विलंघन
संज्ञा पुं० [सं० विलड़घन] १. कुद या लाँघकर पार करने की क्रिया। २. उपवाल करना। लंघन करना। ३. किसी वस्तु के भोग से अपने आपको रोक रखना। वंचित रखना। ४. अपराध। अतिक्रमण। क्षति (को०)।

विलंघना
संज्ञा स्त्री० [सं० विलड़्घना] १. फाँदना। उल्लंघन करना। २. उपवास या लंघन करना। ३. नीचा दिखाना या पराजित करना (को०)।

विलंघनीय
वि० [सं०विलड़्घनीय] १. पार करने योग्य़। लाँघने योग्य़। २. नीचा दिखाने योग्य। परास्त करने योग्य़।

विलंघित (१)
वि० [सं० विलङ्घित] १. जो परास्त हुआ हो। जिसने नीचा देखा हो। २. जो विफल हुआ हो। निष्फल। ३. लाँघा हुआ। ४. अतिक्रांत। आगे बढ़ा हुआ (को०)।

विलंधित (२)
संज्ञा पुं० उपवास। भोजनादि न करना [को०]।

विलंघी
वि० [सं० विलङ्घिन] १. लाँघनेवाला। ड़ाक जानेवाला। अतिक्रमण करनेवाला। २. चढ़नेवाला [को०]।

विलंघ्य़
वि० [सं० विलङ्घ्य] १. पार करने योग्य। (नदी आदि)। २. परास्त होने योग्य। वश में आने योग्य। ३. करने योग्य। सहज।

विलंब (२)
वि० [सं० विलम्ब] आवश्यकता, अनुमान आदि से अधिक समय (जो किसी बात में लगे)। बहुत काल। अतिकाल। देर। क्रि० प्र०—करना।—होना।

विलंब (२)
संज्ञा पुं० १. लटकना। टँगना। २. धीमापन। देरी। दीर्घ- सुत्रता। सुस्ती। ३. एक संवत्सर का नाम।

विलंबन
संज्ञा पुं० [सं० विलम्बन] [वि० विलंबनीय, विलंबी, विलं- बित] १. देर करना। विलंब करना। २. लटकना। टँगना। ३. सहारा पकड़ना। टेकना।

विलंबना पु
क्रि० अ० [सं० विलम्बन] १. देर करना। विलंब करना। आवश्यकता से अधिक समय लगना। २. रम जाना। मन लगने के कारण बस जाना। उ०— भँवर कँवल रस बेधिया, अनत न भरमें जाइ। तहाँ वास विलंबिया, मगन भया रस खाइ।— दादु (शब्द०)। ३. लटकना। ४. सहारा लेना।

विलंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० विलम्बिका] एक प्रकार का रोग जो विदग्धाजीर्ण द्वारा उत्पन्न होता है। उ०— जिस (अजीर्ण) की चिकित्सा नहीं हो सके उसे विलंबिका रोग कहते है।— माधव०, पृ० ६७। विशेष—इस रोग में खाया हुआ अन्न कफ और वायु से दुषित होकर पेट में दुःख देता है। न तो वमन होता है, न मल निक- लता है।

विलंबित (१)
वि० [सं० विलम्बित] लटकता हुआ। झूलता हुआ। उ०— राजत रोमक की तन राजि वहै रस बीच नदी सुख देनी। आगे भई प्रतिबिंबित पाइ विलंबित जो मृगनैनी कि बेनी।—द्विज (शब्द०)। २. जिसमें विलंब या देर हुई हो। ३. आश्रित। सुसंबद्ब (को०)। ४. मंद। दीर्घसुत्री (को०)। ५. मंथर। संगीत में द्रुत का उलटा जैसे, विलं- बित लय या ताल। यौ०—विलंबितगति=एक छंद। एक वर्णवृत्त। विलंबितफल= जिसका फल विलंब से प्राप्त हो।

विलंबित (२)
संज्ञा पुं० १. सुस्त चलनेवाला जानवर। जैसे,— हाथी, गैंड़ा, भैस इत्यादि। २. सुस्ती। देरी (को०)।

विलंबित (३)
क्रि० वि० शनैः शनेः। मंद मंद [को०]।

विलंबी (१)
वि० [सं० विलम्बिन्] [वि० स्त्री० विलंबिनी] १. लटकता हुआ। झूलता हुआ। २. विलंब करनेवाला। देरी करनेवाला। दीर्घसूत्री (को०)।

विलंबी (१)
संज्ञा पुं० साठ संवत्सरों में से बत्तीसवाँ संवत्सर।

विलंभ
संज्ञा पुं० [सं० विलम्भ] १. उदारता। २. दान। ३. उपहार। भेंट।

विल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बिल' (१)।

विलक्खा पु
वि० [सं० वि०+लक्ष्य, प्रा० विलक्ख० हि० बिलखना] उदास। व्याकुल। बिलखता हुआ। व्यथित। उ०—सालूरा पाँणी विना, रहइ बिलक्खा जेम। —ढ़ोला०, दू०, १७३।

विलक्ष
वि० [सं०] १. अचंभे में पड़ा हुआ। आश्चर्यचकित। २. लज्जित। ३. घबराया हुआ। व्याकुल। विह्नल। व्यस्त। ४. जिसके कोई विशेष लक्षण या चिह्न न हों (को०)। ५. उद्देश्य या लक्ष्यगहित (को०)। ६. निशाना चूक जानेवाला (को०)।७. असाधारण। अपूर्व। ८. कृत्रिम। बनावटी (को०)।

विलक्षण (१)
वि० [सं०] १. साधारण से भिन्न। असाधारण। अपूर्व। अदभुत। उ०—इस युग में न केवल राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से ही देश को उन्नति हुई वरन् हिंदी काव्य का भी विलक्षण उत्कर्ष हुआ। —अकबरी०, पृ० ६। २. अनोखा। अनूठा। ३. भिन्न। इतर (को०)। ४. जिसमें कोई विशेष लक्षण या चिह्न न हो (को०)। ५. अशुभ लक्षणों से यक्त (को०)। ६. निस्तेज। बुझी हुई। निष्प्रभ (को०)।

विलक्षण (२)
संज्ञा पुं० १. निष्फल या व्यर्थ स्थिति। २. गौर से देखना। अवेक्षण करना [को०]।

विलक्षणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विलक्षण होने का भाव। अपूर्वता। अदभुतता। अनोखापन।

विलक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की शय्या [को०]।

विलक्षन
वि० [सं० विलक्षण] दे० 'विलक्षण'। उ०— आपके विना या प्रकार निवेदन कौ विलक्षन मार्गा दिखायो, सो आप प्रभु हो।—दो सौ बावन०, भा०, १. पृ० २४०।

विलक्षित
वि० [सं०] १. जो विशेष रूप से लक्षित किया गया हो। २. चिह्नरहित। ३. रुष्ट। क्षुब्ध। ४. अभेदित। जिसका भेदन न किया गया हो। ५. हतबुद्बि। आश्चर्यचकित। ६. उद्विग्न। घबराया हुआ। व्याकुल [को०]।

विलक्ष्य
वि० [सं०] १. लक्ष्यहीन। २. लक्ष्य चूक जानेवाला। जैसे, बाणा या लक्ष्य पर फेंकी हूई कोई वस्तु [को०]।

विलखना (१)
क्रि० अ० [सं० विकल, या विलक्ष्य, प्रा० विलक्ख] दुःखी होना। दे० 'बिलखना'।

विलखना पु (२)
क्रि० अ० [सं० लक्ष] ताड़ना। पता पाना। लक्ष करना।

विलखाना
क्रि० सं० [हि० बिलखना] विलखना का सकर्मक रूप। विकल करना। दे० 'बिलखाना' (१)।

विलग (१)
वि० [हि० वि० (उप०)+लगना] अलग। पृथक।

विलग (२)
संज्ञा पुं० अंतर। भेद। फरक।

विलगाना (१)
क्रि० अ० [हि० विलग+ना (प्रत्य०)] १. अलग होना। पृथक् होना। २. पृथक् पृथक् दिखाई पड़ना। विभक्त या अलग दिखाई पड़ना।

विलगाना (२)
क्रि० सं० पृथक् करना। अलग करना। दे०'बिलगाना'।

विलगित
वि० [सं०] लगा हुआ। लग्न। संबद्ब [को०]।

विलग्न (१)
वि० [सं०] १. विशेष रूप से लगा या जुड़ा हुआ। २. आदधृत। ३. लटकता हुआ। ४. पिंजरे में बंद। ५. पतला। कोमल। ६. व्यतीत (को०)। ७. संलग्न। स्थिर (को०)।

विलग्न (२)
संज्ञा पुं० १. जन्मकुंडली। जन्मपत्री। २. राशी का उदय। ३. कटि। कमर। ४. नितंब [को०]।

विलग्नता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विलगता। अलग होने की क्रिया। अलगाव। उ०— कांग्रेस से अपने विलग्नता सूचन की।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० २७१।

विलच्छन
वि० [सं० विलक्षण, प्रा० विलक्खन, विलच्छन] दे० 'विलक्षण'।

विलछाना पु
क्रि० अ० [सं० वि+लक्ष (देखना)दे० 'बिलछाना'। उ०— धर्मनी यह अनुराग की बानी। तुत तत देख कहुँ बिल- छानी।— कबीर सा०, पृ० ७।

विलज्ज
वि० [सं०] निर्लज्ज। बेशर्म [को०]।

विलज्जित
वि० [सं०] लजाया हुआ। शर्मिदा [को०]।

विलपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बातचीत या गपशप करना। २. विलाप करना। शोक प्रकट करना। ३. चीकट तलछट। यौ०—विलपनविनोद=रोकर दुःख हलका करना।

विलपना पु
क्रि० अ० [सं० विलाप] विलाप करना। रोना।

विलपाना पु
क्रि० सं० [हि० विलपना का सक० रूप] दूसरे को विलाप करने में प्रवृत्त करना। रूलाना।

विलपित (१)
वि० [सं०] जो विलाप कर रहा हो। जिसने रूदन किया हो।

विलपित (२)
संज्ञा पुं० विलाप। रूदन [को०]।

विलब्ध
वि० [सं०] १. दिया हुआ। पाया हुआ। २. अलग किया हुआ।

विलब्धि
संज्ञा [स्त्री०] १. दूर करना। हटाना। २. प्राप्ति [को०]।

विलम पु
संज्ञा पुं० [सं० विलम्ब] देर। अबेर। विलंब।

विलमना पु
क्रि० अ० [सं० विलम्बन] दे० 'बिलमना'।

विलमाना
क्रि० सं० [सं० विलम्बन>हि० विलमना का सक० रूप] दे० 'बिलमाना'। उ०— मुझै नाहक श्यामसुंदर इतनी देर विलमाए रहे थे।— श्यामा०, पृ० ९२।

विलय
संज्ञा पुं० [सं०] १. विलीन होने की क्रिया या भाव। लोप। अस्त। २. मृत्यु मौत। ३. नाशा। ४. प्रलय। ५. द्रवित होना। पिधलना। बिगलन (को०)।

विलयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लय़ को प्राप्त होना। विलीन होना। २.धुल जाना। मिलकर एक होना। ३. हटाना। दूर करना (को०)। ४. पतला करना (को०)। ५. पतला करनेवाली ओषधि (को०)।

विललंती पु
वि० स्त्री० [सं० विलपन] विलाप करकी हुई। दुःखी। व्यग्र। व्याकुल। उ०— पंथी हाथ सँदेसड़है धन विललंती देह। पगसुं काढ़इ लोहरी, उर आँसुआँ भरेह। —ढ़ोला०, दु० १६७।

विलवंती
वि० [सं० विलप्, प्रा० विलव(=रोना)] विलाप करतौ हुई।—पृ० रा०, ६१। ११६५।

विलसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चमकने की क्रिया। २. क्रिड़ा। प्रमोद।

विलसना पु
क्रि० अ० [सं० विलस] १. शोभा पाना। २. विलास करना। क्रीड़ा करना। ३. आनंद मनाना। दे० 'बिलसना'।

विलासाना पु
क्रि० सं० [हि० बिलसना] दे० 'बिलसाना'।

विलसित (१)
वि० [सं०] १. चमकीला। चमकता हुआ। २. प्रकट। व्यक्त। ३. शोभित। ४. विनोदी [को०]।

विलसित (२)
संज्ञा पुं० १. चमक। दीप्ति।२. प्राकटय। अभिव्यक्ति। ३. क्रिड़ा। विनोद। ४. फल। पणिम। ५. भंगिमा [को०]।

विलस्त
संज्ञा पुं० [फा० बालिस्त] बित्ता। अंगूठे के सिरे से छिगुनी के सिरे तक की लंबाई का परिमाण। उ०—सबा विलस्त की जाकी देही। वामें प्रस्थित जीव सनेही। —अष्टंग०, पृ० ७९।

विलहबंदी
संज्ञा स्त्री० [?] जिले के बंदोबस्त का वह संक्षिप्त ब्योरा जिसमें प्रत्येक महाल का नाम, काश्तकारों के नाम और उनके लगान आदि का व्योरा लिखा होता है। इसे वितरबंदी भी कहते हैं।

विला
संज्ञा स्त्री० [सं० इरा, इड़ा(=पृथ्वी)] पृथ्वी। वसुंधरा।

विलाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चिड़िया।

विलाना
क्रि० अ० [सं० विलयन] दे० 'बिलाना'।

विलाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिलख बिलखकर या विकल होकर रोने की क्रिया। रोकर दुःख प्रकट करने की क्रिया। क्रंदन। रूदन। २. शोक व्यक्त करना। रंजीदा होना।

विलापन (१)
वि० [सं०] १. रूलानेवाला। २. द्रवित करनेवाला। पिघला देनेवाला। ३. नाशक। नष्ट करनेवाला [को०]।

विलापन (२)
संज्ञा पुं० १. ऱूलानेवाला कार्य। २. नाश। विध्वंस। ३. नष्ट करने या द्रवित करने का साधन। ४. मृत्यु। ५. शिव का एक गण (को०)।

विलापना पु (१)
क्रि० अ० [सं० विलापन] शोक करना। विलाप करना। रूदन करना।

विलापना (२)
क्रि० सं० [सं० विरोपण] वृक्ष रोपना या लगाना।

विलापयिता
वि० [सं० विलापयितृ] १. द्रवित करने या पिघलानेवाला। २. विलाप करनेवाला [को०]।

विलापित
वि० [सं०] पिघलाय़ा हुआ [को०]।

विलापी
वि० [सं० विलापिन्] विलाप करनेवाला [को०]।

विलायत
संज्ञा पुं० [अं०] १. पराया देश। दुसरों का देश। दूरस्थ देश। दूर का देश। विशेषतः आजकल की बोलचाल में यूरोप या अमेरिका का कोई देश। (पहले इस शब्द का प्रयोग ईरान,) तूर्किस्तान आदि के लिये होता था।) जैसे०—आप दो बार विलायत हो आए है। उ०— एक बड़े बाप के बेटे विलायत जाकर वहाँ की००००००। प्रेमघन०, भा०२, पृ० ७४.। ३. बली होने का भाव या पद (को०)।

विलायती
वि० [अ०] १. विलायत का। विदेशी। २. दूसरे देश का बना हुआ। २. अन्य देश का रहनेवाला। परदेशी। उ०— अब बिदेशी राजा के होने से नौकरियाँ विलायतियों का विशेषकर दी जाती हैं। —प्रेमघन० भा०२, पृ० २६८।

विलायती अनन्नास
संज्ञा पुं० [हिं० विलायती + अनन्नास] रामबाँस। रामबान। विशेष दे० 'रामबाँस'।

विलायती कददू
संज्ञा पुं० [हि० विलायती+कददु] एक विशेष प्रकार का कद्दु जो तरकारी के काम में आता है।

विलायती कपड़ा
संज्ञा पुं० [हि०] विदेशी वस्त्र। विशेषतः यूरोप का बना हुना।

विलायती कासनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० विलायती + कासनी] एक प्रकार की कासनी जिसकी पत्तियाँ दवा के काम में आती हैं।

विलाय़ती कीकर
संज्ञा पुं० [हिं० विलायती + कीकर] पहाड़ी कीकर जो हिमालय पर पाँच हजार फुट की ऊँचाई तक होता है। विशेष—यह बाड़ लगाने के काम आता है। यह जाड़े के दिनों में खुब फूलता है और इसके फुलों से बहुत अच्छी महक निकलती है। य़ूरोप में इन फूलों से कई प्रकार के इत्र आदि बनाए जाते हैं। इसे पस्ती बबूल भी कहती हैं।

विलाय़ती छछूँदर
संज्ञा पुं० [हिं० विलायती + छछुँदर] एक प्रकार का छछूँदर जो इंगलैड़ के पश्चिमी ओर के प्रदेशों में बहुत पाया जाता है। विशेष—यह पृथ्वी के नीचे सूरंग में रहता है और प्रायःदुध पीता है। इसे अंधकार अधिक प्रिय होता है। इसके अगलेपैर चौड़ और पट्टेदार तिरछे होते हैं। इसका आखें छोटी, थुथना लँबा और नोकदार, बाल सधन और कोमल होते है। इसकी श्रवणशक्ति बहुत तेज होती है।

विलायती नील
संज्ञा पुं० [हिं० विलायती + नीला] एक विशेष प्रकार का नीला रंग जो चीन से आता है।

विलायती पटुआ
संज्ञा पुं० [हिं० विलायती+पटुआ] लाल प़टुआ। लाल सन।

विलायती पात
संज्ञा पुं० [हिं० विलायती + पटुआ] रामबाँस। कृष्ण केतकी।

विलायती पानी
संज्ञा पुं० [हिं० विलायनी + पानी] शराब। मदिरा। उ०—तौ भी भाँति भाँति के विलायती पानी।—प्रेमघन०, भा०, २, पृ० २३३।

विलायती प्याज
संज्ञा पुं० [हिं० विलायती + प्याज] एक प्रकार का प्याज जिसमें गाँठ नहीं होती, सिर्फ गूदेदार जड़ होती है।

विलायती बैगन
संज्ञा पुं० [हिं० विलायती + बैगन] एक प्रकार का बैगन या भंटा जो इस देश में यूरोप से आया है। विशेष—यह क्षुप जाति की वनस्पति है जो प्रतिवर्ष बोई जाती है। इसका क्षुप दो ढाई हाथ ऊँचा होता है। इसकी डालियाँ भूमि की ओर झुकी अथवा भूमि पर पसरी रहती है। पत्ते आलू के पत्तों के से होते है। इंड़ियों के बीच बीच से सींके निकलते हैं जिनपर गुच्छे में फुल आते हैं। ये फुल साधारण बैगन के फूलों के सदृश, पर उनसे छोटे होते हैं। इनका रंग पीला होता है। फल प्रायः दो से चार इंच तक के गोलाकार और कुछ चिपटे (नारंगी के समान) होते हैं। कच्चे रहने पर उनका रंग हरा और पकने पर लाल चमकीला हो जाता है। इसकी तरकारी, चटनी आदि बनती है। स्वाद में यह कुछ खट्टापन लिए होता है। रासायनिक विश्लेषण से पता लगता है कि इसमें २३ सैकड़े लोहे का अंश होता है। इसमें 'ए' और 'सी' विटामिन होता है। अतः यह रक्तवर्धक है। अँगरेज लोग इसका अधिक व्यवहार करते हैं। इसे अँगरेजी में टोमैटा और हिदी में टमाटर कहते हैं।

विलायती भंटा
संज्ञा पुं० [हि०]दे० 'विलायती बैगन'।

विलायती मिट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] विदेश में होनेवाली ऐसी मिट्टी जिससे पात्र और खिलौन बनते हैं। उ०—विलायती मिट्टी, पत्थर, ईंट।— प्रेमघन०, भा०, २, पृ० ३३।

विलायती मेंहदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० विलायती + मेंहदी] मेंहदी की जाती का एक प्रकार का पौधा। सनट्ट। विशेष—यह पौधा प्रायः बाढ़ तक के रूप में लगाया जाता है यह भारत, बलोतिस्तान, अफगनिस्तान, अरब, अफ्रिका आदि सभी स्थानों में होता है। यह वर्षा और शीतकाल में फुलता है। इसकी लकड़ी बहुत कड़ी होती है और इसपर खुदाई का काम बहुत अच्छा होता है।

विलायती लहसुन
संज्ञा पुं० [हिं० विलायती + लहसुन] एक प्रकार का लहसुन जो मसाले के काम में आता है।

विलायती सिरिस
संज्ञा पुं० [हि० विलायती+सिरिस] एक प्रकार का सिरिस वृक्ष। विशेष—यह पौदा विदेश से यहाँ आया है, पर अब यहाँ भी होने लगा है। यह नीलगिरि पर्वत पर बहुतायत से होता है। पंजाब में भी यह पाया जाता है। इसकी छाल प्रायः चमड़ा सिझने के काम में आती है।

विलायती सेम
संज्ञा स्त्री० [हिं० विलायती + सेम] एक प्रकार की सेम जिसकी फलियाँ साधारण सेम से कुछ बड़ी होनी हैं।

विलायन
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक अस्त्र। विशेष—कहते हैं, जब इस अस्त्र का उपयोग किया जाता था, तब शत्रु की सेना विश्राम करने लगती थी।

विलायित
वि० [सं०] पिघलाया या द्रवित किया हुआ [को०]।

विलाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विड़ाल'।

विलावल
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग। दे० 'बिलावल'।

विलावली
संज्ञा स्त्री० [हि० बिलावल] एक रागिनी जो हिड़ोल राग की स्त्री मानी जाती है। (संगीत)।

विलास
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसन्न या प्रफुल्लित करने की क्रिया। २. सुखभोग। आनंदमय क्रीड़ा। मनोरंजन। मनोविनोद। ३. आनंद। हर्ष। ४. संयोग के समय में अनेक हाव भाव अथवा प्रेमसूचक क्रियाएँ जिनसे स्त्रियाँ पुरूषों को अपनी और अनुरक्त करती हैँ। हाव भाव। नाज नखरा। ५. किसी अंग की मनोहर चेष्टा। जेसे, भ्रुविलास, करविलास। उ०—भुकुटि विलास जासु जग होई। राम बाम दिस सीता सोई।—तुलसी (शब्द०)। ६. किसी चीज का हिलना डो़लना। जैसे; चपला का विलास। चमक दमक। ७. चमकना। दीप्त होना। ८. आरामतलबी। अतिशय सुखभोग। ९. प्रफुल्लता। उत्साहशीलता। तेजस्विता। (दशरूपक में पूरूष का एक गुण कहा गया है।) यौ०—विलासकानन=प्रमदवन। विलासकोदंड़, विलासचाप, विलासधन्वा, विलासबाण=कामदेव। विलासमंदिर=केलि- भवन। विलासवातायन=बरामदा। छज्जा। विलासविपिन= क्रीड़ाउपवन। विलालवेश्म=क्रीड़ागृह।

विलासक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० विलासिका] १. इघर उधर फिरनेवाला। भ्रमणशील। २. लास्य करनेवाला। नृत्यकर्ता (को०)।

विलासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रीड़ा। मनोरंजन। २. रंगरेली। ३. विमोहन [को०]।

विलासमयी
वि० स्त्री० [सं०] विलास से प्रेम करनेवाली। क्रीड़ा- शीला। कामवती। उ०— ज्य़ोतिमयी, हासमयी, विकल विलासमयी।—लहर, पृ० ६७।

विलासवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वेच्छारिणी वा कामुक स्त्री [को०]।

विलाससामग्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] विलास का सामान। प्रसाधन की वस्तुएँ। उ०— विलास सामग्री मँगाने में शासक वर्ग को फायदा जरुर हुआ।—भा० इ० रु०, पृ०,२७८।

विलासिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का रूपक जिसमें एक ही अंक होता है। इसका विषय संक्षिप्त और साधारण होता है।

विलासिका (२)
वि० स्त्री० आनंद देनेवाली।

विलासिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुखभोग की अनुरक्तता। विलासी का भाव या कार्य। विलास की भावना। उ०— भोले थे, हाँ तिरते केवल, सब विलासिता के नद में।— कामायनी, पृ० ७।

विलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुंदरी युवा स्त्री। २. कामिनी। हाव भाव करनेवाली स्त्री (को०)। ३. वेश्या। गणिका। ४. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में ज, र, ज, ग,, ग, (ISISISISISISIS)होते हैं।

विलासी (१)
संज्ञा पुं० [सं० विलासिन्] [स्त्री० विलासिनी] १. सुख- भोग में अनुरक्त पुरुष। कामी। २. जिसे आमोद प्रमोद पसंद हो। क्रीड़ाशील हँसोड़। कौतुकशील। ३. ऐश-आराम- पसंद। आरामतलब। ४. वरुण वृक्ष। बरुन। ५. सर्प। साँप (को०)। ६. अग्नि (को०)। ७. चंद्रमा (को०)। ८. विष्णु (को०)। ९. कृष्ण (को०)। १०. शिव (को०)। ११. वार। कामदेव (को०)।

विलासी (२)
वि० आमोदप्रिय। क्रीड़ाशील। ऐयाश [को०]।

विलास्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसमें बजाने के लिये तार लगे होते हैं।

विलिंग
संज्ञा पुं० [सं० विलिड़्ग] १. वह जो भिन्न लिंग का हो। २. लिग का आभाव [को०]। यौ०—विलिगस्थ=जो समझा न जा सके। जो समझने लायक न हो।

विलिंपित
वि० [सं० विलिम्पित] लेपा हुआ। लेप किया हुआ [को०]।

विलिखन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खरोचना। रेखांकित करना। २. लिखना। ३. विश्लेषण। विभाजन। ४. नदी का प्रवाह या सरणि [को०]।

विलिखित
वि० [सं०] १. खरोचा हुआ। २. लिखा हुआ। ३. खुदा हुआ।

विलिगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का साँप।

विलिप्त
वि० [सं०] १. पुता हुआ। लिपा हुआ। २. कलुषित। मैला। दागदार (को०)।

विलिष्ट
वि० [सं०] १. टुटा हुआ। उखड़ा हुआ। २. जो ठोक अवस्था में न हो। अस्तव्यस्त। यौ०—विलिष्टभेषज=हड्डी आदि टुटने की चिकित्सा।

विलीक पु
वि० पु० [सं० व्यलीक] अनुचित। नामुनासिब।

विलीन
वि० [सं०] १. जो अदृश्य हो गया हो। लुप्त। २. जो घुल गय़ा या मिल गया हो। जैसे—पानी में नमक विलीन हो गया। ३. छिपा हुआ। ४. संबद्ध। संलग्न। अनुषक्त [को०]। ४. अड्ड़े पर उतरा हुआ या बैठा हुआ (पक्षी आदि)। ६. नष्ट। मृत। क्षयप्राप्त।

विलीय़न
संज्ञा पुं० [सं०] विलीन होना। मिल जाना [को०]।

विलुंचन
संज्ञा पुं० [सं० विलुण्चन] उखाड़ना। नोचना। फाड़ना। छीलना [को०]।

विलुंठन
संज्ञा पुं० [सं०विलुष्ठन] १. छीनना। लूटना।२. लुंठन लुठा। लोटना [को०]।

विलुंठित
वि० [सं०विलुण्ठित] १. लूटा हुआ। जो लूटा गया हो। २. लुढ़कता हुआ। लोटता हुआ [को०]।

विलुंपक
संज्ञा पुं० [सं०विलुम्पक] चोर। ड़ाकू। लुटेरा। लूटपाट करनेवाला [को०]।

विलुठित
वि० [सं०] १. दे० 'विलुंठित'। २. क्षुब्ध [को०]।

विलुप्तायोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का योनिरोग। इस रोग में योनि में सदा पीड़ा होती है।

विलुभित
वि० [सं०] आकुल। अस्तव्यस्त। अव्यवस्थित। विलो़डित। क्षुब्ध [को०]। यौ—विलुभितप्लब=आकुल या क्षुब्ध गति।

विलुलक
संज्ञा पुं० [सं०] नाश करनेवाला।

विलुलित
वि० [सं०] १. अस्तव्यस्त। २. उद्बिग्न। ३. लहराता हुआ। हिलता हुआ। उ०— प्रिय ! जब मेरे गात्रों में आकार छिप जाता है मलयानिल, तब किस ध्वनि से मुखरित हो उठता है मेरा विलुलित आँचल। —इत्यलम्, पृ०२९। यौ०—विलुलितकेश=अस्तव्यस्ते केशवाला। बिसरे बालोंवाला।

विलूधन पु †
क्रि० अ० [सं० वि० + लुब्ध, प्रा० वि + लुद्ध] विशेष लुब्ध होना। रम जाना। मोहित होना। आसक्त होना। उ०— आपस्वारथ येह विलूधा रे, आगम मरम न जाणै। जम कर माँथै बाण धरीला, ते तौ मनि न आणै।—दादू० पृ०५५३।

विलून
वि० [सं०] कटा हुआ। अलग किया हुआ।

विलूला पु †
संज्ञा पुं० [देश०] बुदबुद। बुल्ला। उ०—वारि के विलू- लन की सेज रचि कौन सोयो, ओसकन पिए हिए कौन तोस पायो है। —दीन० ग्रं०, पृ०१४०।

विलेख
संज्ञा पुं० [सं०] छिद्र। विवर। गुफा। २. फाड़ना। खरोचना।३. विदारण। विलेखन [को०]।

विलेखन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लेखन। लिखना।२. खरोचना। रेखांकित करना। चिह्न बनाना।३. उत्पाटन। उखाड़ना। ४. खोदना। खनना। ५. विभाग करना। विश्लेषण करना। ६. नदी की सरणि वा मार्ग [को०]।

विलेभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चिह्न। खरोच। निशान। २. लिखित अनुबंध या करार [को०]।

विलेखी
वि० [सं० विलेखिन] विलेखन करनेवाला। लकीर, खरोच या चिह्न बनानेबाला [को०]।

विलेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर आदि पर चुपड़कर लगाने की चीज। लेप। अंगराग। २. पलस्तर। गारा। ३. लेप करना। गारा आदि लगाना [को०]।

विलेपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लेप करने या लगाने की क्रिया। अच्छी तरह लीपना। लगाना। २. लगाने या लेप करने का पदार्थ। जैसे,—चंदन, केसर आदि।

विलेपनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] [पुं०] १. वह स्त्री जो परिमल द्रव्यों (इत्र आदि) से सुवासित हो।२. सुवेशा स्त्री। सुंदर वेशभुषावाली महिला। ३. माँड़। चावल का माँड़ [को०]।

विलेपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंगराग आदि लेपन करनेवाली महिला। प्रसाधिका। २. दे० 'विलेप्य' [को०]।

विलेपी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] माँड़। चावल का माँड़ [को०]।

विलेपी (२)
वि० [सं०विलेपिन्] १. लेप या पलस्तर करनेवाला। २. लसदार। लसीला। चिपकने या संबद्ब होनेवाला [को०]।

विलेप्य (१)
वि० [सं०] १. जिसका लेप किया जाय। जैसे, विलेप्यौषध। २. जिसपर लेप किया जाय। जैसे, विलेप्य स्थान [को०]।

विलेप्य (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री०विलेप्या] चावल का माँड़ [को०]।

विलेवासी
संज्ञा पुं० [सं०विलेवासिन्] विलेशय। सर्प [को०]।

विलेशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिल या दरार में रहनेवाले जीव। जैसे, साँप, बिच्छू, गोह आदि। २. सर्प। साँप। उ०— आशीविष विषधर फणी मणी विलेशय व्याल। —नंददास (शब्द०)।

विलै पु
संज्ञा पुं० [सं०विलय] दे० 'विलय़'। उ०— दियो है न दान कछू कियो है न पुन्य रंच ऐसे हो प्रपंच बोच बै सबै विलै भई।—दीन ग्रं०, पृ०१२८।

विलोक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विलोकन'।

विलोक (२)
वि० लोकरहिन। जनहीन। निर्जन। एकांत। शून्य [को०]।

विलोकन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विचार करना। २. खोजना। ३. परिचय पाना। जानकारी पाना। ४. दृष्टि। निगाह। नजर (को०)। ५. अवलोकन। अच्छी प्रकार से देखना। उ०—वह अपलक लोचन अपने पादाग्र विलोकन करती, पथ- प्रदर्शिका सी चलती धीरे धीरे ड़ग भरती।—कामायनी, पृ०२८०।

विलोकना पु
क्रि० सं० [सं०विलोकन] १. देखना। २. अवलोकन करना। दे० 'बिलोकना'।

विलोकनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं०विलोकन] दे० 'बिलोकनि'।

विलोकनीय
वि० [सं०] १. आकर्षक। सुंदर। २. दर्शनीय। ३. सम- झने योग्य [को०]।

विलोकित (१)
वि० [सं०] १. देखा हुआ। २. परिचित। ३. परीक्षित। विचारित [को०]।

विलोकित (२)
संज्ञा पुं० १. परीक्षण। विवेचन। २. दृष्टि। ३. ताल विशेष [को०]।

विलोकी
वि० [सं०विलोकिन्] १. देखने या अवलोकन करनेवाला। २. जानकारी हासिल करनेवाला। परिचय पानेवाला [को०]।

विलोक्य
वि० [सं०] देखने योग्य। दर्शनीय [को०]।

विलोचन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नेत्र। नयन। आँख। उ०— धिक् ढोंग कर रहे हैं अब व्यर्थ ही विलोचन।—शकुं० पु० ३५। २. दृष्टि। अवलोकन। यौ०—विलोचन पथ=नेत्रव्यापार का क्षेत्र। दृष्टिपथ। लोचन- मग। विलोचनापात=दृष्टिपात। अवलोकन। निगाह करना। ३. पुराणानुसार एक नरक का नाम, जिसमें मनुष्य अंधा हो जाता है और न देखने के कारण अनेक यातनाएँ भोगता है। ३. लोचनरहित करने की क्रिया। आँखें फोड़ने की क्रिया। नेत्ररहित कर देने कि क्रिया।

विलोचन (२)
वि० विपरीतदृष्टि। वक्रदृष्टि। विकृतदृष्टि [को०]।

विलोचनांबु
संज्ञा पुं० [सं०विलोचनाम्बु] नेत्रजल। आँसू [को०]।

विलोट
संज्ञा पुं० [सं०] विलोटन। लुढ़कना [को०]।

विलोटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार कि मछली। बेला मछली।

विलोटन
संज्ञा पुं० [सं०] लुढकना [को०]।

विलोड़
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिलना डुलना। लहराना। २. लुढ़कना। लोटना। ३. मथने की क्रिया। मथन [को०]।

विलोड़क
संज्ञा पुं० [सं०] चोर। तस्कर [को०]।

विलोड़न
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंथन करना। २. हिलाना डुलाना। आंदोलित करना। इतस्ततः करना [को०]।

विलोड़ना पु
क्रि० स० [सं० विलो़डन] दे० 'बिलोड़ना'।

विलोड़ित (१)
वि० [सं०] १. कँपित। क्षुब्ध। आंदोलित। मथित उ०— हुआ विलोड़ित गृह, तब प्राणी, कौन ! कहाँ ! कब ! सुख पाते ?— कामायनी, पृ०१६। २. लुठित। लुढ़का हुआ [को०]।

विलोड़ित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] मठा। छाछ [को०]।

विलोना
क्रि० सं० [हि०] दे० 'बिलोना'।

विलोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु को लेकर भाग जाने की क्रिया। २. रुकावट।३. विघ्न। बाधा। ४. आघात। ५. नाशा। लोप।६. हानि। नुकसान।

विलोपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाश करनेवाला। २. दूर करनेवाला। ३. लेकर भागनेवाला।

विलोपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विलोप करने की क्रिय़ा। २. काटना या छिन्न करना। तो़ड़कर अलग करना।

विलोपना पु
क्रि० सं० [सं०विलोपन] १. लोप करना। नाश करना। २. लेकर भागना। ३. विघ्न ड़ालना। बाधा उपस्थित करना।

विलोपभृत
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र द्बारा निर्दिष्ट वह सेना जो केवल लूटमार का लालच देकर इकट्ठि की गई हो।

विलोपित
वि० [सं०] दे० 'विलु'। उ०—यदि मैं उसे इसी समय विलोपित कर दुँ। कबीर मं०, पृ०११।

विलोपी
संज्ञा [सं०विलोपिन्] [स्त्री०विलोपिनी] १. विलोप करनेवाला। २. नाश करनेवाला।

विलोप्ता
वि० [सं०विलोप्तृ] लूटेरा। चोर। दस्यु। ड़ाकू [को०]।

विलोप्य़
वि० [सं०] विलोप करने या होने योग्य।

विलोभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकर्षण। प्रलोभन। २. बहकावा। छलावा (को०)। ३. मोह। माया। भ्रम।

विलोभ (२)
वि० जिसके मन में किसी प्रकार का लालच न हो। लोभरहित।

विलोभन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोभ दिखाने की क्रिया। २. मोहित या आकर्षित करने का व्यापार। ३. प्रशंसा। स्तवन। चाटुकारिता (को०)। ४. कोई बुरा कार्य करने के लिये किसी को लोभ दिलाने का काम। ललचाना।

विलोभनीय
वि० [सं०] लुभानेवाला [को०]।

विलोभित
वि० [सं०] १. लुब्ध किया हुआ। लुभाया हुआ। २. छला हुआ। बहकाया हुआ। ३. प्रशंसा किया हुआ। प्रशंसित [को०]।

विलोम (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री०विलोमी] १. विपरीत। उलटा। प्रतिकूल। उ०—तुम सन कही बचन कटु बागी। अपने हाथ मीच्रु वहि माँगी। कहेसि। विलोम वचन तजि ज्ञाना। यहिकर काल आय नियराना।—सबल (शब्द०)। २. प्रतिकूल या विपरीत क्रम में उत्पन्न (को०)। ३पिछ़डा हुआ (को०)। ४. नियम वा रीति के विरूद्ध। ५. केशविहीन। रोम- रहित (को०)।

विलोम (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प। २. वरुण। ३. कुत्ता। ४. रहट। ५. क्रमविपर्यय। उलटा क्रम (को०)। ६. संगीत में ऊंचे स्वर से नीचे स्वर की ओर आना। स्वर का अवरोह। उतार। ७. ऊँचे की ओर से नीचे की ओर आना।

विलोमक
वि० [सं०] विपरीत। प्रतिकूल।

विलोम काव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह काव्य या कविता जिसके अक्षरों के उल़टकर भी पढ़ जा सके और जो पहले से भिन्न एक विशेष अर्थ दे। संस्कृत में इस प्रकार के कई काव्य प्राप्त होते हैं।

विलोम क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह क्रिया जो अंत्त से आदि की ओर को जाय। उलटी ओर से होनेवाली क्रिया।

विलोमज
वि० [सं०] वह संतान जिसकी माता पिता से उच्च वर्ण की हो [को०]।

विलोमजात
वि० [सं०] दे० 'विलोमज' [को०]।

विलोमजिह्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हाथी।

विलोमन
संज्ञा पुं० [सं०] नाट्यशास्त्र के अनुसार मुखसंधि के बारह अंगों में से एक। नायक का मन नायिका की ओर अथवा नाय़िका का मन नायक की ओर आकृष्ट करने के लिये उसके गुणों का कथन। जैसे,— रत्नावली में वैतालिक का सागरिका को लुभाने के लिय़े राजा उदय़न के गुणों का कथन।

विलोमपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] आखीर से पढ़ना। उलटा पढना। विपरीत क्रम से पढ़ना।

विलोमरसन
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी [को०]।

विलोमवर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक संकर जाति। दोगली जाति।

विलोमवर्ण (२)
वि० दे० 'विलोमज'।

विलोमविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उलटी ओर से होनेवाली क्रिया या अनुष्ठान। विलोम क्रिया। २. गणित में प्रतिलोम नियम (को०)।

विलोमा
वि० [सं०]विलोमन्] १. रोमरहित। केशहीन। २. विपरीत दिशा की ओर घूमा या मुड़ा हुआ।

विलोमाक्षर काव्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विलोम काव्य'।

विलोमित
वि० [सं०] विलोम या उलटा किया हुआ [को०]।

विलोमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँवला। आमलकी।

विलोल
वि० [सं०] १. चंचल। हिलता डुलता। अस्थिर। २. सुंदर। उ०—चपल विलोल ड़ोल वह लागी। थिर न रहे चंचल बैरागी।—जायसी (शब्द०)। ३. स्त्रस्त। ढ़ीला। अस्तव्यस्त। बिखरा हुआ (केश)। जैसे, विलोलकबरी=स्त्रस्त वेणी या केश (को०)।

विलोलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिलाना। कँपाना। २. मथना। आलोड़न [को०]।

विलोलित (१)
वि० [सं०] १. हिलाया हुआ। कंपाया हुआ। २. मथित। क्षुब्ध किया हुआ। क्षुभित [को०]।

विलोलूप
वि० [सं०] निर्लोभ। लोभरहित [को०]।

विलोहित (१)
वि० [सं०] १. नीलनोहित या धूम्रवर्ण का। २. लाल रंग का [को०]।

विलोहित (२)
संज्ञा पुं० १. शिव। रुद्र। २. लाल रंग का प्याज। ३. एक नरक का नाम [को०]।

विलोहितक
संज्ञा पुं० [सं०] वह मुर्दा जो लाल वर्ण का हो गया हो। लाल रंग का शव [को०]।

विलोहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्नाओं में से एक का नाम [को०]।

विल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. थाला। आलबाल। २. गर्त। गड्ढ़ा। ३. हींग [को०]।

विल्लसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह माता जो दस बच्चों का जन्म दे चुकी हो। दस संतानों की माँ [को०]।

विल्व
संज्ञा पुं० [सं०] बेल वृक्ष। बेल का पेड़।

विल्व तैल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का तेल। विशेष—इसे बनाने के लिये बेल की जड़ का रस, सोंठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, अपामार्ग का क्षार और जवाखार को कूटकर गोमूत्र के साथ तेल में ड़ालकर मंद आँच पर पकाते हैं। रस जलने और तेल मात्र रहने पर इसे उतार लेते हैं। कहते हैं कि इससे कान से वधिरता, कर्णस्राव, आदि रोग अच्छे हो जाते हैं।

विल्पपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बेल का पत्ता, जो शिव जो पर चढ़ाने के काम आता है। बेलपत्र।

विल्वमंगल
संज्ञा पुं० [सं०विल्वम़ड्गल] भक्त और महाकवि सूरदास का अंधे होने से पूर्व का नाम।

विल्वांतर
संज्ञा पुं० [सं०विल्वान्तर] एक वृक्ष [को०]।

विल्वेश
संज्ञा पुं० [सं०] आधुनिक भिलसा नगरी का प्राचीन नाम। विशेष—यह नगरी ग्वालियर के दक्षिण में बेतवा नदी के दाहिने किनारे पर बसी है। इसका पुराना नाम भद्रावत भी कहा जाता है।

विल्हन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का घोड़ा। विलहान। बोल्लाह। उ०—सामंतन कारन विल्हन, समपि समर जस कज्ज। पृ० रा०,६१।१४०।

विवंचिषु
वि० [सं०विवञ्चिषु] वंचक। धूर्त [को०]।

विवंदिषु
वि० [सं०विवन्दिषु] प्रशंसा करने को उत्सुक। बंदना की इच्छा रखनेवाला [को०]।

विवंधक
संज्ञा पुं० [सं०विवन्धक] १. रोकनेवाला। कोष्ठबद्बता। कब्जियत। कब्ज।

विवंधन
संज्ञा पुं० [सं०विवन्धन] रोक। बंधन। रुकावट।

विव
वि० [सं०द्बि] १. दो। २. द्बितीय। दूसरा। दे० 'विवि'।

विवकृत
पुं० [सं०] १. बहुत बोलनेवाला। वाचाल। २. स्पष्ट बोलनेवाला। ३. वक्ता। वाग्मी।

विवक्ता
संज्ञा पुं० [सं०विवक्तृ] १. कहनेवाला। २. किसी बात को प्रकट करनेवाला। ३. दुरूस्त करने या सुधारनेवाला। संशोधन करनेवाला।

विवक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कोई बात कहने की इच्छा। बोलने की इच्छा। २. अर्थ। तात्पर्य। आशय। ३. अनिश्चय। शक। संदेह। ४. इच्छा। अभिलाषा (को०)।

विवक्षित (१)
वि० [सं०] १. जिसकी आवश्यकता या इच्छा हो। इच्छित। अपेक्षित। २. कहे जाने या बोले जाने के लिये अभि- प्रेता। कथनीय (को०)। ३. उक्त। कथित। ४. अनुकूल। इष्ट। प्रिय (को०)।

विवक्षित (३)
संज्ञा पुं० १. प्रयोजन। अभिप्राय। उद्देश्य। आशय। २. जो कहने की इच्छा हो। मतलब। अर्थ [को०]।

विवक्षु
वि० [सं०] कहने बोलने को इच्छुक या तत्पर [को०]।

विवट्ट पु
संज्ञा पुं० [सं० वि + वर्त्मन, प्रा०वट्ट] कुराह। बुरी राह। वह राह जो प्रचलित न हो। उ०— अति बहुत भाँति विवट्ट वट्टहि भुलेओ बड़्डीओ चेतना।—कीर्ति०, पृ०२६।

विवत्स
वि० [सं०] वत्सरहित। पुत्रहीन [को०]।

विवत्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह जो जिसे बत्स न हो। बिना बछ़ड़े वाली गाय [को०]।

विवत्सु
वि० [सं०] बोलने को इच्छुक या तत्पर [को०]।

विवदन
संज्ञा पुं० [सं०] विवाद। झगड़ा। मुकदमेबाजी [को०]।

विवदना पु
क्रि० अ० [सं०विवाद+हि०ना] किसी वस्तु या विषय़ पर जबानी झगड़ा करना। शास्त्रार्थ करना। विवाद करना। जबानी झगड़ना। उ०—इमि विवदहिं शारद यति राजा। सुनि विस्मित सब विदुष समाजा।—शं० दि० (शब्द०)।

विवदित
वि० [सं०] १. विवाद में पड़ा हुआ। विवादग्रस्त। २. विवाद करनेवाला। ३. जिसके लिये वाद किया गया हो [को०]।

विवदिषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कहने बा बोलने की आकांक्षा [को०]।

विवदिषु
वि० [सं०] बोलने की इच्छावाला। बोलने या कुछ कहने के लिय़े तत्पर [को०]। विवाद करने की इच्छावाला।

विवध
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह लकड़ी जो बैलो के कंधों पर उस समय रखी जाती है, जब उन्हें कोई वस्तु खींचकर ले जानी होती है। जुआठा। २. भूसे या अनाज की राशि। ३. चौड़ी सड़क। राजमार्ग। ४. बोझ। भार (को०)। ५. घट। घड़ा (को०)। ६. वह आय जो शासक को प्रजा या विषय से प्राप्त होता हो। राजकर (को०)।

विवधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बंधन। २. जुआ। जुआठा [को०]।

विवधिक
संज्ञा पु० [सं०] १. बिसाती। फेरीबाला। वैवधिक। आवाज लगाकर बेचनेवाला। २. बोझा ढ़ोनेवाला। भार- वाहक [को०]।

विवर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छिद्र। बिल। २. गड्ढ़ा। दरार। गर्त। ३. गुफा। ४. कंदरा। अंतराल। बीच की जगह (को०)। ५. एकांत स्थान (को०)। ६. दोष। त्रुटि। ऐब (को०)। ७. विच्छेदजन्य घाव (को०)। ८. नौ की संख्या (को०)। ९. फैलाव। विस्तार (को०)। १०. पाताल (को०)।

विवर पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं०विवरण] ब्यौरा। विवरण। उ०— आखी जंग तणी कथ एती। सारी विवर अकब्बर सेती।—रा०, रू०, पृ०८९।

विवरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु को स्पष्ट रूप से समझाने की क्रिया। विवेचन। व्याख्या। २. सविस्तर वर्णन। वृत्तांत। बयान। हाल। ब्यौरा। ३. भाष्य। टीका। ४. उदघाटन। प्रदर्शन (को०)। ५. वाक्य (को०)। ६. खोलना। व्यक्त करना (को०)।

विवरणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०विवरण] लेखाजोखा। क्रमबद्ब विवरण।

विवरदर्शक
वि० [सं०] छिद्र देखनेवाला। दोषदर्शक [को०]।

विवरना
क्रि० अ० [सं०विवरण] दे० 'बिवरना'।

विवरनालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँसुरी। वंशी [को०]।

विवरप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. छिद्र आदि में प्रवेश करना। २. दुसरे की आकांक्षा या हृदय की बात जान लेना [को०]।

विवरानुग
वि० [सं०] दोषदर्शी [को०]।

विवर्चा
वि० [सं०विवर्चस्] निष्प्रभ। कांतिहीन [को०]।

विवर्जक
वि० [सं०] विवर्जित करनेवाला [को०]

विवर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्याग करने की क्रिया। परित्याग। २. अनादर। उपेक्षा।

विवर्जित
वि० [सं०] १. मना किया हुआ। वर्जित। निषिद्ब। २. परित्यत्क। छो़ड़ा हुआ (को०)। ३. उपेक्षित। अनादरित। ४. वंचित। रहित। ५. प्रदत्त। वितरित (को०)। ६. जिसमें से कुछ घटाया या छोड़ जाय (को०)।

विवर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साहित्य में एक भाव का नाम, जिसमें भय, मोह, क्रोध, लज्जा आदि के कारण नायक या नायिका के मुख की रंग बदल जाता है। २. वह जो जातिबहिष्कृत हो (को०)। ३. अवर जाति का व्यक्ति (को०)। ४. खराब रंगवाला।

विवर्ण (२)
वि० [सं०] १. नीच। कमीना। २. नीच जाति का। ३. नीच पेशा या व्यवसाय करनेवाला। ४. कुजाति। ५. जिसका रंग खराब हो गया हो। उ०— उल्का वज्र व धूमादि से हत विवर्ण ज्योतिहीन होने पर। बृहत्संहिता, पृ० ८२। ६. रंग बदलनेवाला। ७. बदरंग। बुरे रंग का। ८. जिसके चेहरे का रंग उतरा हो। कांतिहीन। ९. अज्ञानी। मूढ़। निरक्षर (को०)।

विवर्णित
वि० [सं०] निंद्य। गर्हित [को०]।

विवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुदाय। समुह। राशि। २. नाच। नृत्य। ३. रूपांतर। परिवर्तन। ४. आकाश। ५. आगे जाना या पीछे लौटना (को०)। ६. भ्रांति। भ्रम। ७. अविद्या द्बरा उत्पन्न मिथ्या रूप या भ्रमात्मक ज्ञान (वेदांत)। ८. गोलाई में चक्कर खाना। वृत्त में घूमना (को०)। ९. आवर्त। भंवर (को०)।

विवर्तकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] वह कल्प जिसमें लोक क्रमशः उन्नति से अवनित को प्राप्त होता है।

विवतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिभ्रमण। घूमना। फिरना। २. नाच। नृत्य। ३. चक्कर काटना। परिक्रमण। ४. लुढ़कना। ५. इधर से उधर करवटें बदलना। विविध प्रकार के संताओं और स्थितियों में से गुजरना। उ०—विकल विवर्तनों से श्रमित नमित सा।—लहर, पृ० ६२। ७. विद्यमान रहना। रहना (को०)। ८. संमान के साथ अभिवादन (को०)। ९. परिवर्तित दशा (को०)। १०. प्रदक्षिणा। परिक्रमा (को०)।

विवर्तमान
वि० [सं०विवर्तमत्] १. जो घूम रहा हो। भ्रममय। आवर्तशील। २. परिवर्तित होता हुआ। परिवर्तनशील। उ०— जिसकी प्रसरणशीला प्रतिभा विभूति से विवर्तमान समस्त (वाडःमय) काव्य़ गीतादिक उत्पन्न होकर सनातनी चेतना की भाँति जगत् में फैल रहे हैं। —संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ११२।

विवर्तवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वेदांत में एक सिद्धांत जिसके अनुसार ब्रह्मा को सृष्टि का मुख्य उत्पत्तिस्थान और संसार को मया मानते हैं। परिणामवाद।

विवर्तस्थायी कल्प
संज्ञा पुं० [सं०विवर्तस्थायि कल्प] वह समय जब लोक अवनति की पराकाष्ठा को पहुँचकर शून्य दशा में रहता है। कल्पांत। प्रलय।

विवर्तित
वि० [सं०] १. परिवर्तित। बदला हुआ। २. भ्रमित। घूमा हुआ। ३. उखड़ा हुआ। सरका हुआ। ४. अंग जिसमें मोच आ गई हो। जैसे, हाथ पैर का विवर्तित होना। ५. निवारित (को०)। ६. स्थानभ्रष्ट (को०)। ७. तो़ड़ा हुआ। खंड़ित (को०)। ८. उन्मीलित। प्रकट किया हुआ। व्यक्त (को०)।९. संकोचित। सिकोड़ा हुआ (को०)।

विवर्तिताक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] आँख घुमानेवाला, मुर्गा। अरूण- शिखा। कुक्कुट।

विवर्त्ती
वि० [सं०विवर्तिन्] १. परिवर्तित होनेवाला। २. घूमनेवाला ३. रहनेवाला। ४. चक्कर खानेवाला।

विवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं०विवर्त्मन्] कुराह। कुपथ [को०]।

विवर्द्धन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बढ़ाने या वृद्धि करने की क्रिया। २. वृद्धि। बढ़ती। उन्नति। ३. विभाजन। विखंड़न (को०)।

विवद्धिंत
वि० [सं०] १. बढ़ा हुआ। वृद्धिप्राप्त। २. उन्नतिप्राप्त। उन्नत। ३. संतुष्ट। प्रसन्न (को०)। ४. विभक्त। खंड़ित (को०)।

विवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विवर्द्धन'।

विवर्धित
वि० [सं०] दे० 'विवर्द्धित'।

विवश
वि० [सं०] जिसका कुछ वश चले। लाचार। बेबस। मजबूर। उ०— विवश आया विछड़ने का समय दोनों ओर। बिछड़कर भी वे परस्पर बन गए चित चोर।—शकुं० पृ० ९। २. पराधीन। परवश। ३. जो काबू में न आवे। स्वाधीन। ४. जिसमें कोई शक्ति या बल न हो। अशक्त। ५. मृत। नष्ट (को०)। ६. मृत्युकामी। मृत्यु की आशंका करनेवाला (को०)। ७. जिसका अपने ऊपर वश न हो। बेहोश (को०)।

विवशता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परवशता। पराध़ीनता। २. लाचारी। मजबूरी [को०]।

विवस
वि० [सं०विवश] दे० 'विवश'। उ०— पाछे केतेक दिन कों नारायनदास वार्ता के रस में विवस भए। दो सौ बावन०, भा०,१, पृ०११८।

विवसता पु
संज्ञा स्त्री० [सं०विवशता] दे० 'विवशता'।

विवसन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दिगंबर जैन।

विवसन (२)
वि० [वि० स्त्री०विवसना] दे० 'विवस्त्र'। उ०— पीली पड़, निर्बल, कोमल कृश देहलता कुम्हलाई। विवसना, लाज में लिपटी साँसों में शून्य समाई।—गुंजन पृ० २६।

विवसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भोज के मत से प्रवहिका या अतीसार रोग का एक भेद। उ०— भोज ने इस रोग (प्रवाहिका) का नाम विवसी कहा है।—माधव०, पृ० ४८।

विवस्तु पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपदार्थ। नाचीज। उ०— न तहाँ तत्व अतत्व विभेदा। न तहाँ वस्तु विवस्तु न वेदा। सुंदर० ग्रं०, भा०,१, पृ० ११३।

विवस्त्र
वि० [सं०] जिसके शरीर पर वस्त्र न हो। वस्त्ररहित। नग्न। नंगा।

विवस्था †
संज्ञा स्त्री० [सं०व्यवस्था] दे० 'व्यव्स्था'। उ०— परदेस में जो कहुँ ऐसे पत्र जात रहे तो कहाँ विवस्था होइ।—दो सौ बावन०, भा०,१, पृ० २०५।

विवस्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की नगरी।

विवस्वत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. अर्क वृक्ष। ३. सूर्य का सारथी, अरूण। ४. पंद्रहवें प्रजापति। वर्तमान। मनु का नाम। ५. देवता। देव (को०)। ६. एक दैत्य (को०)।

विवस्वान्
संज्ञा पुं० [सं० विवस्वत् शब्द का कर्ता एकवचन का रूप] दे० 'विवस्वत्'।

विवह (१)
वि० [सं०विविध; प्रा०, विविह] दे० 'विविध'। उ०—(क) दीसइ विवह चरीयं, जाणिज्जइ सयण दुज्जण सहावों। अप्पाणं च कलिज्जइ हिंड़िज्जई तेणा पुहवीए।—ढ़ोला०, दू०, २३४।(ख) वारोठ विवह वस्तह समझि, सह चक्रत पिष्षत रहिय।—पृ० रा०,१४।२४।

विवह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि की सात जिह्माओँ में से एक का नाम। २. सात पवनों में से एक का नाम [को०]।

विवहार पु
संज्ञा पुं० [सं०व्यवहार] दे० 'व्यवहार'। उ०—(क) विवहार धरै वरनं सु बरं। पढ़ि पिंगल बाहन केन हरे।— पृ० रा०,२५।२०७।(ख) विवहार विवुध जोतिग गिनत सलष सुष्ष जात न कहिय। —पृ० रा०,१४।२४।

विवाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो शास्त्रार्थ में दोनों पक्षों के तर्क को देखकर न्याय करे। न्यायाधीश। २. मध्यस्थ।

विवाचन
संज्ञा पुं० [सं०] बिचवई। मध्यस्थता [को०]।

विवच्य
वि० [सं०] सुधारने लायक। [को०]।

विवात
संज्ञा पुं० [सं०] आँधी। प्रबल पवन। प्रभंजन [को०]।

विवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी बात या वस्तु पर जबानी झगड़ा। वाक् युद्ब। २. झगड़ा। कलह। मुहा०—विवाद उठाना=किसी बात पर मतभेद प्रकट करना और उसके उत्तर की आशा करना। झगड़ा उठाना। ३. मतभेद। ४. मुकदमेबाजी। अदालत की लड़ाई। ५. जोर से चिल्लाना (को०)। ६. आदेश। आज्ञा (को०)।

विवादक
संज्ञा पुं० [सं०] विवाद करनेवाला। झगड़ालू।

विवादपद
संज्ञा पुं० [सं०] विवाद का विषय [को०]।

विवादवस्तु
संज्ञा स्त्री० [सं०] विवाद या झगड़े का विषय [को०]।

विवादार्थी
संज्ञा पुं० [सं०विवादार्थिन्] १. वादी। २. मुकदमा चलानेवाला व्यक्ति। अभियोक्ता [को०]।

विवादास्पद
वि० [सं०] जिसपर विवाद या झगड़ा हो। विवाद योग्य़। विवादय़ुक्त। जैसे,— अभी इस विषय में कुछ निश्चय नहीं हुआ है; यह विवादास्पद है।

विवादी
संज्ञा पुं० [सं०विवादिन्] १. विवाद करनेवाला। कहा सुनी या झगड़ा करनेवाला। २. मुकदमा लड़नेवालों में सें कोई एक पक्ष। मुद्दई और मुद्दालेह। ३. संगत में वह स्वर जिसका किसी राग में बूहुत कम व्यवहार हो।

विवाधिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो कंधे पर चींजे ढ़ोकर ले जाय। २. घूम घूमकर चीजें बेचनेवाला। फेरीदार। दे० 'विवधिक'।

विवान पु
संज्ञा पुं० [सं०विमान] दे० 'विमान'। उ०— ठननंकि घंट घंटिय परहि कज्जल कूट विवान भ्रप —पृ० रा०,२५। ७४६।

विवार
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यादन। फैलाना। २. अक्षर के उच्चारण में होनेवाला कंठ का फैलाव। ३. एक आभ्यंतर प्रयत्न जो संवार प्रयत्न के विपरीत होता है। उ०— अल्पप्राण, महाप्राण, विवार, संवार, बाह्म, आभ्यंतर प्रयत्नादिक अक्षरोच्वारों की एवं उदात्तानुदात्त स्वारितादिक स्वरोच्चारों की शुद्धता कितनी महत्वपूर्ण मानी जाती थी। —संपूर्ण० अभि० ग्रं०, पृ०२८०।

विवारी
वि० [सं०विवारिन्] वारण करनेवाला। रोकनेवाला [को०]।

विवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. निर्वासन। निष्कासन। २. वियोग [को०]।

विलासकरण
संज्ञा पुं० [सं०] निष्कासन। निर्वासन [को०]।

विवासकाल
संज्ञा पुं० [सं०] प्रातःकाल। सूर्योदय वेला [को०]।

विवासन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विवास'।

विवासित
वि० [सं०] निष्कासित। निर्वासित [को०]।

विवास्य
वि० [सं०] निकाल देने योग्य़।

विवाह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रथा जिसके अनुसार स्त्री और पुरूष आपस में दांपत्य सूत्र में बँधते है। कहीँ यह प्रथा सामजिक होती है, कहीं धार्मिक और कहीं कानून के अनूसार होती है। यह हिदुओं के सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है। शादी। ब्याह। विशेष—मनुष्य जाति जब आदिम असभ्यावस्था में थी, उस समय उसमें विवाह या पतिसंवरण की प्रथा न थी। केवल कामवेग के कारण स्त्री पुरूषों का समागम हुआ करता था। यह प्रथा अब भी कुछ असभ्य जातियों में प्रचलित है। महाभारत में लिखा है।—'प्राचीन काल में स्त्रियाँ नंगी रहती थीं। वे स्वतंत्र और विहरिणी होती थीं और बिना ब्याह किए ही अनेक पुरुषों से समागम करती थी।' उनका यह कृत्य अधर्म नहीं समझा जाता था। सभ्यता बढ़ने पर लोगों को घर बनाने और एक ऐसे व्यक्ति को अपने यहाँ रखने की आवश्यकता हुई जो उसका प्रबंध कर सके। इसके लिये स्त्रियाँ उपयुक्त समझी गई। अतःलोगों ने उनको फुसलाकर अथवा बलात् अपने यहाँ रखना आरंभ किया। उन दिनों स्त्री एक पुरूष के अधिकार में तबतक रहती थी जबतक कोई दूसरा उससे बली पूरूष उसे बलपूर्वक छीन न ले जाता था। अतः अब ऐसा नियम बनाने की आवश्यकता हुई कि एक दूसरे की स्त्री को हरण न कर सके। पर स्त्रीस्वतंत्रता में बाधा नहीं थी। जब आयों की सभ्यता बढी और उनमें वर्णधर्म स्थापित हो चला, तब लोग संभुक्त स्त्री को अपने यहाँ रखने की अपेक्षा असंभुक्त या कन्या को अच्छा समझते थे। कन्या के लिये कभी कभी युद्ब भी हुआ करते थे। धीरे सभ्यता बढ़ती गई और लोगों में स्त्री पुरूष की ममता अधिक होती गई। पर स्त्रियों की स्वतं- त्रता बनी रही। वे एक पुरुष के अधिकार में रहते हुए भी अन्य की कामना करती थीं। उस समय यह व्यभिचार नहीं समझा जाता था। महाभारत से पता चलता है कि इस प्रथा को उद्दालक ऋषि के पुत्र श्वेतकेतु ने उठा दिया। उन्होने यहमर्यादा बाँधी कि पति के रहते हुए कोई स्त्री उसकी आज्ञा के विरुद्ध अन्य़ पुरूष से संभोग न करे। पर उस समय भी पति की अयोग्यता की अवस्था में उसके रहते स्त्रियाँ दुसरा पति कर लेती थीं। महर्षि दीर्घतमा ने यह प्रथा निकाली कि 'यावत् जीवन स्त्रियाँ पति के अधीन रहें। पति के जीवनकाल में तथा उसके मरने पर भी वे कभी परपुरुष का आश्रय न लें और य़दि आश्रय लें, तो पतित समझी जायँ। धीरे धीरे स्त्रियों की स्वतंत्रता जाती रही और वे उपभोग की सामग्री समझी जाने लगीं। यहाँ तक कि लोग उन्हें पति के मरने पर उसके शव के साथ अन्य आमोद प्रमोद की वस्तुयों की भाँति जलाने लगे जिसमें मरे हुए व्यक्ति को वे स्वर्ग में मिलें इसी प्रथा ने पीछे सती की प्रथा का रूप धारण किया। पीछे से आर्य जाति व्यसनी हो गई। एक पुरूष अनेक स्त्रियाँ रखने लगा; यहाँ तक कि तपस्वी भी इससे नहीं बचे थे। याज्ञवल्कय के दो स्त्रियाँ (मैत्रेयी और गार्गी) थीं। आर्य लोग अनार्य स्त्रियों को भी नहीं छोड़ते थे। इस कारण यह नियम बनाना पड़ा कि यज्ञदीक्षा के समय रामा अर्थात् शूद्रा से गमन न करे। पीछे से राजा वेणु ने अपने वंश की रक्षा के लिये जबर्दस्ती 'नियोग' की प्रथा चलाई। मनु जो ने उनकी निंदा की है। वे लिखते है—'राजर्षि' वेणु के समय में विद्वान् द्विजों ने मनुष्यों के लिये इस पशु धर्म (नियोग) का उपदेश किया था। राजर्षिप्रवर वेणु समस्त भूमंड़ल का राजा था। उसी कामी ने वर्णों का घालमेल किया।' उस समय तक विवाह दो प्रकार के होते थे। एक तो छीन झपटकर, लड़ भिड़कर या यों ही कन्या को फुसलाकर अपने यहाँ ले आते थे। दूसरे यज्ञों के समय यजमान अपनी कन्याएँ पुरोहितों को च हे दक्षिणा के रूप में या धर्म समझकर दे देते थे। धीरे धीरे जब विवाह की यह प्रथा अनुचित मालूम हुई, तब विवाह का अधिकार पिता के हाथ में दे दिया गया और पिता योग्य वर्णों को एक समाज में बुलाकर कन्याओं को उनमे से एक को चुनने का अधिकार देता था। यही आगे चलकर स्वयंवर हुआ। कभी कभी स्वयंवर के मौके पर भी क्षत्रिय लोग लड़कियाँ उठा ले जाते थे। विवाह के समय प्रायःवर की २५वर्ष और कन्या की१६वर्ष की अवस्था होती थी; अतः विधवा होने की कम संभावना रहती थी। धीरे धीरे 'नियोग' की प्रथा मिट गई। विधवा का विवाह भी बुरा समझा जाने लागा। सभ्यता के बढ़ने पर पुरुष लोग स्त्रियों पर कड़ी दृष्टि रखने लगे और उनकी स्वतंत्रता जाती रही। स्त्रियों की अस्वतंत्रता हो जाने पर पुरुषों में बहुविवाह की प्रथा चल पड़ी। पीछे बुद्ध के समय में एक बार स्त्रियों की स्वतंत्रता फिर बढ़ी। पर बौद्ब मत का लोप होने पर वह फिर जाती रही। मुसलमानों के आने पर स्त्रियों की रक्षा करने के लिय़े हिंदुओं ने उनका जल्दी विवाह करना आरंभ किया, क्योंकि उस समय मुसलमान लोग विवाहित स्त्रियों पर बलातकार करना धर्मवरुद्ध समझते थे। इसी से बाल विवाह की प्रथा चली। विवाह आठ प्रकार के माने गए हैं—ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच। पर आजकल केवल ब्राह्म विवाह प्रचलित है। पर्या०—दारकर्म। परिणय। पाणिग्रहण। यौ०—विवाहकाम=विवाह की इच्छा रखनेवाला। विवाहार्थी। विवाहचतुष्टय=चार विवाह करना। विवाहदीक्षा=विवाह- विधि।विवाह नेपथ्य=विबाह के समय वर और वधू द्वारा धारण किया जानेवाला वेश। विवाहबंधन। विवाहविच्छेद =पालक। पतिपाली का परस्पर संबंध तोड़ना।विवाहविधि= विवाह का विधान या नियम। विवाहवेष=विवाह के समय वर वधू की वेशभूषा। विवाहनेपथ्य।

विवाहना
क्रि० सं० [सं०विवाह+हि० ना० (प्रत्य०)] दे० 'ब्याहना'।

विवाहबंधन
संज्ञा पुं० [सं०विवाह+बन्धन] विवाह के द्वारा पत्नी के साथ हो जानेवाला दृढ़ संबंध। पति और पत्नी का धार्मिक संबंध। उ०— मै पुनःहुआ चेतन। सोचता हुआ विवाहबंधन।— अपरा, पृ०१७५।

विवाहित
वि० [सं०] [वि० स्त्री०विवाहिता] जिसका विवाह हो गया हो। ब्याहा हुआ।

विवाहिता
वि० स्त्री० [सं०] जिसका पाणिग्रहण हो चुका हो। ब्याही हुई स्त्री।

विवाही
वि० स्त्री० [सं०बिवाहिता] जिसका विवाह हो चुका हो। उ०— और सहेली सवै विवाहीं। मों कह देव कतहुँ बर नाहीं।—जायसी (शब्द०)।

विवाह्य (१)
वि० [सं०] पाणिग्रहण करने योग्य। ब्याह करने योग्य। ब्याहने लायक।

विवाह्य (२)
संज्ञा पुं० १. दामाद। जामाता। २. दुल्हा। वर [को०]।

विवि पु
वि० [सं० द्वी] १. दो। २. दूसरा। उ०— श्रीफल कंज- कली से विराजत कै विवि मौनी बसे ढ़िग गंग के। कै गिरि हेम कै संपुट साने कै राजत संभु मनो रस रंग के।—द्वीज (शब्द०)।

विविक्त (१)
वि० [सं०] १. पृथक् किया हुआ। उ० साध्य और साधनों को विविक्त करके काव्य के नित्य स्वरूप या मर्मशरीर को अलग निकालने का प्रयास बढ़ता गया।—रस० पृ० ५०। २. बिखरा हुआ। ३. पवित्र। ४. विजन। निर्जन। ५. एकाकी। अकेला (को०)। ६. विवेकशील। विवेकयुक्त (को०)। ७. विवेचित। व्याख्यात (को०)। ८. गूढ। गहन। सूक्ष्म (विचार या निर्णय)। ९. मुक्त। रहित (को०)। १०. ज्ञात। व्य़क्त। सुस्पष्ट। उ०— दर्शकों को ऐसा विविक्त रसानुभव होता है जो और रसों के समकक्ष है।—रस०, पृ० १८५।

विविक्त (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री०विविक्ता] १. संन्यासी। त्यागी। २. एकांत स्थान। ३. अकेलापन। एकाकीपन (को०)। ४. स्वच्छता। शुद्धता। पवित्रता (को०)।

विविक्तचरित
वि० [सं०] जिसका आचरण बहुत अच्छा और पवित्र हो। शुद्ध चरित्रवाला।

विविक्तचेता
वि० [सं०विविक्तचेतस्] स्वच्छ हृदयवाला [को०]।

विविक्तदृष्टि
वि० [सं०] १. स्पष्ट दृष्टिवाला। २. सुक्ष्मदर्शी [को०]।

विविक्तनाम
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार हिरण्यरेता के सात पुत्रों में से एक। २. इसके द्वारा शासित वर्ष का नाम।

विविक्त शय्यासन
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार वह आचार जिसमें त्यागी सदा किसी एकांत स्थान में रहता और सोता है।

विविक्तशरण
वि० [सं०] एकांतवास चाहनेवाला [को०]।

विविक्तसेवी
वि० [सं०विविक्तसेविन्] एकांत में या अकेला रहनेवाला [को०]।

विविक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भाग्यहीना स्त्री जिसे उसका पति न चाहता हो। दुर्भगा [को०]।

विविक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अलगाव। पार्थंक्य। २. विवेक करना। विवेचन [को०]।

विविग्न
वि० [सं०] १. उद्विग्न। क्षुब्ध। २. अत्यंत क्रुद्ध। ३. शंका- युक्त। बहुत ड़रा हुआ (को०)।

विविचार
वि० [सं०] १. विचारहित। विवेकरहित। उ०—हौं अपने विविचार विचार अचार विचार अपार बहाऊँ धीरज धूरि मिलै कहि केशव धर्म के धामिन धूरि जमाऊँ।—केशव (शब्द०)। २. आचाररहित। आचारहीन।

विविचारी
संज्ञा पुं० [सं०विविचारिन्] [स्त्री०विविचारिणी] १. अविवेकी। मूर्ख। बेवकूफ। २. दुराचारी। दुश्चारित्र। बदचलन।

विविच्च
वि० [सं०विविक्त/?/विविच्+क्त], [प्रा० विविक्क] विविक्त। पृथग्भूत। विविध। उ०—विविच्च रोम रंगय। पदील सुत्त रंगयं। पृ० रा०,५७।१२९।

विवित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राप्ति। उपलब्धि [को०]।

विवित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिज्ञासा। जानने की इच्छा [को०]।

विवित्सु
वि० [सं०] जिज्ञासु। जानने की इच्छा रखनेवाला [को०]।

विविदिषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्ञानप्राप्त की इच्छा जानने की कामना। उ०—इनके अलावा धृति, श्रद्बा, सुखा, विविदिष अविविदिषा, इत्यादि की भाववस्तृत व्याख्या की है। —हिंदु० सभ्यता, पृ० १९८।

विविदिषु
वि० [सं०] जानने की इच्छा रखनेवाला। ज्ञानप्राप्ति का अभिलाषी [को०]।

विविध (१)
वि० [सं०] बहुत प्रकार का। अनेक तरह का। भाँवि भाँति का। जैसे, —विविध विषयों से विभूषित मासिक पत्रिका उ०—अति रति गति मति एक करि, विविध विवेक विलास। रसिकन को रसिकप्रिया कीन्हीं केशवदास।—केशव (शब्द०)।

विविध (२)
संज्ञा पुं० कार्य या चेष्टा का वैविध्य।

विविर
संज्ञा पुं० [सं०] १. खोह। गुफा। उ०— विविर जाय सुख पाय, पायो महाप्रसाद पुनि। तहँ के तीर्थ निकाय जाय़ जाय सादर कियो।—(शब्द०)। २. बिल। ३. दरार।

विविह
वि० [सं०विविध, प्रा०विविह, विवह] अनेक प्रकार का। भाँति भाँति का। उ०—दीसै विविह चरियं। जानिज्जै सज्जन ठ्टज्जन।—पृ० रा०,६१।५०७।

विवीत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जो चारों ओर से घिरा हो। बाड़ा। २. पशुओं के चराने का स्थान जो चारों ओर से घिरा हो।

विवीतभर्ता
संज्ञा पुं० [सं०विवीतभर्तृ] चरागाह का मालिक [को०]।

विवीताध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार चरागाहों का निरीक्षक कर्मचारी।

विवुध पु
संज्ञा पुं० [सं०विबुध] १. देवता। २. पंड़ित। ज्ञानी। उ०— इसलिये पहिले पहल दृश्य काव्य के आधार से ही इस- की और विवुधों का विचार आकर्षित हुआ।—रस०, पृ०१९।

विवुधपुर पु
संज्ञा पुं० [सं०विबुधपुर] देवताओं का देश, स्वर्ग।

विवुधप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०विबुधप्रिया] एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में र, स, ज, ज, भ, और र गण होते है। इसे 'चंचरी' 'चंचली' और 'चर्चरी' भी कहते हैं।

विवुधबैद पु
संज्ञा पुं० [सं०विबुधवैद्य] दे० 'विबुधवैद्य'।

विवुधवन पु
संज्ञा पुं० [सं०विबुधवन] देवताओँ का प्रमोदवन, नंदनकानन।

विवुधवैद्य पु
संज्ञा पुं० [सं०विबुधवैद्य] देवताओं के चिकित्सक, अश्विनी कुमार।

विवुधेश पु
संज्ञा पुं० [सं०विबुध + ईश] देवताओँ का राजा। इंद्र।

विवृक्त
वि० [सं०] परित्त्यक्त। त्यागा हुआ [को०]।

विवृक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्भगा स्त्री। पति द्वारा परित्यक्ता स्त्री। विविक्ता [को०]।

विवृत (१)
वि० [सं०] १. विस्तृत। फैला या फैलाया हुआ। २. खुला हुआ। अनावृत। ३. नग्न। ४. तृण, तरु से विहीन (को०)। ५. प्रदर्शित। प्रकटीकृत। अभिव्यक्त (को०)। ६. जिसकी व्याख्या या टीका की गई हो। व्याख्यात (को०)। ७. स्पष्ट। प्रत्यक्ष (को०)। ८. उद्धोषित। घोषित (को०)।

विवृत (२)
संज्ञा पुं० १. व्याकरण और भाषाविज्ञान के अनुसार कतिपय़ ध्वनियों के उच्चारण करने का एक प्रयत्न। २. प्रदर्शित या व्यक्त करने की क्रिया। प्रकाशन (को०)। ३. खुली जमीन। अनावृत भूमि। परती जमीन (को०)।

विवृतद्वार
वि० [सं०] १. उन्मुक्त। अनियंत्रित। २. जिसका द्बार खुला हो। ३. सीमाहीन [को०]।

विवृतपौरुष
वि० [सं०] शक्ति का प्रदर्शन करनेवाला [को०]।

विवृतभाव
वि० [सं०] खुले हुए हृदयवाला। साफ दिल का। निष्कपट का भाव [को०]।

विवृतस्मय़न
संज्ञा पुं० [सं०] वह हँसी जिसमें सभी दाँत दिखाई पड़ जायँ। खुली हँसी [को०]।

विवृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] योनि का एक रोग, जिसमें गूलर के फल के सदृश मंड़लाकार फुंसियाँ होती है और योनि में बहुत जलन होती है।

विवृताक्ष (१)
वि० [सं०] विशाल नेत्रवाला। बड़ी आँखोंवाला [को०]।

विवृताक्ष (२)
संज्ञा पुं० मुरगा। ताम्रचूड़। तमचुर। कुक्कुट [को०]।

विवृतानन
वि० [सं०] जिसका मुख खुला हो। खुले मुँहवाला [को०]।

विवृतास्य
वि० [सं०] दे० 'विवृतानन'।

विवृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चक्र के समान घूमने की क्रिया। परिभ्रमण। २. टीका। भाष्य। ३. विस्तार। ४. प्रदर्शन। प्रकटीकरण। अनावरण। व्यक्तीकरण। उ०—वेदना की अधिक विवृत्ति हम काव्यशिष्टता के विरुद्ध समझते हैं।—चिंतामणि, भा० २, पृ०१०१।

विवृतोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अलंकार जिसमें श्लेष से छिपाया हुआ अर्थ कवि स्वयं अपने शब्दों द्वारा प्रकट कर देता है।

विवृत्त
वि० [सं०] १. परावर्तित। लौटा हूआ। २. भ्रमण करता हुआ। ३. चतुर्दिक् चक्कर खाता हुआ। ४. निरावृत। अनावृत। व्यक्त। ५. ऐँठा या मुडा़ हुआ [को०]।

विवृत्तदंष्ट्र
वि० [सं०] जिसके दाँत दिखाई पड़ते हों। खुले हुए मुँहवाला [को०]।

विवृत्तवदन
वि० [सं०] मुँह मोड़ लेनेवाला [को०]।

विवृत्तांग
वि० [सं०विवृत्त+अङ्ग] पीड़ा से जिसके शरीर में ऐंठन हो रही हो [को०]।

विवृत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का चर्मरोग [को०]।

विवृत्ताक्ष
वि० [सं०] मुर्गा। कुक्कुट। विवृताक्ष [को०]।

विवृत्तास्य
वि० [सं०] जिसका मुँह खुला हो।

विवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विवृत्त होने का भाव या क्रिथा। विस्तार। फैलाव। २. चक्कर खाना। घूमना। ३. लुढ़कना। ४. व्याकरण में उच्चारणभंग [को०]।

विवृद्ध
वि० [सं०] १. वृद्धिगत। बढ़ा हुआ। तीव्र। २. पूर्ण विक- सित। प्रौढ़। ३. शक्तिमान्। ४. विपुल। बहुत अधिक। प्रचुर [को०]।

विवृद्धमत्सर
वि० [सं०] जिसका मत्सर या द्वेष अधिक बढ़ गया हो। विवृद्धमन्यु [को०]।

विवृद्धमन्यु
वि० [सं०] क्रुद्ध। विवृद्धमत्सर।

विवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उन्नति। २. समृद्धि। ३. वर्धन। वृद्धि। ४. बढ़ाव। बाढ़ [को०]। यौ०—विवृद्धिभाक्=उन्नतिशील। वर्धनशील।

विवृह
संज्ञा पुं० [सं०] अलग होनेवाला। जो अन्य या दुसरों से स्वयं अलग हो जाय़ [को०]।

विवेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भली बुरी वस्तु का ज्ञान। सत् असत् का ज्ञान। २. मन की वह शक्ति जिससे भले बुरे का ज्ञान होता हो। अच्छे और बुरे को पहचानने की शक्ति। ३. समझ। विचार। बुद्बि। ४. सत्य ज्ञान। ५. प्रकृत्ति और पुरुष की विभिन्नता का ज्ञान। ६. पानी रखने का एक प्रकार का बरतन। जलपात्र। ७. जैनों के अनुसार बहुत ही प्रिय पदार्थों का त्याग। ८. भेद। अंतर। प्रभेद (को०)। यौ०—विवेकख्याति=यथार्थ या वास्तविक ज्ञान। विवेकज्ञान= विवेचन की योग्यता। न्यायबुद्धि। विवेकपदवी=विचारणा। विवेचना। चिंतन। विवेकपरिपंथा=न्याय में बाधक। विवेक- भाक्=विवेकी। बुद्धिमान्। विवेकमंथरता=विवेक की दुर्बलता। विवेकविरह=विवेक से रहित होना। अविवेकिता मूर्खता। विवेकविश्रांत=मूर्ख। बुद्धिहीन। विवेकशील। विवेकशून्य़।

विवेकज्ञ
वि० [सं०] विवेक करनेवाला। विवेकी [को०]।

विवेकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विवेक का भाव। ज्ञान। २. सत् और असत् का विचार।

विवेकदृश्वा
संज्ञा पुं० [सं०विवेकदृश्वन्] विचारवान् या दूरदर्शी व्यक्ति। विवेकी पुरुष [को०]।

विवेकवान्
संज्ञा पुं० [सं०विवेकवत्] १. वह जिसे सत् और असत् का ज्ञान हो। अच्छे बुरे को पहचाननेवाला। २. बुद्धिमान्। अक्लमंद। विवेकी।

विवेकशील
वि० [सं०] विवेकवान्। सत् और असत् का ज्ञान रखनेवाला। उ०— उसे ही सत्य का अंतिम बिंदु क्या कोई विवेक- शील साहित्य़कार स्वीकार कर सकता है।—हिंदी का०, पृ० ४।

विवेकशून्य
वि० [सं०] भले और बुरे का ज्ञान न रखनेवाला। उ० उद्धत— विवेकशून्य, चाहिए उन्हें कि शक्ति अपनी वे पहचानें।—अपरा०, पृ०९४।

विवेकी
संज्ञा पुं० [सं०विवेकिन्] १. वह जिसे विवेक हो। भले बुरे का ज्ञान रखनेवाला। २. विचारवान्। बुद्बिमान्। समझदार। ३. ज्ञानी। ४. न्यायशील। ५. वह जो अभियोगों आदि का न्याय करता हो। न्यायाधीश। ६. दार्शनिक (को०)।

विवेख, विवेखा †
संज्ञा पुं० [सं०विवेक] दे० 'विवेक'। उ०— और सुनो गुरुमुख का लेखा। भक्त होय सो करै विवेखा।—कबीर सा०, पृ० ८२३।

विवेचक
संज्ञा पुं० [सं०] विवेचना करनेवाला। विवेकी।

विवेचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु की भली भाँति परीक्षा करना। जाँचना। २. यह देखना कि कौन सी बात ठीक है और कौन नहीं। निर्णय। ३. व्याख्या। तर्क वितर्क। ४. अनुसंधान। ५. परीक्षा। ६. सत् असत् का विचार।७. मीमांसा।

विवेचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विवेचन'।

विवेचनीय
वि० [सं०] विवेचन करने योग्य। विचार करने लायक।

विवेचित
वि० [सं०] १. जिसकी विवेचना की गई हो। जिसका अनुसंधान किया गया हो। निर्णय किया हुआ। २. तै किया हुआ। निश्चित।

विवेष पु
संज्ञा पुं० [सं०विवेक] दे० 'विवेक'। उ०— पढै गुणै औ घट पड़ै जो गुर पथं त्र विवेष पायक चेतन कोटवालं।— रामानंद० पृ० १५।

विव्वोक
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य शास्त्र के अनुसार एक हाव जिसमें स्त्रियाँ संभोग के समय प्रिय का अनादर करती हैं।

विशंक
वि० [सं०विशङ्क] जिसे किसी प्रकार की शंका या भय न हो। निःशंक। निर्भय। निड़र।

विशंकट
वि० [सं०विशंङ्कट] [वि० स्त्री०विशंकटा, विशंकटी] १. बहुत बड़ा या विस्तृत। विशाल। २. प्रचंड़। शक्तिशाली (को०)। ३. भयानक। ड़रावना।

विशंकनीय
वि० [सं०विशङ्कनीय] जिससे किसी प्रकार की शंका हो। ड़रने योग्य। संदेहास्पद। शंकनीय।

विशंका
संज्ञा स्त्री० [सं०विशङ्का] १.आशंका। भय। डर। २. आशंका का अभाव।

विशंकी
वि० [सं०विशङ्किन्] जिसे किसी प्रकार की आशंका या भय हो।

विशंक्य
वि० [सं०विशङ्कय] आशंका या भय करने योग्य।

विशंभर पु
संज्ञा पुं० [सं०विश्वभ्भर] दे० 'विश्वंभर'। उ०— द्वंद हरण गोविंद तरण भव सिंधु विशंभर।—राम० धर्म०, पृ० ३०२।

विशंवरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा गाँव। पुरा। पुरवा [को०]।

विश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल की डंड़ी। मृणाल। २. चाँदी। ३. मनुष्य। आदमी। ४. मृणालसुत्र या तंतु। कमल की ड़ंठी का रेशा (को०)।

विश (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०विश्] कन्या। लड़की।

विशकंठा
संज्ञा स्त्री० [सं०विशकण्ठा] १. बक पक्षी। बलाका। २. कमल के नाल के समान कंठवाली स्त्री [को०]।

विशकलित
वि० [सं०] जो अलग या विभक्त हो। विभिन्न। सुस्पष्ट [को०]।

विशद (१)
वि० [सं०] १. स्वच्छ। विमल। २. साफ। स्पष्ट। ३. जो दिखाई पड़ता हो। व्यक्त। ४. सफेद। ५. प्रसन्न। खुश।६. सुंदर। मनोहर। खूबसूरत। ७. अनुकूल। ८. शांत। निश्चिंत (को०)। ९. कोमल। मुलायम।

विशद (२)
संज्ञा पुं० १. सफेद रंग। २. भागवत के अनुसार जयद्रथ के एक पुत्र का नाम। ३.कसीस। ४. बृहती। बड़ी कटाई। बनभंटा। ५. एक प्रकार की गंध। (को०)। ६. एक प्रकार का स्पर्श। कोमल स्पर्श (को०)।

विशदप्रज्ञ
वि० [सं०] तीव्र बुद्धिवाला। विचक्षण [को०]।

विशदप्रभ
वि० [सं०] स्वच्छ या निर्मल प्रभावाला। श्वेत कांति युक्त [को०]।

विशदित
वि० [सं०] विशद या स्वच्छ किया हुआ [को०]।

विशब्दित
वि० [सं०] कहा हुआ। ध्वनित। कथित [को०]।

विशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. संशय। संदेह। शक। २. आश्रय। सहारा। ३. केंद्र (को०)।

विशयी
संज्ञा पुं० [सं०विशयिन्] १. वह जिसे किसी प्रकार की शंका या संदेह हो। संशयात्मा। २. संदिग्ध। संदेहास्पद। अनिश्चत।

विशर
संज्ञा पुं० [सं०] मार ड़ालना। वध। २. टुकड़े टुकड़े करना। विदारण (को०)।

विशरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मार ड़ालना। हत्या करना। वध करना।

विशरण (२)
वि० अशरण। असहाय [को०]।

विशरद
संज्ञा पुं० [सं०विशारद] दे० 'विशारद'।

विशरारु
वि० [सं०] नाशवान्। क्षणभंगुर [को०]।

विशर्द्धन
संज्ञा पुं० [सं०] वायुत्याग। पादना।

विशल्य
वि० [सं०] १. जिससे काँटा निकल गया हो। २.शल्य- रहित (वाण)। ३. कष्ट से मुक्त। ४. जिसका शस्त्रास्त्रों का घाव अच्छा हो गया हो [को०]।

विशल्यकरण
वि० [सं०] शस्त्रादि का घाव भरनेवाला [को०]।

विशल्यकरणी, विशल्यकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्विषी।

विशल्यकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलासी लता। २. आस्फोता या हरपरवाली (?) नामक लता।

विशल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुड़च। २. अग्निशिखा नामक वृक्ष। ३. दंती वृक्ष। ४. नागदंती। ५. एक प्रकार की तुलसी जिसे रामदंती भी कहते हैं। ६. एक नदी का नाम। ७. लक्ष्मण की स्त्री का नाम। ८. निशोथ। ९. पाटला। १०. खेसारी। ११. अजवायन। अजमोदा (को०)।

विशस
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार ड़ालना। हत्या करना। वध। २. खड़्ग।

विशसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार ड़ालना। हत्या करना। २. भागवत के अनुसार एक नरक का नाम। ३. खड़्ग। ४. विनाश। बर्बादी (को०)। ५. युद्ध (को०)। ६. काटना। चीरना (को०)। ७. कठोर व्यवहार (को०)।

विशसित
वि० [सं०] काटा हुआ। विदारित। चीरा हुआ [को०]।

विशसिता
संज्ञा पुं० [सं०विशासितृ] १. चांड़ल। २. काटने, चीरने, या मार ड़ालनेवाला व्यक्ति [को०]।

विशस्त
वि० [सं०] १. जो मार ड़ाला गया हो। २. काटा हुआ। ३. जिसे किसी प्रकार का भय न हो। ४. उजड़ु। अशिष्ट (को०)। ५. प्रख्यात। विख्यात (को०)।

विशस्ता
संज्ञा पुं० [सं०विशस्तृ] १. मार ड़ालनेवाला। हत्या करनेवाला। २. यज्ञादि मे बलिप्रदान करनेवाला। ३. चांड़ाल।

विशस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मार डालना। हत्या।

विशस्व
वि० [सं०] शस्तरहित। अशस्त्र [को०]।

विशस्पति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

विशांपति
संज्ञा पुं० [सं०विशाम्पति] १. राजा। २. जामाता। दामाद (को०)। ३. व्यापारियों का प्रधान या मुखिया (को०)।

विशाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भद्रचुड़। लंकासीज। २. दंती। ३. हाथी शुंड़ी। ४. पाढ़र या पाटला का वृक्ष।

विशाख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिकेय। २. धनुष चलाने के समय एक पैर आगे और एक पैर उससे कुछ पीछे रखना। ३. माँगनेवाला। याचक। ४. पुनर्नवा। गदहपूरना। ५. सुश्रुत के अनुसार वह अपस्मार रोग जो स्कंद नामक ग्रह के प्रकोप से हो। ६. पुराणानुसार एक देवता का नाम जिनका जन्म कार्तिकेय के वज्र चलाने से हुआ था। ७. कार्ति- केय के छोटे भाई का नाम। ८. शिव। ९. तर्कु। टेकुआ। तकुवा (को०)।

विशाख (२)
वि० १. जिसमें शाखाएँ आदि न हों। २. हाथ से रहित (को०)। ३. विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न (को०)।

विशाखक
वि० [सं०] दे० 'विशाख (२)' [को०]।

विशाखग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] बेल का पेड़।

विशाखज
संज्ञा पुं० [सं०] नारंगी का पेड़।

विशाखदत्त
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत के एक प्रसिद्ध नाटककार का नाम, जिन्होंने मुद्राराक्षस नाटक की रचना की थी।

विशाखपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बालकों को होनेवाला एक प्रकार का रोग। (वैद्यक)।

विशाखयूप
संज्ञा पुं० [सं०] नृसिंहपुराण के अनुसार एक प्राचीन देश का नाम। कुछ लोग इसे मदरास प्रांत का आधुनिक विशाखपत्तन मानते हैं।

विशाखल
बाण चलाने के समय की एक मुद्रा। दे० विशाख१—२[को०]।

विशाखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रों में से सोलहवाँ नक्षत्र। विशेष—यह नक्षत्र मित्रगण के अतर्गत है और इसे राधा भी कहते हैं। इसमें चार तारे हैं और इसका आकार तोरण का सा है। यह नक्षत्र दो भागों में बँटा हुआ है, इसलिये इसके दो देवता इंद्र और अग्नि है। २. एक प्राचीन जनपद जो कौशांबी के पास था। ३. सफेद गदह— पूरना। ४. काली अपराजिता। ५. दूब। दुर्वा (को०)।

विशाखिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुनर्नवा। गदहपूरना। २. नीली अपराजिता। ३. करेला। ४. दंड़ जिसमें शाखाएँ हों (को०)।

विशातन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. टुकड़े टुक़ड़े करना। काटना। नष्ट करना। २. निर्बंध करना। मुक्त करना। छोड़ना। ३. विष्णु [को०]।

विशातन (२)
वि० १. काटने या खंड़ित करनेवाला। २. बंधनमुक्त करनेवाला (को०)।

विशाप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

विशाप (२)
वि० शापमुक्त [को०]।

विशाय
संज्ञा पुं० [सं०] पहरेदारों का पारी पारी से सोना।

विशायक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की लता जिसे विशाकर भी कहते हैं।

विशारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हत्या। वध। २. काटना। फाड़ना। टुकड़े टुकड़े करना [को०]।

विशारद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो किसी विषय का अच्छा पंडित या विद्वान् हो। २. वह जो किसी काम में बहुत कुशल हो। दक्ष। ३. वह जिसे अपनी शक्ति पर भरोसा हो। ४. वकुल वृक्ष। मौलसिरी।

विशारद (२)
वि० १. विख्यात। प्रसिद्ध। मशहूर। २. श्रेष्ठ। उत्तम। ३. प्रगल्भ। साहसी। भरोसे का (को०)। ४. अभिमानी। घमंडी। ५. चतुरतापूर्ण (को०)। ६. वचन का वक्तृत्व शक्ति से हीन (को०)।

विशारदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केवाँच कौंछ। २. धमासा। दुरालभा।

विशाल (१)
वि० [सं०] १. जो बहुत बड़ा और विस्तृत हो। लंबा चौड़ा। २. जो देखने में सुंदर और भव्य हो। ३. प्रसिद्ध। मश- हूर। ४. समृद्ध। भरा पूरा (को०)। ५. युक्त। सहित (को०)। ३. स्तंभरहित (को०)।

विशाल (१)
संज्ञा स्त्री० १. एक प्रकार का मृग। २. चिड़िया। पक्षी। ३. पेड़। वृक्ष। ४. रामायण के अनुसार राजा इक्ष्वाकु के पुत्र का नाम, जिसने विशाल नाम की नगरी स्थापित की थी।५. पूराणानुसार एक प्रर्वत का नाम। ६. एक नाग जो तक्षक का पिता है (को०)।

विशालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कैथ। कपित्थ। २. गरुड़। ३. एक यक्ष का नाम।

विशालकुल
संज्ञा पुं० [सं०] ख्यात वंश। प्रसिद्ध कुल [को०]।

विशालता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विशाल होने का भाव। बड़ापन। २. फैशाव। विस्तार (को०)। ३. उत्कर्ष। ख्याति (को०)।

विशालतैलगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] अंकोट वृक्ष। अखरोट [को०]।

विशालत्व
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विशालता' [को०]।

विशालत्वक्
संज्ञा पुं० [सं०] विशालत्वच्। छतिवन।

विशालदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार क लता।

विशालनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।

विशालनेत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आयत नेत्रोंवाली स्त्री। विशालाक्षी।

विशालपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीताल नामक वृक्ष। हिंताल। २. मानकंद। मानकच्चु।

विशालपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक कंद। मानकंद। (को०)।

विशालफलक
वि० [सं०] बड़े बड़े फलोंवाला [को०]।

विशालफलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्पार्वा। बरसेमा।

विशाललोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विशालनेत्रा'।

विशालविजय
संज्ञा पुं० [सं०] सेना का एक विशेष व्यूह [को०]।

विशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इंद्रवारुणी नामक लता। इंद्रायण। २. महेंद्रवारुणी। ३. पूराणानुसार एक तीर्थ का नाम। ४. दक्ष की एक कन्या का नाम। ५. पोई का साग। ६. एकांगी। मुरामासी। ७. कलगा नामक घास। ८. उज्जयिनी का एक नाम (को०)। ९. एक नदी का नाम (को०)। १०. संगीत में एक मूर्छना (को०)।

विशालाक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव। शिव। २. विष्णु। २. गरुड़। ४. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ५. एक प्रकार का उल्लु (को०)। ६. एक नाग का नाम (को०)। ७. कौटिल्य द्धारा उल्लिखित प्राचीन काल की एक प्रकार की राजकीय सत्ता (को०)।

विशालाक्ष (२)
वि० जिसकी आँखें बड़ी और सुंदर हो।

विशालाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसकी आँखें बड़ी और सुंदर हों। २. पार्वती। ३. देवी का एक रुप या मूर्ति। ४. चौसठ योगिनियों में से एक योगिनी का नाम। ५. नागदंती। हाथीशुंडी।

विशाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अजमोदा। २. पलाशी लता।

विशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बालु। रेत।

विशिख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामसर या भद्रमुंज नामक घास। २. बाण। उ०—राक्षस तेरे तुच्छ बाण क्या? मेरे इस उर में है शेल। उसे झेलने के पहले तुँ मेरा एक विशिख ही झेल।— साकेत, पृ० ४९४। ३. वह स्थान जिसमें रोगी रहता हो। ४. एक शास्त्र। तोमर (को०)। ५. लोहे का कौवा (को०)। ६. गणित में बाण की आकृति का चिह्न (को०)।

विशिख (२)
वि० १. जिसे शिखा न हो। २. खल्वाट। गंजा। ३. मोथरी नोकवाला शस्त्र आदि। ४. अग्नि जिसमें लपट न हो। लपट से हीन। ५. धूमकेतु जिसमें पूँछ न हो [को०]।

विशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कौटिल्य द्धारा उल्लिखित एक प्रकार की रथ्या। राज्य की वह बड़ी सड़क जिसपर बड़े बड़े जौहरियों तता सुनारों की दुकाने हों। २. कुद ल। फावड़ा। ३. रास्ता। पथ। ४. छोटा बाण। ५. तर्कु। तकुवा। ६. रोगियों के रहने का स्थान। ७. सुई या पिन (को०)। ८. नापित की नाइन स्त्री। नाउन। [को०]।

विशिखाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तुणीर। तरकस [को०]।

विशित
वि० [सं०] तीक्ष्ण। निशित [को०]।

विशिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजमहल। २. देवमंदिर। ३. भवन। आवास स्थान [को०]।

विशिरस्क
संज्ञा पुं० [सं०] पूराणानुसार मेरु पर्वत के पास के एक पर्वत का नाम। २. कबंध। सिरविहीन घड़।

विशिरा
वि० [सं० विशिरस्] जिसे सिर न हो [को०]।

विशिष्ट (१)
वि० [सं०] १. मिला हुआ। युक्त। २. जिसमें किसी प्रकार की विशेषता हो। विशेषतायुक्त। जैसे,—कुछ विशिष्ट कर्म ऐसे होते हैं, जिनके लिये मनुष्य को प्रायशिच्त तक करना होता है। ३. विलक्षण। अदभुत। ४. जो बहुत अधिक शिष्ट हो। ५. यशस्वी। कीर्तिशाली। ६. प्रसिद्ध। मशहूर।

विशिष्ट
संज्ञा पुं० १. सीसा नामक धातु। २. विष्णु का एक नाम (को०)।

विशिष्टकुल (१)
संज्ञा० पुं० [सं०] प्रतिष्ठित वंश [को०]।

विशिष्टकुल (२)
वि० विशिष्ट कुल का। कुलीन [को०]।

विशिष्टचरित्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।

विशिष्टचारी
संज्ञा पुं० [सं०विशिष्टचारिन्] एक बोधिसत्व।

विशिष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विशिष्ट का भाव या धर्म। २. विशेषता।

विशिष्टपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रंथिपर्णों। गठिवन।

विशिष्टबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सदसद् विवेकिनो प्रज्ञा। विवेक। प्रेभेदक ज्ञान [को०]।

विशिष्टलिंग
विं [सं० विशिष्टलिङ्ग] भिन्न लिंगवाला [को०]।

विशिष्टवर्ण
वि० [सं०] जो उत्कृष्ट या चाखे रंग का हो। उत्तम वर्ण या रंगवाला [को०]।

विशिष्टाद्घैत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध वेदांत दर्शन का दार्शनिक जिसके सिद्धांत अनुसार यह माना जाता है कि जीवात्मा और जगत् दोनों ब्रह्म से भिन्न होने पर भी वास्तव में भिन्न नहीं हैं। विशेष—इस सिद्धांत में यद्यपि ब्रह्म, जीवात्मा और जगत् तीनों मूलतः एक ही माने जाते हैं, पर फिर भी तीनों कार्यरुप में एक दूसरे से भिन्न और कुछ विशिष्ट गुणों से युक्त माने जाते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार जोव और ब्रह्म का वही संबंध है, जो किरण और सूर्य का है, अर्थात् किरण जिस प्रकार सूर्य से निकला हुई है, उसी प्रकार जीव भी ब्रह्म से निकला हुआ है; और जिस प्रकार किरण से सूर्य बहुत बड़ा है, उसी प्रकार जीव से ब्रह्म भी बहुत बड़ा है। इसमें ब्रह्म को एक भी माना जाता है और अनेक भी। वास्तव में द्वैत और अद्वैत दोनों वादों के मध्य का यह मार्ग है; अर्थात् इसमें उन दोनों वादों में सामंजस्य स्थापित करने की चेष्टा की गई है। यह वाद रामानुजाचार्य का चलाया हुआ है और 'भेदाभेदवाद' या 'द्वैता- द्वैतवाद' भी कहलाता है।

विशिष्टाद्वैतवादी
वि० [सं० विशिष्टाद्धैतवादिन्] विशिष्टाद्वैत मत को माननेवाला। रामानुज संप्रदाय को माननेवाला।

विशिष्टी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शंकराचार्य की माता का नाम।

विशीर्णँ
वि० [सं०] १. सूखा हुआ। २. दुबला पतला। ३. बहुत पूराना। जीर्ण। ४. छिन्न भिन्न। टुकड़े टुकड़े किया हुआ (को०)। ५. मुरझाया हुआ। कुम्हिलाया हुआ (को०)। ६. मर्दित हुआ (को०)। ८. सिकुड़ा हुआ। झुर्रियोंवाला (को०)। ९. अपव्यय किया हुआ। उड़ाया हुआ (को०)। ९. गला या रगड़ा हुआ (सुगंधित द्रव्य)। १०. जो सफल न हो। विफलीभूत (को०)। ११. नष्ट। ध्वस्त (को०)।

विशीर्णपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] नीम का पेड़।

विशीर्णमूर्ति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव। २. वह निसका शरीर विशीर्ण या छिन्न भिन्न हो [को०]।

विशील
वि० [सं०] १. जिसका शील या चरित्र अच्छा न हो। २. दुष्ट। पाजी।

विशुंडि
संज्ञा पुं० [सं० विशुणि्ड] कश्यप के एक पुत्र का नाम।

विशुद्ध (१)
वि० [सं०] १. जो बिलकुल शुद्ध हो। जिसमें किसी प्रकार की मिलावट आदि न हो। २. सत्य। सच्चा। ३. पवित्र। निष्पाप (को०)।४. बेदाग। निष्कलंक (को०)। ५. विनित।नम्र (को०)। ६. चमकता हुआ। उज्वल। जैसे, दाँत (को०)। ७. खर्च किया हुआ। अपःययित। जैसे, निधि (को०)।

विशुद्ध (२)
संज्ञा पुं० तंत्र के अनुसार शरीर के अंदर के छह चक्रों में से पाँचवाँ चक्र, जो गले में माना जाता है। कहते हैं, इसमें सोलह दल होते है, और शिव तता आकाश इसमें निवास करते हैं।

विशुद्धकरण
वि० [सं०] पवित्र कार्य करनेवाला [को०]।

विशुद्धचरित्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।

विशुद्धचरित्र (२)
वि० जिसका चरित्र बहुत शुद्ध हो।

विशुद्धचारी
संज्ञा पुं० [सं० विशुद्धचारिन्] वह जिसका चरित्र बहुत शुद्ध हो।

विशुद्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विशुद्ध होने का भाव या धर्म। पवित्रता।

विशुद्धधी
वि० [सं०] जिसकी बुद्धि धार्मिक हो [को०]।

विशुद्धप्रकृति
वि० [सं०] जो स्वभावतः धर्मपरायण हो [को०]।

विशुद्धसत्व
वि० [सं०] शुद्ध मनवाला। पवित्र आचरणवाला [को०]।

विशुद्धात्मा
वि० [सं०] जिसकी आत्मा या मन निर्मल और विकारहीन हो [को०]।

विशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विशुद्ध होने की क्रिया या भाव। शुद्धता। पवित्रता। २. यथार्थता। सत्यता (को०)। ३. परिष्कार। भूल सुधार। (को०)। ४. ऋण, बैर आदि का परिशोध (को०)। ५. सादृश्य। समानता (को०)। बीजगणित। ६. घटाने की संख्या (को०)। ७. प्रायश्चित्त। पश्चात्ताप (को०)। ८. संदेह का निराकरम (को०)। ९. पूर्ण ज्ञान (को०)।

विशुद्धिचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] गले में स्थित एक चक्र। दे० 'विशुद्ध' (२)।

विशुचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० विसूचिका] दे० 'विसूचिका'।

विशून्य
वि० [सं०] पूर्णतः रिक्त। बिल्कुल खाली। उ०—शून्य विशून्य न तहाँ होई अगाध महिमा सो कहो।—कबीर सा०, पृ० ४।

विशूल
वि० [सं०] १. भाले से रहित। कुंतविहीन। २. पीड़ा या व्यथारहित [को०]।

विशृंखल
वि० [सं० विश्रृङ्खल] १. जिसमें शृंखला न हो या न रह गई हो। उ०—स्वयं देव थे हम सब तो फिर क्यों न विशृंखल होती सृष्टि।—कामायनी, पृ० ९। २. जो किसी प्रकार दबाया या रोका न जो सके। ३. सब प्रकार के नैतिक बंधनों से मुक्त। लंपट (को०)।

विशृंग
वि० [सं० विशृंङ्ग] जिसे शृंग न हो। शृंगरहित।

विशेष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेद। अंतर। फरक। २. प्रकार। तरह। ढंग। ३. नियम। कायदा। ४. विचित्रता। ५. व्यक्ति। ६. सार। निचोड़। ७. तारतम्य। मुनासिब। ८.वह जो साधारण के अतिरिक्त और उससे अधिक हो। अधिकता। ज्यादती। ८. अवयव। अंग। १०. वस्तु। पदार्थ। चीज। ११. तिल का पौधा। १२. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार। विशेष नामक अलंकार। विशेष—मम्मट ने अपने ग्रंथ काव्यप्रकाश में इसका विवरण दिया है। इसके तीन भेद कहे गए हैं। पहला वह भेद है जिसमें बिना किसी आधार के ही आधेय का वर्णन होता है। जैसे,—बिनु बारिद बिजुरी बिना बारि लसत युग मीन। बिधु ऊपर तम तोम यह निरखी रीति नवीन। दूसरा भेद वह है जिसमें थोड़ा सा ही काम करने पर बहुत बड़ा काम या लाभ हो। जैसे,—पाइ चुके फल चारिहू करत गंगजल पान। तीसरा भेद वह है जिसमें एक चीज का अनेक स्थानों में होता वर्णित होता है। जैसे—घर बाहर अध ऊरधौ सब ठाँ राम लखाय। १३. वैशोषिक दर्शन के अनुसार सात प्रकार के पदार्थों में से एक प्रकार का पदार्थ। विशेष—कणाद ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये सात पदार्थ माने हैं। 'विशेष' वे गुण हैं जिनके कारण कोई एक पदार्थ शेष दूसरे पदार्थों से भिन्न समझा जाता है। दो वस्तुओं में रुप, रस और गंध आदि में जो अंतर होता है वह इसी 'विशेष' गुण के कारण होता है। रूप, रस. गध, स्पर्श, स्नेह, द्रवत्व, बूद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार और शब्द ये वैशेषिक गुण या विशेष गुण कहलाते हैं। कणाद के दर्शन में इन्हीं विशेष पदार्थों या गुणों आदि का विवेचन है इसी लिये वह 'वैशेषिक दर्शन' कहलाता है। १४. प्रवर्ग। वर्ग (को०)। १५. मस्तक पर लगाया जानेवाला चंदन या केसर का तिलक (को०)।१६. वह शब्द जो किसी दूसरे शब्द के अर्थ को सीमित कर देता है (को०)। १७. ज्यामिति में कर्ण (को०)। १८. परिचायक चिह्न। प्रभेदक चिह्न (को०)। १९. रोग की वह अवस्था जब सुधार आरंभ होता है (को०)।

विशेष (२)
वि० १. असाधरण। असामान्य। २. अधिक। प्रचुर।

विशेषक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. माथे पर लगाया जानेवाला तिलक। टीका। २. तिलक वृक्ष। तिलपुष्पी। ३. चित्रक। ४. साहित्य में एक प्रकार का पद्य जिसमें तीन श्लोकों या पदों में एक ही क्रिया रहती हैं; इस लिऐ उन तीनों श्लोकों या पद्यों का साथ ही अन्वय होता है। ५. चंदन आदि है। सुंगंधित या रंगीन पदार्थों से मुख या शरीर पर रेखांकन करना (को०)। ६. भेद करनेवाला गुण। विशिष्टता (को०)। ७. विशेषोक्ति अलंकार (को०)।

विशेषक (२)
वि० विशेषता उत्पन्न करनेवाला। विशेष रुप देनेवाला।

विशेषकच्छेद्य
संज्ञा पुं० [सं०] चौंसठ कलाओं में से एक माथ पर तिलक बनाने की कला [को०]।

विशेषकृत्
वि० [सं०] अंतर करनेवाला। विवेकी [को०]।

विशेषज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसे किसी विषय का विशेष ज्ञान हो। वह जो किसी बात का खास तौर पर जानकर हो। किसी विषय का पारदर्शी।

विशेषण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो किसी प्रकार की विशेषता उत्पन्न करता या बतलाया हो। विभेदक लक्षण या चिह्न।२. व्याकरण में वह विकारी शब्द जिससे किसी संज्ञा की कोई विशेषता सूचित होती है; अथवा उसकी व्याप्ति मर्यादित होती है। जैसो,—'वीर मराठे' या 'चपल बालक' में बीर और 'चपल' शब्द विशेषण है। विशेष—जब विशेषण किसी संज्ञा के साथ लगता है तब उसे विशेष्य विशेषण कहते हैं; और जब वह क्रिया के साथ लगता है, तब उसे विधेय विशेषण कहते हैं। जैसे,—'हमें तो संसार सूना देख पड़ता है।यहाँ 'सूना' विधेय विशेषण है। साधार- णतः विशेषण तीन प्रकार के होते है—(१) सार्वनामिक विशेषण; जैसे,—'वह आदमी' चला गया। में 'वह' सार्वनामिक विशेषण है। (२) गुणवाचक विशेषण; जैसे, नया, पूराना, सडौल, सूखा, खराब आदि; और (३) संख्यावाचक विशेषण; जैसे,—आधा, एक चार, दसवाँ। ३. प्रकार। किस्म। जाति (को०)। ४. भेद। अंतर। पार्थक्य (को०)। ५. गुणवर्णन या गुणोत्कर्ष (को०)।

विशेषण (२)
वि० १. गुण बतानेवाला। विशेषता बतानेवाला। २. प्रभेदक। व्यच्छेदक [को०]।

विशेषणीय
वि० [सं०]दे० 'विशेष्य'। (२)

विशेषतः
अव्य० [सं० विशेषतस्] १. विशेष रुप से। खास तौर से। २. समानुपात में। ३. एकमात्र [को०]।

विशेषता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विशेष का भाव या धर्म। खसूसियत। खासपन। जैसे,—आपकी बातों में यह विशेषता है कि तुरंत प्रभाव डालती है।

विशेषद्दश्य
वि० [सं०] विशेष रुप से दर्शनीय। सुंदर आकृतिवाला [को०]।

विशेषना पु
क्रि० अ० [सं० विशेष + हिं० ना (प्रत्य०)] १. निश्चित करना। निर्णय करना। उ०—अनंत गुण गावै, विशेषहि न पावै। केशव (शब्द०)। २. विशेष रुप देना। उ०—ताहि पूछत बोलि कै। तदपि भाँति भाँति विशेष कै।—केशव (शब्द०)।

विशेषपतनीय
संज्ञा पुं० [सं०] विशिष्ट पाप। विशेष प्रकार का पाप [को०]।

विशेषप्रतिपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] संमानार्थ दिया गया विशेष चिह्न [को०]।

विशेषभाग
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी के माथे का एक भाग [को०]।

विशेषमति
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।

विशेषलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विशेषलिंग।

विशेषलिंग
संज्ञा पुं० [सं० विशेषलिङ्ग] विशिष्टतासूचक लक्षण वा चिह्न [को०]।

विशेषवचन
संज्ञा पुं० [सं०] विशेषता द्योतन करनेवाला कथन [को०]।

विशेषविद्
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विशेषज्ञ'।

विशेषविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विशेष शास्त्र'।

विशेषशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] किसी विषय पर विशिष्ट विधान वा नियमपरक शास्त्र [को०]।

विशेषित
वि० [सं०] १. जो खास तौर पर अलग किया गया हो। जो 'विशेष' किया या बनाया गया हो। २. जिसमें विशेषण लगा हो। ३. विलक्षण। विचित्र (को०)। ४. परिभाषित। लक्षित (को०)। ५. श्रेष्ठ। उत्तम। बढ़िया (को०)।

विशेषांक
संज्ञा पुं० [सं० विशेष + अङंक] पत्र पत्रिकाओं का वह अंक जो किसी पर्व आदि विशिष्ट अवसर, व्यक्ति, घटना, वस्तु या विषय आदि के पूर्ण विवेचन और जानकारी के साथ तत्संबंधी किसी विशिष्ट अवसर पर प्रकाशित हो।

विशेषी
वि० [सं० विशेषिन्] १. जिसमें कोई विशेष बात हो। विशेषतायुक्त। २. पृथक्। अलग। भिन्न (को०)। ३. स्पर्धा करनेवाला। प्रतिद्वैद्विता करनेवाला (को०)।

विशेषोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] काव्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें पूर्ण कारण के रहते हुए भी कार्य के न होने का वर्णन रहता है। जैसे,—(क) अलि इन लोयन की कछू उपजी बड़ी बलाय। नीर भरे नित प्रति रहैं, तऊ न प्यास बुझाय। (ख) तमकि ताकि तकि शिव धनु धरहीं। उठत न कोटि भाँति बल करहीं—तुलसी (शब्द०)।

विशेषोन्मुख
वि० [सं० विशेष+ उन्मुख] विशेष की ओर झुका हुआ। जो समान्य से भिन्न हो। उ०—यह अंतिम शक्ति उनमें है पर वह विशेषोन्मुख है।—आचार्य०, पृ० १५१।

विशेष्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याकरण में वह संज्ञा जिसके साथ कोई विशेषण लगा होता है। वह संज्ञा जिसकी विशेषता विशेषण लगाकर सूचित की जाय। जैसे,—मोटा आदमी या काला कुत्ता में आदमी और कुत्ता विशेष्य हैं।२. नाम। संज्ञा (कौ०)।

विशेष्य (२)
वि० १. विशिष्य या विशेषतायुक्त होने योग्य। २. मुख्य। प्रधान। उत्तम [को०]।

विशेष्यासिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह हेत्वाभास जिसके द्वारा स्वरुप की असिद्धि हो।

विशेस पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० विशेष] दे० 'विशेष'। उ०—मिश्रित माँहो माँ ह मिल, बाँधे उकत विशेस।—रघु० रुं०, पृ० ४९।

विशोक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अशोक वृक्ष। २. युधिष्ठिर के एक अनुचर का नाम। ३. पूराणानुसार ब्रह्मा के एक मानस पुत्र का नाम। ४. शोक का अंत या अपनयन (को०)। ५. एक दानव (को०)। ६. भीम के सारथिका नाम। ८. एक पर्वत- श्रेणी (को०)। यौ०—विशोककटो=एक पर्वत का प्राचीन नाम।

विशोक (२)
वि० जिसे शोक न हो। शओकरहित।

विशोकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शोकरहित होने का भाव या धर्म।

विशोकषष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र शुक्ला षष्ठी। विशेष—कहते हैं कि इस दिन व्रत करने से मनुष्य को शोक नहीं होता।

विशोका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. योग दर्शन के अनुसार वह चित्रवृत्ति जो संप्रदाय समाधि से पहले होती है। इसे ज्योतिष्मती भी कहते हैं। २. दुःख से छुटकारा। शोक से मुक्ति (को०)। ३. स्कंद की मातृकाओं में एक का नाम (को०)।

विशोणित
वि० [सं०] जिसमें रक्त न हो [को०]।

विशोध
वि० [सं०] विशुद्ध करने योग्य। साफ करने लायक।

विशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अच्छी तरह साफ करना। २. विष्णु। ३. पाप या दोष आदि से रहति होना (को०)। ४. प्रायश्चित (को०)। ५. निश्चित वा निर्णीत होना (को०)। ६. रेचन (को०)। ७. इधर उधर फैली पेड़ की शाखाओं को छाँटना या काटना (को०)।

विशोधनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्रह्मा की पूरी का नाम। २. नाग- दँती। ३. नीली नामक पौधा। ४. पान। तांबुल।

विशोधनीय
वि० [सं०] १. शुद्ध करने योग्य। २. सूधार करने लायक। ३. रेचन के योग्य [को०]।

विशोधित
वि० [सं०] १. शुद्ध किया हुआ। साफ किया हुआ। २. निर्मल।

विशोधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागदंती। २. नीली। ३. जमालगोटा।

विशोधिन बीज
संज्ञा पुं० [सं०] जमालगोटा।

विशोधी
वि० [सं० विशोधिन्] बिलकुल शुद्ध करनेवाला। विशुद्ध करनेवाला।

विशोध्य (१)
वि० [सं०] १. शुद्ध या पवित्र करने योग्य। साफ करने योग्य। २. जो घटायाया कम किया जाय। घटाने लायक।

विशोध्य (२)
संज्ञा पुं० ऋण। कर्ज [को०]।

विशोभित
वि० [सं०] सुमजित [को०]।

विशोष
संज्ञा पुं० [सं०] नीरसता। शुष्कता। रुखापन।

विशोषण
संज्ञा पुं० [सं०] अच्छी तरह सोखना।

विशोषित
वि० [सं०] १. सुखाया हुआ। शुष्क किया हुआ। २. म्लान। मुर्झाया हुआ [को०]।

विशोषी
संज्ञा पुं० [सं० विशोषिन्] अच्छी तरह सोखनेवाला।

विश् (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जिसने जन्म मिला हो। प्रजा।२. कन्या। लड़की। २. प्रवेश। रसाई (को०)। ४. कुल। वंश। खानदान (को०)। ५. निवास। टिकान (को०)। ६. संपत्ति। धन दौलत।

विश् (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तृतीय वर्ण। वैश्य। २. आदमी। मनुष्य। ३. जनता [को०]।

विश्न
संज्ञा पुं० [सं०] दीप्ति। कांति [को०]।

विशपति
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० विश्पत्नी] १. राजा। २. वैश्यों का प्रधान, मुखिया या पंच। उ०—अग्नि विश्पतिथा। ये अपनी बस्ती को विश् कहते थे।—प्र० भा० प०, पृ९६।

विश्यापर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ।

विश्रंभ
संज्ञा पुं० [सं० विश्रम्भ] १. विश्वास। एतबार। २. प्रेमी और प्रेमिका में रति के समय होनावाला झगड़ा। रतिकालीन प्रेमकलह। ३. प्रेम। मुहब्बत। ४. हत्या। मार डालना। ५. स्वच्छंदतापूर्वक घूमना फिरना। ६. गुप्त बात। रहस्य (को०)। ७. आराम। विश्राम (को०)। ८. घनष्ठेवा। आत्मीयता (को०)। ९. स्नेह से पूछना। प्रेम से पूछना (को०)।

विश्रंभ कथा
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्रम्भकथा] प्रेमी और प्रेमिका के बीच एकांत में होनेवाली प्रेमचर्चा। प्रेमपूर्ण बातचीत। उ०—सुख रजनी की विश्रंभ कथा सुनती।—लहर, पृ० ६७।

विश्रंभण
संज्ञा पुं० [सं० विश्रम्भण] विश्वास पाना [को०]।

विश्रंभभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०विश्रम्भभूमि] १. विश्वसनीय व्यक्ति। २. विश्वास के योग्य विषय [को०]।

विश्रमस्थान
संज्ञा पुं० [सं० विश्रम्भस्थान] दे० 'विश्रंभभूमि'।

विश्रंभी
वि० [सं० विश्रम्भिन्] १. विश्वासी। विश्वस्त। २. विश्वास- प्राप्त। ३. प्रेमी संबंधी। प्रेमाविषयक। ४. योग्य [को०]।

विश्रणन
संज्ञा पुं० [सं०] दान। दान करना। उपहार देना [को०]।

विश्रब्ध
वि० [सं०] १. जो उद्धत न हो। शांत। ३. जिसका विश्वास। किया जाय। विश्वसनीय। ३. जिसे किसी प्रकार का भय न हो। निर्भय। निंडर। ४. दृढ़। स्थिर (को०)। ५. नम्र। विनीत। विनत (को०)। ६. अत्यधिक। बहुतज्यादा। ७. धीर (को०)।

विश्रब्धनवोढा
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्य में नवोढा नायिका जिसका अपने पति पर कुछ कुछ अनुराग और कुछ विश्वास होने लगा हो। जैसे, जाहिं न चाह कहूँ रति की सू कछू पति को पतियान लगी है। त्यों पदमाकर आनव में रुचि, कानन मौह कमान लगी है। देति पिया न छुवै छतियाँ बतियान में तो मुस्कयान लगी है। प्रीतन पान खवाइबै को परजंक के पास लौं जान लगी है।—पद्माकर। (शब्द०)।

विश्रब्धप्रलापी
वि० [सं० विश्रब्धप्रलापिन] गोपनीय बातें कहनेवाला [को०]।

विश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विश्राम'।

विश्रमकर
वि० [सं०] विश्राम करनेवाला। उ०—श्रम कर तू विश्रमकर।—अर्चना, पृ०। ९२।

विश्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. आराम। विश्राम। २. विराम। समाप्ति। विरति [को०]।

विश्रमित
वि० [सं०] १. जिसे विश्राम दिया गया हो। २. जिसने विश्राम किया हो [को०]।

विश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरण। आश्रय। सहारा। २. अवलंबन [को०]।

विश्रयी
वि० [सं० विश्रयिन्] जो सहारे पर हो। आश्रय लेनेवाला [को०]।

विश्रवण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

विश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० विश्रवस्] एक प्राचीन ऋषि जो पुलस्त्य मुनि के पुत्र थे और उनकी पत्नी हविभुँ के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कुबेर इन्हीं के पुत्र थे और इन्हीं की पत्नी इलविड़ा के गर्भ से जनमें थे। इन्हीं की दुसरी पत्नी कैकसी के गर्भ से रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और सूर्परणखा का जन्म हुआ था।

विश्रांत (१)
वि० [सं० विश्रान्त] १. जिसने विश्राम कर लिया हो। जो थकावट उतार चुका हो। २. विरमित। रुका या रोका हुआ (को०)। ३. सौम्य़। शांत। स्वस्थ (को०)। ४. समाप्त (को०)।५. रहित। वंचित। ६. क्लांत। अत्यंत थका हुआ (को०)। ७. घटा हुआ (दुःखादि)।

विश्रांत † (२)
संज्ञा पुं० [सं० विश्रान्त] यमुना तट का ऐक घाट विश्राम- घाट। उ०— श्री जमुना जी के तीर विश्रांत पर जाइ बैठे।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० १८१। यौ०—विश्रांतकथ=जो चुप हो। मौन। मूक। रुद्धवाक्। विश्रांत- कर्णयगुल=जो कानों तक पहुँचता हो। कानों तक पहुँचनेवाला। विश्रातपुष्पोदगम=जिसमें फूल आना बंद हो गया हो। विश्रांत विलास=क्रीड़ा कौतुक का त्याग कर देनेवाला। विश्रांत- वैर=शत्रुता त्याग देनेवाला।

विश्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्रान्ति] १. विश्राम। आराम। २. पूराणानुसार एक तीर्थ का नाम। विशेष—कहते हैं, जनार्दन ने यहीं आकर विश्राम किया था। ३. विराम। रोक (को०)। ४. दुःख शोकादि का न्युन होना। समाप्ति। अंत (को०)। यौ०—विश्रांतिकृत=आराम पहुँचानेवाला। विश्रांतिभूमि= विश्राम देनेवाली वस्तु या स्थान।

विश्राणन
संज्ञा पुं० [सं०] दान देना। दान [को०]।

विश्राणित
वि० [सं०] १. प्रदत्त। दान स्वरुप दिया हुआ। २. बाँटा हुआ। विभक्त [को०]।

विश्राम
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधिक समय तक कोई काम या परिश्रम करने के कारण थक जाने पर रुकना या ठहरना। श्रम मिटाना। थकावट दूर करना। आराम करना। उ०—किय विश्रामन मगु महिपाला।—तुलसी (शब्द०)।२. ठहरने का का स्थान। विश्राम करने का स्थान। ३. शांति। आराम। चैन। सुख। स्वस्थता। उ०— कोउ विश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिन। चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिय।—तुलसी (शब्द०)। ४. विराम। रोक (को०)। ५. न्युनता। कमी (को०)। ६. समाप्ति। अंत (को०)।७. श्रम दुर करने के लिये गहरी साँस लेना।८. मकान। गृह (को०)।

विश्रामण
संज्ञा पुं० [सं०] विश्राम देना। आराम कराना [को०]। यौ०—विश्रामकक्ष, विश्रामवेश्म=आराम करने का स्थान या कमरा। विश्रामस्तान=विश्राम या विराम करेन की जगह।

विश्रामालय
संज्ञा पुं० [सं० विश्राम + आलय] यात्रियों के आराम करने का भवन। उ०—जिसमें अनेक कूप, वापी, विश्रामालय, लताकुंज।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० ७०।

विश्राव
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत अधिक प्रसिद्धि। शोहरत। २. ध्वनि। ३. झरना, बहना या रसना। क्षरण।

विश्रावण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्णन करना। सुनाना। २. प्रवाहित करना। बहाना।३. खून बहाना [को०]।

विश्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृत्यु। मौत।

विश्री (२)
वि० [सं०] १. जिसकी श्री नष्ट हो गई हो। शोभाहीन। उ०—लगती विश्री और विकृत आज मानवकृति। एकत्वशून्य है विश्वमानवी संस्कृति।—युगांत, पृ० ११।२. भद्दा। कुरुप।

विश्रुत (१)
वि० [सं०] १. जो जाना या सुना हुआ हो। २. प्रसिद्ध। विख्यात। मशहूर। ३. प्रसन्न। आनंदित। खुश (को०)। ४. बहता हुआ (को०)।

विश्रुत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसिद्धि। ख्याति।२. विद्या। शिक्षा (को०)। ३. वसुदेव का एक पुत्र। ४. भवभूति का एक नाम [को०]।

विश्रुतात्मा
संज्ञा पुं० [सं० विश्रुतात्मान्] विष्णु।

विश्रुति
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसिद्धि। शोहरत। २. झरना बहना या रसना। ३. संगीत में श्रुति (को०)।

विश्लथ
वि० [सं०] १. विशेष श्लथ। ढीला। २. निर्बंघ। बंधन- मुक्त। ३. थका हुआ। मंद। स्फूर्तिहीन। उ०—चूर्ण नील कुंतल छहरा दिक् सौरभ विश्लथ।—रजत०, पृ० ६७।

विश्लथित
वि० [सं०] विश्लथ किया हुआ [को०]।

विश्लिष्ट
वि० [सं०] १. जो अलग हो गया हो। जो मिला हुआ न हो। जिसका विश्लेषण हो चुका हो। २. विकसित। खिला हुआ। ३. जो प्रकट हो। प्रकाशित। ४. जो खुला हुआ हो। मुक्त। ५. थका हुआ। शिथिल। ६. अपने समुह से अलग- किया हुआ (को०)। ७. (अंग या अवयव) जो स्थानभ्रष्ट हो (को०)।

विश्लिष्टसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्लिष्टसन्धि] १. वैद्यक के अनुसार हड्डी टुटने का एक प्रकार। २. शरीर के अंगों की किसी साथ का चोट आदि के कारण टुटना।

विश्लेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अलग होना। पृथक् होना। २. वियोग। (पति पत्नी या प्रेमी प्रेमिका का)।३. बिछोह। बिलगाव। ४. शिथिलता। थकावट। ५. किसी की ओर से मन हट जाना। ६. विकास। ७. अपाय। हानि। अभाव (को०)। ८. दरार। छिद्र (को०)। ९. (गणित में) योग का विपर्यय (को०)।

विश्लेषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ के संयोजक द्रव्यों का अलग अलग करना। २. आलोचना। विवेचन। व्याख्यान (को०)। ३. बायु के प्रकोप से फोड़े या घाव में होनेवाली एक प्रकार की वेदना।

विश्लेषित
वि० [सं०] १. अलग किया हुआ। २. तोड़ा हुआ। भग्न। ३. विदीर्ण या फाड़ा हुआ [को०]।

विश्लेषी
वि० [सं० विश्लेषिन्] १. वियुक्त। पृथक्। २. ढीला किया हुआ। ३. अलग अलग होनेवाला। बिखरनेवाला [को०]।

विश्लोक
वि० [सं०] जो ख्यात न हो। अप्रसिद्ध [को०]।

विश्वंकर (१)
संज्ञा पुं० [सं० विश्वङ्कर] आँख। चक्ष [को०]।

विश्वंकर (२)
वि० सृष्टिकर्ता [को०]।

विश्वंतर
संज्ञा पुं० [सं० विश्वन्तर] वह जो सबको पराभूत कर दे। भगवान् बुद्ध का एक नाम।

विश्वंभर
संज्ञा पुं० [सं० विश्वम्भर] १. सारे विश्व का पालन या भरण करनेवाला, परमेश्वर। २. विष्णु। ३. एक उपनिषद् का नाम। ४. अग्नि (को०)। ५. एक प्रकार का बिच्छू या उससे मिलता जुलता जानवर (को०)।

विश्वंभरक
संज्ञा पुं० [सं० विश्वम्भरक] एक तरह का बिच्छू या उस आकार का जीव। एक प्रकार का जीव उ०—प्रथम एक पुरुष खोदने पर श्वेत रंग का विश्वंभरक दिखाई देता है।— बृहतं०, पृ० २५९।

विश्वंभर
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्वम्भरा] पृथ्वी। यो०—विश्वंभरा पुत्र—मंगल ग्रह। कुज।

विश्वंभरी
संज्ञा पुं० [सं० विश्वम्भरी] पृथ्वी [को०]।

विश्वंभरेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० विश्वम्भरेश्वर] १. पुराणानुसार हिमालय के एक शिवलिंग का नाम। २. राजा। भूपति (को०)।

विश्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चौदहों भुवनों का समूह। समस्त ब्रह्मांड। विशेष दे० 'ब्रह्मांड'। २. संसार। जगत्। दुनिया। सोठ। ४. बोल नामक गंधद्रव्य। ५. देवताओं का एक गण। विशेष—इसमें दस देवता हैं—वसु, सत्य, क्रतु, दक्ष, काल, काम, धृति, कुरु पुरुरवा और माद्रवा। ये धर्म के पुत्र और दक्ष की कन्या विश्वा के गर्भ से उत्पन्न माने जाते हैं। ६. जीवात्मा। ७. विष्णु। ८. शिव।९. शरीर। देह। १०. नागरिक। शहराती। नागर (को०)। ११. तेरह की संख्या का वाचक शब्द (को०)। १२. संस्कृत का एक अभिधान ग्रंथ जिसका नाम विश्वप्रकाश है। १३. पितृगण का एक वर्ग (को०)।

विश्व (२)
वि० १. समस्त। सब। २. बहुत अधिक। ३. हर एक। प्रत्येक (को०)। विशेष—इन अर्थों में इस शब्द का व्यवहार यौगिक शब्द बनाने के लिये उनके आरंभ में होता है।

विश्वक
वि० [सं०] १. संपूर्ण। समस्त। पूरा। २. सबमें व्याप्त। सर्वव्यापक (को०)।

विश्वकद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिकारी कुत्ता। २. खल। दुष्ट। पाजी। ३. शब्द। आवाज।

विश्वकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० विश्वकर्तृ] संसार को उत्पन्न करनेवाला, परमेश्वर।

विश्वकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सब प्रकार के कार्य करने में चतुर हो।

विश्वकर्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की पत्नी संज्ञा का एक नाम।

विश्वकर्मसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की पत्नी, संज्ञा।

विश्वकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० विश्वकर्मन्] १. समस्त संसार की रचना करनेवाला, ईश्वर। २. ब्रह्मा। ३. सूर्य। ४. एक प्रसिद्ध आचार्य अथवा देवता जो सब प्रकार के शिल्पशास्त्र के आविष्कर्ता और सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता माने जाते हैं। विशेष—पुराणनुसार ये आठ वसुऔं में से नामक वसु के पुत्र थे और देवताओं के लिये विमान तथा प्रासाद आदि बनाया करते थे। आग्नेयास्त्र इन्हीं का बनाया हुआ माना जाता है। महाभारत में ये सर्वश्रेष्ठ शिल्पी और अमर कहे गए हैं रामायण के अनुसार इन्होंने राक्षसों के लिये लंका बनाई थी। वेदों में ये सर्वदर्शी, सर्वनियता और विश्वज्ञ कहे गए है। वेदों में कहीं कहीं 'विश्वरकर्मा' शब्द इंद्र सूर्य, प्रजापति, विष्णु आदि के अर्थ में भी आया है। महाभारत के अनुसार इनकी माता का नाम लावण्यमयी था और सूर्य की पत्नी संज्ञा इन्हीं की कन्या थी। कहते हैं, जब सूर्य के प्रखर ताप को संज्ञा न सह सकी, तब इन्होंने उसका आठवाँ अंस काट लिया और उससे सुदर्शन चक्र, त्रिशूल आदि बनाकर देवताओं में बाँटे। सृष्टि की रचना करने के कारण ये प्रजापति और त्वष्टा भी कहे जाते हैं। भाद्रपद की संक्राति को इनकी पूजा हुआ करती है। ५. शिव का नाम। ६. चरक के अनुसार शरीर में की चेतना नामक धातु। ७. बढ़ई। ८. मेमार। राज। ९. लोहार।१०. सूर्य की सात किरणों में से एक किरण (को०)। ११. एक मुनि का नाम (को०)। १२. एक परिमाण। एक माप (को०)।

विश्वकर्मेश
संज्ञा पुं० [सं०] एक शिवलिंग का नाम।

विश्वकवि
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्वविश्रुति कवि। सर्वश्रेष्ठ कवि। महाकवि। उ०—अस्ताचल रवि, जल छल छल छबि, स्तब्ध विश्वकवि, जीवन उन्नत।—अपरा, पृ०२४। २. बंग भाषा के ख्यात कवि रवींद्रनाथ ठाकुर का एख उपाधि।

विश्वका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक जवपक्षी। गगाचिल्ली [को०]।

विश्वकाय
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मांड जिनका शरीर है, विष्णु।

विश्वकाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा। उ०—तुम्हीं में है महामाया, जुड़ी छुटकर विश्वकाया।—अर्चना, पृ० ८।

विश्वकारक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

विश्वकारु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विश्वकर्मा'।

विश्वकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य को सात प्रधान किरणों में से एक का नाम। २. सूर्य की सात प्रधान ज्योतियों का समूह।

विश्वकाव्य
संज्ञा पुं० [सं० विश्व + काव्य] ब्रह्मा का बनाया हुआ विश्वरुपी काव्य। काव्य के सामन रमणीय, विश्व। संसार। उ०—इस विश्वकाव्य की रसधारा में जो थोड़ी देर के लिये निमग्न न हुआ, उसके जीवन को मरुस्थल की यात्रा समझना चाहिए।—रस०, पृ० ८।

विश्वकूट
संज्ञा पुं० [सं०] पूराणनुसार हिमालय की एक चोटी का नाम।

विश्वकृत
वि० [सं०] विश्वकर्मा द्वारा निर्मित या रचित [को०]।

विश्वकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्वकर्मा का एक नाम। २. जगत् का निर्माता, ब्रह्मा (को०)।

विश्वकृष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सब लोगों को अपने सगे संबंधी के सामान समझता हो। २. वह जो सबमें रहता हो या व्याप्त हो (को०)।

विश्वकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनिरुद्ध का एक नाम। २. पुराणा- नुसार एक पर्वत का नाम।

विश्वकोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कोश या भांडार जिसमें संसार भर के सब पदार्थ आदि संगृहीत हों। २. वह ग्रंथ जिसमेंसंसार भर के सब प्रकार के विषयों आदि का विस्तृत विवेचन या वर्णन हो। (अं० इन्साइक्लोपीडिया)।

विश्वकोष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विश्वकोश'।

विश्वकशेन्
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. पुराणानुसार तेरहवें मनु का नाम। ३. कालिकापूराण के अनुसार एक चतुर्भुज देवता जो शंख, चक्र गदा और पद्म धारण किए रहते हैं और जो विष्णु का निर्माल्य धारण करनेवाले माने जाते हैं। दे० 'विष्वकसेन'।

विश्वकशेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रियंगु नामक वृक्ष। कँगनी।

विश्वक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] विश्व या ब्रह्मांड का नाश। प्रलय।

विश्वक्षिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विश्वकृष्टि' [को०]।

विश्वगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्वगङ्गा] बरार प्रेदश को एक छोटी नदी का नाम।

विश्वगंध
संज्ञा पुं० [सं० विश्वगन्ध] १. सर्वत्र गंध देनेवाला। बोल नामक गंधद्रव्य। २. जिसके सभी अंग गंधमय हों, प्याज।

विश्वगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्वगन्धा] पृथ्वी।

विश्वगंधि
संज्ञा पुं० [सं० विश्वागन्धि] भागवत के अनुसार पृथु के पुत्र का नाम।

विश्वग
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. भागवत के अनुसार मरीचि के पुत्र का नाम जिसका जन्म पूर्णिमा के गर्भ से हुआ था।

विश्वगत
वि० [सं०] सर्वव्यापक। सर्वगत।

विश्वगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सबको धारण करता हो, विष्णु। २. शिव। ३. पूराणानुसार रैवत के एक पुत्र का नाम।

विश्वागाथ
संज्ञा पुं० [सं०] विश्व जिसकी गाथा है, ईश्वर। परमात्मा। उ०—जीवन के विपुल व्याल, मुक्त करो, विश्वागाथ।— अर्चना, पृ० ९।

विश्वगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

विश्वागोचर
वि० [सं०] सर्वविदित। जो समझने योग्य हो [को०]।

विश्वगोप्ता
संज्ञा पुं० [सं० विश्वागोप्तृ] १. विष्णु। २. इंद्र। ३. वह जो समस्त विश्व का पालन करता हो।

विश्वग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्वग्रन्थि] हंसीपदी लता। २. लाल लजालु।

विश्वग्वान
संज्ञा पुं० [स्त्री०] दे० 'विश्वग्वायु'।

विश्वग्वायु
संज्ञा पुं० [स्त्री०] वह वायु जो सब जगह समान रुप से चलती है। विशेष—ऐसी वायु अनेक प्रकार के दोष और उत्पात उत्पन्न करनेवाली मानी जाती है।

विश्वचंद्र
वि० [सं० विश्वचन्द्र] पूर्णतः दीप्त या प्रभामय [को०]।

विश्वचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] पूराणानुसार बारह प्रकार का महादानों में से एक प्रकार का महादान। विशेष—इसमें एक हजार पल का सोने का एक चक्र या पहिया बनवाया जाता है जिसमें सलाह आरे होते हैं; ओर तब यह चक्र कुछ विशिष्ट विधानों के अनुसार दान किया जाता है।

विश्वचक्रात्मा
संज्ञा पुं० [सं० विश्वचक्रात्मन्] वह जिसका स्वरुप या आत्मा विश्वचक्र अर्थात् ब्रह्मांड है। विष्णु।

विश्वचक्ष
वि० [सं०] सब कुछ देनेवाला [को०]।

विश्वचक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विश्वचक्षु' [को०]।

विश्वचक्षा
संज्ञा पुं० [सं० विश्वचक्षुसम] सब देखनेवाला, नेत्र [को०]।

विश्वचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० विश्वक्षुस] १. ईश्वर।२. लौकचक्षु। सूर्य। ३. सबको देखनेवाला, नेत्र। आँख (को०)।

विश्वचर
वि० [सं०] विश्वव्याप्त। उ०—आनंद का विश्वचर रुप 'यज्ञ' हैं। अन्वाद का अन्नग्रहण करना ही यज्ञ कहाता है इसलिये अन्न नाम से भी इस रुप का व्यवहार करते हैं।—पोददार अभि० ग्रं०, पृ,० ६२२।

विश्वचर्षणि
वि० [सं०] सर्वव्यापक। सर्वत्र व्याप्त [को०]।

विश्वच्यवा
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की सप्त रश्मियों में से एक का नाम [को०]।

विश्वछवि
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्व + छवि] संसार की शोभा। उ०— राश्म नभ नील पर, सतत शत रुप धर, विश्वछवि में उतर।—अपरा, पृ० १२।

विश्वजन
संज्ञा पुं० [सं०] मानव। मनुष्य [को०]।

विश्वजनीन
वि० [सं०] विश्व भर के लिये हितकर। सबके लिये सुखदायक। उ०—इतना आकस्मिक उत्थान और पतन। जहाँ एक विश्वजनीन धर्म उत्पत्ति को सूचना हुई।—इंद्र०, पृ० ३९।

विश्वजनीय
वि० [सं०] विश्वजन का। सर्वहितकारी। सबके उपयोग में आनेवाला [को०]।

विश्वजन्य
वि० [सं०] दे० 'विश्वजनीन'।

विश्वजयी
वि० [सं० विश्वजयिन्] संसार को जीतनेवाला।उ०— जीत न सका एक अबला का मन तु विश्वजयी कैसा?—साकेत, पृ० ३८८।

विश्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोंठ।

विश्वजित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का यज्ञ। उ०—किसने मख विश्वजित् किया? रख मृत्पात्र सभी लुटा दिया?— साकेत, पृ० ३२६। २. वरुण का पाश।३. महाभारत के अनुसार एक प्रकार की अग्नि।४. विष्णु का एक नाम (को०)। ५. एक दानव का नाम। ६. सत्यजित् के पुत्र का नाम।७. वह जिसने सारे विश्व पर विजय प्राप्त की हो।

विश्वजीव
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर।

विश्वज्योति (१)
वि० [सं०] पूर्णतः दीप्त वा द्योतित [को०]।

विश्वज्योति (२)
संज्ञा पुं० १. एक साम। २. एक एकाह यज्ञ। सूर्य।

विश्वज्योतिष
संज्ञा पुं० [सं०] एख गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

विश्वतः
अव्य० [सं० विश्वतस्] चारो ओर। सभी ओर। सर्वत्र। सब जगह [को०]।

विश्वतनु
संज्ञा पुं० [सं०] समग्र विश्व जिनका शरीर माना गया है—विष्णु।

विश्वतुलसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बबुई तुलसी। बनतुलसी।

विश्वतृप्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. वह जो प्रत्येक से तुष्ट और प्रसन्न हो (को०)।

विश्वतोमुख
वि० [सं०] जिसे चारों ओर मुँह हो [को०]।

विश्वतोया
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा नदी।

विश्वत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तीन लोक—आकाश, पाताल, और मर्त्यलोक, त्रिलाक [को०]।

विश्वथा
अव्य० [सं०] १. सर्वत्र। सब जगह। २. सदा। सर्वदा [को०]।

विश्वदंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक असुर का नाम [को०]।

विश्वदानि
वि० [सं०] सबका दाता। सबको देनेवाला [को०]।

विश्वदाव
वि० [सं०] जगत् को जलानेवाला [को०]।

विश्वदासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की साती जिहुवाओं का एक नाम।

विश्वदेव
संज्ञा पुं० [सं०] पूराणानुसार एक प्रकार के देवता जिनकी पूजा नांदीमुख श्राद्ध में होती है। विश्वेदेवा।

विश्वदेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागबला। गँगेरन। २. लाल दंडात्पल। ३. कसा। गवेधुक (को०)।

विश्वदैव
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तराषाढ़ा, नक्षत्र, जिसके देवता विश्वदेव माने जाते हैं।

विश्वदैवत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विश्वदैव'।

विश्वधर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

विश्वधरण
संज्ञा पुं० [सं०] सबका भरण पोषण [को०]।

विश्वधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विश्वधरण'।

विश्वधाता
संज्ञा पुं० [सं० विश्वधातृ] विश्व को धारण करनेवाला। ईश्वर [को०]।

विश्वधाम
संज्ञा पुं० [सं० विश्वधामन्] १. ईश्वर। २. स्वदेश। अपना देश।

विश्वधार
संज्ञा पुं० [सं०] शाकद्धीप के राजा मेधातिथि के एक पुत्र का नाम।

विश्वधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूराणानुसार एक नदी नाम।

विश्वधारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।

विश्वधारी
संज्ञा पुं० [सं० विश्वाधारिन्] देवता। सुर [को०]।

विश्वधेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी। धरित्री।

विश्वधेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

विश्वनंद
संज्ञा पुं० [सं० विश्वनन्द] ब्रह्मा के एक मानसपुत्र [को०]।

विश्वनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. काशी का प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग। यौ०—विश्वनाथधाम, विश्वनाथगरी, विश्वनाथपूरी=काशी। वारणसी। ३. संस्कृत के एक प्रसिद्ध विद्धान् जो 'साहित्यदर्पण' नामक रीतिग्रंथ के प्रणेता हैं। विशेष—ये उत्कल के भट्ट ब्राह्मण थे।आलंकारिक चक्रवर्ती और कविराज इनकी उपाधि थी। इनके पिता का नाम चंद्रशेखर था। कविराज विश्वनाथ विद्वान होने के साथ राज्य उच्च पदाधिकारी थे और सांधिविग्रहिक महापात्र थे। इनका समय विक्रम की चौदहवीं शताब्दी है।

विश्वनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

विश्वानाभि
संज्ञा स्त्री० [सं०] विष्णु का चक्र।

विश्वपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर। २. एक अग्नि (को०)। ३. श्रीकृष्ण।

विश्वपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुईंआँवला।

विश्वपा
संज्ञा पुं० [सं०] १. सबकी रक्षा करनेवाला, ईश्वर।२. सूर्य (को०)। ३. चंद्रमा (को०)। ४. अग्नि (को०)।

विश्वपावक
वि० [सं०] जो सबको पकाता हो। (अग्नि) सबको पकानेवाला (को०)।

विश्वपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्क का नाम।

विश्वपाता
संज्ञा पुं० [सं० विश्वपातृ] एक पितृवर्ग [को०]।

विश्वपाल
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर।

विश्वपावन
वि० [सं०] सबको पवित्र करनेवाला।

विश्वपावनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुलसी।

विश्वपूजित
वि० [सं०] जो सबके द्वारा पूजित हो। विश्व द्वारा पूज्य। सर्वसामान्य।

विश्वपूजिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुलसी।

विश्वप्रकाशक
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह जो समग्र विश्व को प्रकाशित करता हो। सूर्य।

विश्वप्रबोध
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

विश्वप्स
संज्ञा पुं० [सं० विश्वप्सन्] १. अग्नि। २. चंद्रमा। ३. सूर्य। ४. देवता। ५. विश्वकर्मा।

विश्वप्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि।

विश्वबंधु
संज्ञा पुं० [सं० विश्वबन्धु] १. विश्व का बंधु। संसार का मित्र। २. शिव। महादेव।

विश्वबंधुता
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्वबन्धुता]दे० 'विश्वबंधुत्व'।

विश्वबंधुत्व
संज्ञा पुं० [सं० विश्वबन्धुत्व] १. शिवत्व। शिवता। २. सारे विश्व के मानवों में बंधु भाव। सब को भाई समझने का भाव।

विश्वाबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. महादेव।

विश्वबीज
संज्ञा पुं० [सं०] विश्व की मूल प्रकृति या माया।

विश्वबोध
संज्ञा पुं० [सं०] भगवान् बुद्ध का नाम।

विश्वभद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सर्वतोभद्र'।

विश्वभद्र (२)
वि० पूर्णतया अनुकुल [को०]।

विश्वभरणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारे संसार का पालन करनेवाली जगदंबिका। उमा।दुर्गा। उ०—भज भिखारी, विश्वाभरण सदा अशरण शरण शरणा।—अर्चना, पृ० ३।

विश्वभरन पु
संज्ञा पुं० [सं० विश्व + भरण] १. संसार का पालन। उ०—विश्वभरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।—मानस० १। २. विश्वपालक। भगवान्। उ०— भजेन विश्वभरन बनवारी। अइया मनुषहुँ बुझ तुम्हारी।— सुंदर०, ग्रं०, भा०१, पृ० ३१८।

विश्वभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० विश्वभर्त] ईश्वर।

विश्वभव
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा जिससे सारे विश्व की सृष्टि हुई है।

विश्वभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर। २. विष्णु का नाम (को०)।

विश्वभावन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विश्वभाव'।

विश्वभुक् (१)
संज्ञा पुं० [सं० विश्वभुज्]दे० 'विश्वभुज्'।

विश्वभुज् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर। २. इंद्र। ३. अग्नि। ४. इंद्र का पुत्र।५. पितरों का एक गण (को०)।

विश्वभुज् (२)
वि० सर्वभोक्ता। सब कुछ खानेवाला। सबका भोग करने- बाला [को०]।

विश्वभुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूराणानुसार एक देवी का नाम।

विश्वभू
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध [को०]।

विश्वभेषज
संज्ञा पुं० [सं०] सोंठ।

विश्वभोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह भोग जो संसार के लिये हो। सबका सुख। उ०—तुम धन्य ! तुम्हारा निःस्व त्याग। है विश्वभोग का वर साधन।—युगांत, पृ० ५४।

विश्वभोजा
संज्ञा पुं० [सं० विश्वभोजस] १. वह जो सब कुछ भोग कर सकता हो। २. वह जो सबकी रक्षा करता हो [को०]।

विश्वमंच
संज्ञा पुं० [सं० विश्व + मच्च] विश्वरुपी मंच। संसार। दुनिया। जगत्। उ०—तुम विश्वमंच पर हुए उदित, बन जगजीवन के सुत्रधार।—युगांत, पृ० ५९।

विश्वमवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि को सात जिह्वाओं में से एक जिहुवा का नाम।

विश्वमय
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर। वह जिसका रुप समस्त विश्व में है। उ०—विश्वमय का जो विशद निवास, व्याप्त उसमें मेरे चिर प्राण।—मधुज्वाल, पृ० ६७।

विश्वमहेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव।

विश्वमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्वमातृ] समस्त विश्व को माता, दुर्गा।

विश्वमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती का एक नाम।

विश्वमूर्ति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। २. ईश्वर (को०)। ३. शिव (को०)।

विश्वमूर्ति (२)
वि० सब रुपों में रहनेवाला। सर्वव्यापाक [को०]।

विश्वमोहन
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

विश्वयु
संज्ञा पुं० [सं०] वायु [को०]।

विश्वयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं० विश्व + युद्ध] जिसमें दुनिया के अधिकांश राष्ट्र दो गुटों में विभक्त होकर आपस में लड़े (अ० वर्ल्डवार)।

विश्वयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. विष्णु (को०)।

विश्वरथ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार राजा गाधि के पुत्र का नाम जो विश्वामित्र नाम से प्रसिद्ध हैं। विशेष दे० 'विश्वामित्र'।

विश्वरद
संज्ञा पुं० [सं०] मग या भोजक ब्राह्मणों का एक धार्मिक ग्रंथ जिसे वे अपना वेद मानते थे और जो भारतीय आर्यों के वेद का विरोधी था।

विश्वराज, विश्वराट्
संज्ञा पुं० [सं०] सारे संसार का राजा [को०]।

विश्वरुचि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक प्रकार की देवयोनि। २. एक दानव का नाम।

विश्वरुचि (२)
संज्ञा स्त्री० अग्नि की सात जिहुवाओं में से एक जिहूवा का नाम।

विश्वरुची
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विश्वरूचि' [को०]।

विश्वरूप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव। ३. पूराणानुसार त्वष्टा के एक पुत्र का नाम।४. भगवान् श्रीकृष्ण का वह स्वरुप जो उन्होंने गीता का उपदेश करते समय अर्जुन को दिखलाया ता। विशेष—श्रीकृष्ण ने उस अवसर पर अर्जुन को यह दिखलाया या समझाया था कि इस समस्त विश्व या ब्रह्मांड में सूर्य, चंद्रमा, तारे, ग्रह आदि जो कुछ हैं, वे सब मेरे ही स्वरुप हैं। ५. पूराणनुसार एक तीर्थ का नाम। ६. काला अगर (को०)। ६. एक प्रकार का पुच्छल तारा। ८. देवता। उ०—भूपन को रुप धरि विश्वरुप आए हैं।—केशव (शब्द०)।

विश्वरुप (२)
वि० सर्वत्र विद्यमान। सर्वव्यापक [को०]।

विश्वरुपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. काला अगर। २. खिरनी।

विश्वरुपिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आद्या शक्ति। महाशक्ति। उ०— विश्वरुपिणी तुम हो, तुम्हें मूर्ति में रचकर। पूजा की बसंत के दिन दीनता विकच कर।—अपरा पृ० १८७।

विश्वरुपी (१)
संज्ञा पुं० [सं० विश्वरुपिन्] [स्त्री० विश्वरुपिणी] विष्णु। जनार्दन।

विश्वरुपी (२)
संज्ञा स्त्री० अग्नि की एक जिहूवा।

विश्वरेता
संज्ञा पुं० [सं० विश्वरेतस्] १. ब्रह्मा। २. विष्णु [को०]।

विश्वरोचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाड़ी या नारीच नामक साग। २. कचूर या पेचुक नामक साग।

विश्वलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २.चंद्रमा।

विश्वलोप
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम।

विश्ववयमन
संज्ञा पुं० [सं०] संसार की रचना। विश्वसृष्टि। उ०— उदधृत शिति दीन हुई दिखा नवल विश्ववयन।—अर्चना, पृ० १०।

विश्ववर्ण
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूईँआँवला।

विश्ववसु
संज्ञा पुं० [सं०] राजा पुरुरवा के एक पुत्र का नाम।

विश्ववाक्
संज्ञा पुं० [सं० विश्ववाच्] असाधारण पुरुष [को०]।

विश्ववाद
संज्ञा पुं० [सं० विश्व + वाद] वह मत या वाद जिसके अनुसार सारे संसार के मानवों को परस्पर भाई भाई माना जाता है। विश्वबंधुत्व—उ०—यह विश्ववाद साम्राज्य- वादियो के प्रभुत्व का साधन है।—आचार्य०, पृ० २२।

विश्ववार
संज्ञा पुं० [पुं०] यज्ञ में सोम का संस्कार।

विश्ववारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अत्रि गोत्र की एक स्त्री जो ऋग्वेद के पाँचवें मंडल की कुछ ऋचाओं की ऋषि मानी जाती है।

विश्ववास
संज्ञा पुं० [सं०] संसार। जगत्। दुनिया।

विश्ववाह
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विश्वही] सबको धारण करनेवाला। सबका भरण पोषण करनेवाला [को०]।

विश्ववाहु
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।

विश्वविख्यात
वि० [सं०] संसारप्रसिद्ध। विश्वविश्रुत। जगद्विख्यात।

विश्वविजयी
वि० [सं० विश्वविजयिनी] जिसने समग्र संसार को जीत लिया हो। सारी दुनिया को जीत लेनेवाला।

विश्वविद्
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो विश्व की सब बातें जानता हो। बहुत बड़ा पंडित। २. ईश्वर।

विश्वविद्यालय
संज्ञा पुं० [सं०] वह संस्था जिसमें सभी प्रकार की विद्याओं की उच्च कोटि का शिक्षा दी जाती हो, परीक्षाएँ ली जाती हों और लोगों को विद्या संबंधी उपाधियाँ आदि प्रदान करती हो। (अं० यूनिवर्सिटी)।

विश्वविधायी
संज्ञा पुं० [सं० विश्ववेधायिन्] १. देवता। विवुध। २. ब्रह्मा [को०]।

विश्वविभावन
संज्ञा पुं० [सं०] विश्व का विभावन या निर्माण। संसार की रचना [को०]।

विश्वविश्रृत
वि० [सं०] जो संसार भर में प्रसिद्ध हो। जगद्विख्यात।

विश्वविस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।

विश्वविस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैशाख मास की पूर्णिमा [को०]।

विश्ववृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

विश्ववेदा
वि० [सं० विश्ववेदस्] १. सर्वज्ञ। सब कुछ जाननेवाला। २. संत। महात्मा। तपस्वी [को०]।

विश्वव्यचा
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्वव्यचस्]।

विश्वव्यापक
वि० [सं०] दे० 'विश्वव्यापी'।

विश्वव्याषी (१)
संज्ञा पुं० [सं० विश्वव्यापिन्] ईश्वर।

विश्वव्यापी (२)
वि० जो सारे विश्व में व्याप्त हो।

विश्वश्रवा
संज्ञा पुं० [स विश्वश्रवस्] एक मुनि जो कुबेर और रावण आदि के पिता ते।

विश्वश्री
वि० [सं०] जो सबके लिये लाभकर हो (अग्नि)। जो सबको समान रुप से उपयोगी हो [को०]।

विश्वसंप्लव
संज्ञा पुं० [सं० विश्वसम्प्लव] विश्व का विनाश। प्रलय [को०]।

विश्वसंभव
संज्ञा पुं० [सं० विश्वसम्भव] जिससे समग्र संसार उत्पन्न हुआ है, ईश्वर।

विश्वसंवनन
संज्ञा पुं० [सं०] समग्र विश्व का मोहन करना या हरण करना [को०]।

विश्वसंहार
संज्ञा पुं० [सं०] महाप्रलय। विश्व का विनाश [को०]।

विश्वसख
संज्ञा पुं० [सं०] सबका मित्र। सबका सखा।

विश्वासत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। वासदेव। श्रीकृष्ण [को०]।

विश्वसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ ऋषि मुनि विश्राम करते हों। २. विश्वास। एतबार।

विश्वसनीय
वि० [सं०] विश्वास करने के योग्य। विश्वास उत्पन्न करने योग्य। जिसका एतबार किया जा सके। जैसे,— (क) हमें यह समाचार विश्वसनीय सूत्र से मिला है। (ख) आपकी सब बातें बहुत विश्वसनीय हैं।

विश्वसहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा का नाम। २. पृथ्वी (को०)।

विश्वसाक्षी
संज्ञा पुं० [सं० विश्वसक्षिन्] वह जो सब कुछ देखता है। ईश्वर।

विश्वसाम
संज्ञा पुं० [सं० विश्वसामन्] एक वैदिक ऋषि का नाम जो आत्रेय गोत्र के थे और जो अनेक वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे।

विश्वसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक तंत्र का नाम [को०]।

विश्वसारक
संज्ञा पुं० [सं०] कंकारी वृक्ष। बिदर वृक्ष।

विश्वसित
वि० [सं०] विश्वास करने के योग्य। विश्वसनीय। जिसपर विश्वास किया गया हो। विश्वस्त।—उनकी संमति सर्व- साधारण को विश्वसित प्रमाण रूप होती है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४४०। २. निर्भय। निडर। (को०)।

विश्वसृक्
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्वसृज्] १. स्रष्टा। ब्रह्म। २. मयासुर। मय नामक असुर (को०)।

विश्वसृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] संसार की रचना या निर्माण।

विश्वस्त
वि० [सं०] १. जिसका विश्वास किया जाय। विश्वसनीय। २. विश्वास करनेवाला। भरोसा करनेवाला (को०)। ३. निडर। विश्रुब्ध (को०)। ४. जिसपर विश्वास किया गया हो। निष्ठ (को०)।

विश्वस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विधवा।

विश्वस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतावर।

विश्वस्रष्टा
संज्ञा पुं० [सं० विश्वास्रष्ट] ब्रह्मा जो सृष्टि का निर्माण करते हैं।

विश्वहर्त्ता
संज्ञा स्त्री० [सं० विश्वहर्तृ] शिव।

विश्वहृदय
संज्ञा पुं० [सं०] अखिल विश्व से प्रेम करनेवाला हृदय। चराचर जगत् में अनुरक्त हृदय। सर्वभूतमय हृदय। उ०— भावयोग की सबसे उच्च कक्षा पर पहुँचे हुए मनुष्य का जगत् के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाता है, उसको अलग भावसत्ता नहीं रह जाती है, उसका हृदय विश्वहृदय हो जाता है।—रस०, पृ० २५।

विश्वहेतु
संज्ञा पुं० [सं०] विश्व को उत्पन्न करनेवाले, विष्णु।

विश्वांड
संज्ञा पुं० [सं० विश्वाण्ड] ब्रह्मांड [को०]।

विश्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दक्षणी एक कन्या जो धर्म को ब्याही थी और जिससे सत्य, क्रतु आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए थे। २. एक मान जो २० पल का होता है। ३. अतिविषा। अतीस। ४. शतावर। ५. पीपल। ६. सोंठ। उ०—विश्वा, नागर, जगभिषक, महा औषधी नाउँ।—नद० ग्रं०, पृ०१०४। ७ संखिनी। चोरपुष्पी। ८. पृथ्वी। भूमि (को०)। ९. अग्नि की सात जिह्वा या अर्चियों में से एक जिह्वा (को०)। १०. एक नदी (को०)।

विश्वाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर।

विश्वाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वैदिक अप्सरा का नाम। २. एक प्रकार का रोग जिसमें वायु के कारण कंधे से उँगलियों तक सारा हाथ न तो फैलाया जा सकता है और न सिकोड़ा जा सकता है।

विश्वातिथि
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सबका अतिथि हो। संन्यासी [को०]।

विश्वातीत
संज्ञा पुं० [सं०] जो सबसे परे हो, ईश्वर।

विश्वात्मवाद
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण संसार को अपनी आत्मा। समझने का सिद्धांत। उ०—अहंकारमूलक आत्मवाद का खंडन। करके गौतम ने विश्वात्मवाद को नष्ट नहीं किया।—शैली, पृ० १८९।

विश्वात्मा
संज्ञा पुं० [सं० विश्वात्मन्] १. विष्णु। २. शिव। ३. ब्रह्मा। ४. ईश्वर। परमात्मा (को०)। ५. सूर्य (को०)।

विश्वाद्
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि जो सब कुछ भक्षण करते है।

विश्वादि
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का कषाय। विशेष—यह कषाय जो सोंठ, बाला, क्षेत्रपर्पटी, मोखा, लालचंदन आदि सो बनाया जाता है और जो ज्वर की प्यास, कै तथा दाह आदि को कम करनेवाला माना जाता है।

विश्वाधाया
संज्ञा पुं० [सं० विश्वाधायस्] देवता [को०]।

विश्वाधार
संज्ञा पुं० [सं०] समग्र संसार का आधार। परमेश्वर। उ०—मन का समाहार करो विश्वाधार।—आराधना, पृ० ४६।

विश्वाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] परमेश्वर।

विश्वानर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैश्वानर'।

विश्वानुरक्त
वि० [सं०] समस्त विश्व से अनुराग रखनेवाला। विश्वहितैषो। उ०—विश्वानुरक्त है अनासक्त।—युगांत, पृ० ५५।

विश्वाप्सु
वि० [सं०] अनेक रूप धारण करनेवाला [को०]।

विश्वाभ्
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. ईश्वर, जो सर्वव्यापक है (को०)।

विश्वामित्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध ब्रह्रर्षि जो गाधिज, गाधेय और कौशिक भी कहै जाते हैं। विशेष—विश्वामित्र कान्यकुब्ज के पुरुवंशी महाराज गाधि के पुत्र थे, परंतु क्षत्रिय कुल में जन्म लेने पर भी अपने तपोबल से ब्रह्मर्षियो में पारगणित हुए। ऋग्वेद के अनेक मंत्र ऐसे हैं जिनके द्रष्टा वश्वमित्र अथवा उनके वंशज माने जाते हैं। इनका विश्वामित्र नाम ब्राह्मणत्व प्राप्त करने पर पड़ा था; नहीं तो इनका पहला क्षत्रिय दशा का नाम 'विश्वरथ' था। ऋग्वेद में अनेक मंत्र ऐसे मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि ये यज्ञों में पुरोहित का कार्य करते थे, और वृत्ति के संबंध में इनमें तथा वशिष्ठ में बहुत समय तक बराबर झगड़े बखेड़े होते रहते थे। पुराणों में लिखा है कि राजा गाधि को सत्यवती नाम की एक सुंदरी कन्या उत्पन्न हुई थी। वह कन्या उन्होंने ऋचीक ऋषि को के दी थी। ऋचोक ने एक बार दो अलग अलग चरु तैयार करके अपनी स्त्री सत्यवती को दिए थे और कहा था कि इसमें से यह एक चरु तो तुम खा लेना जिसमें तुम्हें ब्राह्मणों के गुण से संपन्न एक पुत्र होगा; और एक दूसरा चरु अपनी माता को दे देना जिससे उन्हें क्षत्रियों के गुणवाला एक बहुत तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होगा। इसी बीच में राजा गाधि अपनी स्त्री सहित वहाँ आए। सत्यवती ने वे दोनों चरु अपनी माता के सामने रख दिए और उनका गुण बतला दिया। माता ने समझा कि ऋचीक ने अपनी स्त्री के लिये बढ़िया चरु तैयार किया होगा; इसलिये उसने उसका चरु तो आप खा लिया और अपना उसे खिला दिया। इससे उसके गर्भ से तो विश्वामित्र का जन्म हुआ, जिसमें क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों के से गुण थे, और सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ जो ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रियों के गुणों से संपन्न थे। विश्वामित्र को शुनःशेफ, देवरात, देवश्रवा, हिरण्याक्ष, गालव, जय, अष्टक, कच्छप, नारायण, नर आदि सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे, जिनके कारण इनके कौशिक वंश की बहुत अधिक वृद्धि हुई थी। कहते हैं, एक बार जब विश्वामित्र ने बहुत बड़ा तप किया था, तब इंद्र तथा समस्त देवताओंने भयभीत होकर मेनका नामक अप्सरा को उनका तप भंग करने के लिये भेजा था। इसी मेनका से विश्वामित्र को शकुंतला नामक कन्या उत्पन्न हुई थी जो दुष्यंत को ब्याही गई थी। यह भी प्रसिद्ध है कि इक्ष्वाकु वंश के राजा त्रिशंकु ने एक बार सशरीर स्वर्ग जाने की कामना से एक यज्ञ करना चाहा था। परंतु उनके पुरोहित वशिष्ठ ने कहा कि ऐसा होना असंभव है। इसपर त्रिशंकु ने विश्वामित्र की शरण ली और विश्वामित्र ने उन्हें सशरीर स्वर्ग पहुँचा दिया। यह भी कहा जाता है कि विश्वामित्र बहुत बड़े क्रोधी थे और प्रायः लोगों को शाप दे दिया करते थे। राजा हरिश्चंद्र के सत्य की सुप्रसिद्ध परीक्षा लेनेवाले भी यही माने जाते हैं। पुराणों में इनके संबंध में इसी प्रकार की और भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं।

विश्वामित्रप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारियल का पेड़। २. भगवान् रामचंद्र। ३. कार्तिकेय [को०]।

विश्वामित्रसृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तालवृक्ष, भैंस, गधा आदि जिनकी रचना विश्वामित्र ऋषि ने की थी।

विश्वामित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार एक नदी का नाम।

विश्वामृत
वि० [सं०] अमर। मृत्युंजय [को०]।

विश्वायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो विश्व की सब बातें जानता हो। सर्वज्ञ। २. ब्रह्मा।

विश्वराज, विश्वाराट्
संज्ञा पुं० [सं०] समग्र विश्व का शासन करनेवाला। ईश्वर।

विश्वावसु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक गंधर्व का नाम। २. विष्णु। ३. एक संवत्सर का नाम।

विश्वावसु (२)
संज्ञा स्त्री० रात।

विश्वावास
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विश्वाधार' [को०]।

विश्वाश्रय
संज्ञा पुं० [सं० विश्व + आश्रय] वह जो सबका आश्रय स्वरूप है। ईश्वर।

विश्वाश्रय
वि० विश्व में परिव्याप्त। विश्व की आश्रयभूत। उ०— जागो विश्वाश्रय महिमा घर, फिर देखा।—अपरा, पृ० २०९।

विश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह धारणा जो मन में किसी व्यक्ति के प्रति उसका सद्भाव, हितैषिता, सत्यता, दृढ़ता आदि अथवा किसी सिद्धांत आदि की सत्यता अथवा उत्तमता का ज्ञान होने के कारण होती है। किसी के गुणों आदि का निश्चय होने पर उसके प्रति उत्पन्न होनेवाला मन का भाव। एतबार। यकीन। जैसे,—(क) मैं तो सदा ईश्वर पर विश्वास रखता हूँ। (ख) उन्हें आपका पूरा पूरा विश्वास है। (ग) आप विश्वास रखें, ऐसा कभी न होगा। क्रि० प्र०—करना।—मानना।—रखना।—होना। मुहा०—विश्वास जमाना = किसी के मन में विश्वास उत्पन्न करना या दृढ करना। विश्वास दिलाना = किसी के मन में विश्वास उत्पन्न करना। २. मन की धारणा जो विषय या सिद्धांत आदि की सत्यता का पूरा पूरा प्रमाण न मिलने पर भी उसकी सत्यता के संबंध में होती है। जैसे— (क) बहुत से अशिक्षित भूत प्रेत पर विश्वास रखते हैं। (ख) और धर्मों की अपेक्षा बौद्ध धर्म पर उनका कुछ अधिक विश्वास है। ३. केवल अनुमान के आधार पर होनेवाला मन का दृढ़ निश्चय। जैसे,—मेरा तो यही विश्वास है कि वह अवश्य आवेगा। ४. गुप्त भेद या समाचार।

विश्वासकारक
वि० [सं०] १. विश्वास करनेवाला। यकीन करनेवाला। २. मन में विश्वास उत्पन्न करनेवाला। जिससे विश्वास उत्पन्न हो।

विश्वासकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] गोपनीय कार्य [को०]।

विश्वासकृत्
वि० [सं०] दे० 'विश्वासकारक' [को०]।

विश्वासघात
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के विश्वास के विरुद्ध की हुई क्रिमा। अपने पर विश्वास करनेवाले के साथ ऐसा कार्य करना जो उसके विश्वास के बिलकुल विपरीत हो।

विश्वासघातक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी के मन में अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करके भी उसका अपकार करे। विश्वास करने पर भी धोखा देनेवाला। धोखेबाज।

विश्वासघाती
संज्ञा पुं० [सं० विश्वासघातिन्] [स्त्री० विश्वासघातिवी] दे० 'विश्वासघातक' [को०]।

विश्वासन
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वास। एतबार। यकीन।

विश्वासपरम
वि० [सं०] विश्वास से पूर्ण [को०]।

विश्वासपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] जिसपर भरोसा किया जाय। विश्वास करने के योग्य। विश्वसनीय।

विश्वासप्रद
वि० [सं०] विश्वास देनेवाला। भरौसा पैदा करनेवाला।

विश्वासभंग
संज्ञा पुं० [सं० विश्वासभङ्ग] विश्वासवात। विश्वास न रचना।

विश्वासभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वस्त। विश्वासपात्र। विश्वसनीय व्यक्ति [को०]।

विश्वासभूमि
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जिसका विश्वास किया जाय। विश्वास का स्थान या भूमि [को०]।

विश्वासस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका विश्वास किया जाय। विश्वासभाजन।

विश्वासस्थित
वि० [सं०] विश्वासी। विश्वासपूर्ण। दृढ़ विश्वासवाला। उ०—बोले आवेगरहित स्वर से विश्वासस्थित।— अपरा, पृ० ४९।

विश्वासिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका विश्वास किया जाय। विश्वसनीय।

विश्वासित
वि० [सं०] जिसे विश्वास दिलाया गया हो [को०]।

विश्वासी
संज्ञा पुं० [सं० विश्वासिन्] १. वह जो किसी पर विश्वास करता हो। विश्वास करनेवाला। २. वह जिसका विश्वास किया जाय।

विश्वास्य
वि० [सं०] १. विश्वास करने योग्य। विश्वसनीय। २. जिसका विश्वास किया जाय। विश्वासभाजन।

विश्वाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोंठ।

विश्वेक्षिता
वि० [सं० विश्वेक्षितृ] सर्वदर्शी [को०]।

विश्वेदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. देवताओं का एक गण जिसमें इंद्र, अग्नि आदि नौ देवता माने जाते हैं। विशेष—वैदिक युग में लोग इन्हें मनुष्यों के रक्षक, शुभ कर्मों के फल देनेवाले और विश्व के अधिपति मानते थे। अग्निपुराण में ये दस कहे गए हैं और इनके नाम इस प्रकार बतलाए गए हैं—क्रतु, दक्ष, वसु, सत्य, काम, काल, ध्वनि, रोचक, आद्रव और पुरूरवा। ३. पुराणानुसार एक असुर का नाम। ४. एक देवता (को०)। ५. महान् व्यक्ति। महत् पुरुष (को०)। ६. तेरह की संख्या (को०)।

विश्वेभोजा
संज्ञा पुं० [सं० विश्वेभोजस्] इंद्र।

विश्वेवेदा
संज्ञा पुं० [सं० विश्वेवेदस्] अग्नि।

विश्वेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु। ३. ब्रह्मा (को०)। ४. ईश्वर। ५. उत्तराषाढा नक्षत्र जिसके अधिपति विश्व नामक देवता माने जाते हैं।

विश्वेशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रजापति दक्ष की एक पुत्री का नाम [को०]।

विश्वेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर। २. शिव की एक मूर्ति का नाम।

विश्वैकसार
संज्ञा पुं० [सं०] काश्मीर के एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

विश्वोषध
संज्ञा पुं० [सं०] सोंठ।