विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ढ
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ढ
⋙ ढ
हिंदी वर्णमाला का चौदहवाँ ब्यंजन और वर्ग का चौथा अक्षर । इसका उच्चारण स्थान मृर्द्धा है ।
⋙ ढंक
संज्ञा पुं० [सं० आषाढक, हिं० ढाक] पलास या छिडल की एक किस्म । उ०—जरी सो धरती ठाँवहि ठाँवाँ । ढंक परास जरे तेहि ठाँवाँ ।—पदमावत, पृ० ३७ ।
⋙ ढंकन †
संज्ञा पुं० [प्रा० ढंकण, हिं० ढकवा] दे० 'ढक्खन' ।
⋙ ढंकना पु
क्रि० स० [सं० छादय, प्रा० धा० ढवक, ढंक] दे० 'ढकना' । उ०—(क) बिमरत केस पुरुष नहिं अंकिय । प्रथीराज देखत सिर ढंकिय ।—पू० रा०, ६१ । ७१४ । (ख) समाझि दासि सिर बर तिन ढंक्यौ ।—पृ० रा०, ६१ । ७१९ ।
⋙ ढंकी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढँकना] ढकना । आच्छादन । उ०—बेद कतेब न खांणी बंणी । सब ढंकी तलि आणी ।— नोरख०, पृ० २ ।
⋙ ढंख पु †
संज्ञा पुं० [हिं० ढाक] पलाश । ढाक । उ०—बरुनी बान अस अनी बेधी रन बन ढंख । सउजहि तब सब रोवाँ पंखिहि तन सब पंख ।—लायसी (शब्द०) ।
⋙ ढंग
संज्ञा पुं० [सं० तङ्ग, तङ्ग (= चाल, गति?)] १. क्रिया । प्रणाली । शैली । ढब । रीति । तोर । तरीका । जैसे,—(क) वोलने चालने ता ढंग, बैठने उठने का ढंग । (ख) जिस ढंग से तुम काम करते हो वह बहुत अच्छा हैं । २. प्रकार । भाँति । तरह । किस्म । ३. रचना । प्रकार । बनावट । गढ़न । ढाँचा । जैसे,—वह गिलास और ही ढंग का है । ४. अभिप्रायसाधन का मार्ग । युक्ति । उपाय । तदबीर । डौल । जैसे,— कोई ढंग ऐसा निकालो जिसमें रुपया मिल जाय । क्रि० प्र०—करना ।—निकालना ।—बताना । मुहा०—ढ़ग पर चढ़ना = अभिप्रायसाधन के अनुकूल होना । किसी का इस प्रकार प्रवृत्त होना जिससे (दूसरे का) कुछ अर्थ सिद्ध हो । जैसे,—उससे भी कुछ रुपया लेना चाहता हूँ, पर वह ढंग पर नहीं चढ़ता है । ढंग पर लाना = अभिप्राय साधन के अनुकूल करना । किसी को इस प्रकार प्रवृत्त करना जिससे कुछ मतलब निकले । ढंग का = कार्यकुशल । व्यवहार- वक्ष । चतुर ।जैसे, —वह वडे़ ढंग का आदमी है । ५. चाल ढाल । आचरण । व्यवहार । जैसे,— यह मार खाने का ढंग है । मुहा०—ढंग बरतना = शिष्टाचार दिखाना । दिखाऊ ब्यवहार करना । ६. धोखा देने की युक्ति । बहाना । हीला । पाखंड । जैसे,—यह तुम्हारा ढंग है । क्रि० प्र०—रचना । ७. ऐसी बात जिससे किसी होनेवाली बात का अनुमान हो । लक्षण । आसार । जैसे,—रंग ढंग अच्छा नहीं दिखाई देता । ८. दशा । अवस्था । स्थिति । उ०— नैनन को ढंग सों अनंग पिचकारिन ते, गातन को रंग पीरे पातन तें जानबी ।— पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ ढंगउजाड़
संज्ञा पुं० [हिं० ढंग + उजाड़] घोडों के दुम के नीचे की एक भौरी जो ऐबों में समझी जाती है ।
⋙ ढंगी
वि० [हिं० ढंग] चालबाज । चतुर । चालाक ।
⋙ ढंढस
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढँढोरच' । उ०— ढंढस करु मन ते दूर, सिर पर साहब सदा हजूर ।— गुलाला०, पृ० १३७ ।
⋙ ढँढार
वि० [देश०] बडा ढड्ढा । बहुत बड़ा और बेढंग ।
⋙ ढंढेरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढींढोरा' । उ०— ता पाछे राजा जेम- लजी ने सगरे ग्राम में ढंढेरा पिटाइ दियो ।—दौ सौ बावन०, भा० १, पृ० २५७ ।
⋙ ढंढोलना पु
क्रि० स० [प्रा० ढंढुल्ल, ढंढोल (= खोजना)] दे० 'ढँढोरना' । उ०— प्रह फूटी दिसि पुंडरी हणहणिया हय थट्ट । ढोलइ धण ढंढोलियउ, शीतल सुंदर घट्ट । — ढोला०, दू० ६०२ ।
⋙ ढँकन †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढकना', 'ढक्कन' ।
⋙ ढँकना (१)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'ढकना' ।
⋙ ढ़ँकना (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० ढँकनी] दे० 'ढकना' ।
⋙ ढँकुली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढँकली' ।
⋙ ढँग पु
संज्ञा पुं० [हिं० ढँग] अभिप्राय साधने का उपाय । डोल । दे० 'ढंग' । उ०— वाही के जैए बलाय लौं, बालम ! हैं तुम्हे नीकी बतावति हो ढँग ।— देव (शब्द०) ।
⋙ ढँगालाना †
क्रि० स० [हिं० ढाल] लुढ़काना ।
⋙ ढँगिया †
वि० [हिं० ढंग + इया (प्रत्य०)] दे० 'ढंगी' ।
⋙ ढँढरच
संज्ञा पुं० [हिं० ढंग + रचना] धोखा देने का आयोजन । पाखंड । बहाना । हीला ।
⋙ ढँढोर
संज्ञा पुं० [अनु० धायँ धायँ] १. आग की लपट । ज्वाला । लौ । उ०— (क) रहै प्रेम मन उरझा लटा । बिरह ढँढोर परहिं सिर जटा ।— जायसी (शब्द०) ।(ख) कंथा जरे अगिनि़ जनु लाए । बिरह ढँढोर जरत न जराए ।— जायसी (शब्द०) । २. काले मुँह का वंदर । लंगूर ।
⋙ ढँढोरची
संज्ञा पुं० [हिं० ढँढोर + फा़० ची (प्रत्य०)] ढँढोरा फेरने— वाला । मुनादी फेरनेवाला । उ०— लेकिन ब्रूस्की और मोरा- वियन धर्मप्रचारकों से ढँढोरची मुक्ति सैनिकों कौ तुलना नहीं की जा सकती ।— किन्नर०, पृ० ६४ ।
⋙ ढँढोरना †
क्रि० स० [हिं० ढूँढना] टटोलकर ढूँढना । हाथ डालकर इधर उधर खोजना । उ०— (क) तेरे लाल मेरो माखन खायो । दुपहर दिवस जानि घर सूनो ढूँढ़ि ढँढोरि आपही आयो ।— सूर (शब्द०) । (ख) बेद पुरान भागवत गीता चारों बरन ढँढोरी— कबीर० श०, भा० १, पृ० ८५ ।
⋙ ढँढोरा
संज्ञा पुं० [अनु० ढम + ढोल] १. घोषणा करने का ढोल । ड्डगडुगी । डौंड़ी । मुहा०— ढँढोरा पीटना = ढोल बजाकर चारों ओर जताना । मुनादी करना । २. वह घोषणा जो ढोल बजाकर की जाय । मुनादी । मुहा०— ढँढोरा फेरना = दे० 'ढढोरा पीटना' ।
⋙ ढँढोरिया
संज्ञा पुं० [हिं० ढँढोरा] ढंढोरा पीटनेवाला । डुगडुग्गी बजाकर घोषणा करनेवाला । मुनादी करनेवाला ।
⋙ ढँढोलना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'ढढोरना' उ०— रतन निराला पाइया, जगत ढँढयौला वादि ।— कबीर ग्रं०, पृ० १५ ।
⋙ ढँपना (१)
क्रि० अ० [हिं० ढकना] किसी वस्तु के नीचे पड़कर दिखाई न देना । किसी वस्तु के ऊपर से छेक लेने के कारण उसकी ओट में छीप जाना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ ढँपना (२)
संज्ञा पुं० ढाकने की वस्तु । ढक्कन ।
⋙ ढ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा ढोल । २. कुत्ता । ३. कुत्ते की पूँछ । ४.ध्वनि । नाद । ५. साँप ।
⋙ ढई देना
क्रि० अ० [हिं० धरना?] किसी के यहाँ किसी काम से पहुँचना और जबतक काम न हो जाय तबतक न हटना । धरना देना ।
⋙ ढकई (१)
वि० [हिं० ढाका] ढाके का ।
⋙ ढकई (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का केला जो ढाके की ओर होता है ।
⋙ ठकना (१)
संज्ञा पुं० [सं० ढक् (= छिपाना)] [स्त्री० अल्पा० ढकनी] वह वस्तु जिसे ऊपर डाल देने या बैठा देने से नीचे की वस्तु छिप जाय या बंद हो जाय । ढक्कन । चपनी ।
⋙ ढकना (२)
क्रि० अ० किसी वस्तु के नीचे पड़कर दिखाई न देना । छिपना । जैसे— मिठाई कपडे़ से ढकी है । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ ढकना (३)
क्रि० स० दे० 'ढाँकना' ।
⋙ ढकनिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढकनी' । उ०— सुभग ढकनिया ढाँपि पट जतन राखि छीके समदायो ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ढकनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढकना] १. ढाँकने की वस्तु । ढक्कन । २. फूल के आकार का एक प्रकार का गोदना जो हथेली के पीछे की ओर गोदा जाता है ।
⋙ ढकपन्ना
संज्ञा पुं० [हिं० ढाक + पन्ना (= पत्ता)] पलास पापड़ा ।
⋙ ढकपेडरु
संज्ञा पुं० [देश०] एक चिड़िया का नाम ।
⋙ ढकस †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. सूखी खाँसी में गले से होनेवाला ढन ढन शब्द । २. सूखी खाँसी ।
⋙ ढका (१)
संज्ञा पुं० [सं० आढक] तीन सेर की एक तौल या बाट ।
⋙ ढका (२)
संज्ञा पुं० [अं० डाक] घाट । जहाज ठहरने का स्थान । (लश०) ।
⋙ ढका पु † (३)
संज्ञा पुं० [सं० ढक्का] बड़ा ढोल । उ०—नदति दुंदुभि ढका बदन मारु हका, चलत लागत धका कहत आगे ।— सूदन (शब्द०) ।
⋙ ढका (४)
संज्ञा पुं० [अनु०] धक्क । टक्कर । उ०— (क) ढकनि ढकेलि पेलि सचिव चले लै ठेलि नाथ न चखेगो बल अनल भयावनो ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) चढ़ि गढ भढ़ दृढ़ कोट के कँगूरे कोपि नेकु ढका दैहैं ढेलन की डेरी सी ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ढकिल पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढकेलना] एक दूसरे को ढकेलते हुए वेग के साथ धावा । चढ़ाई । आक्रमण । उ०— ढकिल करी सव ते अधिकाई । ओडी गुरु लोगन की धाई ।— लाल कबि (शब्द०) ।
⋙ ढकेलना
क्रि० सं० [हिं० धक्का] १. धक्के से गिराना । ठेलकर आगे की और गिराना । संयो० क्रि०— देना । २. धक्के से हटाना । ठेलकर सरकना । जैसे, — भीड़ को पीछे ढकेलो ।
⋙ ढकेला ढकेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढकेलना] ठेलमठेला । आपस में धक्का धुक्की । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ ढकोरना †
क्रि० स० [अनु०] पी जाना । दे० 'ढकोसना' ।
⋙ ढकोसना
क्रि० स० [अनु० ढक ढक] एकबारगी पीना । बहुत खानापीना । जैसे,— इतना दूध मत ढकोस लो कि कै हो जाय । संयो० क्रि०—जाना ।—लेना ।
⋙ ढकोसला
संज्ञा पुं० [हिं० ढंग + सं० कौशल] ऐसा आयोजन जिससे लोगों को धोखा हो । धोखा देने का या मतलब साधने का ढँग । आडंबर । मिथ्या जाल । कपट ब्यवहार । पाखंड । उ०— इन ढकोसलों में क्या तथ्य है ।—कंकाल, पृ० १०४ । (ख) मगर यह इश्क सब ढकोसला ही ढकोसला है ।— फिसाना०, भा० १, पृ० ११ । क्रि० प्र०—करना ।—फैलाना ।
⋙ ढक्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देश का नाम । (कदाचित् 'ढाका') । २. विशाल आराधना मंदिर । बड़ा मंदिर (को०) ।
⋙ ढक्कन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढाकने की वस्तु । वह वस्तु जिसे ऊपर से डाल देने या बैठा देने से कोई वस्तु छिप जाय या बंद हो जाय । जैसे, डिबिया का ढक्कन, बरतन का ढक्कन । २. (दरवाजा आदि) बंद करना या ढक देना (को०) ।
⋙ ढक्का (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक बड़ा ढोल । २. नगाड़ा । डंका । उ०— शंख भेरी पणव मुरज ढक्का बाद घनित । घंटा नाद बिच बिच गुजरत ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६०५ । २. डमरू । ३. छिपाव । दुराव (को०) । ४. अदर्शन । लोप (को०) ।
⋙ ढक्का पु † (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'ढाका (४)' ।
⋙ ढक्कारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की उपासना में तारा देवी का एक नाम [को०] ।
⋙ ढक्की
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढाल] पहाड़ की ढाल जिससे होकर लोग चढ़ते उतरते हैं ।— (पंजाब) ।
⋙ ढगण
संज्ञा पुं० [सं०] पिंगल में एक मात्रिक गण जो तीन मात्राओं का होता है । इसके तीन भेद हो सकेत हैं; यथा- is, si, iii इनमें से पहले की संज्ञा रसवास और ध्वजा, दूसरे की पवन, लंद, ग्वाल, ताल औरतीसरे की वलय है ।
⋙ ढचर
संज्ञा पुं० [हिं० ढाँचा] १. किसी वस्तु को बनाने या ठीक करने का सामान या ढाँचा । आयोजन और सामान । क्रि० प्र०—फैलाना । बाँधना । २. टंटा । बखेड़ा । जंजाल । धंधा । कारबार । ३. आडंबर । झूठा आयोजन । ढकोसला । क्रि० प्र०—फैलाना । ४. बहुत दुबला पतला और बूढ़ा ।
⋙ ढटीँगड़
संज्ञा पुं० [सं० डिङ्गर (= मोटा आदमी), हिं० धींग, धींगड़ा] १. बडे़ डीलडौल का । ढींग । जैसे,— इतने बडे़ ढटींगड़ हुए पर कुछ शऊर न हुआ । २. हृष्ट पुष्ट । मुस्टंडा । मोटा ताजा ।
⋙ ढटीँगड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढटीगड़' ।
⋙ ढटीँगर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढटीगड़' ।
⋙ ढट्ठा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० डाढू या देश०] वह भारी साफा या मुरेठा जो सिर के अतिरिक्त डाढ़ी और कानों को भी ढाँके हो ।
⋙ ढट्टा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० डाट] छेद या मुँह कसकर बंद करने की वस्तु । डाट । ठेपी । काग ।
⋙ ढट्ठी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० डाढ़] डाढ़ी बाँधने की पट्टी ।
⋙ ढट्ठी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० डाट] कीसी छेद को बंद करने की वस्तु । डाट । ठेंपी ।
⋙ ढड़काना पु
क्रि० स० [हिं०] आगे बढ़ाना । जोर लगाकर ठेलना । ढलकाना । उ०— गाड़ी थाकी मार्ग में, बछड़न करी न पेश । अब गाड़ी ढड़गाय दे, धवल धंग हिरदेश ।— शुक्ल अभि० ग्रं० (इति०), पृ० ८८ ।
⋙ ढड्ढा (१)
वि० [देश०] बहुत बड़ा । आवश्यकता से अधिक बड़ा । बड़ा औरे वेढंगा ।
⋙ ढ़ड्ढा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ठाट] १. ढाँचा । अंगों की वह स्थूल योजना जो किसी वस्तु की लचना के प्रारंभ में की जाती है । क्रि० प्र०—खड़ा करना । २. आडंबर । दिखावट का सामान । झूठा ठाट बाट । क्रि० प्र०— खड़ा करना ।
⋙ ढड्ढो
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढड्ढा] १. बूड्ढी स्त्री । वह बूढ़ी स्त्री जिसके शरीर में हड्डी का ढाँचा ही रह गया हो । २. बकवादिन स्त्री । ३. मटमैले रंग की एक चिड़िया जिसकी चोंच पीली होती है । यह बहुत लड़ती और चिल्लाती है । चरखी । मुहा०—ढड्ढो का ढड्डोवाला = मूर्ख । बेवकूफ ।
⋙ ढढे़सुरी †
संज्ञा पुं० [हिं० ठाढ़ + सं० ईश्वर] दे० 'ढाठेश्वरी' । उ०— कोउ बाँह को उठाअ ढढेसुरी कहाइ, जाइ कोउ ते भवन कोउ नगन बिचार है ।— भीखा श०, पृ० ५५ ।
⋙ ढढ्ढर
संज्ञा पुं० [हिं०] शरीर । देह । टट्टर । उ०— चहुआन तुच्छ ढढ्ढर बहिय ढुरिग मीर बियसिर ढरयौ ।— पृ० रा०, १० । २७ ।
⋙ ढनढन
संज्ञा स्त्री० [अनु०] ढन ढन का शब्द । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ ढनक †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] ढोल, नगाड़ा, आदि बाजों की ध्वनि । उ०— पैज रुपनि दुहुँ ओर चोप चुहल चाचारि सोर ढोल ढनक घोष मंगल सुनत सफल होत कान ।— घनानंद, पृ० ४०४ ।
⋙ ढनमनाना †
क्रि० अ० [अनु०] लुढ़कना । ढुलकना । उ०— मुठिका एक महाकपि हनी । रुधिर बमत धरनी ढनमनी ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ढप †
संज्ञा पुं० [अ० दफ, हिं० डफ] दे० 'डफ' ।
⋙ ढपना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ढाँपना] ढाकने की वस्तु । ढक्कन ।
⋙ ढपना (२)
क्रि० अ० [हिं० ढकना] ढका होना । उ०— लसतु सेत सारी ढप्यो, तरल तरौना कान । परयौ सनौ सुरसरि सलिल रवि प्रतिबिंबु विहान ।— बिहारी (शब्द०) ।
⋙ ढपना (३)
क्रि० स० [हिं० ढापना] ढाकना । ऊपर से ओढ़ाना । छिपाना ।
⋙ ढपरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'दुपहरिया' । उ०— चार पहर पैंडा माँ रगड़ौ खरी ढपरिया पैहो ।— कबीर श०, भा० पृ० २२ ।
⋙ ढपरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढाँपना] चूड़ीवालों की अँगीठी का ढकना ।
⋙ ढपला †
संज्ञा पुं० [अ० दफ, हिं० डफ, ढप] दे० 'डफला' ।
⋙ ढपली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० डफला] दे० 'डफली' ।
⋙ ढपील †
वि० [हिं० ढाँपना] आच्छादित करनेवाली । ढापनेवाली । उ०— यौवन के वसंत स्मृति को उपमा यैंडे की काली, वोझिल, ढपील, ढाल से देना अनुचित प्रतीत होता है ।—आधुनिक०, पृ० २३ ।
⋙ ढप्पू
वि० [देश०] वहुत बड़ा । ढड्ढा ।
⋙ ढफ †
संज्ञा पुं० [हिं० डफ] दे० 'डफ' । उ०— रुंज मुरज ढफ ताल बाँसुरी, झालर की झंकार ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ढफला †
संज्ञा पुं० [हिं० डफला] [स्त्री० ढफली] दे० 'डफला' । उ०— ढमकंत ढोल ढफला अगार । धमकंत धरनि घौंसा फुँकार ।— सुजान०, पृ० ३८ ।
⋙ ढफार †
संज्ञा पुं० [अनु०] चिग्धाड़ । जोर से रोने या चिल्लाने का शब्द । डफार । उ०— तब याकूब सु छाड़ि ढफारा । कहै लाग का तोर बिगारा ।— हिंदी प्रेम०, पृ० २४५ ।
⋙ ढब
संज्ञा पुं० [सं० धव (= चलना, गति) या देश०] १. क्रियाप्रणाली । ढंग । रीति । तौर तरीका । जैसे, काम करने का ढब । उ०— ताकन को ढब नाहिं तकन की गति है न्यारी ।— पलटू०, पृ० ४४ । २. प्रकार । भाँति । तरह । किस्म । जैसे,— वह न जाने किस ढब का आदमी है । ३. रचना- प्रकार । बनावट । गढ़न । ढाँचा । जैसे,— वह गिलास और ही ढब का है । ४. अभिप्रायसाधन का मार्ग । युक्ति । उपाय । तदबीर । जैसे,— किसी ढब से रुपया निकालना चाहिए । मुहा०— ढब पर चढ़ना = अभिप्रायसाधन के अनुकूल होना । किसी का इस प्रकार प्रवृत्त होना जिससे (दूसरे का) कुछ अर्थ सिद्ध हो । किसी का ऐसी अवस्था मैं होना जिससे कुछ मतलब निकले । जैसे,— कहीं वह ढब पर चढ़ गया तो बहुत काम होगा । ढब पर लगाना या लाना= अभिप्रायसाधन के अनुकूल करना । किसी को इस प्रकार प्रवृत्त करना कि उससे कुछ अर्थ सिद्ध हो । अपने मतलब का बनाना । ५. गुण और स्वभाव । प्रकृति । आदत । बान । टेव । मुहा०—ढब डालना= (१) आदत डालना । अभ्यस्त करना । (२) अच्छी आदत डालना । आचार व्यवहार की शिक्षा देना । शऊर सिखाना । ढब पड़ना = आदत होना । बान या टेव पड़ना ।
⋙ ढबका पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] उपाय़ । युक्ति । उ०—चेतनि असवार ग्यनि गुरु करि और तजौ सब ढबका ।— गोरख०, पृ० १०३ ।
⋙ ढबरा †
वि० [हिं० डाबर] दे० 'ढाबर' ।
⋙ ढबरो
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढिवरी] मिट्टी का तेल जलाने की गुच्छीदार डिविया । ढिबरी । उ०— धुँआ अधिक देती है, टिन की ढबरी, कम करती उजियाला ।— ग्राम्या, पृ० ६५ ।
⋙ ढबीला †
वि० [हिं० ढब + ईला (प्रत्य०)] ढब का । ढबवाला । चालाक । चतुर ।
⋙ ढबुआ † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] खेतों के मचान के ऊपर का छप्पर ।
⋙ ढबुआ (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का ताँबे का अचिह्नित देसी सिक्का जिसकी चलन बंद करदी गई है । २. पैसा ।
⋙ ढबैला
वि० [हिं० ढाबर + एला (प्रत्य०)] मिट्टी और कीचड़ मिला हुआ (पानी) । मटमैला । गँदला ।
⋙ ढमक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] ढम ढम शब्द ।
⋙ ढमकना
क्रि० अ० [अनु०] ढम ढम शब्द होना । ढम ढम की आवाज होना ।
⋙ ढमकाना
क्रि० स० [हिं० ढमकना] १. ढोल, नगाड़ा आदि वाद्य बजाना । २. ढम ढम शब्द उत्पन्न करना ।
⋙ ढमढम
संज्ञा पुं० [अनु०] ढोल का अथवा नगारे का शब्द ।
⋙ ढमलाना †
क्रि० अ० [देश०] लुढ़कना ।
⋙ ढमलाना (२)
क्रि० स० लुढ़काना ।
⋙ ढयना
क्रि० अ० [सं० ध्वंसन, हिं० ढहना] १. किसी दीवार, मकान आदि का गिरना । ध्वस्त होना । २. पस्त होना । शिथिल होना । उ०— ढीले से ढए से फीरत ऐसे कौन पै ढहे हौ ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३५६ । संयो० क्रि०—जाना ।— पड़ना । मुहा०— ढय पड़ना = उतर पड़ना । सहसा आकर टिक जाना । एकबारगी आकर डेरा डाल देना (व्यंग्य) ।
⋙ ढरकना †
क्रि० अ० [हिं० ढार या ढाल] १. पानी या और किसी द्रव पदार्थ का आधार से नीचे गिर पड़ना । ढलना । गिरकर बह जाना । उ०— वाके पानी पत्र न लागै ढरकि चलै जस पारा हो ।—कबीर श०, भा० १, पृ० २७ । संयो० क्रि०—डाना ।—पड़ना । २. नीचे की ओर जाना । उ०— (क) सकल सनेह शिथिल रघुबर के । गए कोस दुइ दिनकर ढरके ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) परसत भोजन प्रातहिं ते सब । रवि माथे ते ढरकि गयो अब ।—सूर (शब्द०) । मुहा०—दिन ढरकना = सूर्यास्त होना । दिन डूबना । ३. आराम करना । शय्या पर शयन करना । लेटना ।
⋙ ढरका
संज्ञा पुं० [हिं० ढरकना] १. आँख का एक रोग जिसमें आँख से आँसू बहा करता है । २. आँख से अश्रु बहना । क्रि० प्र०—लगना । २. सिरे पर कलम की तरह छीली हुई बाँस की नली जिससे चौपायों के गले में दवा उतारते है । बाँस की नली से चौपायों के गले में दवा उतारने की क्रिया । क्रि० प्र०— देना ।
⋙ ढरकाना
क्रि० सं० [हिं० ढरकना] पानी या और कीसी द्रव पदार्थ को आधार से नीचे गिराकर बहाना । जैसे,— पानी ढरकना । संयो० क्रि०—देना ।
⋙ ढरकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढरकना] जुलाहों का एक औजार जिससे वे लोग बाने का सूत फेंकते हैं । उ०— सबद ढरकी चलै नाहिं छीनै ।— पलटू०, पृ० २५ । विशेष— ढरकी की आकृत्ति करताल की सी होती है और यह भीतर से पोली रहती है । खाली स्थान में एक काँटे पर लपेटा हुआ सूत रक्खा रहता है । जब ढरकी को इधर से उधर फेंकते हैं तब उसमें से सूत खुलकर बाने में भरता जाता है । इसे भरनी भी कहते हैं । यौ०— जुलाहे की ढरकी = अस्थिरमति आदमी । कभी इधर कभी उधर होनेवाला व्यक्ति ।
⋙ ढरकीला
वि० [हिं० ढरकना + ईला(प्रत्य०)] बह जानेवाला । ढरक जानेवाला । उ०— रजनी के श्याम कपोलों पर ढरकीले श्रम के कन ।— यामा, पृ० १६ ।
⋙ ढरना पु
क्रि० अ० [हिं० ढलना] १. दे० 'ढलना' । २. बहना । प्रवाहित होना । उ०— (क) मलिन कुसुम तनु चीरे, करतल कमल नयन ढर नीरे ।— विद्यापति, पृ० ५५४ ।(ख) ऊपर तै दधि दूध, सीसन गागरि गन ढरै ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३३४ ।
⋙ ढरनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढरना] १. गिरने वा पड़ने की क्रिया । पतन । उ०— सखी बचन सुनि कौसिला लखि सुंदर पासे ढरनि ।— तुलसी (शब्द०) । २. हिलने डोलने की क्रिया । गति । स्पंदन । उ०— कंठसिरी दुलरी हीरन की नासा मुक्ता ढरनि ।— स्वामी हरिदास (शब्द०) । ३. चित्त की प्रवृत्ति । झुकाव । उ०— रिस औ रुचि हौं समुझि देखिहौं वाके मन की ढरनि, वाकी भावती बात चलाय हौं ।— सूर (शब्द०) । ४. किसी की दशा पर हृदय द्रवीभूत होने की क्रिया । दीन दशा दूर करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति । स्वाभा- विक करुणा । दयाशीलता । सहज कृपालुता । उ०—(क) राम नाम सों प्रतीत प्रीति राखे कबहुँक तुलसी ढरैंगे राम अपनी ढरनि ।— तुलसी (शब्द०) ।(ख) कृपासिंधु कोसल धनी सरनागत पालक ढरनि अपनी ढरिए ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ढरहरना पु †
क्रि० अ० [हिं० ढरना] खसकना । सरकना । ढलना । झुकना । उ०— दीनदयाल गोपाल गोपपति गावत गुण आवत ढिग ढरहरि ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ढरहरा †
वि० [हिं० ढार + हार (प्रत्य०)] [स्त्री० ढरहरी] डालुवाँ । ढालू ।
⋙ ढरहरी † (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पकौड़ी । उ०—रायभोय लियो भात पसाई । मूँग ढरहरी हींग लगाई ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ढरहरी † (२)
वि० स्त्री० [हिं० ढरहरा] ढालू । ढालुवाँ ।
⋙ ढराई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढलाई' ।
⋙ ढराना †
क्रि० स० [हिं०] १. दे० 'ढालना' । उ०— खैंचि खराद चढ़ाए नहीं न सुढार के ढारनि मध्य ढराए ।—सरदार (शब्द०) । २. दे० 'ढरकाना' ।
⋙ ढरारा
वि० [हिं० ढार] [वि० स्त्री० ढरारी] १. ढलनेवाला । ढरकनेवाला । गिरकर बह जानेवाला । २. लुढ़कनेवाला । थोडे़ आघात से पृथ्वी पर आपसे आप सरकनेवाला । जैसे, गोली । यौ०— ढरारा रवा = गहना बनाने में सोने चाँदी का वह गोल दाना जो जमीन पर रखने से लुढ़क जाय । ३. शीघ्र प्रवृत्त होंनेवाला । झुक पड़नेवाला । आकर्षित होनेवाला । चलायमान होनेवाला । उ०— जीवन रंग रँगोली, सोने से ढरारे नेना, कंठपीत मखतूली ।— स्वामी हरिदास (शब्द०) ।
⋙ ढरैया †
संज्ञा पुं० [हिं० ढारना] १. ढालनेवाला । २. ढलनेवाला । किसी और प्रवृत्त होनेवाला ।
⋙ ढर्रा
संज्ञा पुं० [हिं० या देश०] १. मार्ग । रास्ता । पथ ।२. किसी कार्य के निर्वाह की प्रणाली । शैली । ढंग । तरीका । ३. मुक्ति । उपाय । तदबीर । जैसे,— कोई ढर्रा ऐसा निकालो जिसमें इन्हें भी कुछ लाभ हो जाय । क्रि० प्र०—निकालना । ४. आचरणपद्धति । चाल चलन । जैसे, —यह लड़का बिगड़ रहा है, इसे अच्छे ढर्रे पर लगाओ ।
⋙ ढलकना
क्रि० अ० [हि० ढाल] १. पानी या और किसी द्रव पदार्थ का आधार से नीचे गिर पड़ना । ढलना । संयों क्रि० —जाना । २. लुढ़कना । नोचे ऊपर चक्कर खाते हुए सरकना । ३. हिलना । उ०— कुंड़ल झलक ढलक सीसनि की ।—पोद्दार अभि०, ग्रं० पृ० ३८३ ।
⋙ ढलका
संज्ञा पु० [हिं० ढलकना] आँख का एक रोग जिसमें आँख से बराबर पानी बहा करता है । ढरका ।
⋙ ढलकाना
क्रि० सं० [हिं० ढलकना] १. पानी या और किसी द्रव पदार्थ को आधार से नोचे गिराना । लुढ़काना । संयो० क्रि०—देना ।
⋙ ढलकी
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'ढरकी' ।
⋙ ढलना
क्रि० अ० [हि० ढाल] १. पानी या और किसी द्रव पदार्थ का नीचे की ओर सरक जाना । ढरकना । गिरकर बहना । जैसे, पत्ते पर की बूँद का ढलना । उ०— अधरन चुवाइ लेउँ सिगरो रस तनिको न जान देउँ इत उत ढरि —स्वामी हरिदास (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना । मुहा०— जवानी ढलना = युवावस्था का जाता रहना । छाती ढलना = स्तनों का लटक जाना । जोबन ढलना = युवावस्था के चिह्नों का जाता रहना । जवानी का उतार होना । दिन ढलना = सूर्यास्त होना । संध्या होना । दिन ढले = संध्या को । शाम को । सूरज वा चाँद ढलना = सूर्य या चंद्रमा का अस्त होना । २. बीतना । गुजरना । निकल जाना । उ०— काहे प्रगट करौ जदुपति सों दुसह दोष को अवधि गई ढरि ।—सूर (शब्द०) । ३. पानी या और किसी द्रव पदार्थ का आधार से गिरना । पानी, रस आदि का एक बरतन से दूसरे बरतन में डाला जाना । उड़ेला जाना । मुहा०— बोतल ढलना = खूब शराब पिया जाना । मद्य पिया जाना । शराब ढलना = मद्य पिया जाना । ४. लुढ़कना । ५. झुकना । अनुकूल होना । मान जाना । उ०— मुसलमान इसपर ढल भी गए ।—प्रेमधन०, भा० २, पृ०, २४५ । ६. किसी सूत या डोरी के रूप की वस्तु का इधर से उधर हिलना । लहर खाकर इधर उधर ड़ोलना । लहराना । जैसे, चँवर ढलना । ७. किसी और आकर्षित होना । प्रवृत्त होना । संयो० क्रि० —पड़ना । ८. अनुकूल होना । प्रसन्न होना । रीझना । उ०— देत न अघात, रीझि जात पात आक ही कै, भोलनाथ जोगी जब औढर ढरत है ।— तुलसी (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना । ९. पिघली या गाली हुई सामग्री से साँचे के द्वार बनना । साँचे में ढालकर बनाया जाना । ढाला जाना । जैसे, खिलौने ढलना, बरतन ढ़लना । मुहा०— साँचे में ढला हुआ = बहुत सुंदर और सुडौल ।
⋙ ढलमल
वि० [अनु०] १. श्रांत । शिथिल । २. अस्थिर । चंचल । कभी इधर कभी उधर होना ।
⋙ ढलवाँ
वि० [हिं० ढालना] जो पिधली हुई धातु आदि को साँचे में डालकर बनाया गया हो । जैसे, ढलवाँ बरतन ।
⋙ ढलवाइक †
संज्ञा पुं० [सं० ढाल + वाहक] ढालवाले सिपाही । ढाल धारण करनेवाले सैनिक । ढलैत । उ०— कोटि धनुद्धर धावथि पायक । लष्ख संख चलिअउँ ढ़लवाइक ।—कीर्ति, पृ० ८८ ।
⋙ ढलवाना
क्रि० सं० [हिं० ढालना का प्रे० रूप] ढालने का काम कराना ।
⋙ ढलाई
संज्ञा स्त्री० [हि० ढालना] १. साँचे में ढालकर बरतन आदि बनाने का काम । ढ़ालने का काम । २. ढालने की मजदूरी ।
⋙ ढलान (१)
वि० [हिं० ढाल] दे० 'ढालवाँ' ।
⋙ ढलान (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढालना] ढालने का काम । ढलाई ।
⋙ ढलान
क्रि० स० [हिं०] दे० 'ढलवाना' । उ०— नाम अगर पुछे कोई तो कहना बस पीनेवाला । काम ढालना और ढलाना, सबको मदिरा का प्याला ।—मधुबाला, पृ०, ८४ ।
⋙ ढलुवाँ
वि० [हिं०] १. दे० 'ढलवाँ' । २. दे० 'ढालबाँ' ।
⋙ ढलैत
संज्ञा पुं० [हिं० ढाल] ढाल बाँधनेवाला । सिपाही ।
⋙ ढलैया †
संज्ञा पुं० [हि० ढालना] धातु आदि को ढालनेवाला कारीगर ।
⋙ ढवका †
संज्ञा पुं० [देश०?] धौखा । उ०— ढूँढै चौपाडि ढुलि मिलि जाई । ढवका तब काहे को साई ।—सूंदर ग्रं०, मा०, १, पृ० २२२ ।
⋙ ढवरी पु
[देश०] धुन । ढोरी । लौ । लगन । रट । दे० 'ढौरी' । उ०— सूरदास गोपी बड़ भागी । हरि दरशन की ढवरी लागी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ढसक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. ठन ठन शब्द जो सूखी खाँसी में गले से निकलता है । २. सूखी खाँसी जिसमें गले से ठन ठन शब्द निकलता है ।
⋙ ढहना
क्रि० अ० [सं० ध्वंसन या वहु] १. दीवार, मकान आदि का गिर पड़ना । ध्वस्त होना । संयो० कि०—जाना । २. नष्ट होना । मिट जाना । उ०—तुलसी रसातल को निकसि सलिल आयो, कोल कलमल्यो ढहि कमठ को बल गो ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ढहरना †
क्रि० अ० [हि० ढार] १. लुढ़कना । गिरना । २. (किसी की ओर) गिरना झुकना या अनुकूल होना । उ०— ढीलै सै ढए से फिरत ऐसे कौन पै ढहे हो ।—नंद०, गं० पृ० ३५६ ।
⋙ ढहराना †
क्रि० सं० [हि० ढार] १. लुढ़काना । २. सूप के अन्न में से गोल दाने की कंकड़ी, मिट्टि आदि को लुढ़काकर अलय करना । पछोरना । फटकना ।
⋙ ढहरी † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० देहली] डेहरी । देहली । दहलीज । उ०— सूर प्रभु कर सेज टेकत कबहुं टेकत ढहरि ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ढहरी † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिट्टी का बरतन । मटका । उ०— डगर न देत काहहि फोरि डारत ढहरि ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ढहवाना
क्रि० सं० [हिं० ढहाना का प्रे० रूप] ढहराने का काम करना । गिरवाना ।
⋙ ढहाना
क्रि० सं० [सं० ध्वंसन या दहु] दीवार मकान आदि गिराना । ध्वस्त करना । उ०— एक ही बान को, पाषान को कोट सब हुतो चहुं ओर, सो दियो ढहाई ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ढहावना पु †
क्रि सं० [हिं०] दे० 'ढहाना' । उ०—तोपै दई फेरि आति भारी । मंदर मेरु ढहावन हारी ।—हम्मीर, पृ० ३० ।
⋙ ढाँक
संज्ञा पुं० [देश०] १. कुश्ती के एक पेंच का नाम । २. पलाश । ढाक ।
⋙ ढाँकना
क्रि० सं० [सं० ढक (= छिपाना)] १. किसी वस्तु को दूसरी वस्तु के इस प्रकार नीचे करना जिसमें वह दिखाई न दे या उसपर गर्द आदि न पड़े । ऊपर से कोई वस्तु फैला या डालकर (किसी वस्तु को) औट में करना । कोई वस्तु ऊपर से डालकर छिपाना । जैसे,—(क) पानी का बरतन खुला मत छोड़ी, ढाँक दो । (ख) मिठाई को पपड़े से ढाँक दो । संयो० क्रि०—देना । २. इस प्रकार ऊपर डालना या फैलाना जिसमें कोई वस्तु नीचे छिप जाय । जैसे,—इसपर कपड़ा ढाँक दो । संयो० क्रि०—देना ।
⋙ ढाँख †
संज्ञा पुं० [हिं० ढाक] दे० 'ढाक' । उ०— तरिवर झरहिं झरहिं बन ढाँखा । भई अनपत्त फूलि कर साखा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३५९ ।
⋙ ढाँग †
वि० [देश०] दे० 'ढ़ालूवाँ' ।
⋙ ढाँच
संज्ञां पुं० [हिं० ढाँचा] दे० 'ढाँचा' ।
⋙ ढाँचा
संज्ञा पुं० [सं० देश० या हिं० ठाट] १. किसी वस्तु की रचना की प्रारंभिक अवस्था में स्थूल रूप से संयोजित अंगों की समष्टि । किसी चीज को बनाने के पहले परस्पर जोड़ जाड़कर बैठाए हुए उसके भिन्न भिन्न भाग जिनसे उस वस्तु का कुछ आकार खड़ा हो जाता है । ठाट । टट्टर । डौल । जैसे,— अभी तो इस पालकी का ढाँचा खड़ा हुआ है, तख्ते आदि नहीं जड़े गए है । क्रि० प्र०—खड़ा करना ।—बनाना । २. भिन्न भिन्न रूपों से परस्पर इस प्रकार जोड़े हुए लकड़ी आदि के बल्ले या छड़ कि उनमें बीच में कोई वस्तु जमाई या जड़ी जा सके । जैसे, चौखटा, बिना बुनी चारपाई, कुरसी आदि । ३. पंजर । ठटरी । ४. चार लकड़ियों का बना हुआ वह खड़ा चोखाटा जिसमें जुलाई 'नचनी' । अटकाते हैं । ५. रचनाप्रकार । गढ़न । बनावट । जैसे,—इस गिलास का ढाँचा बहुत इच्छा है । ६. प्रकार । भाँति । तरह । जैसे,— वह न जाने किस ढाँचे का आदमी है ।
⋙ ढाँढा †
वि० [देशी ढंढ (= निकम्मा । कपटी)] कपटी । तुच्छ । पशु । नीच । उ०— रे ढाँढा करि छोहड़ी करह करहांरी काणि ।—ढोला०, (परि०२), पृ० २९९ ।
⋙ ढाँपना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'ढाँकना' । उ०— श्यामा हू तनपुलकित पल्लव अगुरिन मुख निज ढाँपि ।—श्यामा०, पृ० १०७ ।
⋙ ढाँस
संज्ञा स्त्री० [अनु०] वह 'ठन ठन' शब्द जो सूखी खाँसी आने पर गले से निकालता है । ढसक ।
⋙ ढाँसना
क्रि० अ० [हिं० ढाँस] सूखी खाँसी खाँसना ।
⋙ ढाँसी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढाँस] सूखी खाँसी ।
⋙ ढाई (१)
वि० [सं० अद्धंद्वितीय, प्रा० अड्ढइय, हिं० अढ़ाई] दो ओर आधा । जो गिनती में दो से आधा अधिक हो । उ०— रूसी उनकी गुफ्तगू क्या समझते । वह अपनी कहते थे, यह अपने ढाई चावल गला थे ।—फिसना०, भा० ३, पृ०, २४२ । मुहा०—ढाई घड़ी की आना = चटपट मौत आना । (स्त्रियों का कोसना) जैसे,— तुझे ढाई घड़ी की आवे । ढाई चुल्लू लहू पीना = मार डा़लना । कठिन दंड़ देना (क्रोधवाक्य) । जैसे,—तेरा ढाई चुल्लु लहू पीऊँ तब मुझे कल होगी । ढाई दिन को बादशाहत करना = (१) थोड़े दिनों के लिये खूब ऐश्वर्य भोगना । (२) दूल्हा बनना ।
⋙ ढाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढाना] १. लड़कों का एक खेल जिसे वे कौड़ियों से खेलते हैं । इसमें कौड़ियों का समूह एक घेरे में रखकर उसे गोलियों से मारते हैं । २. वह कौड़ी जो इस खेल में रखी जाती है ।
⋙ ढाक (१)
संज्ञा पुं० [सं० आषाढक (= पलाश)] १. पलाश का पेड़ं । छिउला । छीउल । उ०— आनंदघन ब्रजजीवन जेंवत हिलमिलि ग्वार तोरि पतानि ढाक ।—घनानंद, पृ०, ४७३ । मुहा०—ढाक के तीन पात = सदा एक सा निर्धन । कभी भरा पूरा नहीं ।—(निर्धन मनुष्य के संबंध में बोलते हैँ) । ढाक तले की फूहड़, महुए तले की सूघड़ = जिसके पास धन नहीं रहता वह निर्गुणी, और धनवाला सर्वगुणसंपन्न समझ जाता है । २. कुश्ती का एक पेच । दे० 'ढाँक' । उ०— उस्ताद सम्हले रहते हैं । मगर जोर वे मनोहर के जैसे दो तीन को करा सकते हैं । दस्ती, उतार, लोकान, पट, ढाक, कलाजंग, धिस्से आदि दाँव चले और कटे ।—काले०, पृ० ४ ।
⋙ ढाक (२)
संज्ञा पुं० [सं० ढक्का] लड़ाई का बड़ा ढोल । उ०— गोमुख, ढाक, ढोल पणवानक । बाजत रव अति होत भयानक ।— सबल (शब्द०) ।
⋙ ढाकन †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढक्कन' ।
⋙ ढाकना
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'ढाँकना' ।
⋙ ढाका
संज्ञा पुं० [सं० ढक्क] पुंराने समय में महीन सूती कपड़ों के लिये प्रसिद्ध पूर्वी बंगल का एक नगर । जैसे, ढाके की चद्दर, ढाके की मलमल ।
⋙ ढाकायाटन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का फूलदार महीन कपड़ा ।
⋙ ढाकेवाल पटेल
संज्ञा पुं० [हिं० ढाक + पटेल (= पटी नाव)] एक प्रकार की पूरबी नाव जिसके ऊपर बराबर छप्पर छाया रहता है । छप्पर के नीचे बैठकर माँझी नाव खेते है ।
⋙ ढाटा
संज्ञा पुं० [हिं० डाढ़ी] १. कपड़े की वह पट्टी जिससे डाढ़ी बाँधी जाती है । क्रि० प्र०—बाँधना । २. वह बड़ा साफा जिसका एक फेंट डाढ़ी और गाल से होता हुआ जाता हैं । ३. वह कपड़ा जिससे मुरदे का मुँह इसलिये बाँध देते हैं जिससे कफन सरकने से मुँह खुल न जाय ।
⋙ ढाठा
संज्ञा पुं० [हिं० डाढ़ी] दे० 'ढाटा' । उ०— चारों ने खाना खाया और ढाठे बाँधा, बाँधकर तलवारें लटकाकर चले ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ४४ ।
⋙ ढाड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. चिग्घाड़ । चीख । गरज (बाघ, सिंह आदि की) । दे० 'दहा्ड़' । २. चिल्लाहट । मुहा०— ढाड़ मारना = चिल्लाकर रोना । विशेष— दे० 'धाड़' ।
⋙ ढाड़स †
संज्ञा पुं० [सं० दृढ] दे० 'ढाढ़स' ।
⋙ ढाड़ी †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'ढाढ़ी' । उ०—धुन किसी ढाड़ी बच्चे से पूछिए । में धुन उन नहीं जानता ।— फिसाना०, भा० १, पृ० २ ।
⋙ ढाढ़ (१)
संज्ञा स्त्री० [देश० या हिं० धाड़] चिल्लाहट । उ०— क्यों भला काम लें न ढाढ़स से । क्यों लगे ढाढ़ मारकर रोने ।—चुभते०, पृ० ५२ ।
⋙ ढाढ़ पु † (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] एक प्रकार का बाजा जिसे ढाढ़ी बजाते हैं । उ०— ढाढ़िन मेरी नाचै गावै हौं हुँ ढाढ़ बजाऊँ ।—सूर०, १० । ३७ ।
⋙ ढाढ़ना
क्रि० सं० [हिं० डाढ़ना] दे० 'डाढना' । उ०—एक परे गाढ़े एक ढाढ़त ही काढे़, एक देखत हैं ठाढे़, कहैं पावक भयावनी । —तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ढाढ़स
संज्ञा पुं० [सं दृढ़ प्रा० डिढ] १. संकट, कठिनाई या विपत्ति के समय चित्त की स्थिरता । धैर्य । धीरज । शांति । आश्वासन । सांत्वना । तसल्ली । उ०— क्यों भला काम लें न ढाढ़स से । क्यों लगे ढाढ़ मारकर रोने ।— चुभते०, पृ०, ५२ । क्रि० प्र०—होना । मुहा०—ढाढ़स देना या बाँधना = बचनों से दुखी चित्त को शांत करना । तसल्ली देना । २. दृढ़ साहस । हिम्मत । मुहा०— ढाढ़स बाँधना = साहस उत्पन्न करना । उत्साहित करना ।
⋙ ढढ़िन
संज्ञा संज्ञा [हिं० ढाढ़ी] ढाढ़ी की स्त्री । उ०— कृष्ण जनम सुनि अपने पति सो हँसि ढाढ़िन यों बोली जू ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३६ ।
⋙ ढाढ़ी
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री ढाढ़िन] एक प्रकार के नीच गवेए जो जन्मोत्सव के अवसर पर लोगों के यहाँ जाकर बधाई आदि के गीत गाते हैं । उ०— ढाढ़ी और ढाढ़िनि गावैं हरि के ठाड़े बजावैं हरषि असीस देत मस्तक नवाई कै ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ढाढ़ौन
संज्ञा पुं० [सं० ढिणिढणी] जल सिरिस का पेड़ । विशेष— यह पेड़ पानी के किनारे होता है और जंगली सिरिस से कुछ छोटा हाता है । वैद्यक के अनुसार यह त्रिदोष, कफ, कुष्ट और बवासीर को दूर करता है ।
⋙ ढाण †
संज्ञा स्त्री० [देश०] ऊँट की तेज चाल । गति । उ०— क्रम क्रम, ढोला पंथ कर, ढाण म चूके ढाल । आ मारू बीजी महल, आखइ झूठ एवाल ।—ढोला०, दू० ४४० । मुहा०—ढाण घालना = तेज चलाना । उ०— ऊँट ने चढ़ता ही ढाण नहीं घालाणो ।—ढोला० (परि०१), पृ० २५४ ।
⋙ ढाना
क्रि० स० [हिं० ढाहना] १. दिवार, मकान आदि को गिराना । ऊँची उठी हुई वस्तु को तोड़ फोड़कर गिराना । ध्वस्त करना । उ० — जब मैं बनाकर प्रस्तुत करता हूँ तब वह आकर ढा जाता है ।—कबीर मं०, पृ०, ७९ । संयो० क्रि०—जाना ।—देना । २. गिराना । गिराकर जमीन पर डालना । जैसे, किसी को मारकर ढाना । संयो० क्रि०—देना ।
⋙ ढापना
क्रि० सं० [देश०] दे० 'ढाँपना' ।
⋙ ढावर †
वि० [हिं० डाबर (= गड़ढा)] मिट्टी और कीचड़ मिला हुआ (पानी) । मटमैला । गैदला । उ०— भूमि परत भा ढाबर पानी । जनु जीवहि माया लपटानी ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ढाबा
संज्ञा पुं० [देश०] १. ओलती । २. जाल । ३. परछत्ती । ४. रोटी आदि की दूकान । वह दूकान जहाँ लोग दाम देकर भोजन करते हैं ।
⋙ ढामक
संज्ञा पुं० [अनु०] ढोल नगारे आदि का शब्द । उ०— ढमकंत ढोल ढमाक डफल तबव ढामक जोर ।—सूदन (शब्द०) । ५. बाँस, मिट्टी आदि से बनी कच्ची छत ।
⋙ ढामना
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का साँप ।
⋙ ढामरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंसिनी । हंसी । मादा हँस [को०] ।
⋙ ढार (१)
संज्ञा पुं० [सं० धार या सं० अवधार * प्रा० ओढार > ढार] १. वह स्थान जो बराबर क्रमशः नीचा होता गया हो और जिसपर से होकर कोई वस्तु नीचे फिसल या बह सके । उतार । उ०— सकुच सुरत आरंभ ही बिछुरी लाज लजाय । ढरकि ढार डुरि ढिग भई ढीठ ढिठाई आय ।— बिहारी (शब्द०) । २. पथ । मार्ग । प्रणाली । उ०—(क) सब ह्वै आवैं अवधे ड़ार । मीत मिलन दुर्लभ संसार ।— नंद० ग्रं०, पृ० २३९ । (ख)ढेर डार तेही ढरल, दूजे ढार ढरै न । क्यों हूँ आनन आन सौ नैना लागत नैन ।— बिहारी (शब्द०) ।३. प्रकारं । ढाँचा । ढंग । रचना । बनावट । उ०—(क) दृग धरकौहें अधखूले, देह धकोंहैं ढार । सुरति सूखी सी देखियत, दुखित मरम के भार ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) तिय को मुख सुंदर बन्यो, बिधि फेयो परगार । तिलन बीच कौ बिंदु है, गाल गोल इक ढार— मुबारक (शब्द०) ।
⋙ ढार (२)
संज्ञा स्त्री० १. ढाल के आकार का कान में पहनने का एक गहना । बिरिया । २. पछेली नामक गहना ।
⋙ ढार (३)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] रोने का घोर शब्द । आर्तनाद । चिल्लाकर रोने की ध्वानि । मुहा०— ढार मारना या ढार मारकर रोना = आर्तनाद करना । चिल्ला चिल्लाकर रोना ।
⋙ ढारना †
क्रि० सं० [सं० धार, हिं० ढार + ना (प्रत्य०)] १. पानी या और किसी द्रव पदार्थ को आधार से नीचे गिराना । गिराकर बहाना । उ०— (क) ऊतरु देइ न, लेइ उसासू । नारि चरित करि ढारह आँसू ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) उरग नारि आगैं भई ठाढ़ी नैननि ढारर्ति नीर ।— सूर० १० । ५७५ । २. गिराना । ऊपर से छोड़ना । डालना । जैसे, पासा, ढारना । विशेष— दे० 'डालना' । ३. चारो ओर घुमाना । ड़ुलाना (चँवर के लिये) उ०— रचि बिवान सो साजि सँवारा । चहुँ दिसि चँवर करहिं सब ढारा ।—जायसी (शब्द०) । ४. धातु आदि को गसा कर साँचे के द्वारा तैयार करना । दे० 'ढलना'—६ ।
⋙ ढारस
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढाढ़स' । उ०— हजूर दिल को जरा ढारस दीसिए ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २७ ।
⋙ ढाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] तलवार, भाले आदि का वार रोकने का अस्त्र जो चमड़े, धातु आदि का बना हुआ थाली के आकार का गोल होता है । फरी । चर्म । आड़ । फलक । बिशेष—ढाल गैड़े के पुट्ठे कछुए की पीठ, धातु आदि कई चीजों की बनती है । जिस और इस हाथ से पकड़ते हैं उधर यह गहरी और आगे की ओर उभरी हुई होती है । आगे की ओर इसमें ४—५ काँटे या मोटी फुलिया जड़ी होती है । मुहा०— ढाल बाँधना = ढाल हाथ में लेना । २. एक प्रकार बड़ा झंडा जो राजाओं की सवारी के साथ चलता है । उ०— बैरख ढाल गगन गा छाई । चला कटक धरती न समाई ।— जायसी ग्रं०, पृ० २२४ ।
⋙ ढाल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अवधार] १. वह स्थान जो आगे की ओर क्रमशः इस प्रकार बराबर नीचा होता गया हो कि उसपर पड़ी हुई वस्तु नीचे की ओर खिसक या लुढ़क या वह सके । उतार । जैसे,— (क) पानी ढाल की ओर बहेगा । (ख) वह पहाड़ की ढाल पर से फिसल गया । २. ढंग । प्रकार तौर तरीका । उ०— (क) सदा मति ज्ञान में सु ऐसी एक ढाल है ।— हनु— मान (शब्द०) । (ख) ढाल धरो सतसंग उबारा ।— धरनी०, पृ०, ४१ । † ३. उगाही । चंदा । बेहारी ।— (पंजाब) ।
⋙ ढालना
क्रि० सं० [सं० धार] १. पानी या और किसी द्रव पदार्थ को गिराना । उँडेलना । जैसे,—(क) हाथ पर पानी ढाल दो । (ख) घड़े का पानी इस बरतन में ढाल दो । (ग) बोतल की शराब गिलास में ढाल दो । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । मुहा०— बोतल ढालन = शराब पीना । मद्यपान करना ।२. शराब पीना । मद्यपाना करना । मदिरा पीना । जैसे,—आज कल तो खूब ढालते है । ३. बैचना । बिक्रि करना (दलाल) । ४. थोड़े दाम पर माल निकालना । सस्ता बेंचना । लुटना । ५. ताना छोड़ना । व्यंग्य बोलना । †६. चंदा उतारना । उगाही करना ।— (पंजाब) । ७. पिघली हुई धातु आदि को साँचे में ढालकर बनाना । पिघली हुई सामग्री से साँचे के द्वारा निर्मित करना । जैसे, लोटा ढालना, खिलौने ढालना । उ०— कोउ ढालत गोली कोउ बुँदवन बैठि बनावत ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २४ । संयो० क्रि०— देना ।—लेना ।
⋙ ढालवाँ
वि० [हिं० ढाल] [वि० स्त्री० ढालवी] जो आगे की ओर क्रमशः इस प्रकार बराबर नीचा होता गया हो कि उसपर पड़ी हुई वस्तु जल्दी से लुढ़क, फिसल या बह सके । जिसमें ढाल हो । ढालदार । ढालू । जैसे—यह रास्ता ढालवाँ है, सँभलकर चलना । उ०— हाँ इसी ढालवें को जब बस सहज उतर जावें हम । फिर संमुख तीर्थ मिलेगा, वह आति उज्वल पावनतम ।—कामायनी, पृ०, २७९ । २. ढाला हुआ । साँचे के अनुरूप तैयार किया हुआ ।
⋙ ढालिया
संज्ञा पुं० [हिं० ढालना] फूल, पीतल, ताँबा, जस्ता इत्यादि पिघली धातुओं को साँचे में ढालकर बरतन, गहने आदि बनानेवाला । भरिया । खुलवा । साँचिया ।
⋙ ढाली
संज्ञा पुं० [सं० ढालिन्] ढाल से सुसज्य योद्धा [को०] ।
⋙ ढालुआँ
वि० [हिं० ढालना] दे० 'ढालवाँ' ।
⋙ ढालुवाँ
वि० [हिं० ढालना] दे० 'ढालवाँ' ।
⋙ ढालू
वि० [हिं० ढाल] दे० ढालवाँ ।
⋙ ढावना †
क्रि० स० [देश०] गिराना । ढाहना ।
⋙ ढास †
संज्ञा पुं० [सं० दस्यु] ठग । लुटेरा । डाकू । उ०— बासर दासनि के ढका, रजनी चहुँ दिसी चोर । संकर निज पुर राखिए, चितै सुलोचन कोर ।—तुलसी ग्रं, पृ० १२२ ।
⋙ ढासना
संज्ञा पुं० [सं० √ धा (= धारण करना) + आसन] १. वह ऊँचा वस्तु जिसपर बैठने में पीठ या शरीर का ऊपरी भाग टिक सके । सहारा । टेक । उठेगन । उ०— वह अलिंद की एक स्तंभ का ढासना लगाकर सो गया —वै० न०, पृ० २५४ । २. तकिया । शिरोपधान ।
⋙ ढाहना †
क्रि० स० [सं० ध्वंसन] दीवार, मकान आदि को गिराना; ध्वस्त करना । ढाना । उ०—(क) ढाहत भूपरूप तरु मुला । चली विपति वारिधि अनुकूल ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) बृक्ष वन काटि महलात ढाहन लग्यो नगर के द्वार दोनो गिराई ।—सूर (शब्द०) । विशेष— दे० 'ढाना' ।
⋙ ढाहा †
संज्ञा पुं० [हिं० ढाहना] नदी का ऊँचा करारा ।
⋙ ढिँग पु
अब्य० [हिं० ढिग] दे० 'ढिह' । उ०— झरना झरै दसी दिस द्वारे, कस ढिंग आवों साहेब तुम्हारे ।—धरम० श०, पृ० १६ ।
⋙ ढिँगलाना † (१)
क्रि० अं० [देश०] लुढ़कना । गिरना ।
⋙ ढिगलाना † (२)
क्रि० सं० [पुर्वी रूप ढँगिलाना] ढहाना । लुढ़काना । गिराना । उ०— केहर हाथल घाव कर, कुंजर ढिंगलो कीघ ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १८ ।
⋙ ढिँढ †
संज्ञा पुं० [हि० ढोंढी (= नाभि)] पेट । उदर । उ०—भरि ढिंढ खाइन जनम नावाइन, काहु न आपु सँभार ।—गुलाल०, पृ० १५ ।
⋙ ढिँढोरना
क्रि० सं० [अनु०] १. मंथन करना । मथना । बिलोड़न करना । २. हाथ डालकर ढूँढ़ना । खोजना । तलाशा करना । उ०— (क) क्यों बाचिए भजिहूँ घनआनंद ,बैठी रहैं धर पैठि ढिंढोरत ।—घनानंद (शब्द०) । (ख) भूलि गई माखन की चोरी खात रहे घर सकल ढिंढोरी ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ ढिँढोरा
संज्ञा पुं० [अनु० ढम + ढोल] १. वह ढोल जिसे बजाकर सर्वसाधारण को किसी बात की सूचना दी जाती है । घोषणा करने की भंरी । डुगडुगिया । मुहा०— डिंढोरा पीटना या बजाना = ढोला बजाकर किसी बात की सूचना सर्वासाधारण को देना । चारो ओर घोषित करना । मुनादी करना । उ०— खुदा जाने इन्सान क्या बातें करता है । तुम जाकर ढिंढोरा पिटवा दो ।—फिसना०, भा० ३, पृ० १२७ । २. वह सूचना जो ढोल बजाकर सर्वसाधारण को दी जाय । घोषणा । मुनावी । उ०— जो में ऐसा जानती प्रीति किए दुख होय । नगर ढिंढोरा फेरती, प्रीति करो जानि कोय ।— (प्रचलित) । कि० प्र०— फेरना ।
⋙ ढिए †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'ढिग' । उ०— एकै हँसे हँसावैं एकै । सहित अदाब जाति ढिए एकै ।— हम्मारी०, पृ० ९ ।
⋙ ढिकचन
संज्ञा पुं० [देश०] गन्ने का एक भेद ।
⋙ ढिकलना †
क्रि० अ० [हिं० ढकेलना] धक्के से आगे जाना । आगे होना । उ०— बिना बढ़े ही मैं आगे को जाने किस बल, से ढिकला ।— आर्दा, पृ० ५४ ।
⋙ ढिकुली
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'ढेकुली' ।
⋙ ढिग (१)
क्रि० वि० [सं० दिक् (= ओर)] पास । समीप । निकट । नजदीक । उ०— मुरली धुनि सुनि सबै ग्वालिनी हरि के ढिग चलि आई ।— सूर (शब्द०) । विशेष— यद्यपि यह संज्ञा शब्द है, तथापि, इसका प्रयोग सप्तमी विभक्ति का लोप करके प्रायः क्रि० वि० वत् ही होता है ।
⋙ ढिग (२)
संज्ञा स्त्री० १. पास । समीप्य । २. तट । किनारा । छोर । उ०— सेतुबंध ढिग चढि रघुराई । चितव कृपालु, सिंधु बहुताई ।— तुलसी (शब्द०) । ३. कपड़े का किनारा । पाड़ । कोर । हाशिया । उ०— (क) लाल ढिगन की सारी ताको पीत ओढ़निया कीनी ।—सूर (शब्द०) । (ख) पट की ढिग कत ढाँपियत सोभित सुभग सुदेस । हद रद छद छवि देखियत संद रदछद की देख ।— बिहारी (शब्द०) ।
⋙ ढिटोंना †
संज्ञा पुं० [हि० ठोटा] दे० 'ढोटा' । उ०—रूपमती मन होत बिरागो, बाजबहादुर कै नंद ढिटोंना ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३५६ ।
⋙ ढिठपन †
संज्ञा पुं० [हि० ढीठ + पन (प्रत्य०)] ' धृष्टता । ढिठाई । उ०— न धर केस न कर ढिठपन । अलपे अलापे करह निधुबन ।—विद्यापति, पृ० ४५३ ।
⋙ ढिठाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढीठ + आई (प्रत्य०)] गुरुजनों के समक्ष व्यवहार की अनुचित स्वच्छंदता । संकोच का अनुचित अभाव । धृष्टता । चपलता । गुस्ताखी । उ०— छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई ।—तुलसी (शब्द०) । २. लोकलज्जा का अभाव । निर्लज्जता । उ०— गोने की चूनरी वैसियै है, दुलही अबही से ढिठाई बगारी ।—मति० ग्र०, पृ० २९९ । क्रि० प्र० —बगारना = (१) धृष्टता करना । (२) निर्लज्जता करना । ३. अनुचित साहस ।
⋙ ढिठोना †
संज्ञा पुं० [हिं० ढोटा] पुत्र । उ०— डगर डगमगे डोलने, परी डीठि डहकाय । निडर ढिठोना नंद के, डरे उठैं बराराय ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५ ।
⋙ ढिपुनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. फल या पत्ते के साथ लगा हुआ टहनी का पतला नरम भाग । २. किसी वस्तु के सिरे पर दाने की तरह उभरा हुआ भाग । ठोंठी । ३. कुच का अग्रभाग । बोंड़ी । चूचुक ।
⋙ ढिबरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० डिब्बा] १. टीन, शीशे, या पकी मिट्टी की डिबिया या कुप्पी जिसके मुँह पर बत्ती लगाकर मिट्टी का तेल जलाते हैं । मिट्टी का तेल जलाने की गुच्छोदार ड़िबिया । २. बरतन के साँचे के पल्ले के तीन भागों में से सबसे नीचे का भाग । साँचे की पेंदी का भाग ।
⋙ ढिबरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढपना] १. किसी कसे जानेवाले पेच के सिरे पर लगा हुआ लोहे का चौड़ा टुकड़ा जिसमे पेच बाहर नहीं निकलता । २. चमड़े या मूँज की वह चकती जो चरखे में इसलिये लगाई जाती है जिसमें तकला न धिसे ।
⋙ ढिबुवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढेबुआ' । उ०—गछत गछत जब आगैं आबा । बित उनमान ढिबुवा इक पावा ।— कबीर ग्रं०, पृ० २३७ ।
⋙ ढिमका, ढिमाका
सर्व० [हिं० अमका का अनु०] [स्त्री० ढिमकी] अमुक । अमका । फलाँ । फलाना । यौ०—फलाना ढिमका = अमुक अमुक मनुष्य । ऐसा ऐसा आदमी ।
⋙ ढिलड़ †
वि० [हिं० ढीला] दे० 'ढीला' । उ०— जन रेदास कहैं बनजरिया तेरे ढिलड़े परे परान बे ।— रे०, बानी, पृ० २७ ।
⋙ ढिलढिल
वि० [हि० ढीला] दे० 'ढिलढिला' ।
⋙ ढिलढिला
वि० [हिं० ढिला] १. ढीला ढाला । २. (रस आदि) जो गाढ़ा न हो । पानी की तरह पतला ।
⋙ ढिलाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढीला] १. ढीला होने का भाव । कसा रहने का भाव । २. शिथिलता । सुस्ती । आलस्य । किसी कार्य के करने में अनुचित विलंब । जैसे—तुम्हारी ही ढिलाई से यह काम पिछड़ा है ।
⋙ ढिलाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढीलना] ढीलने की क्रिया या भाव । ढीला करने का काम ।
⋙ ढिलाना (१)
क्रि० स० [हिं० ढिलना का प्रे० रूप] १. ढीलने का काम कराना । २. ढीला कराना ।
⋙ ढिलाना पु † (२)
क्रि० स० १. ढीला करना । २. कसी या बँधी हुई वस्तु को खोलना । उ०— जसु स्वामी जब उठे प्रभाता । बैलन बँधे लखे सुखदाता । खैती हित लै गए ढिलाई । भेद न जान्यो गए चोराई ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ ढिल्लड़
वि० [हिं० ढीला] १. ढीला करनेवाला । मट्ठर । सुस्त ।
⋙ ढिल्ली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढीला] दिल्ली का एक पुराना नाम ।
⋙ ढिल्लीवै पु
संज्ञा पुं० [हिं० ढिल्ली + वै + (पत्ति)] दिल्ली का नरेश । दिल्लीपति ।
⋙ ढिल्लेस पु
संज्ञा पुं० [हिं० ढिल्ली + ईस] दिल्ली का राजा ।
⋙ ढिसरना पु †
क्रि० अ० [सं० घ्वंसन] १. फिसल पड़ना । सरक पड़ना । २. प्रवृत्त होना । झुकना । ड़०— उक्ति युक्ति सब तबहीं बिसरै । जव पड़ित पढ़ि तिय पै ढिसरै ।—निश्चल (शब्द०) । ३. फलों का कुछ कुछ पकना ।
⋙ ढींकू †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'ढेकुली' । उ०— ल्यौ की तेज, पवन का ढींकू, मन मटका ज बनाया । सत की पाटि, सुरत का चाठा, सहजि नीर मुकलाया ।—कबीर ग्रं० पृ०, १६१ ।
⋙ ढीँगर †
संज्ञा पुं० [सं० ड़िङ्गर] १. बड़े डील डौल का आदमी । मोटा मुस्टंड़ा आदमी । २. पति या उपपति । उ०— कह कबीर ये हरि के काज । जोइया के ढींगर कौन है लाज ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ ढीँढ़
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढींढ़ा' ।
⋙ ढीँढस
संज्ञा पुं० [सं० टिणिडश] डिडसी नाम की तरकारी । टिंड़ा ।
⋙ ढीँढा †
संज्ञा पुं० [सं० ढुणिढ(= लंबोदर, गरोश)] १. बड़ा पेट । निकला हुआ पेट । मुहा०— ढींढा फूलना = पेट में बच्चा होने के कारण पेट निकलना २. गर्भ । हमल । मुहा०— ढींढा गिराना = गर्भपात करना ।
⋙ ढीगै पु †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'ढिग' ।
⋙ ढीकुली पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढेकली' । उ०— सुरति ढीकुली लै जल्यौ, मन निच ढोलनहार । कँवल कुवाँ मैं प्रेम रस पीवै बारंबार ।—कबीर ग्रं०, पृ० १८ ।
⋙ ढी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ड़ीह या ढीह] दे० 'ढीह' ।
⋙ ढीच †
संज्ञा पुं० [देश०] १. कूबड़ । २. सफेद चील ।
⋙ ढीट †
संज्ञा स्त्री० [देश०] रेखा । लकीर । डँडीर । उ०— रेख छाँड़ि जाऊँ तो हराऊँ लछि्मन जो तें भीख बिनु दिए भीख भीच हौं न पावती । कोऊ मंदभागी यह राम के न आगे आयो, दरसन पावत हों देत न सकावती । ढीट मेट देऊँ फिर ढीट हीमिलता लेऊँ, ह्वै है बात सीई भगवंत जू को भावती ।—हनुमान (शब्द०) ।
⋙ ढीठ
वि० [सं० धृष्ट , प्रा,० ढिट्ठ] १. वह जो गुरुजनों के सामने ऐसा काम करे जो अनुचित हो । बड़ों का संकोच या डर न रखनेवाला । बड़ों के सामने अनुचित स्वच्छदता प्रकट करनेवाला । बेअदव । शोख । उ०— बिनु पूछे कछु कहउँ गोसाई । सेवक समय न ढीठ ढिठाई ।—तुलसी (शब्द०) २. किसी काम को करने में उसके परिणाम का भय न करनेवाला । ऐसे कामों में आगा पीछा न करनेवाला जिनसे लोगों का विरोध हो । अनुचित साहस करनेवाला । बिना डर का । उ०— ऐसे ढीठ भए हैं कान्हा दघि गिराय मटकी सब फोरी ।— सूर (शब्द०) । ३. साहसी । हिम्मतवर । हियाववाला । किसी बात से जल्दी न डर जानेवाला ।
⋙ ढीठता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धृष्टता] ढिठाई ।
⋙ ढीठा † (१)
वि० [हिं० ढीठ] दे० 'ढीठ' ।
⋙ ढीठा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० धृष्ट] ढिठाई । धृष्टता ।
⋙ ढीट्यो पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढीठा' ।
⋙ ढीड़ †
संज्ञा पुं० [देश०] आँख का कीचड़ । उ०— भौड़े मुख लार बहै आँखिन में ढीड़, राधि कान में, सिनक रेंट भीतन मैं डार देति ।— पोद्दार अभि० ग्रं० पृ०, १६३ ।
⋙ ढोठिपन
संज्ञा पुं० [हिं० ढोठ + पन (प्रत्य०)] धृष्टता । ढिठाई । उ०— तखनक ढीठिपन कहइ न जाय लाजे विमुखी घनि रहलि लजाय ।— विद्यापति, पृ० ५२ ।
⋙ ढोम †
संज्ञा पुं० [देश०] १. पत्थर का बड़ा टुकड़ा । पत्थर का ढोका । उ०— सिला ढोम ढाहै, इला वीर वाहै । धड़ा धड़्ढ सद्दै, भड़ा भड़ु ह्वै हैं ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ ढीमड़ो पु †
संज्ञा पुं० [देश०] कूप । कूआँ । —(डिंगल) ।
⋙ ढीमर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धीवर, या देश०] १. धीमर या धीवर जाति की स्त्री । २. वह स्त्री जो जल आदि भरती है । उ०— ढीमर वह छीमर पहिरि लूमर मदन अरेर । चिताहि चुरावत पाहिकै बेंचत बेर सुरेर ।—स० सप्तक, पृ० ३८१ ।
⋙ ढीमा
संज्ञा पुं० [देश०] ढेला । ईट पत्थर आदि का टुकड़ा । ढोंका ।
⋙ ढील
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढीला] १. कार्य में उत्साह का अभाव । शिथिलता । अतत्परता । नामुस्तैदी । सुस्ती । अनुचित बिलंब । जैसे,— इस काम में ढील करोगे तो ठीक न होगा । उ०— ब्याह जोग रंभावती, बरष त्रयोदस माहिं । तातै वेगि विवाहिजै कामु ढोल कौ नाहि ।—रसरनन, पृ० ८७ । क्रि० प्र०—करना । मुहा०—ढीला देना = ध्यान न देना । दत्तचित्त न होना । बेपरवाही करना । उ०— हुजूर तो गजब करते हैं, अब फरमाइए ढील किसकी है ।— फीसाना०, भा० ३, पृ० ३२३ । २. बंधन को ढीला करने का भाव । डोरी को कड़ा वा तना न रखने का भाव । मुहा०— ढील देना = (१) पतंग की अर बढ़ाना जिससे वह आगे बढ़ सके । (२) स्वच्छंदता देना । मनमाना करने का अवसर देना । वश में न रखना ।
⋙ ढील † (२)
वि० दे० 'ढीला' ।
⋙ ढील † (३)
संज्ञा पुं० [देश०] बालों का कीड़ा । जूँ ।
⋙ ढीलना
क्रि० सं० [हिं० ढीला] १. ढीला करना । कसा या तना हुआ न रखना । बंधन आदि की लंबाई बढ़ाना जिससे बँधी हुई वस्तु और आगै या इधर उधर बढ़ सके । जैसे, पतंग की डोरी ढोलना, रास ढीलना । संयो० क्रि०—देना । २. बंधनमुक्त करना । छोड़ देना । उ० —तापै सूर बछरुवन ढीलत बन बन फिरत बहे ।—सूर (शब्द०) । ३. (पकड़ी हुई रस्ती आदि को) इस प्रकार छोड़ना जिसमें वह आगे या नीचे की ओर बढ़ती जाय । डोरी आदि को बढ़ाना या ड़ालना । जैसे, कुएँ में रस्सी ढोलना । ४. किसी गाढ़ी वस्तु को पतला करने के लिये उसमें पानी आदि डालना । ५. संभोग करना । प्रसंग करना । (बाजारू) । † ६. धारण करना । जैसे,— आज वे धोती ढीलकर निकले हैं ।
⋙ ढीलम ढाला
वि० [हिं० ढीला + ढाला] जो ठास न हो । शिथिल । उ०— ढोलमढाला फूला हुआ घास का गट्ठर ।— आधुनिक०, पृ० १ ।
⋙ ढीला
वि० [सं० शिथिल, प्रा० सिठिल] १. जो कसा या तना हुआ न हो । जो सब ओर से खूब खिंचा न हो । (डोरी, रस्सी तागा आदि) जिसके ठहरे या बँधे हुए छोरों के बीच झोल हो । जैसे, लगाम ढीली करना, ड़ोरी ढोली करना, चारपाई (की बुनावट) ढीली होना । मुहा०— ढीला छो़ड़ना या देना = बंधन ढीला । करना । अंकुश न रखना । मनमाना इधर उधर करने के लिये स्वच्छद करना । २. जो खूब कसकर पकड़ा हुआ न हो । जो अच्छी तरह जमा या बैठा न हो । जो दृढ़ता से बँधा या लगा हुआ न हो । जैसे, पेंच ढीला होना, जंगले की छड़ ढीली होना । ३. जो खूब कसकर पकड़े हुए न हो । जैसे, मुट्ठी ढीली करना, गाँठ ढीली होना, बंधन ढीला होना । ४. जिसमें किसी वस्तु को डालने से बहुत सा स्थान इधर उधर छूटा हो । जो किसी सामनेवाली चीज के हिसाब से बड़ा या चौड़ा हो । फर्राख । कुशादा । जैसे, ढीला जूता, ढीला अंग, ढीला पायजामा । ५. जो कड़ा न हो । बहुत गीला । जिसमें जल का भाग अधिक हो गया हो । पनीला । जैसे, रसा ढीला करना, चाशनी ढीली करना । ६. जो अपने हठ पर अड़ा न रहे । पयत्न या संकल्प में शिथिल । जैसे,—ढीले मत पड़ना, बराबर अपने रुपए का तकाजा करते रहना । क्रि० प्र०—पड़ना । ७. जिसके क्रोध आदि का वेग मंद पड़ गया गो । धीमा । शांत नरम । जैसे,— जरा भी ढीले पड़े कि वह सिर पर चढ़ जायगा । क्रि० प्र०—पड़ना ।८. मंद । सुस्त । धीमा । शिथिल । जैसे, उत्साह ढीला पड़ना । मुहा०— ढीली आँख = मंद मंद दृष्ठि । अधखुली आँख । रसपूर्ण या मदभरी चितवन । उ०— देह लग्यो ढिग गेहपति तऊ नेह मिरबाहि । ढीली आँखियन ही इते गई कतखियन चाहि ।— बिहारी (शब्द०) । ९. मट्ठर । सुस्त । आलसी । कहिल । १०. जिसमें काम का वेग कम हो । नपुंसक ।
⋙ ढीलापन
संज्ञा पुं० [हिं० ढोला + पन (प्रत्य०)] ढीला होने का भाव । शिथिलता ।
⋙ ढीली (१)
वि० स्त्री [हिं० ढीला] दे० 'ढीला' ।
⋙ ढीली † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढीला] दे० 'दिल्ली' । उ०— ढीली मंडल पुणि जोईयउ । जउओ छई मथूराँ मंडण राय । बी० रासी, पृ० ८ ।
⋙ ढीह
संज्ञा पुं० [सं० दीर्घ, हिं० दीह] ऊँचा टीला । ढूह ।
⋙ ढीहा
संज्ञा पुं० [हिं ढीह] ढूह । ढीह । ढोला । उ०— सो नागा जी के वंश कौ तो उहाँ कोऊ हतो नाहीँ । और धरहू गिरयो परयौ ढोहा होइ रह्यौ ।—दौ सौ बावन०, भा० १, पृ० २६ ।
⋙ ढुंढ †
संज्ञा पुं० [हिं० ढूँढना] चाई । उचक्का । ठग । लुटेरा । उ०— चोर ढुंढ बटपार अन्याई अपमारगी कहावैं जे ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ढुंढन
संज्ञा पुं० [सं० ढुण्ढनम्] तलाश । खोज । पता अगाना [को०] ।
⋙ ढुंढपाणि पु
संज्ञा पुं० [सं० दण्डरपाणि] १. शिव के एक गण का नाम । २. दंडपाणि भैरव । उ०— पुनि काल भैरव दुंढपाणिहि और सिगरे देव को ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ ढुंडपानि पु
संज्ञा पुं० [हिं० ढुंढरपाणि] दे० 'ढुंढपाणी' ।
⋙ ढुँढा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ढुण्ढा] १. पुराण के अनुसार एक राक्षसी का नाम जो हिरययकशिपु की बहिन थी । विशेष— इसको शिव से यह वर प्राप्त था कि अग्नि में न जलेगी । जब प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय करके हिरण्यकशिपु हार गया तब उसने ढुंढा को बुलाया । वह प्रह्लाद को लेकर आग में बैठी । बिष्णु भगवान् की कृपा से प्रह्लाद तो न जले, ढुँढा जलकर भस्म हो गई । † २. भुने अन्न लाई आदि का चाशनी के साथ बना लड्डू ।
⋙ ढुंढा †
संज्ञा पुं० [सं,० ढुण्ढन (=अन्वेषण, खोजना)] पृथ्वीराज रासी में वर्णित एक राक्षस । उ०— ढूँढि ढूढ़ि खाए नरनि तातै ढुंढा नाम ।—पृ० रा०, १ । ५१७ ।
⋙ ढुंढाहर पु †
संज्ञा पुं० [देश०] जयपुर राज्य का एक पुराना नाम । उ०—आये पत्र उताल सौं ताहि बाँचि ब्रजएस । सुत सुरज सौं तब कह्यो थैमि ढुंढाहर देस ।—सुजान०, पृ० २५ । विशेष—इस राज्य की भाषा जो जयपुर, अलवर, हाड़ोती आदि में बोली जाती है, आज भी 'ढुँढाणी' या 'जयपुरी' कही जाती है । राजस्थानी गद्य साहित्य का अधिकांश इसी भाषा में प्राप्त होता है, राठौर पृथ्बीराज की 'बेलि' क्रिसन रुक्मणी री की टीका जो १६७३ मे लिखी गई थी, इसी भाषा के गद्य में प्राप्त होती है ।
⋙ ढुंढि
संज्ञा पुं० [सं० ढुण्ढि] गणेश का एक नाम । । ये ५६ विनायकों में से है । विशेष— काशीखंड में लिखा है कि सारे विषय इनके ढुंढे हुए या अन्वेषित हैं । इसी से इनका नाम ढुंढि या ढुंढिराज है ।
⋙ ढुंढित
वि० [सं० ढुण्ढित] अन्वेषित । १. ढूँढा हुआ [को०] ।
⋙ ढुंढिराज
संज्ञा पुं० [सं० ढुणिढराज] दे० 'ढुंढि' ।
⋙ ढुंढी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. बाँह । बाहु । मुसुक ।
⋙ ढुंढी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढोंढ़] दे० 'ढोंढो' । मुहा० —ढुंढिया चढ़ाना = मुसकें बाँधना । उ०— उसने झट उसकी पगड़ी उतार ढुंढिया चढाय मूछ, डाढ़ी और सिर मूँड़ रथ के पीछे बाँध लिया ।—लल्लू (शब्द०) ।
⋙ ढुँढवाना
क्रि० स० [हिं०ढूँढ़ना का प्रे० रूप] ढूँढने का काम कराना । खोजवाना । तलाश करना । पता लगवाना ।
⋙ ढुँढ़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढूँढना] ढूढने का काम ।
⋙ ढुँढाहर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढूढ़ना] खोज । तलाश ।
⋙ ढुकना
क्रि० अ० [देश०] १. घुसना । प्रवेश करना । संयो० क्रि० —जाना । २. झुक पड़ना । टूट पड़ना । पिल पड़ना । एकबारगी किसी ओर धावा करना । संयो० क्रि०—पड़ना । ३. किसी बात को सुनने या देखने के लिये आड़ में छिपना । लुकना । घात में छिपना । जैसे, ढुककर कोई बात सुनना । किसी को पकड़ने के लिये ढुकना । उ०— (क) ढुकी रही जहुँ तहँ सब गोरी । (ख) जउ न होत चारा कइ आसा । कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ढुकास
संज्ञा स्त्री० [अनु० ढुक ढुक] पानी पीने की बहुत अधिक इच्छा । अधिक प्यास । क्रि० प्र०—लगना ।
⋙ ढुक्का
संज्ञा पुं० [देश० डूका] दे० 'ढूका' ।
⋙ ढुच्च †
संज्ञा पुं० [देश०] धूँसा । मुक्का ।
⋙ ढुटौना
संज्ञा पुं० दे० 'डोटा' ।
⋙ ढुनमुनिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढनमनाना] १. लुढ़कने की क्रिया आ भाव । २. सावन में कजली गाने का एक ढंग । जिसमें स्त्रियाँ एक मंड़ल में घूमती हुई गोल बाँधकर हाथ से तालियाँ बजती हुई गती हैं और बीच बीच में झुकती और खड़ी होती हैं । क्रि० प्र०—खेलना । उ०— रात को कजली गाती कुछ ढुनमुनिया भी खेलती है ।—प्रेमघन; भा० २, पृ० ३२९ ।
⋙ ढुरकना पु †
क्रि० अं० [हिं० ढार] १. लुढ़कना । फिसलकर सरकाना या गिरना । उ०— लोग चढ़ी अति मोहन की गति मोह महा गिरि तें ढुरकी ।—देव (शब्द०) । २. झुकना । उ०— संग मेंसईस तें रईस तें नफीस बेस, सीस उसनीस बना बाम ओर दुरकी ।—गोपाल (शब्द०) । ३. ढरकना । टपकनों । बहना ।
⋙ ढुरकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढुरकना] लेटकर किया जानेवाला विश्राम । लेटने या शयन करने की स्थिति । झपकी ।
⋙ ढुरना † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ढार] दे० 'ढुनमुनिया'-२ ।
⋙ ढुरना (२)
क्रि० अ० [हिं० ढार] १. गिरकर बहना । ढरकना । ढलाना । टपकना । नैनन ढुरहिं मोति और मूँगा । कस गुड़ खाय रहा ह्वै गूँगा ।—जायसी (शब्द०) । संयो० क्रि०—पड़ना । २. कभी इधर कभी उधर होना । इधर उधर डोलना । डग* मगाना । ३. सुत या रस्सी के रूप वस्तु का इधर उधर हिलना । लहर खाकर डोलना । लहराना । जैसे, चँवर ढुरना । उ०— जोबन मदमाती इतराती बेनी ढुरत कटि पै छवि बाढ़ी ।—सूर (शब्द०) । ४. लुढ़कना । फिसल पड़ना । ५. प्रवृत्त होना । ६. झुकना । उ०— कभी ढुर ढुर कर स्त्रियों की भाँति ढुनमुनिया भी खेलते है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४४ । संयो० क्रि०—पड़ना । ६. अनुकूल होना । प्रसन्न होना । कृपालु होना । उ०— बिन करनी मोपै ढुरौ कान्ह गरीब निवाज ।—रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ ढुरढुरिया †
वि० [हिं० ढुरना] ढलवाँ । चढ़ाव उतारवाला । उ०— अंग ओके पातर मुँह ढुरढुरिया, चूहै, मेछन के रेख ।— शुक्ल० अभि० ग्रं० (सा०), पृ० १४० ।
⋙ ढुरहुरी
संज्ञा स्त्री० [हि० ढुरना] १. लुढ़कने की क्रिया का भाव । नीचे ऊपर होते हुए फिसलने या बढ़ने की क्रिया । उ०— लूटि सी करति कलहंस जुग देव कहै, तुटि मोतिसिरि छिति खुटि ढुरहरी लेति ।— देव (शब्द०) । क्रि० प्र०—लेना । २. पगडंड़ी । पतला रास्ता । नथ में लगी हुई सोने के गोल दानों की पंक्ति ।
⋙ ढुराना
क्रि० सं० [हि० ढुरना] १. गिराकर बहाना । ढरकाना । ढुलकाना । टपकाना । २. इधर उधर हिलाना । लहराना । उ०— ध्वजा फहराइ छत्र चौंर सो ढुराय बागे बीरन बताय यों चलाइ बाम चाम के ।—हनुमान (शब्द०) । ३. लुढकना । फिसलकर गिरना ।
⋙ ढुरावना पु
क्रि० सं० [हि० ढुराना] दे० 'ढुरना—१' । उ०— पलक न लावति, रहत ध्यान धरि, बारंबार ढुरावति पानी ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ढुरुआ
संज्ञा पुं० [हिं० ढुरना] गोल मटर । केराव मटर ।
⋙ ढुरुकना पु
क्रि० अ० [हिं० ढुलकना] दे० 'ढुलकना' ।
⋙ ढुर्री
संज्ञा स्त्री० [हि० ढुरना] वह पतला रास्ता जो लोगों के चलते चलते बन जाय । पगडंड़ी ।
⋙ ढुलकना
क्रि० अ० [हिं० ढाल + कना (प्रत्य०), वा सं० लुण्ठन, हिं० लुढ़कना] १. नीचे ऊपर होते हुए फिसलना या सरकना । ऊपर नीचे चक्कर खाते हुए बढ़ना या चल पड़ना । लुढकना । ढँगलाना । २. दे० 'ढुरना (२)' । संयो० क्रि० —जाना ।
⋙ ढुलकाना
क्रि० सं० [हिं० ढुलकना] टपकाना । गिराना । बहाना । लुढ़काना । ढैगलाना । उ०— जिसे ओस जल ने ढुलकाया । घवस धूलि ने नहलाया ।—बीणा पृ० १२ ।
⋙ ढुलढुल
वि० [हिं० ढुलना] एक ओर स्थिर न रहनेवाला । लुढ़कने— वाला । अस्थिर । कभी इधर कभी उधर होनेवाला ।
⋙ ढुलना (१)
क्रि० अ० [हिं० ढाल] १. गिरकर बहना । ढरकना । संयो० क्रि०— जाना । २. लुढ़कना । फिसल पड़ना । संयो० क्रि० —जाना । ३. प्रवृत्त होना । झुकना । संयो० क्रि०—आना ।—पड़ना । ४. अनुकूल होना । प्रसन्न होना । कृपालु होना । संयों क्रि०—जाना ।—पड़ना । ५. कभी इधर कभी उधर होना । इधर उधर डोलना । इधर से उधर हिलाना । उ०— ढुलाहि ग्रीव, लटकति नकबेसरि, मंद मंद गति आवै ।—सूर (शब्द०) । ६. सूत या रस्सी के रूप की वस्तु का इधर उधर हिलना । लहर खाकर डोलना । लहराना । जैसे, चँवर ढुलना ।
⋙ ढुलना† (२)
संज्ञा पुं० [सं० ढोल] एक वाद्य । दे० 'ढोल' । उ०— ढुलना सुनौ धधकारी । महलों उठै झनकारी ।—घट०, पृ० ३७१ ।
⋙ ढुलमुल
वि० [हिं० ढुलना, या अनु०] दे० 'ढुलढुल' । उ०— गा गाया फिर भक्त ढुलमुल चाटुता से वासना को झलमलाकर ।— इत्यलम्, पृ० १६७ ।
⋙ ढुलमुलाना
क्रि० अ० [हिं० ढुलाना] कंपित होना । हिलना । उ०— पत्तियों की चुतकियाँ झट दी बजा, डालियाँ कुछ ढुलमुलाने सी लगों । किस परम आनंदनिधि के चरण पर, विश्व साँसे गीत पाने सी लगीं ।—हिमत०, पृ० ४० ।
⋙ ढुलवाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढोना] १. ढोने का काम । २. ढोने की मजदूरी ।
⋙ ढुलवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढुलना] १. ढुलाने की क्रिया । २. ढुलाने की मजदूरी ।
⋙ ढुलवाना (२)
क्रि० सं० [हिं० ढोलाना का प्रे०, रूप] ढुलाने का काम कराना । बोझ लेकर जाने का काम कराना ।
⋙ ढुलवाना (२)
क्रि० सं० [हिं० ढुलाना का प्रे० रूप] ढुलाने का काम कराना ।
⋙ ढुलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढुलाना] १. ढुलने की क्रिया । २. ढोए जाने की क्रिया । जैसे,— आजकल सामन की ढुलाई हो रही है । ३. ढोने की मजदुरी ।
⋙ ढुलाना (१)
क्रि० सं० [हिं० ढाल] १. गिराकर बहाना । ढरकाना । ढालना । संयो० क्रि०— देना । २. नीचे ढालना । ठहरा न रहने देना । गिराना । उ०— स्यंदन खंडि, महारथ खंडी कपिध्वज सहित ढुलाऊँ ।—सूर (शब्द०) । ३. लुढ़काना । ढँगलाना । ४. पीड़ित करना । जलाना । जलन या दाह उत्पन्न करना । उ०— रमैया विन नींद न आवे । नींद न आवे बिरह सतावे, प्रेम की आँच ढुलाबै ।—संतवाणी०, भा० २, पृ० ७३ । संयो० क्रि०— देना । ५. प्रवृत्त करना । झुकाना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ६. अनुकूल करना । प्रसन्न करना । कृपालु करना । संयो० क्रि०— देना ।-लेना । ७. कभी इधर, कभी उधर करना । इधर उधर डुलाना । इधर से उधर हिलाना । जैसे, चँवर ढुलाना । ८. चलाना । फिराना । उ०—सूर स्याम श्यामा वश कीनो ज्यों सँग छाँह ढुलावै हो ।—सूर (शब्द०) । पु †९. फेरना । पोतना । उ०— ऊँचा महल चिनाइया चूना कली ढुलाय ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ ढुलाना (२)
क्रि० स० [हिं० ढोना] ढोने का काम कराना ।
⋙ ढुलिया † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ढोल + इया (प्रत्य०)] दे० 'ढोलकिया' । उ०— जैसे नटवा चढ़त बाँस पर, ढुलिया ढोल बजावै ।— कबीर ० श०, भा० १, पृ० १०२ ।
⋙ ढुलिया † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढुलना] १. छोटी ढोलक । २. छोटा पालना या डोली । सज्जा सहित इक ढुलिया लैयो ओ पानन की ड़ौली जू ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३१ ।
⋙ ढुलुआ †
संज्ञा स्त्री० [देश०] खजूर या ताड़ की बनी शकर ।
⋙ ढुबारा †
संज्ञा पुं० [देश०] धुन नाम का कीड़ा ।
⋙ ढूँकना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'ढुकना' ।
⋙ ढूँका
संज्ञा पुं० [हिं० ढुँकना] किसी बात या वस्तु को गुप्त रूप से देखने के लिये आड़ में छिपने का कार्य । बिना अपनी आहट दिए कुछ देखने की घात में छिपने का काम । क्रि० प्र०— लगना ।
⋙ ढूँढ़
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढूँढना] खोज । तलाश । अन्वेषण । मुहा०— ढूँढ़ ढाँढ़ = खोज । तलाश ।
⋙ ढूँढ़ना
क्रि० सं० [सं० ढुण्ढन] खोजना । तलाश करना । अन्वेषण करना । पता लगाना । संयो० क्रि०— ड़ालना ।—देना (दूसरे के लिये) । —लेना (अपने लिये) । यौ०— ढूँढ़ना ढाँढना = खोजना । तलाश करना ।
⋙ ढूँढला †
संज्ञा स्त्री० [सं० ढुण्ढा] ढुंढा नाम की राक्षसी ।
⋙ ढूँढी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. किसी चीज का गोल पिंड़ या लोंदा । २. भुने हुए आटे आदि का बड़ा गोल लड़ड़ू जिसमें गुड़ और तिल आदि मिले रहते हैं । अधिकतर यह देहातों में बनती है ।
⋙ ढूकड़ा †
अव्य० [सं० √ ढौक, प्रा० ढुक्क] पास । निकट । समीप । उ०— वागरवाल विचारियऊ, ए मति उत्तिम कीध । साल्ह महलहूँ ढूकड़ा, ढाढ़ी डेरउ लीध ।—ढोला० दू० १८७ ।
⋙ ढूकना
क्रि० अ० [सं० √ ढौका, प्रा० ढुक्क, हिं० ढुकना] १. पास जाना । समीप जाना । उ०— अहर रंग रत्तउ हुवइ, मुख काजल मसि ब्रन्न । जाँणयउ गुंजाहल अछइ, तेण न ढूकउ मन्न ।—ढोला०, दू० ५७२ ।
⋙ ढूका (१)
संज्ञा पुं० [देश०] डंठल, घास आदि के बोझ का एक मान जो दस पूले का होता है ।
⋙ ढूका (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ढुँकना] दे० 'ढूँका' ।
⋙ ढूढ़िया
संज्ञा पुं० [देश०] श्वेतांबर जैनों का एक भेद । विशेष— इस संप्रदाय के लोग मूर्ति नहीं पूजते और भोजन स्नान के समय को छोड़ सदा मुँह पर पट्टी बाँधे रहते है ।
⋙ ढूसर
संज्ञा पुं० [देश०] बनियों की एक जाति ।
⋙ ढूसा
संज्ञा पुं० [देश०] कुश्ती का एक पेच जिसमें ऊपर आया हुआ पहलवान नीचेवाले की गरदन पर हाथ मारकर उसे चित करता है ।
⋙ ढूहा †
संज्ञा पुं० [सं० स्तूप] १. ढेर । अटाला । २. टीला । भीटा । उ०— नहिं रकबा को नाम, धाम गिरि ढूह गयो बनि ।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० ११ । ३. मिट्टी का छोटा टीला जो सामा या हदे सूचित करने के लिये खड़ा किया जाता है ।
⋙ ढूहा †
संज्ञा पुं० [सं० स्तूप०] दे० 'ढूह' ।
⋙ ढेंक
संज्ञा स्त्री० [सं० ढेङ्क] दे० 'ढेंक' ।
⋙ ढेंकिका
संज्ञा स्त्री० [सं० ढेङ्किका] एक प्रकार का नृत्य ।
⋙ ढेंक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ढेङक, प्रा० ढेक] पानी के किनारे रहनेवाली एक चिड़िया जिसकी चोंच और गरदन लंबी होती है । उ०— (क) केवा सोन ढेंक बक लेदी । रहे अपूरि मीन जल भेदी ।—जायसी (शब्द०) । (ख)कूजत पिक मानहुँ गजमाते । ढेंक महोख ऊँट बिसराते ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ढेँक (२)
संज्ञा पुं० [देशी०] धान कूटने का लकड़ी का एक यंत्र । ढेंकली ।
⋙ ढेंकली
संज्ञा स्त्री० [देशी । अथवा हिं० ढेंक (=चिड़िया, जिसकी गरदन लंबी होती है)] १. सिंचाई के लिये कूएँ से पानी निकालने का एक यंत्र । विशेष— इसमें एक ऊँची खड़ी लकड़ी के ऊपर एक आड़ी लकड़ी बीचोबीच से इस प्रकार ठहराई रहती है कि उसके दोनों छोर बारी बारी से नीचे ऊपर हो सकते हैं । इसके एक छोर में, मिट्टी छोपी रहती है । या पत्थर बँघा रहता है और दूसरे छोरे में जो कुएँ के मुँह की ओर होता है, डोल की रस्सी बँधी होती है । मिट्टी या पत्थर के बोझ से डोल कुएँ में से ऊपर आती है । क्रि० प्र०—चलाना । २. एक प्रकार की सिलाई जो जोड़ की लकीर के समानांतर नहीं होती आड़ी होती है । आड़े ड़ेभ की सिलाई । क्रि० प्र०— मारना ।३. धान कूटने का लकड़ी का यंत्र जिसका आकार खींचने की ढेंकली ही से मिलता जुलता पर बहुत छोटा और जमीन से लगा हुआ होता है । धनकुट्टी । ढेंकी । ४. भबके से अर्क उतारने का यंत्र । वकतुंड यंत्र । ५. सिर नीचे और पैर ऊपर करके उलट जाने की क्रिया । कलाबाजी । कलैया । क्रि० प्र०—खाना ।
⋙ ढेँका
संज्ञा पुं० [हिं० ढेक (= पक्षी)] १. कोल्हू में वह बाँस जो जाट के सिरे से कतरी तक लग रहता है । २. बड़ी ढेंकी ।
⋙ ढेंकिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढेंकी] डेढपटी चद्दर बनाने में कपड़े की एक प्रकार की काट और सिलाई जिससे कपड़े की लंबाई एक तिहाई धड़ जाती है और चौड़ाई एक तिहाई बढ़ जाती है । विशेष— इस काट की विशेषता यह है कि इसमें आड़ा जोड़ किनारे तक नहीं आता, बीच ही तक रह जाता है । इसमें कपड़े की लंबाई की तीन बराबर भागों में तह करके आडे़ निशान डाल देते हैं । फिर एक आड़ी लकीर पर आधी दुर एक तक किनारे की ओर से फाड़ते हैं । इसी प्रकार दूसरे किनारे की ओर दूसरी आड़ी लकीर पर भी आधी दूर तक फाड़ते हैं । इसके उपरांत बीच में पड़नेवाले भाग को खड़े बल आधेआध काट देत हैं । इस तरह जो दी टुकड़े निकलते हैं उन्हें खाली स्थान को पूरा करते हुए जोड़ देते हैं । पुरा कपड़ा कटा हुआ कपड़ा दोनों जुड़े हुए कपड़े
⋙ ढेंकी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढेंक(=एक पक्षी)] अनाज कूटने का लकड़ी का एक यंत्र । ढेंकली ।
⋙ ढेँकी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ढेङ्किका, ढेङ्की] दे० 'ढोंकिका' ।
⋙ ढेंकुर †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढेंकली' ।
⋙ ढेकुली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढेंकली' ।
⋙ ढेंटी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] धव का पेड़ ।
⋙ ढेँढ † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. कौवा । २. एक नीच जाति जो मरे जान वरों का मांस खाती है । उ०—माँस खाँय ते ढेढ़ सब मद पीवै सी नीच ।— कबीर (शब्द०) । ३. मूर्ख । मुढ़ । जड़ ।
⋙ ढेँढ (२)
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड, हिं० ढोंढ़] कपास आदि का डोडा । ढोंढ । उ०— सेमर सुवना सेइए दुइ ढेंरे, की आस ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ ढेँढर
संज्ञा पुं० [हिं० ढेँढ] आँख के डेले का निकला हुआ विकृत माँस । टेंटर ।
⋙ ढेंढवा
संज्ञा पुं० [देश०] काले मुँह का बंदर । लंगुर ।
⋙ ढेंढा
संज्ञा स्त्री० [सं० तूण्ड़] दे० 'ढेँढ' ।
⋙ ढेँढी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढेढा] १. कपास का डोडा । २. पोस्ते का डोडा । ३. कान का एक गहना । तरकी । उ०— सीस फूल जड़ाव जूड़ा अंजन ज्ञान लगावनं । मानसी नथुनी ढेंढी शब्द माँग भरावनं ।— पलटू०, भा० ३, पृ० ६४ ।
⋙ ढेँप
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. फल या पत्ते के छोर पर का वह भाग जो टहनी से लगा रहता है । २. कुचाग्र । बोंड़ी ।
⋙ ढेंपी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढेंप' ।
⋙ ढेउआ †
संज्ञा पुं० [ देश०] पैसा ।
⋙ ढेऊ †
संज्ञा पुं० [देशी०] दे० पानी की लहर । तरंग । हिलोरा ।
⋙ ढेकुला
संज्ञा पुं० [देशी] दे० 'ढेंकली' ।
⋙ ढेढ †
संज्ञा स्त्री० [सं० दृष्टि] दृष्टि । नजर । आँख । उ०— रात दिवस धनी पहरीयो । तोही मूँसारौ मूँसी गयो ढेढ ।— बी० रासो, पृ० ९७ ।
⋙ ढेड़स
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'डेंड़सी' ।
⋙ ढेपनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढेंपनी' ।
⋙ ढेपुनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढेंप] १. पत्ते या फल का वह भाग जो टहनी से लगा रहता है । ढेँप । २. किसी वस्तु की दाने की तरह उभरी हुई नोक । ठोंठ । ३. कुचाग्र । चुचुक ।
⋙ ढेबरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हगिं०] दे० 'डिबरी' ।
⋙ ढेबरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जिसे चौरी, मामरो और रुही भई कहते हैं । वि० दे० 'सही' ।
⋙ ढेबुआ †
संज्ञा पुं० [सं० ढेव्वुका; या देश०] दे० 'ढेबुक' ।
⋙ ढेबुक †
संज्ञा पुं० [सं० ढेत्रुका या देश०] ढेउआ । पैसा । उ०—यथा ढेबुक मुद्रा जग माहीं । है सब एक पविक सम नाहीं ।— विश्राम (मेंब्द०) ।
⋙ ढेबुवा †
संज्ञा पुं० [सं० ढेब्बुका, देश०] पैसा । ढेउआ । ताम्रमुद्रा ।
⋙ ढेममौज †
[देश० ढेऊ + फ़ा० मौज] बड़ी लहर । समुद्र की ऊँची लहर (लश०) ।
⋙ ढेर (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धरना] नीचे ऊपर रखी हुई बहुत सी वस्तुओं का समूह जो कुछ ऊपर उठा हुआ हो । राशि । अटाला । अंबार । गंज । टाल । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना । मुहा०— ढेर करना = मारकार गिरा देना । मार डालना । उ०— होश की दवा करो । ढेर कर दूँगा ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० १३७ । ढेर रखना = मारकर रख देना । जीता न छोड़ना । ढेर रहना = (१) गिरकर मर जाना ।(२) थककर चूर हो जाना । अत्यंत शिथिल हो जाना । ढेर हो जाना = (१) गिरकर मर जाना । मर जाना । (२) ध्वस्त होना । गिर पड़ जाना । जैसे, मकान का ढेर होना । (३) शिथिल हो जाना ।
⋙ ढेर † (२)
वि० बहुत । अधिक । ज्यादा ।
⋙ ढेरना
संज्ञा पुं० [देश० या हिं० ढुरना (= घूमना)] सूत या रस्सी बटने की फिरकी ।
⋙ ढेरा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. सुतली बटने की फिरकी जो परस्पर काटती हुई दो आड़ी लकड़ियों के बीच में एक खडा डंडा जड़कर बनाई जाती है । २. मोट के मुँह पर का लकड़ी वा लोहे का घेरा जो मोट का मुँह खुला रखने के लिये लगा रहता है । ३. अंकोल का पैड़ (वेधक) ।
⋙ ढेरा (२)
वि० [देश०] जिसकी आँखों की पुतलियाँ देखने में बराबर न रहती हों । भेंगा । अंबर तक्कू ।
⋙ ढेराढोँक
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली । दे० 'ढोंक' ।
⋙ ढेरो
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढरे] ढेर । समूह । अटाला । राशि ।
⋙ डेरु पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढेर' । उ०— कंचन को ढेरु जो सुमेरु सो लखात है ।— भूषण ग्रं०, पृ० ४९ ।
⋙ ढेल
संज्ञा पुं० [हिं० डला] दे० 'ढेला' ।
⋙ ढेलवाँस
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढेला + सं० पाश] रस्सी का एक फंदा जिससे ढेला फेंकते हैं । गोफना । उ०— इस सभ्यता के लोगों के अस्त्र शस्त्र, भाले, कटार, परशु, गदा, तीर, धलुष, ढेलवाँस आदि थे ।— आदि० भा०, पृ० ४८ ।
⋙ ढेला
संज्ञा पुं० [सं० दल, हिं० डला] १. ईंट, मिट्टी, कंकड, पत्थर आदि का टुकड़ा । चक्का । जैसे, ढेला फेंककर मारना । यौ०— ढेला चौथ । २. टुकडा । खंड । जैसे, नमक का ढेला । ३. एक प्रकार का धान । उ०— कपूर काट कजरी रतनारी । मधुकर ढेला जीरा सारी ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ढेलाचौथ
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढेला + चोथ] भादों सुदी चौथ । भाद्रा शुक्ल चतुर्थी । विशेष— ऐसा प्रवाद है कि इस दिन चंद्रमा देखने से कलंक लगता है । यदि कोइ चंद्रमा देख ले तो उसे लोगों की कुछ गालियाँ सुन लेनी चाहिए । पालियाँ सुनने की सीधी युक्ति दूसरों के घरों पर ढेला फेंकना है । अतः लोग इस दिन ढेला फेंकते है । यह प्रायः एक प्रकार का विनोद या खेलवाड़ सा हो गया है ।
⋙ ढेव्वुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पैसे का सिक्का [को०] ।
⋙ ढैँकली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढेंकली' ।
⋙ ढैँकुरी पु †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का युद्धयंत्र । ढेलवाँस । गोफना । उ०— भार ढैंकुरी जंत्र लिवान । गढ पर पंछि न पावें जाब ।— छिताई०, पृ० ५६ ।
⋙ ढैंचा
संज्ञा पुं० [देश०] चकवँड़ की तरह का एक पेड़ जिसकी छाल से रस्सियाँ बनाई जाती है । हरी खाद के रूप में भी इसका प्रयेग होता है । जयंती । २. पाब के भीठे पर छाजन कै लिये सन या पटवे का डंठल ।
⋙ ढैक पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढेंक] दे० 'ढेंक (१)' । उ०— ढेकि पंखि मटामरे घनै । जलकूकरी आरि अनपनै ।— छिताई०, पृ० ६३ ।
⋙ ढैया
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढाई] १. ढाई सेर की बाट । ढाई सेर तौलने का बटखरा । २. ढाई गुने का पहाड़ा । ३. शनैश्चर के एक राशि पर स्थिर रहने का ढाई वर्ष का काल ।
⋙ ढोँक †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'ढोक' ।
⋙ ढोँकना
क्रि० स० [अनु०] पीना । पी जाना । (अशिष्ट या विनोद) ।
⋙ ढोँका
संज्ञा पुं० [देश०] १. पत्थर या और किसी कड़ी वस्तु का बड़ा अनगढ़ टुकड़ा । २. वह बाँस जो कोल्हू में जाट के सिरे से लेकर कोल्हू तक बँधा रहता है । ३. दो ढोली पान । चार सौ पान (तमोली) ।
⋙ ढोँग
संज्ञा पुं० [हिं० ढंग] ढकोसला । पाखंड । झूठा आडंबर । क्रि० प्र० —करना ।—रचना ।
⋙ ढोँगधतूर †
संज्ञा पुं० [हिं० ढोंग + सं० धूर्त] धूर्त विद्या । धूर्तता । पाखंड ।
⋙ ढोँगबाज
वि० [हिं० ढोंग + फ़ा० बाज] दे० 'ढोंगी' ।
⋙ ढोँगबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढोंग + फा़ बाजी] पाखंड़ । आडंबर । ढोंग ।
⋙ ढोँगा †
संज्ञा पुं० [हिं० ठोंगा] नाप । तोल । मान । चोंगा । अ०— बाँस का ढोंगा, काठ की डोकनी तथा बेंत की डलिया द्वार नाप जोख का प्रचलन उठाकर उनके स्थान पर ताँबे का माना (आध सेर), पाथी (चार सेर) ......इत्यादि को प्रमाणित पैमान माना जायगा ।— नेपाल०, पृ० ३१ ।
⋙ ढोँगी
वि० [हिं० ढोंग] पाखंडी । ढकोसलेबाज । झूटा आडंबर करनेवाला ।
⋙ ढोँटा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढोटा' ।
⋙ ढोँढ़
संज्ञा पुं० [सं तुण्ड़] कपास, पोस्ते आदि का डोड़ा । २. कली ।
⋙ ढोँढी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढोंढ] १. नाभि । धुन्नी । २. कली । डोंडी ।
⋙ ढोक
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो १२ इंच लंबी होती है । ढेरी । ढोंका ।
⋙ ढोकना †
क्रि० अ० [हि० ढुकना] झुकना । नम्र रहना । उ०— दया सबन पै राखि गुरन के चरनन ढोकत ।— ब्रज० ग्रं० पृ० ११९ ।
⋙ ढोका
संज्ञा पुं० [हि०] १. दे० 'ढोंका' । २. पर्दा । खोल । उ०— भाँति भाँति के चश्मे (ऐनक) के ढोके लगाए ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५८ ।
⋙ ढोटा
संज्ञा पुं० [सं० दुहितृ (= लड़की), हिं० ढोटी] [स्त्री० ढोटी] १. पुत्र । बेटा । उ०— देखत छोट खोट नृपढोटा ।— तुलसी (शब्द०) । २. लड़का । बालक । उ०— गोकुल के ग्वैंड एक साँवरो से ढोटा माई अँखियन के पैंड़ पैठि जी के पैडे़ परयो लै ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ढोटी
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहितृ] लकड़ी । पुत्री । बालिका ।
⋙ ढोटौन †, ढोटौना पु
संज्ञा पुं० [हिं० डोटा] दे० 'ढोटा' । उ०— श्याम बरन एक मिल्यो ढोटौना तेहि मोकों मोहिनी लगाई ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ढोड़ †
संज्ञा पुं० [देश०] ऊँट । (डिं०) ।
⋙ ढोँड़ी †
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहितृ] दे० 'ढोटी' । उ०— टुच्ची बुच्ची ढोड़ियाँ लँटूरी पर खोंसे झुलसे पाखी सी, खिसियाए मुँह बाए ।— इत्यलम्, पृ० २१० ।
⋙ ढोना
क्रि० स० [सं० वोढ (= वहन करना, ले जाना), आद्यंत वर्णविपर्यय> ढोव] १. बोझ लादकर ले जाना । भार ले चलना । भरी वस्तु को ऊपर लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाना । संयो० क्रि०— देना ।— ले जाना । २. उठ ले जाना । जैसे,— चोर सार माल ढो ले गए ।
⋙ ढोर
संज्ञा पुं० [हिं० ढुरना] गाय, बैल, भैंस आदि पशु । चौपाया । मवेशी । उ०— जब हरि मधुबन को जु सिधारे धीरज धरत न ढोर ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ ढोरना पु †
क्रि० स० [हिं० ढारना] १. पानी या और कोई द्रव पदार्थ गिराकर बहाना । ढरकाना । ढालना उ०— (क) रीते भरै, भरे पुनि ढोरै, चाहै फेरि भरै । कबहुँक तृण बूड़ै़ पानी मैं कबहूँ शिला तरै ।—सूर (शब्द०) । (ख) जननी अति रिस जानि बधायो चितै वदन लोचन जल ढोरै ।— सूर (शब्द०) । (ग) वै अक्रूर कूर कृत जिनके रीते भरे भरे गहि ढोरे ।— सूर (शब्द०) । २. लुढ़काना । ३. फेरना । ड़ालना । उ०— यमुनाप्रासाद ने आँखें ढीरी । कहा,'पहलवाना, मामला हमारा नहीं और अव बिलकुल वक्त नहीं रहा' ।— काले०, पृ० ४१ । ४. डुलाना । हिलाना । उ०— (क) चँवर चारु ढोरत ह्वै ठैढ़ी ।— नंद ग्रं०, पृ० २१३ । (ख) लैकर वाउ विजन कर ढोरौ ।— रसरतन, पृ० २१५ । (ग) पान खवावत चरन पलोटत ढोरत बिजन चौर ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५९९ । ५. नम्र करना । नमाना । नीचा करना । उ०— औसी बचनु सुन्यो सुलितान । सीसु ढोरि कै मूँदे कान ।— छिताई०, पृ० ९१ ।
⋙ ढोरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ढोर' ।
⋙ ढोरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढोरना] १. ढालने का भाव । डरकाने की क्रिया या भाव । उ०—कनक कलस केसरि भङरि ल्याई डारि दियो हरि पर ढोरी की । अति आनंद भरी ब्रज युवती गावति गीत सबै होरी की ।— सूर (शब्द०) । २. रट । धुन । बान । लो । लगन । उ०— सूरदास गोपी बड़भागी । हरि वरसन की ढोरी लागी । (ख) ढोरी लाई सुनन की, कहि गोरी मुस्कात । थोरी थोरी सकुच सों भोरी भोरी बात ।— बिहारी (शब्द०) । क्रि० प्र०—लगना ।
⋙ ढोरी (२)
वि० [हि० ढोरना] १. ढुरी हुई । ढली हुई । २. हिलती ड़ुलती । मत्त । उ०— ब्रज बनिता बौरी भईँ होरी खेलत आज । रस ढोरी दोरी फिरत भिजवन हैं ब्रजराज ।— ब्रज० ग्रँ, पृ० ३१ ।
⋙ ढोल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाजा जिसके दोनों ओर चमड़ा मढ़ा होता है । विशेष— लकड़ी के गोल कटे हुए लंबोतरे कुंदो को भीतर से खोखला करते हैं और दोनों ओर मुँह पर चमड़ा मढ़ते हैं । छोटा ढोल हाथ और बड़ा ढोल लकड़ी से बजाया जाता हैं । दोनों ओर के चमड़ों पर दो मिन्न भइन्न प्रकार का शब्द होता है । एक ओर तो 'ढब ढब' की तरब गंभीर ध्वनि निकलती है और दूसरी टनकार का शब्द होता है । यौ०— ढोल ढमक्का = बाजा गाजा । धूम धाम । मुहा०— छोल पीटना या बजाना = घोषणा करना । प्रसिद्ध करना । प्रकट करना । प्रकाशित करना । चारों ओर कहते या जताते फिरना । उ०— (क) नाचौ घूघट खोलि, ज्ञान की ढोल बजाओ ।— पलटू०, पृ० ६१. (ख) ब्रजमंडल में बदनामी के ढोल, निर्सक ह्वै आज बजै तौ बजै ।— नट०, पृ० ५८ । २. कान का परदा । कान की वह झिल्ली जिसपर वायु का आघात पड़ने से शब्द का ज्ञान होता है ।
⋙ ढोल पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ढोल] एक वाद्य । दे० 'ढोल'—१ । उ०— नाचो घूँदट खोलि ज्ञान की ढोल बजाओ ।— पलटू०, पृ० ६१
⋙ ढोलक
संज्ञा स्त्री० [सं० ढोल] छोटा ढोल । ढोलकी ।
⋙ ढोलकिया
संज्ञा पुं० [हिं० ढोलक] ढोल बजानेवाला ।
⋙ ढोलकिहा †
संज्ञा पुं० [हिं० ढोलक] दे० 'ढोलकिया' । उ०— फटत ढोल बहु छोलकिहन की अँगुरिन तर तर ।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० ३६ ।
⋙ ढोलकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढोलक] दे० 'ढोलक' ।
⋙ ढोलढमक्का
संज्ञा पुं० [हिं० ढोल + अनु० ढमक्का] दे० 'ढोल' का यौ० ।
⋙ ढोलन (१)
संज्ञा पुं० [सं० ढोलन] दे० 'ढोलना' (२) ।
⋙ ढोलन † (२)
संज्ञा पुं० [अप०] दूंल्हा । प्रिय । प्रियतम । उ०— ढोलन मेरा भावता बेगि मिलहु मुझ आइ । सुंदर ब्याकुल विरहनी तलफि तलफि जिय जाय ।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६८६ ।
⋙ ढोलनहार
वि० [हिं० ढोलना] ढोलने या ढलकानेवाला । उ०— मन नित ढोलनहार ।— कबीर ग्रं०, पृ० १८ ।
⋙ ढोलना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ढोल] १. ढोलक के आकार का छोटा जंतर जो तागे में पिरोकर गले में पहना जाता है । उ०— आने गढ़ि सोना ढोलना पहिराए चतुर सुनार ।—सूर (शब्द०) । २. ढोल के आकार का बड़ा बेलन जिसे पहिए की तरह लुढ़का कर सड़क का कंकड़ पीटते या खेत के ढेले फोड़कर जमीन चौरस करते हैं ।
⋙ ढोलना (२)
संज्ञा पुं० [सं० दोलन] बच्चों का छोटा झूला । पालना ।
⋙ ढोलना (३) †
क्रि० स० [सं० दोलन] १. ढरकाना । ढालना । उ०— (क) रे घटवासी, मैंने वे घट तेरे ही चरणों पर ढोले; कौन तुम्हारी बातें खोले ।— हिमत०, पृ० २६ । (ख) चोवा केरै कूँपलै ढोली साहिब सीस ।— ढोला० दू० ५९२ । २. इधर उधर हिलाना । डुलाना । झलना । जैसे, चँवर ढोलना ।
⋙ ढोलनी
संज्ञा स्त्री० [सं० दोलन] बच्चों का झूला । पालना । उ०—आगर चंदन को पालनो गढ़ई गुर ढार सुढार । लै आयो गढ़ि ढोलनी बिसकर्मा सो सुतधार ।— सूर (शब्द०) । विशेष—यह झूला रस्सी से लटका हुआ एक छोटा घेरेदार खटोला सा होता है ।
⋙ ढोलवाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० दुलना] दे० 'ढुलवाई' ।
⋙ ढोला
संज्ञा पुं० [हिं० ढोल] १. बिना पेर का रेंगनेवाला एक प्रकार का छोटा सुफेद कीड़ा जो आध अंगुल से दो अंगुल तक लंब होता है ओर सड़ी हुई वस्तुओं (फल आदि) तथा पौधों के डंठलो में पड़ जाता है । २. वह ढूह या छोटा चबूतरा लो गाँवों की लीमा सूचित करने के लिये बना रहता है । हद का निशान । यो०—ढोलाबंदी । ३. गोल मेहराज बनाने का ड़ाट । ४. पिड़ । शरीर । देह । उ०— जो लगि ढोला तौ लगि बोला तो लगि धनव्यव- हारा ।— कबीर (शब्द०) । ५. डंका या दमामा । उ०— वामसैनि राजा तब बोला । चहुँ दिसि देहु जुद्ध कहँ ढोला ।— हिंदी प्रेम०, पृ०२२३ ।
⋙ ढोला (२)
संज्ञा पुं० [सं० दुर्लभ, दुल्लह, राज० प्रं ढोला] १. पति । प्यार । प्रियतम । २. एक प्रकार का गीत । ३. मूर्ख मनुष्य । जड़ ।
⋙ ढेलिअरा †
संज्ञा पुं० [हिं० ढोल] ढोल बजानेवाला व्यक्ति । उ०— ढोलिअरा के हौलें — हौलें ढोलु बजाइ ।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१८ ।
⋙ ढोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० होल] दे० 'ढोल' । उ०— संग राधिक सुजान गावत सारंग ताना, बजना बाँसुरी मृदंग बीन ढोलिका ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३६३ ।
⋙ ढोलिनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढोलिया] ढोल बजानेवाली । ड़फालिन । उ०— नटिनि डोमिनी ठोलिनी सहनाइनि भेरिकारि । निर्तत तंत विनोद सऊँ विहुँसत खेलत नारि ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ढोलिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० ढोल] [स्त्री० ढोलिनी] ढोल बजानेवाला व्यक्ति । उ०— मीर बड़े बड़े जात बहे तहाँ ढोलियै पार लगा- वत को है ।— ठाकुर (शब्द०) ।
⋙ ढोलिया पु (२)
[हिं० ढुलकना या ढुलना] एक जगह स्थिर न रहनेवाला । गतिशील । रमता । उ०— ढोलिया साधु सदा संसार ।— धरनी०, पृ० ४१ ।
⋙ ढोली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढोल] २०० पानीं की गड्डी । उ०— ढोलिन ढोलिन पान बिकाना भीटन के मैदाना ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ ढोली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठटोली, ठोली] हँसी । दिल्लगी । ठठोली । ठट्ठा । उ०— सूर प्रभु की नारि राधिका नगरी चरचि लीनो मोहि करति ढोली ।— सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०— करना ।— होना ।
⋙ ढोव
संज्ञा पुं० [हिं० ढोवना] वह पदार्थ जो किसी मंगल के अवसर पर लोग सरदार या राजा को भेंट ले जोते हैं । डाली । नजर उ०— लै लै ढोव प्रजा प्रमुदित चले भाँति भाँति भरि भार ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ढोवना †
क्रि० स० [हिं० ढोना] दे० 'ढोना' ।
⋙ ढोवा † (१)
संज्ञा पुं० [?] धावा । आक्रमण । हमला । उ०— पँच पँच मन की हाथनि गुरज । ढोवा ढारि ढहावैं बुरज ।— छिताई०, पृ० ३४ । (ख) निसि वासरु ढोवा करै सोणित बहै प्रवाह ।— छिताई०, पृ० ४२ ।
⋙ ढोवा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ढोना] १. ढोए जाने की क्रिया । ढोवाई । २. लूट । उ०— सूनहि सून सँवरि गड़ रोवा । कस होइहि जो होइहि ढोवा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ढोवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढुलाई] दे० 'ढुलाई' ।
⋙ ढोहना
क्रि० स० [हिं० टोह] टोह लोना । खोजना ।
⋙ ढौंचा
संज्ञा पुं० [सं० अर्द्ध, आ० अढ्ढ + हिं० चार] वह पहाड़ा जिसमें क्रम से एक एक अंक का साढे़ चार गुना अंक बतलाया जाता है । साढें चार का पहाड़ा ।
⋙ ढौंसना
क्रि० अ० [अनु०, हिं० धौंस] आनंदध्वनि करना । उ०— तियनि को तल्ला पिय तियन पियल्ला त्यागे ढौंसत प्रबल्ला मल्ला धाए राजद्वार को ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ ढौकन
संज्ञा पुं० [सं०] धुस । रिशवत ।
⋙ ढौकना
क्रि० स० [देश०] पीना ।— (अशिष्ट) ।
⋙ ढौकित
वि० [सं०] समीप या लिकट लाया हुआ [को०] ।
⋙ ढौरी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] रट । धुन । लौ । लगन । उ०— (क) रसिक सिर मौर ढौरि लगावत गावत राधा राधा नाम ।— सूर (शब्द०) । (ख) रूखिए खात नहीं अनखात भखैं दिन राति रही परि ढौरी ।— देव (शब्द०) ।
⋙ ढौरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढुरना] दे० 'ढुर्री' ।
⋙ ण
⋙ ण
हिंदी या संस्कृत वर्णमाला का पंद्रहवाँ व्यंजव । इसका उच्चारण- स्थान मूर्धा है । इसके उच्चारण में आभ्यंतर प्रयत्न स्पृष्ट और सानुनासिक है । बाह्य प्रयत्न संवार नाद घोष और अल्पप्राण है । उसका संयोग मुधंन्य वर्ण, अंतस्थ तथा म और ह के साथ होता है ।
⋙ ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विंदुदेव । एक बुद्धा का नाम । २. आभूषण । ३. निर्णय । ४. ज्ञान । ५. शिव का एक नाम । ६. पानी काघर । ७. दान । ८. पिंगल में एक गण का नाम । वि० दे० 'जगण' । ९. बुरा व्यक्ति । खराब आदमी (को०) । १०. अस्वीकारसूचक शब्द । न । नहीं (को०) ।
⋙ ण (२)
वि० गुणरहित । गुणशून्य ।
⋙ णगण
संज्ञा पुं० [सं०] दो मात्राओं का एक मात्रिक गण । इसके दो रूप हो सकते हैं— जैसे, 'श्री (ऽ) और हरि'(/?/) ।
⋙ णय
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मलोक का एक समुद्र [को०] ।