विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/वे
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ वेंक
संज्ञा पुं० [सं० वेङ्क] दक्षिण भारत का एक देश और वहाँ के निवासी [को०]।
⋙ वेंकट
संज्ञा पुं० [सं० वे़ङ्कट] द्रविड़ प्रदेश के एक पर्वत का नाम। वेंकटगिरि [कों]।
⋙ वेंकटगिरि
संज्ञा पुं० [सं० वेंङ्कटगिरि] दक्षिण भारत के एक पर्वत का नाम जहाँ वेंकटेश्वर विष्णु का प्रसिद्ध मंदिर है।
⋙ वेंकटाचल
संज्ञा पुं० [सं० वेङ्कवम्चल] दे० 'वेंकटागिरि'।
⋙ वेंकटाद्रि
संज्ञा पुं० [सं० वेङ्कटाद्रि] दे० 'वेंकटगिरि'।
⋙ वेंकटेश
संज्ञा पुं० [सं० वेंङ्कटेश] विष्णु [को०]।
⋙ वेंकटेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० वेङ्कटेश्वर] विष्णु [को०]।
⋙ वेंघर
संज्ञा पुं० [सं० वेङ्घर] रूप यौवन का मद। सुंदरता का अभि- मान [को०]।
⋙ वे
सर्व० [हिं० वह] १. वह का बहुवचन या संमानवाचक रूप। जैसे,—(क) वे लोग चले गए। (ख) वे आज न आवेंगे। २. पत्नी द्वारा पति के लिये प्रयुक्त अन्य पुरुष का सर्वनाम।
⋙ वेउ पु
संज्ञा पुं० [सं० वेद] दे० 'वेद'। उ०—मुनिवर विप्र मंडत वेउ। माननी सकल साजत तेउ।—पृ० रा०, १८।४३।
⋙ वेऊ
सर्व० [हिं० वह+सं० अपि, हिं० भी] वह भी।
⋙ वेक
वि० [सं० एक] दे० 'एक'। उ०—जीते मरना पिव से मिलना जीना जीने का फल वेक।—दक्खिनी०, पृ० ४४१।
⋙ वेकट
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की मछली। भाकुर। २. युवक। जवान। ३. विदूषक। मसखरा। ४. जौहरी।
⋙ वेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] अच्छी तरह ढुँढना या देखना।
⋙ वेखना †
क्रि० अ० [सं० वेक्षण, प्रा० वेख्खण>पं०] देखना उ०— हुण क्या कीजै लाडिले वेखन नहिं पावैं।—घनानंद, पृ० १८०।
⋙ वेखलाना †
क्रि० स० [सं० वेक्षण] दे० 'दिखलाना'। उ०—जिंद निर्माणी; तपदो, सौंहैणा मुख वेखलानी जानी।—घनानंद, पृ०, ५३९।
⋙ वेग
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रवाह। बहाव। २. शरीर में से मल पुत्र आदि निकलन की प्रवृत्ति। ३.किसी ओर प्रवृत्त होने का जोर। तेजी। ४. शीघ्रता। जल्दी। ५. आनंद। प्रसन्नता। खुशी। ६. कोई काप करने को दृढ़ प्रतिज्ञा या पक्का निश्चय। ७. उद्योग। उद्यम। ८. प्रवृत्त। झुकाव। ९. वृद्धि। बढ़ती। १०. महाज्योतिष्मती। ११. लाल इनारु। १२. शुक्र। वीर्य। १३. न्याय के अनुसार चौबीस गुणों में से एक गुण। विशेष—यह गुण आकाश, जल, तेज, वायु और मन में पाया जाता है। संसार में जो कुछ गति देखा जाती है, वह इसी गुण के कारण होती है और उक्त पाँचों में से किसी न किसी के द्वारा होती है। १४. वाण की गति या चाल (को०)। १५. प्रेम। गाढ़ अनुराग (को०)। १६. रोग की तीव्रता (को०)। १७. विष आदि का संचार या फैलना (को०)। १८. आंतरिक भावों की वाहुय अभिव्यक्ति।२०. भावातिरेक (को०)।
⋙ वेगग
वि० [सं०] तेज चलनेवाला। तीव्रगामी [को०]।
⋙ वेगगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेगपूर्वक चलनेवाली, नदी।
⋙ वेगघ्न
वि० [सं०] तीव्रता से प्रहार करनेवाला [को०]।
⋙ वेगदंड
संज्ञा पुं० [सं० वेगदण्ड] हाथी [को०]।
⋙ वेगदर्शी
संज्ञा पुं० [सं० वेगदर्शिन्] रामायण के अनुसार एक बंदर का नाम।
⋙ वेगधारण
संज्ञा पुं० [सं०] मल, मूत्र या शरीर के इसी प्रकार के और किसी वेग को रोकना जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है।
⋙ वेगनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] श्लेष्मा। कफ। विशेष—कहते हैं, शरीर से निकलनेवाला मल आदि इसी के कारण कुछ रुकता है; इसीलिये इसका यह नाम पड़ा है।
⋙ वेगनिरोध
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर के मल मूत्र आदि वेगों को रोकना। वेगधारण।
⋙ वेगपरिक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] रोग के वेग या तेजी का कम होना [को०]।
⋙ वेगरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर के मल मूत्र आदि वेगों को रोकना। वेगधारण। २. गति में बाधा। रुकावट। रोक।
⋙ वेगवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षिण भारत की एक नदी का नाम।
⋙ वेगवान् (१)
वि० [सं० वेगवत्] [वि० स्त्री० वेगवती] वेगपूर्वक चलनेवाला। तेज चलनेवाला।
⋙ वेगवान् (२)
संज्ञा पुं० विष्णु।
⋙ वेगवाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंगा। २. पुराणानुसार एक प्राचीन नदी का नाम।
⋙ वेगवाही
वि० [सं० वेगवाहिन्] वेग से युक्त। वेगी [को०]।
⋙ वेगविघात
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर से निकलते हुए मल मूत्र आदि वेगों को सहसा रोक लेना जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक समझा जाता है।
⋙ वेगविधारण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वेगरोध' [को०]।
⋙ वेगसर
संज्ञा पुं० [सं०] १. तेज चलनेवाला घोड़ा। २. खच्चर।
⋙ वेगहरिण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मृग। वेगिहिरण [को०]।
⋙ वेगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी मालकँगनी। महाज्योतिष्मती।
⋙ वेगाधात
संज्ञा पुं० [सं०] १. अकस्मात् वेग या गति का रोकना। २. मलाविरोध। कोष्ठबद्धता [को०]।
⋙ वेगानिल
संज्ञा पुं० [सं०] वेगयुक्त वायु। आँधी। प्रचंड पवन [को०]।
⋙ वेगार पु †
संज्ञा पुं० [फा०बेगार] दे० 'बेगार'। उ०—वाँट जाइते वेगार धर। कीर्ति०, पृ० ४४।
⋙ वेगावतरण
संज्ञा पुं० [सं०] तीव्र गति से उतरना [को०]।
⋙ वेगित
वि० [सं०] १. जिसमें वेग हो। वेगयुक्त। २. विलोडित। मथित। क्षुब्ध। ३. जिसमें गति लाई गई हो। तेज किया हुआ (को०)।
⋙ वेगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरिता। नदी। २. एक प्रकार की नौका। युक्तिकल्पतरु के अनुसार १७६ हाथ लंबी, २२ हाथ ऊँची और १७२य५ हाथ चौड़ी नाव।
⋙ वेगिहिरण
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकारी मृग।
⋙ वेगी
संज्ञा पुं० [सं० वेगिन्] १. वह जिसमें बहुत अधिक वेग हो। २. धावन। हरकारा (को०)। ३. बाज नाम का पक्षी।
⋙ वेगोदग्र
वि० [सं०] तीव्रता से प्रभाव फैलानेवाला (विष आदि)— शीघ्र असर करनेवाला [को०]।
⋙ वेचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भृति। मजदूरी। वेतन [को०]।
⋙ वेजानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमराजी।
⋙ वेजित
वि० [सं०] १. उत्तेजित। कंपित। क्षुब्ध। २. बढ़ाया हुआ। वर्धित [को०]।
⋙ वेट्
संज्ञा पुं० [सं०] स्वाहा। विशेष—वैदिक काल में यज्ञों आदि में स्वाहा के स्थान में वेट् शब्द का व्यवहार होता था।
⋙ वेट
संज्ञा पुं० [सं०] पीलु नामक वृक्ष [को०]।
⋙ वेटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैश्यों की वसति या निवास। वैश्यों या वणिकों की बस्ती [को०]।
⋙ वेटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नौका। नाव [को०]।
⋙ वेटेरिनरी
वि० [अं०] बैल, घोड़े आदि पालतू पशुओं की चिकित्सा संबंधी। शालिहोत्र संबंधी। जैसे,—वेटेरिनरी अस्पताल।
⋙ वेटेरिनरी अस्पताल
संज्ञा पुं० [अ० वंटेरिनरी हास्पिटल] वह स्थान या चिकित्सालय जहाँ घोड़े आदि पालतु पशुओं की चिकित्सा की जाती है। पशु चिकित्सालय।
⋙ वेट्टचंदन
संज्ञा पुं० [सं० वेट्टचन्दन] मलयागिरि चंदन।
⋙ वेड
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चंदन [को०]।
⋙ वेडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेड़ा। नाव [को०]।
⋙ वेढ (१)
संज्ञा पुं० [प्रा०] १. आसन। स्थान। पीढ़ा। २. घेरा। लपेट। उ०—कोई मूँसारो मूँसी गयो, कंचु कसण ते लंक की वेढ, रात दिवस धनी पहरीयौ।—बी० रासो, पृ० ९७।
⋙ वेढ † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] युद्ध। उ०—माह उजाली सपतमी, वेढ समीसर वार।—रा० रू०, पृ० २७२।
⋙ वेढक †
वि० [देश०] लड़ाकू। उ०—बाघ फता वेढकाँ वीर वीराध विजावत।—रा० रू०, पृ० १५७।
⋙ वेढमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह रोटी या कचौड़ी जिसमें उड़द की पीठी भरी हो। बेढ़ई।
⋙ वेढिअ †
वि० [सं० वेष्टित या देशी] ढका हुआ। आवृत।—देशी०, पृ० ३०४।
⋙ वेण
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनु के अनुसार एक प्राचीन वर्णसंकर जाति जिसकी उत्पत्ति वैदेहक माता और अंबष्ठ पिता से मानी गई है। २. सूर्यवंशी राजा पृथु के पिता का नाम। ३. बाँर की वस्तुओं को बनाने का काम करनेवाली एक जाति। बँसोर। धरिकार (को०)।
⋙ वेणयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता।
⋙ वेणवी
संज्ञा पुं० [सं० वेणविन्] १. वह जिसके पास वेणु हो। २. शिव का एक नाम।
⋙ वेणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रामायण के अनुसार एक प्राचीन नदी का नाम जिसे पर्णसा भी कहते हैं। २. उशीर। खस।
⋙ वेणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवदाली। बंदाल। २. वेणी गूँथना या बाँधना (को०)। ३. प्रोषितपतिका नायिका आदि को लटकती हुई चोटी जो एक हो (को०)। ४. जल का प्रवाह। जलवारा (को०)। ५. सरितसंगम (को०)। ६. एक नदी (को०)। ७. गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम (को०)। ८. पहले की विभक्त किंतु बाद में पुनः संयुक्त को गई संपत्ति (को०)। ९. बाँध। पुल (को०)। १०. मेषी। भेंड (को०)। ११. प्रपात। निर्झर। उत्स (को०)।
⋙ वेणिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक जनपद का नाम। २. इस देश का निवासी।
⋙ वेणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्रियों के बालों की गूँथी हुई चोटी। वेणी। २. बाँस, नरसल आदि का बना बेड़ा (को०)। ३. अनवरत प्रवाह। अटूट धारा (को०)।
⋙ वेणिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके बालों में चोटी की हुई हो [को०]।
⋙ वेणिबंध
संज्ञा पुं० [सं० वेणिबन्ध] बालों को बाँधकर बनाई गई चोटी [को०]।
⋙ वेणिमाधव
संज्ञा पुं० [सं०] त्रिवेणी संगम के देवता विष्णु की मूर्ति।
⋙ वेणिवेधनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक।
⋙ वेणिवेधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंकतिका। कंघी [को०]।
⋙ वेणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्रियों के बालों की गूँथी हुई चोटी। २. जल का प्रवाह। पानी का बहाव। ३. भीड़ भाड़। ४. देवदाली। ५. एक प्राचीन नदी का नाम। ६. भेड़। ७. पुल। बाँध। बंधा (को०)। ८. देवताड। दे० 'वेणि'।
⋙ वेणी (२)
संज्ञा पुं० [सं० वेणिन्] नागाविशेष [को०]।
⋙ वेणीग
संज्ञा पुं० [सं०] खस। उशीर।
⋙ वेणीदान
संज्ञा पुं० [सं०] वेणी या बाल कटवाने का एक संस्कार जो प्रयाग आदि तीर्थों में संपन्न कराते हैं [को०]।
⋙ वेणीफल
संज्ञा पुं० [सं०] देवदाली का फल।
⋙ वेणीमूल
संज्ञा पुं० [सं०] खस। उशीर।
⋙ वेणीमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] उशीर। खस।
⋙ वेणीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीम का पेड़। २. रीठा। अरिष्टक वृक्ष।
⋙ वेणीसंवरण
संज्ञा पुं० [सं०] वेणी को बाँधना। वेणीबंधन [को०]।
⋙ वेणीसंहरण
संज्ञा पुं० [सं०] चोटी बाँधना। जूड़ा बाँधना [को०]।
⋙ वेणीसंहार
संज्ञा पुं० [सं० वेणी + संहार] १. जूड़ा बाँधना। बिखरे केशों को सुधारकर चोटी बाँधना। २. भट्ट नारायण कृत संस्कृत का एक नाटक [को०]।
⋙ वेणीस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० वेणीस्कन्ध] महाभारत के अनुसार एक नाग का नाम।
⋙ वेणु
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस। २. बाँस की बनी हुई वंशी। ३. एक प्राचीन राजा का नाम। दे० 'वेण'। ४. बेंत। बेवस (को०)। ५. ध्वजा। केतु (को०)।
⋙ वेणुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह लकड़ी या छड़ी जिससे गौऔं, बैलों आदि को हाँकते हैं। २. अंकुश। आँकुस। ३. छोटी वंशी। बाँसुरी। ४. इलायची। ५. एक जनपद (को०)।
⋙ वेणुकर्कर
संज्ञा पुं० [सं०] कनेर का पेड़। करवीर का पेड़।
⋙ वेणुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाँसुरी। वंशी। २. एक प्रकार का वृक्ष जिसकी फल बहुत जहरीला होता है। ३. हाथी को चलाने का प्राचीन काल का एक प्रकार का अंकुश या दंड जिसमें बाँस का दस्ता लगा होता था।
⋙ वेणुकार
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बाँस से बाँसुरी बनाता हो। वंशी बनानेवाला।
⋙ वेणुकीय
वि० [सं०] वेणुसंबंधी। वेणु का।
⋙ वेणुकीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह जगह जहाँ बाँप बहुत अधिक उत्पन्न हो [को०]।
⋙ वेणुगुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] बाँसों का झुरमुट। बाँस की कोठी [को०]।
⋙ वेणुग्रध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की ओषधि।
⋙ वेणुजंघ
संज्ञा पुं० [सं० वेणुजङ्घ] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन मुनि का नाम।
⋙ वेणुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह चीज जो बाँस से उत्पन्न हुई हो। जैसे अग्नि आदि। २. बाँस के फूल में होनेवाले दाने, जो चावल कहलाते हैं और जो पीसकर ज्वार आदि के आटे के साथ खाए जाते हैं। बाँस का चावल। ३. गोल मिर्च।
⋙ वेणुजमुक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँस में होनेवाला एक प्रकार का गोल दाना जो प्रायः माती कहलाता है।
⋙ वेणुजाल
संज्ञा पुं० [सं० वेणु + जाल] बँसवारी। बाँस की कोठी। बाँसों का झुरमुट [को०]।
⋙ वेणुदत्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ वेणुदल
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस को चीरकर बनाया हुआ फट्टा या बड़ी खपाची [को०]।
⋙ वेणुदारि
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक राजकुमार का नाम।
⋙ वेणुदारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेणुदारिन्] दानवविशेष [को०]।
⋙ वेणुदारी (२)
वि० बाँस को चीरने या फाड़नेवाला [को०]।
⋙ वेणुध्म
संज्ञा पुं० [सं०] वंशीवादक। बाँसुरी बजानेवाला [को०]।
⋙ वेणुन
संज्ञा पुं० [सं०] मिर्च।
⋙ वेणुनिर्लेखन
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस की छाल।
⋙ वेणुनिस्त्रुति
संज्ञा पुं० [सं०] ईख। ऊख।
⋙ वेणुनृत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र के अनुसार एक देवी [को०]।
⋙ वेणुप
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश का नाम जो रेणुप भी कहलाता था। २. इस देश का निवासी।
⋙ वेणुपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस का पत्ता।
⋙ वेणुपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प की एक जाति। सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का साँप।
⋙ वेणुपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंशपत्री। हिंगुपर्णी।
⋙ वेणुपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वेणुपत्रिका' [को०]।
⋙ वेणुपुर
संज्ञा पुं० [सं०] आधुनिक बेलगाँव का प्राचीन नाम।
⋙ वेणुबीज
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस के फूल में होनेवाले छोटे दाने जो ज्वार आदि के आटे के साथ पीसकर खाए जाते हैं। बाँस का चावल।
⋙ वेणुमंडल
संज्ञा पुं० [सं० वेणुमण्डल] महाभारत के अनुसार कुशद्वीप के एक वर्ष का नाम।
⋙ वेणुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार पश्चिमोत्तर देश की एक नदी का नाम।
⋙ वेणुमय
वि० [सं०] बाँस का बना हुआ।
⋙ वेणुमान्
संज्ञा पुं० [सं० वेणुमत्] १. पुराणानुसार एक वंश (वर्ष) का नाम। २. पुराणानुसारा एक पर्वत का नाम। ३. ज्योतिष्मान् के एक पुत्र का नाम (को०)। ४. वह जो बाँस का बना हुआ हो (को०)।
⋙ वेणुमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की एक प्रकार की मुद्रा।
⋙ वेणुयव
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस के फूलों में होनेवाले दाने जो ज्वार आदि के साथ पीसकर खाए जाते हैं। बाँस का चावल। विशेष—वैद्यक में यह रूक्ष, शीतल, कषाय और कफ, पित्त, मेद, कृमि तथा विष आदि का नाशक तथा बल और वीर्यवर्धक कहा गया है।
⋙ वेणुयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँस की लाठी या छड़ी [को०]।
⋙ वेणुवंश
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार एक राजा का नाम।
⋙ वेणुवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजगृह के पास का एक उपवन। राजा बिंबिसार ने गौतम बुद्ध को बुलाकर यहीं ठहराया था। उ०— जब भगवान् बुद्ध राजगृह के वेणुवन में विहार कर रहे थे।—गो० ज०, पृ० ९१। २. बाँसी का जंगल।
⋙ वेणुवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वँशी बजाता हो। बाँसुरी बजानेवाला।
⋙ वेणुवादक
संज्ञा पुं० [सं०] बाँसुरी बजानेवाला। वँशीवादक [को०]।
⋙ वेणुवादन, वेणुवाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] वँशी बजाना [को०]।
⋙ वेणुवादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वंशी बजानेवाली स्त्री। २. बाँसुरी बजाती हुई यक्षिणी की प्रस्तरप्रतिमा। उ०—त्रिपुरी में वेणुवादिनी, सुदर्शना नागी इत्यादि कई प्रकार की यक्षिणियों की प्रतिमाएँ रखी हैं।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ०, १९४।
⋙ वेणुविदल
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस का फट्टा [को०]।
⋙ वेणुवीणाधरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
⋙ वेणुवैदल
वि० [सं०] वेणुविदल का बना हुआ। बाँस की खपाचियों का बना हुआ।
⋙ वेणुशय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँस की बनी शय्या [को०]।
⋙ वेणुहय
संज्ञा पुं० [सं०] एक यदुवंशी का नाम [को०]।
⋙ वेणुहोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] धृष्टकेतु के एक पुत्र का नाम।
⋙ वेण्य
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूराणानुसार विंध्य पर्वत से निकली हुई एक नदी का नाम।
⋙ वेणवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूराणानुसार पारियात्र पर्वत की एक नदी का नाम।
⋙ वेण्वातट
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश का नाम जो वेणा या वेणवा नदी के तट पर था। २. इस देश का निवासी।
⋙ वेतंड
संज्ञा पुं० [सं० वेतण्ड] गज। हाथी। दे० 'वितंड' [को०]।
⋙ वेतंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० वेतण्डा] देवी दुर्गा का एक रूप [को०]।
⋙ वेतंद
संज्ञा पुं० [सं० वेतन्द] हाथी [को०]।
⋙ वेत
संज्ञा पुं० [सं० वेतस्]दे० 'बेंत'।
⋙ वेतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह धन जो किसी को कोई काम करने के बदले में दिया जाय। पारिश्रमिक। उजरत। २. वह धन जो बराबर कुछ निश्चित समय तक, प्रायः एक मास तक, काम करने पर मिले। तनखाह। दरमाहा। महीना। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना। ३. चाँदी। रजत। ४. वृत्ति। जीविका (को०)।
⋙ वेतनकल्पना
संज्ञा स्त्री० [सं०] तनखाह नियत करना।
⋙ वेतनकालातिपातन
संज्ञा पुं० [सं०] तनखाह देनें में देर करना। विशष—चाणक्य के मत से यह व्यवस्थापकों का दोष हैं और एकदर्य वे दंड्य कहे गए हैं।
⋙ वेतननाश
संज्ञा पुं० [सं०] तनखाह या मजदुरी जब्त हो जाना। विशेष—चाणक्य के समय में यह राजनियम था कि जो कारीगर ठीक ढंग से काम नहींम करते थे या कहा कुछ जाय और करते कुछ थे, उनका वेतन जब्त हो जाता था।
⋙ वेतनभुक्
संज्ञा पुं० [सं० वेतनभुज्]दे० 'वेतनभोगी' [को०]।
⋙ वेतनभोगी
संज्ञा पुं० [सं० वेतनभोगिन्] वह जो वेतन लेकर काम करता हो। तनखाह पर काम करनेवाला।
⋙ वेतनादान
संज्ञा पुं० [सं०] पारिश्रमिक न देना। वेतन न देना [को०]।
⋙ वेतनी
वि० [सं० वेतनिन्] वेतनभोगी। वेतन पानेवाला [को०]।
⋙ वेतस
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेंत। २. जलबेंत। ३. बड़वानल। ४. बिजौरा नीबु (को०)।
⋙ वेतसक
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद का नाम।
⋙ वेतसगृह
संज्ञा पुं० [सं०] बेंत की बनी झापड़ी या मंडप [को०]।
⋙ वेतसपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस का पत्ता। २. दे० 'वेतसपत्रक'।
⋙ वेतसपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार प्राचीन काल का एक प्रकार का शस्त्र जो प्रायः एक अंगुल मोटा औ चार अंगुल लंबा होता था। इसका व्यवहार चीरफाड़ में होता था।
⋙ वेतसपरीक्षिप्त
वि० [सं०] बेंतों से घिरा हुआ। जैसे, स्थान या भूमि [को०]।
⋙ वेतसवृत्ति
वि० [सं०] बेंत के समान झुक जाने का स्वभाव [को०]।
⋙ वेतसाम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] अम्लबेत।
⋙ वेतसिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूराणनुसार एक नदी का नाम।
⋙ वेतसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वेतस'। यौ०—वेतसीवृत्ति=बेंत के समान झुक जाने का स्वभाव या लचीलापन।
⋙ वेतसु
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैदिक काल के एक असुर का नाम।
⋙ वेतस्वान्
संज्ञा पुं० [सं० वेतस्वत्] प्रदेश या स्थान जो बेंतों से भरा हुआ हो [को०]।
⋙ वेता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वेतन'।
⋙ वेताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्वारपाल। संतरी। २. शिव के एक गणा- धिप। ३. पुराणों के अनुसार भूतों की एक प्रकार की योनि। बैताल। उ०—गुटिका, पादुका, रस, परस, खहु, वेताल, यक्षिणी आठहु ये उपसिद्धि तें समन्वित।—वर्ण०, पृ० ३। विशेष—इस योनि के भूत साधारण भूतों के प्रधान माने जाते हैं। ये प्रायःश्मशानों आदि में रहते हैं। ४. वह शव जिसपर भूतों ने अधिकार कर लिया हो। ५. छप्पह के छठें भेद का नाम, जिसमें ६५ गुरु और २२ लघु, कुल ८७ वर्ण या १५२ मात्राएँ, अथवा ६५ गुरु और १८ लघु, कुल ८३ वर्ण या १४८ मात्राएँ होती है।
⋙ वेतालकर्मज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेताल कर्म जानता हो। वेताल कर्म का जानकार।
⋙ वेतालग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का भूतग्रह। विशेष—कहते है, जिसपर इस ग्रह का आक्रमण होता है उसमें बहुत से दोष आ जाते हैं। वह प्रायः काँपता रहता है, सच बोलता है और फूल माल तथा सुगंधि आदि बहुत पसंद करता है।
⋙ वेतालजननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्कंद की एक मातृका का नाम [को०]।
⋙ वेतालभट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] विक्रम की सभा के नौ रत्नों में से एक का नाम।
⋙ वेतालसाधन
संज्ञा पुं० [सं० वेताल + साधन] वेताल को सिद्ध करने का काम। साधना से वेताल को वश में करना [को०]।
⋙ वेतालसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.बौद्ध तंत्रानुसार वेताल का अलौकिक सामर्थ्य। २. साधना द्वारा वेताल को वशीभूत करना जिससे अलौकिक एवं असंभव कार्य भी संभव कर दिखाते हैं [को०]।
⋙ वेताला, वेताली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा [को०]।
⋙ वेतालासन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तंत्रोक्त आसन [को०]।
⋙ वेतासुर पु
संज्ञा पुं० [सं० वेत्रासर, प्रा० वेतासुर] दे० 'वेत्रासुर'। उ०—किधौं इंद्र वेतासुरं जुद्ध बीर्य। किधों तारका युद्ध सुर सस्सि कीर्य।—पृ० रा०, ६१।२०६०।
⋙ वेत्ता (१)
वि० [सं० वेत्तृ] जाननेवाला। ज्ञात। जानकार। जैसे,— तत्ववेत्ता, शास्त्रवेत्ता।
⋙ बेत्ता (२)
संज्ञा पुं० १. तत्वज्ञ ऋषि। २. ज्ञाता। ३. पति जो विवाह में कन्या रुप वधू पाता है। ४. प्राप्त करनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ वेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेंत। २. दंड। विशेषकर द्वारपाल का दंड (को०)। ३. वृत्रासुर (को०)। ४. बाँसुरी की नली (को०)।
⋙ वेत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] रामसर। सरपत।
⋙ वेत्रकरीर
संज्ञा पुं० [सं०] बेंत का कनखा या कोपल [को०]।
⋙ वेत्रकार
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बेंत के सामान बनाता हो।
⋙ वेत्रकीय
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान या देश जहाँ बेंत की अधिकता हो।
⋙ वेत्रकूट
संज्ञा पु० [सं०] पूराणनुसार हिमालय की एक चोटी का नाम।
⋙ वेत्रगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० वेत्रगङ्गा] हिमालय से निकली हुई एक नदी का नाम।
⋙ वेत्रग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] दगबान का काम। वेत्रधर या संतरी का काम [को०]।
⋙ वेत्रदंडिक
संज्ञा पुं० [सं० वेत्रदण्डक] द्वारपाल। संतरी [को०]।
⋙ वेत्रधर, वेत्रधारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्वारपाल। संतरी।२. लठैत। लठबंद।
⋙ वेत्रधारी
संज्ञा पुं० [सं० वेत्रधारिन्] दे० 'वेत्रधर' [को०]।
⋙ वेत्रपट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेंत की चटाई। वेत्र का बुना हुआ आस्तरण [को०]।
⋙ वेत्रपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] छड़ीबरदार। द्वाररक्षक [को०]।
⋙ वेत्रभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वेत्रधर'।
⋙ वेत्रमूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] यवतिक्ता। शंखिनी।
⋙ वेत्रयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बैंत की छड़ी [को०]।
⋙ वेत्रलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेत्रयष्टि। बैंत की छड़ी [को०]।
⋙ वेत्रवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेतवा नदी जो मालवे से निकलकर कालपी के पास यमुना में मिलतो है। उ०—इक्क लख्ख दल मिल्लियव वेत्रवती के तीर।—प० रासो, पृ० ८८। २. द्वाररक्षिका।
⋙ वेत्रहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] द्वारपाल। छड़ीबरदार। वेत्रधर [को०]।
⋙ वेत्रहा
संज्ञा पुं० [सं० वेत्रहन्] इंद्र।
⋙ वेत्राघात, वेत्राभिघात
संज्ञा पुं० [सं०] बेंत से मारना [को०]।
⋙ वेत्राम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] अम्लबेंत। वेतसाम्ल [को०]।
⋙ वेत्रावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वेत्रवती'।
⋙ वेत्रासन
संज्ञा पुं० [सं०] बेंत का बना हुआ किसी प्रकार का आसन।
⋙ वेत्रासुर
संज्ञा पुं० [सं०] पूराणनुसार एक प्रसिद्ध असुर का नाम जो प्राग्ज्योतिषपुर का राजा था। विशेष—इसने पहले समस्त संसार को जीतकर फिर इंद्र, अग्नि और यम पर विजय प्राप्त की थी। अंत में इंद्र ने इसे मार डाला था। कहते हैं, यह सिंधुद्वीप नामक राजा का पुत्र था और वेत्रवती नदी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।
⋙ वेत्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार प्राचीन काल के एक जनपद का नाम। २. इस जनपद का निवासी।३. द्वारपाल। संतरी।
⋙ वेत्री
संज्ञा पुं० [सं० वेत्रिन्] १. द्वारपाल। संतरी। चोबदार। असाबरदार। ३. वह जिसके हाथ में वेत्र हो।
⋙ वेदंड
संज्ञा पुं० [सं० वेदण्ड] हाथी। वेतंड।
⋙ वेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी विषय का, विशेषतः धार्मिक या आध्यात्मिक विषय का सच्छा और वास्तविक ज्ञान। २. वृत्त। ३. वित्त। ४. यज्ञांग। ५. भारतीय आर्यों के सर्वप्रधान और सर्वमान्य धार्मिक ग्रंथ जिनकी सख्या चार है और जो ब्रह्मा कें चारों मुखों से निकले हुए माने जाते हैं। आम्नाय। श्रुति। विशेष—आरंभ में वेद केवल तीन ही थे—ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद (दे० उक्त तीनों शब्द)। इनमें ऋग्वेद पद्य में है और यजुर्वेद गद्य में और सामवेद गाने योग्य गीत या साम हैं। इसीलिये प्राचीन साहित्य में 'वेदत्रया' शब्द का ही अधिक प्रयोग देखने में आता है, यहाँ तक की मनु ने भी अपने धर्मशास्त्र में अनेक स्थानों पर 'वेदत्रयी' शब्द का ही व्यवहार किया है। चौथा अथर्ववेद पीछे से वेदों में संमलित हुआ था और तबसे वेद चार माने जाने लगे। इस चौथे या अंतिम वेद में शांति तथा पौष्टिक अभिचार, प्रायश्चित, तंत्र, मंत्र आदि विषय है। वेदों के तीन मुख्य भाग हैं जा सहिता, ब्राह्मण और आरण्यक या उपनिषद कहलाते हैं। संहिता शब्द का अर्थ सग्रह है, और वेदों के संहिता भाग में स्तोत्र, प्रार्थना, मंत्रप्रयोग, आशीर्वादात्मक सुक्त, यज्ञविधि से संबंध रखनेवाले मेंत्र और अरिष्ट आदि की शांत के लिये प्रार्थनाएँ आदि संमिलित हैं। वेदों का यही अंस मंत्र भाग भी कहलाता है। ब्राह्मण भाग में एक प्रकार से बड़े बड़े गद्य ग्रंथ आते हैं जिनमें अनेक देवताओं की कथाएँ, यज्ञ संबंधी विचार और भिन्न भिन्न ऋतुओं में होनेवाले धार्मिक कृत्यों के व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक महत्व का निरुपण है। इनमें कथाओं आदि का जा अंश है, वह अर्यवाद कहलाता है, और धार्मिक कृत्यों की विधियोंवाले अंश को विधि कहते हैं। वनों में रहनेवाले यति, सन्यासी आदि परमेश्वर, जगत् औऱ मनुष्य इन तीनों के संबंध में जो विचार किया करते थे, वे उपनिषदों और आरण्यकों में संगृहीत हैं। इन्हीं में भारतवर्ष का प्राचीनतम तत्वज्ञान भार हुआ है। यह मानो वदों का अंतिम भाग है, और इसीलिये वेदांत कहलाता है। वेदों का प्रचार बहुत प्राचीन काल से और बहुत विस्तृत प्रेदश में रहा है, इसलिये कालभेद, देशभेद और व्यक्तिभेद आदि के कारण वेदों के मंत्रों के उच्चारण आदि में अनेक पाठभेद हो गए हैं। साथ ही पाठ में कहीं कहीं कुछ न्यूनता और अधि- कता भी हो गई है। इस पाठभेद के कारण सहिताओं को जो रुप प्राप्त हुए हैं, वे शाखा कहलाते हैं, और इस प्रकार प्रत्येक वेद की कई कई शाखाएँ हो गई है। चारों वेदों से निकली हुई चार विद्याएँ कही गई हैं, और जिन ग्रंथों इन चारों विद्याओं का वर्णन है, वे उपवेद कहलाते हैं। प्रत्येक वेद का एक स्वतंत्र उपवेद माना जाता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंद ये छह वेदों के अंग या वेंदांग कहलाते हैं।वेदों का स्थान संसार के प्राचीनतम इतिहास में बहुत उच्च है। इनमें भारतीय आर्यो की आरंभिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और नैतिक सभ्यता का बहुत अच्छा दिग्दर्शन है। भारतीय आर्य या हिंदु लोग इन्हें अपौरुषेय और ईश्वरकृत मानते हैं। लोगों का विश्वास है कि ब्रह्मा ने अपने चारों मुखों से वेद कहे हैं; और जिन जन ऋषियोंने जो मंत्र सुनकर संगृहीत किए हैं वे ऋषि इन मंत्रों के द्रष्टा हैं। प्रायः सभी संप्रदायों के लोग वेदों को परम प्रमाण्य मानते हैं। स्मृतियों और पुराणों आदि में वेद देवताओं आदि के मार्गदर्शक, नित्य, अपौरुषेय और अप्रमेय कहे गए हैं। ब्राह्मणों और उपनिषदों में तो यहाँ तक कहा गया है कि वेद सृष्टी से भी पहले के हैं और उनका निर्माण प्रजापति ने किया है। कहा जाता है, वेदों का वर्तमान रुप में संग्रह और संकल महर्षि व्यास ने किया है; और इसीलिये वे वेदव्यास कहे जाते हैं। विष्णु और वायुपुराण में कहा गया है कि स्वंय विष्णु नें वेदव्यास का रुप धारण करके वेद के चार भाग किए और क्रमशः पैल, वंशपायन, जेमिनि और सुमंत इन चार ऋषियों को दिए। वेदांती लाग वेदों को ब्रह्मा से निकला हुआ मानते हैं, और जैमिनि तथा कपिल इन्हें स्वतःसिद्ध कहते हैं। वेदों के रचनाकाल के संबंध में विद्वानों में बहुत अधिक मतभेद है। मैक्समूलर आदि कई पाशचातय विद्वानों का मत है कि वेदों को रचना ईसा से प्रायःहजार डेढ हजार बरस पहले उस समय हुई थी, जिस समय आर्य लोग आकर पंजाब में बसे थे। परंतु लोकमान्य तिलक ने ज्योतिष संबंधी तथा अन्य कई आधारों पर वेदों का समय ईसा से लगभग ४५०० वर्ष पूर्व स्थिर किया है। बहूलुर आदि विद्वानों का मत है आर्य सभ्यता ईसा से प्रायः चार हजार वर्ष के पहले का है और वैदिक साहित्य को रचना ईसा से प्रायः तीन हजार वर्ष पहले हुई है; और अधिकांश लोग यही मत मानते हैं। ६. कुश का पूला (को०)। ७. विष्णु का एक नाम (को०)। ८. चार का संख्या (को०)। ९. विधि। कर्मकांड (को०)। १०. व्याख्या। कारिका (को०)। ११. एक छंद (को०)। १२. स्मृतिसाहित्य (को०)। १३. अनुभूति (को०)। १४. प्राप्ति (को०)। १५. वित्त (को०)।
⋙ वेदक
वि० [सं०] ज्ञान करानेवाला। परिचय करानेवाला होश या चेतना में लानेवाला।
⋙ वेदकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० वेदकर्तु] १. वह जिसने वेद का रचना की। वेदो का रचायता।२. सूर्य। ३. शिव। ४. विष्णु। ५. वर पक्ष के बड़ बूढ़े लगा जा विवाह हो चुकन के उपरात वेदा पर बठे हुए वर और वधू का आशार्वाद देंने के लिये जाते हैं।
⋙ वेदकार
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों की रचयिता।
⋙ वेदकारण
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम [को०]।
⋙ वेदकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० वेकुम्भ] एक वैदिक आचार्य का नाम।
⋙ वेदकुशल
संज्ञा पुं० [सं०] वेदज्ञ [को०]।
⋙ वेदकौलेयक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का नाम।
⋙ वेदगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० वेदगङ्गा] दक्षिण भारत की एक नदी का नाम जो कोल्हापुर राज्य से निकलकर कृष्णा नदी में मिलती है।
⋙ वेदगत
वि० [सं०] चतुर्थ स्थान का। चौथें स्थानवाला [को०]।
⋙ वेदगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. विष्णु (को०)।३. ब्राह्मण।
⋙ वेदगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरस्वती नदी। २. रेवा नदी।
⋙ वेदगर्भापूरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूराणानुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ वेदगांभीर्य
संज्ञा पुं० [सं० वेदगाम्भीर्य] वेदों की गंभीरता या गूढ़ अर्थ।
⋙ वेदगाथ
संज्ञा पुं० [सं०] पूराणानुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ वेदगुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीकृष्ण का एक नाम। २. भागवत के अनुसार पराशर के एक पुत्र का नाम।
⋙ वेदगृह्य
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ वेदघोष
संज्ञा पुं० [सं०] वदध्वनि [को०]।
⋙ वेदजननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सावित्री जो वेद की माता मानी जाती है।
⋙ वेदज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वेदों का ज्ञाता हो। वेद जाननेवाला। २. वह जो ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर चुका हो। ब्रह्मज्ञानी।
⋙ वेदतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] वेद का प्रमुख उद्देश्य। ब्रह्मप्रज्ञान [को०]।
⋙ वेदतात्पर्य
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों का वह अर्थ जो समुचित और अभि- प्रेत हो [को०]।
⋙ वेदतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] पूराणनुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ वेदत्रय
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वेदत्रयी' [को०]।
⋙ वेदत्रयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋक्, यजुः तथा साम ये तीनों वेद। उ०— उ०—वेदत्रयी अरु राजसिरी परिपूरणता शुभ योगमयी है। उ०— केशव (शब्द०)।
⋙ वेदत्व
संज्ञा पुं० [सं०] वेद का भाव या धर्म।
⋙ वेददक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेद विद्या पढ़ाने की दक्षिणा। वेदा- ध्ययन की दक्षिणा [को०]।
⋙ वेददर्श
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार एक प्राचीन मुनि का नाम।
⋙ वेददर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो देखने में वेदों का स्वरुप जान पड़े।
⋙ वेददर्शी
संज्ञा पुं० [सं० वेददर्शिन्] वह जो वेदों का ज्ञाता हो।
⋙ वेददल
वि० [सं०] १. चार दलों या पत्तोंवाला।२. चार सेनाओं या समूहोंवाला [को०]।
⋙ वेददान
संज्ञा पुं० [सं०] वेद पढ़ाना।
⋙ वेददीप
संज्ञा पुं० [सं०] महीधर का किया हुआ शुक्लयजुर्वेद का भाष्य।
⋙ वेददृष्ट
वि० [सं०] वेद द्वारा प्रमाणित [को०]।
⋙ वेदधारण
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों को कंठ ग्र रखना [को०]।
⋙ वेदध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सस्वर वेदपाठ से होनेवाली ध्वनि। वेदघोष [को०]।
⋙ वेदन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वेदना'।
⋙ वेदना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुःख या कष्ट आदि का होनेवाला अनुभव। पीड़ा। व्यथा। तकलोफ। २. बौद्धों के अनुसार पाँच स्कंधों में से एक स्कंध।३. चिकित्सा। इलाज। ४. चमड़ा। ५. ज्ञान। प्रत्यक्ष ज्ञान (को०)। ६. अनुभूति। भावना (को०)। ७. प्राप्ति (को०)। ८. संपत्ति (को०)। ९. भेंट। उपहार (को०)। १०. विवाह (को०)। ११. उच्च वर्ग के पुरुष के साथ शुद्रा का विवाह (को०)।
⋙ वेदनाद
संज्ञा पुं० [सं०] वेदध्वनि। वेदघोष [को०]।
⋙ वेदनिंदक
संज्ञा पुं० [सं० वेदनिन्दक] १. वह जो वेदों की निंदा करता हो। वेदों की बुराई करनेवाला। २. नास्तिक। ३. भगवान् बुद्ध का एक नाम। ४. बौद्ध या जैन धर्म का अनुयायी।
⋙ वेदनिंदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदों में विश्वासन करना। वेदों की निंदा या बुराई [को०]।
⋙ वेदनिंदी
वि० [सं० वेदनिन्दिन्] दे० 'वेदनिंदक' [को०]।
⋙ वेदनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसकी निधि वेद हो। ब्राह्मण जो वेदज्ञ हो [को०]।
⋙ वेदनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्वचा। चमड़ा [को०]।
⋙ वेदनीय
वि० [सं०] १. जानने योग्य। २. कष्टदायक। जो वेदना उत्पन्न करे। ३. बताने योग्य। ज्ञान कराने योग्य। जताने योग्य (को०)।
⋙ वेदपठिता
वि० [सं० वेदपठितृ] वेदपाठ करनेवाला [को०]।
⋙ वेदपथ
संज्ञा पुं० [सं०] वेदविहित आचरण। वेदमार्ग [को०]।
⋙ वेदपथी
संज्ञा पुं० [सं० वेदपथिन्] वेदपथ। वेदमार्ग [को०]।
⋙ वेदपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों का सस्वर पठन [को०]।
⋙ वेदपाठक
संज्ञा पुं० [सं०] वेदपाठी [को०]।
⋙ वेदपाठी
संज्ञा पुं० [सं० वेदपाठिन्] वेदपाठ करनेवाला ब्राह्मण [को०]।
⋙ वेदपारग
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वेदों का ज्ञाता हो। २. वह जो वैदिक कर्मों का ज्ञाता हो।
⋙ वेदपुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] वेदपाठ का कार्य। वेदाध्ययन का शुभ कर्म [को०]।
⋙ वेदप्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] वेदाध्ययन कराना। वेदादान करना [को०]।
⋙ वेदप्लावी
संज्ञा पुं० [सं० वेदप्लाविन्] वह जो सार्वजनिक रुप से वेद की शिक्षा दे। सार्वजनिक वेदशिक्षक [को०]।
⋙ वेदफल
संज्ञा पुं० [सं०] वह फल जो वैदिक कर्म करने से प्राप्त होता है।
⋙ वेदबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] १. भागवत के अनुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम। ३. मनुरैवत कै अधीन सात ऋषियों में से एक (को०)।
⋙ वेदबाह्य
वि० [सं०] १. वेद के प्रतिकूल। वेद के विरुद्ध। २. वेदों के प्रति अविश्वास करनेवाला।
⋙ वेदबीज
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ वेदब्रह्मचर्य
संज्ञा पुं० [सं०] वेद पढ़ने की अवस्था [को०]।
⋙ वेदभू
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार देवताओं के एक गण का नाम।
⋙ वेदभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि क नाम।
⋙ वेदमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० वेदमन्त्र] १. वेदों में आए हुए मंत्र। २. पुराणानुसार एक जनपद का नाम। ३. एस जनपद का निवासी।
⋙ वेदमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० वेदमातृ] १. गायत्री। सावित्री। २. दुर्गा। ३. सरस्वती।
⋙ वेदमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सावित्री।
⋙ वेदमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक आचार्य का नाम।
⋙ वेदमुंड
संज्ञा पुं० [सं० वेदमुण्ड] एक असुर का नाम।
⋙ वेदमुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का क्षुद्र कीट या खटमल [को०]।
⋙ वेदमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वेदों का बहुत बड़ा ज्ञाता हो। २. आदित्य। सूर्य।
⋙ वेदमूल
वि० [सं०] वेद ही जिसका मूल आधार हो। वेद पर आधा- रित [को०]।
⋙ वेदयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेद पढ़ना। वेदपाठ करना। २. वैदिक यज्ञ यागादि।
⋙ वेदयिता
वि० संज्ञा [सं० वेदयितृ] ज्ञाता। जानने या अनुभव करनेवाला [को०]।
⋙ वेदरक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मणों का प्रमुक कर्तव्य—वेदो की राक्षा करना।
⋙ वेदरहस्य
संज्ञा पुं० [सं०] उपनिषद्।
⋙ वेदारिचा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वेदऋचा] वेदों की ऋचा। वेदमंत्र। उ०—जे वे गोप वधू हीं ब्रज में तेइ अब बेदरिचा भई येह।—छीत०, पृ० ७।
⋙ वेदल पु
वि० [सं० विदल] विकसित। दे० 'विदल'। उ०—मिलै पद पद्द सु वेदल चंप।—पृ० रा०,६१।४३७।
⋙ वेदवचन
संज्ञा पुं० [सं०] वेदवाक्य। वेदमंत्र [को०]।
⋙ वेदवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजा कुशध्वज की कन्या का नाम। कहते हैं, यही दुसरे जन्म में सीता हुई थीं। २. पूराणानुसार पारियात्र पर्वत की एक नदी का नाम। ३. अप्सरा। ४. दक्षिण भारत की एक नदी का नाम।
⋙ वेदवदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. व्याकरण।
⋙ वेदवाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेद का कोई वाक्य। २. ऐसी बात जो पूर्ण रूप से प्रामाणिक हो और जिसका खंडन न हो सकता हो।
⋙ वेदवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेदों पर होनेवाला शास्त्रार्थ। २. वेदज्ञान [को०]।
⋙ वेदवादी
संज्ञा पुं० [सं० वेदवादिन्] वह जो वेदों का अच्छा ज्ञाता हो।
⋙ वेदवास
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण।
⋙ वेदवाह
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेदों का ज्ञाता हो।
⋙ वेदवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ वेदविक्रयी (१)
वि० [सं० वेद + विक्रयिन्] वेद को बेचनेवाला। धन लेकर वेद पढ़ानेवाला [को०]।
⋙ वेदविक्रयी (२)
संज्ञा पुं० पतित बेदज्ञ [को०]।
⋙ वेदविद्
संज्ञा पुं० [सं० वेदवित्] १. वह जो वेदों का ज्ञाता हो। वेदज्ञ। २. विष्णु का एक नाम।
⋙ वेदविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेद का विधान या विधि। वेद में निर्धारित विधान। उ०—प्रच्छन्न बौद्ध ज्यों कहने लगे, वेद- विधि के कर्मकांड के लोप से दुखी जन वे विधि के प्रत्याशी।— अपरा, पृ० २१४।
⋙ वेदविहित
वि० [सं०] वेद के अनुकुल [को०]।
⋙ वेदवृद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन आचार्य का नाम।
⋙ वेदवैनाशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम।
⋙ वेदव्यास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'व्यास'। उ०—कर्म फाँस तहवाँ लग राखा। जहाँ लग वेदव्यास कछु भाषा।—कबीर सा०, पृ० ९६१।
⋙ वेदव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेदों का अध्ययन करता हो।
⋙ वेदशिर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भागवत के अनुसार कृशाश्च के पुत्र का नाम। २. पूराणनुसार एक प्रकार का अस्त्र।
⋙ वेदशिर (२)
संज्ञा पुं० [सं० वेदशिरस्] पुराणनुसार मार्कँडेय केएक पुत्र का नाम, जो मूर्द्धन्या के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। कहते हैं, भार्गव लोगो का मूल पुरुष यही था।
⋙ वेदशिरा
संज्ञा पुं० [सं० वेदशिरिस् ]दे० 'वेदशिर' [को०]।
⋙ वेदशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ वेदश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० वेश्रवस्] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ वेदश्री
संज्ञा पुं० [सं०] पूराणनुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ वेदश्रुत
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत के अनुसार वसिष्ठ के एक पुत्र का नाम।
⋙ वेदश्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।
⋙ वेदसम्मत
वि० [सं० वेदसम्मत] वेदानुकुल [को०]।
⋙ वेदसम्मित
वि० [सं० वेदसम्मित] बेद के समान। महत्वपूर्ण। वेद के दारा विहित [को०]।
⋙ वेदसार
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ वेदसिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूराणनुसार एक नदी का नाम।
⋙ बेदस्पर्श
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन वैदिक आचार्य का नाम।
⋙ वेदस्मृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में हैं।
⋙ वेदस्मृति, वेदस्मृती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदस्मृता नदी का नाम।
⋙ वेदहीन
वि० [सं०] वेद के ज्ञान से रहित। वह जिसे वेद का ज्ञान न हो [को०]।
⋙ वेदांग
संज्ञा पुं० [सं० वेदाङ्ग] १. वेदो के अंग या शस्त्र जो छह हैं और जिनके नाम इस प्रकार हैं—शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतइष और छंद। विशेष—इनमें से व्याकरण को लोग वेदों का मुख, शिक्षा को नाक, निरुक्त को कान, ज्योतिष को आँच, कल्प को हाथ औऱ छंद को पैर मानते हैं। २. सूर्य का एक नाम। ३. बारह आदित्यों में से आदित्य।
⋙ वेदांत
संज्ञा पुं० [सं०वेदान्त] १. उपनिषद् और आरण्यक आदि वेद के अंतिम भाग जिनमें आत्मा, परमात्मा, जगत् आदि के संबंध में निरुपण है। ब्रह्माविद्या। अध्यात्म विद्या। अध्यात्म शास्त्र। ज्ञानकांड। उ०—यद्यपि उपनिषदों को 'वेदांत' (वेद + अंत) संज्ञा दी गई है।—संत० दरिया (भू०), पृ० ५६। २. छह दर्शनों में से प्रधान दर्शन जिसमें चैतन्य या बहुत ही एक मात्र पारमार्थिक सत्ता स्वीकार किया गया है; जड़ जगत् और जीव कोई अतिरिक्त या अन्य पदार्थ नहीं माने गए। उत्तार मीमांसा। अद्वैतवाद। विशष—यद्यपि इस सिद्धांत का आभास वेद के मंत्रभाग में कहीं कहीं पाया जाता है, पर आगे चलकर ब्राह्मणों, आरण्यकों में अधिक से अधिकतर होता गया है। तथापि सर्वधिक इसका आधार उपनिषद् ही है जिनमें जीव, जगत् और ब्रह्मा आदि का निरुपण है। उपनिषदों में मख्य वे दस कठ, केन, प्रश्न आदि उपनिषद् हैं जिनपर आद्य शंकराचार्य का भाष्य मिलता है। उनमें जिस प्रकार 'अहं' ब्रह्मांस्मि, 'तत्वमसि' आदि जीवात्मा और परमात्मा की एकता प्रतिपादित करनेवाले महावाक्य हैं, उसी प्रकार पंचमहाभूतों में से पृथ्वी, जल और अग्नि ब्रह्म के मूर्त रुप तथा वायु और आकाश अमूर्त रुप कहे गए हैं। इस पक्रार उनमें जीवात्मा और जड़जगत् दोनों का समावेश बहुत के भीतर मिलता है जो अद्वेतवाद का आधार है। आगे चलकर उपनिषद् की इस बहुअविद्या का दार्शनिक ढंग से निरुपण महर्षि वादरायणँ क 'ब्रह्मसूत्रा' में हुआ है, जिनपर कई भाष्य भिन्न भिन्न आचार्यों ने अपने अपने मत के अनुसार रचे। इनमें अनेक भाष्य अत्यंत प्रसिद्ध हैं,—शंकताचार्य (शारीरीक), रामानुज वल्लभ आदि अनेक आचतार्यों ने इसपर भाष्य लिखे इनमें से शंकर का भाष्य ही सबसे प्रसिद्ध और चिंतनपद्धांति में बहुत आगे बढ़ा हुआ है। अतः'वेदात' शब्द से साधारणतः शकर का अद्वतवाद ही समझा जाता है। शेष भाष्य अनेक विद्वानों के मत से सांप्रदायिक मान जाते हैं। जगत् जीव और ब्रह्म या परमात्मा इन तीनों वस्तुओं के स्वरुप तथा इनके पारस्परिक संबंध का निर्णय ही वेदांत शास्त्र का विषय है। न्याय और वेशेषिक ने ईश्वर, जाव और जगत्(या जगत् के मूलद्रव्य परामाणु) ये तीन तत्व मानकर ईश्वर को जगत् का कर्ता ठहराया है, जो सर्वसाधारण की स्थूल भावना के अनुकूल है। वैशेषिक के अनुसार जगत् का मूल रुल परमाणु है जो नित्य है और जिसके ईश्वर- प्रेरित संयोग से सृष्टि होती है। इसके आगे बढ़कर सांख्य ने दो ही नित्य तत्व स्थिर किए—पुरुष, (आत्मा) और प्रकृत; अर्थात् एक और असंख्य चेतन जीवात्माएँ और दूसरों ओर जड़जगत् का अव्यक्त मूल। ईश्वर या परमात्मा का समावेश सांख्यपद्धति में नहीं है। सृष्टि के विकास की सूक्ष्म तात्विक विवेचना सांख्य ने ही की है। किस प्रकार एक अव्यक्त प्रकृति से क्रमशः आपसे आप जगत् का विकास हुआ इसका पूरा ब्योरा उसमें बताया गया है; और जगत् का कोई कर्ता है, नैयायिकों के इस सिद्धांत का खंडन किया गया है। पुरुष या आत्मा केवल द्रष्टा है, कर्ता नही। इसी प्रकार प्रकृति जड़ और क्रियामयी है। एक लँगड़ा है, दूसरी अंधा। असंख्य पुरुषों के संयोग या सान्निध्य से ही प्रकृति सृष्टि- क्रिया में तत्पर हुआ करती है। वेदांत ने और आगे बढ़कर असंख्या पुरुषों का एक ही परमतत्व ब्रह्मा में आविभक्त रुप से समावेश करके जड़ चेतन के द्वैत के स्थान पर अद्वैत को स्थापना की। वेदात ने सांख्यों के अनेक पुरुषों का खंडन किया और चेतन तत्व को एक और अविच्छिन्न सिद्ध करते हुए बताया कि प्रकृति या माया को 'अहंकार' गुणरुपी उपाधि से ही एक के स्थान पर अनेक पुरुषों या आत्माओं की प्रतिति होती है। यह अनेकता मायाजन्य है। सांख्यों ने पुरुष और प्रकृति के संयोग से जो सृष्टि को उत्पत्ति कही है, वह भी असंगत है, क्योंकि यह संयोग या तो सत्य हो सकता है अथवा मिथ्या। यदि सत्य है, तो नित्य है; अतः कभी टुट नही सकता। इस दशा में आत्मा कभी मुक्त हो ही नहीं सकती। इसी प्रकार की युक्तियों से पुरुष और प्रकृति के द्वेत को न मानकर वेदांक ने उन्हें एक ही परम तत्व ब्रह्मा की विभूतियाँ बताया। वेदांत के अनुसार ब्रह्मा जगत् का निमित्त और उपादान दोनों है। नामरुपात्मक जगत् के मूल में आधआरभूत होकर रहनेवाले इस नित्य और निर्विकार तत्व ब्रह्म का स्वरुप कैसा हो सकता है, इसका भी निरुपण वेदांत ने किया है। जगत् में जो नाना द्दश्य दिखाई पड़ते हैं, वे सब परिणामी और अनित्य हैं। वे बदलते रहते हैं, पर उनका ज्ञान करनेवाला आत्मा या द्रष्टा सदा वही रहता है। यदि ऐसा न होता तो भूतकाल में अनुभव की हुई बात का वर्तमानकाल में अनुभूत विषय के साथ जो संबंध जोड़ा जाता है, वह असंभव होता है (पंचदशी)। इसी से ब्रह्मा का स्वरुप भी ऐसा ही होना चाहिए। अर्थात् ब्रह्मा चितत्वरुप या आत्मस्वरुप है। नानी ज्ञेय पदार्थ भी ज्ञाता के ही सगुण, सोपाधि या मायात्मक रुप हैं, यह निश्चित करके ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत वेदांत ने हटा दिया है, ब्रह्मा स्वरुप का विवेचन वेदांत के पिछले ग्रंथों में ब्योरे के साथ हुआ है। जगत् और सृष्टि के संबंध में वेदांतियों ने नैयायिकों के 'आंरंभवाद' (ईश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है) और सांख्य के 'परिणामवाद' (सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम द्वारा अव्यक्त प्रकृति से आपसे आप होता है) के स्थान पर 'विवर्तवाद' की स्थापना की है जिसके अनुसार जगत् ब्रह्मा का विवर्त या कल्पित रुप है। रस्सी को यदि हम सर्प समझें तो रस्सी सत्य वस्तु है और सर्प उसका विवर्त या भ्रांतिजन्य प्रताति है। इसी प्रकार ब्रह्मा तो नित्य और वास्तविक सत्ता है और नामरुपात्मक् जगत् उसका विवर्त है। यह विवर्त अध्यास द्वारा होता है। जो नामरुपात्मक दृश्य हम देखते हैं वह न तो ब्रह्मा का वास्तव स्वरुप ही है, न कार्य या परिणाम ही क्योकि ब्रह्म निर्विकार और अपरिणामी है। अध्यास के संबंध में कहा जा सकता है कि सर्प कोई अलग पदार्थ है तब तो उसका आरोप होता है। अतः इस विषय को और स्पष्ट करने के लिये 'दृष्टि'- सृष्टि-वाद' उपस्थित किया जाता है जिसके अनुसार माया या नामरुप मन की वृत्ति है। इनको सृष्टि मन ही करना है और मन ही देखता है। ये नामरुप उसी प्रकार मन या वृत्तियों कें बाहर की कोई वस्तु नही है, जिस प्रकार जड़ चित् के बाहर की कोई वस्तु नहीं है। इन वृत्तियों का शमन है मौक्ष है। इन दोनों वादों में कुछ त्रुटि देखकर कुछ वेदांती 'अवच्छेदवाद' का आश्रय लेते हैं। वे कहते है कि ब्रह्मा के अतिरिक्त जगत् की जो प्रतीति होती है, वह एकरस या अनवच्छिन्न सत्ता के भीतर माया द्वारा अवच्छेद या परिमिति के आरोप के कारण होती है। कुछ अन्य वेदांती इन तीनों वादों के स्थान पर बिंब- प्रतिबिंब-वाद उपस्थित करते हैं और कहते हैं कि ब्रह्मा प्रकृति या माया के बीच अनेक प्रकार से प्रतिबिंबित होता है जिससे नामरुपात्मक दृश्यों की प्रतीति होती है। अंतिम वाद 'अजात वाद' है जिसे 'प्रौढ़िवाद' भी कहते है। यह सब प्रकार की उत्पत्ति को, चाहे वह विवर्त के रुप में कही जाय, चाहे दृष्टी सृष्टी या अवच्छेद या प्रतिबिंब के रुप में—अस्वीकार करता है और कहना है कि जो जैसा है वह वैसा ही है और सब ब्रह्मा है। ब्रह्मा अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही नहीं सकता क्योंकि हमारे पास जो भाषा है, वह द्वैत हा की है; अर्थात् जो कुछ हम कहते हैं भेद के आधार पर हो। यद्यपि ब्रह्मा का वास्तविक या पारमार्थिक रुप अव्यक्त, निर्गुण और निर्विशेष है, तथापि व्यक्त और सगुण रुप भी उसके बाहर नहीं है। पंचदशी में इन सगुण रुपों का विभेद प्रतिबिंबावद के शब्दों में इसी प्रकार समझाया गया हैः रजोगुण की प्रवृत्ति से प्रकृति दो रुपों में विभक्त होती है—सत्वप्रधान और तमः प्रधान। सत्वप्रधान के भी दो रुप हो जाते है—शुद्ध सत्व (जिसमें सत्व गुण पूर्ण हो) और अशुद्ध सत्व (जिसमे सत्व अँशतः हो)। प्रकृति के इन्हीं भेदों में प्रतिबिंबित होने के कारण ब्रह्मा को 'जीव' कहते हैं।वेदांत या अद्वैतवाद से साधारणतः शंकराचार्य प्रतिपादित अद्वैत- वाद लिया जाता है जिसमें ब्रह्म स्वगत, सजातीय और विजातीय तीनों भेंदों से परे कहा गया है। पर जैसा ऊपर कहा जा चुका है, बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर रामानुजाचार्य और शंकराचार्य के भाष्य भी हैं। रामानुज के अद्वैतवाद को 'विशिष्टद्वैत' कहते हैं; क्योकि उसमें ब्रह्म को चित् और अचित् इन दो पक्षों से युक्त या विशिष्ट कहा है। ब्रह्म के इसी सूक्ष्म चित् और सूक्ष्म अचित् से स्थूल चित् (जीव) और स्थूल अचित् (जड़) उत्पन्न हुए। अतः रामानुज के अनुसार ब्रह्म केवल निर्मित्त कारण है; उपादान हैं जड़ (स्थूल अचित्) और जीव (स्थूल चित्)। इस मत के अनुसार जीव को ब्रह्म का अंश कह सकते हैं। पर शंकर मत से नही; क्यों- कि उसमें ब्रह्म सब प्रकार के भेदों से परे कहा गया है। वल्लभाचार्य जी का अद्वैत 'शुद्वाद्वैत' कहलाता है, क्योकिं उसमें रामानुजकृत दो पक्षों की विशिष्टता हटाकर अद्वैतवाद शुद्ध किया गया है। इस मक के अनुसार सत्, चित् और आनंद- स्वरुप ब्रह्म अपने इच्छानुसार इन तीनों स्वरुपों का आविर्भाव करता रहता है। जड़ जगत् भी ब्रह्म ही है, पर अपने चित् और आनंद स्वरुपों का पूर्ण तिरोभाव किए हुए तथा सत् स्वरुप का कुछ अशंतः आविर्भाव किए हुए है। चेतन जगत् भी ब्रह्म ही है जिसमें सत्, चित् और आनंद इन तीनों स्वरुपों का कुछ आविर्भाव और कुछ तिरोभाव रहता है। माया ब्रह्म ही की शक्ति है जो उसी की इच्छा से विभक्त होती है; अतः मायात्मक जगत् मिथ्या नही है। जाव अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरुप को तभी प्राप्त करता है जब आविर्भाव और तिरा- भाव दोनों मिट जाते है'; और यह बात केवल ईश्वर के अनुग्रह से ही, जिसे 'पुष्टि' कहते हैं, तो सकती है। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि रामानुज और वल्लभाचार्य केवल दार्शनिक ही न थे, भक्तिमार्गी भी थे।
⋙ वेदांतग (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेदान्तग] वेदांत दर्शन का अनुगमन करनेवाला। वेदांत मत का अनुयायी [को०]।
⋙ वेदांतग (२)
वि० वेदवेत्ता [को०]।
⋙ वेदातज्ञ
वि० [सं० वेदन्तज्ञ] वेदांत दर्शन का ज्ञाता। वेदांतग [को०]।
⋙ वेदांतवादी
वि० [सं० वेदांतवादिन्] अद्वैतवादी [को०]।
⋙ वेदांतविद्
वि० [सं० वेदान्तवित्] वेदांत दर्शन का ज्ञाता [को०]।
⋙ वेदांतवेदी
वि० [सं० वेदांतवेदिन्] अद्वैत दर्शन या वेदांत का ज्ञाता। ब्रह्मवादी। वेदांती [को०]।
⋙ वेदांतसूत्र
संज्ञा पुं० [सं० वेदान्तसूत्र] महर्षि वादरायण कृत सूत्र जो वेदांत शास्त्र के मूल माने जाते हैं। विशेष दे० 'वेदांत'।
⋙ वेदांती
संज्ञा पुं० [सं० वेदान्तिन्] वह जो वेदांत का अच्छा ज्ञाता हो। वेदांत का पूरा पंडित। ब्रह्मवादी।
⋙ वेदाग्रणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती।
⋙ वेदात्मा
संज्ञा पुं० [सं० वेदात्मन्] १. विष्णु। २. सूर्य।
⋙ वेदादि
संज्ञा पुं० [सं०] प्रणव या ओंकर का मंत्र। यौ०—वेदादिबीज=प्रणव। वेदादिवर्ण=ओंकर मंत्र। प्रणव। वेदादिवीज।
⋙ वेदादिबीज
संज्ञा पुं० [सं०] प्रणव या ओंकार का मंत्र।
⋙ वेदाधिगम
संज्ञा पुं० [सं०] वेदाध्ययन [को०]।
⋙ वेदाधिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राहूमण।
⋙ वेदाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. चारों वेदों के अधिपति, ग्रह जो इस प्रकार है—ऋग्वेद के अधिपति बृहस्पति, यजुर्वेद के शूक्र, सामवेद के मंगल और अथर्ववेद के बुध। २. विष्णु का एक नाम (को०)।
⋙ वेदाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वेदाधिप' [को०]।
⋙ वेदाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण का एक नाम।
⋙ वेदाध्ययन
संज्ञा पुं० [सं०] वेदाधगम। वेदाध्ययन। वेदों का पढ़ना [को०]।
⋙ वेदाध्यापक
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों का अध्यापन करनेवाला [को०]।
⋙ वेदाध्यायी
वि० [सं० वेदाध्यायिन्] वेदापाठ या वेद का अध्ययन करनेवाला [को०]।
⋙ वेदानुवचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेद का पाठ करना। २. वेद का वचन। वेदवाक्य [को०]।
⋙ वेदाप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदों पर पूर्ण अधिकार होना [को०]।
⋙ वेदार
संज्ञा पुं० [सं०] गिरगिट।
⋙ वेदार्ण
संज्ञा पुं० [सं०] तीर्थविशेष [को०]।
⋙ वेदार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वेदवचन का अर्थ। वेदवाक्य का अर्थ [को०]।
⋙ वेदाश्र
संज्ञा पुं० [सं०] चतुष्कोण [को०]।
⋙ वेदाश्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।
⋙ वेदि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यज्ञ कार्य के लिये साफ करके तैयार की हुई भूमि। वेदी। २. किसी शूभ कार्य के लिये बनाकर तैयार की हुई भूमि। ३. उँगली की एक प्रकार की मुद्रा। ४. अंबष्ठा। ५. वह अंगुठी जिसपर किसी का नाम अंकित हो। ६. किसी मंदिर या महल का चौकोर सहन। मंदिर या प्रासाद के प्रंगण में बना हुआ चौकोन स्थान या मंडप (को०)। ७. सरस्वती (को०)। ८. भूभाग। भूखंड (को०)। ९. कोई वस्तु रखने का आधार (को०)। १०. ज्ञान। विज्ञान (को०)। ११. एक तीर्थ का नाम (को०)।
⋙ वेदि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विद्वान ऋषि। २. आचार्य [को०]।
⋙ वेदिकरण
संज्ञा पुं० [सं०] वेदी का निर्माण [को०]।
⋙ वेदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी शुभ कार्य के लिये साफ करके तैयार की हुई भूमि। वेदी। २. जैन पूराणों के अनुसार एक नदी का नाम। ३. यज्ञभूमि (को०)। ४. चबूतरा। उच्च समतल भूमि (को०)। ५. आसन (को०)। ६. टीला। ढुहा (को०)। ७. लतामंडप। निकुंज (को०)।
⋙ वेदिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्रौपदी का एक नाम।
⋙ वेदित
वि० [सं०] १. जो कुछ बतलाया या सूचित किया गया हो। निवेदित। २. जो देखा गया हो।
⋙ वेदितव्य
वि० [सं०] जो जानने के योग्य हो। ज्ञातव्य।
⋙ वेदिता
वि० [सं० वेदतृ] चतुर। कुशल। विद्वान्।ज्ञाता। जाननेवाला [को०]।
⋙ वेदित्व
संज्ञा पुं० [सं०] विदित होने ता बाव। ज्ञान।
⋙ वेदिपुरीष
संज्ञा पुं० [सं०] वेदी की गोली या ढीली मिट्टी [को०]।
⋙ वेदिमध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसकी कमर वेदी की भाँति हो [को०]।
⋙ वेदिमान, वेदिविमान
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों के लिये भूमि का परिमाण [को०]।
⋙ वेदिश्रोणि, वेदिश्रोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदी का श्रोणी भाग जिसे वेदिमेखला भी कहते हैं [को०]।
⋙ वेदिष्ठ
वि० [सं०] जो सब बातें जानता हो। सर्वज्ञ।
⋙ वेदिसंभवा
संज्ञा स्त्री० [सं० वेदिसम्भवा] द्रोपदी का एक नाम [को०]।
⋙ वेदी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेदिन्] [स्त्री० वेदिनी] १. पंडित। विद्धान्। आचार्य। २. ज्ञाता। जानकार। ३. वह जो विवाद करता हो। ४. ब्रह्मा। ४. अंबष्ठा। पाढ़ा (को०)।
⋙ वेदी (१)
संज्ञा स्त्री० १. किसी शुभ कार्य के लिये, विशेषतः धार्मिक कार्य के लिये तैयार की हुई ऊँची भूमि। जैसे,—विवाह की वेदी, यज्ञ को वेदी। २. सरस्वती। ३. मंदरि या महल के आँगन में बना हुआ चौकोर स्थान या मंडप (को०)। ४. मुहर करने की अँगुठी (को०)। ५. अंगुलियों की एक विशेष मुद्रा (को०)। ६. भूखंड । भूभाग (को०)। ७. ज्ञान विज्ञान (को०)। ८. कोई वस्तु रखने का आधार (को०)। दे० 'वेदि'।
⋙ वेदी (३)
वि० १. जाननेवाला। ज्ञाता। २. अनुभव करनेवाला। ३. विवाह करनेवाला। ४. सूचना देनेवाला। सूचक। ५. विद्वान्। आचार्य [को०]।
⋙ वेदीतिथि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।
⋙ वेहीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेदों के स्वामी, ब्रह्म। २. अग्नि (को०)।
⋙ वेदुक
वि० [सं०] १. जाननेवाला। ज्ञाता। २. प्राप्त करनेवाला। पानेवाला। ३. जो कुछ मिला हो। प्राप्त।
⋙ वेदेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों के स्वामी, ब्रह्मा।
⋙ वेदोकत पु
वि० [सं,० वेदोक्त] दे० 'वेदोक्त'। उ०—केसर अगर कपूर चोक, (व), वेदोकत चत्रण।—रा०, रु०, पृ० ३५९।
⋙ वेदोक्त
वि० [सं०] वेदों में कहा गया। वेदविहित [को०]।
⋙ वेदोदय
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ वेदोदित
वि० [सं०] वेदविहित। वेद के अनुसार। वेदोक्त [को०]।
⋙ वेदोवकरण
संज्ञा पुं० [सं०] वेदांग।
⋙ वेदोपनिषद
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद का नाम।
⋙ वेद्धव्य
वि० [सं०] जो बेधने या छेदने के योग्य हो। बेधा जाने के योग्य। वेध्य।
⋙ वेद्धा
वि० [सं० वेदधृ] छेदने या भेदनेवाला। वेधन करनेवाला। लक्ष्य साधनेवाला।
⋙ वेद्य
वि० [सं०] १. जो जानने या समझने के योग्य हो। २. जो कहन के योग्य हो। ३. जो स्तुति करने योग्य हो। ४. जो प्राप्त करने के योग्य हो। ५. विवाह के योग्य (को०)।
⋙ वेद्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] ज्ञान। जानकारी।
⋙ वेध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी नुकीली चीज से छेदने की क्रिया। वेधना। विद्ध करना। २. मंत्रों आदि की सहायता से ग्रहों, नक्षत्रों और तारों आदि को देखना अथवा उनका स्थान निश्चित करना। यौ०—वेधशाला। ३. ज्योतिष के ग्रहों का किसी ऐसे स्थान में पहुँचना जहाँ से उनका किसी दूसरे ग्रह से सामना होता हो। जैसे,—युतवेध, पताकी- वेध। ४. गहरापन। गंभीरता। पु ५. झगड़ा। रार। उ०— राण अनै समरेस रै, बले प्रगट्यो वेध।—रा०, रु०, पृ० ३४५। ६. क्षप। धाव। ७. समय का एक मान (को०)। ८. गर्त। गहराई। गड्ढा (को०)। ९. ज्योतिष में परिधि का नवमांश (को०)। १०. अशांति। बाधा (को०)। ११. घोड़ों का एक रोग (को०)। १२. रसों का मिश्रण (को०)। १४. निशाना मारना। लक्ष्य भेद करना (को०)।
⋙ वेघ (२)
संज्ञा पुं० [सं० वेधस्] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। महादेव। ४. सूर्य। ५. पंडित। विद्वान्। ६. सफेद मदार। ७. दक्ष आदि प्रजापति।
⋙ वेधक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेध करनेवाला। २. लक्ष्य साधनेवाला। ३. वह जो मणियों आदि को वेधकर अपनी जीविका चलाता हो। ४. धनियाँ। ५. कपूर। ६. अम्लबेंत। ७. नरक का एक विभाग (को०)। ८. बाली में लगा हुआ धान। धान्य (को०)। ९. चंदन (को०)। १०. सेंधा नमक (को०)।
⋙ वेधगुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक राग का नाम [को०]।
⋙ वेधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बींधने की क्रिया। छेद कर देना। २. लक्ष्यवेध करना। ३. प्रवश। ४. प्रभावित करना। ५. गहराई।६. खोदना। खनना क्रिया [को०]।
⋙ वेधनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह औजार जिससे मणियों आदि में छेद करते हों।
⋙ वेधनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह औजार जिससे मणियों आदि में छेद करते हों। वेधनिका। २. हाथी का अंकुस। ३. गहराई (को०)।
⋙ वेधनीय
वि० [सं०] वेधने के योग्य। जो वेधा जा सके [को०]।
⋙ वेधमुख्य
संज्ञा सं० [सं०] कचुर।
⋙ वेधमुख्यक
संज्ञा पुं० [सं०] हलदी का पौधा।
⋙ वेधमुख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] कस्तुरी।
⋙ वेधशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ ग्रहों का वेध करने के यत्र आदि रखे हों। वह स्थान जहाँ नक्षत्रो और तारों आदि को देखने और उनको दुरी, गति आदि जानने के यंत्र हो।
⋙ वेधस
संज्ञा पुं० [सं०] हथेली के अँगुठे की जड़ के पास का स्थान। विशेष—इसी ब्रह्मतीर्थ भी कहते हैं। आचमन के लिये इसी गड्ठे में जल लेने का विधान है।
⋙ वेधसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ वेधा पु
संज्ञा पुं० [सं० वेधस्] १. ब्रह्मा। स्त्रष्टा। उ०—सहस शब्द बीते तब वेधा। वरंब्रूह भाकेउ अति मेधा।—गिरधर (शब्द०)। २. विष्णु। ३. शिव। ४. सूर्य। ५. पंडित। ६. सफेद मदार। ७. दक्ष आदि प्रजापति। ८. एक यादव का नाम जो अँगद या अँगद का पुत्र था। ९. पुरोहित (को०)। १०. चंद्रमा (को०)। ११. कवि (को०)।
⋙ वेधालय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वेधशाला'।
⋙ वेधित
वि० [सं०] जो बेधा गया हो। जिसमें छेद किया गय़ा हो। बिँधा हुआ।
⋙ वेधिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जलौका। जोंक। २. मेथी।
⋙ वेधिनी (२)
वि० बेधनेवाली। छेदनेवाली।
⋙ वेधी
संज्ञा पुं० [सं० वेधिन्] [स्त्री० वेधिनी] १. वह जो वेध करता हो। वेध करनेवाला।२. अम्लबेंत। ३. जो लक्ष्यभेद करता हो। वह जो निशाना मारता हो (को०)।
⋙ वेध्य (१)
वि० [सं०] १. जिसे वेध किया जाय। २. जो वेध करने के योग्य हो।
⋙ वेध्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्य। निशाना [को०]।
⋙ वेध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाध विशेष [को०]।
⋙ वेन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बेण' [को०]।
⋙ वेनु पु
संज्ञा पुं० [सं० वेणु] बाँस की वंशी। बाँसुरी।
⋙ वेनुधारी पु
सवि० [सं० वेणुधारिन्] वंशी धारण करने या बजानेवाले। उ०—या प्रकार वृंदावन के वृक्ष वृक्ष वेहुधारी श्री गोवर्धनधर रुप है।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ३०२।
⋙ वेनुनाद पु
संज्ञा पुं० [सं० वेणुनाद] दे० 'वेणुपाद'। उ०—हमारे श्री कृष्णचंद्र जी तो वेनुनाद करि कै सव ब्रज सुंदरीन को बुलाई कै रासरमन उन सों करत हैं।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ९१।
⋙ वेत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार एक पवित्र नदी।
⋙ वेन्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वेन'।
⋙ वेन्य (२)
वि० सुंदर। खूबसुपरत।
⋙ वेप
संज्ञा पुं० [सं०] कँपकँपी [को०]।
⋙ वेपथु
संज्ञा पुं० [सं०] काँपने की क्रिया। कँपकँपी। कँप।
⋙ वेपथुपरीत
वि० [सं०] कंपनग्रस्त। कपायमान। काँपता हुआ [को०]।
⋙ वेपथुभृत्
वि० [सं०] कंपित। काँपता हुआ [को०]।
⋙ वेपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँपना। थरथरी। कंप। २. वात रोग।
⋙ वेपित
वि० [सं०] कंपित [को०]।
⋙ वेम
संज्ञा पुं० [सं०] करघा [को०]।
⋙ वेमक
संज्ञा पुं० [सं०] एक स्वर्गीय ऋषि।
⋙ वेमा
संज्ञा पुं० [सं० वेमन्] करघा। बामदंड [को०]।
⋙ वेर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर। देह। बदन। २. कुंकुंम। केसर। ३. बैगन। भंटा (को०)। ४. मुख (को०)।
⋙ वेरक
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर।
⋙ वेरट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेर नामक फल। २. निम्न वा संकर वर्ण का व्यक्ति (को०)।
⋙ वेरट (२)
वि० १. मिलाया हुआ। मिश्रित। २. नीच।
⋙ वेरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार बेंत आदि से बुनकर बना हुआ पहनावा या बकतर।
⋙ वेरो पु
संज्ञा पुं० [देश०] कूप। कुआँ। उ०—पाहण गल बाँधे पड़ो, वेरो बावड़ियाँह। पिण मंगण मत परथो मुजलाँ मावड़ियाह।—बाँकी० ग्रं०, भा०२, पृ० १४।
⋙ वेल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपवन। बाग। २. बौद्ध मतानुसार एक बड़ी संख्या। ३. आम का वृक्ष (को०)।
⋙ वेल पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वेला] लहर। तरंग। उ०—ईडरिया आचार री, वीर चढ़ै तो वेल।—बाँकी० ग्रं०, भा०१, पृ० ७५।
⋙ वेलज
वि० [सं०] नमकीन और चप्परा या कड़वा [को०]।
⋙ वेलड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्लरी] दे० 'वेल' या 'वल्ली'। उ०— घर अंबर विच वेलड़ी तहुँ लाल सुंगधा बूल। झक्खर इक नाँ आयो, नानक नहीं कबूल।—संतबाणी०, पृ० ७०।
⋙ वेलन
संज्ञा पुं० [सं०] हींग।
⋙ वेलना
क्रि० अ० [सं० वेल्ल, प्रा० वेल्ल] काँपना। तड़पना। हिलना। उ०—ओछह पाँणी मच्छ ज्यऊँ, वेलन थयउ विहाँण।—ढोला०, दु० ११२।
⋙ वेलव
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र पुरुष और क्षत्रिया स्त्री के संयोग से उत्पन्न पुत्र [को०]।
⋙ वेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काल। समय। वक्त। २. समय का एक विभाग जो दिन और रात का चौबीसवाँ भाग होता है। कुछ लोग दिनमान के आठवें भाग को भी वेला मानते हैं। ३. मर्यादा।४. समुद्र का किनारा।५. समुद्र की लहर। ६. वाक्। वाणी। ७. मसूड़ा। ८. भोजन। खाना। ९. रोग। बीमारी। १०. बुद्ध की स्त्री (को०)। ११. राग। आसक्ति (को०)। १२. अवसर। मौका (को०)। १३. विश्रामका अवकाश (को०)। १४. आसान या कष्ट-बाधा-विहीन मृत्यु (को०)। १५. मृत्यु का समय (को०)।
⋙ वेलाकूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताम्रलिप्त देश का नाम। २. बेलामूल। समुद्रतट (को०)।
⋙ वेलाजल
संज्ञा पुं० [सं०] ज्वार का पानी [को०]।
⋙ वेलाज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] मरने के समय आनेवाला ज्वर।
⋙ वेलातर
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र का किनारा [को०]।
⋙ वेलातिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] निश्चित समय का अतिक्रमण। विलंब। देर [को०]।
⋙ वेलाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रतटवर्ती पर्वत [को०]।
⋙ वेलाधर
संज्ञा पुं० [सं०] भारंड या भारद्वाज नामक पक्षी [को०]।
⋙ वेलाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में दिनमान के आठवें भाग या वेला के अधिपति देवता। विशेष—रवि, शुक्र, बुध, चंद्र, शनि, बृहस्पति, और मंगल ये क्रमशः वेलाधिप होते हैं। जिस दिन जो वार होता है, उस दिन की पहली वेला का वेलाधिप उसी वार का ग्रह होता है; और फिर पीछे की वेलाओं के अधिपति उक्त क्रम से शेष ग्रह होते हैं। जैसे—रविवार की पहली वेला के वेलाधिप रवि, दुसरी के शुक्र, तीसरी के बुध, चौथी के चंद्र आदि होंगे। इसी प्रकार बुधवार की पहली वेला के वेलाधिप बुध, दुसरी के चंद्र तीसरी के शनि, चौथी के वृहस्पत आदि होंगे।
⋙ वेलान
वि० [सं०] दे० 'वेलज'।
⋙ वेलामूल
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र का किनार [को०]।
⋙ वेलायनि
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि।
⋙ वलावन
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रतटवर्ती जगल [को०]।
⋙ वेलावलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक राग। दे० 'बिलावल'।
⋙ वेलावित्त
संज्ञा पुं० [सं०] रागतंरगिणी के अनुसार प्राचीन काल के एक प्रकार के राजकर्मचारी।
⋙ वेलाविलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वारवनिता। वेश्या [को०]।
⋙ वेलाहीन
वि० [सं०] असमय में होनेवाला। समय के पहले होनेवाला।
⋙ वेलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ताम्रलिप्त देश का एक नाम। २. नदी- तट के आस पास का प्रदेश।
⋙ वेलुभुकप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सुंगधित आम जिसे वलिभुकप्रिय भी कहा गया है [को०]।
⋙ वेलियो ‡
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का डिंगल गीत जिसके विषम पदों में १६ मात्रा और सम पदों में १५ मात्राएँ तथा आदि पद में १८ मात्राएँ और तुकांत में लघु का विधान है।—रघु० रु०, पृ० १००।
⋙ वेलुव
संज्ञा पुं० [सं०] एक संख्या। दे० 'वेल' [को०]।
⋙ वेलोर्मि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्वार का पानी [को०]।
⋙ वेल्लंतर
संज्ञा पुं० [सं० वेल्लन्तर] वीरतरु नाम का एक वृक्ष [को०]।
⋙ वेल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. विड़ंग। २. गगन। गति (को०)। ३. काँपना। हिलना। लहराना (को०)।
⋙ वेल्लगिरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रियंग।
⋙ वेल्लज
संज्ञा पुं० [सं०] काली मिर्च।
⋙ वेल्लन
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़ों का जमीन पर लोटना। २. कंपन। काँपना। गतिशील होना। हिलना डोलना। (को०)। ३. तरंगों के ऊपर नीचे होना या लुढ़कना(को०)। ४. तेजी से मथना। तीव्र आलोड़न(को०)। ५. गुल्म (को०)। ६. बेलन। रोटी बनाने का काष्ठ का बेलन (को०)।
⋙ वेल्लना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वेल्लन' [को०]।
⋙ वेल्लनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वल्ली दूब। मालादूब। २. काली मिर्च (को०)।
⋙ वेल्लभव
संज्ञा पुं० [सं०] काली मिर्च। वेल्लज। मिर्च।
⋙ वेल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काला विवारा। २. मालादूब।
⋙ वेल्लहल
संज्ञा पुं० [सं०] लंपट। दुराचारी। बदचलन।
⋙ वेल्लि
संज्ञा स्त्री० [सं०] लता। बेल।
⋙ वेल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पोई का साग। उपोदिका।
⋙ वेल्लकाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेल का पेड़। २. बेल के फल का गूदा।
⋙ वेल्लित (१)
वि० [सं०] १. हिलता डुलता हुआ। कंपित। २. कुटिल। वक्र। ३. गत। गया हुआ [को०]।
⋙ वेल्लित (२)
संज्ञा पुं० १. कंपन। काँपना। हिलना डुलना। २. गमन। गति। ३. लोटना। लुठन [को०]।
⋙ वेल्लितक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप।
⋙ वेल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० वेल्लि] बेल। लता।
⋙ वेल्हा †
संज्ञा स्त्री० [सं० बेला] तट। किनारा। दे० 'वेला'। उ०— धण जीती प्रिव हारियउ, वेल्हा मिलण करेह।—ढोला०, दू० ५९०।
⋙ वेवहार पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यवहार] दे० 'व्यवहार'। उ०—उत्थि अपन वेवहार राँक ले राअहु चप्परि।—कीर्ति०, पृ० ५०।
⋙ वेवि पु †
वि० [सं० द्वौ + अवि = द्वाववि] दोनों ही। उ०—वेवि संमत मिलिअ तवे एक्क वेवि सहोअर संग।—कीर्ति०, पृ० २२।
⋙ वेशंत
संज्ञा पुं० [सं० वेशन्त] १. छोटा तालाब। उ०—बह गया है अश्रु बनकर कालकूट ज्वलंत। जा रहा भरता दया के दूध से वेशंत।—सामधेनी, पृ० ४८। २. आग्नि। आग।
⋙ वेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपड़े लत्ते और गहने आदि पहनकर अपने आपकी सजाना। २. किसी के कपड़े लत्ते आदि पहनने का ढंग। मुहा०—किसी का वेश धारण करना = किसी के ढंग के कपड़े लत्ते पहनना। किसी के रूप, रग और पहनावे आदि की नकल करना। जैसे,—(नटों आदि का) राजा का वेश धारण करना।३. पहनने के वस्त्र। पोशाक। जैसे,—अब आप अपने वेश उतारिए। यौ०—वेशभूषा = पहनने के कपड़े आदि। पोशाक। ४. कपड़े का बना हुआ घर। खेमा। तंबू। ५. घर। मकान। ६. वेश्या का घर। ७. दे० 'प्रेवश'—१, २, ४। ८. छद्म वेश। कपट रूप (को०)। ९. मजदूरी। भृति [को०]। १०. वेश्या जन (को०)। ११. वेश्या को दिया जानेवाला द्रव्य (को०)। १२. प्राचुर्य। अधिकता। अतिरेक (को०)।
⋙ वेशक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गृह। मकान [को०]।
⋙ वेशक (२)
वि० घुसने या प्रवेश करनेवाला [को०]।
⋙ वेशकुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुलटा स्त्री। दुश्चरित्रा स्त्री। २. वेश्या। रंडी। वेश्याओं का समूह [को०]।
⋙ वेशता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश का भाव या धर्म। वेशत्व।
⋙ वेशत्व
संज्ञा पुं० [सं०] वेश का भाव या धर्म। वेशता।
⋙ वेशदान
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यमुखी फूल [को०]।
⋙ वेशधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने किसी दूसरे का वेश धारण किया हो। वह जो भेस बदले हुए हो। छदमवेशी। २. जैनों का एक संप्रदाय।
⋙ वेशधारी
संज्ञा पुं० [सं० वेशधारिन्] १. वह जिसने वेश धारण किया हो। वेश धारण करनेवाला। २. वह तपस्वी न हो, पर तपस्वियों का सा वेश धारण करता हो। ३. पुराणानुसार एक संकर जाति। ४. अभिनेता। नट (को०)।
⋙ वेशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रवेश करना। २. भवन। घर (को०)।
⋙ वेशनद
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक नदी का नाम।
⋙ वेशनारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या [को०]।
⋙ वेशनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] डयौढी़। पौरी [को०]।
⋙ वेशभगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती [को०]।
⋙ वेशभाव
संज्ञा पुं० [सं०] वेश्या की प्रकृति या दशा। वेश्याओं का सा हाव भाव [को०]।
⋙ वेशयुवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
⋙ वेषयोषित, वेशयोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या [को०]।
⋙ वेशर
संज्ञा पुं० [सं०] खच्चर [को०]।
⋙ वेशवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
⋙ वेशवनिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
⋙ वेशवान्
संज्ञा पुं० [सं० वेशवत्] १. वेश्या को कमाई पर जीवित रहनेवाला व्यक्ति। २. चकला चलानेवाला [को०]।
⋙ वेशवार
संज्ञा पुं० [सं०] नमक, मिर्च, धनिया आदि मसाले।
⋙ वेशवास
संज्ञा पुं० [सं०] वेश्या का घर। रंडी का मकान।
⋙ वेशस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
⋙ वेशस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी [को०]।
⋙ वेशांत
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। आग। २. छोटा तालाब [को०]।
⋙ वेशिक
संज्ञा पुं० [सं०] शिल्पविद्या। हाथ की कारीगरी।
⋙ वेशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेवशद्वार [को०]।
⋙ वेशी
संज्ञा पुं० [सं० विशिन्] १. वह जो वेश धारण किए हो। वेश धारण करनेवाला। २. वह जो प्रवेश करता हो। प्रवेश करनेवाला (को०)।
⋙ वेशीजाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्रदात्री नाम की लता।
⋙ वेश्म
संज्ञा पुं० [सं० वेश्मन्] १. घर। मकान। उ०—राजा किसी नगर में अवस्थित राजप्रासाद (वेश्म) में रहता था।— आ० भा० १०६। २. जन्मकुंडली के लग्नचक्र का चौथा स्थान (को०)।
⋙ वेश्मकर्म
संज्ञा पुं० [सं० विश्यकर्मन्] मकान बनाने की विद्या। गृहनिर्माण [को०]।
⋙ वेश्मकलिंग
संज्ञा पुं० [सं० वेश्मकलिङ्ग] चटक पक्षी। गौरैया।
⋙ वेश्मकुलिंग
संज्ञा पुं० [सं० वेश्मकुलिङ्ग] गौरैया पक्षी [को०]।
⋙ वेश्मकूल
संज्ञा पुं० [सं०] चिचिंडा। चिचड़ा।
⋙ वेश्मचटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की गौरैया [को०]।
⋙ वेश्मधूम
संज्ञा पुं० [सं०] एक क्षुप या पौधा [को०]।
⋙ वेश्मनकुल
संज्ञा पुं० [सं०] छछूंदर।
⋙ वेश्मपुरोधक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार दूसरे के मकान को तोड़कर या उसमें सेंध लगाकर चोरी करनेवाला।
⋙ वेश्मभू
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जो मकान बनाने के लिये उपयुक्त हो अथवा जिसपर मकान बनाया जाय।
⋙ वेश्मवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. रहने का घर। मकान। २. शयनकक्ष। शयनगृह।
⋙ वेश्मस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रडी।
⋙ वेश्मस्थूणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मकान का मुख्य स्तंभ या खंभा जिस पर छाजन रहता है [को०]।
⋙ वेश्मांत
संज्ञा पुं० [सं० वेश्मान्त] घर के अंदर का वह भाग जिसमें स्त्रियाँ रहती हैं। अंतःपुर। जनानखाना।
⋙ वेश्मादीपिक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार मकान में आग लगानेवाला।
⋙ वेश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेश्या के रहने का मकान। रंडी का घर। २. आवास। निवास। मकान (को०)। ३. पड़ोस (को०)। ४. वेश्यावृत्ति (को०)।
⋙ वेश्यकामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी। पुंश्चली। बदचलन औरत [को०]।
⋙ वेश्यस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या [को०]।
⋙ वेश्यांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० वेश्याङ्गना] कुलटा स्त्री। बदचलन औरत।
⋙ वेश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो नाचती गाती और धन लेकर लोगों के साथ संभोग करती हो। गाने और कसब कमानेवाली औरत। रंडी। पर्या०—वारस्त्री। गणिका। रूपाजीवा। क्षुद्रा। शूला। वार- विलासिनो। लज्जिका। कुंभा। कामरेखा। पणयांगना। वारबधू। भोग्या। स्मरवीथिका। यौ०—वेश्यापण—वेश्या के साथ संभोग करने के बदले दी जानेवाला रकम। वेश्यापति = जार। वेश्यावृत्ति = धन लेकर पर- पुरुषों से संभोग कराना। वेश्यावेश्म = वेश्यालय। २. टुंटुका। पाढा़ (को०)।
⋙ वेश्यागमन
संज्ञा पुं० [सं०] रंडीबाजी [को०]।
⋙ वेश्याघटक
संज्ञा पुं० [सं०] वेश्या का दलाल। भंडुआ। वेश्याचार्य [को०]।
⋙ वेश्याचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेश्याओं के साथ रहता और उन्हें परपुरुषा से मिलाता हो। रंडियों का दलाल। भंडुआ।
⋙ वेश्याजन
संज्ञा पुं० [सं०] वेश्याओं का समूह [को०]।
⋙ विश्याजन समाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] विश्याभवन। रंडियों का घर [को०]।
⋙ विश्यापण
संज्ञा पुं० [सं०] रंडी को भोग के निमित्त दिया जानेवाला धन [को०]।
⋙ विश्यापति
संज्ञा पुं० [सं०] रंडी का पति। जार [को०]।
⋙ विश्यापुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] रंडी का बेटा। दोगला [को०]।
⋙ विश्यायत्त
वि० [सं०] वेश्या की कमाई खानेवाला [को०]।
⋙ विश्यालय
संज्ञा पुं० [सं०] विश्याश्रम।
⋙ विश्यावास
संज्ञा पुं० [सं०] शृंगारहाट। वेश्याओं का निवास [को०]।
⋙ वेश्यावृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या की रोजी। रंडी की आजीविका। कसब कमाना [को०]।
⋙ वेश्यावेश्म
संज्ञा पुं० [सं० वेश्यावेश्मन्] रंडी का घर। वेश्यालय [को०]।
⋙ वेश्याश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] वेश्यालय [को०]।
⋙ वेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] गदहा। खच्चर।
⋙ वेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'वेश'। २. रंगमंच में पीछे का वह स्थान जहाँ नट लोग वेशरचना करते हैं। नेपथ्य। ३. वेश्या का घर। रंडी का मकान। ४. कर्म। ५. कार्यपरिचालन। काम चलाना।
⋙ वेषकार
संज्ञा पुं० [सं०] किसी चीज को लपेटने का कपड़ा। वेष्टन। बेठन।
⋙ वेषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कासमर्द्द नाम का क्षुप। कसौंदी। २. परिचर्या। सेवा।
⋙ वेषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनियाँ।
⋙ वेषदान
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यमुखी का फूल [को०]।
⋙ वेषधर
वि० [सं०] दूसरे का रूप या वेश धरनेवाला [को०]।
⋙ वेषधारी
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वेशधारी'।
⋙ वेषवार
संज्ञा पुं० [सं०] नामक, मिर्च, धनियाँ आदि मसाले।
⋙ वेषश्री
वि० [सं०] १. (वेदमंत्र) जिसमें सुंदर और ललित वाक्य हों। २. मनोहर रूप में अलंकृत (को०)।
⋙ वेषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमेली।
⋙ वेषी
संज्ञा पुं० [सं० वेषिन्] वेशधारी। दे० 'वेशी'।
⋙ वेष्क
संज्ञा पुं० [सं०] बलिपशुओं का गला बाँधने की फँसरी या रस्सी [को०]।
⋙ वेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष का किसी प्रकार का निर्यास। २. गोंद। ३. धूप का पेड़। धूपसरल। ४. श्रीवेष्ट। गंधाबिरोजा। ५. सुश्रुत के अनुसार मुँह में होनेवाला एक प्रकार का रोग। ६. शिरोवेष्टन। दे० 'वेष्यन'। ७. बाड़ा। बाड़ (को०)। ८. बंधन। फँसरी (को०)। ९. दाँत का खोड़र या गड्ढा (को०)। १०. आकाश (को०)।
⋙ वेष्टक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधाबिरोजा। श्रीवेष्ट। २. गोंद। ३. वृक्ष का किसी प्रकार का निर्यास। ४. सफेद कुम्हड़ा। पेठा। ५. कुम्हड़ा। ६. छाल। वल्कल। ७. उष्णीष। पगड़ी। ८. प्राचीर। परकोटा। चहारदीवारी। ९. व्याकरण में पूर्वासर में लगनेवाला शब्द। जैसे, अथ, इति (को०)।
⋙ वेष्टक (२)
वि० चारों ओर से ढकने या आवृत करनेवाला। वेष्टन करनेवाला।
⋙ वेष्टकापथ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्राचीन शिवस्थान का नाम।
⋙ वेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कपड़ा आदि जिससे कोई चीज लपेटी जाय। बेठन। २. घेरने या लपेटने की क्रिया या भाव। ३. मुकुट। ४. उष्णीष। पगड़ी। ५. गुग्गुल। गूगल। ६. कान का छेद। ७. मेखला। कांची। कटिबंध (को०)। ८. घाव आदि बाँधने की पट्टी (को०)। ९. नृत्य की एक विशेष मुद्रा (को०)। १०. ग्रहण करना । अधिकार में रखना (को०)। ११. विस्तृति। विस्तार (को०)। १२. एक प्रकार का अस्त्र। १३. एक नृत्यमुद्रा (को०)। १४. यज्ञ- यूप को वेष्टित करनेवाला बंधन (को०)। १५. चहारदीवारी। घेरा (को०)।
⋙ वेष्टनक
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रीप्रसंग करने का एक प्रकार। एक तरह का रतिबंध।
⋙ वेष्टनवेष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार रतिबंध।
⋙ वेष्टनीय
वि० [सं०] घेरने लायक। लपेटने योग्य [को०]।
⋙ वेष्ठवंश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाँस जिसे बेठर बाँस कहते हैं। रंध्रवंश।
⋙ वेष्टव्य
वि० [सं०] वेष्टन करने योग्य। बेठन आदि से लपेटने लायक।
⋙ वेष्टसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीवेष्ठ। गंधाबिरोजा। २. धूप का पेड़। सरल। काष्ठ। धूपसरल।
⋙ वेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हर्रे। हरीतकी।
⋙ वेष्टित (१)
वि० [सं०] १. नदी या परकोटे आदि से चारों ओर से घिरा हुआ। २. कपड़े आदि से लपेटा हुआ। ३. रुका हुआ। रुद्ध।
⋙ वेष्टित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नृत्य की एक मुद्रा। २. घेरना। लपेटना। ३. एक रतिबंध। ४. पहाड़ी [को०]।
⋙ वेष्टय
वि० [सं०] दे० 'वेष्टनीय' [को०]।
⋙ वेष्प
संज्ञा पुं० [सं०] पानी। जल [को०]।
⋙ वेष्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिश्रम। २. पगड़ी। ३. पानी। ४. कर्म। कार्य। ५. पट्टी [को०]।
⋙ वेष्य (२)
वि० नट या अभिनेता जो वेश बदलनेवाला हो [को०]।
⋙ वेसन
संज्ञा पुं० [सं०] मटर, चने आदि की दाल पीसकर तैयार किया हुआ आटा। बेसन।
⋙ वेसर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गदहा। २. खच्चर। अश्वतर (को०)।
⋙ वेसवा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वेश्या]दे० 'वेश्या'। उ०—साध संत के उपाध रहत वेसवा के हाथ, बड़े कुटिल है कुपाथ चलै पंथ ना निहार के।—संत तुरसी०, पृ० ३३९।
⋙ वेसवार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीसा हुआ जीरा, मिर्च लौंग आदि मसाला। २. एक प्रकार का पकाया हुआ मांस। विशेष—पहले हड्डियाँ आदि अलग करके खाली मांस पीस लेते हैं और तब गुड़, घी, पीपल, मिर्च आदि मिलाकर उसे पकाते हैं। यही पका हुआ मांस वेसवार कहलाना है।
⋙ वेसा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वेश्या] दे० 'वेश्या'। उ०—जे गुणमंता अलहना गौरव लहइ भुअंग। वेसा मंदिर धुअ वसइ धुत्तह रुअ अनंग।—कीर्ति० पृ० ३४।
⋙ विसास ‡
संज्ञा पुं० [सं० विश्वास] दे० 'विश्वास'। उ०—मइ धणी थार मिल्हीय आस, मइला राजा थारउ कोसउ हो वेसास।— बी० रासो, पृ० ३७।
⋙ वेस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] पश्चिम दिशा।
⋙ वेस्टकोट
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार की अँगरेजी कुरती या फतुही जिसमें बाहें नहीं होतीं और कमीज के उपर तथा कोट के नीचे पहनी जाती है।
⋙ वेस्म पु
संज्ञा पुं० [सं० वेश्न]दे० 'वेश्म'।—नंद० ग्रं०, पृ० १०८।
⋙ वेस्या †
संज्ञा स्त्री० [सं० वेश्या]दे० 'वेश्या'। उ०—जो वह वेस्या के घर रहते हे।—दो० सौ वावन०, भा० १, पृ० ३२९।
⋙ वेस्या †
संज्ञा स्त्री० [सं० वेश्या]दे० 'वेश्या'। उ०—वेस्वा तजा सिंगार सिद्ध को गइ सिद्धाई। रागी भूला राग जननि सुत दई विहाई।—पलटू०, पृ० १०४।
⋙ वेह †
संज्ञा पुं० [सं० वेधस्, प्रा० वेह] विधाता। ब्रह्मा। उ०—(क) जारा रजपूतीणया, बीरत दाधी वह।—बाँकी० ग्रं०, भाग १, पृ० ४। (ख) सादूलौ साचा गुणा वेह कियौ वनराय।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १५।
⋙ वेहत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाँझ गाय। वध्या गौ। २. वह गाय जिसका गर्भ असमय में गिर गया हो [को०]।
⋙ वहनड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहिन + ड़ी (प्रत्य०)]दे० 'बहन'। उ०— रहि रहि बेहनड़ी ! बच न तू रोई।—बी० रासो, पृ० ६४।
⋙ वेहना
संज्ञा पुं० [सं० वयन (= बुनना)]दे० 'बेहना'।—मैं अति नीच जाति कर वेहना, का कहुँ बूझि न सैना।—घट०, पृ० २०७।
⋙ वेहल पु ‡
संज्ञा पुं० [देश०] चारण। उ०—बैरी वेहल वरणरा, दोठा जिण जिण देस।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ८४।
⋙ वेहला ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० वेला, प्रा०, गुज० और प० राज० वेहला] बखत। समय। उ०—संभार्यो आवे रे वाहला, वेहला एहों जोई ठरूँ। साथी जी साथे थई ने, पेली तीरे तरूँ।—दादू०, पृ० ५२२।
⋙ वेहानस
संज्ञा पुं० [सं०] आत्महनन। जैन मतानुसार एक प्रकार की आत्महत्या [को०]।
⋙ वेहार
संज्ञा पुं० [सं०] बिहार प्रदेश का एक नाम [को०]।
⋙ वैंकि
संज्ञा पुं० [सं० वङ्कि] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ वैंत †
संज्ञा पुं० [हिं० ब्योंत, बेंवत] दे० 'बयोंत'। उ०—वैंत करै नह और विचारूँ। मार सुता मिरजा नू मारूँ।—रा० रू०, पृ० २७८।
⋙ वैंद
संज्ञा पुं० [सं० वैन्द] एक जाति का नाम। निषाद [को०]।
⋙ वैंदव
संज्ञा पुं० [सं० वैन्दव] विंदु का पुत्र [को०]।
⋙ वैंदवि
संज्ञा स्त्री० [सं० वैन्दवि] प्राचीन काल की एक जाति का नाम। इस जाति के लोग बहुत युद्धप्रिय होते थे।
⋙ वैंध्य
वि० [सं० वैन्ध्य] १. विध्य प्रांत का। २. विंध्य पर्वत का।
⋙ वैंशतिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वैंशतिका] जिसका मूल्य बीस हो। जो वीस में क्रय किया जाय। बीस में क्रीत [को०]।
⋙ वै पु (१)
अव्य [सं०] निश्चयसूचक शब्द या चिह्न। उ०—अदंडमान दीन, गर्व दंडमान भेद बै।—केशव (शब्द०)।
⋙ वै (२)
सर्व० [हिं० वह] वह हो। उसने। उ०—वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई।—जायसी ग्रं०, पृ० ३।
⋙ वै पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० पति, प्रा० वइ] स्वामी। अधिपति। पति।
⋙ वैकंक
संज्ञा पुं० [सं० वैकङ्क] एक पहाड़ [को०]।
⋙ वैकंकत (१)
संज्ञा पुं० [सं० वैकङ्कत]दे० 'विकंकत'।
⋙ वैकंकत (२)
वि० जो विकंकत का लकड़ा आदि से बना हो। विकंकत का।
⋙ वैकक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह हार या माला जो एक ओर कंधे पर और दूसरी ओर हाथ के नीचे रहे। जनेऊ की तरह पहना जानेवाला हार या माला। २. इस प्रकार माला पहनने का ढंग। ३. उत्तरीय। दुपट्टा (को०)।
⋙ वैकक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] वह हार जो जनेऊ की तरह पहना गया हो। दे० 'वकक्ष' [को०]।
⋙ वैकक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वैकक्षक' [को०]।
⋙ वैकंक्षिकी
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वैकक्षक' [सं०]।
⋙ वैकटिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रत्नपरीक्षक। जौहरी।
⋙ वैकटिक (२)
वि० विकट संबंधी। विकट का।
⋙ वैकट्य
संज्ञा पुं० [सं०] विकट होने का भाव या धर्म। विकटता। भीषणता। विशालता।
⋙ वैकतिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो रत्नों की परीक्षा करता हो। रत्नपरीक्षक। जौहरी।
⋙ वैकथिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अपने संबंध में बहुत बढ़ाकर बातें कहा करता हो। शेखोबाज। सीटनेवाला।
⋙ वैकरंज
संज्ञा पुं० [सं० वैकरञ्ज] संकर जाति का एक प्रकार का साँप। ऐसा साँप जो फनवाले और बिना फनवाले साँपों के योग से उत्पन्न हुआ हो।
⋙ वैकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वात्स्य मुनि का एक नाम। २. एक प्राचीन जनपद का नाम जिसका उल्लेख वेदों में है।
⋙ वैकर्णायन
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वैकर्ण या वात्स्य मुनि के वंश में उत्पन्न हुआ हो।
⋙ वैकर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. बलिपशु के शरीर का भागविशेष। २. २. बलिपशु का वध करनेवाला। ३. यज्ञ में अध्वर्यु का सहायक। उ०—अध्वर्यु के तीन छोटे सहायक और होते थे— थमिता, वैकर्त और जमासाध्वर्यु।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ११८।
⋙ वैकर्तन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य के एक पुत्र का नाम। २. कर्ण का एक नाम। ३. सुग्रीव के एक पूर्वज का नाम। ४. वह जो सूर्यवंशी हो।
⋙ वैकर्तन (२)
वि० सूर्य संबंधी। सूर्य का।
⋙ वैकर्तनकुल
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का वंश या कुल [को०]।
⋙ वैकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. विकर्म या अपकर्म का भाव। दुष्कृत्य।
⋙ वैकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] विकल्प का भाव। संशय। संदिग्धता। अनिश्चय। असमंजस।
⋙ वैकल्पिक
वि० [सं०] १. जो किसी एक पक्ष में हो। एकांगी। २. जिसमें किसी प्रकार का संदेह हो। संदिग्ध। अनिश्चित। आनर्णोत। ३. जो अपने इच्छानुसार ग्रहण किया जा सके। जो चुना जा सके। ऐच्छिक। ४. जिसका विकल्प हो।
⋙ वैकल्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विकल होने का भाव। विकलता। घबराहट। २. कातरता। ३. टेढ़ापन। ४. अंगहीन होने का भाव। ५. न्यूनता। कमी। ६. अभाव। न होना। ७. अक्षमता। शक्तिहीनता (को०)। ८. उत्तेजना (को०)।
⋙ वैकल्य (२)
वि० अधूरा। अपूर्ण।
⋙ वैकायन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ वैकारिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वैकारिकी] १. जिसमें किसी प्रकार का विकार हुआ हो। बिगड़ा हुआ। विकृत। २. विकार संबंधी (को०)। ३. परिवर्तनशील (को०)। ४. सात्विक (को०)।
⋙ वैकारिक (२)
संज्ञा पुं० विकार। बिगाड़।
⋙ वैकारिककाल
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भस्थ भ्रूण के बनने में या पूरा होने में लगनेवाला काल [को०]।
⋙ वैकारिक बंध
संज्ञा पुं० [सं० वैकारिक बन्ध] सांख्य दर्शन के अनुसार तीन प्रकार के बंधनों में से एक [को०]।
⋙ वैकार्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विकार का भाव या धर्म। विकार। २. परिवर्तनशीलता।
⋙ वैकार्य (२)
वि० जिसमें विकार हो सकता या होता हो। विकार के योग्य।
⋙ वैकाल
संज्ञा पुं० [सं०; तूल० वंग० विकाल] अपराह्न काल। दोपहर के बाद का काल [को०]।
⋙ वैकालिक
वि० [सं०] १. जो अपने उपयुक्त समय पर न होकर असमय में उत्पन्न हो। २. अपराह्न संबंधी या अपराह्न काल में घटित होनेवाला।
⋙ वैकालीन
वि० [सं०]दे० 'वैकालिक' [को०]।
⋙ वैकिंकट
संज्ञा पुं० [सं० वैकिङ्कट] मौत। काल। मृत्यु। विकिंकर [को०]।
⋙ वैकिर
वि० [सं०] क्षरित। चूआ हुआ। छना हुआ [को०]।
⋙ वैकिरवारि
संज्ञा पुं० [सं०] चुआकर या टपकाकर छाना हुआ जल आदि [को०]।
⋙ वैकुंठ (१)
संज्ञा पुं० [सं० वैकुण्ठ] १. विष्णु का एक नाम। २. पुराणानुसार विष्णु का धाम या स्थान। वह स्थान जहाँ भगवान् या विष्णु रहते हैं। विशेष—पुराणानुसार यह धाम सत्यलोक से भी ऊपर है। यह धाम सबसे श्रेष्ठ माना गया है और कहा गया है कि जिन्हें विष्णु मोक्ष देते हैं, वे इसी धाम में निवास करते हैं । यहाँ रहनेवाले न तो बुड्डे होते हैं और न मरते हैं। ३. वैकुंठ में रहनेवाले देवता। ४. स्वर्ग (क्व०)। ५. इंद्र। ६. सफेद पत्तोंवाली तुलसी। ७. अभ्रक। सितार्जक (को०)। ८. ब्रह्मा के महीने का चौबीसवाँ दिन (को०)। ९. संगीत में एक प्रकार का ताल (को०)।
⋙ वैकुंठगति
संज्ञा स्त्री० [सं० वैकुण्ठगति] वैककुंठ लोक की प्राप्ति [को०]।
⋙ वैककुंठ चर्तुदर्शी
संज्ञा स्त्री० [सं० वैकुण्ठ चर्तुदशी] कार्तिक शुक्ल पक्ष की चर्तुदशी [को०]।
⋙ वैकुंठत्व
संज्ञा पुं० [सं० वैकुण्ठत्व] वैकुंठ का भाव या धर्म।
⋙ वैकुंठपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० वैकुण्ठपुरी] विष्णु नगरी [को०]।
⋙ वैकुंठभुवन
संज्ञा पुं० [सं० वैकुण्ठभुवन] विष्णुलोक [को०]।
⋙ वैकुंठलोक
संज्ञा पुं० [सं० वैकुण्ठलोक] विष्णुलोक [को०]।
⋙ वैकुंठीय
वि० [सं० वैकुण्ठिय] वैकुंठ संबंधी। वैकुंठ का।
⋙ वैकृत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विकार। खराबी। २. बीभत्स रस। ३. बीभत्स रस का आलंबन। जैसे,—खून, गोश्त, हड्डी आदि। ४. विरूपता। विकृति (को०)। ५. अपशकुन या अनिष्टसूचक घटना (को०)। ६. कपट (को०)। ७. उद्वेग (को०)। ८. अहंकार (को०)। ९. द्वेष। शत्रुता (को०)।
⋙ वैकृत (२)
वि० [वि० स्त्री० वैकृती] १. जो विकार से उत्पन्न हुआ हो। २. जो सहज में ठीक न हो सके। दुःसाध्य। ३. विकूत। विकारग्रस्त (को०)। ४. सात्विक (को०)। ५. अप्राकृत्तिक (को०)।
⋙ वैकृतज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वह ज्वर जो ऋतु के अनुसार स्वाभाविक न हो, बल्कि किसी और ऋतु के अनुकूल हो। उ०—इसके (वोताद क्रम के) विपरीत जो ज्वर हो उसको वैकृत ज्वर कहते हैं।—माधव०, पृ० ३६। विशेष—साधारणतः वर्षा ऋतु में वायु, शरद ऋतु में पित्त और वसंत ऋतु में कफ कुपित होता हैं। यदि वर्षा ऋतु में वायु के प्रकोप से ज्वर हो, तो वह वैकृत ज्वर कहा जायगा।
⋙ वैकृतविवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] कष्ट। पीड़ा। दुर्दशा [को०]।
⋙ वैकृतिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वैकृतिकी] १. नैमित्तिक। २. परिवर्तित (को०)। ३. विकृति संबंधी (को०)।
⋙ वैकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीभत्स रस। २. परिवर्तन। विकार। ३. अपकर्षण। अपकर्ष (को०)।
⋙ वैक्रम
वि० [सं०] विक्रम संबंधी। पराक्रम संबंधी [को०]।
⋙ वैक्रमीय
वि० [सं०] विक्रम का। विक्रम संबंधी। जैसे,—वैक्रमीय संवत्।
⋙ वैक्रांत
संज्ञा पुं० [वैक्रांन्त] एक प्रकार की मणि जिसे चुन्नी कहते हैं।
⋙ वैक्रिय
वि० [सं०] १. जो बिकने को हो। बेचा जाने योग्य। बिक्री का। २. विकारजन्या। विकारी। परिवर्तनशील।
⋙ वैक्लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याकुलता। घबराहट। अस्तव्यस्तता। २. शोक। ३. व्यथा [को०]।
⋙ वैक्लव्य
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वैक्लव' [को०]।
⋙ वैखरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कंठ से उत्पन्न होनेवाले स्वर का एक विशिष्ट प्रकार। उच्च तथा गंभीर और बहुत स्पष्ट स्वर। वह वाणी या वाक् जिसमें स्वर और व्यंजन ध्वनियाँ स्पष्ट सुनाई देती है। व्याकरण दर्शन के अनुसार वाग् के चार भेदों (परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी) में स्थूलतम श्रवणीय भेद। २. वक्तृत्वशक्ति। वाक्शक्ति। ३. वाग्देवी।
⋙ वैखान
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ वैखानस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वानप्रस्थ आश्रम में हो। २. प्राचीन काल के एक प्रकार के ब्रह्मचारी या तपस्वी जो प्रायः वन में रहा करते थे। ३. प्रजापति के नख एवं लोभ से उत्पन्न एक ऋषि जिन्होंने वैखानस नामक धर्मसूत्र की रचना की थी। उ०—वैखानस धर्मसूत्र एवं हिरणय- केशिन् के धर्मसूत्र लगभग तीसरी ईस्वी सदी के हैं।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १४६। ४. वैष्णव संप्रदाय की एक शाखा (को०)।
⋙ वैखानस (२)
वि० वानप्रस्थ आश्रम संबंधी [को०]।
⋙ वैखानसि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ वैखानसीय
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद का नाम।
⋙ वैखानसीयोपनिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद्। दे० वैखान- सीय [को०]।
⋙ वैखारक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चरपरा और नमकीन स्वाद [को०]।
⋙ वैखारक (२)
वि० चरपरा और नमकीन [को०]।
⋙ वैगंधिक
संज्ञा पुं० [सं० वैगन्धिक] गंधक।
⋙ वैगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वैगन्धिका] एक क्षुप का नाम [को०]।
⋙ वैगनेट
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार की हल्की बग्गी या घोड़ागाड़ी जिसमें पीछे की ओर दाहिने बाएँ बैठने की लंबी जगह होती है।
⋙ वैगलेय
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार भूतों का एक गण।
⋙ वैगुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुणहीन होने का भाव। विगुणता। २. अपराध। दोष। उ०—धन्य, भरत बोले गदगद हो, दूर विकृति वैगुणय हुआ। उस तपस्विनी मेरी माँ का आज पाप भी पुण्य हुआ।—साकेत पृ० ३८०। ३. नीचता। वाहियात- पन। ४. गुणों की भिन्नता (को०)। ५. अकुशलता (को०)।
⋙ वैगुन पु
संज्ञा पुं० [सं० वैगुण्य]दे० 'वैगुण्य'। उ०—जौ जिय लोभ तौ गुनी न कहिए। गुन संकर वैगुन वै रहिए।—माधवा- नल०, पृ० २१९।
⋙ वैग्रहिक
संज्ञा पुं० [सं०] विग्रह या शरीर संबंधी। शरीर का।
⋙ वैघटिक
संज्ञा पुं० [सं०] रत्नपारखी। जौहरी [को०]।
⋙ वैधसिक
वि० [सं०] विधस अर्थात् जूठा खानेवाला [को०]।
⋙ वैधात्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो घात करने के योग्य हो। मार डालने लायक।
⋙ वैचक्षण्य
संज्ञा पुं० [सं०] विचक्षण या निपुण होने का भाव। निपुणता। होशियारी।
⋙ वैचित्य
संज्ञा पुं० [सं०] चित्त की भ्रांति। भ्रम। अन्यमनस्कता। दुःख। कष्ट।
⋙ वैचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] विचित्रता। विलक्षणता। दे० 'वैचित्र्य'।
⋙ वैचित्रवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] विचित्रवीर्य की संतान—१. धृतराष्ट्र। २. पांडु। ३. विदुर।
⋙ वैचित्रवीर्यक
वि० [सं०] विचित्रवीर्य का। विचित्रवीर्य संबंधी [को०]।
⋙ वैचिञ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विचित्र होने का भाव। विचित्रता। विलक्षणता। २. विभिन्नता। भेद। फर्क। ३. सुंदरता। खूबसूरती। ४. शोक। दुःख। गम (को०)। ५. नैराश्य (को०)। ६. आश्चर्य (को०)।
⋙ वैचिञ्यवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] विचित्रवीर्य की संतान, धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर आदि।
⋙ वैच्युत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ वैच्युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विच्युत होने का कार्य या भाव। विच्युति। पतन। गिरना।
⋙ वैजनन
संज्ञा पुं० [सं०] वह मास जिसमें किसी स्त्री को संतान उत्पन्न हो। प्रसवमास।
⋙ वैजन्य
संज्ञा पुं० [सं०] विजन होने का भाव। विजनता। एकांत।
⋙ वैजयंत
संज्ञा पुं० [सं० वैजयन्त] १. इंद्र की पुरी का नाम। २. इंद्र। ३. घर। ४. अग्निमंथ नामक वृक्ष। अरणी। ५. जैनों के अनुसार एक लोक जो सातों स्वर्गों से भी ऊपर है। ६. स्कंद (को०)। ७. पर्वतविशेष (को०)। ८. इंद्र की पताका (को०)। ९. पताका। झंडा (को०)। १०. भारत द्वारा निर्मित युद्ध में आक्रामक प्रकार विशेष के एक टैंक का नाम।
⋙ वैजयंतिक
संज्ञा पुं० [सं० वैजयन्तिक] वह जो पताका या झंडा उठाता हो। झंडा उठानेवाला।
⋙ वैजयंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वैजयन्तिका] दे० 'वैजयंती'।
⋙ वैजयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० वैजयन्ती] १. पताका। झंडा। २. जयंती नामक वृक्ष। ३. एक प्रकार की माला जो पाँच रंगों की और घुटनों तक लटकती हुई होती थी। कहते हैं, यह माला श्रीकृष्ण जी पहना करते थे। ४. चिह्न। लक्षण (को०)। ५. विजयमाल (को०)। ६. अग्निमंथ वृक्ष (को०)। ७. एक कोश का नाम (को०)। ८. हार। माला।(को०)।
⋙ वैजयिक
वि० [सं०] विजय संबंधी। विजय का। २. विजय देनेवाला। जिससे जय प्राप्त हो (को०)। ३. विजय का आभास या सूचना देनेवाला (को०)।
⋙ वैजयी
संज्ञा पुं० [सं० वैजयिन्]दे० 'विजयी'।
⋙ वैजवन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि जो एक वैदिक शाखा के प्रवर्तक थे। पैजवन। वैजन।
⋙ वैजात्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विजातीय होने का भाव। जातिबहि- ष्कृति। २. विलक्षणता। अदभुतता। ३. बदलचलनी। लंपटता। ४. वर्ग या जातिगत भिन्नता। वर्णभेद। प्रकारभेद।
⋙ वैजिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आत्मा। २. हेतु। कारण।
⋙ वैजिक (२)
वि० १. बीजसंबंधी। बीज का। २. वीर्यसंबंधी। वीर्य का।
⋙ वैज्ञानिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो विज्ञान का अच्छा ज्ञाता हो। विज्ञान जाननेवाला। २. निपुण। दक्ष। होशियार।
⋙ वैज्ञानिक (२)
वि० विज्ञान संबंधी। विज्ञान का। जैसे,—वैज्ञानिक खोज।
⋙ वैडाल
वि० [सं०] विडाल का। विडाल संबंधी [को०]।
⋙ वैडालव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] पाप और कुकर्मरत होते हुए भा ऊपर से साधु बने रहना।
⋙ वैडालव्रती
संज्ञा पुं० [सं० वैडालव्रतिन्] वह तवस्वी या साधु जो वास्तव में पापी और कुकर्मी हो। दुष्ट और नीच धर्मध्वजी।
⋙ वैडूर्य
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वैदूर्य'।
⋙ वैडूर्यकांति
वि० [सं० वैडूर्यकान्ति] वैडूर्य की तरह दीप्त। वैडूर्य के समान कांतिवाला [को०]।
⋙ वैडूर्यप्रभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग का नाम [को०]।
⋙ वौडूर्यमणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैदूर्य़ नामक रत्नविशेष [को०]।
⋙ वैडूर्यशिखर
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम [को०]।
⋙ वैण (१)
वि० [सं०] वेणु संबंधी। बाँस का।
⋙ वैण (२)
संज्ञा पुं० बाँस का कार्य करनेवाला। बँसोर या धरिकार [को०]।
⋙ वैण (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० वचन, प्रा० वयण० अप० एवं राज० वैण] दे० 'वचन'। उ०—ढोला, खील्यौरी कहइ, सुणे कुढंगा वैण।—ढोला०, दू० ४३८।
⋙ वैणव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस का फल। बाँस का चावल। २. बाँस का वह डंडा जो यज्ञोपवीत के समय धारण किया जाता है। ३. वंशी। वेणु। ४. बँसोरा। बाँस का काम करनेवाला (को०)। ५. वेणु नदी से प्राप्त सोना (को०)। ६. माहिष्य से उत्पन्न ब्राह्मणी का पुत्र। ७. पुराणानुसार कुशद्वीप का एक वर्ष (को०)।
⋙ वैणव
वि० १. वेणु संबंधी। बाँस का। २. बाँस से बना हुआ (को०)। ३. बाँसुरी संबंधी (को०)।
⋙ वैणविक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेणु बजाता हो। वंशी बजानेवाला। वंशीवादक।
⋙ वैणवी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंशलोचन।
⋙ वैणवी (२)
संज्ञा पुं० [सं० वैणविन्] १. वह जो वेणु बजाता हो। २. शिव का एक नाम।
⋙ वैणावत
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष [को०]।
⋙ वैणिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वीणा बजाता हो। बीनवादक। बीनकार। २. विष्ठा सी गंध। (को०)।
⋙ वैणुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वेणु बजाने में चतुर हो। वंशी बजानेवाला। २. हाथी का अंकुस।
⋙ वैणुकीय
वि० [सं०] १. वेणु संबंधी। वेणु का। २. वैणुक संबंधी।
⋙ वैणेय
संज्ञा पुं० [सं०] वेद का एक शाखा का नाम।
⋙ वैण्य
संज्ञा पुं० [सं०] राजा वेणु के पुत्र पृथु का एक नाम।
⋙ वेतंडिक
संज्ञा पुं० [सं० वैतण्डिक] १. वह जो बहुत अधिक वितंडा करता हो। तार्किक। तर्कप्रिय। हरेक बात में तर्क उपस्थित करनेवाला। २. व्यर्थ का झगड़ा या बहस करनेवाला।
⋙ वैतंडी
संज्ञा पुं० [सं० वैतण्डिन्] पुराणानुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ वैतंसिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो मांस बेचता हो। मांसिक। वूचड़। कसाई। २. पक्षियों को फँसानेवाला। व्याध। बहेलिया (को०)। ३. व्याध का पेशा। पक्षियों को फँसाने का कार्य (को०)।
⋙ वैतत्य
संज्ञा पुं० [सं०] विततता। फैलाव। विस्तार [को०]।
⋙ वैतथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विफल होने का भाव। विफलता। २. वितथ होने का भाव। असत्यता।
⋙ वैतनिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेतन लेकर काम करता हो। तन- खाह लेकर काम करनेवाला। क्रमचारी। नौकर। भृत्य। मजदूर।
⋙ वैतरण (१)
वि० [सं०] १. नदी को पार करने का अभिलाषी। २. वैतरणी पार कराने का साधन [को०]।
⋙ वैतरण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वितरण करने का भाव या क्रिया। उ०— सविधि हो वैतरण, सुकृत कारण करण।—अचर्ना, पृ० २६।
⋙ वैतरणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वैतरणी'।
⋙ वैतरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रसिद्ध पौराणिक नदी जो यम के द्वार पर मानी जाती है। विशेष—कहते हैं, यह नदी बहुत तेज बहती है, इसका जल बहुत ही गरम और बदबूदार है और उसमें हडि्डयाँ, लहू तथा बाल आदि भरे हुए हैं। यह भी माना जाना है कि प्राणी को मरने पर पहले यह नदी पार करनी पड़ती है, जिसमें उसे बहुत कष्ट होता है। परंतु यदि उसने अपनी जीवितावस्था में गोदान किया हो, तो वह उसी गौ की सहायता से सहज में इस नदी के पार उतर जाता है। पुराणों में लिखा है कि जब सती के वियोग में महादेव जो रोने लगे, तब उनके आँसुओं का प्रवाह देखकर देवता लोग बहुत डरे और उन्होंने शनि से प्रार्थना की कि तुम इस प्रवाह को ग्रहण करके सोख लो। शनि ने उस धारा को ग्रहण करना चाहा, पर उसे सफलता नहीं हुई। अंत में उसी धारा से यह वैतरणी नदी बनी। इसका विस्तार दो योजन माना गया है। पापियों को यह नदी पार करने में बहुत कष्ट होता है। २. उड़ीसा की एक नदी का नाम जो बहुत पवित्र मानी जाती है।
⋙ वैतस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरुष की मूत्रेंद्रिय। लिंग। २. अम्लबेंत। ३. बेंत की बनी वस्तु। ४. बेंत की टोकरी (को०)।
⋙ वैतस (२)
वि० १. बेंत संबंधी। बेंत जैसा [को०]।
⋙ वैतसीवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेंत की तरह झुक जाने की आदत। नम्रता की प्रवृत्ति [को०]।
⋙ वैतसेन
संज्ञा पुं० [सं०] राजा पुरूरवा का एक नाम जो वीतसेन के पुत्र थे।
⋙ वैतस्त
वि० [सं०] वितस्ता नदी से संबंधित या प्राप्त [को०]।
⋙ वैतस्तिक
वि० [सं०] वितस्ति परिमित (शर)। (बाण) जो एक बित्ता लंबा हो [को०]।
⋙ वैतस्त्य
वि० [सं०] वितस्ता नदी संबंधी। वितस्ता से मिला हुआ [को०]।
⋙ वैतहव्य
संज्ञा पुं० [सं०] आर्यों का एक प्रधान समूह जो वीतिहव्य के गोत्र का था। उ०—प्रधान आर्य समूहों में थे—शिवि, मत्स्य, वैतहव्य, विदर्भ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ७६।
⋙ वैताढ्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।
⋙ वैतान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेमा। शिविर। समूह। तंबू। २. यज्ञ की एक विशेष विधि। ३. यज्ञीय हवि। यज्ञ में प्रयुक्त हवि [को०]।
⋙ वैतान (२)
वि० [वि० स्त्री० वैतानी] १. शुद्ध। पवित्र। पुनीत। २. यज्ञ- संबंधी। यज्ञ का। यज्ञीय [को०]।
⋙ वैतानिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह हवन या यज्ञ आदि जो श्रौत विधानों के अनुसार हो। २. वह अग्नि जिससे अग्निहोत्र आदि कृत्य किए जायँ।
⋙ वैतानिक (२)
वि०दे० 'वैतान (२)' [को०]।
⋙ वैतानिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'वैतान (१)' [को०]।
⋙ वैतान्य
संज्ञा पुं० [सं०] निर्वेद [को०]।
⋙ वैताल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्तुतिपाठक। वैतालिक।
⋙ वैताल (२)
वि० वेताल संबंधी। वेताल का।
⋙ वैतालकि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन आचार्य का नाम जो ऋग्वेद की एक शाखा के प्रवर्तक थे।
⋙ वैतालरस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रस। विशेष—यह रस गंधक, मिर्च और हरताल आदि के योग से बनता है और सन्निपातिक ज्वर तथा मूर्छा आदि में उपयोगी माना जाता है।
⋙ वैतालिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का वह स्तुतिपाठक जो प्रातःकाल राजाओं को उनकी स्तुति करके जगाया करता था। स्तुतिपाठक। उ०—वैतालिक विहंग भाभी के, संप्रति ध्यान- लग्न से हैं।—पंचवटी, पृ० ९। २. चौंसठ कलाओं में से किसी एक में प्रवीणता (को०)। ३. बाजीगर (को०)। ४. वह जो गाने में ताल का ध्यान न रखता हो। विताल गानेवाला। ५. वेताल का उपासक। वेताल को पूजनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ वैतालिकव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] स्तुतिपाठक की क्रिया या कार्य। वैता- लिक का काम [को०]।
⋙ वैताली
संज्ञा पुं० [सं० वैतालिन्] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।
⋙ वैतालीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्णवृत्त जिसके पहले तथा तीसरे चरणों में चौदह और दूसरे तथा चौथे चरणों में सोलह मात्राएँ होती हैं।
⋙ वैतालीय (२)
वि० वेताल संबंधी। वेताल का।
⋙ वैतुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] तुषरहित करना। भूसी निकालना [को०]।
⋙ वैतृष्णय
संज्ञा पुं० [सं०] १. तृष्णा से रहित होने का भाव। तृष्णा का शमन। तृष्णाशांति। २. आकांक्षाओं, इच्छाओं से मुक्ति। निर्वेद (को०)।
⋙ वैत्तपाल्य
वि० [सं०] १. वित्तपाल संबंधी। २. कुबेरसंबंधी [को०]।
⋙ वैत्रक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वैत्रकी] बेंत का। बेंत संबंधी [को०]।
⋙ वैत्रकीय
वि० [सं०] बेंत का। वेत्रनिर्मित। बेंत संबंधी [को०]।
⋙ वैत्रासुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस। दे० 'वेत्रासुर' [को०]।
⋙ वैदंभ
संज्ञा पुं० [सं० वैदम्भ] शिव का एक नाम।
⋙ वैद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वैदी] १. एक प्राचीन ऋषि का नाम जो विदु नामक ऋषि के पुत्र थे। २. विद्वान् पुरुष (को०)।
⋙ वैद (२)
वि० विद्वान् या पंडित संबंधी।
⋙ वैद (३)
संज्ञा पुं० [सै० वैद्य, प्रा०, वैद] दे० 'वैद्य'।
⋙ वैदक
संज्ञा पुं० [सं० वैद्यक]दे० 'वैद्यक'।
⋙ वैदग्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. विदग्ध या पूर्ण पंडित होने का भाव। पांडित्य। विद्वत्ता। २. कार्यकुशलता। पटुता। ३. चतुरता। धूर्तता। चालाकी। ४. रसिकता। ५. शोभा। सौंदर्य। ६. हावभाव। ७. प्रत्युत्पन्नमतित्व। प्रतिभा (को०)।
⋙ वैदग्धी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चतुरता। प्रवीणता। ३. सुंदरता। ४. प्रत्युत्पन्न मतित्व। ५. सरसता। ६. विद्वत्ता [को०]।
⋙ वैदग्ध्य
संज्ञा पुं० [सं०] विदग्ध या पूर्ण पंडित होने का भाव। पांडित्य। विद्वत्ता। २. दे० 'वैदग्ध'।
⋙ वैदत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी विषय का अच्छा ज्ञाता हो। जानकार।
⋙ वैदनृत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ वैदर्भ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विदर्भ देश का राजा या शासक। २. दमयंती के पिता भीमसेन का एक नाम। ३. रुक्मिणी के पिता भीष्मक का एक नाम। ४. वह जो बातचीत करने में बहुत चतुर हो। ५. बातचीत करने की चतुराई। वाक्चातुरी। ६. एक रोग जिसमें मसूड़े फूल जाते हैं और उसमें पीड़ा होती है।
⋙ वैदर्भ (२)
वि० १. जो विदर्भ देश में उत्पन्न हुआ हो। २. विदर्भ देश का। ३. वाक्पटु। वार्ताकुशल (को०)।
⋙ वैदर्भक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो विदर्भ देश का निवासी हो।
⋙ वैदर्भक (२)
वि० विदर्भ देश का। विदर्भ से संबंद्ध [को०]।
⋙ वैदर्भी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काव्य की एक रीति। वह रीति या शैली जिसमें मधुर वर्णों द्वारा मधुर रचना होती है। कालिदास वैदर्भी के उत्कृष्ट कवि माने जाते हैं। विशेष—वामन के मतानुसार जिस काव्य रीति में श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सौकमार्य, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओजस, कांति और समाधि आदि दस शब्दगुण रहते हैं वह काव्य रीति वैदर्भी कही गई है। यह सबसे अच्छी समझी जाती है। २. अगस्त्य ऋषि की स्त्री का एक नाम। ३. दमयंती। ४. रुक्मिणी। ५. विदर्भ देश की राजकुमारी (को०)। ६. विदर्भ देश की राजनगरी। कुंडिनपुर (को०)।
⋙ वैदल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिट्टी का वह पात्र जिसमें भिखमंगे भीख माँगते हैं। खप्पर। २. एक प्रकार की पीठी। ३. बेंत या बाँस की बनी डलिया या आसन (को०)। ४. एक विषैला कीट (को०)। ५. द्विदल अन्न। दाल (को०)।
⋙ वैदल (२)
वि० १. बेंत का अथवा बाँस का बना हुआ [को०]।
⋙ वैदातिक
वि० [सं० वैदान्तिक] वेदांत का ज्ञाता। वेदांती [को०]।
⋙ वैदारिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर। विशेष—इसमें वायु का प्रकोप कम, पित्त का मध्यम और कफ का अधिक होता है। रोगी को हड्डियों और कमर में पीड़ा होती है, उसे भ्रम, क्लांति, श्वास, खाँसी तथा हिचकी होती है, और सारा शरीर सुन्न हो जाता है। ऐसा सन्निपात जल्दी अच्छा नहीं होता।
⋙ वैदिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो वैदों में बतलाए हुए कर्मकांड का अनुष्ठान करता हो। वेद में कहे हुए कृत्यों को करनेवाला। २. वह जो वेदों आदि का अच्छा ज्ञाता हो। वेदों का पंडित।
⋙ वैदिक (२)
वि० १. जो वेदों में कहा गया हो। वेदविहित। उ०— करनबेध चूड़ा़करन, लौकिक वैदिक काज। गुरु आयस भूपति करत, मंगल साज समाज।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८२। २. वेद- संबंधी। वेद का। जैसे, वैदिक काल। ३. धर्मात्मा (को०)। ४. वेदज्ञ। वेदों का ज्ञाता (को०)। ५. पूत। शुद्ध। पवित्र (को०)।
⋙ वैदिककर्म
संज्ञा पुं० [सं० वैदिककर्मन्] वेदानुकूल कर्म। वेदविहित कर्म [को०]।
⋙ वैदिकपाश
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेदविद्या में अलप्ज्ञ हो। वेद का थोड़ा सा ज्ञान रखनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ वैदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनजामुन [को०]।
⋙ वैदिश
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो विदिशा का निवासी हो।
⋙ वैदिश्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर का नाम जो विदिशा के पास था [को०]।
⋙ वैदुरिक
संज्ञा पुं० [सं०] विदुर का नितिसिद्धांत। विदुरनीति [को०]।
⋙ वैदुल
संज्ञा पुं० [सं०] बेंत की जड़।
⋙ वैदुष
संज्ञा पुं० [सं०] विद्वान्। पंडित।
⋙ वैदुषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विद्वत्ता। २. बुद्धिमत्ता [को०]।
⋙ वैदुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] विद्वत्ता। पांडित्य।
⋙ वैदुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] धूमिल रंग का एक प्रकार का रत्न या बहुमूल्य पत्थर जिसे 'लहसुनिया' कहते हैं। दे० 'लहसुनिया'। दीर्घ खंभे हैं बने वैदूर्य के; ध्वजपटों में चिह्न कुलगुरु सुर्य के।—साकेत, पृ० १९। विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार इस रत्न के अधिष्ठाता देवता केतु माने गए हैं और कहा गया है कि जब केतु ग्रह खराब या बिगड़ा हुआ हो, तो यह रत्न धारण करना चाहिए। हमारे यहाँ इसकी गणना महारत्नों में है। सुतार, घन, अद्रच्छ, कलिक और व्यंग ये पाँच इसके गुण और कर्कर, कर्कश, त्रास, कलंक और देह ये पाँच इसके दोष कहे गए हैं। कुछ लोगों का मत है कि यह रत्न विदूर पर्वत पर होता है, इसी से वैदूर्य कहलाता है। वैद्यक के अनुसार यह अम्ल, उष्ण, कफ तथा वायु का नाशक और गुल्म तथा शूल को शांत करनेवाला है। पर्या०—केतुरत्न। अभ्ररोह। विदूररत्न। विदूरज। खराब्जांकुर।
⋙ वैदेशिक (१)
वि० विदेश संबंधी। विदेश का।
⋙ वैदेशिक (२)
/?/वह जो अन्य देश का रहनेवाला हो। अन्य देशवासी व्यक्ति। उ०—श्रात्रियपुत्र, पदिकपुत्र, वेदज्ञ, वेद्य, वैदेशिक, वार्तिक, वक्ता, व्यसनी, व्यावहारिक, विद्यामंत।—वर्ण०,यौ०—वैदेशिक नीति = विदेश संबधी निति। किसी राष्ट्र की वह नीति जो अन्य राष्ट्रों अर्थात् विदेशों के साथ बरती जाती है। उ०—उसे ठीक प्रकार से समझने के लिये हमें उसकी वैदेशिक नीति को भली भाँति समझने का प्रयत्न करना चाहिए।—आ० अ० रा०, पृ० १०७।
⋙ वैदेश्य (१)
वि० [सं०] 'वैदेशिक'।
⋙ वैदेश्य (२)
संज्ञा पुं० विदेशी होना। अन्यदेशीय होने का भाव।
⋙ वैदेश्यसार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] (कौटिल्य अर्थशास्त्र द्वारा प्रयुक्त शब्द) विदेशी माल।
⋙ वैदेह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा निमि के पुत्र का नाम। विशेष—कहते हैं, जब राजा निमि निःसंतान मर गए, तब धर्म का लोप हो जाने के भय से ऋषियों ने अरणी से मथकर इन्हें, राज्य करने के लिये, उत्पन्न किया था। २. वणिक्। सौदागर। ३. विदेह देश का नरेश (को०)। ४. अंतः- पुर का पहरुआ। रनिवास का प्रहरी (को०)। ५. प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति। विशेष—इस जाति के जनों का काम अंतःपुर में पहरा देना था। मनु के अनुसार इस जाति की उत्पत्ति ब्राह्मणी माता और वैश्य पिता से है।
⋙ वैदेह (२)
वि० १. विदेह देश से संबंधित। विदेह देश का। २. स्निग्ध- वर्ण और सुंदर आकृतिवाला [को०]।
⋙ वैदेहक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वणिक्। व्यापारी। २. वैदेह नामक एक वर्णसंकर जाति। ३. विदेह देश का व्यक्ति। (को०)।
⋙ वैदेहक-व्यंजन
संज्ञा पुं० [सं० वैदेहकव्यञ्जन] कौटिल्य के अनुसार वह जासूस जो व्यापारी के छदम वेश में हो। व्यापारी के वेश में गुप्तचर। विशेष—ये गुप्तचर समाहर्ता के अधीन काम करते थे और व्यापा- रियों में मिलकर उनकी काररवाइयों की सूचना दिया करते थे।
⋙ वैदेहिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैदेह'—२. और ३.।
⋙ वैदही
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विदेहराज जनक की कन्या, सीता। २. वैदेह जात की स्त्री। ३. रोचना। ४. पीपल। पिप्पली। ५. हरिद्रा। हल्दी (को०)। ६. गाय (को०)। ७. वणिक् जाति की स्त्री (को०)।
⋙ वैद्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पंडित। विद्वान्। २. वह जो आयुर्वेद का ज्ञाता हो और उसके अनुसार रगियों की चिकित्सा आदि करता हो। भिषक्। चिकित्सक। ३. वासक वृक्ष। अड़ूसा। ४. एक जाति जो प्रायः बंगाल में पाई जाती है। इस जाति के लोग अपने आपकी 'अंबष्ठसंतान' कहते हैं। दे० 'अंबष्ठ-३'। ५. एक जाति जिसकी उत्पत्ति शूद्र पिता और वैश्य माता से कही गई है (को०)। ६. एक ऋषि (को०)।
⋙ वैद्य (२)
वि० [वि० स्त्री० वैद्यी] १. वेद संबंधी। वेद का। २. आयुर्वेद संबंधी (को०)।
⋙ वैद्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह शास्त्र जिसमें रोगों के निदान और चिकित्सा आदि का विवेचन हो। चिकित्साशास्त्र। आयुर्वेद। विशेष दे० 'आयुर्वेद'। २. वैद्य। चिकित्सक (को०)।
⋙ वैद्यक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिकित्सा कर्म। वैदगी। डाक्टरी। वैद्य का कर्म [को०]।
⋙ वैद्यनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिहार का एक प्रसिद्ध तीर्थ जो सथाल परगने के अंतर्गत है। वहाँ इसी नाम का शिव का एक प्रसिद्ध मंदिर है। २. महादेव। शिव (को०)। ३. धन्वंतरि का एक नाम (को०)। ४. एक भैरव (को०)।
⋙ वैद्यबंधु
संज्ञा पुं० [सं० वैद्यवन्धु] १. आरग्वध नामक वृक्ष। अमल- तास। २. वैद्य का भाई (को०)।
⋙ वैद्यमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० वैद्यमातृ] १. वासक वृक्ष। अड़ूसा। २. वैद्य की माता (को०)।
⋙ वैद्यमानी
वि० [सं० वैद्यमानिन्] ज्ञाता न होते हुए भी अपने को वैद्य माननेवाला [को०]।
⋙ वैद्यराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो अच्छा वैद्य हो। वैद्यों में श्रेष्ठ। २. धन्वंतरि का एक नाम (को०)। ३. शार्ङ्गधर के पिता का नाम।
⋙ वैद्यराट्
संज्ञा पुं० [सं० वैद्यराज्]दे० 'वैद्यराज' [को०]।
⋙ वैद्यविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] आयुर्वेद। चिकित्साशास्त्र [को०]।
⋙ वैद्यशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यविद्या। आयुर्वेद [को०]।
⋙ वैद्यसिंही
संज्ञा स्त्री० [सं०] वासक वृक्ष। अड़ूसा।
⋙ वैद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काकोली। २. वैद्य की पत्नी (को०)। ३. वैद्य का कर्म करनेवाली स्त्री० [को०]।
⋙ वैद्याधर
वि० [सं०] विद्याधर नामक देवयोनि संबंधी। विद्याधर का। विद्याधर संबंधी [को०]।
⋙ वैद्यानि
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक ऋषिपुत्र का नाम।
⋙ वैद्यावृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] फुटकर। खुदरा। थोक का उल्टा। जैसे— वैद्यावृत्य विक्रय।
⋙ वैद्युत (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वैद्युती] विद्युत् संबंधी। बिजली का।
⋙ वैद्युत (२)
संज्ञा पुं० १. विद्युत् का देवता। २. पुराणानुसार शाल्मलि द्वीप के एक वर्ष का नाम। ३. वपुष्मान् का पुत्र (को०)। ४. वज्राग्नि। बिजली की अग्नि (को०)।
⋙ वैद्युतगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ वैद्योत
वि० [सं०] क्रोधाविष्ट। क्रोध से भरा हुआ [को०]।
⋙ वैद्रुम
वि० [सं०] विद्रुम संबंधी। मूँगे का।
⋙ वैध ‡
वि० [सं०] १. जो विधि के अनुसार हो। कायदे कानून के मुताबिक। कानून या विधिसमत। जैसे—वैध आंदोलन, वैध अधिकार। २. उचित। जायज। ठीक।
⋙ वैधर्मिक
वि० [सं०] धर्मविरुद्ध। विधर्म या विधर्मियों का। विधर्म। संबधी [को०]।
⋙ वैधर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विधर्मी होने का भाव। २. वह जोअपने धर्म के अतिरिक्त अन्यान्य धर्मों के सिद्धांतों का भी अच्छा ज्ञाता हो। ३. नास्तिकता। ४. असमानता। भिन्नता (को०)। ५. गुण, धर्म या कर्तव्य की भिन्नता (को०)। ६. वैपरीत्य। विपरीतता (को०)। ७. अवैधता (को०)।
⋙ वैधव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विधु अर्थात् चंद्रमा के पुत्र, बुध।
⋙ वैधव (२)
वि० विधु संबंधी। चंद्रमा संबंधी [को०]।
⋙ वैधवेय
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो विधवा के गर्भ से उतप्न्न हुआ हो। विधवा का पुत्र।
⋙ वैधव्य
संज्ञा पुं० [सं०] विधवा होने का भाव। रँड़ापा। यौ०—वैद्यव्यलक्षण = विधवा होने का लक्षणा या ग्रहयोग। वैधव्य- लक्षणोपेता = वह कन्या जिसमें विधवा हो जाने के लक्षण हों। ज्योतिष के अनुसार ऐसी कन्या विवाह के अयोग्य समझी जाती है। वैधव्यवेणी = विधवा वा सौभाग्यहीना स्त्री की वणी।
⋙ वैधस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] राजा हरिश्चंद्र का एक नाम जो इक्ष्वाकुवंशी राजा वेधस के पुत्र थे।
⋙ वैधस (२)
वि० १. वेधा या ब्रह्मा द्वारा निर्मित। २. भाग्य या विधि द्वारा परिचालित [को०]।
⋙ वैधातकि
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वैधात्र'।
⋙ वैधात्र
संज्ञा पुं० [सं०] सनत्कुमार, जो विधाता के पुत्र माने जाते हैं।
⋙ वैधात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मी नाम की जड़ी।
⋙ वैधानिक
वि० [सं०] १. विधान के अनुकूल। विधि के मुताधिक। २. विधान संबंधी [को०]।
⋙ वैधिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वैधिकी] विधिविहित। विधि के अनुकूल विधिसम्मत [को०]।
⋙ वैधुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भाग्य की प्रतिकूलता। विपत्ति [को०]।
⋙ वैधुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विधुर होने का भाव। हताश या कातर होने का भाव। २. भ्रम। संदेह। ३. कंपित होने का भाव। ४. वियोग (को०)। ५. अनुपस्थिति। अविद्यमानता (को०)। ६. कष्ट। क्लेश। क्षोभ (को०)।
⋙ वैधुमाग्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नगरी का नाम जो शाल्व देश में थी।
⋙ वैधृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो विधृति का पुत्र या संतान हो। २. ग्यारहवें मन्वंतर के एक इंद्र का नाम। ३. एक अशुभ योग। वैधृति (को०)।
⋙ वैधृत वाशिष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।
⋙ वैधृति
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष में विष्कंभ आदि सत्ताइस योगों में से एक योग जो अशुभ माना जाता है। इस योग में यात्रा या कोई शुभ कार्य करना वर्जित है। २. भागवत के अनुसार एक देवता, जो विधृति के पुत्र हैं।
⋙ वैधृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. 'वैधृति'।
⋙ वैधेय
वि० [सं०] १. विधि संबंधी। विधि का। २. नियमानुकूल। ३. मूर्ख। बेवकूफ। नासमझ।
⋙ वैध्यत
संज्ञा पुं० [सं०] यम के एक प्रतिहार का नाम।
⋙ वैन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] राजा वेन के पुत्र पृथु का एक नाम।
⋙ वैन (२)
वि० राजा संबंधी [को०]।
⋙ वैनतक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का पात्र जिसमें घी रखा जाता था और जिसका व्यवहार यज्ञों में होता था।
⋙ वैनतेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. विनता की संतान। २. गरूड़। उ०— वैनतेय छ़ठे आकाश के वासी बताए गए हैं। —प्रा० भा० प०, पृ०,८३। ३. अरूण।
⋙ वैनतेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वैदिक शाखा का नाम।
⋙ वैनत्य
वि० [सं०] जिसका स्वभाव विनीत हो।
⋙ वैनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम।
⋙ वैनभृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम। २. एक वैजिक शाखा का नाम।
⋙ वैनयिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विनय। प्रार्थना। २. वह जो शास्त्रों आदि का अध्ययन करता हो। ३. प्राचीन काल का एक प्रकार का रथ जिसका व्यवहार युद्ध में होता था। ४. शासन में नियम और अनुशासन की व्यवस्था करनेवाला व्यक्ति। नैतिकता का पालन करानेवाला। उ०— नियम और अनुशासन का अधिकारी वैनयिक कहलाता था।— हिंदु०, सभ्यता, पृ० १२७।
⋙ वैनयिक (२)
वि० विनय संबंधी। विनय का। शिष्टता या अनुशासन संबंधी।
⋙ वैनयिक रथ
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाई सिखाने के लिये बने हुए रथ।
⋙ वैनयिकवाद
संज्ञा पुं० [सं०] जैनमत का विरोधी मतविशेष। उ०— इन विरुद्ध मतों को जैनों ने क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और वैनयिकवाद कहा है।— हिंदु० सभ्यता, पृ० २२७।
⋙ वैना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वीणा] १. दे० 'वीणा'। २. दे० 'बेँदा' या 'बेना'। उ०— सीस पाग वैना धरे, राजामँदिर पगु दीन।— हिं० क० का०, पृ० १९२।
⋙ वैनायक (३)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वैनायकी] विनायक या गणेश संबंधी।
⋙ वैनायक (२)
संज्ञा पुं० भागवत के अनुसार भूतों का एक गण।
⋙ वैनायिक (१)
वि० [सं०] विनायक संबंधी।
⋙ वैनायिक (२)
संज्ञा पुं० १. वह जो बौद्ध धर्म का अनुयायी हो। बौद्ध। २. बौद्ध संप्रदाय का एक दार्शनिक सिद्धांत (को०)।
⋙ वैनाशिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. फलित ज्योतिष में जन्मनक्षत्र से तेईसवाँ नक्षत्र। २. जन्मनक्षत्र से सातवाँ, दसवाँ और अठा- रहवाँ नक्षत्र। ये तीनों नक्षत्र अशुभ समझे जाते हैं और निधन- तारा कहलाते हैं। इन नक्षत्रों में यात्रा करना वर्जित हैं। ३. बौद्ध। ४. दास। सेवक (को०)। ५. मकड़ी (को०)। ६. ज्योतिषी (को०)। ७. बौद्ध संप्रदाय का दार्शनिक सिद्धांत (को०)।
⋙ वैनाशिक (२)
वि० १. विनाश संबंधी। २. परतंत्र। परधीन।
⋙ वैनाशिकतंत्र
संज्ञा पुं० [सं०वैनाशिकतन्त्र] बौद्ध दर्शन [को०]।
⋙ वैनाशिकसमय
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध धर्म [को०]।
⋙ वैनीतक
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसी सवारी जिसे कई आदमी मिलकर उठाते हों। जैसे— ड़ोली, पालकी, तामजाम आदि। विनीतक।
⋙ वैनेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वैदिक शाखा का नाम। २. विनय या धर्म की शिक्षा प्राप्त करनेवाला छात्र (को०)।
⋙ वैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] राजा वेन के पुत्र पृथु का एक नाम।
⋙ वैपंचमिक
संज्ञा पुं० [सं०वैपञ्चमिक] वह व्यत्कि जो भविष्यकथन करता हो [को०]।
⋙ वैपथक
संज्ञा पुं० [सं०] विपथ संबंधी [को०]।
⋙ वैपरीत्य
संज्ञा पुं० [सं०] विपरीत होने का भाव। विपरीतता। असंगति। यौ०—वैपरीत्य लज्जालु= एक प्रकार का लजाधुर। लजालू पौधा।
⋙ वैपश्चित
संज्ञा पुं० [सं०] तार्क्ष्य नामक ऋषि का एक नाम जो विपश्चित् ऋष के वंशज थे।
⋙ वैपश्यत
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक ऋषि का नाम।
⋙ वैपादिक (१)
पैर के व्रण से व्यथित। विपादिका अर्थात् बिवाई से पीड़ित [को०]।
⋙ वैपादिक (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का कुष्ठ रोग [को०]।
⋙ वैपादिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विपादिका नामक रोग।
⋙ वैपार पु
संज्ञा पुं० [सं०व्यापार] दे० 'व्यापार'।
⋙ वैपारी पु
संज्ञा पुं० [सं०व्यापरिन्] दे० 'व्यापारी'।
⋙ वैपित्र
संज्ञा पुं० [सं०] वे भाई बहन आदि जिनकी माता तो एक ही हो, पर पिता अलग अलग हों।
⋙ वैपुल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विपुल होने का भाव। विपुलता। अधिकता। २. विस्तृति। विशालता (को०)।
⋙ वैप्रतिसम
वि० [सं०] जो समान न हो। असम। विषम [को०]।
⋙ वैप्रोताख्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नृत्य [को०]।
⋙ वैप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] सावन का महीना [को०]।
⋙ वैफल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विफल होने का भाव। विफलता। नाकामयाबी। २. निरर्थकता। अनुपयोगिता (को०)।
⋙ वैबाध
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का सिक्कड़। २. वह अश्वत्थ वृक्ष जो खैर के वृक्ष में से निकला हो।
⋙ वैबाधप्रणुत्त
वि० [सं०] (वह वृक्ष) जिसके ऊपर पीपल का पेड़ उगा हो [को०]।
⋙ वैबुध
वि० [सं०] देव संबंधी। विबुध संबंधी [को०]।
⋙ वैबोधिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो रात के समय पहरा देता, घंटा बजाता और साए हुए लोगों को जगाता हो। २. पहरुआ। पहरेदार (को०)। ३. स्तुतिपाठक जो प्रातःकाल स्तुतिपाठ द्वारा। राजा को जगाता था (को०)।
⋙ वैभंड़ि
संज्ञा पुं० [ सं०वैभण्डि] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम जिन्हें विभांड़ि भी कहते हैं।
⋙ वैभव
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनसंपत्ति। दौलत। विभव। ऐश्वर्य। २. महिमा। महत्व। बड़प्पन। ३. सामर्थ्य। शक्ति। ताकत।
⋙ वैभवशाली
संज्ञा पुं० [सं०वैभवशालिन्] वैभवयुक्त वह जिसके पास बहुत अधिक धन संपत्ति हो। विभववाला। मालदार।
⋙ वैभविक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो कोई काम करने का अच्छा सामर्थ्य रखता हो। समर्थ।
⋙ वैभांड़कि
संज्ञा पुं० [सं०वैभाण्डकि] एक गोत्र प्रर्वतक ऋषि का नाम।
⋙ वैभाजन
वि० [सं०] अनेक मार्गों में विभक्त। जो कई मार्गों में विभक्त हो [को०]।
⋙ वैभाजिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो विभक्त करता हो [को०]।
⋙ वैभाजित्र
संज्ञा पुं० [सं०] विभाजन। कई भागों में कर देना। बाँटना [को०]।
⋙ वैभातिक
वि० [सं०] विभात या प्रभात संबंधी। अरुणोदय संबंधी। उषःकालीन [को०]।
⋙ वैभार
संज्ञा पुं० [सं०] राजगृह के पास के एक पर्वत का नाम। इसे वैहार भी कहते थे।
⋙ वैभावर
वि० [सं०] विभावरी संबंधी। रात का। रात्रिसंबंधी [को०]।
⋙ वैभाषिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री०वैभाषिनी] १. विभाषा संबंधी। वैकल्पिक। २. वैभाषिक नामक बौद्ध संप्रदाय के एक वर्ग का अनुगामी या तत्संबंधी [को०]।
⋙ वैभाषिक (२)
संज्ञा पुं० बौद्धों के एक संप्रदाय का नाम।
⋙ वैभाष्य
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत् भाष्य। किसी सूत्र, कारिका वा वचन की विस्तृत व्याख्या [को०]।
⋙ वैभीत
वि० [सं०] बहेड़ा से बना हुआ। जिसमें बहेड़े का योग हो। विभीतक से निर्मित [को०]।
⋙ वैभीतक
वि० [सं०] दे० 'वैभीत' [को०]।
⋙ वैभूतिक
वि० [सं०] १. विभूतिजन्य। विभूतिमत्। २. विभूतिसंबंधी। विभूति का।
⋙ वैभोज
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जाति का नाम। विशेष— महाभारत के अनुसार द्रुह्य के वंशज वैभोज कहलाते थे। ये लोग सवारी आदि का व्यवहार करना नहीं जानते थे और न इन लोगों में कोई राजा हुआ करता था।
⋙ वैभ्र
संज्ञा पुं० [सं०] वैकुंठ लोक। विष्णुधाम [को०]।
⋙ वैम्राज
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवताओं का उद्यान या बाग। २. पुराणानुसार मेरु के पश्चिम में सुपार्श्व पर्वत पर के एक जंगल का नाम। ३. पुराणनुसार एक पर्वत का नाम। ४. एक लोक का नाम जो स्वर्ग मान जाता है।
⋙ वैभ्राजक
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का उद्यान। नंदनवन [को०]।
⋙ वैमत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक मत का अभाव। मतभेद। फूट। २. शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा का नाम। ३. नापसंदगी। अरुचि (को०)।
⋙ वैमनस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विमन या अन्यमनस्क होने का भाव। २. वैर। द्वेष। दुश्मनी। ३. बीमारी। अस्वस्थता (को०)।
⋙ वैमल्य
संज्ञा पुं० [सं०] विमल होने का भाव। मलराहित्य। स्वच्छता। विमलता। निर्मलता।
⋙ वैमात्र (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वैमात्रों] विमाता से उत्पन्न। सौतेला। जैसे— वैमात्र भाई।
⋙ वैमात्र (२)
संज्ञा पुं० सौतेला भाई [को०]।
⋙ वैमात्रक
संज्ञा पुं० [सं०] सौतेला भाई [को०]।
⋙ वैमात्रा, वैमात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौतेली बहन [को०]।
⋙ वैमात्रेय
वि० [सं०] [वि० स्त्री०वैमात्रेयी] विमाता से उत्पन्न। विमातृज। सौतेला।
⋙ वैमात्रेयी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौतेली बहन [को०]।
⋙ वैमानिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो विमान पर चढकर अंतरिक्ष में विहार करता हो। २. वह जो आकाश में विहार करता हो। आकाशचारी। ३. वह जो उड़ सकता हो। उड़्डयनशील। ४. जैनों के अनुसार वे जीव जो स्वर्गलोक में रहते हैं। ५. देवता (को०)।
⋙ वैमानिक (२)
वि० १. विमान द्वारा ले जाया जाता हुआ ! विमानारूढ। २. विमानोत्पन्न। विमानजन्य। ३. वायुयान का चालक। विमान चलानेवाला। ४. विमान संबंधी [को०]।
⋙ वैमानिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवांगना [को०]।
⋙ वैमित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
⋙ वैमुक्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मुत्कि। विमुत्कि। मोक्ष [को०]।
⋙ वैमुक्त (२)
वि० मुक्त [को०]।
⋙ वैमुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विमुख होने का भाव। विमुखता। २. विपरीतता। प्रतिकूलता। ३. अप्रसन्नता। नाराजगी। ४. विमुख होना। पलायन। भागना।
⋙ वैमूढक
संज्ञा पुं० [सं०] कालिदास के मालाविकाग्निमित्र नाटक में वर्णित एक प्रकार का नृत्य। वह नृत्य जिसमें पुरुष नारी वेष में नाचते हैं [को०]।
⋙ वैमूल्य
संज्ञा पुं० [सं०] मू्ल्यों का अंतर [को०]।
⋙ वैमृध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध करनेवाला, इंद्र।
⋙ वैमृध (२)
वि० इंद्र को दिया हुआ। इंद्र को अर्पित [को०]।
⋙ वैमृध्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्धकर्ता —इंद्र। वैमृध। २. वह जो युद्धविद्या में बहुत निपुण हो। युद्धकुशल।
⋙ वैमेय
संज्ञा पुं० [सं०] विनिमय। परिवर्तन। बदला।
⋙ वैम्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ वैमुख पु
वि० [सं०वैमुख्य] दे० ' विमुख'। उ०— प्रभु वैमुख जिणरो रिपु प्राणी। ताह न कदै सतावै। रघु० रू०, पृ० २६।
⋙ वैयक्तिक
वि० [सं०] व्यत्किगत। निजा। स्वगत। स्वकीय। उ०— हिंदी कविता छायावाद के रूप में ह्रास युग के वैयक्तिक अनुभवों, ऊर्ध्वमुखा विकास की प्रवृतियों, ऐहिक जीवन की आकांक्षाआं संबंधी स्वप्नों आदि को अभिव्यक्त करने लगी।— हि० आ० प्र०, पृ० १३३।
⋙ वैयत्तिक संपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०वैयक्तिक सम्पत्ति] निजी जायदाद। वह धन जिसे व्यापार आदि के द्वारा कोई व्यक्ति एकत्र करता है और उसपर उसके अतिरिक्त अन्य किसी का कोई अधिकार नहीं होता। उ०— आखिर वैयक्तिक संपत्ति के स्वामी कामचोर शासकों ने कानून भी तो अपने फायदे के लिये बनाए हैं।—मा० स०, पृ० २३२।
⋙ वैयग्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यग्रता। बेकली। तन्मय होना। २. तल्ली- नता। अनन्यभक्ति [को०]।
⋙ वैयग्रय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैयग्र' [को०]।
⋙ वैयधिकरण्य
संज्ञा पुं० [सं०] व्यधिकरण का भाव। व्यधिकरणता। समानधिकरणता का वैपरीत्य। अनेक स्थानों में होने का भाव। [को०]।
⋙ वैयमक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जाति का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में हैं।
⋙ वैयर्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] व्यर्थ होने का भाव। निरर्थकता। ब्यर्थता। अनुत्पादकता। निषफलता।
⋙ वैयवहारिक
वि० [सं०] व्यावहारिक [को०]।
⋙ वैयशन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ वैयश्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम जो विश्वमनस् के पिता थे।
⋙ वैयसन
वि० [सं०] व्यसन से उत्पन्न। व्यसनजन्य। व्यसन का।
⋙ वैया †
प्रत्य० [हिं०?] एक प्रत्यय जो क्रिया के अत में लगकर 'वाला' अर्थ सूचित करता है; जैसे — करवैया, चलवैया, पढ़वैया आदि।
⋙ वैयाकरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो व्याकरण शास्त्र का अच्छा ज्ञाता हो। व्याकरण का पंड़ित।
⋙ वैयाकरण (२)
वि० व्याकरण संबंधी। व्याकरण का। यौ०—वैयाकरण खसूचि= वह वैयाकरण जो सूई से वायु में छेद करना चाहता है। व्याकरण का अल्प ज्ञाता। व्याकरण का साधारण जानकार। वैयाकरण पाश= व्याकरण का साधारण ज्ञाता। व्याकरण का साधारण जानकार। वैयाकरण भार्य= वह व्यक्ति जिसकी गृहिणी व्याकरण की पंड़िता हो।
⋙ वैयाख्य (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'व्याख्या'।
⋙ वैयाख्य (२)
वि० व्याख्यायुक्त। जिसकी व्याख्या की गई हो। व्याख्या संबंधी। व्याख्याजन्य [को०]।
⋙ वैयाघ्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का रथ जिसपर शेर या चीते की खाल मढी़ होती थी। इसे द्वैप भी कहते थे।
⋙ वैयाघ्र (२)
वि० १. व्याघ्र संबंधी। व्याग्र का। २. व्याघ्रचर्मावृत। व्याघ्रचर्ममंड़ित (को०)।
⋙ वैयाघ्रपद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० ' वैयाघ्रपद्य'।
⋙ वैयाघ्रपद्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ वैयाघ्रपाद
संज्ञा पुं० [सं०]दे० ' वैयाघ्रपद्य'।
⋙ वैयाघ्यू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का आसन। २. व्याघ्र की अवस्था (को०)।
⋙ वैयाघ्यू (२)
वि० [सं०] १. जो व्याघ्र के समान हो। व्याघ्रतुल्य। २. व्याघ्र का या व्याघ्रजन्य [को०]।
⋙ वैयात्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुर्विनीतता। अविनय। २. ढिठाई। ३. बेहयापन। निर्लज्जता। ४. उजड़ुपन [को०]।
⋙ वैयावृत्यृ
संज्ञा पुं० [सं०] जैनमतानुसार यतियों और साधुओं आदि की सेना। उ०— दूसरे प्रकार के तप में प्रायश्चित, विवय, वैयावृत्य (सेवा), स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग (शरीरत्याग) की गणना होती है। —आ० भा०, पृ० १४३।
⋙ वैयास
वि० [सं०] व्यास संबंधी। व्यास का।
⋙ वैयासकि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो व्यास के गोत्र या वश में उत्पन्न हो। २. व्यास के पुत्र। शुकदेव।
⋙ वैयासिक
वि० [सं०] व्यास का बनाया हुआ। व्यासरचित।(ग्रंथ आदि)। २. दे० 'वैयासकि'।
⋙ वैयास्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का वैदिक छंद। २. एक आचार्य का नाम [को०]।
⋙ वैयुष्ट
वि० [सं०] उषःकालीन। प्राभातिक। ऊषाकाल में होनेवाला [को०]।
⋙ वैरंकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०वैरड़्कर] वह जो किसी के साथ शत्रुता करता हो। दे० 'वैरकर' [को०]।
⋙ वैरंकर (२)
वि० शत्रुता करनेवाला [को०]।
⋙ वैरंगिक
वि० [सं०वैरड़्गिक] वह जिसने समग्र इच्छाओं और वासनाओं का दमन कर लिया हो। इंद्रियनिग्रही। विरागी। संत। २. वह जो विराग के योग्य हो। [को०]।
⋙ वैरंड़ेय
संज्ञा पुं० [वैरण्ड़ेय] एक प्राचीन गोत्र संवर्तक ऋषि का नाम।
⋙ वैरंभ
संज्ञा पुं० [सं०वैरम्भ] एक वायु का नाम। एक प्रकार का पवन [को०]।
⋙ वैरंभक
संज्ञा पुं० [सं०वैरम्भक] वायु का एक भेद। एक प्रकार का पवन [को०]।
⋙ वैर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रुता। दुश्मनी। द्वेष। विरोध। २. घृणा (को०)। ३. शौर्य। पराक्रम (को०)। क्रि० प्र०—करना।—मानना। रखना।—होना। ४. विपक्षी। शत्रु (को०)। ५. वह धन जो हत्या के लिये दंड़ के रूप में दिया जाय (को०)।
⋙ वैरक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैर' [को०]।
⋙ वैरकर
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी के साथ वैर करता हो। दुश्मनी करनेवाला।
⋙ वैरकरण
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वैरकारण'।
⋙ वैरकार, वैरकारक
संज्ञा पुं० [सं०] वैरी। दे० 'वैरकर'।
⋙ वैरकारण
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रुता का कारण [को०]।
⋙ वैरकारी
वि० [सं०वैरकारिन्] शत्रुता करनेवाला [को०]।
⋙ वैरकृत्
वि० [सं०] दे० 'वैरकारी' [को०]।
⋙ वैरक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरक्त होने का भाव। विरक्तता। वैराग्य। २. नापसंदगी। अरुचि (को०)।
⋙ वैरखंड़ी
वि० [सं० वैरखण्ड़िन्] शत्रुता दूर करनेवाला [को०]।
⋙ वैरख पु
संज्ञा पुं० [तु० वैरक़, हिं० बैरख] दे० 'बैरख'। उ०— उपंम तीय उदधरं। कि मित्र कज्जलं गिरं। जु वैरखं विराज हीं। वसंत वृष्ष लाजहीं।— रा०,७।४१।
⋙ वैरत
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्राचीन जाति का नाम।
⋙ वैरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैर का भाव। शत्रुता। दुश्मनी।
⋙ वैरथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष्मन् का पुत्र। २. एक वर्ष का नाम जिसपर वैरथ राज्य किया था [को०]।
⋙ वैरदेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वैर या शत्रुता जो किसी के शत्रुता करने पर उत्पन्न हो। २. वैदिक काल के एक असुर का नाम।
⋙ वैरनिर्यातन
संज्ञा पुं० [सं०] वैर का बदला। वैरशोध [को०]।
⋙ वैरपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसके साथ वैर हो। शत्रु। दुश्मन।
⋙ वैरप्रतिक्रिया
संज्ञा पुं० [सं०] वैर का बदला [को०]।
⋙ वैरप्रतिमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] दुश्मनी न रहना। शत्रुता छूटना। वैरभाव दूर होना [को०]।
⋙ वैरप्रतियाचन
संज्ञा पुं० [सं०] वैरनिर्यातन। वैरप्रतीकार [को०]।
⋙ वैरप्रतीकार
संज्ञा पुं० [सं०] वैरशोधन [को०]।
⋙ वैरभाव
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रुता। शत्रुभाव [को०]।
⋙ वैरमण
संज्ञा पुं० [सं०] वेद के अध्ययन की पूर्णता। ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति [को०]।
⋙ वैरयातना
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैर का शोधन या बदला [को०]।
⋙ वैररक्षी
वि० [सं०वैररक्षिन्] वैर को दूर करनेवाला [को०]।
⋙ वैरल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरल होने का भाव। विरलता। २. शून्य। एकांत।
⋙ वैरव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] किसी से शत्रुता की प्रतिज्ञा। वैरभाव रूपी व्रत [को०]।
⋙ वैरशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी के वैर का बदला चुकाना। दुश्मनी का बदला लेना।
⋙ वैरस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैरस्य'
⋙ वैरसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रुता का लक्ष्य या उद्देश्य। २. शत्रुता का साधन [को०]।
⋙ वैरसेनि
संज्ञा पुं० [सं०] राजा वीरसेन का पुत्र, नल [को०]।
⋙ वैरस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरस होने का भाव। विरसता। २. शत्रुता। वैपरीत्य। १३. इच्छा का न होना। अनिच्छा।
⋙ वैराग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैराग्य'।
⋙ वैरागा पु
संज्ञा पुं० [सं०वैराग] दे० 'वैराग्य'। उ०— बीना गेड़े बजावै रागा धनधिन उपजावै वैरागा।— माधवानल०, पृ०१८९।
⋙ वैरागिक (१)
वि० [सं०] जिसके कारण विराग उत्पन्न हो।
⋙ वैरागिक (२)
संज्ञा पुं० विरागी। विरक्त।
⋙ वैरागी (१)
संज्ञा पुं० [सं०वैरागिन्] १. वह जिसके मन में विराग उत्पन्न हो। वह जिसका मन संसार को ओर से हट गया हो। विरक्त। २. उदासीन वैष्णवों का एक संप्रदाय। विशेष— इस संप्रदाय के लोग रामानुज के अनुयायी होती हैं और श्रीकृष्ण अथवा रामचंद्र की उपासना करते हैं। ये लोग प्रायः भिक्षा माँगकर अपना निर्वाह करते हैं। अखाडे़ बनाकर रहते हैं। बंगाल के कुछ वैरागी विवाह करके गृहस्थों की भाँति भी रहते हैं।
⋙ वैरागी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक रागिनी [को०]।
⋙ वैराग्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. मन की वह वृत्ति जिसके अनुसार संसार की विषयवासना तुच्छ प्रतीत होती है और लोग संसार की झंझटें छोड़कर एकांत में रहते और ईश्वर का भजन करते हैं। विरक्ति। २. असंतृप्ति। असंतोष (को०)। ३. अरुचि। नापसंदगी (को०)। ४. रंज। शोक। अफसोस (को०)। ५. बदरंग होना। विवर्णता (को०)।
⋙ वैराग्यशतक
संज्ञा पुं० [सं०] भर्तृहरि प्रणीत शतकत्रय (शृंगार, वैराग्य, और नीति) में से एक का नाम [को०]।
⋙ वैराज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विराट् पुरुष। परमात्मा। २. एक मनु का नाम। ३. एक प्रकार का साम। ४. भागवत के अनुसार अजित के पिता का नाम। ५. सत्ताईसवें कल्प का नाम। ६. तपोलोक में रहनेवाले एक प्रकार के पितृ। कहते हैं, ये कभी आग से नहीं जल सकते। ७. दे० 'वैराज्य'।
⋙ वैराज (२)
वि० विराज संबंधी। ब्रह्मा संबंधी [को०]।
⋙ वैराजक
संज्ञा पुं० [सं०] उन्नीसवें कल्प का नाम।
⋙ वैराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल की एक प्रकार की शासन- प्रणाली जिसमें एक ही देश में दो राजा मिलकर शासन करते थे। एक देश में दो राजाओं का शासन। २. वह देश जहाँ इस प्रकार की शासनप्रणाली प्रचलित हो। ३. विदेशियों का राज्य। विदेशियों का शासन। विशेष— वैराज्य और द्वैराज्य के गुणदोष का विचार करते हुए कहा गया है कि द्वैराज्य में अशांति रहती और वैराज्य में देश का धनधान्य निचोड़ लिया जाता है। दूसरी बात यह भी कही गई है कि विदेशी राजा अपनी अधिकृत भूमि कभी कभी बेच भी देता है और आपत्ति के समय असहाय अवस्था में छोड़ भी देता है।
⋙ वैराट (१)
वि० [सं०] १. विराट् संबंधी। २. विराट देश संबंधी। विराट का। ३. विस्तृत। लंबा चौड़ा।
⋙ वैराट (१)
संज्ञा पुं० १. इंद्रगोप का कीड़ा। बीरबहूटी। २. महाभारत का विराट पर्व। ३. एक रत्न। ४. एक रंग अथवा उसी रंग की चीज। ५. देश विदेश (को०)।
⋙ वैराटक
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार शरीर में किसी स्थान पर होनेवाली वह गाँठ जो जहरीली हो।
⋙ वैराटराज
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन वैराट देश का राजा। मत्स्य देश का नरेश [को०]।
⋙ वैराटया
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनियों के अनुसार सोलह विद्यादेवियों में से एक विद्यादेवी का नाम।
⋙ वैरातंक
संज्ञा पुं० [सं०वैरातड़्क] अर्जुन या कोह नाम वृक्ष।
⋙ वैराम
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जाति का नाम।
⋙ वैराषित
संज्ञा पुं० [सं] दुश्मनी। शत्रुता [को०]।
⋙ वैरिंच
वि० [ सं०वैरिञ्च] विरिंचि या ब्रह्मा संबंधी [को०]।
⋙ वैरिंचि
वि० [सं०वैरिञ्च] विरिंचि या ब्रह्मा संबंधी। बह्मा का।
⋙ वैरिंच्य
संज्ञा पुं० [सं०वैरिञ्च्य] १. ब्रह्मा के पुत्र। सनक आदि ऋषि जो ब्रह्मा के पुत्र माने जाते हैं।
⋙ वैरि
संज्ञा पुं० [सं०] वैरी। शत्रु। दुश्मन।
⋙ वैरिण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैर। शत्रुता। दुश्मनी। २. वैरी। शत्रु। दुश्मन।
⋙ वैरिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैर का भाव। शत्रुता। दुश्मनी।
⋙ वैरिपण पु
[हिं० वैर + प्रा० घण, वण (प्रत्य०); हिं० वैरीपन] वैरत्व। वैरभाव। शत्रुता। उ०— किमि उँप्पन्नउँ वैरिपण किमि उँद्धरिउँ तेन।— कीर्ति० पृ० १६।
⋙ वैरिवीर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार दशरथ के एक पुत्र जिनका दूसरा नाम इलविल भी है।
⋙ वैरी (१)
संज्ञा पुं० [सं०वैरिन्] १. शत्रु। दुश्मन। वैरी। २. योद्धा। वीर [को०]।
⋙ वैरी (२)
वि० वैरयुक्त। वैर करनेवाला। शत्रुता करनेवाला [को०]।
⋙ वैरूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन प्रवरकार ऋषि का नाम। २. पितरों का एक (को०)। ३. एक प्रकार का साम।
⋙ वैरूपाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो विरूपाक्ष के गोत्र या वंश में उत्पन्न हुआ हो।
⋙ वैरूप्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरूप का भाव या धर्म। विरूपता। २. विकृत होने का भाव।
⋙ वैरेकीय
वि० [सं०] विरेचक [को०]।
⋙ वैरेचन
वि० [सं०] विरेचन संबंधी। विरेचन का।
⋙ वैरेचनिक
वि० [सं०] विरेचन संबंधी [को०]।
⋙ वैरोचन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुद्ध का एक नाम। २. राजा बलि का एक नाम। ३. विष्णु के एक पुत्र का नाम (को०)। ४. एक प्रकार की समाधि(को०)। ५. सूर्य के एक पुत्र का नाम।५. एक प्रकार के सिद्ध (को०)। ६. बौद्ध मतानुसार एक लोक का नाम (को०)। ७. अग्नि के एक पुत्र का नाम।
⋙ वैरोचन (२)
वि० १. विरोचन संबंधी। विरोचन से उत्पन्न [को०]। यौ०—वैरोचन निकेतन= पाताल लोक। वैरोचनमुहूर्त= एक मुहूर्त जो दिन में पड़ता है। वैरोचन रश्मिप्रतिमंड़ित= बौद्धों के अनुसार एक लोक का नाम।
⋙ वैरोचनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुद्ध का एक नाम। २. राजा बलि का एक नाम। ३. सूर्य के एक पुत्र का नाम। ४. अग्नि के एक पुत्र का नाम। दे० 'वैरोचन'।
⋙ वैरोचि
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा बलि के पुत्र बाण दैत्य का एक नाम। २. दे० वैरोचनि (को०)।
⋙ वैरोटया
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनियों की सोलह विद्यादेवियों में से एक विद्यादेवी का नाम।
⋙ वैरोद्धार
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के वैर का बदला चुकाना। वैरशुद्धि।
⋙ वैरोधक
वि० [सं०] विरोधी या प्रतिकूल (आहार आदि)।
⋙ वैरोधिक
वि० [सं०]दे० 'वैरोधक' [को०]।
⋙ वैल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेल नामक वृक्ष या उसका फल। २. छिद्र। विवर। बिल [को०]।
⋙ वैल (२)
वि० बिल संबंधी। २. बेल संबंधी। ३. बिल में रहनेवाला। बिलवासी [को०]।
⋙ वैलक्षण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विलक्ष होने का भाव। विलक्षणता। २. विभिन्न या अलग होने का भाव। विभिन्नता।
⋙ वैलक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. लज्जा। संकोच। शर्म। २. विस्मय। आशर्य। ताज्जुब। ३. स्वभाव की विलक्षणता। ४. उलझन। गड़बड़ी(को०)। ५. अस्वाभाविकता। कृत्रिमता (को०)। ६. वैपरीत्य (को०)।
⋙ वैलस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] श्मशान। मरघट।
⋙ वैलिंग्य
संज्ञा पुं० [सं०वैलिड़ग्य] परिचायक चिह्न, लक्षण या लिंग का अभाव [को०]।
⋙ वैलि पु †
सर्व [देश० या वै० सं० अवार(=इधर, निकट), हिं० उरे] उरली। उरे। इधर। उ०— दादू सेख मसाहक औलिया, पैगंबर सब पीर। दर्शन सू परसन नहीं, अजहुँ वैली तोर।— दादू०, पृ० २७७।
⋙ वैलोम्य
संज्ञा पुं० [सं०] विलोमता। विपरीतता [को०]।
⋙ वैल्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बिल्व या बेल नामक फल। श्रीफल
⋙ वैल्व (२)
वि० १. बिल्व या बेल संबंधी। बेल का। २. विल्व वृक्ष से आच्छादित। अभिप्रेत। जिसे कहना आवश्यक हो [को०]।
⋙ वैवक्षिक
वि० [सं०] विवक्षायुक्त। कहने की इच्छावाला।
⋙ वैवधिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो अनाज आदि बेचकर अपना निर्वाह करता हो। गल्ले का व्यापारी। २. घूम घूमकर या फेरी लगाकर माल बेचनेवाला। ३. दूत। हरकारा। ४. बहँगी द्वारा बोझ ढोनेवाला। मजदूरा।
⋙ वैवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवर्ण या मलिन होने का भाव। २. सौंदर्य या लावण्य का अभाव। ३. स्त्रियों के आठ प्रकार के सात्विक भावों में से एक प्रकार का भाव। ४. वह जो बिना किसी रंग के हो या जिसमें नीला, पीला आदि कोई रंग न हो (को०)।
⋙ वैवर्णिक
वि० [सं०] चित्रकर्बुर। चितकबरा (मुख्यतः विद्रुम के लिये प्रयुक्त)। २. वर्णहीन। जातिच्युत। जो जाति बहिष्कृत किया गया हो।
⋙ वैवर्ण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवर्ण होने का भाव। रंग परिवर्तित होना। २. बदरंग होना। मलिनता। मालिन्य। ३. विभिन्नता। भिन्नता। विलगाव। ४. लावण्य का अभाव। ५. जातिच्युत होना। जातिवहिष्कृत होना। जातिच्युति [को०]।
⋙ वैवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] किसी पदार्थ का चक्र या पहिए के समान घूमना।
⋙ वैवश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवश होने का भाव। विवशता। लाचारी। २. दुर्बलता। कमजोरी।
⋙ वैवस्वत
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य के एक पुत्र का नाम। यम। २. एक रुद्र का नाम। ३. शनैश्चर। ४. पुराणानुसार सातवें मनु का नाम। विशेष— आजकल का मन्वतंर इन्हीं मनु का माना जाता है। इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूषक, नरिष्यंत, पृषध्र, नाभाग और कवि ये दस इनके पुत्र माने गए हैं। ५. पुराणानुसार वर्तमान मन्वंतर का नाम। विशेष—इस मन्वंतर के अवतार वामन, देवता पुरंदर इंद्र, आदित्यगण, वशुगण, रुद्रगण, मरुदगण आदि और ऋषि कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि कहे गए हैं। ६. आग्नि का एक नाम (को०)। ७. एक तीर्थ का नाम।
⋙ वैवस्वत
वि० १. सूर्य संबंधी। २. यम संबंधी। अग्निसंमबंधी। ४. मनु संबंधी [को०]।
⋙ वैवस्वतद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] मोगरा चावल।
⋙ वैवस्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दक्षिण दिशा जो वैवस्वत मनु की दिया मानी गई है। २. सूर्य की एक पुत्री। यमुना। यमी (को०)।
⋙ वैवस्वतीय
वि० [सं०] वैवस्वत संबंधी [को०]।
⋙ वैवाह
वि० [सं०] विवाह संबंधी। विवाह का।
⋙ वैवाहिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कन्या अथवा वर का श्वसुर। समधी। २. विवाह (को०)। ३. विवाह की तैयारी या उत्सव (को०)। ४. वह संबंध जो विवाह के कारण हो (को०)।
⋙ वैवाहिक (२)
वि० विवाह संबंधी। विवाह का।
⋙ वैवाह्य (१)
वि० [सं०] १. विवाह संबंधी। विवाह का। २. जो विवाह के योग्य हो।
⋙ वैवाह्य (२)
संज्ञा पुं० वह समारोह या उत्सव जो विवाह के अवसर पर हो।
⋙ वैविक्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] विविक्तता। विभिन्नता। अलगाव। छुटकारा [को०]।
⋙ वैविध्य
संज्ञा पुं० [सं०] विविधता। अनेकरूपता। उ०— देशीय एवं बहुदेशीय अंतर्विरोधों ने इधर कितनी ही प्रकृतियों को जन्म दिया है जिनमें युगीन वैविध्य और असामान्य गुणयोग हैं।— हिं० का० आं०, पृ० २।
⋙ वैवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] उदात्त आदि स्वरों का क्रम।
⋙ वैव्रदध पु †
वि० [सं० वयोवृद्ध] दे० 'वयोवृद्ध'। उ०— आरब्ब सेष लीनौ बुलाइ। वैव्रद्ध व्रद्ध बुद्धी सुताइ।— पृ० रा०, ९।३१।
⋙ वैशंपायन
संज्ञा पुं० [सं० वैश्म्पायन] एक प्रसिद्ध ऋषि का नाम जो वेदव्यास के शिष्य थे। कहते हैं, महर्षि व्यासदेव की आज्ञा से इन्हीं ने जनमेजय को महाभारत की कथा सुनाई थी।
⋙ वैशंफल्या
संज्ञा स्त्री० [सं० वैशम्फल्या] सरस्वती का एक नाम [को०]।
⋙ वैशद्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विशद होने का भाव। विशदता। २. निर्मल या स्वच्छ होने का भाव। निर्मलता। ३. उज्व- लता। शुभ्रता (को०)। ४. स्पष्टता (को०)। ५. मस्तिष्क की स्वस्थता।
⋙ वैशली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'वैशाली'। २. वसुदेव की एक पत्नी (को०)।
⋙ वैशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विशल्य होने का भाव या दशा। कष्टदायक भार से मुक्ति वा छुटकारा। जैसे, गर्भभार आदि से [को०]।
⋙ वैशस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विनाश। हत्या। वध। २. युद्ध। ३. विपत्ति। ४. कष्ट। ५. एक नरक का नाम। ६. हिंसा [को०]।
⋙ वैशस (२)
वि० विनाशक। हिंसक। हिंसा या वध करनेवाला [को०]।
⋙ वैशसन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैशस'।
⋙ वैशस्त्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शस्त्रहीनता। २. अधिकार। शासन। असुरक्षित होने का भाव [को०]।
⋙ वैशस्त्र (२)
वि० शस्त्ररहित। बिना शस्त्रवाला [को०]।
⋙ वैशाख
संज्ञा पुं० [सं०] १. मथनी में का ड़ंड़ा। मंथनदंड़। २. लाल गदहपूरना। ३. बारह महीनों में से एक महीना जो चांद्र गणना से दूसरा और सौर गणना के अनुसार पहला महीना होता है। इस मास की पूर्णिमा विशाखा नक्षत्र में पड़ती है, इसीलिये इसे वैशाख कहते है। चैत के बाद का और जेठ के पहले का महीना। ४. एक प्रकार का ग्रह जिसका प्रभाव घोड़ों पर पड़ता है और जिसके कारण उनका शरीर भारी हो जाता है और वे काँपने लगते हैं। ५. धनुष पर वाण चलाने के समय की एक मुद्रा। दे० 'विशाख' (को०)। यौ०—वैशाखनंदन= (१) वैशाख में आनंदित होनेवाला। (२) गधा। खर। वैशाखरज्जु = मंथनदंड़ की रस्सी। नेत्र।
⋙ वैशाखी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह पूर्णिमा जो विशाखा नक्षत्र से युक्त हो। २. मेष की संक्रांति (वैशाखपूर्णिमा) के अवसर पर इस नाम से पंजाबियों में मनाया जानेवाला एक उत्सव। बैशाख मास की पूर्णिमा। उ०— जबलों पृथ्वी है तबलों बोना और लोना सरदी गर्मी, अगहनी और वैशाखी दिन और रात बंद न होंगे।— कबीर मं०, पृ० १९५। ३. लाल गदहपूरना। ४. पुराणानुसार वसुदेव की एक स्त्री का नाम।
⋙ वैशाखी (२)
संज्ञा पुं० [सं०वैशाखिन्] हाथी के पैर का अगला भाग [को०]।
⋙ वैशाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ वैशारद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी विषय का अच्छा ज्ञाता हो। विशारद। पंड़ित।
⋙ वैशारद (२)
वि० ज्ञाता। अनुभवी। २. पंडित। विद्वान् [को०]।
⋙ वैशारद्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विशारद या पंड़ित होने का भाव। २. निर्मलता। स्वच्छता। सफाई।
⋙ वैशाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।
⋙ वैशालक
वि० [सं०] वैशाली नगरी का। वैशाली संबंधी। [को०]।
⋙ वैशालाक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] शिव जी द्वारा निर्मित शस्त्रविशेष [को०]।
⋙ वैशालिक
वि० [सं०] दे० 'वैशालक' [को०]।
⋙ वैशाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन बौद्ध काल की एक प्रसिद्ध नगरी। विशेष— यह विशालनगरी या विशालपुरी भी कहलाती थी। कहत है, राजा तृणविदु के पुत्र विशाल न यह नगरी बसाई थी। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर का जन्म यही हुआ था और बुद्ध भगवान् कई बार यहाँ गए थे। किसी समय यह नगरी बहुत प्रसिद्ध था और यहाँ बौद्धों की बहुत प्रधानता थी। यहाँ का लिच्छावी राजवंश इतिहासों में प्रसिद्ध है। यहाँ जैनियो का भी तीर्थ था। विद्वानों का मत है कि आधुनिक मुजफ्फरपुर जिले का बसाढ़ नामक गाव प्राचीन वैशाली का ही अवशेष है।
⋙ वैशालीय
संज्ञा पुं० [सं०] जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर का एक नाम।
⋙ वैशालेय
संज्ञा पुं० [सं०] तक्षक जो विशाल के वंशज माने जोते हैं।
⋙ वैशिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सहित्य के अनुसार तीन प्रकार के नायको में से एक प्रकार का नाय़क। वह नायक जो वैश्याओं के साथ भोग विलास करता हो। वेश्यागामी नायक। उ०— भूपाल, मंड़लीक, सामंत, सेनापति, वैशिक, राजपुत्र, राजशिष्ट, वड़ालआ।— वण०, पृ० ८। २. वेश्या से संबंध रखनेवाला पुरुष। ३. वेश्या की वृत्ति या कला (को०)।
⋙ वैशिक (२)
वि० [वि० स्त्री० वैशिकी] १. वेश सबंधी। वेश का। २. वेश्या द्वारा व्यवहृत। ३. वेश्यागामी (को०)।
⋙ वैशिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्राचीन जाति का नाम।
⋙ वैशिजाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्रदात्री नाम की लता।
⋙ वैशिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. विशेषता। खासियत। पृथकत्व- सूचक गुण। वैशिष्ट्य [को०]।
⋙ वैशिष्टय
संज्ञा पुं० [सं०] १. विशिष्टता। विशेषता। २. श्रेष्ठता। खूबी। ३. विशिष्ट लक्षण या गुण आदि से युक्त होना। ४. अंतर। फर्क [को०]।
⋙ वैशीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वेश्या का पुत्र।
⋙ वैशोषिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छहू दर्शनों में से एक जो महर्षि कणाद कृत है और जिसमें पदार्थों का विचार तथा द्रव्यों का निरूपण है। पदार्थ विद्या। विशेष— महर्षि कणाद का एक नाम उलूक भी है, इससे इसे औलूक्य दशन कहते हैं। यह दर्शन न्याय के ही अंतर्गत माना जाता है। सिद्धांत पक्ष में न्याय कहने से दोनों का बोध होता है, क्योंकि गौतम में प्रमाणपक्ष प्रधान है और इसमें प्रमेय पक्ष लिया गया है। ईश्वर, जगत् जीव आदि के सबंध के दोनों के सिद्धांत प्रायः एक ही हैं। यह दर्शन गौतम से पीछे का माना जाता है। गौतम ने मुख्यतः तर्कपद्धति और प्रमाणविषय का ही निरूपण किया है, पर कणाद उससे आगे बढकर द्रव्यों की परीक्षा में प्रवृत हुए हैं। नौ द्रव्यों का विशेष- ताएँ बताने के ही कारण इनके दर्शन का नाम वैशोषक पड़ा। नौ द्रव्य ये हैं— पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन। इनमे से पृथ्वी, जल, तेज और वायु नित्य भी हैं और अनित्य भी अर्थात् परमाणु अवस्था में ताव नित्य हैं और स्थूल अवस्था मे अनित्य। आकाश, काल, दिक् और आत्मा नित्य और सवव्यापक है। मन नित्य ता है, पर व्यापक नही, क्योंकि वह अणुरूप है। द्रव्यों की विशेषता इसी प्रकार कणाद ने बताई है। गौतम ने सोलह पदार्थ माने थे, पर कणाद ने छह ही पदार्थ रखे— द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। अंधकार आदि को इन छह के अंतर्गत आता न समझकर पछि से एक सातवाँ पदार्थ 'अभाव' भी बढाया गया। द्रव्यों के उद्देश (परिगणन), लक्षण और परीक्षा के उपरात कणाद ने गुण और कर्म को लिया है जो द्रव्यों में रहते हैं। संख्या, पृथकत्व, बुद्धि, सुख, दुःख इत्यादि २४ गुण गिनाए गए है। उत्क्षपण, अवक्षेपण आदि पाच प्रकार की गतियाँ कर्म के अंतर्गत ली गई हो। अब रहा 'सामान्य'। वह द्रव्य, गुण और कर्म इन्हीं तीनों में सत्ता के रूप में पाया जाता है। पाचवाँ पदार्थ 'विशेष' पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणुआ में तथा शेष पाँच द्रव्यों में पाया जाता है। 'विशेष' अनंत होते हैं। 'समवाय' जहाँ कही पाया जायगा, वहीं रहेगा अतः वह एक ही है। वैशेषिक का परामाणुवाद प्रसिद्ध है। द्रव्यखंड़ क टुकड़े करते करते जब ऐसा टुकड़ा रह जाता है जिसके और टुकड़े नही हो सकते, तब वह परमाणु कहलाता है। परमाणु नित्य और अक्षर है। इन्ही का योजना से सब पदार्थ बनते है और सृष्टि होती है। आकाश को छोड़कर जितने प्रकार के भूत होते है उतने ही प्रकार के परमाणु होते जैसे—पृथ्वी परमाणु, जल परमाणु, तेज परमाणु और वायु परमाणु। वैशेषिक में दो परमाणुओं के योग को द्वयणुक कहते हैं। आगे चलकर यही द्वयणुक अधिक संख्या में मिलते जाते हैं, जिससे नाना प्रकार के पदार्थ बनते हैं, जैसे— तीन द्वयणुकों से त्रसरेणु, चार द्वयणुकों से चतुरणुक आदि। कारणगुण पूर्वक ही कार्य के गुण होते हैं, अतः जिस गुण के परमाणु होंगे, उसी गुण के उनसे बने पदार्थ होंगे। पदार्थों में जो नाना भेद दिखाई पड़ते हैं वे सन्निवेश भेद से होते हैं। तेज के संबंध से वस्तुओं के गुण में बहुत कुछ फेरफार हो जाता है। परमाणुओं के बीच अंतर की धारणा न होने के कारण वैशेषिकों को 'पीलुपाक' नामक विलक्षण मत ग्रहण करना पड़ा। इस मत के अनुसार घड़ा आग में पड़कर इस प्रकार लाल होता है कि अग्नि के तेज से घड़े के परमाणु अलग अगल हो जाते हैं और फिर लाल होकर जाते हैं। घड़े का बनना और बिगड़ना इतने सूक्ष्म काल में होता है कि कोई देख नहीं सकता। परमाणुओं का संयोग सृष्टि के आदि में कैसे होता है, इस संबध में कहा गया है कि ईश्वर की इच्छा या प्रेरणा से परमाणुओं में गति या क्षोभ उत्पन्न होता है और वे परस्पर मिलकर सृष्टि की योजना करने लगते हैं। ऊपर जो नौ द्रव्य कहे गए हैं, उनमें 'आत्मा' भी है। आत्मा दो प्रकार का कहा गया है— ईश्वर और जीव। ईश्वर की सत्ता और कर्तृत्व मानने के कारण ही न्याय और वैशेषिक भक्तों एवं पौराणिकों के आक्षेपों से बचे रहे हैं। और दर्शनों के समान इस दर्शन पर भाष्य नहीं मिलते। प्रशस्तपाद का 'पदार्थ-धर्म-संग्रह' नामक ग्रंथ वैशेषिक सूत्रों का भाष्य कहा जाता है; पर वह वास्तव में भाष्य नहीं है, सूत्रों के आधार पर बना हुआ अलग ग्रंथ है। २. कणाद का अनुयायी। वैशेषिक दर्शन का माननेवाला।
⋙ वैशेष्य
संज्ञा पुं० [सं०] विशेष का भाव। विशेषता। सर्वोत्तमता। श्रेष्ठता। २. जाति या गुणगत प्राधान्य। प्रमुखता (को०)।
⋙ वैश्मिक
वि० [सं०] वेश्मवाला। घरवाला। घर में रहनेवाला [को०]।
⋙ वैश्य
संज्ञा पुं० [सं०] भारतीय आर्यों के चार वर्णों में से तीसरा वर्ण जो 'द्विजाति' के अंतर्गत और उसमें अंतिम है। विशेष—'वैश्य' शब्द वैदिक विश् से निकला है। वैदिक काल में प्रजा मात्र को विश् कहते थे। पर बाद में जब वर्णव्यवस्था हुई, तब वाणिज्य व्यसाय और गोपालन आदि करनेवाले लोग वैश्य कहलाने लगे। इनका धर्म यजन, अध्ययन और पशुपालन तथा वृति कृषि और वाणिज्य है। आजकल अधिकांश वैश्य प्रायः वाणिज्यव्यवसाय करके ही जीविकानिर्वाह करते हैं। इन वैश्यों में देश और वंश आदि के भेद से अनेक जातियाँ और उपजातियाँ पाई जाती है जैसे,— अग्रवाल, ओसवाल, रस्तोगी, भाटिए आदि।
⋙ वैश्यकर्म
संज्ञा पुं० [सं०वैश्यकर्म्मन्] वैश्य की कर्तव्य कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य आदि।
⋙ वैश्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैश्य का भाव या धर्म। वैश्यत्व।
⋙ वैश्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैश्यता'।
⋙ वैश्यध्वंसी
वि० [सं० वैश्यध्वंसिन्] वैश्यों का नाश करनेवाला।
⋙ वैश्यभद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्धों की वैश्या और भद्रा नाम की दो देवियाँ।
⋙ वैश्वभाव
संज्ञा पुं० [सं०] वैश्यत्व। वैश्यकर्म [को०]।
⋙ वैश्ययज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] वैश्यों द्वारा किया जानेवाला यज्ञ [को०]।
⋙ वैश्यवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैश्य की जीविका का साधन। व्यापार आदि वैश्यकर्म [को०]।
⋙ वैश्यसव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सव या यज्ञ।
⋙ वैश्यस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
⋙ वैश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैश्य जाति की। २. हलदी। ३. बोद्धों की एक देवी (को०)।
⋙ वैश्रंभक (१)
संज्ञा पुं० [सं० वैश्रम्भक] पुराणानुसार देवताओं के एक उद्यान या बाग का नाम।
⋙ वैश्रंभक (२)
वि० १. विश्वस्त। विश्रंभयुत्क। २. जाग्रत या चेतन करने— वाला (को०)।
⋙ वैश्रवण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर। २. शिव। महादेव। ३. रावण (को०)। ४. चौदहवाँ मुहूर्त (को०)।
⋙ वैश्रवणानुज
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर का भाई रावण, कुंभकर्ण आदि [को०]।
⋙ वैश्रवणालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर के रहने का स्थान। २. वट वृक्ष। बड़ का पेड़। बरगद।
⋙ वैश्रवणावास
संज्ञा पुं० [सं०] १. वट वृक्ष। बरगद का पेड़। २. दे० 'वंश्रवणालय' [को०]।
⋙ वैश्रवणोदय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वट वृक्ष। बरगद का पेड़। २. दे० 'वश्रवणावास' [को०]।
⋙ वैश्रवन पु
संज्ञा पुं० [सं० वैश्रवण] कुबेर। वैश्रवण। उ०— पुन्य जनेश्वर वैश्रवन धनद औलविल होइ।— नंद० ग्र०, पृ० ९०।
⋙ वैश्व (१)
वि० [सं०] विश्वदेव सबंधी। विश्वदेव का।
⋙ वैश्व (२)
संज्ञा पुं० उत्तराषाढा नक्षत्र का एक नाम।
⋙ वैश्वजनीन (१)
वि० [सं०] विश्व भर के लोगों से संबंध रखनेवाला। समस्त संसार के लोगों का।
⋙ वैश्वजनीन (२)
संज्ञा पुं० वह जो समस्त संसार के लोगों का कल्याण करता हो।
⋙ वैश्वज्योतिष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ वैश्वदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह होम या यज्ञ आदि जो विश्वदेव के उद्देश्य से किया जाय। इसमें केवल पके हुए अन्न से विश्व- देव के उद्देश्य से आहुति दी जाती है और ब्राह्माणों को भोजन कराने को आवश्यकता नहीं होती है। २. उत्तराषाढा नक्षत्र (को०)।
⋙ वैश्वदेवत
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तराषाढा़ नक्षत्र जिसके आधिष्ठाता विश्वदेव माने जाते हैं।
⋙ वैश्वदेविक
वि० [सं०] विश्वदेव संबंधी। विश्वदेव का।
⋙ वैश्वदेव्य
वि० [सं०] विश्वदेव संबंधी [को०]।
⋙ वैश्वदैवत
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तराषाढ़ा नक्षत्र।
⋙ वैश्वमनस
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।
⋙ वैश्वयुग
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति के पाँच संवत्सरों का युग या समूह। विशेष— इन पाँच संवत्सरों के नाम क्रमशः शोमकृत्, शुभकृत्, क्रोधी, विश्वावसु और पराभव हैं। इनमें से पहले दो संवत्सर शुभ और शेष अशुभ माने जाते हैं।
⋙ वैश्वरूप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] संसार। विश्व [को०]।
⋙ वैश्वरूप (२)
वि० विविध रूपोंवाला। विविध प्रकार का। अनेक ढंग का [को०]।
⋙ वैश्वरूप्य
संज्ञा सं० [सं०] विविध रूप या विभिन्न प्रकार का होने का भाव। विविधरूपता। विभिन्नता [को०]।
⋙ वैश्वस्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] वैधव्य। विधवापन [को०]।
⋙ वैश्वानर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आग्नि। २. चित्रक या चीता नाम का वृत्त। ३. पित्त। पित्ता। ४. परमात्मा। ५. चेतन। ६. जठ— राग्नि (को०)।
⋙ वैश्वानर (२)
वि० १. सभी लोगों के लिये उपयुत्क। २. सार्वभौम। सार्वजनीन। सार्वलौकिक। ३. राशिचक्र का। राशिचक्रीय [को०]।
⋙ वैश्वानरचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का चूर्ण जो सेंधा नमक, अजवायन और हर्रे आदि से बनाया जाता हैं। यह आमवात, शूल और गुल्म आदि के लिये बहुत उपयोगी माना जाता है।
⋙ वैश्वानरपथ, वैश्वानरमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] आग्निकोण या पूर्व और दक्षिण के बीच का कोना जो वैश्वानर का मार्ग माना जाता है।
⋙ वैश्वानरमुख
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ वैश्वानरवटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की गोली जो पारे, गंधक, ताँबे, लोहे, शिलाजीत, सोंठ, पीपल, चित्रक तथा मिर्च आदि के योग से बनाई जाती है और जो पेट के रोग में उपकारी मानी जाती हैं।
⋙ वैश्वानरविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
⋙ वैश्वानरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निकोण। चंद्रवीथी का एक भाग। २. प्रति वर्ष के प्रारंभ में की जानेवाली एक प्रकार की विशेष बलि [को०]।
⋙ वैश्वामित्र, वैश्वामित्रक
वि० [सं०] विश्वामित्र का। विस्वामित्र संबंधी [को०]।
⋙ वैश्वासिक
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वैश्वासिकी] वह जिसपर विश्वास किया जाय। एतवार करने के काबिल। विश्वस्त।
⋙ वैश्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तराषाढा़ नक्षत्र।
⋙ वैष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] वधकर्ता। काटनेवाला। हिंसक [को०]।
⋙ वैषम
संज्ञा पुं० [सं०] १. विषम होने का भाव। विषमता। २. परिवर्तन। (को०)।
⋙ वैषमेषव
वि० [सं०] विषमेषु संबंधी। कामदेव संबंधी।
⋙ वैषम्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. विषम होने का भाव। विषमता। २. सम- तल न होना। ३. अनुपातरहित होना (को०)। ४. कठिनाई। संकट। विपत्ति (को०)। ५. अन्याय। अनौचित्य (कौ०)। ६. भूल (को०)। ७. एकाकीपन (को०)।
⋙ वैषयिक (१)
वि० [सं०] १. विषय संबंधी। विषय का। २. पदार्थ संबंधी (को०)।
⋙ वैषयिक (२)
संज्ञा पुं० वह जो सदा विषय वासना में रत रहता हो। विषयी। लंपट।
⋙ वैषुवत्
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैषुवत' [को०]।
⋙ वैषुवत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विषुवत संक्रांति। २. केंद्र। मध्य।
⋙ वैषुवत् (२)
वि० [वि० स्त्री० वैषुवती] १. र्केद्रवर्तो। २. विषुव रेखा संबंधी [को०]।
⋙ वैषुवतीय
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वैषुवत्' [को०]।
⋙ वैष्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंस्त्र पशु द्वारा मारे हुए पशु का मांस। २. जाल में फँसाए गए पशु का मांस [को०]।
⋙ वैष्किर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह पशु या पक्षी जो चारों ओर घूम फिरकर आहार प्राप्त करता हो।
⋙ वैष्किर (२)
वि० १. जिसमें पशु पक्षी हों। २. चूजे के मांस का बना हुआ रसा [को०]।
⋙ वैष्टंभ
संज्ञा पुं० [सं०वैष्टम्भ] एक प्रकार का साम।
⋙ वैष्टिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिससे जबरदस्ती काम लिया जाय। बेगार में काम करनेवाला व्यत्कि [को०]।
⋙ वैष्टुत, वैष्टुभ
संज्ञा पुं० [सं०] होम की भस्म। भस्म [को०]।
⋙ वैष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग। २. वायु। ३. विष्णु। ४. लोक। विश्व का एक प्रभाग (को०)। ५, ससार (को०)।
⋙ वैष्णव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वैष्णवी] १. वह जो विष्णु की आराधना करता हो। विष्णु की उपासना करनेवाला। २. हिदुओं का एक प्रसिद्ध धार्मिक संप्रदाय। इस संप्रदाय के लोग प्रधानतः विष्णु की उपासना करते हैं और अपेक्षाकृत बड़े आचार विचार स रहते हैं। विशेष—भारतवर्ष में विष्णु की उपासना बहुत प्राचीन काल से चली आती है। महाभारत के समय में यह धर्म पांचरात्र या नारा- यणीय धर्म कहलाता था। पीछे यही भागवत धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ और इसमें वासुदेव या कृष्ण की उपासना प्रधान हुई। नारायणीय आख्यान में लिखा है कि पहले नारायण ने इस धर्म का उपदेश ब्रह्मा को किया था। ब्रह्मा ने नारद की, नारद ने व्यास का और व्यास ने शुकदेव को यह धर्म बतलाया था और तब शुकदेव से सर्वसाधारण में यह धर्म प्रचलित हुआ था। शंकराचार्य ने इस मत को अवैदिक सिद्ध करना चाहा चाहा था, जिसका रामानुजाचार्य ने खंड़न किया। बीच में इस धर्म का कुछ ह्रास हो गया था, पर चैतन्य, रामानुजा- चार्य, बल्लभाचाचार्य आदि आचार्यों ने इस धर्म का फिर से बहुत आधिक प्रचार किया, और इस समय यह भारत के मुख्य संप्रदायों में से एक है। यह धर्म भक्तिप्रधान है और इसमें विष्णु ही उपास्य हैं। आजकल इस संप्रदाय की अनेक शाखाएँ और प्रशाखाएँ निकल आई हैं— चैतन्य, वल्लभ इत्यादि। अधिक संप्रदाय विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के उपासक हैं। कुछ संप्रदायवाले माथे पर के तिलक के आतिरिक्त शंख, चक्र, गटा, पद्म आदि चिह्न भी शरीर में अंकित कराते हैं। ३. यज्ञकुंड़ की भस्म। ४. विष्णुपुराण। ५. विष्णु का लोक। वैकुठं (को०)। ६. श्रवण नक्षत्र (को०)।
⋙ वैष्णव (२)
वि० १. विष्णु संबंधी। विष्णु का। २. विष्णु को इष्टदेव माननेवाला।
⋙ वैष्णवत्व
संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णव होने का भाव या धर्म। वैष्णवता।
⋙ वैष्णवस्थानक
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक में रंगमच पर लंबे लंबे ड़ग भरना [को०]।
⋙ वैष्णवाचार
संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णवों का आचार [को०]।
⋙ वैष्णवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विष्णु की शक्ति। २. दुर्गा। ३. गंगा। ४. अपराजिता या कोयल नाम की लता। ५. शतावर। ६. तुलसी। ७. पृथ्वी। श्रवण नक्षत्र। ९. एक प्रकार का साम।
⋙ वैष्णव्य
वि० [सं०] विष्णु संबंधी। विष्णु का।
⋙ वैसंदर पु †
संज्ञा पुं० [सं०वैश्र्वानर, प्रा० हिं० वैसन्नर वैसंदर] दे० वैश्वानर। उ०— वैसंदर बिकार।— गोरख० पृ० २५५।
⋙ वैस पु
संज्ञा स्त्री० — [सं० वयस दे० 'बैस' (वयस्)]। उ०— यों वरष्ष दुअ वित्ति गय भइय वैस बर उंच।— पृ० रा०, २५।१७९।
⋙ वैसणहार पु †
वि० [हिं०बैठना—बैसना + हार(प्रत्य०)] १. ड़ूबनेवाला। २. बैठनेवाला। उपवेशन करनेवाला। उ०— औघट दरिया क्यों तिरै, बोहिथ वेसणहार। दादू खेवट राम बिन, कौंण उतारै पार।— दादु०, पृ० ४६१।
⋙ वैसर्गिक
वि० [सं०] १. जो विसर्जन करने या त्यागने के योग्य हो। त्याज्य।
⋙ वैसर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विसर्जन करने या उत्सर्ग करने की क्रिया। २. वह जो विसर्जित या उत्सर्ग किया जाय। ३. यज्ञ की बलि।
⋙ वैसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. विसर्प नामक रोग। २. वह जो विसर्प रोग से आक्रांत हो।
⋙ वैसा
क्रि० वि० [सं०, एताद्दश से व्युत्पन्न ऐसा के समान हिं०'वह' से व्युत्पन्न रूप] १. उस प्रकार का। उस तरह का। जैसे— जैसा दुपट्टा तुमने पहले भेजा था वैसा ही एक और भेज दो। २. उस प्रकार। ३. उतना।
⋙ वैसादृश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. असदृश या असमान होने का भाव। असमानता। विषमता। २. फर्क। भेद। अंतर।
⋙ वैसाना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बिठाना', 'बैठना'। उ०— माघ पड़ित ईम उचरई, चउरी कुँवर वैसाड़ी छई आँणि।— बी० रासो, पृ० २१।
⋙ वैसारिण
संज्ञा पुं० [सं०] मछली। यौ०—वैसारिणकेतन= मीनकेतन। कामदेव।
⋙ वैसासण †
क्रि० स० [सं०विश्वासन, प्रा०विस्सासण, वीसासण; राज० वैसासणी] विश्वास। उ०— पंथी एक संदेसणउ लग ढालइ पैहच्याइ। सावज संवल तोड़स्यह, वैसासणइ न जाइ — ढोला०, दू० १३३।
⋙ वैसूचन
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक में पुरुष द्वारा स्त्री का वंश बनाकर अभिनय करना [को०]।
⋙ वैसृप
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक दानव का नाम।
⋙ वैसे (१)
क्रि० वि० [हिं०] १. उस तरह। उस प्रकार। २. उस प्रकार के।
⋙ वैसेषिक पु
संज्ञा पुं० [सं०वैशेषिक] दे० 'वैशेषिक'। उ०— वैसेषिक शास्त्र पुनि कालवादी है प्रसिद्ध। पातंजलि शास्त्र माहि योगवाद है लह्यो।— संतवाणी०,२।११९।
⋙ वैस्तारिक
वि० [सं०] विस्तार संबंधी। विस्तार का।
⋙ वैस्नव पु
वे० [वैष्णव] दे० 'वैष्णव'। उ०— श्री बल्ल्भ कुल कौ रहैं चेरौ, वैस्नव जन का दास कहाऊँ।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २२९।
⋙ वैस्पष्टय
संज्ञा पुं० [सं०] स्पष्टता। स्पष्ट या साफल होने का भाव। सुस्पष्ठता। विस्पष्टता [को०]।
⋙ वैस्वर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर का विकृत होना। गला बैठना। विस्वर होना। २. उच्चारण को विभिन्नता वा उतार चढाव (को०)।
⋙ वैहंग
वि० [सं० वैहड़्ग] विहंग संबंधी। विहंग का।
⋙ वैहग
वि० [सं०] दे० 'वैहंग'।
⋙ वैहस्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] संभ्रम। व्याकुलता। व्यग्रता। मोह [को०]।
⋙ वैहायस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक सरोवर। २. आकाश। व्याम। गगन। ३. व्यामगमन करना। ४. देवता [को०]।
⋙ वैहायस (२)
वि० १. आकाशचारी। २. विहायस संबंधी। आकाश संबंधी।३. वायु या पवन संबंधी। ४. आकाश में स्थित। व्योम में स्थित [को०]।
⋙ वैहार (१)
संज्ञा पुं० [सं० वैभार] एक पर्वत जो मगव में राजगृह के पास है। वैभार।
⋙ वैहार (२)
संज्ञा पुं० [सं० व्यवहार, हिं० व्योहार] दे० 'व्यवहार'। उ०— जीवन घड़ी तै नवि रहई। जाणसू कागली हुआ वैहार।— बी० रासो, पृ० ९३।
⋙ वैहारिक
वि० [सं०] विहार के काम में प्रयुत्क। विहार के योग्य विहार करने लायक [को०]।
⋙ वैहार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके साथ हँसी मजाक आदि का संबंध हो। जैसे,— साला, सरहज, सालो आदि। २. हास परिहास। दिल्लगी (को०)।
⋙ वैहाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिकार। आखेट [को०]।
⋙ वैहासिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो सबको हँसाता हो। बिदूषक। भाँड़। २. नट। अभिनेता (को०)।
⋙ वैह्वल
संज्ञा पुं० [सं०] १. विह्वलता। व्याकुलता। २. शक्तिहीनता। कमजोरी [को०]।