विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/वर
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ वरंच
अव्य [सं० वरञ्च] १. ऐसा न होकर ऐसा। बल्कि। अपितु। २. परंतु। लेकिन। किंतु।
⋙ वरंड
संज्ञा पुं० [सं० वरण्ड] १. बंसी की डोर। शिस्त। २. समूह। ३. मुहाँसा। ४. घास का गठ्ठर. ५. फीलखाने आदि में की वह दीवार जो दो लड़ाके हाथियों के बीच में लड़ाई बचाने के लिये बनाई जाती है। ६. कोष। थैली। झोला (को०)। ७. अलिंद। बरामदा। दालान (को०)।
⋙ वरंडक (१)
संज्ञा पुं० [सं० वरण्डक] १. मिट्टी का भीटा। ढूह। २. दो लड़ाके हाथियों के बीच की दीवार। ३. हाथी की पीठ पर कसा जानेवाला हौदा। ४. मुँहासा (को०)। ५. दीवार (को०)।
⋙ वरंडक (२)
वि० १. लंबा। बड़ा। विस्तृत। २. भयानक। डरावना। भयभीत। ३. दुःखी। पीड़ित। ४. गोल। वर्तुलाकार [को०]।
⋙ वरंडलंबुक
संज्ञा पुं० [सं० वरण्डलम्बुक] बंसी की डोरी [को०]।
⋙ वरड़ा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वरण्डा] १. कटारी। कत्ती। २. बत्ती। ३. मैना। सारिका (को०)।
⋙ वरडा (२)
संज्ञा पुं० दे० 'बरामदा'।
⋙ वरंडालु
संज्ञा पुं० [सं० वरण्डालु] एरंड वृक्ष। रेंड़ का पेड़ [को]।
⋙ वर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] किसी देवता या बड़े से माँगा हुआ मनोरथ। वह बात। जिसके लिये किसी देवी, देवता या बड़े से प्रार्थना की जाय। जैसे,—उसने शिव से यह वर माँगा। क्रि० प्र०—माँगना। २. किसी देवता या बड़े से प्राप्त किया हुआ फल या सिद्धि। वह बात जो किसी देवता या बड़े की प्रसन्नता से प्राप्त हुई हो। जैसे,—उसे यह वर था कि वह किसी के हाथ से न मरेगा। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना। ३. जामाता। ४. पति या दूल्हा। ५. गुग्गुल। ६. कुंकुम। केसर। ७. दारचीनी। ८. बालक। ९. अदरक। आर्द्रंक। १०. सुगंध तृण। ११. सेंधा नमक। १२. पियाल या चिरौंजी का पेड़। १३. वकुल। मौलसिरी। १४. हलदी। १५. गौरा पक्षी। १६. चुनाव (को०)। १७. पसंद (को०)। १८. इच्छा (को०)। १९. लंपट या छिछोरा व्यक्ति (को०)। २०. वह जो किसी से प्रेम करता हो। प्रेमी (को०)। २१. दहेज (को०)।
⋙ वर (२)
वि० १. श्रेष्ठ। उत्तम। २. सर्वोत्तम (को०)। विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः श्रेष्ठता सूचित करने के लिये संज्ञा या विशेषणों के आगे होता है। जैस,—पंडितवर, विज्ञवर, वीरवर, मित्रवर।
⋙ वरकंठ
संज्ञा पुं० [सं० वर + कण्ठ] सुग्रीव। उ०—वरकंठ वामा धरी धामा किता कामा बद किया। भय मेट भारी धनुष धारी अरज सारी येह।—रघु० रू०, पृ० १४६।
⋙ वरक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधारण वस्त्र। गमछा, दुपट्टा आदि। उ०—गुरु के चरन अनंद जाय करि, अनुभव वरक उतारी।—धरनी०, पृ० ३। २. नाव का आच्छादन। ३. बनमूँग। ४. काकुन। प्रियंगु। ५. जंगली बेर। झड़बेरी। ६. अभिलाषा। मनोरथ। इच्छा (को०)। ७. घड़ी। घंटा (को०)। ९. किसी स्त्री से विवाह की प्रार्थना करनेवाला व्यक्ति (को०)।
⋙ वरक (२)
संज्ञा पुं० [अ० वरक़] १. पत्र। २. पुस्तकों का पन्ना। पत्रा। ३. दल। पत्र। पंखुड़ी (को०)। ४. सोने, चाँदी आदि के पतले पत्तर, जो कूटकर बनाए जाते हैं और मिठाइयों पर लगाने और औषध में काम आते हैं। यौ०—वरकसाज = सोने चाँदी के वरक बनानेवाला। वरकसाजी = वरकसाज का काम।
⋙ वरका
संज्ञा पुं० [अ० वरक़ह] दल। पत्र। पत्ता [को०]।
⋙ वरकी
वि० [अ० वरकी] वरक की तरह पतला [को०]।
⋙ वरकोद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] कोविदार। कचनार का पेड़।
⋙ वरक्रतु
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ वरग पु †
संज्ञा पुं० [सं० वर्ग, प्रा० वग्ग] दे० 'वग्ग'। उ०— मालवणी मनि दूमणी आवी वरग विमासि।-ढोला०, दू० ३१६।
⋙ वरचंदन
संज्ञा पुं० [सं० वरचन्दन] १. काला चदन। २. देवदारु।
⋙ वरज
वि० [सं०] ज्येष्ठ। बड़ा।
⋙ वरजिश
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० वरज़िश] १. व्यायाम। कसरत। शारी- रिक परिश्रम। २. अभ्यास। मश्क। ३. ग्रहण। इख्तियार [को०]। यौ०—वरजिशखाना, वरजिशगाह = व्यायामशाला। अखाड़ा।
⋙ वरजिशी
वि० [फ़ा० वरज़िशी] कसरती [को०]।
⋙ वरजीबी
संज्ञा पुं० [सं० वरजीविन्] १. एक वर्णसंकर जाति जो स्मृतियों में गोप और तंतुवाय के संयोग से उत्पन्न कही गई है। २. ब्राह्मण का औरस पुत्र जो शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न हो।
⋙ वरट
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंस। २. कुंद का फूल। ३. भिड़। बर्रे। ४. एक प्रकार का अन्न (को०)। ५. कुसुम का बीज (को०)।
⋙ वरटक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वरटिका, वरट्टिका] कुसुम का बीज। बरें का बीज।
⋙ वरटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हंसी। २. गंधिया कीड़ा। गंधकीट। ३. बर्रे। ततैया। भिड़। ४. कुसुम का बीज (को०)।
⋙ वरटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हंसी। २. गंधिया कीड़ा। ३. पीली मक्खी। उ०—वरटी (पीली माँखी), झोंगर आदि आपसे चौगुने भारी भी हैं।—माधव०, पृ० १९२।
⋙ वरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी को पसंद करके किसी कार्य के लिये नियुक्त करना। किसी को किसी काम के लिये चुनना या मुकर्रर करना। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. मंगल कार्य के विधान में होता आदि कार्यकर्ताओं को नियत करके दान आदि से उनका सत्कार करना। ३. मगल कार्य में नियत किए हुए होता आदि के सत्कारार्थ दी हुई वस्तु या दान। जैसे,—विवाह में ११ आदमियों को वरण मिला है। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना। ४. कन्या के विवाह में वर को अंगीकार करने की रीति। ५. पूजा। अर्चना। सत्कार। ६. ढकने या लपेटने की वस्तु। आवरण। आच्छादन। वेष्ठन। ७. किसी स्थान के चारों ओर धेरी हुई दीवार। ८. ऊँट। ९. वरुण वृक्ष। १०. पुल। सेतु। ११. धनुष की सज्जा या अलंकार (को०)। १२. इंद्र (को०)। १३. एक प्रकार का अस्र का मंत्र (को०)। १४. वृक्ष। पेड़ (को०)। १५. याचना। प्रार्थना।
⋙ वरण पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वर्ण] १. रंग। दे० 'वर्ण'। २. मनुष्यों के चार विभाग या वर्ण। उ०—जो कोइ भक्त हमारा होई। जात वरण को त्यागै सोई।—कबीर सा०, पृ० ८२०।
⋙ वरणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आच्छादन। आवरण। २. वह जो किसी का आच्छादन करे। आच्छादन करनेवाला (को०)।
⋙ वरणजथा पु
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का डिंगल छंद।— रघु० रू०, पृ० २५३।
⋙ वरणना पु
क्रि० स० [सं० वर्णन] वर्णन करना। कहना। उ०— नभ वायु तेज चल धरणी। पीछे बहु बिधि करि वरणी।— सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ६७।
⋙ वरणमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जयमाल [को०]।
⋙ वरणसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाराणसी।
⋙ वरणा
संज्ञा स्त्री० [सं० वरुण ?] १. एक छोटी नदी का नाम जो काशी के उत्तर में बहती है। यह नदी वाराणसी क्षेत्र की उत्तरीय सीमा है। वरुणा। २. पंजाब देश की एक नदी का नाम जो सिंधु नद में दक्षिण ओर से अटक के विपरीत दिशा से आकर मिलती है। ३. अरहर।
⋙ वरणी
संज्ञा स्त्री० [सं० वरण] दे० 'वरण'—३।
⋙ वरणीय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वरणीया] १. पूजनीय। पूज्य। २. श्रष्ठ। बड़ा। ३. चुनने या ग्रहण करने योग्य। उ०—थी अनंत की गोद सद्दश जो विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय। उसमें मनु ने स्थान बनाया सुंदर स्वच्छ और वरणीय।—कामायनी, पृ० ३०।
⋙ वरततु
संज्ञा पुं० [सं० वरतन्तु] एक ऋषि का नाम।
⋙ वरत पु
संज्ञा पुं० [सं० व्रत] उपवास। दे० 'व्रत'-२। उ०—विकट करो तीरथ वरत, धरा भेष के धार। विनै नाम रघुबीर रै, परत न उतरै पार।—रघु० रू०, पृ० ३४।
⋙ वरतनु (१)
वि० [सं०] सुंदर शरीरवाला [को०]।
⋙ वरतनु (२)
संज्ञा स्त्री० सुंदरी स्त्री [को०]।
⋙ वरतमान पु
वि० [सं० वर्तमान] दृश्य जगत् जो वर्तमान है। उ०—वरतमान मँह सतगुरु सारा। सतगुरु भव तारन कडिहारा।—कबीर सा०, पृ० ४३०।
⋙ वरति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० व्रत] दे० 'व्रत'। उ०—वरति करइ घरि आपणाइँ।—बी० रासो, पृ० ४९।
⋙ वरतिक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुटज। कोरैया। २. नीम। ३. पर्पट। पापड़ा। ४. रोहितक। रोइना का पेड़।
⋙ वरतिक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाठा।
⋙ वरत्त पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वरयात्रा, प्रा वरत्त] दे० 'बारात'। उ०—नाथदवारे परसवा, आवी धार वरत्त।—रा० रू०, पृ० ३५६।
⋙ वरत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बरत्रा' [को०]।
⋙ वरत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वरेत। वरेता। २. हाथी खींचने का रस्सा। ३. चमड़े का तसमा।
⋙ वरत्वच
संज्ञा पुं० [सं०] नीम का पेड़।
⋙ वरद (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वरदा] वर देनेवाला। अभीष्टदाता। २. प्रसन्न। हर्षयुक्त (को०)। यौ०—वरदचतुर्थी = वरदा चतुर्थी। वरदहस्त = वर देने की मुद्रा। हाथ की वरद मुद्रा।
⋙ वरद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपकारी। कल्याणकर। २. पितृगणों का एक वर्ग [को०]।
⋙ वरदक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह धन जो वर को विवाह के समय कन्या के पिता से मिलता है। दहेज। दायदा।
⋙ वरदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कन्या। २. अश्वगंध। ३. अड़हुल। ४. आदित्यभक्ता। हुरहुर। ५. वाराही कंद। ६. एक नदी का नाम [को०]।
⋙ वरदाई (१)
वि० [सं० वरदायिन्] वरदायी। वर देनेवाला। उ०— इंद्र को इंद्र, देव देवन को, बह्मा को ब्रह्म महा बरदाई।— नंद० ग्रं०, पृ० ३४३।
⋙ वरदाई (२)
संज्ञा पुं० पृथ्वीराज रासो के रचयिता चंद का उपनाम।
⋙ वरदा चतुर्थी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी। वरदा चौथ।
⋙ वरदाता
वि० [सं० वरदातृ] [वि० स्त्री० वरदात्री] वर देनेवाला। वरद। उ०—जीवन समीर शुचि निःश्वसना, वरदात्री।— अपरा, पृ० २०३।
⋙ वरदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी देवता या बड़े का प्रसन्न होकर कोई अभिलषित वस्तु या सिद्धि देना। उ०—देन कहेहु वरदान दुइ तेउ पावत संदेह।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना। २. किसी फल का लाभ जो किसी को प्रसन्नता से हो। क्रि० प्र०—पाना।—मिलना।
⋙ वरदानी
संज्ञा पुं० [सं० वरदानिन्] वर प्रदान करनेवाला। मनो- रथ पूर्ण करनेवाला। वरदायक।
⋙ वरदायक (१)
वि० [स०] दे० 'वरदाता'।
⋙ वरदायक (२)
संज्ञा पु० [सं०] एक प्रकार की समाधि [को०]।
⋙ वरदारुक
संज्ञा पुं० [सं०] बिषैली पत्तियोंवाला एक पौधा [को०]।
⋙ वरदी
संज्ञा स्त्री० [अ०] वह परिधान जो किसी विशेष विभाग के कर्मचारियों के लिये नियत हो। वह पोशाक या पहनावा जो किसी खास महकमे के अफसरों और नौकरों के लिये मुकर्रर हो। जैसे,—पुलिस की वरदी, फौज की वरदी।
⋙ वरद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अगर, जिसका वृक्ष बहुत बड़ा होता है।
⋙ वरन्
अव्य० [सं० वरम्] ऐसा नहीं। बल्कि। विशेष—इस शब्द का प्रयोग अब उठता जा रहा है।
⋙ वरन पु †
संज्ञा पुं० [सं० वर्ण] दे० 'वर्ण'। उ०—इनकौ अंग बोहोत सुंदर और गौर वरन है, श्री स्वामिनी जी सदृश।— दो सौ बावन०, भा० १. पृ० १०८।
⋙ वरना पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वरण] ऊँट। उ०—वरना भख कर में अवलोकत केश पास कृतबंद। अधर समुद्र सदल जो सहसा ध्वनि उपजत सुखकंद।—सूर (शब्द०)।
⋙ वरना (२)
अव्य० [अ०] नहीं तो। यदि ऐसा न होगा तो। जैसे,— आप बैठिए, वरना मैं भी उठकर चला जाऊँगा।
⋙ वरना पु (३)
क्रि० स० [सं० वरण] वरण करना। उ०—और चाहते होंगे फिर से मर्त्य धरा पर आकर, जीवन श्रम के शोभा सुख को वरना।—युगपथ, पृ० ११५।
⋙ वरपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. बरात। २. बराती [को०]।
⋙ वरपर्णाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीरकंचुकी का वृक्ष [को०]।
⋙ वरपीतक
संज्ञा पुं० [सं०] अबरक। अभ्रक [को०]।
⋙ वरप्रद
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वरप्रदा] १. वर देनेवाला। २. प्रसन्न।
⋙ वरप्रदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा [को०]।
⋙ वरप्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] मनोरथ पूर्ण करना। कोई फल या सिद्धि देना। वर देना। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ वरप्रभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व [को०]।
⋙ वरप्रभ (२)
वि० शोभायुक्त। अच्छी कांतिवाला [को०]।
⋙ वरप्रस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वरयात्रा' [को०]।
⋙ वरफल
संज्ञा पुं० [सं०] नारिकेल। नारियल।
⋙ वरबाह्लिक
संज्ञा पुं० [सं०] केसर [को०]।
⋙ वरम पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्म]दे० 'वर्म'।
⋙ वरमना पु †
क्रि० अ० [देश० या सं० विरमण] रमना। झुकना। उ०—झिरिहिरि बहै बयारि अमी रस ढरकै हो। वरमी नौरँ- गिया कै डारि, चँदन गछ महकै हो।—पलटू० भा० ३, पृ० ७३।
⋙ वरमेल्हो
संज्ञा पुं० [पुर्त०] एक प्रकार का लाल चंदन जो मलाया द्वीप से आता है।
⋙ वरम्म पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्म] दे० 'वर्मं'। उ०—नमसकार सूराँ नराँ, विरद नरेस वरम्म। रिजक उजालै साँम रौ, पालै साँम धरम्म।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १३।
⋙ वरमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक गंधद्रव्य। रेणुका [को०]।
⋙ वरयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विवाह के लिये वर का अपने इष्ट-मित्रों और संबंवियों के सहित धूमधान के साथ कन्या के घर जाना। दूल्हे का बाज गाजे के साथ दुलहिन के घर विवाह के लिये जाना। २. वह भीड़ भाड़ जो दूल्हे के साथ चलती है। बरात।
⋙ वरयिता
संज्ञा पुं० [सं० वरपितृ] १. वरण करनेवाला। २. पति। भर्ता।
⋙ वरयुबति, बरयुबती
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदरी स्त्री [को०]।
⋙ वररुचि
संज्ञा पुं० [सं०] एक अत्यंत प्राचीन पंडित, वैयाकरण और कवि। विशेष—अष्टाध्यायीवृत्ति, प्राकृतप्रकाश, लिंगानुशासन, राक्षस काव्य आदि अनेक ग्रंथ इनके नाम से प्रसिद्ध है; पर सब इनके नहीं बनाए हैं। इनका प्राकृत का व्याकरण 'प्राकृत प्रकाश' बहुत प्राचीन और प्रामाणिक माना जाता है। ये कब हुए, इसका ठीक ठीक निश्चय विद्वानों को अभी नहीं हुआ है। कथा सरित्सागर में ये पाणिनि के सहाध्यायी और प्रतिद्वंद्वी कहे गए हैं; पर यह कल्पना मात्र है। उसी ग्रथ में वररुचि और कात्या- यन एक हो गए हैं; पर यह भी ठीक नहीं है। इसी प्रकार ज्योतिर्विदाभरण का नवरत्नवाला वह श्लोक भी, जिसमें वर- रुचि का नाम है, कपोलकल्पना मात्र है। 'प्राकृतप्रकाश' की भूमिका में कावेल साहब ने वररुचि को ईसा की पहली शताब्दी का ठहराया है; और कोई कोई इन्हें चंद्रगुप्त मौर्य से भी पहले ईसा से ४०० वर्ष पूर्व का मानते है। फिर भी ये पतंजलि (ई० पू० १५७) से एक दो शती पूर्ववर्ती थे, इसमें कोई संदेह नहीं है।
⋙ वरल
संज्ञा पुं० [सं०] भिड़। बर्रे [को०]।
⋙ वरलब्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंपक वृक्ष। २. वह जो वररूप में प्राप्त हो। बरदान के रूप में प्राप्त वस्तु [को०]।
⋙ वरला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हंसी। २. भिड़। बर्रे (को०)।
⋙ वरली
संज्ञा स्त्री० [सं०] भिड़। वरै [को०]।
⋙ वरवत्सला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सास। पत्नी की माता [को०]।
⋙ वरवराह
संज्ञा पुं० [सं०] घुँघराले बालोंवाला जंगली आदमी। वर्बर।
⋙ वरवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण। सोना [को०]।
⋙ वरवर्णिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्तम स्त्री। २. लाख। ३. हल्दी। ४. गोरोचन। ५. कँगनी। काकुन। ६. गौरी। ७. लक्ष्मी। ८. सरस्वती। ९. महिला। स्त्री (को०)। १७. प्रियंगु लता (को०)।
⋙ वरबीह्लीक
संज्ञा पुं० [सं०] कुकुम। केसर।
⋙ वरवृद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव [को०]।
⋙ वरशिख
संज्ञा पुं० [सं०] एक असुर जिसे इंद्र ने सपरिवार मारा था।
⋙ वरशीत
संज्ञा पुं० [सं०] दालचीनी। विशेष दे० 'दारचीनी' [को०]।
⋙ वरसाल पु †
संज्ञा पुं० [सं० वर्षाकाल] वर्षाऋतु। बरसात का मौसम। उ०—बिना नीर जहो कमल है बिन बरखा वरसाल।—राम० धर्म०, पृ० ६१।
⋙ वरसावरस पु †
संज्ञा पुं० [सं० वर्ष + प्रतिवर्ष] सालोसाल। प्रति- वर्ष। उ०—सीदौ उदियासिंघ सूँ, कीधौ राम करार। सोझल लौ वरसावरस रुपिया सात हजार।—रा० रू०, पृ० २२४।
⋙ वरसुरत
वि० [सं०] १. रति के भेदों का ज्ञाता। रतिज्ञ। २. कामी। भागी। विलासी (को०)।
⋙ वरस्रक्
संज्ञा स्त्री० [सं० वरस्रज्] वरमाल। वर को पहनाई जानेवाली माला [को०]।
⋙ वरहक
संज्ञा पुं० [सं०] एक जनपद का नाम।
⋙ वरही (१)
संज्ञा पुं० [हिं० वर] सोने की एक लंबी पट्टी जो विवाह के समय वधू को पहनाई जाती है। टीका।
⋙ वरही पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वर्हिन्] मयूर। दे० 'वर्ही'।
⋙ वरही (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बारह + ई (प्रत्य०)] प्रसूता का बारहवें दिन स्नान। दे० 'बरही'।
⋙ वरही (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] मोटी रस्सी। दे० 'बरही (३)'।
⋙ वरांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० वराङ्ग] १. मस्तक। २. गुदा। ३. योनि। ४. हस्ती। ५. विष्णु का एक नाम। ६. एक प्रकार का नक्षत्र- वत्सर जो ३२४ दिनों का होता है। ७. दारचीनी। ८. पेड़ की टहनी का सिरा। ९. कामदेव का एक नाम (को०)। १०. मुख्य भाग। उत्कृष्ट अंश (को०)। ११. सुंदर रूप (को०)।
⋙ वरांग (२)
वि० सुंदर एवं सुघटित अंश युक्त [को०]।
⋙ वरांगक
संज्ञा पुं० [सं० बराङ्गक] दारचीनी।
⋙ वरागंना
संज्ञा स्त्री० [सं० वराङ्गना] सुंदर स्त्री।
⋙ वरांगी
संज्ञा पुं० [सं० वराङ्गिन्] १. हाथी। २. अमलबेल।
⋙ वरांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० वराङ्गी] १. हल्दी। २. नागदंती। ३. मजीठ।
⋙ वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. त्रिफला। रेणुका नामक गंधद्रव्य। ३. गुरुच। ४. मेदा। ५. ब्राह्मी। ६. बिड़ग। ७. पाठा। ८. हल्दी। ९. बैंगन। १०. अड़हुल। जपा। देवीफूल। ११. मद्य। १२. सोमराजी लता। १३. अपराजिता। १४. शतमूली। १५. पार्वती का एक नाम (को०)।
⋙ वराक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. युद्ध। ३. पापड़ा।
⋙ वराक (२)
वि० १. शोचनीय। २. नीच। ३. अशुचि। अशुद्ध (को०)।
⋙ वराकक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. युद्ध। लड़ाई [को०]।
⋙ वराकी
वि० स्त्री० [सं०] दीन। भाग्यहीन। दुःखिनी [को०]।
⋙ वराजीवी
संज्ञा पुं० [सं० वराजीविन्] ज्योतिषी। गणक।
⋙ वराट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौड़ी। २. रस्सी। ३. पद्मबीज। कँवलगट्टो का बीज।
⋙ वराटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौड़ी। २. रस्सी। ३. पद्म का बीज।
⋙ वरातकरजा
संज्ञा पुं० [सं० वराटकरजस्] नागकेसर का पेड़।
⋙ वराटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कौड़ी। २. तुच्छ वस्तु। ३. नागकेसर।
⋙ वराटी, वराडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक प्रकार का राग [को०]।
⋙ वराण
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. वरुण वृक्ष। बरना।
⋙ वराणसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाराणसी। काशी [को०]।
⋙ वरानना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदर स्त्री।
⋙ वरान्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. दला हुआ उत्तम अन्न। २. उत्तम खाद्य। उत्कृष्ट भोजन (को०)।
⋙ वराभिद, वराभिध
संज्ञा पुं० [सं०] अम्लवेतस्। अमलबेद।
⋙ वराम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] करौंदा।
⋙ वरारक
संज्ञा पुं० [सं०] हीरा। हीरक।
⋙ वरारणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] माता।
⋙ वरारुह
संज्ञा पुं० [सं०] वृषभ। बैल। साँड़ [को०]।
⋙ वरारोह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. एक प्रकार का पक्षी। ३. चतुर सवार। ४. अश्वारोही वा गजारोही (को०)। ५. सवार होना। सवारी करना (को०)।
⋙ वरारोह (२)
वि० [वि० स्त्री० वरारोहा] १. श्रेष्ठ सवारीवाला। २. जिसकी कटि या नितंब सुंदर हों (को०)।
⋙ वरारोहा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुंदर स्त्री। वरवर्णिनी। २. कटि। कमर। [को०]।
⋙ वरारोहा (२)
वि० स्त्री० नितंबिनी। ऊँचे चक्राकार नितंबोंवाली [को०]।
⋙ वरार्द्धक
संज्ञा पुं० [सं०] पूजा की सामग्री जिसमें चंदन, कुंकुम और जल सम भाग होता है।
⋙ वराल, वरालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लवंग। लौंग। २. दानी। दाता [को०]।
⋙ वराला
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंसिनी [को०]।
⋙ वरालि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ वरालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।
⋙ वराशि
संज्ञा पुं० [सं०] मोटा कपड़ा।
⋙ वरासत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. उत्तराधिकार। दायाधिकार। २. मृत पुरुष की संपत्ति जो उत्तराधिकार में प्राप्त हो। रिक्थ। तरका [को०]।
⋙ वरासतन्
वि० [अ०] उत्तराधिकार के रूप में [को०]।
⋙ वरासतनामा
संज्ञा पुं० [अ० वरासत + फा़० नामह्] उत्तराधिकार- पत्र। वरासत का कानूनी दस्तावेज [को०]।
⋙ वरासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रेष्ठ आसन। ऊँचा आसन। २. विवाह में वर के बैठने का आसन या पाटा। ३. जपा। देवी फूल। अड़हुल। ४. हिजड़ा। खोजा। ५. द्वारपाल।
⋙ वरासि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोटा कपड़ा। २. कृपाणधर पुरुष।
⋙ वरासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नहाने का मोटा कपड़ा। २. मैला कपड़ा। मलिन वस्त्र [को०]।
⋙ वराह
संज्ञा पुं० [सं०] १. शूकर। सूअर। २. विष्णु। ३. मुस्ता। मोथा। ४. एक पर्वत का नाम। ५. एक मान। ६. सूँस। शिंशुमार। ७. वराहीकंद। ८. अठारह द्विपों में से एक छोटा द्विप। ९. भेड़ा। मेष (को०)। १०. साँड़ (को०)। ११. बादल। मेघ (को०)। १२. मगर। घड़ियाल (को०)। १३. सेना का एक व्यूह। दे० 'वराह व्यूह' (को०)। १४. वराहमिहिर का नाम (को०)। १५. सिक्का (को०)। १६. एक प्रकार का तृण (को०)। १७. एक पुराण जो १८. पुराणों में से है।
⋙ वराहकंद
संज्ञा पुं० [सं० वराहकन्द] वराहीकंद [को०]।
⋙ वराहक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हीरा। २. शिंशुमार। सूँस।
⋙ वराहकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाण [को०]।
⋙ वराहकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अस्त्र का नाम [को०]।
⋙ वराहकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वगंधा। असगंध।
⋙ वराहकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] वह कल्प या काल जिसमें विष्णु ने वराह अवतार धारण किया था [को०]।
⋙ वराहकांता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वाराही' [को०]।
⋙ वराहक्रांता
संज्ञा स्त्री० [सं० वराहक्रान्ता] १. वाराही। २. लज्जालु। लजालू।
⋙ वराहकाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्यमुखी का फूल [को०]।
⋙ वराहपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वगंधा। असगंध।
⋙ वराहमिहिर
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के एक प्रधान आचार्य जिनके बनाए बृहत्संहिता, पंचसिद्धांतिका और वृहजातक नामक ग्रंथ प्रचलित हैं। विशेष—इनके समय के संबंध में अनेक प्रकार के प्रवाद कुछ वचनों के आधार पर प्रचलित हैं। जैसे,—ज्योतिर्विदाभरण के एक श्लोक में कालिदास, धन्वंतरि आदि के साथ वराहमिहिर भी विक्रम की सभा के नौ रत्नों में गिनाए गए हैं। पर इन नौ नामों में से कई एक भिन्न भिन्न काल से सिद्ध हो चुके हैं। अतः यह श्लोक प्रमाण के योग्य नहीं। इसी प्रकार कुछ लोग ब्रह्मगुप्त के टीकाकार पृथुस्वामी के इस वचन का आश्रय लेते हैं—'नवा- धिक पंचशतसंख्य शाके वराहमिहिराचार्य्या दिवंगतः।' और शक ५०९ में वराहमिहिर की मृत्यु मानते हैं। पर अपनी पंच- सिद्धांतिका में 'रोमकसिद्धांत' का 'अहर्गण' स्थिर करते हुए वराहमिहिर ने शक संवत् ४२७ लिया है। ज्योतिषी लोग अपना समय लेकर ही अहर्गण स्थिर करते हैं। अतः इससे ईसा की पाँचवी शताब्दी में वराहमिहिर का होना सिद्ध होता है। अपने बृहज्जातक के उपसंहाराध्याय में आचार्य ने अपना कुछ परिचय दिया है। उसके अनुसार ये अवंती (उज्जयिनी) के रहनेवाले थे। 'कायित्थ' स्थान में सूर्यदेव को प्रसन्न करके इन्होंने वर प्राप्त किया था। इनके पिता का नाम आदित्यदास था।
⋙ वराहमुक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का मोती। विशेष—जैसे, 'गजमुक्त' हाथी से उत्पन्न मानी जाती है, वैसे ही यह सूअर से उत्पन्न मानी जाती है।
⋙ वराहव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का व्यूह या सेना की रचना, जिसमें अग्र भाग पतला और बीच का भाग चौड़ा रखा जाता था।
⋙ वराहशिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक विचित्र पवित्र शिला जो हिमा- लय के शिखर पर है।
⋙ वराहशृंग
संज्ञा पुं० [सं० वराहश्रृङ्ग] शिव।
⋙ वराहशैल
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।
⋙ वराहसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वराहमिहिर रचित ज्योतिष की बृहत्संहिता नाम की प्रसिद्ध पुस्तक।
⋙ वराहांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० वराहाङ्गी] क्षु्द्रदंती।
⋙ वराहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपिकच्छु। केवाँच। कौंच।
⋙ वराही
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूअरी। शूकरी। २. भद्रमुस्ता। नागरमोथा। ३. बाराहीकंद। ४. अश्र्वगंधा। ५. एक प्रकार का पक्षी जो गौरैया के बराबर और काले रंग का होता है। ६. दे० 'वाराही'।
⋙ वराहु
संज्ञा पुं० [सं०] शूकर। सूअर।
⋙ वरिता
वि० [सं० वरित] १. वरण करनेवाला। २. ढकनेवाला [को०]।
⋙ वरिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० वरिमन्] १. श्रेष्ठता। उत्तमता। प्रमुखता। २. विस्तार। आयाम। परिणाह। ३. मंडल। घेरा [को०]।
⋙ वरिवसित
वि० [सं०] पूजित। संमानित। उपासित [को०]।
⋙ वरिवसिता
संज्ञा पुं० [सं० वरिवसितृ] उपासक। भक्त [को०]।
⋙ वारिवस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपासना। पूजा। २. सेवा। सुश्रूषा।
⋙ वरिवस्यित
वि० [सं०] दे० 'वरिवसित'।
⋙ वरिशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मछली फँसाने की कँटिया। बंसी [को०]।
⋙ वरिष
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ष। वत्सर।
⋙ वरिषा
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्षा ?] वर्षा ऋतु। बरसात [को०]। यौ०—वरिषाप्रिय—चातक पक्षी।
⋙ वरिष्ठ (१)
वि० [सं०] १. श्रेष्ठ। पूजनीय। उ०—भाव देख उन एक महा व्रतनिष्ठ के, भर आए युग नेत्र वरिष्ठ वशिष्ठ के।— साकेत, पृ० १०८। २. बहुत बड़ा। अत्यंत विस्तृत (को०)। ३. बहुत वजनी। अत्यंत भारी (को०)। ४. खराब। अत्यंत दुष्ट (को०)।
⋙ वरिष्ठ (२)
संज्ञा पुं० १. तित्तिर पक्षी। तीतर। २. चाक्षुष मनु के पुत्र का नाम। ३. धर्म सावर्णि मन्वंतर के सप्त ऋषियों में से एक। ४. ताम्र। ताँबा। ५. मिर्व। ६. उरुतमस् ऋषि का एक नाम। ७. नारंगी का पौधा (को०)।
⋙ वरिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हलदी। २. हुरहुर नाम का पौधा।
⋙ वरिस पु
संज्ञा पुं० [सं० वरिष] दे० 'वरिष' या 'वर्ष'। उ०— दरबार बरहे दिवस भइट्ठे, वरिसहु भेट्ट न पावंता।— कीर्ति०, पृ० ४६।
⋙ वरिहिष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. उशीर। खस। २. सुगंधबाला।
⋙ वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शतावरी। सतावर। २. सूर्य की पत्नी। छाया।
⋙ वरीता
वि० [सं० वरीतृ] दे० 'वरिता' [को०]।
⋙ वरीमा
संज्ञा स्त्री० [सं० वरीमन्] दे० 'वरिमा' [को०]।
⋙ वरीयान् (१)
वि० [सं० वरीयस्] १. श्रेष्ठ। २. अति युवा।
⋙ वरायान् (२)
संज्ञा पुं० १. फलित ज्योतिष में विष्कंभ आदि सत्ताईस योगों में से अठारहवाँ योग। विशेष—इस योग में जन्म लेनेवाला मनुष्य दयालु दाता, सुंदर, सत्कर्म करनेवाला और मधुर स्वभाव का होता है। २. पुलह ऋषि के एक पुत्र का नाम।
⋙ वरीवद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वलीवर्द' [को०]।
⋙ वरीषु
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ वरीसिय पु
वि० [सं० वरोयस्] प्रगाढ़। घनघोर। बहुत बड़ा। उ०—मनु सहित उड़गन नवग्रहनु मिल जुद्ध रच्चि वरीसियं।— सुजान०, पृ० १९।
⋙ वरीसणहार पु
वि० [सं० वर्षण, हिं० वरीसना + हार] बरसने- देनेवाला। उ०—लंक वरीसणहार सुण, दसकंधर दुख सीह।—बाँकी० ग्र०, भा० १, पृ० ४६।
⋙ वरु
अव्य० [अ० बल्कि, हिं० बरुक, बरु] बल्कि। उ०—खेदि देहे वरु निकलि जाउ, मोरे नामे भिखि मागि खाउ।—विद्यापति, पृ० १३।
⋙ वरुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक मोटा अन्न। एक कदन्न [को०]।
⋙ वरुट
संज्ञा पुं० [सं०] म्लेच्छों की एक जाति [को०]।
⋙ वरुड
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस, बेंत आदि से कुर्सो, चटाई आदि बनानेवाली एक जाति का नाम [को०]।
⋙ वरुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वैदिक देवता जो जल का अधिपति, दस्युओं का नाशक और देवताओं का रक्षक कहा गया है। पुराणों में वरुण की गिनती दिक्पालों में है और वह पश्चिम दिशा का अधिपति माना गया है। वरुण का अस्र पाश है। विशेष—बहुत प्राचीन वैदिक काल में वरुण प्रघान देवता थे; पर क्रमशः उनकी प्रधानता कम होती गई और इंद्र को प्रधानता प्राप्त हुई। वरुण अदिति के आठ पुत्रों में कहे गए हैं। निरुक्तकार इन्हें द्वादश आदित्यों में बतलाते हैं। ऋग्वेद में वरुण के अनेक मंत्र हैं, जिनमें से कुछ के संबंध में ऐतरेय ब्राह्मण में शुनः- शेफ की प्रसिद्ध गाथा है। इसके अनुसार 'हरिश्चंद्र वैधस' नामक एक राजा ने पुत्रप्राप्ति के लिये वरुण की उपासना की। वरुण ने पुत्र दिया, पर यह वचन लेकर कि उसी पुत्र से तुम मेरा यज्ञ करना। पुत्र का नाम रोहित हुआ। जब वह कुछ बड़ा हुआ और उसे यह पता चला कि मुझे वरुण के यज्ञ में बलिपशु बनना पड़ेगा; तब वह जंगल में भाग गया। वहाँ उसे इंद्र घर लौटने को बराबर मना करते रहे। अंत में राजा ने अजीगर्त नामक एक ऋषि को सौ गौएँ देकर उनके पुत्र शुनःशेफ को बलि के लिये मोल लिया। जब शुनःशेफ यूप में बाँधा गया, तब वह अपने छुटकारे के लिये प्रजापति, अग्नि, सविता आदि कई देवताओं की स्तुति करने लगी। अंत में वरुण की स्तुति करने से उसका उद्धार हुआ। ऋग्वेद में वरुण के कुछ मंत्र वे ही हैं, जिन्हें पढ़कर शुनःशेफ ने स्तुति की थी। पुराणों में वरुण कश्यप के पुत्र कहे गए हैं। भागवत में लिखा है कि चर्षली नाम्नी पत्नी से रुण को भाद्र और वाल्मीकि नामक दो पुत्र हुए थे। वरुण अब तक जल के देवता माने जाते हैं और जलाशयोत्सर्ग में इनका पूजन होता है। साहित्य में ये करुण रस के अधिष्ठाता माने गए हैं। पर्या०—प्रचेतस। पाशी। यादशांपति। अंपति। अंप्पति। यादः पति। अपांपति। जंबूक। मेघनाद। परंजय। वारिलोम। कुंडली। २. बरुना का पेड़। ३. जल। पानी। ४. समुद्र (को०)। ५. आकाश(को०)। ६. सूर्य। ७. एक ऋषि का नाम। ८. एक ग्रह का नाम जिसे अँगरेजी में 'नेपचून' कहते हैं। (आधुनिक)।
⋙ वरुणक
संज्ञा पुं० [सं०] बरना का वृक्ष।
⋙ वरुणकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य ऋषि। उ०—उन वरुण- कुमार अगस्त्य जी की स्तुति करने का फल हम कहाँ तक कहें।—बृहत्०, पृ० ७९।
⋙ वरुणगृहीत
वि० [सं०] जलोदर रोग से पीड़ित। जलोदर का रोगी [को०]।
⋙ वरुणग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों का एक रोग जो अचा नक हो जाता है। विशेष—इस रोग में घोड़े का तालू, जीभ, आँख और लिंगेंद्रिय आदि अंग काले रंग के हो जाते हैं। उसका शरीर भारी हो जाता है और पसीना छूटता है। यह रोग भयानक होता है और बहुत यत्न करने पर घोड़े के प्राण बचते है। २. वरुण नाम का ग्रह। नेपचून ।
⋙ वरुणघृत
संज्ञा पुं० [सं०] घृत में बनी हुई एक औषध जो अश्मरी (पथरी) रोग में दी जाती है। बिशेष—इसमें बरना नामक पेड़ की छाल को जल और घी में जलाकर काथ बनाया जाता है।
⋙ वरुणदेव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वरुणदैवत' [को०]।
⋙ वरुणदैवत
संज्ञा पुं० [सं०] शतभिषा नक्षत्र।
⋙ वरुणपीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण का अस्त्रपाश या फंदा। २. नाक नामक जलजतु। नक्र।
⋙ वरुणप्रघास
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्रत या कृत्य जो आषाढ़ या श्रावण की पूर्णिमा के दिन किया जाता है। विशेष—इसमें लोग जौ का सत्तू खाकर रहते हैं। इस व्रत का फल यह कहा गया है कि व्रत करनेवाला जल में डूबता नहीं और उसे मगर, घड़ियाल आदि जलजंतु नहीं थकड़ते।
⋙ वरुणप्रघासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पति द्वारा पत्नी से उसके प्रेमियों के बारे में पुछताछ की रीति। उ०—वरुणप्रघासा उस रीति को कहते थे, जिसमें पति अपनी पत्नी से उसके प्रेमियों के बारे में पूछता था।—प्रा० भा० प०, पृ० ९०।
⋙ वरुणप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर जो कुरुक्षेत्र के पश्चिम में था।
⋙ वरुणमंडल
संज्ञा पुं० [सं० वरुणमण्डल] नक्षत्रों का एक मंडल जिसमें रेवती, पूर्वाषाढ़ा, आर्द्रा, अश्लेषा, मूल, उत्तराभाद्रपद और शतभिषा हैं। उ०—रेवती आदि सात नक्षत्र वरुणमंडल के हैं।—वृहत्०, पृ० १४६।
⋙ वरुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वरुण'। उ०—वरुण असी गंग के तीरा।—कबीर सा०, पृ० १५८१।
⋙ वरुणांगरुह
संज्ञा पुं० [सं० वरुणाङ्गरुह] वरुणकुमार। अगस्त्य मुनि का एक नाम [को०]।
⋙ वरुणात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] जमदग्नि ऋषि [को०]।
⋙ वरुणात्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वारुणी। सुरा। मदिरा। शराब। विशेष—पुराणों में यह समुद्रमंथन से उत्पन्न कही गई है।
⋙ वरुणादिगण
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ों और पौधों का एक वर्ग। विशेष—सुश्रुत में इस वर्ग के अंतर्गत बरुन, नील झिंटी, सहिंजन, जपती मेढ़ासींगी, पूतिका, नाटकरंज, अग्निमंथ (अगेंथू), चीता, शतमूली, बेल, अजशृंगी, डाभ, बृहती और कंटकारी (भटकटैया) हैं। (सुश्रुत)।
⋙ वरुणानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वरुण की स्त्री।
⋙ वरुणालय
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।
⋙ वरुणावास
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र। [को०]।
⋙ वरुणावि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वरुण से आविर्भूत, लक्ष्मी [को०]।
⋙ वरुणेश
संज्ञा पुं० [सं०] शतभिषा नक्षत्र। दे० 'वरुण दैवत' [को०]।
⋙ वरुणोद
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।
⋙ वरुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] उपरना। उत्तरीय [को०]।
⋙ वरुल
वि० [सं०] १. संभक्त। वितरित। विभाजित। २. सर्वोत्तम। श्रेष्ठ। [को०]।
⋙ वरूथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. तनुत्राण। बकतर। २. ढाल। ३. लोहे की चद्दर या सीकड़ों का बना हुआ आवरण या झूल जो शत्रु के आघात से रथ को रक्षित करने के लिये उसके ऊपर डाली जाती थी। ४. सैन्य। सेना। फौज। ५. एक प्राचीन ग्राम (रामायण)। ६. दल। झुंड। समूह (को०)। ७. रक्षण। बचाव (को०)। ८. पारवार (को०)। ९. कोयल। कोकिल (को०)। १०. गृह। घर (को०)। ११. समय। काल (को०)।
⋙ वरूथप
संज्ञा पुं० [सं०] सेनापति।
⋙ वरूथवती
सज्ञा संज्ञा [सं०] सेना। फौज [को०]।
⋙ वरूथाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] सेनापति।
⋙ वरूथिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सेना। २. वैशाख कृष्ण एकादशी (को०)।
⋙ वरूथी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वरूथिन्] [स्त्री० वरूथिनी] १. हाथी की काठी। २. रक्षक। प्रहरी। (को०) ३. रक्षास्थान या घेरा (को०)। ४. रथ (को०)।
⋙ वरूथी (२)
वि० १. रथारूढ़। २. कवच या बकतर धारी। ३. सेना से घिरा हुआ या रक्षित। ४. रक्षक। बचानेवाला [को०]।
⋙ वरूनी ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० वरण] बरनी। वरण। उ०—सो ब्राह्मन ने रूपैया ले कै वरूनी कराई। महादेव के नाम को जज्ञ कियो। बेहोत जतन किए।—दो सौ बावन—भा० २, पृ० ४५।
⋙ वरेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० वरेन्द्र] १. राजा। २. इंद्र। ३. बंगाल का एक भाग।
⋙ वरेद्री
संज्ञा स्त्री० [सं० वरेन्द्री] गौड़ देश [को०]।
⋙ वरे
अव्य० [हिं०] परे। उधर।
⋙ वरेण
संज्ञा पुं० [सं०] बर्रे। भिड़ [को०]।
⋙ वरेणुक
संज्ञा पुं० [सं०] अनाज। अन्न [को०]।
⋙ वरेण्य (१)
वि० [सं०] १. प्रधान। मुख्य। २. वरणीय। पूजनीय। ३. जिसकी कामना की जाय (को०)।
⋙ वरेण्य (२)
संज्ञा पुं० १. भृगु के एक पुत्र का नाम। २. महादेव। ३. कुंकुम। केसर। ४. पितृगणों का एक वर्ग (को०)।
⋙ वरेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ वरोट
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरुवा। मरुवाक। २. मरुवा का पुष्प (को०)।
⋙ वरोरु
वि० स्त्री० [सं०] १. श्रेष्ठ जंघोंवाली। २. सुंदरी।
⋙ वरोरू
वि० स्त्री० [सं०] दे० 'वरोरु'।
⋙ वरोल
संज्ञा पुं० [सं०] बर्रे भिड़। [को०]।
⋙ वर्क
संज्ञा पुं० [अं०] १. हाथी का बंधन जो लकड़ी का बना हुआ और काँटेदार होता है। २. काँटा। कील। ३. अगरी। अर्गल।
⋙ वर्कण
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवान बकरी। पठिया।
⋙ वर्कर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जावन पशु। २. बकरा। ३. भेड़ का बच्चा। मेमना। ४. आमोद प्रमोद। परिहास। यौ०—वर्कर कर्कर = मेढ़ा, बकरा आदि बाँधने का चमड़े का फीता या रस्सी।
⋙ वर्कर (२)
संज्ञा पुं० [अं०] कार्यकर्ता। काम करनेवाला।
⋙ वर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवान बकरी। पठिया [को०]।
⋙ वर्कराट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कटाक्ष। २. मध्याह्न के सूर्य की प्रभा। ३. स्त्री के कुच के किनारे लगा हुआ नखक्षत्र।
⋙ वर्किंग कमिटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] कार्यकारिणी समिति। जैसे— कांग्रेस वर्किंग कमिटी।
⋙ वर्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] किल्ली। कील [को०]।
⋙ वर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ही प्रकार की अनेक वस्तुओं का समूह। जाति। कोटि। गण। श्रेणी। २. आकार प्रकार में कुछ भिन्न, पर कोई एक सामान्य धर्म रखनेवाले पदार्थों का समूह। जैसे, अंतरिक्ष वर्ग शूद्र वर्ग, ब्राह्मण वर्ग। ३. शब्दशास्त्र में एक स्थान से उच्चरित होनेवाला स्पर्श ब्यंजन वर्णों का समूह । जैसे,—कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, इत्यादि। विशेष—ज्योतिष में स्वर अंतस्थ और ऊष्म वर्ण भी (जैसे,—अ, य, श,) क्रमशः अवर्ग, यवर्ग और शवर्ग के अंतर्गत रखे गए हैं। इस प्रकार ज्योतिष के व्यवहार के लिये सब वर्णो के विभाग 'वर्ग' के अंतर्गत किए गए हैं और अवर्ग, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यवर्ग, तथा शवर्ग के स्वामी क्रमशः सूर्य, मंगल, शुक्र, बुध, बृहस्पति, शनि और चंद्रमा कहे गए हैं। ४. ग्रंथ का विभाग। परिच्छेद। प्रकरण। अध्याय। ५. दो समान अंकों या राशियों का घात या गुणनफल। जैसे,—३ का ९,५ का २५ (३x३ = ९। ५x५ = २५)। ६. वह चौखूँटा क्षेत्र जिसकी लंबाई चौड़ाई बराबर और चारों कोण समकोण हों। (रेखागणित)। ७. शक्ति। सामर्थ्य (को०)। ८. अर्थ, धर्म तथा काम का त्रिवर्ग (को०)।
⋙ वर्गचर
संज्ञा पुं० [सं०] पढ़ना या पहिना मछली। पाठीन।
⋙ वर्गघन
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ग का घन।
⋙ वर्गण
संज्ञा पुं० [सं०] गुणन। घात।
⋙ वर्गणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुणन। घात। २. संचयन। एकत्रीकरण। राशि। ३. श्रेणी। विभाग। विभाजन [को०]।
⋙ वर्गपद
संज्ञा पुं० [सं०] वह अंक जिसके घात से कोई वर्गांक बना हो। वर्गमूल।
⋙ वर्गफल
संज्ञा पुं० [सं०] वह गुणनफल जो दो समान राशियों के घात से प्राप्त हो। वह अंक जो किसी अंक को उसी अंक के साथ गुणा करने से आवे। जैसे,—५ का वर्गफल २५ होता है।
⋙ वर्गभेद
संज्ञा पुं० [सं०] दो या अधिक वर्गों वा श्रेणियों का पार- स्परिक अंतर। उ०—इसलिये वर्गभेद और द्वेष दिन पर दिन बढ़ता ही गया।—भा० इ० रू०, पृ० ६७।
⋙ वर्गमूल
संज्ञा पुं० [स०] किसी वर्गांक का वह अंक जिसे यदि उसी से गुणन करें, तो गुणन वही वर्गांक हो। जैसे,—४ वर्गांक का वर्गमूल २ और २५ का ५ होगा।
⋙ वर्गवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ग का वर्ग। जैसे,—३ का वर्ग ९ और उसका वर्ग ८१ (९X९) हुआ [को०]।
⋙ वर्गलाना
क्रि० स० [फ़ा० 'वरगला नीदन' से] १. कोई काम करने के लिये उभारना। कुछ करने के लिये उत्तेजित करना। उकसाना। २. बहकाना। फुसलाना।
⋙ वर्गशः
क्रि० वि० [सं० वर्गशस्] वर्गों के अनुसार। वर्गों के क्रम से [को०]।
⋙ वर्गस्थ
वि० [सं०] वर्ग के साथ रहनेवाला। पक्षपाती। तरफदार [को०]।
⋙ वर्गांक
संज्ञा पुं० [सं० वङ्गकि] वह अंक जो किसी अंक का वर्ग हो [को०]।
⋙ वर्गांत्य
संज्ञा पुं० [सं० वर्गान्त्य] व्याकरण में वर्ग का अंतिम अक्षर। नासिक्य वर्ण।
⋙ वर्गाष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] व्यंजनों के आठ वर्ग। जैसे, कवर्ग, चवर्ग आदि [को०]।
⋙ वर्गी (१)
वि० [सं० वर्गिन्] किसी वर्ग या पक्ष से संबंधित।
⋙ वर्गी (२)
संज्ञा पुं० वर्ग का नेता [को०]।
⋙ वर्गीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] वस्तुओं को विभिन्न वर्गों में बाँटना [को०]।
⋙ वर्गीकृत
वि० [सं०] १. वर्गों में बँटा हुआ। २. गणित में जिसका वर्ग किया गया हो [को०]।
⋙ वर्गीण
वि० [सं०] वर्गी। वर्ग से संबद्ध [को०]।
⋙ वर्गीय (१)
वि० [सं०] किसी वर्ग से संबद्ध [को०]।
⋙ वर्गीय (२)
सहपाठी [को०]।
⋙ वर्गोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] १. फलित ज्योतिष में राशियों के वे श्रेष्ठ अंश जिनमें स्थित ग्रह शुभ होते हैं। विशेष—चर राशि (मेष, कर्कट, तुला, मकर) का प्रथम अंश, स्थिर राशि (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) का पंचम अंश और द्वयात्मक राशि (मिथुन, कन्या, धनु, मीन) का नवम अंश वर्गोत्तमकहा जाता है। इसके अतिरिक्त राशियों का नवांश भी वर्गोत्तम कहा जाता है। २. नासिक्य वा अनुनासिक वर्ण। दे० 'वर्गात्य' (को०)।
⋙ वर्ग्य (१)
वि० [सं०] एक ही वर्ग, जाति या समूह से संबद्ध। (व्यक्ति, पदार्थ आदि)।
⋙ वर्ग्य (२)
संज्ञा पुं० १. सहयोगी। २. वर्गीय। सहाध्यायी [को०]।
⋙ वर्चःस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] पाखाना। (परा० स्मृति)।
⋙ वर्चटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या। पातुर। २. एक प्रकार का धान [को०]।
⋙ वर्चस्
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वर्चस्वान्, वर्चस्वी] १. रूप। २. तेज। कांति। दीप्ति। ३. अन्न। ४. विष्ठा। ५. शक्ति। शौर्य (को०)। ६. शुक्र। वीर्य (को०)।
⋙ वर्चस्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. दीप्ति। तेज। २. विष्ठा। ३. शौर्य। शक्ति (को०)।
⋙ वर्चस्य
वि० [सं०] १. तेजवर्धक। २. रेचक। दस्तावर (को०)।
⋙ वर्चस्व
संज्ञा पुं० [सं० वर्चंस्] १. शक्ति। २. प्राधान्य। उ०— मेरी प्रार्थना यह है कि वे महानुभाव जीवन को सर्वांगरूप में समझने में अपनी असमर्थता प्रकट कन्ते हैं जब वे काव्य या कला में घोर पदार्थमूलक उपयोगितावाद का ही वर्चस्व चाहने लगते हैं।—कुंकुम, पृ० ७।
⋙ वर्चस्वान्
वि० [सं० वर्चस्वत्] [स्त्री० वर्चस्विणी] १. वर्चस् युक्त। शक्तिमान्। २. तेजवान्। दीप्तियुक्त। समुज्वल।
⋙ वर्चस्वी (१)
वि० [सं० वर्चस्विन्] [स्त्री० वचर्स्विणी] १. तेजस्वी। दीप्तियुक्त। २. शौर्यशाली। शक्तिमान।
⋙ वर्चस्वी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ वर्चा
संज्ञा पुं० [सं० वर्चस्] बुध। चंद्रमा का पुत्र [को०]।
⋙ वर्चोग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] कब्ज। कोष्ठबद्धता [को०]।
⋙ वर्चोभेद
संज्ञा पुं० [सं०] अतीसार [को०]।
⋙ वर्चोमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] गुदा [को०]।
⋙ वर्चोविनिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वर्चोंग्रह' [को०]।
⋙ वर्ज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] परित्याग। छोड़ देना [को०]।
⋙ वर्ज (२)
वि० छोड़ा हुआ। परित्यक्त [को०]।
⋙ वर्जक
वि० [सं०] १. वर्जन करनेवाला। २. त्यागनेवाला [को०]।
⋙ वर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वर्जनीय, वर्ज्य, वर्जित] १. त्याग। छोड़ना। २. ग्रहण या आचरण का निषेध। मनाही। मुमानियत। ३. हिंसा। मारण। ४. अपवाद (को०)।
⋙ वर्जना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्जन। निषेध। मनाही। उ०—प्रभु की वह सौम्य वर्जना।—साकेत, पृ० ३५७।
⋙ वर्जना (२)
क्रि० स० [सं० वर्जन] १. बरजना। मना करना। निषेध करना। २. त्यागना। छोड़ना।
⋙ वर्जनीय
वि० [सं०] १. छोड़ने योग्य। न ग्रहण करने योग्य। त्याज्य। २. निषेध के योग्य। निषिद्ध। मना।
⋙ वर्जयिता
वि० [सं० वर्जयितृ] १. वर्जन करनेवाला। २. त्यागनेवाला। छोड़नेवाला।
⋙ वर्जित
वि० [सं०] १. त्यागा हुआ। छोड़ा हुआ। त्यक्त। २. जो ग्रहण के अयोग्य ठहराया गया हो। अग्राह्य। निषिद्ध। जैसे,—कलि में नियोग वर्जित है। ३. रहित। जैसे, गुणवर्जित।
⋙ वर्जिश
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० वर्जि़श] दे० 'वरजिश'।
⋙ वर्जी
वि० [सं० वर्जिन्]दे० 'वर्जक' [को०]।
⋙ वर्ज्य (१)
वि० [सं०] १. छोड़ने योग्य। त्याज्य। वर्जनीय। २. जिसका निषेध किया गया हो। जो मना हो। ३. अपवाद योग्य (को०)।
⋙ वर्ज्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा की एक विशेष स्थिति जिसमें नया काम निषिद्ध होता है [को०]।
⋙ वर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पदार्थों के लाल, पीले आदि भेदों का नाम। रंग। विशेष दे० 'रंग'। २. जनसमुदाय के चार विभाग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जो प्राचीन आर्यों ने किए थे। जाति। विशेष—इस शब्द का प्राचीन प्रयोग ऋग्वेद में है। वहाँ यह जनता के दो वर्गों आर्यों और दस्युओं को सूचित करने के लिये हुआ है। यह विभाग पहले रंग के आधार पर था; क्योंकि आर्यं गोरे थे और दस्यु या अनार्य काले। पर पीछे यह विभाग व्यवसाय के आधार पर हुआ और चार वर्ण माने गए। पुरुष- सूक्त में चारों वर्णों की उत्पत्ति का आलंकारिक रूप से इस प्रकार वर्णन है कि ब्राह्मण ईश्वर के मुख से, क्षत्रिय बाहु से, वैश्य जंघे से और शूद्र पैर से उत्पन्न हुए। इस व्यवस्था के अनुसार 'वर्ण' शब्द की व्युत्पत्ति 'वृ' धातु से बताई जाती है, जिसका अर्थ है 'चुनना'। अतः 'वर्ण' शब्द का अर्थ हुआ व्यव- साय। स्मृतियों में भिन्न भिन्न वर्णों के धर्म निरूपित हैं। जैसे, ब्राह्मण का धर्म—अध्ययन, अध्यापन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह; क्षत्रिय का धर्म—प्रजारक्षा, दान, यज्ञानुष्ठान और अध्ययन; वैश्य का धर्म—पशुपालन, कृषि, दान, यज्ञ और अध्ययन; शूद्र का धर्म—तीनों वर्णों की सेवा। व्यवसायभेद और सब देशों में भी चला आ रहा है, पर भारतीय आयों की लोकव्यवस्था में वह व्यवसायों के विचार से जातिगत या जन्मना माना गया है। इसी 'वर्ण' और 'आश्रम' की व्यवस्था को भारतीय आर्य अपना विशेष लक्षण मानते थे और अपने धर्म को 'वर्णाश्रम धर्म कहते थे'। ३. भेद। प्रकार। किस्म। ४. आकारादि शब्दों के चिह्न या संकेत अक्षर। ५. गुण। ६. यश। कीर्ति। ७. स्तुति। बड़ाई। ८. स्वर्ण। सोना। ९. मृदंग का एक ताल जो चार प्रकार का होता है—पाट,विधि पाट, कूट पाट और खंड पाट। १०. रूप। ११. अंगराग। विलेपन। १२. कुंकुम। केसर। १३. चित्र। तसवीर। १४. रग। रोगन (को०)। १५. रंग ढंग। आकृति। बाह्म रूप (को०)। १६. पोशाक। वेशभूषा (को०)। १७. एकप्रकार का ढीला ढाला अँगरखा। लबादा (को०)। १८. ढक्कन। आवरण (को०)। १९. हाथी की झूल (को०)। २०. उपवास। व्रत (को०)। २१. अज्ञात राशि (को०)। २२. एक की संख्या (को०)। २३. एक माप (को०)। २४. एक गंध- द्रव्य (को०)।
⋙ वर्णकंट
संज्ञा पुं० [सं० वर्णकण्ट] तूतिया।
⋙ वर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरताल। २. अनुलेपन। उबटन। ३. ३. चंदन। ४. पिसी हुई हल्दी आदि जो देवताओं को चढ़ाई जाती है। ५. मंडल। ६. चारण। ७. रंग। ८. अभिनेताओं के परिधान या परिच्छद। ९. चित्रकार। १०. विभाग। अध्याय। परिच्छेद (को०)। ११. सिंदूर (को०)। १२. चित्रलेखन (को०)। १३. ढाँचा। रूपरेखा (को०)। १४. अक्षर। वर्ण। १५. वत्ता। व्याख्याता (को०)। १६. कलम। लेखनी। उ०—ललितविस्तर के अघ्याय १० (अंग्रेजी अनुवाद, पृ० १८१-१८५) में बुद्ध का लिपिशाला में जाकर अध्यापक विश्वामित्र से चंदन की पाटी पर वर्णक (कलम) से लिखना सीखने का वृत्तांत मिलता है।—भा० प्रा० लि०, पृ० ६।
⋙ वर्णका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नृत्यादि के समय अभिनेताओं का परिच्छद या परिधान। २. रंग। रोगन। ३. उच्च कोटि का सोना। ४. सेंदुर। ईंगुर [को०]।
⋙ वर्णकवि
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर के एक पुत्र का नाम [को०]।
⋙ वर्णकूपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दावात। मसिपात्र [को०]।
⋙ वर्णक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. अक्षरानुक्रम। २. जाति या रंगों का क्रम [को०]।
⋙ वर्णखंडमेरु
संज्ञा पं० [सं० वर्णखण्डमेरु] पिंगल या छंदशास्त्र में वह क्रिया जिससे बिना मेरु बनाए मेरु का काम निकल जाता है। अर्थात् यह ज्ञात हो जाता है कि इतने वर्णों के कितने वृत्त हो सकते हैं और प्रत्येक वृत्त में कितने गुरु और कितने लघु होंगे। विशेष—जितने वर्णों का खंडमेरु बनाना हो, उतने से एक कोष्ठ अधिक बाईं से दाहिनी ओर को बनावे। फिर उन्हीं कोष्ठों के नीचे पहला स्थान छोड़कर दूसरे स्थान से आरंभ करके ऊपर से एक कोष्ठ कम बनावे। इसी प्रकार उसी स्थान से नीचे एक कोष्ठ कम बराबर बनाता जाता जाय, जब तक एक कोष्ठ न आ जाय। इन कोष्ठों को इस प्रकार भरे, कोष्ठों की पहली पंक्ति में बाईं ओर से सब में एक एक का अंक लिखे। दूसरी पंक्ति के पहले कोष्ठ से आरंभ करके क्रमशः २, ३, ४, ५, ६, आदि अंत तक लिख जाय। इसके अनंतर कोष्ठों की प्रथम पंक्ति के तीसरे अंक से उत्तरोत्तर नीचे की ओर वक्रगति से अंकों को जोड़कर अगले खानों में रखता जाय। अंतिम कोष्ठों में जो अंक होंगे, वे लघु गुरु के हिसाब से वृत्तों के भेद सूचित करेंगे। उदाहरणार्थ आठ वर्णों का खंडमेरु बनाना हो, तो इस प्रकार करे—
⋙ वर्णखंडमेरु की आकृति— १ १ १ १ १ १ १ १ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ३ ६ १० १५ २१ २८ ४ १० २० ३५ ५६ ५ १५ ३५ ७० ६ २१ ५६ ७ २८ ८ वर्ण वृत्तों में एक भेद ऐसा होगा जिसमें सब गुरु होंगे; और एक ऐसा होगा, जिसमें सब लघु होंगे अतः सर्वगुरु से आरंभ करके एक एक गुरु घटाते जायँ, तो भेदों की संख्या इस प्रकार होगी। १ भेद ऐसा होगा, जिसमें सब (८) गुरु होंगे। ८ भेद ऐसे ऐसे होंगे जिनमें १ लघु और ७ गुरु होंगे। ८ भेद ऐसे होंगे जिनमें २ लघु और ६ गुरु होंगे। ५६ भेद ऐसे होंगे, जिनमें ३ लघु और ५ गुरु होंगे। ७० भेद ऐसे होंगे, जिनमें ४ लघु और ४ गुरु होंगे। ५६ भेद ऐसे होंगे, जिनमें ५ लघु और ३ गुरु होंगे। २८ भेद ऐसे होंगे, जिनमें ६ लघु और २ गुरु होंगे। ८ भेद ऐसे होंगे जिनमें ७ लघु और १ गुरु होगा। एक भेद ऐसा होगा, जिसमें सब लघु होंगे।
⋙ वर्णगत
वि० [सं०] १. रंगीन। रंग या वर्ण युक्त। २. बीज गाणित संबंधी [को०]।
⋙ वर्णगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] राजा का पुत्र। राजकुमार। राजा [को०]।
⋙ वर्णग्रथणा
संज्ञा पुं० [सं०] पद्यरचना की एक पद्धति [को०]।
⋙ वर्णचारक
संज्ञा पुं० [सं०] चित्रकार [को०]।
⋙ वर्णचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] रंगों के द्वारा बना चित्र। रंगीन चित्र। उ०—इस काल में भी वर्णचित्र और रेखाचित्र भी बने जरूर होंगे।—भा० इ० रू०, पृ० ३७।
⋙ वर्णज्येष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] सब वर्णों में बड़ा, ब्राह्मण।
⋙ वर्णतर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वर्णतर्णिका] चटाई या बिछाने के काम में प्रयुक्त ऊनी वस्त्र। ऊन की दरी [को०]।
⋙ वर्णतूलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कूँची जिससे चित्रकार चित्र बनाते हैं।कलम।
⋙ वर्णतूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वर्णतूलि'।
⋙ वर्णतूली
संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्र बनाने की कूँची। दे० 'वर्णतूलि'।
⋙ वर्णद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कालीयक। एक प्रकार की पीली लकड़ी [को०]।
⋙ वर्णद (२)
वि० रंग देनेवाला। रँगनेवाला [को०]।
⋙ वर्णदात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरिद्रा। हल्दी [को०]।
⋙ वर्णदूत
संज्ञा पुं० [सं०] लिपि। लेख।
⋙ वर्णदूषक
संज्ञा पुं० [सं०] अपने संसर्ग से दूसरे को जातिभ्रष्ट करनेवाला। पंक्तिदूषक। पतित मनुष्य।
⋙ वर्णधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] वर्णों या जातियों का पृथक् पृथक् धर्म। जातिधर्म [को०]।
⋙ वर्णधर्मी
वि [सं० वर्णधर्मिन्] वर्णव्यवस्था को माननेवाला। वर्णों के धर्म में विश्वास रखनेवाला। उ०—यह मर्यादी उन आर्य, अनार्य, अनुलोम, संकर सभी पर लागू हो, जो वर्णधर्मी हों।—वैशाली०, पृ० ३४०।
⋙ वर्णधातु
संज्ञा पुं० [सं०] गेरू, ईंगुर आदि रंग के काम में आनेवाली धातु।
⋙ वर्णन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वर्णनीय, वर्ण्य, वर्णित] १. चित्रण। रँगना। २. किसी बात को सविस्तार कहना। कथन। बयान। उ०—सो चौबीस रूप निज कहियत वर्णन करत विचार।— सूर (शब्द०)। ३. स्तवन। प्रशंसा। गुणकथन। तारीफ। ४. लिखना। लेखन (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ वर्णनष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] प्रिंगल या छंदःशास्त्र में एक क्रिया जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि प्रस्तार के अनुसार इतने वर्णों के वृत्तों के अमुक संख्यक भेद का रूप लघु गुरु के हिसाब से कैसा होगा। विशेष—जितने वर्ण के प्रस्तार के किसी भेद का रूप निकालना हो, उतने लघु के चिह्न लिखकर उनके सिरे पर क्रमशः वर्णीद्दिष्ट अंक (१ से आरंभ करके क्रमशः दूने दूने अंक) लिखे। फिर अंतिम अंक का दूना करके उसमें से पूछी हुई संख्या घटावे। जो अंक शेष रहे, वह जिन जिन उद्दिष्टों के योग से बना हो, उनके नीचे की लघु मात्राओं के चिह्नों को गुरु कर दे। जो रूप सिद्ध होगा, वही उत्तर होगा। जैसे,—किसी ने पूछा कि चार वर्णों के प्रस्तार में तेरहवें भेद का रूप क्या होगा ? इसके लिये हमने यह क्रिया की— १ २ ४ ८ I I I I I I I I I I I I अंतिम अंक ८ का दूना १६ हुआ। उसमें से १३ घटाया, तो ३ रहा। अब हमने देखा कि ३ संख्या ऊपर दिए हुए उद्दिष्टांकों में से १ और २ जोड़ने से आ जाती है। अतः उनके नीचे गुरु बनाया तो यह रूप ऽऽ।। सिद्ध हुआ।
⋙ वर्णना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुणकथन। २. चित्रकारी। ३. व्याख्या। किसी विषय का व्यौरेवार कथन। ४. लेखन (को०)।
⋙ वर्णनातीत
वि० [सं०] जिसका वर्णन न हो सके। अवर्णनीय [को०]।
⋙ वर्णनात्मक
वि० [सं०] वर्णनप्रधान। जिसमें वर्णन की प्रमुखता हो। वर्णन संबंधी। उ०—ऐसी अलंकृत भाषा में जो भिन्न भिन्न भागों में भिन्न भिन्न रीतियों से चमत्कृत हो—वर्णनात्मक रीति से नहीं वरन् कार्यात्मक रीति से। —पा० सा० सि० पृ० ३।
⋙ वर्णनाश
संज्ञा पुं० [सं०] निरुक्तकार के अनुसार शब्द में किसी वर्ण का नष्ट हो जाना। जैसे,—'पृषोदर' शब्द में 'पृषतोदर' शब्द के 'त' का नाश पाया जाता है।
⋙ वर्णनीय
वि० [सं०] १. चित्रण करने योग्य। २. वर्णन करने योग्य [को०]।
⋙ वर्णपताका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिंगल या छंदःशास्त्र में एक क्रिया, जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि वर्णवृत्तों के भेदों में से कौन सा (पहला, दूसरा या तीसरा आदि) ऐसा है, जितमें इतने लघु और इतने गुरु होंगे।
⋙ वर्णपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. लघु तल्प। २. रंग रखने का पात्र।
⋙ वर्णपारचय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अक्षरों का बोध करानेवाली पुस्तक। २. सगीत का ज्ञान [को०]।
⋙ वर्णपरिध्वंस
संज्ञा पुं० [सं०] जातिच्युति। जातिभ्रंश [को०]।
⋙ वर्णपात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वर्णनाश'।
⋙ वर्णपाताल
संज्ञा पुं० [सं०] पिंगल या छंदःशास्त्र में एक क्रिया जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि अमुक संख्या के वर्णों के कुल कितने वृत्त हो सकते हैं और उन वृत्तों में से कितने लघ्वादि और कितने लघ्वंत, कितने गुर्वादि और कितने गुर्वंत तथा कितने सर्वगुरु और कितने सर्वलघु होंगे। विशेष—जितने वर्णों का पाताल बनाना हो, उतनी ही खड़ी रेखाएँ और उन्हें काटती हुई पाँच आड़ी रेखाएँ खींचे। इस प्रकार कोष्ठ बन जाने पर कोष्ठों की पहली पंक्ति में क्रम से १, २, ३, ४ आदि अंक भरे। दूसरी पंक्ति में २, ४, ५, १६ आदि वर्णसूची के अंक लिखे। तीसरी पंक्ति में सूची के अंकों के आधे लिखे; और चौथी पंक्ति में पहली और तीसरी पंक्ति के अंकों का गुणनफल लिखे। उदाहरण के लिये ९ वर्णों का पाताल इस प्रकार होगा। १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ वर्णसंख्या। २ ४ ८ १६ ३२ ६४ १२८ २४६ ५१२ सर्वसंख्या। १ २ ४ ५ १६ ३२ ६४ १२८ २५६ लघ्वाद, लव्वंत, गुर्वदि, गुर्वंत। १ ४ १२ ३२ ८० १९२ ४४८ १०२४ २३०४ सर्वगुरु, सर्वलघु। इस पाताल से विदित हुआ कि ९ वर्णों के ५१२ वृत्त हो सकते हैं। इन वृत्तों में २५६ ऐसे वृत्त होंगे, जिनके आदि में लघु होंगे; २५६ ऐसे होगे, जिनके अंत में लघु होंगे; फिर २५६ ऐसे होंगे जिनके आदि में गुरु होंगे; और २५६ ऐसे होंगे, जिनके अंत में गुरु होंगे। सब वृत्तों में कुल मिलाकर २३०४ गुरु और २३०४ लघु होंगे।
⋙ वर्णपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वर्णपत्र' [को०]।
⋙ वर्णपुर
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध राग का एक भेद।
⋙ वर्णपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारिजात। २. राजतरुणी नाम का फूल का वृक्ष [को०]।
⋙ वर्णपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वर्णपुष्प' [को०]।
⋙ वर्णप्रकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. रंग की विशिष्टता। २. जाति की उत्तमता [को०]।
⋙ वर्णप्रणाली
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्ण+प्रणाली] वर्णों या जातियों में एक क्रम के स्थापन की पद्धति। वर्णव्यवस्था। उ०—यज्ञ- विधियों के विस्तार के साथ ही साथ उस वर्णप्रणाली का भी विकास और संगठन होने लगा जिसमें ब्राह्मणों को सामाजिक एवं धार्मिक श्रेष्ठता प्राप्त हुई।—संत० दरिया (भू०), पृ० ५३।
⋙ वर्णप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं०] छंदःशास्त्र या पिंगल मे वे क्रियाएँ जिनके द्वारा यह जाना जाता है कि अमुक सख्या के वर्णवृत्तों के कितने भेद हो सकते हैं और उनके स्वरूप क्या होंगे, इत्यादि। विशेष—जिस प्रकार मात्रिक छंदों में ९ प्रत्यय होते हैं, उसी प्रकार वर्णवृत्तों में भी ९ प्रत्यय होते हैं—प्रस्तार, सुची, पाताल, उद्दिष्ट, नष्ट, मेरु, खंडमेरु, पताका और मर्कटी।
⋙ वर्णप्रसादन
संज्ञा पुं० [सं०] अगुरु [को०]।
⋙ वर्णप्रस्तार
संज्ञा पुं० [सं०] पिंगल या छंदःशास्त्र में वह क्रिया जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि इतने वर्णों के वृत्तों के इतने भेद हो सकते हैं और उन भेदों के स्वरूप इस प्रकार होंगे। विशेष—जितने वर्णों का प्रस्तार बढ़ाना हो, उतने वर्णों का पहला भेद (सर्वगुरु) लिखे। फिर गुरु के नीचे लघु लिखकर शेष ज्यों का त्यों लिखे। फिर सबसे बाईं ओर के गुरु के नीचे लघु लिखकर आगे ज्यों का त्यों लिखे; और बाईँ ओर जितनी न्युनता रहे, उतनी गुरु से भरे। यह क्रिया अंत तक अर्थात् सर्वलवु भेद के आने तक करे। उदाहरण के लिये तीन वर्णों का प्रस्तार इस प्रकार होगा— रूप भेद SSS पहला ISS दूसरा SIS तीसरा IIS चौथा SSI पाँचवाँ ISI छठा SII सातवाँ III आठवाँ इस प्रस्तार से प्रकट हुआ कि तीन वर्णों के आठ ही भेद हो सकते हैं; अर्थात् आठ ही प्रकार के वृत्त बन सकते हैं, अधिक नहीं।
⋙ वर्णबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अक्षर या ध्वनिजन्य संबद्ध आशय अथवा बोध [को०]।
⋙ वर्णाभिन्न
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत का एक ताल [को०]।
⋙ वर्णभीरु
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वर्णभिन्न' [को०]।
⋙ वर्णभेद
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर के वर्णां या जाति के कारण होनेवाला भेदभाव [को०]।
⋙ वर्णमेदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोटा अन्न जिसमें बाजरा, कोदो, मड़ुवा, जोन्हरी आदि हैं [को०]।
⋙ वर्णमचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्णमञ्चिका] संगीत का एक ताल [को०]।
⋙ वर्णमर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिंगल या छंदःशास्त्र में एक क्रिया जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि इतने वर्णों के इतने वृत्त हो सकते हैं, जिनमें इतने गुर्वादि, गुर्वंत और इतने लध्वाद लध्वत होंगे; तथा सब वृत्तों में मिलाकर इतने वर्ण, इतने गुरु, लघु, इतनी कलाएँ और इतने पिंड (=दो कल) होंगे। विशेष—जितने वर्णं हों, उतने खाने बाएँ से दाहिने बनावे। फिर उन खानों के नीचे उतने ही खानों की छह पंक्तियाँ और बनावे। कोष्ठों की पहली पंक्ति में १, २, ३,आदि अंक लिखे; दूसरी में वर्णसूची के अंक (२, ४, ५, १६,आदि) लिखे; तीसरी पक्ति में दूसरी पक्ति के अकों के आधे अक भरे; चौथी में पहली और दूसरी पंक्ति के अंकों के गुणनफल लिखे; पाँचवीं में चौथी पंक्ति के आधे अंक भरे; छठी पंक्ति में चौथी और पाँचवीं पंक्ति के अंकों का योग लिखे; और सातवों पंक्ति में छठो पंक्ति के आधे अंक भरे। उदाहरण के लिये छह वर्णों की मर्कटी इस प्रकार होगी। १ २ ३ ४ ५ ६ वर्णसंख्या २ ४ ८ १६ ३२ ६४ वृत्तों की संख्या १ २ ४ ८ १६ ३२ गुर्वादि, गुर्वंत, लघ्वादि, लघ्वंत २ ८ २४ ६४ १६० ३८४ सर्व वर्ण १ ४ १२ ३२ ८० १९२ गुरु लघु ३ १२ ३६ ९६ २४० ५७६ सर्व कला १ १/२ ६ १८ ४८ १२० २८८ पिंड इस मर्कटी से प्रकट हुआ कि ६ वर्णों के६४ वृत्त हो सकते हैं। ३२ वृत्त ऐसे होंगे जिनके आदि में गुरु, ३२ ऐसे जिनके अंत में गुरु, ३२ ऐसे जिनके आदि में लघु और ३२ ही ऐसे जिनके अंत में लघु होंगे। सब वृत्तों को मिलाकर ३८४ वर्ण होंगे; इत्यादि, इत्यादि।
⋙ वर्णमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्णमातृ] कलम। लेखनी [को०]।
⋙ वर्णमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरस्वती। विद्या देवी। २. वर्ण माला [को०]।
⋙ वर्णमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अक्षरों के रूपों की य़थाश्रेणी लिखित सूची। किसी भाषा में आनेवाले सब हरफ जो ठीक सिलसिलेसे रखे हों। जैसे देवनागरी में अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ् ए ऐ ओ औ। क ख ग घ ङ। च छ ज झ ञ। ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न। प फ ब भ म। य र ल व। श ष स ह। अ अः।
⋙ वर्णपति
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक एक ताल का नाम् [को०]।
⋙ वर्णरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] खड़िया मिट्टी [को०]।
⋙ वर्णलेखा, वर्णलेखिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] खड़िया [को०]।
⋙ वर्णवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] हल्दी।
⋙ वर्णवर्ति, वर्णवर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चित्र बनाने की कूँची या कलम। २. पौसेल [को०]।
⋙ वर्णवादी
संज्ञा पुं० [सं० वर्णवादिन्] स्तुतिपाठक। बंदीजन चारण। वैतालिक [को०]।
⋙ वर्णविकार
संज्ञा पुं० [सं०] निरुक्त के अनुसार शब्दों में एक वर्ण का बिगड़कर दूसरा वर्ण हा जाना। जैसे 'हल्दी' शब्द में 'हरिद्रा' के 'र' का 'ल' हो गया है। 'द्वादश' के 'द' का 'बारह' शब्द में 'र' हो गया है।
⋙ वर्णविक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] जातिगत विद्वेष। किसी जाति के प्रति दुर्भावना [को०]।
⋙ वर्णविचार
संज्ञा पुं० [सं०] आधुनिक व्याकरण का वह अंश जिसमें वर्णों के आकार, उच्चारण और संधि आदि के नियमों का वर्णन हो। विशेष—प्राचीन वेदांग में यह विषय 'शिक्षा' कहलाता था और व्याकरण से बिल्कुल स्वतंत्र माना जाता था।
⋙ वर्णविन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. रूपयोजना। चित्रण। रूपाकंन। २. अक्षरों की योजना। वर्णों का चुनाव। उ०—जिस प्रकार की रूपरेखा या वर्णविन्यास से किसी की तदाकार परिणति होती है, उसी प्रकार की रूपरेखा या वर्णविन्यास उसके लिये सुदर है।—रास०,पृ० ३०। ३. वर्ण नवृत्ति। हिज्जे।
⋙ वर्णविपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] निरुक्त के अनुसार शब्दों में वर्णों का उलटफेर हो जाना। जैसे, 'हिंस' शब्द से बने 'सिंह' शब्द में हुआ है।
⋙ वर्णविभाग
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वर्णव्यवस्था'।
⋙ वर्णविलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हल्दी।
⋙ वर्णविलोडक
संज्ञा पुं० [सं०] १. काव्य का चोर। काव्यार्थचौर। रचना का चोर। २. सेंध खोलकर चोरी करनेवाला। सेंधिया चोर [को०]।
⋙ वर्णविवृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्णविन्यास। हिज्जे [को०]।
⋙ वर्णवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह पद्य जिसके चरणों में वर्णों की संख्या और लघु गुरु के क्रमों में समानता हो।
⋙ वर्णव्यतिक्रांता
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्णव्यतिक्रान्ता] वह औरत जो अपने से नीची जातिवाले के साथ संबंध करे [को०]।
⋙ वर्णव्यवस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्णों के आधार पर समाज की योजना एवं संघटन। विशेष दे० 'वर्ण'। उ०—ऋग्वेद के समय तक वर्णव्यवस्था कायम नहीं हुई थी।—हिंदू० सभ्यता पृ० ३३।
⋙ वर्णवैचित्र्य
संज्ञा पुं० [सं० वर्ण+वैचित्र्य] रंगों की विचित्रता। विविध रंगों का अनुठापन। वर्णों के संयोजन का अनुठापन। उ०—बाहर नयनाभिराम रूपरेखा, विकसित वर्णवैचित्र्य, चमक दमक इत्यादि हैं तो भीतर सौंदर्य की मादक अनुभूति, प्रेमोल्लास, स्वप्न, दर्शनपिपासा, इत्यादि।—रस०, पृ० ७४।
⋙ वर्णश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण।
⋙ वर्णसंकर
संज्ञा पुं० [सं० वर्णसंङ्कर] १. वह व्यक्ति या जाति जो दो भिन्न भिन्न जातियों के स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हो। विशेष—स्मृतियों में ऐसी बहुत सी जातियाँ गिनाई गई हैं। इस विषय में एक दूसरे के मत भी नहीं मिलते। वर्णसंकर दो प्रकार के कहे गए हैं, अनुलोमज और दूसरा प्रतिलोमज। अनुलोमज का पिता माता से श्रेष्ठ वर्ण का होता है और प्रतिलोमज की माता पिता से श्रेष्ठ वर्ण की होती है। प्रातलोमज सकर प्राचीन काल में निषिद्ध माने जाते थे। अनुलोम विवाह का प्रचार प्राचीन काल में था; पर पीछे बंद हो गया। धर्मशास्त्रों में यद्यपि वर्णसंकरता के ये कारण गिनाए गए हैं—(१) व्यभिचार, (२) अवेद्यावेदन और (३) स्वकर्मत्याग; पर लोक में अतिम बात पर ध्यान नहीं दिया जाता। २. वह व्यक्ति जो ऐसे स्त्री पुरुष के संयोग से उपत्न्न हुआ हुआ हो, जो धर्मानुसार विवाहित न हों। व्यभिचार से उत्पन्न मनुष्य। दोगला।
⋙ वर्णसंघात
संज्ञा पुं० [सं० वर्णसङ्घात] वर्णमाला। वर्णसमाम्नाय। अक्षरसमूह [को०]।
⋙ वर्णसंयोग
संज्ञा पुं० [सं०] किसी एक जाति के भीतर परस्पर विवाह संबध [को०]।
⋙ वर्णसंसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] जातियों का घालमेल। दूसरी जाति में विवाह संबंध [को०]।
⋙ वर्णसंहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतिमुख संधि के तेरह अंगों में एक। २. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों के लोगों का एक स्थान पर सम्मेलन। (नाटचशास्त्र)। विशेष—भरत नाटचशास्त्र के व्याख्याता अभिनवगुप्ताचार्य (अभिनव भारती) का मत है कि नाटक के विभिन्न पात्रों के एक स्थान पर सम्मेलन को वर्णसंहार कहना चाहिए।
⋙ वर्णसमाम्नाय
संज्ञा पुं० [सं०] वर्णमाला।
⋙ वर्णसि
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल। पानी। २. कमल [को०]।
⋙ वर्णसूची
संज्ञा स्त्री० [सं०] छंदःशास्त्र या पिंगल में एक क्रिया जिसके द्वारा वर्णवृत्तों की संख्या की शुद्धता, उनके भेदों में आदि अंत लघु और आदि अत गुरु की संख्या जानी जाती है। विशेष—जितने वर्णों की सूची देखनी हो, उतने वर्णों की संख्या तक क्रम से २, ४, ८ इत्यादि अर्थात् उत्तरोत्तर दूने अंक लिखे। इस क्रिया के अंत में जो संख्या आएगी, वह वृत्तभेद की संख्या होगी। अत के अंक से बाई और जो अंक होगा, उतने आदिलधु और अंतलघु तथा आदिगुरु होगा, अतगुरु होंगे। फिर उससे भी बाई ओर अर्थात् अंत से तीसरे कोष्ठ में जो अंक होगा ही आद्यंत लघु ओर आद्यंत गुरु वृत्त होंगे। उदाहरणार्थ ४ वर्णों की सूची है— २ ४ ५ १६ आद्यंत लघु आदि लघु सब वृत्त आद्यंत गुरु अंतलघु आदि गुरु अंत गुरु
⋙ वर्णस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] वर्णों के उच्चारण का स्थान, कंठ, गला आदि [को०]।
⋙ वर्णहीन
वि० [सं०] जाति से बहिष्कृत [को०]।
⋙ वर्णांका
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्णाङ्का] कलम। लेखनी।
⋙ वर्णांतर
संज्ञा पुं० [सं० वर्णान्तर] दूसरा वर्ण। दूसरी जाति [को०]। यौ०—वर्णांतर गमन=(१) अन्य वर्ण में जाना। जाति या धर्म परिवर्तन। (२) व्यकरण में घ्वनि या अक्षर का बदलना।
⋙ वर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अरहर।
⋙ वर्णागम
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में किसी शव्द के बीच किसी वर्ण का आगम होना। जैसे,—'हम' शब्द में ह के ऊपर अनुस्वार का आगम हो जिससे इस शब्द का व्युत्पन्न रूप 'हंस' हो जाता है। (निरुक्त)।
⋙ वर्णाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. चित्रकार। गायक। ३. स्त्री के द्वारा उपार्जित धन से जीविका करनेवाला। ४. प्रेमी [को०]।
⋙ वर्णात्मक
वि० [सं] वर्णमय। वर्णरूप। उ०—दूसरा वर्णात्मक शब्द् वर्णविन्यास युक्त होता है।—रस क०, (भू०), पृ० २।
⋙ वर्णात्मा
संज्ञा पुं० [सं० वर्णात्मन्] शब्द [को०]।
⋙ वर्णाधम
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वर्णों वा जातियों में निम्न श्रेणी का हो।
⋙ वर्णाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार ब्राह्मणादि वर्णों के अधिपति ग्रह। विशेष—ब्राह्मण के अधिपति बृहस्पति और शुक्र, क्षत्रिय के भौम और रवि, वेश्य के चंद्र, शूद्र के बुध और अंत्यज के शनि माने जाते हैं।
⋙ वर्णानुप्रास
संज्ञा पुं० [सं०] एक शब्दालंकार विशेष। दे०'अनुप्रास'।
⋙ वर्णापसद
संज्ञा पुं० [सं०] जतिच्युत व्यक्ति [को०]।
⋙ वर्णापेत
वि० [सं०] वर्णहीन। जातिच्युत [को०]।
⋙ वर्णार्ह
संज्ञा पुं० [सं०] मूँग [को०]।
⋙ वर्णावकृष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र [को०]।
⋙ वर्णावर
वि० [सं०] निम्न जाति का [को०]।
⋙ वर्णावली
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वर्णमाला'। उ०—हमारी सरकार से वहाँ की एक दूसरी ही भाषा और वर्णावली स्वीकार की जाती है।—प्रेमधन, भा० २, पृ० ४१४।
⋙ वर्णाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ण और आश्रम। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, बानप्रस्थ और संन्यास ये चार आश्रम। उ०—वर्णाश्रम की नव स्फुरित ज्योति, नूतन विलास।—अपरा, पृ० २०१। यौ०—वर्णाश्रम गुरु=शिव। वर्णाश्रम धर्म=वर्णो और आश्रमों के कर्तव्य।
⋙ वर्णि
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ण। सोना। २. बलि। ३. सुगंधित अंगराग (को०)।
⋙ वर्णिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लेखक।
⋙ वर्णिक (२)
वि० वर्ण से संबंध रखनेवाला। जैसे, वर्णिक वृत्त।
⋙ वर्णिकवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह वृत्त या छंद जिसके प्रत्येक चरण के वर्णों की संख्या और लघु गुरु के स्थान समान हों।
⋙ वर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कठिनी। खड़िया। २. मसि। स्याही। ३. सोने का पानी। ४. चंद्रमा। ५. विलेपन। ६. नट की वेशभूषा या पहनावा। अभिनेताओं का परिच्छद या पोशाक (को०)। ७. चित्र में विशिष्ट वर्णों या रंगों का संयोजन (को०)।
⋙ वर्णित
वि० [सं०] १. कथित। कहा हुआ। २. जिसका वर्णन हो। बयान किया हुआ। ३. चित्रित। अंकित (को०)। ४. प्रशंसित स्तुत (को०)।
⋙ वर्णिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। नारी। २. चार वर्णों में से किसी एक वर्ण की स्त्री। ३. हरिद्रा हल्दी [को०]।
⋙ वर्णिलिंगी
संज्ञा पुं० [सं० वर्णिलिङ्गिन्] ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारी की वेशभूषा धारण करनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ वर्णी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वर्णिन्] १. लेखक। २. चित्रकार। ३. ब्रह्म- चारी। उ०—बाण के अनुसार निम्नलिखित संप्रदाय अधिक प्रचलित थे। ' भागवत, वर्णी (ब्रह्मचारी) आदि।—प्रार्य० भा०, पृ० ४५२।४. चारो वर्णों में स किसी वर्ण का व्यक्ति (को०)।
⋙ वर्णी (२)
वि० १. विशेष आकृति या रंगवाला। जैसे, देववर्णी। २. किसी जाति से सबंध रखनेवाला।
⋙ वर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नदी का नाम। बन्नू। आदित्या। २. बन्नू नामक देश। ३. सूर्य।
⋙ वर्णोदक
संज्ञा पुं० [सं०] रंगीन जल। रंग मिला हुआ पानी [को०]।
⋙ वर्णोद्दिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] छंदःशास्त्र में एक क्रिया जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि अमुक संख्यक वर्णवृत्त का कोई रूप कौन सा भेद है।विशेष—जो भेद दिया गया हो, उसमें लघु गुरु के ऊपर क्रम से दूने अंक अर्थात् १, २, ४, ८ इत्यादि लिखे। फिर लघु के ऊपर जितने अंक हों, उन्हें जोड़कर उसमें १ और जोड़ दें। जैसे,— किसी ने पूछा कि चार वर्ण के वृत्तों में IISS कौन सा भेद है तो यह क्रिया की— १ २ ४ ८ I I S S अब लघु वर्णों के ऊपर अंक (१+२) जोड़ने से ३ हुए इससे विदित हो गया कि यह चौथा भेद है।
⋙ वर्ण्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुंकुम। २. वनतुलसी। बबई। ३. प्रस्तुत विषय। ४. उपमेय।
⋙ वर्ण्य (२)
वि० १. वर्णन के योग्य। २. जो वर्णंन का विषय हो। उ०— वर्ण्य़ वस्तु और वर्णन प्रणाली बहुत दिनों से एक दूसरे से अलग कर दी गई है।—रस०, पृ० ५०।
⋙ वर्ण्यमान
वि० [सं० वर्ण्यमत्] जिसका वर्णन या उल्लेख किया जा रहा हो। उ०—उसके अंतःकरण में यह द्दढ़ संस्कार होना चाहिए कि वर्ण्यमान नदी, पर्वत तथा वन के संमुख वह स्वयं उपस्थित होकर उसकी शोभा देख रहा है।—हिं० भा० प०, पृ० ९९।
⋙ वर्ण्यविषय
संज्ञा पुं० [सं०] वह विषय जिसका वर्णन किया जाय या किया गया हो। उ०—तीसरे अध्याय में उपर्युक्त कवियों की रचनाओं तथा उनके वर्ण्य विषय का परिचय दिया गया है।—अकबरी०, पृ० ९।
⋙ वर्ण्यसम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हेत्वाभास [को०]।
⋙ वर्त
संज्ञा पुं० [सं०] जीविका। आहार। समाभ्रांत में प्रयुक्त, जैसे, कल्यवर्त [को०]।
⋙ वर्तक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बटुवा। २. नर बटेर। ३. घोड़े का खुर। ४. एक प्रकार का पीतल या काँसा (को०)।
⋙ वर्तक (२)
वि० १. रहनेवाला। अस्तित्वयुक्त। २. अनुरक्त [को०]।
⋙ वर्तका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० बटेर।
⋙ वर्तकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वर्तका'।
⋙ वर्तजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० वर्तजन्मन्] बादल। मेघ [को०]।
⋙ वर्ततीक्ष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'वर्तलोह'। २. एक प्रकार का पीतल या काँसा धातु [को०]।
⋙ वर्तन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वर्तित] १. बरताव। व्यवहार। २. व्यवसाय। जोवनोपाय। वृत्ति। रोजी। ३. फेरना। घुमाना। बटना। ४. परिवर्तन। फेर फार। ५. स्थिति। ठहराव। ६. स्थापन। रखना। ७. सिल बट्टे से पीसना। पेषणा। बटना। ८. वर्तमान। ९. चरखे की वह लकड़ी जिसमें तकला लगा रहता है। १०. बटलोई। बकला। ११. पात्र। बरतन। १२. घाव में सलाई डालकर हिलाना डुलाना, जिससे घाव या नासूक की गहराई और फैलाव आदि का पता लगता है। शल्यकंपन कर्म। १३. विष्णु। १४. कौआ। १५. गोल। वर्तुल। गेंद (को०)। १६. वामन। बौना (को०)। १७. रंजन। लगाना। संयोजित करना। १८. घोड़े के लोटने की जगह (को०)। १९. वेतन। भृति (को०)। २०. तकला। तर्कु (को०)। २०. क्वाथ (को०)। २२. प्रायःकथित शब्द। बारबार कहा हुआ शब्द (को०)।
⋙ वर्तन (२)
वि० १. रहनेवाला। ठहरनेवाला। २. अचल। अटल। ३. जीवित रखनेवाला। ४. गतिमान करनेवाला [को०]।
⋙ वर्तनदान
संज्ञा पुं० [सं०] रोटी देना। जीविका देना [को०]।
⋙ वर्तनविनियोग
संज्ञा पुं० [सं०] वेतन। भृति [को०]।
⋙ वर्तना
क्रि० अ०, क्रि० स० [सं० वर्तन]दे० 'बरतना'।
⋙ वर्तनार्थी
वि० [सं०] रोजी या जीविका चाहनेवाला। नौकरी का इच्छुक [को०]।
⋙ वर्तनि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्व दिशा। पूर्व देश। २. बाट। रास्ता। ३. शद्ध राग का एक भेद। ४. स्तोत्र। सूक्त (को०)।
⋙ वर्तनि (१)
संज्ञा स्त्री० १. सड़क। पथ। २. पहिया। चक्र। ३. लीक। गाड़ी के पहिए का निशान। ३. अक्षिरोम। बरौनी [को०]।
⋙ वर्तनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बटने की क्रिया। पेषण। पिसाई। २. बाट। रास्ता। ३. तकला। टेकुआ (को०)। ४. भेजने या प्रेषण करने की क्रिया (को०)। ५. रहना। वर्तमान होना (को०)।
⋙ वर्तनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्तन] अक्षरक्रम वा न्यास। हिज्जे।दे० 'बरतनी'।
⋙ वर्तम पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्मन्] मार्ग। रास्ता। उ०—वर्तम अध्वा सरनि पथ संचर पादबिहार।—अनेकार्थ०, पृ० ७७।
⋙ वर्तमान (१)
वि० [सं०] १. चलता हुआ। जो जारी हो। जो चल रहा हो। २. उपस्थित। मौजूद। विद्यमान। ३. साक्षात्। ४. आधुनिक। हाल का।
⋙ वर्तमान (२)
संज्ञा पुं० १. व्याकरण में क्रिया के तीन कालों में से एक, जिससे सूचित होता है कि क्रिया अभी चली चलती है, समाप्त नहीं हुई है। विशेष—वर्तमान के कई भेद होते हैं। 'वह आता है' इस क्रिया में आरंभ और चला चलना पाया जाता है, समाप्ति नहीं, इससे यह 'सामान्य वर्तमान' है। कभी कभी वर्तमान के प्रयोग द्वारा 'नित्य प्रबृत्ति' भी पाई जाती है। जैसे,—'भारत के उत्तर में हिमाल्य है।' कभी कभी 'वृत्ताविरतता' भी पाई जाती है। जैसे,—'इस मैदान में लड़के खेलते हैं' इस वाक्य से यह सूचित होता है कि चाहे कहने के समय लड़के न खेलते रहे हों, पर उसके पूर्व कई बार खेल चुके हैं और आगे भी बराबर खेलेंगे। इसी प्रकार 'वह सांस नहीं खाता' इस वाक्य में 'प्रवृत्तोपरता' पाई जाती है, अर्थात् वह जन्म से ही मांस नहीं खाता। इसी प्रकार और भी भेद हैं। २. वृत्तांत। समाचार। ३. चलता व्यवहार। उ०—तुम पाँच सात पीढ़ियों के वर्तमान को सनातन व्यवहार मानते हो।— सत्यार्थप्रकाश (शब्द०)।
⋙ वर्तरूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नदी का नाम। २. कौवे काघोंसला। ३. द्वारपाल। ४. गतिहीन वा स्थिर जल। ५. आवर्त। र्भवर (को०)। ६. छोटा तालाब या पोखर जिसका जल पंक के कारण मलिन हो। डाबर (को०)।
⋙ वर्तलोह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लोहा। विशेष—वैद्यक में शोधे हुए वर्तलोह को कफ, दाह और पित्त का नाशक और उसके स्वाद को कटु, मधुर और तिक्त लिखा है। यह वही लोहा है, जिसके बिदरी बरतन बनती हैं। पर्या०—वर्ततीक्ष्ण। वर्तक। लोहसंकट। नीलक। नीलज। नीललोह।
⋙ वर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बत्ती। २. अंजन। ३. वह बत्ती जो वैद्य घाव में देता है। ४. औषध बनाना। ५. अनुलेपन। उबटन। ६. गोली। बटी। ७. लकीर। रेखा (को०)। ८. गले की सूजन (को०)। ९. ऐंद्रजालिक का या आभिचारिक तिलक (को०)। १०. कपड़े के किनारे की झालर (को०)। ११. चिराग। दीपक (को०)।
⋙ वर्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] बटेर।
⋙ वर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बटेर। २. अजशृंगी। ३. बत्ती। ४. शलाका। सलाई। ५. तूलिका। चित्र बनाने की कूँची (को०)। ६. रंग। रोगन (को०) ७. छड़ो। यष्टि (को०)।
⋙ वर्तिकाबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्तिकाविन्दु] हीरे का एक दोष। विशेष—'रत्नपरीक्षा' के अनुसार इस प्रकार के हीरे को धारण करने से भय उत्पन्न होता है।
⋙ वर्तित
वि० [सं०] १. संपादित। निष्पादित। किया हुआ। २. चलाया हुआ। जारी किया हुआ। ३. दुरुस्त किया हुआ। ४. व्यतीत। बीता हुआ। जैसे; वर्तित जीवन या काल (को०)।
⋙ वर्तितजन्मा
वि० [सं० वर्तितजन्मन्] उत्पादित। जनित। उत्पन्न किया हुआ [को०]।
⋙ वर्तिर
संज्ञा पुं० [सं०] बटेर।
⋙ वर्तिष्णु
वि० [सं०] १. वर्तुलाकार। २. चक्कर खानेवाला। ३. स्थिर। ४. युद्ध में अविचल। ५. रहनेवाला (को०)।
⋙ वर्ती (१)
वि० [सं० वर्तिन्] [वि० स्त्री० वर्तिनी] १. वर्तनशील। बरतनेवाला। २. स्थित रहनेवाला। जैसे,—समीपवर्ती।
⋙ वर्ती (२)
संज्ञा स्त्री० १. बत्ती। २. शलाका। सलाई।
⋙ वर्तीर
संज्ञा पुं० [सं०] बटेर [को०]।
⋙ वर्तुल (१)
वि० [सं०] गोल। वृत्ताकार।
⋙ वर्तुल (२)
संज्ञा पुं० १. गृंजन। गाजर। २. मटर। ३. गुड तृण। ४. सुहागा। ५. गोला गेंद (को०)। ६. वृत्त। घेरा (को०)। ७. शिव का एक गण।
⋙ वर्तुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] तकुए के सिरे की घुंडी [को०]।
⋙ वर्तुलाकार
वि० [सं० वर्तुल+आकार] गोला। वृत्ताकार। उ०— (क) अब ब्रह्मरंध्र आकाश तत्व है सुभ्र वर्त्तुलाकार।—सुंदर ग्रं०,भा० १, पृ० ५२। (ख) सुंदर वर्तुलाकार जाघै कनक कदली के खंभों की नाईं राजती थीं माने किसी ने उलटे स्तंभ लगा दिए हों।—श्यामा०, पृ० २८।
⋙ वर्तुलाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] श्येन। बाज पक्षी। [को०]।
⋙ वर्तुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] गजपिप्पली [को०]।
⋙ वर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्मन्] १. मार्ग। पथ। २. गाड़ी के पहिए का मार्ग। लीक। ३. किनारा। औंठ। बारी। ४. आँख की पलक। ५. आधार। आश्रय। ६. प्रथा। परंपरा। कार्यविधि (को०)। ७. अवकाश। क्षेत्र (को०)।
⋙ वर्त्मकर्दम
संज्ञा पुं० [सं०] आँख का एक रोग जिसमें पित्त और रक्त के प्रकोप से आँखों में कीचड़ भरा रहता है।
⋙ वर्त्मकर्म
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्मकर्मन्] रास्ता बनाना। राह बनाना। पथ निर्माण [को०]।
⋙ वर्त्मनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पथ। राह। २. सड़क। राजमार्ग [को०]।
⋙ वर्त्मनी
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'वर्त्मनि' [को०]।
⋙ वर्त्मपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. पथ का अतिक्रमण। मार्गभ्रंश। २. राह पर आना। मार्ग पर आना। रास्ता पकड़ना [को०]।
⋙ वर्त्मपातन
संज्ञा पुं० [सं०] लूटने के लिये राह में घात लगाए रहना [को०]।
⋙ वर्त्मबंध
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्मबन्ध] आँख का एक रोग जिसमें पलक में सूजन हो आती है, खुजली तथा पीड़ा होती है और आँख नहीं खुलती।
⋙ वर्त्मबंधक
संज्ञा पुं० [सं० वर्त्मबन्धक] एक नेत्ररोग। दे० 'वर्त्मबंध' [को०]।
⋙ वर्त्ममाक्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णमाक्षिका। सोनामाखी।
⋙ वर्त्मरोग
संज्ञा पुं० [सं०] आँख का एक रोग जिसमें पलकों में विकार उत्पन्न हो जाता है और आँखों को खोलने में बड़ी पीड़ा होती है। विशेष—वैद्यक में इस रोग के २१ भेद माने गए हैं। उत्संगिनी, कुंभिका, पोथकी, वर्त्मशर्करा, वर्त्मर्श, शुष्कार्श, अंजनदूषिका, बहुलवर्त्म, वर्त्मवधक, क्लिष्टवर्त्म, वर्त्मकर्दम, श्याववर्त्म, प्रिक्लन्नवर्त्म, अक्लिन्नवर्त्म, वातहतवर्त्म, वर्त्मार्बुद, निमेष, शोणितार्श, नगण, विषवर्त्म और कुंचन।
⋙ वर्त्मशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँख का एक रोग जिसमें पलकों में छोटी छोटी फुंसियों के सहित एक बड़ी और कड़ी फुंसी हो जाती है।
⋙ वर्त्मस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँखों का एक रोग। वर्त्मरोग।
⋙ वर्त्मार्बुद
संज्ञा पुं० [सं०] आँखों का एक रोग जिसमें पलक के अंदर एक गाँठ उत्पन्न हो जाती है। यह टेढ़ी और लाल रंग की होती है और इसमें पीड़ा नहीं होती।
⋙ वर्त्मायास
संज्ञा पुं० [सं०] यात्राजन्य श्रम [को०]।
⋙ वर्त्मामरोध
संज्ञा पुं० [सं०] वर्त्मरोग।
⋙ वर्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] बाँध। पुस्ता। सेतु। पुल [को०]।
⋙ वर्दी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्त्ती (=बत्ती)] मूँज की पत्ती जो गज के ढोले होने पर चरखे में लगाई जाती है।
⋙ वर्दी (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'वरदी'।
⋙ वदर्ध, वर्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. सीसा धातु। २. भारंगी। ३. काटना। तराशना। ४. पूर्ति। पुरण। ५. बढ़ोतरी। वृद्धि (को०)। ७. ब्राह्मणयष्टिका। एक क्षुप। छड़ी।
⋙ वदर्धक, वर्धक (१)
वि० [सं०] १. बढ़ानेवाला। पूरक। २. काटनेवाला। छीलनेवाला।
⋙ वर्द्धक, वर्धक (२)
संज्ञा पुं० १. बढ़ई। २. एक वृक्ष का नाम। भारंग।
⋙ वर्द्धंकि, वर्धकि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वर्द्धकी' [को०]।
⋙ वर्द्धकी वर्धकी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वर्द्धकि, वर्द्धकिन्] बढ़ई। लकड़ी का काम करनेवाला।
⋙ वर्द्धकी, वर्धकी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गणिका। वेश्या। कुलटा स्त्री।
⋙ वर्द्धन, वर्धन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वर्द्धित] १. बढ़ाना। २. वृद्धि। बढ़ती। उन्नति। ३. छेदना। काटना। छीलना। तराशना। ४. दाँत पर जमनेवाला दूसरा दाँत (को०)। ५. शिव (को०)। ६. शिक्षण (को०)। ७. पूर्ति। पूरण (को०)। ८. वह जिससे बल, शक्ति आदि बढ़े। सत्व वर्धक (को०)।
⋙ वद्धन, वर्धन (२)
वि० १. अभ्युदय वा वृद्धि करनेवाला। जैसे, हर्ष- वर्धन। वंशवर्धन।
⋙ वर्द्धनक, वर्धनक
वि० [सं०] अभ्युदय करनेवाला। उल्लास और आनंददायक [को०]।
⋙ वर्द्धनिका, वधनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह छोटा घड़ा या पात्र जिसमें पवित्र जल रखा जाता है [को०]।
⋙ वदर्धनी, वर्धनी
संज्ञा स्त्री० [संज्ञा] १. झाड़ू। २. कलसी। छोटा घड़ा। ३. अरथी [को०]।
⋙ वदर्धमान, वर्धमान (१)
वि० [सं०] १. बढ़ता हुआ। जो बढ़ता जा रहा हो। उ०—कज्जल का वर्धमान भूधर, उतरा नभ पर, उतरा भू पर।—अपलक, पृ० ९६। २. बढ़नेवाला। वर्धनशील।
⋙ वदर्धमान, वर्धमान् (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वर्णवृत्त जिसके चारों चरणों में वर्णों की संख्या भिन्न भिन्न होती है; अर्थात् १४, १३, १८और१५। विशेष—इसके चारो चरणों में वर्णों की संख्या इस प्रकार होती है। प्रथम चरण—मगण, सगण, जगण, भगण, गुरु, गुरु; द्वितीय चरण—सगण, नगण, जगण रगण, गुरु; तृतीय चरण—नगण, नगण, सगण, नगण, नगण,सगण; और चतुर्थ चरण—नगण, नगण, नगण, जगण, यगण। यथा—गोविंदा पद में जु मित्त चित्त लगैहौ। निहचै यहि भवसिंधु पार जैहौ। असत सकल जग मोह मदहिं सब तज रे। तन मन धन सन भजिए हरि को रे। २. मिट्टी का प्याला। सकोरा। ३. जैनियों के २४ वें जिन महावीर का नाम। ४. बंगाल का एक जिला और नगर। आधुनिक वर्दवान। ५. एरंड वृक्ष। रेंड़ (को०)। ६. एक प्रकार की पहेली (को०)। ७. विष्णु का एक नाम (को०)। ८. मीठा नीबू। ९. हाथों की एक विशिष्ट मुद्रा (को०)। १०. नृत्य की एक मुद्रा (को०)। ११. वह मकान जिसमें दक्षिण दिशा में दरवाजा न हो (को०)। १२. वास्तु संबंधी एक तांत्रिक यंत्र वा रेखांकित आकार (को०)। १३. एक विशिष्ट प्रकार का प्रासाद या मंदिर जो उक्त तांत्रिक यत्र के आधार पर निर्मित हो (को०)। १४. ईशान कोण में स्थित दिग्गज।
⋙ वर्द्धमानक, वर्धमानक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसोरा। सकोरा। २. ढक्कन [को०]।
⋙ वदर्धमानगृह
संज्ञा पुं० [सं०] क्रीडागृह। प्रमोदमंदिर [को०]।
⋙ वदर्धमानपुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक नगर। आधुनिक वर्दवान [को०]।
⋙ वदर्धयिता, वर्धयिता
संज्ञा पुं० [सं० वर्द्धयितृ] [स्त्री० वर्द्धयित्री] बढ़ानेवाला।
⋙ वदर्धा, वर्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम जो सतपूरा के पर्वतों से निकलकर गोदावरी में गिरती है। मध्य़प्रदेश की अमरावती नगरी इसी नदी के किनारे बसी है।
⋙ वदर्धापन, वर्धापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्णवेध। नाड़ीछेदन। कनछेदन। २. महाराष्ट्र देश में अभ्यंगादि क्रिया जो किसी पुरूष की जन्मतिथि को की जाती है। ३. जन्मदिन का उत्सव (को०)। ४. वह उत्सव जिसमें किसी के अभ्युदय की कामना की जाय, अथवा बधाई दी जाय (को०)। ५. काटना। छेदना (को०)।
⋙ वर्द्धापनिक, वर्धापनिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभिनंदन। २.अभि- नंदन के समय दी जानेवाली भेंट [को०]।
⋙ वर्द्धापिका, वर्धापिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] घाय। धात्री [को०]।
⋙ वर्द्धित, वर्धित
वि० [सं०] १. बढ़ा हुआ। २. पूर्ण। ३. छिन्न। कटा हुआ।
⋙ वर्द्धिष्णु, वर्धिष्णु
वि० [सं०] वृद्धिशील। बढ़ने की कामना करनेवाला [को०]।
⋙ वर्द्धीणस, वर्धीणस
संज्ञा पुं० [सं०] वह सफेद रंग का बकरा जिसके कान नदी में पानी पीते समय पानी में छू जायँ।
⋙ वर्दूध्म, वर्ध्म
संज्ञा पुं० [सं० वर्ध्मन्] १. वह फोड़ा जो जाँघ के मूल में संधिस्थान में निकल आता है। यह फोड़ा कठिन होता है। इसके रोगी को ज्वर आता है, शूल होता है और वह सुस्त पड़ा रहता है। बद। २. अंत्रवृद्धि रोग। आँत उतरने का रोग।
⋙ वदध्र, वर्ध्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाल। चमड़ा। २. चमड़े की बद्धी। वर्ध्रिका। ३. सीसा। राँगा।
⋙ वर्दि्ध्रका, वर्ध्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमड़े की रस्सी। बद्धी। २. एक प्रकार का आभूषण जिसे बद्धी कहते हैं।
⋙ वदर्ध्री, वर्ध्रो
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वर्दि् ध्रका'।
⋙ वर्नन पु
संज्ञा पुं० [सं० वर्णन]दे० 'वर्णन'। उ०—दीपक वर्नन कह कहौं, सबै मनोरथ काज।—कबीर सा०, पृ० ५६७।
⋙ वर्प
संज्ञा पुं० [सं०] आकृति। आकार। रूप [को०]।
⋙ वर्म
संज्ञा पुं० [सं०वर्म्मन्] १. कवच। बकतर। २. घर। आश्रय। ३. पित्त पापड़ा। पर्पटक। ४. बल्कल। छाल (को०)।
⋙ वर्मक
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक जनपद का नाम, जिसे अब 'बरमा' कहते हैं।
⋙ वमकंटक
संज्ञा पुं० [सं० वर्मक्णटक] पित्तपापड़ा। पर्पटक।
⋙ वर्मकशा, वर्मकषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सातला। सप्तला।
⋙ वर्मण
संज्ञा पुं० [सं०] नारंगी का पेड़ [को०]।
⋙ वर्मधर
वि० [सं०] कवची। वर्महर।
⋙ वर्महर
वि० [सं०] १. वर्मधर। कवचघारी। २. जो वर्म धारण न कर सके। जैसे, अत्यंत वृद्ध (को०)।
⋙ वर्मा
संज्ञा पुं० [सं० वर्म्मन्] क्षत्रियों आदि की उपाधि जो उनके नाम के अंत में लगाई जाती है।
⋙ वर्मि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।
⋙ वर्मिक
वि० [सं०] दे० 'वर्मित' [को०]।
⋙ वर्मित
वि० [सं०] कवचधारी। कृतसन्नाह।
⋙ वर्मिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार सड़क का महसूल। पथकर (को०)।
⋙ वर्मी
वि० [सं० वर्मिन्]दे० 'वर्मिक' [को०]।
⋙ वर्मुष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०]।
⋙ वर्य (१)
वि० [सं०] १. प्रधान। २. निर्वाचित या चुनने योग्य। ३. श्रेष्ठ। विशेष—इसका प्रयोग विशेषतः समस्त पदों में होता है। जैसे,— विद्वद्वर्य।
⋙ वर्य (२)
संज्ञा पुं० कामदेब।
⋙ वर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कन्या। २. पतिंवरा वधू। ३. अरहर।
⋙ वर्वट
संज्ञा पुं० [सं०] लोबिया। बोड़ा। बजरबट्टू।
⋙ वर्वणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीली मक्खी।
⋙ वर्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देश का नाम। २. इस देश का असभ्य निवासी जिसके बाल घुँघराले कहे गए हैं। विशेष—यद्यपि वर्वर देश का उल्लेख महाभारत (भीष्मपर्व) तथा वामन, मार्कंडेय आदि पुराणों में है, तथापि यह जनपद कहाँ था; इसका ठीक ठीक पता नहीं। कहीं कहीं वर्वरों के बाल घुंघराले कहे गए है। पुराने यूनानी और रोमन भोगोलिकों ने सिंधु नद के मुहाने के आसपास के प्रदेश को बर्बर (बारबे- रियन) देश कहा है। कुछ भारतीय ग्रंथकारों ने महाराष्ट्र देश के एक विशेष भाग को वर्वर कहा है। वर्वर नाम की एक प्राकृत भाषा का उल्लेख भी 'प्राकृतचंद्रिका' में है। इसमें सदेह नहीं कि इस जनपद के निवासी असभ्य समझे जाते थे और घृणा की द्दष्टि से देखे जाते थे। पीछे से दूर दूर तक की सभ्य जातियों में यह शब्द 'म्लेच्छ' और 'जंगली' का वाचक हुआ। प्राचीन युनानी अपनी जाति के लोगों के अतिरिक्त औरों को 'वर्वर' कहा करते थे। रोमनों में भी ऐसा ही था। ३. पामर। नीच। ४. घुँघराले बाल। ५. काली बनतुलसी। ६. हिंगुल। ईंगुर। ७. पीला चंदन। ८. मूर्ख। अज्ञ (को०)। ९. नीच जाति (को०)। १०. जातिभ्रष्ट व्यक्ति (को०)। ११. नृत्य का एक प्रकार। एक प्रकार का नाच (को०)। १२. शस्त्रों का परस्पर टकराना।
⋙ वर्वर (२)
वि० १. घुंघराला। छल्लेदार। २. जो स्पष्ट न हो [को०]।
⋙ वर्वरक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चंदन। विशेष—इसका गुण शीतल, कफ, वायु पित्त, कोढ़, खाज और व्रण तथा रक्तदोष का नाशक और स्वाद कडुवा माना गया है। पर्या०—वर्वरोत्थ। शीत। पित्तारि।
⋙ वर्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की मक्खी। मीली मक्खी। २. वर्वरी। बनतुलसी [को०]।
⋙ वर्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बनतुलसी। २. दे०'वर्वरा'।
⋙ वर्वरीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भारंगी। २. बनतुलसी। ३. महाकाल। ४. भीम के पौत्र का नाम जो घटोत्कच का पुत्र था। ५, घुँधराले किश। छल्लेदार बाल [को०]।
⋙ वर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्वरी। बनतुलसी [को०]।
⋙ वर्वि
वि० [सं०] बहुत खानेवाला। पेटू [को०]।
⋙ वर्वुर
स्त्री० पुं० [सं०] एक वृक्ष। विशेषदे० 'बबूल' [को०]।
⋙ वर्वूर
संज्ञा पुं० [सं०] बबूल।
⋙ वर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृष्टि। जलवर्षण। २. काल का एक मान जिसमें दो अयन और बारह महीने होती हैं। उतना समय जितने में सब ऋतुओं की एक आवृत्ति हो जाती है। संवत्सर। साल। विशेष—वर्ष चार प्रकार के होते हैं—सौर, चांद्र सावन और नाक्षत्र। सौर वर्ष ३६५ दिन, ५ घंटे, ४८ मिनट और ४६ सेकंड का होता है। यह उतना समय है, जितने में पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा पूरी कर लेती है। पृथ्वी के इसी भ्रमण के कारण सूर्य का सत्ताईस नक्षत्रों और बारह राशियों में गमन दिखाई पड़ता है। लोग कहते हैं कि अब सूर्य अमुक नक्षत्र या राशि में है। घूमते समय पृथ्वी की धुरी सीघी न रहकर कुछ टेढ़ी रहती है और उसके मार्ग की कक्षा गोल न होकर अंडाकार होती है। इसी से सूर्य कुछ महीनों तक भूमध्यरेखा के उत्तर और कुछ महीनों तक दक्षिण में उदय होता दिखाई पड़ता है। ये दोनों 'उत्तर अयन' और 'दक्षिण अयन' कहलाते हैं। वर्ष में केवल दो दिन सूर्य भूमध्य या विषुवत् रेखा पर उदय होता हैं। इन दोनों को सायन कद्दते। एक सायन तुला राशि में और दूसरा मेष में होता है। सूर्य कर्क राशि में आकार दक्षिण की ओर बढ़ने लगता है और धनु राशि में पहुँचने तक भूमध्यरेखा के दक्षिण ही रहता है। मकर राशि से फिर उत्तर की ओर बढ़ने लगता है और कर्क राशि में पहुँचने तक उत्तर ही रहता है। प्राचीन भारतीय आर्यों में राशियों का व्यवहार न था; इससे सौर वर्ष दो अयनों का ही माना जाता था। ग्रहों का उदय राशियों में न माना जाकर २७ नक्षत्रों में माना जाता था। इससे कभी कभी बड़ी अव्यवस्था होती थी। चांद्र वर्ष ३५४ दिन, ८ घंटे, ४८ मिनट और ३६ सेकंड का होता है। इतने काल में चंद्रमा पृथ्वी की बारह परिक्रमाएँ कर लेता है। इस प्रकार सौर वर्ष और चांद्र वर्ष में प्रति वर्ष १० दिन, २१घंटे का अंतर पड़ता है। हिंदू पंचांग में यह अंतर प्रति तीसरे वर्ष, १३ महीने का वर्ष मानकर दूर किया जाता है। उस बढ़े हुए महीने को 'अधिमास' या 'मलमास' कहते हैं। सावन वर्ष पूरे ३६० दिनों का होना है और उसके महीने तीस तीस दिन के होते हैं। वैदिक काल में सावन मास ही अधिक चलता था और प्रत्येक मास की तिथि की गणना चंद्रमा के ही हिसाब से होती थी। शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक १५ दिन का शुक्ल पक्ष होता था। नाक्षत्र वर्ष ३२४ दिन का और उसका प्रत्येक महीना २७-२७ दिन का होता है। इन चार प्रकार के वर्षों के अतिरिक्त प्राचीन काल में और कई प्रकार के वर्षों का प्रचार था। जैसे,— सप्तर्षि वर्ष। ३. पुराण में माने हुए सात द्वीपों का एक विभाग। ४. किसी द्वीप का प्रधान भाग, जैसे,—भारतवर्ष। ५. मेघ। बादल।
⋙ वर्षकर
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ।
⋙ वर्षकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] झिल्ली। झींगुर।
⋙ वर्षकाम
वि [सं०] वृष्टि की कामना रखनेवाला। वृष्टि चाहनेवाला।
⋙ वर्षकामेष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] एक यज्ञ जो वर्षा के लिये किया जाता था।
⋙ ववकाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीरा।
⋙ ववकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग की पुनर्नवा। लाल गदहपूरना।
⋙ ववकोश
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वर्षकोष' [को०]।
⋙ ववकोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. दैवज्ञ। ज्योतिषी। २. माष। उड़द।
⋙ वर्षगाँठ
संज्ञा स्त्री० [हिं० वर्ष+गाँठ] वह कृत्य जो किसी पुरुष के जन्मदिन पर किया जाता है। विशेष दे० 'बरसगाँठ'।
⋙ वर्षगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] संसार का विभाग करनेवाले सात पर्वत जो वर्षपर्वत कहे जाते हैं। इनमें हिमवान्, हेमकूट, निषध, मेरु, चैत्र, कर्णी और श्रृगी नामक पर्वत हैं [को०]।
⋙ वर्षघ्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पवन। २. ग्रहों का वह योग जिससे वर्षा नष्ट हो जाती है।
⋙ वर्षघ्न (२)
वि० वर्षा से बचानेवाला।
⋙ वर्षज
वि० [सं०] १. वर्षा से उत्पन्न। २. एक वर्ष का [को०]।
⋙ वर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वर्षित] १. वृष्टि। बरसना। उ०— भाव बदला हुआ—पहले की घनघटा वर्षण बनी हुई।— अपरा, पृ० १४३। २. छिड़कना। नीचे किसी पर डालना या फेंकना। जैसे, द्रव्यवर्षण, पुष्यवर्षण (को०)।
⋙ वर्षणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वृष्टि। वर्षा। २. कर्म। क्रिया। कृति। ३. निवास। वर्तन। ४. यज्ञकर्म। यज्ञ [को०]।
⋙ वर्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] छत्र। छाता [को०]।
⋙ वर्षत्राण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वर्षत्र' [को०]।
⋙ वर्षधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. अंतःपुर का रक्षक। नपुंसक। खोजा। ३. पर्वत। पहाड़ (को०)। ४. वर्ष (पृथ्वो का खंड) का अधिपति (को०)। ६. पृथ्वी को वर्षों (खंडों) में विभा- जित करनेवाले पहाड़। (जैन)।
⋙ वर्षधर्ष
संज्ञा पुं० [स०] अंतःपुर का रक्षक। नपुंसक। खोजा।
⋙ वर्षप
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वर्षपति'।
⋙ वर्षपति
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ष के अधिपति ग्रह। विशेष—फलित ज्योतिष में वर्ष प्रवेश होने पर कोई न को ग्रह उस वर्प का अधिपति या राजा माना जाता है। इसी अधिपति के विचार से यह बताया जाता है के वर्ष शुभ होगा या अशुभ।
⋙ वर्षपद
संज्ञा पुं० [सं०] पंचांग। पत्रा। जंत्री [को०]।
⋙ वर्षपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी को सात भागों में बाँटनेवाले पहाड़। वर्षगिरि [को०]।
⋙ वर्षपाकी
संज्ञा पुं० [सं० वर्षपाकिन्] आम्रातक। आमड़ा।
⋙ वषपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सहदेई नाम को लता [को०]।
⋙ वर्षपूग
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षशृंखला। वर्ष का समूह [को०]।
⋙ वर्षप्रतिबध
संज्ञा पुं० [सं० वर्षप्रतिबन्ध] वृष्टि का न होना। अनावृष्टि। अवर्षण। सूखा [को०]।
⋙ वर्षप्रवेग
संज्ञा पुं० [सं०] घनघोर वर्षा [को०]।
⋙ वर्षप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] नववर्षारंभ [को०]।
⋙ वर्षप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] पपीहा। चातक [को०]।
⋙ वषफल
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में जातक के अनुसार वह कुंडली जिससे किसी के वर्ष भर के ग्रहों के शुभाशुभ फलों का विवरण जाना जाता है। क्रि० प्र०—निकालना।—बनाना।
⋙ वर्षरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा ऋतु [को०]।
⋙ वर्षवर
संज्ञा पुं० [सं०] नपुंसक। अंतःपुर का रक्षक। खाजा [को०]।
⋙ वर्षवसन
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा ऋतु में किसी एक निवास में रहना। (बौद्ध)।
⋙ वर्षवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्षगाँठ। जन्मदिन [को०]।
⋙ वर्षशत
संज्ञा पुं० [सं०] सौ वर्ष। शताब्दी [को०]।
⋙ वर्षसहस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक हजार वर्ष [को०]।
⋙ वर्षांग
संज्ञा पुं० [सं० वर्षाङ्ग] मास। महीना।
⋙ वर्षांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्षाङ्गी] पुनर्नवा [को०]।
⋙ वर्षांबु
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा का जल [को०]।
⋙ वर्षांश
संज्ञा पुं० [सं०] महीना।
⋙ वर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह ऋतु जिसमें पानी बरसता है। विशेष—छह ऋतुओं के हिसाब से सावन और भादों के दो महीने वर्षा ऋतु के माने जाते हैं। पर साधारण व्यवहार में जाड़ा, गरमी और बरसात के हिसाब से वर्षा काल आषाढ़ से कुआर तक चार महीने का लिया जाता है जिसे चातुमसि या 'चौमासा' कहते हैं। पर्या०—प्रावृट् । पावस। घनागम। घनाकर।२. पानी बरसने की क्रिया या भाव। वृष्टि। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—(किसी वस्तु की) वर्षा होना=(१) बहुत अधिक परिमाण में ऊपर से गिरना। जैसे,—फूलों के वर्ष होना। (२) बहुत अधिक संख्या में मिलना। जैसे,—वहाँ रुपयों की वर्षा होती है।
⋙ वर्षाकाल
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा ऋतु। बरसात।
⋙ वर्षागम
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा ऋतु का आगमन। वर्षारंभ।
⋙ वर्षाघोष
संज्ञा पुं० [सं० वर्षा+आघोष] बड़ा मेढक [को०]।
⋙ वर्षधिप
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार वह ग्रह जो संवत्सर के वर्ष का अधिपति हो। वि० दे० 'वर्षपति'।
⋙ वर्षाप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] चातक। पपीहा।
⋙ वर्षाबीज
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल।
⋙ वर्षाप्रभंजन
संज्ञा पुं० [सं० वर्षाप्रभञ्जन] आँधी [को०]।
⋙ वर्षाभव
संज्ञा पुं० [सं०] रक्त पुनर्नवा। पुनर्नवा जिसके फूल लाल होते हैं [को०]।
⋙ वर्षाभू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेक। दादुर। मेढक। २. इंद्रगोप। ग्वालिन नाम का कीड़ा। ३. लाल रंग की पुनर्नवा। ४. कीड़े मकोड़े।
⋙ वर्षाभू (२)
वि० वर्षा में उत्पन्न होनेवाला।
⋙ वर्षाभ्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मादा मेढक। छोटा मेढक। २. पुन- र्नवा। २. केचुआ [को०]।
⋙ वर्षामद
संज्ञा पुं० [सं०] मयूर। मोर।
⋙ वर्षायस
वि० [सं०] नब्बे बरस से ऊपर की अवस्था का। अति वृद्ध।
⋙ वर्षारात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्षा ऋतु। २. वर्षा की रात [को०]।
⋙ वर्षारात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वर्षारात्र'
⋙ वर्षार्ची
संज्ञा पुं० [सं० वर्ष+अर्चिस्] मंगल ग्रह।
⋙ वर्षार्ह
वि० [सं०] वर्ष भर के लिये पर्याप्त [को०]।
⋙ वर्षालंकायिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्षालङकायिका] पृक्का। असवर्ग।
⋙ वर्षाल
संज्ञा पुं० [सं०] फतिंगा। पतंग।
⋙ वर्षावसान
संज्ञा पुं० [सं०] शरद् ऋतु [को०]।
⋙ वर्षाशन
संज्ञा पुं० [सं०] वर्ष भर के लिये दिया जानेवाला अन्न का दान [को०]।
⋙ वर्षाहिक
संज्ञा पुं० [सं०] बरसाती साँप जिसमें विष नहीं होता।
⋙ वषिक (१)
वि० [सं०] १. वर्षा संबंधी। २. एक वर्ष का। वार्षिक [को०]।
⋙ वर्षिक (२)
संज्ञा पुं० अगुरु [को०]।
⋙ वर्षित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वृष्टि। वर्षा [को०]।
⋙ वर्षित (२)
वि० बरसा हुआ [को०]।
⋙ वर्षिता
वि० [सं० वर्षितृ] बरसने या वर्षा करनेवाला [को०]।
⋙ वर्षिष्ठ
वि० [सं०] बहुत वृद्ध [को०]।
⋙ वर्षी
वि० [सं० वर्षिन्] १. वर्षा करनेवाला। २. वर्ष का। साल का। समासांत में प्रयुक्त। जैसे, धनवर्षी। वारिवर्षी [को०]।
⋙ वर्षीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृत्त [को०]।
⋙ वर्षीण
वि० [सं०] (इतने) बर्ष का [को०]।
⋙ वर्षीय
वि० [स०वर्षीयस्]दे० 'वर्षीण'।
⋙ वर्षीयस्
वि० [सं०] १. वर्षा युक्त। २. वृद्ध। अत्यंत बूढ़ा। ३. अत्यंत शक्तिशाली। ४. महत्तम। विशिष्ट [को०]।
⋙ वर्षुक
वि० [सं०] १. जलयुक्त। २. वर्षा करनेवाला [को०]।
⋙ वर्षेज
वि० [सं०] दे० 'वर्षज'।
⋙ वर्षेश
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षाधिप। विशेष दे० 'वर्षपति'।
⋙ वर्षोपल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ओला। करका। २. एक तरह की गोलाकार मिठाई [को०]।
⋙ वर्ष्म
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर। दे० 'वर्ष्मा' [को०]।
⋙ वर्ष्मवान्
वि० [सं० वर्ष्मवत्] शरीरवाला। शरीरधारी [को०]।
⋙ वर्ष्मा
संज्ञा पुं० [सं० वर्ष्मन्] १. शरीर। २. प्रमाण। ३. इयत्ता। ४. जलरोधक बाँध। ५. नाप। उँचाई (को०)। ६. अत्यंत सुंदर या कोमल आकृति। ७. वर्षीयान्। अत्यंत वृद्ध (को०)।
⋙ वर्ह
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोर का पंख। २. गठिवन। ग्रंथिपर्णी। ३. पत्र। पत्ता। ४. दे० 'परीवार' (को०)।
⋙ वर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] पत्र। पत्ता।
⋙ वर्हा
संज्ञा पुं० [सं० वर्हस्] १. अग्नि। २. दीप्ति। ३. यज्ञ।४. कुश। ५. चित्रक। चीते का पेड़। ६. एक राजा का नाम। ७. जल। पानी (को०)।
⋙ वर्हिःशुष्मा
संज्ञा पुं० [सं० वर्हिःशुष्मन्] आग। अग्नि [को०]।
⋙ वर्हि
संज्ञा पुं० [सं०वर्हिस्] १. जल। २. अग्नि। ३. यज्ञ। ४. कुश। ५. चित्रक वृक्ष। ६. दीप्ति। ७. एक राजा [को०]।
⋙ वर्हिकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] गठिवन। ग्रंथिपर्णी [को०]।
⋙ वर्हिज्योति
संज्ञा पुं० [सं० वर्हिज्योतिस्] अग्नि [को०]।
⋙ वर्हिण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोर। २. भारतवर्ष के एक द्वीप का नाम। ३. तगर [को०]। यौ०—वर्हिणवाहन=स्कंद का एक नाम। वर्हिणवासा= 'वर्हिवासा'।
⋙ वर्हिण (२)
वि० मोरपंख से सज्जित [को०]।
⋙ वर्हिध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद [को०]।
⋙ वर्हिवर्ह
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधद्रव्य।
⋙ वर्हिमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता। २. अग्नि [को०]।
⋙ वर्हिवासा
वि० [सं० वर्हिवासस्] वह बाण जिसमें मोर का पंख लगा हो [को०]।
⋙ वर्हिवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद।
⋙ वर्हिषद्
संज्ञा पुं० [सं०] एक पितर का नाम।
⋙ वर्हिष्केश
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि। पावक [को०]।
⋙ वर्ही
संज्ञा पुं० [सं० वर्हिंनू] १. मयूर। मोर। २. कश्यप के एक पुत्र का नाम। ३. तगर।
⋙ वलंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वलन्तिका] अंगविक्षेप या हाव भाव की एक विशेष मुद्रा [को०]।
⋙ वलंब
संज्ञा पुं० [सं० वलम्ब] १. अवलंब। सहारा। २. लंब (ज्यामिति)। आधार (को०)।
⋙ वल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। २. एक असुर का नाम। विशेष—यह देवताओं की गौएँ चुराकर एक गुहा में जा छिपा था। इंद्र उस गुहा को छेंककर उसमें से गौओं को छुड़ा लाए थे। फिर वल ने बैल का रूप धारण किया और वह बृहस्पति के हाथ से मारा गया। दे० 'बल'।
⋙ वलक
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कंडेयपुरणानुसार तामस मन्वंवर के सप्तर्षियों में से एक ऋषि का नाम। २. यात्रा (को०)। ३. शहतीर (को०)। ४. जुलूस (को०)।
⋙ वलक्ष
वि० [सं०] धवल। श्वेत। उ०—मानव की पूजा की मैंने सूर के समझ, नर की महिमा का लिखा पृष्ठ नूतन, वलक्ष। सामधेनी, पृ० ५३।
⋙ वलग्न
संज्ञा पुं० [सं०] कटि। कमर [को०]।
⋙ वलज
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न की ढेरी। २. खेत। क्षेत्र। ३. अन्न। ४. युद्ध। लड़ाई। ५. प्राकार। चहारदीवारी [को०]।
⋙ वलजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदरी स्त्री [को०]।
⋙ वलद्विष
संज्ञा पुं० [सं० वलद्विष्] इंद्र।
⋙ वलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष शास्त्रानुसार ग्रह, नक्षत्रादि का सायनांश से हटकर चलना। विचलन। वक्रगति। २. गोल में घूमना। चक्कर खाना (को०)। ३. क्षोभ (को०)।
⋙ वलनांश
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार अयनांश से किसो ग्रह के वलन अर्थात् हटकर चलने या वक्रगति की दूरी का अंश।
⋙ वलनाशन, वलभित्
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र [को०]।
⋙ वलभि, वलभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह मंडप जो घर के ऊपर शिखर पर बना हो। रावटी। वडभी। २. घर की चोटी। ३. छानी। ४. एक पुरानी नगरी जो काठियावाड़ में थी और जिसके खँडहर अब तक मिलते हैं। विशेष—यहाँ एक प्रसिद्ध राजवंश का राज्य था, जिसके संस्थापक सेनापति भट्टार्क थे।
⋙ वलय
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंडल। २. कंकण। ३. चूड़ी। ४. वेष्ठन। ५. अठारह प्रकार के गलगंड रोगों में से एक। विशेष—इसमें कफ के कारण गले के अंदर उस नली में जिसमें से होकर अन्न जल पेट में जाता है, एक गाँठ उत्पन्न हो जाती है। यह गाँठ ऊँची और बड़ी होती है और अन्न जल के जाने का मार्ग रोक देती है। वैद्य लोग इसे असाध्य मानते हैं। ६. दंड व्यूह का एक भेद। सैनिकों की दो दो पंक्तियों में स्थिति। (कौटिल्य अर्थसास्त्र)। ८. कुंडल। बाला (को०)। ९. कटिबंध। मेखला। कमरपेटी (को०)। १०. प्राकार। चहारदीवारी (को०)। ११. शाखा। डाली (को०)। १२. शरीर की गोल हड्डियाँ। १३. प्राचुर्य। विविधता। आधिक्य (को०)।
⋙ वलयित
वि० [सं०] १. वेष्ठित। परिवृत्त। घेरा हुआ। २. चक्कर खाता हुआ (को०)। ३. गोल मुड़ा हुआ (को०)।
⋙ वलयिता
वि० [सं० वलयितृ] वेष्ठित करनेवाला। घेरनेवाला [को०]।
⋙ वलयी
वि० [सं० वलयिन्] १. वलय या कंकण पहननेवाला। २. आवेष्ठित। घिरा हुआ [को०]।
⋙ वलवंड पु
वि० [सं० बलवन्त]दे० 'बरिबंड'। उ०—अषैसिंह अयनैत इक खल खंडन वलवंड।—सूजान०, पृ० ५।
⋙ वलवला
संज्ञा पुं० [अ०] उमंग। आवेश।
⋙ वलसूदन
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ वलहंता
संज्ञा पुं० [सं० वलहन्तृ] इंद्र।
⋙ वलाक
संज्ञा पुं० [सं०] बगला। वक [को०]।
⋙ वलाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बगला।दे०'बलाका'।
⋙ वलाकी
वि० [सं०वलाकिन्] दे० 'बलाकी'।
⋙ वलाट
संज्ञा पुं० [सं०] मूँग।
⋙ वलायत
संज्ञा पुं० [अ०] १. विलायत। इंग्लैंड। २. वली होना। संरक्षक होना (को०)।
⋙ वलासक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोकिल। २. मेढक। भेक [को०]।
⋙ वलाहक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. पर्वत। ३. एक दैत्य का नाम। ४. साँपों की एक्र जाति जो दर्वीकर के अंतर्गत मानी जाती है। ५. मुस्तक। मोथा। ६. श्रीकृष्ण के रथ के एक घोड़े का नाम। ७. एक नद का नाम। ८. कुशद्विप के एक पर्वत का नाम।दे०'बलाहक'।
⋙ वलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रेखा। लकीर। २. चंदन आदि से बनाई हुई रेखा। ३. सिकुड़न के कारण पड़ी हुई लकीर। झुर्री। ४. पेट के दोनों ओर पेटी के सिकुड़ने से पड़ी हुई रेखा। बल। जैसे,—त्रिवली। ५. देवता को चढ़ाने की वस्तु। ६. राजकर। ७. एक दैत्य जो प्रह्लाद का पौत्र था और जिसे विष्णु ने वामन अवतार लेकर छला था। विशेष—दे० 'बलि'। ८. कौटिल्य कथित एक प्रकार का धार्मिक कर। धर्मकार्य के लिये लगाया हुआ कर। ९. श्रेणी। पंक्ति। १०. बवासीर का भस्सा। ११. छाजन की ओलती। १२. गंधक। १३. एक प्रकार का बाजा।
⋙ वलिक
संज्ञा पुं० [सं०] घर की छत या छाजन की ढाल का अंत जहाँ से पानी गिरता है। ओलती।
⋙ वलित (१)
वि० [सं०] १. बल खाया हुआ। लचका हुआ। २. झुका हुआ। मोड़ा हुआ। ३. परिवृत्त। आवेष्ठित। घेरा हुआ। ४. जिसमें झुर्रियाँ पड़ी हों। जो जगह जगह से सिकुड़ा हो। ५. लिपटा हुआ। लगा हुआ। उ०—उरज मलय शैल शील सम सुनि देखि अलक वलित व्याल आशा कर आए हैं। केशव (शब्द०)। ६. आच्छादित। ढका हुआ। उ०—कंटक कलित तृन वलित विंध जल।—केशव (शब्द०)। ७. युक्त। सहित। उ०—श्री रघुबर के इष्ट अश्रुवलित सीतानयन।— केशव (शब्द०)।विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग 'कलित' आदि के समान काव्य की भाषा में बहुत आधिक होता है।
⋙ वलित (२)
संज्ञा पुं० १. काली मिर्च। २. नृत्य में हाथ मोड़ने की एक मुद्रा।
⋙ वलितक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आभुषण। एक गहना [को०]।
⋙ वलिन, वलिम
वि० [सं०] झुर्रोदार। सिकुड़नवाला [को०]।
⋙ वलिमान्
वि० [सं० वलिमत्] दे० वलि युक्त। 'वलिन।'
⋙ वलिमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. बानर। २. गरम दूध में मट्ठा मिलाने से उत्पन्न छठा विकार।
⋙ वलिर
वि० [सं०] ऐंचाताना [को०]।
⋙ वलिस
संज्ञा पुं० [सं०] वडिश। कँटिया। बंसी [को०]।
⋙ वलिशि, वलिशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वलिश' [को०]।
⋙ वली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झुर्री। शिकन। २. अवली। श्रेणी। ३. रेखा। लकीर। ४. चंदन आदि से बनाई हुई लकीर। ५. पेट के दोनों ओर पेटी के सुकड़ने से पड़ी हुई लकीर। जैसे,— त्रिवली। उ०—यह रोग गुदा की तीन वली के भीतर होय है।—माधव०, पृ० ५३।
⋙ वली (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. मालिक। स्वामी। उ०—बेबहा मेरे सिर पर सदा वली अल्लाह मदद वेबहा की, दोहाई दरिया साहब की, दीहाई।—संत० दरिया, पृ० ३५ । २. शासक। हाकिम। अधिपति। यौ०—वलीअहद। ३. साधु। फकीर। उ०—करम उनका मदद जब तें न होवे। वला हरगिज विलायत कूँन पावे।—दक्खिनी०, पृ० ११४। यौ०—वली खंगर=साधू होने का झूठा दावा रखनेवाला। धर्म- घ्वजी साधु। ४. [स्त्री० वलीया] उत्तराधिकारी। वारिस (को०)। ५. मित्र। दास्त। सहायक (को०)।
⋙ वलीअहद
संज्ञा पुं० [अ०] युवराज। टीका। टिकैत।
⋙ वलीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर की छत या छाजन को ओलती। २. सरकंडा।
⋙ वलीभृत्
वि० [सं०] घुँघराला। मुड़ा हुआ। वलियुक्त [को०]।
⋙ वलीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. बानर। २. दे० 'वलिमुख' [को०]।
⋙ वलीवदन, वलीवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वानर। कपि [को०]।
⋙ वलीवर्द
संज्ञा पुं० [सं०] वृषभ। बैल [को०]।
⋙ वलूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पद्ममूल। भिस्सा। भसींड। कमल की ज़ड़। २. एक प्रकार का पक्षी।
⋙ वलूल
वि० [सं०] शक्तिमान्। बली [को०]।
⋙ वले, वलेक
अव्य० [फ़ा० वलेकिन का संक्षिप्त रूप] लेकिन। मगर उ०—नुमाइश में गरचे मुठी भर हूँ मैं। वले इल्म के फन में बेहतर हूँ मैं।—दक्खिनी०, पृ० ७९।
⋙ वलेकिन
अव्य० [फा़] किंतु। परंतु। मगर [को०]।
⋙ वल्क (१)
संज्ञा पुं० [सं० √ वल्क् (=भाषण, कथन)] वक्ता। वाव- दूक [को०]।
⋙ वल्क (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेड़ों के धड़ औक कांड पर का आवरण। वल्कल। छाल। २. मछली के ऊपर की छाल। चोई। शल्क (को०)। ३. खंड। भाग (को०)। ६. एक प्रकार का वस्त्र (को०)। ५. पट्टिका लोध्र। पठानी लोध (को०)। यौ०—वल्कतरु। वल्कद्रुम। वल्कपत्र। वल्कफल। वल्कलोध्र। वल्कवसा=वल्कल या छाल का परिधान।
⋙ वल्कतरु
संज्ञा पुं० [सं०] सुपारी का वृक्ष।
⋙ वल्कद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र का वृक्ष।
⋙ वल्कपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] हिंताल।
⋙ बल्कफल
संज्ञा पुं० [सं०] अनार का पेड़ [को०]।
⋙ वल्कल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष की छाल। पेड़ों के धड़ और कांड पर का आवरण। पर्या०—त्वक्। वल्क। चोच। चोलक। शल्क। छल्लक। छल्लि। छल्ली। २. वृक्ष की छाल का वस्त्र, जिसे अरण्यवासी मुनि और तपस्वी पहना करते थे उ०—वल्कल की चोली हँस हँसकर ढीली करती थी आली।—शकुं०, पृ० ५। ३. ऋग्वेद की वाष्कल नामक शाखा। ४. एक प्रकार की लोध (को०)। ५. एक दैत्य (को०)। यौ०—वल्कलसंवीत=वृक्ष की छाल का परिधान धारण करनेवाला।
⋙ वल्कला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सफेद रंग का एक प्रकार का पत्थर जिसका गुण शीतल और शांतिकारक माना जाता है। शिला- वल्का। २. तेजबल।
⋙ वल्कली
वि० [सं० वल्कलिन्] वल्कल या पेड़ की छाल पहनने वाला। वल्ककधारी।
⋙ वल्कलोध्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की लोध। पठानी लोध।
⋙ वल्कवान् (१)
संज्ञा पुं० [सं० वल्कवत्] वह जिसमें शल्क या चोई हो, मछली मीन [को०]।
⋙ वल्कवान् (२)
वि० दे० 'वल्कली' [को०]।
⋙ वल्किल
संज्ञा पुं० [सं०] कंटक। काँटा।
⋙ वल्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] छाल। वल्कल [को०]।
⋙ वल्गक
वि० [सं०] उछलनेवाला। नाचने कूदनेवाला [को०]।
⋙ वल्गन
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोडे़ का कूदते या उछलते हुए चलना। दुलकी। २. बहुत सी इधर उधर की बातों कहना। बहुत बकना।
⋙ वल्गर
वि० [अं०] ग्राम्य। भोंडा। अशिष्ट। उ०—वल्गर शब्द ही इस आशय को व्यक्त कर सकता है। रंगभूमि, भा० २, पृ० ५००।
⋙ वल्गा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लेगाम। बाग।
⋙ वल्गित (१)
वि० [सं०] १. घूमता या नाचता हुआ। नचता हुआ।उ०—अपलक था आकाश चपल वल्गित गति लक्ष्मी।— साकेत, पृ० ४०३।२. उछलता कूदता हुआ।
⋙ वल्गित (२)
संज्ञा पुं० १. डींग। बढ़ा चढ़ा कर की गई बात। २. घोड़े की एक चाल। प्लुन गति [को०]।
⋙ वल्गु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छाग। बकरा। २. बोद्धों के बोधिद्रुम के चार अधिष्ठाता देवताओं में से एक।
⋙ वल्गु (२)
वि० १. सुंदर। खुबसूरत। २. मीठा। मधुर (को०)। ३. अमुल्य। बहुमूल्य (को०)।
⋙ वल्गु (३)
क्रि० वि सुंदरता से। सुस्पष्टतापूर्वक [को०]।
⋙ वल्गुक (१)
संज्ञा पुं० [स०] १. चंदन। २. विपिन। बन। ३. पण। बाजी। ४. सौदा। ५. मूल्य (को०)।
⋙ वल्गुक (२)
वि० रुचिर। सूंदर।
⋙ वल्गुजंघ
संज्ञा पुं० [सं० वल्गुजङ्घ] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ वल्गुज
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वल्गुजा] छाग। बकरा।
⋙ वल्गुदंतीसुत
संज्ञा पुं० [सं० वल्गुदन्तीसुत] इंद्र।
⋙ वल्गुनाद
वि० [सं०] मधुर कूजन या गान करनेवाला [को०]।
⋙ वल्गुपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बनमूँग।
⋙ वल्गुपोदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लहसुआ नाम का साग। २. एक प्रकार की लता।
⋙ वल्गुल
संज्ञा पुं० [सं०] चमगादड़। गादुर।
⋙ वल्गुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बकुची। २. चमगादड़।
⋙ वल्गुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कत्थई रंग का पतंग जाति का कीड़ा जिसे 'तैलपायी' भी कहते हैं। चपडा़। २. मंजूषा। झाबा। पिटारा।
⋙ वल्गुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमगादड़। गादुर। २. मंजूषा। झबा। पिटारा।
⋙ वल्द
संज्ञा पुं० [अ०] औरस बेटा। पुत्र। विशेष—किसी मनुष्य के कुल के परिचय के लिये उसके नाम के आगे इस शब्द का व्यवहार करके उसके पिता का नाम रखा जाता है। जेसै,—गोकुल वल्द बलदेव' अर्थात् गोकुल, बेटा बलदेव का'। दस्तावेजों और सरकारी कागजों आदि में, जिनकी भाषा उर्दू होती है, इस शब्द का प्रयोग अधिक होता है।
⋙ वल्दियत
संज्ञा स्त्री० [अ०] पिता के नाम का परिचय। बाप के नाम का पता। जेसे,अपनी वल्दियत और सकूनत लिखाओ।
⋙ वल्मन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आहार। भोजन। २. खाना। भोजन करना [को०]।
⋙ वल्मिक, वल्मिकि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वल्मीक' [को०]।
⋙ वल्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दीमक। चींटी [को०]। यौ०—वल्मीकूट।
⋙ वल्मीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दीमकों का लगाया हुआ मिट्टी का ढेर। बाँबी। बिमौट। यौ०—वल्मीकभौम, वल्मीकराशि, वल्मीकवपा=बाँबी। बिमौट। वल्मीतशीर्ष। वल्मीक संभब। २. वाल्मीकि मुनि। ३. वह मेघ जिसपर सूर्य की किरणें पड़ती हों। ४. एक प्रकार का रोग। विशेष—इस रोग में त्रिदोष के कारण गले, कंधे, काँख, हाथ, पैर और संधि स्थानों (जोड़ों) में सूजन हो जाती है, जो क्रमशः गाँठ की तरह कड़ी हो जाती है। इसमें सूई चुभने की सी पीड़ा होती है और पकने पर अनेक छेद हो जाते हैं। यदि आरंभ में ही इसकी चिकित्सा न की जाय, तो यह रोग असाध्य हो जाता है।
⋙ वल्मीकशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रोतांजन। लाल सुरमा।
⋙ वल्मीकसंभवा
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्मीकसम्भवा] एक प्रकार की ककड़ी [को०]।
⋙ वल्मीकाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] रामगिरि पर्वत का एक शृंग [को०]।
⋙ वल्मीकूट
संज्ञा पुं० [सं०] बिमौट [को०]।
⋙ वल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. लीलावती के अनुसार एक मान जो तीन गुंजा य़ा रत्ती के बराबर तौल में होता है। विशेष—वैद्यक में दो गुंजा का एक 'वल्ल' माना गया है और राजनिघंटु सार्ध एक घुँघची का ही वल्ल मानता है। २. खलिहान में भूसा अलग करना। वरसाना। ओसाना। ३. निषेध। ४. आवरण। ५. सलई का पेड़। ६. बौंरा। ७. एक माशा चाँदी (को०)। ८. एक किस्म का गेहूँ (को०)।
⋙ वल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र में रहनेवाला एक प्रकार का जंतु। २. चिड़िया। पक्षी (को०)।
⋙ वल्लकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वीणा। उ०—वही वल्लकी मैं लिए गोद में, उसे छेड़ती थी महामोद में। साकेत, पृ० ३०४। २. सलई का वृक्ष।
⋙ वल्लणहार
वि० [सं० √ वल् या वल्ल् (=गमन)+हिं० हार] गमनशील। चलनेवाला। चलायमान। उ०—सज्जण वल्ले, गुण रहे, गुण भी वल्लणहार। सूकण लागी वेलड़ी, गयाज सींचणहार।—ढोला०, दू० ३७४।
⋙ वल्लभ (१)
वि० [सं०] १. अत्यंत प्रिय। प्रियतम। प्यारा। २. सर्व श्रेष्ठ। सर्वप्रधान (को०)।
⋙ वल्लभ (२)
संज्ञा पुं० १. अत्यंत प्यारा व्यक्ति। प्रिय मित्र। नायक। २. पति। स्वामी। जैसे,—राधावल्लभ। ३. अध्यक्ष। मालिक। ४. सुंदर लक्षणों से युक्त घोड़ा। ५. एक प्रकार की सेम। ६. वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक एक प्रसिद्ध आचार्य जिनका संप्रदाय वल्लभ संप्रदाय कहलाता है। विशेष—इनके माता पिता का पता नहीं। लक्ष्मण भट्ट नामक एक दाक्षणी ब्राह्मण ने चुनारवढ़ के पास एक बालक पड़ा पाया; और उसे अपने घर लाकर पुत्र के समान पाला। फिर वही बालक प्रसिद्ध वल्लभाचार्य हुआ। जबतक लक्ष्मण भट्टजीते रहे, तबतक वल्लभ उन्हीं के पास अध्ययन करते थे। उनके मरने पर वे विष्णुस्वामी के मंदिर में जाकर शिष्य हुए और काशी में आकर संन्यास लिया। संन्यास छोड़कर ये फिर गृहस्थ हो गए थे। इनके कई पुत्र हुए, जो गद्दियों के मालिक गोस्वामी हुए। इन्होंने राधाकृष्ण की बड़ी आडंबरपूर्ण उपासना चलाई और अपना वेदांत संबंधी एक स्वतत्र सिद्धांत भी स्थापित किया जो 'विशुद्धाद्धैतवाद' के नाम से प्रसिद्ध है। इस कारण ये वेदांत के चार मुख्य आचार्यों में माने जाते हैं। इनका जन्म सन् १४७९ ई० और मृत्यु १५३१ ई० में हुई। सूरदास आदि अष्टछाप के कवि इन्हीं के शिष्य थे।
⋙ वल्लभपाल, वल्लभपालक
संज्ञा पुं० [स०] साईस। अश्व- रक्षक [को०]।
⋙ वल्लभमत
संज्ञा पुं० [सं०] विशुद्धाद्धैतवाद। उ०—वल्लभाचार्य ते द्वितीय पुत्र विट्ठलनाथ ने 'वल्लभ मत' के आठ प्रधान भक्त कवियों को लिकर 'अष्टछाप' की स्थापना की।—अक- बरी०, पृ० ५।
⋙ वल्लभा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रिय स्त्री। प्रिय पत्नी। प्यारी जोरू।
⋙ वल्लभा (२)
वि० स्त्री० प्यारी। प्रिया।
⋙ वल्लभाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णव मत के एक प्रसिद्ध आचार्य। विशेष दे० 'वल्लभ'—६। उ०—चैतन्य महाप्रभु एवं वल्लभा- चार्य द्वारा कृष्णभक्ति को प्रश्रय मिला।—अकबरी०, पृ० ५।
⋙ वल्लभायित
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रतिबंध [को०]।
⋙ वल्लभी
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'वलभी'। २. गोपिका। गोपी (को०)।
⋙ वल्लर
संज्ञा पुं० [सं०] १. लता। २. निकुंज। ३. वन। ४. कृष्णा- गुरु। अगर। ५. मंजरी। दे० 'वल्लुर'।
⋙ वल्लरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वल्लरी'।
⋙ वल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वल्ली। लता। २. मंजरी। ३. मेथी। ४. बच। ५. एक प्रकार का बाजा।
⋙ वल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोप। उ०—छीत स्वामी सकल जीव उद्धरन हित प्रगट वल्लव सदन दनुज हारी।—छीत०, पृ० १। २. सुपकार। सुआर। रसोइया। ३. भीम का एक नाम। दे० 'बल्लभ' (को०)।
⋙ वल्लवी
सज्ञा स्त्री० [सं०] गोपी। अहीरिन [को०]।
⋙ वल्लह पु
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ, प्रा० वल्लह] दे० 'वल्लभ'। उ०—सखिए सज्जण वल्लहा, जइ अणदिट्ठा तोइ। खिण खिण अतर संभरइ, नहीं विमारइ सोइ।—ढोला०, दू० २३।
⋙ वल्लाह
अव्य० [अ०] ईश्वर की शपथ। सचमूच। उ०— इन नए नखरों ने तो वल्लाह बस बेतरह आफत मचा दिया।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २४।
⋙ वल्लि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लता। २. पृथिवी [को०]।
⋙ वल्लिकंटकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्लिकणटकारिका] अग्निदमनी। शोला।
⋙ वल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लता। २. बेला। ३. पोई नाम की लता जिसकी पतियों का साग बनाकर खाया जाता है।
⋙ वल्लिकाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] मूँगा [को०]।
⋙ वल्लिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वल्लकी' [को०]।
⋙ वल्लिज
संज्ञा पुं० [सं०] मरिच। मिर्च।
⋙ वल्लिदूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेत दूर्वा। सफेद दूब।
⋙ वल्लिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वल्लिदूर्वा' [को०]।
⋙ वल्लिपाषाणसंभव
संज्ञा पुं० [सं० वल्लिपाषाणसम्भव] मूँगा [को०]।
⋙ वल्लिय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्ली] लता। उ०—बिना वृक्ष। वल्लिया आरोहति। —प० रासो० पृ० ६३।
⋙ वल्लिशूरण, वल्लिसरण
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यम्लपर्णी लता। रामचना। रपटुआ।
⋙ वल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लता। २. केवटी मोथा। कैवर्तिका। ३. अग्निदमनी। शोला। ४. काली अपराजिता। ५. चव्य। चाब (को०)। ७. अजमोदा।
⋙ वल्लीकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] कानों का वैरूप्य। श्रवर्णोंद्रिय की विरू पता [को०]।
⋙ वल्लीगड
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०]।
⋙ वल्लीज
संज्ञा पुं० [सं०] मिर्च।
⋙ वल्लीपद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वस्त्र [को०]।
⋙ वल्लीबदरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की बेर [को०]।
⋙ वल्लीवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] शाल वृक्ष।
⋙ वल्लुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुंज। २. मंजरी। फूलों का गुच्छा ३. क्षेत्र। ४. निर्जन स्थान। सूखी जगह।
⋙ वल्लूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूप में सुखाया हुआ मांस। २. शूकर का मांस। ३. ऊषर। ऊसर। रेगिस्तान। ४. जंगल। ५. वीरान। उजाड़। ६. बिना जोती हुई भूमि। परती (को०)। ७. कुंज। लतामंडप (को०)। ९. मंजरी (को०)। १०, निर्जल भूमि (को०)।
⋙ वल्लूरक
संज्ञा पुं० [सं०] कान की कुरुपता। वल्लीकर्ण। [को०]।
⋙ वल्ल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] धात्री वृंक्ष। आँवला [को०]।
⋙ वल्वग
संज्ञा पुं० [सं०] आँवला।
⋙ वल्वज
संज्ञा पुं० [सं०] ओखली।
⋙ वल्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का तृण या घास। पर्या०—द्दढ़पत्री। तृणेक्षु। द्दढ़क्षुरा। मौंजीपत्री। विशेष—वैद्यक में यह शीतल, मधुर तथा, पित्त, दाह और तृषा को दूर करनेवाली कही गई है।
⋙ वल्वल
संज्ञा पुं० [सं०] एक दैत्य जिसे बलराम जी ने मारा था। इल्वल। उ०—राम दिन कइक ता ठौर औरहु रहे, आइ वल्वल तहाँ दियो दिखाई। रुधिर अरु मांस की लग्यो वर्षा करन, ऋषिसकल देखि कै गए डराई।—सूर (शब्द०)।
⋙ वल्हिक, वल्हीक
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'बल्हीक' [को०]।
⋙ वव
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार ग्यारह करणों में एक करण, जिसमें जन्म लेनेवाले मनुष्य का बलवान्, धीर, कृती, और विचक्षण होना माना जाता है।
⋙ ववज †
संज्ञा पुं० [सं० व्यपगम या देशज] विघ्न। बाधा। उ०— संदेसाँहि ववज पड़्यो।—वी० रासो, पृ० ६७।
⋙ ववणी †
संज्ञा स्त्री० [देशी] कपास।—देशी०, पृ० २८४।
⋙ ववहार
संज्ञा पुं० [सं० व्यवहार] दे० 'व्यवहार'।
⋙ ववना †
क्रि० स० [प्रा०/?/वव] बोना।
⋙ वशंकर
वि० [सं० वशङ्कर] वश या काबु में करनेवाला [को०]।
⋙ वशंकृत
वि० [सं० वशङ्कत] वशीभूत [को०]।
⋙ वशंगत
वि० [सं० वशङ्गत] वशवर्ती [को०]।
⋙ वशंवद
वि० [सं०] १. वशीभूत। वशवर्ती। २. आज्ञाकारी। दास।
⋙ वश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इच्छा। चाह। २. एक व्याक्त पर दूसरे का ऐसा प्रभाव कि दूसरा उसके साथ जो चाहे कर सके, या उससे जो चाहे करा सके। काबु। इख्तियार। अधिकार। जैसे,—(क) इस समय वह तुम्हारे वश में है; जो चाहो करा लो। (ख) मैं उसके वश में हूँ; जैसा वह कहेगा, वैसा करूँगा। (ग) उसपर मेरा कोई वश नहीं है। मुहा०—(किसी का किसी के) वश में होना=(१) अधिकार में होना। कावू में होना। कब्जे में होना। अधीन होना। (२) कहे में होना। आज्ञानुवर्ती होना। दबाव मानना। किसी पर वश होना=किसी पर अधिकार होना। किसी पर ऐसा प्रभाव होना कि उसे इच्छानुकूल चलाया जा सके। जैसे,—उस लड़के पर हमारा कोई वश नहीं है। वश का=जिसपर अधिकार हो। जो इच्छानुसार चलाया जा सके। अधीन। जैसे,—अब वह सयाना हुआ; हमारे वश का नहीं है। ३. किसी वस्तु या बात को अपने अनकूल घटेत करने का सामर्थ्य। शक्ति की पहुँच। काबू। जैसे,—(क) जो अपने वश की बात नहीं उसके लिये शोक क्या ?। (ख) हार जीत अपने वश की बात नहीं। मुहा—वश का=इच्छा के अधीन। वश चलना=शक्ति काम करना। कुछ करने का सामर्थ्य होना। काबू चलना। जैसे,— यदि मेरा वश चलता, तो मैं उसे निकाल देता। ४. अधीन करने का भाव। अधिकार। कब्जा। प्रभुत्व। उ०— हरि कछु ऐसो टोना जानत। सबके मन अपने वश आनत।—सूर (शब्द०)। ५. जन्म। ६. वेश्याओं के रहने का स्थान। चकला। ७. आर्यों का एक समूह। उ०—मध्यदेश में कुरुओं और पंचालों के अलावा वश और उशीनर भी थे।— हिंदु० सभ्यता, पृ, ७७।
⋙ वश (२)
वि० १. अधीन। २. आज्ञाकारी। ३. मुग्ध [को०]।
⋙ वश (३)
प्रत्य० [फा०] समान। तुल्य।
⋙ वशका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आज्ञाकारिणी पत्नी [को०]।
⋙ वशकारक
वि० [सं०] वश या अधिकार में करनेवाला। वशीभूत कराने योग्य [को०]।
⋙ वशक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वश में लाने की क्रिया। वशीकरण प्रयोग [को०]।
⋙ वशग
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वशवर्तो' [को०]।
⋙ वशगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आज्ञाकारिणी स्त्री। वशका [को०]।
⋙ वशन
संज्ञा पुं० [सं०] इच्छा या आकांक्षा करना। चाहना। अभिलाषा करना [को०]।
⋙ वशवर्ती (१)
वि० [सं० वशवर्तिन्] जो दूसरे के वश में रहे। जो दूसरे के आज्ञानुसार चलता हो। अधीन। ताबे। उ०—उसके संपादक आग्रह और हठ के वशवर्ती हो अपनी मर्यादा को सर्वथा भूल गए हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २८५।
⋙ वशवर्ती (२)
संज्ञा पुं० सेवक। चाकर। दास [को०]।
⋙ वशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वंध्या स्त्री। बाँझ। २. नारी। स्त्री। ३. पत्नी। ४. गाय। ५. हथिनी। ६. बंध्या गाय। ठाँठ। ७. पति की बहन। ननद। ८. कन्या। बेटी। पुत्री (को०)। ९. वेश्या। वारांगना (को०)।
⋙ वशाकु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की चिड़िया।
⋙ वशाढ्य़क
संज्ञा पुं० [सं०] शिंशुमार। सूँस।
⋙ वशानुग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आज्ञाकारी सेवक। अधोन दास।
⋙ वशानुग (२)
वि० वशीभूत।
⋙ वशापायी
संज्ञा पुं० [सं० वशापायिन्] कुत्ता। श्वान [को०]।
⋙ वशालोभ
संज्ञा पुं० [सं०] हथिनी के द्वारा हाथी को पकड़ने का ढंग या तरीका [को०]।
⋙ वशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वश में करना। संमोहित करना [को०]।
⋙ वशिक
वि० [सं०] शून्य। खाली।
⋙ वशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अगरु। अगर की लकड़ी।
⋙ वशिता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अधोनता। ताबेदारो। २. मोहते की क्रिया या भाव। मोहन। ३. दे० 'वशित्व' (को०)।
⋙ वशिता (२)
वि० [सं० वशितृ] स्वतंत्र। २. संयमो [को०]।
⋙ वशित्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. वशता। अधीनता। २. योग के अणिमादि आठ प्रकार के ऐश्वर्यों में से एक। कहते हैं कि इस सिद्धि से साधक सबको अपने वश में कर लेता है। ३. आत्मसंयम (को०)।
⋙ वशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शमी का पेड़। २. एक वनस्पति। बाँदा (को०)। ३. पत्नी। स्त्री (को०)।
⋙ वशिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० वशिमन्] योग की आठ सिद्धियों में से एक वशित्व। सिद्धि।
⋙ वशिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्रलवण। समुदी नमक। २. एक प्रकार का वृक्ष। ३. एक प्रकार की लाल मिर्च। मिर्चा। ४. चव्य (को०)। ५. अपामार्ग (को०)। ६. राजपिप्पली (को०)।
⋙ वशिष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वसिष्ठ'।
⋙ वशी (१)
वि० [सं० वशिन्] [वि० स्त्री० वशिनी] १. अपने को वश में रखनेवाला। २. वश में किया हुआ। काबू में लाया हुआ। अधीन। ३. शक्तिशाली (को०)।
⋙ वशी (२)
संज्ञा पुं० १. ऋषि। २. शासक। राजा [को०]।
⋙ वशीकर
वि० [सं०] वश में करनेवाला। अधीन बनानेवाला [को०]।
⋙ वशीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वशीकृत] १. वश में लाने की क्रिया। नियमन। निग्रह। २. मणि, मंत्र या औषध आदि के द्वारा किसी को अपने वश में करने का प्रयोग। अधीन करना। विशेष—तंत्र में चार प्रकार के प्रयाग कहे जाते है—मारण, मोहन, वशाकरण और उच्चाटण। अथर्ववेद में मंत्र सिद्ध करके मणि और औषध द्वारा वश में करने का उल्लेख है।
⋙ वशीकरणीय
वि० [सं०] वश में किए जाने योग्य। अपना लेने लायक। उ०—तुम वशीकरणीय, प्रियतम, तुम रुचिर वरणीय साजन। लाजनत तव नयन में अब विरति के रँग राग ये क्यों ?—क्वास, पृ० ४३।
⋙ वशीकार
संज्ञा पुं० [सं०] वश में करना।
⋙ वशाकृत
वि० [सं०] १. किसी प्रकार वश में किया हुआ। २. मंत्र द्वारा वश में किया हुआ। मंत्रमुग्ध। ३. मोहित। मुग्ध।
⋙ वशीभूत
वि० [सं०] १. वश में आया हुआ। अधीन। ताबे। २. दूसरे की इच्छा के अधीन। ३. शक्तिशाली। शक्तिपूर्ण (को०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ वशीर
संज्ञा पुं० [सं०] गजपिप्पली [को०]।
⋙ वशेंद्रिय
वि० [सं० वशेन्द्रिय] इंद्रियों को अधीन रखनेवाला। जितेंद्रिय [को०]।
⋙ वश्य (१)
वि० [सं०] १. वश में आनेवाला। ताबे होनेवाला। २. किसी की इच्छा के अधीन। दूसरी की आज्ञा या कहने में रहनेवाला। वश में रहनेवाला। उ०—तुम्हारा धन है मान अवश्य; किंतु हूँ मैं तो यों ही वश्य।—साकेत, पृ० ४४।
⋙ वश्य (२)
संज्ञा पुं० १. दास। सेवक। २. मातहत। ३. मार्कंडेयपुराण के अनुसार अग्नीध्र का पाँचवाँ पुत्र। ४. लवंग। लौंग (को०)।
⋙ वश्यक
वि० [सं०] आज्ञापालक। वश में रहनेवाला [को०]।
⋙ वश्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वश्या। आज्ञाकारिणी स्त्री [को०]।
⋙ वश्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वश में होने की अवस्था या भाव। अधीनता। (राष्ट्र या राजा)।
⋙ वश्यमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह (राष्ट्र या राजा) मित्र जिसका बहुत प्रकार से उपयोग किया जा सके। यह तीन प्रकार का होता है।—(१) एकतोभीगी, (२) उभयतोभोगी और (३) सर्वतोभोगी।
⋙ वश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लगाम। २. नीला पराजिता। ३. गोरोचन। ४. आज्ञाकारिणी या वशीभूता स्त्री (को०)।
⋙ वषट्
अव्य० [सं०] एक शब्द जिसका उच्चारण अग्नि में आहुति देते समय यज्ञों में होता है। अंगन्यास और करन्यास में शिखा और मध्यमा के साथ इसका व्यवहार होता है।
⋙ वषट्कर्ता
संज्ञा पुं० [सं० वषट्कर्तृ] वषट् का या देवाहुति के मंत्रों का उच्चारण करनेवाला होता [को०]।
⋙ वषट्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं के उद्देश्य से किया हुआ यज्ञ। होम। होत्र। २. वेदोक्त तैतीस देवताओं में से एक।
⋙ वषट्कृत
वि० [सं०] देवताओं के निमित्त अग्नि में डाला हुआ। होम किया हुआ। हुत।
⋙ वषट् कृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] होम।
⋙ वष्कय
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्ष का बछड़ा [को०]।
⋙ वष्कयणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वष्कयिणी'।
⋙ वष्कयिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकेना गाय।
⋙ वसंत
संज्ञा पुं० [सं० वसन्त] [वि० वासंत, वासंतक, वासतिक, वसंती] १. वर्ष की छह ऋतुओं में से प्रधान और प्रथम ऋतु जिसके अंतर्गत चैत और बैसाख के महीने माने गए है। नई पत्ती लगने और बहुत से फूल फूलने की सुंदर ऋतु। बहार का मौसम। विशेष—प्राचीन वैदिक काल में यह ऋतु चैत और बैसाख में ही पड़ती थी; पर क्रमशः अयन खिसकने से आजकल प्रकृति में कुछ अंतर दिखाई पड़ता है। इसी से पीछे के कुछ ग्रंथों में फागुन और चैत के महीने वसंत ऋतु के कहे गए हैं। पर काव्य आदि में परंपरानुसार अबतक चैत और बैसाख ही इस ऋतु के महीने माने जाते हैं। वसंत ऋतु के ये लक्षण कहे गए हैं—पेड़ों में फूल लगना और नई पत्तियाँ आना, शीतल, मंद और सुगंधयुक्त वायु चलना, सायंकाल अत्यंत मनोरम होना और स्त्री पुरुषों का उमंग से भरना, आदि। इस ऋतु में प्राचीन काल में वसंतोत्सव और मदनपूजा होती थी। आजकल होली का उत्सव उसी की परंपरा है। पुराणों में इस ऋतु का अधिष्ठाता देवता कामदेव का सहचर कहा गया है। २. अतिसार रोग। ३. शीतला रोग। विस्फोटक। चेचक। ४. मसूरिका रोग। ५. छह रागों में दूसरा राग। (संगीत)। विशेष—इस राग की उत्पत्ति पंचवक्त्र शिव के पाँचवें मुख से कही गई है। इसकी छह रागिनियाँ ये हैं—देशी, देवगिरी, वैराटी, ताड़िका, ललिता और हिंडोला। कल्लिनाथ के अनुसार छह रागिनियाँ ये हैं—अंधूली, गमकी, पटमंजरी, गौड़केरी, धामकली और देवशाखा। संगीतदामोदर का मत है कि श्रीपंचमी से हरिशयनी एकादशी तक वसंत राग गा सकते हैं। पर संगीतदर्पण के अनुसार इसे वसंत ऋतु में ही गाना चाहिए। इसका सरगम इस प्रकार है—सा, रि, ग, म, प, नि, सा। कुछ लोग इस राग को हिंदोल राग का पुत्र मानते हैं। ६. एक ताल का नाम। (संगीत)। ७. फूलों का गुच्छा। ८. नाटक में विदूषकों की आख्या वा नाम (को०)। ९. एक वृत्त का नाम (को०)।
⋙ वसंतक
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तक] १. वसंत ऋतु (को०)। २. श्योनाक। सोनापाढ़ा। टैटू। अरलू।
⋙ वसंतकाल
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तकाल] बहार का मौसम। वसंत ऋतु [को०]।
⋙ वसंतकुसुम
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तकुसुम] गोंदनी नाम का वृक्ष। विशेष दे० 'गोंदी' [को०]।
⋙ वसंतकुसुमाकर
संज्ञा पुं० [सं वसन्तकुसुमाकर] एक उत्तम रसौ- षध। (वैद्दक)।
⋙ वसंतघोष
[सं० वसन्तधोष] कोकिल। कोयल [को०]।
⋙ वसतघोषी
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तघोषिन्] कोकिल।
⋙ वसंतजा
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तजा] १. वासंती या माधवी लता। २. सफेद जुही। ३. वसंतोत्सव।
⋙ वसंततिलक
संज्ञा पुं० [सं० वसन्ततिलक] १. एक प्रकार के फूल का नाम। २. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण, भगण, जगण, जगण, और दो गुरु, इस प्रकार कुल चौदह वर्ण होते हैं। जैसे,—लाली ललाम मृदुता अवलोकनीया।
⋙ वसंततिलका
संज्ञा स्त्री० [सं० वसन्ततिलका] एक वर्णवृत्त। दे० 'वसंततिलक'।
⋙ वसंतदूत
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तदूत] १. आम का वृक्ष। २. कोयल। ३. पंचम राग। ४. चैत्र मास।
⋙ वसंतदूती
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तदूत] १. कोकिला। २. पटोली वृक्ष। पाँडरी। पाडर। ३. माधवी लता।
⋙ वसंतद्रु
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तद्रु] आम्रवृक्ष [को०]।
⋙ वसंतद्रुम
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तद्रुम] आम का वृक्ष [को०]।
⋙ वसंतपंचमी
संज्ञा स्त्री० [सं० वसन्तपञ्चमी] माघ महीने की शुक्ल पचमी। विशेष—इस दिन वसंत और रति सहित कामदेव की पूजा करने का विधान है। वसंत राग के सुनने का महाफल है। इस दिन एकाहार व्रत भी किया जाता है।
⋙ वसंतपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तपुष्प] १. वसंत ऋतु के पुष्प। २. एक प्रकार का कदब पुष्प [को०]।
⋙ वसतबंधु
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तबन्धु] कामदेव।
⋙ वसतभैरवा
संज्ञा स्त्री० [सं० वसन्तभेरवी] एक रागिनी का नाम।
⋙ वसंतमहोत्सव
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तमहोत्सव] १. एक उत्सव जो प्राचीन काल में वसंतपंचमी के दूसरे दिन कामदेव और वसंत की पूजा के उपलक्ष्य में मनाया जाता था। २. होलिकोत्सव।
⋙ वसंतमारू
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तमारू] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
⋙ वसंतमालतीरस
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तमालतीरस] एक प्रसिद्ध रसौषध का नाम [को०]।
⋙ वसंतमालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वसन्तमालिका] एक वर्णवृत। एक छंद का नाम [को०]।
⋙ वसंतयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० वसन्तयात्रा] वसंतोत्सव।
⋙ वसंतयोध
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तयोघ] कामदेव [को०]।
⋙ वसंततु
संज्ञा पुं० [सं० बसन्तर्त्तु] ऋतुराज वसंत। बहार का मौसम [को०]।
⋙ वसंतवाक्
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तवाक्] संगीतदामोदर के अनुसार चौदह तालों में से एक।
⋙ वसंतव्रत
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तव्रत] कोकिल।
⋙ वसंतसखा
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तसखः] १. कामदेव। मदन। २. मलय पवन।
⋙ वसंतसखा
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तसखा] १. मदन। कामदेव। २. मलयानिल।
⋙ वसंतसहाय
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तसहाय] जिसका सहायक वसंत हो, कामदेव [को०]।
⋙ वसंता
संज्ञा पुं० [हिं० वसंता] हरे रंग की एक सुंदर चिड़िया जिसका कंठ और सिर लाल होता है।
⋙ वसंतार्त
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तार्त्त] विभीतक वृक्ष। बहेड़ा।
⋙ वसंती (१)
संज्ञा पुं० [हिं० वसंत] एक रंग जो हलका पीला होता है। सरसों के फूल के रंग का। बसती।
⋙ वसंती (२)
वि० वसत रंग का। विशेष—वसंतोत्सव में इस रंग के कपड़े पहने जाते हैं।
⋙ वसंतोत्सव
संज्ञा पुं० [सं० वसन्तोत्सव] १. एक उत्सव, जो प्राचीन काल में वसंत पंचमी के दूसरे दिन होता था। विशेष—इसे 'मदनोत्सव' भी कहते थे। इसमें उद्यानों में जाकर लोग वसंत और कामदेव का पूजन करते थे। होली का उत्सव इसी की परंपरा है। २. होली का उत्सव।
⋙ वसअत
संज्ञा स्त्री० [अ० वसअत] १. विस्तार। फैलाव। २. समाई। अँटने की जगह। ३. चौड़ाई। ४. सामर्थ्य। शक्ति। जैसे—सब काम अपनी वसअत देखकर करना चाहिए।
⋙ वसति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वास। रहना। २. घर। ३. बस्ती। आबादी। ४. जैन साधुओं का मठ। ५. रात। रात्रि। विश्राम काल। ६. शिविर। पड़ाव (को०)।
⋙ वसती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वास। रहना। २. रात। ३. घर। दे० 'वसति'।
⋙ वसत्त पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वस्तु]दे० 'वस्तु'। उ०—हुंता सज्जण हीयड़े सयणाँ हंदा हत्त। जउ सोहणो साचइ होअइ, सोहणों बड़ी वसत्त।—ढोला०, दू० ५०९।
⋙ वसथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. रहने का स्थान। २. वास। घर। ४. पक्षियो का घोंसला [को०]।
⋙ वसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्त्र। २. ढकने की वस्तु। आवरण। छादन। ३. घेरा। अवरोघ। परिवेष्ठन (को०)। यौ०—वसनपर्याय=वस्त्रपरिवर्तन। वस्त्र बदलना। वसनसप्त= तंबू। खेमा। रावटी।
⋙ वसना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्रियों की कमर का एक आभूषण।
⋙ वसना (२)
वि० (समास में) १. वस्त्र धारण करनेवाली। जैसे, शुभ्र-वसना। २. घिरी हुई। आवेष्टित। जैसे समुद्रवसना। ३. निमग्न। लीन [को०]।
⋙ वसनार्णवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूमि। पृथिवी।
⋙ वसनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वसना' [को०]।
⋙ वसमा
संज्ञा पुं० [अ० वसमह्] १. नील का पत्ता। २. खिजाब। ३. उबटन। ४. एक प्रकार का छपा कपड़ा जो चाँदी के वर्क लगाकर छापा जाता है।
⋙ वसवस्त
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'वसवास' [को०]।
⋙ वसवास
संज्ञा पुं० [अ०] [वि० वसवासी] १. भ्रम। दुबधा। संदेह। २. भुलावा। बहकावा। प्रलोभन या मोह। उ०— सरगहुँ ते दोउ निकसे नारद के वसवास।—जायसी (शब्द०)।
⋙ वसबासी
वि० [अ० वसवास] १. विश्वास न करनेवाला। शक्की। संशयात्मा। २. भुलावे में डालनेवाला। बहकानेवाला।
⋙ वसह पु
संज्ञा पुं० [सं० वृषभ, प्रा० वसह] बैल। बसह।
⋙ वसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मेद। २. चरबी। ३. भेजा। मगज (को०)।
⋙ वसाकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के धूमकेतु जो पश्चिम में उदय होते हैं और जिनका पूँछ का विस्तार उत्तर की ओर होता है। ये देखने में स्निग्ध जान पड़ते हैं और इनके उदय से सुभिक्ष होता है।
⋙ वंसाच्छटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मस्तिष्कपिंड। भेजा [को०]।
⋙ वसाढ्य़
संज्ञा पुं० [सं०] शिशुमार। सूंस।
⋙ वसाढ्य़क
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वसाढ्य़'।
⋙ वसातनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीला शीशम।
⋙ वसाति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वसाति नामक जनाद का अधिवासी। उ०—दक्षिणी पश्चिमी पंजाव में अंबष्ठों, क्षत्रियों तथा वसातियों के छोटे छोटे संघ थे।—आ० आ० पृ० २१०।२. इक्ष्वाकु के एक पुत्र का नाम। ३. जनमेजय के एक पुत्र का नाम।
⋙ वसाति (२)
संज्ञा स्त्री० १. उत्तर के एक जनपद का नाम। २. उषा (को०)।
⋙ वसादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीला शीशम [को०]।
⋙ वसान
वि० [सं०] निवास करनेवाला। रहनेवाला [को०]।
⋙ वसापाथी
संज्ञा पुं० [सं० वसायायिन्] कुत्ता।
⋙ वसापावन
संज्ञा पुं० [सं० वसापावन्] एक प्रकार के वैदिक देवता। पशुभाजा।
⋙ वसाँप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मेह रोग जिसमें मुत्र के साथ चरबी मिलकर निकलती है। विशेष—आधुनिक डाक्टरी चिकित्सा में यह बहुमुत्र का भेद है, जिसमें मूत्र के साथ शरीर का सत निकलता है और रोगी बहुत क्षीण हो जाता है।
⋙ वसाप्रमेही
वि० [सं० वसाप्रमेहिन्] चर्बीयुक्त अथवा चर्बी के समान पेशाब करनेवाला। उ०—वसाप्रमेही वसा (चर्बी) युक्त अथवा वसा के समान मूते।—माधव०, पृ० १८४।
⋙ वसामूर
संज्ञा पुं० [सं०] एक जनपद का नाम।
⋙ वसामेह
संज्ञा पुं० [सं०] वसाप्रमेह।
⋙ वसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. इच्छा। २. वश। ३. अभिप्राय।
⋙ वसारोह
संज्ञा पुं० [सं०] कुकुरमुत्ता। खुमी।
⋙ वसि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भवन। घर। २. वस्त्र। कपड़ा [को०]।
⋙ वसित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. निवासस्थान। २. वस्त्र।
⋙ वसित (२)
वि० १. बसा हुआ। निवसित। २. पहना हुआ। ३. इकठ्ठा किया हुआ [को०]।
⋙ वसितव्य
वि० [सं०] १. धारण के योग्य। पहनने लायक। २. निवास करने या ठहरन के उपयुक्त [को०]।
⋙ वसिता
वि० [सं० वसितृ] १. निवास करनेवाला। २. पहननेवाला [को०]।
⋙ वसिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्रलवण। २. गजपिप्पली। ३. लाल रंग का अपामार्ग। लाल चिचड़ा। ४. जलनीम।
⋙ वसिष्ठ
संज्ञा पुं [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि, जिनका उल्लेख वेदों से लेकर रामायण, महाभारत, पुराणों आदि तक में है। विशेष—वेदों में ये मित्र और वरुण के पुत्र कहे गए हैं। यज्ञ- स्थल में एक बार उर्वशी को देखकर मित्र और वरुण का वीर्यपात हो गया। वह वीर्य एक यज्ञकुंभ में रखा गया। कुंभ से वसिष्ठ और अगस्त्य का जन्म हुआ। 'बृहद्देवता' में लिखा है कि कुंभ के जल में मत्स्य, स्थल में वसिष्ठ और कुंभ में अगस्त्य उत्पन्न हुए थे। ऋग्वेद के अनुसार ये वसिष्ठ गांधार और काबुल की आर राज्य करनेवाले त्रित्सु वंश के राजा दिवीदास के पौत्र और पिजवन के पुत्र सुदास के पुरोहित थे। सुदास ने इनको बहुत कुछ दान दिया था। एक बार सुदास ने यज्ञ करने के लिये विश्वामित्र को बुलाया, इसपर वसिष्ठ बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने अपन अन्य यजमानो, भरतों के द्वारा विश्वामित्र को बहुत तग किया। विश्वामित्र तो चले आए, पर सुदास के पुत्रों ने वसिष्ठ के सौ पुत्रों का नाश कर दिया। फिर वसिष्ठ ने 'एकस्मान्न' इत्यादि ५० मंत्रों द्वारा यज्ञ करके सौदासों को पराभूत किया। पुराणों में वसिष्ठ ब्रह्मा के मानसपुत्र कहे गए हैं। राजा निमि और वसिष्ठ के बीच एक बार झगड़ा हुआ। वसिष्ठ ने निमि को और निमि ने वसिष्ठ को शाप दिया। निमि तप करके शरीररहित होकर अमर हुए और उनका वंश विदेह कहलाया। वसिष्ठ ने शरीर को त्यागकर मित्रावरुण के वीर्य से जन्म ग्रहण किया। कामघेनु के लिये वसिष्ठ और विश्वामित्र (जो पहले राजा थे) से बहुत दिनों तक झगड़ा होता रहा। विश्वामित्र के सौ पुत्रों को वसिष्ठ ने केवल हुंकार से जला दिया था। विश्वामित्र अंत में हारकर ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिये तप करने लगे। पुराणों में वसिष्ठ को अनेक पत्नियों के नाम मिलते हैं, जिनमें से. एक अरुंधती थी. जो कर्दम की कन्याथी और वसिष्ठ को सबसे प्रिय थी। इनकी एक और स्त्री अक्षमाला नीच जाति की थी। किसी और पत्नी से इन्हें शक्तृ नामक एक पुत्र हुआ था जो गोत्रकार ऋषि हुआ। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों के द्रष्टा वसिष्ठ हैं। सप्तम मंडल के द्रष्टा ये ही माने जाते हैं। २. सप्तर्षिमंडल का एक तारा जिसके पास का छोटा तारा अरुंधती कहलाता है। ३. मांस। ४. एक स्मृतिकार (को०)।
⋙ वसिष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वसिष्ठ' [को०]।
⋙ वसिष्ठनिहव, वसिष्ठनिह्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।
⋙ वसिष्ठपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपपुराण जिसका उल्लेख देवी भागवत में है। कुछ लोग कहते हैं कि लिंगपुराण ही वसिष्ठ पुराण है।
⋙ वसिष्ठप्राची
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक जनपद का नाम।
⋙ वसिष्ठशफ
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।
⋙ वसिष्ठसंसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का संन्यासी।
⋙ वसिष्ठसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं] एक स्मृति का नाम।
⋙ वसिष्ठासिद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० वसिष्ठासिद्धान्त] ज्योतिष का एक सिद्धांत ग्रंथ।
⋙ वसिष्ठांकुश
संज्ञा पुं० [सं० वसिष्ठाङ्कुश] एक साम का नाम।
⋙ वसिष्ठानुपद
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।
⋙ वसिष्ठापवाद
संज्ञा पुं० [सं०] सरस्वती नदी के किनारे का एक प्राचीन स्थान। विशेष—कथा है कि जब वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच घोर युद्ध हुआ था; तब सरस्वती नदी ने वसिष्ठ को विश्वामित्र से बचाने के लिये इसी स्थान पर छिपा लिया था।
⋙ वसिष्ठोपपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] वसिष्ठपुराण नाम का एक उपपुराण [को०]।
⋙ वसी (१)
पुं० [सं० वसिन्] ऊदबिलाव [को०]।
⋙ वसी (२)
संज्ञा पुं० [अ०] वह व्यक्ति जिसके नाम वसीयतनामा लिखा गया हो [को०]।
⋙ वसीअ
वि० [अ० वसीअ] विस्तृत। लंबा चौड़ा [को०]।
⋙ वसीअत
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'वसीयत'। यौ०—वसीअतनामा=वसीयतनामा।
⋙ वसीक
वि० [अ० वसीक] मजबूत। टिकाऊ। ठोस। द्दढ़ [को०]।
⋙ वसीका
संज्ञा पुं० [अ० वसीक़ह्] १. मुसलमानी धर्मशास्त्र के अनुसार वह धन जो विधर्मी या काफिर से नगद रूपए के मुनाफे के तौर पर लिया जाय। २. वह घन जो इस उद्देश्य से सरकारी खजाने में जमा किया जाय कि उसका सूद जमा करनेवाले के संबंधियों को मिला करे अथवा किसी धर्मकार्य, मकान की मरम्मत आदि में लगाया जाय। उ०—आपको पाँच सौ रूपए महीने का वसीका सरकार से मिलता है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८४।३. ऐसे धन से आया हुआ सूद। वृत्ति। ४. वक्फ का इकरारनामा।
⋙ वसीकादार
संज्ञा पुं० [अ० वसीक़ह्+फा० दार] वसीका पाने- बाला। पेंशनयाफ्ता [को०]।
⋙ वसीय
वि० [अ०] १. चारु। सुंदर। मनोहर। २. अंक्ति। चिह्नित [को०]।
⋙ वसीयत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. वह अंतिम आदेश जो विदेश जानेवाला या मरणासन्न पुरुष इस उद्देश्य से करता है कि मेरी अनुपस्थिति में अमुक काम इस प्रकार किया जाय। २. अपनी संपत्ति के विभाग और प्रबंध आदि के संबंध में की हुई वह व्यवस्था जो मरने के समय कोई मनुष्य लिख जाता है। विल।
⋙ वसीयतनामा
संज्ञा पुं० [अ० वसीयत+फ़ा० नामह] वह लेख जिसके द्वारा कोई मनुष्य यह व्यवस्था करता है कि मेरी संपत्ति का विभाग और प्रबंध मेरे मरने के पीछे किस प्रकार हो। विल।
⋙ वसीरो ‡
वि० [सं० √ वस्] बसा या बसाया हुआ। प्रजा। उ०— हुवै वसीरो वाणियो, पातर हुवै खवास।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ६२।
⋙ वसीला
संज्ञा पुं० [अ० वसीलह्] १. संबंध। २. आश्रय। सहायता। उ०—बिना वसीला संत नाम से भेंट न होई।— पलटू०, पृ० ७। ३. किसी कार्य की सिद्धि का मार्ग। जरिया। द्वार। जैसे,—(क) किस वसीले से वह यहाँ आया। (ख) नौकरी के लिये जाता हूँ, कोई वसीला निकल ही आवेगा। मुहा—वसोला पैदा करना=(१) किसी कार्य की सिद्धि का मार्ग निकालना। सहारा पैदा करना। (२) आमदनी आदि का रास्ता निकालना। वसीला रखना=(१) संवंध रखना। (२) आसरा रखना।
⋙ वसुंधरा
संज्ञा स्त्री० [सं० वसुन्धरा] १. धरा। पृथ्वी। २. श्वफलक की कन्या जो सांब से ब्याही थी। ३. एक देवी का नाम। ४. देश। राज्य (को०)।
⋙ वसुंधराधर
संज्ञा पुं० [सं० वसुन्धराधर] भूधर। पर्वत [को०]।
⋙ वसुंधराधव
संज्ञा पुं० [सं० वसुन्घराधव] भूपति। राजा [को०]।
⋙ वसुंधराभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ [को०]।
⋙ वसु
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का एक गण जिसके अंतगँत आठ देवता हैं। विशेष—वेदों में वसु शब्द का प्रयोग अग्नि, मरुद् गण, इंद्र, उषा, अश्वी, रुद्र और वायु के लिये मिलता है। वसु को आदित्य भी कहा है। बृहदारणयक में इस गण में पृथिवी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य, द्यौ, अग्नि, चंद्रमा और नक्षत्र माने गए हैं। महाभारत के अनुसार आठ वसु ये हैं—घर, ध्रुव, सोम, विष्णु, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास। श्रीमद् भागवत में ये नाम हैं—द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष वास्तु और विभावसु। अग्नि- पुराण में आप, घ्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास वसु कहे गए हैं। भागवत के असुसार दक्ष प्रजापति की कन्या 'वसु' ने, जो धर्म को ब्याही थी, वसुओं को उत्पन्न किया। देवीभागवत में कथा है कि एक बार वसुओं ने वसिष्ठ की नंदिनी गाय चुरा ली थी; जिससे वसिष्ठ जी ने शाप दिया था कि तुम लोग मनुष्य योनि में जन्म लोगे। उसी शाप के अनुसार वसुओं का जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ, जिनमें सात को तो गंगा जनमते ही गंगा में फेंक आई, पर अंतिम भीष्म बचा लिए गए। इसी से भीष्म वसु के अवतार माने जाते हैं। २. शब्दों द्वारा संख्या सूचित करने की रीति के अनुसार आठ की संख्या। ३. रत्न। ४. धन। ५. वक वृक्ष। अगस्त का पेड़। ६. अग्नि। ७. रश्मि। किरण। ८. जल। ९. सुवर्ण। सोना। १०. योक्तू। जोत। ११. कुबेर। १२. पीली मूँग। १३. वृक्ष। पेड़। १४. शिव। १५. सुर्य। १६. विष्णु। १७. मौलसिरी। वकुल। १८. साधु पुरुष। सज्जन। १९. सरोवर। तालाब। २०. राजा नृग के एक पुत्र का नाम। २१. छप्पय के हो सकनेवाले भेदों में से ६९ वाँ भेद। २२. घृत। घी (को०)। २३. वस्तु। पदार्थ (को०)। २४. एक प्रकार का नामक (को०)। २५. रास। लगाम। बागडोर (को०)। २६. रज्जु। रस्सी (को०)। २७. हाथ की कुहनी से लेकर बँधी हुई मुट्ठी तक की लबाई या दूरी (को०)।
⋙ वसु (२)
संज्ञा स्त्री० १. दीप्ति। आभा। २. वृद्धौषध। वृद्धि। ३. दक्ष। प्रजापति की एक कन्या जो धर्म को ब्याही थी और जिससे द्रोण आदि आठ वसुओं का जन्म हुआ था। ४. अमरावती। इंद्रपुरी (को०)। ५. अलका। कुबेर की नगरी (को०)।
⋙ वसु (३)
वि० १. जो सबमें वास करता हो। २. जिसमें सबका वास हो। ३. मीठा। मधुर (को०)। ४. सूखा। शुष्क (को०)। ५. धनी। संपन्न। ६. अच्छा। उत्तम।
⋙ वसुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँभर नमक। २. पांशु लवण। रेह। ३. वास्तुक शाक। बथुआ। ४. काला अगर। कृष्णागुरु। ५. क्षार लवण। ६. मदार का वृक्ष। ७. बनहला वृक्ष। बड़ी मौलासिरी। ८. एक प्रकार का ताल (को०)। ९. एक प्रकार का पुष्प (को०)।
⋙ वसुकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक मंत्रद्रष्टा ऋषि।
⋙ वसुकीट
संज्ञा पुं० [सं०] भिखारी [को०]।
⋙ वसुकृत
संज्ञा पुं० [सं०] एक मंत्रद्रष्टा ऋषि।
⋙ वसुकृमि
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षुक। भिखारी [को०]।
⋙ वसुकोदर
संज्ञा पुं० [सं०] तालोशपत्र।
⋙ वसुक्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक मंत्रद्रष्टा ऋषि का नाम। विशेष—इस नाम को दो ऋषि हुए हैं। एक इंद्र के गोत्र में उत्पन्न हुए थे, दूसरे वसिष्ठ के गोत्र के थे।
⋙ वसुचरण
संज्ञा पुं० [सं०] डगण के चौथे भेद का नाम जिसके आदि में गुरु और फिर दो लधु होते हैं। (पिंगल)।
⋙ वसुचारुक
संज्ञा पुं० [सं०] सोना।
⋙ वसुच्छिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महामेदा।
⋙ वसुद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर। २. विष्णु।
⋙ वसुद (२)
वि० धन देनेवाला [को०]।
⋙ वसुदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्कंदमाताओं में से एक। २. पृथ्वी। ३. माली राक्षस की पत्नी। विशेष—यह नर्मदा नाम की गंधर्वों की पुत्री थी। इसके अनल, निल, हर और संपति नामक चार पुत्र थे, जो विभीषण के अमात्य थे।
⋙ वसुदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. विदेहराज के एक पुत्र का नाम। २. बृहद्रथ के एक पुत्र का नाम।
⋙ वसुदामा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वासुदामन्] बृहद्रथ के एक पुत्र का नाम।
⋙ वसुदामा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्कंदमाताओं में से एक का नाम।
⋙ वसुदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. यदुवंशियों के शूर कुल के एक राजा जो श्रीकृष्ण के पिता थे। विशेष—इनके पिता का नाम देवमीढ़ और माता का मारिषा था। इनके जन्म के समय स्वर्ग में र्दुदुभि का शब्द सुनाई पड़ा था इससे ये 'आनकदुंदुभी' कहलाते थे। ये अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। इनकी बारह स्त्रियाँ थीं—पौरवी, रोहिणी, मदिरा, धरा, वैशाखी, भद्रा, सुनाम्नी, सहदेवा, शांतिदेवा, सुदेवा, देवरक्षिता और देवकी। इन पत्नियों के अतिरिक्त इनके सुतनु और बड़वा नाम की दो परिचारिकाएँ भी थीं। रोहिणी के गर्भ से बलराम और देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। वसुदेव की बहन कुंती थी, जिससे पांडव उत्पन्न हुए थे। २. एक राजा जो पहले वसुभूति का अमात्म था और पीछे उसे मारकर आप राजा हुआ। ३. धनिष्ठा नक्षत्र।
⋙ वसुदेवत
संज्ञा पुं० [सं०] धनिष्ठा नक्षत्र।
⋙ वसुदेव्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धनिष्ठा नक्षत्र। २. पक्ष की नवमी तिथि।
⋙ वसुदैव
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वसुदैवत' [को०]।
⋙ वसुदैवत
संज्ञा पुं० [सं०] धनिष्ठा नक्षत्र।
⋙ वसुद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] उदुंबर। गूलर।
⋙ वसुधर्मा
संज्ञा पुं० [सं० वसुधर्मन्] महाभारत के अनुसार एक राजा का नाम।
⋙ वसुधार्मिक
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वसुधार्मिका] स्फटिक पत्थर [को०]।
⋙ वसुधा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। भूतल। २. देवलोक।
⋙ वसुधा (२)
वि० वसु अर्थात् धन देनेवाला। धनदाता।
⋙ वसुधातल
संज्ञा पुं० [सं०] धरातल। पृथ्वीतल [को०]।
⋙ वसुधाधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत। २. विष्णु।
⋙ वसुधाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।
⋙ वसुधान
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी।
⋙ वसुधार
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कंडेयपुराण के अनुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ वसुधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जैनों की एक देवी का नाम। पर्या०—तारा। नीलसरस्वती। महाश्री। स्वाहा। श्री। जया। अनंता। शिवा। भद्रा। शंखिनी। महातारा। त्रिलोचना। तारिणी। २. कुबेर की पुरी, अलका। ३. एक तीर्थ का नाम। ४. नांदीमुख श्राद्ध का अंग एक कृत्य, जिसमें राजा वसु के लिये घी की सात धारें दी जाती हैं। पहले दीवार में चंदन से सात चिह्न बनाए जाते हैं। फिर वेदमंत्र पढ़ते हुए धारें दी जाती हैं। ५. एक नदी का नाम। स्वर्गगंगा। मंजाकिनी।
⋙ ववधारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी [को०]।
⋙ ववधार्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्फटिक। स्तरबिल्लौर। २. संगमर्मर।
⋙ वसुनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा, जिन्हें चार मुख होने के कारण आठ आँखें हैं [को०]।
⋙ वसुनीत
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा।
⋙ वसुनीथ
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।
⋙ वसुपति
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण [को०]।
⋙ वसुपाता
संज्ञा पुं० [सं० वसुपातृ] कृष्ण [को०]।
⋙ वसुपाल
संज्ञा पुं० [सं०] राजा [को०]।
⋙ वसुप्रद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. स्कंद के एक अनुचर का नाम। ३. कुबेर।
⋙ वसुप्रद (२)
वि० धन देनेवाला [को०]।
⋙ वसुप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक। ४. कुबेर की नगरी। अलका [को०]।
⋙ वसुप्राण
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०]।
⋙ वसुवंधु
संज्ञा पुं० [सं० वसुबन्धु] एक प्राचीन बौद्ध आचार्य जो महायान शाखा के अनुयायी थे। इन्होंने अनेक ग्रंथ रचे थे, जिनमें से कुछ के अदुवाद चीनी भाषा में भी वर्तमान हैं।
⋙ वसुभ
संज्ञा पुं० [सं०] धनिष्ठा नक्षत्र।
⋙ वसुभरित
वि० [सं०] धनपूर्ण। धनाढ़्य [को०]।
⋙ वसुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। २. छह वर्णों का एक वृत्त; जिसके प्रत्येक चरण में तगण और सगण होते हैं। उ०—तासों परिहरो जो है। हितु खरो। रारी जड़मती। धारी वसुमती। ३. धनी या संपत्र स्त्री (को०)। ४. देश। राज्य। प्रदेश (को०)
⋙ वसुमना
संज्ञा पुं० [सं० वसुमनस्] पुराणनुसार एक मंत्रद्रष्टा ऋषि का नाम।
⋙ वसुमान (१)
संज्ञा पुं० [सं०वसुमत्] १. पुराणानुसार एक पर्वत का नाम जो उत्तर दिशा में है। २. वैवस्वत मनु के एक पुत्र का नाम (को०)। ३. कृष्ण का एक नाम (को०)।
⋙ वसुमान (२)
वि० धनवान्। धनी। समृद्ध [को०]।
⋙ वसुमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक बौद्ध आचार्य। विशेष—ये महायान शाखा के अंतर्गत वैभाषिक संप्रदाय के थे। ये काश्मीर के पश्चिम अश्मापरांत देश के निवासी कहे गए हैं।
⋙ वसुर
वि० [सं०] कीमती। मूल्यवान् [को०]।
⋙ वसुरक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] एक बौद्ध आचार्य का नाम।
⋙ वसुरात
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।
⋙ वसुरुच
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के देवता।
⋙ वसुरुचि
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधर्व का नाम।
⋙ वसुरूप
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ वसुरेता
संज्ञा पुं० [सं० वसुरेतस्] १. अग्नि। २. शिव।
⋙ वसुरोचि
संज्ञा पुं० [सं० वसुरोचिस्] १. यज्ञ। २. अग्नि [को०]।
⋙ वसुरोधी
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ वसुल
संज्ञा पुं० [सं०] देवता।
⋙ वसुवन
संज्ञा पुं० [सं०] वृहत्संहिता के अनुसार ईशान कोण में स्थित एक देश।
⋙ वसुवाह
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।
⋙ वसुविद
वि० [सं० वसुविन्द] धन पानेवाला [को०]।
⋙ वसुविद्
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।
⋙ वसुव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अनुष्ठान। एक तरह की तपस्या जिसमें १२ दिनों तक पृथ्वी पर गिरे हुए अन्न को खाकर रहा जाता है [को०]।
⋙ वसुश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० वसुश्रवस्] शिव [को०]।
⋙ वसुश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्कंद की अनुचरी एक मातृका का नाम।
⋙ वसुश्रुत
संज्ञा पुं० अत्रिगोत्रीय एक ऋषि का नाम।
⋙ वसुश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चाँदी। रजत। २. कृष्ण। ३. नकली सोना। कृत्रिम स्वर्ण [को०]।
⋙ वसुषेण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्ण। २. विष्णु [को०]।
⋙ वसुसारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुबेर की पुरी, अलका।
⋙ वसुसेन
संज्ञा पुं० [सं०] कर्णराज [को०]।
⋙ वसुस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुबेर की पुरी, अलका।
⋙ वसुहंस
संज्ञा पुं० [सं०] वसुदेव के पुत्र एक यादव का नाम। उ०—चल्यो वीर वसुहस हंस दुति हंस वरन पट। जादवकुल अवतंस शत्रु विध्वंसकरन झट।—गोपाल (शव्द०)।
⋙ वसुहट्ट, वसुहट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त का वृक्ष।
⋙ वसुहोम
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणों के अनुसार अंग देश के एक राजा का नाम।
⋙ वसूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगस्त का पेड़ या फूल। २. साँभर नमक। ३. दे० 'वसुक'।
⋙ वसूज
संज्ञा पुं० [सं०] अत्रिगोत्रोय एक ऋषि जो ऋग्वेद के एक सुक्त के द्रष्टा थे।
⋙ वसूत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] पितामह भीष्म का एक नाम [को०]।
⋙ वसूदम
संज्ञा पुं० [सं०] सज्जीखार [को०]।
⋙ वसूरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या [को०]।
⋙ वसूल (१)
वि० [अ०] १. पास पहुँचा हुआ। मिला हुआ। प्राप्त। जैसे,—खत का वसूल होना। २. जो चुका लिया गया हो। जो हाथ में आ गया हो। प्राप्त। लब्ध। जैसे,—लगान वसुल करना, रूपया वसूल करना। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—वसूल पाना = दूसरे से जो पाना हो, वह मिल जाना।
⋙ वसूल (२)
संज्ञा पुं० दे० 'उसूल'।
⋙ वसूली
संज्ञा स्त्री० [अ० वसूल] १. चुकता कराने की क्रिया। दूसरे से रुपया पैसा या वस्तु लेने का काम। प्राप्ति। जैसे,— इन्हें रुपया देते तो हो, पर वसूलो में बड़ी दिक्कत होगी। २. बाकी निकला या चाहता हुआ रुपया लेने का काम। जैसे,— उस गाँव में वसूली शुरू हो गई।
⋙ वस्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. जाना। चलना। गमन। २. परिश्रम। अध्यवसाय [को०]।
⋙ वस्कय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वष्कय'।
⋙ वस्कयणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वष्कयणी'।
⋙ वस्कराटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिच्छू [को०]।
⋙ वस्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बकरा। २. निवास की जगह। ३. मकान। घर (को०)।
⋙ वस्त (२)
अव्य० [अ०] मध्य। बीच।
⋙ वस्त (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वस्तु'।
⋙ वस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] कृत्रिम लवण। बनाया हुआ नमक।
⋙ वस्तकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] शाल वृक्ष। साखू का पेड़।
⋙ वस्तगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० वस्तगन्धा] अजगंधा [को०]।
⋙ वस्तमोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा।
⋙ वस्तर
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्र] दे० 'वस्त्र'। उ०—कामकंदला बिरहवसि, वस्तर गात मलीन। मुख माधौ माधौ रटै, होइ सो छिन छिन छीन।—हिं० क० का०, पृ० २१२।
⋙ वस्तव्य
वि० [सं०] १. निवास योग्य। रहने लायक। २. बिताने या व्यतीत करने लायक [को०]।
⋙ वस्तव्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निवास। रहना [को०]।
⋙ वस्तांत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृषपत्रिका नामक पौधा। अजांत्री [को०]।
⋙ वस्ता
वि० [सं० वस्तृ] १. द्योतित या दीप्त होनेवाला। चमकनेवाला। २. पहनने या धारण करनेवाला। ३. रखनेवाला। ऊपर रखनेवाला [को०]।
⋙ वस्ताद †
संज्ञा पुं० [अ० उस्ताद] दे० 'उस्ताद'। उ०—अव्वल याद करो वस्ताद की। गुरु, पीर, पैगंबर की और याद किए करतार की।—दक्खिनी०, पृ० ५७।
⋙ वस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाभि के नीचे का भाग। पेड़ू। २. मूत्राशय। ३. पिचकारी। ४. रहना। रुकना। पड़ाव। निवास (को०)। ५. वस्त्र का आँचल। छोर (को०)।
⋙ वस्तिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० वस्तिकर्मन्] लिंगेंद्रिय, गुदेंद्रिय आदि मार्गो में पिचकारी देने की क्रिया।
⋙ वस्तिकर्माढय
संज्ञा पुं० [सं०] रीठे का पेड़। अरिष्ट वृक्ष [को०]।
⋙ वस्तिकुंडलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वस्तिकुण्डलिका] एक रोग। विशेष—इस रोग में मूत्राशय में गाँठ सी पड़ जाती है, उसमें पीड़ा तथा जलन होती है और पेशाब कठिनता से उतरता है। गाँठ को दबाने से कभी तो बूंद बूंद करके पेशाब गिरता है, और कभी धार भी निकल पड़ती है। यह रोग असाध्य कहा जाता है। अधिक परिश्रम करने, दौड़कर चलने या चोट लगने से इस रोग की उत्पत्ति कही गई है।
⋙ वस्तिकोश
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्राशय [को०]।
⋙ वस्तिमल
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्र। पेशाब।
⋙ वस्तिवात
संज्ञा पुं० [सं०] एक मूत्र रोग जिसमें वायु बिगड़कर वस्ति (पेड़ू) में मूत्र को रोक देता है।
⋙ वस्तिशिर
संज्ञा पुं० [सं० वस्तिशिरस्] १. पिचकारी का अग्रभाग या टोंटी। २. मूत्राशय का ऊपरी संकीर्ण भाग [को०]।
⋙ वस्तिशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मदन वृक्ष। मैनफल का पेड़। २. मदनफल। मैनफल।
⋙ वस्ती (१)
वि० [अ०] दरम्यानी। बीच का। मध्यवर्ती [को०]।
⋙ वस्ती पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वस्ति = (रहना)] रहने की जगह। जनपद।
⋙ वस्तु
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० वास्तव, वास्तविक] १. वह जिसका अस्तित्व हो। वह जिसकी सत्ता हो। वह जो सचमुच हो। जैसे,—डर कोई वस्तु नहीं। २. सत्य। ३. वह जिसका नाम- रूप हो। गोचर पदार्थ। चीज। जैसे,—घर में बहुत सी वस्तुएँ इधर उधर पड़ी हैं। ४. इतिवृत्त। वृत्तांत। ५. आधार। पीठ (को०)। ६. उपकरण । सामग्री। ७. नाटक का कथन या आख्यान। कथावस्तु। विशेष—नाटकीय कथावस्तु दो प्रकार की कही गई है—आधिकारिक जिसमें नायक का चरित्र हो; और प्रासंगिक जिसमें नायक के अतिरिक्त और किसी का चरित्र बीच में आ गया हो। विशेष दे० 'नाटक'। ८. धन। संपत्ति (को०)। ९. ढाँचा। आकार। रूपरेखा (को०)।
⋙ वस्तुक
संज्ञा पुं० [सं०] बथुआ का साग [को०]।
⋙ वस्तुकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बथुआ नाम का साग। श्वेत चिल्ली।
⋙ वस्तुगत
वि० [सं०] वस्तुनिष्ठ। कथागत। वस्तु या आख्यान में स्थित। उ०—संक्षेप में ये विचार साहित्य और जीवन का यथार्थ, अविच्छेअ और वस्तुगत संबंध मानते हैं।—न० सा० न० प्र०, पृ० १४१।
⋙ वस्तुजगत्
संज्ञा पुं० [सं०] प्रत्यक्ष संसार। द्दश्यमान् विश्व [को०]।
⋙ वस्तुजात
संज्ञा पुं० [सं०] वस्तुओं का योग या समूह [को०]।
⋙ वस्तुज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु की पहचान। २. मूल तथ्य का बोध। सत्य की जानकारी। तत्वज्ञान।
⋙ वस्तुतः
अव्य० [सं० वस्तुतस्] यथार्थतः। सचमुच। असल में।
⋙ वस्तुनिर्देश
संज्ञा पुं० [सं०] मंगलाचरण का एक भेद, जिसमें कथा का कुछ आभास दे दिया जाता है। यह एक तरह की सुची होती है।
⋙ वस्तुनिष्ठ
वि० [सं०] वस्तु अर्थात् वृत्तांत, कथा आदि से संबद्ध। वस्तुपरक। जैसे,—वैसी लंबी वस्तुनिष्ठ कविताएँ वे पहले लिख चुके हैं।
⋙ वस्तुपरक
वि० [सं०] वस्तुनिष्ठ। वस्तुगत। जैसे,—विज्ञानवेत्ता का परीक्षण वस्तुपरक होगा।
⋙ वस्तुपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] नायक [को०]।
⋙ वस्तुबल
संज्ञा पुं० [सं०] वस्तु का गुण।
⋙ वस्तुभान
संज्ञा पुं० [सं०] सत्यता। यथार्थता [को०]।
⋙ वस्तुभेद
संज्ञा पुं० [सं०] तात्विक अंतर [को०]।
⋙ वस्तुमात्र
संज्ञा पुं० [सं०] किसी विषय या पदार्थ का बाहरी रूप [को०]।
⋙ वस्तुरचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] शैली।
⋙ वस्तुवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह दार्शनिक सिद्धांत जिसमें जगत् जैसा द्दश्य है, उसी रूप में उसकी सत्ता मानी जाती है। जैसे,—न्याय और वैशेषिक। विशेष—यह सिद्धांत अद्वैतवाद का विरोधी है, जिसमें नामरूपात्मक जगत् की सत्ता नहीं मानी जाती।
⋙ वस्तुविनिमय
संज्ञा पुं० [सं०] वस्तुओं का पारस्परिक लेन देन। अदला बदली [को०]।
⋙ वस्तुविवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] दर्शन में सत्व या सत्ता का प्रसार [को०]।
⋙ वस्तुवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. यथार्थ बात। यथार्थ कथा। २. सुंदर चरित्र [को०]।
⋙ वस्तुव्यापार
संज्ञा पुं० [सं०] वस्तु का स्वभाव और धर्म। उ०— प्राकृतिक वस्तुव्यापार का सुक्ष्म निरीक्षण धीरे धीरे कम होता गया।—रस०, पृ० १२६।
⋙ वस्तुशून्य
वि० [सं०] यथार्थतारहित [को०]।
⋙ वस्तुस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सच्ची स्थिति [को०]।
⋙ वस्तूत्प्रेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्प्रेक्षा अलंकार का एक भेद। विशेष दे० 'उत्प्रेक्षा'।
⋙ वस्तूपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपमा अलंकार का भेद, जिसमें साधारण धर्म का लोप होता है। विशेष दे० 'उपमा'।
⋙ वस्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] बसने की जगह। घर।
⋙ वस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपड़ा। २. पहनावा। पोशाक (को०)। ३. दारचीनी का पत्ता (को०)।
⋙ वस्त्रक
संज्ञा पुं० [सं०] कपड़ा [को०]।
⋙ वस्त्रकुट्टिम
संज्ञा पुं० [सं०] १. छाता। २. खेमा। डेरा।
⋙ वस्त्रगृह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वस्त्रभवन' [को०]।
⋙ वस्त्रगोपन
संज्ञा स्त्री० [सं०] ६४ कलाओं में से एक का नाम। विशेष दे० 'कला'।
⋙ वस्त्रग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० वस्त्रग्रन्थि] नीवी। नाड़ा। इजारबंद।
⋙ वस्त्रघर्घरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का बाजा। २. छनना या छानने का वस्त्र (को०)।
⋙ वस्त्रदशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपड़े की किनारी [को०]।
⋙ वस्त्रधारणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खूँटी। नागदंतिका। अलगनी [को०]।
⋙ वस्त्रधावी
वि० [सं० वस्त्रधाविन्] कपड़ा धोनेवाला [को०]।
⋙ वस्त्रनिर्णेजक
संज्ञा [सं०] धोबी [को०]।
⋙ वस्त्रपजल
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्रपञ्जल] कोलकंद [को०]।
⋙ वस्त्राप
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक तीर्थ स्थान, जिसका नाम पुराणों में वस्त्रापथक्षेत्र मिलता है। यह आजकल का गिरनार है, जो गुजरात में है। २. शुक्रनीति के अनुसार रेशम, ऊन तथा सब प्रकार के वस्त्रों को पहचानने और उनके भाव आदि का पता रखनेवाला राजकर्मचारी।
⋙ वस्त्रपुत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपड़े की बनी गुड़िया। पुतरी [को०]।
⋙ वस्त्रपूत
वि० [सं०] कपड़े से छना हुआ।
⋙ वस्त्रपेशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] झालर [को०]।
⋙ वस्त्रबंध
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्रवन्ध] नीवी।
⋙ वस्त्रभवन
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्र + भवन] कपड़े का बना हुआ घर। जैसे,—रावटी, खेमा आदि।
⋙ वस्त्रभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] रक्तांजन।
⋙ वस्त्रभूषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मजीठ।
⋙ वस्त्रभेदक
संज्ञा पुं० [सं०] दरजी [को०]।
⋙ वस्रभेदी
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्रभेदिन्] कपड़ा सीनेवाला दरजी [को०]।
⋙ वस्रभौन पु
संज्ञा पुं० [सं०] रावटी। खेमा। डेरा। उ०—वस्त्र- भौन स्यों वितान आसने विछावने, दायजो विदेहराज भाँति भाँति को दियो।—केशव (शब्द०)।
⋙ वस्त्रयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वस्त्र का उपादान। जैसे,—रूई आदि [को०]।
⋙ वस्त्ररंजन
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्ररञ्जन] कुसुम का वृक्ष।
⋙ वस्ञरंजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वस्त्ररञ्जनी] मजीठ।
⋙ वस्त्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वस्त्रवेश्म'।
⋙ वस्त्रवेश्म
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्रवेश्मन्] रावटी। वस्त्रभवन [को०]।
⋙ वस्त्राचल, वस्त्रांत
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्राञ्चल, वस्त्रान्त] कपड़े का किनारा या छोर [को०]।
⋙ वस्त्रांतर
संज्ञा पुं० [सं० वस्त्रान्तर] उपरना। ऊर्ध्ववस्त्र [को०]।
⋙ वस्त्रागार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपड़े की दुकान। २. कपड़े का घर। रावटी। खेमा [को०]।
⋙ वस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] भवन। घर [को०]।
⋙ वस्थां
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अवस्था' [को०]।
⋙ वस्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेतन। २. मूल्य। ३. वसन। ४. द्रब्य। चीज। ५. घन। ६. त्वक्। वल्कल। छाल। ७. मृत्यु (को०)।
⋙ वस्नन
संज्ञा पुं० [सं०] कटिभूषण। करधनी।
⋙ वस्नसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्नायु। नस [को०]।
⋙ वस्निक
वि० [सं०] धनलोलुप। भृतिभोगी [को०]।
⋙ वस्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूल्यवान् थाती। बहुमूल्य धरोहर [को०]।
⋙ वस्फ
संज्ञा पुं० [अं० वस्फ़] १. प्रशंसा। स्तुति। उ०—करें सब वस्फ उस शाहंशाह के।—कबीर मं०, पृ० ३९९। २. गुण। सिफत। उ०—फिर मुझे लिखना जो वस्फे रूए जाना हो गया। वाजिब इस जा पर कलम को सर झुकाना हो गया।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, ८४९। ३. विशेषता।
⋙ वस्म
संज्ञा पुं० [सं० वस्मन्] १. कपड़ा। २. वासस्थान (वैदिक अर्थ)।
⋙ वस्य
वि० [सं० वस्यस] १. उत्कृष्ट। उत्तम। २. बहुत संपत्ति- शाली। धनी।
⋙ वस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिन। २. घर। मकान। २. निवास। ३. वह स्थान जहाँ मार्ग मिलें चौराहा।
⋙ वस्ल
संज्ञा पुं० [अं०] १. दो चीजों का आपस में मिलना। मिलन। २. संयोग। मिलाप। विशेषतः प्रेमी और प्रेमिका का मिलाप। उ०—बगैर उसके वस्ल के सब रँड़रोना है यह हँसी नही।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १ पृ० ५७०।
⋙ वस्वौकसारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इंद्रपुरी। २. कुबेरपुरी। ३. गंगा। ४. इंद्र नामक नदी।
⋙ वहंत
संज्ञा पुं० [सं० वहन्त] १. वायु। २. बालक। ३. रथ (को०)।
⋙ वह (१)
सर्ब० [सं० सः या असौ] १. एक शब्द जिसके द्वारा दूसरे मनुष्य से बातचीत करते समय किसी तीसरे मनुष्य का संकेत किया जाता है। जैसे,—तुम जाआ; वह आता ही होगा। २. एक निर्देशकारक शब्द जिससे दूर की या परोक्ष वस्तुओं का संकेत करते हैं। जैसे,—यह और वह दोनों एक ही है। विशेष—इस अर्थ में यह शब्द संज्ञा के पहले विशेषण की तरह भी आता है। जैसे,—यह आदमी और वह आदमी।
⋙ वह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल का कंधा। २. घोड़ा। ३. वायु। ४. मार्ग। पथ। ५. नद। ६. वाहन (को०)। ७. प्रवाह। धारा (को०)। ८. ले जाने या ढोने की क्रिया (को०)। ९. चार द्राण का एक मान (को०)। १०. गाय के रंभनि का शब्द (को०)।
⋙ वह (३)
वि० १. बोझ उठाकर के जानेवाला। जेसे, काष्ठ मारवह। २. गंवाहक। जैस, धवह (समास म)।
⋙ वहत
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल। २. यात्रा। पाथक (को०)। ३. जिसपर लोग चलते हैं, पंथ। मार्ग (?)।
⋙ वहतांत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० वहतान्त्रा] छागलाक्षा क्षुप। विशेष—वैद्यक मे यह पोधा कटु तथा कास रोगि का नाशक और शुक्रवर्धक कहा गया है। पर्या०—वृषगधा। मेषांत्रा। वृषपत्रिका।
⋙ वहति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. सचि/?/। सलाहकार। मित्र ३. बैल। वृष (को०)।
⋙ वहती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गाय। २. नदी जा प्रवहमान रहता है।
⋙ वहतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल। २. पथिक (वेद)। ३. विवाह (वेद)। ४. स्त्रीधन। दायज। दहेज (को०)।
⋙ वहदत
संज्ञा स्त्री० [अ०] एकत्व। वाहिद या एक होने का भाव। अद्वैतवाद। उ०—परीखे वे गर इस राज का खास। के जे वहदत की दरिया का है गव्वास—द० प० ग०, पृ० १५५।
⋙ वहदानी
वि० [अ०] एक ईश्वर से ही संबंध रखनेवाला। अद्वैतवाद को माननेवाला। अद्वैतवादी [को०]।
⋙ वहन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वहनीय, वहमान, वहित] १. बेड़ा। तरेंदा। नौका नाव। २. खींचकर अथवा सिर या कंधे पर लादकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाना। जैसे,—भार वहन करना। रथ वहन करना। ३. कंधे या सिर पर लेना। ४. ऊपर लेना। उठाना। ५. वास्तु विद्या में खंभे के नौ भागों में से सब से नीचे का भाग। ६. बहना । प्रवाहित होना (को०)। ७. यान। सवारी (को०)।
⋙ वहनभंग
संज्ञा पुं० [सं०] पोतभंग। पोत आदि का डूब जाना [को०]।
⋙ वहनीय
वि० [सं०] १. उठा या खींचकर ले जाने योग्य। २. ऊपर लेने या धारने योग्य।
⋙ वहम
संज्ञा पुं० [अ०] १. बिना संकल्प के चित्त का किसी बात पर जाना। मिथ्या धारणा। झूठा खयाल। २. भ्रम। ३. व्यर्थ की शंका। मिथ्या संदेह। फजूल शक। जैसे,—वहम की तो कोई दवा ही नहीं। उ०—जिस वस्तु की संसार में सृष्टि ही न हो वह भी वहम समा जाने से तत्काल दिखाई देने लगती है।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २४५ ।
⋙ वहमी
वि० [अ० वहम] १. वृंथा संदेह द्वारा उत्पन्न। भ्रमजन्य। २. झूठे खयाल में पड़ा रहनेवाला। ३. वहम करनेवाला। जो व्यर्थ संदेह में पड़े। किसी बात के संबंध में जो व्यर्थ भला बुरा सोचे। संशयात्मा।
⋙ वहल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नौका। नाव।
⋙ वहल (२)
वि० १. द्दढ़। मजबूत। २. दे० 'बहल'।
⋙ वहलगंध
संज्ञा पुं० [सं० वहलगंन्ध] शबर चंदन।
⋙ वहलचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० वहलचक्षुस्] मेढ़ासींगी। मेषशृंगी।
⋙ वहलत्वच्
संज्ञा पुं० [सं०] लोध।
⋙ वहला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शतपुष्पा। २. बड़ी इलायची। ३. दीपक राग की एक रागिनी का नाम।
⋙ वहवाँ ‡
क्रि० वि० [हिं० वहाँ] उस स्थान पर। उस जगह। वहाँ। उ०—यहवाँ सूरजे क्रांति प्रकाशा। वहवाँ जोती स्थिर निवासा।—कबीर सा०, पृ० ९८।
⋙ वहश
संज्ञा पुं० [अ०] वन्य पशु जंगली पशु [को०]।
⋙ वहशत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. जंगलीपन। असभ्यता। बर्बरता। २. उजड्डपन। ३. पागलपन। बावलापन। ४. चित्त की चंचलता। अधीरता। ५. विकलता। धबराहट। ६. चहल- पहल या रौनक न होना। सन्नाटापन। उदासी। उ०—ऐ खिरदमंदो मुबारक हो तुम्हें फर्जानगी। हम हों औ सहरा हो औ वहशत हो औ दीवानगी।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४३। ७. डरावनापन। मुहा०—वहशत उछलना = (१) सनक होना। खब्त होना। (२) धुनहोना। वहशत बरसना = (१) उदासी छाना। करुणा या दुःख का भाव प्रकट होना। रौनक न रेहना। (२) जंगलीपन प्रकट होना।
⋙ वहशतजदा
वि० [अ० वहशत + फ़ा० ज़दह] भयभीत। उद्विग्न [को०]।
⋙ वहशियाना
वि० [फा़०] वहशी जैसा। वहशी के समान [को०]।
⋙ वहशी
वि० [अ०] १. जंगल में रहनेवाला। जंगली। उ० ये लोग भी एक किस्म के वहशी हैं, इनसे दुनियाँ के लोगों को किसी तरह का फायदा नहीं पहुँचता।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १८। २. जो पालतू न हो। जो आदमियों में रहना न जानता हो। ३. असभ्य। ४. भड़कनेवाला।
⋙ वहस †
संज्ञा पुं० [देश०] सम। तुक। उ०—विषम सम विषम सम दवालैं बेद तुक ठीक गुर, अंत तुक वहस ठाला।—रघु० रू०, पृ० ५०।
⋙ वहाँ
अव्य० [हिं० वह] उस जगह। उस स्थान पर। उहाँ। विशेष—जैसे 'यहाँ' का प्रयोग पास के स्थान के लिये होता है, वैसे ही इस शब्द का प्रयोग दूर के स्थान के लिये होता है।
⋙ वहा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी। स्त्रोतस्विनी [को०]।
⋙ वहा (२)
वि० स्त्री० वहन या धारण करनेवाली। जैसे, स्त्रोतोवहा।
⋙ वहाबी
संज्ञा पुं० [अ०] मुसलमानों का एक संप्रदाय जो अब्दुल वहाब नज् दी का चलाया हुआ है। विशेष—अब्दुलवहाब अरब के नज्द नामक स्थान में उत्पन्न हुआ था। वह मुहम्मद साहब के सर्वोच्च पद को अस्वीकार करता था। इस मत के अनुथायी किसी व्यक्ति या स्थानविशेष की प्रतिष्ठा नहीं करते। अब्दुलवहाब ने अनेक मसजिदों और पवित्र स्थानों को गिराया और मुहम्मद साहब की कब्र को भी खोदकर फेंक देना चाहा था। इस मत के अनुयायी अरब और फारस में अधिक हैं।
⋙ वहाल
संज्ञा पुं० [सं०] वायु [को०]।
⋙ वहिः
अव्य० [सं० वहिर्] जो अंदर न हो। बाहर। विशेष—हिंदी में इस शव्द का प्रयोग अकेले नहीं होता, समस्त रूप में होता है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार समास में इसके रूप वहिर्, वहिश्, वहिष् आदि होते है। जैसे,—वहिर्गत। वहिश्चर। वहिरंग। बहिष्कार इत्यादि।
⋙ वहित
वि० [सं०] १. ढोया हुआ। वहन किया हुआ। २. अवहित। ३. प्रसिद्ध। ख्यात। ४. प्राप्त [को०]।
⋙ वहित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाव। जहाज। २. स्तंभयुक्त। एक प्रकार का वर्गाकार रथ [को०]।
⋙ वहित्रकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक योगासन जिसमें दोनों पैर एक में मिलाकर सामने फैलाए जाते हैं [को०]।
⋙ वहित्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वहित्र' [को०]।
⋙ वहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नौका। नाव।
⋙ वहिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाहा] बाहा। धारा। सोता। उ०—बंगाल में तो चैतन्य महाप्रभ्र ने कृष्ण को केंद्र में रखकर भक्ति की वहिया ही बहा दी।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९२।
⋙ वहिरंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० वहिरङ्ग] १. शरीर क बाहरी भाग। देह का बाहरी हिस्सा। २. ऊपर या बाहर का हिस्सा। बाहरी भाग। अंतरंग का उलटा। ३. वह जो किसी वस्तु के भीतरी तत्व को न जानना चाहता हो। ४. आगंतुक पुरुष। कहीं बाहर से आया हुआ आदमी। ५. वह मनुष्य जो अपने दल या मंडली का न हो। वायबी आदमी। ६. पूजा में वह कृत्य जो आदि में किया जाय।
⋙ वहिरंग (२)
वि० १. ऊपर ऊपर का। बाहर का। जो अंतरंग न हो। बाहरी। २. जो सार रूप न हो। जो भीतरी तत्व न हो। ३. अनावश्यक। फालतू।
⋙ वहिरंतर
वि० [सं० वहिर् + अन्तर] बाहरी और भीतरी। आंतरिक और बाह्म। उ०—'ज्योत्सना' में मैंने जीवन की वहिरंतर मान्यताओं का समन्वय करने का प्रयत्न किया है।—हिं० आं० प्र०, पृ० २५३।
⋙ वहिरिंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० वहिरिन्द्रिय] १. कमेंद्रिय। २. बाह्मकरणमात्र। कर्मेंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय।
⋙ वहिर्गत
वि० [सं०] जो बाहर गया हो। निकला हुआ। बाहर का।
⋙ वहिर्देंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाहर का स्थान। २. विदेश। ३. अज्ञात स्थान। ४. द्वार। दरवाजा।
⋙ वगिर्द्वार
संज्ञा पुं० [सं०] बाहरी फाटक। सदर फाटक। तोरण।
⋙ वहिर्ध्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।
⋙ वहिर्भूत
वि० [सं०] बहिर्गत।
⋙ वहिर्मुख
वि० [सं०] विमुख।
⋙ वहिर्योग
संज्ञा पुं० [सं०] हठयोग।
⋙ वहिर्लंब
संज्ञा पुं० [सं० वहिर्लम्ब] रेखागणित में वह लंब जो किसी क्षेत्र के बाहर बढा़ए हुए आधार पर गिराया जाता है।
⋙ वहिर्लापिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोई ऐसा टेढ़ा वाक्य या प्रश्न जिसका उत्तर बतलाने के लिये श्रोता से कहा जाय। पहेली। विशेष—पहेलियाँ दो प्रकार की होती हैं। जिनके उत्तर का शब्द पहेली के वाक्य के अंदर ही रहता है, उसे 'अंतर्लापिका' कहते हैं। और जिनके उत्तर का पूरा शब्द पहेली के अंदर नहीं होता, वे 'वहिर्लापिका' कहलाती हैं। जैसे,—भाखैं काह सज्जन को ? कौन शंभु वाहन है ? काको सुख होत ? काकी माल शिव धारो है ? कहा गज बंधन ? छबीले रंग का के अति ? कौन हरपुत्र ? सीसुत को सुप्यारो है। शोभा को सुनाम को है ? कृष्ण नख धारो कहा ? सिंधु से मिलत कौन ? काह अनियारो है ?। उत्तर के वर्णन में आदि अंत छाँड़ि दीजै, मध्य लीजै सो हिये मनोरथ हमारो है। इन प्रश्नों के उत्तर क्रमशः ये होंगे—(१) सयाने। (२) बरद। (३) सुकती। (४) कपाल। (५) साँकल। (६) हरिणी। (७) गनेश। (८) मुकता। (९) पानिप। (१०) पहाड़। (११) सरिता। (१२) नयन। उत्तर के इन शब्दों के मध्याक्षरलेने से यह उत्तर वाक्य निकलता है,—यार कृपा करि नेक निहारिय।
⋙ वहिर्वेगज्वर
संज्ञा, पुं० [सं०] एक प्रकार का ज्वर जिसमें शरीर में ताप, प्यास आदि उपद्रव होते हैं। उ०—तृष्णादिक लक्षण थोड़े होवे ये वहिर्वेगज्वर के लक्षण हैं।—माधव०, पृ० ३७।
⋙ वहिश्चर
संज्ञा पुं० [सं०] केवड़ा।
⋙ वहिष्क
वि० [सं०] बाहरी। बाह्य [को०]।
⋙ वहिष्करण
संज्ञा पुं० [सं०] बाहर की इंद्रियाँ। पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेद्रियाँ। बाह्मोंद्रिय। (मन या अंतः करण को भीतर की इंद्रिय कहते हैं।)
⋙ वहिष्कार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बहिष्कार' [को०]।
⋙ वहिष्कृत
वि० [सं०] १. निकाला हुआ। बाहर किया हुआ। २. अलग किया हुआ। त्यागा हुआ। त्यक्त।
⋙ वहिष्ठ
वि० [सं०] अधिक भार उठानेवाला।
⋙ वहिष्प्राण
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीवन। २. श्वास। वायु। ३. अर्थ।
⋙ वहीं
अव्य० [हिं० वहाँ + ही] उसी स्थान पर। उसी जगह। विशेष—जब वहाँ शब्द पर जोर होता हे तब 'ही' लगाने के कारण उसका यह रूप हो जाता है।
⋙ वही (१)
सर्व० [हिं० वह + ही] १. उस तृतीय व्यक्ति की ओर निश्चित रूप से सकेत करनेवाला सर्वनाम, जिसके संबंध में कुछ कहा जा चुका हो। पूर्वोक्त व्यक्ति। जैसे,—(क) यह वही आदमी है जो कल आया था। २. निर्दिष्ट व्यक्ति। अन्य नहीं। जैसे— जो पहले वहाँ पहुँचेगा, वही इनाम पावेगा।
⋙ वही (२)
संज्ञा पुं० [सं० वहिन्] १. बैल। २. मोटिया। भारवाहक। बोझा ढोनेवाला [को०]।
⋙ वहीर
संज्ञा पुं० [हिं० भीर, बहीर या देश०] परिजन। प्रजा। दे० 'बहीर'। उ०—चाली अहमद बेगमरी, दिल्ली दिसा वहीर।— रा० रू०, पृ० ३१७।
⋙ वहीरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्तवाहिज्ञी नाड़ियों का एक वर्ग। शिरा। २. स्नायु। ३. मांसपेशी। पुट्ठा।
⋙ वहुदक
संज्ञा पुं० [सं०] चार प्रकार के संन्यासियों में से एक। विशेष—सूतसंहिता के अनुसार कुटिचक, वहूदक, हंस और परमहंस ये चार प्रकार के संन्यासी कहे गए हैं। वहूदकों के लिये यह नियम है कि वे एक घर से पूरी भिक्षा न ग्रहण करें; सात घरों से लें। उन्हें अपने साथ में गाय की पूँछ के रोयों से बँधा हुआ त्रिदंड, शिक्य, जलपूर्ण पात्र, कौपीन, कमंडलु, कंथा, पादुका, छत्र, रुद्राक्ष की माला, योगपट्ट, खनित्र और कृपाश रखना चाहिए। मरने पर वहूदक संन्यासी जल में डुबाए जाते हैं।
⋙ वहेटक, वहेडुक, वहैडुक
संज्ञा पुं० [सं०] बिभीतक वृक्ष [को०]।
⋙ वह्नि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. कृष्ण के एक पुत्र का नाम, जो मित्रविंदा से उत्पन्न हुआ था। ३. तुवंसु के पुत्र का नाम। ४. कुक्कुर वंशी एक यादव का नाम। ५. चित्रक। चीता। ६. भिलावाँ। ७. तीन की संख्या। ८. राम की सेना के सेनापति एक बंदर का नाम। ९. जैनों के अनुसार लौकांतिक जीवों का तीसरा वर्ग। १०. पाचन शक्ति। पाचन। जठराग्नि (को०)। ११. यान (को०)। १२. देवता (को०)। १३. मरुत् (को०)। १४. सोम (को०)। १५. सवारा खींचनेवाले जानवर। बैल, घोड़ा आदि (को०)। १६. निंबूक। विजौरा नीबू। चको- तरा नीबू (को०)। १७. तत्र के अनुसार रेफ, रवर्ण (को०)। १८. आठवाँ कल्प (को०)। १९. पुरोहित (को०)। २०. क्षुधा। भूख (को०)।
⋙ वह्निक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] उष्णता। गरमी [को०]।
⋙ वह्निक (२)
वि० गरम। उष्ण [को०]।
⋙ वह्निकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विद्युत्। बिजली। २. जठराग्नि। ३. चकमक। पथरी।
⋙ वह्निकर (२)
वि० १. उतापक। उद्दीपक। २. पाचक। क्षुधावर्धक [को०]।
⋙ वह्निकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] धौ का फूल।
⋙ वह्निकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अगुरु। दाहागुरु [को०]।
⋙ वह्निकुंड
संज्ञा पुं० [सं० वह्निकुण्ड] अग्निकुंड।
⋙ वह्निकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] भुवनपति देवगण में से एक।
⋙ वह्निकोण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अग्निकोण' [को०]।
⋙ वह्निकोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्वलन। जलना। प्रदाह। २. प्रल- याग्नि। ३. दावाग्नि [को०]।
⋙ वह्निगंध
संज्ञा पुं० [सं० वह्निगंध] १. धूप। लोबान। २. यक्ष- धूप। राल [को०]।
⋙ वह्निगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस। २. शमीवृक्ष।
⋙ वह्निगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शमीवृक्ष [को०]।
⋙ वह्निचक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कलिहारी या कलियारी नाम का विष।
⋙ वह्निजाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह्नि की पत्नी स्वाहा। स्वाहा मंत्र [को०]।
⋙ वह्निज्वाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम [को०]।
⋙ वह्निज्वाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] धव का पेड़।
⋙ वह्निदमनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निदमनी नाम का पौधा।
⋙ वह्निदीपक
संज्ञा पुं० [सं०] कुसुंभ का वृक्ष।
⋙ वह्निदीपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा।
⋙ वह्निदैवत
वि० [सं०] अग्नि की पूजा करनेवाला। अग्नि का उपासक अग्निपूजक [को०]।
⋙ वह्निधौत
वि० [सं०] अग्नि के समान पवित्र [को०]।
⋙ वह्निनामा
संज्ञा पुं० [सं० वह्निनामन्] १. चित्रक। चीते का पेड़। २. भिलावाँ।
⋙ वह्निनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी।
⋙ वह्निपुष्पा, वह्निपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] धव का वृक्ष।
⋙ वह्निबीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ण। सोना। विशेष—ब्रह्मवैवर्त पुराण के कृष्णजन्म खंड में स्वर्ण की उत्पत्ति की कथा यह है—स्वर्ग की सभा में एक बार सब देवता बैठेहुए थे और रंभा नाच रही थी। रंभा को देखकर अग्निदेव कामपीड़ित हुए और उनका वीर्य गिरा, जिसे उन्होंने लज्जावश कपड़ों से ढाँक लिया। कुछ दिनों पीछे वह वीर्य दमकती हुई धातु होकर वस्त्र भेदकर नीचे गिरा, जिससे सुवर्ण की उत्पत्ति हुई। २. तंत्र में 'र' बीज। ३. नीबू।
⋙ वह्निभूतिक
संज्ञा पुं० [सं०] चाँदी।
⋙ वह्निभोग्य
संज्ञा पुं० [सं०] घी।
⋙ वह्निमंथ
संज्ञा पुं० [सं० वह्निमन्थ] गनियारी का पेड़। अग्निमंथ वृक्ष। अँगेथू का पेड़।
⋙ वह्निमंथन
संज्ञा पुं० [सं० वह्निमन्थन] गनियारी का पेड़।
⋙ वह्निमारक
संज्ञा पुं० [सं०] पानी। जल [को०]।
⋙ वह्निमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। हवा।
⋙ वह्निमुख
संज्ञा पुं० [सं०] देवता। विशेष—यज्ञ की अग्नि में डाला हुआ भाग देवताओं को पहुँचता है इसी से वे वह्निमुख कहलाते हैं।
⋙ वह्निरेता
संज्ञा पुं० [सं० वह्निरेतस्] शिव।
⋙ वह्निलोह
संज्ञा पुं० [सं०] ताम्र। ताँबा।
⋙ वह्निलोहक
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँसा। २. ताँबा (को०)।
⋙ वह्निवक्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] कलिहारी या कलियारी नाम का विष।
⋙ वह्निवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वह्निजाया' [को०]।
⋙ वह्निवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल।
⋙ वह्निवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] सर्ज रस। यक्षधूप [को०]।
⋙ वह्निवल्लभा
संज्ञा स्ञी० [सं०] दे० 'वह्निबाया'।
⋙ वह्निवीज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बह्निबीज'।
⋙ वह्निशिख
संज्ञा पुं० [सं०] १. केसर। २. कुसुंम [को०]।
⋙ वह्निशिखर
संज्ञा पुं० [सं०] रूद्रजटा नाम का पौधा।
⋙ वह्निशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलिहारी या कलियारी नाम का विष। २. धव का पेड़। ३. काकुन नाम का अन्न। प्रियंगु। ४. गजपिप्पली।
⋙ वह्निशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] केसर [को०]।
⋙ वह्निसंज्ञक
संज्ञा पुं० [सं०] चित्रक वृक्ष [को०]।
⋙ वह्निसख
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीरक। जीरा। २. पवन [को०]।
⋙ वह्निसाक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] साक्षीस्वरूप अग्नि।
⋙ वह्निसात्
संज्ञा पुं० [सं०] जल जाना। भस्मीभूत होना [को०]।
⋙ वह्निसुत
संज्ञा पुं० [सं०] पयोलस। पायस क्षीरिका। अन्नरस। रस।
⋙ वह्नीक
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे 'वह्निक'।
⋙ वह्नीश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी [को०]।
⋙ वह्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाहन। यान। २. शकट। गाड़ी।
⋙ वह्यक
संज्ञा पुं० [सं०] उठाकर ले जानेवाला। वाहक।
⋙ वह्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुनिपत्नी। ऋषिवधू [को०]।