विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ग
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ग
⋙ ग
व्यंजन के ? में कवर्ग का तीसरा वर्ण । इसका उच्चारणस्थान कंठ है और शिक्षा में यह 'क' का गंभीर संस्पृष्ट रूप माना गया है । इसका प्रयत्न अघोष अल्पप्राण है ।
⋙ गंग (१)
संज्ञा पुं० [गङ्गा] १. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में नौ मात्राएँ होती हैं । अंत में दो गुरु होना आवश्यक है । जैसे,—रामा भजौ रे । कामा तजौ रे । नित याहि कीजै । सब छाँड़ि दीजै । २. एक कवि का नाम जो अकबर के समय में था ।
⋙ गंग (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गा] गंगा नदी । उ०—करै रख्खि तप्पं दिन गंग न्हावै ।—पृ० रा०, २१ ।१६८ । विशेष—समास में समस्त पद के आदि में गंगा का कभी कभी गंग हो जाता है । जैसे,—गंगदत्त, गंगदास गंगजमुन, गंग- बचन, गंगजल इत्यादि । मुहा०—गंगगति लेना = गंगालाभ करना । मृत्यु होना । उ०— मरै जो चलै गंगगति लेई । तेहि दिन तहाँ धरी को देई ।—जायसी ग्रं०, पृ० ५३ ।
⋙ गंग (३)
संज्ञा स्त्री० [फा०] गंगा नदी [को०] । यौ०—गंगबरार । गंगशिकस्त ।
⋙ गंगई
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व० गें गें] मैना की जाति की एक चिड़िया । गलगलिया । विशेष—यह डेढ़ दो बालिश्त लंबी और गहरे भूरे रंग की होती हैं । यह भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रांतों मेंहोती है और खेतों, मैदानों और जंगलों से छोटे छोटे झुंडों में फिरती है । इसके अंडा देने का कोई नियत समय नहीं है । यह झाड़ से घोंसला बनाती है और चार अंडे देती है । यह बहुत बोलती है ।
⋙ गंगका
संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गका] गंगा नदीं [को०] ।
⋙ गंगकुरिया
संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गा + कूल] एक प्रकार की हल्दी जो कटक में होती है । इसकी गाँठे लंबी और बड़ी होती हैं ।
⋙ गंगख पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गंङ्गका] गंगा । मंदाकिनी । उ०—करै रक्खि तप्पं दिनं गंग न्हावै । तहाँ उज्जलं गंगखं नीर धावै ।—पृ० रा०, २१ ।१३८ ।
⋙ गंगतिरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० गंग + तीर] एक पौधा जो सजल भूमि में होता है । विशेष-इसकी पत्तियाँ बड़ी और नोनिया की पत्तियों के समान सिरे पर नुकीली होती है । इसमें पीपल के समान बाल निक- लगी हैं । वैद्यक में यह शीतल, रूखी, कडुई, नेत्र और हृदय को हितकारी, शुक्रजनक, मनरोधक तथा दाह और ब्रण को दूर करनेवाली मानी जाती है । इसे पनिसिंगा और जलपीपल भी कहते हैं ।
⋙ गंगदत्त
संज्ञा पुं० [सं० गङगदत्त] मेंढकों के एक राजा का प्राचीन नाम ।विशेष—इसने अपने दायादों को विनष्ट करने के लिये प्रिय- दर्शन नामक साँप को निमंत्रित किया । प्रिय दर्शन नें दायादों को समाप्त कर इसके कुल को भी उच्छिन्न कर दिया । तब गंगदत्त अपनी जात लेकर बाहर निकल भागा । पंचतंत्र में यह कथा विस्तार से लिखित है ।
⋙ गंगधर
संज्ञा पुं० [सं० गङ्गाधर] महादेव । शंकर । उ०—गिरिवर- घर अरु गंगधर चरन सरन सिर नाई ।—हम्मीर०, पृ० १ ।
⋙ गंगधार पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गंगा + धार] गंगा की धारा या प्रवाह । उ०—संभु जटाजूट पर चंद की छुटी है छटा चंद की छटान पै छटा है गंगधार की ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २५३ ।
⋙ गंगबरार
संज्ञा पुं० [फा० अथवा हिं० गंगा + फा० बरार = बाहर या ऊपर लाया हुआ] वह जमीन जो गंगा या किसी और नदी की धारा या बाढ़ के हटने से निकल आती है और जिसपर उस नदी के द्वारा लाई हुई मिट्टी जमी रहती है ।
⋙ गंगजा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कंद । शलजम ।
⋙ गंगशिकस्त
संज्ञा पुं० [फा० या हिं० गंगा + फा० शिकस्त = तोडा हुआ] वह जमीन जिसे कोई नदी काट ले गई हो ।
⋙ गगसुत
संज्ञा स्त्री० [हिं० गंग + सुत] दे० 'गंगासुत' । उ०—मारयौ करण गंगसुत द्रौता ।—कबीर सा०, पृ० ५० ।
⋙ गंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गा] भारतवर्ष की एक प्रधान नदी जो हिमालय से निकलकर १५६० मील पूर्व को बहकर बगाल की खाड़ी में गिरती है । विशेष—इसका जल अत्यंत स्वच्छ और पवित्र होता है और इसमें कभी कीड़े नहीं पड़ते । हिंदू इस नदी को परम पवित्र मानते हैं और इसमें स्नान करना पुण्य समझते हैं । पुराणों में इसे हिमालयकी पुत्री माना है और इसकी माता का नाम मनोरमा लिखा है, जो सुमेर की कन्या थी । कहते हैं, गंगा पहले स्वर्ग में थी । जब सगर के साठ हजार पुत्रों को कपिल जी ने भस्म कर डाला, तब उनके उद्धार के लिये भागीरथ गंगा जी को स्वर्ग से पृथिवी पर लाए । गंगा जब स्वर्ग से गिरी थीं, तब उन्हें शिव जी ने अपनी की जटा में धारण किया था । इसी से शिव जी की जटा में गंगा मानी जाती हैं । पृथिवी पर गिरने पर गंगा भगीरथ के साथ गंगसागर को, जहाँ कपिल जी ने सगर के पुत्रों को भस्म किया था, जा रही थीं, कि इसी बीच में जह्नु ऋषि ने उन्हें पी लिया और भगीरथ के बहुत प्रार्थना करने पर उन्हें अपने जानु से निकाला । इसी से गंगा का नाम जह्नुसुता आदि पड़ा । पुराणानुसार गंगा की तीन धाराएँ है—एक स्वर्ग में जिसे 'आकाशगंगा' कहहे हैं, दूसरी पृथिवी पर और तीसरी पाताल में । यह नदी गंगोत्तरी की पहाड़ी से जो १३, ८०० फुट ऊँची है, बर्फ के पिघलने से निकलती है और मंदाकिनी तथा अलकनंदा से मिलकर हरि—* द्वार के पास पथरीले मैदान में उतरती है । यमुना, गोमती, घाघरा, बानगंगा, गंडक आदि नदियाँ इसमें गिरती हैं । हिंदुओं के प्रधान तीर्थ काशी, प्रयाग आदि इसी के किनारे हैं । (कभी कभी साधारणतः नदी के लिये भी इस पद का प्रयोग होता है । यौ०—गंगाधर । गंगाजल । गंगापुत्र । मुहा०—गंगा उठाना = गंगाजल उठाकर शपथ खाना । गंगा की शपथ करना । गंगा और मदार का साथ होना = दो असम वस्तुओं या प्रवृत्तियों का साथ साथ होना । उ०—आपका हमारा मेल जैसे गंगा और मदार का साथ ।—फिसाना०, भा०३, पृ० ४ । गंगा पार करना = देश से निकालना । गंगा नहाना = कृतार्थ होना । छुट्टी पाना । जैसे,—तुम यहाँ से जाओ, तो हम गंगा नहाएँ । गंगा दुहाई = गंगा की शपथ । गंगालाभ होना = देहावसान होना । मृत्यु प्राप्त करना । पर्या०—विष्णुपदी । जाह्नवी । भागीरथी । त्रिपथगा । सुरनि- म्रगा । त्रिस्त्रोता । स्वरापगा । सुरापगा । अलकनंदा । मंदा- किनी । सुरनदी । अध्वगा ।
⋙ गगाका
संज्ञा स्त्री० [सं० गंङ्गाका] गंगा ।
⋙ गंगाक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] गंगा और गंगा के दोनों तटों से दो दो कोस पर्यंत भूभाग । विशेष—इसके अंदर मरनेवाले का मोक्ष हो जाता है ।
⋙ गंगार्गात
संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गागति] मोक्ष । मुक्ति ।
⋙ गंगाचिल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गाचिल्ली] एक जलपक्षी जिसका सिर काले रंग का होता है । पर्या०—देवट्टी । विश्वका । जलकुक्कुटी ।
⋙ गंगाजमुनी
वि० [हिं० गंगा + जमुना] १. मिलाजुला । संकर । दो- रंगा । २. सोने चाँदी, पीतल ताँबे आदि दो धातुओं का बना हुआ । सुनहले रूपहले तारों का बना हुआ । जिसपर सोने चाँदी दोनों का काम हो । ३. काला उजला । स्याह सफेद । अबलक ।
⋙ गंगाजमुनी (२)
संज्ञा स्त्री० १. कान का एक गहना । २. वह दाल जिसमें अरहर और उर्द की दाल मिली हो । केवटी दाल । ३. जरतारी का ऐसा काम जिसमें सुनहले और रुपहले दोनों रंग के तार हों । ४. अफीम मिली हुई भाँग । अफीम से युक्त भाँग की सरदाई (बनारस) ।
⋙ गंगाजल
संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गाजल] १. गंगा का पानी । २. एक कपड़े का नाम जो बारीक और सफेद रंग का होता है । पश्चिम में लोग इसकी पगड़ी बाँधते हैं । उ०—गंगाजल की पाग सिर सोहत श्री रघुनाथ । शिव सिर गंगाजल किंधौ चंद्र चंद्रिका साथ ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ गंगाजली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गाजल + हिं० ई] १. काँच या धातु की बनी हुई सुराही या शीशी जिसमें यात्री गंगाजल भरकर ले जाते हैं । उ०—बद्रीनाथ गंगोतरी की यात्रा में रालाँ ने रामेश्वर के लिये गंगाजली भरी ।—किन्नर०, पृ० १०० । मुहा०—गंगाजली उठाना = गंगाजली हाथ में लेकर शपथ खाना । गंगा की कसम खाना ।२. धातु की की सुराही जिसमें पीने के लिये पानी रखा जाता है । ३. लोटे जैसा एक पात्र जिसमें कड़ीदार ढक्कन रहता है ।
⋙ गंगाजली (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गेहूँ भूरे रंग का और कड़ा होता है ।
⋙ गंगाजाल
संज्ञा पुं० [सं० गङ्गा + जाल] बंगाल के मछवाहों का जाल जो रीहा घास से बनता है ।
⋙ गंगाटेय
संज्ञा पुं० [सं० गङ्गाटय] एक प्रकार का मत्स्य । झींगा मछली [को०] ।
⋙ गंगादत्त
संज्ञा पुं० [सं० गङ्गादत्त] भीष्म पितामह [को०] । पर्या०—गंगाजल । गंगापुत्र । गंगासुत । गंगेय ।
⋙ गङ्गाद्वार
संज्ञा पुं० [सं० गङ्गाद्वार] हरिद्वार ।
⋙ गंगाधर
संज्ञा पुं० [सं० गङ्गाधर] १. शिव । महादेव । २. समुद्र । ३. एक औषध का नाम । विशेष—यह नागरमोथा, मोचरस, आदि को योग से बनती है और संग्रहणी रोग में दी जाती है । इसे 'गंगाधर रस' भी कहते हैं । ४. चौबीस अक्षरों का एक वर्णवृत्त । विशेष—इसके प्रत्येक चरण में आठ रगण होते हैं । इसे गगोदक भी कहते हैं । दे० 'गंगोदक' ।
⋙ गंगाधार
संज्ञा पुं० [सं० गङ्गाधार] समुद्र [को०] ।
⋙ गंगानहान
संज्ञा पुं० [सं० गङ्गा + स्नान] १. किसी पर्व पर गंगा- स्नान का मेला । २. किसी तीर्थ में स्नान करना । उ०— कलकी में गंगानहान की बढ़ी उमंगै ।—अपरा, पृ० १९६ । क्रि० स०-करना ।—होना ।
⋙ गंगापत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गापत्री] एक वृक्ष का नाम । सुगंधा । गंधपत्रिका [को०] ।
⋙ गंगापथ
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश ।—(डिं०) ।
⋙ गंगापाट
संज्ञा पुं० [हिं० गंगा + पाट] एक भौंरी जो घोड़े के के नीचे होती है । विशेष—यह भौंरी यदि तंग से बाहर हो; तो शुभ मानी जाती है; अन्यथा तंग के नीचे पड़ने से अशुभ होती है ।
⋙ गंगापार
संज्ञा पुं० [सं०] गंगा का दूसरा किनारा या तीर ।
⋙ गंगापुजैया †
संज्ञा स्त्री० [सं० गंगा + हिं० पुजैया] दे० 'गंगापूजा' ।
⋙ गंगापुत्तर †
संज्ञा पुं० [सं० गंङ्गापुत्र] दे० 'गंगापुत्र' । उ०—घाट जाओ तो गंगापुत्तर नोचैं दै गलफाँसी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३३३ ।
⋙ गंगापुत्र
संज्ञा पुं० [सं०गङ्गापुत्र] १. भीष्म । २. कार्तिकेय (को०) । ३. एक प्रकार के ब्राह्मण जो गंगा आदि नदियों के किनारे पर रहते है और घाटों पर दान लेते हैं । ४. ब्रह्मावैवर्त के अनुसार एक वर्णसंकर जाति । विशेष—यह जाति लेट पिता और तीवरी माता से पैदा कही गई है । यथा—'लेटात्तीवरकन्यायां' गंगातीरे च शौनक । बभूव सद्यो यो बालो गंगापुत्र? प्रकीर्तितः ।
⋙ गंगापूजा
संज्ञा स्त्री० [सं० गंङ्गापूजा] विवाह के बाद की एक रीति । कंगन छोड़ना । बरनवार । विशेष—इसमें गाँव और कुटुंब की स्त्रियाँ वर को साथ लेकर गाती बजाती गाँव के बाहर नदी या तालाब पर जाती हैं और वहाँ गाँव के देवता आदि की पूजा करके घर लौट आती हैं । इसी दिन वर या वधू के हाथ के कंगन खोले जाते हैं । इसी दिन विवाह का कृत्य समाप्त होता है । इस रीति को 'कंगन छोड़ना' या 'बरनवार' भी कहते हैं ।
⋙ गंगायात्रा
संज्ञा स्त्री० [ सं० गङ्गयात्रा] १. मरणासन्न मनुष्य का गंगा के तट पर मरने के लिये गमन । २. मृत्यु ।
⋙ गंगाराम
संज्ञा पुं० [ हिं० गंगा+राम] तोते का प्यार का नाम ।
⋙ गंगाल
संज्ञा पुं० [ सं० गंगा+आलय] पानी रखने का बड़ा बरतन । कंडाल ।
⋙ गंगालहरी
संज्ञा स्त्री० [ सं० गङ्गालहरी] गंगा से संबंधित स्तुति- परक पद्यों का संग्रह । जैसे, —पंड़ितराज जगन्नाथ, पृथ्वीराज राठौर, और पदमाकर आदि द्वारा रचित इस प्रकार के छंदों का संकलन ।
⋙ गंगाला
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गा+आलय] वह भूमि जहाँ तक गंगा का चढ़ाव पहुँचता है । कछार ।
⋙ गंगालाभ
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गालाभ] गंगा की प्राप्ति । मृत्यु । मुहा०—गंगालाभ होना । (१) गंगा के किनारे पर मरना । मुक्त होना । (२) ड़ूबकर मरना । (३) मरना ।
⋙ गंगावतरण
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गावतरण] स्वर्ग से गंगा का पृथ्वी पर आना (को०) ।
⋙ गंगावतार
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गावतार] दे० 'गंगावतरण' ।
⋙ गंगावासी
वि० [स० गङ्गावासिन] गंगा के किनारे रहनेवाला ।
⋙ गंगासप्तसी
संज्ञा स्त्री० [ सं० गङ्गासप्तमी] वैशाख महीने की शुक्ल पक्ष की साप्तमी (को०) ।
⋙ गंगासागर
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गासागर] १. एक तीर्थ जो उस स्थान पर है जहाँ गंगा समुद्र में गिरती हैं । विशेष—कहते हैं यहाँ कपिल मुनि का आश्रम था और यहीं सगर के पुत्रों को उन्होंने भस्म किया था । यह स्थान कलकत्ते से दक्षिणपूर्व सुंदरबन में है, जहाँ मकर की संक्रांति के दिन बड़ा मेला लगाता है । २. मोटे कपड़े की छपी हुई जनानी धोती दो १७-*१८ हाथ लंबी होती है । ३. एक प्रकार की बड़ी टोंटीदार झरी जो हाथ धुलाने के काम् आती हैं ।
⋙ गंगासुत
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गासुत] १. कार्तिकेय । २. भीष्म [को०] ।
⋙ गंगासूनु
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गासूनु] दे० 'गंगासुत' ।
⋙ गंगिका
संज्ञा स्त्री० [ सं० गङ्गिका] गंगा ।
⋙ गंगेऊ पु
संज्ञा पुं० [ सं०गाङ्गेय, गाङ्गेय] भीष्म । उ० तुम ही द्रौन और गंगेऊ । तुम लेखौं जैसे सहदेऊ । जायसी (शब्द०) ।
⋙ गंगेय
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गेय] गंगा के पुत्र भीष्म पितामह ।
⋙ गंगेश
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गेश] शिव । महादेव ।
⋙ गंगोझ पु
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गोद] दे० 'गंगोदक' । उ०—तुलसी रामाहिं परिहरे निपट हानि सुनु ओझ । सुरसरि गत सोई सलिल, सुरा सरिस गंगोझ ।—तुलसी ग्रं, पृ०, ९१ ।
⋙ गंगोतरी
संज्ञा स्त्री० [ हिं० गंगोत्तरी] दे० 'गंगोत्तरी' । उ०— बद्रीनाथ गंगोतरी की यात्रा में रालाँ न रामेश्र्वर के लिये गंगाजली भरी ।—किन्नर०, पृ०, १०० ।
⋙ गंगोत्तरो
संज्ञा स्त्री० [ सं० गङ्गवतार] गढ़वाल में हिमालय पर्वत पर एक स्थान जहाँ गंगा ऊपर से गिरती है । विशेष—यह हिदुऔं का एक प्रधान तीर्थ है और यहाँ गंगादेवी का एक मंदिर बना हुआ है ।
⋙ गंगोद
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गा+उव=जल] दे० 'गंगोदक' । उ०— धन्य नदी नद स्त्रोत, विमल गंगोद गोत जल ।—काश्मीर०, पृ० १ ।
⋙ गंगोदक
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गोदक] १. गंगाजल । २. चौबीस अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसमें आठ रगण होते हैं । विशेष—इसे गंगाधर, खंजन आदि भी कहते हैं । यह यथार्थ में स्रग्विणी छंद का दूना है । जैसे,—जन्म बीता सबै, चेच मीता अबै, कीजिए का तबै, काल के आन कै । मुँड़माला गरै, सीस गंगा धरै, आठ यामै हरे, ध्याइ लै गान कै ।
⋙ गंगोदिक पु
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गोदक] दे० 'गंगोदक' । उ०—एक घट माँहिं पुनि गंगोदिक राख्यो आँनि ।—सुँदर ग्रं०, भा०, २, पृ० ५९४ ।
⋙ गंगोदभेद
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गोदभेद] जहाँ से गंगा नदी निकलती है । गंगा का उदगम [को०] ।
⋙ गंगोला
संज्ञा पुं० [ सं० गङ्गोल] गोमेदक नामक मणि । उ०— गंधक गंजाफल गंगोला । गोपीचंदन लुटेउ अतोला ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ गंगौटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गङ्गा+मिट्टी] गंगा के किनारे की बालू या मिट्टी ।
⋙ गंगौलिया
संज्ञा पुं० [ हिं० गंगाल] एक प्रकार का खट्टा नीबू जिसका छिलका दानेदार होता है ।
⋙ गंज (१)
संज्ञा पुं० [ सं० कञ्ज या खञ्ज] १. एक रोग का नाम जिसमें सिर के बाल उड़ जाते हैं और फिर नहीं जमते । चाईं । चँदलाई । खल्वाट । बुर्का । २. सिर का एक रोग जिसमें सिर में छोटी छोटी फुंसियाँ निकलती रहती है और जल्दी अच्छी नहीं होतीं । बालखोरा
⋙ गंज (२)
संज्ञा स्त्री० [फा०, सं० गञ्ज] १. खाजाना । कोष । २. ढ़ेर । अंबार । राशि । अटाला । क्रि० प्र०—लगाना । ३. समूह । झुँड़ । ज०,—कै निदरहु कै आदरहु सिंहंहि स्वान सियार । हरष बिषाद न केसरिहि कुंजर गंजनिहार ।— तुलसी (शब्द०) । ४. वह स्थान जहाँ अन्न आदि रखा जाय । गल्लाखाना अंबारखाना । कोठी । भंड़ार । ५. गल्ले की मंड़ी । गोला । हाट । बाजर । मुहा०—गंज ड़ालना = बाजार लगाना । मंड़ी आबाद करना । ६. वह आबादी जिसमें बनिए बसाए जाते हैं और बाजार लगता है । जैसे, —पहाड़गंज, रायगंज । ७. मद्यपात्र ८. मदिरालय । कलवरिया । ९. वह चीज जिसमें बहुत सी काम की चीजों एक साथ एकत्र हों । जैसें; —एक बरतन दो गगरे या बाल्टी के आकार का होता है औरौ जिसमें रसोई वनाने के बहुत से बरतन होते है, गंज कहलाता है । इसी प्रकार वह चाकू जिसमें चाकू कैची मोचने आदि बहुत सी चोजें होती हैं, गंज कहलाता है । यौ०—गंजगुठारा, गंजगुबारा = दे० 'गंजगोला' । गंजगोला । गंजचाकू ।
⋙ गंज (३)
संज्ञा पुं० [सं० गञ्ज] १. अवज्ञा । तिरस्कार । २. गोशाला । गोठ [को०] ।
⋙ गंज (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक मोठी लता जिसमें नीचे की और झुकी हुई टहनियाँ निकलती है । विशेष—इसकी पत्तियाँ सीकों में लगती हैं और चार से आठ इंच तक लंबी, सिरे की ओर चौड़ी, दलदार और चिकनी होती हैं, इसमें पाँच सात इंच लंबी, एक इच मोटी फलियाँ लगती हैं, जिनपर रोंई होती हैं । टहनियों से रोशा निकलता है और पत्तियाँ चौपायों की खिलाई जाती हैं । यह लता जंगल के पेड़ों को बहुत हानि पहुँचाती है और देहरादून से लेकर गोर- खपुर और बुँदेलखंड़ तक पाई जाती है । इसे गोंज भी कहते हैं ।
⋙ गंजगोला
संज्ञा पुं० [हिं० गंज+गोला] तोप का वह गोला जिसके अंदर बहुत भी छोटी छांटी गोलिय, भरी रहती हैं । दे० 'किरिच' का 'गोला' ।—(लश०) ।
⋙ गंजचाकू
संज्ञा पुं० [हिं० गंज+फा़ चाकू] वह चाकू जिसमें फल के साथ ही सरौता, मोचना आदि लगा हो ।
⋙ गंजड़
वि० [हिं० गाँजा] दे० 'गँजेड़ी' । उ०—लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे बिसवासी ।—भारतेंदु ग्रं० भा०, १, पृ० ३३३ ।
⋙ गंजन (१)
संज्ञा पुं० [सं० गञ्जन] १. अवज्ञा । तिरस्कार । उ०— (क) रस सिंगार मंजन किये, कंजन भंजन दैन । अंजन रंदन हू बिना खंजन गंजन नैन ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) काली बिष गंजन दह आयो ।—सूर (शब्द०) । (२) हरा देना । ३. संगीत में अष्टताल के आठ भेदों में से एक । ३. कष्ट तकलीफ ।—(क) जोहि मिलि बिछुरनि औ तपनि अंत होइजो निंत । तेहि मिलि गंजन को सहै नरु बिनु मिलै निचिंत ।—जायसी (शब्द०) । (ख) पुण्यात्मा सुख से, वो पापी सब नाना गंजन से जाते हैं ।—सदल मिश्र (शब्द०) । ४. नीचा दिखाना । ५. नाश ।
⋙ गंजन (२)
वि० १. अवज्ञा करनेवाला । २. हरा देनेवाला । ३. कष्ट या दुःख देनेवाला । ४. नीचा दिखानेवाला । ५. नाशक । उ०— जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बिपति बरूथ ।— मानस, १ । १८६ ।
⋙ गंजना
क्रि० सं० [सं० गञ्जन] १. अवज्ञा करना । निरादर करना । २. चूर चूर करना । नाशा करना । उ०—राम कासअरि कर धनु भंजा । भृगुपति सहित नृपन मद गंजा ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ गंजनी
संज्ञा स्त्री० [देश०?] एक घास जो सुगंध बनाने के काम में आती है । इसकी महक नीबू से मिलती जुलती होती है ।
⋙ गंजफा
संज्ञा पुं० [फा़० गंजफ़ह्] दे० 'गंजीफा' ।
⋙ गंजबख्श
वि० [फा़० गंजबंख्श] खजाना लुटा देनेवाला । बहुत बड़ा दानी [को०] ।
⋙ गंजा (१)
संज्ञा पुं० [सं० खञ्ज या कञ्ज] गंज रोग । वि० दे० 'गंज' ।
⋙ गंजा (२)
वि० [वि० स्त्री० गंजी] जिसके गंज रोग हो गया हो । जिसके सिर के बाल झड़ गए हों ।
⋙ गंजा (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० गञ्जा] १. पर्णकुटी । झोपड़ी । २. मदिरा- लय । शराबखाना । ३. मद्य पीने का पात्र । ४. रत्न की खान [को०] ।
⋙ गंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गञ्जिका] शराबखाना । मदिरालय [को०] ।
⋙ गंजित
वि० [सं० गञ्जित] १. अपमानित । तिरस्कृत । २. कष्ट- यक्त । दुखी । ३. नष्ट [को०] ।
⋙ गंजो (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गंज] १. ढेर । समूह । गाँज । जैसे,—घास की गंजी, अन्न की गंजी । † २. शकरकंद । कंदा ।
⋙ गंजी (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० गुएरनेसी = एक टाप्] बुनी हुई छोटी कुरती या बंड़ी जो बंदन में चिपको रहती है । बनियायन ।
⋙ गंजी (३)
संज्ञा पुं० [हिं० गाँजा] दे० 'गँजेड़ी' ।
⋙ गंजीना
संज्ञा पुं० [फा० गंजीनह] कोष । खजाना [को०] ।
⋙ गंजीफा
संज्ञा पुं० [फा० गंजीफह] एक खेल जो आठ रंग के ९६ पत्तों से खेला जाता है । विशेष—इसके पत्तों के आकार गोल होते हैं और रंग लाल । ये पत्ते कड़े होते हैं और फेंकने से मुड़ते नहीं हैँ । रंगों के नाम चंग, बरात, किमास, शमसेर आदि हैं । प्रत्येक रंग के १२, ११ पत्ते होते हैं । इस खेल को तीन आदमी खेलते हैं ।
⋙ गंटम
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थ?] लोहे की कलम जिससे ताड़पत्र पर लिखते थे ।
⋙ गंठ पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थि प्रा०, गंठि] गाँठ । उ०—कर ड़ैरा पण धरियो, जमण तणै उपकंठ । उवर तणी इंद्रसिंघ सू, साह प्रकासी गंठ । रघु० रू०, पृ० २७ ।
⋙ गठिय पु
वि० [सं० ग्रथित प्रा०, गंठिय] १. बाँधा हुआ । २. गूँथा हुआ । ३. गाँठवाला ।
⋙ गंठी †
संज्ञा स्त्री० [वि०] दे० 'गाँठ' ।
⋙ गंड़
संज्ञा पुं० [दे० गण्ड़] १. कपोल । गाल । २. कनपटी । ३. गाल से कनपटी तक का भाग । यौ०—गंड़देश । गंड़पिंड़ । गंड़प्रदेश । गंडमंडल । गंडस्थल । गंड़स्थली = कनपटी । गाल । ४. ज्योतिष के अनुसार ज्येष्ठा, श्लेष्पा और रेवती के अंत के पाँच दंड़ और मूल, मघा तथा अश्विनी के आदि के तीन दंड़ । विशेष—इसमें उत्पन्न होनेवाले लड़के को दुषित मानते हैं । लोगों का विश्वास है कि गंड में उत्पन्न लड़के का मुँह पिता को नहीं देखना चाहिए । दिन में ज्येष्ठा और मूल का गंड़, रात में श्लेषा और मद्य का गंड़ तथा सायंकाल, प्रातःकाल रेवती और अश्विनी का गंड अधिक दोषकारक माना जाता है; और इनमें उत्पन्न बालक क्रम सें पिता, माता, और अपना घातक माना गया है । ५. गंडा जो गले में पहना जाता है । ६. फोड़ा । ७.चिह्न । लकीर । दाग । ८. गोल मंहलाकार चिह्न या लकीर । गण्ड़ी । गंड़ा । ९. गाँठ । ग्रंथि । (लाक्ष०, शरीर की नाड़ी) । उ०— नव गज दस गज गज उगनीसा पुरिया एक तनाई । सात सूत दे गंड बहत्तरि पाट लगी अधिकाई ।—कबीर० ग्र०, पृ० १५३ । १० गैंड़ा । ११. बीथी नामक नाटक का एक अंग जिसमें सहसा प्रश्नोत्तर होते हैं । १२. घेघा (को०) । १३. योद्धा । (को०) ।
⋙ गंड़क (१)
संज्ञा पुं० [सं० गण्डक] १. गले में पहनने का जंतर या गंडा । २. वह देश जहाँ गंडकी नदी बहती है तथा वहाँ के निवासी । ३. गाँठ । ४. एक रोग जिसमें बहुत से फोड़े निकलते हैं । ४. गैड़ा । ६. चिह्न । निशान । ७. रुकावट । बाधा (को०) । ८. वियोजन । पार्थक्य । अलगाव (को०) । १०. चार चार करके किसी वस्तु ती गणना (को०) । ११ चार कौंड़ियों के मूल्य का सिक्का (को०) । १२. ज्योतिष का एक अंग । फलित ज्योतिष [को०] ।
⋙ गंड़क (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़की] दे० 'गंड़की' ।
⋙ गंड़क † (३)
संज्ञा पुं० [देश०] श्वान । कुत्ता । उ०—बीछू बानर ब्याल बिस गरदभ गंड़क गोल । ऐ अलगइज राखणा ओ उपदेश अमोल ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ११ ।
⋙ गंड़का
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़का] बीस वर्णों का एक वृत्त जिसे 'वृत्त' और 'दंड़िका' भी कहते हैं ।
⋙ गंड़की (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़की] एक नदी जो नैपाल में हिमालय से निकलती है और बहुत सी छोटी छोटी नदियों को लेती हुई पटने के पास गंग में गिरती है । इसमें काले रंग के गोल गोल पत्थर निकलते है, जो शालिग्राम कहलाते हैं । इन्हें विष्णु का प्रतीक मानकर लोग पूजते हैं । उ०—गंगा यमुना सरस्वती गोदावरी समान । रची नदी तब गंडकी जहँ तहँ शिल उत्पाम ।—कबीर सा०, पृ० ११८ । यौ०—गंड़कीपुत्र । गंड़की शिला = शालिग्राम ।
⋙ गंडकी (२)
संज्ञा पुं० सत्रह मात्राओं का एक ताल जिसमें १३. आघात और ४ खाली होते हैं । + २ विशेष—इसका बोल इस प्रकार है—देत देत खून खून धा कता ० ३ ४ ५ ६ ७ ० ८ दंता केटे देत देत खून खून धा कता दंता कडान् घा आ ९ १० ११ १३ + तेरे केटे तांधा खूंगा गदिघेने तेरे केंटे । धा ।
⋙ गंड़कुसुम
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़कुसुम] हाथी की कनपटी से चूनेवाला मद [को०] ।
⋙ गंड़कूप
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़कूप] १. पर्वत की चोटी का ऊपरी भाग । २. पहाड़ की चोटी पर बना हुआ कुआँ [को०] ।
⋙ गंड़गात्र
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़गात्र] शरीफा [को०] ।
⋙ गंड़गोपा लका
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़गोपलिका] एक प्रकार का कीड़ा । ग्वालिन ।
⋙ गंण्डग्राम
संज्ञा पुं० [सं० गण्डग्राम] बड़ा या प्रसिद्ध गाँव [को०] ।
⋙ गंड़दूर्बा
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़दर्वा] १. गाँड़र घास जिसकी जड़ खस कहलाती है । २. वह दूब जो पृथ्वी पर फैलती और जड़ पकड़ती हुई दूर तक चली जाती हैं ।
⋙ गंडदेश
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़देश] कपोल । गंड़प्रदेश । गाल [को०] ।
⋙ गंड़नी
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्डाली] सरपोका । सर्पाक्षी । सरहटी ।
⋙ गंडाभित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़भित्ति] हाथी के गंड़स्थल का छिद्र जिससे मद निकलता है [को०] ।
⋙ गंड़मंड़ल
संज्ञा पुं० [सं० गण्डमण्डल] कनपटी । उ०—ललित गंड़- मंड़ल सुविसाल भाल तिलक झलक मंजु तर मयंक अंक रुचि बंक भौंहै ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गंड़मालक
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़मालक] दे० 'गंड़माला' [को०] ।
⋙ गंड़माला
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़माला] एक रोग जिसमें गले में छोटी छोटी बहुट भी फुड़ियाँ लगातर माला की तरह एक पंक्ति में निकलती हैं । यह रोग बड़ी कठिनता से अच्छा होता है । गलगंड़ । कंठमाला ।
⋙ गंड़मालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़मालिका] लजाधुर की लता । लज्जालु । लाजबंती [को०] ।
⋙ गंड़माली
वि० [सं० गण्ड़मालिन्] गंड़माला का रोगी [को०] ।
⋙ गंड़मूर्ख
वि० [सं० गण्ड़मूर्ख] घोर मूर्ख । भारी बेवकूफ ।
⋙ गंडरी
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़ाली] गँड़ारा घास । गाँड़र ।
⋙ गंड़ली
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़लिन्] १. छोटी पहाड़ी । २. शिव ।
⋙ गंड़शिला
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़शिला] भारी चट्टान [को०] ।
⋙ गड़सूचि
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़सूचि] नृत्य में एक प्रकार का भाव ।
⋙ गंड़स्थल
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़स्थल] कनपटी । उ० = उरसि मरगजी माल चाल मदगज जिमि मलकत । धूमत रसभरे नैन गड़स्थल श्रमकन झलकत ।—नंद ग्रं०, पृ० २३ ।
⋙ गंडांत
दे० पुं० [सं० गण्ड़ान्त] फलित ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ज्येष्ठा, श्लेषा और रेवती के अंत के पाँच या तीन दड़ तथा मूल, मघा और अश्विनी के अंत के तीन दंड़ । विशेष—इनमें उत्पन्न होनेवाले बालक दोषी माने जाते है और उनके उस दोष की शांति के लिये पूजा की जाती है ।
⋙ गडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़क = गाँठ] १. गाँठ जो किसी रस्सी या तागो में लगाई जाय । जैसे—गेराँव का गंड़ा । क्रि० प्र०—मारना ।—लगाना ।
⋙ गंड़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़क = गले में पहनने का जंतर] १. वह बटा हुआ तागा जिसमें मंत्र पढ़कर गाँठ लगाई जाती है । इसे लोग रोग और भूत प्रेत की बाधा दूर करने के लिये गले में बाँधते हैं । उ०—इसके हाथ से गंड़ा गिर गया सो यह पड़ा है ।—शकुंतला, पृ० १४३ । मुहा०—गंड़ातावीज = मंत्रयंत्र । झाड़फूँक । जादूटोना । टोटका गंड़ा तावीज करना = गंड़े तावीज से इलाज करना । मंत्र यंत्र में रोग को अच्छा करना । झड़फूँक करना । २. वह धागा जिसे मंत्र पढ़कर रोगी के गले या हाथ में बाँधते हैं । ३. घोड़ों के गले में पहनाने का पट्टा जिसमें कभी कभी कौड़ियाँ और घुँघरू के दाने भी गूँथे जाते हैं ।
⋙ गंड़ा (३)
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़क] पैसे, कौड़ी आदि के गिनने में चार चार की संख्या का समूह । जैसे,—पाँच गंड़े कौड़ियाँ, चार गंड़े पैसे ।
⋙ गंड़ा (४)
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़ = चिह्ना] १. आड़ी लकीरों की पंक्ति जैसी कनखजूरे की पीठ पर या साँप के पेट में देखी जाती है । आड़ी धारी । २. तोते आदि चिड़यों के गले की रंगीन धारी । कंठा । हँसली । मुहा०—गंड़ा पड़ना—धारी होना वा निकलना ।
⋙ गंड़ातावीज
संज्ञा पुं० [हिं० गंड़ा + अ० तावीज] झाड़ फूँक । जंतर मंतर ।
⋙ गंड़ारि
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़रि] कचनार ।
⋙ गंडाली
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्डाली] गंड दूर्वा । गाँड़र घास ।
⋙ गंड़ासा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गाँड़ासा' ।
⋙ गंडि
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्डि] १. पेड़ का स्कंध । तना । २. घघेला । घेघा [को०] ।
⋙ गंडि़का
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्डिका] १. एक प्रकार का छोटा पत्थर । २. एक प्रकार का पेय । ३. वह वस्तु जो पहली अवस्था पार कर दूसरी अवस्था में पहुँच गई हो । ४. गैड़े के चमड़े की बनी हुई एक प्रकार की छोटी नाव ।
⋙ गांडिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्डिनी] दुर्गा ।
⋙ गंड़ीर
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़ीर] १. एक साग जिसे गिड़नी भी कहते है । वैद्यक में यह कफनाशक माना जाता है । २. पोई का साग । ३. सेहुड़ ४. धनुष । उ०—कुंजर चींटी कै पगि बाँधा । गहि गंडीर उलटी सरु सांधा ।—प्राण०, पृ० १३६ । ५. गन्ना या ऊख की छोटी टुकड़ी । गँड़ेरी । उ०—कोलू बिच गंड़ीर ज्यों एहु जन एवैं होय ।—प्राण०, पृ०, २४८ । ५. योद्धा । बीर [को०] ।
⋙ गंड़ीरी
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़ीरी] दे० 'गंड़ीर' ।
⋙ गंड़ु
संज्ञा पुं० [सं० ग्णड़ु] १. ग्रंथि । गाँठ । २. अस्थि । हड़ड़ी । ३. गँड़ुक । तकिया [को०] ।
⋙ गंड़ुक पु
संज्ञा पुं० [सं० गण्डूष] दे० 'गंड़ूष' ।
⋙ गंड़ुपद
संज्ञा पुं० [सं०] पील पाँव रोग ।
⋙ गंड़ू (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्ड़ू] १. तेल । २. दे० 'गंड़ु' [को०] ।
⋙ गंड़ू (२)
वि० [हिं० गाँड़] दे० 'गाँड़ू ।
⋙ गंडूक
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़ूष] दे० 'गंड़ूष' ।
⋙ गंड़ूपद
संज्ञा पुं० [सं०] केचुआ । यौ०—गंड़ूपदभव ।
⋙ गंड़ूपदभव
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा नामक धातु ।—(डिं०) । विशेष—संभव है, प्राचीनों का यह विश्वास रहा हो कि केचुएँ से 'सीसा' निकलता है, जेसे, अबतक बहुत से लोगों की धारणा है कि मोर के पंख से ताँबा निकलता है ।
⋙ गंड़ूल
वि० [सं० गण्ड़ूल] गाँठोवाला । गाँठदार । २. टेढा । वक्र । झुका हुआ (को०) ।
⋙ गंड़ूष
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़ूष] [स्त्री० गंड़ूषा] १. हथेली का गड़्ढा । चूल्लू । २. कुल्ली । ३. हाथी की सूँड़ की नोक ।
⋙ गंड़ोपधान, गंड़ोपधानीय
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़ोपधान, गण्ड़ोपधानीय] तकिया [को०] ।
⋙ गंडोपल
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़ेपल] बड़ा शिलाखंड़ [को०] ।
⋙ गंडोल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कच्ची शकर । गुड़ । २. ईख । इक्षु । ३. ग्रास । कौर ।
⋙ गंड़ोलक
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़ोलक] एक प्रकार का कीड़ा [को०] ।
⋙ गंडोलकपाद, गंडोलपाद
संज्ञा पुं० [सं० गण्ड़ोलकपाद, गण्ड़ोलपाद] फीलपाँव [को०] ।
⋙ गंतव्य
वि० [सं० गन्तव्य] जाने योग्य । गम्य । चलने योग्य । उ०— अपनी दुर्बलता बल सम्हाल गंत्वय मार्ग पर पैर धरे ।— कामायनी, पृ० १७० ।
⋙ गंता
संज्ञा पुं० [सं० गन्तृ] [स्त्री० गंत्री] जानेवाला । १. उ०—अधट घटना सुघट विघट विघटन विघट भूमि पाताल जल गगन गंता ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—इसका प्रोयोग विशेष करके समस्त पद के अंत में होता है । जैसे,—अग्रगंता ।
⋙ गंतु (१)
वि० [सं० गन्तु] १. जानेवाला । चेलनेवाला । २. पाथिक । बटोही [को०] ।
⋙ गंतु (२)
संज्ञा पुं० पथ । मार्ग [को०] ।
⋙ गंत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्त्रिका] छोटी गाड़ी [को०] ।
⋙ गंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्त्री] गाड़ी जिसमे घाड़े या बैल जुते हों । यौ०—गंत्रीरथ ।
⋙ गंद
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. मलिनता । मैलापन । २. अपवित्रपता । दुर्गंध । बदबू । ४. दोष । खराबी । ५. अशुद्धि । ६. गँदलापन मटमैलापन । मुहा०—गंद बकना = गंदी बातों कहना या गलियाँ बकना । यौ०—गंददहन = (१) जिसके मुह से दुर्गध आती हो । (२) दुर्भाषी । गलियाँ बकनेवाला । गंददहनी = मुहँ से कुवास या दुर्गंध आने का रोग । गंदबगल = जिसके बगल से दुर्गध आती हो । गंदबगली = काँख या बगल से दुर्गंध आने का रोग ।
⋙ गंदगी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. मैलापन । मलिनता । २. अपवित्रता । अशुद्धता । नापाकी । क्रि० प्र०—करना ।—फैलना ।—फैलाना ।—होना । ३. मैला । गलीज । मल ।
⋙ गंदगी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्ध] दुर्गंध । बदबू ।
⋙ गंदना
संज्ञा पुं० [सं० गन्धन या फा०] १. लहसुन या प्याज की तरह का एक मसाला जो तरकारी आदि मे ड़ाला जाता है । २. एक घास जो लहसुन की गाँठ मे जौ ड़ालकर बोने से उत्पन्न होती है । यह चटनी आदि के लिये काम आती है । इसे दंदना भी कहते हैँ ।
⋙ गंदम
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० गंदमी] एक पक्षी । विशेष—यह सात आठ इंच लंबा होता है और ऋतु के अनुसार रंग बदलता है । जा़ड़े के महीनों मे यह पेजाब और संयुक्त भ्रांत में दिखाई पड़ता है । यह झु़ड़ मे रहता है; और छोटी झाड़ियों में घास फूस से प्याले के आकार का घोंसला बनाता है ।
⋙ गंदमगंदा
वि० [फ़ा० गदह + गंदह] बहुत ही गंदा खराब या बुरा । उ०—दसी दुवारे मैल है सब गंदमगंदा ।—चरण० बानी, पृ० ६२ ।
⋙ गंदा
वि० [फ़ा० गंदह] [वि० स्त्री० गंदी] १. मैला । मलिन । उ०— बरसात में नदियों का पानी गंदा हो जाता है । २. नापक । अशुद्ध । जैसे, —एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है । ३. घिनौना । घृणित । जैसे, तुम्हारी गंदी आदत नहीं जाती । यौ०—गंदादहन । गंदापानी । मुहा०—गंदा करना = (१) खरब करना । भ्रष्ट करना । (२) दागी करना । दाग लगाना । कलंकित करना ।
⋙ गंदादहन
वि० [फ़ा० गंदहदहन] जिसके मुँह से दुर्गध आती हो । गंददहन ।
⋙ गंदापानी
संज्ञा पुं० [फ़ा० गंदह + हिं० पानी] १. मद्य । शराब । २. वीर्य । शुक्र धातु ।—(बाजारू) । मुहा०—गंदा पानी निकालना = अयोग्य स्त्री से मैथुन करना । संभोग करना ।
⋙ गंदाबगल
संज्ञा पुं० [हिं० गंदा + फ़ा० बग़ल] वह घोड़ा जिसके दोनों बगल दो भौंरियाँ हों ।
⋙ गंदुम
संज्ञा पुं० [फ़ा० तुल० सं० गौधूम] [वि० गंदुमी] गेहूँ ।
⋙ गंदुमी
वि० [फ़ा० गंदुम] गेहूँ के रंग का । ललाई लिए हुए भूरा । गोहुँआँ । जैसे,—गंदुमी रंग । उ०—रंग तेरा गंदुमी देख और बदन मखमल सा साफ ।—कविता को०, भा० ४, पृ० २३ ।
⋙ गंदोलना †
क्रि० सं० [फ़ा० गंदह्] कोई चीज, विशेषतया पानी को गंदा करना ।
⋙ गंद्रप पु †
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्व] दे० 'गंधर्व' । उ०—सो हुतो गंद्रप श्राप वासव धिके प्राक्रम धारिया । विणासीस दूर प्रसार बाहाँ धणाँ जीव संहारिया ।—रघु०, रू०, पृ०, १२५ ।
⋙ गंध
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्ध] १. बास । महक । विशेष—न्याय या वैशेषिक में गंध को पृथिवी का गुण और घ्राण या नासिका का विषय कहा है । यद्यपि साधारण भेद दो हैं—सुगंध और दुर्गंध, पर शास्त्रकारों ने इसके प्रधान दस भेद किए है । (क) इष्ट, जैसे कस्तूरी आदि की । (ख) अनिष्ट, जैसे मुर्दें आदि की । (ग) मधुर; जैसी मधु, फूल आदि की । (घ) अम्ल, जैसी आम, आँवले की । (च) कटु, जैसी मिर्च आदि की । (छ) निहारी, जैसी हींग आदि में । (ज) संहत, जैसी चित्रगंध की । (झ) स्निग्ध जैसी घी की । (ट) रूक्ष, जैसे सरसों राई आदि की । (ठ) विशद, जैसी चावल आदि की । २. सुगंध । सुवास । विशेष—इसे लोगों ने पाँच प्रकार की माना है । (क) चूर्णाकृत, (ख) घृष्ट, (ग) दाहाकर्षित (घ) संमर्दज और (ङ) प्राण्योंगेदभव ।३. सुगंधित द्रव्य जो शरीर में लगाया जाय । जैसे,—चंदन आदि का लेप । ४. लेश । अणुमात्र । संस्कार । संबंध । जैसे, — उसमें भलमंसाहत की गंध भी नहीं है । उ०—जेहि धंध जाकर मन बसे सपने सूझ सो गंध । तेहि कारन तपसी तप साधहि करहि प्रेम चित वंध । जायसी (शब्द०) । ५. गंधक । ६. शोभांजन । सहिजन ।
⋙ गंधकंदक
संज्ञा पुं० [सं० गंधकन्दक] कसेरू [को०] ।
⋙ गंधक
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धक] [वि० गंधकी] एक खनिज पदार्घ जिसे वैद्यक में उपधातु माना है । विशेष—यह खरी और बिना स्वाद की और ज्वालग्रहिणी होती है । इसकी कलमें चमकदार होती हैं और इसे घिसने या गरम करने से इसमें से एक प्रकार की असह्य तीव्र गंध निकलती है । यह ज्वालामुखी पर्वतों से निकले पदार्थों में प्रायः मिलती हैं । धातुओं के साथ भी यह लगी मिलती है । गंधक पानी, अलकोहल और ईथर में नहीं घुलती, पर द्बिगंधित कार्बन, मिट्टी के तेल और वेंजीन में सुगमता से घुल जाती है । आग में जलने से इसमें से नीले रंग की लौ निकलती है । यह २३८ दर्जे की आँच में पिघलती है और ८२४ दर्जे की आँच में उबलने लगती है । उबलने के समय इसमें गुलाल रंग की घनी भाप निकलतो है । आइसलैंड़ के ज्वालामुखी पर्वतों के पास यह शुद्ध रूप में मिलती है, पर सिसली में यह नीली मिट्टी के साथ मिली हुई पाई जाती है । इसे साफ करने के लिये गंधक मिली हुई मिट्टी को एक गड्ढ़े में आग के ऊपर रखकर ऊपर से मिट्ठी डाल देते हैं । इससे गंधक जलने लगती है और पिघल पिघलकर नीचे गड्ढे में जमा होती जाती है । इसे हिंदुस्तान में फिर साफ करके पत्तियों के रूप में बनाते हैं । ये बत्तियाँ बाजार में ब्रिम स्टोन या गंधक की बत्तियाँ कहलाती हैं । गंधक प्रायः लोह ताँबे आदि धातुओं और कभी कभी पशु, पक्षी और बनस्पतियों में भी मिलती है । इससे रबर भी कड़ा करते हैं । चर्मरोग में यह लगाई और खिलाई भी जाती है । वैद्यक के ग्रेथों के अनुसार गंधक चार प्रकार की होती है, सफेद, लाल, पीली और नीली । पर लाल और सफेद गंधक देखने में नहीं आती; पीली और नीली मिलती है । नीली को तूतिया, नीला थोथा आदि कहते हैं । गंधक शब्द से आजकल केवल पीली गेधक समझी जाती है । कुछ लोग हरताल को भी एक प्रकार की गंधक मानते हैं । वैद्य लोग खाने के लिये गंधक को शोधते हैं । शोधने के लिये इसकी बुकानी को खौलते हुए घी में ड़ालते है । फिर जब घी में मिलो गंधक खूब गरम हो जाती है, तब उसे एत बर्तन नें दूध रखकर छानते हैं । जिससे गेधक छनकर नीचे बैठ जाती है । यह क्रिया तीन बार की जाती है । ड़ाक्टर लोग गंधक जलाकर वायु शुद्ध करते हैं । पर्या०—गंधाश्मा । गंधमोहन । पूतिगंध । अतिगंध । बर । सुगंध दिव्यगंध । कीटघ । क्रूरगंध । गंधी । गंधिक । पामागंधा रसगंधक । सौग धिक । सुगंधिक कुष्ठारि । गौरीबीज ।
⋙ गंधकवटी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धक + वटी] एक औषध या गोली । जो शुद्ध गंदक, चित्रक, मिर्च, पीपल आदि के योग से बनाई जाती है । यह गोली अजीर्ण, शूल, आमदोष, गोल आदि रोगों में दी जाती है ।
⋙ गंधकाम्ल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धकाम्ल] गंधक का तेजाब [को०] ।
⋙ गंधकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धकारिका] सुगंधित अंगराग आदि तौयार करनेवाली सेविका । कपड़ों के सुगंध से बसाने का काम करनेवाली दासी या सेविका [को०] ।
⋙ गंधकालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धकालिका] सत्यवती । योजनगंधा ।
⋙ गंधकाली
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धकाली] सत्यवती । योजनगंधा ।
⋙ गंधकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगर की लकड़ी । अगरु । २. चंदन ।
⋙ गंधकी (१)
वि० [हिं० गंधक + ई (प्रत्य०)] गंधक के रंग का । हलका । पीला ।
⋙ गंधकी (२)
संज्ञा पुं० एक रंग जो कुछ सफेदी लिए पीला होता है । यह रंग असवर्ग से निकाल जाता है और छीट छापने तथा सूती और रेशमा कपड़े रँगने में काम आता है ।
⋙ गंधकी तेजाब
संज्ञा पुं० [ हिं० गंधकी + फा० तेजाब] गंधक का तेजाब ।
⋙ गंधकुटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी देवालय के अंतर्गत वह कमरा या दालान जिसमें बहुत सी देवमूर्तियाँ रखी हों ।
⋙ गंधकुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुरा नामक एक गंधद्रव्य [को०] ।
⋙ गंधकुसुमा
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्ध + कुसुमा] एक पौधा । गनि- यारी [को०] ।
⋙ गंधकेलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कस्तूरी [को०] ।
⋙ गंधकोकिल
संज्ञा पुं० [ सं गन्धकोकिल] एक सुगंधित वस्तु । सुगंध कोकिल ।
⋙ गंधखेद, गंधखेदक
संज्ञा पुं० [सं० गन्धखेद, गन्धखेदक] एक सुगंधित घास । गंधतृण [को०] ।
⋙ गंधक
वि० [सं० गन्धग] गंधवाला । गंधयुक्त [को०] ।
⋙ गंधगज
संज्ञा पुं० [सं० गन्धगज] वह हाथी जिसके कुंभस्थल से मद निकलता हो । पर्या०—गंधद्विप । गंधद्विरद । गधेभ ।
⋙ गंधगात पु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धगात्र] चंदन ।—(ड़िं०) ।
⋙ गंधगुण
वि० [सं० गन्धगुण] जिसका गुण गंध हो (को०) ।
⋙ गंधग्राहक
वि० [सं० गन्धग्राहक] गंध ग्रहण करने वाला (जैसे, ध्राणा [को०]) ।
⋙ गंधग्राही
वि० [सं० गन्धग्राहिन्] १. गंधग्राहक । २. सुगंधित [को०] ।
⋙ गंधघ्राण
संज्ञा पुं० [सं० गन्धघ्राण] किसी भी गंध का ग्रहण करना [को०] ।
⋙ गंधचेलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धचेलिका] कस्तूरी ।
⋙ गंधज
वि० [सं० गन्धज] सुगंधित पदार्थ संबंधी या उससे युक्त [को०] ।
⋙ गंधजल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धजल] सुगंधित तोय या सुवासित जल [को०] । पर्या०—गंधोद । गंधोदक ।
⋙ गंधजात
संज्ञा पुं० [सं०गन्धजात] तेजपात ।
⋙ गंधज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धज्ञा] नासिका । नाक [को०] ।
⋙ गंधण पु
वि० [फा़० गंदह्] मलिन । अपवित । उ०—गंधण वैण नहीं पतिआवै । अंतरि ज्ञान तिनै आघावौ ।—प्राण०, पृ० २४२ । [को०] ।
⋙ गंधतंड़ुल
संज्ञा पुं० [ सं० गन्धतण्ड़ुल] गंध शालि । सुगंधित चावल [को०] ।
⋙ गंधतूर्य
संज्ञा पुं० [गन्धतूर्य] बिगुल, तुरही, दुँदुभी आदि युद्ध का बाजा [को०] ।
⋙ गंधतृण
संज्ञा पुं० [सं० गन्धतृण] एक प्रकार की सुगंधित घास जो वैद्यक में कुछ तिक्त, सुगंधित, रसायन, स्निग्ध, मधुर, शीतल और कफ तथा पित्त की नाशक कही गई है ।
⋙ गंधतैंल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धतैल] सुगंधित तैल [को०] ।
⋙ गंधत्राण
संज्ञा पुं० [गन्ध + त्राण] ज्वरांकुश नाम की घास, जिसमें से नीबू की सी गंध आती है । नीली जाय ।
⋙ गंधद
संज्ञा पुं० [सं० गन्धद] चंदन ।
⋙ गंधदला
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धदला] अजमोदा । अजवायन ।
⋙ गंधदारु
संज्ञा पुं० [सं०गन्धदारु] अगर । गंधकाष्ठ [को०] ।
⋙ गंधद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०गन्धद्रव्य] सुगंधित पदार्थ, जैसे, चंदन, केसर आदि ।
⋙ गंधद्वार
वि० [सं०गन्धद्वार] जो गंध से जाना जाय [को०] ।
⋙ गंधधारी (१)
वि० [सं० गन्धधारिन्] सुगंधयुक्त । जो सुगंध लगाए हो ।
⋙ गंधधारी (२)
संज्ञा पुं० शिव [को०] ।
⋙ गंधधूलि
संज्ञा स्त्री० [सं० गल्धधूलि] कस्तूरी ।
⋙ गंधन (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० ' गंदना' ।
⋙ गंधन (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुन्दन] सोना ।—(सुनारों की बोली) ।
⋙ गंधनकुल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धनकुल] छछूँदर [को०] ।
⋙ गंधनाकुली
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धनाकुली] एक प्रकार का नाकुली कंद जो साधारण नाकुली से अच्छा होता है । रास्ना । घोड़रासन ।
⋙ गंधनाड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धनाडी़] नासिका । नाक [को०] ।
⋙ गंधनामा
संज्ञा पुं० [सं० गन्धनामन्] लाल तुलसी [को०] ।
⋙ गंधनाम्री
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धनाम्री] साधारण बीमारी । मामूली बीमारी । क्षुद्र रोग [को०] ।
⋙ गंधनाल पु
संज्ञा पुं० [ हिं० गन्ध + नाल] नाक का छेद । नथुना । उ०—गंधनाल दुइ राह एक सम राखिये । चढ़ि सुखमना घाट अमीरस चाखिये । कबीर (शब्द०) ।
⋙ गंधनालिका, गंधनाली
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धनालिका, गन्धनाली] नासिका । नाक [को०] ।
⋙ गधनिलया
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धनिलया] चमेली का एक भेद [को०] ।
⋙ गंधप
संज्ञा पुं० [सं गन्धप] पितरों का एक वर्ग [को०] ।
⋙ गंधपत्र
संज्ञा पुं० [सं० गन्धपत्र] १. सफेद तुलसी । २. मरुबा । ३. नारंगी ४. बेल ।
⋙ गंधपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धपत्रा] कपूरकचरी । पर्या०—गंधपत्रिका । गंधनिशा । गंधपीता ।
⋙ गंधपत्रो
संज्ञा स्त्री० [सं०गन्धपत्री] अजमोदा । अजवायन ।
⋙ गंधपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धपर्णी] सप्तपर्णी ।
⋙ गमंधपलाशिक
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धपलाशिका] हरिद्रा । हरदी [को०] ।
⋙ गंधपलाशी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धपलाशी] कपूरकचरी ।
⋙ गंधपसार पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गंध + पसार] दे० 'गंधप्रसारिणी' ।
⋙ गंधपसारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गंधपसार+ई (प्रत्य०)] दे० 'गंधप्रसारिणो' ।
⋙ गंधपाली
संज्ञा पुं० [सं० गन्धपालिन्] शिव [को०] ।
⋙ गंधपाषाण
संज्ञा पुं० [सं० गन्धपाषाण] गंधक [को०] ।
⋙ गंधपिशाचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धपिशाचिका] सुगंधित पदार्थ का धुआँ [को०] ।
⋙ गंधपुर
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वपुर या हिं०] दिल्ली का एक नाम । उ०—प्रथम पुत्र सोमेस गंधर ढुँढा गढ़ि्ढ़य । भई सुद्धि गंध्रवन पुहप मंगल दुज पढ़ि्ढ़य । पृ० रा, १ । ६८६ ।
⋙ गंधपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० गन्धपुष्प] १. सुंगंधयुक्त पुष्प । २. केवड़ा । ३. गनियारी । ४. बेत [को०] ।
⋙ गंधपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धपुष्पा] नील का पौधा । [को०] ।
⋙ गंधपूतना
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धपूतना] एक प्रेतिनी या चुड़ै़ल ।
⋙ गंधप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं० गन्धप्रत्यय] घ्रँणोंद्रिय । नाक ।
⋙ गंधप्रसारिणी
संज्ञा स्त्री० [ सं० गन्धप्रसारिणी] एक लता जिसकी पत्तियाँ ड़ेढ़ इंच चौड़ी और दो इंच लंबी तथा नुकीली होती है । पात्तियों के किनारे कटावदार होते हैं । गंधपसार । गंधपसारी । विशेष—इसकी गंध कड़ई और असह्य होती है । वैद्यक में इसे गरम, भरी तथा बल और वीर्यवर्धक माना है : यह वातापित्त नाशक तथा टूटी हड़ि्ड़यों के जोड़नेवाली है । खाने में कड़वी चरपरी होती है । इसका प्रयोग वैद्यक में स्वरभंग और बवासीर में लिखा है । पर्या०—सरिवा । शारिवा । गोपी । उत्पलशारिवा । भद्रवल्ली । नागजिह्वा । कराला । भद्रवल्लिका । गोपवल्ली । सुगंधा । भद्रश्यामा । शारदा । आस्फोता । काष्ठशारिवा । धवल- सारिवा ।
⋙ गंधप्रियंगु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धप्रियड़्गु] प्रियंगु । फूलफेन ।
⋙ गंधफल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धफल] १. कैथ । २. बेल ।
⋙ गंधफला
संज्ञा स्त्री० [ दे० गन्धफला] १. प्रियंगु । २. विदारी ।
⋙ गंधफली
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धफली] १. प्रियंगु । २. चंपा ।
⋙ गंधबंधु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धवन्धु] आम ।
⋙ गंधबबूल
संज्ञा पुं० [हिं० गंध + बबूल] बबूल की जाति का एक छोटा वृक्ष जिसके फूल विशेष सुगंधित होते हैं । विशेष—यह अमेरिका से भारतवर्ष में लाया गया है और अब भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रांतों में मिलता है । इसे लोग विलायसी बबूल या कीकर कहते हैं । फ्रांस देश में इसके फूलों से इत्र निकाला जाता है और वहाँ इसकी खेती भी लोगबहुत करते हैं । हिंदुस्तान में भी इसके फूलों से तेल तैयार किया जाता हैं ।
⋙ गंधबहुल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धबहुल] दे० 'गंधतंडुल' ।
⋙ गंधबहुला
संज्ञा स्त्री० [ सं० गन्धबहुला] गोरक्षी का पौधा [को०] ।
⋙ गंधबाह
संज्ञा पुं० [सं० गन्धवाह] हवा । उ०—गंधबाह सीरे करैं हीरे ताप अछेह । दई ताहु पर निरदई दाहत देह अदेह ।— स० सप्तक, पृ० २७३ ।
⋙ गंधबिलाव
संज्ञा पुं० [सं० गन्ध + हिं० बिलाव] नेवले की तरह का एक जंतु । विशेष—यह जंतु अफ्रिका में होता है । यह दो फुट लंबा और पीलापन लिए हुए भूरे रंग का होता है इसके सारे बदन में मटमैले रंग के दाग पंक्तियों में होते हैं । इसके चूतड़ के पास गिलटी होती है जिसमें पीले रंग का का चेप होता हैं । हवश में लोग इस जंतु को इसी चेप के लिये पालते हैं । यह मांसभक्षी है । इसे कच्चा मांस दिया जाता हैं । सप्ताह में दो बार इसकी गिलटी से पीला चेप निकालते हैं । एक गंधबिलाव से अधिक से अधिक एक बार में एक माशे चेप निकलता है, जो सुगंधित होता है और पौष्टिक औषध में काम आता है । इसे मुश्कबिलाव भी कहते हैं ।
⋙ गंधबीजा
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धबीजा] मेथी [को०] ।
⋙ गंधबेन
संज्ञा सं० [सं० गन्ध वेणु] एक घास जो अत्यंत सुगंधित होती है । इसका तेल निकाला जाता है । रोहिष । रूसा । सूत्रिण । सुरीस ।
⋙ गंधभांड
संज्ञा पुं० [गन्धभाण़्ड़] दे० 'गर्दभांड़' [को०] ।
⋙ गंधमांसो
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमाँसी] जटामांसी का एक भेद [को०] ।
⋙ गंधमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमातृ] पृथ्वी [को०] ।
⋙ गंधमाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. भौरा । २. एक यादव का नाम ।
⋙ गंधमादन (१)
संज्ञा पुं० [सं० गन्धमादन] १. एक पर्वत का नाम । विशेष—पुराणानुसार यह पर्वत इलावृत ओर भद्राश्व खंड़ के बीच में है । नील निषध पर्वत तक इसका विस्तार है । देवी भागवत के अनुसार यह भगवतीकामुकी का पीठस्थान है । २. रामायण के अनुसार राम की सेना का प्रधान बंदर । ३. भौंरा । ४. एक सुगंधित द्रव्य । ५. गंधक । ६. रावण का एक नाम (को०) । ७. सुगंधित ओषधियों से युक्त गंधमादन पर्वत का जंगल (को०) ।
⋙ गंधमादन (२)
गंध से उन्मत्त करनेवाला [को०] ।
⋙ गंधमादनी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमादनी] १. मदिरा । मय । २. लाखा ।
⋙ गंधमादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमादिनी] लाख । लाक्षा [को०] ।
⋙ गंधमार्जार
संज्ञा पुं० [सं० गन्धमार्जार] दे० 'गंधबिलाव' ।
⋙ गंधमालती
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमालती] एक गंध द्रव्य ।
⋙ गंधमालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमालनी] एक प्रकार का गंधद्रव [को०] ।
⋙ गंधमाली
वि० [सं० गन्धमालिन्] एक नाग का नाम [को०] ।
⋙ गंधमाल्य
संज्ञा पुं० [सं० गन्धमाल्य] सुगंध द्रव्य और माला [को०] ।
⋙ गंधमासी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमासी] जटामासी ।
⋙ गंधमुंड़
संज्ञा पुं० [सं० गन्धमुण्ड़] एक लता का नाम । पर्या०—नंदी । ताम्रपाकी । फलपाकी । पीतक । गर्गभांड़ । क्षिप्रपाकी ।
⋙ गंधमूल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धमूल] कुलंजन [को०] ।
⋙ गंधमूला
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमूला] दे० 'गंधमूली' [को०] ।
⋙ गंधमूलिका, गंधमूली
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमूलिक] कपूरकचरी ।
⋙ गंधमूषिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमूषिका] छछुँदर । पर्या०—गंधमूषिक । गंधमूषी । गंवशुड़िनी । गंधसुखी । गंधसूयी ।
⋙ गंधमृग
संज्ञा पुं० [सं० गन्धमृग] १. कस्तूरी मृग । २. गंधबिलाव [को०] ।
⋙ गंधमैथुन
संज्ञा पुं० [सं० गन्धमैथुन] साँड़ [को०] ।
⋙ गंधमोदन
संज्ञा पुं० [सं० गन्धमोहिनी] गंधक [को०] ।
⋙ गंधमोहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धमोहिनी] चंपा की कली [को०] ।
⋙ गंधयुक्ति
संज्ञा स्त्री०[सं० गन्धयुक्ति] सुगंध द्रव्य तैयार करने की विद्या [को०] ।
⋙ गंधयुति
संज्ञा पुं० [सं० गन्धयुति] सुगंधित चूर्ण [को०] ।
⋙ गंधरब पु
संज्ञा पुं० [सं गन्धर्व] दे० 'गंधर्व' । उ०—जच्छ मृत बासुकी नाग मुनि गंधरब सकल बसु जीति मैं किए चेरे ।— सूर०—९ । १०९ ।
⋙ गंधरबिन पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गंधर्बिन' ।
⋙ गंधरस
संज्ञा पुं० [सं० गन्धरस] १. सुगंधसार । २. गुग्ग्ल (को०) ।
⋙ गंधराज
संज्ञा पुं० [सं० गन्धराज] १. मोगरा बेला । २. नख नामक सुगंधद्रव्य । ३. चंदन ।
⋙ गंधराज गुग्गुल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धराज गुग्गुल] एक प्रकार की धूप या गोंद । वि० दे० 'गुग्गुल' ।
⋙ गंधराजी
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धराजी] नख नामक सुगंधित द्रव्य ।
⋙ गंधर्प पु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्व] दे० 'गंधर्व' । उ०—देव मुन दैत गंधर्व और मानवी । केवली काल मुख सकल जाई ।—तुलसी० श०, पृ० १५ ।
⋙ गंधर्व
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्व] [स्त्री० गन्धर्वी, हिं० स्त्री० गंधर्विन] १. देवताओं का एक भेद । विशेष—ये पुराण के अनुसार स्वर्ग में रहते हैं और वहाँ गाने का काम करते हैं । अग्निपुराण में गंधर्वों के ग्यारह गण माने गए हैं,—अश्राज्य, अंधारि, बंभारि, शूर्यवर्च्चा, कृधु, हस्त, सुहस्त, स्वन्, मूर्धन्वा, विरवावसु, और कृशालु । इन गंधर्वों में हाहाहूहू, चित्ररथ, रस, विश्वावसु, गोमायु, तुंबुरु और नंदि प्रधान माने गए हैं । वेदों में गंधर्व दो प्रकार के माने गए हैं क द्युस्थान के, दूसरे अतरिक्ष स्थान के । द्युस्थान के गंधर्वों को दिव्य गंधर्व भी कहते हैं । ये सोम के रक्षक, रोगों के चिकित्सक, सूर्य के अश्वों के वाहक, तथा स्वर्गीय ज्ञान के प्रकाशक माने गए हैं । यम और यमी के उत्पादक भी गंधर्व ही कहे गए हैं । मध्यस्थान के गंधर्व नक्षत्रचक्र केप्रवर्तक और सोम के रक्षक माने गए हैं । इंद्र इनसे लड़कर सोम को छीनता और मनुष्यों को देता हैं । इनाका स्वामी वरुण है । द्युस्थान के गंधर्व से सूर्य, सूर्य की रश्मि, तेज, प्रकाश इत्यादि ऐर मध्यस्थान के गंधर्व से मेघ, चंद्रमा, विद्युत आदि निरुक्त शास्त्र के अधार पर लिये जाते हैं क्योंकि 'गा' । या 'गो' को धारण करनेवाल गंधर्व कहा जाता हैं; और 'गा' या 'गो' से पृथिवी, वाणी, किरण इत्यादि का ग्रहण होता है । इसके अतिरिक्त उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों में भी गंधर्वों के दो भेद मिलते हैं—देव गंधर्व और मनुष्य गंधर्व । कहीं गंधर्व को राक्षस, पिशाचादि के समय एक प्रकार का भूत माना है । पर्या०—विद्याधर । २. मृग । ३. घोड़ा । ४. वह आत्म जिसमें एक शरीर छोड़कर दूसरा ग्रहण किया हो । मृत्यु के बाद तथा पुनर्जन्म के पूर्व की आत्मा । प्रेत । ५. स्त्रियों की वह अवस्था जब उनके स्वर में माधुर्य उत्पन्न होता है । ६. वैद्यक में एक प्रकार का मानसिक रोग जिसे 'ग्रह' कहते हैं । विशेष—इस रोग से ग्रस्त मनुष्य बाग, वन, नदी या झरनों के किनारे घुमता हैं । गंध और माल्य उसे अच्छे लगते हैं । वह नाचता, गाता, हँसता और दूसरों से कम बोलता है । गंधर्व- ग्रह, गंधर्वरोग आदि नामों से इसका वर्णन मिलता है । ७. एक जाति जिसकी कन्याएँ नाचती गाती और वेश्यावति करती हैं । ये लोग कुमाऊँ आदि पहाड़ों तथा काशी आदि नगरों में पाए जाते हैं । ८. संगीत में के साठ मुख्य भेदों में से एक । यथा—चत्वारो गुरवो विदुश्चत्वारश्च प्लुता अपि । विंदवो दश ष्ट्लाश्च ताले गंधर्वसंज्ञके—संगीत दामोदर (शब्द०) । ९. विधवा स्त्री का दूसरा पति । १०. गायक (को०) । ११. सूर्य (को०) । १२. कोकिल (को०) । १३. एरंड़ । रेंड (को०) ।
⋙ गंधर्वखंड़
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वखण्ड़] भारतवर्ष के मव खंड़ों में से एक का नाम [को०] ।
⋙ गंधर्वग्रह
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वग्रह] एक मानसिक रोग । दे० 'गंधर्व-६ ।'—माधव०, पृ० १२५ ।
⋙ गंधर्वतैल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वतैल] रोंड़ी का तेल ।
⋙ गंधर्वनगर
संज्ञा पुं० [गन्धर्वनगर] १. नगर, ग्राम आदि का वह मिथ्या आभास जो आकाश में या स्थल में दृष्टिदोष से दिखाई पड़ता है । विशेष—जब गरमी के दिनों मरुभूमि या समुद्र में वायु की तहों का घनत्व उष्णाता के कारण असमान होता है, उस समय प्रकार की गति के विच्छेद से दूर के शहर, गाँव, वृक्ष, नौका आदि का प्रतिबिंब आकाश में पड़ता हैं और कभी कभी नौका आदि का प्रतिबिंब का प्रतिबिंब उलटकर पृथिवी पर पड़ता है, जिससे कभी दूर के गाँव, नगर आदि अदि या तो आकाश में उलटे टँगे या समीप दिखाई पड़ते हैं । यह दृष्टिदोष असमान तह के कारण उस समय होता है जब नीचे की तह की वायु इतनी जल्दी हल्की हो जाती है कि उपर का वायु और उपर नहीं जा सकती । मृगमरीचिका भी दृष्टदोष से दिखाई देती हैं । गंधर्वनगर का फल बृहत्संहिता में लिखा है । २. मिथ्या भ्रम । (वेदांत नमें संसार की उपमा गंधर्वनगर से दी जाती है ।)३. चंद्रमा के किनारे का मंड़ल जो उस रात को दिखाई पड़ता है, जब आकाश हलके बादलों की तह से ढका रहता है । ४. वह दृश्य जो कोसों तक फैली हुई नमक की चद्दरों पर सूर्य की किरणों के पड़ने से दिखाई पड़ता है । ५. संध्या के समय पश्चिम दिशा में रंग बिरंगे बादलों के बीच फैली हुई लाली । ६. महाभारत के अनुसार मानसरोवर के निकट का एक नगर । विशेष—इस नगर की रक्षा गंधर्व करते थे । अर्जुन ने गंधर्व- नगर को जीतकर तित्तिर, कल्माष और मंड़ूक नामक घोड़े प्राप्त किए थे ।
⋙ गंधर्वपद
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वपद] गंधर्वों का वासस्थान । गंधर्व- लोक [को०] ।
⋙ गंधर्वपुर
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वपुर] गंधर्वनगर ।
⋙ गंधर्वराज
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वराज] गंधर्वों का राजा चित्ररथ [को०] ।
⋙ गंधर्वलोक
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वलोक] विद्याधर और गुह्यक लोक के मध्य में कथित एक लोक जहाँ गंधर्वों का निवास माना जाता है [को०] ।
⋙ गंधर्ववधू
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धर्ववधू] चीड़ा नामाक गंधद्रव्य ।
⋙ गंधर्वविद्या
संज्ञा पुं० [सं० गन्दर्वविद्या] गानविद्या । संगीत ।
⋙ गंधर्वविवाह
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वविवाह] आठ प्रकार के विवाहों में से एक । वह संबंध जो पिता माता की आज्ञा के बिना वर और वधू अपने मन से परस्पर कर लेते हैं ।
⋙ गंधर्ववेद
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्ववेद] संगीतशास्त्र । विशेष—यह चार उपवेदों में से एक है । इसमें स्वर, ताल, राग, रागिनी आदि का वर्णन है ।
⋙ गंधर्वहस्त, गंधर्वहस्तक
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वहस्त, गन्धर्वहस्तक] । एरंड़ । रेंड़ ।
⋙ गंधर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धर्वा] दुर्गा का एक नाम ।
⋙ गंधर्वास्त्र
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्व + अस्त्र] एक अस्त्र का नाम ।
⋙ गधर्विन
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धर्व +हि० इन (प्रत्य०)] १. गंधर्व की स्त्री । २. गंधर्व की स्त्री, जो बड़ी सुंदरी होती है । उ०—जो तुम मेरी ईच्छा धरो । गंधर्विन के हित तप करो ।—सूर (शब्द०)
⋙ गंधर्वी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धर्वी] १. गंधर्व की स्त्री । २. सुरभी की पुत्री । यह पुराणानुसार घोड़ों आदि की माता थी ।
⋙ गंधर्वी (२)
वि० [सं० गन्धर्व + ई (प्रत्य०)] गंधर्व का । गंधर्व संबंधी । उ०—पुनि शकुनी अतिसय रिसि छाया । करत भयो गंधर्वी माया ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ गंधर्वोन्माद
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्वोन्माद] गंधर्वग्रह । गंधर्व रोग । वि०—दे० 'गंधर्व-६. ।
⋙ गंधलता
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धलता] प्रियंगु नाम की लता [को०] ।
⋙ गंधलुब्ध
संज्ञा पुं० [सं० गन्दलुब्ध] मधुकर । भौंरा [को०] ।
⋙ गंधलोलुपा
संज्ञा स्त्री० [गन्धलोलुपा] १. मधुकर । भौंर । २. मक्खी या मच्छर [को०] ।
⋙ गंधवणिक, गंधवणिज
संज्ञा पुं० [ पुं० गन्धवाणिक् गन्दवणिज्] गंधविक्रेता । गंधी [को०] ।
⋙ गंधवती (१)
वि० स्त्री० [सं० गन्धवनी] गधवाली । गंधयुक्त, जैसे; गंधवती पृथिवी ।
⋙ गंधवती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धवती] १. चमेली का एक भेद । वनमल्लिका । २. गंधोत्तमा । सुर । ३. मुरा नाम का एक गंधद्रव्य । ४. व्यास की माता सत्यवती का एक नम । ५. पृथ्वी । ६. वरुणापुरी ।
⋙ गंधवधू
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धवधू] कपूरकचरी । गंधपलाशी [को०] ।
⋙ गंधवल्कल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धवल्कल] दारचीनी [को०] ।
⋙ गंधवल्लरी, गंधवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धवल्लरी, गन्धवल्ली] सहदेई [को०] ।
⋙ गंधवह
संज्ञा पुं० [सं० गन्धवह] १. वायु । २. नाक ।—(डिं०) ।
⋙ गंधवहा
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धवहा] नासिका । नाक [को०] ।
⋙ गंधवान
वि० [सं० गन्धवत्] गंधगुण से युक्त । २. सुगंधित [को०] ।
⋙ गंधवाह
संज्ञा पुं० [सं० गन्धवाह] वायु । हवा ।
⋙ गंधवाहा, गंधवाही
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धवाहा, गन्धवाही] दे० 'गंधवहा' [को०] ।
⋙ गन्धविह्वल
संज्ञा पुं० [सं० गन्ध + विह्वल] गेहूँ । गोधूम [को०] ।
⋙ गंधवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] साल का बृक्ष ।—प्रा० भा० प०, पृ० ३४ ।
⋙ गंधवेणु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धवेण] एक सुगंधित घास । गंधवेन ।
⋙ गंधव्याकुल
संज्ञा पुं० [सं० गन्धव्याकुल] ककोल का पेड़ [को०] ।
⋙ गंधशालि
संज्ञा पुं० [सं० गन्धशालि] दे० 'गंधतंदुल' [को०] ।
⋙ गंधशेखर
संज्ञा पुं० [सं० गन्धशेखर] कस्तूरी [को०] ।
⋙ गंधसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंदन । २. मोगरा बेला । ३. कचूर ।
⋙ गंधसेवक
वि० [सं० गन्धसेवक] गंध या सुगंध का उपयोग करनेवाला [को०] ।
⋙ गंधसोम
संज्ञा पुं० [सं० गन्धसोम] कुमुद । कुई [को०] ।
⋙ गंधहर
संज्ञा पुं० [सं० गन्ध + गृह, प्रा० हर] नाक ।—(ड़िं०) ।
⋙ गंधहस्ती
संज्ञा पुं० [सं० गन्धहस्तिन्] वह हाथी जिसके कुंभ से मद बहता हो । मदोन्मत्त हाथी ।
⋙ गंधहारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धहारिका] स्वामिनी के साथ गंध- द्रव्य लेकर चललेवाली सेविका [को०] ।
⋙ गंधाखु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धाखु] छछूँदर [को०] ।
⋙ गंधाजीव
संज्ञा पुं० [सं० गन्धाजीव] इत्र बेचनेवाला । गधी [को०] ।
⋙ गंवाढ़्य (१)
वि० [सं० गन्धाढय] सुगंधपूर्ण [को०] ।
⋙ गंधाढ्य (२)
संज्ञा पुं० १. नारंगी का पेड़ । २. चंदन । ३. जवादि नाम का गंधद्रव्य [को०] ।
⋙ गंधाढ्या
संज्ञा स्त्री० [ सं० गन्धाढ्या] १. गंधनिशा । गंधपत्रा ।२. स्वर्णयूथी । ३. रामतरुणी । ४. आरामशीतला । ५. गंधाली [को०] ।
⋙ गंधाधिक
संज्ञा पुं० [सं० गन्धाधिक] एक प्रकार का गंधद्रव्य [को०] ।
⋙ गंधाना (१) †
क्रि० स० [ हिं० गन्ध] देना । बसाना । दुर्गध करना ।
⋙ गंधाना (२)
संज्ञा पुं० [ सं० गन्धन] रोला छंद का एक नाम ।
⋙ गंधानुवासन
संज्ञा पुं० [सं० गन्धानुवासन] अर्क का एक संस्कार । अर्क को गंध की वासना देना, जिससे वह तेज रहे ।
⋙ गंधाबिरोजा
संज्ञा पुं० [हिं० गंध + बिरोजा] चीर नामक वृक्ष का गोंद जो फारस से आता है । विशेष—शीराज और किरमान इसके लिये प्रसिद्ध स्थान हैं । यह तीन प्रकार का होता है—खसनिब जो लेवान्ट से आता है, बिरोजा खुश्क और बिरोजा गावशीर या जवाशीर । बिरोजा या गावशीर पीले रंग का गोंद है, जो बहुत पतला होता है । यह कभी-कभी हरापन लिए भी होता है । इसमें ड़ंटल, फूल और पत्तियाँ मिला रहती हैं । इसकी गंध बुरी नहीं होती और इसका स्वाद कड़ुवा होता है । यहाँ इसे शुद्ध करते हैं और इससे खींचकर बिरोज का ते ल निकालते हैं । मिट्टी के तेल में से भी इसका तेल निकाल जाता है । यह औषध में बहुत काम आता है । इसका शोधा हुआ सत्त निकालकर दवा में मिलाते हैं और मरहम बनाकर फोड़े आदि पर भी लगते हैं । खुश्क बिरोजे में ताड़पीन के ऐसी गंध आती है । इसे कुंदुरु भी कहते हैं । यह हिमालय और शिवालक पर्वतों के जंगल से भी आता है । इसे गंधाभिरोजा, सरल का गोंद, चंद्रस भी कहते हैं । पर्या०—श्रीवास । श्रीवेष्ट । वृक्षधूपक । क्षीपिष्ट । पद्मदर्शन । नृकधूप । यास । वायस । चितागंध । श्रीरम । धूपांग । तिलपर्ण ।
⋙ गंधाम्ला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली नीबू [को०] ।
⋙ गंधार
संज्ञा पुं० [सं० गन्धार] दे० 'गांधार' ।
⋙ गंधारी
संज्ञा स्त्री० [सं० गान्धारी ] दे० 'गांधारी' ।
⋙ गंधाला
संज्ञा स्त्री० [सं० गधाला] एक गंधमयी लता [को०] ।
⋙ गंधाली
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धाली] १. प्रसारिणी । गंधपसार । २. भिड़ । ततैया (को०) ।
⋙ गंधालु
वि० [सं० गन्धालु] गंधाढ़्य । गंधपूर्ण । सुगंधित [को०] ।
⋙ गंधाशन
संज्ञा पुं० [ सं० गन्धाशान] पवन । वायु ।
⋙ गंधाष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] आठ गंधद्रव्यों के मिलाते से बना हुआ एक संयुक्त गंध जो पूजा में चढ़ाने और यंत्रादि लिखने के काम में आता है । अष्टगंध । विशेष—तंत्र के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के लिये भिन्न- भिन्न गंधाष्टक का विधान पाया जाता है । तंत्र में पंचदेव प्रधान हैं । उन्हीं के अंतर्ग सब देवता माने गएँ हैं; अतः गंधाष्टक भी पाँच यही हैं । शक्ति के चंदन, अगर, यकपूर, चोर, कुकुम, रोचन, जटामासी, कपि विष्णु के लिये चंदन, अगर, ह्रीवेर, कुट, यकुंकुम, उशीर, जटामासी और मुर; शिव केलिये चंदन, अगर, कपूर, तमाल, जल, कुंकुम, कुशीद, कुष्ट; गणेश के लिये चंदन, चोर, अगर, मृग और मृगी का मद, कस्तूरी, कपूर; अथवा चंदन, अगर, कपूर, रोचन, कुंकुम, मद; रक्तचंदन, ह्रीवेर; सूर्य के जल, केसर कुष्ठ, रक्तचंदन, चंदगन, उशीर, अगर, कपूर ।
⋙ गंधिक (१)
वि० [सं० गन्धिक] गंधयुक्त । सुगंधित ।
⋙ गंधिक (२)
संज्ञा पुं० १. गधी । इत्रफरोस । २. गंधक [को०] ।
⋙ गंधिकापण
संज्ञा पुं० [सं०गन्धिकापण] वह स्थान जहाँ सुगंध- द्रव्य का विक्रय हो [को०] ।
⋙ गंधिन (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धिनी] १. गंधी की स्त्री । २. गंधद्रव्य बेचनेवाली स्त्री । ३. मदिरा । सुरा । शराब ।
⋙ गंधिन (२)
वि० स्त्री० गंधयुक्त । गंधवाली ।
⋙ गंधिनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] गंधद्रव्य बेचनेवाली औरत । गंधिन । उ०—चंदन अरगजा सूर केसरि धरि लेऊँ । गंधिनि ह्वै जाऊँ निरखि नैनन सुख देऊँ ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गंधी पु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धिन्] [स्त्री० गन्धिनी; गधिन, गंधिन् पु] १. सुगधित, तेल और इत्र आदि बेचनेवाला । अत्तार । उ०— ए गंधी, मति अंध तू अतर दिखावत काहि । करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि ।—बिहारी (शब्द०) । २. गंधिया नाम की घास । गाँधी । ३. गंधिया नाम का कीड़ा ।
⋙ गंधीला पु
वि० [ हिं० गंदा] मैला । गँदला । बदबूकार । उ०— बहन पानी निर्मला, बँधा गंधिला होय । साधू जन रमते भले, दाग न लागै कोय ।—कबीर (शब्द०) । (ख) भौ सागर को धार तीच्छन महा गंधीली नीर ।—चरण० बानी, पृ० ६० ।
⋙ गंधेंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [ सं० गन्धेन्द्रिय] घ्राण । नासिका [को०] ।
⋙ गंधेज
संज्ञा स्त्री० [ सं० गन्ध] अगिया घास ।
⋙ गंधेल
संज्ञा पुं० [सं० गन्ध] एक छोटा पेड़ या झाड़ । विशेष—यह हिमालय के किनारे किनारे पंजाब से सिकिम तक होता है । यह बंगाल और दक्षिण में भी मिलता है । इसकी पत्तियों और टहनियों से रोई होती हैं । और उनमें से कड़ी सुगंध निकलती है । पत्तियाँ आठ दस इंच लंबे सीकों में लगती हैं, जो नुकीलली और ड़ेढ़ दो इंच लंबी होती हैं । इसमें सफेद रंग के फूल और बेर के समान लंबी फलियाँ लगती हैं । पत्तियाँ मसाले के काम में तथा छाल और जड़ दवा के काम में आती है ।
⋙ गंधैला (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गंध] [स्त्री० गंधैली ] एक प्रकार की चिड़िया ।
⋙ गंधैला (२) †
वि० दुर्गंध करनेवाला ।
⋙ गंधोत्कट
संज्ञा पुं० [ सं० गन्धोत्कट] दमन । दौना [को०] ।
⋙ गंधोत्तमा
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धोत्तमा] द्राक्षा मधु । अंगूर की शराब [को०] ।
⋙ गंधोपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० गन्धोजीविन्] सुगंधविक्रेता । गंधी [को०] ।
⋙ गंधोपल
संज्ञा पुं० [ सं० गन्धोपल] गंधक [को०] ।
⋙ गंधोली
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धोली] १. भिड़ । ततैया । २. सोंठ । ३. इंद्राणी [को०] ।
⋙ गंधोष्णीष
संज्ञा पुं० [सं० गन्धोष्णीष] सिंह (को०) ।
⋙ गंधौतु
संज्ञा पुं० [सं० गन्ध + ओतु] दे० 'गंधबिलाव' ।
⋙ गंधौली
संज्ञा स्त्री० [सं० गन्धौली] कपूरकचरी ।
⋙ गंध्य
संज्ञा पुं० [सं० गन्ध्य] वह वस्तु जिसमें अच्छी महक हो । सुगंधयुक्त वस्तु ।
⋙ गंध्रप पु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्व, प्रा० गंधव्व] दे० 'गंधर्व' । उ०— गंध्रप जिंत अस्व तिहि लिन्नव । गोरख गुरु वरदान सु दिन्नव ।—प० रासो, पृ० १३४ ।
⋙ गंध्रपेश पु
सज्ञा पुं० [हिं० गंध्रप + स० ईश] गंधर्वों के राजा । गंधर्वराज । उ०—गंध्रपेस गीर्वानु गुह्यपति गंधवाह गुर ।— सुजान०, पृ० १ ।
⋙ गंध्रब पु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्व, प्रा० गंधव्व] दे० 'गंधर्व' । उ०— सुरँग गुलाल कदम और कूजा । सुगँध बकौरी गंध्रब पूजा । जायसी ग्रं०, पृ० १३ ।
⋙ गंध्रव पु
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्व, प्रा० गंधव्व] दे० 'गंधर्व' । उ०— प्रथम पुत्र सोमेस गंधपुर ढुंढा गढ़िढय । भई सुद्धि गंध्रवन पुहुप मंगल दुज पढि्ढय ।—पृ० रा०,१ । ६९६ ।
⋙ गंफा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० गप्फा] बड़ा कौर जो तेजी सें खाया जा रहा हो । ग्रास । उ०—गरमैं गरमैं हेलुआ गंफा लीजौ मारि ।—पलटू०, भा० २, पृ० २१ ।
⋙ गंभारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गम्भरिका] दे० 'गंभारी' ।
⋙ गंभारी
संज्ञा स्त्री० [सं० गम्भारी] एक बड़ा पेड़ जिसके पत्ते पीपल के पत्तों के से चौड़े होते हैं । विशेष—इसकी छाल सफेद रंग की होती है और उसमें से दूध निकलता है । फूल और फल पीले होते हैं । इसकी छाल और फल दवा में काम आते हैं । छाल कुछ कुछ कसैलापन और मिठास लिए कड़वी होती है । वैद्यक में यह भारी, दीपक, पाचक, वृष्य, मेधाजनक तथा रेचक मानी गई हैं । इसका प्रयोग आमशूल बवासीर, शोष, क्षयी और ज्वरादि में होता है । फल पकने पर कसैला और खटमिट्ठा होता है । पर्या०—काश्मरी । श्रीपर्णी । मधुपर्णी । भद्रा । गोपभद्रा । कृष्णाफला । कटफला । कभारी । कुमुदा । हीरा । कृष्णावृत्तिका । सर्वतोभद्रिका । महामुद्रा । स्निग्धुपर्णी । कृष्णा । रोहिणी । गृष्टि । मधुमती । सुफला । मोहिनी । महाकुमुदा । काश्मीरा । मधुरसा ।
⋙ गंभीर (१)
वि० [सं० गम्भीर] १. जिसकी थाह जल्दी न मिले । नीचा । गहरा । जैसे, गंभीर नद । २. जिसमें जल्दी घुस न सकें । घना । गहन । ३. जिसके अर्थ तक पहुँचना कठिन हो । गूढ़ । जटिल । जैसे, गंभीर विचार । ४. घोर । भारी । जैसे, गंभीर निनाद । २. शांत । सौम्य । जैसे,—वह बड़ा गंभीर आदमी है ।
⋙ गंभीर (२)
संज्ञा पुं० १. जंभीरी नीबू । २. कमल । ३. ऋग्वेद में एक प्रकार का मंत्र । ४. शिव । २. एक राग जो श्रीराग का पुत्र माना जाता है । हनुमत् के मत से यह हिंडोल राग का पुत्र है । वात रोग का एक भेद । उ०—यह वात रक्तचरक ने दो प्रकार का कहा है एक तो उत्तान दूसरा गंभीर ।—भाधव०, पृ० १५१ ।
⋙ गंभीरक
वि० [सं० गम्भीरक] गहरा । गंभीर (को०) ।
⋙ गंभीरज्वर
संज्ञा पुं० [सं० गम्भीर + ज्वर] मल के रुक जाने से, जलन से, श्वास खँसी से उत्पन्न ज्वर ।—माधव०, पृ० ३९ ।
⋙ गंभीरवेदी
संज्ञा पुं० [सं० गंभीरवेदिन्] वह हाथी जो अंकुश की गहरी चोट की भी कुछ न माने । मत्त हाथी ।
⋙ गंभीरा
संज्ञा स्त्री० [पुं० गम्भीरा] एक नदी का नाम [को०] ।
⋙ मंभीरिका
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा ढोल ।
⋙ गंस पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थि] १. गाँठ । द्वेष । उ०—कहा हमहि रिसि करत कन्हाई । इह रिसि जाइ भरो मथुरा पर जहँ है कंस बसाई । अपने घर के तुम राजा हौ सब के राजा कंस । सूर श्याम हम देखत ठाढ़े अब सीखे ए गंस ।—सूर (शब्द०) । २. लाग की बात । आक्षेप । ताना । उ०—चलत सो सोहति गति गजहंस । हँसति परस्पर गावत गंस ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गंसना पु
क्रि० स० [सं० ग्रन्थन] अच्छी तरह कसना । जकड़ना । गाँठना । उ०—लाल उन सुनी मनोहर बंसी । नहिं संभार अजहूँ युवतिन बल मदन भुअंगम डंसी । बृदांबन की माल कलेवर लता माधुरी गंसी । सूरदास प्रभु सब सुख दाता लै भुज बीच प्रसंसी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गँगन
संज्ञा पुं० [सं० गगन] दे० 'गगन' । उ०—धूनि रमा गुरिया सरकावैं । गँगन चढ़ाय के जग भरमावै ।—कबीर सा०, पृ० ८२६ ।
⋙ गँगरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास जिसको बनी भी कहते हैं । विशेष—इसकी पत्तियाँ चौड़ी और बड़ी तथा रेशे पतले और नरम होते हैं । फूल के नीचे की कमरखी पत्तियाँ बड़ी और बैंगनी रंग की होती हैं । इसे बिहार में जेठी, बंगाल में भोगला और बरार में टिकड़ी या जूड़ी आदि कहते हैं ।
⋙ गँगला
संज्ञा पुं० [हिं० गंगा] एक प्रकार का शलगम जो गंगा के किनारे होता है । यह आकार में बड़ा और अच्छा होता है ।
⋙ गँगवा
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़का नाम जो दक्षिण में समुद्र के किनारे तथा बरमा, अंडमन और लंका में होता है । विशेष—यह सदाबहार होता है । इससे सफेद रंग का दूध निकलता है जो हवा लगने से जम जाता है और काले रंग का होता है । ताजा दूध बहुत खट्टा होता है और लोगों का विश्वास है कि जहरीला होता है । इसकी लकड़ी दियासलाई आदि बनाने के काम में आती है । इसे कड़वा फल या कड़वा पल भी कहते हैं ।
⋙ गँगेटी
संज्ञा स्त्री० [गङ्गाटी] एक बूटी जो दवा के काम में आती है । यह फोड़े को गलाती और मल-मूत्र लाती है ।
⋙ गंगेरन
संज्ञा स्त्री० [सं० गाङ्गेरुकी] एक प्रकार का पौधा जो औषध- शास्त्र में चतुर्विध बला के अंतर्गत माना जाता है और सहदेई के पौधी के समान होता है । विशेष—सहदेई से इसमें भेद यह है कि इसके पत्ते अधिक मोटे और दो अनीवाले होते हैं । फूल गुलाबी होते हैं और फल भी कुछ बड़े होते हैं । फल में विशेषता यह है कि पकने पर उसके पाँच भाग हो जाते हैं । गँगेरन के गुण भी वैद्यक में वरियारा या खिरैंटी के से माने जाते हैं । गँगेरन मूत्रकृच्छ, क्षत और क्षीण रोग, खुजली, कुष्ठ आदि में दी जाती है । गँगेरन दो प्रकार की होती है—एक छोटी, दूसरी बड़ी । बड़ी गँगेरन भी अम्ल, मधुर, त्रिदोषनाशक तथा दाह और ज्वर को दूर करनेवाली मानी जाती है । इसे गुलशकरी भी कहते हैं । पर्या०—नागबला । गाँगेरुकी । झषा । हस्वगवेधुका । खरगं— धनी । गोरक्षतंडुला । भद्रौदनी । चतुःपला । खरवल्लिरिंका । महोदया । महापत्रा । विश्वदेवी । अनिष्ठा । देवदंडा ।
⋙ गंगेरुवा
संज्ञा पुं० [सं० गाङ्गेरुक] एक पहाड़ी पेड़ । विशेष—इसके फल आँवले की तरह छोटे छोटे होते हैं । पत्तियों की पंक्ति सींकों में लगी होती हैं । वेद्यक में इस पेड़ का फल कफ—वात—नाशक, पित्तकारक, भारी गरम और स्निग्ध माना जाता है । इसके फल दो प्रकार के होते हैं खट्टे और मीठे ।
⋙ गँगेरू
संज्ञा स्त्री० [हिं० गंगेरन] दे० 'गँगेरन' ।
⋙ गँजना (१)पु
क्रि० स० [हिं० गंजना] गंजना । नाश करना । चूर चूर करना । नष्ट करना । उ०—(क) जुरे जुद्ध कर तेग लै पंचम के असवार । गंजि गरेब गरबीन के करे अरिन पर वार ।—लाल (शब्द०) । (ख) दादू काल गँजे नहीं जपै जो नाम कबीर । कबीर मं० पृ० ४१२ ।
⋙ गँजना (२)
क्रि० अ० [हिं० गाँजना] ढेर लगना । गाँजने का काम होना ।
⋙ गँजाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. गाँजने ढेर लगाने को क्रिया । २. गाँजने की मजदूरी ।
⋙ गँजाना
क्रि० स० [हिं० गाँजना] गाँजने या ढेर लगाने का काम ।
⋙ गँजिया
संज्ञा स्त्री० [सं० गञ्जिका या फा० गंज] १. सूत की बुनी हुई रुपया रखने की जालीदार थैली । २. वह जाल की थैली जिसमें घसियारे घास रखते हैं । खारी । बाँसुली । नौला । ३. मिट्टी का बना हुआ एक बरतन जिसका मुँह तंग होता है । यह दबकी की तरह चिपका होता है । पहले इसमें शाराब रखते थे । ४. †गंजी । गंदा ।
⋙ गँजेडी
वि० [हि० गाँजा + एड़ी (प्रत्य०)] गाँजा पीनेवाला ।
⋙ गँठकटा
संज्ञा पुं० [हिं० गाँठ + काटना] गाँठ में बँधी हुए रुपए पैसे को काट लेनेवाला । गिरहकट । उचक्का ।
⋙ गँठछोर †
संज्ञा पुं० [हिं० गाँठ + छोरना] गाँठ का माल छीन लेनेवाला । गिरहकट । गँठकटा ।
⋙ गँठजोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० गाँठ + जोड़ना] गँठबंधन । उ०— देवपुर के दयाशंकर पाँड़े के लड़के रमानाथ से आप देवबाला का गँठजोड़ा करना चाहते हैं ।—ठेठ०, पृ० ८ ।
⋙ गँटजोरा पु
संज्ञा दे० [हिं० गाँठ + जोरना] गँठबंधन । उ०—जनक स्वयंबर बर धनु तोरा । सीय विवाहि करयो गँठजोरा ।— गोपाल (शब्द०) ।
⋙ गँठबंधन
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिबन्धन, हिं० गाँठ + बंधन] १. विवाह की एक रीति जिसमें वर और वधू के वस्त्र को परस्पर बाँध देते हैं । २. धोर्मिक आदि कर्म करते समय पति पत्नी के वस्त्र के छोंरों को मिलाकर गाँठ दिने की रीति । इस अवस्था में दोनों कुछ पूजा आदि करते हैं । यह संस्कार विवाह के चौथे दिन या किसी और दूसरे दिन अच्छी साइत देखकर होता है । ३. दो चोजों या व्याक्तियों के बीच अतिसय ऐक्यः घनिष्ठ संग । ४. साँठगाँठ । गुप्त समझौता ।
⋙ गाँठिवन (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थिपर्णी] ग्रंथिपर्णी । गाडर दूब ।
⋙ गँठिवन (२)
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिपर्ण] गठिवन का पेड़ । वि० दे० 'गठिवन' ।
⋙ गँठुआ
संज्ञा पुं० [हिं० गाँठ + उआ (स्वा० प्रत्यय)] ताने या बाने टूटे हुए तागों को, अथवा नई पाई के तागे को, पुराने उतरे हुए कपड़े के तागे से जोड़ना ।—(जुलाहा) ।
⋙ गँड़घिसनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँड़ + घिसन] १. अत्यंत निकृष्ट परिश्रम । २. बहुत खुशामद और विनती ।
⋙ गँड़झप
संज्ञा पुं० [हिं० गाँड़ + झेंपना] बुरी तरह से झेंपने या लजाने की क्रिया ।—(बाजारू) । मुहा०—गँड़झप खाना = बुरी तरह झेंपना । बहुत बेतरह लज्जित होना ।
⋙ गँड़तरा †
संज्ञा पुं० [हिं० गाँड़ + तर + नीचे] वह कपड़ा जो बच्चों के चूतड़ के नीचे इसलिये बिछाया जाता है, जिसमें उनका मलमूत्र बिछावन पर न लगे । इसे 'गँतरा' भी कहते हैं ।
⋙ गँड़दार
संज्ञा पुं० [सं० गंड़ या गड़ासा + फा० दार (प्रत्य०)] महाबत । फीलवान । उ०—ज्यों मतंग अँड़दार को लिए जात गँड़दार ।—मतिराम ग्रं०, पृ० ३१२ ।
⋙ गँड़पुत्र
संज्ञा पुं० [हिं० गाँड़ + पुत्र] मलमार्ग से उत्पन्न पुत्र ।— (परिहास) ।
⋙ गँड़रा
संज्ञा पुं० [सं० गणडाली] [स्त्री० गँडरी] १. मूँज की तरह की एक घास जो तर जमीन में होती है । विशेष—इसकी पत्तियाँ आध अंगुल चौड़ी और हाथ डेढ़ हाथ लंबी होती हैं । यह उँचाई में दी फुट से पाँच छह फुट तक होती है । इसके डंठल के बीच से डेढ़ दो हाथ लंबी पतली सींक निकलती है जो सूखने पर सुनहले रंग की ही जाती है । सींक के सिरे पर जीरे लगते हैं । ये जीरे कुआर के महीने में फूटते हैं । पूस तक यह धास सूखने लगती है । किसान हरी सींकी को निकाल लेते हैं और उन्हें झाड़ू बनाने और डब्बे, पिटारियाँ आदि बुनने के काम में लाते हैं । इसे फागुन, चैत में लोग काटते हैं और इसके डंठलों से छप्पर आदि छाते हैं । इसकी चटाइयाँ भीं बनती हैं । इसकी जड़ में सोंधी सहक होती है और वह खस कहलाती है । खस की टट्टियाँ बनती हैं तथा इससे इत्र निकाला जाता है । २. एक धान का नाम जो भादों कुआर में तैयार होता है ।
⋙ गँडरी
संज्ञा स्त्री० [सं० गण्डाली] दे० 'गँड़रा' ।
⋙ गँड़सल
वि० [हिं० गाँड़] गुदाभंजन करानेवाला । २. डरपोक । कायर ।
⋙ गँड़ासा
संज्ञा पुं० [हिं० गेंड़ी + सं० असि = तलवार] [स्त्री० अल्पा० गँड़ासी] चौपायों के खाने के लिये चारे या घास के टुकड़े करने का हथियार । विशेष—यहा एक हाथ के लगभग लंबा होता है । यह एक लकड़ी में, जिसे जाली कहते हैं, जड़ा हुआ एक चौड़ा लोहे का धारदार टुकड़ा होता है । इससे कोल्हू में डालने के लिये गन्ने की गँड़ेरी भी काटते हैं और लाठी में लगातार हाथियार का काम भी लेते हैं ।
⋙ गँड़ासी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गँड़ासा' ।
⋙ गाँड़ियल
वि० [हिं० गाँड़ + इयल (प्रत्य०)] १. गुदाभंजन करानेवाला । कायर । डरपोक ।
⋙ गँड़िया
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गाँड़ू' ।
⋙ गँडूष पु
संज्ञा पुं० [सं० गणडूष] दे० 'गंडूष' । उ०—मुख भरि नीर परसपर डारति, सोभा अतिहिं अनूप बढ़ी तब । मनहुँ चंद गन सुधा गँडूषनि; डारति हैं आनंद भरे सब ।—सूर०, १० । १७५३ ।
⋙ गँड़ेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० काणड या गणड + हिं० एरी (खा० प्रत्य०)] १. ईख या गन्ने का छोटा टुकड़ा जो चूसने या कोल्हू में पेरने के लिये काटा जाता है । २. छोटा लंबोतरा टुकड़ा । यौ०—गँड़ेरी का लड्डू = एक मिठाई जो गूँथे हुए मैदे के छोटे टुकड़ों को घी में छान और चासनी में मिलाकर लड्डू की की तरह बाँधने से बनती है ।
⋙ गँडोरा
संज्ञा पुं० [सं० गणडोल = ईख या गुड़] हरा कच्चा खजूर ।
⋙ गँड़ोलना †
संज्ञा पुं० [हिं० गाड़ी] बच्चों के खेलने की छोटी गाड़ी ।
⋙ गँदला
वि० [हिं० गंदा + ला (प्रत्य०)] मैला कुचैला । गंदा । मलीन । जैसे,—तालाब का पानी गँदला हो गया ।
⋙ गँदीला
संज्ञा पुं० [सं० गन्ध] एक घास जो काली मिट्टी में तथा ऊसर और तर भूमि में उपजती है । गँधिया । गाँधी ।
⋙ गँदोलना †
क्रि० सं० [फा० गंदह् से नाम०] तालाब आदि के पानी को मथकर मटमैला करना । गंदा करना । गँदला करना ।
⋙ गँधिया (१)
सज्ञा पुं० [हिं० गंध + इया (प्रत्य०)] १. गुबरैले की जाती का एक छोटा कीड़ा । यह बरसात के दिनों में रात को उड़ता है और बहुत दुर्गध करता है । २. हरे रग का एक कीड़ा जो भुनगे के आकार का होता है और धान मक्के आदि को हानि पहुँचाता है । क्रि० प्र०—लगना ।
⋙ गंधिया (२)
संज्ञा स्त्री० एक बरसाती घास । इसकी पत्तियाँ पतली पतली होती हैं और इसके बीच में एक सींका निकलता है । यह उत्तरी भारत के मैंदानों में नीची उपजाऊ भूमि में होती है । बुंदेलखंड में भी यह बहुत मिलती है । गाँधी ।
⋙ गँभीर पु
संज्ञा पुं० [सं० गम्भीर] दे० 'गंभीर' । उ०—चतुर गंभीर राम महतारी । बीचु पाइ निज बात सँवारी ।—मानस, २ ।१८ ।
⋙ गँमाना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'गँवाना' । उ०—(क) जाके लिए गृह काज तज्यो, न सिखी सखियान की सीख सिखाई । बैर कियो सिगरे ब्रजगाम सौं, जाके लिए कृल कानि गँमाई ।—मति० ग्रं०, पृ० ३०० । (ख) बसि निकुंज में रास रचायौ । बिया गँमाई मेंन की ।—पोद् दार अभि० ग्रं०, मृ० २२८ ।
⋙ गँवँ
संज्ञा स्त्री० [सं० गम्य] १. गात । दाँव । २. मतलब । प्रयोजन । जैसे,—(क) वह हमारी गँवँ का है । (ख) वह अपनी गँवँ का यार है । क्रि० प्र०—गाँठना ।—साधना । ३. अवसर । मौका । जैसे—गँवँ देखकर काम करना चाहिए । क्रि० प्र०—लगना ।—मिलना । मुहा०—गँवँ से = (१) ढंग से । युक्ति से । (२) पु †धीरे से । चुपके । उ०—(क) बैठे हैं राम लखन अरु सीता । पंचवटी बर परनकुटी तर कहै कछु कथा पुनीता । कपट कुरंग कनक मनिमय लखि प्रिय सों कहति हँसि बाला । पाए पलिवे जोग मंजु मृग मंजुल छाला । प्रिया बचन सुनि बिहँसि प्रेमबस गँवहि चाप सर लीन्हें । चल्यो सो भाजि फिरि फिरि हेरत मुनि रखवारे चीन्हे ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) रावण बान महाभट भारे । देखि सरासन गँवहिं सिधारे ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गँवई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँव] [वि० गँवइयाँ] १. छोटा गाँव उ०— कर लै सूँधि सराहि कै, सबै रहै गहि मौन । गंधी अंध गुलाब को, गँवई गाहक कौन ।—विहारी (शब्द०) । २. गाँव ।
⋙ गँवनना पु
क्रि० अ० [सं० गमन से नामिक धातु] गमन करना । जाना ।
⋙ गँवना पु †
क्रि० अ० [सं० गमन, प्रा० गवण,] जाना । गमन करना ।
⋙ गँवरदल
वि० [हिं० गँवार > गँवर + दल] १. गँवारों का सा । गँवारों के समान । २. गँवार । ३. भद् दा । बेहूदा ।
⋙ गँवर मसला
संज्ञा पुं० [हिं० गंवार > गँवर + अ० मसल] गँवारों की कहावत । ग्रामीणों की उक्ति ।
⋙ गँवहियाँ †
संज्ञा पुं० [सं० गोघ्न = अतिथि] अतिथि । मेहमान ।
⋙ गँवाऊ †
वि० [हिं० गँवाना] गँवानेवाला । उड़ानेवाला । उड़ाऊ ।
⋙ गँवाना
क्रि० स० [सं० गमन, पु० हिं० गवन] १. (समय) बिताना । (समय) काटना । उ०—दई दई कैसो रितु गँवाई । सिरी पंचमी पूजी आई ।—जायसी (शब्द०) । २. पास की वस्तु को निकल जाने देना । खोना । जैसे,—लोभ से उसने अपने हाथ की पूँजी भी गँवा दी ।
⋙ गँवार
वि० [हिं० गाँवँ + आर (प्रत्य०)] [स्त्री० गँवारी, गँवारिन । वि० गँवारू, गँवारी] १. गाँव का रहनेवाला । ग्रामीण । देहाती । असभ्य । जैसे—वह गँवार आदमी सभ्यों की बात क्या जाने । उ०—(क) बरने तुलसीदास किमि अति मतिमंद गँवार ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तुम तो हो अहीरी गँवारी । और मथुरा की हैं सुंदर नारी ।—लल्लू (शब्द०) । मुहा०—गँवार का लट्ठ = उजड्ड । उजबक । २. बेबकूफ । मूर्ख । ४. अनाड़ी । अनजान । नासमझ ।
⋙ गँवारता पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गँवार + ता (प्रत्य०)] गँवारपन । उ०—उत्तर कौन सो देहौं कहा मैं गँवारता कैसी रही ठहराइ री ।—सेवक (शब्द०) ।
⋙ गँवारि (१)पु
वि० [हिं०] मूर्खा । फूहड़ । गँवारी । उ०—नंददासे प्रभु तुम बहु नाइक, हम गँवारि, तुम चतुर कहाये ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५७ ।
⋙ गँवारि (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] गँवार स्त्री । गँवारी । उ०—बरषा रितु बीतन लगी, प्रति दिन सरद उदोति । लह लह जुवार की अरु गँवारि की होति ।—मति० ग्रं०, पृ० ४४४ ।
⋙ गँवारिन
वि० [हिं० गँवार + इन (प्रत्य०)] अशिष्ट । बेतहजीब । फूहड़ । उ०—अँगरेजी फैसनवालियाँ औरों को गँवारिनें समझती थीं, और गँवारिनें उन्हें कुलटा कहती थीं ।— काया०, पृ० १७२ ।
⋙ गँवारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गँवार] १. गँवारपन । देहातीपन । २. मूर्खता । बेवकूफी । अज्ञानता । ३. गँवार स्त्री ।
⋙ गँवारी (२)
वि० स्त्री० [हिं० गँवार + ई (प्रत्य०)] १. गँवार का सा । जैसे, गँवारी बोल । २. भद्दा । बदसूरत । बेढंगा । जैसे, गँवारी चूड़ी । गँवारी इजारबंद । विशेष—इस विशेषण का प्रयोग स्त्रीलिंग ही में विशेष होता है, यद्यपि दिल्ली आदि में पुं० में भी होता है ।
⋙ गँवारू
वि० [हिं० गँवार + ऊ (प्रत्य०)] गँवार का सा । गँवार की रुचि का । भद्दा । बेढंगा ।
⋙ गँवेलि पु, गँवेली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँव + एली (प्रत्य०)] गाँव की स्त्री । ग्राम में रहनेलवाली औरत । उ०—(क) हम है गँवेलि ग्वालि गोपन की बेटी तिन्हैं, दीबे को संकोच अति स्याम पासि ल्याइयौ ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० २७ । (ख) रूप मद छाके तें गँवेली गरबीली ग्वारि, तोहि ताकें रूपौ उमगनि उमदात है ।—घनानंद, पृ० २६ ।
⋙ गँस (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रंथि] १. गाँठ । द्वष । वैर । उ० मानी राम अधिक जननी ते जननिहुँ गँस न गही । सीय लखत रिपुदमन राम रुख लखि सब की निबही ।—तुलसी (शब्द०) । २. लाग की बात । मन में चुभनेवाली बात । आक्षेप । ताना । चु़टकी ।
⋙ गँस (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कषा = चाबुक] तीर की नोक । गाँसी । दे० 'गाँस' ।
⋙ गँसना (१)पु †
क्रि० स० [सं० ग्रन्थन] १. अच्छी तरह कसना । जकड़ना । गाँठना । २. बुनावट में तागों या सूतों को परस्पर खूब मिलाना जिसमें छेद न रह जाय । बुनावद में बाने को कसना ।
⋙ गँसना (२)
क्रि० अ० १. बुनावट में सूतों का खूब पास पास होना । गँठ जाना । कस जाना । २. ठसाठस भरना । छा जाना । उ०—(क) भनै रघुराज ब्रह्मलोक के अवध लगि गगन में गँसिगै विसान के कतार हैं ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) बिधु कैसी कला बधू गैलनि में गँसी ठाढ़ी गोपाल जहाँ जुरिगो ।—पजनेस (शब्द०) ।
⋙ गँसना (३)
क्रि० अ० [सं० ग्रसन] दे० 'ग्रसना' । उ०—वह रहस्यशील दुरधिगम्य सुनीता को मानो एक ही साथ गँस लेता है ।— सुनीता, पृ० २९९ ।
⋙ गँसि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] गाँसी । गाँस । क्रोध । उ०—सुनि पिय के रस बसन सबनि गँसि छाँड़ि दयो है । बिहँसि आपने उर सों लाल लगाय लयो है ।—नंद० ग्रं०, पृ० २१ ।
⋙ गँसीला (१)
वि० [हिं० गाँसी] [वि० स्त्री० गँसीली] गाँसीवाला । तीर के समान नोकदार । चुभनेवाला । उ०—लखनि गँसीली त्यों फँसीली नथ फाँसी औ हँसीली सों हिय मैं विषम विष बै गई ।—(शब्द०) ।
⋙ गँसीला (२)
वि० [हिं० गँसना] गँसा हुआ । ठस । दे० 'गसीला' ।
⋙ गँसीली
संज्ञा स्त्री० [ ] चुभनेवाली । गाँठवाली । उ०—सुन गँसीली बात हाथों के मले । छिल गया दिल हाथ में छाले पड़े ।— चोखे०, पृ० ६१ ।
⋙ ग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गीत । २. गंधर्व । ३. गुरुमात्रा । २. गणेश ।
⋙ ग (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गानेवाला । जैसे,—सामग । २. जानेवाला । पहुँचानेवाला । जैसे,—अध्वग, कठग । विशेष—इस अर्थ में यह समस्त शब्दों के अंत में आता है ।
⋙ गअ पु †
संज्ञा पुं० [सं० गज, प्रा० गअ, गय] हाथी । उ०—कि करब ततिखने होय गअ मनिघने झखइते बेआकुल मने ।— विद्यापति, पृ० ५०६ ।
⋙ गइंद पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गयंद' ।
⋙ गइनाही †
संज्ञा स्त्री० [सं० ज्ञान] जानकारी । उ०—डसी री माई श्याम भुअंगम कारे । मोहम मुख मुसकान मनहु विष जाते मरे सो मारे । फुरै न मंत्र यंत्र गइनाही चले गुनी गुन डारे ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ गई करना पु
क्रि० अ० [सं० गति, प्रा० गइ + हिं करना] तरह देना । जाने देना । छोड़ देना । ध्यान न देना । उ०—(क) केलि को रैनि परी है, घरीक गई करि जाहु दई के निहोरे ।— दास (शब्द०) । (ख) तुम्है लग लागी मुबारक आन सुनागर ही सुख सागर सार । नई दुलही की लढूरता देखि गई करि जैथत बारहिं बार ।—मुबारक (शब्द०) ।
⋙ गईबहोर पु
वि० [हिं गया + बहोरना = लौटना] खोई हुई वस्तु को पुनः देने अथवा बिगड़ी हुई बस्तु को बनानेवाला । उ०— गई बहोर गरीब निवाजू । सरल सबल साहब रघुराजू ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गउंथ
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो अफगानिस्तान और बिलोचिस्तान में आपसे आप हीती है और भारत में अनेक स्थानों में चारे के लिये बोई जाती है । विशेष—इसे तैयार करने के लिये पहले जमीन की अच्छी तरह जीतते और उसमें खाद डालते हैं । इसके बीज कुआर कातिक में खेत में बनाई हुई मेड़ों पर बो देते हैं और पानी से खूब सींचते हैं । जाड़े में आठवें दिन और गरमी में पाँचवें छठे दिन इसमें पानी की आवश्यकता होती है । पहली बार यह छह महीन में तैयार होती है और तदुपरांत साल भर में दस बार काटी जा सकती है । इसे विलायती होल या हूल भी कहते हैं ।
⋙ गउख पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० गवाक्ष] दे० 'गौखा' । उ०—बाबहिया चढ़ि गउखसिरि, चढ़ि ऊँचइरी भीत । मत ही साहिब बाहुड़इ, कउ गुन आवइ चीत ।—ढोला०, दू० २८ ।
⋙ गउरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गौरी] दे० 'गौरी, । उ०—कतने जतने गउरि अराधिअ भागिअ स्वामि सोहाग ।—विद्यापति, पृ० १२० ।
⋙ गउव पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० गौ] गऊ । गाय । उ०—गउव सिंघ रेंगहिं एक बाटा । दूअउ पानि पिअहिं एक घाटा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३० ।
⋙ गउहरु पु
संज्ञा पुं० [फा़० गौहर] मोती । आये गउहरु आपे हीरा । आपे परखि विसाहे हीरा ।—प्राण०, पृ० २४० ।
⋙ गऊ पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० गो, गौ] गाय । गौ । उ०—कर्म्महि ते बन गऊ चराई । कर्म्म ते गोपी केलि कराई ।—कबीर सा०, पृ० ९६० । यौ०—गऊघाट = गाय बैलों के पानी पीने का समथल घाट । = गोपद ।
⋙ गऊपद पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गोष्ठपद] दे० 'गोपद' । उ०—गऊपद माहीं पहौकर फदकै, दादर भर्रय झिलौर ।—गोरख०, पृ० २११ ।
⋙ गक्कर
संज्ञा पुं० [सं० केकय] पंजाब के उत्तरपश्चिम में रहनेवाली एक जाति ।
⋙ गगनंतरि पु
संज्ञा पुं० [सं० गगन + अन्तर] ब्रह्मंरध्र या त्रिकुटी का स्थान । उ०—चंचल नारि न जाय अषाड़े । गगनंतरि धनुष सहजि महिं हाड़े । प्राण०, पृ० १०१ ।
⋙ गगन
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश । मुहा०—गगन खेलना = बहते हुए पानी या नदी आदि का उछलना । गगन होना = पक्षी या गुड्डी आदि का बहुत ऊपर आकाश में जाना । यौ०—गगनध्वग । गगनध्वज । गगनेचर । गगनोल्मुक । २. शून्य स्थान । ३. छप्पय छंद का एक भेद जिसमें बारह गुरु और १२९ लघु, कुल १४० वर्णा या १५२ मात्राएँ अथवा १२ गुरु और १२४ लघु, कुल १ ६ वर्ण या १४८ मात्राएँ होती हैं । ४. अबरक ।
⋙ गगनकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] आकाशकुसुम ।
⋙ गगनगढ़ पु
संज्ञा पुं० [सं० गंगन + हिं० गढ़] गगनस्पर्शी प्रासाद । बहुत ऊँचा महल । बहुत ऊँचा गढ़ । उ०—देखा साह गगनगढ़ इंद्रलोक कर साज । कहिय राज फुर ताकर सरग करै अस राज ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गगनगति
संज्ञा पुं० [पुं०] १. वह जो आकाश में चले । आकाश- चारी । २. सूर्य, चंद्र आदि ग्रह ।३. देवता ।
⋙ गगनगिरा
संज्ञा स्त्री० [सं० गगन + गिर] आकाशवाणी । उ०— गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ।—मानस, १ ।१८६ ।
⋙ गगनगुफा पु
संज्ञा पुं० [सं० गगन + हि० गुफा] ब्रह्मरंध्र । उ०— गगन गुफा के घाट निरंजन भोंटिए । धरम०, पृ० ४१ ।
⋙ गगनचर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षी । २. ग्रह । नक्षत्र । ३. देव । देवता [को०] । ४. २७ नक्षत्र जो चंद्रमा की पत्नी के रूप में हैं । [को०] । २. राशिचक्र [को०] ।
⋙ गगनचर (२)
वि० आकाश में चलनेवाला । आकाशगामी ।
⋙ गगनचुंबी
वि० [सं० गगन + चुम्बिन्] आकाश को छूनेवाला । बहुत ऊँचा । जैसे,—गगनुंबी प्रासाद ।
⋙ गगनधूल
संज्ञा स्त्री० [सं० गगन + धूलि >हिं० धूल] १. कुकुर- मुत्ते का एक भेद । विशेष—यह गोल गोल सफेद रंग की होती है और बरसात के दिनों में साखू आदि के पेड़ों के नीचे या मैदामों में निकलती है । इसके ताजे फूल की तरकारी बनाई जाती है । कई दिनों की हो जाने पर इसके बीच से सूखने पर हरे रंग की मैली धूल निकलती है, जो कान बहने कीं बहुत अच्छी दवा है । २. केकड़े या केतकी के फूल पर की धूल ।
⋙ गगनधूलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केतकी या केवड़े के पेड़ पर पड़ी धूलि । २. एक प्रकार का कुकुरमुत्ता [को०] ।
⋙ गगनध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. बादल ।
⋙ गगनपति
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र ।
⋙ गगनबाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाश की बाटिका अर्थात् असंभव बात । वि० दे० 'गधर्वनगर' । उ०—गगनबादिका सींचहिं भरि भरि सिंधु तरंग । तुलसी मानहिं मोद मन ऐसे अधम अभंग ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गगनभेड़
संज्ञा स्त्री० [स० गगन + हिं० भेड़] कराँकुल या कूँज नाम की चिड़ियाँ जो पानी के किनारे रहती है ।
⋙ गगनभेदी
वि० [स० गगनभेदिन्] आकाशभेदी । बहुत ऊँचा ।
⋙ गगनरोमंथ
संज्ञा पुं० [सं० गगनक्षोमन्थ] निरर्थक बात । असंभव बात (को०) ।
⋙ गगनवटी पु
संज्ञा पुं० [सं० गगनवर्ती] सूर्य ।—(डिं०) ।
⋙ गगनवाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशावाणी ।
⋙ गगनविहारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० गगनविहारिन्] १. प्रकाशपिंड । २. सूर्य । ३. देवता (को०) ।
⋙ गगनविहारी (२)
वि० आकाशचारी । नभचारी ।
⋙ गगनस्थ, गगनस्थित
वि० [सं०] आकाश में स्थित (को०) ।
⋙ गगनस्पर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आठ मरुतों में से एक । २. वायु । पवन [को०] ।
⋙ गगनस्पर्शी
वि० [सं०] आकाश के छूनेवाला । बहुत ऊँचा ।
⋙ गगनस्पृक्
वि० [सं०] आकाश को छूनेवाला । बहुत ऊँचा ।
⋙ गगनांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० गगनाङ्गना] १. अप्सरा । २. एक छंद का नाम (को०) ।
⋙ गगनांबु
संज्ञा पुं० [सं० गगनाम्बु] आकाश से गिरा हुआ या वष्टि का जल । विशेष—वैद्यक में यह जल त्रिदोषघ्न, बलकारक, रसायन, शीतल और विषनाशक माना जाता है ।
⋙ गगनाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश का सबसे ऊँचा भाग या स्थान (को०) ।
⋙ गगनाधिवासी
संज्ञा पुं० [सं० गगनाधिवसिन्] ग्रह । नक्षत्र [को०] ।
⋙ गगनाध्वग
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. ग्रह । ३. देवता [को०] ।
⋙ गगनानंग
संज्ञा पुं० [सं० गगनानङ्ग] पचीस मात्राओं का एक मात्रिक छंद । विशेष—इसके प्रत्येक चरण में सोलहवीं मात्रा पर विश्राम होता है और आरंभ में रगण होता है । इस छंद में विशेषता यह है कि प्रत्येक चरण में पाँच गुरु और पंद्रह लघु होते हैं । किसी किसी के मत से बारह मात्राओं के बाद भी यति होती है । जैसे—माधव परम वेद निधि देवक, असूर हरंत तू । पावन धरम सेतु कर पूरण, सजन गहंत तू । दानव हरण हरि सुजग संतन, काज करंत तू । देखहु कस न नीति कर मोहि कहँ, मान धरंत तू ।
⋙ गगनापगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशगंगा ।
⋙ गगनेचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रह । नक्षत्र । २. पक्षी । ३. देवता । ४. वायु । ५. राक्षस । दैत्य । दानव । ६. बाण । इषु । ७. चंद्र ।
⋙ गगनेचर (२)
वि० आकाश मे चलनेवाला । आकाशचारी ।
⋙ गगनोल्मुक
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल ग्रह ।
⋙ गगरा
संज्ञा पुं० [सं० गर्गर = दही मथने का बर्तन] [स्त्री० अल्पा० गगरी] पीतल, ताँवे, काँसे आदि का बना हुआ बड़ा घड़ा । कलसा ।
⋙ गगरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गगरी' ।
⋙ गगरी
संज्ञा स्त्री० [सं० गर्गरी = दही मथने की हाँड़ी] ताँबे, पीतल, मिट्टी आदि का छोटा धड़ा । कलसी । उ०—नीके देहु न मोरी गगरी ।....जमुना दह गँडुरी फटकारी फोरी सब सिर की अस गगरी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ गगल
संज्ञा पुं० [सं०] साँप का जहर । सर्पविष (को०) ।
⋙ गगलो
संज्ञा पुं० [देश०] अगर की एक जाति ।
⋙ गगोरी
संज्ञा पुं० [सं० गर्ग] एक छोटा कीड़ा जो पृथ्वी के अंदर बिल बनाकर रहता है ।
⋙ गच
संज्ञा पुं० [अनु०] १. किसी नरम वस्तु में किसी कड़ी या पैनी वस्तु के धँसने का शब्द । जैसे,—गच से छुरी धँस गई । यौ०—गचागच = बार बार धँसने का शब्द । २. चुने, सूरखी आदि के मेल से बना हुआ मसाला, जिससे जमीन पक्की की जाती है । उ०—जातरूप मनिरचित अटारी । नाना रंग रुचिर गच ढारी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. चूने सुरखी आदि से पिटी हुई जमीन । पक्का फर्श । लेट । उ०— महि बहुरंग रुचिर गच काँचा । जो बिलोकि मुनिवर रुचि राँचा । तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—पीटना । यौ०—गचकारी । ४. पक्की छत । ५. संग जराहत या सिलखड़ी फूँककर बनाया हुआ चूना जिसे अँगरेजी में प्लास्टर आफ पैरिस कहते हैं । उ०—दीवारों पर गच के फूलपत्तों का सादा काम अबरख की चमक सै चाँदी के डले की तरह चमक रहा था ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १७८ । विशेष—यह पत्थर राजपूताने और दक्षिण (चिंगलपेट, नेलौर आदि) में बहुत होता है । राजपूताने में खिड़की की जालियाँबनाने में इसका उपयोग बहुत होता है । इस मसाले से मूर्तियाँ, खिलौने आदि भी बहुत अच्छे बनते हैं ।
⋙ गचकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गच + फा० कारी] गच पीचने का काम । चूने, सुरखी का काम ।
⋙ गचगर
संज्ञा पुं० [हिं० गच + फा० गर = बनानेवाला] वहकारी— गर जो गच बनाता हो । गच पीचनेवाला । थवई ।
⋙ गचगीरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गच + फा० गीरी] चूने, सुरखी का पक्का काम । गचकारी । उ०=कायर का घर फूस का भभकी चहूँ पछीत । सूरा के कछु डर नहीं गचगीरी की भीत । =कबीर (शब्द०) ।
⋙ गचना पु
क्रि० स० [अनु० गच] १. बहुत अधिक या कसकर भरना । ठूँसकर भरना । उ० = तीनों लोक रचना रचत हैं बिरंच यासों अचल खजानौं जानौ राख्यो गुण गचि के ।= गोपाल (शब्द०) । २. दे० 'गाँसना' ।
⋙ गचपच
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गिचपिच' ।
⋙ गचाका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गच से अनु०] गच से गिरने या लगने का शब्द ।
⋙ गचाका (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गच से अनु०] जवान औरत । जवानी से भरी स्त्री (बाजारू) ।
⋙ गचाका (३)
क्रि० वि० भरपूर ।
⋙ गच्चा
संज्ञा स्त्री० (हिं०) १. धोखा । २. बेइज्जती । उ०= नारी जाति पर बल का प्रयोग करके गच्चा खा चुका था ।= गोदान, पृ० ३७ ।
⋙ गच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेड़ । गाछ । २. साधुओं का मठ (जैन)३. वे साधु जो एक ही गुरु के शिष्य हों (जैन) ।
⋙ गच्छाना पु
क्रि० स० (सं० √ गम् > गच्छ = जाना, प्रा० गच्छ) जाना । चलना । उ०— = (क) पच्छ बिन गच्छत प्रतच्छ अंतरिच्छन में अच्छ अवलच्छ कला कच्छन न कच्छे हैं । = पद्माकर ग्रं० पृ० २०५ । (ख) कहै पदमाकर निपच्छन के पच्छ हित पच्छि तजि लच्छि तजि गच्छिबो करत हैं । = पद्माकर ग्रं०, पृ० ३४३ ।
⋙ गछना (१) †पु
क्रि० स० [सं० गच्छ = जान] चलना । जाना ।
⋙ गछना (२)
क्रि० स०, चलाना । निबारना । उ०—अवधि अधार न होती जीवन को गछतो ।—व्यास (शब्द०) ।
⋙ गछना (३)
क्रि० स० (सं० ग्रन्थन, हिं० गाँछना) १. अपने जिम्मे लेना । अपने ऊपर लेना । २. बहुत बनाव चुनाव से बात करना । गछ गछकर बातें करना । ३. गूँथना । ग्रंथन करना ।
⋙ गछेबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गछना + फा० बाजी] बनाब चुनाव की बातें । शेखी । उ०—इस तरह कई दिनों गछेबाजियाँ हुआ कीं ।—रंगभूमि, पृ० ५६९ ।
⋙ गजंद पु
संज्ञा पुं० [सं० गजेन्द, प्रा० गयंद, गइंद] दे० 'गजेंद्र' । उ०— मन गजंद ज्ञान करि सीकरि पकरि के जेर भरावै ।— गुलाल०, पृ० ४ ।
⋙ गज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० गजी] १. हाथी । २. एक राक्षस का नाम, जो महिषासुर का पुत्र था । ३. एक बंदर का नाम जो रामचंद्र की सेना में था । ४. आठ की संख्या । ५. मकान की नींच या पुश्ता । ६. ज्योतिष में नक्षत्रों की वीथियों में से एक । ७. लंबाई नापने की एक प्राचीन माप जो साधारणतः ३० अंगुल की होती थी [को०] ।
⋙ गज (२)
संज्ञा पुं० [फा़० गज] १. लंबाई नापने की एक माप जो सोलह गिरह या तीन फुट की होती है । विशेष—गज कई प्रकार का होता है; किसी से कपड़ा, किसी से जमीन, किसी से लकड़ी, किसी से दीवार नापी जाती है । पुराने समय से भिन्न भिन्नः प्रांतों तथा भिन्न भिन्न व्यवसायों में भिन्न भिन्न माप के गज प्रचलित थे और उनके नाम भी अलग अलग थे । उनका प्रचार अभ भी है । सरकारी गज ३ फुट या ३६ इंच का होता है । कपड़ा नापने का गज प्रायः लोहे की छड़ या लकड़ी का होता है जिसमें १६ गिरहें होती हैं और चार चार गिरहों पर चौपाटे का चिह्न होता है । कोई कोई २० गिरह का भी होती है । राजगीरों का गज लकड़ी का होता है और उसमें १४ तसू होते हैं । एक एक इंच के बराबर तसू होता है । यही गज बढ़ई भी काम में लाते हैं । अब इसकी जगह विशेषकर विलायती दो फुटे से काम लिया जाता है । दर्जियों का गज कपड़े के फीते का होता है, जिसमें गिरह के चिह्न बने होते हैं । मुहा०—गजभर = बनियों की बोलचाल में एक रुपए में सोलह सेर का भाव । गज भर की छाती होना = बहुत प्रसन्नता या संमान का बोध करना । गज भर की जबान होना = बड़बोला होना । उ०—क्यों जान के दुश्मन हुए हो, इतनी सी जान गज भर की जबान—फिसाना०, भा०३, पृ० २१९ । २. वह पतली लकड़ी जो बैलगाड़ी के पाहिए में मूँड़ी से पुट्ठी तक लगाई जाती है । विशेष—यह आरे से पतली होती है और मूँड़ी के अंदर आरे को छेदकर लगाई जाती है । यह पुट्ठी और औरों को मूड़ी में जकड़े रहती है । गज चार होते हैं । ३. लोहे या लकड़ी की वह छड़ जिससे पुराने ढंग की बंदूक में ठूसी जाती है । क्रि० प्र०—करना । ४. कमानी, जिससे सारंगी आदि बजाते हैं । ५. एक प्रकार का तीर जिसमें पर और पैकान नहीं होता । ६. लकड़ी की पटरी जो घोड़ियों के ऊपर रखी जाती है ।
⋙ गजअसन पु
संज्ञा पुं० [सं० गज + अशन] दे० 'गजाशन' ।
⋙ गजइलाही
संज्ञा पुं० [फा० गज + इलाही] अकबरी गज जो ४१ अंगुल का होता है ।
⋙ गजओबरि †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अबरी' । उ०—सासु मोरि सुतै गज ओबरि ननद मोरि अँगना हो । हम धन सुतै भवराहर पिय संग जगना हो ।—पलटू०, पृ० ७३ ।
⋙ गजकंद
संज्ञा पुं० [सं० गजकन्द] हस्तिकंद ।
⋙ गजक
संज्ञा पुं० [फा़० कज़क, गज़क] १. वह चीज जो शराब आदि पीने के बाद मुँह का स्वाद बदलने के लिये खाई जाती है । जैसे,—कबाब, पापड़, दालमोठ, सेव, बादाम, पिस्ता आदि शराब के बाद, और मिठाई, दूध, रबड़ी आदि अफीम या भंग के बाद । चाट । २. तिलपपड़ी । तिलशकरी । ३. नाश्ता । जलपान । ४. चटपट खा जाने की चीज ।
⋙ गजकरन आलू
संज्ञा पुं० [सं० गजकर्णालु] अरुवा नाम की लता जिसमें लंबा कंदा पड़ता है । वि० दे० 'अरुवा' ।
⋙ गजकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक यक्ष का नाम (को०) । † २ दाद । दद्रु रोग ।
⋙ गजकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक बनौषधि [को०] ।
⋙ गजकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० गजकुम्भ] हाथी के माथे पर दोनों ओर उठे हुए भाग । हाथी का उभरा हुआ मस्तक ।
⋙ गजकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] नागकेसर ।
⋙ गजकूर्माशी
संज्ञा पुं० [सं० गजकूर्माशिन्] वैनतेय । गरुड़ (को०) ।
⋙ गजकेसर
संज्ञा पुं० (सं० गज + केसर) एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है । इसका चावल बहुत दिनों तक रहता है ।
⋙ गजक्रीड़ित
संज्ञा पुं० [सं० गजक्रीडित] नृत्य में एक प्रकार का भाव ।
⋙ गजखाल
संज्ञा पुं० [सं० गज + हिं० खाल] हाथी का चमड़ा । गज की खाल । उ०—गजखाल कपाल की माल बिसाल सो गाल बजावत आवत हैं ।—रसखान०, पृ० ३२ ।
⋙ गजगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथी की चाल । २. हाथी की सी मंद चाल । (स्त्रियों का धीरे धीरे चलना भारवर्ष में सुलक्षण समझा जाता है ।) गौरव से भरी गति । ३. रोहिणी, मृगशिरा और आर्द्रा में शु्क्र की स्थिति या गति ।४. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नगण, भगण तथा एक लघु और एक गुरु होता है । जैसे,—न भल गोपिकन सों । हँसन लाख छल सों ।
⋙ गजगमन
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी की सी मंद चाल ।
⋙ गजगवनी पु
वि० [सं० गज + हिं० गवनी] गज के समान चालवाली । मंद गतिवाली । उ०—गजगवनी प्रति चंद छंद कोमल उच्चारिय ।—पृ० रा०, १ ।१५ ।
⋙ गजगामी
वि० [सं० गजगामिन्] [वि० स्त्री० गजगामिनी] हाथी के समान मंद गति से चलनेवाला । मंदगामी ।
⋙ गजगामिनी
वि० स्त्री० [सं०] हाथी के समान मंद गतिवाली । गजगवनी । उ०—गजगामिनी वह पथ तेरा संकीर्ण कंटका- कीर्ण ।—अनामिका, पृ० ३४ । विशेष—इस विशेषण का प्रयोग स्त्रियों से लिये अधिकतर होता है; क्योंकि भारतवर्ष में उनकी मंद चाल अच्छी समझी जाती है ।
⋙ गजगाह
संज्ञा पुं० [सं० गज + ग्राह] १. हाथी की झूल । उ०—(क) साजि कै सनाह गजगाह सउछाह दल महाबली धाए वीर जातुधान धीर के ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) गजगाह गंगप्रवाह सम निसिनाह दुति मोतिन लसे । सिर चंद चंद दचंद दुति आनंदकर मनिमय नसे ।—गोपाल (शब्द०) । २. झूल । पाखर । उ०—तैसे चँवर बनाये औ घाले गल कंप । बाँधं सेत गजगाह तहँ जो देखै सो कंप ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गजगौन पु
संज्ञा पुं० [सं० गज + गमन > प्रा० गवण] दे० 'गजगमन' ।
⋙ गजगौनी पु
वि० स्त्री० [सं० गजगामिनी] वि० 'गजगवनी' ।
⋙ गजगोहर पु
संज्ञा पुं० [हिं० गज + फा० गौहर] गजमोती । गज- मुक्ता । उ०—ग्रीषम की क्यों गनै नरमी गजगौहर चाह गुलाब गँभीरे ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ गजचर्म
संज्ञा पुं० [सं० गजचर्मन्] १. हाथी का चमड़ा । २. एक रोग; जिससे शरीर का चमड़ा हाथी के चमड़े की तरह मोटा और कड़ा हो जाता है । य़ह रोग घोड़े को भी होता है । इसमें खाज भी होता है ।
⋙ गजचिर्भटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रायन ।
⋙ गजचिर्भिट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकारी की ककड़ी ।
⋙ गजचिर्भिटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रायन ।
⋙ गजच्छाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष का एक योग जो उस समय होता है, जब कृष्ण त्रयोदशी के दिन चंद्रमा मघा नक्षत्र में और सूर्य हस्त नक्षत्र में हो । यह योग श्राद्ध के लिये अच्छा माना जाता है ।
⋙ गजट
संज्ञा पुं० [अं० गजेट] १. समाचारपत्र । अखबार । २. वह विशेष सामयिक पत्र जो भारतीय सरकार अथवा प्रांतीय सरकारों द्वारा प्रकाशित होता है और जिसमें बड़े बड़े अफसरों की नियुक्ति, नए कानूनों के मसौदे और भिन्न भिन्न सरकारी विभागों के संबंध की विशेष और सर्वसाधारण के जानने योग्य बातें प्रकाशित की जाती हैं । मुहा०—गजट करना = किसी प्रकार की सूचना आदी को गजट में प्रकाशित कराना । गजट होना = (१) किसी बात का गजट आदि में प्रकाशित होना = (२) किसी बात का बहुत अधिक प्रसिद्ध होना ।
⋙ गजढक्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथी के ऊपर रखकर बजाया जाने- बाला नगाड़ा या धौंसा [को०] ।
⋙ गजता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथी की स्थिति या भाव (को०) । २. हाथियों का झुंड ।
⋙ गजदंड
संज्ञा पुं० [सं० गजदण्ड] पारिस पीपल नाम का पेड़ । परीश पिप्पल ।
⋙ गजदंत
संज्ञा पुं० [सं० गजदन्त] १. हाथी का दाँत । २. वह खूँटी जो दीवार में कपड़े आदि लकटाने के लिये गाड़ी जाती है । ३. एक प्रकार का घोड़ा जिसके दाँत हाथी के दाँतों की तरह मुँह के बाहर ऊपर की ओर निकले रहते हैं । ४. दाँत के ऊपर निकला हुआ दाँत । ५. नृत्य में एक प्रकार का भाव जिसमें दोनों हाथ सीधे करके कंधे के पास लाते हैं और हाथ की उँगलियों को साँप के फन की तरह बनाकर आगे की ओर झुकाते हैं । विशेष—प्राचीन काल में नृत्य का यह भाव उस समय दिखलाया जाता था, जब विवाह के उपरांत कन्या को वर ले जाताथा । इसके अतिरिक्त झूलते अथवा वृक्ष आदि उखाड़ने की मुद्रा दिखलाने के समय भी इसका व्यवहार होता था । ६. गणपित का एक विशेषण (को०) ।
⋙ गजदंतफला
संज्ञा स्त्री० [सं० गजगन्तफला] चिचड़ा ।
⋙ गजदंती
वि० [हिं० गजदंत + ई (प्रत्य०)] हाथी के दाँत का । हाथोदाँत का बना हुआ । उ०—कर कंकड चूरो गजदंती । नख मणिमाणिक भेटति देती ।—सूर० (शब्द०) ।
⋙ गजदध्न, गजद्वयस
वि० [सं०] हाथी जैसा लंबा या उँचा [को०] ।
⋙ गजदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी का दान । २. हाथी का मद ।
⋙ गजगैत्यभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] गज नामक असुर के संहारक शिव [को०] ।
⋙ गजधर
संज्ञा पुं० [फा़० गज + हिं० धर] १. मकान बनानेवाला । मिस्त्री । राज । मेमार । थवई । २. वह राज या मेमार जो घर बानाने के पहले उसका नकशा आदि तौयार करता हो ।
⋙ गजनक
संज्ञा पुं० [सं०] गैंडा । गंडक [को०] ।
⋙ गजनवी
वि० [फा़० गजनवी] गजनी नगर का रहनेवाला । जैसे— महमूद गजनवी ।
⋙ गजना
क्रि० अ० [सं० गर्ज्जन,, प्रा० गज्जण] दे० 'गरजना' । उ०—ठाँ ठाँ मधुर मथानी बजै । जनु नव आनँद अंबुद गजै ।—नंद०, ग्रं०, पृ० २४८ ।
⋙ गजनाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की बड़ी तोप जिसे हाथी खींचते थे । बड़ी भारी तोप ।
⋙ गजनासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथी की सूँड़ [को०] ।
⋙ गजनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गजना] गूँज । गुंजन । ध्वनि । उ०— उड़त गुलला अनुराग रंग छाई दिस, सब मनभाई ब्रजनिधि ही की है । नूपुरनिनाद काटिकिंकिनी की नीकी धुनि, चंगनि की गजनि बजनि मुरली की है ।—ब्रज०, ग्रं०, पृ० २५ ।
⋙ गजनिमीलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोई चीज देखने का बहाना करना । जानबूझकर अनजाना बनना या दिखना । उपेक्षा [को०] ।
⋙ गजनी (१)
संज्ञा स्त्री० [?] एक प्रकार की मिट्टी ।
⋙ गजनी (२)
संज्ञा पुं० [फा० मि०, सं० गज्जन] [वि० गजनवी] अफ- गानिस्तान के एक नगर नाम, जहाँ महमूद की राजधानी थी ।
⋙ गजपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह राजा जिसके पास बहुत से हाथी हों । उ०—असुपतीक शिरमौर कहावै । गजपतीक आँकुस गज नावै ।—जायसी (शब्द०) २. कलिंग देश के राजाओं की उपाधि । महाराज विजयनगर या विजयानगरम् के नाम के साथ अब भी यह उपाधि लगाई जाती है । उ०—रतनसेन भा जोगी जती । सुनि भेटइ आवा गजपती ।—जायसी (शब्द०) । ३. बहुत बड़ा हाथी ।
⋙ गजपाँव
संज्ञा पुं० [हिं० गज + पाँव] एक प्रकार का जलपक्षी । विशेष—इसके पैर लाल, सिर, गरदन, पीठ और डैने काले तथा बाकी अंग सफेद होते है । यह जाड़े के दिनों में ठंढ़े देशों से भारतीय मैदानों में चला आता है और प्रायः तीन चार अंडे देता है ।
⋙ गजपादप
संज्ञा पुं० [सं०] बेलिया पीपल ।
⋙ गजपाल
संज्ञा पुं० [सं०] महावत । हाथीवान । उ०—क्रोध गजपाल कै ठठकि हाथी रह्यो देत अंकुस मसकि कह सकान्यौ ।—सूर० १० ।३०५४ ।
⋙ गजपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मझोले कद के एक पौधे का नाम जिसके पत्ते चौड़े और गुदार होते है और जिसके किनारे पर लहरिया नोकदार कटाव होतो है । विशेष—इसमें दो तीन पत्तों के बाद बीच से एक पतला सींका निकलता है जिसके सिरे पर दस बारह अंगुल लंबी एक इंच के लगभग मोटी मंजरी निकलती है । मंजरी में छोटे छोटे फूल लगते हैं । यह मंजरी सुखाई जाती है और सूखने पर बाजारों में औषध के लिये बिकती है । बाजार में इसके एक अंगुल मोटे और चार पाँच अंगुल लंबे चुकड़े मिलते हैं । स्वाद में यह मंजरी कड़वी और चरपरी होती है । वैद्यक में यह गरम, मलशोधक, कफ-वात-नाशक, स्तन को बढ़ानेवाली, रुचिकारक और अग्निदीपक मानी गई है और कहा गया है कि पकने से पहले इसमें और भी कुछ गुण होते हैं । पर्या०—करिपिप्पली । इभकणा । कपिवल्ली । कपिल्लिका । वक्षिर । कोलवल्ली । चव्यफल । दीर्घग्रंथी । तैजसी ।
⋙ गजपीपर
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गजपिप्पली' ।
⋙ गजपीपल
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गजपिप्पली' ।
⋙ गजपुंगव
संज्ञा पुं० [सं० गजपुङ्गव] बड़ा या विशाल हाथी [को०] ।
⋙ गजपुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. धातुओं के फूँकने की एक रीति । विशेष—इसमें सवा हाथ लंबा, सवा हाथ चौड़ा और सवा हाथ गहरा एक गड्ढ़ा खोदते हैं । उसमें पाँच सौ बिनुए कंडे बिछाकर बोच में जिस वस्तु को फूँकना होता है । उसे रखकर ऊपर से फिर ५०० कंडे बिछाकर गडढ़ों के मुँह पर चारों ओर से मिट्टी डाल देते हैं । केवल थोड़ा सा स्थान बीच में खुला छोड़ देते हैं । इस प्रकार जब सब ठीक सकर चुकते है, तब ऊपर से उसमें आग लगा देते है । धातु फूँकने की इस रीति को गजपुट कहते हैं । २. धातु को फूँककर रस तैयार करने के लिये बनाया जानेवाला निश्चित मान का गड्ढा ।
⋙ गजपुर
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिनापुर ।
⋙ गजपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] नागपुष्पी । नागदौन ।
⋙ गजपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गजपुष्प' ।
⋙ गजप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] सलई । शल्लकी ।
⋙ गजबंध
संज्ञा पुं० [सं० गजबन्ध] एक प्रकार का चित्रकाव्य । विशेष—इसमें किसी कविता के अक्षरों को एक विशेष रूप से हाथी का चित्र बनाकर उसके अंग प्रत्यंग में भर देते हैं ।
⋙ गजबंधन
संज्ञा पुं० [सं० गजबन्धन] [स्त्री० गजबन्धनी, गजबंधिनी] हाथी के बाँधने का खूँटा या स्थान । गजशाला [को०] ।
⋙ गजब
संज्ञा पुं० [अ० ग़ज] १. कोप । रोष । गुस्सा । यौ०—गजब इलाही = ईश्वर का कोप । दैवी कोप । उ०—कापै यों परैया भयो गजब इलाही है ।—पद्माकर (शब्द०) । क्रि० प्र०—आना ।—हटना ।—पड़ना ।२. आपत्ति । आफत । विपत्ति । अनर्थ । जैसे,—उनपर गजब टूट पड़ा । क्रि० प्र०—आना ।—करना ।—टूटना ।—ढाना ।—तोड़ना ।— गिरना ।—लाना ।—पड़ना । ३. अंधेर । अन्याय । जुल्म । जैसे,—क्या गजब है कि तुम दूसरे की बात भी नहीं सुनते । ४. विलक्षण बात । विचित्र बात । मुहा०—गजब का = विलक्षण । अपूर्व । बड़ा भारी । अत्यंत । अधिक । जैसे,—(क) वह गजब का चोर है । (ख) वहाँ गजब की भीड़ और गरमी थी (ग) उसकी खूबसूरती गजब की थी ।
⋙ गजबदन पु
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश । उ०—जय गजबदन षडानन माता । जगतजननि दामिनि दुति गाता । मानस, १ । २३५ ।
⋙ गजबरन पु †
संज्ञा पुं० [सं० गज + वारण] किवाड़ों पर रक्षार्थ लगाई जानेवाली मोटी नोकदार कीलें । उ०—पुष्ट द्वार मजबूत कपाटन जड़े गजबरन ।—प्रेमघन०, पृ० ९२ ।
⋙ गजबसा पु
संज्ञा पुं० [सं० गज + वश] केला । अनेकार्थ०, पृ० १७ ।
⋙ गजबाँक
संज्ञा पुं० [सं० गज + वल्गा > हिं० बाग] दे० 'गजबाग' ।
⋙ गजबाग
संज्ञा पुं० [सं० गज + बल्गा > हिं० बाग] हाथी का अंकुश ।
⋙ गजबीथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुक्र की गति के विचतार से रोहिणी, मृगशिरा और आर्द्रा के समूह का नाम जिसके बीच से होकर शुक्र गमन करे ।
⋙ गजबीला पु
वि० [अ० गजब + हिं० ईला (प्रत्य०)] १. गजब का । २. गजब करनेवाला ।
⋙ गजबेली
संज्ञा स्त्री० [सं० गज + वल्ली] एक प्रकार का लोहा । कांतिसार । उ०—भाला मारा गजबेली का सौंहै निसरि गयो वहि पार ।—आल्हा (शब्द०) ।
⋙ गजभक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] पीपल ।
⋙ गजभक्षा, गजभक्ष्या
संज्ञा स्त्री० [दे०] शल्लकी । सलई [को०] ।
⋙ गजमंडल
संज्ञा पुं० [सं० गजमण्डल] हाथी के माथे पर चित्रित की हुई रंगीन रेखाएँ [को०] ।
⋙ गजमंडलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० गजमण्डलिका] रथ के चारों ओर स्थापित हाथियों का मंडल या घेरा [को०] ।
⋙ गजमणि
संज्ञा स्त्री० पुं० [सं०] गजमुक्ता ।
⋙ गजमद
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का मदजल [को०] ।
⋙ गजमनि
संज्ञा स्त्री० पुं० [सं० गजमणि] दे० 'गजमणि' । उ०— बीथी सकल सुंगध बसाई । गजमनि रचि बहु चौक पुराई ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गजमाचल
संज्ञा पुं० [सं०] शार्दूल । सिंह [को०] ।
⋙ गजमुकुता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गजमुक्ता] दे० 'गजमुक्ता' । उ०— गजमुक्ता हीरामनि चौक पुराइय हो ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १ ।
⋙ गजमुक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीनों के अनुसार एक प्रकार का मोती । विशेष—इस मोती का हाथी के मस्तक से निकलना प्रसिद्ध है पर आजतक ऐसा मोती कहीं पाया नहीं गया ।
⋙ गजमुक्ताहल पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गजमुक्ताफल] दे० 'गजमुक्ता' । उ०—गजमुक्ताहल थाल भराई । चंदन चून को चौक पुराई ।— कबीर सा०, पृ० ४७३ ।
⋙ गजमुख
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश का नाम ।
⋙ गजमुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों में श्रेष्ठ हाथी । गजपुंगव [को०] ।
⋙ गजमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक रूप जिसे धारण कर उन्होंने ग्राह से एक हाथी की रक्षा की थी । उ०—गजमोचन ज्यों भयो अवतार । कहौ सुनौं सो अब चित धार ।—सूर (शब्द०) । यौ०—गजमोचन क्रीड़ा = हाथी को ग्राह से बचाने की क्रिया । उ०—एहि थर बनी क्रीड़ा गजमोचन और अनंत कथा स्तुति गाई । सूर०, १ ।६ ।
⋙ गजमोटन
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह [को०] ।
⋙ गजमोती
संज्ञा पुं० [सं० गजमौक्तिक, प्रा० गजमौत्तिअ] गजमुक्ता ।
⋙ गजयूथ
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का झुंड [को०] ।
⋙ गजर (१)
संज्ञा पुं० [सं० गर्ज, हिं० गरज] १. पहर पहर पर घंटा बजने का शब्द । पारा । उ०—पहरहि पहर नजर नित होई । हिया निसोगा जान न कोई ।—जायसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—बजना । २. घंटे का वह शब्द जो प्रातःकाल चार बजे होता है । सबेरे के समय का घंटा । उ०—फजर को गरज बजाऊँ तेरे पास मैं ।—सूदन (शब्द०) । मुहा०—गजरदम या गजरवजे = तड़के । पौ फटते । पास भोरे । जैसे,—वह गजरदम उठ खड़ा हुआ । गजर का वक्त = सबेरा । उषःकाल । जैसे—उठो गजर का वक्त हुआ; ईश्वर का नाम को । ३. जगाने की घंटी । जगौनी । अलारम । ४. चार, आठ और बारह बजने पर उतनी ही बार जल्दी जल्दी फिर घंटा बजने का शब्द ।
⋙ गजर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गजर बजर = मिला जुला] लाल और सफेद मिला हुआ गेहूँ ।
⋙ गजरथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह बड़ा रथ जिसे हाथी खींचते थे । पहले ऐसे रथ राजाओं के यहाँ होते थे और लोग उनपर चढ़कर लड़ाइयों में जाते थे ।
⋙ गजरप्रबध
संज्ञा पुं० [सं० गजरप्रवन्ध] गायन और नृत्य आदि के आरंभ में श्रोताओं के सामने गाने और बजानेवालों का अपना स्वर और बाजा आदि मिलाना ।
⋙ गजर बजर
संज्ञा पुं० [अनु०] १. घाल मेल । बेमेल की मिला- वट । अंडथंड । क्रि० प्र०—करना । होना । २. खाद्याखाद्य । भक्ष्याभक्ष्य । पथ्यापथ्य । जैसे,—लड़के ने कुछ गजर बजर खा लिया होगा ।
⋙ गजरभत्ता
संज्ञा पुं० [हिं० गाजर + भात] गाजर के टुकड़ों को मिलाकर उबाला हुआ चावल ।
⋙ गजरभात
संज्ञा पुं० [हिं०] 'गजरभत्ता' ।
⋙ गजरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गाजर] गाजर के पत्ते जो चौपायों को खिलाए जाते हैं ।
⋙ गजरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गज = समूह] १. फूल आदि की घनी गुथी हुई माला । माला । तारा उ०—कर मंडित मोतिन को गजरा दृग मीड़त आनन ओपत से ।—बेनी (शब्द०) । २. एक गहना जो कलाई में पहना जाता है । उ०—छाप छला सुंदरी झमकै दमकै पहुँची गजरा मिलि मानो ।—गुमान (शब्द०) । ३. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा । मशरू ।
⋙ गजराज
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा हाथी । उ०—महामत्त गजराज कहँ बस कर अंकुश खर्ब ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गजरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] रात्रियों का क्रम या शृगाल [को०] ।
⋙ गजरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गजरा] एक आभूषण जिसे स्त्रियाँ कलाई में पहनती हैं ।
⋙ गजरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाजर] छोटी गाजर । इसके कंद छोटे, पर अधिक मीठे होते है ।
⋙ गजरौट
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाजर + औटा (प्रत्य०)] गाजर की पत्ती । गजरा ।
⋙ गजल
संज्ञा स्त्री० [फा० ग़जल] पारसी और उर्दू में विशेषतया शृंगार रस की एक कविता जिसमें कोई शृंखलाबद्ध कथा नहीं होती । विशेष—इसमें प्रेमियों के स्फुट कथन या प्रेमी अथवा प्रेमिका हृदय के उदगार आदि होती हैं । इसका कोई नियत छंद नहीं होता । गजल में शेरों की संख्या 'ताक' होती है । साधारण नियम यह है कि एक गजल में पाँच से कम और ग्यारह से अधिक शेर न होने चाहिए । पर कुछ माने शायरों ने कम से कम तीन शेर और अधिक से अधिक पच्चीस शेर तक की गजलें मानी हैं । आजकल सत्रह, उन्नीस और इक्कीस तक की गजलें लिखी जाती है । यौ०—गज लगो = गजल लिखनेवाला ।
⋙ गजलील
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक जिसमें चार लघु मात्राएँ और अंत में विराम होता है ।
⋙ गजवदन
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश । गजास्य ।
⋙ गजवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गिरिकदली [को०] ।
⋙ गजवान
संज्ञा पुं० [हिं० गज + वान (प्रत्य०)] महावत । हाथीवान ।
⋙ गजविलसिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त [को०] ।
⋙ गजवीथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रोहिणी, मृगशिरा और आर्द्रा नक्षत्रों का समूह [को०] ।
⋙ गजवैद्या
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का चिकित्सक । हस्तिवैद्य ।
⋙ गजव्रज
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों का समूह या सेना [को०] ।
⋙ गजशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह घर जिसमें हाथी बाँधे जाते हैं । फीलखाना । हाथिसाल ।
⋙ गजशिक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हस्तिशास्त्र जिसमें हाथियों के विषय में सारी ज्ञातव्य बातों का समावेश हैं [को०] ।
⋙ गजसाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिनापुर नगर का नाम [को०] ।
⋙ गजस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी का स्नान । २. निरर्थक कार्य क्योंकि हाथी नहाने के बाद अपने ऊपर धूल कीचड़ आदि डाल लेता है [को०] ।
⋙ गजही
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाज = फेन] १. लकड़ी जिससे कच्चा दूध मथकर मक्खन निकाला जाता है । यह चार पाँच हाथ लंबी एक बाँस की लकड़ी होती है जिसका एक सिरा चौफाल चिरा होता है । २. वे पतली लकड़ियाँ जिससे दूध मथकर फेन निकालते हैं ।
⋙ गजा (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़० गज] नगाड़ा बनाने की लकड़ी । चोव । उ०—सुर दुंदुभि सीस गजा सर राम के रावन के सिर साथहि लाग्यो ।—रामचं०, पृ० १३७ ।
⋙ गजा (२)
संज्ञा स्त्री० [बँ०] घी में भूनकर चीनी के रस में पागी हुई मैदा की एक मिठाई ।
⋙ गजाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] चकमर्द । चकवड़ [को०] ।
⋙ गजाजीव
संज्ञा पुं० [सं०] महावत । हाथीवान । फीलवान [को०] ।
⋙ गजाधर †
संज्ञा पुं० [सं० गदा, प्रा० गया + सं० धर] दे० 'गदाधर' । विशेष—इसका प्रयोग केवल नामों में होता है ।
⋙ गजानन
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश का एक नाम ।
⋙ गजायुर्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों की चिकित्सा का शास्त्र [को०] ।
⋙ गजारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह । २. शिव का एक नाम । ३. एक प्रकार का शाल वृक्ष । विशेष—यह प्रायः आसाम में अधिकता से होता है । इसके पत्ते बड़े होते हैं और इसकी डालियों से खूँटियाँ बनाते हैं ।
⋙ गजारोह
संज्ञा पुं० [सं०] फीलवान । महावत [को०] ।
⋙ गजाल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मछली ।२. खूँटी ।
⋙ गजाला
संज्ञा पुं० [अ० गजा़लह] मृगशावक । हिरन का बच्चा । उ०—तुभ लव की फिसत लाल बदख्शाँ से कहूँगा । जादू हैं तेरे नैन गजाला से कहूँगा ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ५ ।
⋙ गजाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीपल । २. अश्वत्थ वृक्ष । ३. कमल की जड़ (को०) ।
⋙ गजासुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक असुर जिसका संहार शिव ने किया था । [को०] ।
⋙ गजास्य
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश का एक नाम ।
⋙ गजाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गजपिप्पली [को०] ।
⋙ गजिया
संज्ञा स्त्री० [हि० गज + इया (प्रत्य०)] बिटाई करनेवालों का एक औजार । विशेष—इसपर बिटा हुआ उतारा जाता है । यह लकड़ी की होती है और इसके दोनों कोने झुके होते हैं ।
⋙ गजी (१)
संज्ञा पुं० [फा़० गजी] कुछ कम चौड़ा एक प्रकार का मोटा देशी कपड़ा जो सस्ता होता है । गाढ़ा । सल्लम । उ०— पतिव्रता कौ गजी जुरै नहिं रूखा सूख आहार ।—कबीर० श०, भा० ३, पृ० ५१ । मुहा०—गजी गाढ़ा = मोटा, साधारण और स्स्ता कपड़ा ।
⋙ गजी (२)
संज्ञा पुं० [सं० गज + ई (प्रत्य०) अथवा गजिन्] हाथी का सवार । वह जो हाथी पर सवार हो ।
⋙ गजी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथिनी ।
⋙ गजीना पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गझिन्] दे० 'गझिन्' । उ०—ऐसे तनि बुनि गहर गजीना साई के मनभावै ।—दादू०, पृ०६०९ ।
⋙ गजेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० गजेन्द्र] १. ऐरावत । २. बड़ा हाथी । गजराज । ३. इंद्रद्युम्न नामक राजा अगस्त्य मुनि के शाप से हाथी हो गया था और ग्राह से गृहीत होने पर शाप से मुक्त हुआ ।
⋙ गजेंद्रगुरु
संज्ञा पुं० [सं० गजेन्द्रगुरु] संगीत में रुद्रताल का एक भेद ।
⋙ गजेटियर
संज्ञा पुं० [अं०] सरकार की ओर से प्रकाशित परिचायक सामयिक पत्र । जैसे,—उत्तर प्रदेश गजेटियर । बनारस गजेटियर । उ०—कुछसमय तक शुक्ल जी स्व० डा० हीरालाल के साथ गजे टियर बनाने के कार्य में लगे रहे ।—शुक्ल अभि० ग्रं० (जी०), पृ०६ । विशेष—इसमें देश के विभिन्न प्रांतों, जिलों आदि की जनसंख्या, पैदावार, विशिष्ट स्थानों, धर्म, रीति रिवाज, इतिहास तथा भूगोल आदि का विशद वर्णन होता है ।
⋙ गजेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिदारी कंद । भूइँ कुम्हड़ा ।
⋙ गजोषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गजपिप्पली [को०] ।
⋙ गज्जना पु
क्रि० अ० [सं० गर्जन, प्रा० गज्जण] दे० 'गरजना' । उ०— मृग व्याघ्र चीते रिछं जत्र गज्जैं ।—ह० रैसो, पृ० ३६ ।
⋙ गज्जर †
संज्ञा पुं० [अनु०] वह भूमि जो कीचड़ से भरी हो और जिसमें पैर धँसे । दलदल ।
⋙ गज्जल
संज्ञा पुं० [सं०?] अंजीर ।
⋙ गज्झा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० गज्ज = शब्द] बहुत से छोटे छोटे बुलबुलों का समूह जो पानी, दूध या किसी और तरल पदार्थ में उत्पन्न हो । गाज । मुहा०—गज्झा देना या छोड़ना = मछली के पानी के अंदर से बाहर बुलबुला फेकना । विशेष—(सौरी या गिरदा मछली के पानी के अंदर साँस लेने से प्रायः ऊपर बुलबुले निकलते हैं । इसे शिकारी या मछुए 'गज्झा देना या छोड़ना' कहते है । इससे उनको मालूम हो जाता है कि यहाँ सौरी या गिरदा मछली है) । गज्झा मारना=गज्झा छोड़ना । †२. गज ।
⋙ गज्झा (२) †
स्त्री० पुं० [सं० गज्ज, मि० फा० गंज] २. ढेर । गाँज । अंबार । २. खजाना । कोश । ३. धन । संपत्ति । मुहा०—गज्झा मारना = माल मारना । रुपया हाथ में करना । गज्झा दबाना = माल दबाना या हड़प करना । अनुचित रूप से बहुत सा धन एकबारगी ले लेना । माल मारना । ४. लाभ । फायदा । मुनाफा ।
⋙ गज्झिन †
वि० [हिं०] दे० 'गझिन' ।
⋙ गझिन †
वि० [हिं० गंजना] १. सघन । उ०—लंबी गझिन दाढ़ी के कारण खाँ साहिब का चेहरा बड़ भयानक लगता था— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १८४ ।
⋙ गझिनाना
क्रि० अ० [हिं० गझिन] गजिन होना । सघन होना । उत्तरोत्तर वृद्धि होना । उ०—गोधूलि गझिनाय । प्रेमघन०, पृ० ८१७ ।
⋙ गट
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गट्ट' ।
⋙ गटइया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गटई] कंठ । गला । गर्दन । उ०— जबै जमराज रजायसु ते तोहि लै चलिहैं भट बाँधि गटइया ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गटई (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कणठ, हिं० घंट अथवा सं० गल, गर > गड, हिं० गट + ई] कंठ गला ।
⋙ गटई †
संज्ञा स्त्री० [सं० गुटिका] १. दे० 'गोटी' । २. दे० 'गिट्टी' ।
⋙ गटकना
क्रि० सं० [सं० कण्ठ, या सं० दर (= निगलना) > गट + क या हिं० गटई, अथवा गट से अनु०] १. खाना । निगलना । उ०(क) मीठा सब कोई खात है विष होइ लागै धाय । नीब न कोई गटकई, सबै रोग मिटि जाय ।—कबीर (शब्द०) । (ख) लटकि निरखन लग्यो मटक सब भूलि गयो हटक ह्वै वै गयो गटकि शिल सो रह्यो मीचु जागी । मुष्टि को गर्दं मरदि के चाणूर चुरकुट करयो कंस को/?/नुकंप भयो भई रंग भूमि अनुराग रोगी ।—सूर (शब्द०) । २. हड़पना । दबा लेना । जैसे,—दूसरों का माल गटकना सहज नहीं है ।
⋙ गटक्कना †पु
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'गटकना' । उ०—गटक्कंति गिद्धिन्नि दोऊ मुनारे ।—प० रासो, पृ० ८२ ।
⋙ गटगट (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] किसी पदार्थ को कई बार करके निगलने या घूँट घूँट पीने में गले से उत्पन्न होनेवाला शब्द ।
⋙ गटगट (२)
क्रि० वि० गट गट शब्द के सहित । धड़ाधड़ । लगातार । (कोई चीज खाना या पीना) । जैसे,—साहब बहादुर देखते देखते सारी बोतल गटगट करके खाली कर गए ।
⋙ गटना †
क्रि० अ० [सं० ग्रन्थन, प्रा० गंठन] गँठना । बँधना । उ०— हृदय की कबहूँ न पीर घटी । बिनु गोपाल विथा या तनु की कैसे जात कटी । अपनी रुचि जितही तित खैंचति इंद्रिय ग्राम गटी । होति तहीं उठि चलति कपट लगि बाँधे नयन पटी ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ गटपट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] २. दो या दो से अधिक मनुष्यों या पदार्थों का परस्पर बहुत अधिक मेल । मिलावट । २. सहवास । संयोग । प्रसंग । उ०—जासों गटगट भए आस राखो वाही की ।—व्यास (शब्द०) ।
⋙ गटर
संज्ञा पुं० [अं०] गंदा नाला । जैसे; गटर का कीड़ा ।
⋙ गटरगूँ
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'गुटरगूँ' । उ०—पेड़ों पर बुलबुल, तोते रुकमिने, गलारें, कबूतर आदि चहकते और गटरगूँ करते हैं ।—काले०, पृ० ५१ ।
⋙ गटरमाला
संज्ञा स्त्री० [हिं० गटर + माला] बड़े बड़े दानों की माला ।
⋙ गटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गट्टा] गाँठ । उ०—कमल के हिरदय महँ जो गटा । हर हर हार कीन्ह का घटा ।—जायसी (शब्द०) । २. गट्टा । बीज । उ०—पहुंची रुद्र कँवल कै गटा ।—जायसी ग्रं० पृ० ९० ।
⋙ गटागट
क्रि० वि० संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गटगट' ।
⋙ गटापारचा
संज्ञा पुं० [मला० गट = गोंद + परचा = वृक्ष अथवासुमात्रा द्वीप का नाम] एक प्रकार का गोंद जो कई ऐसे वृक्षों से निकलता है जिनमें सफेद दूध रहता है । विशेष—यह प्रायः रबर की तरह काम में आता है, पर उतना मुलायम और लचीला नहीं होता । बिलकुल खुले स्थानों में दूध और पानी आदि सहता हुआ भी यह दस—दस बरस तक ज्यों का त्यों रहता है; और यदि निलियों आदि से सुरक्षित स्थानों में रखा जाय, तो बीस बीस—बीस वर्ष तक काम देता है । यह प्रायः बिजली के ऊपर रक्षार्थ लगाया जाता है । इसके खिलौने, बटन आदि भी बतते है ।
⋙ गटी
स्त्री० संज्ञा [सं० ग्रन्थि, पा० गंठि] १. गाँठ । उ०—(क) चेटक लाइ हरहिं मन, जब लगि हौं गटि फेंट । साठ नाक उठि भागहिं, न पहिचान न भेंट ।—जायसी (शब्द०) । (ख) रंग भरि आये हौ मेरे ललना बातें कहत हौं अटपटी । अति अलसात जम्हात हौ प्यारे पिय प्रगट त्रिया प्रताप छूटत नाहिर अंतर की गटी ।—सूर (शब्द०) । ३. गठरी । उ०— अघ ओघ की बेरी कटी विकटी, निकटी प्रकटी गुरु ज्ञान गटी ।—रामचं० पृ० ६८ ।
⋙ गटैया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गटई] गला । कंठ ।
⋙ गट्ट
संज्ञा पुं० [अनु०] किसी वस्तु के निगलने में गले से उत्पन्न होनेवाला शब्द । मुहा०—गट्ट करना = (१) निगल जाना । (२) हड़प जाना । दबा बैठना । अनुचित अधिकार कर लेना ।
⋙ गट्टा
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थ, प्रा० गंठ, हिं० गाँठ] १. हथेली और पहुंचे के बीच का जोड़ । कलाई । मुहा०—गट्टा पकड़ना = तगादा या झगड़ा करने अथवा बल— पूर्वक कुछ माँगने या पूछने आदि के लिये किसी की कलाई पकड़ना । गट्टा उखाड़ना = परास्तकरना । दबाना । २. पैर की नली और तलुए के बीच की गाँठ । ३. गाँठ । ४. नैचे के नीचे की वह गाँठ जहाँ दोनों नै मिलती हैं और जो फरशी या हुक्के के मुँह पर रहती है । ५. बीज । जैसे,— कमल गट्टा, सिंघाड़े का गट्टा । ६. एक प्रकार की मिठाई जो चीनी या शक्कर का तार खींचकर उसे गोल या चौकोर टुकड़ों में काटकर बनाई जाती है । ७. गाँठ । कंद । उ०— सौं गट्टे प्याज सौ जूतियों के साथ खायँगे ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १९१ ।
⋙ गट्टी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. जहाज या नाव में उस खंभे के नीचे की चूल जिसमें पाल बँधी रहती है ।—(लश०) । मुहा०—गट्टी करना = किसी खंभे में बँधी हुई पाल को चूल के सहारे घुमाना । २. नदी का किनारा ।
⋙ गट्ट †
संज्ञा पुं० [हिं० गट्टा] मुठिया । दस्ता ।
⋙ गट्ठर
संज्ञा पुं० [हिं० गाँठ] बड़ी गठरी गट्ठा । बोझा । मुहा०—गट्ठरसाधना = घुटनों को छाती से लगाकर और ऊपर से हाथ बाँधकर गट्ठर की तरह पानी में कूदना ।
⋙ गट्ठल
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँठ + ल (प्रत्य०)] गुट्ठल । गाँठ । उ०—बद्धी हाथ अधेड़ पिता, माता जी, सीर गट्ठल पक्का ।—आराधना पृ० ७४ ।
⋙ गट्ठा
संज्ञा पुं० [हिं० गाँठ] [स्त्री० अल्पा० गट्ठी, गठिया] १. घास लकड़ी आदि का बोझ । भार । गट्ठर । २. बड़ी गठरी । बुकचा । ३३ प्याज या लहसुन की गाँठ । जरीब का बीसवाँ भाग जो गजा का होता है । कट्ठा ।
⋙ गट्ठी
संज्ञा स्त्री० [ सं० ग्रन्यि, हिं० गाँठ] दे० 'गाँठ' ।
⋙ गठ पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० गढ] दे० 'गढ' । उ०—लंक बिधुंसी बानरा के; काई सराहो राजा गठ अजमेर ।— बीसल० रास पृ० ३३ ।
⋙ गठ (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] गाँठ का समासगत रूप । गाँठ । जैसे-गठकटा, गठजोरा आदि ।
⋙ गठकटा
वि० पुं० [हिं० गाँठ + काटना] १. गाँठ काटकर रुपए ले लेनेवाला । गिरहकट । उ०—बहुत अच्छा अरे गठकटे चल ।— शकुंतला, पृ० १२ ।२. धोखा देकर या बेईमानी से रुपया लेनेवाला ।
⋙ गठजोड़
संज्ञा पुं० [ हिं० गाँठ + जोड़ना] दे० 'गाँठजोड़ा' । उ०— मैं सोच रहा था कि बिना किसी आड़ंबर के जयती का और मेर गठजोड़ा करके कोई ब्राह्मण मंत्र पढ़ देता, बस ।— संयासी, पृ० ९२ ।
⋙ गठजोरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गाँठजोड़' । उ०— दूलह दुलहिन तुरँग हिंड़ोरै झूलत प्रथम समागम सो गठजोरै । नंद० ग्रं०, पृ० ३७८ ।
⋙ गठड़ंड़
संज्ञा पुं० [ हिं गड़्ढ़ा + ड़ंड़ = एक प्रकार की कसरत] एक प्रकार का डंड जो दो नों हाथों के बीच के स्थान में गड्ढा बानाकर किया जाता है । इस प्रकार डंड़ करने में अधिक परिश्रम करना पड़ता हैं ।
⋙ गठड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गठरी' । उ०—लोग लगे धमाधम गठड़ियाँ पटकने ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १११ ।
⋙ गठन
संज्ञा स्त्री० [सं० घटन अथवा सं० ग्रन्थन, प्रा० गंठन] बनावट ।
⋙ गठना
क्रि० अ० [सं० ग्रन्थन, प्रा० गंठन, हिं० गाँठना का अकर्मक रूप] १. दो वस्तुओं का परस्पर मिलकर एक होना । जुड़ना । सटना । जैसे,— ये दोनों पेड़ आपस में खूब गठ गए हैं । २. मोटी सिलाई होना । बड़े—बड़े टाँके लगन । जैसे,— जूता गठना । ३. बुनावट का दृढ़ होना । यौ०—गठा बदन = ऐसा हृष्ट पु्ष्ट शरीर जो बहुत अधिक मोटा न हो । गठी बखिया = एक प्रकार की बखिया जिसे पोस्तदाना भी कहते हैं । विशेष— इसमें पहले जिस स्थान पर सुई गड़ाकर आने की ओर निकालते हैं फिर उसी स्थान के पास ही उलटकर सुई गड़ाते और निकलने के पहलेवाले स्थान से कुछ और आगे बढ़ाकर निकालते हैं और इसी प्रकार बराबर सीते हुए चले जाते हैं । इसमें ऊपर की सिलाई एकहारी और नीचे की दोहरी होती हैं । दौड़ की बखिया में और इसमें केवल यही भेद है कि दौड़ की बखिया में केवल आधी दूर तक लौटकर सूई ड़ाली जाती है । ४. किसी पट्चक्र या गुप्य विचार में सहमत या संमिलित होना । जैसे,— अगर वह किसी तरह गठ जाय तो सब काम बनजाय । ५. अच्छी तरह निर्मित होना । भली भाँति रचा जाना । टीक टीक बताना । उ०— अंग अंग बनी मानो लिखी चित्र घनी गठी, निज मन मनी आजु बऐं भूप काम को ।— हनुमान (शब्द०) । ६. स्त्री पुरुष या नर मादा के संयोग होना । विषय होना । ७. अधिक मेल मिलाप होना । जैसे,— आजकल उन लोगों में खूब गटती हैं । संयो० क्रि०— जाना ।—पड़ना ।
⋙ गठबंध
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गठबंधन' ।
⋙ गठबंधन
संज्ञा पुं० [ सं० ग्रन्थिबन्थन, प्रा० गंठबंधन] विवाह में एक रीति जिसमें वर और बधू के वस्त्रों के छोर को परस्पर मिलाकर गाँठ बाँधते हैं ।
⋙ गठरो
संज्ञा स्त्री० [ हिं० गट्ठर का स्त्री० और अल्पा०] १. कपड़े में गाँठ देकर बांधा हुआ सामान । बड़ी पोटली । बकची । मुहा०— गठरी बाँधाना = (१) (असबाब बाँधकर) यात्रा की तौयारी करना । (२) पैरों और घुटनों को छाती से लगाकर और उन्हों दोंना हाथों से जकड़कर गठरी की आकृति बना लेना । गठरी साधना = दे० 'गट्ठर साधना' । गठरी कर देना = (१) हाथ पैर तोड़ या बाँधकर अथवा और किसी प्रकार बेकाम कर देना । ढेर करना । मारकर गिरा देना । (२) कुश्ती में बिपक्षी को इस प्रकार दोहर कर देना जिसमें उसकी आकृति गठरी के समान हो जाय । गठरी मारना = दे०' गठरी बाँधना (२)' । २. संचित धन । जमा की हुई दौलत । मुहा०— गठरी मारना = अनुचित रूप से किसी का धन ले लेना । ठगना । ३. एक प्रकार की तैराकी । विशेष— इसमें तैरनेवाला अपने पैरों और घुटनों को छाती से लगाकर और उन्हों दोनों हाथों से पकड़कर गठरी की सी आकृति बना लेता है और इस प्रकार तैरता रहता है ।
⋙ गठरीमुटरी
संज्ञा स्त्री० [ हिं० गठरी + मुटरी] गठरी में बँधा हुआ समान । उ०— यह गठरी मुटरी लेकर हाथी पर क्यों बैठेंगे ।— प्रभावती, पृ० १९५ ।
⋙ गठरेवाँ
संज्ञा पुं० [हिं० गाँठ] चौपायों का एक रोग । गलफुला । हाहा । विशेष— इस रोग में चौपाए को पहले ज्वर आता है फिर उसकी जाँघ, पसली और जीभ के नीचे और विशेषकर गले के नीचे सूजन हो जाती है । उसे साँस लेने में कष्ट होता है और वह चल फिर नहीं सकता । वह पैरों को जोड़कर खड़ा रहता है । यह छूत का रोग है और अचानक होता है । पशु इस रोग में विशेषकर मर जाते हैं । पहले लोगों का अनुमान था कि यह रोग सर्दी लगने या बदहजमी से होता है । पर अब ड़ाक्टरों ने यह निश्चय किया है कि यह रोग रक्त के विकार से कीटाणुओं द्वारा फैलता है । इस रोग में रोगी को बंद और गर्म, साफ सुथरे और सूखे स्थान में रखना चाहिए । खाने के लिये सूखे स्थान की घास, सूखा भूसा और जौ के आटे की लेई या गर्म माड़ उपयोगो है । इसे गलफुला और हाहा भी कहते हैं ।
⋙ गठवाँसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कट्ठा + अंश] गट्ठेया बिस्वे का बीसबाँ अंश । बिस्वांसी ।
⋙ गठवाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाठना] १. जूता गाँठना । २. जूता गाँठने की मजदूरी ।
⋙ गठवाना
क्रि० स० [हिं० गाठना] १. गठाना । सिलवान । जैसे,— जूता गटवाना । २. मोटी मोटी सिलाई करना । टाँका मरवाना । ३. जुड़वाना । जोड़ मिलवाना । ४. जोड़ा खिलाना । संयोग करना ।
⋙ गठा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० १. 'गट्ठा' ।
⋙ गठाना (१)
क्रि० म० [हिं० गाठना] १. गठवाना । सिलवाना । मोटी सिलाई करना । जैसे,—जूते गठाना । २. जोड़ मिलवाना ।
⋙ गठाना (२)
संज्ञा पुं० [हि० घुटना] वह जलस्थल जहाँ कम पानी हो (माँझी) ।
⋙ गठानी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का कर जो जमींदार असा— मियों से वसूल करता है ।
⋙ गठाव
संज्ञा पुं० [हि० गठना] गठन । बनावट ।
⋙ गठित
वि० [सं० घटित अथवा ग्रन्थित, प्रा० गंठित] गठा हुआ । बना हुआ ।
⋙ गठिबंध
संज्ञा पुं० [सं० ग्रंथिबंधन] गठबंधन । गठजोड़ा । उ०— बड़ि प्रतीति गठिबंध ते बड़ो जोग ते छेम । बड़ों सुसेवक साइँ ते बड़ो नेम ते प्रेम ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ गठिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँठाइया (प्रत्य०)] १. वह बोरा या दोहरा थैला जिसमें व्यापारी अन्न आदि भरकर घोड़े या बैल की पीठ पर लादते हैं । खुरजी । २. पोटली । छोटी गठरी ३. कोरे कपड़े के थानों की बँधी हुई बड़ी गठरी । ४. एक रोग जिसमें जाड़ों में विशेषकर घुटनों में सूजन और पीड़ होती है । विशेष—जिस अंग में यह रोग होता है वह अंग फैल नहीं सकता और जकड़ जाता है । इसमें कभी कभी ज्वर और सन्निपात भी हो जाता है जिससे रोग शीघ्र मर जाता है । वैद्यक में वायुविकार इसका कारण माना जाता है । उपदेश, सूजाक आदि के कारण भी एक प्रकार की गठिया हो जाती है । ५. पौधों या वृक्षों का एक रोग जिसमें ड़ालियों का बढ़ना बंद हो जाता है । विशेष—इसमें पत्तियाँ सिकुड़कर ऐंठ जाती हैं । नई पत्तियाँ धनी और परस्पर लिपटी हुई निकलती हैं । यद्यपि यह रोग आम आदि बड़े पेड़ों में भी होता है पर फसली पौधों में बहुत देखा जाता हैं । उरद, मूँग तथा कुम्हड़ा, कड़डी़, करैला आदि तरकारियों में यह रोग प्रायः लग जाता है ।
⋙ गठियाना †
क्रि० स० [ हिं० गांठ से नाम०] १. गाँठ देना । गाँठ लगाना । २. गाँठ में बाँधना । गाँठ में रखना उ०—आतम कर्म भाव गठियाना । बंधन आतम वेद बखोना ।—घट०, पृ० २८७ । मुहा०—किसी बात को गठिया रखना = किसी बात को निश्चय समझाना ।
⋙ गठिवन
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्यएर्ण] मध्यम आकार का एक पेड़ जिसकी ड़ालियाँ पतली होती है । विशेष—इसकी पत्तियों में स्थान स्थान पर गाँठें होती हैं । फूल नीले रंग के होते हैं । यह नैपाल की तराई में अधिक हेता । है । इसकी गोल गोल घुंड़ियाँ या कलियाँ औषध के काम में आती हैं और बाजार में गठिवन के नाम से बिकती हैं । काले रंग का गठिवन उत्तम, पांड़ु रंग का मध्यम और स्थूल निकृष्ट समझा जाता है । वैद्यक में इसे तीक्ष्ण, चरपर, गरम, अग्नि दीपक तथा कफ, वात, श्वास और दुर्गध को नाश करनेवाला माना है । शरीर पर इसका लेप करने से रुखाई आती है और खुजली दूर होती है ।
⋙ गठीला (१)
वि० [हिं० गाँठ + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० गठीला] गाँठवाला । जिसमें बहुत सी गाँठें हों । जैसे, यह छड़ी गठीली है ।
⋙ गठीला (२)
वि० [हिं० गठना] १. गठा हुआ । चुस्त । सुड़ौल । जैसे,— गठीला बदन । २. मजबूत । दृढ़ । अच्छा ।
⋙ गठुआ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गठुवा' ।
⋙ गठुरा †
संज्ञा पुं० [हिं० गाँठ] भूसे की गाँठ जो खलिहान में फेंक दी जाती है । विशेष—इसे बुंदेलखंड़ में गेठुआ और अवध में खूँटी कहते हैं ।
⋙ गठुवा
संज्ञा पुं० [ हिं० गाँठ + उवा (प्रत्य०)] १. कपड़े का वह टुकड़ा जिसे जुलाहे करघे में इसलिये रखते हैं कि उसके तागे से ताने के तागों को गठकर बुनने लिये चढ़ाएँ । २. भूसे के छोटे छोटे गाँठदार टुकड़े जो खलिहान में फेंक दिए जाते हैं । गेठुआ । गठुरा । खूँटीं ।
⋙ गठौंद
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँठ + बंध] १. गाँठ की बँधाई । गिरहबंदी । २. वह माल जो अलग बाँधकर अमानत की तरह रखा जाय । धरोहर । थाती ।
⋙ गठौत
संज्ञा स्त्री० [ हिं० गठ + औत (प्रत्य०)] १. मेल । मिलाप । मित्रता । घनिष्ठता । २. गठी गठाई बात । मिलकर पक्की की हुआ बात । आँट साँट । अभिसंधि । क्रि० प्र०—करना ।—गाँठना । ३. उपयुक्ततता । मौजूनियत ।
⋙ गठौती
संज्ञा स्त्री० [हिं० गठना] १. मेलजोल । मैत्री । घनिष्ठता । २. गठी गठाई बात । आँट साँट । अभिसंधि । षड़्चक्र । क्रि० प्र०—करना ।—गाँटना ।
⋙ गड़ंक
संज्ञा पुं० [ हि० गढ़ + अंग] दे० 'गड़ंग' ।
⋙ गड़ंग (१)
संज्ञा पुं० [ हिं० गढ़ + अंग] वह स्थान जहाँ बारूद, गोले और हथियार आदि रखे जाते हैं । मैगजीन ।
⋙ गड़ंग (२) †
संज्ञा पुं० [ सं० गर्वं पुं० हिं० गारो] [वि० गड़ंगिया] १. घमंड़ । शेखी । ड़ींग । २. आत्मश्लाघा । बड़ाई । मुहा०—गड़ंग मारना या हाँकना = (१) ड़ीग मारना । शेखी बघारना ।—बढ़ बढ़कर बाते करना । (२) अहंकार करना । शेखी करना ।
⋙ गड़गिया †
वि० [हिं० गड़ग + इया (प्रत्य०)] घमंड़ी । डींग मारनेवाला । शेखी बाज । बढ़ बढ़कर बात करनेवाला ।
⋙ गड़त
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाड़ना] वह वस्तु जिसे लोग टोटके या अभिचार के लिये गाड़ देते हैं । विशेष—तांत्रिक या प्रेतविद्या के जाननेवाले प्रायः मारण, मोहन और उच्चाटन आदि के लिये कुछ पदार्थों को मत्र पढ़कर किसी चौराहे में गाड़ देते हैं और इस गाड़ने को गड़ंत कहते हैं । यह गड़ंत कभी कभी आगंतुक दुःखों के निवारण के लिये भी की जाती है ।
⋙ गड
संज्ञा पुं० [सं०] १. ओट । आड़ । २. घेरा । चारदीवारी । ३. वह धुस्स या टीला जो किसी स्थान के चारों ओर बनाया जाय । ४. गड्ढ़ा । खाँई । ५. प्राकार । गढ़ । ६. एक प्रकार की मछली [को०] ।
⋙ गडक
संज्ञा पुं० [देश०, या सं० गड + क (प्रत्य०)] एक प्रकार की मछली ।
⋙ गड़क (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गड़कना] १. गड़गड़ शब्द करना (बादलों का) । २. गरजने या डाँटने की क्रिया या भाव ।
⋙ गड़क (२)
संज्ञा पुं० [अं० ग़र्क] डूवने या गर्क होने का भाव ।
⋙ गड़क (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गड़कना] गटक जाना । पचा जाना (ऋण, रुपया आदि) ।' क्रि० प्र०—लेना ।
⋙ गड़कना (१)
क्रि० अ० [अनु०] गड़ गड़ शब्द करना (बादलों का) । २. गरजना । डाँटना । डपटना ।
⋙ गड़कना (२) †
क्रि० अ० [अ० ग़र्क्र] १ डुबना । २. नष्ट होना ।
⋙ गड़कना (३)
क्रि० स० [हिं० गड़क] ऋण आदि का रुपया मार लेना । दे० 'गटकना' ।
⋙ गड़काना (१)
क्रि० स० [अनु० गड़ + क] १. गड़ गड़ शब्द उत्पन्न करना । गड़गड़ाना । २ डाँटना । ३. धमकाना । डराना ।
⋙ गड़काना (२)
क्रि० स० [अ० ग़र्क] डुबोना । शराबोर करना ।
⋙ गड़क्क †
संज्ञा पुं० [अ० ग़र्क़] डुबाव । २. डुबने का शब्द ।
⋙ गड़क्का †
संज्ञा पुं० [अ० ग़र्क] दे० 'गड़क्क' ।
⋙ गड़गड़
संज्ञा पुं० [अनु०] १. गड़गड़ शब्द जो हुक्का पीने के समय या सुराही से पानी उलटने के समय होता है । २. पेट में होनेवाला गड़गड़ शब्द ।
⋙ गड़ग़ज
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गरगज' ।
⋙ गड़गड़ा
संज्ञा पुं० [अनु०] १. एक प्रकार का हुक्का । २. बड़ा हुक्का ।
⋙ गड़गड़ाना (१)
क्रि० अ० [हिं० गड़गड़] गरजना । गड़गड़ गड़गड़ करना । कड़कना । जैसे,—आज सबेरे से बादल गड़गड़ा रहा है ।
⋙ गड़गड़ाना (२)
क्रि० सं० गड़गड़ बोलना । गड़गड़ शब्द निकालना । गुड़गुड़ाना । जैसे,—वे दिन भर बैठे बैठे हुक्का गड़गड़ाया करते हैं ।
⋙ गड़गड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० गड़गड़ाना] १. गड़गड़ाने का शब्द । गराड़ी घूमने, गाड़ी चलने या बादल गरजने आदि का शब्द । कड़क । २. हुक्का पीने का शब्द ।
⋙ गड़गड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गड़गड़] नगाड़ा । डुग्गी । उ०—ढोल दमामा गड़गड़ी शहनाई औ तूर । तीतों निकसि न बाहुरैं साधु सती औ सूर ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ गड़गूद़ड़
संज्ञा पुं० [अनु० गूदड़] चिथड़ा । लत्ता । उ०—लखनऊवालों का पहनावा जनाना है, पाजामे की मोहाड़ियाँ इतनी चौड़ी रखते हैं कि उठावें तो सिर तक पहुंचे और पगड़ियों का घेरा इतना बड़ा कि छतरी का भी काम न पड़े, बोझ में तो छोटी मोटी गठरी से कम न होगी, वरन् कहीं खुल जावे तो अंदर से गड़गूदड़ का ढेर इतना निकल पड़े कि एक टोकरी भरे ।—(शब्द०) ।
⋙ गड़च्चा
संज्ञा पुं० [देश०] १. धमकी । घुड़की । २. दबोच । ३. चकमा ।
⋙ गड़णहार †
वि० [सं० घटन + हिं० हार] गढ़नेवाला । मूर्तिकार । उ०—जे एइ मुरति साचि है तों गड़णाहारे खाउ ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३०५ ।
⋙ गड़दार
संज्ञा पुं० [हिं० गड़ + दार] वह नौकर जो मस्त हाथी के साथ साथ भाला लिए हुए चलता है और जब हाथी इधर उधर अपने मन से जाना चाहता है तब उसे भाले से मारकर राह पर ले चलता है । उ०—(क) अली चली नवला हिलै, पिय पै साजि सिंगार । ज्यों मतंग अड़दार को लिए जात गड़दार ।—मतिराम (शब्द०) । (ख) अरे ते गुसलखाने बीच ऐसे उमरा लै चले मनाय महाराज सिवराज को । दाबदार निरखि रिसानो दी दलराज जैसे गड़दार अड़दार गजराज को ।—भूषण (शब्द०) ।
⋙ गड़ना
क्रि० अ० [सं० गर्त, प्रा०, गड्ड = गड्ढा] १. धँसना । घुसना । चुभना । जैसे,—काँटा गड़ना । उ०—खरकै छबि आनि गड़ी उर में नृप रावन मैन रमैं कलकै ।—गुमान (शब्द०) । २. शरीर में चुभने की सी पीड़ा पहुँचाना । खुरखुरा लगना । जैसे,—पीठ के नीचे कंकड़ गड़ रहे हैं । ३. दर्द करना । पीड़ित होना । विशेष—इस अर्थ में 'गड़ना' केवल 'आँख' और 'पेट' के साथ आता है । जैसे,—आँख गड़ रही है । पेट गड़ता है । ४. मिट्टी आदि के नीचे दबना । दफन होना । नीचे पड़ जाना । जैसे,—जमीन में गड़े पत्थर निकाल लो । मुहा०—गड़े मुर्दे उखाड़ना = दबारबाई या पुरानी बात उभाड़ना । ५. समाना । पैठना । उ०—क्यों न गड़ि जाहु गाड़ गहिरी गड़त जिन्हैं गोरी गुरुजन लाज निगड़ गड़ाइती ।—देव (शब्द०) । मुहा०—गड़ जाना =झेंपना । लज्जित होना । लजाना । जैसे,— तुम तो बेहया हो दूसरा कोई होता तो गड़ जाता । लज्जा ग्लानि आदि से गड़ना = लज्जा आदि से दृष्टि नीची करना । उ०—देखि भरत गति सुनि मृदुबानी । सब सेवक गन गरहिं गलानी ।—तुलसी (शब्द०) । ६. खड़ा होना । भूमि पर ठहरना । जमीन पकड़ना । जैसे,— झंडा गड़ना, खीमा गड़ना । उ०—भुलेहू गाहि विलोकत ही गड़ि गाढ़े रहें आति ही दृग दू पर ।—(शब्द०) ।७. जमना । स्थिर होना । डटना । ठहरना । स्तंभित होना । जैसे—(क) उनकी आँख वहाँ गड़ी है । (ख) तुम तो जहाँ जाते हो वहाँ गड़ जाते हो । उ०—प्यारी कुच श्यामता डीठ गड़ी श्यामता पै कहैं हनुमान इन काहू को न चीन्ही है । (शब्द०) ।
⋙ गड़पंख
संज्ञा पुं० [सं० गरुड़ + हिं पख] १. एक बड़ी चिड़िया । २. लड़कों का एक खेल जिसमें वे किसी लड़के से यह कहकर कि तुम्हें उड़ना सिखावेंगे उनके हाथ पैर डंडों में बाँध देते हैं और धोती खोल देते हैं । मुहा०—गड़पख बनाना = मूर्ख बनाना । बेवकूफ बनाना ।
⋙ गड़प
सज्ञा स्त्री० [अनु०] पानी कोचड़ आदि में किसी वस्तु के सहसा समाने का शब्द । जैसे,—उसका पैर गड़प से पानी में चला गया । मुहा०—गड़प से = (१) गड़प शब्द करके (पानी आदि में एकबारगी पड़ जाना ।) (२) तुरत । शीघ्र । विशेष—खट, चट आदि अनुकरण शब्दों के समान प्रकार सूचित करने के लिये इस शब्द के साथ भी प्रायः 'से' आता है ।
⋙ गड़पना
क्रि० स० [अनु० गड़प] १. निकलना । खा लेना । २. किसी की चीज हजम करना । किसी की वस्तु पर अनुचित अधिकार करना ।
⋙ गड़प्पा
संज्ञा पुं० [हिं० गाड़] १. भारी गड़्ढा जिसमें कोई वस्तु झट से चली जाय या गिर पड़े । २. धोखा खाने का स्थान ।
⋙ गड़बड़ (१)
वि० [हिं गड़ = गड्ढा + बड़ = बड़ा, ऊचाँ] [वि० गड़- बड़िया] १. ऊँचा नीचा । असमतल । जैसे,—गड़बड़ रास्ते से मत चलो । २. क्रमविहीन । अस्तव्यस्त । अंडबंड । ऊटपटाँग । अनियमित । बेठिकाने का । बेठीक । जैसे,—उसका सब काम गड़बड़ होता है ।
⋙ गड़बड़ (२)पु
संज्ञा पुं० [देशी गडवड] १. क्रमभंग । गोलमाल । ऊटपटाँग कार्रवाई । नियमविरुद्ध कार्य । अव्यवस्था । कुप्रबंध । जैसे,—हमने सब ठीक कर दिया है, अब इसमें गड़— बड़ मत करना । यौ०—गड़बड़घोटाला=दे० 'गड़बड़झाला' । गड़बड़झाला = क्रमभंग । गोलमाल । अव्यवस्था । ऊटपटाँग काम । गड़बड़ा- ध्याय = दे० 'गड़बड़झाला' । २. उपद्रव । दंगा । जैसे,—यहाँ गड़बड़ मत करो, चलो । क्रि० प्र०—करना ।—मचना ।—होना । ३. (रोग आदि का) उपद्रव । आपात्ति । जैसे,—शहर में आज— कल बड़ा गड़बड़ है, मत जाओ । विशेष—कोई कोई इस शब्द को स्त्रीलिंग भी बोलते हैं ।
⋙ गड़बड़ा
संज्ञा पुं० [सं०गर्त्त, प्रा० गड्ड] खत्ता । गड्ढा ।
⋙ गड़बड़ाना (१)
क्रि० अ० [हिं गड़बड़] १. गड़बड़ी में पड़ना । चक्कर में आना । क्रम का ध्यान न होना । भूल में पड़ना । जैसे,—थोड़ी दूर तक तो उसने ठीक ठीक पढ़ा, पीछे गड़बड़ा गया । २. क्रमभ्रष्ट होना । अव्यवस्थित होना । २. अस्त- व्यस्त होना । बिगड़ना । नष्ट होना । जैसे,—वहाँ का सब मामला गड़बड़ा गया ।
⋙ गड़बड़ाना (२)
क्रि० स० १. गड़बड़ी में डालना । चक्कर में डालना । २. भ्रम में डालना । भुलवान । २. क्रम भ्रष्ट करना । अस्त व्यस्त करना । अंड़बंड करना । बिगाड़ना । खराब करना ।
⋙ गड़बड़िया
वि० [हिं० गड़बड़ + इया(प्रत्य०)] गड़बड़ करने वाला । क्रम बिगाड़नेवाला । उपद्रव करनेवाला ।
⋙ गड़बड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गड़बड़] अव्यवस्था । गोलमाल । दे० 'गड़बड़' ।
⋙ गडयंत, गडयित्रु
संज्ञा पुं० [सं० गडयन्त; सं० अथवा (अनु० गड्गड् शब्द करनेवाला)] बादल [को०] ।
⋙ गड़रा तवा
संज्ञा पुं० [देश० गड़रा = गाढ़ा + हिं० तवा] एक प्रकार का लोहा जो पहले मध्य भारत में निकलता था ।
⋙ गड़रिया
संज्ञा पुं० [सं० गड्डरिक, प्रा० गड़डरिअ] [स्त्री० गडे़रिन] एक जाति जो भेड़ें पालती और उनके ऊन से कंबल बुनती हैं । दे० 'गड़ेरिया' । यौ०—गड़रिया पुरान = अहीर गड़ेरियों की कहानी । गँवारों की बात ।
⋙ गड़री
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गेंड़ली', 'गेंडुरी' ।
⋙ गड़रू
संज्ञा पुं० [हिं] दे० 'गुड़रू' ।
⋙ गड़लवण
संज्ञा पुं० [सं० गर्तलवण या गड + लवण] वह नमक जो झीलों से, विशेषकर साँभर से, निकलता है । साँभर लवण ।
⋙ ग़ड़बाँत
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाड़ी + वाट] गाड़ी के पहिए का चिह्न । लीक । लकीर ।
⋙ गड़वा (१) †
संज्ञा पुं० [स० गर्त] दे० 'गाड़ा' ।
⋙ गड़वा (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० गेरना] दे० 'गड़ुवा' । उ०—(क) सोने के गड़वा दूध से भरिया पिवे नारायण आगे धरिया । दक्खिनी०, पृ० १९ । (ख) जो कोउ राम बिनी नर मुरख औरन के गुन जीभ भनैगी । आनि क्रिया गड़वा पुनि होत है भेरि कछू न बनैगी ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४६१ ।
⋙ गड़वाट
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाड़ना] १. जमीन में गाड़ने की क्रिया । २. गड़ढा खोदने का काम ।
⋙ गड़वाना
क्रि० स० [हिं † गड़ना का प्रे० रूप] गाड़ने का काम कराना । गाड़ने में लगाना ।
⋙ गड़हरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोड़] १. लात । २. जूता ।
⋙ गड़हा
संज्ञा पुं० [सं० गर्त, प्रा० गड्ढ] [स्त्री० अल्पा० गड़ही] वह जमीन जो अपनी आसपास की चारों ओर की जमीन से एक- बारगी गहरी या नीची हो । जमीन में वह खाली स्थान जिसमें लंबाई, चौड़ाई और गहराई हो । खाता । गड्ढा । खड्ड । क्रि० प्र०—करना ।-खोदना ।-भरना ।-होना । मुहा०—गड़हा पड़ना = गड़हा होना । जैसे,—वहाँ की मिट्टी वह जाने से जगह जगह गड़हे पड़ गए हैं । गड़हा खोदना = बुराई करना । हानि पहुँचाना । जैसे,—तुमने जो हमारे लिये गड़हा खोदा है उसका फल तुम्हें मिल जाएगा । गड़हा भरना या पाटना = (१) टोटा भरना । कमी या घाट पूरा करना । जैसे,—वह तो खा पकाकर चलते बने, गड़हा भरने को हम रह गए । (२) रूखी सूखी से पेट भरना । भली बुरी से पेट भरना । जैसे,—क्या करें पेट नहीं मानता, किसी तरह गड़हा भरना ही पड़ता है । गड़हे में पड़ना = असमंजस में पड़ना । फेर में पड़ना । कठिनाई में पड़ना ।
⋙ गड़ही
संज्ञा स्त्री० [हिं० गड़हा] छोटा गड़हा उ०—घर की गंगा गड़ही बरोबर ।—किन्नर,पृ० ७७ ।
⋙ गड़ा
संज्ञा पुं० [सं० गण = समूह] १. ढेर । राशि । अटाला । अंबार । २. काटी हुई फसल के डंठलों का ढेर जो दाएँ जाने के लिये खलिहान में रखा हो । गाँज । खरही । यौ०—गाड़बटाई ।
⋙ गड़ाकू
संज्ञा स्त्री० [सं० गल] एक प्रकार की मछली ।
⋙ गड़ाड़
संज्ञा स्त्री० [सं० गर्तः] विशाल गड्ढा । गार । उ०—कीया गड़ाड़ अंत किछु नाहीं ।—प्राण०, पृ० ४३ ।
⋙ गड़ान
संज्ञा पुं० [हिं गड़ना] चुभन । उ०—हृदय में तृप्ति की एक विचित्र गड़ान थी ।—ज्ञानदान, पृ० १५५ ।
⋙ गड़ाना (१)
क्रि० स० [हिं० गड़ना] चुभाना । धँसाना । भोंकना ।
⋙ गड़ाना (२)
क्रि० स० [हिं० 'गाड़ना' का प्रे० रूप] गाड़ने में लगाना । गाड़ने का काम कराना ।
⋙ गड़ाप (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] पानी आदि में किसी भारी चीज के डूबने का शब्द । जैसे,—पैर गड़ाप से पानी में चला गया ।
⋙ गड़ाप (२) †
क्रि० वि० सहसा । यकबयक । अचानक ।
⋙ गड़ापा
संज्ञा पुं० [हिं० गड़ाप] गड़ाप से डूबने लायक स्थान । गहरा स्थान ।
⋙ गड़ाबटाई
संज्ञा स्त्री० [हि० गड़ा = ढेर + बँटाई] खेत की उपज की बँटाई जिसमें बिना दाँई हुई फसल के भाग लगाए जाते हैं । वह बँटाई जिसमें फसल दाएँ जाने के पहले डंठल सहित बाँटी जाय ।
⋙ गड़ायत †
वि० [हिं० गड़ना] [वि० संज्ञा गड़ायती] गड़नेवाला । चुभनेवाला । उ०—क्यों न गड़ि जाहु गाड़ गहिरी गड़ति जिन्है गोरी गुरुजन लाज निगड़ गड़ायती ।—देव (शब्द०) ।
⋙ गड़ारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्डल] १. मंडलाकार रेखा । गोल लकीर । वृत्त । २. घेरा । मंडल । जैसे,—गड़ारीदार पायजामा ।
⋙ गड़ारी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गणड = चिह्न] आड़ी धारी । आड़ी लकीरों की पंक्ति । गंड़ा । जैसे,—कनखजूरे की पीठ पर या रुपए की औंठ पर जो धारियाँ होती हैं, वे गड़ारियाँ कहलाती हैं ।
⋙ गड़ारी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्डली] १. गोल चरखी जिसपर रस्सी चढ़ाकर कुएँ से पानी खींचते हैं । घिरनी । २. घिरनी के बीच का गहरा गड्ढा जिसमें रस्सी बैठाई जाती है । ३. एक घास जिसका साग बनाया जाता है ।
⋙ गड़ारीदार
वि० [गडारी + फा० दार] १. जिसपर गंड़े वा धारियाँ पड़ी हों । जैसे,—गड़ारीदार रुपया, गड़ारीदार कसीदा । २. जिसमें गड़ारी जैसा लंबा गड़ढा हो । ३. घेरेदार । यो०—गड़ारीदार पायजामा = चौडी़ मोहरी का पायजामा ।
⋙ गड़ावन
संज्ञा पुं० [सं० गडलवण] एक प्रकार का नमक । गड़लवण ।
⋙ गड़ासा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गँड़ासा' ।
⋙ गड़ि
संज्ञा पुं० [सं०] १. बछड़ा । २. मट्ठर बैल ।
⋙ गडियार
वि० [हिं० गरियार] दे० 'गरियार' ।
⋙ गडु
संज्ञा पुं० [सं०] १. बतोरी । कूबड़ा २. गलगंड़ । ३. गड़ुआ (को०) । ३. कुंत । भाला । बरछी (को०) । वह जिसे कूबड़ हो (को०) । ५. केचुआ (को०) । ६. निरर्थक वस्तु (को०) ।
⋙ गड़ुआ
संज्ञा पुं० [सं० गड़ुवा, प्रा० गडुअ] [स्त्री० गडुई] दे० 'गडुवा' ।
⋙ गडुई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गडुवा] पानी पीने के एक छोटा बरतन जिसमें टोंटी लगी रहती है । गह गडुवे से छोटी होती है । झारी ।
⋙ गडुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गड़ुवा । २. मुँदरी । अंगूठी [को०] ।
⋙ गडुर
संज्ञा पुं० वि० [सं०] दे० 'गडुल' ।
⋙ गडुरी
संज्ञा स्त्री० [?] एक प्रकार का पक्षी जिसे गेडुरी भी कहते हैं ।—उ०—पीव पी० कर लाग पपीहा । तुही तुही कर गडुरी जीहा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गडुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कुबड़ा आदमी ।
⋙ गडुल (२)
वि० कुबड़ा । कुब्ज । कूबड़वाला ।
⋙ गडुलबा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गड़ोलना' ।
⋙ गड़ुवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० गडुक] वह लोटा जिसमें पानी गिराने के लिये बत्तख का गर्दन के आकार की एक पतली टोंटी लगी रहती है । तमहा । उ०—(क) गड़ुवन हीर पदारथ लागे । देखि विमोहे पुरुष सभागे ।—जायसे (शब्द०) । (ख) हमारे चौपदे कुछ कड़वे होवें मगर वे हितजल के गड़वे हैं ।—चुभते० (भू०), पृ० ८ ।
⋙ गड़ुवा (२)
संज्ञा पुं० सरसों के फूलों का गुच्छा या गुलदस्ता जिसे गड़ुवे में रखकर वसंत के दिन लोग मंदिरों में चढ़ाने या बड़े आदमियों को भेंट करने लिये जाते हैं ।
⋙ गडेर
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ । बादल [को०] ।
⋙ गड़ेरिया
संज्ञा पुं० [सं० गड़डरिक, पा० गड्डारिअ] [स्त्री० गड़ेरिन] एक जाति जो भेंड़े पालती और उनके ऊन से कंबल बुनती है ।
⋙ गड़ेरुआ
संज्ञा पुं० [सं० गणडोल = ग्रास] एक रोग जिसमें चौपाए के गले में एक गोला सा बन जाता है, जिसके कारण वह खाँसता रहता है । विशेष—यह गोला जबतक जौपाए के गले से बाहर नहीं निकल जाता या टूटकर अंदर नहीं सरक जाता, तबतक वह ढाँसा करता है चौपाएँ एक दूसरे को चाटते हैं; इससे चाटने में उनके गले के अंदर कुछ रोएँ चले जातें हैं । जो एक दूसरे से चिपटतें जातें और उनपर घास भूसे की तह भी जामती जाती है । अंत में होते होते गोंद सा एक गोला बन जाता है ।
⋙ गड़ोना
क्रि० स० [हिं० गड़ाना] चुभाना । धँसाना । घुसेड़ना ।
⋙ गंडोल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रास । कौर । २. गुड़ ।
⋙ गडोलना
संज्ञा पुं० [हिं० गाड़ी+ओला, ओलना (प्रत्य०)] छोटी गाड़ी जिसमें बच्चों को चढ़ाकर फिराते हैं ।
⋙ गड़ौना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गड़ (गाड़ना)+औना (प्रत्य०)] पान की एक जाती ।
⋙ गड़ौना (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं०गड़ना] काँटा । उ० = सुनि तुम्हार संसार बड़ौना । जोग लीन्ह तन कीन्ह गड़ौना । = जायसी (शब्द०) ।
⋙ गड्ड (१)
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० गड़डी] एक ही आकार की ऐसी वस्तुओं को समूह जो एक के ऊपर एक जमाकर रखी हों । गंज । जैसे,—ताश का गड्ड । कागज का गडड । मुहा०—गड्ड का गड्ड = ढेर का ढेर । बहुत सा ।
⋙ गड्ड (२) †
संज्ञ पुं० [सं० गर्त्त = गड्डा] गड्ढा । खंता ।
⋙ गड्डना पु
क्रि० स० [हिं० गाड़ना] गाड़ना । उ०—भूगवैति कोई गड्डैति कोई कोइक पढ़ कोइ लंभवै ।—पृ० रा०; २४ । २४ ।
⋙ गड्डबड्ड (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गड्ड+अनु० बड्ड] बेमेल की मिलावट । क्रमशून्य मिश्रण । घालमेल । घपला । जैसे,—मैंने अभी सब पत्रे छाँटकर अलग किए थे; उसने आकर सब गड्डबड्ड कर दिया ।
⋙ गड्डबड्ड (२)
वि० बिना किसी क्रम के । मिलाजुला । अंडबंड । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ गड्डमड्ड
संज्ञा पुं०, वि० [हिं० गड्ड+अनु० मड्ड] दे० 'गड्डबड्ड' ।
⋙ गड्डर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० गड्डरी] [वि० गड्डरिक] मेढ़ा । मेष ।
⋙ गड्डरिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गड़ेरिया ।
⋙ गड्डरिक (२)
वि० १. भेड़ का । भेड़ संबंधी । २. भेड़ के ऐसा । यौ०—गड्डरिक प्रवाह = एक के पीछे दूसरे का गमन । भेड़िया- धसान । अंधानुसरण ।
⋙ गड्डरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मेड़ी की पंक्ति या श्रेणी । २. त ता । अखंडगति । अविच्छिन्न धारा । यौ०—गड्डरिका प्रवाह दे० 'गड्डरिक प्रवाह' ।
⋙ गड्डलिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गड्डरिक' ।
⋙ गड्डलिका
संज्ञा स्त्री० दे० 'गड्डरिका' । यौ०—गड्डलिका प्रवाह = दे० 'गड्डरिक प्रवाह' ।
⋙ गड्डाम
वि० [अं० गाँड+डैम] लुच्चा । बदमाश । पोजी । नारकीय ।
⋙ गड्डामियर, गड्डामियरी
वि० [हिं० गड्डामी] [वि० स्त्री०गड्डामि- यरी] पाजियों का सा । लुच्चों का सा । जैसे, गड्डामियरी पोशाक ।—प्रेमघन०, पृ० २५२ ।
⋙ गड्डामी
वि० [अं गाँड+उचाम+ई] नीच । लुच्चा । बदमाश । पाजी । यौ—गड्डामी जूता = अंग्रेजी जूता । बूट । गड्डामी बोली = अंग्रेजों की बोली ।
⋙ गड्डी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गड्ड] १. एक ही आकार की ऐसी वस्तुओं का ढेर जो तले—ऊपर रखी हों । गंज । जैसे,—कागज की ऐसी गड्डी । ताश की गड्डी । पान की गड़्डी । २. ढेर । समूह । गाँज । जैसे,—आमों की गड्डी ।
⋙ गड्डुक, गड्डूक
संज्ञा पुं० [सं०] गडुवा । झारी [को०] ।
⋙ गड्ढा (१)
संज्ञा पुं० [सं० गर्त, प्रा० गड्ड] दे० 'गड़हा' ।
⋙ गड्ढा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गाड़ा या गाड़ी] १. बैलगाड़ी । छकड़ा । २. लकड़ी आदि का बड़ा पूला या गट्टा । ३. रेशम या सूत आदि का गट्ठा ।
⋙ गढ़ंत (१)
वि० [हिं० गढ़ना] कल्पित । बनावटी (बात) । जैसे,— तुम्हारी गढ़ंत बातों पर कौन विश्वास करे ।
⋙ गढ़ंत (२)
संज्ञा स्त्री० १. बनावटी बात । कल्पित प्रसंग । मन की उपज । उ०—(क) ये आख्यायिकाएँ मन की गढ़ंत नहीं हैं, सर्वथा सत्य हैं ।—सरस्वती (शब्द०) । (ख) अभी चार दिन ही की बात है कि निवासीराम कायस्थ की गढ़ंत पर कैसा लंबा चौड़ा दस्तखत हमने कर दिया है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ८२५ । २. कुश्ती के तीन भेदों में से एक । विशेष—यह कुश्ती भैसे, हाथी और भेड़े आदि की लड़ाई का अनुकरण है । पंजाबी और मथुरा के चौबै प्रायः गढ़ंत कुश्ती लड़ते हैं ।
⋙ गढ़
संज्ञा पुं० [सं० गड़ = खाँई] [स्त्री० अल्पा० गढ़ी] १. खाँई । २. किला । कोट । उ०—गढ़ पर बसहिं चार गढ़पती ।— जायसी (शब्द०) । मुहा० = गढ़ जीतना या गढ़ तोड़ना = (१) किला जीतना । किले पर अधिकार करना । (२) कठिन काम करना । जैसे,—कौन सा गढ़ तोड़ना था जो इतनी देर लगी । (३) प्रथम समागम में कृतकार्य होना ।—(बाजारी) । ३. युद्ध की सामग्री में लकड़ी का एक बड़ा संदूका या कोठरी । दबाबा । विशेष—इसमें कुछ आदमियों को बैठाकर किले में डाल देते हैं । वे लोग उसमें बैठे हुए सुरंग खोदते हैं ।
⋙ गढ़कप्तान
संज्ञा पुं० [हिं० गढ़+अं० क्रैप्टन >हिं० कप्तान] किले की फौज का अफसर । किलेदार ।
⋙ गढ़त
संज्ञा स्त्री० [हिं० गढ़ना] बनावट । ढाँचा । रचना । आकृति ।
⋙ गड़न
संज्ञा स्त्री० [हिं० गढ़ना] बनावट । गठन । जैसे,—उसके मुँह की गढ़न बड़ी लुभावनी है ।
⋙ गढ़ना (१)
क्रि० स० [सं० घटन, प्रा० घडन] १. किसी सामग्री की काट छाँट या ठोंक ठाँककर कोई काम की वस्तु बनाना । सुघाटित करना । रचना । जैसे, = (क) सोनार दूकान पर गहने गढ़ता है । (ख) गढ़े कुम्हार, भरे संसार । उ०—तुलसी रही है ठाढ़ी, पाहन गड़ी सी काढ़ी; न जानै कहाँ ते आई कौन की को ही ।—तुलसी (शब्द०) । २. ठोंक ठाँककर सुडौल करना । तोड़कर या छील छालकर दुरुस्त करना । जैसे—इसमें गढ़ गढ़कर ईटें लगाई जायँगी । ३. बात बनाना । कपोल—कल्पना करना । झूठमूठ की बात खड़ी करना । जैसे,—गढ़ी हुई बात । बहाना गढ़ना । कथा गढ़ना, इत्यादि । मुहा०—गढ़ गढ़कर बातें करना या बनाना = झूठमूठ की कल्पना करके बात कहना । नमक मिर्च लगाकर बातें करना । उ०— तू मोही को मारन जानति । उनके चरित कहा कोउ जानै, उनहिं कही तू मानति । कदम तीर के मोहि बुलायो गढ़ि गढ़ि बातैं बानाति । मटकति गिरी गागरी सिर ते अब ऐसी बुधि ठानति ।—सूर (शब्द०) । गढ़ छोलकर बोलना = नमक मिर्च लगाकर कहना । सजा सवाँरकर कहना । उ०—सजि प्रतीति बहुविधि गढ़ि छोली । अवध साढ़साती तब बोली ।— मानस, २ । १७ । ४. मारना । पीटना । ठोंकना । जैसे,—तुम खूब गढ़ जाओगे, तब मानोगे ।
⋙ गढ़ना (२)
क्रि० स० [सं० घटन] प्रस्तुत करना । उपस्थित करना । उ०—आछै सँजोग गोसाईं गढ़े ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ गढ़पत †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गढ़पति' । उ०—गढ़पत सूरसाह तिण गादी । एको छत्र धरा आराधी ।—रा० रू, पृ० १५ ।
⋙ गढ़पति
संज्ञा पुं० [हिं० गढ़+पति] १. किलेदार । उ०—गढ़पर बसैं चार गढ़रती । असुपति गजपति भू नरपती ।—जायसी (शब्द०) । जौलौं गढ़पति जगे नाहीं ।—कबीर सा०, पृ० २१७ । २. राजा । सरदार ।
⋙ गढ़पाल
संज्ञा पुं० [हिं० गढ़+पाल] दे० 'गढ़पति' ।
⋙ गढ़वना पु
क्रि अ० [सं० गढ़ = किला] १. किले में जाना । २. रक्षित स्थान में पहुँचना । उ०—रहि न सकी सब जगत में सिसिरसीत कैं त्रास । गरम भाजि गढ़वै भई तिय कुच अचल मवास ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ गढ़वा †
संज्ञा पुं० [देश०] चारण । उ०—जिम नोगुण अवनी अमर, जिम हिरणंखी हार । दुम गढ़वा बाँधा गलै, जेहल राज— कुँवार ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ६ ।
⋙ गढ़वाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गढ़ाई' ।
⋙ गढ़वाना
क्रि० स० [हिं० गढ़ना का प्रे० रूप] गढ़ने का काम दूसरे से कराना ।
⋙ गढ़वार पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गढ़वाल' ।
⋙ गढ़वाल (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गढ़+सं० पाल, प्रा० वाल] वह जिसके अधिकार में गढ़ हो । गढ़वाला ।
⋙ गढ़वाल (२)
संज्ञा पुं० एक जनपद का नाम जो उत्तर प्रदेश के हिमालय या उत्तराखंड में हरद्वार के उत्तर में पड़ता है । बदरीनाथ और केदारनाथ नामक तीर्थ इसी जनपद में हैं । यहाँ की बोली गढ़वाली कही जाती है ।
⋙ गढ़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गड़हा' ।
⋙ गढ़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गढ़ना] १. गढ़ने की क्रिया । गढ़ने का काम । २. वह मजदूरी जो सोनारों, बढ़इयों आदि को कोई चीज बनाने के बदले में दी जाती है । गढ़ने की मजदूरी ।
⋙ गढ़ाना (१)
क्रि० स० [हिं० गढ़ना का प्रे० रूप] गढ़ने का काम कराना । गढ़वाना । बनवाना ।
⋙ गढ़ाना (२) †
क्रि० अ० [हिं० गाढ़ = कठिन] कष्टकर प्रतीत होना । मुश्किल गुजरना । बुरा लगना । खलना । जैसे,—बिना काम के किसी के घर जाना बड़ा गढ़ाता है ।
⋙ गढ़ास पु
संज्ञा पुं० [हिं० गढ़+आस (प्रत्य०)] गढ़न । उ०—जहाँ शुभ अशुभ करम को गढ़ास तहाँ मोह के बिलास में अंधेर कूप है ।—सुंदर ग्रं० (जी०), पृ० १०० ।
⋙ गढ़िया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गढ़ना] गढ़नेवाला । उ०—और कविं गढ़िया नंददास जड़िया ।—इतिहास, पृ० १०४ ।
⋙ गढ़िया (२)
वि० [सं० गाढ़] स्थिर । दृढ़ । सत्य । उ०—दादू झूठा जीव है गढ़िया गोविद बैन । मनसा मूँगी पटव सौं सुरज सरीखे नैन ।—दादू०, पृ० १५१ ।
⋙ गढ़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गढ़] १. छोटा किला । २. किले या कोट के ढ़ंग का मजबूत मकान । जैसे,—हनुमानगढ़ी ।
⋙ गढ़ीस पु
वि० [हिं० गढ़+सं० ईश] गढ़ का मालिक । किलेदार । गढ़पति । उ०—सोभा सुमेरु की संधितटी किधौं मैन मवास गढ़ीस की घाटी ।—आनंदघन (शब्द०) ।
⋙ गढ़ैया
वि० [हिं० गढ़ना] गढ़नेवाला । बनानेवाला । रचनेवाला । उ०—(क) पठयो है छपद छबीले कान्ह कैहूँ कैहूँ खोजिये खवास खासो कूबरी से बाल को । ज्ञान को गढ़ैया बिनु गिरा को पढ़ैया बार खाल को कढ़ैया सो बढ़ैया उर साल को ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) आनि धरयो नंद द्वार, अति ही सुँदर सुढार, ब्रजबधू देखै बार बार, सोभा नहिं बार पार धनि धनि धन्य है गढ़ैया—सूर (शब्द०) ।
⋙ गढ़ोई पु
संज्ञा पुं० [हिं० गढ़] किलेदार । गढ़पति ।
⋙ गढ़्ढ पु
संज्ञा पुं० [हिं० गाढ़] कठिनता । गाढ़ । विपत्ति । कष्ट । उ०—सो अठिठाय हम नेम सुदृढ्ढं । तुम अवस्य आओ प्रभु गढ्ढं ।—पृ० रा०, २५ । २०४ ।
⋙ गण
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह । झुंड । जत्था । २. श्रेशी । जाति । कोटि । ३. ऐसे मनुष्यों का समुदाय जिनमें किसी विषय में समानता हो । ४. जैनशास्त्रानुसार एक स्थविर या आचार्य के शिष्य । महावीर स्वामी के शिष्य । २. वह स्थान जहाँ कोई स्थविर अपने शिष्यों को शिक्षा देता हुआ रहता हो । ६. सेना का वह भाग जिसमें तीन गुल्म अर्थात् २७ हाथी, २७ रथ, ८१ घोड़े और १३५ पैदल हों । ७. नक्षत्रों की तीन कोटियों में से एक । विशेष—फलित ज्योतिप के अनुसार नक्षत्रों के तीन गण हैं—देव, मनुष्य और राक्षस । अश्विनी, रेवती, पुष्य, स्वाती, हस्त, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा और श्रवण नक्षत्र देव गण हैं । पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तरा- षाढ़, उत्तरभाद्रपद, भरणी, आर्द्रा और रोहिणी मनुष्य गण हैं और शेष चित्रा, मघा, विशाखा, ज्येठा, अश्लेषा और कृत्तिका राक्षस गण हैं । ८. छंदःशास्त्र में तीन वर्णों का समूह । विशेष—लघु गुरु के क्रम के अनुसार गण ८ माने गए हैं, यथा— मगण—५५५ (गुरु गुरु गुरु) जैसे, माधो जू । यगण—१५५ (लघु गुरु गुरु) जैसे, सुनो रे । रगण—५१५ (गुरु लघु गुरु) ,, राम को । सगण—११५ (लघु लघु गुरु) ,, सुमिरौ । तगण—५५१ (गुरु गुरु लघु) ,, आवास । जगण—१५१ (लघु गुरु लघु) ,, विमान । भगण—५११ (गुरु लघु लघु) ,, कारण । नगण—१११ (लघु लघु लघु) ,, सुजन । इनके अतिरिक्त ५ मात्रिक गण भी होते हैं; यथा— टगण—६ मात्राओं का । ठगण—५,, ,, डगण—४,, ,, ढगण—३,, ,, णगण—२,, ,, पर इनका प्रयोग प्राचीन ग्रंथों में ही मिलता है । ९. पाणिनीय व्याकरण में धातुओं और शब्दों के वे समूह जिनमें समान लोप, आगम, वर्णविकारादि हों । विशेष—ये दो प्रकार के हैं—एक धातु के गण, दूसरे शब्दों के । शब्दों के गण गणपाठ में है और धातुऔं के गण धातुपाठ में । धातुओं के प्रधान दस गण हैं—भ्वादि, अदादि, जुहोत्यादि या ह्वादि, दिवादि, स्वादि, तुदादि, रुधादि, तनादि क्रयादि, चुरादि । १०. शिव के पारिषद । प्रमथ । ११. दूत । सेवक । परिषद् । ड०—गणन समेत सती तहँ गई । तासों दक्ष बात नहिं कही ।—सूर (शब्द०) । १२. परिचारक वर्ग । अनुचरों का दल । १३. पक्षपाती । अनुयायी । जैसे,—ये सब उन्हीं के गण हैं; इनसे सावधान रहना । १. चोवा नामक सुगंध द्रव्य । १५. किसी विशेष कार्य के लिये संघटित समाज या संघ । जैसे,— व्यापारियों का गण, भिक्षुक, संन्यासियों का गण । १६. शासन करनेवाली जाति के मुखियों का मंडल । जैसे—मालवों का गण, क्षुद्रकों का गण । विशेष—प्राचीन काल में कहीं कहीं इस प्रकार के गणराज्य होते थे । मालवा में पहले मालवों का गणराज्य था जिनका संवत् पीछे विक्रम संवत् कहलाया ।
⋙ गणक
संज्ञा पुं० [सं] [स्त्री० गणकी] १. ज्योतिषी । २. गणना करनेवाला ।
⋙ गणककेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धूमकेतु जो तारापुंज के ऐसा दिखाई पड़ता है । बृहत्संहिता के अनुसार यह ब्रह्मा का पुत्र है । इस प्रकार के आठ धूमकेतु हैं ।
⋙ गणकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रवारुणी ।
⋙ गणणाना †
क्रि० अ० [हिंदी] चक्कर खाना । उ०—पड़े गणणय मुरझाय इल ऊपरै, पूर मंगल हुवां राषसां रूपरै ।—रघु० रू०, पृ० १८९ ।
⋙ गणतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० गणतन्त्र] वह राज्य या राष्ट्र जिसमें समस्त राज्यसत्ता जनसाधारण के हाथ में हो और वे सामूहिक रूप से या अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा शासन और न्याय का विधान करते हों । जनतंत्र । प्रजातंत्र । लोकतंत्र । अं० डेमोक्रेसी । यौ०—गणतंत्रवाद । गणतांत्रिक । गणतंत्रात्मक ।
⋙ गणत
संज्ञा स्त्री० [हिं०] गिनती । गणना । उ०—सुणि भरथरि इक शिष्या लीजै इसकी गणत न काई कीजै ।—प्राण०, पृ० ७७ ।
⋙ गणता
संज्ञा स्त्री० [हिं० गणना] गिनती । प्रतिष्ठा । उ०—गणता मेरी न गई । आई फिर ज्योति नई ।—आराधना, पृ० १४ ।
⋙ गणादीक्षी (१)
संज्ञा पुं० [सं० गणदीक्षिन्] वह यज्ञिक जो बहुतों का यज्ञ कराता हो ।
⋙ गणदीक्षी (२)
वि० १. बहुतों का यज्ञ करानेवाला । बहुयाजक । २. जो शिव या गणेश की दीक्षा ग्रहण करे । गणेशदीक्षित ।
⋙ गणदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] समूहचारी देवता । विशेष—ये एक प्रकार के देवता हैं जो समूह में रहते हैं । गण देवता नौ हैं—आदित्य १२, विश्वेदेवा १०, वसु ८, तुषित ३६, अभास्वर ६४, अनिल ४९, महाराजिक २२०, साध्य १२, रुद्र ११ ।
⋙ गणद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह धन जिसपर मनुष्यों के गण या समुदाय का समान अधिकार हो । सर्वसाधारण की संपात्ति ।
⋙ गणधर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के जैनाचार्य जो तीर्थंकरों के शिष्य होते हैं । ये लोग तीर्थंकरों के उपदेशों का संग्रह कर उन्हें आचारांग आदि बारह अंगों में विभक्त करते हैं और शिष्यों में उनका प्रचार करते हैं ।
⋙ गणन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० गणनीय, गणित, गणब] १. गिनना । २. गिनती ।
⋙ गणना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गिनती । शुमार । २. हिसाब । ३. संख्या । ४. केशव के मत से एक अलंकार जिसमें एक ही संख्या बार बार आई हो । जैसे,—(क) एक आत्मा चक्र रवि, एक शुक्र की दृष्टि । एकै दशन गणेश को, जानति सगरी सृष्टि । (ख) गंगामन गंगेश दृग ग्रीव रेख गुण लेखि । पावक काल त्रिशूल बलि, संध्या तीनि बिसेखि ।—(शब्द०) । यौ०—गणनापति = (१) गणपति । गर्णश । (२) अंक शास्त्र का ज्ञाता ।
⋙ गणनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. गणों का मालिक । २. गणेश । गजानन ३. शिव ।
⋙ गणानायक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० गणनायिका] १. गणेश । २. शिव । ३. गणों का स्वामी या मालिक [को०] ।
⋙ गणनायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा ।
⋙ गणनीय
वि० [सं०] १. गिनने योग्य । गिनती के योग्य । २. नामी । प्रसिद्ध । विख्यात ।
⋙ गणप
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश ।
⋙ गणपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. गणों का मालिक या स्वामी । २. गणेश । ३. शिव ।
⋙ गणपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] वह पर्वत जहाँ प्रथम या शिव के गण रहते हों । कैलास ।
⋙ गणपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक ग्रंथ का नाम जिसमें अष्टाध्यायी में आए हुए गणों के अंतर्गत शब्दों को प्रत्येक गण में दिखलाया है ।
⋙ गणपीठक
संज्ञा पुं० [सं०] सीना । छाती । वक्ष [को०] ।
⋙ गणमुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] गण या समूह का प्रधान । जातिप्रधान । मुखिया ।
⋙ गणराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह राज्य जो किसी एक राजा के अधीन न हो, बल्कि प्रजा में से चुने हुए मुखियों या गणों के द्वारा चलाया जाता हो । २. एक देश जो बृहत्संहिता के अनुसार उत्तराफाल्गुनी, हस्त और चित्रा के अधिकार में है ।
⋙ गणरूप
संज्ञा पुं० [सं०] आक । मदार (को०) ।
⋙ गणवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] धन्वंतरि दिवोदास की माता का नाम ।
⋙ गणवाद
संज्ञा पुं० [सं० गण + वाद] प्रजातंत्र । उ०—गीता में गण- वाद का वह रूप है जो ब्राह्मणवाद का समर्थक होकर भी, अनेक नई सहूलियतें देकर, नए गणतंत्र का उदय प्रारंभ करता है ।—प्रा० भा० प०, पृ० ३२५ ।
⋙ गणवेश
संज्ञा पुं० [सं०] वरदी । परिधान । पहनावा [को०] ।
⋙ गणहास
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गंध द्रव्य [को०] ।
⋙ गणाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. गणों का मालिक या अधिपति । २. गणेश । ३. जैनों के अनुसार वह जो साधुओं के समुदाय में सबसे श्रेष्ठ या वृद्ध हो । साधुओं का अधिपति या महंत ।
⋙ गणाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गणाधिप' ।
⋙ गणाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. गणों का स्वामि । २. गणेश । ३. शिव ।
⋙ गणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] गणना । गिनती (को०) ।
⋙ गणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या । २. गनियार वृक्ष । ३. एक फूल जो चमेली को तरह का होता है । ४. नायिका के तीन भेदों में से एक । वह नायिका या स्त्री जो द्रव्य के लोभ से नायक से प्रीति रखे । ५. हस्तिनी । हथिनी [को०] ।
⋙ गणिकाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वेश्याओं का निरीक्षक राजकर्मचारी या चौधरी । विशेष—कौटिल्य के समय में इस प्रकार के कर्मचारी नियत करने की व्यवस्था थी ।
⋙ गणिकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गनियार का पेड़ ।
⋙ गणिकारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गनियार का पेड़ ।
⋙ गणित
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें मात्रा, संख्या और परिमाण का विचार हो । विशेष—इसमें निर्धांरित नियमों और क्रियाओं द्वारा ज्ञात मात्राओं, संख्याओं या परिमाणों के संबंध के आधार पर अज्ञात मात्रा, संख्या या परिमाण का निश्चय किया जाता है । अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति, त्रिकोणमिति आदि इसकी शाखाएँ हैं । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. हिसाब । यौ०—गणिकविद्या । गणितशास्त्र = दे० 'गणित' ।
⋙ गणित (२)
वि० १. जो गिना हुआ हो । २. जोड़ा हुआ [को०] ।
⋙ गणितज्ञ
वि० [सं०] १. गणित शास्त्र जाननेवाला । हिसाबी । २. ज्योतिषी ।
⋙ गणितविक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] गिनती के हिसाब से पदार्थ बेचना । गणनापूर्वक वस्तुओं का विक्रय [को०] ।
⋙ गणितानंद पु
संज्ञा पुं० [सं० गणित + आनन्द] प्रसिद्ध या गिना हुआ सुख । उ०—देवलोक इँद्रलोक विधिलोक शिवलोक वैकुंठ के सुख लौं गणितानंद गायौ ।—सुंदर ग्रं०, भा०२, पृ० ६२२ ।
⋙ गणिती
संज्ञा पुं० [सं० गणितिन्] १. गणना करनेवाला व्यक्ति । २. गणितज्ञ [को०] ।
⋙ गणी
संज्ञा पुं० [सं० गणिन्] आचार्य । सूरि । उ०—बुद्ध के समय में ही महावीर संघी गणी, गणाचार्य, यशस्वी.....और परिव्राजक में ज्येष्ठ माना गया ।—हिंदु०, सभ्यता, पृ० २३२ ।
⋙ गणीभूत
वि० [सं०] किसी गण या वर्ग में मिला हुआ । २. गिना हुआ [को०] ।
⋙ गणेय
वि० [सं०] गणनीय । गिनने योग्य [को०] ।
⋙ गणेरु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कर्णिकार वृक्ष [को०] ।
⋙ गणेरु (२)
संज्ञा स्त्री० १. वेश्या । गणिका । २. हाथिनी [को०] ।
⋙ गणेरुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गणिका । कुटनी । २. नौकरानी । सेविका (को०) ।
⋙ गणेश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हिंदुओं के एक प्रधान देवता जिनका सारा शरीर मनुष्य का है, पर सिर हाथी का सा है । विशेष—इनके चार हाथ और एक दाँत है । तोंद निकली हुई है । सिर में तीन आँखें और ललाट पर अर्धचंद्र है । ये महादेव के पुत्र माने जाते हैं । इनकी सवारी चूहा है । पुराणों में लिखा है कि पहले इनका सिर मनुष्य का सा था; पर शनैश्चर की दृष्टि पड़ने से इनका सिर कट गया । इसपर विष्णु ने एक हाथी के सिर काटकर धड़ पर जोड़ दिया । इसके पीछे ये एक बार परशुराम जी से भिड़े, जिसपर परशुराम जी ने एक दाँत परशु से तोड़ डाला । किसी किसी पुराण में लिखा है कि दाँत रावण ने उखाड़ा था । किसी के मत से बीरभद्र या कार्तिकेय ने दाँत तोड़ा था । इसी प्रकार सिर सटने के विषय में भी मतभेद है । गणेश महादेव के गणों के अधिपति हैं । पुराणों का कथन है कि जो शुभ कार्यों के आरंभ में इनकी पूजा नहीं करता, उसके कामों में ये विघ्न कर देते हैं । इसी लिये समस्त मंगल कामों में इनकी पूजा होती है । यह बड़ें लेखक भी हैं । ऐसा प्रसिद्ध है कि व्थास के महाभारत को पहले पहल इन्हीं ने लिथा था । इनके हाथों में पाश, अंकुश, पदम और परशु है । ये हिंदुओं के पंचदेवों अर्थात् पाँच प्रधान देवताओं में हैं । पर्या०—विनायक । विघ्नराज । द्वैमातुर । गणाधिप । एकदंत । हेरंब । लंबोदर । गजानन । विघ्नेश । परशुपाणि । गजास्य । आखुग । शूर्पकर्ण । गजानन ।
⋙ गणेश (२)
वि० गणों का मालिक । गण का स्वामी । गण में जो प्रधान हो ।
⋙ गणेशकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कनेर ।
⋙ गणेशक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] योग की एक क्रिया जिसमें उँगली आदि की सहायता से गुदा का मल साफ करते हैं ।
⋙ गणेशखंड
संज्ञा पुं० [सं० गणेशखण्ड] स्कंद पुराण का एक खंड जिसमें गणेश संबंधी विवरण दिए गए हैं (को०) ।
⋙ गणेशचतुर्थी
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी मास की, मुख्यतः भादों और माघ, की कृष्ण चतुर्थी । इस दिन गणेश का व्रत और पूजन किया जाता है ।
⋙ गणेशपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपपुराण का नाम ।
⋙ गणेशभूशण
संज्ञा पुं० [सं०] सिंदूर ।
⋙ गणेशसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाणपत्य संप्रदाय के एक उपपुराण का नाम [को०] ।
⋙ गण्य
वि० [सं०] १. गिनने के योग्य । गिनती के लायक । २. जिसकी पूछ हो । जिसे लोग कुछ समझें । प्रतिष्ठित । उ०— सु बधू इस गणय गेह की ।—साकेत, पृ० ३६२ । यौ०—गणयमान्य = प्रतिष्ठित ।
⋙ गणयपणय
संज्ञा पुं० [सं०] गिनती के हिसाब से बिकनेवाली वस्तुएँ । वे पदार्थ जिनकी विक्री गिनती के बिसाब से हो ।