हिदीं वर्णमाला का सत्रहवाँ व्यंजन वर्ण और तवर्ग का दूसरा अक्षर । इसका उच्चारण स्थान दंत है ।

थंका
संज्ञा पुं० [?] बिलमुकता ।

थंड
संज्ञा पुं० [देश०; सं० स्थण्डिल, प्रा० थंडिल] भूमि । स्थान । प्रदेश । उ०—गुन गठि कब्बि आए सु चंड । दिय अनँत द्रब्य वीजीउ थेड ।—पृ० रा०, ६१ । २४९७ ।

थंडा †
वि० [हिं० ठंढा] शीतल । ठंढा । उ०— चित सूँ शिव जब मिले तब तनु थंडा होय । 'तुका' मिलना जिन्हासूँ ऐसा बिरला कोय ।— दक्खिनी०, पृ० १०९ ।

थंडिल पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थण्डिल, प्रा० थंडिल] यज्ञ की वेदी ।

थंथ †
संज्ञा पुं० [देश०] नृत्य (ताता थेई इत्यादि) । उ०— मँथन करि चाखे नहीं पढ़ि पढ़ि राखे ग्रंथ । थंथ करत पग परत नहिं कठिन प्रेम को पंथ ।— ब्रज०, ग्रं०, पृ० १४० ।

थंब
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ, प्रा० थंभ, थंब] १. खंभा । स्तंभ । उ०— राजकुल कीर्ति थंब थिर ।—कानन०, पृ० २ । २. सहारा टेक । ३. राजपूतों का भेद ।

थंबन
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भन, प्रा० थंबण] सहारा । टेक । उ०— धरती थंबन उदित अकाशा । ता पर सूर करै परकासा ।—धरम०, पृ० १७ ।

थंबा
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ, प्रा०, थंब] खभा । थंब थंभ । उ०— माटी की भीत पवन का थंबा, गुन औगुन से जाया ।— दरिया० बानी, पृ० ६५ ।

थंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भी] १. खड़ी लकड़ी । २. चाँड़ । सहारे की बल्ली । थूनी ।

थंभ
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ, प्रा० थंभ] खंभा । उ०— जंघन को कदली सम जानै । अथवा कनक थंभ सम मानै ।— सूर (शब्द०) ।

थंभन
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भन] १. रुकावट । ठहराव । २. तंत्र के छह प्रयोगों में से एक । दे० 'स्तंभन' । ३. वह ओषध जो शरीर से निकलनेवाली वस्तु (जैसे, मल, मूत्र, शुक्र इत्यादि) को रोके रहे । यौ०— जलथंभन = वह मंत्रप्रयोग जिसके द्वारा जल का प्रवाह या बरसना आदि रोक दिया जाय । महिथंभन = धरती को स्थिर रखना । पृथ्वी को रोकना । पृथ्वी को थँभाना या थहाना । उ०— अमरित पय नित स्रवहि बच्छ महिथंभन जावाहिं । हिंदुहिं मधुर न देहिं कटुक तुरकाहि न पियावहिं ।—अकबरी०, पृ० ३३३ ।

थंभनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भनी] योग में एक तत्व या धारणा । योग की धारणाओं में से प्रथम धारणा । उ०— पहिली । धारण थंभनी, दूजी द्रावण होय । तीजी दहिनी जानिए चौथि भ्रामिनी सोय ।— अष्टांग०, पृ० ८६ ।

थंभा †
संज्ञा पुं० [सं० स्तभ्म] दे० 'थबा' उ०— जल की भीत भीत जल भीतर, पवर, भवन का थंभा री ।—संत तुरसी०, पृ० २३४ ।

थंभित पु
वि० [सं० स्तम्भित] १. रुका हुआ । ठहरा हुआ । अ़ड़ा हुआ । २. अचल । स्थिर । ३. भय या आश्चर्य से निश्चल । ठक ।

थंभिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भिनी] योग की एक धारणा । उ०— यह येक थंभिनी एक द्रविणी एक सु दहिनी कहिए । पुनि येक भ्रामिणी येक शोषणी सदगुरु बिना न लहिप ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ५२ ।

थंभी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तम्भी, प्रा० थंभ, थंब + ई (प्रत्य०)] चाँड़ । सहारे का खभा । दे० 'थंबी' । उ०—निकसि गइ थंमी ढहि परा मंदिर, रलि गया चिक्कड़ गारा ।—संतवाणी०, भा०, २, पु० ८ ।

थँभना †
क्रि० अ० [ सं० स्तम्भन] दे० 'थमना' ।

थँभवाना
क्रि० स० [हिं० थँमना] दे० 'थमवाना' ।

थँभाना †
क्रि० स० [सं० स्तम्भन] दे० 'थमाना' ।


संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षण । २. मंगल । ३. भय । ४. पर्वत । ५. भयरक्षक । ६. एक व्याधि । ७. भक्षण । आहार ।

थइँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाँव, ठाँई] १. ठावँ । जगह । २. ढेर । अटाला ।

थइली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'थैली' ।

थक
संज्ञा पुं० [सं० स्था] दे० 'थाक' ।

थकन
संज्ञा स्त्री० [हिं० थकना] दे० 'थकान' ।

थकना
क्रि० अ० [सं० √ स्तभ् वा √ स्था + करण < √ कृ०, प्रा० थक्कन अथवा देश० ] १. परिश्रम करते करते और पिरश्रम के योग्य न रहना । मिहनत करते करते हार जाना । जैसे, चलते चलते या काम करते करते थक जाना । संयो० क्रि०—जाना । २. ऊब जाना । हैरान हो जाना । जैसे,— कहते कहते थक गए पर वह नहीं मानता । संयो० क्रि० —जाना । ३. बुढ़ापे से अशक्त होता । बुढ़ापे के कारण काम करने के योग्य न रहना । जैसे— अब वे बहुत थक गए, घर ही पर रहते हैं । संयो० क्रि०—जाना । ४. मंदा पड़ जाना । चलता न रहना । धीमा पड़ जाना ढीला होना या रुक जाना । जैसे, कारबार का थक जाना, रोजगार का थक जाना । ५. मोहित होकर अचल हो जाना । मुग्ध होना । लुभाना । उ०— (क) थके नयन रघुपति छबि देखी ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) थके नारि नर प्रेम पियासे ।—तुलसी (शब्द०) ।

थकर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० थकना] थकावट । थकान ।

थकरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] स्त्रियों के बाल झाड़ने की खस की कूँची ।

थकान
संज्ञा स्त्री० [हिं० थकना] थकने का भाव । थकावट । शिथिलता ।

थकाना
क्रि० सं० [हिं० थकना] १. श्रांत करना । शिथिल करना । परिश्रम कराते कराते अशक्त कराना । २. हराना । संयो० क्रि०—डालना ।— देना ।

थका माँदा
वि० [हिं० थकना] परिश्रम करते करते अशक्त । श्रांत । श्रमित ।

थकार
संज्ञा पुं० [सं०] 'थ' अक्षर या वर्ण ।

थकाव †
संज्ञा पुं० [हिं० थकना] थकावट । शिथिलता ।

थकावट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० थकना] थकने का भाव । शिथिलता । क्रि० प्र०—आना ।

थकाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० थकना + आहट (प्रत्य०)] दे० 'थका- वट' । उ०— रोने से उसके चेहरे पर जो थकाहट छप गई थी, उसने उसकी शोभा और भी निर्मल कर रखी थी ।—शराबी, पृ० ३२ ।

थकित
वि० [हिं० थकना अथवा सं० स्था(= स्थिर) + कृत] १. थका हुआ । श्रांत । शिथिल । २. मोहित । मुग्ध । उ०— थकित भई गोपी लखि स्यामहिं ।—सूर (शब्द०) ।

थकिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० थक्का] १. किसी गाढ़ी चीज को जमी हुई मोटी तह । २. गली हुई धातु का जमा हुआ लोंदा । यौ०—थकिया की चाँदी = गलाकर साफ की हुई चाँदी ।

थकैनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० थकना] दे० 'थकावट' ।

थकौहाँ
वि० [हिं० थकना] [वि० स्त्री० थकौहीं] कुछ थका हुआ । थकामाँदा । शिथिल । उ०— दृग थिरकौंहैं अधखुले देह थकौहें ढार । सुरत सुखित सी दिखियत दुखित गरभ के भार ।— बिहारी (शब्द०) ।

थक्कना पु
क्रि० अ० [प्रा० थक्क] दे० 'थकना' । उ०— सबै सेख फिरि थक्कि कहूँ काहू न रखायब ।— ह० रासो, पृ० ५५ ।

थक्का
संज्ञा स्त्री० [सं० स्था + कृ, बँग० थाकना (= ठहरना)] [स्त्री० यक्की, थकिया] १. किसी गाढ़ी चीज की जमी हुई मोटी तह । जमा हुआ कतरा । अंठी । जैसे, दही का थक्का,खून का थक्का । २. गली हुई धातु का जमा हुआ कतरा । जैसे, चाँदी का थक्का ।

थगित
वि० [प्रा० थक्क, हिं० थकित] १. ठहरा हुआ । रुका । हुआ । २. शिथिल । ढीला । मंद ।

थट, थट्ट
संज्ञा पुं० [देश० थट्ठा] थूथ । समूह । ठट्ट । झुँड़ । उ०— (क) इक्क समय आखेट, राव, खेलन बन आए । सकल सुभट थट संग, बीर बानै जु बनाए ।— ह० रासी, पृ० १३ । (ख) रहैं सुभट थट्ट प्रथिराज संग ।—पृ० रा०, ६ । ३ ।

थेड
संज्ञा पुं० [देशी०] समूह । यूथ । झुँड़ ।

थड़ा
संज्ञा पुं० [सं० स्थल] १. बैठने की जगह । बैठक । २. दूकान की गद्दी ।

थणुसुत पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थाणु(=शिव), प्रा० थण्णु, थाण हिं० थणु + सं० सुत] शिव के पुत्र । १. गणेश । २. कार्तिकेय । स्कंद ।

थति †
संज्ञा स्त्री० [हिं० थाती] दे० 'थाती' ।

थतिहार †
संज्ञा पुं० [हिं० थाती + हार (प्रत्य०)] वह जिसके पास थाती रखी हो ।

थत्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० थाती] ढेर । राशी । अटाला । जैसे, रुपयों की थत्ती ।

थथोलना †
क्रि० स० [हिं० टटोलना] ढ़ूँढना । खोजना ।

थन
संज्ञा पुं० [सं० स्तन, प्रा० थण] १. गाय, भैंस, बकरी इत्यादि चौपायों का स्तन । चौपायों की चूची । उ०— अंड़ा पालै काछुई, बिन थन राखै पोख ।—संतवाणी०, पृ० २२ । २. स्त्रियों का स्तन । उ३—उठे थन थोर बिराजत बाम । धरें मनु हाटक सालिगराम ।—पृ० रा०, २१ । २० ।

थनइल †
संज्ञा पुं० [हिं० थन] दे० 'थनेल' ।

थनकुदी
संज्ञा पुं० [देश०] एक छोटी नीले रंग की चमकीली चिड़िया जो कीड़े मकोड़े खाती है । इसका रंग बहुत सुंदर होता है ।

थनगन
संज्ञा पुं० [बरमी] एक बड़ा पेड़ जो बरमा, बरार और मालाबार में बहुत होता है । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और इमारत में लगती है ।

थनटुट्ट
संज्ञा स्त्री० [हिं० थन + टूटना] वह स्त्री जिसके स्तन में दूध आना बंद हो गया हो ।

थनथाई
वि० [सं० स्तनस्थानीय] एक ही स्तन जिनका स्थान हो । एक स्तन का दूध पीनेवाला । धायभाई । सगोत्रीय । कोका । उ०— करि सलाम हुस्सेन अना बंधी दिसि बाई । सजरा बंघे कंठ सहं सज्जे थनथाई ।—पृ० रा०, ७ । १३४ ।

थनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तन] १. स्तन के आकार की थैलियाँ जो बकारियो के गले के नीटे लटकती हैं । गलथना । २. हथियों के कान के पास थन के आकार का निकला हुआ माँस का अंकुरै जो एक ऐब समझा जाता है । ३. घोडे़ की लिगेंद्रिय में थन के आकार का लटकना हुआ मांस जो एक ऐब समझा जाता है ।

थनु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'थन' ।

थनेला
संज्ञा पुं० [हिं०थन + एला (प्रत्य०) [स्त्री० थनेली] १. एक प्रकार का फो़ड़ा जो स्त्रियों के स्तन पर होता है । इसमें सूजन ओर पीड़ा होती है ओर घाव हो जाता है । २. गुब- रैले की जाति का कीड़ा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि वह गाय, भैंस आदि के थन में डंक मार देता है । जिससे दूध सूख जाता है ।

थनैत
संज्ञा पुं० [हिं० थान] १. गाँव का मुखिया । २. वह आदमी जो जमींदार की ओर से गाँव का लगान वसूल करे ।

थनैल
संज्ञा स्त्री० [हिं० थन + ऐल (प्रत्य०)] वह जिसका थन भारी हो (गय आदि) ।

थनैला
संज्ञा पुं० [हिं० थन + ऐला (प्रत्य०)] दे० 'थनेला' ।

थनैली
संज्ञा स्त्री० [हिं० थन + ऐली (प्रत्य०)] दे० 'थनेला' ।

थन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थान] दे० 'थान' । उ०— दैव काल संजोग तपै ढिल्ली घर थन्नो ।—पृ० रा०, १ । ७०२ ।

थपकना
क्रि० सं० [अनु० थप थप] १ प्यार से या आराम पहुँचाने के लिये किसी के शरीर पर धीरे धीरे हाथ मारना । हाथ से धीरे धीर ठोंकना । जैसे, सुलाने के लिये वच्चे को थपकना । २. धीर धीरे ठोंकना । जैसे, थपी से गच थपकना । ३. पुचकरना या दम दिलासा देना । ४. किसी का क्रोध ठंढा करना । शांत करना ।

थपका
संज्ञा पुं० [हिं० थपकना] दे० 'थपकी' ।

थपकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० थपकना] १. किसी के शरीर पर (प्यार से या आराम पहुँचाने के लिये) हथेली से धीरे धीरे पहुँचाया हुआ आघात । २. हाथ से धीरे धीरे ठोंकने की क्रिया । क्रि० प्र० —देना । उ०— थपकी देने लगीं तरंगीं मार थपेड़े ।— साकेत, पृ०, ४१३ । —लगाना । २. हाथ के झटके से पहुँचाया हुआ कड़ा आघात । ३. जमीन को पीटकर चौरस करने की मुँगरी । ४. थापी । ५. धोबियों का मुँगरा या डंडा जिससे वे धोते समय भारी कपड़ों को पीटते हैं ।

थपड़ी
संज्ञा स्त्री० [अनु० थप थप] १. दोनों हथेलियों को एक दूसरे से जोर से टकराकर ध्वनि उत्पन्न करने की क्रिया । ताली । क्रि० प्र०—पीटना ।—बजाना । मुहा०— थपड़ी पीटना या बजाना = जोर जोर से हँसी करना । उपहास करना । दिल्लगी उड़ाना । २. थाली बजने का शब्द । ३. बेसन की पूरी जिसमें हींग, जीरा और नमक पड़ा रहता है ।

थपथपी
संज्ञा स्त्री० [अनु० थप थप ] दे० 'थपकी' ।

थपन पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थापन] स्थापन । ठहराने या जमाने का काम । उ०— उथपे थपन थिर थपेउ थपनहार केसरीकुमार बल अपनो सँभारिये ।— तुलसी (शब्द०) । यौ०— थपरहार = स्थापित या प्रतिष्ठित करनेवाला ।

थपना पु (१)
क्रि० स० [सं० स्थापन] १. स्थापित करना । बैठाना । ठहराना । जमाना । २. प्रतिष्ठित करना ।

थपना (२)
क्रि० अ० १. स्थापित होना । जमना । ठहरना । २. प्रतिष्ठित होना ।

थपना (३)
क्रि० सं० [अनु० थप थप] धीरे धीरे पिटना या ठोंकना ।

थपना (४)
संज्ञा पुं० १. पत्थर, लकड़ी आदि का ओजार या टुकड़ा जिसमें किसी वस्तु की पीटे । पिटना । २. थापी ।

थपरा †
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'थप्पड़' ।

थपाना पु †
क्रि० सं० [थपना] स्थापित करना । स्थित कराना । उ०— जगन्नाथ कहँ दीन्ह थपाई । तब हम चल चँदवारे आई ।—कबीर सा०, पृ० १९२ ।

थपुआ
संज्ञा पुं० [हिं० थपना (= पीटना)] छापन का वह खपड़ा जो चौड़ा, चौरस और चिपटा हो । अर्थात् नाली के आकार का न हो जैसी की नरिया होती है । विशेष— खपरैल में प्रायः थपुआ और नरिया दोनों का मेल होता है । दो थपुओं के जोड़ के ऊपर नरिया औंधी करके रखी जाती है ।

थपेटा
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'थपेड़ा' ।

थपेड़ना
क्रि० सं० [हिं०] थपेड़ा देना । थपेड़ा लगाना ।

थपेड़ा
संज्ञा पुं० [अनु० थप थप] १. हथेली से पहुँचाया हुआ आघात । थप्पड़ । २. एक वस्तु पर दूसरी वस्तु के बार बार वेग से पड़ने का आघात । धक्का । टक्कर । जैसे, नदी के पानी का थपेड़ा । उ०— थपकी देने लगीं तरंगें मार थपेड़े ।— साकेत, पृ०, ४१३ । क्रि० प्र०—लगाना ।—मारना ।

थपोड़ी †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'थपड़ी' ।

थप्प †
संज्ञा पुं० [अनु०] थप् का सा शब्द । उ०— थप्प थप्प थन- वार कइ सुनि रोमांचिअ अंग ।—कीर्ति०, पृ० ८४ ।

थप्पड़
संज्ञा पुं० [अनु० थप थप] १. हथेली से किया हुआ आघात । तमाचा । झापड़ । चपेट । क्रि० प्र०—मारना ।—लगाना । मुहा०— थप्पड़ कसना, देना, लगाना = तमाचा मारना । झाप़ड़ मारना । २. एक वस्तु पर दूसरा वस्तु के बार बार वेग से पड़ने का आघात । धक्का । जैसे पानी के हिलोर का थप्पड़, हवा के झोके का थप्पड़ । ३. दाद या फुंसियों का छत्ता । चकत्ता ।

थप्पण
वि० [सं० स्थापन, प्रा०, थप्पण] स्थापित करनेवाला । बसानेवाला । रक्षा करनेवाला । उ०— साहा ऊथप थप्पणो, पह तरनाहाँ पत्र ।—रा० रू०, पृ० १० ।

थप्पन
संज्ञा पुं० [सं० स्थापन, प्रा०, थप्पण] स्थापन । स्थापित करना । उ०— नृपति को थप्पन उथप्पन समर्थ सत्रुसाल सुत करे करतूति चित्त चाह की ।— मति० ग्रं०, पृ०, ३७२ ।

थप्परि
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थापन, प्रा० थप्पण] न्यास । घरोहर । उ०— राज सुनो चालुक कहै है थप्परि इह कंघ । राति परी जुव नहिं करैं प्राप्त करै फिर जुद्ध ।— पृ० रा०, १ । ४६१ ।

थप्पा
संज्ञा पुं० [लश०] एक प्रकार का जहाज ।

थबिर
वि० संज्ञा पुं० [सं० स्थविर, प्रा० थविर] दे० 'स्थविर' ।— सावयघम्म दोहा, पृ० १२८ ।

थम
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ, प्रा०, थंभ] १. खंभा । लाट । स्तंभ । थूनी । उ०— धरती पैठि गगन थम रोपी इस बिधि बन षेड़ पेली ।— रामानंद०, पृ० १५ । २. केलों की पेड़ी । ३. छोटी छोटी पूरियाँ और हलुआ जिसे देवी को चढ़ाने के लिये स्त्रियाँ ले जाती है ।

थमकाना †
क्रि० सं० [हि० थमकना या ठमकना का प्रे० रूप] स्तंभित करना । रोकना । उ०— साँस को थमका कर सारे बदन को कड़ा किया और जंभाई ली ।— नई०, पृ० ९९ ।

थमकारी पु
वि० [सं० स्तम्भकारिन्] स्तंभन करनेवाला । रोकनेवाला । उ०—मन बुधि चित अहँकार दशें इंद्रिय प्रेरक थमकारी ।—सूर (शब्द०) ।

थमना
क्रि० अ० [सं० स्तम्भन (=रुकना)] १. रुकना । ठहरना । चलता न रहना । जैसे, गाड़ी का थमना, कोल्हू का थमना । २. जारी न रहना । बंद हो जाना । जैसे, मेह का थमना, आँसुओं का थमना । ३. धीरज धरना । सब्र करना । ठहरा रहना । उतावला न होना । जैसे,—थोड़ा थम जाऔ, चलते हैं । संयो० क्रि०— जाना ।

थमुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० थामना] नाव के डाँड़े का हत्या ।

थम्मा †
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ] [स्त्री० थंभी] दे० 'थँभ' । उ०—(क) थम्माँ के गलि लागई आहि सिर पर अगनी अँगारू ।—प्राण०, पृ० २४४ । (ख) काम बिरह की त्राठी दाधा । बिरह आग्नि का थम्मी बाधा ।—प्राण०, पृ० १५२ ।

थर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तर] तह । परत ।

थर (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्थल] १. दे० 'थल' । उ०— एहि थर बनी क्रीड़ा गजमोचन और अनंत कथा स्त्रुति गाई ।— सूर०, १ । ६ । २. बाघ की माँद ।

थरक
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'थिरक' ।

थरकना पु †
क्रि० अ० [अनु० थर थर + करना] थर्राना । डर से काँपना । उ— बंक दृग बदन मयंक वारे अंक मरि अंग में संसक परयंक थरकत है ।— देव (शब्द०) ।

थरकना
क्रि० सं० [हिं० थरकना] डर से कँपाना ।

थरकुलिया †
संज्ञा स्त्री० [हि० थाली] दे० 'थरुलिया' ।

थर थर (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] डर से काँपने की मुद्रा । मुहा०— थर थर करना = डर से काँपना ।

थर थर (२)
क्रि० वि० काँपने की पूरी मुद्रा के साथ । जैसे,—बह डर के मारे थर थर काँपने लगा । उ०— थर थर काँपहिं पुर नर नारी ।— तुलसी (शब्द०) ।

थरथर कँपनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० थरथर + काँपना] एक छोटी चिड़िया जो बैठने पर काँपती हुई मालूम होती है ।

थरथराट पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० थरथराना] थरथराहट । कँपकपी । उ०— थरथराट उप्पनी तज्यो अक्केट कामकृत ।—पृ० रा०, ६१ । १८० ।

थरथराना
क्रि० अ० [अनु० थर थर ] १. डर के मारे काँपना । २.काँपना । उ०— सारी जल बीच प्यारी पीतम के अंक लागी चंद्रमा के चारु प्रतिविंब ऐसी थरथरात ।—शृंगारसुधाकर (शब्द०) ।

थरथराहट
संज्ञा स्त्री० [हि० थरथराना ] कँपकँपी जों डर के कारण हो ।

थरथरी
संज्ञा स्त्री० [अप० थर थर] कँपकँपी जो डर के कारण हो । क्रि० प्र०—छूटना ।—लगनग ।

थरथ्थर पु
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'थर थर' । उ०— थरथ्थर काइर जाइ रमंकि ।—प० रासो, पृ० ४२ ।

थरना (१)
क्रि० स० [सं० थुर्व हिं० थुरना] हथौड़ी आदि से धातु पर चोट लगाना ।

थरना (२)
संज्ञा पुं० सुनारों का एक औजार जिससे वे पत्तो की नक्काशी बनाती हैं ।

थरना (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तर, प्रा० त्थर, थर] फैलना । उ०— कारी घटा डरावनी आई । पापिनि साँपनि सी थरि छाई ।— नंद०, ग्रं०, पृ० १९१ ।

थरपना पु †
क्रि० सं० [सं० स्थापन] स्थापित करना । प्रतिष्ठित करना । स्थापना । उ०—दरिया साँचा सूरमा, अरि दल घालै चूर । राज थरपिया राम का, नगर बसा भरपूर ।— दरियां बानी, पृ०, १३ । (ख) बंधन जाल जुक्त जम दीनी, कीनी काल थरपना ।—रसी० श०, पृ० २२६ ।

थरमस
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का पात्र जिसमें वस्तुओँ का तापमान देर तक सुरक्षित रहता है ।

थरसना
क्रि० अ० [सं० त्रसन] थर्राना । काँपना । त्रास पाना । उ०— घनआनँद कौन अनोखी दसा मति आवरी बावरी ह्वै थरसै ।— रसखान०, प० ५३ ।

थरहरना
क्रि० अ० [देशी थरहर] हिलना ड़ुलना । थरथकाना । काँपना । उ०—ताजन पर कलँगी थरहरई । नृपगन दलदल सोभा करई ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७०५ ।

थरहराना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'थरथराना' ।

थरहरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० थरहरना] कँपकँपी जो डर के कारण हो । उ०— खरी निदाघी दुपहरी तपनि भरी बन गेह । हहा अरी यह कहि कहा परी थरहरी देह ।—सं० सप्तक, पृ० २७९ ।

थरहाई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एहसान । निहोरा ।

थरि
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थली] १. बाघ आदि की माँद । चुर । उ०— सिंह थरि जाने बिन जावली जंगली भठी, हटी गज एदिल पठाय करि भटक्यो ।—भूषण ग्रं०, पृ० १२ । २. स्थली । आवास स्थान । रहने की जगह । उ०— जो लगि फेरि मुकुति हे परौ न पिंजर माहँ । जाउँ वेगि थरि आपनि है जहाँ बिंझ वनाँह ।—पदामावत, पृ०, ३७३ ।

थरिया
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थालिका] दे० 'थाली' ।

थरु पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्थल] दे० 'थल' ।

थरुलिया †
संज्ञा स्त्री० [हि० थारी] छोटी थाली ।

थरुहट
संज्ञा पुं० [देश० थारू] थरुओं की बस्ती ।

थरुहटी
संज्ञा स्त्री० [देश० थारू] थारू जाति की बोली । उ०— भीतरी मधेश की निचली तलहटी में 'थरुहटी' बोली है, जिसे थारू लोग बोलते हैं ।— नेपाल, पृ० ९८ ।

थर्ड
वि० [अं०] तृतीय । तीसरा ।

थर्मामीटर
संज्ञा पुं० [अं०] सरदी गरमी नापने का यंत्र । दे० 'तापमान' ।

थर्राना
क्रि० अ० [अनु० थरथर] डर के मारे काँपना । दहलना । जैसे,— वह शेर को देखते ही थर्रा उठा । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना ।

थल
संज्ञा पुं० [सं० स्थल] १. स्थान । जगह । ठिकाना । उ०— सुमति भूमि थल हृदय अगाधू । वेद पुरान उदधि घन साधू ।—मानस, १ । ३६ । मुहा०—थल बैठना या थल से बैठना = (१) आरामा से बैठना । (२) स्थिर होकर बैठना । शांत भाव से बैठना । जमकर बैठना । आसन जमाकर बैठना । २. सूखी धरती । वह जमीन जिसपर पानी न हो । जल का उलटा । जैसे,— (क) नाव पर से उतर कर थल पर आना । (ख) दुर्योधन को जल का थल और थल का जल दिखाई पड़ा । ३. थल का मार्ग । यौ०—थलपर । थलबेड़ा । जलथल । ४. ऊँच, धरता या टीला जिसपर बाढ़ का पानी न पहुँच सके । ५. वहृ स्थान जहाँ बहुत सी रेत पड़ गई हो । भूड़ । थली । रेगिस्तान । जैसे थर परखर । ६. बाघ की माँद । चुर । ७. बादले का एक प्रकार का गोल (चवन्नी के बराबर का) साज जिसे बच्चों की टोपी आदि पर जब चाहें तब टाँक सकते हैं । ८. फोड़े का लाल और सूजा हुआ घेरा । व्रणमंड़ल । जैसे, कोड़े का थल बाँधना । क्रि० प्र०—बाँधना ।

थलकना
क्रि० अ० [सं० स्थूल, हिं० थूला, थुलथुला] १. कसा या तना न रहने के कारण झोल खाकर हिलना या फूलना पच- कना । झोल पड़ने के कारण ऊपर नीचे हिलना । ।उ०— थोंद थलकि बर चाल, मनों मृदंग मिलावनो ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३४ । २. मोटाई के कारण शरीर के माँस का हिलने डोलने में हिलना । थलथल करना ।

थलचर
संज्ञा पुं० [सं० स्थलचर] पृथ्वी पर रहनेवाले जीव । उ०— जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ।—मानस, १ । ३ ।

थलचारी
वि० [सं० स्थलचारिन्] भूमि पर चलनेवाले ।

थलज
वि० [सं० स्थल + ज] स्थल पर उत्पन्न । उ०— थलज जलज झलमलत ललिच बहु भँवर उड़ावै । उड़ि उड़ि परत पराग कछू छबि कहत न आवै ।— नंद० ग्रं०, पृ० २६ ।

थलथल
वि० [सं० स्थूल, हिं० थूला] मोटाई के कारण झूलता या हिलता हुआ । मुहा०— थलथल करना = मोटाई के कारण किसी अंग काझूल झूलकर हिलना । जैसे,— चलने में उसका पैट थलथल करता है ।

थलथलाना
क्रि० [हिं० थूला] मोटाई के कारण शरीर के मांस का झूलकर हिलना ।

थलपति
संज्ञा पुं० [सं० स्थल + पति] राजा । उ०— स्रवन नमन मन लगे सब थलपति तायो ।—तुलसी (शब्द०) ।

थलबेड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० थल + बेड़ा] नाव या जहाज ठहरने की जगह । नाव लगने का घाट । मुहा०—थलबेड़ा लगाना = ठिकाना लगाना । आश्रय मिलना । थल बेड़ा लगाना = ठिकाना लगाना । आश्रय ढूँढना । सहारा देना ।

थलभारी
संज्ञा पुं० [हिं० थल + भारी] पालकी के कहारों की एक बोली जिससे वे पिछले कहालों को आगे रेतीले मैदान का होता सूचित करते है ।

थलराना
कि० अ० [हिं० दुलराना] प्रसन्न करना । अनुकूल बनाना । उ०— नेह नवोढ़ा नारि कौं बारि बारु का न्याय । थलराए पै पाइए, नीपीड़े न रसाथ ।—नंद० ग्रं०, पृ० १४१ ।

थलरुह पु
वि० [सं० स्थलरुह] धरती पर उत्पन्न होनेवाले जंतु वृक्ष आदि । उ०— जल थलरुह फल फूल सलिल सब करत पेम पहुनाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

थलिया
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थालिका] थाली । टाठी ।

थली
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थली] १. स्थान । जगह । जैसे, पर्वतथली, बनथली । २. जल के नोचे का तल । ३. ठहरने या बैठने की जगह । बैठक । उ०— थली में कोई सरदार था, उसके पास एक बैष्णव साधु आ गया ।— कबीर सा०, पृ० ९७२ । ४. परती जमीन । ५. बालू का मैदान । रेतोली जमीन । ६. ऊँची जमीन या टीला ।

थवई
संज्ञा पुं० [सं० स्थपति, प्रा० थवइ] मकान बनानेवाला कारीगर । ईट पत्थर की जीड़ाई करनेवाला शिल्पी । राज । मेमार ।

थवन
संज्ञा पुं० [देश०, या सं० स्थापन] दुलहिन की तीसरी बार अपने पति के घर की यात्रा ।

थसकना †
क्रि० अ० [देश०] नीचे की ओर दबना । धसकना ।

थवना
संज्ञा पुं० [सं० स्थापन, हिं० थपना] जुलाहों के उपयोग में आनेवाला कच्ची मिट्टी का एक गोला जिसमें लगी हुई लकड़ी के छेद में चरखी की लकड़ी पड़ी रहती है । इस चरखी के घूमने से नारी भरी जाती है (जुलाई) ।

थह
संज्ञा पुं० [देशी०] निवास । निलय । स्थान । गुफा । माँद । उ०— (क) कानन सद्दन संभरत कूह कलह आषेट । यह सूतो वर जग्गयी सिसु दंपति घटि पेट ।—पृ० रा०, १७ । ४ । (ख) जागैं नह थह में जितै सझ हाथल सादुल ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १३ ।

थहण पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्थल, प्रा० थल, अथवा देशी थह] स्थान । उ०— कमठ पीठ कलमलिय थहण ढलमलिय सुचर थिर ।—रघु० रू०, पृ० ४२ ।

थहना पु
क्रि० सं० [हिं० थाह] थाह लेना । पता लगाना । उ०— थथा थाह थहो नहिं जाई । यह थीरे वह थीर रहाई ।—कबीर (शब्द०) ।

थहरना
क्रि० अ० [अनु०] काँपना । थहराना । उ०— उत गोल कपोलने पैं अति लोल अमोल लली मुक्ता थहरैं ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १३२ ।

थहराना
क्रि० अ० [अनु० थर थर] १. दुर्बलता या भय से अंगों का काँपना । कमजोरी या डर से बदन का काँपना । २. काँपना ।

थहाना
क्रि० सं० [हिं० थाह] १. गहराई का पता लगाना । थाह लेना । उ० —(क) सूर कहौ ऐसो को त्रिभुवन आवै सिंधु थहाई ।—सूर (शब्द०) ।(ख) तुलसी तीराहि के चले समय पाइबी थाह । धाइ न जाइ थहाइबी सर सरिता अवगाह ।— तुलसी (शब्द०) । संयो० क्रि०—डालना ।—देना ।—लेना । २. किसी की विद्या बुद्धि या भीतरी अभिप्राय आदि का पता लगाना ।

थहारना
क्रि० स० [हिं० ठहराना] जहाज को ठहराना ।

थाँग
संज्ञा स्त्री० [हिं० थान] चोरों या डाकुओं का गुप्त स्थान । चोरों के रहने की जगह । २. खोज । पता सुराग (विशेषतः चोर या खोई हुई वस्तु आदि का) । क्रि० प्र०—लगाना । ३. भेद । गुप्त रूप से लगा हुआ किसी बात का पता । जैसे,— बिना थाँग के चोरी नहीं होती । ४. सहारा । आश्रय स्थान । उ०— अति उमगी री आन प्रीति नदी सु अगाध जल । धार माँझ ये प्रान, दरस थाँग बिन नाहिं कल ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ४ ।

थाँगी
संज्ञा पुं० [हिं० थाँग] १. चोरी का माल मोल लेने या अपने पास रखनेवाला आदमी । २. चोरों का भोदिया । चोरों को चोरी के लिये ठिकाने आदि का पता देनेवाला मनुष्य । ३. चोरी के माल का पता लगानेवाला आदमी । जासूस । ४. चोरों का अड़डा रखनेवाला आदमी । चोरों के गोल का सरदार ।

थँगीदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० थाँग + फा़० दार] थाँग का काम ।

थाँटा
वि० [देश०] शीतल । प्रसन्न । ठंढ़ा । उ०— पैंड़ पैड ज्याँरा पिसण त्याँराँ कडवा बैण । जग जाँनूँ देखै जलै नहिं थाँटा ह्वै नैण ।म बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ७६ ।

थाँण †
संज्ञा पुं० [सं० स्थान, प्रा० थाण] स्थान । ठिकाना । उ०—थाँणो आयो राय आपणो ।—बी० रासो, पृ० १०७ ।

थाँभ (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ] १. खंभा । २. थूनी । चाँड़ । उ०— थाँम नाहिं उठि सकै न थूनी ।—जायसी ग्रं०, पृ० १५७ ।

थाँभना †
क्रि० स० [हिं० थाँभ] दे० 'थामना' ।

थाँभा
संज्ञा पुं० [सं०स्तम्भ] खंभा । स्तंभ । उ०— कोई सज्जणआविया, जाँह की जोती वाट । थाँभा नाचइ घर हँसइ खेलण लागी खाट ।—ढोला०, दू० ५४१ ।

थाँवला
संज्ञा पुं० [सं० स्थल, हिं० थल] वह घेरा या गड़्ढा जिसमें कोई पोधा लगा हो । थाला । आलबाल । ड़०— संतालों के ओझा के घर तुलसी का थाँवला होता है ।—प्रा० भा० प०, पृ० २० ।

था
क्रि० अ० [सं० स्था] है शब्द का भूतकाल । एक शब्द जिससे भूतकाल में होना सूचित होता है । रहा । जैसे,— वह उस समय वहाँ नहीँ था । विशेष— इस शब्द का प्रयोग भूतकाल के भेदों के रूप बनाने में भी संयुक्त रूप से होता है । जैसे, आता था, आया था, आ रहा था, इत्यादि ।

थाइल
वि० [सं० स्थार्य ?] थाई । स्थायी । उ०— हावनि वह भावनि करति मनासिज मन उपजाइ । दाइल वह थाइल करत पाइल पाइ बजाइ ।—स० सप्तक, पृ० ३९५ ।

थाई (१)
वि० [सं० स्थापिन्, स्थायी] बना रहनेवाला । स्थिर- रहनेवाला । न मिटने या जानेवाला । बहुत दिनों तक चलनेवाला ।

थाई (२)
संज्ञा पुं० १. बैठाने की जगह । बैठाक । अथाई । २. गीत का प्रथम पद जो गाने में बार बार कहा जाता है । ध्रुवपद । स्थायी ।

थाईभाव
संज्ञा पुं० [सं० स्थायी भाव] दे० 'स्थायी भाव' । उ०— रति हाँसी अरु सोक पुनि क्रोध उछाहं सुजान । भय निंदा बिस्मय सदा, थाईभाव प्रमान ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ३१ ।

थाउ †
संज्ञा पुं० [सं० स्थान, हिं० ठाँउ, ठाँव] उ०— ऊँची गढ़ अपरंपर थाउ । अमर अजोनी सचि तखन पाउ ।—प्राण०, पृ० २५२ ।

थाक (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्था] १. गाँव की सरहद । ग्रामसीमा । २. थोक । ढ़ेर । समूह । अटाला । राशि । उ०— मधु, मेवा, पकवान, मिठाई, घर घर तै लै निकसी थाक ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६० ।३. सीमा । हद । उ०— मेरे कहाँ थाकु गोरस को नवनिधि मंदिर यामहि ।—तुलसी (शब्द०) ।

थाक † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० थकना] थकावट । क्रि० प्र०—लगाना ।

थाकना †
क्रि० अ० [सं० स्था, बंग० थाका] १. शक्ति न रहना । थक जाना । शिथिल होना । रुकना । उ०— थाकी गति अंगन की, मति परि मंद सूखि झाँझरी सी ह्वैके देह लागी पियरान ।—हरिश्वंद्र ।—(शब्द०) । २. रुकना । ठहरना । उ०— जग जलबूड़ तहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी ।— जायसी (शब्द०) । ३. स्तंभित होना । ठगा सा होना । आश्चर्यचकित होना । उ०— रतन अनोलक परख कर रहा जौहरी थाक ।—दरिया० बानी, पृ० १८ ।

थाका †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'थक्का' । उ०— थाका होय रुचिर के ताँहा ।—कहीर सा०, पृ० १५७८ ।

थाकि †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० थकना] थकावट । शौथिल्य ।

थाकु †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'थाक' ।

थागना †
क्रि० अ० [देश०] रुकना । थाकना । उ०— अपणे घर की गम नहीं पर घर थागे काँय । हंस हँस की गम चले कागा काग की पाय ।— राम० धर्म०, पृ० ७२ ।

थाट (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] संगीत मे रागों का आधार । दे० 'ठाट' ।

थाट † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] कामना । मनोरथ । उ०—रिख्या बाट करै जो राघव थाट संपूरण थावै ।—रघु० रू० पृ० ६५ ।

थट्टनहार
वि० [हिं० ठाटना (= बनाना)] ठाठने (बनाने सँवारने) वाला । उ०— थाटनदारा एके साँई एक ही रीति एक ते आई ।—प्राण०, पृ० ४६ ।

थात पु
वि० [सं० स्थातृ, स्थाता] जो बैठा या ठहरा हो । स्थित । उ०—द्वै पिक बिंब बतीस वज्रकन एक जलज पर थात ।— सूर (शब्द०) ।

थाति
संज्ञा स्त्री० [हिं० थात] १. स्थिरता । ठहराव । टिकान । रहन । उ०—सगुन ज्ञान विराग भक्ति सुसाधनन की पाँति । भाजि विकल विलोकि कलि अघ ऐगुनन की थाति ।—तुलसी (शब्द०) । २. दे० 'थाती' ।

थाती
संज्ञा स्त्री० [हिं० थात] १. समय पर काम आने के लिये रखी हुई वस्तु । २. बह वस्तु जो किसी के पास इस विश्वास पर छोड़ दी गई हो कि वह माँगने पर दे देगा । धरोहर । उ०— दुइ बरदान भूप सन थाती । माँगहु आज जुड़ाबहु छाती ।—तुलसी (शब्द०) । ३. संचित धन । इकट्ठा किया हुआ धन । रक्षित द्रव्य । जमा पूँजी । गथ । ४. दूसरे का धन जो किसी के पास इस विचार से रखा हो कि वह माँगने पर दे देगा । धरोहर । अमानत । उ०— बारहि बार चलावत हाथ सो का मेरी छाती में थाती धरी है ।— (शब्द०) ।

थाथी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'थाती' । उ०— कहँ कबीर जतन करो साधी, सत्तगुरू की थाथी ।— कबीर श०, भा० १, पृ० ४८ ।

थान
संज्ञा पुं० [सं० स्थान] १. जगह । ठौर । ठिकाना । २. रहने या ठहरने की जगह । ड़ेरा । निवासस्थान । ३. किसी देवी देवता का स्थान । देवल । जैसे, माई का थान । उ०— इह गोपेसुर थान अपूरब । नित प्रति निसा ऊतरै सौरभ ।—पृ० रा०, १ । ३९८ । ४. वह स्थान जहाँ घोड़े या चौपाए बाँधे जायँ । मुहा०— थान का टर्रा = (१) वह घोड़ा जो खूँटे से बँधा बँधा नटखटी करे । धुड़साल में उपद्रव करनेवाला । (२) वह जो धर पर ही या पड़ोस में ही अपना जोर दिखाया करे, बाहर कुछ न बोले । अपनी गली में ही शेर बननेवाला । थान का सच्चा = सीधा घोड़ा । वह घोड़ा जो कहीं से छूटकर फिर अपने खूँटे पर आ जाय । थान में आना = (घोड़े का) धूल में लोटना । इच्छे थान का घोड़ा = अच्छी जाति का घोड़ा । प्रसिद्ध । स्थान का घोड़ा । ५. वह घास जो घोड़े के नीचे बिछाई जाती है । ६. कपडे़ गोटे आदि का पूरा टुकड़ा जिसकी लंबाई बँधी हुई होती है । जैसे,मारकीन का थान, गोटे का थान । ७. संख्या । अदद । जैसे, एक थान अशरफी, चार थान गहने, एक थान कलेजी । ८. लिंगेंद्रिय (बाजारू) ।

थानक
संज्ञा पुं० [सं० स्थानक] १. स्थान । जगह । २. नगर । ३. थावंला । थाला । आल बाल । ४. फेन । बबूला । झाग । ५. देवस्थान । देवल । उ०— राजन मन चक्रित भयौ सुनि थानक की बिद्धि ।—पृ० रा०, १ । ४०१ ।

थानपती पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्थानपति] स्थान का अधिकारी । स्वामी । उ०— तहँ मिले प्रीतम फिर नहीं बिछोंहा । तहँ थानपती निज महली सोहा ।— प्राण०, पृ० १९० ।

थाना
संज्ञा पुं० [सं० स्थानक, प्रा० थाण, हिं० थान] १. अड़्डा । टिकने या बैठने का स्थान । उ०—पुण्यभूमि पर रहे पापियों का थाना क्यों ? —साकेत, पृ० ४१६ । २. वह स्थान जहाँ अपराधों की सूचना दी जाती है ओर कुछ सरकारी सिपाही रहते हैं । पुलिस की बड़ी चौकी । मुहा०— थाने चढ़ाना = थाने में किसी के विरुद्ध सूचना देना । थाने में इत्तला करना । थाना बिठाना = पहरा बिठाना । चौंकी बिठाना । ३. बाँसों का समूह । बाँस की कोठी ।

थानपति
संज्ञा पुं० [सं० स्थानपति] ग्रामदेवता । स्थानरक्षक । देवता ।

थानी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थानिन्] १. स्थान का स्वामी । वह जिसका स्थान हो । २. दिकपाल । लोकपाल । ३. घरवाला । स्वामी । पति । उ०— तेरा थाने क्यों मुवा गह क्यों न राखा बाहि । सहजो बहुतक मिल छुटै चौरासी के माहि ।—सहजी०, पृ० २३ ।

थानी (२)
वि० संपन्न । पूर्ण ।

थानु पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थाणु] शिव ।

थानुसुत
संज्ञा पुं० [सं० स्थाणु + सुत, प्रा०, थाणु + सं० सुत] शिव जो के पुत्र गणेश । गजानन । उ०— थोरे थोरे मदनि कपोल फूले थूले खूले, ड़ोलैं जल थल बल थानुसुत नाखे हैं ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १३१ ।

थानेत
संज्ञा पुं० [हिं० थान] दे० 'थानैत' ।

थानेदार
संज्ञा पुं० [हिं० थाना + फा़० दार] थाने का वह अफसर या प्रधान जो किसी स्थान में शांति बनाए रखते और अपराधों की छानबीन करने के लिये नियुक्त रहता है ।

थानेदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० थाना + फा़० दारी] थानेदार का पद या कार्य ।

थानैत
संज्ञा पुं० [हिं० थान + ऐत (प्रत्य०)] १. किसी स्थान का अधिपति । किसी चौकी या अड्डे का मालिक । २. किसी स्थान का देवता । ग्रामदेवता ।

थाप
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थापन] १. तबले, मृदंग आदि पर पूरे पंजे का आघात । थपकी । ठोंक । उ०— सृदृढ़ मार्ग पर भी द्रुत लय में यथा मुरज की थापें है । —साकेत०, पृ० ३७२ । क्रि० प्र०—देना ।—लगाना । २. थप्पड़ । तमाचा । पूरे पंजे का आघात । जैसे, शिर की थाप, पहलवानों की थाप । क्रि० प्र०—मारना ।—लगाना । ३. वह चिह्न जो किसी वस्तु के भरपूर बैठने से पड़े । एक वस्तु पर दूसरी वस्तु के दाब के साथ पड़ने से बना हुआ निशान । छाप । जैसे, दीवार पर गीले पँजे का थाप, बालू पर पैर की थाप । क्रि० प्र०—देना ।—पड़ना ।— लगना । ४. स्थिति । जमाव । ५. किसी की ऐसी स्थिति जिसमें लोग उसका कहना मानें, भय करें तथा उसपर श्रद्धा विश्वास रखें । महत्वस्थापन । प्रतिष्ठा । मर्यादा । धाक । साक । उ०— कहै पदमाकर सुमहिमा मही में भई महादेव देवन में बाढ़ी थिर थाप है ।— पद्माकर (शब्द०) । क्रि० प्र०—जमना ।—होना । ६. मान । कदर । प्रमाण । जैसे,— उनकी बात की कोई थाप नहीं । ७. पंचायत । ८. शपथ । सौगंध । कसम । मुहा०— किसी की थाप देना = किसी की कसम खाना । शपथ देना ।

थापणि
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थापना, प्रा० थावणा] स्थिरता । स्थापना । स्थैर्य । शांति । उ०— थापणि पाई थिति भई, सतगुर दिन्हीं धीर । कबीर हीरा बणजिया, मानसरोवर तीर ।—कबीर ग्रं०, पृ० २८ ।

थापन
संज्ञा पुं० [सं० स्थापन] १. स्थापित करने की क्रिया । जमाने या बैठाने की क्रिया । २. किसी स्थान पर प्रतिष्ठित करने का कार्य । रखने का कार्य । ब०— कहेउ जनक कर जोरि कीन मोहि आपन । रधुकुल तिलक भुवाल सदा तुम उथपन थापन ।—तुलसी (शब्द०) ।

थापनहार
वि० [सं० स्थापन, हिं० थापन + हार] स्थापन या थापन करनेवाला । प्रतिष्ठित करनेवाला । उ०— अथपन थापन- हारा ।—धरनी०, पृ० ४२ ।

थापना (१)
क्रि० सं० [सं० स्थापन] १. स्थापित करना । जमाना । बैठाना । जमाकर रखना । उ०—लिंग थापि बिधिवत करि पूजा । सिव समान प्रिय मोहि न दूजा । —मानस, ६ । २ । २. किसी गीली सामग्री (मिट्टी, गोबर आदि) को हाथ या साँचे से पीट अथवा दबाकर कुछ बनाना । जैसे, उपले थापना, खपड़े थापना, इँट थापन ।

थापना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थापना] १. स्थापन । प्रतिष्ठा । रखने या बैठाने का कार्य । उ०— जहाँ लगि तीरथ देखहु जाई । इनहीं सब थापना थपाई ।—कहीर मं०, पृ० ४७० । २. मूर्ति की स्थापना या प्रतिष्ठा । जैसे, दुर्गा की थापना । उ०— करिहौं इहाँ संभु थापना । मोरे हृदय परम कलपना ।— मानस, ६ । २ । ३. नवरात्र में दुर्गापूजा के लिये घटस्थापना ।

थापर †
संज्ञा पुं० [हिं० थाप + र(प्रत्य०)] दे० 'थप्पड़' ।

थापरा
संज्ञा पुं० [देश०] छोटी नाव । डोंगी (लश०) ।

थापा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० थाप] १. हाथ के पंजे का वह चिह्न जो किसी गीली वस्तु (हलदी, मेहदी, रंग आदि) से पुती हुई हथेली को जोर से दबाने या मारने से बन जाता है । पंजे का छापा । क्रि० प्र० —देना ।—मारना ।—लगाना । विशेष— पूजा या मंगल के अवसर पर स्त्रियाँ इस प्रकार के चिह्न दीवार आदि प बनाती हैं । २. गाँव में देवी देवता की पूजा के लिये किया हुआ चंदा । पुजोंरा । १. खलयान में आनाज की राशि पर गीली मिट्टी या गोबर से ड़ाला हुआ चिह्ना जो इसलिये ड़ाला जाता है जिसमें यदि कोई चुरावे तो पता लग जाय । चाँकी । ४. वह साँचा जिसमें रंग आदि पोतकर कोई चिह्ना अंकित किया जाय । छापा । ५. वह साँचा जिसमें कोई गीली सामग्री दबाकर या डालकर कोई वस्तु बनाई जाय । जैसे, ईंट का थापा, सुनारों का थापा । ६. ढेर । राशि । उ०— सिद्धिहिं दरब आगि कै थापा । कोई जरा, जार, कोइ तापा ।— जायसी (शब्द०) । ७. नैपालियों की एक जाति ।

थापा
संज्ञा पुं० [सं० स्थापना, हिं० थाप] आघात । थपकी । थाप थप्पड़ । उ०— जहाँ जहाँ दुख पाइया गुरु को थापा सोय । दब्रही सिर टक्कर लगै तब हरि सुमिरन होय ।—मलूक०, पृ० ४० ।

थपिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० थापना] दे० 'थापी' ।

थापी
संज्ञा स्त्री० [हिं० थापना] १. काठ का चिपटे और चौड़े सिरे का डंडा जिससे कुम्हार कच्चा घड़ा पीटते हैं । २. वह चिपटी मुँगरी जिससे राज या कारीगर गच पीटते हैं । ३. थपकी । हथेली से किया हुआ आघात । थाप । उ०— कबीर साहब ने उस गाय की थापी दिया ।— कबीर मं०, पृ० ११४ ।

थाम (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ, प्रा० थंम] १. खंभा । स्तंभ । २. मस्तूल (लश०) ।

थाम (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० थामना] थामने की क्रिया या ढंग । पकड़ ।

थामना
क्रि० सं० [सं० स्तम्भन या स्तभन, प्रा०, थंभन (=रोकना)] १. किसी चलती हुई वस्तु की रोकना । गती या वेग अब- रुद्ध करना । जैसे, चलती गाड़ी को धामना, बरसते मेह को थामना । संयो० क्रि०—देना । २. गिरने, पड़ने, लुढ़कने आदि ने देना । गिरने पड़ने से बचाना । जैसे, गिरते हुए को थामना, डूबते हुए को थामना । संयो० क्रि०—लेना । ३. पकड़ना । ग्रहण करना । हाथ में लेना । जैसे छड़ी थामना उ०— इस किताब को थामो तो मै दूसरी निकाल दूँ ।— संयों० क्रि०—लेना । ४. सहारा देना । सहायता देना । मदद देना । सँभालना । जैसे,— पंजाब के गेहूँ ने थाम लिया, नहीं तो अन्न के बिना बड़ा कष्ट होता । संयो० क्रि०—लेना । ५. किसी कार्य का भार ग्रहण करना । अपने ऊपर कार्य का भार लेना । जैसे,—जिस काम को तुम ने थामा है उसे पूरा करो । ६. पहरे में करना । चौकसी में रखना । हिरासत में करना ।

थाम्ह †
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ] १. आधार । खंभा । टेक । उ०— चाँद सूरज कियो तारा गगन लियो बनाय । थाम्ह थूनी बिना देखौ, रखि लियो ठहराय ।—जग० श०, भा० २, पृ० १०६ ।

थाम्हना †
क्रि० स० [देश०] दे० 'थामना' ।

थाय
संज्ञा पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठाय] दे० 'स्थान' । उ०—धमकंत धरनि अहि सिर निहाय । हलहलिय द्रिग्ग उद्दिग्ग थाय । षुर धूरि पूरि जुट्टिन भमित्ति । दिसि व दिसि राज पसरंत कित्ति ।—पृ० रा०, १ । ६२५ ।

थायी पु
वि० [सं० स्थायी] दे० 'स्थायी' ।

थार † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'थाल' । उ०—भावना थार हुलास के हाथनि यौं हित मुरति हेरि उतारति ।—घनानंद, पृ० १४८ ।

थार †पु (२)
संज्ञा पुं० [देश०] ठोकर । आघात । उ०—हयखुर थारन, छार फुट्टि गिरि समुद पंक हुव ।—प० रासो, ७४ ।

थारा †
सर्व० [हिं० तिहारा] तुम्हारा । उ०—अनमेल्हुं पाणी तिजुं कहित (/?/) गोरी थारा जनम की बात ।—बी० रासो, पृ० ३४ ।

थारी †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थाली] दे० 'थाली' ।

थारू
संज्ञा पुं० [देश०] एक जंगली जाति जो नैपाल की तराई में पाई जाती है । विशेष—यह पूर्व से पश्चिम तक बसी हुई है और अपने रीति- रिवाज, जादू, टोना आदि रूढ़िगत विश्वास से बँधी हुई है । इसे लोग पुरानी जमजाति मानते हैं और वर्णव्यवस्था में इनका स्थाननाम शूद्र का रखते हैं ।

थाल
संज्ञा पुं० [हिं० थाली] काँसे या पीतल का बड़ा छिछला बरतन ।

थाला
संज्ञा पुं० [सं० स्थल, हिं० थल] १. वह घेरा या गड्ढा जिसके भीतर पौधा लगाया जाता है । थावँला । आलवाल । २. कुंडी जिसमें ताला लगाया जाता है (लश०) । ३. फोड़े का घेरा । फोड़े की सूजन । व्रण का शोथ ।

थालिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थालिका] दे० 'थाली' । उ०—सोरह सिंगार किए पीतम को ध्यान हिए, हाथ किए मंगलमय कनक थालिका ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २९८ ।

थालिका (२)
संज्ञा [हिं० थाला] वृक्ष का थाला । आलबाल । उ०—पुरजन पूजोपहार सोभित ससि घवल धार भंजन भवभार भक्ति कल्प थालिका ।—तुलसी (शब्द०) ।

थाली
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थाली (= बटलोई)] १. काँसे या पीतल का गोल छिछला बरतन जिसमें खाने के लिये भोजन रखा जाता है । बड़ी तश्तरी । मुहा०—थाली का बैंगन = लाभ और हानि देख कभी इस पक्ष, कभी उस पक्ष में होनेवाला । अस्थिर सिद्धांत का । बिना पेंदी का लोटा । उ०—जबरखाँ होंगे उनकी न कहिए । यह थाली के बैंगन हैं ।—फिसाना, भा० ३, पृ० १९ । थाली जोड़ = कटोरे के सहित थाली । थाली और कटोरे का जोड़ा । थाली फिरना = इतनी भीड़ होना कि यदि उसके बीच थाली, फेंकी जाय तो वह ऊपर ही ऊपर फिरती रहे उसके नीचे न गिरे । भारी भीड़ होना । थाली बजाना = साँप का विष उतारने का मंत्र पढ़ा जाना जिसमें थाली बजाई जाती है । थाली बजाना = (१) साँप का विष उतारने के लिये थाली बजाकर मंत्र पढ़ना । (२) बच्चा होने पर उसका डर दूर करने के लिये थाली बजाने की रीति करना । २. नाच की एक गत जिसमें थोड़े से घेर के बीच नाचना पड़ता है । यौ०—थाली कटोरा = नाच की एक गत जिसमें थाली और परबंद का मेल होता है ।

थाब
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'थाह' ।

थावर
संज्ञा पुं० [सं० स्थावर] दे० 'स्थावर' । उ०—नर पसु कीट पतंग मैं थावर जंगम मेल ।—स० सप्तक, पृ० १७८ ।

थाह
संज्ञा स्त्री० [सं० स्था] १. नदी, ताल, समुद्र इत्यादि के नीचे की जमीन । जलाशय का तलभाग । धरती का वह तल जिसपर पानी हो । गहराई का अंत । गहराई की हद । जैसे,—जब थाह मिले तब तो लोटे का पता लगे । क्रि० प्र०—पाना ।—मिलना । मुहा०—थाह मिलना = जल के नीचे की जमीन तक पहुँच हो जाना । पानी में पैर टिकने के लिये जमीन मिल जाना । डूबते को थाह मिलना = निराश्रय को आश्रय मिलना । संकट में पड़े हुए मनुष्य को सहारा मिलना । २. कम गहरा पानी । जैसे,—जहाँ थाह वहाँ तो हलकर पार कर सकते हैं । उ०—चरण छूते हो जमुना थाह हुई ।— लल्लू (शब्द०) । ३. गहराई का पता । गहराई का अंदाज । क्रि० प्र०—पाना ।—मिलना । मुहा०—थाह लगना = गहराई का पता चलना । थाह लेना = गहराई का पता लगाना । ४. अंत । पार । सीमा । हद । परिमित । जैसे,—उनके धन की थाह नहीं हैं । ५. संख्या, परिमाण आदि का अनुमान । कोई वस्तु कितनी या कहाँ तक है इसका पता । जैसे,—उनकी बुद्धि की थाह इसी बात से मिल गई । क्रि० प्र०—पाना ।—मिलना ।—लगना । मुहा०—थाह लेना = कोई वस्तु कितनी या कहाँ तक है इसकी जाँच करना । ६. किसी बात का पता जो प्रायः गुप्त रीति से लगाया जाय । अप्रत्यक्ष प्रयल से प्राप्त अनुसंधान । भेद । जैसे,—इस बात की थाह लो कि वह कहाँ तक देने को तैयार हैं । क्रि० प्र०—पाना ।—लेना । मुहा०—मन की थाह = अंतःकरण के गुप्त अभिप्राय की जानकारी । चित्त की बात का पता । संकल्प या विचार का पता । उ०—कुटिल जनन के मनन की मिलति न कबहूँ थाह ।— (शब्द०) ।

थाहना
क्रि० स० [हिं० थाह] १. थाह लेना । गहराई का पता चलना । २. अंदाज लेना । पता लगाना ।

थाहरा †
वि० [हिं० थाह] १. छिछला । जो गहरा न हो । जिसमें जल गहरा न हो । उ०—खरखराई जमुना गह्यो अति थाहरो सुभाय । मानहु हरि निज पाँव ते दीनी ताहि दबाय ।— सुकवि (शब्द०) ।

थिएटर
संज्ञा पुं० [अं०] १. रंगभूमि । रंगशाला । २. नाटक का अभिनय । नाटक का तमाशा । उ०—क्लब, कमेटी, थिएटर और होटलों में ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ७५ ।

थिगली
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकली] वह टुकड़ा जो किसी फटे हुए कपड़े या और किसी वस्तु का छेद बंद करने के लिये टाँका या लगाया जाय । चकती । पैबंद । क्रि० प्र०—लगाना । मुहा०—थिगली लगाना = ऐसी जगह पहुँचकर काम करना जहाँ पहुँचना बहुत कठिन हो । जोड़ तोड़ भिड़ाना । युक्ति लगाना । बादल में थिगली लगाना = (१) अत्यंत कठिन काम करना । (२) ऐसी बात कहना जिसका होना असंभव हो ।

थित पु
वि० [सं० स्थित] १. ठहरा हुआ । २. स्थापित । रखा हुआ । उ०—भए धरम में थित सब द्विजजन प्रजा काज निज लागे ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २७२ ।

थिति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिति] १. ठहराव । स्थायित्व । २. विश्राम करने या ठहरने का स्थान । ३. रहाइस । रहन । ४. बने रहने का भाव । रक्षा । उ०—ईश रजाइ सीस सब ही के । उतपति थिति, लय विषहु अमी के ।—तुलसी (शब्द०) । ५. अवस्था । दशा ।

थितिभाव पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थिति भाव] दे० 'स्थायी भाव' ।

थिबाऊ
संज्ञा पुं० [देश०] दाहिने अंग का फड़कना आदि जिसे ठग लोग अशुभ समझते हैं (ठग) ।

थियेटर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह मकान जहाँ नाटक का अभिनय दिखाया जाता है । नाट्यशाला । नाटकघर । २. अभिनय । नाटक ।

थियोसोफिस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] थियोसोफी के सिद्धांत को माननेवाला ।

थियोसोफी
संज्ञा स्त्री० [अं०] ईश्वरीय ज्ञान जो किसी दैवी शक्ति अथवा अत्मा के प्रकाश से हुआ हो ।

थिर (१)
वि० [सं० स्थिर] १. जो चलता या हिलता डोलता न हो ।ठहरा हुआ । अचल । २. जो अंचल न हो । शांत । धीर । २. जो एक ही अवस्था में रहे । स्थायी । दृढ़ । टिकाऊ ।

थिर पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिरा] स्थिरा । पृथ्वी । उ०—थिर चूर हुआ कर सूर थके । छल पेख बृँदारक व्योंम छके ।— रा० रू०, पृ० ३६ ।

थिरक
संज्ञा पुं० [हिं० थरकना] नृत्य में चरणों की चंचल गति । नाचने में पैरों का हिलना डोलना या उठाना और गिराना ।

थिरकना
क्रि० अ० [सं० अस्थिर + करण] १. नाचने में पैरों का क्षण क्षण पर उठाना और गिराना । नृत्य में अंगसंचालन करना । जैसे, थिरक थिरककर नाचना । २. अंग मटकाकर नाचना । ठमक ठमककर नाचना ।

थिरकौहाँ (१)
वि० [हिं० थिरकना + औहाँ (प्रत्य०)] थिरकनेवाला । थिरकता हुआ ।

थिरकौहाँ (२)
वि० [सं० स्थिर] ठहरा हुआ । रुका हुआ । उ०—दृग थिरकौहैं अधखुलैं देह थँकौहैं ढार । सुरत सुखति सी देखियति दुखित गरम कैं भार ।—बिहारी (शब्द०) ।

थिरचर
संज्ञा पुं० [सं० स्थिर + चल] स्थावर और जंगम । उ०— तान लेत चित की चोपन सौं मोहै बृंदावन के थिर चर ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १५६ ।

थिरजीह पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थिरजिह्व] मछली ।

थिरता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिरता] १. ठहराव । अचलत्व । २. स्थायित्व । अचंचलता । ३. शांति । धीरता ।

थिरताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिर + ताति (वै० प्रत्य०)] दे० 'थिरता' ।

थिरथानी पु
संज्ञा पुं० [सं० स्थिर + स्थान] थिर स्थानवाले, लोकपाल आदि । उ०—सुकृत सुमन तिल मोद बासि बिधि जतन जंत्र भरि कानी । सुख सनेह सब दिये दसरथहिं खरि खेलेल थिरथानी ।—तुलसी (शब्द०) ।

थिरथिरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बुलबुल जो जोड़ा के दिनों में सारे भारतवर्ष में दिखाई पड़ता है ।

थिरना
क्रि० अ० [सं० स्थिर, हिं० थर + ना (प्रत्य०)] १. पानी या और किसी द्रव पदार्थ का हिलना डोलना बंद होना । हिलते डोलते या लहराते हुए जल का ठहर जाना । जल का क्षब्ध न रहना । २. जल के स्थिर होने के कारण उसमें घुली हुई वस्तु का तल में बैठना । पानी का हिलना, घूमना आदि बंद होने के कारण उसमें मिली हुई चीज का पेदें में जाकर जमना । ३. मैल आदि नीचे बैठ जाने के कारण जल का स्वच्छ हो जाना । ४. मैल, धूल, रेत आदि के नीचे बैठ जाने के कारम साफ चीज का जल के ऊपर रह जाना । निथरना ।

थिरा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिरा] पृथ्वी ।

थिराना (१)
क्रि० स० [हिं० थिरना] १. पानी आदि का हिलना डोलना बंद करना । क्षुब्ध जल को स्थिर होने देना । ३. घुली हुई मैल आदि को नीचे बैठने देकर पानी को साफ करना । ४. किसी वस्तु को जल में घोलकर और उसमें मिली हुई मैल, धूल, रेत आदि को नीचे बैठाकर साफ करना । निथारना ।

थिराना † (२)
क्रि० अ० दे० 'थिरना' । उ०—दोउन कों रूप गुन दोउ बरनत फिरैं, पल न थिरात रीति नेह की नई नई ।—देव० ।

थी (१)
क्रि० अ० [हिं०] 'है' के भूतकाल 'था' का स्त्री० ।

थी † (२)
प्रत्य [देश०] से । उ०—इंद्रसिंघ दक्खण थी आयौ ।—रा० रू०, पृ० २५ ।

थीकरा
संज्ञा पुं० [सं० स्थित + कर] किसी आपत्ति के समय रक्षा या सहायता का भार जिसे गाँव का प्रत्येक समर्थ मनुष्य बारी बारी से अपने ऊपर लेता है ।

थीजना
क्रि० अ० [सं० स्था] टिक जाना । अचल होना । स्थिर रहना । उ०—मन तुम तन मँडरात है नहिं थीजै हा हा । घनानद, पृ० ३६७ ।

थीत †
संज्ञा पुं० [सं० स्थिति] सत्य । वस्तुस्थिति । उ०—थीत चीन्हें नहीं पथल पूजता फिरे करम अनेक करि नरक लीन्हा ।—सं० दरिया, पृ० ८३ ।

थीता
संज्ञा पुं० [सं० स्थित, हिं० थित] १. स्थिरता । शांति । २. कल । चैन । उ०—थीतो परै नहिं चीतो चबैयन देखत पीठि दै डोठि कै पैनी ।—देव (शब्द०) ।

थीती
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिति, प्रा० थिइ] संतोष । ढाढ़स । स्थिरता । उ०—टेकु पियास, बाँधु जिय थीती ।—जायसी ग्रं०, पृ० १५२ ।

थीथी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिति] स्थिरता । २. धैर्य । धीरज । इतमीनान ।

थीन
वि० [प्रा० थीण, थिरण] घन । स्त्यान । कठिन । जमा हुआ । उ०—सुभट्टं सूसरं कुघट्टं सु कीनं उलथ्थें सभेजी धृतं जान थीनं ।—पृ० रा०, २५ । ५५५ ।

थीर पु
वि० [सं० स्थिर] स्थिर । ठहरा हुआ । अडोल । उ०— (क) उलथहि मानिक मोती हीरा । दरब देखि मन होई न थीरा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) पियरे मुख श्याम शरीरा । कहुँ रहत नहीं पल थीरा—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १२६ ।

थुँदला †
वि० [अनु०] थुलथुल । फूला हुआ । भद्दा । उ०— मोटा तन व थुँदला थुँदला मू व कुच्ची आँख व मोटे औंठ मुँछदर की आमद आमद है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७८९ । यौ०—थुँदला थुँदला = थुलथुल ।

थुकवाना
क्रि० स० [हिं० थुकना] दे० 'थुकाना' ।

थुकहाई
वि० स्त्री० [हिं० थुक + हाई (प्रत्य०)] ऐसी (स्त्री) जिसे सब लोग थूकें । जिसकी सब निंदा करते हों ।

थुकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० थूकना] थूकने का काम ।

थुकाना
क्रि० स० [हिं० थूकना का प्रे० रूप] १. थूकने की क्रिया दूसरे से कराना । दूसरे को थूकने की प्रेरणा करना ।संयो० क्रि०—देना । २. मुँह में ली हुई वस्तु को गिरवाना । उगलवाना । जैसे,— बच्चा मुँह वमें मिट्टी लिए हैं, जल्दी थुकाओ । ३. थुड़ी थुड़ी कराना । निंदा कराना । तिरस्कार कराना । जैसे,—क्यों ऐसी चाल चलकर गली गली थुकाते फिरते हो ।

थुकायल †
वि० [थुक + आयल (प्रत्य०)] जिसे सब लोग थूकें । जिसे सब लोग धिक्कारें । तिरस्कृत । निंद्य ।

थुकेल †
वि० [हिं० थूक] दे० 'थुकायल' ।

थुक्का †
संज्ञा स्त्री० [हिं० थूक] निंदा । घृणा । धिक्कार । यौ०—थुक्का थुक्की = परस्पर निंदा, धिक्कार या घृण ।

थुक्का फजीहत
संज्ञा स्त्री० [हिं० थुक + अ० फजीहत] निंदा और तिरस्कार । थुड़ी थुड़ी । धिक्कार । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

थुक्की
संज्ञा स्त्री० [हिं० थूक] रेशम के तागे को थूक लगाकर सुलझाने की क्रिया (जुलाहे) ।

थुड़ी
संज्ञा स्त्री० [अनु० थू थू (= थूकने का शब्द)] घृणा । और तिरस्कारसूचक शब्द । धिक्कार । लानत । फिट । जैसे,—थुड़ी है तुझको । मुहा०—थुड़ी थुड़ी करना = धिक्कारना । निंदा और तिरस्कार करना ।

थुत
वि० [सं० स्तुत, स्तुत्य, प्रा० थुअ, थुत] श्लाध्य । स्तुत्य । प्रशंसनीय । उ०—कनवज जैचंद मात भयौ संभरि बहिनी सुत । तिन पवंत दुज पठिय थार जर चीर थपिय थुत ।— पृ० रा०, १ । ६९० ।

थुति
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तुति] स्तवन । प्रार्थना । स्तुति । उ०— जोरि हत्थ थुति मंत्र फिरयो परदच्छि लग्गि पय । रुधिर नयन आरक्त कंठ लग्यौ सु मुक्कि भय ।—पृ० रा०, १ । १०८ ।

थुत्कार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'थूत्कार' ।

थुथना
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'थूथन' ।

थुथराई पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] मुँह लटकना । तुलना में न्यूनता आना । उ०—जान महा गरुवे गुन में धन आनँद हेरि रत्यो थुथराई । पैने कटाच्छनि ओज मनोज के बानन बचि बिंधी मुथराई ।—रसखान; पृ० १०४ ।

थुथराना
क्रि० अ० [हिं० थोड़ा] थोड़ा पड़ना ।

थुथाना
क्रि० अ० [हिं० थूथन] थूथन फुलाना । मुँह फुलाना । नाराज होना ।

थुथुलाना
क्रि० अ० [अनु०] थलथलाना । कंपित होना । झल्लाना । भभक पड़ना । उ०—रामनाथ क्रोध में थुथुला गया ।—भस्मावृत०, पृ० ८१ ।

थुनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० थूनी] टेक । सहारा । थूनी । उ०— अति पूरब पूरे पुण्य रूपी कुल अटल धुनी ।—सूर (शब्द०) ।

थुनेर
संज्ञा पुं० [सं० स्थूण, हिं० थून] गठिवन का एक भेद ।

थुन्नी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूण] थूनी । खंभा । चाँड़ ।

थुपरना
क्रि० [सं० स्तूप, हिं० थूप] मड़ुवे की बालों का ढेर लगाकर दबाना जिसमें उनमें कुछ गरमी आ जाय । दंदवाना । औसाना ।

थुपरा
संज्ञा पुं० [सं० स्तूप] मड़ुवे की बालों का ढेर जो औसने के लिये दबाकर रखा जाय ।

थुरना
क्रि० स० [सं० थुर्वण (= मारना)] १. कूटना । २. मारना । पीटना ।

थुरहथा
वि० [हिं० थोड़ा + हाथ] [वि० स्त्री० थुरहथी] १. जिसके हाथ छोटे हों । जिसकी हथेली में कम चीज आवे । २. किसी को कुछ देते समय जिसके हाथ में थोड़ी वस्तु आवे । किफायत करनेवाला । उ०—कन दैबो सौंप्यो ससुर बहू थुरहथी जानि । रूप रहचटे लगि लग्यो माँगन सब जग आनि ।—बिहारी (शब्द०) ।

थुलना
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पहड़ी ऊनी कपड़ा या कंबल ।

थुलमा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'थुलना' ।

थुली
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूल, हिं० थूला] किसी अन्न के मोटे कण जो दलने से होते हैं । दलिया ।

थुवा
संज्ञा पुं० [सं० स्तूप] दे० 'थूवा' ।

थूँक
संज्ञा पुं० [हिं० थूक] दे० 'थूक' ।

थूँकना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'थूकना' ।

थूँथी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'थूथनी' । उ०—नतमस्तक हो थूँथी को धरती में देकर, सूँघ सूँघकर कुड़े के ढेरों के अंदर किया न अर्जन ।—दीप ज०, पृ० १६९ ।

थू
अव्य० [अनु०] १. थूकने का शब्द । वह ध्वनि जो जोर से थूकने में मुँह से निकलती है । २. घृणा और तिरस्कार सूचक शब्द । धिक् । छिः । जैसे—थू थू ! कोई ऐसा काम करता है? उ०—बकरी भेड़ा, मछली खायौ, काहे गाय चराई । रुधिर मास सब एकै पाँड़े, थू तोरी बम्हनाई ।—पलटू०, भा० ३, पृ० ९२ । मुहा०—थू थू करना = घृणा प्रकट करना । छिः छिः करना । धिक्कारना । थू थू होना = चारों ओर से छिः छिः होना । निंदा होना । थू थू थुद्दा = लड़कों का एक वाक्य जिसे वे खेल में उस समय बोलते हैं जब समझते हैं कि वे बेईमानी होने के कारण हार रहे हों ।

थूक
संज्ञा पुं० [अनु० थू थू] वह गाढ़ा और कुछ कुछ लसीला रस जो मुँह के भीतर जीभ तथा मांस की झिल्लियों से छूटता ह । ष्ठीवन । खखार । लार । विशेष—मनुष्य तथा और उन्नत स्तन्य जीवों में जीवों के अगले भाग तथा मुँह के भीतर की मांसल झिल्लियों में दाने की तरह उभरे हुए (अत्यंत) सूक्ष्म छेद होते हैं जिसमें एक प्रकार का गाढ़ा सा रस भरा रहता है । यह रस भिन्न जंतुओं में भिन्न भिन्न प्रकार का होता है । मनुष्य आदि प्राणियों के थूक के भाग में ऐसे रासयनिक द्रव्यों का अंश होता है जो भोजन के साथ मिलकर पाचन में सहायता देते हैं । मुहा०—थूक उछालना = व्यर्थ की बकवात करना । थूक बिलोना =व्यर्थ बकना । अनुचित प्रलाप करना । थूक लगाना । हराना । नीचा दिखाना । चूना लगाना । हैरान और तंग करना । थूक लगाकर छोड़ना = नीचा दिखाकर छोड़ना । (विरोधी को) तंग और लज्जित करके छोड़ना । दंड देकर छोड़ना । थूक लगाकर रखना = बहुक सैतकर रखना । जोड़ जोड़कर इकट्ठा करना । कंजूसी से जमा करना । कृप- णता से संचित करना । थूकों सत्तू सानना = कंजूसी या किफायत के मारे थोड़े से सामान से बहुत बड़ा काम करने चलना । बहुत थोड़ी समाग्री लगाकर बड़ा कार्य पूरा करने चलना । थूक है = धिक् है ! लानत है !

थूकना (१)
क्रि० अ० [हिं० थूक + ना (प्रत्य०)] १. मुँह से थूक निकालना या फेकना । संयो० क्रि०—देना । मुहा०—किसी (व्यक्ति या वस्तु) पर न थूकना=अत्यंत घृणा करना । जरा भी पसंद न कराना । अत्यंत तुच्छ समझकर ध्यान तक न देना । जैसे,—हम तो ऐसी चीज थूकें भी नहीं । थूककर चाटना = (१) कहकर मुकर जाना । वादा करके न करना । प्रतिज्ञा करके पूरा न करना । (२) किसी दी हुई वस्तु को लौटा लेना । एक बार देकर फिर ले लेना ।

थूकना (२)
क्रि० स० १. मुँह में ली हुई वस्तु को गिराना । उगलना । जैसे,—पान थूक दो । संयो० क्रि०—देना । मुहा०—थूक देना = तिरस्कार कर देना । घृणापूर्वक त्याग देना । २. बुरा कहना । धिक्कारना । निंदा करना । तिरस्कृत करना । जैसे,—इसी चाल पर लोग तुम्हें थूकते हैं ।

थूणी †
संज्ञा स्त्री० [वि० स्तूप] दे० 'थूनी' । उ०—तिहि समय अटल थूली सुथप्प । गणनाथ पूजि सुभ मंत्र जप्प ।—ह० रासो, पृ० १५ ।

थूत्कार
संज्ञा पुं० [सं०] थूकने का शब्द । थू थू करना [को०] ।

थूत्कृत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'थूत्कार' ।

थूथन
संज्ञा पुं० [देश०] लंबा निकला हुआ मुँह । जैसे, सूअर, घोड़े, ऊँट, बैल आदि का ।

थूथनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० थूथन] १. लंबा निकला हुआ मुहँ । जैसे, सूअर, घोड़े बैल आदि का । मुहा०—थूथनी फैलाना = नाक भौं चढ़ाना । मुँह फुलाना । नाराज होना । २. हाथी के मुँह का एक रोग जिसमें उसके तालू में घाव हो जाता है ।

थूथरा
वि० [देश०] थूथन के ऐसा निकला हुआ मुँह । बुरा चेहरा । भद्दा चेहरा ।

थूथुन †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'थूथन' ।

थून (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूणा] थूली । चाँड़ । खंभा । उ०—प्रेम प्रमोंद परस्पर प्रगटत गोपहि । जनु हिरदय गुनग्राम थून थिर रोपहिं ।—तुलसी (शब्द०) ।

थून (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का मोटा पौंडा या गन्ना जो मदरास में होता है । मदरासी पौंडा ।

थूना
संज्ञा पुं० [देश०] मिट्टी का लोदा जिसमें परेता खोंसकर सूत या रेशम फेरते हैं ।

थूनि †
संज्ञा स्त्री० [हिं० थून] दे० 'थूनी' ।

थूनिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० थून + इया(प्रत्य०)] दे० 'थूनी' । उ०—चौदह पंद्रह सालवाले लड़के अखाड़ा गोड़ चुके थे, छप्पर की थूनिया पकड़े हुए बैठक कर रहे थे ।—काले०, पृ० ३ ।

थूनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूण] १. लकड़ी आदि का गड़ा हुआ खड़ा बल्ला । खंभा । स्तंभ । थम । २. वह खंभा जो किसी बोझ को रोकने के लिये नीचे से लगाया जाय । चाँड़ । सहारे का खंभा । उ०—चाँद सूरज कियो तारा, गगन लियो बनाय । थाम्ह थूनी बिना देखी, राख लियो ठहराय ।—जग० श०, शा० २, पृ० १०६ । क्रि० प्र०—लगाना । ३. वह गड़ी हुई लकड़ी जिसमें रस्सी का फंदा लगाकर मथानी का डंडा अटकाते हैं ।

थून्ही †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूण] दे० 'थूनी' ।

थूबी
संज्ञा स्त्री० [देश०] साँप का विष दूर करने के लिये गरम लोहे से काटे हुए स्थान का दागने की युक्ति ।

थूर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] समूह । कोठी (बाँस की) । उ०—प्रथिराज प्रबोधिय धार धर हंकि साह उप्परि परिय । जानै कि आग्गि उद्यान वन बंस थूर दव प्रज्जरिय ।—पृ० रा०, १३ । १४० ।

थूर (२)
संज्ञा पुं० [सं० तुवर] अरहर । तूर । तोर ।

थूरना † (१)
—क्रि० स० [सं० थुर्वण (=मारना)] १. कूटना । दलित करना । २. मारना । पीटना । उ०—घूरत करि रिस जबहिं होति सतहर सम सूरत । थूरत पर बर भूरि हृदय महँ पूरि गरूरत ।—गोपाल (शब्द०) । ३. ठूँसना । कस कर भरना । ४. खूब कस कर खाना । ठूस ठूस कर खाना ।

थूरना † (२)
क्रि० स० [सं० त्रुट्] दे० 'तोड़ना' ।

थूल पु
वि० [सं० स्थूल] १. मोटा । भारी । २. भद्दा । उ०— श्रवणादि बचनादि देवता मन न आदि, सूक्ष्म न थूल पुनि एक ही न दोई हैं ।—सुदंर० ग्रं०, भा० १, पृ० ७६ ।

थूला
वि० [सं० स्थूल] [वि० स्त्री० थूलि, थूली] मोटा ताजा । उ०—करतार करे यहि कामिनि के कर कोमलता कलता सुनि कै । लघु दीरघ पातरि थूलि तहीं सुसुमाधि टरै सुनि कै मुनि कै ।—तोष (शब्द०) ।

थूली
संज्ञा स्त्री० [हिं० थूला (= मोटा)] १. किसी अनाज का दला हुआ मोटा कण । दलिया । २. सूजी । ३. पकाया हुआ दलिया जो गाय को बच्चा जनने पर दिया जाता है ।

थूवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तूप, प्रा०, थूप, थूव] १. मिट्टी आदि के ढेर का बना हुआ टीला । ढूह । २. गीली मिट्टी का पिंडा या लोंदा । ढीमा । भेली । धोंधा । ३. मिट्टी का ढूहा जो सरहद के निशान के लिये उठाया जाता है । सीमासूचक स्तूप । ४.ढूह के आकार का काला रँगा हुआ पिंडा जिसे पीने का तंबाकू बेचनेवाला अपने दुकानों पर चिह्न के लिये रखते हैं । ५. वह बोझ जो कपड़े में बँधी हुई राब के ऊपर जूसी निकालकर बहाने के लिये रखा जाता है । ६. मिट्टी का लोंदा जो बोझ के लिये ढेँकली की आड़ी लकड़ी के छोर पर थोपा जाता है ।

थूवा † (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु० थू थू] थूड़ी । धिक्कार का शब्द ।

थूह
संज्ञा पुं० [देशी] भवन का शिखर । मकान की ऊँची छत ।—देशी०, पृ० १९५ ।

थूहड़
संज्ञा पुं० [सं० स्थूण] दे० 'थूहर' ।

थूहर
संज्ञा पुं० [सं० स्थूण (= थूनी)] एक छोटा पेड़ जिसमें लचीली टहनियाँ नहीं होतीं, गाँठों पर से गुल्ली या डंडे के आकार के डंठल निकालते हैं । उ०—थूहरों से सटे हुए पेड़ और झाड़ हरे, गोरज से धूम ले जो खड़े हैं किनारे पर ।— आचार्य०, पृ० १९८ । विशेष—किसी जाति के थूहर में बहुत मोटे दल के लंबे पत्ते होते हैं और किसी जाति में पत्ते बिलकुल नहीं होते । काँटे भी किसी में होते हैं किसी में नहीं । थूहर के डंठलों और पत्तों में एक प्रकार का कड़ुआ दूध भरा रहता है । निकले हुए डंठलों के सिरे पर पीले रंग के फूल लगते हैं जिनपर आवरणपत्र या दिउली नहीं होती । पुं० और स्त्री० पुष्प अलग अलग होते हैं । थूहर कई प्रकार के होते है—जैसे, काँटेवाला थूहर, तिधारा थूहर, चौधारा थूहर, नागफनी, खुरसानी, थूहर विलायती थूहर, इत्यादि । खुरासानी थूहर का दूध विषैला होता है । थूहर का दूध औषध के काम में आता है । थूहर के दूध में सानी हुई बाजरे के आटे की गोली देने से पेट का दर्द दूर होता है और पेट साफ हो जाता है । थूहर के दूध में भिगोई हुई चने की दाल (आठ या दस दाने) खाने से अच्छा जुलाब होता है और गरमी का रोग दूर होता है । थूहर की राख से निकाल हुआ खार भी दवा के काम में में आता है । काँटेवाले थूहर के पत्तों का लोग अचार भी डालते हैं । थूहर का कोयला बारूद बनाने के काम में आता है । वैद्यक में थूहर रेचक, तीक्ष्ण, अग्निदीपक, कटु तथा शूल, गुल्म, अष्ठी, वायु, उन्माद, सूजन इत्यादि को दूर करनेवाला माना जाता है । थूहर को सेहुड़ भी कहतै हैं । पर्या०—स्नुही । समंतगुग्धा । नागद्रु । महावृक्षा । सुधा । वज्रा । शीहुंडा । सिहुंड़ । दंडवृक्षक । स्नुक् । स्नुषा । गुड । गुडा । कृष्णासार निस्त्रिंशपत्रिका । नेत्रारि । कांडशाख । सिंहतुंड । कांडरोहक ।

थूहा
संज्ञा पुं० [सं० स्तूप, थूव] १. ढुह । अटाला । २. टीला ।

थूही
संज्ञा स्त्री० [हिं० थूहा] १. मिट्टी की ढेरी । ढूह । २. मिट्टी के खंभे जिनपर गराड़ी वा घिरनी की लकड़ी ठहराई जाती है ।

थेंथर
वि० [देश०] थका हुआ । श्रांत । सुस्त । हैरान ।

थे †
सर्व० बहु० [सं० त्वम्] तुम या आप । उ०—ज्यूँ थे जाणउ त्यूँ करउ, राजा आइस दीध । ढोला०, दू० ९ ।

थेइ थेइ पु
वि० [अनु०] दे० 'थेई थेई' । उ०—लाग मान थेइ थेइ करि उघटत घटत ताल मृदंग गँभीर ।—सूर० (शब्द०) ।

थेई थेई
वि० [अनु०] तालसूचक नृत्य का शब्द और मुद्रा । थिरक थिरककर नाचने की मुद्रा और ताल । क्रि० प्र०—करना ।

थेक †
संज्ञा पुं० [हिं० टेक, ठेघ, थेघ (= स्तंभ, खंभा)] (ला०) शरीररूपी स्तंभ । शरीर । उ०—सत कोटि तीरथ भूमि परिकरमा करि नवावै थेक हो ।—कबीर सा०, पृ० ४११ ।

थेगली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'थिगली' । उ०—पाँच तत्त कै गुदड़ी बनाई । चाँद सुरज दुइ थेगली लगाई ।—कबीर० श०, भा० २, १४० ।

थेघ †
संज्ञा पुं० [देश०] सहारा । अवलंबन । उ०—गगन गरज मेघा, उठए धरनि थेघा । पँचसर हिय डोल सालि ।— विद्यापति, पृ० १३५ ।

थेट †
वि० [देश०] आरंभ का । असली । मुख्य । उ०—अ भल भड़ है आजरा थाहर जासी थेट ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ३४ ।

थेवा
संज्ञा पुं० [देश०] १. अँगूठी का नगीना । २. किसी धातु का वह पत्र जिसपर मूहर खोदी जाती है । ३. अँगूठी का वह घर जिसमें नगीना जड़ा जाता है ।

थैचा
संज्ञा संज्ञा पुं० [देश०] खेत में मचान के ऊपर का छप्पर ।

थै थै
वि० [सं०] वाद्य का अनुकरणत्माक एक शब्द । दे० 'थेई' 'थेई' ।

थैरज पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्थैर्य] कठोरता । स्थिरता । दृढ़ता । उ०— ए हरि तोहर थैरज जत से सब कहत धनि गेलि गेलि सून सँकेता रे ।—विद्यापति, पृ० २६० ।

थैला
संज्ञा पुं० [सं० स्थल (= कपड़े का घर)] [स्त्री० अल्पा० थैली] १. कपड़े टाट आदि को सीकर बनाया हुआ पात्र जिसमें कोई वस्तु भरकर बंद कर सकें । बड़ा कोश । बड़ा बटुआ । बढ़ा कीसा । मुहा०—थैला करना = मारकर ढेर कर देना । मारते मारते ढीला कर देना । २. रुपयों से भरा हुआ थैला । तोड़ा । उ०—बोल्यो बनजारो दम खोलि थैला दीजिए जू लीजिए जू आय ग्राम चरन पठाए हैं ।—प्रियादास (शब्द०) । ३. पायजामे का वह भाग जो जंघे से घुटने तक होता है ।

थैली
संज्ञा स्त्री० [हिं० थैला] १. छोटा थैला । कोश । कीसा । बटुआ । २. रुपयों से भरी हुई थैली । तोड़ा । मुहा०—थैली खोलना = थौली में से निकालकर रुपया देना । उ०—तब आनिय ब्योहरिया बीली । तुरत देउँ मैं थैली खोली ।—तुलसी (शब्द०) ।

थैलीदार
संज्ञा पुं० [हिं० थैली + फा़० दार] १. वह आदमी जो खजाने में रुपए उठाता है । २. तहवीलदार । रोकड़िया ।

थैलीपति
संज्ञा पुं० [हिं० थैली + सं० पति] पूँजीपति । रुपएवाला । मालदार । उ०—पार्लामेंट में शुद्ध थैलीपतियों का बहुमत था ।—भा० इ० रू०, पृ० २६४ ।

थौलीबरदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० थैली + फा़० बरदार] थैली उठाकर पहुँचाने का काम । थैलियों की ढोआई ।

थैलीशाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० थैली + फा़० शाही] पूँजीवाद ।

थोँद
संज्ञा स्त्री० [सं० तुन्द] दे० 'तोंद' । उ०—थोंद थलकि बर चाल, मनों मृदंग मिलावनो ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३४ ।

थोँदिया
संज्ञा स्त्री० [हि० तोंद का स्त्री० अल्पा०] दे० 'तोंद' । उ०—उज्जवल तन, थोरी सी थोंदिया, राते अंबर सोहै ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३४१ ।

थो †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'था' । उ०—का जानैं तुम कहा लिख्यो थो जाको फल मै पायो ।—नद०, पृ० २१ ।

थोक
संज्ञा पुं० [सं० स्तोपक, प्र० थोवँक, हिं० थोंक] १. ढेर । राशि । अटाला । २. समूह । झुंड । जत्था । मुहा०—थोक करना = इकट्ठा करना । जमा करना । उ०—द्रुम चढ़ि काहे न टेरी कान्हा गैयाँ दूरि गई ।.....बिड़रत फिरत सकल बन महियाँ एकइ एक भई । छाँड़ि खेल सब दूरि जात हैं बोलै जो सकै थोक कई ।—सूर (शब्द०) । थोक की थोक = ढेर की ढेर । बहुत सी । उ०—वह यह भी जानते थे कि मेरी थोक की थोक डाक चिनी डाकखाने में जमा हो रही है ।—किन्नर०, पृ० ५४ । ३. बिक्री का इकट्ठा मास । इकट्ठा बेचने की चीज । खुदरा का उलटा । जैसे,—हम थोक के खरीदार हैं । ४. जमीन का टुकड़ा जो किसी एक आदमी का हिस्सा हो । चक । ५. इकट्ठी वस्तु । कुल । ६. वह स्थान जहाँ कई गाँवों की सीमाएँ मिलती हों । वह जगह कई सरहदें मिलें ।

थोकदार
संज्ञा पुं० [हिं० थोक + फा़० दार] इकट्ठा माल बेचनेवाला व्यापारी ।

थोड़ पु †
वि० [सं० स्तोक] दे० 'थोड़ा' । उ०—बहुल कोड़ि कनिक थोड़, घीवक पेंचाँ दीअ घोंड़ा ।—कीर्ति०, पृ० ६८ ।

थोड़ा (१)
वि० [सं० स्तोक, पा० थोअ + ड़ा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० थोड़ी] जो मात्रा या परिमाण में अधिक न हो । न्यून । अल्प । कम । तनिक । जरा सा । जैसे,—(क) थोड़े दिनों से वह बीमार हैं । (ख) मेरे पास अब बहुत थोड़े रुपए रह गए हैं । यौ०—थोड़ा थो़ड़ा = कम कम । कुछ कुछ । थोड़ा बहुत = कुछ । कुछ कुछ । किसी कदर । जैसे,—थोड़ा बहुत रुपया उनके पास जरूर है । मुहा०—थोड़ा थोड़ा होना = लज्जित होना । संकुचित होना । हेठ पड़ना ।

थोड़ा (२)
कि० वि० अल्प परिमाण या मात्रा में । जरा । तनिक । जैसे,—थोड़ा चलकर देख लो । मुहा०—थोड़ा ही = नहीं । बिलकुल नहीं । जैसे,—हम थोड़ा ही जायँगे, जो जाय उससे कहो । विशेष—बोलचाल में इस मुहा० का प्रयोग ऐसी जगह होता है जहाँ उस बात का खंडन करना होता है जिसे समझकर दूसरा कोई बात कहता है ।

थोता †
वि० [हिं०] दे० 'थोथा' । उ०—'तुका' सज्जन तिन सूँ कहिये जिथनी प्रेम दुनाय । दुजन तेरा मुख काला थोता प्रेम घटाय ।—दक्खिनी०, पृ० १०८ ।

थोती
संज्ञा स्त्री० [देश०] चौपायों के मुँह का अगला भाग । थूथन ।

थोथ
संज्ञा स्त्री० [हिं० थोथा] १. खोललापन । निःसारता । २. तोंद । पेटी ।

थोथर †
वि० [हिं० थोथ + र (प्रत्य०)] खोखला । थोथरा । उ०— दंते भरी मुख थोथर भए भए गेल जनिक माओल साँप ठाम बैसलैं भुवन भमिअ । झरी गेल सबे दाप ।—विद्यापति, पृ० ४०२ ।

थोथरा
वि० [हिं० थोथ + रा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० थोथरी] १. घुन या कीड़ों का खाया हुआ । खोखला । खाली । २. निःसार । जिसमें कुछ तत्व न हो । ३. निकम्मा । व्यर्थ का । जो किसी काम का न हो । उ०—(क) मत ओछी घट थोथरा ता घर बैठो फूलि ।—चरण० बानी, भा० २, पृ० २०४ । (ख) अनुभौ झूठी थोथरी निरगुन सच्चा नाम ।—दरिया० बानी, पृ० २२ ।

थोथा (१)
वि० [देश०] [वि० स्त्री० थोथी] १. जिसके भीतर कुछ सार न हो । खोखला । खाली । पोला । जैसे, थोथा चना बाजे घना । उ०—बहुत मिले मोहि नेमी धर्मी प्रात करैं असनाना । आतम छोड़ पषानै पूजैं तिन का थोथा ज्ञाना ।— कबीर श०, भा० १, पृ० २७ । २. जिसकी धार तेज न हो । कुंठित । गुठला । जैसे, थोथा तीर । ३. (साँप) जिसकी पूँछ कट गई हो । बाड़ा । बे दुम का । ४. भद्दा । बेढंगा । व्यर्थ का । निकम्मा । मुहा०—थोथी कथनी = व्यर्थ की बात । निःसार बात । उ०— करनी रहनी दृढ़ गहौ थोथी कथनी डारौ ।—चरण० बानी, भा० २, पृ० १७० । थोथी बात = (१) भद्दी बात । (२ व्यर्थ की बात । व्यर्थ का प्रलाप) ।

थोथा (२)
संज्ञा पुं० बरतन ढालने का मिट्टी का साँचा ।

थोथी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास ।

थोपड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० थोपना] चपत । धौल । यौ०—गनेस थोपड़ी = लड़कों का एक खेल जिसमें जो चोर होता है उसकी आँखे बंद करके उसके सिर पर सब लड़के बारी बारी चपच लगाते हैं । यदि चपत खानेवाला लड़का ठीक ठीक बतला देता है कि किसने पहले चपत लगाई तो वह पहले चपत लगानेवाला लड़का चोर हो जाता है ।

थोपना
क्रि० स० [सं० स्थापन, हिं० थापन] १. किसी गीली चीज (जैसे, मिट्टी आदि आदि) की मोटी तह ऊपर से जमाना या रखना । किसी गीली वस्तु का लोंदा यों ही ऊपर डाल देना या जमा देना । पानी में सनी हुई वस्तु के लोंदे को किसी दूसरी वस्तु पर इस प्रकार फैलाकर डालना कि वह उपसपर चिरक जाय । छोपना । जैसे,—घड़े के मुँह पर मिट्टी छोप दो । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । २. तवे पर रोटी बनाने के लिये यों ही बिना गढ़े हुए गीला आटाफैला देना । ३. मोटा लेप चढ़ाना । लेव चढ़ाना । ४. आरोपित करना । मत्थे मढ़ना । लगाना । जैसे, किसी पर दोष थोपना । ५. आक्रमण आदि से रक्षा करना । बचान । दे० 'छोपना' ।

थोपी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० थोपना] चपत । धौल । चपेट । थोपड़ी ।

थोबड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] थूथन । जानवरों का निकला हुआ लंबा मुँह ।

थोब रखना
क्रि० स० [लश०] जहाज को धार पर चढ़ाना ।

थोभड़ी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] थूही । दीवार । भित्ति । उ०—देखो जोगी करामातड़ी मनसा महल बणाया । बिन थाँभा बिन थोभड़ी आसमान छहराय ।—राम० धर्म०, पृ० ४६ ।

थोर † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. केले की पेड़ी के बीच का गाभा । २. थूहर का पेड़ ।

थोर (२)
वि० [हिं० थोड़ा] थोड़ा । स्वल्प । छोटा । उ०—उठे थन थोर विराजत बाम । धरे मनु हाटक सालिगराम ।—पृ० रा०, २१ । २० । यौ०—थोरथनी = छोटे छोटे स्तनोंवाली । उ०—रोम राज राजी भ्रमहि थोरथनी ढुँढि बाल । उतकंठा उतकंठ की ते पुज्जी प्रतिपाल ।—पृ० रा०, २५ । ७२५ ।

थोरा पु †
वि० [हिं०] दे० 'थोड़ा' ।

थोरिक पु †
वि० [हिं० थोरा + एक] थोड़ा सा । तनिक सा ।

थोरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक हीन अनार्य जाति ।

थोरी (२)
वि० स्त्री० [थोरा फा स्त्री० अल्पा०] दे० 'थोड़ा' ।

थोरी, थोरौ
वि० [हिं०] दे० 'थोड़ा' । उ०—पाछे उन बंदीवानन के तें थोरी द्रव्य आवन लाग्यो ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १२८ । (ख) अहो महरि अब बंधन छोरी । सुंदर सुत पर भयौ न थोरौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २५१ ।

थोल †
वि० [हिं०] दे० 'थोड़ा' । उ०—काहु कापल काहु घोल, काहु संबल काहु थोल ।—कीर्ति०, पृ० २४ ।

थोहर पु †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'थूहर' । उ०—सुभा हरड़ थोहर सुभा, सुभा कहत कल्याण । सुभा जु सोभावान हरि, और न दूजो जान ।—नंद०, ग्रं०, पृ० ७० ।

थौंदि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० तुन्द या तुण्ड] तोंद । पेट । उ०—किंहूपै कटारीन सौं थौंदि फारी । तहीं दूसरें आनिकैं सीस जारी ।—सुजान०, पृ० २१ ।

थ्याँ †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'था' । उ०—सवाल सात सूरताँ खुदाए ताला के जात में क्यों थ्याँ?—दक्खिनी०, पृ० ३८८ ।

थ्यावस †
संज्ञा पु० [सं० स्थेयस] १. स्थिरता । ठहराव । २. धीरता । धैर्य । उ०—(क) बिन पावस तो इन्हैं थ्यावस है न सु क्यों करिये अब सो परसैं । बदरा बरसैं ऋतु में घिरि के नित हा अंखियाँ उघरी बरसैं ।—आनंदघन (शब्द०) । (ख) ज्यों कहलाय मसूसनि ऊमस क्यों हूँ कहूँ सो धरे नहिं थ्यावस ।— आनंदघन (शब्द०) ।