पलंकट
वि० [सं० पलङ्कट] डरपोक। भीरु। भयशील।

पलंकर
संज्ञा पुं० [सं० पलङ्कर] पित्त।

पलंकष
संज्ञा पुं० [सं० पलङ्कष] गुग्गुल। गूगल।

पलंकषा
संज्ञा स्त्री० [सं० पलङ्कषा] १. गोखरु। २. रास्ना। ३. गुग्गुल। ४. टेसू। पलास। ५. लाख। ६. गोरखमुंडी। ७. मक्खी।

पलंकषी
संज्ञा स्त्री० [सं० पलङ्कषी] दे० 'पलंकषा'।

पलंका † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पर + लंका] बहुत दूर का स्थान। अति दूरवर्त्ती स्थान। उ०— तेह्वि की आग ओहू पुनि जरा। लंका छोड़ि पलंका परा।— जयसी (शब्द०)। विशेष— प्राचीन भारतवासी लंका को बहुत दूर समझते थे इस कारण अत्यंत दूर के स्थान को पलंका (परलंका) जिसका अर्थ है 'लंका से दूर या दूर का देश' बोलने लगे। अब भी गाँवों में इस शब्द का इसी अर्थ में व्यवहार होता है।

पलंका (२)
संज्ञा पुं० [सं० पल्यङ्क] पल्यंक। पलंग। उ०— चारिउ पवन झकोरै आगी। लंका दाहि पलंका लागी।— जायसी ग्रं०, पृ० १५६।

पलंग
संज्ञा पुं० [सं० पल्यङ्क] १. अच्छी चारपाई। अच्छे गोडे़, पाटी और बुनावट की चारपाई। अधिक लंबी चौड़ी चारपाई। पर्यक। पल्यंक। खाट। क्रि० प्र०— बिछाना। मुहा०— पलंग को लात मारकर खड़ा होना =(१) छठी, बरही आदि के उपराँत सौरी से किसी स्त्री का भली चंगी बाहर आना। निरोग और भली चंगी सौरी से बाहर आना। सौरी काल समाप्त कर बाहर निकलना (बोलचाल)। (२) कोई बड़ी बीमारी झेलकर अच्छा होना। बीमारी से उठना। खाट सेकर उठना (बोलचाल)। पलंग तोड़ना = बिना कोई काम किए सोया या पड़ा रहना। कुछ काम न करने हुए समय काटना। निठल्ला रहना। खाट तोड़ना। पलंग लगाना = बिछौना बिछाना। किसी के सोने के लिये पलंग पर बिछौना बिछाना और तकिया आदि को यथास्थान रखना। बिस्तर दुरुस्त करना।

पलंगड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पलंग + डी (प्रत्य०)] पलंग। उ०— और श्री आचार्य जी महाप्रभुन की पलंगड़ी के सानिध्य निवेदन की क्यों कहे ? यह तो रीति नाहीं।— दो सौ बाबन; भा० २, पृ० १६। २. छोटा पलंग।

पलंगतोड़ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पलंग + तोड़ना] एक औषधि जिसका मुख्य गुण स्तंभन है। यह वीर्यवृद्धि के लिये भी खाई जाती है।

पलंगतोड़ (२)
वि० निठल्ला। आलसी। निकम्मा।

पलंगदंत
संज्ञा पुं० [फा० पलंग(=चीता)+ ही० दाँत] वह जिसके दाँत चीते के दाँतों की तरह कुछ कुछ टेढे़ होते हैं।

पलंगपोश
संज्ञा पुं० [हिं० पलंग + फा० पोश] पलंग पर बिछाने की चादर।

पलंजी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की बरसाती घास जो़ उत्तरी भारत के मैदानों में अधिकता से होती है। भूसा। गुलगुला। बड़ा मुरमुरा। वि० दे० 'भूसा'।

पलंडी
संज्ञा स्त्री० [देश०] नाव में का वह बाँस जिससे पाल खड़ी की जाती है। (मल्लाह)।

पलँग, पलँगा
संज्ञा पुं० [हिं० पलंग] दे० 'पलंग'। उ०— सदगुरु को पलँगा बैठाई। सब मिलि पाँव पखारो आई।—कबीर सा०, पृ० ५४७।

पलँगरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पलंग + ड़ी (प्रत्य०)] पलंग। माचा।

पलँगिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पलंग + इया (प्रत्य०)] पलंग। खाट। उ०— पौढ़हु पीय पलँगिया मीजँहुँ पाय। रैनि जगे की निंदिया सब मिटि जाय।—रहीम (शब्द०)।

पल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समय का एक बहुत प्राचीन विभाग जो २/५ मिनट या २४ सेकंड के बराबर होता है। घड़ी या दंड का ६० वाँ भाग। ६० विपल के बराबर समयमान। २. एक तौल जौ ४ कर्ष के बराबर होती है। विशेष— कर्ष प्रायः एक तोले के बराबर होता है, पर यह मान इसका बिलकुल निश्चित नहीं है। इसी कारण पल के मान में भी मतभेद है। वैद्यक में इसका मान आठ तोला और अन्यत्र चार तोना या तीन तोला चार माशा भी माना जाता है। ३. चार तोले की एक माप। तेल आदि निकालने के लिये लोहे का डंडीदार पात्र। इसमें करीब चार तोले तेल आता है। परी। पैरी। पला। पली। उ०— अबतक कई गावों में प्रत्येक घानी से प्रतिदिन एक एक 'पल' तेल मंदिरों के निमित्त लिए जाने की प्रथा चली आदी है।— राज० इति०, पृ० ४२७।४ मांस। उ०—पल आमिष को कहत कवि, षट उसास पल होय। पल जु पलक हरि बिच परे गोपिन जुग सत सोय।— अनेकार्थ०, पृ० १४०। ५. धान का सूखा डंठल जिससे दाने अलग कर लिए गए हों। बवाल। ६. धोखेबाजी। प्रतारणा। ७. चलने की क्रिया। गति। ८. मूर्ख। ९. तराजू। तुला। १०. कीचड़। गिलाव या गाब। पलल (को०)।

पल (२)
संज्ञा पुं० [सं० पलक] १. पलक। दृगंचल। उ०— झुकि झुकि झपकौहैं पलनु फिरि फिरि जुरि, जमुहाइ। बींदि पियागम नींद मिसि दी सब सखी उठाय।— बिहारी र०, दो० ५८९। विशेष— पहले साधारण लोग पल और निमेष के कालमान में कोई अंतर नहीं समझते थे। अतः आँख के परदे का प्रत्येक पल में एक बार गिरना मानकर उसे भी पल या पलक कहने लगे। मुहा०— पल मारते या पल मारने में = बहुत ही जल्दी। आँख झपकते। तुरंत। जैसे,—पल मारते वह अदृश्य हो गया। २. समय का अत्यंत छोटा विभाग। क्षण। आन लहजा। दम। विशेष— कहीं इसे स्त्रीलिंग भी बोलते हैं। मुहा०— पल के पल या पल की पल में = बहुत ही अल्प काल में। बात की बात में। क्षण भर में।

पलई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोपल या पल्लव] १. पेड़ की नरम डाली या टंहनी। २. पेड़ के ऊपर का भाग। सिरा। नोक।

पलउसिनि ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिवेशिनी] पड़ोसिन। उ०— तोरा करम धरम पए साखि, मंदि उघाए पलउसिनि राखि।— विद्यापति, पृ० २६०।

पलक
संज्ञा स्त्री० [सं० पल + क] १. क्षण पल। लहमा। दम। उ०— कोटि कर्म फिरे पलक में जो रेचक आए नाँव। अनेक जन्म जो पुन्य करे नहीं नाम बिनु ठाँव।— कबीर (शब्द०)। २. आँख के ऊपर का चमडे़ का परदा जिसके गिरने से आँख बंद होती और उठने से खुलती है। पपोटा तथा बरोनी। उ०— लोचन गमु रामहिं उर आनी। दीन्हें पलक कपाट सयानी।— तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०— गिरना। झपकना। मुहा०—पलक खोलना = आँख खोलना। उ०— इन दिनों तो है बिपत खुल खेलती। तू भला अब भी पलक तो खोल दे।— चुभते०, पृ० १। पलक झपकते = अत्यंत अल्प समय में। बात कहते। एक निमेष मात्र में। जैसे,— पलक झपकते पुस्तक गायब हो गई। पलक पर लेना = जी खोलकर संमान करना। अत्यंत प्रेम से सम्मान करना। उ०— लालसा लाख बार होती है। हम पलक पर उन्हें ललक ले लें। चुभते०, पृ० ७। पलक पसीजना = (१) आँखों में आँसू आना। (२) दया या करुणा उत्पन्न होना। द्रवित होना। आर्द्र होना। पलक पाँवडे़ बिछाना = हार्दिक स्वागत करना। उ०— आइए ऐ मिलाप के पुतले, हम पलक पाँवडे़ बिछा देंगे। चुभते०, पृ० ६। (किसी के रास्ते में या किसी के लिये पलक बिछाना = किसी का अत्यंत प्रेम से स्वागत करना पूर्ण योग से किसी का स्वागत तथा सत्कार करना। उ०— ऊबता हूँ उबारनेवाले। आइए हैं बिछी हुई पलकें।— चुभते०, पृ० १। पलक भँजना =(१) पलक का गिरना या हिलना। (२) पलक का इस प्रकार हिलना कि उससे कोई संकेत सूचित हो। इशारा या संकेत ह्वोना। जैसे,— उनकी पलक भँजते ही वह नौ दो ग्यारह हो गया। पलक भाँजना = (२) पलक से कोई इशारा करना। पलक मारना = (१) आँखों से संकेत या इशारा करना। (२) पलक झपकाना था गिराना। (३) तंद्रालु होना। झपकी लेना। पलक लगना = (१) आँखें मुँदना। पलक झपकना। पलक गिरना। उ०— पलक नहिं कहुँ नेकु लागति रहति इक टक हेरि। तऊ कहुँ त्रिपितात नहीं रूप रस के ढेरि।— सूर (शब्द०)। (२) नींद आना। झपकी लगना। जैसे,—आज तीन दिन से एक छन के लिये भी पलक न लगी। पलक लगना = (१) आँख झपकाना। आँखें मूँदना। (२) सोने के लिये आँखें बंद करना। सोने की इच्छा से आँखे मूँदना। पलक से पलक न लगना = (१) पलक न झपकना। टकटकी बँधी रहना। (२) आँख न लगना। नींद न आना। पलक से पलक न लगाना = (१) टकटकी बाँधे रहना। पलक न झपकाना। (२) सोने के लिये आँखें बंद न करना। पलकों से तिनके चुनना = अत्यंत श्रद्धा तथा भक्ति से किसी की सेवा करना। किसी को सुख पहुँचाने के लिये पूर्ण मनोयोग से प्रयत्न करना। जैसे,— मैं आपके लिये पलकों से तिनके चुनूँगा। पलकों से जमीन झाड़ना = पलकों से तिनके चुनना।

पलकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] धूपघड़ी के शंकु की उस समय की छाया की लंबाई जब मेष संक्राति के मध्याह्नकाल में सूर्य ठीक विषु- वत् रेखा पर होता है।

पलकदरिया †
वि० [हिं० पलक + फा० दरिया] बड़ा दानी। अति उदार।

पलकदरियाव ‡
वि० [हिं० पलक + फा० दरयाव] दे० 'पलकदरिया'।

पलकनेवाज †
वि० [हिं० पलक + फा० नेवाज] छन में निहाल कर देनेवाला। बड़ा दानी। पलकदरिया।

पलकपीटा
संज्ञा पुं० [हिं० पलक + पीटना] १. आँख का एक रोग। विशेष— इसमें बरौनियाँ प्रायः झड़ जाती हैं, आँखें बराबर झपकती रहती हैं और रोगी धूप या रोशनी की ओर नहीं देख सकता। २. वह मनुष्य जिसे पलकपीटा रोग हुआ हो। पलकपीटे का रोगी।

पलकांतर पु
संज्ञा पुं० [सं० पलक + अन्तर] पलकों के गिरने के कारण होनेवाला व्यवधान। पलक गिरने से दृष्टि का ब्यव- धान या अंतर। उ०— प्रथम प्रतच्छ बिरह तू गुनि लै। ताते पुनि पलकांतर सुनि लै।— नंद० ग्रं०, पृ० १६२। विशेष— नंददास ने इसे एक प्रकार का विरह माना है।

पलका पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्क या पल्यङ्क] [स्त्री० पलकी] पलंग। चारपाई। उ०—(क) अजिर प्रभा तेहि श्याम को पलका पौढायो। आप चली गृह काज को तँह नंद बुलायों।—सूर (शब्द०)। (ख) और जो कहो तो तेरो ह्वै कै सेवों गाढ़ो बन जो कहो तो चेरी ह्वै कै पलकी उसाई दों।— हुन- मान (शब्द०)।

पलका † (२)
वि० [देश०] चंचल। उ०— भाव भगत नाना विधि कीन्हीं पलका कोन करी।—दक्खिनी०, पृ० २५।

पलक्क पु
संज्ञा पुं० [हिं० पलक] दे० 'पलक'। उ०— हरि सुख एक पलक्क का ता सम कह्या न जाइ।— संतबानी०, पृ० ७९।

पलक्या
संज्ञा पुं० [सं०] पालक का साग। पालंक शाक।

पलक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद रंग। श्वेत वर्ण।

पलक्ष (२)
वि० जिसका रंग सफेद हो। श्वेतवर्ण युक्त।

पलक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] रक्त। खून। लहू।

पलखन
संज्ञा पुं० [सं० पलक्ष, प्रा० पलक्ख] पाकर का पेड़।

पलगंड
संज्ञा पुं० [सं०पलगण्ड] कच्ची दीवार में मिट्टी का लेप करनेवाला। लेपक।

पलचर
संज्ञा पुं० [सं० पल (= मांस) + चर (= भक्षण)] १. एक उपदेवता जिसका वर्णन राजपूतों की कथाओं में है। उ०— मिली परस्पर डीठ बीर पग्गिय रिस अग्गिय। जग्गिय जुद्ध बिरुद्ध उद्ध पलचर खग खग्गिय। भग्गिय सद्य श्रृगाल काल दै ताल उगग्गिय। लग्गिय प्रेत पिशाच पत्र जुग्गिन लै नग्गिय। रग्गिय सुररंभादि गण रुद्र रहस आवज धमिय। सन्नाह करहि उच्छाह भट दुहुँ सिपरह जब झमझमिय।— सूदन (शब्द०)। विशेष— इसके संबंध में लोगों का विश्वास है कि यह युद्ध में मरे हुए लोगों का रक्त पीता और आनंद से नाचता कूदता है। २. मांसभक्षी पक्षी। मांस खानेवाले पक्षी।

पलच्चर पु
संज्ञा पुं० [सं० पल (= मांस) + चर (= भक्षण)] उ०— धरनि धार धुकि धरनि भिरन इंद्राजित सरभर। मुक्कि बान रुकि भान परिय सारगन पलच्चर।— पृ० रा०, २। २८२।

पलटन
संज्ञा स्त्री० [अं० बटालियन, फा० बटेलन या अं० प्लैंटून] १. अँगरेजी पैदल सेना का एक विभाग जिसमें दो या अधिक कंपनियाँ अर्थात् २०० के लगभग सैनिक होते हैं। २. सैनिकों अथवा अन्य लोगों का समूह जो एक उद्देश्य या निमित्त से एकत्र हो। दल। समुदाय। झुंड। जैसे, वहाँ की भीड़ भाड़ का क्या कहना पलटन की पलटन खड़ी मालूम होती थी।

पलटना (१)
क्रि० अ० [सं० प्रलोठन अथवा प्रा० पलोठन] किसी वस्तु की स्थिति उलटना। ऊपर के भाग का नीचे या नीचे के भाग का ऊपर हो जाना। उलट जाना। (क्व०)। २. अवस्था या दशा बदलना। किसी दशा की ठीक उलटी या विरुद्ध दशा उपस्थित होना। बुरी दशा का अच्छी में या अच्छी का बुरी में बदल जाना। आमूल परिवर्तन हो जाना। कायापलट हो जाना। जैसे,—दो साल हुए मैंने तुमको कितना खुश देखा था, पर अब तो तुम्हारी हालत ही पलट गई है। विशेष— इस अर्थ में यह क्रिया 'जाना' के साथ सदा संयुक्त रहती है; अकेले नहीं प्रयुक्त होती है। ३. अच्छी स्थिति या दशा प्राप्त होना। इष्ट या वांछित दशा आना या मिलना। किसी के दिन फिरना या लौटना। जैसे,—(क) धैर्य रखो, तुम्हारे भी दिन अवश्य पलटेंगे। (ख) बरसों बाद इस घर के दिन पलटे हैं। (ग) आधी रात तक तो उनका पासा बराबर पट रहा इसके बाद जो पलटा तो सारी कसर निकल आई। ४. मुड़ना। घूमना। पीछे फिरना। जैसे,— मैंने पलटकर देखा तो तुम भी पैर पीछे आ रहे थे। ५. लौटना। वापस होना। जैसे,— तुम कलकत्ते से कबतक पलटागे। (क्व०)।

पलटना (२)
क्रि० स० १. किसी वस्तु की स्थिति को उलटना। किसी वस्तु के निचले भाग को ऊपर या ऊपर के भाग को नीचे करना। उलटी वस्तु को सीधी या सीधी को उलटी करना। उलटना। औंधाना। जैसे,— (किसी बरतन आदि के लिये) अच्छी तरह तो रखा था, तुमने व्यर्थ ही पलट दिया। संयो० क्रि०—देना। २. किसी वस्तु की अवस्था उलट देना। किसी वस्तु को ठीक उसकी उलटी दशा में पहुँचा देना। अवनत को उन्नत या उन्नत को अवनत करना। काया पलट देना। जैसे,— दो ही वर्ष में तुम्हारी प्रबंधकुशलता ने इस गाँव की दशा पलट दी। विशेष— इस अर्थ में यह क्रिया सदा 'देना' या 'डालना' के साथ संयुक्त होती है, अकेले नहीं आती। ३. फेरना। बार बार उलटना। उ०— देव तेव गोरी के बिलात गात बात लगै, ज्यों ज्यों सीरे पानी पीरे पाल सो पलटियत।— देव (शब्द०)। ४. बदलना। एक वस्तु को त्याग कर दूसरी को ग्रहण करना। एक को हटाकर दूसरी को स्थापित करना। उ०— मृगनैनी दृग की फरक कर उछाह तन फूल। बिन ही प्रिय आगमन के पलटन लगी दुकूल।— बिहारी (शब्द०)। ५. बदलना। एक चीज देकर दूसरी लेना। बदले में लेना। बदला करना। (अप्रयुक्त)। उ०— (क) नरतनु पाप विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेही।— तुलसी (शब्द०)। (ख) ब्रजजन दुखित अति तन छीन। रटत इकटक चित्र चातक श्यामघन तनु लीन। नाहि पलटत बसन भूषन दृगन दीपक तात। मलिन बदन बिलखि रहत जिमि तरनि हीन जल जात।— सूर (शब्द०)। ६. कही हुई बात को अस्वीकार कर दूसरी बात कहना। एक बात को अन्यथा करके दूसरी कहना। एक बात से मुकरकर दूसरी कहना। जैसे,— तुम्हारा क्या ठिकाना, तुम तो रोज ही कहकर पलटा करते हो। पु ७. लौटाना। फेरना। वापस करना। उ०— फिरि फिरि नृपति चलावत बात। कहो सुमंत कहौं तोहिं पलटी प्राण जीवन कैसे बन जात।— सूर (शब्द०)।

पलटनिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पलटन + इया (प्रत्य०)] वह जो पलटन में काम करता हो। सेना का सिपाही। सैनिक। जैसे,— नगर में गोरे पलटनियों का पहरा था।

पलटनिया (२)
वि० पलटन में काम करनेवाला। पलटन का। जैसे,— सन् १८९६ के पहले सुपरिंटेंडेंट और असिस्टैंट पलटनिये अफसर होते थे।

पलटा
संज्ञा पुं० [हिं० पलटना] १. पलटने की क्रिया या भाव। नीचे से ऊपर या ऊपर से नीचे होने की क्रिया या भाव। घूमने, उलटने या चक्कर खाने की क्रिया या भाव। परिवर्तन। क्रि० प्र०—देना।—पाना। मुहा०—पलटना खाना = दशा या स्थिति का उलट जाना। घूमकर या बदलकर विपरीत स्थिति या दशा में पहुँच जाना। चक्कर खाना। उ०— उसके बाद ही न जाने ग्रहचक्र ने कैसा पलटा खाया। दुर्गाप्रसाद (शब्द०)। २. बदला। प्रतिफल। जैसे,— उसने अपनी करनी का पलटा पा लिया। क्रि० प्र०—देना।—पाना।३. नाव में वह पटरी जिसपर नाव का खेनेवाला बैठता है। ४. गान में जल्दी जल्दी थोडे़ से स्वरों पर चक्कर लगाना। गाते समय ऊँचे स्वर तक पहुँचकर खूबसूरती के साथ फिर नीचे स्वरों की तरफ मुड़ना। ५. लोहे या पीतल की बड़ी खुरचनी जिसका फल चौकोर न होकर गोलाकार होता है। इससे बटलोही में से चावल निकालते और पूरी आदि उलटते हैं। ६० कुश्ती का एक पेंच। विशेष— इसमें जब ऊपरवाला पहलवान नीचे पडें हुए पहलवान की कमर पकडता है तब नीचेवाला पट्ठा अपने दाहिने पैर के पंजे ऊपरवाले की टाँगों के बीच से डालकर उसकी बाई टाँग को फँसा लेता है और दाहिने हाथ से उसकी बाई कलाई पकड़कर झटके के साथ अपने दाहिनी ओर मुड़ जाता है और ऊपर का पहलवान चित गिर जाता है।

पलटाना
क्रि० स० [हिं० पलटना] १. लौटाना। फेरना। वापस करना। उ०— (क) तब सारथि स्यंदन पलटावा। लै नरेश के आगे आवा।— सबल (शब्द०)। २. बदलना (अप्रयुक्त)। उ०— काया कंचन जतन कराया। बहुत भाँति कै मन पलटाया।— कबीर (शब्द०)।

पलटाव
संज्ञा पुं० [हिं० पलटना] पलटने की क्रिया।

पलटावना †
क्रि० स० [हिं० पलटाना] दे० 'पलटाना'।

पलटी †
संज्ञा संज्ञा [हिं०] दे० 'पलटा'।

पलटे †
क्रि० वि० [हिं० पलटा] बदले में। एवज में। प्रतिफल स्वरूप।—उ०— (क) आपु दयो मन फेरि लै, पलटे दीनी पीठ। कौन बानि वह रावरी लाल लुकावत दीठ।—बिहारी (शब्द०)। (ख) जे सुर सिद्ध मुनीस योगि बुध बेद पुरान बखाने। बूजा लेत देत पलटे सुख हानि लाभ अनुमाने।— तुलसी (शब्द०)। विशेष— असल में यह अव्यय नहीं है वल्कि 'पलटा' संज्ञा का सप्तमी विभक्तियुक्त रूप है। परंतु अन्य बहुत से सप्तम्यंत पदों की भाँति इसका भी विना विभक्ति के व्यववार होने लगा है, इस कारण।

पलड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० पटल] तराजू का पल्ला। तुलापट।

पलथा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पलटना] १. कलाबाजी। विशेषतः पानी में कलैया मारने की क्रिया या भाव। कलैया मारने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—मारना।

पलथा (२)
संज्ञा पुं० [सं० पर्य्यस्त, प्रा० पल्लत्थ] १. दे० 'पलथी'।

पलथी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्य्यस्त, प्रा० पल्लत्थ] एक आसन जिसमें दाहिने पैर का पंजा बाएँ और बाएँ पैर का पंजा दाहिने पट्टे के नीचे दबाकर बैठते हैं और दोनों टाँगे ऊपर नीचे होकर दोनों जाँघों से दो त्रिकोण बना देती हैं। स्वस्तिकासन। पालती। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना। विशेष— जिस आसन में पंजों की स्थापना उपर्युक्त प्रकार से न होकर दोनों जाँघों के ऊपर अथवा एक के ऊपर दूसरे के नीचे हो उसे भी पलथी ही कहते हैं।

पलद
वि० [सं०] मांसवर्धक। मांस बढ़ानेवाला।

पलना (१)
क्रि० अ० [सं० पालन] १. पालने का अकर्मक रूप। ऐसी स्थिति में रहना जिसमें भोजन वस्त्र आदि आवश्यकताएँ दूसरे की सहायता या कृपा से पूरी हो रही हों। दूसरे का दिया भोजन वस्त्रादि पाकर रहना। भरित पोषित होना। परवरिश पाना। पाला या पोसा जाना। जैसे,— (क) उसी अकेले की कमाई पर सारा कुनबा पलता था। (ख) यह शरीर आपही के नमक से पला है। २. खा पी करके हृष्ट पुष्ट होना। मोटा ताजा होना। तैयार होना। जैसे,— (क) आजकल तो तुम खूब पले हुए हो। (ख) यह बकरा खूब पला हुआ है।

पलना (२)
क्रि० स० [देश०] कोई पदार्थ किसी को देना। (दलाल)।

पलना (३)
संज्ञा पुं० [सं० पल्यङ्क] दे० 'पालना'। उ०— एक बार जननी अन्हवाए। करि सिंगार पलना पौढ़ाए।— मानस, १। २०१।

पलनाना पु †
क्रि० स० [हिं० पलान (= जीन) + ना (प्रत्य०)] घोडे़ पर जीन कसकर उसे चलने के लिये तैयार करना। घोडे़ को जोतने या चलाने के लिये तैयार करना। कसना। उ०— भोर भयो ब्रज ब्रज लोगन को। ग्वाल सखा सखि व्याकुल सुनि के श्याम चलत हैं मधुबन को। सुफलकसुत स्यंदन पल- नावत देखें तहँ बल मोहन को।— सूर (शब्द०) (ख) गहर जनि लावहु गोकुल आइ। अपनोई रथ तुरत मँगायो दियो तुरत पलनाइ।— सूर (शब्द०)।

पलप्रिय (१)
वि० [सं०] मांसभक्षी। मांस खाकर रहनेवाला।

पलप्रिय (२)
संज्ञा पुं० १. डोम कौआ। द्रोण काक। २. दानव। राक्षम (को०)।

पलभक्षी
वि० [सं० पलभक्षिन्] [वि० स्त्री० पलभाक्षणी] मांसा- हारी। मांसभक्षी।

पलभच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० पल = (मांस) + भक्ष, प्रा० भच्छ] वह जिसका भध्य पल हो, सिंह। उ०— मृगपति द्वीपी व्याघ्र पुनि पंचानन पलभच्छ।—अनेकार्थ०, पृ० ९८।

पलभछ पु
संज्ञा पुं० [सं० पलभक्ष] सिंह।

पलभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धूपघड़ी के शंकु की उस समय की छाया की चौड़ाई जब मेष संक्रांति के मध्याह्न में सूर्य ठीक विषुवत् रेखा पर होता है। पलविभा। विषुवत् प्रभा।

पलरा
संज्ञा पुं० [सं० पटल] दे० 'पलड़ा'। उ०— पत्र एक पर राम लिखाना। पलरा माहिं धरा तेहि नाना।—घट०, पृ० २२७।

पलल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मांस। २. कीचड़, गिलावा या गाब। ३. तिल का चूर्ण। ४. तिल और गुड़ अथवा चीनी के योग से बनाया हुआ लड्डू, कतरा आदि। तिलकुट। ५. तिल का फूल। ६. राक्षस। ७. सिवार। शैवाल। ८. पत्थर। ९. मल। मैल। गंदगी। १०. दूध। ११. बल। १२. शव। लाश।

पलल (२)
वि० पुलपुला या पिलपिला। गीला और मुलायम।

पललज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] पित्त।

पललप्रिय (१)
वि० [सं०] मांसभक्षी। मांस खाकर रहनेवाला।

पललप्रिय (२)
संज्ञा पुं० द्रोण काक। डौम कौआ। २. राक्षस। दानव (को०)।

पललाशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोड़ा। गंडरोग। २. अजीर्ण। बदहजमी।

पलव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का झाब जिसमें मछलियाँ फँसाई जाती हैं।

पलव पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्लव] दे० 'प्लव'। उ०— उडप पोत नौका पलव तरि बहित्र जलजान।— अनेकार्थ०, पृ० ५१।

पलवल
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'परवल'।

पलवा † (१)
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव] १. ऊख के ऊपर का नीरस भाग जिसमें गाँठे पास पास होती हैं। अगौरा। कौंचा। २. ऊख के गाडे़ जो बोने के लिये पाल में लगाए जाते हैं। †३. एक घाम जिसको भैंस बडे़ चाव से खाती है। यह हिसार के आस पास पंजाब में होती है। पलवान।

पलवा पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव] अंजुली। चुल्लू। उ०— पीवत नहीं अघात छिन नाहीं कहत बनै न। पलवो कै बाँधै रहैं छबि रस प्यासे नैन।— रसनिधि (शब्द०)।

पलवान
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव] दे० 'पलवा'।

पलवाना
क्रि० स० [हिं० पालना का प्रे० रूप] किसी से पालन कराना। पालन में किसी को प्रवृत्त करना। उ०— (क) बडे यत्न से उन्हें पलवावै।— लल्लू (शब्द०)। (ख) लेति पखेरू आन ते कोइलिया पलवाय।— शकुंतला, पृ० ९४।

पलवार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पल्लव] ईख बोने का एक ढंग जिसमें अँखुए निकलने के बाद खेत को रूखे पत्तों, रहट्ठों आदि से अच्छी तरह ढक देते हैं। नगरवा। विशेष— इस तरह ढँकने से खेत की तरी बनी रहती है जिससे सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। करैली या काली मिट्टी में यही ढंग बरता जाता है। अन्यत्र भी यदि सींचने का सुभीता या आवश्यकता न हो ते इसी ढंग को काम में लाते हैं।

पलवार (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पाल + वार (प्रत्य०)] एक प्रकार की बड़ी नाव जिसपर माल असबाब लादकर भेजते हैं। पटैला।

पलवारी †
संज्ञा पुं० [हिं० पलवार + ई (प्रत्य०)] नाव खेनेवाला मल्लाह।

पलवाल †
वि० [सं० पल (= मांस) + वाल (प्रत्य०)] हृष्ट पुष्ट। बलवान्।

पलवैया †
संज्ञा पुं० [हिं० पालना + वैया (प्रत्य०)] पालन करनेवाला। भरण पोषण करनेवाला। खिलाने पिलानेवाला। पालक।

पलस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पलस' [को०]।

पलस्तर
संज्ञा पुं० [अं० प्लास्टर मि० सं० पल (= कीचड़ या गिलावा) + स्तर (= तह)] मिट्टी, चूने आदि के गारे का लेप जो दीवार आदि पर उसे बराबर सीधी और सुड़ौल करने के लिये किया जाता है। क्रि० प्र०—करना। मुहा०—पलस्तर ढीला करना = (१) तंग करना। नसें ढीली कर देना। (२) गिलावा को अधिक पतला कर देना। पलस्तर बिगड़ना या बिगड़ जाना = दे० 'पलस्तर ढीला होना। पलस्तर बिगाड़ना या बिगाड़ देना' = दे० 'पलस्तर ढीला करना'। पलस्तर ढीला होना = तंग होना। नसें ढीली हो जाना।

पलस्तरकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पलस्तर + फा० कारी] पलस्तर करने या किए जाने की क्रिया या भाव। पलस्तर करने या होने का काम।

पलहना पु
क्रि० अ० [सं० पल्लवन] पल्लवित होना। पल्लव फूटना। पनपना। लहलहाना। उ०— (क) प्रीति बेल ऐसे तन डाढ़ा। पलहत सुख बाढ़त दुख बाढ़ा।— जायसी (शब्द०)। (ख) वही भाँति पलही सुखबारी। उठी करलि नइ कोंप सँवारी।—जायसी (शब्द०)।

पलहलना
क्रि० अ० [हिं० पलुहना] प्रफुल्ल होना। प्रसन्न होना। उ०— भलहलत मुकट भृकुटी करूर। पलहलत नेत्र आरक्त सूर।—ह० रासो० पृ० ११।

पलहा
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव] पल्लव। कोमल पत्ते। कोंपल।उ०— पियर पात दुख झरे निपाते। सुख पलहा उपने होय राते।—जायसी (शब्द०)।

पलांग
संज्ञा पुं० [सं० पलाङ्ग] सूँस। शिंशुमार।

पलांडु
संज्ञा पुं० [सं० पलाण्डु] प्याज।

पलाँण
संज्ञा पुं० [हिं० पलान] दे० 'पलान'। उ०— सहज पलाँण पवन करि घोड़ा लै लगाँम चित्त चबका। चैतनि असवार ग्याँन गुरू करि और तजौ सब ढबका।— गोरख०, पृ० १०३।

पला (१)
संज्ञा पुं० [सं० पल] पल। निमिष।

पला पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पटल] १. तराजू का पलड़ा। पल्ला। उ०— बरुनी जोती पल पला, डाँड़ी भौंह अनूप। मन पसंग तौलै सुदृग, हरुवौ गरुवौ रूप।— रसनिधि (शब्द०)। २. पल्ला। आंचल। उ०— समुझि बूझि दृढ़ ह्वै रहै, बल तजि निर्बल होय। कह कबीर ता सेत को पला न पकडै़ कोय।— कबीर (शब्द०)। ३. पार्श्व। किनारा । उ०— नासिक पुल सरात पथ चला। तेहि कर भौंहैं हैं दुइ पला।— जायसी (शब्द०)।

पला (३)
संज्ञा पुं० [हिं० पली] तेल की पली।

पलाग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] पित्त।

पलाणि
संज्ञा पुं० [सं० पल्याण] दे० 'पलान'। उ०— दादू करह पलाणि करि को चेतन चढ़ि जाइ। मिलि साहिब दिन देखताँ, साँझ पडै़ जनि आइ।— दादू०, पृ० ३९२।

पालतक
वि० [सं० पलायक] भड़ोगा। भागनेवाला। दौड़ता हुआ। उ०— मोटर की मुड़ती रोशनी के पलातक आलोक में उसने चौंककर और लजाकर देखा।—नदीं०, पृ० १६५५। विशेष— व्याकरण की दृष्टि से यह शब्द अब्युत्पन्न है।

पलाद
संज्ञा पुं० [सं० पल (= मांस) + अद] राक्षस।

पलादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो मांसभक्षी हो। २. राक्षस।

पलान
संज्ञा पुं० [सं० पल्याण या पल्ययन, मि० फा० पालान] गद्दी या चारजामा जो जानवरों की पीठ पर लादने या चढ़ाने के लिये कसा जाता है। उ०— (क) हरि घोड़ा ब्रह्मा कड़ों, बासुकि पीठ पलान। चाँद सुरज दोउ पायड़ा चढ़सी संत सुजान।— कबीर (शब्द०)। (ख) वर्षा गयो अगस्त्य की डीठी। परे पलान तुरंगन पीठी।—जायसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—कसना।—बाँधना।

पलानना पु
क्रि० स० [हिं० पलान + ना (प्रत्य०)] १. घोडे़ आदि पर पलान कसना। गद्दी या चारजामा कसना या बाँधना। उ०— उए अगस्त हस्ति तन गाजा। तुरत पलान चढै़ रन राजा।— जायसी (शब्द०)। २. चढ़ाई की तैयारी करना। धावा करने के लिये तैयार या सन्नद्ध होना। उ०— (क) मो पर पलानत है बल को न जानत है, अंगद ! बिना ही आग या ही ते जरत हौं।— हनुमान (शब्द०) (ख) अब मोहि कछू समझो न परै भई काहे को काल पलानत है।— हनुमान (शब्द०)।

पलाना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० पलायन] भागना। पलायन करना।

पलाना पु (२)
क्रि० स० पलायन कराना। भगाना। उ०—जरासंध इन बहुत बारही करि संग्राम पलायो। ताको पल कछू नहिं मान्यो मथुरा में चलि आयो।—सूर (शब्द०)।

पलानि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पलान] दे० 'पलान'।

पलानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पलान] १. छप्पर। २. पान के आकार का एक गहना जिसे स्त्रियाँ पैर में पंजे के ऊपर पहनती हैं। ३. दे० 'पलान'।

पलान्न
संज्ञा पुं० [सं०] चावल और मांस के मेल से बना हुआ भोजन। पुलाव।

पलाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी का गंडस्थल। हाथी का कपोल, कनपटी आदि। २. बंधन। पगहा (को०)।

पलायक
संज्ञा पुं० [सं०] भागनेवाला। भग्गू।

पलायन
संज्ञा पुं० [सं०] भागने की क्रिया या भाव। भागना। यौ०—पलायनवाद = जीवन की कठिनाइयों से भागने की प्रवृत्ति। पलायनवादी = पलायनवाद को प्रश्रय देनेवाला।

पलायमान
वि० [सं०] भागता हुआ। पलायन करता हुआ।

पलायित
वि० [सं०] भागा हुआ।

पलायी
वि० [सं० पलायिन्] दे० 'पलायक'।

पलाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. धान का रूखा डंठल। पयाल। पुआल। २. अन्य किसी धान्य या पौधे का सूखा डंठल। तृण। तिनका।

पलालदोहद
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़।

पलाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] उन सात राक्षसियों में से एक जो लड़कों को बीमार करनेवाली मानी जाती हैं।

पलालि, पलाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मांसराशि। गोश्त की ढेरी [को०]।

पलाव
संज्ञा पुं० [हिं० पूला] पूला नामक वृक्ष जिसके रेशों से रस्से बनते हैं। वि० दे० 'पूला'।

पलाश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलास। ढाक। टेसू। २. पत्र। पत्ता। ३. राक्षस। ४. कचूर। ५. मगध देश। ६. शासन। ७. परिभाषण ८. एक पक्षी। ९. विदारी कंद। १०. पलाश का पुष्प (को०)। ११. हरा रंग (को०)। १२. किसी तेज शस्त्र का फल (को०)।

पलाश (२)
वि० १. मांसाहारी। २. निर्दय। ३. हरित। हरा।

पलाशक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलाश। ढाक। २. टेसू। किंसुक। पलास का फूल। ३. कपूर। ४. लाख। लाक्षा।

पलाशगंधजा
संज्ञा स्त्री० [सं० पलाशगन्धजा] एक प्रकार का वंशलोचन।

पलाशच्छदन
संज्ञा पुं० [सं०] तमालपत्र।

पलाशतरुज
संज्ञा पुं० [सं०] पलास का कोमल पत्ता। पलास की कोंपल।

पलाशन्
संज्ञा पुं० [सं०] मैना। सारिका।

पलाशपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वगंधा। असगंध।

पलाशपुट
संज्ञा पुं० [सं०] पलाश के पत्ते का बना दोना [को०]।

पलाशांता
संज्ञा स्त्री० [सं० पलाशान्ता] बनकचूर। गंधपत्रा।

पलाशाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] नाड़ी हींग।

पलाशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विदारी कंद।

पलाशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुक्तिमान् पर्वत से निकली हुई एक नदी। २. रैवतक पर्वत से निकली हुई एक नदी।

पलाशी (१)
वि० [सं० पलाशिन्] १. मांसाहारी। मांस खानेवाला। २. पत्र विशिष्ट। पत्रयुक्त।

पलाशी (२)
संज्ञा पुं० १. राक्षस। २. एक फल। क्षीरिका। खिरनी। ३. कचूर। शठी।

पलाशी (३)
संज्ञा स्त्री० १. कचरी। २. लाख।

पलाशीय
वि० [सं०] पत्रयुक्त। पत्र विशिष्ट।

पलास
संज्ञा पुं० [सं० पलाश] प्रसिद्ध वृक्ष जो भरातवर्ष के सभी प्रदेशों और सभी स्थानों में पाया जाता है। पलाश। ढाक। टेसू। केसू। धारा। काँवरिया। उ०—प्रफुलित भए पलास दसौं दिसि दव सी दहकत।—व्रज० ग्रं०, पृ० १०१। विशेष—पलास का वृक्ष मैदानों और जंगलों ही में नहीं, ४००० फुट ऊँची पहाड़ियों की चोटियों तक पर किसी न किसी रूप में अवश्य मिलता है। यह तीन रूपों में पाया जाता है—वृक्ष रूप में, क्षुप रूप में और लता रूप में। बगीचों में यह वृक्ष रूप में और जंगलों और पहाड़ों में अधिकतर क्षुप रूप में पाया जाता है। लता रूप में यह कम मिलता है। पत्ते, फूल और फल तीनों भेदों के समान ही होते हैं। वृक्ष बहुत ऊँचा नहीं होता, मझोले आकार का होता है। क्षुप झाड़ियों के रूप में अर्थात् एक स्थान पर पास पास बहुत से उगते हैं। पत्ते इसके गोल और बीच में कुछ नुकीले होते हैं जिनका रंग पीठ की ओर सफेद और सामने की ओर हरा होता है। पत्ते सीकों में निकलते हैं और एक में तीन तीन होते हैं। इसकी छाल मोटी और रेशेदार होती है। लकड़ी बड़ी टेढ़ी मेढ़ी होती है। कठिनाई से चार पाँच हाथ सीधी मिलती है। इसका फूल छोटा, अर्धचंद्राकार और गहरा लाल होता है। फूल को प्रायः टेसू कहते हैं और उसके गहरे लाल होने के कारण अन्य गहरी लाला वस्तुओं को 'लाल टेसू' कह देते हैं। फूल फागुन के अंत और चैत के आरंभ में लगते हैं। उस समय पत्ते तो सबके सब झड़ जाते हैं और पेड़ फूलों से लद जाता है जो देखने में बहुत ही भला मालूम होता है। फूल झड़ जाने पर चौड़ी चौ़ड़ी फलियाँ लगती है जिनमें गोल और चिपटे बीज होते हैं। फलियों को 'पलास पापड़ा' या 'पलास पापड़ी' और बीजों को 'पलास- बीज' कहते हैं। इसके पत्ते प्रायः पत्तल और दोने आदि के बनाने के काम आते हैं। राजपूताने और बंगाल में इनसे तंबाकू की बीड़ियाँ भी बनाते हैं। फूल और बीज ओषधिरूप में व्यवहृत होते हैं। वीज में पेट के कीड़े मारने का गुण विशेष रूप से है। फूल को उबालने से एक प्रकार का ललाई लिए हुए पीला रंगा भी निकलता है जिसका खासकर होली के अवसर पर व्यवहार किया जाता है। फली की बुकनी कर लेने से वह भी अबीर का काम देती है। छाल से एक प्रकार का रेशा निकलता है जिसको जहाज के पटरों की दरारों में भरकर भीतर पानी आने की रोक की जाती है। जड़ की छाल से जो रेशा निकलता है उसकी रस्सियाँ बटी जाती हैं। दरी और कागज भी इससे बनाया जाता है। इसकी पतली डालियों को उबालकर एक प्रकार का कत्था तैयार किया जाता है जो कुछ घटिया होता है और बंगाल में अधिक खाया जाता है। मोटी डालियों और तनों को जलाकर कायला तैयार करते हैं। छाल पर बछने लगाने से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है जिसको 'चुनियाँ गोंद' या पलास का गोंद कहते हैं। वैद्यक में इसके फूल को स्वादु, कड़वा, गरम, कसैला, वातवर्धक शीतज, चरपरा, मलरोधक तृषा, दाह, पित्त कफ, रुधिरविकार, कुष्ठ और मूत्रकृच्छ का नाशक; फल को रूखा, हलका गरम, पाक में चरपरा, कफ, वात, उदररोग, कृमि, कुष्ठ, गुल्म, प्रमेह, बवासीर और शूल का नाशक; बीज को स्तिग्ध, चरपरा गरम, कफ और कृमि का नाशक और गोंद को मलरोधक, ग्रहणी, मुखरोग, खाँसी और पसीने को दूर करनेवाला लिखा है। यह वृक्ष हिंदुओं के पवित्र माने हुए वृक्षों में से हैं। इसका उल्लेख वेदों तक में मिलता है। श्रोत्रसूत्रों में कई यज्ञ- पात्रों के इसी की लकड़ी से बनाने की विधि है। गृह्वासूत्र के अनुसार उपनयन के समय में ब्राह्मणकुमार को इसी की लकड़ी का दंड ग्रहण करने की विधि है। वसंत में इसका पत्रहीन पर लाल फूलों से लदा हुआ वृक्ष अत्यंत नेत्रसुखद हेता है। संस्कृत और हिंदी के कवियों ने इस समय के इसके सौंदर्य पर कितनी ही उत्तम उत्तम कल्पनाएँ की हैं। इसका फूल अत्यंत सुंदर तो होता है पर उसमें गंध नहीं होते। इस विशेषता पर भी बहुत सी उक्तियाँ कही गई हैं। पर्याय—किंसुक। पर्ण। याज्ञिक। रक्तपुष्पक। क्षारश्रेष्ठ। वात- पोथ। ब्रह्मावृक्ष। ब्रह्मावृक्षक। ब्रह्मोपनेता। समिद्धर। करक। त्रिपत्रक। ब्रह्मपादप। पलाशक। त्रिपर्ण। रक्तपुष्प। पुतद्रु। काष्ठद्रु। बीजस्नेह। कृमिघ्न। वक्रपुष्पक। सुपर्णी। २. एक मांसाहारी पक्षी जो गीध की जाति का होता है।

पलास (२)
संज्ञा पुं० [अं० स्प्लाइस] वह गाँठ जो दो रस्सियो या एक ही रस्सी के दो छोरों या भागों को परस्पर जोड़ने के लिये दी जाय। (लश०)। क्रि० प्र०—करना।

पलास (३)
संज्ञा पुं० [?] कनवास नाम का एक मोटा कपड़ा। वि० दे० 'कनवास'।

पलासना
क्रि० स० [देश०] सिल जाने के बाद जूते को काटछाँटकर ठीक करना। जूते का फालतू चमड़ा आदि काटना।

पलास पापड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पलास + पापड़ा] १. पलास की फली जो औषध के काम में आती है। पलास पापड़ी। ढकपन्ना। वि० दे० 'पलास'।

पलास पापड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पलास + पापड़ी] दे० 'पलास पापड़ा'।

पलाहना †
संज्ञा पुं० [सं० पलायन] पीछे की ओर हटना। भय, आकस्मिक आघात से पीछे भागना। पलायन करना। उ०—मुख जोवइ दीवाधरी पाछउ करइ पलाह। मारू दीठी सास विण मोटी मेल्लइ धाह।—ढोला०, दू० ६०६।

पलिंजी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक घास जिसके दानों को दुर्भिक्ष के दिनों में अकसर गरीब लोग खाते हैं।

पलिक
वि० [सं०] जो तोल में एक पल हो। एक पल या पल भर (कोई पदार्थ)।

पलिका (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्क, पल्यङ्क, प्रा० पलिअंक, पल्लंक] दे० 'पलका'। उ०—नवल बाल पलिका परी, पलक न लागन नैन।—मति० ग्रं०, पृ० ३०४।

पलिका (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेल निकालने की डाँड़ीदार बेलिया। पली। विशेष—सम्वत् १००६ के सियादानी शिलालेख में यह शब्द आया है। वि० दे० 'घ्राणाक'।

पलिक्नी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जो पहली ही बार गाभिन हुई हो।

पलिक्नी (२)
वि० (स्त्री) जिसके बाल पक गए हों। बुड्डी (वैदिक)।

पलिघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कांच का घड़ा। कराबा। २. घड़ा। ३. प्रकार। चारदीवारी।४. गोपुर। फाटक। ५. अगरी या ब्योड़ा। अर्गल। दे० 'परिघ'। ६. गोशाला। गोगृह (को०)।

पलितंकरण
संज्ञा पुं० [सं० पलितङ्कारण] पलित करनेवाला। श्वेत बनानेवाला [को०]।

पलित (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पलिता] २. वृद्ध। बुड्ढा। २. पका हुआ (केश)। सफेद (बाल)। उ०—पलित वृद्ध के शीश पर सो तो पलित न पेख। गई जवानी भजन विन बानी परी विशेष।—राम० धर्म०, पृ० ७७।

पलित (२)
संज्ञा पुं० १. सिर के बालों का उजला होना। बाल पकना। २. वैद्यक के अनुसार एक क्षुद्र रोग जिसमें क्रोध, शोक और श्रम के कारण शारीरिक अग्नि और पित्त सिर पर पहुँचकर वहाँ के बालों को वृद्ध होने के पहले उजला कर देते हैं। ३. शैलज। भूरि छरीला। ४. ताप। गरमी। ५. कर्दम। कीचड़। ६। गुग्गुल। ७. मिर्च। ८. केश पाश (को०)।

पलितग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] तगर। गुलचाँदनी।

पलिती
वि० [सं० पलितिन्] जिसको पलित रोग हुआ हो। पलित रोगयुक्त। पके बालोंवाला।

पलिया
संज्ञा पुं० [देश०]

पशुओं का एक रोग जिसमें उनका गला फूल जाता है। घटेरुआ।

पलिहर †
संज्ञा पुं० [सं० परिहर (= छोड़ देना, बचा देना, बचा रखना)] वह खेत जिसमें चैती फसल में कोई जिस बोने के लिये अगहनी या भदई फसल में कुछ न बोया जाय और जो केवल जोतकर छोड़ दिया जाय। वह खेत जो बरसात में बिना कुछ बोए केवल जोतकर छोड़ दिया गया हो। चौमासा। क्रि० प्र०—छोड़ना।—रखना। विशेष—ईख, शकरकंद, गेहूँ, अफीम, आदि बोने के लिये प्रायः ऐसा करते हैं। अन्य धान्यों के लिये बहुत कम पलिहर छोड़ते हैं।

पली
संज्ञा स्त्री० [सं० पलिध] तेल, घी, आदि द्रव पदार्थों को बड़े बरतन से निकालने का लोहे का उपकरण। इसमें छोटी करछी के बराबर एक कटोरी होती है जो एक खड़ी घुंडी से जुड़ी होती हौ। मुहा०—पली पली जोड़ना = थोड़ा थोड़ा करके संचय या संग्रह करना। पैसा पैसा जोड़कर धन एकत्र करना। उ०—मियाँ जोड़े पली पली खुदा लृढ़ावें कुप्पा।—(कहावत)।

पलीत (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रेत। मि० फा० पलीद] भूत। प्रेत। शैतान।

पलीत (२)
वि० [फा० पलीद] १. दुष्ट। पाजी। २. धूर्त। चालाक। काइयाँ। ३. घृणास्पद। गंदा। अपवित्र। निम्न। उ०— देव पितर इन सूँडरै, रसक तरै किण रीत। हेम रजत पातर हरै, पातर करै पलीत।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४।

पलीता (१)
संज्ञा पुं० [फा० पतीलह्] १. बत्ती के आकार में लपेटा हुआ वह कागज जिसपर कोई मंत्र लिखा हो। विशेष—इस बत्ती की धबनी प्रेतग्रस्त लोगों को दी जाती है। क्रि० प्र०—जलना।—सुँघाना।—सुलगाना। २. बररोह (बरोह) को कूट और बटकर बनाई हुई वह वत्ती जिससे बंदूक या तोप के रंजक में आग लगाई जाती है। उ०—(क) काल तोपची, तुपक महि दारू अनय कराल। पाय पलीता कठिन गुरु गोला पुहमी पाल।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जलधि कामना वारि दास भरि तड़ित पलीता देत। गर्जन औ तर्जन मानो जो पहरक में गढ़ लेत। सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—दागना।—देना। मुहा०—पलीता चाटना = भड़ककर बल उठना। जल उठना। (क्व०)। यौ०— पलीता दानी = पलिता देने या रखनेवाला। बंदूक या तोप के रंजक की बत्ती में आग लगानेवाला। उ०—रंजकदानी,सिंगहा, तूलि पलीतादानी।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १३। ३. एक विशेष प्रकार की कपड़े की बत्ती, जिसे कहीं कहीं पन- शाखे पर रखकर जलाते हैं। क्रि० प्र०—जलाना।

पलीता (२)
वि० १. बहुत क्रुद्ध। क्रोध से लाल। आग बबूला। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. तेज दौड़ने या भागनेवाला। द्रुतगामी।

पलीती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पलीता] बत्ती। छोटा पलीता।

पलीती (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० पलीद] गदंगी। बुराई। अपवित्रता। उ०—बाहरों पाक कीते की होंदा, जो अंदरों न गई पलीती।—संतबानी०, पृ० १५३।

पलीद (१)
वि० [फा०] १. अशुचि। अपवित्र। गंदा। मुहा०—(किसी की) मिट्टी पलीद करना = किसी का सम्मान नष्ट करना। किसी की इज्जत उतारना। २. बृणास्पद। ३. नीच। दुष्ट। उ०—इस पलीद से बिना छेड़े कब रहा जाता था।—शिवप्रसाद (शब्द०)।

पलीद (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रेत, परेत हिं० परीत, पलीत] भूत। प्रेत।

पलुआ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] सन की जाति का एक पौधा।

पलुआ † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पलना + उआ (प्रत्य०)] पालतू। पाला हुआ।

पलुहना पु †
क्रि० अ० [सं० पल्लव] पल्लवित होना। पत्रयुक्त होना। हरा भरा होना। उ०—(क) भोर होत तब पलुह सरीरू। पाय घुमरहा सीतल नीरू।—जायसी (शब्द०)। (ख) पुनि ममता, जवास बहुताई। पुलहइ नारि सिसिर ऋतु पाई।—तुलसी (शब्द०)।

पलुहाना पु † (१)
क्रि० अ० [हिं० पलुहना] पल्लवित होना। पलुहना। उ०— जस भुहँ दहि असाढ़ पलुहाई। परहिं बूँद औ सोंधि बसाई।—जायसी ग्रं०, पृ० १८७।

पलुहाना पु † (२)
क्रि० अ० [हिं० पलुहना] पल्लवित करना। हरा भरा करना। उ०—कबहुँक कपि राघव आवहिंगे। विरह अगिनि जरि रही लता ज्यों कृपादृष्टि जल पलुहावहिंगे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कंठ लाइ कै नारि मनाई। जरी जो बेलि सींचि पलुहाई।—जायसी ग्रं०, पृ० १८९।

पलूचना
क्रि० स० [हिं० पलना] देना। (दल्लाल)।

पलेक
क्रि० वि० [सं० पल + हिं० एक] एक पल। क्षण भर। जरा सी देर। उ०—भारे दुःख सारे ये बिलावेंगे पलेक माँक प्यारी कहि मोको प्यार करिकै बुलावेंगे।—नट०, पृ० ९८।

पलेट
संज्ञा स्त्री० [अं० प्लेट] १. लंबी पट्टी। पटरी। २. कपड़े की वह पट्टी जो कोट, कुरते आदि में नीचे की ओर उनके किसी विशेष अंश को कड़ा या सुंदर बनाने के लिये लगाई जाय। पट्टी। जैसे, कुरते का पलेट, कमीज का पलेट।

पलेटन
संज्ञा पुं० [अं० प्लेटन] छापे के यंत्र में लोहे का वह चिपटा भाग जिसके दबाव से कागज आदि पर अक्षर छपते हैं।

पलेटना †
क्रि० स० [देश०] पहनाना। उ०—जूटै खेटाँ मोख पद, माल पलेटा रंभ।—रा० रू०, पृ० ४३।

पलेड़ना पु †
क्रि० स० [सं० प्रेरणा] ढकेलना। धक्का देना। उ०—तू अलि कहा परयो केहिं पैड़ें। या आदर पर अजहूँ बैठो टरत न सूर पलेड़े।—सूर (शब्द०)।

पलेथन
संज्ञा पुं० [सं० परिस्तरण (= लपेटना)] १. वह सूखा आटा जिसे रोटी बेलने के समय इसलिये लोई पर लपेटते और पाटे पर बखेरते हैं कि गीला आटा हाथ या बेलन आदि में न चिपके। परथन। क्रि० प्र०—निकालना।—लगाना। मुहा०—पलेथन निकलना = (१) खूब मार पड़ना या खाना। भुरकुस निकलना। कचूमर निकलना। (२) परेशान होना। तंग होना। हार जाना। पलेथन निकालना = (१) खूब मारना या ठोंकना। पीटना। कचूमर निकलना। (२) तंग करना। परेशान करना। बुरा हाल करना। २. किसी हानि या अपकार के पश्चात् उसी के संबंध से होनेवाला अनावश्यक व्यय। किसी बड़े खर्च के पीछे होनेवाला छोटा पर फजूल खर्च। जैसे,—माल तो चोरी गया ही था, तहकीकात कराने में (१००) और पलेथन लगा। क्रि० प्र०—देना।—लगाना।

पलेनर
संज्ञा पुं० [अं० प्लेनर] काठ का एक वह छोटा चिपटा टुकड़ा जिससे प्रेस में कसे हुए फरमे के उभरे हुए टाइपों को बराबर करते हैं। विशेष—काठ के इस समतल टुकड़े को कसे फरमे के ऊपर रखकर काठ के हथौड़े से धीरे धीरे कई बार ठोंकते हैं जिससे उभरे हुए अक्षर दबकर बराबर हो जाते हैं।

पलेना
संज्ञा पुं० [अं० प्लेन] दे० 'पलेनर'।

पलेव
संज्ञा पुं० [देश०] १. पलिहर की वह सिंचाई या छिड़काव जिसे बोने के पहले तरी की कमी के कारण करते हैं। हलकी सिंचाई। पटकन। २. जूस। शोरवा। ३. आटा या पिसा हुआ चावल जो शोरवे में उसे गाढ़ा करने के लिये डाला जाता है। जहाँ मसाला नहीं या कम डालना होता है वहाँ इसको डालकर काम चलाते हैं।

पलोटना (१)
क्रि० स० [सं० प्रलोठन] १. पैर दबाना या दाबना। उ०—(क) तीन लोक नारी को कहियत जो दुर्लभ बल बीर। कमला हूँ नित पायँ पलोटत हम तो हैं आभीर।— सूर (शब्द०)। (ख) तो दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुरु पद कमलर पलोटत प्रीते।—तुलसी (शब्द०)। †२. दे० 'पलटना'।

पलोटना (२)
क्रि० अ० [हिं० पलटना] १. कष्ट से लोटना पोटना। तड़फड़ाना। उ०—सेज पड़ी सफरी सी पलोटत ज्यों ज्यों घटा घन की गरजै री।—पद्माकर (शब्द०)। २. लोटना पोटना। लोट पोट करना।

पलोथन
संज्ञा पुं० [सं० परिस्तरण, हिं० पलेथन] दे० 'पलेथन'।

पलोवना पु
क्रि० स० [सं० प्रलोठन] १. पैर दबाना। पैर मलना। उ०—चरण कमल नित रमा पलोवै। चाहत नेक नैन भरि जोवै।—सूर (शब्द०)। २. सेवा करना। किसी को प्रसन्न करने का उपाय करना। उ०—प्रथमै चरण कमल को ध्यावै। तासु महातम मन में लावै। गंगा परसि इनहिं को भई। शिव शिवता इन ही सों लई। लक्ष्मी इनको सदा पलोवै। बारंबार प्रीति को जोवै।—सूर (शब्द०)।

पलोसना पु
क्रि० स० [सं० स्पर्शन, हिं० परसना] १. धोना। उ०—अड़सठ तीरथ निंदक न्हाय। देह पलोसे मैल न जाय। कबीर (शब्द०)। २. मीठी मीठी बातें करके गाहक को ढंग पर लाना। तरह तरह की बातें करके गाहक या शिकार फँसाना। (दलाल)।

पलौ पु
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव] किसलय। कोंपल। पल्लव। उ०—दए न लेइ दृग ओर करि अंजन। पलौ ओट जनु फरकहिं खंजन।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० १९७।

पल्टन
संज्ञा स्त्री० [अ० प्लैटून] दे० 'पलटन'।

पल्टा
संज्ञा पुं० [हिं० पलटना] दे० 'पलटा'।

पल्थी
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्यस्ति, प्रा० पल्लत्थि] दे० 'पलथी'।

पल्यंक
संज्ञा पुं० [सं० पल्यङ्क] पलंग। खाट।

पल्यंग
संज्ञा पुं० [सं० पल्यङ्क] दे० 'पल्यंक'। उ०—राज बचन सुणि राज कुँमार पल्यंग छोड़ि धरती पड़ी नारि।—बी० रासो, पृ० ५०।

पल्ययन
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े की पीठ पर बिछाने की गद्दी। पलान।

पल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न रखने का स्थान। बखार। कोठार। २. पाल जिसमें पकने के लिये फल रखे जाते हैं।

पल्लड़ †
संज्ञा पुं० [देश०] प्रवाह। झोंका। थपेड़ा। उ०—लहरों के एक पल्लड़ को चीरा, उसपर के झाग को बेधा कि दूसरा सामने। शब्दमय प्रवाह की निरर्थक भाषा मानों बार बार कहती थी, बचो बचो।—झाँसी०, पृ० २९५।

पल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. नए निकले हुए कोमल पत्तों का समूह या गुच्छा। टहनी में लगे हुए नए नए कोमल पत्ते जो प्रायः लाल होते हैं। कोंपल। कल्ला। उ०—नव पल्लव भए विटप अनेका।—तुलसी (शब्द०)। पर्या०—किशलय। किसलय। नवपत्र। प्रबाल। बल। किसल। विशेष—हाथ के वाचक शब्दों के साथ 'पल्लव' को समास होने से इसका अर्थ 'उँगली' होता है। जैसे, करपल्लव, पाणि- पल्लव। २. हाथ में पहनने का कड़ा वा कंकण। ३. नृत्य में हाथ की एक विशेष प्रकार की स्थिति। ४. विस्तार। ५. बल। ६. चपलता। चंचलता। ७. आल का रंग। अलक्तक। ८. पह्लव देश। ९. पह्लव देश का निवासी। १०. शृंगार (को०)। ११. वन (को०)। १२. कली (को०)। १३. घास का नया कनखा (को०)। १४. किनारा। छोर, विशेषतः वस्त्रादि का (को०)। १५. सविलास क्रीड़ा (को०)। १६. कामसक्त या लंपट व्यक्ति (को०)। १७. कथाप्रबंध (को०)। १८. दक्षिण का एक राजवंश जिसका राज्य किसी समय उड़ीसा से लेकर तुंगभद्रा नदी तक फैला था। विशेष—कुछ लोगों का मत है कि ये पह्लव ही थे और कुछ लोग कहते हैं कि यह स्वतंत्र राजवंश था। वराहमिहिर के अनुसार पल्लव दक्षिणपश्चिम में बसते थे। अशोक के समय में गुजरात में पल्लवों का राज्य था।

पल्लवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की मछली। २. अंकुर। अँखुवा (को०)। ३. वेश्यापति। वारवधू का यार (को०)। ४. कामासक्त या लंपट व्यक्ति (को०)। ५. अशोक का वृक्ष (को०)।

पल्लवग्राहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साधारण कार्यों में लगा रहना। ऊपरी चीजों में ब्यस्त होना। २. अपूर्ण या अधूरा ज्ञान। ऊपरी ज्ञान [को०]।

पल्लवग्राही पांडित्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जानकारी जो पूरी न हो। अधूरा ज्ञान [को०]।

पल्लवग्राही
संज्ञा पुं० [सं० पल्लवग्रहिन्] किसी विषय का सम्पक् ज्ञान न रखनेवाला। वह जो किसी विषय का पूरा या यथेष्ट ज्ञान न रखता हो। रहस्य से अनभिज्ञ केवल ऊपरी या मोटी मोटी बाचों का जाननेवाला।

पल्लवद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] अशोक का पेड़।

पल्लवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विशेष विस्तार। अति विस्तार। २. निरर्थक कथन [को०]।

पल्लवना पु
क्रि० अ० [सं० पल्लव + हिं० ना (प्रत्य०)] पल्लवित होना। पत्ते फेंकना। पनपना। उ०—(क) सुमन बाटिका बाग बन विपुल बिहंग निवास। फूलत फलत सु पल्लवत सोहत पुर चहुँपास।—तुलसी (शब्द०)।

पल्लवांकुर
संज्ञा पुं० [सं० पल्लवाङ्कुर] डाली। शाखा [को०]।

पल्लवाद
संज्ञा पुं० [सं०] हिरण। हिरन।

पल्लवाधार
संज्ञा पुं० [सं०] शाखा। डाली।

पल्लवापीड़ीत
वि० [सं०] कलियों से व्याप्त [को०]।

पल्लवास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।

पल्लवाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] तालीसपत्र।

पल्लविक
संज्ञा पुं० [सं०] कामी। कामुक [को०]।

पल्लविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चादर [को०]।

पल्लवित (१)
वि० [सं०] १. पल्लवयुक्त। जिसमें नए नए पत्ते निकले या लगे हों। २. हरा भरा। लहलहाता। ३. विस्तृत।लंबा चौड़ा। ४. आल में रँगा हुआ। ५. रोमांचयुक्त। जिसके रोंगटे खड़े हों। उ०—कहि प्रनाम कछु कहन लिय पै भय शिथिल सनेह। थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह।—तुलसी (शब्द०)।

पल्लवित (२)
संज्ञा पुं० आल का रंग। लाक्षारंग [को०]।

पल्लवी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पल्लविन्] वृक्ष। पेड़।

पल्लवी (२)
वि० [वि० स्त्री० पल्लविती] जिसमें पल्लव हों। पल्लव- युक्त।

पल्ला (१)
क्रि० वि० [सं० य पर या पार (= दुर या छोर) + ला (प्रत्य०)] १. दूर। २. दूरी।

पल्ला (२)
संज्ञा सं० [सं० पल्लव] १. किसी कपड़े का छोर। आँचल। दामन। उ०—एक बड़े से कुत्ते ने, जो इस बाग का रखवाला था, लपककर उसका पल्ला पकड़ लिया।—शिवप्रसाद (शब्द०)। मुहा०—पल्ला छूटना = पीछा छूटना। छुटकारा मिलना। निष्कृति मिलना। छुटकारा पाना। पल्ला छुड़ाना = पीछा छुड़ाना। निष्कृति पाना। पल्ला पकड़ना = किसी के लिये किसी को पकड़ना। पल्ला पसारना = किसी से कुछ माँगना। आँचल पसारना। दामन फैलाना। पल्ला लेना = शोक करना। किसी की मृत्यु पर रोना। (स्त्रियाँ)। पल्ले पड़ना = प्राप्त होना। मिलना। हाथ लगना। (किसी के) पल्ले बँधना = (१) ब्याही जाना। हाथ पकड़ना। (२) जिम्मे किया जाना। पल्ले बाँधना = (१) जिम्मे लेना। (२) गाँठ बाँधना। (३) ब्याहना। हाथ पकड़ना। पल्ले से बाँधना =(१) जिम्मे लगाना। (२) ब्याह देना। हाथ पकड़ा देना। २. दूरी। जैसे,—इनका घर यहाँ से पल्ले पर है। उ०—दो सौ कोस के पल्ले तक बरफीले पहाड़ नजर पड़ते हैं।—(शब्द०) †३. पास। अधिकार में। जैसे,—उसके पल्ले क्या है? ४. तरफ। ओर।

पल्ला (३)
संज्ञा पुं० [सं० पटल] १. दुपल्ली टोपी का एक भाग। द्रुपल्ली टोपी का आधा भाग। २. चद्दर वा गोन जिसमें अन्न बाँधकर ले जाते हैं। यौ०—पल्लेदार। ३. किवाड़। पटल। ४. पहल। ५. तीन मन का बोझ। ६. बौंरा। ७. धोती का एक फर्द। ८. रजाई या दुलाई आदि के ऊपर का कपड़ा। ९. दरवाजे आदि में लगनेवाला लकड़ी का लंबाचौड़ा टुकड़ा। जैसे, किवाड़ का पल्ला।

पल्ला (४)
संज्ञा पुं० [सं० पल; फा० पल्लह्] तराजू में एक ओर का टोकरा या डलिया। पलड़ा। मुहा०—पल्ला झुकना = पक्ष बलवान् होना। पल्ला भारी होना = पक्ष बलवान् होना। भारी पल्ला = (१) बलवान् पक्ष। (२) ऐसा पक्ष जिसपर बड़े बोझ हों।

पल्ला (५)
संज्ञा पुं० [सं० फल] कौंची के दो भागों में एक भाग।

पल्ला (६)
वि० [फा़० पल्ला] दे० 'परला'।

पल्लि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पल्ली' [को०]।

पल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा गाँव। पुरा। पुरवा। २. गृह- गोधा। छिपकिली [को०]।

पल्लिवाह
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग की एक घास।

पल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा गाँव। खेड़ा। पुरवा। खेड़ा। २. गाँव। उ०— उर कृत मल्ली माल जयती ब्रज पल्ली भूषन।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २. पृ० ७५४। ३. कुटी। पर्णशाला। ४. फैलनेवाली लता (को०)। ५. निवास। गृह (को०)। ६. छिपकली। यौ०— पल्लीपतन = शरीर के किसी अंग पर छिपकली गिरने के आधार पर शुभाशुभ विचार।

पल्लू †
संज्ञा पुं० [हिं० पल्ला] १. आँचल। छोर। दामन। २. चौड़ी गोट। पट्टा।

पल्ले पु †
वि० [हि०] दे० १. 'परला'। २. दे० 'पल्ला'।

पल्लोदार
संज्ञा पुं० [हिं० पल्ला + फा़० दार] १. वह मनुष्य जो गल्ले के बाजार में दूकानों पर गल्ले को गांठे में बाँधकर दूकान से मोल लेनेवालों के घर पर पहुँचा देता है। अनाज ढोनेवाला मजदूर। २. गल्ले की दूकान पर वा कोठियों में गल्ला तौलनेवाला आदमी। बया।

पल्लेदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पल्लेदार + ई (प्रत्यय०)] १. गल्ले की दूकान वा कोठियों से गल्ले का बोझ उटाकर खरीदार के यहां पहुंचाने का काम। पल्लेदार का काम। २. अनाज की दुकान पर अनाज तौलने का काम।

पल्लौ † (१)
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव] पल्लव।

पल्लौ (२)
संज्ञा पुं० पल्ला। चद्दर या गोन जिसमें अनाज बांधते हैं। उ०— पल पल्लौ भरि इन लिया तेरा नाज उठाय नैन हमलन दै अरे दरस मंजूरी आया।— रसनिघि (शब्द०)।

पल्वल
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा तालाबा या गड़्ढ़ा।

पल्वलावास
संज्ञा पुं० [सं०] कछुआ।

पवँग
संज्ञा पुं० [सं० प्लवङ्ग] अश्व। घोड़ा। उ०— ऊमर ऊतावलि करई पल्लाणियाँ पवंग। खुरसाणी सूधा खयँग चढिया दल चतुरंग।— ढोला०, दू० ६४०।

पवंगम
संज्ञा पुं० [सं० प्लवङ्गम] एक धंद। दे० ' पल्वंगम'। उ०— पवंगम में (आत्मा) बिरहिनी की विरह बेदना से पुकार है।— सुंदर ग्रं० (भू०), भा० १, पृ० ४९।

पवंगा
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का छंद। उ०— दूजे दिन दरबार सुजान सुआइकै। देखत ही मनसूर महा सुख पाइकै। खिलवति करी नवाब जनाइ वकील सौं। मसलति बूझन काज सुजान सुसील सौं।— सूदन (शब्द०)।

पवँरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पँवरि'।

पवँरिया
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पँवरिया', ' पौरिया'।

पवँरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पाँवड़ी', 'पाँवरी'।

पव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोबर। २. वायु। हवा। ३. अनाज की भूसी साफ करना। ओसाना। बरसाना।

पव (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पौ'।

पवई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जिसकी छाती खैरे रंग की, पीठ खाकी और चोंच पीली होती है।

पवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। हवा। मुहा०— पवन का भूसा होना = उड़ जाना। न ठहरना। कुछ न रहना। उ०— माधो जू सुनिए ब्रज ब्यौहार। मेरो कह्मो पवन को भुस भयो गावत नंदकुमार।— सूर (शब्द०)। २. कुम्हार का आँवा। ३. जल। पानी। ४. श्वास। साँस। ५. अनाज की भूसी अलग करना। ६. प्राणवायु। ७. विष्णु।८. पुराणानुसागर उत्तम मनु के एक पुत्र का नाम।

पवन पु (२)
वि० शुद्ध। पवित्र। पावन।

पवनअस्त्र
संज्ञा पुं० [सं० पवनास्त्र] वायु देवता का अस्त्र। कहते हैं, इसके चलाने से बड़े वेग से वायु चलने लगती है।

पवनकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान। उ०— प्रनवों पवन- कुमार खल बन पावक ज्ञानघन।— मानस, १। १७। २. भीमसेन।

पवनचक्की
संज्ञा स्त्री० [सं० पवन + हिं० चक्की] हवा के जोर से चलनेवाली चक्की या कल। वहा चक्की या कल जो हवा के जोर से चलती है। विशेष— प्रायः चक्की पीसने अथवा कुएँ आदि से पानी निकालने के लिये यह उपाय करते हैं कि चलाई जानेवाली कल का संयोग किसी ऐसी चक्कार के साथ कर देते हैं जो बहुत ऊँचाई पर रहता है और हवा के झोंकों से बराबर घुमता रहता है। उस चक्कार के घूमने के कारण नीचे की कल भी अपना काम करने लगती है।

पवनचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] चक्कर खाती हुई जोर की हवा। चक्रवात। बवंडर।

पवनज
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान्। २. भीमसेन।

पवनतनय
संज्ञा पुं० [सं०] १.हनुमान। उ०— कह हुए मौन शिव, पवनतनय में भर विस्मय।— अपरा, पृ० ४३। २. भीमसेन।

पवननंद
संज्ञा पुं० [सं० पवननन्द] १. हनुमान। २. भीम।

पवननंदन
संज्ञा पुं० [सं० पवननंदन] १. हनुमान्। २. भीमसेन।

पवनपति
संज्ञा पुं० [सं०] वायु के अधिष्ठाता देवता। उ०— अखिल ब्रह्मांडपति तिहुँ भुवनपति नीरपति पवनपति अगमबानी।— सूर (शब्द०)।

पवनपरीक्षा
संज्ञा स्त्री०[सं०] ज्योतिषियों की एक क्रिया जिसके अनुसार वे व्यास पूनों अर्थात् आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन वायु की दिशा को देखकर ऋतु का भविष्य कहते हैं।

पवनपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान्। २. भीमसेन।

पवनपूत पु
संज्ञा पुं० [सं० पवनपुत्र] दे० 'पवनपुत्र'। उ०— सेवक जाके लषन से पवनपूत रनधीर।— तुलसी० ग्रं०, पृ० ९०।

पवनबाण
संज्ञा पुं० [सं०] वह वाण जिसके चलाने से हवा वेग से चलने लगे। पवन अस्त्र।

पवनभुक्
संज्ञा पुं० [सं० पवनभुज्] सर्प। साँप [को०]।

पवनवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

पवनव्याधि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वायुरोग।

पवनव्याधि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण के सखा उद्धव का एक नाम।

पवनसंघात
संज्ञा पुं० [सं० पवनसङ्घात] दो ओर से वायु का आकर आपस में जोर में टकराना जो दुर्भिक्ष और दुसरे राजा के आक्रमण का लक्षण माना जाता है।

पवनसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान्। २. भीमसेन।

पवना †
संज्ञा पुं० [देश०] झरना। पौना। दे० 'झरना' २।

पवनात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान। २. भीमसेन। ३. अग्नि।

पवनाल
संज्ञा पुं० [सं०] पुनेरा नाम का धान्य।

पवनाश
संज्ञा पुं० [सं०] साँप।

पवनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प। भुजंग।

पवनाशनाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. गरूड़। २. मोर।

पवनाशी
संज्ञा पुं० [सं० पवनाशिन्] १. वह जो हवा खाकर रहता हो। २. साँप।

पवनास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रकार का अस्त्र। कहते हैं, इसके चलाने से बहुत तेज हवा चलने लगती थी।

पवनाहत
वि० [सं०] वातरोगी। वात रोग से पीड़ित [को०]।

पवनि पु
वि० [सं० पावन] पवित्र करनेवाली। पावनी। पावन। पवित्र। उ०— सुवन सुख करनि, भव सरिता तरनि , गावत तुलसिदास कीरति पवनि।— तुलसी (शब्द०)।

पवनी ‡ (१)
संज्ञा स्त्री०[हिं० पाना (= प्राप्त करना)] गावों में रहनेवाली वह छोटी प्रजा या नीच जाति जो अपने निर्वाह के लिये क्षत्रियों, ब्राह्मणों अथवा गाँव के दुसरे रहनेवालों से नियमित रूप से कुछ पाती है। जैसे, नाऊ बारी, भाट, धोबी, चमार, चुड़िहारी आदि।

पवनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पौना'।

पवनेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] बकायन।

पवनोंबुज
संज्ञा पुं० [सं० पवनोम्बुज] फालसा

पवन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० पवन] दे० 'पवन'। उ० — बहै सीत मंदं सुगंध पवन्नं।— ह० रासो, पृ० ३६।

पवमान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पवन। वायु। समीर। उ०— छीर वही भूतल नदी, त्रिविध चले पवमान। हेमवती सुत जाइया जाहिर सकल जहान।— प० रासो, पृ० १३।२. स्वाहा देवी के गर्भ से उत्पन्न अग्नि के एक पुत्र का नाम।३. गार्हपत्य अग्नि। ४. चंद्रमा का एक नाम। ५. ज्योतिष्टोम यज्ञ में गाया जानेवाला एक प्रकार का स्तोत्र।

पवर † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पँवरि'।

पवर (२)
वि० [सं० प्रवर] दे० 'प्रवर'।

पवरिया
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पौरिया'।

पवरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पँवरि'।

पवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वर्णमाला का पाँचवाँ वर्ग जिसमें प, फ, ब, भ, म ये पाँच अक्षर है्। वर्णमाला में प से लेकर म तक के अक्षर।

पवाँड़ा †
संज्ञा पुं० [दे०] 'पँवाड़ा'।

पवाँर
संज्ञा पुं० [देश०] १. पमार। पवाड़। चकवड़ा। २. क्षत्रियों की एक शाखाविशेष। दे० 'परमार'।

पवाँरना †
क्रि० स० [सं० प्रवारण] १. फेंकना। गिराना। २. खेत में छितराकर बीज बोना।

पवाँरा
संज्ञा पुं० [सं० प्रवाद] दे० 'पँवाड़ा'।

पवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० पावँ + आई (स्वा० प्रत्य०) ] १. एक फर्द जूता। एक पैर का जूता। २. चक्की का एक पाट।

पवाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बवंड़र। तीब्र पवनचक्र [को०]।

पवाड़ा †
संज्ञा पुं० [सं प्रकार] भाँति। तरह। उ०— भाजै काँई रे भिडि भारथ, साम्हौं सूरा सत जिणि हारै। दुहौं पवाड सुजस ताहरौं, कै मरसी कै मारै।— सुंदर, ग्रं०, भा० २, पृ० ८८४।

पवाड़ (२)
संज्ञा पुं० [ देश०] चकवड़।

पवाड़ा
संज्ञा पुं० [सं० प्रवाद] दे० 'पँवाड़ा'।

पवाना †
क्रि० स० [हिं० पाना (= भोजन करना) का सकर्मक रूप] १. खिलाना। भोजन कराना। उ०— सहित प्रीति ते अशन बनावै। परसि दूरि ते ताहि पवावै।— रघुनाथ (शब्द०)। २. प्राप्त कराना।

पवार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परमार'।

पवारना
क्रि० स० [सं० प्रवारण] दे० 'पवाँरना'। उ० —या हीं नर देही को प्राण छोड़ देतै केसे जारि बार करिके पवार दीजियतु है।— ठाकुर०, पृ० ३७।

पवारा
संज्ञा पुं० [सं० प्रवाद] दे० 'पँवाड़ा'।— उ० कहुँ वाच कहुँ पेखन होई। कहूँ पवारा गावत कोई।— माधवानल०, पृ० २०५।

पवारी
संज्ञा स्त्री० [?] नलिका नामक गंधद्रव्य।

पवि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वज्र। २. बिजली। गाज। ३. वाक्य। ४. वाण या भाला की नोंक (को०)। ५. तीर। वाण (को०)। ६. अग्नि। ७. थूहर। सेहुँड। ८. मार्ग। रास्ता। (ड़ि०)। ९. चक्का या पहिए का टायर (को०)।

पवित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मिर्च।

पवित (२)
वि० पवित्र। शुद्ध।

पविता
वि० [सं० पवितृ] शुद्ध करनेवाला। पवित्र करनेवाला [को०]।

पविताई पुं०
वि० स्त्री० [सं० पवित्रता] शुद्धि। सफाई। पवित्रता।

पवित्तर †
वि० [सं० पवित्र] दे० 'पवित्र'।

पवित्र (१)
वि० [सं०] १. जो गंदा मैला या खराब न हो। शुद्ध। निर्मल। साफ।

पवित्र (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेंह। बारिश। वर्षा। २. कुशा ३. ताँबा। ४. जल। ५. दुध। ६. घर्षण। रगड़। ७. अर्घा। अर्घपात्र। ८. यज्ञोपवीत। जनेऊ। ९. घी।१०. शहद।११. कुशा की बनी हुई पवित्री जिसे श्राद्घादि में अँगुलियों में पहनते हैं। १२. विष्णु। १३. महादेव। १४. तिल का पौधा। १५. पुत्रजीवा का वृक्ष। १६. कार्तिकेय का एक नाम।

पवित्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुशा। २. दौने का पेड़। ३. गूलर का पेड़। ४. पीपल का पेड़। ५. जाला। ६. चलनी जिससे आँटा आदि चालकर साफ करते हैं (को०)। ७. क्षत्रिय का यज्ञोपवीत।

पवित्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पवित्र या शुद्ध होने का भाव। शुद्धि। स्वच्छता। पावनता। सकाई। पाकीजगी।

पवित्रधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] जौ। यव।

पवित्रपाणि
वि० [सं०] १. हाथ में कुश रखनेवाला। २. पवित्र हाथोंवाला। [को०]।

पावित्रवति
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्रौंच द्वीप की एक वनस्पति।

पवित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तुलसी। २. एक नदी का नाम। ३. हलदी। ४. अश्वत्थ। पीपल। ५. रेशम के दानों की बनी हुई रेशमी माल जो कुछ धार्मिक कृत्यों के समय पहनी जाती है। ६. श्रावण के शुक्ल पक्ष की एकादशी।

पवित्रात्मा
वि० [सं० पवित्रात्मन्] जिसकी आत्मा पवित्र हो। शुद्ध अन्तःकरणवाला। शुद्धात्मा।

पवित्रारोपण
संज्ञा पुं० [सं०] श्रावण शुक्ल १२ को होनेवाला वैष्णवों का एक उत्सव जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण को सोने, चाँदी, ताँबे या सूत आदि का यज्ञोपवीत पहनाया जाता है।

पवित्रारोहण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पवित्रारोपण'।

पवित्राश
संज्ञा पुं० [सं०] सन का बना हुअ ड़ोरा, जो प्राचीन काल में बहुत पवित्र माना जाता था।

पवित्रित
वि० [सं०] शुद्ध किया हुआ। निर्मल किया हुआ।

पवित्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पवित्र (= कुश)] कुश का बना हुआ एक प्रकार का छल्ला जो कर्मकांड़ के समय अनामिका में पहिना जाता है।

पवित्री (२)
वि० [सं० पवित्रिन्] १. पवित्र करनेवाला। २. पवित्र। शुद्घ [को०]।

पविद
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।

पविधर
संज्ञा पुं० [सं०] वज्र धारण करनेवाले, इंद्र।

पवोनव
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद के अनुसार एक प्रकार के असुरजिनके विषय में लोगों का विश्वास था कि ये स्त्रियों का गर्भ गिरा देते हैं।

पवीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृल की फाल। २. शस्त्र। हथियार। ३. वज्र। पवि।

पवेरना †
क्रि० स० [हिं० पवारना] छितराकर बीज बोना।

पवेरा †
संज्ञा पुं० [हिं० पवेरना] वह बोआई जिसमें हाथ से छितरा या फेंककर बीज बोया जाया।

पव्य
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञपात्र।

पव्वय पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत, प्रा० पव्वय] पर्वत। पहाड़ा। उ०— घरै कर पव्वय गोप सहाय, परै जलधार तड़ित निहाय।— पृ० रा०, २। ३६२।

पशम
संज्ञा स्त्री० [फा० पश्म] १. बहुत बढ़िया और मुलायम ऊन जो प्रायः पंजाब, कश्मीर और तिब्बत की बकरियों से उतरता है और जिससे बढ़िया दुशाले और पशमीने बनते हैं। विशेष— कश्मीर, तिब्बत और नैपाल आदि ठंढ़े देशों की बकरियों में उनके रोएँ के नीचे की तह में और एक प्रकार के बहुत मुलायम, चिकने और बारीक रोएँ होते है जिन्हें पशम कहते हैं। इसका मूल्य बहुत आधिक होता है और प्रायः बढ़िया दुशाले, चादरें और जामेवार आदि बनाने में इसका उपयोग होता है। विशेष — दे० 'ऊन'। २. पुरूष या स्त्री की मूत्रेंद्रिय पर के बाल। उपस्थ पर के बाल। शष्प। झाँट। मुहा०— पशम उखाड़ना = (१) व्यर्थ समय नष्ट करना। (२) कुछ भी हानि या कष्ट न पहुँचा सकना। पशम न उखड़ना = (१) कुछ भी काम न हो सकना। (२) कुछ भी कष्ट या हानि न होना। पशम पर मारना = बिलकुल तुच्छ समझना। पशम न समझना = कुछ भी न समझना। पशम के बराबर भी न समझना। ३. बहुत ही तुच्छ वस्तु।

पशमीना
संज्ञा पुं० [फा़० पश्मीनह] १. दे० 'पशम'। २. पशम का बना हुआ कपड़ा या चादर आदि।

पशव्य (१)
वि० [सं०] १. पशु संबंधी। २. पशु के लिये हितकर। ३. नृशंस। क्रूर। पशुतापूर्ण [को०]।

पशव्य (२)
संज्ञा पुं० १. गोष्ट। गोवाट। अड़ार। २. पशुसमूह [को०]।

पशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. लांगूलविशिष्ट चतुष्पद जंतु। चार पैरों से चलनेवाला कोई जंतु जिसके शरीर का भार खड़े होने पर पैरों पर रहता हो। रेंगनेवाले, उड़नेवाले, जल में रहनेवाले जीवों तथा मनुष्यों को छोड़ कोई जानवर। जैसे, कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, ऊँट, बैल, हाथी, हिरन, गीदड़, लोमड़ी, बंदर इत्यादि। विशेष— भाषारत्न में लोम और लांगूल (रोएँ और पूँछ) वाले जंतु पशु कहे गए हैं। अमरकोश में पशु शब्द के अंतर्गत इन जंतुओं के नाम आए हैं— सिह, बाघ, लकड़बग्घा (चरग), सूअर, बंदर, भालू, गैंड़ा, भैसा, गीदड़, बिल्ली, गोह, साही, हिरन (सब जाति के), सुरागाय, नीलगाय, खरहा, गंधबिलाव, बैल, ऊँट, बकरा, मेढा, गदहा, हाथी और घोड़ा। इन नामों में गोह भी है जो सरीसृप या रेंगनेवाला है। पर साधारणतः छिपकली, गिरगिट आदि को पशु नहीं कहते। २. जीवमात्र। प्राणी। यौ०— पशुपति। विशेष— शैव दर्शन और पाशुपत दर्शन में 'पशु' जीवमात्रा की संज्ञा मानी गई है। ३. देवता। ४. प्रथम। ५. यज्ञ। ६. यज्ञ उड़ुंबर। ७. बलि- पशु (को०)। ८. सदसद्विवेक से रहित व्यक्ति। मुर्ख (को०)। ९. छाग। बकरा (को०)।

पशुकर्म
संज्ञा पुं० [सं० पशुकर्मन्] यज्ञ आदि में पशु का बलिदान।

पशुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का हिरन।

पशुक्रिया
संज्ञा स्त्री० १. पशु की बलि। २. मैयुन [को०]।

पशुगायत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र की रीति से बलिदान करने में एक मंत्र जिसका बलिपशु के कान में उच्चारण किया जाता है।

पशुघात
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञपशु का वध। बलि के पशु का हनन [को०]।

पशुघ्न
वि० [सं०] पशुओं का वध करनेवाला [को०]।

पशुचर्य़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पशु के समान विवेकहीन आचरण। जानवरों की सी चाल। स्वेच्छाचार। २. मैथुन।

पशुजीवी
वि० [सं० पशुजीविन्] पशु के द्वारा जीविका चलानेवाला। पशुओं के आधार पर जीनेवाला। उ०— श्रीराम रहे सामंत काल के ध्रुव प्रकाश, पशुजीवी युग में नव कृषि संस्कृत के विकास।— ग्राम्या, पृ० ५८।

पशुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पशु का भाव। २. जानवरपन। मूर्खता और औद्धत्य।

पशुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] पशु का भाव। जानवरपन।

पशुदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमार की अनुचरी एक मातृका देवी।

पशुदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] वह देव जिनके लिये पशु का हनन किया जाय [को०]।

पशुधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. पशुओं का सा आचारण। जानवरों का सा व्यवहार। मनुष्य के लिये निद्य व्यवहार। जैसे, स्त्रियों का जिसके पास चाहे उसके पास गमन, पुरुषों का अगम्या आदि का विचार न करना इत्यादि। (मनु०)। २. विधवा का विवाह (को०)।

पशुनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. सिह।

पशुप
संज्ञा पुं० [सं०] पशुपाल। गोपाल। पशुओं का पालनेवाला।

पशुपतास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव का शूलास्त्र।

पशुपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. पशुओं का स्वामी। २. जीवों का ईश्वर या मालिक। ३. शिव। महादेव। उ०— गणपतिसुखदायक, पशुपति लायक सूर सहायक कौन गनै।— राम चं०, पृ० ७। विशेष— शैव दर्शन और पाशुपत दर्शन में जीवमात्र 'पशु' कहे गए हैं और सब जीवों के अधिपति 'शिव' ही परमेश्वर माने गए हैं। ४. अग्नि।५. ओषधि।

पशुपल्वल
संज्ञा पुं० [सं०] कैवर्तमुस्तक। केवटी मोथा।

पशुपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पशुओं को पालनेवाला। २. बृह- त्संहिता के अनुसार ईशान कोण में एक देश जहाँ के निवासी पशुपालन ही द्वारा अपना निर्वाह करते हैं।

पशुपालक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० पशुपालिक] वह जो पशुओं का पालन करता हो। पशु पालनेवाला।

पशुपालन
संज्ञा पुं० [सं०] पशुओं को रखकर उन्हीं के सहारे जीविका चलानेवाला व्यक्ति [को०]।

पशुपाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. पशुओं का बंधन। २. शैव दर्शन के अनुसार जीवों के चार प्रकार के बंधन।

पशुपासक
संज्ञा पुं० [सं०] एक रतिबंध का नाम।

पशुप्रेरणा
संज्ञा पुं० [सं०] पशुओं को हाँकना [को०]।

पशुबंध
संज्ञा पुं० [सं० पशुबन्ध] यज्ञ जिसमें पशुबलि की जाय [को०]।

पशुबंधक
संज्ञा पुं० [सं पशुबन्धक] पहगा या रस्सी जिसमें पशु को बाँधते हैं। पशुओं का बंधन [को०]।

पशुभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पशुत्व। जानवरपन। हैवानपन। २. तंत्र में मंत्र के साधन के तीन प्रकारों में से एक। विशेष— साधक लोग तीन भाव से मंत्र का साधन करते हैं— दिव्य, वीर और पशु। इनमें से प्रथम दो भाव उत्तम और पशुभाव निकृष्ट माना जाता है। जो लोग तंत्र के सब विधानों का (घृणा, आचार विचार, आदि के कारण) पूरा पूरा पालन नहीं कर सकते उनका साधन पशुभाव से समझा जाता है। तांत्रिकों के अनुसार वैष्णव पशुभाव से नारायण की उपासना करते हैं क्योंकि वे मद्य मांस आदि का संपर्क नहीं रखते। कुब्जिका तंत्र में लिखा है कि जो रात को यंत्रस्पर्श और मंत्र का जप नहीं करते, जिन्हें बलिदान में संशय, तंत्र में संदेह और मंत्र में अक्षरबुद्धि (अर्थात् ये अक्षर हैं इनसे क्या होगा) और प्रतिमा में शिलाज्ञान रहता है, जो देवता की पूजा बिना मांस के करते हैं, जो बार बार नहाया करते हैं उन्हें पशुभावावालंबी और अधम समझना चाहिए

पशुमारण
संज्ञा पुं० [सं०] पशुओं का हनन।

पशुयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] आश्वलायन श्रौतसूत में वर्णित एक यज्ञ।

पशुराज
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह।

पशुलंब
संज्ञा पुं० [सं० पशुलम्ब] एक देश का प्राचीन नाम।

पशुहरीतको
संज्ञा स्त्री० [सं०] आम्रातक फल। आमड़े का फल।

पशू
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पशु'।

पश्च
वि० [सं०] १. बाद का। पीछे का। २. पश्चिमीय [को०]।

पशेमाँ
वि० [फा़० पशेमान] दे० 'पशेमान'। उ०— रहे खूब मन में ओ सुल्ताने जाँ हो पशेमाँ।— दक्खिनी०, पृ०, ३७५।

पशेमान
वि० [फा़०] १. शर्मिदा। लज्जित। २. पश्चात्ताप करनेवाला। पछतानेवाला [को०]।

पशोपेश †
संज्ञा पुं० [फा़० पेशोपस] आगा पीछे। सोच विचार। दुबिधा। अंदेश। उ०— पहलवान पशोपेश में पड़े, देखा, यहाँ भी राज देना है।— काले०, पृ० ४७।

पश्चात् (१)
अव्य० [सं०] पीछे। पीछे से। बाद। फिर। अनंतर। यौ०— पश्चादुत्कि = पुनः कथन। फिर कहना। पश्चात्कृत = पीछे किया या छोड़ा हुआ। पश्चादघाट = गला। गरदन। पश्चात्ताप। पश्चादभाग = पिछला हिस्सा। पश्चिमी भाग। पश्चादभावी। पश्चादवर्ती। पश्चादवात।

पश्चात् (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पश्चिम दिशा। प्रतीची। २. शेष। अंत। ३. अधिकार।

पश्चातकर्म
संज्ञा पुं० [सं० पश्चातकर्मन्] वैद्यक के अनुसार वह कर्म जिससे शरीर के बल, वर्ण और अग्नि की वृद्धि हो। विशेष— ऐसा कर्म प्रायः रोग की समाप्ति पर शरीर को पूर्व और प्रकृत अवस्था में लागे के लिये किया जाता है। भिन्न भिन्न रोगों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार के पश्चातकर्म होते हैं।

पश्चात्ताप
संज्ञा पुं० [सं०] वह मानसिक दुःख या चिता जो किसी अनुचित काम को करने के उपरांत उसके अनौचित्य़ का ध्यान करके अथवा किसी उचित या आवश्यक काम को न करने के कारण होती है। अनुताप। अफसोस। पछतावा।

पश्चात्तापी
संज्ञा पुं० [सं० पश्चातापिनू] पछतावा करनेवाला।

पश्चातापी
वि० [सं० पश्चापिन्] सेवक। दास। टहलुवा [को०]।

पश्चाद्भावी
वि० [सं० पश्चातू + भाविन्] पीछे होनेवाले। बांद में या अनंतर होनेवाले। उ०— राणाडे के शब्दों में हम उन्हें पशचाद्भावी भारतीय दार्शनिक विचारधाराओं की उदगम भूमि कह सकते हैं।— सं० दरिया (भू०), पृ० ५६।

पश्चाद्वर्त्ती
वि० [सं० पश्चात् + वर्तिन्] १. पीछे रचा गया। बाद का। बाद में अस्तित्व में आनेवाला। उ०— सर्वात्म- वाद का यह बीज पश्चाद्वर्ती वैदिक साहित्य में विकसित होकर वेदांत दर्शन में अपने चरम रुप को प्राप्त हुआ।— सं० दरिया (भू०), पृ० ५३। २. पीछे रहनेवाला। अनुसरण करनेवाला।

पश्चानुताप
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चात्ताप। अनुताप। पछतावा।

पश्चारूज
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक रोग जो कदन्न खानेवाली स्त्रियों का दूध पीनेवाले बालकों को होता है। विशेष— इस रोग में बालकों की गुदा में जलन होती है, उनका मल हरे या पीले रंग का हो जाता है और उन्हें बहुत तेज ज्वर आने लगता है।

पश्चार्द्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीछे का अर्ध भाग। पिछला हिस्सा। २. पश्चिमी भाग। पश्चिमी हिस्सा। ३. बचा हुआ या बादवाला हिस्सा [को०]।

पश्चाद्वात
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चिम की हवा। पछवाँ [को०]।

पश्चिम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह दिशा जिसमें सूर्य अस्त होता है। पूर्व दिशा के सामने की दिशा। प्रतीची। वारूणी। पच्छिम।

पश्चिम (२)
वि० १. जो पीछे से उत्पन्न हुआ हो। २. अंतिम। पिछला। अंत का। ३. पश्चिम दिशा का।

पश्चिमक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेत क्रिया। मृतक कर्म [को०]।

पश्चिमघाट
संज्ञा पुं० [सं० पश्चिम + घाट (= पर्वत)] दे० 'पश्चिमीघाट'।

पश्चिमदिक्पति
संज्ञा पुं० [सं०] वरूण जो पश्चिम दिशा के स्वामी कहे गए हैं [को०]।

पश्चिमप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] वह भूमि जो पश्चिम की ओर ढालुई या झुकी हो।

पश्चिमयामकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] बोद्धों के अनुसार रात के पिछले पहर का कृत्य या कर्तव्य।

पश्चिमरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] रात्रि का अंतिम भाग [को०]।

पश्चिमवाहिनी
क्रि० [सं०] पश्चिम दिशा की ओर बहनेवाली। पश्चिम तरफ बहनेवाली (नदी आदि)।

पश्चिमसागर
संज्ञा पुं० [सं०] आयरलैड़ और अमेरिका के बीच का समुद्र। ऐटलांटिक महासागर।

पश्चिमांश
संज्ञा पुं० [सं०] पिछला हिस्सा। पिछला काल। बाद का आधा काल। पश्चाद्वर्ती भाग। उ०— ऋग्वेदीय युग के पश्चिमांश में ऋषियों का बहुदेववाद एकदेववाद की ओर अग्रसर हो चला था।—सं० दरिया (भू०), पृ० ५३।

पश्चिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्यास्त की दिशा। प्रतीची। वारूणी। पश्चिम।

पश्चिमाचल
संज्ञा पुं० [सं०] एक कल्पित पर्वत जिसके संबंध में लोंगों की य़ह धारण है कि अस्त होने के समय सूर्य उसी की आड़ में छिप जाता है। अस्ताचल।

पश्चिमार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पश्चार्ध' [को०]।

पश्चिमी
वि० [सं० पश्चिम + हिं० ई (प्रत्य०)] १. पश्चिम की ओर का। पश्चिमवाला। २. पश्चिम संबंधी। जैसे, पश्चिमी हिदी।

पश्चिमी घाट
संज्ञा पुं०[हिं० पश्चिमी + घाट] बंबई प्रांत के पश्चिम ओर की एक पर्वतमाला जो विध्य पर्वत की पश्चिमी शाखा की अंतिम सीमा से, समुद्र के किनारे किनारे ट्रावंकोर (तिरूवांकुर) की उत्तरी सीमा तक चली गई है। पश्चिम घाट।

पश्चिमेतर
वि० [सं०] १. पूर्व का। पूर्वी। २. पश्चिम से भिन्न [को०]।

पश्चिमोत्तर (१)
वि० [सं०] उत्तरपज्ञ्चिमी। पश्चिम और उत्तर कोण का [को०]।

पश्चिमोत्तर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चिम और उत्तर के बीच का कोना। वायुकोण।

पश्चिमोत्तरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पश्चिम और उत्तर के बीच की दिशा। वायव्य कोण [को०]।

पश्त
संज्ञा पुं० [लश०] खंभा।

पश्ता
संज्ञा पुं० [फा़० पुश्ता] किनारा। तट। (लश०)। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना।

पश्तो
संज्ञा पुं० [देश०] १. ३।। मात्राओं का एक ताल जिससे दो आघात होते हैं। इसके बोल इस प्रकार हैं—तिं, तक, धिं, धा, गे। २. भारत की आर्यभाषाओं में से एक देशी भाषा जिसमें फारसी आदि के बहुत से शब्द मिल गए हैं। यह भाषा भारत की पश्चिमोत्तर सीमा से अफगानिस्तान तक बोली जाती है। उ०—जैसे पश्चिमी की क्रमशः पुरानी, पारसी, पहलवी वा वर्तमान फारसी और पश्तो आदि हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७७।

पश्म
संज्ञा पुं० [फा़०] बकरी, भेड़, आदि का रोआँ। ऊन। विशेष—दे० 'ऊन'। २. दे० 'पशम'। उ०—क्या करूँ हक के किए को कूर मेरी चश्म है। आबरू जग में रहे तो जान जाना पश्म है।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० १०।

पश्मीना
संज्ञा पुं० [फा़० पश्मीनह्] एक प्रकार का बहुत बढ़िया और मुलायम ऊनी कपड़ा जो कश्मीर और तिब्बत आदि पहाड़ी और ठंडे देशों में बहुत अच्छा और अधिकता से बनता है। दे० 'पशमीना'।

पश्यंतो
संज्ञा स्त्री० [सं० पश्यन्ती] नाद की उस समय की अवस्था या स्वरूप जब वह मूलाधार से उठकर हृदय में जाता है। विशेष—भारतीय शास्त्रों में वाणी या सरस्वती के चार चक्र माने गए हैं—परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी। मूला- धार से उठनेवाले नाद को 'परा' कहते हैं, जब वह मूलाधार से हृदय में पहुँचता है तब 'पश्यंती' कहलाता है, वहाँ से आगे बढ़ने और बुद्धि से युक्त होने पर उसका नाम 'मध्यमा होता है और जब वह कंठ में आकर सबके सुनने योग्य होता है तब उसे 'वैखरी' कहते हैं।

पश्यतोहर
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो आँखों के सामने से चीज चुरा ले। जैसे, सुनार आदि। उ०—वहु शब्द बंचक जानि। अलि पश्यतोहर मानि। नर छाहई अपवित्र। शर खंग निर्दय मित्र।—राम० चं०, पृ० १६०।

पश्वयम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का दैविक यज्ञ।

पश्ववदान
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञीय पशु की बलि। यज्ञपशु का बलिदान [को०]।

पश्वाचार
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिकों के अनुसार कामना और संकल्पपूर्वक वैदिक रीति से देवी का पूजन। वैदिकाचार। विशेष—तांत्रिकों के अनुसार दिव्य, वीर और पशु इन तीनभावों से साधना की जाती है। इनमें से केवल अंतिम ही कलिगुग में विधेय है, और इसी पशु भाव से पूजा करने से सिद्धि होती है। पश्वाचारी को नित्य स्नान, संध्या, पूजन, श्राद्ध और विप्र कर्म करना चाहिए, सबको समान भाव से देखना चाहिए, किसी का अन्न न लेना चाहिए, सदा सत्य बोलना चाहिए, मद्यमांस का व्यवहार न करना चाहिए, आदि आदि।

पश्वाचारो
संज्ञा पुं० [सं० पश्वाचारिन्] पश्वाचार करनेवाला। कामना और संकल्पपूर्वक वैदिक रीति से देवी का पूजन करनेवाला।

पश्विज्या
संज्ञा स्त्री० [सं० पशु + इज्या] एक प्रकार का यज्ञ।

पश्वेकादशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जिसमें ग्यारह देवताओं के उद्देश्य से पशुओं की बलि दी जाती है।

पष पु †
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष] १. पंख। डैना। २. तरफ। ओर। ३. पक्ष। पाख।

पषा
संज्ञा पुं० [सं० पक्ष] दाढ़ी। डाढ़ी। श्मश्रु। उ०—रघुराज सुनत सखा सो पषा पोंछि पाणि, त्रिसखा त्रिशूल लिए चषा अरुणारे हैं।—रघुराज (शब्द०)।

पषाण
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण] दे० 'पाषाण'।

पषान पु
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण] दे० 'पाषाण'। उ०—कंचन काचहि सम गनै कामिनि काठ पषान। तुलसी ऐसे संत जन पृथ्वी ब्रह्म समान।—तुलसी ग्रं०, पृ० ११।

पषारना पु †
क्रि० स० [सं० प्रक्षालन] धोना। उ०—जो प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पषारन कहहू।— तुलशी (शब्द०)।

पषालना †
क्रि० स० [सं० प्रक्षालन प्रा० पक्खालण] प्रक्षालन करना। धोना। पखारना। उ०—गढ़ अजमेराँ गम करउ चउरी बइसी पषालज्यो पाव।—वी० रासो, पृ० ८।

पष्षान
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण] दे० 'पाषाण'।

पष्ठौही
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवान गाय। युवा गौ [को०]।

पसंग पु
संज्ञा पुं० [फा़० पासंग] दे० 'पासंग'।

पसंगा † (१)
संज्ञा पुं० [फा़० पासंग] १. वह बोझ जिसे तराजू के पल्लों का बोझ बराबर करने के लिये तराजू की जोती में हलके पल्ले की तरप बाँध देते हैं। पासंग। २. तराजू के दोनों पल्लों के बोझ का अंतर जिसके कारण उस तराजू पर तौली जानेवाली चीज की तौल में भी उतना ही अंतर पड़ जाता है।

पसंगा † (२)
वि० बहुत ही थोड़ा। बहुत कम। मुहा०—पसंगा भी न होना = कुछ भी न होना। बहुत ही तुच्छ होना। जैसे,—यह कपड़ा उस थान का पसंगा भी नहीं है।

पसंघ †
संज्ञा पुं० [फा़० पासंग] दे० 'पसंगा'। उ०—गोली डाँड़ी में पसंघे सी बँधी कौड़ी।—कुकुर०, पृ० १७।

पसंता ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० पश्यन्ती] दे० 'पश्यंती'। उ०—चारो बानी का भेद बताई, सास्तर संध लखाई। परा पसँता मधिमा सोई, बैखरी बेर बताई।—घट०, पृ० २६।

पसंती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पश्यन्ती] दे० 'पश्यंती'। उ०—बानिहु चारि भाँति की करी। परा पसंती मध्य वैखरी।— विश्राम (शब्द०)।

पसंद (१)
वि० [फ़ा०] १. रुचि के अनुकूल। मनोनीत। २. जो अच्छा लगे। जैसे,—अगर वह चीज आपको पसंद हो तो आप ही ले लीजिए। क्रि० प्र०—आना।—करना।—होना। विशेष—इस शब्द के साथ जो यौगिक क्रियाएँ जुड़ती हैं वे अकर्मक होती हैं। जैसे,—(क) वह किताब मुझे पसंद आ गई। (ख) हमें यह कपड़ा पसंद है।

पसंद (२)
संज्ञा स्त्री० अच्छा लगने की वृत्ति। अभिरुचि। जैसे,—आपकी पसंद भी बिलकुल निराली है। २. स्वीकृति। मंजूरी (को०)। ३. प्राथमिकता। प्रधानता। तरजीह (को०)।

पसंद (३)
प्रत्य० १. पसंद करनेवाला। जैसे, हकपसंद। २. पसंद आनेवाला। जैसे, दिलपसंद, मनपसंद [को०]।

पसंदा
संज्ञा पुं० [फ़ा० पसंदह्] १. मांस के एक प्रकार के कुचले हुए टुकड़े। पारचे का गोश्त। २. एक प्रकार का कबाब जो उक्त प्रकार के मांस से बनता है।

पसंदोदगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] रुचि। रुझान। अनुकूलता। उ०—उनके लुकने छिपने, पसंदीदगी और नापसंदीदगी में भी फर्क है।—मैला०, पृ० १९५।

पसंदीदा
वि० [फ़ा० पसंदीदह्] पसंद किया हुआ। रुचिकर। मनोवांछित [को०]।

पसंसना ‡
क्रि० स० [सं० प्रशंसन] प्रशंसा करना। गुण गाना। उ०—ते भोले भलओ निरुढि गए, जइसओ तइसओ कव्व। खेल खेल छल दूसिहइ सुअण पसंसइ सव्व।—कीर्ति०, पृ० ४।

पसँगा † (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० पासंग] दे० 'पसंगा'।

पसँगा † (२)
वि० बहुत कम। स्वल्पतम। बहुत थोड़ा।

पसँघा
संज्ञा पुं० [फ़ा० पासंग, हिं० पसंगा, पसँगा] दे० 'पसंगा'।

पस (१)
अव्य [फ़ा०] १. इसलिये। अतः। इस कारण। २. पीछे। फिर। बाद में (को०)। ३. अंततः। आखिरकार (को०)। यौ०—पसगैबत। पसपा = पीछे हटा हुआ। हारा हुआ। परा- जित। पसपाई = पीछे हटाना। हार। पराजय। पसोपेश।

पस (२)
संज्ञा पुं० [अं०] मवाद। पूय। पीप [को०]।

पसई
संज्ञा स्त्री० [देश०] पहाड़ी राई जो हिमालय की तराई और विशेषतः नेपाल तथा कुमाऊँ में होती है। इसकी पत्तियाँ गोभी के पत्तों की तरह होती हैं और इसकी फसल जाड़े में तैयार होती है। बाकी बहुत सी बातों में यह साधारण राई की ही तरह होती है।

पसकरण
वि० [डिं०] कायर। चरपाक।

पसगैबत
क्रि० वि० [फ़ा० पस + अ० गैवत] पीठ पीछे। अनुपस्थिति में [को०]।

पसघ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पसंगा'।

पसताल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जो पानी के आसपास अधिकता से होती है और जिसे पशु बड़े चाव से खाते हैं। कहीं कहीं गरीब लोग इसके दानों या बीजों का व्यवहार अनाज की भाँति भी करते हैं।

पसनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राशन] अन्नप्राशन नामक संस्कार जिसमें बच्चों को प्रथम बार अन्न खिलाया जाता है। उ०—भै पसनी पुनि छठएँ मासा। बालक बढ़या भानु सम भासा।—रघुराज (शब्द०)।

पसम पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० पशम्] दे० 'पश्म'।

पसमीना पु
पुं० [फ़ा० पशमीना] दे० 'पश्मीना'।

पसर (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रसर] गहरी की हुई हथेली। एक हथेली को सुकोड़ने से बना हुआ गड्ढा। करतलपुट। आधी अंजली। जैसे,—इस भिखभंगे को पसर भर आटा दे दो।

पसर (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रसर] विस्तार। प्रसार। फैलाव।

पसर (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. रात के समय पशुओं को चराने का काम। क्रि० प्र०—चराना। २. आक्रमण। घावा। चढ़ाई।

पसरकटाली
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रसरकटाली] भटकटैया। कटाई।

पसरन
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रसारिणी] १. गंधप्रसारिणी। पसारनी। † २. फैलाव। विस्तार।

पसरना
क्रि० अ० [सं० प्रसरण] १. आगे की ओर बढ़ना। फैलना। २. विस्तृत होना। बढ़ना। ३. पैर फैलाकर सोना। हाथ पैर फैलाकर लेटना। ४. छितरा जाना। बिखर जाना। संयो० क्रि०—जाना।

पसरट्टा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पसरहट्टा'।

पसरहट्टा †
संज्ञा पुं० [हिं० पसारी (= पंसारी) + हट्टा (= हाट)] वह हाट या बाजार जिसमें पंसारियों आदि की दुकानें हों। वह स्थान जहाँ वन औषधियाँ और मसाले आदि मिलते हैं।

पसराना
क्रि० स० [सं० प्रसारण] पसारने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को पसारने में प्रवृत्त करना।

पसरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पसली'।

पसरौहाँ पु †
वि० [हिं० पसरना + औहाँ (प्रत्य०)] प्रसरण- शील। फैलनेवाला। जो पसरता हो। जिसका पसरने का स्वभाव हो।

पसली
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्शुका] मनुष्यों और पशुओं आदि के शरीर में छाती पर के पंजर की आड़ी और गोलाकार हड्डियों में से कोई हड्डी। विशेष—साधारणतः मनुष्यों और पशुओं में गले के नीचे और पेट के ऊपर हड्डियों का एक पंजर होता है। मनुष्य में इस पंजर में दोनों ओर बारह हड्डियाँ होती हैं। ये हड्डियाँ पीछे की ओर रीढ़ में जुड़ी रहती है और उसके दोनों ओर से निकलकर दोनों बगलों से होती हुई आगे छाती और पेट की ओर आती हैं। पसलियों के अगले सिरे सामने आकर छाती की ठीक मध्य रेखा तर नहीं पहुँचते बल्कि उससे कुछ पहले ही खतम हो जाते हैं। ऊपर की सात सात हड्डियाँ कुछ बड़ी होती हैं और छाती की मध्य की हड्डी से जुड़ी रहती हैं। इसके बाद की नीचे की ओर की हड्डियाँ या पसलियाँ क्रमशः छोटी होती जाती हैं और प्रत्येक पसली का अगला सिरा अपने से ऊपरवाली पसली के नीचे के भाग से जुड़ा रहता है। इस प्रकार अंतिम या सबसे नीचे की पसली जो कोख के पास होती है सबसे छोटी होती है। नीचे की दोनों पसलियों के अगले सिरे छाती की हड्डी तक तो पहुँचते ही नहीं, साथ ही वे अपने ऊपर की पसलियों से भी जुड़े हुए नहीं होते। इन पसलियों के बीच में जो अंतर होता है उसमें मांस तथा पेशियाँ रहती हैं। साँस लेने के समय मांसपेशियों के सिकुड़ने और फैलने के कारण ये पसलियाँ भी आगे बढ़ती और पींछे हटती दिखाई देती हैं। साधारणतः इन पसलियों का उपयोग हृदय और फेफड़े आदि शरीर के भीतरी कोमल अंगों को बाहरी आघातों से बचाने के लिये होता है। पशुओं, पक्षियों और सरीसृपों आदि की पसली की हड्डियों की संख्या में प्रायः बहुत कुछ अंतर होता है और उनकी बनावट तथा स्थिति आदि में भी बहुत भेद होता है। पसली की हड्डियों की सबसे अधिक संख्या साँपों में होती है। उनमें कभी कभी दोनों ओर दो दो सौ हड्डियाँ होती है। मुहा०—पसली फड़कना या फड़क उठना = मन में उत्साह होना। उमंग पैदा होना। जोश आना। पसलियाँ ढीली करना = बहुत मारना पीटना। हड्डी पसली तोड़ना = दे० 'पसलियाँ ढीली करना'। यौ०—पसली का रोग = बच्चों का एक प्रकार का रोग जिसमें उनका साँस बहुत तेज चलता है।

पस व पेश
संज्ञा पुं [फ़ा० पस ओ पेश] दे० 'पसोपेश'।

पसवा †
संज्ञा पुं० [देश०] हलका गुलाबी रंग।

पसही †
संज्ञा पुं० [देश०] तिन्नी का चावल।

पसा †
संज्ञा पुं० [हिं० पसर] अंजली।

पसाई (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पसताल नाम की घास जो तालों में होती है। दे० 'पसताल'।

पसाई † (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रसाद] दे० 'पसाउ'। उ०—तैं डिनोई सभु, जो डीये दीदार के, उंजे लहदी अभु पसाई दो पाण के।—दादू०, पृ० ६५।

पसाउ, पसाऊ पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रसाद, प्रा० पसाव] प्रसाद। प्रसन्नता। कृपा। अनुग्रह। उ०—(क) चारिउ कुँअर बिआहि पुर गवने दशरथ राउ। भए मंजु मंगल सगुन गुरु सुर संभु पसाउ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ।—मानस, १।८९।

पसाना (१)
क्रि० स० [सं० प्रस्रावण, हिं० पसावना] १. पकाया हुआ चावल गल जाने पर उसका बचा हुआ पानी निकलनाया अलग करना। भात में से माँड़ निकालना। २. किसी पदार्थ में मिला हुआ जल का अंश चुआ या बहा देना। पसेव निकालना या गिराना।

पसाना † (२)
क्रि० अ० [सं० प्रसन्न या प्रसाद] प्रसन्न होना। सुख होना।

पसार
संज्ञा पुं० [सं० प्रसार] १. पसरने की क्रिया या भाव। प्रसार। फैलाव। उ०—सात सुरति तब मूल है उत्पति सकल पसार। अक्षर ते सब सृष्टि भई, काल ते भए तिछार।—कबीर सा०, पृ० ९२१। २. विस्तार। लंबाई और चौडा़ई आदि। ३. प्रपंच। मायाविस्तार।

पसारण †
संज्ञा पुं० [सं० प्रसारण] दे० 'प्रसारण'। उ०—गावण, धावण, वलगन, संकोचन, पसारण, ये पाँच प्रकृति वायु की बोलिए।—गोरख०, पृ० २२३।

पसारना
क्रि० स० [सं० प्रसारण] फैलाना। आगे की ओर बढ़ाना। विस्तार करना। जैसे,—किसी के आगे हाथ पसा- रना। बैठने की जगह पाकर पैर पसारना।

पसारा †
संज्ञा पुं० [सं० प्रसार] दे० 'प्रसार'। उ०—(क) शब्दै काया जग उतपानी शब्दै केरि पसारा।—कबीर, श०, भा० १, पृ० ४३। (ख) जो दिखियत यह बिस्व पसारौ। सो सब क्रीड़ा भांड तुम्हारौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २८२।

पसारी
संज्ञा पुं० [देश०] १. तिन्नी का धान। पसवन। पसेही। २. दे० 'पंसारी'।

पसाव (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पसाना + आव (प्रत्य०)] वह जो पसाने पर निकले। पसाने पर निकलनेवाला पदार्थ। माँड़। पीच।

पसाव पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रसाद] दे० 'पसाउ'। जैसे, लाखपसाव, कोटिपसाव। उ०—हिंडयौ सु बीर उत्तर दिसा इह पसाव चहुआन करि। पृ० रा०, २४।४३६।

पसावन
संज्ञा पुं० [सं० प्रस्रावण] १. किसी उबाली हुई वस्तु में का गिराया हुआ पानी। २. माँड़। पीच।

पसिंजर
संज्ञा पुं० [अं० पैसेंजर] १. यात्री विशेषतः रेल या जहाज का यात्री। २. मुसाफिरों के सवार होने की वह रेल- गाड़ी जो प्रत्येक स्टेशन पर ठहरती चलती है और जिसकी चाल डाकगाड़ी की चाल से कुछ धीमी होती है।

पसित पु
वि० [सं० पाश (= बंधन)] बँधा या बाँधा हुआ।

पसीजना
क्रि० अ० [सं० प्र +/?/स्विद्, प्रस्विधति, प्रा० पसिञ्जइ] १. किसी धन पदार्थ में मिले हुए द्रव अंश का गरमी पाकर या और किसी कारण से रस रसकर बाहर निकालना। रसना। जैसे, पत्थर में सरे पानी पसीजना। २. चित्त में दया उत्पन्न होना। दयार्द्र होना। जैसे,—आप लाख बातें बना- इए, पर वे कभी न पसीजेंगे। उ०—दुखित धरनि लाखि बरसि जल घनहु पसीजे आय। द्रवत न क्यों घनश्याम तुम नाम दयानिधि पाय।—(शब्द०)।

पसीना
संज्ञा पुं० [सं० प्रस्वेदन, हिं० पसीजना] शरीर में मिला हुआ जल जो अधिक परिश्रम करने अथवा गरमी लगने पर सारे शरीर से निकलने लगता है। प्रस्वेद। स्वेद। श्रमवारि। विशेष—पसीना केवल स्तनपायी जीवों को होता है। ऐसे जीवों के सारे शरीर में त्वचा के नीचे छोटी छोटी ग्रंथियाँ होती हैं जिनमें से रोमकूपों में से होकर जलकणों के रूप में पसीना निकलता है। रासायनिक विश्लेषण से सिद्ध होता है कि पसीने में प्रायः वे ही पदार्थ होते हैं जो मूत्र में होते हैं। परंतु वे पदार्थ बहुत ही थोड़ी मात्रा में होते हैं। पसीने में मुख्यतः कई प्रकार के क्षार, कुछ चर्बी और कुछ प्रोटीन (शरीरधातु) होती है। ग्रीष्मऋतु में व्यायाम मा अधिक परिश्रम करने पर, शरीर में अधिक गरमी के पहुँचने पर या लज्जा, भय, क्रोध, आदि गरहे आवेगों के समय अथवा अधिक पानी पीने पर बहुत पसीना होता है। इसके अतिरिक्त जब मूत्र कम आता है तब भी पसीना अधिक होता है। औषधों के द्वारा अधिक पसीना लाकर कई रोगों की चिकित्सा भी की जाती है। शरीर स्वस्थ रहने की दशा में जो पसीना आता है, उसका न तो कोई रंग होता है और न उसमें कोई दुर्गंध होती है। परंतु शरीर में किसी भी प्रकार का रोग हो जाने पर उसमें से दुर्गंध निकलने लगती हैं। क्रि० प्र०—आना।—छूटना।—निकलना।—होना। मुहा०—पसीना गारना या बहाना = किसी कार्य या वस्तु के लिये अत्यधिक श्रम करना। पसीने पसीने होना = बहुत अधिक पसीना होना। पसीने से तर होना। गाढ़े पसीने की कमाई = कठिन परिश्रम से अर्जित किया हुआ धन। बड़ी मेहनत से कमाई हुई दौलत।

पसु पु
संज्ञा पुं० [सं० पशु] दे० 'पशु'। उ०—जैसे कीट पतंग पषान, भयो पसु पक्षी।—धरम०, पृ० ८१।

पसुआ पु †
संज्ञा पुं० [सं० पशुता] पशु। जानवर। उ०—औगुन कहौं सराब का ज्ञानवंत सुनि लेय। मानुष से पसुआ करे, द्रव्य गाँठि को देय।—संतबानी०, पृ० ६१।

पसुघ्न
वि० [सं० पशुघ्न] पशु का वध करनेवाला। उ०—बिना पसुघ्नहिं पुरुष सु कौन। कहै कि हरि गुन हौं न सुनौ न।—नंद० ग्रं०, पृ० २१८।

पसुचारन पु
संज्ञा पुं० [सं० पशुचारण] गाय, बैल आदि जानवरों को चराने का काम। उ०—जब पसुचारन चलत चरन कोमल धारि बन मैं। सिल त्रिन कंटक अटकत कसकत हमरे मन मैं।—नंद० ग्रं०, पृ० १८।

पसुप पु
संज्ञा पुं० [सं० पशुप] पशुओं का रक्षक। पशुपालक। गोपाल। उ०—पसु अरु पसुप तृषित अति भए। चले चले कालीदह गए।—नंद ग्रं०, पृ० २७८।

पसुपति पु
संज्ञा पुं० [सं० पशुपति] महादेव। उ०—उग्र कपर्दी भूतपति पसुपति मृड ईसान।—अनेकार्थ०, पृ० ७५।

पसुपाल पु
संज्ञा पुं० [सं० पशुपाल] दे० 'पशुपाल'। उ०— इनके दिए बाढ़ों हैं गैया बच्छ बाल। संग मिलि भोजन करत हैं जैसे पसुपाल।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ४।

पसुभाषा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पशुभाषा] पशुओं की बोली समझने की विद्या। पशुओं की बोली। उ०—पसुभाषा और जलतरन,धातु रसाइन जानु। रतन परख औ चातुरी, सकल अंग सग्यानु।—माधवानल०, पृ० २०८।

पसुरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पसली + इया (प्रत्य०)] दे० 'पसली'। उ०—यहि बन गनन बजाव बँसुरिया। कौनहु नहि गुमान तकि, भूलौ, अंग अंग गलि जाइ पसुरिया।—जग० बानी, पृ० ३४।

पसुरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पसली'।

पसुली पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पसली'।

पसू †
संज्ञा पुं० [सं० पशु] दे० 'पशु'। उ०—करै गान ताँनं पसू पच्छि मोहै।—ह० रासो, पृ० ३७।

पसूज
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह सिलाई जिसमें सीधे तोपे भरे जाते हैं।

पसूजना
क्रि० स० [देश०] सीना। सिलाई करना।

पसूता †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रसूता] जिस स्त्री ने अभी हाल में बच्चा जना हो। प्रसूता। जच्चा।

पसूस
वि० [डिं०] कठोर।

पसेउ, पसेऊ †
संज्ञा पुं० [हिं० पसेव] दे० 'पसेव'। उ०—जानु सो गारे रकत पसेऊ। सुखी न जान दुखी कर भेऊ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २७१।

पसेपुश्त
क्रि० वि० [फ़ा०] पीछ पीछे। परोक्ष में। उ०—यह मेरा प्यारा जसोदा है, जिसकी गरदन में बाहें डालकर मैं बागों की सैर किया करता था। हमारी सारी दुशमनी पसे- पुश्त होती थी।—काया०, पृ० ३३५।

पसेरो
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँच + सेर + ई (प्रत्य०)] पाँच सेर का बाट। पंसेरी।

पसेव
संज्ञा पुं० [सं० प्रस्वेद] १. वह द्रव पदार्थ जो किसी पदार्थ के पसीजने पर निकले। किसी चीज में से रसकर निकला हुआ जल। २. पसीना। उ०—तनु पसेव पसाहनि भासलि, पुलक तइसन जागु।—विद्यापति०, पृ० ३१। ३. वह तरल पदार्थ जो कच्ची अफीम को सुखाने के समय उसमें से निकलता है। इस अंश के निकल जाने पर अफीम सूख जाती और खराब नहीं होती।

पसेवा †
संज्ञा पुं० [देश०] सानारों की अँगीठी पर चारों ओर रहनेवाली चारों ईटें।

पसैहू †
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़। उ०—बिहरत मोहन मदन गुपाल। कदम पसैहू ताल रसाल।—घनानंद, पृ० ३०३।

पसोपेश
संज्ञा पुं० [फ़ा० पस व पेश] १. आगा पीछा। सोच विचार। हिचक। दुविधा। जैसे,—जरा से काम में तुम इतना पसोपेश करते हो ? २. भला बुरा। हानि लाभ। ऊँच नीच। परिणाम। जैसे,—इस काम का सब पसोपेश सोच लो तब इसमें हाथ लगाओ।

पसोपेस
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पसोपेश'। उ०—पसोपेस तजि आइए पहिने कुन समपंज। कर मुकुताइ न जाइए मुकुता बरसत कंज।—स० सप्तक, पृ० २४७।

पस्त
वि० [फ़ा०] १. हारा हुआ। २. थका हुआ। ३. दबा हुआ। उ०—किसी तरह यह कमबख्त हाथ आता तो और राजपूत खुदब खुद पस्त हो जाते।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५२१। ४. निम्न। अधम (को०)। ५. छोटा। लघु (को०)।यौ०—पस्तकद। पस्तकिस्मत = अभागा। बदकिस्मत। पस्त- खयाल = लघुचेता। क्षुद्रबुद्धि। पस्तहिम्मत। पस्त- हिम्मती = कायरता। उत्साहहीनता। पस्तहौसला = दे० 'पस्तहिम्मत'।

पस्तकद
वि० [फ़ा० पस्तक़द] नाटा। वामन। बौना।

पस्तहिम्मत
वि० [फ़ा०] हिम्मत हारा हुआ। भीरु। डरपोक। कायर।

पस्ताना †
क्रि० अ० [सं० पश्चात्ताप, मरा० पस्तावणो] दे० 'पछताना'।

पस्तावा †
संज्ञा पुं० [सं० पश्चात्ताप, सिंधी पस्तावो, गुज० पस्तावुं] दे० 'पछतावा'।

पस्ती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. नीचे होने का भाव। निचाई। २. कमी। न्यूनता। अभाव। ३. अधमता। क्षुद्रता। निम्नता। कमीनापन (को०)।

पस्तो
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पश्तो'।

पस्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. गृह। निवास। घर। २. कुल। परिवार [को०]।

पस्यम †
संज्ञा पुं० [सं० पश्चिम] दे० 'पश्चिम'। उ०—दिसि पस्यम गुरजर सुधर सैहैर अहमदाबाद।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४२१।

पस्सर
संज्ञा पुं० [अं० परसर] जहाज का वह कर्मचारी जो खला- सियों आदि को वेतन और रसद बाँटता है। जहाज का खजानची या भंडारी (लश०)।

पस्सा ‡
क्रि० वि० [?] मुट्ठी भर। उ०—बाइकाँ बनेगी राँडाँ बेगले फिरेंगे छोरे। पस्सो उठा को माँटी डालेंगे नाउँ पो तेरे।—दक्खिनी०, पृ० २९७।

पस्सी
संज्ञा पुं० [देश०] शीशम की जाति का एक प्रकार का वृक्ष। बिथुआ। भकोली। विशेष—यह वृक्ष प्रायः सारे उत्तरी भारत, नैपाल और आसाम में पाया जाता है। यह प्रायः सड़कों के किनारे लगाया जाता है। यह नीचो और बलुई जमीन में बहुत जल्दी बढ़ता है। इसकी पत्तियाँ चारे के काम में आती हैं। इसकी लकड़ी बहुत बढ़िया होती है और शीशम की भाँति ही काम में आती है।

पस्सी बबूल
संज्ञा पुं० [हिं० पस्सी ? + हिं० बबूल] एक प्रकार का पहाड़ी विलायती बबूल जो जंगली नहीं होता बल्कि बोने और लगाने से होता है। विशेष—हिमालय में यह ५००० फुट की ऊँचाई तक बोया जा सकता है। प्रायः घेरा बनाने या बाड़ लगाने के लिये यहबहुत ही उत्तम और उपयोगी होता है। जाड़े में इसमें खूब फूल लगते हैं जिनमें से बहुत अच्छी सुगंध निकलती है। युरोप में इन फूलों से कई प्रकार के इत्र और सुंगंधित द्रव्य बनाए जाते हैं।

पहँ पु
अव्य० [सं० पार्श्व, प्रा० पाह] १. निकट। समीप। उ०—राजा बँदि जेहि के सौंपना। गा गोरा तेहि पहँ अग- मना।—जायसी (शब्द०)। २. से। उ०—दूतिन्ह बात न हिये समानी। पदमावति पहँ कहा सो आनी।—जायसी (शब्द०)।

पहँसुल
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रह (= झुका हुआ) + शूल] हँसिया के आकार का तरकारी काटने का एक औजार। हँमुआ।

पह पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रभा] दे० 'पौ'। उ०—प्रफुलित कमल गुँजार करत अलि पह फाटी कुमुदिनि कुँमिलानी।—सूर (शब्द०)।

पह (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रभु] दे० 'प्रभु'। उ०—साहाँ ऊथप थप्पणौ, पह नरनाहाँ पत्त। राह दुहूँ हद रक्खणौ, अभैसाह छत्रपत्त।— रा० रू०, पृ० १०। (ख) क्रोध न करो अकाजा, देव दीन सुरभी दुजराजा पह रघुवंशी पूजै।—रघु० रू०, पृ० ९०।

पहचनवाना
क्रि० स० [हिं० पहचानना का प्रे० रूप] पहचानने का काम कराना।

पहचान
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रत्यभिज्ञान] १. पहचानने की क्रिया या भाव। यह ज्ञान कि यह वही व्यक्ति या वस्तु विशेष है जिसी मैं पहले से जानता हूँ। देखने पर यह जान लेने की क्रिया या भाव कि यह अमुक व्यक्ति या वस्तु है। जैसे,—गवाह मुलजिमों की पहचान न कर सका। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. भेद या विवेक करने की क्रिया या भाव। किसी के गुण, मूल्य या योग्यता जानने की क्रिया या भाव। जैसे,—(क) तुम भले बुरे की पहचान नहीं कर सकते। (ख) जवा- हिरात की पहचान जौहरी कर सकता है। ३. पहचानते की सामग्री। किसी वस्तु से संबंध रखनेवाली ऐसी बातें जिनकी सहायता से वह अन्य वस्तुओं से अलग की जा सके। किसी वस्तु की विशेषता प्रकट करनेवाली बातें। लक्षण। निशानी। जैसे,—(क) मुझे उनके मकान की पहचान बताओ तो मौं वहाँ जा सकता हूँ। (ख) अगर वह कमीज तुम्हारी है तो इसकी कोई पहचान बताओ। ४. पहचानने की शक्ति या वृत्ति। अंतर या भेद समझने की शक्ति। एक वस्तु को दूसरी वस्तु अथवा वस्तुओं से पृथक् करने की योग्यता। किसी वस्तु का गुण, मूल्य अथवा योग्यता समझने की शक्ति। विवेक। तमीज। जैसे,—(क) तुममें खोटे खरे की पहचान नहीं है। (ख) तुममें आदमी की पहचान नहीं हैं। ५. जान पहचान। परिचय। (क्व०)। जैसे,—(क) हमारी उनकी पह- चान बिलकुल नई है। (ख) तुम्हारी पहचान का कोई आदमी हो तो उससे मिलो।

पहचानना
क्रि० स० [हिं० पहचान + ना] १. किसी वस्तु या व्यक्ति को देखते ही जान लेना कि यह कौन व्यक्ति या क्या वस्तु है। यह ज्ञान करना कि यह वही वस्तु या व्यक्तिविशेष है जिसे मैं पहले से जानता हूँ। चीन्हना। जैसे,—(क) बहुत दिनों पीछे मिलने पर भी उसने मुझे पहचान किया। (ख) पहचानों तो यह कौन फल है। २. वस्तु या व्यक्ति के स्वरूप को इस प्रकार जानना कि वह जब कभी इंद्रियगोचर हो तो इस बात का निश्चय हो सके कि वह कौन अथवा क्या है। किसी वस्तु की शरीराकृति, रूप रंग अथवा शक्ल सूरत से परिचित होना। जैसे—(क) मैं उन्हें चार बरस से पहचानता हूँ। (ख) तुम इनका मकान पहचानते हो, तो चलकर बता न दो। ३. एक वस्तु का दूसरी वस्तु अथवा वस्तुओं से भेद करना। अंतर समझना या करना। बिलगाना। विवेक करना। तमीज करना। जैसे,—असल और नकल को पहचानना जरा टेढ़ा काम है। ४. किसी वस्तु का गुण या दोष जानना। किसी की योग्यता या विशेषता से अभिज्ञ होना। किसी व्यक्ति के स्वभाव अथवा चरित्र की विशेषता को जानना। जैसे,—तुम्हारा उसका इतने दिनों तक साथ रहा, लेकिन तुम उन्हें पहचान न सके।

पहटना †
क्रि० स० [सं० प्रखेट, प्रा० पहेट (= शिकार)] भगा देने अथवा पकड़ लेने के लिये किसी के पीछे दौड़ना। पीछा करना। खदेड़ना।

पहटना (२)
क्रि० स० [देश०] पैना करना। धार को रगड़ रगड़कर तेज करना।

पहटा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. दे० 'पाटा'। २. दे० 'पेठा'।

पहन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाहन] दे० 'पाहन' वा 'पाषाण'। उ०— (क) अदिन आय जो पहुँचे काऊ। पहन उड़ाय बहै सो बाऊ।—जायसी (शब्द०)। (ख) अब की घडी़ चिनग तेहि छूटे। जरहिं पहाड़ पहन सब फूटे।—जायसी (शब्द०)।

पहन (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह दूध जो बच्चे को देखकर बात्सल्य भाव के कारण माँ की छातियों में भर आए और टपकते को हो।

पहनना
क्रि० स० [सं० परिधान] (कपड़े अथवा गहने को) शरीर पर धारण करना। परिधान करना।

पहनवाना
क्रि० स० [हिं० पहनना का प्रे० रूप] किसी के द्वारा किसी को वस्त्र या आभूषण धारण कराना। किसी और के द्वारा किसी को कुछ पहनाना।

पहना † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पनहा'।

पहना (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० पहन] वह दूध जो बच्चे को देखकर वात्सल्य भाव के कारण माँ के स्तनों में भर आया हो और टपकता सा जान पडे। क्रि० प्र०—फूटना।

पहनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहनना] १. पहनने की क्रिया या भाव। जैसे,—जरा आपकी पहनाई देखिए। २. जो पहनाने के बदले में दिया जाय। पहनाने की मजदूरी या उजरत। जैसे, चूड़ी़ पहनाई।

पहनाना
क्रि० स० [हिं० पहनना] दूसरे को कपड़े, आभूषण आदि धारण कराना। किसी के शरीर पर पहनने की कोई चीज धारण कराना। दूसरे के शरीर पर यथास्थान रखना या ठहराना। जैसे, कुर्ता, अगूँठी, माला, जूता, आदि पहनाना।

पहनाव
संज्ञा पुं० [हिं० पहनना] दे० 'पहनावा'।

पहनावा
संज्ञा पुं० [हिं० पहनना] १. ऊपर पहनने के मुख्य मुख्य कपड़े। सिले या बिना सिले सब कपड़े जो ऊपर पहने जायँ। परिच्छद। परिधेय। पोशाक। २. सिर से पैर तक के ऊपर पहनने के सब कपड़े। पाँचो कपड़े। सिरोपाव। ३. विशेष अवस्था, स्थान अथवा समाज में ऊपर पहने जानेवाले कपड़े। वे कपड़े जो किसी खास अवसर पर देश या समाज में पहने जाते हों। जैसे, दरबारी पहनावा, फौजी पहनावा, ब्याह का पहनावा, काबुलियों का पहनावा, चीनियों का पहनावा, आदि। ४. कपड़े पहनने का ढंग या चोल। रुचि अथवा रीति की भिन्नता के कारण विशेष देश या समाज के पहनावे की विशेषता।

पहपट
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का गीत जो स्त्रियाँ गाया करती हैं। २. शोरगुल। हल्ला। कोलाहल। ३. किसी की बदनामी का शोर। बदनामी या अपवाद का शोर। बदनामी की जोरशोर से चर्चा। ४. ऐसी बदनामी जो कानाफूसी द्वारा की जाय। गुप्त अपवाद या निंदा। किसी के दोष की ऐसी चर्चा जो उससे छिपाकर की जाय। (बुंदेलखंड तथा अवध)। ५. छल। ठगी। धोखा। फरेब।

पहपटबाज
संज्ञा पुं० [हिं० पहपट + फा़० बाज] [संज्ञा पहपटबाजी] १. शोर गुल करने या करानेवाला। हल्ला करने या करानेवाला। फसादी। शरारती। झगडा़लू। २. छलिया। ठग। धोखेबाज। फरेबी।

पहपटबाजी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहपट + बाजी] १. झगड़ालूपन। कलहप्रियता। शोर गुल कराने का काम या आदत। २. छलियापन। ठगी। मक्कारी।

पहपटहाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहपट + हाई (प्रत्य०)] पहपट करानेवाली। बात का बतंगड़ करनेवाली। झगड़ा कराने या लगानेवाली।

पहर
संज्ञा पुं० [सं० प्रहर] १. एक दिन का चतुर्थाश। अहोरात्र का आठवाँ भाग। तीन घंटे का समय। २. समय। जमाना। युग। जैसे,—(क) कलिकाल का पहर न है ? (ख) किसी का क्या दोष, पहर ही ऐसा चढ़ा है। क्रि० प्र०—चढ़ना।—लगना।

पहरना †
क्रि० स० [सं० प्रधारण] दे० 'पहनना'।

पहरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पहर] १. किसी वस्तु या व्यक्ति के आस पास एक या अधिक आदमियों का यह देखते रहने के लिये बैठना (अथवा बैठाया जाना) कि वह निर्दिष्ट स्थान से हटने वा भागने न पावे। रक्षकनियुक्ति। रक्षा अथवा निगह- बानी का प्रबंध। चौकी। यौ०—पहरा। चौकी। मुहा०—पहरा बदलना = (१) नए रक्षक या रक्षकों का नियुक्ति करना। नया नियुक्त कर पुराने को छुट्टी देना। रक्षक बदलना। (२) नए रक्षकों का नियुक्ति होना। रक्षा का नया प्रबंध होना। रक्षक बदलना। पहरा बैठना = किसी वस्तु या व्यक्ति के आस पास रक्षक बैठाया जाना। चौकीदार नियुक्त होना। पहरा बैठाना = चौकीदार बैठाना। रक्षक नियुक्त करना। २. किसी व्यक्ति या वस्तु के संबंध में यह देखते रहने की क्रिया कि वह निर्दिष्ट स्थान से हट न सके। निर्दिष्ट स्थान में किसी विशेष वस्तु या व्यक्ति की रक्षा करने का कार्य। रखवाली। हिफाजत। निगहबानी। यौ—पहरा चौकी। मुहा०—पहरा देना = रखवाली करना। निगहबानी करना। चौकी देना। पहरा पड़ना = रक्षक बैठा रहना। संतरी या चौकीदार का किसी स्थान पर खड़ा रहना। रक्षा का प्रबंध रहना। जैसे,—उनके दरवाजे पर आठ पहर पहरा पड़ता है। ३. उतना समय जितने में एक रक्षक अथवा रक्षकदल को रक्षाकार्य करना पड़ता है। एक पहरेदार या पहरेदारों के एक दल का कार्यकाल। तैनाती। नियुक्ति। जैसे,—अपने पहरे भर जाग लो फिर जो आएगा वह चाहे जैसा करे। विशेष—एक व्यक्ति अथवा एक रक्षकदल की नियुक्ति पहले एक पहर के लिये होती थी। उसके बाद दूसरे व्यक्ति या दल की नियुक्ति होती थी और पहले को छुट्टी मिलती थी। उपर्युक्त प्रबंध, कार्य और कार्यकाल की, 'पहरा' संज्ञा होने का यही कारण जान पड़ता है। ४. वे रक्षक या चौकीदार जो एक समय में काम कर रहे हों। एक साथ काम करते हुए चौकीदार। रक्षकदल। गारद। (क्व०)। जैसे,—(क) पहरा खड़ा है। (ख) पहरा आ रह है। ५. चौकीदार का गश्त या फेरा। रात में निश्चित समय पर रक्षक का चक्कर या भ्रमण। क्रि० प्र०—पड़ना। ६. चौकीदार की आवाज फेरे में चौकीदार का सोतों को साव- धान करने के लिये कोई वाक्य बार बार उच्च स्वर में कहना। जैसे,—आज क्या बात है जो अबतक पहरा सुनाई न दिया ? ७. पहरे में रहने की स्थिति। किसी मनुष्य की ऐसी स्थिति जिसमें उसके इर्द गिर्द रक्षक या सिपाही तैनात हों। हिरासत। हवालात। नजरबंदी। मुहा.—पहरे में देना = हिरासत में देना। हवालात भेजना। नजरबंद कराना। पहरे में रखना = हिरासत में रखना। हवालात में रखना। नजरबंद रखना। पहरे में होना = हिरासत में होना। नजरबंद होना। हवालात में होना। जैसे,—आज चार रोज से वे बराबर पहरे में हैं। पु †८. समय। युग। जमाना। उ०—कहें कबीर सुनो भाईसाधो ऐसा पहरा आवेगा। बहन भांजी कोई न पूछे साली न्योत जिमावेगा।—कबीर (शब्द०)।

पहरा (२)
संज्ञा पुं [हिं० पाव + रा, पौरा] पैर रखने का फल। आ जाने का शुभ या अशुभ प्रभाव। पौर। जैसे,—बहू का पहरा अच्छा नहीं है, जब से आई है एक न एक आफत लगी रहती है। (स्त्रियाँ)। मुहा०—अच्छा पहरा = ऐसा पहरा जिसमें आरंभ किया हुआ कार्य शीघ्र पूरा हो जाय। बुरा पहरा = ऐसा पहरा जिसमें आरंभ किया हुआ कार्य जल्दी समाप्त न हो। भारी पहरा = बुरा पहरा। हलका पहरा = अच्छा पहरा।

पहराइत †
संज्ञा पुं० [हिं० पहरा + इत (प्रत्य०)] पहरैत। पहरेदार। रखवाली करनेवाला। उ०—पहराइत घर कौं मुसै साह न जानै कोइ। चोर आइ रक्षा करै सुंदर तब सुख होइ।—सुदंर ग्रं०, भा० २, पृ० ७५६।

पहराना ‡
क्रि० स० [हिं० पहनना] दे० 'पहनाना'।

पहरामणी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहरावना] दे० 'पहरावनी'। उ०— तो तट दी लाखै तराँ पहरामणी पुराँण।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ८०।

पहरावनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहरावना] वह पहनावा या पोशाक जो कोई व्यक्ति किसी पर प्रसन्न होकर उसे दान करे। वह पोशाक जो कोई बड़ा छोटे को दे। खिलअत। उ०— पठावनी पहरावनी, ब्राह्मन भोजन सब भली भाँति सो कियो।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १२।

पहरावा
संज्ञा पुं० [हिं० पहनना] दे० 'पहनावा'।

पहरी
संज्ञा पुं० [सं० प्रहरी] १. पहरेदार २. चौकीदार। रक्षक। पहरा देनेवाला। २. एक जाति जिसका काम पहरा देना होता था। विशेष—आजकल इस जाति के लोग विविध व्यवसाय और कामधंधे में लगे हैं। परंतु प्राचीन समय में इस जाति के लोग विशेषतः पहरा देने का ही काम करते थे। गाँव में रहनेवाले पहरी अबतक अधिकतर चौकीदार ही होते हैं। वे लोग सूअर भी पालते हैं। प्रायः चतुर्वर्ण के हिंदू इनका स्पर्श किया हुआ जल नहीं पीते।

पहरुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० पहरा] दे० 'पहरू'। उ०—कल नहिं लेत पहरुआ कवन विधि जाइब हो।—धरम०, पृ० ६४।

पहरू
संज्ञा पुं० [हिं० पहरा + ऊ (प्रत्य०)] पहरा देनेवाला। चौकीदार। रक्षक। पहरी। संतरी। उ०—बदली घुमड़ घोर अँधियारी, पहरू करत हैं सार।—तुरसी० श०, पृ० ७।

पहरेदार
संज्ञा पुं० [हिं० पहरा] पहरा देनेवाला संतरी। प्रहरी।

पहरेदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहरेदार] पहरा देने का काम। चौकीदारी।

पहल (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० पहलू। सं० पटल] १. किसी घन पदार्थ के तीन या अधिक कोरों अथवा कोनों के बीच की समतल भुमि। किसी वस्तु की लंबाई चौड़ाई और मोटाई अथवा गहराई के कोनों अथवा रेखाओं से विभक्त समतल अंश। किसी लंबे चौड़े और मोटे अथवा गहरे पदार्थ के बाहरी फैलाव की बँटी हुई सतह पर का चौरस कटाव या बनावट। बगल। पहलू। बाजू। तरफ। जैसे, खंभे के पहल, डिबिया के पहल, आदि। क्रि० प्र०—काटना।—तराशना।—बनाना। यौ०—पहलदार। चौपहल। अठपहल। मुहा०—पहल निकालना = पहल बनाना। किसी पदार्थ के पृष्ठ देश या बाहरी सतह को तराश या छीलकर उसमें त्रिकोण, चतुष्कोण, षट्कोण आदि पैदा करना। पहल तराशना। २. धुनी रूई या ऊन की मोटी और कुछ कड़ी तह या परत। जमी हुई रूई अथवा ऊन। रजाई तोशक आदि में भरी हुई रूई की परत। ३. रजाई तोशक आदि से निकाली हुई पुरानी रूई जो दबने के कारण कड़ी हो जाती है। पुरानी रूई। पु४. तह। परत। उ०—मायके के सखी सों मँगाइ फूल मालती के चादर सों ढाँपै छ्वाइ तोसक पहल में।— रघुनाथ (शब्द०)।

पहल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पहला] किसी कार्य, विशेषतः ऐसे कार्य का आरंभ जिसके प्रतिकार या जवाब में कुछ किए जाने की संभावना हो। छेड़। जैसे,—इस मामले में पहल तो तुमने ही की है, उनका क्या दोष ?

पहलदार
वि० [हिं० पहल + फा़० दार] जिसमें पहल हों। पहलूदार। जिसमें चारों ओर अलग बँटी हुई सतहें हों।

पहलनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहल] सोनारों का औजार जिसमें कोढ़े को पहनाकर उसे गोल करते हैं। यह लोहे का होता है।

पहलवान
संज्ञा पुं० [फा़०] [संज्ञा पहलवानी] १. कुश्ती लड़नेवाला बली पुरुष। कु्श्तीबाज। बलवान और दावँपेंच में अभ्यस्त। मल्ल। २. पहलवान तथा डीलडौलवाला। वह जिसका शरीर यथेष्ट हृष्ट पुष्ट और बलसंयुक्त हो। मोटा तगड़ा और ठोस शरीर का आदमी। जैसे,—वह तो खासा पहलवान दिखाई पड़ता है।

पहलवानी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. कुश्ती लड़ने का काम। कुश्ती लड़ना। २. कुश्ती लड़ने का पेशा। मल्ल व्यवसाय। जैसे,— उनके यहाँ तीन पीढ़ियों से पहलवानी होती आ रही है। ३. पहलवान होने का भाव। बल की अधिकता और दावँ पेंच आदि में कुशलता। शरीर, बल और दावँ पेंच आदि का अभ्यास। जैसे,—मुकाबिला पड़ने पर सारी पहलवानी निकल जायगी।

पहलवी
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'पह्लवी'। उ०—जैसे पश्चिमी की क्रमशः पुरानी पारसी पहलवी वा वर्तमान फारसी और पश्तो आदि है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७७।

पहला (१)
वि० [सं० प्रथम, प्रा० पहिलो] [स्त्री० पहली] जो क्रम के विचार से आदि में हो। किसी क्रम (देश या काल) मेंप्रथम गणना में एक के स्थान पर पड़नेवाला। एक की संख्या का पूरक। घटना, अवस्थिति, स्थापना आदि के विचार से जिसका स्थान सबसे आगे हो। प्रथम। औवल। जैसे, पानी- पत का पहला युद्ध, ग्रंथमाला की पहली पुस्तक, पाँत का पहला आदमी आदि।

पहला † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पहल] जमी हुई पुरानी रूई। पहल।

फहलाद †
संज्ञा पुं० [सं० प्रहलाद] दे० 'प्रहलाद'। उ०—चंद मरै सूरज मरै, मरिहै जिमीं अकास। ध्रू पहलाद भभीषना, परे काल की फाँस।—घट०, पृ० २३५।

पहलुक †
वि० [हिं० पहले] पहले का। प्राथमिक। उ०—पहलुक परिचय पेम क संचय, रजनी आध समाजे।—बिद्यापति, पृ० ६०।

पहलू
संज्ञा पुं० [फा़०] १. शरीर में काँख के नीचे वह स्थान जहाँ पसलियाँ होती हैं। बगल और कमर के बीच का वह भाग जहाँ पसलियाँ होती हैं। कक्ष का अधोभाग। पार्श्व। पाँजर। मुहा०—(किसी का) पहलू गरम करना = किसी के शरीर से विशेषतः प्रेयसी या प्रेमपात्र का प्रेमी के शरीर से सटकर बैठना। किसी के पहलू से अपना पहलू सटा या लगाकर बैठना। किसी के अति समीप बैठकर उसे सुखी करना। (किसी से) पहलू गरम करना = किसी को विशेषतः प्रेयसी या प्रेमपात्र को शरीर से सटाकार बैठाना। किसी को अपनी बगल में इस प्रकार बैठाना कि उसका पहलू अपने पहलू से लगा रहे। मुहब्बत में बैठाना। पहलू में बैठना = किसी के पहलू से अपना पहलू लगाकर बैठना। किसी का पहलू गरम करना = बिलकुल सटकर बैठना। अति समीप बैठना। पहलू में बैठाना = किसी के पहलू को अपने पहलू से लगाकर बैठाना। बिलकुल सटाकर बैठाना। अति समीप बैठाना। पहलू में रहना = पहलू में बैठा रहना। पहलू गरम करना। लग या सटकर रहना। आस पास रहना। अति समीप रहना। २. किसी वस्तु का दायाँ अथवा बायाँ भाग। पार्श्व भाग। बाजू। बगल। ३. सेना का दाहना या बायाँ भाग। सैन्यपार्श्व। फौज का पहलू। जैसे,—वह अपने दो हजार सवारों के साथ शत्रुसेना के दाएँ पहलू पर बाज की तरह टूट पड़ा। मुहा०—पहलू दबाना = (१) आक्रमणकारी सेना का विपक्षी की सेना अथवा नगर के एक ओर बराबर में पहुँच जाना या जा पड़ना। अपनी सेना को बढ़ाते हुए विपक्ष की सेना के या नगर के दाहने या बाएँ पहुँच जाना। शत्रु की सेना या नगर पर एक ओर से आक्रमण कर देना। जैसे,—सायं- काल से कुछ पहले ही उसने शाही फौज का पहलू जा दबाया। (२) अपनी सेना के एक पहलू को कुछ पीछे रखते और दूसरे को आगे करते हुए, चढ़ाई में आगे बढ़ना। एक पहलू को दबाते और दूसरे को उभारते हुए आगे बढ़ना। पहलू बचाना = (१) मुठ भेड़ बचाते हुए निकल जाना। कतराकर निकल जाना। (२) किसी काम से जी चुराना। टाल जाना। जैसे,—जब जब ऐसा मौका आता है तब तब आप पहलू बचा जाते हैं। पहलू पर होना = सहायक होना। मददगार होना। पक्ष पर होना। जैसे,—तुम्हारे पहलू पर आज कौन है ? ४. करवट। बल। दिशा। तरफ। जैसे,—(क) किसी पहलू चैन नहीं पड़ता। (ख) हर पहलू से देख लिया, चीज अच्छी है। ५. पड़ोस। आसपास। किसी के अति निकट का स्थान। पार्श्व। मुहा०—पहलू बसाना = किसी के समीप में जा रहना। पड़ोस आबाद करना। पड़ोसी बनना। ६. [वि० पहलूदार] किसी वस्तु के पृष्ठ देश पर का समतल कटाव। पहल। जैसे, इस खंभे में आठ पहलू निकालो। क्रि० प्र०—तराशना।—निकालना। ७. विचारणीय विषय का कोई एक अंग। किसी वस्तु के संबंध में उन बातों में से एक जिनपर अलग अलग विचार किया जा सकता हो अथवा करने का प्रयोजन हो। किसी विषय के उन कई रूपों में से एक जो विचारद्दष्टि से दिखाई पड़े। गुण, दोष, भलाई, बुराई आदि की द्दष्टि से किसी वस्तु के भिन्न भिन्न अंग। पक्ष। जैसे,—(क) अभी आपने इस मामले के एक ही पहलू पर विचार किया है और पहलुओं पर भी विचार कर लीजिए तब कोई मत स्थिर कीजिए। (ख) उठ चलने का सोचता था पहलू।—नसीम (शब्द०)। ८. संकेत। गुप्त सूचना। गुढ़ाशय। वाक्य का ऐसा आशय जो जान बूझकर गुप्त रखा गया हो और बहुत सोचने पर खुले। किसी वाक्य या शब्द के साधारण अर्थ से भिन्न और किंचित् छिपा हुआ दूसरा अर्थ। ध्वनि। व्यंग्यार्थ। उ०—खोटी बातें हैं औऱ पहलूदार। हाँ तेरे दिल में सीमवर है।—अज्ञातकवि (शब्द०) ९. युक्ति। ढंग। तरकीब (को०)। १०. बहाना। मिस। व्याज (को०)।

पहले
अव्य० [हिं० पहला] १. आरंभ में। सर्वप्रथम। आदि में। शरू में। जैसे,—यहाँ आने पर पहले आप किसके यहाँ गए ? यौ०—पहले पहल। २. देशक्रम में प्रथम। स्थिति में पूर्व। जैसे,—उनका मकान मेरे मकान से पहले पड़ता है। ३. कालक्रम में प्रथम। पूर्व में। आगे। पेश्तर। जैसे—(क) पहले नमकीन खा लो तब मीठा खाना। (ख) यहाँ आने के पहले आप कहाँ रहते थे ? ४. बीते समय में। पूर्वकाल में। गत काल में। अगले जमाने में। जैसे—(क) पहले ऐसी बातें सुनने में भी नहीं आती थीं। (ख) अजी पहले के लोग अब कहाँ हैं ?

पहलेज
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार सका खरबूजा जो कुछ लंबो- तरा होता है। यह स्वाद में गोल खरबूजे की अपेक्षा कुछ हीन होता है।

पहले पहल
अव्य० [हिं० पहले] पहली बार। सबसे पहले।सर्वपूर्व। सर्वप्रथम। औवल या पहली मरतबा। जैसे,—जब मैंने पहले पहल आपके दर्शन किए थे तबसे आप बहुत कुछ बदल गए हैं।

पहलौंठा
वि० [हिं० पहला + औंठा (प्रत्य०)] दे० 'पहलौठा'।

पहलौंठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहला + औंठी (प्रत्य०)] दे० 'पहलौठी'।

पहलौठा
वि० [हिं० पहला + औंठा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० पहलौठी] पहली बार के गर्भ से उत्पन्न (लड़का)। प्रथम गर्भजात।

पहलौठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहलौठा] सबसे पहली जनन क्रिया। सबसे पहले गर्भमोचन। प्रथम प्रसव। पहले पहल बच्चा जनना। जैसे—यह उनका पहलौठी का लड़का है।

पहा ‡
संज्ञा पुं० [सं० प्रभा, या देश०] १. ज्योति। प्रकाश। २. प्रतिज्ञा। प्रण (लाक्ष०)। उ०—नेम धारियो नरेस पहा न को चढ़ै पेस। देख कहैं सको देस खत्री बीज गयो खेस।— रघु० रू०, पृ० ७६।

पहाऊ
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रभात] प्रभाती। भोर के समय गाया जानेवाला गीत। उ०—सुंदरदास पहाऊ गाँवे माँगत इहैं जु दरसन पावै।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ८५०।

पहाड़
संज्ञा पुं० [सं० पाषाण] [स्त्री० अल्पा० पहाड़ी] १. पत्थर, चूने, मिट्टी आदि की चट्टानों का ऊँचा और बड़ा समूह जो प्राकृतिक रीति से बना हो। पर्वत। गिरि। (विशेष विवरण के लिये दे० 'पर्वत')। मुहा०—पहाड़ उठाना = (१) भारी काम सिर पर लेना। (२) भारी काम पूरा करना। पहाड़ कटना = बहुत भारी और कठिन काम हो जाना। ऐसे काम का हो जाना जा असंभव जान पड़ता रहा हो। बड़ी भारी कठिनाई दूर होना। संकट कटना। पहाड़ काटना = असंभव कार्य कर डालना। बहुत भारी काम कर डालना। ऐसा काम कर डालना जिसके होने की बहुत कम आशा रही हो। संकट से पीछा छुड़ावा। पहाड़ टूटना था टूट पड़ना = अचानक कोई भारी आपत्ति आ पड़ना। महान संकट उपस्थित होना। एकाएक भारी मुसीबत आ पड़ना। जैसे,—बैठे बैठाए बेचारे पर पहाड़ टूट पड़ा। पहाड़ से टक्कर लेना = अपने से बहुत अधिक बलवान् व्यक्ति से शत्रुता ठानना। बड़े से बैर करना। जबरदस्त से मुकाबिला करना। पहाड़ों से सिर टकराना = अपने से बहुत बड़े शक्तिमान् से संघर्ष मोल लेना। उ०—अब आप पहाड़ों से सिर टकराइए।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १७६। २. किसी वस्तु का बहुत भारी ढेर। किसी वस्तु का बहुत बड़ा समूह। पहाड़ के समान ऊँची राशि या ढेर। जैसे,—बात की बात में वहाँ पुस्तकों का पहाड़ लग गया।

पहाड़ (२)
वि० १. पहाड़ की तरह भारी (चीज)। बहुत बोझल (चीज)। अतिशय गुरु (वस्तु)। जैसे,—तुम्हें तो पाव भर का बोझ भी पहाड़ मालूम पड़ता है। २. (वह) जिससे निस्तार न हो सके। (वह) जिसको समाप्त या शेष न कर सकें। जैसे,—(क) आज की रात हमारे लिये पहाड़ हो गई है। (ख) यह कन्या हमारे लिये पहाड़ हो गई है। ३. अति कठिन (कार्य)। अति दुष्कर (काम)। दुस्साध्य (कर्म)। जैसे,—तुम तो हर एक काम ही को पहाड़ समझते हो।

पहाड़ा
संज्ञा पुं० [सं० प्रस्तार ? या हिं० पहाड़] किसी अंक के गुणनफलों की क्रमागत सूची या नक्शा। किसी अंक के एक से लेकर दस तक के साथ गुणा करने के फल जो सिलसिले के साथ दिए गए हों। गुणनसूची। जैसे, दो का पहाड़ा, चार का पहाड़ा आदि। क्रि० प्र०—पढ़ना।—याद करना।—लिखना।—सुनाना।

पहाड़िया †
वि० [हिं० पहाड़ + इया (प्रत्य०)] दे० 'पहाड़ी'।

पहाड़ी (१)
वि० [हिं० पहाड़ + ई (प्रत्य०)] १. पहाड़ पर रहने या होनेवाला। जो पहाड़ पर रहता या होता हो। जैसे— पहाड़ी जातियाँ, पहाड़ी मैना, पहाड़ी आलू। २. पहाड़ संबंधी। जिसका पहाड़ से संबंध हो। जैसे, पहाड़ी नदी, पहाड़ी देश।

पहाड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहाड़ + ई (प्रत्य०)] १. छोटा पहाड़। २. पहाड़ के लोगों की गाने की एक धुन। ३. संपूर्ण जाति की एक प्रकार की रागिनी जिसके गाने का समय आधी रात है।

पहाड़ो (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहाड़ या सं० पर्पटी] एक प्रकार की ओषधि जिसे पर्पटी या जनी भी कहते हैं। वि० दे० 'जनी'।

फहाड़ी इंद्रायन
संज्ञा पुं० [हिं० पहाड़े + ई (प्रत्य०) + इंद्रायन] एक प्रकार का खीरा जिसे ऐरालू भी कहते हैं। वि० दे० 'ऐरालू'।

पहाड़ुआ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] बच्चों का एक प्रकार का खेल जिसे 'आनपानी' भी कहते हैं।

फहाड़ुआ (२)
वि० [हिं० पहाड़ + उआ (प्रत्य०)] पहाड़ संबंधी पहाड़ का। पहाड़ी।

पहार † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पहाड़'। उ०—पाप पहार प्रगट भई सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।—मानस, २।३४।

पहार (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रहार, प्रा० पहार] आघात। प्रहार। उ०— हलमिलग सेन वे बाह बीर। बरसें अनंग ग्रज्जंत धीर। माचंत कूह बजि लोह सार। जुट्टंत सूर करि रिन पहार।— पृ० रा०, १।६५९।

पहारा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पहाडा़'।

पहारी (१)
वि० [हिं० पहाड़] दे० 'पहाड़ी'।

पहारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहाड़] दे० 'पहाड़ी'।

पहारू पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पहाड़] दे० 'पहाड़'। उ०—जोबन गरुअ अपेल पहारू।—जायसी ग्रं०, पृ० २३५।

पहारू (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पहरा] पहरेदार। रक्षक। पाहरू। उ०— जेहि जिउ महँ होइ सत्त पहारू। परै पहार न बाँके बारू।— जायसी (शब्द०)।

पहिचान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पहचान'।

पहिचानना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहचानना'।

पहित †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रहित (= सालन)] दाल। पकी हुई दाल। उ०—दधि मधु मिठाई खीर षटरस बिविध ब्यंजन जे सबै। लाडू जलेबी पहित भात सुभाँति सिद्ध किए तबै।—पद्माकर (शब्द०)।

पहिती
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रहित] दे० 'पहित'। उ०—मूँग माष अरहर की पहिती। चनक कनक सम दारी जी।—रघुराज (शब्द०)।

पहिनना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहनना'।

पहिनाना
क्रि० स० [हिं० पहिनना] दे० 'पहनाना'।

पहिनावा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पहनावा'।

पहियड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० पथिक, प्रा० पहिय + ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'पथिक'। उ०—मारू मारइ पहियड़ा जउ पहिरइ सोवन्न। दंती, चूड़इ मोतियाँ भीयाँ हेक वरन्न।—ढोला०, दू० १५७।

पहियाँ पु †
अञ्य० [हिं० पहँ] दे० 'पहँ'। उ०—कहैं कवि तोष जब जैसो जैसो कीन्हों अब कहत न बतियाँ वै, तैसी हम पहियाँ।—तोष (शब्द०)।

पहिया
संज्ञा पुं० [सं० परिधि ?] १. गाड़ी, इंजन अथवा अन्य किसी कल में लगा हुआ लकड़ी या लोहे का वह चक्कर जो अपनी धुरी पर घूमता है और जिसके घूमने पर गाड़ी या कल भी चलती है। गाड़ी या कल में वह चक्राकार भाग जो गाड़ी या कल के चलने में घूमता है। चक्का। चक्र। उ०—भीगे पहिया मेह में रथ ही देत बताय। नीर भरे बदराम पै अब पहुँचे हम आय।—शकुंतला, पृ० १३४। २. किसी कल का वह चक्राकार भाग जो धुरी पर घूमता है, एवं जिसके घूमने से समस्त कल को गति नहीं मिलती किंतु उसके अंश विशेष अथवा उससे संबद्ध अन्य वस्तु या वस्तुओं को मिलती है। चक्कर। विशेष—यद्यपि धुरी पर घूमनेवाले प्रत्येक चक्र को पहिया कहना उचित होगा तथापि बोलचाल में किसी चलनेवाली चीज अथवा गाड़ी के जमीन से लगे हुए चक्र को ही पहिया कहते हैं। घड़ी के पहिए और प्रेस या मिल के इंजन के पहिए आदि को, जिनसे सारी कल को नहीं, उसके भागविशेष अथवा उससे संबंद्ध अन्य वस्तुओं को गति मिलती है, साधारणतः चक्का कहने की चाल है। पहिया कल का अधिक महत्वपूर्ण अंग है। उसका उपयोग केवल गति देने में ही नहीं होता, गति का घटाना बढ़ाना, एक प्रकार की गति से दूसरे प्रकार की गति उत्पन्न करना, आदि कार्य भी उससे लिए जाति हैं। पुट्टी आरा, बेलन, आवन, धुरा, खोपड़ा, तितुला, लाग, हाल आदि गाड़ी के पहिए के खास खास पुर्जें हैं। इन सबके संयोग से यह बनता और काम करता है। इनके विवरण मूल शब्दों में देखो।

पहियाह †
संज्ञा पुं० [सं० पथिक, प्रा० पहिय] दे० 'पथिक'। उ०—नरवर देस सुहामणउ, जइ जावउ पहियाह।—ढोला०, दू० ११०।

पहिरन †
संज्ञा पुं० [हिं० पहिरना] पहनकर उतारा हुआ वस्त्र। कुछ दिनों तक पहना हुआ कपडा। उ०— हमारा जूठन खा- कर, हमारा पहिरन पहिनकर इनके बच्चे पलते हैं। —रति०, पृ० ५५।

पहिरना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहनना'। उ०— उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे।— मानस, १। २६६।

पहिराना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहनाना'। उ०— निज उरमाल बसन मनि बालितनय पहिराइ। बिदा कीन्ह भगवान तब बहु प्रकार समझाइ।— मानस, ७। १८।

पहिरावणि †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहिरावना] दे० 'पहिरावनी'। उ०— हुई पहिरावणी हरषीउ राई, अंचल बंधी राजकुमार।—बी० रासो, पृ० २५।

पहिरावना †
क्रि० स० [हिं० पहिराना] दे० 'पहनाना'। उ०— (क) देत लेत पहिरत पहिरावत प्रजा प्रमोद अघानी।— तुलसी ग्रं०, पृ० २६७।(ख) पहिरावहु जयमाल सुहाई।— मानस, १।२६४।

पहिरावनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पहनावा'—२। उ०— (क) सनमाने सुर सकल दीन पहिरावनि। — तुलसी (शब्द०)। (ख) सब विचार पहिरावनि दीन्हीं।— तुलसी (शब्द०)। (ग) केशव कंस दिवान पितान बराबर ही पहिरावनि दीन्हीं— केशव (शब्द०)।

पहिरावनी
सज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पहिरावनि'।

पहिल † (१)
वि० [देशी] दे० 'पहला'। उ०— पहिल जंग हम करहि बरहि अच्छरि मनि मानिय। — प० रासो, पृ० १७५।

पहिल (२)
क्रि० वि० दे० 'पहले'।

पहिला
वि० [देशी पहिल, पहिल्ल, हिं० पहला] [वि० स्त्री० पहिली] १. दे० 'पहला'। २. प्रथम प्रसूता। पहले पहल ब्याई हुई। उ०— पहिला छेरी दुहला गाय। त्यहला भैंस पन्हातै जाय। — कोई कवि (शब्द०)।

पहिले
अव्य० [हिं०] दे० 'पहले'।

पहिलो पु †
वि० [हिं०] दे० 'पहला'। उ०— ताही समै वह पहलो ब्यापारी वा बैष्णब के पास आय पावन परयो।— दौ सौ बावन०, भा० २, पृ० १०६।

पहिलौठा
वि० [हिं०] दे० पहलौठा।

पहिलौठी (१)
वि० स्त्री० [हिं०] पहलौठी। प्रथम गर्भजात।

पहिलौठी (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'पहलौठी'।

पही †
संज्ञा पुं० [सं० पथिक, प्रा० पहिय] दे० 'पथिक'। उ०— पही, भमंता जइ मिलइ, तउ श्री आखे भाय। —ढोला०, दू० १२४।

पहोति † पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहिती] दे० 'पहिती'। उ०—षट भाँति पहीति बनाव सची। पुनि पाँच सो व्यंजन रीति रची। केशव (शब्द०)।

पहीली पु
वि० स्त्री० [देशी पहिली] दे० 'पहली'। उ०— नैकु नहीं पिय तैं कहुँ बिछुरति, तातैं नाहिंन काम दहीली। सुरसखी बूढैं यह कैहौं, आजु भई यह भेंट पहीली।— सूर०, १०। १७७२।

पहुँ †
संज्ञा पुं० [सं० प्रभु] स्वामी। प्रियतम।

पहुँच
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रभूत (= ऊपर गया हुआ); प्रा० पहुच्च, पहूच] १. किसी स्थान तक गति। किसी स्थान तक अपने को ले जाने की क्रिया या शक्ति। जैसे, — टोपी बहुत ऊँचे पर है, मेरी पहुँच के बाहर हैं। २. किसी स्थान तक लगातार फैलव। किसी स्थान पर्यत विस्तार। ३. समीप तक गति। गुजर। पैठ। प्रवेश। रसाई। जैसे,— यदि उनतक आपकी पहुँच हो तो मेरी यह विनय अवश्य सुनाइए। ४. किसी वस्तु या व्यक्ति के कहीं पहुँचने की सूचना। प्राप्तिसूचना। प्राप्ति। रसीद। जैसे,— कृपया पत्र की पहुँच लिखिएगा। क्रि० प्र०—भेजना।—लिखना। ५. किसी विषय को समझने या ग्रहण करने की शक्ति। मर्म या आशय समझने की शक्ति। पकड़। दौड़। जैसे,— यह विषय बुद्धि की पहुँच के बाहर है। ६. जानकारी का विस्तार। अभिज्ञता की सीमा। परिचय। प्रवेश। दखल। जैसे,— इस विषय में इनकी अच्छी पहुँच है।

पहुँचना
क्रि० अ० [सं० प्रभूत (= ऊपर गया हुआ) प्रा० पहुच्च, पहूच + हिं० ना (प्रत्य०)] १. एक स्थान से चलकर, दूसरे स्थान में प्रस्तुत या प्राप्त होना। गति द्वारा किसी स्थान में प्राप्त या उपस्थित होना। जैसे, लड़कों का पाठशाला में पहुँचना, घडे़ के अंदर हाथ पहुँचना। उ०— (क) सारँग ने सारँग गह्यो सारँग पहुँच्यो आय। — (शब्द०)। (ख) घर घरनि परनि रा पंग की पहुँचै इहै बडष्पनो। — पृ० रा०, ६१। १५७५। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०— पहुँचनेवाला = बडे़ बडे़ लोगों के यहाँ जानेवाला। जहाँ साधारण लोग नहीं जा सकते उन स्थानों में जानेवाला। जिसकी गति या प्रवेश बडे़ बडे़ स्थानों या लोगों में हो। पहुँचा हुआ = ईश्वर के निकट पहुँचा हुआ। ईश्वर की समी- पता प्राप्त। सिद्ध। जैसे,— वह पहुँचा हुआ महात्मा है। २. किसी स्थान लक लगातार फैलना। कहीं तक विस्तृत होना। जैसे,— (क) यहाँ समुद्र पहाड़ के निकट तक पहुँचा है। (ख) मेरा हाथ वहाँ तक नहीं पहुँचता। ३ एक स्थिति या अवस्था से दूसरी स्थिति या अवस्था को प्राप्त होना। एक हालत से दूसरी हालत में जाना। जैसे,— वे एक निर्धन किसान के लडके होकर भी प्रधान मंत्री के पद पर पहुँच गए। संयो० क्रि०— जाना। ४. घुसना। पैठना। प्रविष्ट होना। समाना। जैसे,— कपड़ो में सील पहुँचना, दिमाग में ठंढक पहुँचना। ५. किसी के अभिप्राय या आशय को जान लेना। किसी बात का मुख्य अर्थ समझ में आ जाना। गूढ अर्थ अथवा अतिरिक्त आशय को ज्ञात कर लेना। ताड़ना। मर्म जान लेना। समझना। जैसे,— अधिक कहने की आवश्यकता नहीं, मैं आपके मतलब तक पहुँच गया। संयो० क्रि० — जाना। ६. समझने में समर्थ होना। किसी विषय की कठिन बातों के समझने की सामर्थ्य रखना। दूर तक डूबना। जानकारी रखना। जैसे,— (क) कानून में ये अच्छा पहुँचते हैं। (ख) इस बिषय में बे कुछ भी नहीं पहुँचते। मुहा०— पहुँचनेवाला = पता वा खबर रखनेवाला। जानकार। भेद या रहस्य जानने में समर्थ। छिपी बातों का ज्ञान रखनेवाला। जैसे,— वह बड़ा पहुँचनेवाला है, उससे यह बात अधिक दिनों छिपी न रहेगी। पहुँचा हुआ = (१) जिसे सब कुछ मालूम हो। गुप्त और प्रकट सब का जाननेवाला। अभिज्ञ। पता रखनेवाला। (२) दक्ष। निपुण। उस्ताद। ७. आई अथवा भेजी हुई चीज किसी को मिलना। प्राप्त होना। मिलना। जैसे,— खबर पहुँचना, सलाम पहुँचना। ८. परिणाम के रुप में प्राप्त होना। अनुभव में आना। अनुभूत होना। जैसे,— (क) आपके बचनों से मुझे बडा़ सुख पहुँचा। (ख) आपकी दवा से उन्हें कोई लाभ नहीं पहुँचा। ९. किसी विषय में किसी के बराबर होना। समकक्ष होना। तुल्य होना। जैसे,— किसी हिंदी कवि की कविता तुलसीदास की कविता को नहीं पहुँचती।

पहुँचा
संज्ञा पुं० [सं० प्रकोष्ठ] [संज्ञा स्त्री० पहुँची] हाथ की कुहनी के नीचे का भाग। बाहु के नीचे का वह भाग जो जोड़ पर मोटा और आगे की ओर पतला होता है। अग्रबाहु और हथेली के बीच का भाग कलाई। गट्टा। मणिबँध। मुहा०— पहुँचा पकड़ना = बलात् कुछ माँगने, पूछने अथवा तकाजा या झगडा़ करने के लिये किसी को रोक रखना। जैसे,—जब तुमने किसी का कर्ज नहीं खाया है तब तुम्हारा पहुँचा कौन पक़ड़ सकता हैं ?

पहुँचाना
क्रि० स० [हिं० पहुँच का सकर्मक रूप] १. किसी वस्तु या व्यक्ति को एक स्थान से ले जाकर दूसरे स्थान पर प्राप्त या प्रस्तुत करना। किसी उद्दिष्ट स्थान तक गमन कराना। उपस्थित कराना। ले जाना। जैसे,— उनका नौकर मेरी किताब पहुँचा गया। २. किसी के साथ जाना। किसी के साथ इसलिये जाना जिसमें वह अकेला न पडे। शिष्टाचार के लिये भी ऐसा किया जाता है। उ०— जरा आप ही चलकर मुझे वहाँ पहुँचा आइए। संयो० क्रि०— देना। ३. किसी को स्थिति विशेष में प्राप्त कराना। किसी को विशेष अवस्था तक ले जाना। जैसे,— (क) उन्हें इस उच्च पद तक पहुँचानेवाले आप ही हैं। (ख) उन्होंने चिकित्सा न करके अपने भाई को इस दुरवस्था को पहुँचा दिया। संयो० क्रि०— देना। ४. प्रविष्ट कराना। घुसाना। बैठाना। जैसे, — आँखों में तरी पहुँचाना, बरतन की पेंदी में गरमी पहुँचाना। ५. कोई चीज लाकर या ले जाकर किसी को प्राप्त कराना। जैसे,— संध्यातक यह खबरह उन्हें पहुँचा देना। ६. परिणाम के रुप में प्राप्त कराना। अनुभव कराना। जैसे,— (क) उन्होंने अपने उपदेशों में मुझे बडा लाभ पहुँचाया। (ख) आपकी लापर- वाही ने उन्हें बहुत हानि पहुँचाई। ७. किसी विषय में किसी के बराबर कर देना। समकक्ष कर देना। समान बना देना। संयो० क्रि० — देना।

पहुँची
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहुँचा] हाथ की कलाई पर पहनने का एक आभूषण जिसमें बहुत से गोल या कँगूरेदार दाने कई पंक्तियों में गूँथे हुए होते हैं। उ।— पग नुपुर औ पहुँची कर कंजन, मंजु बनी मनिमाल हिए। नव नील कलेवर पीत झँगा झलकैं पुलकैं नृप गोद लिए। — तुलसी ग्रं०, पृ० १५५। २. युद्ध काल में कलाई पर उसकी रक्षा के लिये, पहनने का लोहे का एक प्रकार का आवरण। उ०— सजे सनाहट पहुँची टोपा। लोहसार पहिरे सब ओपा।— जायसी (शब्द०)।

पहु (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रभु, प्रा० पहु] प्रभु। प्रिय। स्वामी। उ०— कौन गुन पहु परबस भेल सजनी, बुझलि तनिक भल मंद।— विद्यापति, पृ० १२६।

पहु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रभा] दे० 'पौ'। ड०— पहु फट्टत सवितर उवत, पहुवर मिल्लव धाय। — प० रासो, पृ० १४१।

पहुनई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहुनाई] दे० 'पहुनाई'। उ०— बारंबार पहुनई ऐहैं राम लखन दोऊ भाई। — तुलसी (शब्द०)।

पहुना †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पाहुना'।

पहुनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहुना + ई (प्रत्य०)] किसी के पाहुने होने का भाव। अतिथि रुप में कहीं जाना या आना। मेहमान होकर जाना या आना। क्रि० प्र०— आना।— जाना। मुहा०— पहुनाई करना = दूसरों के यहाँ खाते फिरना। आतिथ्य पर चैन करना। भोज या दावतें उडा़ना। जैसे,— आजकल तो तुम खूब पहुनाई करते हो। २. आए हुए व्यक्ति का भोजन पान आदि से सत्कार करना। अतिथिसत्कार। मेहमानदारी। खातिर तवाजा। उ०— (क) घर गुरु गृह प्रिय सदन सासुरे भइ जहँ जहँ पहुनाई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) विविध भाँति होइहि पहुनाई।— तुलसी (शब्द०)।

पहुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहुनाई] दे० 'पहुनाई'।

पहुन्नी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह पच्चर जो पल्ला या धरन आदि चीरते समय चिरे हुए अंश के बीच में इसलिये दे देते हैं कि आरे के चलाने के लिये यथेष्ट अंतर रहे।

पहुप पु †
संज्ञा पुं० [सं० पुष्प] दे० 'पुष्प'। उ०— अहो ब्रह्य मैं सपना देखा। बादल उमंग पहुप की रेखा।— कबीर सा०, पृ० ६०।

पहुम
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पुहमी'।

पहुमि
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पुहमी'। उ०— दीखति शैल शिखर उठती सी। पहुमि जात नीचे खसती सी। —शकुंतला, पृ० १३४।

पहुमी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पुहमी'।

पहुर पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रहर, प्रा० पहर] दे० 'प्रहर'। उ०— पहुर रात पाछिली राज आए डेरा मधि। बढ़िय काम कामना भई पुरिषातन की सिधि। —पृ० रा०, १। ४०७।

पहुरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह चिपटी टाँकी जिससे गढे़ हुए पत्थर चिकने किए जाते हैं। मठरनी।

पहुला †
संज्ञा पुं० [सं० प्रफुल्ला] कुमुदिनी। कोई। उ०— पहुला हार हियै लसै सन की बेंदी भाल। राखति खत खरे खरे खरे उरोजनु बाल। —बिहारी (शब्द०)।

पहुवि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पृथिवी, प्रा० पहुवी] दे० 'पुहमी'। उ०— रहि रहि काँमणी प्रीत नु मंड। उलगि जाउ पहुवि घर छंड। —बी० रासो, पृ० ५२।

पुहुँचना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'पहुँचना'। उ०— तहँ चितउर गढ देखउँ ऊँचा। ऊँचराज सरि तोहि पहुँचा। —जायसी ग्रं० ३०५।

पुहूँतना ‡
क्रि० स० [देश०] दे० 'पहुँचना'। उ०— जे दिन जाइ सो बहुरि न आवै, आव घटै तन छीज। अंतकाल दिन आइ पहूता, दादू ढील न कीज। —दादू०, पृ० २९६।

पहूर ‡
संज्ञा [सं० प्रहर, प्र० पहर] पुं० दे० 'प्रहर'। उ०— आज नीरालइ, सीय पड़यो, च्यारि पहूर माँही नू मीली अंख।—बी० रासो, पृ० ४८।

पहेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रहेलिका] दे० 'पहेली'।

पहेली
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रहेलिका] १. ऐसा वाक्य जिसमें किसी वस्तु का लक्षण घुमा फिराकर अथवा किसी भ्रामक रूप में दिया गया हो और उसी लक्षण के सहारे उसे बूझने अथवा उसका नाम बताने का प्रस्ताव हो। किसी वस्तु या विषय का ऐसा वर्णन जो दूसरी वस्तु या विषय का व्रणन जान पडे़. और बहुत सोच विचार से उसपर घटाया जा सके। बुझौवल। क्रि० प्र०—बुझाना।—बूझना। विशेष— पहेलियों की रचना में प्रायः ऐसा करते हैं कि जिस विषय की पहेली बनानी होती है उसके रूप, गुण, कार्य, आदि को किसी अन्य वस्तु के रूप, गुण, कार्य बनाकर वर्णन करते हैं जिससे सुननेनाले को थोड़ी देर तक वही वस्तु पहेली का विषय मालूम होती है। पर समस्त लक्षण और और जगह घटाने से वह अवश्य समझ सकता है कि इसका लक्ष्य कुछ दूसरा ही है। जैसे, पेड़ में लगे हुए भुट्टे की पहेली है— 'हरी थी मन भरी थी। राजा जी के बाग में दुशाला ओढे़ खड़ी थी।' श्रावण मास में यह किसी स्त्री का वर्णन जान पड़ता है। कभी कभी ऐसा भी करते हैं कि कुछ प्रसिद्ध वस्तुओं की प्रसिद्ध विशेष- ताएँ पहेली के विषय की पहचान के लिये देते हैं और साथ ही यह भी बता देते हैं कि वह इन वस्तुओं में से कोई नहीं है। जैसे, धागे से संयुक्त सुई की पहेली— 'एक नयन बाय स नहीं, बील चाहत नहिं नाग। घटै घढै नहिं चंद्रमा, चढी रहत सिर पाग'। कुछ पहेलियों में उनके विषय का नाम भी रख देते हैं, जैसे,— 'देखी एक अनोखी नारी। गुण उसमें एक सबसे भारी। पढ़ी नहीं यह अचरज आवै। मरना जीना तुरत बतावै।' इस पहेली का उत्तर नाड़ी है जो पहेली के नारी शब्द के रूप में वर्तमान है। जिन शब्दों द्वारा पहेली बनानेवाला उसका उत्तर देता है वे द्वयर्थक होते हैं जिसमें दोनों ओर लगकर बूझने की चेष्टा करनेवालों को बहका सकें। अलंकार शास्त्र के आचार्यों ने इस प्रकार की रचना को एक अलंकार माना है। इसका विवरण 'प्रहेलिका' शब्द में मिलेगा। बुद्धि के अनेक व्यायामों में पहेली बूझना भी एक अच्छा व्यायाम है। बालकों को पहेलियों का बडा़ चाव होता है। इससे मनोरंजन के साथ उनकी बुद्धि की सामर्थ्य भी बढती जाती है। युवक, प्रौढ और वृद्ध भी अकसर पहेलियाँ बूझ बुझाकर अपना मनोरंजन करते हैं। २. कोई बात जिसका अर्थ न खुलता हो। कोई घटना या कार्य जिसका कारण, उद्देश्य आदि समझ में न आते हों। घुमाव फिराव की बात। गूढ़ अथवा दुर्ज्ञेय व्यापार। कोई घटना जिसका भेद न खुलता हो। समझ में न आनेवाला विषय। समस्या। जैसे,— (क) तुम्हारी तो हर एक बात ही पहेली होती है। (ख) कल रात की घटना सचमुच ही एक पहेली है। मुहा०— पहेली बुझाना= अपने मतलब को घुमा फिराकर कहना। किसी अभिप्राय को ऐसी शब्दावली में कहना कि सुननेवाले को उसके समझने में बहुत हैरान होना पडे़। चक्करदार बात करना। जैसे,—तुम्हारी तो आदत ही पहेली बूझाने की पड़ गई है, सीधी बात कभी मुँह से निकलती ही नहीं।

पहोंच ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० पहुँचना] दे० 'पहुँच'। उ०— ताते वाही घरी पहोंच लिखि दिए। —दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १९।

पहोंचना ‡
क्रि० अ० [हिं० पहुँचना] दे० 'पहुँचना'। उ०— जो महाराज। मेरो कौन अपराध है सो घर न पहोंचन पायो।—दो० सौ बावन०, भा० २, पृ० १०७।

पहोंचाना ‡
क्रि० स० [हिं० पहुँचाना] दे० 'पहुँचाना'। उ०—वे तुमको सरे दगरे लो पहोंचाई आवेंगे। —दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ७६।

पहोंचावना ‡
क्रि० स० [हिं० पहुँचाना] दे० 'पहुँचाना'। उ०— सब भीतरिया अपने अपने ओसरे पहोंचावन लगे। —दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २१७।

पहौप ‡
संज्ञा पुं० [सं० पुष्प] फूल। पुष्प। पुहुप। उ०— घर घर ए मा दुंदुभी बजाय पहौप अंजुली बरखाइयाँ। —दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १५०।

पह्लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जाति। प्रायः प्राचीन पारसी या ईरानी। विशेष— मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन पुस्तकों में जहाँ जहाँ खस, यवन, शक, कांबोज, वाह्लीक, पारद आदि भारत के पश्चिम में बसनेवाली जातियों का उल्लेख है वहाँ वहाँ पह्लवों का भी नाम आया है उपर्युक्त तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों में पह्लव श्बद सामान्य रीति से पारस निवासियों या ईरानियों के लिये व्यवहृत हुआ है मुसल- मान ऐतिहासिकों ने भी इसको प्राचीन पारसीकों का नाम माना है। प्राचीन काल में फारस के सरदारों का 'पहृ- लवान' कहलाना भी इस बात का समर्थक है कि पह्लव पारसीकों का ही नाम है। शाशनीय सम्राटों के समय में पारस की प्रधान भाषा और लिपि का नाम पह्लवी पड़ चुका था। तथापि कुछ युरोपीय इतिहासविद् 'पह्लव' सारे पारस निवासियों की नहीं केवल पार्थिया निवासियों पारदों— की अपभ्रश संज्ञा मानते हैं। पारस के कुछ पहाड़ी स्थानो में प्राप्त शिलालेखों में 'पार्थव' नाम की एक जाति का उल्लेख है। डा० हाग आदि का कहना है कि यह 'पार्थव' पार्थियंस (पारदों) का ही नाम हो सकता है और 'पह्लव' इसी पार्थव का वैसा ही फालकी अपभ्रंश है जैसा आवेस्ता के मिध्र (वै० मित्र) का मिहिर। अपने मत की पुष्टि में ये लोग दो प्रमाण और भी देते हैं। एक यह कि अरमनी भाषा के ग्रंथों में लिखा है कि अरसक (पारद) राजाओं की राज-उपाधि 'पह्लव' थी। दूसरा यह कि पार्थियावासियों को अपनी शूर वीरता और युद्धप्रियता का बडा़ घमंड था, और फारसी के 'पहलवान' और अरमनी के 'पहलवीय' शब्दों का अर्थ भी शूरवीर और युद्धप्रिय है। रही यह बात कि पारसवालों ने अपने आपके लिये यह संज्ञा क्यों स्वीकार की और आसपास वालों ने उनका इसी नाम से क्यों उल्लेख किया। इसका उत्तर उपर्युक्त ऐतिहासिक यह देते हैं कि पार्थियावालों ने पाँच सौ वर्ष तक पारस में राज्य किया और रोमनों आदि से युद्ध करके उन्हें हराया। ऐसी दशा में 'पह्लव' शब्द का पारस से इतना घनिष्ठ संबंध हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। संस्कृत पुस्तकों में सभी स्थलों पर 'पारद' औक 'पह्लव' को अलग अलग दो जातियाँ मानकर उनका उल्लेख किया गया है। हरिवंश पुराण में महाराज सगर के द्वारा दोनों की वेशभूषा अलग अलग निश्चित किए जाने का वर्णन है। पह्लव उनकी आज्ञा से 'श्मश्रुधारी' हुए और पारद 'मुक्तकेश' रहने लगे। मनुस्मृति के अनुसार 'पह्लव' पारद, शक आदि के समान आदिम क्षत्रिय थे और ब्राह्मणों के अदर्शन के कारण उन्हीं की तरह संस्कारभ्रष्ट हो शूद्र हो गए। हरिवंश पुराण के अनुसार महाराज सगर न इन्हें बलात् क्षत्रियधर्म से पतित कर म्लेच्छ बनाया। इसकी कथा यों है कि हैहयवंशी क्षत्रियों ने सगर के पिता बाहु का राज्य छीन लिया था। पारद, पह्लव, यवन, कांबोज आदि क्षत्रियों ने हैहयवंशियों की इस काम में सहायता की थी। सगर ने समर्थ होने परह हैहयवंशियों को हराकर पिता का राज्य वापस लिया। उनके सहायक होने के कारण 'पह्लव' आदि भी उनके कोपभाजन हुए। ये लोग राजा सगर के भय से भागकर उनके गुरु वशिष्ठ की शरण गए। वशिष्ठ ने इन्हें अभयदान दिया। गुरु का बचन रखने के लिये सगर ने इनके प्राण तो छोड़ दिए पर धर्म ले लिया, इन्हें क्षात्रधर्म से बहिष्कृत करके म्लेच्छत्व को प्राप्त करा दिया। वाल्मीकीय रामायण के अनुसार 'पह्लवों' की उत्पत्ति वशिष्ठ की गौ शबला के हुंभारव (रँभाने) से हुई है। विश्वामित्र के द्वारा हरी जाने पर उसने वशिष्ठ की आज्ञा से लड़ने के लिये जिन अनेक क्षत्रिय जातियों को अपने शब्द से उत्पन्न किया 'पह्लव' उनमें पहले थे। २. एक प्राचीन देश जो 'पह्लव' जाति का निवासस्थान था। वर्तमान पारस या ईरान का अधिकांश। विशेष— फारसी कोशों में 'पह्लव' प्राचीन पारस के अंतर्गत एक प्रदेश तथा नगर का नाम है। कुछ लोगों के मत से इस्फाहाल, राय, हमदाल, निहाबंद और आजरबायजान का सम्मिलित भूभाग ही उस काल का 'पह्लव' प्रदेश है। पर ऐसा होने से 'पह्लव' को मीडिया या माद का ही नामांतक मानना पडेगा। परंतु किसी भी पारसी या अरब इतिहास लेखक ने उसका 'पह्लव' के नाम से उल्लेख नहीं किया है। पारद और पह्लव को एक कहनेवाले युरोपीय विद्वान् 'पह्लव' को पार्थिया प्रदेश का ही फारसी नाम मानते हैं। संस्कृत पुस्तकों में जिस तरह जाति के अर्थ में 'पह्लव' का साधारणतः पारस निवासियों के लिये प्रयोग हुआ है उसी तरह देश अर्थ में भी मोटे प्रकार से पारस के लिये ही उसका व्यवहार हुआ है।

पह्लवी
संज्ञा स्त्री० [फा० अथवा सं० पह्लव] फारस या ईरान की एक प्राचीन भाषा। अति प्राचीन पारसी या जेंद अवस्ता की भाषा और आधुनिक फारसी के मध्यवर्ती काल की फारस की भाषा। विशेष— पारसियों के प्राचीन धार्मिक और ऐतिहासिक ग्रंथ इसी भाषा में मिलते हैं। उनकी मूल धर्मपुस्तक 'जेंद अवस्ता' की टीका और अनुवाद आदि के रुप में जितनी प्राचीन पुस्तकें मिलती हैं, अधिकांश सभी इसी भाषा में हैं। शाशान वंशीय सम्राटों के समय में यही राजकाज की भाषा थी। अतः इसकी उत्पत्ति का काल पारद सम्राटों का शासनकाल हो सकता है। इस भाषा में सेमिटिक शब्दों की बहुत भरमार है। शाशानीय काल के पहले की पह्लवी में ये शब्द और भी अधिक हैं। इसमें व्यवहृत प्रायः समस्त सर्वनाम, अव्यय, क्रियापद, बहुत से क्रियाविशेषण और संज्ञापद अनार्य या शामी हैं। इसके लिखने की दो शैलियाँ थी। एक में शामी शब्दों की विभक्रियाँ भी शामी होती थीं; दूसरी में शामी शब्दों के साथ खाल्दीय विभक्ति लगती थी। इन दोनोनं रीतियों में यह भी प्रभेद था कि पहली में क्रियापदों का कोई रुपांतर न होता था परंतु दूसरी में उनके साथ अनेक प्रकार के पारसी प्रत्यय जोडे़ जाते थे। पह्लवी ग्रंथसमूह मुख्यतः दो भागों में विभक्त हैं। एक भाग अवस्ता शास्त्र का अनुवाद मात्र है। दूसरे भाग के ग्रंथों में धर्म की व्याख्या और ऐतिहासिक उपाख्यान हैं। शामी शब्दों की अधिकता और विशेषतः उपर्युक्त शैलीभेद के कारण कुछ विद्वान यह मानने लगे हैं कि पहलवी किसी काल में किसी जाति की बोलचाल की भाषा नहीं थी, पारसवालों ने जब शामी (यहूदो अरब) लोगों से लिपिविद्या सीखी और शामी वर्णमाला के द्वारा वे अपनी भाषा लिखने लगे उस समय उन लोगों ने अपनी भाषा के उन सब शब्दों को लिखने का प्रयास नहीं किया जिसके समानार्थक शब्द उन्हें शामी भाषा में मिल सके। ऐसे शब्द उन्होंने शामी के ही ज्यों के त्यों उठाकर अपनी भाषा में धर लिए। पर वे लिखने तो थे शामी शब्द और पढ़ते उस शब्द का सामानार्थक अपनी भाषा का शब्द। जैसे, वे लिखते 'मालिक' जिसका अर्थ शामी में राजा है और पढ़ते थे अपनी भाषा का 'शाह' शब्द। बहुत दिनों तक इस प्रकरा लिखते पढ़ते रहने से जिस विलक्षण संकर भाषा का गठन हुआ वही उक्त विद्वानों की सम्मति में पह्लवी है।

पह्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलकुंभी।