विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ख
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ख
⋙ ख
हिंदी वर्णमाला में स्पर्श व्यंजन के अंतर्गत कवर्ग का दूसरा अक्षर । यह महाप्राण है और इसका उच्चारण कंठ से होता है । क, ग, घ, और ङ इसके सवर्ण हैं ।
⋙ खं
संज्ञा पुं० [सं० खम्] १. शून्य स्थान । खाली जगह । २. बिल । छिद्र । ३. आकाश । ४. निकलने का मार्ग । ५. इंद्रिय । ६. बिंदु । शून्य । सिफर । ७. स्वर्ग । देवलोक । ८. सुख । ९. कर्म । १०. कुंडली में जन्मलग्न से दसवाँ स्थान । ११. अभ्रक । १२. ब्रह्मा । १३. मोक्ष । निर्वाण ।
⋙ खंक †
वि० [सं० कङ्काल] १. दुर्बल । बलहीन । २. खंख । छूछा ।
⋙ खकर
संज्ञा पुं० [सं० खङकर] घूँघर । बालों की लट । अलक [को०] ।
⋙ खंख
वि० [सं० कङ्क] १. छूछा । खाली । २. उजाड़ । वीरान । ३. धनहीन ।
⋙ खंखड़
वि० [सं० खक्खठ या० अनु] (पदार्थ) सूखने के कारण कड़ा । मुरझाया हुआ । दुर्बल । क्षीण । उ०—पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से कितना स्निग्ध है, यह वह न जानता था ।—गोदान, पृ० ६ ।
⋙ खंखणा
संज्ञा स्त्री० [सं० खङ्कणा] घूँघरू, घंटी, नूपुर आदि की ध्वनि ।
⋙ खंखर (१)
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कर] दे० 'खंकर' [को०] ।
⋙ खंखर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] पलास का वृक्ष [को०] ।
⋙ खंखर (३) †
वि० [हिं० खंख] दे० 'खंख' ।
⋙ खंग
संज्ञा पुं० [सं० खङ्ग] १. तलवार । उ०—भट चातक दादुर मोरन बोले । चपला चमकै न फिरै खँग खोले ।—केशव (शब्द०) । २. गैंडा । ३. घाव । चीरा ।
⋙ खंगड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० खक्खट] शष्क । निष्क्रिय । उ०—बर्फिस्तान में टिठरोगे । जम के खंगड़ हो जाओगे ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १९३ ।
⋙ खंगड़ (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'अंगड़खंगड़' ।
⋙ खंगड़ (३) †
वि० उद्दंड । उग्र । उजड्ड ।
⋙ खंगनखार
संज्ञा पुं० [देश०] पंजाब के पश्चिमी जिलों में होनेवाला एक प्रकार का पौधा जिसे जलाकर सज्जीखार तैयार करते हैं । इसकी सज्जी सबसे अच्छी समझी जाती है ।
⋙ खंगर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] अधिक पकने के कारण परस्पर सटी हुई कई ईंटों का चक ।
⋙ खंगर (२)
वि० बहुत सूखा । शुष्क । क्षीण । मुहा०—खंगर लगना = सुखंडी रोग होना । दुर्बलता का रोग होना ।
⋙ खंगलीला
संज्ञा स्त्री० [सं० खङ्ग+लीला] असियुद्ध । तलवार की लड़ाई । उ०—खंगलीला खड़ी देखती रही मैं वहीं ।—लहर, पृ० ७३ ।
⋙ खंचना पु
क्रि० स० [सं० √ कृष् प्रा० √ खंच] १. तृत्प होना । संतुष्ट होना । उ०—करहा पाणी खंच पिउ त्रासा घणा सहेसि ।—ढोला०, दु० ४२६ । २. दे० 'खींचना' । उ०— (क) घायल ज्यूँ घन खचइ अंग ।—वी० रासो, पृ० १०० । (ख) द्विप दोय लक्ख धरि धातु खंचि ।—ह०, रासो, पृ० ६० ।
⋙ खंज (१) †
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का रोग जिसमें मनुष्य का पैर जकड़ जाता है और वह चल फिर नहीं सकता । वैद्यक के अनुसार इस रोग में कमर की वायु जाँघ की नसों को पकड़ लेती है, जिससे पैर स्तंभित हो जाता है । उ०—गूँगे कुबजे बावरे बहिरे बामन वृद्ध । याम लये जनि आइगे खोर खंज प्रसिद्ध ।—केशव (शब्द०) । २. लँगड़ा । पंगु । उ०—तारन की तरलाई सु तौ तरुनी खग खंजन खज किए हैं । गंग कुरंग लजात जुदे जलजातन के गुन छईन लिये है ।—गंग ग्रं०, पृ० ११ ।
⋙ खंज (१)
संज्ञा पुं० [सं खञ्जन] खंजन पक्षी । उ०—आलिंगन दै अधर पान करि खंजन खंज लरे ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खंजक (१)
वि० [सं० खञ्जक] लँगड़ा । पँगु ।
⋙ खंजक (२)
संज्ञा पुं० [देश०] पिस्ते की जाति का एक पेड़ । विशेष—यह बलूचिस्तान में होता है और इसमें रूमी मस्तगी के समान ही एक प्रकार का गोंद निकलता है । यह गोंद उतने काम का नहीं समझा जाता । इसकी पत्तियों के किनारे घोड़े की नाल के आकार में लाही लगती है । पत्तियाँ रँगने और चमड़ा सिझाने के काम में आती हैं ।
⋙ खंजकारि
संज्ञा पुं० [सं० खञ्जकारि] खसोरी ।
⋙ खंजखेट
संज्ञा पुं० [सं० खञ्जखेट] खंजन पक्षी । खंड़रिच [को०] ।
⋙ खंजखेल
संज्ञा पुं० [सं० खञ्जखेल] दे० 'खंजखेट' [को०] ।
⋙ खंजड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खँजरी' ।
⋙ खंजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध पक्षी । खँड़रिच । विशेष—इसकी अनेक जातियाँ एशिया, युरोप, और अफ्रिका में अधिकता से पाई जाती हैं । इनमें से भारतवर्ष का खंजन मुख्य और असली माना जाता है । यह कई रग तथा आकार का होता है तथा भारत में यह हिमालय की तराई, आशाम और बरमा में अधिकता से होता है । इसका रंग बीच बीच में कहीं सफेद और कहीं काला होता है । यह प्रायः एक बालिश्त लंबा होता है और इसकी चोंच लाल और दुम हलकी काली झाई लिए सफेद और बहुत सुंदर होती है । यह प्रायः निर्जन स्थानों में और अकेला ही रहता है तथा जाड़े के आरंभ में पहाड़ों से नीचे उतर आता है । लोगों का विश्वास है कि यह पाला नहीं जा सकता, और जब इसके सिर पर चोटी निकलती है, तब यह छिप जाता है और किसी को दिखाई नहीं देता । यह पक्षी बहुत चंचल होता है इसलिये कवि लोग इससे नेत्रों की उपमा देते हैं । ऐसा प्रसिद्ध है कि यह बहुत कम और छिपकर रति करता है । कहीं कहीं लोग इसे 'खँडरिच' या 'ममोला' कहते हैं ।पर्या०—खंजखल । मुनिपुत्रक । भद्रनामा । रत्ननिधि । चर । काकछड़ । नीलकंठ । कणाटीर २. खंडरिच के रंग का घोड़ा । ३. 'गंगाधर' या 'गंगोदक' नामक छद का एक नाम । ४. लँगड़ाते हुए चलना ।
⋙ खंजनक
संज्ञा पुं० [सं० खञ्जनक] दे० 'खंजन' [को०] ।
⋙ खंजनरत
संज्ञा पुं० [सं० खञ्जनरत] संत मैथुन । क्वादाचित्क मैथुन [को०] ।
⋙ खंजनरति
संज्ञा पुं० [सं०] (खंजन की तरह का) बहुत ही गुप्त विहार ।
⋙ खंजना
संज्ञा स्त्री० [सं० खञ्जना] १. खंजन के सदृश एक पक्षी । २. सर्षप । सरसो [को०] ।
⋙ खंजनाकृति
संज्ञा स्त्री० [सं० खञ्जानाकृति] खंजन के आकार से मिलता जुलता एक पक्षी ।
⋙ खजनासन
संज्ञा पुं० [सं० खञ्जनासन] तंत्र के अनुसार एक प्रकार का आसन । इन आसन से उपासना करने पर विजयलाभ होता है ।
⋙ खंजनिका
संज्ञा स्त्री० [सं० खञ्जनिका] खंजन के आकार की एक चिड़िया जो प्रायः दलदलों में रहती है । इसे 'सर्षपी' भी कहते हैं ।
⋙ खंजर (१)
संज्ञा पुं० [फा० खंजर] कटार । पेशकब्ज । मुहा०—खंजर तेज करना = मार डालने के लिये उद्यत होना । क्रि० प्र०—उठना ।—खींचना ।—चलाना ।—फेरना ।— बाँधना ।
⋙ खजर (२)
संज्ञा पुं० [देश० अथवा सं० खञ्ज या खञ्जक+ हिं० र (प्रत्य०)] सूखा हुआ पेड़ [को०] ।
⋙ खंजर (३) †
संज्ञा पुं० [सं० खञ्जन, प्रा० खंजण] दे० 'खंजन' । उ०—मुख सिसहर खंजर नयण कुच श्रीफल कँठ वीण ।— ढोला०, दु० १३ ।
⋙ खंजरीटक
संज्ञा पुं० [सं० खञ्जरीटक] खंजरीट । खंजन [को०] ।
⋙ खंजलेख
संज्ञा पुं० [सं० खञ्जलेख] खंजनपक्षी [को०] ।
⋙ खंजा † (१)
वि० [सं० खञ्जक] खंज । लँगड़ा ।
⋙ खंजा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खञ्जा] वर्णार्ध सम वृत्तों में से एक वृत्त जिसके विषम पादों में ३० लघु और अँत में एक गुरु तथा सम पादों में २८ लघु और अंत में एक गुरु होता है । जैसे—नरधन जग मँह नित उठ गनपति कर जस बरनत अतिहित सों । तन मन धन सन जपत रहत तिहिं भजत करत भल अति चित सों । किमि अरसत मन भजत न किमि तिहिं भज भज भज भज शिव धरि चित हीं । हर हरहर हर हर हर हर हर हर हर हर हर कह नितहीं ।—छंद?०, पृ० २७२ ।
⋙ खंड
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड] १. भाग । टुकड़ा । हिस्सा । उ०— प्रभु दोउ चाप खंड महि डारे ।—मानस, १ । २६२ । मुहा०—खंड खंड करना = चकनाचुर करना । चुकड़े टुकड़े करना । २. ग्रंथ का विभाग या अश । ३. देश । वर्ष । जैसे—भरतखंड (पौराणिक भूगोल में एक एक द्विप के अंतर्गत नौ नौ या सात सात खंड माने गए हैं) । नौ की संख्या । ५. गणित में समीकरण की एक क्रिया । ६. रत्नों का एक दोष जों प्रायः मानिक में होता है । ७. खाँड । चीनी । ८. काला नमक । ९. दिशा । दिक् । उ०—चारहु खंड भानु अस तपा । जेहि की दृष्टि रैन ससि छिपा ।—जायसी (शब्द०) । १०. समूह । उ०—तहँ सज्ञत उदभट भट विकट सटसट परत खल खंड में ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २८५ । ११. परशुराम । उ०—संग्राम पंड कैरवै कि खंड बाँण सेणियं ।—राज रू०, पृ० ६० । १२. मंजिल । मरातिब । उ०—नव नव खंड के महल बानए । सोना केरा कलस चढ़ाए ।—कबीर० सा०, पृ० ५४३ ।
⋙ खंड (२)
वि० १. खंडित । अपूर्ण । उ०—अखंड साहब का नाम और सब खंड है ।—कबीर श०, पृ० १२१ । २. छोटा । लघु । ३. विकलांग । दोषयुक्त [को०] ।
⋙ खंड (३)
संज्ञा पुं० [सं० खङ्ग] खाँड़ा । उ०—करै शंभु खंड बरिवंड चड दै कै जलधि उमंड को घमंड ब्रह्मंड मंड ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ खंडकंद
संज्ञा पुं० [सं० खण्डकन्द] शकरकंद । खंडकर्ण [को०] ।
⋙ खंडक (१)
वि० [सं० खण्डक] १. खंडक करनेवाला । किसी मत या विचार को काटनेवाला । २. खंड करनेवाला । विभाग करने— वाला । टुकड़ों में विभक्त करनेवाला । ३. दूर करने या हटाने वाला । [को०] ।
⋙ खंडक (२)
संज्ञा पुं० १. खंड । भाग । टुकड़ा । २. शर्करा । ईख की चीनी । ३. नखहीन प्राणी । वह प्राणी जिसे नाखुन न हो [को०] ।
⋙ खंडकथा
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डकथा] कथा का एक भेद । लघु कथा । छोटी कथा । विशेष—इसमें मंत्री अथवा ब्राह्मण नायक होता है और चार प्रकार का विरह रहता है । इसमें करुण रस प्रधान होता है । कथा समाप्त होने के पहले ही इसका ग्रंथ समाप्त हो जाता है । २. उपन्यास का एक भेद । विशेष—इसके प्रत्येक खंड में एक एक पुरी कहानी होती है और इसकी किसी एक कहानी का दूसरी कहानी के साथ कोई संबंध नहीं होता । इसके दो भेद हैं, सजात्य और वैजात्य । जिसमें सब कथाओं का आरंभ और अंत एक समान होता है, वह सजात्य कहलाती है । और जिसकी कथाएँ कई ढंग की होती है, उसे बैजात्य कहते हैं ।
⋙ खंडकर्ण
संज्ञा पुं० [सं० खण्डकर्ण] १. शकरकंद । २. एक प्रकार का गाँठदार पौधा ।
⋙ खंडकालु
संज्ञा पुं० [सं० खण्डकालु] शकरकंद [को०] ।
⋙ खंडकाव्य
संज्ञा पुं० [सं० खण्डकाव्य] वह काव्य जिसमें 'काव्य' के संपूर्ण अलंकार या लक्षण न हों, बल्कि कुछ ही हों । जैसे, मेघदुत आदि ।
⋙ खंडज
संज्ञा पुं० [सं० खण्डज] १. एक प्रकार की शर्करा । २. गुड़ । भेली [को०] ।
⋙ खंडत पु †
वि० [सं० खण्डित] दे० 'खंडित' ।
⋙ खंडतरि पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] फटी चटाई । उ०—ओछाओन खंडतरि पालिआ चाह । आओर कहब कत अहिरिनी नाह ।— विद्यापति, पृ० ५६ ।
⋙ खंडताल
संज्ञा पुं० [सं० खण्डताल] संगीत में एकताला नामक ताल जिसमें केवल एक द्रुत होता है ।
⋙ खंडधारा
संज्ञा स्त्री० [खण्डधारा] कतरनी । कैंची [को०] ।
⋙ खंडन
संज्ञा पुं० [सं० खण्डन] [वि० खंडनीय खंडित, खंड़ी] १. तोड़ने फोड़ने की क्रिया । २. भजंन छेदन । ३. किसी बात को अयथार्थ प्रमाणित करने की क्रिया । किसी सिद्धांत को प्रमाणों द्वारा असंगत ठहराने का कार्य । निराकरण । मंडन का उलटा । जैसे—उसने इस सिद्धांत का खुब खंडन किया है । ४. नृत्य में मुँह या ओठ इस प्रकार चलाना जिसमें पढ़ने, बड़बड़ाने या खाने आदि का भाव झलके । ५. निराश करना । हताश करना (को०) । ६. धोखा देना । वंचना (को०) । ७. बाधा देना । रुकावट करना (को०) । ८. डिसमिस करना । बर्खास्त करना (को०) । ९. विद्रोह । विरोध (को०) । १०. हटाना । दूर करना (को०) । ११. विनष्ट करना (को०) ।
⋙ खंडन (२)
वि० १. तोड़ने, काटने या हिस्सा करनेवाला । २. विनाश करनेवाला । विध्वंस करनेवाला [को०] ।
⋙ खंडनकार
संज्ञा पुं० [सं० खण्डनकार] २. खंडनखंडखाद्य के लेखक श्रीहर्ष । २. खंडन करनेवाला व्यक्ति या प्राणी (को०) ।
⋙ खडनखंडखाद्य
संज्ञा पुं० [सं० खम्डनखण्डखाद्य] श्रीहर्ष कृत अद्वैत वेदांत का खंडन प्रधान ग्रंथ ।
⋙ खंडनमंडन
संज्ञा पुं० [सं० खण्डमण्डन] वादविवाद । खंडन और मंडन । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ खंडनरत
संज्ञा पुं० [सं० खण्डनरत] ध्वंसकार्य में निपुण ।
⋙ खंडना पु
क्रि० स० [सं० खण्डन] १. खंडन करना । तोड़ना । टुकड़े टुकड़े करना । उ०—कोदंड खंड़ेउ राम तुलसी जयति वचन उचारहीं ।—मानस, १ ।२६१ । २. निराकरण करना । किसी बात को अयुक्त ठहराना । ३. उल्लंघन करना । न मानना । उ०—पिता बचन खंडै सों पापी, सोइ प्रह्लादहिं कीन्हौ ।—सूर०, १ ।१०४ ।
⋙ खंडनी (१)
स्त्री० स्त्री० [सं० खण्डन] मालगुजारी की किस्त । कर ।
⋙ खंडनी (२)
वि० [सं०] दे० 'खंडी', 'खंडिनी' ।
⋙ खंडनीय
वि० [सं० खण्डनीया] १. तोड़ने फोड़ने लायक । २. खंडन करने योग्य । निराकरण के योग्य । ३. जिसका खंडन हो सके । जो अयुक्त ठहराया जा सके । ।
⋙ खंडपति
संज्ञा पुं० [सं० खण्डपति] राजा ।
⋙ खंडपरशु
संज्ञा पुं० [सं० खण्डपरशु] १. महादेव । शिव । उ०— खंडपरशु को शोभिजै सभा मध्य कोदंड । मानहु शेष अशेषधर धरनहार बरिवंड ।—केशव (शब्द०) । २. विष्णु । ३. परशुराम । ४. राहु । ५. वह हाथी जिसके दाँत टुटे हों ।
⋙ खंडपर्शु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खंडपरशु' [को०] ।
⋙ खंडपाल
संज्ञा पुं० [सं० खण्डपाल] मिठाई बनाने और बेचनेवाला । हलवाई ।
⋙ खंडप्रलय
संज्ञा पुं० [सं० खण्डप्रलय] वह प्रलय जो चतुर्युगी या ब्रह्मा का एक दिन बीत जाने पर होता है । विशेष—इसमें समस्त भूतों का लय हो जाता है, केवल ब्रह्मा रह जाते हैं । पुराणानुसार इस प्रलय में सूर्य का तेज सहस्त्रगुना बढ़ जाता है । और रुद्र समस्त प्राणियों का संहार कर डालते हैं ।२. संघर्ष । झगड़ा । लड़ाई [को०] ।
⋙ खंडप्रस्तार
संज्ञा पुं० [सं० खण्डप्रस्तार] संगीत में एक प्रकार का ताल ।
⋙ खंडफण
संज्ञा पुं० [सं० खण्डफण] एक प्रकार का साँप ।
⋙ खँडफुल्ल
संज्ञा पुं० [सं० खण्डफुल्ल] कूड़ा कर्कट ।
⋙ खंडमंडल
वि० [सं० खण्डमण्डल] अर्ध या अपूर्ण घेरेवाला ।
⋙ खंडमंडल (२)
संज्ञा पुं० अर्ध या अपूर्ण वृत्त [को०] ।
⋙ खंडमेरु
संज्ञा पुं० [सं० खण्डमेरु] पिंगल की वह रीति जिसके द्वारा मेरु या एकावली मेरु के बनाए बिना ही मेरु का नाम निकल जाता है ।
⋙ खंडमोदक
संज्ञा पुं० [सं० खण्डमोदक] गुड । एक प्रकार की शक्कर [को०] ।
⋙ खंडर (१)
संज्ञा पुं० [सं० खण्डल = खंड, टकडा] दे० 'खँडहर' ।
⋙ खंडर (२)
संज्ञा पुं० [सं० खण्डर] खाँड़ से बनी वस्तु । मिठाई [को०] ।
⋙ खंडरिच
संज्ञा पुं० [हिं०] खंजन पक्षी । वि० दे० 'खंजन' ।
⋙ खंडल (१)
संज्ञा पुं० [सं० खण्डल] खंड । टुकड़ा । भाग ।
⋙ खंडल (२)
वि० [सं० कड्ग + ल (प्रत्य०)] १. पु खड्ग धारण करनेवाला । २. विभाग या खंडवाला (डिं०) ।
⋙ खंडलवण
संज्ञा पुं० [सं० खण्डलवण] काला नमक ।
⋙ खंडवर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डवर्षा] वह वर्षा जो सर्वत्र समान न हो । वह वृष्टि जिसमें कहीं पानी बरसे, कहीं पानी न बरसे [को०] ।
⋙ खंडविकार
संज्ञा पुं० [सं० खण्डविकार] चीनी । शक्कर [को०] ।
⋙ खंडविकृति
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डविकृति] मिसरी [को०] ।
⋙ खंडवृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डवृष्टि] दे० 'खंडवर्षा' [को०] ।
⋙ खंडव्यायाम
संज्ञा पुं० [सं० खण्डव्यायाम] एक प्रकार का नृत्य जिसमें केवल कमर और पैरों को गति देते हैं ।
⋙ खंडशः
क्रि० वि० [सं० खण्डशस्] खंड खड करके । कई घंटों या भागों में बाँटकर । टुकड़े टुकड़े ।
⋙ खंडशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डशर्करा] मिसरी [को०] ।
⋙ खंडशीला
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डशीला] १. नष्ट चरित्रवाली स्त्री । व्यभिचारिणी । २. वेश्या ।
⋙ खंडसर
संज्ञा पुं० [सं० खण्डसर] साफ की हुई खाँड़ । चीनी ।
⋙ खडा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड] १. चावल का टुकड़ा । खूद । २. पंजाब में खेला जानेवाला 'लुकन मीची' नामक खेल । उ०—एहु मन मारि गोइ लए पिडा । एक पंच सिउँ खेलै खंडा ।— प्राण०, पृ० ३१ ।
⋙ खंडा (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'खाँडा' ।
⋙ खडाभ्र
संज्ञा पुं० [सं० खण्डाभ्र] १. दाँत का एक रोग । २. बिखरे हुए बादल (को०) । ३. दंतक्षत (रति) ।
⋙ खंडाली
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डाली] १. तेल नापने का एक परिमाण । २. काम की इच्छा रखनेवाली स्त्री । ३. वह स्त्री, जिसका पति दुश्चरित्रता का दोषी हो (को०) ।४. तालाब । झील (को०) ।
⋙ खडिक
संज्ञा पुं० [सं० खण्डिक] १. काँख । कँखरी । २. वह विद्यार्थी जो किसी ग्रंथ को खंड खंड करके पढ़े । ३. एक ऋषि का नाम । ४. वह व्यक्ति जो चीनी बनाता हो [को०] । ५. केराव या मटर (को०) ।
⋙ खंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डिका] १. काँख । कँखरी । २. संगीत में लय का एक प्रकार । ३. केराव की बनी एक भोज्य वस्तु [को०] ।
⋙ खंडिकोपाध्याय
संज्ञा पुं० [सं० खण्डिकोपाध्याय] १. खड़ी से पटिया पर लिखाने और पढ़ानेवाला आरंभिक सोपान का अध्यापक । क्रोधी शिक्षक । गुस्सैल मास्टर (को०) ।
⋙ खंडित
वि० [सं० खण्डित] १. टूटा हुआ । टुकड़े टुकड़े । भग्न । २. जो पूरा न हो । अपूर्ण । ३. ध्वस्त । नष्ट (को०) । ४. लुप्त (को०) । ५. त्यक्त (को०) । ६. जिसका खडन या विरोध किया गया हो । निराकृत (को०) । ७. प्रवंचित उपेक्षित (को०) ।
⋙ खंडितविग्रह
वि० [सं० खण्डितविग्रह] विकृतांग । विकलांग । विकृत अंगोंवाला [को०] ।
⋙ खंडितवृत्त
वि० [सं० खण्डितवृत्त] नष्ट चरित्रवाला । दुश्चरित्र । २. छोडा़ हुआ । त्यक्त [को०] ।
⋙ खंडितव्रत
वि० [सं० खण्डितव्रत] जिसका व्रत या नियम टूट गया हो । जिसने प्रतिज्ञा भंग की हो (को०) ।
⋙ खंडिता
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डिता] वह नायिका जिसका नायक रात को किसी अन्य नायिका के पास रहकर सबेरे उसके पास आए वह नायिका उस नायक में संभोग के चिह्न देखकर कुपित हो ।
⋙ खंडिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डिनी] पृथिवी । धरती ।
⋙ खंडी (१)
वि० [सं० खण्डिन्] १. विभक्त । २. टुकड़े या हिस्सेवाला ।
⋙ खंडी (२)
संज्ञा पुं० दाल की एक किस्म । वलमुदग [को०] ।
⋙ खड़ी (३) †
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्ड] १. गाँव के आस पास के वृक्षों का समूह । २. लगान या किराए की किस्त । मुहा०—खंडी करना = किस्त बाँधना । ३. चौथ । राजकर । उ०—दतिया सु प्रथम दबा दई । खंडी सु मनमानी लई ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ६ । पु ४. खंड । भाग । हिस्सा । उ०—किल किलकत चंडी लहि निज खंडी उमडि उमडी हरषित ह्वै ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २० ।
⋙ खंडी (४) †
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डिका] एक तौल या माप जो २० मन की होती है । उ०—मनाँ सुँ था रूपा खंडियाँ सूँ सोना । थे लाख्याँ करोड़ अशरफियाँ करोडड़ सूँ होन्ना ।—दक्खिनी०, पृ० २७७ ।
⋙ खंडीवन पु †
संज्ञा पुं० [सं० खाण्डववन] दे० 'खांडववन' । उ०— खंडीवन जालवा अजन जेही तन ओपे ।—रा०, रू०, पृ० १६२ ।
⋙ खंडीर
संज्ञा पुं० [सं० खंडीर] पीले रंग का मुदग । पीली मूँग [को०] ।
⋙ खंडेंदु
संज्ञा पुं० [सं० खंडेन्दु] १. अपूर्ण चंद्र । २. अर्ध चंद्र [को०] ।
⋙ खंडेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० खंडेश्वर] एक खंड का राजा ।
⋙ खंडोदभव, खंडोदभूत
संज्ञा पुं० [सं० खंडोदभ्व, खंडोदभूत] खंड से उत्पन्न शक्कर या गुड़ आदि [को०] ।
⋙ खंडोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० खंडोष्ठ] ओठ का एक रोग [को०] ।
⋙ खंडौति पु †
संज्ञा पुं० [सं० खण्डवत्] निराकरण ।दे०'खंडन'—३ । उ०—चारिउ बेद किया खंडौति । जन रैदास करै डंडौति ।— रै० बानी, पृ० ५७ ।
⋙ खंडय
वि० [सं० खण्डय] दे० 'खंडनीय' [को०] ।
⋙ खंतरा
संज्ञा पुं० [सं० कान्तर या हिं० अंतरा] १. दरार । खोडरा । २. कोना । अँतरा । उ०—गुप्तचरों ने एक एक कोना खंतरा छान डाला, पर किसी को अविलाइनो का चिह्न भी हस्तगत न हुआ ।—वेनिस०, (शब्द०) । विशेष—इस शब्द का व्यवहार प्रायः 'कोना' के साथ यौगिक शब्दों के अंत में होता है । जैसे—कोना खंतरा ।
⋙ खंता †
संज्ञा पुं० [सं०खनित्र या हिं० खनना] [स्त्री० अल्पा० खाती] १. वह औजार जिससे जमीन आदि खोदी जाती हो । २. वह गड्ढा जिसमें से कुम्हार मिट्टी लाते हैं ।
⋙ खंति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ख्याति, राज० ख्याँत, खांत] १. लगन । प्रीति । उ०—मो मारू मिलिवातणी, खरी विलग्गी खंति ।— ढोला०, दू० २३८ । २. आकांक्षा । इच्छा । उ०—जब दैहौं तब पुज्जिहै मो मझझह खंति ।—पृ० रा०, १७ ।२७ ।
⋙ खंति (२) †
संज्ञा स्त्री० [देश०] तलवार का बीडन । कसा । उ०— (क) खंति खाग खोलि विहत्थं ।—पृ० रा०, १० ।१८ । (ख) खंति खग खुल्लि विहत्थं ।—पृ० रा०, (उदय०), पृ० २७९ ।
⋙ खंदक
संज्ञा स्त्री० [अ०खंदक] १. शहर या किले के चारों ओर खोदी हुई खाँई । २. बड़ा गड्ढा ।
⋙ खंदाँ
वि० [फा० खंदाँ] १. हँसता हुआ । मुसकुराता हुआ । हँसनेवाला । उ०—दिल सूँ खुर्रम, मुक सो खदाँ शाद माँ ।— दक्खिनी०, पृ० १८१ ।
⋙ खंदा पु (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० खनना] खोदनेवाला । उ०—दैत्य दलन गजदंत उपारन केस केशधरि फंदा । सूरदास बलि जाइ यशोमति सुख के सागर दुख के खंदा ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खंदा (२)
संज्ञा पुं० [फा० खंद] हँसी । खिलखिलाहट । यौ०—खंदापेशानी = हँसमुख । हँसौहाँ ।
⋙ खंदा (३)
वि० दे० 'खंदाँ' ।
⋙ खंधक पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खंदक] दे० 'खंदक' । उ०—खंधक तीन ओर निर्मल जल भरी सुहाती ।—प्रेमघन०, भा१, पृ० ९ ।
⋙ खंधा
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धक प्रा० खन्धा] आर्या गीति नामक छंद का एक भेद ।
⋙ खंधार †
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड + धार] खंडाधीश । राजा । उ०— फिरइ वीनउला राजकुमार । षंड षंड का मील्या खंधार ।— बी० रासो, पृ० १० ।
⋙ खंधार † (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धावार] दे० 'खँधार' ।
⋙ खंधार (३)
संज्ञा पुं० [सं० गान्धार] गांधार या कंदहार देशवासी जन । उ०—फिरंगान खंधार बलक्किय जुरे सु सब्बह ।— प० रासो, पृ० १०० ।२. गांधार देश ।
⋙ खंधारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कधांरी' ।
⋙ खंधासाहिनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खंधा] खंधा या आर्या गाति नामक छंद का एक प्रकार ।
⋙ खंबायची †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'खाँबायची ।
⋙ खंभ
संज्ञा पुं० [सं० स्कम्भ या स्तम्भ, प्रा० खंभ] १. स्तंभ । खंभा । २. सहारा । आसरा । उ०—बिन जोबन भइ आस पराई । कहाँ सो पूत खंभ होई आई ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खंभा
संज्ञा पुं० [सं० स्कम्भ, या स्तम्भ, प्रा० खम्भ] पत्थर या काठ का लंबा खाड़ा टुकड़ा अथवा ईंट आदि की थोड़े घेरे की ऊँची खाड़ी जोड़ाई जिसके आधार पर छत या छाजन रहती है । स्तंभ । विशेष—जहाँ छत या छाजन के नीचे का स्थान कुछ खुला रखना होता है, वहाँ खंभों का व्यवहार किया जाता है । जैसे, ओसारे बरामदे, बारहदरी, पुल आदि में खंभे का व्यवहार भारतीय स्थापत्य में बहुत प्राचीन काल से है; तथा उसके भिन्न भिन्न विभाग भी किए गए हैं । जैसे, नीचे के आधार को कुंभी (कुँभिया) और ऊपर के सिरे की भरणी कहते हैं ।
⋙ खंभाइच
संज्ञा पुं० [सं० स्कम्भावती] दे० 'खंभात' । उ०—तातें श्री गुसाई जी खंभाइच पधारे ।—दो सौ बावन० पृ० २०९ ।
⋙ खंभात
संज्ञा पुं० [सं० स्कम्भावती] १. गुजरात के पश्चिम प्रांत का एक राज्य जो इसी नाम के एक उपसागर के किनारे है । २. इस राज्य की राजधानी । ३. अरब सागर की एक खाड़ी [को०] ।
⋙ खंभार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खँभार' ।
⋙ खंभारा पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्कम्भ] हाथी के रहने का स्थान । उ०—षूटा मदझर जुग जां खंभारा ।—रघु० रू०, पृ० १५४ ।
⋙ खंभावती
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कम्भावती] दे० 'खंभात' ।
⋙ खंभिया
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कम्भ या ग्तंम, प्रा, खंभ] छोटा खंभा । खंभे का अल्पार्थ सूचक ।
⋙ खंभेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० खंभ+ एली (प्रत्य०)] दे० 'खभिया' । उ०—कुटिया के ओसारे पर खंभेली के सहारे बैठते हुए जयनाथ ने कहा 'तो क्या होगा?'—रति०, पृ० ४३ ।
⋙ खँखरा (१) †
संज्ञा पुं० [देश०] १. ताँबे का बड़ा देग जिसमें चावल आदि पकाया जाता है । २. बाँस का टोकरा ।
⋙ खँखरा (२) †
वि० दे० 'खाँखर' ।
⋙ खँखार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खखार' ।
⋙ खँखारना
क्रि० अ० [हि०] दे० 'खखार' ।
⋙ खँगना
क्रि० अ० [सं० क्षपण या हिं० छीजना] कम होना । घट जाना । उ०—ऊखल में पुनि बाँधन लागी । खँगी युगा— गुलि रजु पुनि माँगी ।—विश्राम०, पृ० ३११ ।
⋙ खँगवा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खाँग' ।
⋙ खंगहा (१)
वि० [हिं० खाँग + हा (प्रत्य०)] १. खाँगवाला । जिसे खाँग या निकले हुए दाँत हों । २. खँगैल ।
⋙ खँगहा (२)
संज्ञा पुं० १. गैड़ा । २. वाराह । शूकर ।
⋙ खँगार †
संज्ञा पुं० [देश०] क्षत्रियों की एक गुजरातवासी शाखा तथा उसका राजा ।
⋙ खँगारना †
क्रि० स० [सं० क्षालन से] सं० 'खँगालना' ।
⋙ खँगालना
क्रि० स० [सं० क्षालन] १. हलका धोना । थोड़ा धोना । जैसे, लोटा खँगालना, गहना खँगालना । २. सब कुछ उड़ा ले जाना । खाली कर देना । जैसे,—रात को उनके घर चोर आए थे; सब खँगाल ले गए ३. मँझाना । २. थहाना । उ०—अब जाओ उलझनों में न पड़, जंगलों को खँगाल कर देखो ।—चोखे०, पृ० १९ ।
⋙ खँगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खँगना] कमी । घटी । छीज । उ०— हिय हरषि शिशु मुख चूमि सुंदर सकल दुलरावै लगीं ।— अनपार भै ज्यौनार निज रुचि सरस तहँ रहै का खँगी ।— विश्राम०, पृ० ४०३ ।
⋙ खगुवा
संज्ञा पुं० [हिं० खाँग] गैड़े का सींग । दे० 'खाँग' ।
⋙ खँगैल
वि० [हिं० खाँग + ऐल (प्रत्य०)] १ खाँग रोग से पीड़ित । जिसके खुर पके हों । खँगहा । २. दँतैला । लेबं दाँतवाला (हाथी) ।
⋙ खँगोरिया, खँगोरिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] हँसुली नाम का गहना ।
⋙ खँघारना †
क्रि० स० [हिं० खँगालना] दे० 'खँगालना' ।
⋙ खँचना † (१)
क्रि० अ० [हिं० खाँचना] चिह्निनत होना । निशान पड़ना । उ०—लाजमयी सुर बाम भई पछितान्यो स्वयंभू महा मन सेखैं । दुसरी ओर बबाइबो को त्रिबली खंची तीन तलाक की रेखैं ।—शंभु कवि (शब्द०) ।
⋙ खँचना (२) †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खिंचना' ।
⋙ खँचवाना
क्रि० स० [हिं० खाँचना] दे० 'खाँचाना१' ।
⋙ खचाना (१) †
क्रि० स० [हिं० खाँचना] १. अकित करना । चिह्न बनाना । उ०—(क) राधिका की त्रीबली को बनाय विचारि बिचारि यहै हम लेखे । ऐसी न और न और न और है तीन खँचाय दई बिधि रेख ।—कोई कवि (शब्द०) । (ख) रामानुज लघु रेखेखँचाई । सो नहिं लाँघेउ अस मनुसाई ।—तुलसी (शब्द०) । २. जल्दी जल्दी लिखना ।
⋙ खँचाना (२) †
क्रि० स० दे० 'खींचना' ।
⋙ खँचाना (३)
क्रि० स० [हिं० खाँचना का प्रे० रूप] अकित करवाना खँचवाना ।
⋙ खँचिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाँची + इया (प्रत्य०)] दे० 'खाँची' ।
⋙ खँचुला †
संज्ञा पुं० [हिं० खाँचा + उला (प्रत्य०)] १. छोटी खाँची । २. खाँचा ।
⋙ खँचुली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाँची] छोटी खाँची । खँचिया ।
⋙ खँचया †
वि० [हिं० खाँच + ऐया (प्रत्य०)] खींचनेवाला ।
⋙ खंचोला †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खँचुला' ।
⋙ खंचोली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खँचुली' ।
⋙ खँजड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खँजरी] दे० 'खँजरी१' ।
⋙ खँजरी (७)
संज्ञा स्त्री० [सं० खंजरीट = एक ताल] डफली की तरह का एक छोटा बाजा । विशेष—इसकी मेंडरा (गोलाकार काठ) चार या पाँच अँगुल चौ़ड़ा और एक ओर चमड़े से मढ़ा तथा दूसरी ओर खुला रहता है । यह एक हाथ से पकड़कर दूसरे हाथ की थाप से बजाई जाती है । साधु लोग प्रायः अपनी खँजरी के मेंडरे में एक प्रकार की हलकी झाँझ भी बाँध लेते हैं जो खँजरी बजाते समय आपसे आप आप बजती हैं ।
⋙ खँजरी (२)
संज्ञा स्त्री० [ फा० खंजर] १. खंजर का स्त्रीलिंग ओर अल्पार्थक रूप । २. एक प्रकार की लहरिएदार धारी जो रंगीन कपड़ों में होती है । ३. वह कपड़ा, विशेषतथा रेशमी कपड़ा, जिसमें इस प्रकार की धारी हो ।
⋙ खँड †
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड] खंड का हिंदी में प्रयुक्त समासगत रूप, जैसे—खंडपूरी, खंडवनी आदि ।
⋙ खँडपूरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाँड + पुरी] एक प्रकार की भरी हुई पूरी जिसके अंदर मेवे और मसाले के साथ चीनी भरी जाती है ।
⋙ खँडबरा †
संज्ञा पुं० [हिं० खाँड + वरा या औरा (प्रत्य०)] दे० खंड़ौरा' । उ०—खंडै कीन्ह आमचुर परा । लौंग इलाची सों खँडबरा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खँडरा
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड + हिं० वरा] एक प्रकार का चौकोर बड़ा जो सूखा और गीला दोनों प्रकार होता है । उ०— खँडरा खाँड़ जो खंडे खंडे । बरी अकोतर से कहं हंडे ।— जायसी (शब्द०) । विशेष—इसके बनाने के लिये पहले बेसन घोलकर उसे कड़ाही में पकाते हैं जिसे पाक उठाना कहते हैं । पाक तैयार ही चुकने पर उसे थाली में डालकर जमा देते हैं । ठंडा होकर जम जाने पर उसे चौकोर टुकड़ों में काटकर तेल में तल लेते हैं । इसी को सूखा खँडरा कहते हैं । पीछे इसे मसालों के साथ किसी काँजी या रसे में भिगो देते हैं ।
⋙ खँडला †
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड + हिं० ला (स्वा० प्रत्य०)] टुकड़ा । कतरा ।
⋙ खँडवानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाँड + पानी] १. वह पानी जिसमें खाँड़ या चीनी घोली हुई हो । शरबत । उ०—कढ़ी सँवारी और फुलौरी । औ खँडवानी लाल बरौरी ।—जायसी (शब्द०) । २. कन्या पक्षवालों की ओर से बरातियों को जलपान भोजन भेजने की क्रिया । उ०—बोली सबहि नारि कुँभिलानी । करहु सिंगार देहु खाँडवानी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खँडावला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान । उ०—कोरहन, बड़हर, जड़हन मिला । औ संसारतिलक खँडविला ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ खँडसार
संज्ञा स्त्री० [सं० खँण्ड + शाला] खाँड या शक्कर बनाने का कारखाना । वह स्थान जहाँ खाँड़ बनती हो ।
⋙ खँडसारी
संज्ञा स्त्री० [देश० सं० 'खण्ड' से] एक प्रकार की चीनी । देशी चीनी । शक्कर ।
⋙ खँडसाल
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खँडसार' ।
⋙ खँडहर
संज्ञा पुं० [सं० खंड + हिं० घर] किसी टूटे फूटे या गिरे हुए मक न का बचा हुआ भाग । खंडर ।
⋙ खँड़हुला †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'खँड़बिला' ।
⋙ खँड़िया (१)
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड + हिं० इया (प्रत्य०)] ईख को काटकर उसकी छोटी छोटी गंड़ेरियाँ या टुकड़े बनानेवाला व्यक्ति ।
⋙ खँड़िया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्ड] टुकड़ा । खंड । जैसे—मछली की खँड़िया ।
⋙ खँड़ुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० खंड] १. वह कुआँ जिसकी जगत पत्थर के ढोकों से बनाई गई हो । २. दे० 'कँदुआ' ।
⋙ खँड़ौरा †
संज्ञा पुं० [हिं० खाँड + औरा (प्रत्य०)] मिसरी का लड्डू । औला । उ०—पहुप सुरंग रस अंमिरित सांधे । कै कै सुरग खँड़ौरा बाँधे ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खँड़ौरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्ड हिं० औरी (प्रत्य०)] चावल के बड़े बड़े टुकड़े जो कूटने पर टूट जाते हैं ।
⋙ खँदना
वि० [सं० खनन] खोदना ।
⋙ खँदवाना
क्रि० स० [हिं० खाँदना का प्रे० रूप] खोदवाना । खोदने के काम में लगाना ।
⋙ खँधवाना
क्रि० स० [खाँधियाना का प्रे, रूप] खाली कराना । उ०—कंचन के घैला अतर भरैला सुमन खँधवाये ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ खँधार †
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धावार] सेना का निवासस्थान । स्कंधावारा । छावनी । उ०—कहाँ मोर सब दरब भँडारा । कहाँ मोर सब दरब खँधारा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खँधियाना †
क्रि० स० [हिं० खाली] (पदार्थ को पात्र में से बाहर) निकालना । खाली करना । रिक्त करना ।
⋙ खँबायची, खँबायती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खाम्माच' ।
⋙ खँबार †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'खँभार' ।
⋙ खँभायची
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खाभावती' । उ०—बग्गौ राग खाँभायची लग्गै केसर बोह ।—रा० रू०, पृ० ३४७ ।
⋙ खँभायची कान्हड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खाम्माच कान्हड़ा' ।
⋙ खँभार पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्षोभ, प्रा० खोभ] १. अंदेशा । चिंता । २. घबराहट । व्याकुलता ।३. डर । भय । उ०—हरबर हरत खँभारु, निज शरणागत जनन को । भाषत अहौ तुम्हार करत अभय संसार ते ।—रघुराज (शब्द०) । ४. शोक । उ०— कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर विधि, लोचननि चकाचौंधि चित्तन खँभारु सो ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खँभार (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खँभारि' खँभारी' ।
⋙ खँभारि, खँभारी
संज्ञा स्त्री० [सं० काश्मरी, प्रा, काम्हरी] गभारी नामक वृक्ष । वि० दे० 'गंभारी' ।
⋙ खँभावती
संज्ञा स्त्री० [सं० स्कम्भावती] षाड़व जाति की एक रागिनी जो मालकोश राग की दूसरी स्त्री मानी जाती है । इसके गाने का समय आधी रात है ।
⋙ खंभिया
संज्ञा स्त्री० [सं० खंभा + इया [स्क० प्रत्य०] खंभा का अल्पार्थक रूप । छोटा पतला (विशेषतः काठ का) खंभा ।
⋙ खँभेली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खंभेली' ।
⋙ खँवँ †
संज्ञा स्त्री० [सं० खम्] वह गड्ढ़ा जिसमें अनाज भरकर रखते हैं । खत्ता ।
⋙ खँवँडा †
संज्ञा पुं० [हिं० खाँवँ + डा (प्रत्य०)] अनाज रखने का बड़ा गड्ढ़ा । बड़ा खात्ता । बड़ी खाँवँ ।
⋙ खँसना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खसना' ।
⋙ ख
संज्ञा पुं० [सं०] १. गड्ढा । गर्त । २. खाली स्थान । ३. निर्गम । निकास । ४. छेद । बिल । ५. इंद्रिय । ६. गले की वह नाली जिसमें प्राणवायु आती जाती है । ७. कुआँ । ८. तीर का घाव । ९. गाड़ी के पहिए की नाभि का छेद जिसमें धुरा रहता है । आख्या । १०. आकाश । स्वर्ग । देवलोक । १३. कर्म । क्रिया । १४. जन्मकपंडली में दसवाँ स्थान । १५. शून्य । १६. बिंदु । सिफर । १७. ब्रह्म । १८. शब्द । १९. अभ्रक । २०. मोक्ष । निर्वाण । २१. नगर । शहर (को०) । २१. समझ । बोध (को०) । २२. झरना (को०) । २३. कूप । कुआँ (को०) २४. सूर्य (को०) । २५. क्षेत्र (को०) ।
⋙ खई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षयी] १.क्षणकारिणी क्रिया २. लड़ाई । युद्ध । ३. तकरार । झगड़ा । उ०—अंश परायो देत न नीके माँगत ही सब करत खाई ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खाए पु †
संज्ञा पुं० [सं० खः = आकाश] ऊपर । व्योम । उ०— खए लगि बाँह उसारि उसारि भए इत उत्त जवै रिसि धारि ।—सुजान०, पृ० ३४ ।
⋙ खकक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाश का घेरा । आकाशीय परिधि [को०] ।
⋙ खकामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम [को०] ।
⋙ खकुंतल
संज्ञा पुं० [सं० खकुन्तल] शिव का एक नाम । व्योमकेश । कपर्दी [को०] ।
⋙ खक्खट (१)
वि० [सं०] १. ठोस । कड़ा । २. कठोर । कर्कश ।
⋙ खक्खट (२)
संज्ञा पुं० दे० 'खँड़िया' ।
⋙ खक्खर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिखारी की छ़ड़ी । २. दे० 'खंकर' [को०] ।
⋙ खक्खर पु (२)
संज्ञा पुं० [?] पंजाब का एक पुराना प्रदेश तथा वहाँ के निवासी । उ०—खक्खर को देस, बारयो भक्खर भगाना जू ।—गंग ग्रं०, पृ० ९२ ।
⋙ खक्खा (१)
संज्ञा पुं० [अ० कहकहा] जोर की हँसी । अट्टहास । कहकहा । उ०—पाइ कै खबर खुबी खुशी मानि खक्खा मारि, खलक के खाली करबे कों खैर भरै सों ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ खक्खा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० खत्री का, ख, या 'खक्खर'] १. पंजाबी सिपाही । विशेष—पंजाब के खत्री प्रायः अपने आप के 'रक्खा' कहा करते है; इसी से यह शब्द अनेक अर्थों में व्यवहृत होने लगा । २. अनुभवी पुरुष । तजुर्वेदार आदमी । ३. बड़ा और उँचा हाथी ।
⋙ खक्खासाहु
संज्ञा पुं० [हिं० खक्खा + साहु] १. वह मनुष्य जो व्यापार में बहुत चतुर हो २. खत्री जाति का व्यापारी ।
⋙ खखड़ा †
वि० [देश० खक्खड़] १. शुष्क । नीरस । २. छूछा । खोखला ।
⋙ खखरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खंखड] १. खँखरा । २. बाँस का बना हुआ बड़ा टोकरा ।
⋙ खखरा (२) †
वि० [हिं० खाँखर] झीमा । अत्यंत महीन ।
⋙ खखरिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] मैदे और बेसन की बनी हुई पापड़ की तरह की हलकी पतली पूरी जो अलोनी होती है ।
⋙ खखसा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'खेकसा' या 'खेखसा' ।
⋙ खखार
संज्ञा पुं० [अनु०] गाढ़ा थूक या कफ जो खखारने से निकले । कफ ।
⋙ खखारना
क्रि० अ० [सं० कफ क्षारण] १. पेट की वायु को फेफड़े से इस प्रकार निकालना जिससे खरखराहट का शब्द हो तथा कभी कभी कफ या थूक भी निकले । २. दूसरे को सावधान करने के लिये गले से खरखराहट का शब्द निकालना ।
⋙ खखेटना (१)पु
क्रि० स० [देश०] १. दबाना । २. पीछा करना । ३. घायल करना । छेदना । उ०—वेई पठनेटे सेल साँगन खखेटे धूरि, धूरि सो लपेटे लेटे भेटे महाकाल के ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ खखेटना (२)पु
क्रि० अ० [हिं० खखेटा] खटका होना । आशंका होना । उ०—सोच भयो सुरनायक के कलपद्रुम के हिय माँझ खखेटयो ।—कविता कौ०, भा०१, पृ० १५० ।
⋙ खखेटा पु
संज्ञा पुं० [हिं० खखेटना] १. भगदड़ । दौड़धूप । २. दाब । दबाव । २. छिद्र । ४. आशंका । खटका ।
⋙ खखेना पु
क्रि० स० [देश०] दे० 'खखेटना' ।
⋙ खखेरा
संज्ञा पुं० [देश०] उपहास । कलंक । लांछन ।
⋙ खखोंडर †
संज्ञा पुं० [सं० ख + कोटर] १. पेड़ के कोटर में बना हुआ किसी पक्षी का घोंसला । २. उल्लू पक्षी का घोंसला ।
⋙ खखोरना †
क्रि० स० [देश०] अच्छी तरह ढूढ़ंना । सब जगह खोज डालना । छानबीन करना ।
⋙ खखोल्क
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का नाम [को०] । विशेष—इनकी मूर्ति काशी में स्थिति कही गई है । काशीखंड के ५० वें अध्याय में इनका विवरण है ।
⋙ खगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० खगङ्गा] आकाशगंगा । मंदाकिनी ।
⋙ खग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश में चलनेवाली वस्तु या व्यक्ति । २. पक्षी । चिड़िया । ३. गंधर्व । ४. बाण । तीर । ५. ग्रह । तारा । सितारा । ६. बादल । ७. देवता । ८. सूर्य । ९. चंद्रमा । १०. बायु । हवा । उ०—खग रवि खग शशि खगपवन खग अंबुद खग देव । खग विहंग हरि सुतरु तजि खग उर सेंबल सेव ।—अनेकार्थ० (शब्द०) ११. महादेव (को०) । १२. शलभ (को०) ।
⋙ खग (२)
वि० आकाशचारी । नभगाभी [को०] ।
⋙ खग (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० खङ्ग, हिं० खंग] दे० 'खंग', 'खङ्ग' । (क) हाजी गख्खर खान खांति खग खोलि बिहत्थं ।—पृ० रा०, १० १८ । (ख) नव ग्रहन मद्धि जनु सूर तोष । खग ध्रंम क्रंम संमर अदोष ।—पृ० रा०, ६ ।६ ।
⋙ खगकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ । उ०—बरणि न जाय समर खगकेतु—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खगखान
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्षकोटर । पेड़ का खोंढ़र [को०] ।
⋙ खगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक छंद का नाम [को०] ।
⋙ खगना
क्रि० स० [हिं० खाँग = काँटा] १. गड़ना । पैठना । चुभना । धँसना । उ०—कह ठाकुर नेह के नेजन कौ उर में अनी आदि खगी सो खागी ।—ठाकुर (शब्द०) । २. चित्त में बैठना । मन में धँसना । असर करना । उ०—जाहीं सों लागत नैन ताही के खगत बैन नख शिख लौं सब गात ग्रसति ।—सूर (शब्द०) । ३. लग जाना । लिप्त होना । अनुरक्त होना । उ०—प्रफुलित बदन सरोज सुँदरी अतिरस नैन रँगे । पुहुकर पुंडरीक पूरन मनो खंजन केलि खगे ।—सूर (शब्द०) । ४. चिह्नित हो जाना । छप जाना । उपट आना । उभर आना । उ०—यह सुनि धावत धरनि चर की प्रतिमा खगी पंथ में पाई ।—सूर (शब्द०) । ५. अटक रहना । अचल होकर रह जाना । अड़जाना । उ०—करि कै महा घमसान । खागि रहे खेत पठान ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ खगनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ [को०] ।
⋙ खगपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. गरुड़ । विशेष—पक्षीवाची शब्दों के बाद स्वामीवाची या ध्वजावाची शब्द लगा देने से वह समस्त शब्द 'गरुड़' वाची हो जायगा । जैसे,—खगपति, खगराज, खागकेतु, खागनाथ, खागनायक ।
⋙ खगवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] लकुच का फल [को०] ।
⋙ खगवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवी । धरती [को०] ।
⋙ खगवार
संज्ञा स्त्री० [देश०] गले का हँसुली नामक आभूषण । खँगौरिया ।
⋙ खगशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] पृश्निपर्णी लता [को०] ।
⋙ खगस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेड़ का कोटर । खगखान । २. चिड़ियो का घोंसला [को०] ।
⋙ खगहा
संज्ञा पुं० [हिं० खाँग = निकला हुआ पैना दाँत] गैंडा । उ०—खगहा करि हरि बाध बराहा । देखि महिष वृष साजु सराहा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खगांतक
संज्ञा पुं० [सं० खगान्तक] खागों का अंत करनेवाला पक्षी । बाज । श्येन ।
⋙ खगासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. उदयगिरि । उदयाचल नाम का पर्वत [को०] ।
⋙ सगुण
वि० [सं०] जिस राशि का गुणक शून्य हो (गणित) ।
⋙ खगेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० खगेन्द्र] गरुड़ [को०] ।
⋙ खगेश
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ ।
⋙ खगोल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाशमंडल । विशेष—यद्यपि आकाश की कोई आकृति नहीं है, तथा पिपरिमित दृग्रशिम के कारण वह गोलाकर देख पड़ता है । जिस प्रकार विद्धानों ने पृथ्वी ती गोलाई में विषुवत्रेखा, अक्षांश ओर देशांतर रेखाओं तथा ध्रुव की कल्पना की है, ठीक उसी प्रकार खगोल में भी रेखाओं और ध्रुवौ की कल्पना की गई है । ज्योतिषियों ने ताराओं के प्रधान तीन भेद किए हैं—नक्षत्र, ग्रह और उपग्रह । नक्षत्र वह है जो सदा अपने स्थान पर अटल रहे । ग्रह तारा है जो अपने सौर जगत् के नक्षत्र की परिक्रमा करे । और उपग्रह वह है अपने ग्रह की परिक्रमा करता हुआ उसके साथ गमन करे । जिस तरह हमारे सौर जगत् का नक्षत्र हमारा सुर्य है, उसी तरह प्रत्येक अन्य सौर जगत् का नक्षत्र उसका सुर्य है । पृथिवी की दैनिक और वृत्ताकार गतियौं के कारण इन नक्षत्रों के उदय में विभेद पड़ता रहता है । यद्यपि गगनमंडल सदा पुर्व से पशिचम को घुमता हुआ दिखाई पड़ता बै, पर फिर भी वह धीरे धीरे पुर्व की और खसकता जाता है । इसलिये ग्रहों की स्थिति में भेद पड़ा करता है । प्राचीन आर्य ज्योतिषियों ने कुछ ऐस तारों का पता लगाया था जो अन्यों की अपेक्षा अत्यत दुर होने के कारण अपने स्थान पर अछल दिखाइ पड़ते थे । उन लोगों ने ऐसे कई तारों के योग से अनेक आकृतियों की कल्पना की थी । इनमें वे आकृतियाँ जो सुर्य के मार्ग के आस पास पड़ती थीं, अट्ठाईस थीं । इन्हें वे नक्षत्र कहते थे । इन तारों से जड़ा हुआ गगनमंडल अपने ध्रुवों पर घुमता हुआ माना गया है । समस्त खगोल को आधुनिक ज्योतिर्विदो ने बारह वीथियों में विभक्त किया है, जिनमें प्रत्येक वीथी के अंतर्गत अनेक मंडल हैं । प्रथम वीथी में पर्शु, त्रिकोण, मेष, नमि, यज्ञकुंड और यमी ये छह मंडल है । द्धितीय में चित्रक्रमेल, ब्रह्यम, वृष, घटिका, सुवर्णश्रम और आढ़क ये छह मंडल हैं । तृतीय में मिथुन, कालपुरुष, शश, कपोत, मृगप्याध, अर्णवयान, चित्रपटु अभ्र और चत्वाल नाम के ना मंडल है । चतुर्थ में वन मार्जार, कर्कट, शुनी एकशृंगि, कृकलास और पतत्रिमीन मंडल नाम के छह मडल है । पचम वीथी में सिंहशावक, सिंह, ह्यदसर्प, षष्ठीष और वायुयंत्र नाम के पाँच मंडल है । षष्ठ में सप्रर्षि, सारमेय, करिमुंड कन्या, करतल, कास्य, त्रिशंकु और मक्षिका आठ मंडल है । सप्तक में शिशुमार, भुतेश, तुला, शार्दुल, महिषासुर, वृत्त और धुम्राट नामक सात मंडल है । अष्टम में हरिकुल, किरीट, सर्प, वृश्चिक और दक्षिण त्रिकोण पांच मंडल है । नवम वीश्री में तक्षक, वीणा, सर्पधारि, धनुष, दक्षिण किरीट, दुरवीक्षण औऱ वेदि सात मडल हैं । दशन में वक, श्रृगाल वाण, गरुड़, श्रविष्ठा, मकर, अणुवीक्षण, सिंधु, मयुर और अष्टांश नाम के दस मंडस हैं । एकादश में शेफालि, गोधा, पक्षिराज, अशवतर, कृंभ, दक्षिण मीन, सारस और चंचुभुत आठ मंडल है । और द्धादशवीथी में काश्यपीय, ध्रुवमाना, मीन, भास्कर, संपाति, हरृद और ग्राव सात मंडल हैं । इनम सब को लेकर बारह वीथियाँ और ८४ मंडल हैं । इनमें से प्राचीन भारतीय विद्धानों को शिशुमार (विष्णुपुराण), त्रिशंकु, (वाल्मीकि), सप्तर्षि इत्यादि मंडलों का पता था । इन वीथीयों को क्रमशः मेष, वृष, मिथुन, आदि वीथियाँ भी कहते हैं । सुर्य के मार्ग में अट्ठाईस नक्षत्र पड़ते हैं, जिनके नाम अशिवनी आदि हैं । सूर्य मेष आदि बारह विथियों में क्रमशः होकर जाता हुआ दिखाई पड़ता है, जिसे राशि या लग्न कहते हैं । २. खगोल विद्या ।
⋙ खगोलक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खगोल' [को०] ।
⋙ खगोलमिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गणित ज्योतिष का वह अंग जिसमें तारों, नक्षत्रों की नाप जोख और गति, स्थिति आदि का विचार किया जाया है [को० ।
⋙ खगोलविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह विद्या जिससे खगोल अर्थात् ग्रह आदि की गति का ज्ञान प्राप्त हो ।ज्योतिष ।
⋙ खग्ग पु
संज्ञा स्त्री० [सं० खङ्ग, प्रा० खग्ग] तलवार । उ०— हयं खग्ग लग्गं कटिं तुटिट् थानं ।—प० रा०, ६६ ।१३७८ ।
⋙ खग्गड
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वेतस् । नरकुल या सरकंडा [को०] ।
⋙ खग्रास
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा ग्रहण जिसमें सुर्य या चंद्र का सारा मंडल ढँक जाय । पुरा ग्रहण ।
⋙ खचन
संज्ञा पुं० [सं०] वि० खचित ] १. बाँधने या जड़ने की क्रीया । उ०—सर्वसाधारण के मनोरंजनार्थ रत्न को जैसे कुंदन में खचित करना पड़ता है, वैसे ही काव्य को उक्त गुणों से अलंकृत करना चाहिए ।—(शब्द०) । २. अंकित करने या होने की क्रिया । चित्रित होने की क्रिया । उ०—ध्यान रुपी चित्रालय में कौन कौन चित्र खचित हो गए ।—(शब्द०) ।
⋙ खचना (१)पु
क्रि० अ० [सं० खचन = बाँधना, जड़ना] १. जड़ा जाना । उ०—मनि दीप राजाहिं भवन भ्राजहिं देहरी विद्रुम रची । मनिखंभ भीति विरंचि बिरची कनकमनि मरकत खची । सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर अस्फटिकन रचे । प्रति द्धार द्धार कपाट पुरट बनाई बहु बज्रन खचे ।—तुलसी (शब्द०) । २. अंकित होना । चित्रित होना । उ०—देत भाँवरि कुंज मंडप पुलिन में बेदी रची । बैठे जो श्यामा श्याम बर त्रौलोक की शोभा खची ।—सुर (शब्द०) । ३. रम जाना । अड़ जाना । उ०—आजु हरि ऐसो रास रच्यो ।— गतगुन मद अभिमान अधिक रुचि लै लोचन मन तहुहँ खच्यौ ।—सुरक०, १० ।११३९ । ४. अटक रहना । फँसना । उ०—नैना पंकज पंज खचे । मोहन मदन श्याम मुख निरखत भ्रुवन विलास रचे ।—सुर (शब्द०) ।
⋙ खचना (२) पु
क्रि० स० १. अंकित करना । २. जड़ना ।
⋙ खचमस
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०] ।
⋙ खचर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुर्य । २. मेघ । ३. ग्रह । ४. नक्षत्र । ५. वायु । ६. पक्षी । ७. वाण । तीर । ८. राक्षस । ९. संगीत दामोदर के अनुसार एक ताल का नाम जिसे रूपक भी कहते हैं । १०. कसीस ।
⋙ खचर (२)
वि० आकाश में चलनेवाला । खेचर ।
⋙ खचरा
वि० [हिं० खच्चर] १. वर्ण संकर । दोगला । २. दुष्ट । पाजी ।
⋙ खचाखच
क्रि० वि० [अनु०] बहुत भरा हुआ । ठसाठस । जैसे,— देखते ही देखते सारा कमरा खचाखच भर गया ।
⋙ खचाना पु
क्रि० स० [सं० √ कृष; प्रा० √ खंच] दे० 'खँचना' । मुहा०—अपनी खचाना = अपनी ही कही हुई बात को बार बार पुष्ट करते जाना, दूरे के तर्क को कुछ न सुनना । उ०— सुनौ धौं दै कान अपनी लोक लोकन कीति । सूर प्रभु अपनी खचाई रही निगमन जीति ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खचारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० खचारिन्] १. स्कंद का नाम । २. दे० 'खचर (१)' [को०] ।
⋙ खचारी (२)
वि० दे० 'खचर' ।
⋙ खचावट
संज्ञा स्त्री० [सं० खाँचना] १. खचन । २. गठन †३. लिखावट ।
⋙ खचित
वि० [सं०] १. खींचा हुआ । चित्रित या लिखित । २. आबद्ध । जटित । ३. युक्त । संयुक्त । ४. परिपूर्ण । भरा हुआ (को०) । ५. विभिन्न प्रकार के तागों से तैयार या सिला हुआ (वस्त्र), (को०) ।
⋙ खचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] अनहोनी और असंभव वार्ता अथवा वस्तु [को०] ।
⋙ खचिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'खँचिया' ।
⋙ खचीना †
संज्ञा पुं० [हिं० खचाना] १. रेखा । लकीर । २. चिह्न ।
⋙ खचेरना †
क्रि० स० [हिं० खींचना] घसीटना । बलपूर्वक खींचना ।
⋙ खच्चर
संज्ञा पुं० [देश०] १. गधे और घोड़ी के संयोग से उत्पन्न एक पशु । विशेष—यह पशु घोड़े से बहुत मिलता जुलता होता है । इसके कान आदि अवयव गधे के समान होते हैं, पर शक्ति इसकी घोड़े से भी कुछ अधिक होती है । यह दीर्घजीवी होता है, बहुत कम बीमार पड़ता है और अधिक परिश्रम कर सकता है, इसीलिये कई अवसरों पर यह घोड़े की अपेक्षा अधिक उपयोगी होता है । यह घोड़े की तरह समझदार होता है, और ऊँची नीची भुमि पर इसका पैर बहुत मजबूत बैठता है । फौंजों में और पहाड़ों पर इससे बहुत काम निकलता है । ३. दे० 'खचरा' ।
⋙ खज (१)पु
वि० [सं० खाद्य, प्रा० खाज्ज] खाने योग्य । जो खाया जा सके । भक्ष्य । उ०—चाली हंसन की चलै चरन चोंच करि लाल । लखि परिहै बक तव कला, झखा मारत ततकाल । झखा मारत ततकाल ध्यान मुनिवर सों धारत । बिहरत पंख फुलाय नहीं खज अखज बिचारत । बरनै दीनदयाल बैठि हंसन की आली । मंद मंद पग देत अहो यह छल की चाली ।— दीनदयालु (शब्द०) । यौ०—खज अखाज = भक्ष्याभक्ष्य ।
⋙ खज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मथानी । मंथनचक्र । २. मंथन की क्रिया । ३. कलछुल । दर्वी । ४. संघर्ष । युद्ध [को०] ।
⋙ खजक
संज्ञा पुं० [सं०] मथानी [को०] ।
⋙ खजप
संज्ञा पुं० [सं०] तपाया हुआ मक्खान । घी [को०] ।
⋙ खजमज
वि० [अनु०] खाराब, भारी या गिरि हुई (तबीयत) ।
⋙ खजमजाना
क्रि० अ० [अनु०] तबीयत का खाराब या भारी होना ।
⋙ खजल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ओस । २. वर्षा । ३. कोहरा [को०] ।
⋙ खजला
संज्ञा पुं० [हिं० खाजा] एक प्रकार का पकवान जिसे खाजा भी कहते है । उ०—गुपचुप्प गुना गुल पापरियाँ । खाजल सुखजूरि पडा़खरियाँ ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ खजलिया
संज्ञा पुं० [देश०] अंगूर के पौधों का एक रोग जिसमें उसके पत्तों और डंठलों पर काली काली धूल सी जम जाती है और पत्ता धीरे धीरे सूखता जाता है ।
⋙ खजहजा
संज्ञा पुं० [सं० खाद्याद्य, प्रा, खज्जाज्ज] खाने योग्य उत्तम फल या मेवा । उ०—(क) और खजहजा उनकर नाऊँ । देखा सब राजन अँबराऊँ ।—जायसी (शब्द०) । (ख) फरे खाजहजा दाड़िम दाखा । जो वह पंथ जाइ सो चाखा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खजांची
संज्ञा पुं० [फा० खजानची] कोषाध्यक्ष ।
⋙ खजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मथानी । २. मथने का कार्य । मंथन । ३. दर्वी । ४. विनाश । विध्वंस । ५. संघर्ष । युद्ध [को०] ।
⋙ खजाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक पक्षी [को०] ।
⋙ खजाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दर्वी । कलछुल [को०] ।
⋙ खजाजिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'खाजाका' [को०] ।
⋙ खजानची
संज्ञा पुं० [फा खजानची] खजाने का अफसर । कोषाध्यक्ष ।
⋙ खजाना
संज्ञा पुं० [अ० खजानह्] १. वह स्थान जहाँ धन संग्रह करके रख जाय ।—धनागारा । २. वह स्थान जहाँ कोई चीज संग्रह करके रखी जाय । कोश । ३. राजस्व । कर । ४. आधिक्य । बाहुल्य । ५. बंदूक में बारूद रखने की जगह । क्रि० प्र०—देना ।—माँगना ।—जमा करना ।—पहुँचना । यौ०—खजाना अफसर = वह अधिकारी जिसके यहाँ जिले की सरकारी आय जमा होती है ।
⋙ खजार
संज्ञा पुं० [अ० खजार] १. बहुत अधिक पानी मिला हुआ दूध [को०] ।
⋙ खजिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कलछी । दर्वी (को०) ।
⋙ खजित
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के शून्यवादी बौद्ध ।
⋙ खजिल †
वि० [फा०] लज्जित । शरमिंदा ।
⋙ खजीना
संज्ञा पुं० [फा० खजीनह] खजाना । उ०—कायर भागा पीठ दै, सूर रहा रन माहिं । पट लिखाया गुरू पै खरा खाजीना खाहि ।—कबीर सा० सं०, पृ० २९ ।
⋙ खजुआ (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० खाजा] खाजा नाम की मिठाई । खजला । उ०—दोना मेलि धरे हैं खजुआ । हौंस होय तो ल्याऊँ पूवा ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खजुआ (२)
संज्ञा पुं० [सं० खाद्य, पा० खाज्ज] भटवाँस नामक अन्न । भटनास ।
⋙ खजुवा †
संज्ञा पुं०, वि० [हिं०] दे० 'खजुआ' ।
⋙ खजुरहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खजूर] नैपाल की तराइयों में उत्पन्न होनेवाला एक प्रकार का खजूर । विशेष—इसके पेड़ हाथ डेढ़ हाथ ऊँचे होते हैं । इसकी पत्तियाँ साधारण खजूर से कुछ छोटी होती है और चटाई आदि बनाने के काम में आती हैं । इसके फल में प्रायः बीज ही बीज होता है जिसके कारण यह खाने योग्य नहीं होता ।
⋙ खजुरहटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खजुर] दे० 'खजुरहट' ।
⋙ खजुरा †
संज्ञा पुं० [हिं० खर्जूर] दो या तीन लर का बटा हुआ एक प्रकार का डोरा जिसके एक सिरे पर फुँदना होता है और जिसके साथ स्त्रियाँ सिर की चोटी गूँथती हैं ।
⋙ खजुराहा
संज्ञा पुं० [सं० खर्जूर वाहक] दे० 'खजुराहो' । उ०— यशोवर्मन् ने खजुराहे में एक मंदिर बनवाया ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ४९४ ।
⋙ खजुराही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खजूर] वह स्थान जहाँ खजूर के बहुत से पेड़ हों ।
⋙ खजुराहो
संज्ञा पुं० [सं० खर्जूरवाहक] मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले का एक गाँव जो चंदेलों की प्रारंभिक एवं धार्मिक राजधानी रहा है । विशेष—यहाँ के मंदिर अपनी स्थापत्य कला की दृष्टि से दर्शनीय हैं । इनका निर्माण नवीं शती से ११ वीं तक माना जाता है । स्थानीय परंपरा के आधार पर यहाँ पहले ८५ मंदिर थे किंतु अब उनमें से २५ रह गए हैं जो अपनी विभिन्न दशाओं में सुरक्षित हैं ।
⋙ खजुरिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० खर्जूरिका] १. एक प्रकार की खजूर जिसके फल कुछ छोटे होते हैं । २. खजूर नाम की मिठाई । ३. एक प्रकार की ईख जो सूरत के आस पास होती है ।
⋙ खजुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खजुली] दे० 'खजुली' ।
⋙ खजुलाना
क्रि० स० [हिं० खुजलाना] दे० 'खुजलाना' ।
⋙ खुजली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० खर्ज्ज] १. दे० 'खुजली' । २. एक प्रकार की काई जिसके छू जाने से खुजली उत्पन्न हो जाती है ।
⋙ खजुली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाजा] खाजे की तरह की एक मिठाई जो चीनी में पगी होती है ।
⋙ खजूर
संज्ञा पुं० [सं० खर्जूर] १. एक प्रकार का पेड़ जो गरम देशों, समुद्र के किनारे या रेतीले मैदानों में होता है । विशेष—इस जाति के पेड़ सीधे खंभे की तरह ऊपर चले जाते हैं औऱ उनके सिरे पर पत्तियाँ बहुत कड़ी, चार अंगुल से छह सात अंगुल तक लंबी, पतली और नुकीली होती हैं और एक सींके या छड़ी के दोनों ओर लगती हैं । पत्ते की यह छड़ी दो तीन हाथ तक लंबी होती है । खजूर कई प्रकार के होते हैं, जिनमें मुख्य दो हैं—एक जंगली, दूसरा देशी । जंगली खजूर को सेंधी, खरक आदि कहते हैं । यह बहुत ऊँचा नहींहोता और हिंदुस्तान में बंगाल, बिहार, गुजरात, करमंडल आदि प्रदेशों में होता है । लगाए हुए खजूर में जड़ के पास अंकुर निकलते हैं, जंगली में नहीं । जंगली के फल भी किसी काम के नहीं होते । ताड़ की तरह इसमें से भी पाछकर एक प्रकार का सफेद रस या दूध निकालते हैं और उसे भी ताड़ी कहते हैं । खजूर की ताजी ताड़ी मीठी होती है और उससे गुड तथा सिरका भी बनाया जाता है । लगाए जानेवाले खजूर को पिंड खजूर कहते हैं । इसका पेड़साठ सत्तर हाथ ऊँचा होता है और जब छह वर्ष के ऊपर का हो जाता है, तब उसके नीचे जड़ के पास बहुत से छोटे छोटे अंकुर निकलते है । इस प्रकार के खजूर सिंध, पंजाब गुजरात और दक्षिण में अधिक होते हैं । वहाँ इनकी खेती की जाती हैं । पौधें बीज से और जड़ के पास के अंकुरों से उत्पन्न किए जाते हैं । पेड़ लगाने के लिये बलुई, दोमट और मटियार सब प्रकार की भूमि काम में लाई जा सकती है? पर पृथिवी में खार का कुछ अंश अवश्य होना चाहिए । तीन तीन से छह वर्ष तक के अंकुर मुख्य पेड़ के पास से खोद लिए जाते हैं और उनकी बड़ी पत्तियाँ काटकर फेंक दी जाती हैं । फिर इन पौधों को तीन फुट गहरे और चौड़े गड्डों में दो ढाई सेर खली मिली हुई खाद के साथ बैठाते हैं । जब पौधा आठ वर्ष से अधिक पुराना होता है, तब वह फलने लगता है । माघ फागुन में बालियाँ निकलती हैं । ये बालियाँ पत्ते के आवरण में लिपटी रहती हैं और पीछे बढ़कर फूल की घौद हो जाती हैं । फल बड़े बड़े घौद में लगते है । जबतक फल पक नहीं जाते, बराबर अधिक पानी देने की आवश्यकता पड़ती है । फल पकने के समय पीले होते हैं । फिर फूल आते है और अंत में लाल हो जाते हैं । इन फलों को छुहारा कहते हैं । सिंधु में पेड़ के पके को खुरमा औऱ पकने के पहले तोड़े हुए फल को छुहारा कहते हैं । इनकी अनेक जातियाँ है, पर नूर आदि अच्छी मानी जाती है । खजुर की लकड़ी बँडेर के काम आती है और इससे पुल भी बनाया जाती है । इसकी पत्तियों के डंठल से घर छाए जाते है और उनकी छड़ी भी बनाई जाती है । इसकी छाल से एक प्रकार की लाल बुकनी निकलती है, जिससे 'चमड़ा रँगा जाता है इसकी छाल चमड़ा सिझाने के भी काम आती है । इससे एक प्रकार का गोंद भी निकलता है, जिसे 'हुकुमचिल' कहते हैं और जो दवा के लिये काम आता है । इसकी नरम पत्तियाँ, जिन्हे गाछी कहते है, सुखाकर रखी जाती है और उनकी तरकारी बनाई जाती है । इसकी छाल के रेशे से रस्सी बटी जाती है । अरब में इसके फूल की बाली आवरण से, जिसे 'तर' कहते हैं, एक प्रकार का गुलाब या केवड़े की तरह का अर्क निकाला जाता है । वैद्यक में इसका फल पुष्टिकारक, वृक्ष वातपित्तनाशक, कफघ्न रूचिकर और अग्निवर्धक माना गया है । २. एक प्रकार की मिठाई जो आटे घी और शक्कर मिलाकर गूँथकर बनाई जाती है । यह खाने में खसखसी और स्वादिष्ट होती है ।
⋙ खजूर छड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खजूर + छड़ी] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जिसपर खजूर की पत्तियों की तरह छाड़ियाँ या धारियाँ होती हैं ।
⋙ खजूरा †
संज्ञा पुं० [हिं० खजूर] १. फूस से छाई हुई छत की बँडेर जो प्रायः खजूर की होती है । मँगरा । २. दे० 'कनखजुरा' ।
⋙ खजूरी (१)
वि० [हिं० खजूर + ई] (प्रत्य०)] १. खजूर संबंधी । खजूर का । २. खजूर के आकार का । खजूर की तरह का । ३. तीन लर का गूँथा हुआ । जैसे,—खजूरी चोटी, खजूरी डोरा ।
⋙ खजूरी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खजूर] खजूर का फल । खजूर । उ०—कोइ बिजौर करौंदा जूरी । कोइ अमिली कोई महुअ खजूरी ।—जायसी (शब्द०) । ३. दे० 'खजूर' उ०—कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ।—जायसी ग्रं०, पृ० १ ।
⋙ खजोहरा
संज्ञा पुं० [सं० खर्जु + घर, प्रा० खज्जु + हर] एक तरह का रोएँदार कीड़ा जिसके शरीर पर रेंगने या छू जाने से खुजली होने लगती है । उ०—डाल पर बड़ा सा था खजोहरा ।—कुकुर०, पृ० ४३ ।
⋙ खज्योति
संज्ञा पुं० [सं०] खद्योत । जुगनू [को०] ।
⋙ खट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कफ । बलगम । २. अंधा कूआँ । ३. घूसा । मुक्का । ४. एक प्रकार की सुगंधित घास । ५. कुल्हाड़ी । ६. हल ।
⋙ खट (२)
संज्ञा पुं० [सं० षट्] १. षाडव जाति का एक राग । विशेष—यह दीपक राग का पुत्र माना जाता है । इसके गाने का समय प्रातः काल एक दंड से पाँच दंड तक है । इसमें मध्य स्वर वादी होता है । कोई कोई इसे आसावरी, ललित टोडी, भैरवी आदि रागिनियों से उत्पन्न संकर राग मानते हैं । २. षट् । छह की संख्या । उ०—(क) येक बार रहस्युँ खट मास ।—बी० रासो, पृ० ३९ । (ख) खट सरदार नमीठ खडग्गे ।—रा० रू०, पृ० २७६ ।
⋙ खट (३)
संज्ञा पुं० [अनु०] दो चीजों के परस्पर टकराने या किसी कड़ी चीज के टूटने से उत्पन्न शब्द । यौ०—खटखट । खटपट । खटाखट । मुहा०—खट से = तुरंत । तत्काल । जैसे—जरा याद दिलाते ही उसने खट से रुपए गिन दिए । उ०—दोनों छम्मीजान के साथ साथ पाटेनाले पर किसी हाफिज जी के बइतुल लुत्फ में खट से जा पहुँचे ।—फिसाना०, भा०१, पृ० ८ ।
⋙ खट (४)
संज्ञा पुं० [हिं०] खाट शब्द का समास में व्यवहृत रूप । जैसे—खटमल, खटवारी, छपरखट आदि ।
⋙ खटक (१)
संज्ञा स्त्री० १. खटकना का भाव । २. खटका ।
⋙ खटक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शादी विवाह करनेवाला । घटक । २. आधी खुली मुट्ठी । ३. घूसा । मुष्टि [को०] ।
⋙ खटकना
क्रि० अ० [अनु०] २. 'खट' 'खट' शब्द होना । खचख— टाहट होना । जैसे, किवाड़ खटकना । २. शरीर में किसीकाँटे आदि के गड़ने या कंकरी, तिनका आदि बाहरी चीजों के आ पड़ने के कारण रह रहकर पीड़ा होना । जैसे,—पैर में काँटा खटकना या आँखों में सुरमा खटकना । ३. बुरा मालूम होना । खलना । जैसे—तुम्हारा यहाँ रहना सब को खटकना है । दे० 'आँख' में खटकना । ४. विरक्त होना । उचटना । हटना । जैसे,—अब तो हमारा जी यहाँ से खटक गया । ५. डरना । भय करना । जैसे, —वह यहाँ आते हुए खटकते हैं । ६. परस्पर झगड़ा होना । आपस में लड़ाई होना । जैसे,—आजकल दोनों भाइयों में खटक गई है । ७. किसी प्रकार के अनिष्ट या अपकार का अनुमान होना । अनिष्ट की भावना या आशंका होना । जैसे,—हमें यह बात उसी समय खटकी थी; पर कुछ सोचकर हम चुप रह गए । ८. अनुपयुक्त जान पड़ना । ठीक न जान पड़ना । जैसे,—यह शब्द कुछ खटकता है, बदल दो । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ खटकनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खटकना] खट खट । खट खट करती हुई आवाज । उ०—खटकनि ढालन की अरु झनकन तरवा— रन ।—प्रेमघन०, भा०१, पृ० १३ ।
⋙ खटकरम पु
संज्ञा पुं० [सं० षट्कर्म] दे० 'षट्कर्म' । उ०—ज्ञानहीन के सुन खटकरमा । धर्मदास उनके ये धर्मा ।—कबीर सा०, पृ० ८१९ ।
⋙ खटकरमा †पु
वि० षट्कर्म करनेवाला । षटराग फैलानेवाला ।
⋙ खटकर्म
संज्ञा पुं० [सं० षट्कर्म] दे० 'षट्कर्म' । उ०—हमके तुमके सबके छूई एह खटकर्म बनाई ।—सं० दरिया, पृ० ९३ ।
⋙ खटका
संज्ञा पुं० [हिं० खटकना] १. 'खट खट' शब्द । जैसे, जरा सा खटका होते ही पक्षी उड़ गए २. डर । भय । आशंका । उ०—अब कोई खटका नहीं है; बासमती कुछ कर नहीं सकती ।—अयोध्या (शब्द०) । क्रि० प्र०—लगना ।—मिरना ।—होना ।—पड़ना ।—होना । ३. चिंता । फिक्र । जैसे,—तुम्हारे न आने के कारण रात भर सबको खटका लगा रहा । क्रि० प्र०—लगना ।—मिटना ।—होना ।—पड़ना । ४. किसी प्रकार का पेंच, कील या कमानी, जिसको सहायता किसी प्रकार का आवरण खुलता या बंद होता हो अथवा इसी प्रकार का और कोई कार्य होता हो । जैसे,—(क) खटका दबाते ही दरवाजा खुल गया । (ख) खटका दबाते ही सारे कमरे में बिजली का प्रकाश हो गया । क्रि० प्र०—दबाना । मुहा०—खटके पर होना = खटके के सहारे रहना । जैसे— 'कमर' के बीच खटके पर एक चौकोर पत्थर था, जो ऊपर से दबाते ही नीचे की ओर झुलने लगा ।' ५. किवाड़े की सिटकिनी । बिल्ली । क्रि० प्र०—गिराना ।—लगाना । ६. बाँस का वह टुकड़ा जो फलदार वृक्षो में पक्षियों को डराकर उड़ाने के लिये बाँधा जाता है । इसके नीचे जमीन तक लटकती हुई एक लंबी रस्सी बंधी रहती है, जिसे हिलाने या झटका देने से वह टुकड़ा किसी डाल या तने से टकराकर 'खट' 'खट' शब्द करता है । खटखटा । खड़खड़ा । क्रि० प्र०—लगाना । बाँधना ।
⋙ खटकाना
क्रि० स० [हिं० खटकना] १. 'खट' 'खट' शब्द करना । किसी वस्तु पर इस प्रकार आघात करना जिसमें खट खट शब्द हो । जैसे,—किवाड़ खटकाना, जंजीर खटकाना । २. शंका उत्पन्न करना । भड़काना (क्व०) । ३. बिगाड़ करा देना । झगड़ा करा देना ।
⋙ खटकामुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. नृत्य में एक प्रकार की चेष्टा । २. तीर चलाने का एक आसन । ३. बाण चलाने के समय हाथों की मुद्रा (को०) ।
⋙ खटकीड़ा, खटकीरा
संज्ञा पुं० [हिं० खाट + कीरा] दे० 'खटमल' ।
⋙ खटकना पु
क्रि० सं० [हिं० खटकना] दे० 'खटकना' । उ०— खटक्कै खटं सो विहू सूर वारे ।—प०, रासो, पृ० ८२ ।
⋙ खटक्किका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गवाक्ष । खिड़की [को०] ।
⋙ खटक्रम पु †
संज्ञा पुं० [सं० षट् कर्म; प्रा० खटक्रम्म] दे० 'षट्' कर्म । उ०—खटक्रम सहित जे विप्र होते हरि भगति चित दृढ़ नाहीं रे ।—रै० बानी, पृ० ४१ ।
⋙ खटखट
संज्ञा पुं० [अनु०] १. 'खट' 'खट' शब्द । २. झंझट । झमेला । जैसे—इस काम में बड़ी खटखट है; यह हमसे न होगा । ३. लड़ाई । झगड़ा । जैसे,—रात दिन की खटखट बुरी होती है ।
⋙ खटखटा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खटका—६' ।
⋙ खटखटाना
क्रि० स० [अनु०] १. खट खट शब्द करना । किसी वस्तु को ठोंकना या पीटना । खड़खड़ाना । जैसे—दरवाजा या कुंडी खटखटाना । स्मरण करना । याद दिलाना । जैसे—बीच बीच में उसे खटखाटाए चलो, रुपया मिल ही जायगा ।
⋙ खटखटिया †
संज्ञा पुं० [अनु०] खट खट शब्द करनेवाली काठ की चट्टी । कठनहीं । (बोल०) ।
⋙ खटखटिया †
वि० [अनु०] दे० 'खटपटिया' (बोल०) ।
⋙ खटखादक
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रृगाल । सियार । २. कौआ । ३. पशु । जानवर । ४. शीशे का पात्र या बर्तन । ५. खानेवाला प्राणी [को०] ।
⋙ खटना
क्रि० स० [देश० खट्टण] धन उपार्जन करना । कमाना । (पश्चिम) २. अधिक परिश्रम करना । कड़ी मेहनत करना । जैसे—दिन रात खट खट कर तो हमने मकान बनवाया और आप मालिक हनकर आ बैठे । ३. कठिन समय में ठहरे रहना । विपत्ति में पीछे न हटना । १. प्राप्त करना । पाना । उ०—धन वे पुरुष बड़ा पणाधारी, खालक सिरोमण सुजस खटै ।—रघु० रू०, पृ० २४ । ५. ढूढ़ना । खोजना । उ०—खित हुर अपच्छन वीद खटै । किरमाल वहै वरमाल कटै ।—रा०, रू०, पृ० ३६ ।
⋙ खटपट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. अनबन । लड़ाई । झगड़ा । जैसे—(क) उन दोनों में न जाने क्यों खटपट हो गई है । (ख) रोज रोज की खटपट अच्छी नहीं । दो कठोर वस्तुओ के टकराने का शब्द । 'खट खट' का शब्द । उ०—अंग बचाय उछरि पग धरैं । झपटहिं गदा गदा सों लरैं । खटपट चोट गदा फट— कारी । लागन शब्द कोलाहल भारी ।—लल्लु (शब्द०) । ३. झमेला । आल जाल । झझट । बखेड़ा । उ०—ठाकुर कहत कोऊ हरि हरिदास जे वे तिनकौं न व्यापैं जे दुनी के खटपट हैं । ठाकुर श०, पृ० १३ । ४. ऊहापोइ । संशय । उ०— जो मन की खटपट मिटै, चटपट दरसन होय ।—संतबानी भा०१, पृ० ५६ ।
⋙ खटखटिया
वि० [हिं० खटपट] लड़ाई करनेवाला । झगडा़लू ।
⋙ खटपटी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खटपट—१' । उ०—भीख मागि बरु खाय खटपटी नीक न लागै । भरी गोन गुड़ तजै तहाँ से साँझै भागै ।—पलटू० पृ० ७ ।
⋙ खटपद
संज्ञा पुं० [सं० षटपद] दे० 'षट्पद' ।
⋙ खटपदी
संज्ञा स्त्री० [सं० षट्पदी] दे० 'षट्पदी' ।
⋙ खटपाटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाट + पाटी] खाट की पाटी । उ०— लचि लाय रही खटपाटी करौट लै मानो महोदधि को तट ज्यों । कटु बोल सुनो पटुता मुख की पदु दै पलटी पलटी पर ज्यों ।—देव (शब्द०) । मुहा०—खटपाटी लेना या लगना = हठ या क्रोध के कारण स्त्रियों का काम धधा छोड़ देना ।
⋙ खटपापड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] करमई नाम का पेड़ जिसे अमली भी कहते हैं ।
⋙ खटपूरा
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड्ड + पूरा] मिट्टी तोड़कर बराबर करने की मुँगरी ।
⋙ खटबुना
संज्ञा पुं० [हिं० खाट + बुनना] खाट या चारपाई आदि बुननेवाला ।
⋙ खटभिलावाँ
संज्ञा पुं० [देश०] पियाल नामक वृक्ष जिसमें चिरौंजो होती है ।
⋙ खटभेमल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़ । विशेष—यह हिमालय की तराई, आसाम, बंगाल और दक्षिण भारत में होता है । इसकी पत्तियाँ बहुत छोटी छोटी होती हैं और चारे के काम में आति हैं । जेठ से कुआर तक इसमें एक प्रकार के पिले छोटे फूल और तदुपरांत मटर के समान छोटे फल लगते हैं, जो पकने पर काले हो जाते हैं ।
⋙ खटमल
संज्ञा पुं० [हिं० खाट + मल = मैल] मटमैले उन्नबी रग का एक प्रसिद्ध कीड़ा जो गरमी में मैली खाटों, कुरसियों और विस्तरों आदि में उत्पन्न होता है । खटकीड़ा । उड़स । विशेष—यह अपने डंक द्वारा मनु्ष्य के शरीर से रक्त चूसता है । यह आकार में प्रायः उरद के दाने के बराबर होता है; और इसके अंडे बहुत छोटे छोटे और सफेद होते हैं । अंडे से निकलने के प्रायः तीन मास बाद यह पूरे आकार का होता है । इसे छूने से बहुत बुरी दुगँध निकलती है । बहुत अधिक गरमी या सरदी में यह मर जाता है ।
⋙ खटमली
विव० [हिं० खटमल] खटमल के रंग का । गहरा उन्नाबी या खैरा (रंग) ।
⋙ खटमिट्ठा
वि० [हिं० खट्टा + मीठा] कुछ खट्टा और कुछ मीठा । जिसमें खट्टा और मीठा दोनों स्वाद हों ।
⋙ खटमीठा
वि० [हिं०] दे० 'खटमिट्ठा ।
⋙ खटमुख
संज्ञा पुं० [सं० षट्मुख] दे० 'षट्मुख' ।
⋙ खटमुत्ता †
वि० [हिं० खाट + मूतना] खाट पर मूतनेवाला (बालक) ।
⋙ खटरस
वि० [सं० षटरस] दे० 'षटरस' ।
⋙ खटराग (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'षटराग' ।
⋙ खटराग (२)
[सं० खटराग = कई चीजों का मेल] १. झंझट । बखेड़ा । उ०—प्यारी की गिलहरी क्या कम खटराग है न कि बच्चों का पालना ।—फिसाना०, भा०, ३, पृ० २९० । क्रि० प्र०—करना ।—फैलाना ।—मचाना । २. अंगड़ खंगड़ । काठ कबाड़ । व्यर्थ और अनावश्यक चीजें । क्रि० प्र०—फैलाना ।
⋙ खटरिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का कीड़ा ।
⋙ खटलर
संज्ञा पुं० [देश०] सान धरनेवालों का एक औजार जो लकड़ी का होता है ।
⋙ खटला (१)
संज्ञा पुं० [देश०] स्त्रियों के कानों का छेद जिसमें वे बालियाँ बहनती हैं ।
⋙ खटला (२)
संज्ञा पुं० [सं० कलत्र] स्त्री और बाल बच्चे । परिवार । कुटुंब (दक्षिण) ।
⋙ खटवाँस †
संज्ञा पुं० [सं० खट्वा + वास] रूसकर खाट पर पड़ जाने की स्थिति । दे० 'खटवाट' । उ०—यहाँ वह खटवाँस लेकर पड़ी अब पकवान कौन बनाये ।—काया०, पृ० १२२ ।
⋙ खटवाट पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खटपाटी (२)' । उ०—मैं तोहिं लागि लेति खटवाटू । खोजति पतिहि जहाँ लगि घाटू ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ खटवाटी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खटपाटी' ।
⋙ खटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खट्टा] १. खट्टापन । अम्लता । तुरशी । २. वह वस्तु जिसका स्वाद खट्ठा हो । जैसे, आम, इमली आदि । मुहा०—खटाई देना या खटाई में देना = गहने आदि को साफ करने के लिये खटाई में रखना । खटाई में डालना = बहुत दिनों तक व्यर्थ किसी चीज या काम को लेकर लटकाए रखना । झमेले में डालना । दुविधा में डालना । कुछ निर्णय न करना । खटाई में पड़ना = दुबिधा में पड़ना । अनिशिचत दशा में होना । विशेष—सोनारों को जब चीज बनाने को दी जाती है, तब तकाजा करने पर वे कभी कभी कह देते हैं कि वह अभी खटाई में पड़ी है ।
⋙ खटाक
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'खटाका' । मुहा०—खटाक से = दे० 'खट से' । उ०—लगे किवाड़ों को खटाक से खोल जोर से टकराता ।—आर्द्रा, पृ० १२१ ।
⋙ खटाका
संज्ञा पुं० [अनु०] 'खट' का शब्द ।
⋙ खटाखट (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] 'खट खट' का शब्द ।
⋙ खटाखट (२)
क्रि० वि० १. खटखट शब्द के साथ । २. चटपट । जैसे,—तकाजा नहीं करना पड़ा; सूरत देखते ही उसने खटाखट रुपए गिन दिए । ३. जल्दी । शीघ्र ।
⋙ खटाना (१)
क्रि० अ० [हिं० खट्टा] किसी वस्तु में खट्टापन आ जाना । खट्टा होना । जैसे,—सिरके का खटाना ।
⋙ खटाना (२)
क्रि० अ० [सं० स्कभ,> स्कब्ध, प्रा० खड्ड = ठहरा हुआ] १. निर्वाह होना । गुजारा होना । टिकना । निभना । उ०—(क) सहज एकाकिन के भवन, कबहुँ न नारि खटाहिं । —तुलसी (शब्द०) । (ख) ज्यों जल मीन कमल मधुपन को छिन नहिं प्रीति खटाति ।—सूर (शब्द०) । २. परीक्षा में ठहरना । उ०—जो मन लागै रामचरन अस । ....... द्वद्वरहित गतमान ज्ञानरत विषयाविरत खटाय नाना कस ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खटाना (३) †
क्रि० स० [हिं० खटना] श्रम में प्रवृत्त करना । मेहनत कराना ।
⋙ खटापट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खटपट' ।
⋙ खटापटी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खटपट' ।
⋙ खटमिठा
वि० [हिं०] दे० खट्टा मिठ्ठा । उ०—खावते जुग सब चलि जावे । खटामिठा फिर पछतावे ।—दक्खिनी०, पृ० १०५ ।
⋙ खटारना पु
क्रि० स० [सं० क्षालन या देश०] पखारना । धोना । उ०—इतना करि तब चरण खटारो । होय अधीन तब मन को मारो ।—कबीर सा०, पृ० ५५८ ।
⋙ खटाल † (१)
संज्ञा पुं० [बँ० कटाल] समुद्र की ऊँची लहर जो पूर्णिमा के दिन उठती हैं ।
⋙ खटाल † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] वह स्थान या घेरा जहाँ गाय भैंस आदि रखी जाती है ।
⋙ खटाव (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खटाना] निर्वाह । गुजर । जैसे,—तुम्हारी ऐसी बुरी आदत है कि किसी के साथ तुम्हारा खटाव नहीं हो सकता । २. खटने या श्रम करने की स्थिति । ३. खट्टापन । खटास ।
⋙ खटाव (२)
संज्ञा पुं० [देश०] वह खूँटा जिसे गाड़कर नाव बाँधते हैं ।
⋙ खटास (१)
संज्ञा पुं० [सं० खट्वाश] मुशकबिलाई । गंधाबिलाव ।
⋙ खटास (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खट्टा] खट्टापन । खटाई । तुरशी ।
⋙ खटिक (१)
संज्ञा पुं० [सं० खटिटक] [स्त्री० खटकिन] हिंदुओं के अंतर्गत एक छोटी जाति जिसका काम फल तरकारी आदि बोना और बेचना है । बुदेलखंड में इस जाति के लोग भंग औग बिहार में ताड़ी भी बेचते हैं ।
⋙ खटिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अर्धविकसित हस्ताग्र । आधी खुली मुठ्ठी [को०] ।
⋙ खटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'खड़िया' । उ०—सेष सुकृति, सुचि, सत्वगुन, संतनि के मन हास । सीपि चून, भोड़र फटिक, खटिका फेन प्रकाश ।—केशव ग्रं०, भा०१, पृ० ११२ । २. कान का बाहरी छिद्र । कान का छेद (को०) ।
⋙ खटिकायुग
संज्ञा पुं० [सं० खटिका + युग] खटिका नामक एक धातु— विशेष का काल या युग । उ० —द्वितीय कल्प के अंतिम भाग खटिका युग से एक भारी भूकंपों का सिलसिला शुरू हुआ ।— भारत० नि०, पृ० १९ ।
⋙ खटिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खड़िया [को०] ।
⋙ खटिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाट + इया (प्रत्य०)] छोटी चारपाई या खाट । खटोली । मुहा०—खटिया मचमचातो निकलना = मृत्यु प्राप्त करना । मृत्यु की स्थिती को प्राप्त करना (स्त्रियां) । उ०—अल्ला करे अठवारे ही खटिया मचनचाती निकले ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २२८ । विशेष—इस शब्द के मुहावरों के लिये 'खाट' शब्द देखें ।
⋙ खटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खड़िया [को०] ।
⋙ खटीक पु
संज्ञा पुं० [हिं० खटिक] १. दे० 'खटिक (१)' । २. कसाई । बकरकसाई । उ०—कबीर गाफिल क्या करै आया काल नजीक । कान पकरि के लै चला, ज्यों अजयाहिं खटिक ।— कबीर सा०, सं०, पृ० ७९ ।
⋙ खटुली
संज्ञा स्त्री० [हिं० खटोला का अल्पा०] खटोली । खटिया । (बोल०) ।
⋙ खटेटी †
वि० [हिं० खाट + एटी(प्रत्य०)] जिसपर बिछौना न हो । जैसे—खटेटी खटिया ।
⋙ खटोलना
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'खटोला' । उ०—चंदन खाट को बनल खटोलना तापर दुलहिन सूतल हो ।—कबीर श०, पृ० २ ।
⋙ खटोला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खाट + ओला (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० खटोली] छोटी खाट या चारपाई । यौ०—उड़न खटोला ।
⋙ खटोला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्राचीन देश का नाम जो बुँदेलखंड़ के अंतर्गत था । यहाँ भीलों की वस्ती अधिक थी । वर्तमान सागर, दमोह आदि जिले उसी के अंतर्गत हैं । उ०—पूछो जहाँ कुंड़ औ गोला । तजि बायें अँधियार खटोला ।—जायसी (शब्द) ।
⋙ खटोली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खटोला (१)' ।
⋙ खट्ट
वि० [सं०] खट्टा [को०] ।
⋙ खट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] खट्वा । चारपाई ।
⋙ खट्टन (१)
वि० [सं०] नाटा । खर्व । ठिंगना ।
⋙ खट्टन (२)
संज्ञा पुं० बौना व्यक्ति । ठिंगना आदमी [को०] ।
⋙ खट्टना पु †
क्रि० स० [देश०] उपार्जन करना । जीतना ।—रा० रू०, पृ० १९९ ।
⋙ खट्टा (१)
वि० [सं० कटु] कच्चे आम, इमली आदि के स्वाद का । तुर्श । अम्ल । मुहा०—खट्टा होना = अप्रसन्न् होना । नाराज होता । खट्टा खाना = अप्रन्न रहना । मुँह फुलाना । जी खट्टा होना = चित्त अप्रसन्न होना । दिल फिर जाना । यौ०—खट्टाचूक । खट्टामीठा । खट्टामिठा ।
⋙ खट्टा (२)
संज्ञा पुं० [ हिं० खट्टा] नीबू की जाति का ए क बहुत छोटा फल जिसे गलगल भी कहते हैं ।
⋙ खट्टा (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलंग । चारपाई । २. एक प्रकार का तृण (को०) ।
⋙ खट्टाचूक
वि० [हिं० खट्टा + चूक] बहुत अधिक खट्टा ।
⋙ खट्टामीठा
वि० [हिं० खट्टा + मीठा] कुछ खट्टा और कुछ मीठा खाटमिठ्ठा । मुहा०—जी खट्टामीठा होना = मुँह में पानी भर आना । जी ललचना ।
⋙ खट्टाश
संज्ञा पुं० [सं०] गंधविलाव । खटास [को०] ।
⋙ खट्वाशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मादा गंधबिलाव [को०] ।
⋙ खटि्ट
संज्ञा स्त्री० [सं०] अरथी, जिसपर शव ले जाते हैं [को०] ।
⋙ खट्टिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसाई । पशुधातक । २. शिकारी । बहेलिया । ३. भैंस के दूध का मक्खन (को०) ।
⋙ खटि्टका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी चारपाई । खटिया । २. अरथी । ३. कसाइन । कसाई की स्त्री [को०] ।
⋙ खट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खट्टा] १. खट्टी नारंगी । २. एक प्रकार का बड़ा नीबू जिसका अचार पड़ता है और जो बहुत अधिक खट्टा होता है ।
⋙ खटटीमिट्ठी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खट्टीमीठी' ।
⋙ खट्टीमीठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खट्टी + मीठी] एक प्रकार का लता ।
⋙ खट्टू (१)
संज्ञा पुं० [देश०] जैसलमेर में होनेवाला एक प्रकार का संग मरमर, जिसका रंग पीला होता है ।
⋙ खटटू (२)
संज्ञा पुं० [पं० खटना = रुपया पैदा करना] कमानेवाला । निखटटु का उलटा ।
⋙ खट्टेरक
[सं०] खर्व । ठिंगना [को०] ।
⋙ खट्वर
वि० [सं०] खट्टा । तुर्श [को०] ।
⋙ खट्वांग
संज्ञा पुं० [सं० खट्वाङ्ग] १. एक सुर्यवंशीय पौराणिक राजा का नाम, जिसका वर्णन भागवत में आया है । २. चारपाई का पाया या पाटी । ३. शिव के एक अस्त्र का नाम । यौ०—खट्वांगधर । खट्वांगभृत = दे० 'खट्वांगी' । ४. एक प्रकार का पात्र जिसमें प्रायश्चित्त करते समय भिक्षा माँगी जाती है । ५. तंत्र के अनुसार एक प्रकार की मुद्रा जिससे देवता बहुत प्रसन्न होते है ।
⋙ खट्वांगी
संज्ञा पुं० [सं० खट्वाङ्गिन] शिव [को०] ।
⋙ खट्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खटिया । चारपाई । सुश्रुत के अनुसार फोड़ा आदि बाँधने की १४ प्रकार की पट्टियों में से एक, जिसका व्यवहार माथे या गले आदि को बाँधाने के लिये किया जाता है । ३. दोला । झूला (को०) ।
⋙ खट्वाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी खटिया [को०] ।
⋙ खट्वाप्लुत
वि० [सं०] दे० 'खट्वारूढ़' [को०] ।
⋙ खट्वारूढ़
वि० [सं०] १. खाट पर पड़ा हुआ । पथभ्रष्ट । २. नौच कुत्सित । ३. पामर । दुर्जन । ४. मंदबुद्धि । जड़मति [को०] ।
⋙ खटविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी खाट [को०] ।
⋙ खड़ंजा
संज्ञा पुं० [हिं० खड़ा + अंग] ईटों की खड़ी चुनाई । खड़ी ईटों का जोड़ना । (ऐसी जोड़ाई फर्श पर होती है ।) क्रि० प्र०—जोड़ना ।
⋙ खड़
संज्ञा पुं० [सं० खड] १. धान की पेड़ी । पयाल । तृण । घास । उ०—आप लोग बाँस, खड़, सुतली और दूसरा दरकारी चीज का इंतजाम कर देगा ' ।—मैला० पृ० ५ । ३. श्योनाक । ४. एक ऋषि का नाम । ५. चाँदी, सोने आदि की बुकनी, जिसकी सहायता से गिलट की हुई चीजों पर जिला करते हैं ।
⋙ खड़क
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'खटक' ।
⋙ खड़कना
क्रि० अ० [अनु०] [संज्ञा खड़खड़ाहट] 'खड़खड़' शब्द होना । वि० दे० 'खटकना' ।
⋙ खड़का
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खटका' ।
⋙ खड़काना
क्रि स० [हिं०] दे० 'खटकाना' ।
⋙ खड़क्किका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गवाक्ष । खिड़की [को०] ।
⋙ खड़क्की
संज्ञा स्त्री० [सं०] झरोखा । खिड़की [को०] ।
⋙ खड़खड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'खटखट' ।
⋙ खड़खड़ा
संज्ञा पुं० [अनु०] १. दे० 'खटखटा' या 'खटका'—६ । २. काठ का एक प्रकार का ठाँचा जिसमें जोतकर गाड़ी के लिये घोड़े सधाए या निकाल जाते है ।
⋙ खड़खड़ाना (१)
क्रि० अ० [हिं० खड़खड़] खड़खड़ शब्द करना । जैसे,—बाग में सूखी पत्तियाँ खड़ाखड़ा रही हैं ।
⋙ खड़खड़ाना (२)
क्रि स० किसी वस्तु में खड़खड़ शब्द उत्पन्न करना । जैसे,—वह कुंड़ी खड़खड़ा रहा है ।
⋙ खड़खड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़खड़ाना] १. 'खड़खड़' शब्द । २. खड़खड़ाना भाव या क्रिया ।
⋙ खड़खड़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़खड़ाना] १. पालकी जिसे चार कहार उठाते है । पीनस । २. काठ का गाड़ीनुमा वह ढाँचा जिसमें जोतकर नए घोड़ों को गाड़ी खींचने योग्य बनाया जाता है ।
⋙ खड़ग पु
संज्ञा पुं० [सं० खड्ग] दे० 'खड्ग' ।
⋙ खड़गी पु (१)
वि० [सं० खडगिन्] तलवार लिए हुए । तलवारवाला ।
⋙ खड़गी पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० खड्गी] गैंडा नामक जंतु ।
⋙ खड़नी
संज्ञा पुं० [सं० खड्गी] दे० 'खड़गी' । उ०—खड़जी खजाने, खरगोस खिलवतखाने, खोले खसखाने खाँसत खबीस हैं ।— भूषण (शब्द०) ।
⋙ खड़ना (१)पु †
क्रि० अ० [सं० खेटन, प्रा० खेटणउ] चलना । गमन करना । उ०—(क) ढोलउ पूगल पंथसिरि आणँद अधिक खड़ंति ।—ढ़ोला०, दू० ४२३ । (ख) पहला दल पेशोर थी, खड़ आया लाहौर ।—रा० रू०, पृ० २६ ।
⋙ खड़ना (२)पु †
क्रि० स० चलाना । चलने के लिये प्रेरित करना । हाँकना । उ०—(क) इसवर सीय सेस चढ़े रथ ऊपर । तहक सारथी खड़े तुरंग ।—रघु० रू०, पृ १०९ । (ख) खेतासर फिर राव खिसांणौ । वल खड़िया देखवा सिवाँणो ।—रा० रू०, पृ० ६२ ।
⋙ खड़बड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. खड़खड़ । खटखट । २. व्यतिक्रम । गड़बड़ । उलटफेर । ३. हलचल । ४. दे० 'खटपट' ।
⋙ खड़बड़ाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] १. विचलित होना । घबराना । उ०—छत्री खेत बोहारिया, चढ़ा दई की गोद । कायर कापैं खड़बड़ै, सूरा के मन मोद ।— दरिया० बानी, पृ० ११ । २. क्रमहीन होना । बेतरतीब होना ।
⋙ खड़बड़ाना (२)
क्रि० स० १. किसी वस्तु को उलट पलटकर 'खड़बड़' शब्द उत्पन्न करना । २. क्रमविहीन करना । उलट फेर करना । ३. विचलित करना । घबरा देना ।
⋙ खड़बड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़बड़ाना] 'खड़बड़ाना' का भाव । खड़बड़ी ।
⋙ खड़बड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़बड़ाना] १. व्यतिक्रम । उलटफेर । २. हलचल । घबराहट ।
⋙ खड़बिड़ा
वि० [हिं० खड्ड + सं० विघट, प्रा बिहड़] ऊँचा नीचा । असमतल ।
⋙ खड़बोहड़ †
वि० [हिं०] दे० 'खड़बिड़ा' ।
⋙ खड़भड़
क्रि० वि० [अनु०] अस्तव्यस्त । इतस्ततः । उ०—हरि पाखैं नहिं कहूँ ठाँम । पीव बिन खड़भड़ गाँव गाँव ।—दादू०, पृ० ६५१ ।
⋙ खड़मंडल
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड + मण्डल] १. गड़बड़ । घोटाला । २. अस्तव्यस्त । इतस्ततः ।
⋙ खड़सान
संज्ञा पुं० [हिं० खरसान] दे० 'खरसान' ।
⋙ खड़हड़
क्रि० वि० [अनु०] आवाज करती हुई । धडा़मसे । धमाके के साथ । उ०— ऊभी थी खड़हड़ पडी़, जाणे उसी भुयंगि ।— ढोला० दू० २३९ ।
⋙ खड़हड़ता पु †
वि० [प्रा० खड़हड़ ] व्यग्र । हिलता डुलता । कंपित । उ०— सो थांभै भुजडंड सूँ,खड़हड़तो ब्रहमंड । —बांकी ग्रं०, भा० १, पृ० ६ ।
⋙ खड़हड़ना पु †
क्रि० अ० [अनु०] खटकना । गड़ना । चुभना । उ०— गया गलंती राति परजलती पाया नहीं । सं० सज्जण परभाति, खड़हड़िया खुरसाँण ज्यूँ । — ढोला०, दू० ३८० ।
⋙ खडा़
वि० [सं० खडक = खम्भा, थूनी ] [वि० स्त्री० खडी़] १. धरा— तल से समकोण पर स्थिति । सीधा ऊपर को गया हुआ । ऊपर को उठआ हुआ । जैसे, — खडी़ लकीर, खडा़ बाँस, झंडा खडा़ करना । क्रि० प्र०—करना ।—रखना ।—रहना ।—होना । २. जो (प्राणी) पृथ्वी पर पैर रखकर टाँगों को सीधा करके अपने शरीर को ऊँचा किए हो । दडायमान जैसे, — इतना सुनते ही वह खडा़ हो गया और चलने लगा । क्रि० प्र० —करना ।—रहना ।—होना । मुह० —खडा़ जवाब = तुरंत अस्वीकार । वह इनकार जो चटपट किया जाय । खडा़ दाँव = जूए का वह दाँव जो जुआरी उठते उठाते समय लगाते हैं । खडा़ होना = (१) सहायता देना । मदद करना । जैसे,—कोई किसी की विपति में नहीं खडा़ होता । (२) किसी चुनाव में उम्मीदवार होना । खडी़ पछाड़े खाना = क्रोध या शोक से पृथ्वी पर गिर पड़ना । खड़ी लगाना = सिर्फ पाँव के सहारे खड़े तैरना । उ०—पानी ने बीस कदम पीछे हटा दिया । कभी मल्लाही चीरते थे, कभी खड़ी लगाते थे ।—फिसाना०, भा०, ३, पृ० १३० । खड़ी सवारी = (किसी के आवागमन के सबंध में व्यंग्यार्थ प्रयुक्त) तुरंत । झटपट । शीघ्र । खड़े खड़े = (१) खड़े रहने की दशा में । जैसे,—खड़े खड़े पानी मत पीओ । (२) तुरंत । झटपट । जैसे,—यों खड़े खड़े कोई काम नहीं होता । खड़े घाट = (१) एक दिन के भीतर ही कराई जाने— वाली कपडों की धुलाई । (२) झटपट । तुरंत । ढके पाँव = (१) बीच में बिना रूके या बैठे । (२) झटपट । तुरंत । खड़े बाल निगलना = अत्यंत हानि कर काम करना । अनुचित काम करना । उ०—खड़े बाल निगलनेवाले हैं ।—चुभते०, पृ० ४ । ३. ठहरा हुआ । टिका हुआ । रूका हुआ । स्थिर । जैसे,—इस तरह यहाँ दीवार सब तक खड़ी रहेगी । ४. प्रस्तुत । उप— स्थित । उत्पन्न । तैयार । पैदा । जैसे,—दाम खड़ा करना झगडा़ खड़ा करना, मामला खड़ा करना । जैसे,—(क) उसने अपना दाम खड़ा कर लिया । (ख) उसने बीच में एक नई बात खड़ी कर दी । ५. संनद्ध । उद्यत । तैयार । जैसे,— (क) जिस काम के लिये आप खड़े होंगे, वह कयों न होगा । (ख) बात समझते नहीं, लड़ने की खड़े हो जातो हो । मुहा०—खड़ा दोना = मिठाई आदि जो किसी पीर को चढा़ई जाय । ६. आरंभ । जारी । जैसे,—काम खड़ा करना । ७. (घर, दीवार आदि ऊँची वस्तुओं के विषय में) स्थपित निर्मित । उठा हुआ । जैसे,—इमारत खड़ी करना, तंबू खड़ा करना । मुहा०—खड़ा करना = ठाँचा खड़ा करना । स्थूल रूप से आकार आदु बनाना । जैसे,—तुम्हारा कुरता खडा़ कर चुके हैं, सीना बाकी है । ८. जो उखाडा़ न गया हो । जो काटा न गया हो । जैसे,—खड़ी फसल, खडा़ खेत । ९. बिना पका । असिद्ध । कच्चा । जैसे,— खडा़ चावल । १०. समूचा । पूरा । जैसे,—खडा़ चना चबाना । ११. जिसमें गति न हो । ठहरा हुआ । स्थिर । जैसे,—खडा़ पानी । क्रि० प्र०—करना ।—रहना ।—होना ।
⋙ खडा़ऊँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ + पाँव या 'खटखट' अनु०] पैर में पहनने के लिये तलुए के आकार की, काठ की पटरी । इसमें आग की ओर एक खूँटी लगी होती है, जिसे पहनने के समय पैर के अँगूठे ओर उसके पास की उँगली में अटका लेते हैं । पादुका ।
⋙ खडा़का (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. खड़ खड़ शब्द । खटका । २. आघात । रव । प्रतिध्वनि । दकराहट । उ०—जीरन के ऊपर खडा़के खड़गन के ।—भूषण ग्रं०, पृ० ३३० ।
⋙ खडा़का (२)
क्रि० वि० चटपट । शीघ्रता से ।
⋙ खडादसरंग
संज्ञा पुं० [देश०] कुश्ती का एक पेंच ।विशेष—इसमें प्रतिद्वंद्वी की जाँघ में अपना हाथ अडा़कर उसी के बल के उसके उस हाथ को, जो अपने पेट पर हो, दबाकर उसकी पीठ पर जाना और उसे मरोड़ा दोकर गिराना पड़ता है । इसे हनुमंत बंध भी कहते हैं ।
⋙ खडा़नन पु
संज्ञा पुं० [सं० षडानन] दे० 'षडानन' ।
⋙ खडा़ पठान
संज्ञा पुं० [देश०] जहाज के पिछले भाग का मस्तूल ।— (लश०) ।
⋙ खड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० खडिका] खड़िया [को०] ।
⋙ खड़िया (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खरिया] रुपया पैसा रखने की थैली । उ०—ता पाछे जब वैषेणवन जाइबे की कहे तब कृष्ण भट रात्रि कों उनकी गाँठ खड़िया खौलि खरची बाँधि देतै ।—दो सौ० बावन०, भा० १, पृ० २७ ।
⋙ खड़िया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खटिका, खड़िका] एक प्रकार की सफेद मिट्टी या पत्थर की जाति का एक बहुत मुलायम सफेद पदार्थ । विशेष—यह जमीन के अंदर शंख, घोंघे आदि जानवरों की हडिडयों के चूने से आप ही आप जमकर बनता है । खड़िया इंगलैड में लंडन के आसपास और फ्रांस के उत्तरी भाग में बहुत होती है । इससे दीवारों पर चूने की भाँति सफेदी की जाती है और अनेक प्रकार की धातुएँ साफ की जाती हैं । प्रायः काले तख्तों पर इससे लिखा बी जाता है । यह कई प्रकार की होती है । २. एक प्रकार की खड़िया जो बहुत कडी़ होती है । खरिया । खड़ी । छुही । उ०—मोरियों पर ढकने के लिये सक्खर का सफेद खड़िया पत्थर काम में आता था ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १९ । विशेष—यह इमारतों में पत्थर के स्थान पर काम आती है । एक और प्रकार की खड़िया काली होती है जो स्लेट के अंतर्गत है । मुहा०—खड़िया में कोयला = बेमेल बात । अच्छे के साथ बुरे का संयोग ।
⋙ खड़िया (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड या हिं० खडा़] अरहर का वह पेड़ या बडा़ डंठल जिसमें पत्तियाँ या फलियाँ बिलकुल न हों । खाडी़ । रहठा ।
⋙ खड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० खडी] खड़िया । खड़िया मिट्टी । छुही ।
⋙ खड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खडा़ = सीधा] १. पहाड़ । पर्वत । २. दे० 'बारहखडी़' ।
⋙ खड़ी चढा़ई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़ी + चढा़ई] बहुत थोडी़ ढाल— वाली सीधी चढा़न की भूमि ।
⋙ खड़ी डंकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] मालखँभ की एक कसरत ।
⋙ खड़ीण †
संज्ञा स्त्री० [देश०] खडुड की सूखी हुई वह जमीन जो जल से जोती बोई जाती है । उ०—जेहल ताल खड़ीण ह्नै, तरवर लाकड़ होय ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १० ।
⋙ खड़ी तैराकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] खडे़ होकर जल में तैरने की क्रिया । खडी़ लगाना ।
⋙ खड़ी नियाज
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़ी + फा० नियाज] मनोरथ सिद्ध होने पर की जानेवाली मनौती, प्रार्थना या चढा़वा ।
⋙ खड़ी पाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] खड़ी सीधी रेखा (।) जो वाक्य समाप्त होने पर लगाई जाती है । पूर्ण विराम ।
⋙ खड़ी बोली
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़ी (या खरी?) + बोली (भाषा)] वर्तमान हिंदी का एक रूप जिसमें संस्कृत के शब्दों की बहुलता करके वर्तमान हिंदी भाषा की और फारसी तथा अरबी के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि की गई है । वह बोली जिसपर ब्रज या अवधी आदि की छाप न हो । ठेंठ हिंदीं । आज की राष्ट्रभाषा हिंदी का पूर्व रूप । इसका इतिहास शताब्दियों से चला आ रहा है । परिनिष्ठित पश्चिमी हिंदी का एक रूप । वि० दे० 'हिंदी' । विशेष—जिस समय मुसलमान इस देश में आकर बस गए, उस समय उनेहें यहाँ की कोई एक भाषा ग्रहण करने की आव— श्यकता हुई । वे प्रायः दिल्ली और उसके पूरबी प्रांतों में ही अधिकता से बसे थे, और ब्रजभाष तथा अवधी भाषाएँ, क्लिष्ट होने के कारण अपना नहीं सकते थे, इसलिये उन्होंने मेरठ और उसके आसपास की बोली ग्रहण की, और उसका नाम खड़ी (खरी?) बोली रखा । इसी खड़ी बोली में वे धीरे धीरे फारसी और अरबी शब्द मिलाते गए जिससे अंत में वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि हुई । विक्रमी १४वीं शताब्दी मे पहले पहल अमीर खुसरो ने इस प्रांतीय बोली का प्रयोग करना आरंभ किया और उसमें बहुत कुछ कविता की, जो सरल तता सरस होने के कारण शीघ्र ही प्रचलित हो गई । बहुत दिनों तक मुसलमान ही इस बोली का बोलचाल और साहित्य में व्यवहार करते रहे, पर पीछे हिंदुओं में भी इसका प्रचार होने लगा । १५वीं और १६ वीं शताब्दी में कोई कोई हिंदी के कवि भी अपनी कविता में कहीं कहीं इसका प्रयोग करने लगे थे, पर उनकी संख्या प्रायः नहीं के समान थी । अधिकांश कविता बराबर अवधी और व्रजभाषा में ही होती रही । १८वीं शताव्धी में हिंदू भी साहित्य में इसका व्यवहार करने लगे, पर पद्य में नहीं, केवल गद्य में; और तभी से मानों वर्तमान हिंदी गद्य का जन्म हुआ, जिसके आचार्य मु० सदासुख, लल्लू जी लाल और सदल मिश्र माने जाते हैं । जिस प्रकार मुसलमानों ने इसमें फारसी तथा अरबी आदि के शब्द भरकर वर्तमान उर्दू भाषा बनाई, उसी प्रकार हिंदुओं ने भी उसमें संस्कुत के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान हिंदी प्रस्तुत की । इधर थोड़े दिनों से कुछ लोग संस्कृतप्रचुर वर्तमान हिंदी में भी कविता करने लग गए हैं और कविता के काम के लिये उसी को खड़ी बोली कहतो हैं ।
⋙ खड़ी मसकली
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़ा + अ० मसकला = रेती] रुखानी की तरह का कुंद धार का एक औजार जिससे सिकली करनेवाले बरतन को खुरचकर जिला करते हैं ।
⋙ खड़ी सकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़ा + देश० सकी] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें बाएँ हाथ से प्रतिद्वंद्वी की दाहिनी कलाई पकड़— कर और दाहिने हाथ से उसकी कुहनी पकड़कर अपनी ओर खींचना, और अपने दाहिने पैर को उसके पैरों में डालकर उसकी पिंडली और एँडी को अपनी ओर खींचते हुए उसकी छाती पर धक्का देकर उसे चित गिरा देना पड़ता है ।
⋙ खड़ी हुंडी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] वह हुंडी जिसका रुपया चुकाया न गया हो ।
⋙ खडु
संज्ञा पुं० [सं०] अरथी । टिकठी [को०] ।
⋙ कडुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० कडा़ + उआ (स्वा० प्रत्य०)] हाथ या पाँव में पहनने का कडा़ । चूडा़ ।
⋙ खड
संज्ञा स्त्री० [सं०] खडु । अरथी [को०] ।
⋙ खडूला †
संज्ञा पुं० [हिं० कडा़ + ऊला (स्वा० प्रत्य०)] दे० 'खडुआ' । उ०—कोई कहे मैं इसका मामा । लाया खा़ड खडूले जामा ।—सहजो०, पृ० २७ ।
⋙ खड्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रसिद्ध अस्त्र जिसका व्यवहार आजकल केवल पशुओं को बलि देने के लिये होता है । तलवार इसी का एक भेद है । खाँड़ा । २. गैड़ा । ३. एक बुद्ध का नाम । ४. चोर । भटेऊर । एक गंध द्रव्य । ५. तंत्र के अनुसार शक्तिपूजा की एक मुद्रा । ६. लौह । लोहा (को०) । ७. गैडे की सींग (को०) ।
⋙ खड्गकोश
संज्ञा पुं० [सं०] खड्ग रखने का म्यान [को०] ।
⋙ खड्गट
संज्ञा पुं० [सं०] काँप का एक भेद [को०] ।
⋙ खड्गधर
संज्ञा पुं० [सं०] खड्ग धारण करनेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ खड्गधार
संज्ञा पुं० [सं०] बदरिकाश्रम के एक पर्वत का नाम ।
⋙ खड्गधारा
संज्ञा पुं० [सं०] तलवार की धार [को०] ।
⋙ खड्गधारा व्रत
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत दुष्कर कार्य [को०] ।
⋙ खड्गधारी
संज्ञा स्त्री० [सं० खड्गधारिन्] [स्त्री० खड्गधारिणी] हाथ में खड्ग लिए हुए । खड्गपाणि ।
⋙ खड्गधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी असि । छुरिका । २. माँदा । गैंडा [को०] ।
⋙ खड्गधेनुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'खड्गधेनु' [को०] ।
⋙ खड्गपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कल्पित वृक्ष । विशेष—कहते हैं यह वृक्ष यमराज के यहाँ है और इसकी डालियों में पत्तों की जगह तलवारें और कटार आदि लगी हुई हैं । पापियों को यातना देने के लिये इस वृक्ष पर चढा़या जता है । गरबड़ पुराण में इसे असिपत्र भी कहा गया है । २. तलवार की धार (को०) ।
⋙ खड्गपाणि
वि० [सं०] खड्गधारी [को०] ।
⋙ खड्गपिधान
संज्ञा पुं० [सं०] तलवार का कोश । म्यान [को०] ।
⋙ खडगपिधानक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खड्गपिधान' ।
⋙ खड्गपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की कटारी जो प्रायः एक हाथ लंबी और दो अंगुल चौडी़ होती थी और जिसका व्यवहार बहुत निकट आए हुए शत्रु पर प्रहार करने के लिये होता था ।
⋙ खड्गपुत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'खड्गपुत्र' ।
⋙ खड्गप्रहार
संज्ञा पुं० [सं०] तलवार की काट । खड्गाघात [को०] ।
⋙ खड्गफल
संज्ञा पुं० [सं०] खड्ग की धार । खड्गधारा [को०] ।
⋙ खड्गबंध
संज्ञा पुं० [सं० खड्गबन्ध] खड्ग की आकृति में लिखा गया काव्य (पद्य) जो चित्रकाव्य के अंतर्गत है ।
⋙ खड्गलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तलवारों की पंक्ति या कतार [को०] ।
⋙ खड्गविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] तलवार चलाने की कला या हुनर [को०] ।
⋙ खड्गहस्त
वि० [सं०] १. दे० 'खड्गपाणि' ।२. लड़ने के लिये तैयार । संघर्ष के लिये उद्यत [को०] ।
⋙ खड्गाघात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खड्गप्रहार' । [को०] ।
⋙ खड्गाधार
संज्ञा पुं० [सं०] खड्गकोश । म्यान [को०] ।
⋙ खड्गारीट
संज्ञा पुं० [सं०] १. चमड़े की ढाल । २. असि पर चलने का एक प्रकार का धार्मिकव्रत करनेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ खड्गिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आखेट करनेवाला । शिकारी । २. तलवारधारी व्यक्ति (को०) । ३. भैंस के दूध का फेन । ४. कसाई ।
⋙ खड्गी (१)
वि० [सं० खड्गिन्] [वि० स्त्री० खड्गिनी] खड्ग या असि धारण करनेवाला [को०] ।
⋙ खड्गी (२)
संज्ञा पुं० १. वह जिसके पास खड्ग हो । खड्गधारी । २. गैंडा । ३. शिव ।
⋙ खड्गीक
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा हँसुआ [को०] ।
⋙ खड्ड (१)
संज्ञा पुं० [सं० गर्त > प्रा० गड्ड अथवा, सं० खात] गढ्ढा । गढा़ ।
⋙ खड्ड (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] खात में बहनेवाली सरिता । नदी । उ०— और उससे पहले खड्ड मिली ।—किन्नर०, पृ० ४५ ।
⋙ खड्ढा
संज्ञा पुं० [सं० खात = खड्ड] १. गड्ढा़ । गढा़ । २. बहुत अधिक रगड़ के कारण पड़ा हुआ चिहन ।
⋙ खण †पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षण, प्रा० खण] दे० 'क्षण' । उ०— खण एक एक चूप भै रहइगारी गाडू दे तत्व ही ।—कीर्ति० पृ० ४२ ।
⋙ खणक
संज्ञा पुं० [सं० खानक] चूहा० । मूसा (डिं०) ।
⋙ खणनाड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षण + नाडिका] धर्म घड़ी (डिं०) ।
⋙ खतंग (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कबूतर जिसका रंग कुछ मैलापन लिये हुए होता है ।
⋙ खतंग (२)
वि० [सं० क्षताड्ग] १. अंत में क्षत या घाव करनेवाला । चुभनेवाला उ०—(क) वूठा बाँण दुहूँ दलाँ छूटा मूट खतंग ।—रा० रू०, पृ० ८३ । (ख) खूनी न रही काय खतंगा खंजनाँ ।—बाँकी ग्रं०, भा० ३, पृ० ३२ । २. घायल क्षतांग । उ०—खित गहक सूर खतंग ।—रघु० रू, पृ० २२३ ।
⋙ खतंगर पु
वि० [देश० खतंग + र (प्रत्य०)] अंग में क्षत करनेवाला । तेज । तीक्ष्ण । उ०—राघव उमंग हँस हँस रहै खेलु खगा खतंगरो ।—रघु० रू०, पृ० ४७ ।
⋙ खतँग पु
संज्ञा पुं० [देश०] तरकस । तूणीर । उ०—तरकस पंच गिरंम तीर प्रति खतँग तीन सय । खुरासान कम्मांन पंच परमान मान जय ।—पृ० रा० (उ०), ११ ।२१ ।
⋙ खत (१)
संज्ञा पुं० [अ० खत] १. पत्र । चिट्ठी । उ०—नहीं आता है अब करार मुझे । तेरे का है इंतजार मुझे ।—शेर०, भा० १, पृ० ३६३ । यो०—खतकिताबत = पत्रव्यवहार । २. सिखावट । जैसे—से पहचानता हूँ, यह उन्हीं का खत है । ३. रेखा । लकीर । धारी । ४. दाढ़ी के बाल (डिं०) । ५. हजामत । क्रि० प्र०—बनाना ।—बनवाना । मुहा०—खत बनाना = माथे के ऊपरी भाग के बालों को उस्तरे से बराबर करना । ७. दाढ़ी मूँछ (को०) । ८. कान से सटे हुए बालों का निचला भाग । कनपटी के बाल । उ०—सफाई इठ गई चेहेरे की जब खत का विकाल आया ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५८ । ९. चिहन । निशान (को०) । १८. परवाना । राज्या— देश (को०) ।
⋙ खत (२)
संज्ञा पुं० [सं० क्षत] आघात । प्रहार ।
⋙ खत (३)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षति] घाव । चोट । उ०—भरम काटि करि कलम छुरी छबि, तकि तृस्ना खत सारी ।—धरनी०, पृ० ३ ।
⋙ खत (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षिति, प्रा० खिति] पृथिवि । जमीन । (डिं०) ।
⋙ खतकश
संज्ञा पुं० [फ़ा० खतकश] बढ़इयों का एक औजार जिसके द्वारा वे लकड़ी पर निशान बनाते हैं [को०] ।
⋙ खतकशी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० खतकशी] तस्वीर बनाने के लिये रेखाएँ खींचना [को०] ।
⋙ खतकिताबत
संज्ञा पुं० [अ० खतकिताबत] पत्रव्यवहार । चिट्ठी पत्री । उ०—अधिकांश शिक्षितों के खतकिताबत में भी फारसी का प्रचार हुआ ।—प्रेमधन० भा० २, पृ० ३१२ ।
⋙ खतखुतूत
संज्ञा पुं० [अ० खतखतूत] खतकिताब । चिट्ठीपत्री [को०] ।
⋙ खतखोट †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षत + हिं० खुड्ड] घाव के ऊपर की सूखती हुई पपड़ी । खुरंड । उ०—तिय निज हिय जो लगि चलत पिय नखरेख खंरोट । सूखन देति न सरसई खोंटि खोंटि खतखोट ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ खतना
संज्ञा पुं० [अ० खतनह] मुसलमानों की एक रस्म, जिसमें उनके लिंग के अगले भाग का बढ़ा हुआ चमड़ा काट दिया जाता है । सुन्नत । मुसलमानी ।
⋙ खतम
वि० [अ० खत्म] १. पूर्ण । उ०—तुमहिं कोरान खतम खतमाना ।—धरनी०, पृ० १८ । २. समाप्त । पु † ३. परम । अत्यंत । हद । उ०—खतम खुसी अनखूट खजाना, निरमल चंदमुखी ग्रह नार ।—रघु० रू०, पृ० २२ । मुहा०—खतम करना = मार डालना । जैसे,—एक को तो यही खतम कर डाला है; एक बचा है सो देखा जायगा । खतम होना = मर जाना । प्राण निकल जाना ।
⋙ खतमाना पु
क्रि० स० [अ० खत्म, खतम] समाप्त या पूर्ण करना । उ०— तुमहिं कोरान खतम खतमाना । —धरनी०, पृ०, १८ ।
⋙ खतमाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल । मेघ । २. धूम्र । धूआँ [को०] ।
⋙ खतमी
संज्ञा स्त्री० [अ०] गुलखैरू की जाति का एक प्रकार का पौधा । विशेष— यह कश्मीर और पश्चिम हिमालय में होता है । इसमें नीले, लाल, बैंगनी आदि कई रंगों के फूल होते हैं । पर सफेद फूल की खतमी सबसे अच्छी समझी जाती है । इसकी पत्तियाँ पीसकर लोग फोड़े पर लगाते हैं और इसके बीज और जड़ का व्यवहार ओषधियों में होता है । इसके बीज को तख्म खतमी और जड़ को रेश खतमी कहते हैं ।
⋙ खतर
संज्ञा पुं० [अ० ख़तर] दे० 'खतरा' ।
⋙ खतरनाक
वि० [फा़० खतरनाक] १. खतरे से युक्त । खतरावाला । २. भयजनक । आशंकामय ।
⋙ खतरम्मा †
संज्ञा पुं० [हि० खत्री] १. खत्रियों का समाज । २. वह वह स्थान जहाँ अधिकतर खत्री रहते हों ।
⋙ खतरा
संज्ञा पुं० [अ० खतरह ] १. डर । भय । खौफ । २. आशंका ।
⋙ खतरानी
संज्ञा स्त्री० [हि० खत्री] खत्री जाति की स्त्री ।
⋙ खतरेटा
संज्ञा पुं० [हि० खत्री+एटा (प्रत्य०)] खत्री । उ०— केते मुगलाने सेख पठाने सैयद वाने बाँध चढे । कायथ खतेरेटे लोह लपेटे देत चपेटे चाई बढ़े ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ खता (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० खता] [वि० खतावार] १. कसूर । अपराध । २. धोखा । फेरब । मुहा०— खता खाना = धोखे में पड़ना । धोखे में पड़कर हानि उठाना । ३. भूल । चुक । गलती । मुहा०—खता खाना = गलती करना । चुकना ।
⋙ खना (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षत] क्षत । घाव । उ०— सोइ साधु को कह्यो बोलाई । कैसी चरणोदक दिय लाई । कह्यों सधु सब को मैं लायो । खता चरण लखि एक बचायो ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ खता (३)
संज्ञा पुं० [फा़०] चीन या चीन का एक प्रदेश [को०] ।
⋙ खताई †
संज्ञा स्त्री० [फा० खताई] दे० 'नानखताई' । उ०— सोया- बीन की खता इयाँ ।—ज्ञानदान, पृ०, १६३ ।
⋙ खताकार
वि० [फा० खताकार] १. दोषी । अपराधी । मुजरिम । पापी । गुनहगार । पातकी [को०] ।
⋙ खतावार पु
[अ खता +फा० वार] दोषी । अपराधी ।
⋙ खति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षति] क्षति । हनि । नुकसान । उ०— कहै पदमाकर त्यौं बदन विशाल होत लाल होत हेरी छल छिद्रन की खति की । गंगा जी तिहारे गुणगान करे अजगैबै आन होंत बरषा सुआनँद की आवि की ।— पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ खतिया (१) †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'खाती' ।
⋙ खतिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० खत्ता] छोटा गड़ढा ।
⋙ खतियाना
क्रि० सं० [हि० खाना ।] प्राति दिन के आय व्यय और क्रय विक्रय आदि को खाते में अलग अलग मद्द में लिखना ।
⋙ खतियौनी
संज्ञा स्त्री० [हि० खातियाना] १. वह बही या किताब जिसमें खतियाया जाय । खाता । २. खतियाने का काम । ३. पटवारी का वह कागज जिसमें प्रत्येक असामी का रकवा और लगान आदि दर्ज हों ।
⋙ खतिलक
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०] ।
⋙ खतीब
वि० [अ० खतीब] १. खुतबा पढ़नेवाला । २. धर्मापदेशक । ३. वक्ता [को०] ।
⋙ खतीबा
संज्ञा स्त्री० [अ० खतीवह्] बोलनेवाली स्त्री । वक्तृत्व शक्ति से युक्त स्त्री । वक्त्री [को०] ।
⋙ खतेआजादी
संज्ञा पुं० [फा० खत+ए+ आजादी] मुक्तिपत्र । बंधमुक्त करने का आदेशपत्र [को०] ।
⋙ खतेगुलामी
संज्ञा पुं० [अ० खात-ए-गुलामी] दासतापत्र [को०] ।
⋙ खतेवस्तालीक
संज्ञा पुं० [अ० खात-ए-नस्तालीक] सुंदर अक्षरोंवाली लिखावट जिसमें उर्दु की लीथो पद्धति से पुस्तकें छपती हैं [को०] ।
⋙ खतेशिकस्त
संज्ञा पुं० [फा़०] वह लिखावट या लेख जो बहुत टेढ़ा मेंढ़ा हो । घसीट लिखावट [को०] ।
⋙ खतौनी †
संज्ञा स्त्री० [हि० खाता+औनी (प्रत्य०)] दे० 'खतियौनी' ।
⋙ खत्ता
संज्ञा पुं० [सं० खात या गर्तक] [स्त्री० खत्ती] १. गड्ढा । २. अन्न रखने का स्थान । ३. नील या शोरा बनाने का गड़्ढा ।
⋙ खत्तिअ, खत्तिय पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रिय, प्रा०, खतिय] दे० 'क्षत्रिय' । उ०— (क) परसुराम अरु पुरिस जेन खतिअ खअ करिअउ ।—कीर्ति० ,स पृ०, ८ । (ख) खत्तिय वंस गहै कर कत्तिय ।—प०, रासी, पृ०, ९० ।
⋙ खत्म
वि० [अ० खत्म] दे० 'खतम' ।
⋙ खत्रवट, खत्रवाट पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्री+वट] (प्रत्य०)] १. क्षत्रीपन । उ०— खत्रवट सरम सदा थां खोलै । औ हिंदवाण । बचावौ औलै ।—रा०, रू०,७७ । २ । वीरता । (डिं०) ।
⋙ खत्रिय
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रिय, प्रा०, खत्तिय] क्षत्रिय ।— (डिं०) ।
⋙ खत्री
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रिय, प्रा०, खतिय] [स्त्री० खतरानी] १. हिंदुओँ में क्षत्रिय़ों के अंतर्गत एक जाति जो अधिकतर पंजाब में बसती है । इस जाति के लोग प्रायः व्यापार करते हैं । २. क्षत्रिय (ड़िं०) । उ०— देख कहैं सको देस, खत्री बीज गयो खेस । रघु०, रू० पृ०, ७६ ।
⋙ खत्री परदेदार
संज्ञा स्त्री० [हि० खत्री] लकड़ी का बना हुआ एक प्रकार का ठप्पा, जिससे कपड़ों पर बेल बुटे छोपे जाते है । यह ठप्पा तीन इंच से छह इच तक लंबा होता है ।
⋙ खत्रीवाट पु
संज्ञा स्त्री० [हि० खत्री+वाट] दे० 'खत्रवट' ।
⋙ खदंग
संज्ञा पुं० [फा० खदंश] १. एक वृक्षविशेष जिसकी लकड़ी के बाण बनते हैं । २. छोटा वाण । नावक (को०) । ३. केकड़ा (को०) ।
⋙ खदंगी पु
संज्ञा स्त्री० [फा० खदंग] वाण । तीर । उ०—लाखन भीर बहादुर जगी । जँबुक कमानै तीर खदंगी ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ खद
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्र या निषिद्ध] मुसलमान ।—(डि०) । विशेष— 'खट' शब्द का यह प्रयोग मिलता नहीं हाँ, रवद, रवद्द और रौंद आदि शब्द इस अर्थ में मिलते हैं । संभव है, लिपि के कारण 'रवद' का 'खद' हो गया हो ।
⋙ खदखदाना
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'खदबदाना' ।
⋙ खदबद
संज्ञा स्त्री० [अनु०] खदखद या खदबद शब्द जो प्रायः किसी तरल पर गाढ़े पदार्थ को खौलाने से उत्पन्न होता है ।
⋙ खदबदाना
क्रि० अ० [अनु०] अदबद शब्द करना, जो प्रायः किसी चीज के उबालने से उत्पन्न होता है ।
⋙ खदरा †
संज्ञा पुं० [देश०] घास का एक भेद । खदी । उ०— समधिन के टुरवा खदर लुये आइम, ओला गड़गै खदर वन के खोझा । लानि देबे तै भइया वसुला वो विंधना, हेरि देवे ओकर तन के खोझा ।—शुक्ल अभि० ग्र०, पृ०, १४२ ।
⋙ खदरा (१) †
संज्ञा पुं० [हि० खता या सं० गर्तक+हिं० रा (स्वा० प्रत्य०)] १. गड़ढा । २. बिना निकाला हुआ छोटा बैल । बछड़ा ।
⋙ खदरा (२) †
वि० [सं० क्षद्र] निकम्मा । रद्दी । बेकाम । जैसे, खादरा माल ।
⋙ खदशा
संज्ञा पुं० [अ० खद्शह] १. भय । ड़र । आशांका । २. संदेह शक (को०) ।
⋙ खदान
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोदना या खान] वह गड़ढ़ा जिसे खोदकर उसके अंदर से कोई पदार्थ निकाला जाय । खान ।
⋙ खदिका
संज्ञा पुं० [सं०] खुना हुआ अन्न । लावा [को०] ।
⋙ खदिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. खैर का पेड़ा । २. खैर । कत्था । ३. चंद्रमा । ४. इंद्र ५. एक ऋषि का नाम ।
⋙ खदिरचंचु
संज्ञा पुं० [सं० खदिरचञ्चु] वंजुल नाम का एक पक्षी ।—बृहतु०, पृ०, ४१० ।
⋙ खदिरपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'खदिरपत्री' [को०] ।
⋙ खदिरपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाजवंती या लजाधुर नाम की लता ।
⋙ खदिरसार
संज्ञा पुं० [सं०] खैर । कत्था [को०] ।
⋙ खदिरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वराहक्रांता । २. लाजवंती । लजाधुर ।
⋙ खदी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो तालों में उत्पन्न होती है ।
⋙ खदीजा
संज्ञा स्त्री० [अ० खदीजह्] हजरत मुहम्मद की पहली पत्नी [को०] ।
⋙ खदीव
संज्ञा पुं० [तु० फा़०, खदीव] १. मिस्त्र के बादशाह की उपाधि । २. सामंत या मांडलीक राजा (को०) ।
⋙ खदुका
संज्ञा पुं० [सं० खादक= अधर्मण] १. महाजन से कर्ज लेकर व्यापार करने वाला आदमी । २. ऋणी । कर्जदार । उ०— दो खेतवालों में सिवान का झुगड़ा खड़ा करके उन्हें मुकदमें में बझ देना और उनमें से एक को खदुका बनाकर लील जाना ।—रति० पृ०, ९६ ।
⋙ खदुहा †
संज्ञा पुं० [हि० सदुका] छोटी जाति काया छोटा व्यापार करनेवाला मनुष्य ।
⋙ खदूरवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्ध की एक शक्ति का नाम ।
⋙ खदेड़ना
क्रि० सं० [हि०] दे० 'खदेरना' ।
⋙ खदेरना
क्रि० स० [हि० खेदना] दूर करनां । हटाना भगाना । उ०— भाजत हम सब तुरत खदेरत आव्त माली ।—प्रेमघन०, भा०, १, पृ० ३९ ।
⋙ खददर
संज्ञा पुं० [देश०] हाथ का काता और हाथ करघे पर बीना हुआ वस्त्र । खादी ।
⋙ खद्योत
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुगनूँ । २. सूर्य ।
⋙ खद्योतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । १. एक प्रकार का वृक्ष जिसका फल बहुत बिषैला होता है ।
⋙ खद्योतन
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०] ।
⋙ खधूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का अग्निवाण । २. एक प्रकार का गंधद्रव्य [को०] ।
⋙ खन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्षण, प्रा० खन] १. क्षण । लहमा । २. समय । वक्त । ३. तुरंत । तत्काल । उ०—चेरी धाय सुनत खन धाई । होरामन लै आय बोलाई ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खन (२) †
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड़] (मकान का) खंड़ा । मरातिब । तल्ला । मंजिल । जैसे, —चार खन का मकान । उ०— चार खान की अटारी के ।—लक्ष्मण (शब्द०) (ख) सत्त खनै आवास ।—पृ० रा०, १ । ४४ । २. हिस्सा विभाग ।
⋙ खन (३) †
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का वृक्षजो 'खोर' की तरह का होता है । २. एक प्रकार का कपड़ा जिससे महाराष्ट्र में स्त्रियाँ चोली बनाती हैं ।
⋙ खन (४)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] रुपये, पैसे, चूड़ीयों आदि के बजने की आवाज । खनक ।
⋙ खनक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूहा । मूसा । २. सेंध लगानेवाला चोर । खेंधिया चौर ३. जमीन या खान खोदनेवाला आदमी । ४. वह स्थान जहाँ सोना आदि उत्पन्न होता हो । ५. भूतत्व- शास्त्र जाननेवाला व्यक्ति ।
⋙ खनक (२)
संज्ञा स्त्री० [खन से अनु०] खानकाने की क्रिया या भाव । खानखानाहट ।
⋙ खनक (३)
वि० जमीन खोदने या खाननेवाला । उ०— हे खनक, किए जा कूप खानन, तू यहाँ बीच में ही न हार ।—दैनिकी पृ०, ३० ।
⋙ खनकना
क्रि० अ० [अनु०] 'खान' 'खान' शब्द होना । खानखानाना । उ०— झाँझरियाँ झनकैंगी खारी, खनकैंगी चुरी तन कौं तन तोरे ।—भिखारी०, ग्रं, भा०, १. पृ०, १२१ ।
⋙ खनकाना
क्रि० स० [अनु०] 'खन' 'खन' शब्द उत्पन्न करना ।
⋙ खनकार
संज्ञा स्त्री० [अनु०] झनकार । खनक । उ०— खनकार भरी काँपती हुई तान ह्वदय खुरचने लगी ।—आँधी, पृ०, ९१ ।
⋙ खनखजूरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कनखजूरा' ।
⋙ खनखना
संज्ञा पुं० [अनु०] १. वह जिससे 'खन' 'खन' शब्द उत्पन्न हो । २. † एक प्रकार का झुनझुना ।
⋙ खनखनाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] 'खनखन' शब्द होना । खनकनां ।
⋙ खनखनाना (२)
क्रि० सं० 'खन' 'खन' शब्द उत्पन्न करना । जैसे— रुपया खनखानाना ।
⋙ खनधक पु
संज्ञा पुं० [ अ० खदक] दे० 'खदक' । उ०— खनधक जल कन लै समीर सुभ लूह बनवत । —प्रेमघन०, भा०, १. पृ०, १० ।
⋙ खनन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खोदने खनने का कार्य । उ०—हे खनक किए या कूप कनन ।— दैंनिकी, पृ०, ३० । २. गाड़ना या दबाना [को०] ।
⋙ खननहारी पु
वि० [सं० खनन + हिं० हारी (प्रत्य०)] १. खोदनेवाली । २. नाश करनेवाली । उ०— सी नंदकुल की खननहरी वुद्धि नित मो मैं रहै ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १५७ ।
⋙ खनना पु †
क्रि० सं० [सं० खनन] १. खोदना । उ०—(क) कीन्हेसि लोवा इंदुर चाटी । कीन्होसि बहुत रहैं खनि माटी ।—जायसी (शब्द०) । (क) कूप खनि कत जाय रे नर जरत भुवन बुझाय । सूर हरि को भजन करि ले जन्म मरण नसाय । —सूर (शब्द०) । २. कोड़ना ।
⋙ खनयित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] खंती नामक औजार ।
⋙ खनवाना
क्रि० स० [हिं० खनना] खनना का प्रेरणार्थ रूप । किसी को खनन के काम में प्रवृत्त करना ।
⋙ खनवारा †
वि० [हिं० खन + वारा] खनकेवाला । खन् खन् करनेवाला । उ०— नख के गढ़ाइ दऊ गोखरू, खनवारे की छल्ला छाप ।— पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ०, ८७७ ।
⋙ खनहन
वि० [सं० क्षीण + हीन] १. दुबला पतला । कमजोर । २. जोसमें भद्दापन न हो । खुबसूरत । सुंदर । जैसे,— खनहन मुखड़ा ।
⋙ खनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खनना] १. खनने के काम की मजदूरी । २. खनने की स्थिति या क्रिया ।
⋙ खनाना
क्रि० सं० [हि० खनना का प्रे० रूप] दे० 'खनवाना' । उ०— जाय खनाबहु सागर साता ।—कबीर सा० पृ०, १७ ।
⋙ खनि
संज्ञा स्त्री [सं०] १. रन्नों की खान । २. गुफा । कंदरा । ३. गर्त । गड़ढा (को०) ।
⋙ खनिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खनक' [को०] ।
⋙ खनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तालाब [को०] ।
⋙ खनिज
वि० [सं०] खान से खोदकर निकाला हुआ । जैसे, खनिज पदार्थ ।
⋙ खनिता
संज्ञा पुं० [सं०] खनने या खोदनेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ खनित्र, खनित्रक
संज्ञा पुं० [सं०] खंता नाम का खोदने का औजार । गैनी ।
⋙ खानत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा खंता या गेनी [को०] ।
⋙ खानमोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रदेश या उपनिवेश जिसमें धातुओं की खाने हो और जहाँ के निवासियो का निर्वाह खानों में काम करने से ही होता हो । विशष— कौटिल्य न साधारणतः 'खनिभोग' की अपेक्षा धान्य- पूर्ण प्रदेश का अच्छा कहा है, क्योकि खानो से केवल कोश कीव़द्धि होती है और धान्य से कोश और भांड़र दोनों पूर्ण होते हैं । पर यदि प्रदेश बहुत मूल्यवान् पदार्थ की खानोंवाला हो तो वही अच्छा है ।
⋙ खप
संज्ञा पुं० [अनु०] किसी चोखी या पतली धारदार वस्तु का शरीर या गीली मिट्टी आदि में घुसने का शब्द । उ०— उन्होंने सूई में दवा भरी और निश्चिच स्थान पर खप से सूई मारी ।—किन्नर०, पृ० १६ ।
⋙ खनियाना †
क्रि० सं० [हि० खान या खाली] १. रिक्त करना । खाली करना । † २. खनना । खोदना ।
⋙ खनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'खनि' [को०] ।
⋙ खनोना पु
क्रि० स० [हिं० खनना] खनना । खोदना । उ०— रधे कत निकुंज ठाढी रोवति । इंदु ज्याति मुखरर्विद की चकित चहुँ दिशि जोवति । द्रुम शाखा अवलंब बेलि गहि नख सों भूमि खिनोवति । मुकुलित कच तन घन की ओट ह्वै अँसुवन चीर निचोवति । सूरदास प्रभु तजी गर्ब ते भये प्रंम गति गोवति ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खन्ना
संज्ञा पुं० [सं० खनना = काटना] १. चारा काटने का स्थान । २. खत्रियों की एक उपाधि ।
⋙ खपचा
संज्ञा पुं० [तु० कमचा] १. बाँस की पटरी या लकड़ी का पटरा । उ०— ऐसा पहलवान था कि बस मैं क्या कहूँ । इधर देखो यह खपचे (हाथ से दिखाकर) यह कल्ला ठल्ला ।— फिसाना०, भा०, ३. पृ०, १७१ । २. लकड़ी की कलछी या पलटा ।
⋙ खपची
संज्ञा स्त्री० [तु० कमची] १. बाँस सी पतली तीली । कमठी । २. कबाब भूनने की सींख या सलाई । ३. बाँस की वह पतली पटरी जिससे डाक्टर या जरहि टूटा हुआ अंग बाँधते हैं । ४. क्रोड़ । गोद । क्रि० प्र०— भरना = आलिंगन करना ।
⋙ खपच्ची (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खपची] दे० 'खपची' । उ०— बाँस की खपच्चियों पर लगे गन्ने के टुकड़ा पर मुनाफाखोरो बंद करो ।—अमिशप्त, पृ० ५३ ।
⋙ खपच्ची (२)
वि० बाँस कीं पतली खपची सा अर्थात्—दुबला पतला । दुर्बल ।
⋙ खपट (१)
वि० [हिं० खपड़ा] खपड़े की तरह शुष्क । अत्याधिक वृद्ध । उ०— हीरा गया तो देखा कि अब्बासी और बूढ़ी खपट मुगलानी में गलखप हो रही है ।— फिसाना०, भा० ३, पृ०, २१४ ।
⋙ खपटी (२) †
संज्ञा पुं० [हि० खपड़ा] दे० 'खपड़ा' ।
⋙ खपटी †
संज्ञा स्त्री० [हि० खपड़ा] १. छोटा खपड़ा । २. तखते के छोटे छोटे टुकड़ जो कड़ियों क बीच में आइनाबदी के लिये जड़े जाते है ।
⋙ खपड़झार †
संज्ञा पुं० [हि० खपड़ + झारना] किसानों की एक रसम । विशेष— प्रति वर्ष पहले पहल ऊख पेरने के समय यह रसम की जाती है । इसमें ब्राह्मणों और गरीबों को नया रस पिलाया जाता है ओर थोडा । गुड़ बनाकर देवता के निमित्त प्रसाद बाँटा जाता है ।
⋙ खपड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० खर्पर, प्रा० खप्पर] १. मिट्टी का पका हुआ टुकड़ा जो मकान की छाजन पर रखने के काम आता है । विशेष— यह प्रायः दो प्रकार का होता है । एक प्रकार का खपड़ा चिपटा और चौकोर होता है, जिसे 'थपुआ' या 'पटरी' कहते हैं और दूसरे प्रकार का खपड़ा नाली के आकार का और लंबा होता है जिसे 'नरिया' कहते हैं । 'थपुआ' खपड़ा छाजन पर बिछाकर उनकी सधियों पर 'नरिया' खपड़ा औंधा कर रख देते हैं । भिन्न भिन्न स्थानों के खपड़ों के आकार प्रकार आदि में थोड़ा बहुत भेद होता है । नए ढ़ंग के अँगरेजी खपड़े केवल थपुआ के आकार के होते हैं और उनमें नरिया की आव्श्यकता नहीं होती । क्रि० प्र०—छाना । २. मिट्टी के घड़े के नीचे का आधा भाग जो गोल होता है । ३. मिट्टी का वह बरतन जिसमें भिखमंगे भीख माँगते हैं । खप्पर । ४. मिट्टी के टूटे हुए बरतन का टुकड़ा । ठीकरा । ५. कछुए की पीठ पर का कड़ा ढक्कन ।
⋙ खपड़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० क्षुरपत्र] वह तीर जिसका फल चौड़ा है ।
⋙ खपड़ा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] गेहुँ में होनेवाला एक प्रकार का कीड़ा ।
⋙ खपड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० खर्पर] १. वह मिट्टि की हँड़िया जिसमें भड़भूँजे दान भूनते हैं । २. नाँद की तरह का मिट्टी का छोटा बरतन । ३. दे० 'खोपड़ी' ।
⋙ खपडै़ल
संज्ञा स्त्री० [हिं० खपड़ा + ऐल (प्रत्य०)] दे० 'खपरैल' ।
⋙ खपड़ोइया †
संज्ञा स्त्री० [हि० खर्पर, मरा०, खोपरा] नारियल की गिरी के ऊपर रहनेवाला कड़ा आवरण या छिलका ।
⋙ खपड़ोई †
संज्ञा स्त्री० [सं० खर्पर] १. दे० 'खोपड़ी' । २. 'खपड़ोइया' ।
⋙ खपत
संज्ञा स्त्री० [हिं० खपना] १. समावेश । समाई । गुंजाइश । २. माल की कटती या बिक्री । ३. खर्च । व्यय । ४. खपने या खपाने की क्रिया या स्थिति ।
⋙ खपति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० √ क्षप्] नाश । विनाश । क्षय । उ०— रक्खै जु साइ मिट्टै कवन, निमख माँहि उतपति खपति ।—पृ०, रा०, १० । ३४ ।
⋙ खपती
संज्ञा स्त्री० [हिं० खपना] दे० 'खपत' ।
⋙ खपना (१)
क्रि० अ० [सं० क्षपण] [संज्ञा खपत] १. किसी प्रकार व्यय होना । काम में आना । लगना । कटना जैसे—बाजार में माल खपना । ब्याह में रुपया खपना । पूरी में घी खपना । २. चल जाना । गुजारा होना । समाई होना । निभना । जैसे—बहुत से इच्छे रुपयों में दी चार बुरे रुपए भी खप जाते है । ३. तंग होना । दिक होना । ४. क्षय होना । समाप्त होना । नष्ट होना । उ०— जो खेप भरे तू जाता है, वह खेप मियाँ मत जान अपनी । अब कोई घड़ी पल साइत में यह खेप बदन की है खपनी ।— नजीर (शब्द०) । ५. करना । मृत्यु प्राप्त करना । जैसे—उस युद्ध में कई हजार आदमी खप गए । संयो० क्रि०— जाना ।
⋙ खपर पु
संज्ञा पुं० [सं० खर्पर] दे० 'खप्रर' । उ०— बिरह बैठ उरखपर परीवा । भीजा नैन नीर जत रोवा ।—चित्रा०, पृ०, १७४ । (ख) खपर हाथ मम भुजा अनंता । —कबीर सा०, पृ०, २७४ ।
⋙ खपरट
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'खपड़ा' ।
⋙ खपरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खपड़ा' ।
⋙ खपराग
संज्ञा पुं० [सं०] तम । अंधकार [को०] ।
⋙ खपराली पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० खर्पर] खप्पर धारण करनेवाली जोगिनी, ड़ाकिनी आदि । उ०— चौसठ लख खपराली हड़ हड़ हड़ हेसे ।—नट० पृ०, १६९ ।
⋙ खपरिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० खर्परी] भूरे रंग का एक खनिज पदार्थ । विशेष—वैद्यक में इसको जस्ते का उपधातु और क्षप, ज्वर विष और कुष्ठ आदि का दूर करनेवाला माना गया है । यह आँख के अंजन और सुरमे आदि में भी पड़ता है । फारस आदि स्थानों में नकली खपरिया भी बनती हैं । पर्य़ा०—चक्षुष ।—दर्विका । रक्षक ।
⋙ खपरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खपड़ा का अल्पा०] १. छोटा खपड़ा । २. एक प्रकार का कीड़ा जो चने की फसल में लगता है ।
⋙ खपरिया (३)
संज्ञा पुं० [सं० कार्पटिक; प्रा० कप्पड़िय] हाथ में खप्पर रखनेवाले भिक्षुकों का एक बर्ग जिसे 'खेवरा' भी कहते हैं ।
⋙ खपरैल
संज्ञा स्त्री० [हि० खपड़ा + ऐल (प्रत्य०)] १. खपड़े की छाई हुई छत । मुहा०—खपरैल ड़ालना = खपड़े की छत छाना । २. वह मकान जिसकी छच खपड़े से छाई हो । ३. खाड़ा ।
⋙ खपरोही
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोपड़ी] दे० 'खोपडो ई' । उ०— उसके मुर्दे के खपरोही में अपनी शुद्धि के लिये भीख माँगे ।— श्यामा०, पृ० १० ।
⋙ खपली
संज्ञा पुं० [हिं० खपड़ा] एक प्रकार का गेहूँ । विशेष— यह बंबई सिंध और मैसूर आदि प्रांतों में पैदा होता है और इसके दानों की भूसी से अलग करने में बड़ी कठिनाई होती है । इसे कहीं कहीं 'गोधी' या 'कफली' भी कहने हैं ।
⋙ खपाच
संज्ञा स्त्री० [हिं० खपची] १. रेशमवालों का एक औजार जो बाँस की दो खपचियों को तले ऊपर बाँधकर बनाया जाता है । २. दे० 'खपची' ।
⋙ खपाची
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खपची' ।
⋙ खपाट
संज्ञा पुं० [हिं० खपची या कपाट] धौंकनी के मुँह पर लगे लकड़ी के छोटे ड़ंड़े, जिनके सहारे वह उठाई दबाई जाती है ।
⋙ खपाना
क्रि० सं० [सं० क्षपन्, हिं०, खपना का प्रे० रूप] १. किसी प्रकार का व्यय करना । काम में लाना । लगाना । मुहा०—माथा या सिर खपाना = सिर पच्ची करना । मस्तिष्क से बहुत अधिक या व्यर्थ काम लेना । हैरान होना । २. निर्वाह करना । निभाना । ३. नष्ट करना । समाप्त करना । उ०— (क) मनों मेघनायक ऋतु पावस बाण वृष्टि करि सैन खपायो । —सूर (शब्द०) । (ख) भूषण शिवाजी गाजी खाग सो खपाए खल खाने खाने खलन के खेरे भये खीस हैं ।—भूषण (शब्द०) । ४. तँग करना । दिक करना । ५. बेचना । विक्रय करना । ६. मार ड़ालना । खत्म करना । उ०— सिरसवाह लघु मीर, तुम बेग खपावहु ।—प० रासो० पृ०, ५९ ।
⋙ खपुआ (१) †
वि० [हिं० खपना = नष्ट होना] ड़रपोक । भगोड़ा । कायर । उ०— तुलसी करि केहरि नाद भिरे भट खाग खपे खपुआ करके । नख दंतन सों भुजदंड़ बिहंड़त, मुंड़ सों मुंड़ परे भरके । —तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खपुआ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० खपची] लकड़ी की वह खपची जो किसी दरवाजे के नीचे उसकी चूल की छेद में दृढ़ बैठाने के लिये लगाई या ठोंकी जाती है ।
⋙ खपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंधर्व मंड़ल जो कभी कभी आकाश में उदय होता है और जिसका उदय होने से अनेक शुभाशुभ फल माने जाते हैं । २. पुराणानुसार एक नगर जो आकाश में है और जिसे पुलोमा और कालका नाम की दैत्य कन्याओं के प्रार्थना करने पर ब्रह्मा ने बानाया था । ३. राजा हरिश्चंद्र की पुरी जो आकाश में स्थिर मानी जाती है । ४. सुपारी का पेड़ । ५. भद्रमोथा । भद्रमुस्तक । ६. बाघनख । बघनख ।
⋙ खपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाशकुसुम । उ०— कोउ साहिब खपुष्प सम नाम धरयो मनमानो ।—प्रेमघन०, भा०, २. पृ०, ४१५ । २. असंभव बात । अनहोनी घटना ।
⋙ खपूवा †
संज्ञा पुं० [सं० क्षप्, हिं०, खप] खड़ग । खंग । उ०— आप अकेले द्वार खपूवा बाँधि के अलीखान बैठयो ।—दो सौ बावन, भा०, २, पृ० ३०४ ।
⋙ खप्त †
संज्ञा पुं० [अ० खव्त] दे० 'खब्त' । उ०— दुनिया के स्वप्न और खप्त बताकर उड़ा देते हैं ।—वो दुनिया, पृ०, १६८ ।
⋙ खप्पड़
संज्ञा पुं० [सं० खर्पर] दे० 'खप्पर' ।
⋙ खप्पर
संज्ञा पुं० [सं० खर्पर] १. तसले के आकार का मिट्टी का पात्र । २. काली देवी का वह पात्र जिसमें वह रुधिरपान करती है । मुहा०— खप्पर भरना = खप्पर में मदिरा आदि भरकर देवी पर चढ़ाना । ३. भिक्षापात्र । ४. खोपड़ी ।
⋙ खफकान
संज्ञा पुं० [अ० खफ़कान] १. हृदय की धड़कन का रोग । हृत्कंप । २. २. वहशत । पागलपन [को०] ।
⋙ खफकानी
वि० [अ० खफ़कानी] १. हृद्रोगी । हृदयरोगवाला । २. घबड़ानेवाला । वहशी [को०] ।
⋙ खफगी
संज्ञा स्त्री० [फा० खफ़गी] १. अप्रन्नता । नाताजगी । उ०— सब जग से बोलो हो हमसे इतनी खफगी ? हाय उ०— कुंकुम० पृ०, ९० । २. क्रुद्ध । कोप ।
⋙ खफा
वि० [अ० खफ़ी] १. अप्रसन्न । नाराज । नाखुश । उ०— ए सनम तू ही मेरी शक्ल से रहता है रुसा है अजल भी तो खफा ।—श्यामा०, पृ०, १०२ । २. क्रुद्ध । रुष्ट ।
⋙ खफी
वि० [अ० खफ़ी] छिपा हुआ । गुप्त । उ०— फरामोश कर आप उस जौक में खफी जिक्र ओ ही के जानो तुमें ।— दक्खिनी०, पृ०, २०८ ।
⋙ सफीफ
वि० [सं० खफ़ीफ] १. अल्प । थोड़ा । क्रम । हलका ३. तुच्छ । क्षुद्र । ४. लज्जित । शरमिंदा । ५. एक छंद या वह्न [को०] ।
⋙ खफीफा
वि० स्त्री० [अ० खफ़ीफ़ह] एक दीवानी न्यायालय जिसमें लेने देने के छोटे वाद या केस सुने जाते हैं । २. इसकी अपील नहीं होती । २. बदचलन या तुच्छ स्त्री ।
⋙ खफ्फा
संज्ञा पुं० [देश०] कुश्ती का एक पेंच । विशेष— इस दाँव में विपक्षी की गरदन पर बाएँ हाथ से थपकी देकर तुरंत अपने दाहिने हाथ में उसे इस प्रकार फाँस लेते हैं, जिसमें अपनी कलाई उसके गले पर रहे; और तब अपने बाएँ हाथ से उसका दहिना पहुँचा पकड़कर थोड़ा ऊपर उठाते या झटका देते हैं जिससे विपक्षी गिर पड़ता हैं ।
⋙ खबर
संज्ञा स्त्री० [अ०खबर] [बहुव० अखाबार] १. समाचार । वृत्तांत । हाल । क्रि० प्र०—आना ।—जाना ।—पहुँचना ।—पाना ।—भेदना । मिलना ।—लाना ।—सुनना । मुहा०—खबर उड़ना = चर्चा फैलना । अफवाह होना । खबर फैलना = खबर उड़ना । खबर लेना = (१) समाचार जानना । वृत्तांत समझना । (२) दीन दशा पर घ्यान देना । सहायता करना या सहानुभूति दिखालाना । जैसे, —आप तो कभी हमारी खबर ही नहीं लेते । (३) दंड़ित करना । सजा देना । जैसे, —आज उनकी खूब खबर ली गई । २. सूचना । ज्ञान । जानकारी । जैसे—(क) हमें क्या खबर कि आप आए हुए हैं । (ख) उन्हें इन बातों की क्या खबर है । क्रि० प्र०—रखना ।—होना । ३. भेजा हुआ समाचार । सँदैसा । क्रि० प्र०—आना ।—जाना ।—भेजना ।—मिलना आदि । ४. चेत । सुधि । संज्ञा । जैसे, —उन्हें अपने तन की भी खबर नहीं रहती । क्रि० प्र०—रहना ।—होना । पता । खोज । क्रि० प्र०—मिलना ।—लगाना । ६. मुहम्मद साहब प्रवचन । हदीस (को०) ।
⋙ खबरगीर (१)
वि० [फा० खबरगीर] १. खबर लेनेवाला । देखा रेखा करनेवाला । २. रक्षक । पालक ।
⋙ खबरगीर (२)
संज्ञा पुं० जानकारी लेनेवाला व्यक्ति । गुप्चर ।
⋙ खबरगीरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० खबरगीरी] १. देखरखा । देखमाल । चौकसी । २. सहानुभूति और सहायता । ३. पालन पोषण (को०) । क्रि० प्र०—करना ।—रखना ।
⋙ खबरदार
वि० [फा़० खबरदार] [संज्ञा खबरदारी] होशियार । सजग । चैतन्य़ । सावधान । उ०— गफलत न जरा भी हो खबरदार खबरदार ।—भारतेंदु ग्रं० भा०,१. पृ० ५२२ ।
⋙ खबरदारी
संज्ञा स्त्री० [फा़० खबरदारी] सावधानी । होशियारी ।
⋙ खबरदिहंदा
वि० [फा़० खबर + दिहंदह्] सूचना या खबर देनेवाला । सूचक [को०] ।
⋙ खबरनवीस
वि० [फा़० खबरनवीस] सूचना या समाचार ले जाने या लिखानेवाला । उ०— समाचार देने और आदेश लेने के लिये प्रधान जासूस सरदार और खबरनवीस हजिर हो गए ।—मृग०, पृ०, ७५ ।
⋙ खबरनवीसी
संज्ञा स्त्री० [फा़० खबरनवीसी] दे० 'अखबारनवीसी' । उ०— किसने मार हाय हाय । खबरनवीसी हाय हाय ।— भारतेदु ग्रं०, भा०, २, पृ० ६७८ ।
⋙ खबरसाँ
वि० [फा़०] संदेशावाहक । पत्रवाहक । सूचक [को०] ।
⋙ खबरि पु
संज्ञा स्त्री० [ अ० खबर] दे० 'खबर' । उ०—भूप द्वार तिन खबरि जनाई । दसरथ नृप सुनि लीन बोलाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खबरिया पु
संज्ञा स्त्री० [अ० खबर + हिं० इया (प्रत्य०)] दे० 'खबर' । उ०— पूछत चली खबरिया, मितवा तीर । हरषित अतिहि तिरियवा, पहिरत चीर । रहीम (शब्द०) ।
⋙ खबरी
संज्ञा पुं० [फा़० खबर + ई०)] दूत । संदेशवाहक । —(ड़िं०) ।
⋙ खबाष्प
संज्ञा पुं० [सं०] ओस । अवश्याय [को०] ।
⋙ खबीस (१)
संज्ञा पुं० [ अ० खबीस] [भाव-खबासत; खबीसी] १. वह जो दुष्ट और भयंकर हो । भूत प्रेत । आदि (को०) ।
⋙ खबीस (२)
वि० अपवित्र । नापाक । गदा । २. दुष्ट । फरेबी [को०] ।
⋙ खबीसन
संज्ञा स्त्री० [अ० खबीस] दुष्ट या फरेबी औरत । उ०— कुछ दिन हुए एक खबिसन आई थी, क्या जाने कौन साहब उसके मालिक थे ।— भारतेदु ग्रं०, भा० १, पृ०, ३५७ ।
⋙ खबीसी
संज्ञा स्त्री० [अ० खबीसी] दुष्टता । बदमाशा । फरेब । उ०— खुदी खबीसा छाँड़ सवांशद साधू खरत भी हैं ।— कबीर सा०, पृ०, ८८७ । २. खबास औरत ।
⋙ खब्त
संज्ञा पुं० [अ० खब्त] [वि० खब्ती] पागलपन । सनक । झक्क । मुहा०—खब्त सवार होना = सनक चढना । पागलपन रहना । यो०— खब्तुल हवास = खब्ती । विकृत बुद्धिवाला । पागल ।
⋙ खब्ती
वि० [अ० खुब्ती] जसे खब्त हो । सनकी । सोदाई । पागल ।
⋙ खब्बर, खब्वल
संज्ञा पुं० [देश०] दूब नाम की घास ।
⋙ खब्बा
वि० [पं०] २. दहिने का उलटा । बायाँ ।२. बाएं हाथ स काम करनवाला ।
⋙ खब्बाज
वि० [अ० खब्बाल] रोटी पकानेवाला । नानाबाई [को०] ।
⋙ खब्भड़
वि० [अ०, खब्बास या हिं० खाभ़ड़] बुड़ढा और दुर्बल । दुबला पतला । उ०— वह गाय ता बिलकुल खब्भड़ हा गई है ।
⋙ खभड़ना पु †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'खभरना' ।
⋙ खभरना
क्रि० स० [हिं० भरना] १. मिश्रित करना । मिलाना । जैसे—गेहुँ क आटे में जौ का आटा खभरना । २. उथल पुथल मचाना । उ०— ओड़ि अदिन के ढाल ढकेला । भलो लरया बलकरत बुदेला । खभरि खेत तहै पर बिचलाओ । सुबन के उर साल सलायो ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ खभरुआ
वि० [हिं० खभरना] पुँश्चली स्त्री से उत्पन्न (बालक) । छिनाल का (लड़का) ।
⋙ सभार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खँभार' उ०— जो जाकी ताकै सरन, ताको ताहि खभार ।—दरिया० बानी० पृ०, २१ ।
⋙ खभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रह । नक्षत्र [को०] ।
⋙ खभ्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० खभ्रान्ति] श्येन या चील की जाति का पक्षी [को०] ।
⋙ खम (१)
संज्ञा पुं० [फा़० खम] १. टेढ़ापन । टेढ़ाई । कज । झुकाव । मुहा०— खम खाना = (१) मुड़ना । झुकना । दबाना । उ०— सूदन, समर साहि सैन तृन तून गनी हनी देह गोलिन न खाई खेत खम है ।—सूदन (शब्द०) । (२) हारना । पराजित होना । नीचा देखना । उ०— पहर रात भर मार मचाई । मुरक्यो तुरक उहाँ खम खाई ।— लाल (शब्द०) । खम ठोकना = (१) लड़ने के लिये ताल ठोंकना । उ०— आए तहँ जहँ खाल छलकारी । फेट बाँधि खम ठोंकि खरारी ।—लल्लू (शब्द०) । (२) दृढ़ता दिखालाना । खम ठोंककर = (१) ताल ठोंककर । (२) दृढता या निश्चयपूर्वक । जोर देकर । जैसे— 'मैं खम ठोंककर यह बात कह सकता हूँ । खम बजाना या मारना = दे० 'खम ठोंकना' । यौ०—खमदम । खमदार । २. गाने के बीच बीच में वह विश्राम जो लय में लोच या लचक लाने के लिये किया जाता है । क्रि० प्र०—लेना ।
⋙ खस (२)
वि० [सं० क्षम, प्रा खम] १. समर्थ शक्तिमान् । २. झुका हुआ । ३. वक्र । टेढ़ा ।
⋙ खमकना पु
क्रि० अ० [अनु०] खाम खम शब्द करना । उ०— खमकत बीर करि करि सुचोख । लमकंत तुरंगम पाइ पोष । सुजान०, पृ० ३८ ।
⋙ खमकरा †
संज्ञा पुं० [देश०] मकड़ा नाम की घास जो पशुओं के लिये बहुत पुष्टिकारक समझी जाती है । वि० दे० 'मकड़ा' ।
⋙ खमणि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य । रवि [को०] ।
⋙ खमणी पु †
वि० [स० क्षम प्रा० खाम + णी (प्रत्य०)] क्षमावती । क्षमाशीला । उ०—नमणी खमणी बहुगुणी, सुकोमली जु सुकच्छ । गोरी गंगा नीर ज्यूँ मन गरबी तन अच्छा ।—ढोला०, दु० ४५२ ।
⋙ खमदम
संज्ञा पुं० [फा़० ख़म + दम] पुरुषार्थ । साहस ।
⋙ खमदार
वि० [फा़० खमदार] १. झुका हुआ । टेढ़ा । उ०— वही दिलदार खुश आता है जो होवे बाँका । खुब लगती नहीं वह तेग जो खमदार नहीं ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ०, २० । १. पेंचदार घुमावदार । घुँघराला । उ०— वह जुल्फ मेरे महरु खामदार कहाँ है ।— कबीर मं०, पृ०, ३२४ ।
⋙ खमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश का मध्य भाग । सिर के ऊपर का केंद्रबिदु [को०] ।
⋙ खमवा
क्रि० सं० [सं० क्षम्० प्रा०, खस] सहन करना । क्षमा करना । उ०—न खमै ताप हजार नर, जुदो जुदो डर जाग ।—बाँकी० ग्रं०, भ्रा० १, पृ० २५ ।
⋙ खमर आलू †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कंद । उ०— नहीं तो कोठी के जंगल से 'खमर आलू' उखाड़ लाएँगी ।—मैला०, पृ०, १३ ।
⋙ खमसना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'खभरना' ।
⋙ खमसा (१)
संज्ञा पुं० [अ० खमसह = पाँच संबधी] १. एक प्रकार की गजल जिसके प्रत्येक बंद में पांच चरण होते हैं । २. संगीत में एक प्रकार का ताल जिसमें पाँच आघात और तीन खाली होते हैं । इसका बोल यह है— + ० १ २ ० ३ ४ ० + धा, धा, कोटे, ताग्, तेरे केटे, तागर, देत, धा । ४. पाँच उँगलियाँ (को०) ।
⋙ खमसा (२)
वि० पाँच संबधी । पाँच से संबंध रखनेवाला [को०] ।
⋙ खमा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षमा, प्रा०, खमा] दे० 'क्षमा' । उ०— दौरि राज प्रथिराज सु आयो । खमा खमा अख्खै उच्चायो ।— पृ०, रा०, ४ । ४ ।
⋙ खमाच
संज्ञा स्त्री० [हिं० खम्माच] दे० 'खम्माच' ।
⋙ खमाल † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] खजूर के हरे फल जो पच्छिम में भेड़, बकरी और गयों कि खिलाए जाते हैं ।
⋙ खमाल (२)
[अ० हम्माल] जहाज में असबाब की लदाई । लदनी ।
⋙ खमियाजा
संज्ञा पुं० [फा़० खम्याजह्] १. अँगड़ाई । २. जँभाई । जूँभा । ३. एक दंड़ जिसमें अपराधी को शिकंजे में कस दिया जाता था । ४. करनी का फल । बदला ५. नतीजा । परिणाम । ६. कष्ट । दुःख । ७. दंड़ । सजा [को०] । मुहा०—खमियाजा उठाना = करनी का फल पाना । दंड पाना ।
⋙ खमीदगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० खमीदगी] वक्रता । टेढ़ापन [को०] ।
⋙ खमीदा
वि० [फा० खमीदह्] १. झुका हुआ । खमदार । २. वक्र । टेढ़ा [को०] ।
⋙ खमीर
संज्ञा पुं० [अ० खमीर] १. गूँधे हुए आटे का सड़ाव । क्रि० प्र०— उठना ।—उठाना । मुहा०—खमीर बिगड़ना = गूँधे हुए आटे का अधिक सड़ने के कारण बहुत खट्टा हो जाना । खमीर खट्टा होना = दे० 'खमीर बिगड़ना' । २. गूँधकर उठाया हुआ आटा । माया । ३. कटहल, अनन्नास अदि को सड़ाकर तैयार किया गया एक पदार्थ जो तंबाकू में उसे सुगंधित करने के लिये ड़ाला जाता है । ४. स्वभाव । प्रकृति । मुहा०— खमीर बिगड़ना = स्वभाव या व्यवहार आदि में भेद प़ड़ना ।
⋙ खमीरा (१)
वि० [फा० खमीरह्] [स्त्री० खमीरी] खमीर उठाकर बनाया या खमीर मिलाया हुआ । खामीरवाला । जैसे, — खमीरी रोटी । खामीरा तंबाकू ।
⋙ खमीरा (२)
संज्ञा पुं० १. चीनी या शेरे में पकाकर बनाई हुई औषधि । जैसे, खमीरा बनफशा । २. पीने का सुगधित तंबाकू [को०] ।
⋙ खमीरी
वि० स्त्री० [फा० खमीर] दे० 'खमीर' ।
⋙ खमीलन
संज्ञा पुं० [सं०] तंद्रा । झपकी [को०] ।
⋙ खमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । शंकर । २. दिव्य शरीर या दिव्य पुरुष [को०] ।
⋙ खमूली
संज्ञा [सं०] जलकुंभी लता [को०] ।
⋙ खमो
संज्ञा पुं० [देश०] एक छोटा सदाबहार पेड़ । विशेष— यह भारतवर्ष बरमा और अंड़मान टापू में समुद्र के मटियाले किनारों और दरारों में उत्पन्न होता है । इसके छिलके में सज्जी का अंश अधिक होता है और यह चमड़ा सिझाने के काम में आता है । इससे एक प्रकार का रंग निकलता है जिसमें सूती कपड़े रँगे जाते हैं । इसके फल खाने में मीठे होते हैं और खाए । जाते है । इसकी ड़लियों से सूत की तरह पतली जटा निकलती है जिससे एक प्रकार का नमक बनता है । इसकी लकड़ी भी अच्छी होती है, पर बहुत कम काम में आती है । इसे भार औक राई भी कहते है ।
⋙ खमोश
वि० [फा० खमोश] दे० 'खामोश' ।
⋙ खमोशी
संज्ञा स्त्री० [फ० खामोशी] दे० 'खामोशी' ।
⋙ खमोस पु
वि० [ फा० खमोश] दे० 'खामोश' । उ०— हौं को करै खमोस, होस ना तन को रखै । गगन गुफा के बीच पियाला प्रेम का चाखै । पलटू० बानी, भा०, १, पृ०, ६ ।
⋙ खम्माच
संज्ञा स्त्री० [हिं० खंभावती] मालकोस राग की दूसरी रागिनी । विशेष— यह षाड़व जाति ती रागिनी है और रात के दूसरे पहर की पिछली घड़ी में गाई जाती है ।
⋙ खम्माच कान्हड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० खम्माच+कान्हड़ा] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जो रात के दूसरे पहर में गाया जाता है ।
⋙ खम्माच टोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खंभांबती+टोरी] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो खांमावती और टोरे से मिलकर बनती है ।
⋙ खम्हाँ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० खमा] दे० 'खाभा' । उ०— एही फिरिश्ता चारि कहाया । एही चारि खम्हाँ तन लाया ।—सं० दरिया, पृ०, ३१ ।
⋙ खम्माची
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खम्माच' ।
⋙ खयंग पु †
संज्ञा पुं० [सं० खड़ग] दे० 'खड़ग' । उ०— ऊमर ऊतावलि करइ पल्लाणियाँ पवंग । खुरसाणी सूधा खयँग चढ़िया दल चतुरंग ।—ढोला०, दू०, ६४० ।
⋙ खय पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षय] १. विनाश । क्षय । २. प्रलय ।
⋙ खया पु
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध] भुजमूल । खवा । उ०— कंदुक केलि कुशल हय चढि चढ़ि, मन कसि कसि ठोंकि ठोंकि खये ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खयानत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. धरोहर रखी हुई वस्तु न देना अथवा कम देना । गबन । २. चोरी या बेईमानी ।
⋙ खयाल
संज्ञा पुं० [अ० खयाल] दे० 'ख्याल' । उ०— मैने छोटी बड़ी भेड़ का खयाल नहीं किया, मेरा कुछ कसूर नहीं ।— भारतेंदु ग्रं०, भा०, १. पृ०, ६६९ ।
⋙ खयालात
संज्ञा पुं० [अ० खायाल का बहुव०] अनेक विचार । ख्याल या विचारधारा । उ०— खयालात अपने निगाहें बिरानी, किसी को न मालूम अपना पराया ।—हंस०, पृ०, ४९ ।
⋙ खयाली
वि० [अ० खयाल] दे० 'ख्याली' । मुहा०— ख्याली पुलाव पकाना = दे० 'ख्याली पुलाव पकाना' ।
⋙ खय्याम
संज्ञा पुं० [अ० खय्याम] फारसी के मधुवादी कवि अर्थात् मधुप्रेमी, शराब पीने वाले व्यक्ति । उ०—सिर्फ खय्यामों की आवश्यकता है साकी हजारों सुराही लिए यहाँ तयार मिलेगे ।—किन्नर०, पृ० ३७ ।
⋙ खरंजा
संज्ञा पुं० [देश०] १. बह ईंट जो बहुत अधिक पकने के कारण जल गई गो । झाँवाँ । २. दे०, 'खड़ंजा' ।
⋙ खर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गधा । २. खच्चार । ३. बगला । ४. कौवा । ५. एक राक्षस जो रावण का भाई था ओर पंचवटी में रामचंद्र के हाथ से मारा गया था । ६. तृण । तिनका । घास । यौ०— खर कतवार = दे० 'खरपतवार' । उ०— गा सब जनम अबिरथा मोरा । कत में खर कतवार बटोरा । —चित्रा०, पृ० १३० । खरपतवार = कूड़ा करकट । ७. ६०. संवत्सरों में से २५ वाँ संवत् । इस वर्ष में बहुत उपद्रब होते हैं । ८. प्रलंबासुर का एक नाम । ९. छप्पय छंद का एक भेद । १०. एक चौकोर वेदी जिसपर यज्ञों में यज्ञपात्र रखे जाते हैं । ११. कंक । १२. कुरर पक्षी । १३. सूर्य का पार्श्वचर । १४. एक प्रकार का तृण या घास जो पंजाब, संयुक्त प्रांत और मध्य प्रदेश में होती है और जो घोंड़ों के लिये बहुत अच्छी समझी जाती है । १५ । कुत्ता श्वान (अनेकार्थ०) ।
⋙ खर (२)
वि० [सं०] १. क़ड़ा । सख्त । २. तेज । तीक्ष्ण । ३. घना । मोटा । हानिकर । अमांगलिक । जैसे, खर मास । ५. तेज धार का । ६. आड़ा । तिरछा ।
⋙ खर (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खराई' । मुहा०—खर मारना = दे० 'खराई मारना' ।
⋙ खर (४) †
संज्ञा पुं०[ सं० खर = तेज] करारा । कुरकुरा । मुहा०—(घी) खर करना = (घी) गरम करके तपाना ।
⋙ खरक (१)
संज्ञा पुं० [सं० खड़क = स्थाणु] १. जंगलों आदि में लकड़ीयों के खंभे गाड़कर और उनमें आड़ी बल्लियाँ बाँधकर घेरा और छाया हुआ स्थान जिनमें गौएँ रखी जाती हैं । इसे कहीं कहीं ड़ाढा भी कहते हैं । उ०— बछरा सखी एक भग्यो खरका तें महूँ तोहि दौरि पछेरौ कियो ।—सेवक (शब्द०) । २. पशुओं के चरने का स्थान । ३. चीरे हप पतले बाँसों को बाँधकर बनाया हुआ किवाड़ा जिसे गरीब लोग अपने घरों में लगाते हैं । टट्टर ।
⋙ खरक (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खटक' या 'खड़क' ।
⋙ खरकता
संज्ञा पुं० [देश०] लटोरे की जाति का एक पक्षी ।
⋙ खरकना (१) पु
क्रि० अ० [अनु०] खर खर शब्द होनाष खरखराना । खड़कना । उ०— बारहिं बार विलोकत द्वारहि, चौंकि परे तिनके खरके हूँ ।—मतिराम (शब्द०) ।
⋙ खरकना (२)
क्रि० अ० [हिं० खर] १. फाँस चुभने के कारण दर्द होना । फाँस चुभने का दर्द होना । ३. खड़कना । सरकहा । चल देना । उ०— तुलसी करि केहरि नाद मिरे भट खग्ग खगे, खपुआ खारके ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खरकर
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य । दिनकर [को०] ।
⋙ खरकवट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खर = तिनका या आड़ा] दो अंगुल चौड़ी एक चिकनी पटरी जो करघे में दो खूँटियों पर अटकाकर आड़ी रखी जाती है और जिसपर ताना फैलाकर बुनाई होती है । इसका व्यवहार प्रायः गुलबदन आदि बुनने के समय होता है ।
⋙ खरका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खर] खड़ा तिनका । मुहा०— खरका करना = भोजन के उपरांत दाँतों में फैसे हुए अन्न आदि को तिनके से सोदकर निकालना ।
⋙ खरका (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खरक' ।
⋙ खरका (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खटका' । उ०— (क) चीतल चीत हिरंन पाइ खरके भजि जंते । —पृ०, रा०, ६ । ९४ । (ख) कहै रनधीर भग जाय पात खरका ते ।—रघु० रू०, पृ० २८४ ।
⋙ खरकुटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गदहों का निवासस्थान २. नाई का निवास या दूकान । ३. नाई का चमोटा जिसमें नाई औजार रखते हैं [को०] । किस्बत ।
⋙ खरकुटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खर = तृण + कुटी ] खर और पत्ते आदि से बनी झोपड़ी । उ०— राजगृह के चतुष्पथ पर एक खरकुटी थी ।—वै० न० पृ०, ३२१ ।
⋙ खरकोण
संज्ञा पुं० [सं०] तीतर पक्षी ।—(ड़ि०) ।
⋙ खरकोमल
संज्ञा पुं० [सं०] ज्येष्ठ का महीना [को०] ।
⋙ खरक्वाण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खरकोण' [को०] ।
⋙ खरखरा
वि० [हिं०] दे० 'खुरखुरा' ।
⋙ खरखशा
संज्ञा पुं० [फा़० खऱख़शह] १. झगड़ा । लडाई । २. भय आशंका । डर ३. झंझट । बेखेड़ा ।
⋙ खरखोटा
संज्ञा पुं० [हिं० खरा + खोटा] बुराई । बरबादी । हानि उ०— गांठी बाँध्यो दाम सों परयो न फिरि खरखोट ।— तुलसी ग्रं०, पृ०, ५५४ ।
⋙ खरखौकी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खर + खाना] खर, तृण आदि खानेवाली अग्नि । उ०— लगि दवार पहार ठही लहकी कपि लंक जथा खरखौकी ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खरग पु
संज्ञा पुं० [सं० खड़ग] १. दे० 'खड़ग' । २. दे० 'खरक', 'खरिक' (अनेकार्थ०) ।
⋙ खरगृह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खरकुटी' (१) [को०] ।
⋙ खरगेह
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुटिया । तंबू । २. दे० "खरकुटी' (१) [को०] ।
⋙ खरगोश
संज्ञा पुं० [फा़० खरगोश] खरक । चौगाड़ा । वि०—दे० 'खरहा' ।
⋙ खरघातन
संज्ञा [सं०] नागकेशर । नागचंपा [को०] ।
⋙ खरच
संज्ञा पुं० [फा० खर्च] दे० 'खर्च' । मुहा०—खरट कर डालना पु = समाप्त करना । खपा डालना । मार डालना । उ०— यह बनियाँ कौन की हिमायत सों बोलत हैं । तातें याके तुरत ही खरच करि डारो ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २४५ ।
⋙ खरचनहार
वि० [हिं० खरचना + हार (प्रत्य०)] खरच करनेवाला । व्यय करनेवाला । उ०— माया तो है राम की, मोदी सब संसार । जा को चिट्ठी ऊतरी सोई खारचनहार ।— संतवाणी भा०, १, पृ० ५७ ।
⋙ खरचना
क्रि० स० [फा० खर्च हिं० खरच या खर्च + ना (प्रत्य०)] १ व्यय करना । करन उठाना । लगाना । २. व्यवहार में लाना । बरतना ।
⋙ खरचर्मा
संज्ञा पुं० [सं० खरचर्मन्] मगर । नक्र [को०] ।
⋙ खरचा
संज्ञा स्त्री० [फा खर्च०] दे० 'खर्चा' ।
⋙ खरची
संज्ञा स्त्री० [हिं० खरच + ई] दे० 'खर्ची' उ०— ता पाछे जब बैष्णवन जाइबे की कहे तब कृष्ण भट रात्रि को उनकी गाँठि खड़िया खोलि खरची बाँधि देतै ।— दो सौ० बावन०, भा० १, पृ० २७ ।
⋙ खरचूर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० खर्जूर] एक प्रकार की चाँदी । रजत । उ०— राजा के भंड़ार महँ, धन और दरब सपूर । पूरन रतन पदारय, गुलिक कनक खरचूर । —इंद्रा०, पृ० ८ ।
⋙ खरच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] १ भूमिसह वृक्ष २. कुंदर नामक तृण । ३. नक्र । मकर [को०] ।
⋙ खरज
संज्ञा पुं० [सं० षड़ज] दे० 'षड़ज' उ०— खरज साधे गाऊँ मैं श्रवणन सुनहऊँ सुनाऊँ ।—अकबरी०, पृ० १०५ ।
⋙ खरजूर (१)
संज्ञा पुं० [सं० खर्जूर०] दे० 'खजूर' ।
⋙ खरजूर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खर्जूर] एक प्रकार की चाँदी । उ०— खासा पट खरजूर, सुभूषण सारनै । दोधो दौलट पूर बधाई दारनै ।— रघु० रू० पृ०, ९३ ।
⋙ खरतनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खारादना] दे० 'खरदनी' ।
⋙ खरतर पु †
बि० [हिं० खर + तर] (प्रत्य०)] १ अधिक तीक्ष्ण । बहुत तेज । उ०— क्या ताइ के खरतर करई । प्रेम कसँड़सी पोढ़ कै धरई ।— जायसी (शब्द०) । २. लेनदेन में खरा । व्यवहार का का सच्चा या साफ ।
⋙ खरतरगच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] जैन संप्रदाय की एक शाखा ।
⋙ खरतल †
वि० [हिं० खरा] १खरा । स्पष्टवादी । २. शुद्ब हृदयवाला । ३. मुरौवत न करनेवांला शील संकोच न करनेवाला । ४. साफा । स्पष्ट । क्रि० प्र०— कहना ।—रहना । ५. प्रचंड । उग्र ।
⋙ खरतवा पु
संज्ञा पुं० [हिं० खर + बथुआ] दे० 'खरतुआ' । उ०— मुझि सरूप भूप मन जीते आसा सकत जराए । भक्ति खेत में लोभ खरतवा ताकू रहन न पाए । —सहजो० पृ०, ५७ ।
⋙ खरतुआ
संज्ञा पुं० [हिं० खर + बथुआ] बथुए की तरह की एक घास जो पंजाब और मध्यप्रदेश में अधिकता से होती है । इसे चमरबथुआ भी कहते हैं । उ०— खेत बिगरयो खरतुआ, सभा बिगरी कूर । भक्ति बिगरी लालचि,ज्यों केसर में धूर ।—कबीर सा० सं० भा० १, पृ० ३६ ।
⋙ खरदंड
संज्ञा पुं० [सं० खरदण्ड] पदम । कमल ।
⋙ खरदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खरादना] खरादने का औजार । खराद कजनी ।
⋙ खरदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का गूलर । कठूमर [को०] ।
⋙ खरदा
संज्ञा पुं० [देश०] अंगूर का एक रोग जिसमें उसकी ड़ालियों पर लाल रंग की बुकनी बैठ जाती है और पौध की बाढ़ नष्ट हो जाती है ।
⋙ खरदिमाग
वि० [फा० खरदिमाग] गधे की तरह बुद्धिवाला । नितांत मूर्ख । उजड्ड [को०] ।
⋙ खरदिमागो
संज्ञा स्त्री० [फा० ख़रदिमागी] नासमझी । मूर्खता । उजड्डपन [को०] ।
⋙ खरदुक †
संज्ञा पुं० [सं० क्षिरोदक, हिं० खीरोदक] प्राचीन काल का एक प्रकार का पहनावा ।— उ०—चँदनौता औ खरदुक भारी । बाँसपूर झिलमिल कै सारी ।—जायसी ग्रं०, पृ०, १४५ ।
⋙ खरदूषण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] खर और दूषण नामक राक्षस जो रावण के भाई थे । १ धतूरा । ३. झरंबरी [को०] ।
⋙ खरदूषण (२)
वि० जिसमें बहुत दोष हों ।
⋙ खरदूषण पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० खर = तीक्ष्ण + दोषन् = बाहु] तीखे करोंवाला सूर्य । उ०— वृष के खरदूषण ज्यों खरदुषण । तब दूर किए रवि के कुलभूषण ।—रामचं०, पृ० ७२ ।
⋙ खरधार
संज्ञा पुं० [सं०] तेज धारवाला अस्त्र ।
⋙ खरधावा †
संज्ञा पुं० [हिं० क्षर + धव] धव या धाव का पेड़ जिसकी लकड़ी नाव आदि बनाने के काम में आती हैं । वि० दे० 'धब' ।
⋙ खरध्वंसी
संज्ञा पुं० [सं० खरध्वंसिन्] १. रामचंद्र । २. कृष्णचंद्र ।
⋙ खरना
क्रि० स० [हिं० खरा] ऊन को पानी में उबालकर साफ करना ।
⋙ खरनाद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गधे की आवाज । रेंकना ।
⋙ खरनाद (२)
वि० गधे की तरह आवाजाबाला [को०] ।
⋙ खरनदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रेणु का नाम का गंधद्रव्य ।
⋙ खरनादी
वि० [सं० खरनादिन्] दे० 'खरनाद (२)' ।
⋙ खरनाल
संज्ञा पुं० [सं०] कमल । पदम [को०] ।
⋙ खरपत
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष । धोगर । विशेष— यह वृक्ष रुहेलखंड़ अवध,बरमा तथा नीलगिरि में अधिकता से होता है होता जेठ वैसाख में फूलता और कातिक अगहन में फलता है । इसका फल मकौय के आकार का होता है और कच्चा खाया जाता है ।— इसकी पत्तियाँ को हाथी बहुत रुचि से खाते हैं । इसकी छाल ले चमड़ा सिझाया जाता है और इसमें से हरापन लिए हुए पीले रंग का एक प्रकार का गोंद निकलता है । इसे धोहगर भी कहने है ।
⋙ खरपा
संज्ञा पुं० [सं०खर्व] चौबगला ।
⋙ खरपात
संज्ञा पुं० [सं० क्षर + हिं०पात] घास पात । घास फूस ।
⋙ खरपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] लोहे का बरतन [को०] ।
⋙ खरपाल
संज्ञा पुं० [सं०] काठ का बना हुआ बरतन । कठौता ।
⋙ खरप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] कपोत । कबूतर [को०] ।
⋙ खरब
संज्ञा पुं० [सं० खर्व] १. सौ अरब । संख्या का बारहबाँ स्थान २. बारहवें स्थान की संख्या ।
⋙ खरबिरई
संज्ञा स्त्री० [हिं० खर + बिरई = बूटी] घास पात या जड़ी बूटी की दवा दो प्रायः देहाती लोग करते हैं ।
⋙ खरबुजा
संज्ञा पुं० [फा० खरबुजह्] दे० 'खरबूजा' ।
⋙ खरबूजा †
संज्ञा पुं० [हिं० खरबूजा] दे० 'खरबूजा' ।
⋙ खरबूजा
संज्ञा पुं० [फा० खरबुजह्] १. ककड़ी की जाति की एक बेल । २. इस बेल का फल । विशेष— इसके फल गोल, ब़ड़े मेठे और सुगंधित होते हैं । इसके बीच प्रायः नदियों के किनारे पूस माघ में गढ़ड़े खोदकर बो दिए जाते हैं० और घास फूस से ढक दिए जाते हैं । जिनसे शीघ्र ही बहुत बड़ी बड़ी वेलें निकलकर चारों और खूब फैलती हैं । चैत मे आषाढ़ तक इसमें फल लगते हैं । इसकी खरदा, सफेदा, चितला आदि अनेक जातियाँ हैं । इसके बीज ठंढाई के साथ पीसकर पिए जाते हैं और कई तरह से चीनी आदि में पागकर खांए जाते हैं । बीजों से एक प्रकार का तेल भी निकल सकता हैं जो खाने और साबुन बनाने के काम मे आ सकता है । मुहा०— खरबूजे को देखकर खर बूजे का रंग पकड़ना = किसी एक व्यक्ति की देखादेखी या संग से दुखरे का भी बंसा ही हो जाना ।
⋙ खरबूजी
वि० [हिं० ख रबूजा] खरबूजे को तरह रंगवाला ।
⋙ खरबोजना
संज्ञा पुं० [हिं० खार + बोझना] रँगरेजों का बह मटघडा जिसपर रंग का माट रखकर रंग टपकाते हैं ।
⋙ खरवोऱिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० खरमराना] खलबली । हलचल । उ०— फलन देई की बरात में खरबोरिया मचिगौ ।—पोददार अभि० ग्रं०, पृ०, १००७ ।
⋙ खरब्बा
वि० [हिं० खराब] चरित्रहीन । बदचलन । विशेष— इस शब्द का प्रयोग प्रायः स्त्रियों के लिये ही होता है ।
⋙ खरभर
संज्ञा पुं० [अनु०] १. खरभर का शब्द । २. हौरा । शोर । गुल गपाड़ा । रौला । उ०— खरभर सुनत भए उठि ठाढ़े । सिथिलित अंग भंग सख गाढ़े । हम्मीर०, पृ०, १० । ३. हलचल । गड़बड़ । उ०—होनिहार का करतार को रखवार जग खरभर परा । दुई माथ कोहि रतिनाथ जोहि कहँ कोपि कर धनुखर धरा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खरभरना
क्रि० अ० [हिं० खरखर] दे० 'खरभराना' ।
⋙ खरभराना
क्रि० अ० [हिं० खरभर] १. खरभर शब्द करना । २. शोर करना । रौला करना । ३. गड़बड़ या हलचल मचाना । चंचल होना । व्याकुल होना ।
⋙ खरभरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खभर + ई] दे० 'खलबली' ।
⋙ खरमंजरी
संज्ञा स्त्री० [ सं० खरमञ्जरी] अपामार्ग । चिचड़ा ।
⋙ खरमंड़ल
संज्ञा पुं० [फा़० ख + सं० मण्ड़ल] गोंलमाल । विघ्न । गुलगपाड़ा । हौरा । उ०— जब कोई सुव्यवस्था की बात चली, कि खामंड़ल मचा ।—प्रेमघन० भा०, २, पृ० २८७ ।
⋙ खरमस्त
वि० [फा़० खरप्रस्तह] दे० 'खरमस्ता' ।
⋙ खरमस्ता
वि० [फा़० खरस्तह् ] १. दुष्ट । शरारती । २. कामुक । ३. मतवाला [को०] ।
⋙ खरमस्ती
संज्ञा स्त्री० [फा़० खरमस्ती] १. दुष्टता । पाजीपन । शरारत । २. कामुकता (को०) । ३. मस्ती (को०) । क्रि० प्र०— करना ।— सुझना ।
⋙ खरमास
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खरवाँस' ।
⋙ खरमिटाव
संज्ञा पुं० [हिं० खर + मिटाव] जलपान । कलेवा । उ०— हम खरमिटाव कइली है रहिल चाबय के । भेंवल धरल बा दूध में खाजा तोरे बदे ।—बदमाश० ।
⋙ खरमिटौनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खरमिटाव] दे० 'खरमिटव' ।
⋙ खरमुख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राक्षस का नाम जिसे केकय देश में भरत जी ने मारा था । २. तुरंगमुख । किन्नर (को०) ।
⋙ खरमुख (२)
वि० गधे की तरह मुखाकृतिवाला । बदशक्ल । कुरूप [को०] ।
⋙ खरमुहरा
संज्ञा पुं० [फा़० खरनमोहरह्] छोटा धोंघा जी तालाबों में होता है । कौड़ी । कपर्दिका । उ०— एक खमुहा खर्च करना नहीं चाहता ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५६ ।
⋙ खरयान
संज्ञा पुं० [सं०] सवारी या गाड़ी जिसमें गदहे जुते हों [को०] ।
⋙ खररश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] तिग्मरश्मि । सूर्य [को०] ।
⋙ खररोमा
संज्ञा पुं० [सं० खररोमन्] एक प्रकार का सर्प [को०] ।
⋙ खरल
संज्ञा पुं० [सं० खल] पत्थर की गहरी, गोल और लंबोतरी कूँड़ी जिसमें दस्ते से ओषधियाँ कूटी जाती हैं । खल । मुहा०—खरल करना = औषधि आदि को खरल में डालकर महीन पीसना । महीन कटना ।
⋙ खरली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खाली' ।
⋙ खरलोमा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खरेरोमा' [को०] ।
⋙ खरवट
संज्ञा स्त्री० [देश०] काठ के दो टुकड़ों से बना हुआ एक तिकोना औजार जिसमें रेती जानेवाली वस्तु को फँसाकर उसे रेतते हैं ।
⋙ खरवाँस
संज्ञा पुं० [हिं० खर + मास] पूस और चैत का महीना जब सूर्य धन और मीन का होता है । इन महीनों में मांगलिक कार्य करना वर्जित है ।
⋙ खरवार
संज्ञा पुं० [सं० खर + वार] रवि भोम आदि अशुभ दिन ।
⋙ खरशब्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुरर नाम का एक पक्षी । २. गर्दभ का स्वर [को०] ।
⋙ खरशाक
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी नाम का पौधा [को०] ।
⋙ खरशाला
संज्ञा पुं० [सं०] गदहों के रहने का स्थान [को०] ।
⋙ खरशिला
संज्ञा पुं० [सं०] मंदिर आदि की कुरसी का वह ऊपरी भाग जिसपर सारी इमारत खड़ी रहती है ।
⋙ खरस
संज्ञा पुं० [फा० ख़िर्स] रीछ । भालू । (कलदरों की बोली) ।
⋙ खरसा (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० षड्स] एक प्रकार का भोज्य पदार्थ । उ०—भई मिथौरी सिरका परा । सोंठ लाय कै खरसा धरा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खरसा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो आसाम और ब्रह्म देश की नदियों में पाई जाती है ।
⋙ खरसा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. ग्रीष्म ऋतु । गरमी का दिन । २. अकाल । कहत ।
⋙ खरसा (४)
संज्ञा पुं० [फा़० खारिश] खाज । खुजली । खारिश ।
⋙ खरसान
संज्ञा स्त्री० [हिं० खर + सान] एक प्रकार की सान जो अधिक तीक्ष्ण होती है । इस पर तलवार उतारी जाती है । उ०—(क) शिष खाँडा गुरु मसकला चढ़ै शब्द खरसान । शब्द सहै सन्मुख रहै निपजै शिष्य सुजान ।—कबीर (शब्द०) । (ख) बाला तेरे नैन की बिसाल साल सौतिन के बलभद्र साने है सुहाग खरसान के ।—बलभद्र (शब्द०) ।
⋙ खरसार
संज्ञा पुं० [सं०] लोहा । इस्पात [को०] ।
⋙ खरसुमा
वि० [फा़० खर + सुम] जिस (घोड़े) के सुम गधे के सुमों की भाँति बिलकुल खड़े हों ।
⋙ खरसैला
वि० [हिं० खरसा = खाज + ऐल (प्रत्य०)] जिसे खुजली हुई हो । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः पशुओं के लिये होता है ।
⋙ खरस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० खरस्कन्ध)] १. पियाल या चिरौंजी का पेड़ । २. खर्जूर वृक्ष [को०] ।
⋙ खरस्पर्श
वि० [सं०] तीक्ष्ण । गरम (वायु) [को०] ।
⋙ खरस्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की जंगली चमेली । बन- मल्लिका [को०] ।
⋙ खरहर
संज्ञा पुं० [देश०] बलुत की जाति का एक पेड़ । विशेष—यह हिमालय की तराई में होता है । इसकी पत्तियाँ बेर की पत्तियाँ से बड़ी होती है । फल बलून ही के से होते हैं । इसकी कच्ची लकड़ी, जो सफेद होती है और पकने पर गहरी भूरी हो जाती है, खेती के औजार बनाने के काम में आती है । छाल से चमड़ा सिझाया जाता है ।
⋙ खरहरना (१) †
क्रि० अ० [हिं० खर = तिनका + हरना] झाड़ देना ।
⋙ खरहरना (२)
क्रि० स० घोड़े के शरीर पर खरहरा करना । खरहरे से घोड़े का शरीर साफ करना ।
⋙ खरहरना (३) पु
क्रि० अ० [सं० स्खलन, प्रा० खलण + हिं० हिलना, हलना या प्रा० खल खल] विचलित होना । कंपित होना । खड़बड़ाना । उ०—ते ऊँचे चढ़िकै खरहरे । धमकि धमकि नरकन मै परे ।—नंद०, ग्रं०, पृ० २२६ ।
⋙ खरहरा
संज्ञा पुं० [हिं० खरहरना] [स्त्री० अल्पा० खरहरी] १. रहठे या अरहर की डंठलों से बना हुआ झाड़ू जिसे झँखराभी कहते हैं । २. एक चौकोर छोटी पटरी जिसमें धातु की बनी हुई, छोटे दाँतों की कंघियाँ होती हैं । विशेष—यह घोड़े का बदन खजलाने और उसमें से गर्द और धूल निकालने के काम मे आती है । चमड़े के टुकड़े में एक विशेष प्रकार से लोहे के तार जड़कर भी खरहरा बनाया जाता है ।
⋙ खरहरी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक मेवा (कदाचित् ख जूरया छुहारा ।) उ०—(क) तहरो पाक बोने औ गरी । परी चिरौंजी और खरहरी ।—जायसी (शब्द०) । (ख) नरियर फरे फरी खरहरी । फरें जानु इंद्रासन पुरी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खरहरी † (२)
वि० स्त्री० [हिं० खड़बड़ा] (खाट) जिसपर बिछावन न बिछाया गया हो । निखरहर (बोल०) ।
⋙ खरहा
संज्ञा पुं० [हिं० खर + हा (प्रत्य०)] [स्त्री० खरही] चूहे की जाति का, पर उससे कुछ बड़े आकार का एक जंतु । खरगोश । उ०—बीली नाचे मुस मिरदंगी खरहा ताल बनावै ।—सत० दरिया, पृ० १२६ । विशेष—इसके कान लंबे, मुंह और सिर गोल, चमड़ा नरम और रोएँदार, पूँछछोटी और पिछली टाँगें अपेक्षाकृत बड़ी होती है । यह संसार के प्रायः सभी उत्तरी भागों में भिन्न भिन्न आकार और वर्ण का पाया जाता है । यह जगलों और देहातों में जमीन के अंदर बिल खोदकर झुंड में रहता है और रात के समय आस पास के खेतों, विशेषतः ऊख के खेतों को बहुत हाँनि पहुँ चाता है । यह बहुत अधिक डरपोक और अत्यंत कोमल होता है और जरा से आघात से मर जाता है । यह छलाँगें मारते हुए बहुत तेज दौड़ता है । इसके दाँत बड़े तेज होते हैं । खरही छह मास के होने पर गर्भवती हो जाती है और एक मास पीछे सात आठ बच्चे देती है । दस पंद्रह दिन पीछे वह फिर गर्भवती हो जाती है और इसी प्रकार बराबर बच्चे दिया करती है । किसी किसी देश के खरहे जाड़े के दिनों में सफेद हो जाते हैं । इनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है । शास्त्रों के अनुसार यह भक्ष्य है और वैद्यक में इसका मांस ठंढा, लघु, शोथ, अतीसार पित्त और रक्त का नाशक और मलबद्ध कारक माना गया है । इसे चौगुड़ा, लमहा और खरगोश भी कहते हैं । इसका संस्कृत नाम 'शश' है ।
⋙ खरही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खर] (घास या अन्न आदि का) ढेर । समूह । राशि ।
⋙ खरांडक
संज्ञा पुं० [सं० खराण्डक] शिव के एक अनुचर का नाम ।
⋙ खरांशु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य । खरकर । तिग्मरश्मि ।
⋙ खरा
वि० [सं० खर = तीक्ष्ण] [वि० स्त्री० खरी] १. तेज । तीखा । चोखा । २. अच्छा । बढ़िया । स्वच्छ । विशुद्ध । बिना मिलावट का । 'खोटा' का उलटा । जैसे, खरा सोना । खरा रुपया । उ०—राजैं नवीन निकाई भरी रातिहू तें खरी वे दुहूँ परजंक में ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । मुहा०—खरा खोटा = भला बुरा । खरा खोटा परखना = अच्छे बुरे की पहचान करना । जी खरा खोटा होना = चित्त चलाय मान होना । मन डिगना । बुरी नीयत होना । खरे आए = अच्छे मिले । अच्छे आए (व्यंग्य) । ३. सेंककर कड़ा किया हुआ । करारा । मुहा०—कान खरा करना = कान गरम करना । काम मलना । ४. जो झुकने या मोड़ने से टूट जाय । चीमड़ । कड़ा । ५. जिसमें किसी प्रकार की बेईमानी न हो । जिसमें किसी प्रकार का धोखा न हो । जो व्यवहार में सच्चा और ईमानदार हो । साफ । छल—छिद्र—शून्य । जैसे,—खरा मामला । खरा आदमी । मुहा०—खरा असामी = दे० 'खरा आदमी' । खरा आदमी = लेन देने में सफाई रखनेवाला आदमी । व्यवहार में सच्चा मनुष्य । ईमानदार । खरा खेल = साफ मामला । शुद्ध व्यवहार । खरा खेल फर्रुखाबादी = फर्रुखाबाद के रुपए की तरह शुद्ध ओर सच्चा व्यवहार । विशेष—फर्रुखाबाद की टकसाल के रुपए किसी समय में बहुत खरा और चोखा समझा जाता था । ६. नकद (दाम) । उ०—मगर खरी मजदूरी और चोखा काम । हमारे वतन में बागवाँ रोज उजरत पाते है ।—फिसाना०, भा० ३ पृ० ३१४ । मुहा०—रुपए खरे होना = रुपए मिलने का निश्चित होना । जैसे—तुम्हारे रुपए तो खरे हो गए; अब हमारा इनका मामला रह गया । ७. उचित बात कहने या करने में शील संकोच न करनेवाला । लगी लिपटी न कहनेवाला । स्पष्टवक्ता । जैसे खरा कहैया । ८. (बात के लिये) यथातथ्य । सच्चा । अप्रिय सत्य । जैसे, खरी बात । मुहा०—खरी सुनना, खरी खरी सुनाना = सच्ची बात कहना, चाहे किसी को बुरा लगे चाहे भला । उ०—मैं लगी लिपटी नहीं रखती । खरी खरी कहती हूँ । दो टूक । या इधर या उधर ।—सैर०, पृ० २६ । ६. बहुत । अधिक । ज्यादा । उ०—(क) अरे परेखों को करै, तुही बिलोक बिचार । कहि नर केहि सर राखियो खरे बढ़े पर पार ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) रस के उपजावत पुंज खरे पिय लेत परे रस के चसके ।—बृंद (शब्द०) ।
⋙ खराई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खरा + ई (प्रत्य०)] 'खरा' का भाव । खरापन ।
⋙ खराई (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] सबेरे अधिक देर तक जलपान या भोजन आदि न मिलने के कारण जुकाम होना, गला बैठना या प्रकृति में होनेवाली इसी प्रकार की और कुछ गड़बड़ी । मुहा०—खराई मारना = जलपान करना । कलेवा करना ।
⋙ खराऊँ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खड़ाऊँ' ।
⋙ खराकहैया †
वि० [हिं० खरा + कहना + ऐया (प्रत्य०)] खरा कहनेवाला । स्पष्टवक्ता ।—(बोल०) ।
⋙ खरागरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवताड़ का वृक्ष । देवताड़क । जीमूत ।
⋙ खराज
संज्ञा पुं० [अ० खराज] खिराज । राजकर । राजस्व । उ०—बहुत से हिंदु राजाओं से केवल खराज लेकर वह संतुष्ट हो गए ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ५०४ ।
⋙ खराद (१)
संज्ञा पुं० [अ० खर्रात फा० खर्रादि] एक औजार । चरख । खरसान । उ०—मानों खराद चढ़े रवि की किरणों गिरीं आनि सुमेरु के ऊपर ।—पजनेस०, पृ० १३ । विशेष—इसपर चढ़ाकर लकड़ी धातु आदि की सतह चिकनी और सुडौल की जाती है । चारपाई के पावे, डिबिया, खिलौने आदि बढ़ई खराद ही पर चढ़ाकर सुडौल और चमकीले करते हैं । ठठेरें भी बरतनों को चिकना करने और चमकाने के लिये उन्हें खराद पर चढ़ाते हैं । मुहा०—खराद पर उतरना या चढ़ना = (१) ठीक होना । दुरुस्त होना । सुधरना (२) लौकिक व्यवहार में कुशल होना । अनुभव प्राप्त होना । खराद या खराद पर उतारना या चढ़ाना = ठीक करना सुधारना । दुरुस्त करना सँवारना । उ०—खैंचि खराद चढ़ाये नहीं न सुढ़ार के ढारनि मध्य डराए ।—सरदार (शब्द०) ।
⋙ खराद (२)
संज्ञा स्त्री० १. खरादने का भाव । १. खरादने की क्रिया । २. ढंग । बनावट । गढ़न ।
⋙ खरादना
क्रि० स० [हिं० खराद +ना (प्रत्य०)] १. खराद पर चढ़ाकर किसी वस्तु को साफ और सुडौल करना । २. काट छाँटकर सुड़ौल बनाना ।
⋙ खरादी
संज्ञा पुं० [हिं० खराद] जो खरादने का काम करे । खरादने— वाला ।
⋙ खरापन
संज्ञा पुं० [हिं० खरा + पन] १. खरा का भाव । २. सत्यता । सच्चाई । मुहा०—खरापन बघारना = सच्चाई की डींग मारना । बहुत अधिक सच्चा बनना । ३. उन्मत्तता ।
⋙ खराब
[अ० खराब] १. बुरा । निकृष्ट । हीन । अच्छा का उलटा । जो बहुत दुरवस्था में हों । दुर्दशाग्रस्त । जैसे—मुकदमे लड़कर उन्होंने अपने आपको खराब कर दिया । ३. पतित । मर्यादाभ्रष्ट । दुश्चरित्र । मुहा०—(किसी को)खराब करना = (१) (किसी परस्त्री के साथ) कुकर्म करना । (२) किसी को बुरे राह ले जाना । बदचलन या दुश्चरित्र बनाना । खराब होना = दुष्टचरित्र होना । बदचलन होना । ४. विध्वस्त । बरबाद (को०) । ५. निर्जन । बीरान (को०) ।
⋙ खराबा
संज्ञा पुं० [फा० खराबह्] १. निर्जन या अन्न जल से रहित स्थान । वीरान । २. खँडहर । उजाड़ [को०] ।
⋙ खराबात
संज्ञा पुं० [फा० खराबात] १. मधुशाला । मदिरालय । २. जुआ खेलने का अड्डा । द्यूतगृह ३. कुलटा स्त्रियों का अड्डा । चकला [को०] ।
⋙ खराबाती
वि० [फा० खराबाती] १. हर समय नशे में मस्त रहनेवाला । मदमस्त । उ०—मेरे शोखे खराबाती की कैफियत न कुछ पूछो । बहारे हुस्न को दी आब उसने जब चरस खींचा ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४८ । २. जुआ खेलने का आदी । जुआड़ी (को०) ।
⋙ खराबी
संज्ञा स्त्री० [फा़० खराबी] १. बुरापन । दोष । अवगुण २. दुर्दशा । दुरवस्था । ३. विध्वंस । बरबादी (को०) । क्रि० प्र०—आना ।—लाना ।—होना । मुहा०—खराबी में पड़ना = विपत्ति या दुर्दशा में फँसना । ३. गंदगी । गलीज (कहारों की बोली) । विशेष—जब अगला कहार कहीं विष्ठा आदि पड़ा देवता है, तब पिछले कहार का सचेत करने के लिये इस शब्द का प्रयोग करता है ।
⋙ खराब्दांकुरक
संज्ञा पुं० [सं० खराब्दाङङ्करक] लहुसुनिया नाम का रत्न । वैदूर्यमणि ।
⋙ खरारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामचंद्र । २. विष्णु भगवान । ३. कृष्णचंद्र । ४. बलराम (धेनुका असुर को मारने का कारण) । ४. एक छंद का नाम जो ३२ मात्राओं का होता है ।
⋙ खरायँध
संज्ञा स्त्री० [हिं० खार (क्षार) + गंध] १. मूत्र की दुर्गंध ।
⋙ खरारी
संज्ञा पुं० [सं० खरारि] दे० 'खरारि' । उ०—ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ।—मानस, १ ।१०९ ।
⋙ खरालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नापित । हज्जाम । २. नाई का सामान रखने का थैला । किसबत । ३. शिरोपधान । तकिया । ४. लोहे का बाण (को०) ।
⋙ खरालिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खरालक' (को०) ।
⋙ खराश
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. वह हलका घाव जो छिलन आदि के कारण हो जाता है । खरोंच । छिलन । ३. खुजली (को०) ।
⋙ खराश्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लोचमस्तक । कृष्ण जीरक [को०] ।
⋙ खराह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा । अजवाइन [को०] ।
⋙ खरिक (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. वह ऊख जो खरीफ की फसल के बाद बोई जाय । २. एक प्रकार का मेवा । छुहारा । खरहरी । उ०—खरिक, दाख, अरु गरी चिरारी । पिंड बदाम, लेहू बनवारी ।—सूर०, १० ।३९६ ।
⋙ खरिक (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खरक', 'खरक' 'खरका' उ०—खरिक खिलावन गाँइनि ठाढ़े । इत नँदलाल ललित लरिका उत गोप महावत ठाढ़े ।—छीत०, पृ० ३ ।
⋙ खरिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कस्तूरी का चूर्ण (को०) ।
⋙ खरिका (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खरक' । उ०—गयो हुतो चारन गो ग्वारन के संग आज खरिका में खेलत मों लरिका डरायौरी ।—दीन० ग्रं०, पृ० ६ । २. दे० खरका ।
⋙ खरिच †
संज्ञा पुं० [फा० खर्च] डे० 'खर्च' ।
⋙ खरिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खर = घास + इया (प्रत्य०)] १. पतली रस्सी से बनी हुई जाली जो घास, भूसा आदि बाँधने के काम आती है । पाँसी । उ०—कृशगात ललात जो रोटिन को घर वात धरे खुरपा खरिया ।—तुलसी (शब्द०) । २. झोली । थैली ।
⋙ खरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खार = राख] कंडे की राख ।
⋙ खरिया (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. वह लकड़ी जिसकी सहायता से नाँद में चील कसकर भरते या दबाते हैं । २. एक जंगली जाति ।
⋙ खरिया (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डिका] दे० 'खड़िया' । उ०—खरिया, खरी, कपूर सब, उचित न पिय तिय त्याग । कै खरियामोही मेलि, कै विमल विवेक बिराग ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १२४ ।
⋙ खरियान पु
संज्ञा पुं० [सं० खल + स्थान, हिं० खलियान, खलिहान] दे० 'खलियान' । उ०—देखति हौं बृज की लुगाइन भयौ धौ कहाँ खेत की कहे तें खरियान की समझती ।—ठाकुर०, पृ० १५ ।
⋙ खरियाना †
क्रि० स० [हिं० खरिया = झोली] १. झोली में डालना । थैली में भरना । २. हस्तगत करना । ले लेना । ३. झोली में से गिराना ।
⋙ खरिहट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खर इहुट (प्रत्य०)] वह पतली लकड़ी या तिनका जिसमें एक डोरा बँधा रहता है और जिसकी सहायता कुम्हार बने हुए बर्तन आदि को चाक की मिट्टी से काटकर अलग करता है ।
⋙ खरिहान †
संज्ञा पुं० [हिं० खलिहान] दे० 'खलिहान' । उ०—गंग तीर मोरी खेती बारी जमुन तीर खरिहाना ।—कबीर ग्रं०, पृ० ९३ ।
⋙ खरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गदही । गर्दभी । उ०—कह खगेस अस कवन अभागी । खरी सेव सुरधेनहु त्यागी ।—मानस ७ ।११० ।
⋙ खरी (२) †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की ईख ।
⋙ खरी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० खली] दे० 'खली' ।
⋙ खरी
संज्ञा स्त्री० [सं० खण्डिका, हिं० खड़िया, खरिया] दे० 'खड़िया' । उ०—करम खरी कर, मोह थल, अंक चराचर जाल । हनत गुनत गुनि गुनि हनत जगत ज्योतिषी काल ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १२३ ।
⋙ खरीक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खरका' ।
⋙ खरीखोटी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] स्पष्ट और कड़ी लगानेवाली बात ।
⋙ खरीजंघ
संज्ञा पुं० [सं० खरांजङ्घ] शिव का एक नाम [को०] ।
⋙ खरीता
संज्ञा पुं० [अ० खरीतह] [स्त्री० अल्पा० खरीती] १. थैली । खीसा । २. जब । ३. वह बड़ा लिफाफा जिसमें किसी बड़े अधिकारी आदि की ओर से मातहत के नाम आज्ञापत्र आदि भेजे जायँ । दर्जियों की वह थैली जिसमें वे सूई डोरा रखते हैं । ४. सुई डोरा रखने की थैली [को०] ।
⋙ खरीतिया
संज्ञा पुं० [अ० ख़रीतह्] मुसलमानी राजत्वकाल का एक प्रकार का कर । इसे अकबर न उठा दिया था ।
⋙ खरीद
संज्ञा स्त्री० [फा० ख़रीद] १. मोल लेने की क्रीया । क्रय । यो०—खरीद फरोख्त = क्रय विक्रय । २. मोल लिया हुआ पदार्थ । खरीदी हुई चीज । जैसे, यह दुशाला पचास रुपए की खरीद है ।
⋙ खरादना
क्रि० स० [फा़० खरादन] मोल लेना । क्रय करना ।
⋙ खरीदा (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़० खरीदह] १. कुमारी कन्या । २. लज्जा- शील स्त्री [को०] ।
⋙ खरोदा (२)
संज्ञा पुं० १. अनिवधा मोनी । २. दासी का पुत्र [को०] ।
⋙ खरीदा (३)
वि० [वि० स्त्री० खरीदी] क्रीत । मोल लिया हुआ ।
⋙ खरीदार
संज्ञा पुं० [फा० खरीदार] १. मोल लेनेवाला । ग्राहक । २. चाहनेवाला । इच्छुक ।
⋙ खरीदारी
संज्ञा स्त्री० [फा० खरीदारी] मोल लेने की क्रिया । क्रय ।
⋙ खरीफ
स्त्री० [अ० ख़रीफ] वह फसल जो आषाढ़ से आधे अगहन के बीच काटी जाय । इस फसल में धान, मकई, बाजरा, उर्द, मोठ, मूँग आदि अन्न होते हैं । उ०—मुसलमान रब्बी मेरी हिंदू भया खरीफ ।—पलटू० पृ० ११७ ।
⋙ खरीम
संज्ञा स्त्री० [देश०] मुर्गी की जाति की एक चिड़िया जो प्रायः पानी के किनारे रहते है । इसके पर तीतर की तरह चितले होते हैं ।
⋙ खरील
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जेवर जिसे स्त्रियाँ बेंदी की भाँति सिर पर पहनती है ।
⋙ खरु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्व । घोड़ा । दाँत । ३. गर्व । शान । ४. कामदेव । ५. शिव का एक नाम । ६. श्वेत वर्ण । ७. वर्जित वस्तुओं को लेने की आकांक्षा [को०] ।
⋙ खरु (२)
संज्ञा स्त्री० अपना पति स्वयं चुचनेवाली कुमारी । पतिंवरा कन्या [को०] ।
⋙ खरु (३)
वि० १. श्वेत । सफेद । २. मूर्ख । झगड़ालू । ३. क्रूर । कठोर । ४. वर्जित वस्तुओं को लेने का इच्छुक ।
⋙ खरे †
संज्ञा पुं० [देश०] एक आने प्रति रुपए की दलाली ।—(दलालों की बोली) ।
⋙ खरेठ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है ।
⋙ खरेड़ो पु †
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'खरहरी' । उ०—भाजन तो मृत्तिका के फूटे खाली धान नाहीं तूटी से खरेड़ी खाटमल सो लहत है ।—राम० धर्म०, पृ० ६६ ।
⋙ खरेडुआ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खरोरी' ।
⋙ खरेरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खरहरा' ।
⋙ खरेला †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का फल । उ०—खरि खरेला दाख खिरनी आम स्त्रीफल लाइया ।—घट०, पृ ९१ ।
⋙ खरैया पु †
वि० [हिं० खरा = खड़ा + ऐया (प्रत्य०)] खड़े रहने— वाले । चुपचाप स्थित रहनेवाले । दर्शक । उ०—द्रौपदी बिचारै रघुराज आज जाती लाज सब है खरैया पै न टेर को सुनैया है ।—राम० धर्म०, पृ० २६७ ।
⋙ खरोंच
संज्ञा स्त्री० [अनुकरणमूलक देश०] १. नख आदि लगने या और किसी प्रकार छिलने का हलका चिह्न । खराश । २. पतौर नामक भोज्य पदार्थ जो अरुई आदि के पत्तों को पीठी या बेसन में लपेटकर तलने से बनता है । रिकवँच ।
⋙ खरोंचना
क्रि० स० [सं० क्षुरण] खुरचना । करोना । छीलना ।
⋙ खरोट, खरोट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खरोंच' ।
⋙ खरोटना
क्रि० स० [हिं० खरोट + ना (प्रत्य०)] दे० 'खरोंदना' । २. नाखून गड़ाकर शरीर में घाव करना ।
⋙ खरोदक पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरोदक] एक प्रकार का वस्त्र या पहिरावा । खरदुक । उ०—मणिक मोती चौक पुराई दीया खरोदक पइहरणइ ।—वी० रासो, पृ० १११ ।
⋙ खरोरा †
संज्ञा पुं० [हिं० खड़ौरा] दे० 'खँड़ोरा' ।
⋙ खरोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खड़ा] छकड़ा गाड़ी में दोनों ओर के वे खूँटे जिनपर रोक के लिये बाँस बँधे रहते हैं ।
⋙ खरोश
संज्ञा पुं० [फा० खरोश] जोर की आवाज । हल्ला । शोर ।
⋙ खरोष्ट्री ।
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'खरोष्ठी' ।
⋙ खरोष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लिपि । विशेष—अशोक के समय में यह लिपि भारत की पश्चिमोत्तर सीमा की ओर प्रचलित थी । यह लिपि फारसी की तरह दाहिने से बाएँ को लिखी जाती थी । इसे गांधार लिपि भी कहते हैं ।
⋙ खरौंट, खरौंट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खरोंच] खरोच । खराश । उ०— मै बरजी कै बार तू उत कित लेति करौंट । पखुरी गड़ै गुलाब की परिहै गात खरौंट ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) कौन साँच करि मानिहै अलि अचरज की बात । ये गुलाब की पाँखरी परीं खरौटे गात ।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १४ ।
⋙ खरौटना
क्रि० स० [हिं० खरौट] दे० 'खरोंचना' ।
⋙ खरौंहा
वि० [हिं० खारा + खौंहा (प्रत्य०)] कुछ कुछ खारा । कुछ नमकीन । उ०—स्याम सूरति करि राधिका तकति सरनिजा तोर । अँसु्ग्रन करति तरौस को छिनक खरौंहो नीर ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ खरौटा †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खरौंटा' । उ०—पकरि मोहिं जल बीच हिलोरयो तोरयो गर को दाम । लरि कंकन को दियौ खरौंटा मेरे मुख सुनु बाम ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ११३ ।
⋙ खर्खोद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का इंद्रजाल ।
⋙ खर्ग पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खङ्ग' उ०—दूसर खर्ग कंध पर दीन्हा । सुरजै वे ओड़न पर लीन्हा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खर्च
संज्ञा पुं० [अ० खर्च] १. किसी काम में किसी वस्तु का लगना । व्यय । सरफा । खपत । जैसे—(क) दस रुपए खर्च हो गए (ख) इस शहर में पानी का बहुत खर्च है । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—बाँटना ।—होना । मुहा०—खर्च उठाना = व्यय का भार सहना । खर्च करना । जैसे—इस महीने में उन्हें बहुत खर्च उठाना पड़ा । खर्च चलाना = व्यय का निर्वाह करना । आवश्यक व्यय के लिये धन देते रहना । खर्च में डालना = (१) व्यय करने के लिये विवश करना (२) किसी रकम को खर्च के मद में लिखना । खर्च निकलना = लागत प्राप्त होना । खर्च में पड़ना = (१) व्यय के लिये विवश होना । (२) किसी रकम का खर्च के मद में लिखा जाना । यो०—ऊपरी खर्च = नियमित से अतिरिक्त या अनिश्चित व्यय । फुटकर खर्च । २. वह धन जो किसी काम में लगाया जाय । जैसे—उनके पास कुछ भी खर्च नहीं है । यौ०—खर्चखानगी = (१) निजी खर्चा । व्यक्तिगत ब्यय । २. परिवारिक या घरेलू खर्च ।
⋙ खर्चना
क्रि० स० [अ० खर्च + हिं० ना (प्रत्य०)] दे० 'खरचना' ।
⋙ खर्चा
संज्ञा पुं० [फा० खर्चह्] दे० 'खर्च' ।
⋙ खर्ची
संज्ञा स्त्री० [हिं० खर्च] वह धन जों वेश्या आदि को कुकर्म कराने के लिये मिले । कसब कारने का पुरस्कार । क्रि० प्र०—कमाना । मुहा०—खर्ची पर चलना या जाना = धन के लिये कुकर्म या प्रसग कराना ।
⋙ खर्ची (२)
वि० दे० 'खर्चिला' ।
⋙ खर्चिला
वि० [हिं० खर्च + ईला (प्रत्य०)] जो बहुत अधिक व्यय करे । खूब खर्च करनेवाला ।
⋙ खर्ज पु
संज्ञा पुं० [हिं० खरज] दे० 'खरज', 'षडज' । उ०—तब लीनी कर कंजनि मुरली । खर्जादिक जु सप्त सुर जु रली ।— नंद ग्रं०, पृ० ३१७ ।
⋙ खर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] खुजलाना । खुजलाने की क्रिया या भाव ।
⋙ खर्जरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सज्जी मिट्टी ।
⋙ खर्जिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपदेश गरमी नाम का रोग । २. गजक । चिखना (को०) ।
⋙ खर्जु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खजूर का पेड़ । २. खजुली । ३. धतूर का पौधा । ४. एक प्रकार का कीड़ा [को०] ।
⋙ खर्जुघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. चक्रमर्द । चकवड़ । २. धतूरा । ३. मदार । आक [को०] ।
⋙ खर्जुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चाँदी । २. खजूर [को०] ।
⋙ खर्जु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खुजली । कंडू । २. एक कीटभेद [को०] ।
⋙ खर्जूर
संज्ञा पुं० [सं०] खजूर । २. चाँदी । ३. हरताल । ४. बिच्छू । ५. गर्भ (अनेकार्थ०) । ६. जरायु (अनेकार्थ०) । ७. शूद्र (अनेकार्थ०) । ८. धतूरा (को०) ।
⋙ खर्जूरक
संज्ञा पुं० [सं०] वृश्चिक । बिच्छू [को०] ।
⋙ खर्जूरस
संज्ञा पुं० [सं०] खजूर का रस । ताड़ी । एक मादक पेय [को०] ।
⋙ खर्जूररसज
संज्ञा पुं० [सं०] खजूर के रस से बनी शर्करा या गुड़ [को०] ।
⋙ खर्जूरवेध
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में एक प्रकार का योग जिसमें विवाह होना वर्जित है । इसे एकार्गल भी कहते हैं ।
⋙ खर्जूरिका
संज्ञा पुं० [सं०] खजूर के रस से बनी हुई या खजूर के आकार की मिठाई [को०] ।
⋙ खर्जूरी
स्त्री० संज्ञा [सं०] खजूर [को०] । यौ०—खर्जूरीरस = खजूर की ताड़ी । खर्जूरीरसज = खजूर के रस का बना हुआ गुड़ या मिस्त्री ।
⋙ खर्तल
वि० [हिं०] दे० 'खरतल' । उ०—जब ऐसे खर्तल मनुष्य का अंत में यह भेद खुला तो संसार में धर्मात्मा किस्को कह सकते हैं ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३३९ ।
⋙ खर्प पु
संज्ञा पुं० [सं० खर्पर] दे० 'खर्पर' । उ०—नरो ग्राह पावं करं खपै जैसे ।—ह० रासो, पृ० १५२ ।
⋙ खर्पर
संज्ञा पुं० [सं०] १. तसले के आकार का मिट्टी का बरतन ।२. काली देवी का वह पात्र जिसमें वह रुधिर पान करती हैं । ३. भिक्षापात्र । ४. खोपड़ा । ५. चोर । ६. धूर्त । ७. खपरिया नामक उपधातु । ८. छाता (को०) ।
⋙ खर्परिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छतरी । छाता [को०] ।
⋙ खर्परी, खर्परीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] खपरिया नाम की एक उपधातु [को०] ।
⋙ खर्ब पु
वि० [सं०] छोटा । लघु । क्षद्र । उ०—खर्ब निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ।—मानस, ७ ।५८ । दे० खर्व ।
⋙ खर्बूर
संज्ञा पुं० [सं०] नारियल का छिलका [को०] ।
⋙ खर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिल्क । रेशम । २. ओज । शक्ति । ३. कठोरता । परुषता [को०] ।
⋙ खर्रांच
वि० [हिं०] दे० 'खर्राच' ।
⋙ खर्राट
वि० [हिं०] दे० 'खुर्राट' ।
⋙ खर्रा
संज्ञा पुं० [खर खर से अनु०] १. वह लंबा या बड़ा कागज जिसमें कोई भारी हिसाब या विवरण लिखा हो । २. एक प्रकार का रोग जिसमें पीठ पर छोटी छोटी फुंसियाँ निकल आती है और चमड़ा कड़ा और खुरदुरा हो जाता है ।
⋙ खर्राच
वि० [फा० खर्राच] खर्चिली । उ०—बेशक उसी ने तो चोरी लुके रुपए दे देकर मानिक को ऐसा खर्राच होने दिया था ।—शराबी, पृ० १५५ ।
⋙ खर्राटा
संज्ञा पुं० [अनु०] वह शब्द जो सोते समय नाक से, विशेषतः बलगमी आदमी की नाम से, निकलता है । मुहा०—खर्राटा भरना, मारना या लेना = बेखबर सोना । उ०— मुगलानियाँ खर्राटे लेती थीं ।—फिसाना०, भा०३, पृ० २५ ।
⋙ खर्रात
संज्ञा पुं० [अ०] खराद का काम करनेवाला व्यक्ति । खरादी [को०] ।
⋙ खर्राती
संज्ञा स्त्री० [अ०] खरादी का काम या पेशा [को०] ।
⋙ खर्राद
संज्ञा पुं० [फा० खर्राद] खरादी । खरादी [को०] ।
⋙ खर्व (१)
वि० [सं०] जिसका अग भग्न या अपूर्ण हो । न्यूनांग । २. छोटा । लघु । उ०—यहाँ खर्व नर रहते युग युग से अभि शापित ।—ग्राम्या, पृ० १६ । ३. वामन । बौना ।
⋙ खर्व (२)
संज्ञा पुं० १. संख्या का बारहवाँ स्थान । सौ अरब । खरब । २. बारहवें स्थान की संख्या । विशेष—वैदिक काल में संख्या का ३५ वाँ स्थान खर्च कह- लाता था । ३. कुबेर की नौ निधियों में से एक । ४. कूजा नाम का वृक्ष ।
⋙ खर्वट
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहाड़ के ऊपर बसा हुआ गाँव । २. वह गाँव जो चार सौ गाँवो के बीच बसा हो । ३. दो सौ गाँवों के मध्य का प्रमुख ग्राम (को०) । ४. नदी के किनारे बसा हुआ कस्बा और गाँवनुमा बस्ती (को०) ।
⋙ खर्वशाख
वि० [सं०] ठिंगना । छोटे कद का [को०] ।
⋙ खर्वित
वि० [सं०] छोटा या लघु किया हुआ । खर्व (को०) ।
⋙ खर्विता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह अमावस्या जिसमें चतुर्दशी किलि हुई हो । ऐसी अमावस्या बहुत कम होती है । २. वह तिथि जिसका कालमान पहले दिन की तिथि के कालमान से कुछ कम हो ।
⋙ खर्वुज
संज्ञा पुं० [सं०] खरबूजा [को०] ।
⋙ खर्वेतर
वि० [सं०] जो छोटा न हो । बड़ा [को०] ।
⋙ खल (१)
वि० [सं०] [भाव० खलता] १. क्रूर । कठोर । २. नीच । अधम । ३. दुर्जन । दुष्ट । ४. चुगलखोर । ५. निर्लज्ज । बेहया । ६. धोखेबाज । फरेबी ।
⋙ खल (२)
संज्ञा पुं० १. सूर्य । २. तमाल का पेड़ । ३. धतूरा । ४. खलिहान । ५. कोठिला । ६. धूलिपुंज । ७. युद्ध । लड़ाई । ८. तलछट । ९. पृथ्वी । १०. स्थान । ११. खरल । मुहा०—खल करना = खल में महीन पीसना । खल होना = पिसना । चूर चूर होना । उ०—खल भई लोकलाज कुल कानी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खल (३)
संज्ञा पुं० [सं० खल = खरल] १. पत्थर का बड़ा टुकड़ा । उ०—इतै मान यह सूर महा शठ हरिनग बदलि महा खल आनत ।—सूर (शब्द०) । २. सोनारों का किटकिना नाम का ठप्पा ।
⋙ खलई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खल + ई (प्रत्य०)] खलता । उ०—सीदत साधु साधुता सोचति खल बिलसत हुलसति खलई है ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खलक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] घड़ा । कुंभ [को०] ।
⋙ खलक (२)
संज्ञा पुं० [अ० खलक] १. सृष्टि का प्राणी या जीवधारी । २. दुनिया । संसार । जगत् । उ०—खलक है रैन का सपना समझ दिल कोई नहीं अपना ।—कबीर म०, पृ० ११३ ।
⋙ खलक (३)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खलकना] खलकने का भाव या क्रिया ।
⋙ खलकत
संज्ञा स्त्री० [अ० खिल्कत] १. सृष्टि । २. भीड़ । झुंड । ३. जनसाधारण । जनता (को०) ।
⋙ खलकना
क्रि० अ० [अनुध्व०] १. खल खल ध्वनि करना । २. छलकना । बहना । उ०—जस किलक वकवक मुख जपिक, भुव खलक रुधरक भभक भक ।—रघु० रु०, पृ० २२३ ।
⋙ खलकाना पु
क्रि० स० [हिं० खलकना का प्रे० रूप] छलकाना । बहाना । उ०—हिरणाकुस नै हणि, निडर फाडै उर नख्खे । खलकाया रत खाल भरे डाचाँ पल भख्खे ।—रघु० रु०, पृ० ४० ।
⋙ खलक्कना पु †
क्रि० अ० [हिं० खलकना] सं० 'खलकना' । उ०— जिण दीहे वण हर धरइ नदी खलक्कइ नीर । तिण दिन ठाकुर किम चलइ, घण किम बाँधइ धीर ।—ढोला० दू० ६१ ।
⋙ खलखल
क्रि० वि० [अनुध्व०] खल् खल् ध्वनि करता हुआ । उ०—फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खल खल ।— अपरा, पृ० ४१ ।
⋙ खलखलाना
क्रि० अ० [अनु०] किसी द्रव पदार्थ का उबलना । खौलना ।
⋙ खलड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खल + ड़ी (प्रत्य०)] छाल । चमड़ा ।
⋙ खलता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुष्टता । नीचता । 'खल' का भाव ।
⋙ खलता (२)
संज्ञा पुं० [हिं खरीता] सिपाहियों का वह थैला जिसमें वे अपना जरूरी सामान रखतें है । थैला । झोला ।
⋙ खलताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० खल + ताति = हिं० ताई (प्रत्य०)]दे० 'खलता' । उ०—दंड दियें बिनु साधुनिहू सँग छूटत क्यों खल की खलताई ।—केशव ग्रं०, भा०१, पृ० १८ ।
⋙ खलति
वि० [सं०] गंजा । खल्वाट [को०] ।
⋙ खलतिक
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत । पहाड़ा [को०] ।
⋙ खलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] खलता । दुष्टता ।
⋙ खलधान, खलधान्य,
संज्ञा पुं० [सं०] खलियान [को०] ।
⋙ खलना (१)
क्रि० अ०[सं० खर = तीक्षण] बुरा लगना । नागवार मालूम होना । अप्रिय होना ।
⋙ खलना (२)
क्रि० स० [हिं० खाली] पत्तर आदि को नली के रूप में बनाने के लिये मोडना या झुकाना—(सोनारों की परिभाषा) ।
⋙ खलना (३)
क्रि० स० [हिं० खल या खरल] १. खरल में डालकर घोंटना । २. नष्ट करना । पीस डालना । उ०—रावन सो रसराज सुभट रस सहिन लंक खल खलतो ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खलना (४)पु †
क्रि० अ० [देश] दे० 'खिलना' । उ०—सा धन खलती कसोर ज्युँ जाणिक बैठी प्रीव को खोलि ।—बी० रासो, पृ० ९३ ।
⋙ खलनायक
संज्ञा पुं० [सं० खल + नायक] नाटक या उपन्यास आदि में एक पात्र जो नायक का प्रतिद्वंद्वी और दुर्वृत्ति होता है । प्रतिनायक ।
⋙ खलनी
संज्ञा स्त्री० [फा० खाली] सोनारों का एक औजार जिसपर रखकर घुँडी आदि बनाई जाती है ।
⋙ खलपना
संज्ञा स्त्री० [सं० खल + हिं० पन (प्रत्य०)] खलता । दुष्टता । उ०—कपट रूप प्रलंब प्रवंचना, खलपना पशुपालक व्योम का ।—प्रिय०—पृ० १८ ।
⋙ खलपू
वि० [सं०] साफ करनेवाला । सफाई करनेवाला [को०] ।
⋙ खलफ
संज्ञा पुं० [अ० खलफ] सुपुत्र । अच्छा बेटा । सपूत । उ०— खलफ चाँद सा.... नायब मनाब ।—दक्खिनी० पृ० १३९ ।
⋙ खलबल
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] १. हलचल । उ०—खलबल परत सिसहु पर बाजत निशान जब शब्द घरहात ।—अकबरी०, पृ० १०८ । २. शोर । हल्ला । ३. कुलबुलाहट ।
⋙ खलबलाना
कि० अ० [हिं० खलबल] १. खलबल शब्द करना । २. खौलना । ३. कुलबुलाना । हिलना । डोलना । ४. बिचलित होना । खड़बड़ाना ।
⋙ खलबलाहट
संज्ञा स्त्री० [खलबल + आहट (प्रत्य०)] बेचैनी । व्याकुलता । खलबली ।
⋙ खलबली
संज्ञा स्त्री० [हिं० खलबली] १. हलचल । २. घबराहट । ब्याकुलता । क्रि० प्र०—पड़ना ।—मचना ।
⋙ खलभल
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'खलबल' ।
⋙ खलभलाना
क्रि० अ० [हिं० भलभल] दे० 'खलबलाना' ।
⋙ खलभलाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खलभल + आहट (प्रत्य०)] दे० 'खलबलाहट' ।
⋙ खलभली
संज्ञा स्त्री० [हिं० खलभल] दे० 'खलबली' ।
⋙ खलभलाना
क्रि० अ० [हिं० खलबल या खलभल] तिलमिलाना । खलबली में पड़ना । विचलित होना । उ०—खलमलित शेष कवि गंग भनि अमित अमित तेज रवि खस्यो ।—अकबरी०, पृ० १४६ ।
⋙ खलमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] पारा । पारद ।
⋙ खलयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] खलियान में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ ।
⋙ खलल
संज्ञा पुं० [अ० खलल] १. रोक । अवरोध । रुकावट । बाधा । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना । २. विकार । खराबी (को०) । यौ०—खलल अंदाज = हस्तक्षेप या विरोध करनेवाला । बाधक । खलल अंदाजी = खलल या बाधा डालने का कार्य । खलल दिमाग = (१) पागलपन । सनक । (२) सनकी । पागल ।
⋙ खलसंसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] दुष्ट । बुरे लोगों का साथ [को०] ।
⋙ खलसा
संज्ञा स्त्री० [सं० खलिश] एक प्रकार की बड़ी मछली । विशेष—यह मछली समस्त उत्तर भारत, आसाम और चीन में होती है । इसमें काँटे अधिक होते हैं और जल से निकाल लेने पर भी यह कुछ समय तक जीती रहती है । वैद्यक के अनुसार इसका मांस रूखा और वात बढ़ानेवाल होता है ।
⋙ खलहलाना पु †
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'खलखलाना' । उ०—धुरि अषाढ़ धडकया मेह । खलहल्या षाल्या वहि गई खेह ।—बी० रासो, पृ० ७० ।
⋙ खलहाण पु †
संज्ञा पुं० [हिं० खलिहान] दे० 'खलियान-१' उ०— हुवै खला थाणौ खलहाणौं । लेखा पखे सुधन लूटाणो ।— रा०, रू०, पृ० २९० ।
⋙ खला
संज्ञा स्त्री० [सं०] गणिका । वेश्या । —अनेकार्थ० पृ० २७ ।
⋙ खलाइत †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाल + इत (प्रत्य०)] धौंकनी । भाथी ।
⋙ खलाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खल + आई] (प्रत्य०)] खलता । दुष्टता । उ०—कान्ह कृपाल बड़े नतपाल गए खल खेचर खास खलाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खलाड़ना †
क्रि० अ० [हिं० खलार से नाम०] खलाना । पचकाना । धँसाना । उ०—गाँव में लंगोटी चढ़ाए पेट खलाड़े, दुर्भिक्ष का रूप बनाए ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० २६९ ।
⋙ खलधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चपड़ा । तेलचट्टा [को०] ।
⋙ खलाना †पु
क्रि० स० [हिं० खाली] १. पात्र आदि में से भरी हुई चीज बाहर निकालना, खाली करना । २. गड्ढ़ा करना । गड्ढा बनाना । जैसे—कुआँ खलाना । ३. सोने के पत्तर को घुंडी आदि बनाने के लिये बीच में दबाकर कटोरी की तरह बनाना । ४. किसी फली हुई सतह को नीचे की ओर धँसाना । पचकाना । जैसे—पेट खलाना । उ०—माँगत पेट खलाय ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खलार †
वि० [हिं० खाला] नीचा । गहरा । जैसे,—खलार भूमि ।
⋙ खलाल (१)
संज्ञा पुं० [अ० खलाल] धातु आदि का बना हुआ लंबा,नुकीला, छोटा टुकड़ा जिसमें दाँतों में फँसा हुआ अन्न आदि खोदकर निकालते हैं ।
⋙ खलाल (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेल या अ० खलाल] (ताश आदि के खेल में) पूरी बाजी की हार । पुरी मात । क्रि० प्र०—करना ।—मानना । मुहा०—खलाल देना = मात करना ।
⋙ खलास (१)
वि० [अ० ख़लास] १. छूटा हुआ । मुक्त । २. खतम । समाप्त ।
⋙ खलास (२)
संज्ञा पुं० मुक्ति । छुटकारा । रिहाई [को०] ।
⋙ खलासी (१)
संज्ञा स्त्री० [हीं० खलास] मुक्ति । छुटकारा । छुट्टी । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—पाना ।
⋙ खलासी (२)
संज्ञा पुं० [उर्दु०] १. जहाज पर का वह नौकर जो पाल चढ़ाता, रस्से बाँधता तथा इसी प्रकार के और कार्य करता है । खेमा आदि खड़ा करने और असबाब ढोनेवाला नौकर ।
⋙ खलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'खली' [को०] ।
⋙ खलित पु
वि० [सं० स्खलित] १. चलायमान । चंचल । डिगा हुआ । उ०—दिग्गज चलित मुनि आसन इंद्रादिक भय मान ।—सूर (शब्द०) । २. गिरा हुआ । पतित । मुहा०—खलित होना = वीर्य पात होना । वीर्य निकल पड़ना । उ०—पारबती ऐसी पत्नी जाकी ताको मन क्यों डोला । खलित भए छवि देखि मोहिनी हा हा करि के बोला ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ खलिता पु
संज्ञा पुं० [हिं० खलीता] दे० 'खलीता' । उ०—बिन पर से उड़ता है कैसा । खेल खेलते अविधे के खलिते में घुसा ।— दक्खिनी०, पृ० ६२ ।
⋙ खलिन
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़े की लगाम । २. वह लोहा जिसमें लगाम बँधी रहती है और जो घोड़े के मुँह में रहता है ।
⋙ खलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जिसमें गाँव भर के लोगों का खलिहान हो ।—संपूर्णा०, अभि० ग्रं०, पृ० २४८ ।
⋙ खलियान
संज्ञा पुं० [सं० खल + स्थान] १. खेतों के पास का वह स्थान जहाँ फसल काटकर रखी, माँड़ी और बरसाई जाती है । अनाज और भूसा दोनों यहीं अलग अलग किए जाते हैं । मुहा०—खलियान करना = (१) काटी हुई फसल का ढेर लगाना । (२) तितर बितर करना । नष्ट करना । २. राशि । ढेर । जैसे—तुमने तो यहाँ कपड़ों का खलियान लगा रखा हैं । क्रि० प्र०—लगाना ।
⋙ खलियाना (१)
क्रि० स० [हिं० खाल] खाल उतारना । मृत पशु के शरीर से खाल खींचकर अलगाना । चमड़ा । अलग करना ।
⋙ खलियाना (२) †
क्रि० स० [हिं० खाली] खाली करना ।
⋙ खलिवर्द्धन
संज्ञा पुं० [सं०] मसूढ़ों का एक रोग । विशेष—इस रोग में वायु के प्रकोप से मसूढ़ों की जड़का मांस बढ़ जाता है और बड़ी पीड़ा होती है ।
⋙ खलिश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] खलसा नाम की मछली ।
⋙ खलिश (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० खलिश] वह कसक या पीड़ा जो किसी चीज के चुभने अथवा घाव आदि के भरने के उपरांत पीब आदि दूषित अंशों के बाकी रह जाने के कारण होती है । २. चिंता । फिक्र । उलझन (को०) ।
⋙ खलिहान †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खलियान' ।
⋙ खली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेल निकाल लेने पर तेलहन की बची हुई सीठी ।
⋙ खली (२)
वि० [हिं० खलना] जो बुरा मालूम हो । खलने या खटकने वाला । उ०—करि रारि आगे खली दुष्ट होई ।—विश्राम० (शब्द०) ।
⋙ खली (३)
संज्ञा पुं० [सं० खलिन्] १. महादेव । २. एक प्रकार के दानव जिन्हें महाभारत के अनुसार वशिष्ठ देव ने मारा था ।
⋙ खली (४)
वि० खल से युक्त । खलवाला [को०] ।
⋙ खलीज
संज्ञा स्त्री० [अ० खलीज] खाड़ी ।
⋙ खलीता (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० अल्पा० खलीती] १. दे० 'खरीता' । उ०—अमल खलीती धरि रही ।—वी०, रासो, पृ० १७ । २. ओहार । पर्दा । उ०—प्रेम के डोरि जतन से बाँधो । ऊपर खलीता लाल ओढ़ावो ।—धरम०, पृ० ७४ ।
⋙ खलीता (२)
वि० [हिं० खाली] खाली । बेकार । व्यर्थ । उ०—सोवै खाय करै नहैं सृकुत खोवै दीह खलीता ।—रघु० रु०, पृ० १६ ।
⋙ खलीन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खलिन' [को०] ।
⋙ खलीफा
संज्ञा पुं० [अ० खलीफह] १. अध्यक्ष । अधिकारी । २. कोई बूढ़ा व्यक्ति । ३. खुर्राट (दरजी) । ४. खानसामा । बावर्ची । ५. हज्जाम । नाई । ६. मुहम्मद साहब के उत्तरा— धिकारी (को०) ।
⋙ खलु
अव्य, क्रि० वि० [सं०] १. शब्दालंकर । २. प्रश्न । ३. प्रार्थना । ४. नियम । ५. निषेध । ६. निश्चय । अवश्य । उ०—तव प्रभाव बड़वानलहि जारि सकै खलु तुल ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खलूरिका, खलूरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ अस्त्र शस्त्र का अभ्यास या व्यायाम इत्यादि हो । अखाड़ा । व्यायामशाला ।
⋙ खलेटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाल = नीचा] खलार भूमि या नीची जमीच । उ०—अब वह खेतों के बीच की पगडंडी छोड़कर एक खलेटी में आ गया था ।—गोदाम, पृ० ५ ।
⋙ खलेरा पु †
वि० [अ० खालह्] काला से उत्पन्न या संबंद्ध । मौसेरा । उ०—ममेरा फुफेरा खलेरा घनेरा ।—धरनी०, पृ० ८ ।
⋙ खलेल
संज्ञा पुं० [हिं० खली + तेल] खली आदि का वह अंश जो फुलेल में रह जाता है और निथारने या छानने पर निकलता है । फुलेल का गाज । उ०—सुख सनेह सब दियो दशरथहि खरि खलेल थिरथानी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खल्क
संज्ञा स्त्री० [अ० खल्क] दे० 'खलक' । उ०—सयाने खल्क से यूँ भागते हैं कि जूँ अतिश सेती भागे हैं पारा ।—कविता कौ०, भा०४, पृ०, ४१ ।
⋙ खल्तमल्त
वि० [तु० खल्तमल्त] मिला जुला । मिश्रित । एकम- एक । गड्डमड् [को०] ।
⋙ खल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि जहाँ कई खलिहान हों [को०] ।
⋙ खल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कपड़ा । २. चमड़े की मशक । ३. चमड़ा । ४. चातक । ५. ओषधि कूटने का खल । खरल । ६. गड्ढ़ा (को०) । ७. खाल । नहर (को०) ।
⋙ खल्लड़
संज्ञा पुं० [सं० खल] १. चमड़े का मशक या थैला । २. ओषधि कूटने का खल । ३. चमड़ा । जैसे—मारते मारते खल्लड़ उधेड़ देंगे । ४. वह वृद्ध मनुष्य जिसका चमड़ा झूल गया हो ।
⋙ खल्ला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खाली] १. नृत्य में एक प्रकार का भाव जिससे पेट का खालीपन झलकता है । २ जूता ।
⋙ खल्ला (२)
संज्ञा पुं० [सं० खल] खलियान ।
⋙ खल्ला (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० खल्ल, देश० खल्ला = चमड़ा] जूता ।
⋙ खल्लाक
संज्ञा पुं० [अ० खल्लाक] सृष्टि को बनानेवाला-ईश्वर । उ०—बचावै कौन खल्लाक बारी ।—कबीर मं०, पृ० ५७५ ।
⋙ खल्लासर
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में दसवाँ योग ।
⋙ खल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कड़ाही [को०] ।
⋙ खल्लिट (१)
वि० [सं०] गंजा । खल्वाट [को०] ।
⋙ खल्लीट (२)
संज्ञा पुं० दे० 'ख्ललीट' ।
⋙ खल्लिश
संज्ञा पुं० [सं०] खलसा नाम की मछली [को०] ।
⋙ खल्ली (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक वायुरोग जिसमें हाथ पाँव मुड़ जाते हैं । उ०—शिरागत वायु के होने से खल्ली रोग को उत्पन्न करता है ।—माधव०, पृ० १३६ ।
⋙ खल्ली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खली' ।
⋙ खल्लीट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह रोग जिससे सिर के बाल झड़ जाते हैं । गंज ।
⋙ खल्लीट (२)
वि० गंजा [को०] ।
⋙ खल्व
संज्ञा पुं० [सं०] वह रोग जिसके कारण सिर के बाल झड़ जाते हैं । २. एक प्रकार का धान । ३. चना ।
⋙ खल्वाट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गंज रोग जिसमें सिर के बाल झड़ जाते हैं ।
⋙ खल्वाट (२)
वि० जिसके सिर के बाल झड़ गए हों । गंजा ।
⋙ खवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशलता [को०] ।
⋙ खवा
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध, प्रा० खंध] कंधा । भुजमूल । उ०—(क) कच समेटि कर भुज फलटि खए सीस पट टारि । काको मन बाँधे न यह जूरो बाँधनिहारि ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) माधव जी आवनहार भये । अचल उड़त मन होत गहगहो फर— कत नैन खए ।—सूर (शब्द०) । (ग) खए लगि बाह उसारि उसारि । भए इतउत्त जबै रिस धारि ।—सूदन (शब्द०) । मुहा०—खवे से खवा छिलना = (बहुत अधिक भीड़ के कारण) कंधे से कंधा छिलना ।
⋙ खवाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाना] १. खाने की क्रिया । २. वह धन आदि जो भोजन करने के पुस्कार में दिया जाय । जैसे,—कलेवा खवाई । विशेष—विवाह आदि के अवसर पर वर या वरपक्ष के लोगों को जलपान के समय कहीं कहीं नेग देने का नियम है ।
⋙ खवाई (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] नाव का वह गडढ़ा जिसमें मस्तूल खड़ा किया जाता है ।
⋙ खवाना पु †
क्रि० स० [हिं० खाना] भोजन कराना । खिलाना । उ०—कमलनैन कों पान खवावत पहरावत उर माल ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३९६ ।
⋙ खवारी पु †
वि० [हिं० कबाड़] खोट । बुरा । खराब ।
⋙ खवारि
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशजल । वर्षा [को०] ।
⋙ खवारी †
संज्ञा स्त्री० [फा० ख्वारी] दे० 'ख्वारी' । उ०—हूँ पत तूँझ गुणा हलिहारी, खाली कीध खवारी ।—रघु० रु०, पृ० १६७ ।
⋙ खवाष्प
संज्ञा पुं० [सं०] अवश्याय । ओस [को०] ।
⋙ खवास (१)
संज्ञा पुं० [अ० खवास] [स्त्री० खवासिन] १. राजाओं और रईसों आदि का खास खिदमतगार, जिसका काम कपड़े पहनाना, हुक्का भरना, पान लाना आदि है । २. खास लोग । मुख्य लोग (को०) । ३. गुणधर्म । खासियत (को०) ।
⋙ खवास (२)
संज्ञा स्त्री० वह दासी जो राजा के पास एकांत में आती जाती हो । पासवान । रखेली । उ०—हुवे वसीरो वाणियो, पातर हुवै खवास । हुवै कीमियागर ठग, विध हर जावै नास ।—बाँकी० ग्रं०, भा०२, पृ० ९२ ।
⋙ खवास (३)पु †
संज्ञा पुं० [अ० खवास = सेवक] वह जो सेवा करता हो । नापित । नाऊ ।
⋙ खवासी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खबास + ई (प्रत्य०)] १. खवास का काम । खिदमतगारी । उ०—और आज्ञा करी जो अब तू हमारी खवासी करि ।—दो सौ बावन०, पृ० १८१ । २. चाकरी । नौकरी । उ०—उग्रसेन की करत खवासी ।— विश्राम (शब्द०) । ३. हाथी के हौदे या गाड़ी आदि में पीछे की ओर वह स्थान जहाँ खवास बैठता है ।
⋙ खवासी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] अँगिया में का वह जोड़ जो बगल में रहता है ।
⋙ खविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिर्विद्या । जोतिष [को०] ।
⋙ खवी
संज्ञा स्त्री० [फा० खवीद = हरी घास या फसल] एक प्रकार की घास जिसे पंजाब में घटियारी कहते हैं । विशेष—यह अगिया घास की तरह होती है ओर इसमें से सुंगंध आती है । इसकी पत्तियाँ लबी होती है जिनसे एक प्रकार का सुंगधित तेल निकलता बै और औषध के काम में आता है । यह कराची से पेशावर और लुधियाना तक रोगिस्तान में और बलुई भूमि में उपजती है । इसे संस्कृत में 'भूस्तृण' कहते हैं ।
⋙ खवैया
संज्ञा पुं० [हिं० खा + वैया (प्रत्य०)] १. खानेवाला । अधिक खानेवाला । †२. खिलानेवाला ।
⋙ खश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'खअ' ।
⋙ खशखाश
संज्ञा पुं० [फा० खशखाश] पोस्ते का क्षुप और उसका बीज [को०] ।
⋙ खशी
वि० [सं० खशिन्] हलका आसमानी रंग का [को०] ।
⋙ खश्म
संज्ञा पुं० [फा० खशम, तुल० सं० खष्य = क्रोध] गुस्सा । कोप । रोष [को०] । यौ०—खश्मगीन, खश्मनाक = गुस्से से भरा ङुआ । प्रकुपित ।
⋙ खश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] वायु । हवा [को०] ।
⋙ खष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोप । क्रोध । गुस्सा । २. क्रूरता । निर्दयता । ३. हिंसा [को०] ।
⋙ खस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्तमान गढ़वाल और उसके उत्तरवर्ती प्रांत का प्राचीन नाम । २. इस प्रदेश में रहनेवाली एक प्राचीन जाति । उ०—स्वपच सवर खस जनम जड़ पाँवर कोल किरता । राम कहत पावन परम होत भुवन विख्यात ।— तुलसी (शब्द०) । विशेष—व्रात्य क्षत्रिय से उत्पन्न इस जाति का वर्णन महाभारत और राजतरंगिणी में आया है । इस जाति के वंशज अब तक नेपाल और किस्तवाड़ (काश्मीर) में इसी नाम से विख्यात है और अपने आपको क्षत्रिय बतलाते हैं । ये लोग बड़े परिश्रमी और साहसी तथा प्रायः सैनिक होते हैं । इन्ही को खासिया भी कहते हैं । ३. खजुली (को०) ।
⋙ खस (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० खस] १. गाँडर नामक घास की प्रसिद्ध सुंगंधित जड़ । विशेष—यह गास, भारत, बर्मा और लंका के मैदानों और छोटी पहाड़ियों पर विशेषतः नदियों और तालों के किनारे उत्पन्न होती है । गरमी के दिनों में कमरे आदि ठंढा रखने के लिये दरवाजों और खिड़कियों में इसकी टट्टिया लगाई जाती हैं । कहीं कही इसकी पंखिया और टोकरिया भी बनती है । इसका इत्र भी बहुत अच्छा बनता है और अधिक दामों में बिकता है । अनेक प्रकार की सुगंधिया बनाने के लिये विलायत में भी इसकी बहुत खपत होती है । २. सूखी घास (को०) ।
⋙ खसकंत †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खसकना + अंत (प्रत्य०)] खसकने का काम ।
⋙ खसकना
क्रि० अ० [अनु०] धीरे धीरे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना । अपने स्थान से इधर उधर हट जाना । स्थानांतरित होना । सरकना । जैसे—(क) यह इंट खसक गई है (ख) उधर बहुत जगह है, जरा खसक चलो । (२) हमें देखते ही वे खसक गए । संयो० क्रि०—आना ।—चलना ।—देना ।—पड़ना । विशेष—इस शब्द में 'गुप्त रूप से' या 'अनजान में' का भी कुछ भाव मिला हुआ है ।
⋙ खसकबाना
क्रि० स० [हिं० खसकना का प्रे० रूप] खसकाने का काम दूसरे से कराना ।
⋙ खसकाना
क्रि० स० [हिं० खसकना] १. खसकना का सकर्मक रूप । स्थानांतरित करना । हटाना । २. गुप्त रूप से कोई चीज हटाना या देना । जैसे—उन्होंने सौ रुपए खसकाए, तब पिंड छूटा । संयो० क्रि०—देता । जैसे—चार दिन पहले ही उन्होंने सब चीजें खसका दी थीं ।
⋙ खसखस
संज्ञा स्त्री० [सं० खस्खस] पोस्ते का दाना । विशेष—यह आकार में सरसों के बराबर और सफेद रंग का होता है । वैद्यक में इसे कफनाशक और मादक माना है और इसके अधिक सेवन से पुरुषत्व की हानि बतलाई गई है ।
⋙ खसखसा
वि० [अनु०] [स्त्री० खसखसी] जिसके कण दबाने से बालू की तरह अलग अलग हो जायँ । भुरभुरा । उ०—बालू जैसी खसखसी, उज्जवल जैसी धूप । ऐसी मीठी कुछ नहीं जैसी मीठी चूप ।—(शब्द०) ।
⋙ खसखसी
वि० [हिं० खसखस] [स्त्री० खसखसी] खसखस की तरह का । बहुत छोटा; जैसे—खसखसी दाढ़ी ।
⋙ खसखाना
संज्ञा पुं० [फा० खसखानह्] खस की टट्टियों से घिरा हुआ स्थान । वह घर या कोठी जिसके चारों ओर खस की टट्टीयाँ लगी हों । उ०—धाय धँसी खसखानन हाथ निकुंजन पुंज फिरी भरमी मैं ।—दत्त (शब्द०) ।
⋙ खसखास
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खसखस' ।
⋙ खसखासी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खसखस] पौस्ते के फूल का रंग । हलका आसमानी रंग ।
⋙ खसखासी (२)
वि० पोस्ते के फूल के रंग का । हलका आसमानी ।
⋙ खसतिल
संज्ञा पुं० [सं०] पोस्ता [को०] ।
⋙ खसना पु
क्रि० अ० [देश० खस (खसइ) = गिरना है अथवा हिं० खसकना] अपने स्थान से हटना । खसकना । गिरना । उ०—(क) खसी माल मूरति मुसुकानी ।—तुलसी । (शब्द०) । (ख) सदा कहत कर जोरि वचन मृदु मनहुँ खसत मुख फूला । रघुराज (शब्द०) । २. कूदना । गिरना । फाँदना । उ०— अवलोकब नहिं तनिक रूप आँखि अछइत कइसे खसब कूप ।—विद्यापति, पृ० १६९ ।
⋙ खसतीब
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का गंधाबिरोजा शीराज से आता है ।
⋙ खसपोश
वि० [फा० खस + पोश] घास फूस से ढँका हुआ । सूखी घास से ढँका हुआ [को०] ।
⋙ खसफलक्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] पोस्ते के फल का दूध या रस । अफीम [को०] ।
⋙ खसबो पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशबू] सुगंध । सौरभ ।
⋙ खसम (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. पति खाविंद । उ०—जियत खसम किन भसम रमायो ।—सूर (शब्द०) । मुहा०—खसम करना = किसी स्त्री का किसी पुरुष से पति संबंध स्थापित करना । यौ०—खसमपीटी = पति की मृत्यु देखनेवाली । विधवा (गाली) । २. स्वामी । मालिक । द०—खसम बिन तेली के बैल भयौ ।— कबीर (शब्द०) । ३. बैरी । दुश्मन । शत्रु (को०) ।
⋙ खसम (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम [को०] ।
⋙ खसरा (१)
संज्ञा पुं० [अ० खसरह] १. पटवारी का एक कागज जिसमें प्रत्येक खेत का नबर, रकबा आदि लिखा रहता है । यौ०—खसरा आबादी = गाँव की जनसंख्या और घर आदि के लेखाजोखा का विवरणपत्र जो पटवारी के पास रहता है । खसरा तकसीम = जमीन जायदाद के बँटवारे का खपरा । २. किसी हिसाब किताब का बच्चा चिट्ठा ।
⋙ खसरा (२)
संज्ञा पुं० [फा० खा़रिश] एक प्रकार की खुजली जिससे बहुत कष्ट होता है ।
⋙ खसर्प, खसर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध ।
⋙ खसलत
संज्ञा स्त्री० [अ० खस्लत] स्वाभाव । आदत । प्रकृति । गुण । खासियत । क्रि० प्र०—डालना ।.—पड़ना ।
⋙ खसाना
क्रि० स० [हिं० खसना] नीचे की ओर ढकेलना या फेंकना । गिराना ।
⋙ खसारा
संज्ञा पुं० [अ० खसारह्] हानि । घाटा । नुकसान [को०] ।
⋙ खसासत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कृपणता । कंजूसी । २. नीचता । अधमता [को०] ।
⋙ खसिंधु
संज्ञा पुं० [सं० खसिन्धु] चंद्रमा [को०] ।
⋙ खसिया (१)
वि० [अ० खस्सी] १. जिसके अंडकोश निकाल लिए गए हों । बधिया । २. नंपुसक । हिजड़ा ।
⋙ खसिया (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० खसी] बकरा । उ०—कह कबीर वे दूनौ भूले रामहिं किनहुँ न पाया । वे खसिया वे गाय कटावैं बादै जन्म गँवाया ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ खसिया (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक पहाड़ी का नाम जो आसाम में है । २. इस पहाड़ी के आसपास का प्रदेश । उ०—चला परबती लेइ कुमाऊँ । खसिया मगर जहाँ लगि नाऊँ ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ खसियाना †
क्रि० स० [हिं० खसी या खसिया] अंडकोश निकालकर या कूटकर पुंस्त्वहीन करना । बधिया करना । नपुंसक बनाना ।
⋙ खसी
संज्ञा पुं० वि० [अ० खस्सी] दे० 'खस्सी' ।
⋙ खसीस
वि० [अ० खसीस] १. कंजूस । सूम । कृपण । २. कमीना । पामर । नीच (को०) ।
⋙ खसोट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खसोटना] १. बुरी तरह उखाड़ने या नोचने की क्रिया । २. बलपूर्वक लेने या छीनने की क्रिया ।
⋙ खसोटना
क्रि० स० [सं० कृष्ट] १. बुरी तरह उखाड़ना या उचा- ड़ना । नौंचना । जैसे—(क) बाल खसोटना । (ख) पत्ते खसोटना । २ बलपूर्वक लेना । छीनना ।
⋙ खसोटा
संज्ञा पुं० [हिं० खसोटना] कुश्ती का एक पेंच ।
⋙ खसोटी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खसोट' ।
⋙ खस्खस
संज्ञा स्त्री० [सं०] पोस्ता । खसखस [को०] ।
⋙ खस्तगी
संज्ञा स्त्री० [फा० खस्तगी] भुरभुरापन । खस्तापन [को०] ।
⋙ खस्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवी ।
⋙ खस्ता
वि०, [फा०खस्तह्] १. बहुत थोड़ी दाब से टूट जानेवाला । भुरभुरा । यौ०-खस्ता कचौड़ी = एक प्रकार की छोटी कचौड़ी जो मोयन ड़ालकर बनाई जाती है और बहुत भुरभुरी होती है । २. जख्मी । घायल (को०) ३. दुर्दशाग्रस्त । बदहाल (को०) । थका हुआ । क्लांत (को०) । यौ०— खस्तादिल = जिसका मन दुःखी हो । दुःखित ह्वदय । खस्ताहाल = दुर्दशाग्रस्त । अकिंचन । दरिद्र ।
⋙ खस्फटिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यकांत मणि । २. चंद्रकांत मणि । चंद्रमणि । [को०] ।
⋙ खस्वस्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह कल्पित विंदु जो सिर के ऊपर आकाश में माना गया है । शीर्षबिंदु । पादविंदु का उलटा ।
⋙ खस्सी (१)
संज्ञा पुं० [अ०] बकरा । उ०— देबी जो को खस्सी भेड़ा पीरन कौ नौ नेजा । —कबीर श०, पृ०, ४१ । मुहा०— खस्ती चढाना = बकरे को बलिदान करना ।
⋙ खस्सी (२)
वि० १. बधिया । २. हिजडा़ । नपुंसक ।
⋙ खहखह
संज्ञा पुं० [अनु०] खिलखिलाकर हँसने की आवाज । कह- कहा । उ०— कहकह सु बीर कहंत खहखह सु संभु हसंत ।— प०, रासो०, पृ०, ८० ।
⋙ खहदल †
संज्ञा पुं० [सं० ख?] आकाश । उ०—धरण खहदल थड़ह़ड़े ।— रा०, रु०, पृ०, २८० ।
⋙ खहर
संज्ञा पुं० [सं०] गणित में वह राशी जिसका हर शून्य हो । विशेष—इस राशि में कोई राशि जोड़ने या घटाने से भी यह राशि ज्यों की त्यों बनी रहती है, घटती या बढ़ती नहीं । जैसे—४, इसमें यदि २१ जोड़ दिया जाय तो भी ४० ही रहेगा; और यहि २१ घटा भी जाय तो भी ४० ही शेष रहेगा । (/?/)
⋙ खांड़
संज्ञा पुं० [सं० खाण्ड़] १. खंड़ खंड़ होने या अंतराल या व्यवधान होने की स्थिति । खंड़ित होने का कार्य़ । २. खाँड का बना पदार्थ मिश्री आदि [को०] ।
⋙ खांड़व
संज्ञा पुं० [सं० खाण्ड़ब] १. कुरुक्षेत्र का एक प्राचीन वन । विशेष— महाभारत और तैत्तिरीय आरण्य़क में इसका वर्णन पाया । जाता है । यह वन इंद्र द्बारा रक्षित था । अर्जुन और कृष्ण की सहायता पाकर अग्नि ने अर्जुन के बाण से प्रकट होकर इसे जलाया था । इंद्रप्रस्थ नगर इसी वन की भूमि में बसाया गया था । २. खाँड़ का बना पदार्थ ।
⋙ खांड़वप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं० खाण्डवप्रस्थ] एक स्थान जो धुतराष्ट्र द्बारा पांड़वों के मिला था । पिछे पांड़वों ने यहीं पर इंद्रप्रस्थ बसाया था ।
⋙ खांड़वराग
संज्ञा पुं० [सं० खाण्ड़वराग] खाँड़ से बना एक प्रकार का मिष्ठान्न । उ०— और कंद, मूल, फल, तिल , मधु, धूत मिलाकर आंड़बराग तैयार किया जा रहा था ।— बै०, न०, पृ०, १४१ ।
⋙ खांड़विक
संज्ञा पुं० [सं० खाण्डविक] मिठाई बनानेवाला हलबाई ।
⋙ खांडिक
संज्ञा पुं० [सं० खाण्डिक] हलवाई । खांड़विक ।
⋙ खांड़ो
संज्ञा पुं० [सं० षाडब] दे० 'षाडव' ।
⋙ खाँ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खान (१)' ।
⋙ खाँबहादुर
संज्ञा पुं० [फा० खाँ + तु० बहादुर] अँगरेजी राज्यकाल की एक उपाधि जो राज्यभक्त, वफादार मुसलमानों को दी जाती थी ।
⋙ खाँई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खाई' ।
⋙ खाँख †
संज्ञा स्त्री० [सं० खम्] छेद् । 'सूराख' ।
⋙ खाँखर †
वि० [हिं० खाँख] १. जिसमें बहुत छेद हों । सूराखदार । जैसे—खाँखर बरतन । २. जिसकी बुनावट दूर दूर पर हो । जैसे —खाँखर कपड़ा, खाँखर खटिया ३. खोखला । पीला ।
⋙ खाँग † (१)
संज्ञा पुं० [सं० खङ्ग, प्रा०, खग्ग] १. काँटा । कंटक । क्रि० प्र०— ग़ड़ना ।—लगना । २. काँटा जो तीतर, मुर्ग, आदि पक्षियोँ के पैरों में निकलता है । ३. गैंड़े के मुँह पर का सींग । ४. जंगली सूअर का बह दाँत जो मुँह के बाहर काँटे की तरह निकला होता हैं । क्रि० प्र०—चलाना । मारना ।
⋙ खांग (२)
संज्ञा पुं० [सं० खञ्ज] खुरवाले पशुओँ का एक रोग जिसमें उनके खुरों में घाव हो जाता है । खुरपका ।
⋙ खाँग (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं खंगना] १. त्रुटि । कमी । उ०—राम कहा कछु आगि न खाँगा । को राखै जो आपन माँगा ।— चित्रा०, पृ०, २२७ ।
⋙ खाँगड़
वि० [हि, खाँग + ड़ (प्रत्य०)] १. जिसके खाँग हो । खाँगवाला । २. हथियारबंद । शस्त्रधारी । ३. बलवान् । ४ अक्खड़ । उददंड़ ।
⋙ खाँगड़ा
वि० [हिं०] दे० 'खाँगड़' ।
⋙ खाँगना (१)
क्रि० अ० [सं० खञ्ज = खोंड़ा] लँगड़ा होना या चलने में असमर्थ होना ।उ०— हौं अब कुशल एक पैमांगउ । प्रेम पंथ संत बाँधि न खाँगउँ ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खाँगना (२) †
क्रि० अ० [सं० क्षीण, हि० छीजना] कम होना । घटना । उ०— कहहु सो पीर काह बिनु खाँगा । समुद सुमेरु आव तुम माँग ।—जायसी ग्रं० पृ०, ४९ ।
⋙ खाँगा †
संज्ञा पुं० [सं० खड़ग प्रा०, खाग] खड़ग । खाँड़ा । उ०— खरदूषर त्रिसर षल झाल खाँगा पूर तन पहरियाँ ।—रघु० रू०, पृ०, १३१ ।
⋙ खाँगी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हि० खँगना] कमी । घाटा । त्रुटि ।
⋙ खाँगो † (२)
वि० न्यून । कम । छोटा । त्रुटिपूर्ण । सोरह सहस पदुमिनी माँगी सबही दीन्ह न काहू खाँगी । —जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ०, ३४५ ।
⋙ खाँच † (१)
संज्ञा पुं० [हि० खाँचना] १. दो वस्तुओँ के बोच की जगह । संधि । जोड़ । २. खींचकर बनाया हुआ निशान । ३. गठन । खचन ।
⋙ खाँच (२) †
संज्ञा पुं० [हिं०] खाँवा । २. लकड़ी आदि का महीन नुकीला लंबा अंश ।
⋙ खाँचना पु †
क्रि० स० [कर्षण या कसन = खींचना, अथवा खचन = बैठाना] [वि० खँचैया] १. अंकित करना । चिहन बनाना । खींचना । उ०— आप कीय रेख खाँचि देव साखि दै चले । नधिहै ते भस्म होहि जीव जे बुरे भले ।— केशव (शब्द०) । २. खीच चा कसकर बनाना । जैसे,—(क) जाली खांचना । (ख) ड़लिया खाँचना । ३ जल्दी जल्दी या भददी लिखावट लिखाना । ४. खचित या युक्त करना ।
⋙ खाँचा
संज्ञा पुं० [हि० खाँचना] [स्त्री० खाँची] १. पतली टहनी आदि का बना बड़ा टोकरा । झाबा । २. बड़ा पिंजड़ा ।
⋙ खाँचाताँण †
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० खींचातान । उ०— बड़ै भार जूपै बहै करै न खाँचाताण ।— बाँकी० ग्रं०, भा०, १. पृ०, ४१ ।
⋙ खाँची †
संज्ञा स्त्री० [हि० खाँचा का अल्पा०] खँचिया । छोटा खाँचा ।
⋙ खाँटी
वि० (?) सुच्चा । साफ । बिना मिलावट का । २. निरा बिलकुल । पूर्ण तया ।
⋙ खाँड
संज्ञा स्त्री० [सं०खण्ड] १. बिना साफ की हुई चीनी । कच्ची शक्कर । २. ईख के रस को पकाकर किय़ा गया कुछ गीला और दानेदार पदार्थ जिससे शक्कर तैयार की जाती है । राब ।
⋙ खाँडना †
क्रि० सं० [सं० खण्ड़ = टुकड़ा] १. कुचल कुचलकर खाना । चबान । उ०— काढे़ अधर डाभ जनु चीरा । रुहिर चुर्व जो खाँडै बीरा । —जायसी (शब्द०) । २. खंड़ खंड़ करना । उ०— अमर सुजान मोहकम बहलोल खान, खाँड़े छाँड़े ड़ाडे उमराव दिलीसुर के ।—भूषण ग्रं०, पृ०, २४१ ।३. (दाँतो से) काटना । उ०— मेरे इनके बीच परौ जिनि अधर दसन खाँडौ़गी ।—सूर० (राधा०), १५४४ ।
⋙ खाँडर पु †
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड़ = टुकड़ा] टुकड़ा । अंश । खंड़ ।
⋙ खाँड़सारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] खौड़ की बनी हुई शर्करा ।
⋙ खाँड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० खङ्ग] खङ्ग (अस्त्री) । चौड़ी फलवाली तलवार । उ०— जाति सूर अऱु खाँड़ै सूरा । अउ बुधिबंत सबई गुन पूरा । —जायसी (शब्द०) ।
⋙ खाँडा़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० खण्ड़] भाग । टुकड़ा (विशेषतः चतुर्थाश) ।
⋙ खाड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] स्त्रीयों के पहनने का वस्त्र । साड़ी । उ०— राती खाँड़ी देखि कबीरा । देखि हमारा सिगारौ । सरग- लोक थै हम चलि आई, करन कबीर भरतारौ ।—कबीर ग्रं० , पृ०, १८० ।
⋙ खाँड़ो पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'षाड़ब' ।
⋙ खाँद (१) †
संज्ञा पुं० (सं० स्कन्ध) कंधा । उ०— लिए खाँदे ऊपर अज जान होर दिल । —दविखनी०, पृ०, ११४ ।
⋙ खाँद (२) †
संज्ञा पुं० [हि०] पैरों से कसी स्थान की जमीन या घास- पात को कुचलने का निशाना ।
⋙ खाँदना †
क्रि० [सं०] [हि,खाद से नाम०] दे० 'खूदन' ।
⋙ खाँध †
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध] कंधा । उ०— मो घर रा गाड़ा तणों ता खांधे भर भार । बाँकी गें० भा,० १., पृ०, ४० ।
⋙ खाँधना †
क्रि० सं० [सं० खादन] खाना । भक्षण करना । उ०—जौ तौ कर पग नहीं कहौ ऊखल क्यों बाँधौ । नैन नासिका मुखम चोरि दधि कौने खाँध्यो ।—सूर०, १०, १०९५ ।
⋙ खाँप
संज्ञा स्त्री० [हिं०] टुकड़ा । फाँक ।
⋙ खाँपण †
संज्ञा पुं० [अ० कफन] दे० 'कफन' उ०— मन चलाय खापणा मही काढै नफी कुचील ।—बाँकी० ग्र० भा०, २ पृ०, ६७ ।
⋙ खाँपना †
क्रि० स० [सं० क्षेपण , प्रा०, खेपन] १. खोसना । २. जड़ना । लगाना । ३. चारपाई की बुनावट में, एक नुकीली कील से उसकी बुनन को कस या दबाकर दृढ़ करना । गछना ।
⋙ खाँभ पु † (१)
संज्ञा पुं० [हि० खंभा] खंभा । स्तंभ । उ०— कीन्ह खाँम दुहुँ जगत की ताई । —जायसी ग्र०, (गुप्त), पृ०, १३२ ।
⋙ खाँभ पु (२)
संज्ञा पुं० [हि० खाम] लिफाफा । उ०— ताहि पाणि तें लियो निकारी । बाँचन लागी खाँभ उघारी ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ खाँभना
क्रि० सं० [हि० खाम, खाभ + ना (प्रत्य०)] लिफाफे में बंद करना । उ०—अस पाती लिखि खाँभी देवाना । चंद्र- हासकर दियो अज्ञाना ।—रघुराद (शब्द०) ।
⋙ खाँवाँ (१)
संज्ञा पुं० [सं० खम्] अधिक चौंड़ी और गहरी खाई । उ०— कचन के कोट पैकँगूरे अति रूरे बनेष खाँवा जल पूरे रक्षै शूरे शस्त्र धारे हैं । —रघुराज (शब्द०) ।
⋙ खावाँ (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की छोटा पौधा जिसके फूल सफेद होते हैं ।
⋙ खाँवाँ (३)
संज्ञा पुं० [सं० खात] खेत या जलस्थान के किनारे का कुल ऊँचा मिट्टी का घेरा । मेंड़ ।
⋙ खासना
क्रि० अ० [सं० कासन प्रा०, खाँसना] कफ या और कोई अटकी हुई चीज निकालने या केवल शब्द करने के लिये बाय़ु को झटके के साथ कंठ से बाहर निकालना ।
⋙ खाँसी
संज्ञा स्त्री० [स० काश, कास] १. गले और श्वास की नलियों में फँसे या जमे हुए कफ अथवा अन्य पदार्थ को बाहर फेकने के लिये झटके के साथ हवा निकालने की क्रिया । काश । विशेष— यह क्रिया कुछ तों स्वाभाविक और कुछ प्रयत्न करने पर होती है जिसमें कुछ शब्द भी होता है । ड़ाक्टरी मत से यह कलेजे और फेफड़े से संबंध रखनेवाला अनेक साधारण रोगों का चिह्नन मात्र है । २. वैद्यक के अनुसार एक स्वतत्र रोग । विशेष— यह रोग श्वास की नलियों में धुआँ और धूल लगने, रूखा अन्न खाने, भोज्य पदार्थ के श्वास की नलियों में चले जाने या स्निग्ध पदार्थ खाकर ऊपर से जल पीने से उत्पन्न होता है । इसमें उदानवायु की अनुगत होकर प्राणबायु दूषित हो जाती है और बायु के जोर से खौं खों शब्द के साथ कफ निकलता है । खाँसी होने पर गले में सुरसुराहबट होती है भोजन गले मे कुछ कुछ रुकता है । आवाज बिगड़ जाती हैं और आग्निमंदता तथा अरुचि हो जाती है । इसके बढ़ जाने से राजयक्षमा और उर; क्षत आदि भयंकर रोग उत्पन्न होते है । उत्पत्तिभेद से यह पाँच प्रकार की मानी गई है । यथा— वातज, पित्तज, कफज, क्षयज और क्षतज । जिस खाँसी के साथ मुँह से कफ निकले, उसे तर, और जिसके साथ कुछ भी न निकले, उसे सूखी खाँसी कहते हैं । ३. खाँसी की क्रिया । क्रि० प्र०—आना ।—उठना ।—होना ।
⋙ खा
प्रत्य० [फा़० खा़] खानेवाला । भक्षक । जैसे, शकरखा ।
⋙ खाइन
वि० [अ० खाइन] रुपए पैसे में गड़बड़ी करनेवाला । खयानत करनेवाला । अर्थ संबंधी व्यबहार के अयोग्य [को०] ।
⋙ खाई
संज्ञा स्त्री० [सं० खानि, प्रा०, खाई] १. वह नहर जो किसी गाँव, किले, बाग या महल आदि के चारों ओर रक्षा के लिये खोदी गई हो । उ०—कबीर खाई कोट की पानी पिवै न कोय । जाय मिलै जब गंग से सब गंगोदक होय ।—संत- बानी, भा०, १, पृ० ३० । २. खंदक । उ०— चहूँ ओर फिरि आई । जिन देखो तिन खाई । (खाई की पहेली ।) —खुसरो (शब्द०) । ३. युद्धक्षेत्र में सुरक्षार्थ खोदे जानेवाले गड्ढे जिनमें छिपकर अपनी रक्षा और शत्रु पर आक्रमण किया जाता है । अँगरेजी में इसे 'ट्रेंच' कहते हैं ।
⋙ खाऊ
वि० [हिं० √ खा + ऊ (प्रत्य०)] १. बहुत खानेवाला । पेटू । २. घस लेनेवाला । घूसखोर । यौ०— खाऊ बीर = दूसरों का माल हड़प जानेवाला । खाऊ मीत = स्वार्थी मित्र । मतलबी दोस्त ।
⋙ खाक
संज्ञा स्त्री० [फा० खाक] १. धूल । रज । गर्द । २. राख । भस्म । ३. मिट्टी । मृत्तिका । मुहा०— (कहीं पर) खाक उड़ना = बरबाद होना । तबाह होना । नाश होना । उजाड़ होना । जैसे,— अब वहाँ पर खाक उड़ रही है । खाक उड़ना = खाक छानना । मारे मारे फिरना । वैसे वह इधर उधर खाक उड़ता फिरता है । (किसी की) खाक उड़ाना = उपहास करना । मिट्टी पलीद करना । धूल उड़ाना । जीट उड़ाना । जैसे,—लोगों ने उसकी खूब खाक उड़ाई । खाक करना = तबाह करना । नष्ट भ्रष्ट करना । खाक का पुतता = मनुष्य । आदमी ।—आदमी है तो खाक का पुतला मगर बला की तबीयत पाई है ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० ७ । खाक का पंबंद होना = मृत्यु होना । खाक चाटना = सिर नबाना । नम्रता करना । अनुनय विनय करना । खाक छानना = (१) अच्छी तरह तलाश करना । बहुत ढूँढना । जैसे,—कहाँ कहाँ की खाक छाना पर वह न मिला । (२) मारा मारा फिरना । आवारा फिरना । चारों ओर भटकते फिरना । जैसै,—वह नौकरी के लिये चारों ओर खाक छानचा फिरा । खाक ड़लना = (१) छिपना । दबाना । जैसे,—उसके ऐबों पर कहाँ तक खाक डाली जाय । (२) भूल जाना । गई गुजरी करना जैसे,—पुरानी बातों पर खाक ड़लकर अब मेल कर लो । खाक बरसना = अच्छी दशा न रहना । नष्ट भ्रष्ट हो जाना । खाक में मिलना = बिगड़ना । बरबाद होना । चौपट होना । नष्ट भ्रष्ट होना ।खाक में मिलना = बिगड़ना । तबाह करना । नष्ट भ्रष्ट करना । सत्यानाश करना । जैसे,—उसने सारी आबरू खाक में मिला दी । खाक सिर पर उड़ाना या ड़ालना = शोक करना । रोना पीटना । खाक पियाह करना = नष्ट कर देना । बर्बाद कर देना । यौ०— खाक पत्थर = व्यर्थ वस्तु । निकम्मी चीज । ४. भूमि । जमीन (को०) । ५. तुच्छ । अकिंचन । ६. कुछ नहीं । जैसे,—वे खाक पढते लिखते हैं ।
⋙ खाक अंदाज
संज्ञा पुं० [फा० खाक अंदाज] १. कूड़ा करकट रखने का पात्र । कूड़ाखाना । २. किले से शत्रु पर गोली आदि चलाने और कूड़ा करकट फेंकने के लिये बना सूराख । ३. चूल्हे से राख निकालने का छेद या बरतन [को०] ।
⋙ खाकदान
संज्ञा पुं० [फा़० खाकदान] कूड़ाखाना । कूड़ाघर । २. संसार । दुनिया ।
⋙ खाकनाय
संज्ञा पुं० [फा़० खाकनाए] धरती का वह तंग हिस्सा जो दो बड़े धरती के टुकड़ों को मिलाता है । स्थलड़मरूध्य ।
⋙ खाकरोब
संज्ञा पुं० [फा़० खाकरोब] गलियों में झाड़ू देनेवाला ।
⋙ खाकरोबी
संज्ञा स्त्री० [फा़० खाकरोबी] झाड़ लगने का काम । सफाई करने का काम । उ०— खाकरोबी सब सूँ बेहतर था मुझे । ना छतर हो तख्त यो अफ सर मुझे ।—दक्खिनी०, पृ० १८८ ।
⋙ खाकशी
संज्ञा पुं० [फा़० खाकशी] औषधि के कार्य में प्रयुक्त होनेवाला खाकसीर का दाना [को०] ।
⋙ खाकसार
वि० [फ़ा० ख़ाकसार] १. विनीत । विनम्र । २. अस— हाय । निराश्रित । दीन [को०] ।
⋙ खाकसारी
संज्ञा स्त्री० [फा़० खाकसारी] १. विनम्रता । उ०— कितनी खाकसारी है, इसी को शराफत कहते हैं कि इंसान अपने के भूल न जाय । काया०, पृ० ५५१ । २. दीनता । निराश्रयता । असहायपन ।
⋙ खाकसीर
संज्ञा स्त्री० [फा़० ख़ाकशीर] एक औषध जिसे खूबकलां भी कहते हैं । विशेष— यह एक घास का बीज हो जो मैदानों, बागों जंगलों तथा पहाड़ों में होता है । इसकी पत्तियाँ लंबी और टहनी के दोनों ओर आमने सामने लगती हैं । फल झड़ जाने पर छोटी धुंड़ियाँ लगती हैं, जिनमें छोटे छोटे दाने झिल्ली में लिपटे रहते हैं । खाकसीर दो प्रकार की होती है ।—एक छोटी, दूसरी बड़ी । छोटी का रंग कुछ सुर्खी लिए होता है और बड़ी का रंग कुछ स्याही लिए होता है । बड़ी से छोटी अधिक कड़ई होती है । यह घास अरब फारस आदि देशों में होती है ।
⋙ खाका
संज्ञा पुं० [फा़०खाकह] १. चित्र आदि का ड़ौल । रेखाचित्र । ढाँचा । २. नकशा । मानचित्र । क्रि० प्र०—उतारना ।—खींचना ।—बनाना । मुहा०—खाका उड़ाना = (१) नकल उतारना । एक ही ढांचे पर बनाना । (२) उपहास करना । निदा करना । (३) धूल उड़ाना । बदनामी करना । ३. किसी काम का अनुमान । वह कागज जिसमें किसी काम के खर्च का अनुमान लिखा जाय । चिट्ठा । तखमीना । ४. कच्चा चिट्ठा । मसौदा । ५. किसी कहानी लेख आदि का ढाँचा ।
⋙ खाकान
संज्ञा पुं० [तु० खा़कान] १. महाराज । सम्राट् । शाहन- शाह । २. तुर्की ओर चीन के पुराने शासकों की उपाधि [को०] ।
⋙ खाकानी
संज्ञा स्त्री० [ तु० खा़का़ना + ई (प्रत्य०)] शाहनशाही । उ०— तुमने मंगलों से सीखों रणचचतुराई ओ खाकानी ।— हंस०, पृ० १७ ।
⋙ खाकिस्तर
संज्ञा स्त्री० [फा० खा़किस्तर] १. जली हुई वस्तु का अवशेष । २. राख । भस्म [को०] ।
⋙ खाकिस्तरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० खा़किस्तिरी] १. मटमैला रंग । २. मटमैले रंग की कोई भी वस्तु [को०] ।
⋙ खाकी (१)
वि० [फा़० खा़क] १. मिट्टी के रंग का । भूरा । २. मिट्टी से संबंधित । मिट्टी का बता हुआ । मृण्मय [को०] ।३. बिना सोंची हुई (भूमि) । मुहा०— खाकी अंड़ा = (१) वह अंड़ा जो भीतर से बिगड़ गया हो और जिसमें से बच्चा न निकले । बयंड़ा । गंदा अंड़ा । (२) हरामजादा ।
⋙ खाकी (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० ख़ाक] १. एक प्रकार के वैष्णव साधु जो तमाम शरीर में राख लगाया करते है । २. मुसलमान फकीरों का एक संप्रदाय दो खाकी शाह का अनुयायी है । ३. पुलिस फौज आदि के सिपाहियों की वर्दी के लिये प्रयुक्त होनेवाला मटमैले रंग का मोटा वस्त्र ।
⋙ खाकेपा
संज्ञा पुं० [फा० खक-ए-पा] १. पदरज । पाँव की धूल । २. अत्यंत विनीत या दीन व्य़क्ति [को०] ।
⋙ खाख †
संज्ञा स्त्री० [फा़० ख़ाक] दे० 'खाक' । उ०— हुतभुक बिच जल खाक ह्वै उड़णों हे दिन एक ।—बाँकी०, ग्रं०, भा० २ पृ० ४१ ।
⋙ खाखर
संज्ञा पुं० [हिं०] एक पक्षी । उ०—खाखर लावा घेरे परे । जाला माँह परगट सब धरे ।—चित्रा०, पृ०, २५ ।
⋙ खाखरा (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] एक युद्धवाद्य । उ०— बज्जत सुगज्जत खाखरे । जो करत दिसि दिसि साकरे ।—हिम्मत०, पृ० ७ ।
⋙ खाखरा (२) †
संज्ञा पुं० [देश० खक्खरग] १. सूखी और कड़ी रोटी । २. आटे को मोयन देकर घी में पकाया हुआ एक प्रकार का सुखा और कड़ा खाद्य पदार्थ । गुजरात में इसका विशेष चलन है ।
⋙ खाखस †
संज्ञा पुं० [फा़० ख़शखाश] पोस्त का दाना । खसखस ।
⋙ खाखी पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० खाक, पुं०, हिं० खाख + ई (प्रत्य०)] धूलि । भस्म । खाक । उ०— प्रेम का चोलना सत्त सेल्ही बनी, मान को मर्दि कै करै खाखी ।—पलटू०, पृ० २६ ।
⋙ खागै पु
संज्ञा पुं० [सं०] [खड़ग, प्रा० खग्ग] खड़ग तलवार । उ०— (क) विग्रहिया खागे समवादी ।—रा०, रू० पृ०, १४ । (ख) गहूँ खान सनमुक्खा दुहूँ अत गर्व सुद्ध द्रढ़ ।— ह०, रासो, पृ० २५ ।
⋙ खाग (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खाँग' ।
⋙ खाग (३)
संज्ञा पुं० [फा़० खा़ग] मुर्गी का अंड़ा [को०] ।
⋙ खागाना (१)
क्रि० अ० [हिं० खाँग = काँटा] चुमना । गड़ना । उ०— (क) शर सो प्रति वासर लागैं । तन घाव नहीं मन प्राणन खापै ।—केशव (शब्द०) ।(ख) नासा तिलक प्रसून पद विपर चिबुक चारु चित खाग ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खागना (२)
क्रि० अ० [हिं०] 'खाँगना' ।
⋙ खागीना
संज्ञा पुं० [सं० ख़ागीनह्] अंड़े की बनी तरकारी आदि [को०] ।
⋙ खाज (१)
संज्ञा पुं० [सं० खर्जु] एक रोग जिसमें शरीर बहुत खुजलाता है । खुजली । मुहा०— कोढ़ की खाज = दुःख में दुःख बढ़ानेवाली वस्तु । विपत्ति पर विपत्ति लानेवाली वस्तु । उ०— एक तो कराल कलिकाल सूल मूल तामें, कोढ में की खाज सी सनीचरी है मीन की ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खाज (२)
संज्ञा पुं० [खाद्य, प्रा० खज्जा] खाद्य । चुग्गा । उ०— वाका चेज ऊजला, वाका खाज निषेद । जन दरिया कैसै बने, हंस बगुल के भेद ।—दरिया०, बानी , पृ०, २२ ।
⋙ खाजा
संज्ञा पुं० [सं० खाद्यक प्रा०, खज्जप्र] १. भक्ष्य वस्तु । खाद्य पदार्थ । जैसे,—बिल्ली का खाजा । उ०— ये तन तोर काल कर खाजा ।—घट०, पृ०, २०६ । मुहा०— खाजा होना = शिकार होना । २. एक प्रकार की मिठाई जो बारीक मैदे से बनाई जाती हैं । उ०— हम खरिमिटाव कइली है रहिला चबाय के । भेवल धरल बा दूध में खाजा तोरे बदे । —बदमाश०, पृ० ६ । विशेष—गूँध हुए मैदे की घी लगाकर सीधा बेलते हैं । फिर मोयन देकर उसे दोहर देते हैं और फिर बेलते हैं । इसी प्रकार बार बार बेलकर मोयन देते, दोहरने और फिर बेलते जाते हैं । अंत की उसे चौकोर बनाकर घी में तलते हैं और चीनी की चाशनी में पागते हैं । खाजा प्रायः दूध में भिगोकर खाया जाता हैं । ३. एक जंगली पेड़ जो बहुत बड़ा नहीं होता ।
⋙ खाजिक
संज्ञा पुं० [सं०] भुना हुआ अन्न या धान्य [को०] ।
⋙ खाजिन
संज्ञा पुं० [अ० खांजिन्] कोशाध्यक्ष । खजांची । कैशियर [को०] ।
⋙ खाजी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० खाद्य] खाद्य पदार्थ । मुहा०— खाजी जाना = मुँह की खाना । बुरी तरह परास्त और लज्जित होना । उ०—सानुज सगन ससचिव सुजोधन भए सुख मलिन खाई खाल खाजी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खाट
संज्ञा स्त्री० [सं० खट्वा] चारापाई । पलैगड़ी । खटिया । माचा । यौ०— खाटखटोला = बधना बोरिया । कपड़ा लत्ता । गृहस्थी का सामान । जैसे—बस अपना खट खटोला ले जाओ । मुहा०— (किसी की) खाट कटना = किसी का इतना बीमार पड़ना कि उसके मलमूत्र त्याग करने के लिये चारपाई की बुनावट काटनी पड़े । बहुत बीमार पड़ना । खाट पड़ना या खाट पर पड़ना = बीमार पड़ना । बीमार होकर चारपाई पर पड़ना । खाट लगाना या खाट से लगना = बहुत बीमार पड़ना । इतना बीमार पड़ना कि उठ बैठ न सकना । खाट से उतारा जाना = आसन्नमरण होना । मरने के समीप होना । विशेष— हिदू धर्म के अनुसार चारपाई पर मरना बुरा समझा जाता है । इससे जब प्राणी मरने के निकट होता है तब वह चारपाई से नीचे उतार दिया जाता है ।
⋙ खाट (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अरथी [को०] ।
⋙ खाटना (१)पु †
क्रि० स० [हिं० खटना] उपार्जन करना । पैदा करना उ०— सादूली बन साहिबौ खाटै पग पग खून ।— बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ०, २१ ।
⋙ खाटना (२)पु †
क्रि० अ० निभना । टिकना । उ०—पिय बिन देल मैं और न खाटा । सुंदर मन सब सौ भया खाटा ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, ३५ ।
⋙ खाटा (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] अरथी [को०] ।
⋙ खाटा (२)
वि० [हिं०] दे० 'खट्टा' । उ०— (क) दादू बैद बेचारा क्या करैं रोगी रहै न साच । खाटा मीठा चरपरा, माँ मेरा बाच । दादू०, पृ०, ३९ । (ख) पिय बिन दिल में और न खाटा । सुंदर मन सन सब भया खाटा ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३५ ।
⋙ खाटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अरथी । २. क्षत या घाव का चिह्न । ४. वहम । सनक । चलचित्तता [को०] ।
⋙ खाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] खाट । अरथी । खाटि [को०] ।
⋙ खाटिन †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो अगहन के महीने में तैयार होता है ।
⋙ खाटी पु
वि० [हिं०] दे० 'खट्टा' ।
⋙ खाड़ पु
संज्ञा पुं० [सं०खात] गड्ढ़ा । गर्त । उ०— तुइँ अस बहुत खाड़ खनि मूँदी । बहुर न निकसवार होय खूँदी ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खाडव
संज्ञा पुं० [सं०] मिसरी [को०] ।
⋙ खाड़ा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खाँड़ा' उ०— खाडौ औहो दुहुँ दिसि धारा ।—कबीर सा०, बृ० ७९ ।
⋙ खाडव
संज्ञा पुं० [सं० षाडव] वह राग जिसमें केवल छह स्वर लगते होँ । षाडव ।
⋙ खाड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाड़] समुद्र का वह भाग जो तीन और समुद्र से घिरा हो । आखाता । खलीज ।
⋙ खाड़ी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खोड़ ] अरहर का सूखा और बिना फल पत्ते का पेड़ ।
⋙ खाड़ी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काढ़ना] किसी चीज में से अंतिम बार निकाला हुआ रंग ।
⋙ खाड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० खांड़] वे लंबी पतली लकड़ियाँ जिनके ऊपर रखकर खपड़े छाए जाते हैं ।
⋙ खाड़ेती पु †
वि० [खड़ना = चलना] चलना । हाँकनेवाला । चलानेवाला । उ०— खाड़ेती खोटी हुबै, धवल न खोटौ होय ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४२ ।
⋙ खाढ़र
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खादर' ।
⋙ खात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खोदना । खोदाई । २. तालाब । पुष्करिणी । ३. कुआँ ४. गड़ढा ५. वह गड़ुढा जिसमें खाद बनाने के लिये कूड़ा और मैला आदि जमा किया जाता है ।
⋙ खात (२) †
संज्ञा स्त्री० १. मद्य बनाने के लिये रखा हुआ महुए का ढेर । २. वह स्थान जहाँ मद्य बनाने के लिये महुआ रखा जाता हैं ।
⋙ खात (३)
संज्ञा पुं० [हिं० खाद] दे० 'खाद' । उ०— कौदौ निपजन काज खात घनसारहि ड़ारत ।—ब्रज० ग्र०, पृ० ७८ ।
⋙ खात (४)
वि० [सं०] १. खाना हुआ । २. मैला । गंदा ।
⋙ खातक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा तालाब । तलैया । २. खाई । परिखा । ३. ऋणी । अधर्मण । कर्जदार । ४. खोदनेवाला व्यक्ति । खनक (को०) ।
⋙ खातभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिखा । खाई । ३. कुएं का गड़ढा । खात ।
⋙ खातम
संज्ञा पुं० [अ० खातम] १. अँगूटी । अंगुलीय । मुद्रा । २. मोहर लगाने की अँगुठी [को०] । यौ०- खातमकार खातमबंद = (१) मुहर की अँगूठी बनानेवाला । (२) हाथीदाँत के ऊपर नक्काशी करनेवाला ।
⋙ खातमा
संज्ञा पुं० [फा़० खातमा] १. अंत । समाप्ति । २. परिणाम । नतीजा । अंजाम ३. मृत्यु । मौत ।
⋙ खातर
अव्य० [फा० खातिर] दे० 'खातिर' । उ०— सुनि सुनि प्रभु तेरो गुननि तुव खातर कै जात ।—स० सप्तक, पृ० ३४५ ।
⋙ खातरूपकार
संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी का पात्र बनानेवाला कुम्हार । कुंभकार [को०] ।
⋙ खातव्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गणित जिससे पोखरे तालाब आदि का क्षेत्रफल जाना जाता है ।
⋙ खाता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृत्रिम तालाब या बावड़ी [को०] ।
⋙ खाता (२)
संज्ञा पुं० [सं० खात] अन्न रखने का गड़ढा । बखार ।
⋙ खाता (३)
संज्ञा पुं० [हिं० खात] १. वह वही या किताब जिसमें प्रत्येक आसामी या व्यापारी आदि का हिसाब मितिवार और ब्योरेवार लिखा हो । मुहा०— खाता खोलना = (१) दे० 'खाता ड़ालना' । (२) नया संबंध स्थापित करना । नया व्यवहार करना । खाता डालना = हिसाब खोलना । लेन देन आरंभ करना । खाता पड़ना = लेन देन आरंभ होना । खाते बाकी = वह रकम जो खाते में बाकी निकलती ही । २. मद विभाग जैसे—धर्म खाता, खर्च खाता, माल खाता । ३. हिसाब । लेखा । उ०— मुमसे छिपा नहीं है मेरा लंबा चौड़ा खाता ।—अपलक, पृ० १६ ।
⋙ खाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] खदाई । खोदने की स्थिति [को०] ।
⋙ खातिम
वि० [अ० ख़तिम] १. खत्म या समाप्त करनेवाला । २. सबसे बादवाला । सबसे पीछेवाला [को०] ।
⋙ खातिमा
संज्ञा पुं० [अ० खातिमह्] १. मृत्यु । मरण । २. आखीर । अंत । समाप्ति । ३. किसी पुस्तक खा आखिरी अध्याय या परिच्छेद । ४. फल । परिणाम । नतीजा [को०] ।
⋙ खतिर (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० खातिर] १. सत्खार । संमान । २. हृदय । मन (को०) । ३. आदर । लिहाज [को०] । ४. मन में उत्पन्न होनेवाला विचार । आखांक्षा । इच्छा (को०) । यौ०—खातिरजमा । खातिरदार । खातिरनशी = बोधगम्य । हृदयंगम । खतिरशिकनी = अप्रसन्न या असंतुष्ट होना ।
⋙ खतिर
२ † अव्य० वास्ते । लिये । खारण ।
⋙ खातिरखाह
अव्य०, क्रि० वि० [फा० ख़ातिरख़ाह] जैसा चाहिए वैसा । इच्छानुसार । यथेच्छ ।
⋙ खतिरजमा
संज्ञा स्त्री० [अ० खातिरजमा] संतोष । इतमीनाना तसल्ली । क्रि० प्र०—रखना या होना । उ०—पलटू खातिरजमा भइ सतगुर के परसंग ।—पलटू०, पृ० ४४ ।
⋙ खातिरदार
संज्ञा पुं० [फा़० खातिरदार] आवभगत या आदर । करनेवाला [को०] ।
⋙ खातिरदारी
संज्ञा स्त्री० [फा० खातिरदारी] संमान । आदर । आवभगत । उ०—मैंने अपनी दौलत इन झूठे खुशामदियों की खातिरदारी में खोई ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ७७ ।
⋙ खातिरन
क्रि० वि० [अ० खातिरन्] खातिर करने के लिये । दिल रखने के लिये [को०] ।
⋙ खातिरी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़० खातिर] १. संमान । आदर । आव- भगत । उ०—प्रचुर पठै परिचारक दल मँह खबरि बरातिन लीन्हीं । आवन की पुनि अशन शयन की सबन खातिरी कीन्हीं ।—रघुराज (शब्द०) । २. तसल्ली । इतमीनान । संतोष ।
⋙ खातिरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह फसल जो नदी के किनारे खाद के बल से या हाथ से पानी सींच सींचकर पैदा की जाय ।
⋙ खाती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० खातिखा] १. खोदी हुई भूमि । खंती । २. छोटा ताल । ३. जमीन खोदनेवाली एक जाति । खतिया । ४. बढई । उ०—बेगि बोवाइ चहूँ दिस केरा । थवई खाती गुनी चितेरा ।—चित्रा०, पृ० ४३ । ५. मूर्तिखार । मूर्ति बनानेवाला । उ०—ईसीय न खाती कौ घड़इ । इसी अस्त्री नहीं रबि तलै दीठ ।—वी० रासो, पृ० ४५ ।
⋙ खाती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षत् प्रा०, पा० खत = घाव, अपराध अथवा अ० खगती = जानकर अपराध करनेवाला] अपराध । घात । गलती । उ०—खान्ह के बल मोसौं करी खाती । हरिहै कहा, गोप किहिं बाती ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९१ ।
⋙ खाती
वि० [अ० खाती] जान बूझकर अपराध करनेवाला [को०] ।
⋙ खातून
संज्ञा स्त्री० [तु० खातून] कुलीनललना । कुलांगना । भद्रमहिला ।उ०—उनकी सी पाकीजा सिफन खातून दुनिया में कम होगी ।—खाय०, पृ० ५५२ । यौ०—खातूने अरब, खातूने खाबा = फातिमा खा नाम । खातूने खाना—गृहिणी । गृहस्वामिनी । खातूने फलक—सूर्य । रवि । खातूमे नहफिल—सबसे मिलने जुलनेवाली स्त्री । सोसायटी गर्ल ।
⋙ खातेदार
संज्ञा पुं० [हिं० खाता + फा० दार = वला (प्रत्य०)] खाता खोलनेवाला व्यक्ति । लेने देन आरंभ करनेवाला व्यक्ति ।
⋙ खात्मा
संज्ञा पुं० [अ० खतिपह्] दे० 'खातमा' । उ०—अब थोड़ा सा प्रस्तावना के खात्मा और कयाप्रवेश पर लिहाज करना उचित है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४२७ ।
⋙ खात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. खनित्र । खंता । कुदाल । २. चौकोन बड़ा तालाब । ३. सूत । डोरा । ४. जंगल । वन । अरण्य । ५. त्रास । भय । डर [को०] ।
⋙ खाद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन । खाना [को०] ।
⋙ खाद (२)
वि० भोजन के योग्य । खाने योग्य [को०] ।
⋙ खाद (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० खाद्य] वह पदार्थ जो खेत में उसकी उपजाऊ शक्ति बढ़ाने के लिये डाला जाता है । पाँस । क्रि० प्र०—डालना ।—देना । विशेष—सब प्रकार की पत्तियाँ, डंठल, कूडा, कर्कट, कीचड़, पक्षियों और पशुओं का मलमूत्र तता मृत शरीर आदि सभी चीजें सड़ गलकर बहुत अच्छी खाद का काम देती हैं । इसके अतिरिक्त चूना, खड़िया आदि खनिज पदार्थों और उनके क्षारों से भी खाद बनती है ।
⋙ खादक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [ स्त्री० खदिका] १. ऋण लेनेवाला । कर्ज लेनेवाला । अधर्मण । २. किसी धातु का वह भस्म जो खाने के काम में आता हो ।
⋙ खादक (२)
वि० खानेवाली । भक्षक ।
⋙ खादन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० खानीय, खादित, खाद्य] १. भक्षण । भोजन । खाना । २. दाँत (डिं०) । ३. भोजन करने की क्रिया या भाव (को०) ।
⋙ खादनीय
वि० [सं०] भक्षणीय । खाने योग्य । खाद्य ।
⋙ खादर
संज्ञा पुं० [सं० खात्र = तालाब अथवा हिं० खाड़] १. नदी, झील आदि के किनारे की वह नीची जमीन जिसमें वर्ष का पानी बहुत जिनें तक रुका रहता हो । बाँगर का उलटा । तराई । कछार । उ०—(क) मेघ परस्पर यहै कहत हैं धोय करहु गिरि खादर ।—सूर (शब्द०) (ख) रूमि रूँदि डारैं खुरासान खूँदि मारैं खाक खादर लौं झरैं ऐसे साहु की बहार है ।—भूषण (शब्द०) २. गर्त । गड्ढ २. पशुओं के चरने की जगह । चारगाह । मुहा०—खादर लगना = पशुओं के चरने योग्य घास उगना ।
⋙ खादि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भक्ष्य । खाद्य । २. जिरहबकरत । कवच । ३. हस्तत्राण । दस्ताना । ४. पैरों और भुजाओं में पहना जानेवाला एक आभूषण । उ०—एक खा नाम खादि था जो भुजाओं और पैरों में पहना जाता था ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ६९ ।
⋙ खादि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० छिद्र] दोष । ऐब ।
⋙ खादित
वि० [सं०] खाया हुआ । भक्षित ।
⋙ खादिता
वि० [सं० खादितृ] खानेवाला । भक्षण करनेवाला [को०] ।
⋙ खादिम
संज्ञा पुं० [अ० खादिम] १. नौकर । सेवक । उ०—रहते थे नव्वाब के खादिम ।—कुकुर०, पृ० १५ । २. दरगाह आदि में रहनेवाला । रक्षक ।
⋙ खादिमा
संज्ञा स्त्री० [अ० खादिमह्] नौकरानी । सेविका ।
⋙ खदिर (१)
वि० [सं०] खैर का बना हुआ । खदिर से उत्पन्न । खदिर संबंधी [को०] ।
⋙ खादिर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा० स्त्री० खादिरी] खैर । कत्था ।
⋙ खदिरसार
संज्ञा पुं० [सं०] कत्था । खैर ।
⋙ खादी (१)
वि० [सं० खादिन्] १. खानेवाला । भक्षक । २. शत्रु का नाश करनेवाला । रक्षक । ३. कैटीला ।
⋙ खादी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. गजी या इसी प्रकार का और कोई मोटा कपड़ा । उ०—सब इक से होत न कहूँ, होत सबन में फेर । पहरो खादी बाफतो, लोह तवा शमशेर ।—सभा० वि० (शब्द०) । २. हाथ का काता और बुना हुआ एक प्रकार का मौटा वस्त्र खद्दर । यौ०—खादी आश्रम = वह स्थान जहाँ खादी के वस्त्र तैयार और विक्रय किए जाते हों । खादि केंद्र = वह स्थान जहाँ खादी का उत्पादन बडे़ पैमाने पर होता है । खादीधारी = खादी के वस्त्र । पहननेवाला । खादी भंडार—खादी की दूकान । खादी आश्रम ।
⋙ खादी (३)
वि० [सं० खादी = दोष] १. दोष निकालनेवाला । छिद्रान्वेषी । २. जिसमें ऐब हो । दूषित ।
⋙ खादुक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० खादुको] १. जिसकी प्रवृत्ति सदा हिंसा की ओर रहे । हिंसालु । २. धोखेबाज । हानिकर (को०) ।
⋙ खाद्य
वि० [सं०] खाने योग्य । भोज्य । भक्ष्य ।
⋙ खाद्य (२)
संज्ञा पुं० वह जो खाया जाय । भोजन ।
⋙ खाद्यमंत्री
संज्ञा पुं० [सं० खाद्य + मन्त्रिन्] किसी देश या राज्य के खाद्य संबंधी विभाग का मंत्री ।
⋙ खाद्यान्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह अन्न जो खाने योग्य हो ।
⋙ खाध पु
संज्ञा पुं० [सं०खाद्य] दे० 'खाद्य' । उ०—सीस न देहि पतंग होइ तौ लगि लहै न खाध ।—जायसी ग्रं०, पृ० ६५ ।
⋙ खाधना पु
क्रि० स० [सं० खादन] दे० 'खाना' । उ०—सूर जतन उण रौ करै, जिण रौ खाधौ अन्न ।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ३ ।
⋙ खाधि पु
संज्ञा पुं०, वि० [हिं०] सं० 'खाधु' । उ०—करै खाधि अखाधि सनचारा ।—संत० दरिया, पृ० २२१ । यौ०—काधि अखाधि—भक्ष्याभक्ष्य ।
⋙ खाधु पु †, खाधू पु †
संज्ञा पुं० [सं० खाद्य] भोज्य पदार्थ । भोजन । खाद्य । उ०—जोबन पंखी बिरह बियाधू । केहर भयो ।कुरंगिन खाधू ।—जायसी (शब्द०) । (ख) भई व्याधि तृष्णा सँग खाधू । सूझी मुक्ति न सूझै व्याधू ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ खाधुक पु †
संज्ञा पुं० [हिं० खाधु + क (प्रत्य०)] दे० 'खाधु' ।
⋙ खान (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खाना] १. खाने की क्रिया । भोजन उ०—खाना तजोंगो ओ पान तजोंगो औ मान तजोंगो न काहू लजोंगी ।—विश्राम० (शब्द०) । २. भोजन की सामग्री । ३. भोजन करने का ढंग या आचार । यौ०—खानपान । जैसे,—उनका खानपान ठीक नहीं ।
⋙ खान (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खानि] १. वह स्थान जहाँ से धातु, पत्थर आदि खोदकर निकाले जायँ । खानि । आकार । खदान । मुहा०—खान खुलना = खाने के खोदने का काम जारी होना । २. आधारस्थान । उत्पत्तिस्थान । जैसे,—गुणों की खान । ३. जहाँ कोई वस्तु बहुत सी हो । खजाना । जैसे,—यहाँ क्या रुपए की खान खुली है ।
⋙ खान (३)
संज्ञा पुं० [तातार या मंगोल काङ् = सरदार, तु० खान] १. सरदार । उमराव । उ०—मैन कै बरै तुहिं मैन कहा मत मान । मोहिं देखत बहुतै छले इनने खान खुमान ।—रसनिधि (शब्द०) । २. पठानों की उपाधि ।
⋙ खान (४)
संज्ञा स्त्री० [पा० खाना] कोल्हू का वह छेद जिसमें ऊख की गँडेरियाँ या तेलहन भरकर पेरते हैं । खाँ । घर ।
⋙ खान (५)
संज्ञा पुं० [सं०] खोदने का कार्य । खनन । खोदना । २. चोट । घाव [को०] ।
⋙ खानक (१)
वि० [सं०] खनने या खोदनेवाला [को०] ।
⋙ खानक (२)
संज्ञा पुं० १. खान खोदनेवाला व्यक्ति । बेलदार । ३. मेमार । राज । थवई । उ०—दारु कर्मकारक अरु खानक अरु दैवज्ञ सोहैये ।—रघुराज (शब्द०) । ४. सेंध मारनेवाला चोर (को०) ।
⋙ खानकाह
संज्ञा स्त्री० [अ० खानकाह] मुसलमान साधुओं या धर्मशिक्षकों के रहने का स्थान या मठ ।
⋙ खानखानाँ
संज्ञा पुं० [फा० खान ख़ानान] १. सरदाँरों का सरदार । बहुत ऊँचे दर्जे का सरदार । २. एक उपाधि जो मुगल राज्यों में मुसलमान सरदारों को दी जाती थी ।
⋙ खानखानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खानखाना] शाहंशाही । साम्राज्य । उ०—हाथी घोडे़ खाक के खाक खानखानी । कहै मलूक रहि जायगा ओसाफ निसानी ।—मलूक०, पृ० १५ ।
⋙ खानखाह
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'खाहमखाह' ।
⋙ खानगाह
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'खानकाह' ।
⋙ खानगी (१)
वि० [फा०] जिससे बाहरवालों का कुछ संबंध न हों । निज का । आपस का घरेलू । घरू ।
⋙ खानगी (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. केवल कसब करानेवाली और बहुत तुच्छ वेश्या । कसबी । २. रखेली । रखैल (को०) ३. गुप्त रूप से व्यभिचार करनवाली । व्यभिचारिणी । उ०—लखनऊवाले तो गुप्त पुंश्चली गृहस्थियों ही को कानगी कहते हैं । परंतु इधर प्रत्यक्ष निम्न श्रेणी की निकृष्टतम वेश्याओं को । प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३५३ ।
⋙ खानजादा
संज्ञा पुं० [फा० खानजादह्] १. अमीर का पुत्र । अमीर- जादा । २. ऊँचे घराने का व्यक्ति । ३. ४. अच्छी जाति के वे हिंदू जिनके पूर्वजों ने मुसलमानों के राजत्वकाल में मुसल- मानी धर्म ग्रहण कर लिया था । इनमें अधिकांश क्षत्रिय ही हैं ।
⋙ खानदान
संज्ञा पुं० [फा़० खानदान] [वि० खानदानी] वंश । कुल । घराना ।
⋙ खानदानी
वि० [फा०] १. ऊँचे वंश का । अच्छे कुल का । २. वश परपरागत । पैतृक । पुश्तैनी । ३. (व्यंग्य) अकुलीन (को०) ।
⋙ खानदेश
संज्ञा पुं० [देश० खाँद = जगली जाति + देश] सतपुरा की पर्वतमाला के दक्षिण में बंबई प्रांत का एक प्रदेश ।
⋙ खानपान
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न पानी । आहदाना । भोजन और जल । २. भोजन करने और जल पीने की क्रिया । खाना । पीना । ३. खाने पीने का ढंग या भोजन करने की रीति । खाने पीने का आचार । ४. खाने पीने का संबंध । खुर्दनोश । जैसे,—उनसे हमारा खानपान नहीं है । क्रि० प्र०—करना ।—चला आना ।—होना ।—रहना ।
⋙ खानबाहादुर
संज्ञा पुं० [फा० खानबहादुर] एक खिताब जो ब्रिटिश शासन में भारत सरकार की ओर से मुसलमानों को दिया जाता ता । खाँबहादुर ।
⋙ खानम
संज्ञा स्त्री० [तु० खानम] १. खान की स्त्री । २. कुलीन या प्रतिष्ठित महिला । उ०—बादशाह की माता खानम को छह दिन तक ज्वर आता रहा ।—हुमायूँ०, पृ० ६ ।
⋙ खानसामाँ
संज्ञा पुं० [फा़० खानसामा] अँगरेजों, मुसलमानों आदि का भंडारी भोजन बनानेवाला ।
⋙ खानसाहब
संज्ञा पुं० [फा० खानसाहाब] १. पठानों के लिये प्रयुक्त आदरार्थक शब्द । २. एक उपाधि ।
⋙ खाना (१)
क्रि० स० [सं० खादन, पा० खाअन, खान] [प्रे० रूप खिलाना] १. आहार को मुँह में चबाकर निगलना । भोजन करना । भक्षण करना । पेट में डालना । विशेष—इसका प्रयोग घन पदार्थों के लिये होता है, द्रव के लिये नहीं, यद्यपि किसी के मुँह से (अधिकतर बँगला में) 'जल खाना' आदि सुना जाता है । संयो० क्रि०—जाना ।—डालना ।—लेना । यो०—खाना कमाना । खाना पीना । खाना उड़ाना । मुहा०—जिसका खाना, उससे गुर्राना = जिसका अन्न खाना, उसी को आँख दिखाना । उपकार न मानना । खाता कमाता आदमी = खाने पीने भर को कमानेवाला आदमी । वह मनुष्य जिसके पास धन संचित न हो । खाना कमाना = काम धंधा करके जीविका निर्वाह करना । मेहनत मजदुरी करके गुजर करना । खाने के दाँत और दिखाने के और = बाहार कुछ, अंदर कुछ । करना कुछ और, प्रकगठ करना कुछ और । खा पका जाना या डालना = खर्च कर डालना । उड़ा डालना । खानापीना = (१) भोजन पान करना । (२) सुख से दिन बिताना । जैसे,—लड़के बाले भूखों मरते हैं और आप खातापीता है । खानापीना लहूकरना—क्रुद्ध या खिन्न करके खाने पीने को निरानंद कर देना । क्रोध या खेद उत्पन्न करना । खाने पीने से अच्छा या खुश-सुखसे जीवन निर्वाह करनेवाला । खाओ वहाँ, तो पानी पिया यहाँ-खाने के बाद पानी पीने के लिये भी वहाँ न ठहरो; तुरंत यहाँ चले आओ । आने में क्षण भर की भी देर न करो । खाओ वहाँ, तो हाथ धोओ यहाँ = तुरंत चले आओ । खाना न पचाना-वैन न पड़ना । जी न मानना । जैसे,—जबतक वह इधर गप नहीं मारता, तबतक उसका खाना नहीं पचता । विशेष—'खाना' क्रिया का प्रयोग कभी कभी अकर्मक के समान भी होता है । जैसे—वह खाने गया है । २. हिंसक जंतुओं का शिकार पकड़ना और भक्षण करना । जैसे—उसे शेर खा गया । मुहा०—खा जाना—मार डालना । जैसे-वह ऐसा ताकत है मानो खा जायगा । कच्चा खा जाना—मार डालना । प्राण ले लेना । जैसे—जी चाहता है, उसे कच्चा खा जाऊँ । खाने दौडना—चिड़चिड़ाना । क्रुद्ध होना । जैसे—जब उसके पास रुपया माँगने जाते हैं, तब वह खाने दौड़ता है । विशेष—विषैल कीड़ों के काटने के अर्थ में केवल 'काला' (साँप) के साथ इस क्रिया का प्रयोग होता है । जैसे—तुझे काला खाया । उ०—)क) आजुहि मेरे घर केलन आई । जात कहूँ कारे तेहि खाई—सूर (शब्द०) (ख) ताकी माता खाई कारे । सो मर गई शाप के मारे ।—सूर (शब्द०) । पर अलंकृत या मुहावरेदार भाषा में अत्युक्ति का भाव लेकर इस क्रिया से खटमल, मच्छड़ आदि का बहुत काटना भी व्यक्त किया जाता है । जैसे—(क) आज रात खटमलों ने खा डाला । (ख) यहाँ तो मच्छर खाए डालते हैं । ३. किसी इंद्रिय या अंग को उसके अरुचिकर विषय उपस्थित करके पीड़ित करना । तंग करना । दिक करना । कष्ट देना । जैसे—(क) तुम तो हमारे कान खा गए । (कडे़ शब्द से) । (ख) क्यों सिर या जान खाते हो । ४. (कीडों का) किसी वस्तु को कुतरना या काटना । जैसे,—किताब को कीडे़ खा गए । लकड़ी को दीमक खा गए । छुरी को मुर्चा खा गया । ५. मुँह में रखकर रस आदि चुसना । चबाना । जैसे—पान खाना, तंबाकू खाना । ६. नष्ट करना । बरबाद कतरना । सत्या- नाश करना । जैसे—(क)तुम्हारी चालाकी तुम्हें खा गई । (ख) क्रोध मनुष्य को खा जाता है । (ग) विदेशी माल देसी कारीगरी को खा गया । ६. उड़ा देना । दूर कर देना । न रहने देना । जैसे,—चूना दीवार के रंग को खा गया । हजम करना । मार लेना । हड़प जाना । जैसे—वे कोंठी का बहुत रुपया खा गए । ९. खर्च करना । उडाना । जैसे,— तनखाह में से कुछ बचाते भी हो कि सब खा डालते हो ? १०. बाईमानी से रुपया पैदा करना । रिश्वत आदि लेना । जैसे,—अमल और नौकर चाकर सब जगह खाते पीते हैं । ११. खर्च करवाना । रुपया लगाना । जैसे,—यह मकान उनकी सारी कमाई खा गया । १२. अमाना । समाना । अँटाना । खपाना । भरना । जैसे—छोटी सी कुप्पी पाँच सेर घी खा गई । १३. किसी काम को करते हुए उसकी किसी अंग को छोड़ जाना । जैसे,—लिखाने पढ़ने में किसी अक्षर को छोड़ जाना । जैसे—तुम लिखने में कई अक्षर खा गए हो । १४. (आघात, प्रभाव आदि) सहना । बरदास्त करना । प्रभाव पड़ने देना । जैसे-मार सहना लात खाना, छड़ी खाना, गाली खाना, चोट खाना, सरदी खाना, धुप खाना, हवा खाना, गम खाना, हार खाना आदि । मुहा०—मुँह की खाना—(१) बुराई का ठीक बदला पाना । खूब नीचा देखना । किए का पूरा फल पाना । हार जाना ।
⋙ खाना (२)
संज्ञा पुं० [फा० खानह्] १. आलय । घर । मकान । जैसे, डाक खाना, दवाखाना, कुडाखाना आदि । २. किसी चीज के रखने का घर । केस । जैसे—चश्में का खाना, घड़ी का खाना आदि । ३. आलमारी, मेज या संदूक आदि में चीजें रखने के लिये पटरियों या तख्तों के द्वारा किया हुआ विभाग । ४. सारणी या चक्र का विभाग । कोष्ठक । क्रि० प्र०—बनाना ।—पूरना ।—भरना । ५. संदूक । पेटी ।—(लश०) ।
⋙ खानाआबाद
संज्ञा पुं० [फा० खानह् आबाद] घर धनधान्य से पूर्ण रहे ऐसा आशीर्वादात्मक शब्द [को०] ।
⋙ खानाआबादी
संज्ञा स्त्री० [फा० खानह् आबादी] १. घर के आबाद होने या बसने की स्थिति । समृद्धि । २. विवाह परिणय । शादी [को०] ।
⋙ खानाखराब
वि० [फा़० खानाहखराब] [संज्ञा खानाखराबी] १. चौपट करनेवाला । सत्यानाशी । २. जिसके रहने का ठिकाना या घर बार न हो । आवारा ।
⋙ खानाखदा
संज्ञा पुं० [फा० खानए खूदा] ईश्वर का निवास । उपा- सुंना गृह [को०] ।
⋙ खानाजंगी
संज्ञा स्त्री० [फा० खानह् जंगी] आपस की लड़ाई । परस्पर का झगड़ा ।
⋙ खानजाद (१)
वि० [फा० खानहजादा] घर में पैदा या पाला पोसा हुआ । गरजाया (गुलाम) ।
⋙ खानाजाद (२)
संज्ञा पुं० सेवक । गुलाम । दास । उ०—मन बिगरयौं ये नैन बिगारे । ये सब कहौ कौन हैं मेरे खानजाद बिचारे ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खानातलाशी
संज्ञा स्त्री० [फा० खानह् तलाशी] किसी खोई, छिपी या अनजानी चीज के लिये मकान के अंदर छानबीन करना । विशेष—यह क्रिया प्रायः राज्य या किसी बडे़ अधिकारी की ओर से या आज्ञा से होती है ।
⋙ खानादामाद
संज्ञा पुं० [फा० खानह् दामाद] श्वसुर के घर रहनेवाला जामाता । घरजँवाई [को०] ।
⋙ खानादार
वि० [फा़० खानह् दार] १. घरबारवाला । गृहस्थ । २. घर का मालिक । गृहस्वामी । ३. दरवान । द्वारपाल [को०] ।
⋙ खानादारी
संज्ञा स्त्री० [फा० खानह् दारी] गृहस्थी ।
⋙ खानानशी
वि० [फा़० खानह् नकी] १. एकांतसेवी । विरक्त । २. घर में ही पड़ा रहनेवाला । बिना काम का । बेकार [को०] ।
⋙ खानापीना
संज्ञा पुं० [हिं० खाना + पीना] खाने पीने का व्यवहार या संबंध । खाना पान । क्रि० प्र०—छूटना ।
⋙ खानापुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाना + पूरना अथवा फा० खानह् परी] १. किसी चक्र या सारिणी (फारम या रजिस्टर) के कोठों में यथास्थान संख्या या वाक्य आदि लिखना । नकशा भरना । २. केवल दिखावे के लिये बेमन से काम करना [को०] ।
⋙ खानपूरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'खानपुरी' ।
⋙ खानाबदेश (१)
वि० [फा़० खानह् बदोशी] जिसके रहने या ठहरने का केई निश्चित स्थान न हो । जिसका घरबार न हो ।
⋙ खानाबदोश (२)
संज्ञा पुं० एक जनजाति । स्थायी निवास रहित एक संचरणशील जाति जो कुछ समय के लिये जहाँ कहीं खेमे, सिरकी आदि डालकर दिन बिताती है ।
⋙ खानाबदोशी
संज्ञा स्त्री० [फा० खानाह् बदोशी] इधर उधर व्यर्थ घूमने या संचरणशील जीवन बिताने की स्थिति । उ०— खानाब दोशी जीवन के बारे में पूछने पर तरुण ने कहा ।— किन्नर०, पृ० ४१ ।
⋙ खानाबरबाद
वि० [फा़० खानह् बरबाद] दे० 'खानाखराब' ।
⋙ खानाबरबादी
संज्ञा स्त्री० [फा० खानह् बरबादी] १. आवारापन । २. बदक्स्मती । भाग्यहीनता [को०] ।
⋙ खानाशुमारी
संज्ञा स्त्री० [फा़० खानह् शुमारी] किसी गाँव या नगर आदि के मकानों की गिनती का काम ।
⋙ खानासाज
वि० [फा़० खानह् साज] घर का बना हुआ । गृह में निर्मित [को०] ।
⋙ खानि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खाना । खदान उ०—सो जहाँ हीरम की खानि हती तहाँ गयो—दौ सौ बावन०, भा० २, पृ० १०३ । २. गुफा । कंदरा (को०) ।
⋙ खानि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खानि या हिं० खान] १. उत्पत्तिस्थान । उपजने की जगह । उ०—दारिद बिदारिबे की प्रभु को तलास तो हमारे यहाँ अनगिन दारिद की खानि हैं ।—दास (शब्द०) । २. वह जिसमें या जहाँ कोई वस्तु अधिकता से हो । खजाना । उ०—हा गुणखानि जानकी सीता ।—तुलसी (शब्द०) । ३. ओर । तरफ । उ०—यम द्वारे में दूत सब करते ऐचा तानि । उनते कभू न छूटता फिरता चारों खानि ।—कबीर (शब्द०) । ४. प्रकार । तरह । ढंग । उ०—चार खानि जगजीव जहाना ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खनिक (१)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खान] खदान । खान । उ०— सुझहिं रामचरित मणि मानिक । गुपत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खानिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दीवाली का छेद । सेंध [को०] ।
⋙ खनिल
संज्ञा पुं० [सं०] सेंध मारनेवाला तस्कर [को०] ।
⋙ खानेहार पु
वि० [हिं० खाना + हार (प्रत्य०)] भोजन करनेवाला । खानेवाला । उ०—अरे हाँरे पलटू जानैखानेहार और नहिं स्वाद उसी का ।—पलटू०, पृ० ७५ ।
⋙ खानोदक
संज्ञा पुं० [सं०] नारियल का वृक्ष [को०] ।
⋙ खाप †
संज्ञा पुं० [हिं० खपना या खपाना] चोट । वार आघात ।
⋙ खापगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशगंगा [को०] ।
⋙ खापट
संज्ञा स्त्री० [हिं० खपाट] एक प्रकार की भूमि जिसमें लोहे का अंश अधिक होता है । विशेष—इस भूमि की मिट्टी बहुत कड़ी और भारी होती है और पानी बरसन पर बहुत लसदार हो जाती है । ऐसी भूमि केवल बरसात में ही जोती जा सकती है और इनमें धान के अतिरिक्त और कोई चीज नहीं उपज सकती । इसकी मिट्टी से, जिसे कपास और काविस भी कहते हैं, कुम्हार लोग बरतन बनाते हैं ।
⋙ खापड़ पु †
संज्ञा पुं० [सं० खर्पर, प्रा० खप्पर, खप्पड, हिं० कपड़ा] खप्पर । भिक्षापात्र । खपड़ा ।
⋙ खापर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खापट] १. दे० 'खापट' । २. ऊभड़ खाभड़ भूमि । ऊँची नीची जमीन ।
⋙ खाफड़ †
संज्ञा पुं० [हिं०] खप्पर या थाली में आने लायक खाना । भोजन । उ०—फरीदा घोर निमाणिया रे महलाँ माल न लाय । खाफड़ सेती राखले रे और पकीरा खुलाय ।—राम० धर्म०, पृ० ३४ ।
⋙ खाब पु † (१)
संज्ञा पुं० [फा़० ख्बाब] स्वप्न । उ०—प्यारी के पायन की उपमा द्विज कों सब जानि परि जिमि खाब की । पंकज- पात की बात कहाँ जिन कोमलता लई जीति गुलाब की ।— द्विज (शब्द०) ।
⋙ खाब (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० खाना] भोजन । खाना ।
⋙ खाबड़ खूबड़
वि० [अनु०] जो सम न हो । ऊँचा नीचा । विशेष—यह विशेषण प्रायः 'भूमि' के लिये ही आता है ।
⋙ खाभा
संज्ञा पुं० [हिं० खाभना] मिट्टी का वह बरतन दिससे तेली कोल्हू के नीचे के बरतन में से तेल निकालते हैं ।
⋙ खाम (१)
संज्ञा पुं० [हिं० खामना] १. चिट्ठी का लिफाफा । उ०— बाँचत न कोऊ अब वैसई रहत खाम, युवती सकल जानि गई गति याकी हैं ।—द्विजदेव (शब्द०) । २. संधि । जोड़ । टाँका । क्रि० प्र०—लगाना । विशेष-कहीं कहीं यह शब्द स्त्रीलिंग भी बोला या लिखा जाता है ।
⋙ खाम (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० खमा] १. खंभा । स्तंभ । उ०—क्लेस भव के दे अबै तू भजन को दृढ़ खाम ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १६० । २. जहाज का मस्तूल (लश०) ।
⋙ खाम (३)पु †
वि० [सं० क्षाम] घटने या क्षीण होनेवाला । उ०— नाम रुप अरु लीला धाम । रहत नित्य ये पड़त न खामा ।— विश्राम (शब्द०) ।
⋙ खाम (४)
वि० [फा० खाम] १. जो पका न हो । कच्चा । २. जोदृढ़ या पुष्ट न हो । ३. जिसे तजुरबा न हो । अनुभवहीन । ४. बुरा । उ०—खुदा को समझना बड़ा काम है जिते का उसका के आगे खाम है ।—दक्खिनी०, पृ० २९१ ।
⋙ खाम खयाल
संज्ञा पुं० [फा़० खामखयाल] व्यर्थ के विचार । गलत विचार । उ०—खाम खयाल करि दूरि दिवाना ।— कबीर श०, पृ० ३० ।
⋙ खाम खयाली
संज्ञा स्त्री० [फा० खामख़याली] गलत धारणा । व्यर्थ विचार । उ०—देखती कला विधि के विधान में भी त्रुटियाँ, कल्पना सत्य ही खाम खयाली होती हैं ।—नील०, पृ० ६० ।
⋙ खामखाह, खामखाही
क्रि० वि० [फा़० ख्वाह-म-ख्वाह] दे० 'ख्वामख्वाह' ।
⋙ खामण पु †
वि० [सं० स्कम्भन या फा० खाम + (राज०) ण (प्रत्य०)] खाम करनेवाला । रोकनेवाला । उ०—रीत अनीत फैलियौ रावण खमियौ नहीं अभायां खामण ।—रा० रू०, पृ० ३६४ ।
⋙ खामना
क्रि० सं० [सं० स्कम्भन = मूँदना, रोकना, प्रा० खंभन] १. गीली मिट्टी या आटे आदि से किसी पात्र का मुहँ बंद करना । ३. चिट्ठी को लिफाफे में बंद करना ।
⋙ खामा
संज्ञा पुं० [फा़० खामह्] कलम । लेखनी । उ०—पूछा ले हात में मुल्लाँ खामा । हकीकत क्या लिखूँ सो वो नाम ।— दक्खिनी, पृ० २५० ।
⋙ खामिंद पु
संज्ञा पुं० [फा० खाविंद] स्वामी । मालिक । उ०— खामिँद कब गोहरावै चाकर रहैं हजूर ।
⋙ खामियाजा
संज्ञा पुं० [फा़० ख़म्याजह्] नतीजा । परिणाम । उ०—इसका खामियाजा आप न उठाएँ तो कौन उठाए ।— मान०, पृ० ३१५ ।
⋙ खामी
संज्ञा स्त्री० [फा़० ख़ामी] २. कचाई । कच्चापन । २. नातजरुबेकारी । ३. कमी । अपूर्णता ।
⋙ खामोश
वि० [फा० खामोश] चुप । मौन ।
⋙ खामोशी
संज्ञा स्त्री० [फा० खामोशी] मौन । चुप्पी ।
⋙ खायक †
वि० [सं० क्षय] खोटा । निकम्मा । उ०—खल खूनी है तो घण खायक । दुनिया दुज देवा दुखदायक ।—रा० रू०, पृ० १७८ ।
⋙ खाया
संज्ञा पुं० [फा़० खायह्] अंडकोष । यौ०—खायाबरदार = चापलूस खुशमदी । खायाबरदारी = अनावश्यक चापलूसी । बहुत खुशामद ।
⋙ खार (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्षार, प्रा० खार] १. दे० 'क्षार' । २. सज्जी । ३. लोना । लोनी । कल्लर । रेह । क्रि० प्र०—लगना । मुहा०—खार लगना = छरछराना । ४. धूल । भस्म । राख । ५. एक प्रकार की झाड़ी जिससे खार निकलता है । विशेष—यह पंजाब में नमक के पहाड़ के आसपास तता पच्छिमी प्रांतो में होती है ।
⋙ खार (२)
संज्ञा पुं० [फा० खार] १. काँटा । कंटक । फाँस । २. मुर्गे, तीतर आदि पक्षियों के पैर का काटा । खाँग । ३. डाह । जलन । द्वेष । मुहा०—खार खाना = डाह करना । जलना । खार गुजरना = बुरा लगना । खटकना । खार निकलना = डाह या द्वेष मिटना । खार निकालना = बदला लेना । डाह या जलन मिटाना ।
⋙ खारक
संज्ञा पुं० [सं० क्षारक, प्रा०, खारक, फा़० खारिक] छोहारा । उ०—खारक दास दबाय मरो किन ऊँटहि ऊँटकटाहिं भावै ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ खारच पु †
[अ० खारिज] १. खारिज । व्यर्थ या बेकार । उ०—दव विण सारा दाहिया, अथवा खारच अंग ।— बाँकी० ग्रं०, भा०, ३, पृ० २३ । २. ऊसर । उ०— क्रमणाँरी मतवाल की, करसण खेत ।—बाँकी० ग्रं०, भा०३, प०, ४९ ।
⋙ खारजार
संज्ञा पुं० [फा० खारजार] काँटों से भरा स्थान । काटों का जंगल । उ०—फिरे भई परेशान हो खारजार । जिधर जाय उधर सूँ होय मार मार ।—दक्खिनी०, पृ० २३३ ।
⋙ खारदार
वि० [फा़० खार+ दार (प्रत्य०)] कँटीला । काँटोवाला । उ०—कंजा कंजई रंग में लपेट फलों को खारदार जिरहबख्तर पिन्हाया ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० २० ।
⋙ खारवा †
संज्ञा पुं० [देश०] खलासी । मल्लाह । जहाजी ।
⋙ खारा (१)
वि० पुं० [सं० क्षार] [वि० स्त्री० खारी] १. क्षार या नमक के स्वाद का । २. कडुआ । अरुचिकर । उ०—कृपासिंधु मैं देख बिचारी । एहि मरने ते जीवन खारी ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ खारा (२)
संज्ञा पुं० [सं० क्षारक] १. एक प्रकार का कपड़ा जो धारीदार होता है । २. [स्त्री० अल्पा० खारी] घाय या सूखे पत्तें बाँधने के लिये जालदार बँधना, जिसे घसियारे या भड़भूँजे काम में लाते हैं । ३. वह जाली या थैला जिसमें भरकर तोड़े हुए आम पेड़ से नीचे लटकाए जाते हैं । ४. बाँध, सरकंडे या रहठे आदि का बड़ा और गहरा टोकरा । यह विशेषतः चौंखूँटा होता है । झाबा । खांचा । ५. बाँस का बड़ा पिंजड़ा । ५. उलटे टोकरे के आकार सरकंडे आदि का बना हुआ एक प्रकार का चौकोर आसन । विशेष—इसका व्यवहार प्रायः खत्रियों में विवाह के अवसर पर वर और कन्या के बैठने के लिये होता है ।
⋙ खारा (३)
संज्ञा पुं० [फा० खारह्] कड़ा पत्थर । चट्टान [को०] ।
⋙ खारि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'खारी' ।
⋙ खारिक पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्षारक, फा० खारिक] छोहरा । खारक । उ०—(क) खारिक दास खोपरा खीरा । केरा आम ऊख ऱस सीरा ।—सूर०, १० । २२१ । (ख) खारिक खाता न दारिउँ दाख न माखन हू सह मेटि इठाई ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ खारिज
वि० [अ० खारिज] बाहर किया हुआ । निकाला हुआ । बहिष्कृत । २. भिन्न । अलग । ३. जिस (अभियोग) की सुनवाई न हो ।
⋙ खारिश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] खुजली । खाज ।
⋙ खारिश्त
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'खारिश' ।
⋙ खारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी के मत से चार और किसी के मत से सोलह द्रोण की तौल ।
⋙ खारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खारा] एक प्रकार का क्षार लवण जो दवा के काम में आता है । संडास में मल गलाने के लिये भी इसे डालते हैं । उ०—लौंग सुपारी छाँड़ के, क्यों लादी खारी रे ।—कबीर श०, पृ० ३७ ।
⋙ खारी (३)
वि० जिसमें खार मेल हो । क्षत्रारयुक्त । जैसे-खारी माट ।
⋙ खारीमाट
संज्ञा पुं० [हिं० खारी+माट = मटका] नील का रंग तैयार करने का एक ढंग । विशेष—इसमें एक बड़े मटके में लगभग चार मन पानी छोडकर उसमें सेर भर कच्चा नील, चूना और सज्जी डालते है और थोड़ा गुड़ मिलाकर उटने के लिये रख देते हैं । गरमियों में यह एक दिन में और जाड़ों में तीन चार दिन में तैयार हो जाता है । अधिक जाडे़ में इसे कभी कभी आग पर चढ़ा देते हैं ।
⋙ खारुआँ, खारुवा
संज्ञा पुं० [सं० क्षारक] १. आल से बना हुआ एक प्रकार का रंग जिसमें मोटे कपड़े रंगे जाते हैं । २. इस रंग से रँगा हुआ एक प्रकार का मोटा कपड़ा जो विशेषतः काल्पी में तैयार होता है ।
⋙ खारेजा
संज्ञा पुं० [फा० खारिजा] एक प्रकार का जंगली कुसुम या बर्रे । बनबर्रे । बनकुसुम । कनियारी । विशेष—यह पंजाब के मैदानों में उगता है और बर्रे की अपेक्षा अधिक कँटीला होता है । इसके दाने बहुत छोटे और निकम्मे होते हैं । और इसमें अनेक रंग के सुहावने फूल लगते हैं ।
⋙ खारो पु
वि० [हिं०] दे० 'खारा' ।
⋙ खार्कार
संज्ञा पुं० [सं०] गदेह का रेंकना [को०] ।
⋙ खार्जूर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] खजूर के रस से बनी हुई मदिरा जो प्रायः महुए की मदिर । के समान होती है । वैद्यक में इसे रुचिकर, कफघ्न, कषाय औऱ हृद्य माना है ।
⋙ खार्जुर (२)
वि० खजूर सबंधी । खजूर का [को०] ।
⋙ खार्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रेतायुग । दूसरा युग ।
⋙ खाल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षात, प्रा०, खाल] १. मनुष्य, पशु आदि के शरीर का ऊपरी आवरण । चमड़ा । त्वचा । मुहा०—खाल उड़ाना = बहुत मारना या पीटना । खाल उधेड़ना या खींचना = (१) शरीर पर से कपड़ा खींचकर अलग कर देना । उ०—खाल खैंचि जम भुसा भरावैं, ऐंचि लेहि जस आरा ।—धरम०, पृ० २७ । (२) बहुत मारना पीटना या कड़ा दंड देना । खाल बिगड़ना = दुर्दशा कराने या दंडित होने की इच्छा होना । शामत आना । २. किसी चीज का अंगीभूत आवरण । जैसे,—बाल की खाल । ३. आधा चरसा । अधौड़ी । ४. धौकनी । भाथी । ५. मृत शरीर । उ०—कहि तू अपने स्वारथ सुख को रोकि कहा करिहै खलु खलाहि ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ खाल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० खात, अ० खाली] १. नीची भूमि । २. खाड़ी खलीज । २. खाली जगह । अवकाश । ४. गहराई । निचाई ।
⋙ खाल (३)
संज्ञा पुं० [अ० खाल] १. शरीर का काला दाग । तिल । उ०—अंदाज से जियादा निपट नाज खुश नहीं । जो खाल अपने हद से बढ़ा सो मसा हुआ ।—कविता कौ०, भा०४, पृ० १२ । २. अभिमान । अहंकार । गरूर (को०) । २. माता का भाई । मामा (को०) ।
⋙ खाल खाल
वि० [अ० खाल खाल] बहुत कम । कहीं कहीं । कोई कोई [को०] ।
⋙ खलाड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाल+ ड़ी (प्रत्य०)] खाल । खलाड़ी । त्वचा । उ०—मानुष केरी खालड़ी ओढ़े देखा बैल ।—कबीर मं०, पृ० ३६५ ।
⋙ खालफूँका
संज्ञा पुं० [हिं० खाल+ फूँकना] धौंकनी धौकनेवाला । भाथी चलानेवाला ।
⋙ खलासा
वि० [अ० खालिसह् = शुद्ध, जिसमें किसी प्रकारका मेल न हो] १. जिसपर केवल एक का अधिकार हो । जैसे,— उनकी सारी जायदाद खालसा है । २. राज्य का । सरकारी । मुहा०—खालसा करना = (१) स्वायत्त करना । जब्त करना । (२) नष्ट करना । चौपट करना । खालसे लगाना = दे० 'खालसा करना' ।
⋙ खालसा (२)
संज्ञा पुं० सिखों का एक विशेष वर्ग या मंडल ।
⋙ खाला (१)
वि० [हिं० खाल या खाली] [वि० स्त्री० खाली] नीचा । निम्न । मुहा०—खालाऊँचा = (१) जो समतल न हो । (२) भला बुरा या हानि लाभ ।
⋙ खाला (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० खालह्] माता की बहिन । मौसी । मुहा०—खाला का घर = वह काम जिसके करने में अधिक प्ररिश्रम न करना पड़े । सहज काम । उ०—यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं । —कबीर सा० सं०, भा०१, पृ० ४७ ।
⋙ खालिक (१)
वि० [सं०] खलिहान की तरह । खलिहान जैसा (को०) ।
⋙ खालिक (२)
संज्ञा पुं० [अ० खालिक] बनानेवाला । सिरजनहार । स्रष्टा । सृष्टिकर्ता । उ०—कबीर खालिक जागिया और न जागे कोइ । कै जागै विषई विष भरया कै दास बंदगी होई ।— कबीर ग्रं०, पृ० २९ ।
⋙ खलिस
वि० [अ० खालिस्] जिसमें कोई दूसरी वस्तु न मिली हो । शुद्ध । मिलावट से रहित ।
⋙ खाली (१)
वि० [अ० खाली] १. जिसके अंदर कुछ न हो । जिसके अंदर का स्थान जो शून्य हो । भरा न हो । रीता । रिक्त । क्रि० प्र०—करना । देना ।—होना । मुहा०—खाली करना = भीतर कुछ न रहने देना । भीतर की वस्तु या सार निकाल लेना । जैसे,—घड़ा खाली करना, संदूक खाली करना । २. जिसपर कुछ न हो । जिसपर कोई वस्तु या व्यक्ति न हो । जैसे—कुरसी खाली करना, मेज खाली करना । २. जिसमें कोई एक विशेष वस्तु न हो । किसी विशेष वस्तु से शून्य ।जैसे, (क) जंगल जानवरों से खाली हो गया । (ख) हमारा मकान खाली कर दो । मुहा०—हाथ खाली होना, खाली हाथ होना = (१) हाथ या मुट्ठी में रुपया पैसा न होना । अकिंचन या निर्धन होना । खुक्ख होना । जैसे—भाई आजकल हमारा हाथ खाली है; हम कुछ नहीं दे सकते । (२) हाथ में कोई हथियार न होना । (३) हाथ में लिया हुआ काम कमाप्त होना । फुरसत मिलना । अवकाश मिलना । खाली पेट = बिना कुछ अन्न खाए हुए । निरन्ने पेट । बासी मुँह । जैसे,—खाली पेट पानी मत पीओ । खाली हाथ = (१) बिना मुट्ठी में कुछ दाम लिए । बिना कुछ रुपए पैसे के । पैसे,—खाली हाथ जाना ठीक नहीं । (ख) ब्राह्मण को खाली हाथ मत लौटाओ । (२) बिना हथियार के । जैसे,—रात को जंगल में खाली हाथ निकलना अच्छा नहीं । ४. रहित । बिहीन । जैसे,—(क) उनकी कोई बात मतलब से खाली नहीं होती । उ०—शुभ आचार धर्म को ज्ञानी रह्यो तनय ते खाली ।—रघुराज (शब्द०) । ५. (व्यक्ति) जिसे कुछ काम न हो या जो किसी कार्य में न लगा हो । जैसे,—अब हम खाली है; लाओ तुम्हारा काम देख लें । मुहा०—खाली बैठना = (१) कोई काम धाम न करना । (२) बेरोजगार रहना । बिना जीविका के रहना । ५. (वस्तु) जो व्यवहार में न हो या जिसका काम न हो । जैसे,—(क) चाकू खाली हो गया तो इधर लाओ । (ख) इतने खेत खाली पड़े हैं । ७. व्यर्थ । निष्पल । जैसे,—तुम्हारा प्रयत्न खाली न जायगा । उ०—पुनि लक्ष्मी हित उद्यम करै । अरु जब उद्यम खाली परै । तब वह रहै बहुत दुख पाई ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—जाना । पड़ना । मुहा०—निशान या वार खाली जाना = निशाना या वार ठीक न बैठना । अस्त्र का लक्ष्य पर न पहुँचना । आक्रमण व्यर्थ होना । बात खाली जाना या पड़ना = वचन निष्फल होना । कहने के अनुसार कोई बात न होना । वादा झूठा होना । जैसे, -(क) हमारी बात खाली न जायगी; वह कल अवश्य आवेगा । (ख) अगर आज रुपया उनके यहाँ न पहुँचेंगा; तो हमारी बात खाली जायगी । खाली दिन = वह दिन जिस दिन कोई नया या शुभ कार्य न किया जाय । जैसे,—कल तो बुध है, खाली दिन है; कल आरंभ करना ठीक नहीं है । खाली देना = जिसपर वार या आघात किया जाय, उसके वार को बचा जाना । साफ निकल जाना । खाली महीना या खाली चाँद = मुसलमानों का ग्यारहवाँ महीना जो अशुभ माना जाता है ।
⋙ खाली (२)
क्रि० वि० केवल । सिर्फ । अकेले । जैसे—खाली रटने से काम न चलेगा; समझो ।
⋙ खाली (३)
संज्ञा पुं० तबला, मृदंग आदि बजाने में वह ताल जो खाली छोड़ दिया जाता है और जिसमें बाएँ पर अधात नहीं लगाया जाता । इसका व्यवहार ताल की गिनती ठीक रखने के लिये किया जाता है ।
⋙ खालू
संज्ञा पुं० [फा० खालू] [स्त्री० खाला] माता की बहन का पति । मौसा ।
⋙ खाले
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'खाला' या 'खाल' (नीचा) । उ०— गुरु पितु मातु स्वामि सिख पाले । चलत कुमग पग परहि न खाले ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ खाव (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० खम्] खाली जगह । अवकाश ।
⋙ खाव (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] जहाज की वह कोठरी जिसमें माल रखा जाता है ।—(लश०) ।
⋙ खावाँ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'खाँवाँ' ।
⋙ खाविद
संज्ञा पुं० [फा० खाविंद] १. पति । खसम । उ०—खोलि पलक चित चेतै अजहूँ खाविंद सों लौ लावे ।—कबीर श०, पृ० ३० । मुहा०—खाविंद करना = नया पति करना । २. मालिक । स्वामी ।
⋙ खाविंदी
संज्ञा स्त्री० [फा० खावंदी] १. स्वामित्व । पतित्व । २. कृपा । दया (को०) ।
⋙ खावी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खाना] वह अन्न या धन जो मालिक अपने नौकरों को वर्ष के आरंभ में पेशगी देता है ।
⋙ खास (१)
वि० [अ० खास] १. विशेंष । मुख्य । प्रधान । आम' का उलट । उ०—सुधि किये बलि जाउ दास आस पूजिहै खास खीन की ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—खासकर = विशेषतः । प्रधानतः = खास खास = चुने चुने । चुनिंदे । अच्छे और प्रतिष्ठित । जैसे,—खास खास लोगों को न्योता दिया गया है । २. निज का । आत्मीय । चाहना । प्रिय । जैसे,—यह खास घर के आदमी हैं । उ०—खास दास रावरो निवास तेरो तासु उर तुलसी सो देव दुखी देखियत भारिये ।—तुलसी (शब्द०) । ३. स्वयं । खुद । जैस,—खास राजा के हाथ से इनाम लूँगा । ४. ठीक । ठेठ । विशुद्ध । जैसे,—यह खास दिल्ली की बोलचाल में लिखा गया है ।
⋙ खास (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० कीमा] १. गाढ़े कपड़े की वह थैली जिसमें शक्कर भरकर बोरो में भरी जाती है । २. कपड़े की वह थैली जिसमें बनिए नमक चीनी आदि रखते हैं ।
⋙ खासकलम
संज्ञा पुं० [अ० खास+ कलम] वह लेखक या सहायक जिसे बड़े लोग अपने निजी कार्यों के लिये रखते हैं । निज का मुंशी । प्राइवेट सेक्रेटरी ।
⋙ खासगी
वि० [अ० खास+ गी (प्रत्य०)] राजा या मालिक आदि का । निज का ।
⋙ खासतराश
संज्ञा पुं० [फा० खास+ तराश] वह नाई जो राजा के बाल बनाया करता हो ।
⋙ खासतहसील
संज्ञा स्त्री० [अ० खास तहसील] वह तहसील जोउस स्थान में हो, जहाँ स्वयं राजा या प्रांत का शासक रहता हो । हुजूर तहसील । जिला तहसील ।
⋙ खासदान
संज्ञा पुं० [अ० ख़ास+ फा़० दान] गिऔरी का सामान रखने का डिब्बा । पानदान ।
⋙ खासनवीस
संज्ञा पुं० [अ० ख़ास+ फा० नवीस] दे० 'खासकलम' ।
⋙ खासपसंद
वि० [अ० खास+ फा० पसन्द] विशिष्ट लोगों को रुचनेवाला । उ०—इबारत वही अच्छी कही जायगी कि जो आमकलम और खासपसंद हो ।—प्रेमघन०, पृ० ४०९ ।
⋙ खासबरदार
संज्ञा पुं० [अ० खास+ फा० बरदार] वह सिपाही जो राजा की सवारी के साथ साथ सवारी के ठाक आगे आगे चलता है ।
⋙ खासबाजार
संज्ञा पुं० [अ० ख़ास+ फा० बाजार] वह बाजार जो राजा के महल के सामने या निकट हो और जहाँ से राजा वस्तुएँ मोल लेता हो ।
⋙ खासमहल
संज्ञा पुं० [अ० खास+ महल] १. जनानखाना । अंतःपुर । २. प्रमुख बेगम । पटरानी [को०] ।
⋙ खासमहल
संज्ञा पुं० [अ० खास+ महाल] वह भूमि या संपत्ति जिसका प्रबंध सरकार स्वयं करे ।
⋙ खासह्
संज्ञा पुं० [अ० खासह्] एक प्रकार का महीन और सफेद सूती कपड़ा । उ०—जिन तन पहने खासह् मलमल ।— कबीर मं०, पृ० ४९० ।
⋙ खासा (१)
संज्ञा पुं० [अ० खासह्] १. राजा का भोजन । राजभोग । २. राजा की सवारी का घोड़ा या हाथी । ३. एक प्रकार का पतला सफेद सूती कपड़ा । उ०—(क) बिस्वा ओढ़े खासा मलमल ।—कबीर श०, भा०३, पृ० ५१ । (ख) तब श्री गुसांई जी खासा कौ थान रुपैया नव कौ नारायनदास की नजरि करायो ।—दो सौ बावन०, पृ० १२४ । ४. मोयनदार पूरी ।
⋙ खासा (२)
वि० पुं० [अ०या उर्दु] [वि० स्त्री० खासी] १. अच्छा । भला । उत्तम । २. स्वस्थ । तंदुरुस्त । नीरोग । ३. मध्यम श्रेणी का । ४. सुडौल । सुंदर । ५. भरपूर । पूरा ।
⋙ खासादार
संज्ञा पुं० [अ० खासह्+ फा़० दार (प्रत्य०)] मुख्य प्रबंधक । प्रधान । उ०—और न अस्तबल के खासादार को इसने विशेष लाभ हुआ होगा ।—किन्नर०, पृ० २९ ।
⋙ खासियत
संज्ञा स्त्री० [अ० ख़ासियत] १. स्वभाव । प्रकृति । आदत । २. गुण । सिफत । हुनर ।
⋙ खासिया
संज्ञा स्त्री० [सं० खश] १. आसाम की एक पहाड़ी का नाम । २. इस पहाड़ी में रहनेवाली एक जंगली जाति । खस ।
⋙ खासियाना
संज्ञा पुं० [हिं० खसिया] एक प्रकार की मँजीठ जिसका रंग बहुत अच्छा होता है । यह खासिया से आती है ।
⋙ खासी (१)
वि० स्त्री० [अ० ख़ासह] 'खासा' का स्त्रीलिंग रूप । उ०—खासी परकासी पुनवासी चंद्रिका सी जाके वासी अविनासी अघनासी ऐसी काशी है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० २८२ ।
⋙ खासी (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] खास राजा के बाँधने की तलवार, ढाल या बंदूक ।
⋙ खास्तई
संज्ञा पुं० [फा़० खास्तई] कबूतर का एक विशिष्ट रंग [को०] ।
⋙ खास्सा
संज्ञा पुं० [अ० खास्सह] स्वभाव । आदत । बानि । प्रकृति ।
⋙ खाह
अव्य० [फा० खवाह] दे० 'ख्वाह' ।
⋙ खाहनखाह, खाहमखाह
क्रि० वि० [फा० ख्वाह—म—ख्वाह] दे० 'ख्वालाहमख्वाह' ।
⋙ खाहाँ
वि० [फा० ख्वाहाँ] दे० 'ख्वाहाँ' ।
⋙ खाहिश
संज्ञा स्त्री० [फा़० ख्वाहिश] दे० 'ख्वाहिश' ।
⋙ खाहिशमंद
वि० [फा़० ख्वाहिशमंद] दे० 'ख्वाहिशमंद' ।
⋙ खाहीनखाही