विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/सा
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ सांकथिक
वि० [सं० साङ्कथिक] बार्तापटु। वार्तालाप करने में कुशल [को०]।
⋙ सांकथ्य
संज्ञा पुं० [सं० साङ्कथ्य] बातचीत। वार्तालाप [को०]।
⋙ सांकरिक
वि० [सं० साङ्करिक] वर्णसंकर [को०]।
⋙ सांकर्य
संज्ञा पुं० [सं० साङ्कर्य] घालमेल। मिश्रण। घपला। मिलावट।
⋙ सांकल
वि० [सं० साङ्कल] [वि० स्त्री० साङ्कली] योग या मिश्रण द्वारा उत्पन्न या निष्पादित किया हुआ [को०]।
⋙ सांकल्पिक
वि० [सं० साङ्कल्पिक] १. संकल्पजन्य। संकल्प द्वारा कृत। २. कल्पनाजन्य। कल्पना से उत्पन्न [को०]।
⋙ सांकाश्य
संज्ञा पुं० [सं० साङ्काश्य] जनक के भाई कुशध्वज की राजधानी का नाम [को०]।
⋙ सांकाश्या
संज्ञा स्त्री० [सं० साङ्काश्या] दे० 'सांकाश्य'।
⋙ सांकूजित
संज्ञा पुं० [सं० साङ्कूजित] पक्षियों का जोर से चहचहाना।
⋙ सांकेतिक
वि० [सं० साङे्कतिक] १. सकेत संबंधी। प्रतीकात्मक। उ०—रहस्यवादियों की सार्वभौम प्रवृत्ति के अनुसार ये सिद्ध लोग अपनी बानियों के सांकेतिकता दूसरे अर्थ भी करते थे।—इतिहास, पृ० १२। २. परंपरित। परंपराप्राप्त। प्रचलित। यौ०—सांकेतिक हड़ताल = अपनी माँग के समर्थन में आगे की जानेवाली कारवाई की अग्रिम् सूचना के प्रतीक या संकेत में की जानेवाली हड़ताल। (अं० टोकेन स्ट्राइक)।
⋙ सांकेतिकता
संज्ञा स्त्री० [सं० साङे्कतिक + ता (प्रत्य०)] सूक्ष्मता। संकेत या प्रतीक रूप में होने का भाव। उ०—यहाँ एकदम विक्षिप्तता और अत्यंत सांकेतिकता नहीं है।—इति०, पृ० ८६।
⋙ सांकेत्य
संज्ञा पुं० [सं० साङे्कत्य] १. सहमति। राजीनामा। समझौता। २. प्रिय अथवा प्रिया के साथ मिलन के समय का निश्चय किया जाना [को०]।
⋙ सांक्रमिक
वि० [सं० साङ्कमिक] संक्रमणशील। संक्रामक [को०]।
⋙ सांक्षेपिक
वि० [सं० साङ्क्षेपिक] संक्षिप्त। संक्षेप या कम किया हुआ [को०]।
⋙ सांख्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० साङ्ख्य] १. हिंदुओं के छह् दर्शनों में से एक दर्शन जिसके कर्ता महर्षि कपिल हैं। विशेष—इस दर्शन में सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम दिया गया है। इसमें प्रकृति को ही जगत का मल माना है और कहा गया है कि सत्व, रज और तम इन तीनों के योग से सृष्टि का और उसके सब पदार्थों आदि का विकास हुआ है। इसमें ईश्वर की सत्ता नही मानी गई है; और आत्मा को ही पुरुष कहा गया है। इसके अनुसार आत्मा अकर्ता, साक्षी और प्रकृति से भिन्न है। आत्मा या पुरुष अनुभवात्मक कहा गया है, क्योंकि इसमें प्रकृति भी नहीं है और विकृति भी नहीं है। इसमें सृष्टि केचार मुख्य विधान माने गए हैं—प्रकृति, विकृति, विकृति- प्रकृति और अनुभव। इसमें आकाश आदि पाँचों भूत और ग्यारह इंद्रियाँ प्रकृति हैं। विकृति या विकार सोलह प्रकार के माने गए है। इसमें सृष्टि को प्रकृति का परिणाम कहा गया है; इसलिये इसका मत परिणामवाद भी कहलात है। विशष दे० 'दर्शन'। २. शिव। ३. वह जो सांख्यमत का अनुयायी हो (को०)।
⋙ सांख्य (२)
वि० संख्या संबंधी। २. आकलनकर्ता। गणक। ३. विवेचक। ४. विचारक। तार्किक।
⋙ सांख्यकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० साङ्ख्यकारिका] सांख्यदर्शन की पद्यबद्ध टीका जिसकी रचना ईश्वरकृष्ण ने ईसा की तीसरी सदी में की थी। उ०—सांख्यदर्शन के प्रवर्तक कपिल ई० पू० ७-६वीं सदी में हुए होंगे पर इसका पहला ग्रंथ ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका तीसरी ईस्वी सदी की रचना है।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १९४।
⋙ सांख्यजोग पु
संज्ञा पुं० [सं० सांख्य + योग, हिं० जोग] दे० 'सांख्य'। उ०—सांख्य जोग यह धर्म है, कर्म बीज की जार।—केशव० अभी०, पृ० १।
⋙ सांख्यप्रसाद
संज्ञा पुं० [सं० साङ्ख्यप्रसाद] शिव [को०]।
⋙ सांख्यमुख्य
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ख्यमुख्य] शिव [को०]।
⋙ सांख्यवादी
संज्ञा पुं० [सं० सङ्ख्यवादिन्] सांख्यदर्शन का अनुयायी। उ०—सांख्यवादियों ने जिसको प्रकृति कहा है करीब करीब उसको वेदांतियों ने माया कहा है।—हिंदू काव्य०, पृ० ८।
⋙ सांख्यायन
संज्ञा पुं० [सं० साङ्ख्यायन] एक प्राचीन आचार्य। विशेष—इन्होंने ऋग्वेद के सांख्यायन ब्राह्माण की रचना की थी। इनके कुछ श्रौत सूत्र भी हैं। सांख्यायन कामसूत्र भी इन्हीं का बनाया हुआ है।
⋙ सांग (१)
वि० [सं० साङ्ग] १. सब अंगों सहित। संपूर्ण। २. अवयव या अंगवाला। अंगयुक्त (को०)। ३. छह् अंगों या उपांगों से युक्त (को०)। यौ०—सांगोपांग।
⋙ सांग पु † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० स्वाँग] दे० 'स्वाँग'। उ०—खिलवत हास खुसामदी, सुरका दुरका सांग।—बाँकी ग्रं०, भा० २, पृ० ७७।
⋙ सांगग्लानि
वि० [सं० साङ्गग्लानि] थकित। क्लांत [को०]।
⋙ सांगज
वि० [सं० साङ्गज] रोमराजियुक्त। केशयुक्त। बालों से ढका हुआ [को०]।
⋙ सांगतिक (१)
वि० [सं०] संगति, समाज या संघ से संबद्ध [को०]।
⋙ सांगतिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अतिथि। अभ्यागत। नवागंतुक। २. वह व्यक्ति जो व्यापार, (आदान प्रदान, भुगतान आदि) के सिल- सिले में आया हो [को०]।
⋙ सांगत्य
संज्ञा पुं० [सं० साङ्गत्य] संगति। समागम। संगम [को०]।
⋙ संगम
संज्ञा पुं० [सं० साङ्गम] संगम। मिलन। संपर्क [को०]।
⋙ सांगि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शङ्कु, हिं० साँगी] दे० 'साँगी'। उ०—शब्द की सांगि समसेर तुम पकरि ले, सुरति नेजा निर्वान कीना।— संत० दरिया पृ० ७०।
⋙ संगीत पु
संज्ञा पुं० [सं० साङ्गीत] दे० 'संगीत'। उ०—जोतिक आगम जानि, सामुद्रिक संगीत सब।—हिं० क० का०, पृ० १८८।
⋙ सांगुष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं० साङ्गुष्ठा] १. गुंजा। २. करंजनी।
⋙ सांगोपांग
अव्य० [सं० साङ्गोपाङ्ग] अंगों और उपांगों सहित। संपूर्ण। समस्त। पूर्ण। जैसे—(क) विवाह के कृत्य सांगोपांग होने चाहिए। (ख) यज्ञ सागोपांग पूरा हो गया।
⋙ सांगोपांगता
संज्ञा स्त्री० [सं० साङ्गोपाङ्ग + ता (प्रत्य०)] सब अंगों से युक्त होने का भाव। उ०—समस्या संबंधी विवेचना की पूर्णता व्यव्स्था अथवा सांगोपांगता में नहीं है।—इति०, पृ० १२७।
⋙ सांग्रहिक
वि० [सं० साङ्ग्रहिक] सग्रहकर्ता। जो संग्रह करने में कुशल हो [को०]।
⋙ सांग्राम
संज्ञा पुं० [सं० साङ्ग्राम] दे० 'संग्राम'।
⋙ सांग्रामिक (१)
वि० [सं० साङ्ग्रामिक] जो संग्राम से संबंधित हो। युद्धविषयक [को०]।
⋙ सांग्रामिक (२)
संज्ञा पुं० १. यौद्धिक उपकरण। युद्ध की सामग्री। २. सेनानायक। सेनापति [को०]।
⋙ सांग्रामिक गुण
संज्ञा पुं० [सं० साङ्ग्रामिक गुण] राजा के युद्ध संबंधी (शक्ति, षङ्गुण और अस्त्रादि अभ्यास आदि) गुण।
⋙ सांग्रामिक परिच्छद
संज्ञा पुं० [सं० साङ्ग्रमिक परिच्छद] युद्धो- पकरण। लड़ाई के औजार [को०]।
⋙ सांग्राहिक
वि० [सं० साङ्ग्राहिक] मलावरोधक। कोष्ठबद्धकारक। (चरक)।
⋙ सांघाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० साङ्घाटिका] १. वह स्त्री जो प्रेमी और प्रेमिका का संयोग कराती हो। कुटनी। दूती। ३. स्त्री प्रसंग। मैथुन। ३. एक प्रकार का वृक्ष।
⋙ सांघात
संज्ञा पुं० [सं० साङ्घात] समूह। दल।
⋙ सांघातिक (१)
वि० [सं० साङ्घातिक] [वि० स्त्री० सांघातिकी] १. अत्यंत विनाशात्मक। मारक। २. दल या समूह से संबंधित [को०]।
⋙ सांघातिक (२)
संज्ञा पुं० ज्यौतिष में जन्मनक्षत्र से सोलहवाँ नक्षत्र जो सांघातिक कहा गया है।
⋙ सांघिक
वि० [सं० साङ्घिक] संघ से संबद्ध। भिक्षुओं के संघ से संबंधित [को०]। यौ०—सांघिक संपत्ति = भिक्षुसंघ की संपत्ति।
⋙ सांचारिक
वि० [सं० साञ्वारिक] [वि० स्त्री० सांचारिकी] संचरण- शील। गमनशील। जंगम [को०]।
⋙ सांजन (१)
संज्ञा पुं० [सं० साञ्जन] गिरगिट। छिपकली [को०]।
⋙ सांजन (२)
वि० अशुद्ध। कलुषित। पवित्रतारहित [को०]।
⋙ सांड
वि० [सं० साणड] जो बधिया न किया गया हो। जो अंड सहित हो [को०]।
⋙ सांत (१)
वि० [सं० शान्त, प्रा० सान्त] दे० 'शांत'।
⋙ सांत (२)
वि० [सं० सान्त] १. जिसका अंत हो। अंतयुक्त। जैसे— संसार का प्रत्येक पदार्थ सांत है। २. खुश। प्रसन्न।
⋙ सांततिक
वि० [सं० सान्ततिक] संतान देनेवाला। संततिदायक [को०]।
⋙ सांतपन
संज्ञा पुं० [सं० सान्तपन] एक प्रकार का तप। सांतपन कृच्छ्र।
⋙ सांतपनकृच्छ्र
संज्ञा पुं० [सं० सान्तपनकृच्छ्र] एक प्रकार का व्रत जिसमें व्रत करनेवाला प्रथम दिवस भोजन त्यागकर गोमूत्र, गोमय, दूध, दही और घी को कुश के जल में मिलाकर पीता है और दूसरे दिन उपवास करता है।
⋙ सांतर
वि० [सं० सान्तर] १. अंतराल या अवकाशयुक्त। २. जो दृढ़ न हो। ३. झीना [को०]।
⋙ सांतानिक (१)
वि० [सं० सान्तानिक] संतान संबंधी। संतान का। औलाद का। २. फैलनेवाला। बढ़नेवाला। जैसे, वृक्ष (को०)। ३. संतान नामक वृक्ष संबंधी (को०)। ४. प्रजाकाम। पुत्रकाम। संतान का अभिलाषी (को०)। ५. विवाह का इच्छुक (को०)।
⋙ सांतानिक (२)
संज्ञा पुं० संतान की कामना से विवाह करनेवाला ब्राह्मण (को०)।
⋙ सांतापिक
वि० [सं० सान्तापिक] संताप देनेवाला। कष्ट देनेवाला।
⋙ सांति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शान्ति, प्रा० सांति] दे० 'शांति'। उ०—कंस के सांति होइ जो अबै। देव काज तौ बिगरयौ सबै।—नंद० ग्रं०, पृ० २२२।
⋙ सांत्व
संज्ञा पुं० [सं० सान्त्व] दे० 'सांत्वन'।
⋙ सांत्वन
संज्ञा पुं० [सं० सान्त्वन] १. किसी दुखी को सहानुभूतिपूर्वक शांति देने की क्रिया। आशवासन। ढारस। सांत्वना। २. स्नेहपूर्वक कुशल मंगल पूछना और बातचीत करना। ३. प्रणय। प्रेम। ४. संधि। मिलन। दे० 'सांत्वना'।
⋙ सांत्वना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुःखी व्यक्ति को उसका हृदय हलका करने के लिये समझाने बुझाने और शांति देने की क्रिया। शांति देने का काम। ढारस। आश्वासन। २. चित्त की शांति। सुख। ३. प्रणय। प्रेम। ४. दे० 'सांत्वन'-४। ५. मृदुता (को०)। ६. अभिवादन या कुशलक्षेम (को०)।
⋙ सांत्ववाद
संज्ञा पुं० [सं० सान्त्ववाद] वह वचन जो किसी को सांत्वना देने के लिये कहा जाय। सांत्वना का वचन।
⋙ सांत्वित
वि० [सं० सान्त्वित] जिसे सांत्वना दी गई हो। जिसे ढाढ़स बँधाया गया हो। आश्वस्त किया हुआ [को०]।
⋙ सांदीपनि
संज्ञा पुं० [सं० सान्दीपनि] सांदीपन के गोत्र के एक प्रसिद्ध मुनि जो बहुत बड़े धनुर्धर थे और जिन्होंने श्रीकृष्ण और बलराम को धनुर्वेद की शिक्षा दी थी। विष्णुपुराण, हरिवंश, भागवत आदि में इनके संबंध में कई कथाएँ मिलती हैं।
⋙ सांदृष्टिक
वि० [सं० सान्दृष्टिक] [वि० स्त्री० सान्दृष्टिकी] १. एक ही दृष्टि मनें होनेवाला। देखते ही होनेवाला। तात्कालिक। २. स्पष्ट। प्रकट। प्रत्यक्ष।
⋙ सांदृष्टिक न्याय
संज्ञा पुं० [सं० सान्दृष्टिक न्याय] एक प्रकार का न्याय जिसका प्रयोग उस समय किया जाता है, जब कोई चीज देखकर उसी तरह की पहले देखी हुई कोई चीज याद आ जाती है।
⋙ सांद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं० सान्द्र] १. वन। जंगल। २. ढेर। राशि (को०)।
⋙ सांद्र (२)
वि० १. घना। गहरा। घोर। २. मृदु। कोमल। ३. स्निग्ध। चिकना। ४. सुंदर। खुबसूरत। ५. मोटा। कसा हुआ। गफ (को०)। ६. बलवान्। बलिष्ट। शक्तिमान्। प्रचंड (को०)। ७. पर्याप्त। अतिशय। अधिक (को०)। ८. माफिक। रुचिकर। अनुकूल (को०)।
⋙ सांद्रकुतूहल
वि० [सं० सान्द्रकुतूहल] अत्यंत कौतूहल से युक्त। जो अत्यंत उत्सुक हो [को०]।
⋙ सांद्रता
संज्ञा स्त्री० [सं० सान्द्रता] सांद्र होने का भाव।
⋙ सांद्रत्वक्क
वि० [सं० सान्द्रत्वक्क] घनी या मोटी छालवाला [को०]।
⋙ सांद्रपुष्फ
संज्ञा पुं० [सं० सान्द्रपुष्प] विभीतक। बहेड़ा।
⋙ सांद्रप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं० सान्द्रप्रमेह] दे० 'सांद्रप्रसाद'। उ०— सांद्रप्रमेह से रात्रि में पात्र में धरने से जैसा होवे ऐसा मूत्र होय।—माधव०, पृ० १८३।
⋙ सांद्रप्रसाद
संज्ञा पुं० [सं० सान्द्रप्रसाद] एक प्रकार का कफज प्रमेह। विशेष—इस प्रमेहरोग में कुछ मूत्र तो गाढ़ा और कुछ पतला निक- लता है। यदि ऐसे रोगी का मूत्र किसी बरतन में रख दिया जाय, तो उसका गाढ़ा अश नीचे बैठा जाता है और पतला अंश ऊपर रह जाता है।
⋙ सांद्रमणि
संज्ञा पुं० [सं० सान्द्रमणि] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ सांद्रमूत्र
वि० [सं० सान्द्रमूत्र] जिसका मूत्र सांद्रप्रसाद के रोगी की तरह गाढ़ा या लसदार हो [को०]।
⋙ सांद्रमेह
संज्ञा पुं० [सं० सान्द्रमेह] दे० 'सांद्रप्रसाद'।
⋙ सांद्रस्निग्ध
वि० [सं० सान्द्रस्निग्ध] गाढ़ा और चिपचिपा या लसदार [को०]।
⋙ सांद्रस्पर्श
वि० [सं० सान्द्रस्पर्श] जो छूने में चिकना या कोमल हो [को०]।
⋙ सांद्रोह पु
वि० [सं० स्वामिद्रोह] स्वामिद्रोही। स्वामी से शत्रुता करनेवाला। उ०—भग्यौ वै बंगाली करंनाटवाली। भग्यौ भागि सांद्रोह कूरंमवाली।—पृ० रा०, २४।२६०।
⋙ सांध (१)
वि० [सं० सान्ध] १. संधि संबंधी। संधि का। २. जो जोड़ या संधि पर स्थित हो।
⋙ सांध (२)
संज्ञा पुं० एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ सांधिक
संज्ञा पुं० [सं० सान्धिक] १. वह जो मद्य बनाता या बेचता हो। कलाल। शौंडिक। २. वह जो संधि करता हो। संधि करनेवाला।
⋙ सांधिविग्रहिक
संज्ञा पुं० [सं० सान्धिविग्रहिक] प्राचीन काल का राज्यों का वह अधिकारी जिसे संधि और विग्रह करने का अधिकार हुआ करता था।
⋙ सांध्य
वि० [सं० सान्ध्य] १. संध्या संबंधी। सायंकालीन। संध्या का। उ०—सांध्य मेघ की अमल अर्गला सी भली। फैल रही थी जहाँ कनक रेखावली।—शकुं०, पृ० ४५। २. प्रातःकाल से संबंधित। प्रभात का। प्राभातिक (को०)।
⋙ सांध्यकुसुमा
संज्ञा स्त्री० [सं० सान्ध्यकुसुमा] वे वृक्ष, पौधे और बेलें आदि जो संध्या के समय फूलती हों।
⋙ सांध्यभोजन
संज्ञा पुं० [सं० सान्ध्यभोजन] सायंकालीन भोजन। बीयारी। ब्यालू [को०]।
⋙ सांपत्तिक
वि० [सं० साम्पत्तिक] संपत्ति से संबंध रखनेवाला। आर्थिक। माली।
⋙ सांपद
वि० [सं० साम्पद] संपत्ति संबंधी। संपत्ति का। आर्थिक। माली।
⋙ सांपन्निक
वि० [सं० साम्पन्निक] संपन्नतापूर्वक रहनेवाला। विलास- पूर्वक रहनेवाला [को०]।
⋙ सांपरत पु
अव्य० [सं० साम्प्रत] दे० 'सांप्रत'। उ०—माजी माँनै वेदमत सुर्णै सदा सुरगाह। सती आठमी सांपरत दसमी श्री दुरगाह।—बाँकी० ग्रं०, भा०, २, पृ० २५।
⋙ सांपराय (१)
वि० [सं० साम्पराय] १. आवश्यकता या आपत्ति के कारण जिसकी अपेक्षा हुई हो। २. युद्ध से संबद्ध। सामरिक। ३. परलोक या भविष्य से संबंधित [को०]।
⋙ सांपराय (२)
संज्ञा पुं० १. इहलोक से परलोक में जाने का मार्ग। २. विपत्ति। आपत्ति। ३. जरूरत के समय काम आनेवाला सहायक या मित्र। ४. झगड़ा। संघर्ष। ५. भविष्य। भविष्य का जीवन। ६. अनिश्चय। ७. भविष्य की जिज्ञासा। ८. अन्वे- षण। गवेषणा। जिज्ञासा [को०]।
⋙ सांपरायण
संज्ञा पुं० [सं० साम्परायण] मृत्यु जो इस लोक से दूसरे लोक में ले जाती है [को०]।
⋙ सांपरायिक (१)
वि० [सं० साम्परायिक] १. परलोक संबंधी। पार- लौकिक। २. युद्ध में काम आनेवाला। ३. युद्ध संबधी। युद्ध का। ४. जरूरत के समय काम आनेवाला। ५. व्यसनों में पड़ा हुआ। विपत्तिग्रस्त (को०)। ६. दाहकर्म संबंधी, और्ध्व- देहिक (को०)।
⋙ सांपरायिक (२)
संज्ञा पुं० १. युद्ध। समर। २. लड़ाई का रथ (को०)।
⋙ सांपरायिक कल्प
संज्ञा पुं० [सं० साम्परायिक कल्प] एक प्रकार का सैनिक व्यूह [को०]।
⋙ सांपातिक
वि० [सं० साम्पातिक] संपात संबंधी। संपात का।
⋙ सांपादिक
वि० [सं० साम्पादिक] गुणकारी। लाभदायक [को०]।
⋙ सांप्रत (१)
अव्य० [सं० साम्प्रत] १. इसी समय। सद्य?। अभी। तत्काल। २. अब। अधुना (को०)। ३. ठीक ढंग से। उचित रीती से (को०)।
⋙ सांप्रत (२)
वि० १. युक्त। मिला हुआ। २. योग्य। उचित। उपयुक्त (को०)। ३. संगत। प्रासंगिक। सामयिक (को०)। ४. प्रत्यक्ष। प्रकट। व्यक्त। उ०—दाता जग माता पिता दाता सांप्रत देव।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ४७।
⋙ सांप्रतकाल
संज्ञा पुं० [सं० साम्प्रतकाल] वर्तमान समय। वर्तमान काल [को०]।
⋙ सांप्रतिक
वि० [सं० साम्प्रतिक] [वि० स्त्री० सांप्रतिकी] १. वर्तमान काल से संबंध रखनेवाला। वर्तमानकालिक। इस समय का। आधुनिक। उ०—संपादकीय प्रबंध वा प्रेरित पत्र आदि सांप्रतिक पत्रों में प्रकाशित होने की चाल चल रही है।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २९४। २. वर्तमानजीवी। आधुनिक काल की सीमा में रहनेवाला (व्यक्ति)। उ०—पर जब उनके जीवनबोध ने अपनी परमिति को छू लिया तो सांप्रतिकों को उनका स्थान ग्रहण करते देर न लगी।—बंदनवार (भू०), पृ० १७। ३. उचित। योग्य। ठीक। उपयुक्त (को०)।
⋙ सांप्रदायिक
वि० [सं० साम्प्रदायिक] [वि० स्त्री० सांप्रदायिकी] १. किसी संप्रदाय से संबंध रखनेवाला। संप्रदाय का।२. पर परित। परंपरासिद्ध (को०)।
⋙ सांप्रदायिकता
संज्ञा स्त्री० [सं० साम्प्रदायिकता] १. किसी संप्रदाय से संबंधित होने का भाव। २. संप्रदाय के प्रति कट्टरता का भाव। दूसरे संप्रदाय के अहित पर अपने संप्रदाय की हितरक्षा।
⋙ सांप्रियक
वि० [सं० साम्प्रियक] जहाँ परस्पर प्रियजन अथवा परस्पर भाईचारा रखनेवाले लोग रहते हों [को०]।
⋙ सांबंधिक (१)
वि० [सं० साम्बन्धिक] १. संबंधजन्य। संबंध का। २. विवाह संबंधी।
⋙ सांबंधिक (२)
संज्ञा पुं० १. स्त्री का भाई, साला। २. संबंध। रिश्ते- दारी (को०)।
⋙ सांब
संज्ञा पुं० [सं० साम्ब] १. श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम जो जांबवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। विशेष—बाल्यावस्था में इन्होंने बलदेव से अस्त्रविद्या सीखी थी। बहुत अधिक बलवान् होने के कारण ये दूसरे बलदेव माने जाते थे। भविष्यपुराण में लिखा गया है कि ये बहुत सुंदर थे और अपनी सुंदरता के अभिमान में किसी को कुछ न समझते थे। एक बार इन्होंने दुर्वासा मुनि का कृश शरीर देखकर उनका कुछ परिहास किया, जिससे दुर्वासा ने शाप दिया था कि तुम कोढ़ी हो जाओगे। इसके उपरांत एक अवसर पर रुक्मिणी, सत्वभामा और जांबवती को छोड़कर श्रीकृष्ण की और सब रानियाँ इनके रूपपर इतनी मुग्ध हो गई कि उनका रेत स्खलित हो गया था। इसपर श्रीकृष्णँ ने भी इन्हें शाप दिया था कि तुम कोढ़ी हो जाओ। इसी लिये ये कोढ़ी हो गए थे। अंत में इन्होंने नारद के परामर्श से सूर्य की मित्र नामक मूर्ति की उपासना आरंभ की जिससे अंत में इनका शरीर नीरोग हो गया। कहते हैं कि जिस स्थान पर इन्होंने 'मित्र' की उपासना की थी, उस स्थान का नाम 'मित्रवण' पड़ा। इन्होंने अपने इस नाम से सांबपुर नामक एक नगर भी, चंद्रभागा के तट पर बसाया था। महाभारत के युद्ध में ये जरासंध और शाल्व आदि से बहुत वीरतापूर्वक लड़े थे। २. शिव का एक नाम, जो अंबा, पार्वती के सहित हैं (को०)।
⋙ सांबपुर
संज्ञा पुं० [सं० साम्बपुर] पंजाब के मूलतान नगर का एक प्राचीन नाम। विशेष—यह नगर चंद्रभागा नदी के तट पर है। कहते हैं कि इसे श्रीकृष्ण के पुत्र सांब ने बसाया था।
⋙ सांबपुराण
संज्ञा पुं० [सं० साम्बपुराण] एक उपपुराण का नाम।
⋙ सांबपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० साम्बपुरी] दे० 'सांबपुर'।
⋙ सांबर (१)
संज्ञा पुं० [सं० साम्बर] १. साँभर हरिन। विशेष दे० 'साँभर'। २. साँभर नमक।
⋙ सांबर (२)
संज्ञा पुं० [सं० सम्बल] पाथेल। संबल। राहखर्च।
⋙ सांबरी † (१)
वि० [सं० साम्बर + ई] सांबर मृग के चर्म या साँभर क्षेत्र का बना हुआ। उ०—पाए पाँणही सांबरी, चउघड्या मांह दीई मिलाँण।—बी० रासो, पृ० ७७।
⋙ सांबरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० साम्बरी] १. माया। जादूगरी। २. जादूगरनी। विशेष—कहते हैं कि इस विद्या का आविष्कार श्रीकृष्ण के पुत्र सांबर ने किया था; इसी से इसका यह नाम पड़ा।
⋙ सांबाधिक
संज्ञा पुं० [सं० साम्बाधिक] रात्रि का द्वितीय याम या प्रहर [को०]।
⋙ सांभर
संज्ञा पुं० [सं० साम्भर] साँभर नमक [को०]।
⋙ सांभवी
संज्ञा स्त्री० [सं० साम्भवी] १. लाल लोध। २. आशंका। संभावना (को०)।
⋙ सांभाष्य
संज्ञा स्त्री० [सं० साम्भाष्य] संभाषण। बातचीत।
⋙ सांमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं० साम्मुखी] वह तिथि जिसका मान सायं- काल तक हो।
⋙ सांमुख्य
संज्ञा पुं० [सं० साम्मुख्य] १. प्रत्यक्षता। समक्षता। सामने होने की स्थिति। २. अनुकूलता। कृपाभाव। तरफदारी।
⋙ सांयमन
वि० [सं०] संयमन संबंधी। संयमन विषयक।
⋙ सांयात्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्रीय व्यापार करनेवाला व्यापारी। पोतवणिक्। २. यान। सवारी। ३. उषाकाल [को०]।
⋙ सांयुग
वि० [सं०] संयुग संबंधी। युद्ध से संबंधित [को०]।
⋙ सांयुगीन (१)
वि० [सं०] १. युद्ध से संबंधित। सामरिक। २. रण- कुशल। युद्धचतुर [को०]।
⋙ सांयुगीन (२)
संज्ञा पुं० १. युद्ध में कुशल व्यक्ति। २. श्रेष्ठ योद्धा या वीर। बहादुर। लड़ाकू।
⋙ सांराविण
संज्ञा पुं० [सं०] कई व्यक्तियों का एक साथ चीखना- पुकारना। शोर गुल [को०]।
⋙ सांवत्सर (१)
वि० [सं०] वार्षिक। वर्ष में होनेवाला। जो संवत्सर से संबंधित हो [को०]।
⋙ सांवत्सर (२)
संज्ञा पुं० १. ज्योतिषी। ज्योतिर्विद। २. वह जो ग्रहादि की गति के अनुसार पंचांग बनाता हो। ३. चांद्रमास। ४. काला चावल। ५. मृतक का एक वर्ष के उपरांत होनेवाला कृत्य। बरसी [को०]।
⋙ सांवत्सरक (१)
वि० [सं०] (ऋण) जो एक वर्ष में चुकाया जाय [को०]।
⋙ सांवत्सरक (२)
संज्ञा पुं० ज्योतिषी [को०]।
⋙ सांवत्सररथ
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य, जिनका रथ संवत्सर है [को०]।
⋙ सांवत्सरिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सांवत्सरिक] वार्षिक। संवतार से संबंधित।
⋙ सांवत्सरिक (२)
संज्ञा पुं० १. वार्षिक भूमि कर। सालना मालगुजारी। २. वर्षभर में चुका दिया जानेवाला ऋण। ३. ज्थौतिविंद। ज्यौतिषी [को०]।
⋙ सांवत्सरिक श्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] प्रति वर्ष किया जानेवाला श्राद्ध। वार्षिक श्राद्ध।
⋙ सांवत्सरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृतक का एक साल बाद होनेवाला श्राद्ध। बरसी [को०]।
⋙ सांवत्सरीय
वि० [सं०] वर्ष संबंधी। वार्षिक। सांवत्सर।
⋙ सांवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रलयाग्नि। प्रलय काल की अग्नि। प्रलय से संबंधित या प्रलयकाल में प्रकट होनेवाली आग [को०]।
⋙ सांवादिक (१)
वि० [सं०] १. बोलचाल में प्रयुक्त। संवाद, वार्तालाप आदि में प्रचलित। २. विवादास्पद। बहस तलब [को०]।
⋙ सांवादिक (२)
संज्ञा पुं० १. विवादग्रस्त विषय। २. तार्किक। तर्कशास्त्री। नैयायिक [को०]।
⋙ सांवास्यक
संज्ञा पुं० [सं०] एक साथ रहना। एक जगह रहना [को०]।
⋙ सांवित्तिक
वि० [सं०] अधिकरणनिष्ठ। विषयगत। विषयी [को०]।
⋙ सांविद्य
संज्ञा पुं० [सं०] रजामंदी। सहमति [को०]।
⋙ सांवृत्तिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सांवृत्तिकी] अलीक। भ्रांतिजनक। ऐंद्रजालिक [को०]।
⋙ सांव्यावहारिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कंपनी के हिस्सेदार होकर काम या व्यापार करनेवाला व्यापारी।
⋙ सांव्यावहारिक (२)
वि० आमफहम। प्रचलित। व्याव्हारिक [को०]।
⋙ सांश
वि० [सं०] जो अंश सहित हो। अंश्युक्त। जिसमें भाग या हिस्सा हो [को०]।
⋙ सांशायिक (१)
वि० [सं०] १. संदेहास्पद। संदिग्ध। २. जो निश्चिन न हो अनिश्चित। ३. संदेही [को०]।
⋙ सांशयिक (२)
संज्ञा पुं० अनिश्चित, संदेहास्पद या खतरे से भरा हुआ काम [को०]।
⋙ सांशयिकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] संदेह। शंका। अनिश्चय [को०]।
⋙ सांसर्गिक
वि० [सं०] संस्पर्श या छुत से उत्पन्न। संपर्कजन्य। संसर्गजन्य [को०]।
⋙ सांसारिक
वि० [सं०] संसार संबंधी। इस संसार का। लौकिक। ऐहिक। जैसे,—अब आप सांसारिक झगड़ों से अलग होकर भगवद्भजन में लीन रहते हैं।
⋙ सांसिद्धिक
वि० [सं०] १. प्रकृति से संबंधित। प्राकृतिक। स्वाभा- विक। २. वेव संबंधी। दैविक। दैवी। ३. याद्दच्छिक। ऐच्छिक। स्वतःप्रवर्त्तित [को०]। यौ०—सांसिद्धिक प्रवाह = जल का स्वाभाविक या स्वतःप्रवर्तित प्रवाहक्रम अथवा गति।
⋙ सांसिद्धय
संज्ञा पुं० [सं०] जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेने की स्थिति। संसिद्धि। परिपूर्णता [को०]।
⋙ सांसृष्टिक
वि० [सं०] सीधे संबंध रखनेवाला [को०]।
⋙ सांस्कारिक
वि० [सं०] संस्कारसंबंधी। जो अंत्येष्टि अथवा अन्य संस्कारों से संबंद्ध हो [को०]।
⋙ सांस्कृतिक
वि० [सं०] परंपरा, संस्कार और आचार विचारों से संबंद्घ। संस्कृति संबंधी [को०]।
⋙ सांस्थानिक
वि० [सं०] समान देश या स्थान से संबंधित।
⋙ सांस्त्राविण
संज्ञा पुं० [सं०] प्रवाह। बहाव। धारा [को०]।
⋙ सांहत्य
संज्ञा पुं० [सं०] संपर्क। संबंध। साथ [को०]।
⋙ सांहननिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सांहननिकी] शरीर से संबंधित। शारीरिक [को०]।
⋙ साँइयाँ पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वामी] दे० 'साँईँ, साईँ'। उ०—बाँका परदा खोलि के संमुख ले दीदार। बालसनेही साँइयाँ आदि अंत का यार।—कबीर सा०, सं०, पृ० १९।
⋙ साँई
संज्ञा पुं० [सं० स्वामी,प्रा० सामि, सामी] १. स्वामी। मालिक। उ०—आप को साफ कर तुही साँई।—केशव० अमी०, पृ० ९। २. ईश्वर। परमात्मा। परमेश्वर। उ०— गुर गौरीस साँई सीतापति हित हनुमानहिं जाई कै। मिलिहौं मोहि कहाँ की वे अब अभिमत अवधि अघाई कै।—तुलसी (शब्द०)। ३. पति। शौहर। भर्ता। उ०—(क) चल्यो धाय कमठी चढ़ाय फुरकाय आँख बाईं जग साँईं बात कछु न तनक को।—हृदयराम (शब्द०)। (ख) पूस मास सुनि सखिन पै साँईं चलत सवार। गहि कर बीन प्रबीन तिय राग्यौ राग मलार।—बिहारी (शब्द०)। ४. मुसलमान फकीरों की एक उपाधि।
⋙ साँकड़ †
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्खल] १. शृंखला। जंजीर। सीकड़। २. सिकड़ी जो दरवाजे में लगाई जाती है। अर्गला। ३. चाँदी का बना हुआ एक प्रकार का गहना जो पैर में पहना जाता है। साँकड़ा।
⋙ साँकड़भीड़ो पु †
वि० [हिं० सँकरा?] संकुचित। छोटा। संकीर्ण। उ०—गुड़िया ढाहै मदँधगज ताता चाल तुरंग। साँकड़भीड़ो सुरग ह्वै, जिको कहीजै जंग।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ६।
⋙ साँकड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० शृङ्खला, प्रा० संकला] एक प्रकार का आभू- षण जो पैर में पहना जाता है। यह मोटी चपटी सिकड़ी की भाँति होता है। प्रायः मारवाड़ी स्त्रियाँ इसे पहनती हैं।
⋙ साँकड़ा पु (२)
संज्ञा पुं० [सङ्गकीर्ण] क्षूद्र स्वभाव या वृत्ति का। संकीर्ण। उ०—संतर्न साँकड़ो दुष्ट पीड़ा करै, बाहरै वाहलौ बेगि आवै।—दादु०, पृ० ५४९।
⋙ साँकड़ाना † (१)
क्रि० स० [हिं० साँकड़] बाँधना। साँकल से बाँधना। उ०—दोनुँ फोज घोड़ा की बाहे साँकड़ाया।—शिखर०, पृ० ७४।
⋙ साँकड़ाना पु (२)
क्रि० स० [हिं० संकीर्ण] सँकरा कर देना। संकीर्ण कर देना। रोकना। उ०—किल्ला की सफीला मोरिचा नै साँकडाया।—शिखर०, पृ० ५०।
⋙ साँकड़ि पु †
वि० [सं०सड्कीर्ण] सँकरी। संकीर्ण। उ०—जमुन क तिरे तिरे साँकड़ि बारी।—विद्यापति, पृ० ३०।
⋙ साँकत पु
वि० [सं० शाङ्कित] दे० 'शांकित'। उ०—डावा कर ऊपर दुसट, कर जीमणो करंत। सो लगाय मुख साँकतो माव- ड़ियो कुचरंत।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १६।
⋙ साँकना पु
क्रि० अ० [सं० शङ्कन] शंका करना। शकित होना। संदेह में पड़ना। उ०—साँकिया राज राँणा सकल, अकल पाँण छिलियों असुर।—रा० रु०, पृ० १९।
⋙ साँकर पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शृङ्खल] शृंखला। जंजीर। सीकड़। उ०—(क) काड़ा आसु बूद, कसि साँकर बरुनी सजल। कीने बदन निमूद, द्दग मलिंग डारै रहत।—बिहारी र०, दो० २३०।
⋙ साँकर (२)
संज्ञा पुं० [सं० सङ्कीर्ण] कष्ट संकट। उ०—(य) साँकरे की साँकरन सनमुख हो न तौरे।—केशव (शब्द०)। (ख) मुकती साँठि गाँठि जो करै। साँकर परे सोइ उपकरै।—जायसी (शब्द०)।
⋙ साँकर (३)
वि० १. संकीर्ण। तंग। सँकरा। २. दुःखमय। कष्टमय। उ०—सिंहल दीप जो नाहिं निबाहु। यही ठाढ़ साँकर सब काहु।—जायसी (शब्द०)।
⋙ साँकरा † (१)
वि० [हिं० सँकरी] दे० 'सँकरा'।
⋙ साँकरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० साँकड़ा] दे० 'साँकड़ा'।
⋙ साँकरा पु (३)
वि० [हिं० सँकरा (=संकट)] संकट में पड़ा हुआ। संकटग्रस्त। उ०—साँकरे की साँकरन सनमुख तोरै। दशमुख मुख जोवैं गजमुख मुख को।—रामचं०, पृ० १।
⋙ साँकरि † पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला] दे० 'साँकल'। उ०—तब श्रीठाकुर जी भीतर की साँकरि खोलते।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १०१।
⋙ साँकरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सङकीर्ण] संकट। उ०—उड़वत धूर धरे काँकरी। सबनि के द्दगनि परी साँकरी।—नंद० ग्रं०, पृ० २४२।
⋙ साँकल
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला] १. जंजीर। सिक्कड़। दे० 'साँकर'। २. अर्गला। दरवाजे की सिकड़ी।
⋙ साँकाहुली
संज्ञा स्त्री० [सं० शङ्खपुष्पी] 'शंखाहुली'।
⋙ साँखा पु
संज्ञा स्त्री० [सं०शङ्खा] दे० 'शंका'। उ०—पंखी नावँ न देखा पाँखा। राजा होइ फिरा कै साँखा।—जायसी ग्रं०, पृ० १६४।
⋙ साँग
संज्ञा स्त्री० [सं० शक्ति या शङ्कु] १. एक प्रकार की बरछी जो भाले के आकार की होती है; पर इसकी लंबाई कम होती है और यह फेंककर मारी जाती है। शक्ति। उ०—कोउ माजत बरछीन साँग उर वेधनवाली।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २४। २. एक प्रकार का औजार जो कुँआ खोदते समय पानी फोड़ने के काम में आता है। ३. भारो बोझ उठाने का डंडा।
⋙ साँगरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का रंग जो कपड़े रँगने के काम आता है। यह जंगार से निकलता है। २. एक प्रकारका शाक। उ०—फोग केर काचर फली गेघर गेघरपात। बड़ियाँ मेले वाणियाँ, साँगरियाँ सोगात।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ६७।
⋙ साँगामाची †
संज्ञा स्त्री० [सं० सांग + हिं० मचिया] एक प्रकार की छोटी माँची या खाट। उ०—तब श्रीगुसाई जी एक साँगामाँची धराइ कै बीच में बिराजे।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३३९।
⋙ साँगि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सं० शङ्कु या शक्ति, हिं० साँग, साँगी] दे० 'साँग'। उ०—रणधीर सुकोपि कै साँगि ली।—ह० रासो०, पृ० ७९।
⋙ साँगी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शङ्कु या शक्ति] १. बरछी। साँग। उ०— चले निसाचर आयसु माँगी। गहि कर भिंदिपाल वर साँगी।— मानस, ६।३९। २. बैलगाड़ी में गाड़ीवान के बैठने का स्थान। जुआ।
⋙ साँगी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० साङ्ग (=उपकरण युक्त), हिं० संग या सामग्री] जाली जो एक्के या गाड़ी के नीचे लगी रहती है और जिसमें मामूली चीजें रखी जाती हैं।
⋙ साँघणा पु †
वि० [सं० सघन?] दे० 'सघन'। उ०—माँहिली माँडली छीदा होइ। वारली माँडली साँघणा।—बी० रासो, पृ० ५।
⋙ साँच पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० सत्य, प्रा० सत्त, सच्च] [स्त्री० साँची] सत्य। यथार्थ। जैसे,—साँच को आँच नहीं। (कहा०)।
⋙ साँच पु (२)
वि० सत्य। सच। ठीक। यथार्थ।
⋙ साँच पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० स्थाना, हिं० साँचा] दे० 'साँचा'। उ०— चाक चढ़ाइ साँच जनु कीन्हा। बाग तुरंग जानु गहि लीहा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९३।
⋙ साँचना पु
क्रि० स० [हिं० साँचा] साँचे में ढालना। संचित करना। सुंदर आकार प्रदान करना। उ०—सब सोभा ससि सानि कै साँची इंछिनि एक।—पृ० रा०, १४।५६।
⋙ साँचरी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० सहचरी] सखी। सहेली। उ०—आवी अवाँसइ साँचरी। हीयडइ हरीष मन रंग अपार।—बी० रासो, पृ० ११४।
⋙ साँचला †
वि० [हिं० साँच + ला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० साँचली] जो सच बोलता हो। सच्चा। सत्यवादी।
⋙ साँचा
संज्ञा पुं० [सं० स्थाता] १. वह उपकरण जिसमें कोई तरल पदार्थ ढालकर अथवा गीली चीज रखकर किसी विशिष्ट आकार प्रकार की कोई चीज बनाई जाती है। फरमा। जैसे,—ईंटों का साँचा, टाइप का साँचा। उ०—जैसे धातु कनक की एका। साँचा माही रुप अनेका।—कबीर सा०, पृ० १०११। विशेष—जब कोई चीज किसी विशिष्ट आकार प्रकार की बनानी होती है, तब पहले एक ऐसा उपकरण बना लेते हैं जिसके अंदर वह आकार बना होता है। तब उसी में वह चीज डाल या भर दी जाती है, जिससे अभीष्ट पदार्थ बनाना होता है। जब वह चीज जम जाती हैं, तब उसी उपकरण के भीतरी आकार की हो जाती है। जैसे,—ईंट बनाने के लिये पहले उनका एक साँचा तैयार किया जाता है; और तब उसी साँचे में सुरखी, चूना आदि भरकर ईंटें बनाते हैं। मुहा०—साँचे में ढला होना = (१) अंग प्रत्यंग से बहुत ही सुंदर होना। रुप और आकार आदि में बहुत सुंदर होना। उ०—वह सरापा के साँचे में ढली थी।—प्रेमघन, भा० २, पृ० ४५४। (२) संवेदनाहीन। एक रस। एक रूप। उ०— अच्छी कुंठारहित इकाई साँचे ढले समाज से।—अरी ओ०, पृ० ४। साँचे में ढालना = बहुत सुंदर बनाना। २. वह छोटी आकृति जो कोई बड़ी आकृति बनाने से पहले नमूने के तौर पर तैयार की जाती है और जिसे देखकर वही बड़ी आकृति बनाई जाती है। विशेष—प्रायः कारीगर जब कोई बड़ी मूर्ति आदि बनाने लगते है, तब वे उसके आकार की मिट्टी चूने, 'प्लैस्टर आफ पेरिस' आदि की एक आकृति बना लेते हैं; और तब उसी के अनुसार धातु या पत्थर की आकृति बनाते हैं। ३. कपड़ें पर बेल बूटा छापने का ठप्पा जो लकड़ी का बनता है। छांपा। ४. एक हाथ लंबी लकड़ी जिसपर सटक बनाने के लिये सल्ला बनाते हैं। ५. जुलाहों की वे दो लकड़ियाँ जिनके बीच में कूँच के साल को दबाकर कसते हैं।
⋙ साँचि पु
वि० [सं० सत्य, प्रा० सच्च] दे० 'साँच'२। उ०—हूँ तौ तिहारी अग्याकारिनि साँचि बात मोसौं कहा कहौ महाराज।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६८।
⋙ साँचिया
संज्ञा पुं० [हिं० साँचा + इया (प्रत्य०)] १. किसी चीज का साँचा बनानेवाला। २. धातु गलाकर साँचे में ढालनेवाला।
⋙ साँचिला पु
वि० [हिं० साँच] सच्चा। साँचला। उ०—एक सनेही साँचिलो कोशलपाल कृपालु।—तुलसी ग्रं०, पृ०।
⋙ साँची (१)
संज्ञा पुं० [साँची नगर?] एक प्रकार का पान जो खाने में ठंडा होता है। विशेष—दे० 'पान'।
⋙ साँची पु (२)
वि० स्त्री० [सं० सत्य, प्रा० सच्च] सत्य। दे०। 'साँच'२। उ०—हरखी सभा बात सुनि साँची।—मानस, १।२९०।
⋙ साँची (३)
संज्ञा पुं० [?] पुस्तकों की छपाई का वह प्रकार जिसमें पंक्तियाँ सीधे बल में न होकर बेड़े बल में होती हैं। विशेष—इसमें पुस्तकें चौड़ाई के बल में नहीं बल्कि लंबाई के बल में लिखी या छापी जाती है। प्राचीन काल के जो लिखे हुए ग्रंथ मिलते है वे अधिकांश ऐसे ही होते हैं। इनमें पृष्ठ लंबी अधिक और चौड़ा कम रहता है; और पंक्तियाँ लंबाई के बल में होती है। प्रायः ऐसी पुस्तकें बिना सिली हुई ही होती है, और उनके पन्ने बिलकुल एक दूसरे से अलग अलग होते है।
⋙ साँचोरा ‡
संज्ञा पुं० [देश०] गुर्जर ब्राह्मणों की एक उपजाति। उ०—सो गोपालदास भगवद् इच्छा तें गुजरात में एक साँचोरा ब्राह्मण के प्रगटे।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० १०।
⋙ साँझ
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्ध्या, प्रा० संझ, संझा] संध्या। शाम। सायंकाल। उ०—साँझ समय सानंद नृपु गएउ कैकई गेह।—मानस, २।२४। (ख) सखी सोभ सब बसि भई मनो कि फुली साँझ।—पृ० रा०, १४।५५।
⋙ साँझला †
संज्ञा पुं० [सं० सन्ध्या, हिं० साँझ + ला (प्रत्य०)] उतनी भूमि जितनी एक हल से दिन भर में जोती जा सकती है। दिन भर में जूत जानेवाली जमीन।
⋙ साँझा
संज्ञा पुं० [सं० सार्द्ध० प्रा० सड्ढ, सद्ध सज्झ] व्यापार, व्यवसाय आदि में होनेवाला हिस्सा। पत्ती। विशेष दे० 'साझा'। संध्या।
⋙ साँझि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्ध्य, प्रा० संझा] दे० 'साँझ'। संध्या। उ०—साँझि ही सिंगर सजि प्रानप्यारे पास जाति।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१५।
⋙ साँझी
संज्ञा स्त्री० [सं० सान्ध्य या सज्जा?] देवमंदिरों में देवताओं के सामने जमीन पर की हुई फऊल पत्तों आदि की सजावट जो विशेषतः पितृपक्ष में सायंकाल के समय की जाती है। प्रायः सावन के महीने में शृंगार आदि के अवसर पर भी ऐसी सजा- वट होती है। मुहा०—साँझी खेलना या साँझी पूजावना पु—सायंकाल के समय साँझी की सजावट तैयार करना या पूरी करना। उ०— (क) सखि क्वार मास लग्यौ सुहावन सबै साँझी खेलहीं।— भरतेंदु ग्र०, भा० २, पु० ४०५। (ख) पुजावती साँझी कीरति माय कुँवरि राधा को लाड़ लड़ाय।—घनानंद, पृ० ५६१।
⋙ साँट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सट से अनु०] १. छड़ी। साँटी। पतली कमची। २. कोड़ा। ३. शरीर पर का वह लंबा गहरा दाग जो कोड़े या बेंत का आघात पड़ने से होता है। क्रि० प्र०—उभड़ना।—पड़ना।—लगना। उ०—है मोरि सखियाँ लागलि गुरु के साँट भइलि मनभावन।—गुलाल०, पृ० ४९।
⋙ साँट (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०?] लाल गदहपूरना।
⋙ साँट पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सटना] लगाव। मिलान। लपेट। उ०— गगन मंडल में रास रचो लगी दृष्टि रुप कै साँट।—भीखा० श०, पृ० १९।
⋙ साँटमारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] हाथियों को साँटे मारकर लड़ाना। दे० 'साटमारी'। उ०—उसने बतलाया, इमाम अली। काजी हूँ सरकार और साँटमारी भी करता हूँ।—झाँसी०, पृ० ९८।
⋙ साँटा
संज्ञा पुं० [हिं०साँट (=छड़ी)] १. करघे के आगे लगा हुआ वह डंडा जिसे ऊपर नीचे करने से ताने के तार ऊपर नीचे होते हैं। २. कोड़ा। ३. ऐंड़। ४. ईख। गन्ना। उ०— राजा के दर्शनों को चलने के समय ब्राह्मण ने साँठे के टुकड़ों को नहीं देखा।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ३०। ५. प्रतिकार। बदला। उ०—यह साँटो लै कृष्णावतार। तब ह्वैहौ तुम संसार पार।—राम चं०, पृ० ८६।
⋙ साँटि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सटना] मेल मिलाप। उ०—निकस्यो मान गुमान सहित वह मैं यह होत न जानो। नैननि साँटि करी मिली नैननि उनही सों रुचि मानो।—सुर (शब्द०)।
⋙ साँटिया पु †
संज्ञा पुं० [हिं० साँटी] डौंड़ी पीटनेवाला। डुग्गीवाला। उ०—चहुँ दिसि आनि साँटिया फेर। भै कठकाई राजा केरी।—जायसी (शब्द०)।
⋙ साँटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० यष्टिका] १. पतली छोटी छड़ी। २. बाँस की पतली कमची। शाखा। उ०—बाम्हन को ले साँटी मारे। तोर जनेऊ आगी डारे।—कबीर सा०, पृ० २५५। क्रि० प्र०.—मारना।—सटकारना।
⋙ साँटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सटना] १. मेल मिलाप। २. बदला। प्रतिकार। प्रतिहिंसा।
⋙ साँठ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का कड़ा जिसे प्रायः राजपूताने के किसान पैर में पहनते हैं। २. दे० 'साँकड़ा'।
⋙ साँठ (२)
संज्ञा पुं० [सं० यष्टि, हिं० साँट] १. ईख। गन्ना। २. सरकंडा। ३. वह लंबा डंडा जिससे अन्न पीटकर दाने निकालते हैं।
⋙ साँठ (३)
संज्ञा पुं० [सं० सन्धि? या हिं० सटना] मेलजोल। मेल- मिलाप। दे० 'साँटी'। जैसे,—साँठ गाँठ।
⋙ साँठगाँठ
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँठ + अनु० साँठ] १. मेल मिलाप। २. छिपा और दूषित संबंध। जैसे,—उस स्त्री से उसकी साँठगाँठ थी। उ०—क्या भोली बनी जाती है और बागवाँ से खुद ही साँठगाँठ जो की थी।—फिसाना, भा० ३, पृ० १२६। ३. षडयंत्र। दुरभिसंधि। साजिश। जैसे,—उन दोनों ने साँठगाँठकर उसे वहाँ से निकलवा दिया।
⋙ साँठना पु
क्रि० स० [सं० सन्धि, हिं० साँठ] पकड़े रहना। उ०— नाथ सुनी भृगुनाथ कथा बलि बाल गए चलि बात के साँठे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ साँठि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँठ] दे० 'साँठी१'। उ०—साँठि नाहि जग बात को पूछा।—जायसी ग्रं०, पृ० १५७।
⋙ साँठी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँठ ? या सं० स + अर्थ (=धन) = सार्थ?] पूँजी। धन। उ०—सब निबहिहि तहँ आपन साँठी। साँठी बिना रहब मुख माँटी।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २०७।
⋙ साँठी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पूनर्नवा। गदहपूरना।
⋙ साँठी (३)
संज्ञा पुं० [सं० षष्ठिक, हिं० साठी] दे० 'साठी' (धान)।
⋙ साँड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० षण्ड या साण्ड] १. वह बैल (या घोड़ा) जिसे लोग केवल जोड़ा खिलाने के लिये पालते हैं। विशेष—ऐसा जानवर बधिया नहीं किया जाता और न उससे कोई काम लिया जाता है। २. वह बैल जो मृतक की स्मृति में हिंदु लोग दागकर छोड़ देते हैं। वृषोत्सर्ग में छोड़ा हुआ वृषभ। मुहा०—साँड़ की तरह घुमना = आजाद और बेफिक्र घुमना। साँड़ की तरह डकारना = बहुत जोर से चिल्लाना।
⋙ साँड़ (२)
वि० १. मजबूत। बलिष्ठ। २. आवारा। बदचलन।
⋙ साँड़नी
संज्ञा स्त्री० [हिं० साँड़?] ऊँटनी या मादा ऊँट जिसकी चाल बहुत तेज होती है। विशेष दे० 'ऊँट'। उ०—द्रव्यलाभ धावमान साँड़नी। सदगृहस्थ गेह की उजाड़नौ।—भारतेंदु ग्रं० भा० ३, पृ० ८४५।
⋙ साँड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० साँड़] छिपकली की जाति का पर आकार में उससे कुछ बड़ा एक प्रकार का जंगली जानवर। इसकी चरबी निकाली जाती है जो दवा के काम में आती है।
⋙ साँड़िया
संज्ञा पुं० [डिं० साढ़ियों] १. तेज चलनेवाला ऊँट। २. साँड़नी पर सवारी करनेवाला।
⋙ साँढ़नी
संज्ञा स्त्री० [हिं० साँड़ ?] दे० 'साँड़नी'। उ०—यह सुनत ही तत्काल नामजी एक साँढ़नी लै आम दोइसै एक ओर, दोइसै दुसरी ओर धरि कै तहाँ ते श्रीजी द्धार को चले।—दो सौ बावन०, भा०, पृ० १९।
⋙ साँढिया पु †
संज्ञा पुं० [ड़िं०] दे० साँढियो'। उ०—नितु नितु नवला साँढ़ियाँ, नितु नितु नवला साजि।—ढोला०, दु० ८१।
⋙ साँढियो
संज्ञा पुं० [डिं०] ऊँट। क्रमेलक।
⋙ साँत पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० शान्ति] दे० 'शांति'। उ०—होर शोर भी भाँत भाँत का था, बहु भाँत जो मेग साँत का था।—दक्खिनी०, पृ० १६९।
⋙ साँतिया †
संज्ञा पुं० [सं० स्वस्तिक] दे० 'स्वतिक—१२'। उ०— धरहुँ सुहद्रा साँतिये, अपने बिरँन दरबार, बधाई बाजी नंद के।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १२२।
⋙ साँती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शान्ति] दे० 'शांति'। उ०—राजै सुना हिये भइ साँती।—जायसी ग्रं०, पृ० ११७।
⋙ साँथड़ा
संज्ञा पुं० [?] बादिया का वह हिस्सा जो पेंच बनाने के लिये घुमाया जाता है (लुहार)।
⋙ साँथरा पु
संज्ञा पुं० [सं० संस्तर] दे० 'साँथरी'। उ०—कामी लज्या ना करै मन माँहैं अहिलाद। नींद न माँगै साँथरा भूख न माँगै स्वाद।—कबीर ग्रं०, पृ० ४१।
⋙ साँथरी
संज्ञा स्त्री० [सं० संस्तर] १. चटाई। २. बिछौना। डासन। उ०—कुस साँथरी निहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई।—मानस, २।१९९।
⋙ साँथा
संज्ञा पुं० [देश०] लोहे का एक औजार जो चमड़ा कूटने के काम में आता है।
⋙ साँथी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. वह लकड़ी जो ताने के तारोंको ठीक रखने के लिये करघे के ऊपर लगी रहती है। २. ताने के सूतों के ऊपर नीचे होने की क्रिया।
⋙ साँद (१)
संज्ञा पुं० [देश०] वह लकडी़ आदि जो पशुओं के गले में इस लिये बाँध दी जाती है, जिसमें वे भागने न पावें। लंगर। ढेका।
⋙ साँद पु (२)
अव्य० [हिं० साथ ?] दे० 'साथ'। उ०—सीने में दम कूँ अपने साँद लेकर। कमर कूँ अपने दामन बाँद लेकर—दक्खिनी०, पृ० २८१।
⋙ साँदा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'साँद'।
⋙ साँध (१)
संज्ञा पुं० [सं० सन्धान] वह वस्तु जिसपर निशाना लगाया जाय। लक्ष्य, निशाना।
⋙ साँध (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सन्धि] १. संधि। मित्रता। उ०—जाणै तोड़ जहान सूँ साँध न जाणै सीह।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० २३। २. छिद्र। संधि। फाँक। दरार। खाली जगह। उ०—कनातों की साँधों से जगमोहन ने वह नाच देखा था।—ज्ञानदान, पृ० ४८।
⋙ साँधना (१)
क्रि० स० [सं० सन्धान] निशाना साधना। लक्ष्य करना। संधान करना। उ०—(क) अगिन बान दुइ जानो साँधे। जग बेधे जो होहिं न बाँधे।—जायसी (शब्द०)। (ख) जनु घुघची वह तिलकर भूहाँ। विरह बान साँधो सामूहाँ।—जायसी (शब्द०)।
⋙ साँधना (२)
क्रि० स० [सं० साधन] सिद्ध करना। साधना। उ०—सीस काटि के पैरी बाँधा। पावा दाँव बैर जस साँधा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ साँधना (३)
क्रि० स० [सं० सन्धि] १. एक में मिलाना। मिश्रित करना। उ०—बिबिध मृगन कर आमिष राँधा। तेहि महँ विप्रमासु खल साँधा।—तुलसी (शब्द०)। २. रस्सियों आदि में जोड़ लगाना। (लश०)। ३. संधान करना। तैयार करना। बनाना। उ०—धोआउरि धाने मदिरा साँध, देउर भाँगि मसीद बाँध।—कीर्ति०, पृ० ४४।
⋙ साँधा
संज्ञा पुं० [सं० सन्धि] दो रस्सियों आदि में दी हुई गाँठ। (लश०)। मुहा०—साँधा मारना = दो रस्सियों आदि में गाँठ लगाकर उन्हें जोड़ना। (लश०)।
⋙ साँन पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० शान] दे० 'शान'। उ०—गरबी गुमाँन होइ बड़ौ सावधाँन होइ, साँन होइ सहिबी प्रताप पुंज धाँम कौ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३२।
⋙ साँनना पु
क्रि० स० [हिं० सानना] गुँधना। मिलाना। दे० 'सानना'। उ०—पाँच तत तीनि गुण जुगति करि साँनियाँ।—कबीर ग्रं०, पृ० १५६।
⋙ साँप
संज्ञा पुं० [सं० सर्प, प्रा० सप्प] [स्त्री० साँपिन] १. एक प्रसिद्ध रेंगनेवाला लंबा कीड़ा जिसके हाथ पैर नहीं होते और जो पेट के बल जमीन पर रेंगता है। विशेष—केवल थोड़े से बहुत ठंडे देशों को छोड़कर शेष प्रायः समस्त संसार में यह पाया जाता है। इसकी सैकड़ों जातियाँ होती हैं जो आकार और रंग आदि में एक दुसरी से बहुत अधिक भिन्न होती हैं। साँप आकार में दो ढाई इंच से २५— ३० फुट तक लंबे होते हैं और मोटे सूत से लेकर प्रायः एक फुट तक मोटे होते है। बहुत बड़ी जातियों के साँप अजगर कहलाते हैं। साँप पीले, हरे, लाल, काले, भूरे आदि अनेक रंगों के होते हैं। साँपों को अधिकांश जातियाँ बहुत डरपोक और सीधी होती हैं, पर कुछ जातियाँ जहरीली और बहुत ही घातक होती हैं। भारत के गेहुअन, धामिन, नाग और काले साँप बहुत अधिक जहरीले होते हैं, और उनके काटने पर आदमी प्रायः नहीं बचता। इनके मुख में साधारण दाँतों के अतिरिक्त एक बहुत बड़ा नुकीला खोखला दाँत भी होता है जिसका संबंध जहर की एक थैली से होता है। काटने के समय वही दाँत शरीर में गड़ाकर ये विष का प्रवेश करतेहैं। सब साँप मांसाहारी होते हैं और छोटे छोटे जीव- जंतुओं को निगल जाते हैं। इनसे यह विशेषता होती है कि ये अपने शरीर की मोटाई से कहा अधिक मोटे जंतुओं को निगल जाते हैं। प्रायः जाति के साँप पेड़ों पर और बड़ी जाति पहाड़ी आदि में यों ही जमीन पर रहते हैं। इनकी उत्पत्ति अंडों से होती है; और मादा हर बार में बहुत अधिक अंडे देती है। साँपों के छोटे बच्चे प्रायः रक्षित होने के लिये अपनी माता के मुँह में चले जाते हैं; इसी लिये लोगों में यह प्रवाद है कि साँपिन अपने बच्चों को आप ही खा जाती है। इस देश में साँपों के काटने की चिकित्सा प्रायः जंतर मंतर और झाड़ फूँक आदि से की जाती है। भारतवासियों में यह भी प्रवाद है कि पूराने साँपों के सिर में एक प्रकार की मणि होती है जिसे वे रात में अंधकार के समय बाहर निकालकर अपने चारों ओर प्रकाश कर लेते हैं। मुहा०—कलेजे पर साँप लहराना या लोटना = बहुत अधिक व्याकुलता या पीड़ा होना। अत्यंत दुःख होना। (ईर्ष्या आदि के कारण)। साँप उतारना = सर्प के काटने पर विष को मंत्रादि से दुर करना। साँप का पाँव देखना = असंभव वस्तु को पाने का प्रयत्न करना। साँप कीलना = मंत्र द्धारा साँप को वश में करना। मंत्र द्धारा साँप को काटने से रोकना। साँप को खिलाना = अत्यंत खतरनाक कार्य करना।साँप से खेलना = अत्यंत खतरनाक व्यक्ति से संबंध रखना। साँप सूँध जाना = साँप का काट खाना। मर जाना। निर्जिव हो जाना। जैसे,—ऐसे सोए हैं मानों साँप सूँध गया है। उ०—अरे इस मकान में कोई है या सबको साँप सूँध गया।—फिसाना०, भा० ३, पृ०—३४। साँप खेलाना = मंत्र बल से या और किसी प्रकार साँप को पकड़ना और क्रीड़ा करना। साँप की तरह केंचुली झाड़ना = पूराना भद्दा रुप रंग छोड़कर नया सुंदर रुप धारण करना। साँप की लहर = साँप काटने पर रह रह कर आनेवाली विष की लहर। साँप काटने का कष्ट। साँप की लकीर = पृथ्वी पर का चिह्न जो साँप के निकल जाने पर होता है। साँप के मूँह में = बहुत जोखिम में। साँप (के) चले जाने पर लकीर को पीटना = (१) अवसर बीत जाने पर भी उस अवसर को जिलाए रखना। किसी विषय को असमय में उठाना। (२) खतरे के अवसर पर उसका प्रतिरोध न करके बाद में उसे दूर करने की चेष्टा करना। मौका गुजर जाने पर मुस्तेदी दिखाना। साँप छछुँदर की गति या दशा = भारी अस- मंजस की दशा। दुबिधा। उ०—भइ गति साँप छछुँदर केरी।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—साँप छछूँदर की कहावत के संबंध में कहा जाता है कि यदि साँप छछूँदर को पकड़ने पर खा जाता है, तो तुरंत मर जाता है; और यदि न खाय और उगल दे, तो अंधा हो जाता है। पर्या०—भूजग। भुजंग। अहि। विषधर। व्याल। सरीसृप। कुंडली। चक्षुश्रवा। फणी। विलेशय। उरग। पन्नग। पवनाशन। फणधर। व्याड़। दंष्ट्री। गोकर्ण।गूढञपाद। हरि। द्धिजिह्व। २. बहुत ही दुष्ट आदमी।अत्यंत दुष्ट व्यक्त। (क्व०)।
⋙ साँपड़ना पु
क्रि० अ० [सं० स्नापन या देश०] स्नान करना। नहाना। उ०—साँपड़ि खीरसमंद दुरंग सँवारिया।—बाँकी० ग्रं०, भा०३, पृ० ३१।
⋙ साँपधरन पु
संज्ञा पुं० [हिं० साँप + धरन] सर्प धोरण करनेवालो, शिव। महादेव।
⋙ साँपधरन पु
क्रि० सं० [सं० समर्पण, प्रा० समप्पन, सउप्पन, हिं० सोंपना] देना। प्रदान करना। उ०—उभी भावज दइ छइ सीष, रतन कचौली राय साँपजै भीष।—बी० रासो, पृ० ४५।
⋙ साँपा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'सियापा'।
⋙ साँपिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० साँप + इन (प्रत्य़०)] १. साँप की मादा। २. घोड़े के शरीर पर की एक प्रकार की भौरी जो अशुभ समभी जाती है। ३. †एक प्रकार की गाय जो जीभ को काफी लंबी निकालकर उसे सर्पिणी की तरह घुमाती रहती है। ऐसी गाय का रखना अशुभ माना जात है।
⋙ साँपिनी, साँपिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पिणी] दे० 'साँपिन'। ऊ०—सिसुघातिनी परम पापिनी। संतनि की डसनी जु साँपिनी।—नंद० ग्रं०, पृ० २३९।
⋙ साँपिया
संज्ञा पुं० [हिं० साँप + इया (प्रत्य०)] एक प्रकार का काला रंग जो प्रायःसाधारण साँप के रंग से मिलता जुलता होता है।
⋙ साँभर (१)
संज्ञा पुं० [सं० सम्भल या साम्भल] २. राजपूताने की एक झील जहाँ का पानी बहुत खारा है। इसी झील के पानी से साँभर नमक वनाया जाता है। २. उक्त झील के जल से बनाया हुआ नमक। ३. भारतीय मृगों की एक जाति। विशेषइस जाति का मृग बहुत बड़ा होता है। इसके कान लंबे होते हैं और सींग बारहसिंगोंकी सींगों के समान होते हैं। इसकी गरदन पर बड़े बड़े बाल होते हैं। अक्तूबर के महीने में यह जोड़ा खाता है।
⋙ साँभर † (२)
संज्ञा पुं० [सं० सम्बल या सम्भार] मार्ग के लिये साथ में लिया हुआ जलपान भोजन। संबल। पाथेय। उ०—जावत अहहिं कसल अरकाना। साँभर लेहु दुरि है जाना।—जायसी (शब्द०)।
⋙ साँभरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सम्बल] दे० 'साँभर'—२ उ०—एक कोस जाता चलि आई। गाँठी साँभरि बाँधु बनाई।—संत० दरिया, पृ० ३४।
⋙ साँभलना पु
पुक्रि० स० [सं०सम्भाल, सम्भालयति; गुज०] १. सुनना। उ०—राव आव्या की साँभली बात। नाचउ रुप मनोहर पात।—बी० रासो, पृ० ९१। २.स्ममरण करना। उ०—गायो हो रास सुनै सब कोई। साँभल्याँ रास गंगाफल होई।—बी० रासो, पृ० ५।
⋙ साँमपु (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्याम, प्रा० साम] कृष्ण का नाम। श्याम। उ०—न चंबा न नामको न गोरखो न साँम को।—प्राण०, पृ० ११९।
⋙ साँम (२) †
संज्ञा पुं० [सं० साम] साम वेद। दे० 'साम'—१। उ०—भृकुटी विराजत स्वेत मानहुँ मंत्र अदभुत साम के।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४५७।
⋙ साँम † (३)
संज्ञा पुं० [सं०स्वामी] स्वामी। मालिक। प्रभु। उ०— रिजक उजालै साँम रौ पालै साँमधरम्म।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १।
⋙ साँमजि पु †
संज्ञा पुं० [सं० समाज] समूह। दल। उ०—साँमजि करि,उभा रजपूत, हरषि नरायण दीधो सूत।—बी० रासो, पृ० १४।
⋙ साँमधरम्म पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वांमिधर्म] स्वामी के प्रति अपना कर्तव्य। उ०—नमसकार सूराँ नराँ विरद नरेस वरंम। रिजक उजालै साँम रौ, पालै साँमधरमे।—बाँकी०, ग्रं०, भा०१, पृ०१।
⋙ साँमन पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रावण] दे० 'श्रावण' (मास)। उ०—संवत नव षट् बसु ससी,साँमन सुदि बुधवार।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५४३।
⋙ साँमर पु
सं० [सं० श्यामल] दे० 'साँवला'।
⋙ साँमहा पु †
वि० [सं० सम्मुख, प्रा० सम्मुह] [वि० स्त्री० साँमही] संमुख। सामने। उ०—साँमही छींक हणैइ कपाल।—बी० रासो, पृ० ५१।
⋙ साँमुहेँ †
अव्य० [सं० सम्मुखे] सामने।सम्मुख।
⋙ साँमेला पु †
संज्ञा पुं० [सं० सम्मिलन] मिलना। मिलाप। उ०— (क) चउघड़ियउ बाजइ सीह दुवारि, साँमेला की बेला हुई।—बी० रासो, पृ० १५।(ख) परण पधारे राम जीत दुजराजनै, तुरत करोजे त्यार साँमेलो साजनै।—रघु० रुं०, पृ० ९२।
⋙ साँम्हा पु
अव्य० [सं० सम्मुख] संमुख। सामने। उ०—भाज गई चिंता भड़ाँ, घड़ाँ कठट्ठे जंग। नाँसा रक्णण देख खल, साँग्हा किया तुरंग।—रा० रु०, पृ० ३३।
⋙ साँय साँय
संज्ञा पुं० [अनु०] सन्नाटे में हवा की गति से पैदा होनेवाली ध्वनि। उ०—करता मारुत साँय साँय है।—साकेत, पृ० ३६१।
⋙ साँवक (१)
संज्ञा पुं० [देश०] वह ऋण जो हलवाहों को दिया जाता है और जिसके सूद के बदले में वे काम करते हैं।
⋙ साँवक (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्यामक] साँवाँ नामक अत्र
⋙ साँवत † (१)
संज्ञा पुं० [सं० सामन्त] सुभट। योद्धा।सामंत। दे० 'सामंत'।उ०—दुपरजोधन अवतार नृप सत साँवत सकबंध।—प० रासो,पृ० १।
⋙ साँवत (२)
संज्ञा पुं० [सं० सामन्त या देश०] एक प्रकार का राग।
⋙ साँवती †
संज्ञा [देश०] बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी के नीचे लगी हुई वह जाली जिसमें घास आदि रखते हैं।
⋙ साँवन
संज्ञा पुं० [देश०] मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष जिसका तना प्रायः झुका हुआ होता है। विशेष—इसकी छाल पतली और भूरे रंग की होती है। यह देहरादुन, अवध, बुंदेलखंद और हिमालय में ४००० फुट की ऊँचाई पर पाया जाता है। फागुन चैत में पुरानी पत्तियों के झड़ने और नई पत्तियों के निकलने पर इसमें फूल लगते हैं इसमें से एक प्रकार का गोंद निकलता है जो ओषधि के रुप में काम आता और मछलियों के लिये विष होता है। इसके हीर की लकड़ी मजबूत और कड़ी होती है और सजावट के सामान बनाने के काम में आती है। पशु इसकी पत्तियाँ बड़े चाव से खाते हैं।
⋙ साँवर (१)
वि० [सं० श्यामल] [वि० स्त्री० साँवरि या साँवरी] दे० 'साँवला'। उ०—काहे राम जिउ साँवर लछिमन गोर हो। कीदँह रानि कौसिलहि परिगा भोर हो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५। २. सलोना। सुंदर। उ०—सखि रोके साँवर लाल, घन घेरयौ मनो दामिनी।—नंद० ग्रं०, पृ०३८५
⋙ साँवर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० साम्भल, साम्भल] दे० 'साँबर', 'साँभर'। उ०—जाँवत अहै सकल ओरगाना। साँवर लेहु दुरि है जाना।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २०६।
⋙ साँवरा
वि० संज्ञा पुं० [हिं० साँवला] दे० 'साँवला'।
⋙ साँवरो पु
वि० संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'साँवला'। उ०—सखन सहित सजि सुघर साँवरो, सुनतहि सनमुख आए।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८१।
⋙ साँवल पु (१)
वि० संज्ञा पुं० [सं० श्यामल] दे० 'साँवला'। उ०— अदभुत साँवल अंग बन्यो अदभुत पीतांबर। मूरति धरि सिंगार प्रेम अंबर ओढ़े हरि।—नंद० ग्रं०, पृ० २८।
⋙ साँवलताई †
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामल, हिं० साँवल + ताई (प्रत्य०)] साँवला होने का भाव। श्यामता। श्यामलता।
⋙ साँवला (१)
वि० [सं० श्यामलक] [वि० स्त्री० साँवली] जिसके शरीर का रंग कुछ कालापन लिए हुए हो। श्याम वर्ण का।
⋙ साँवला (२)
संज्ञा पुं० १. श्रीकृष्ण का एक नाम। २. पति या प्रेमी आदि का बोधक एक नाम। विशेषइन अर्थों में इस शब्द का प्रयोग गीतों आदि में होता है।
⋙ साँवलापन
संज्ञा पुं० [हिं० साँवला + पन] साँवला होने का भाव। वर्ण की श्यामता।
⋙ साँवलि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० श्यामला, प्रा० साँवली] श्यामल वर्ण की बदली। उ०—साँवलि काँइ न सिरजियाँ, अंबर लागि रहत। वाट चलंती साल्ह प्रिव, ऊपर छाँह करत।—ढोला०, दुं०, ४१५।
⋙ साँवलिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० साँवलिया] १. कृष्ण। २. प्रिय का संबोधन। प्रिय। ३. पति। स्वामी।
⋙ साँवलिया (२)
वि० [सं० श्यामल] दे० 'साँवला'। उ०—बैल दो साँवलिया और धौला।—कुकुर०, पृ० ५१।
⋙ साँवाँ
संज्ञा पुं० [सं० श्यामाक] कँगनी या चेना की जाति का एक अन्न जो सारे भारत में बोया जाता है।विशेष—यह प्रायः फागुन चैत में बोया जाता है और जेठ में तैयार होता है। कहीं कही इसकी बोआई-सावन में होती है और भादोंतक यह काट लिया जाता है। यह बरसाती अन्न है। इसके विषय में यह कहावत पूर्वी जिलों में प्रसिद्ध है कि 'साँवाँ' साठी साठ दिना। देव बरीस रात दिना। यह अन्न बहुत ही सुपाच्य और बलवर्धक माना जाता है और प्रायः चावल की भाँति उबालकर खाया जाता है। कहीं कहीं रोटी के लिये इसका आटा भी तैयार किया जाता है। इसकी हरी पत्तियाँ और डंठल पशुओं के लिये चारे की भाँति काम में आते हैं, और पंजाब में कहीं कहीं केवल चारे के लिये भी इसकी खेती होती है। अनुमान है कि यह मिस्र या अरब से इस देश में आया है।
⋙ साँस
संज्ञा स्त्री० [सं० श्वास] १. नाक या मुँह के द्धारा बाहर से हवा खींचकर अंदर फेफड़ों तक पहुँचाने और उसे फिर बाहर निकालने की क्रिया। श्वास। दम। विशेष—यद्यपि यह शब्द संस्कृत 'श्वास' (पुंल्लिंग) से निकला है और इसलिये पुंल्लिग ही होना चाहिए, परंतु लोग इसे स्त्रीलिंग ही बोलते है। परंतु कुछ अवसरों पर कुछ विशिष्ट क्रियाओं आदि के साथ यह केवल पुल्लिंग भी बोला जाता है। जैसे,—इतनी दुर से दौड़े हुए आए हैं, साँस फूलने लगा। क्रि० प्र०—आना।—जाना।—लेना। मुहा०—साँस अड़ना = दे० 'साँस रुकना'। साँस उखड़ना = (१) मरने के समय रोगी का देर देर पर और बड़े कष्ट से साँस लेना। (२) साँस दूटना। दम टूटना। उ०—पवन पी रहा था शब्दों को निर्जनता की उखड़ी साँस।—कामायनी, पृ० १९। (३) साँस या दमा के रोगी का जोर जोर की खाँसी आने से श्लथ होना। साँस ऊपर उड़ना = प्राणांत होना। जीवनलीला सपाप्त होना। साँस ऊपर नीचे होना = साँस का ठीक तरह से ऊपर नीचे न आना। साँस रुकना। साँस का अंदर की अंदर और बाहर की बाहर रह जाना = भौंचक्का रह जाना। चकित रह जाना। साँस का टूट टूट जाना = धीरज का जाते रहना। उ—आस कैसे न टूट जाती तब, साँस जब टूट टूट जाती है।—चुभते०, पृ० ५१। साँस खीचना = (१) नाक के द्धारा वायु अंदर की ओर खींचना। साँस लेना। (२) वायु अंदर खींचकर उसे रोक रखना। दम साधना। जैसे,—हिरन साँस खींचकर पड़ गया। साँस चढ़ना = अधिक वेग से या परिश्रम का काम करने के कारण साँस का जल्दी जल्दी आना और जाना। साँस चढ़ाना = दे०'साँस खींचना'। साँस चलना = (१) जीवित होना। जीवित रहना। (२) रोग या अवस्थता की स्थिति में जल्दी जल्दी और जोर से साँस लेना। साँस छोड़ना = नाक द्धारा अंदर खींची हुई वायु को बाहर निका- लना। साँस टूटना = दे० 'साँस उखड़ना'। साँस डकार न लेना = किसी चीज को पूर्णतः पचा जाना। किसी चीज को इस प्रकार छिपाकर दाब जाना कि पता तक न चले। साँस तक न लेना = बिलकुल चुपचाप रहना। कुछ न बोलना। जैसे,—उनके सामने तो यह लड़का साँस नहीं लेता। साँस फूलना = बार बार साँस आना और जाना। साँस चढ़ना। साँस भरना = दे० 'ठंढी साँस लेना'। साँस रहते = जीते जी। जीवन पर्यत। साँस रुकना = साँस के आने और जाने में बाधा। श्वास की क्रिया में बाधा होना। जैसे,—यहाँ हवा की इतनी कमी है साँस रुकती है। साँस लेना = (१) नाक के द्धारा वायु खींचकर अंदर लेना और फिर उसे बाहर निकालना। (२) सुस्ताना। थोड़ी देर आराम करना। अंतिम साँस लेना = प्राणांत होना। मर जाना। अंतिम साँसे गिनना = मरने के निकट होना। आसन्न मृत्यु होना। उलटी साँस लेना = (१) दे० 'गहरी साँस भरना या लेना'। (२) मरने के समय रोगी का बडे़ कष्ट से अंतिम साँस लेना। ऊपर को साँस चढ़ना = मरणासन्न होना। मृत्यु का निकट होना। साँसों में जी का होना = मरणा- सन्न होना। मृत्यु का निकट होना। गहरी साँस भरना या लेना = बहुत अधिक दुःख आदि के आवेग के कारण बहुत देर तक अंदर की ओर वायु खींचते रहना और उसे कुछ देर तक रोक कर बाहर निकालना। ठंढी या लंबी साँस लेना = दे० 'गहरी साँस भरना या लेना'। २. अवकाश। फुरसत। विश्राम। मुहा०—साँस लेना = थक जाने पर विश्राम लेना। ठहर जाना। जैसे,—(क) घंटों से काम कर रहे हो, जरा साँस ले लो। (ख) वह जबतक काम पूरा न कर लेगा तबतक साँस न लेगा। साँस लेने या मारने तक की फूरसत न होना = बिल्कुल अवकाश न रहना। अत्यंत व्यस्त होना। ३. गुंजाइश। दम। जैसे,—अभी इस मामले में बहुत कुछ साँस है। ४. वह संधि या दरार जिसमें से होकर हवा जा या आ सकती है। मुहा०—(किसी पदार्थ का) साँस लेना = किसी पदार्थ में संधि या दरार पड़ जाना। (किसी पदार्थ का) बीच में से फट जाना या नीचे की ओर धँस जाना। जैसे,—(क) इस भूकंप में कई मकानों और दीवारों ने साँस ली है। (ख) इस भाथी में कहीं न कहीं साँस जरुर है; इसी से पूरी हवा नही लगती। ५. किसी अवकाश के अंदर भरी हुई हवा। मुहा०—साँस निकलना = (१) किसी चीज के अंदर भरी हुई हवा का बाहर निकल जाना। जैसे,—टायर की साँस निकलना, फुटबाल की साँस निकलना। (२) प्राणांत होना। समाप्त हो जाना। साँस भरना = (१) किसी चीज के अंदर हवा भरना। (२) अत्यधिक थकान से जल्दी जल्दी और जोर की साँस आना। ६. वह रोग जिसमें मनुष्य बहुत जोरों से, पर बहुत कठिनता से साँस लेता है। दम फूलने का रोग। श्वास। दमा। क्रि० प्र०—फूलना।
⋙ साँसत
संज्ञा स्त्री० [हिं० साँस + त (प्रत्य०)] १. दम घुटने का सा कष्ट। २. बहुत अधिक कष्ट या पीड़ा। ३. झंझट। बखेड़ा।उ०—रेल राँड़ पर चढ़त होत सहजहिँ परबस नर। सौ सौ साँसत सहत तऊ नहिं सकत कछू कर।—प्रेमघन०, भा०१, पृ० ७। यौ०—साँसतघर।
⋙ साँसतघर
संज्ञा पुं० [हिं० साँसत + घर] कारागार में एक प्रकार की बहुत तंग और बहुत अँधेरी कोठरी जिसमें अपराधियों को विशेष दंड देने के लिये रखा जाता है। कालकोठरी। २. बहुत तंग या छोटा मकान जिसमें हवा या रोशनी न आती हो।
⋙ साँसति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'साँसत'।उ०—तब तात न मात न स्वामी सखा सुत बंधु बिसाल बिपत्ति बटैया। साँसति घोर पुकारत आरत कौन सुनै चहुँ ओर डटैया।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ साँसना पु †
क्रि० स० [सं० शासन] १.शासन करना। दंड देना। २. डाँटना। डपटना। ३. कष्ट देना। दुःख देना।
⋙ साँसल
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का कंबल। २. बीज बोने की क्रिया।
⋙ साँसा (१)
संज्ञा पुं० [सं०श्वास, प्रा० सास] १. साँस। श्वास। जैसे,— जबतक साँसा, तबतक आसा। (कहा०)। २. जीवन। जिंदगी। ३. प्राण।
⋙ साँसा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० साँसत] १. घोर कष्ट। भारी पीड़ा। तकलीफ। २. चिंता। फिक्र। तरद्दुद। मुहा०—साँसा चढ़ना = फिक्र होना। चिंता होना।
⋙ साँसा (३)
संज्ञा पुं० [सं० संशय] १. संशय। संदेह। शक। २. डर। भय। दहशत। मुहा०—साँसा पड़ना = संशय होना। संदेह होना। उ०— आवण का साँसा पडई। जाणि हीमालइ राजा गलिया हो जाई।—बी० रासो, पृ० ४८।
⋙ साँही पु †
संज्ञा पुं० [सं०स्वामी, प्रा० साँई] फकीर। औलिया। दे० 'साईँ'। उ०—कही बत्त गोरी तिनं सों सबाँही। कहैं जेब जबाब पुच्छंत साँही।—पृ० रा०, १९।३३।
⋙ सा (१)
अव्य० [सं० सदृश्य, सह] १.समान। तुल्य। सदृश। बराबर। जैसे,—उनका रंग तुम्ही सा है। २.एक प्रकार का मानसूचक शब्द। जैसे,—बहुत सा, थोड़ा सा, जरा सा।
⋙ सा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.गौरी। पार्वती। २. लक्ष्मी [को०]।
⋙ सा (३)
संज्ञा पुं० संगीत के सात स्वरों में प्रथम स्वर। षड्ज का संक्षिप्त रुप।
⋙ साअत
संज्ञा स्त्री० [अ० साअत] दे० 'साइत—१'।
⋙ साअद
संज्ञा पुं० [अ० साइद] आरोहक।—दक्खिनी०, पृ० ९५।
⋙ साइंस
संज्ञा स्त्री० [अं० साइन्स] किसी बिषय का विशेष ज्ञान-विज्ञान शास्त्र। विशेष दे० 'विज्ञान'। २. रासायनिक और भौतिक विज्ञान।
⋙ साइ पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० स्याही] दे० 'स्याही'। उ०—साइ सप्त साइर करी, करी कलम बनराइ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३५।
⋙ साइक पु
संज्ञा पुं० [सं० शायक, प्रा० साइक] वाण। दे० 'शायक'। उ०—बीर पठन कर साइक तानिय।—प० रासो, पृ० १५३।
⋙ साइकिल
संज्ञा स्त्री० [अं०] दो पहियों की पैरगाड़ी। बाईसिकिल। पाँवगाड़ी। उ०—उसके पिता की एक बहुत बड़ी साइकिलों की एजेंसी थी।—तारिका, पृ०७।
⋙ साइग
संज्ञा पुं० [अ० साइग] स्वरर्णकार। सुनार [को०]।
⋙ साइक्लोपीडिया
संज्ञा स्त्री० [अं०] १.वह बड़ा ग्रंथ जिसमें किसी एक विषय के अंगों और उपांगो आदि का पूरा वर्णन हो। २. वह बड़ा ग्रंथ जिसमें संसार भर के सब मुख्य मुख्य विषयों और विज्ञानों आदि का पूरा पूरा विवेचन हो। विश्वकोष। इनसाइक्लोपीडिया।
⋙ साइत (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० साअत] १. एक घंटे या ढाई घड़ी का समय। २. पल। लहमा। उ०—अभी एक साइत हुई कि मैं राजभवन और अपने अनुचरों की स्वामिनी और अपने मन की रानी थी।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ६०९। ३. मूहुर्त। शुभ लग्न। उ०—अर्थात् काबुल लेना शुभ साइत में हुआ था कि सब संतानें काबूल में हुई।—हुमायुँ०, पृ० १३। क्रि० प्र०—देखना।—निकलना।—निकलवाना। यौ०—साइत सुदेवस = शुभ लग्न और दिन।
⋙ साइत † (२)
अ० [फा़० शायद] दे० 'शायद'। उ०—साइत तुम्हें अनजान समझ कर रास्ते में कुछ दिक करे।—गोदान, पृ० ८।
⋙ साइनबोर्ड
संज्ञा पुं० [अं०] वह तख्ता या टीन आदि का टुकड़ा जिसपर किसी व्यक्ति, दुकान या व्यवसाय आदि का नाम और पता आदि अथवा सर्वसाधारण के सूचनार्थ इसी प्रकार की कोई और सूचना बड़े बड़े अक्षरों में लिखी हो। विशेष—ऐसा तख्ता दुकान, मकान या संस्था आदि के आगे किसी ऐसे स्थान पर लगाया जाता है, जहाँ सब लोगों की दृष्टि पड़े।
⋙ साइबड़ी †
संज्ञा स्त्री० [?] वह धन जो किसान फसल के समय धार्मिक कार्यों के निमित्त देते हैं।
⋙ साइबान
संज्ञा पुं० [फा़० सायबान] दे० 'सायबान'।
⋙ साइम
वि० [अ०] [वि० स्त्री० साइमा] रोजा या व्रत रखनेवाला। दे० 'सायम'।
⋙ साइयाँ
संज्ञा पुं० [सं०स्वामी, प्रा० सामी, साईँ] दे० 'साईँ'। उ०—जाको राखे साइयाँ मारि न सकिहै कोइ। बाल न बाँका करि सकै जो जग बैरी होइ।—कबीर (शब्द०)।
⋙ साइरा † (१)
संज्ञा पुं० [अ०] आमदनी के वह साधन जिनपर जमींदारों को प्रायः लगान नहीं देना पड़ता था। जैसे,—स्वतंत्रता के पूर्व जंगल, नदी, बाग, ताल आदि जो कहीं कहीं सरकारी कर से मुक्त रहते थे। दे० 'सायर'।
⋙ साइर (२)
वि० [सं० स्त्री० साइरा] १. चक्रमणशील। घूमने फिरनेवाला। २. कुल। पूरा। ३. बचा हुआ। शेष। बाकी [को०]।
⋙ साइर पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० सागर, प्रा० सायर] दे० 'सागर'। उ०— (क) दौं लागी साइर जल्या पंखी बैठी आइ।—कबीर ग्रं०, पृ० १२। (ख) साइ सप्त साइर करी, करी कलम बनराइ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३५।
⋙ साइल
संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री०साइरा] १. प्रार्थी। उम्मीदवार। आसरा लगानेवाला। २. भिक्षुक। भिखमंगा। ३. जिज्ञासा करनेवाला। प्रश्नकर्ता। उ०—कहे तब हाजिरों ने अर्ज यूँ कर। हुए साइल के ऐ आलम रहबर।—दक्खिनी०, पृ० ३२६।
⋙ साईँ
संज्ञा पुं० [सं० स्वामी] १. स्वामी। मालिक। प्रभु। २. ईश्वर। परमात्मा। ३. पति। खाविंद। ४. एक प्रकार का पेड़। दे० 'साँईँ'।
⋙ साई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्वामिक, प्रा० साइअ या हिं० साइतः] वह धन जो गाने बजानेवाले या इसी प्रकार के और पेशेकारों को किसी अवसर के लिये उनकी नियुक्ति पक्की करके, पेशगी दिया जाता है। पेशगी। बयाना। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना। मुहा०—साई बजाना = जिससे साई ली हो, उसके यहाँ नियत समय पर जाकर गाना बजाना।
⋙ साई † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सहाय] वह सहायता जो किसान एक दूसरे को दिया करते हैं।
⋙ साई (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का कीड़ा जिसके घाव पर बीट कर देने से घाव में कीड़े पैदा हो जाते है। २. वे छड़ें जो गाड़ी के अगले हिस्से में बड़े बल में एक दुसरे को काटते हुए रखी जाती हैं और जिनके कारण उनकी मजबुती और भी बढ़ जाती है।
⋙ साईँ (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'साईकाँटा'।
⋙ साई पु (५)
संज्ञा पुं० [सं० स्वामी, प्रा० सामि] स्वामी। मालिक। उ०—है परष परष साई सुकीय। छुट्टंत अरस जनु किरन- कीय।—पृ० रा०, ११।२५।
⋙ साईकाँटा
संज्ञा पुं० [हिं० साही (= जंतु) + काँटा] एक प्रकार का वृक्ष। साई। मोगली। विशेष—यह वृक्ष बंगाल, दक्षिण भारत, गुजरात और मध्यप्रदेश में पाया जाता है। इसकी लकड़ी सफेद होती है और छाल चमड़ा सिझाने के काम में आती है। इसमें से एक प्रकार का कत्था भी निकलता है।
⋙ साईबान
संज्ञा पुं० [फा़० सायबान,साइबान] दे० 'सायबान'। उ०—बीच मैं एक बड़ा कमरा हवादार बहुत अच्छा बना हुआ था। उसके चारों तरफ संगमरमर का साईबान और साईबान के गिर्द फव्वारों की कतार।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १७७।
⋙ साईस
संज्ञा पुं० [हिं० रईस का अनु०] [अ० साइस, सईस (=घोड़े का रखवाला)] वह आदमी जो घोड़े की खबरदारी और सेवा करता है, और उसे दाना घास आदि देता, मलता और टहलाता तथा इसी प्रकार के दुसरे काम करता है।
⋙ साईसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० साईस + ई (प्रत्य०)] साईस का काम, भाव या पद।
⋙ साउ †
संज्ञा पुं० [सं० साधु, प्रा० साहु] दे० 'साहु'।
⋙ साउज पु
संज्ञा पुं० [सं० श्वापद, प्रा० सावय] वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है। आखेट। अहेर। उ०—कीन्हेसि साउज आरन रहईँ। कीन्हेसि पंख उड़हि जहँ चहईँ।— जायसी ग्रं०, पृ० १।
⋙ साउथ
संज्ञा पुं० [अं०] दक्षिण दिशा।
⋙ साऊ पु
संज्ञा पुं० [सं० साधु, प्रा० साहु] सज्जन। भला पुरुष। साऊ थे दुसमन होइ लागे सबने लगूँ कड़ी। तुम बिन साऊ कोऊ नहीं है डिगी नाव मेरे समँद अड़ी।—संतवाणी०, पृ० ७७।
⋙ साएर पु
संज्ञा पुं० [सं० सागर, प्रा० सायर] दे० 'सागर'। उ०— बिरह अगिनि तन जरि बन जरे। नैन नीर साएर सब भरे।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २७१।
⋙ साएरी पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० शायरी] दे० 'शायरी'। उ०—एह सब साएरी कवि कथा। दधी मथि घ्रित साधु लीन्हौ छाछि को गुन गथा।—संत० दरिया, पृ० १५१।
⋙ साओन पु †
संज्ञा पुं० [सं० श्रावण, प्रा० सावण] सावन का महीना दे० 'श्रावण'। उ०—साओन सयँ हम करब पिरीत। जत अभिमत अभिसारक रीत।—विद्यापति, पृ० २२९।
⋙ साकंभरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाकम्भरी] देवी दुर्गा को एक मूर्ति।
⋙ साकंभरी (२)
संज्ञा पुं० शाकभरी क्षेत्र। साँभर झील या उसके आसपास का प्रांत जो राजपूताने में है।
⋙ साक (१)
संज्ञा पुं० [सं० शाक] शाक। साग। सब्जी। तरकारी। भाजी।
⋙ साक (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'सागौन'।
⋙ साक (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० साख] दे० १. 'धाक'। उ०—को हौ तुम अब का भए, कहाँ गए करि साक।—भारतेंदु ग्रं०, भा०३, पृ०३४०। २. दे० 'साख'।उ०—तहाँ कबीरा चढ़ि गया, गहि सतगुरु की साक।—कबीर सा० सं०, पृ० ६०।
⋙ साक (४)
संज्ञा स्त्री० [अ० साक़] १. वृक्ष का तना या धड़। २. पौधे की शाख या डठल। ३. पिंडली [को०]।
⋙ साक (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० शङ्क] शंका। दुविधा। उ०—मन फाटा बाइक बुरै मिटी सगाई साक।—कबीर ग्रं०, पृ० ६०।
⋙ साकचेरि †
संज्ञा स्त्री० [सं० शाक + चेरी?] मेंहदी। नखरंजन। हिना।
⋙ साकट
संज्ञा पुं० [सं० शाक्त] १. शाक्त मत का अनुयायी। उ०— सोवत साधु जगाइए करै नाम का जाप। ये तीनो सोवत भले साकट सिंह रु साप।—संतवाणी०, पृय२८९। २. वह जो मांसादि भक्षण करती हो। ३. वह जिसने किसी गुरु से दीक्षा न ली हो। गुरुरहित। ४. दुष्ट। पाजी। शरीर।
⋙ साकणी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शाकिनी] डाकिनी। पिशाचिनी। उ०—कलकै वीर कराली, हलकै साकण्याँ।—नट०, पृ० १७०।
⋙ साकत (१)
संज्ञा पुं० [सं० शाक्त] दे० 'साकट'।
⋙ साकत पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शक्ति] दे० 'शक्ति'। उ०—वही अनेक साकेत। कहंत चंद बाकते।—पृ० रा०, ९। १८७।
⋙ साकत्ति पु
वि० [हि०] दे० 'शक्ति'। उ०—चढयौ मंगि सुरतान साहाब ताजी। जरं जीन अमोल साकत्ति साजी। पृ० रा०, १९।२९।
⋙ साकबंधो
वि० [हिं० साका + बाँधना] सवत्सर चलानेवाला (राजा)। उ०—गए साकबंधी सका बाँधि केते।—धरनी०, पृ० ११।
⋙ साकम
संज्ञा पुं० [सं० सडक्रम, मि० बं० साँको] खाई आदि का छोटा पुल। उ०—वकवार, साकम बोध पोषरि नीक नीक निकेतना।—कीर्ति०, पृ० २६।
⋙ साकर † (१)
वि० [सं०सङ्कीर्ण] संकीर्ण। सँकरा। तंग।
⋙ साकर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला] दे० 'साँकल'।
⋙ साकर ‡ (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० शकर तुल० सं० शर्करा] दे० 'शक्कर'। उ०—जापर कृपा सोई भल जानै। गूँगो साकर कहा बखानै।—रैदाम०, पृ० ४८।
⋙ साकर पु (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाका + हिं० ड़ (प्रत्य०)] साख। धाक। खलबली। उ०—बज्जत सुगज्जत साखरे। जे करत दिसि दिसि साकरे।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ८।
⋙ साकल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खल] दे० 'साँकल'।
⋙ साकल (२)
संज्ञा पुं० [सं० शाकल] १. पंजाब (वाहीक) का पुराना नाम। २. मद्र देश का एक नगर। स्यालकोट।
⋙ साकल्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० शाकल्य] दे० 'शाकल्य'।
⋙ साकल्य (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णता। समग्रता। किसी वस्तु का पूर्ण होने का भाव।
⋙ साकल्यक
वि० [सं०] रोगी। रुग्ण। बीमार।
⋙ साकल्लि पु †
संज्ञा पुं० [सं० शाकल्य] दे० 'शाकल्य'। उ०—अब होम उभय प्रकार सुनि शिष कहौं तोहि बखानि। इक अग्नि महिं साकल्लि होमै सो प्रवृत्ती जानि।—सुंदर० ग्रं०, भा०१, पृ० ४०।
⋙ साकवर †
संज्ञा पुं० [?] बैल। वृषभ।
⋙ साकांक्ष
वि० [सं० साकाङ्क्ष] १.आकांक्षा से युक्त। इच्छुक। चाहनेवाला। २. महत्वपूर्ण। ३. जिसके लिये कुछ और, पूरक वस्तु अपेक्षित हो [को०]।
⋙ साका
संज्ञा पुं० [सं० शाका] १. संवत्। शाका। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना। २. ख्याति। प्रसिद्धि। शोहरत। उ०—घहरत घंटा धुनि धमकत धौंसा करि साका।—भारतेंदु ग्रं० भा०१, पृ० २८२। ३. यश। कीर्ति। उ०—आनँद के घन प्रीति साकौं न बिगारिए।—घनानंद, पृ० ४०। ४. कीर्ति का स्मारक। ५. धाक। रोब। मुहा०—साका करना = महान् कार्य करके कीर्ति स्थापित करना। उ०—साकौ करि पहुँतौ सरग, अचलौ ऐ उजवाल।—बाँकी० ग्रं०, भा०१, पृ० ८२। साका चलना = प्रभाव माना जाना। उ०—हृदय मुकुतामाल निरखत वारि अवलि वलाक। करज कर पर कमल वारत चलति जहँ तहँ साक।—सूर (शब्द०)। साका चलाना = रोब जमाना। धाक जमाना। साका बाँधना = दे० साका चलाना'। उ०—किते बिकरमाजीत साका बाँधि मर गए।—पलटू०, भा० २, पृ० ८४। ६. कोई ऐसा बड़ा काम जो सब लोग न कर सकें और जिसके कारण कर्ता की कीर्ति हो। उ०—गीध मानो गुरु, कपि भालु मानो मीन कै, पुनीत गीत साके सब साहब समत्थ के।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—होना। ७. समय। अवसर। मौका। उ०—जो हम मरन दिवस मन ताका। आजु आइ पूजी वह साका।—जायसी (शब्द०)।
⋙ साकार (१)
वि० [सं०] १. जिसका कोई आकार हो। जिसका स्वरूप हो। जो निराकार न हो। आकार या रूप से युक्त। २. मूर्ति- मान। साक्षात्। ३. स्थूल। व्यक्त। ४. अच्छे आकार का। सुंदर (को०)।
⋙ साकार (२)
संज्ञा पुं० ईश्वर का वह रूप जो आकार युक्त हो। ब्रह्म का मूर्तिमान स्वरूप।
⋙ साकारता
संज्ञा स्त्री० [सं०] साकार होने का भाव। साकारपन।
⋙ साकारोपासना
संज्ञा स्त्री० [सं०] ईश्वर की वह उपासना जो उसका कोई आकार या मूर्ति बनाकर की जाती है। ईश्वर की मूर्ति बनाकर उसकी उपासना करना।
⋙ साकित पु
संज्ञा पुं० [सं० शाक्त] दे० 'शाक्त'। उ०—साकित गिरही बानेधारी हैं सबही अज्ञान।—चरण० बानी, पृ० ८४।
⋙ साकिन
वि० [अ०] निवासी। रहनेवाला। बाशिंदा। जैसे,— रामलाल साकिन मौजा रामनगर। २. निश्चेष्ट। गतिहीन (को०)। ३. स्वर वर्ण से रहित। हलंत (को०)।
⋙ साकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० शाकिनी] पिशाचिनी। डाइन। उ०—घूमत कहुँ काली करालबदना मुँह बाए। झुँड डाकिनी और साकिनी संग लगाए।—प्रेमधन०, भा० १, पृ० ३१।
⋙ साकिया
संज्ञा पुं० [अ० साक़ियह्] शराब पिलानेवाली स्त्री। उ०—जो बंद कर पलकें सहज दो घूँट हँसकर पी गया। जिससे सुधा मिश्रित गरल वह साकिया का जाम है।—हिल्लोल, पृ० ३९।
⋙ साकी (१)
संज्ञा पुं० [देश०] कपूर कचरी। गंध पलाशी।
⋙ साकी (२)
संज्ञा पुं० [अ० साक़ी] १. वह जो लोगों को मद्य पिलाता हो। शराब पिलानेवाला। उ०—सिर्फ खैयामों की आवश्यकता है, साकी हजारों सुराही लिए यहाँ तैयार मिलेगें।—किन्नर०, पृ० ३७। २. वह जिसके साथ प्रेम किया जाय। माशूक।
⋙ साकुच
संज्ञा पुं० [सं०] सकुची मछली। शकुल मत्स्य।
⋙ साकुन, साकुन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० शाकुन] दे० 'शाकुन-२'। उ०— साकुन्न कला क्रीडन विसार। चित्रन सुजोग कवि चवत चारु।—पृ० रा०, १।७३३।
⋙ साकुर ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] घोड़ा। उ०—एता लिछ्मण आपिया, साकुर ऊँट समाज।—शिखर०, पृ० १०६।
⋙ साकुरुंड
संज्ञा पुं० [सं० साकुरुण्ड] दे० 'सकुरुंड'।
⋙ साकुल
वि० [सं०] हतबुद्धि। परीशान। घबड़ाया हुआ [को०]।
⋙ साकुश †
संज्ञा पुं० [डिं०] घोड़ा। अश्व। बाजि।
⋙ साकूत
वि० [सं०] १. अर्थयुक्त। सार्थक। साभिप्राय। २. क्रीड़ा- पूर्वक। ३. शृंगारप्रिय। स्वेच्छाचारी। विषयी [को०]।
⋙ साकूतस्मित
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्थपूर्ण मुस्कान। २. कामुक दृष्टि। वासनाभरी निगाह [को०]।
⋙ साकूतहसित
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'साकूतस्मित' [को०]।
⋙ साकृत पु
[सं० शाकल्य] शाकल्य। साकला हवन करने की वस्तु। उ०—गिद्धि बेताल पेषि पल साकृत छंडिय।—पृ० रा०, २५।४५३।
⋙ साकेत
संज्ञा पुं० [सं०] अयोध्या नगरी। अवधपुरी।
⋙ साकेतक
संज्ञा पुं० [सं०] साकेत का निवासी। अयोध्या का रहनेवाला।
⋙ साकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] साकेत। अयोध्या।
⋙ साकोटक
संज्ञा पुं० [सं० शाखोटक] शाखोट वृक्ष। सिहोर।
⋙ साकोह †
संज्ञा पुं० [सं० शाल] साखू। शाल। वृक्ष।
⋙ साक्त †
संज्ञा पुं० [सं० शाक्त] दे० 'शाक्त'। उ०—सो एक समै एक शाक्त गाम की सहनगी लैं भूमि भरन आयो।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३१७।
⋙ साक्तुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो जिससे सत्तू बनता है। भूना हुआ जौ। २. जौ का सत्तू। ३. एक प्रकार का विष।
⋙ साक्तुक (२)
वि० सत्तू संबंधी। सत्तू का।
⋙ साक्ष
वि० [सं०] १. नेत्रयुक्त। नेत्रसहित। २. अक्षमाला या जप के मनकों से युक्त [को०]।
⋙ साक्षर
वि० [सं०] जिसे अक्षरों का बोध हो। जो पढ़ना लिखना जानता हो। शिक्षित।
⋙ साक्षरता
संज्ञा पुं० [सं० साक्षर + ता (प्रत्य०)] शिक्षित होने का भाव। पढ़ा लिखा होना।
⋙ साक्षरता आंदोलन
संज्ञा पुं० [हिं० साक्षरता + आंदोलन] अपढ़ लोग पढ़ लिख सकें और उनमें शिक्षा का प्रसार हो इस दृष्टि से किया जानेवाला आंदोलन या आयोजन। शिक्षाप्रसार अभियान।
⋙ साक्षात् (१)
अव्य० [सं०] १. सामने। संमुख। प्रत्यक्ष। २. वस्तुतः। ठीक ठीक। ३. सीधे। बिना किसी माध्यम के।
⋙ साक्षात् (२)
वि० मूर्तिमान्। साकार। स्पष्ट। जैसे,—आप तो साक्षात् सत्य हैं।
⋙ साक्षात् (३)
संज्ञा पुं० भेंट। मुलाकात। देखा देखी।
⋙ साक्षात्कर
वि० [सं०] साक्षात् करनेवाला। साक्षात्कारी।
⋙ साक्षात्करण
संज्ञा पुं० [सं०] १. दृष्टिगत कराने का कार्य। आँखों के संमुख उपस्थित करना। २. इंद्रियबोध कराना। ३. आभ्यंतरिक ज्ञान। आंतरिक ज्ञान [को०]।
⋙ साक्षात्कर्ता
वि० [सं० साक्षात्कर्तृ] साक्षात् करनेवाला [को०]।
⋙ साक्षात्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेंट। मुलाकात। मिलन। २. पदार्थों का इंद्रियों द्वारा होनेवाला ज्ञान।
⋙ साक्षात्कारी
संज्ञा पुं० [सं० साक्षात्कारिन्] १. साक्षात् करनेवाला। २. भेंट या मुलाकात करनेवाला।
⋙ साक्षात्कृत
वि० [सं०] साक्षात्कार कराया हुआ। प्रत्यक्ष कराया हुआ [को०]।
⋙ साक्षात्क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंतर्ज्ञानपरक प्रत्यक्ष ज्ञान। २. प्रत्यक्षीकरण [को०]।
⋙ साक्षाद्द्दष्ट
वि० [सं०] साक्षात् देखा हुआ। आँखों से देखा हुआ।
⋙ साक्षिणी
वि० स्त्री० [सं०] साक्ष्य प्रस्तुत करनेवाली। प्रमाणस्वरूप। उ०—कहेगी शतद्रु शतसंगरों की साक्षिणी सिक्ख थे सजीव।—लहर, पृ० ६०।
⋙ साक्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] साक्षी का काम। साक्षित्व। गवाही।
⋙ साक्षित्व
संज्ञा पुं० [सं०] साक्षिता [को०]।
⋙ साक्षिद्वैध
संज्ञा पुं० [सं०] साक्षी में दुविधा होना [को०]।
⋙ साक्षिपरीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गवाह की परीक्षा [को०]।
⋙ साक्षिप्त
अव्य० [सं०] अविचारपूर्वक। अविचारित। बिना बिचारे।
⋙ साक्षिप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'साक्षीप्रत्यय'।
⋙ साक्षिभावित
वि० [सं०] गवाह के बयान से सिद्ध [को०]।
⋙ साक्षिभूत
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।
⋙ साक्षिमान्आधि
संज्ञा पुं० [सं०] साक्षियों के सामने गिरवी रखा हुआ धन जिसकी लिखापढ़ी न की गई हो।
⋙ साक्षी (१)
संज्ञा पुं० [सं० साक्षिन्] [वि० स्त्री० साक्षिणी] १. वह मनुष्य जिसने किसी घटना को अपनी आँखों देखा हो। चश्मदीद गवाह। २. वह जो किसी बात की प्रामाणिकता बतलाता हो। गवाह। ३. देखनेवाला। दर्शक। ४. परमात्मा (को०)। ५. दर्शन शास्त्र में पुरुष या अहम् (को०)।
⋙ साक्षी (२)
वि० १. द्रष्टा। देखनेवाला। अपनी आँखों से किसी घटना को देखनेवाला [को०]।
⋙ साक्षी (३)
संज्ञा स्त्री० किसी बात को कहकर प्रमाणित करने की क्रिया।
⋙ साक्षीद्वैध
संज्ञा पुं० [सं०] विरोधी बयान। बयानों में परस्पर अंत- विरोध [को०]।
⋙ साक्षीपरीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गवाह की परीक्षा लेना। जिरह [को०]।
⋙ साक्षीप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं०] गवाहों का बयान [को०]।
⋙ साक्षीप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं०] साक्षीपरीक्षा। जिरह [को०]।
⋙ साक्षीभावित
वि० [सं०] प्रमाण या सबूत से सिद्ध [को०]।
⋙ साक्षीभूत (१)
वि० [सं०] १. साक्षात्कार करनेवाला। स्वयंद्रष्टा। २. प्रमाणस्वरूप। उ०—बर सो जीवन मुक्त है तुरिया साक्षीभूत।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७८६।
⋙ साक्षीभूत (२)
संज्ञा पुं० विष्णु [को०]।
⋙ साक्षीलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] साक्षी से सिद्ध। प्रमाण से सिद्ध [को०]।
⋙ साक्षेप
वि० [सं०] १. पक्षपाती। पक्ष लेनेवाला। आपत्तिजनक। २. व्यंग्यपूर्ण। ताने से युक्त [को०]।
⋙ साक्ष्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साक्षी का काम। गवाही। शहादत। प्रमाण। उ०—दरिया साहब के निधन के लगभग ३०. वर्ष बाद ही इस पथ के तीन साधुओं के साक्ष्य के आधार पर अपना वृत्तांत लिखा था।—संत० दरिया, पृ० ८। २. दृश्य।
⋙ साक्ष्य (२)
वि० दृश्य। दिखाई देनेवाला। (समासांत में प्रयुक्त)।
⋙ साख (१)
संज्ञा पुं० [हिं० साक्षी] १. साक्षी। गवाह। २. गवाही। शहादत। उ०—(क) तुम बसीठ राजा की ओरा। साख होहु यह भीख निहोरा।—जायसी (शब्द०)। (ख) जैसी भुजा, कलाई तेहि बिधि जाय न भाख। कंकन हाथ होव जेहि तेहि दरपन का साख।—जायसी (शब्द०)। मुहा०—साख पूरना = साखी भरना। समर्थन करना।
⋙ साख (२)
संज्ञा पुं० [सं० शाका, हिं० साका] १. धाक। रोब। २. मर्यादा। उ०—प्रीति बेल उरझइ जब तब सुजान सुख साख।—जायसी (शब्द०)। ३. बाजार में वह मर्यादा या प्रतिष्ठा जिसके कारण आदमी लेन देन कर सकता हो। लेन- देन का खरापन या प्रामाणिकता। जैसे,—जबतक बाजार में साख बनी थी, तबतक लोग लाखों रुपए का माल उन्हें उठा देते थे। ४. विश्वास। भरोसा। क्रि० प्र०—बनना।—बिगड़ना।
⋙ साख † (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाखा] १. दे० 'साखा'। २. उपज। फसल। उ०—ढाढी एक संदेसडउ कहि ढोलउ समझाइ। जोबण आँबउ फलि रह्यउ साख न खावउ आइ।—ढोला०, दू० ११७।
⋙ साख पु (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० शिखा] शिखा। ज्वाला। उ०—संपेख अगनग साख सी। रत रोष मारग राष सी।—रघु रू०, पृ० ६७।
⋙ साखत पु
संज्ञा पुं० [?] घोड़े के आभूषण विशेष। उ०—साखत पेसबंद अरु पूजो। हीरन जटित हैकलै दूजी।—हम्मीर०, पृ० ३।
⋙ साखना पु
क्रि० स० [सं० साक्षि, हिं० साख + ना (प्रत्य०)] साक्षी देना। गवाही देना। शहादत देना। उ०—जन की और कौन पत राखं। जात पाँति कुलकानि न मानत वेद पुराननि साखै।—सूर०, १।१५।
⋙ साखर पु †
वि० [सं० साक्षर] जिसे अक्षरों का ज्ञान हो। पढ़ा लिखा साक्षर।
⋙ साखा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० शाखा] १. वृक्ष की शाखा। डाली। टहनी। उ०—भरी भार साखा रही भुम्मि लग्गी। लगे संकुलं पादपं तैं उमग्गी।—ह० रासो, पृ० ३५। २. वंश या जाति की शाखा या उपभेद। ३. दे० 'शाखा'। ४. वह कीली जो चक्की के बीच में लगी होती है। चक्की का धुरा। ५. सोचने विचारने का सिलसिला। विचारक्रम। उ०—को करि तर्क बढ़ावै साखा।—मानस, १।५२।
⋙ साखामृग पु
संज्ञा पुं० [सं० शाखामृग] दे० 'शाखामृग'। उ०—सठ साखामृग जोरि सहाई। बाधा सिंधु इहै प्रभुताई।—मानस, ६।२८।
⋙ साखि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० साक्षि, प्रा० साक्खि] दे० 'साखी'। गवाही। उ०—व्याध, गनिका, गज, अजामिल साखि निगमनि भने।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५३९।
⋙ साखिल्य
संज्ञा पुं० [सं०] दोस्ती। मैत्री। मित्रता [को०]।
⋙ साखी (१)
संज्ञा पुं० [सं० साक्षि] साक्षी। गवाह। उ०—(क) ऊँच नीच ब्यौरौ न रहाइ। ताकी साखी मैं सुनि भाइ।—सूर०, १।२३०। (ख) सूरदास प्रभु अटक न मानत ग्वाल सबै हैं। साखी।—सूर०, १०।७७४।
⋙ साखी (२)
संज्ञा स्त्री० १. साक्षी। गवाही। मुहा०—साखी पुकारना = साक्षी का कुछ कहना। साक्षी देना। गवाही देना। उ०—याते योग न आवै मन में तू नीके करि राखि। सूरदास स्वामी के आगे निगम पुकारत साखि।—सूर (शब्द०)। २.ज्ञान संबंधी पद या दोहे। वह कविता जिसका विषय ज्ञान हो। जैसे,—कबीर की साखी। उ०—साखो सबदो दोहरा कहि किहनो उपखान। भगति निरूपहि भगत कलि निंदहि बेद पुरान।—तुलसी ग्रं०, पृ० १५१।
⋙ साखी (३)
संज्ञा पुं० [सं० शाखिन्] १. (शाखाओं वाला) वृक्ष पेड़। उ०—(क) तुलसीदास रूँध्यो यहै सठ साखि सिहारे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी।—जायसी (शब्द०)। २. †पंच। निर्णायक।
⋙ साखीभूत पु
संज्ञा पुं० [सं० साक्षीभूत] दे० 'साक्षिभूत'। उ०— करता है सो करेगा, दादू साखीभूत।—दादू०, पृ० ४५७।
⋙ साखू
संज्ञा पुं० [सं० शाख] शाल वृक्ष। सखुआ। अश्वकर्ण वृक्ष।
⋙ साखेय
वि० [सं०] १. जो सखा या मित्र से सबंधित हो। २. मैञीपूर्ण। मिलनसार [को०]।
⋙ साखोचार पु
संज्ञा पुं० [सं० शाखोच्चार] दे० 'साखोचारन'। उ०—बर कुअरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करै।—मानस, १।३२४।
⋙ साखोचारन पु †
संज्ञा दे० [सं० शाखोच्चारण] विवाह के अवसर पर वर और वधू के वंश गोत्रादि का चिल्ला चिल्लाकर परिचय देने की क्रिया। गोत्रोच्चार।
⋙ साखोच्चार पु
संज्ञा पुं० [सं० शाखोच्चार] दे० 'साखोचारन'। उ०—बर दुलहिनिहि बिलोकि सकल मन रहसहिं। साखोच्चार समय सब सुर मुनि बिहसहिं।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४१।
⋙ साखोट (१)
संज्ञा पुं० [शाखोट] शाखोट वृक्ष। सिहोर वृक्ष। सिहोरा। भूतावास।
⋙ साखोट † (२)
वि० छोटा, टेढ़ा और भद्दा (वृक्ष)।
⋙ साख्त (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० साख्त] १. बनावट। गढ़न। २. कृत्रिमता। बनावटोपन। ३. काट छाँट। तराश। ४. बहाना। व्याज- वार्ता [को०]।
⋙ साख्ता
वि० [फ़ा० साख्तह्] १.निर्मित। बनाया हुआ। २. बना- वटी। कृत्रिम। नकली। यौ०—साख्ता परदाख्ता = (१) पालापोसा। बनाया सँवारा। (२) कृत। किया कराया। किया हुआ।
⋙ साख्त पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० शाक्त, पुं० हिं साकट, साकत] दे० 'शाक्त'। उ०—साख्त मुठे बाट महिं जानि न मिलहिं हजूर। संत सहाई साथ बिनु मरहि बिसूर बिसूर।—प्राण०, पृ० २५३।
⋙ साख्तगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० साख्तगी] बनावट। गढ़न [को०]।
⋙ साख्य
संज्ञा पुं० [सं०] सखा भाव। मैत्री। मित्रता [को०]।
⋙ साख्यात पु †
अव्य० [सं० साक्षा (क्षा) त्] दे० 'साक्षात्'। उ०— अवर सिरोमुख उक्त रा, उभै भेद अखियात। पहिलो कल्पत पेखजै, समझ वियौ साख्यात।—रघु० रू०, पृ० ४६।
⋙ साग (१)
संज्ञा पुं० [सं० शाक] पौधों की खाने योग्य पत्तियाँ। शाक। भाजी। जैसे,—सोए, पालक, बथुए, मरसे आदि का साग। २. पकाई हुई भाजी। तरकारी। जैसे,—आलू का साग, कुम्हडे का साग। (वैष्णव)। यौ०—सागपात = कंदमूल। रूखासूखा भोजन। जैसे, जो कुछ सागपात बना है, कृपा करके भोजन कीजिए। मुहा०—सागपात समझना = बहुत तुच्छ समझना। कुछ न समझना।
⋙ साग पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शक्ति, हिं० साँग] दे० 'साँग'। उ०— गहि सुभ साग उद्द कर लिंनिय। लखत पसर सावंतन किंनिय।—प० रासो०, पृ० १२०।
⋙ सागडी़ पु
संज्ञा पुं० [सं० शाकटिक] शकट या रथ चलानेवाला। सारथी। उ०—सोच करै नह सागड़ी, धवल तणी दिस भाल।—बाँकी, ग्रं०, भा० १, पृ० ३८।
⋙ सागम
वि० [सं०] यथान्याय। न्याय्य। उचित। ईमानदारी से प्राप्त। वैधानिक [को०]।
⋙ सागरंगम
वि० [सं० सागरम्गम] दे० 'सागरग'।
⋙ सागर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १ समुद्र। उदधि। जलधि। दे० 'समुद्र'। विशेष—ऐसा माना जाता है कि राजा सगर के नाम पर 'सागर' शब्द पड़ा। २. बड़ा तालाब। झील। जलाशय। ३. संन्यासियों का एक भेद। ४. एक प्रकार का मृग। ५. चार की संख्या (को०)। ६. दस पद्म की संख्या (को०)। ७. एक नाम। नागदैत्य (को०)। ८. गत उत्सर्पिणी के तीसरे अर्हत। ९. सगर के पुत्र (को०)। मुहा०—सागर उमड़ना = आधिक्य होना। मात्रा में अत्यधिक होना। उ०—सागर उमड़ा प्रेम का खेवटिया कोइ एक। सब प्रेमी मिलि बूड़ते जो यह नहिं होता टेक।—कबीर सा० सं०, पृ० ५१।
⋙ सागर (२)
वि० सागर संबंधी। समुद्र संबंधी।
⋙ सागर (३)
संज्ञा पुं० [अ० सागर] १. प्याला। खोरा। २. शराब का प्याला। उ०—बचन का पी सागर सुराही अकल। भर्या मद फिरा सत अजाँ में नवल।—दक्खिनी०, पृ० २६७।
⋙ सागरक
संज्ञा पुं० [सं०] एक जनपद या नगर [को०]।
⋙ सागरकश
वि० [फ़ा० सागरकश] शराब पीनेवाला। मद्यप [को०]।
⋙ सागरगंभीर
संज्ञा पुं० [सं० सागरगम्भीर] समुद्र की तरह गंभीर समाधि [को०]।
⋙ सागरग, सागरगम
वि० [सं०] समुद्र यात्रा करनेवाला। समुद्र में जानेवाला [को०]।
⋙ सागरगमा, सागरगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नदी। दरिया। २. गंगा नदी [को०]।
⋙ सागरगामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी। सरिता [को०]।
⋙ सागरगामी
वि० [सं० सागरगामिन्] [स्त्री० सागरगामिनी] दे० 'सागरग' [को०]।
⋙ सागरगासुत
संज्ञा पुं० [सं०] गंगा के पुत्र-भीष्म [को०]।
⋙ सागरज
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र लवण।
⋙ सागरजमल
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रफेन। अब्धिकफ।
⋙ सागरधरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी। भूमि।
⋙ सागरधीरचेता
वि० [सं० सागरधीरचेतस्] समुद्र की तरह विशाल, दृढ़ तथा गंभीर मनोवृत्तिवाला [को०]।
⋙ सागरनेमि, सागरनेमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] धरित्री। पृथ्वी।
⋙ सागरपर्यत
क्रि० वि० [सं० सागरपर्यन्त] १. सागर से धिरा हुआ (जैसे,—पृथ्वी)। २. सागर तक। आसमुद्र [को०]।
⋙ सागरप्लवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र पार करना। समुद्र संतरण। २. घोड़े की एक विशेष चाल [को०]।
⋙ सागरमति
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम [को०]।
⋙ सागरमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ध्यान, आराधना करने की एक प्रकार की मुद्रा।
⋙ सागरमेखला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
⋙ सागरलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ललित विस्तर के अनुसार एक प्राचीन लिपि।
⋙ सागरवरधर
संज्ञा पुं० [सं०] महासागर।
⋙ सागरवासी
संज्ञा पुं० [सं० सागरवासिन्] १. वह जो समुद्र में रहता हो। समुद्र में रहनेवाला। २. वह जो समुद्र के तट पर रहता हो। समुद्र के किनारे रहनेवाला।
⋙ सागरव्यूहगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] एक बौधिस्तव का नाम।
⋙ सागरशय
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो समुद्र में सोता हो, विष्णु का एक नाम [को०]।
⋙ सागरशुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] समुद्री सीप [को०]।
⋙ सागरसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी [को०]।
⋙ सागरसूनु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।
⋙ सागरांत
संज्ञा पुं० [सं० सागरान्त] समुद्र का किनारा।
⋙ सागरांता
संज्ञा स्त्री० [सं० सागरान्ता] पृथ्वी। धरती [को०]।
⋙ सागरांबरा
संज्ञा स्त्री० [सं० सागराम्बरा] पृथ्वी।
⋙ सागरा
संज्ञा पुं० [सं० सागर ? ] श्री राग का एक पुत्र। उ०— सावा सारंग सागरा औ गंधारी भीर। अस्ट पुत्र श्रीराग के गौल बुंड गंभीर।—माधवानल०, पृ० १९४।
⋙ सागरानुकूल
वि० [सं०] समुद्र के किनारे पर बसा हुआ [को०]।
⋙ सागरापांग
वि० [सं० सागरापाङ्ग] समुद्र से घिरा हुआ। जैसे,— पृथ्वी [को०]।
⋙ सागरालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. सागर में रहनेवाले, वरुण। २. वह जो समुद्र में रहता हो। समुद्रवासी [को०]।
⋙ सागरावर्त
वि० [सं०] समुद्र की खाड़ी [को०]।
⋙ सागरेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक तीर्थ का नाम।
⋙ सागरोत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्री लवण।
⋙ सागरोद्गार
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रा का उमड़ना। ज्वार [को०]।
⋙ सागरोपम
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो समुद्र की तरह उदात्त, अतलस्पर्श और गंभीर हो। २. एक बहुत बड़ी संख्या (जैन)।
⋙ सागवन, सागवान
संज्ञा पुं० [हिं० सागौन] एक वृक्ष दे० 'शाल—१'।
⋙ सागस
वि० [सं० स + आगस] सापराध। अपराधी। कसूरवार। उ०—प्रीतम् कौं जब सागस लहै। व्यंगि अब्यंगि बचन कछु कहै।—नंद० ग्रं०, पृ० १४७।
⋙ सागुन्य पु
संज्ञा पुं० [सं० शाकुनिक (= सगुनियाँ), हिं० सगुन] शकुन विचारनेवाला। उ०—सागुन्य सगुन फल कहै जब्ब। प्रमुदित्त मंन चहुआंन तब्ब।—पृ० रा०, ११७।४५।
⋙ सागू
संज्ञा पुं० [अं० सैगो] १. ताड़ की जाति का एक प्रकार का पेड़ जो जावा, सुमात्रा, बौर्निओ आदि में अधिकता से पाया जाता है और बंगाल तथा दक्षिण भारत में भी लगाया जाता है। विशेष—इसके कई उपभेद है जिनमें से एक को माड़ भी कहते हैं। इसके पत्ते ताड़ के पत्तों की अपेक्षा कुछ लंबे होते हैं और फल सुडौल गोलाकार होते हैं। इसके रेशों से रस्से, टोकरे और बुरुश आदि बनते हैं। कहीं कहीं इसमें से पाछकर एक प्रकार का मादक रस भी निकाला जाता है और उस रस से गुड़ भी बनता है। जब यह पंद्रह वर्श का हो जाता है तब इसमें फल लगते हैं और इसके मोटे तने में आटे की तरह का एक प्रकार का सफेद पदार्थ उत्पन्न होकर जम जाता है। यदि यह पदार्थ निकाला न जाय, तो पेड़ सूख जाता है। यही पदार्थ निकालकर पीसते हैं और तब छोटे छोटे दानों के रूप में सुखाते हैं। कुछ वृक्ष ऐसे भी होते हैं जिनके तने के टुकड़े टुकड़े करके उनमें से गूदा निकाल लिया जाता है और पानी में कूटकर दानों के रूप में सुखा लिया जाता है। इन्हीं को सागूदाना या साबूदाना कहते हैं। इस वृक्ष का तना पानी में जल्दी नहीं सड़ता; इसलिये उसे खोखला करके उससे नली का काम लेते हैं। यह वृक्ष वर्षा ऋतु में बीजों से लगाया जाता है। २. दे० 'सागूदाना'।
⋙ सागूदाना
संज्ञा पुं० [हिं० सागू + दाना] सागू नामक वृक्ष के तने का गूदा। साबूदाना। विशेष—यह पहले आटे के रूप में होता है और फिर कूटकर दानों का रूप में सुखा लिया जाता है। यह बहुत जल्दी पच जाता है, इसलिये यह दुर्बलों और रोगियों को पानी या दूध में उबालकर, पथ्य के रूप में दिया जाता है। इसे साबूदाना भी कहते हैं। विशेष—दे० 'सागू'।
⋙ सागे †
क्रि० वि० [?] प्रकट में।—रघु० रू०, पृ० २३९।
⋙ सागो
संज्ञा पुं० [अं० सैगो] दे० 'सागू'।
⋙ सागौन
संज्ञा पुं० [अं० सैगो] दे० 'शाल'—१।
⋙ साग्नि
वि० [सं०] १. अग्नि सहित। अग्नियुक्त। २. यज्ञाग्नि को रखनेवाला। ३. अग्नि संबंधी [को०]।
⋙ साग्निक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके पास यज्ञ या हवन की अग्नि रही हो। वह जो बराबर अग्निहोत्र आदि किया करता हो। अग्निहोत्री। २. अग्नि द्वारा साक्षी किया हुआ।
⋙ साग्र
वि० [सं०] १. समस्त। कुल। सब। २. बचा हुआ। शेष अधिक (को०)।
⋙ साघल पु †
क्रि० वि० [सं० सकल, प्रा० सगल, सयल] सब। समग्र। उ०—साठ अंतेवर राजकुमार साघलाँ ऊपरि जाति पमाँर।—बी० रासो, पृ० ३०।
⋙ साच पु
वि० [सं० सत्य, प्रा० सच्च, हिं० सच] दे० 'सत्य'। उ०— इस पतिया का यह परिमाण। साच सील चालो सुलतान।—दक्खिनी०, पृ० २१।
⋙ साचक
संज्ञा स्त्री० [तु० साचक़] मुसलमानों में विवाह की एक रस्म जिसमें विवाह से एक दिन पहले वर पक्षवाले अपने यहाँसे कन्या के लिये मेहँदी, मेवे, फल तथा कुछ सुगंधित द्रव्य आदि भेजते हैं।
⋙ साचय पु
अव्य० [सं० सत्यम्] वस्तुतः। यथार्थतः। सचमुच। उ०— सरन्नि राव राखि राखि मैं सरन्नि साचयं।—ह० रासो, पृ० ५१।
⋙ साचरज पु
वि० [सं० स + आश्चर्य] आश्चर्य के साथ। आश्चर्य- युक्त। उ०—जयत (साचरज)—वाह ! कार्तिकेय—वृत्नासुर के वचन सुनि चकित होइ सुरराइ।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४९३।
⋙ साचरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जो कुछ लोगों के मत से भैरव राग की पत्नी है।
⋙ साचार
वि० [सं०] १. सद्व्यवहार से युक्त। २. सद्आचार से युक्त। अच्छे आचरणवाला [को०]।
⋙ साचि
क्रि० वि० [सं०] बगल से। टेढे़ तिरछे [को०]।
⋙ साचिवाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद पुनर्नवा। गदहपूरना।
⋙ साचिविलोकित
संज्ञा पुं० [सं०] तिरछी निगाह। बंक दृष्टि। टेढ़ी चितवन [को०]।
⋙ साचिव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सचिव का भाव या धर्म। सचिवता। २. शासन (को०)। ३. सहायता। मदद।
⋙ सचिव्याक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] आपत्ति पूर्ण स्वीकृति। आपत्ति गुंफित स्वीकार।
⋙ साची कुम्हड़ा
संज्ञा पुं० [देश० साची + कुम्हड़ा] भतुआ कुम्हड़ा। सफेद कुम्हड़ा। पेठा।
⋙ सावीकृत
वि० [सं०] १. टेढ़ा बनाया हुआ। २. तिरछा। झुका हुआ। ३. विकृत।
⋙ साचीगुण
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक देश का नाम।
⋙ साचीन
वि० [सं०] बगल से आनेवाला [को०]।
⋙ साच्छात पु
अव्य० [सं० साक्षात्, प्रा० साच्छात] दे० 'साक्षात्'। उ०—अरु साच्छात मात की भ्रात। सो वह कंस हत्यौ किहि बात।—नंद० ग्रं०, पृ० २१९।
⋙ साच्छी पु
संज्ञा पुं० [सं० साक्षी] दे० 'साक्षी'। उ०—महा सुद्ध साच्छि चिदुरूप। परमातम प्रभु परम अनूप।—दरिया० बानी, पृ० १६।
⋙ साछ पु †
संज्ञा पुं० [सं० साक्ष्य] दे० 'साख', 'साक्ष्य'। उ०—सत- गुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ।—कबीर ग्रं०, पृ० १।
⋙ साछी पु
संज्ञा पुं० [सं० साक्षिन्] दे० 'साक्षी'। उ०—रसिक पपीहा साछी आछी अछरौटी के।—घनानंद, पृ० २०५।
⋙ साज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्व भाद्रपद नक्षत्र।
⋙ साज (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० साज, मि० सं० सज्जा] १. सजावट का काम। तैयारी। ठाटबाट। २. वह उपकरण जिसकी आवश्यकता सजावट आदि के लिये होती हो। वे चीजें जिनकी सहायता से सजावट की जाती है। सजावट का सामान उपकरण। सामग्री। जैसे,—घोड़े का साज (जीन लगाम, तंग, दुमची आदि), लहँगे का साज (गोटा, पट्ठा, किनारी आदि) बरा- मदे का साज खंभे, घुड़िया आदि)। यौ०—साजसमाज = साज सज्जा। अलंकार। उ०—आए साज- समाज सजि भूषन बसन सुदेश।—तुलसी ग्रं० पृ० ८२। सजसामान। मुहा०—साज सजना = तैयारी करना। व्यवस्था करना। उ०— मो कह तिलक साज सजि सोऊ।—मानस, २।१८२ ३. वाद्य। बाजा। जैसे,—तबला, सारंगी, जोड़ी, सितार, हार- मोनियम आदि। मुहा०—साज छेड़ना = बाजा बजना आरंभ करना साज मिलाना = बाजा बजाने से पहले उसका सुर आदि ठीक करना। ४. लड़ाई में काम आनेवाले हथियार। जैसे,—लतवार, बदूक, ढाल, भाला आदि। उ०—करौ तयारी कोट मैं, सजा जुद्ध की साज।—हम्मीर० पृ० २९। ५. बढ़इयों का एक प्रकार का रंदा जिससे गोल गलता बनाया जाता है। ६. मेल जोल। घनिष्टता। यौ०—साजबाज = हेलमेल। घनिष्ठता। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—होना।
⋙ साज (३)
वि० १. बनानेवाला। मरम्मत या तैयार करनेवाला। काम करनेवाला। २. बनाया हुआ। निर्मित। रचित। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग यौगिक शब्दों के अंत मे होता है। जैसे,—घड़ीसाज, रंगसाज, खुदासाज आदि।
⋙ साज (४)
संज्ञा पुं० [अ०] साखू या साल का वृक्ष जिसकी लकड़ो इमा- रती कामों में आती है। उ०—इमारती लकड़ी में सागौन, साज, सेमल,बीजा, हल्दुआ, तिंशा, शीशम, सलई आदि किस्म की लकडी बहुतायत से पाई जाती है।—शुक्ल अभि० ग्रं० पृ० १४।
⋙ साजक
संज्ञा पुं० [सं०] बाजरा। बजरा।
⋙ साजगार
वि० [फ़ा० साजगार] १. शुभद। अनुकूल। माफिक [को०]।
⋙ साजगिरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमे सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
⋙ साजड़
संज्ञा पुं० [देश०] गुलू नामक वृक्ष जिससे कतीरा गोंद निकलता है। विशेष दे० 'गुलू'।
⋙ साजति पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सजावट] सजावट। दे० 'सज्जा'। उ०—जान तणी साजति करउ। जीरह रंगावली परिहरज्यो टोप।—बी० रासो, पृ० ११।
⋙ साजन
संज्ञा पुं० [सं० सज्जन] १. पति। भर्ता। स्वामी। २. प्रेमी। वल्लभ। ३. ईश्वर। ४. सज्जन। भला आदमी।
⋙ साजना पु † (१)
क्रि० स० [सं० सज्जा] १. दे० 'सजाना'। उ०— (क) चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा। साजी बिरह दुंद दल बाजा—जायसी (श्बद०)। (ख) बेल ताल जुग हेम कलस गिरि कटोरि जिनिआ कुच साजा।—विद्यापति, पृ० ७१। २. सजाना। तैयार करना। ३. छोटे बड़े पानों को उनके आकार के अनुसार आगे पीछे या ऊपर नीचे रखना। (तमोली) ।
⋙ साजना पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० सज्जन] दे० 'साजन'। उ०—मिलहिं जो बिछुरै साजना गहि गहि भेंट गहंत। तपनि मिरगिसिरा जे सहहिं अद्रा ते पलुहत।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३५४।
⋙ साजना पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० सजाना] सजावट। साज। सज्जा। उ०—कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि। भुगुति दिहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि।—जायसी ग्रं०, पृ० २।
⋙ साजबाज
संज्ञा पुं० [फ़ा० साजबाज या सं० साज + बाज (अनु०)] १. तैयारी। २. गठबंधन। मेलजोल। घनिष्टता। ३. अभि- संधि। गुप्त अभिसंधि। संयो० क्रि०—करना।—बढ़ाना।—रखना।—होना।
⋙ साजबार
वि० [हिं० साज + फ़ा० बार (प्रत्य०)] शोभास्पद। शोभनीय। उ०—बोलना सुल्ताँ उसे है साजबार। सल्तनत जिसके दायम बरकरार।—दक्खिनी०, पृ० १८७।
⋙ साजर
संज्ञा पुं० [देश०] गुलू नामक जिससे कतीरा गोंद, निकलता है। विशेष दे० 'गुलू'-१।
⋙ साजस पु †
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० साजिश] दे० 'साजिश'। उ०—केता साजस साह सूँ, राजस राणो राण।—रा० रू०, पृ० ३६२।
⋙ साजसामान
संज्ञा पुं० [फ़ा० साजसामान] १. सामग्री। उपकरण। असबाब। जैसे,—बारात का सब साजसामान पहले से ठीक कर लेना चाहिए। २. ठाट बाट।
⋙ साजात्य
संज्ञा पुं० [सं०] सजाति होने का भाव जो वस्तु के दो प्रकार के धर्मों में से एक है (वस्तुओं का दूसरे प्रकार का धर्म वैजात्य कहलाता है)। सजातीयता। समान वर्ग या श्रेणी का होना।
⋙ साजिंदा
संज्ञा पुं० [फ़ा० साजिन्दहू] १. वह जो कोई साज बजाता हो। साज या बाजा बजानेवाला। २. वेश्याओं की परिभाषा में तबला, सारंगी या जोड़ी बजानेवाला। सपरदाई। समाजी।
⋙ साजिश
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० साजिश] १. मेल मिलाप। २. किसी के विरुद्ध कोई काम करने में सहायक होना। किसी को हानि पहुँचाने में किसी को सलाह या मदद देना। जैसे,—इतना बड़ा मामला बिना उनकी साजिश के हो ही नहीं सकता। ३. दुरभिसंधि। षड्यंत्र।
⋙ साजिशी
वि० [फ़ा० साजिशी] साजिश करनेवाला। कुचक्री। षडयंत्री [को०]।
⋙ साजीवन पु
वि० [सं० सह + जीवन] जीवनयुक्त। सजीव। उ०— केहि विधि मृतक होय साजीवन।—कबीर सा०, पृ० ८।
⋙ साजुज्य, साजोज पु
संज्ञा पुं० [सं० सायुज्य] दे० 'सायुज्य'। उ०—(क) ब्रह्म अगिनि जरि सुद्ध ह्वै सिद्धि समाधि लगाइ। लीन होई साजुज्य में, जोतै जोति लगाइ।—नंद० ग्रं०, पृ० १७६। (ख) सालोक संगति रहै, सामीप संमुख सोइ। सारूप सारीखा भया, साजोज एकै होइ।—दादू०, पृ० १८९।
⋙ साझना पु †
क्रि० स० [हिं० सजाना] दे० 'सजाना'। उ०— लाखाँ सूँ बंधड़ै लड़ाई सार प्रथम साझिया सिपाई।— रा० रू०, पृ० २३९।
⋙ साझा
संज्ञा पुं० [सं० सहार्ध्य] १. किसी वस्तु में भाग पाने का अधिकार। सराकत। हिस्सेदारी। जैसे,—बासी रोटी में किसी का क्या साझा ? (कहा०)। क्रि० प्र०—लगाना। २. हिस्सा। भाग। बाँट। जैसे,—उनके गल्ले के रोजगार में हमारा आधा साझा है। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—होना।
⋙ साझी
संज्ञा पुं० [हिं० साझा + ई (प्रत्य०)] वह जिसका किसी काम या चीज में साझा हो। साझेदार। भागी। हिस्सेदार।
⋙ साझेदार
संज्ञा पुं० [हिं० साझा + दार (प्रत्य०)] शरीक होनेवाला। हिस्सेदार। साझी।
⋙ साझेदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० साझेदार + ई (प्रत्य०)] साझेदार होने का भाव। हिस्सेदारी। शराकत।
⋙ साट (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सट से अनु०] दे० 'साँट'।
⋙ साट † (२)
वि० [सं० षष्ठि, प्रा० सट्ठि, हिं० साठ] दे० 'साठ'। उ०— साट घरी मों साई की बीसर, पर नही मोकूँ येक घरी हो।—दक्खिनी०, पृ० १३२।
⋙ साट पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँठ का अनु०] साजिश। षडयंत्र। उ०—शेख तकी बादशाह के पीर का विरुद्धता करना और ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं की साट से कबीर साहब के साथ कुव्यवहार करना।—कबीर मं०, पृ० १०१।
⋙ साट पु (४)
संज्ञा पुं० [देशी सट्ट] सट्टा। विनिमय। बदला। उ०— खंजर नेत विसाल, गय चाही लागइ चक्ख। एकण साटइ मारुवी, देह एराकी लक्ख।—ढोला०, दू० ४५८।
⋙ साटक
संज्ञा पुं० [?] १. भूसी। छिलक। २. बिलकुल तुच्छ और निरर्थक वस्तु। निकम्मी चीज। उ०—गज बाजि घटा, भले, भरि भटा, बनिता सुत भौंह तकै सब वै। धरनी धन धान सरीर भलो, सुर लोकहु चाहि इहै सुख ख्वै। सब फोकट साटक है तुलसी, अपनो न कछू सपनो दिन द्वै। जर जाउ सो जीवन जानकीनाथ ! जियै जग में तुम्हरो बिन ह्नै।—तुलसी (शब्द०)। ३. एक प्रकार का छंद। उ०—छंद प्रबंध कवित्त जति साटक गाह दुहत्थ।—पृ० रा०, १।८१। विशेष—कुछ लोग इसे शार्दूलविक्रीडित का अपभ्रष्ट रूप मानते हैं। 'रूपदीप पिंगल' के अनुसार इसका लक्षण इस प्रकार है—कर्मे द्वादश अंक आद सज्ञा मात्रा सिवो सागरे। दुज्जी बी करिके कलाष्ट दस बी अकों विरामाधिकम्। अते गुर्व निहार धार सबके औरो कछू भेद ना। तीसो मत्त उनीस अंक चरनेसेसो भणै साटिकम्। यथा—आदीदेव प्रनम्य नम्य गुरयं बानीय बंदे पयं।—पृ० रा० १।१।
⋙ साटन
संज्ञा पुं० [अं० सैटिन] एक प्रकार का बढ़िया रेशमी कपड़ा जो प्रायः एकरुखा और कई रंगों का होता है। उ०—पीछे अधिकारियों की कुर्सियाँ लगी थीं जिनपर भी नीली साटन बढ़ी थी। भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० १।७।
⋙ साटना पु †
क्रि० स० [हिं० सटाना] १ दो चीजों का इस प्रकार मिलाना कि उनके तल आपस में मिल जायँ। सटाना। जोडना। मिलाना। २. दे० 'सटाना'।
⋙ साटनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] कलंदरों की परिभाषा में भालू का नाच।
⋙ साटमार †
संज्ञा पुं० [हिं० साँट + मारना] वह जो हाथियों को साँटे मार मारकर लड़ाता हो। हाथियों को लड़ानेवाला।
⋙ साटमारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० साटमार + ई (प्रत्य०)] साँटे मार मारकर हाथियों को लड़ाने का कार्य। इस प्रकार की हाथियों की लड़ाई।
⋙ साटा पु
संज्ञा पुं० [देशी सट्ट, सट्टक(= विनिमय)] १. सौदा। दे० 'सट्टा'। उ०—सोई सास सुजाण नर साँई सेती लाइ। करि साटा सिरजनहार सूँ मँहगे मोलि बिकाइ।—दादू०, पृ० ३८। २. दे० 'साठी'। उ०—कहूँ न मन माने निमष ज्यों मनि बिना भुयंग। सद माखन साटौ दही। धरयौ रहै मनमद।—पृ० रा०, २।५५६।
⋙ साटिकफिटिक †
संज्ञा पुं० [अं० सार्टिफिकेट] प्रमाणपत्र। उ०— लखि कै साँचे साटिकफिटिक सराहैं सब जन।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २४।
⋙ साटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. पुनर्नवा। गदहपूर्नी। २. सामान। सामग्री। दे० 'साँठी'। ३. कमची। दे० 'साँटी'। उ०— बाजीगर के हाथ डोरी है जब साटिन ते सटका।—संत० दरिया, पृ० १३४।
⋙ साटे ‡
अव्य० [देशी] बदले में। परिवर्तन में।
⋙ साटेबरदार
संज्ञा पुं० [हिं० साट + फ़ा० बर + दार (प्रत्य०)] लाठी धारण करनेवाले। लट्ठधारी। उ०—उधर साटेबरदार, बरछीवाले दौड़े, पर चँदोवे के नीचे भगदड़ मच गई।—तितली, पृ० १६१।
⋙ साटोप
वि० [सं०] १. आडंबरयुक्त। अभिमानी। मदोद्धत। २. शानदार। शाही। ३. (जल आदि से) फूला या भरा हुआ। ४. गर्जता हुआ। गर्जन करता हुआ। जैसे,—बादल [को०]।
⋙ साठ (१)
वि० [सं० षष्ठि, प्रा० सठ्ठि] पचास और दस। जो पचपन से पाँच ऊपर हो।
⋙ साठ (२)
संज्ञा पुं० पचास और दस के योग की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—६०।
⋙ साठ (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'साटी'।
⋙ साठन
संज्ञा पुं० [अं० सैटिन] दे० 'साटन'। उ०—बढ़िया साठन की मढ़ी हुई कौँच, कुर्सियें जगह मौके से रक्खी थीं।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १७७।
⋙ साठनाठ
वि० [हिं० साँठि + नाठ (< नष्ट)] १. जिसकी पूँजी नष्ट हो गई हो। निर्धन। दरिद्र। उ०—साठनाठ लग बात को पूँछा। बिन जिय फिरै मूँज तन छूँछा।—जायसी (शब्द०)। २. नीरस। रूखा। ३. इधर उधर। तितर बितर। उ०— चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट। साठनाठ उठि भए बटाऊ, ना पहिचान न भेंट।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ साठसाती
संज्ञा स्त्री० [सं० सार्ध, प्रा० सड्ढ हिं० साठ + सं० सप्तक ?] 'साढ़ेसाती'।
⋙ साठा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. ईख। गन्ना। ऊख। २. एक प्रकार का धान जिसे साठी कहते है। विशेष दे० 'साठी-१'। ३. वह खेत जो बहुत लंबा चौड़ा हो। ४. एक प्रकार की मधुमक्खी जिसे साठपुरिया कहते हैं।
⋙ साठा (२)
वि० [हिं० साठ] जिसकी अवस्था साठ वर्ष की हो गई हो। साठ वर्ष को उम्रवाला। जैसे,—साठा सो पाठा। (कहा०)।
⋙ साठा पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० सट्टा] बदला। उ०—पंच बथेरा माँगै दीजै। उनके साठे बहु हय लीजै।—प० रासो, पृ० ११९।
⋙ साठी (१)
संज्ञा पुं० [सं० षष्टिक] एक प्रकार का धान। विशेष—कहते हैं कि यह धान साठ दिन में तैयार हो जाता है—साँवा, साठी साठ दिना देब बरीसै रात दिना। इसी से इसे साठी कहते हैं। इसके दाने दो प्रकार के होते हैं—काले और सफेद। काले की अपेक्षा सफेद दानेवाला अधिक अच्छा समझा जाता है। इसमें गुण अधिक होता है।
⋙ साठी पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'साँटा-१'। उ०—कालबूत कसणी भई, सेवग साठो जान। रज्जब ताबै तोरगर, यूँ सतगुरु की बानि।—रज्जब०, पृ० २०।
⋙ साड
वि० [सं०] जिसमें आर हो। नुकीला। नोकदार। डंकवाला। चुभनेवाला [को०]।
⋙ साड़ना पु †
क्रि० स० [हिं० सालना] दे० 'सालना'। उ०— अल्लह कारणि आपकौं साड़ै अंदरि माहि।—दादू०, पृ० ६४।
⋙ साड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] १. घोड़ों का एक प्राणघातक रोग। २. बाँस का बह टुकड़ा, जो नाव में मल्लाहों के बैठने के स्थान के नीचे लगा रहता है।
⋙ साड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाटिका, प्रा०] स्त्रियों के पहनने की धोती जिसमें चौड़ा किनारा या वेल आदि बनी होती है। सारी।
⋙ साड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सार] दे० 'साढ़ी'-२'।
⋙ साढ़ †
वि० [सं० सार्ध] दे० 'साढ़े'।
⋙ साढ़साती
संज्ञा स्त्री० [हिं० साढ + साती] दे० 'साढ़ेसाती'। उ०— अवध साढ़साती जनु बोली।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ साढ़ासती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सार्धक, प्रा० सङ्ढअ, साढअ + हिं० साढा + साती] दे० 'साढ़ेसाती'। उ०—राम ही केतु अरु राहु साढ़ासती। राम ही राम सो सप्तबारा।—राम० धर्म०, पृ० २१६।
⋙ साढ़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० आषाढ़, हिं० आसाढ़] वह फसल जो आसाढ़ में बोई जाती है। आसाढ़ी।
⋙ साढ़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश० अथवा सं० सज्ज + दधि] दूध के ऊपर जमनेवाली बालाई। मलाई। उ०—सब हेरि धरीहै साढ़ी। लै उपर उपरते काढ़ी।—सूर (शब्द०)।
⋙ साढ़ी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाल] शाल वृक्ष का गोंद।
⋙ साढ़ी (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाटिका] दे० 'साडी़'।
⋙ साढ़ू
संज्ञा पुं० [सं० श्यालिबोढ़्री] साली का पति। पत्नी की बहन का पति।
⋙ साढ़े
वि० [सं० सार्द्ध] और आधे से युक्त। आधा और के साथ। जैसे,—साढ़े सात।
⋙ साढ़ेचौहारा
संज्ञा पुं० [हिं० साढ़े + चौ (= चार) + हारा (प्रत्य०)] एक प्रकार की बाँट जिसमें फसल का ५।१६ अंश जमींदार को मिलता है और शेष ११।१६ अंश काश्तकार को।
⋙ साढ़ेसाती
संज्ञा स्त्री० [हिं० साढ़े + सात + ई (प्रत्य०)] शनि ग्रह की साढ़े सात वर्ष, साढ़े सात दिन आदि की दशा। विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार शनि ग्रह की साढेसाती का फल बहुत बुरा होता है। मुहा०—साढ़ेसाती आना या चढ़ना = दुर्दशा या विपत्ति के दिन आना।
⋙ साण पु † (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० शान या सं० शाण] शान। गुमान। उ०—भोरे भोरे तन करै षंडै करि कुरवाँण। मिट्टा कौड़ा ना लगै, दादू तौ हू साण।—दादू०, पृ० ६५।
⋙ साण पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शाण] दे० 'सान (१)'। उ०—जन रज्जब गुरु साण परि झूँठी मनतर वारि।—रज्जब०, पृ० ११।
⋙ सात (१)
वि० [सं० सप्त, प्रा० सत्त] पाँच और दो। छह से एक अधिक।
⋙ सात (२)
संज्ञा पुं० पाँच और दो के योग की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—७मुहा०—सात की नाक कटना = परिवार भर की बदनामी होना। सात पाँच = चालाकी। मक्कारी। धूर्तता। जैसे,—वह बेचारा सात पाँच नहीं जानता; सीधा आदमी है। सात धार होकर निकलना = भोजन का बिना पचे पतली दस्त होकर निकलना। सात पाँच करना = (१) बहाना करना। (२) झगड़ा करना। उपद्रव करना। (३) चालबाजी करना। धूर्तता करना। सात परदे में रखना = (१) अच्छी तरह छिपा कर रखना। (२) बहुत सँभालकर रखना। सातवें आसमान पर चढ़ना = बहुत घमंडी बनना। अत्याधिक अभिमान दिखाना। उ०—मिसेज रालिंसन तो जैसे सातवैं आसमान पर चढ़ गई।—जिप्सी, पृ० १६९। सात समुद्र पार = बहुत दूर। उ०—सात समुद्र पार, सहस्रों कोस की दूरी पर बैठे।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७२। सात सलाम पु = अनेकानेक प्रणाम। अत्यंत विनीतता। उ०—पंथी एक सँदेसड़उ कहिज्यउ सात सलाम।—ढोला०, दू० १३६। सातों भूल जाना = होश हवाश चला जाना। इंद्रियों का काम न करना (पाँच इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ये सब मिलकर सात हुए)। सात रा्जाओं की साक्षी देना = बहुत दृढ़तापूर्वक कोई बात कहना। किसी बात की सत्यता पर बहुत जोर देना। उ०—मनसि बचन अरु कर्मना कछु कहति नाहिन राखि। सूर प्रभु यह बोल हिरदय सात राजा साखि।—सूर (शब्द०)। सात सींकें बनाना = शिशु के जन्म के छठें दिन की एक रीति जिसमें सात सींके रखी जाती है। उ०—साथिये बनाइकै देहि द्वारे सात सींक बनाय। नव किसोरी मुदित ह्नै ह्नै गहति यशुदाजी के पायँ।—सूर (शब्द०)।
⋙ सात पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० शान्त] साहित्य शास्त्र में वर्णित रसों में से ९ वाँ रस। विशेष—दे० 'शांत'। उ०—बीभछ अरिन समूह, सात उप्पनौ मरन भय।—पृ० रा०, २५।५०१।
⋙ सात (४)
वि० [सं०] १. प्रदत्त। दिया हुआ। २. नष्ट। ध्वस्त [को०]।
⋙ सात (५)
संज्ञा पुं० [सं०] आनंद। प्रसन्नता [को०]।
⋙ सातक पु (१)
वि० [सं० सात्विक] दे० 'सात्विक'। उ०—राजस तामस सातक माया।—प्राण०, पृ० ५९।
⋙ सातक (२)
वि० [सं० सप्त, हिं० सात + क (प्रत्य०) या एक] लगभग सात। जो सात की संख्या के आस पास हो। उ०—साथ किरात छ सातक दीन्हें। मुनिवर तुरत बिदा चर कीन्हें।—मानस, २।२७१। यौ०—छ सातक = दे० 'सातक (२)'।
⋙ सातगी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सादगी] सात्विकता। सादगी। उ०— दादू माया का गुण बल करै आपा उपजै आइ। राजस् तामस सातगी, मन चंचल ह्नै जाइ।—दादू०, पृ० ४१६।
⋙ सातत्य
संज्ञा पुं० [सं०] सततता। नैरंतर्य। स्थायी रूप से चलते रहने की स्थिति [को०]।
⋙ सातपूती
संज्ञा स्त्री० [हिं० सात + पूती] दे० 'सतपुतिया'।
⋙ सातफेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० सात + फेरी] विवाह की भाँवर नामक रीति जिसमें वर और वधू अग्नि की सात बार परिक्रमा करते हैं। सप्तपदी।
⋙ सातभाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० सात + भाई] दे० 'सतभइया'।
⋙ सातम पु
वि० [सं० सप्तम] दे० 'सातवाँ'। उ०—छउ सातम दिन आवीयो। निहचइ औलगि चालणहार।—बी० रासो, पृ० ४९।
⋙ सातमइ पु
वि० [हिं० सातम + इ] दे० 'सातवाँ'। उ०— घाट दुर्घट ते लाँघीय़ा। सातमइ मास पहुंतह हो जाई।— बी० रासो, पृ० ७९।
⋙ सातला
संज्ञा पुं० [सं० सप्तला, सातला] एक प्रकार का थूहर जिसका दूध पीले रंग का होता है। सप्तला। भूरिफेना। स्वर्णपुष्पी। विशेष—शालग्राम निघंटु में लिखा है कि यह एक प्रकार की बेल है जो जंगलों में पाई जाती है। इसके पत्ते खैर के पत्तों की भाँति और फूल पीले होते हैं। इसमें पतली चिप्टी फली लगती है जिसे सीकाकाई कहते हैं। इसके बीज काले होते हैं जिनमें पीले रंग का दूध निकलता है। परंतु इंडियन मेडिकल प्लांट्स के अनुसार यह क्षुप जाति की वनस्पति है। इसकी डाल एक से तीन फुट तक लंबी होती है जिसमें रोएँ होते हैं। इसके पत्ते एक इंच लंबे और चौथाई इंच चौड़े अंडाकार अनीदार होते हैं। डाल के अत में बारीक फूलों के धने गुच्छे लगते हैं जो लाल रंग के होते हैं। फल चिकने और छोटे होते हैं। यह वनस्पति सुगंधयुक्त होती है। इसका तेल सुगंधित और उत्तेजक होता है जो मिरगी रोग में काम आता है।
⋙ सातवाँ
वि० [हिं० सात + वाँ (प्रत्य०)] जो क्रम से सात पर हो। सात की संख्यावाला। छह के बाद पड़नेवाली संख्या से संबंधित। उ०—दूसरे तीसरे पाँचयें सातयें आठवें तो भला आइवो कीजिए।—ठाकुर श०, पृ० २।
⋙ सातवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] शालिवाहन नरेश का नाम।
⋙ सातसंख पु
संज्ञा पुं० [हिं० सात + संख] सात शंख की एक माप। (संत०)। उ०—सात संख तिनकी ऊँचाई।—कबीर० श०, पृ० ७२।
⋙ सातसूत पु
संज्ञा पुं० [हिं० सात + सूत] सात प्रकार की वायु। (संत०)। उ०—सात सूत दे गंड बहतरि, पाट लगी अधिकाई। कबीर ग्रं०, पृ० १५३।
⋙ साति पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शास्ति] शासन। दंड।
⋙ साति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देना। दान। भेंट। २. प्राप्ति। उपलब्धि। ३. मदद। सहायता। ४. विनाश। बरबादी। ५. अंत। निष्कर्ष। ६. तेज दर्द। तीव्र पीड़ा। ७. विराम। ठहराव। ८. संपत्ति। धन [को०]।
⋙ सातिक, सातिग पु
[सं० सात्विक] दे० 'सात्विक'। उ०— राजस करि उत्पति करै, सातिक करि प्रतिपाल।—दादू० पृ० ४५७।
⋙ सातिना
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य के अनुसार एक प्रकार का काली किस्म का चमड़ा।
⋙ सातिया
संज्ञा पुं० [सं० स्वस्तिक] दे० 'सथिया'।
⋙ सातिशय
वि० [सं०] अत्यंत। अत्यधिक। बहुत ज्यादा।
⋙ साती (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] साँप काटने की एक प्रकार की चिकित्सा जिसमें साँप के काटे हुए स्थान को चीरकर उसपर नमक या बारूद मलते हैं।
⋙ साती पु †
क्रि० वि० [हिं० साथ + ही = साथी] साथ ही साथ। उ०—चंदन के साती लिंब हुआ चंदन। क्यों कर रोवे देख ए हिंगन।—दक्खिनी०, पृ० २२।
⋙ सातीन, सातीनक, सातीलक
संज्ञा पुं० [सं०] मटर [को०]।
⋙ सातुक, सातुक्क पु
संज्ञा पुं० [सं० सात्विक] दे० 'सात्विक'। उ०— (क) बंसी सुर संभरयौ हरयौ गोपी सु चित्त सुर। कछुव करयौ कछु करयौ गए सातुक सुभाव गुर।-पृ० रा०, २।३३७। (ख) सजे तामस राज सातुक्क तर्ज्ज।-पृ० रा०, २५।५५३।
⋙ सातुवंती पु
वि० स्त्री० [सं० सत्ववती] सत्व गुण से युक्त। सत्ववती। उ०—तुही राजसं तामसं सातुवंती। तुही आहित हित्त चित्तं चरंती।—पृ० रा०, ६१।६९५।
⋙ सात्त्व
वि० [सं०] सातोगुणी। सत्व गुण संबंधी [को०]।
⋙ सातत्त्विक
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सात्विक'।
⋙ सात्त्विकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सात्विकी'।
⋙ सात्म
वि० [सं० सात्मन्] आत्मयुक्त। अपने से युक्त [को०]।
⋙ सात्मक
वि० [सं०] आत्मा के सहित। आत्मायुक्त।
⋙ सात्मीकृत
वि० [सं०] अभ्यस्त। आदी [को०]।
⋙ सात्मीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] जनकत्व। कारणत्व [को०]।
⋙ सात्म्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सारूप्य। सरूपता। २. वैद्यक के अनुसार वह रस जिसके सेवन से शरीर का किसी प्रकार का उपकार होता हो और जिसके फलस्वरूप प्रकृतिविरुद्ध कोई कार्य करने पर भई शरीर का अनिष्ट न होता हो। ३. ऋतु, काल, देश आदि के अनुकूल पड़नेवाला आहार विहार आदि। ४. अनुकूलता (को०)। ५. आदत। स्वभाव (को०)।
⋙ सात्म्य (२)
वि० अनुकूल। रुचिकर [को०]।
⋙ सात्यकि
संज्ञा पुं० [सं०] एक यादव जिसका दूसरा नाम युयुधान था। विशेष—सात्यकि के पिता का नाम सत्यक था। सात्यकि का कृष्ण के सारथी के रूप में भी उल्लेख है। महाभारत के युद्ध में इसने पांडवों का पक्ष लिया था। और इसने कौरवपक्षीय भूरिश्रवा को मारा था। श्रीकृष्ण और अर्जुन से इसने शास्त्रविद्या सीखी थी । यादवों के पारस्परिक मुशल युद्ध में यह मारा गया था।
⋙ सात्यकी
संज्ञा पुं० [सं० सात्यकि] दे० 'सात्यकि'।
⋙ सात्यदूत
संज्ञा पुं० [सं०] वह होम जो सरस्वती आदि देवियों या देवताओं के उद्देश्य से किया जाय।
⋙ सात्ययज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक आचार्य का नाम।
⋙ सात्यरथि
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सत्यरथ के वंश में उत्पन्न हुआ हो।
⋙ सात्यवत
संज्ञा पुं० [सं०] सत्यवती के पुत्र वेदव्यास।
⋙ सात्यवतेय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सात्यवत'।
⋙ सात्यहव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वशिष्ठ के वंश के एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ सात्रव
संज्ञा पुं० [?] गंधक।
⋙ सात्नाजित
संज्ञा पुं० [सं०] राजा शतानीक जो सत्नाजित के वंशज थे।
⋙ साञाजिती
संज्ञा स्ञी० [सं०] सत्यभामा का एक नाम।
⋙ सात्व
वि० [सं० सात्त्व] सत्व गुण संबंधी। सात्विक।
⋙ सात्वत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बलराम। २. श्रीकृष्ण। ३. विष्णु। ४. यदुवंशी। यादव। ५. मनुसंहिता के अनुसार एक वर्ण संकर जाति। जातिच्युत वैश्य और त्यक्त क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न संतान। ६. सात्वत के अनुयायी। वैष्णव (को०)। ७. एक प्राचीन देश का नाम।
⋙ सात्वत (२)
वि० १. सात्वत अर्थात् विष्णु से संबंधित। वैष्णव। २. भक्त। ३. पांचरात्र से संबंधित [को०]।
⋙ सात्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शिशुपाल की माता का नाम। २. दे० 'सात्वती वृत्ति' (को०)। ३. सुभद्रा का एक नाम। यौ०—सात्वतीपुत्र, सात्वतीसूनु = शिशुपाल।
⋙ सात्वतीवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्य के अनुसार चार नाटकीय वृत्तियों में से एक प्रकार की वृत्ति। विशेष—इसका व्यवहार वीर, रौद्र, अद्भुत और शांत रसों में होता है। यह वृत्ति उस समय मानी जाती है जब कि नायक द्वारा ऐसे सुंदर और आनंदवर्धक वाक्यों का प्रयोग होता है, जिनसे उसकी शूरता, दानशीलता, दाक्षिण्य आदि गुण प्रकट होते हैं।
⋙ सात्विक (१)
वि० [सं० सात्त्विक] १. सत्वगुण से संबंध रखनेवाला। सतोगुणी। २. जिसमें सत्वगुण की प्रधानता हो। ३. सत्व गुण से उत्पन्न। ४. वास्तविक। यथार्थ। ५. सत्य। स्वाभाविक (को०)। ६. ईमानदार। सच्चा (को०)। ७. गुणयुक्त (को०)। ८. शक्तिशाली। ओजपूर्ण (को०)। ९. आंतरिक भावना से प्रेरित (को०)।
⋙ सात्विक (२)
संज्ञा पुं० १. सतोगुण से उत्पन्न होनेवाले निसर्गजात अंगविकार। ये आठ प्रकार के होते हैं,—स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कंप, वैवर्ण अश्रु और प्रलय। विशेष—केशव के अनुसार आठवाँ प्रलय नहीं प्रलाप होता है। २. साहित्य के अनुसार एक प्रकार की वृत्ति जिसका व्यवहार अद्भुत, वीर, शृंगार और शांत रसों में होता है। सात्वती वृत्ति। ३. ब्रह्मा। ४. विष्णु। ५. चार प्रकार के अभिनयों में से एक। सात्विक भावों को प्रदर्शित करके, हँसने, रोने, स्तंभ और रोमांच आदि के द्वारा अभिनय करना। ६. ब्राह्मण (को०)। ७. शरद् ऋतु की रात्रि (को०)। ८. बिना जल के दी जानेवाली आहुति या बलि (को०)।
⋙ सात्विकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० सात्त्विकी] दुर्गा का एक नाम।
⋙ सात्विकी (२)
वि० स्त्री० सत्व गुण संबंधी। सत्व गुण से संबंध रखनेवाली। सत्वगुण की।
⋙ साथ (१)
संज्ञा पुं० [सं० सह या सहित, पु० हिं० सथ्थ] १. मिलकर या संग रहने का भाव। संगत। सहचार। क्रि० प्र०—करना।—रहना।—लगना।—होना। मुहा०—साथ छूटना = संग छूटना। अलग होना। जुदा होना। साथ देना = किसी काम में सग रहना। सहानुभूति करना या सहायता देना। जैसे,—इस काम में हम तुम्हारा साथ देगे। साथ निबहना = साथ साथ या मेल जोल के साथ समय बीतना। साथ लगना = किसी कार्य में शरीक होना। किसी का साथ पकड़ना। साथ लगाना = किसी कार्य में सम्मिलित करना। साथ करना। साथ लेकर डूबना = अपना नुकसान करने के साथ साथ दूसरे का भी नुकसान करना। साथ लेना = अपने संग रखना या ले चलना। जैसे,—जब तुम चलने लगना तो हमें भी साथ ले लेना। साथ सोना = समागम करना। संभोग करना। साथ सोकर मुँह छिपाना = बहुत अधिक धनिष्टता होने पर भी संकोच या दुराव करना। साथ का या साथ को = तरकारी, भाजी आदि जो रोटी के साथ खाई जाती है। साथ का खेला = बाल्यावस्था का मित्र। बचपन का साथी। साथ होना = मेलजोल होना। मित्रता होना। २. वह जो संग रहता हो। बराबर पास रहनेवाला। साथी। संगी। ३. मेल मिलाप। घनिष्टता। जैसे,—आजकल उन दोनों का बहुत साथ है। ४. कबूतरों का झुंड या टुकड़ी। (लखनऊ)।
⋙ साथ (२)
अव्य० १. एक संबंधसूचक अव्यय जिससे प्रायः सहचार का बोध होता है। सहित। से। जैसे,—(क) तुम भी साथ चले जाओ। (ख) वह बड़े आराम के साथ काम करता है। महा०—साथ में घसीटना किसी की इच्छा के विरुद्ध उसकी किसी कार्य में संमिलित करना। साथ ही = सिवा। आतिरिक्त। जैसे,—साथ ही यह भी एक बात है कि आप वहाँ नहीं जा सकेगे। साथ ही साथ = एक साथ। एक सिलसिले में। जैसे,— साथ ही साथ दोहराते भी चलो। एक साथ = एक सिलसिले में जैसे,—(क) एक साथ दोनो काम हो जायँगे। (ख) जब एक साथ इतने आदमी पहुँचेंगे तो वे घबरा जायँगे। २. विरुद्ध। से। जैसे,—सबके साथ लड़ना ठीक नहीं। ३. प्रति। से। जैसे,—(क) उनके साथ हँसी मजाक मत किया करो। (ख) बड़ों के साथ शिष्टतापूर्वक व्यवहार किया करो। ४. द्वारा। उ०—नखन साथ तव उदर बिदारयो।—सूर (शब्द०)।
⋙ साथरा †
संज्ञा पुं० [सं० संस्तरण] [स्त्री० साथरी] १. बिछौना। बिस्तर। २. चटाई। ३. कुश की बनी चटाई। उ०—रघुपति चद्र विचार करयो। नातो मानि सगर सागर सों कुश साथरे परयो।—सूर (शब्द्०)।
⋙ साथरी
संज्ञा स्त्री० [सं० संस्तरण] दे० 'साथरा'।
⋙ साथिया पु
संज्ञा पुं० [सं० स्वस्तिक] दे० 'सथिया'। उ०—(क) साथिये बनाइ कै देहि द्वारे सात सीक बनाय।—सूर (शब्द०)। (ख) मंगल सदन चारि साथिये इन तरें जुत जंदु फल चारि तकि सुख करौं हौं।—घनानंद, पृ० ३५२।
⋙ साथी
संज्ञा पुं० [हिं० साथ + ई (प्रत्य०)] [स्त्री० साथिन] १. वह जो साथ रहता हो। साथ रहनेवाला। हमराही। संगी। २. दोस्त। मित्र। ३. सहायक। सहकारी। सहयोगी।
⋙ साद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. डुबना। तल में बैठना। २. थकान। क्लांति। ३. पतलापन। तन्वंगता। तनुता। ४. नष्ट होना। विनाश। ५. पीड़ा। व्यथा। ६. स्वच्छता। पवित्रता। ७. गति। गमन। गतिशीलता [को०]।
⋙ साद पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० शब्द, प्रा० सद्द] दे० 'शब्द'। उ०—सिथल पुकारी साद सुणीजै, कीजै हो हरि ! बाहर कीजै।—रघु० रू०, पृ० १३५।
⋙ सादक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'सदका'-३।
⋙ सादगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. सादा होने का भाव। सादापन। सरलता। २. सीधापन। निष्कपटता।
⋙ सादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. थकान। क्लांति। २. विनाश। बरबादी। ३. भवन। निवासस्थान। ४. पात्र। स्थाली (को०)। ५. क्लांत करना। थकाना (को०)। ६. पात्र आदि व्यवस्थित करना (को०)।
⋙ सादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. थकान। क्लांति। २. बरबादी। विनाश। ३. कुटकी नामक पौधा [को०]।
⋙ सादर पु
वि० [सं०] आदरपूर्वक। आदर के साथ। उ०—सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी।—मानस, १।३८।
⋙ सादव
वि० [सं० स + द्रव या सत् + रव] सद्रव। जलयुक्त। उ०— जल जंगल महिय गान सूझत दादुर मोर रोर घन सादव। जदपि मघो मेघ झरि मंडि बुझि विरह विरह विकल विन कादव।—अकबरी०, पृ० ३१७।
⋙ सादा
वि० [फा़० सादह्] [वि० स्त्री० सादी] १. जिसकी बनावट आदि बहुत संक्षिप्त हो। जिसमें बहुत अंग उपांग, पेच या बखेड़े आदि न हों। जैसे,—चरखा सूत कातने का सबसे सादा यंत्र है। २. जिसके उपर कोई अतिरिक्त काम न बना हो। जैसे,—सादा दुपट्टा, सादी जिल्द, सादा, खिलौना। ३. जिसमें किसी विशेष प्रकार का मिश्रण न हो। बिना मिलावट का। खालिस। जैसे,—सादा पानी या सादी भाँग (जिसमें चीनी आदि न मिली हो); सादी पूरी (जिसमें पीठी आदि न भरी हो); सादा भोजन (जिसमें अधिक मसाले या भेद आदि न हों)। ४. जिसके ऊपर कुछ अंकित न हो। जैसे,—सादा कागज, सादा किनारा (जिसमें बेल बूटे आदि न बने हों)। ५. जिसके उपर कोई रंग न हो। सफेद। जैसे,—सादे किनारे की धोती। ६. जो कुछ छल कपट न जानता हो। जिसमें किसी प्रकार का आडंबर या अभिमान आदि न हो। सरल- हृदय। सीधा। जैसे,—वे बहुत ही सादे आदमी हैं। यौ०—सादा कपड़ा = (१) बिना बेलबूटे का कपड़ा। (२) वस्त्र जो रंगीन न हो। सादा कागज = (१) बिना कुछ लिखाहुआ कोरा कागज। (२) कागज जिसपर टिकट या स्टांप न लगा हो। सादाकार। सादादिल = साफ दिल। निष्कपट हृदय। सादापन। सादामिजाज = साफ दिल। सादालोह। सीधासादा = सरल हृदय। ७. बेवकूफ। मूर्ख। (क्व०)। जैसे,—(क) वह सादा क्या जाने कि दर्शन किसे कहते हैं। (ख) यहाँ कौन ऐसा सादा है जो तुम्हारी बात मान ले। ८. सरल। सात्विक। पवित्र। ९. ढोंगरहित। आडंबरहीन। साधारण। जैसे,—सादा जीवन उच्च विचार (लोकोक्ति)।
⋙ सादाकार
वि० [फ़ा०] १. जो सोने चाँदी का काम अच्छा जानता हो। २. सादा और हलका काम बनानेवाला।
⋙ सादकारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] सादाकार या सुनार का काम। सुनारी का पेशा [को०]।
⋙ सादात
संज्ञा पुं० [अ०] १. श्रेष्ठजन। बुजुर्ग या बृद्ध जन। २. सैयद वंश या जाति [को०]।
⋙ सादान पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० शादियानह्] प्रसन्नता या हर्षसूचक वाद्य। जीत का नगाड़ा। उ०—सादान बज्जि रन रज्जि सह, तह सु सध्धरकत करिय। सोमेस सूर चहुआंन सुअ कित्ति चंद छंदह धरिअ।—पृ० रा०, ७।१५९।
⋙ सादापन
संज्ञा पुं० [फ़ा० सादा + पन (प्रत्य०)] सादा होने का भाव। सादगी। सरलता।
⋙ सादालौह
वि० [फ़ा० सादहूलौह] १. छलविहीन। निश्छल। निष्कपट। २. मूर्ख। बुद्धू [को०]।
⋙ सादाशिव
वि० [सं०] सदाशिव से संबंधित [को०]।
⋙ सादि (१)
वि० [सं०] आदि से युक्त। प्रारंभ सहित [को०]।
⋙ सादि (२)
संज्ञा पुं० १. रथ हाँकनेवाला। सारथी। २. वीर। योद्धा। बहादुर। ३. उत्साहहीन या खिन्न व्यक्ति। ४. वायु। पवन [को०]।
⋙ सादिक (१)
वि० [अ० सादिक़] १. सच्चा। सत्यवादी। उ०—सादिक हूँ अपने कौल का गालिब खुदा गवाह। कहता हूँ सच कि झूट की आदत नहीं मुझे।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४५६। २. न्यायपूर्ण। उचित [को०]। ३. वफादार। स्वामिभक्त [को०]।
⋙ सादिक पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० साधक] दे० 'साधक'। उ०—सतगुरु सादिक रमता सादु।—रामानंद०, पृ० ४९।
⋙ सादित
वि० [सं०] १. बैठने के लिये प्रेरित किया हुआ। बैठाया हुआ। २. क्लिन्न। दुःखी। ३. क्लांत। थका हुआ। ४. विनष्ट। बरबाद [को०]।
⋙ सादिर
वि० [अ०] १. निस्तब्ध। २. उद्विग्न। चकित। भ्रांत। ३. चालू होनेवाला। जारी होनेवाला [को०]।
⋙ सादी (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० सादह्] १. लाल की जाति की एक प्रकार की छोटी चिड़िया जिसका शरीर भूरे रंग का होता है और जिसके शरीर पर चित्तियाँ नहीं होतीं। बिना चित्ती की मुनियाँ। सादिया। २. वह पूरी जिसमें पीठी आदि नहीं भरी होती। ३. पतंग उड़ाने की सादी डोर। वह डोर जिसपर माँझा न लगा हो।
⋙ सादी (२)
वि० [सं० सादिन्] १. बैठा हुआ। उपविष्ट। २. नष्ट करनेवाला। विनाशक। ३. सवारी करनेवाला [को०]।
⋙ सादी (३)
संज्ञा पुं० १. घुड़सवार। उ०—दीख पड़ते हैं न सादी आज।—साकेत, पृ० १६८। २. वह जो हाथी पर सवार हो या सवारी में बैठा हो। ३. रथ हाँकनेवाला। सारथी [को०]।
⋙ सादी (४)
संज्ञा पुं० [सं० सादिन्] १. शिकारी। उ०—सहरुज सादी संग सिधारे। शूकर मृगा सबन बहु मारे।—रघुराज (शब्द०)। २. अश्व। घोड़ा। (डिं०)।
⋙ सादी (५)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० शादी] दे० 'शादी'। उ०—कहत कमाली कबीर की बालकी सादी से मैं कुमारी भली सी।—कबीर मं०, पृ० १६४।
⋙ सादी पु (६)
वि० [सं० साधिन्, साधी] साधक। सिद्ध करनेवाला। उ०—अविद्या न विद्या न सिंद्ध न सादी। तुही ए तुही ए तुही एक आदी।—पृ० रा०, २।६८।
⋙ सादीनव
वि० [सं०] पीड़ित। व्यथाग्रस्त [को०]।
⋙ सादु पु
संज्ञा पुं० [सं० साधु] दे० 'साधु'। उ०—सतगुरु सादिक रमता सादु।—रमानंद० पृ० ४९।
⋙ सादुल, सादूल पु
संज्ञा पुं० [सं० शार्दूल] दे० 'शार्दूल'। सिंह।
⋙ सादूर पु
संज्ञा पुं० [सं० शार्दूल] १. शार्दूल। सिंह। उ०—चौथ दीन्ह सावक सादूरू। पाँचौ परस जो कंचन मूरू।—जायसी (शब्द०)। २. कोई हिंसक पशु।
⋙ सादृश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सदृश होने का भाव। समानता। एक- रूपता। २. बराबरी। तुलना। समान धर्म। ३. प्रतिमूर्ति। प्रतिबिंब। ४. कुरंग। मृग।
⋙ सादृश्यता
संज्ञा स्त्री० [सं० सादृश्य + ता] दे० 'सादृश्य'।
⋙ सादृश्यत्व
संज्ञा पुं० [सं० सादृश्य + त्व] सदृश होने का भाव। सादृश्य।
⋙ सादृस पु
संज्ञा पुं० [सं० सादृश्य] सम्मान। तुल्य। उ०—कपोल गोल आदृसं, कि भौंह भौंर सादृसं।—हम्मीर रा०, पृ० २४।
⋙ सादेह पु
क्रि० वि० [सं० स + देह] देह के साथ। सशरीर। उ०— सादेह दीसै संमुख भाई। नाद बिंद बिधि देह बनाई।—घट०, पृ० २५८।
⋙ साद्यंत
वि० [सं० साद्यन्त] पूर्ण। पूरा। संपूर्ण [को०]।
⋙ साद्य
वि० [सं०] नवीन। नया। ताजा [को०]।
⋙ साद्यस्क (१)
वि० [सं०] १. तुरंत होनेवाला। २. तत्काल फल देनेवाला। ३. नया। ताजा [को०]।
⋙ साद्यस्क (२)
संज्ञा पुं० एक विशेष यज्ञ जिसका एक नाम 'साद्यस्क' भी है [को०]।
⋙ साधंत
संज्ञा पुं० [सं० साधन्त] भिखारी। भिक्षुक [को०]।
⋙ साध (१)
संज्ञा पुं० [सं० साधु] १. साधु। महात्मा। उ०—योगेश्वर वह गति नहिं पाई। सिद्ध साध की कौन चलाई।—कबीरसा०, पृ० ८४५। २. योगी। उ०—राजा इंदर का राज डोलाऊँ तो मैं सच्चा साध।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३७९। ३. अच्छा आदमी। सज्जन।
⋙ साध (२)
वि० उत्तम। अच्छा। उ०—अशेष शास्त्र विचार कै जिन जानियों मत साध।—केशव (शब्द०)।
⋙ साध (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्साह] १. इच्छा। ख्वाहिश। कामना। उ०—जेह अस साध होई जिव खोवा। सो पतंग दीपक अस रोवा।—जायसी (शब्द०)। २. गर्भ धारण करने के सातवें मास में होनेवाला एक प्रकार का उत्सव। इस अवसर पर स्त्री के मायके से मिठाई आदि आती है।
⋙ साध (४)
संज्ञा पुं० फर्रुखाबाद और कन्नौज के आस पास पाई जानेवाली एक जाति। विशेष—इस जाति के लोग मूर्तिपूजा आदि नहीं करते, किसी के सामने सिर नहीं झुकाते और केवल एक परमात्मा की ही आराधना करते हैं।
⋙ साधक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधना करनेवाला। साधनेवाला। सिद्ध करनेवाला। २. योगी। तप करनेवाला। तपस्वी। ३. जिससे कोई कार्य सिद्ध हो। करण। वसीला। जरिया। ४. भूत प्रेत को साधने या अपने वश में करनेवाला। ओझा। ५. वह जो किसी दूसरे के स्वार्थसाधन में सहायक हो। जैसे,—दोनों सिद्ध साधक बनकर आए थे । ६. पुत्रजीव वृक्ष। ७. दौना। ८. पित्त। उ०—आलोचक, रंजक, साधक, पाचक, भ्राजक इन भेदों से पित्त पाँच प्रकार का है।—माधव०, पृ० ५८।
⋙ साधक (२)
वि० [स्त्री० साधका, साधिका] १. पूरा करनेवाला। २. कुशल। ३. प्रभावशील। ४. चमत्कारिक। ऐंद्रजालिक। ५. सहयोगी। सहायक। ६. निष्कर्षात्मक [को०]।
⋙ साधकता
संज्ञा स्त्री० [सं० साधक + ता (प्रत्य०)] १. साधक होने का भाव। २. उपयुक्ता। औचित्य। ३. उपयोगिता [को०]।
⋙ साधकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] साधक होने का भाव या स्थिति साधकता। उ०—साथ ही उक्ति के अलौकिक सुख साधकत्व को लेकर हम इसे चाहें तो अलौकिक विज्ञान भी कह सकते हैं।—शैली, पृ० २७।
⋙ साधकवर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] साधक की बत्ती। ऐंद्रजालिक बत्ती या पलीता [को०]।
⋙ साधका
संज्ञा [सं०] दुर्गा का एक नाम जिसे स्मरण करने से सब कार्यों की सिद्धी होती है।
⋙ साधन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी काम को सिद्ध करने की क्रिया। सिद्धि। विधान। २. वह जिसके द्वारा कोई उपाय सिद्ध हो। सामग्री। सामान। उपकरण। जैसे,—साधन के अभाव में मैं यह काम न कर सका। ३. उपाय। युक्ति। हिकमत। ४. उपासना। साधना। ५. सहायता। मदद। ६. धातुओं के शोधने की क्रिया। शोधन। ७. कारण। हेतु। सबब। ८. अचार। संधान। ९. मृतक का अग्निसंस्कार। दाह कर्म। १०. जाना। गमन। ११. धन। दौलत। द्रव्य। १२. पदार्थ। चीज। १३. घोड़े, हाथी और सैनिक आदि जिनकी सहायता से युद्ध होता है। १४. उपाय। तरकीब। १५. सिद्धि। १६. प्रमाण। १७. तपस्या आदि के द्वारा मंत्र सिद्ध करना। साधना। १८. यंत्र (को०)। १९. दमन करना। जीत लेना (को०)। २०. वशीकरण (को०)। २१. वसूली का आदेश प्राप्त कर द्रव्य, वस्तु, ऋण आदि को वसूल करना (को०)। २२. मारण। बध। विनाश (को०)। २३. व्याकरण में करण कारक (को०)। २४. मोक्ष या मुक्ति पाना (को०)। २५. लिंगेंद्रिय। शिश्न (को०)। २६. शरीर की इंद्रियाँ या अंग (को०)। २७. कुच। स्तन (को०)। २८. प्राप्ति। लाभ (को०)। २९. गणना। संगणना (को०)। ३०. बाद में जाना। अनुगमन (को०)। ३१. मैत्री। मित्रता (को०)। ३२. अधिकार में करना या लेना (को०)। ३३. तैयार करना। तैयारी (को०)। ३४. नीरोग या स्वस्थ करना (को०)। ३५. तुष्ट करना (को०)।
⋙ साधन (२)
वि० १. पूरा करनेवाला। २. प्राप्त करनेवाला। ३. प्रेतादि आत्माओं को बुलाने या वशीभूत करनेवाला। ४. अभि- व्यंजक [को०]।
⋙ साधनक
संज्ञा पुं० [सं०] साधन। उपकरण [को०]।
⋙ साधनक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समापिका क्रिया। २. कारक से संबंधित क्रिया (को०)।
⋙ साधनक्षम
वि० [सं०] जिसके लिये प्रमाण दिया जा सके [को०]।
⋙ साधनचतुष्टय
संज्ञा पुं० [सं०] चार तरह के प्रमाण [को०]।
⋙ साधनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साधन का भाव या धर्म। २. साधन करने की क्रिया। साधना। उ०—कहि आचार भक्त विध भाषी हंस धर्म प्रकटायी। कही विभूति सिद्ध साधनता आश्रम चार कहायो।—सूर (शब्द०)। ३. सिद्धि प्राप्ति की अवस्था (को०)।
⋙ साधनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'साधनता'।
⋙ साधननिर्देश
संज्ञा पुं० [सं०] प्रमाण उपस्थित करना। हेतु का प्रस्तुतीकरण [को०]।
⋙ साधनपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्रमाणरूप में प्रस्तुत या उपस्थित किया हुआ लेख, पत्र आदि [को०]।
⋙ साधनहार पु
संज्ञा पुं० [सं० साधन + हिं० हार (प्रत्य०)] १. साधनेवाला। जो सिद्ध करता हो। २. जो साधा जा सके। सिद्ध होने के योग्य।
⋙ साधना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कोई कार्य सिद्ध या संपन्न करने की क्रिया। सिद्धि। २. किसी देवता या यंत्र आदि को सिद्ध करने के लिये उसकी आराधना या उपासना करना। ३. दे० 'साधन'।
⋙ साधना (२)
क्रि० स० [सं० साधन] १. (कोई कार्य) सिद्ध करना। पूरा करना। उ०—आसन साधि पवन पुनि पीवै। कोटि बरस लगि काहिं न जीवै।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३३७। २. निशाना लगाना। संधान करना। जैसे,—लक्ष्य साधना।३. नापना। पैमाइश करना। जैसे,—लकड़ी साधना, टोपी साधना। ४. अभ्यास करना। आदत डालना। स्वभाव डालना। जैसे,—योग साधना, तप साधना। उ०—जब लगि पीउ मिले तुहि साधि प्रेम की पीर। जैसे सीप स्वाति कहँ तपै समुँद मँझ नीर।—जायसी (शब्द०)। ५. शोधना। शुद्ध करना। ६. सच्चा प्रमाणित करना। ७. पक्का करना। ठहराना। ८. एकत्र करना। इकट्ठा करना। उ०—वैदिक विधान अनेक लौकिक आचरन सुनि जान कै। बलिदान पूजा मूल कामनि साधि राखी आनि कै।—तुलसी (शब्द०)। ९. अपनी ओर मिलाना या काबू में करना। वश में करना। उ०—गाधिराज को पुत्र साधि सब मित्र शत्रु बल।—केशव (शब्द०)।
⋙ साधनी
संज्ञा स्त्री० [सं० साधन] लोहे या लकड़ी का एक प्रकार का लंबा औजार जिससे जमीन चौरस करते हैं।
⋙ साधनीय
वि० [सं०] १. साधना करने के योग्य। साधने या सिद्ध करने लायक। २. जो हो सके। जो साधा जा सके। ३. उपयोगी। ४. प्राप्त। अर्जन या प्राप्त करने योग्य। जैसे,—ज्ञान। ५. निर्माण या रचना करने योग्य। जैसे,—शब्द (को०)।
⋙ साधयंत
संज्ञा पुं० [सं० साधयत्] भिक्षुक। भिखारी [को०]।
⋙ साधयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० साधयतीन्ती] सादना करनेवाली उपासिका। आराधिका [को०]।
⋙ साधयितव्य
वि० [सं०] साधन करने के योग्य। साधने या सिद्ध करने लायक।
⋙ साधयिता
संज्ञा पुं० [सं० साधयितृ] वह जो साधन करता हो। साधन करनेवाला। साधक।
⋙ साधर्मिक
वि० [सं०] साधर्म्य या समान धर्म का अनुकरण करनेवाला [को०]।
⋙ साधर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] समान धर्म होने का भाव। एकधर्मता। समानधर्मता। तुल्यधर्मता। इन दोनों में कुछ भी साधर्म्य नहीं है। उ०—मनुष्यों के रूप, व्यापार या मनोवृत्तियों के सादृश्य, साधर्म्य की दृष्टि से जो प्राकतिक वस्तु व्यापार आदि लाए जाते हैं, उनका स्थान गौण ही समझना चाहिए।—रस०, पृ० ९।
⋙ साधवा पु
संज्ञा पुं० [सं० साधु का बहुवचन साधव?] १. साधना करनेवाला। साधक। २. सत् जन। साधु जन।—दादू० पृ० १।
⋙ साधवी पु
वि० स्त्री० [सं० साध्वी] दे० 'साध्वी'-१। उ०—साधवी सीय भगनी प्रिथा प्रथा बरन चित्रंग पर। इन सम न कोइ भुवनह भयौ न न ह्नैहै रवि चक्क तर।—पृ० रा०, २९।२१४।
⋙ साधस पु
संज्ञा पुं० [सं० साध्वस] दे० 'साध्वस'।
⋙ साधा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० साध] अभिलाषा। साध। उत्कंठा।
⋙ साधार
वि० [सं०] १. आधार सहित। जिसका कुछ आधार हो। २. जो किसी के सहारे टिका हो [को०]।
⋙ साधारण (१)
वि० [सं०] १. जिसमें कोई विशेषता न हो। मामूली। सामान्य। जैसे—साधारण बात, साधारण काम, साधारण उपाय। २. आसान। सरल। सहज। ३. सार्वजनिक। आम। ४. समान। सदृश। तुल्य। ५. मिश्रित। घुलामिला (को०)। ६. तर्कशास्त्र में एकाधिक से संबद्ध। पक्षाभास (को०)। ७. मध्यवर्ती स्तान ग्रहण करनेवाला (को०)।
⋙ साधारण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] भाव प्रकाश के अनुसार वह प्रदेश जहाँ जंगल अधिक हों, पानी अधिक हो, रोग अधिक हों और जाड़ा तथा गरमी भी अधिक पड़ती हो। २. ऐसे देश का जल। ३. सामान्य या सार्वजनिक नियम (को०)। ४. जातिगत या वर्गीय गुण (को०)। ५. एक संवत्सर (को०)।
⋙ साधारणगांधार
संज्ञा पुं० [सं० साधारण गान्धार] एक प्रकार का विकृत स्वर जो वज्रिका नामक श्रुति से आरंभ होता है। इसमें तीन प्रकार की श्रुतियाँ होती हैं।
⋙ साधारणतः
अव्य० [सं०] १. मामूली तौर पर। आम तौर पर। सामान्यतः। २. बहुधा। प्रायः।
⋙ साधारणतया
अव्य० [सं०] दे० 'साधारणतः'।
⋙ साधारणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साधारण होने का भाव या धर्म। मामूलीपन। २. सर्वसामान्य या साधारण हित (को०)।
⋙ साधारणत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'साधारणता'।
⋙ साधारण देश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का देश। दे० 'साधारण'।
⋙ साधारणधन
संज्ञा पुं० [सं०] संयुक्त सपत्ति [को०]।
⋙ साधारण धर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह धर्म जो सबके लिये हो। सार्वजनिक धर्म। विशेष—मनु के अनुसार अहिंसा, सत्य अस्तेय, शौच, इंद्रिय- निग्रह, दम, क्षमा, आर्जव, दान ये दस साधारण धर्म हैं। २. वह धर्म जो साधारणतः एक ही प्रकार के सब पदार्थो में पाया जाय। ३. चारों वर्णों के कर्तव्य कर्म। प्रजनन। संतानोत्पादन। जनन (को०)।
⋙ साधारणपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐसा दल जिसमें सभी प्रकार के लोग हों। २. वह जो मध्यवर्ती हो [को०]।
⋙ साधारणस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
⋙ साधारणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक अप्सरा का नाम। उ०—ग्रहण कियो नहिं तिन्हैं सुरासुर साधारण जिय जानी। ताते साधारणी नाम तिन लह्यो जगत छबिखानी।—रघुराज (शब्द०)। २. सामान्या। साधारण स्त्री। वेश्या। ३. कुंजी। चाभी। ताली। ४. बाँस की कइन (को०)।
⋙ साधारणीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य के रसविधान में विभावन नामक व्यापार। दे० 'विभावन'।—२।
⋙ साधारणय
संज्ञा पुं० [सं०] साधारण होने का भाव या धर्म। साधारणता। मामूलीपन।
⋙ साधारित
वि० [सं०] जो आधारप्राप्त हो या जिसे आधार प्रदान किया गया हो [को०]।
⋙ साधिक पु
संज्ञा पुं० [सं० साधक] दे० 'साधक'। उ०—सिद्ध बिना न साधिक निपजै ज्यौं घट होइ उज्याला।—रामानंद०, पृ० १३।
⋙ साधिका (१)
वि० स्त्री० [सं०] सिद्ध करनेवाली। जो सिद्ध करे।
⋙ साधिका (२)
संज्ञा स्त्री० गहरी नींद। सषुप्ति।
⋙ साधित
वि० [सं०] १. सिद्ध किया हुआ। जो सिद्ध किया गया हो। जो साधा गया हो। २. जिसे किसी प्रकार का दंड दिया गया हो। ३. शूद्ध किया हुआ। शोधित। ४. जिसका नाश किया गया हो। ५. ऋण आदि जो चुकाया गया हो। ६. छोड़ा हुआ। प्रक्षिप्त। ७. विजित। पराभूत। ८. प्रयोग द्वारा प्रमाणित या प्रदर्शित। ९. प्राप्त (को०)।
⋙ साधिमा
संज्ञा पुं० [सं० साधिमन्] अच्छापन। उत्तमता [को०]।
⋙ साधिवास
वि० [सं०] सुगंधित। सुगंधयुक्त [को०]।
⋙ साधिष्ठ
वि० [सं०] १. अत्यंत समीचीन या उत्तम। उत्कृष्टतम। २. बहुत मजबूत। आडिग। कठोर [को०]।
⋙ साधी
वि० [सं० साधिन्] साधने या सिद्ध करनेवाला [को०]।
⋙ साधीय
वि० [सं० साधीयस्] १. उत्कृष्टतर। २. बलबत्तर। अधिक बली। ३. औचित्यतर। सुंदरतर [को०]।
⋙ साधु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसका जन्म उत्तम कुल में हुआ हो। कुलीन। आर्य। २. वह धार्मीक, परोपकारी और सदगुणी पुरुष जो सत्योपदेश द्वारा दूसरों का उपकार करे। धार्मिक पुरुष। परमार्थी। महात्मा। संत। ३. वह जो शांत, सुशील, सदाचारी, वीतराग और परोपकारी हो। भला आदमी। सज्जन। मुहा०—साधु साधु कहना = किसी के कोई अच्छा काम करने पर उसकी बहुत प्रशंसा करना। ४. वह जिसकी साधना पूरी हो गई हो। ५. साधु धर्म का पालन करनेवाला। जैन साधु। ६. दौना नामक पौधा। दमनक। ७. वरुण वृक्ष। ८. जिन। ९. मुनि। १०. वह जो सूद या व्याज से अपनी जीविका चलाता हो। ११. साध। इच्छा। १०. गर्भ के सातवेँ महीने में होनेवाला एक संस्कार। उ०—ए मैं अपुबिस अपुबिस साध पुजाऊँ। लज्जा राखूँ नँनद को।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१९।
⋙ साधु (२)
वि० १. अच्छा। उत्तम। भला। २. सच्चा। ३. प्रशंसनीय। ४. निपूण। होशियार। ५. योग्य। उपयुक्त। ६. उचित। मुनासिब। ७. शुद्ध। सही। शास्त्रीय। ८. दयालु। कृपालु। ९. रुचिकर। अनुकूल। १०. योग्य। खानदानी।
⋙ साधुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कदम। कदंब वृक्ष। २. वरुण वृक्ष।
⋙ साधुकारी
संज्ञा पुं० [सं० साधुकारिन्] वह जो उत्तम कार्य करता हो। अच्छा काम करनेवाला। दक्ष या कुशल व्यक्ति।
⋙ साधुकृत
वि० [सं०] अच्छी तरह किया हुआ [को०]।
⋙ साधुकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. हानी की पूर्ति होना। क्षतिपूर्ति। २. लाभ। प्राप्ति। प्रतिफल [को०]।
⋙ साधुज
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका उत्म जन्म कुल में हुआ हो। कुलीन।
⋙ साधुजात
वि० [सं०] १. सुंदर। खूबसूरत। २. उज्जवल। साफ। स्वच्छ।
⋙ साधुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साधु होने का भाव या धर्म। २. साधुओं का धर्म। साधुओं का आचरण। ३. सज्जनता। भलमनसाहत। उ०—तदपि तुम्हारि साधुता देखी।—मानस, ७।१०९।४. भलाई। नेकी। ५. सीधापन। सिधाई।
⋙ साधुति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० साधु] संग। साथ। उ०—फुर फुर कहत मारु सब कोई। झूठहि झूठा साधुति होई।—कबीर बी० (शिशु०), पृ० १६४।
⋙ साधुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'साधुता'।
⋙ साधुदर्शन
वि० [सं०] १. सुंदर। सुरूप। प्रियदर्शन। २. विचार- युक्त। बिचारपूर्ण [को०]।
⋙ साधुदर्शी
वि० [सं० साधुदर्शिन्] विवेकी [को०]।
⋙ साधुदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सास [को०]।
⋙ साधुधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार साधुओं का धर्म। यतियों का धर्म। विशेष—यह दस प्रकार का कहा गया है—क्षांति, मार्दव, आर्जव भुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिचन और ब्रह्म।
⋙ साधुधी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पत्नी या पति की माता। सास। २. अच्छी बुद्धि (को०)।
⋙ साधुधी (२)
वि० [सं०] मृदु या उत्तम स्वभाव का। दयालु [को०]।
⋙ साधुध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] साधुवाद। वाहवाही। प्रशंसात्मक करतल ध्वनि [को०]।
⋙ साधुपद
संज्ञा पुं० [सं०] सत्पथ। सत् का मार्ग [को०]।
⋙ साधुपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] स्थल कमल। स्थल पद्म।
⋙ साधुफल
वि० [सं०] उत्तम फल देनेवाला [को०]।
⋙ साधुभवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधुओं के रहने की जगह। कुटीर। कुटी। २. मठ।
⋙ साधुभाव
संज्ञा पुं० [सं०] विनम्रता। दयालुता [को०]।
⋙ साधुमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० साधुमन्त्र] प्रभावशाली मंत्र। फलदायक या कारगर मंत्र [को०]।
⋙ साधुमत्
वि० [सं०] १. अच्छा। उत्तम। २. प्रसन्नता या आनंद देनेवाला [को०]।
⋙ साधुमत (१)
वि० [सं०] जिसके विषय में ऊँचे स्तर से विचार किया गया हो। जिसका उच्च स्तर से मूल्यांकन किया गया हो।
⋙ साधुमत पु (२)
संज्ञा पुं० साधुजनों, सत्पुरुषों का विचार या मत। भले आदमियों की राय। उ०—भरतविनय सादर सुनिअ, करिअ, विचारु बहोरि। करब साधुमत, लोकमत, नृपनय निगम निचोरि।—मानस, २।२५७।
⋙ साधुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तांत्रिकों की एक देवी का नाम। २. बौद्धों के अनुसार दसवीं पृथ्वी का नाम।
⋙ साधुमात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उचित या ठीक ठीक परिमाण [को०]।
⋙ साधुम्मन्य
वि० [सं०] अपने को साधु या सज्जन माननेवाला [को०]।
⋙ साधुवाद
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के कोई उत्तम कार्य करने 'साधु साधु' कहकर उसकी प्रशंसा करने का काम।
⋙ सादुवादी
वि० [सं० साधुवादिन्] १. न्यायसंगत बात कहनेवाला। २. प्रशंसक। प्रशंसा करनेवाला।
⋙ साधुवाह
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ा जो अच्छी तरह से सिखाया गया हो। निकाला हुआ घोड़ा। [को०]।
⋙ साधुवाही (१)
वि० [सं० साधुवाहिन्] १. अच्छी तरह वहन करने या (सवारी) आदि खींचनेवाला। २. जिसके पास अच्छी किस्म के शिक्षित अश्व हों [को०]।
⋙ साधुवाही (२)
संज्ञा पुं० दे० 'साधुवाह'।
⋙ साधुवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. कदम का पेड़। कदंब। २. वरुण का वृक्ष।
⋙ साधुवृत्त (१)
वि० [सं०] १. उत्तम स्वभाव और चरित्रवाला। साधु आचरण करनेवाला। २. ठीक वृत्तवाला। खूब गोला।
⋙ साधुवृत्त (२)
संज्ञा पुं० १. साधु एवं सच्चरित्र व्यक्ति। २. सदाचार। दे० 'साधुवृत्ति' [को०]।
⋙ साधुवृत्ति (१)
संजा स्त्री० [सं०] उत्तम और श्रेष्ठ वृत्ति। सदवृत्ति।
⋙ साधुवृत्ति (२)
वि० साधुवृत्त। सदाचारी [को०]।
⋙ साधुशब्द
संज्ञा पुं० [सं०] प्रशंसा। साधुवाद।
⋙ साधुशील
वि० [सं०] सत् स्वभाव का। धर्मात्मा। सत्पुरुष [को०]।
⋙ साधुशुक्ल
वि० [सं०] बिल्कुल सफेद [को०]।
⋙ साधुसमत
वि० [सं० साधुसम्मत] सत्पुरुषों द्वारा मान्य। उ०—सुद्ध सो भएउ साधुसंमत अस। मानस, २।२४७।
⋙ साधुसंसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] सत्संगति [को०]।
⋙ साधुसाधु
अव्य० [सं०] एक पद जिसका व्यवहार किसी के बहुत उत्तम कार्य करने पर किया जाता हैं। धन्य धन्य। वाह वाह। बहुत खूब। उ०—(अ) अस्तुति सुनि मन हर्ष बढ़ायो। साधु साधु कहि सुरनि सुनायो।—सूर (शब्द०)।
⋙ साधु
संज्ञा पुं० [सं० साधु] १. धार्मिक पुरुष। साधु। संत महात्मा। २. सज्जन। भला आदमी। ३. सीधा आदमी। भोला भाला। ४. दे० 'साधु'। उ०—साधू सनमुख नाम से, रन में फिरै न पूठ।—दरिया० बानी, पृ० १२।
⋙ साधुक्त
वि० [सं०] सज्जनों द्वारा कथित [को०]।
⋙ साधृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुकान। २. आतपत्र। छाता। ३. मोरों का झुंड [को०]।
⋙ साधो
संज्ञा पुं० [सं० साधु] धार्मिक पुरुष। संत। साधु।
⋙ साध्य (१)
वि० [सं०] १. सिद्ध करने योग्य। साधनीय। २. जो सिद्ध हो सके। पूरा हो सकने के योग्य। जैसे,—यह कार्य साध्य नहीं जान पड़ता। ३. सहज। सरल। आसान। ४. जो प्रमाणित करना हो। जिसे साबित करना हो। ५. प्रतिकार करने के योग्य। शोधनीय। ६. जानने के योग्य। ७. (चिकित्सा आदि द्वारा) ठीक करने योग्य । चिकित्स्य। उ०—साध्य बीमारी भी दो प्रकार की है।—शार्ङ्गधर०, पृ० ५६। ८. प्राप्त करने योग्य। विजेतव्य (को०)। १०. प्रयोक्तव्य। जो प्रयुक्त करने योग्य हो। ११. विध्वस्त, समाप्त या नष्ट करने योग्य [को०]।
⋙ साध्य (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार के गणदेवता जिनकी संख्या बारह है और जिनके नाम इस प्रकार हैं—मन, मंता, प्राण, नर, अपान, वीर्यवान्, विनिर्भय, नय, दंस, नारायण, वृष और प्रमुंच। शारदीय नवरात्र में इन गणों के पूजन का विधान है। २. देवता। ३. ज्योतिष में विष्कंभ आदि सताइस योगों में से इक्कीसवाँ योग जो बहुत शुभ माना जाता है। विशेष—कहते हैं इस योग मे जो काम किया जाता है, वह भलीभाँति सिद्ध होता है। जो बालक इस योग में जन्म लेता है वह असाध्य कार्य भी सहज में कर लेता है और बहुत वीर, धीर, बुद्धिमान् तथा विनयशील होता है। ४. तंत्र के अनुसार गुरु से लिए जानेवाले चार प्रकार के मंत्रों में से एक प्रकार का मंत्र। ५. न्याय वैशेषिक दर्शन में वह पदार्थ जिसका अनुमान किया जाय। जैसे,—पर्वत से धूआँ निकलता है, अतः वहाँ अग्नि है। इसमें 'अग्नि' साध्य है। ६. कार्य करने की शक्ति। सामर्थ्य। जैसे,—यह काम हमारे साध्य के बाहर है। ७. परिपूर्णता। पूर्ति (को०)। ८. चाँदी (को०)।
⋙ साध्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साध्य का भाव या धर्म। साध्यत्व। शक्यता। २. रोग आदि जो चिकित्सा द्वारा साध्य हो [को०]। ३. न्याय वैशेषिक दर्शन में वह पदार्थधर्म (साध्य का धर्म) जो अनुमान में सद्हेतु द्वारा अनुमेय हो [को०]।
⋙ साध्यपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मुकदमें में पूर्वपक्ष [को०]।
⋙ साध्यर्षि
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ साध्यवसानरूपक
संज्ञा पुं० [सं०] रूपक के ढंग का एक अलंकार जिसमें अध्यवसान केवल मूर्त प्रत्यक्षीकरण के लिये होता है, आतिशय्य की व्यंजना के लिये नहीं। किसी मत या वाद को स्पष्ट करने के लिये की हुई रूप योजना। जैसे,—जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी। फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यह तत कथौ गियानी।—चिंतामणि, भा० २, पृ० ६८।
⋙ साध्यवसाना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'साध्यवसानिका' [को०]।
⋙ साध्यवसानिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्यदर्पण के अनुसार एक प्रकार की लक्षणा।
⋙ साध्यवसाय
वि० [सं०] जिसका अर्थ ऊपर से ग्रहण किया जाय [को०]।
⋙ साध्यवान्
संज्ञा पुं० [सं० साध्यवत्] १. व्यवहार में वह पक्ष जिस पर वाद प्रमाणित करने का भार हो। २. वह जिसमें साध्य या अनुमेय निहित हो [को०]।
⋙ साध्यसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में वह हेतु जिसका साधन साध्य की भाँति करना पड़े। जैसे,—पर्वत से धूआँ निकलता है; अतः वहाँ अग्नि है। इसमें 'पर्वत' पक्ष है, 'धूआँ' हेतु है और 'अग्नि' साध्य है। धूएँ की सहायता से अग्नि का होना प्रमाणितकिया जाता है। परंतु यदि पहले यही प्रमाणित करना पड़े कि धूआँ निकलता है, तो इसे साध्यसन कहेंगे।
⋙ साध्यसाधन
संज्ञा पुं० १. साध्य का साधन। हेतु। २. साध्य और साधन।
⋙ साध्यसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साध्य अर्थात् करणीय की सिद्धि। लक्ष्य की उपलब्धि। २. निष्पत्ति [को०]।
⋙ साध्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ साध्वस
संज्ञा पुं० [सं०] १. भय। डर। २. व्याकुलता। घबराहट। ३. प्रतिभा। ४. निष्क्रियता। जड़ता। जाडय [को०]।
⋙ साध्वसविप्लुत
वि० [सं०] भयभीत। भय से परिपूर्ण [को०]।
⋙ साध्वाचार
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधुओं का सा आचार। २. शिष्टाचार।
⋙ साध्वी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. पतिव्रता। पतिपरायणा (स्त्री)। २. शुद्ध चरित्रवाली (स्त्री)। सच्चरित्रा।
⋙ साध्वी (२)
संज्ञा स्त्री० १. दुग्ध पाषाण। २. मेदा नामक अष्टवर्गीय औषधि।
⋙ सानंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० सानन्द] १. गुच्छकरंज। स्निग्ध दल। २. एक प्रकार की संप्रज्ञात समाधि। ३. संगीत में १६ प्रकार के ध्रुवकों में से एक प्रकार का ध्रुवक जिसका व्यवहार प्रायः वीर रस के वर्णन के लिये होता है।
⋙ सानंद (२)
क्रि० वि० आनंद के साथ। आनंदपूर्वक।
⋙ सानंद (३)
वि० आनंदयुक्त। हर्षित। प्रसन्न।
⋙ सानदनी
संज्ञा स्त्री० [सं० सानन्दनी] पूराणानुसार एक नदी का नाम।
⋙ सानंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० सानन्दा] लक्ष्मी का एक रूप [को०]।
⋙ सानंदाश्रु
संज्ञा पुं० [सं० सानन्दाश्रु] आनंद के आँसू। आनंदानुभूति से उत्पन्न आँसू [को०]।
⋙ सानंदुरी
संज्ञा पुं० [सं० सानन्दुरी] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
⋙ सानंदूर
संज्ञा पुं० [सं० सानन्दूर] वाराहपुराण में उल्लिखित एक तीर्थ विशेष [को०]।
⋙ सान (१)
संज्ञा पुं० [सं० शाण, प्रा० सान; तुल० फ़ा० सान] वह पत्थर की चक्की जिसपर अस्त्रादि तेज किए जाते हैं। शाण। कुरंड। उ०—तेज के प्रताप गात कच्छहू लखात नीको दीपत चढ़ायो सान हीरा जिमी छीनो है।—शकुंतला०, पृ० ११०। मुहा०—सान चढ़ाना, सान देना = धार तीक्ष्ण करना। धार तेज करना। सान धरना = अस्त्र तेज करना। चोखा करना।
⋙ सान (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० शान] दे० 'शान'। उ०—कै सुलतान की सान रहै कै हमीर हठी की रहै हठ गाढ़ी।—हम्मीर०, पृ० १९।
⋙ सानक
वि० [अ०] समान। तुल्य। उ०—जिनके अंगे चान सूरज भीक के सानक हैं दो। ऐसे ऐसे आफताबों को उठा लाती हूँ मैं।—दक्खिनी०, पृ० २९५।
⋙ सानना † (१)
क्रि० स० [हिं० सनना का सक० रूप] १. दो वस्तुओं को आपस में मिलाना; विशेषतः चूर्ण आदि को तरल पदार्थ में मिलाकर गीला करना। गूँधना। जैसे,—आटा सानना। २. संमिलित करना। शामिल करना। उत्तरदायी बनाना। जैसे,—आप मुझे तो व्यर्थ ही इस मामले में सानते हैं। ३. मिलाना। लपेटना। मिश्रित करना। संयुक्त करना। जैसे,—तुमने अपने दोनों हाथ मिट्टी में सान लिए। उ०—यह सुनि धावत धरनि चरन की प्रतिमा खगी पंथ में पाई। नैन नीर रघुनाथ सानिकै शिव सो गात चढ़ाई।—सूर (शब्द०)। संयो० क्रि०— डालना।—देना।—लेना।
⋙ सानना † (२)
क्रि० स० [हिं० सान + ना (प्रत्य०)] सानपर चढा़कर धार तेज करना। (क्व०)।
⋙ सानमान पु
वि० [सं० सानुमत्] चोटियों वाला। ऊँचा (पर्वत)। उ०—बलिहारी भूधर तुमैं धीर करैं गुन गान। सानमान कही अचल कहि सब जग करैं बखान।—दीन ग्रं०, पृ० २१०।
⋙ सानल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शाल वृक्ष से निकलनेवाला निर्यास [को०]।
⋙ सानल (२)
वि० अनलयुक्त। अग्नियुक्त। २. कृत्तिका नामक नक्षत्र से युक्त [को०]।
⋙ सानसि
संज्ञा पुं० [सं०] सोना। सूवर्ण [को०]।
⋙ सानाथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] मदद। सहयोग। सहायता।
⋙ सानिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंशी। मुरली।
⋙ सानिधि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सान्निध्य] दे० 'सान्निध्य'। उ०— भगवदीन संगकरि, बात उनकी लै सदाँ, सानिधि इहि देति भैई।—नंद ग्रं०, पृ० ३२८।
⋙ सानिध्य
संज्ञा पुं० [सं० सान्निध्य] दे० 'सान्निध्य'। उ०—और श्री आचार्यजी के पलंगड़ी सानिध्य आत्मनिवेदन की आज्ञा किए।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० १६।
⋙ सानिया
संज्ञा पुं० [अ० सानियह्] १. घंटे का ६० वाँ भाग। मिनिट। २. पल। क्षण। लमहा [को०]।
⋙ सानियिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सानिका' [को०]।
⋙ सानी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सानना] १. वह भोजन जो पानी में सानकर पशुओं को खिलाया जाता है। विशेष—नाद में भूसा भिगो देते है और उसमें खली, दाना, नमक आदि छोड़कर उसे पशुओं को खिलाते हैं। इसी को सानी कहते हैं। २. अनुचित रीति से एक में मिलाए हुए कई प्रकार के खाद्यपदार्थ। (व्यंग्य)। ३. गाड़ी के पहिए में लगाने की गिट्टक।
⋙ सानी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शण या शाणा, शाणी (= सन का वस्त्र) प्रा० साणी] दे० 'सनई'।
⋙ सानी (३)
वि० [अ०] १. दूसरा। द्वितीय। जैसे,—औरंगजेब सानी। २. बराबरी का। समानता रखनेवाला। मुकाबले का। जैसे,—इन बातों में तो तुम्हारा सानी और कोई नहीं है। उ०—बले अब तुँ ओ शै के सानी नहीं। जो देऊँ अतिया अब सो तेरे तईं।—दक्खिनी०, पृ० २३६। यौ०—ला सानी = जिसके समान और कोई न हो। अद्वितीय।
⋙ सानु
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत की चोटी। शिखर। उ०—अचल हिमालय का शोभनतम लता कलित शुचि सानु शरीर।—कामायनी, पृ० २९। २. अंत। सिरा। ३. समतल भूमि। (पर्वत के ऊपर की) चौरस जमीन। ४. बन। जंगल। विशेषतः पहाड़ी जंगल। ५. मार्ग। रास्ता। ६. पल्लव। पत्ता। ७. सूर्य। ८. विद्वान। पंडित। ९. अँखुआ। अंकुर (को०)। १०. अतट। करारा। प्रपात (को०)। ११. चट्टान (को०)। १२. हवा का झोंका। प्रभंजन (को०)।
⋙ सानुकंप
वि० [सं० सानुकम्प] अनुकंपा या दया से युक्त। सहानुभूति- शील [को०]।
⋙ सानुक
वि० [सं०] उठा हुआ। उद्धत। उच्छित। दृप्त। घमंडी [को०]।
⋙ सानुकूल
वि० [सं०] दे० 'अनुकूल'। उ०—सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर।—मानस, १।१७।
⋙ सानुकूल्य
संज्ञा पुं० [सं०] अनुकूल होने का भाव। अनुकूलता। पक्षग्रहण। सयोगिता [को०]।
⋙ सानुक्रोश
वि० [सं०] अनुकोश अर्थात् कृपायुक्त। दयालु। कृपालु [को०]।
⋙ सानुग
वि० [सं०] अनुगमन करनेवालों या अनुचरों से युक्त [को०]।
⋙ सानुज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रपौंड्रिक वृक्ष। पुंडेरी। २. तुंबुरु नामक वृक्ष।
⋙ सानुज (२)
वि० छोटे भाई के साथ। उ०—सानुज पठइअ मोहिं बन कीजिअ सबहि सनाथ।—मानस, २।२६७।
⋙ सानुतर्ष
वि० [सं०] तृषा या प्यासयुक्त। प्यासा [को०]।
⋙ सानुनय (१)
वि० [सं०] विनयशील। शिष्ट।
⋙ सानुनय (२)
क्रि० वि० विनम्रता के साथ [को०]।
⋙ सानुनासिक
वि० [सं०] जो अनुनासिक वर्ण से युक्त हो। २. नाक के बल गानेवाला [को०]।
⋙ सानुपातिक
वि० [सं०] समुचित अनुपातयुक्त। उचित अंशयुक्त। उ०—सानुपातिक संगीतात्मकता, रचना शैली की प्रधानता तथा ऐसी पूर्णता जो विश्लेषण से परे होने पर भी प्रतिदिन एक नए अर्थ को जन्म देगी।—हिं० का० आं० प्र०, पृ० १४४।
⋙ सानुप्रास
वि० [सं०] जिसमें अनुप्रास हो। अनुप्रास से युक्त [को०]।
⋙ सानुप्लव
वि० [सं०] अनुयायी वर्ग से युक्त। अनुगंताओं, सहचरों आदि के साथ [को०]।
⋙ सानुबंध
वि० [सं० सानुबन्ध] १. अनुबंधयुक्त। व्यतिक्रमरहित। क्रमबद्ध। २. जिसके परिणाम हों। परिणाम या फल से युक्त। ३. अपनी वस्तुओं के साथ [को०]।
⋙ सानुभाव
वि० [सं० स + अनुभाव] अनुभावयुक्त। कृपालु। सदय। अनुकूल। उ०—तब यह ब्राह्मन ने कह्यो जो मो पैं महादेव सानुभाव हैं।—दो सौ बाबन०, भा० २, पृ० ४५।
⋙ सानुभावता
संज्ञा स्त्री० [सं० सानुभावता] अनुभाव युक्त होने की स्थिति या भाव। उ०—सो कछूक दिन में इनको सानुभावता जनाए।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० १०।
⋙ सानुमान्
संज्ञा पुं० [सं० सानुमत्] पर्वत [को०]।
⋙ सानुमानक
संज्ञा पुं० [सं०] पुंडेरी। प्रपौंड्रीक।
⋙ सानुराग
वि० [सं०] अनुरागयुक्त। प्रेमयुक्त। आसक्त [को०]।
⋙ सानुरुह
वि० [सं०] पहाड़ पर या पहाड़ की चोटी पर पैदा होनेवाला [को०]।
⋙ सानुष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ सानूकर्ष
वि० [सं०] धुरीवाला (रथ) [को०]।
⋙ सानेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंशी [को०]।
⋙ सानेरमा
वि० [सं०] निर्माता। बनानेवाला। स्रष्टा [को०]।
⋙ सानोक †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास।
⋙ सान्नत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ सान्नत्य
वि० [सं०] स्वाभाविक या प्राकृतिक। प्रवृत्ति संबंधी [को०]।
⋙ सान्नहनिक
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सान्ताहिक'।
⋙ सान्नाय
संज्ञा पुं० [सं०] मंत्रों से पवित्र किया हुआ वह घी जिससे हवन किया जाता है।
⋙ सान्नाहिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सन्नाह पहने हो। कवचधारी।
⋙ सान्नाहिक (२)
वि० १. युद्धार्थ प्रोत्साहित करनेवाला। २. कवचधारी। सन्नाह से युक्त [को०]।
⋙ सान्नाहुक
वि० [सं०] जो कवच, शस्त्र आदि धारण करने योग्य हो [को०]।
⋙ सान्निव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. समीपता। सामीप्य। सन्निकटता। २. एक प्रकार की मुक्ति जिसमें आत्मा का ईश्वर के समीप पहुँच जाना माना जाता है। मोक्ष।
⋙ सान्निव्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सान्निध्य का धर्म या भाव।
⋙ सान्निपातकी
संज्ञा [सं०] एक प्रकार का योनि रोग जो त्रिदोष से उत्पन्न होता है।
⋙ सान्निपातिक
वि० [सं०] १. सान्निपात संबंधी। सन्निपात का। २. त्रिदोष, संबंधी। त्रिदोष से उत्पन्न होनेवाला (रोग)। उ०— तीनो दोषों के लक्षण मिलते हों उसको सान्निपातिक रक्त पित्त जानना।—माधव०, पृ० १७। ३. उलझा हुआ। पेचीदा। जटिल (को०)।
⋙ सान्न्यासिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो अपने धार्मिक जीवन के चतुर्थ आश्रम में प्रविष्ट हो। वह जिसने सन्यास ग्रहण किया हो। सन्यासी।
⋙ सान्मातुर
संज्ञा पुं० [सं०] सती साध्वी स्त्री की संतान [को०]।
⋙ सान्यपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक वैदिक आचार्य।
⋙ सान्वय
वि० [सं०] १. वंशपरंपरागत। २. कुल या वंशजों के साथ। ३. कुलविशेष से संबंधित। ४. महत्वपूर्ण। ५. समान कार्यया व्यापारवाल। ६. पद्य के शब्दों की वाक्यरचना के नियमा- नुसार परस्पर क्रमबद्धता से युक्त [को०]।
⋙ साप पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० शाप] दे० 'शाप'। उ०—ऋण छूटयो पूरयो बचन, द्विजहु न दीनो साप।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २९३।
⋙ साप † (२)
वि० [अ० साफ़] दे० 'साफ'। उ०—मना मनशा साप करो।—दक्खिनी०, पृ० ५९।
⋙ सापणी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पिणी] दे० 'साँपिन'। उ०—पंथी एक सँदेसणउ, लग ढोलइ पैहच्याइ। निकसी वेणी सापणी, स्वात न बरसउ आइ।—ढोला०, दू० १२५।
⋙ सापत्न (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० सापत्नी] १. सपत्न या शत्रु संबंधी। २. सौत संबंधी या सौत से उत्पन्न [को०]।
⋙ सापत्न (२)
संज्ञा पुं० एक ही पति की अनेक पत्नियों से उत्पन्न संतति। सौतेली संतान [को०]।
⋙ सापत्नक
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्वेष। शत्रुता। २. दे० 'सापत्न्य' [को०]।
⋙ सापत्नेय
वि० [सं०] सपत्नी का। सौतेला [को०]।
⋙ सापत्न्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सपत्नी का भाव या धर्म। सौतपन। २. सपत्नी का पुत्र। सौत का लड़का। ३. शत्रु। दुश्मन। ४. द्वेष। शत्रुता (को०)। ५. सौतेला भाई (को०)।
⋙ सापत्न्य (२)
वि० [सं०] सपत्नी संबंधी। सपत्नी या सौत का [को०]।
⋙ सापत्न्यक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सापत्नक' [को०]।
⋙ सापत्य (१)
वि० [सं०] १. अपत्ययुक्त। संततियुक्त। संतान युक्त। २. जिसे गर्भ हो। गर्भ से युक्त [को०]।
⋙ सापत्य (२)
संज्ञा पुं० १. सपत्नी का पुत्र। सौत का बेटा। २. सौतेला भाई [को०]।
⋙ सापत्नप
वि० [सं०] उपत्नप या संकोच में पड़ा हुआ। लज्जित [को०]।
⋙ सापद पु
संज्ञा पुं० [सं० श्वापद] श्वापद। पशु।
⋙ सापन (१)
संज्ञा पुं० [देश० ?] एक प्रकार का रोग। जिसमें सिर के बाल गिर जाते हैं।
⋙ सापन पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० सर्पिणी] दे० 'साँपिन'। उ०—हन्यौ संग दुअ अंग निकसि दुअ अंगुल सापन।—पृ० रा०, ७।१२०।
⋙ सापना पु †
क्रि० स० [सं० शाप, हिं० साप + ना (प्रत्य०)] १. शाप देना। बद्दुआ देना। उ०—चहत महामुनि जाग गयो। नीच निसाचर देत दुसह दुख कृस तनु ताप तयो। सापे पाप नए निदरत खल, तब यह मंत्र ठयो। विप्र साधु सुर धेनु धरनि हित हरि अवतार लयो।—तुलसी ग्रं०, पृ० २९३। २. दुर्वचन कहना। गाली देना। कोसना।
⋙ सापराध
वि० [सं०] दोषी। अपराधी [को०]।
⋙ सापवाद
वि० [सं०] लोकापवाद से युक्त। कलंकपूर्ण [को०]।
⋙ सापवादक
वि० [सं०] जिसका अपवाद हो सके [को०]।
⋙ सापाय
वि० [सं०] १. शत्रु से लड़नेवाला। २. अपाययुक्त। खतरे से पूर्ण [को०]।
⋙ सापाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] वह मकान जिसके पिछले भाग में खुली दालान हो [को०]।
⋙ सापिंडय
संज्ञा पुं० [सं० सापिण्डय] सापिंड होने का भाव या धर्म।
⋙ सापुरस पु
संज्ञा पुं० [सं० सत्पुरुष] दे० 'सत्पुरुष'। उ०—(क) सोइ सूर सापुरसो।—रा० रू०, पृ० १३८। (ख) अंग न छूटै आखड़ी, सीहाँ सापुरसाँह।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० १९।
⋙ सापेक्ष
वि० [सं०] एक दूसरे के संबंध पर स्थित। अपेक्षा सहित। उ०—मानस, मानुषी, विकासशास्त्र हैं तुलनात्मक, साक्षेप ज्ञान।—युगांत, पृ० ६०।
⋙ सापेक्षिक
वि० [सं०] दे० 'सापेक्ष'। उ०—सर्वमान्य तथ्य तो एक सापेक्षिक बात है।—आचार्य०, पृ० १२६।
⋙ सापेक्ष्य
वि० [सं०] अपेक्षित। आवश्यक। उ०—इसी से इस प्रश्न के संबंध में सावधानी सापेक्ष्य है।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० २३८।
⋙ साप्ततंतव
संज्ञा पुं० [सं० साप्ततन्तव] प्राचीन काल का एक धार्मिक संप्रदाय।
⋙ साप्तपद (१)
वि० [सं०] [स्त्री० साप्तपदी] १. सप्तपदी। सात पद साथ साथ चलने या सात शब्द, वाक्य परस्पर वार्ता करने से संबंधित। २. सप्तपदी संबंधी।
⋙ साप्तपद (२)
संज्ञा पुं० १. घनिष्ठता। मित्रता। २. विवाह के समय वर तथा वधू द्वारा यज्ञाग्नि की स्त प्रदक्षिणा करना [को०]।
⋙ साप्तपदीन
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'साप्तपद'।
⋙ साप्तपुरुष
वि० [सं०] दे० 'साप्तपौरुष'।
⋙ साप्तपौरुष
वि० [सं०] [वि० स्त्री० साप्तपौरुषी] सात पीढियों तक जानेवाला। सात पीढियों को संमिलित करनेवाला [को०]।
⋙ साप्तमिक
वि० [सं०] १. सप्तमी संबंधी। सप्तमी का। २. सप्तमी विभक्ति से संबंधित (को०)।
⋙ साप्तरथवाहनि
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ साप्ताहिक (१)
वि० [सं०] १. सप्ताह से संबंधित। २. सप्ताह भर का या सप्ताह भर के लिये। जैसे,—साप्ताहिक राशन। ३. प्रति सप्ताह या सप्ताह सप्ताह प्रकाशित होनेवाला। जैसे,—साप्ताहिक पत्र।
⋙ साप्ताहिक (२)
संज्ञा पुं० साप्ताहिक समाचार पत्र।