जोडनेवाली, पित्त, दाह, शूल, अतिसार, वातपित्त, ज्वर, वमन, विष, अजीर्ण, त्रिदोष, हृदयरोग, रक्तकुष्ठ, कंडु, श्वास, कृमि, गुल्म, उदररोग, व्रण और कफ तथा बात का नाश करनेवाली मानी गई है। बहुधा लोग घाव पर इसकी को बाँधे रहते हैं। वे समझते हैं कि इसके रहने से घाव बिगड़ या सड़ न सकेगा। इसकी सूखी जड़ मूत्राशय की जलन में लाभदायक होती है। पक्वा- शय की पीडा़ में भी इसका व्यवहार किया जाता है। जहाँ साँप ने काटा या बिच्छू ने डंक मारा हो वहाँ भी ऊपर से इसके बाँधने से लाभ होता है। पर्य्या०—पाठिका। अंबष्टा। अंवष्ठिका। युथिका। स्थापनी। विद्धकर्णिका। दीपनी। वनतिक्तिका। तिक्तपुष्पा। वृहत्ति- क्ता। मालती। वरा। प्रतानिनी। रक्तघ्ना। विषहंत्री। महौजसी। वीरा। वल्लिका।
⋙ पाठा (२)
संज्ञा पुं० [सं० पुष्ट, हिं० पट्ठा] [स्त्री० पाठी ] १. वह जो जवान और परिपुष्ट हो। हृष्टपुष्ट। मोटा तगडा़। जैसे, साठा तब पाठा। २. जवान बैल, भैंसा या बकरा।
⋙ पाठान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पठान'। उ०—सुनत खबर लज्जे पाठानह। —प० रासो, पृ० १०५।
⋙ पाठालय
संज्ञा पुं० [सं०] पाठशाला।
⋙ पाठिक
वि० [सं०] मूल पाठ के समान। मूल पाठ से मिलता जुलता हुआ [को०]
⋙ पाठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पढ़नेवाली। २. पढा़नेवाली। ३. पाठा। पाढ़ या पाढा़ लता।
⋙ पाठिकुट
संज्ञा पुं० [सं०] चीते का वृक्ष। चित्रक वृक्ष [को०]।
⋙ पाठित
वि० [सं०] पढा़या हुआ। सिखाया हुआ।
⋙ पाठी
संज्ञा पुं० [सं० पाठिन् ] १. पाठ करनेवाला। पाठक। पढ़नेवाला। उ०—ना मैं पाठी ना परधाना। ना ठाकुर चाकर तेहि जाना। —कबीर मं०, पृ० ५०१। २. वह ब्राह्मण जो अपना अध्ययन समाप्त कर चुका हो (को०)। यौ०— वेदपाठी। त्रिपाठी। २. चीता। चित्रक वृक्ष।
⋙ पाठीकुट
संज्ञा पुं० [सं०] चीते का पेड़।
⋙ पाठीन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहिना या पढिना नाम की मछली। उ०—मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने। —मानस, २। १९३। २. गूगल का पेड़। ३. कथा- वाचक। पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों का वक्ता (को०)।
⋙ पाठ्य
वि० [सं०] १. जो पढ़ने योग्य हो। पठनीय। पठितव्य। २. जो पढा़या जाय।यो०—पाठ्यक्रम = पढा़ने या अध्ययन के लिये निर्धारित पाठ। पाठ्यपुस्तक = पढा़ने के लिये निर्धारित पुस्तक।
⋙ पाड़
संज्ञा पुं० [हिं० पाट ] १. धोती, साडी आदि का किनारा। २. मचान। पायठ। ३. लकडी़ की जाली या ठठरी जो कुएँ के मुँह पर रखी रहती है। कटकर। चह। ४. बाँध। पुश्ता। ५. वह तख्ता जिसपर खडा़ करके फाँसी दी जाती है। तिकठी। ६. दो दीवारों के बीच पटिया देकर या पाटकर बनाया हुआ आधारस्थान। पाटा। दासा।
⋙ पाड़इ
संज्ञा स्त्री० [सं० पाटल ] पाटल नामक वृक्ष। उ०—जहाँ निवारी सेबती मिलि झूमक हो। बहु पाडइ बिपुल गंभीर मिलि झूमक हो। —सूर (शब्द०)।
⋙ पाड़ना †
क्रि० स० [सं० उत्पाटन ] उखाड़ना। उपाटना। उ०— वो तोता जो पिंजर में ते भार काड़। निकाली जो थी उसके शाह पर वो पाड़। —दक्खिनी०, पृ० ८९।
⋙ पाडर
संज्ञा पुं० [सं० पाटल ] दे० 'पाढर'। उ०—कहूँ पाडरं डार बैठे परेवा। —प० रासो, पृ० ५५।
⋙ पाडल
संज्ञा पुं० [सं० पाटल ] दे० 'पाटल'।
⋙ पाडलीपुर
संज्ञा पुं० [सं० पाटलिपुत्र ] दे० 'पाटलीपत्र'।
⋙ पाडसाली
संज्ञा पुं० [देश०] दक्षिण भारत में रहनेवाली जुलाहो की एक जाति। विशेष—बाधलकोट आदि स्थानों में इस जाति के जुलाहे पाए जाते हैं। लिंगायतों से इनमें बहुत कम अंतर है। ये भी गले में लिंग पहनते और सिर में भस्म रमाते हैं। ये मांस, मद्य आदि का सेवन नहीं करते। ये एक गोत्र में विवाह नहीं करते।
⋙ पाडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पट्टन या सं० पद्र, देशी बद्द, बँ० पाडा़ ] पुरबा। टोला। महल्ला।
⋙ पाडा़ (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक सामुद्रिक मछली जो भारतीय महासागर में पाई जाती है। यह प्रायः तीन फुट लंबी होती है। †[स्त्री० पाडी़ ] २. भैंस का बच्चा। पड़वा।
⋙ पाडिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिट्टी का बरतन। हाँडी।
⋙ पाढ † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] मध्य। बीच। उ०—जीवन दीसै रोगिया कहैं मूवां पीछै जाइ। दादू दुँह के पाढ़ में, ऐसी दारू लाइ। — दादू०, पृ० २५९।
⋙ पाढ (२)
संज्ञा पुं० [सं० पाटा ] १. पाटा। २. सुनारों का एक औजार जिससे नक्काशी करते हैं। ३. वहग पीढा़ या पाटा जिसपर बैठकर सुनार, लुहार आदि काम करते हैं। ४. लकडी़ की वह छोटी सीढी़ जिसके डंडे कुछ ढालू होते हैं। ५. वह मचान जिसपर फसल की रखवाली के लिये खेतवाला बैठता है। ६. कुएँ के मुँह पर रखी हुई लकडी़ की चह। पाड़। ७. धोती का किनारा। पाड़।
⋙ पाढ़त पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पढना ] १. जो कुछ पढा़ जाय। जिसका पाठ किया जाय। २. मंत्र। जादू। पढ़ंत। उ०—आई कुमोदिनि चित्तौर चढी़। जोहन मोहन पाढ़त पढी़। —जायसी (शब्द०)। ३. पढ़ने की क्रिया या भाव।
⋙ पाढ़र (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाटल ] पाडर का पेड़।
⋙ पाढ़र (२)
वि० [सं० पाट, हिं० पाड़— पाढ़+र (प्रत्य०) ] किनारीदार (साडी़, दुपट्टा आदि)।
⋙ पाढ़ल
संज्ञा पुं० [सं० पाटल ] दे० 'पाटल'।
⋙ पाढा़ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का हिरन। इसकी खाल पर सफेद चित्तियाँ होती हैं। चित्रमृग।
⋙ पाढा़ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पाठा ] दे० 'पाठा'।
⋙ पाढी़
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. सूत की एक लच्छी। २. वह नाव जो यात्रियों को पार पहुँचाने के लिये नियत हो।
⋙ पाण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यापार। तिजारत। खरीद बिक्री। २. दाँव। बाजी। ३. हाथ। कर। ४. प्रशंसा। ५. व्यव- सायी। तिजारती (को०)। ६. करार। प्रतिज्ञा (को०)। ७. द्यूत। जुआ (को०)।
⋙ पाणग्ग पु
संज्ञा पुं० [सं० पानक ] नशीला शर्बत। पीने की वस्तु। मदिरा। दे० 'पानक' उ०—अणपीयइ पाणग्ग ज्यूँ नयणे छाक चढंत। —ढोला०, दू० ५३४।
⋙ पाणही †
संज्ञा स्त्री० [सं० उपानह् ] दे० 'पानही'। उ०—हूँ बराकी घणि मो कियउ रोस। पाँव की पाणही सुं कियन रोस। — वी० रासो, पृ० ३३।
⋙ पाणिंधम
वि० [सं० पाणिन्धम ] १. हाथों को हिलाता हुआ। २. थपोडी़ बजानेवाला [को०]।
⋙ पाणिंधय
वि० [सं० पाणिन्धय ] हाथ से पीनेवाला [को०]।
⋙ पाणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ। कर। यौ०—पाणिग्रह। पाणिग्राहक। २. क्षुर। खुर (को०)। ३. बजार। हाट (को०)। ४. एक कँटीला पौधा। कुटिल वृक्ष (को०)।
⋙ पाणिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो खरीदा जा सके। सौदा। २. हाथ। ३. कार्तिकेय का एक गण। ४. तिजारती। व्यापारी (को०)। ५. द्यूत में प्राप्त वस्तु (को०)।
⋙ पाणिकच्छपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कूर्ममुद्रा।
⋙ पाणिकर्ण
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिव।
⋙ पाणिकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० पाणिकर्मन ] १. शिव। २. हाथ से बाजा बजानेवाला।
⋙ पाणिका
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का गीत या छंद। २. चम्मच के आकार का एक पात्र।
⋙ पाणिकुर्चा
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय का एक गण।
⋙ पाणिखात
संज्ञा पुं० [सं०] एक तीर्थ स्थान।
⋙ पाणिगृहीत
वि० [सं०] १. विवाहित। २. तैयार। उपस्थित [को०]।
⋙ पाणिगृहीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्नी।
⋙ पाणिगृहीती
वि० स्त्री० [सं०] जिसका,व्याह में पाणिग्रहण किया गया हो। धर्मशास्त्रानुसार व्याही हुई।
⋙ प्राणिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह।
⋙ पाणिग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवाह की एक रीति जिसमें कन्या का पिता उसका हाथ वर के हाथ में देता है। विशेष—दे० 'विवाह'। २. विवाह। व्याह।
⋙ पाणिग्रहणिक
वि० [सं०] १ विवाह संबंधी। २. विवाह में दिया जानेवाला (उपहार)। ३. विवाह में पढा़ जानेवाला (मंत्र)। विशेष—आश्वलायन गृह्यसूत्र के 'अर्य्यमनं न देवं कन्या अग्नि मयाक्षत' से लगाकर १९ वें सूत्र तक के मंत्र 'पाणिग्रहणिक' कहते हैं।
⋙ पाणिग्रहणीय
वि० [सं०] १. विवाह संबंधी। २. विवाह में दिया जानेवाला (उपहार)।
⋙ पाणिग्रहीता
संज्ञा पुं० [सं० पाणिग्रहीतृ] पति [को०]।
⋙ पाणिग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] पति।
⋙ पाणिग्राहक
संज्ञा पुं० [सं०] पति। भर्ता।
⋙ पाणिध
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो हाथ से कोई बाजा बजावे। मृदंग ढोल आदि बजानेवाला। २. हाथ से बजाए जानेवाले मृदंग, ढोल आदि बाजे। ३. कारीगर। शिल्पी।
⋙ पाणिघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. थप्पड़। मुक्का। चपत। घूँसा। २. मुक्केवाज। घूंसेबाज (को०)। ३. घूँसेबाजी। मुक्की (को०)।
⋙ पाणिघ्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिल्पी। दस्तकार।
⋙ पाणिघ्न (२)
वि० ताली बजानेवाला [को०]।
⋙ पाणिज
संज्ञा पुं० [सं०] १. उँगली। २. नख। नाखून। ३. नखी।
⋙ पाणितल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हथेली। २. वैद्यक में एक परिमाण जो दो तोले के बराबर होता है।
⋙ पाणिताल
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक विशेष ताल।
⋙ पाणिदाक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तलाघव। हाथ की चालाकी [को०]।
⋙ पाणिधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह संस्कार।
⋙ पाणिन
संज्ञा पुं० [सं० पाणिनि ] दे० 'पाणिनि'।
⋙ पाणिनि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध मुनि जिन्होंने अष्टाध्यायी नामक प्रसिद्ध ब्याकरण ग्रंथ की रचना की। पेशावर के समीपवर्ती शालातुर (सलात्) नामक ग्राम इनका जन्मस्थान माना जाता है। इनकी माता का नाम दाक्षी और दादा का देवल था। मा्ता के नाम पर इन्हें 'दाक्षीपुत्र' या 'दाक्षेय' तथा ग्राम के नाम पर 'शालातुरीय' कहते हैं। आहिक, प्राणिन, शालंकी आदि इनके और भी कई नाम हैं। इनके समय के विषय में पुरातत्वज्ञों में मतभेद है। भिन्न भिन्न विद्वानों नें इन्हें ईसा के पाँच सौ, चार सौ और तीन सौ वर्ष पहले का माना है। किसी किसी के मत से ये ईसा की दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे। अधिकतर लोगों ने ईसा के पूर्व चौथी शताब्दी को ही आपका समय माना है। प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ और विद्वान् डाय सर रामकृष्ण भांडारकर भी इसी मत के पोषक हैं। पाणिनि के पहले शाकल्य, वाभ्रव्य, गालव, शाकटायन आदि आचार्यों ने संस्कृत ब्याकरणों की रचना की थी; पर उनके व्याकरण सर्वांगसुंदर तो क्या पूर्ण भी न थे। इन्होंने बडे़ परिश्रम से सब प्रकार के वैदिक और अपने समय तक प्रचलित सब शब्दों को इकट्ठा कर उनकी व्युत्पत्ति तथा रुप आदि के व्यापक नियम बनाए। इनकी 'अष्टाध्यायी' इतनी उत्तम और सर्वांगसुंदर बनी कि आज प्रायः ढाई हजार वर्षों से व्याकरण विषय पर संस्कृत में जो कुछ लिखा गया प्रायः उसी के भाष्य, टीका या ब्याख्यान के रुप में लिखा गया; एकाध को छोड़कर किसी वैयाकरण को नया ग्रंथ बनाने की आवश्यकता नहीं जान पडी। अष्टाध्यायी इनके प्रकांड शब्द-शास्त्र-ज्ञान और असाधारण प्रतिभा का प्रमाण है। संस्कृत ऐसी भाषा के व्याकरण को जितने संक्षेप में इन्होंने निबटाया है उसे देखकर शब्दशास्त्रज्ञों को दाँतों उँगली दबानी पड़ती है। अष्टाध्यायी के अतिरिक्त 'शिक्षासूत्र', 'गणपाठ', 'धातुपाठ' और 'लिंगानु- शासन' नामक पुस्तकों की भी इन्होंने रचना की है। राज- शेखर आदि कई कवियों ने 'जांबवतीविजय' नामक पाणिनि के एक काव्य का भी उल्लेख किया है जिससे उद्धृत श्लोक इधर उधर मिलते हैं। ह्वेनसांग ने इनकी व्याकरणरचना के विषय में लिखा है कि प्राचीन काल में विविध ऋषियों के आश्रमों में विविध वर्णमालाएँ प्रचलित थीं। ज्यों ज्यों लोगों की आयुमर्यादा घटती गई त्यों त्यों उनके समझने और याद रखने में कठिनाई होने लगी। पाणिनि को भी इसी कठिनाई का सामना करना पडा़। इसपर उन्होंने एक सुश्रृँखलति और सुब्यव- स्थित शब्दशास्त्र बनाने का निश्चय किया। शब्दविद्या की प्राप्ति के लिये उन्होंने शंकर का आराधन किया जिसपर उन्होंने प्रकट होकर यह विद्या उन्हें प्रदान की। घर आकर पाणिनि ने भगवान् शंकर से पढी हुई विद्या को पुस्तक रुप में निबद्ध किया। तत्कालीन राजा ने उनके ग्रंथ का ब़डा आदर किया। राज्य की समस्त पाठशालाओं में उसके पठन- पाठन की आज्ञा की और घोषणा की कि जो कोई उसे आदि से अंत तक पढेगा उसे एक सहस्र स्वर्णमुद्राएँ इनाम दी जायँगी। इनके बिषय में एक कथा यह भी प्रसिद्ध है कि एक बार ये जंगल में बैठे हुए अपने शिष्यों को पढा़ रहे थे। इतने में एक जंगली हाथी आकर इनके और शिष्यों के बीच से होकर निकल गया। कहते हैं, यदि गुरु और शिष्य के बीच में से जंगली हाथी निकल जाय तो बारह वर्ष का अनध्याय हो जाता है— १२ वर्ष तक गुरु को अपने शिष्यों को न पढा़ना चाहिए। इसी कारण इन्होंने बारह वर्ष के लिये शिष्यों को पढा़ना छोड़ दिया और इसी बीच में अपने प्रसिद्ध ब्याकरण की रचना कर डा़ली।
⋙ पाणिनीय
वि० [सं०] १. पाणिनिकृत (ग्रंथ आदि)। २. पाणिनि- प्रोक्त। पाणिनि का कहा हुआ। पाणिनि द्वारा उपदिष्ट (व्याकरण)। ३. पाणिनि में भक्ति रखनेवाला। पाणिनि- भक्त। पाणिनि का ग्रंथ पढनेवाला।
⋙ पाणिनीय दर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] पाणिनि का अष्टाध्यायी व्याकरण। पाणिनिय व्याकरण के ग्रंथों में प्रतिपादित व्याकरण दर्शन। विशेष— 'सर्वदर्शनसंग्रह' कार ने पाणिनीय व्याकरण दर्शन को भी भारत के प्राचीन दर्शनों में स्थान दिया है। इस दर्शन के मत से स्फोटात्मक निरवयव नित्य शब्द ही जगत् का आदि कारण रुप परब्रह्म है। अनादि अनंत अक्षर रुप शब्द ब्रह्म से जगत् की साकी प्राक्रियाएँ अर्थ रुप में पर्वर्तित होती हैं। इस दर्शन ने शब्द के दो भेद माने हैं। नित्य और अनित्य। नित्य शब्द स्फोट मात्र ही है, संपूर्ण वर्णांत्मक उच्चरित शब्द अनित्य हैं। अर्थबोधन सामर्थ्य केवल स्फोट में है। वर्ण उस (स्फोट) की अभिव्यक्ति मात्र के साधन हैं। अग्नि शब्द में अकार, गकार, नकार और इकार ये चारों वर्ण मिलकर अग्नि नामक पदार्थ का बोध कराते हैं। अब यदि चारों ही में अग्निवाचकता मानी जाय तो एक ही वर्ण के उच्चारण से सुननेवाले को अग्नि का ज्ञान हो जाना चाहिए था, दूसरे वर्ण तक के उच्चारण की आवश्यकता न होनी चाहिए थी। पर ऐसा नहीं होता। चारों वर्णों के एकत्र होने से ही उनमें अग्निवाचकता आती हो तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि पर वर्ण के उत्पत्तिकाल में पूर्व वर्ण का नाश हो जाता है। उनका एकत्र अवस्थान संभव ही नहीं। अतः मानना पडे़गा कि उनके उच्चारण से जिस स्फोट की अभिव्यक्ति होती है वस्तुतः वही अग्नि का बोधक है। एक वर्ण के उच्चारण से भी यह अभिव्यक्ति होती है, पर यथेष्ट पुष्टि नहीं होती। इसी लिये चारों का उच्चारण करना पड़ता है। जिस प्रकार नीले, पीले, लाल आदि रंगों का प्रतिबिंब पड़ने से एक ही स्फटिक मणि में समय समय पर अनेक रंग उत्पन्न होते रहते हैं उसी प्रकार एक ही स्फोट भिन्न भिन्न वर्णों द्वारा अभि- व्यक्त होकर भिन्न भिन्न अर्थों का बोध कराता है। इस स्फोट को ही शब्दशास्त्रज्ञों ने सच्चिदानंद ब्रह्म माना है। अतः शब्द शास्त्र की आलोचना करते करते क्रमशः अविद्या का नाश होकर मुक्ति प्राप्त होती है। 'सर्वदर्शनसंग्रह' कार के मत से व्याकरण शास्त्र अर्थात 'पाणिनीयदर्शन' सब विद्याओं से पवित्र, मुक्ति का द्वारस्वरुप और मोक्ष मार्गों में राजमार्ग है। सिद्धि के अभिलाषी को सबसे पहले इसी की उपासना करनी चाहिए।
⋙ पाणिपल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. उँगलियाँ। २. करपल्लव। पल्लव- रुपी पाणि।
⋙ पाणिपीड़न
संज्ञा पुं० [सं० पाणिपीड़न ] १. पणिग्रहण। विवाह। २. क्रोध, पश्चात्ताप आदि के कारण हाथ मलना।
⋙ पाणिपुट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पाणिपुटक'।
⋙ पाणिपुटक
संज्ञा पुं० [सं०] अंजलि। चुल्लू। करपुट [को०]।
⋙ पाणिप्रणयिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्नी। स्त्री।
⋙ पाणिप्रार्थी
वि० पुं० [सं० प्राणिप्रार्थिन् ] विवाह करने को इच्छुक। उ०—और तुमको मालूम है उसके हर साल एक से एक बढ़कर पाणिप्रार्थी युवा लोग मैदान में आते जाते हैं। — सुनीता, पृ० २९।
⋙ पाणिबंध
संज्ञा पुं० [सं० पाणिबन्ध ] पाणिग्रहण।
⋙ पाणिभुक्
संज्ञा पुं० [सं० पाणिभुज् ] गूलर बृक्ष।
⋙ पाणिभुज
संज्ञा पुं० [सं० पाणिभुज ] गूलर का पेड़।
⋙ पाणिमर्द्द
संज्ञा पुं० [सं०] करमर्द्द। करौंदा।
⋙ पाणिमुक्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शल्य। भाला [को०]।
⋙ पाणिमुक्त (२)
वि० हाथ से फेंका जानेवाला (अस्त्र) [को०]।
⋙ पाणिमुख (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाणिमुखा ] १. पितृदेव। पितर [को०]।
⋙ पाणिमुख (२)
वि० जो हाथ से भोजन करे [को०]।
⋙ पाणिमूल
संज्ञा पुं० [सं०] कलाई।
⋙ पाणिरुह
संज्ञा पुं० [सं०] १. उँगली। २. नख। नाखून।
⋙ पाणिरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हथेली पर की लकीरें। हस्तरेखा।
⋙ पाणिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १मृदंग, ढोल आदि बजानेवाला। २. मृदंग ढोल आदि बाजे। ३. ताली बजाना। ४. ताली बजानेवाला।
⋙ पाणिवादक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृदंग आदि बजानेवाला। २. ताली बजानेवाला।
⋙ पाणिसर्ग्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] रजुरी। रस्सी [को०]।
⋙ पाणिस्वनिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो हाथों से वाद्य बजाता हो [को०]।
⋙ पाणिहता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ललितविस्तर के अनुसार एक छोटा तालाब जिसे देवताओं ने बुद्ध भगवान् के लिये तैयार किया था। कहते हैं, देवताओं ने एक बार हाथ से पृथ्वी को ठोंक दिया जिससे वहाँ एक पुष्करिणी निकल आई।
⋙ पाणिहोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक विशेष होम जो अधिकारी ब्राह्मण के हाथ से किया जाता है।
⋙ पाणी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाणि ] दे० 'पाणि'।
⋙ पाणी † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पानी ] जल। पानी। उ०—भीतर मैला बाहेरी चोखा पाणी प्यंड पखाले धोया। —दक्खिनी०, पृ०३४।
⋙ पाणितक
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय का एक गण।
⋙ पाणौकरण
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह। पाणिग्रहण।
⋙ पाण्य
वि० [सं०] १. पाणि संबंधी। हाथ संबंधी। २. प्रशंसनीय। बडा़ई के योग्य (को०)।
⋙ पाण्यास
वि० [सं०] हाथ से खानेवाले (पितर) [को०]।
⋙ पातंग
वि० [सं० पातङ्ग ] १. भूरा। २. पतंग संबंधी (को०)।
⋙ पातंगि
संज्ञा पुं० [सं० पातङ्गि ] पतंग अर्थात् सूर्य के पुत्र—१ शनैश्चर। २. यम। ३. सुग्रीव। ४. कर्ण [को०]।
⋙ पातंजल (१)
वि० [सं० पातञ्जल ] पतंजलि रचित (ग्रंथ)। पतं- जलि का बनाया हुआ (योगसूत्र या व्याकरण महाभाष्य)। यौ०—पातंजलदर्शन। पातंजलभाष्य। पातंजलसूत्र।
⋙ पातंजल (२)
संज्ञा पुं० १. पतंजलिकृत योगसूत्र। २. पतंजलिप्रणितमहाभाष्य। ३. पातंजल। योगसूत्र के अनुसार योगसाधन करनेवाले।
⋙ पातंजलदर्शन
संज्ञा पुं० [सं० पातञ्जलदर्शन ] योगदर्शन।
⋙ पातंजल भाष्य
संज्ञा पुं० [सं० पातञ्जलभाष्य ] महाभाष्य नामक प्रसिद्ध ब्याकरण ग्रंथ।
⋙ पातंजलसूत्र
संज्ञा पुं० [सं० पातञ्जलसूत्र ] योगसूत्र।
⋙ पातंजलिशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं० पातञ्जलशास्त्र ] पतंजलि का बनाया हुआ योगशास्त्र। योगदर्शन। उ०—वैशेषिक शास्त्र पुनि, कालवादी है प्रसिद्ध, पातंजलिशास्त्र माहिं, योगवाद लह्यो है। —संतवाणी०, भा० २, पृ० ११९।
⋙ पातंजलीय
वि० [सं० पातञ्जलीय ] दे० 'पातंजल'।
⋙ पात (१)
वि० [सं०] रक्षित। त्रात [को०]।
⋙ पात (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे, अधःपात। यौ०—प्रपात। २. गिराने की क्रिया या भाव। जैसे, अश्रुपात, रक्तपात। ३. टूटकर गिरने की क्रिया या भाव। झड़ने की क्रिया या भाव। जैसे, उल्कापात,। द्रुमपात। ४ नाश। ध्वंस। मृत्यु। जैसे, देहपात। ५. पड़ना। जा लगना। जैसे, दृष्टिपात, भूमिपात। ६. खगोल में वह स्थान जहाँ नक्षत्रों की कक्षाएँ क्रांतिवृत्त को काटकर ऊपर चढ़ती या नीचे आती हैं। विशेष—यह स्थान बराबर बदलता रहता है और इसका गति वक्र अर्थात् पूर्व से पश्चिम को है। इस स्थान का अधिष्ठाता देवता राहु है। ७. राहु। ८. प्रहार। मार। आघात। जैसे, खड्गपात (को०)। ९. उड़ने की क्रिया। उडान। उड़ना (को०)।
⋙ पात पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० पत्र, प्रा० पत्त] १. पत्ता। पत्र। मुहा०—पातों आ लगाना = पतझड़ होना या उसका समय आना। विशेष— उर्दू की पुरानी कविता में इस मुहावरे का प्रयोग मिलता है। २. कान में पहनने का एक गहना। पत्ता। ३. चाशनी। किवाम। पत्त।
⋙ पात (४)
संज्ञा पुं० [सं० पात्र, प्रा० पात (=दाल देने योग्य गुणी) ] कवि। (डिं०)। उ०—पात सुजस अखियात पयंपै दातव असमर बात दुवै। —रघु० रु०, पृ० १९।
⋙ पात (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० पात्र ] दे० 'पातुर'। उ०—राव आव्या की साँभली बात। नाचउ रुप मनोहर पात। गढ़ माहीं गुडी़ उछली। धरि धरि तोरण मंगलचार। —वी० रासो, पृ० ९१।
⋙ पातक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कर्म जिसके करने से नरक जाना पडे़। कर्ता को नीचे ढकेलनेवाला कर्म। पाप। किल्विष। कल्मष। अध। गुनाह। बदकारी। निषिद्ध या नीच क्रम। उ०—जे पातक उपपातक अहहीं। करम वचन मन भव कबि कहहीं। —मानस, २। १६७। विशेष— 'प्रायश्चित्त' के मतानुसार पातक के ९ भेद हैं — (१) अतिपातक। (२) महापातक। (३) अनुपातक। (४) उपपातक। (५) संकरीकरण। (६) अपात्रीकरण। (७) जातिप्रंशकर। (८) मलावह और (९) प्रकीर्णक। मनु ने ५महापातक गिनाए हैं—(१) ब्रह्महत्या। (२) सुरापान। (३) स्तेय। (४) गुरुतल्पगमन और (५) इस प्रकार के पापियों का संपर्क।
⋙ पातक (२)
वि० नीचे गिरानेवाला [को०]।
⋙ पातकी
वि० [सं० पातकिन् ] पातक करनेवाला। पापी। कुकर्मी। बदकार। अधर्मी। उ०—(क) मो समान को पातकी बादि कहौं कछु तोहिं। —मानस, २। १६२। (ख) क्यों चाहति तू पदमिनी करन पातकी मोहि। —शकुंतला, पृ० ९३।
⋙ पातख †
संज्ञा पुं० [सं० पातक ] दे० 'पातक'। उ०—कहें दरिया अध पातख पर्बल भक्ति बिन सभ रोगा। —सं० दरिया पृ० ९९।
⋙ पातग पु †
संज्ञा पुं० [सं० पातक ] पाप। पातक। उ०—कनक कंति दुति अंग की निरषि सु पातग जात। परमानंद प्रदायिनी, पार करन जग मात। —पृ० रा०, ३। ६।
⋙ पातघाबरा †
वि० [हिं० पात + घबराना ] वह मनुष्य जो पत्ते के खड़कने पर भी घबडा़ जाय। बहुत अधिक डरपोक।
⋙ पातन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिराने की क्रिया। नीचे ढकेलने की क्रिया। २. फेंकना या डालना (को०)। ३. झुकाना। नवाना (को०)। ४ पारे के आठ संस्कारों में से पाँचवाँ संस्कार। इसके तीन भेद हैं—ऊर्ध्वपातन, अधःपातन और तिर्यकपातन। विशेष—दे० 'पारा'।
⋙ पातन (२)
वि० नीचे ढकेलनेवाला। गिरानेवाला [को०]।
⋙ पातनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पात्रता। योग्यता। अनुरुपता [को०]।
⋙ पातनीय
वि० [सं०] १. पात के योग्य। गिराने लायक। २. प्रहार के योग्य। प्रहार करने लायक। प्रहरणीय [को०]।
⋙ पातबंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० पात (=पड़ना) + फा० बंदी ] वह नकशा जिसमें किसी जायदाद की अंदाजन मालियत और उसपर जितना देना या कर्ज हो वह लिखा रहता है।
⋙ पातयिता
वि० [सं० पातयितृ ] १. नीचे गिरानेवाला। गिरानेवाला। २. फेंकनेवाला [को०]।
⋙ पातर पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्र ] १. पत्तल। पनवारा। उ०— बिनती राय प्रवीन की सुनिए शाह सुजान। जूठी पातर भखत है बारी बायस स्वान। —राय प्रबीन (शब्द०)।
⋙ पातर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पातली (= स्त्री विशेष) या स० पातर ] वेश्या। रंडी। पतुरिया।
⋙ पातर पु † (३)
वि० [हिं० पत्तर, या सं० पात्रट (= पतला) ] १. पतला। सूक्ष्म। २. क्षीण। बारीक। ३. निम्न। हेय। क्षुद्र।
⋙ पातर (४)
संज्ञा स्त्री० तीतली।
⋙ पातर (५)
वि० [हिं० पतला ] [स्त्री० पातरी ] जिसका शरीर दुर्बल हो। पतला। उ०—अंग अंग छबि की लपट उपटतिजाति अछेह। खरी पातरीऊ तऊ लगै भरी सी देह। — बिहारी (शब्द०)।
⋙ पातराज
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का सर्प।
⋙ पातरि (१)
संज्ञा स्त्री० वि० [हिं०] दे० 'पातर'।
⋙ पातरि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्र, हिं० पातर ] भगवान् का प्रसाद, जो पत्तलों में भक्तों को बाँटा जाता है। पातर। पत्तल। उ०— (क) उन वैष्णवन की पातरि करी। —दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ७६। (ख) जो कोई बैष्णव आवतो ताकों प्रथम महाप्रसाद की पातरि धरि कै पाछे वे दोऊ स्त्री पुरुष महाप्रसाद लेते। —दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ७७।
⋙ पातरी (१)
संजा स्त्री० [सं० पात्र, पातली ] दे० 'पातर'।
⋙ पातरी (२)
वि० स्त्री० [हिं० पातर ] सूक्ष्म। क्षीण। तनु। उ०— लचकीली कटि अतिहि पातरी चालत झोंका खाय।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ८।
⋙ पातल
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पातर'।
⋙ पातव्य
वि० [सं०] १. रक्षा करने योग्य। २. पीने योग्य।
⋙ पातशाह
संज्ञा पुं० [फा० पादशाह ] दे० 'पादशाह'।
⋙ पातशाही
संज्ञा पुं० [फा० पादशाही ] दे० 'पादशाही'।
⋙ पातसा, पातसाह
संज्ञा पुं० [फा० पादशाह ] दे० 'पादशाह'। उ०—(क) फते पातसा की भई बैनकारी। ह० रासो, पृ० ६९। (ख) जो है दिल्ली तखतनसीन। पातसाह आलाउद्दीन। —हम्मीर०, पृ० १७।
⋙ पातस्याह †
संज्ञा पुं० [फा० पादशाह ] दे० 'पादशाह'। उ०—सब कहै राठ कौ पातस्याह। जस स्त्रवन सुनन की सदा चाह।—ह० रासो, पृ० २।
⋙ पाता (१)
वि० [सं० पातृ ] १. रक्षा करनेवाला। २ पीनेवाला।
⋙ पाता पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पत्र ] पत्ता। पत्र।
⋙ पाताखत पु †
संज्ञा पुं० [हिं० पात + आखत ] दे० 'पाताषत'। उ०—सेवा सुमिरन पूजिबों पाताखत थोरे। दइ जग जहँ लगि संपदा सुख गज रथ घोरे। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ पाताबा
संज्ञा पुं० [फा० पाताबह ] १. मोजा। २. चमडे़ का वह लंबा टुकडा़ जो ढीले जूते को चुस्त करने के लिये उसमें डाला जाता है। सुखतला।
⋙ पातार पु
संज्ञा पुं० [सं० पाताल ] दे० 'पाताल'। उ०—बरम्हा डरै चतुरमुख जासू। औ पातार डरै बलि वासू। —जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २९८।
⋙ पाताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरुणानुसार पुथ्वी के नीचे के सात लोकों में से सातवाँ। २. पृथ्वी से नीचे के लोक। अधोलोक। नागलोक। उपस्थान। विशेष— पाताल सात माने गए हैं। पहला अतल, दूसरा वितल, तीसरा सुतल, चौथा तलातल, पाँचवाँ महातल, छठा रसातल और सातवाँ पाताल। पुरुणों में लिखा है कि प्रत्येक पाताल की लंबाई चौडा़ई १०। १० हजार योजन है। सभी पाताल धन, सुख और शोभा से परिपूर्ण हैं। इन विषयों में ये स्वर्ग से भी बढकर हैं। सूर्य और चंद्रमा यहाँ प्रकाश मात्र देते हैं, गरमी तथा सरदी नहीं देने पाते। पृथ्वी या भूलोक के बाद ही जो पाताल पड़ता है उसका नाम अतल है। यहाँ की भूमि का रंग काला है। यहाँ मय दानव का पुत्र 'वल' रहता है जिसने ९६ प्रकार की माया की सृष्टि कर रखी है। दूसरा पाताल वितल है। इसकी भूमि सफेद है। यहाँ भगवान् शंकर पार्षदों और पार्वती जी के साथ निवास करते हैं। उनके वीर्य से हाटकी नाम की नदी निकली है जिससे हाटक नाम का सोना निकलता है। दैत्यों की स्त्रियाँ इस सोने को बडे यत्न से धारण करती है। तीसरा अधोलक सुतल है। इसकी भूमि लाल है। यहाँ प्रह्लाद के पौत्र बलि राज करते हैं जिनके दरवाजे पर स्वयं भगवान् विष्णु आठ पहर चक्र लेकर पहरा देते हैं। यह अन्य पातालों से अधिक समृद्ध, सुखपूर्ण और श्रेष्ठ है। तलातल चौथा पाताल है। दालवेंद्र मय यहाँ का अधिपति है। इसकी भूमि पीले रंग की है। यह मायाविदों का आचार्य और विदिध मायाओं में निपुण है। पाँचावाँ पाताल महातल कहाता है। यहाँ की मिट्टी खाँड मिली हुई है। यहाँ कद्रु के महाक्रोधी पुत्र सर्प निवास करते हैं जिनमें से सभी कई कई सिरवाले हें। कुहक, तक्षक, सुषेन और कालिय इनमें प्रधान हैं। छठा पाताल रसातल है। इसकी भूभि पथरीली है। इनमें दैत्य, दानव और पाणि (पाणि) नाम के अमुर इंद्र के भय से निवास करते हैं। सातवाँ पाताल पाताल नाम से ही प्रसिद्ध है। यहाँ की भूमि स्वर्णमय है। यहाँ का अधिपति वासुकि नामक प्रसिद्ध सर्प है। शंख, शंखचूड़, कूलिक, धनंजय आदि कितने ही विशाल- काय सर्प यहाँ निवास करते हैं। इसके नीचे तीस सहस्र योजन के अंतर पर अनंत या शेष भगवान का स्थान है। ३. विवर। गुफा। बिल। ४. बड़वानल। ५बालक के लग्न से चौथा स्थान। ६. छंद?शास्त्र में वह चंद्र (चक्र) जिसके द्वारा मात्रिक छंद की संख्या, लघु, गुरु, कला आदि का ज्ञान होता है। ७. पातालयंत्र। वि० दे० 'पातालयंत्र'।
⋙ पातालकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] पाताल में रहनेवाला एक दैत्य।
⋙ पातालखंड़
संज्ञा पुं० [सं० पातालखण़ ] पाताल लोक।
⋙ पातालगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० पातालगङ्गा ] पाताल लोक की गंगा [को०]।
⋙ पातालगरुड़
संज्ञा पुं० [सं० पातालगरुड़ ] छिरिहटा। छिरेंटा।
⋙ पातालगरुडी़
संज्ञा पुं० [सं० पातलिगरु़डी़ ] पातालगरुड़। छिरेंटा।
⋙ पाताल तुंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० पातालतुम्बी ] एक प्रकार की लता जो प्रायः खेतों में होती है। पातालतोबी। विशेष—इसमें पीले रंग के बिच्छू के डंक के से काँटे होते हैं। वैद्यक में इसे चरपरी, कड़वी, विषदोषविनाशक, तथा प्रसूतकालीन अतिसार, दाँतों की जड़ता और सूजन; पसीना तथा प्रलापवाले ज्वर को दूर करनेवाली माना है।पर्या०—गर्तालंबु। भूतुंबी। देवी। वल्मीकसंभवा। दिव्यतुंबी। नागुंबी। शक्रचापसमुद्रुवा।
⋙ पातालतोबा
संज्ञा स्त्री० [सं० पातालतुम्बी ] दे० 'पातालतुंबी'।
⋙ पातालनिलय
संज्ञा पुं० [सं०] १. दैत्य। सर्प।
⋙ पातलनिवास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पातालनिलय'।
⋙ पातालनृपति
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा।
⋙ पातालयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० पातालबन्त्र ] १. वह यंत्र जिसके द्वारा कडी़ ओषधियाँ पिघलाई जाती हैं या उनका तेल बनाया जाता है। विशेष—इस यंत्र में एक शीशी या मिट्टी का बरतन ऊपर और एक नीचे रहता है। दोनों के मुँह एक दूसरे से मिले रहते हैं और संधिस्थल पर कपड़मिट्टी कर दी जाती है। ऊपर की शीशी या बरतन में औषधि रहती है और उसके मुँह पर कपडे़ की ऐसी डाट लगा दी जाती है जिसमें बहुत से बारीक सूराख होते हैं। नीचे के पात्र के मुँह पर डाट नहीं रहती। फिर नीचे के पात्र को एक गढे़ में रख देते हैं और उसके गले तक मिट्टी या बालू भर देते हैं। ऊपर के पात्र को सब ओर से कंडों या उपलों से ढककर आग लगा देते हैं। इस गरमी से औषधि पिघलकर नीचे के पात्र में आ जाती है। २. वह यंत्र जिसमें ऊपर के पात्र में जल रहता है, नीचे के पात्र को आँच दी जाती है और बीच में रस की सिद्धि होती है।
⋙ पातालबासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागवल्ली लता।
⋙ पातालवासी
संज्ञा पुं० [सं० पातालवासिन् ] दे० 'पातालौकस'।
⋙ पाताली
संज्ञा स्त्री० [देश०] ताड़ के फल के गूदे की बनाई हुई टिकिया जो प्रायः गरीब लोग सुखाकर खाने के काम में लाते हैं।
⋙ पातालौकस
संज्ञा पुं० [सं० पातालौकस, पातालौका ] १. वह जिसका घर पाताल में हो। २. शेषनाग। ३. बलि।
⋙ पाताषत ‡
संज्ञा पुं० [हिं० पात + आखत ] पत्र और अक्षत। पूजा की स्वल्प सामग्री। तुच्छ भेंट।
⋙ पाति † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्र ] १. पत्ती। पर्ण। दल। २. चिट्ठी। पत्रिका। पत्र।
⋙ पाति (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभु। मालिक। स्वामी। २. खाविंद। पति। ३ पक्षी। चिडि़या [को०]।
⋙ पातिक
संज्ञा पुं० [सं०] सूँस नामक जलजंतु।
⋙ पातिक, पातिक्क
संज्ञा पुं० [सं० पातक ] दे० 'पातक'। उ०—(क) कलिजुग अति पातिक भये यह भावसिंधु अपार। चतुरानन सुनि चतुर चित मम सिर भार उतार। —रासो, पृ० ७। (ख) करय दरस शिवनाथ के कटय कोट पातिक्क तह। — प० रासो, पृ० १८१।
⋙ पातिग पु
संज्ञा पुं० [सं० पातक ] पाप। पातक।
⋙ पातित
वि० [सं०] १. जो फेंका गया हो। फेंका हुआ। २. जो नीचे गिराया या ढकेला गया हो। ३. अवनत या नम्र किया हुआ (को०)।
⋙ पातित्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पतित होने या गिराने का भाव। गिरावट। २. अधःपतन। नीच या कुमार्गी होने का भाव।
⋙ पातिली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विशेष वर्ग की स्त्री। २. जाल। पाश। फंदा। ३. मिट्टी का पात्र [को०]।
⋙ पातिव्रत
संज्ञा पुं० [सं० पातिव्रत्थ] दे० 'पतिव्रत्य'। उ०—मेट सकेगा कौन विश्व के पातिव्रत की लीक कहो।— साकेत। ३८६।
⋙ पातिव्रती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पतिव्रत्य' [को०]।
⋙ पातिव्रत्य
संज्ञा पुं [सं०] प्रतिव्रंता होने का भाव।
⋙ पातिसाह †
संज्ञा पुं० [फा़० पादशाह] नरेश। पादशाह। बादशाह। राजा। उ०—धनि छाड्डिय नवजोध्वना धन छोड्डियो बहुत। पातिसाह उद्देशे चलु गअनराज को पुत्त।—कीर्ति०, पृ० २८।
⋙ पातिसाहि पु
संज्ञा पुं० [फा़० पादशाह] दे० 'पातिसाह'।
⋙ पाती (१) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पत्रिका, प्रा० पत्तिआ, पत्तिअ] १. चिट्ठी। पत्री। पत्र। उ०—तात कहाँ ते पाती आई ?—तुलसी (शब्द०)। २. पत्ती। वृक्ष के पत्ते।
⋙ पाती (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पति] लज्जा। इज्जत। प्रतिष्ठा। उ०—ह्वाँ ऊधो काहे को आए कौन सी अटल परी। सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु सब पाती उधरी।—सूर (शब्द०)।
⋙ पाती (३)
वि० [सं० पातिन्] [वि० स्त्री० पातिनी] १. नीचे फेंकने या गिरानेवाला। २. पतनशील। गिरनेवाला [को०]।
⋙ पातुक (१)
वि० [सं०] १. पतनशील। गिरनेवाला। २. नरकगामी (को०)। ३. जातिच्युत। जाति से भ्रष्ट होनेवाला।
⋙ पातुक (२)
संज्ञा पुं० १. प्राप्त। झरना। २. वह जो पतनशील हो। ३. जलहाथी।
⋙ पातुर †
संज्ञा स्त्री० [सं० पातली = (स्त्री विशेष)] वैश्या। रंडी। उ०—काछें सितासित काछनी केसव पातुर ज्यों पुतरीनि बिचारौ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ८१।
⋙ पातुरनी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० पातुर] दे० 'पातुर'।
⋙ पातुरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पातुर] दे० 'पातुर'।
⋙ पात्त
संज्ञा पुं० [सं०] पापियों का उद्धार करनेवाला। पापियों का त्राता।
⋙ पात्य
वि० [सं०] १. पातनीय। गिराने योग्य। २. पतित होने का भाव। गिरावट। ३. प्रहार कर गिराने योग्य (को०)। ४. (दंड आदि) लगाने योग्य (को०)।
⋙ पात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वस्तु जिसमें कुछ रखा जा सके। आधार। बरतन। भाजन। २. वह व्यक्ति जो किसी विषय का अधिकारी हो, या जो किसी वस्तु को पाकर उसका उपभोग कर सकता हो। जैसे, दानपात्र, शिक्षापात्र आदि। उ०—स्वबलि देते है उसे जो पात्र।—साकेत, पृ० १८५। ३. नदी के दोनों किनारों के बीच का स्थान। पाट। ४. नाटक के नायक, नायिका आदि। ५. वे मनुष्य जोनाटक खेलते हैं। अभिनेता। नट। ६. राजमंत्री। ७. वैद्यक में एक तोल जो चार सेर के बराबर होती है। आढक। ८. पत्ता। पत्र। ९. स्रु वा आदि यज्ञ के उपकरण। १०. जल पीने या खाने का बरतन। ११. आदेश। हुक्म। आज्ञा (को०)। १२. योग्यता। उपयुक्तता (को०)। १३. वह व्यक्ति जिसका कहानी, उपन्यास आदि के कथानक में वर्णन हो।
⋙ पात्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. थाली, हाँड़ी आदि पात्र। २. छोटा बरतन। लघु पात्र। ३. वह पात्र जिसमें भीख माँगकर रखी जाय। भिखमंगों का भीख माँगने का पात्र। भिक्षापात्र।
⋙ पात्रट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. फटा पुराना कपड़ा। फटा वस्त्र। २. पात्र। बरतन [को०]।
⋙ पात्रट (२)
वि० दुबला पतला। कृश [को०]।
⋙ पात्रटीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. रजत। चाँदी। २. लोहा, पीतल, काँसा या चाँदी का बरतन। ३. योग्य अमात्य। दक्ष मंत्री। ४. कौआ। ५. अग्नि। ६. मोरचा। जंग। ७. कंक पक्षी। ८. पिंगाश। ९. नाक का मल। नेटा [को०]।
⋙ पात्रतरंग
संज्ञा पुं० [सं० पात्रतरङ्ग] प्राचीन काल का ताल देने का एक प्रकार का बाजा।
⋙ पात्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पात्र होने का भाव। अधिकार। योग्यता। लियाकत।
⋙ पात्रत्व
संज्ञा पुं० [सं०] पात्रता। पात्र होने का भाव।
⋙ पात्रदुष्टरस
संज्ञा पुं० [सं०] केशवदास के मत से एक प्रकार का रसदोष, जिसमें कवि जिस वस्तु को जैसा समझता है रचना में उसके विरुद्ध कर जाता है। एक ही वस्तु के विषय में ऐसी बातें कह जाना जो एक दूसरे के विरुद्ध या बेमेल हों। रचना में ऊटपटाँग अविचारयुक्त बातें कह जाना। उ०— कपट कृपानी मानी, प्रेमरस लपटानी, प्राननि को गंगा जी को पानी सम जानिए। स्वारथ निधानी परमारथ की रज- धानी, काम की कहानी केशोदास जग मानिए। सुबरन उर- झानी, सुधा सो सुधार मानी सकल सयानी सानी ज्ञानी सुख दानिए। गौरा और गिरा लजानी मोहे पुनि मूढ़ प्रानी, ऐसी बानी मेरी रानी विषु के बखानिए।—केशव (शब्द०)।
⋙ पात्रनिर्णेग
संज्ञा पुं० [सं०] बरतन साफ करनेवाला।
⋙ पात्रपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पतवार। २. चप्पू। ३. तराजू का पल्ला या डाँड़ी [को०]।
⋙ पात्रभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दास। नौकर [को०]।
⋙ पात्रवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] अभिनय करनेवाले लोग [को०]।
⋙ पात्रमेल
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक आदि में अनेक पात्रों का किसी दृश्य में संयोजन [को०]।
⋙ पात्रशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरतनों की सफाई। पात्रों की शुद्धता [को०]।
⋙ पात्रशेंष
संज्ञा पुं० [सं०] रोटी के जूठे टुकड़े आदि जो भोजन के उपरांत थाली में बच रहे हों। खाकर छोड़ा हुआ अन्नादि। जूठा। उच्छिष्ट।
⋙ पात्रसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'पात्रशुद्धि'। २. नदी का वेग या प्रवाह [को०]।
⋙ पात्रासादन
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञपात्रों को यथास्थान रखना।
⋙ पात्रिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाव बरतन। २. छोटा पात्र [को०]।
⋙ पात्रिक (२)
वि० १. उपयुक्त। योग्य। उचित। २. किसी पात्र से नापा हुआ। ३. तौला हुआ [को०]।
⋙ पात्रिका, पात्रिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] थाली कटोरा आदि पात्र [को०]।
⋙ पात्रिय
वि० [सं०] जिसके साथ एक थाली में भोजन किया जा सके। जिसके साथ एक ही बरतन में भोजन करना बुरा न समझा जाय। सहभोजी।
⋙ पात्री (१)
वि० [सं० पात्रिन्] १. जिसके पास बरतन हो। पात्रवाला। २. जिसके पास सुयोग्य मनुष्य हों।
⋙ पात्री (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटे छोटे बरतन। २. एक छोटी भट्ठी जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर ले जा सकते हैं। ३. दुर्गा का नाम (को०)।
⋙ पात्रीण
वि० [सं०] पात्र द्वारा बोया या पकाया हुआ [को०]।
⋙ पात्रीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में काम आनेवाला एक बरतन।
⋙ पात्रीय (२)
वि० पात्र संबंधी।
⋙ पात्रीर
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञीय वस्तु। यज्ञद्रव्य [को०]।
⋙ पात्रेबहुल
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो अन्य किसी कार्य में सहयोग न दे केवल खाने भर के लिये साथ दे। काम से जी चुरानेवाला मात्र भोजन का साथी [को०]।
⋙ पात्रेसमित
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढोंगी व्यक्ति। कपटी। २. दे० 'पात्रेबहुल' [को०]।
⋙ पात्रोपकरण
संज्ञा पुं० [सं०] कौड़ी आदि पदार्थ जिन्हें टाँककर बरतनों को सजाते हैं।
⋙ पात्रौकरण
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह [को०]।
⋙ पात्र्य
वि० [सं०] दे० 'पात्रिय'।
⋙ पाथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. जल। ३. सूर्य [को०]।
⋙ पाथ (२)
संज्ञा पुं० [सं० पाथस्] १. जल। उ०—आनि ठाढ़े होत सब मिलि बसन टपकत पाथ।—घनानंद, पृ० ३०१। २. अन्न। ३. आकाश। ४. वायु। यौ०—पाथोज। पाथोद। पाथोधर। पाथोरुह। पाथोधि। पाथोज। पाथोनिधि।
⋙ पाथ (३)
संज्ञा पुं० [सं० पथ] मार्ग। रास्ता। राह। उ०—तेहि वियोग ते भए अनाथा। परि निकुंज वन पावन पाथा।— कबीर (शब्द०)।
⋙ पाथ (४)
संज्ञा पुं० [सं० पार्थ, प्रा० पथ्थ] अर्जुन। पार्थ। उ०— जुध बेल खगे रिणछोड़ जहै। तन पाथ जिसौ रुघनाथ तहै।—रा०, रू० पृ० २५।
⋙ पाथना
क्रि० स० [सं० प्रथन या हिं० थाप (ना) का आद्यंत विपर्यत] १. ठोंक पीठकर सुडौल करना। गढ़ना। बनाना। उ०—लाड़ली के बरनै को नितंबन हानि रही रसना कवि जेत के। कै नृप संभु जू मेरु की भूमि में रेत के कूर भए नदी सेत के। कै धौं तमूरन के तबला रँगि औंधि धरे करि रंभा के लेत के। कंचन कीच के पाथे मनोहर कै भरना द्वै मनोज के खेत के।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०)। २. किसी गीली वस्तु से साँचे के द्वारा या बिना साँचे के हाथों से पीट या दबाकर बड़ी बड़ी टिकिया या पटरी बनाना। जैसे, उपले पाथना, ईंट पाथना। ३. किसी को पीटना। ठोंकना। मारना। जैसे,— आज इनको अच्छी तरह पाथ दिया।
⋙ पाथनाथ
संज्ञा पुं० [हिं० पाथ + सं० नाथ] समुद्र।
⋙ पाथनिधि
संज्ञा पुं० [हिं० पाथ + सं० निधि] दे० 'पाथोनिधि'।
⋙ पाथर पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्ररतर, प्रा० पथ्थर] दे० 'पत्थर'। उ०—एक सेवक लोह पत्र पाथर सो घस्यौ तहाँ लोह सोनो (सुवर्णं) भयौ राव जैत कौ आणि दयौ।—ह० रासो, पृ० ३३।
⋙ पाथरासि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पाथ + हिं० रासि] जलराशि। समुद्र। उ०—कुपितम भुजंग सिर पग धरै। हाथनि पाथरासि पुनि तरै।—नंद० ग्रं०, पृ० १४५।
⋙ पाथस्पति
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण।
⋙ पाथा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाथस्] १. जल। २. अन्न। ३. आकाश।
⋙ पाथा (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रस्थ] १. एक तौल जो एक दोन या कच्चे चार सेर की होती है। इसका व्यवहार देहरादून प्रांत में अन्न नापने के लिये होता है। २. उतनी भूमि जितनी में एक पाथा अन्न बोया जा सकता है। ३. एक बड़ा टोकरा जिससे खलिहान में राशि नापते हैं। विशेष—प्रायः यह टोकरा किसी नियत मान का नहीं होता। लोग इच्छानुसार भिन्न भिन्न मानों का व्यवहार करते हैं। यह बेत का बना होता है और इसकी बाढ़ बिलकुल सीधी होती है कहीं कहीं इसे लोग चमड़े से मढ़ लेते हैं। इसे पाथी और नली भी कहते हैं। ४. हल का खोंपी जिसमें फाल जड़ा रहता है।
⋙ पाथा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० पथ] कोल्हू हाँकनेवाला।
⋙ पाथा (४)
संज्ञा पुं० ]सं० प्रथक] एक छोटा कीड़ा जो अन्न में लगता है।
⋙ पाथि
संज्ञा पुं० [सं० पाथिस्] समुद्र। २. आँख। ३. घाव पर की पपड़ी। खुरंड। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का शरबत जो मट्ठे के पानी और दूध आदि को मिलाकर बनाया जाता था और जिससे पितृतर्पण किया जाता था। कीलाल।
⋙ पाथेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह भोजन जो पथिक अपने साथ मार्ग में खाने के लिये बाँधकर ले जाता है। रास्ते का क्लेवा। २. वह द्रव्य जो पथिक राहखर्च के लिये ले जाता है। संबल। राहखर्च। ३. कन्या राशि।
⋙ पाथोज
संज्ञा पुं० [सं०] कमल। उ०—पुनि गहे पद पाथोज मयना प्रेम परिपूरन हियो।—मानस, १। १०१। यौ०—पाथोजनाभ = विष्णु। उ०—सिद्ध सुर सेव्य पाथोज- नाभं।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४८१। पाथोजपानी = कमलपाणि। विष्णु। उ०—मंजु मानाथ पाथोज पानी।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४८७।
⋙ पाथोद
संज्ञा पुं० [सं०] बादल। मेघ। उ०—पाथोदगात सरोज मुख राजीव आयत लोचन।—मानस, ३। २६।
⋙ पाथोधर
संज्ञा पुं० [सं०] बादल। मेघ।
⋙ पाथोधि
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।
⋙ पाथोन
संज्ञा पुं० [यू० पथेयनस] कन्या राशि।
⋙ पाथोनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।
⋙ पाथ्य
वि० [सं०] १. आकाश में रहनेवाला। २. हवा में रहनेवाला। ३. हृदयाकाश में रहनेवाला।
⋙ पाद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चरण। पैर। पाँव। यौ०—पादत्राण। विशेष—यह शब्द जब किसी के नाम या पद के अंत में लगाया जाता है तब वक्ता का उसके प्रति अत्यंत सम्मान भाव तथा श्रद्धा प्रगट करता है। जैसे,—कुमारिलपाद, गुरुपाद, आचार्यपाद, तातपाद, आदि। २. मंत्र, श्लोक या अन्य किसी छंदोबद्ध काव्य का चतुर्थांश। पद। चरण। ३. किसी चीज का चौथा भाग। चौथाई। ४. पुस्तक का विशेष अंश। जैसे, पातंजल का समाधिपाद, साधनपाद आदि। ५. वृक्ष का मूल। ६. किसी वस्तु का नीचे का भाग। तल। जैसे, पाददेश। ७. बड़े पर्वत के समीप में छोटा पर्वत। ८. चिकित्सा के चार अंग-वैद्य, रोगी औषध और उपचारक। ९. किरण। रश्मि। १०. पद की क्रिया। गमन। ११. एक ऋषि। १२. शिव। १३. एक पैर का नाप जो १२ अंगुल की होती है (को०)। १४. अंश। भाग। हिस्सा। टुकड़ा (को०)। १५. चक्र। चक्का (को०)। १६. सोने का एक सिक्का जो एक तोला के लगभग होता था (को०)।
⋙ पाद (२)
संज्ञा पुं० [सं० पर्द, प्रा० पद्द] वह वायु जो गुदा के मार्ग से निकले। अपानवायु। अधोवायु। गोज।
⋙ पादक
वि० [सं०] १. जो खूब चलता हो। चलनेवाला। २. चौथाई। चतुर्थांश। ३. छोटा पैर।
⋙ पादकटक
संज्ञा पुं० [सं०] नूपुर।
⋙ पादकमल
संज्ञा पुं० [सं०] कमल के समान चरण। चरण- कमल [को०]।
⋙ पादकीलिका
संज्ञा पुं० [सं०] नूपुर।
⋙ पादकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रायश्चित्त व्रत जो चार दिन का होता है। इसमें पहले दिन एक बार दिन में, दूसरे दिन एक बार रात में खाकर फिर तीसरे दिन अपाचित अन्न भोजन करके चोथे दिन उपवास किया जाता है।विशेष—इस व्रत की दूसरी विधि भी मिलती है। उसमें पहले दिन रात में एक बार का परसा हुआ भोजन कर दूसरे दिन उपवास किया जाता है। तीसरे और चौथे दिन यही विधि क्रम से दुहराई जाती है।
⋙ पादक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैर उठाकर आगे रखना। पादन्यास। २. पैर का आघात। पादप्रहार।
⋙ पादगंडीर
संज्ञा पुं० [सं० पादगण्डीर] श्लीपद रोग। पीलपाँव।
⋙ पादगोप
संज्ञा पुं० [सं०] पदाति, रथी हस्ती तथा अश्वारोही सेना के संरक्षक। (कौटि०)।
⋙ पादग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० पादग्रन्थि] एँड़ी और घूट्टी के बीच का स्थान। गुल्फ।
⋙ पादग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] पैर छूकर प्रणाम करना। विशेष—जिसके हाथ में समिधा, जल, जल का घड़ा, फूल अन्न तथा अक्षत में से कोई पदार्थ हो, जो अशुचि हो, जो जप या पितृकार्य करता हो उसका पैर न छूना चाहिए।
⋙ पादचतुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पादचत्वर' [को०]।
⋙ पादचत्वर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बकरा। २. बालू का भीटा। ३. ओला। ४. पीपल का पेड़।
⋙ पादचत्वर (२)
वि० दूसरे का दोष कहनेवाला। निंदा करनेवाला। चुगलखोर।
⋙ पादचार
संज्ञा पुं० [सं०] पैरों से चलना। पैदल चलना [को०]।
⋙ पादचारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पादचारिन्] १. पैदल। २. वह जो पैरों से चलता हो।
⋙ पादचारी (२)
वि० पैरों से चलनेवाला। पैदल चलनेवाला [को०]।
⋙ पादज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र।
⋙ पादज (२)
वि० जो पैर से उत्पन्न हुआ हो।
⋙ पादजल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जल जिसमें किसी के पैर धोए गए हों। चरणोदक। २. मठा जिसमें चतुर्थांश जल हो।
⋙ पादजाह
संज्ञा पुं० [सं०] पादमूल [को०]।
⋙ पादटीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह टिप्पणी जो किसी ग्रंथ के पृष्ठ के नीचे लिखी गई हो। फुटनोट।
⋙ पादतल
संज्ञा पुं० [सं०] पैर का तलवा।
⋙ पादत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पादत्राण'।
⋙ पादत्र (२)
वि० पैर की रक्षा करनेवाला।
⋙ पादत्राण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खड़ाऊँ। २. जुता।
⋙ पादत्राण (२)
वि० जो पैर की रक्षा करे।
⋙ पादत्रान पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पादत्राण'। उ०—पादज्ञान उपा- नहा पाद पीठ मृदु भाइ।—अनेकार्थ०, पृ० ५५।
⋙ पाददलित
वि० [सं०] पैर से कुचला हुआ। पादाक्रांत। पददलित।
⋙ पाददारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिवाई नाम का एक रोग, जिसमें पैर का तलवा स्थान स्थान में फट जाता है।
⋙ पाददाह
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का रोग जो पित्त रक्त के साथ वायु मिलने के कारण होता है। इसमें पैरों के तलवों में जलन होती है। तलवों का जलना।
⋙ पादधावन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैर धोने की क्रिया। २. वह बालू या मिट्टी जिसको लगाकर पैर धोया जाय।
⋙ पादधावनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह मिट्टी जिसे लगाकर पैर धोया जाय [को०]।
⋙ पादनख
संज्ञा पुं० [सं०] पैर की उँगलियों का नाखून।
⋙ पादनम्र
वि० [सं०] पैर तक नवा हुआ। पैरों तक झुका हुआ [को०]।
⋙ पादना
क्रि० अ० [सं० √ पर्दु] गुदा से वायु लाहर निकालना। वायु छोड़ना। अपानवायु का त्याग करना। संयो० क्रि०—देना।
⋙ पादनालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नूपुर [को०]।
⋙ पादनिकेत
संज्ञा पुं० [सं०] पैर रखने की छोटी चौकी। पाद- पीठ [को०]।
⋙ पादन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. चलना। पैर रखना। २. नाचना।
⋙ पादपंकज
संज्ञा पुं० [सं० पादपङ्कज] चरणकमल। पादकमल [को०]।
⋙ पादप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष। पेड़। विशेष—वृक्ष अपनी जड़ या पैर के द्वारा रस खींचते है अतः वे पादप कहलाते हैं। २. पीढ़ा।
⋙ पादपखंड
संज्ञा पुं० [सं० पादपखण्ड] वृक्षों का समूह। जंगल।
⋙ पादपथ
संज्ञा पुं० [सं०] पगडंडी।
⋙ पादपद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रास्ता। २. पगडंडी।
⋙ पादपदुत
संज्ञा पुं० [सं०] चरणकमल। कमल के समान कोमल पैर [को०]।
⋙ पादपरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंदाक या बाँदा नामक वृक्ष।
⋙ पादपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
⋙ पादपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नूपुर [को०]।
⋙ पादपाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह रस्सी जिससे घोड़ों के पिछले दोनों पैर बाँधे जाते हैं। पिछाड़ी। २. नूपुर जो पैरों में पहना या बाँधा जाता है (को०)।
⋙ पादपाशिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पादपाशी' [को०]।
⋙ पादपाशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कोई सिकड़ी या सिक्कड़। २. बेड़ी। ३. एक बेल। एक लता (को०)। ४. चटाई (को०)।
⋙ पादपीठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैर का आसन। पीढ़ा। पु २. उपा- नह। जूता। उ०—पादत्रान उपानहा पादपीठ मृदु भाइ।— अनेकार्थ०, पृ० ५५।
⋙ पादपीठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाई की सिल्ली। २. पीढ़ा।
⋙ पादपूरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी श्लोक या कविता के किसी चरण को पूरा करना। २. वह अक्षर या शब्द जो किसी पद को पूरा करने के लिये उसमें रखा जाय।
⋙ पादप्रक्षालन
संज्ञा पुं० [सं०] पैर धोना।
⋙ पादप्रणाम
संज्ञा पुं० [सं०] साष्टांग दंडवत। पाँव पड़ना।
⋙ पादप्रतिष्ठान
संज्ञा पुं० [सं०] पीढ़ा।
⋙ पादप्रधारण
संज्ञा पुं० [सं०] खड़ाऊँ।
⋙ पादप्रसारण
संज्ञा पुं० [सं०] पैरों को फैलाना। पाँव पसारना [को०]।
⋙ पादप्रहार
संज्ञा पुं० [सं०] लात मारना। ठोकर मारना।
⋙ पादबंध
संज्ञा पुं० [सं० पादबन्ध] पैरों में बाँधने की जंजीर। बेड़ी।
⋙ पादबंधन
संज्ञा पुं० [सं० पादबन्धन] १. घोड़े, गधे, बैल आदि जानवरों के पैर बाँधना। २. वह चीज जिससे पैर बाँधे जायँ। ३. पशुधन। पशुराशि (को०)।
⋙ पादभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैर के नीचे का भाग। २. चतु- र्थांश। चौथाई।
⋙ पादभुज
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ पादमुद्रा
संज्ञा पुं० [सं०] पैर के चिह्न या दाग।
⋙ पादमूल
संज्ञा स्त्री० [सं०] पैर का निचला भाग। तलवा। २. पहाड़ की तराई। ३. एँड़ी (को०)। ४. टखना। गुल्फ (को०)। ५. चरणों का सामीप्य। (इस अर्थ का प्रयोग नम्रता सूचित करता है)।
⋙ पादर
संज्ञा पुं० [सं० पितृ, फा़० पिदर, अं० फादर] पिता। बाप। जनक। उ०—मादर पादर बिरादर इया जग मामा के सीकम में आपु आयो।—ग्रं० दरिया, पृ० ६५।
⋙ पादरक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पादरक्षक'।
⋙ पादरक्षक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिससे पैरों की रक्षा हो। जैसे, जूता, खड़ाऊँ आदि। २. युद्ध में हाथी के पैरों की रक्षा करनेवाले योद्धा (को०)।
⋙ पादरक्षक (२)
वि० पैरों की रक्षा करनेवाला।
⋙ पादरक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] पैर का आवरण। पादत्राण, जूता खड़ाऊँ, आदि [को०]।
⋙ पादरज
संज्ञा स्त्री० [सं० पादरजस्] चरणों की धूल।
⋙ पादरज्जु
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह रस्सी या सिक्कड़ आदि जिसमें पैर विशेषतः हाथी के बाँधे जायँ।
⋙ पादरथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खड़ाऊँ।
⋙ पादरी
संज्ञा पुं० [पुर्त० पैड्रे] ईसाई धर्म का पुरोहित जो अन्य ईसाइयों का जातकर्म आदि संस्कार और उपासना कराता है।
⋙ पादरोह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पादरोहण'।
⋙ पादरोहण
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ का पेड़।
⋙ पादलग्न
वि० [सं०] पैरों से लगा हुआ। चरणों में पड़ा हुआ। शरणागत [को०]।
⋙ पादलेप
संज्ञा पुं० [सं०] वह लेप आदि जो पैरों में लगाया जाय। जैसे, अलता, महावर, आदि।
⋙ पादवंदन
संज्ञा पुं० [सं० पादवन्दन] पैर पकड़कर प्रणाम करना। पैर छूकर प्रणाम करना।
⋙ पादवल्मीक
संज्ञा पुं० [सं०] श्लीपद या पीलपाँव नामक रोग।
⋙ पादविक
संज्ञा पुं० [सं०] पथिक। मुसाफिर।
⋙ पादविदारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोड़ों का एक रोग, जिसमें उनके पैरों के निचले भाग में गाँठें हो जाती हैं।
⋙ पादविन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] पैर रखने की क्रिया या ढंग।
⋙ पादविरजा (१)
संज्ञा स्त्री० [पादविरजस्] जूता। खड़ाऊँ [को०]।
⋙ पादविरजा (२)
संज्ञा पुं० देवता [को०]।
⋙ पादवेष्टनिक
संज्ञा पुं० [सं०] पादावरण। पातावा [को०]।
⋙ पादशब्द
संज्ञा पुं० [सं०] पैरों की आहट।
⋙ पादशा
संज्ञा पुं० [फा़० पादशाह] दे० 'पादशाह'। उ०—तब नजर लोगाँ कूँ पूछया उन तमाम। इस शहर के पादशा का क्या है नाम।—दक्खिनी०, पृ० ३९६।
⋙ पादशाखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पैर की ऊँगली। २. पैर की नोक।
⋙ पादशाह
संज्ञा पुं० [फा़०] बादशाह।
⋙ पादशाहजादा
संज्ञा पुं० [फा़० पादशाहजादह्] बादशाहजादा। राजकुमार।
⋙ पादशाही
संज्ञा स्त्री० [फा़०] बादशाही।
⋙ पादशिष्टजल
संज्ञा पुं० [सं०] वह जल जो औटाने पर चौथाई रह जाय। विशेष—वैद्यक में ऐसा जब त्रिदोषनाशक माना जाता है।
⋙ पादशीली
संज्ञा पुं० [सं०] बूचर। कसाई।
⋙ पादशुश्रूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चरणसेवा। पैर दबाना।
⋙ पादशैल
संज्ञा पुं० [सं०] किसी पर्वत के नीचे स्थित छोटा पहाड़ [को०]।
⋙ पादशोथ
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रोग जिसमें पैर में सूजन आ जाती है। यह रोग आपसे आप भी होता है और कभी कभी दूसरे रोगों के कारण भी होता है। विशेष—दे० 'शोथ'।
⋙ पादश्लाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पैर की नली।
⋙ पादसेवन
संज्ञा पुं० [सं०] चरणों की सेवा। पादशुश्रूषा। सेवा [को०]।
⋙ पादसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पादसेवन' [को०]।
⋙ पादस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० पादस्तम्भ] वह लकड़ी जो किसी चीज को गिरने से रोकने के लिये सहारे के तौर पर लगा दी जाय। चाँड़।
⋙ पादस्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार ग्यारह प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक प्रकार का कुष्ठ। विशेष—इसमें पैरों में काले रंग की फुंसियाँ होती हैं जिनमें से बहुत पानी बहता है। इसे विपादिका भी कहते हैं, और यदि यही रोग हाथों में हो जाय तो उसे विचर्चिका कहते हैं।
⋙ पादहत
वि० [सं०] परों से आहत। पैरों से ठुकराया हुआ [को०]।
⋙ पादहर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें पैरों में प्रायः झुनझुनी होती है।
⋙ पादहीन
वि० [सं०] १. जिसके तीन ही चरण हों। २. जिसके चरण न हों।
⋙ पादांक
संज्ञा पुं० [सं० पादाङ्क] चरणाचिह्न। पैरों का निशान [को०]।
⋙ पादांकुलक
संज्ञा पुं० [सं० पादाङ्कुलक] दे० 'पादाकुलक'।
⋙ पादांगद
संज्ञा पुं० [सं० पादाङ्गद] नूपुर।
⋙ पादांगदी
संज्ञा स्त्री० [सं० पादाङ्गदी] पायल। पादांगद [को०]।
⋙ पादांगुलि, पादांगुली
संज्ञा स्त्री० [सं० पादाङ्गुलि, पादाङ्गुली] पैर की उँगली [को०]।
⋙ पादांगुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० पादाङ्गुष्ठ] पैर का अँगूठा।
⋙ पादांत
संज्ञा पुं० [सं० पादान्त] १. पैर का सिरा। २. पद्य के चरण का आखीर। किसी श्लोक के चरण का अंतिम भाग। यौ०—पादांतस्थ = किसी श्लोक या पद्य के चरण के आखीर का। पादांत में स्थित।
⋙ पादांतिक
क्रि० वि० [सं० पादान्तिक] समीप। चरणों में। पास [को०]।
⋙ पादांबु
संज्ञा पुं० [सं० पादाम्ब] १. मठा। २. जल जिसमें किसी समाद्दत का पैर धोया गया हो।
⋙ पादांभ
संज्ञा पुं० [सं० पादाम्भस्] दे० 'पादांबु'-२।
⋙ पादाकुल
संज्ञा पुं० [सं० पादङ्कुलक] दे० 'पादाकुलक'।
⋙ पादाकुलक
संज्ञा पुं० [सं०] चौपाई (छंद)।
⋙ पादाक्रांत
वि० [सं० पादाक्रान्त] पददलित। पैर से कुचला हुआ। पामाल।
⋙ पादात
संज्ञा पुं० [सं०] पैदल सेना। पदाति सैनिक।
⋙ पादाति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पादातिक'।
⋙ पादातिक
संज्ञा पुं० [सं०] पैदल सिपाही। पैदल सेना।
⋙ पादाध्यास
संज्ञा पुं० [सं०] पददलन। पैरों से कुचलना [को०]।
⋙ पादानत
वि० [सं०] पैरों से झुका हुआ। पदावनत [को०]।
⋙ पादानुध्यात
संज्ञा पुं० [सं०] छोटे की ओर से बड़े को पत्र लिखने में एक नम्रतासूचक शब्द, जिसका व्यवहार लिखनेवाला अपने लिये करता था। विशेष—प्रायः सामंत या जागीरदार महाराज को पत्र लिखने में इस शब्द का व्यवहार करते थे। (गुप्तों के शिलालेख)। इसी प्रकार पुत्र पिता को पत्र लिखने में या कोई व्यक्ति अपने पूर्वज का उल्लेख करते समय अपने लिये इस शब्द का व्यवहार करता था।
⋙ पादानुध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पादानुध्यात'।
⋙ पादानुप्रास
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य में पदगत अनुप्रास अलंकार।
⋙ पादानोन
संज्ञा पुं० [देश०] काला नमक।
⋙ पादाभ्यंजन
संज्ञा पुं० [सं० पादाभ्यञ्जन] वह घी या तेल जो पैरों में मला जाय।
⋙ पादायन
संज्ञा पुं० [सं०] पाद नामक ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
⋙ पादारक
संज्ञा पुं० [सं०] नाव की लंबाई में दोनों ओर लकड़ी की पट्टियों से बना हुआ वह ऊँचा और चौरस स्थान जिसपर यात्री बैठते हैं। कुर्सी।
⋙ पादारघ पु
संज्ञा पुं० [सं० पाद्यार्घ] दे० 'पाद्यार्घ'। उ०—पादारघ हमको दियो मथुरा मंडन आय। वासों वसन न पावही बिना बास अति पाय।—केशव (शब्द०)।
⋙ पादालिंद
संज्ञा पुं० [सं० पादालिन्द] नौका। नाव [को०]।
⋙ पादालिंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० पादलिन्दा] नाव। नौका [को०]।
⋙ पादालिंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० पादालिन्दी] नाव। तरणि [को०]।
⋙ पादावर्त
संज्ञा पुं० [सं० पादावर्त] कुएँ आदि से पानी निकालने का यंत्र। अरहट या रहट।
⋙ पादाविक
संज्ञा पुं० [सं०] पैदल सैनिक [को०]।
⋙ पादाष्ठोल
संज्ञा पुं० [सं०] टखना [को०]।
⋙ पादासन
संज्ञा पुं० [सं०] चरणपीठ। पादपीठ [को०]।
⋙ पादाहत
वि० [सं०] पैरों से आघात किया हुआ [को०]।
⋙ पादिक (१)
वि० [सं०] किसी वस्तु का चौथाई भाग। चतुर्थांश।
⋙ पादिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पादकृच्छ नामक प्रायश्चित व्रत।
⋙ पादिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौथाई पण। (कौटि०)।
⋙ पादी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पादिन्] १. पैरवाले जलजंतु। जैसे, गोह, मगर, घड़ियाल आदि। विशेष—भावप्रकाश के अनुसार ऐसे जानवरों का मांस मधुर, चिकना तथा वात पित्तनाशक, मलवर्धक शुक्रजनक और बलकारक होता है। २. पशु। जानवर। उ०—जत्र तत्र पादी खड़े मृगया दई बिसारि। भयो इक्क आचर्ज बन भूपति नैन निहारि।— प० रासो०, पृ० २। ३. वह जो किसी वस्तु (संपत्ति, जायदाद आदि के चतुर्थांश का हकदार हो)।
⋙ पादी (२)
वि० १. जो चौथाई का हिस्सेदार हो। पादवाला। पैरवाला (को०)। २. चरणवाला (श्लोक आदि)। ३. चार विभाग या हिस्सेवाला (को०)।
⋙ पादीय
वि० [सं०] पदवाला। मर्यादावाला। जैसे, कुमारपादीय। विशेष—जिस शब्द के आगे यह लगाया जाता है उसके समान पदवाला सूचित करता है। प्राचीन काल में अभिजात वर्ग के लोगों को जो पदवियाँ दी जाती थी वे उसी प्रकार की होती थीं जैसे, कुमारपादीय अर्थात् राजसभा में राजकुमार की बराबरी का आसन पानेवाला।
⋙ पादुक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो चलता हो। चलनेवाला। गमनशील।
⋙ पादुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
⋙ पादुकाकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. बढ़ई। २. चर्मकार। मोची [को०]।
⋙ पादू
संज्ञा स्त्री० [सं०] पादुका। खड़ाऊँ। यौ०—पादूकृत् = मोची।
⋙ पादोदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जल जिसमें पैर धोया गया हो। २. चरणामृत्त।
⋙ पादोदर
संज्ञा पुं० [सं०] साँप।
⋙ पाद्म
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा जो कमल से उत्पन्न हैं।
⋙ पाद्य (१)
वि० [सं०] पद संबंधी। पैर संबंधी [को०]।
⋙ पाद्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जल जिससे पूजनीय ब्यक्ति या देवता के पैर धोए जायँ। पैर धोने का पानी। विशेष—षोडशोपचार पूजा में आसन और स्वागत के पश्चात् और पंचोपचार पूजा में सर्वप्रथम पाद्य ही की विधि है। जिस जल से देवता के पैर धोए जाते हैं उससे हाथ नहीं धोए जा सकते। इसी से पैर धोने के जल को पाद्य और हाथ धोने के जल को 'अर्घ' कहते हैं।
⋙ पाद्यक
संज्ञा पुं० [सं०] पाद्य देने का एक भेद।
⋙ पाद्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैर तथा हाथ धोने या धुलाने का जल। २. पूजासामग्री। ३. वह धन या संपत्ति जो किसी की पूजा में दी जाय। भेंट या नजर।
⋙ पाद्यार्घ्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पाद्यार्घ'।
⋙ पाधर †
वि० [देशी पद्धर] १. सरल। सीधा। उ०—लड़ लोहा सों लोड़ पाधर अस कीधो प्रगट।—नट०, पृ० १७२।
⋙ पाधरना †
क्रि० अ० [हिं० पधारना] पधारना। जाना। गमन करना। उ०—नगर महोबै पाधरौ मिलौ मल्हन कहँ जाय।—प० रासो, पृ० ६४।
⋙ पाधरा †
वि० [देशी पद्धर] सीधा। सरल। उ०—ज्याँरै नवग्रह पाधरा, जे बंका रण बीच।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० २।
⋙ पाधा
संज्ञा पुं० [सं० उपाध्याय] १. आचार्य। उपाध्याय। २. पंडित। उ०—गिरिधर लाल छबीले को यह कहा पठायो पाधै।—सूर (शब्द०)।