विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/मु
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ मुंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० मुङ्गा] पुराणानुसार एक देवी का नाम।
⋙ मुंचन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुञ्च्] दे० 'मोचन'।
⋙ मुंचना पु
क्रि० स० [सं० मुञ्च्] मोचना। त्यागना। छोड़ना। मुक्त करना। उ०— त्रपा मुंच मुग्धे अभिराम। अभिसर बलि जहँ सुंदर स्याम।—नंद० ग्रं०, पृ० ११५।
⋙ मुंछार (१)
वि० [सं० मूर्छालु] मूर्छित। मूर्छायुक्त। बेहोश।
⋙ मुंछार (२)
वि० [हिं० मूँछ+आर (प्रत्य०)] १. मूँछवाला। वीर। मूँछ का गौरव रखनेवाला। २. जिसे मूँछ हो। जैसे, सिंह।
⋙ मुंछाल †
वि० [हिं० मूँछ+आल (प्रत्य०)] दे० 'मुँछार'।
⋙ मुंज
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्ज] १. मूँज नाम की घास। २. धारा नगरी का राजा जो भोज का चाचा और अपभ्रंश का कवि था।
⋙ मुंजक
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जक] घोडों की आँख का एक रोग जो कीड़ों के कारण नेत्रपटल पर होता है। जब यह बढ़ जाता है, तब 'मुंजजालक' कहलाता है।
⋙ मुजकेतु
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जकेतु] महाभारत के अनुसार एक राजा का नाम।
⋙ मुंजकेश
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जकेश] १. शिव। २. विष्णु। ३. महाभारत के अनुसार एक राजा का नाम।
⋙ मुंजकेशी
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जकेशिन्] विष्णु।
⋙ मुंजग्राम
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जग्राम] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन नगर का नाम।
⋙ मुंजजालक
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जजालक] घोड़ों की आँख के मुंजक रोग का उस समय का नाम जब वह बहुत बढ़ जाता है।
⋙ मुंजपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जपृष्ट] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन प्रदेश का नाम जो हिमालय पर्वत में था।
⋙ मुंजमणि
संज्ञा स्त्री० [सं० मुञ्जमणि] पुष्पराग मणि। पुखराज।
⋙ मुंजमेखला
संज्ञा स्त्री० [सं० मुञ्जमेखला] मूँज की बनी हुई वह मेखला जो यज्ञोपवीत के समय पहनी जाती है।
⋙ मुंजमेखली
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जमेखलिन्] १. विष्णु। २. शिव।
⋙ मुंजर
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जर] १. कमल की जड़। २. कमल की नाल। मृणाल।
⋙ मुंजली पु
वि० [हिं० मुंज+ली (प्रत्य०)] मूँज संबंधी। मूंज की।
⋙ मुंजवट
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जवट] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ मुंजवान्
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जवत्] १. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार की सोमलता। २. महाभारत के अनुसार कैलाश पर्वत के पास के एक पर्वत का नाम।
⋙ मुंजाट, मुंजाटक
पुं० [सं० मुञ्जाट मुञ्जटक] एक पौवे का नाम [को०]।
⋙ मुंजातक
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जातक] १. मूँज। २. मुजरा कंद।
⋙ मुंजाद्रि
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जाद्रि] पुराणानुसार एक र्पवत का नाम।
⋙ मुंजानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गल्था प्रदेश (कंबीज) की एक भाषा। का नाम।
⋙ मुंजारन
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जारण्य] मूंज वन। उ०— अब सुनि उनइसवौं अध्याइ। स्याम राम मुंजारन जाइ।— नंद० ग्रं०, पृ० २८६।
⋙ मुंजारा
संज्ञा स्त्री० [सं० मुञ्जारा] एक प्रकार का कंद। मुजरा कंद।
⋙ मुंठि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुष्टि, प्रा० मुठ्ठि] १. मुष्टि। मुठ्ठी। मूठी। उ०—सुछुट्टिय घाव करै दिठ मुंठि।—पृ० रा०, ६१। ६३९।
⋙ मुंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुण्ड] १. गरदन के ऊपर का अंग जिसमें केश, मस्तक, आँख, मुँह आदि होते हैं। सिर। २. पुराणानुसार राजा बलि के सेनापति एक दैत्य का नाम। ३. शुंभ के सेनापति एक दैत्य का नाम। विशेष— यह शुंभ की आज्ञा से भगवती के साथ लड़ा था और उन्हीं के हाथों मारा गया था। इसका भाई चंड था। चंड औरमुंड का वध करने के कारण ही भगवती का नाम चामुंडा पड़ा था। ४. राहु ग्रह। ५. मुंडन करनेवाला, हज्जाम। ६. वृक्ष का ठूँठ। ७. कटा हुआ सिर। ८. बोल नामक गंध द्रव्य। ९. एक उपनिषद् का नाम। १०. मुंडित शिर (को०)। ११. एक प्रकार का लौह। मंडूर। १२. गायों का समूह या मंडल।
⋙ मुंड (२)
वि० १. मुंड़ा हुआ। मुंडा। बिना बात का। २. अधम। नीच।
⋙ मुंडक
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डक] १. मस्तक। सिर। २. मूँडनेवाला, हज्जाम। ३. एक उपनिषद् का नाम।
⋙ मुंडकर
संज्ञा पुं० [हिं० मुंड + कर, अं० पोल टैक्स] प्रत्येक नागरिक पर लगाया हुआ कर। उ०— फ्रेंच भारत के गवर्नर को फ्रांस के उपनिवेश सचिव का तार मिला है जिसमें उन्हें हिदायत की गई है कि नया हुक्म मिलने तक प्रस्तावित मुंडकर का लगाना रोक रखें।— आज (१। १। ३९), पृ० ४।
⋙ मुंडकरी †
संज्ञा स्त्री० [मूँड+करी (प्रत्य०)] दे० 'मुँडकरी'।
⋙ मुंडकिट्ट
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डकिट्ट] मंडूर।
⋙ मुंडचणक
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डचणक] १. चना। २. कलाय (को०)।
⋙ मुंडधान्य
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डधान्य] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का शालिधान्य जो मुंडशालि भी कहलाता है। बोरो धान।
⋙ मुंडन
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डम] १. सिर को उस्तरे से मूँडने की क्रिया। २. द्विजातियों के १६ संस्कारों में से एक जो बाल्यावस्था में यज्ञोपवीत से पहले होता है जिसमें बालक का सिर मूँड़ा जाता है।
⋙ मुंडनक
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डनक] १. मुंडशाली नामक धान्य। बोरी धान। २. वट का वृक्ष।
⋙ मुंडनिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डनिका] मुंडशालि। बोरो धान।
⋙ मुंडपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डपृष्ठ] एक प्राचीन जनपद का नाम।
⋙ मुंडफल
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डफल] नारियल।
⋙ मुंडमंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डमण्डली] अशिक्षित सेना। बिना सीखी हुई फौज।
⋙ मुंडमाल
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डमाल] दे० 'मुंडमाला'।
⋙ मुंडमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डमाला] १. कटे हुए सिरों या खोपड़ियों की माला जो शिव या काली देवी के गले में होती है। २. बंगाल की एक नदी का नाम।
⋙ मुंडमाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] गले में खोपड़ियों की माला पहननेवाली, काली।
⋙ मुंडमालिनी
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डमालिन्] मुंड की माला धारण करनेवाले, शिव।
⋙ मुंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्ड(साफ करना) + हिं० ली (प्रत्य०)] दे० 'मुंडी (१)'। काटना। उ०— अंधली आँखिन काजल किया, मुंडली माँग सँवारौ।— सुदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ८७३।
⋙ मुंडलोह
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डलोह] मंडूर।
⋙ मुंडवेदांग
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डवेदाङ्ग] महाभारत के अनुसार एक नागासुर का नाम।
⋙ मुंडशालि
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डशालि] बोरो धान।
⋙ मुंडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुण्ड] [स्त्री० मुंडी] १. वह जिसके सिर के बाल न हों या मूँड़े हुए हों। २. वह जो सिर मुँड़ाकर किसी साधु या जोगी आदि का शिष्य हो गया हो। ३. वह पशु जिसके सींग होने चाहिए, पर न हों। जैसे, मुँडा बैल, मुंडा बकरा। ४. वह जिसके ऊपरी अथवा इधर उधर फैलनेवाले अंग न हों। जैसे, मुंडा पेड़। ५. एक प्रकार की लिपि जिसमें मात्राएँ आदि नहीं होती और जिसका व्यवहार प्रायः कोठीवाल करते हैं। कोठीवाली। ६. एक प्रकार का जूता जिसमें नोक नहीं होती और जो प्रायः सिपाही लोग पहना करते हैं।
⋙ मुंडा (२)
वि० १. मुंडित। २. गंजा। खल्वाट। ३. शृंगहीन। बिना सींग का। ४. जिसमें नोक न हो। बिना नोक का।
⋙ मुंडा (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डा] १. गोरखमुंडी। २. वह स्त्री जिसका सिर मुंडित हो।
⋙ मुंडा (४)
संज्ञा [देश०] छोटा नागपुर में रहनेवाली एकत असभ्य जंगली जाति।
⋙ मुंडा (५)
संज्ञा पुं० मुंडा जाति की भाषा।
⋙ मंडाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डाख्या] गोरखमुंडी।
⋙ मुंडायस
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डायस] एक प्रकार का लोहा। मंडूर।
⋙ मुंडासन
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डासन] योग के अनुसार एक प्रकार का आसन।
⋙ मुंडासा †
संज्ञा पुं० [हिं० मुंड (=सिर) + आसा (प्रत्य०)] सिर पर बाँधने का साफा। क्रि० प्र०—कसना।—बाँधना।
⋙ मुंडा हिरन
संज्ञा पुं० [हिं० मुंडा+हिरन] पाठी मृग।
⋙ मुंडिक
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डिक] प्रत्येक यात्री से लिया जानेवाला कर। मुंडकर। उ०—जिसमें आबू पर जानेवाले यात्रियों आदि से जो 'दाण' (राहदारी, जगात्), 'मुंडक' (प्रति यात्री से लिया जानेवाला कर), 'वलावी' (मार्गरक्षा का कर) तथा घोड़े बैल आदि से जो कर लिए जाते थे, उनको माफ करने का उल्लेख है।—राज० इति०, पृ० ६३०।
⋙ मुंडित (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डित] लोहा।
⋙ मुंडित (२)
वि० मुंड़ा हुआ। उ०—(क) मुंडित सिर खंडित भुंज बीसा।—मानस, ५। ११। (ख) बहुतक मुंडित पूजा राखि।—चरण० बानी०, पृ० ७७।
⋙ मुंडितिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डितिका] गोरखमुंडी।
⋙ मुंडिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डिनी] कस्तूरी मृग।
⋙ मुंडिभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि जो वाजसनेय संहिता के कई मंत्रों के द्रष्टा या कर्ता कहे जाते हैं।
⋙ मुंडी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँड़ना+ई (प्रत्य०)] १. वह स्त्री जिसका सिर मुंडा हो। २. विधवा। राँड़। (गाली)। ३. एक प्रकार की बिना नाकेवाली जूती।
⋙ मुंडी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डी] गोरखमुंडी।
⋙ मुंडी (३)
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डिन] १. वह जिसका मुंडन हुआ हो। मुँड़ा हुआ। २. नापित। हज्जाम। ३. संन्यासी। मुंड़िया। ४. शिव।
⋙ मुंडी (४)
वि० १. जिसके सिर के बाल मूँड़ दिए गए हों। २. बिना सींग का। सींगरहित।
⋙ मुंडीर
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डीर] सूर्य [को०]।
⋙ मुंडीरिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डीरिका] गोरखनुंडी।
⋙ मुंडीरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डीरी] गोरखमुंडी।
⋙ मुंडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँड़ना+ओ (प्रत्य०)] १. वह स्त्री जिसका सिर मूँड़ा गया हो। २. स्त्रीयों की एक प्रकार की गाली जिससे प्रायः विधवा का बोध होता है। राँड़। उ०—वा मुंडो का मूड़ मुँड़ाऊँ जो सरबर करै हमारी।—कबीर श०, भा० ३, पृ० २९। मुहा०—मुंडो का=(१) एक प्रकार की बाजारी गाली जिसका अर्थ हरामी या वर्णसंकर आदि होता है। (२) विधवा स्त्री के गर्भ से उसके वैधव्य काल में उत्पन्न पुरुष।
⋙ मुंतकिल
वि० [अ० मुंतकिल] १. एक स्थान से दुसरे स्थान पर गया हुआ या जानेवाला। २. एक जगह से दूसरी जगह पर हटनेवाला या हटाया हुआ। मुहा०—मुंतकिल करना=एक के नाम से हटाकर दूसरे के नाम करना। दूसरे को देना। जैसे, जायदाद मुंतकिल करना।
⋙ मुंतखब
वि० [अ० मुंतखब] १. इंतखाब किया हुआ। २. छाँटा या चुना हुआ।
⋙ मुंतजिम
संज्ञा पुं० [अ० मुंतजिम] वह जो इंतजाम करता हो। प्रबंध करनेवाला। व्यवस्था करनेवाला।
⋙ मुंतजिर
वि० [अ० मुंतजिर] इंतजार करनेवाला। प्रतीक्षा करनेवाला। राह देखनेवाला। क्रि० प्र०—रखना।—रहना।—होना।
⋙ मुंतफी
वि० [अ० मुंतफी] नष्ट होने या बुझनेवाला [को०]।
⋙ मुंतशिर
वि० [अ०] १. अस्त व्यस्त। तितर बितर। बिखरा हुआ। २. चिंचित। उद्विग्न। परेशान।
⋙ मंतहा
वि० [अ०] पराकाष्ठा को प्राप्त। पारंगत [को०]।
⋙ मुंतही
वि० [अ०] १. पराकाष्ठा या हद को पहुँचनेवाला। २. विद्याओं में पारगामी। विद्वान [को०]।
⋙ मुंद पु †
वि० [सं० मुग्ध, अप० मुंध] दे० 'मुग्ध'।
⋙ मुंदड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० मुद्रा] मुँदरी। मुद्रिका। उ०—देइस हाथ कउ मुंद़ड़उ, सोवन सिंगी नई कपिला गाई।—बी० रासो०, २। २५।
⋙ मुंदर †
संज्ञा पुं० [सं० मुद्रा] दे० 'मुद्रा' या 'मुँदरा'। उ०—है हुजूरि कति दूरि वतावहु। सुंदर बाधहु सुंदर पावहु।—कबीर ग्रं०, पृ० ३२९।
⋙ मुंदा †
संज्ञा स्त्री० [सं० मु्द्रा] दे० 'मुद्रा' या 'मुँदरा'। उ०—सुरति सिमृति दुइ कत्री मुंदा परिमिति बाहर खिंथा।—कबीर ग्रं०, पृ० २२८।
⋙ मुंदित पु
वि० [सं० मुद्रित, प्रा० मुद्द (=बंद करना)] मुंदा हुआ। बंद। उ०—अध मुंदित नैनन छबि पावै। मृगछौनहिं मनौ औंध सी आवै।—नंद० ग्रं०, पृ० १४६।
⋙ मुंद्रा †
संज्ञा स्त्री० [सं० मु्द्रा] दे० 'मुँदरा'। उ०—मुंद्रा स्त्रवन कंठ जप माला। जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २०५।
⋙ मुंध †
वि० [सं० मुग्ध; प्रा०, मुध्ध, अप० मुंध] आसक्त। मोहित। लुभाया हुआ। मुग्ध। उ०—दिसि चाहंती सज्जणां नेहालंदी मुंध।—ढोला०, दू २०४।
⋙ मुंशियाना
वि० [अ० मुंशी+हिं० इयाना (प्रत्य०) या फा० मुंशियानह्] मुंशियों का सा। मुंशियों की तरह का।
⋙ मुंशी
संज्ञा पुं० [अ०] १. लेख या निबंध आदि लिखनेवाला। लेखक। २. लिखापढ़ी का काम या प्रतिलिपि आदि करनेवाला। मुहर्रिर। लेखक। ३. वह जो बहुत सुंदर अक्षर, विशेषतः फारसी आदि के अक्षर, लिखता हो।
⋙ मुंशीखाना
संज्ञा पुं० [अ० मुंशी+फा० खाना] वह स्थान जहाँ मुंशी या मुहर्रिर आदि बैठकर काम करते हों। दफ्तर।
⋙ मुंशीगिरी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुंशी+फा० गिरी (प्रत्य०)] मुंशी का काम या पद।
⋙ मुंसरिम
संज्ञा पुं० [अ०] १. प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। इंतजाम करनेवाला। २. कचहरी का वह कर्मचारी जो दफ्तर का प्रधान होता है और जिसके सुपुर्द मिसलें आदि ठीक करना और ठिकाने से रखना होता है।
⋙ मुंसरिमी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुंसरिम+ई (प्रत्य०)] मुंसरिम का काम या पद।
⋙ मुंसलिक
वि० [अ०] साथ में बाँधा या नत्थी किया हुआ। (कच०)।
⋙ मुंसिफ
संज्ञा पुं० [अ० मुसिफ़] १. वह जो न्याय करता हो। इन्साफ करनेवाला। २. दीवानी विभाग का एक न्यायाधीश जो छोटे छोटे मुकदमों का निर्णय करता है और जो सब जज से छोटा होता है। यौ०—मुंसिफमिजाज=जिसके स्वभाव में न्यायशीलता हो। न्यायनिष्ठ। इंसाफपसंद।
⋙ मुंसिफाना
वि० [फा० मुंसिफानह्] मुंसिफों जैसा। न्यायपूर्ण। न्यायोचित [को०]।
⋙ मुंसिफी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुंसिफ+ई (प्रत्य०)] १. न्याय करने का काम। २. मुंसिफ का काम या पद। ३. मुंसिफ की अदालत। मुंसिफ की कचहरी।
⋙ मुँगना †
संज्ञा पुं० [हिं० मुनगा] सहिजन। मुनगा।
⋙ मुँगरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुगदर, प्रा० मुग्गर, मोग्गर] [स्त्री० मुँगरी] हथौड़े के आकार का काठ का बना हुआ वह औजार जो किसी प्रकार का आघात करने या किसी चीज के पीटने ठोंकने आदि के काम आता है। जैसे, खूँटा गाड़ने का मुँगरा, घंटा बजाने की मुँगरी, रँगरेजों की मुँगरी अदि। उ०—कहै कबीर नर अजहुँ न जागा। जम को मुँगरा बरसन लागा।—कबीर श०, भा० २, पृ० ४३।
⋙ मुँगरा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मोगरा] नमकीन बुँदियाँ।
⋙ मुँगवन †
संज्ञा पुं० [सं० मुद् ग] मोठ या बनमूँग नाम का कदन्न।
⋙ मुँगिया
संज्ञा पुं० [हिं० मुँग+इया (प्रत्य०)] एक प्रकार का धारीदार या चारखानेदार कपड़ा। वि० दे० 'मूँगिया'।
⋙ मुँगौछी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुद् गपथ्था, प्रा० मुग्गपच्छा > हिं० मुँगौछी; अथवा हिं० मूँग+औंछी (प्रत्य०)] मूँग की बनी हुई बरी। मुँगौरी। उ०—भई मुँगौछी मिरचैं परी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मुँगौरा
संज्ञा पुं० [हिं० मूँग+बरा] मूँग के बने हुए बड़े। मूँग का वरा। उ० कीन्ह मुँगौरा औ बहु बरी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मुँगौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूँग+बरी] मूँग की बनी हुई बरी।
⋙ मुँडकरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूँड़+करी (प्रत्य०)] घुटनों में सिर देकर बैठना या सोना, जो प्रायः बहुत दुःख के समय होता है। मुहा०—मुँडकरी मारना=घुटनों में सिर देकर, बहुत दुःखी होकर बैठना।
⋙ मुँड़चिरा
संज्ञा पुं० [हिं० मूँड़+चीरना ?] एक प्रकार के फकीर। विशेष—ये फकीर प्रायः अपना सिर आँख या नाक आदि छुरे या नुकीले हथियार से घायल करके भिक्षा माँगते हैं और भिक्षा न मिलने पर अड़कर बैठ जाते हैं और अपने अंगों को और भी अधिक घायल करते हैं। ऐसे फकीर प्रायः मुसलमान ही होता हैं। २. वह जो लेन देन में बहुत हुजत और हठ करे।
⋙ मुँड़चिरापन
संज्ञा पुं० [हिं० मुँड़चिण+पन (प्रत्य०)] लेनदेन आदि में बहुत हुज्जत और हठ।
⋙ मुँड़ना
क्रि० स० [अ० मुण्डन] १. मूँड़ा जाना। सिर के बालों की सफाई होना। २. लूटा जाना। लुटना। ३. ठगा जाना। धोखे में आना। ४. हानि उठाना। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ मुँड़ला
संज्ञा पुं० [हिं० मुँड़] चरखे का वह भाग जिसपर माल रहती है।
⋙ मुँड़वाना †
क्रि० स० [हिं० मूँड़] दे० 'मुड़ाना'।
⋙ मुँड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँड़ना+आई (प्रत्य०)] १. मूड़ने या मुँड़ाने की क्रिया अथवा भाव। २. मूँड़ने या मुँड़ाने के बदले में मिला हुआ धन।
⋙ मुँड़ाना
क्रि० स० [सं० मुण्डन] दे० 'मुड़ाना'।
⋙ मुँड़ावलि पु
वि० [सं० मुण्ड+अवलि] मुंडमाल। मुंड़ों की माला। उ०—झरत कुसुम गधनंग, धरत गर इस मुँडावलि।—पृ० रा०, ६१। १९००।
⋙ मुँड़ासा
संज्ञा पुं० [हिं० मुण्ड (=सिर) + आसा (प्रत्य०)] सिर पर बाँधने का साफा। उ०—बैठे हरा मुँड़ासा बाँधे पाँत बाँधकर पर्वत।—हंस०, पृ० ६२। क्रि० प्र०—कसना।—बाँधना।
⋙ मुँड़ासाबंद
संज्ञा पुं० [हिं० मुँड़ासा+बंद (प्रत्य०)] वह जो कपड़े से पगड़ी बनाने का काम करता हो। दस्तारबंद।
⋙ मुँडिया ‡ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूँड (=सिर) का स्त्री०] मूँड़। सिर।
⋙ मुँडिया
संज्ञा पुं० [हिं० मूँड़ना + इया (प्रत्य०)] वह जो सिर मुँड़ाकर साधू या जोगी आदि का शिष्य हो गया हो। संन्यासी। उ०—जिनके जोग जोग यह ऊधो, ते मुँड़िया बसैं कासी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुँडेर
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँड़ेरा] १. मुँडेरा। २. खेत के चारों ओर सीमा पर अथवा क्यारियों में का उभरा हुआ अंश। मेंड़। डोला। क्रि० प्र०—बाँधना।—बाँधना।
⋙ मुँडेरा
संज्ञा पुं० [हिं० मूँड़ (= सिर) + एरा (प्रत्य०)] १. दीवार का वह ऊपरी भाग जो सबसे ऊपर की छत के चारों ओर कुछ कुछ उठा हुआ होता है। २. किसी प्रकार का बाँधा हुआ पुश्ता। क्रि० प्र०—बँधना।—बांधना।
⋙ मुँडेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] छोटी मुँडेरी। दे० 'मुँडेर'।
⋙ मुँढिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोढ़ा+इया (प्रत्य०)] बैठने का छोटा मोढ़ा।
⋙ मुँदना
क्रि० अ० [सं० मुद्रण] १. खुली हुई वस्तु का ढक जाना। बंद होना। जैसे, आँख मुँदना। उ०—भोर भए जैसे कुमोदनी मुँदति कंस भय मोहे।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३१। २. लुप्त होना। छिपना। जैसे, दिन मुँदना; सूर्य मुँदना। ३. छिद्र आदि का पूर्ण होना। छेद, बिल आदि का बंद होना। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ मुँदरा
संज्ञा पुं० [हिं० मुँदरी] १. एक प्रकार का कुंडल जो जोगी लोग कान में पहनते हैं। २. एक प्रकार का आभूषण जो कान में पहना जाता है।
⋙ मुँदरी
संज्ञा संज्ञा [सं० मु्द्रा] १. उँगली में पहनने का सादा छल्ला। उ०—नाथ हाथ माथे धरेउ प्रभु मुँदरी मुँह मेलि।—तुलसी० ग्रं०, ३। १। २. अँगूठा। अंगुष्ठ।
⋙ मुँह
संज्ञा पुं० [सं० मुख] १. प्राणी का वह अंग जिससे वह बोलता और भोजन करता है। मुखविवर। उ०—कतओक दैत्य मारि मुँह मेलत कतओ उगलि कैल कूड़ा।—विद्यापति, पृ० ७७२। विशेष—प्रायः सभी प्राणियों का मुँह सिर में होता है और उससे वे खाने का काम लेते हैं। शब्द निकालनेवाले प्राणी उससे बोलने का भी काम लेते हैं। अधिकांश जीवों के मुँह में जीभ, दाँत और जबड़े होते हैं; और उसे खोलने या बंद करने के लिये आगे की ओर ओंठ होते हैं। पक्षियों तथा कुछ और जीवों के मुँह में दाँत होते। कुछ छोटे छोटे जीव ऐसे भी होते हैं जिनका मुँह पेट या शरीर के किसी और भाग में होता है।२. मुनष्य का मुखबिबर। मुहा०—मुँहा आन=मुँह के अंदर छाले पड़ना और चेहरा सूजना। विशेष—प्रायः गरमी आदि के रोग में पारा आदि कुछ विशिष्ट औषद खाने से ऐसा होता है। मुँह का कच्चा=(१) (घोड़ा) जो लगाम का झटका न सह सके (२) जिसका बात का कोई विश्वास न हो। झूठा। (३) जो किसी बात को गुप्त न रख सकता हो। हर एक बात सबसे कह देनेवाला। मुँह का कड़ा=(१) (घोड़ा) जो हाँकनेवाले के इच्छानुसार न चले। लगान के संकेत को कुछ न समझनेवाला। (२) कड़ा। तेज। (३) उद्दंडतापूर्वक बातें करनेवाला। मुँह किलना=मुँह का कीला या बंद किया जाना। मुँह की बात छीनना=जो बात कोई दूसरा कहना चाहता हो, वही कह देना। मुँह की मक्खी न उड़ा सकना=बहुत अधकि दुर्बल होना। मुँह कीलना=बोलने से रोकना। चुप करना। मुँह खराब करना=(१) जबान का स्वाद बिगड़ना। (२) जबान से गंदी बातें कहना। मुँह खुलना=उद्दंडतापूर्वक बातें करने की आदत पड़ना। जैसें,—आजकल तुम्हारा मुँह बहुत खुल गया है; किसी दिन धोखा खाओगे। मुँह खुलवाना=किसी को उद्दंडतापूर्वक बातें करने के लिये बाध्य करना। मुँह खुश्क होना=दे० 'मुँह सूखना'। मुँह खोलकर रह जाना=कुछ कहते कहते लज्जा या संकोच के कारण चुप हो जाना। सहमकर रह जाना। मुँह खोलना=(१) कहना। बोलना। उ०— आप तूमार बाँब देते हैं और हमने न खोल मुँह पाया।—चोखे०, पृ० ५३। (२) गालियाँ देना। खराब बातें कहना। (किसी को) मुँह चढ़ाना=(१) किसी को बहुत उद्दंड बनाना। बातें करने में धृष्ट करना। शोख करना। जैसे,— आपने इन नौकर को बहुत मुँह चढ़ा रखा है। (२) अपना। पार्श्ववर्ती और प्रिय बनाना। मुँह चलना=(१) भोजन होना। खाया जाना। (२) मुँह से व्यर्थ की बातें या दुर्वचन निकलना। उ०—जब चलाए न बात चल पाई। तब भला किस तरह न मुँह चलता।—चुभते०, पृ० १८। मुँह चलाना=(१) खाना। भोजन करना। (२) बोलना। बकना। (३) गालियाँ देना। दुर्वचन कहना। (४) दाँत से काटना, विशेषतः घोड़े का काटना। मुँह चिढ़ाना=किसी को चिढ़ाने के लिये उसकी आकृति, हावभाव या कथन की बहुत बिगाड़कर नकल करना। मुँह चूमकर छोड़ देना=लज्जित करके छोड़ देना। शरमिंदा करके छोड़ देना। मुँह छुड़ाना=[संज्ञा मुँहछुआई] =(१) नाम मात्र के लिये कहना। मन स नहीं, बल्कि ऊपर से कहना। जैसे,—मुँह छूने कें लिये वे मुझे भी निमंत्रण दे गए थे। (२) दिखौआ बात करना। मुँह जहर होना=कड़ुआ पदार्थ खाने के कारण मुँह में बहुत अधिक कडुआहट होना। मुँह जुठारना या जूठा करना=नाम मात्र के लिये कुछ खाना। मुँह जोड़ना=पास होकर आपस में धीरे धीरे बात करना। कानाफूसी करना। मुँह जोहना=आसरा ताकना। भरोसा देखना। मुँह डालना=(१) किसी पशु आदि का खाद्य पदार्थ पर मुँह चलाना।(२) मुरगों का लड़ना या आक्रमण करना। (मुर्गबाज)। मुँह तक आना=जबान पर आना। कहा जाना। मुँह थकना=बहुत अधिक बोलने के कारण शिथिलता आना। मुँह थकना=बहुत अधिक बोलकर अपने आपको शिथिल करना। मुँह देना=किसी पशु आदि का किसी बरतन या खाद्य पदार्थ में मुँह डालना। जैसे,—इस दूध में बिल्ली मुँह दे गई है। मुँह पकड़ना=बोलने से रोकना। बोलने न देना। जैसे,—कहो न, कोई तुम्हारा मुँह पकड़ता है। मुँड पर न रखना=तनिक भी स्वाद न लेना। जरा भी न खाना। जैसे,—लड़के ने कल से एक दाना भी मुँह पर नहीं रखा। मुँह पर बात आना=(१) कुछ कहने को जी चाहना। (२) कुछ कहना। मुँह पर मोहर करना=बोलने से रोकना। कहने न देना। चुप कराना। मुँह पर लाना=मुँह से कहना। वर्णन करना। जैसे,—अपनी की हुई नेकी मुँह पर नहीं लानी चाहिए। मुँह पर हाथ रखना=बोलने से जबरदस्ती रोकना या मना करना। मुँह पसराकर दौड़ना=कुछ पाने के लालच में बहुत उत्सुक होकर आगे बढ़ना। मुँड पसारकर रह जाना=(१) परम चकित हो जाना। हक्का बक्का हो जाना। (२) लज्जित होकर रह जाना। शरमाकर रह जाना। मुँह पेट चलना=कै दस्त होना। हैजा होना। मुँह फटना=चूना आदि लगने के कारण मुँह में छोटे छोटे घाव हो जाना। मुँह फाड़कर कहना=बेहया बनकर जबाब पर लाना। निर्लज्ज होकर कहना। जैसे,—हमने उनसे मुँह फाड़कर कहा भी, पर उन्होंने कुछ ध्यान ही न दिया। मुँह फैलाना= (१) दे० 'मुँह बाना'। (२) अधिक लेने की इच्छा या हठ करना। जैसे,—कचहरीवाले तो जरा जरा सी बात पर मुँह फैलाते हैं। मुँह फोड़कर कहना=दे० 'मुँह फाड़कर कहना'। मुँह बंद करना=चुप कराना। बोलने से रोकना। मुँह बंद कर लेना=बिलकुल चुप हो जाना। कुछ न बोलना। मुँह बंद होना=चुप होना। जैसे तुम्हारा मुँह कभी बंद नहीं होता। मुँह बाँधकर बैठना=चुपचाप बैठना। कुछ न बोलना। मुँह बाँधना या बाँध देना=चुप करा देना। बोलने न देना। मुँह बाना=(१) मुँह फाड़ना या खोलना। (२) जँभाई लेना। (३) अपनी हीनता सिद्ध होने पर भी हँस पड़ना। (४) बुरी तरह से हँसना। बेहूदेपन से हँसना। मुँह बिगड़ना=(१) मुँह का स्वाद खराब होना। जैसे,—तुमने कैसा आम खिला दिया, बिलकुल मुँह बिगड़ गया। (२) किसी बात या काम पर नाराजी व्यक्त करना। (३) उपेक्षा व्यक्त करना। मुँह बिगाड़ना=मुँह का स्वाद खराब करना। मुँह भर आना= (१) मुँह में पानी भर आना। किसी चीज को लेने के लिये बहुत लालच होना। (२) मितली आना। जी मिचलाना। कै करने को जी चाहना। मुँह भरके=(१) मुँह तक। लबालब। (२) जहाँ तक इच्छा हो। जितना जी चाहे। जैसे,—(क) जोकुछ माँगना हो, मुँह भरके माँग लो। (ख) उन्होंने मुझे मुँह भरके गालियाँ दी। (३) पूरी तरह से। भली भाँति। मुँह भर बोलना=अच्छी तरह बोलना। जैसे,—वहाँ मुझसे कोई मुँह भर बोला तक नहीं। मुँह भरना=(१) रिश्वत देना। घूस देना। (२)खिलाना। भोजन कराना। (३)मुँह बंद करना। बोलने से रोकना मुँह मारना=(१) खाने को चीज में मुँह लगाना। (२) दाँत लगाना। काटना। (३) जल्दी जल्दी भोजन करना। (किसी का) मुँह माराना=(१) किसी को बोलने से रोकना। चुप करना। (२) रिश्वत देना। (३) कान काटना। बढ़कर होना। जैसे,—यह कपड़ा रेशम का मुँह मारता है। मुँह मठा करना=(१) मिठाई खिलाना। (२) देकर प्रसन्न करना। मुँह मीठा होना=(१) खाने को मिठाई मिलना। (२) प्राप्ति होना। लाभ होना। (३) मँगनी होना। (बात) मुँह से आना=कहने को जी चाहना। कहने की प्रवृत्ति होना। जैसे,—जो कुछ मुँह में आता है, कह चलते हो। मुँह में खून लहू लगना=चसका पड़ना। चाट पड़ना। जैसे,—एक दिन में तुम्हें रुपए क्या मिल गए, तुम्हारे मुँह में खून लग गया। मुँह में जबान होना=कहने की सामर्थ्य होना। बोलने की ताकत होना। मुँह में तिनका लेना=बहुत अधिक दीनता या अधिनता प्रकट करना। मुँह में पड़ना=खाय जाना। खाने के काम आना। (बात का) मुँह में पड़ना=बात का मुँह से निकलना या कहा जाना। जैसे,—जो बात तुम्हारे मुँह में पड़ी, वह सारे शहर में फैल जायगी। मुँह में पानी भर आना=(१) कोई पदार्थ प्राप्त करने के लिये बहुत लालायित होना। जैसे,—सेब का नाम सुनते ही तुम्हारे मुँह में पानी भर आता है। (२) ईर्ष्या होना। मुँह में बोलना या बात करना=इतने धीरे धीरे बोलना कि जल्दी औरों को सुनाई न दे। मुँह में लगाम देना=समझ- बुझकर बातें करना। कम और ठीक तरह से बोलना। मुँह में लगाम न होना=बोलने के समय सचेत न रहना। जो मुँह में आवे, सो कह देना। मुँह लगाना=खाना। चखना। मुँह सँभालना=व्यर्थ बकने या गालीगलौज से जबान को रोकना। जबान में लगाम देना। अपना मुँह सीना=बोलने से रुकना। मुँह से बात न निकालना। बिलकुल चुप रहना। मुह सूखना=प्यास या रोग आदि के कारण गला खुश्क होना। गले और जबान में काँटे पड़ना। मुँह से दूध की बू आना=दे० 'मुँह' से दूध टपकना। मुँह से दूध टपकना=बहुत ही अनजान या बालक होना। (परिहास)। जैसे,—आप इन बातों को क्यों जानने लगे; आपके मुँह से तो अभी दूध टपक रहा है। मुँह से निकालना=कहना। उच्चारण करना। जैसे,—ऐसी बात मुँह से मत निकाला करो जिससे किसी को दुःख हो। मुँह से फूटना=कहना। बोलना। (उपेक्षा या व्यंग)। जैसे,— आखिर तुम भी तो कुछ मुँह से फूटो। मुँह से फूल झड़ना= मुँह से बहुत ही सुंदर और प्रिय बातें निकलना। उ०—रंगतें हित की न जब उनमें रही। फूल मुँह से तब झड़े तो क्या झड़े।—चोखे०, पृ० २९। मुँह से बात छीनना, या उचकना=किसी के कहते कहते उसकी बात कह देना। किसी के कहने से पहले ही उसका विचार या भाव प्रकट करना। किसी के मन की बात कह देना। मुँह से बात न निकलना= क्रोध या भय के मारे कुछ बोला न जाना। मुँह से शब्द न निकलना। मुँह से माप न निकलना=भय आदि के कारण सन्न हो जाना। चूँतक न करना। मुँह से लार गिरना=दे० 'मुँह से लार टपकना'। मुँह से लार टपकना=कोई चीज प्राप्त करने के लिये अत्यंत लालच होना। पाने के लिये परम उत्सु- कता होना। जैसे,—जहाँ तुमने कोई अच्छी पुस्तक देखी, वहाँ तुम्हारे मुँह से लार टपकने लगी। मुँह से लाल उगलना= दे० 'मुँह से फूल झड़ना'। ३. मनुष्य अथवा किसी और जीव के सिर का अगला भाग जिसमें माथा, आँखें, नाक, मुँह, कान, ठोड़ी और गाल आदि अंग होते हैं। चेहरा। मुहा०—अपना सा मुँह लेकर रह जाना=लज्जित होकर रह जाना। काम न होने कारण शरमिंहा होना। इतना सा मुँह निकल आना=दे० 'मुँह उतरना'। मुँह अँधेरे=प्रभात के समय। तड़के। (किसी के) मुँह आना=किसी के सामने होकर कोई कठोर बचन कहना। किसी से हुज्जत करना। उ०—जो आता है खोजी को देखकर कहाकहा लगाता है। कोई मुसकराता है कोई मुँह आता है।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १८२। मुँह उजला होना=प्रतिष्ठा रह जाना। बात रह जाना। इज्जत न जाना। मुँह उजाले या मुँह उठे=प्रभात के समय। तड़के। बहुत सबेरे। मुँह उठना=किसी ओर चलने की प्रवृत्ति होना। जैसे,—हमारा क्या, जिधर मुँह उठा, उधर ही चल देंगे। मुँह उठाए चले जाना=बेधड़क, चले जाना। बिना रुके हुए चले जाना। मुँह उठाकर कहना=बिना सोचे समझे कहना। जो मुँह में आवे सो कहना। मुँह उठाकर चलना=नीचे की ओर बिना देखे हुऐ, केवल ऊपर की और मुँह करके चलना। अंधाधुंध चलना। मुँह उतरना=(१) दुर्बलता के कारण सुस्त होना। चेहरे पर रौनक न रह जाना। (२) विफलता, हानि या दुःख आदि के कारण उदास होना। विवर्णता होना। चेहरे का तेज जाता रहना। (अपना) मुँह काला करना=(१) व्यभिचार करना। अनुचित संभोग करना। (२) अपनी बदनामी करना। (दूसरे का) मुँह काला करना= उपेक्षा से हटाना। त्यागना। जैसे,—मुँह काला करो, क्यों इसे अपने पास रखे हो ? मुँह की खाना=(१) थप्पड़ खाना। तमाचा खाना। (२) बेइज्जत होना। दुर्दशा कराना। (३) मुँहतोड़ उत्तर सुनना। (४) लज्जित होना। शरमिंदा होना। (५) धोखा खाना। चूक जाना। (६) बुरी तरह परास्त होना। उ०—कयामत कती सफाई थी। मुँह चढ़ा मुँह की खाई सामने गया और शामत आई।—फिसाना०, भा० १, पृ० ७। मुँह के बल गिरना=(१) ठोकर खाना। धोखा खाना। उ०—इतना भारी भरकम आदमी और जरी से इशारें में तड़ से मुँह के बल गिर गए।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २२। (२) बिना सोचे समझे किसी ओर प्रवृत्त होना। कोई वस्तु प्राप्त करने के लिये लपकना। मुँह खोलना=चेहरे पर से घूँघट आदि हटाना। चेहरे के आगे का परदा हटाना। मुँह चढ़ाना=दे० 'मुँह फुलाना'। मुँह चाटना=खुशामद करना। ठकुरसुहाती कहना। लल्लोपत्ती करना। मुँह छिपाना=लज्जा के मारे सामने न होना। मुँह झटक जाना=रोग या दुर्बलता आदि
के कारण चेहरा उतर जाना। मुँह झुलसना=(१) मुँह में आग लगाना। मुँह फूँकना। (स्त्रि० गाली)। २. दाह कर्म करना। मुरदे को जलाना। (उपेक्षा०)। (३) कुछ ले देकर दूर करना। (अपना) मुँह टेढ़ा करना=मुँह फुलाना। अप्रसन्नता या असतोष प्रकट करना। (दूसरे का) मुँह टेढ़ा करना= दे० 'मुँह तोड़ना'। मुँह ढाँकना=किसी के मरने पर उसके लिये शोक करना या रोना। (मुसल०)। (किसी का) मुँह ताकना=(१) किसी का मुखापेक्षी होना। किसी के मुँह की और, कुछ पाने आदि की आशा से देखना। उ०—जो रहे ताकते हमारा मुँह हम उन्हीं की न ताक में बेंठे।—चोखे०, पृ० २७। (२) टक लगाकर देखना। (३) विवश होकर देखना। (४) चकित होकर देखना। आश्चर्य से देखना। मुँह ताकना= आकर्मण्य होकर चुपचाप बैठे रहना। जैसे,—सब लोग अपने अपने रुपए ले आए, और आप मुँह ताकते रहे। मुँह तोड़ या तौड़कर जवाब देना=पूरा पूरा जवाब देना। ऐसा जवाब देना कि कोई बोल ही न सके। मुँह थामना=बोलने से रोकना। बालने न देना। चुप करना या रखना। उ०—पर यदि कोई कहे कि यह सब कुछ नही; यह एक सांप्रदायिक सिद्धांत का काव्य के ढंग पर स्वाकार मात्र है; तो हम उसका मुँह नही थाम सकते।—चिंता०, भा० २, पृ० ६९। मुँह थुथाना=मुँह का थूथुन की तरह बनाना। मुँह फुलाना। क्रोध या अप्रसन्नता प्रकट करना। मुँह दिखाना=सामने आना। उ०—इमान जामिन की दोहाई जिस तरह पीठ दिखाते हो उसी तरह मुँह भी दिखाओ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २७०। मुँह देखकर उठना=प्रातःकाल सोकर उठने के समय किसी को सामने पाना। जैसे,—आज न जान किसका मुँह देखकर उठे थे कि दन भर भाजन हो न मिला। विशेष—प्रायः लाग मानते है कि प्रातःकाल सोकर उठने के समय शुभ या अशुभ आदमी का मुँह देखने का फल दिन भर मिला करता है। मुँह देखकर बात करना=खुशामद करना। मुँह देखकर जीना=(किसी के) भरोस से जीना। (किसी का) आसरा ताकना। उ०—जो हमारा मुँह देखकर जीते हैं, हम उन्हीं को निगल रहे हैं।—चुभते० (दो दो०), पृ० ४। (किसी का) मुँह देखना=(१) सामना करना। किसी के सामने जाना। किसी के साथ देखादेखी या साक्षात्कार करना। (२) चकित होकर देखना। (अपना) मुँह देखना=दर्पण में अपने मुँह का प्रतिबिंब देखना। (किसी का) मुँह देखकर=(१) किसी के प्रेम में लगकर। किसी के प्रम के आसरे। जैसे,—पति मर गया, पर बच्चों का मुँह देखकर धीरज धरो। (२)किसी को संतुष्ट या प्रसन्न करने के विचार से। जैसे, तुम तो उनका मुँह देखकर बात करते हो। मुँह धो रखना=किसी पदार्थ की प्राप्ति से निराश हो जाना। आशा न रखना। (व्यंग्य)। जैसे,—आपको यह पुस्तक मिल चुकी; मुँह धो रखिए। मुँह न देखना=किसी से बहुत घृणा करना। किसी से देखा- देखी तक न करना। न मिलना जुलना। जैसे,—मैं तो उस दिन से उनका मुँह नहीं देखता। मुँह न फेरना या मोड़ना= (१) दृढ़तापूर्वत संमुख ठहरे रहना। पीछे न हटना। (२) विमुख न होना। अस्वीकार न करना। मुँह निकल आना= रोग या दुर्बलता आदि के कारण चेहरे का तेज जाता रहना। चेहरा उतर जाना। मुँह पर=सामने। प्रत्यक्ष। रूबरू। जैसे,—(क) तुम तो मुँह पर झूठ बोलते हो। (ख) वह मुँह पर खुशामद करता है और पीठ पीछे गालियाँ देता है। मुँह पर कहना=आमने सामने कहना। उ०—बात लगती बेकहों को बेधड़क, हम कहेंगे औ न क्यों मुँह पर कहें।—चुभते०, पृ० १७। मुँह पर चढ़ना=लड़ने या प्रतियोगिता करने के लिये सामने आना। मुकाबला करना। मुँह पर थूकना= बहुत अधिक अप्रतिष्ठित और लज्जित करना। मुँह पर नाक न होना=शरम न होना। लज्जा न होना। निर्लज्ज होना। जैसे,—तुम्हारे मुँह पर नाक तो है ही नहीं, तुमसे कोई क्या बात करे। मुँह पर पानी फिर जाना=चेहरे पर तेज आना। प्रसन्नवदन होना। मुँह पर फेंकना या फेंक मारना=बहुत अप्रसन्न होकर किसी को कोई चीज देना। मुँह पर या मुँह से बरसना=आकृति से प्रकट होना। चेहरे से जाहिर होना। जैसे,— पाजीपन तो तुम्हारे मुँह पर बरस रहा है। मुँह पर बसंत फूलना या खिलना=(१) चेहरा पीला पड़ जाना। (२) उदास या भयभीत हो जाना। मुँह पर मारना=दे० 'मुँह पर फेंकना'। मुँह दर मुँह कहना=मुँह पर कहना। सामने कहना। मुँह पर मुरदनी फिरना या छाना=(१) मृत्यु के चिह्न प्रकट होना। अंतिम समय समीप आना। (२) चेहरा पीला पड़ना। (३)भयभीत, लज्जित या उदास होना। मुँह पर रखना=किसी के सामने ही कोई बात कह देना। पूरा पूरा उत्तर देना। मुँह पर हवाई या छूटना=भय या लज्जा आदि के कारण चेहरा पीला पड़ जाना। जैसे,—मुझे देखते ही उनके मुँह पर हवाई उड़ने लगी। (किसी का) मुँह पाना=प्रवृत्ति को अपने अनुकूल देखना। रुख पाना। मुँह पीट लेना=बहुत अधिक क्रोध या दुःख की अवस्था में दोनों हाथों से अपने मुँह पर आघात करना। मुँह फक होना= चेहरे का रंग उड़ जाना। विवर्णता होना। भय या आशंका से चेहरा पीला पड़ जाना। मुँह फिरना या फिर जाना=(१) मुँह का डेढ़ा, कुरूप या खराब हो जाना। जैसे,—एक थप्पड़ दूँगा, मुँह फिर जायगा। (२) लकवे का रोग हो जाना। (३) सामना करने के योग्य न रह जाना। सामने से हट याभाग जाना। जैसे,—घंटे भर की लड़ाई में ही शत्रु का मुँह फिर गया। मुँह फुलाना या फुलाकर बैठना=आकृति से असंतोष या अप्रसन्नता प्रकट करना। जैसे,—तुम तो जरा सी बात पर मुँह फुलाकर बैठ जाते हो। मुँह फूँकना=(१) मुँह में आग लगाना। मुँह झुलसाना। (स्त्रि० गाली) जैसे,—ऐसे नौकर का तो मुँह फूँक देना चाहिए। (२) दाहकर्म करना। मुरदे को जलाना। (उपेक्षा०)। (३) कुछ दे लेकर दूर करना। हटाना। मुँह फूलना=अप्रसन्नता या असंतोष होना। नाराजगी होना। जैसे,—मैं कुछ कहूँगा, तो अभी तुम्हारा मुँह फूल जायगा। (किसी का) मुँह फेरना=(१) परास्त करना। दबा लेना। (अपना) मुँह फेरना=(१) किसी की ओर पीठ करना। (२) उपेक्षा प्रकट करना। (३) किसी ओर से अपना मन हटा लेना। मुँह बंद कर देना=कहने पर प्रतिबंध लगा देना। उ०—बंद होगा न देखना सुनना। आप मुँह क्यों न बंद कर देंगें।—चुभते०, पृ० १८। मुँह बनाना या बन जाना= ऐसी आकृति होना जिससे असंतोष या अप्रसन्नता प्रकट हो। जैसे,—मेरी बात सुनते ही उनका मुँह बन गया। मुँह बनवाना=किसी कार्य अथवा प्राप्ति के योग्य अपनी आकृति बनवाया। (व्यंग्य), जैसे,—पहले आप अपना मुँह बनवा लीजिए, तब यह कोट माँगिएगा। मुँह बनाना=ऐसी आकृति बनाना जिससे असंतोष या अप्रसन्नता प्रकट हो। विशेष—इसके साथ संयो० क्रि० लेना या बैठना आदि का भी प्रयोग होता है। मुहँ बिगड़ना=चेहरे की आकृति खराब होना। मुँह बिगाड़ना=चेहरा खराब करना। उ०—हो गए पर बिगाड़ बिगड़े का। मुँह बिगड़ना बिगाड़ना देखा।—चोखे०, पृ० ५५। (दूसरे का) मुँह बिगाड़ना=असंतोष या अप्रसन्नता प्रकट करना। मुँह बुरा बनाना=असंतोष या अप्रसन्नता प्रकट करना। मुँह भर बोलना=स्नेह से बोलना। उ०—आपका मुँह ताकते ही रह गए। आप तो मुँह भर कभी बोले नहीं।—चोखे०, पृ० ५४। मुँह में कालिख पुतना या लगना= बहुत अधिक बदनाम होना। कलंक लगना। मुँह माँगी मुराद पाना=इच्छित वस्तु प्राप्त करना। उ०—हुमायूँ बागवाँ दिल ही दिल में हँस रहे थे कि मुँहमाँगी मुराद पाई। -फिसना०, भा० ३, पृ० १११। मुँह में छाती देना=स्तन से दूध पिलाना। उ०—मोह में माती हुई मा के सिवा, कौन मुँह में दे कभी छाती सकी।—चोखे०, पृ० ६। (अपना) मुँह मोड़ना=किसी ओर से प्रवृत्ति हटा लेना। ध्यान न देना। दे० 'अपना मुँह फेरना'। उ०—सच्चा हितैषी उनसे मुँह मोड़ गया।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ६१। (३) इनकार करना। अस्वीकृत करना। जैसे,—हम कभी किसी बात से मुँह नहीं मोड़ने। दूसरे का मुँह मोड़ना= परास्त करना। हराना। जैसे,—थोड़ी ही देर में सैनिकों ने डाकुओं का मुँह मोड़ दिया। (किसी के) मुँह लगना= (१) किसी के सिर चढ़ना। किसी के सामाने बढ़ बढ़कर बातें करना। उद्दंड बनना। (२) बातें करना। जवाब सवाल करना। जैसे,—सबके मुँह लगना ठीक नहीं। मुँह लगना=सिर चढ़ाना। उद्दंड बनना। जैसे,—तुमने भी लड़कों को मुँह लगा रखा है। मुँह लपेटकर पड़ना=(१) बहुत ही दुःखी होकर पड़ा रहना। उ०—क्यों दुखी की लपेट में आवे। क्यों पड़े मुँह लपेटकर कोई।—चोखे०, पृ० ३०। (२) निरुद्यम होना। आलसी होना। अलसाना। मुँह लाल करना=(१) मुँह पर थप्पड़ आदि मारकर उसे सुजा देना। (२)पात तंबाकू से आदर सत्कार करना। मुँह लाल होना= मारे क्रोध के चेहरा तमतमाना। आकृति से बहुत अधिक क्रोध प्रकट होना। मुँह सँभालना=बातचीत में मर्यादा और शिष्टता का ध्यान रखना। उ०—पाँव तो देख भालकर डाले। मुँह सँभाले सँभालकर बोले। -चोखे०, पृ० ३०। मुँह सफेद होना=भय या लज्जा से चेहरे का रंग उड़ जाना। उदासी छा जाना। मुँह सिकोड़ना=आकृति से अप्रसन्नता या असंतोष प्रकट करना। नाक भौ चढ़ाना। (अपना) मुँह सुजाना=आकृति से असंतोष या अप्रसन्नता प्रकट करना। नाराजी जाहिर करना। (किसी का) मुँह सुजाना=थप्पड़ मार मारकर मुँह लाल करना। मुँह सुख होना=क्रोध के मारे चेहरे तमतमाना। गुस्से सेचेहरा लाल होना। मुँह सूखना=भय या लज्जा आदि से चेहरे का तेज जाता रहना। ४. किसी पदार्थ के ऊपरी भाग का विवर जो आकार आदि में मुँह से मिलता जुलता हो। जैसे,—इस बरतन का मुँह बाँधकर रख दो। ५. सूराख। छिद। छद्र। जैसे,— दो दिन में इस फोड़े में मुँह हो जायगा। ६. मुलाहजा। मुरव्वत। लिहाज। जैसे,—हमें तो खाली तुम्हारा मुँह है; उससे तो हम कभी बात ही नहीं करते। यौ०—मुँह मुलाहजा। मुहा०—मुँह करना=मुलाहजा करना। ख्याल करना। जैसे,— धनवानों का तो सभी लोग मुँह करते हैं, पर गरीबों को कोई नहीं पूछता। मुँह देखे का=जो हार्दिक न हो, केवल ऊपरी या दिखौआ हो। जो केवल सामना होने पर हो। मुलाहजे का। मुरव्वत का। जैसे, (क) आपका प्रेम तो मुँह देखे का है। (ख) ये सारी बातें मुँह देखे की हैं। मुँह पर जाना=किसी का ध्यान करना। लिहाज करना। जैसे,—मैं तुम्हारे मुँह पर जाता हूँ, नहीं तो अभी इसकी गत बनाकर रख देता। मुँह मुलाहजे का=जान पहचना का। परिचित।मुँह रखना=किसी का लिहाज रखना। ध्यान रखना। जैसे,— आप इतनी दूर से चलकर आए हैं, आपका मुँह रखो। ७. योग्यता। सामर्थ्य। शक्ति। जैसे,—तुम्हारा मुँह नहीं है कि तुम उसके सामने जाओ। मुहा०—(अपना) मुँह तो देखो=पहले यह तो देखो कि इस योग्य हो या नहीं। (व्यंग्य)। मुँह देखकर बात करना=किसी के साथ उसकी योग्यता के अनुसार बात करना। ८. साहस। हिम्मत। मुहा०—मुँह पड़ना=साहस होना। हिम्मत होना। जैसे,—उनके सामने कुछ कहने का भी तो मुँह नहीं पड़ता। ९. ऊपरी भाग। उपर की सतह या किनारा। मुहा०—मुँह तक आना या भरना=पूरी तरह से भर जाना। लबालब होना। जैसे—तालाब में पानी मुँह तक आ गया है।
⋙ मुँहअँधेरे
क्रि० वि० [हिं०] बहुत सबेरे। तड़के।
⋙ मुँहअखरी पु †
वि० [हिं० मुँह+अक्षर] जो केवल मुँह से कहा जाय, लिखा न जाय,। जबानी। शाब्दिक।
⋙ मुँहउजाले
क्रि० वि० [हिं०] पौ फटते। बहुत सबेरे।
⋙ मुँहकाला
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह+काला] १. अप्रतिष्ठा। बेइज्जती। २. बदनाम। ३. एक प्रकार की गाली। जैसें,—जा तेरा मुँहकाला हो।
⋙ मुँहचंग
संज्ञा पुं० [हिं०] एक बाजा। दे० 'मुरचंग'।
⋙ मुँहचटौवल
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह+चाटना+औवल (प्रत्य०)] १. चुंबन। चूभाचाटी। २. बकबक। बकवाद।
⋙ मुँहचोर
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह+चोर] वह जो दूसरों के सामने जाने से मुँह छिपाता हो। लोगों के सामने जान में संकोच करनेवाला।
⋙ मुँहचोरई ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] मुँह चुराने की क्रिया या भाव। मुँहचोर की क्रिया या स्थिति।
⋙ मुँहचोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] मुँहचोर होना।
⋙ मुँहछुआई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह+छूना+आई (प्रत्य०)] केवल मुँह से छूने के लिये, ऊपरी मन से कुछ कहना।
⋙ मुँहछुट
वि० [हिं० मुँह+छूटना] जिसका मुँह ओछी या कटु बातें कहने के लिये खुला रहे। मुँहफट।
⋙ मुँहजली
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुह+जली] [पुं० मुँहजला] स्त्रियों के गाली। जले मुँहवाली। मुँहझौंसी। उ०—यही तुम्हार दर्शन है। यहाँ इस मुँहजली को लेकर पड़े हो।—आकाश० पृ० ६८।
⋙ मुँहजोर
वि० [हिं० मुँह+जोर] १. वह जो बहुत अधिक बोलत हो। बकवादी। २. दे० 'मुँहफट'। ३. जो जल्दी किसी के वश में न आता हो। तेज। उद्दंड। जैसे, मुहजोर घोड़ा।
⋙ मुँहजोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँहजोर+ई (प्रत्य०)] १. मुँहजोरी होने की क्रिया या भाव। २. तेजी। उद्दंडता।
⋙ मुँहझोंसा, मुँहझौंसा
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह+झौंसना] [स्त्री० मुँहझौसी, मुँहझौंसी] स्त्रियों की गाली। मुँहजला। उ०— परतु यदि उस मुँहझोंसे रोज को पा गई तो तोप, बंदूक या तलवार से सच्चा नाम बतलाए बिना न मानूँगी।—झाँसी० पृ० ३५०।
⋙ मुँहड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह] दे० 'मोहरी'। उ०—यह लंबी मुँहड़ी का पायजामा?—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८७।
⋙ मुँहदिखरावनी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह+दिखराना] दे० 'मुँह'- दिखाई'।
⋙ मुँहदिखलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुह+दिखलाना] दे० 'मुँह दिखाई'।
⋙ मुँहदिखाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह+दिखाई] १. नई वधू का मुँह देखने की रस्म। मुँहदेखनी। २. वह धन जो मुँह देखने पर वधू को दिया जाय।
⋙ मुँहदेखनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुँहदिखाई'।
⋙ मुँहदेखा
वि० [हिं० मुँह+देखा] [स्त्री० मुँहदेखी] १. केवल सामना होने पर होनेवाला (काम या व्यवहार)। जो हार्दिक या आंतरिक न हो। जो किसी को केवल संतुष्ट या प्रसन्न करने के लिये हो। जैसे, मुँहदेखी बात। २. सदा आज्ञा की प्रतीक्षा में रहनेवाला। सदा मुँह ताकता रहनेवाला।
⋙ मुँहनाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह+नाल (=नली)] १. धातु की बनी हुई वह नली जो हुक्के की सटक या नैचा आदि के अगले भाग में लगा देते हैं और जिसे मुँह में लगाकर धूआँ खींचते हैं। २. धातु का वह टुकड़ा जो म्यान के सिरे पर लगा होता है।
⋙ मुँहपटा †
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह+सं० पट्टा] घोड़े के मुँह पर लगाया जानेवाला एक साज जिस सिरबंद भी कहते हैं।
⋙ मुँहपड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह+पड़ना] वह जो सब लोगों के मुँह पर हो। प्रसिद्ध। मशहूर। (क्व०)।
⋙ मुँहपातर पु †
वि० [हिं० मुँह+पातर (=पतला)] मुँह का हलका। किसी सुनी हुई गोप्य बात को दूसरे से कह देनेवाला।
⋙ मुँहफट
वि० [हिं० मुँह+फटना] जो अपनी जबान को वश में न रख सके और जो कुछ मुँह में आवे कह दे। ओछी या कटु बात कहने मे संकोच न करनेवाला। जिसकी वाणी संयत न हो। बोलने में इस बात का विचार न करनेवाला कि कोई बात किसी को बुरी लगेगी या भली। बदजवान।
⋙ मुँहबंद
वि० [हिं० मुँह+बंद] १. जिसका मुँह बंद हो, खुला न हो। जैसे, मुँहबंद बोतल। २. अविकसित। जो खिला न हो ३. कुँआरी। अक्षतयोनि। (बाजारू)।
⋙ मुँहबँधा
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह+बँधना] एक प्रकार के जैन साधु जो प्रायः मुँह पर कपड़ा बाँधे रहते हैं।
⋙ मुँहबोला
वि० [हिं० मुँह+बोलना] (संबंधी) जो वास्तविक न हो, केवल मुँह से कहकर बनाया गया हो। वचन द्वारा निरूपित। जैसे, मुँहबोला भाई, मुँहबोली बेटी।
⋙ मुँहभर
क्रि० वि० [हिं०] अच्छी तरह। ठीक ढंग से। जैसे, मुँहभर बोलना या बात करना।
⋙ मुँहभराई
संज्ञा स्त्री० [मुँह+भरना+आई(प्रत्य०)] १. मुँह भरने की क्रिया या भाव। २. वह धन आदि जो किसी का मुँह बंद करने के लिये, उसे कुछ कहने या करने से रोकने के लिये, दिया जाय। रिश्वत। घूस।
⋙ मुँहलगा
वि० [मुँह+लगना] सिरचढ़ा। शोख। ढीठ। क्रि० प्र०—लेना।—देना।
⋙ मुँहमाँगा
वि० [हिं० मुँह+माँगना] अपनी इच्छा के अनुसार। अपने माँगने के अनुसार। इच्छानुकूल। जैसे, मुँहमाँगा वर पाना, मुँहमाँगी मुराद पाना, मुँहमाँगा दाम पाना। उ०— (क) मुँहमाँगी मौत नहीं मिलती। (कहा०)। (ख) शुभे, और क्या कहूँ मिले, मुँहमाँगा तुझको।—साकेत, पृ० ४०९।
⋙ मुँहाचही पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह+चाहना] परस्पर की प्रेम- पूर्ण बात। प्रेमी प्रेमका का एक दूसरे से बोलचाल करना। उ०—मुँहचही जुवतिन तब कीनी।—सूर० (राधा०), पद १२६७।
⋙ मुँहचुहा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] मुँह देखे की बात। चुभने या लगनेवाली बात। उ०—नृपति बचन यह सबनि सुनायौ। मुँहाचुही सैनापति कीन्ही सकटें गर्व बढ़ायौ।— सूर०, १०। ६१।
⋙ मुँहामुँह
क्रि० वि० [हिं० मुँह+मुँह] मुँह तक। अंदर से बिलकुल ऊपर तक। लबालब। भरपूर। जैसे,—(क) गगरा मुँहामुंह तो भरा है, और पानी क्यों डालते हो ? (ख) अब की एक ही वर्षा में तालाब मुँहामुँह भर गया।
⋙ मुँहासा
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह+आसा (प्रत्य०)] मुँह पर के वे दाने या फुंसियाँ जा युवावस्था में निकलती हैं और यौवन का चिह्न मानी जात है। जैसे,—बूढ़े मुँह मुँहासे, लोग देखें तमासे। (कहा०)। विशेष—मुहासों के निकलने से चेहरा कुछ भद्दा हो जाता है। इन्हें 'ढीड़सा' भी कहते हैं। ये केवल युवावस्था में ही २० से २५ वर्ष तक प्रकट होते हैं, इसके पूर्व या पर बहुत कम रहते हैं।
⋙ मु
संज्ञा पुं० [सं०] १. महेश। २. बंधन। ३. और्ध्वदैहिक चिता। ४. लालमायुक्त भूरा वा पिंगल रंग। ५. मुक्ति। मोक्ष [को०]।
⋙ मुअज्जन
संज्ञा पुं० [अ० मुअज्जन] वह जो मसजिद में नमाज के समय अजान देता है। नमाज के लिये सब लोगों का पुकारनेवाला।
⋙ मुअज्जम
वि० [अ० मुअज्जम] [वि० स्त्री० मिअज्जमा] पूज्य। बुर्जुग। महान्। श्रेष्ठ। उ०—मुअज्जम इसमें अँगाली हमेहा। बलियाँ सब मिल किये हैं दर वजोफा।—दक्खिनी०, पृ० ११४।
⋙ मुअज्जिज
वि० [अ० मुअज्जिज] प्रतिष्ठित। इज्जतदार।
⋙ मुअज्जिन
संज्ञा पुं० [अ० मुअज्जिन] दे० 'मुअज्जन'। उ०—बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला; बैठी अपने भवन मुअज्जिन देकर मस्दिज में ताला।—मधुशाला, पृ० २०।
⋙ मुअत्तल
वि० [अ०] १. जिसके पास काम न हो। खाली। २. जो काम से कुछ समय के लिये, दंडस्वरूप, अलग कर दिया गया हो। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ मुअत्तली
संज्ञा स्त्री० [अ० मुअत्तल+ई (प्रत्य०)] १. मुअत्तल होने का भाव। बेकारी। २. काम से कुछ दिन के लिये अलग कर दिया जाना।
⋙ मुअद्दद
वि० [अ०] गणित। गिना या शुमार किया हुआ।
⋙ मुअद्दव
वि० [अ०] शिष्ट। अदबवाला। सभ्य [को०]।
⋙ मुअद्दा
वि० [अ०] अदा किया हुआ। शोधित [को०]।
⋙ मुअन्नस
संज्ञा स्त्री० [अ०] (व्याकरण में) स्त्रीलिंग।
⋙ मुअम्मर
वि० [अ०] वयोंवृद्ध। बड़ी आयुवाला। बूढ़ा।
⋙ मुअम्मा
संज्ञा पुं० [अ०] १. रहस्य। भेद। मुहा०—मुअम्मा खुलना या हल होना=रहस्य खुलना। भेद प्रकट होना। २. पहेली। उ०—ख्याल के बाहर की बातें भला कोई क्यों कर तोले। ताकत क्या है, मुअम्मा तेरा कोई हल कर जो लें।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १९४। ३. घुमाव फिराव की बात। ऐसी बात जो जल्दी समझ में न आवे ।
⋙ मुअल्लक
वि० [अ० मुअल्लक] अधर में लटका हुआ। उ०— उठा उठाकर ले की यूसुफ मुअल्लक। अपस के हात के ऊपर इसलक।—दक्खिनी०, पृ० ३४२।
⋙ मुअल्ला
वि० [अ०] १. उत्तुंग। श्रेष्ठ। ऊँचा। आला। २. उच्च- पदस्थ। ऊँचे मरतबेवाला।
⋙ मुअल्लिम
संज्ञा पुं० [अ० मुअल्लिम] [स्त्री० मुअल्लिमा] अध्यापक। शिक्षा देनेवाला। शिक्षक।
⋙ मुआ
वि० [सं० मृतक, प्रा० मुअअ] [वि० स्त्री० मुई] १. मृत। मरा हुआ। गतप्राण। उ०—मुए जिआए भालुकपि, अवध विप्र को पूत। सुमिरहु तुलसी ताहि तू जाको मारुति दूत।— तुलसी ग्रं०, पृ० १७६। २. निगोड़ा। क्षुद्र। (वस्तु वा व्यक्ति के लिये स्त्रियों द्वारा प्रयुक्त)। उ०—(क) और मुए पहाड़ पर रखा ही क्या है आखिर ?—सैर० पृ० १५। (ख) खुदा जाने मुइयोँ मर्दों पर क्या जादू कर देती हैं कि बिलकुल उनके बस में हो जाते हैं।—सैर०, पृ० १४।
⋙ मुआइना
संज्ञा पुं० [अ० मुआइनह्] दे० 'मुआयना'।
⋙ मुआफ
वि० [अ० मुआफ] दे० 'माफ'। उ०—जब सरकार आपको मुआफ कर देगी तो मुकदमा कैसे चलाएगी।—गवन, पृ० २८९।
⋙ मुआफकत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुआफकत] १. मुआफिक या अनुकूल होने का भाव। २. साथ। दोस्ती। मेल जोल। हेल मेल। यौ०—मेल मुआफकत।
⋙ मुआफिक
वि० [अ० मुआफिक] १. जे विरुद्ध न हो। अनुकूल। २. सदृश। समान। ३. ठीक ठीक। न अधिक, न कम। बरा- बरा। ४. मनोनुकूल। इच्छानुसार।
⋙ मुआफिकत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुआफिकत] १. अनुरूपता। २. अनुकूलता। ३. मित्रता। दोस्ती। यौ०—मेल मुआफिकत।
⋙ क्रि० प्र०—करना।—रखना।
⋙ मुआफी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुआफी] दे० 'माफी'।
⋙ मुआफीनामा
संज्ञा पुं० [अ० मुआफीनामह्] माफीनामा। क्षमा- पत्र। उ०—जब सरकार आपको मुआफ कर देगी तो मुकदमा कैसे चलाएगी। आफको तहरीरी मुआफीनामा दिया जायगा।— गवन, पृ० २८९।
⋙ मुआमला
संज्ञा पुं० [अ० मुआमला] दे० 'मामला'। यौ०—मुआमलादाँ=मुआमले को समझनेवाला। दूरदर्शी। मुआमला ना दाँ=जो मामला न समझे। बेवकूफ। मुआमला- फहम, मुआमलाशनास, मुआमलासंज=दे० 'मुआमला दाँ'।
⋙ मुआयना
संज्ञा पुं० [अ० मुआयना] देखभाल। पर्यवेक्षण। जाँच पड़ताल। निरीक्षण।
⋙ मुआलिज
संज्ञा पुं० [अ० मुआलिज] इलाज करनेवाला। चिकि- त्सक।
⋙ मुआलिजा
संज्ञा पुं० [अ० मुआलिजह्] इलाज। चिकित्सा। यौ०—इलाज मुआलिजा।
⋙ मुआवजा
संज्ञा पुं० [अ० मुआवजह्] १. बदला। पलटा। २. वह धन जो किसी कार्य अथवा हानि के बदले में मिले। ३. वह रकम जो जमींदार को उस जमीन के बदले में मिलती है, जो किसी सार्वजनिक काम के लिये कानून की सहायता से ले ली जाती है। क्रि० प्र०—दिलाना।—देना।—पाना।—मिलना।
⋙ मुआहिदा
संज्ञा पुं० [अ० मुआहिदा] पक्की बातचीत। दृढ़ निश्चय। कौल करार।
⋙ मुऐयन
[वि० अ०] नियत। मुकर्रर। निश्चित्त। उ०—कोई उम्मीद बर नहीं आती। कोई सूरत नजर नहीं आती। मौत का एक दिन मुऐयन है। नींद क्यों रात भर नहीं आती।—कविता० कौ०, भा० ४, पृ० ४७२।
⋙ मुकंद
संज्ञा पुं० [सं० मुकन्द] १. र्कुदरू। २. प्याज। ३. साठी धान।
⋙ मुकंदक
संज्ञा पुं० [सं० मुकुन्दक] प्याज। २. एक प्रकार का साठी धान।
⋙ मुक
संज्ञा पुं० [सं०] गोमय की गंध [को०]।
⋙ मुकट
संज्ञा पुं० [सं० मुकुट] दे० 'मुकुट'। उ०—कुंडल मंडित गंड सुदेश। मनिमय मुकट सु धूँघर केश।—नंद० ग्रं०, पृ० २६७।
⋙ मुकटा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की रेशमी धोती जो प्रायः पूजन या भोजन आदि के समय पहनी जाती है।
⋙ मुकट्ट पु
संज्ञा पुं० [सं० मुकुट] दे० 'मुकुट'। उ०—मुकुट्टयं मयूर चंद्र सीसयं सुलष्षयं।—पृ० रा०, २। ३२८।
⋙ मुकत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्ता] दे० 'मुक्ता'। उ०—कंचन माल, मुकत की माल। झिलमिलात छवि छती विसाल।—नंद० ग्रं०, पृ० २२२। यौ०—मुकतफल=मुक्ताफल। मोती। उ०—फबै सवामण मुकत- फल मैंगल कुंब मझार।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० २४।
⋙ मुकतई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्ति] मुक्ति। छुटकारा। उ०—तूँ मति मानै मुकतई किए कपट चित काट। जौ गुनही तौ राखिऐ आँखिनु माँझ अगोटि।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मुकता (१)
संज्ञा पुं० [सं० मक्ता] दे० 'मुक्ता'। उ०—कलँगी सड़क सेत गजगाहैं। मालनि जटित मंजु मुकता हैं।—हम्मीर०, पृ० ३।
⋙ मुकता (२)
वि० [हिं० अ (प्रत्य०)+मुकना(=समाप्त होना)] [वि० स्त्री० मुकती] जो जल्दी समाप्त न हो। बहुत अधिक। यथेष्ट। जैसे,—उनके पास मुकते कपड़े हैं; कहाँ तक पहनेंगे।
⋙ मुकतालि
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्तावली] मोतियों की लड़ी। मुक्तावलि। उ०—ह्वै कपूर मनिमय रही मिलि तन दुति मुकतालि। छिन छिन खरी बिचच्छिनौ लखति छाइ तिनु आलि।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मुकति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्तिका] १. मोती। उ०—अधरन पर बेसर सरस लुरकत लुरक बिसाल। राखन हेत मराल जनु मुकति चुगावति बाल।—स० सप्तक, पृ० ३८६।
⋙ मुकति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्ति] छुटकारा। मोक्ष। मुक्ति। उ०—सु आधीन उपरांति मुकति नांही।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८०।
⋙ मुकत्तर
वि० [अ० मुकत्तर] १. नियारा या साफ किया हुआ। २. बूँद बूँद करके टपकाया हुआ [को०]।
⋙ मुकत्ता
वि० [अ० मुकतअ] १. काट छाँटकर दुरुस्त किया हुआ। ठीक तरह से बनाया हुआ। जैसे, मुकत्ता दाढ़ी। २. सभ्य। शिष्ट। जैसे, मुकत्ता सूरत।
⋙ मुकदमा
संज्ञा पुं० [अ० मुकद्दमह्] १. दो पक्षो के बीच का धन, अधिकार आदि से संबंध रखनेवाला कोई झगड़ा अथवा किसी अपराध (जुर्म) का मामला जो निबटारे या विचार के लिये न्यायालय में जाय। व्यवहार या अभियोग। जैसे,—वह वकील जो मुकदमा हाथ में लेता है, वही जीतता है। क्रि० प्र०—उठाना।—खड़ा करना।—चलना। चलाना ।— जीतना। हारना। मुहा०=मुकदमा लड़ना=मुकदमें में अपने पक्ष में प्रयत्न करना। २. धन का अधिकार आदि पाने के लिये अथवा किए हुए अपराध पर दंड दिलाने के लिये किसी के विरुद्ध न्यायालय में कारवाई। दावा। नालिश। क्रि० प्र०—दायर करना। यौ०—मुकदमेबाजी। ३. किसी पुस्तक को प्रस्तावना। भूमिका। प्राक्कथन (को०)। ४. काम। कार्य (को०)।
⋙ मुकदमेबाज
संज्ञा पुं० [ अ० मुदमा+फा० बाज (प्रत्य०)] वह जो प्रायः मुकदमें लड़ा करता हो।
⋙ मुकदमेबाजी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुकदमा+फा० बाजी] मुकदमा लड़ने का काम।
⋙ मुकद्दम (१)
वि० [अ० मुकद्दम] १. प्राचीन। पुराना। २. सर्वश्रेष्ठ। ३. जरूरी। आवश्यक। क्रि० प्र०—जानना।—समझना।
⋙ मुकद्दम (२)
संज्ञा पुं० १. मुखिया। नेता। उ०—राजा एक पचीस तिलंगा, पाँच मुकद्दम सो पचरंगा।—कबीर० श०, भा० १, पृ० ३२। २. रान का ऊपरी भाग जो कूल्हे से जुड़ा होता है। (कमाई)।
⋙ मुकद्दमा
संज्ञा पुं० [अ० मुकद्दमह्] दे० 'मुदकमा'।
⋙ मुकद्दर
संज्ञा पुं० [अ० मुकद्दर] प्रारब्ध। भाग्य। तकदीर। मुहा०—मुकद्दर आजमाना=भाग्य की परीक्षा करना। मुकद्दर चमकना=भाग्योदय होना।
⋙ मुकद्दस
[अ० मुकद्दस] पवित्र। शुचि। पाक। यौ०—मुकद्दस किताब=ऐसी धर्मपुस्तक जो अपौरुषेय मानी जाती हो। उ०—मुकद्दस कुतुब वेद बानी बयान। जो देखे पढ़े उसको हो सब गयान।—कबीर मं०, पृ० ३८६। मुकद्दस हस्ती= पुनीतात्मा। महात्मा। संत पुरुष।
⋙ मकना (१)
संज्ञा पुं० [सं० मनाक, हिं० मुकना] दे० 'मकुना'।
⋙ मुकना पु (२)
क्रि० अ० [सं० मुक्त] १. मुक्त होना। छूटना। २. खतम होना। चुकना।
⋙ मुकफ्फल
वि० [अ० मुकफ्फल] यंत्रित। बंद किया हुआ। जैसे, मुकफ्फल दरवाजा, मुकफ्फल संदूक [को०]।
⋙ मुकम्मल
वि० [अ०] १. पूरा किया हुआ। जिसमें कुछ भी करने को बाकी न हो। सब तरह से तैयार। २. पूर्ण। समग्र। पूरा [को०]।
⋙ मुकन्मिल
वि० [अ०] पूर्ण करनेवाला। पूरा करनेवाला। उ०— मोहिउद्दीन है पीर मुकम्मिल अव्वल।—दक्खिनी०, पृ० ११४।
⋙ मुकर
संज्ञा पुं० [सं० मुकुर?] कली। मुकुर। मुकुल। उ०—नारियल ऐनक मुकर लगाई। मन मीड़ै पुनि बास उड़ाई।-घट, पृ० २१८।
⋙ मुकरना (१)
क्रि० अ० [सं० मुक्त(=नहीं)+करना] कोई बात कहकर उससे फिर जाना। कही हुई बात से या किए हुए काम से इनकार करना। नटना। जैसे—उनका तो यही काम है; सदा कहकर मुकर जाते हैं। संयो० क्रि०—जाना। पड़ना।
⋙ मुकरना (२)
संज्ञा पुं० कहकर मुकर जानेवाला। वह व्यक्ति जो कहे और फिर मुकर जाय।
⋙ मुकरना (३)
क्रि० अ० [सं० मुक्त] मुक्त होना। छूटना।
⋙ मुकरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुकरना] मुकरी या कह मुकरी नामक कविता। विशेष दे० 'मुकरी'।
⋙ मुकरबा
संज्ञा पुं० [अ० मुकब्बर] बहुत बड़ी मसजिद या मुकबरे का वह स्थान जहाँ नमाज में तक्बीर कहनेवाला खड़ा होता है। उ०— सुनि वोल मोहि रहो न जाई। देखि मुकरबा रहा भुलाई। कबीर बी० (शिशु०), पृ० १८२।
⋙ मुकराना (१)
क्रि० स० [हिं० मुकरना का सक० रूप] १. दूसरे की मुकरने में प्रवृत्त करना। २. दूसरों को झूठा बनाना। (क्व०)।
⋙ मुकराना पु (२)
क्रि० स० [सं० मुक्त] मुक्त कराना। छुड़ाना। उ०— प्रिय जेहि बंदि जोगिनि होई धावौं। हौं बँदि लेउँ पियहि मुकराबौ।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मुकरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुकरना+ई (प्रत्य०)] एक प्रकार की कविता। तह मुकरी। वह कविता जिसमें प्रारंभिक चरणों में कही हुई बात से मुकरकर उसके अंत में भिन्न अभिप्राय व्यक्त किया जाय। उ०— (क) वा बिन मोको चैन न आवे। वह मेरी तिस आन बुझावे। है वर सब गुन बारह बानी। ऐ सखि साजन ? ना सथि पानी। (ख) आप हिले औ मोहिं हिलावे। वाका हिलना मोको भावे। हिल हिल के वह हुआ निसंखा। ऐ सखि साजन ? ना सखि पंखा। (ग) रात समय मेरे घर आवे। भोर भए वह घर उठ जावे। यह अचरज है सब से न्यारा। ऐ सखि साजन ? ना सखि तारा। (घ) सारि रैन वह मो सँग जागा। भोर भोई तव बिछुड़न लागा। बाके बिछुड़त फाटे हिया। ऐ सखि साजन ? ना सखि दिया। विशेष— यह कविता प्रायः चार चरणों की होती है इसके पहले तीन चरण ऐसे होते हैं; जिनका आशय दो जगह घट सकता है। इनसे प्रत्यक्ष रूप से जिस पदार्थ का आशय निकलता है, चौथे चरण में किसी और पदार्थ का नाम लेकर, उससे इनकार कर दिया जाता है। इस प्रकार मानों कही हुई बात से मुकरते हुए कुछ और ही अभिप्राय प्रकट किया जाता है। अंमीर खुसरी ने इस प्रकार की वहुत सी मुकरियाँ कही हैं। इसके अंत में प्रावः 'सखी' या 'सखिया' भी कहते हैं।
⋙ मुकर्रम
वि० [अ०] पूज्य। प्रतिष्ठित। सम्मनित [को०]।
⋙ मुकर्रर (१)
क्रि० वि० [अ०] दोबारा। फिर से। दूसरी बार। मुहा०—मुकर्रर सिकर्रर =दूसरी और तीसरी बार फिर। कई बार।
⋙ मुकर्रर (२)
वि० [अ० मुकरर] जिसका इकरार किया गया हो। जो ठहराया गया हो। तय किया हुआ। निश्चित। जैसे,— इस काम का उनसे सौ रुपया मुकरर हुआ है। २. जो तैनात किया गया हो। नियुक्त। जैसे,— किसी आदमी को इस काम पर मुकर्रर कर दो।
⋙ मुकर्रर (३)
क्रि० वि० अवश्य ही। निस्संदेह।
⋙ मुकर्ररी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुकर्रर] १. मुकर्रर होने की क्रिया या भाव। नियुक्ति। २. नियत राजकर। मालगुजारी। ३. नियत वेतन या वृत्ति आदि।
⋙ मुकर्रिर
वि० [अ०] भाषण करनेवाला। वक्ता [को०]।
⋙ मुकल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आरग्वध। अमलतास। २. गुग्गुल।
⋙ मुकलना पु
क्रि० स० [सं० मुञ्च, प्रा० मुक्क] छोड़ना। मुक्त करना। प्रेषित करना। भेजना। उ०— मुक्कले दूत प्रियिराज तथ्य। सेवा सु पाइ उप्पर जू हथ्थ।—पृ० रा०, १। ५९७।
⋙ मुकलाई †
संज्ञा स्त्री० [प्रा० मुक्कल] मुक्ति। छुटकारा। उ०— अब की करिहौं बंदगी सुनु रे मन बौरे, जो पइहों मुकलाई।— धरनी०, पृ० ४।
⋙ मुकलाना पु
क्रि० स० [सं० मुक्त या मुकलित] मुक्त करना। खोलना। छोड़ना। बिखराना। उ०— सरवर तीर पदमिनी आई। खोपा छोरि केस मुकलाई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मुकलावा
संज्ञा पुं० [देश०] गौना। द्विरागमन। उ०— एक दिवस वह अपना मुकलावा (गौना) लेने को गया।—कबीर, मं०, पृ० १०३।
⋙ मुकव्वी
वि० [अ० मुकब्वी] ताकत बढ़ानेवाला। बलवर्धक। पुष्टिकारक।
⋙ मुकाबला
संज्ञा पुं० [अ० मुकाबलह्] १. आमना सामना। २. मुठभेड़। ३. बराबरी। समानता। ४. तुलना। ५. मिलान। ६. प्रतियोगिता। प्रतिद्वंद्विता (को०)। ७. विरोध। लड़ाई। मुहा०—मुकाबले पर आना=विरोध या प्रतिद्वंद्विता करने अथवा लड़ने के लिये सामने आना।
⋙ मुकाबिल (१)
क्रि० वि० [अ० मुका़बिल] संमुख। आमने सामने। उ०— लड़ना न मुकाबिल कभी जिनहार खबरदार।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५२२।
⋙ मुकाबिल (२)
वि० १. सामनेवाला। २. समान। बराबर का। बराबरी करनेवाला।
⋙ मुकाबिल (३)
संज्ञा पुं० १. प्रतिद्वंद्वी। २. शत्रु। दुश्मन।
⋙ मुकाम
संज्ञा पुं० [अ० मुकाम] १. ठहरने का स्थान। टिकान। पड़ाव। २. ठहरने की क्रिया। कूच का उलटा। विराम। मुहा०—मुकाम बोलना=अधिकारी का अपने अधीनस्थ कर्म- चारियों या सैनिकों को ठहरने की आज्ञा देना। मुकाम देना= किसी के मर जाने पर उसेक घर मातमपुरसी करने जाना। ३. रहने का स्थान। घर। ४. अवसर। मौका। ५. सरोद का कोई परदा (संगीत)। ५. सूफी साधना में साधक की अवस्थाएँ या टिकान या पड़ाव। भूमिका। साधक की अवस्थान- भूमि। उ०— इस मार्ग में कई पड़ाव हैं जो मुकामात कहलाते हैं इनमें पहला मुकाम है 'तौबा'।—जायसी ग्रं० (भू०), पृ० १४३। यौ०—मुकामे मकसूद=लक्ष्य स्थान। उद्दिष्ट स्थान। उ०— बस फिर मुकामें मकसूद ढूँढ़ लीजिएगा।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५२।
⋙ मुकियल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जिसे नल बाँस या विधुली भी कहते हैं।
⋙ मुकियाना
क्रि० स० [हिं० मुक्की+इयाना (प्रत्य०)] १. किसी के शरीर पर मुक्कियों से बार बार आघात करना जिसमें उसके अंगों की शिथिलता दूर हो। २. आटा गूँधने के उपरांत उसे नरम करने के लिये मुक्कियों से बार बार दबाना। ३. मुक्का लगाना या मारना। घूँसे लगाना।
⋙ मुकिर
वि० [अ० मुकिर, मुकिर्र] १. इकरार करनेवाला। प्रतिज्ञा करनेवाला। २. किसी दस्तावेज या अरजीदावे आदि का लिखानेवाला, जिसके हस्ताक्षर से वह प्रस्तुत हो। (कच०)।
⋙ मुकीम
वि० [अ० मुकीम] १. कुछ दिनों के लिये कहीं ठहरा हुआ। २. निवासी। रहनेवाला [को०]।
⋙ मुकुंटी
संज्ञा स्त्री० [सं० मुकन्टी] प्राचीन काल का एक अस्त्र।
⋙ मुकुंद
संज्ञा पुं० [सं० मुकुन्द] १. मुक्ति देनेवाले, विष्णु। २. पुराणानुसार एक प्रकार की निधि। ३. एक प्रकार का रत्न। ४. कुँदरू। ५. पारा। ६. सफेद कनेर। ७. गंभारी नामक वृक्ष। ८. पोई का साग। ९. एक प्रकार का वाद्य। पटह। दुंदुभि (को०)। १०. साठी धान (को०)। ११. संगीत में ताल का एक प्रकार (को०)।
⋙ मुकुंदक
संज्ञा पुं० [सं० मुकुन्दक] १. प्याज। २. साठी धान।
⋙ मुकुंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० मुकुन्दा] भेरी। दुंदुभी [को०]।
⋙ मुकुद्रु
संज्ञा पुं० [सं० मुकुन्दु] १. कुँदरू। २. सफेद कनेर। ३. पारा। ४. गंभारी। ५. पोई का साग।
⋙ मुकु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुक्ति। मोक्ष। २. छुटकारा। रिहाई।
⋙ मुकुट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का प्रसिद्ध शिरोभूषण जो प्रायः राजा आदि धारण किया करते थे। विशेष— यह प्रायः बीच में ऊँचा और कँगूरेदार होता था और सारे मस्तक के ऊपर एक कान के पास से दूसरे कान के पास तक होता था। यह सोने, चाँदी आदि बहुमूल्य धातुओं का और कभी कभी रत्नजटित भी होता था। यह माथे पर आगे की ओर रखकर पीछे से बाँध लिया जाता था। इसमें कभी कभी किरीट भी खोंसा जाता था। पर्या०—मैलि। कोटीर। शेखर। अवतंस। उत्तंस। २. पुराणानुसार एक देश का नाम।
⋙ मुकुट (२)
संज्ञा स्त्री० एक मातृगण।
⋙ मुकुटी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुकुटिन्] वह जिसने मुकुट धारण किया हो।
⋙ मुकुटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटिका। चुटकी [को०]।
⋙ मुकुटेकार्षापण
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का राजकर जो राजा का मुकुट बनवाने के लिये लिया जाता था।
⋙ मुकुटेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक शिवलिंग का नाम। २. एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ मुकुट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जाति का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।
⋙ मुकुत पु (१)
वि० [सं० मुक्त] दे० 'मुक्त'। उ०— (क) मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज वचन प्रमाना।—मानस,१। १२३। (ख) जाति हीन, अध जनम महि, मुकुत कीनि असि नारि।—मानस, २। १५६।
⋙ मुकुत (२)
संज्ञा पुं० [सं० मुक्तक] मुक्ता। मोती।
⋙ मुकुता पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मुक्ता'। उ०—मनि मानिक मुकुता छवि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी।—मानस, १। ११। यौ०—मुकुतामाल =मोतियों की माला। उ०— बहत बाहिनी संग मुकुतामाल विशाल कर। केशव (शब्द०)। मुकुताहल= दे० 'मुक्ताफल'। उ०— मुकुताहल गुनगन चुनइ राम बसहु मन तासु।—मानस, २। १२८।
⋙ मुकुति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्ति] दे० 'मुक्ति'। उ०— जमगन मुह मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी।—मानस, १ ३१।
⋙ मुकुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुख देखने का शीशा। आईना। दर्पण। उ०— तव हरगन बोले मुसुकाई। निज सुख मुकुर बिलोकहु जाई।— मानस, १। १३५। २. बकुल का वृक्ष। मौलसिरी। ३. कुम्हार का वह डंडा जिससे वह चाक चलाता है। ४. मल्लिका। मोतियाँ। ५. कली। मुकुल। ६. बेर का पेड़।
⋙ मुकुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कली। २. शरीर। ३. आत्मा। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का राजकर्मचारी। ५. एक प्रकार का छंद। ६. जमालगोटा। ७. भूमि। पृथ्वी।
⋙ मुकुल (२)
संज्ञा पुं० दे० 'गुग्गुल'।
⋙ मुकुलक
संज्ञा पुं० [सं०] दंती वृक्ष।
⋙ मुकुलाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जो कली की आकृति का होता था।
⋙ मुकुलायित
वि० [सं०] दे० 'मुकुलित'।
⋙ मुकुलित
वि० [सं०] १. जिसमें कलियाँ आई। २. कुछ खिली हुई। (कली)। ३. आधा खुला, आधा बंद। कुछ कुछ खुला ४. झाँकता हुआ। (नेत्र)।
⋙ मुकुली
संज्ञा पुं० [सं० मुकुलिन्] वह जिसमें कलियाँ आई हों।
⋙ मुकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] मोठ।
⋙ मुकुष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] मोठ।
⋙ मुकूलक
संज्ञा पुं० [सं०] दंती वृक्ष। अंडी की जाती का एक वृक्ष। विशेष दे० 'दती'।
⋙ मुकेस पु
संज्ञा पुं० [फा़० मुक्कैश] दे० 'मुक्कैश'। उ०— सतगन नग पर बसन मुकेस राजै, एक सी प्रकासी गति दोनों चितचोर की।— पजनेस०, पृ० १।
⋙ मुक्का
संज्ञापुं० [सं० मुष्टिका] [स्त्री० अल्पा० मुक्की] हाथ का वह रूप जो उँगलियों और अँगूठे को बंद कर लेने पर होता है और जिससे प्रायः आघात किया जाता है। बंधी मुट्ठी जो मारने के लिये उठाई जाय। मुहा०—मुक्का चलाना या मारना=मुक्के से आघात करना। मुक्का सा लगना=हार्दिक कष्ट पहुँचना। यौ०—मुक्केबाजी।
⋙ मुक्काना
क्रि० स० [सं० मुञ्ज, प्रा० मुक्क] मुक्त करना। भेजना। छोड़ना। उ०— मुक्काए मतिवंतिनी, नृप कग्गद दै हथ्थ। पूजा मिसि वाला सुभर सुंभुयान मिलि तथ्थ।—पृ० रा०, २५। २६६।
⋙ मुक्काम पु
संज्ञा पुं० [अ० मुकाम] दे० 'मुकाम'। उ०—दस कोस जाय मुक्काम कीन। बिच गाम नगर पुर लूट लीन।—पृ० रा०, १। ४३७।
⋙ मुक्की
संज्ञा पुं० [हिं० मुक्का+ई (प्रत्य०)] १. मुक्का। घूँसा। २. वह लड़ाई जिसमें मुक्कों की मार हो। उ०— मुक्की सु किज्जे मार, तहवीर टुटठहि झार।—पृ० रासो, पृ० १५२। ३. आटा गूँधने के उपरांत उसे मुठ्ठियों से बार बार दबाना जिससे आटा नरम हो जाता है। क्रि० प्र०—देना। लगाना। ४. हाथ पैर आदि दबाने की क्रिया। मुठ्ठियाँ बाँधकर उससे किसी के शरीर पर धीरे धीरे आघात करना, जिससे शरीर की शिथिलता और पीड़ा दूर होती है। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।
⋙ मुक्केबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुक्का+बाजी (प्रत्य०)] मुक्कों की लड़ाई। घूसेबाजी। घूँसमघूसा।
⋙ मुक्कैश
संज्ञा पुं० [अ० मुक़्कैश] १. चाँदी या सोने का एक विशिष्ट रूप में काटा हुआ तार जिसे बादला कहते हैं। २. सुनहले या रुपहले तारों का बना हुआ कपड़ा। ताश। तमामी। जरबफ्त।
⋙ मुक्कैशी
वि० [अ० मुक्कैश+ई (प्रत्य०)] १. बादलों का बना हुआ। २. जरी या ताश का बना हुआ।
⋙ मुक्कैशी गोखरू
संज्ञा पुं० [हिं० मुक्कैशी+गोखरू] एक प्रकार का महीन गोखरू जो तारों को मोड़कर बनाया जाता है।
⋙ मुक्ख पु
वि० [सं० मुख] दे० 'मुख'। उ०— तजी बाल क्रीडा जलं त्यागि भग्गी। जहीं ओर दौरी भयौ मुक्ख अग्गी।— ह० रासो०, पृ० ३८।
⋙ मुक्खी
संज्ञा पुं० [हिं० मुख+ई (प्रत्य०)] गोले कबूतर से मिलता जुलता एक प्रकार का कबूतर जो प्रायः उन्हीं के साथ मिलकर उड़ता है और अपनी गरदन जरा केस रहता है। २. वह कबूतर जिसका सारा शरीर तो काला, हरा या लाल हो, पर जिसके सिर और डैनों पर एक या दो सफेद पर हों।
⋙ मुक्त (१)
वि० [सं०] १. जिसे मोक्ष प्राप्त हो गया हो। जिसे मुक्ति मिल गई हो। जैसे,— काशी में मरने से मनुष्य मुक्त हो जाता है। २. जो बंधन से छूट गया हो। जिसका छुटकारा हो गया हो। जैसे,— वह कारागार से मुक्त हो गया है। ३. जो पकड़ या दबाव से इस प्रकार अलग हुआ हो कि दूर जा पड़े। चलने के लिये छूटा हुआ। फेंका हुआ। क्षिप्त। जैसे, बाण का मुक्त होना। ४. बंधन से रहित। बंधन से छूटा हुआ। खुला हुआ।
⋙ मुक्त (२)
संज्ञा पुं० १. पुराणानुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. वह जिसने मुक्ति प्राप्त कर ली हो [को०]।
⋙ मुक्त पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० मुक्ता] दे० 'मुक्ता'। उ०— हेम हीर हार मुक्त चोर चारु साजि के।—केशव (शब्द०)।
⋙ मुक्तकंचुक
संज्ञा पुं० [सं० मुक्तकञ्चुक] वह साँप जिसने अभी हाल में केंचुली छोड़ी हो।
⋙ मुक्तकंठ
वि० [सं० मुक्तकण्ठ] १. जो जोर से बोलता हो। चिल्लाकर बोलनेवाला। २. जो बोलने में वेधड़क हो। जिससे कहने में आगा पीछा न हो। जैसे,— मुक्तकंठ होकर कोई बात स्वीकार करना।
⋙ मुक्तक
संज्ञा सं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जो फेंककर मारा जाता था। २. एक प्रकार का काव्य जो एक ही खंड या पद्य में पूरा होता है। वह कविता जिसमें कोई एक कथा या प्रसंग कुछ दूर तक न चले। फुटकर कविता। 'प्रबंध' का उलटा जिसे 'उद् भट' भी कहते हैं। उ०— मुक्तक या उद् भट में जो रस को रस्म अदा की जाती है उसमें ग्रीष्म दशा का समावेश नहीं होता।—रस०, पृ० १८९।
⋙ मुक्तक ऋण
संज्ञा पुं० [सं०] वह ऋण जिसकी लिखा पढ़ी न हुई हो। जबानी बातचीत पर दिया हुआ ऋण।
⋙ मुक्तकच्छ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक बौद्ध का नाम।
⋙ मुक्तकच्छ (२)
वि० जिसकी लाँग या काछ खुली हो [को०]।
⋙ मुक्तकुंतला
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्तकुन्तला] बिखरे बालोंवाली। जिसके बाल इधर उधर बिखरे हों। उ०— धूले धूसरित, मुक्त- कुंतला किसके चरणों की दासी ? —वीणा, पृ० ११।
⋙ मुक्तकेश
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मुक्तकेशी] जिसके बाल बँधे या गुँथे न हों [को०]।
⋙ मुक्तकेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काली देवी का एक नाम।
⋙ मुक्तचंदन
संज्ञा पुं० [सं० मुक्तचन्दन] लाल चंदन।
⋙ मुक्तचंदा
संज्ञा स्त्री० [ सं० मुक्तचन्दा] चिंचा नामक साग। चंचु।
⋙ मुक्तचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० मुक्तचक्षुस्] सिंह। शेर।
⋙ मुक्तचेता
संज्ञा पुं० [सं० मुक्तचेतस्] वह जिसमें मोक्ष प्राप्त करने की बुद्धि आ गइ हो।
⋙ मुक्तछंद
संज्ञा पुं० [सं० मुक्त+छन्द] छंदःशास्त्र के नियमों के विपरीत छंद। अतुकांत छंद। उ०— तब भी मैं इसी तरह समस्त, कवि जोवन में व्यर्थ भी व्यस्त लिखता अबाध ग ते मुक्त छंद।—अनामिका, पृ० १२२।
⋙ मुक्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुक्त होने का भाव। मुक्ति। मोक्ष। २. छुटकारा।
⋙ मुक्तत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मुक्तता' [को०]।
⋙ मुक्तद्वार
वि० [सं०] १. जिसका द्वार खुला हो। २. निबधि।
⋙ मुक्तनिर्मोक
संज्ञा पुं० [सं०] वह साँप जिसने अभी हाल में केंचुली छोड़ी हो।
⋙ मुक्तपत्राढ्य
संज्ञा पुं० [सं०] तालीश।
⋙ मुक्तपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसकी आत्मा मुक्त हो। वह जिसका मोक्ष हो गया हो।
⋙ मुक्तफला पु
संज्ञा स्त्री० [देश०?] माधवी। उ०— वासंती पुनि पुंडका, मुक्तफला अरु नाऊँ।—नंद ग्रं०, पृ० १०६।
⋙ मुक्तबंधन
वि० [सं० मुक्तबन्धन] प्रतिबंध या बंधन से मुक्त [को०]।
⋙ मुक्तबंधना
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्तबन्धना] १. एक प्रकार का मोतिया। २. बेला।
⋙ मुक्तबुद्धि
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसमें मुक्ति प्राप्त करने के योग्य बुद्धि आ गई हो। मुक्तचेता।
⋙ मुक्तमाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीप। शुक्ति।
⋙ मुक्तमाल पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्ता+माल] मुक्ता की माला। मोतियों की माला। उ०— लिए सु दोय बज्र लाल एक मुक्तमालयं।—ह० रासो, पृ० ५१।
⋙ मुक्तरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रासना।
⋙ मुक्तलज्ज
वि० [सं०] १. जिसने लज्जा का परित्याग कर दिया हो। २. निर्लज। बेहया।
⋙ मुक्तवर्च्चा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अदितमंजरी। रुद्रा।
⋙ मुक्तवर्षीय
संज्ञा पुं० [सं०] कुप्पा।
⋙ मुक्तवसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। २. वह जिसने वस्त्र पहनकर छोड़ दिया हो। नंगा रहनेवाला। ३. जैन यतियों या संन्यासियों का एक भेद।
⋙ मुक्तवास
संज्ञा पुं० [सं०] सीप। शुक्ति।
⋙ मुक्तवेणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. द्रौपदी का एक नाम। २. प्रयाग का त्रिवेणी संगम।
⋙ मुक्तवेणी (२)
वि० स्त्री० जिसकी वेणी बँधी न हो [को०]।
⋙ मुक्तव्यापार
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका संसार के कार्यों या व्यापारों से कोई संबंध न रह गया हो। संसारत्यागी।
⋙ मुक्तशैशव
वि० [सं०] युवक। युवा। जो शिशुता की अवस्था को पार कर गया हो [को०]।
⋙ मुक्तशृंग
संज्ञा पुं० [सं० मुक्तश्रृङ्ग] रोहू मछली।
⋙ मुक्तसंग
संज्ञा पुं० [सं० मुक्तसङ्ग] १. वह जो विषय वासना से रहित हो गया हो। २. परिव्राजक।
⋙ मुक्तसार
संज्ञा पुं० [सं०] केले का पेड़।
⋙ मुक्तहस्त
वि० [सं०] [संज्ञा मुक्तहस्तता] जो खुले हाथों दान करता हो। बहुत बड़ा दानी।
⋙ मुक्तहृदय
वि० [सं०] राग द्वेष के बंधन से छूटा हुआ। स्थितप्रज्ञ। सत्वस्थ। उ०— जब कभी वह अपनी पृथक् सत्ता को धारणा से छूटकर अपने आपको बिलकुल भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है तब वह मुक्तहृदय हो जाता है।—रस०, पृ० ५।
⋙ मुक्तांबर
संज्ञा पुं० [सं० मुक्ताम्बर] दे० 'मुक्तवसन' [को०]।
⋙ मुक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मोती। २. रासना। ३. वेश्या (को०)।
⋙ मुक्ताकलाप
संज्ञा पुं० [सं०] मोतियों का हार। मुक्ताहार [को०]।
⋙ मुक्ताकेशी
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बहुत बढ़िया बैगन।
⋙ मुक्तागार
संज्ञा पुं० [सं०] सीप। शुक्ति।
⋙ मुक्तागुण
संज्ञा पुं० [सं०] मोतीयों की लड़ी या माला।
⋙ मुक्तागृह
संज्ञा पुं० [सं०] सीप। शुक्ति।
⋙ मुक्तात्मा
वि० [सं० मुक्तात्मन्] वह जिसकी आत्मा मुक्त हो। मोक्षप्राप्त। बंधनमुक्त। निरासक्त।
⋙ मुक्ताना पु †
क्रि० स० [सं० मुक्त+हिं० आना (प्रत्य०)] बंधन से छुड़ाना। मुक्त करना। मुक्ति दिलाना। उ०— गुरु है आप करम के माईं। चेला की कैसे मुक्ताई।—घट०, पृ० २५२।
⋙ मुक्तापान
संज्ञा पुं० [सं० मुक्ता+ हिं० पात(=पता)] एक प्रकार की झाड़ी जिसके डंठलों से सीतलपाटी नामक चटाई वबई जाती हैं। विशेष— यह झाड़ी पूर्व बंगाल, आसाम और बरमा की नीची तर भूमि में अधिकता से होती है और प्रायः इसकी पनीरी लगाई जाती है।
⋙ मुक्तापुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] कुंद का पौधा या फूल।
⋙ मुक्ताप्रसू
संज्ञा पुं० [सं०] सीप। शुक्ति।
⋙ मुक्ताप्रालंब
संज्ञा पुं० [सं० मुक्ताप्रालम्ब] मोतियों का हार।
⋙ मुक्ताफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोती। २. कपूर। ३. हरफा- रेवरी। लवनी फल। लवली फल। ४. एक प्रकार का छोटा लिसोड़ा।
⋙ मुक्ताभ
वि० [सं०] मोतियों की तरह चमकदार।
⋙ मुक्ताभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रिपुरमल्लिका। त्रिपुरमाली।
⋙ मुक्तामणि
संज्ञा पुं० [सं०] मोती। यौ०—मुक्तामणिसर=मोतियों का हार।
⋙ मुक्तामय
वि० [सं०] मोतियों से युक्त। मोती का। उ०— तुम्हारा मुक्तामय उपहार, हो रहा अश्रुकणों को हार।— झरना, पृ० २२।
⋙ मुक्तामाता
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्तामातृ] सीप। शुक्ति।
⋙ मुक्तामोदक
संज्ञा पुं० [सं०] मोतीचूर का लड्डू।
⋙ मुक्तालता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोतियों का कंठा।
⋙ मुक्तावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोतियों की लड़ी। मुक्तामाल [को०]।
⋙ मुक्तावास
संज्ञा पुं० [सं०] सीप। शुक्ति।
⋙ मुक्ताशुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह सीपी या शुक्ति जिसमें मुक्ता होती है।
⋙ मुक्तासन
वि० [सं०] वह जो अपने आसन से उठ खड़ा हो। २. योग प्रक्रिया का एक आसन।
⋙ मुक्तास्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] सीप। शुक्ति।
⋙ मुक्ताहल पु
संज्ञा पुं० [सं० मुक्ताफल] मुक्ताफल। मोती। उ०— सहजहिं जानहु मेंहदी रची। मुक्ताहल लीन्हें जनु घुँघची।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छुटकारा। २. आजादी। स्वतंत्रता। ३. मोक्ष। ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति। उ०— अन्य रूप की त्यागन जुक्ति। निज स्वरूप की प्रापत्ति मुक्ति।—नंद० ग्रं०, २१७।
⋙ मुक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम जिसमें मुक्ति के संबंध में मीमांसा की गई है।
⋙ मुक्तिक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाराणसी। काशी। २. कावेरी नदी के पास का एक प्राचीन तीर्थ जिसका दूसरा नाम वकुलारण्य भी था।
⋙ मुक्तितीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुक्ति देनेवाले, विष्णु। २. दे० 'मुक्तिधाम'।
⋙ मुक्तिधाम
संज्ञा पुं० [सं० मुक्तिधामन्] तीर्थ जहाँ मुक्ति प्राप्त हो। मुक्तिदेनेवाला स्थान।
⋙ मुक्तिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्त करने का आदेश। छुटकारे का परवाना।
⋙ मुक्तिप्रद
संज्ञा पुं० [सं०] हरा मूँग।
⋙ मुक्तिप्रद
वि० मुक्ति देनेवाला।
⋙ मुक्तिफौज
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुक्ति+फौ़ज] ईसाइयों का एक सेवा और धर्म-प्रचार-कार्य करनेवाला संघटन (सालवेशन आर्मो)।
⋙ मुक्तिमंडप
संज्ञा पुं० [सं०] विभिन्न देवस्थानों में स्थित मंडपाकार स्थानविशेष।
⋙ मुक्तिमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार एक नदी का नाम।
⋙ मुक्तिमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्ति पाने का मार्ग या साधन।
⋙ मुक्तिमुक्त
संज्ञा पुं० [सं०] शिलारस। सिल्हक।
⋙ मुक्तिलाभ
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्ति। छुटकारा मिलना।
⋙ मुक्तिसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्ति प्राप्त करने को कामना से ईश्वर और आत्मा के स्वरूप का चिंतन करना।
⋙ मुक्तिस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहण की समाप्ति, मोक्ष के बाद किया जानेवाला स्नान।
⋙ मुक्ती †
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मुक्ति'। उ०— ब्राह्मण पूजे, होय न मुक्ती।—कबीर सा०, पृ० ८१६।
⋙ मुक्तेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक शिवलिंग का नाम।
⋙ मुखंडा
संज्ञा पुं० [हिं० मुख+अंडा (प्रत्य०)] झारी आदि टोंटीदार बरतनों में किया हुआ वह छेद जिसमें टोंटी जड़ी जाती है।
⋙ मुखपच
संज्ञा पुं० [सं० मुखम्पच] भिक्षुक। याचक। फकीर।
⋙ मुख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुँह। आनन। २. घर का द्वार। दरवाजा। ३. नाटक में एक प्रकार की संधि। ४. नाटक का पहला शब्द। ५. किसी पदार्थ का अगला या ऊपरी खुला भाग। ५. शब्द। ६. नाटक। ८. वेद। ९. पक्षी का चोंच। १०. जीरा। ११. आदि। आरंभ। १२. बड़हर। १३. मुरगावी। १४. किसी वस्तु से पहले पड़नेवाली वस्तु। आगे या पहले आनेवाली वस्तु। जैसे, रजनीमुख =संध्या काल।
⋙ मुख (२)
वि० प्रधान। मुख्य। मुहा०—मुख देखकर जीना=(किसी के) सहारे वा भरोसे जीना। (किसी के) आसरे जीना। उ०— सब दिनों मुख देख जीवट का जिए। लात अब कायरपने की क्यों सहें।—चुभते०, पृ० १३। मुख पर ताला रहना=मुँह बंद रहना। कुछ न बोलना। उ०— चित फोटो देखे चिरत, सुनियो अपजस मोर। रसिया मुख तालो रहै जाइ वाक्तो जोर।—बाँकी०, ग्रं०, भा० २, पृ० ११। मुख सूखना= मुरझा जाना। निराश हो जाना। उ०— वे भला आप सूख जाते क्या। मुख न सूखा जवाब सुखा सुत।—चुभते०, पृ० १३।
⋙ मुखकमल
संज्ञा पुं० [सं०] कमल के समान मुख [को०]।
⋙ मुखकांति
संज्ञा स्त्री० [सं० मुखकान्ति] मुख का सौदर्य। मुख की शोभा [को०]।
⋙ मुखक्षुर
संज्ञा पुं० [सं०] दाँत।
⋙ मुखखुर
संज्ञा पुं० [सं०] दाँत [को०]।
⋙ मुखगंधक
संज्ञा पुं० [सं० मुखगन्धक] प्याज।
⋙ मुखग्र
संज्ञा पुं० [सं० मुखाग्र] दे० 'मुखाग्र'। उ०—हजार कोटी जु होइ रसना एक एक मुखग्र। इडा अरब्बिन जो बसै रसनानि मंडि समग्र।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० २०।
⋙ मुखग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] मुखचुंबन [को०]।
⋙ मुखचपल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो बहुत अधिक या बढ़ बढ़कर बोलता हो। २. वह जो कटु वचन कहता हो।
⋙ मुखचपलात
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहुत अधिक या बढ़ बढ़कर बोलना। २. कटु भाषण।
⋙ मुखचपला
संज्ञा स्त्री० [सं०] आर्या छंद का एक भेद।
⋙ मुखचपेटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कान के अंदर का एक अवयव २. चाँटा। झापड़ (को०)।
⋙ मुखचालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रारंभिक या परिचयात्मक नृत्य [को०]।
⋙ मुखचित्र
संज्ञा पुं० [सं० मुख+चित्र] किसी पुस्तक के मुखपृष्ठ पर या आरंभ का चित्र।
⋙ मुखचीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जीभ। जिह्वा। २. फौज।/?/
⋙ मुखचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] चेहरे पर लगाने का सुगंधित चूर्ण वा बुकनी। मुँह पर लगाने का पाउडर [को०]।
⋙ मुखज (१)
वि० [सं०] मुँह से उत्पन्न।
⋙ मुखज (२)
संज्ञा पुं० १. ब्राह्मण (जो भगवान् के मुख से उत्पन्न मारे गए हैं)। २. दाँत (को०)।
⋙ मुखजबाँजी पु †
वि० [सं० मुख+फा० जबानी] मुँह जबानी उ०— जिण बिध मुखंजबाँजी भूपत सुते सगली भाँत।— रघु० रू०, पृ० ८१।
⋙ मुखड़ा
संज्ञा पुं० [सं० मुख+हिं० ड़ा (प्रत्य०)] मुख। चेहरा आनन। विशेष— इस शब्द का प्रयोग प्रायः बहुत ही सुंदर मुख के लिये होता है। जैसे, चाँद सा मुखड़ा।
⋙ मुखतार
संज्ञा पुं० [अ० मुखतार] १. जिसे किसी ने अपना प्रति- निधि बनाकर कोई काम करने का अधिकार दिया हो। यौ०—मुखतार आम। मुखतार खास। २. एक प्रकार के कानूनी सलाहकार और काम करनेवाले जो वकील से छोटे होते हैं और प्रायः छोटी अदालतों में फौजदारी या माल के मुकदमे लड़ते हैं।
⋙ मुखतारआम
संज्ञा पुं० [अ० मुखतार+आम] वह गुमाश्ता या प्रतिनिध जिसे सब प्रकार के काम करने, विशेषतः मुकदमे आदि लड़ने का अधिकार दिया गया हो।
⋙ मुखतारकार
संज्ञा पुं० [अ० मुखतार+फा़० कार] वह जो किसी काम की देखरेख के लिये नियुक्त किय गया हो।
⋙ मुखतारकारी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुखतार+फ़ा० कार+ई (प्रत्य०)] १. मुखतारकार का काम या पद। २. दे० 'मुखतारी'।
⋙ मुखतारखास
संज्ञा पुं० [अ० मुखतार+खास] वह जो किसी विशिष्ट कार्य या मुकदमे के लिये प्रतिनधि बनाया गया हो।
⋙ मुखतारनामा
संज्ञा पुं० [अ० मुखतार+फ़ा० नामह्] १. वह अधिकारपत्र जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी की ओर से अदालती कार्रवाई करने के लिये मुखतार बनाया जाय। यह दो प्रकार का होता है—मुखतारनामा खास और मुखतारनामा आम। २. वह अधिकारपत्र जिसके अनुसार कोई पेशेवर मुखतार कोई मुकदमा लड़ने के लिये नियुक्त किया जाय।
⋙ मुखतारनामा आम
संज्ञा पुं० [अ० मुखतार+फ़ा० नामह्+अ० आम] वह अधिकार पत्र जिसके द्वारा कोई मुखतार आस नियुक्त किया जाय।
⋙ मुखतारनामा खास
संज्ञा पुं० [अ० मुखतार+फ़ा० नामह्+अ० खास] वह अधिकारपत्र जिसके द्वारा कोई मुखतारखास नियुक्त किया जाय।
⋙ मुखतारी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुखतार+फ़ा० ई (प्रत्य०)] १. मुखतार होकर दूसरे के मुकदमे लड़ने का काम। २. मुख्तार का पेशा। प्रतिनिध्वत्व।
⋙ मुखताल
संज्ञा पुं० [हिं० मुख+ताल] किसी गीत का पहला पद। टेक। ध्रुव।
⋙ मुखदूषण
संज्ञा पुं० [सं०] प्याज।
⋙ मुखदूषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुँह का एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें चेहरे पर छोटी छोटी फुंसियाँ निकल आती हैं। मुँहासा।
⋙ मुखदूषी
संज्ञा पुं० [सं० मुखदूषिन्] लहसुन।
⋙ मुखदोष
संज्ञा पुं० [सं०] जिह्वा का दोष। लोलुपता [को०]।
⋙ मुखधौता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भारंगी। भार्गी। २. ब्राह्मण- यष्टिका।
⋙ मुखनिरीक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] आलसी आदमी। सुस्त व्यक्ति। काहिल [को०]।
⋙ मुखनिवासीनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती।
⋙ मुखन्नस
वि० [अ० मुखन्नस] १. नपुंसक। पुंस्त्वविहीन। २. व्याकरण में नपुंसक लिंग।
⋙ मुखपट
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुँह ढकने का वस्त्र। नकाब। २. घूँघट।
⋙ मुखपाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जो मनुष्यों और घोड़ों को होता है और जिसमें उनके मुँह में छोटे छोटे घाव हो जाते हैं।
⋙ मुखपान
संज्ञा पुं० [हिं० मुख+पान] पान के आकार का पीतल या किसी और धातु का कटा हुआ वह टुकड़ा जे संदूक या आलमारी आदि में ताली लगाने के स्थान में सुदंरता के लिये जड़ा जाता है और जिसके बीच में ताली लगाने के लिये छेद होता है।
⋙ मुखपिड
संज्ञा पुं० [सं० मुखपिण्ड] १. वह पिंड जो मृत व्यक्ति के उद्देश्य से उसकी अंत्येष्टि क्रिया से पहले दिया जाता है। २. ग्राम। कवल। भोजन (को०)।
⋙ मुखपिड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० मुखपिडिका] मुँहासा।
⋙ मुखपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आभूषण [को०]।
⋙ मुखपूरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुँह में पानी भरकर फेंकना। कुल्ला। २. मुँह में कुल्ली के लिये लिया हुआ पानी।
⋙ मुखपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] किसी पुस्तक, पत्रपत्रिका का आदि वह पृष्ठ जो सबसे पहले रहता है। आवरण पृष्ठ।
⋙ मुखप्रक्षालना
संज्ञा पुं० [सं०] मुख का प्रक्षालन करना या धोना। मुँह साफ करना।
⋙ मुखप्रसाद
संज्ञा पुं० [सं०] मुख पर झलकनेवाली प्रसन्नता। प्रसन्न मुद्रा [को०]।
⋙ मुखप्रसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वे द्रव्य जिनसे मुख का प्रसाधन किया जाय। जैसे, पाउडर तथा अन्य शृंगारप्रसाधन। २. मुख को प्रसाधित या अलंकृत करना [को०]।
⋙ मुखप्रसेक
संज्ञा पुं० [सं०] भावप्रकाश के अनुसार मुँह का एक रोग जो श्लेष्मा के विकार से होता है।
⋙ मुखप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो खाने में अच्छा लगे। स्वादिष्ट वस्तु। २. नारंगी। ३. ककड़ी।
⋙ मुखफ्फफ (१)
वि० [अ० मुखफ्फ़्फ़] जो खफीफ या हलका किया गया हो। जो घटाकर कम किया गया हो।
⋙ मुखफ्फफ (२)
संज्ञा पुं० किसी पदार्थ या शब्द आदि का संक्षिप्त रूप। जैसे,— 'मीठा' का मुखफ्फफ 'मिठ' या 'घोड़ा' का मुखफ्फफ 'घुड़' होता है।
⋙ मुखबंद
संज्ञा पुं० [सं० मुख+हिं० बंद] घोड़ों का एक रोग जिसमें उनका मुँह बंद हो जाता है और जल्दी नहीं खुलता इसमें उसके मुँह से लार भी बहती है।
⋙ मुखबंध
संज्ञा पुं० [सं० ममुखबन्ध] किसी ग्रंथ की प्रस्तावना या भूमिका।
⋙ मुखबंधन
संज्ञा पुं० [सं० मुखबन्धन] १. मुखबंध। प्रस्तावना। २. आच्छादन। पिधान (को०)।
⋙ मुखबिर
संज्ञा पुं० [अ० मुखबिर] १. खबर देनेवाला। जासूस। गोइंदा। २. वह अपराधी जो अपराध को स्वीकार कर सबूत का या सरकारी गवाह बन जाय और जिसे माफी दे दी जाय।
⋙ मुखबिरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुखबिर+ई (प्रत्य०)] १. खबर देने का काम। मुखबिर का काम। २. मुखबिर का पद।
⋙ मुखभंग
संज्ञा पुं० [सं० मुखभङ्ग] १. मुख पर का आघात या प्रहार। २. मुख की वक्रता। चेहरा टेढ़ा या तिरछा होना। ३. खिलना। विकास। प्रस्फुटन [को०]।
⋙ मुखभगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो अपने मुख का योनि जैसा व्यवहार करे। मुख के प्रति योनि जैसा व्यवहार चाहनेवाली औरत [को०]।
⋙ मुखभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] तांबूल। पान।
⋙ मुखभेड़ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुठभेड़'।
⋙ मुखभेद
संज्ञा पुं० [सं०] मुँह का विकृत या टेढ़ा होना [को०]।
⋙ मुखमडनक
संज्ञा पुं० [सं० मुखमण्डक] १. तिल का पौधा। २. तिलक का वृक्ष (को०)। ३. मुख का प्रसाधन या भूषण। मुख की शोभा बढ़ानेवाली वस्तु।
⋙ मुखमंडल
संज्ञा पुं० [सं० मुखमण्डल] चेहरा।
⋙ मुखमंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मुखमण्डिका] १. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग। २. इस रोग की अधिष्ठात्री देवी।
⋙ मुखमंडितिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मुखमण्डितिका] बालकों का एक प्रकार का रोग।
⋙ मुखमधु
वि० [सं०] मधु सदृश मीठे अर्थात् सुंदर मुँह का। सलोनी सूरत का। मीठे अधरवाला।
⋙ मुखमसा
संज्ञा पुं० [अ० मुखमसा(=विकलता या कठिनता)] झगड़ा। झमोला। झंझट। बखेड़ा। क्रि० प्र०—में पड़ना।
⋙ मुखमाधुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] भावप्रकाश के अनुसार श्लेष्मा के विकार से होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें मुँह मीठा सा बना रहता है।
⋙ मुखमारुत
संज्ञा पुं० [सं०] साँस। श्वास [को०]।
⋙ मुखमार्जन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मुखप्रक्षालन'।
⋙ मुखमोद
संज्ञा पुं० [सं०] १. सलई का वृक्ष। शल्लकी। २. काला सहिंजन।
⋙ मुखम्मस (१)
वि० [अ० मुखम्मस] जिसमें पाँच कोने या अंग आदि हों।
⋙ मुखम्मस (२)
संज्ञा पुं० उर्दू या फारसी की एक प्रकार की कविता जिसमें एक साथ पाँच चरण या पद होते हैं। उ०— मुखम्मस को पँचकड़ी समझिए।—कविता कौ० (भू०), भा० ४, पृ० २७।
⋙ मुखयंत्रण
संज्ञा पुं० [सं० मुखयन्त्रण] वल्गा। लगाम [को०]।
⋙ मुखर (१)
वि० [सं०] १. जो अप्रिय बोलता हो। कटुभाषी। २. बहुत बोलनेवाला। वकवादी। ३. प्रधान। अग्रगण्य।
⋙ मुखर (२)
संज्ञा पुं० १. कौआ। २. शंख।
⋙ मुखरज्जु
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्ववल्गा। लगाम [को०]।
⋙ मुखरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुखर वा वाचाल होने का भाव। वाचालता [को०]।
⋙ मुखरस
संज्ञा पुं० [सं०] बातचीत वातीलाप [को०]।
⋙ मुखरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० मुख+रा (प्रत्य०)] दे० 'मुखड़ा'। उ०— मुहि चाव सों बारहि बार लख्यो मुख मोरि मनो मुखरा पिय कौ।— शकुंतला, पृ० ४९।
⋙ मुखराग
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुख का वर्ण। चेहरे का रंग। २. चेहरे का आकार प्रकार।
⋙ मुखराना पु ‡
क्रि० अ० [सं० मुखर से नामिक०] मुखर होना। मुख से बोलना। कहना। उ०—एक एक कै बरनहू, वह मालति की बात। सुनउ जीउ सरवन दै, हो पंडित मुखरात।—इंद्रा०, पृ० १०३।
⋙ मुखरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लगाम। मुखरी [को०]।
⋙ मुखरित
वि० [सं०] गुंजरित। ध्वनित। रवयुक्त। शब्दायमान। उ०— अंधकार के अट्टहास सी, मुखरित सतत चिंरतन सत्य।—कामायनी, पृ० १९।
⋙ मुखरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लगाम। मोहरी। मुँहड़ी [को०]।
⋙ मुखरुचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुखकांति। उ०— नैनन तें नीर, धीर छूटयो एक संग छूटयो सुखरुचि मुखरुचि त्यौंही बिन रंग ही।— भूषण ग्रं०, पृ० १०८।
⋙ मुखरोग
संज्ञा पुं० [सं०] ओंठ, समूड़े, दाँत, जीभ, तालु या गले आदि में होनेवाले रोग। विशेष— वैद्यक के अनुसार इस प्रकार के रोग सब मिलाकर ६७ प्रकार के माने गए हैं। इनसे ओंठों में होनेवाले ८ प्रकार के, मसूड़ों में होनेवाले १६ प्रकार के, दाँतो में होनेवाले ८ प्रकार के जीभ में होनेवाले ५ प्रकार के, तालु में होनेवाले ९ प्रकार के, कंठ में होनेवाले १८ प्रकार के और सारे मुख में होनेवाले ३ प्रकार के हैं।
⋙ मुखलांगल
संज्ञा पुं० [सं० मुखलाङ्गक] सूअर।
⋙ मुखलिसी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुखलिसी] छुटकारा। रिहाई। क्रि० प्र०—करना।—देना।—पाना।—मिलना।—होना।
⋙ मुखलूक
संज्ञा पुं० [अ० मुखलूक] जगत्। दुनियाँ। संसार। खुदाई। उ०— पुरुष ने इसे पहले ज्ञानी कहा। व मुखलूक पर हुक्मोरानी कहा।—कवीर मं०, पृ० ३८६।
⋙ मुखलेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का मुखरोग। मुँह का चट चट करना। २. वह लेप जो मुँह पर शोभा या सुगंध या विशिष्टता के लिये लगाया, जाय।
⋙ मुखवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो खाने में अच्छा लगे। स्वादिष्ट। २. अनार का पेड़।
⋙ मुखवस्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुखावरण। कपड़े का एक टुकड़ा जो मुँह पर रखा जाता है। वुरका।
⋙ मुखवाचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मणी या पाढ़ा नाम की लता। अंबष्ठा।
⋙ मुखवाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुँह से बम् बम् शब्द करना। (शिवपूजन में)। २. मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला बाजा। जैसे, शंख, शहनाई आदि।
⋙ मुखवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधतृण। २. तरबूज की लता। ३. एला, लौंग आदि मुँह की वायु को सुंगधित करनेवाली चीजें। मुखवासन। ४. श्वास। उ०— जिसकी सुंदर छवि ऊपा है, ... मलयानिल मुखवास, जनधिमन, ... उस स्वरूप को तू भी अपनी मृदुबाहों में लिपटा ले रमा अंग में प्रेम पराग।—वीणा, पृ०, १२।
⋙ मुखवासन
संज्ञा पुं० [सं०] अनेक प्रकार की सुगंधित ओषधियों आदि को मिलाकर बनाया हुआ वह चूर्ण जिससे मुँह की दुर्गंध दूर होती है और उसमें सुवास आती है।
⋙ मुखवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती।
⋙ मुखविपुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] आर्या छंद का एक भेद।
⋙ मुखविलुंठिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मुखविलुण्ठिका] बकरी [को०]।
⋙ मुखविष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेलचट या सनकिरवा नाम का कोड़ा।
⋙ मुखवैदल
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का कीड़ा जिसके काटने से वायुजन्य पीड़ा होती है।
⋙ मुखवैरस्य
संज्ञा पुं० [सं०] मुहँ की विरसता। मुख की कड़वाहट। मुँह में कड़वापन या कटु स्वाद होना [को०]।
⋙ मुखव्यंग
संज्ञा पुं० [सं० मुखव्यंग्य] मुँह पर पड़नेवाले छोटे छोटे दाग। विशेष— वैद्यक के अनुसार अधिक क्रोध या परिश्रम करने के कारण वायु और पित्त के मिल जाने से ये दाग होते हैं। इनसे कोई कष्ट तो नहीं होता, पर मुख की शोभा बिगड़ जाती है।
⋙ मुखव्यादान
संज्ञा पुं० [सं०] मुँह का बाना। जँभाई। जृंभा [को०]।
⋙ मुखशफ
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो कटु वचन कहता हो। मुखर।
⋙ मुखशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अलिंद। डयोढ़ी। देहली। द्वार- प्रकोष्ठ [को०]।
⋙ मुखशुद्धि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंजन या दातून आदि की सहायता से मुँह साफ करना। २. भोजन के उपरांत पान, सुपारी आदि खाकर मुहँ शुद्ध करना। ३. वस्तु जिससे मुखशुद्धि की जाय। मुखशुद्धि के उपयोग में आनेवाला द्रव्य (को०)।
⋙ मुखशृंग
संज्ञा पुं० [सं० मुखश्रृङ्ग] गैंडा। खड्ग। गंडक [को०]।
⋙ मुखशेष
संज्ञा पुं० [सं०] राहु का एक नाम [को०]।
⋙ मुखशोथ
संज्ञा पुं० [सं०] मुँह की सूजन।
⋙ मुखशोधन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पदार्थ जिसके खाने से मुँह शुद्ध होता है। २. दालचीनी। ३. तज।
⋙ मुखशोधन (२)
वि० चरपरा।
⋙ मुखशोधी
संज्ञा पुं० [सं० मुखशोधिन्] १. मुँह को शुद्ध करनेवाला पदार्थ। जँबीरी नीबू।
⋙ मुखशोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. तृष्णा। प्यास। २. प्यास व गरमी से मुँह सूखना।
⋙ मुखश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुख की शोभा। मुखछवि। मुख की कांति [को०]।
⋙ मुखसंदंस
संज्ञा पुं० [सं० मुखसन्दंस] संड़सी। जँबूरी [को०]।
⋙ मुखसंभव
संज्ञा पुं० [सं० मुखसम्भव] १. भगवान् के मुख से उत्पन्नः ब्राह्मण। २. पुष्करमूल। पुहकरमूल।
⋙ मुखसिंचन मंत्र
संज्ञा पुं० [सं० मुखसिञ्चन मन्त्र] एक प्रकार का मंत्र जिससे जल फूंककर उस आदमी के मुहँ पर छीटे दिए जाते हैं जिसके पेट में किसी प्रकार का विष उतर जाता है।
⋙ मुखसुख
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द के उच्चारण का सौंदर्य। उच्चारण- सौंदर्य। उच्चारण की सरलता [को०]।
⋙ मुखसुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताडी। २. अधरामृत (को०)।
⋙ मुखसूची
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमड़े का वृक्ष। आम्रातक।
⋙ मुखस्थ
वि० [सं०] मुख में स्थित। जो जवानी याद हो। कंठस्थ। बरजवान। उ०— मुखस्थ याद करते तथा पढ़ते पढ़ाते चले आए।—कबीर मं०, पृ० २२।
⋙ मुखस्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. थूक। लार। २. बालकों का एक रोग जिसमें उनके मुँह से बहुत अधिक लार बहती है। कहते हैं, कफ से दूषित स्तन पीने से यह रोग होता है।
⋙ मुखहास
संज्ञा पुं० [सं०] मुखशोभो। मुखविकास। प्रसन्न मुखाकृति।
⋙ मुखाकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुख का आकार। चेहरा [को०]।
⋙ मुखागर पु
वि० [सं० मुखाग्र] दे० 'मुखाग्र'। उ०—कहेह मुखागर मूढ़ सन मम संदेस उदार।— मानस, ५। ५२।
⋙ मुखाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जंगल की आग। दावानल। २. संस्कृत एवं प्रतिष्ठापित अग्नि। यज्ञाग्नि। हदनाग्नि (को०)। ३. ब्राह्मण (को०)। ४. एक प्रकार के वैताल जो मुँह से अग्नि फेकते हैं (को०)। ५. मृत व्यक्ति को चिता पर रखकर पहले उसके मुँह में आग लगाने की क्रिया।
⋙ मुखाग्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ओंठ। २. किसी पदार्थ का अगला भाग।
⋙ मुखाग्र (२)
वि० जो जवानी याद हो। कंठस्थ। बरजबान। जैसे,— उसे सारी गीता मुखाग्र है।
⋙ मुखातब
वि० [अ० मुखातब] मुखातिव।
⋙ मुखातिब
वि० [फ़ा० मुखातिब] १. जिससे बात की जाय। जिससे कुछ कहा जाय। संबोधित। २. बात करनेवाला। संबोधन करनेवाला। मुहा०— (किसी की तरफ) मुखातिब होना=(१) किसी की ओर घूमकर उससे बातें करना। (२) किसी की बात सुनने के लिये उसकी ओर प्रवृत्त होना।
⋙ मुखानिल
संज्ञा पुं० [सं०] साँस। श्वास [को०]।
⋙ मुखापेक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरों का मुँह ताकनेवाला। दूसरों के सहारे रहनेवाला। दूसरों की कृपा पर रहनेवाला।
⋙ मुखापेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूसरों का मुँह ताकना। दूसरों के आश्रित रहना।
⋙ मुखापेक्षी
संज्ञा पुं० [सं० मुखापेक्षिन] वह जो दूसरों का मुँह ताकता हो। दूसरों के सहारे रहनेवाला। दूसरों की कृपादृष्टि के भरोसे रहनेवाला। आश्रित।
⋙ मुखामय
संज्ञा पुं० [सं०] मुँह में होनेवाला रोग। मुखरोग।
⋙ मुखामुख पु
क्रि० वि० [हिं० मुख] आमने सामने। उ०— चव मेछ मुखामुख जोस चढ़ै।—रा० रू०, पृ० ८०।
⋙ भूखारी †
संज्ञा स्त्री० [सं० मुखाकृति या हिं० मुख+आरी (प्रत्य०)] १. किसी से मिलती जुलती आकृति। २. सादृश्य। अनुरूपता। ३. मुख का कार्य। मुखशोधन। दतून कुल्ला करने का कार्य़। ४. प्रातः कुछ खाना। खराई मारना।
⋙ मुखार्जक
संज्ञा पुं० [सं०] बनतुलसी का पौधा। बबरी तुलसी।
⋙ मुखालिफ
वि० [अ० मुखालिफ़] १. जो खिलाफ हो। विरुद्ध पक्ष का। विरोधी। २. शत्रु। दुश्मन। ३. प्रतिद्वंद्वी।
⋙ मुखालिफत
वि० [अ० मुखालिफ़त] १. विरोध। २. शत्रुता। दुश्मनी।
⋙ मुखालु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बड़ा मीठा कंद जिसे स्थूलकंद, महाकंद या दीर्घकंद भी कहते हैं। विशेष— वैद्यक में यह मधुर, शीतल, रुचिकारी, वातवर्धक तथा पित्त, शोष, दाह और प्यास को दूर करनेवाला माना गया है।
⋙ मुखासव
संज्ञा पुं० [सं०] १. थूक। २. लार।
⋙ मुखास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] केकड़ा।
⋙ मुखास्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] मुँह का चुंबन।
⋙ मुखास्रव
संज्ञा पुं० [सं०] मुँह से बहनेवाली थूक या लार।
⋙ मुखिक
संज्ञा पुं० [सं०] मोखा नामक वृक्ष।
⋙ मुखिया
संज्ञा पुं० [सं० मुख्य+हिं० इया (प्रत्य०)] १. नेता। प्रधान। सरदार। जैसे,— वे अपने गाँव के मुखिया हैं। २. वह जो किसी काम में सब से आगे हो। किसी काम को सब से पहले करनेवाला। अगुआ। ३. वल्लभ संप्रदाय के मंदिरों का वह कर्मचारी जो मूर्ति का पूजन करता और भोग आदि लगाता है। ऐसा कर्मचारी प्रायः पाकविद्या में निपुण हुआ करता है।
⋙ मुखिल
वि० [अ० मुखिल] बाधक। हस्तक्षेप करनेवाला। खलल डालनेवाला [को०]।
⋙ मुखीय
संज्ञा [सं०] १. मुख संबंधी। २. मुख्य।
⋙ मुखुंडी
संज्ञा पुं० [सं० मुखुण्डी] एक प्रकार का शस्त्र [को०]।
⋙ मुखुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्धों की एक देवी का नाम।
⋙ मुखेंदु
संज्ञा पुं० [सं० मुखेन्दु] चंद्रमा की तरह सुंदर मुँह। चाँद सा मुखड़ा। सुंदर मुँह [को०]।
⋙ मुखोल्का
वि० [सं०] दावाग्नि।
⋙ मुख्तलिफ
वि० [अ० मुख्तलिफ़] १. भिन्न। अलग। पृथक। २. अनेक प्रकार का। तरह तरह का।
⋙ मुख्तसर
वि० [अ० मुख्तासर] १. जो थोड़े में हो। संक्षिप्त। २. छोटा। ३. अल्प। थोड़ा।
⋙ मुख्तार
संज्ञा पुं० [अ० मुख्तार] दे० 'मुखतार'। विशेष— इसके यौगिक शब्दों के लिये दे० 'मुखतार' यौगिक।
⋙ मुख्य (१)
वि० [सं०] १. मुखसंबंधी। २. सब में बड़ा। ऊपर या आगे रहनेवाला। ३. प्रधान। श्रेष्ठ।
⋙ मुख्य (२)
संज्ञा पुं० १. यज्ञ का पहला कल्प। २. वेद का अध्ययन और अध्यापन। ३. अमांत मास। ४. वह जो मुख्य या प्रधान हो। नेता। अगुआ (को०)।
⋙ मुख्यकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] पहला काम। प्रधान कार्य।
⋙ मुख्यचांद्र
संज्ञा पुं० [सं० मुख्यचान्द्र] चांद्र मास के दो विभागों में से एक। शुक्ल प्रतिपदा से लेकर अमावास्या तक का काल जो 'अमांत चांद्र मास' भी कहलाता है। विशेष-दे० 'मास'।
⋙ मुख्यतः
क्रि० वि० [सं० मुख्यतस्] मुख्य रूप से। खास तौर से। प्रधानतः। उ०— बाकी सव छोटी छोटी बातें और कथानक मुख्यतः कवियों की करामात हैं।— हिंदु० सभ्यता, पृ० १५५।
⋙ मुख्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुख्य होने का भाव। प्रधानता। श्रेष्ठता।
⋙ मुख्यनृप
संज्ञा पुं० [सं०] मुख्यनृपति। सर्वसत्तासंपन्न राजा [को०]।
⋙ मुख्यमंत्री
संज्ञा पुं० [सं० मुख्य मन्दिन्] १. प्रधान मंत्री। २. किसी प्रदेश या प्रांत की विधानसभा में वह मंत्री जो मंत्रि- मंडल का प्रधान होता है। विशेष— स्वतंत्र भारत के आधुनिक संविधान द्वारा समग्र राष्ट्र में प्रधान मंत्री एक रखा गया है। विभिन्न प्रदेशों के मंत्रिमंडल के प्रधान को मुख्य मंत्री कहा जाता है। ये दोनों शब्द क्रमशः अंग्रेजी के प्राइम मिनिस्टर और चीफ मिनिस्टर के अनुवाद है। संस्कृत में मुख्य मंत्री का अर्थ मंत्रियों में प्रधान अर्थात् प्रधान मंत्री ही है। पृथ्वीराज रासी में यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
⋙ मुख्यसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] स्थावर सृष्टि।
⋙ मुख्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द का प्रधान अर्थ। अभिधाजन्य अर्थ [को०]।
⋙ मुगट पु
संज्ञा पुं० [सं० मुकुट] दे० 'मुकुट'। उ०— मोरपंष जट मुकट सिंगि संग्राम सुधारै। मोह देह सब रहित मरन दिन अंत विचारै।—पृ० रा०, ६१। १८२६।
⋙ मुगत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्ता] मोती। मुक्ता। उ०— वैजंती बल मुगत विसाला, प्रगट हियै मिला भरपूर।—रघु० रू०, पृ० २५३।
⋙ मुगति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्ति] दे० 'मुक्ति'। उ०— सुक्रम सुमन फुल्लयो मुगति पक्वी द्रव संगति।—पृ० रा०, १। ४।
⋙ मुगदर
संज्ञा पुं० [सं० मुग्दर] लकड़ी की एक प्रकार की गावदुमी, लंबी और भारी मुगरी जिसका प्रायः जोड़ा होता है और जिसका उपयोग व्यायाम के लिये किया जाता है। जोड़ी। विशेष— इसमें ऊपर की ओर पकड़ने के लिये पतली मुठिया होती है और नीचे का भाग बहुत मोटा होता है। दोनों हाथों में एक एक मुगदर लिया जाता है और बारी बारी से हर एक मुगदर पीठ के पीछे से घुमाकर सामने लाते और उलटे वह में ऊपर की ओर खड़ा करते हैं। इससे बाहुओं में बहुत बल आता है। क्रि० प्र०—फेरना। हिलाना।
⋙ मुगध पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मुग्धा] दे० 'मुग्धा'। उ०— राति दिवस एक सी काम कामना सु बढ्ढिय। प्रौढ़ मुगध वयवृद्ध सवै थरहरि त्रिय गड्डिय।—पृ० रा०, १। ४११।
⋙ मुगधारी पु †
वि० [सं० मुग्ध हिं० गी (स्वा० प्रत्य०)] मूढ़। मूर्ख। अज्ञानी। उ०— मूरख ते पंडित करिवो पंडित ते मुगधारी।—कबीर ग्रं०, पृ० ३२०।
⋙ मुगना
संज्ञा पुं० [हिं० मुगना] सहिजन। मुनगा।
⋙ मुगन्नी
संज्ञा पुं० [अ० मुगन्नी] [स्त्री० मुगन्निया] गवैया। कलावंत। गायक [को०]।
⋙ मुगरा
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'मोगरा'। २. [स्त्री० मुगरी] दे० 'मोंगरा' या 'मुँगरा'।
⋙ मुगरेला †
संज्ञा पुं० [हिं० मुँगरैला] कलौंजी या मँगरैला नामक दाना, जिसका व्यवहार मसाने में होता है।
⋙ मुगल
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुग़ल ] [स्त्री० मुग़लानी] १. मंगोल देश का निवासी। २. तुर्कों का एक श्रेष्ठ वर्ग जो तातार देश का निवासी था। विशेष— इस वर्ग के लोगों ने इधर कुछ दिनों तक भारत में आकर अपना साम्राज्य स्थापित करके चलाया था। इस वर्ग का पहला सम्राट् बाबर था जिसने सन् १५२६ ई० में भारत पर विजय प्राप्त की थी। अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब इसी जाति के और बाबर के वंशज थे। इन लोगों के शासन- काल में साम्राज्य बहुत विस्तृत हो गया था परंतु औरंगजेब की मृत्यु (सन् १७०७ ई०)के उपरांत इस साम्राज्य का पतन होने लगा और सन् १८५७ में उसका अंत हो गया। ३. मुसलमानों के चार वर्गों में से एक वर्ग जो शेखों और सैयदों से छोटा तथा पठानों से बड़ा और श्रेष्ठ समझा जाता है।
⋙ मुगलई
वि० [फ़ा० मुगल+ई (प्रत्य०)] मुगलों का सा। मुगलों की तरह का। जैसे, मुगलई पाजामा, मुगलई टोपी, मुगलई कुरता, मुगलई हड्डी।
⋙ मुगलपठान
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुग़ल+पठान] एक प्रकार का खेल जो जमीन पर खाने खींचकर सोलह कंकड़ियों से खेला जाता है। गोटी।
⋙ मुगलाई (१)
वि० [फ़ा० मुगलाई] दे० 'मुगलई'।
⋙ मुगलाई (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मुगल+आई (प्रत्य०)] मुगल होने का भाव। मुगलपन।
⋙ मुगलानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मुग़ल+आनी (प्रत्य०)] १. मुगल जाति की स्त्री। २. कपड़ा सीनेवाली स्त्री। ३. दासी। मजदूरनी (मुसल०)।
⋙ मुगलिया
वि० [फ़ा० मुग़ल हिं०+हिं० इया (प्रत्य०)] मुगलों का। जैसे, मुगलिया खानदान, मुगलिया सल्तनत। उ०— मराठे शिवाजी के नेतृत्व में संगठित हो मुगलिया राज्य को खुले- आम चुनोती सो देने लगे।—हिं० का० प्र०, पृ० ७।
⋙ मुगली
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मगल+ई (प्रत्य०)] बच्चों को होनेवाला पसली का रोग जिसमें उनके हाथ पैर ऐंठ जाते हैं और वे बेहोश हो जाते हैं।
⋙ मुगवन
संज्ञा पुं० [सं० वनमुद् ग] वनमूँग। मोठ।
⋙ मुगबा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिस्रवा। मयूरवल्ली।
⋙ मुगालता
संज्ञा पुं० [अ० मुगालतह्] धोखा। छल। झाँसा। भ्रम। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—में डालना।
⋙ मुगुध, मुगुधा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुग्धा] दे० 'मुग्धा'।
⋙ मुगूह
संज्ञा पुं० [सं०] १. पपीहा। २. एक प्रकार का हिरन।
⋙ मुग्गल पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुग़ल] दे० 'मुगल'।
⋙ मुग्घम (१)
वि० [देश०] (बात) जो बहुत खोलकर या स्पष्ट करके न कहो जाय। संकेत रूप में कही हुई (बात)। मुहा०—मुग्धम रहना =(१) चुप रहना। कुछ न बोलना (व्यक्ति के संबंध में)। (२) किसी का रहस्य प्रकट न होना। भेद न खुलना। परदा ढका रह जाना।
⋙ मुग्धम (२)
संज्ञा पुं० दाँव में वह अवस्था जिसमें न हार हो और न जीत। (जुआरी)। क्रि० प्र०—रहना।
⋙ मुग्ध (१)
वि० [सं०] १. मोह या भ्रम में पड़ा हुआ। मूढ़। २. सुंदर। खूबसूरत। ३. नया जीबन। ४. आसक्त। मोहित। लुभाया हुआ। उ०— वाल्मीकि रामायण में यद्यपि बीच बीच में ऐसे विशद वर्णन बहुत कुछ मिलते हैं जिनमें कवि की मुग्ध दृष्टि प्रधानतः मनुष्येतर बाह्य प्रकृति के रूपजाल में फँसी पाई जाती है पर उसका प्रधान विषय लोकचरित्र ही है।— रस०, पृ० ९।
⋙ मुग्धकर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मुग्धका] मोहित करनेवाला।
⋙ मुग्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुग्ध का भाव। मूढ़ता। २. सुंदरता। खूबसूरती। ३. मोहित या आसक्त होने का भाव।
⋙ मुग्धत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मुग्धता' [को०]।
⋙ मुग्धबुद्धि
वि० [सं०] जिसकी बुद्धि भ्रांत हो। बेवकूफ।
⋙ मुग्धबोध
संज्ञा पुं० [सं०] वोपदेव कृत संस्कृत का व्याकरण [को०]।
⋙ मुग्धभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूर्खता। बुद्धिहीनता। २. भोलापन।
⋙ मुग्धा
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में वह नायिका जो यौवन को तो प्राप्त हो चुकी हो, पर जिसमें कामचेष्टा न हो। विशेष—इसके दो भेद होते हैं—प्रज्ञातयौवना और ज्ञातयौवना। इसको क्रियाएँ और चेष्टाएँ बहुत ही मनोहारिणी होती हैं। इसका कोप बहुत ही मृदु होता है और इसे साज सिंगार का बहुत चाव रहता है।
⋙ मुचंगड़
वि० [हिं० मुच्चा + अंगड़ (प्रत्य०)] मोटा और भद्द। जैसे, मुचंगड़ रोट।
⋙ मुचक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लाख। लोह।
⋙ मुचक † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मोच'।
⋙ मुचकध पु
संज्ञा पुं० [सं० मुचकुन्द] मांवाता का एक पुत्र। उ०—बैर दोष श्रीराम वर दोषई दुर्बोध। बेर दोष नधुराइ बैर दोषह मुचकंधं।—पृ० रा०, ७।१७।
⋙ मुचकुंद
संज्ञा पुं० [सं० मृचकुन्द, मुचुकुन्द] १. एक बड़ा पेड़ जिसके फूल और छाल दवा के काम आते हैं। हरिवल्लभ। दीर्घपुष्प। विशेष—इसके पत्तो फालसे के पत्तों के आकार के और बड़े बड़े होते हैं। पत्तों में महीन महीन रोई होती हैं जिससे वे छूने में खुरदरे लगते हैं। फूल में पाँच छह अंगुल लंबे और एक अंगुल के लगभग चौड़े सफेद दल होते हैं। दलों मध्य से सूत के समान कई केसर निकले होते हैं। दलों के नीचे का कोश भई बहुत लंबा होता है। फूल को सुगंध बहुत ही मीठी और मनोहर होती है। ये फूल सिर के दर्द में बहुत लाभकारी होती हैं। इसके फल कटहल के प्रारंभिक फलों के समान लंबे लंबे और पत्थर की तरह कड़े होते हैं। इसके फूल और छाल औषध के काम में आती है। वैद्यक में यह चरपरा, गरम, कड़ुवा, स्वर को मधुर करनेवाला तथा कफ, खाँसी, त्वचा के विकार, सूजन, सिर का दर्द, त्रदोष, रत्कपित्त और रुधिर- विकार को दूर करनेवाला माना गया है। पर्या०—छत्रवृक्ष। चित्र। प्रतिविष्णुक। दीर्घपुप्प। बहुपत्र। सुदल। सुपुप्प। हरिवल्लभ। रत्कप्रसव। २. मांवाता नरेश का एक पुत्र। दे० 'मुचुकुंद'। यौ०—मुचकुंद प्रसादक = श्रीकृष्ण।
⋙ मुचलका
संज्ञा पुं० [सं० तु०] वह प्रतिज्ञापत्र जिसके द्वारा भविष्य में कोई काम, विशेषतः अनुचित काम, न करने अथवा किसी नियत समय पर अदालत में उपस्थित होने की प्रतिज्ञा की जाती है; और कहा जाता है कि यदि मुझसे अमुक अनुचित काम हो जायगा, अथवा मैं अमवुक समय पर अमुक अदालत में उपरिस्थत न होऊँगा, तो मैं इतना अर्थिक देड़ दूँगा। क्रि० प्र०—लिखना।—लिखाना।—लेना।
⋙ मुचाना पु
क्रि० स० [सं० मुच्] छोड़ाना। मुक्त कराना। चलाना।गतिशील करना। उ०—जु दिपै वर भाइ दुलोचन कोर। मुचावत काम कमान के जोर।—पृ० रा०, २१।७५।
⋙ मुचिर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दाता। दानशील। उदार।
⋙ मुचिर (२)
संज्ञा पुं० १. धर्म। २. वायु। ३. देवता।
⋙ मुचिलिंग
संज्ञा पुं० [सं० मुचिलिङ्ग] १. मुचकुंद वृत्त। २. तिलक का पौधा। तिलपुप्पी। ३. एक नाग का नाम। ४. एक पर्वत का नाम।
⋙ मुचिलिंद
संज्ञा पुं० [सं० मुचिलिन्द] १. मुचकुंद। २. तिलक। तिलपुष्प।
⋙ मुचुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मैनफल।
⋙ मुचुक † (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'मोच'।
⋙ मुचुकुंद
संज्ञा पुं० [सं० मुचुकुन्द] १. मुचकुंद वृक्ष। २. भागवत के अनुसार मावाता के एक पुत्र का नाम।
⋙ मुचुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उँगली मटकाना। २. मुठ्ठी। ३. सँड़सी।
⋙ मुच्चा
संज्ञा पुं० [सं०] १. मांस का बड़ा टुकड़ा। गोश्त का लोथड़ा।
⋙ मुच्छ
संज्ञा पुं० [हिं० मूँछ] दे० 'भूँछ'। उ०—(क) मुह मुहह मुच्छ कर कन्ह तुअ चमर छत्र पहु पंग लिय।—पृ० रा०, ६१।२२७४। (ख) धरयौ परतापसि मुच्छन पाँन।—पृ० रा०, ५।३९। (ग) धरै मुच्छ पर हाथ बहुरि निरखै समसेरै।— हम्मीर०, पृ० २२।
⋙ मुच्छा पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मूँछ] दे० 'मूँछ'। उ०—मुच्छा उमैठत उमड़ि ऐंठत कठिनकर कुहँचान के।—हिभ्मत० पृ ११३।
⋙ मुच्छा पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मूर्च्छा] दे० 'मूर्च्छा'। उ०—सो परयौ धर्नि मुच्छा सु खाय।—पृ० रा०, १।२७२।
⋙ मुछंदर
संज्ञा पुं० [हिं० मुछ + दर (सं० धर)] १. जिसके मूँछे बड़ी बड़ी हों। उ०—व मोटे तन व थुदला धुर्दला मू व कुच्ची आँख। व मोटे ओठ मुछंदर की आदम की आदम है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७८९। २. कुरूप और मूर्ख। भद्दा और वेवकूफ। उ०—दौड़ बंदर बने मुछंदर कूदै चढै अगासी।—भारतेंदुं० ग्रं०, भा० १, पृ० ३३३। ३. चूहा। (क्व०)।
⋙ मुछ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रश्रु, हिं० मूँछ] दे० 'मूँछ'। उ०—तिनै मुछ राजत है मुह पान।—पृ० रा०, ५।३४।
⋙ मुछाड़िया †
वि० [हिं० मुछ + आड़िया (प्रत्य०)] दे० 'मूँछियल'।
⋙ मुछियल
वि० [हिं० मूँछ + इयल (प्रत्य०)] जिसकी मूँछें बड़ी बड़ी हों।
⋙ मुछैल †
वि० [हिं० मूँछ + ऐल (प्रत्य०)] दे० 'मुछियल'।
⋙ मुज पु (१)
सर्व० [सं० मह्मम् पुं० हिं० मुम्झ, मुज] मैं शब्द का कर्ता और संबंध कारक के अलावा विभाक्ति लगने के पूर्व का रूप। दे० 'मुझ'। उ०—मैं इश्क को गली में घायल पड़ा था तिसपर। जोबन का माता आकार मुज को खंगल गया है।— कविता कौ० (भू०), भा० ४. पृ० १५।
⋙ मुज पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुञ्ज (= एक घास), हिं० मूँज] दे० 'मूँज'। उ०—मुज को आड़बंद बजर कोपीन।—रामानंद०, पृ० ४९।
⋙ मुजक्कर
वि० [अ० मुजक्कर] १. नर। पुरुष। २. (व्याकरण में)। पुंलिंग।
⋙ मुजक्का
वि० [अ० मुज़क्का] पावित्र। शुद्ध [को०]।
⋙ मुजम्मा
संज्ञा पुं० [अ० मजम्मह्] चमड़े या रस्ती का वह फेरा जो घोड़े को आगे बढने से रोनो के लिये उसको गामची या दुमचो में पिछाड़ी की रस्सी के साथ लगा रहता है। क्रि० प्र०—बाँधना।—लगाना। मुहा०—मुजम्मा लगाना = ऐसा काम करना जिससे कोइ बात या काम रुक जाय। रोक या आड़ लगाना। मुजम्मा लेना = आड़े हाथों लेमा। खबर लेना। ठोक करना।
⋙ मुजरा
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह जो जारी किया गया हो। २. वह रकम जो किसी रकम में से काट ली गइ हो। जैसे, - १०) हमारे निकलते थे, वह हमने उसमें से मुजरा कर लिए। क्रि० प्र०—करना।—देना।—पाना।—लेना। ३. किसी बड़े या धनवान आदि के सामने जाकर उसे सलाम करना। अभीवादन। ४. वेश्या का वह गाना जो बैठकर हो और जिसमें उसका नाच न हो। क्रि० प्र०—करना।—सुनना।—सुनाना।—होना।
⋙ मुजराई
संज्ञा पुं० [हिं० मुजरा + ई (प्रत्य०)] १. वह जो मुजरा या सलाम करता हो। २. वह व्यक्ति जो केवल सलाम करने के लिये वेतन पाता हो। ३. वह जो मरसिया पढ़ता हो। ४. काटने या घटाने की क्रिया। ५. काटो या मुजरा की हुई रकम।
⋙ मुजराकंद
संज्ञा पुं० [सं० मुञ्जर] एक प्रकार का कंद मुंजात। विशेष—यह कंद उत्तर में होता है और इसे 'मुंजात' भी कहते हैं। वेद्यक में यह अत्वंत स्वदिष्ट, वीर्यवर्धक तथा वात पित्त नाशक माना गया है।
⋙ मुजरागाह
संज्ञा पुं० [अ० मुजरा गाह] दरबार में वह स्थान जहाँ खड़े होकर लोग सलाम या मुजरा करें।
⋙ मुजरिम
संज्ञा पुं० [अ०] वह जिसपर कोइ जुर्म या अपराध लगाया गया हो। आभियुक्त।
⋙ मुजर्रत
संज्ञा स्त्री० [अं० मुजर्रत] १. नुकसान। हानि। २. कष्ट। तकलीफ [को०]।
⋙ मुजर्रद
वि० [अ० मुजर्रद] १. जिसके साथ और कोई न हो। अकेला। २. जिसका विवाह न हुआ हो। बिन ब्याहा। ३. जिसने संसार का त्याग कर दिया हो।
⋙ मुजर्रव
वि० [अ० मुजर्रव] तजरुबा किया हुआ। आजमाया हुआ। परीक्षित। जैसे, मुजर्रव दवा, मुजर्रब नुसखा।
⋙ मुजल्लद
वि० [अ० मुजल्लद] जिसकी जिल्द बँधी हो। जिल्ददार।
⋙ मुजस्सम
वि० [अ० मुजस्सम] दे० 'मुजस्सिम'।
⋙ मुजस्समा
संज्ञा पुं० [अ० मुज़स्समह्] प्रातिमा। मूर्ति। रूपाकृति [को०]।
⋙ मुजस्सिम
वि० [अ० मुज़स्सिम] सशरीर। प्रत्यक्ष। जैसे,—लीजिए आपके सामने मुजस्सिम खड़े हैं।
⋙ मुजादला
संज्ञा पुं० [अ० मुजादलह्] १. लड़ाई। युद्ध। २. मुबाहसा। वाद विवाद [को०]।
⋙ मुजाविर
संज्ञा पुं० [अ० मुजाबिर] १. पड़ोसी। प्रतिवेशी। २. दे० 'मुजावर'।
⋙ मुजारिया
वि० [अ०] जो जारी या कराया गया हो। (कच०)।
⋙ मुजावर
संज्ञा पुं० [अं० मुजावर] १. वह मुसलमान जो किसी पीर आदि की दरगाह या रौजे पर रहकर वहाँ की सेंवा का कार्य करता हो और चढा़वा आदि लेता हो। उ०—मुजावर हो याँ वैस चालीस दिन। किसी बात दिल कूँ ना करले संगन।—दक्खिनी०, पृ० ८९।
⋙ मुजाहिद
वि० [अ० मुजाहिद] १. कोशिश करनेवाला। प्रयत्नशील। २. विधर्मियों से युद्ध करनेवाला। जिहाद करनेवाला।
⋙ मुजाहिम
वि० [अ० मुजा़हिम] रोक टोक करनेवाला। हस्तक्षेप करनेवाला। उ०—पर आश्चर्य यह कि कोई इन धर्म के लुटेरों से मुजाहिम न हुआ।—गोदान, पृ० २२९।
⋙ मुजिर
वि० [अ० मुजि़र] नुकसान पहुँचानेवाला। हानिकारक।
⋙ मुजे
सर्व० [प्रा० मुज्झ, हिं० मुझे] दे० 'मुझे'। उ०—बम्मन कहे नामदेव मुझे पूजना भूदेव, इती बात मुजे देव बहा देव गंगा मो।—दक्खिनी०, पृ० ४५।
⋙ मुझ
सर्व० [प्रा० मुज्झ] मैं का वह रूप जो उसे कर्ता और संबंध कारक को छोड़कर शेष कारकों में, विभक्ति लगने से पहले प्राप्त होता है। जैसे, मुझको, मुझसे, मुझमें।
⋙ मुझे
सर्ब [सं० मुह्यम्, प्रा० मज्झम] एक पुरुषवाचक सर्वनाम जो उत्तम पुरुष, एकवचन और उभयलिग है तथा वक्ता या उसके नाम की ओर संकेत करता है। यह 'मैं' का वह रूप है जो उसे कर्म और संप्रदान कारक में प्राप्त होता है। इसमें लगी हुई एकार की मात्रा विभक्ति का चिह्न है, इसलिये इसके आगे कारक चिह्न नहीं लगता। मुझको। जैसे,—(क) (क) मुझे वहाँ गए कई दिन हो गए। (ख) मुझे आज कई पत्र लिखने हैं।
⋙ मुझौंसी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह + झौंसना + ई (प्रत्य०)] दे० 'मुहझौसी'। उ०—उसकी माँ सूने में समझाती—अरी मुझौसी, लड़कपन छोड़।—शराबी, पृ० १२।
⋙ मुटकना †
वि० [हिं० मोटा + कना (प्रत्य०)] आकार में छोटा या साधारण, पर सुंदर। जैसे, मुटकना या वाग।
⋙ मुटका
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का रेशमी वस्त्र जो अधिकतर बंगाल में बनता है और धोती के स्थान में पहनने के काम में आता है।
⋙ मुटकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] कुलथी नामक अन्न। खुरथी।
⋙ मुटमरदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोटा + अ० मर्द + हिं० ई (प्रत्य०)] हरामखोरी। आलसीपन। निष्क्रियता। उ०—यह मुटमरदी है कि अंधा माँगे, और आँखोंवाले मुसंड़े बठैं खाएँ।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ५६६।
⋙ मुटमुरी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का भदई धान।
⋙ मुटरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोट (= गठरी)] दे० 'गठरी'।
⋙ मुटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोटा + ई (प्रत्य०)] १. मोटापन। स्थूलता। २. पुष्टि। ३. अहंकार। घमंड़। शेखी। ४. वह बेपरवाही या आभिमान जो भरपूर भोजन मिलने या कुछ धन हो जाने से हो जाय। मुहा०—मुटाई चढ़ना = बहुत अधिक अभिमान होना। शेखी होना। मुटाई झड़ना = अभिमान चूर्ण होना। शेखी टूटना।
⋙ मुटाना
क्रि० अ० [हिं० मोटा + आना (प्रत्य०)] १. मोटा हो जाना। स्थूलाग हो जाना। उ०—प्रभु मैं सेवक निमक हराम। खाइ खाइ के महा मुटहौं करिहौं कछू न काम।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५४२। २. शेखीबाज हो जाना। अहंकारी हो जाना। अहंमन्य हो जाना। उ०—हमरे आवत रिस करत अस तुम गए मुटाय।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ मुटासा
वि० [हिं० मोटा + आसा (प्रत्य०)] वह खाने पीने से मजे में हो जाने य़ा कुछ धन कमा लेने से बेपरवा और घमंडी हो गया हो।
⋙ मुटिया
संज्ञा पुं० [हिं० मोट (= गठरी) + इया (प्रत्य०)] बोझ ढोनेवाला। मजदूर।
⋙ मुठ्ठ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मुठ्ठी'। उ०—इकै मुठ्ठ जमदाढ़ गहि पान पैनी।—प० रासो, पृ० १७७।
⋙ मुट्ठा
संज्ञा पुं० [हिं० मूठ] १. घास, फूस, तृण या ड़ंठल का उतना पूला जितना हाथ की मुट्ठी में आ सके। २. चंगूल भर वस्तु। जितनी एक मुठ्ठी में आ सके उतनी वस्तु। जैसे, एक मुट्ठा आटा। ३. समेटा या बंधा हुआ समूह जो मुट्टी में आ सके पुलिंदा। जैसे, कागज का मुट्ठा, तार का मुठ्ठा। ४. शास्त्र या यंत्र आदि का वह अंश जो उसके प्रयोग के समय मुट्टो में पकड़ा जाय। बेंट। दस्ता। ५. धुनियों का वेलन के आकार का वह औजार जिससे रूई धुनते समय तांत पर आघात किया जाता है। ६. कपड़े की गद्दा जो प्रायः पहलवान आदि बाहों पर मोटाई दिखनाले या सुंदरता बढाने के लिये बाँधते हैं।
⋙ मुट्ठामुहेर
संज्ञा स्त्री० [देश०] युवती स्त्री। (कहार)।
⋙ मुठ्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं० मुष्टिका, प्रा० मुठ्ठिआ] १. हाथ की वह मुद्रा जो उंगलियों को मोड़कर हथेली पर दबा लेने से वनती है। बँधी हुई हथेली। २. उतनी वस्तु जितनी उपर्युक्त मुद्रा के समय हाथ में आ सके। जैसे, एक मुठ्ठी चावल। ३. कब्जा। पकड़।मुहा०—मुठ्ठी में = कब्जे में। अधिकार में। काबू में। वश में। मुठ्ठी गरम करना = रूपया देना। धन देना। मुठ्ठी वंद या बँधी होना = घर का भेद किसी को मालूम न होना। रहस्य प्रकट न होना। मुठ्ठी भर = थोड़ा। अल्प मात्रा या अल्प संख्या में। उ०—अंग्रेजों के १५० वर्षों के शासनकाल में शिक्षा की दूषित नीति के कारण केवल मुठ्ठी भर ही लोग शिक्षित हुए हैं।—शुक्ल आभि० ग्रं० (जी०), पृ० ३०। मुठ्ठी में रखा होना = बहुत समीप होना। पास होना। जैसे,— कपड़े क्या यहाँ मुठ्ठी में रखे हैं जो तुम्हें दे दिए जाँय। ४. उपर्युक्त मुद्र के समय बंधे हुए पंजे की चैड़ाई का मान। बँधी हथेली के बराबर का विस्तार। जैसे,—इसका किनारा। मुठ्ठी भर ऊँचा होना चाहिए। ५. हाथों से किसी के अंगों को विशेषतः हाथ पैर को पकड़ पकड़कर दवाने क्रिया जिससे शरीर की थकावट दूर होती है। चंपी। क्रि० प्र०—भरना। ६. एक प्रकार की छोटी पतली लकड़ी जिसके दोनों सिरे कुछ मोटे और गोल होते हैं और छोटे बच्चों को खेलने के लिये दी जाती है। इसे बच्चे प्रायः चूसा करते हैं। चुसनी। ७. घोड़े के सूम और टखने के बीच का भाग। ८. बच्चों का एक खिलौना। दे० 'मुठुकी'।
⋙ मुठभेड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूठ + भिड़ना] १. टक्कर। भिड़ंत। लड़ाई। २. भेंट। सामना।
⋙ मुठिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुष्टिका] १. मुठ्ठी। उ०—रावण सो भट भयो मुठिका के खाय को।—तुलसी (शब्द०)। २. धूँसा। मुक्का। उ०—मुठिका एक ताहि कपि हनी। रुधिर बमत धरनी ढनमनी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मुठिया
संज्ञा स्त्री० [सं० मुष्टिका] १. छुरी, हँसिया आदि औजारों का वह भाग जो मुठ्ठो में पकड़ा जाय। दस्त। बेंट। २. हाथ में रखी या ली जानेवाली वस्तु का वह भाग जो मुठ्ठी में पकड़ा जाता है। जैसे, छड़ी की मुठिया, छाते को मुठिया। ३. घुनियों का वह औजार जिससे वे धुनकी की तातं पर आघात करते हैं।
⋙ मुठी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुठ्ठी'। उ०—नीच कहा विरहा करतो सखी होती कहूँ जु पै मीचु मुठो में।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ मुठुकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूठ] काठ का बना हुई बच्चों का एक खिलौना जिसके दोनों सिरों पर गोलियाँ सी होती है और बीच में पकड़ने की मूठ होती है। गोलियों में कंकड़ भरे रहते है जिनके कारण हिलाने से वह बजता है। मुठ्ठी। उ०—कोउ मुठुकी घुनघुना ड़ुलावै कोउ करताल बजावै।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मुड़क
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुरकना] दे० 'मुरक'।
⋙ मुड़कना
क्रि० अ० [हिं० मुड़ना] दे० 'मुरकना'।
⋙ मुड़ना (१)
क्रि० अ० [सं० मुरण (= लिपटना, फेरा खाना)] १. छड़ की तरह सीधी गई हुई वस्तु का कहीं से बल खाकर दूसरी। ओर फिरना। दबाव या आघात से चलना या झुक जाना। घुमाव लेना।—जैस,—(क) छड़ दाव पड़ी, इससे वह मुड़ गई। (ख) यह तार तो मुड़ता ही नहीं हैं; इसे कैसे लपेटें। २. किसी धारदार किनारे या नोक का इस प्रकार झुक जाना कि वह आगे की और न रह जाय। जैसे, छुरी की धार या सुई का मोक मुड़ना। ३. लकीर की तरह सीधे न जाकर घूमकर किसी ओर झुकना। वक्र होकर भिन्न दिशा में प्रवृत होना। जैसे,—आगे चलकर यह नदी (या सड़क) दक्खिन को ओर मुड़ गई है। ४. चलते चलते सामने से किसी दूसरी ओर फिर जाना। दाएँ अथवा बाएँ घूम जाना। जैसे,— कुछ दूर जाकर दाहिनी ओर मुड़ जाना, तो उसका घर मिल जायगा। ५. घूनकर फिर से पीछे की और चल पड़ना। लौटना। सयो० क्रि०—जाना।
⋙ मुड़ना (२)
क्रि० अ० [हिं० मूड़ना] दे० 'मुँड़ना'।
⋙ मुड़ला पु †
वि० [सं० मुण्ड़] [वि स्त्री० मुड़ली] जिसके सिर पर बाल न हों। बिना बालवाला। मुंडा। उ०—कच- खुबिआँ धर काजर कानी नकटी पहरै वेसरि। मुड़ली पटिया पारे सँवारै कोढी़ लावै केसरि।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुड़वरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुड़वार + ईया (प्रत्य०)] दे० 'मुड़वारी'।
⋙ मुड़वाना (१)
क्रि० स० [हिं० मूँड़ना का प्रे० रूप] १. किसी को मूँड़ने में प्रवृत्त करना। उस्तरे से बाल या रोएँ दूर करना। २. 'र्मुड़वाना'।
⋙ मुड़वाना (२)
क्रि० स० [हिं० मूँड़ना का प्रे० रूप] मुड़ने या घूमने में प्रवृत्त करना।
⋙ मुड़वारी
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्ड़ + हिं० वारो (प्रत्य०)] १. अटारी की दीवार का सिरा। र्मुड़ेरा। उ०—मुड़वारी रबिमणिनि सँवारी। अनल झार छूटी छबिवारी।—गुमान (शब्द०)। २. लेटे हुए मनुष्य का वह पार्श्व जिधर सिर हो। सिरहाना। ३. वह पार्श्व जिधर किसी पदार्थ का सिरा अथवा ऊपरी भाग हो।
⋙ मुड़हर †
संज्ञा पुं० [ हिं० मूँड़ + हर (प्रत्य०)] १. स्त्रियों की साड़ी वा चादर का वह भाग जो ठीक सिर पर रहता है। उ०—मुख पखारि मुड़हर भिजै सीस सजल कर छूवाइ।—बिहारी (शब्द०)। २. सिर का अगला भाग।
⋙ मुड़ाना
क्रि० स० [सं० मुण्ड़न] सिर के सब बाल बनवाना। मुंडन कराना। मुँड़ाना।
⋙ मुड़िया † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मूड़ना + इया (प्रत्य०)] वह जिसका सिर मुँड़ा हुआ हो। (विशेषतः कोई संन्यासी, साधु या बैरागी आदि)। उ०—यह (शब्द०)। विशेष दे० 'मुँड़िया'।
⋙ मुड़िया (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
⋙ मुड़ेरा
संज्ञा पुं० [हिं० मूड़ + एरा (प्रत्य०)] दे० 'मुँड़ेरा'।
⋙ मुतगा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. मूज को मोटी करधनी, जिसे साधु लोग पहिनते हैं। मुजंगा। उ०—मेहर की कफनी औ कुलाह भी मेहर का, मेहर का मुतंगा इस कमर में लगाइए।—मलूक० वानी, पृ० ३०। २. लँगोटा। कौपीन।
⋙ मुतंजन
संज्ञा पुं० [फा़०] मीठा पुलाब, जिसमें खटाई भी पड़ती है।
⋙ मुतअद्दी
वि० [अ०] १. सीमा का अतिक्रमण करनेवाला। २. संक्रामक रोग।
⋙ मुतअल्लिक (१)
वि० [अ० मुतअल्लिक] १. संबंध रखनेवाला। लगाव रखनेवाला। संबद्ध। २. मिला हुआ। संमिलित।
⋙ मुतअल्लिक (२)
क्रि० वि० संबंध में। विषय में। जैसे,—उसके मुत- अल्लिक मुझे कुछ नहीं कहना है।
⋙ मुतअल्लिम
संज्ञा पुं० [अ०] इल्म सीखनेवाला। छात्र [को०]।
⋙ मुतअस्सिब
वि० [अ०] तअस्सुब करनेवाला। धर्म, जाति का पक्षपात करनेवाला। कट्टर। उ०—आप बहुत ही पाक दिल.........और मुतअस्सिब खुदापरस्त........,—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ९०।
⋙ मुतका
संज्ञा पुं० [हिं० मूँड़ + टेक] १. कोठे के छज्जे या चौक के ऊपर पाटन के किनारे खड़ी की हुई पटियो या नीची दीवार जो गिरने से रोकने के लिये हो। २. खभा। ३. मीनार। लाट।
⋙ मुतगैयर
वि० [अ० मुतगय्यिर] परिवर्तित। बदला हुआ। उ०— हुआ बदहाल मुतगैयर हमारा खबर लेने को आए आप करतार।—कबीर मं०, पृ० ४८।
⋙ मुतदायरा
वि० [अ०] (मुकदमा) जो दायर किया गया हो (कच०)।
⋙ मुतफन्नी
वि० [अ० मुतफन्नी] बहुत बड़ा धूर्त। धोखेबाज। चालाक।
⋙ मुतनफ्फिर
वि० [अ० मुतनफ्फिर] घृणा करनेवाला। भागनेवाला। अलग रहनेवाला। उ०—चुताचें मैं खुद गोर करता हूँ तो मुझे रणधीर सिंह की तवियत शराब और रंड़ी से निहायत मुतनफ्फिर मालूम देती है।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३२।
⋙ मुतफरकात
संज्ञा स्त्री० [अ० मुतफर्रिकात] १. भिन्न भिन्न पदार्थ। फुटकर चीजें। २. फुटकर व्यय की मद। ३. जमीन के वे अलग टुकड़े जो किसी एक ही गाँव के अंतगर्त हों।
⋙ मुतफर्रिक
वि० [अ० मुतफ़र्रिक़] १. भिन्न भिन्न। अलग अलग। २. विविध। कई प्रकार का।
⋙ मुतबन्ना
संज्ञा पुं० [अ०] गोद लिया हुआ पुत्र। २. दत्तक पुत्र।
⋙ मुतमादी
वि० [अ०] जिसका नियत समय बीत चुका हो [को०]।
⋙ मुतमौवल
वि० [अ०] धनवान्। संपत्तिशाली। अमीर। धना- भिमानी।
⋙ मुतरज्जिम
संज्ञा पुं० [अ०] जो अनुवाद करे। तरजुमा करनेवाला। अनुवादक।
⋙ मुतलक (१)
क्रि० वि० [अ० मुतलक] जरा भी। तनिक भी। रत्ती भर भी। उ०—जिसका नित नोन खात मुतलक भी ना डरात। अछा वजूद पाय औरत से हारा है।—मलूक० वानी, पृ० २९।
⋙ मुतलक (२)
वि० बिलकुल। निर। निपट।
⋙ मुतवज्जह
वि० [अ०] जिसने किसी ओर तवज्जह की हो। जिसने ध्यान दिया हो। प्रवृत्त।
⋙ मुतवफ्फा
वि० [अ० मुतवफ्फा़] परलोकवासी। मृत। स्वगीय। (कच०)।
⋙ भुतवल्ली
संज्ञा पुं० [अ०] किसी नावालिग और उसका संपत्ति का रक्षक। किसी बड़ी संपत्ति और उसके अल्पवयस्क अधिकारी का कानूनी संरक्षक। वली।
⋙ मुतवस्सित
वि० [अ०] न अधिक न कम। दरमियानी। बीच का उ०—मुहम्मद मुतवस्सित दरयाव, तीन लोक है उनकी नाव।—दक्खिनी०, पृ० ३०३।
⋙ मुतवातिर
क्रि० वि० [अ०] लगातर। निरंतर।
⋙ मुतसद्दी
संज्ञा पुं० [अं०] १. लेखक। मुंशी। २. पेशकार। दीवान। ३. जिम्मेदार। उत्तरदायी। ४. इंतजाम करेवाला। प्रबंध- कर्ता। ५. हिसाब रखनेवाला। जमा खर्च लिखनेवाला। ६. मुनीम। गुमाश्ता।
⋙ मुतसिरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोती + सं० श्री > हिं० सिरी] कंठ में पहनने की मोतियों की कंठी। उ०—ग्रीव मुतसिरी तोरि के अँचरा सो बाँध्यो।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुतहम्मिल
वि० [अ०] बरदास्त करनेवासला। सहिष्णु। सहनशील।
⋙ मुतहैय्यर
वि० [अ० मुतहय्यिर] हैरत में पड़ा हुआ। स्तब्ध। चकित। उ०—ललाइन साहब की आजादी देखते ही साहो जी साहब मुतहैय्यर हो घबड़ाकर यों रेंके।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ८६३।
⋙ मुताविक (१)
क्रि० वि० [अ० मुनाबिक] अनुसार। बमूजिब।
⋙ मुताविक (२)
वि० अनुकूल।
⋙ मुतालवा
संज्ञा पुं० [अ० मुतालबहू] उतना धन जितना पाना वाजिव हो। प्राप्तव्य धन। बाकी रुपया।
⋙ मुताला
संज्ञा पुं० [अ० मुतालअहू] १. किसी चोज की पूरी जानकारी के लिये गौर से देखना। समीत्क्षण। निरीक्षण। २. पाठ को शुरू करने के पूर्व स्वयं पढ़ना ताकि शुद्ध पढा़ जा सके। पढ़ना। उ०—देखना हर सुबह तुझ रुखसार का। है मुताला मतलए अनवार का।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३।
⋙ मुतास †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूतना + आस (प्रत्य०)] मूतने की इच्छा। पेशाव करने की ख्वाहिश।
⋙ मुताह
संज्ञा पुं० [अ० मुतअ] मुसलमानों में एक प्रकार का अस्थायी विवाह जो 'निकाह' से निकृष्ट समझ जाता है। इस प्रकार क विवाह प्रायः शीया लोगों में होता है।
⋙ मुताही
वि० [हिं० मुताह + ई (प्रत्य०)] १. वह जिसके साथ मुताह किया गया हो। २. रखेली। (स्त्री)।
⋙ मुति पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्ति] दे० 'मुक्ति'। उ०—जोग मग्ग लभ्भिय न षग्ग मग्गह मुति पाइय।—पृ० रा०, १२।५३।
⋙ मुति पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुक्ता] मौक्तिक। मोती। उ०—मुख भुवि चंद्र लिलाट असित वर माल माल मुति।—पृ० रा०, २।४२४।
⋙ मुति पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुर्ति, प्रा० मुत्ति] दे० 'मूर्ति'। उ०— सुंदरि कनक केआ मुति गोरी। दिने दिने चाँद कला सओ बाढ़लि जउवन शोभा तोरी।—विद्यापति, पृ० १७।
⋙ मुतिया †
संज्ञा पुं० [हिं० मोति + या] दे० 'मोती'। उ०—मनु नब नील कमल दल तै भल मुतिया झरहीं।—नंद ग्रं०, पृ० २०१।
⋙ मुतिलाड़ू पु
संज्ञा पुं० [हिं० मोती + लड़ूड़ू] मोतीचूर का लड़ूड़ू। उ०—मुतिलाड़ू हैं अति मीठे। वै खात न कबहुँ उबीठे।— सूर (शब्द०)।
⋙ मुतेहर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० मोती + हार] कंकण की आकृति का एक प्रकार का आभूषण जो स्त्रियाँ कलाई पर पहनती हैं।
⋙ मुत्तफिक
वि० [अ० मुत्तफिक] राय से इत्तफाक करनेवाला। सहमत।
⋙ मुत्तला
वि० [अ०] जिसे इत्तिला दी गई हो। सूचित [को०]।
⋙ मुत्तसिल (१)
वि० [अ०] निकट। नजदीक। समीप। पास। लगा हुआ।
⋙ मुत्तसिल (२)
क्रि० वि० लगातार। निरंतर।
⋙ मुत्ती पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० मौक्तिक, प्रा० मोत्तिय] दे० 'मोती' या 'मौक्तिक'। उ०—मुत्ती माल सुरंग घन।—पृ० रा०, १।६७०।
⋙ मुत्ती † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मूत्र] मूत्र। पेशाव।
⋙ मुत्य
संज्ञा पुं० [सं०] मौत्तिक। मोती [को०]।
⋙ मुथराई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भोथराना] धार आदि का भोथरा होना। उ०—पैने कटाछनि ओज मनोज के बानन बीच बिधी मुथराई।—घनानंद, पृ० ११०।
⋙ मुथशील
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में इस्यशाल नामक योग [को०]।
⋙ मुद
संज्ञा पुं० [सं०] हर्ष। आनंद। प्रसन्नता। उ०—मुद मंगल मय संत समाजू।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—मुदकंद = आनंदकंद भगवान् विष्णु। उ०—लंबोदर मुदकंद देव दामोदर बंदों।—दीन० ग्रं०, पृ० १९३।
⋙ मुदगर
संज्ञा पुं० [सं० मुदगर] १. दे० ' मुदूगर'। २. दे० 'मुगदर'।
⋙ मुदब्बिर
वि० [अ०] १. प्रबंधकुशल। व्यवस्था करने में निपुण। दूरदर्शी। ३. बुद्धिमान्। ४. राजनीतिनिपुण। नीतिज्ञ [को०]।
⋙ मुदमा पु †
क्रि० वि० [अ० मुदाम] दे० 'मुदाम'। उ०—सतगुर मेरे सिर पर ठाढ मुदमा आगै चेला।—रामानंद०, पृ० २८।
⋙ मुदरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मादक पेय पदार्थ जो अफीम, भाँग, शराब और धतूरे के योग से बनता है और जिसका व्यवहार पश्चिमी पंजाब तथा बलोचिस्तान में होता है।
⋙ मुदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मुद्रिका] दे० 'मुँदरी'। उ०—हे मुदरी तेरो सुकृत मेरो ही सौ हीन। फल सो जान्यो जाता है मैं निरनै करि लीन।—शकुंतला, पृ० ११४।
⋙ मुदर्रिस
संज्ञा पुं० [अ०] पाठशाला का शिक्षक। अध्यापक।
⋙ मुदर्रिसी
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मुदर्रिस का काम। पढा़ने का काम। अध्यापन। २. मुदर्रिस का पद। जैसे,—बड़ी कठिनता से उन्हें म्युनिसिपल स्कूल में मुदर्रिसी मिली है।
⋙ मुदब्बर
वि० [अ०] दे० 'मुदोवर' [को०]।
⋙ मुदा † (१)
अव्य० [अ० मुद्दआ (= अभिप्राय)] १. तात्पर्य़ यह कि। २. मगर। लेकिन।
⋙ मुदा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] हर्ष। आनंद। प्रसन्नता।
⋙ मुदाना †
क्रि० स० [हिं० मूँदना का प्रे० रूप] बंद कराना। मुँदवाना। उ०—ले अनाज कोठी बहरावै। खरच लेइ पुन फेरि मुदावै।—कबीर सा०, पृ० २५।
⋙ मुदाम
क्रि० वि० [फा़०] १. सदा। हमेशा। सदैव। उ०—(क) राम लखन सीता की छबि को सीयराम अभिरामै। उभय दृगंचल भए अचंचल प्रीति पुनीत मुदामै।—रघुराज (शब्द०)। (ख) अहैं हम सल्य धरा सरनाम। करैं रन में पर सल्य मुदाम।—गोपाल (शब्द०)। २. निरंतर। लगातार। अनवरत। †३. ठीक ठीक। हूबहू। (क०)।
⋙ मुदामी
वि० [फा़०] जो सदा होता रहे। सार्वकालिन। उ०— दगी मुकामी फेरी सलायी। बँधी पंचदस जौन मुदामी।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मुदावसु
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार प्रजापति के एक पुत्र का नाम।
⋙ मुदित (१)
वि० [सं०] हर्षत। आनंदित। प्रसन्न। खुश।
⋙ मुदित (२)
संज्ञा पुं० कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का आलिंगन। नायिका का नायक की बाई ओर लेटकर उसकी दोनों जाँघों के बीच में अपना बायाँ पैर रखना।
⋙ मुदिता
संज्ञा पुं० [सं०] १. परकीया के अंतर्गत एक प्रकार की नायिका जो परपुरुष प्रीति संबंधी कामना की आकस्मिक प्राप्ति से प्रसन्न होती है। उ०—परखि प्रेमवश परपुरुष हरषि रही मन मैन। तब लगि झुकि आई छटा अधिक अँधेरी रैन।—पद्माकर (शब्द०)। २. हर्ष। आनंद। ३. योगशास्त्र में समाधि योग्य संस्कार उत्पन्न करनेवाला एक परिकर्म जिसका अभीप्राय है—पुण्यात्माओं को देखकर हर्ष उत्पन्न करना। विशेष—ये परिकर्म चार कहे गए हैं—मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा।
⋙ मुदिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल। मेघ। उ०—(क) धाराधर जलधर जलद जग जीवन जीमूत। मुदिर बलाहक तड़ितपति परजन जज्ञ सुपूत।—नंददास (शब्द०)। (ख) कहै मतिरामदीने दीरघ दुरदवृंद मुदिर से मेदुर मुदित मतवारे है।—मति- राम (शब्द०)। २. वह जिसे कामवासना बहुत आधिक हो। कामुक। ३. मेंढक।
⋙ मुदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योत्सना। चाँदनी। चंद्रिका [को०]।
⋙ मुदौवर
वि० [अ० मुदव्वर] गोल। गोलाकर। वृत्ताकार। मंड़लाकार।
⋙ मुदग
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूँग नामक अन्न जिससे दाल बनाई जाती है। विशेष दे० 'मूँग'। २. आवरण। ढक्कन। आच्छा- दन (को०)। ३. एक शास्त्र। दे० 'मुदगर' (को०)। ४. एक पक्षी। जलवायस। विशेष दे० 'जलकौआ' (को०)।
⋙ मुदगगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] मुंगेर और उसके आसपास के प्रांत का प्राचीन नाम।
⋙ मुदगदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुदगपर्णी। वनमूँग।
⋙ मुदगपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनमूँग। मुगवन।
⋙ मुदगभक्
संज्ञा पुं० [सं० मुदगभुज्] अश्व। घोड़ा [को०]।
⋙ मुदगभोजी
संज्ञा पुं० [सं० मुदगभोजिन्] घोड़ा।
⋙ मुदगर
संज्ञा पुं० [सं०] १. काठ का बना हुआ एक प्रकार का गावदुमा दंड़। मुगदर। जो़ड़ी। विशेष—यह मूठ की ओर पतला और आगे की ओर को ओर बहुत भारी होता है। इसे हाथ में लेकर हिलाते हुए पहलवान लोग कई तरह की कसरतें करते है। इससे कलाइयों और बाँहों में बल आता है। इसे जोड़ी भई कहते हैं क्योंकि इसकी प्रायः जोड़ी होती है जो दोनों हाथों में लेकर बारी बारी से पीठ के पीछे से घुमाते हुए सामने लाकर तानी जाती है। क्रि० प्र०—फेरना।—हिलाना। २. प्राचीन काल का एक अस्त्र जो दंड़ के आकार का होता था और जिसके सिरे पर बड़ा भारी गोल पत्थर लगा होता था। ३. एक प्रकार की चमेली। मोगरा। ४. एक प्रकार की मछली। ५. कोरक। कली (को०)। ६. हथौड़ा या मुगरा। जैसे, मोहमुदगर (को०)।
⋙ मुदगरक
संज्ञा पुं० [सं०] मुँगरा। हथौड़ा [को०]।
⋙ मुदगरांक
संज्ञा पुं० [सं० मुदगराङ्क] भुदगर (र्मुगरे) का चिह्न जो धोबियों के वस्त्र पर पहचान के लिये चंद्रगुप्त के समय में रहता था। विशेष—यदि धोबी इस प्रकार के चिह्न से रहित लस्त्र पहनकर निकलते थे तो उनपर तीन पण जुर्माना होता था।
⋙ मुदगल
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोहिष नामक तृण। २. एक गोत्रकार मुनि का नाम, जिनकी स्त्री इंद्रसेना थी। ३. एक उपनिषद का नाम।
⋙ मुदगष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] मुगवन। वनमूँग।
⋙ मुद्दआ
संज्ञा पुं० [अ०] अभिप्राय। तात्पर्य। मतलब।
⋙ मुद्दई
संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री० मुद्दइया] १. दावा करनेवाला। दावादार। वादी। २. पु० दुश्मन। बैरी। शत्रु। उ०— मोहन मीत समीत गो लखि तेरी सनमान। अब सु दगा दै तू चल्यो अरे मुद्दई नाम।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ मुद्दत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. अबधि। जैसे,—इस हुंड़ी की मुद्दत पूरी हो गइ है। मुहा०—मुद्दत काटना = योक माल का मूल्य अवधि से पहले देने पर अवधि के वाकी दिनों का सूद काटना (कोठीवाल)। २. बहुत दिन। अरसा। जैसे,—मुद्दत के आज आपकी शक्ल दिखाई दी है। यौ०—मुद्दत दराज बहुत समय। बहुत दिन। मुद्दतेयात = जीवनकाल।
⋙ मुद्दती
वि० [अ० मुद्दत + ई (प्रत्य०)] वह जिसके साथ कोइ मुद्दत लगी हो। वह जिसमें कोई अवंधि हो। जैसे, मुद्दती हुंड़ी। यौ०—मुद्दती हुंडी = वह हुंडी जिसका रुपया कुछ निश्चित समय पर देना पड़े।
⋙ मुद्दा
संज्ञा पुं० [अ० मुद्दआ] गरज। अभिप्राय। उद्देश्य। मंशा। उ०—पलटू मेरी बन पड़ी मुद्दा हुआ तमाम।—पलटू०, पृ० १३।
⋙ मुद्दाअलेह
संज्ञा पुं० [अ०] वह जिसके ऊपर कोई दावा किया जाया। वह जिसपर कोई मुकदमा चलाया गया हो। प्रतिवादी।
⋙ मुद्दालेह
संज्ञा पुं० [अ० मुद्दाअलेह] दे० 'मुद्दाअलेह'।
⋙ मुद्ध पु †
वि० [सं० मुग्ध, प्रा० मुद्ध, मुध्ध] दे० 'मुग्ध'।
⋙ मुद्धा †
संज्ञा पुं० [?] गुल्फ। मोजा। टखना।
⋙ मुद्धि
संज्ञा स्ञी० [देश०] रस्सी आदि की खिसकनेवाली गाँठ।
⋙ मुद्र
वि० [सं०] आनंददायक। प्रसन्न करनेवाला [को०]।
⋙ मुद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी छापेखाने में रहकर छापने का काम करता या देखता हो और छपनेवाली चीजों की छपाई का जिम्मेदार हो। छापनेवाला। मुद्रणकर्ता। जैसे,— 'चंद्रोदय' के संपादक और मुद्रक राजविद्रोहात्मक लेख लिखने और छापने अभियोग पर भारतीय दंड़विधान की १२४ 'ए' धार के अनुसार गिरफ्तार किए गए हैं ।
⋙ मुद्रकी पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० मुद्रिका] दे० 'मुद्रिका'। उ०—इक इक्क बटुअ मालाति इक्क। मुद्रकी इक्क इन पहुचि किक्क।— पृ० रा०, १४।१२५।
⋙ मुद्रण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी चीज पर अक्षर आदि अंकित करना। छपाई। २. ठप्पे आदि की सहायता से अंकित करके मुद्रा तैयार करना। ३. ठीक तरह से काम चलाने के लिये नियम आदि बनाना और लगाना। ४. बंद करना। मूँदना।
⋙ मुद्रणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अँगूठी।
⋙ मुद्रणालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ किसी प्रकार का मुद्राण होता हो। २. छापाखाना। प्रेस।
⋙ मुद्रण पत्र
संज्ञा पुं० [सं०] किसी छपनेवाली चीज का नमूना। प्रूफ [को०]।
⋙ मुद्रांक
संज्ञा पुं० [सं० मुद्राङ्क] मुद्रा पर का चिह्न।
⋙ मुद्रांकन
संज्ञा पुं० [सं० मुद्राङ्कन] [वि० मुद्रांकित] १. किसी प्रकार की मुद्रा की सहायता से अंकित करने का काम। २. छापने का काम। छपाई।
⋙ मुद्रांकित
वि० [सं० मुद्राङ्कित] १. मोहर किया हुआ। जिसपर मुहर लगी हो। यौ०—मुद्रांकित पत्र = मुहर की हुई चीठी। २. जिसके शरीर पर विष्णु के आयुध के चिह्न गरम लोहे से दागकर वनाए गए हों। (बैष्णव)।
⋙ मुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी के नाम की छाप। मोहर। उ०— मुद्रित मसुद्र सात मुद्रा निज मुद्रित कै, आई दिसि दसो जीति सेना रधुनाथ की।—केशव (शब्द०)। २. रुपया, अशरफी आदी। सिक्का। ३. अँगूठी। छाप। छला। उ०—बनचर कौन देश तें आयो। कहँ वे राम कहाँ व् लछिमन क्यें करि मुद्रा पायो।—सूर (शब्द०)। ४. टाइप के छपे हुए अक्षर। ५. गोरखपंथी साधूओं के पहनने का एक कर्णभूषण जो प्रायः काँच वा स्फटिक का होता है। यह कान की लौ के बीच में एक बड़ा छेड करके पहना जाता है। उ०—(क) शृंगी मुद्रा कनक खपर लै करिहौं जोगिन भेस।—सूर (शब्द०)। (ख) भसम लगाऊँ गात, चंदन उतारों तात, कुंडल उतारों मुद्रा कान पहिराय द्यौं।—हनुमान (शब्द०)। ६. हाथ, पाँव, आँख, मुँह, गर्दन आदि की कोइ स्थिति। ७. बैठने, ले़टने या खड़े होने का कोइ ढंग। अंगों की कोई स्थिति। ८. चेहरे का ढंग। मुख की आकृति। मुख की चेष्टा। उ०—मायावती अकेले इस बाग में टहल रही थी और एक ऐसी मुद्रा बनाए हुए थी, जिससे मालूम होता था कि किसी बड़े गंभीर विचार में मग्न है। बालकृष्ण (शब्द०)। ९. विष्णु के आयुवों के चिह्न जो प्रायः भक्त लोग अपने शरीर पर तिलक आदि के रूप में अंकित करते हैं या गरम लोहे से दगाते हैं। जैसे, शंख, चक्र, गदा के (चिह्न)। छाप। १०. तात्रिकों के अनुसार कोई भूना हुआ अन्न। ११. तंत्र में उँगलियों आदि की अनेक रूपों की स्थिति जो किसी देवता के पूजन में बनाई जाती है। जैसे, धेनुमुद्रा, योनिमुद्रा। १२. हठ योग में विशेष। अंग- विन्यास। ये मुद्राएँ पाँच होती है। जैसे,—खेचरी, भूचरी, चाचरी, गोचरी और उनमुनी। १३. अगस्त्य ऋषि की स्त्री, लोपामुद्रा। १४. वह अलंकार जिसमे प्रकृत अर्थ के अतिरिक्त रचना में कुछ और भी साभि प्राय नाम निकलते हैं। जैसे,—कत लपटैयत मोगरे सोन जुही निसि सैन। जेहि चंपकबरनी किए गुल आनार रँग नैन।—विहारी (शब्द०)। इस पद्य में प्रकृत अर्थ के अतिक्ति 'मोग रा', 'सोनजुही', 'चंपक' इत्यादि फूलों के नाम भी निकलते हैं। १५. कहीं जाने का आज्ञापत्र या परवाता। परवाना राहदारी।
⋙ मुद्राकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. राज्य का वह प्रधान अधिकारी जिसके अधिकार में राज की मोहर रहती हैं। २. वह जो किसी प्रकार की मुद्रा तैयार करता हो। ३. वह जो किसी प्रकार के मुद्रण का काम करता हो।
⋙ मुद्राकान्हड़ा
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का राग जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।
⋙ मुद्राकरा
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो मोहर बनाता हो। मुहर बनानेवाला।
⋙ मुद्राक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह अक्षर जिसका उपयोग किसी प्रकार के मुद्रण के लिये होता हो। २. सीसे के ढले हुए अक्षर जो छापने के काम में आते हैं। टाइप।
⋙ मुद्राटोरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की रागिनी जिसके गाने में सब कोमल स्वर लगते हैं।
⋙ मुद्रातत्व
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसके अनुसार किसी देश के पुराने सिक्कों आदि की सहायता से उस देश की ऐतिहासिक बातें जानी जाती हैं। पर्या०—मुद्राविज्ञान। मुद्राशास्त्र।
⋙ मुद्राधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुहर रखनेवाला। २. किले का प्रधान अधिकारी [को०]।
⋙ मुद्राध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार वह अधिकारी जो कहीं जाने का परवाना देता है। कहीं वा अन्य राज्य में जाने का परवाना आधिकारी।
⋙ मुद्राबल
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक बहुत बड़ी संख्या का नाम।
⋙ मुद्रामार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] मस्त्क के भीतर का वह स्थान जहाँ प्राणवायु चढ़ती है। ब्रह्मरंध्र।
⋙ मुद्रायंत्र
संज्ञा पुं० [सं०] छापने या मुद्राण करने का यंत्र। छापे आदि की कल।
⋙ मुद्रारक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मुद्राधिप' [को०]।
⋙ मुद्राराक्षस
संज्ञा पुं० [सं०] विशाखदत्तरचित संस्कृत का एक प्रसिद्ध नाटक।
⋙ मुद्रालिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाँच प्रकार की लिपियों में एक। छापे के अक्षर [को०]।
⋙ मुद्रावलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] योगियों की मुद्रा। उ०—श्रुति ताटंक मेलि मुद्रावलि, अवधि अधार अधारी।—सूर०, १०।३६९३।
⋙ मुद्रासंकोच
संज्ञा पुं० [सं० मुद्रा + सङ्कोच] सिक्कों की कमी। मुद्रा की पूर्ति उसकी वास्ताविक माँग से कम होना। उ०—जान बूझकर मुद्रासंकोच न भी किया जाय तब भी।—अर्थ (वे०), पृ० ३३८।
⋙ मुद्रास्थान
संज्ञा पुं० [सं०] अँगुली का वह स्थान जहाँ अँगूठी या छल्ला आदि धारण किया जाता है।
⋙ मुद्रास्फीति
संज्ञा स्त्री० [सं० मुद्रा + स्फीति] वास्तविक नाँग या जरूरत से अधिक मात्रा में मुद्रा या सिक्का का प्रवलन। उ०—युद्धकाल में मुद्रास्फीति होती है।—अर्थ० (वे०), पृ० ३७३।
⋙ मुद्रिक पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुद्रिका] दे० 'मुद्रिका'। उ०—कर कंकण केयूर मनोहर दोत मोद मुद्रिक न्यारी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मुद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी मुहर। २. अँगूठी। उ०—ठौर पाइ पौन पुत्र डारि मुद्रिका दई।—केशव (शब्द०)। २. कुश की बनी हुई अँगूठी जो देव पितृ कार्य में अनामिका में पहनी जाती है। पवित्री। पैती। उ०—पहिरि दर्भमुद्रिका सुभूरी। समिध अनेक लीन्ह कर रूरी।—मधुसूदन (शब्द०)। ३. मुद्रा। सिक्का। रुपया। उ०—नरसी पै जब संत सब कहे सकोपित बैन। ठग ठगि लीन्ही मुद्रिका चल्यो मारि तेहि लैन—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मुद्रित
वि० [सं०] १. मुद्राण किया हुआ। मुहर किया हुआ। २. अंकित किया हुआ। छपा हुआ। २. मुँदा हुआ। बंद। उ०— (क) नासिका अग्र की ओर दिए अध मुद्रित लोचन कोर समाधित।—देव (शब्द०)। (ख) राजिव दल इंदीवर सतदल कमल कुसेसै जाति। निशि मुद्रित प्रातहिं वे विगसत वे विगसत दिन राति।—सूर (शब्द०)। (ग) नील कंज मुद्रित निहार विद्यमान भानु सिधु मकरंदहि अलिंद पान करिगो।—(शब्द०)। ३. त्यागा हुआ। छोड़ा हुआ।
⋙ मुधरा †
वि० [सं० मुधुर, वर्णव्य० मुधर] दे० 'मधुर'। उ०—नाच गान कर निलजता, रच वप भूषण रास। मार निजारा। मोहियो, हंजो मुधरे हास।—बाँकी०, ग्रं० भा० २, पृ० ९।
⋙ मुधा (१)
क्रि० वि० [सं०] व्यर्थ। वृथा। बेफायदा। उ०—(क) यह सब जाग्यबल्क कहि राख। देवि न कोई मुधा मुनि भाषा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता पद बहहू।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मुधा (२)
वि० व्यर्थ का। निष्प्रय़ोजन। २. असत्। मिथ्या। झूठ। उ०—मुधा भेद जद्यपि माया।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मुधा (३)
संज्ञा पुं० असत्य। मिथ्या। उ०—भूतल माहिं बली शिवराज भो भूषन भाषत शत्रु मुधा को।—भूषण (शब्द०)।
⋙ मुनक्का
संज्ञा पुं० [अ०, मि० सं० मृद्वीका] एक प्रकार की बड़ी किशमिश या सूखा हुआ अंगूर जो रेचक होता और प्रायः दवा के काम में आता है। विशेप दे० 'अंगूर'।
⋙ मुनगा †
संज्ञा पुं० [सं० मधुगृञ्जन वा देश०] सहिजन।
⋙ मुनब्बतकारी
संज्ञा स्ञी० [अ० मुनब्बत + फा़० कारी] पत्थरों पर उभरे हुए बेलबूटों का काम।
⋙ मुनमुना (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. मैदे का बना हुआ एक प्रकार का पकवान जो रस्सी की तरह बटकर छाना जाता है। २. खस- खस की तरह का पर उससे बड़ा एक प्रकार का काला दाना। प्याजी। विशेष—यह दाना गेहूँ के खेत में उत्पन्न होता है और प्रायः उसके दानों के साथ मिला रहता है। इसके मिले रहने के कारण आटे का रंग कुछ काला पड़ जाता है और स्वाद कुछ कड़वा हो जाता है।
⋙ मुनमुना (२)
वि० बहुत छोटा वा थोड़ा।
⋙ मुनारा †
संज्ञा पुं० [सं० मुद्रा] कान में पहनने का एक प्रकार का गहना जो कुमायूँ आदि पहाड़ी जिलों के निवासी पहनते हैं। यह अधिकतर लोहे का बनता हैं।
⋙ मुनरी ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० मुद्रिका] दे० 'मुँदरी'।
⋙ मुनहसर
वि० [अ० मुनहसिर] निर्भर। आश्रित। अवलंबित।
⋙ मुनाजात
संज्ञा स्त्री० [अ०] ईशप्रार्थना। खुदा की इबादत। उ०—कहाँ इतना सुन के हक सू मुनाजात।—दक्खिती० पृ० ३१२।
⋙ मुनाजिर
वि० [अ० मुनाजिर] शास्त्रार्थ करनेवाला [को०]।
⋙ मुनादी
संज्ञा स्त्री० [अ०] किसी बात को वह घोषणा जो कोई मनुष्य डुग्गा या ढाल आदि पीटता हुआ सारे शहर में करता फिरे। ढिंढारा। ड़ुग्गी। क्रि० प्र०—करना।—पिटना।—फिरना।—फेरना।—होना।
⋙ मुनाफा
संज्ञा पुं० [अ० मुनाफा,मुनाफअह्] किसी व्यापार आदि में प्राप्त वह धन जो मूल धने के आतिरिक्त होता है। लाभ। नफा। फायदा। क्रि० प्र०—उठाना।—करना।—निकलना। होना।
⋙ मुनारा †
संज्ञा पुं० [अ० मनारह्] दे० 'मीनार'। उ०—भनै रघुराज नव पल्लवित मल्लिका के अमल अगारा हैं मुनारा है। दुआरा हैं।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मुनाल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत सुंदर पहाड़ी पक्षी जिसको हरी गरदन पर सुंदर कंठा सा दिखाई देता है और जिसके सिर पर कलंगी होती है। इसके पर बहुत आधिक मूल्य पर बिकते हैं।
⋙ मुनासिब
वि० [अ०] उचित। योग्य। वाजिव। ठोक। उ०— बिना बुलाए जाना तो किसी तरह मुनासिब नहीं।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ७९।
⋙ मुनि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो मनन करे। ईश्वर, धर्म और सत्यासत्य आदि का सूक्ष्म वितचार करनेवाला व्यक्ति। मनन- शील महात्मा। जैसे, अंगिरा, पुलस्त्य, भृगु, कर्दम, पंचशिख आदि। २. तपस्वी। त्यागी। यौ०—मुनिचीर, मुनिपट = वल्कल। मुनिव्रत = तपस्या। ३. सात की संख्या। उ०—तब प्रभु मुनि शर मारि गिरावा।— (शब्द०)। ४. जिन या बुद्ध। ५. पियाल या पयार का वृक्ष। ६. पलास का वृक्ष। ७. आठ वसुओं के अंतर्गत आप नामक वसु के पुत्र का नाम। ८. क्रौंच द्वीप के एक देश का नाम। ९. द्युतिमान् के सबसे वड़े पुत्र का नाम। १०. कुरु से एक पुत्र का नाम। ११. अगस्त्य ऋषि (को०)। १२. व्यास जी का नाम (को०)। १३. महर्षि पाणिनि (को०)। १४. आम्र वृक्ष (को०)। १५. दौना। दमनक।
⋙ मुनि (२)
संज्ञा स्त्री० दक्ष की एक कन्या जो कश्यप की सबसे बड़ी स्त्री थी।
⋙ मुनिकन्यका, मुनिकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुनि की पुत्री।
⋙ मुनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मी का क्षुप।
⋙ मुनिकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] मुनि का पुत्र। आल्पावस्था का मुनि [को०]।
⋙ मुनिखर्जूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की खर्जूरिका [को०]।
⋙ मुनिच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] मेथी।
⋙ मुनितरु
संज्ञा पुं० [सं०] वक्कम। पतंग।
⋙ मुनिता
संज्ञा पुं० [सं०] मुनिधर्म। मुनिव्रत। उ०—प्रभु को निज चाप दे गए, मुनिता ही मुनि आप ले गए।—साकेत, पृ० ३५८।
⋙ मुनित्रय
संज्ञा पुं० [सं०] पाणिनि, कात्यायन और पतंजालि [को०]।
⋙ मुनित्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मुनिता'।
⋙ मुनिद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्योनाक वृक्ष। २. वक्कम। पतंग।
⋙ मुनिवान्य
संज्ञा पुं० [सं०] तिन्नी का चावल। तिनी।
⋙ मुनिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दौना। दमनक।
⋙ मुनिपादप
संज्ञा पुं० [सं०] बक्कम। पतंग।
⋙ मुनिपित्तल
संज्ञा पुं० [सं०] ताँबा।
⋙ मुनिपुंगव
संज्ञा पुं० [सं० मुनिपुङ्गव] मुनियों में श्रेष्ठ [को०]।
⋙ मुनिपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दमनक। दौना।
⋙ मुनिपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुनिपुत्र। दौना। २. खंजन पक्षी।
⋙ मुनिपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का धान्य जिसे पक्षिराज भी कहते हैं। २. पिंड खजूर। ३. बिरोजे का पेड़। ४. पियार।
⋙ मुनिबर
संज्ञा पुं० [सं० मुनिवर] मुनिपुंगव। श्रेष्ठ मुनि।
⋙ मुनिभक्त
संज्ञा पुं० [सं०] तिन्नी का चावल। तिनी।
⋙ मुनिभेपज
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगस्त का फूल। २. हड़। हरें। ३. लंघन। उपवास।
⋙ मुनिभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] तिन्नी का चावल। तिनी।
⋙ मुनियर पु
संज्ञा पुं० [सं० मुनिवर] १. मुनि लोग। २. मुनियों में श्रेष्ठ जन। उ०—तुम्ह बिन राखै कैण बिधाता मुनियर साखी आणै रे।—दादू० वानी०, पृ० ६२३।
⋙ मुनियाँ (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] लाला नामक पक्षी की मादा। उ०— झुंड़ तें झपटि गहि आनी प्रम पींजर में, लाल मुनियाँ ज्यौ गुण लाला गहि तागा है।—देव (शब्द०)।
⋙ मुनियाँ (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो अगहन में तेयार होता है।
⋙ मुनिवर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुंड़रीक वृक्ष। पुंड़रिया। २. दौना। ३. मुनियों में श्रेष्ठ।
⋙ मुनिबज पु
संज्ञा पुं० [सं० मुनिवर्य] मुनिश्रेष्ट। मुनियों में प्रधान या श्रेष्ठ। उ०—रामकया मुनिवर्ज बखानो। सुनी महेस परम सुखु मानो।—मानस, १।४८।
⋙ मुनिवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] विजयसार। पियासाल।
⋙ मुनिवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग के विश्वेदेवा आदि देवताओं के अंतगर्त एक देवता।
⋙ मुनिवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वक्कम। पतंग।
⋙ मुनिवृत्ति
वि० [सं०] मुनिवत् जीवन व्यतीत करनेवाला [को०]।
⋙ मुनिव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] तप। तपस्या [को०]।
⋙ मुनिशस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कुश। सफेद दाभ।
⋙ मुनिसत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक यज्ञ का नाम।
⋙ मुनिसुत
संज्ञा पुं० [सं०] दौना। दमनक।
⋙ मुनिसुव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के एक तीर्थकर का नाम।
⋙ मुनिहत
संज्ञा पुं० [सं०] राजा पुष्यमित्र की एक उपाधि।
⋙ मुनींद्र
संज्ञा पुं० [सं० मुनीन्द्र] १. वह जो मुनियों में इंद्र हो। महान् वा श्रेष्ठ मुनि। २. शिव का एक नाम (को०)। ३. भरत मुनि (को०)। ४. बुद्धदेव का एक नाम। ५. पुराणानुसार एक दानब का नाम।
⋙ मुनी (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुनि] दे० 'मुनि'।
⋙ मुनी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुनियाँ] रायमुनी। रैमुनिया। लाल पक्षी की मादा। उ०—नवल वधू गोकुल की मुनी। परखै लाल खिलारी गुनी।—घनानंद, पृ० २९२।
⋙ मुनीब
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मुनीम'।
⋙ मुनीम
संज्ञा पुं० [अ० मुनीब (= नायब रखनेवाला)] १. नायब। मददगार। सहायक। २. साहूकारों का हिसाव किताव लिखनेवाला। यौ०—मुनीमखाना = वह स्थान जहाँ किसी कोठी के हिसाब किताब लिखनेवाले मुनीम बैठकर काम करें।
⋙ मुनीर
वि० [अ०] दीप्त। प्रकाशमान। चमकदार। उ०—बदर ए मुनीर वेनजोर सीरी खुसरू में।—नट०, पृ० ७८।
⋙ मुनीश, मुनीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुनियों में श्रेष्ठ। बुद्धदेव का एक नाम। ३. विष्णु।
⋙ मुनुष पु †
संज्ञा पुं० [सं० मनुष्य] मानव। मनुष्य। उ०—मुनुष देह उत्तम करी (सु) हरि बोलौ हरि बोल।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३१५।
⋙ मुनौविर
वि० [अ० मुनव्वर] उज्वल। प्रकाशमान। दीप्त।
⋙ मुन्ना
संज्ञा पुं० [देश०] १. छोटों के लिये प्रेमसूचक शब्द। प्रिय। प्यारा। उ०—मुन्ना ! मैने तो यह कहा था कि इस मिट्टी के मोर को देख।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। २. तारकशी के कारखाने के वे दोनों खूँटे जिनमें जंता लगा रहता है।
⋙ मुन्नूँ
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मुन्ना'।
⋙ मुन्यन्न
संज्ञा पुं० [सं०] मुनियों के खाने का अन्न। जैसे तिन्नी का चावल आदि।
⋙ मुन्ययन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ।
⋙ मुख्यालय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रचीन तीर्थ का नाम।
⋙ मुफरद
वि० [अ० मुफ़रद] किसी से बिना मिला हुआ। अकेला। तनहा [को०]।
⋙ मुफलिस
वि०[अ० मुफ़लिस] बनहीन। निर्धन। दरिद्र। गरीब।
⋙ मुफलिसी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुफा़लिसी] गरीबी। निर्धनता। दरिद्रता। उ०—मुफलिसी और मिजाज ऐ हातिम। क्या क्या- मत करे जो दौलत हो।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४४।
⋙ मुफसिद
संज्ञा पुं० [अ० मुफ़सिद] वह जो फसाद खड़ा करे। झगड़ा या फसाद करनेवाला आदमी।
⋙ मुफस्सल (१)
वि० [अ० मुफ़स्सल] वह जिसकी तफसील की गई हो। ब्योरेवार। विस्तृत।
⋙ मुफस्सल (२)
संज्ञा पुं० किसी केंद्रस्थ नगर के चारो ओर के कुछ दूर के स्थान। जैसे,—मुफस्सल से कई तरह की आ खबरें आ रही हैं।
⋙ मुफस्सिल
वि० [अ० मुफस्सल] सव्याख्या। सविवरण। मुफस्सल। उ०—कहूँगा मैं किस्सा सुना सब इता। कहुँगा मुफस्सिल कहानी जिता।—दक्खिनी०, पृ० १९८।
⋙ मुफोद
वि० [अ० मुफीद] फायदेमंद। लाभकारी। लाभदायक। उ०—मगर ये बात हमारे वास्ते मुफीद है।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १२४।
⋙ मुफ्त
वि० [अ० मुफ्त़] जिसमें कुछ मूल्य न लगे। बिना दाम का। सेंत का। यौ०—मुफ्तखोर = वह व्यक्ति जो दूसरों के धन पर सुखभोग करे। मुफ्त का माल खानेवाला। मुहा०—मुफ्त में = (१) बिना दाम के। बिना मूल्य दिए या लिए। जैसे,—यह घड़ी मुझे मुफ्त में मिली। (२) व्यर्थ। बेफायदा। निष्प्रयोजन। जैसे,—(क) मुफ्त में उसकी जान गई। (ख) मुफ्त में क्यों हैरान होते हो।
⋙ मुफ्तखोरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० मुफ्तखोरी] बिना मेहनत किए, दूसरे की कमाई खाना। दूसरों के सिर रहना।
⋙ मुफ्तरी
वि० [अं० मुफ्तरी] १. धूर्त। मक्कार। शरीर। २. झूठा आरोप करनेवाला। असत्य इल्जाम लगानेवाला [को०]।
⋙ मुफ्ती (१)
संज्ञा सं० [अ० मुफ़्ती] धर्मशास्त्री। फतवा देनेवाला। धर्माचार्य। मुसलमानों का वह धमशास्त्रवेत्ता मौलवी जो धार्मिक समस्याओं का समाधान प्रश्नोत्तर रूप में पूछने पर करता है।
⋙ मुफ्ती (२)
वि० [अ० मुफ़्त + ई (प्रत्य०)] जो विना दाम दिए मिला हो। मुफ्त का।
⋙ मुवतिला
वि० [अ० मुब्तिला] पकड़ा हुआ। फँसा हुआ। ग्रस्त। गृहीत। उ०—आकबत होवेगा क्या मालुम नहीं। दिल हुआ है मुव्तिला दीदार का।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ६। विशेष—इस शब्द का व्यवहार प्रायः रोग, विपत्ति आदि के संबंध में ही होता है। जैसे,—(क) वे कई दिनों से बुखार में मुबतिला हैं। (ख) मैं भी आजकल एक आफत में मुवतिला हो गया हूँ।
⋙ मुबर्रा
वि० [अ० मुबर्रा] १. बरी किया हुआ। मुक्त। २. पवित्र। ३. पृथक्। अलग। ४. निःसंग। विरक्त [को०]।
⋙ मुबलग
वि० [अ० मुब्लग] १. भेजा हुआ। प्रेषित। २.खरा। जो खोटा न हो [को०]।
⋙ मुबलिग (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. धन की संख्या। रकम। २. मात्रा।
⋙ मुबलिग (२)
वि० दे० भेजनेवाला। २. दे० 'मुबलग'। विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः रुपए के साथ किया जाता है। जैसे, मुबलिग दस रुपए, जिसका अर्थ होता है भेजनेवाला खरे रुपए भेज रहा है।
⋙ मुबादिला †
संज्ञा पुं० [सं० मुबादलह्, मुबादिलह्] बदला। पलटा। एवज। अदल बदल आदान प्रदान।
⋙ मुबारक
वि० [अ०] १. जिसके कारण बरकत हो। २. शुभ। मंगलप्रद। मंगलमय। नेक। अच्छा। उ०—आज यह फत्ह का दरबार मुबारक होए।—भारतेंन्दु ग्रं० भा० १, पृ० २४२। ३. भाग्यशील। खुशकिस्मत (को०)।
⋙ मुबारकबाद
संज्ञा पुं० [अ० मुबारक + फ़ा० बाद] कोई शुभ बात होने पर कहना कि 'मुबारक हो'। बधाई। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।
⋙ मुबारकबादी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुबारक + फ़ा० बादी] १. 'मुबारक' कहने की क्रिया। बधाई। २. वे गीत आदि जो शुभ अवसरों पर बधाई देने के लिये गाए जाँय। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।
⋙ मुबारकी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुबारक + ई] दे० 'मुबारकबादी'।
⋙ मुबालिगा
संज्ञा पुं० [अ० मुबालिग़ह] बहुत बढ़ाकर कही हुई बात। लंबी चौड़ी बात। अत्युक्ति।
⋙ मुबाशरत
संज्ञा स्त्री० [अ०] सहवास। संभोग। रतिक्रीड़ा [को०]।
⋙ मुबाह
वि० [अ०] विहित। जायज (को०)।
⋙ मुबाहिसा
संज्ञा पुं० [अ० मुबाहसह्, मुबाहिसह्] किसी विषय के निर्णय के लिये होनेवाला विवाद। बहस।
⋙ मुब्तला
वि० [अ० मुब्तलह्] १. ग्रस्त। पकड़ा हुआ। २. फँसा हुआ। ३. मुग्ध। आसक्त [को०]।
⋙ मुब्तिला
वि० [अ० मुब्तिलह्] मुसीबत या संकट आदि में फँसा हुआ।
⋙ मुब्बी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उर्वी] पृथ्वी। धरित्री। उ०—नथ्थह मुब्बी बीर बर, बल बंकम घट घाइ।—पृ० रा०, २५।६०७।
⋙ मुमकिन
वि० [अ०] जो हो सकता हो। संभव।
⋙ मुमतहिन
संज्ञा पुं० [अ०] इम्तहान लेनेवाला। परीक्षा लेनेवाला। परीक्षक।
⋙ मुमानिअत, मुमानियत
संज्ञा स्त्री० [अ०] निषेध। प्रतिषेध। मनाही। रोक।
⋙ मुमुक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुक्ति की इच्छा। मोक्ष की अभिलाषा।
⋙ मुमुक्षु (१)
वि० [सं०] मृक्ति पाने का इच्छुक। मोक्ष का अभिलाषी। जो मुक्ति की कामना करता हो।
⋙ मुमुक्षु (२)
संज्ञा पुं० संन्यासी।
⋙ मुमुक्षुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुमुक्ष का भाव या धर्म।
⋙ मुमुख पु †
वि० [सं० मुमुक्षु] दे० 'मुमुक्षु'। उ०—जैसे आदि पुरुष वह कोई। मुमुखन भजन सुन्यौ हम सोई। नंद० ग्रं०, पृ० ३२०।
⋙ मुमुचान
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो मुक्त हो गया हो। वह जिसका मोक्ष हो गया हो। २. मेर्वे। बादल।
⋙ मुमुपिपु
संज्ञा पुं० [सं०] मूसनेवाला। चोर। तस्कर [को०]।
⋙ मुमूर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृत्यु को अभीलाषा मरने की इच्छा।
⋙ मुमृर्षु
वि० [सं०] जो मरने के समीप हो। जो मर रहा हो, आसन्नमृत्यु। उ०—आकर काल रूप रावण ने उन मुमूर्ष के निकट कहा।—साकेत०, पृ० ३८८।
⋙ मुयस्सर
वि० [अ०] दे० 'मयस्सर'।
⋙ मुरगिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मुरङ्गिका] मूर्वा।
⋙ मुरडा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुरणडा] भारत के पश्र्विमोत्तर दिशा की एक नगरी [को०]।
⋙ मुरडा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. भूने हुए गरमागरम गेहूँ में गुड़ मिलाकर बनाया हुआ लड्डु। गृड़धानी। उ०—पुनि संधाने आए बसाँधे। दूघ दही के मुरंडा बाँधे।—जायसी ग्रं०, पृ० १२४। २. पानी निकालकर पिंडाकार बँधा दही या छेना का मीठा और नमकीन खाद्यपदार्थ। उ०—असर दही कै मुरंडा बाँधे। औ सँधान बहु भाँतिन साधे।—जायसी (शब्द०)। मुहा०—मुरंडा करना = (१) गठरी सा बना देना। समेटकर लड्डु सा कर देना। (२) भून डालना। (३) बहुत मारना पीटना। (४) मोह लेना। मुग्ध कर लेना। आशिक बना लेना। मुरंडा बाँधना = दही या छेने को पानी निथारने के लिये कपड़े में बाँधकर लटकाना या दबाना।
⋙ मुरंडा
वि० सूखा हुआ। शुष्क। मुहा०—मुरंडा होना = (१) सुखकर काँटा हो जाना। जैसे,— चार दिन की मेहनत में मुरंडा हो गए। (२) मुग्घ होना। मोहित होना।
⋙ मुरंदला
संज्ञा स्त्री० [सं० मुरन्दला] नर्मदा नदी का एक नाम।
⋙ मुरंदा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मुरंडा'।
⋙ मुरँड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मुरंडा'।
⋙ मुर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेष्ठन। बेठन। २. एक दैत्य जिसे विष्णु ने मारा था और जिसे मारने के कराण उनका नाम 'मुरारि' पड़ा। उ०—मधु कैटभ मधन, मुर भौम केशी भिदन, कंस कुल काल अनुसार हारी।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुर (२)
अव्य० फिर। दोबारा।
⋙ मुरई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'मूली'।
⋙ मुरक
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुरकना] मुरकने की क्रिया या भाव।
⋙ मुरकना
क्रि० अ० [हिं० मुड़ना] १. लचककर किसी ओर झुकना। २. फिरना। घूमना। ३. लौटना। वापस होना। फिर जाना। ४. किसी अंग का झटके आदि के कारण किसी और तन जाना। किसी अंग का किसी और इस प्रकार मुड़ जाना कि जल्दी सीधा न हो। मोच खाना। जैसे, बाँह मुरकना, कलाई मुरकना। ५. हिचकना। रुकना। उ०—लोचन भरि भरि दोउ माता के कनछेदन देखत जिय मुरकी।—सूर (शब्द०)। ६. विनष्ट होना। चौपट होना। उ०—साहि सुव महबाहु सिवाजी सलाह बिन कोन पातसाह को न पातसाही मुरकी।—भूषण (शब्द०)।
⋙ मुरका †
संज्ञा पुं० [देश०] १. बहुत ऊँचा और बड़े बड़े दाँतोंवाला सुंदर हाथी। २. गड़ेरियों का भाज जो वे अपनी बिरादरी को देते हैं।
⋙ मुरकाना
क्रि० स० [हिं० मुरकना का स० रूप] १. फेरना। घुमाना। २. लोटाना। घुमाना। वापस करना। ३. किसी अंग में मोच लाना। ४. नष्ट करना। चोपट करना।
⋙ मुरकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुरकना (= घूमना)] कान में पहनने की छोटी बाली। उ०—बदन फेरि हाँसे हेरि इत करि ललचोहै नैन। उर उरकी दुरकी लुरक जुर मुरकी कर सैन।—स० सप्तक, पृ० ३९६। २. संगीत में आगे पीछे के स्वरों पर होते समय झटके से किसी स्वर पर जाना।
⋙ भुरकुल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की लता जो हिमालय में होती है और सिक्किम तक पाई जाती है। इसकी शाखाओं में से एक प्रकार का रेशा निकलता है जिससे रस्सियाँ आदि बनाई जाती हैं। इसे 'बेरी' भी कहते हैं।
⋙ मुरखाई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मुर्ख + हिं० आई (प्रत्य०)] मूर्खता। बेवकूफी। अज्ञता। उ०—तपू करति हर हित सुनि बिहँसि बटु कहत मुरखाई महा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मुरगा (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुर्ग] [स्त्री० मुरगी] १. एक प्रसिद्ध पालतू पक्षी। कुक्कुट। उ०—ह्वै है नहीं मुरगा जिहि गाँव भटू तिहि गाँव का भोर ना ह्वै हे।—ठाकुर०, पृ० ३०। विशेष—यह पक्षी सफेद, पीले और लाल आदि कई रंगों का और खड़ा होने पर प्रायः एक हाथ से कुछ कम ऊँचा होता है। इसके नर के सिर पर एक कलगी होती है। यह अपनी शानदार चाल और प्रभात के समय 'कुकड़ू कू' बोलने के लिय प्रसिद्ध है। यह प्रायः घरों में पाला जाता है। लोग इसे लड़ाते और इसका मांस भी खाते है। इसके बच्चे को चूजा कहते हैं। २. पक्षी।—चिड़िया। मुहा०—मुरगा बनाना = एक प्रकार की यंत्रणा। अपराधी को उकड़ूँ बैठाकर घुटनों के बीच से निकले दोनों हाथों से कान पकड़वाना।
⋙ मुरगा † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुर्वा] दे० 'मूर्वा'।
⋙ मुरगाबी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मुरग़ाबी] मुरगे की जाति का एक पक्षी। जलकुक्कुट। जलमुरगा। विशेष—यह जल में तैरता और मछलियाँ पकड़कर खाता है। यह पानी के भीतर बहुत देर तक गोता मारकर रह सकता है। इसके पर कोमल होते हैं और नर मादा दोनों प्रायः एक से ही होते हैं।
⋙ मुरगाली
संज्ञा स्त्री० [सं० मुरङ्गिका] मूर्वा।
⋙ मुरचंग
संज्ञा पुं० [हिं० मुँहचंग] लोह का बना हुआ मुँह से बजाने का एक प्रकार का बाजा जिससे ताल देते हैं। मुँहचंग। मुहा०—मुरचंग झाड़ना = आनंद करना। चैन करना। (व्यंग)।
⋙ मुरचा
संज्ञा पुं० [फ़ा० मोरचह्] दे० 'मोरचा'। उ०—कहैं कबीर काया का मुरचा सिकल किए बनि आवै।—कबीर श०, भा० ३, पृ० २६।
⋙ मुरची
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चिम दिशा के एक देश का नाम।
⋙ मुरछाना पु
क्रि० अ० [सं० मुर्च्छन] १. शिथिल होना। २. अचेत होना। बेसुध होना। बेहोश होना। उ०—अधर दसनन भरे कठिन कुच उर लरे परे सुख सेज मन मुरछि दोऊ।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुरछल
संज्ञा पुं० [हिं० मोर + छड़] दे० 'मोरछल'।
⋙ मुरछा
संज्ञा स्त्री० [सं० मु्र्च्छा] दे० 'मूर्च्छा'। उ०—सुनत ही हरिदास को मुरछा आइ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १८३।
⋙ मुरछाना पु †
क्रि० अ० [सं० मुर्च्छा] अचेत होना। मूर्च्छित होना। बेहोश होना। उ०—तात मरन सुनि श्रवण कृपानिधि धरणि परे मुरछाई। मोह मगन लोचन चल धारा बिपति ह्वदय न समाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुरछावंत पु
वि० [सं० मुर्च्छा + वंत (प्रत्य०)] मूर्छित। बेहोश। अचेत। उ०—धरम धुरंधर श्री रघुराई। मुरछावंत भए मुनिराई।—मधुसूदन (शब्द०)।
⋙ मुरछित पु
वि० [सं० मूर्च्छित] दे० 'मूर्च्छित'। उ०—जोगी अकंटक भए पतिगति सुनत रति मुरछित भई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मुरज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृदंग। पखावज। उ०—(क) कोउ मंजु मुरज अमोल ढोलन तबल अमल अपार हैं।—रघुराज (शब्द०)। (ख) रुज मुरज डफ ताल बाँसुरी झालर को झंकार।—सूर (शब्द०)। २. एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसमें पद्य के अक्षरों को इस प्रकार रखते हैं कि वे मृदंग को आकृति के बन जायँ। पद्य के अनेक बंधों में से एक का नाम। उ०— खंग कमल कंकन डमरु चंद्र चक्र धनु हार। मुरज, छत्रजुत बंध बहु पर्वत वृक्ष केंवार।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० २०३।
⋙ मुरजफल
संज्ञा पुं० [सं०] कटहल का वृक्ष।
⋙ मुरजित्
संज्ञा पुं० [सं०] मुर नामक राक्षस को जीतनेवाले, श्रीकृष्ण। मुरारि।
⋙ मुरजीवा †
संज्ञा पुं० [हिं० मरना + जीना] गोताखोर। दे० 'मरजिया'।उ०—उतने ही मुरजीवा की तरह रत्न और मोती लेकर आवैंगे।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० २०५।
⋙ मुरझना पु
क्रि० अ० [सं० मूर्च्छन] १. मूर्छित होना। उ०— गंडन सों मिलि ललित गंडमंडल मंडित छवि। कुंडल सों कच उरुझे मुरझे जहँ बड्डे कवि।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४। २. कुम्हला जाना।
⋙ मुरझाना
क्रि० अ० [सं० मूर्च्छन] १. फूल या पत्ती आदि का कु्म्हलाना। सूखने पर होना। २. सुस्त हो जाना। उदास होना। उ०—(क) गिरि मुरझाइ दया आइ कछू भाय भरे ढरे प्रभु ओर मति आनँद सों भीनी है।—प्रियादास (शब्द०)। (ख) सखी कुरंगिके, यह हिम उपचार तो मुझ कमल की लता को और भी मुरझा देगा।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । (ग) देव मुरझाइ उरमाल कह्यो दीजै सुरझाइ बात पूछी है छेम की।—देव (शब्द०)। संयो० क्रि०—जाना।
⋙ मुरड़ †
संज्ञा पुं० [डिं०] गर्व। अभिमान। दर्प। अहंकार।
⋙ मुरड़की †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मरोड़'।
⋙ मुरतंगा
संज्ञा पुं० [देश०] भारत के पूर्वी क्षेत्र में होनेवाला एक प्रकार का ऊँचा पेड़। विशेष—इस पेड़ के हीर की लकड़ी लाल और कड़ी होती है और इससे सजावट के सामने बनाए जाते हैं। यह पेड़ आसाम, बंगाल और चटगाँव में अधिकता से पाया जाता है।
⋙ मुरत पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्त्ती] दे० 'मूर्त्ती'।
⋙ मुरतहिन
संज्ञा पुं० [अ०] वह जिसके पास कोई वस्तु रेहन या गिरों रखी जाय। जिसके पास बंधक रखा जाय। रेहनदार।
⋙ मुरता
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली झाड़ जो पूर्वी बंगाल और आसाम में होता है। इससे प्रायः चटाई वा सीतल- पाटी बनाई जाती है।
⋙ मुरति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्त्ती] दे० 'मूर्त्ती'। उ०—नंद महर के आँगन मोहन मुरति बिना देखहुँ न परे कल भूलि काम धाम आछो बदन निहार।—नंद, ग्रं० पृ० ३५४।
⋙ मुरती †
संज्ञा पुं० [सं० मूर्त्ती] शरीर। रूपाकार। आदमी। मूर्ती। उ०—मुजफ्फरपुर जिला का एक 'मुरती' आया है।—मैला०, पृ० ७२।
⋙ मुरद †
संज्ञा पुं० [फ़ा०, सं० मृनक] दे० 'मुरदा'।—दादू०, पृ० ५१७।
⋙ मुरदर पु
संज्ञा पुं० [सं०] मुरारि। श्रीकृष्ण। उ०—जिमि मुरदर तकि अचुर कंध धरि धुनकर सरछुर।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ मुरदा (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुरदहु मुर्दहु, मि० सं० मृतक] १. वह जो मर गया हो। मरा हुआ प्राणी। मृतक। २. ताजिया। ३. मजार। कब्र। उ०—पाथर पूजन हिंदु भुलाना। मुरदा पूज भूले तूरकाना।—कबीर सा०, पृ० ८२०। मुहा०—मुरदा उठना = मर जाना। (गाली)। जैसे,—उसका मुरदा उठे। मुरदा उठाना = मृतक को उठाकर जलाने या गाड़ने आदि के लिये ले जाना। अंत्येष्टि क्रिया के लिये ले जाना। मुरदे से शर्त बाँधकर सोना = बहुत अधिक सोना। मुरदे का माल = वह माल जिसका काई वारिस न हो। मुरदे की नींद सोना = बेखबर होकर सोना। खुराटे भरना।
⋙ मुरदा (२)
वि० १. मरा हुआ। मृत्यु को प्राप्त। मृत। २. जो बहुत ही दूर्बल हो। जिसमें कुछ भी दम न हो। ३. मुरझाया हुआ। कुम्हलाया हूआ। जैसे, मुरदा पान। यौ०—मुरदाखोर = मुरदा खानेवाला। मुरदादिल = जिसका मन बहुत ही उचाट और नीरस हो। मुग्दासंग = दे० 'मुरदासंख'। मुरदासन। मुरदामिधी।
⋙ मुरदादिली
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मुरदह् दिली] मन का खिन्न होना। उचाट [को०]।
⋙ मुरदार (१)
वि० [फ़ा०] १. अपनी मौत से मरा हुआ। मृत। २. अपवित्र। ३. बेदम। बेजान। जैसे,— हाथ का चमड़ा मुरदार हो गया है। ४. दुबला, कमजोर।
⋙ मुरदार (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह जानवर जो अपनी मौत से मरा हो और जिसका मासं खाया न जा सकता हो।
⋙ मुरदारी
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुरदार + ई (प्रत्य०)] अपनी मौत से मरे हुए जानवर का चमड़ा।
⋙ मुरदासख
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुरदार संग, मुरदह् संग] एक प्रकार का औषध जो फूँके हुए सीसे और सिंदूर से बनता है।
⋙ मुरदासन पु
संज्ञा पुं० [हिं० मुरदासंख] दे० 'मुरदासंख'। उ०— मिरिच मोचरस मौदा लकरी। मुरदासन मनुसिल मिसमकरी।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मुरदासिंघी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुरदासंख'।
⋙ मुरदेस, मुरधर
संज्ञा पुं० [सं० मुरुधरा] मारवाड़ देश का प्राचीन नाम। मृरदेश। मुरधरा। मुरभूमि। उ०—(क) मुरधर देश में बिलौंदा नाम ग्राम एक, तहाँ के निवासी संत दूसरे मुरारिदास।—रघुराज (शब्द०)। (ख) मुरधर खंड भूप सब आज्ञाकरी। राम नाम बिस्वास भक्तपद राज व्रतधारी।—प्रियदास (शब्द०)।
⋙ मुरना पु
क्रि० अ० [हिं० मुड़ना] दे० 'मुड़ना'। उ०—(क) एकते एक रणवीर जोधा प्रबल मुरत नहिं नेक अति सबल जी के।—सूर (शब्द०)। (ख) तुरत सुरत केसें दुरत मुरत नैन जुरि नीठ। डौँड़ी दै गुन रावरे कहै कनौड़ी दीउ।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मुरपरैना ‡
संज्ञा पुं० [हिं० धूँड़ (= सिर) + पारना (रखना)] फेरी करके सौदा बेचनेवालों का बुकचा। सिर पर रखकर बेचने का वस्तुओं का बोझ। उ०—ऊधो बेगि मधुबन जाहु। हम बिरहिनी नारि हरि बिन कौन करै निबाहु। तहीं दीजै मुरपरैना नफो तुम कछु खाहु। जो नहीं ब्रज में बिकानो नगर नारी साहु। सूर वै सब सुनत लैहैं जिय कहा पछिताहु।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुरब्बा (१)
संज्ञा पुं० [अ० मुरब्बह्] चीनी या मिसरी आदि की चाशनी में रक्षित किया हुआ फलों या मेवों आदि का पाक जो उत्तम खाद्य पदार्थों में माना जाता है। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना।—बनाना।
⋙ मुरब्बा (२)
संज्ञा पुं० [अ० मुरब्बअ] १. ऐसा चतुष्कोण जिसके चारों भुज बरावर हों। २. किसी अंक को उसी अंक से गुणन करने से प्राप्त फल। वर्ग।
⋙ मुरब्बा
वि० उसी अंक से गुणन द्बारा प्राप्त। वर्गीकृत। जैसे, मुरब्बा गज।
⋙ मुरब्बी
संज्ञा पुं० [अ०] १. पालन करनेवाला। २. रक्षक। आश्रयदाता। ३. सहायक। मददगार।
⋙ मुरमर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु या श्रीकृष्ण। मुरारि।
⋙ मुरमुरा
संज्ञा पुं० [अनु०] १. भुने मक्के या ज्वार की ठुर्रो। एक प्रकार का भुना हुआ चावल जो अंदर से पीला होता है। फरवी। लाई।
⋙ मुरमुराना
क्रि० अ० [मुरमुर से अनु०] १. ऐंठन खाकर टूट जाना। चूर चूर हो जाना। चुरमुर हो जाना। २. कड़ी या खरी चीज का टूटने पर शब्द करना।
⋙ मुररिपु
संज्ञा पुं० [सं०] मुर नाम्क दैत्य को मारनेवाले, विष्णु। मुरारि। उ०—मूर मूररिपु रंग रंगे सखि सहित गोपाल।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुररिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुड़ना, मुरना या मरोड़ना] दे० 'मुर्री'। उ०—त्रिभुवननाथ जो भंजन लागे श्याम मुररिया दोना। चाँद सूर्य दुइ गोड़ा कीन्हें माँझ दीप किय तीना।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मुरल
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था। २. एक प्रकार की मछली।
⋙ मुरला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नर्मदा नदी। २. केरल देश की काली नाम की नदी।
⋙ मुरलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुरली। बंसी। बाँसुरी। उ०—(क) अँखियनी की सुधि भूलि गई। श्याम अधर मृदु सुनत मुरलिका चकृत नारि भईं।—सूर (शब्द०)। (ख) उर पर पदिक कुसुम बनमाला अँग धुकधुकी बिराजै चित्रित बाहु पौंचिआँ पौचैं हाथ मुरलिका छाजै।—सूर (शब्द०)। (ग) वन वन गाय चरावत डोलत काँध कमरिया राजै। लकुटी हाथ गरे गुँजमाला अधर मुरलिका बाजै।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुरलिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० मुरलिका] मुरली। बंशी। उ०— खड़ी एक पग तप कियो सहि बहु भाँति दवागि। ताही पुन्यन मुरालया रहत स्याम मुख लागि।—सुकवि (शब्द०)। विशेष—हिंदी में शब्द के अंत में जोड़े हुए आ, वा, या आदि अक्षर कुछ विशिष्टता सूचित करते हैं; जैसे, 'हरवा' का अर्थ होगा।—'हारविशेष' इसी प्रकार मुरलिया का अर्थ भी 'मुरली- विशेष' होगा।
⋙ मुरली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाँसुरी नाम का प्रसिद्ध बाजा जो र्मुंह से फूँककर बजाया जाता है। वंशी। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द के साथ 'वाला' या उसका कोई पर्याय लगाने से 'श्रीकृष्ण' का अर्थ निकलता है। २. एक प्रकार का चावल जो आसाम में होता है।
⋙ मुरलीधर
संज्ञा पुं० [सं०] मुरली धारण करनेवाले, श्रीकृष्ण। उ०—गिरिधर ब्रजधर मुरलीधर धरनीधर पीतांबरधर मुकुटधर गोपधर उर्गधर शंखधर शारंगधर चक्रधर गदाधर रस धरें अधर सुधाधर।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुरलीमनोहर
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण का एक नाम।
⋙ मुरलीवाला
संज्ञा पुं० [सं० मुरली + हिं० वाला (प्रत्य०)] १. श्रीकृष्ण। २. वह जिसके पास मुरली हो।
⋙ मुरवा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एड़ी के ऊपर की हड्डी के चारों ओर का घेरा। पैर का गिट्टा। उ०—(क) एड़िन चढ़ि गुलुफन चढ़ी मुरवन बची दवाइ। सो चित चिकने जधन चढ़ि तितहिं परो बिछिलाई।—रामसहाय (शब्द०)। (ख) लखि प्रभु पाछे पाउँ पसारा। परसि बही मुरवन तक धारा।—विश्राम (शब्द०)। (ग) रह्यो ढीठ ढारस गहै ससहर गयौ न सूर। मुरयो न मन मुरवान चुभि भौ चूरन चपि चूर।—बिहारी (शब्द०)। २. एक प्रकार की कपास जो ३४ वर्ष तक फलती है।
⋙ मुरवा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मयूर] दे० 'मोर'।
⋙ मुरवी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मौर्वी] धनुष की डोरी। प्रत्यंचा। चिल्ला। उ०—बान चढ़ावन की कहा करि मुरवी टंकार। हरत दूर हीं ते बिधन मनहु चाप हुंकार।—शंकुतला, पृ० ४३।
⋙ मुरवैरी
संज्ञा पुं० [सं० मुरवैरिन्] श्रीकृष्ण। मुरारी।
⋙ मुरव्वत
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'मुरौवत'।
⋙ मुरशिद
संज्ञा पुं० [अ०] १. गुरु। पथप्रदर्शक। २. पूज्य। ३. धूर्त। चालाक। वंचक। उस्ताद। (व्यंग्य)।
⋙ मुरषंड पु
संज्ञा पुं० [सं० मुरखण्डना] सुर दानव का खंडन करने वाले-विष्णु।
⋙ मुरसिद
संज्ञा पुं० [अ० मुरशिद] दे० 'मुरशिद'। उ०—फल में फूल फूल में फल है, रोसन नबी का नूरा है। पलटूदास नजर नजराना, पाया मुरसिद पूरा है।—पलटू०, भा० ३, पृ० ८०।
⋙ मुरसुत
संज्ञा पुं० [सं०] मुर दैत्य का पुत्र वत्सासुर। उ०—मुरसुत हो प्रमोल सो जाई। गृह वसिष्ठ के देख्या गाई।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ मुरस्सा
वि० [अ० मुरस्सह्] जड़ा हुआ। जड़ाऊ। जटित। उ०— मुरस्सा के खुश एक पिंजरे में छोड़। रख्या ल्या के सूआ के नजदीक जोड़।—दक्खिनी०, पृ० ८०।
⋙ मुरस्साकार
संज्ञा पुं० [अ० मुरस्सह् + फ़ा० कार] गहनों में नग या मणि जड़नेवाला। जड़िया।
⋙ मुरस्साकारी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुरस्सह् + फ़ा० कारी] गहनों में नग आदि जड़ने का काम।
⋙ मुरस्सानिगार
संज्ञा पुं० [अ० मुरस्सह् + फ़ा० निगार] खुशखत। सुंदर अक्षर लिखनेवाला।
⋙ मुरहाँ
संज्ञा पुं० [हिं० मूँड + हाँ (प्रत्य०)] मस्तक। सिर।
⋙ मुरहा (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूर को मारनेवाले, विष्णु या श्रीकृष्ण।
⋙ मुरहा † (२)
वि० [सं० मुल (नक्षत्र) + हा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० मुरही] १. (बालक) जो मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुआ हो, (ऐसा बालक माता पिता के लिये दोषी माना जाता है)। २. जिसके माता पिता मर गए हों। अनाथ। यतीम। ३. नटखट उपद्रवी। शरारती।
⋙ मुरहा † (३)
संज्ञा पुं० [हिं० मुराना] वह जो चलते हुए कोल्हू में गँड़ेरियाँ डालता है।
⋙ मुरहारी
संज्ञा पुं० [सं०] मुर दैत्य को मारनेवाले विष्णु या श्रीकृष्ण। उ०—थक जगत समुझाय सब, निपट पुराण पुकारि। मेरे मन वे चुभि रहे, मधुमर्दंन मुरहारि।—केशव (शब्द०)।
⋙ मुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रसिद्ध गंधद्रव्य जिसे 'एकांगी' या 'मुरामासी' भी कहते हैं। दे० 'एकांगी-३'। २. कथा- सरित्सागर के अनुसार उस नाइन का नाम जिसके गर्भ से महानंद का पुत्र चंद्रगुप्त उत्पन्न हुआ था।
⋙ मुराकबा पु
संज्ञा पुं० [अ० मुराक़बह्] मसाधि। योग। धारणा। उ०—गूप्तठ म जब जाय लगा मुराकबे नजरि मे आवता है।—पलटू०, पृ० ५१।
⋙ मुराड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] जलती हुई लकड़ी। लुआठा। उ०—हम घर जारा आपना लिया मुराड़ा हाथ। अब घर जारौं तासु का जो चलै हमारे साथ।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मुराद
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. अभीलाषा। इच्छा। लालसा। कामना उ०—सब की मिलै मुराद गँब की नौबत बाजी। इक दुनियाँ इक दीन दीऊ को राखै राजी।—पलटू०, पृ० ६३। क्रि० प्र०—पूरी करना या होना।—हासिल होना, आदि। मुहा०—मुराद आना = अभिलाषा पूरी होना। मुराद पाना = मनोरथ पूर्ण होना। मुराद बर आना = मुराद पाना। मुराद माँगना = मनोरथ पूरा होने की प्रार्थना करना। मुराद मानना = मन्नत मानना। मनोती करना। मुरादी के दिन = युवावस्था। जवानी। २. अभिप्राय। आशय। मतलब। क्रि० प्र०—रखना।—लेना। यौ०—मुराद दावा = नालिश करने का अभिप्राय। दावा करने का मतलब या उद्देश्य।
⋙ मुरादी
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह जो कोई कामना रखता हो। अभिलाषी। आकाक्षी।
⋙ मुराना पु (१)
क्रि० स० [अनु० मुरसुर (= चबाने का शब्द)] मुँह में कोई चीज डालकर उसे मुलायम करना। चुभलाना। उ०— सोइ बीरी मुख मेलियो लगे मुरावन सोय।/?/बीरी को राग मुख प्रगट लख्यो सब कोय।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मुराना (२)
क्रि० स० [हिं० मोड़ना] दे० 'मोड़ना'।
⋙ मुराफा
संज्ञा पुं० [अ० मुराफ़अ] छोटी अदालत में हार जाने पर बड़ी अदालत में फिर से दावा पेश करना। अपील।
⋙ मुरायठ †
संज्ञा पुं० [हिं० मुरेठा] दे० 'मुरेठा'।
⋙ मुरार (१)
संज्ञा पुं० [सं० मृणाल] कमल की जड़। कमलनाल। उ०—छीनी तार मुरार सी तिहिं दीनी समुझाय। चोखी चितवनि यार की कटि न कहू कटि जाय।—स० सप्तक, पृ० २४४।
⋙ मुरार पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मुरारि] दे० 'मुरारि'।
⋙ मुरारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुर दैत्य के शत्रु, विष्णु या श्रीकृष्ण। २. डगण के तीसरे भेद (/?/) की संज्ञा। (पिंगल)।
⋙ मुरारी
संज्ञा पुं० [सं० मुरारि] दे० 'मुरारि'।
⋙ मुरारे
संज्ञा पुं० [सं०] मुरारि का संबोधन। उ०—बालसखा की विपत विहंडन संकट हरन मुरारे।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुरासा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मुरना, मुरका] तरकी। कर्णफूल। उ०—लसै मुरासा तिय स्रवन यौं मुकुतनि दुति पाइ।—मानो परस कपोल के रहे स्वेद कन छाइ।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मुरासा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मुँडासा'।
⋙ मुरिझाना पु †
क्रि० अ० [सं० मूर्च्छन] दे० 'मुरझाना'। उ०— मन हरि लीनो स्याम, परी राघे मुरिझाई।—नंद० ग्रं०, पृ० १९६।
⋙ मुरिता पु
वि० [हिं० मुड़ना ?] विलासयुक्त। चंचल। उ०—जु चलै मुरि मारुत झंकुरिता। सु मनों मुरवेस मुरी मुरिता।—पृ० रा०, २५।९३।
⋙ मुरीद
संज्ञा पुं० [अ०] १.शिष्य। चेला। २. वह जो किसी का अनुकरण करता या उसके आज्ञानुसार चलता हो। अनुगामी। अनुयायी। उ०—मम्मा मन मुरीद होइ नहीं आपुवै पीर कहावै।—पलटू०, पृ० ७६।
⋙ मुरु पु
संज्ञा पुं० [सं० मुर] दे० 'मुर'।
⋙ मुरुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] एड़ी के ऊपर का घेरा। पैर का गट्टा। मुरवा। उ०—जो पाँव के मुरुओं मे होता है।—नूतना- मृतसागर (शब्द०)।
⋙ मुरुकुटिया †
वि० [हिं० मरकट + इया (प्रत्य०)] दे० 'मरकट'।
⋙ मुरुख पु †
वि० [सं० मूर्ख] दे० 'मुर्ख'। उ०—दिसिटिवंत कहँ नीअरे अंध मुरुख कहँ दूरी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मुरुखाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुरुख + आई (प्रत्य०)] मूर्खता। मौर्ख्य।
⋙ मुरुछना पु (१)
क्रि० अ० [सं० मूर्च्छन] दे० 'मुरछना'। उ०—परेउ मुरुछि महि लागत सायक।—मानस, ६।५८।
⋙ मुरुछना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्च्छना] दे० 'मूर्च्छना'।
⋙ मुरुछा
संज्ञा पुं० [सं० मूर्च्छा] दे० 'मूर्च्छा'। उ०—गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नप फिरि करवट लीन्ह। मानस, २।४३।
⋙ मुरुझना पु †
क्रि० अ० [सं० मूर्च्छन, हिं० मुरझाना] मूर्च्छित होना। दे० 'मुरझाना'। उ०—साँस भरै उर अति संताप। अरुझे मुरझे करै प्रलाप।—नंद ग्रं०, पृ० १५१।
⋙ मुरेठा
संज्ञा पुं० [हिं० मूड़ (= सिर) + एठा (प्रत्य०)] १. पगड़ी। मुरायठ। साफा। क्रि० प्र०—बाँधना। २. दे० 'मुरैठा'।
⋙ मुरेर
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुड़ना] दे० 'मरोड़'।
⋙ मुरेरना †
क्रि० स० [हिं० मरोरना] दे० 'मरोड़ना'।
⋙ मुरेरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'मुड़ेरा' २. दे० 'मरोड़'।
⋙ मुरैठा †
संज्ञा पुं० [हिं० मुरेठा] १. दे० 'मुरेठा'। २. नाव की लंबाई में चारों और घूमी हुई गोट जो तान चार इंच मोटे तख्तों से बनाई जाती है और 'गूढ़ा' के ऊपर रहती है।
⋙ मुरौअत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुरुव्वत, मुग्व्वत] दे० 'मुरौवत'। उ०—बेतरह जो मुँह मुरौवत कामले। दे गिरा जो मेल मुँह के बल हमें।—चूभते०, पृ० ६६।
⋙ मुरौवत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुग्व्वत, मुरुव्वत] १. शील। संकोच। लिहाज। मुहा०—मुरौवत तोड़ना = रुखाई का व्यवहार करना। शील के विरुद्ध आचरण करना। २. भलमनसी। आदमीयत। क्रि० प्र०—करना।—बरतना।
⋙ मुरौवती
वि० [हिं० मुरौवत + ई (प्रत्य०)] संकोची। मुरौवतवाला।
⋙ मुर्ग
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुर्ग़] दे० 'मुरगा'।
⋙ मुर्गकेश
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुर्ग़ + केश (= चोटी)] मरसे की जाति का एक पौधा जिसमें मुरगे के चोटी के से गहरे लाल रंग के चौड़े चौड़े फूल लगते हैं। इसे 'जटाघारी' भी कहते हैं।
⋙ मुर्गखाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुर्ग़खानह्] मुरगों के रहने के लिये बनाया हुआ स्थान।
⋙ मुर्गबाज
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुर्ग़बाज़] वह जो मुरगे लड़ाता हो। मुरगों का खेलाड़ी।
⋙ मुर्गबाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मुर्ग़बाजी़] मुरगे लड़ाने का काम या भाव।
⋙ मुर्गमुसल्लम
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुर्ग़ + अ० मुसल्लम] समूचा पकाया हुआ मुरगा। उ०—मुझे तो आप मुर्गमुसल्लम न खिलाइएगा तो मैं भाग खड़ा होऊँगा।—शराबी, पृ० १२।
⋙ मुर्गाबी
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुर्ग़ + आबी] दे० 'मुरगाबी'।
⋙ मुर्चा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मोरचा'।
⋙ मुर्तकिब
वि० [अ०] अपराध करनेवाला। अपराधी। कसुरवार। मुजरिम।
⋙ मुर्दनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मुर्दन (= मरना) + ई (प्रत्य०)] १. आकृति का वह विकार जो मरने के समय अथवा मृत्यु के कारण होता है। मुख पर प्रकट होनेवाले मृत्यु के चिह्न। मुहा०—चेहरे पर मुर्दनी छाना या फिरना = (१) मुख पर मृत्यु के चिह्न प्रकट होना। (२) बहुत अधिक निराश या उदास होना।२. शव के साथ उसकी अंत्येष्टि क्रिया के लिये जाना। मुर्दे के साथ उसे गाड़ने या जलाने के स्थान तक जाना। ३. मृतक की अंत्येष्टि क्रिया के लिये जानेवालों का समूह। क्रि० प्र०—में जाना।
⋙ मुर्दा
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुर्द्दह] दे० 'मुरदा'। उ०—साधी ई मृर्दन कै गाँव।—कबीर श०, भा० २, पृ० ४२।
⋙ मुर्दावली (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मुर्दन (= मरना)] दे० 'मुर्दनी'।
⋙ मुर्दावली (२)
वि० मृतक के संबंध का। मुरदे का।
⋙ मुर्दासिंगी
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुरदासंग] दे० 'मुरदासंख'।
⋙ मुर्मुर
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कामदेव। २. सूर्य के रथ के घोड़े। ३. भूसी की आग। तुषाग्नि। ४. गोमूत्र का गंध (को०)।
⋙ मुर्रा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मरोड़ या मुड़ना] १. मरोड़फली नाम की ओषधि। इसकी लता जंगलों में होती है। २. पेट में ऐंठन होकर पतला मल निकलना और बार बार दस्त होना। मरोड़। ३. पेट का दर्द।
⋙ मुर्रा (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुड़ना] हिसार और दिल्ली आदि में होनेवाली एक प्रकार की भैंस। विशेष—इसके सींग छोटे, जड़ के पास पतले और ऊपर की ओर मुड़े हुए होते हैं। इस जाति की भैंस और भैंसे दोनों बहुत अच्छे समझे जाते हैं।
⋙ मुर्रा (३)
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'मुरमुरा'।
⋙ मुर्रातिसार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मरोड़'।
⋙ मुर्री
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुड़ना या मरोड़ना] १. दो डोरों के सिरों को आपस में जोड़ने की एक क्रिया जिसमें गाँठ का प्रयोग नहीं होता, केवल दोनों सिरों को मिलाकर मरोड़ या बट देते हैं। २. कपड़े आदि में लपेटकर डाली हुई ऐंठन या बल। जैसे; धोती की मुर्री। मुहा०—मुर्री देना = (१) कपड़ा फाड़ते समय उसके फटे हुए अंश को बराबर घुमाते या मोड़ते जाना जिसमें कपड़ा बिलकुल सीधा फटे। (बजाज)। (२) धोती को ठहराने के लिये कमर पर कई बल लपेटकर छल्ला सा बनाना। ३. कपडे़ आदि को मरोड़कर बटी हुई बत्ती। यौ०—मुर्री का नैचा। ४. चिकना या कशीदे की कढ़ाई का एक प्रकार जिसमें बटे हुए सुत का व्यवहार होता है और जिसका काम उभारदार होता है। ५. एक प्रकार की जंगली लकड़ी।
⋙ मुर्री का नैचा
संज्ञा पुं० [हिं० मुर्री + नैचा] एक प्रकार का नैचा जिसमें कपड़े की मुर्री या बत्ती बनाकर कसकर लपेटते जाते हैं। विशेष—यह देखने में उल्टी चीन ही की तरह जान पड़ती है, परंतु वस्तुतः बत्ती होती है। इस बनावट का नैचा उतना दृढ़ नहीं होता। जहाँ कपड़ा सड़ता है, वहीं से बत्ति टूटने लगती है और बराबर खुलती ही चली जाती है।
⋙ मुर्रीदार
वि० [हिं० मुर्री + फ़ा० दार (प्रत्य०)] जिसमें मुर्री पड़ी हो। ऐंठनदार।
⋙ मुर्वा
संज्ञा पुं० [सं०] मरूल या गोरचकरा नाम का जंगली पौधा जिससे प्राचीन काल मे प्रत्यंचा की रस्सी बनाई जाती थी। विशेष दे० 'गोरचकरा'।
⋙ मुर्वी
वि० [सं०] धनुष की प्रत्यंचा।
⋙ मुर्शद
संज्ञा पुं० [अ० मुर्शिद्] दे० 'मुर्शिद'। उ०—मुर्शिद बगैर कामिल करप खूब रह सूँ शामिल। तब होएगा तूँ आमिल नित हसत रह तूँ मीराँ।—दक्खिनी०, पृ० ११२।
⋙ मुर्शिद्
संज्ञा पुं० [अ०] १. सुमार्ग बतानेवाला। मार्गदर्शक। गूरु। २. श्रेष्ठ। बड़ा। ३. उस्ताद। चतुर। चालाक। होशियार। ४. पाजी। नटखट। धूर्त्त। (व्यंग्य)।
⋙ मुल पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुल] दे० 'मूल'। उ०—लोभे अधिक मूल न मार। जे मुल राखए से बनिजार।—विद्यापति, पृ० २९६।
⋙ मुल † (२)
अव्य० [देश०] १. मगर। लेकिन। पर। (पश्चिम)। २. तात्पर्य यह कि। मतलब यह कि।
⋙ मुलक ‡
संज्ञा पुं० [अ० मुक्ष्क] दे० 'मुल्क'। उ०—नव नागरि तन मुलक लहि जोबन आमिल जोर। घटि बाढ़े तें बढ़ि घाटे रकम करी और की और।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मुलकट
संज्ञा स्त्री० [देश०] अँगिया का वह भाग जो स्तनों पर पड़ता है। आँगया की कटोरी।
⋙ मुलकना पु
क्रि० अ० [सं० पुलकित ? या सं० मुकुलित] मंद नंद हँसना। पुलकित होना। नेत्रों में हँसी प्रकट करना। मुसकराना। उ०—(क) मुलकत ढोलउ चमकियउ बीजल खिवी क दंत।—ढाला०, दू० ५४२। (ख) सकुचि सरकि पिय निकट तें मुलकि कछुक तन तोरि। कर आँचर की ओट करि जमुहानी मुख मोरि।—बिहारी (शब्द०)। यौ०—पुलकना मुलकना। उ०—कवि देव कछू मुलकै पुलकै उरकै उर प्रेम कलोलनि पै।—देव (शब्द०)।
⋙ मुलकित पु
वि० [सं० पुलकित ? हिं० मुलकना] १. प्रसन्न। पुलकित। प्रफुल्ल। उ०—पर तिय दोष पुरान सुनि हाँसे मुरली सुखदानि। कसि करि राखी मिसरहू मुख आई मुसुकानि। मुख आई मुसुकानि मिसरहू कस करि राखी। सर्व दोषहर राम नाम की कीरति भाखी। बातन ही बहराय और की और कथा किय। सुकाव चतुर सब समुझि गय लखि मुलकित पर तिय।—सुकवि (शब्द०)। २. मंद मंद र्हसता हुआ। मुस्कराता हुआ। उ०—ऊचँ चितँ सराहियतु गिरह कबूतर लेतु। झलकति दृग मुलाकत बदनु तनु पुलकित तिहि हेतु।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ मुलकी
वि० [अ० मुल्क] १. दे० 'मुल्की'। २. देशी। विलायती का उलटा। उ०—पाति सिधु मुलकी तुरंगन के कुलकी बिसाल ऐसी पुलकी सुचाल तेसी दुलकी।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ मुलजिम
वि० [अ० मुलज़िम] जिसके ऊपर किसी प्रकार का इलजाम लगाया गया हो। जिसपर कोई अभियोग हो। अभियुक्त।
⋙ मुलतवी
वि० [अ० मुल्तवी] जो कुछ समय के लिये रोक दिया गया हो। स्थगित। जैसे,—(क) अब आज वहाँ का जानामुलतवी रखिए। (ख) जलसा दो दिन के लिये मुलतवी हो गया। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—रहना।—होना।
⋙ मुलतान
संज्ञा पुं० [सं० मूलस्थान] एक प्रसिद्ध नगर जो पश्रिमी पंजाब में है।
⋙ मुलतानी (१)
वि० [हिं० मुलतान (नगर)] मुलतान का। मुलतान संबंधी।
⋙ मुलतानी (२)
संज्ञा स्त्री० १. एक रागिनी जिसमें गांधार और धैवत कोमल, शुद्ध निपाद और तीव्र मध्यम लगता है। इनके अतिरिक्त तीनों स्वर शुद्ध लगते हैं। संगीत शास्त्र में इसे श्रीराग की रागिनी कहा है और हनुमत् के मत से यह दीपक राग की रागिनी है। इसके गाने का समय २१ से २४ दंड तक है। २. एक प्रकार की बहुत कोमल और चिकनी मिट्टी जो मुलतान से आती है। विशेष—इसका रंग बादामी होता है और यह प्रायः सिर मलने में साबुन की तरह काम में आती है। इससे सोनार लोग सोना भी साफ करते हैं और छीपी लोग इससे अनेक प्रकार के रंगों में अस्तर देते हैं। साधु आदि इससे कपड़ा रँगते हैं। मुहा०—मुलतानी करना = छींट छापने के पहले कपड़े को मुलतानी मिट्टी में रँगना।
⋙ मुलना †
संज्ञा पुं० [अ० मौलाना] मौलवी। मुल्ला। उ०—बाम्हन ते गवहा भला आन देव ते कुत्ता। मुलना ते मुरगा भला सहर जगावे सुत्ता।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मुलमची
संज्ञा पुं० [हिं० मुलम्मा + ची (प्रत्य०)] किसी चीज पर सोने वा चांदी आदि का मुलम्मा करनेवाला। मुलन्मासाज।
⋙ मुलमा पु
वि० [अ० मुलम्मा] दे० 'मुलम्मा'। उ०—रतन परखु नीरा रे। मुलना नही हीरा रे।—दक्खिनी० पृ० ३७।
⋙ मुलम्मा (१)
वि० [अ०] १. चमकता हुआ। २. जिसपर सोना या चाँदी चढ़ाई गई हो। सोना या चाँदी चढ़ा हुआ।
⋙ मुलम्मा (२)
संज्ञा पुं० १. वह सोना या चाँदी जो पत्तर के रूप में, पारे या बिजली आदि की सहायता से, अथवा और किसी विशेष प्रक्रिया से किसी धातु पर चढ़ाया जाता है। किसी चीज पर चढ़ाई हुई सोने या चाँदी की पतली तह। गिलट। कलई। झाल। विशेष—साधारणतः मुलम्मा गरम और ठंढा दो प्रकार का होता है। जो मुलम्मा कुछ विशिष्ट क्रियाओं से आग की सहायता से चढ़ाया जाता है, वह गरम कहलाता है, और जो बिजली की बेटरी से अथवा और किसी प्रकार बिना आग की सहायता से चढ़ाया जाता है, वह ठंढा मुलम्मा कहलाता है। ठंढे की अपेक्षा गरम मुलम्मा अधिक स्थायी हाता है। यौ०—मुलम्मागर। मुलम्मासाज। २. किसी पदार्थ, विशेषतः धातु आदि का चाँदी या सोने का दिया हुआ रूप। क्रि० प्र०—करना।—चढ़ना।—चढ़ाना।—होना। ३. वह बाहरी भड़कीला रूप जिसके अंदर कुछ भी न हो। ऊपरी तड़क भड़क।
⋙ मुलम्मासाज
संज्ञा पुं० [अ० मुलम्मा + फ़ा० साज] किसी धातु पर सोना या चाँदी आदि चढ़ानेवाला। मुलम्मा करनेवाला। मुलमची।
⋙ मुलहठी †
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुयष्टि] दे० 'मुलेठी'।
⋙ मुलहा †
वि० [सं० मूल (= नक्षत्र) + हा (प्रत्य०)] १. जिसका जन्म मूल नक्षत्र में हुआ हो। २. उपद्रवी। शरारती। नटखट। उ०—उर में उलहे मुलहै ह्वै उरोज सरोज करैं गुनदासव के।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०)।
⋙ मुलाँ
संज्ञा पुं० [अ० मुल्ला] मौलवी। मुल्ला। उ०—आठ बाट बकरी गई माँस मुलाँ गए खाय। अजहूँ खाल खटीक कै भिस्त कहाँ ते जाय।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मुलाकात
संज्ञा स्त्री० [अ० मुलाक़ात] १. आपस में मिलना। एक दूसरे का मिलाप। भेंट। मिलन। २. मेल मिलाप। हेलगेल। रब्तजब्त। ३. प्रसंग। रति क्रीड़ा।
⋙ मुलाकाती (१)
संज्ञा पुं० [अ० मृलाक़ात + ई (प्रत्य०)] वह जिससे मुलाकात या जान पहचान हो। परिचित।
⋙ मुलाकाती (२)
वि० मुलाकात संबंधी। मिलन संबंधी।
⋙ मुलाजिम
संज्ञा पुं० [अ० मुलाज़िम] १. पास रहनेवाला। प्रस्तुत रहनेवाला। उपस्थित रहनेवाला। २. नौकर। चाकर। सेवक। दास।
⋙ मुलाजिमत
संज्ञा स्त्री० [अ० मृलाज़िमत] सेवा। नौकरी। चाकरी। उ०—मैने उनके पूर्व ही रायपुर छोड़कर रायगढ़ में मुलाजिमत कर ली थी।—शुक्ल अभि ग्रं०, ६५।
⋙ मुलाम †
वि० [अ० मुलायम] दे० 'मुलायम'।
⋙ मुलायम
वि० [अ०] १. 'सख्त' का उलटा। जो कड़ा न हो। २. नरम। हलका। मंद। धीमा। ढीला। जैसे —आजकल सोने का बाजार मुलायम है। ३. नाजुक। सुकुमार। ४. जिसमें किसी प्रकार की कठोरता या खिंचाव आदि न हो। जैसे,—(क) उनका मुलायम स्वभाव है। (ख) जरा मुलायम मुलायम तौलोः यह तो अभी पूरा भी नहीं हुआ। मुहा०—मुलायम करना = किसी का क्रोध शांत करना। यौ०—मुलायम चारा = (१) हलका भोजन। (२) वह जो सहज में दूसरों की बातों में आ जाय। (३) वह जो सहज में प्राप्त किया जा सके। (४) कोमल या सुकुमार शरीरवाला।
⋙ मुलायमत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मुलायम होने का भाव। २. सुकुमारता। ३. नजाकत। कोमलता।
⋙ मुलायम रोआँ
संज्ञा पुं० [हिं० मुलायम + रोआँ] सफेद और लाल रोआँ जो मुलायम होता हैं। (गड़रिया)।
⋙ मुलायमियत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुलायमत] १. मुलायम होने का भाव। नर्मी। २. नजाकत। कोमलता।
⋙ मुलायमी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुलायम] दे० 'मुलायमत'।
⋙ मुलाहजा
संज्ञा पुं० [अ० मृलाहज़ह्] १. निरीक्षण। देखभाल। मुआयना। २. संकोच। लिहाज। रिआयत।
⋙ क्रि० प्र०—करना।—रखना।—होना।
⋙ मुलुक पु
संज्ञा पुं० [अ० मुल्क] दे० 'मुल्क'। उ०—जिव तारन के हेतु मुलुक फिरते बहुतेरा।—पलटू०, भा० १, पृ० ३।
⋙ मुलेठी
संज्ञा स्त्री० [सं० (मधुयष्टि) मूलयष्ठी, प्रा० मूलयट्ठी] घुँघची या गुंजा नाम की लता की जड़ जो औषध के काम में आती है। जेठी मधु। मुलट्ठी। विशेष—यह खाँसी की बहुत प्रसिद्ध और अच्छी ओषध मानी जाती है। वैद्यक में इसे मधुर, शीतल, बलकारक, नेत्रों के लिये हितकारी, वीर्यजनक तथा पित्त, वात, सूजन, विष, वमन, तृषा, ग्लानि और क्षय राग का नाशक माना है। इसका सत्त भी तैयार किया जाता है जो काले रंग का होता है और बाजारों में 'रुब्बुसूस' के नाम से मिलता है। यह साधारण जड़ की अपेक्षा अधिक गुणकारी समझा जाता है। पर्या०—यष्टिमधु। क्लीतका। मधुक। यष्टिका। मधुस्तमा। मधुम। मधुवली। मधूली। मधुररसा। अतिरसा। मधुरनआ। साषापहा। सौम्या।
⋙ मुल्क
संज्ञा पुं० [अ०] १. देश। २. सूवा। प्रांत। प्रदेश। उ०— मुल्क यह तुझको शहरयार मुबारक होए।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५४२। ३. ससार। जगत्। यौ०—मुल्कगीरी। मुल्कदारी = शासन। अधिकार। मुल्करानी = राज्यशासन। राज्यप्रबंध।
⋙ मुल्कगोरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] देश पर अधिकार प्राप्त करना। मुल्क जीतना।
⋙ मुल्की
वि० [अ० मुल्क + ई (प्रत्य०)] १. देश संबंधी। देशी। २. असैनिक। जो सेना संबंधी न हो। ३. शासन या व्यवस्था संबंधी।
⋙ मुल्तजी
संज्ञा पुं० [अ०] निवेदन करनेवाला। प्रार्थी।
⋙ मुल्तवी
वि० [अ०] जो रोक दिया गया हो। जिसका समय आगे बढ़ा दिया गया हो। स्थगित। दे० 'मुलतवी'।
⋙ मुल्लह (१)
संज्ञा पुं० [देश०] वह पक्षी जो बाँधकर जाल में इसलिये छोड़ दिया जाता है कि उसे देखकर और पक्षी आकर जाल में फँसें। कुट्टा। मुल्ला।
⋙ मुल्लह † (२)
वि० [देश०] बहुत अधिक सीधा सादा। बेवकूफ। मूर्ख।
⋙ मुल्लना पु
क्रि० स० [सं० मूल्यन] मोल करना। उ०—ववहार मुल्लहिं वणिक कीनि आनहि वव्वरा।—कीर्ति०, पृ० २८।
⋙ मुल्ला
संज्ञा पुं० [अ०] मुसलमानों का आचार्य वा पुरोहित। मौलवी। उ०—पाँधे मिस्सर अँधुले, काजी मुल्लाँ कोरु। तिनाँ पास ना भिंटीयै, जो सबदे दे चोरु।—संतवाणी०, पृ० ७०। वि० दे० 'मौलवी'।
⋙ मुवक्कल
संज्ञा पुं० [अ०] १. वह जिसे कोइ काम सौंपा गया हो। रखवाला। २. वह जो कार्यविशेष पर नियुक्त हो।
⋙ मुवक्किल
संज्ञा पुं० [अ०] वह जो अपने किसी काम के लिये कोई वकील या प्रतिनिधि नियुक्त करे। वकील करनेवाला। वह जो किसी को मुकदमा आदि लड़ने के लिये अपना वकील नियुक्त करता हो। वकील करने या रखनेवाला।
⋙ मुवना पु
क्रि० अ० [सं० मृत, प्रा० मुअ + हिं० ना (प्रत्य०)] मरना। मृत होना। उ०—(क) गइ तजि लहरैं पुरइन पाता। मुवउँ धूप सिर अहा न छाता।—जायसी (शब्द०)। (ख) जैसे पतँग आगि धसि लीन्ही। एक मुवै दूसर जिउ दीन्ही।—जायसी (शब्द०)। (ग) नारि मुई, घर संपति नासी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मुवहिद
संज्ञा पुं० [अ० मुवहहिद मुवहिद] वह जो ईश्वर को एक माने। वह जो एकेश्वरवाद को मानता हो। एकेश्वरवादी। उ०—उनके कवित और सवैया और बनावटैं पूरा यकीन दिलानेवाले उनके मुवहिद होने के हैं।—सुंदर० ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० ५३।
⋙ मुवा †
वि० [हिं० मुअना] मृत। मरा हुआ।
⋙ मुवाना पु ‡
क्रि० स० [हिं० मुवना का स० रूप] हत्या करना प्राण लेना। मार डालना। उ०—इक सखी मिलि हँसति पूछति खैंचि कर की ओर। ताज मुवाइ सुभखत नाहीं निरखि उनकी ओर।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुवाफिक
वि० [अ० मुआफ़िक] दे० 'माफिक'।
⋙ मुशज्जर (१)
संज्ञा पुं० [अ०] एक प्रकार का छपा हुआ कपड़ा। बूटेदार कपड़ा।
⋙ मुशज्जर (२)
वि० बूटेदार। बेलबूटेवाला। उ०—क्या बकचे ताश मुशज्जर के क्या तख्ते साल दुसालों के। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३१०।
⋙ मुशटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेत ककुनी। श्वेत कंगु [को०]।
⋙ मुशफिक
वि० [अ० मुशफ़िक़] १. कृपालु। दयालु। २. मित्र। दोस्त। ३. तरस खानेवाला। दयावान्। रहम दिल।
⋙ मुशरब
संज्ञा पुं० [अ०] वह स्थान जहाँ पानी पीया जाय। झरना। २. संप्रदाय। मजहब। ३. ढंग। तौर तरीका [को०]।
⋙ मुशरिक
संज्ञा पुं० [अ० मुशरिक़] ईश्वर को छोड़कर दूसरे की भक्ति करनेवाला। उ०—गैर हक के सिजदा किसको कर न को। काफिर मुशरिक जो हो कर मर न को।—दक्खिनी०, पृ० १५३।
⋙ मुशल
संज्ञा पुं० [सं०] धान आदि कूटने का डंडा। मूसल।
⋙ मुशली (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुशलिन्] मूसल धारण करनेवाले, श्रीबलदेव।
⋙ मुशली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गृहगोधा। छिपकिली [को०]।
⋙ मुशायरा
संज्ञा पुं० [अ० मुशाअरह्] १. बहुत से कवियों, शायरों का एक जगह एकत्र होकर परस्पर अपनी कविता सुनाना। कविगोष्ठ। २. उपस्थित जनसमूह के सामने कवियों द्बारा अपनी कविता सुनाना। कविसंमेलन।
⋙ मुशावरत
संज्ञा स्त्री० [अ०] विचार विनिमय। मंत्रणा। परामर्श। मशविरा [को०]।
⋙ मुशाहदा
संज्ञा पुं० [अ० मुशहदह्] निरीक्षण। देखना। अवलोकन [को०]।
⋙ मुशाहरा
संज्ञा पुं० [अ० मुशाहरह्] दरमाहा। मासिक वेतन [को०]।
⋙ मुश्क (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. कस्तूरी। मृगमद। मृगनाभि। †२. गंध। बू।
⋙ मुश्क (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कवि और कोहनी के बीच का भाग। भुजा। बाँह। मुहा०—मुश्कें कसना या बाँधना = (अपराधी आदि की) दोनों भुजाओं को पीठ की ओर करके बाँध देना। (इससे आदमी बेबस हो जाता है।)
⋙ मुश्कआहू
संज्ञा पुं० [फ़ा०] कस्तूरीमृग। [को०]।
⋙ मुश्कदाना
संज्ञा पुं० [फ़ा०] ओषधि के काम आनेवाला एक प्रकार की लता का बीज। विशेष—यह इलायची के दाने के समान कुछ चिपटापन लिए होता है और इसके टूटने पर कस्तूहरी की सी सुंगध निकलती है। संस्कृत में इसे 'लताकस्तूरी' कहते हैं। वेद्यक में इसे स्वादिष्ट, वीर्यजनक, शीतल, कटु, नेत्रों के लिये हितकारी, कफ, तृषा, मुखरोग और दूर्गंध आदि का नाश करनेवाला माना है।
⋙ मुश्कनाफा
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुश्क़याफह्] कस्तूरी का नाफा जिसके अंदर कस्तूरी रहती है।
⋙ मुश्कनाभ
संज्ञा पुं० [फ़ा० मुश्क + सं० नाभ] वह मृग जिसकी नाभि में कस्तूरी होती है। कस्तूरीमृग। विशेष दे० 'कस्तूरीमृग'।
⋙ मुश्कवार
वि० [फ़ा०] सुंगंध वर्षक। बहुत खुशबूदार [को०]।
⋙ मुश्क बिलाई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मुश्क + हिं० बिलाई (= बिल्ली)] एक प्रकार का जंगली बिलाव जिसके अंडकोशों का पसीना बहुत सुगंधित होता है। गंध बिलाव। विशेष—अरबी में इसे जुबाद और संस्कृत में गंधमार्जार कहते है। इसके कान गोल और छोटे होते हैं और रंग भूरा होता है। दूम काली होती है, पर उसपर सफेद छल्ले पड़े रहते हैं। लंबाई प्रायः ४० इंच होती है। यह जंतु राजपूताने और पंजाब के सिवा बाकी सारे हिंदुस्तान में पाया जाता है। यह बिलों में रहता है, शिकारी होता है और पाला भी जा सकता है। यह चूहे, गिलहरी आदि खाकर रहता है। इसकी कई जातियाँ होती हैं। जैसे, भोंडर, लकाटी इत्यादि।
⋙ मुश्कबेद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का बेत जो बहुत सुगंधित होता है। विशेष दे० 'बेदमुश्क'।
⋙ मुश्कमेंहदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मुश्क + मेंहदी] एक प्रकार का छोटा पौधा जो बागों में शोभा के लिये लगाया जाता है।
⋙ मुश्किल (१)
वि० [अ०] १. कठिन। दुष्कर। दुस्साध्य। २. जटिल। पेचीदा (को०)। ३. बारीक। सूक्ष्म (को०)।
⋙ मुश्किल (२)
संज्ञा स्त्री० १. कठिनता। दिक्कत। कठिनाई। २. मुसीबत। विपति। संकट। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—में पड़ना। मुहा०—मुश्किल आसान होना = संकट टलना।
⋙ मुश्की (१)
वि० [फ़ा० मुश्कीं] १. कस्तूरी के रंग का। काला। श्याम। २. जिसमें मुश्क मिला हो। जिसमें कस्तूरी पड़ी हो। जैसे, मुश्की जरदा।
⋙ मुश्की (२)
संज्ञा पुं० वह घोड़ा जिसका सारा शरीर काला हो।
⋙ मुश्त
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. मुट्ठी। २. घूँसा। मुक्का (को०)। यौ०—एकमुश्त = एक साथ। एक ही बार। (प्रायः रुपयों के लेन देन के संबंध में ही बोलते हैं।) जैसे,—उसने सब रुपए एकमुस्त दे दिए। मुश्तवारा = मुट्ठीभर।
⋙ मुश्तजन
वि० [फ़ा० मुश्तज़न] [संज्ञा मुश्तजनी] १. मल्ल। पहलवान। २. हस्तमैथुन करनेवाला।
⋙ मुश्तवहा
वि० [अ० मुश्तब्ह] जिसमें किसी प्रकार का शुबहा हो। संदेह के योग्य संदिग्ध। संदेह युक्त।
⋙ मुश्तरका
वि० [अ० मुश्तरकह्] जिसमें कई आदमी शरीफ हों। जिसमें और खोग भी संमिलित हों। जैसे, मुश्तरका जायदाद।
⋙ मुश्तरी
संज्ञा पुं० [अ०] १. क्रेता। खरीददार। २. बृहस्पति ग्रह। उ०—सआदत को गोहर करा मुश्तरी। अधिक बद थे बाजार के जोहरी।—दक्खिनी०, पृ० १३८।
⋙ मुश्तहिर
वि० [अ०] जिसका इश्तहार दिया गया हो। जो प्रसिद्ध किया गया हो।
⋙ मश्ताक
वि० [अ० मुश्ताक़] १. इच्छा रखनेवाला। चाहनेवाला। २. प्रेमी। आशिक। उ०—पाजेब की झनकार के मुश्ताक हैं हम लोग। क्यों पर्दानशीं पैर हिलाया नहीं जाता ?—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६२।
⋙ मुष पु
संज्ञा पुं० [सं० मुख] आनन। दे० 'मुख'। उ०—देखन दै मेरी बैरन पलकें। नंदनँदन मुष तें आलि बीच परत मानों बज्र की सलकें।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५२।
⋙ मुषक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मूषक'।
⋙ मुषल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूसल। २. विश्र्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ मुषली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तालमूलिका। २. छिपकली।
⋙ मुषली (२)
संज्ञा पुं० [सं० मुषलिन्] बलराम।
⋙ मुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ण आदि गलाने का पात्र या घरिया। मूषा [को०]।
⋙ मुषि
संज्ञा स्त्री० [सं०] चूराने, मूसने, नष्ट करने या हटा देने की क्रिया या भाव [को०]।
⋙ मुषित
वि० [सं०] १. चुराया हुआ। मूसा हुआ। २. ठगा हुआ। वंचित। यौ०—मुषितचेता = बेसुध। चेतनाहीन। मुषितत्रप = लज्जा- रहित। निर्लज्ज। मुषितस्मृति = वह जिसकी स्मरण शक्ति समाप्त हो गई हो।
⋙ मुषीवन्
संज्ञा पुं० [सं०] चोर।
⋙ मुपुर पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मुखर] गूँजने का शब्द। गुंजार। उ०—हेम जलज कल कलिन मध्य जनु मधुकर मुषुर सोहाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मुष्क (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंडकोप। २. मोखा नाम का वृक्ष। ३. चोर। ४. ढेर। राशि।
⋙ मुष्क (२)
वि० मांसल।
⋙ मुष्कक
संज्ञा पुं० [सं०] मोखा नाम का वृक्ष।
⋙ मुष्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंडकोप। २. पुरुष की मूत्रेंद्रिय। ३. वह जिसका अंडकोप बड़ा हो (को०)।
⋙ मुष्कशून्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके अंडकोप निकाल लिए गए हों। वधिया। २. वह जो इस क्रिया के उपरांत अंतःपुर में काम करने के लिये नियुक्त हो।
⋙ मुष्कशोथ, मुष्कशोफ
संज्ञा पुं० [सं०] अंडकोप की सूजन।
⋙ मुष्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोरी। २. चोरी की संपत्ति। चोरी का धन (को०)।
⋙ मुष्ट (२)
वि० मूसा या चुराया हुआ। मुषित [को०]।
⋙ मुष्टिंधय
संज्ञा पुं० [सं० मुष्टिन्धय] शिशु। बालक। बच्चा।
⋙ मुष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुठ्ठी। २. मुक्का। घूँसा। उ०—तब सुग्रीव विकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा।—तूलसी (शब्द०)। ३. एक प्राचीन परिमाण जो किसी के मत से ३ तोले का और किसी के मत से ८ तोले का होता था। ४. चोरी। ५. दुर्भिक्ष। अकाल। ६. ऋषि नामक ओषधि। ७. मोरवा नामक वृक्ष। ८. राज्य का एक नाम। ९. कंस के दरबार का एक मल्ल। मुष्टिक। उ०—कह्मो चाणूर मुष्टि सब मिलिकै जानत हौ सब जी के।— सूर (शब्द०)। १०. छुरे, तलवार आदि की मूँठ। बेंट। पर्या०—आभ्र। चतुर्थिका। प्रकुंच। पोड़शी। बिल्व।
⋙ मुष्टि (२)
वि० [सं० मष्ट] चुप। मौन। उ०—संत मिलै कछु कहिए कहिए। मिलै असंत मुष्टि करि रहिए।—कबीर ग्रं०, पृ० १०९।
⋙ मुष्टिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा कंस के पहलवाना में से एक जिसे बलदेव जी ने मारा था। उ०—तह नृप सुत मल्ल हें शल तोशल चानूर। मुष्टिक कूट सु पाँच ये समर सूर भरपूर।—गोपाल (शब्द०)। २. मुक्का। घूँसा। उ०—एक बार हनि मुष्टिक मारा। गिरा अवनि करि घार चिकारा।—विश्राम (शब्द०)। ३. चार अँगुल की नाप। उ०—षट तिल यव त्रै अंगुल होइ। चतुरागुल कर मुष्टिक सोई।—विश्राम (शब्द०)। ४. मुट्ठी। ५. सुनार। ६. तांत्रिक के अनुसार एक उपकरण जो बलिदान के योग्य होता है। यौ०—मुष्टिकव्न = (१) विष्णु का एक नाम। (२) बलराम। मृष्टिकस्वस्तिक = नृत्य के समय हाथी की एक विशेष मुद्रा।
⋙ मुष्टिकरण
संज्ञा पुं० [सं०] मुट्ठी करना या बाँधना [को०]।
⋙ मुष्टिकांतक
संज्ञा पुं० [सं० मृष्टिकान्तक] मृष्टिक नामक मल्ल को मारनेवाले, बलदेव।
⋙ मुष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुक्का। घूँसा। उ०—वृक्ष पाषाण को जब उहाँ नाश भयो मुष्टिका युद्ध दोऊ प्रचारी।—सूर (शब्द०)। २. मुठ्ठी।
⋙ मुष्टिदेश
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष का मध्य भाग जो मुट्ठी में पकड़ा जाता है [को०]।
⋙ मुष्टिद्यृत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार द्यूत जिसमें मुठ्ठी के भीतर की वस्तु का नाम वा उसकी सम विषम संख्या पूछी जाती है।
⋙ मुष्टिपात
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्केबाजी। घूँसेबाजी।
⋙ मुष्टिबंध
संज्ञा पुं० [सं० मुष्टिबन्ध] मुट्टी बाँधना या मुठ्ठी में करना [को०]।
⋙ मुष्टिमेय
वि० [सं०] १. मुट्ठी के बराबर। मुट्ठी भर। २. थोड़ा।
⋙ मुष्टियुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह लड़ाई जिसमें केवल मुक्कों से प्रहार किया जाय। घूँसेबाजी।
⋙ मुष्टियोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. हठयोग की कुछ क्रियाएँ जो शरीर की रक्षा करने, बल बढ़ाने और रोग दूर करनेवाली मानी जाती हैं। २. किसी बात का कोई और सहज उपाय।
⋙ मुष्टिमुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] परस्पर मुक्का मुक्की। घूँसेवाजी [को०]।
⋙ मुष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] सरसों।
⋙ मुसंडा †
वि० [हिं० मुस्टंड या मुस्टंडा] धिंगरा। ठलुआ। जो बिना काम किए हुए बैठे बैठे खाय। उ०—यह मुटमरदी है कि अंधा माँगे, औ आँखोंवाले मुसंडे बैठे खाएँ।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ५६६।
⋙ मुसंबी
संज्ञा पुं० [पुर्त० मोजांबिक] मुसंबी या मुसम्मी नामक एक फल। उ०—ये सब मुसंबियाँ और संतरे केवल तुम्हारे ही लिये मैं लाई हूँ।—जिप्सी, पृ० ४४२। विशेष—पुर्तगाल के मोजांबिक नामक स्थान से आने के कारण इस फल को, जो एक प्रकार का रसदार मीठा नीबू है, यहाँ उसी के वजन पर मुसंवी या मुसम्मी कहा जाने लगा ।
⋙ मुसक पु (१)
संज्ञ स्त्री० [देश०] भुजा। बाँह। मुश्क। उ०—बेंदी जराव लिलाट दिए गहि डोरी दोऊ पटिया पहिराई। ब्रह्म भनै रिपु जानि ग्रहयो रबि की मुसकें जनु राहु चढ़ाई।—अकबरी०, पृ० ३४९।
⋙ मुसक (२)
संज्ञा पुं० [फा़० मुश्क] दे० 'मुश्क'।
⋙ मुसकना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'मुसकाना'। उ०—(क) मुसकत मुसकत त्याम सुहाए।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०८। (ख) सुत के करम निरखि नँदरानी। मुसकी जनम सुफलता मानी।—नंद० ग्रं०, पृ० २४९।
⋙ मुसकनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुस्कराना] मुस्कराहट। उ०— (क) सकल सुगंध अंग भोरी पिय निरतत मुसकनि मुखमोरी परिरंभन रसरोरी।—हरिदास (शब्द०)। (ख) अटके नैन माधुरी मुसकनि अमृत वचन स्रवनन को भावत।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुसकनिया ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकान'। उ०—मोहन की तुतरी बोलन मुनि मन हरत सुर्हंस मुसकनियाँ।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुसकराना
क्रि० अ० [सं० स्म्रप + कृ] ऐसी आकृति बनाना जिससे जान पड़े कि हँसना चाहते हैं। ऐसी कम हँसी जिसमें दाँत न निकले, न शब्द हो। बहुत ही मंद रूप से हँसना। होंठों में हँसना। मृदु हास। मंद हास।
⋙ मुसकराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुसकुराना + आहट (प्रत्य०)] मुसकराने की क्रिया या भाव मधुर या बहुत थोड़ी हँसी। मंद हास।
⋙ मुसका
संज्ञा पुं० [देश०] रस्सी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी जाली जो पशुओं, विशेषतः बैलों के मुँह पर इसलिये बाँध दी जाती है, जिसमें वे खलिहानों या खेतों में काम करते समय कुछ खा न सकैं। जाला।
⋙ मुसकान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकुराहट'।
⋙ मुसकाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'मुसकुराना'।
⋙ मुसकानि
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकुराहट'। उ०—कबि मतिराम मुख सुबरन रूप रहि, रूपखानि मुसकानि सोभा सरसाई कै।—मति० ग्रं०, पृ० २९१।
⋙ मुसकिराना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'मुसकराना'।
⋙ मुसकिराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकराहट'।
⋙ मुसकुराना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'मुसकराना'। उ०—आँखों पर एक जी लुभानेवाली झलक नाचने लगी, पहले सुडौल गोरा गोरा मुखड़ा देख पड़ा, फिर घुँघरारे बार, फिर बड़ी बड़ी आँखें, फिर मीठी मुसकिराहट, फिर ऊँचा चौड़ा माथा।—ठेठ०, पृ० २६।
⋙ मुसकुराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकराहट'।
⋙ मुसक्यान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकराहट'।
⋙ मुसक्याना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'मुसकराना'।
⋙ मुसक्यानि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकराहट'। उ०—ता दिन तैं मन ही मन मैं मातराम पियै मुसक्यानि सुधा सी।—मति० ग्रं०, पृ० ३४२।
⋙ मुसखोरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूस (= चूडा) + खोरी (= खाना)] खेत में चूहों की अधिकता होना। मुसहरी।
⋙ मुसजर
संज्ञा पुं० [अ० मुशज्जर] एक प्रकार का छपा कपड़ा। उ०—बादला दारयाई नौरंग साई जरकस काई झिलमिल है। ताफता कलंदर वाफताबंदर मुसजर सुंदर गिलमिल है।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मुसटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूस (सं मूषिका = चूहा) + टी (प्रत्य०)] चुहिया।
⋙ मुसदी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] मिठाई बनाने का साँचा।
⋙ मुसद्दस
संज्ञा पुं० [अ०] वह क्षेञ जिसमें छह भुज हों। छह् पहलूवाला। २. एक प्रकार का पद्यवंध। उ०—उर्दू में 'हाली' का मुसद्दत बहुत प्रसिद्ध है।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २८। विशेष—मुसद्दस छह मिसरों या तीन शेरों का होता है। इसमें पहले के चार मिसरों के तुक एक समान होते हैं और शेष अंतिम दो मिसरों के तुक अलग होते हैं।
⋙ मुसद्दिका
वि० [अ० मुसद्दिका] परताल किया हुआ। तसदीक किया हुआ। जाँचा हुआ।
⋙ मुसना (१)
क्रि० अ० [सं० मूषण (= चुराना)] लूटा जाना। अपहृत होना। मूसा जाना। चुराया जाना। (धन आदि)। मुहा०—घर मुसना = घर में चोरी होना।
⋙ मुसना (२)
क्रि० स० चोरी करना। मूसना। उ०—मुसए गेलिहे धन जागल परिजन लगहि कला ओक चोरा।—विद्यापति पृ० ६४।
⋙ मुसना पु ‡ (३)
संज्ञा पुं० [हिं० मुस + ना (प्रत्य०)] मूसा। मूषक। उ०—कार्तिक गनपति दुइ चेगना। एक चढ़े मोर पर एक मुसना।—विद्यापति, पृ० ५७७।
⋙ मुसना †
वि० [सं० मूषण] चोरी करने या मूसनेवाला।
⋙ मुसन्ना
संज्ञा पुं० [अ०] १. किसी असल कागज की दूसरी नकल जो मिलान आदि के लिये रखी जाती है। २. रसीद आदि का आधा और दूसरा भाग जो रसीद देनेवाले के पास रह जाता है।
⋙ मुसन्निफ
संज्ञा पुं० [अ० मुसन्निफ] [स्त्री० मुसन्निका] पुस्तक बनानेवाला। ग्रंथकर्ता या रचयिता।
⋙ मुसफ्फी
संज्ञा पुं० [अ० मुसफ्फी] शोधन करनेवाला। शोधक [को०]।
⋙ मुसब्बर
संज्ञा० पुं० [अ०] कुछ विशिष्ट क्रियाओं से सुखाया और जमाया हुआ घीकुवाँर का दूध या रस जिसका व्यवहार ओषधि के रूप में होता है। एलुआ। विशेष—इसका उपयोग अधिकतर रेचन के लिये या चोट आदि लगने पर मालिश और सेंक आदि करने में होता है। यह प्रायः जंजीबार, नेटाल तथा भूमध्यसागर के आसपास के प्रदेशों से आता है। वैद्यक में इसे चरपरा, शीतल, दस्तावर, पारे को शोधनेवाला तथा शूल, कफ, वात, कृमि और गुल्म को दूर करनेवाला माना है।
⋙ मुसमर
संज्ञा पुं० [हिं० मुस (= चूहा) + मारना] एक प्रकार की चिड़िया जो खेत में चूहों को पकड़कर खाती है।
⋙ मुसमरवा †
संज्ञा पुं० [हिं० मूस + मारना] १. मुसमर चिड़िया। २. एक नीच जाति जो चूहे खाती है। मुसहर।
⋙ मुसमुंद पु (१)
वि० [देश०] ध्वस्त। नष्ट। बरबाद। उ०—पुरद्वार रुक्कि ठाढौ बली सबै दुग्ग मुसमुंद किय।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मुसमुंद (२)
संज्ञा पुं० नाश। ध्वंस। बरबादी।
⋙ मुसमुंध पु †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मुसमुंद'। उ०—दिस धुंधरी चक धुंधरी मुसमुंधरी सु वसुंधरी।—सूदन (शब्द०)।
⋙ मुसम्मन
वि० [अ०] १. अठपहल। अष्टभुज। २. मोटाताजा। चर्बीदार। स्थूल [को०]। यौ०—मुसम्मन बुर्ज = अठकोन बुर्ज।
⋙ मुसम्मर
वि० [अ०] कील या काँटे से जड़ा हुआ। कीलित [को०]।
⋙ मुसम्मा
वि० [अ०] [स्त्री० मुसम्मात] जिसका नाम रखा गया हो। नामक। नामी। नामधारी।
⋙ मुसम्मात (१)
वि० [अ० मुसम्मा का स्त्री० रूप] मुसम्मा शब्द का स्त्रीलिंग रूप। नाम्नो। नामधारिणी।
⋙ मुसम्मात (२)
संज्ञा स्त्री० औरत।
⋙ मुसरा †
संज्ञा पुं० [हिं० मूसल] पेड़ की वह जड़ जिसमें एक ही मोटा पिंड धरती के अंदर दूर तक चला जाय और इधर उधर शाखाएँ न हों। जैसे,—मूली, सेमल आदि की जड़। 'झगरा' का उलटा।
⋙ मुसरिया † (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] काँच की चूड़ियाँ बनाने का साँचा।
⋙ मुसरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुस] चूहे का बच्चा। मुसटी।
⋙ मुसरिया (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुसर + इया (प्रत्य०)] दे० 'मुसरा'।
⋙ मुसल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'मूसल'। पु२. वह जो मूसल की तरह जड़ हो। मूर्ख। जड़। अज्ञ।
⋙ मुसलधार
क्रि० वि० [सं० मुसल + धार] दे० 'मूसलधार'। उ०— भले नाथ नाइ माय चले पाथप्रदनाथ बरपैं मुसलधार बार बार घोरि कै।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मुसलमान
संज्ञा पुं० [फा़०] [स्त्री० मुसलमानी] वह जो मुहम्मद साहब के चलाए हुए संप्रदाय में हो। मुहम्मद साहव का पूर्णतः अनुयायी और इस्लाम धर्म को माननेवाला। मुहम्मदी। उ०— हिंदू मैं क्या और है मुसललान मैं और। साहब सबका एक है व्याप रहा सब ठौर।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मुसलमानी (१)
वि० [अ०] मुसलमान संबंधी। मुसलमान का। जैसे, मुसलमानी मजहब।
⋙ मुसलमानी (२)
संज्ञा स्त्री० मुसलमानों कि एक रस्म जिसमें छोटे बालक की इंद्री पर का चमड़ा काट डाला जाता है। बिना यह रस्म हुए वह पक्का मुसलमान नहीं समझा जाता है। सुन्नत।
⋙ मुसलाधार
क्रि० वि० [हिं० मुसलधार] दे० 'मुसलधार'।
⋙ मुसलामुसलो
संज्ञा स्त्री० [सं०] परस्पर मूसल का प्रहार। मूसलों की लड़ाई [को०]।
⋙ मुसलायुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] जिनका आयुध मूसल है—बलराम [को०]।
⋙ मुसलिम
संज्ञा पुं० [अ०] मुसलमान। मुहम्मदी। यौ०—मुसलिम लोग = संप्रदायवादी मुसलमानों की एक संस्था। मुसलिम लीगी = वह जो मुसलिम लोग का अनुयायी हो।
⋙ मुसली (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुसलिन्] दे० १. 'मुशली'। २. शिव का एक नाम (को०)।
⋙ मुसली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मुसली, मुसली] १. हल्दी की जाति का एक पौधा। विशेष—इसकी जड़े औपध के काम में आती हैं और बहुत पुष्टिकारक मानी जाती है। यह पौधा सीड़ की जमीन में उगता है। बिलास- पुर जिले में, विशेषतः अमरकंटक पहाड़ पर, यह बहुत होता है।
⋙ मुसलीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गृहगोधा। छिपकिली [को०]।
⋙ मुसलीय
वि० [सं०] दे० 'मुसल्य'।
⋙ मुसल्य
वि० [सं०] मूसल के प्रहार से मारने के योग्य। मूसल द्वारा बध्य [को०]।
⋙ मुसल्लम (१)
वि० [फा़०] जिसके खंड न किए गए हों। साबूत। पूरा। अखंड। जैसे,—यह गाँव मुसल्लम उन्हीं का है। २. माना हुआ। निर्विवाद (को०)।
⋙ मुसल्लम (२)
संज्ञा पुं० [अ० मुसलिम] दे० 'मुसलमान'। उ०—हिंदू एकादशि चौविस रोजा मुसल्ल्म तीस वनाएँ।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मुसल्लस
संज्ञा पुं० [अ०] वह जिनमें तीन कोने वा त्रिकोण हो। २. उर्दू का एक छंद जिसमें तीन मिसरे समान तुक या वजन के होते हैं। तीन पदों का छंद। त्रिपदी। जैसे,—या तो अफसर मेरा शाहाना बनाया होता। या मेरा ताज गदायाना बनाया होता। बनी ऐसा जो बनाया न बनाया होता।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० २७।
⋙ मुसल्लह
वि० [अ०] हथियारबंद। सशस्त्र। शस्त्रसज्जित। उ०— हमारे पास भी राइफलों से मुसल्लह गारदें, फौज, तोपखाने और हवाई जहाज हैं।—फूलों०, पृ० ५०।
⋙ मुसल्ला (१)
संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री० अल्पा० मुसल्ली] १. नमाज पढने की दरी या चटाई। २. ईदगाह। नमाज पढ़ने का स्थान (को०)। ३. एक प्रकार का बरतन जो बड़े दिए के आकार का होता है। यह बीच मे उभरा हुआ होता है। इसमें मुहर्रम में चढ़ौआ चढाया जाता है।
⋙ मुसल्ला पु (२)
संज्ञा पुं० दे० 'मुसलमान'। उदा०—जिस दरगाह मुसल्ला बैठा डारै चादर काजी।—चरण० बानी० पृ० १५८।
⋙ मुसवाना
क्रि० स० [हिं० मूसना का प्रेर० रूप] १. लुटवाना। २. चोरी कराना।
⋙ मुसव्वर
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'मुसव्विर'। उ०—किसी हिंदुस्तानी मुसव्वर की बनाई प्रतिकृति है।—कंकाल, पृ० १२४।
⋙ मुसव्विर
संज्ञा पुं० [अ०] १. चित्रकार। तसवीर खींचनेवाला। २. बेलबूटे बनानेवाला।
⋙ मुसव्विरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. चित्रकारी। २. नक्काशी। बेलबूटे का काम।
⋙ मुसहर
संज्ञा पुं० [हिं० मूस (= चूहा) + हर (प्रत्य०)] एक प्रकार की जंगली जाति। विशेष—इस जाति का व्यवसाय जंगली जड़ी बूटी आदि बेचना है। कहने है, इस जाति के लोग प्रायः चूहे तक मारकर खाते हैं, इसी से मुसहर कहलाते हैं। आजकल यह जाति गाँवों और नगरों के आस पास बस गई है और दोने, पत्तल बनाने तथा पालकी आदि उठाने का काम करती है।
⋙ मुसहरिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुसहर + इन (प्रत्य०)] मुसहर जाति की स्त्री।
⋙ मुसहिल (१)
वि० [अ०] (वह दवा) जिससे दस्त आवे। दस्तावर। रेचक। विशेष—ऐसी दवा प्रायः जुलाब से एक दिन पहले खाई जाती है।
⋙ मुसहिल (२)
संज्ञा पुं जुलाब। रेचन।
⋙ मुसाफिर
संज्ञा पुं० [अ० मुसाफिर] यात्री। राहगीर। बटोही। पथिक।
⋙ मुसाफिरखाना
संज्ञा पुं० [अ० मुसाफिर + फा़० खाना] १. यात्रियों के, विशेषतः रेल के यात्रियों के ठहरने के लिये बना हुआ स्थान। २. धर्मशाला। सराय।
⋙ मुसाफिरत
संज्ञा स्त्री० [अ० मुसाफ़िरत] १. मुसाफिर होने की दशा। २. मुसाफिरी। प्रवास।
⋙ मुसाफिरी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० मुसाफ़िरी] १. मुसाफिर होने की दशा। २. यात्रा। प्रवास।
⋙ मुसाफिरी (२)
वि० मुसाफिर का। मुसाफिर जैसा। उ०—कब पहना मुसाफिरी वाना ? हमने न अभी तक यह जाना।—अपलक, पृ० ५६।
⋙ मुसाल पु †
संज्ञा पुं० [सं० मातृष्वसा + आलय ?] १. मौसि- याना। मौसी का आलय। २. माँ का आलय। ननिहाल। उ०—बरप अट्ठ प्रथिराज गयउ दिल्ली मुसाल थह। राज करे अनगेस सव मरुवरा करै सह।—पृ० रा०, ७।२५।
⋙ मुसाहब
संज्ञा पुं० [अ० मुसाहब] वह जो किसी धनवान या राजा आदि के समीप उसका मन वहलाने अथवा इस प्रकार के और कामों के लिये रहता है। पार्श्ववर्ती। सहवासी। उ०—अकबर शाह के मुसाहब, फारसी और संस्कृत भाषा के महाकवि थे।—अकबरी०, पृ० ४९।
⋙ मुसाहबत
संज्ञा स्त्री० [अ०] मुसाहब का पद या काम।
⋙ मुसाहवी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुसाहब + ई (प्रत्य०)] मुसाहब का पद या काम।
⋙ मुसाहिब
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'मुसाहब'।
⋙ मुसिकाना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'मुसकाना'। उ०—इहि सुनि नागरि नवल नवेली मुसिकी नैन दुराइ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८९।
⋙ मुसीका †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'मुसका'।
⋙ मुसीबत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. तकलीफ। कष्ट। २. विपत्ति। संकट। क्रि० प्र०—उठाना।—झेलना।—भोगना।—सहना। मुहा०—मुसीबत का मारा = विपद्ग्रस्त। अभागा। मुसीबत के दिन = दुर्दिन। कष्ट का समय।
⋙ मुसुक ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'मुश्क' (२)। उ०—नरकी बाँधै मुसुक बाँधते गउ और बछरा।—पलटू०, भा० १, पृ० ३७।
⋙ मुसुकाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'मुसकराना'। उ०—पान खात मुसुकात मृदु को यह केशवदास।—केशव (शब्द०)।
⋙ मुसुकानि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकान'। उ०—पियत रहत पिय नैन यह, तेरी मृदु मुसुकानि।—मति० ग्रं०, पृ० ४०४।
⋙ मुसुकाहट पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसुकराहट'।
⋙ मुसौवर
संज्ञा पुं० [अ० मुसव्वर] मुसव्विर। चित्रकार। उ०— मुसौवर खींच ले तसवीर गर तुझमें रसोई हो।—श्यामा०, पृ० ७३।
⋙ मुरक पु †
संज्ञा पुं० [अ० मुश्क] कस्तूरी। दे० 'मुश्क'। उ०—है न जटा, ए वार विराजत नील न ग्रीव में मुस्क लगाए। सीस न चंद कला ए 'गुविंद' सु पुस्तप्रभा विलसे सुखदाए।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३५।
⋙ मुस्किल †
वि० [अ० मुश्किल] दे० 'मुश्किल'। उ०—पढ़ना गुनना चातुरी, यह तो वात सहल। काम दहन मन वसि करन, गगन चढ़ल मुस्कल।—संतवाणी०, पृ० ४६।
⋙ मुस्की (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकराहट'।
⋙ मुस्की (२)
वि० [फा़० मुश्की] दे० 'मुश्की'।
⋙ मुस्कयान पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मुसकराहट'।
⋙ मुस्टंडा
वि० [सं० पुष्ट] १. मोटा ताजा। हृष्टपुष्ट। पुष्ट भुजदंडवाला। २. बदमाश। गुंडा। लुच्चा। शोहदा।
⋙ मुस्त
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मुस्ता] नागरमोथा। मोथा नाम की घास।
⋙ मुस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मुस्तका] नागरमोथा। मोथा। यौ०—मुस्तगंधा। मुस्तकगंधा = नागरमोथा। उ०—मुस्तक- गंधा खुदी मृत्तिका है इधर, बने आर्द्र पदचिह्न, गए शूकर जिधर।—साकेत, पृ० १३७।
⋙ मुस्तकिल
वि० [अ० मुस्तकिल] १. अटल। स्थिर। २. पक्का। मजबूत। दृढ़। ३. स्थायी रूप से किसी पद वा काम पर नियुक्त (को०)। यौ०—मुस्तकिल मिजाज = स्थिरचित्त। दृढ़निश्चयी। मुस्तकिल हकदार = संपत्ति, विशेषतया भूसंपत्ति का स्थायी अधिकारी।
⋙ मुस्तकीम
वि० [अ० मुस्तकीम] सरल। ऋजु। ठीक। सीधा। उ०—यकीन जप मैं वई बंदा हूँ कदीम। करनहार हूँ काम फिर, मुस्तकीम।—दाक्खिनी०, पृ० ९१।
⋙ मुस्तगीस
संज्ञा पुं० [अ० मुस्तगीस] [स्त्री० मुस्तगीसा] १. वह जो किसी प्रकार का इस्तगासा या अभियोग उपस्थित करे। फरियादी। २. मुद्दई। दावेदार।
⋙ मुस्ततील
संज्ञा पुं० [अ०] आयत समकोण चतुर्भुज [को०]।
⋙ मुस्तदई
वि० [अ०] आवेदक। प्रार्थी [को०]।
⋙ मुस्तनत
वि० [अ०] जो सनद के तौर पर माना जाय। विश्वास करने के योग्य। प्रामाणिक।
⋙ मुस्तफा
वि० [अ० मुस्तफा़] १. पवित्र। पुनित। निर्मल। जिसमें मनुष्यों का कोई दुर्गुण न हो। २. चुना हुआ। श्रेष्ठ [को०]।
⋙ मुस्तफीद
वि० [अ० मुस्तफी़द] फायदा उठाने या चाहनेवाला।
⋙ मुस्तशना
वि० [अ० मुस्तसना] १. अलग किया हुआ। छाँटा हुआ। भिन्न। २. जो अपवाद स्वरूप हो। ३. उससे मुझे किया हुआ, जिसका पालन औरों के लिये आवश्यक हो। वरी किया हुआ।
⋙ मुस्तहक
वि० [अ० मुस्तहक] १. हकदार। अधिकारी। २. योग्य। पात्र।
⋙ मुस्तहकिम
वि० [अ० मुस्तहक्क्रीन] योग्य। ठीक। वाजिब। उ०— कम्फहम आदमी की राय पुस्तहकिम नहीं होती।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३१।
⋙ मुस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की घास। मोथा।
⋙ मुस्ताद
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली सूअर (जो मोथे की जड़ खाता है)।
⋙ मुस्ताभ
संज्ञा पुं० [सं०] नागरमोथा [को०]।
⋙ मुस्तु
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्का। घूँसा। मुट्ठी [को०]।
⋙ मुस्तैद
वि० [अ० मुस्तअद, मुस्तइद] १. जो किसी कार्य के लिये तत्पर हो। संनद्ध। २. चुस्त। चालाक। तेज।
⋙ मुस्तैदी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुस्तअद + ई (प्रत्य०) मुस्तइद्दी] १. सन्नद्धता। तत्परता। २. फुरती। उत्साह।
⋙ मुस्तौजिर
संज्ञा पुं० [अ०] ठेके पर काम करनेवाला। ठेकेदार [को०]।
⋙ मुस्तौफी
संज्ञा पुं० [अ० मुस्तौफी़] वह पदाधिकारी जो अपने- अधीनस्थ कर्मचारियों के हिसाब की चाँच पड़ताल करे। आय- व्यय-परीक्षक। उ०—वासिल बाकी स्याहा मुजलिम सब अधर्म की बाकी। चित्रगुप्त होते मुस्तौफी शरण गहूँ मैं काको।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुस्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूसल। २. अश्रु। आँसू [को०]।
⋙ मुहंगा ‡
वि० [सं० महार्घ; प्रा० महग्ध] दे० 'महँगा'। उ०—घरि बइठा ही आभरण, मोल मुहंगा लेसि।—ढ़ोला०, दू० २२५।
⋙ मुह
संज्ञा पुं० [सं० मुख] दे० 'मुँह'। उ०—(क) पहिल नेवाला खाई जाय मुह भीतर जबही। खण चूप भै रहइ गारी गाडू दे तबही।—कीर्ति०, पृ० ४२। (ख) मुह में खाँड़ पेट में विष ऐसे इस पुरुवंशी के फंद में फँसकर अब मै निर्लज्ज कहलाई सो ठीक है।—शकुंतला, पृ० ९५।
⋙ मुहकम
वि० [अ०] दृढ़। पक्का। उ०—सूर पाप को गढ़ दृढ़ कीन्हों मुहकम लाइ किंवारे।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुहकमा
संज्ञा पुं० [अ०] सरिश्ता। विभाग। सीगा।
⋙ मुहज्जव
वि० [अ० मुहज्जब] संस्कृत। शिष्ट। नागरिक। शिक्षित। उ०—हिंदुस्तानी जवानों में सबसे ज्यादा शाइस्ता और मुहज्जब जबान ग्वालियरी है।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८७।
⋙ मुहतमिम
संज्ञा पुं० [अ०] बंदोबस्त करनेवाला। इंतजाम करनेवाला। निगरानी करनेवाला। प्रबंधक। व्यवस्थापक।
⋙ मुहतरका
संज्ञा पुं० [?] वह कर जो व्यापार, वाणिज्य आदि पर लगाया जाय।
⋙ मुहतरम
वि० [अ० मुहतरम] मान्य। प्रतिष्ठित। श्रेष्ठ [को०]।
⋙ मुहताज
वि० [अ० मुहताज] १. जिसे किसी ऐसे पदार्थ की बहुत अधिक आवश्यकता हो जो उसके पास बिलकुल न हो। जैसे, दाने दाने को मुहताज। उ०—कौड़ी कौड़ी को करूँ, मैं सबको मुहताज।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४७३। २. दरिद्र। गरीब। कंगाल। निर्धन। यौ०—मुहताजखाना = अनाथालय। अन्नसत्र। गरीवों को भोजन आदि देने की जगह। ३. निर्भर। आश्रित। ४. चाहनेवाला। आकांक्षी। जैसे,—हम तुम्हारे रुपए के मुहताज नहीं।
⋙ मुहताजी
संज्ञा स्त्री० [अ० मुहताज़ + ई (प्रत्य०)] १. मुहताज होने की क्रिया या भाव। दरिद्रता। गरीबी। ३. परमुखापेक्षी होने का भाव। परवशता।
⋙ मुहद्दिस
संज्ञा पुं० [अ० मुहद्दिस] हदीस (पैगंबर का कथन) का ज्ञाता या जाननेवाला [को०]।
⋙ मुहबनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का फल जो नारंगी की तरह का होता है।
⋙ मुहब्बत
संज्ञा स्त्री० [अ०] प्रीति। प्रेम। प्यार। चाह। मुहा०—मुहब्बत उछलना = प्रेम का आवेश होना। २. दोस्ती। मित्रता। ३. इश्क। लगन। लौ। क्रि० प्र०—करना।—रखना। यौ०—मुहब्बतनामा = (१) प्रेमपत्र। प्रेमी या प्रेमिका का पत्र। (२) मित्र या प्रियजन का पत्र।
⋙ मुहम पु
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'मुहिम'। उ०—जाय नवोढ़ा सासरे, आँसू नाँख उसास। मावड़िया जावै मुहम, इम विध हुवे उदास। बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १९।
⋙ मुहन्मद
संज्ञा पुं० [अ०] अरब के एक प्रसिद्ध धर्माचार्य जिन्होंने इस्लाम या मुसलमानी धर्म का प्रवर्तन किया था। विशेष—इनका जन्म मक्के में सन् ५७० ई० के लगभग और मृत्यु मदीने में सन् ६३२ ई० में हुई थी। इनके पिता का नाम अब्दुल्ला और माता का नाम अमीना था। इन्होंने अपने जीवन के आरंभिक काल में ही यहूदियों और ईसाइयों की बहुत सी धार्मिक बातों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उसी समय से ये स्वतंत्र रूप से अपना एक धर्म चलाने की चिंता में थे और उसी उद्देश्य से लोगों को कुछ उपदेश भी देने लगे थे। प्रायः ४० वर्ष की अवस्था में इन्होंने यह प्रसिद्ध किया था कि ईश्वर ने मुझे इस संसार में अपना पैगंबर (दूत) बनाकर धर्मप्रचार करने के लिये भेजा है। इसके उपरांत इन्होंने कुरान की रचना की, और उसके संबंध में यह प्रसिद्ध किया कि इसकी सब बातें खुदा अपने फरिश्त जिब्राईल के द्वारा समय समय पर मुझसे कहलाता रहा है। धीरे धीरे कुछ लोग इनके अनुयायी हो गए। पर बहुत से लोग इनके विरोधी भी थे, जिनसे समय समय पर इन्हें युद्ध करना पड़ता था। यह भी प्रसिद्ध है कि ये एक बार सदेह स्वर्ग गए थे और वहाँ ईश्वर से मिले थे। अरबवालों ने कई वार इनके प्राण लेने की चेष्टा की थी, पर ये किसी न किसी प्रकार बराबर बचते ही गए। ये मूर्तिपूजा के कट्टर बिरोधी और एकेश्वरवाद के प्रचारक थे। अपने आपको ये पैगंबर या ईश्वरीय दूत बतलाते थे। इन्होंने कई विवाह भी किए थे। ये जैसे उदार और कृपालु थे वैसे ही कट्टर और निर्दय भी थे।
⋙ मुहम्मदी
संज्ञा पुं० [अ०] मुहम्मद साहब का अनुयायी। मुसलमान। उ०—इस नवीन विरुद्ध धर्म के अनुयायी होकर कुछ दिनों में उसी दल के परगणित हो कट्टर मुहम्मदी हो गए।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २४०।
⋙ मुहय्या
वि० [अ०] दे० 'मुहैया'।
⋙ मुहर (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोह] [फा़० मोहर] दे० 'मोहर'। उ०—तुम कहँ दीन्ह जक्त कौ भारा। तुम्हारी मुहर चलै संसारा।— कबीर सा०, पृ० १०११। यौ०—मुहरकन = मुहर खोदनेवाला। मुहरवरदार = मुहर रखनेवाला अधिकारी। मुहा०—मुहर करना। मुहर लगाना = प्रमाणित कर देना।
⋙ मुहर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मुखर, प्रा० मुहर] वाचाल। मुखर। बकबादी। उ०—लोहाना तौंबर अभंग मुहर सब्ब सामंत।— पृ० रा०, ४।१९।
⋙ मुहर पु † (३)
संज्ञा पुं० [सं० मयूर, हिं० मोर] मोर। उ०—कजा सूँ मुहर यक ऊपर आय कर। बहिश्त के कँगूरे ऊपर जाय कर।—दाक्खनी०, पृ० ३२८।
⋙ मुहर मुहर पु
अव्य० [सं० मुहुर्मुहः] बारंबार। बार बार। उ०—निकट निजल घट तर्ज मुहर मुहरं पति दरसी।— पृ० रा०, ६१।३७०।
⋙ मुहरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह + रा (प्रत्य०)] १. सामने का भाग। आगा। सिरा। सामना। मुहा—मुहरा लेना = मुकाविला करना। सामने होकर लड़ना। २. निशाना। ३. मुँह की आकृति। यौ०—चेहरा मुहरा। ४. शतरंज की कोई गोटी। उ०—घोड़ा दै फरजी बदलावा। जेहि मुहरा रुख चहै नो पावा।—जायसी (शब्द०)। ५. पन्नी घोटने का शीशा। ६. [स्त्री० मुहरी] घोड़े अथवा सवारी के पशुओं का एक साज जो उसके मुँह पर पहनाया जाता है। उ०—(क) अनुपम सुछबि मुहरो लगाम ललाम दुमची जीव को।—रघुराज (शब्द०)। (ख) ऊँमर साल्ह उतारियउ मन खोटइ मनुहारि। पगसूँ ही पग कूँटियउ, मुहरी झाली नारि।—ढोला०, दू० ६२९। ७. शतंरज की गोटियाँ।
⋙ मुहरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० मोहरी] १. दे० 'मोहरी'। २. दे० 'मोहरी'।
⋙ मुहर्रम
संज्ञा पुं० [अ०] अरबो वर्ष का पहला महीना। इसी महीने में इमाम हुसेन शहीद हुए थे। मुसलमानों में येह महीना शोक का माना जाता है। मुहा०—मुहर्रमी सूरत = रोनी सूरत। मनहूस सूरत। मुहर्रम की पैदाइश होना = मनहूत होना। सदा दुःखी और चिंतित रहना।
⋙ मुहर्रमी
वि० [अ० मुहर्रम + ई (प्रत्य०)] १. मुहर्रम संबंधी। मुहर्रम का। २. शोकव्यंजक। ३. मनहूस। उ०—जिस किसी की प्रकृति में शोक या विषाद ओतप्रोत हो जायगा........तो वह अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं से खिन्नता प्राप्त किया करेगा और रोना, मनहूस या मुहर्रमी कहलाएगा।—रस०, पृ० १८३। यौ०—मुहर्रमी सूरत = रोनी सूरत। मनहूस सूरत।
⋙ मुहर्रिक
वि० [अ०] १. प्रेषक। चालक। २. प्रस्तावक। ३. उत्तेजक। उत्तेजना देनेवाला [को०]।
⋙ मुहर्रिर
संज्ञा पुं० [अ०] लेखक। मुंशी। लिपिक क्लर्क। उ०— पाँच मुहर्रिर साथ करि दीने तिनकी बड़ी विपरीत। जिन्मे उनके, माँगै मोते यह तो बड़ी अनीत।—सूर (शब्द०)।
⋙ मुहर्रिरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] मुहर्रिर का काम। लिखने का काम।
⋙ मुहलत
संज्ञा स्त्री० [अ० मोहलत] 'मोहलत'।
⋙ मुहलय पु
संज्ञा पुं० [देश०] मुहाल। भ्रमर। उ०—कुवलय गज मुहलय मुदित बिदित बली दरबार।—पृ० रा०, २।४९२।
⋙ मुहली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुसल का स्त्री०] दे० 'मूसल'। उ०— कबीर चावल कार ने तुख को को मुहली लाइ।—कबीर ग्रं०, पृ० २५२।
⋙ मुहलैठी
संज्ञा स्त्री० [सं० मधुयष्टि] दे० 'मुलेठी'।
⋙ मुहल्ला
संज्ञा पुं० [अ० मुहल्लह्] दे० 'महल्ला'।
⋙ मुहसिन
वि० [अ०] १. एहसान करनेवाला। अनुग्रह करनेवाला। २. सहायक। मददगार। यौ०—मुहसिन कुश = एहसान फरामोश। कृतघ्न। मुहसिन- कुशी = कृतघ्नता।
⋙ मुहसिल (१)
वि० [अ० मुहासिल] तहसील वसूल करनेवाला। उगाहनेवाला।
⋙ मुहसिल (२)
संज्ञा पुं० प्यादा। फेरीदार। उ०—मैं न दियो, मन उन लियो, मुहसिल मैन पठाय।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मुहाफिज
वि० [अ० मुहाफ़िज] हिफाजत करनेवाला। संरक्षक। रखवाला।
⋙ मुहाफिजखाना
संज्ञा पुं० [अ० मुहाफ़िज + फा़० खानह्] कचहरी में वह स्थान जहाँ सब प्रकार की मिसलें आदि रहती हैं।
⋙ मुहाफिज दफ्तर
संज्ञा पुं० [अ० मुहाफ़िज + दफ्तर] कचहरी का वह अधिकारी जिसके निरीक्षण में मुहाफिजखाना रहता है। (अं० रेकर्ड कीपर)।
⋙ मुहाका †
वि० [सं० मोहक ? या देश०] मोहित करनेवाला। ठग। लुटेरा। उ०—अठसठ हाट इसे गढ़ माहीं। विचि पच मुहाके लूट लै जाहीं।—प्राण०, पृ० ३०।
⋙ मुहाचहीं पु
संज्ञा पुं० [हिं० मुह + चाहना] मुखदर्शन। मुख का देखना। दर्शन। उ०—जान प्यारी सुधि हूँ अपुनपौ बिसरि जाय। माधुरी निधान तेरी नैसिक मुहाचहीं।—घनानंद, पृ० ३७४।
⋙ मुहामुही †
क्रि० वि० [हिं० मुँह] आमने सामने। परस्पर एक दूसरे से। उ० - तब विधवा के गर्भ की वार्ता जहाँ जहाँ लोग मुहाँमुहीं करने लगे।—भक्तमाल (श्री०), पृ० ४७५।
⋙ मुहार †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुह + आर (प्रत्य०)] १. ऊँट की नकेल। मुहरी। २. मकान का दरवाजा।
⋙ मुहारवा
संज्ञा पुं० [अ० मुहारवह्] युद्ध। परस्पर संग्राम। लड़ाई [को०]।
⋙ मुहाल पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] भ्रमर। मधुमक्खी। दे० 'मुहलय'। उ०— महु तजि चलत मुहाल अन्य तरु साप लगन कहुँ। बद्दल बिसद विसाल चलत बसि पवन गगन महुँ। पृ० रा०, ७।२३।
⋙ मुहाल (१)
वि० [अ०] १. असंभव। नामुमकिन। २. कठिन। दुष्कर। दुःसाध्य। उ०—है मुहाल उनका दाम में आना। दिल है उन सब वुताँ का जर की तरफ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २३।
⋙ मुहाल (२)
संज्ञा पुं० १. दे० 'महाल'। २. दे० 'महल्ला'।
⋙ मुहाला
संज्ञा पुं० [हिं० मुँह + आला (प्रत्य०)] पीतल का वह बंद या चूड़ी़ जो हाथी के दाँत में शोभा के लिये चढ़ाई जाती है। बंगर। बंगड़। उ०—बारन बदन सदंत बिराजहिं हाटक बँधे मुहाले। मनहुँ द्वैज शशि श्याम मेघ मधि उभय नोक छबि माले।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मुहावरत
संज्ञा स्त्री० [अ०] परस्पर वार्ता। आपस में बातचीत करना [को०]।
⋙ मुहावरा
संज्ञा पुं० [अ० मुहावरह्] १. लक्षण या व्यंजना द्वारा सिद्ध वाक्य या प्रयोग जो किसी एक ही बोली या लिखी जानेवाली भाषा में प्रचलित हो और जिसका अर्थ प्रत्यक्ष (अभिधेय) अर्थ से विलक्षण हो। रूढ़ लाक्षणिक प्रयोग। किसी एक भाषा में दिखाई पड़नेवाली असाधारण शब्दयोजना अथवा प्रयोग। जैसे,—'लाठी खाना' मुहावरा है; क्योंकि इसमें 'खाना' शब्द अपने साधारण अर्थ में नहीं आया है, लाक्षणिक अर्थ में आया है। लाठी खाने को चीज नहीं है, पर बोलचाल में 'लाठी खाना' का अर्थ 'लाठी का प्रहार सहना' लिया जाता है। इसी प्रकार 'गुल खिलाना' 'घर करना', 'चमड़ा खींचना', 'चिकनी चुपड़ी बातें' आदि मुहावरे के अंतर्गत हैं। कुछ लोग इसे 'रोजमर्रा' या 'बोलचाल' भी कहते हैं। २. अभ्यास। आदत। जैसे,—आजकल मेरा लिखने का मुहावरा छूट गया है। क्रि० प्र०—छूटना।—डालना।—पड़ना।
⋙ मुहासबा
संज्ञा पुं० [अ० मुहासबह्] दे० 'मुहासिवा' उ०—दिल को करहु फराख फकीरा रहु मुहासबे पाक।—पलटू०, भा० ३, पृ० १०।
⋙ मुहासरा
संज्ञा पुं० [अ० मुहासरह्] दे० 'मुहासिरा' [को०]।
⋙ मुहासिब
संज्ञा पुं० [अ०] १. हिसाब जाननेवाला। गणितज्ञ। २. पड़ताल करनेवाला। आँकनेवाला। हिसाब लेनेवाला। उ०—सूर आप गुजरान मुहासिव लै जवाब पहुँचाबै।— सूर (शब्द०)।
⋙ मुहासिवा
संज्ञा पुं० [अ०] १. हिसाब। लेखा। उ०—सूरदास को यह मुहासिवा दस्तक कीजै माफ—सूर (शब्द०)। २. पूछताछ।
⋙ मुहासिरा
संज्ञा पुं० [अ०] १. युद्ध आदि के समय किले या शत्रुसेना को चारों ओर घेरने का काम। घेरा। २. घेरा। हदबंदी।
⋙ मुहासिल
संज्ञा पुं० [अ०] १. आय। आमदनी। २. लाभ। मुनाफा। नका। ३. विक्री आदि से होनेवाली आय।
⋙ मुहिं पु
सर्व० [हिं० मुझ] दे० 'मोहिं'। उ०—तिनमें इक सिसुपाल, ताहिं गुहिं देत रुकम सठ।—नंद ग्रं०, पृ० २०५।
⋙ मुहिव्व
संज्ञा पुं० [अ०] प्रेम रखनेवाला। दोस्ती रखनेवाला। दोस्त। मित्र। मोहब्बत रखनेवाला।
⋙ मुहिम
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कोई कठिन या बड़ा काम। भारी, मारके का या जान जोखों का काम। २. लड़ाई। युद्ध। समर। जंग। ३. फौज की चढ़ाई। आक्रमण। उ०—आए तेरे दृगन पै जे मुहीम अखत्यार। कितने मनसूवा गए इन सौं जुरके हार।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ मुहिर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।
⋙ मुहिर (२)
वि० मूर्ख। जड़वुद्धि।
⋙ मुहिर पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० मुदिर, प्रा० मुहर] मेघ। बादल। उ०— मुहिर बलाहक ताड़ित पति, कामुक धूमसपूत।—नंद० ग्रं०, पृ० ८८।
⋙ मुहिम
संज्ञा स्त्री० [अ० मुहिम, मुहिम्म] 'मुहिम'। उ०—कबीर तोड़ा मान गढ, मारे पाँच गनीम। सीस नवाया धनी को, साजी बड़ी् मुहीम।—कबीर सा० सं०, पृ० २७।
⋙ मुहः
अव्य० [सं० मुहु ! ] बार बार। फिर फिर। यौ०—मुहुर्मूहः।
⋙ मुहु ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मुँह'।
⋙ मुहुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक पल। एक क्षण [को०]।
⋙ मुहुपुची
संज्ञा स्त्री० [देश०] काले रंग का एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो मूँगफली की फसल को नष्ट कर देता है। खुरल। विशेष—ये कीड़े रात को अधिक उड़ते हैं। ये पत्तियों पर अंडे देते हैं जिससे पत्तियाँ सूख जाती हैं। ये कीड़े धूप और साफ दिनों में बहुत हानि पहुँचाते हैं। इनसे खेत की फसल काली हो जाती है। पानी बरसने पर ये कीड़े नष्ट हो जाते हैं।
⋙ मुहुर्भुक्
संज्ञा पुं० [सं० मुहुर्भुज्] घोड़ा। अश्व [को०]।
⋙ मुहूरत पु †
संज्ञा पुं० [सं० मुहूर्त] १. दे० 'मुहूर्त'। उ०—ब्रह्म मुहूरति कुअँर कान्ह निज घर आए तब। गोपनि अपनी गोपी अपने ढिग पाई सब।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६। २. सिनेमा की फिल्मों के आरंभ का मुहूर्त।
⋙ मुहूर्त
संज्ञा पुं० [सं० मुहूर्त्त] १. काल का एक नाम। दिन रात का तीसवाँ भाग। २. निर्दिष्ट क्षण या काल। समय। जैसे, शुभ मुहूर्त। ३. १२ क्षण का समय (को०)। ४. दो घटी का काल ५. ज्यौतिषी (को०)। ६. फलित ज्योतिष के अनुसार गणना करके निकला हुआ कोई समय जिसपर कोई शुभ काम (यात्रा, विवाह) आदि किया याज। क्रि० प्र०—निकलना।—निकालना।—देखना।—दिखलाना।
⋙ मुहूर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षम। काल। समय। २. ४८ मिनट का काल [को०]।
⋙ मुहैया
वि० [अ०] १. तैयार। तत्पर। प्रस्तुत। २. उपस्थित। मौजूद। ३. उपलब्ध [को०]।
⋙ मुह्यमान
वि० [सं०] मूर्छित। जो मोहित हो रहा या हुआ हो/?/मर्छायुक्त। मोहयुक्त [को०]।