सोँ पु ‡ (१)
प्रत्य० [प्रा० सुन्तो] करण और अपादान कारक का चिह्न। द्वारा। उ०—(क) विद्यापति मन उगना सोँ काज नहिं हितकर मोर त्रिभुवन राज।—विद्यापति, पृ० ५१४। (ख) बार बार करतल कहँ मलिके। निज कर पीठ रदन सोँ दलिकै।— गोपाल (शब्द०)। (ग) गिरत सिंदूर मतबारिन की माँगन सोँ, चहुँ ओर फैलि रही जासु अरुनाई है।—बालमुकुंद गुप्त (शब्द०)।

सोँ पु ‡ (२)
वि० [सं० सम] तुल्य। समान। दे० 'सा'। उ०—तीर सोँ धीर समीर लगे पद्माकर बूझि हू बोलत नाहीं।—पद्माकर (शब्द०)।

सोँ पु (३)
अव्य० [हि० सौँह] दे० 'सैँ'। उ०—मथुरा मैं भैम बढे राम। श्याम बल पाय, मारयो कंस राय करे करम अलीके सोँ। ता को बैर लैहों मारि सत्रुन नसैहों महि, जामे परै पापिन के मुख फेरि फीके सों। धी धरनी के नीके आपुनी अनी के संग आवै जर जी के मोन जी के गरजी के के सों।—गोपाल (शब्द०)।

सौँ पु (४)
क्रि० वि० [सं० सह] संग। साथ। उ०—मन हरि सोँ तनु घर हि चलावति। ज्यों गजमत्त जाल अंकुश कर गुरुजन सुधि आवति।—सूर (शब्द०)।

सौँ पु (५)
सर्वं० [सं० स.] दे० 'सो'। उ०—राज समाज खबर सोँ बरनी। आगे नृपदल सोँ भरि भरनी।—गोपाल (शब्द०)।

सौ पु (६)
संज्ञा स्त्री० [हि० सौँह] दे० 'सौँह'। उ०—बात सुने ते बहुत हँसोगे चरण कमल की सोँ। मेरी देह छुटत यम पठए जितक दूत घर मोँ।—सूर (शब्द०)।

सौँइटा ‡
संज्ञा पुं० [हि० सटना?] चिमटा। दस्तपनाह।

सौँच
संज्ञा पुं० [हि० सोच] दे० 'सोच'। उ०—....इधर उधर से सोँच साँच कहीं से जवाब के बदले कुछ कह देना।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० २४।

सौँचर नमक
संज्ञा पुं० [सं० सौवर्चल + फ़ा० नमक] एक प्रकार का नमक। काला नमक। विशेष—यह मामूली नमक तथा हड़, बहेड़े और सज्जी के संयोग से बनाया जाता है। वैद्यक में यह उष्णवीर्य, कटु, रोचक, भेदक, दीपक, पाचक, स्नेहयुक्त, वातनाशक, अत्यंत पित्तजनक, विशद हलका, डकार को शुद्ध करनेवाला, सूक्ष्म तथा विबंध, आनाह तथा शूल का नाश करनेवाला माना गया है। पर्या०—अक्ष। सौवर्चल। रुच्य। दुर्गंध। शूलनाशन। रुचक। कृष्णलवण, आदि।

सौँज †
संज्ञा स्त्री० [हि० सौँज] दे० 'सौंज'। उ०—सब सौँज रुपचंद नंदा के ही घर लै आए।—दो सौ बावन०, भा०, पृ० १९३।

सौँझ †
संज्ञा स्त्री० [सं० सार्द्ध] आधा साझा। साझेदारी।

सौँझा †
वि० [सं० शुद्ध, सुज्झ, हिं० सोझ] सीधा।

सौँट †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० सौँटा।

सौँटा †
संज्ञा पुं० [सं० शुणड या सुवृत्त > सुवट्ट > सुअट; हि० सटना] मोटी लंबी सीधी लकड़ी या बाँस जिसे हाथ में ले सकैं। मोटी छड़ी। डंडा। लाठी। लट्ठ। उ०—मार मार सोँटन प्रान निकासत।—कबीर श०, पृ० १९। क्रि० प्र०—चलाना।—जमाना।—बाँधना।—मारना। उ०—वहाँ से आज्ञा हुई कि ऐ सूसा तू नदी में सोंटा मार तब मूसा ने सोँटा मारा।—कबीर ग्रं०, पृ० ५४। मुहा०—सौँटा चलना = सोँटे से मार पीट होना। सोँटा चलाना = सोँटे से प्रहार करना। सोँटा जमाना = दे० 'सोँटा चलाना'।

सोँटा (२)
संज्ञा पुं० १. भंग घोटने का मोटा डंडा। भंगघोटना। उ०—तन कर कूँडी मन कर सोँटा प्रेम की भँगीया रगरि पियावै।—कबीर (शब्द०)। २. लोबिया का पौधा। रदास। ३. मस्तुल बनाने लायक लकड़ी।

सोँटाबरदार
संज्ञा पुं० [हिं० सोँटा + फ़ा० बरदार] सोँटा या आसा लेकर किसी राजा या अमीर की सवारी के साथ चलनेवाला। आसाबरदार। बल्लमदार।

सौँटिआ पु
संज्ञा पुं० [हि० सोँटा + इया (प्रत्य०)] दे० 'साँटिया'। उ०—चहुँदिसी आवि सोँटि अन्हि फेरी। भै कटकाई राजा केरी।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २०६।

सोँठ
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्डी] १. सुखाया हुआ अदरक। शंठि। शुंठी। विशेष—वैद्यक के अनुसार सोंठ रुचिकर, पाचक, हलकी, स्निग्ध, उष्णवीर्य, पाक में मधुर, वीर्यवर्धक, सारक, कफ, वात, विवंघ, हृदरोग, श्लीपद, शोक, बबसीर, अफारा, उदर रोग तथा बात रोग का नाशक है। २.शुष्क। खुक्ख। खोखला। निर्धन या कंजूस। (लाक्ष०)। उ०— जान पड़ता है ससुरालवाले पूरे सोंठ हैं।—शराबी, पृ० १९५।

सौँठमिट्टी
संज्ञा स्त्री० [सोँठ + हि० मिट्टी] एक प्रकार की पीले रंग की मिट्टी जो ताल या धान के खंत में पाई जाती है। यह काबिस बनाने के काम में आती है।

सौँठराय
संज्ञा पुं० [हि० सोंड + राय (=राजा)] कंजूसों का सरदार। भारी मक्खीचूस। (व्यंग्य)।

सौँठौरा †
संज्ञा पुं० [हिं० सोँठ + औरा (प्रत्य०)] शर्करा या गुड़, हरिद्रा आदि से युक्त एक प्रकार का सूजी का लड्डू जिसमें मेवों के सिवा सोँठ भी पड़ती है। यह लड्डु प्रायः प्रसूता स्त्री को खिलाया जाता है।

सोँड़ ‡
संज्ञा पुं० [सं० शुणड, प्रा० सुंड] दे० 'सूँड'। उ०—करे गडेंद्र सोँड की चोट। नामा उभरे हर की ओट।—दक्खिनी०, पृ० २०।

सौँड़कहा
संज्ञा पुं० [देश०] घी। घृत। (सुनार)।

सौँध पु
क्रि० वि० [हि० सौँह] दे० 'सौह'।

सौँध पु (२)
संज्ञा पुं० [डि० सौध] महल। अटारी। उ०—यह श्यामा है कौन की छबिधामा मुसकाय। सोँध यहि कोँध सी चोध गई चख छाय।—शृंगार सतसई (शब्द०)।

सौँध † (३)
वि०, संज्ञा पुं० [सं० सुगन्ध, हिं० सौंधा] सुगंधयुक्त। दे० 'सोँधा'।

सौँधा (१)
वि० [सं० सुगन्ध] [वि० स्तरी० सोँधी] १. सुगंधय़ुक्त। सुग- धित। खुशबूदार। महकनेवाला। उ०—(क) सोँधे समीरन की सरदार मलिंदन को मनसा फलदायक। किंसुक जालन को कलपद्रुन मानिनी बालक हूँ को मनायक।—रस कुसुमाकर (शब्द०)। (ख) सहर सहर सोँधी सीतल समीर डोलै घहर घहर घन धोरि कै घहरिया। देव (शब्द०)। (ग) सोँधे कैसी सोंधी देह सुधा सो सुधारी, पाउँधारी देवलोक तै कि सिंधु ते उधारी सी।—केशव (शब्द०)। २. मीट्टी के नए बरतन या सूखी जमीन पर पानी पड़ने या चना, बेसन आदि भुनने से निक- लनेवाली सुगंध के समान। जेसै,—सोँधी मिट्टी, सोँधा चना।

सौँधा (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का सुगंधित मसाला जिससे स्त्रियाँ केश धोती हैं। उ०—(क) आई हुती अन्हवावन नाइनि सोँधो लिए कर सूधे सुभाइनि। कंचुकि छोरि उतै उपटैबे की इँगुर से अँग की सुखदाइनि। (ख) सोँधे की सुबास आस पास भरि भवन रह्नो भरत उसास बास बासन बसात है।—देव (शब्द०)। (ग) देखी है गुपाल एक गोपिका मैं देवता सी सोनो सो सरीर सब सोँधे की सी बास है।—केशव (शब्द०)। २. इत्र। फुलेल। अतर। उ०—लेइ के फूल बैठि फुलहारी। पान अपूरब घरे सँवारी। सोँधा सबै बैठलै गाँधी। फूल कपूर खिरौरी बाँधी।—जायसी (शब्द०)। ३. एक प्रकार का सुगंधित मसाला जो बंगाल में स्त्रियाँ नारियल के तेल में उसे सुगंधित करने के लिये मिलाती हैं।

सौँधा (३)
संज्ञा पुं० सुगंध। महक। खुशबू। उ०—(क) सूरदास प्रभु की बानक देखे गोपी ग्वाल टारे न टरत निपट आवै सोँधे की लपट।—सूरदास (शब्द०)। (ख) गढ़ी सो सोने सोँधै भरी सो रुपै भाग। सुनत रुखि भइ रानी हिये लोन आस आग।—जायसी (शब्द०)।

सोँधिया
संज्ञा पुं० [हिं० सोँधा (=सुगंध) + इया (प्रत्य०)] सुगंध तृण। रोहिष तृण। गंधेज घास।

सोँधी
संज्ञा पुं० [हिं० सोँधा] एक प्रकार का बढ़िया धान जो कदलदली जमीन में होता है।

सौँधु पु
वि० [हि० सोँधा] उ०—सोँधु सुरदुम विद्रुम बिंदुलै फलौ दल फूलन दारयो दरे रे।—देव (शब्द०)।

सौँपना
क्रि० स० [हिं० सोँपना] समर्पण करना। सौंपना। उ०— (क) राम को राज्य लक्ष्मी सोँपो।—लक्ष्मण सिंह (शब्द०)। (ख) तुम यह हुंडी चांपाभाई भंडारी कों सोँपि आओ।—दो सौ बावन०, भा० पृ० २०२।

सौँवन †
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण] सोना। स्वर्ण। हेम।

सौँवनिया
संज्ञा पुं० [सं० सुवर्ण; प्रा० सुवण्ण, सोवण्ण + हिं० इया (प्रत्य०)] एक प्रकार का आभूषण जो नाक में पहना जाता है। उ०—पहुँची करनी पदिक उर हरिनख कँठुला कंठ मंजु गजमनिया। रुचि रुषि शुक्त द्विज अधर नासिका सुंदर राजत सोँवतिया।—सूर (शब्द०)।

सोँह पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सौँह] दे० 'सौंह'। उ०—प्यारे को प्यार परोसिनी सो है कह्नो तुम सो तब साचु न लेखौ। मोही को झूठी कहौ झगरौ करि सोँह करौं तब औरऊ तेखौ।—काव्य कलाधर (शब्द०)।

सौँह (२)
अव्य० दे० 'सौंह'। उ०—बाउर अंध प्रेम कर लागू। सोँह धसा कछृ सूझ न आगू।—जायसी (शब्द०)।

सौँहट †
वि० [सं० सुघट, प्रा० सुहट ?] सीधा सादा। सरल।

सौँहना पु †
वि० [सं० शोभन, प्रा० सोहण] सुंदर। सुहावना। उ०—सखि सोभित मदन गुपाल कटि बाँधै पट सोँहनौ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८४।

सौँहनी पु †
वि० स्त्री० [सं० शोभनीय] शोभनीय। शोभन। उ०— इहि कन्या मैं स्याम कों, माँगौं गोद पसारि,कि जोरी सोँहनी।—नंद० ग्र०, पृ० १६४।

सोँहीँ
अव्य० [हिं०] दे० 'सौँह'। उ०—(क) आज रिसोँहीं न सोँहीं चितौति कितौ न सखी प्रति प्रीति बढ़ावै।—देव (शब्द०)। (ख) इतने में सोँही आ एक बोली ब्रजनारी।—लल्लू (शब्द०)।

सो (१)
सर्व० [सं० सः] वह। उ०—(क) ब्याही सों सुजान शील रूप वसुदेव जू कौं बिदित जहान जाकी अतिहि बड़ाई है।—गोपाल (शब्द०)। (ख) सो मो सन कहि जात न कैसे। साक बनिक मनि गन गुन जैसे।—तुलसी (शब्द०)। (ग) अरे दया मैं जो मजा सो जुलमन मैं नाह।—रसलीन (शब्द०)।

सो (२)
वि० [हिं०] दे० 'सा'। उ०—(क) विधि हरि हर मय वेद प्रान सो। अगुन अनुपम गुन निधान सो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) नासिका सरोज गंधवाह सें सुगंधवाह, दारयों से दर्शन कैसे बीजुरी सो हास है।—केशव (शब्द०)।

सो (३)
अव्य० अतः। इसलिये। निदान। जैसे,—पराधीनता सब दुःखों का कारण है; सो, भाइयो, इससे मुक्त होने के ऊद्योग में लगे रहिए। उ०—सो जब हम तुम सों मिले जुद्ध। नव अंग लहहु खै समर सुद्ध।—गोपाल (शब्द०)।

सो (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती का एक नाम।

सो पु † (५)
संज्ञा पुं० [सं० शत, प्रा० सय, सउ] दे० 'सौ'। उ०— सो बरस अट्ठ तप राज कीन। आनंद मेव सिर धत्र दीन।— पृ० रा०, १। पृ० १२।

सोडहम्
पद [सं० सः + अहम्] वही मैं हूँ—अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ। विशेष—वेदांत का सिद्धांत है कि जीव और ब्रह्मा एक ही हैं; दोनों में कोई अंदर नहीं है। जीव और कुछ नहीं, ब्रह्म ही है। इसी सिद्धांत का प्रतिपादन करने के लिये वेदांती लोग कहा करते है—सोहम्; अर्थात् मैं वही ब्रह्म हूँ। उपनिषदों में भी यह बात 'अहं ब्रह्मास्मि' और 'तत्वमसि' रुप में कही गई है।

सोडहमस्मि
पद [सं० सः + अहम् + अस्मि] वही मैं हूँ—अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ। विशेष दे० 'सोडहम्'।

सोअना पु
क्रि० अ० [सं० स्वपन] दे० 'सोना'। उ०—(क) गोरे गात कपोल पर अलक अडोल सोहाय। सोअति है साँपिनि मनो पंकज पात बिछाय।—मुबारक (शब्द०)। (ख) सुक्लजीत जहाँ बसत जे जागत सोअत रामै राम बके।—देवस्वामी (शब्द०)।

सोअर ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० सूतिगृह] दे० 'सौरी'।

सोआ
संज्ञा पुं० [सं० मिश्रेया] एक प्रकार का साग। विशेष—इसका क्षुप १ से ३ फुट तक ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ बहुत सूक्ष्म और फूल पीले होते हैं। वैद्यक के अनुसार यह चरपरा, कड़वा, हलका, पित्तजनक, अग्निदीपक, गरम, मेधाजनक, वस्तिकर्म, में प्रशस्त तथा कफ, वात, ज्वर, शूल, योनिशूल, आध्मान, नेत्ररोग, व्रण और कृमि का नाशक है। पर्या०—शताह्म। शतपुष्पा। शताक्षी। शतपुष्पिका। कारवी। तालपर्णीं। माधवी। शोफका। मिसी।

सोइ पु
सर्व० [हि० सैव] वह ही। उ०— (क) मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोइ। जा तन की झाई परे स्याम हरित दुति होइ। — बिहारी (शब्द०)। (ख) सातों द्वीप कहे शुक मुनि ने सोइ कहत अब सूर। — सूर (शब्द०)। (ग) सोइ रघुवर सोइ लछिमन सीता। देखि सती अति भई सभीता। — तुलसी (शब्द०)।

सोई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्रोत, स्त्रोतिका, हि० सोता] वह जमीन या गड़ढा जहाँ बाढ़ या नदी का पानी रुका रह जाता है और जिसमें अगहनी धान की फसल रोपी जाती है। डाबर।

सोई (२)
सर्व० [सं० सैव]दे० 'वही'। उ०— बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदय कंप मन धीर न होई। — मानस, १। २०१।

सोई (३)
अव्य० [हि०]दे० 'सो'। उ०— सोई मैं स्वशुरालय जाती थी। — प्रताप (शब्द०)।

सोक (१)
संज्ञा पुं० [देश०] चारपाई बुनने के समय बुनावट में का वह छेद जिसमें से रस्सी या निवार निकाल कर कसते हैं।

सोक (२)
संज्ञा पुं० [सं० शोक, प्रा० सोक]दे० 'शोक'। उ०— समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के। — तुलसी (शब्द०)।

सोकड़ली पुं †
संज्ञा स्त्री० [देश०]दे० 'सौत'। उ०— सोकड़ल्याँ चख माहि करै कड़वाइयाँ। बाँकी० ग्रं०, भा०३, पृ०३१।

सोकन
संज्ञा पुं० [देश०]दे० सोखन।

सोकना (१) पुं
क्रि० स० [सं० शोक प्रा० सोक + हि० ना (प्रत्य०)] शोक करना। दुःख करना। रंज करना। उ०— तुब पन पालि विपिन करि दैहौं। पुनि तुव पद पंकज सिर नैहों। यों सुनि नृपति मनहि मन सोक्यौ। पुनि पुनि रामवदन अवलोक्यौ। — पद्माकर (शब्द०)।

सोकना (२)
क्रि० सं० [सं० शोषण]दे० 'सोखना'। उ०— (क) आठ मास जो सूर्य जल सोकता है, सोई चार महीने बरसता है। — लल्लू० (शब्द०)। (ख) बुंद सोकिगो कुहा महासमुद्र छीजई।—केशव (शब्द०)।

सोकनी †
वि० [हि० सोकन] कालापन लिए सफेद रंग का (बैल)।

सौकरहा †
संज्ञा पुं० [हि० सोकार] वह आदमी जो कूएँ पर खड़ा होकर पानी से भरे हुए चरसे या मोट को नाली में उलटकर खाली करता है। बारा।

सोकार †
संज्ञा पुं० [हिं० सोकना, सोखना] वह स्थान जहाँ खेत सींचनेवाले कूएँ से मोट निकालकर गिराते हैं। सिंचाई के लिये पानी गिराने की कूएँ पर की नाली। छिउलारा। चौंढ़ा।

सोकित पु
वि० [सं० शोकित] शोकयुक्त। उ०— मुहिं स्वारथ ढीठ बनायो तुमकों जब सोकित देख्यो। — प्रताप (शब्द०)।

सोक्कन
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'सोखन'।

सोख पु †
वि० [फ़ा० शोख]दे० 'शोख'।

सोख (२)
वि० [सं० शुष्क, प्रा० सुक्क] शुष्क करनेवाला या सुखानेवाला। जैसे —स्याही सोख।

सोखक पु
वि० [सं० शोषक] १. शोषण करनेवाला। २. नाश करनेवाला। उ०— चलि चलि चंद्रमुखी साँवरे सखा पै बेगि, सोखक जु केसोदास अरि सुख साज के। चढ़ि चढ़ि पवन तुरंगन गगन घन, चाहत फिरत चंद योधा यमराज के। — केशव (शब्द०)।

सोखता
वि० [फ़ा० सोख्ता]दे० 'सोख्ता'। उ०— मैं सुहदा तन सोखता विरहा दुख जारै। जिय तरसै दीदार को दादू न बिसारै। — दादू० बनी, पृ०५०४।

सोखता (२)
संज्ञा पुं० दे० 'सोख्ता'।

सोखन (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. स्या्ही लिए सफेद रंग का बैल। २. एक प्रकार का जंगली धान जो नदी की घाटी मैं बलुई जमीन में बोया जाता है।

सोखन पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० शोषण] काम का एक वाण।दे० 'शोषण'। उ०— सोखन दहन उचाटन छोभन। तिन मैं निपट बुरौ संमोहन। — नंद० ग्रं०, पृ०१४०।

सोखना
क्रि० सं० [सं० शोषण] १. शोषण करना। रस खींच लेना। चूस लेना। सुखा डालना। उ०— (क) यह मिट्टी ...... पानी को खूब सोखती है। — खेतीविद्या (शब्द०)। (ख) सेर भर चावल सेर ही भर घी सोखता है। — शिवप्रसाद (शब्द०)। (ग) उदित अगस्त पंथजल सोखा। जिमि लोभहि सोखइ संतोषा।—तुलसी (शब्द०)। (घ) उतै रुखाई है घनी थोरो मो पै नेह। जाही अंग लगाइए सोई सोखै लेह। — रसनिधि (शब्द०)। (ङ) वाही हाथ कुच गहि पूतना के प्राण सोखे पाय ऊँचो पद निज धाम को सिधारी है। — ब्रजचरित्र०, पृ०१३। २. पीना। पान करना।(व्यंग्य)। संयो० क्रि०—जाना।— डालना।— लेना।

सोखरी †
संज्ञा स्त्री० [हि० सोखना या सुखाना या सं० शुष्कफली] पेड़ का सूखा हुआ महुआ।

सोखा †
संज्ञा पुं० [सं० सूक्ष्म या चोखा ?] १. चतुर मनुष्य। होशि- यार आदमी। २. जादुगर। ३. झाड़ फूक, जंतर मंतर करनेवाला व्यक्ति।

सोखाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० सोखा + ई (प्रत्य०)] जादू। टोना।

सोखाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सुखाना]दे० 'सुखाना'।

सोखावना पु †
क्रि० स० [हिं० सुखाना]दे० 'सुखाना'। उ०— मधवानल वहि अगिन समानी। अगिन अगस्त सोखावत पानी।—हिंदी प्रेमा०, पृ०२७५।

सोखीन †
वि० [अ० शौक, शौकीन]दे० 'शौकीन'। उ०— घर घर अमल सब जने खावे सोखीन मीही उतर ज्यावे। दक्खिनी०, पृ०१२४।

सोख्त
संज्ञा स्त्री० [फा़० सोख्त] जलन। दाह [को०]।

सोख्तनी
वि० [फ़ा० सोख्तनी] दाह या जलन योग्य। जलनशील। जलाने लायक [को०]।

सोख्ता (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सोख्तह्] १. जला हुआ कोयला। २. एक प्रकार का मोटा खुरदुरा कागज जो स्याही सोख लेता है। स्याही सोख। स्याही चट।(अं० ब्लाटिंग पेपर)। ३. बारुद से संपृक्त या रंजित वस्त्र जो शीघ्र जल उठता है (को०)।

सोख्ता (२)
वि० १. जला हुआ। २. विषादयुक्त। खिन्नमनस्क [को०]। ३. प्यार करनेवाला। प्रेमी (को०)।

सोगंद
संज्ञा स्त्री० [सं० सौगन्ध, हिं० सौगंद]दे० 'सौगंद'।

सोग पुं०
संज्ञा पुं० [सं० शोक, प्रा० सोक, सोग] शोक। दुःख। रंज। उ०— (क) जाके बल गरजे महि काँपे। रोग सोग जा्के सिमाँ न चाँपे — रामानंद, पृ०७। (ख) निसि दिन राम राम की भक्ति, भय रुज नहिं दुख सोग। — सूर (शब्द०)। (ग) चित पितु घातक जोग लखि भयौ भएँ सुत सोग। फिर हुलस्यौ जिय जोयसी समुझ्यो जारज जोग। — बिहारी (शब्द०)। मुहा०— सोग मनाना = किसी प्रिय या संबंधी के मर जाने पर शोकसूचक चिह्न धारण करना और किसी प्रकार के उत्सव या मनोविनोद आदि में संमिलित न होना।

सोगन
संज्ञा स्त्री० [हिं० सौगंद] सौगंद। कसम। (डि०)। उ०— (क) नयणाँरा सोगन करै, भै मानै सुरण भूत। रामत दूलां री रमै रांडुला री पूत। — बाँकी० ग्रं०, भा०२, पृ०१३।(ख) लेखण तोला ताकड़ी, सोगन नै जीकार। — बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ०६६।

सोगिनी पु
वि० स्त्री० [हि० सोग+इनी(प्रत्य०)] शोक करनेवाली। शोकार्ता। शोकाकुला। शोकमग्ना। उ०— मुख कहत आजु बधि धृष्ट अरि तरपहुँ चौंसठ जोगिनी। बिललात फिरै बन पात प्रति मगध सुंदरी सोगनी। — गोपाल (शब्द०)।

सोगी
वि० [सं० शोकिन्, हिं० सोग] [स्त्री० सोगिनी] १. शोक मनानेवाला। शोकार्त। शोकाकुल। दुःखित। २. सोच विचार करता हुआ। चिंतित। उदास।

सोच (१)
संज्ञा पुं० [सं० शोच] १. सोचने की क्रिया या भाव। जैसे,— तुम अच्छी तरह सोच लो कि तुम्हारे इस काम का क्या फल होगा। यौ०— सोचसमझ। सोचविचार। सोचसाच = दे० 'सोचविचार'। उ०— हमें भी बहुत सोच साच के धन्यवाद देना पड़ा। — प्रेमघन०, भा० २, पृ०२३। २. चिंता। फिक्र। जैसे,— (क) तुम सोच मत करोष ईश्वर भला करेंगे।(ख) तुम किस सोच में बैठे हो ? उ०— (क) चल्यो अनखाइ समझाइ हारे बातनि सों, 'मन ! तु समझ, कहा कीजै ? सोच भारी है !'—भक्तमाल (प्रिया०),पृ० ५०५।(ख) नारि तजी सुत सोच तज्यो तब।—केशव (शब्द०)। ३. शोक। दुःख। रंज। अफसोस। उ०—(क) तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं, ऐसी ठाउँ जाके मुए जिए सोच करिहैं न लरिको।— तुलसी (शब्द०)।(ख) नेह कै मोहिं बुलायो इतै अब बोरत मेह महीतल को है। आई मझार महावत मै तन मैं श्रम सीकर की झलको है। न मिले अब नौल किसोर पिया हियो बेनी प्रवीनकहै कलको है। सोच नहीं धन पावन को सखि सोच यहै उनके छल को है। —बेनी प्रवीन (शब्द०)। ४.पछतावा। पश्चा- त्ताप। उ—देखिकै उमा कौं रूद्र लज्जित भए, कह्यो मैं कौन यह काम कीनो। इंद्रिजित हौं कहावत हुतो आपु कौं, समुझि मन माहिं ह्वै रह्यो खीनो। चतुरभुज रूप धरि आइ दरसन दियौ कह्यौ शिव सोच दीजै बिहाई। —सूर०, ७। २०।

सोचक पुं
संज्ञा पुं० [सं० सौचिक] दरजी। (डिं०)। उ०—गुरू गीत बाद बाजित्र नृत्य। सोचक सु वाच्य सविचार कृत्य। मनि मंत्र जंत्र बास्तुक विनोद। नैपथ विलास सुनि तत्त मोद।— पृ० रा०, १।७३२।

सोचना
क्रि० अ० [सं० शोचन, शोचना (=दुख, शोक, अनुताप)] १. किसी प्रकार का निर्णय करके परिणाम निकालने या भवितव्य को जानने के लिये बुद्धि का उपयोग करना। मन में किसी बात पर विचार करना। गौर करना। जैसे,— (क) मैं यह सोचता हूँ कि तुम्हारा भविष्य क्या होगा।(ख) कोई बात कहने से पहले सोच लिया करो कि वह कहने लायक है या नहीं।(ग) इस बात का उतर मैं सोचकर दूँगा।(घ) तुम तो सोचते सोचते सारा समय बिता दोगे। उ०—सोचत है मन ही मन मैं अब कीजै कहा बतियाँ जगछाई। नीचो भयो ब्रज को सब सीस मलीन भई रसखानि दुहाई। —रसखान (शब्द०)। २. चिंता करना। फिक्र करना। उ०—(क) अब हरि आइहैं जिन सोचै। सुन विधुमुखी बारि नयनन ते अब तु काहे मोचै।— सूर (शब्द०)।(ख)कौनहुँ हेतन आइयो प्रितम जाके धाम। ताको सोचति सोच हिय केशव उक्ताधाम। —केशव (शब्द०) ३. खेद करना। दुःख करना। उ०—माथे हाथ मूँदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन। —तुलसी (शब्द०)।

सोचविचार
संज्ञा पुं० [हिं सोच + सं० विचार] समझबूझ। गौर। जैसे,— (क) सोचविचार कर काम करो। (ख) अच्छी तरह सोचविचार लो।

सोचना
क्रि० सं० [हिं० सोचना] दे० 'सूचना'। उ०—सुदिन सुनखत सुधरी सोचाई। बेगि वेदविधि लगन धराई। —तुलसी (शब्द०)।

सोचु पु
संज्ञा पुं० [हिं सोच]दे० 'सोच'। उ०—सती सभीत महेस पहिं चली हृदय बड़ सोचु। —तुलसी (शब्द०)।

सोच्छ्वास (१)
वि० [सं०] १. प्रसन्न। खुश। २. उच्छ्वासयुक्त। जोरों से साँस लेता हुआ। ३.शिथिल। सुस्त। ढीला [को०]।

सोच्छ्वास (२)
क्रि० वि० आराम। प्रसन्नतापूर्वक [को०]।

सोछ पुं०
क्रि० वि० [सं० स्वच्छ प्रा० सुच्छ] साफ साफ। सुस्पष्ट स्वच्छ। उ०— ऐसा इष्ट सँभारिये चरनदास कहि सोछ। — चरण० बानी, पृ० ४६।

सोज (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सूजना] १. सूजने की क्रिया, भाव या अवस्था। सूजन। शोथ। २. दे०'सौज'। उ०—तुलसी समिध सोज लंक जग्यकुंड लखि जातधान पुंग फल जव तिल धान हैं। — तुलसी (शब्द०)।

सोज (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सोज] १. जलन। ज्वाला। उ०— अगन कूँ दिया सोज सो रोशनी। जमीन कूँ दिया खिलअत गुलशनी।—दक्खिनी, पृ०११७। २. बेदना। मनस्ताप। पीड़ा [को०]।

सोजन (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सोजन] १. सुई। उ०— अरे निरदई मालिया कहुँ जताय यह बात। केहि हित सुमनन तोरि तै छेदत सोजन गात। — रसनिधि (शब्द०)। २. कंटक। काँटा। (लश०)।

सोजन (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सोजनी] बिछाने का बिस्तर। उ०— भाई साहेब, अपने तो ऊ पंछी काम का जे भोजन सोजन दूनो दे।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ०३२८।

सोजनकारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा सोजनकारी] सूई का काम। सूईकारी। उ०— लहैगे के खूब दाब देकर सिए पल्लों पर फूलों और पक्षियों की सोजनकारी की हुई थी। — जनानी०, पृ०३।

सोजनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सोजनी] दे० 'सुजनी'।

सोजाँ
वि० [फा० सोजाँ] १. ज्वलनशील। दाहक। २. पीड़ा- दायक। दुःखद [को०]।

सोजाक
संज्ञा पुं० [फ़ा० सूजाक] दे० 'सूजाक'।

सोजिश
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सोजिश] १. सूजन। फुलाव। शोथ। २. दे० 'सोज (२)'।

सोझ पु
वि०, क्रि० वि० [हिं० सोझा] १.दे० 'सोझा'। उ०— (क) काहु ओ वहल भार बोझ, काहु वाट कहल सोझ। — कीर्ति०, पृ०२४। (ख) कहै कबीर नर चलै न सोझ। भटकि मए जस बन के रोझ। — कबीर (शब्द०)। २. ठीक सामने की ओर गया हुआ। सीधा। उ०— सोझ बान अस आवहिं राजा। बासुकि डरै सीस जनु बाजा। — जायसी (शब्द०)।

सोझना पु †
क्रि० सं० [सं० शोधन] शोधना। खोजना। उ०— (क) बारइ बहतई आपणइँ। कुँवर परणावौ, सोझउ बींद।—वी० रासो, पृ०६।(ख) अवधेसरा में सुभट आया सोझवा सीता। — रघु० रु० पृ० १६१।

सोझा (१)
वि० [सं० सम्मुख, म० प्रा० समुज्झ ?; अथवा सं० शुद्ध, प्रा० सुद्ध, सुझ्झ] [वि० स्त्री० सोझी] १. सीधा। सरल। उ०— (क) दादू सोझा राम रस अभ्रित काया कूल। — दादू (शब्द०)। (ख) है वहँ डोर सुरति कर सोझी गुरु के शब्द चढ़ि जइए हो। — धरम० श०, पृ०११। २. ठीक सामने की ओर गया हुआ। दे०'सोझ' —२।

सोझा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शोध (=अन्वेषण), शुद्ध, प्रा० सुज्झ] सुधि। शोध। स्मृति। स्मरण। याद। उ०— ईत ऊत की सोझो परे। कौन मर्म मेरा करि करि मरै। — कबीर ग्रं०, पृ०३२७।

सोझोव †
संज्ञा पुं० [सं० सोढव्य (=सहनशील)] जवान बछड़ा।

सोटा (१)
संज्ञा पुं० [सं० शुण्ड] दे० 'सोँटा'।

सोटा (२)
संज्ञा पुं० [ हिं० सुअटा ]दे० 'सुअटा'। उ०— लै सँदेस सोटा गा तहाँ। सूली देहि रतन की जहाँ। — जायसी (शब्द०)।

सोठ
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्ठि]दे० 'सोँठ'।

सोठ मिट्टी
संज्ञा स्त्री० [हि०सोठ+मिट्टी]दे० सोँठ 'मिट्टी'।

सोडा
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का क्षार पदार्थ जो सज्जी को रासायनिक क्रिया से साफ करके बनाया जाता है। विशेष— इसके कई भेद हैं। जेसे लोग सिर धोने के काम में लाते हैं, इसे अँगरेजी में 'सोजा क्रिस्टल' कहते हैं। यह सज्जी को उबालकर बनाते हैं। ठंढा होने पर साफ सोडा नीचे बैठ जाता है। जो सोडा साबुन, कागज, कांच आदि बनाने के काम में आता है, उसे 'सोडा कास्टिक' कहते हैं। यह चूने और सज्जी के संयोग से बनता है। दोनों को पानी में घोल और उबालकर पानी उड़ा देते हैं। इसी प्रकार 'बाइकारबोनेट आफ सोडियम' भी साबुन, काँच आदि बनाने के काम में आता है। यह नमक को अमोनिया में घोलकर कारबोनिक गैस की भाप का तरारा देने से निकलता है। इसे एकत्र करके तपाने से पानी और कारबोनिक गैस उड़ जाता है। जो सोडा खाने के काम में आता है, उसे 'बाइकारबोनेट आफ सोडा' कहते हैं। यह सोड़े पर कारबोनिक गैस का तरारा देने से बनता है।

सोडावाटर
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का पाचक पानी जो प्रायः मामुली पानी में कारबोनिक एसिड का संयोग करके बनाते हैं और बोतल में हवा के जोर से बंद करके रखते हैं। विलायती पानी। खारा पानी।

सोढ़
वि० [सं०] १. सहनशील। सहिष्णु। २. जो सहन किया गया हो। ३. पु० समर्थ। शक्तिमान्। उ०— सोढ हुऔ तूँ भाँण सुत रावाँ सिरहर राव। — बाँकी० ग्रं०, भा०१, पृ०८३।

सोढर
वि० [देश०] भोंदू। बेवकूफ। उ०— (क) गदहों में हम सोढर गदहा हैं। — बालकृष्ण भट्ट (शब्द०)। (ख) भगति सुतिय के हाथ सुमिरिनी सोहत टोडर। सोढ़र खोडर बूढ़ ऊढ़ द्विज खोंडर ओडर। — सुधाकर (शब्द०)।

सोढवत्
वि० [सं०] जिसने सहन किया हो। सहनेवाला।

सोढव्य
वि० [सं०] सहन करने के योग्य। सह्य।

सोढ़ा
वि० [सं० सोढृ] १. दे० सहनशील। 'सोढ'। २.शक्तियुक्त। ताकतवर [को०]।

सोढी
वि० [सं० सोढिन्] जिसने सहन किया हो। सहनकारी।

सोणक
वि० [सं० शोण] लाल रंग का। रक्त।

सोणत
संज्ञा पुं० [सं० शोणित] खून। लोहू। रक्त। (डिं०)।

सोत
संज्ञा सं० [सं० स्त्रोत] दे० 'स्त्रोत' या 'सोता'। उ०— (क) लोल लोचनी कंठ लखि संख समुद के सोत। अरु उड़ि कानन को गए केकी गोल कपोत। — शृंगारसतसई (शब्द०)। (ख) धन कुल की मरजाद कछु प्रेम पंथ नहिं होत। राव रंक सब एक से लगत प्रेम रस सोत। — हरिश्चंद्र (शब्द०)। (ग) वैरिवधुवरन कलानिधि मलीन भयो सकल सुखानो परपानिप को सोत है। — मतिराम (शब्द०)।

सोता (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्त्रोत] १. जल की बराबर बहनेवाली या निकलनेवाली छोटी धारा। झरना। चश्मा। जैसे—पहाड़ का सोता, कूएँ का सोता। उ०—(क) भूख लगे सोता मिले उथरे अरु बिन मैल। पी तिनकौ पानी तुरत लीजौ अपनी गैल। — लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। (ख) दस दिसा निर्मल मुदित उड़गन भूमिमंडल सुख छयो। सागर सरित सोता सरोवर सबन उज्वल जल भयो। —गिरिधरदास (शब्द०)। २. नदी की शाखा। नहर। उ०— जिसका (जमना की नहर का) एक सोता पश्चिम में हरियाने तक पहुँचकर रेगिस्तान में खप जाता है। —शिवप्रसाद (शब्द०)। ३. मूल। उद्गम। परंपरा।

सोता (२)
वि० [सं० सोतृ] उत्पन्न करनेवाला। संतान उत्पन्न करनेवाला [को०]।

सोतिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोता+इया (प्रत्य०)] सोता। उ०— नौ दस नदिया अगम बहे सोतिया, बिचे में पुरइन दहवा लागल रे री। — कबीर (शब्द०)।

सोतिहा †
संज्ञा पुं० [हिं० सोता+इहा (प्रत्य०)] कूआँ जिसमें सोते का पानी आता है।

सोती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोता] स्त्रोत। धारा। सोता। उ०— तेहि पर पूरि धरी जो मोती। जवुँना माँझ गाँग कइ सोती। — जायसी (शब्द०)।

सोती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वाति]दे० 'स्वाती'। उ०— एक वर्ष वरष्यो नहि सोती। भयो न मानसरोवर मोती। — रघुराजसिंह (शब्द०)।

सोती (३)
संज्ञा पुं [सं० श्रोत्रिय, प्रा० सोत्तिय]दे० 'श्रोत्रिय'।

सोतु
संज्ञा पुं० [सं०] सोम निकालने की क्रिया।

सोत्कंठ
वि० [सं० सोत्कण्ठ] १. उत्कंठायुक्त। लालसायुक्त। २. शोक या पश्चात्तापयुक्त। उनमना।

सोत्कंप
वि० [सं० सोत्कम्प ] काँपता हुआ। हिलता डुलता हुआ। कंपित [को०]।

सोत्क
वि० [सं०] जिसे उत्कंठा हो। उत्कंठापूर्ण। सोत्कंठ।

सोत्कर्ष
वि० [सं०] उत्कर्षयुक्त। उत्तम। दिव्य।

सोत्तरपणव्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] पाराशर स्मृति के अनुसार इस प्रकार की शर्त कि वाद विवाद में जो जीते, वह हारनेवाले से इतना धन ले।

सोत्प्रास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चाटु। प्रिय बात। २. व्याजस्तुति। ३. शब्दयुक्त हास्य। सशब्द हास्य। यथा— सोत्प्रास आच्छुरित- कमवच्छुरितकं तथा अट्टहासो महाहोसो हासः प्रहास इत्यादि।— शब्दरत्नावली (शब्द०)। ४. व्यंग्यवाक्य या कथन (को०)।

सोत्प्रास (२)
वि० १. बढ़ाकर कहा हुआ। अतिरंजित। २. अतीव। अत्यंत। ३. व्यंग्ययुक्त। जिसमें व्यंग्य हो।

सोत्प्रेक्ष
वि० [सं०] १. उपेक्षा के योग्य। २. उदासीनतापूर्वक।

सोत्संग
वि० [सोत्सङ्ग] शोकाकुल। दुःखित।

सोत्सर्ग संसिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मल मूत्र आदि का इस प्रकार यत्नपूर्वक त्याग करना जिसमें किसी व्यक्ति को कष्ट या जीव को आघात न पहुँचे।(जैन)।

सोत्सव
वि० [सं०] १. उत्सवयुक्त। उत्सवसहित। २. प्रफूल्ल। प्रसन्न। खुश। ३. हर्ष या उल्लासयुक्त। उत्साहसहित।

सोत्सुक
वि० [सं०] १. उत्सुकतायुक्त। उत्सुकतासहित। उत्कंठित। २. जिज्ञासायुक्त। जानने की कामना से युक्त। जिज्ञासु (को०)। ३. शोकयुक्त। शोकालु। शोकान्वित (को०)।

सौत्सेक
वि० [सं०] अभिमानी। घमंडी। ऐंठू।

सोत्सेध
वि० [पु०] ऊँचाईयुक्त। उच्च। ऊँचा।

सोथ
संज्ञा पुं० [सं० शोथ]दे० 'शोथ'।

सोदकुंभ
संज्ञा सं० [सं० सोदकुम्भ] एक प्रकार का कृत्य जो पितरों के उद्देश्य में किया जाता है।

सोदधित्व
वि० [सं०] लघु। अल्प। थोड़ा। कम।

सोदन
संज्ञा पुं० [देश०] कशीदे के काम में कागज का एक टुकड़ा जिसपर सूरई से छेदकर बैल बूटे बनाए होते हैं। विशेष— जिस कपड़े पर बेला बूटा बनाना होता है, उसपर इसे रखकर बारीक राख बिछा देते हैं, जिसमें कपड़े पर निशान बन जाता है। जिसके आधार पर बेल बूटे काढ़े जाता हैं।

सोदय (१)
वि० [सं०] १. व्य़ाज या सूद समेत। बृद्धियुक्त। २. आका- शीय ग्रहों के उदय से संबद्ध (को०)। ३. अनवरत उगनेवाला (को०)।

सोदय (२)
संज्ञा [सं०] ब्याज सहित मूल धन। असल मय सूद।

सोदर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० सोदरा, सोदरी] सहोदर भ्राता। सगा भाई।

सोदर (२)
वि० एक गर्भ से उत्पन्न।

सोदरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सहोदरा भगिनी। सगी बहिन।

सोदरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सोदरा'। उ०— काम की दुहाई कै सुहाई सखी माधुरी की इंदिरा के मंदिर में झाई उपजति है। सुगनि को सूरी किधौं मोदहु की सोदरी कि चातुरी की माता ऐसी बातनि सिजति है। केशव (शब्द०)।

सोदरीय
वि० [सं०] दे० 'सोदर'।

सोदर्क (१)
वि० [सं०] १. परिणाम से युक्त। फलयुक्त। २. कंगूरे या बुर्जियों से युक्त (को०)।

सोदर्क (२)
संज्ञा पुं० गान का पूरक जो अंतिम हो [को०]।

सोदर्य
वि० संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'सहोदर'।

सोदागर पु †
संज्ञा पुं० [फा़ सौदागर] दे० 'सौदागर'। उ०— ता साथ में सोदागर बोहोत आए। — दो सौ बावन, पृ०१६८।

सोद्यम
वि० [सं०] १. सचेष्ट। सक्रिय। २. युद्धार्थ कृतनिश्चय [को०]।

सोद्योग
वि० [सं०] १. उद्योगी। कर्मशील। उद्योग में लगा हुआ। २. शक्तिशाली। मजबूत। हिंसक। ३. खतरनाक (को०)।

सोद्वेग (१)
वि० [सं०] १. विचलित। चिंतित। २. उद्विग्न।

सोद्वेग (२)
अव्य० उद्विग्नतापूर्वक। उद्वेगसहित।

सोध पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० शोध] १. खोज। खबर। पता। टोह। सुधि। उ०— (क) हम सीता कै सोध बिहीना। नहि जैहहि जुबराज प्रबीना। — तुलसी (शब्द०)। (ख) मोही सों रुठि कै बैठि रहे किधौं कोई कहूँ कछू सोध न पावै। — देव (शब्द०)। २. संशोधन। सुधार। उ०— खल प्रबोध जग सोध मन को निरोध कुल सोध। कहरि ते फोकट पचि मरहि सपनेहु सुख न सुबोध। — तुलसी (शब्द०)। ३. चुकता होना। अदा होना। बेबाक होना। जैसे, — ऋण का सोध होना। ४. अनुसंधान। अनुशीलन। खोज। शोध।

सोध पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० शुद्ध (=बुद्धि)] स्मृति। होशहवास। चेत। सुध। उ०— रघुकुल प्रगटे हैं रघुवीर। ....... आनंद गमन भए सब डोलत कछू न सोध सरीर। — सूर०, ९।१८।

सोध (३)
संज्ञा पुं० [सं० सौध] १. महल। प्रासाद। (डिं०)। २. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद का नाम।

सोधक
संज्ञा पुं० [सं० शोधक] दे० 'शोधक'।

सोधणी
संज्ञा स्त्री० [सं० शोधनी] झाडू। बुहारी। मार्जनी।(डि०)।

सोधन
संज्ञा पुं० [सं० शोधन] १. ढुँढ। खोज। तलाश। उ०— अति क्रोधन रन सोधन सदा अरि बल रोधन पन किए। दुरजोधन प्रपि- तामह लस्यो सह सत जोधन संग लिए। — गोपाल (शब्द०)। २. संशोधन। त्रुटिनिवारण। दे० 'शोधन'। ३. कर्जा चुकता करना। ऋणशोधन।

सोधना पु † (१)
क्रि० सं० [सं० शोधन] १. शोधन करना। शुद्ध करना। साफ करना। उ०— बसि सकोच दसवदन बस साँच दिखावति बाल। सिय लौं सोधति तिय तनहि लगनि अगनि की ज्वाल।—बिहारी (शब्द०)। २. गलती या दोष दूर करना। ३. विचार कर देखना। ठीक करना। निश्चित करना। निर्णय करना। उ०— (क) ग्रह तिथि नखत जोगु बर बारु। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारु। —तुलसी (शब्द०)। (ख) समझि करम गति धीरज कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह करि दीन्हा।—तुलसी (शब्द०)। ४. खोजना। ढूँढना। तलाश करना। उ०— (क) एहि कुरोग कर औषध नाहीं। सोधेऊँ सकल बिस्व मन माहीं। —तुलसी (शब्द०)। (ख) प्यासे दुपहर जेठ के थके सबै जल सोधि। मरुधर पाय मतीरहू मारु कहत पयोधि।—बिहारी (शब्द०)। (ग) मैं तोहि बरजों बार बार। तै बन सोध्यो डाढ़ डाढ़। सब फूलन में कियो है भोग। सुख न भयो तन बाढयो रोग। — कबीर (शब्द०)। ४. धातोओं का औषध रुप में व्यवहार करने के लिये संस्कार। जैसे, —पारा सोधना। ६. ठीक करना। दुरुस्त करना। सुधारना। ७. ऋण चुकाना। अदा करना। ८. प्रसंग करना। संभोग करना। (बाजारु)।

सोधना पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोधन (=अन्वेषण)] खोज। तलाश। उ०— पीव गया परदेश सु कतहूँ सोधना। अब हूँ गृह ते निकसि करौंगी सोधना। — सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ०३४३।

सोधवाना †
क्रि० सं० [हिं० सोधा का प्रेर० रुप] १. ठीक कराना। दुरुस्त कराना। २. साफ कराना। सफाई कराना। ३. ढुँढ़वाना। तलाश कराना। दे० 'सोधाना'।

सोधस
संज्ञा पुं० [सं० सोधस्?] जल का किनारा। (डिं०)।

सोधा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० सुगन्ध]दे० 'सोँधा'। उ०— (क) तापर पहिरि कंचुकी ढीनी सोधै छिरकि बेल सौ भीनी। — माधवा- नल०, पृ०१९७।(ख) सोधें के झोले उस भीतर उठि आते थे। — नट०, पृ०११२।

सोधाना †
क्रि० स० [हि० सोधना का प्रेर० चरुप] १. सोधने का काम दूसरे से कराना। २. ठीक कराना। दुरुस्त कराना। उ०— (क) बाजत अबध गहागहे आनंद बधाये। नामकरन रघुबरनि के नृप सुदिन सोधाये। — तुलसी (शब्द०)।(ख) सुखु पाइ बात चलाइ सुदिनु सोधाइ गिरिहि सिषाइ कै। — तुलसी (शब्द०)। ३. विचार करवाना। उ०— सत गुरु विप्र बोलाय के लाभ सोधावहीं। सज्जन कुटुम परिवार सुमंगल गावहीं।—कबीर (शब्द०)।

सोधु पु
संज्ञा पुं० [हिं० सोध]दे० 'सोध'।

सोन (१)
संज्ञा पुं० [सं० शोण] एक प्रसिद्ध नद का नाम। उ०— सानुज राम समर जस पावन। मिलेउ महानद सोन सुहावन। — मानस,१। ४०। विशेष— यह नद मध्यप्रदेश के अमरकंटक की अधित्यका भूमि से, नर्मदा के उद्गम स्थान से दो ढाई मील पूर्व से, निकला है और उत्तर में मध्यप्रदेश तथा बुंदेलखंड होता हुआ पूर्व की ओर प्रवाहित हुआ है तथा बिहार में दानापुर से १० मील उत्तर गंगा में मिला है। बिहार में इस नद का पाट कोई अढ़ाई तीन मील लंबा है। वर्षा ऋतु में यह नद समुद्र सा जान पड़ता है। इसमें कइ शाखा नदियाँ मिलती हैं जिनमें कोइल प्रधान है। गरमी में इस नद में पानी बहुत कम हो जाता है। वैद्यक के अनुसार इसका जल रुचिकर, संताप और शोषापहस, पथ्य, अग्नि- वर्धक, बल और क्षीणांग को बढ़ानेवाला माना गया है। पर्या०— शोणा। शोणभद्र। हिरण्यवाह।

सोन पु
२ संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण, प्रा० सोण्ण, हिं० सोना]दे० 'सोना'। उ०— (क) परी नाथ कोइ छुवै न पारा। मारग मानुष सोन उछारा। — जायसी (शब्द०)। (ख) दमयंती के बचन न भाए। नल राजा सब द्रव्य गँवाए। सोन रुप जो लाव भुवारा। धरत दाउँ पल मह सब हारा। — सबलसिंह (शब्द०)। यौ०— सोनथार=सोने का थाल। उ०— सोनथार मनि मानिक जरे। — जायसी ग्रं०, पृ०१२४। सोनबरन=स्वर्णभ। सुन- हला। उ०— सोनबरन होइ रही सो रेखा। —जायसी ग्रं०, पृ० १४४। सोनरास = पका हुआ पीला (पान)। उ०— पेड़ी हुँत सोनरास बखानू। —जायसी ग्रं०, पृ०१३५।

सोन (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जलपक्षी। उ०— कुररहि सारस करहि हुलासा। जीवन मरन सो एकहि पासा। बोलहिं सोन ढेक बगलेदी। रही अबोल मीन जल भेदी। — जायसी ग्रं०, पृ०१३।

सोन (४)
वि० [सं० शोण] लाल। अरुणा। रक्त। उ०— सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन। —तुलसी (शब्द०)।

सोन (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोना] एक प्रकार की बेल जो बारहो महीने बराबर हरी रहती है। इसके फूल पीले रंग के होते हैं।

सोन (५)
संज्ञा पुं० [सं० रसोनक या सोनह] लहसुन। (डि०)।

सोनकिरवा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+किरवा (=कीड़ा)] १. एक प्रकार का कीड़ा जिसे पर पन्ने के रंग के चमकीले होते हैं। २. खद्योत। जुगनूँ।

सोनकीकर
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+कीकर] एक प्रकार का बहुत बड़ा पेड़र। विशेष— यह वृक्ष उत्तर बंगाल, दक्षिण भारत तथा मध्यभारत में बहुत होता है। इसके हीर की लकड़ी मूसली सी, पर बहुत ही कड़ी और मजबूत होती है। यह इमारत और खेती के औजार बनाने के काम में आती है। इसका गोंद कीकर के गोंद के समान ही होता है ओर प्रायः औषध आदि में काम आता है।

सोनकेला
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+केला] चंपा केला। सुवर्ण कदली। पीला केला। विशेष— वैद्यक में यह शीतल, मधुर, अग्निदीपक, बलकारक, वीर्यवर्धक, भारी तथा तृषा, दाह, वात, पित्त और कफ का नाशक मान गया है।

सोनगढ़ी †
संज्ञा पुं० [सोनगढ़ (स्थान)] एक प्रकार का गन्ना।

सोनगहरा
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+गहरा] गहरा सुनहरा रंग।

सोनगेरु
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+गेरु] दे० 'सोनागेरु'।

सोनचंपा
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+चंपा] पीला चंपा। सुवर्ण चंपक। स्वर्ण चंपक। विशेष— वैद्यक के अनुसार यह चरपरा, कड़ुवा, कसैला, मधुर, शीतल तथा विष, कृमि, मूत्रकृच्छु, कफ, वात और रक्तपित्त को दूर करनेवाला है।

सोनचिरई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोना+चिरई] दे० 'सोनचिरी'।

सोनचिरी पु
संज्ञा स्त्री० [सोना+चिरी (=चिड़िया)] नटी। उ०— पातरे अंग उड़ै बिनु पाँखरी कोमल भाषनि प्रेम झिरी की। जोबन रुप अनूप निहारि कै लाज मरै निधिराज सिरी की। कौल से नैन कलानिधि सो मुख को गनै कोटि कला गहिरी की। बाँस कै सीस अकास में नाचत को न छकै छबि सोनचिरी की। — देव (शब्द०)।

सोनजरद
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोना+फ़ा० जर्द] दे० 'सोनजर्द'। उ०— कोइ गुलाल सुदरसन कूजा। कोइ सोनजरद पाव भल पूजा। — जायसी (शब्द०)।

सोनजर्द
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोना+फ़ा० जर्द] पीली जूही। स्वर्ण- यूथिका।

सोनजूही पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्ण+हि० जूही] दे० 'सोनजूही'। उ०— (क) देखी सोनजुही फिरति सोनजुही से अंग। दुतिलपटनि पट सेत हूँ करति बनौटी रंग। — बिहारी (शब्द०) (ख) हौं रीझी लखि रीझिहौ छबिहि छबीले लाल। सोनजुही सी होति दुति मिलत मालती माल। — बिहारी (शब्द०)।

सोनजूही
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोना+जूही] एक प्रकार की जूही जिसके फूल पीले रंग के होते हैं पर जिसमें सफेद जूही से सुगंधि अधिक होती है। पीली जूही। स्वर्णयूथिका। उ०— सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे ये दो मदन के बान, मेरी गोद में। हो गए बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफान, मेरी गोद में ! — ठंडा०, पृ०११।

सोनपटीला पु
वि० [हिं० सोना+सं० पत्र या पत्रिल] सोने के पत्र (वर्क) के समान चमकनेवाला। उ०— बारह मास दामिनी दमकै। सोनपटीला जुगनू झमकै। — चरण० बानी, पृ०७९।

सोनपेडुकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोना+पेडुकी] एक प्रकार का पक्षी जो सुनहलापन लिए हरे रंग का होता है। इसकी चोंच सफेद तथा पैर लाल होते हैं।

सोनभद्र
संज्ञा पुं० [सं० शोणाभद्र] दे० 'सोन'। उ०— सोनभद्र तट देश नवेला। तहाँ बसै बहु अबुध बघेला। — रघुराज (शब्द०)।

सोनवाना †
वि० [सं० स्वर्णवर्णक ? अथवा हिं० सोना+वाना (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० सोनवानी] सोने का। सुनहला। उ०— राखा आनि पाट सोनवानी। बिरह बियोगिनी बैठी रानी। — जायसी (शब्द०)।

सोनह
संज्ञा पुं० [सं०] लशुन। लहसुन [को०]।

सोनहटा पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण, हि० सोन+हाट] सोनारों का बाजार। स्वर्ण हाट। सराफा। उ०— प्रचूर पौर जनपद सम्हार सम्हीन, धनहटा, सोनहटा, पनहटा, पक्वानहटा, मछहटा करेआ सुखरव कथा कहते। — कीर्ति०, पृ०३०।

सोनहटिया ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वान या शुन+हाट (=हटिया)] वह बस्ती जहाँ श्वान हों। चर्मकार, मेहतर, डीम आदि का मुहल्ला या निवास। (बोल०)।

सोनहला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+हला (प्रत्य०)] भटकटैया का काँटा। (कहार)। विशेष— पालकी ले जाते समय जब कहीं रास्ते में भटकटैया के काँटे पड़ते हैं, तब उनसे बचन के लिये आगे के कहार 'सोनहुला' या 'सोनहला है' कहकर पीछे के कहारों को सचेत करते है। ये काँटे पीले होते है।

सोनहला (२)
वि० [वि० स्त्री० सोनहली]दे० 'सुनहला'। उ०— उसपर वहाँ के राजा के पैर की सोनहली छाप थी। — भारतेदु ग्रं०, भा० ३, पृ०२८३।

सोनहा
संज्ञा पुं० [सं० शुन (=कुत्ता)] १. कुत्ते की जाति का एक छोटा जंगली जानवर। विशेष— यह जानवर झुंड में रहता है और बड़ा हिंसक होता है। यह शेर को भी मार डालता है। कहते हैं, जहाँ यह रहता है, वहाँ शेर नहीं रहते। इसे 'कोगी' भी कहते हैं। उ०— डाइन डारे सोनहा डोरे सिंह रहे वन घेरे। पाँच कुटुंब मिलि जूझन लागे बाजन बाज घनेरे। — कबीर (शब्द०)। २. शिकारी श्वान। कुत्ता। उ०— किए डोर सब सोनहा ताजी। भल भल गुरजी और सिराजी। — चित्रा०, पृ०२३।

सोनहार पु
संज्ञा पुं० [देश०]— एक प्रकार का समुद्री पक्षी। उ०— और सोनहार सोन कै डाड़ी। सारदूल रुपे के कांड़ी। — जायसी (शब्द०)।

सोना (१)
संज्ञा पुं० [सं० सुवर्ण, स्वर्ण, प्रा० सोष्ण (=सोण)] १. सुंदर उज्वल पीले रंग की एक प्रसिद्ध बहुमूल्य धातु जिसके सिक्के और गहने आदि बनते है। विशेष— यह खानों में या स्लेट अथवा पहाड़ों की दरारों में पाया जाता है। यह प्रायः कंकड़ के रुप में मिलता है। कंकड़ को चूर कर और पानी का तरारा देकर धूल, मिट्टी आदि बहा दी जाती है और सोना अलग कर लिया जाता है। कभी कभी सोना विशुद्ध अवस्था में भी मिल जाता है। पर प्रायः लोहे, तांबे तथा अन्य धातुओं में मिली हुई अवस्था में ही पाया जाता है। यह सीसे के समान नरम होता है पर चांदी, तांबे आदि के मेल से यह कड़ा हो जाता है। यह बहुत वजनी होता है। भारीपन में प्लैटिनम और इरिडियम धातुओं के बाद इसी का स्थान है। यह पीटकर इतना पतला किया जा सकता है कि पारदर्शक हो जाता है। इस प्रकार का इसका बहुत पतला तार भी बनाया जा सकता है। सोने पर जंग नहीं लगता। इसपर कोई खास तेजाब असर नहीं करता। हाँ, गंधक औक शोरे के तेजाब में आँच देने से यह गल जाता है। हिंदुस्तान में प्रायः सभी प्रांतों में सोना पाया जाता हैं, पर मैसूर और हैदराबाद की खानों में अधिक मिलता है। पिछली शताब्दी में कैलि- फोर्निया और आस्ट्रेलिया में भी इसकी बहुत बड़ी खानें मिली हैं। सोना सब धातुओं में श्रेष्ठ माना गया है। हिंदू इसे बहुत पवित्र और लक्ष्मी का रुप मानते हैं। कमर और पैर में सोना पहनने का निषेध है। सोना कितनी ही रसौषधों में भी पड़ता है। वैद्यक में यह त्रिदोषनाशक तथा बलवीर्य, स्मरण शक्ति और कांतिवर्धक माना गया है। पर्या०— स्वर्ण। कनक। कांचन। हेम। गांगेय। हिरण्य। तप- नीय। चांपेय। शांतकुंभ। हाटक। जातरुप। रुक्म। महारजत। भर्म्म। गैरिक। लोहवर। चामीकर। कार्तस्वर। मनोहर। तेज। दीप्तक। कर्व्वूर। कर्च्चूर। अग्निवीर्य। मुख्यधातु। भद्राधातु। भद्र। उद्धसारुक। शांतकौंभ। भूरि। कल्याण। स्पर्शमणि। प्रभव। अग्नि। अग्निशिख। भास्कर। मांगल्य। आग्नेय। भरु। चंद्र। उज्वल। भृंगार। कलधौत। पिंजान। जांबव। अग्निबीज। द्रविण। अग्निभ। दीप्त। सौमंजक। जांबुनद। जांबूनद। निष्क। रुग्म। अष्टापद। अपिंदर। मुहा०— सोना कसना=रखने के लिये कसौटी पर सोने की लकीर खींचना। सोना कसवाना या कसाना = कसौटी परसोने की जांच करना। परखवाना। सोने का कौर खिलाना= अत्यधिक सुखी रखना। उ०— तुम रहते ही हो तो कौन सोने का कौर खिला देते हो। — मान०, भा० ५, पृ०१६८। सोने का घर मिट्टी होना=लाख का खाक होना। सारा वैभव नष्ट होना। सोने का पानी=किसी धातु पर चढ़ाया हुआ सोने का आब। मुलम्मा। सोने का महल उठाना=(१) अत्यंत धनी होना। (२) किसी कार्य में अत्यधिक व्यय करना। सोने का होना=बहुमूल्य होना। गुणी होना। उ०— उनके यहाँ ब्याह करने में ही हमारी पत रहेगी, देवकीनंदन सोने का भी हो तो, हमारे काम का नहीं है। — ठेठ०, पृ०११। सोने की चिड़िया= वह जिससे सदा लाभ ही लाभ होता रहे। मालदार आदमी। उ०— अम्मा दस दिन में झख मार के अप ही मिलेंगी। सोने की चिडिया को कोई छोड़ता है भला। — सैर०, पृ०२८। सोने की चिड़ीया हाथ से उड़ जाना या निकल जाना=किसी मालदार आदमी का चंगुल में न आना। सोने की चिड़िया हाथ आना या लगना = (१) कोई ईप्सित वस्तु अकस्मात् प्राप्त होना। उ०— सुब्हान अल्ला सुब्हान अल्ला। सोने की चिड़िया हाथ आई। कहा, हुजूर खूदा के लिये चिक उठवा दें। — फिसाना०, भा०३, पृ०६८। (२) जिससे अत्यधिक लाभ हो उसका एका- एक मिल जाना। सोने की तौल तौलना=साधारण वस्तु भी सोने की तरह तौलना कि बाल बराबर भी फर्क न रहे। सोने के मोल होना=अत्यधिक मूल्य का होना। बहुमूल्य होना। सोने में घुन लगना = संभव बात का होना। अनहोनी होना। उ०— काहू चीटी लगे पाँख, काहू यम मारे काख, सुनो है न देख्यो घुन लागो है कनक को। — हनुमन्नाटक (शब्द०)। सोने में सुगंध=किसी बहुत बढ़िया चीज में और अधिक विशेषता होना। सोने में सुहागा=रंग में निखार आना आना। और भी उत्कृष्ट होना। सोने से लदे रहना=(१) अत्यधिक स्वर्ण- भूषण पहनना। (२) ऐश्वर्य का उपभोग करना। क्रि० प्र०— गलना।— गलाना।—तपना।—तपाना। २. अत्यंत बहुमूल्य वस्तु। बहुत महँगी चीज। ३. अत्यंत सुंदर वस्तु। उज्वल या कांतिमान् पदार्थ। जैसे, — शरीर सोना हो जाना। ४. एक प्रकार का हंस। राजहंस।

सोना (२)
संज्ञा पुं० सझोले कद का एक वृक्ष जो बरार और दारजिलिंग की तराइयों में होता है। कोलपार। विशेष— इस वृक्ष में कलियाँ लगती हैं जिनका मुरब्बा बनता है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है और इमारत तथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है। चीरने के समय लकड़ी का रंग अंदर से गुलाबी निकलता है, पर हवा लगने से वह काला हो जाता है।

सोना (३)
संज्ञा स्त्री० प्रायः एक हाथ लंबी एक प्रकार की मछली जो भारत और बरमा की नदियों में पाई जाती है।

सोना (४)
क्रि० अ० [सं० शयन] १. उस अवस्था में होना जिसमें चेतन क्रियाएँ रुक जाती हैं और मन तथा मस्तिष्क दोनों विश्राम करते हैं। नींद लेना। शयन करना। आँख लगना। २. लेटना। आराम करना। संयो० क्रि०— जाना। मुहा०— सोते जागते=हर घड़ी। हर समय। २. शरीर के किसी अंग का सुत्र होना। जैसे, — मेरे पैर सो गए। उ०— आगे किसू के क्या करें दस्ते तमादराज। वह हाथ सो गया है सिर्हाने धरे धरे। — कविता कौ०, भा ४, पृ०१६३। विशेष— यह क्रिया प्रायः एक अंग को एक ही अवस्था में कुछ अधिक समय तक रखने पर हो जाती है।

सोनागेरु
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+गेरु] गेरु का एक भेद जो जो मामूली गेरु से अधिक लाल और मुलायम होता है। विशेष— वैद्यक के अनुसार यह स्निग्ध, मधुर, कसैला, नैनों को हितकर, शीतल, ब़लकार, व्रणशोधक, विशद, कांतिजनक तथा दाह, पित्त, कफ, रक्तविकार ज्वर, विष, विस्फोटक, वमन, अग्निदग्धव्रण, बवासीर और रक्तपित्त को नाश करनेवाला है। पर्या०— सुवर्णगैरिक। सुरक्त। स्वर्णधातु। शिलाधातु। संध्याग्र। वभ्रु धातु। सुरक्तक।

सोनाचांदी
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+चाँदी] धन दौलत। माल संपत्ति।

सोनापाठा
संज्ञा पुं० [सं० शोण+हिं० पाठा] १. एक प्रकार का ऊँचा बृक्ष जिसकी छाल, बीज और फल औषधि के काम आते है। विशेष— यह वृक्ष भारत और लंका में सर्वत्र होता है। इसकी छाल चौथाई इंच तक मोटी, हरापन लिए पीले रंग की, चिकनी, हलकी और मुलायम होती है। काटने से इसमें से हरा रस निकलता है। लकड़ी पीलापन लिए सफेद रंग की हलकी और खोखली होती है तथा जलाने के सिवा और किसी काम में नहीं आती। पेड़ की टहनियों पर तीन से पाँच फुट तक लंबी झुकी हुई सींकें होती हैं जो भीतर से पीली होती हैं। प्रत्येक प्रधान सींक पर पांच पांच गांठें होती हैं और उन गाँठों के दोनों और एक एक और सींक होती है। पहली सींक की चार गाँठे सींकों सहित क्रम क्रम से छोटी रहती हैं। इनमें पहली गाँठ पर तीन जोड़े पत्ते, दूसरी और तीसरी गाँठ पर एक एक जोड़ा और चौथी गांठ पर तीन पत्ते लगे रहते है। दूसरी और तीसरी सींकों पर भी इसी क्रम से पत्ते रहते हैं। चौथी गाँठवाली सींक पर पाँच पाँच पत्ते (दो जोड़े और एक छोर पर) होते हैं। पाँचवीं पर तीन पत्ते (एक जोड़ा और एक छोर पर) होते हैं। इसी प्रकार अंत में तीन पत्ते होते हैं। पत्ते करंज के पत्ते के समान २।। से ४।। इंच तक चौड़े, लंबोतरे और कुछ नुकीले होते हैं। फूल १-२ फुट लंबी डंडी पर २।।-३ इंच लंबोतरे और सिल- सिलेवार आते हैं। फूलों के भीतर का रंग पीलापन लिए लाल और बाहर का रंग नीलापन लिए लाल होता है। फूलों में पाँच पंखड़ियाँ और भीतर पीले रंग के पाँच केसर होते हैं। फूल बहुधा गिर जाया करते हैं, इसलिये जितने फूल आते हैं, उतनी फलियाँ नहीं लगतीं। फलियाँ २-२।। फुट लंबी और ३-४ इंचचौड़ी, चिपटी तथा तलबार की तरह कुछ मुड़ी हुई टेढ़ी नोकवाली होती है। इनके अंदर भोजपत्र के समान तहदार पत्ते सचे रहते हैं और इन पत्तों के बीच में छोटे, गोल और हलके बीज होते हैं। कलियाँ और कोमल फलियाँ प्रायः कच्ची ही गिर जाया करती है। कार्तिक और अगहन के आरंभ तक इसके वृक्ष पर फूल फल आते रहते हैं और शीतकाल के अंत और वसंत ऋतु में फलियाँ पककर गिर जाती हैं और बीज हवा में उड़ जाते हैं। इन बीजों के गिरने से वर्षा ऋतु में पौधे उत्पन्न होते हैं। वैद्यक के अनुसार यह कसैला, कडुवा, चरपरा, शीतल, रुक्ष, मल- रोधक, बलकारी, वीर्यवर्धक, जठराग्नि को दीपन करनेवाला तथा वात, पित्त, कफ, त्रिदोष, ज्वर, सनिपात, अरुचि, आम- वात, कृमि रोग, वमन, खाँसी, अतिसार, तृषा, कोढ़, श्वास और वस्ति रोग का नाश करनेवाला है। इसकी छाल, फल और बीज औषध के काम में आते हैं, पर छाल का ही अधिक उपयोग होता है। इसका कच्चा फल कसैला, मधुर, हलका, हृदय और कंठ की हितकारी, रुचिकर, पाचक, अग्निदीपक, गरम, कटु, क्षार तथा वात, गुल्म, कफ और बवासीर तथा कृमिरोग का नाश करनेवाला है। पर्या०— श्योनाक। शुक्रनास। कट्वंग। कंटभर। मयूरजंध। अरलुक। प्रियजीवी। कुटन्नट। २. इसी वृक्ष का एक और भेद जो संयुक्त प्रेदेश (उत्तर प्रदेश), पश्चिमोत्तर प्रदेश, बंबई, कर्नाटक, कारमंडल के किनारे तथा बिहार में अधिकता से होता है और राजपूताने में भी कहीं कहीं पाया जाता है। विशेष— यह पेड़ ६० से ८० फुट तक ऊँचा होता है और पत्तेवाली सींक प्रायः ८इंच से १ फुट तक लंबी होती है, और कहीं कहीं सींकों की लंबाई २-३ फुट तक होती है। सींकों पर आउ से चौदह जोड़े समर्वती पत्ते होते हैं। इसके फूल बड़े और कुछ पीले होते हैं। फलियां तांबे के रंग की, दी इंच लंबी तथा चौथाई इंच चौड़ी, गोल, दोनों ओर नुकीली और जड़ की ओर ऐंठी सी रहती हैं। पेड़ की छाल सफेद रंग की होती है और गुण भी सोनापाठा— '१' के समान ही है। पर्या०— टुंटुंक। दीर्घवृंत। टिटुक। कीरनाशन। पूतिवृक्ष। पूतिनारा। भूतिपुष्पा। मुनिद्रुम आदि।

सोनापेट
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+पेट (=गर्भ)] सोने की खाना।

सोनाफूल
संज्ञा पुं० [हिं० सोना+फूल] एक प्रकार की झाड़ी जो आसाम और खामिया पहाड़ियों पर होती है। गुलाबजम। विशेष— इस झाड़ी की पत्तियों से एक प्रकार का भूरा रंग निकलता है और इसकी छाल के रेशों से रस्सियां भी बनती हैं। इसे गुलाबजम भी कहते हैं।

सोनामक्खी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्णमाक्षिक] १. एक खनिज पदार्थ जो भारत में कई स्थानों में पाया जाता है। विशेष— आयुर्वेद में इसकी गणना उपधातुओं में है। इसमें सोने का कुछ अंश और गुण वर्तमान रहने के कारण इसका नाम स्वर्णमाक्षिक पड़ा है। सोने के अभाव में ओषधियों में इसका उपयोग किया जाता है। सोने के सिवा अन्य धातुओं का संमिश्रण रहने से इसमें और भी गुण आ गए हैं। उपधातु होने के कारण, यथोचित रीति से सोधन कर इसका व्यवहार करना चाहिए, अन्यथा यह मंदाग्नि, बलहानि, विष्टंभिता, नेत्ररोग, कोढ़, गडमाला, क्षय, आध्मान, कृमि आदि अनेक रोग उत्पन्न करती है। शोधितावस्था में यह वीर्यवर्धक, नेत्रों के लिये हितकर, स्वरशोधक, व्यवायी, कोढ़, सूजन, प्रमेह, बवासीर, वस्ति, पांडुरोग, उदरव्याधि, विषविकार, कंठरोग, खुजली, क्षय, भ्रम, हुल्लास, मूर्छा, खाँसी, श्वास आदि रोगों का नाश करनेवाली मानी गई है। पर्या०— स्वर्णमाक्षिक। माक्षिक। हेममाक्षिक। धातुमाक्षिक। स्वर्णवर्ण। स्वर्णाह्नय। पीतमाक्षिक। माक्षिकधातु। तापीज। मधुमाक्षिक। तीक्षण। मधुधातु। २. एक प्रकार का रेशम का कीड़ा।

सोनामाखी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वर्णमाक्षिक]दे० 'सोनामक्खी'।

सोनामुखी
[सं० स्वर्णमुखी]दे० 'स्वर्णपत्री'।

सोनार
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्णकार, प्रा० सोष्णार, सोणार] [स्त्री० सोनारिन]दे० 'सुनार'। उ०— कहाँ सोनार पास जेहि जाऊँ। देइ सोहाग करै एक ठाऊँ। — जायसी ग्रं० (गुप्त) पृ०८९।

सोनारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोनार+ई (प्रत्य०)] सुनार का काम। सोने आदि के गहने बनाने का काम।

सोनिजरद पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोना+फा० जर्द] दे० सोनजर्द।

सोनित पु
संज्ञा पुं० [सं० शोणित] दे० 'शोणित' उ०— तव सोनित को प्यास तृषित राम सायक निकर। — मानस,६।३२।

सोनी पु
१ संज्ञा पुं० [हिं० सोना] सुनार। स्वर्णकार। उ०— (क) देव दिखावति कंचन से तन औरन को मन तावै अगोनी। सुंदरि सांचे में दै भरि काढ़ी सी आपने हाथ गढ़ी विधि सोनी। — देव (शब्द०)। (ख) सुंदर काढ़ै सोधि करि सद- गुरु सोनी हाइ। शिवसुवर्ण निर्मल करै टांका रहै न कोइ। — सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ०६७३।

सोनी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक जातिविशेष का नाम। २. तुन की जाति का एक वृक्ष।

सोनेइया
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाती।

सोनैया
संज्ञा स्त्री० [देश०] देवदाली। घघरबेल। बंदाल। विशेष दे० 'देवदाली'।

सोन्मद, सोन्माद
वि० [सं०] उन्मादयुक्त। पागल। विक्षिप्त [को०]।

सोप (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की छपी हुई चादर।

सोप (२)
संज्ञा पुं० [अं०] साबुन।

सोप (३)
संज्ञा पुं० [अं० स्वाब] बुहारी। झाड़ू।(लश०)।

सोपकरण
वि० [सं०] साधन या उपकरण से युक्त [को०]।

सोपाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्याज सहित मूलधन। असल मै सूद। २. उपकृत व्यक्ति (को०)।

सोपकार (२)
वि० १. सहायताप्राप्त। उपकृत। २. लाभकर। लाभ देनेवाला। ३. उपकरण या साधन से युक्त। ४. सूद देनेवाला। जिससे सूद प्राप्त हो। सूद पर लगाया या दिया हुआ [को०]।

सोपकार आधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह धरोहर जो किसी फायदे के काम में (जैसे रुपए का सूद पर दे दिया जाना, आदि) लगा दी गई हो।

सोपचार
वि० [सं०] आदर और संमानपूर्वक व्यवहार करनेवाला [को०]।

सोपत पु
संज्ञा पुं० [सं० सूपपत्ति] सुबीता। सुपास। आराम का प्रबंध। उ०— बन बन बागत बहुत दिनन ते कृश तनु ह्नैहैं प्यारे। करत रह्यो ह्नैहै को सोपत दूध बदन दोउ वारे। — रघुराज (शब्द०)। क्रि० प्र०— बंधना।—बाँधना।—बैठना।—बैठाना।— लगना। लगाना।

सोपध
वि० [सं०] १. झुठ और कपट से भरा हुआ। २. उपांत्य़ सहित। अंतिम से पूर्ववाले वर्ण के साथ [को०]।

सोपधान
वि० [सं०] १. गद्दा आदि से युक्त। सज्जित। २. उत्तम कोटि का [को०]।

सोपधि (१)
वि० [सं०] कपटी। झूठा। छली।

सोपधि (२)
क्रि० वि० झुठा मूठा। छलयुक्त या कपटपूर्ण ढंग से [को०]।

सोपधि प्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] ऋण लेनेवाले या धरोहर रखनेवाले से किसी बहाने से ऋण की रकम बिना दिए गिरबी की वस्तु बापस ले लेना।

सोपधिशेष
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जिसमें छल, कपट शेष हो। वह व्यक्ति जो निश्छल न हो [को०]।

सोपप्लव
वि० [सं०] १. उपप्लव अर्थात् बाढ़, उपद्रव आदि से युक्त। २. ग्रहण से युक्त [को०]।

सोपाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह व्यक्ति जो चांडाल पुरूष और पुक्कसी के गर्भ से उत्पन्न हुआ हो। चंडाल। श्वपाक। २. काष्ठौषधि बेचनेवाला। वनौषधि बेचनेवाला।

सोपाधि
वि० [सं०] १. परिणाम एवं इयत्ता से युक्त। नाम और गुणायुक्त। सीमित। सगुण। सीमा या गुण विशिष्ट। उ०— व्यवहार पक्ष में शंकराचार्य ने जिसे उपासनागम्य ब्रह्म का अवस्थान किया है वह सोपाधि या सगुण ब्रह्म है, अव्यक्त पारमार्थिक सत्ता नहीं। — चिंतामणि भा० २, पृ०८०। २. कुछ विशिष्टता या खासियत रखनेवाला। ३. विशिष्ट। प्रधान। श्रेष्ठ (को०)।

सोपाधिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सोपाधिकी]दे० 'सोपाधि'। उ०— किंतु यह सब व्यापार सोपाधिक आकार ग्रहण करने पर ही संभव है। — संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ०११२।

सोपान
संज्ञा पुं० [सं०] १. सीढ़ी। जीना। २. जैनों के अनुसार मोक्ष- प्राप्ति का उपाय। यौ०— सोपानकूप=वह कुआँ जिसमें सीढ़ियाँ बनी हैं। सोपान- पथ, सोपानपथ, सोपानपद्धति, सोपानपरंपरा=सीढ़ियों का क्रम या सिलसिला। जीना। सोपानमार्ग=जीना। सोपानमाला=चक्करदार सीढ़ियाँ, जो प्रायः बुर्ज, मीनार आदि में होती हैं।

सोपानक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोने के तार में पिरोई हुई मोतियों की माला। २. दे०'सोपान'। यौ०— सोपानक पद्धति=सीढ़ियों का क्रम, सिलसिला।

सोपानिक
वि० [सं०] सोपान से युक्त। सीढ़ियों से युक्त। उ०— सरयू तीर हेम सोपानित सब थल कहिं प्रकासा। — रघुराज (शब्द०)।

सोपारी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० सुपारी]दे० 'सुपारी'।

सोपाश्रय (१)
वि० [सं०] उपाश्रय या अवलंब से युक्त।

सोपाश्रय (२)
संज्ञा पुं० योग का एक आसन [को०]।

सोपासन
वि० [सं०] १. उपासनायुक्त। २. जो पवित्र अग्नि से युक्त हो। होमाग्नियुत।

सोपि, सोपी
वि० [सं० स?+अपि, सोपि] १. वही। उ०— आकर चारि जीव जग अहहीं। कासी मरत परम पद लहहीं। सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेश करत करि दाया।— तुलसी (शब्द०)। २. वह भी। उ०— सब ते परम मनोहर गोपी। नंदनँदन के नेह मेह जिनि लोक लीक लोपी। हरि कुबजा के रंगहि राचे तदपि तजी सोपी। तदपि न तजै भजै निसि बासर नैकहु न कोपी। — सूर (शब्द०)।

सोफ
संज्ञा पुं० [अ० सोफ़] दावात में डालनेवाला कपड़ा। उ०— मन मसिदानी साँच की स्याही, सुरति सोफ भरि जारी। — धरनी० बानी०, पृ०३।

सोफता
संज्ञा पुं० [सं० सुविधा] १. एकांत स्थान। निराली जगह। उ०— (क) इनका मन किसी और बात में लगा हुआ है, तुम कड़ों की बात फिर कभी सोफते में पूछ लेना।— श्रद्धाराम (शब्द०)।(ख) वह उसे सोफते में ले गया। २. रोग आदि में कुछ कमी होना।

सोफा
संज्ञा पुं० [अं०] लंबी, दो तीन व्य़क्तियों के बैठने योग्य, प्रायः गद्दीदार, कुरसी।

सोफियाना
वि० [अ० सूफ़ी+फ़ा० इयाना (प्रत्य०)] १. सूफियों का। सुफी संबंधी। २. जो देखने में सादा पर बहुत भला लगे। जैसे, — सोफियाना कपड़ा, सोफियाना ढंग। विशेष— सूफी लोग प्रायः बहुत सादे, पर सुंदर ढंग से रहते थे; इसी से इस शब्द का इस अर्थ में व्यवहार होने लगा।

सोफी
संज्ञा पुं० [फ़ा० सूफ़ी] [स्त्री० सोफनि, सोफिन] दे० 'सूफी'। उ०— दादू, सोइ जोगी सोइ जंगमा, सोइ सोभी सोइ सेख। जोगिणि ह्नै जोगी गहै, सोफणि ह्नै करि सेख। — दादू० बानी, पृ०२३९।

सोब
संज्ञा पुं० [दंश०]दे० 'सोप'।

सोबरन पु
संज्ञा पुं० [सं० सुवर्ण]दे० 'सुवर्ण'। उ०— उदित अँधेरी में आज भृगु हैं, कि जिनमें आभा है सोबरन की। — पोद्दार अभि ग्रं०, पृ०८८९।

सोबरि, सोबरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० सूति+गृह] सूतिकागृह। सौरी। उ०— आवौ, आवौ, सासु मेरी आवौ, मेरी सोबरि के बीच चरुआ धरावौ। — पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ०९१३।

सोबन †, सोब्रन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० सुवर्ण, स्वर्ण]दे० 'सुवर्ण'।

सोभ पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शोभा] उ०— (क) अंग अंग आनँद उमगि अफनत बैनन माझ। सखी सोभ सब बसि भई मनो कि फूली साँझ। — पृ० रा०, १४। ५५। उ०— अति सुंदर शीतल सोभ बसै। जहँ रुप अनेकन लोभ लसै। — केशव (शब्द०)।

सोभ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] गंधर्वों के नगर का नाम।

सोभन
संज्ञा पुं, वि० [सं० शोभन]दे० 'शोभन'।

सोभना पु †
क्रि० अ० [सं० शोभन] सोहना। शोभित होना। उ०— (क) सिधु में बड़वाग्नि की जनु ज्वाल माल विराजई। पद्मरागनि सों किधौं दिवि धूरि पूरित सोभई। — केशव (शब्द०)। (ख) कुंडल सुंदर सोभिजै स्याम गात छबि दान।—केशव (शब्द०)।

सोभनीक
वि० [सं० शोभन] शोभायुक्त। सुंदर। दे०'शोभित'। उ०— और काहू रैति कै स्वरुप होइ सोभनीक, ताहू कौं तौ देखि करि निकट बुलाइए। — सूंदर ग्रं०, भा०२, पृ०४८०।

सोभर
संज्ञा पुं० [सं० सूतिगृह ?] वह कोठरी या कमरा जिसमें स्त्रियाँ प्रसव करती हैं। सौरी। जच्चाखाना। सतिकागार।

सोभरि
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि।

सोभांजन
संज्ञा पुं० [सं० सोभाञ्जन]दे० 'शोभांजन'।

सोभा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शोभा, प्रा० सोभा]दे० 'शोभा'। उ०— (क) सब सोभा ससि सानि कै साँची इंछिनि एक। — पृ० रा०, १४। ५६। (ख) राधा दामिनि के सँग सोभा सरस्यो करै।—प्रेमघन०, भा० २, पृ०२०१।

सोभाकारी
वि० [सं० शोभाकर] जो देखने में अच्छा हो। सुंदर। बढ़िया। उ०— शीश पर धरे जटा मानौ रुप कियो त्रिपुरारि। तिलक ललित ललाट केसर बिंद सोभाकारि। — सूर (शब्द०)।

सोभायमान
वि० [सं० शोभायमान] दे० 'शोभायमान'।

सोभार
वि० [सं० स (=सह) + हि० + उभार] उभार के साथ। उभरा हुआ। उ०— मुक्त नभ वेणी में सोभार, सुहाती रक्त पलाश समान। — गुंजन, पृ०४६।

सोभित पु
वि० [सं० शोभित]दे० 'शोभित'।

सोभिल पु †
वि० [सं० शोभिल, प्रा० सोहिल्ल] शोभायुक्त। शोभित। उ०— गुंजंत ग्राम सोभिल कुँआरि। तिहि हरत हरनि मन- मत्थ रारि। — पृ० रा०, १४। ९७।

सोम
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल की एक लता का नाम। विशेष— इस लता का रस पीले रंग का और मादक होता था और इसे प्राचीन वैदिक ऋषि पान करते थे। इसे पत्थर से कुचल कर रस निकालते थे और वह रस किसी ऊनी कपड़े में छान लेते थे। यह रस यज्ञ में देवताओं को चढ़ाया जाता था और अग्नि में इसकी आहुति भी दी जाती थी । इसमें दूध या मधु भी मिलाया जाता था। ऋक् संहिता के अनुसार इसका उत्पत्ति स्थान मुंजवान पर्वत है; इसी लिये इसे 'मौजवत्' भी कहते थे। इसी संहिता के एक दूसरे सूक्त में कहा गया है कि श्येन पक्षी ने इसे स्वर्ग से लाकर इंद्र को दिया था। ऋग्वेद में सोम की शक्ति और गुणों की बड़ी स्तुति है। यह यज्ञ की आत्मा और अमृत कहा गया है। देवताओं को यह परम प्रिय था। वेदों में सोम का जो वर्णन आया है, उससे जान पड़ता है कि यह बहुत अधिक बलवर्धक, उत्साहवर्धक, पाचक और अनेक रोगों का नाशक था। वैदिक काल में यह अमृत के समान बहुत ही दिव्य पेय समझा जाता था, और यह माना जाता था कि इसके पान से हृदय से सब प्रकार के पापों का नाश तथा सत्य और धर्मभाव की बृद्धि होती है। यह सब लताओं का पति और राजा कहा गया है। आर्यों की ईरानी शाखा में भी इस लता के रस का बहुत प्रचार था। पर पीछे इस लता के पहचाननेवाले न रह गए। वहाँ तक कि आयुर्वेद के सुश्रुत आदि आचार्यों के समय में भी इसके संबंध में कल्पना ही कल्पना रह गई जो सोम (चंद्रमा) शब्द के आधार पर की गई। पारसी लोग भी आजकल जिस 'होम' का अपने कर्मकांड में व्यवहार करते हैं, वह असली सोम नहीं है। वैद्यक में सोमलता की गणना दिव्योषधियों में है। यह परम रसायन मानी गई है और लिखा गया है कि इसके पंद्रह पत्ते होते हैं जो शुक्लपक्ष में— प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक—एक एक करके उत्पन्न होते हैं और फिर कृष्ण पक्ष में—प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक— पंद्रह दिनों में एक एक करके वे सब पत्ते गिर जाते हैं। इस प्रकार अमावस्या को यह लता पत्रहीन हो जाती है। पर्या०—सोमवल्ली। सोमा। क्षीरी। द्विजप्रिया। शणा। यश- श्रेष्ठा। धनुलता। सोमाह्नी। गुल्मवल्ली। यज्ञवल्ली। सोम- क्षीरा। यज्ञाह्मा। २. एक प्रकार की लता जो वैदिक काल के सोम से भिन्न है। विशेष—यह दूसरी सोम लता दक्षिण की सूखी पथरीली जमीन में होती है। इसका क्षुप झाड़दार और गांठदार तथा पत्रहीन होता है। इसकी शाखा राजहंस के पर के समान मोटी और हरी होती है और दो गाँठों के बीच की शाखा ४ से ६ इंच तक लंबी होती है। इसके फूल ललाई लिए बहुत हलके रंग के होते हैं। फलियाँ ४—५ इंच लंबी और तिहाई इंच गोल होती हैं। बीज चिपटे और १/४ से १/६ इंच तक लंबे होते हैं। ३. वैदिक काल के एक प्राचीन देवता जिनकी ऋग्वेद में बहुत स्तुति की गई है। इंद्र और वरुण की भांति इन्हें मानवी रुप नहीं दिया गया है। विशेष—ये सूर्य के समान प्रकाशमान, बहुत अधिक वेगवान्, जेता, योद्धा और सबको संपत्ति, अन्न तथा गौ, बैल आदिदेनेवाले माने जाते थे। ये इंद्र के साथ उसी के रथ पर बैठकर लड़ाई में जाते थे। कहीं कहीं ये इंद्र के सारथी भी कहे गए हैं। आर्यों की ईरानी शाखा में इनकी पूजा होती थी और आवस्ता में इनका नाम 'हओम' या 'होम' आया है। ४. चंद्रमा। ५. सोमवार। ६. सोमरस निकालने का दिन। ७. कुवेर। ८. यम। ९. वायु। १०. अमृत। ११. जल। १२. सोमयज्ञ। १३. एक वानर का नाम। १४. एक पर्वत का नाम। १५. एक प्रकार की ओषधि। १६. स्वर्ग। आकाश। १७. अष्ट वसुओं में से एक। १८. पितरों का एक वर्ग। १९. माँड़। २०. काँजी। २१. हनुमंत के अनुसार मालकश राग के एक पुत्र का नाम। (संगीत)। २२. विवाहित पति।—सत्यार्थप्रकाश। २३. एक बहुत बड़ा ऊँचा पेड़। विशेष—इस पेड़ की लकड़ी अंदर से बहुत मजबूत और चिकनी निकलती है। चीरने के बाद इसका रंग लाल हो जाता है। यह प्रायः इमारत के काम में आती है। आसाम में इसके पत्तों पर मूँगा रेशम के कीड पाले जाते हैं। २४. एक प्रकार का स्त्रीरोग। सोमरोग। २५. यज्ञद्रव्य। यज्ञ की सामग्री। २६. सुग्रीव (को०)। २७. (पदांत में) श्रेष्ठ। उतकृष्ठ। प्रधान। जैसे, नृसोम।

सोम (१)
संज्ञा पुं० [सं० सोमन्] १. वह जो सोमरस चुआता या बनाता हो। २. सोमयज्ञ करनेवाला। ३. चंद्रमा।

सोमक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम। २. एक राजा का नाम। ३. भागवत के अनुसार कृष्ण के एक पुत्र का नाम। ४. द्रुपद वंश या इस वंश का कोई राजा। ५. स्त्रीयों का सोम नामक रोग। ६. एक देश या जाति। ७. सहदेव के एक पुत्र का नाम।

सोमकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्र या सोम की पुत्री [को०]।

सोमकर
संज्ञा पुं० [सं० सोम + कर] चंद्रमा की किरण। उ०— मधुर प्रिया घर सोमकर माखन दाख समान। बालक बातें तोतरी कवि कुल उक्ति प्रमान।—(शब्द०)।

सोमकर्म
संज्ञा पुं० [सं० सोमकर्मन्] सोम प्रस्तुत करने की किया। सोम रस तैयार करना।

सोमकलश
संज्ञा पुं० [सं०] वह कलश जो सोमयुक्त हो। सोम का घड़ा [को०]।

सोमकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार २१ वें कल्प का नाम।

सोमकांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० सोमकान्त] चंद्रकांत मणि।

सोमकांत (२)
वि० १. चंद्रमा के समान प्रिय या सुंदर। २. जिसे चंद्रमा प्रिय हो।

सोमकाम (१)
वि० [सं०] सोमपान करने का इच्छुक या सोमकामी।

सोमकाम (२)
संज्ञा पुं० सोमपान करने की इच्छा।

सोमकामी
वि०, संज्ञा पुं० [सं० सोमकामिन्] दे० 'सोमकाम' [को०]।

सोमकीर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।

सोमकुल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] मार्कडेय पुराण के अनुसार एक नदी का नाम।

सोमकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वामन पुराण के अनुसार एक राजर्षि का नाम जो भरद्वाज के शिष्य थे। २. सोमक जाति या देश का राजा।

सोमक्रतवीय
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

सोमक्रतु
संज्ञा पुं० [सं०] सोमयज्ञ।

सोमक्रयण
संज्ञा पुं० [सं०] सोम के मूल्य पर कार्य करनेवाला [को०]।

सोमक्रयणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोममूल्य के रुप में प्राप्त गो।

सोमक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] अमावस्या तिथि, जिसमें चंद्रमा के दर्शन नहीं होते।

सोमक्षीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमवल्ली। सोमराजी। बकुची।

सोमक्षीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकुची। सोमवल्ली।

सोमखंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० सोमखण्डा] बकुची। सोमवल्ली।

सोमखड्डक
संज्ञा पुं० [सं०] नेपाल के एक प्रकार के शैव साधु।

सोमगंधक
संज्ञा पुं० [सं० सोमगन्धक] रक्त पद्य। लाल कमल।

सोमगति पुं० †
वि० [अ० शूम, हिं० सूम] सूम का आचरण करनेवाला। कृपण। उ०—अजा कंठ कुच पै नहीं क्या पीवै दुहि ग्वाल। ज्यों रज्जब सिख सोमगति गुरु भेषा बेहाल।— रज्जब० बानी, पृ० १४।

सोमगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।

सोमगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकुची। सोमराजी। सोमवल्ली।

सोमगिरी
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक पर्वत का नाम। २. मेरुज्योति। ३. एक आचार्य का नाम।

सोमगृष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पेठा। कुष्मांड लता।

सोमगोपा
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

सोमग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा का ग्रहण। २. घोड़ों का एक ग्रह जिससे ग्रस्त होने पर वे काँपा करते हैं। ३. सोमपात्र। सोम रस का पात्र (को०)।

सोमग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा का ग्रहण। चंद्रग्रहण। २. वह जो सोमरस को ग्रहण या धारण करे (को०)।

सोमधृत
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रीरोगों की एक औषध। विशेष—इसके बनाने की विधि इस प्रकार है—सफेद सरसों बच, ब्राह्मी, शंखाहुली, पुनर्नवा, दूधी (क्षीर काकोली) खिरैंटी, कुटकी, खंभारी के फल (जरिश्क), फालसा, दाख, अनंतमूल, काला अनंतमूल, हलदी, पाठा, देवदारु, दालचीनी, मुलैठी, मजीठ, त्रिफला, फूल प्रियंगु, अडूसे के फूल, हुरहुर, सोंचर नमक और गेरु ये सब मिलाकर एक सेर घृतपाक विधि के अनुसार चार सेर गौ के घी में पाक करना चाहिए। गर्भवती स्त्री को दूसरे महीने से छह महीने तक इसका सेवन कराया जाता है। इससे गर्भ और योनि के समस्त दोषों का निवारण होता है, रजवीर्य शुद्ध होता है और स्त्री बलिष्ठ तथा सुंदर संतान उत्पन्नकरती है। पुरुषों को भी दूषित वीर्य की शुद्धि के लिये यह दिया जा सकता है।

सोमचमस
संज्ञा पुं० [सं०] सोम पान करने का पात्र।

सोमज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १.सोम का पुत्र, बुध ग्रह। २. दुध।

सोमज (२)
वि० चंद्रमा से उत्पन्न।

सोमजाजी पु
संज्ञा पुं० [सं० सोमयाजिन्] दे० 'सोमयाजी'। उ०— ब्याध अपराध की साध राखी कौन? पिंगला कौन मति भक्ति भेई। कौन धौं सोमजाजी अजामिल अधम? कौन गजराज घौं बाजपेई।—तुलसी (शब्द०)।

सोमतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक तीर्थ का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है। इसे प्रभास क्षेत्र भी कहते हैं।

सोमदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] एक यक्ष का नाम। (बौद्ध)।

सोमदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रामायण के अनुसार एक गंधर्वी का नाम। २. गंधपलाशी। कपूरकचरी।

सोमदिन
संज्ञा पुं० [सं० सोम + दिन] सोमवार। चंद्रवार। उ०— रस गोरस खेती सकल विप्र काज सुभ साज। राम अनुग्रह सोम दिन प्रमुदित प्रजा सुराज।—तुलसी (शब्द०)।

सोमदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोम देवता। २. चंद्रमा देवता। ३. कथासरित्सागदर के रचयिता का नाम जो काश्मीर में ११ वीं शताब्दी में हुए थे।

सोमदेवत
वि० [सं०] जिसके देवता सोम हो।

सोमदेवत्य
वि० [सं०] दे० 'सोमदेवत'।

सोमदैवत
संज्ञा पुं० [सं०] मृगशिरा। नक्षत्र।

सौमदैवत्य
वि० [सं०] दे० 'सोमदेवत'।

सोमधान
वि० [सं०] जिसमें सोम हो। सोमयुक्त।

सोमधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकाश। आसमान। २. स्वर्ग।

सोमधेय
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद और जाति।

सोमनंदी
संज्ञा पुं० [सं० सोमनन्दिन्] १. महादेव के एक अनुचर का नाम। २. एक प्राचीन वैयाकरण का नाम।

सोमनंदीश्वर
संज्ञा पुं० [सं० सोमन्दीश्वर] शिव जी के एक लिंग का नाम।

सोमन पु
संज्ञा पुं० [सं० सौमन] एक प्रकार का अस्त्र। उ०— तथा पिशाच अस्त्र अरि मोहन लेहु राज दुलहेटे। तामस सोमन लेहु बार बहु शत्रुन को दरभेटे।—रघुराज (शब्द०)।

सोमनस पु
संज्ञा पुं० [सं० सौमन्स्य] दे० 'सौमन्स्य'। उ०—पारि- भाद्र सोमनस अरु अविज्ञान सुरवर्ष। रमशक अप्याजन सहित देउ सुरोवन हर्ष।—केशव (शब्द०)।

सोमनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसिद्ध द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक। २. काठियावाड़ के पश्चिम तट पर स्थित एक प्राचीन नगर जहाँ उक्त ज्योतिर्लिंग का मंदिर है। विशेष—इतिहासज्ञों के अनुसार इस मंदिर के विपुल धन, रत्न की प्रसिद्ध सुनकर सन्१०२४ई० में महमूद गजनवी ने इसपर चढ़ाई की और यहाँ से करोड़ों की संपत्ति उसके हाथ लगी। मूर्ति तोड़ने पर उसमें से भी बहुमूल्य हीरे पन्ने आदि रत्न निकले थे। आस पास के लोगों ने महमूद के काम में बाधा दी थी, पर वे सफल नहीं हुए। अनंतर वह देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण को वहाँ का शासक नियुक्त कर गजनी लौट गया। चौलुक्यराज दुर्लभराज ने उससे सोमनाथ के उद्धार किया। इसके बाद राठौरों ने उसपर अधिकार जमाया। पर सन् १३०० में यह फिर मुसलमानों के अधिकार में आ गया। सन् १९४८ के पहले तक यह जूनागढ़ के नवाब वंश के शासनाधिन रहा। इसे सोमनाथ पट्टन या सोमनाथ पत्तन भी कहते हैं। सन् १९४८ में देश की स्वतंत्रता घोषित होने पर विभिन्न देशी राज्यों की तरह यह भी भारत संघ में संमिलित कर लिया गया।

सोमनाथरस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक रसौषध जिसके सेवन से प्रमेह की अनेक प्रकार की व्याधियाँ दूर होती हैं। विशेष—इसके बनाने की विधि इस प्रकार है—फरहद (पारिभद्र) के रस में शोधा हुआ पारा दो तोले और मूसाकानी के रस में शोधी हुई गंधक दो तोले, दोनों की कज्जली कर उसमें आठ तोले लोहा मिलाकर घीकुआर के रस में घोंटते हैं। फिर अभ्रक, वंग, खपरिया, चाँदी, सोनामक्खी तथा सोना एक एक तोला मिलाकर घीकुआर के रस में भावना देते हैं। इसकी दो दो रत्ती की गोली बनाई जाती है जो शहद के साथ खाई जाती हैं। इसके सेवन से सब प्रकार के प्रमेह और सोम- रोग का निवारण होता है।

सौमनेत्र
वि० [सं०] १. सोम जिसका नेता या रक्षक हो। २. सोम के समान नेत्रोंवाला।

सोमप (१)
वि० [सं०] १. जिसने यज्ञ में सोमरस का पान किया हो। २. सोमरस पीनेवाला। सोमपायी। सोमपा।

सोमप (२)
संज्ञा पुं० १. सोमयज्ञ करनेवाला। २. विश्वेदेवा में से एक का नाम। ३. स्कंद के एक पारिषद का नाम। ४. हरिवंश के अनुसार एक असुर का नाम। ५. एक ऋषिवंश का नाम। ६. पितरों की एक श्रेणी। ७. बृहत्संहिता के अनुसार एक जनपद का नाम।

सोमपति
संज्ञा पुं० [सं०] सोम के स्वामी इंद्र का एक नाम।

सोमपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कुश जाति की एक घास। डाभ। दर्भ।

सोमपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरिवंश के अनुसार एक लोक का नाम। २. एक तीर्थ का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में हैं।

सोमपरिश्रयण
संज्ञा पुं० [सं०] सोम निचोड़ने का कपड़ा। वह वस्त्र जिससे सोम निचोड़ते हैं [को०]।

सोमपर्याणहन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सोमपरिश्रयण'।

सोमपर्व
संज्ञा पुं० [सं० सोमपर्वन्] सोम उत्सव का काल। सोमपान करने का उत्सव या पुण्यकाल।

सोमपा (१)
वि० [सं०] १. जिसने यज्ञ में सोमपान किया हो। २. सोम- पान करनेवाला। सोमपायी।

सोमपा (२)
संज्ञा पुं० १. सोमयज्ञ करनेवाला। २. पितरों की, विशेषकर ब्राह्मणों के पितृपुरुषों की एक श्रेणी। ३. ब्राह्मण।

सोमपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोम रखने का बरतन। २. सोम पीने का बरतन।

सोमपान
संज्ञा पुं० [सं०] सोम पीने की क्रिया। सोम पीना।

सोमपायी
वि० [सं० सोमपायिन्] [वि० स्त्री० सोमपायिनी] सोम पीनेवाला। सोमपान करनेवाला।

सोमपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोम का रक्षक। २. गंदर्व, जो सोम की रक्षा करनेवाले माने गए हैं।

सोमपावन
वि० [सं०] सोमपान करनेवाला। जो सोमपान करता हो।

सोमपिती
संज्ञा स्त्री० [सं० सोम + पात्री] रगड़ा हुआ चंदन रखने का बरतन।

सोमपीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सोमपान। २. सोमयज्ञ।

सोमपीती
संज्ञा पुं० [सं० सोमपीतिन्] सोमपान करनेवाला। सोम पीनेवाला।

सोमपीथ
संज्ञा पुं० [सं०] सोमपान। सोम पीने की क्रिया।

सोमपोथी
वि० [सं० सोमपीथिन्] सोमपान करनेवाला। सोमपायी।

सोमपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] सोम या चंद्रमा के पुत्र। बुध।

सोमपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोम का नगर। २. पाटलिपुत्र का एक नाम [को०]।

सोमपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोम का रक्षक। २. सोम का अनुचर या दास।

सोमपृष्ठ
वि० [सं०] (पर्वत) जिस पर सोम हो।

सोमपेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक यज्ञ जिसमें सोमपान किया जाता था। २. सोमपान। सोम पीने की क्रिया।

सोमप्रदोष
संज्ञा पुं० [सं०] सोमवार को किया जानेवाला एक व्रत। सोमव्रत। विशेष—इस व्रत में दिन भर उपवास करके संध्या को शिवजी की पूजा कर भोजन किया जाता है। स्कंदपुराण में लिखा है कि यह व्रत मनस्कामना पूर्ण करनेवाला है। आजकल लोग प्रायः श्रावण के सोमवारों को ही यह व्रत करते हैं।

सोमप्रभ
वि० [सं०] सोम या चंद्रमा के समान प्रभावाला। कांतिवान्।

सोमप्रवाक
संज्ञा पुं० [सं०] सोमयज्ञ में घोषण करनेवाला।

सोमबंधु
संज्ञा पुं० [सं० सोमबन्धु] १. कुमुद। २. सूर्य। ३. बुध।

सोमबंसी
संज्ञा पुं० [सं० सोमवंशीय] दे० 'सोमवंशीय'। उ०—परी भीर सोमेस सोमबंसी सहाय भय। मार मार उचरंत सेन चतुरंग हयग्गय।—पृ० रा०, १।६५६।

सोमबेल
संज्ञा स्त्री० [सं० सोम + हि० बेल] गुलचाँदनी या चाँदनी का पौधा।

सोमभक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सोम का पीना। सोमपान।

सोमभवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नर्मदा नदी का एक नाम।

सोमभू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा के पुत्र बुध। २. चौथे कृष्ण वासुदेव का नाम। (जैन)।

सोमभू (२)
वि० १. सोम से उत्पन्न। २. चंद्रवंशीय।

सोमभृत
वि० [सं०] सोम लानेवाला।

सोमभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गरुड़ के एक पुत्र का नाम। २. सोमपान।

सोममख
संज्ञा पुं० [सं०] सोमयज्ञ।

सोममद
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोम का नशा। २. सोम का रस जिसके पीने से लशा होता है।

सोमयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सोमयाग'।

सोमयाग
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक त्रैवार्षिक यज्ञ जिसमें सोमरस पान किया जाता था।

सोमयाजी
संज्ञा पुं० [सं० सोमयाजिन्] वह जो सोमयाग करता हो। सोमयाग करनेवाला।

सोमयोगी
वि० [सं० सोमयोगिन्] जिसमें सोम या चंद्र का योग हो। चंद्रमा के योगवाला।

सोमयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता। २. ब्राह्मण। ३. पीत चंदन। हरिचंदन।

सोमरक्ष
वि० [सं०] सोम का रक्षक।

सोमरक्षी
वि० [सं० सोमरक्षिन्] दे० 'सोमरक्ष'।

सोमरस
संज्ञा पुं० [सं०] सोमलता का रस। विशेष दे० 'सोम'। यौ०—सोमरसोद्भव = दुग्ध। दूध।

सोमरा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. जुते हुए खेत का दुबारा जोता जाना। दो चरस। २. समचतुर्भुज खेत का चौड़ाई में जोता जाना।

सोमराग
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का राग।

सोमराज
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

सोमराजसुत
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा का पुत्र बुध।

सोमराजिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सोमराजी'।

सोमराजी (१)
संज्ञा पुं० [सं० सोमराजिन्] बाकुची। बकुची। विशेष दे० 'बकुची'।

सोमराजी (२)
संज्ञा स्त्री० १. बकुची। २. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में छह वर्ण होते हैं। यह दो यगण का वृत्त है। इसे शंखनारी भी कहते हैं। उ०—चमू बाल देखो सुरंगी सुभेखो। धरे याहि आजी। कहैं सोमराजी।—छंदःप्रभाकर (शब्द०)।

सोमराजी तैल
संज्ञा पुं० [सं०] कुष्ठादि चर्मरोगों की एक तैलौषध। विशेष—इस औषध के बनाने की विधि इस प्रकार है—बकुची का काढ़ा, हलदी, दारुहलदी, सफेद सरसों, कुट, करंज, पँवार के बीज, अमलतास के पत्ते, ये सब चीजें एक सेर लेकर चार सेर सरसों के तेल और सोलह सेर पानी में पकाते हैं। इस तेल के लगाने से अठारहों पर्करा के कोढ़, नासूर, दुष्ट व्रण, नीलिका व्यंग, फुंसी, गंभीरसंज्ञक वातरक्त, कंडु, कच्छु, दाद औरखाज का निवारण होता है। इसका एक और भेद होता है जो महासोमराजी तैल कहलाता है। यह कुष्ठ रोग के लिये परम उपकारी माना गया है। इसके बनाने की विधि इस प्रका है—चित्रक, रलियारी, सोंठ, कुट, हलदी, करंज, हलताल, मैनसिल, विष्णुक्रांता, आक, कनैर, छतिवन, गाय का गोबर, खैर, नीम के पत्ते, मिर्च, कसौंदी ये सब चीजें दो दो तोले लेकर इनका काढ़ा कर १२।। सेर बकुची के काढ़े और ६४ सेर पानी और १६ सेर गोमूत्र में पकाते हैं।

सोमराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रलोक।

सोमराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम।

सोमरोग
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों का एक रोग। विशेष—इस रोग में वैद्यक के अनुसार अति मैतुन, शोक, परिश्रम आदि कारणों से शरीरस्थ जलीय धातु क्षुब्ध होकर योनि मार्ग से निकलने लगती है। यह पदार्थ श्वेत वर्म, स्वच्छ और गंधरहित होता है। इसमें कोई वेदना नहीं होती, पर वेग इतना प्रबल होता है कि सहा नहीं जाता। रोगिणी अत्यंत कृश और दुर्बल हो जाती है। रंग पीला पड़ जाता है। शरीर शिथिल और अकर्मण्य हो जाता है। सिर में दर्द हुआ करता है। गला और तालू सूखा रहता है। प्यास बहुत लगती है। खाना पीना नहीं रुचता और मूर्छा आने लगती है। यह रोग पुरुषों के बहुमूत्र रोग के सदृश होता है।

सोमर्षि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

सोमल
संज्ञा पुं० [देश०] संखिया का एक भेद जिसे सफेद संबल भी कहते हैं।

सोमलता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यगिलोय। गुडूची। २. ब्राह्मी। ३. सोम नाम की वैदिक लता। ४. गोदा या गोदावरी नदी का नाम (को०)।

सोमलतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गिलोय। गुडूची। गुरुच। २. दे० 'सोम'।

सोमलदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजतरंगिणी के अनुसार एक राज- पुत्री का नाम।

सोमलोक
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा का लोक। चंद्रलोक।

सोमवंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. युधिष्ठिर का एक नाम। २. चंद्रवंश। उ०—सोमदत्त भरि जोम चलेउ भट सोमवंश वर। पुलकि रोमबल तोम महत मुदरोम रोमधर।—गिरिधर (शब्द०)।

सोमवंशीय
वि० [सं०] १. चंद्रवंश में उत्पन्न। २. चंद्रवंश संबंधी। चंद्रवेश का।

सोमवंश्य
वि० [सं०] दे० 'सोमवंशीय'।

सोमवत्
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सोमवती] १. सोमयुक्त। चंदर्युक्त। २. चंद्रमा के समान।

सोमवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमवार को पड़नेवाली अमावस्या। सोमवती अमावस्या।

सोमवती अमावस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमवार को पड़नेवाली अमा- वस्या जो पुराणानुसार पुण्यतिथि मानी जाती है। प्रायः लोग इस दिन गंगास्नान और दान पुष्य करते हैं। विशेषतः स्त्रियाँ इस तिथि पर वासुदेव का पूजन और उनकी १०८ परिक्रमा किसी फल, मिष्ठान्न, अन्न आदि से करती हैं।

सोमवती तीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

सोमवचस् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्वेदेवाओं में से एक का नाम। २. हरिवंश के अनुसार एक गंधर्व का नाम।

सोमवर्चस् (२)
वि० सोम के समान तेजयुक्त।

सोमवस्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद खैर। श्वेत खदिर। २. काय- फल। कटफल। ३. करंज। ४. रीठा करंजर। गुचछपुष्पक। ५. बबूर। बर्बूर।

सोमवल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्रह्मा। २. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में रगण, जगण, रगण, जगण और रगण होते हैं। इसे 'चामर' और 'तूण' भी कहते हैं। उ०—रोज रोज राधिका सखीन संग आइकै। खेल रास कान्ह संग चित्त हर्ष लाइकै। बाँसुरी समान बोल सप्त ग्वाल गाइकै। कृष्णहीं रिझावहीं सु चामरै डुलाइकै ।—छंदःप्रभाकर (शब्द०)। ३. दे० 'सोम'—१।

सोमवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकुची। सोमराजी। २. दे० 'सोम'।

सोमवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गिलोय। गुडूची। २. बकुची। सोमराजी। ३. छिरेँटी। पाताल गारुड़ी। ४. ब्राह्मी। ५. सुदर्शन। ६. लताकरंज। कठकरंजा। ७. गजपीपल। गज पिप्पली। ८. बन कपास। वनकार्पास। दे० 'सोम'।

सोमवामी (१)
वि० [सं० सोमवामिन्] सोम वमन करनेवाला।

सोमवामी (२)
संज्ञा पुं० वह ऋत्विज् जो खूब सोमपान करता हो।

सोमवायव्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषिवंश का नाम।

सोमवार
संज्ञा पुं० [सं०] सात वारों में से एक वार जो सोम अर्थात् चंद्रमा का माना जाता है। यह रविवार के बाद औक मंगलवार के पहले पड़ता है। चंद्रवार।

सोमवारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोमवार + ई (प्रत्य०)] दे० 'सोमवती अमावस्या'।

सोमवारी (२)
वि० सोमवार संबंधी। सोमवार का। जैसे,—सोमवारी बाजार, सोमवारी अमावस्या।

सोमवासर
संज्ञा पुं० [सं०] सोमवार। चंद्रवार।

सोमविक्रयी
संज्ञा पुं० [सं० सोमविक्रयिन्] सोमरस बेचनेवाला। विशेष—मनु में सोमरस बेचनेवाला दान के अयोग्य कहा गया है। उसे दान देने से दाता दूसरे जन्म में विष्ठा खानेवाली योनि में उत्पन्न होता है।

सोमवीर्थी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमंडल। चंद्रमा की वीथी।

सोमवीर्य
वि० [सं०] सोम की तरह वीर्य अर्थात् शक्तिवाला [को०]।

सोमवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सकायफल। कटफल। २. सफेद खैर। श्वेत खदिर।

सोमवृद्ध
वि० [सं०] जो खूब सोमपान करता हो। जिसकी उमर सोमपान करने में ही बीती हो।

सोमवेश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन मुनि का नाम।

सोमव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक साम का नाम। २. दे० 'सोमप्रदोष'।

सोमशकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ककड़ी।

सोमशुष्म
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम।

सोमसंज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर। कर्पूर।

सोमसभवा
संज्ञा स्त्री० [सं० सोमसम्भवा] १. नर्मदा। सोमोद्भवा। २. गंधपलाशी। कपूरकचरी।

सोमसंस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमयज्ञ का एक प्रारंम्भिक कृत्य।

सोमसद
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार विराट् के पुत्र और साध्यगण के पितर।

सोमसलिल
संज्ञा पुं० [संज्ञा] सोम का जल। सोमरस।

सोमसव
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में किया जानेवाला एक प्रकार का कृत्य जिसमें सोम का रस निकाला जाता था।

सोमसवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिससे सोम का रस तैयार किया जाय। २. दे० 'सोमसव' [को०]।

सोमसाम
संज्ञा पुं० [सं० सोमसामन्] एक साम का नाम।

सोमसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद खैर। श्वेत खदिर। २. बबूल। कीकर। बबर।

सोमसिंधु
संज्ञा पुं० [सं० सोमसिन्धु] विष्णु का एक नाम।

सोमपिद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० सोमसिद्धान्त] १. एक बुद्ध का नाम। २. वह शास्त्र जिससे भविष्य की बातें जानी जाती हैं। ३. शैव कापालिकों का एक मत या सिद्धांत (को०)।

सोमसुंदर
वि० [सं० सोमसुन्दर] चंद्रमा के समान सुंदर। बहुत सुंदर।

सोमसुत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोमरस निकालनेवाला। २. यज्ञ में सोम रस चढ़ानेवाला ऋत्विज्।

सोमसुत
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा का पुत्र बुध।

सोमसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोम का रस निकालने की क्रिया।

सोमसुत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सोमसुति'।

सोमसुत्वा
संज्ञा पुं० [सं० सोमसुत्वन्] वह जो यज्ञ में सोमरस चढ़ाता हो। सोमरस चढ़ानेवाला।

सोमसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] सोम से संबंधित ऋचाएँ या मन्त्र।

सोमसूक्ष्म
संज्ञा पुं० [सं० सोमसूक्ष्मन्] एक प्राचीन वैदिक ऋषि का नाम।

सोमसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शिवलिंग की जलधरी से जल निकलने का स्थान या नाली। यौ०—सोमसूत्र प्रदक्षिणा = इस प्रकार परिक्रमा करना जिससे सोमसूत्र का लंघन न हो।

सोमसेन
संज्ञा पुं० [सं०] शंबर के एक पुत्र का नाम।

सोमहार
वि० [सं०] सोमहरण या निष्पीड़न करनेवाला।

सोमहारी
वि० [सं० सोमहारिन्] दे० 'सोमहार'।

सोमहूति
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

सोमांग
संज्ञा पुं० [सं० सोमाङ्ग] सोम याग का एक अंग।

सोमांश, सोमांशक
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा का अंश।

सोमांशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा की किरण। २. सोमलता का अंकुर। ३. सोमयाग का एक अंग।

सोमा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सोमलता। २. महाभारत के अनुसार एक अप्सरा का नाम। ३. मारकंडेय पुराण के अनुसार एक नदी का नाम।

सोमा (२)
संज्ञा पुं० [सं० सोमन्] १. सोम यज्ञ का कर्ता। २. सोम को निचोड़नेवाला व्यक्ति। ३. यज्ञ का उपकरण। ४. चंद्रमा। सोम [को०]।

सोमाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल।

सोमाद
वि० [सं०] सोम भक्षण करनेवाला।

सोमाधार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के पितर।

सोमापि
संज्ञा पुं० [सं०] पुराण के अनुसार सहदेव के एक पुत्र का नाम।

सोमापूषण
संज्ञा पुं० [सं०] सोम और पूषण नामक देवता।

सोमापोष्ण
वि० [सं०] सोम और पूषण का। सोम और पूषण संबंधी।

सोमाभ
वि० [सं०] चंद्र तरह दीप्तिमान् [को०]।

सोमाभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रावली। चंद्ररश्मि।

सोमाभिषव
संज्ञा पुं० [सं०] सोम के रस को चुआना [को०]।

सोमायन
संज्ञा पुं० [सं०] महीने भर का एक व्रत जिसमें २७ दिन दूध पीकर रहने और ३ दिन तक उपवास करने का विधान है। विशेष—याज्ञवल्क्य के अनुसार यह व्रत करनेवाला पहले सप्ताह (सात रात) गौ के चार स्तनों का, दूसरे सप्ताह तीन स्तनों का, तीसरे सप्ताह दो स्तनों का और ६ रात तक स्तन का दूध पीए और तीन दिन उपवास करे।

सोमार पु †
संज्ञा पुं० [सं० सोमवार, प्रा० सोम + आर या सोमार] सोमवार का दिन। उ०—सं० १६६३२ शाके १४९३ मार्ग वदी ५ सोमार गंगादास सुत महाराज बीरबल श्री तीर्थराज प्रयाग की यात्रा सुफल लिखित।—अकबरी०, पृ० ७९।

सोमारुद्र
संज्ञा पुं० [सं०] सोम और रुद्र नामक देवता।

सोमारौद्र
वि० [सं०] सोम और रुद्र का। सोम और रुद्र संबंधी।

सोमार्चि, सोमार्ची
संज्ञा पुं० [सं० सोमार्च्चिस्] वाल्मीकि रामायण वर्णित देवताओं के एक प्रसाद का नाम।

सोमार्थी
वि० [सं० सोमार्थिन्] सोम की कामना करनेवाला या इच्छुक [को०]।

सोमार्धधारी
संज्ञा पुं० [सं० सोमार्धधारिन्] मस्तक पर अर्ध चंद्र धारण करनेवाले, शिव।

सोमार्धहारी
संज्ञा पुं० [सं० सोमार्धहारिन्] शिव [को०]।

सोमार्ह
वि० [सं०] सोम के योग्य। सोमपान का अधिकारी [को०]।

सोमाल
वि० [सं०] कोमल। नरम। मुलायम। स्निग्ध। चिक्वण।

मोमालक
संज्ञा पुं० [सं०] पुखराज। पुष्पराग मणि।

सोमावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमा की माता का नाम। उ०— विनता सुत खगनाथ चंद्र सोमावति केरे। सुरावती के सूर्य रहत जग जासु उजेरे।—विश्राम (शब्द०)।

सोमावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] वायुपुराण के अनुसार एक स्थान का नाम।

सोमाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम।

सोमाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। रुद्र।

सोमाश्रयायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम। २. शिव जी का स्थान।

सोमाष्टमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमवार को पड़नेवाली अष्टमी तिथि।

सोमाष्टमी व्रत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत जो सोमवार की पड़नेवाली अष्टमी की किया जाता है।

सोमास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अस्त्र जो चंद्रमा का अस्त्र माना जाता है। उ०—सोमास्त्रहु सौरास्त्र सु निज निज रुपनि धारै। रामहिं सों कर जोरि सबे बोलै इक बारै।—पद्माकर (शब्द०)।

सोमाह
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा का दिन। सोमवार।

सोमाहुत
वि० [सं०] जिसकी सोमरस द्वारा तृप्ति की गई हो।

सोमाहुति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भार्गव ऋषि का नाम। ये मंत्रद्रष्टा थे।

सोमाहुत (२)
संज्ञा स्त्री० सोम की आहुति।

सोमाह्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] महासोमलता।

सोमित्रि
संज्ञा पुं० [ सं० सौमित्र] लक्ष्मण।—(डि०)।

सोमी (१)
वि० [सं० सोमिन्] १. जिसमें सोम हो। सोमयुक्त। २. सोमयज्ञ करनेवाला [को०]।

सोमी (२)
संज्ञा पुं० १. सोम की आहुति देनेवाला। २. सोमयज्ञ करनेवाला। सोमयाजक।

सोमीय
वि० [सं० सोमेन्द्र] सोम और इंद्र का। सोम और इंद्र संबंधी।

सोमेज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोम यज्ञ।

सोमेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक शिवलिंग जो काशी में स्थापित है। कहते हैं, भगवान् सोम ने यह शिवलिंग प्रतिष्ठित किया था। २. दे० 'सोमनाथ'—१। ३. श्रीकृष्ण का एक नाम। ४. राजतरंगिणी में वर्णित एक देवता का नाम। ५. संगीत शास्त्र के एक आचार्य का नाम। ६. चौहान नरेश पृथ्वीराज के पिता का नाम जो नागौर के नरेश थे।

सोमेश्वररस
संज्ञा पुं० [सं०] एक रसौषधि जो 'भैषज्य रत्नावली' के अनुसार सब प्रकार के प्रमेह, मूत्रधात, संनिपातिक ज्वर, भगंदर, यकृत, प्लीहा, उदररोग तथा सोमरोग का शीघ्र शमन करनेवाली है। विशेष—इसके बनाने की विधि इस प्रकार है—सेमल की छाल, कोह (अर्जुन) की छाल, लोध, अगर, गनियारी की छाल, रक्त चंदन, हलदी, दारुहलदी, आँवला, अनारदाना, गोखरु के बीज, जामुन की छाल खस और गुग्गुल प्रत्येक चार चार तोले और पारा, गंधक, लोहा, धनियाँ, मोथा, इलायची, तेजपत्त्, पद्मक (पद्मकाष्ठ), पाढ़ (पाठा), रसौत, वायाबिडंग, सुहागा और जीरा आध आध तोला, इन सबका खूब बारीक चूर्ण कर दो दो रत्ती की गोली बनाते हैं। बकरी के दूध या नारियल के जल के साथ इसका सेवन किया जाता है।

सोमोत्पत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा का जन्म। २. अमावस्या के उपरांत चंद्रमा का पिर से निकलना।

सोमोद्गीत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।

सोमोद्रुव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] (चंद्रमा को उत्पन्न करनेवाले) श्री कृष्ण का एक नाम।

सोमोद्रुव (२)
वि० चंद्रमा से उत्पन्न।

सोमोद्रुवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नर्मदा नदी का एक नाम।

सोमोती †
संज्ञा स्त्री० [सं० सोमवती] दे० 'सोमवती अमावस्या'।

सोम्य (१)
वि० [सं०] १. सोमयुक्त। २. सोम संबंधी। ३. सोम का। ४. सोमपान के योग्य। ५. सोम की आहुति देनेवाला। ६. मृदु। कोमल। चिक्कण (को०)।

सोम्य पु (२)
वि० [सं० सौम्य] दे० 'सौम्य'। उ०—इषु अर्ध अरंगा को प्रसिद्ध। रवि अपन सोम्य जान्यौ प्रसिद्ध।—ह० रासो, पृ०१४।

सोय पु (१)
सर्व०[हिं० सो + ही, ई] वही।

सोय (२)
सर्व० दे० 'सो'। उ०—कै लघु कै बड़ मीत भल, सम सनेह दुख सोय। तुलसी ज्यों धृत मधु सरिस, मिले महा विष होय।—तुलसी (शब्द०)।

सोयम
वि० [फ़ा०] तृतीय। तीसरा। उ०—सोयम जब मौत आवेगा उसे पश, होवे सूरत में ओ तबदील सरकश।—दक्खिनी०, पृ०११४।

सोया
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'सोआ'।

सोरंजान
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सूरन्जान्] दे० 'सूरजान', 'सुरंजान'।

सोरंभ पु
वि० संज्ञा पुं० [सं० सौरभ या सौरम्य, प्रा० सौरंभ] दे० 'सौरभ'।

सोरंभना पु
क्रि० अ० [सं० सौरभ, प्रा० सौरभ + हिं० ना (प्रत्य०)] सुरभित या सुगंधियुक्त होना। उ०—ढोलउ मन आणंदियउ, चतुर तशे बचनेह। मारु मुख सोरंभियउ, आवि भमर भण केह।—ढोला०, पृ०४४०।

सोर पु
संज्ञा पुं० [फा़० शोर, मिला० सं० स्वर, सोर] १. शोर। हल्ला। कोलाहल। उ०—(क) भएउ कोलाहल अवध अति सुनि नृप राउर सोर।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सोर भयौ घोर चारो ओर नभ मंडल में आए घन, आए धन आयकै उघरिगे। २. ख्याति। प्रसिद्धि। नाम। उ०—तुस अनियारे दृगन को सुनियत जग में सोर।—रसनिधि (शब्द०)।

सोर †
संज्ञा स्त्री० [सं० शटा, प्रा० सड़] जड़। मूल।

सोर (३)
संज्ञा पुं० [सं०] वक्र गति। टेढ़ी चाल।

सोर (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'सौरी'।

सोर (५)
संज्ञा पुं० [अं० शोर] चट। किनारा। मुहा०—सोर पड़ना = (जहाज का) किनारे लगना।

सोर पु (६)
संज्ञा पुं० [अं० शोरड्] दे० 'शोरा'। उ०—(क) उड़ै सोर प्याले निराले चमकै। घटा जोट मैं दामिनी सो दमंकै।— हम्मीर०, पृ०३२। (ख) उठै सोर झालाँ अनल, आभ धुआँ अँधियार।—बाँकी० ग्रं०, भा०२, पृ०९८।

सोरट्ठ
संज्ञा पुं० [सं० सौराष्ट्र, प्रा० सोरट्ठ] दे० 'सोरठ'।

सोरठ (१)
संज्ञा पुं० [सं० सलौराष्ट्र, प्रा० सोरट्ठ] १. भारत का एक प्रदेश जो राजस्थान के दक्षिणपश्चिम पड़ता है। गुजरात और दक्षिणी काठियावाड़ का प्राचीन नाम। २. सोरठ देश की राजधानी, सूरत। उ०—नृप इकै वीर भद्र अस नामा। सोरठ नगर माँहि तेहि धामा।—विश्राम (शब्द०)।

सोरठ (२)
संज्ञा पुं०, स्त्री० [देश०] ओड़व जाति का एक राग जो हिंडोल का पुत्र कहा गया है। विशेष—इसमें गांधार और धवत स्वर वर्जित हैं। यह पंचम, भैरवी, गुर्जरी, गांधार और कल्याण के संयोग से बना माना जाता है। इसके गाने का समय रात१६ दंड से २० जंड तक है। कोई सोरठ को षाडव जाति की रागिनी मानते हैं। मुहा०—खुली सोरठ कहना = खुले आम कहना। कहने में संकोच या भय न करना।

सोरठ मल्लार
संज्ञा पुं० [हिं० सोरठ + मल्लार] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।

सोरठा
संज्ञा पुं० [सं० सौराष्ट्र, हिं० सोरठ (देश)] अड़तालीस मात्राओं का एक छंद जिसके पहले और तीसरे चरण में ग्यारह ग्यारह और दूसरे तथा चौथे चरण में तेरह तेरह मात्राएँ होती हैं। इसके सम चरणों में जगण का निषेध है। दोहे को उलट देने से सोरठा हो जाता है। जैसे,—जेहि सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिवर वदन। करउ अनुग्रह सोइ, बुद्धिरासि सुभ गुन सदन। उ०—छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा।—मानस, १।३७। विशेष—जान पड़ता है, इस छंद का प्रचार अपभ्रंश काल में पहले पहल सोरठ या सौराष्ट्र देश में हुआ था, इसी से यह नाम पड़ा।

सोरठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोरठ (देश)] एक रागिनी जो सिंधूड़ा और बड़हंस के संयोग से बनी है। हनुमत के मत से यह मेघ राग की पत्नी है।

सोरण (१)
वि० [सं०] कुछ कसैला, मीठा, खट्टा और नमकीन। चर- परा। २. शीतल। ठंढा। ३. रक्तस्राव रोधक (को०)।

सोरण (२)
संज्ञा पुं० दे० 'सोल (२)' [को०]।

सोरन †
संज्ञा पुं० [सं० शूरण] जमीकंद। सूरन।

सीरनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सैवरना + ई (प्रत्य०)] १. झाड़ू। बुहारी। कूंचा। २. मृतक का एक संस्कार जो तीसरे दिन होता है और <col n="1" जिसमें उसकी चिता की राख बटोरकर या जलाशय में फेंक दी जाती है। त्रिरात्रि।

सोरबा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शोरबा] दे० 'शोरबा'।

सोरभखी †
संज्ञा स्त्री० [सं० शूरभक्षी] तोप या बंदूक। (ड़ि०)।

सोरस पु
वि० [सं० सुरस] रसीला। सुंदर। दे० 'सरस'। उ०—रंग भूमि को 'कोरस'कब बरसावैं।—प्रेमधन०, भा०१, पृ०४९।

सोरसती ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० सरस्वती] सरस्वती तनी। विशेष दे० 'सरस्वती'। उ०—गंगा जमुना सोरसती जहाँ अमी का बास।—संत० दरिया०, पृ०३।

सोरह पु ‡
वि०, संज्ञा पुं० [सं० षोडश, प्रा० सोलस, सोलह] दे० 'सोलह'। उ०—संबत् सोरह सै इकतीसा। करउँ कथा हरि- पद धरि सीसा।—तुलसी (शब्द०)।

सोरहिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोरह + इया (प्रत्य०)] १. दे० 'सोरही'। २. भाद्र शुक्ल अष्टमी (राधाष्टमी) से सोलह दिन तक चलनेवाला लक्ष्मीपूजन एवं व्रतविधान जिसकी समाप्ति आश्विन कृष्ण अष्टमी (जीवत्पुत्रिका या जिउतिया व्रत) के दिन होती हैं। इस दिन स्त्रियाँ २४ घंटे का निर्जल उपवास, व्रत एवं लक्ष्मीपूजन करती हैं। इसे१६दिन तक चलने के कारण सोरहिया भी कहते हैं। यह ब्रत वारणासी में बहुप्रचलित है जहाँ लक्ष्मीकुंड पर विशाल मेला भी लगता हैं। दे० 'जिउतिया'।

सोरही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोलह + ई (प्रत्य०)] १. जूआ खेलने के लिये सोलह चित्ती कौड़ियों का समूह। २. वह जूआ जो सोलह कौड़ियों से खेला जाता हैं। ३. कटी हुई फसल की सोलह अँटियों या पूलों का बोझ, जिससे खेत की पैदावार का अंदाज लगाते हैं। जैसे,—फी बीधा सौ सोलही। ४. वैश्यों के कुछ वर्गों में मृतक के लिये उसकी मृत्यु के सोलहवें दिन किया जानेवाला ब्राह्मणभोज आदि कर्म।

सोरा पु ‡
संज्ञा पुं० [फ़ा० शोरह्] दे० 'शोरा'। उ०—सीतलतारु सुगंध की घटै न महिमा मूर। पीनसवारे ज्यौं तजै सोरा जानि कपूर।—बिहारी (शब्द०)।

सौराना †
क्रि० अ० [हिं० सोर (=जड़) से नाम०] जड़ पकड़ना। उ०—तब क्या करोगे मधुबन ! अभी एक पानी और चाहिए। तुम्हारा आलू सोरा कर ऐसा ही रह जायगा ? ढाई रुपए के बिना।—तितली, पृ०३३।

सोरावास
संज्ञा पुं० [सं०] बिना नमक का मांस का रसा। बिना नमक का शोरबा।

सोराष्ट्रिक
संज्ञा पुं० [सं० सौराष्ट्रिक] दे० 'सौराष्ट्रिक'।

सोरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्रवण (=बहना या चूना)] बरतन में महीन छेद जिसमें से होकर पानी आदि टपककर बह जाता है।

सोर्णभ्रू
वि० [सं०] जिसकी दोनों भवों के बीच रोंएँ की भँवरी सी हो।

सोर्मि, सोर्मिक
वि० [सं०] लहरों से युक्त। तरंगमय [को०]।

सोलंकी
संज्ञा पुं० [देश०] क्षत्रियों का प्राचीन राजवंश जिसका अधिकार गुजरात पर बहुत दिनों तक था। विशेष—ऐसा माना जाता है कि सोलंकियों का राज्य पहले अयोध्या में था जहाँ से वे दक्षिण की ओर गए और वहां सेफिर गुजरात, काठियावाड़, राजपुताने और बधेलखंड में उनके राज्य स्थापित हुए। उत्तरी भारत में जिस समय थानेश्वर और कन्नौज के परम प्रतापी सम्राट् हर्षवर्धन का राज्य था, उस समय दक्षिण में सोलंकी सम्राट् द्वितीय पुलकेशी का राज्य था, जिससे हर्षवर्धन ने हार खाई थी। रीवाँ का बधेलवंश इसी सोलंकी वंश की एक शाखा है। इस समय सोलंकी और बधेल अपने को अग्निवंशी बतलाते हैं और अपने मूल पुरुष चालक्य को वशिष्ठ ऋषि द्वार आबू पर के यज्ञकुंड से उत्पन्न कहते हैं। पर यह बात पृथ्वीराज रासो आदि पीछे के ग्रंथों के आधार पर ही कल्पित जान पड़ती है, क्योंकि विक्रम सं० ६३५ से लेकर१६००तक के अनेक शिलालेखों, दानपत्रों आदि में इनका चंद्रवेशी और पांडवों का वंशधर होना लिखा है। बहुत दिनों तक इनका मुख्य स्थान गुजरात था।

सोल (१)
वि० [सं०] १. शीतल। ठंढा। २. कसैला, खट्टा और तीता। चरपरा।

सोल (२)
संज्ञा पुं० १. शीतलता। ठंढापन। २. कसैलापन, खट्टापन, तीतापन, चरपापन आदि। ३. स्वाद। जायका।

सोल पु † (३)
वि० [सं० षोड़श] दे० 'सोलह'। उ०—सुंदर सोल सिंगार सजि गई सरोवर पाल। चंद मुलक्यउ, जल हँस्यउ, जलहर कंपी पाल।—ढोला०, दू०३९४।

सोल (४)
संज्ञा पुं० [अं०] जूते में लगाने का चमड़े का तल्ला।

सोलपंगो †
संज्ञा पुं० [देशी] केकड़ा। (डिं०)।

सोलपील †
वि० [हिं० पोल + अनु० सोल] बेफायदा। व्यर्थ का। उ०—ता से सोलपोल तुम लाई। पकरै तो कुछु ज्वाब न आई।—घट०, पृ०१९३।

सोलवाँ †
वि० [हिं० सोलह + वाँ (प्रत्य०)] दे० 'सोलहवाँ'।

सोलह (१)
वि० [सं० षोड़श, प्रा० नसोलस, सोलह] जो गिनती में दस से छह अधिक हो। षोडश।

सोलह (२)
संज्ञा पुं० दस और छह की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—१६। मुहा०—सोलह आने, सोलहो आने = संपूर्ण। पूरा पूरा। जैसे,— तुम्हारी बात सोलहो आने सही है। उ०—अरे न सोलह आने तो पाई हो।—प्रेमधन, पृ०४५८। सोलह सोलह गंडे सुनाना = खूब गालियाँ देना।

सोलहनहाँ
संज्ञा पुं० [हिं० सोलह + नहँ (=नख)] वह हाथी जिसके सोलह नख या नाखून हों। सोलह नाखूनवाला हाथी जो ऐबी समझा जाता है।

सोलहवाँ
वि० [हि० सोलह + वाँ (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० सोलहवीं] जिसका स्थान पंद्रहवें स्थान के बाद हो। जिसके पहले पंद्रह और हो।

सोलह सिंगार
संज्ञा पुं० [हिं० सोलह + सिंगार] सिंगार की एक विधि जिसमें१६उपकरण हैं। विशेष—इसके अंतर्गत अंग में उबटन लगाना, नहाना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, बाल सँवारना, काजल लगाना सेंदुर से माँग भरना, महावर लगाना, भाल पर तिलक लगाना, चिबुक पर तिल बनाना, मेंहदी लगाना, सुगंध लगाना, आभूषण पहनन्, फूलों की माला पहनना, मिस्सी लगाना, पान खाना और होठों को लाल करना ये सोलह बातें हैं। (विशेष विवरण के लिये 'शृंगार' और 'षोडश शृंगार' शब्द भी देखिए)।

सोलही
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोलह + ई (प्रत्य०)] दे० 'सोरही'।

सोला (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का ऊँचा झाड़। विशेष—यह प्रायः सारे भारत की दलदली भऊमि में पाया जाता है। यह वर्षा ऋतु में फऊलता है। इसकी डालियाँ बहुत सीधी और मजबूत होती हैं। सोला हैट नाम की अंग्रेजी ढंग की टोपी इन्हीं डालियों के छिलकों से बनती है।

सोला ‡ (२)
वि० [हिं० सोलह] दे० 'सोलह'। उ०—बारा कला सोषै सोला कला पोषै। चारि कला साधै अनंत कला जीवै।— गोरख० पृ०३१।

सोलाना
क्रि० सं० [हिं० सुलाना] दे० 'सुलाना'।

सोलाली
संज्ञा स्त्री० [देश०] पृथ्वी। (डिं०)।

सोलिक
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सोल'।

सोल्लास (१)
वि० [सं०] उल्लासयुक्त। प्रसन्न। आनंदित।

सोल्लास (२)
क्रि० वि० उल्लास के साथ। आनंदपूर्वक।

सोल्लुँठ (१)
वि० [सं० सोल्लुण्ठ] परिहासयुक्त। व्यंग्य, हास्य से युक्त। चुटकी के साथ। यौ०—सोल्लुंठकथन, सोल्लुंठभाषण, सोल्लुंठभाषित, सोल्लुंठ- वचन = परिहासयुक्त। व्यंग्य, हास्य से युक्त वाक्य।

सोल्लुंठ (२)
संज्ञा पुं० व्यंग्य। परिहास। चुटकी।

सोल्लुंठन
वि०, संज्ञा पुं० [सं० सोल्लुण्ठन] दे० 'सोल्लुंठ'।

सोल्लुंठोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० सोल्लुण्ठोक्ति] परहासयुक्त वचन। व्यंग्योक्ति। दिल्लगी। बोली ठोली। ठट्ठा। चुटकी।

सोल्लेख
क्रि० वि० [सं०] अलग अलग उल्लेखपूर्वक। स्पष्टतः [को०]।

सोवज
संज्ञा पुं० [हिं० सावज] दे० 'सावज','सौजा'। उ०—जब सोवज पिंजर घर पाया बाज रह्मा वन माहीं।—दादू (शब्द०)।

सोवड़ †
संज्ञा पुं० [सं० सूतका, प्रा० सूड़आ] वह कोठरी जिसमें स्त्रियाँ बच्चा जनती हैं। सूतिकागार। सौरी।

सेवणी
संज्ञा स्त्री० [सं० शोधनी] बुहारी। झाड़ू। (डिं०)।

सोवन पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्वपन, प्रा० सोवण, हिं० सोवना] सोने की क्रिया या भाव। उ०—सुरापान करि सोवन जानै। कबहुँ न जान्यो गहन कमानै।—रघुराज (शब्द०)।

सोवन पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण, प्रा० सोवण्ण, अप० सोवंण] स्वर्ण। सोना। उ०—सुंदरि सोवन वर्ण तसु अहर अलत्ता रंगि। केसरि लंकी खीण कटि कोमल नेत्र कुरंगि।—ढोला०, दू०८७। यौ०—सोवनवानी = स्वर्णिम। सोने के वर्णवाला। सुन्हरा। उ०—सोवनवानी घूघरा चालण रइ परियाण।—ढोला०, दू० ३४३। सोवनसिंगी = स्वर्णमंडित शृंगवाली। सोने से मढ़ीसींगोंवाली। उ०—सोवनसिंगी कपिला गाई।—वी० रासो, पृ०२५।

सोवना पु †
क्रि० अं० [सं० स्व प्, प्रा० सुव, सोव + हिं० ना (प्रत्य०)] दे० 'सोना'। उ०—(क) क्योंकरि झूठी मानेयि सखि सपने की बात। जो हरि हरयो सोवत हियो सो न पाइयत प्रात।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) पंमथ थकिन भद मुकित सुखित सर सिंधुर जोवत। काकोदर कर कोश उदर तर केहरि सोवत।—केशव (शब्द०)।

सोवनार पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वपनागार] शयनकक्ष। शयनागार। उ०—औ बड़ जूड़ तहाँ सोवनारा।—जायसी ग्रं०, पृ०१४९।

सोवा
संज्ञा पुं० [हिं० सोआ] एक शाक। दे० 'सोआ'। उ०—साग चना सैग सब चौराई। सोवा अरु सरसों सरसाई।—सूर (शब्द०)।

सोवाक
संज्ञा पुं० [सं०] सुहागा।

सोवाना
क्रि० स० [हिं० सोवना का प्रे० रुप] दे० 'सुलाना'। उ०—प्रभुहि सोवाय समाल उतारी। लियो आपने गल महै धारी।—रघुराज (शब्द०)।

सोवारी (१)
संज्ञा पुं० [?] पंद्रह मात्राओं का एक ताल जिसमें पाँच आघात और तीन खाली होते हैं। इसका बोल यह है,— + धिन धा धिन धा कत तागे दिनतो तेटे कता गदिधेन धा।

सोवारी पु ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० [देशी] सवारी। उ०—सीवारी रहट घाट कौ सीस प्रकार पुर बिन्यास कथा कहुलो का।—कीर्ति०, पृ०२८।

सोवाल (१)
वि० [सं०] काले या धुँए के रंग का। धुँधला। धुमला।

सोवाल (२)
संज्ञा पुं० धूम्र वर्ष। घुँधला रंग। धूएँ का रंग।

सोवियत
संज्ञा पुं० [रु० सोवियत्] १. कुस का आधुनिक शासनतंत्र। २. रुस में किसी भी प्रदेश, गाँव या जिले की वह सभा जो मज- दूरों, सिपाहियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों से तैयार की गई हो।

सोवैया पु †
संज्ञा पुं० [हिं० सोवना + इया (प्रत्य०)] सोनेवाला। उ०—धमकै कछु यों भ्रम कै उठि आवै छपावति छाह सोवैयन तें।—(शब्द०)।

सोव्रन, सोव्रन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण] दे० 'सुवर्ण'। सोना। उदा०—दसै रती सोव्रन के खरीचा।—कबीर सा०, पृ०८८३।

सोशल
वि० [अं०] १. समाज संबंधी। सामाजिक। जैसे,—सोशल कानफरेंस। २. समाज में मिलने जुलनेवाला। मिलनसार।

सोशलिज्म
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'समाजवाद'।

सोशलिस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] 'समाजवादी'।

सोष
वि० [सं०] खारी मिट्टी मिला हुआ। क्षार मृत्तिका से मिश्रित।

सोषक
संज्ञा पुं० [सं० शोषक] १. दे० 'शोषक'। उ०—सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद विधि कीन्ह। ससि पोषक सोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह।—मानस, १। ७। २. समाज का वह व्यक्ति या वर्ग जो न्यूनतम पारिश्रमिक एवं सुविधा देकर मजदूरों, मेहनत कश वर्ग का शोषण करता है। आधुं)। विशेषदे० 'शोषक'—6।

सोषण, सोणन पु
संज्ञा पुं० [सं०शोषण] दे० 'शोषण'। उ०— सोहन बसीकरन उच्चाटन। शोष दीपन थंभन घातन।— गोपाल (शब्द०)।

सोषना पु
क्रि० अ० [सं० शोषण] दे० 'सोखना'। उ०—पुनि अंत- हकोषं निर्मल चोषं नाँहीं धोषं गुन सोषं।—सूंदर० ग्रं०, भा० १. पृ०२४३।

सोषु, सोसु पु
वि० [हिं० सोखना] सोखनेवाला। उ०—दंभ हू कलि नाम कुंभज सोच सागर सोषु।—तुलसी (शब्द०)।

सोष्णीष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता में उल्लिखित वास्तु विद्या के अनुसार एक प्रकार का भवन जिसके पूर्व भाग में वीथिका हो।

सोण्णीष (२)
वि० उण्णीषयुक्त। पाग धारण करनेवाला [को०]।

सोष्म (१)
वि० [सं० सोष्मन्] १. ऊष्मा से युक्त। ऊष्म (वर्ण अक्षर)। २. ऊष्ण। गरम। तप्त [को०]।

सोष्म (२)
संज्ञा पुं० उष्म वर्ण।

सोष्यंती
संज्ञा स्त्री० [सं० सोष्यन्ती] वह स्त्री जो प्रसव करनेवाली हो। आसन्नप्रसवा।

सोष्यंती कर्म
संज्ञा पुं० [सं० सोष्यन्ती कर्मन्] आसन्नप्रसवा (प्रसूता) स्त्री के संबंध में किया जानेवाला कृत्य या संस्कार।

सोष्यंती सवन
संज्ञा पुं० [सं० सोष्यन्ती सवन] एक प्रकार का संस्कार।

सोष्यंती होम
संज्ञा पुं० [सं० सोष्यन्ती होम] एक प्रकार का होम जो आसन्नप्रसवा स्त्री की ओर से किया जाता है।

सोस पु
संज्ञा पुं० [सं० शोच] दे० 'सोच'। उ०—बार बार यांतें कहत यह मेरे जिय सोस। क्यों सैहै सुकुमार वह तुमरौ आतप रोस।—स० सप्तक, पृ०३९७। (ख) उफा इन अँदेशे का ना सोस कर, कहे मन में यूँ आह अफसोस कर।—दक्खिनी०, पृ०१३९।

सोसन
संज्ञा पुं० [फ़ा० सौसन] फारस की ओर का एक प्रसिद्ध फूल का पौधा जो भारतवर्ष में हिमालय के पश्चिमोत्तर भाग अर्थात् काश्मीर आदि प्रदेशों में भी पाया जाता है। विशेष—इसकी जड़ में से एक साथ ही कई डंठल निकलते हैं। पत्ते कोमल, रेशेदार, हाथ भर के लंबे, आध अंगुल चौड़े और नोकदार होते हैं। फूलों के दल नीलापन लिए लाल, छोर पर नुकीले और आध अंगुल चौड़े होते हैं। बीजकोश ५ या ६ अंगुल लंबे, छहपहले और चोंचदार होते हैं। हकीमी में इसके फूल और पत्ते औषध के काम में आते हैं और गरम, रुखे तथा कफ और वातनाशक माने जाते हैं। इसके पत्तों का रस सिर- दर्द और आँख के रोगों में दिया जाता है। इसे शोभा के लिये बगीचे में लगाते हैं। फारसी के शायर जीभ की उपमा इसके दल से दिया करते हैं।

सोसनी
वि० [फ़ा० सौसन] सोसन के फूल के रंग का। लाली लिए नीला। उ०—(क) सोसनी दुकूलनि दुराए रुप रोसनी है, बूटेदार घाँघरी की घूमनि घुमाइकै। कहै पद्माकर त्यों उन्नत उरोजन पै तंग अँगिया है तनी तननि तनाइकै।—पद्माकर ग्रं०,पृ०१२६। (ख) अंग अनंग की रोसनी मैं सुभ सोसनी चीर चुभ्यो चित चाइन। जाति चली बृज ठाकुर मैं ठमका ठमका ठुमकी ठकुराइन।—पद्माकर ग्रं०१३०।

सोसाइटी, सोसायटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. समाज। गोष्ठी। जैसे,— हिंदू सोसायटी। बंगाली सोसाइटी। २. संगत। सोहबत। जैसे,—उसकी सोसायटी अच्छी नहीं है।

सोसि पु
पद [सं० सः + असि] सो हो। वह हो। उ०—जोसि सोसि तन चरन नमामी।—मानस,१।१६१।

सोस्मि पु
पद [सं० सः + अस्मि] दे० 'सोहमस्मि'। उ०—लिंग शरीर नाम तब पावै। जब नर अजपा में मन लावै। अजपा कि जो सोस्मि उसासा। सुमिरै नाम सहित विश्वासा।— विश्राम (शब्द०)।

सोह
पद [सं० सोहम्] दे० 'सोडहम्'। उ०—मानन लगे ब्रह्म जिय साहीं। सोहं रटन मची चहुँ घाहीं।—रघुराज (शब्द०)।

सोहंग ‡
पद [सं० सोहम् + हिं० ग (प्रत्य०)] दे० 'सोडहम्'। उ०— साधु सजे मिलि बैठे आई। बहु बिधि भक्ति करो चित लाई। कहैं कबीर सुनो भइ साधो। बोहंग सोहंग शब्द अराधो।—कबीर (शब्द०)।

सोहंगम
पद [हिं० सोहंग + म] दे० 'सोडहम्'। उ०—सुरति सोहगम डेरि है, अग्र सोहंगम नाम। सार शब्द टकसार है, कोइ बिरले पावै नाम।—कबीर (शब्द०)।

सोहंजि
संज्ञा पुं० [सं० सोहञ्जि] भागवत वर्णित कुंदिभोज के एक पुत्र का नाम।

सोहँ पु ‡
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'सौँह'। उ०—सोहँहु भौंहन ऐंठति है कैसो तुम हिरदय। सुकवि लखी नहीं सुनि बात ऐसी कहुँ निरदय।—व्यास (शब्द०)।

सोहँग पु ‡
पद [हिं० सोहंग] दे० 'सोडहम्'। उ०—जब नहीं पाँच अमी निर्माया, नहिं सोहँग विस्तारा।—कबीर मं०, पृ०१६४।

सोहँगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोहाग] १. तिलक चढ़ने के बाद की एक रस्म जिसमें लड़केवाले के यहाँ से लड़की के लिये कपड़े, गहने, मिठाई, मेवे, फल, खिलौने, आदि सजाकर भैजे जाते हैं। उ०—अति उत्तम बिचारि कै जोरी। भए मुदित संबंधाहि जोरी। भेज्यो तिलक दाम भारि बहँगी। तुमहु सुता हित साजहु सेहँगी।—(शब्द०)।

सोहगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोहाग] १. दे० 'सोहँगी'। उ०—कदाचित् बारात वा सोहगी निकलने का समय है।—प्रेमधनं, भा०२, पृ०११९। २. सिंदूर, मेंहदी आदि सुहाग की वस्तुएँ।

सोहगैला †
संज्ञा पुं० [हिं० सुहाग या सोहाग + ऐला (प्रत्य०)] [स्त्री० सोहगैली] लकड़ी की कंगूरेदार डिबिया जिसमें विवाह के दिन सिंदूर भरकर देते हैं। सिंदूरा।

सोहड़ ‡
संज्ञा पुं० [सं० सुभट; प्रा० सुहड; राज० सोहड] दे० 'सुभट'। उ०—पिंगल बोलावा दिया, सोहड सो असवार।— ढोला०, दू०५९७।

सोहण पुं० ‡
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्न, प्रा० सोहम] दे० 'स्वप्न'। उ०— सोहण याई फर गया मइँ सर भरिया रोइ। आव सोहगण नीदड़ी बलि प्रिय देखऊँ सोइ। —ढ़ोला०, दू० ५१०।

सोहण ‡
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्न, प्रा० सुहिणा] सपना। स्वप्न। उ०— (क) जउ सोहणो साचेइ होअइ सोहणो बड़ी बसत्त।—ढोला०, दू० ५०९।

सोहदा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शुहदह्न] दे० 'शोहदा'।

सोहन (१)
वि० [सं० शोभन, प्रा० सोहण] [वि० स्त्री० सोहनी] अच्छा लगनेवाला। सुंदर। सुहावना। मनभावना। मनोहर। उ०— (क) तहँ मोहन सोहन राजत हैं। जिमि देखि मनोभव लाजत हैं। (ख) हीर जराऊ मुकुट सीस कंचन को सोहन। —गोपाल (शब्द०)। (ग) चित चोरना बिबि खंभ बातक रतन डाँडी सोहनी। —नंद ग्रं०, पृ० ३७५।

सोहन (२)
संज्ञा पुं० सुंदर पुरुष। नायक। उ०—प्यारी की पीक कपोल में पीके बिलोकि सखीन हँसी उमड़ी सी। सोहन सौंह न लोचन होत सुलोचन सुंदरि जाति गड़ी सी। —देव (शब्द०)।

सोहन (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक बड़ी चिड़ीया जिसका शिकार करते है। विशेष—यह बिहार, उडीसा, छोटा नागपुर और बंगाल को छोड़ हिंदुस्तान में सर्वत्र पाई जाती है। यह कीड़े, मकोड़े, अनाज, फल, घास के अंकुर आदि सब कुछ खाती है। पूँछ से लेकर चोंच तक इसकी लंबाई डेढ़ हाथ तक होती है और वजन भी बहुत भारी, प्रायः दस सेर तक, होता है। इसका मांस बहुत स्वादिष्ट कहा जाता है।

सोहन (४)
संज्ञा पुं० एक बड़ा पेड़ जो मध्यभारत तथा दक्षिण के जंगलों में बहुत होता है। विशेष— इसके हीर की लकड़ी बहुत कड़ी, मजबूत, चिकनी, टिकाऊ तथा ललाई लिए काले रंग की होती है। यह मकानों में लगती है तथा मेज, कुरसी आदि सजावट के सामान बनाने के काम में आती है। सोहन शिशिर में झाड़ पत्ते देनेवाला पेड़ है। इसे रोहन और सूमी भी कहते हैं।

सोहन (५)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सोहान] एक प्रकार की बढ़इयों की रेती या रंदा। यौ०— तिकोनिया सोहन = तीन कोने की रेती।

सोहन चिड़ीया
संज्ञा स्त्री० [हि० सोहन + चिड़िया] दे० सोहन' —३।

सोहन पपड़ी
संज्ञा स्त्री० [ हि० सोहन + पपड़ी] एक प्रकार की मिठाई जो जमें हुए करतों के रुप में होती है।

सोहन हलवा
संज्ञा पुं० [हि० सोहन + अ० हलवा] एक प्रकार की स्वादिष्ट मिठाई जो जमे हुए कतरों के रुप में और घी से तर होती है।

सोहना (१)
क्रि० अ०[सं० शोभन, प्रा० सोहण] १. शोभित होना। सूंदरता के साथ होना। सजना। उ०— (क) नासिक कीर, कँवल मुख सोहा। पदमिनि रुप देखि जग मोहा। —जायसी (शब्द०)। (ख) काक पच्छ सिर सोहत नीके। —तुलसी (शब्दि्०)। (ग) रत्न जटित कंकन बाजूबँद नगन मुद्रिका सोहै। —सूर (शब्द०)। (घ) सोहत ओढ़े पीत पट स्यामसलोने गात। —बिहारी (शब्द०)। २. अच्छा लगना। उपयुक्त होना। फबना। जैसे,— (क) यह टोपी तुम्हारे सिर पर नहीं सोहती। (ख) ऐसी बातें तुम्हें नहीं सोहतीं। उ०— (क) यह पाप क्या हम लोगों को सोहता है। —प्रताप (शब्द०)। (ख) ऐसी नीति तुम्हैं नहिं सोहत। —गोपाल (शब्द०)।

सोहना † (२)
वि० [वि० स्त्री० सोहनी] १. सोहन। सुहावना। शोभा- युक्त। उ०—को है सरद ससि मुख रहे लसि चपल नैना सोहना।—नंद० ग्र०, पृ० ३७५। २. सुंदर। मनोहर। जैसे,—सोहनी लकड़ी, सोहना बगीचा।

सोहना (३)
क्रि० स० [सं० शोधन, प्रा० सोहण] खेत में उगी घास निकालकर अलग करना। निराना।

सोहना (४)
संज्ञा पुं० [फ़ा० सोहान] कसेरों का एक नुकीला औजार जिससे वे घरिया या कुठाली में, साँचे में गली धातु गिराने के लिये, छेद करते हैं।

सोहनाइत ‡
संज्ञा पुं० [देशी] एक ओहदा या पद। उ०—गोसाञिञ माझिहे-रनाहे-मलिक्ह सोहनाइत महामालिक वोनओ, अगुञाडी। —वर्ण०, पृ० २।

सोहनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शोधनी] १. झाडू़। बुहारी। सरहट। २. खेत में से उगी घास खोदकर निकालने की क्रिया। निराई।

सोहनी (२)
वि० स्त्री० [ हि० सोहना] सुंदर। सुहावनी। मनभावनी। उ०—साँवरी सी रही सोहनी सूरति हेरत को जुवती नहिं मोहैं ? —सुंदरीसर्वस्व (शब्द०)।

सोहनी (३)
संज्ञा स्त्री० सोहिनी नाम की रागिनी।

सोहबत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. संग साथ। संगत। २. संभोग। स्त्री- प्रसंग।

सोहबती
वि० [फ़ा०] संगी। साथी। सोहबतवाला।

सोहमस्मि
पद [सं० स? + अहम् + अस्मि, सोहमस्मि] दे० 'सोह- मस्मि'। उ०—सोहमस्मि इति वृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा। —तुलसी (शब्द०)।

सोहर (१)
संज्ञा पुं० [सं० सूतिगृह। हि० सोहना, सोहला] १. एक प्रकार का मंगलगीत जो स्त्रियाँ घर में बच्चा पैदा होने पर गाती हैं। सोहला। उ०—रानि कौसिला ढोटा जायी रघुकुल कुमुद जुन्हैया। सोहर सोर मनोहर नोहर माचि रह्यौ चहुँ घैया।— रघुराज (शब्द०)। २. मांगलिक गीत। उ०—कौसिल्यै सीतै करि आगे। चलीं अवघ मंदिर अनुरागे। सहसन संग सहचरी भावैं। महामनोहर सोहर गावैं।—रघुराज (शब्द०)।

सोहर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सूतचका; अथवा सं० सूतिगृह, सूतागृह; प्रा० सुइहर, सूआहर] सूतिकागृह। सौंड़। सौरी।

सोहर (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. नाव के भीतर की पाटन या फर्श। २. नाव का पाल खींचने की रस्सी।

सोहरना †
क्रि० अ० [सं० सु + √स्तू>स्तर, स्तार] ऊपर से नीचे तक फैलकर लटकना। फैल जाना। फैलना। विस्तृत होना। जैसे,—पहिर के आँटे न सोहरा जाय (लोकोक्ति)।

सोहरा पुं † (१)
वि० [सं० शोभन] शोभायुक्त। उपयुक्त। उच्छा। उ०—लेखा देणाँ सौहरा, जे दिल साँचा होइ। उस वंगे दीवांन मैं पला न पकड़ै कोइ।— कबीर ग्रं०, पृ० ४२।

सोहरा † (२)
वि० [सं० शोभिल, प्रा० सोहिर] शोभनेवाला। सुखी। उ०—वे इकोतरासई सबनि कौं तही तें भये सोहरा। ऊँची महल रच्यौ अविनाशी तज्यौ परायौ नोहरा।—सूंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ९१४।

सोहराना (१)
क्रि० स० [हि० सहलाना] दे० 'सहलाना'। उ०— कुचन्ह लिये तरवा सोहराई। भा जोगी कोउ संग न लाई।— जायसी (शब्द०)।

सोहराना † (२)
क्रि० स० [हि० सोहराना] किसी वस्तु को फैलाना या नीचे तक लटकाना।

सोहला
संज्ञा पुं० [हि० सोहना] १. वह गीत जो घर में बच्चा पैदा होने पर स्त्रियाँ गाती हैं। उ०—गौरि गनेस मनाऊँ हो देवी सारद तोहि। गाऊँ हरि जू को सोहलो मन और न आवैं मोहि।—सुर (शब्द०)। २. मांगलिक गीत। उ०—डोमनियों के रुप में सारंगियाँ छेड़ सोहले गावो।—इंशाअल्ला (शब्द०)। ३. किसी देवी देवता की पूजा में गाने का गीत। जैसे,— माता के सोहले।

सोहलो †
संज्ञा पुं० [अ० सुहैल] तारा की आकृति का ललाट पर पहनने का एक आभूषण। उ०—भुमुहाँ ऊपर सोहलो, परि ठिउ जाँण क चंग। ढोला एही मारुवी, नव नेही नव रंग। ढोला०, दू० ४६५।

सोहाइन पुं० ‡
वि० [हि०] दे० 'सुहावना'। उ०—सँग गाउँ को गोधन ले सिगरो रघुनाथ भरे मन चाइन में। नहिं जानि या जात रहे कितको बन भीतर कुंज सोहाइन में।—रघुनाथ (शब्द०)।

सोहाई पुं० (१)
वि० स्त्री० [हि० सोहाना का कृदंत रुप] दे० 'सोहाया'।

सोहाई † (२)
संज्ञा स्त्री०[हि० सोहना] १. खेत में उगी घास निकालने का काम। निराई। २. इस काम की मजदूरी।

सोहाश्रोन ‡
वि० [हि० सुहावन, सोहावन] [ वि० स्त्री० सोहाउनी] दे० 'सुहावन'। उ०—(क) अछल सोहाओन कितए गेल, भूसन कएले दूसन भेल।—विद्यापति, पृ० ३१७। (ख) बिरह सोस भेले भल हो अधर देले रौप सुहाउनि छाया। —विद्यापति, पृ० २२५।

सोहाग † (१)
संज्ञा पुं० [सं० सौभाग्य, प्रा० सोहग्ग] १. दे० 'सुहाग'। उ०—(क) धाइ सो पूछति बातै बिनै की सखीनि सीं सीखै सोहाग की रीतहिं।—देव (शब्द०)। (ख) लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग। हृदय असीसहिं प्रेमबस रहिहहु भरी सोहाग।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना।—लेना।उ०—तुम तो ऐसा धमकाते हो जैसे हम राजा साहब के हाथों बिक गए हों। रानी रूठेंगी, अपना सोहाग लेंगी। अपनी नौकरी ही न लेंगे, ले जायँ।—काया०, पृ० २२२। २. एक प्रकार का मांगलिक गीत। उ०—गातव सबै सोहाग छबीली मिलि सब बृज की बाम।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४४।

सोहाग (२)
संज्ञा पुं० [हिं० सुहागा] दे० 'सुहागा'।

सोहाग (३)
संज्ञा पुं० [देश०, तुल० सं० सौभाग्य] मझोले आकार का एक प्रकार का सदाबहार वृक्ष।विशेष—इस वृक्ष के पत्ते बहुत लंबे लंबे होते हैं। यह आसाम, बंगाल, दक्षिणी भारत और लंका में पाया जाता हैं। इसके बीजों से एक प्रकार का तेल निकलता है जो जलाया और ओषधि के रूप में काम में लाया जाता है। इसे हीरन हर्रा भी कहते हैं। २. एक प्रकार का नमकीन पक्वान्न। दे० 'सुहाल'।

सोहागा (१)
संज्ञा पुं० [सं० समभाग, प्रा० सवँहाग] जुते हुए खेते की मिट्टी बराबर करने का पाटा। मैड़ा। हेंगा।

सोहागा (२)
संज्ञा पुं०[हिं०] दे० 'सुहागा'। उ०—कहि सत भाउ भएउ कँठलागू। जनु कंचन मों मिला सोहागू।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३३४।

सोहागिन †
संज्ञा स्त्री० [हिं सुहागिन] दे० 'सुहागिन'। उ०—अति सप्रेम सिय पायँ परि बहु बिधि देहिं असीस। सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लग महि अहि सीस।—तुलसी (शब्द०)।

सोहागिल
संज्ञा स्त्री० [हि० सोहाग + इल (प्रत्य०)] दे० 'सुहागिन'। उ०—सिय पद सुमिरि सुतीय पहि तस गुन मंगल जानु। स्वामि सोहागिल भागु बड़ पुत्र काजु कल्यानु।—तुलसी (शब्द०)।

सोहाता
वि० [हि० सोहना] [वि० स्त्री० सोहाती] सुहावना। शोभित। सुंदर। अच्छा। उ०—माधुरी मूरत देखे बिना पद्माकर लागै न भूमि सोहाती।—पद्माकर (शब्द०)।

सोहान
संज्ञा पुं० [फ़ा०] रेतने का औजार। रेती [को०]।

सोहाना (१)
क्रि० अ० [सं० शोभन, प्रा० सोहण] १. शोभित होना। शोभायमान होना। सुंदरता के साथ होना। सजना। उ०— (क) आवहिं झुंड सो पाँतिहि पाँती। गवन सोहाइ सो भाँतिहि भाँती।—जायसी (शब्द०)। (ख) गोरे गात कपोल पर अलक अडोल सोहाय।—मुबारक (शब्द०)। (ग) बन उपबन सर सरित सोहाए।—तुलसी (शब्द०)। २. रुचिकर होना। अच्छा लगना। प्रिय लगना। रुचना। जैसे,—तुम्हारी बातें हनें नहीं सोहातीं। उ०—(क) भएउ हुलास नवल ऋतु माँहाँ। खन न सोहाइ धूप औ छाहाँ।—जायसी (शब्द०)। (ख) पिय बिनु मनहिं अटरिया मोहिं न सोहाइ।—रहीम (शब्द०)। (ग) राम सोहाता तोहि तौ तू सबहिं सोहातो।—तुलसी (शब्द०)।

सोहाना (२)
संज्ञा पुं० वि० सुहावना। सुंदर। मनोहर। उ०—साहि तनै सिव साहि निसा मैं निसाँक लियो गढ़ सिंह सोहानी।—भूषण ग्रं०, पृ० ७२।

सोहाया
वि० [हि० सोहाना का कृदंत रुप] [वि० स्त्री० सोहाई] शोभित। शोभायमान। सुंदर। उ०—(क) सरद सोहाई आई राति। दस दिसि फूलि रही बनजाति।—सूर (शब्द०)। (ख) एहि प्रकार बल मनहिं देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सोहाई।— तुलसी (शब्द०)।

सोहायो पुं० †
वि० [हि० सोहाया] दे० 'सोहाया'।

सोहारद पुं० ‡
संज्ञा पुं० [सं० सौहार्द] दे० 'सौहार्द'।

सोहारी †
संज्ञा स्त्री [हि० सोहाना (=रुचना) अथवा सं० सु + √ स्तृ>स्तर, स्तार] पूरी। उ०—(क) मोती चूर मूर के मौदक ओदक की उजियारी जी। समई सेव सैंजना सूरन सोवा सरस सोहारी जी।—विश्राम (शब्द०)। (ख) लुचुई पूरि सोहारी परी। एक ताती औ सुठि कोंवरी।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१३।

सोहाल
संज्ञा पुं० [हि० सुहाल] दे० 'सुहाल'।

सोहाली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शोभावलि ? ] ऊपर के दाँतों का मसूड़ा। ऊपरी दाँतों के निकलने की जगह।

सोहाली † (२)
संज्ञा स्त्री०[हि० सुहारी] दे० 'सुहारी'।

सोहावन पुं० †
वि० [हि० सुहावना] दे० 'सुहावना'। उ०—(क) दंडक बनु प्रभु कीन्ह सोहावन। जनमन अमिति नाम किय पावन।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कुहकहि मोर सोहावन लागा। होइ कुराहर बोलहिं कागा।—जायसी, ग्रं०, पृ० ११।

सोहावना (१)
वि० [हि० सुहावना] दे० 'सुहावना'।

सोहावना (२)
क्रि० अ० [सं० शोभन] दे० 'सोहाना'। उ०—(क) कज्जल सो रंग मोहैं सज्जल जलद जोहि उज्जल बरन बर रदन सोहावने।—गोपाल (शब्द०)। (ख) वीर लै कमान हाथ मोद सा फिरावते। गावते बजावते सोहावते देखावते।—गोपाल (शब्द०)।

सोहासित पुं०
वि० [सं० सुभाषित (=सुंदर वचन); अथवा हि० सोहाना (=रुचना)] १. प्रिय लगनेवाला। रुचिकर। २. ठकुरसोहाती। उ०—राजसूय ह्नैहै नहिं तेरी। मानहु हंस बात सति मेरी। वैसे कहौ सोहासित भाखैं। पै मन महँ संका हठि राखैं।—रघुराज (शब्द०)।

सोहिं ‡
कि० वि० [हिं० सौंह] दे० 'सौंह'। उ०—वेदवती दशशीश ते कहयौ रहै मैं तोहि। तब पुर पैठि विनाशिहैं। हेतु गई तेहि सोहि।—विश्राम (शब्द०)।

सोहिण, सोहीण पुं० †
संज्ञा पुं० [सं० स्वप्न, प्रा० सुहिणा, सोहणा] स्वप्न। उ०—जो हूं सोहोणइँ जाणती साँच।—बि० रासों, पृ० ६५।

सोहिनी (१)
वि० स्त्री० [हि० सोहना] सुहावनी। शोभायमान सुंदर। उ०—संग लीने बहु अच्छोहिनी। गज रथ तुरगन्ह सोहिनी। गोपाल (शब्द०)।

सोहिनी (२)
संज्ञा स्त्री० करुण रस की एक रागिनी। विशेष—यह षाड़व जाति की है और इसमें पंचम वर्जित है। कोई इसे भैरो राग की और कोई मेघ राग की पुत्रवधू मानते हैं। हनुमत के अनुसार यह मालकोस राग की पत्नी है। इसके गाने का समय रात्रि २६ दंड से २९ दंड तक है।

सोहिनी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० शोधनी] झाड़ू। बुहारी।

सोहिल
संज्ञा पुं० [अ० सुहैल] एक तारा जो चंद्रमा के पास दिखाई पड़ता है। अगस्त्य तारा। उ०—(क) हीर फूल पहिरे उजियारा। जनहु सरद ससि सीहिल तारा।—जायसी (शब्द०)। (ख) सोहिल सरिस उवौं रन माहीं। कटक घटा जेहि पाइ उड़ाहीं।—जायसी (शब्द०)।

सोहिला
संज्ञा पुं० [हि० सोहला] दे० 'सोहला'। उ०—(क) आजु इंद्र अछरी सौं मिला। सब कैलास होहि सोहिला —जायसी (शब्द०)। (ख) सहेली सुनु सोहिलो रे —तुलसी (शब्द०)। (ग) सदन सदन शुभ सोहिलो सुहावनी तें गाइ उठीं भाइ उठीं क्षण क्षिति छै गए।—रघुराज (शब्द०)। (घ) सुख सोहिले मनाऊँ सदा। या ब्रज यह आनंद संपदा।—घनानंद, पृ० ३०३।

सोहीं
क्रि० वि० [सं० सम्मुख, प्रा० सम्मुह, हि० सौंह] सामने। आगे। उ०—उग्रसन का स्वरुप बन रानी के सोहीं जा बोला-तू मुझसे मिल।—लल्लू (शब्द०)।

सोहैं पुं० † (१)
क्रि० वि० [हि० सौंह] दे० 'सौंह' , 'सौहैं'।

सौहैं पुं० (२)
क्रि० वि० [सं० सम्मुख, प्रा० सम्मुह, हिं० सौंहे] सामने। आगे। उ०—घूँघट में सुसकै भरै सासैं ससैं मुख नाहके सोहैं न खोलै।—बेनी (शब्द०)।

सोहौटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] ६ या ७ इंच चौड़ी एक लकड़ी जो 'अपती' के सामने 'लेवा' के नीचे नाव की लंबाई में लगाई जाती है। (मल्लाह)।