विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/मह
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ महंग †
संज्ञा पुं० [देशी] उष्ट्र। ऊंट [को०]।
⋙ महंत (१)
संज्ञा पुं० [सं० महत् (= बड़ा)] १. साधुमंडली या मठ का अधिष्ठाता। साधुओं का मुखिया। २. महात्मा। सज्जन। उ०—तडित दृगनि करि मेघ महंत। देखे ताप तैप सब जंत। नंद० ग्रं०, पृ० २८९।
⋙ महंत (२)
वि० बड़ा। श्रेष्ठ। प्रधान। मुखिया। उ०—सखा प्रवीन हमारे तुम हौ तुम हौ नहीं महंत।—(शब्द०)।
⋙ महंताई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'महंती'।
⋙ महंताना †
संज्ञा पुं० [अ० मेहनत, हिं० मेहनताना] दे० 'मेहनताना'।
⋙ महंती
संज्ञा स्त्री० [हिं० महंत + ई (प्रत्य०)] १. महंत का भाव। २. महंत का पद। क्रि० प्र०—पाना।—मिलना।
⋙ महंथ पु †
संज्ञा पुं० [सं० महान्त] दे० 'महंत'। उ०—पलटू कीन्हों दंडवत वे बोले कछु नाहिं। भगत जो बनै महंथ से नरक परै सो जाहि।—पलटू०, भा० ३, पृ० ११४।
⋙ महंदस †
संज्ञा पुं० [अ० मुहद्दिस] हदीस अर्थात् पैगंबर की कही हुई बातों का जाननेवाला विद्वान्। उ०—महंदस के देह हात में जाम शाह। कहा यों जबान खोल बहराम शाह।—दक्खिनी०, पृ० २९०।
⋙ महंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मेंहदी] दे० 'मेंहदी'। उ०—मुषं नाग- वल्ली विरष्षं वरंगं। महंदी नषं जावकं रंग पग्गं।—पृ० रा०, ६७।८१२।
⋙ महँ पु †
अव्य० [सं० मध्य] में। उ०—एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुतिसारा।—राम०, पृ० १०।
⋙ महँई पु † (१)
वि० [सं० महा अथवा सं० महति, मद्दाति या महत्, प्रा० महइ, महई] महान्। भारी। उ०—विदित पठान राज महँ रहई। रहे पठान प्रबल तहँ महँई।—(शब्द०)।
⋙ महँई (२)
अव्य० [सं० मध्य] दे० 'महँ'।
⋙ महँक
संज्ञा स्त्री० [प्रा०] दे० 'महक'।
⋙ महँकना
क्रि० अ० [हिं० महँक + ना (प्रत्य०)] दे० 'महकना'।
⋙ महँग †
वि० [हिं०] दे० 'महँगा'। उ०—पारस कै परसंग से लोहा महँग बिकान।—पलटू०, भा० १, पृ० ३७।
⋙ महँगा
वि० [सं० महार्घ] जिसका मूल्य साधारण या उचित की अपेक्षा अधिक हो। अधिक मूल्य पर बिकनेवाला। जैसे,—आजकल कपड़ा और गल्ला दोनों महँगे हैं। उ०—कारण अगर रहत है संगा। कारज अगर बिकत सो महँगा।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ महँगाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० महँगा + ई (प्रत्य०)] दे० 'महँगी'।
⋙ महँगापन
संज्ञा पुं० [हिं० महँगा + पन (प्रत्य०)] महँगा होने का भाव। महँगो। उ०—करुणामय तब समझोगे इन प्राणों का महँगापन।—यामा, पृ० १६।
⋙ महँगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० महँगा + ई (प्रत्य०)] १. महँगे होने का भाव। महँगापन। २. महँगे होने की अवस्था। ३. दुर्भिक्ष। अकाल। कहत। क्रि० प्र०—पड़ना।
⋙ महँड़ा †
संज्ञा पुं० [देश०] भुने हुए चने (विहार)।
⋙ मह (१)
अव्य० [हिं०] दे० 'महँ'। उ०—एहि मह रघुपति नाम उदारा।—मानस, १।
⋙ मह (२)
वि० [सं० महत्] १. महा। अति। बहुत। उ०—प्रिय बिन तिय यह दुखिया जान। तब यो गौरी कियो बखान।—लल्लू (शब्द०)। २. महत्। श्रेष्ठ। बड़ा। यौ०—महसुन = महाशून्य। उ०—मन पवनहिं जीतो जबै महसुन माहिं समाधि।—गुलाल०, पृ० १४१।
⋙ मह (३)
संज्ञा पुं० [सं०] उत्सव। २. यज्ञ। ३. दीप्ति। चमक। ४.महिष। भैंसा [को०]।
⋙ महकंदना ‡पु
क्रि० अ० [पं० हिं० महकना] दे० 'महकना'। उ०— या देही परिमल महकंदा। ता सुख बिसरे परमानंदा।—संत- बाणी०, पृ० ७।
⋙ महक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गमक; या, सं० प्र + √ सृ; प्रा० धात्वा० मघमघ>महमह या सं० महक्क (= फैलनेवाली खुशबू)] गंध। बास। गमक। बू। यौ०—महकदार। महकीला।
⋙ महक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतिष्ठित व्यक्ति। २. कच्छप। कछुआ। ३. विष्णु [को०]।
⋙ महकदार
वि० [हिं० महक + फ़ा० दार (प्रत्य०)] जिसमें महक हो। महकनेवाला। गंध देनेवाला।
⋙ महकना
क्रि० अ० [हिं० महक + ना (प्रत्य०)] गंध देना। बास देना। उ०—महकत जेहि ठाँ सकल सुवासा।—माधवानल०, पृ० १९९।
⋙ महकमा
संज्ञा पुं० [अ०] किसी विशिष्ट कार्य के लिये अलग किया हुआ विभाग। सीगा। शरिस्ता। जैसे, चुंगी का महकमा, रजिस्टरी का महकमा।
⋙ महकान पु
संज्ञा पुं० [हिं० महक] दे० 'महक'। उ०—कनकवरन जगमग तन में अस चंदन की महकान।—देवस्वामी (शब्द०)।
⋙ महकाली
संज्ञा स्त्री० [सं० महाकाली] पार्वती। (डिं०)।
⋙ महकीला
वि० [हिं० महक + ईला (प्रत्य०)] जिसमें अच्छी महक आती हो। सुगंधित। महकदार। खुशबूदार।
⋙ महकूम
वि० [अ० मह्कूम] १. अधीन। वशीभूत। शासित। २. जिसे हुक्म दिया गया हो। उ०—जब हम हाकिम और हिंदू महकूम थे।—प्रेमघन०, भाग २, पृ० ८९।
⋙ महकूमी
संज्ञा स्त्री० [अ० मह्कूमी] पराधीनता। दीसता। गुलामी [को०]।
⋙ महघ पु
वि० [सं० महार्घ] दे० 'महँगा'। उ०—जत बेनाहर की छुन महघ सबे मिल एहि ठाम।—विद्यापति, पृ० ३९३।
⋙ महघा पु
वि० [सं० महार्घ] दे० 'महँगा'। उ०—भई सगाई बावने परयो त्रेपने काल। महघा अंत न पाइए भयौ जगत बेहाल।—अर्ध०, पृ० ११।
⋙ महचक्र
संज्ञा पुं० [डिं०] सूर्य।
⋙ महज
वि० [अ० महज] १. शुद्ध। खालिस। जैसे,—यह तो महज पानी है। २. केवल। मात्र। सिर्फ। जैसे,—महज आपकी खातिर से मैं यहाँ आ गया। ३. सरासर। एकदम।
⋙ महजनी पु
वि० [हिं० महाजनी] महाजन का काम। उ०— मनुवा इमिल धुमिल में अरुझेव छूटलि नाम महजनी।—भीखा श०, पृ० १०।
⋙ महजबीन
वि० [सं० फ़ा० महाज़वीं] जिसका भाल चाँद जैसा उज्वल हो। उ०—दिल्ली का सजधज क्यो किसी माशूके महजवीन से कम है।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १३४।
⋙ महजर
संज्ञा पुं० [अ० महज़र] १. उपस्थित होने की जगह। २. वह साक्षा जिसपर बहुत लोगों के हस्ताक्षर हों [को०]।
⋙ महजरनामा
संज्ञा पुं० [अ० महज़र (= खून) + फ़ा० नाम] वह लख जिसमें किसी की हत्या होने का प्रमाण हो। हत्या अथवा हत्यारे के संबंध का साक्षापत्र। हिंसा विषयक साक्षापत्र।
⋙ महजित
संज्ञा स्त्री० [अ० मस्जिद] दे० 'मसजिद'।
⋙ महजिद पु
संज्ञा स्त्री० [अ० मस्जिद] दे० 'मसजिद'। उ०—तन महजिद मन मुलसा बसै।—कबीर० रे०, पृ० ३८।
⋙ महजीत पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० मस्जिद] दे० 'मसजिद'। उ०— तन मन महजीत बीच बाँग निवाजा। बूझो हर दम जित उठै अवाजा।—तुरसी० श०, पृ० ८६।
⋙ महजीद पु
स्त्री० [अ० मस्जिद] दे० 'मसजिद'। उ०—हिंदू पूजै देवखरा, मुसलमान महजीद।—पलटू०, भा० २, पृ० ११४।
⋙ महजूज
वि० [अ० महज़ूज़] आनंदित। प्रसन्न। खुश। हर्षित। उ०—रहते महजूज वे तो साहेब की सूरत पर, दुनियाँ को तर्क मार दीन को सम्हाला है।—मलूक०, पृ० २७।
⋙ महजूम
संज्ञा पुं० [अ० मआजून] भाँग मिलाकर बनाई हुई एक प्रकार की मादक मिठाई। उ०—कहूँ करही उबलत सूखत महजूम बनत कहुँ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४।
⋙ महज्जन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'महाजन' [को०]।
⋙ महण (१)
संज्ञा पुं० [डिं०] समुद्र। उ०—मुरझ थाँन मेवाड़, राँण राजाँन सरीखा। महण देख अबंध, करै कुण बंध परीखा।— रा० रू०, पृ० २३।
⋙ महण (२)
संज्ञा पुं० [सं० मथन, प्रा० महण] मंथन। मंथना। यौ०—महणारंभ = मथना। मथने की क्रिया। उ०—मन समुद्र गुरु कमठ ह्वै किया जू महणारंभ।—रज्रव०, पृ० ४।
⋙ महत् (१)
वि० [सं०] १. महान्। बृहत्। बड़ा। २. सबसे बढ़कर। सर्वश्रेष्ठ। ३. भारी। ४. ऊँचा। उच्च (को०)। ५. तीव्र (को०)। ६. प्रधान (को०)। यौ०—महत्कथ। महज्जन। महच्छक्ति = महान् शक्ति। बड़ी शक्ति। उ०—मिल जाना उस महच्छक्ति से।—इत्यलम्, पृ० १०३। महत्तत्व।
⋙ महत् (२)
संज्ञा पुं० १. प्रकृति का पहला विकार महत्तत्व। २. ब्रह्म। ३. राज्य। ४. जल।
⋙ महत पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० महत्व] दे० 'महत्व'। उ०—कहै पद्माकर झकोर झिल्ली झोरन को मोरन को महत न कोऊ मन ल्यावती।—पद्याकर (शब्द०)।
⋙ महत पु (२)
वि० [सं० महत्] अत्यधिक। उ०—सत्रुहि बहुत प्रसंसि कै कहत महत हरसाइ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४९३।
⋙ महतवान
संज्ञा पुं० [देश०] करघे में पीछे की ओर लगी हुई वह खूँटी जिसमें ताने को पीछे की ओर कसकर खींचे रहनेवाली डोरी लपेटकर बरतेले में बाँधी जाती है। पिंडा। मुन्नी। हथेला।
⋙ महता (१)
संज्ञा पुं० [सं० महत् (गुज० महेता, मेहता)] १. गाँव का मुखिया। सरदार। महती। २. लेखक। मोहर्रिर। मुंशी। ३. पु प्रमुख व्यक्ति। प्रधान। उ०—कवन काजी तहाँ कवन महता।—प्राण०, पृ० ८२।
⋙ महता पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० महत्ता] अभिमान। घमंड। उ०— महता जहाँ तहाँ प्रभु नाहीं सो द्वैता क्यों मानो।—(शब्द०)।
⋙ महता (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. महत्तत्व। विज्ञान शक्ति। २. महाभारत के अनुसार एक नदी का नाम।
⋙ महताई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० महत्तः] मुखियागिरी। प्रधान बनने का कार्य। प्रधानता। उ०—धर्मदास बहु किए महताई। सवा पाँच मुद्रा लेहु भाई।—कबीर सा०, पृ० ४३६।
⋙ महताब (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० (तुल० सं० महत् + आभ ?)] १. चाँदनी। चंद्रिका। उ०—मोद मदमाती मन मोहन मिलै के काज साजि मणि मंदिर मनोज कैसी महताब।—पद्माकर (शब्द०)। २. एक प्रकार की आतिशबाजी। दे० 'महताबी'।उ०—(क) जब चंद नखायली देखि चप्यो तब जोति किती महताब में है।—कमलापति (शब्द०)। (ख) चाँदनी मैं कवि संभु मनो चहुँ ओर विराजि रही महताबैं।—शंभु (शब्द०)। ३. जहाज पर रात के समय संकेत के लिये होनेवाली एक प्रकार की नीली रोशनी जो काठ की एक नली में कुछ मसाले भरकर जलाई जाती है। (लश०)।
⋙ महताब (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. चाँद। चंद्रमा। शशि। उ०— आई वारबधू छबि छाई ऐसी गाँउ बोच, जाके मुख आगे दबै जोति महताब की।—रघुनाथ (शब्द०)। २. एक प्रकार का जंगली कौआ। मूतरी। महालत।
⋙ महताबी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. मोमबत्ती के आकार की बनी हुई एक प्रकार की आतिशबाजी जो मोटे कागज में बारूद, गंधक आदि मसाले लपेटकर बनाई जाती है और जिसके जलने से बहुत तेज प्रकाश होता है। इसकी रोशनी सफेद, लाल, नीली, पीली आदि कई प्रकार की होती है। उ०—छाय रही सखि बिरह सो वे आबी तन छाम। पी आए लखि बरि उठी महताबी सी बाम।—स० सप्तक, पृ० २२९। २. किसी बड़े प्रासाद के आगे अथवा बाग के बीच में बना हुआ गोल या चौकोर ऊँचा चबूतरा जिसपर लोग रात के समय बैठकर चाँदनी का आनंद लेते हैं। †३. एक प्रकार का बड़ा नीबू। चकोतरा। (पूरब)।
⋙ महतारी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० माता] माँ। माता। जननी। उ०— (क) कौशल्या आदिक महतारी आरति करति बनाइ।—सूर (शब्द०)। (ख) हरषित महतारी मुनि मनहारी अद्भूत रूप निहारी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ महतिया पु †
संज्ञा पुं० [सं० महत्] सरदार। उ०—पाँच के उपर पचीस महतिया, इन परपंच पसारा।—धरम०, पृ० २४।
⋙ महती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नारद की वीणा का नाम। २. बृहती। कँटाई। बनभंटा। ३. कुश द्वीप की एक नदी का नाम जो पारियात्र पर्वत से निकली है। ४. महिमा। महत्व। बड़ाई। उ०—मातु पितु गुरु जाति जान्यो भली खोई महति।—सूर (शब्द०)। ५. योनि का फैल जाना जो एक रोग माना जाता है। ६. वह हिचकी जिससे गर्भस्थान षोड़ित हो और देह में कंप हो। ७. वैश्यों की एक जाति।
⋙ महती द्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की वह द्वादशी जो श्रवण नक्षत्र में पड़े। ऐसी द्वादशी को व्रत आदि करने का विधान है।
⋙ महतु पु †
संज्ञा पुं० [सं० महत्व] महिमा। बड़ाई। महत्व। उ०— वृंदावन ब्रज को महतु का पै बरन्यो जाय।—सूर (शब्द०)।
⋙ महतो
संज्ञा पुं० [हिं० महता] १. कुछ गयावाल पंडों की एक उपाधि। २. कहार (पूरब के पटना आदि जिलों में)। ३. जुलाहों की वह खूँटा जो भाँज के आगे गड़ा रहता है और जिसमें भाँज की डोरी फँसाई रहती है। ४. गाँव का प्रमुख व्यक्ति। चौधरी।
⋙ महत्कथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो मीठी मीठी बातें करके बड़े आद- मियों को प्रसन्न करता हो। खुशामदी।
⋙ महत्तत्व
संज्ञा पुं० [सं० महत्तत्व] १. सांख्य के अनुसार पचीस तत्वों में से तीसरा तत्व जो प्रकृति का पहला विकार है और जिससे अहंकार की उत्पत्ति होती है। प्रकृति का पहला कार्य या विकार। बुद्धितत्व। विशेष—दे० 'तत्व' और 'प्रकृति'। २. कुछ तांत्रिकों के अनुसार संसार के सात तत्वों में से सबसे अधिक सूक्ष्म तत्व। ३. जीवात्मा।
⋙ महत्तम
वि० [सं० सबसे अधिक बड़ा] या श्रेष्ठ। यौ०—महत्तम समापवर्तक = गणित में वह बड़ी संख्या जिसका भाग दो या अधिक संन्याओं में पूरा पूरा किया जा सके।
⋙ महत्तर (१)
वि० [सं०] दो पदार्थों में से बड़ा या श्रेष्ठ। महत् से श्रेष्ठ। उ०—सिद्ध नहीं, तुम लोग सीद्ध के साधन बने महत्तर।—ग्राम्या, पृ० ५२।
⋙ महत्तर (२)
संज्ञा पुं० शुद्र।
⋙ महत्तरक
संज्ञा पुं० [सं०] दरबारी [को०]।
⋙ महत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बड़ाई। बड़प्पन। २. उच्चता। श्रेष्ठता। गुरुता। ३. ऊँचा पद। ४. महत्व। महिमा। उ०— नहीं किसी की रही एक सी जग में सत्ता। किंतु समय की क्षीण न होती कभी महत्ता।—प्रेमांजलि०, पृ० ४।
⋙ महत्पुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुषोत्तम।
⋙ महत्व
संज्ञा पुं० [सं० महत्त्व] १. महत् का भाव। बड़प्पन। बड़ाई। गुरुता। २. श्रेष्ठता। उत्तमत्ता। ३. अधिक आवश्यक या परिणामजनक। यौ०—महत्वपूर्ण = जिसका महत्व हो। महत्वशाली। महत्वयुक्त = महत्वपूर्ण। महत्वशाली = महत्वपूर्ण।
⋙ महत्वाकांक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० महत्त्व + आकाङ्क्षा] महत्व को इच्छा। श्रेष्ठता का कामना। महत्वशाली बनने की आकांक्षा।
⋙ महत्वाकांक्षी
वि० [सं० महत्त्वाकाङ्क्षिन्] [वि० स्त्री० महत्वाकांक्षिणी] जिसकी बहुत बड़ी आकांक्षा हो। उच्चाभिलाषी। उ०—वहाँ पुहुँचने को चिर व्यग्र, महत्वाकांक्षी।—रजत०, पृ० ७।
⋙ महत्वान्वित
वि० [सं० महत्त्व + अन्वित] महत्व से युक्त—जिसे महत्ता वा श्रेष्ठता प्राप्त हो। महत्वपूर्ण। उ०—मुख्य विषय के विवरण एवं उनकी व्याख्या के लिये योजित अप्रस्तुत वस्तु का स्थान गौण ही रहे, वह मुख्य से भी अधिक महत्वान्वित न हो जाय।—शैली, पृ० ८३।
⋙ महद्
वि० [सं०] दे० 'महत्'। उ०—क्या जगाई है तुम्ही ने, सजन झिलमिल दीपमाला ? इस महद् ब्रह्मांड भर में खूब फैला है उजाला।—क्वासि, पृ० ४१।
⋙ महदावास
संज्ञा पुं० [सं०] विस्तृत भवन। बिशाल लंबा चौड़ा भवन [को०]।
⋙ महदाशय
वि० [सं०] उच्च विचारवाला। ऊँचे मन का।
⋙ महदाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उच्चाशा। उच्च कामना। आशा [को०]।
⋙ महदाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] महान् से संरक्षण प्राप्त करना। श्रेष्ठ के आश्रम में रहना [को०]।
⋙ महदी
संज्ञा पुं० [अ० मह्दी] १. धार्मिक नेता। हादी। २. रहनुमा। राह दिखानेवाला। ३. शीआ संप्रदाय के बारहवें इमाम जिनके विषय में यह माना जाता है कि कयामत के समय वे फिर आसमान से आएँगे [को०]।
⋙ महदूद
वि० [अ०] जिसकी हद बँधी हो। घेरा हुआ। सीमावद्ध। परिमित। निश्चित। नियत।
⋙ महदेव पु
संज्ञा [सं० महादेव] शंकर। शिव। दे० 'महादेव'। उ०—महदेव सेव तुम चरन रत, पति पवित्र मन मोह धरि।—पृ० रा०, २४। ४५६।
⋙ महदेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] मेसूर में होनेवाली बैलों की एक जाति। इस जाति के बैल बहुत हृष्ट और बलवान् होते।
⋙ महदुगुण
वि० [सं०] महान् पुरुष के गुणों से युक्त। श्रेष्ठ गुणों से युक्त [को०]।
⋙ महद्धिक
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियौं के एक देवता का नाम।
⋙ महद्वारुणा
संज्ञा स्त्रि० [सं०] महेंद्रवारुणी नाम की लता।
⋙ महन पु †
संज्ञा पुं० [सं० मथन, प्रा० महण] दे० 'मथन'। उ०—मयन महन पुर दहन गहन जानि आनि कै सबै को सारु धनुष गढ़ायो है।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ महना पु (१)
क्रि० स० [सं० मथन, मन्थन] १. दही या मठा आदि मथना। महना। बिलोना। २. किसी बात या विषय का आवश्यकता से अधिक विवेचन करना। बहुत पिष्टपेषण करना। यौ०—महनामत्थन = व्यर्थ का बहुत अधिक वाद विवाद करना। महनामथ = हाय तोबा। चीख पुकार। उ०—बस इत्ता सुनता था कि जैसे हाथों के तोते उड़ गए, वह महनामथ मचाई कि तोबा ही भली।—सैर कु०, पृ० ७।
⋙ महना (२)
संज्ञा पुं० मथानी। रई।
⋙ महनारंभ
संज्ञा पुं० [हिं० महना] मथने की क्रिया। उ०—नीर होइ तर ऊपर सोई। महनारंभ समुँद जस होई।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २२५।
⋙ महनि पु
संज्ञा पुं० [सं० मन्थन] १. खलबली। हलचल। २. बिलोडन। घर्षण। उ०—महनि मच्चि जब सुरनि जुद्ध असुराँ सुर जब्बह।—पृ० रा०, ६।६२।
⋙ महनिया †
संज्ञा पुं० [हिं० महना (= मथना) + इया (प्रत्य०)] वह जो मथता हो। मथनेवाला।
⋙ महनीय
वि० [सं०] १. पूजन करने योग्य। पूजनीय। मान्य। २. गौरवपूर्ण। महिमायुक्त।
⋙ महनु पु
संज्ञा पुं० [सं० मथन] मथन करनेवाला। विनाशक। उ०—नाम वामदेव दाहिना सदा असंग रंग अर्ध अंग अंगन अनंग को महनु है।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ महनूर
वि० [फ़ा० माह + नूर] चाँद जैसी चमकवाला। उ०— रज मित्ति सु गत्ति अनंत भती। महनूर अदब्ब न जाइ मती।—पृ० रा०, ६१। ६३७।
⋙ महन्तांना †
संज्ञा पुं० [अ० मेहनत] दे० 'महनताना'। उ०—महर- बानी करके मेरा पूरा महन्ताना मुझको दिला दो मैं इसी में तुम्हारी बड़ी सहायता समझूँगा।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३५५।
⋙ महफिल
संज्ञा स्त्री० [अ० महफ़िल] १.मनुष्यों के एकत्र होने का स्थान। मजलिस। सभा। समाज। जलसा। २. नृत्य गीत होने का स्थान। नाच गान होने का स्थान। क्रि० प्र०—जमना।—भरना।—लगना।
⋙ महफूज
वि० [अ० महफ़ूज] जिसकी हिफाजत की गई हो। सुरक्षित। बचाया हुआ। रक्षा किया हुआ।
⋙ महव
वि० [अ० मह्व] पूर्ण रूप से रत। लीन। उ०—जिस वक्त आदमी का दिल किसी बात के ख्याल में महव हो।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३१।
⋙ महबूब
संज्ञा पुं० [अ०] वह जिससे प्रेम किया जाय। जिससे दिल लगाया जाय। उ०—रसनिधि आवत देखके मनमोहन महबूब। उमड़ी डिठ वरुनीन की हगन बधाई दूब।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ महबूबा
संज्ञा स्त्री० [अ०] वह स्त्री जिससे प्रेम किया जाय। प्रेमिका। माशूका। उ०—आशिकहूँ पुनि आप तौ महबूबा पुनि आप। चाहनहारो आप त्यौ बैपरवाही आप।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ महमंत पु
वि० [सं० महा + मत्त] मस्त। उन्मत्त। मदमत्त। उ०—काया कजरी वन अहै मन कुंजर महमंत। अंकुश ज्ञान रतंन है फेरै साधू संत।—कबीर (शब्द०)।
⋙ महमद पु †
संज्ञा पुं० [सं० मृगमद] दे० 'मृगमद'। उ०—साँझी समइ धन कियो सीणगार। सीरह महमंद गलि मोती हार।— बी० रासो, पृ० ११४।
⋙ महम
संज्ञा पुं० [अ०] चिंता। फिक्र। उ०—लागी महम गनीम पर काल कटक कटकंत।—कबीर ग्रं०, पृ० ५९०।
⋙ महमद पु
वि० [अ० मुहम्मद] दे० 'मुहम्मद'। उ०—परबल भंजन गरुअ महमद मदगामी।—कीर्ति०, पु० १००।
⋙ महमदी पु
वि० [अ० मुहम्मदी] मुहम्मद का मतानुयायी। मुसलमान।
⋙ महमह
क्रि० वि० [हिं० महकना] सुगंधि के साथ। खुशबू के के साथ। उ०—(क) महमह महमह महकत धरती रोम रोम जनु पुलकि उठी।—देवस्वामी (शब्द०)। (ख) चारु चमेली बन रही महमह महकि सुबास।—हरिश्चंद्र (शब्द०)।
⋙ महमहण
संज्ञा पुं० [सं० महि + मथन] विष्णु (डिं०)।
⋙ महमहा
वि० [हिं० महमह] [वि० स्त्री० महमही] सुगंधित। खुशबूदार। उ०—(क) महमही मंद मंद मारुत मिलनि, तैसी गहगही खिलनि गुलाब के कलीन की।—रसखनि (शब्द०)। (ख) महमहे लोक दल चारहू सुगंधन तें उमहे महेश अज आदिसुर ठठ्ठ हैं।—(शब्द०)। (ग) सेत सारी सोहत उजारी सुख चंद की सी महलनि मंद मुसक्यान की महमही।—गति० ग्रं०, पृ० ३०८।
⋙ महमहाना
क्रि० अ० [हिं० महमह अथवा महकना] गमकना। सुगंधि देना। उ०—मल्ली द्रुम वलित ललित पारिजात पुंज मंजु बन बेलिन, चमेलिन महमहात।—रसकुसुमाकर (शब्द०)।
⋙ महमा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० महिमा] दे० 'महिमा'।
⋙ महमाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० महामाया] दे० 'महमाय'। उ०— चारण भाट जपै महमाई। भोजक भाट तहाँ चलि आई।—कबीर सा०, पृ० ५४०।
⋙ महमान
संज्ञा पुं० [फ़ा० मेहमान] दे० 'मेहमान'।
⋙ महमानिय पु
वि० [सं० महा + मान्य] अत्यंत संमानित। महामान्य। उ०—कहिय वत्त भूपति महमानिय।—प० रासो, पृ० ५१।
⋙ महमानो
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मेहमानी] दे० 'मेहमानी'।
⋙ महमिल
संज्ञा पुं० [अ०] ऊँट की पीठ पर कसा जानेवाला हौदा। पलान [को०]।
⋙ महमाय
संज्ञा स्त्री० [सं० महामाया] पार्वती। (डिं०)। उ०—बाल वृद्ध भष्षन करौं, हम को दै महमाय।—पृ० रा०, २२।१०।
⋙ महमूदी (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० महमूद + ई (प्रत्य०)] सल्लम की तरह का एक प्रकार का मोटा देशी कपड़ा।
⋙ महमूदी (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का पुराना छोटा सिक्का।
⋙ महमेज
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० महमेज] एक प्रकार की लोहे की नाल। विशेष—यह जूते में पीछे की ओर ऐड़ी के पास लगाई जाती है और इसकी सहायता से घोड़े के सवार उसे चलाने के लिये एड़ लगाते हैं। उसके पीछे एक छोटा घूमनेवाला काटेदार पहिया लगा होता है, जो घोड़े की पीठ पर लगता है और घूमता है।
⋙ महम्मद
संज्ञा पुं० [अ० मुहम्मद] दे० 'मुहम्मद'।
⋙ महम्मदा
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'महमदी'।
⋙ महर (१)
संज्ञा पुं० [सं० महत् या महार्ह, हिं० महरा (= बड़ा, श्रेष्ठ)] [स्त्री० महरि] १. व्रज में बोला जानेवाला एक आदर- सूचक शब्द जिसका व्यवहार विशेषतः जमादारों और वैश्यों आदि के संबंध में होता है। (कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल श्रीकृष्ण के पालक और पिता नंद के लिये भी बिना उनका नाम लिए ही होता है)। उ०—महर निनय दोउ कर जोरे घृत मिष्टान षय बहुत मनाया।—सूर (शब्द०)। (ख) फूर आभलाषन को चाखने के माखन लै दाखन मधुर भरे महर मंगाय रे।—दीन (शब्द०)। (ग) व्रज की विरह अरु संग महर की कुवरिहि वरत न नेकु लजान।—तुलसी (शब्द०)। २. एक प्रकार का पक्षी। उ०— सारो सुवा महर कोकिला। रहसत आइ पपीहा मिला।—जायसी (शब्द०)। ३. दे० 'महरा'। उ०—नाऊ बारी महर सब, धाऊ धाय समेत।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ महर (२)
वि० [फ़ा० मेहर (= दया)] दयावान्। दयालु। (डिं०)।
⋙ महर (३)
संज्ञा पुं० [अ०] १. मुसलमानों में वह संपत्ति या धन जो विवाह के समय वर की ओर से कन्या को देना निश्चित होता है। मुहा०—महर बख्शवाना = महर के लिये निश्चित किए गए धन को पत्नी से कह सुनकर पति द्वारा माफ कराना। महर बाँधना = महर के लिये धन या संपत्ति नियत करना।
⋙ महर पु † (४)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मेह्र] दया। कृपा। उ०—किकरि ऊपर महर कर, संकर मेट सँदेह।—रघु० रू०, पृ० ५६।
⋙ महर (५)
वि० [हिं० महक] महमहा। सुगंधित। उ०—(क) महर महर घर बाहर राउर देहु। लहर लहर छवि तम जिमि, ज्वलन सनेह।—रहिमन (शब्द०)। (ख) महर महर करै फूल नोंद नहिं आइल हो।—धरम० श०, पृ० ६२।
⋙ महरई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० महराई] श्रेष्ठता। प्रधानता। उ०— जौ महाराज चाहौ महरईये, तौ नाथौ ए मन बौरा हो।—कबीर ग्रं०, पृ० ११२।
⋙ महरबान
संज्ञा पुं० [फ़ा० मेहरबान] दे० 'मेहरबान'।
⋙ महरम (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. मुसलमानों में किसी कन्या या स्त्री के लिये उसका कोई ऐसा बहुत पास का संबंधी जिसके साथ उसका विवाह न हो सकता हो। जैसे, पिता, चाचा, नाना, भाई, मामा आदि। मुसलमानी धर्म के अनुसार स्त्रियों को केवल ऐसे ही पुरुषों के सामने बिना परदे या घूँघट के जाना चाहिए। २. मित्र। दोस्त (को०)। ३. भेद का जाननेवाला। रहस्य से परिचित। उ०—दिल का महरम कोई न मिलिया जो मिलिया सो गरजी। कह कबीर असमानै फाटा क्यों कर सीवै दरजी।—कबीर (शब्द०)।
⋙ महरम (२)
संज्ञा स्त्री० १. अँगिया का मुलकट। अँगिया की कटोरी। २. अँगिया। उ०—गए जदपि मुनि सूर तन पत्थर घनै चलाय। व्यापै तन जे फूल वे महरम घाले आय।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ महरमदिली
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मेह्र + दिली] मदयता। मेहरबानी। दयालुता। उ०—मारो कि तारो तुमसों अब है कछू न सारो। महरमदिली सो दिलबर टुक दीजिए सहारो।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ४२।
⋙ महरमी
वि० [अ० महरम] जाननेवाला। जानकार। ज्ञाता। उ०—घाट औ बाट के भेद का महरमी। उसी की नाव पर पाँव दीजै।—पलटू०, भा० २, पृ० १।
⋙ महरलोक
संज्ञा पुं० [सं० महर्लोंक] दे० 'महर्लोक'। उ०—सत्यलोक जनलोक तप और महर निजलोक।—सूर (शब्द०)।
⋙ म्हरसी पु †
संज्ञा पुं० [सं० महर्षि] दे० 'महर्षि'। उ०—जान महरसी संत ताहि की निंदा करते।—पलटू०, पृ० ८३।
⋙ महरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० महता] [स्त्री० महरी] १. कहार। उ०— सइयाँ, महरा मोर डोलिया फँदावै हो।—धरम० श०, पृ० ७४। २. नोकर। सेवक। उ०—महरा ने आकर कहा सरकार कोई स्त्री आपसे मिलने आई है।—मान०, भा०, ५,पृ० २७४। ३. असुर के लिये आदरसूचक शब्द। (चमार)। ४. सरदार। नायक। उ०—दसवँ दाँव के गा जो दसहरा। पलटा सोइ नाव लेइ महरा।—जायसी (शब्द०)। ५. दे० 'मेहरा'।
⋙ महरा (२)
वि० प्रधान। श्रेष्ठ। बड़ा।
⋙ महराई † पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० महर + आई (प्रत्य०)] प्रधानता। श्रेष्ठता। उ०—कुंडल श्रेवनन देउँ गलाई। महरा की सौपौं महराई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ महराज (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'महाराज'। उ०—चलेउ मद्र महराज सुभट सिरताज साज सजि।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ महराज (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० म/?/राजिन] वह ब्राह्मण जो किसी के घर या मेस में रसोई बनाता हो।
⋙ महराजा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'महाराज'।
⋙ महराण
संज्ञा पुं० [सं० महार्णव] समुद्र (डिं०)। उ०—मनरा महराण समापण मोजाँ, कायण दीना तरणा कुरँद।—रघु० रू०, पृ० १९।
⋙ महराना (१)
संज्ञा पुं० [डिं० महर + आना (प्रत्य०)] महरों के रहने का स्थान। महरों के रहने की जगह, महल्ला या गाँव। उ०— (क) तुमको लाज होत की हमको बात परै जो कहुँ महराने।— सूर (शब्द०)। (ख) गोकुल में आनंद होत है मंगल ध्वनि महराने ढोल।—सूर (शब्द०)।
⋙ महराना (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० महरानी] दे० 'महाराणा'।
⋙ महरानी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० महारानी] पटरानी। महारानी। उ०—वृंदावन राजै दुवौ साजैं सुख के साज। महरानी राधा उतै महाराज ब्रजराज। —स० सप्तक, पृ० ३४३।
⋙ महराब
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मेहराब'। उ०—बाट बाट बहु द्वार बिराजत चामीकर महराबै।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ महराव पु
संज्ञा पुं० [सं० महाराज, प्रा० महाराव] दे० 'महाराज'। उ०—राणी कहैं सुनो महराव।—हा० रासो, पृ० ११८।
⋙ महरि
संज्ञा स्त्री० [हिं० महर] १. एक प्रकार का आदरसूचक शब्द जिसका व्यवहार ब्रज में प्रतिष्ठित स्त्रियों के संबंध में होता है। विशेष—कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल यशोदा के लिये भी बिना उनका नाम लिए ही होता है। २. गृहस्वामिनी। मालकिन। घरवाली। उ०—बाल बोलि डहिक बिरावत चरित लखि गोपीगन महरि मुदित पुलकित गात।— तुलसी (शब्द०)। ३. ग्वालिन नामक पक्षी। दहिंगल। उ०— दही दही कर महरि पुकारा। हारिल विनवइ आपु निहारा।— जायसी (शब्द०)।
⋙ महरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० महर] ग्वालिन नामक पक्षी। दहिंगल। २. दे० 'महरि'। उ०—करे नंद जसोदा महरी। पल भर कृष्ण राख ना बहरी।—कबीर सा०, पृ० ४४।
⋙ महरुआ †
संज्ञा स्त्री० पुं० [देश०] जस्ता। (सुनार)।
⋙ महरू (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. चंडू पीने की नली। २. एक प्रकार का वृक्ष।
⋙ महरू (२)
वि० [फ़ा० माहरू] चंद्रबदन। चंद्रमुख। उ०—वह जुल्फ मेरे महरू खमदार कहाँ है।—कबीर मं०, पृ० ३२४।
⋙ महरूम
वि० [अ०] १. जिसे प्राप्त न हो। जिसे न मिले। वंचित। उ०—इन्सान खबर खैर से महरूम हुआ है।—कबीर मं०, पृ० १४१। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—रहना। २. वर्जित। जो रोका गया हो (को०)। ३. निषिद्ध (को०)। ४. बेनसीब। अभागा (को०)। ५. जो किसी काम का न हो। नाकाम। बेकाम (को०)।
⋙ महरेटा
संज्ञा पुं० [हिं० महर + एटा (प्रत्य०)] १. महर का बेटा। महर का लड़का। २. श्रीकृष्ण।
⋙ महरेटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० महरेटा] वृषभानु महर की लड़की, श्रीराधिका। उ०—(क) नूपुर की धुनि सुनि रीझत है महरेटी खोलति न याते जब जब आषु गसि जात।—रघुनाथ (शब्द०)। (ख) लाली महरेटी के अधर सरसान लागे अधरन बान लागे बतिया रसाल की।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ महरो
वि० [देशी] असमर्थ।—देशी०, पृ० २५७।
⋙ महर्घता
संज्ञा स्त्री० [सं०] महँगे का भाव। महँगी।
⋙ महर्बानी पु
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० महरबानी] दे० 'मेहरबानी'। उ०—हमको तो आपकी महर्बानी चाहिए।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३७।
⋙ महर्लोक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार भू भुव आदि चौदह लोकों में से एक। विशेष—१४लोकों में से ७ऊर्घ्वलोक और ७ अधीलोक हैं। महर्लोक इन ऊर्ध्वलोकों में से चौथा है।
⋙ महर्षभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौंछ। केवाँच।
⋙ महर्षि
संज्ञा पुं० [सं० महा + ऋषि] १. बहुत बड़ा और श्रेष्ठ ऋषि। ऋषीश्वर। जैसे, वेदव्यास, नारद, अंगिरा इत्यादि। २. एक राग जो भेरवराग के आठ पुत्रों में से एक माना जाता है। उ०—पंचम ललित महर्षि बिलावल अरु वैशाख सुमाधव पिंगल। सहित समृद्धि आठ संताना। भैरव के जानहु नर त्राना।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ महर्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद कंटकारी। भटकटैया।
⋙ महल (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. राजा या रईस आदि के रहने का बहुत बडा और बढ़िया मकान। प्रासाद। उ०—निसि गई पंच पल एक जाम। राजन्न महल प्रावेस ताम।—पृ० रा०, १।३६९। २. राजप्रासाद का वह विभाग जिसमें रानिया आदि रहती हों। रनिवास। अंतःपुर। उ०—कुंज कुंज नवपुंज महल सुबस बसो यह गाँव री।—स्वामी हरिदास (शब्द०)।३. बड़ा कमरा। ४. अवसर। मौका। वक्त। ५. पहाड़ी मधु- मक्खी। सारंग। डंगर। ६. पत्नी। बीवी (को०)। ७. मकान। घर (को०)। ८. जगह। स्थान (को०)। यौ०—महलदार = वह व्यक्ति जो मकान की व्यवस्था और रक्षा करे। महलसरा। महलख स = पटरानी। बड़ी बेगम।
⋙ महल पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० महिला] दे० 'महिला'। उ०—जो मारू बीजी महल आखइ झूठ एवाल।—ढोला०, दू० ४४०।
⋙ महलम
वि० [अ० महल्लन्] १. सर्वप्रधान। सर्वप्रमुख। २. गोचर। व्यक्त। ३. ईश-कृपा-प्राप्त। उ०—महलम जुगपति चिरेजिवे जीवथु ग्यासदीन सुरतान।—विद्यापति, पृ० २।
⋙ महलसरा
संज्ञा स्त्री० [अ० महल + फ़ा० सरा] महल का वह भाग जिसमें रानियाँ या बेगमें आदि रहती हैं। अंतःपुर। रनिवास। जैसे, शाही महलसरा।
⋙ महलाठ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसकी दुम लंबी, ठोर काली, छाती खैरो, पीठ खाकी रंग की और पैर काले होते हैं।
⋙ महलायत पु †
संज्ञा पुं० [अ० महल] महल। प्रासाद। उ०— देखा महलायत एक पलको के लगने में।—नट०, पृ० ११२।
⋙ महलिया †पु
संज्ञा स्त्री० [अ० महल + हिं० इया (प्रत्य०)] छोटा महल। उ०—झरि लागै महलिया गगन घहराय।—धरम०, श०, पृ० ३३।
⋙ महली पु †
वि० [अ० महल + हिं० ई (प्रत्य०)] महल (शरीर) में रहनेवाला (जीव)। उ०—गुरमुखि साचा जोग कमाउ। निज घरि महली पावहि थाउँ।—प्राण०, पृ० १०६।
⋙ महली पटैला
संज्ञा पुं० [हिं० महल + पटैला] एक प्रकार की बड़ी नाव जिसपर केवल लकड़ी या पत्थर आदि लादा जाता है।
⋙ महल्ल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] राजा के अंतःपुर में रहनेवाला। हिंजड़ा [को०]। विशेष—संस्कृत में यह शबद अरबी से आगत माना गया है।
⋙ महल्ल पु (२)
संज्ञा पुं० [अ० महल] दे० 'महल'। उ०—चढ़ै लोक चल्लै, मसीताँ महल्लै। झरोखा सझायौ, उठो साह आयौ।—रा० रू०, पृ० ३२।
⋙ महल्लक (१)
वि० [सं०] कमजोर। पुराना। जर्जर। क्षीण। [को०]।
⋙ महल्लक (२)
संज्ञा पुं० १. दे० 'महल्ल (१)'। २. बड़ा मकान। प्रासाद [को०]।
⋙ महल्ला
संज्ञा पुं० [अ० महल्लह्] शहर का कोई विभाग या टुकड़ा जिसमें बहुत से मकान आदि हों। यौ०—महल्लेदार = महल्ले का चौधरी या प्रधान।
⋙ महल्लिक
संज्ञा पुं० [सं०] हिंजड़ा। जनखा। पुरुषेंद्रियरहित स्त्रीस्वभाव का व्यक्ति [को०]।
⋙ महवट पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० महावट] माघ की वर्षा। दे० 'महावट'। उ०—नैन चुपहिं जस महवट नीरू। तोहि बिन अंग लाग सर चीरू।—जायसी ग्रं०, पृ० १५५।
⋙ महशर
संज्ञा पुं० [अ० मह्शर] १. महाप्रलय। २. कयामत का दिन। मुसलमानी धर्म के अनुसार वह अंतिम दिन जब ईश्वर सब प्राणियों का न्याय करेगा। उ०—रखता हूँ क्यूँ जफा को तुझ पर रवा ऐ जालिम। महशर में तुझसे आखिर मेरा हिसाब होगा।—क० कौ०, भा० ४, पृ० ८। ३. कयामत का मैदान। बहुत से लोगों के एकत्र होने का स्थान। ४. हंगामा। उपद्रव। मुहा०—महशर बरपा होना = भारी हंगामा मचना।
⋙ महसिल
संज्ञा पुं० [अ० मुहस्सिल] तहसील वसूल करनेवाला। महसूल आदि वसूल करनेवाला। उगाहनेवाला। उ०—मीत नैन महसिल नए बैठत नहिं हुई सील। तन बीधा पै करत है ये मन की तहसील।—रसनिधि (शब्द०)।
⋙ महसीर
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली। विशेष दे० 'महासीर'।
⋙ महसूद
वि० [अ० मह्सूड] जिससे ईर्ष्या की गई हो। इर्षित [को०]।
⋙ महसूब
वि० [अ० मह्सूब] १. हिसाब में जोड़ा या गिना हुआ। २. मुजरा किया हुआ [को०]।
⋙ महसूर
वि० [अ० मह्सूर] १. घेरे में आया हुआ। घिरा हुआ। २. शत्रु के घेरे में आया हुआ [को०]।
⋙ महसूल (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. वह धन जो राजा या कोई अधिकारी किसी विशिष्ट कार्य के लिये ले। कर। २. भाड़ा। किराया। जैसे,—आजकल रेल का महसूल कुछ बढ़ गया है। ३. भूकर। मालगुवारी। लगान।
⋙ महसूल (२)
वि० प्राप्त किया हुआ। हासिल [को०]।
⋙ महसूली
वि० [अ०] १. जिसपर किसी प्रकार का कर या महसूल हो या लग सकता हो। महसूल के योग्य। २. जिसपर लगान या महसूल देना पड़ता हो।
⋙ महसूस
वि० [अ० मह्सूस] १. जिसका अनुभव किया जाय। अनुभूत। २. मालूम। ज्ञात। ३. प्रकट। स्पष्ट [को०]। यौ०—करना।—होना।
⋙ महसूसात
संज्ञा पुं० [अ० महसूस का बहु व०] अनुभूति का समुच्चय। अनुभूतियाँ [को०]।
⋙ महस्वान्
वि० [सं० महस्वत्] ज्योतिर्मय। तेजयुक्त। शानदार। २. महान्। शक्तिसंपन्न [को०]।
⋙ महत्वी
वि० [सं० महस्विन्] दे० 'महस्वान्' [को०]।
⋙ महांग (१)
वि० [सं० महाङ्ग] भारी भरकम। मोटा [को०]।
⋙ महांग (२)
संज्ञा पुं० १. ऊंट। २. एक प्रकार का चूहा। ३. शिव। ४. गोखरू। ५. रक्त चित्रक वृक्ष [को०]।
⋙ महांजन
संज्ञा पुं० [सं० महाञ्जन] एक पर्वत का नाम [को०]।
⋙ महांतक
संज्ञा पुं० [सं० महान्तक] १. मृत्यु। मौत। २. शिव [को०]।
⋙ महांधकार
संज्ञा पुं० [सं० महान्धकार] १. घोर अँधेरा। भयंकर अंधकार। २. आत्मा संबंधी घोर अज्ञान [को०]।
⋙ महांबुक
संज्ञा पुं० [सं० महाम्बुक] शिव [को०]।
⋙ महांबुज
संज्ञा पुं० [सं० महाम्बुज] १. दस अरव। २. दस खर्व।
⋙ महाँ (१)
अव्य० [ हिं० महँ] दे० 'मह'। उ०—प्रभु सत्य करौ प्रह्लाद गिरा प्रगटे नर केहरि खंभ महाँ।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ महाँ (२)
वि० [सं महा] दे० 'महा'।
⋙ महा (१)
वि० [सं०] १. अत्यंत। बहुत। अधिक। उ०—महा अजय संसार रिपु जीत सकइ सो वीर। जाके अस रथ होंइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।—तुलसी (शब्द०)। २. सर्वश्रेष्ठ। सबसे बढ़कर। उ०—महा मंत्र जोइ जपत मेहेसू। कासी मुकुति हेतु उपदेसू।—तुलसी (शब्द०)। ३. बहुत बड़ा। भारी। जैसे, महावाहु, महासमुद्र। उ०—(क) बुंद सोखि गो कहा महा समुद्र छीजई।—केशव (शब्द०)। (ख) कहै पद्याकर सुबास तें जवास तें सुफूलन को रास तें जगी है महा सास तै।—पद्याकर (शब्द०)। विशेष—ब्राह्मण, पात्र, यात्रा, प्रस्थान, निद्रा, तैल और मांस इन शब्दों में 'महा' शब्द लगाने से इन शब्दों के अर्थ कुत्सित हो जाते हैं। जैसे,—महाब्राह्मण = कदृहा ब्राह्मण। महापात्र = कदृहा ब्राह्मण। महायात्रा = मृत्यु। महाप्रस्थान = मृत्यु। महानिद्रा = मृत्यु। महामांस = मनुष्य का मांस। यौ०—महाबली = अत्यंत शक्तिवान्। बलवान। समर्थ। उ०— साचा समरथ गुरु मिल्या, तिन तत दिया बताइ। दादू मोटा महाबली घटि घृत मथि करि थाइ।—दादू०, पृ० ७। महबिरही = अत्यंत बियोगपीड़िल। उ०—मनहु महाबिरही अति कामी।—मानस, ३।२४। महाबिरहिनी = अति वियोगिनी। उ०—छिनक माँझ वरनी तिहि बाला। महाबि- रहिनी ह्वै तिहि काला।—नंद० ग्रं०, पृ० १६४। महामनि = मणि जिससे सर्पविष दूर होता है। उ०—मंत्र महामनि विषय व्याल के।—मानस, १।३२।
⋙ महा पु † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० महना] मठ्ठा। छाछ। उ०—रीझि बूझी सब की प्रतीति प्रीति एही द्वार दूध कौ जरयौ पिवत फूँकि फूँकि मह्यो हौं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ महा (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गाय। २. गोपवल्ली [को०]।
⋙ महाअरभ पु
वि० [सं महा + रंभ (= शोर, हलचल)] बहुत शोर। बहुत हलचल। उ०—नीर होइ तर, ऊपर सोई महाअरंभ समुद जस होई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ महाअहि
संज्ञा पुं० [सं०] शेषनाग।
⋙ महाई †
संज्ञा स्त्री० [सं० मथन, हिं० महना + आई (प्रत्य०)] १. मथने का काम। २. नील की मथाई। नील के रंग को मथने का काम। ३. मथने का भाव। ४. मथने की मजदूरी।
⋙ महाईस पु
संज्ञा पुं० [सं० महेश<महा + ईश] महादेव। उ०— महाईस जगदीस जोगिमनि महादेव सिव संभु दयापर।— घनानंद, पृ० ४०९।
⋙ महाउत पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'महावत'। उ०—हूलै इतै पर मैन महाउत लाज के आँदू परे गथि पायन।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ महाउर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'महावर'। उ०—(क) प्यारो लगै यह जाकी मनेह महा उर बीच महाउर को रंग।—देव (शब्द०)। (ख) मोहि तौ साध महा उर है री महाउर नाइन तोसो दिवाऊँ।—दास (शब्द०)।
⋙ महाऔषधी पु
संज्ञा पुं० [पुं० महौषध] सौंठ। उ०—विस्वा नागर जगभिषक महाऔषधी नाँउ।—अनेकार्थ०, पृ० १०४।
⋙ महाककर
संज्ञा पुं० [सं० महाकङ्कर] बौद्धों के अनुसार एक बहुत बड़ी संख्या।
⋙ महाकंद
संज्ञा पुं० [सं० महाकन्द] १. लहसुन। २. प्याज। उ०—सवा सै पान जीव प्रति लाओ। सवासेर महाकंद मँगाओ।—कबीर सा०, पृ० ५५५।
⋙ महाकंबु
संज्ञा पुं० [सं० महाकम्बु] शिव।
⋙ महाकच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र। २. वरुण देव। ३. पर्वत। पहाड़। ४. एक प्राचीन देश का नाम।
⋙ महाकन्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रवरकार ऋषि का नाम।
⋙ महाकपर्द
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की सीपी या शंख [को०]।
⋙ महाकपाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस का नाम। २. शिव के एक अनुचर का नाम।
⋙ महाकपि
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव के एक अनुचर का नाम। २. एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ महाकपित्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेल का वृक्ष। २. रक्त लशुन। लाल लहसुन [को०]।
⋙ महाकपोत
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार २६ प्रकार के बहुत ही विषधर साँपों में से एक प्रकार का साँप।
⋙ महाकपोल
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के एक अनुचर का नाम।
⋙ महाकरंज
संज्ञा पुं० [सं० महाकरञ्ज] एक प्रकार का करंज जो बड़ा होता है। विशेष—इसका व्यवहार औषध रूप में होता है। वैद्यक में इसे तीक्ष्ण, उष्ण, कटु तथा विष,कंडु, कुष्ठ, व्रण और त्वचा के दोषों का नाशक माना है। पर्या०—हस्तिचारिणी। विषघ्नी। काकघ्नी। मदहस्तिनी। मधुमती। रसायनी। इस्तिकरंज। काकमांडी। मधुमत्ता।
⋙ महाकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ महाकर (२)
वि० १. लंबे हाथवाला। महाबाहु। २. जिससे अच्छी आमदनी होती हो [को०]।
⋙ महाकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. एक नाग का नाम।
⋙ महाकर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
⋙ महाकर्णिकार
संज्ञा पुं० [सं०] अमलतास।
⋙ महाकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० महाकर्मन्] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ महाकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा की रात [को०]।
⋙ महाकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार उतना काल जितने में एक व्रह्मा की आयु पूरी होती है। व्रह्माकल्प। विशेष दे० 'कल्प'। यौ०—महाकल्पांत = महाकल्प का अंत समय। उ०—महाकल्पांत ब्रह्मांड मंडल दवन भवन कैलाश आसीन कासी—तुलसी (शब्द०)।
⋙ महाकवि
संज्ञा पुं० [सं० महा + कवि] १. महान् कवि। सबसे बड़ा कवि। जैसे, कालिदास, भवभूति, वाण, माघ, भारवि, हर्ष आदि। उ०—उपाध्याय जी को—एक मात्र महाकवि और प्रशस्त आचार्य कहने में रंचक भी नहीं हिचकिचाते।— रस क०, पृ० ३। २. शुक्राचार्य (को०)।
⋙ महाकषाय
संज्ञा पुं० [सं०] कायफल [को०]।
⋙ महाकांत
संज्ञा पुं० [सं० महाकान्त] शिव।
⋙ महाकांता
संज्ञा स्त्री० [सं० महाकन्ता] पृथ्वी। धरा।
⋙ महाकांतार
संज्ञा पुं० [सं० महाकान्तार] एक प्राचीन देश का नाम।
⋙ महाकाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव जी का बंदी नामक गण और द्वारपाल। २. शिव (को०)। ३. विष्णु (को०)। ४. मंगल ग्रह (को०)। ५. हाथी।
⋙ महाकाय (२)
वि० विशालकाय। भारी भरकम शरीरवाला। [को०]।
⋙ महाकार्तिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक की वह पूर्णिमा जो रोहिणी नक्षत्र में हो। यह बहुत बड़ी पुण्यतिथि मानी जाती है।
⋙ महाकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सृष्टि और प्रणियों का अंत करनेवाले, महादेव। शिव का एक स्वरूप। उ०—करालं महाकाल कालं कृपालं।—तुलसी (शब्द०)। २. शिव के द्वादश ज्योति- लिंगों में से एक जो उज्जैन (उजयिनी) में है। ३. विष्णु का एक नाम (को०)। ४. समय जो विष्णु के समान अखंड और अनंत है। ५. तुंबी लता। कटुतुंबी (को०)। ६. शिव के एक गण का नाम। ७. पुराणानुसार शिव के एक पुत्र का नाम। विशेष—कालिका पुराण में लिखा है कि एक बार देवताओं ने अग्नि से शिव का वीर्य धारण करने के लिये कहा था। जब वह वीर्य धारण करने लगा, तब उसमें से दो बूँदें अलग जा पड़ीं जिनेस महाकाल और भृंगी नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। एक बार इन दोनों पुत्रों ने भवानी को उस समय देख लिया था जिस समय वे शिव के साथ विहार करने के उपरांत बाहर निकल रही थीं। भवानी ने उन्हें शाप दिया जिससे ये दोनों वैताल और भैरव हुए।
⋙ महाकालपुर
संज्ञा पुं० [सं०] उज्जैन [को०]।
⋙ महाकालफल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का फल जो लाल होता है और जिसका बीज काला होता है [को०]।
⋙ महाकाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. महाकाल स्वरूप शिव की पत्नी जिसके पाँच मुख और आठ भुजाएँ मानी जाती हैं। २. दुर्गा की एक मूर्ति। ३. शक्ति की एक अनुचरी का नाम। ४. जैनों के अनुसार सोलह विद्या देवियों में से एक जो अवसर्पिणी के पाँचवें अर्हत् की देवी है।
⋙ महाकालेय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नाम।
⋙ महाकाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'काव्य'-१।
⋙ महाकाश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।
⋙ महाकाश (२)
संज्ञा पुं० [सं० महा + आकाश] अनवच्छिन्न आकाश। पूर्ण आकाश। उ०—महाकाश माँहि सब घट मठ देपियत, बाहिर भीतर एक गगन समायौ है।—सुदंर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६०८।
⋙ महाकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] मकान। गृह [को०]।
⋙ महाकुंड
संज्ञा पुं० [सं० महाकुण्ड] शिव के एक अनुचर का नाम।
⋙ महाकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] राजा का सबसे बड़ा पुत्र। युवराज।
⋙ महाकुमुदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंभारी।
⋙ महाकुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उच्च कुल। श्रेष्ठ कुल। २. वह जो बहुत उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ हो। कुलीन।
⋙ महाकुल (२)
वि० उच्च कुल में उत्पन्न। खानदानी [को०]।
⋙ महाकुलीन
वि० [सं०] दे० 'महाकुल' [को०]।
⋙ महाकुष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] कुष्ट के अठारह भेदों में से वह जिसमें हाथ पैर की उँगलियाँ गलकर गिर जाती हैं। गलित कुष्ट।
⋙ महाकुट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक परोपजीवी कीटभेद [को०]।
⋙ महाकूट
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक देश का नाम।
⋙ महाकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। २. कठोर तपस्या। महान् तप।
⋙ महाकृष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बहुत जहरीला साँप। २. एक प्रकार का चूहा।
⋙ महाकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ महाकेश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'महाकोश' [को०]।
⋙ महाकोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. बहुत बड़ा पिधान, आच्छादन या आवार (को०)।
⋙ महाकोशल
संज्ञा पुं० [सं०] आधुनिक मध्य प्रदेश का एक नाम।
⋙ महाकोशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम।
⋙ महाकोशातकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ननुआँ या घीया तरोई नाम की तरकारी।
⋙ महाक्रतु
संज्ञा पुं० [सं०] महान् यज्ञ। बहुत बड़ा यज्ञ। जैसे, राजसुय, अश्वमेध आदि।
⋙ महाक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।
⋙ महाक्रोध
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ महाक्लीतन
संज्ञा पुं० [सं०] शालिपर्णी।
⋙ महाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु।
⋙ महाक्षयव्यय निवेश
संज्ञा पुं० [सं०] वह उपनिवेश या भूमि जिसके रखने में बहुत खर्च हो। विशेष—कौटिल्य का मत है कि ऐसे प्रदेश को या तो बेच देनाचाहिए अथवा उसमें अपराधियों, राजद्रोहियों, प्रमादियों आदि को भेज देना चाहिए।
⋙ महाक्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] ईख। ऊख।
⋙ महाक्षीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुत दूध देनेवाली भैंस। महिषी [को०]।
⋙ महाक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कालिका पुराण के अनुसार एक तीर्थ जो सुमदना नदी के पूर्व ब्रह्माक्षेत्र के पश्चिम में है।
⋙ महाक्षौभ्य
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक बहुत बड़ी संख्या।
⋙ महाखर्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक बहुत बड़ी संख्या जो सौ खर्व की होती है।
⋙ महागंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० महागङ्गा] महाभारत के अनुसार एक नदी का नाम।
⋙ महागंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० महागन्ध] १. कुटज। २. जलवेंत। ३. चंदन। मलयज।
⋙ महागंध (२)
वि० अत्यंत सुगंधित। तीव्र गंधवाला [को०]।
⋙ महागंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० महागन्धा] १. नागवाला। २. केवड़ा। केतकी। ३. चामुंडा का एक नाम।
⋙ महागज
संज्ञा पुं० [सं०] दिग्गज।
⋙ महागण
संज्ञा पुं० [सं०] १. महासमुद्र। २. बहुत से लोगों का समूह। मजमा। भीड़।
⋙ महागणपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव के एक अनुचर का नाम। २. गणपति। गणेश।
⋙ महागति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक बड़ी संख्या।
⋙ महागद
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्वर। बुखार। २. वह रोग जो कठिनता से अच्छा हो। जैसे, प्रमेह, कोढ़, भगंदर, बवासीर आदि। ३. एक प्रकार की औषध जो सोंठ, पीपल और गोल मिर्च आदि से बनती है।
⋙ महागत
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव (को०)।
⋙ महागर्दभगांधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० महागर्दभगन्धिका] भारंगी नामक वनस्पति [को०]।
⋙ महागर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव। ३. एकदानव का नाम।
⋙ महागल
वि० [सं०] जिसकी गर्दन लंबी हो [को०]।
⋙ महागव
संज्ञा पुं० [सं०] गवय। नील गाय [को०]।
⋙ महागिरि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वड़ा पहाड़। २. कुवेर के आठ पुत्रों में से एक। विशेष—पिता के शिवपूजन के लिये यह सूँधकर कमलपुष्प लाया था। इसी दोष पर कुबेर से शाप पाकर यह कंस का भाई हुआ था और कृष्ण के हाथों मारा गया था।
⋙ महागीत
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ महागुण
वि० [सं०] अत्यंत लाभदायक। जैसे, औषध।
⋙ महागुद
संज्ञा पुं० [सं०] महर्षि चरक के अनुसार एक प्रकार के काड़े जो कफ से उत्पन्न होते हैं। (चरक)।
⋙ महागुनी
संज्ञा पुं० [अं० महोगनी] दे० 'महोगनी'।
⋙ महागुरु
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत संमानित या श्रद्धेय पुरुष। विशेष—इनकी संख्या तीन कही गई है—माता, पिता और गुरु।
⋙ महागुल्मा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमलता।
⋙ महागृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गौ जिसके ककुद् बड़े हों [को०]।
⋙ महागोधूम
संज्ञा पुं० [सं०] बड़े दाने का गेहूँ।
⋙ महागोपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शारिवा। अनंतमूल।
⋙ महागौरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. पूराणानुसार एक नदी जो विघ्य पर्वत से निकली है।
⋙ महाग्रंथिक
संज्ञा पुं० [सं० महाग्रन्थिक] वह औषध जिसके सेवन से रोग निश्चित रूप से रुक जाय और बढ़ने न पावे।
⋙ महाग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] राहु।
⋙ महाग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. शिव के अनुचर का नाम। ३. पुराणानुसार एक देश का नाम। ४. ऊँट।
⋙ महाग्रीवी
संज्ञा पुं० [सं० महाग्रीविन्] ऊँट। उष्ट्र [को०]।
⋙ महाघूर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुरा। शराब।
⋙ महाघृत
संज्ञा पुं० [सं०] १११. वर्ष का पूराना घी जो बहुत गुणकारी माना जाता है। वैद्यक में इंस कफनाशक, बलकारक और मेधाजनक माना है।
⋙ महाघोष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भारी शब्द। २. हाट। बाजार।
⋙ महाघोष (२)
वि० जोर की आवाजवाला [को०]।
⋙ महाघोषा
संज्ञा पुं० [सं०] काकड़ासिंगी।
⋙ महाचंचु
संज्ञा पुं० [सं० महाचञ्चु] एक प्रकार का साग। चेंच।
⋙ महाचंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० महाचण्ड] १. यम के दूत। २. शिव के अनुचर का नाम।
⋙ महाचंड (२)
वि० प्रचंड। भयानक।
⋙ महाचंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० महाचण्डा] चामुंडा का एक नाम।
⋙ महाचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक दानव का नाम।
⋙ महाचक्रवर्ती
संज्ञा पुं० [सं० महाचक्रवर्तिन्] बहुत बड़ा चक्रवर्ती राजा। सम्राट्।
⋙ महाचक्रजल
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ महाचक्री
संज्ञा पुं० [सं० महाचक्रिन्] १. विष्णु। २. वह जो षड्यंत्र रचने में बहुत प्रवीण हो।
⋙ महाचपला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह आर्या छंद जिसके दोनों दलों में चपला छंद के लक्षण हों।
⋙ महाचम
संज्ञा स्त्री० [सं०] विशाल सेना [को०]।
⋙ महाचार्य
संज्ञा स्त्री० [सं० महाचार्य] १. शिव। २. प्रधान अचार्य।
⋙ महावित्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अप्सरा का नाम।
⋙ महाचूड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० महाचूड़ा] स्कंद की एक मातृका का नाम।
⋙ महाच्छाय
संज्ञा पुं० [सं०] वट वृक्ष। बड़ का पेड़।
⋙ महाछिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महामेदा [को०]।
⋙ महाजंघ
संज्ञा पुं० [सं० महाजङ्घ] ऊँट [को०]।
⋙ महाजंबीर
संज्ञा पुं० [सं०महाजम्बार] कमला नीबू।
⋙ महाजंबु
संज्ञा पुं० [सं० महाजम्बु] बड़ा जामुन।
⋙ महाजंभ
संज्ञा पुं० [सं० महाजन्भ] शिव के एक अनुचर का नाम।
⋙ महाजट
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ महाजटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केशों की लंबी जटा। २. शिव की अस्तव्यस्त केशराशि [को०]।
⋙ महाजत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ महाजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा या श्रेष्ठ पुरुष। उ०—महामल्ल मुखर मोहक मित्र महाजन मनस्वी पंडित पाठक।—वर्ण०, पृ० १०। २. साधु। ३. धनी व्यक्ति। धनवान। दौलतमंद। ४. रुपए पैसे का लेन देन करनेवाला व्यक्ति। कोठीवाल। उ०—महतों से मुगुल महाजन से महाराज डाँड़ि लीन्हें पकारि पठान पटवारी से।—भूषण (शब्द०)। ६. प्रामाणिक आचरणवाला व्यक्ति। भलामानुस। उ०—पथ सी जाइ महाजन थापै।—रघुनाथ (शब्द०)। ७. जनसमाज। जनसमूह।
⋙ महाजनपद
संज्ञा पुं० [सं० महा + जनपद] महादेश। बड़ा देश। उ०—ईसा पूर्व ६०० में भारतवर्ष में सोलह राज्य फैले हुए थे जिन्हें सोलह महाजनपद कहा जाता है।—पू० म० भा०, पृ० ११।
⋙ महाजनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० महाजन + ई (प्रत्य०)] रुपए के लेन देन का व्यवसाय। हुँडी पुरजे का काम। कोठीवाली। २. एक प्रकार की लिपि जिसमें मात्राएँ आदि नहीं लगाई जाती। यह लिपि महाजनों के यहाँ बही खाता लिखने में काम आती है। मुड़िया।
⋙ महाजय
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।
⋙ महाजल
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र। उ०—मलय तनु मिलि लसति सोभा महाजल गंभीर। निरखि लोचन भ्रमत पुनि पुनि धरत नहिं मन धीर।—सूर (शब्द०)।
⋙ महाजव
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णसार। मृग [को०]।
⋙ महाजवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुमार की अनुचरी एक मातृका का नाम। २. एक नदी का नाम।
⋙ महाजनु
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के एक अनुचर का नाम।
⋙ महाजालि, महाजाली
संज्ञा पुं० [सं०] एक पौधा। सोनामुखी [को०]।
⋙ महाजावालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
⋙ महा्जिह्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. पुराणानुसार एक दैत्य का नाम।
⋙ महाजिह्व (२)
वि० जिसकी जीभ लंबी हो। लंबी जीभवाला [को०]।
⋙ महाज्ञानी
संज्ञा पुं० [सं० महाज्ञानिन्] १. वह जो बड़ा ज्ञानी हो। २. शिव।
⋙ महाज्योति
संज्ञा पुं० [सं० महाज्योतिस्] १. शिव। २. सूर्य [को०]।
⋙ महाज्योतिष्मती
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी मालकँगनी।
⋙ महाज्वाल (१)
वि० अत्यधिक ज्योतिर्मय। बहुत अधिक दीप्त या चमकता हुआ [को०]।
⋙ महाज्वाल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हवन की अग्नि। २. पुराणानुसार एक नरक का नाम। विशेष—कहते हैं, जो लोग अपनी पुत्रवधू या कन्या के साथ गमन करते हैं, वे इस नरक में जाते हैं। ३. महादेव। शिव।
⋙ महाज्वाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनियों की एक विद्यादेवी का नाम।
⋙ महाढ्य
वि० [सं०] धन संपत्ति से भरापूरा। अत्यंत धनी [को०]।
⋙ महातत्व पु
संज्ञा पुं० [सं० महा + तत्व] दे० 'महात्तत्व'। उ०— त्रिगुण तत्व ते महातत्व, महातत्व ते अहंकार। मन इंद्रिय शब्दादि पंची ताते किए विस्तार।—सूर (शब्द०)। (ख) देन प्रकृति महातत्व शब्दादि गुण देवता ब्यौम मरुदग्नि अनिलांबु उर्बी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ महातपा (१)
वि० [सं० महातपस्] कठिन तपस्या करनेवाला।
⋙ महातपा (२)
संज्ञा पुं० १. महान् तपस्वी। २. विष्णु [को०]।
⋙ महातप्तकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्रत जिसमें तीन दिन तक गरम दूध, गरम, घी या गरम जल पीकर चौथे दिन उपवास किया जाता है।
⋙ महातम पु
संज्ञा पुं० [हिं० माहात्म्य] दे० 'माहात्म्य'। उ०— (क)करि प्रणाम देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा।—तुलसी (शब्द०)। (ख)सब सुखनिधि हरि नाम महातम पायो है नाहिंन पहिचानत।—सूर (शब्द०)।
⋙ महातल
संज्ञा पुं० [सं०] चौदह भुवनों में से पृथ्वी के नीचे का पाँचवाँ भुवन या तल। उ०—अतल वितल अरु सुतल तलातल और महातल जान। पाताल और रसातल मिलि सातौ भुवन प्रमान।—सूर (शब्द०)।
⋙ महाताब पु
संज्ञा स्त्री० [अ० महाताब] दे० 'महाताब'। उ०— निश्चिचंद को देखि लखै महाताव क्यौं तारन देखि लखैं जुगनू।—श्वामा०, पृ० १७३।
⋙ महातारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्धों की एक देवी का नाम।
⋙ महातिक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. महानिंब। वकायन। २. चिरायता।
⋙ महात्तोक्ष्ण (१)
वि० [सं०] १. अत्यंत तीक्ष्ण या तेज। २. बहुत कड़वा या झालदार।
⋙ महातीक्ष्ण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० महातीक्ष्णा] भिलावाँ।
⋙ महातेजा (१)
संज्ञा पुं० [सं० महातेजस्] १. शिव। २. पारा। ३. कार्तिकेय (को०)। ४. वीर। योद्धा (को०)। ५. अग्नि (को०)।
⋙ महातेजा (२)
वि० १. महान् तेजवाला। २. अत्यंत शक्तिशाली [को०]।
⋙ महात्मन्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'महात्मा' (संबी०)। उ०—मुक्त हुए तुम मुक्त हुए जन, हे जगवंद्य महात्मन्।—ग्राम्या, पृ० ५३।
⋙ महात्मा
संज्ञा पुं० [सं० महात्मन्] १. वह जिसकी आत्मा या आशय बहुत उच्च हो। वह जिसका स्वभाव, आचरण और विचार आदि बहुत उच्च हो। महानुभाव। २. बहुत बड़ा साधु, संन्यासी या विरक्त। ३. दुष्ट। पाजी। (व्यंग्य)। ४. परमात्मा। ६. महादेव। शिव। ७. महात्तत्व।
⋙ महात्म्य
संज्ञा पुं० [सं० महात्म्य] दे० 'माहात्म्य'। उ०—तथापि गीता ने ज्ञान का महात्म्य माना है क्योंकि ज्ञानी परमेश्वर की समझता है।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १८७।
⋙ महात्रिफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहेड़ा, आँवला और हड़ इन तीनों का समूह।
⋙ महात्याग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दान। २. शिव (को०)।
⋙ महात्याग (२)
वि० दे० 'महात्यागी' [को०]।
⋙ महात्यागी (१)
संज्ञा पुं० [सं० महात्यागिन्] शिव।
⋙ महात्यागी (२)
वि० बहुत बड़ा त्यागी। अत्यंत दयालु [को०]।
⋙ महादंड
संज्ञा पुं० [सं० महादण्ड] १. यम के हाथ का दंड। २. यम के दूत। ३. लंबी भुजा (को०)। ४. कठोर दंड (को०)।
⋙ महाडंदधर
संज्ञा पुं० [सं० महादण्डधर] यमराज [को०]।
⋙ महादंडधारी
संज्ञा पुं० [सं० महादण्डधारिन्] यमराज। उ०— करै कोतवाली महादंडधारी। सफा मेधमाला, शिखी पाककारी।—केशव (शब्द०)।
⋙ महादंत
संज्ञा पुं० [सं० महादन्त] १. महादेव। २. हाथीदांत। ३. बड़े दाँतवाला हाथी (को०)।
⋙ महादंता
संज्ञा स्त्री० [सं० महादन्ता] नागबेल।
⋙ महादंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव। शंकर। २. एक राक्षस का नाम। ३. विद्याधर।
⋙ महादशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार मानव जीवन में किसी एक ग्रह का निर्धारित भोग्य काल। विशेष—दे०'दशा—४'।
⋙ महादान
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार तुला पुरुष, सोने की गौ या घोड़ा आदि तथा पृथ्वी, हाथी, रथ, कन्या आदि पदार्थों का दान जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। २. वह दान जो ग्रहण आदि के समय डोमों, चमारों आदि जातियों को दिया जाता है।
⋙ महादानि पु
वि० [सं० महा + दानि] बहुत बड़ा दानी। उ०—मागहु वर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि।—मानस, १।१४८।
⋙ महादानी
वि० [सं० महादानिन्] दे० 'महादानि'। उ०—दान समै गनै धन तृन सो कुबेर हू को तनक सुमेरु महादानी ऊँचे मन को।—मति० ग्रं०, पृ० ३६४।
⋙ महादारु
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु।
⋙ महादूत
संज्ञा पुं० [सं०] यमदूत।
⋙ महादूपक
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का धान।
⋙ महादेइ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० महादेवी] महारानी।
⋙ महादेव
संज्ञा पुं० [सं०] शंकर। शिव।
⋙ महादेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. राजा की प्रधान पत्नी या पटरानो की एक पत्नी जो हिंदु काल में भारत में प्रचलित थी।
⋙ महादेश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'महाद्वीप'।
⋙ महादैत्य
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार भौत्य मन्वंतर के एक दैत्य का नाम।
⋙ महाद्रावक
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का औषध जो सोनमक्खो, रसांजन, समुद्रफेन, सज्जी आदि से बनाया जाता है।
⋙ महाद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वत्थ। पीपल। २. ताड़। ३. महुआ। ४. पुराणानुसार एक वर्ष या देश का नाम।
⋙ महाद्रोण
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. सुमेरु पर्वत।
⋙ महाद्रोणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्रोणपुष्पी।
⋙ महाद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. विशाल दरवाजा। बड़ा फाटक। २. मंदिर का प्रधान दरवाजा [को०]।
⋙ महाद्धीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूराणों के अनुसार पृथिवी के सात मुख्य विभाग। २. पृथ्वी का वह बडा़ भाग जो चारो ओर नैसर्गिक सीमाओं से घिरा हुआ हो, जिसमें अनेक देश हों और अनेक जातियाँ बसती हों। जैसे, एशिया अफ्रीका आदि (आधुनिक भूगोल)।
⋙ महाधन (१)
वि० [सं०] १. बहुमूल्य। अधिक मूल्य का। उ०—(क) बाहु विशाल ललित सायक धनु कर कंकन केयूर महाधन।— तुलसी (शब्द०)। (ख) तहँ राजत निज बीर शेषनाग ताके तर कूरम बरात महाधन धीर।—सूर (शब्द०)। बहुत धनी।
⋙ महाधन (२)
संज्ञा पुं० १. स्वर्ण। सोना। २. धूप। सुगंध धूप। ३. कृषि। खेती। ४. बहुमूल्य वस्तु (को०)। ५. बहुत बड़ा युद्ध (को०)।
⋙ महाधनुस्
संज्ञा पुं० [सं० महाधनुप्] शिव [को०]।
⋙ महाधर †
संज्ञा पुं० [सं० महा + धर] महान्। श्रेष्ठ। महा धुरंधर। सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार। उ०—चारि महाधर बारह चेला येकंकारी हुवा।—गोरख०, पृ० १३३।
⋙ महाधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना। २. शिव। ३. सुमेरु पर्वत [को०]।
⋙ महाधिकृत
संज्ञा पुं० [सं० महा + अधिकृत] सेनापति। सेनानायक। उ०—सेनापति शब्द के स्थान पर प्राचीन लेखों में वलाधिकृत या महाधिकृत शब्द पाए जाते हैं।—पू० म० भा०, पृ० १०३।
⋙ महाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिकों के एक देवता का नाम।
⋙ महाध्वनि
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक दानव का नाम।
⋙ महाध्वनिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो पुण्यकार्य के लिये हिमालय में गया हो, और वहाँ मर गया हो।