विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/अस
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का घाव । २. पत्थर का टुकड़ा [को०] ।
⋙ असंक पु
वि० [हिं०] दे० 'अशंक' । उ०—डहकि डहकि परिचेहु सब काहू । अति असंक मन सदा उछाहू ।—मानस, १ ।१३७ ।
⋙ असंका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आशङ्का] संदेह । शुबहा । शक । उ०— अस बिचारि तजहु असंका । सबहि भाँतदि संकरु अकलंका ।—मानस १ ।७२ ।
⋙ असंकुल (१)
वि० [सं० असङ्कुल] जहाँ जनसमूह हो । खुला हुआ । प्रशस्त । चौ़ड़ा [को०] ।
⋙ असंकुल (२)
संज्ञा पुं० १. राजमार्ग । चौड़ी सड़क [को०] ।
⋙ असंक्रांत (१)
वि० [सं० असङक्रान्त] जो स्थांनातारित न हुआ हो । जिसका स्थान बदला न हो [को०] ।
⋙ असंक्रांत (२)
संज्ञा पुं० अधिक मासन । मलमास [को०] ।
⋙ असंक्रांतिमास
संज्ञा पुं० [सं० असङ्क्रान्तिमास] बिना संक्रान्ति का महीना । अधिकामास । मलमास ।
⋙ असंख पु
वि० [हिं०] दे० 'असंख्य' । उ०—मधुर उठती है तान असंख ।—झरना, पृ० ४४ ।
⋙ असंख्य
वि० [सं० असङ्ख्य] जिसकी गिनती न हो सके । अनगिनत । बेशुमार । बहुत अधिक । उ०—लहरें व्योम चूमती उठती, चपलाएँ असंख्य नचतीं । —कामायनी, पृ० १६ ।
⋙ असंख्यक
वि० [सं० असङ्ख्यक] दे० 'असंख्य' । उ०—बल से असंख्यक आर्य यों इसलाम मे लाये गये ।—भारत०, पृ० ७६ ।
⋙ असंख्यात
वि० [सं० असङ्ख्यत] संख्यातीत । जो गिना न जा सके [को०] ।
⋙ असंख्येय (१)
वि० [सं० असङ्ख्येय] संख्यातीत । अनगिनत [को०] ।
⋙ असंख्येय (२)
संज्ञा पुं० १. अत्यंत बड़ी संख्या । २. शिव का एक नाम । ३. विष्णु [को०] ।
⋙ असंग
वि० [सं० असङ्ग] १. बिना साथ का । अकेला । एकाकी । २. किसी से वास्ता न रखनेवाला । न्यारा निर्लिप्त । माया— रहित । उ०—(क) मन मैं यह बात ठहराई । होइ असंग भोजौं जदुराई ।—सूर० (शब्द०) । (ख) भस्म अंग मर्दन अनंग, संतत असंग हर । सीन गंग, गिरिजा अधंग, भूषन भुअंगवर ।—तुलसी (शब्द०) । ३. जुदा । अलग । पृथक् । उ०—चंद्रकला च्चै परी, असंग गंग ह्वै परी, भुजंगी भाजि औ परी, बरंगी के बरत ही ।—देव (शब्द०) ।
⋙ असंग (२)
संज्ञा पुं० १. पुरुष । आत्मा । २. सपर्काभाव । निर्लिप्तता [को०] ।
⋙ असंगचारी
वि० [सं० असंङ्गचारिन्] आजादी से घूमनेवाला [को०] ।
⋙ असंगत
वि० पुं० [सं० असङ्गत] १. अयुक्त । बेठीक । २. अनुचित । उ०—भ्रम भोयौ मन भयौ पखावज चलत असंगत चाल ।— सूर० १ । १५३ ।३. असमान । बेमेल [को०] । ४. जो प्रसंगविरुद्ध हो । अप्रासंगिक [को०] । ५. असंस्कृत । गँवार । उजड्ड [को०] ।
⋙ असंगति
संज्ञा स्त्री० [सं० असङ्गति] १. असंबंध । बेसिलसिलापन । २. अनुपयुक्तता । नामुनासिबत । ३. एक काव्यालंकार जिसमें कार्यकारण के बीच देश-काल-संबंधी अन्यथात्व दिखाया जाय, अर्थात् सृष्टिनियम के विरुद्ध कारण कहीं बताया जाय और कार्य कहीं; किसी नियत समय में होनेवाले कार्य का किसी दूसरे समय में होना दिखाया जाय । उ०—'हरत कुसुम छबि कामिनी, निज अंगन सुकुमान । मार करत यह कुसुमसर, युवकन कहा विचार ।' यहाँ फूलों की शोभआ हरण करने का दोष स्त्रियों ने किया; उसका दंड उनको न देकर कामदेव ने युवा पुरुषों को दिया । विशेष—कुवलयानंद में और दो प्रकार से असंगति का होना मान गया है । एक तो एक स्थान पर होनेवाले—कार्य के दूसरे स्थान पर होने से, जैसे—'तेरे अँग की अंगना, तिलक लगायो पानि' । दूसरे, किसी के उस कार्य के विरुद्ध कार्य करने से जिसके लिये वह उद्दत हुआ हो; जैसे—'मोह मिटावन हेतु प्रभु, लीन्हो तुम अवतार । उलटो मोहन रूप धरि, मोहयो सब ब्रजनार' ।
⋙ असंगतिप्रदर्शन
संज्ञा पुं० [सं० असङ्गतिप्रर्शन] १. तर्क के क्रम में अंत में ऐसी बात कह देना या ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचना जो मूल प्रतिपाद्द का विरोधी हो । २. दोष दिखाना ।
⋙ असंगम (१)
संज्ञा पुं० [सं० असङ्गम] १. संग का अभाव । २. अना- सक्ति । ३. बेमेलपन [को०] ।
⋙ असंगम (२)
वि० १. अलग । २. बेमेल [को०] ।
⋙ असंगी
वि० [सं० असङ्गिन्] १. बिना लगाव का । असंबद्ध । २. संसार से विचक्त [के०] ।
⋙ असंचय (१)
संज्ञा पुं० [सं० असञ्चय] एकत्र करने की कमी । संचय का अभाव [को०] । यौ.—असंचयशील=संचय करने की जिसकी आदत न हो या जो संचय न करना हो ।
⋙ असंचय (२)
वि० आवश्यक वस्तुओं से हीन । संभआररहित [को०] ।
⋙ असंचयिक
वि० [सं० असञ्चयिक] जो संचय न करे [को०] ।
⋙ असंचयी
वि० [सं० असञ्चयिन्] संचय न करनेवाला [को०] ।
⋙ असंचर
संज्ञा पुं० [असञ्चर] वह मार्ग जिसपर सब लोग नहीं चलते । सर्वसाधारण के लिये निषिद्ध पथ अथवा स्थान [को०] ।
⋙ असंजोग पु
संज्ञा पुं० [सं० असंयोग] संबंध या संपर्क का अभाव । असंबंध । उ०—असं जोग ते कहुँ कहुँ एक अर्थ कविराई भिखारी ग्रं०, भा० २, पृ० ७ ।
⋙ असंज्ञ
वि० [सं०] संज्ञारहित । चेतनारहित [को०] ।
⋙ असज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संज्ञाहीनता । २. सामंजस्य का अभाव [को०] ।
⋙ असंज्वर
वि० [सं०] क्रोध, शोक, द्वेष, रोग, आदि विकारों से रहित [को०] ।
⋙ असंत
वि० [सं० असन्त] बुरा । खल । दुष्ट । उ०—संत—असंत भेद बिलगाई । प्रनतपाल मोहि कहबु बुझाई ।—मानस, ७ । ३७ ।
⋙ असंतति
वि० [सं० असनतति] जिसे संतति या बाल बच्चे न हों । निःसंतान ।
⋙ असंतान
वि० [सं० असन्तान] संतानविहीन । जिसे पुत्र या पुत्री न हो [को०] ।
⋙ असंतुष्ट
वि० [सं० असन्तुष्ट] १. जो संतुष्ट न हो । २. अतृप्त । जिसका मन न भरा हो । जो अघाया न हो । ३. अप्रसन् ।
⋙ असंतुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० असन्तुष्टि] १. संतोष का अभआव । २. अतृप्ति । ३. अप्रसन्नता ।
⋙ असंतोष
संज्ञा पुं० [सं० असन्तोष] [वि० असंतोषी] १. संतोष का अभाव । अधैर्य । २. अतृप्ति । ३. अप्रसन्नता ।
⋙ असंतोषी
वि० [सं० असन्तोषिन्] [वि० स्त्री० असन्तोषिणी] जिसे संतोष न हो । जिसका मन न भरे । जो तृप्त न हो ।
⋙ असंदिग्ध
वि० [सं० असन्दिग्ध] १. संदेह से परे । जिसके विषय में संदेह या आशंका की गुंजाइश न हो । २. निश्चित [को०] ।
⋙ असंध
वि० [सं० असन्ध] १. जिसमें जोड़ न हो । २. अमीलित । ३. जिसके खंड या टुकड़े न हुए हों ।
⋙ असंधि (१)
वि० [सं० असन्धि] १. जिनमें आपस में संधि न हुई हो । संधिहीन (शब्द०) । २. अनमिल । स्वतंत्र [कं०] ।
⋙ असंधि (२)
संज्ञा स्त्री० १. संधि का अभाव । २. मेल या संबंध का अभाव [को०] ।
⋙ असंपत्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० असम्पत्ति] १. दुर्भाग्य ।२. सफलता या संपत्ति का अभाव [को०] ।
⋙ असंपत्ति (२)
वि० अभागा । दरिद्र [को०] ।
⋙ असंपर्क
संज्ञा पुं० [सं० असम्पर्क] संबंध न होना । संबंध का अभाव [को०] ।
⋙ असंपर्की
वि० [सं० अ+सम्पर्किन्] संपर्क या संबंध न रखनेवाला ।
⋙ असंपूर्ण
वि० [सं० असम्पूर्ण] अधूरा । जो पूरा न हो । अपूर्ण [को०] ।
⋙ असंपृक्त
वि० [सं० असम्पृक्त] जो किसी के संपर्क में हो । तटस्थ ।
⋙ असंम्प्रज्ञात
वि० [सं० असम्प्रज्ञात] जो पूर्ण रूप से ज्ञान न हो । अधूरे रूप में जाना हुआ ।
⋙ असंप्रज्ञातसमाधि
संज्ञा स्त्री० [सं० असम्प्रज्ञातसमाधि] योग की दो समाधियों में से एक जिसमें न केवल बाहरी विषयों की बल्कि ज्ञाता और ज्ञेय की भावना भी लुप्त हो जाय । निर्विकल्प समाधि ।
⋙ असंबंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० असम्बन्ध] संबंधहीनता । संबंध का न होना [को०] ।
⋙ असंवध (२)
वि० असंबद्ध [को०] ।
⋙ असंबद्ध
वि० [सं० असम्बद्ध] १. जो मिला न हो । जो मेल में न हो । २. बिलगाव । पृथक् । अलग । ३. अनमिल । बेमेल । बिना सिर पैर का । अंडबंड । यौ०.—असंबद्धप्रलाप ।
⋙ असंबंधातिशयोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० असम्बन्धातिशयोक्ति] अतिश- योक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत या वर्णनीय की तुलना में अप्रस्तुत या अवर्ण नीय को हीन और अयोग्य सिद्ध किया जाता है । जैसे—अति सुंदर मुख लखि तिय तेरो । आदर हम न करत ससि केरो । पद्माकर ग्रं०, पृ० ४० ।
⋙ असंबाध
वि० [सं० असम्बाध] १. बिना बाधा का । अभाव । २. मुक्त । ३. जो सँकरा न हो । चौड़ा । विस्तृत । ४. सन्नाटा । ५. जिसमें कोई दुःख या कष्ट न हो । कष्टहीन [को०] ।
⋙ असंबाधा
संज्ञा स्त्री० [सं० असम्बाध] एक वर्णवृत जिसके प्रत्येक चरण में मगण, तगण, नगण, सगण और दो गुरु होते हैं ।/?/जैसे—माता नासो गंग कठिन भव की पीरा । जाते ह्वै निःसंक भवति तुमरे तीरा । गावों तेरी ही गुण निस दिन बेबाधा । पावों जाते बेगि सुभगति असबाधा ।
⋙ असंभ पु
वि० [हिं०] दे० 'असंभव' । उ०—मुनि आनंदयौ चंद चित, कीन मंत आरंभ, जप्य जाप हवि होम सब, लग्यौ कज्ज असंभ । —पृ० रा०, ६ । १४९ ।
⋙ असंभव (१)
वि० [सं० असम्भव] जो संभव न हो । जो हो न सके । अनहोना । नामुमकिन । उ०—जायँ वे इस गेह ही से रूठ, यह असंभव, झूठ, निश्चय झूठ ।—साकेत पृ० १७८ ।
⋙ असंभव (२)
संज्ञा पुं० १. एक काव्यालंकार जिसमें यह दिखाया जाय कि जो बात हो गई है उसका होना असंभव था । उ०—किहि जानी जलनिधि अति दुस्तर । पीवहिं घटज, उलंघहिं बंदर । (शब्द०) । २. अनस्तित्व । न होना [को०] । ३. अनहोनी । असंभवता [को०] ।
⋙ असंभव्य
वि० [सं० असम्भव्य] १. जिसका होना संभव न हो । २. समझ में न आने योग्य [को०] ।
⋙ असंभार पु
वि० [सं० अ=नहीं+सम्भार] १. जो सँभालने योग्य न हो । जिसका प्रबंध न हो सके । २. अपार । बहुत बड़ा । उ०—बिरहा समुद भरा असँभारा । भौंर मेलि जिउ लहरिन्ह मारा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ७४ ।
⋙ असंभाव पु
वि० [सं० असम्भाव्य प्रा० असंभव्य] जो संभव न हो । अनहोना । उ०—असंभाव बोलन आई है ढीठ ग्वालिनी प्रात । ऐसो नाहिं अचगरौ मेरौ कहा बनावति बात ।—सूर०, १० । २९० ।
⋙ असंभावना
संज्ञा स्त्री० [सं० असम्भावना] [वि० असंभावित, असंभाव्य] संभावना का अभाव । अनहोनापन । प्रभवितव्यता । उ०—भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती दारुन असंभावना बीती ।—मानस, १ । ११९ ।
⋙ असंभावनीय
वि० [सं० असम्भवनीय] दे० 'असंभाव्य' ।
⋙ असंभावित
वि० [सं० असम्भावित] जिसकी संभावना न रही हो । जिसके होने का अनुमान न किया गया हो । अनुमान- विरुद्ध ।
⋙ असंभावी
वि० [सं० असम्भाविन्] जिसका होना असंभव हो । भविष्य में जिसका होना नामुमकिन हो [को०] ।
⋙ असंभाव्य
वि० [सं० असम्भाव्य] १. जिसकी संभावना न हो । अनहोना । उ०—क्या असंभाव्य हो यह राघव के लिये धार्य । —अपरा, पृ० ४४ । २. जो समय में आने योग्य न हो । दुर्बोध [को०] ।
⋙ असंभाष्य (१)
वि० [सं० असम्भाष्य] १. न कहे जाने योग्य । न उच्चारण करने योग्य । २. जिससे बातचीत करना उचित न हो । बुरा ।
⋙ असंभाष्य (२)
संज्ञा पुं० बुरा वचन । खराब बात ।
⋙ असंभूति
संज्ञा स्त्री० [सं० असम्भूति] १. अस्तित्वहीनता । संभूति का अभाव । २. पुनर्जन्म न होना । ३. असंभवता । ४. अनहोनी घटना । ५. अव्याकृति प्रकृति [को०] ।
⋙ असंभृत
वि० [सं० असम्भूत] १. अयत्नसिद्ध । सहज । २. जिसका पोषण सम्यक् रीति से न हुआ हो [को०] ।
⋙ असंभोज्य
वि० [सं० असम्भोज्य] जिसके साथ बैठकर खाना वर्जित हो [को०] ।
⋙ असंभ्रम (१)
संज्ञा पुं० [सं० असम्भ्रम] हड़बडी या अधीरता का अभाव । धीरता [को०] ।
⋙ असंभ्रम (२)
वि० धीर । स्वस्थचित्त । अनुद्धिग्न [को०] ।
⋙ असंयत
वि० [सं०] संयमरहित । जो नियमबद्ध न हो । क्रमशून्य ।
⋙ असंयम
संज्ञा पुं० [सं०] संयम का अभाव । इंद्रियों को वश में न रखना ।
⋙ असंयमी
वि० [सं० असंयमिन्] जो संयमी न हो ।
⋙ असंयुक्त
वि० [सं०] न मिला हुआ । विभक्त । अलग [को०] ।
⋙ असंयुत (१)
वि० [सं०] दे० 'असंयुक्त' ।
⋙ असंयुत (२)
संज्ञा पुं० विष्णु का एक नाम [को०] ।
⋙ असंयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. अवसर या योग का अभाव । २. संमि— लन का अभाव [को०] ।
⋙ असंरोध
संज्ञा पुं० [सं०] हानि का न होना । अक्षति [को०] ।
⋙ असंलक्ष्य
वि० [सं०] जिसे लक्षित न किया जा सके । दुर्बोध्य [को०] ।
⋙ असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य
संज्ञा पुं० [सं० असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य] विवक्षिता- न्यपरवाच्य ध्वनी का एक भेद जिसमें रसरूप लक्ष्य तक पहुँचने के क्रम का पता नहीं चलता, यद्यपि क्रम का निर्वाह वहाँ भी होना है; इसे रसध्वनि भी कहते हैं ।
⋙ असंवर
वि० [सं०] छिपाने के अयोग्य । अनाच्छादित [को०] ।/d>
⋙ असंवृत (१)
वि० [सं०] अनाच्छादित । अरक्षित । खुला हुआ [को०] ।
⋙ असंवृत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] नरकविशेष [को०] ।
⋙ असंवैधानिक
वि० [सं०] संविधान के प्रतिकूल ।
⋙ असंव्यवहित
वि० [सं०] (देशकाल के) व्यवधान से रहित [को०] ।
⋙ असंशय (१)
वि० [सं०] १. संशयरहित । निर्विवाद । निश्चित । २. यथार्थ । ठीक ।
⋙ असंशय (२)
क्रि० वि० निःसंदेह । बेशक ।
⋙ असंश्रव
वि० [सं०] जहाँ साफ साफ सुनाई न दे [को०] ।
⋙ असंश्लिष्ट (१)
वि० [सं०] जो मिला हुआ न हो । पृथक् । अलग [को०] ।
⋙ असंश्लिष्ट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ असंषित्त पु
वि० [सं० असंक्षिप्त प्रा० असंषित्त] विस्तृत । प्रचुर । विपुल । उ०—गजं बाज लूटे असंषित मालं । लियौ संग्रहै अस्सपत्ती भुआलं । —पृ० रा०, ५७ । २०९ ।
⋙ असंसक्त
वि० [सं०] १.जो संयुक्त न हो । आसक्तिरहित । अना- सक्त । २.विभक्त [को०] ।
⋙ असंसक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लगाव का न होना । निर्लिप्तता । २. विरक्ति । सांसारिक विषयवासनाओं का त्याग ।
⋙ असंसारी
वि० [सं० असतारिन्] १. संसार से अलग रहनेवाला । विरक्त । २. संसार से परे । अलौकिक ।
⋙ असंसृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] संसृति का अभाव । मुक्ति [को०] ।
⋙ असंसृष्ट
वि० [सं०] संसृष्टि से रहित । संबंधहीन । बेमेल [को०] ।
⋙ असंसै पु
वि० [सं० असंशय] दे० 'असंशय' । उ०—सकै दिखाय मित्र कौं जो तेहिं दोष असंसै, औ सहर्ष सत्रुहुँ के गुन कौं भाषि प्रसंसै । —रत्नाकर, भा० १-पृ० ४७ ।
⋙ असंस्कृत
वि० [सं०] १. बिना सुधारा हुआ । अपरिमार्जित । २. जिसका संस्कार न हुआ हो । व्रात्य । ३. असभ्य [को०] । यौ०.—असंस्कृतालकी=अस्तव्यस्त केशोंवाला ।
⋙ असंस्तुत
वि० [सं०] १. जो प्रसिद्ध न हो । अज्ञान । २. अपरिचित । ३. अद्भुत । ४. बिना लगाव का । बेमेल [को०] ।
⋙ असंस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यवस्था का अभाव । अक्रम । २. संबंधहीनता । ३. अस्थिरता । त्रुटि या अभाव [को०] ।
⋙ असंस्थित
वि० [सं०] १. अनवस्थित । २. चल । ३. व्यवस्थारहित । ४. असंकलित । असंगृहीत [को०] ।
⋙ असंस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्रमहीनता । अव्यवस्था [को०] ।
⋙ असंहत (१)
वि० [सं०] जो संहत या मिला हुआ न हो । बिखरा हुआ । [को०] ।
⋙ असंहत (२)
संज्ञा पुं० १. पुरुष । आत्मा (सांख्या) । २. असंहतव्यूह [को०] ।
⋙ असंहतव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] सेना को छोटे छोटे समूहों में अलग— अलग खड़ा करना ।
⋙ अस पु
वि० [सं० ईदृश अथवा एष=यह] १. इस प्रकार का । ऐसा । उ०—अस विवेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहि मनु राता । —मानस १ ।७१ । २. तुल्य । समान । उ०—जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारे । काहे न बोलहु बचनु सँभारे ।—मानस २ । ३० ।
⋙ असक पु
वि० [सं० अशक्त, प्रा० असक्क हिं० असक] शक्तिहीन । दुर्बल । असमर्थ उ०—कसि असक घोर कसि द्रव्य दंड । — पृ० रा०, ५७ । २९५ ।
⋙ असकत पु
वि० [सं० अशक्त] दुर्बल । कमजोर । उ०—उर भरम छेह लैणौं अगम असकत उद्यम उक्कती । कर भाव पार गुण सर करण साची नाम सरस्वती ।—रा० रू०, पृ० ६ ।
⋙ असकताना †
क्रि० अ० [हिं० आसकत] आलस्य में पड़ना । आलस्य अनुभव करना, जैसे—'असकताओ मत अमी उठो और जाओ' । (शब्द०) ।
⋙ असकति
वि० [सं० अशक्ति] शक्तिरहित । अशक्त । उ०—हौं असकति, ज्यों स्यों इतहि सुमन चुनौगी चाहि । मानि विनै मेरी अली, और ठौर तूँ जाहि ।-भिखारी ग्रं०, भा० २, पृ० १६ ।
⋙ असकन्ना
संज्ञा पुं० [सं० असि=तलवार+करण=करना] दो अंगुल चौड़ा और जौ भर मोटा लोहे का एक औजार जो रेती के समान खुरदुरा या दानेदार होता है और जिससे म्यान के भीतर की लकड़ी साफ की जाती है ।
⋙ असकल
वि० [सं०] जो पूर्ण या समग्र न हो । असमग्र [को०] ।
⋙ असक्त (१)
वि० [सं० अशक्त] शक्तिहीन । उ०—हा आर्यसंतति आज कैसी अंध और अशक्त है । —भारत०, पृ० १५१ ।
⋙ असक्त (२) पु
वि० [सं० अशक्त] लिप्त । चिपका या सटा हुआ । उ०—विषय असक्त, अमित अव व्याकुल तबहूँ कछु न सँभारयो ।—सूर० १ । १०२ ।
⋙ असक्त (३)
वि० [सं०] १. जो आसक्त न हो । तटस्य । उदासीन । २. असंग्लन । ३. असंयुक्त । ४. सांसारिक विषयों से विरक्त [को०] ।
⋙ असक्तारंभ
संज्ञा पुं० [सं० असक्तारम्भ] १. वह भूमि जिसमें बहुत थोड़े श्रम से अन्न पैदा हो । २. कम मेहनत और थोड़ी वर्षा से हो जानेवाली फसल ।
⋙ असक्थ
वि० [सं०] सक्यिहीन । बिना जाँघवाला । [को०] ।
⋙ असगंध
संज्ञा पुं० [सं० अश्वगंधा] एक सीधी झाड़ी जो गर्म प्रदेशों में होती है और जिसमें छोटे छोटे गोल फल लगते हैं । पर्या०—अश्वगंधा । हयगंधा । वाजिगंधा । तुरंगगंधा । तुरगा । वाजिना । हया । बलद । वातघ्नी । श्यामला । कामरूपिणी । काला । गंधपत्री । वाराहपत्री । वाराहकर्णी । वनजा । हयप्रिया । पीवरा । पलाशपर्णी । कंबुका । कंबुकाष्ठ । प्रियकारी । अवरोहा । अश्वारोहिका । कुष्ठघातिनी । रमायनी । तिक्ता । विशेष—इसकी मोटी मोटी जड़ दवा के काम आती है और बाजारों में बिकती है । असगंध बलकारक तथा बात और कफ का नाशा करनेवाला है । इसके बीज से दूध जम जाता है । इससे कई प्रसिद्ध आयुर्वेदीक औषध बनते हैं, जैसे-द्मश्वगंधाघृत, अश्वगंधारिष्ट आदि ।
⋙ असगर
वि० [प्र० असगर] बहुत छोटा ।
⋙ असगुन पु †
संज्ञा पुं० [सं० अशकुन] दे० 'अशकुल' । उ०—अति गर्व गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते—मानस, ६ । ७७ ।
⋙ असगुनियाँ †
संज्ञा पुं० [हिं० असगुन+इया (प्रत्य०)] वह मनुष्य जिसका मुँह देखन लोग अशुभ समझते हों । मनहूस ।
⋙ असगोत्र
वि० [सं०] [वि० स्त्री असगोत्रा] जो सगोत्री न हो । भिन्न- गोत्रीय [को०] ।
⋙ असज्जन (१)
वि० [सं०] बुरा । खल । दुष्ट । अशिष्ट । नीच । उ०— बंदौ संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय बीच कछु करना ।— मानस, १ । ५ ।
⋙ असज्जन (२)
संज्ञा पुं० बुरा आदमी ।
⋙ असड़िहा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'असड़िया' । उ०—कहीं डोड़हे आते कहीं असड़िहे जाते ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १३ ।
⋙ असढ़िया †
संज्ञा पुं० [सं० आषाढ़, असाढ़+इया (प्रत्य०)] एक प्रकार का लंबा साँप जिसकी पीठ पर कई प्रकार की चित्तियाँ होती हैं । इसमें विष बहुत कम होता है ।
⋙ असण पु
संज्ञा पुं० [सं० आषनन] गढ्डा । (डिं०) ।
⋙ असत् (१)
वि० [सं०] १. मिथ्या । अस्तित्वविहीन । सत्तारहित । २. बुरा । खराब । ३. खोटा । असाधु । असज्जन ।
⋙ असत (२)
संज्ञा पुं० १. अनस्तित्व । २. असत्यता । मिथ्यात्व । ३. बुराई । अहितत्व [को०] ।
⋙ असत
वि० [सं० असत्] १. असाधु । असज्जन । खोटा । उ०— औघड़ असत कुचीलनी सौं मिलि, माया जल हैं तरतौ ।— सूर० १ । २०३ । २. अस्तित्वविहीन । सत्तारहित । मिथ्या । उ०—वह शून्य असत या अंधकार, अवकाश पटल का वार पार ।—कामायनी, पृ० २५१ ।
⋙ असतायी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुष्टता, पाजीपन [को०] ।
⋙ असति पु
वि० [सं० असत्य] दे० 'असत्य' । उ०—जन कौं पर निंद्या । भावै नहीं, अरु असति ना भाषै ।—कबीर ग्रं०, पृ० २०९ ।
⋙ असती
वि० [सं०] जो सती न हो । कुलटा । पुंश्चली । उ०— असतीन को सिख मानि । तिय क्यों तजै कुलकानि ।— भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० १९१ ।
⋙ असतीत्व
संज्ञा पुं० [सं] सतीत्व का अभाव । कुलटापन । स्वैरा- चार [को०] ।
⋙ असतीन पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'आस्तीन' । उ०—पावति बंदन हीन अरु दावन घैरु विसाल । है न वरी असतीन क्यों चहौ एकतहि लाल । —भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० ३५ ।
⋙ असतुति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तुति] प्रार्थना । स्तुति । उ०—असतुति निंद्या आसा छाँड़ै तजै मान अभिमान ।-कबीर ग्रं०, पृ० १५० ।
⋙ असत्कार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० असत्कृत] १. अपमान । निरादर ।
⋙ असत्कृत
वि० [सं०] अनादृत । अपमानित ।
⋙ असत्कृत्य (१)
वि० [सं०] १. संमान न करने योग्य । २. अनुचित काम करनेवाला [को०] ।
⋙ असत्कृत्य (२)
संज्ञा पुं० अनुचित कर्म । दुष्कृत्य [को०] ।
⋙ असत्ख्याति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भ्रमात्मक ज्ञान [को०] ।
⋙ असत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सत्ता का अभाव । अविद्यामानता । अनिस्तित्व । नेस्ती । २. असाधुता । असज्जनता ।
⋙ असत्त्व (१)
वि० [सं०] १. सत्वहीन । कमजोर । २. जिसमें अच्छाई न हो । ३. पशुविहीन । प्राणहीन [को०] ।
⋙ असत्त्व (२)
संज्ञा पुं० १. अनस्तित्व । असत्ता । २. असत्यता । ३. बुराई । खोटाई । ४. अंधकार । अँधेरा [को०] ।
⋙ असत्पथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुमार्ग । २. कदाचरण । दुराचरण [को०] ।
⋙ असत्परिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'असतप्रतिग्रह' [को०] ।
⋙ असत्पुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुपुत्र । बुरा लड़का । २. पुत्रहीन व्यक्ति [को०] ।
⋙ असत्प्रतिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] वह दान जिसके लेने का शास्त्र में निषेध हो; जैसे—उभयमुखी गो, प्रेतान्न, चांडालादि का अन्न ।
⋙ असत्प्रतिग्रही
वि० [सं० असल्प्रतिग्रहिन्] निषिद्ध दान लेनेवाला ।
⋙ असत्य (१)
वि० [सं०] १. मिथ्या । झूठ । २. अवास्ताविक [को०] । ३. अनिश्चित फलवाला [को०] ।
⋙ असत्य (२)
संज्ञा पुं० १. वह व्यक्ति जो झूठा न बोलता हो । २. झुठाई । असत्यता [को०] ।
⋙ असत्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिथ्यात्व । झुठाई ।
⋙ असत्ववाद
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० असत्यवादी] मिथ्यावाद । झूठ बोलना ।
⋙ असत्यवादी
वि० [सं० असत्यवादिन्] झूठ बोलनेवाला । झूठा । मिथ्यवादी ।
⋙ असत्यशील
वि० [सं०] असत्य बोलने के स्वभाव या प्रवृत्तिवाला [को०] ।
⋙ असत्यसंध
वि० [सं० असत्यसन्ध] जो वादे का पक्का न हो । झूठा [को०] ।
⋙ असत्यसंनिभ
वि० [सं० असत्यसन्निभ] झूठ या असंभव तुल्प [को०] ।
⋙ असथन पु
संज्ञा पुं० [सं० अष्ठि ?] १. जायक ।—हिं० ।
⋙ असथि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अस्थि] । हड्डी । हाड़ । उ०—जलिल सुकर सोनित समुझ मल अरु असथि समेत ।—स० सप्तक, पृ० १७ ।
⋙ असथिर पु
वि० [सं० अस्थिर] चंचल । चलायमान । उ०—रबि रजनीस धरा तथा यह असयिर असयूल ।—स० सप्तक, पृ० ३५ ।
⋙ असथूल पु
वि० [सं० स्थूल] भौतिक । उ०—रबि रजनीश धरा । तथा यह असथिर असथूल ।—स० सप्तक, पृ० १७ ।
⋙ असदाचार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० असदाचारी] बुरा आचार । नियम या धर्मविरुद्ध आचरण । अधर्म [को०] ।
⋙ असदाचार (२)
वि० बुरे आचारवाला [को०] ।
⋙ असदृश
वि० [सं०] [वि० स्त्री० असदृशी] १. असमान । अथवा । २. अनुचित । अयोग्य [को०] ।
⋙ असदबुद्धि
वि० [सं०] दुर्बुद्धि । बुद्धिहीन [को०] ।
⋙ असद्भाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. नव्य न्याय के अनुसार एक दोष जो तर्क के अवयवों के प्रयोग में होता है । २. अस्तित्व का अभाव । अविद्यमानता [को०] ।३. अनुचित विचार या भावना [को०] । ४. दुष्ट स्वभाव [को०] ।
⋙ असद्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह सिद्धांत जो सत्ता को कोई वस्तु ही न माने ।
⋙ असद्वृत्ति (१)
वि० [सं०] दुर्वृत्त । अनाचारी । दुष्ट [को०] ।
⋙ असद्वृत्ति (२)
संज्ञा स्त्री० भ्रष्टचार । दुष्टता [को०] ।
⋙ असद्व्यय
संज्ञा पुं० [सं०] असत् या बुरे कार्यों में होनेवाला व्यय । खराब कामों में खर्च । उ०—हुतौ आढय तब कियौ असद्व्यय करी न ब्रज-वन-जात्र ।—सूर० । १ । २१६ ।
⋙ असन (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अशन] भोजन । अशन । उ०—तहँ न असन नहि बिप्र सुआरा । फिरेउ राउ मन सोच अपारा ।—मानस १ । १७४ ।
⋙ असन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. फेंकना । क्षेपण । २. पीतसाल वृक्ष [को०] ।
⋙ असनपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सातल या गोकर्णी नामक वृक्ष [को०] ।
⋙ असना
संज्ञा पुं० [सं० अशना] पीतशाल वृक्ष । विशेष—वह वृक्ष शाल की तरह का होता है । इसके हीर की लकड़ी दृढ़ होती और मकान बनाने के काम आती है तथा भूरापन लिए हुए काले रंग की होती है । इस पेड़ की पत्तियाँ माघ फागुन में झड़ जाती हैं ।
⋙ असनान पु
संज्ञा पुं० [सं० स्नान, पु० हिं० अस्नान] नहाना । स्नान । उ०—नृपति सुरसरी कै तट आइ, कियौ असमान मृत्तिका लाइ ।—सूर १ । ३४१ ।
⋙ असनि पु
संज्ञा पुं० [सं० अशनि] १. वज्र । हीरा । उ०—बेती की कसनि रही कसनि सु कारो साँप, दसन की लसनि असनि दोहियत है । —गंग०, पृ० २४ । २. विद्युत् । उ०—लूक न असनि केतु नहिं राहू ।—मानस ६ । ३१ ।
⋙ असनी †
संज्ञा स्त्री० [सं अश्विनी] नक्षत्र विशेष ।
⋙ असन्नद्ध
वि० [सं०] १. बिना शस्त्र का ।२. जो तैयार या मुस्तैद न हो । अतत्पर । २. अहंकारी । घमंडी । ३. विद्वत्ता में अपने को लगानेवाला । पंडितमानी ।
⋙ असन्निकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] निकट या पास होना । २. दूर होना [को०] ।
⋙ असन्निधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूरता । २. अनुपस्थिति । अभाव । [को०] ।
⋙ असन्निधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूरी । असमीपता । २. घनिष्ठता का अभाव [को०] ।
⋙ असन्निहित
वि० [सं०] १. जो निकट न हो । २. अनुचित रीति से रखा हुआ [को०] ।
⋙ असपती पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'असपत्ति' । उ०—अटक हीण असपती पाय छित अवसर पायौ ।—रा० रू०, पृ० १९ ।
⋙ असपत्ति पु, असपत्ती पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्वपति] १. घुड़सवार्रों का प्रधान । २. नरपति । राजा । उ०—असपत्ती अजमेरगढ़ रहियौ पाँव दिवस्स ।—रा० रू०, पृ० ५३ ।
⋙ असपत्न
वि० [सं०] [वि० स्त्री असपत्नी] १. बिना पत्नी का । २. शत्रुरहित । शत्रुविहीन । ३. जो शत्रु न हो । अशत्रु [को०] ।
⋙ असपिंड
वि० [सं० असपिण्ड] [असपिंडा] जो अपने कुल का न हो । अपने कुल की सात पीढ़ियों से बाहर का । जिससे परंपरागत रक्तसंबंध न हो [को०] ।
⋙ असप्पति पु †
[हिं० अश्वपति] दे० असपत्ति । —दोउ मयमंत सुजाँण सेज दिसि बाहुड़इ । जाँणे धरती काज, असपप्पति आहु- ड़इ ।—ढोला० दू० ५६६ ।
⋙ असफल
वि० [सं०] १. जो सफल न हो । नाकामयाब । उ०— आह स्वर्ग के अग्रदूत तुम असफल हुए विलीन हुए ।—कामा- यनी, पृ० ७ । २. व्यर्थ । निष्फल । उ०—तिरस्कृत कर उसको तुम भूल, बनाते हो असफल भवधाम ।—कामायनी, पृ० ५३ ।
⋙ असफलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफलता का अभाव । नाकामयाबी [को०] ।
⋙ असबर्ग
संज्ञा पुं० [फा०] खुरासान में होनेवाली एक प्रकार की लंबी घास । विशेष. —इसमें पीले या सुनहले फूल लगते हैं । सुखाए हुए फूलों को अफगान व्यापारी मुलतान में लाते हैं जहाँ वे अकलबेर के साथ रेशम रँगने के काम में आते हैं ।
⋙ असबाब
संज्ञा पुं० [अ० 'सबब' का बहुत व०] चीज । वस्तु । सामान । प्रयोजनीय पदार्थ । उ०—सब असबाब डाढ़ो मैं न काढ़ो तैं न काढ़ौ, जिय की परी सँपार सहन भंडर को ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७३ । २. कारणसमूह [को०] ।
⋙ असभई
संज्ञा स्त्री० [सं० असभ्यता] अशिष्टता । बेहूदगी ।
⋙ असभ्य
वि० [सं०] १. सभा या गोष्ठी में बैठने के नाकाबिल । २. अशिष्ट । गँवार । उजड्ड । उ०—हम मूर्ख और असभ्य थे, उससे विदित होता यही ।—भारत०, पृ० ११९ ।
⋙ असभ्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अशिष्टता । गँवारपन ।
⋙ असमंजस (१)
संज्ञा पुं० [सं० असपञ्जस] १. दुविधा । पशोपेश । आगा— पीछा । फेरफार । उ०—बना आइ असमंजस आजू ।—मानस १ । १६७ । २. अड़चन । अंडस । कठिनई । चपकुल्लिस । उ०—तात तुम्हहि मइँ जानउँ नीके । करउँ काह असमंजसु जीके ।—मानस, २ । २६३ । क्रि० प्र०—में पड़ना ।—होना । ३. सूर्यवंशी राजा सगर का बड़ा पुत्र जो रानी केशी से उत्पन्न था ।
⋙ असमंजस (२)
शि० १. जो व्यक्त न हो । अस्पष्ट । २. अनुचित । अनुपयुक्त । ३. मूर्खतापूर्ण । बुद्धिविरहित । ४. अयुक्त । असंगत [को०] ।
⋙ असमंत पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्मंत] चूल्हा ।
⋙ असम (१)
वि० [सं०] १. जो सम या तुल्य न हो । जो बरावर न हो । अस म । उ०—जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा । —मानस, ३ । २६ । २. विषम । ताक । उ०—लोचन असम अंग भसम चिता की लाइ ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २५९ । ३. ऊँचानीचा । ऊबड़खाबड़ ।
⋙ असम (२)
संज्ञा पुं० एक काव्यालंकार जिसमें उपामान का मिलना असंभव बतलाया जाया; जैसे— प्रलि बन बन खौजत मर जैहौ । मालति कुसुम नहीं तुम पैहौ ।
⋙ असमग्र
वि० [सं०] अधूरा । अंशमात्र [को०] ।
⋙ असमत †
संज्ञा स्त्री० [अ० इस्मत > अस्मत] १. पातिव्रत्य । सतीत्व । पाकदामनी । २. पवित्रता । निष्कलुषता [को०] । यौ०.— असमतफरोश=सतीत्वहीन । कुलटा । असमतफरोशी= व्यभिचार ।
⋙ असमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] असमानता । विषमता । असाम्य [को०] ।
⋙ असमद
वि० [सं०] १. गर्वरहित ।२. विरोधशून्य [को०] ।
⋙ असमन
वि० [सं०] १. विविध रंगोंवाला ।२. विभिन्न मतोंवाला ३. विषम । समताहीन [को०] ।
⋙ असमनयन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'असमनेत्र' [को०] ।
⋙ असमनेत्र (१)
वि० [सं०] जिसका नेत्र सम न हों, विषम (ताक) हों ।
⋙ असमनेत्र (२)
संज्ञा पुं० त्रिनेत्र । शिव ।
⋙ असमबाण
संज्ञा पुं० [सं०] विषमबाण । कामदेव [को०] ।
⋙ असमय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विपति का समया बुरा समय । उ०— समय प्रतापभानु कर जानी । आपन अति असमय अनुमानी- मानस, १ ।१५८ ।
⋙ असमय (२)
क्रि० वि० कुपवसर । बेमौका । बेवक्त । उ०— मैने असमय नहीं अचानक तुम्हें जागया ।— साकेत पृ० ४१५ ।
⋙ असमर्थ
वि० [सं०] १. सामर्थ्यहीन । दुर्बल । निर्बल । अशक्त ।२. अयोग्य । नाकाबमिल ।३. अपेक्षित शक्ति न रखनेवाला [को०] ।४. अभिप्रेतार्थ को व्यक्त करने में अक्षम [को०] ।
⋙ असमर्थता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अक्षमता । अयोग्यता [को०] ।
⋙ असमर्थपद
संज्ञा पुं० [सं०] वह पद जो वांछित अर्थ को प्रकट करने में समर्थ क्षम न हो [को०] ।
⋙ असमर्थसमास
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में ऐसा समास जो अन्वय- दोष से दूषित हो; जैसे— अश्राद्धमोजी, असूर्यपश्या— इस समस्तपद में अनञ् समास का यथार्थ पूर्ववर्ती शब्द श्राद्ध और सूर्य के साथ न होकर भोजी और पश्या के साथ है [को०] ।
⋙ असमवायिकारण
संज्ञा दे० [सं०] १. न्यायदर्शन के अनुसार वह कारण जो द्रव्य न हो, गुण कर्म हो; जैसे— घड़े को बनने में गले और पेंदे का संयोग अर्थात् आकार आदि की भावना जो कुम्हार के मन थी अथवा जोड़ने की क्रिया जो द्रव्य के आश्रय से उत्पन्न हुई ।२. वैशेषिक के अनुसार वह कारण जिसका कार्य से नित्य संबंध मन हो, आकस्मिक हो; जैसे— हाथ के लगाव से मूसल का किसी वस्तु पर आघात करना । यहा हाथ का ऐसा नहीं है कि जब हाथ का लगाव हो, तभी मूसल किसी वस्तु पर आघात करे । हवा या और किसी कारण से भी मूसल गिर सकता है ।
⋙ असमावायी
वि० [सं०असमवायिन्] जो समवाय या नित्य संबंध रखनेवाला न हो । अनित्य । आनुषंगिक [को०] ।
⋙ असमवृत
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत काव्य में प्रयुक्त वे वर्ण वृत्त जिनके चारों चरणों में समाग गण न हों । विषमवृत्त [को०] ।
⋙ असमशर
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव । उ०— रंभादिक सुरनारि नवीना । सकल असमसर कला प्रवीना । — तुलसी (शब्द०)
⋙ असमस्त
वि० [सं०] १. अपूर्ण । अधूरा । २. अंशत? । ३. समास— हीन । जो संक्षिप्त न हो । विस्तृत । ४. जो एकत्र न हो । ५. असंबद्ध । अलग [को०] ।
⋙ असमान (१)
वि० [सं०] जो समान या तुल्य न हो । उ०— हम लोंगों ने साधारण नागरिकों से असमान उत्सव मनाने का निश्चय किया था ।— इंद्र०, पृ १३० ।
⋙ असमान (२)पु †
संज्ञा पुं० [फा०, आसमान] दे० 'आसमान' । उ०— अचल अवलि असमान दसौ दिसि थर थर कपै ।— हम्मीर०, पृ० १३ ।
⋙ असमानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] समानता का अभाव [को०] ।
⋙ असमाप्त
वि० [सं०] [संज्ञा असनाप्ति] अपूर्ण । अधूर ।
⋙ असमाप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपूर्णता । अधूरापन । समाप्ति का अभाव ।
⋙ असमावर्तक
वि० [सं०] जिसका समावर्तन न हुआ हो [को०] ।
⋙ असमावृत
वि० [सं०] जिसका समावर्तन संस्कार न हुआ हो । जो बिना समावर्तन संस्कार हुए ही गुरूकुल छोड़ दे ।
⋙ असमाहार
वि० संज्ञा पुं० [सं०] १. अलगाव । पृथक्ता । २. अप्राप्ति [को०] ।
⋙ असमाहित
वि० [सं०] चित्त की एकाग्रता से रहित । अस्थिर चित्त । चंचल ।
⋙ असमीचीन
वि० [सं०] अनुचित । अयुक्ति । बेठीक [को०] ।
⋙ असमूच
वि० [हि०] दे० 'असमूवा' । उ० — वासा-नया - मुक्ता, बिंबाधर प्रतिबिंबित असमूच । बाँध्यौ कनक पास सुक सुंदर, करकबीज गहि चूँच । सुर०, २ ।३०६३ ।
⋙ असमूचा पु
वि० [सं० अ +सुमच्चय] १.जो पुरा या समूचा न हो । अधुरा ।२. कुछ । थोड़ा ।
⋙ असमेध पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्वमेध, प्रा० असतोध] दे० 'अश्वमेध' । उ०— दस असमेध जगता जोई कीन्हा । — जायसी (शब्द०) ।
⋙ असम्मत (१)
वि० [सं०] १. जो राजी न हो । विरूद्ध ।२. जिसपर किसी की राय न हो ।
⋙ असम्मत (२)
संज्ञा पुं० शत्रु [को०] ।
⋙ असम्मति
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अतम्मत] १. संमति का अभाव । २. विरूद्ध मत या राय ।३. अनादर [को०] ।
⋙ असम्मर पु
संज्ञा पुं० [ सं० अति] तलवार ।— (ड़ि०) ।
⋙ असम्मित
वि० [सं०] १. असदृश । अतुल्य ।२. विना माता हुआ । ३. अपरिमेय [को०] ।
⋙ असयाना पु
वि० [ हि० अ + सयाना] १. भोलाभाला । सीधा सादा । छात या चतुराई से रहति । उ०— बिबुध सनेह सानी बानी असयाली सुनी हँसै राघो जातकी लषन हेरि हेरि । तुलसी, ग्रं०, १६४ । २. अनाड़ी । मूर्ख ।
⋙ असर
संज्ञा पुं० [अ०] १. आभव । दबाव । २. चिह्न । निशान [को०]३. गुण । तासीर [को०] । ४. दिन का चौथा पहर । यौ०— असर की नमाज ।
⋙ असरा
संज्ञा पुं० [हि० आसाढ़] आसाम देश के कछारों में उत्पन्न होनेवाला एक प्रकार का चावल ।
⋙ असरार (१)
क्रि० वि० [हि० सरसर] निरंतर । लगातार । बराबर । उ०— कहो नंद कहाँ छाँड़े कुमार । करुणा करे यसोदा माता नैनन नीर बहै असरार ।— सूर० (शब्द०) ।
⋙ असरार (२)
संज्ञा पुं० [अ० 'सिर' या 'सिर्र' का बहुव०] भेद । राज । मर्म [को०] ।
⋙ असरु
संज्ञा पुं० [सं०] काकड़ासिंगी नामक पौधा ।
⋙ असल (१)
वि० [अ० अस्ल] १. सच्चा । खरा । २. उच्चा । श्रेष्ठ । ३. बिन मिलावट का । शुद्ध । खलिस ।
⋙ असल (२)
संज्ञा पुं० १. जड़ । मूल । बुनियाद । तत्व ।२. मूलधन । उ०— साँचो सो लिखवार कहावै । काया ग्राम मसाहत करि कै जमा बाँधि ठहरावै..........करि अवारजा प्रेम प्रीति को असल तहाँ खतियावै ।— सूर० (शब्द०) ।
⋙ असल (३)
संज्ञा पुं० [सं०] शहद । मधु [को०] ।
⋙ असल (४
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का लंबा झाड़ जो मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दक्षिणभारत और राजपूताने (राजस्थान) में पाया जाता है । विशेष— इसकी पत्तियाँ तीन चार इंच लंबी होती हैं और ड़ालियाँ नीचे की और झुकी होती हैं । इसकी छाल से चमड़ा सिझ़या जाता है और बीज, छल तथा पत्तियों का औषध में व्यवहार होती हैं । अकाल पड़ने पर इसकी पत्तियाँ खाई भी जाती हैं । इसकी टहनियों की दातून बहुत अच्छी होती है । जब जाड़े के दिनें में यह फूलता है तब बहुत सुंदर जान पड़ता हैं ।
⋙ असल (५
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहा नामक धातु ।२. शस्त्र छोड़ने से पूर्व उसे अभिमंत्रित करने का एक मंत्र । ३. शस्त्र [को०] ।
⋙ असलियत
संज्ञा स्त्री०[अ० अस्लियत] १. तथ्य । वास्ताविकता ।२. जड़ । मूल । बुनियाद । ३. मूलत्तव । सार ।
⋙ असली
वि० [अ० अस्ल फा० ई (प्रत्य०)] १. सच्चा । खरा । २. मूल । प्रधान । ३. बिना मिलावट का शुद्ध ।
⋙ असवर्ण
वि० [सं०] भिन्न वर्ण या जाति का; जैसे- प्रसवर्ण विवाह ।
⋙ असवर्णता
संज्ञा स्त्री० [सं०] समान जाति या वर्ण का न होना । उ०— 'फिर भी असवर्णता का सामाजिक दोष उसके हृदय को व्याथित किया करता ।- इंद्र, पृ०९८ ।'
⋙ असवर्ण विवाह
संज्ञा पुं० [सं०] वह विवाह जिसमें वर और वधू विभिन्न वर्णों के हों [को०] ।
⋙ असवार †
संज्ञा पुं० [सं० अश्ववार, प्रा० अस्सवार, असवार] दे० 'सवार' । उ०— कबीर घोड़ा प्रेम का चेतनि चढ़ि असवर कबीर ग्रं०, पृ० ७० ।
⋙ असवारी
संज्ञा स्त्री० [हि० असवार + ई (प्रत्य०)] दे० 'सवारी' । उ०— लाने को निज पुणय भूमि पर लक्ष्मी की असवारी ।— पाथिक, पृ० ५ ।
⋙ असह (१
वि० [सं०] १. न सहने योग्य । असहय । उ०—सीत असह विष चित चढ़ै सुख न चढै़ परजंक । बिना मोहन अगहन हनै बीछू कैसो ड़ंक ।- स० सप्तक, पृ० २४३ । २.अधीर ।
⋙ असह (२
संज्ञा पुं० छाती का मध्य भाग अर्थात् हृदय ।-(ड़ि०) ।
⋙ असहकार
संज्ञा पुं० [सं०] असहयोग । सहकार की भावना का अभाव । मेल से काम न करना ।
⋙ असहन (१
वि० [सं०] जो सहन न करे । असहिष्ण । ईर्ष्यालु ।
⋙ असहन (२
संज्ञा पुं० १. शात्रु । वैरी ।२. अधीरता । असहिष्णुता (को०) ।३. ईर्ष्या [को०] ।
⋙ असहनशील
वि० [सं०] १. जिसमें सहन करने की शक्ति न हो । असाहिष्णु ।२. चिड़चिड़ा । तुनकमिजाज ।
⋙ असहनशीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सहन करने की शक्ति का अभाव । असाहिष्णुता ।२. तुनकमिजाजी ।
⋙ असहनीय
वि० [सं०] न सहने योग्य । जो बरदाश्त न हो सको । असह्य ।
⋙ असहयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. साथ मिलकर काम न करने का भाव ।२. आधुनिक भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में सरकार के साथ मिलकर काम न करने, उसकी संस्थाओं में संमिलित न होने और उसके पद आदि ग्रहण न करने का सिद्धंत । तर्के- मवालात । नान- कोआपरेशन ।
⋙ असह्योगवाद
संज्ञा पुं० [सं० असहोग + वाद] राजनीतिक क्षेत्र में सरकार से असह्योग करने अर्थात् उसके साथ मिलकर काम न करने का सिद्धंत ।
⋙ असह्योगवादि
संज्ञा स्त्री० [सं० असहय़ोग + वादिन्] राजानीतिक क्षेत्र में सरकार से असह्योग करने अर्थात् उसके मिलकर काम न करने के सिद्धांत को माननेवाला मनुष्य ।
⋙ असहाई पु असहाई पुं०
वि० [हि०] दे० 'असहाय' । उ०— एक किन्ह नहि भारत भालाई । निदरे रामु जानि असहाई । -मानस, २ ।२२८ ।
⋙ असहाय
वि० [सं०] १. जिसे कोई सहारा न हो । नि?सहाय । निर- वलंब । निराश्रय ।२. अनाथ । लाचार ।
⋙ असहिष्णु
वि० [सं०] १. जो सहन न कर सके । असहनशील ।२. चिड़चिड़ा । तुनकमिचजाज ।
⋙ असहिष्णुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सहन करने की शक्ति का अभाव । असहनशीलता ।२. चिड़ाचिड़ापन । तुनकमिजाजी ।
⋙ असही (१
वि० [सं० असह] दूसरे की बढ़ती न सहनेवाला । दूसरे को दोखकर जलनेवाला । ईर्ष्यालु । उ०— प्रसही दुसही मरहु मनाहि मन, बैरिन बढ़हु विषाद । नृपसुत चारि चारु चिर- जीवहु, संकर गौरि प्रसाद ।— तुलसी ग्रं० पृ० २६५ । यौ०. —असही दुसही ।
⋙ असही (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] ककही या कंघी नाम का पौधी ।
⋙ असह्य
वि० [सं०] न सहन करने योग्य । जो बरदाश्त न हो सके । असहनीय ।
⋙ असहाव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह दंड़व्यूह जिसके दोनों पक्ष फैला गए हों ।
⋙ असाँच पु
वि० [सं० असत्य, प्रा० असच्च] असत्य । झठ । मृषा । उ०— सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा । बिप्र श्राप किमि होई असाँचा ।-मानसं १ ।१७५ ।
⋙ असांद्र पु
वि० [सं०असान्द्र] विरल । जो घनीभूत न हो [को०] ।
⋙ असांम्प्रत
वि० [सं० असाम्प्रत] १. जो सांप्रत या उचित न हो । अनुचित । अयोग्य ।२. जो वर्तमामन आज का न हो [को०]०
⋙ असांप्रदायिक
वि० [सं० असाम्प्रदायिक] १. जिसमें सांप्रदायिकता की भावना न हो ।२. जो प्रथा या परंपरा से अनुमोदित न हो [को०] ।
⋙ असा
संज्ञा पुं० [अ०] १. सोंटा । ड़ंड़ा ।२. चाँदी या सोने से मढ़ा हुआ सोंटा जिसे राजा महाराजओं के आगे या बारात इत्यादि के साथ सजावट के आदमी लेकर चलते हैं । दें० 'आसा' । यौ० —असाबारदार=असा लेकर चलनेवाला । असाबरदार ।
⋙ असाई पु
संज्ञा पुं० [सं० अशास्त्रीय] वह जिसे कुछ भी ज्ञान न हो । अज्ञानी । उ०—बोला गंध्रवसेन रिसाई । कस जोगी कस भांट असाई । —जायसी ग्रं०, पृ० ११३ ।
⋙ असाक्षात्
वि० [सं०] जो आँखे के आगे न हो । परोक्षतः । दूरतः (संबद्ध) [को०] ।
⋙ असाक्षात्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुपस्थिति ।२. परोक्ष । अप्रत्यक्ष [को०] ।
⋙ असाक्षिक
वि० [सं०] १. जिसका कोई गवाह न हो । अप्रमाणित २. शासकविहीन । जिसकी कोई देखरेख करनेवाला न हो [को०] ।
⋙ असाक्षी
संज्ञा पुं० [ सं० असाक्षिन्] वह जिसकी साक्षी या गवाही धर्मशास्त्र के अनुसार मान्य न हो । साक्षी होने अनधिकारी । विशेष— धर्मशास्त्र के अनुसार इन लोंगों की साक्षी ग्रहण नहीं करनी चाहिए- चोर, जुआरी, शराबी, पागल, बालक, अति वृद्ध, हत्यारा, चारण, जालसाज, विकलेंद्रिय (बहरे, अंधे लूले लँगड़े) तथा शत्रु, मित्र इत्यादि ।
⋙ असाक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] गावाही या साक्ष्य का अभाव [को०] ।
⋙ असाढ़
संज्ञा पुं० [सं० आषाढ़] आषाढ़ का महीना । वर्ष का चौथा महीना ।
⋙ असाढ़ा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] महीन बेटे हुए रेशम का तागा ।
⋙ असाढ़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० आषाढ़] एक प्रकार की खाँड़ । कच्ची चीनी ।
⋙ असाढ़ी (१)
वि० [सं०आषाढ़] आषाढ़ का ।
⋙ असाढ़ी (२)
संज्ञा स्त्री० १. वह फसल जो आषाढ़ में बोइ जाय । खरीफ । २आषाढ़ीय पूर्णिमा ।
⋙ असाढ़ू
संज्ञा पुं० [देश०] मोटा दल कि चट्टान । मोटा पत्थर । भोट । अभवट ।
⋙ असात्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकृतिविरूद्ध पदार्थ । वह आहार विहार जो दु?खकारक और रोग उत्पन्न करनवेवाला हो ।
⋙ असाध (१) पु †
वि० [हि०] दे० 'असाध्य' ।
⋙ असाध (२)
वि० [हिं०] दे० 'असाधु' । उ०— बाहर दीसै साध गति माँहैं महा असाध ।- कबीर ग्रं० पृ० ४९ ।
⋙ असाधन (१)
वि० [सं०] साधन या उपकरण से रहित [को०] ।
⋙ असाधन (२)
संज्ञा० पुं० सिद्धि या पूर्णता का अभाव [को०] ।
⋙ असाधारण (१)
वि० [सं०] १. सजो साधारहण न हो । असामान्य । २. न्य़ाय में पक्ष या विपक्ष से पृथक्- जैसे हेतु [को०] ।३. जिसका दूसरा दावेदार न हो । निश्चित रूप से एक का- जैसे संपत्ति [को०] ।
⋙ असाधारण (२)
संज्ञा पुं० १. न्याय में हेत्वाभास का एक दोष ।२. विशिष्ट संपत्ति [को०] ।
⋙ अशाधि पु †
वि० [हि०] दे० 'असाध्य' । उ०— देखी व्याधि असाधि नृपु परेउ धरनि धुनि माथा ।- मानस, २ ।३४ ।
⋙ असाधित
वि० [सं०] जो साधा न गया हो । असिद्ध [को०] ।
⋙ असाधु (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० असाध्वी] १. दुष्ट । बुर । खल । दुर्जन । खोटा ।२. अविनीत । अशिष्ट ।३. जो टीक ढंग से सिद्ध न हो । भ्रष्ट । व्याकरणविरुद्ध [को०] । यौ०.— असाधुवृत्ता= पुंश्चली । स्वैरिणी ।
⋙ असाधु (२)
संज्ञा पुं० १. भ्रष्ट या पतित साधु ।२. असज्जन ।
⋙ असाधुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्जनता । अशिष्टता । खलता । खोटाई ।
⋙ असाध्य
वि० [सं०] १. जिसका साधन न हो सके । न करने योग्य । दुष्कर । कठिन ।२. न आरोग्य होने के योग्य । जिसके अच्छे या चंगे होने की संभावना न हो; जैसे-यह रोग असाध्य है (शब्द) । यौ०.— असाध्यसाधन= न हो सकनेवाले काम को कर लेना ।
⋙ असाध्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यभिचारणी । कुलटा असती [को०] ।
⋙ असानी
संज्ञा पुं० [अं० असाइनी] वह व्यक्ति जो अदालत की और से कसी दिवालिए की संपत्ति, जिसके बहुत से लहनदार हों, तब तक अपनी निगरानी में रखने के लिये नियुक्त हो, जब तक कोई रिसीवर नियत होकर संपत्ति को अपने हाथ में न ले ।
⋙ असामयिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० असामयिकी] जो समय पर न हो । जो नियत समय से पहले या पीछे हो । बिना समय का । बेवक्त का ।
⋙ असामर्थ्य
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शक्ति का अभाव । अक्षमता ।२. निर्बलता । नाताकती ।
⋙ असामान्य
वि० [सं०] जो साधारण न हो । असाधारण । गैरमामूली ।
⋙ असामी (१)
संज्ञा पुं० [अ० आसामी] १. व्यक्ति । प्राणी; जैसे- वह लाखों का असामी है (शब्द) । २. जिससे किसी प्रकार का लेन देन न हो । जैसे, वह बड़ा खरा आसीमी है, रुपया तुरंत देगा (शब्द) । ३. वह जिसने लगान पर जोतने के लिये जमींदार से खेत लिया हो । रैयत । काश्तकार । जोता ।४. मुद्दलेह । देनदार ।५. अपराधी । मुलजिम; जैसे,— आसामी हवालत से भाग गया । (शब्द) ।६. दोस्त । मित्र । सुहृद । जैसे- चलो तो, वहाँ बहुत असामी मिल जाएँगे (शब्द०) ।७. ढंग पर चढ़ाया हुआ आदमी । वह जिससे किसी प्रकार का मतलब गाँठना हो । यौ०— खरा आदमी= चटपट दाम देनेवाला आदमी । ड़ूबा असमी= गया गुजरा । दिवालिया । मोटा असामी= धनी पुरुष । लीचड़ असामी=देने में सुस्त । नादिहंद । मुहा०—असामी बनाना=अपने मतलब पर चढ़ाना । अपनी गौं का बनाना ।
⋙ असामी (२)
संज्ञा स्त्री० १. परकीया या वेश्या । रखेली; जैसे,— तुम्हारी असामी को कोई उड़ा ले गया (शब्द०) ।२. नौकरी । जगहा; जैसे,— कोई असामी खाली हो तो बतलाना (शब्द०) ।
⋙ असार (१)
वि० [सं०] १. साररहित । तत्वशून्य । नि?सार । २. शून्य खाली ।३. तुच्छ ।४. जो तत्पर न हो । उत्साहहीन [को०] । ५. दरिद्र । निर्धन [को०] ।६. कमजोर । निर्बल [को०] ।
⋙ असार (२)
संज्ञा पुं० १. रेंड़ का पेड़य़ ।२. अगरु चंदन ।३. सारहीन या निस्तत्व भाग [को०] ।
⋙ असार (३) पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'असवार' ।
⋙ असारता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नि?सारता । तत्वशून्यता ।२. तुच्छता । ३. मिथ्यात्व ।
⋙ असारभांड
संज्ञा पुं० [सं० असारभाण्ड़] कौटिल्य के अनुसार घटिया माल ।
⋙ असालत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कुलीनता ।२. सचाई । तत्व ।
⋙ असालतन
क्रि० वि० [अ०] स्वयं । खुद ।
⋙ असाला
संज्ञा स्त्री० [सं० अशालिका] हालों । चंसुर ।
⋙ असावधान
वि० [सं०] [संज्ञा असावधानता] जो सावधान या सतर्क न हो । खबरदार न हो । जो सचेत न हो ।
⋙ असावधानता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेपरवाही ।
⋙ असावधानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेखबरी । बेपरवाही ।
⋙ असावरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अशावरी अथावा अशावरी] छत्तीस रागिनियों में से एक प्रधान रागिनी । भैरव राग की स्त्री (रागीनी) । यह रागिनी टोड़ी से मिलती जुलती है और सबेरे सात बजे से नौ बजे तक गाई जाती हैं ।
⋙ असावरी (२)
संज्ञा स्री० [सं० अंशुपट्ट?] वस्त्रविशेष । उ०— पाँवरी पैन्हि लै प्यारी जराइ की ओढ़ि लै चाँचरि चारु असावरी ।— भिखारी ग्रं०, भा०१, पृ० ५४ ।
⋙ असावली
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'असावरी' । उ० — सुंदरि क्यों पहि- रति नग भूषन असावली । तन की द्युति तेरी सहज ही मसाल- प्रभावली ।— भिखीरी ग्रं०, भा०१, पृ०२७० ।
⋙ असासा
संज्ञा पुं० [अ० असासह] १. माल । असबाब ।२. संपत्ति । धन—दौलत ।
⋙ असासुलबैत
संज्ञा पुं० [अ०] घर का असबाब । घर का अटाला ।
⋙ असि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तलवार । खङ्ग । वाराणासी के दक्षिण स्थित एक नदी ।३. श्वास [को०] ।
⋙ असिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. होंठ और ठुड़्ड़ के बीच का भाग ।२. एक देश का नाम ।
⋙ असिक्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] युवती दासी [को०] ।
⋙ असिक्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंत?पुर में रहनेवाली वह दासी जो वृद्धा न हो ।२. पंजाब की एक नदी । चिनाब ।३. वीरण प्रजापति की कन्या जो दक्ष को ब्याही थी । ४. रात्रि [को०] ।
⋙ असिगंड़
संज्ञा पुं० [सं०असिगण्ड़] गाल नीचे रखने की छोटी तकिया [को०] ।
⋙ असिचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] तलवार चलाने का अभ्यास [को०] ।
⋙ असिजीवी
वि० [असिजीविन्] तलवार के द्वार जीविका अपा- जित करनेवाला । सैनिक ।
⋙ असित (१)
वि० [सं०] १. जो सफेद न हो । काला । उ०— असित कुटिल अलकैं तेरी । उचित हरति मति है मेरी । — भिखारी ग्र०, भा० १, पृ० १९३ । २. दुष्ट । बुरा । ३. टेढ़ा । कुटिल ।
⋙ असित (२)
संज्ञा पुं० १. एक ऋषि का नाम ।२. भरत राजा का पुत्र । ३. शनि ।४. पिगला नाम की नाड़ी ।५. धौं का पेड़ । ६. काल या नीला रंग [को०] ।७. कृष्णपक्ष [को०] । कृष्ण सर्प [कौ०] ।९ कृष्ण का एक नाम [को०] ।
⋙ असितगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] नीलगिर नाम का पहाड़ [को०] ।
⋙ असितग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । २. मयूर [को०] ।
⋙ असितांग (१)
वि० [सं०असिताड़्ग] १. काले रंग का ।२. काले अंगों वाला ।
⋙ असितांग (२)
संज्ञा पुं० १. एकमुनि ।२. शिव का एक नाम ।
⋙ असिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. यमुना नदी ।२. नीली या नील नाम का पौधा ।३. चंद्रभाग नदी [को०] ।४. दक्षपत्नी का नाम (को०) ।५. अंत?पुर की वह दासी जिसके केश शवेत न हुए हों (को०) ।६. रात्रि (को०) ।
⋙ असितोत्पल
संज्ञा पुं० [सं० असित + उत्पल] नील कमल [को०] ।
⋙ असितोपल
संज्ञा पुं० [सं० असित +उपल] नीलम [को०] ।
⋙ असिदंत
संज्ञा पुं० [सं० असिदन्त] मकर नामक जलजीव । घड़ियाल [को०] । पर्या० — असिदंष्ट्र । अपिदंष्ट्रक ।
⋙ असिद्ध (१)
वि० [सं०] १. जो सिद्ध न हो । २. बेपका । कच्चा ।३. अणूर्ण । अधूरा । ४. निष्फल । व्यर्थ ।५. अप्रमाणित । जो साबित न हो ।
⋙ असिद्ध
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का बड़ा और ऊँचा वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और प्राय? इमारत के काम में आती हैं । इसकी छाल से चमड़ा भी सिझाया जाता है ।२. हेत्वाभास का एक भेद [को०] ।
⋙ असिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अप्राप्ति । अनिष्पत्ति ।२. कच्चापन । कचाई ।३. अपूर्णता ।
⋙ असिधाराव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. असिधार के समान व्रत ।२. पुरानी प्रथा के अनुसार पति और पत्नी का ब्रह्मचर्यव्रत, जिसमें पति और पत्नी सोते समय बीच में एक नंगी तलवार रख लेते थे कि वे एक दूसरी का स्पर्श न कर सकें [को०] ।
⋙ असिधावक
संज्ञा पुं० [सं०] तलवार आदि को साफ करनेवाला । सिकलीगर ।
⋙ असिधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] छुरी [को०] ।
⋙ असिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईख । गन्ना ।२. कृपाण का कोष [को०] ।
⋙ असिपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'असिपत्र' [को०] ।
⋙ असिपत्रवन
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणों के अनुसार एक नरक जिसके विषय में लिखा है कि वह सहस्त्र योजन की जलती भूमि है, जिसके बीच में एक जंगल है जिसके पत्ते तलवार के समान हैं ।
⋙ असिपथ
संज्ञा पुं० [सं०] साँस लेने को राह । श्वासमार्ग [को०] ।
⋙ असिपाणि
वि० [सं०] जिसके हाथ में तलवार हो । खड़्गधारी [को०] ।
⋙ असिपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १.मगर ।२. सकुची मछली जो पूँछ से मारती हैं ।
⋙ असिपुच्छक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'असिपुच्छ' [को०] ।
⋙ असिपुत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छुरी । कृपाणी [को०] ।
⋙ असिपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'असिपुत्रिका' ।
⋙ असिभेद
संज्ञा पुं० [सं०] विट्खदिर [को०] ।
⋙ असियष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तलवार का फल [को०] ।
⋙ असिलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'असियाष्टि' [को०] ।
⋙ असिव पु
वि० [सं० अशिव] दे० 'अशिव' । उ०—गरल कंठ उर नर सिर माला । असिव वेष सिवधाम कृपाला ।— मानस, १ ।९२ ।
⋙ असिस्टंट
वि० [अं० असिस्टैंट] सहायक ।
⋙ असिहत्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कृपाणयुद्ध । तलवार की लड़ाई [को०] ।
⋙ असिहत्य (२)
वि० [सं०] तलवार से वध करने योग्य [को०] ।
⋙ असिहेति
संज्ञा पुं० [सं०] खङ्गघारी सैनिक [को०] ।
⋙ असी (१)
संज्ञा स्त्री० [ सं० असि] एक नदी जो काशी के दक्षिण गंगा से मिली है । अब यह एक नाले के रूप में रह गई हैं ।
⋙ असी (२)
वि० [हि०] दें० 'अस्सी' । उ०— असी सहस किंकरदल तेहि के दौरे मोहि निहारि । — सूर० ९ ।१०४ ।
⋙ असीन
संज्ञा पुं० [ देश०] सज नाम का वृक्ष । वि० दे० 'सज' ।
⋙ असीम
वि० [सं०] १. सीमारहित । बेहद ।२. अपरिमित । अनंत । ३. अपार । अगाध ।
⋙ असीमित
वि० [सं०] १. जो सीमित न हो ।२. जिसकी सीमा निश्चित न की गई हो [को०] ।
⋙ असीर
संज्ञा पुं० [अ०] १. कैदी । बंदी ।२. कठिन । दुष्कर [को०]
⋙ असीरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] कैद [को०] ।
⋙ असील (१)
वि० [हि०] दे० 'असल' । उ०— हरदी जरदी जो तजै तजै खटाई आम । जो असील गुन को तजै औगुन तजै गुलाम । (शब्द०) ।
⋙ असील (२)
वि० [अ०] १. कुलीन । शरीफ । २. खरा । उत्तम ।३. अच्छे लोहे का [को०] ।
⋙ असीस पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अशिष्] दे० 'आशिष' । उ० — दीन्हि असीस हरषि मन गंगा ।— मानस, ६ ।१२० ।
⋙ असीमना †
क्रि० स० [हि० असीस + ना (प्रत्य०)] आशीर्वाद देना । दुआ देना । उ०— पुहुमी सबै असीसइ जोरि जोरि कइ हाथ । गाँग जमुन जल जो लगि अगर रहइ सो साथ ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ असुंदर (१)
संज्ञा पुं० [सं० असुन्दर] वह व्यंग जिसकी अपेक्षा वाच्यार्थ में अधिक चमत्कार हो ।यह गुणीभूत व्यंग्य का एक भेद हैं । उ०— ड़ाल रसाल जु लखत ही पल्लव जुत कर लाल । कुम्ह— लानी उर सालधर फूल माल ज्यों बाल (शब्द०) ।
⋙ असुंदर (२)
वि० सुंदर न हो । कुरूप । भद्द । अप्रशस्त ।
⋙ असु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणवायु । प्राण । उ०— बूझत हौ तो यहै प्रभु कीजै । मो असु दै वरु अश्व न दीजै ।—रामचं०, पृ० १७७ । २. चित्त । ३. जल [को०] ।४. गरमी । ताप [को०] । ५. एक पल का छठा भाग [को०] ।६. विचार [को०] ।७. हदय [को०] ।८. दु?ख । वेदना [को०] ।
⋙ असु (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्व] घोड़ा । अश्व । उ० — असु दल गज दल दूनौ साजे । औ घन तबल जुभाऊ बाजे । —जायसी ग्रं०, पृ० २२८ ।
⋙ असुकर
वि० [सं०] जो सुकर न हो । जिसे करना मुश्किल हो [को०] ।
⋙ असुख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बीमारी कष्ट । पीड़ा [को०] ।
⋙ असुख (२)
वि० [सं०] १. पीड़ित । असंतुष्ट । २. क्लिष्ट । कठिन [को०] । यौ०. —असुख जीविका= दु?खमय जीवन ।
⋙ असुखी
वि० [सं० असुखिन्] दु?खी । कष्ट में पड़ा हुआ । शोक- मय [को०] ।
⋙ असुखयोदय
संज्ञा पुं० [सं०] १. दु?खकर ।२. दु?खांत [को०] ।
⋙ असुखोदर्क
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'असुखोदय' [को०] ।
⋙ असुग पु
वि० [हि०] दे० 'आशुग' ।
⋙ असुचि पु
वि० [हि०] दे० 'अशुचि' । उ०— गोमुख असुचि तबहि तै भयौ । रिषि सुकदेव नृपति सौं कह्मौ । — सूर० । ६ ।५ ।
⋙ असुझ पु
वि० [हि०] दे० 'असूझ' । उ०— तेरेहि सुझाए सूझै असुझ सुझउ सो ।—तुलसी ग्रं०, पृ५४९ ।
⋙ असुत पु
वि० [सं०] अपुत्र । जिस पुत्र न हो [को०] ।
⋙ असुत्त पु
वि० [सं० असुप्त] दे० 'असुप्त' ।
⋙ असुत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणत्याग । मरण [को०] ।
⋙ असुध
वि० [सं० अ= नहीं+ हि० सुध] चेतनारहित । उ० —यहाँ तक आते आते असुध होकर गिर ही पड़ा ।— भारतेदु ग्रं०, भा० १, पृ० ७०२ ।
⋙ असुधारण
संज्ञा पुं० [सं०] जीवन । अस्तित्व [को०] ।
⋙ असुनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० अश्विनी] दे० 'अश्विनी' ।
⋙ असुनीत
संज्ञा पुं० [सं०] यमराज [को०] ।
⋙ असुपाद
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणियों को एक साँस लेकर फिर साँस लेने में जितना काल लगता है, उसका चतु्र्थाश काल ।
⋙ असुप्त
वि० [सं०] न सोता हुआ । जाग्रत [को०] ।
⋙ असुबिधा
संज्ञा स्त्री० [सं० अ =नहीं+ सुविधि= अच्छी तरह] १. कठिनाई । अड़चन ।२. तकलीफ । दिक्कत ।
⋙ असुभंग
संज्ञा पुं० [सं० असुभङ्ग] प्राणनाश । प्राणभंग [को०] ।
⋙ असुभ पु
वि० [सं० अशुभ] दे० 'अशुभ' । उ०— असुभ बेष भूषन धरे भक्षाभक्ष जे खाहिं ।— मानस, ७ ।९८ ।
⋙ असुभत्
वि० [सं०] प्राणवान् । प्राणी [को०] ।
⋙ असुमान्
वि० [सं० असुमत्] दे० 'असुभृत' [को०] ।
⋙ असुमेध
संज्ञा पुं० [सं० अश्वमेध] दे० 'अश्वमेध' ।
⋙ असुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. दैत्य । राक्षस । २. रात्रि । ३. नीच वृत्ति का पुरूष । ४. पृथिवी । ५. सूर्य । ६. बादल ।७. राहु । ८. वैद्यक शास्त्र करे अनुसार एक प्रकार का उन्माद । विशेष इसमें पसीना नहीं होता और रोगी ब्राह्मण, गुरु, देवता आदि परक दोषारोपण किया करता है, उन्हे भल बुरा कहने से नहीं डरता, किसी वस्तु से उसकी तृप्ति नहीं होती और वह कुमार्ग में प्रवृत्त होता है । ९—समुद्री लवण । १०. देवदार । ११. हाथी [को०] । १२. एक लड़ाकू जाति [को०] ।
⋙ असुरकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] जैनशास्त्रानुसार एक त्रिभुवनपति देवता ।
⋙ असुरगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्राचार्य ।
⋙ असुरद्रुट्
संज्ञा पुं० [सं असुरद्रुह्] देव । सुर [को०] ।
⋙ असुरद्विट्
संज्ञा पुं० [सं० असुरद्विष् (ट्)] विष्णु [को०] ।
⋙ असुरारज
संज्ञा पुं० [सं०] राजा बलि । दैत्यराज [को०] ।
⋙ असुररिपु
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।
⋙ असुरविजयी
संज्ञा पुं० [सं० असुरविजयिन्] वह राजा जो पराजित की भूमि, धन, स्त्री, पुत्र आदि के अतिरिक्त उसकी जाति भी लेना चाहे । विशेष—कोटिल्य ने लिखा है कि दुर्बल राजा ऐसे शत्रु को भूमि आदि देकर जहाँ तक दूर रख सके, अच्छा है ।
⋙ असुरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का तुलसी का पौधा [को०] ।
⋙ असुरसूदन
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।
⋙ असुरसेन
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस । कहते हैं कि इसके शरीर पर गया नामक नगर बसा है । उ०—असुरसेन सन नरक निकं दिनि । साधु बिबुध कुलहित गिरिनंदिनि ।—मानस, १ । ३१
⋙ असुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात । २. वारांगना । ३. राशि [को०] ।
⋙ असुराई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० असुर+हिं० आई (प्रत्य०)] खोटाई । शरारत । उ०—बात चलत जाकी करै असुराई नेहिन । है कछू अदभुत मत भरो तेरे दृगन प्रवीन ।—सं० सप्तक, पृ० १९८ ।
⋙ असुराचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुक्र ग्रह । २. शुक्रचार्य । असुर गुरु [को०] ।
⋙ असुराधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. असुरराज । दैत्यों का अधिपति । २. जलंधर नामक असुरराज । उ०—परम सती असुराधिप नारी । तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ।—मानस, १ । २३ । ३. राज बलि [को०] ।
⋙ असुरारि
संज्ञा पुं० [सं०] देवता ।
⋙ असुरारी पु
संज्ञा पुं० [सं० असुरारि] दे० 'असुरारि' । उ०—गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंत ।— मानस, १ । १८६ ।
⋙ असुराह्व
संज्ञा पुं० [सं०] काँसा नामक धातु [को०] ।
⋙ असुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १ राक्षसी ।२. राई [को०] ।
⋙ असुविधा
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'असुबिधा' ।
⋙ असुविलास
संज्ञा पुं० [सं०] १. छंदविशेष [को०] ।
⋙ असुस्थ
वि० [सं०] अनिश्चिंत । उद्विग्न । बीमार । रुग्ण [को०] ।
⋙ असुस्थता
संज्ञा स्त्री० [सं०] उद्विग्नता । बीमारी [को०] ।
⋙ असूक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] अनादर [को०] ।
⋙ असूझ पु †
वि० [सं० अ+हिं० सूझना] १. अँधेरा । अंधकार- मय । उ०—अगम असूझ देखि डर खाई । परै सौ सप्त पतालहि जाई ।—जायसी (शब्द०) । २. जिसका वार पार न दिखाई पड़े । अपार । बहुत विस्तृत । बहुत अधिक । उ०— (क) कटक असूझ देखि कै राजा गरब करेइ । दैउ क दसा नदेखै दुहुँ का कहँ जय देइ ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११२ । ३. जिसके करने का उपाय न सूझे । विकट । कठिन । उ०— दोऊ लड़े होय समुख लोहैं भयो असूझ । शत्रू जूझ तब न्योरे एक दोऊ मँह जूझ ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ असूत पु †
वि० [सं० अस्यूत] विरुद्ध । असंबद्ध । उ०—पुनि तिन प्रश्न कियो निज पूतहि । शास्त्र परस्पर कहत असूतहि ।— निश्चल (शब्द०) ।
⋙ असूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वंध्यात्व । बाँझपन । २. निवारण [को०] ।
⋙ असूतिका
वि० स्त्री० [सं०] १. जिसका बच्चा न बैदा हुआ हो । २. बंध्या [को०] ।
⋙ असूयक (१)
वि० [सं०] १. ईर्षा करनेवाला । छिद्रान्वेषी । २. असंतुष्ट । अप्रसन्न [को०] ।
⋙ असूयक (२)
संज्ञा पुं० निंदा करनेवाला व्यक्ति [को०] ।
⋙ असूया
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० असूयक] १. पराए गुण में दोष लगाना । उ०—सदा सत्यमय सत्यब्रत सत्य एक पति इष्ट । बिगत असूया सील सै ज्यों अनसूया सृष्ट ।—स० सप्तक, पृ० ३६९ । २. रस के अंतर्गत एक संचारी भाव । ३. क्रोध [को०] ।
⋙ असूयिता
वि० [सं० असूयितृ] दे० 'असूयक' [को०] ।
⋙ असूयु
वि० [सं०] दे० 'असूयक' [को०] ।
⋙ असूर्यपश्या (१)
वि० [सं० असूर्यम्पश्या] १. सूर्य को भी न देखनेवाली । राजा के अंतःपुर की स्त्रियों या रानियों के लिये प्रयुक्त जो कठोर पर्दे में रहती थीं । २. जिसकी सूर्य भी न देखे । परदे में रहनेवाली; जैसे,—'असूर्यपश्या' दमयंती को विपत्ति में बन बन फिरना पड़ा ।
⋙ असुर्यपश्या (२)
संज्ञा स्त्री० पतिव्रता या साध्वी पत्नी [को०] ।
⋙ असूल (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० उसूल] दे० 'उसूल' ।
⋙ असूल
वि० [अ० वसूल] दे० 'वसूल' ।
⋙ असृक्
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्त । रुधिर । २. मंगल ग्रह [को०] । ३. कुंकुम । केसर [को०] । ४. योग के सत्ताईस भेदों में से एक [को०] । यौ०—असृक्य, असृक्या=रक्तपायी । राक्षस । असृक्यात, असृक्स्त्राव=रक्तपात । खून बहना ।
⋙ असृक्कर
संज्ञा पुं० [सं०] (शरीर में) रस से रक्त बनने की प्रक्रिया ।
⋙ असृग्
संज्ञा पुं० [सं० असृक्] दे० 'असृक्' [को०] ।
⋙ असृग्ग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल ग्रह [को०] ।
⋙ असृग्दर
संज्ञा पुं० [सं०] मासिकधर्म का अनियमित या अधिक होना [को०] ।
⋙ असृग्दोह
संज्ञा पुं० [सं०] रक्तस्राव [को०] ।
⋙ असृग्धरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमड़ा । चर्म [को०] ।
⋙ असृग्धारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमड़ा । २. खून की धारा [को०] ।
⋙ असृग्वहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह नाड़ी जिसमें रक्तसंचार होता है । [को०] ।
⋙ असृग्विमोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] रक्त निकलना [को०] ।
⋙ असृष्ट
वि० [सं०] १. जिसकी सृष्टि न हुई हो । अनुत्पन्न । २. जो चल रहा हो । जारी । ३. जो प्रदान न किया गया हो अथवा जिसका वितरण न हुआ हो [को०] । यौ०—असृष्टान्न=जो भोजन का वितरण न करे ।
⋙ असेग पु
वि० [सं० असह्य] न सहने योग्य । असह्य । कठिन ।
⋙ असेचन, असेचनक
वि० [सं०] खूबसूरत । जिसे बार बार देखने को जी चाहे [को०] ।
⋙ असेत पु
वि० [सं० अ=नहीं+श्वेत, प्रा० सेअ, अप० सेत] अश्वेत । काला । बुरा । उ०—कीन्हीं तुम सेत, मैं असेत कृति, कीन्हीं तुम धर्म अनुराग्यो मैं अधर्म अनुराग्यो है ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २४८ ।
⋙ असेवन (१)
[सं०] १. सेवा न करनेवाला । २. अनुगमन न करनेवाला [को०] ।
⋙ असेवन (२)
संज्ञा पुं० अवज्ञा । ध्यान न देना [को०] ।
⋙ असेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'असेवन—२' [को०] ।
⋙ असेवित
वि० [सं०] १. परित्यक्त । उपेक्षित । २. अव्यवहृत [को०] ।
⋙ असेष पु
वि० [हिं०] दे० 'अशेष' । उ०—राखत न लेस अघ बिघन असेष को ।—भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० १६५ ।
⋙ असेस पु
वि० [सं० अशेष, प्रा० असेस] अनंत । बहुत । उ०—जात भो रसातलै असेस कंठमाल भेदि ।—रामचंद्र०, पृ० १३५ ।
⋙ असेसमेंट
संज्ञा पुं० [अं० एसेसमेंट] १. मालगुजारी या लगान लगाने के लिये जमीन का मोल ठहराने का काम । बंदोबस्त । २. कर वा टैक्स लगाने के लिये बही खाते की जाँच का काम ।
⋙ असेसर
संज्ञा पुं० [अं० एसेसर] १. वह व्यक्ति जो जज को फौजदारी के मुकद्दमे में फैसले के समय राय देने के लिये चुना जाता है । २. वह जो बही खाता जाँच कर महसूल या कर की रकम निश्चित करता है । ३. वह जो जमीन का मोल ठहराकर लगान या मालगुजारी कीरकम निश्चित करना है । कर लगानेवाला ।
⋙ असैनिक
वि० [सं०] १. जो सैनिक न हो । जो सेना से संवंध न रखना हो ।
⋙ असैला पु
वि० [सं० अ=नहीं+शैली=रीति] [स्त्री० असैली] १. रीति नीति के विरुद्ध कर्म करनेवाला । कुमार्गी । उ०— सभा-सरवर, लोक-कोकनद-कोकगन प्रमुदित मन देखि दिनमनि भोर हैं । अदुध असैल मनमैले महिपाल भए कछुक उलूक कछु कुमुद चकोर हैं । तुलसी ग्रं०, पृ० ३०७ । २. शैली के विरुद्ध । अनुचित । रीतिविरुद्ध । उ०—मैं सुनी बातैं असैली जे कहि निसिचर नीच । क्यों न मारै बैठो काल डाढ़नि बीच । —तुलसी ग्रं०, पृ० ३७४ ।
⋙ असों †
क्रि० वि० [सं० इह=समय या अस्मिन् समय का संक्षिप्त रुप] इस वर्ष । इस साल ।
⋙ असोक (१)
संज्ञा पुं० [सं० अशोक] दे० 'अशोक' । उ०—तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ ।—मानस, ३ । २३ ।
⋙ असोक (२)पु
वि० [सं० अशोक] शोकरहित । उ०—जहँ असोक तहँ सोक वस है न सियहिं निज बोध ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ४९ ।
⋙ असोकी पु
वि० [हिं० असोक=ई (प्रत्य०)] शोकरहित । उ०—प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी । माँगि अगम बरु होउँ असोकी । —मानस, १ । १६४ ।
⋙ असोच पु
वि० [सं० अ+शोच] १. शोचरहित । चिंतारहित । उ०—रहैं असोच बनै प्रभु पोसे ।—मानस, ४ । ३ ।२.निश्चिंत । बेफिक्र । उ०—माधौं जू, मन सबहीं विधि पोच । अति उनमत्त, निरंकुस, मैगल, चिंतारहित असोच ।— सूर०, १ । १०२ ।
⋙ असीज पु †
संज्ञा पुं० [सं० अश्वयुज, प्रा० असोय] आश्विन । क्वार ।
⋙ असोढ
वि० [सं०] १. असह्य । २. जो वश में न किया जा सके । उद्धत [को०] ।
⋙ असोस पु
वि० [अ+शोष] जो सूखे नहीं । न सूखनेवाला । उ०—(को) कबिरा मन का माँहिला अबला वहै असोस । देखत ही दह में परै देय किसी को दोस ।—कबीर (शब्द०) । (ख) गोपिन कै अंसुवनु भरी सदा असोस अपार । डार डगर नै ह्वै रही बगर बगर के बार ।—बिहारी र०, पृ० २९३ ।
⋙ असोसिएशन
संज्ञा पुं० [अं० एसोसिएशन] समिति । समाज । संस्था ।
⋙ असौंदर्य
संज्ञा पुं० [सं० असौन्दर्य] असुंदरता । कुरूपता [को०] ।
⋙ असौंध पु
संज्ञा पुं० [सं० अ=नहीं+हिं० सौंध=सुध] दुर्गंध । बदबू । उ०—जहँ आगम पौनहि को सुनिए । नित हानि असौंधहिं की गुनिए ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ असौच पु
संज्ञा पुं० [सं० अशौच ] दे० 'अशौच' । उ०—हौं असौच, अक्रिय अपराधी, सनमुख होत लजाउँ । —सूर०, १ । १२८ ।
⋙ असौधा पु
वि० [हिं० असौंध] १. दे० 'असौंध' । २. सुगंधबिहीन ।
⋙ असौम्य
वि० [सं०] जो सौम्य न हो । असुंदर । कुरूप [को०] ।
⋙ असौष्ठव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकम्मापन । गुणहीनता । २. सुष्ठुता का अभाव । भद्दापन [को०] ।
⋙ असौष्ठव (२)
वि० असुंदर । भद्दा । बिरूप [को०] ।
⋙ अस्कंदित
वि० [सं अस्कन्दित] १. अक्षरित । न बहा हुआ । २. न गया हुआ । ३. अनाक्रांत । ४. अविस्मृत अनुपेक्षित—जैसे समय अथवा प्रतिज्ञा [को०] ।
⋙ अस्क †
संज्ञा पुं० [देश०] नैनीताल में बुलाक को कहते हैं । यह एक छोटी सी नथुनी और लटकन जिसे स्त्रीयाँ नाक में पहनती हैं ।
⋙ अस्कन्न
वि० [सं०] १. न फटा हुआ । २. न खुला हुआ । ३. टिकाऊँ । ४. न उँडेला हुआ [को०] ।
⋙ अस्कर
संज्ञा पुं० [अ०] फौज । सेना [को०] ।
⋙ अस्करी
संज्ञा पुं० [अ०] सैनिक । यौद्धा [को०] ।
⋙ अश्खल
संज्ञा पुं० [सं०] आग । अग्नि [को०] ।
⋙ अस्खलित
वि० [सं०] १. च्युत न होनेवाला । अच्युत । २. विचलित न होनेवाला । अडिग । ३. विशुद्ध । ४. शुद्ध उच्चारण करनेवाला [को०] ।
⋙ अस्तंगत
वि० [सं अस्तङ्गत] १. अस्त को प्राप्त । नष्ट । २. अवनत । हीन ।
⋙ अस्त (१)
वि० [सं०] १. छिपा हुआ । तिरोहित । २. जो दिखाई न पड़े । अदृश्य । डूबा हुआ, जैसे—सूर्य अस्त हो गया । ३. नष्ट । ध्वस्त, जैसे—मुगलों का प्रताप औरंगजेब के पीछे अस्त हो गया (शब्द०) । ४. फैंका हुआ । क्षिप्त [को०] । ५. समाप्त [को०] । ६. भेजा हुआ [को०] ।
⋙ अस्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिरोधान । लोप । अदर्शन, जैसे-सूर्यास्त के पहले आ जाना (शब्द०) । २. पश्चिम मेरु (जिसके पीछे सूर्य डूबता है) [को०] । ३. आवास । घर [को०] । ४. समाप्ति । मृत्यु [को०] । यौ०.—सूर्यास्त । शुक्रास्त । अस्तंगत । विशेष—सब ग्रह अपने उदय के लग्न से सातवें लग्न पर अस्त होते हैं । इसी से कुंडली में सातवें घर की संज्ञा 'अस्त' है । बुध को छोड़कर अन्य ग्रह जब सूर्य के साथ होते हैं, तब अस्त कहे जाते हैं ।
⋙ अस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोक्ष ।२. घर [को०] ।
⋙ अस्तकाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अस्तसमय' ।
⋙ अस्तगमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. डूबना । लोप । २. मृत्यु । जीवन का अंत [को०] ।
⋙ अस्तगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] अस्ताचल । वह पर्वत जिसके पीछे सूर्य अस्त हो जाता है [को०] ।
⋙ अस्तन पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्तन] दे० 'स्तन' । उ०—कपट करि ब्रजहिं पूतना आई । अति सुरूप, बिष अस्तन लाए, राजा कंस पठाई ।—सूर०, । १० । ५२ ।
⋙ अस्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके स्तन बहुत ही छोटे और नहीं के समान हों ।
⋙ अस्तप्राय
वि० [सं०] लगभग डूवा हुआ ।
⋙ अस्तबल
संज्ञा पुं० [अ०] घुड़साल । तबेला ।
⋙ अस्तब्ध
वि० [सं०] १. जो स्तब्ध न हो । अचकित । २. चंचल । ३. विनयी [को०] ।
⋙ अस्तभवन
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार उदय के लग्न से सप्तम लग्न [को०] ।
⋙ अस्तमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरिवन का पेड़ । सातिवा । शालपर्णी ।
⋙ अस्तमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्त होना । तिरोधान । २. सूर्यादि ग्रहों का तिरोधान या अस्त होना । यौ०—अस्तमनवेला ।
⋙ अस्तमननक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] जिस नक्षत्र पर कोई ग्रह अस्त हो, वह नक्षत्र उस ग्रह का अस्तमन नक्षत्र कहलाता है ।
⋙ अस्तमनबेला
संज्ञा स्त्री० [सं० अस्तमनवेला] साधंकाल । संध्या का समय ।
⋙ अस्तमित
वि० [सं०] १. तिरोहित । छिपा हुआ । २. नष्ट । मृत ।
⋙ अस्तर
संज्ञा पुं० [फा०, प्रि० सं० आ+स्तृ आच्छादन, तह या आस्तर] १. नीचे की तह या पल्ला । भितल्ला । उपल्ले के नीचे का पल्ला । २. दोहरे कपड़े में नीचे का कपड़ा । ३. नीचे ऊपर रखकर सिले हुए दो चमड़ों में से नीचेवाला चमड़ा । ४. वह चंदन का तेल जिसपर भिन्न भिन्न सुगंधों का आरोप करके अतर बनाया जाता है । जमीन । ५. वह कपड़ा जिसे स्त्रीयाँ बारीक साड़ी के नीचे लगाकर पहनती हैं । अँतरौटा । अंतरपट । ६. नीचे का रंग जिसपर दूसरा रंग चढ़ाया जाता है । ७. खच्चर [को०] ।
⋙ अस्तरकारी
संज्ञा स्त्री० [फा] १. चूने की लिपाई । सफेद । कलई । २. गचकारी । पलस्तर । पन्ना लगाना ।
⋙ अस्तरबट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] पत्थर की वह बट्टी जिससे तसवीर की जमीन घोंटी जाती है [को०] ।
⋙ अस्तरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री] नारी । स्त्री । उ०—माया माता पिता, अति माया अस्तरी सुता ।—कबीर ग्रं०, पृ० ११५ ।
⋙ अस्तव्यस्त
वि० [सं०] उलटा पुलटा । छिन्न भिन्न । तितर बितर । उ०—अस्यव्यस्त है । वह भी ढक ले कौन सा अंग, न जिसमें कोई दृष्टि लगे उसे ।—झरना, पृ० २२ ।
⋙ अस्ताघ
वि० [सं०] अतिशय गंभीर । बहुत गहरा [को०] ।
⋙ अस्ताचल
संज्ञा पुं० [सं०] एक कल्पित पर्वत जिसके संबंध में लोगों का यह विश्वास है कि अस्त होने के समय सूर्य इसी की आड़ में छिप जाता है । पश्चिमाचल । उ०—प्रस्ताचल जाते ही दिनकर के, सब प्रकट हुए कैसे । —प्रेम०, पृ० ११ ।
⋙ अस्ताद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अस्ताचल' ।
⋙ अस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भाव । सत्ता । २. विद्यमानता । वर्त- मानता । ३. जरासंध की एक कन्या जो कंस को ब्याही गई थी ।
⋙ अस्तिकाय
संज्ञा पुं० [सं०] जैनशास्त्रानुसार वे सिद्ध पदार्थ जो प्रदेशों या स्थानों के अनुसार कहे जाते हैं । विशेष—ये पाँच हैं—(क) जीवास्तिकाय, (ख) पुदगलास्तिकाय, (र) धर्मास्तिकाय, (घ) अधर्मास्तिकाय और (च) आकाशास्तिकाय ।
⋙ अस्तिकेतुसंज्ञा
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योंतिष में वह केतु जिसका उदय पश्चिम भाग में हो और जो उत्तर भाग में फैला हो । इसकी मूर्ति रुक्ष होती है और इसका फल भयप्रद है ।
⋙ अस्तित्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. सत्ता का भाव । विद्यमानता । मौजूदगी । उ०—सिर नीचा कर किसकी सत्ता सब करते स्वीकार यहाँ; सदा मौन हो प्रवचन करते जिसका वह अस्तित्व कहाँ ।— कामायनी, पृ० २६ । २. सता । भाव । उ०—निज अस्तित्व बना रखने में जीवन आज हुआ था व्यस्त ।—कामायनी, पृ० ३३ ।
⋙ अस्तिनास्ति
वि० [सं०] संदेहपूर्ण । हाँ नहीं । कुछ झूठा कुछ सच्चा [को०] ।
⋙ अस्तिमान्
वि० [सं० अस्तिमत्] धनवान । धनाढ्य [को०] ।
⋙ अस्तीन †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'आस्तीन' ।
⋙ अस्तु
अव्य० [सं०] १. जो हो । चाहे जो हो । उ०—अस्तु, सुव्रते ! कहो कहाँ फिर तुम रहीं, मेरे जाने बाद । — करुणा०, पृ० ३१ । २. खैर । भला । अच्छा । उ०—अस्तु सभी तुम शक्तिहीन हो गए ।—करुणा०, पृ० ३२ ।
⋙ अस्तुति (१) पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] निंदा । अपकीर्ति ।
⋙ अस्तुति (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्तुति] दे० 'स्तुति' । उ०—निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज । —मानस ७ । ३८ ।
⋙ अस्तुरा
संज्ञा पुं० [फा० उस्तरा, मि० सं० अस्त्र] बाल बनाने का छुरा ।
⋙ अस्तेय
संज्ञा [सं०] १. चोरी का त्याग । चोरी न करना । २. योग के आठ अंगों में नियम नामक अंग का तीसरा भेद । यह स्तेय अर्थात् बल से या एकांत में पराए धन का अपहरण करने का उलटा या विरोधी । इसका फल योगशास्त्र में सब रत्नों का उपस्थान या प्राप्ति है । ३. जैनशास्त्रनुसार अदत्तदान का त्याग करना । चोरी न करने का व्रत ।
⋙ अस्तेयव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह का त्याग । वह व्रत जिसमें जरूरत से ज्यादा संपत्ति रखने को चोरी जैसा पाप कर्म समझा जाता है [को०] ।
⋙ अस्तोदय
संज्ञा पुं० [सं० अस्त+उदय] १. डूबना उगना । २. बिगड़ना बनना [को०] ।
⋙ अस्त्यान
संज्ञा पुं० [सं०] १. परदोषकथन । निंदा । २. झिड़की । भर्त्सना [को०] ।
⋙ अस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह हथियार जिसे फेंककर शत्रु पर चलावें; जैसे—बाण । शक्ति । २. वह हथियार जिससे कोई चीज फैंकी जाय; जैसे—धनुष, बंदूक । ३. वह हथियार जिससे शत्रु के चलाए हथियारों की रोक हो; जैसे—ढाल । ४. वह हथियार जो मंत्र द्वारा चलाया जाय; जैसे जृंभास्त्र । ५. वह हथियार जिससे चिकित्सक चीर फाड़ करते हैं । ६. शस्त्र । हथियार । यौ०—अस्त्रशस्त्र ।
⋙ अस्त्रकंटक
संज्ञा पुं० [सं० अस्त्रकण्टक] बाण । तीर [को०] ।
⋙ अस्त्रकार
संज्ञा पुं० [सं०] हथियार बनानेवाला कारीगर ।
⋙ अस्त्रकारक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अस्त्रकार' [को०] ।
⋙ अस्त्रकारी
संज्ञा पुं० [सं० अस्त्रकारिन्] दे० 'अस्त्रकार' [को०] ।
⋙ अस्त्रघला पु †
वि० [सं० अस्त्र+घातक] अस्त्र चलानेवाला ।
⋙ अस्त्रचिकित्सक
संज्ञा पुं० [सं०] चीर फाड़ या जर्राही करनेवाला चिकित्सक । जरहि [को०] ।
⋙ अस्त्रचिकित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैद्यकशास्त्र का वह अंश जिसमें चीरफाड़ का विधान है । २. चीरफाड़ करना । अस्त्रप्रयोग । जर्राही । विशेष. —इसके आठ भेद हैं । (क) छेदन=नश्तर लगाना । (ख) भेदन=फाड़ना । (ग) लेखन=खरोंचना । (घ) वेधन=सुई की नोक से छेद करना । (च) मेषण=धोना । साफ करना । (छ) आहरण=काटकर अलग करना । (ज) विश्रावण=फस्द खोलना । (झ) सीना=सीना या टाँका लगाना ।
⋙ अस्त्रजीवी
संज्ञा पुं० [सं० अस्त्रजीविन्] १. पेशेवर सैनिक । २. सैनिक [को०] ।
⋙ अस्त्रधारी
संज्ञा पुं० [सं० अस्त्रधारिन्] सैनिक [को०] ।
⋙ अस्त्रबंध
संज्ञा पुं० [सं० अस्त्रबन्ध] अनवरत वाणवर्षा । [को०] ।
⋙ अस्त्रमार्जक
संज्ञा पुं० [सं०] अस्त्रों को माँजकर साफ करनेवाला [को०] ।
⋙ अस्त्रलाघव
संज्ञा सं० [सं०] अस्त्र कौशल । ठीक ठीक और फुर्ती के साथ लक्ष्यवेध करने की कुशलता [को०] ।
⋙ अस्त्रविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वाण विद्या । २. अस्त्रचालन की विद्या [को०] ।
⋙ अस्त्रवेद
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें अस्त्र बनाने और प्रयोग करने का विधान हो । धनुर्वेद ।
⋙ अस्त्रशस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] अस्त्र और शस्त्र । हाथ में लिए हुए तथा हाथ से फेंककर प्रहार करने योग्य हथियार [को०] ।
⋙ अस्त्रशाला
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ अस्त्र शस्त्र रखे जायँ । अस्त्रागार । सिलहखाना ।
⋙ अस्त्रशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्त्रचालन की शिक्षा देनेवाला शास्त्र या विद्या । २. धनुर्वेद [को०] ।
⋙ अस्त्रागार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अस्त्रशाला' ।
⋙ अस्त्री
संज्ञा पुं० [सं० अस्त्रिन्] [स्त्री० अस्रिणी] अस्त्रधारी मुनष्य । हथियारबंद आदमी ।
⋙ अस्त्रीक
वि० [सं०] १. पत्नीहीन । २. बिना स्त्री का [को०] ।
⋙ अस्त्रैण
वि० [सं०] १. बिना स्त्री का । जिसे स्त्री न हो । २. जो स्त्री संबंधी न हो । ३. जो स्त्री का गुलाम न हो । ४. जो स्त्री द्वारा गौरवान्वित न हो [को०] ।
⋙ अस्थल पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्थल] दे० 'स्थल' । उ०—अस्थल लीपि पात्र सब धोए, काज देव के कीन्ह ।—सूर० १ । ७८ ।
⋙ अस्थाई पु
वि० [सं० स्थायी] दे० 'स्थायी' ।
⋙ अस्थान (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० आस्थान] दे० 'स्थान' । उ०—अति ऊँचे भूधरनि पर भुजगन के अस्थान । तुलसी अति नीचे सुखद ऊख, अन्न अरु पान । —तुलसी ग्रं०, पृ० १२ ।
⋙ अस्थान (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुपयुक्त अथवा बुरा स्थान । २. अनव- सर [को०] ।
⋙ अस्थानीय
वि० [सं०] प्रसंग से भिन्न । अनुपयक्त । उ०—उसने अपना बहुत सुधार किया है जिसका आख्यान यहाँ अस्थानीय है' । —प्रेमघन, भा० २, पृ० २६० ।
⋙ अस्थायी (१)
वि० [सं० अस्थायिन्] [वि० स्त्री० अस्थायिनी] जो स्थायी या टिकाऊ न हो । नश्वर । क्षणभंगुर [को०] ।
⋙ अस्थायी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थायिन्] गीत का प्रथम चरण या टेक [को] ।
⋙ अस्थावर
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो स्थावर या अचल न हो । जंगम । चल । २. कानून में वह संपत्ति जो चल हो—जैसे, मवेशी, जेवर आदि [को०] ।
⋙ अस्थि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हड्डी । उ०—औरौ कया सबै बिसराई लेत तुम्हारो नाम । सूर स्याम ता दिन तैं बिछउरे, अस्थि रहै कै चाम ।—सूर०, २ । ३३०९ । २. फल की गुठलीया गिरी [को०] ।
⋙ अस्थिकुंड
संज्ञा पुं० [सं० अस्थिकुण्ड] पुराणों के अनुसार एक नरक जिसमें हड्डियाँ भरी हुई हैं । विशेष. ब्रह्मवैवर्त्त के अनुसार वे पुरुष इस नरक में पड़ते हैं जो गया में विष्णुपद पर पिंडदान नहीं करते ।
⋙ अस्थिकृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. हड्डी के भईतर स्थित स्नेह । मज्जा । २. वज्र [को०] ।
⋙ अस्थिज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मज्जा । २. हड्डी से बना हुआ द्रव्य । ३. वज्र [को०] ।
⋙ अस्थित (१)
वि० [सं०] जो दृढ़ या स्थिर न हो [को०] ।
⋙ अस्थित (२)पु
वि० [सं० स्थित] उपस्थित । वर्तमान । स्थित । उ०— मेरौ बचन सत्य करि मानौ, छाँड़ौ सबकौ मोहु । तब लौ सब पानी की चुपरी जौ लौ अस्थित दोहु । —सूर०, । ३५३९ ।
⋙ अस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दृढ़ता या स्थिरता का अभाव । चंच- लता । डाँवाडोलपन । २. अच्छे शऊर या सलीके की कमी [को०] ।
⋙ अस्थितुंड
संज्ञा पुं० [सं० अस्थितुण्ड] १. पक्षी । २. हड्डी की तरह कड़ी चोंचवाला पक्षी [को०] ।
⋙ अस्थितेज
संज्ञा पुं० [सं० अस्थितेजस्] मज्जा [को०] ।
⋙ अस्थितैल
संज्ञा पुं० [सं०] हड्डी का तेल [को०] ।
⋙ अस्थिधन्वा
संज्ञा पुं० [सं० अस्थिधन्वन्] शिव [को०] ।
⋙ अस्थिपंजर
संज्ञा पुं० [सं० अस्थिपञ्जर] शरीर का ढाँचा । हड्डी पसली । कंकाल । उ०—धधक रही सब ओर भूख की ज्वाला है घर में । मांस नहीं है, शेष रही सब साँस अस्थिपंजर में ।-पथिक, पृ० ४१ ।
⋙ अस्थिप्रक्षेप
सज्ञा पुं० [सं०] गंगा या अन्य किसी पवित्र नदी या सरोवर में मृत व्यक्ति की अस्थि को प्रवाहित करना । अस्थिविसर्जन [को०] ।
⋙ अस्थिबंधन
संज्ञा पुं० [सं० अस्थिबन्धन] स्नायु [को०] ।
⋙ अस्थिभंग
संज्ञा पुं० [सं० अस्थिभङ्ग] हड्डी टूटना [को०] ।
⋙ अस्थिभक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] हड्डी खानेवाला । कुत्ता [को०] ।
⋙ अस्थिभुक्
संज्ञा पुं० [सं० अस्थिभुज्] दे० 'अस्थिभक्षी' [को०] ।
⋙ अस्थिभेद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अस्थिभंग' [को०] ।
⋙ अस्थिभेदी
वि० [सं० अस्थिभेदिन्] १. हड्डी काटनेवाला । २. अत्यंत तीक्ष्ण [को०] ।
⋙ अस्थिमाली
संज्ञा पुं० [सं० अस्थिमालिन्] शिव ।
⋙ अस्थिर (१)
वि० [सं०] १. जो स्थिर न हो । चंचल । चलायमान । डाँवाँडोल । उ०—दावाग्नि-प्रखर लपटों ने कर दिया सघन बन अस्थिर ।-कामायमी, पृ० २८१ । २.—बे ठौरठिकाने का । जिसका कुछ ठीक न हो । उ०—यों ही लगा बीतने उनका जीवन अस्थिर दिन दिन ।—कामायनी, पृ० ३३ ।
⋙ अस्थिर (२)पु
[सं० स्थिर] जो चंचल न हो । स्थिर उ०—भक्तनि हाट बैठि अस्थिर ह्व, हरि नग निर्मल लेहि काम-क्रोध मद- लोभ—मोह तू सकल दलाली देहि ।—सूर०, १ । ३१० ।
⋙ अस्थिरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंचलता, व्यग्रता । व्याकुलता ।
⋙ अस्थिविग्रह (१)
वि० दुबला पतला (व्यक्ति या जीव) । जिसका शरीर सूखकर हड्डी का ढाँचा मात्र रह गया हो [को०] ।
⋙ अस्थिविग्रह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का भृंगी नामक गण [को०] ।
⋙ अस्थिशेष
वि० [सं०] कंकालशेष । जिसके शरीर में हड्डियाँ ही रह गई हों [को०] ।
⋙ अस्थिसंचय
संज्ञा पुं० [सं० अस्थिसञ्चय] भस्मांत या अंत्योष्टि संस्कार के अनंतर की एक क्रिया या संस्कार जिसमें जलने से बची हुई हड्डियाँ एकत्र की जाती हैं ।
⋙ अस्थिसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अस्थिसन्धि] हड्डियों का जोड़ ।
⋙ अस्थिसंभव
संज्ञा पुं० [सं० अस्थिसम्भव] १. मज्जा । २. वज्र [को०] ।
⋙ अस्थिसमर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हड्डियों का नदी में प्रवाह । अस्थिविसर्जन [को०] ।
⋙ अस्थिसार
संज्ञा पुं० [सं०] मज्जा [को०] ।
⋙ अस्थिस्नेह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अस्थिसार' [को०] ।
⋙ अस्थूल (१)
वि० [सं०] जो स्थूल न हो । सूक्ष्म ।
⋙ अस्थूल (२)पु
वि० [सं० स्थूल] दे० 'स्थूल' ।
⋙ अस्थैर्य
संज्ञा पुं० [सं०] दृढ़ता का अभाव । अस्थिति । डाँवाँडोलपन । उ०—दिया नृप को वशिष्ठ ने धैर्य कहा-यह उचित नहीं अस्थैर्य । -साकेत, पृ० ४२ ।
⋙ अस्नान पु
संज्ञा पुं० [सं० स्नान] दे० 'स्नान' । करि अस्नान नंद वर आए ।-सूर०, १० । २६० ।
⋙ अस्नाविर
वि० [सं०] जिसे स्नायु न हो । दुबली देह का (व्यक्ति) [को०] ।
⋙ अस्निग्ध
वि० [सं०] १. जो स्निग्ध या चिकना न हो । २. कठोर । निर्दय । हृदयहीन [को०] ।
⋙ अस्निग्धदारु
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु वृक्ष की जाति का एक वृक्ष [को०] ।
⋙ अस्निग्धदारुक
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु की जाति का एक पेड़ ।
⋙ अस्नेहन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ अस्पंज
संज्ञा पुं० [यु० इस्फंज] स्पंज । मुर्दा बादल [को०] ।
⋙ अस्पंद
संज्ञा पुं० [सं० अस्पन्द] जिसमें स्पंदन या कंपन न हो । गतिहीन [को०] ।
⋙ अस्पताल
संज्ञा पुं० [अं० हाँस्पिटल] औषधालय । चिकित्सालय । दवाखाना ।
⋙ अस्पर्श
वि० [सं०] १. जिसमें स्पर्श न हो । २. जो छूने योग्य न हो [को०] ।
⋙ अस्पर्स पु
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्श] दे० 'स्पर्श' । उ०—भएँ अस्पर्श देवतन धरिहै । मेरी कह्यौ नाहिं यह टरिहै । -सूर० ८ ।२ ।
⋙ अस्पष्ट
वि० [सं०] जो साफ या स्पष्ट न हो । अप्रकट । अस्फुट । उ०—अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी, जीवन की आँखों में भरते । -कामायनी, पृ० ६४ ।
⋙ अस्पृश्य
वि० [सं०] जो छूने योग्य न हो । उ०—गिर जाय कुछ गंगांबु भी अस्पृश्य नाली में कभी, तो फिर उसे अपवित्र ही बतलायँगे निश्चय सभई ।-भारत, पृ० १२३ ।२—नीच जाति का । अंत्यज ।
⋙ अस्पृश्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अस्पृश्य होने का भाव या दशा । अछूतपन ।
⋙ अस्पृष्ट
वि० [सं०] जिसपर हाथ न लगाया गया हो । अछूता [को०] ।
⋙ अस्पृह
वि० [सं०] निःस्पृह । निर्लोभ । जिसमें लालच न हो ।
⋙ अस्फटिक पु
संज्ञा पुं० [सं० स्फटिक] दे० 'स्फटिक' । उ०—जिनकी बनी अवनी अमल अस्पटिक मनि पटरीन सों । -प्रेमघन०, भा० १, पृ० १२० ।
⋙ अस्फी
संज्ञा पुं० [फा० अस्प+ई (प्रत्य०)] घुड़सवार । अश्वारोही । उ०—सु अस्फी धने दुंदुनी हैं धुकारे । मनौ घर्वराने सबै सिंधु भारे ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २७८ ।
⋙ अस्फुट
वि० [सं०] १. जो स्पष्ट न हो । जो साफ न हो । उ०— अस्फुट कोलाहल भरति मर्मरित बन है । - साकेत, पृ० २१७ । २. गूढ़ । जटिल ।
⋙ अस्म पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्म ] पत्थर । उ०— (क) जहाँ जहाँ जाता तहीं तहीं त्रासत अस्म, लकुट पदत्रान ।- सूर० १ ।१०३ । (ख) आपुन तरि तरि औरनि तारत । अस्म अचेत प्रगटपानी मैं बनचर लै लै ड़ारत ।- सूर० ९ ।१२३ ।
⋙ अस्मद् (१)
सर्व० [सं० अस्मत्] मैं ।
⋙ अस्मद् (२)
संज्ञा पुं० [सं० अस्मत्] जीव । आत्मा [को०] ।
⋙ अस्मदादि
सर्व० [सं०] हम सब [को०] ।
⋙ अस्मदादिक
सर्व० [सं०] दे० 'अस्मदादि' । हम सब ।
⋙ अस्मदीय
वि० [सं०] मेरा [को०] ।
⋙ अमय
वि० [ सं० अश्ममय] पत्थर द्वारा निर्मित । उ०— जरासंध बंदी कहां नृप कुल जस गावै । अस्मय तन गौतम तिया कौ साप नसावै । — सूर० १ । ४ ।
⋙ अस्मार्त
वि० [सं०] जो स्मृतियों का अनुयायी न हो । स्मृतिविरोधी । २. जो स्मृत न हो । स्मरण से परे ।३. परंपराविरूद्ध । अनुचित । ४. स्मार्त मत के विपरीत [को०] ।
⋙ अस्मिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. योगशास्त्र के अनुसार पाँच प्रकार के क्लेशों में से एक । द्रक, द्रष्टा और दर्शन शक्ति को एक मानना या पुरुष (आत्मा) और बुद्धि में अभेद मानना ।२. अहंकार । सांख्य में इसको मोह और वेदांत में हृदयग्रंथि कहते हैं ।
⋙ अस्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोना । २. रूधिर । ३. जल । ४. आँसू । उ०— प्रकृति- रंजन- हीन, दीन अजस्र । प्रकृति विधना थी भरे हिम अस्र ।-साकेत, पृ० १९५ । ५. केसर । ६. बाल ।
⋙ अस्र (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. दिन का चतुर्थ प्रहर ।२. समय । वक्त । काल [को०] ।
⋙ अस्रकंठ
संज्ञा पुं० [सं० अस्रतण्ठ] बाण । तीर [को०] ।
⋙ अस्रखदिर
संज्ञा पुं० [सं०] रक्तखदिर का वृक्ष [को०] ।
⋙ अस्रज
संज्ञा पुं० [सं०] माँस [को०] ।
⋙ अस्रय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस ।२. मूल नक्षत्र । ३. जोंक जो लहू (अस्त्र) पीती हैं ।
⋙ अस्रय (२)
वि० रक्त पीनेवाला ।
⋙ अस्रपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जलौका । जोंका ।२. डाइन । टोना करनेवाली ।
⋙ अस्रपित
संज्ञा पुं० [सं०] नासिका मुख आदि से रक्तस्राव होना [को०] ।
⋙ अस्रफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सलाई का पेड़ ।
⋙ अस्रफली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० अस्रफला [को०] ।
⋙ अस्रमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] देह के भीतर का रस [को०] ।
⋙ अस्ररोधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लज्जालु नामक पौधा । छुईमुई [को०] ।
⋙ अस्रर्ज्जक
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत तुलसी ।
⋙ अस्रु पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्रु ] दे० 'अश्रु' ।
⋙ अस्ल
वि० [अ०] दे० 'असल' ।
⋙ अस्ली
[अ०] दे० 'असली' ।
⋙ अस्वंत
संज्ञा पुं० [सं० अस्वन्त] १. मृत्यु ।२. खेत । ३. चूल्हा । ४. मरुत् विशेष [को०] ।
⋙ अस्व पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्व] दे० 'अश्व' । उ०— होइय नाथ अस्व असवारा । - मानस २ । २०२ ।
⋙ अस्वच्छंद
वि० [सं० अस्वच्छन्द] जो आत्मनिर्भर न हो । दुसरे के भरोसे पर रहनेवाला [को०] ।
⋙ अस्वच्छ
वि० [सं०] जो स्वच्छ न हो । जो स्पष्ट न हो । गंदा [को०] ।
⋙ अस्वतत्र
वि० [सं० अस्वतन्त्र] पराधीन । दास । गुलाम [को०] ।
⋙ अस्वप्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । २. अनिद्रा ।
⋙ अस्वप्न (२)
वि० [सं०] जिसे नींद न आती हो [को०]
⋙ अस्वभाव (१)
वि० [सं०] भिन्न स्वभाववाला [को०] ।
⋙ अस्वभाव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] अस्वाभाविक लक्षण । भिन्न लक्षण [को०] ।
⋙ अस्वर (१)
वि० [सं०] अस्पष्ट या मंद (स्वर) । बुरे या मंद स्वरवाला [को०] ।
⋙ अस्वर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] स्वरभिन्न या व्यंजन वर्ण [को०] ।
⋙ अस्वर्ग्य
वि० [सं०] जो स्वर्ग प्राप्ति में बाधक हो [को०] ।
⋙ अस्वस्थ
वि० [सं०] १. रोगी । बीमार ।२. अनमना ।
⋙ अस्वादुकंटक
संज्ञा पुं० [सं० अस्वादुकण्टक] गोखरू ।
⋙ अस्वाधीन
वि० [सं०] पराधीन । परतंत्र [को०] ।
⋙ अस्वाध्याय (१)
वि० [सं०] वेदों की आवृत्ति न करनेवाला । जिसने वेजपाठ न किया हो [को०] ।
⋙ अस्वाध्याय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों के स्वाध्याय के बीच पड़नेवाली बाधा या मिलनेवाला अवकाश [को०] ।
⋙ अस्वाभाविक
वि० [सं०] १. जे स्वाभाविक न हो । प्रकृतिविरूद्ध । २. कृत्रिम । बनावटीय़ ।
⋙ अस्वामिक (१)
वि० [सं०] जिसका कोई स्वामी न हो । लावारिस [को०] ।
⋙ अस्वामिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वह वस्तु जिसका कोई स्वामी न हो । [को०] ।
⋙ अस्वामिकद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] पराशरस्मृति के अनुसार वह धन जो किसी की मिलकियत न हो ।
⋙ अस्वामिविक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूसरे के पदार्थ को उसकी आज्ञा के बिनी बेच लेना ।२. दूसरे की चीज जबरदस्ती छीनकर या कहीं पड़ी पाकर उसकी इच्छा के विरूद्ध बेच ड़ालना । निक्षिप्त ।
⋙ अस्वामिविक्रोत
—संज्ञा पुं० [सं०] मालिक की चोरी से बेचा हुआ । विशेष.— नारद ने कहा की ऐसी वस्तु का पता लगने पर मालिक उसका हकदार होता है । पर मालिक को इस बात की सूचना राज्य को कर देनी चाहिए ।
⋙ अस्वामिसंहत
वि० [सं०] (सेना) जिसका सेनानायक न मारा गया हो ।
⋙ अस्वामी
वि० [सं० अस्वामिन्] १.जिसका कोई दावेदार या अधिकारी न हो ।२. जिसका कोई स्वत्व वा अधिकार न हो [को०] ।
⋙ अस्वार्थ
वि० [सं०] १. स्वार्थहीन । नि? स्वार्थ ।२. विरक्त । उदासीन । ३. निरर्थक । निकम्मा । बेकार [को०] ।
⋙ अस्वास्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] बीमीरी । रोग ।
⋙ अस्विन्न
वि० [सं०] अच्छी तरह न उबाला हुआ । अपक्व [को०] ।
⋙ अस्वीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] अस्वीकृति । स्वीकार न करना ।
⋙ अस्वीकार
संज्ञा पुं० [सं०] स्वीकार का उलटा । इन्कार । नामंजुरी । नाहीं । क्रि० प्र०— करना ।
⋙ अस्वीकृत
वि० अस्वीकार किया हुआ । नामंजूर किया हुआ । नामंजूर ।
⋙ अस्वीकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] नामंजूरी । स्वीकार न करने की क्रिया या भाव । अस्वीकार [को०] ।
⋙ अस्स पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्व, प्रा० अस्स] घोड़ा ।
⋙ अस्सी
वि० [सं० अशीति, प्रा० असीति] सत्तर और दस की संख्या । दस अठगुना ।
⋙ अस्सु पु
संज्ञा पुं० [सं० अश्रु प्रा० अस्सु] आँसू ।
⋙ अहं (१)
सर्व० [सं० अहम्] मैं ।
⋙ अहं (२)
संज्ञा पुं० १. अहंकार । अभिमान । उ०— (क) तुलसी सुखद शांति को सागर । संतन गायो कौन उजागर । तामें तन मन रहै समोई । अंह अगिनि नहिं दाहै कोई ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) ज्यों महाराज या जलधि तै पार कियौ भव जलधि पार त्यौं करौ स्वामी । अंह ममता हंमैं सदा लागी रहै मोह मद क्रोध जुत मंद कामी ।— सूरा०, (शब्द०) । २. संगीत का एक भेद जिसमें सब शुद्ध स्वरों तथा कोमल गंधार का व्यव— हार होता है ।
⋙ अंहकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभिमान । गर्व । घमंड ।२. वेदांत के अनुसार अंत?करण का एक भेद जिसका विषय गर्व या अंहकार है । 'मैं हुँ ' या "मैं कहता हुँ" इस प्रकार की भावना ।३. सांख्याशास्त्र के अनुसार महत्तत्व से उत्पन्न एक द्रव्य । विशेष.— यह महत्तत्व का विकार हैं और इसकी सात्विक अवस्था से पाँच ज्ञानेंद्रियों, पाँच कर्मेद्रियों तथा मन की उत्पत्ति होती है और तामस अवस्था से पंचतन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है, जिनसे क्रमशः आकाश, वायु, तेज, और पृथ्वी की उत्पत्ति होती है । सांख्य में इसको प्रकृतिविकृति कहते हैं । यह अंतःकरणऩद्रव्य है । ४. अंत?करण की एक वृत्ति । इसे् योगशास्त्र में अस्मिता कहते हैं । ५. मैं और मेरा का भाव । ममत्व ।
⋙ अहंकारी
वि० [सं० अड़्कारिन्] [स्त्री० अहंकारिणी] अहंकार करनेवाला । घमंड़ी । गर्वी ।
⋙ अहंकृत्
वि० [ सं अहंङ्कृत्] अंहकार करनेवाला । घमंडी [को०] ।
⋙ अहंकृति
संज्ञा स्त्री० [सं० अड़्कृति] अहंकार ।
⋙ अहंता
संज्ञा स्त्री० [सं० अहन्ता] अहंकार । घमंड । गर्व । उ०— था एक पूजता देह दीस, दूसरा अपूर्ण अहंता में अपने को समझ रहा प्रवीण । — कामायनी, पृ०१६१ ।
⋙ अहंधी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अहंकार' ।
⋙ अहंपद
संज्ञा पुं० [सं० अहम्पद] गर्व । अभिमान [को०] ।
⋙ अहंपूर्व
संज्ञा पुं० [सं०अहम्पूर्व] लाग डाट में दूसरे से आगे बढ़ जाने की अभिलाष रखनेवाला [को०] ।
⋙ अहंपूर्विका
संज्ञा स्त्री० [ सं० अहम्पूर्विका] होड़ । प्रतिस्पर्धा [को०] ।
⋙ अहंप्रथमिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अहम्प्रथमिका] दे० ' अहंपूर्विका' [को०] ।
⋙ अहंप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं० अहम्प्रत्यय] घमंड । गर्व [को०] ।
⋙ अहंभद्र
संज्ञा पुं० [सं० अहमभ्द्र] अपना व्याक्तित्व महान् समझना [को०] ।
⋙ अहंमति
संज्ञा स्त्री० [सं० अहम्मति] (वेदांत दार्शन में) भ्रमात्मक आध्यात्मिक आत्मज्ञान [को०] ।
⋙ अहंवाद
संज्ञा पुं० [सं०] डींग मारना । शेखी हाँकना । उ०— अहंवाद मैं तैं नहीं दुष्ट संग नहिं कोइ । दुख ते दुख नहिं ऊपजे सुख से नहिं होइ । — तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अहँकार पु
संज्ञा पुं० [सं० अहङ्कार] दे० 'अहंकार' । उ०— त्रयनयन, मयन मर्दन महेश । अहँकार निहार उदित दिनेस । — तुलसी ग्रं०, पृ० ४६१ ।
⋙ अह (१)
संज्ञा पुं० [सं० अहन्] १. दिन ।२. विष्णु ।३. सूर्य । ४. दिन का अभिमानी देवता । ५. आकाश [को०] । ६. एक दिन का काम [को०] । ७. रात्रि [को०] ।८. किसी ग्रंथ का वह अंश जो एक दिन के लिये निश्चित हो [को०] । यौ०.— अहिलिश = दिन रात । लगातर । अहपति = सूर्य । अह— मुर्ख= उषाकाल । अहर्ह?= दिन दिन ।
⋙ अह (२)
अव्य [सं० अहह] एक अव्यय संबोधन । आश्चर्य खेद और क्लेश अदि में इसका प्रयोग होता हैं; जैसे — अह ! तुमने बड़ी मूर्खता की (शब्द०) ।
⋙ अहक पु
संज्ञा पुं० [सं० ईहा] अच्छा । आकांक्षा । लालसा । उ०— अहक मोर बरषा ऋतु देखहुँ । गुरु चीन्हि कै योग बिसेषहुँ— जायसी (शब्द०) ।
⋙ अहकना
क्रि० अ० [हि० अहक] इच्छा करना । लालसा करना ।
⋙ अहकाम
संज्ञा पुं० [अ० हुक्म का बहुव०] १. नियम । कायदा ।२. हुक्म । आज्ञाएँ ।
⋙ अहचरज
संज्ञा पुं० [सं० आश्चर्य] दे० ' आश्चर्य' । उ० -समर जीति जौहर कौ होन । जो अहचरज भयौ यह तौन । — हम्मीर०, पृ० ६५ ।
⋙ अहट
संज्ञा स्त्री० [ देश० ] दे० 'आहट' उ०— आह न अहट अध अरी या अदाई की । — गंगा, पृ० ८२ ।
⋙ अहटाना (१)
क्रि० अ० [हि० आहट] आहट लगाना । पता चलना । उ०— रहत नयन के कोरवा चितवनि छाय । चलत न पग पैजनियाँ मग अहटाय । — रहिमन० (शब्द०)
⋙ अहटाना (२
पु क्रि० स० आहट लगाना । टोह लेना । पता चलाना ।
⋙ अहटाना (३)
क्री० अ० [सं० आहत] दुखना । दर्द करना । उ०— (क) तानिक किरकिटी के परे पल पल में अहटाय । कयों सोवै सुख नींद दृग मीत बसै जब आय । — रसनिधि० (शब्द०) । (ख) सुनीं दूत बानी महामाती खान जदै जबै, हियैं प्रहटाना है रिसानी देह ता समै ।— सूदन० (शब्द०) ।
⋙ अहटियाना †
क्रि० स०, क्रि० अ० [हि०] दे० 'अहटाना' ।
⋙ अहत (१)
वि० [सं०] १. जो हत न हो ।२ . अक्षत । ३. अनाहत । ४. जो पीटा या कचारा न गया हो । जैसे— वस्त्र ।५. जो कुंठाग्रस्त या हताश न हो । ६. नया । बिना धोया हुआ । ७. निर्दोष । बेदाग [को०] ।
⋙ अहत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] बिना धुल नया वस्त्र [को०] ।
⋙ अहथिर पु †
वि० [सं० स्थिर] दे० 'स्थिर' । उ०— सबै नास्ति वह अहथिर ऐस साज जेहि केर ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ अहद (१)
संज्ञा पुं० [अ०] प्रतिज्ञा । वादा । इकरार । क्रि० प्र०— करना = प्रतिज्ञा करना । — टूटना= प्रतिज्ञा भंग होना ।— तोड़ना= प्रतिज्ञा भंग करना । वादा पूरा न करना । २.संकल्प । इरादा ।३. समय । काल । राजत्वकाल; जैसे— 'अकबर के अहद में प्रजा बड़ी सुखी थी ' । यौ० — अहदनाम । अहदशकिन । अहदशिकनी अहद वो पैमान ।
⋙ अहद (२)
वि० [सं० अ= नहीं+अ० हद] सीमारहित । असीम । उ०— पलटू दीगर को नेस्त करै, होय खुद अहत इस भाँति जाई । — पलटू०, पृ ६३ ।
⋙ अहददार
संज्ञा पुं० [फा०] मुसलमानी राज्य के समय का एक अफसर जिसे राज्य की ओर से कर का ठीका दिया जाता था । उसको इस काम के लिये दो या तीन रुपया सैकड़ा बँधेज मिलता था और राज्य में वह सब कर का देनदार ठहरता था । एक प्रकार का ठेकदार ।
⋙ अहदनमा
संज्ञा पुं० [फा०] १. एकरारनाम । वह लेख या पत्र जिसके द्वरा दो या दो से अधिक मनुष्य किसी विषय में कुछ इकरार या प्रतिज्ञा करें । प्रतिज्ञापत्र ।२ . सुलहनामा । संधिपत्र ।
⋙ अहदी (१)
वि० पुं० [अ०] १. आलसी । अलहदी । आसकती ।२ . वह जो कुछ काम न करे । अकर्मण्य । निठल्लू । मठ्टर ।
⋙ अहदी (२)
संज्ञा पुं० अकबर के समय के एक प्रकार के सिपाही जिनसे बड़ी आवश्यकता के समय काम लिया जाता था, शेष दिन वे बैठे खाते थे । उ०— घेर्यौ आइ कुटुम लसकर मैं, जम अहदी पठयौ । सूर नगर चौरासी भ्रमि भ्रमि, घर घर कौ जु भयौ । — सूर० १ ।६४ । विशेष.— इसी से 'अहदि' शब्द आलसियों के लिये चल गया । ये लोग कभी कभी उन जमींदारी से मालगुजारी वसूल करने के लिये भि भेजे जाते थे जो देने में आनाकानी करते थे । ये लोग अड़कर बैठ जाते थे और बिना लिए नहीं उठते थे ।
⋙ अहदीखाना
संज्ञा पुं० [फा० अबदीखानह्] अहदियों के रहने का स्थान ।
⋙ अहदेहुकूमत
संज्ञा पुं०[फा०] शासनकाल । राज्य ।
⋙ अहन्
संज्ञा पुं० [सं०] दिन । दिवस ।
⋙ अहन
संज्ञा पुं० [सं० अहन्] १. दे० 'अहन्' ।२. दिन । उ०—पेट को पढ़त गुन गढ़त, चढ़त गिरि, अटत गहन बन अहन अखेटकी । — तुलसी ग्रं०, पृ २२० ।
⋙ अहना पु
क्रि० अ० [सं० अस्ति] वर्तमान रहना । होना । उ०— (क) राजा सेति कुँअर सब कहहीं । अस अस मच्छसमुद महँ अहहीं । — जायसी (शब्द०) । (ख) जब लगि गुरु हौं अहा न चीन्हा । कोदि अंतरपट बीचाहिं दीन्हा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ अहनाथ
संज्ञा पुं० [सं० अहानाथ] दिन के स्वामी । सूर्य । उ०— महि मयंक अहनाथ को आदिग्यान भव भेद । ता विधि जीव कहँ होत समुझ बिनु खेद । —स० सप्तक, पृ० ३८ ।
⋙ अहनिसि पु
क्रि० वि० [हि०] दे० 'अहर्निश' । उ० — मुयो मुयो अहनिसि चिल्लाई । ओही रोस धै खाई । — जायसी (शब्द०) ।
⋙ अहन्पुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] दुपदरिया का फूल । गुलदुपहरिया ।
⋙ अहमक
वि० [अ०] जड़ा । बेवकूफ । मूर्ख । नासमझ । उ०— लहुरैं थकै दुहि पीया खीरो, ताका अहमक भकै सरीरो ।—कबीर ग्रं०, पृ० २३९ ।
⋙ अहमग्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आगे बढ़ाने की प्रतिसार्धा । होड़ [को०] ।
⋙ अहमहमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लागत । डाँट । पहले हम तब दूसरा । हमाहमी । चढा़ ऊपरी ।
⋙ अहमिति पुं०
संज्ञा स्त्री० [सं० अहम्मति] १. अविद्या । अज्ञान । उ०— निसि दिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि । गोड़ पसारि परयौ दोउ नीकै, अब कैसी कह रोइसि ।— सूर०, १ । ३३३ । २. अहंकार । उ०— भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा । अहमिति मनहु जीति जगु ठाढ़ा ।— मानस, १ ।२८३ ।
⋙ अहमेव
संज्ञा पुं० [सं०] अहंकार । गर्व । घमंड । उ०— (क) उदित होत शिवराज के, मुदित भए द्विज देव । कलियुग हट्यो मिट्यो सकल, म्लेच्छन को अहमेव । — भूषण (शब्द०) । (ख) संन्यासी माते अहमेव । तपसी माते तप के भेव ।— कबीर ग्रं०, पृ० ३०२ ।
⋙ अहर
संज्ञा पुं० [ देश०] छीपियों के रंग का मिट्टी का बरतन । नैया ।
⋙ अहरणोय
वि० [सं०] १. न चुराने योग्य । २. (धूर्तता द्वारा) न अपनाने योग्य ।३. दृढ़ । सुस्थिर [को०] ।
⋙ अहरन
संज्ञा स्त्री० [सं० आ+ धरण= रखना] निहाई । उ०— कबिरा केवल राम की तू मति छडै ओट । धन अहरन बिच लोह ज्यों घनी सहैं सिर चोट । —कबीर (शब्द०) ।
⋙ अहरना †
क्रि० स० [सं० आहरण= निकलना] १. लकड़ी को छीलकर सुड़ौल करना ।२. डौलना ।
⋙ अहरनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० ' अहरन' ।
⋙ अहरनिसि पु †
क्रि० वि० दे० ' अहर्निश —२' । उ० - अहरनिसि आस लागी रहै सुन्न में, बिना जल पिए क्या प्यास जाई । - कबीर० रे०, पृ० २९ ।
⋙ अहरा
संज्ञा पुं० [ सं० आहरण = इकट्ठा करना] १. कडें का ढेर जे जलाने के लिये इकट्ठा किया जाय ।२. वह आग जो इस प्रकार इकट्ठा कीए हुए कंडों से तैयार की जाय । ३. वह स्थान जहाँ लोग ठहरें । ४. प्याऊ । पौशाला ।
⋙ अहराम
संज्ञा पुं० [अ० हरना = पुरानी इमारत का बहुव०] पुराने भवन । २ . मिस्र के स्तूप या पिरीमिड़ ।
⋙ अहरी
संज्ञा पुं० [सं० अहरण = इकट्ठा होना ] १. वह स्थान जहाँ पर लोग पानी पिएँ । प्याऊ ।२. वह गड़्ढ़ा या हौज जो कुएँ के किनारे जानवरों के पानी पाने के लिये बना रहता है । चरही ।३. हौज जिसमें किसी काम के लिये पानी भरा जाय ।
⋙ अहर्गण
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिनों का समूह ।२. ज्योतिष कल्प के आदि से किसी इष्ट या नियत काल तक का समय ।
⋙ अहर्दल
संज्ञा पुं० [सं०] दोपहर मध्यदिवस [को०] ।
⋙ अहर्निश
क्रि० वि० [सं०] १. रातदिन ।२. सदा । नित्य ।
⋙ अहर्मणि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य ।
⋙ अहर्मुख
संज्ञा पुं० [सं०] उष?काल । दिनारंभ । सबेरा ।
⋙ अहल (१)
वि० [सं०] अकृष्ट । बिना जोता हुआ (खेत) [को०] ।
⋙ अहल (२)
वि० [अ० अहल] लायक । समर्थ । योग्य [को०] ।
⋙ अहलकार
संज्ञा पुं० [फ०] १. कर्मचारी ।२. कारिंदा ।
⋙ अहलकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] अहलकार का काम । कारिदागिरी ।
⋙ अहलना पु
क्रि० अ० [ सं० अलहनम] हिलना । काँपना । दहलना । उ०— पहल पहल तन रुइ झाँपै । अहल अहल अधिको हिय काँपै ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ अहलमद
संज्ञा पुं० [ फा० अहलमद] अदालत का वह कर्मचारी जो मुकद्दमों की मिसिलों को रजिस्टर में दर्ज करता और रखता है, अदालत के हिक्क के अनुसार हुक्मनामे जारी करता है तथा किसी मुकद्दमे का फैसला पर उसकी मिसिल को तर्तीब देकर मुहाफिजखाने में दाखिला करना है ।
⋙ अहला †
संज्ञा पुं० [हिं०] 'अहिला' ।
⋙ अहलाद पु †
संज्ञा पुं० [सं० आह्लाद] दे० 'आहलाद' । उ०— (क) ताकौ पुत्र भयो प्रहलाद । भयौ असुर मन अति अहलाद ।— सूर०, १ ।४४२१ । (ख) टूँटा पकरि उठावै पर्वत पंगुल करै नृत्य अहलाद । जो कोउ याकौ अर्थ विचारै सुंदर सोई पावै स्वाद । — सुंदर ग्रं०, भा० २ पृ० ५०८ ।
⋙ अहलादी पु †
वि० [हि०] 'आहादी' ।
⋙ अहलि
वि० [सं०] दे० ' अहल' [को०] ।
⋙ अहले गहले †
क्रि० वि० [अनु०] मस्ती के साथ । प्रसन्नतापूर्वक निश्चिंत मन से [को०] ।
⋙ अहल्या (१
वि० [सं०] जो (धरती) जोता न जा सके ।
⋙ अहल्या (२)
संज्ञा स्त्री० गौतम ऋषि की पत्नी ।
⋙ अहवान पु
संज्ञा पुं० [सं० आह्वान] बुलाना । आवाहन । उ०— कियो आपने अयन पयाना । राति सरस्वति किय अहवाना । - रघुराज० (शब्द०) ।
⋙ अहवाल
संज्ञा पुं० [ अ०' हाल' का बहु०] १. समाचार । वृत्तांत । उ०— मरजे मुबारक का मरीज तब क्या अहवाल सुनाऊँ ।— प्रेमघन०, पृ०१९२ । २. दशा । अवस्था । उ०— अजबा अहवाल दोखा हमने कल इस खाने वीराँ का । — कविता को०, भा०४, पृ० २३० ।
⋙ अहश्चर
वि० [सं०] दिन में चलनेवाला । दिनचारी [को०] ।
⋙ अहसान
संज्ञा पुं० [अ० एहसान] १. किसी के साथ नेकी करना । सलूक । भलाई । उपकार । २. कृपा । अनुग्रह । निहोरा ।उ०— बहु धन लै अहसान कै, पारौ देत सराहि । वैद वधू हँसि भेद सौ; रही नाह मुख चाहि ।—बिहारी (शब्द०) । ३. कृतज्ञता ।
⋙ अहसानफरामोश
वि० [ अ० एहसान +फा० फरोश] उपकार को न माननेवाला । कृतघ्न । उ०— 'अच्छा, में बेवफा, अहसान फरामोश सही, तुम तो बड़े वफादार हो । — 'श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १२३ ।
⋙ अहसानफरोश
वि० [अ० एहसान+ फा० फरोश] उपकार कर सबसे कहता फिरनेवाला [को०] ।
⋙ अहसानमंद
वि० [अ० एहसान+ फा० मंद] कृलज्ञ । किए हुए को माननेवाला [को०] ।
⋙ अहसानमंदी
संज्ञा स्त्री० [अ० एहसान+ फा० मंदी] कृतज्ञाता । उ०— 'वह मदनमोहन की अहसानमंदी के बहाने से हरवक्त वहाँ बना रहता था ।— श्रीनिवास ग्रं० पृ०२११ ।— अहस्कर— संज्ञा पुं० [सं०] १. दिनकर । सूर्य । २. मदार [को०] ।
⋙ अहस्त
वि० [सं०] बिना हाथवाला । जिसके हाथ कटे हों [को०] ।
⋙ अहस्पति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० ' अहस्कर' ।
⋙ अहह
अव्य० [सं०] एक अव्यय जिसका प्रयोग आश्चर्य, खेद, क्लेश और शोक सूचित करने के लिये होता है । उ०— अहह तात दारुन हठ ठानी । — मानस, १ ।२५८ ।
⋙ अहा
अव्य० [सं० अहह ] इसका प्रयोग प्रसन्नता और प्रशंसा की सूचना के लिये होता है; जैसे- अहा ! यह कैसा सुंदर फूल है ।
⋙ अहाता
संज्ञा पुं० [अ०]१. घेर । होता ।२. प्रकार । चारदीवारी ।
⋙ अहान
संज्ञा पुं० [सं० आह्वान] पुकार । शोर । चिल्लाहट । उ०— भइ अहान पदुमावति चली । छात्तिस कुलि भई गोहन चली ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ अहार पु
संज्ञा पुं० दे० 'आहार' । उ०— करहिं अहार साक फल कंदा । सुमिरहि ब्रह्म सच्चिदानदं ।— मानस, १ ।१४४ ।
⋙ अहारना पु
क्रि० सं० [सं० आहारण = खाना या हि० अहार] १. खाना । भक्षण करना । उ०— तो हमरे आश्रम पगु धारौ । निज रुचि के फल विपुल अहारौ । — रघुराज० (शब्द०) ।२. चपकाना । लेई लगाकर लसाना । ३. कपड़े में माँड़ी देना ।४. दे० ' अहरना' ।
⋙ अहारी पु
वि० दे० 'आहारी' । उ०— जिमि अरुनोपल निकर निहारी । धावहि सठ खग मांस अहारी । - मानस, क६ ।३९ ।
⋙ अहार्य
वि० [सं०] १. जो धन या घूस के लोभ में न आ सके ।२. जो हरण न किया जा सके । जो चुराया न जा सकता हो । यौ०.— अहार्य शोभा ।
⋙ अहाहा
अव्य० [सं० अहह] हर्षसूचक अव्यय ।
⋙ अहिंसक
वि० [सं०] १. जो हिंसा न करे । जो किसी का घात न करे । २. जो किसी के दुःख न दे । जिससे किसी को पीड़ा न पहुँचे ।
⋙ अहिंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साधारण धर्मों में से एक । किसी को दुःख न देना । २. योगशास्त्रानुसार पाँच प्रकार के यमों में पहला । मन, वाणी और कर्म से किसी प्रकार किसी काल में किसी प्राणी को दुःख या पीड़ा न पहुँचाना । ३. बौद्धशास्त्रानुसार त्रम और स्थावर को दु?ख न देना । ४. जैनशास्त्रानुसार प्रमाद से भी त्रस और स्थावर को किसी कास में किसी प्रकार की हानि न पहुँचाना । धर्मशास्त्रानुसार शास्त्र की विधि के विरूद्ध किसी प्राणी की हिंसा न करना ।६. कटकपाली या हैंस नाम की घास । ७. सुरक्षा [को०] ।
⋙ अहिंसावादी
वि० [सं० अहिसावादिन्] अहिंसा का सिद्धांत माननेवाला [को०] ।
⋙ अहिंस्र (१)
वि० [सं०] जो हिंसा न करे । अहिंसक ।
⋙ अहिंस्र (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का पौधा ।२. नुकसान न पहुँचाने— वाला व्यवहार [को०] ।
⋙ अहि
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँप ।२. राहु ।३. वृत्रासुर ।४. खल । वंचक ।५. आश्लेष, नक्षत्र । ६. पृथिवी ।७. सूर्य । ८. पथिक । ९. सीसा ।१०. मात्रिक गण में ठगण अर्थात् छह मात्राओं के समूह का छठा भेद जिसमें से लघु गुरु गुरु लघु ।'/?/।' मात्राएँ होती हैं; जैसे— दयासिंधु । ११. इक्कीस अक्षरों के वृत्त का एक भेद जिसमें पहले छह भगण और अंत में मगण होता है; जैसे— भोर समय हरि गेंद जो खेलत संग सखा यमुना तीर । गेंद गिरो यमुना दह में झटि कूदि परे धरि के धीरा । ग्वाल पुकार करी तब नंद यशोमति रोवति ही धाए । दाऊ रहे समुझाया इतै अहि नाभि उतै दह में आए ।— (शब्द०) । १२. नाभि [को०] ।१३. बादल [को०] ।१४. जल [को०] ।
⋙ अहिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंधा सर्प ।२. ध्रृव तारा [को०] ।
⋙ अहिक (२)
वि० [सं०] स्थित रहनेवाला (यह संख्यावाचक शब्द के अंत में लगकर उतने दिनों बोध कराता है) [को०] ।
⋙ अहिकांत
संज्ञा पुं० [सं० अहिकान्त] पवन । वायु [को०] ।
⋙ अहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेमल का वृक्ष ।
⋙ अहिकोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. निर्मोक । सांप की केंचुल ।२. छंद- विशेष [को०] ।
⋙ अहिक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. दक्षिण पांचाल की राजधानी ।२. प्राचीन दक्षिण पांचाल । अहिच्छत्र । विशेष— यह देश कंपिल से चंबल तक था । इसे अर्जुन ने द्रुपद से जीतकर द्रोण को गुरूदक्षिणा में दिया था ।
⋙ अहिगण
संज्ञा पुं० [सं०] पाँच मात्राओं के गण- उगण का सातवाँ भेद जिसमें एक गुरु और तीन लघु होते हैं (/?/); जैसे— पापहर ।
⋙ अहिचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिक चक्रविशेष [को०] ।
⋙ अहिच्छत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन दक्षिण पांचाल । यह देश अर्जुन ने द्रुपद से जीतकर द्रोण को गुरूदक्षिणा में दिया था । २. दक्षिण पांचाल की राजधानी । ३. मेढ़ासींगी ।
⋙ अहिच्छत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] कुकुरमुत्ता [को०] ।
⋙ अहिच्छत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अहिच्छत्र नामक देश की राजधानी । २. शकर । ३. मेषशृंगी । मेढ़ासिगी [को०] ।
⋙ अहिजित्
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण [को०] ।
⋙ अहिजिन
संज्ञा पुं० [सं० अहिजित्] १. इंद्र ।२. कृष्ण ।
⋙ अहिजिह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागफनी ।
⋙ अहिटा पु †
[अ० अहदी] वह व्यक्ति जो जमींदार की ओर से उस असामी को फसल काटने से रोकने के लिये बैठाया जाय जिसने लगान वा देना न दिया हो । सहना ।
⋙ अहित (१)
वि० [सं०] १. शत्रु । वैरी । विरोधी ।२. हानिकारक । अनुपकारी । उ०— और अहित अभच्छ भच्छति कला बरनि न जाई । — सूर०,१ ।५६ ।
⋙ अहित (२)
संज्ञा पुं० बुराई । अकल्याण । उ०— दुरबास दुरजोधन पठयौ पांडव अहित बिचारी । - सूर०, १ ।१२२ ।
⋙ अहितकर
वि० [सं०] अहित करनेवाला । हानिकारक [को०] ।
⋙ अहितकारी
वि० [सं० अहितकारिन्] दे० 'अहितकर' ।
⋙ अहितुंडिक
संज्ञा पुं० [अहितुण्डिक] १. सँपेरा । साँप को वश में करनेवाला ।२. जादूगर [को०] ।
⋙ अहिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] आश्लेषा नक्षत्र [को०]०
⋙ अहिदैवत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अहिदेव'
⋙ अहिद्विट्
संज्ञा पुं० [सं० अहिद्विष्] १. इंद्र ।२. नकुल । ३. मयूर । ४. गरुड़ ।५. कृष्ण [को०] ।
⋙ अहिनकुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सर्प और नेवले का स्वाभाविक वै ।२. सहज शत्रुता [को०] ।
⋙ अहिनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] सर्पराज । शेषनाग [को०] ।
⋙ अहिनामभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] बलदेव का एक नाम [को०] ।
⋙ अहिनाह पु
संज्ञा पुं० [सं० अहिनाथ, प्रा० अहिनाह] शेषनाग । उ०— प्रभु विवाह जस भयेउ उछाहू । सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहु ।- मानस, १ ।३६१.
⋙ अहिनिर्मोक
संज्ञा पुं० [सं०] साँप की केंचुल [को०] ।
⋙ अहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सर्पिणी । नागिन । उ०— दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ।- मानस, ३ ।११ ।
⋙ अहिप
संज्ञा पुं० [सं०] शेषनाग । उ०— अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई ।- मानस, २ ।२५३ ।
⋙ अहिपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वासुकि नाग ।२. लंबे आकार का सर्प । ३. शेषनाग । उ०— सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहि मोहई ।- मानस, ५ ।३५ ।
⋙ अहिपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की सर्पाकृति नौका [को०] ।
⋙ अहिपूतन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अहिपूतना] बच्चों को होनेवाला एक रोग [को०] । विशेष— इसमें बच्चों को पानी सा दस्त आता है । गुदा से सदा मल बहा करता है । गुदा लाल बनी रहती है । धोने पोछने से खुजली उठती और फोड़े निकलते हैं ।
⋙ अहिफेन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प के मुँह की लार या फेन ।२. अफीम ।
⋙ अहिबुध्न
संज्ञा पुं० [सं०] १.एकदश रुद्रों में से एक ।२. शिव । ३. उत्तराभाद्रपद नक्षत्र ।४. एक मरुत् का नाम [को०] ।
⋙ अहिबेल पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] [ सं० अहिवल्ली, प्रा० अहिवेली] नागबेलि । पान । उ०—कनक कलित अहिबेलि बढ़ाई । लखि नहिं परै सपरन सहाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अहिब्रघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अहिबुघ्न' ।
⋙ अहिभय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपने ही पक्ष के विश्वासघात का भय । २. सर्प के काट खाने का भय ।
⋙ अहिभयदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] साँप को भय देनेवाली । भूम्यामलकी । भुँइआँवला [को०] ।
⋙ अहिभानु
वि० [सं०] सूर्य की गति का जो कारण हो ।—जैसे, वायु । २. वायु का विशेषण । ३. साँप सा चमकनेवाला [को०] ।
⋙ अहिभुक्
संज्ञा पुं० [सं० अहिभुज्] १. मोर पक्षी । २. नेवला । ३. गरुड़ पक्षी । ४. गंधनाकुली नामक पौधा [को०] ।
⋙ अहिभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] सर्पधारी शिव [को०] ।
⋙ अहिम
वि० [सं० अ + हिम] जो शीतल न हो । उष्ण [को०] । यौ०.—अहिनकर, अहिमतेजा, अहिमदीधिति, अहिमद्युति, अहिमयूख, अहिनरश्नि, अहिपरुचि, अहिमरोचिष् = सूर्य ।
⋙ अहिमर्दनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंधनाकुली नामक पौधा [को०] ।
⋙ अहिमांशु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य ।
⋙ अहिमात
संज्ञा पुं० [सं० अहि = गति + मत् = युक्त अहिनान्] चाक में वह गढ़ा जिसके बल चाक को कील पर रखते हैं ।
⋙ अहिमाली
संज्ञा पुं० [सं० अहिमालिन्] सर्प की माला धारण करनेवाले शिव ।
⋙ अहिमेध
संज्ञा पुं० [सं०] सर्पयज्ञ ।
⋙ अहिर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अहीर' । उ०—अहिर जाति गोधन कौं मानैं ।—सूर०, १० ।१९२५ ।
⋙ अहिराइ
संज्ञा पुं० [सं० अहिराज; प्रा० अहिराइ] सर्पराज । उ०— गर्व बचन कहि कहि मुख भाषत, मोकौं नहिं जासत अहिराइ ।— सूर०, १० ।५५५ ।
⋙ अहिरिन पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० अहिर] अहिर की स्त्री । उ०—अहिरिनि हाथ दहेड़ि सगुन लेइ आवइ हो ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४ ।
⋙ अहिर्बुध्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. ११ रुद्रों में से एक । २. उत्तरा— भाद्रपद नक्षत्र, जिसके देवता अर्हिबुघ्न हैं ।
⋙ अर्हिर्बुघ्न्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अर्हिबुघ्न' ।
⋙ अहिलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागवल्ली । पान ।
⋙ अहिला †
संज्ञा पुं० [सं० अभिप्लव, प्रा० अहिल्लो, हिं० होल, चहला = कीचड़] १. पानी की बाढ़ । बूड़ा । २. गड़बड़ । ३. दंगा ।
⋙ अहिलाद †
संज्ञा पु० [सं० आह् लाद] दे० 'आहलाद' । उ०—कामीं लज्या नाँ करै मन माँहैं अहिलाद । नींद न माँगै साँथराँ भूष न माँगै स्वाद ।—कबीर ग्रं०, पृ० ४१ ।
⋙ अहिलोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूम्यामलकी [को०] ।
⋙ अहिलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक सर्प [को०] ।
⋙ अहिल्या
संज्ञा स्त्री० [सं० अहल्या] दे० 'अहल्या' ।
⋙ अहिवर
संज्ञा पुं० [सं०] दोहे का एक भेद जिसमें पाँच गुरु और ३८ लघु होते है; जैसे—कनक वरण तन मृदुल अति कुसुम सरिस दरसात । लखि हरि दृगरस छकि रहे बिसराई सब बात ।
⋙ अहिवल्ली
संज्ञा पुं० [सं०] पान । तांबूल । नागवल्ली ।
⋙ अहिबात
संज्ञा पुं० [सं० अविधवात्व, प्रा० *अइहात, पु अहिवात] [वि० अहिवातीन, अहिवाती] सौभाग्य । सोहाग । उ०— (क) राज करो चितउर गढ़ राखौ पिय अहिबात ।—जायसी (शब्द०) । (ख) अचल होउ अहिवात तुम्हारा । जब लगि गंग जमुन जलधारा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ अहिवातिन
वि० स्त्री० [हिं० अहिवात] सौभाग्यवती । सधवा ।
⋙ अहिवाती
वि० स्त्री० [हिं० अहिवात] सौभाग्यवती । सोहागिन ।
⋙ अहिविषापहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंधनाकुली पौधा [को०] ।
⋙ अहिसाव
संज्ञा पुं० [सं० अहिशावक] साँप का बच्चा । पोआ । सँपोला ।
⋙ अही
संजा पुं० [सं०] पृथिवी और आकाश [को०] ।
⋙ अहीक
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध शास्त्रानुसार दस क्लेशों में से एक ।
⋙ अहीन (१)
वि० [सं०] १. जो हीन न हो । भ्रांतिबश जिसे हीन समझ लिया जाय । २. जो औरों से कम न हो । महान् । ३. दोष- रहित । ४. पूरा । संपूर्ण । ५. जो जातिच्युन न हो [को०] ।
⋙ अहीन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कई दिनों में पूर्ण होनेवाला यज्ञविशेष । २. लंबा साँप । ३. वासुकि [को०] ।
⋙ अहिनगु
संजा पुं० [सं०] एक सूर्यवंशी राजा । देवानीक का पुत्र ।
⋙ अहीनवादी
वि० [सं० अहीनवादिन्] जो निरुत्तर न हुआ हो । जो बाद में न हारा हो ।
⋙ अहीर
संज्ञा पुं० [सं० आभीर] [स्त्री० अहीरिन] एक जाति जिसका काम गाय भौस रखना और दूध बेचना है । ग्वाला । उ०— नोइ निवृत्ति पात्र बिस्वासा । निर्मल मन अहीर निज दासा- मानस, ७ ।११७ ।
⋙ अहीरणि
संज्ञा पुं० [सं०] दो मुँहवाला साँप [को०] ।
⋙ अहीरी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग जिससें सब कोमल स्वर लगते हैं ।
⋙ अहीरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० अहीर] ग्वालिन । अहीरिन ।
⋙ अहीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँपो का राजा । शेषनाग २ शेष के अवतार लक्ष्मण और बलराम आदि ।
⋙ अहीस पु
संज्ञा पुं० [सं० अहीश] शेषनाग । उ०—दानव देव अहीस महीस महामुनि तापस सिद्ध समाजी ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २२० ।
⋙ अहुँठ
वि० [हिं०] साढ़े तीन । तीन और आधा ।
⋙ अहुजी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] घीए के महीन टुकड़ो को मिलाकर पकाया हुआ चावल ।
⋙ अहुटना
क्रि० अ० [सं० अ + हठ, हिं० हटना] हटना । दूर होना । अलग होना । उ०—(क) बिरह भयो घर अंगन कौने । हम अबला अति दीन मति तुमही हो विधि योग । सूर बदन दिखत हो अहुटै या शरीर को रोग ।—सुर (शब्द०) । (ख) दुहुँ देखि टपटत हयत । झपटत जाइ लपटत धाइ । फिरि फेरि अहुटत चलत, चुहटत दुहुँ पुहटत आइ—सूदन (शब्द०) ।
⋙ अहुटानापु पु
क्रि० स० [सं० अ + हठहिं० हटाना] हटाना । दूर करना । अलग करना । भगाना । उ०—उमंडि कितेकनु चोट चलाइ । भुसिंडिनि मारि दए अहुटाइ ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ अहुठ पु
वि० [स० अध्युष्ठ या अर्धचतुर्थ प्रा० *अद्धअउत्थ *अद्धउट्ट अध्युट्ठ अढ्ढुट्ठ] साढ़े तीन । तीन और आधा । उ०—(क) अहुठ हाथ तन-सरवर हिया कवल तेहि माँह—जायसी ग्रं०, औगाह । पृ० ५० । अहुठ पैर बसुधा सब कीन्ही धाम अवधि बिरमावत ।—सूर (शब्द०) । (ग) कबहुँक अहुठ परग करि बसुधा कबहुँक देहरि उलँघि न जानी ।—सूर (शाब्द०) ।
⋙ अहुत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जप । ब्रह्मयज्ञ । वेद-पाठ । यह मनुस्मृति के अनुसार पाँच यज्ञों में से है ।
⋙ अहुत (२)
वि० १. बिना होम किया हुआ । २. अविहित ढंग से हवन किया हुआ । ६. जिसे होमभाग या आहुति न मिली हो [को०] ।
⋙ अहुर
संज्ञा पुं० [सं०] जठराग्नि [को०] ।
⋙ अहुरमज्द
संज्ञा पुं० [पह अहुरमज्द] पारसी धर्मशास्त्र के अनुसार धर्भ, ज्ञान और प्रकाश का देवता ।
⋙ अहुँठा
वि० [हिं०] दे० 'अहुठ' ।
⋙ अहुरनाबहुरना पु
क्रि० अ० [देश०] आना जाना । आने जाने की क्रिया ।
⋙ अहूठन
संज्ञा पुं० [सं० स्थूण] जमीन में गाड़ा हुआ काठ का कुंदा जिसपर रखकर किसान गँड़ासे से चारा काटते हैं । ठीहा ।
⋙ अहृदय
वि० [सं०] १. हृदयहीन । अरसिक । २. खब्तुलहबास । भक्की [को०] ।
⋙ अहृद्य
वि० [सं०] १. जो हृदयहारी न हो । अरुचिकर । २. जो बलकारक न हो; जैसे—औषध [को०] ।
⋙ अहे (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ जिसकी भूरी लकड़ी मकानों में लगती है तथा हल और गाड़ी आदि बनाने के काम में आती है ।
⋙ अहे (२)
अव्य(सं०) १. दे० 'हे' । २. खेद, अलगाव या निंदा का वाचक [को०] ।
⋙ अहेडमान
वि० [सं०] जो अनचाहा या अनिच्छित न हो [को०] ।
⋙ अहेतु (१)
वि० (सं०) १. बिना कारण का । बिना सबब का । निमित्त- रहीत । २. व्यर्थ । फजूल ।
⋙ अहेतु (२)
संज्ञा पुं० एक काव्यालंकार जिसमें कारणों के इकट्ठे रहने पर भी कार्य का न होना दिखलाया जाय; जैसे—है संध्या हूँ रागयुत दिवसहु संमुख नित्त । होत समागम तदपि नहिं बिधि गति अहो बिचित्र ।
⋙ अहेतुक
वि० [सं०] दे० 'अहेतु' ।
⋙ अहेतुसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में जाति के चौबीस भेदों में से एक । विशेष—यदि वादी कोई हेतु उपस्थित करे और उसके उत्तर में यह कहा जाय कि तुम्हारा यह हेतु भूत, भविष्य या वर्तमान किसी काल में हितु महीं हो सकता, तो ऐसा उत्तर अहेतुसम कहलाएगा ।
⋙ अहेर
संज्ञा पुं० [सं० आखेट, प्रा० अहेड] [वि० अहेरी] १. शिकार । मृगया । २. वह जंतु जिसका शिकार खेला जाया ।
⋙ अहेरी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अहेर + ई (प्रत्य०)] शिकारी । आखेटक । उ०—चित्र कू़ट मनु अचल अहेरी । मानस, २ ।१३३ ।
⋙ अहेरी (२)
वि० शिकार खेलनेवाला । शिकारी । ब्याधा ।
⋙ अहेरु
संज्ञा पुं० [सं०] महाशतावरी या शतमूलो नामक पौधा [को०] ।
⋙ अहै
क्रि० अ० [सं० अस्ति, प्रा० अहइ >>अहै] है । उ०—अहै कुमार मोर लघु भ्राता । -मानस, ३ । ११ ।
⋙ अहो
अव्य० [सं०] एक अव्यय जिसका प्रयोग कभी संबोधन की तरह और कभी करुणा, खेद, प्रशंसा, हर्ष और विस्मय सूचित करने के लिये होता है; जैसे, (संबोधन) जाहु नहीं, अहो जाहु चले हरि जात चले दिनहीं बनि बागे ।-केशव (शब्द०) । (करुणा, खेद) अहो! कैसे दुख का समय है । (प्रशंसा) अहो ! धन्य तब जनम मुनीसा ।—तुलसी (शब्द०) । (हर्ष) अहो भाग्य ! आप आए तो । (विस्मय) दूनो दूनो बाढ़त सुपूनो की निसा में, अही आनँद अनुप रूप काहू ब्रज बाल को । पद्माकर (शब्द०) । कभी कभी केवल पादपूरणार्थक भी प्रयोग होता है । जैसे, भारत कहो तो आज तुम क्या हो वहो भारत अहो ।-भारत०, पृ० ८५ ।
⋙ अहोई (१)
संज्ञ स्त्री० [हिं०] संतानप्राप्ति के लिये स्त्रियों द्वारा की जाने वाली वह पूजा जो दीपावली से आठ दिन पहले होती है ।
⋙ अहोई (२)
वि० [सं० अभाविन्, प्रा० *अहोई] न होनेवाली [को०] ।
⋙ अहोनस पु
क्रि० वि० [सं० अहर्निश] रात दिन ।
⋙ अहोरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०] ।
⋙ अहोरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] दिनरात । दिन और रात्रि का नाम ।
⋙ अहीराबहोरा (१)
संज्ञा पुं० [हि० अहुरना+बहुरना] विवाह की एक रीति जिसमें दुलहन ससुराल में जाकर उसी दिन अपने पिता के घर लौट जाती है । हेरा फेरी ।
⋙ अहोराबहोरा (२)
क्रि० वि० बार बार । लौट लौटकर । उ०—शरद चंद महँ खंजन जोरी । फिरि फिरि लरहिं अहोर बहोरी ।-जायसी (शब्द०) ।
⋙ अहद
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'अहद' ।
⋙ अह्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अह' । (समासांत में) जैसे-मध्याह्म [को०] ।
⋙ अह्निज
वि० [सं० अह्नि=सप्तती रूप+ज] दिन में होनेवाला [को०] ।
⋙ अह्नि
वि० [सं०] १. आरामतलब । स्थूल या मोटा । २. बुद्धिमान् । विद्वान् । कवि [को०] ।
⋙ अह्निय
वि० [सं०] धृष्ट । ढीठ । निर्लज्ज । घमंडी [को०] ।
⋙ अह्नी (१)
वि० [सं०] निर्लज्ज [को०] ।
⋙ अह्नी (२)
संज्ञा स्त्री० निर्लज्जता [को०] ।
⋙ अह्नीक (१)
वि० [सं०] निर्लज्ज । बेशर्म; जैसे—भिक्षुक [को०] ।
⋙ अह्नीक (२)
संज्ञा पुं० बौद्ध भिक्षु [को०] ।
⋙ अह् नुत
वि० [सं०] १. जो टेढ़ा नही । अकुटिल । २. अकंपित [को०] ।
⋙ अह्ल
वि० [अ०] दे० 'अहल' [को०] ।
⋙ अह्लखाना
संज्ञा स्त्री० [अ० अह् लेखानह्] पत्नी । भार्या । गुहस्वामिनी [को०] ।
⋙ अह्लेकलम
संज्ञा पुं० [अ०] लेखक । मसिजीवी [को०] ।
⋙ अह्लेवतन
संज्ञा पुं० [अ०] देशावासी । वतनवाले [को०] ।
⋙ अह्लिया
संज्ञा स्त्री० [अ० अहलियह] पत्नी । भार्या । जोरू [को०] ।
⋙ अह्लीयत
संज्ञा स्त्री [अ०] योग्यता । पात्रता । निपुणता [को०] ।
⋙ अह्ल
संज्ञा स्त्री [सं०] १. दृढ़ता । २. भिलाँवा । भल्लातक [को०] ।