स्थंडिल
संज्ञा पुं० [सं० स्थण्डिल] १. भूमि। जमीन। २. यज्ञ के लिये साफ की हुई भूमि। चत्वर। ३. सीमा। हद। सिवान। ४. मिट्टी का ढेर। ५. एक प्राचीन ऋषि का नाम। ६. खुली हुई साफ भूमि। जैसे, गृह के सामने की भूमि (को०)। ७. सीमा- बोधक चिह्व (को०)। ८. ऊसर भूमि। बंजर भूमि (को०)।

स्थंडिलश
वि० [सं० स्थण्डिलश] साफ जमीन पर सोनेवाला। बिना बिस्तर के भूमि पर शयन करनेवाला।

स्थंडिलशय्या
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थण्डिलशय्या] (व्रत के कारण) भूमि या जमीन पर सोना। भूमिशयन।

स्थंडिलशायिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थण्डिलशायिका] दे० 'स्थंडिल शय्या' [को०]।

स्थंडिलशायी
संज्ञा पुं० [सं० स्थण्डिलशायिन्] वह जो व्रत के कारण भूमि या यज्ञस्थल पर सोता हो।

स्थंडिलसंवेशन
संज्ञा पुं० [सं० स्थण्डिलसंवेशन] दे० 'स्थंडिलशय्या'।

स्थंडिलसितक
संज्ञा पुं० [सं० स्थण्डिलसितक] यज्ञ की वेदी।

स्थंडिलेय
संज्ञा पुं० [सं० स्थण्डिलेय] महाभारत के अनुसार रौद्राश्व के एक पुत्र का नाम।

स्थंडिलेशय
संज्ञा पुं० [सं० स्थण्डिलेशय] १. दे० 'स्थंडिलशायी'। २. एक प्राचीन ऋषि का नाम।

स्थ (१)
प्रत्य० [सं०] 'स्था' धातु का एक प्रकार का कृदंत रूप जो शब्दों के अंत में लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है—(१) स्थित। कायम। जैसे,—गंगातटस्थ भवन। (२) उपस्थित। वर्तमान। विद्यमान। मौजूद। जैसे,—उन्हें बहुत से श्लोक कंठस्थ हैं। (३) रहनेवाला। निवासी। जैसे,—काशीस्थ पंडितों ने यह व्यवस्था दी। (४) लगा हुआ। लीन। रत। जैसे,—वे ध्यानस्थ हैं।

स्थ (२)
संज्ञा पुं० स्थान। जगह [को०]।

स्थकर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थगर'।

स्थकित
वि० [हिं० थकित] थका हुआ। शिथिल। ढीला। उ०— जिसने वेनिस की पुलिस के गुप्तचरों और अनुसंधानियों को स्थकित कर दिया हो।—अयोध्या० (शब्द०)।

स्थग (१)
वि० [सं०] १. धूर्त। ठग। धोखेबाज। वंचक। २. निर्लज्ज।

स्थग (२)
संज्ञा पुं० दुष्ट व्यक्ति [को०]।

स्थगणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।

स्थगन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० स्थगयितव्य] १. ढाँकना। आच्छादन। २. छिपाना। लुकाना। गोपन। ३. दूर करना। हटा देना। अपवारण। ४. किसी कार्य या सभा आदि को कुछ समय के लिये रोकना।

स्थगर
संज्ञा पुं० [सं०] १. तगर नामक गंधद्रव्य। विशेष दे० 'तगर'। २. पुत्रजीव नामक एक वृक्ष। विशेष दे० 'पुत्रजीव'।

स्थगल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थगर'।

स्थगिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पान, सुपारी, चूना, कत्था आदि रखने का डिब्बा। पनडब्बा। पानदान। तांबूलकरंक। २. अँगूठे, उँगलियों और लिंगेंद्रिय के अग्रभाग पर के घाव पर बाँधी जानेवाली (पनडब्बे के आकार की) एक प्रकार की पट्टी। (वैद्यक)। ३. वेश्या (को०)। ४. पानविक्रेता की दुकान (को०)। ५. पान लगाकर देने का काम (को०)।

स्थगित
वि० [सं०] १. ढका हुआ। आवृत। आच्छादित। २. छिपा हुआ। तिरोहित। अंतर्हित। गुप्त। ३. बंद। रुद्ध। ४. रोका हुआ। अवरुद्ध। ५. जो कुछ समय के लिये रोक दिया गया हो। मुलतवी। जैसे,—यात्रा स्थगित हो गई।

स्थगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पान, सुपारी आदि रखने का डिब्बा। पनडब्बा। पानदान। तांबूलकरंक।

स्थगु
संज्ञा पुं० [सं०] पीठ पर का कुबड़। कुब्ब। गडु।

स्थडु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थगु'।

स्थपति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। अधिपति। नरेश। २. सामंत। शासक। उच्च राजकर्मचारी। ३. रामचंद्र का सखा, गुह। ४. वह जिसने बृहस्पति सवन नामक यज्ञ किया हो। ५. अंतःपुर- रक्षक। कंचुकी। ६. वास्तुविद्या विशारद। भवननिर्माण कला में निपुण। वास्तुशिल्पी। ७. रथ या गाड़ी बनानेवाला। बढ़ई। सूत्रकार। ८. कुबेर का एक नाम। ९. बृहस्पति का एक नाम। १०. अमात्य। सचिव। मंत्री (को०)। ११. रथ हाँकनेवाला। सारथि।

स्थपति (२)
वि० १. मुख्य। प्रधान। २. उत्तम। श्रेष्ठ।

स्थपत्य
संज्ञा पुं० [सं०] गुहाध्यक्ष। राजभवन का महाप्रतीहार।

स्थपनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दोनों भौंहों के बीच का स्थान, जो वैद्यक के अनुसार मर्म स्थान माना जाता है।

स्थपुट (१)
वि० [सं०] १. कुबड़ा। कुब्ज। २. विषम। ऊबड़ खाबड़। ३. जिसपर संकट पड़ा हो। विपन्न। ४. पीड़ा के कारण झुका हुआ। पीड़ानत।

स्थपुट (२)
संज्ञा पुं० १. पीठ पर का विषम उन्नत स्थान। कूबड़। २. ऊबड़ खाबड़ या असम भूमि (को०)। ३. आत्मा (को०)। यौ०—स्थपुटगत = (१) दु्र्गम या कठिन स्थान में स्थित। (२) स्थपुट संबंधी।

स्थल
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूमि। भूभाग। जमीन। २. जलशून्य भूभाग। खुश्की। जैसे,—स्थल मार्ग से जाने में बहुत दिन लगेंगे। ३. स्थान। जगह। ४. अवसर। मौका। ५. टीला। ढूह। ६. तंबू। पटवास। ७. पुस्तक का एक अंश। परिच्छेद। ८. भागवत में वर्णित बल के एक पुत्र का नाम। ९. निर्जन और मरु भूमि जिसमें जल बहुत कम हो। विशेष—सिंध और कच्छ प्रदेश में ऐसे स्थानों को 'थर' कहते हैं। १०. तट। किनारा। बेला (को०)। ११. ठहरने की जगह। पड़ाव (को०)। १२. प्रस्ताव। प्रसंग। विषय (को०)। १३. पाठ (को०)। १४. प्रासद की छत (को०)।

स्थलकंद
संज्ञा पुं० [सं० स्थलकन्द] जंगली सूरन। कटैला जमींकंद।

स्थलकमल
संज्ञा पुं० [सं०] कमल की आकृति का एक प्रकार का पुष्प जो स्थल में उत्पन्न होता है। विशेष—इसका क्षुप ६ से १२ इंच तक ऊँचा और पत्ते कुछ लंबो- तरे और आध से दो इंच तक लंबे तथा तिहाई इंच तक चौड़े होते हैं। जड़ के पास के पत्ते डालों के पत्तों से कुछ चौड़े होते हैं। फूल गुलाबी रंग के और पाँच दलवाले होते हैं। यह बंगाल में होता है। वैद्यक में यह शीतल, कड़वा, कसैला, चरपरा, हलका, स्तनों को दृढ़ करनेवाला तथा कफ, पित्र, मूत्रकृच्छ अश्मरी, वात, शूल, वमन, दाह, मोह, प्रमेह, रक्तविकार, श्वास, अपस्मार, विष और कास का नाश करनेवाला माना गया है। पर्या०—पद्मचारिणी। अतिचरा। पद्माह्वा। चारिटी। अव्यथा। पद्मा। सारदा। सुगंधमूला। अंबूरुहा। लक्ष्मी। श्रेष्ठा। सुपु- ष्करा। रम्या। पद्ममावती। स्थलरुहा। पुष्करणी। पुष्कर- पर्णिका। पुष्करनाड़ी।

स्थलकमलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थलकमल का पौधा।

स्थलकाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूर्गा की एक सहचरी का नाम।

स्थलकुमुद
संज्ञा पुं० [सं०] कनेर। करवीर।

स्थलग
वि० [सं०] स्थल या भूमि पर रहने या विचरण करनेवाला। स्थलचर। थलचर।

स्थलगत
वि० [सं०] जो स्थल या भूमि पर गया हो [को०]।

स्थलगामी
वि० [सं० स्थलगामिन्] स्थल पर रहने या विचरण करनेवाला। स्थलग। स्थलचर।

स्थलचर
वि० [सं०] स्थल पर रहने या विचरण करनेवाला।

स्थलचारी
वि० [सं० स्थलचारिन्] स्थल पर रहने या विचरण करनेवाला। स्थलचर।

स्थलच्युत
वि० [सं०] जो किसी स्थान या पद से गिराया या हटाया गया हो। स्थानच्युत। पदच्युत [को०]।

स्थलज
वि० [सं०] १. स्थल या भूमि में उत्पन्न। स्थल में उत्पन्न होनेवाला। २. स्थलमार्ग से जानेवाले माल पर लगनेवाला (कर, चुंगी या महसूल)।

स्थलजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुलेठी। मधुयष्ठी।

स्थलदूर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] मैदान का किला।

स्थलदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोक के देवता। ग्रामदेवता या स्थान- देवता। २. भूमि के देवता। भूसुर।

स्थलनलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्थलकमलिनी'।

स्थलनीरज
संज्ञा पुं० [सं०] स्थलकमल।

स्थलपत्तन
संज्ञा पुं० [सं०] सूखी जमीन पर बसा हुआ नगर [को०]।

स्थलपथ
संज्ञा पुं० [सं०] भूमार्ग। भूमिपथ। स्थलमार्ग। यौ०—स्थलपथभोग = वह भूभाग जो उत्तम पथ या मार्ग से युक्त हो।

स्थलपथभोग
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह उपनिवेश या राष्ट्र जिसमें अच्छी अच्छी सड़कें मौजूद हों।

स्थलपद्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थलकमल। २. मानकच्चू। मानक। विशेष दे० 'मानकंद'। ३. दे० 'छत्रपत्र'। ४. सेवती गुलाब आदि। शतपत्र।

स्थलपदि्मनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्थलकमलिनी'।

स्थलपिंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थलपिण्डा] पिंड खजूर। पिंडी। खर्जूरिका।

स्थलपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुल मखमल नाम का पौधा। झंडूक नामक क्षुप। गुल मखमली।

स्थलभंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थलभण्डा] बनभंटा। बृहती।

स्थलमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थलमञ्जरी] लटजीरा। अपामार्ग।

स्थलमर्कट
संज्ञा पुं० [सं०] करौंदा। करमर्दक।

स्थलमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] जमीन पर होकर जानेवाला पथ। खुश्की का रास्ता या सड़क [को०]।

स्थलयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह युद्ध या संग्राम जो स्थल या भूभाग पर होता है। खुश्की की लड़ाई। मैदानी लड़ाई।

स्थलयोधी
संज्ञा पुं० [सं० स्थलयोधिन्] जमीन पर लड़ाई करनेवाला योद्धा।

स्थलरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थलकमल।

स्थलवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० स्थलवर्त्मन्] दे० 'स्थलमार्ग'।

स्थलविग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] वह लड़ाई या युद्ध जो स्थल या भूभाग पर होता है। खुश्की की लड़ाई।

स्थलविहंग
संज्ञा पुं० [सं० स्थलविहङ्ग] स्थल पर विचरण करनेवाले मोर आदि पक्षी।

स्थलविहंगम
संज्ञा पुं० [सं० स्थलविहङ्गम] दे० 'स्थलविहग'।

स्थलविहग
संज्ञा पुं० [सं०] स्थलचारी पक्षी। स्थलविहंगम।

स्थलशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] जमीन की सफाई या परिष्कार [को०]।

स्थलवेतस
संज्ञा पुं० [सं०] भूमि पर पैदा होनेवाला बेंत [को०]।

स्थलशृंगाट
संज्ञा पुं० [सं० स्थलश्रृङ्गाट] गोखरु। गोक्षुर।

स्थलशृंगाटक
संज्ञा पुं० [सं० स्थलश्रृङ्गाटक] दे० 'स्थलशृंगाट'।

स्थलसीमा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थलसीमन्] देश की सीमा। सरहद।

स्थलस्थ
वि० [सं०] सूखी धरती पर खड़ा होनेवाला। भूस्थित [को०]।

स्थलांतर
संज्ञा पुं० [सं० स्थलान्तर] अन्य स्थान। दूसरी जगह [को०]।

स्थला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलशुन्य भूभाग। खुश्क जमीन।

स्थलारविंद
संज्ञा पुं० [सं० स्थलारविन्द] दे० 'स्थलकमल'।

स्थलारूढ
वि० [सं०] जो घोड़े,रथ आदि सवारी से भूमि पर उतरकर खड़ा हो [को०]।

स्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जलशुन्य भूभाग। खुश्क जमीन। भूमि। २. ऊँची सम भूमि। ३. स्थान। जगह। जैसे,—वहाँ एक सुंदर वनस्थली है। ४. दे० 'स्थलीदेवता' (को०)। ५. उपत्यका (को०)। ६. शरीर का निकला हुआ कोई भाग या अंश (को०)।

स्थलीदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम्य देवता।

स्थलीभूता
वि० [सं०] ऊँचे या उच्च स्तर पर स्थित। जैसे कोई भूभाग या देश [को०]।

स्थलीय
वि० [सं०] १. स्थल या भूमि संबंधी। स्थल का भूमि का। जमीन का। जैसे,—जिसे कभी स्थलीय अथवा जलीय संग्राम से भय उत्पादन नहीं हुआ।—अयोध्यासिंह (शब्द०)। २. किसी स्थान का। स्थानीय। ३. विशेष स्थिति या विषय से सबद्ध।

स्थलीशायी
वि० [सं० स्थलीशायिन्] बिछावन आदि से रहित धरती पर ही सोनेवाला [को०]।

स्थलेजात (१)
वि० [सं०] स्थल पर पैदा होनेवाला। जो पृथिवी पर उत्पन्न हो।

स्थलेजात (२)
संज्ञा पुं० मधुयष्टिका। मुलेठी। स्थलजा [को०]।

स्थलेयु
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार रौद्राश्व के एक पुत्र का नाम।

स्थलेरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घीकुआर। घृतकुमारी। २. कुरुही। दग्धा वृक्ष।

स्थलेशय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्थल अर्थात् भूमि पर सोनेवाले कुरंग, कस्तूरीमृग आदि।

स्थलेशय (२)
वि० भूमि पर शयन करनेवाला [को०]।

स्थलौक
संज्ञा पुं० [सं० स्थलौकस्] स्थल पर रहनेवाला पशु। स्थलचर जीव।

स्थव
संज्ञा पुं० [सं०] छाग। बकरा [को०]।

स्थवि
संज्ञा पुं० [सं०] १. थैला। थैली। २. स्वर्ग। ३. जुलाहा। तंतुवाय। ४. अग्नि। आग। ५. कोढ़ी या उसका शरीर। ६. फल। ७. जंगम।

स्थविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मक्खी।

स्थविर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृद्ध। बुड्ढा। जैसे,—उनका प्रभाव स्थविर और युवा सब पर समान हुआ।—अयोध्यसिंह (शब्द०)। २. ब्रह्मा। ३. वृद्ध और पूज्य बौद्ध भिक्षु। ४. छरीला। शैलेय। ५. विधारा। बृद्धदारक। ६. कदंब। कदम। ७. बौद्धों का एक संप्रदाय।

स्थविर (२)
वि० १. वृद्ध और पूज्य। २. स्थिर। दृढ़। अचल (को०)। ३. पुरातन। प्राचीन (को०)।

स्थविरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्यविर या वृद्ध होने का भाव। बुढ़ापा। वृद्धावस्था [को०]।

स्थविरदारु
संज्ञा पुं० [सं०] विधारा। वृद्धदारक।

स्थविरद्युति
वि० [सं०] वृद्धोचित संमान या मर्यादावाला [को०]।

स्थविरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोरखमुंडी। महाश्रावणिका। २. वृद्धा स्त्री। बूढ़ी औरत।

स्थविरायु
वि० [सं० स्थविरायुस्] बहुत वृद्ध। अत्यंत बूढ़ा [को०]।

स्थविष्ठ
वि० [सं०] १. अत्यंत स्थूल। बहुत मोटा। २. अत्यंत शक्तिशाली। महान् बली (को०)।

स्थवीयस
वि० [सं०] जो अत्यंत महान् एवं विशालतम हो [को०]।

स्थांडिल (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थाण्डिल] वह जो व्रत के कारण भूमि या यज्ञस्थल पर सोता है। स्थंडिलशायी।

स्थांडिल (२)
वि० व्रती होने के कारण यज्ञस्थली या अनावृत भूमि पर शयन करनेवाला। व्रत के कारण भूमि पर सोनेवाला।

स्थाई
वि० [सं०स्थायी] दे० 'स्थायी'।

स्थाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणहीन देह। शव। लाश। २. शिव के एक अनुचर का नाम।

स्थागर
वि० [सं०] स्थगर संवंधी। तगर से निर्मित [को०]।

स्थाणव
वि० [सं०] १. स्थाणु या वृक्ष के तने से निर्मित अथवा उत्पन्न। २. स्थाणु से संबंधित [को०]।

स्थाणवीय
वि० [सं०] स्थाणु या शिव संबंधी। शिव का।

स्थाणु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खंभ। थून। स्तंभ। २. पेड़ का वह धड़ जिसके ऊपर की डालियाँ और पत्ते आदि न रह गए हों। ठूँठ। ३. शिव का एक नाम। ४. एक प्रकार का भाला या बरछी। ५. हल का एक भाग। ६. जीवक नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ७. धूपघड़ी का काँटा। ८. दीमकों की बाँबी। ९. वह वस्तु जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर न जा सके। स्थिर वस्तु। स्थावर पदार्थ। १०. ग्यारह रुद्रों में से एक का नाम। ११. एक प्रजापति का नाम। १२. एक नाग का नाम। १३. एक राक्षस का नाम। १४. खूँटी। कील (को०)। १५. बैठने का एक ढंग (को०)।

स्थाणु (२)
वि० स्थिर। अचल।

स्थाणुकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी इंद्रायन। महेंद्रवारुणी लता।

स्थाणुच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] बक्ष का तना काटनेवाला व्यक्ति [को०]।

स्थाणुतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] कुरुक्षेत्र के थानेश्वर नामक स्थान का प्राचीन नाम जो किसी समय बहुत प्रसिद्ध तीर्थ माना जाता था।

स्थाणुदिश
संज्ञा स्त्री० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार शिव की दिशा। उत्तरपूर्व दिशा।

स्थाणुभूत
वि० [सं०] वृक्ष के ठूँठ के समान जड़ या गतिहीन [को०]।

स्थाणुभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रम के कारण स्थाणु या ठुँठ को कुछ और समझना। स्थाण संबंधी भ्रम [को०]।

स्थाणुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाल्मीकि रामायण वर्णित एक प्राचीन नदी का नाम।

स्थाणुरोग
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े को होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें उसकी जाँघ में व्रण या फोड़ा निकलता हैं। विशेष—यह रोग दूषित रक्त के कारण होता है। यह प्रायःबर- सात में ही होता है।

स्थाणुवट
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत वर्णित एक तीर्थ का नाम।

स्थाण्वीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वामन पुराण के अनुसार स्थणुतीर्थ में स्थित एक प्रसिद्ध शिवलिंग। २. थानेश्वर नामक एक ऐतिहासिक नगर।

स्थातव्य
वि० [सं०] रहने या ठहरने योग्य [को०]।

स्थाता (१)
वि० [सं० स्थातृ] १. जो स्थित हो। स्थिर रहनेवाला। २. दूढ़। मजबूत [को०]।

स्थाता (२)
संज्ञा पुं० प्रेरक। नियंता। यंता।

स्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. ठहराव। टिकाव। स्थिति। २. भूमि- भाग। भूमि। जमीन। मैदान। जैसे,—सभा के सामनेवाला स्थान बड़ा रम्य है। ३. वह अवकाश जिसमें कोई चीज रह सके। जगह। ठाम। स्थल। जैसे,—सब सभासद अपने अपने स्थान पर बैठ गए। ४. डेरा। घर। आवास। जैसे—मैं आप- के स्थान पर गया था, आप मिले नहीं । ५. काम करने की जगह। पद। ओहदा। जैसे,—उनके दफ्तर में कोई स्थान खाली है। ६. पद। दर्जा। जैसे,—काशीस्थ पंडितों में उनका स्थान बहुत ऊँचा है। ७. व्याकरण के अनुसार मुहँ के अंदर का वह अंग या स्थल जहाँ से किसी वर्ण या शब्द का उच्चारण हो। जैसे०— कंठ, तालु, मुर्धा, दंत, ओष्ठ। ८. राज्य। देश। ९. मंदिर। देवालय। १०. किसी राज्य का मुख्य आधार या बल जो चार माने गए हैं। यथा,—सेना, कोश, नगर और देश। (मनु०)। ११. गढ़। दूर्ग। १२. सेना का अपने बचाव के लिये डटे रहना। (मनु०)। १३. आखेट में शरीर की एक प्रकार की मुद्रा। १४. (माल का) जखीरा। गोदाम। १५. अवसर। मौका। १६. अवस्था। जशा। हालत। १७. कारण। उद्देश्य। १८. ग्रंथ- संधि। परिच्छेद। १९. नीतिविदों के त्रिवर्ग के अंतर्गत एक वर्ग। २०. किसी अभिनेता का अभिनय या अभिनयगत चरित्र। २१. वेदी। २२. रामायण में वर्णित एक गंधर्व राजा का नाम। २३. आसन (युद्धयात्रा न कर चुपचाप बैठे रहना) का एक भेद। किसी एक उद्देश्य से उदासीन होकर बैठ जाना। २४. मृत्यु के बाद कर्मानुसार प्राप्त होनेवाला लोक (को०)। २५. संबंध। हैसियत (को०)। २६. पदार्थ। वस्तु (को०)। २७. उचित या उपयुक्त स्थान (को०)। २८. उचित या योग्य पदार्थ (को०)। २९. नगरस्थित प्रांगण (को०)। ३०. पड़ाव। विश्रामस्थान (को०)। ३१. स्थित होने या ठहरने की क्रिया (को०)। ३२. आकार। आकृति। रूप (को०)। ३३. जीवन की मान्य चार (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यस्त) अवस्थाओं या स्थितियों में कोई एक। आश्रम (को०)। ३४. संगीत में गीत, सुर या स्वरों के स्पंदन की स्थिति या मात्रा (को०)। ३५. सादृश्य। समानता। तुल्यता (को०)। ३६. निश्चेष्ट स्थिति या अवस्था। औदासीन्य। उदासीनता (को०)। ३७. ज्ञानेंद्रिय (को०)।

स्थानक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जगह। ठाँव। स्थान। २. नगर। शहर। ३. पद। स्थिति। दर्जा। ४. नृत्य में एक प्रकार की मुद्रा। ५. वृक्ष का थाला। आलवाल। ६. मद्य आदि में उत्पन्न फेन। ७. सस्वर पाठ करने को एक रीति [को०]। ८. नाटकीय व्यापार का एक विशेष स्थल। जैसे, पताका स्थानक (को०)। ९. यजुर्वेद की तैत्तिरोय शाखा का अनुवाक् या प्रभाग (को०)। १०. वाण चलाते समय शरीर की एक मुद्रा (को०)। ११. वह मंदिर जिसमें मूर्ति खड़ी या तनी हुई अवस्था में स्यित हो (को०)।

स्थानकुटिकासन
संज्ञा पुं० [सं०] गृह या आवास का परित्याग करना। स्थावर—गृहत्याग [को०]।

स्थानचंचला
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थानचञ्चला] बनतुलसी। बर्बरी।

स्थानचिंतक
संज्ञा पुं० [सं० स्थानचिन्तक] सेना का वह अधिकारी जो सेना के लिये छावनो आदि की व्यवस्था करता हो।

स्थानच्युत
वि० [सं०] १. जो अपने निर्धारित स्थान से च्युत या गिर गया हो। अपनी जगह से गिरा हुआ। स्थानभ्रष्ट। जैसे,—स्थानच्युत कमल। २. जो अपने ओहदे या पद से हटा दिया गया हो। अपने ओहदे से हटाया हुआ। जैसे,—स्थानच्युत कर्मचारी।

स्थानटिप्पटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुक्रनीति के अनुसार दैनिक आय और व्यय का लेखा या हिसाब की बही। रोकड़ बही [को०]।

स्थानतव्य
वि० [सं०] ठहरने के योग्य। स्थिति के योग्य। रहने के योग्य।

स्थानत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपना ओहदा या पद छोड़ देना। पदत्याग। २. निवासस्थान का परित्याग।

स्थानदाता
वि० [सं० स्थानदात्] १. स्थान देनेवाला। जगह देनेवाला। २. किसी के लिये किसी विशिष्ट स्थान का निदेश करनेवाला।

स्थानदीप्त
वि० [सं०] जो स्थानविशेष पर स्थित होने के कारण अशुभ या उग्र हो। स्थान को पा जाने के कारण दीप्त या अशुभ [को०]।

स्थानपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी मठ, मंदिर या विहार आदि का प्रधान व्यक्ति। २. दे० 'स्थानाधिपति'।

स्थानपात
संज्ञा पुं० [सं०] किसी को उसके स्थान से च्युत करना। किसी को उसके स्थान से हटाकर अधिकार करना।

स्थानपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थान या देश का रक्षक। २. प्रधान निरीक्षक। ३. चौकीदार। पहरेदार।

स्थानप्रच्युत
वि० [सं०] दे० 'स्थानच्युत'।

स्थानप्राप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी पद या स्थान का प्राप्त होना।

स्थानभंग
संज्ञा पुं० [सं० स्थानभङ्ग] किसी स्थान का भंग या बरबाद होना। स्थानभ्रंश [को०]।

स्थानभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] रहने की जगह। मकान।

स्थानम्रंश
संज्ञा पुं० [सं०]० १. दे० 'स्थानभंग'। २. अर्थ की हानि। हदे या पद की हानि [को०]।

स्थानभ्रष्ट
वि० [सं०] दे० 'स्थानच्युत'।

स्थामाहात्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थानविशेष को महत्ता या विशेषता। २. किसी स्थानविशेष का पुण्य प्रभाव, पवित्रता या तीर्थत्व [को०]।

स्थानमृग
संज्ञा पुं० [सं०] १. केकड़ा। ककंट। २. मछली। मत्स्य। ३. कछुआ। कच्छप। ४. मगर। मकर।

स्थानयोग
संज्ञा सं० [सं०] उचित स्थानों का नियोजन। उपयुक्त स्थान का विनियोग [को०]।

स्थानरक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] दे०] 'स्थानपाल' [को०]।

स्थानविद्
वि० [सं०] स्थानीय विषयों का अच्छा ज्ञाता या जानकार।

स्थानविभाग
संज्ञा पुं० [सं०] बीजगणित में अंकों की स्थिति के अनुसार किसी संख्या का उपविभाजन। २. स्थान का बँटवारा, वितरण या विभाजन करना।

स्थानवीरासन
संज्ञा पुं० [सं०] ध्यान करने की एक प्रकार की मुद्रा या आसन।

स्थानस्थ
वि० [सं०] १. अपने स्थान पर स्थित या उपस्थित। २. जो अपनी जगह पर अटल हो [को०]।

स्थानांग
संज्ञा पुं० [सं० स्थानाङ्ग] जैन धर्मशास्त्र का तीसरा अंग।

स्थानांतर
संज्ञा पुं० [सं० स्थानान्तर] दूसरा स्थान। प्रकृत या प्रस्तुत से भिन्न स्थान। यौ०—स्थानांतरगत=दूसरे स्थान पर गया हुआ।

स्थानांतरित
वि० [सं० स्थानान्तरित] जो एक स्थान से हट या उठकर दूसरे स्थान पर गया हो। जो एक जगह से दूसरी जगह पर भेजा या पहुँचाया गया हो। जैसे,—(क) भानु कार्यालय चौक से दशाश्वमेध स्थानांतरित हो गया। (ख) मि० सिंह काशी से आजमगढ़ स्थानांतरित कर दिए गए हैं।

स्थानाधिकार
संज्ञा पुं० [सं०] देवस्थान आदि की देखभाल [को०]।

स्थानाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थान का स्वामी। २. दे० 'स्थानपति'।

स्थानाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसपर किसी स्थान की रक्षा का भार हो। स्थानरक्षक।

स्थानापत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी व्यक्ति या वस्तु का स्थान लेना। २. दूसरे व्यक्ति के स्थान पर कुछ दिनों के लिये काम करना [को०]।

स्थानापन्न
वि० [सं०] दूसरे के स्थान पर अस्थायी रूप से काम करनेवाल। कायम मुकाम। एवजी। जैसे,—स्थानापन्न मैजिस्ट्रेट।

स्थानाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] खड़े होने की भूमि या स्थान। आश्रय। आधार [को०]।

स्थानासेध
संज्ञा पुं० [सं०] एक ही स्थान पर नजरबदी। गिरफ्तारी। कैद [को०]।

स्थानिक१
वि० [सं०] उस स्थान का जिसके विषय में कोई उल्लेख हो। उल्लिखित, वक्ता या लेखक के स्थान का। जैसे,—स्थानिक घटना, स्थानिक समाचार।

स्थानिक (२)
संज्ञा पुं० १. वह जिसपर किसी स्थान की रक्षा का भार हो। स्थानरक्षक। २. मंदिर का प्रबंधक। ३. राजकर वसूल करनेवाला एक कर्मचारी। विशेष—जनपद के चौथे भाग की मालगुजारी इनके जिम्मे रहती थी। ये 'समाहती' के अधीन होते थे और इनके अधीन गोप होते थे।

स्थानी
वि० [सं० स्थानिन्] १. स्थानयुक्त। पदयुक्त। २. ठहरनेवाला। स्थायी। ३. उचित। उपयुक्त। ठीक। ४. जिसका कोई स्थानापन्न हो (को०)।

स्थानीय (१)
वि० [सं०] १. उस स्थान या नगर का जिसके संबंध में कोई उल्लेख हो। उल्लिखित वक्ता या लेखक के स्थान का। मुकामी। स्थानिक। जैसे,—स्थानीय पुलिस कर्मचारी। स्था- नीय समाचार। २. जो किसी स्थान पर स्थित हो।

स्थानीय (२)
संज्ञा पुं० १. नगर। कस्बा। २. कौटिल्य के अनुसार एक प्रकार का गढ़ जो ८०० गावों के मध्य मे हो। आठ सौ गाँवों के बीच बना हुआ किला।

स्थानीयता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थानीयपन। आंचलिकता। उ०—भाषा की यह स्थानीयता जायसी की सीमित लोकप्रियता का एक कारण है।—आचार्य०, पृ० ६८।

स्थानेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुरुक्षेत्र का थानेश्वर नामक स्थान जो किसी समय एक प्रसिद्ध तीर्थ था। २. दे० 'स्थानाध्यक्ष'।

स्थापक (१)
वि० [सं०] १. रखने या खड़ा करनेवाला। २. कायम करनेवाला। स्थापनकर्ता।

स्थापक (२)
संज्ञा पुं० १. देवप्रतिमा या मूर्ति बनानेवाला। २. मूर्ति स्था- पित करनेवाला। ३. सूत्रधार का सहकारी। सहकारी रंगमंचा- ध्यक्ष। (नाटक)। ४. कोई संस्था खोलने या खड़ी करनेवाला। संस्थापक। प्रतिष्ठाता। ५. जो किसी के पास कोई चीज जमा करे। अमानत रखनेवाला।

स्थापत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थापति का कार्य। भवननिमर्णि। राज- गीरी। मेमारी। २. वह विद्या जिसमें भवननिर्माण संबंधी सिद्धांतों आदि का विवेचन हो। ३. अंतःपुर का रक्षक। रनि- वास की रखवाली करनेवाला। ४. स्थानरक्षक का पद। यौ०—स्थापत्य कला= भवन आदि निर्माण करने की कला। स्था- पत्यविद्या=वास्तुशिल्प। दे० 'स्थापत्य—२'। स्थापत्यवेद।

स्थापत्यवेद
संज्ञा पुं० [सं०] चार उपवेदों में से एक जिसमें वास्तुशिल्प या भवननिर्माण कला का विषय वर्णित है। कहते हैं, इसे विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से निकाला था।

स्थापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खड़ा करना। उठाना। २. रखना। बैठाना। जमाना। ३. नया काम खोलना। नया काम जारी करना। ४. जकड़ना। पकड़ना। ५. (प्रमाणपूर्वक किसी विषय को) सिद्ध करना। साबित करना। प्रतिपादन। ६. (शरीर की) रक्षा या आयुवृद्धि का उपाय। ७. (रक्त का स्राव) रोकने का उपाय। ८. समाधि। ९. पुंसवन। १०. मकान। घर। आवास। ११. अन्न की राशि। १२. निरूपण। १३. पारे की एक क्रिया(को०)। १४. गर्भाधान नामक एक संस्कार (को०)। १५. रंग की व्यवस्था करना। व्यवस्थापन। निर्देशन (को०)।

स्थापननिक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] अर्हत् की मूर्ति का पूजन। (जैन)।

स्थापनवृत्त
वि० [सं०] जो शक्ति के पुनः संचय से अतीत हो गया हो [को०]।

स्थापना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रतिष्ठित या स्थित करना। बैठाना। थापना। दृढ़तापूर्वक रखना। २. रखना। जमा कर रखना। ३. (प्रमाणपूर्वक किसी विषय को) सिद्ध करना। साबित करना। प्रतिपादन। ४. (नाटक में) व्यवस्थापन। निर्देश।

स्थापनासत्य
संज्ञा पुं० [सं०] किसी प्रतिमा या चित्र आदि में स्वयं उस वस्तु या व्यक्ति का आरोप करना जिसकी वह प्रतिमा या चित्र हो। जैसे,—पार्श्वनाथ की प्रतिमा को 'रार्श्दनाथ की प्रतिमा' न कहकर 'पार्श्वनाथ' कहना। (जैन)।

स्थापनिक
वि० [सं०] भांडार में जमा किया हुआ।

स्थापनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाढ़। पाठा।

स्थापनीय
वि० [सं०] १. स्थापित करने के योग्य। जो स्थापना करने के योग्य हो। २. जो रखने अथवा पोषण पालन करने योग्य हो (को०)। ३. शक्तिवर्धक औषधों द्रारा चिकित्सा करने योग्य (को०)।

स्थापयितव्य
वि० [सं०] १. स्थापित करने के योग्य। २. रखने के योग्य। ३. जिसपर नियंत्रण रखा जा सके। नियंत्रित करने के योग्य [को०]।

स्थापयिता
वि० [सं० स्थापयित्] प्रतिष्ठा या स्थापन करनेवाला। संस्थापक। स्थापक।

स्थापित
वि० [सं०] १. जिसकी स्थापना की गई हो। २. कायम किया हुआ। प्रतिष्ठित। ३. जो जमा किया गया हो। ४. जो जमा कर रखा गया हो। रक्षित। ५. व्यवस्थित। निर्दिष्ट। ६. निश्चित। ७. ठहरा हुआ। दृढ़। मजबूत। ८. जो किसी कार्य पर नियुक्त हो (को०)। ९. विवाहित।

स्थापी
संज्ञा पुं० [सं० स्थापिन्] १. प्रातिमा निर्माण करनेवाला। मूर्ति बनानेवाला। २. स्थापना करनेवाला। स्थापक।

स्थाप्य (१)
वि० [सं०] १. स्थापित करने के योग्य। जिसकी स्थापना की जा सके अथवा जो स्थापित करने के योग्य हो। २. रखे जाने या जमा किए जाने योग्य (को०)। ३. जिसे किसी पद पर रखा जा सके। नियुक्ति योग्य (को०)। ४. जो नियंत्रित किया जा सके। नियंत्रण योग्य। ५. जो पालन पोषण के लायक हो, जैसे,—पशु (को०)।

स्थाप्य (२)
संज्ञा पुं० १. देवप्रतिमा। २. धरोहर। अमानत।

स्थाप्यापहरण
संज्ञा पुं० [सं०] अमानत में खयानत। धरोहर को डकार जाना [को०]।

स्थप्याहरण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थाप्यापहर्ण'।

स्थाम
संज्ञा पुं० [सं० स्थामन्] १. सामर्थ्य। शक्ति। २. घोड़े की हिनहिवाहट। अश्वघोष। ३. स्थान। जगह। मुकाम। ४. स्थिरता। स्थायित्व (को०)।

स्थामवत्
वि० [सं०] शक्तियक्त। दृढ़। मजबूत [को०]।

स्थाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. आधार। पात्र। २. दे० 'स्थाम'।

स्थाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी। धरती।

स्थायिक
वि० [सं०] दे० 'स्थायी' [को०]।

स्थायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थित होना। स्थित होने की क्रिया [को०]।

स्थायिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्थायित्व'।

स्थायित्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थायी होने का भाव। टिकाव। ठह- राव। २. स्थिरता। दृढ़ता। मजबूती।

स्थायी (१)
वि० [सं० स्थायिन्] १. ठहरनेवाला। टिकनेवाला। जो स्थिर रहे। २. बहुत दिन चलनेवाला। जो बहुत दिन चले। टिकाऊ। जैसे—(क) अब यह मकान पहले की अपेक्षा अधिक स्थायी हो गया है। (ख) अब हमारे यहाँ धीरे धीरे स्थायी साहित्य की भी मृष्टि होने लगी है। ३. बना रहनेवाला। स्थितिशील। स्थिर। ४. (किसी के) तुल्य या समान रूपवाला (को०)। ५. जो किसी स्थान पर हो। रहनेवाला (को०)। ६. विश्वास करने योग्य। विश्वस्त।

स्थायी (२)
संज्ञा पुं० १. नित्य या शाश्वत भावना अथवा कोई भी टिकाऊ वस्तु, दृढ़ स्थिति या दशा। २. गीत का प्रथम चरण जो बार बार गाया जाता है। टेक [को०]।

स्थायीभाव
संज्ञा पुं० [सं० स्थायिभाव = हिं० स्थायी + भाव] साहित्य में तीन प्रकार के भावों में से एक जिसकी रस में सदा स्थिति रहती है। विशेष—स्थायीभाव चित्त में सदा संस्कार रूप से वर्तमान रहते हैं और विभाव आदि में अभिव्यक्त होकर रसत्व को प्राप्त होते हैं। ये विरुद्ध अथवा अविरुद्ध भावों में नष्ट नहीं होते, बल्कि उन्हीं को अपने आपमें समा लेते हैं। ये संख्या में नौ हैं; यथा—(१) रति। (२) हास्य। (३) शोक। (४) क्रोध। (५) उत्साह। (६) भय। (७) निंदा या जुगुप्सा। (८) विस्मय और (९) निर्वेद।

स्थायी समिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी सभा संमेलन के कुछ निर्वा- चित सदस्यों की एक समिति जिसका काम उस सभा या संमेलन के दो महाधिवेशनों के बीच की अवधि में उपस्थित होनेवाले कामों की व्यवस्था करना है।

स्थायुक (१)
वि० [सं०] [स्त्री० स्थायुका, स्थायुकी] १. ठहरनेवाला। टिकनेवाला। रहनेवाला। २. स्थितियुक्त। स्थितिशील। ३. दृढ़। स्थिर (को०)।

स्थायुक (२)
संज्ञा पुं० गाँव का अध्यक्ष या निरीक्षक।

स्थाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आधार। पात्र। बरतन। २. थाल। परात। थाली। ३. देग। देगची। पतीला। बटलोही। ४. दाँतों के नीचे का और मसूड़ों का भीतरी भाग।

स्थालक
संज्ञा पुं० [सं०] पीठ की एक हड्डी।

स्थालपथ
वि० [सं०] स्थल मार्ग से आयात किया हुआ या मँगाया हुआ [को०]।

स्थालपथिक
वि० [सं०] १. स्थल मार्ग से यात्रा करनेवाला। २. स्थल मार्ग से आयात होनेवाला [को०]।

स्थालरूप
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन बनाने के बर्तन की शक्लवाला। पात्र की तरह आकृतिवाला [को०]।

स्थालिक
संज्ञा पुं० [सं०] मल की दुर्गंध।

स्थालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मक्खी।

स्थाली (१)
स्त्री० [सं०] १. हंडी। हँड़िया। २. मिट्टी की रिकाबी। ३. एक प्रकार का बरतन जो सोम का रस बनाने के काम में आता था। ४. पाडर का पेड़। पाटला वृक्ष।

स्थाली (२)
वि० [सं० स्थालिन्] थाली सहित। पात्रयुक्त [को०]।

स्थालीग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदार्थ जो पाकपात्र से करछी या चम्मच भर निकाला गया हो [को०]।

स्थालीदरण
संज्ञा पुं० [सं०] पात्र का टूटना। बर्तन टूट जाना [को०]।

स्थालीद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] बेलिया पीपल। नंदी वृक्ष।

स्थालीपक्व
वि० [सं०] हंडी या पतीली में पकाया हुआ [को०]।

स्थांलीपर्णीं
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शालिपर्णी'।

स्थलीपाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आहुति के लिये दूध में पकाया हुआ चावल या जौ। एक प्रकार का चरु। २. वैद्यक में लोहे की एक पाक विधि।

स्थालीपाकीय
वि० [सं०] स्थालीपाक संबंधी। स्थालीपाक का।

स्थालीपुरीष
संज्ञा पुं० [सं०] पात्र में जमी हुई मैल या तरौंछ [को०]।

स्थालीपुलाक
संज्ञा पुं० [सं०] स्थाली में पका हुआ चावल [को०]।

स्थालीपुलाक न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] जिस प्रकार हाँडी का एक चावल छूकर या टोकर सब चावलों के पक जाने का अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार किसी एक बात को देखकर उस संबंध की सब बातों का मालूम होना। जैसे,—मैंने उनका एक ही व्याख्यान सुनकर स्थालीपुलाक न्याय से सब विषयों में उनका मत जान लिया।

स्थालीविल
संज्ञा पुं० [सं०] पाकपात्र (बटलोही या हाँड़ी आदि) का भीतरी भाग।

स्थालीविलीय
वि० [सं०] पाकपात्र (देग, बटलोही, हाँड़ी आदि) में उबलने या पकने योग्य।

स्थालीविल्य
वि० [सं०] दे० 'स्थालीविलीय' [को०]।

स्थालीवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थालीद्रुम'।

स्थाल्य
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार सूखी जमीन में होनेवाले अनाज, ओषधि आदि।

स्थावर (१)
वि० [सं०] १. जो चले नहीं। सदा अपने स्थान पर रहने वाला। अचल। स्थिर। २. जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया न जा सके। जंगम का उलटा। अचल। गैर मनकूला। जैसे,—स्थावर संपत्ति (मकान, बाग, गाँव आदि)। ३. स्थायी। स्थितिशील। ४. स्थावर संपत्ति संबंधी। ५. निश्चेष्ट। निष्क्रिय (को०)। ६. वनस्पति संबंधी। वानस्पतिक (को०)।

स्थावर (२)
संज्ञा पुं० १. पहाड़। पर्वत। २. अचल संपत्ति। गैर मनकूला जायदाद। जैसे,—जमीन, घर आदि। ३. वह संपत्ति जो वंश- परंपरा से परिवार में रक्षित हो और जो बेची न जा सके। जैसे,—रत्न आदि। ५. धनुष की डोरी। प्रत्यंचा। चिल्ला। ६. कोई भी स्थावर वस्तु या पदार्थ। जैसे, वृक्ष, प्रस्तर आदि (को०)। ७. विशाल एवं स्थूल शरीर (को०)। ८. स्थायी होने का भाव। स्थायित्व (को०)। ९. जैन दर्शन के अनुसार एकेंद्रिय पदार्थ आदि जिनके पाँच भेद कहे गए हैं—(१) पृथ्वीकाय, (२) अपकाय, (३) तेजस्काय, (४) वायुकाय और (५) वनस्पतिकाय।

स्थावरकल्प (१)
संज्ञा पुं० [बौद्ध मत के अनुसार सृष्टि संबंधी कल्प [को०]।

स्थावरकल्प (२)
वि० जो स्थावर न होते हुए भी स्थावर के तुल्य हो।

स्थावरक्रयाणक
संज्ञा पुं० [सं०] काठ की बनी वस्तुएँ [को०]।

स्थावरगरल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थावरविष'।

स्थावरजंगम
संज्ञा पुं० [सं० स्थावरजङ्गम] सृष्टिगत स्थावर और जंगम या चल और अचल सभी पदार्थ।

स्थावरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्थावर होने का भाव। स्थिरता। अचलता। २. वानस्पतिक या खनिज होने की स्थिति या अवस्था।

स्थावरतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन तीर्थ का नाम। २. वह तीर्थ जिसका जल स्थिर हो। स्थिर जलवाला तीर्थ (को०)।

स्थावरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थावरता'।

स्थावरनाम
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मतानुसार वह पाप कर्म जिसके उदय से जीव स्थावर काय में जन्म ग्रहण करते हैं।

स्थावरराज
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वतों का राजा, हिमालय। यौ०—स्थावरराजकन्या = पार्वती।

स्थावरविष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का विष। स्थावर पदार्थों में होनेवाला जहर। विशेष—यह विष सुश्रुत के अनुसार वृक्षमूल, पत्तों, फल, फूल, छाल, दूध, सार, गोंद, धातु और कंद में होता है। वैद्यक में यह ज्वर, हिचकी, दंतहर्ष, गलवेदना, वमन, अरुचि, श्वास, मूर्छा और झाग उत्पन्न करनेवाला बताया गया है।

स्थावराकृति
वि० [सं०] स्थावर अर्थात् वृक्ष की आकृति या स्वरूपवाला [को०]।

स्थावरादि
संज्ञा पुं० [सं०] वत्सनाभ विष। बच्छनाग विष।

स्थावरास्थावर
संज्ञा पुं० [सं०] स्थावर और अस्थावर पदार्थ। दे० 'स्थावरजंगम'।

स्थाविर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वृद्धावस्था। वार्धक्य। बुढ़ौती। विशेष—यह अवस्था औरतों के लिये ५० से तथा पुरुषों के लिये ७० से ९० वर्ष तक मानी गई है। स्थाविरावस्था (९० वर्ष) के उपरांत मनुष्य 'वर्षीयस्' कहलाता है।

स्ताविर (२)
वि० १. वृद्ध। वार्धक्ययुक्त। २. बुढ़ौती संबंधी। ३. मोटा। दृढ़ [को०]।

स्थासक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर को चंदन आदि से चर्चित या सुगंधित करना। २. पानी का बुलबुला। जलबुद्बुद्। ३. घोड़े के साज पर बुलबुले के आकार का एक गहना। ४. अभ्यंजन, विलेपन, चंदनादि द्वारा निर्मित आकृति या चित्र (को०)।

स्थासु
संज्ञा पुं० [सं०] शारीरिक बल। दे० 'स्थाम' [को०]।

स्थास्नु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पौधा। वृक्ष [को०]।

स्थास्नु (२)
वि० [सं०] १. स्थायी। २. बहुत दिन टिकनेवाला। टिकाऊ। ३. सहनशील। ४. स्थित। स्थिर। अचल [को०]।

स्थिक
संज्ञा पुं० [सं०] नितंब। चूतड़।

स्थास्नुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थास्नु होने का भाव या स्थिति। दृढ़ता। स्थिरता [को०]।

स्थित (१)
वि० [सं०] १. अपने स्थान पर ठहरा हुआ। टिका हुआ। जैसे,—इस भवन की छत खंभों पर स्थित है। २. लटका हुआ। अबलंबित। ३. बैठा हुआ। आसीन। जैसे,—वे अपने आसन पर स्थित हो गए। ४. अपनी प्रतिज्ञा पर डटा हुआ। दृढ़प्रतिज्ञ। जैसे,—वह अपनी बात पर स्थित है। ५. विद्यमान। वर्तमान। मौजूद। जैसे,—परमात्मा सर्वत्र स्थित है। ६. रहनेवाला। निवासी। जैसे,—स्वर्गस्थित देवता, दुर्गस्थित सेना। ७. बसा हुआ। अवस्थित। जैसे,—वह नगर गंगा के बाएँ किनारे पर स्थित है। ८. खड़ा हुआ। ऊर्ध्व। ९. अचल। स्थिर। १०. लगा हुआ। संलग्न। मशगूल। ११. जड़ा हुआ। खचित (को०)। १२. घटित। बीता हुआ। १३. सहमत (को०)। १४. निर्धारित। निश्चित। स्वीकृत (को०)। १५. रोका हुआ। वरित (को०)। १६. निकटस्थ। पार्श्वस्थ (को०)। १७. प्रस्तुत। उपस्थित (को०)। १८. धैर्यशाली। धीर (को०)। १९. कर्तव्य- परायण (को०)। २०. पुण्यात्मा (को०)।

स्थित (२)
संज्ञा पुं० १. अवस्थान। निवास। २. कुलमर्यादा। ३. खड़ा रहना। रुका रहना। ठहरना (को०)। ४. खड़ा होने की अवस्था या ढंग (को०)। ५. सत्कर्म में तल्लीनता (को०)।

स्थितता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थित होने का भाव। ठहराव। अवस्थान। स्थिति।

स्थितधी
वि० [सं०] १. जिसका मन किसी बात से डावाँडोल न होता हो। जिसकी बुद्धि सदा स्थिर रहती हो। स्थिरबुद्धि। २. जिसका चित्त दुःख में विचलित नहो, सुख की जिसे चाह न हो और जिसमें राग, आसक्ति, भय या क्रोध न रह गया हो। ब्रह्मबुद्धि संपन्न।

स्थितपाठय
संज्ञा पुं० [सं०] नाटयशास्त्र के अनुसार लास्य के दस अंगों में से एक। काम से संतप्त नायिका का बैठकर स्वाभाविक पाठ करना। विशेष—कुछ लोगों के मत से क्रुद्ध या भ्रांत स्त्री पुरुषों का प्राकृत पाठ भी यही है।

स्थितप्रज्ञ
वि० [सं०] १. जिसकी विवेकबुद्धि स्थिर हो। २. जो समस्त मनोविकारों से रहित हो। आत्मा द्वारा आत्मा में ही संतुष्ट रहनेवाला। आत्मसंतोषी।

स्थितप्रेमा
संज्ञा पुं० [सं० स्थितप्रेमन्] विश्वस्त मित्र [को०]।

स्थितबुद्धिदत्त
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध का एक नाम।

स्थितसंकेत
वि० [सं० स्थितसङ्केत] दे० 'स्थितसंविद्'।

स्थितसंविद्
वि० [सं०] जो अपने वचन का पालन करता है। दूढ़प्रतिज्ञ [को०]।

स्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रहना। ठहरना। टिकाव। ठहराव। जैसे,—इस छत की स्थिति इन्हीं खंभों पर है। २. निवास। अवस्थान। जैसे,—यहाँ कब तक आपकी स्तिति रहेगी ? ३. अवस्था। दशा। हालत। जैसे,—उनकी स्थिति बहुत शोचनीय है। ४. पद। दर्जा। जैसे,—वे उन्नति करते हुए इस स्थिति को पहुँच गए। ५. एक स्थान या अवस्था में रहना। अवस्थान। ६. निरंतर बना रहना। अस्तित्व। ७. पालन। ८. नियम। ९. निष्पत्ति। निर्णय। १०. मर्यादा। ११. सीमा। हद्द। १२. निवृत्ति। १३. स्थिरता। १४. ठहरने का स्थान। १५. ढंग। तरीका। १६. आकार। आकृति। रूप। सूरत। १७. संयोग। मौका। १८. यति। विराम (को०)। १९. जड़ता। गतिहीनता (को०)। २०. ग्रहण की अवधि (को०)। २१. कुशल क्षेम। कल्याण (को०)। २२. संगति (को०)। २३. स्वभाव। प्रकृति (को०)। २४. निर्वाह (को०)। २५. आयु (को०)। २६. जीव की तीन अवस्थाओं में से एक (को०)। २७. पृथ्वी (को०)। २८. दृढ़ विश्वास (को०)। २९. प्रथा। रस्म (को०)। यौ०—स्थितिकर्ता = स्थिति करनेवाला। स्थायी बनानेवाला। स्थितिज्ञ = (१) परिस्थिति या अवसर का जानकार। (२) मर्यादा का ध्यान रखनेवाला। स्थितिदेश = निवासस्थान। स्थितिपालन = स्थिति को कायम रखना। स्थितिप्रद = दृढ़ या स्थायी बनानेवाला। स्थितिभिद् = मर्यादा को भंग करनेवाला। स्थितिमार्ग = मस्तिष्क या मन की स्थिरतादायक प्रक्रिया। स्थितियुक्त = स्थिरता या स्थायित्वयुक्त।

स्थितिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्थिति का भाव या धर्म। २. स्थिरता।

स्थितिपद्
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम [को०]।

स्थितिपद्
संज्ञा पुं० [सं०] उचित एवं उपयुक्त प्रवाह मार्ग। ठीक राह। उचित पथ [को०]।

स्थितिमान्
सं० [सं० स्थितिमत्] १. दृढ़। धीर। २. स्थायी। टिकाऊ। ३. अपनी सीमा या मर्यादा के अंदर रहनेवाला। ४. धार्मिक। सदाचारी [को०]।

स्थितिस्थापक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह गुण जिसके रहने से कोई वस्तु साधारण स्थिति में आने पर फिर अपनी पूर्व अवस्था को प्राप्त हो जाय। किसी वस्तु को अनुकूल परिस्थिति में फिर उसकी पूर्व अवस्था पर पहूँचानेवाला गुण। जैसे,—बेंत लचकाने से लचक जाता है और छोड़ देने से फिर (इसी गुण के कारण) ज्यों का त्यों हो जाता है।

स्थितिस्थापक (२)
वि० १. किसी वस्तु को उसकी पूर्व अवस्था को प्राप्त करानेवाला। २. जो सहज में लचक या झुक जाय और छोड़ देने पर फिर ज्यों का त्यों हो जाय। लचीला। लचकदार। लच- लचा। जैसे,—बेंत।

स्थितिस्थापकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थितिस्थापक होने की अवस्था या गुण। अनुकूल परिस्थिति में फिर अपनी पूर्व अवस्था को पहुँच जाने का गुण या शक्ति। लचीलापन। लचक।

स्थितिस्थापकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्वावस्था को प्राप्त होने की शक्ति या गुण। स्थितिस्थापकता।

स्थिर (१)
वि० [सं०] १. जो चलता या हिलता डोलता न हो। निश्चल। ठहरा हुआ। जैसे,—(क) हम लोग देखते हैं कि पुथ्वी स्थिर है; पर वह एक घंटे में ५८ हजार मील चलती है। (ख) और लोग उठकर चले गए पर वह अपने स्थान पर स्थिर रहा। २. निश्चित। जैसे,—(क) उन्होंने कलकत्ते जाना स्थिर किया है। (ख) आप स्थिर जानिए कि वह कभी सफल न होगा। ३. शांत। जैसे,—आप बहुत उत्तेजित हो गए हैं, जरा स्थिर होइए। ४. दृढ़। अटल। जैसे,—वे अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर हैं। ५. स्थायी। सदा बना रहनेवाला। जैसे,—इस संसार में कीर्ति ही स्थिर रहती है। ६. नियत। मुकर्रर। जैसे,—वहाँ चलने का समय स्थिर हो गया। ७. विश्वस्त। ८. धैर्ययुक्त। धीर (को०)। ९. जटित। नक्श। खचित। जड़ा हुआ (को०)। १०. आचार- युक्त। आचारव्रती (को०)। ११. कठिन। ठोस (को०)। १२. बली। उग्र। कठोरहृदय (को०)। १३. मंद। धीमा। जैसे, स्थिरगति।

स्थिर (२)
संज्ञा पुं० १. शिव का एक नाम। २. स्कंद के एक अनुचर का नाम। ३. ज्योतिष में एक योग का नाम। ४. ज्योतिष में वृष सिंह, वृश्चिक और कुंभ ये चार राशियाँ, जो स्थिर मानी गई हैं। विशेष—कहते हैं, इन राशियो में कोई काम करने से वह स्थिर या स्थायी होता है। जो बालक इनमें से किसी राशि में जन्म लेता है, वह स्थिर और गंभीर स्वभाववाला, क्षमाशील तथा दीर्धसूत्री होता है। ५. देवता। ६. साँड़। वृष। ७. मोक्ष। मुक्ति। ८. वृक्ष। पेड़। ९. धौ। धव वृक्ष। १०. पहाड़। पर्वत। ११. कार्तिकेय का एक नाम (को०)। १२. दृढ़ता। स्थिरता (को०)। १३. शनि ग्रह १४. एक प्रकार का छंद। १५. एक प्रकार का मंत्र जिससे शस्त्र अभिमंत्रित किए जाते थे। १६. जैन धर्मानुसार वह कर्म जिससे जीव को स्थिर अवयव प्राप्त होते हैं।

स्थिरक
संज्ञा पुं० [सं०] सागोन। शाक वृक्ष।

स्थिरकर्मा
वि० [सं० स्थिरकर्मन] स्थिरता या दृढ़ता से काम करनेवाला।

स्थिरकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] मौलसिरी। बकुल वृक्ष।

स्थिरगंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थिरगन्ध] चंपा। चंपक वृक्ष।

स्थिरगंध (२)
वि० जिसकी सुगंध स्थिर रहती हो। स्थिर या स्थायी गंधयुक्त।

स्थिरगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिरगन्धा] १. केवड़ा। केतकी। २. पाढ़र। पाटला।

स्थिरगति
संज्ञा पुं० [सं०] शनैश्चर [को०]।

स्थिरचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] मंजुघोष या मंजुश्री नामक प्रसिद्ध बोधि- सत्व का एक नाम। विशेष दे० 'मंजुघोष'—२।

स्थिरचित्त
वि० [सं०] जिसका मन स्थिर या दृढ़ हो। जो जल्दी जल्दी अपने विचार न बदलता हो, अथवा घबराता न हो। दृढ़चित्त।

स्थिरचेता
वि० [सं० स्थिरचेतस्] दे० 'स्थिरचित्त'।

स्थिरच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र। भूर्जपत्र।

स्थिरच्छाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. छाया देनेवाले पेड़। छायातरु। २. पेड़। वृक्ष (को०)।

स्थिरजिह्व
संज्ञा पुं० [सं०] मछली। मत्स्य।

स्थिरजीवित
वि० [सं०] दीर्घायु। दे० 'स्थिरायु' [को०]।

स्थिरजीविता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेमल का पेड़। शाल्मलि वृक्ष।

स्थिरजीवी
संज्ञा पुं० [सं० स्थिरजीविन्] कौआ, जिसका जीवन बहुत दीर्घ होता है।

स्थिरतर (१)
वि० [सं०] अत्यंत दृढ़। विशेष दृढ़ [को०]।

स्थिरतर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] परमेश्वर। ईश्वर [को०]।

स्थिरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्थिर होने का भाव। ठहराव। निश्च- लता। २. दृढ़ता। मजबूती। ३. स्थायित्व। ४. धीरता। धैर्य। ५. कठोरता। निर्भयता। निर्भीकता (को०)।

स्थिरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थिरता'।

स्थिरदंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँप। सर्प। भुजंग। २. वाराहरूपी विष्णु का नाम। ३. ध्वनि।

स्थिरधामा
वि० [सं० स्थिरधामन्] जिसकी जाति, वर्ग या वंशपरंपरा समर्थ एवं स्थिर हो [को०]।

स्थिरधी
वि० [सं०] जिसकी बुद्धि या चित्त स्थिर हो। दृढ़चित्त।

स्तिरपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताड़ से मिलता जुलता एक प्रकार का पेड़। श्रीताल। २. एक प्रकार का खजूर का पेड़। हिंताल।

स्थिरपद
वि० [सं०] दृढ़। बद्धमूल [को०]।

स्थिरपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंपे का पेड़। चंपक वृक्ष। २. मौल- सिरी का पेड़। बकुल वृक्ष। ३. तिलपुष्पी। तिलकपुष्प वृक्ष।

स्थिरपुष्पी
संज्ञा पुं० [सं० स्थिरपुष्पिन्] १. तिलपुष्पी। तिलकपुष्प का वृक्ष। २. चंपक वृक्ष। चंपा का वृक्ष (को०)। ३. बकुल। मौलसिरी (को०)।

स्थिरप्रतिज्ञ
वि० [सं०] वचन का पक्का। दृढप्रतिज्ञ। प्रतिज्ञा पर डटा रहनेवाला [को०]।

स्थिरप्रतिबंध
वि० [सं० स्थिरप्रतिबन्ध] जो डटकर मुकाबला करनेवाला हो [को०]।

स्थिरप्रतिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] निश्चित निवासस्थान या रहने का आवास [को०]।

स्थिरप्रेमा
वि० [सं० स्थिरप्रेमन्] जिसका प्रेम अटल हो [को०]।

स्थिरफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुम्हड़े या पेठे की लता। कुष्मांड लता।

स्थिरबुद्धि
वि० [सं०] जिसकी बुद्धि स्थिर हो। ठहरी हुई बुद्धिवाला। दृढ़चित्त।

स्थिरमति (१)
वि० [सं०] दे० 'स्थिरबुद्धि'।

स्थिरमति (२)
संज्ञा स्त्री० सुस्थिर बुद्धि।

स्थिरमद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मोर। मयूर।

स्थिरमद (२)
वि० १. जिसका नशा काफी समय तक बना रहे। २. जो गहरे नशे में हो या जिसका नशा शीघ्र न उतरे [को०]।

स्थिरमना
वि० [सं० स्थिरमनस्] दे० 'स्थिरचित्त'।

स्थिरमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल कुलथी। रक्त कुलत्थ।

स्थिरयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] वह वृक्ष जो सदा छाया देता हो। छायावृक्ष।

स्थिरयौवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विद्याधर। २. अनवरत युवावस्था।

स्थिरयौवन (२)
वि० जो सदा जवान रहे।

स्थिररंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थिररङ्गा] नील का पौधा।

स्थिररागा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारुहलदी। दारुहरिद्रा।

स्थिरलिंग
वि० [सं० स्थिरलिङ्ग] जिसका लिंग कठिन एवं स्थिर या अनभ्य हो [को०]।

स्थिरलोचन
वि० [सं०] जिसकी टकटकी बँधी हो। जिसकी पलक न गिरती हो [को०]।

स्थिरवाक्
वि० [सं० स्थिरवाच्] जो अपने बात पर दृढ़ रहे। विश्व- सनीय [को०]।

स्थिरविक्रम
वि० [सं०] ठोस कदम रखनेवाला [को०]।

स्थिरश्री
वि० [सं०] जिसका वैभव चिरस्थायी हो [को०]।

स्थिरसंगर
वि० [सं० स्थिरसङ्गर] १. वादे का पक्का। विश्वसनीय। २. जो संग्राम में स्थिर रहे। युद्ध में अडिग।

स्थिरसंस्कार
वि० [सं०] जिसके संस्कार स्थिर हों। सुसंस्कृत [को०]।

स्थिरसाधनक
संज्ञा पुं० [सं०] सँभालू। सिंदुवार वृक्ष।

स्थिरसार
संज्ञा पुं० [सं०] सागौन। शाक वृक्ष।

स्थिरसौहृद
संज्ञा वि० [सं०] जिसकी मित्रता सुदृढ़ हो [को०]।

स्थिरस्थायी
वि० [सं०] १. बहुत दिनों तक टिकनेवाला। २. ध्यान आदि में देर तक स्थिर रहनेवाला।

स्थिरांघ्रिप
संज्ञा पुं० [सं० स्थिराडि्घ्रप] हिंताल वृक्ष।

स्थिरांह्निप
संज्ञा पुं० [सं०] हिंताल वृक्ष।

स्थिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दृढ़ चित्तवाली स्त्री। २. पृथ्वी। धरित्री। ३. सरिवन। शालपर्णी। ४. काकोली। ५. सेमल। शाल्मलि वृक्ष। ६. बनमूँग। वनमुद्ग। ७. मषवन। माषपर्णी। ८. मूसाकानी। मूषकर्णी।

स्थिराघात
वि० [सं०] १. आघात सहने में अविचल। २. जो खोदी न जा सके। कठोर (जैसे, भूमि) [को०]।

स्थिरात्मा
वि० [सं० स्थिरात्मन्] जिसका चित्त अस्थिर न हो। सुदृढ़ चित्तवाला [को०]।

स्थिरानुराग
वि० [सं०] प्रगाढ़ प्रेमी। जिसका प्रेम अखूट या अटूट हो [को०]।

स्थिरानुराग
संज्ञा पुं० स्थिर प्रेम। सच्चा अनुराग।

स्थिरापाय
वि० [सं०] जिसका अपाय अर्थात् नाश निश्चित हो। क्षणभंगुर। क्षयशील [को०]।

स्थिरायु (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थिरायुस्] सेमल का पेड़। शाल्मलि वृक्ष।

स्थिरायु (२)
वि० १. जिसकी आयु बहुत अधिक हो। चिरजीवी। २. जो कभी मरे नहीं। अमर।

स्थिरीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थिर करने की क्रिया। २. दृढ़ करना। मजबूत करना। ३. पुष्टि। समर्थन।

स्थिरीकार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थिरीकरण' [को०]।

स्थिरीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] अचलता [को०]।

स्थुरी
संज्ञा पुं० [सं० स्थुरिन्]दे० 'स्थूरिन्' [को०]।

स्थुल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लंबा तंबू। पट्टवास।

स्थूण
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम। २. एक यक्ष का नाम (को०)। ३. खंभा। स्तंभ। स्थाणु (को०)।

स्थूणकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि।

स्थूणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घर का खंभा। थूनी। २. पेड़ का तना या ठूँठ। ३. लोहे का पुतला। ४. निहाई। थूर्मि। ५. एक प्रकार का रोग।

स्थूणाकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का व्यूह। २. महाभारत में वर्णित एक यक्ष का नाम। ३. हरिवंश पुराण के अनुसार एक रोगग्रह का नाम। ४. एक प्रकार का वाण। ५. रुद्र का एक रूप (को०)।

स्थूणाखनन न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] एक दृष्टांतवाक्य या न्याय। जैसे खंभा गाड़ने में उसे दृढ़ करने के लिये युक्ति की जाती है, अपने पक्षसमर्थन में वैसा करना। विशेष दे० 'न्याय'-४ (१०९)।

स्थूणानिखनन न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थूणाखनन न्याय'।

स्थूणागर्त
संज्ञा पुं० [सं०] खंभा गाड़ने के लिये खोदा हुआ गर्त या गड्ढा [को०]।

स्थूणापक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सेना का एक प्रकार का व्यूह। मानकंद।

स्थूणभार
संज्ञा पुं० [सं०] खंभा या धरन आदि का वजन [को०]।

स्थूणाराज
संज्ञा पुं० [सं०] प्रधान खंभा। मुख्य स्तंभ [को०]।

स्थूणाविरोहण
संज्ञा पुं० [सं०] खंभे से अंकुर फूटना [को०]।

स्थूणीय
वि० [सं०] थूर्मि संबंधी। स्तंभ संबंधी [को०]।

स्थूम
संज्ञा पुं० [सं०] १. दीप्ति। प्रकाश। २. चंद्रमा।

स्थूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्य। आदमी। २. साँड़। वृक्ष।

स्थूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँझ गाय का नथना। घूरिका। खुरिका।

स्थूरी
संज्ञा पुं० [सं० स्थूरिन्] बोझ लादनेवाला पशु। लद्दू घोड़ा या बैल।

स्थूरीपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] वह अश्व जिसपर सवारी न की गई हो [को०]।

स्थूल (१)
वि० [सं०] १. जिसके अंग फूले हुए या भारी हों। मोटा। पीन। जैसे,—स्थूल देह। उ०—देख्यो भरत तरुण अति सुंदर। स्थूल शरीर रहित सब द्वंदर।—सूर (शब्द०)। २. जो यथेष्ट स्पष्ट हो। जिसकी विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता न हो। सहज में दिखाई देने या समझ में आने योग्य। सूक्ष्म का उलटा। जैसे,—स्थूल सिद्धांत, स्थूल खंडन। ३. मूर्ख। अज्ञ। जड़। ४. जिसका तल सम न हो। ५. विस्तृत। बड़ा (को०)। ६. पुष्ट। मजबूत। शक्तिशाली (को०)। ७. बेडौल। भद्दा (को०) ८.सामान्य। साधारण (को०)। ९. आलसी। काहिल। सुस्त (को०)। १०. अवास्तविक। भौतिक। जैसे,—स्थूल जगत्।

स्थूल (२)
संज्ञा पुं० १. वह पदार्थ जिसका साधारणतया इंद्रियों द्वारा ग्रहण हो सके। वह जो स्पर्श, घ्राण, दृष्टि आदि की सहा- यता से जाना जा सके। गोचर पिंड। उ०—जो स्थूल होने के प्रथम देखने में आकर फिर न देख पड़े, उसको हम विनाश कहते हैं।—दयानंद (शब्द०)। २. विष्णु। ३. समूह। राशि। ढेर। ४. कटहल। ५. प्रियंगु। कँगनी। ६. एक प्रकार का कदंब। ७. शिव के एक गण का नाम। ८. अन्नमय कोश। ९. वैद्यक के अनुसार शरीर की सातवीं त्वचा। १०. तूद या तूत का वृक्ष। ११. ईख। ऊख। १२. पहाड़ की चोटी। कूट। शृंग (को०)। १३. दधि या मट्ठा (को०)। १४. तंबू। शिबिर (को०)।

स्थूलकंगु
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलकङ्गु] वरक धान्य। चेना।

स्थूलकंटक
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलकण्डक] बबूल की जाति का एक प्रकार का पेड़ जिसे 'जाल बर्बुरक' या 'आरी' भी कहते हैं।

स्थूलकंटकिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूलकण्टकिका] सेमल का वृक्ष। शाल्मलि।

स्थूलकंटफल
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलकण्टफल] पनस। कटहल।

स्थूलकंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूलकण्टा] बड़ी कटाई। बनभंटा। बृहती।

स्थूलकंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलकन्द] १. लाल लहसुन। २. जमीकंद। सूरन। ओल। ३. जंगली सूरन। बनओल। ४. हाथीकंद। ५. मानकंद। ६. मंडपारोह। मुखालु।

स्थूलकंद (२)
वि० जिसके कंद बड़े बड़े हों। बड़े कंदवाला [को०]।

स्थूलकंदक
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलकन्दक] मानकंद। कच्चू [को०]।

स्थूलक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तृण। उलप। उलूक।

स्थूलक (२)
वि० स्थूल। मोटा [को०]।

स्थूलकणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मँगरैला।

स्थूलकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत में वर्णित एक प्रचीन ऋषि का नाम।

स्थूलका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँबा हलदी।

स्थूलकाय
वि० [सं०] मोटे शरीरवाला।

स्थूलकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि में प्रज्वलित वृक्ष का तना या विशाल कुंदा [को०]।

स्थूलकुमुद
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कनेर।

स्थूलकेश
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारतोक्त एक प्राचीन ऋषि का नाम।

स्थूलक्षेड, स्थूलक्ष्वेड
संज्ञा पुं० [सं०] वाण। तीर।

स्थूलग्रंथि
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलग्रन्थि] कुलंजन। महामदा।

स्थूलग्रीव
वि० [सं०] जिसकी ग्रीवा स्थूल या मोटी हो [को०]।

स्थूलचंचु
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलचञ्चु] महाचंचु नामक साग। बड़ा चेंच।

स्थूलचंपक
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलचम्पक] सफेद चंपा।

स्थूलचाप
संज्ञा पुं० [सं०] रूई धुनने की धुनकी।

स्थूलचूड (१)
संज्ञा पुं० [सं०] किरात।

स्थूलचूड (२)
वि० जिसकी चूड़ा या शिर के बाल बड़े बड़े हों [को०]।

स्थूलजंघा
संज्ञा स्त्री० [पुं० स्थूलजङ्घा] गुह्यसूत्र के अनुसार नौ समि- धाओं में से एक।

स्थूलजिह्व (१)
वि० [सं०] जिसकी जीभ बहुत बड़ी या मोटी हो।

स्थूलजिह्व (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार के भूत।

स्थूलजीरक
संज्ञा पुं० [सं०] मँगरैला।

स्थूलतंडुल
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलतण्डुल] एक प्रकार का मोटा धान।

स्थूलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्थूल होने का भाव। स्थूलत्व। २. मोटापन। मोटाई। ३. भारीपन।

स्थूलताल
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीताल। हिंताल।

स्थूलतिंदुक
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलतिन्दुक] आबनूस। मकरतेंदुआ।

स्थूलतिक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारु हलदी।

स्थूलतोमरी
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलतोमरिन्] वह जिसका भाला लंबा या स्थूल हो। मोटा या लंबा भाला रखनेवाला योद्धा [को०]।

स्थूलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थूलता'।

स्थूलत्वचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंभारी। काश्मरी वृक्ष।

स्थूलदंड
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलदण्ड] महानल। बड़ा नरकट।

स्थूलदर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] मूँज नामक तृण।

स्थूलदर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूँज नामक तृण। स्थूलदर्भ।

स्थूलदर्शक
संज्ञा पुं० [सं०] वह यंत्र जिसकी सहायता से सूक्ष्म वस्तु स्पष्ट और बड़ी दिखाई दे। सूक्ष्मदर्शक यंत्र।

स्थूलदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] घीकुआर। ग्वारपाठा।

स्थूलदेही
वि० [सं० स्थूलदेहिन्] मोटे शरीरवाला [को०]।

स्थूलधी
वि० [सं०] अज्ञ। मंदबुद्धि [को०]।

स्थूलनाल
संज्ञा पुं० [सं०] देवनल। बड़ा नरकट।

स्थूलनास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूअर। शूकर।

स्थूलनास (२)
वि० जिसकी नाक बड़ी या लंबी हो।

स्थूलनासिक
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे० 'स्थूलनास'।

स्थूलनिंबू
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलनिम्बू] महानिंबू। बड़ा नींबू।

स्थूलनील
संज्ञा पुं० [सं०] बाज नामक पक्षी। श्येन।

स्थूलपट
संज्ञा पुं० [सं०] मोटा कपड़ा [को०]।

स्थूलपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपास। २. मोटा कपड़ा (को०)।

स्थूलपट्टाक
संज्ञा पुं० [सं०] मोटा स्थूल वस्त्र [को०]।

स्थूलपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. दमनक। दौना नामक क्षुप। २. सप्त- पर्ण। छितिवन। सतिवन।

स्थूलपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सप्तपर्ण। छतिवन।

स्थूलपाद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी। २. वह जिसे फीलपावँ रोग हो। श्लीपद रोग से युक्त व्यक्ति।

स्थूलपाद (२)
वि० मोटे पैरोंवाला। जिसके पैर सूजै हुए हों [को०]।

स्थूलपिंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूलपिण्डा] पिंड खजूर।

स्थूलपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. बक या अगस्त नामक वृक्ष। २. गुल- मखमली। झंटुक।

स्थूलपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आस्फोता। हापरमाली।

स्थूलपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शंखिनी। यवतिक्ता।

स्थूलप्रपंच
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलप्रपञ्च] सृष्टि। संसार।

स्थूलप्रियंगु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूलप्रियङ्ग] वरक धान्य। चेना।

स्थूलफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेमल। शाल्मली। २. बड़ा नींबू। ३. मोटे तौर पर निकाला गया निष्कर्ष या फल (को०)।

स्थूलफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शणपुष्पी। बनसनई। २. सेमल का वृक्ष। शाल्मली।

स्थूलबर्बुरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बबूल का पेड़।

स्थूलबालुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।

स्थूलबुद्धि
वि० [सं०] मूर्ख। मंदबुद्धि [को०]।

स्थूलभंटा
संज्ञा पुं० [सं० स्थूल + हिं० भंटा] दे० 'बनभंटा'।

स्थूलभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के जैन जो 'श्रुतकेवलिक' भी कहलाते हैं।

स्थूलभाव
संज्ञा पुं० [सं०] सूक्ष्म से स्थूलत्व की प्राप्ति। उत्पत्ति। संभव। जन्म [को०]।

स्थूलभुज
संज्ञा पुं० [सं०] एक विद्याधर।

स्थूलभूत
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्य दर्शन के अनुसार क्षिति, जल आदि पंत तत्व [को०]।

स्थूलमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूलमञ्जरी] अपामार्ग। चिचड़ा।

स्थूलमध्य
वि० [सं०] जिसका मध्य भाग स्थूल या मोटा हो [को०]।

स्थूलमरिच
संज्ञा पुं० [सं०] शीतलचीनी। कबाबचीनी। कक्कोल।

स्थूलमान
संज्ञा पुं० [सं०] मोटा या लमसम हिसाब [को०]।

स्थूलमूल
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ी मूली।

स्थूलमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्थूलमूल'।

स्थूलरूहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थलपद्म।

स्थूलरोग
संज्ञा पुं० [सं०] मोटे होने या मोटापा होने का रोग। मोटाई की व्याधि।

स्थूललक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो बहुत दान करता हो। बहुत बड़ा दानी। २. बड़ा पंडित। विद्वान्। ३. कृतज्ञ। ४. वह जो लाभ और हानि दोनों का ध्यान रखता हो। ५. वह जो लक्ष्यसंधान के प्रति लापरवाह हो।

स्थूललक्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दानशीलता। २. पांडित्य। विद्वत्ता। ६. कृतज्ञता।

स्थूललक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो बहुत अधिक दान करता हो। बहुत बड़ा दाता। २. किसी विषय की ऊपरी या मोटी मोटी बातें बताना। ६. दे० 'स्थूललक्ष'।

स्थूलवर्त्मकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] भारंगी। बभनेटी।

स्थूलवल्कल
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोध। लोध्र। २. पठानी लोध। पट्टिका लोध्र।

स्थूलवालका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम [को०]।

स्थूलविषय
संज्ञा पुं० [सं०] द्दश्य जगत्। भौतिक पदार्थ [को०]।

स्थूलवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मौलसिरी का पेड़। बकुल।

स्थूवृक्षफल
संज्ञा पुं० [सं०] मैनफल। मदनफल।

स्थूलवैदेही
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलपीपल। गजपीपल।

स्थूलशंखा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूलशङ्खा] वह स्त्री जिसकी योनि विस्तृत हो। बड़ी योनिवाली औरत [को०]।

स्थूलशर
संज्ञा पुं० [सं०] रामशर। भद्रमुंज।

स्थूलशरीर
संज्ञा पुं० [सं०] पंच महाभूत से बना हुआ शरीर। भौतिक शरीर [को०]।

स्थूलशल्क
वि० [सं०] जिसका शल्क अर्थात् छिलका या आवरण स्थूल हो। मोटी चोईवाला [को०]।

स्थूलशाकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का शाक [को०]।

स्थूलशाट, स्थूलशाटक
संज्ञा पुं० [सं०] मोटा या घनी बुनाईवाला कपड़ा [को०]।

स्थूलशाटिका, स्थूलशाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्थूलशाट' [को०]।

स्थूलशालि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मोटा धान या चावल। स्थूलतंडुल।

स्थूलशिंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थूलशिम्बी] श्वेत निष्पावी। सफेद सेम। बरसेमा।

स्थूलशिरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थूल शिरस्] १. महाभारत में वर्णित एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. एक यक्ष का नाम (को०)। ६. एक दानव (को०)।

स्थूलशिरा (२)
वि० जिसका शिर अन्य अंगों की अपेक्षा बड़ा हो।

स्थूलशीर्षिका
संज्ञा पुं० [सं०] दीमक, चीटियाँ आदि जिनका सिर शरीर की तुलना में बड़ा होता है। छोटी च्यूँटी।

स्थूलशूरण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सूरन या जमीकंद।

स्थूलशोफ
वि० [सं०] बहुत फूला हुआ। अत्यधिक सूजा हुआ [को०]।

स्थूलषट्पद
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ी मक्खी या भौंरा। बरैं २. खटमल [को०]।

स्थूलसायक
संज्ञा पुं० [सं०] रामशर। भद्रमुंज।

स्थूलसक्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक तीर्थ का नाम [को०]।

स्थूलस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलस्कन्ध] बड़हर। लकुच।

स्थूलहस्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का सूँड़।

स्थूलहस्त (२)
वि० दीर्घ या मोटी भुजाओंवाला [को०]।

स्थूलांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलाङ्ग] एक प्रकार का चावल।

स्थूलांग (२)
वि० मोटे और बड़े शरीरवाला [को०]।

स्थूलांत्र
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलान्त्र] बड़ी अँतड़ी।

स्थूलांशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंधपत्र।

स्थूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बड़ी इलायची। २. गजपीपल। ३. सोआ नामक साग। शतपुष्पा। ४. सौंफ। मिश्रेया। ५. कपिल द्राक्षा। मुनक्का। ६. कपास। ७. ककड़ी।

स्थूलाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामायण के अनुसार एक राक्षस का नाम जो खर का साथी था। २. एक ऋषि का नाम (को०)।

स्थूलाक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँस की यष्टिका। बाँस की छड़ी। बाँस की लाठी [को०]।

स्थूलाजाजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मँगरैल।

स्थूलाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत में वर्णित एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. रामायण के अनुसार एक राक्षस का नाम।

स्थूलाम्र
संज्ञा पुं० [सं०] कलमी आम।

स्थूलास्य
संज्ञा पुं० [सं०] साँप। सर्प।

स्थूली
संज्ञा पुं० [सं० स्थूलिन्] ऊँट।

स्थूलेच्छ
वि० [सं०] अत्यधिक कामनाओं से युक्त। बढ़ी हुई इच्छाओंवाला [को०]।

स्थूलैरंड
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा एरंड।

स्थूलैला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी इलायची।

स्थूलोच्चय
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंडोपल। २. हाथी की मध्यम चाल, जो न बहुत तेज हो न बहुत सुस्त। ३. छोटी फुंसी। मुहाँसा (को०) ४. अपूर्णता। कमी। त्रुटि (को०)। ५. हाथी के दाँत का मध्यवर्ती रंध्र (को०)।

स्थूलोदर
वि० [सं०] तुंदिल। तोंदवाला [को०]।

स्थेमा
संज्ञा पुं० [सं० स्थेमन्] दृढ़ता। स्थिरता [को०]।

स्थेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो किसी विवाद का निर्णय करता हो। निर्णयक। २. पुरोहित।

स्थेय (१)
वि० [सं०] १. जो स्थापित करने योग्य हो। २. निर्णय किए जाने योग्य (को०)।

स्थेयस
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्थेयसी] अत्यंत स्थिर अथवा दृढ़। चिरस्थायी [को०]।

स्थेष्ठ
वि० [सं०] अत्यंत दृढ़ [को०]।

स्थैर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थिर होने का भाव। स्थिरता। २. दृढ़ता। मजबूती। ३. अनवच्छिन्नता। निरंतरता। स्थायित्व। ४. आत्म- विनिश्चय। मन की दृढ़ता। संकल्प (को०)। ५. धैर्यशीलता। सहनशीलता (को०)। ६. जितेद्रिय होने का भाव। जितेंद्रियता (को०)। ७. ठोसपन। घनत्व (को०)।

स्थैर्यज
वि० [सं०] दे० 'स्थावर' [को०]।

स्थारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जहाज पर लादा हुआ माल [को०]।

स्थोरी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थोरिन्] बोझ ढोनेवाला घोड़ा। लद्दू घोड़ा।

स्थौणेय, स्थोणेयक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का गंधद्रव्य। ग्रंथिपर्णी। थुनेर। २. गाजर (को०)।

स्थौर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह भार जो पीठ पर लादा जाय। २. मजबूती। दृढ़ता (को०)। ३. बल। शक्ति (को०)।

स्थौरी
संज्ञा पुं० [सं० स्थौरिन्] १. घोड़े, बैल, खच्चर, आदि जिनकी पीठ पर भार लादा जाता हो। २. अच्छा घोड़ा। मजबूत घोड़ा (को०)।

स्थौसक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] औदार्य। उदारता [को०]।

स्थौलपिंडि
संज्ञा पुं० [सं० स्थौलपिण्डि] वह जो स्थूलपिंड के वंश या गोत्र में उत्पन्न हुआ हो।

स्थौललक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] औदार्य। उदारता [को०]।

स्थौल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थूल का भाव। स्थूलता। २. भारीपन। ३. शरीर की मेदवृद्धि जो वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग है। मोटापन। ४. बुद्धि का मोटापन। बुद्धि की मंदता (को०)।

स्नपन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० स्नपित] १. नहाने की क्रिया। स्नान। २. धोना। प्रक्षालन। साफ करना (को०)।

स्नपन (२)
वि० १. नहलानेवाला। २. नहाने के काम में आनेवाला। स्नानीय [को०]।

स्नपित
वि० [सं०] जिसने स्नान किया हो। नहाया हुआ।

स्नय
संज्ञा पुं० [सं०] १. नहाने की क्रिया। स्नान। २. शुद्धि। शोधन। पवित्रीकरण [को०]।

स्नव
संज्ञा पुं० [सं०] रिसना। चूना। क्षरण [को०]।

स्नसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्नायु। २. पेशी। पुट्ठा। मांसपिंड (को०)।

स्ना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह चमड़ा जो गाय या बैल आदि के गले के नीचे लटकता है। लौ।

स्ना (२)
वि० नहाया हुआ। स्नान किया हुआ। (समस्त पदों में प्रयुक्त) जसे घृतस्ना।

स्नात (१)
वि० [सं०] १. जिसने स्नान किया हो। नहाया हुआ। २. जिसका वेदाध्ययन पूरा हो गया हो (को०)।

स्नात (२)
संज्ञा पुं० १. वह जिसका अध्ययनकाल समाप्त हो गया हो। स्नातक। २. दीक्षित या अभिमंत्रित गृहस्थ [को०]।

स्नातक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने ब्रह्मचर्य व्रत की समाप्ति पर स्नान करके गुहस्थ आश्रम में प्रवेश किया हो। विशेष—प्राचीन काल में बालक गुरुकुलों में वेदों तथा अन्यान्य विद्याओं का अध्ययन समाप्त करके २५ वर्ष की अवस्था में जब घर को लौटते थे, तब वे स्नातक कहलाते थे। ये स्नातक तीन प्रकार के होते थे। जो स्नातक २५ वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करके बिना वेदों का पूरा अध्ययन किए ही घर लौटते थे, वे व्रतस्नातक कहलाते थे। जो लोग २५ वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी गुरु के यहाँ ही रहकर वेदों का अध्य- यन करते थे और गृहस्थ आश्रम में नहीं आते थे, वे विद्यास्नातक कहलाते थे। और जो लोग ब्रह्मचर्य का पूरा पूरा पालन करके गृहस्थ आश्रम में आते थे, वे उभयस्नातक या विद्याव्रतस्नातक कहलाते थे। इधर हाल में भारत में थोड़े से गुरुकुल और ऋषिकुल आदि स्थापित हुए हैं। उनकी अवधि और परीक्षाएँसमाप्त करके जो युवक निकलते हैं, वे भी स्नातक ही कहलाते हैं। २. किसी धार्मिक उद्देश्य से भिक्षु बना हुआ ब्राह्मण। ३. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति का वह व्यक्ति जो गृहस्थाश्रमी हो (को)। ४. किसी विद्यालय की शिक्षा समाप्त कर उपाधि पानेवाला छात्र। ग्रैजुएट।

स्नातकोत्तर
वि० [सं० स्नातक + उत्तर] स्नातक होने के पश्चात् का। स्नातक के बाद का। जैसे, स्नातकोत्तर शिक्षा, स्नात- कोत्तर विद्यालय आदि। विशेष—यह शब्द अंग्रेजी 'पोस्ट ग्रैजुएट' शब्द का अनुवाद है।

स्नात्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्नान। नहाना [को०]।

स्नान
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर को स्वच्छ करने या उसकी शिथि- लता दूर करने के लिये उसे जल से धोना, अथवा जल की बहती हुई धारा में प्रवेश करना। अवगाहन। नहाना। विशेष दे० 'नहाना' (१)। २. शरीर के अंगों को धूप या वायु के सामने इस प्रकार करना जिसमें उनके ऊपर उसका पूरा पूरा प्रभाव पड़े। जैसे,—आतपस्नान, वायुस्नान। ३. पानी से धोकर साफ करना। जल से धोकर शुद्ध करना (को०)। ४. देवमूर्ति या विग्रह को नहलाना (को०)। ५. स्नानीय जल आदि वस्तुएँ। नहाने के काम में प्रयुक्त जल आदि पदार्थ (को०)।

स्नानकलश
संज्ञा पुं० [सं०] वह घड़ा जिसमें स्नान करने का पानी रहता है।

स्नानुकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० स्नानकुम्भ] दे० 'स्नानकलश'।

स्नानगृह
संज्ञा पुं० [सं०] वह कमरा, कोठरी या इसी प्रकार का और घिरा हुआ स्थान जिसमें स्नान किया जाता है। अं० बाथरूम।

स्नानघर
संज्ञा पुं० [सं० स्नान + हिं० घर] दे० 'स्नानगृह'।

स्नानतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वह पवित्र स्थान जहाँ धार्मिक दृष्टि से स्नान किया जाय [को०]।

स्नानतृण
संज्ञा पुं० [सं०] कुश जिसे हाथ में लेकर नहाने का शास्ञों में विधान है।

स्नानद्रोणी
संज्ञा स्ञी० [सं०] स्नान करने का चौड़ा छिछला पात्र [को०]।

स्नानयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को होनेवाला एक उत्सव जिसमें विष्णु की मूर्ति को महास्नान कराया जाता है। इस दिन जगन्नाथ जी के दर्शन का बहुत माहात्म्य कहा गया है। जलयात्रा। २. नहाने के लिये तीर्थ आदि की यात्रा करना।

स्नानवस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह वस्त्र जिसे पहनकर स्नान किया जाता है।

स्नानविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्नान करना। नहाना। २. स्नान करने की प्रक्रिया या विधि [को०]।

स्नानशाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नहाने का अधोवस्त्र [को०]।

स्नानशाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] नहाने का कमरा या कोठरी। स्नान- गृह। गुसलखाना।

स्नानशील
वि० [सं०] स्नान करने के स्वभाववाला। तीर्थादि में स्नान करने का प्रेमी।

स्नानांबु
संज्ञा पुं० [सं० स्नानाम्बु] नहाने का पानी। स्नान करने का जल।

स्नानागार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्नानशाला'।

स्नानी
वि० [सं० स्नानिन्] नहानेवाला। स्नान करनेवाला।

स्नानीय (१)
वि० [सं०] १. जो नहाने के योग्य हो। २. जिससे नहाया जा सके। ३. स्नान में प्रयुक्त। नहाने में प्रयुक्त।

स्नानीय (२)
संज्ञा पुं० स्नान के कार्य में प्रयुक्त पदार्थ। जैसे, जल, वस्त्र, अंगराग, सुगंध आदि [को०]।

स्नानोदक
संज्ञा पुं० [सं०] नहाने का जल।

स्नापक
संज्ञा पुं० [सं०] नहलानेवाला नौकर।

स्नापन
संज्ञा पुं० [सं०] नहलाना।

स्नापिन
वि० [सं०] १. नहाने या स्नान करनेवाला। २. नहलाया हुआ। स्नात [को०]।

स्नायन
संज्ञा पुं० [सं०] स्नान। नहाना।

स्नायविक
वि० [सं०] स्नायु संबंधी। स्नायु का।

स्नायवीय
संज्ञा पुं० [सं०] कर्मेंद्रिय। जैसे,—हाथ, पैर, आँख आदि।

स्नायी
संज्ञा पुं० [सं० स्नायिन्] वह जो स्नान करता हो। नहानेवाला।

स्नायु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर के अंदर की वे वायुवाहिनी नाड़ियाँ या नसें जिनसे स्पर्श का ज्ञान होता अथवा वेदना का ज्ञान एक स्थान से दूसरे स्थान या मस्तिष्क आदि तक पहुँचता है। विशेष—ये नाड़ियाँ सफेद, चिकनी, कड़ी और सन के गुच्छों के समान होती हैं और शरीर की मांसपेशियों में फैली रहती हैं। हमारे यहाँ वैद्यक में कहा गया है कि शरीर में से पसीना निकलने और लेप आदि को रोमछिद्र में से भीतर खींचने का व्यापार इन्हीं से होता है और इनकी संख्या ९०० बतलाई गई है। इन्हें वातरज्जु, नाड़ी या कंडरा भी कहते हैं। २. धनुष की डोरी। प्रत्यंचा (को०)। ३. मांसपेशी। पेशी (को०)।

स्नायु (२)
संज्ञा पुं० अंगों के अग्र भाग (जैसे, उँगलियाँ आदि) पर होनेवाली एक प्रकार की पिटिका या स्फोट। स्नायुक। नहरुआ [को०]।

स्नायुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नहरुआ नामक रोग। २. एक प्रकार का परजोवी कीट (को०)।

स्नायुपाश
संज्ञा पुं० [सं०] प्रत्यंचा। धनुष की डोरी।

स्नायुबंध
संज्ञा पुं० [सं० स्नायुबन्ध] प्रत्यंचा।

स्नायुमर्म
संज्ञा पुं० [सं० स्नायुमर्मन्] स्नायुओं का मर्मस्थान। नाड़ियों का संधिस्थान [को०]।

स्नायुरज्जु
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर।

स्नायुरोग
संज्ञा पुं० [सं०] नहरुआ या बाला नामक रोग।

स्नायुशूल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग।विशेष—इस रोग में स्नायु में शूल के समान तीत्र वेदना होती है। यह वेदना चमड़े के नीचे के भाग में होती है और शरीर के किसी स्थान में हो सकती है। इसके, अर्धभेद, ऊर्ध्वभेद और अधोभेद, ये तीन भेद कहे गए हैं।

स्नायुस्पंद
संज्ञा पुं० [सं० स्नायुस्पन्द] नाड़ी का चलना। नाड़ियों का स्पंदन करना।

स्नाय्वर्म
संज्ञा पुं० [सं० स्नाय्वर्मन्] आँख का एक प्रकार का रोग जिससें उसकी कौड़ी या सफेद भाग पर एक छोटी गाँठ सी निकल आती है।

स्नाव, स्नावन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेशी। स्नायु। २. नस। नाड़ी। रग [को०]।

स्नाविर
वि० [अ०] स्नायु से युक्त। पेशियों से युक्त। पुष्ट [को०]।

स्निग्ध (१)
वि० [सं०] १. जिसमें स्नेह या तेल लगा हो। अथवा वर्तमान हो। २. स्नेही। अनुरक्त (को०)। ३. चिपचिपा। लसीला। लसदार (को०)। ४. शीतल। ठंढक पहुँचानेवाला (को०)। ५. प्रकाशयुक्त। दीप्त। चमकीला (को०)। ६. आर्द्र। गीला। तर (को०)। ७. शांत (को०)। ८. कृपालु। ९. मृदु। सौम्य (को०)। १०. रुचिकर। मोहक (को०)। ११. अविरल। सघन। सटा हुआ (को०)। १२. स्थिर (को०)।

स्निग्ध (२)
संज्ञा पुं० लाल रेंड़। २. धूप सरल या सरल नामक वृक्ष। ३. मोम। ४. गंधाबिरोजा। ५. दूध पर की मलाई। ६. सखा। मित्र (को०)। ७. प्रकाश। चमक आभा (को०)। ८. सघनता। अविरलता। निविडता (को०)। ९. तैल। स्नेह (को०) १०. गंधमार्जार (को०)।

स्निग्धकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्निग्धकन्दा] कंदली नामक पौधा जो नदियों के तट पर होता है [को०]।

स्निग्धकरंज
संज्ञा पुं० [सं० स्निग्धकरञ्ज] गुच्छकरंज।

स्निग्धच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ का पेड़। वट वृक्ष।

स्निग्धच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेर का पेड़।

स्निग्धजन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रिय व्यक्ति। मित्र। सखा [को०]।

स्निग्धजीरक
संज्ञा पुं० [सं०] यशबगोल। ईसपगोल।

स्निग्धतंड्डल
संज्ञा पुं० [सं० स्निग्धतण्डुल] साठी धान।

स्निग्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्निग्ध या चिकना होने का भाव। चिकनापन। चिकनाहट। २. प्रिय होने का भाव। प्रियता। ३. सौम्यता (को०)। ४. मृदुता। सुकुमारता (को०)।

स्निग्धत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] प्रिय व्यक्ति का बिछोह। स्निग्ध व्यक्ति का त्याग [को०]।

स्निग्धत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्निग्धता'।

स्निग्धदल
संज्ञा पुं० [सं०] गुच्छ करंज। स्निग्ध करंज।

स्निग्धदारु
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवदारु का पेड़। २. धूप सरल। ३. अश्वकर्ण या शाल नामक वृक्ष।

स्निग्धदृष्टि
वि० [सं०] १. स्थिर निगाहों से देखनेवाला। २. मृदु या तरल दृष्टिवाला। ३. जिसकी दृष्टि स्नेहयुक्त हो।

स्निग्धनिर्मल
संज्ञा पुं० [सं०] काँसा नामक धातु।

स्निग्धपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. घुतकरंज। घीरंज। २. गुच्छकरंज। ३. भगवतवल्ली। आवर्तकी लता। ४. मज्जर या माजुर नाम की घास।

स्निग्धपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्निग्धपत्र' [को०]।

स्निग्धपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेर। बदरी। २. पालक का साग। ३. लोनी का साग। ४. गंभारी। काश्मरी। खुमेर।

स्निग्धपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्निग्धपत्रा'।

स्निग्धपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृश्निपर्णी। पिठवन। २. मूर्वा। मरोडफली।

स्निग्धपिंडीतक
संज्ञा पुं० [सं० स्निन्धपिण्डीतक] एक प्रकार का मैनफल का वृक्ष।

स्निग्धफल
संज्ञा पुं० [सं०] गुच्छकरंज।

स्निग्धफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. फूट नामक फल। फूट। २. नकुल- कंद। नाकुली।

स्निग्धबीज
संज्ञा पुं० [सं०] यशबगोल। ईसपगोल।

स्निग्धमज्जक
संज्ञा पुं० [सं०] बादाम।

स्निग्ध मुदग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मूँग।

स्निग्धराजि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप जिसकी उत्पत्ति, सुश्रुत के अनुसार, काले साँप और राजमती जाति की साँपिन से होती है।

स्निग्धवर्ण
वि० [सं०] जिसका वर्ण या कांति स्निग्ध हो [को०]।

स्निग्धा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मेदा नामक अष्टवर्गीय ओषधि। २. मज्जा। अस्थिसार। ३. विकंकत। बइंची।

स्निग्धा (२)
वि० स्त्री० जिसमें स्नेह हो। स्नेहयुक्त। स्नेहिल।

स्नीहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाक का मल। पोटा [को०]।

स्नु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहाड़ का ऊपरी समतल भूखंड। २. कूट। शृंग। चोटी [को०]।

स्नु (२)
संज्ञा स्त्री० स्नायु। पेशी [को०]।

स्नुक
संज्ञा पुं० [सं०] स्नुही। थूहड़।

स्नुकच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीरकंचुकी, क्षीरी या क्षीरसागर नामक वृक्ष।

स्नुकच्छदोपम
संज्ञा पुं० [सं०] वाराही कंद। गेंठी।

स्नुग्दल
संज्ञा पुं० [सं०] स्नुही। थूहड़।

स्नुघ्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] खनिज क्षार। सर्जिका क्षार [को०]।

स्नुत
वि० [सं०] क्षरित। रिसता हुआ [को०]।

स्नुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुत्रवधू। लड़के की स्त्री। २. स्नुही। थूहड़। यौ०—स्नुषाग = जिसका पुत्रवधू से अवैध संबंध हो।

स्नुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्नुही। थूहड़।

स्नुहि, स्नुही
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्नुहा'।

स्नुहीक्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] थूहड़ा का दूध।

स्नुहीबीज
संज्ञा पुं० [सं०] थूहड़ा का बीज।

स्नुह्च
संज्ञा पुं० [सं०] उत्पल। कमल।

स्नेय
वि० [सं०] १. स्नान करने के योग्य। नहाने लायक। २. जो नहाने को हो।

स्नेह
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेम। प्रणय। प्यार। मुहब्बत। २. चिकना पदार्थ। चिकनाहटवाली चीज। जैसे, घी, तेल, चरबी आदि; विशेषतः तेल। ३. कोमलता। ४. एक प्रकार का राग जो हनुमत के मत से हिंडोल राग का पुत्र है। ५. सरसों। ६. सिर के अंदर का गुदा। भेजा। ७. दुध पर की साड़ी। मलाई। ८. आर्द्रता। नमी (को०)। ९. शरीर के भीतर का कोई प्रवाही द्रव्य। जैसे, वीर्य (को०)।

स्नेहक
वि० [सं०] १. स्नेह या प्रेम करनेवाला। स्नेही। २. कृपायुक्त। कृपालु [को०]।

स्नेहकर
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वकर्ण या शाल नामक वृक्ष।

स्नेहकर्ता
वि० [सं० स्नेहकर्तृ] प्यार करनेवाला।

स्नेहकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहकुम्भ] तेल का घड़ा।

स्नेहकेसरी
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहकेसरिन्] रेंड़ी। एरंड।

स्नेहगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] तिल।

स्नेहगुणित
वि० [सं०] स्नेहयुक्त। प्रेमाविष्ट [को०]।

स्नेहगुरु
वि० [सं०] प्रेम या स्नेह के कारण जो गुरुता को प्राप्त हो। प्रेम से भरा हुआ।

स्नेहघट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्नेहकुंभ'।

स्नेहघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा [को०]।

स्नेहच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] परस्पर स्नेह न रहना।

स्नेहद्विट्
वि० [सं० स्नेहद्विष्] जिसे स्नेह नापसंद हो [को०]।

स्नेहन्
संज्ञा पुं० [सं०] १. मित्र। दोस्त। सखा। २. चंद्रमा। सुधांशु। ३. एक प्रकार का रोग [को०]।

स्नेहन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिकनाहट उत्पन्न करना। चिकनाई लाना। २. शरीर में तेल लगाना। ३. कफ। श्लेष्मा। बलगम। ४. मक्खन। नवनीत। ५. उद्वर्तन द्रव्य। उबटन (को०)। प्रेम ६. प्रेम या स्नेहयुक्त होना। प्रेमाविष्ट होना (को०)। ७. शिव (को०)।

स्नेहन (२)
वि० १. शरीर में तेल लगानेवाला। २. चिकनाई या स्निग्धता लानेवाला। ३. विनाशक। विध्वंसक [को०]।

स्नेहनीय
वि० [सं०] स्नेह करने या नेह लगाने योग्य [को०]।

स्नेहपक्व
वि० [सं०] तेल में पकाया हुआ [को०]।

स्नेहपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके साथ प्रेम किया जाय। प्रेमपात्र। प्यारा। प्रिय। २. तैलपात्र।

स्नेहपान
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार की क्रिया जिसमें कुछ विशिष्ट रोगों में तेल, घी, चरबी आदि पीते हैं। इससे अग्नि दीप्त होती है, कोटा साफ होता है और शरीर कोमल तथा हलका होता है। विशेष—हमारे यहाँ स्नेह चार प्रकार के माने गए हैं—तेल, घी, वसा और मज्जा। खाली तेल पीने के साधारण पान कहते हैं। यदि तेल और घी मिलाकर पीया जाय तो उसे यमक; इन दोनों के साथ यदि वसा भी मिला दी जाय तो उसे त्रिवृत; और यदि चारों साथ मिलाकर पीए जायँ तो उसे महास्नेह कहते हैं।

स्नेहपिंडीतक
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहपिण्डीतक] मैनफल।

स्नेहपुर
संज्ञा पुं० [सं०] तिल।

स्नेहप्रवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रेम या प्रेम की अभिवृद्धि [को०]।

स्नेहप्रसर
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम का प्रवाह [को०]।

स्नेहप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसे तेल प्रिय हो, दीपक [को०]।

स्नेहफल
संज्ञा पुं० [सं०] तिल

स्नेहबंध
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहबन्ध] स्नेह का बंधन [को०]।

स्नेहबद्ध
वि० [सं०] प्रेम में बँधा हुआ [को०]।

स्नेहबीज
संज्ञा पुं० [सं०] चिरौंजी।

स्नेहभंग
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहभङ्ग] नेह टूटना। स्नेहच्छेद।

स्नेहभू
संज्ञा पुं० [सं०] कफ। श्लेष्मा। बलगम।

स्नेहभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जिससे स्नेह प्राप्त हो। तेल, घी आदि देनेवाली वस्तु। २. वह वस्तु या व्यक्ति जिससे प्रेम किया जाय। प्रेम की वस्तु [को०]।

स्नेहमुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] तेल। रोगन।

स्नेहरंग
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहराङ्ग] तिल।

स्नेहरसन
संज्ञा पुं० [सं७] मुख [को०]।

स्नेहरेकभू
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।

स्नेहल
वि० [सं०] १. प्रेमपूर्ण। २. मृदु। कोमल [को०]।

स्नेहवर
संज्ञा पुं० [सं०] वसा। चर्बी। [को०]।

स्नेहवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेदा नामक अष्टवर्गीय ओषधि।

स्नेहवर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोड़ों को होनेवाला एक रोग। घोड़ों की एक प्रकार की व्याधि। २. स्नेहयुक्त वर्तिका। तैलपूरित बत्ती [को०]।

स्नेहवर्धन
संज्ञा पुं० [सं० स्नेह+वर्द्धन] प्रेम की वृद्धि। उ०— अपने अपने आग्रह को शिथिल करके परस्पर स्नेहवर्धन में यत्नवान् होना चाहिए।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५०।

स्नेहवस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक के अनुसार दो प्रकार की वस्ति या पिचकारी देने की क्रियाओं में से एक। विशेष—इस क्रिया में पिचकारी में तेल भरकर गुदा के द्वारारोगी के शरीर में प्रविष्ट किया जाता है। प्रायः अजीर्ण, उन्माद, शोक, मूर्छा, अरुचि, श्वास, कफ और क्षप आदि के लिये यह वस्ति उपयुक्त कही गई है। इसका व्यवहार प्रायः वायु का प्रकोप शांत करने और कोष्ठशुद्धि के लिये किया जाता है।

स्नेहविद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु वृक्ष।

स्नेहविमर्दित
वि० [सं०] जिसकी देह में तेल मला गया हो [को०]।

स्नेहवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु।

स्नेहव्यक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपना प्रेम व्यक्त करना [को०]।

स्नेहसंभाष
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहसम्भाष] स्नेहलाप [को०]।

स्नेहसंस्कृत
वि० [सं०] स्नेह द्वारा निर्मित। तेल आदि का बना हुआ [को०]।

स्नेहसार
संज्ञा पुं० [सं०] मज्जा नामक धातु।

स्नेहस्राव
संज्ञा पुं० [सं० स्नेह+स्राव] प्रेम का प्रवाह। प्रेमाधिक्य। उ०—खुल गया हृदय का स्नेह स्राव।—अपरा, पृ० १८१।

स्नेहांकन
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहाङ्कन] स्नेह का अंकन। प्रेमचिह्न [को०]।

स्नेहा
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहन्] दे० 'स्नेहन्' [को०]।

स्नेहाकुल
वि० [सं०] प्रेमाकुल। प्रेमविह्वल [को०]।

स्नेहाकूट
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम या स्नेह का भाव। स्नेह या प्रेम की अनुभूति [को०]।

स्नेहाक्त
वि० [सं०] १. तैल से सिक्त। चिकना किया हुआ। २. स्नेह या प्रेमयुक्त। प्रेम से भरा हुआ [को०]।

स्नेहालिंगन
संज्ञा पुं० [सं० स्नेह+आलिङ्गन] प्रेमपूर्ण आलिंगन। प्रगाढ़ आलिंगन। उ०—हैं बँधे बिछोह मिलन दो, देकर चिर स्नेहालिंगन।—गुँजन, पृ० १०।

स्नेहालु
वि० [सं० स्नेह+आलु (प्रत्य०)] स्नेह से पूरित। प्रेम- युक्त। प्रेमी। उ०—कोमल नीड़ों का सुख न मिला, स्नेहालु दृगों का रुख न मिला।—एकांत संगीत, पृ० ३४।

स्नेहाश
संज्ञा पुं० [सं०] दीपक। चिराग।

स्नेहासब
संज्ञा पुं० [सं० स्नेह+आसव] प्रेम की मदिरा। प्रेम- रूपी आसव। प्रेम की मादकता। उ०—अंतर के घर का स्नेहासव, पिला रहा हूँ, इस दीपक को अंधकार से जुझ रहा जो।—दीप०, पृ० १३५।

स्नेहित (१)
वि० [सं०] १. जिसमें स्नेह हो या लगाया गया हो। चिकना। २. जिसके साथ स्नेह या प्रेम किया जाय। प्रेमी। बंधु। मित्र। ३. अनुकंपा से युक्त। दयालु (को०)।

स्नेहित (२)
संज्ञा पुं० प्रेमी मित्र। प्रिय व्यक्ति [को०]।

स्नेहिल
वि० [सं० स्नेह+इल] स्नेहयुक्त। प्रेमयुक्त।

स्नेही (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्नेहिन्] १. वह जिसकी साथ स्नेह या प्रेम किया जाय। प्रेमी। मित्र। २. तैल लगाने या मालिश करनेवाला व्यक्ति (को०)। ३. चितेरा। चित्रकार (को०)।

स्नेही (२)
१. जिसमें स्नेह हो। स्नेहयुक्त। चिकना। २. प्रीतियुक्त। प्रेम भाव से युक्त (को०)।

स्नेहु
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोग। व्याधि। बीमारी। २. चंद्रमा।

स्नेहोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] तिल का तेल।

स्नेहय
वि० [सं०] १. जिसके साथ स्नेह किया जा सके। स्नेह या प्रेम करने के योग्य। २. जो तेल लगाने या चिकना करने योग्य हो (को०)।

स्नैग्ध्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिकनाहट। तेलियापन। २. स्नेहिलता। स्नेह या प्रेम करने का भाव। अनुरागिता। ३. कोमलता। मृदुता। मार्दव [को०]।

स्नैहिक
वि० [सं०] १. चिकना। तैलयुक्त। २. रौगनी। रोगनदार।

स्पंज
संज्ञा पुं० [अं०] झाँवे की तरह का एक प्रकार का बहुत मुलायम और रेशेदार पदार्थ जिसमें बहुत से छोटे छोटे छेद होते हैं। पर्या०—मुरदा बादल। विशेष—इन्हीं छेदों से यह पदार्थ बहुत सा पानी सोख लेता है; और जब इसे दबाया जाता है, तब इसमें का सारा पानी बाहर निकल जाता है। इसीलिये प्रायः लोग स्नान आदि के समय शरीर मलने के लिये अथवा कुछ विशिष्ट पदार्थों को धोने या भिगोने के लिये अथवा गीले तल पर का पानी सुखाने के लिये इसे काम में लाते हैं। यह वास्तव में एक प्रकार के निम्न कोटि के समुद्री जीवों का आवास या ढाँचा है जो भूमध्य सागर और अमेरिका के आसपास के समुद्रों में पाया जाता है। इसकी कई जातियाँ और प्रकार होते हैं।

स्पंद
संज्ञा पुं० [सं० स्पन्द] दे० 'स्पंदन'।

स्पंदन
संज्ञा पुं० [सं० स्पन्दन] १. किसी चीज का धीरे धीरे हिलना। कंपन। काँपना। २. (अंगों आदि का) प्रस्फुरण। फड़कना। ३. गर्भस्थ शिशु का स्फुरण या उद्दीपन। अर्भक में जीव का प्रस्फुरण (को०)। ५. तीव्र गति या शीघ्र गमन (को०)। ६. एक प्रकार का वृक्ष (को०)।

स्पंदित (१)
वि० [सं० स्पन्दित] स्पंदनयुक्त। गतिमय। प्रस्फुरित। हिलता डोलता हुआ। उ०—विषमता की पीड़ा से व्यस्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।—कामायनी, पृ० ५४। २. जो गत हो। गया हुआ (को०)।

स्पंदित (२)
संज्ञा पुं० १. स्पंदन। फड़कना। कँपना। २. बुद्धि या मन की क्रियात्मकता [को०]।

स्पंदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्पन्दिनी] १. रजस्वला। रजोधर्मवाली स्त्री। २. वह गौ जो बराबर दूध देती रहे। सदा दूध देनेवाली गौ। कामधेनु।

स्पंदी
वि० [सं० स्पन्दिन्] स्पंदनयुक्त। जिसमें स्पंदन हो। हिलने डुलने, काँपने या फड़कनेवाला।

स्पंदोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० स्पन्दोलिका] (झूले आदि पर) झूलते हुए पेंग मारने की क्रिया। भूले पर पेंग मारकर आगे पीछे आने जाने की क्रिया [को०]।

स्पर
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

स्परणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैदिक काल की एक प्रकार की लता का नाम।

स्परांटो
संज्ञा स्त्री० [अं० एस्परांटो] एक कल्पित भाषा। दे० 'एस्परांटो'।

स्परिता
वि० [सं० स्परितृ] दुःख दायी। दुःख देनेवाला। जैसे, रोग, शत्रु आदि [को०]।

स्पर्द्ध, स्पर्ध
वि० [सं०] लाग डाट या होड़ करनेवाला। २. ईर्ष्या करनेवाला। ईष्यालु [को०]।

स्पर्द्धन, स्पर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाग डाट। होड़। स्पर्धा। २. ईर्ष्या। द्वेष [को०]।

स्पर्द्धनीय, स्पर्धनीय
वि० [सं०] १. संघर्षण के योग्य। २. स्पर्धा के योग्य। जिसके साथ स्पर्धा की जा सके। ३. आकांक्षा या अभिलाषा करने योग्य (को०)।

स्पर्द्धा, स्पर्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संघर्ष। रगड़। २. किसी के मुकाबले में आगे बढ़ने की इच्छा। होड़। ३. साहस। हौसला। ४. साम्य। बराबरी। ईर्ष्या। द्वेष।

स्पर्द्धित, स्पर्धित
वि० [सं०] १. जिसके साथ स्पर्धा की गई हो। जिसे चुनौती दी गई हो। २. विरोधी। प्रतिस्पर्धी। ३. कलहशील [को०]।

स्पर्द्धी, स्पर्धी (१)
वि० [सं० स्पर्द्धिन्] [वि० स्त्री० स्पर्द्धिनी] १. जिसमें स्पर्धा हो। स्पर्धा करनेवाला। २. ईर्ष्यायुक्त। ईर्ष्यालु (को०)। ३. गर्वयुक्त। गर्वीला। घमंडी [को०]।

स्पर्द्धी, स्पर्धी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ज्यामिति में किसी कोण में की उतनी कमी जितनी की वृद्धि से वह कोण १८० अंश का अथवा अर्धवृत्त होता है। जैसे,—/?/में घ क ख कोण ख क ग का स्पर्धी है २. स्पर्धा करने योग्य व्यक्ति। प्रतिस्पर्धी व्यक्ति (को०)।

स्पद्धर्च, स्पधर्य
वि० [सं०] १. कामना, स्पर्धा या स्पृहा करने लायक। २. मूल्यवान् [को०]।

स्पर्श
संज्ञा पुं० [सं०] १. दो वस्तुओं का आपस में इतना पास पहुँचना कि उनके तलों का कुछ कुछ अंश आपस में सट या लग जाय। छूना। २. त्वगिंद्रिय का वह गुण जिसके कारण ऊपर पड़नेवाले दबाव या किसी चीज के सटने का ज्ञान होता है। नैयायिकों के अनुसार यह २४ प्रकार के गुणों में से एक है। ३. त्वगिंद्रिय का विषय । ४. पीड़ा। रोग। कष्ट। व्याधि। ५. दान। भेंट। ६. वायु। ७. एक प्रकार का रतिबंध या आसन। ८. व्याकरण में उच्चारण के आभ्यंतर प्रयत्न के चार भेदों में से 'स्पृष्ट' नामक भेद के अनुसार 'क' से लेकर 'म' तक के २५ व्यंजन जिनके उच्चारण में वागिंद्रिय का द्वार बंद रहता है। ९. आकाश। व्योम (को०)। १०. गुप्तचर। गूढ़ गुप्तचर। प्रच्छन्न जासूस। छिपा हुआ भेदिया (को०)। ११. ग्रहण या उपराग में सूर्य अथवा चंद्रमा पर छाया पड़ने का आरंभ।

स्पर्शक
वि० [सं०] १. स्पर्श करने या छूनेवाला। २. अनुभूत करनेवाला। अनुभवकर्ता [को०]।

स्पर्शकोण
संज्ञा पुं० [सं०] गणित में वह कोण जो किसी वृत्त पर खींची हुई स्पर्शरेखा के कारण उस वृत्त और स्पर्शरेखा के बीच में बनता है। जैसे,—/?/में क ख ग अर्धवृत्त पर खींची हुई घ च रेखा के कारण घ ख क और च ख ग कोण स्पर्शकोण हैं।

स्पर्शक्लिष्ट
वि० [सं०] जिसे छूने से पीड़ा हो। जिसका स्पर्श कष्टप्रद हो।

स्पर्शक्षम
वि० [सं०] छूने के लायक। स्पर्श के योग्य [को०]।

स्पर्शगुण
वि० [सं०] जिसका गुण स्पर्श हो। जैसे, वायु [को०]।

स्पर्शज
वि० [सं०] स्पर्श से होनेवाला। स्पर्शजन्य [को०]।

स्पर्शजन्य
वि० [सं०] जो स्पर्श के कारण उत्पन्न हो। संक्रामक। छुतहा। जैसे,—कुष्ठ, शीतला, हैजा आदि स्पर्शजन्य रोग हैं।

स्पर्शतन्मात्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्पर्शभूत का आदि, अमिश्र और सूक्ष्म रूप। विशेष दे० 'तन्मात्र'।

स्पर्शता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्पर्श का भाव या धर्म। स्पर्शत्व।

स्पर्शदिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह दिशा जिधर से सूर्य या चंद्रमा को ग्रहण लगा हो। चंद्रमा या सूर्य पर ग्रहण की छाया आने की दिशा।

स्पर्शद्वेष
संज्ञा पुं० [सं०] स्पर्श के प्रति अति संवेदनशील। वह जिसपर स्पर्श का शीघ्र प्रभाव होता हो [को०]।

स्पर्शन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छूने की किया। स्पर्श करना। २. दान। देना। ३. संबंध। लगाव। ताल्लुक। ४. वायु। हवा। ५. संवेदन। भावना। (को०) ६. स्पर्शेंद्रिय या स्पर्शसाधन (को०)।

स्पर्शन (२)
वि० [वि० स्त्री० स्पर्शनी] १. छूनेवाला। स्पर्श करनेवाला। २. ग्रस्त, प्रभावित या अनुकूल करनेवाला [को०]।

स्पर्शनक
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्य दर्शन के अनुसार त्वचा जिससे स्पर्श होता है [को०]।

स्पर्शना
संज्ञा स्त्री० [सं०] छूने की शक्ति या भाव।

स्पर्शनीय
वि० [सं०] स्पर्श करने योग्य। छूने के लायक।

स्पर्शनेंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० स्पर्शनेन्द्रिय] वह इंद्रिय जिससे स्पर्शं किया जाता है। छूने की इंद्रिय। त्वगिंद्रिय। त्वचा।

स्पर्शमणि
संज्ञा पुं० [सं०] पारस पत्थर जिसके स्पर्श से लोहे का सोना होना माना जाता है।

स्पर्शमणिप्रभव
संज्ञा पुं० [सं०] सोना। स्वर्ण [को०]।

स्पर्शयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक यज्ञ जिसमें प्रत्येक देय वस्तु का स्पर्श किया जाता है [को०]।

स्पर्शरसिक
संज्ञा पुं० [सं०] कामुक। लंपट।

स्पर्शरेखा
संज्ञा स्त्री० [पुं०] गणित में वह सीधी रेखा जो किसी वृत्त की परिधि के किसी एक विंदु को स्पर्श करती हुई खींची जाय। जैसे,—/?/में क, ख, ग अर्धवृत्त है; च और उसके खविंदु को स्पर्श करती हुई जो घ च रेखा है, वह रेखा स्पर्शरेखा कही जाती है।

स्पर्शलज्जा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लजालू या लाजवंती नाम की लता।

स्पर्शवज्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्धों की एक देवी का नाम।

स्पर्शवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में क से म तक के वर्णें का वर्ग [को०]।

स्पर्शवेद्य
वि० [सं०] जो स्पर्श द्वारा ज्ञात हो। जिसका ज्ञान स्पर्श के द्वारा हो [को०]।

स्पर्शवान्
वि० [सं० स्पर्शवत्] १. जिसका स्पर्श संभव हो। २. जो स्पर्श गुण से युक्त हो; जैसे, वायु। ३. जो छूने में सुखद हो। मृदु। कोमल [को०]।

स्पर्शशुद्धृ
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतावर।

स्पर्शसंकोच
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्शसङ्कोच] लजालू या लाजवंती नाम की लता। यौ०—स्पर्शसंकोचपर्णिका=लजालु लता जिसकी पत्तियाँ छूने से सिमट जाती हैं।

स्पर्शसंकोची
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्शसंङ्कोचिन्] पिंडालू।

स्पर्शसंचारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्शसञ्चारिन्] शूक रोग का एक भेद।

स्पर्शसंचारी (१)
वि० संक्रामक। छुतहा। स्पर्श या संपर्क के कारण एक से दूसरे में संक्रमण करनेवाला [को०]।

स्पर्शसुख (१)
वि० [सं०] जिसका स्पर्श सुखद हो [को०]।

स्पर्शसुख (२)
संज्ञा पुं० स्पर्शजन्य आनंदानुभुति।

स्पर्शस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य या चंद्रग्रहण के समय का वह स्नान जब सूर्य या चंद्र पर छाया का पड़ना आरंभ होता है [को०]।

स्पर्शस्पंद
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्शस्पन्दन] मेढक।

स्पर्शस्यंद
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्शस्यंदन] मंडूक [को०]।

स्पर्शहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूक रोग में रुधिर के दूषित होने के कारण लिंग के चमड़े में स्पर्शज्ञान न रह जाना।

स्पर्शा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलटा। पुंश्चली। दुश्चरित्रा स्त्री। छिनाल।

स्पर्शाक्रामक
वि० [सं०] (रोग या दोष आदि) जो स्पर्श या संसर्ग के कारण उन्पन्न हो। संक्रामक। छुतहा।

स्पर्शाज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसे स्पर्शज्ञान न हो।

स्पर्शानंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० सार्शानन्दा] अप्सरा। देवांगना [को०]।

स्पर्शानुकूल
वि० [सं०] जो स्पर्श करने में अनुकूल या सुखद हो। छूने में आनंददायक [को०]।

स्पर्शासन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का एक वर्ग [को०]।

स्पर्शासन (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार की उपासना पद्धति। ध्यान या उपासना में बैठने की एक मुद्रा या आसन विशेष। उ०— गंधप, स्पर्शासन, चिंत्यद्योत इत्यादि कुछ उपासना पद्धतियाँ थीं।—प्रा० भा० प०, पृ० २२४।

स्पर्शासह्
वि० [सं०] १. जिसे स्पर्श सहन न हो। २. जिसका स्पर्श सहन न हो [को०]।

स्पर्शासहिष्ण
वि० [सं०] दे० 'स्पर्शासिह'।

स्पर्शासह्य
वि० [सं०] दे० 'स्पर्शासह' [को०]।

स्पर्शास्पर्श
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्श+अस्पर्श] छूने या न छूने का भाव या विचार। इस बात का विचार कि अमुक पदार्थ छूना चाहिए और अमुक पदार्थ न छूना चाहिए। छूतछात।

स्पर्शिक (१)
वि० [सं०] १. स्पर्श करनेवाला। छूनेवाला। २. जिसका ज्ञान स्पर्श करने से हो सके।

स्पर्शिक (२)
संज्ञा पुं० वायु। हवा।

स्पर्शित
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्शितृ] १. स्पर्श किया हुआ। जिसका स्पर्श किया गया हो। २. प्रदत्त। दिया हुआ। दत्त [को०]।

स्पर्शिता (१)
वि० स्त्री० [सं० स्पर्शितृ] स्पर्श की हुई अर्थात् भार्या के रूप में प्रदत्त (कन्या) [को०]।

स्पर्शिता (२)
वि० स्पर्श करनेवाला। छूनेवाला।

स्पर्शी
वि० [सं० स्पर्शिन्] छूनेवाला। स्पर्श करनेवाला। जैसे— गगनस्पर्शी। मसंस्पर्शी।

स्पर्शेंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० स्पर्शेन्द्रिय] वह इंद्रिय जिससे स्पर्श का ज्ञान होता है। त्वगिंद्रिय। त्वचा।

स्पर्शोपल
संज्ञा पुं० [सं०] पारस पत्थर। स्पर्शमणि।

स्पर्ष्टा
संज्ञा पुं० [सं०] १. शारीरिक अव्यवस्था या अस्वस्थता। रोग। व्याधि। २. वह जो स्पर्श करता हो। स्पर्श करने या छूनेवाला [को०]।

स्पश
संज्ञा पुं० [सं०] १. चर। दूत। २. युद्ध। लड़ाई। ३. पुरस्कार के लोभ से जंगली जानवरों से लड़नेवाला या इस प्रकार की लड़ाई [को०]।

स्पष्ट (१)
वि० [सं०] १. जिसके देखने या समझने आदि में कुछ भी कठिनता न हो। साफ दिखाई देने या समझ में आनेवाला। जैसे,—(क) इसके अक्षर दूर से भी स्पष्ट दिखाई देते है। २.जिसमें किसी प्रकार की लगावट या दावँपेंच न हो। सही। साफ। जैसे,—मै तो स्पष्ट कहता हूँ; चाहे किसी को बुरा लगे और चाहे भला। मुहा०—स्पष्ट कहना या सुनाना=बिल्कुल साफ साफ कहना। बिना कुछ छिपाव अथवा किसी का कुछ ध्यान किए कहना। ३. वास्तविक। सच्चा (को०)। ४. पूर्णातः विकसित। पूरा खिला हुआ (को०)। ५. सुस्पष्ट या साफ साफ देखनेवाला (को०)। ६. जो वक्र न हो। अकुटिक। सरल। सीधा (को०)। ७. प्रत्यक्ष। व्यक्त। (को०)।

स्पष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. ज्योतिष में ग्रहों का स्फुटसाधन जिससे यह जाना जाता है कि जन्म के समय अथवा किसी और विशिष्ट काल में कौन सा ग्रह किस राशि के कितने अंश, कितनी कला और कितनी विकला में था। इसकी आवश्यकता ग्रहों का ठीक ठीक फल जानने के लिये होती है। २. व्याकरण में वर्णों के उच्चारण का एक प्रकार का प्रयत्न जिसमें दोनों होंठ एक दूसरे से छू जाते हैं। जैंसे,—प या म के उच्चारण में स्पष्ट प्रयत्न होता है।

स्पष्टकथन
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में कथन के दो प्रकारों में से एक जिसमें किसी दूसरे की कही हुई बात ठीक उसी रूप में कही जाती है, जिस रूप में वह उसके मुहँ से निकली हुई होती है। जैसे,—कृष्ण ने साफ साफ कह दिया—'मै उनसे किसी प्रकार का सबंध न रखूँगा।' इसमें लेखक ने वक्ता कृष्ण का कथन उसी रूप में रहने दिया है, जिस रूप में वह उसके मुँह से निकला था।

स्पष्टगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके गर्भ के लक्षण साफ प्रकट हों [को०]।

स्पष्टतः
क्रि० वि० [सं०]दे० 'स्पष्टतया'।

स्पष्टतया
क्रि० वि० [सं०] स्पष्ट रूप से। साफ साफ। उ० (क) इससे यह स्पष्टतया ज्ञात होता है कि समालोचना के सामान्य रूप का अर्थ मूल ग्रंथ का दूषण या उसका खंडन है।—गंगाप्रसाद (शब्द०)। (ख) उषा काल की श्वेतता समुद्र में स्पष्टतया दूष्टि पड़ती थी।

स्पष्टतर
क्रि० वि० [सं०] स्पष्ट से अधिक स्पष्ट। साफ साफ। स्पष्ट और स्पष्टतम के बीच की स्थिति। उ०—पुलक स्पंद भर खिला स्पष्टतर।—अपरा, पृ० ५९।

स्पष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्पष्ट होने का भाव। सफाई। जैसे,—उसकी बातों की स्पष्टता मन पर विशेष रूप से प्रभाव डालती है।

स्पष्टतारक
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश, जिसमें तारे स्पष्ट दिखाई पड़ें।

स्पष्टप्रतिपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह ज्ञान जो स्पष्ट हो। शुद्ध प्रत्यक्ष ज्ञान [को०]।

स्पष्टप्रयत्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्पष्ट'—२।

स्पष्टभाषी
वि० [सं० स्पष्टभाषिन्]दे० 'स्पष्टवक्ता'।

स्पष्टवक्ता
संज्ञा पुं० [सं० स्पष्टवक्तृ] वह जो साफ साफ बातें कहता हो। वह जो कहने में किसी का मुलाहजा या रिआयत न करता हो।

स्पष्टवादी
संज्ञा पुं० [सं० स्पष्टवादिन्] वह जो साफ साफ बातें कहता हो। स्पष्टवक्ता। उ०—ऐसी हालत में स्पष्टवादी, निडर, समदर्शी, कुशाग्रबुद्धि और सच्चे तार्किकों की उत्पत्ति ही बंद हो जाती है।—द्विवेदी (शब्द०)।

स्पष्टस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष में राशियों के अंश, कला, विकला आदि में (बालक के जन्म की) दिखलाई हुई ग्रहों की ठीक ठीक स्थिति।

स्पष्टाक्षर
वि० [सं०] १. जिसके अक्षर स्पष्ट हों। २. जिसका उच्चारण अक्षरशः स्पष्ट हो [को०]।

स्पष्टार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] स्पष्ट या बोधगम्य अर्थ [को०]।

स्पष्टार्थ (२)
वि० जिसका अर्थ सरल या सहज बोधगम्य हो [को०]।

स्पष्टीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] स्पष्ट करने की क्रिया। किसी बात को स्पष्ट या साफ करना। उ०—ऐसी बातें बहुत ही थोड़ी हैं जिनका मतलब बिना विवेचना, टीका या स्पष्टीकरण के समझ में आ सकता है।—द्विवेदी (शब्द०)।

स्पष्टीकृत
वि० [सं०] जिसका स्पष्टीकरण हुआ हो। साफ या खुलासा किया हुआ।

स्पष्टीक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष में वह क्रिया जिससे ग्रहों का किसी विशिष्ट समय में किसी राशि के अंश, कला, विकला आदि में अवस्थान जाना जाता है। उ०—पहले जब अयनांश का ज्ञान नहीं था, तब स्पष्टीक्रिया से जो ग्रह आता था, उसे लोग ग्रह ही के नाम से पुकारते थे।—सुधाकर (शब्द०)।

स्पाई
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह जो छिपकर किसी का भेद ले। भेदिया। गुप्तचर। गोयंदा। जैसे,—पुलिस स्पाई। २. वह दूत जो शत्रु की छावनी या राज्य में भेद लेने के लिये भेजा जाय। गुप्त राजदूत। भेदिया। जैसे,—रेशावर के पास कई बोल- शेविक स्पाई पकड़े गए हैं।

स्पात
संज्ञा पुं० [सं० अयस्पत्र या पुर्त० स्पेडा; हिं० इसपात, इस्पात] दे० 'इसपात'।

स्पार्शन
वि० [सं०] जिसका बोध स्पर्श करने से हो या जो स्पर्श से ज्ञात हो [को०]।

स्पिरिचुअलिज्म
संज्ञा पुं० [अं०] वह विद्या या क्रिया जिसके द्वारा किसी स्वर्गीय या मूत व्यक्ति की आत्मा बुलाई जाती है और उससे बातचीत की जाती है। भूतविद्या। आत्मविद्या।

स्पिरिट
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. शरीर में रहनेवाली आत्मा। रूह। २. वह कल्पित सुक्ष्म शरीर जिसका मृत्यु के समय शरीर से निकलना और आकाश में विचरण करना माना जाता है। सूक्ष्म शरीर। ३. जीवन शक्ति। ४. एक प्रकार का बहुत तेज मादक द्रव पदार्थ जिसका व्यवहार अँगरेजी शराबों, दवाओं और सुगंधियों आदि में मिलाने अथवा लंपों आदि के जलाने में होता है। फूल शराब। ५. किसी पदार्थ का सत्त या मूल तत्व। जैसे,—स्पिरिट एमोनिया अर्थात् अमोनिया का सत। ६. किसी वस्तु का सार। अर्क। ७. मदिरा का सार। सुरासार। ८.उत्साह। जौश। तत्परता। जैसे,—इस नगर के नवयुवकों में स्पिरिट नहीं है। ९. स्वभाव। मिजाज। १०. प्रेतात्मा। रूह।

स्पिलेचा
संज्ञा पुं० [देश०] हिमालय की एक झा़ड़ी जिसकी टहनियों से बोझ बाँधते और टोकरे आदि बनाते हैं।

स्पीकर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह जो सभा, समिति या सर्वसाधारण में खड़े होकर किसी विषय पर धड़ल्ले से बोलता या भाषण करता है। वक्ता। व्याख्यानदाता। जैसे,—वे बड़े अच्छे स्पीकर हैं; लोगों पर उनके व्याख्यान का खूब प्रभाव पड़ता है। २. ब्रिटिश पार्लमेंट की कामन्स सभा, अमेरिका के संयुक्त राज्यों की प्रतिनिधि सभा तथा व्यवस्थापिका सभाओं के अध्यक्ष। सभापति। ३. ब्रिटिश हाउस आव लाड्स या लार्ड सभा के अध्यक्ष जो लाई चान्सलर हुआ करते हैं। विशेष—ब्रिटिश हाउस आव कामन्स सभा का स्पीकर या अध्यक्ष पार्लमेंट के सदस्यों में से ही, बिना किसी राजनीतिक भेदभाव के चुना जाता है। इसका काम सभा में शांति बनाए रखना और नियमानुसार कार्य संचालन करना है। किसी विषय पर सभा के दो समान भागों में विभक्त होने पर (अर्थात् आधे सदस्य एक पक्ष में और आधे दूसरे पक्ष में होने पर) वह अपना 'कास्टिंग वोट' या निर्णायक मत किसी के पक्ष में दे सकता है। अमेरिका की प्रतिनिधि सभा या व्यवस्थापिका सभाओं के स्पीकर या अध्यक्ष साधारणतः उस पक्ष के नेता या मुखिया होते हैं जिसका सभा में बहुमत होता है। ब्रिटिश पालंमेंट के स्पीकर के समान इन्हें भी सभा के संचालन और नियंत्रण का अधिकार तो है ही इसके सिवा ये महत्व के अवसरों पर दूसरे को अध्यक्ष के आसन पर बैठाकर सदस्य की हैसियत से साधारण सभा में भी बहस कर सकते हैं और वोट दे सकते हैं। भारत में भी विधान सभाओं और संसद्में स्पीकर होते हैं और उनकी सत्ता तथा कार्यपद्धति वही है जौ अमेरिका तथा ब्रिटिश देश में है।

स्पीच
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह जो कुछ मुहँ से बोला जाय। कथन। २. वाक्शक्ति। बोलने की शक्ति। ३. किसी विषय की जबानी की हुई विस्तृत व्याख्या। वक्तुता। व्याख्यान। लेक्चर। उ०—गर्जे कि इस सफहे की कुल स्पीचें मरचेन्ट आव वेनिस से ली गई हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४३४।

स्पीड
संज्ञा स्त्री० [अं०] वेग। गति। चाल। तीव्रता।

स्पीन किशमिशी
संज्ञा पुं० [पिशीन (स्थान का नाम)+किशमिश] एक प्रकार का बढ़िया अंगुर जो क्वेटा पिशीन प्रांत में होता है।

स्पृक्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. असबरग। २. लजालु। लाजवंती। ३. ब्राह्मी बूटी। ४. मालती। ५. सेवती। शतपत्री। ६. गंगापत्ती। पात्रीलता।

स्पृत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की ईंट जिसका व्यवहार यज्ञ की वेदी आदि बनाने मे होता था।

स्पृत् (२)
वि० १. अपने को छुड़ाने, हटाने अथवा मुक्त करनेवाला। २. पानेवाला। प्राप्त करनेवाला [को०]।

स्पृत
वि० [सं०] १. जीता हुआ। विजित। २. रखा हुआ। सुरक्षित। ३. मिला हुआ। प्राप्त [को०]।

स्पृध् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु। वैरी [को०]।

स्पृध् (२)
संज्ञा स्त्री० युद्ध। लड़ाई। संघर्ष [को०]।

स्पृश्
वि० [सं०] १. स्पर्श करनेवाला। छूनेवाला। जैसे, मर्मस्पृश्। २. पहुँचनेवाला [को०]।

स्पूश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्पर्श। संपर्क [को०]।

स्पृश (२)
वि० छूनेवाला। स्पर्श करनेवाला।

स्पृशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सर्पिणी। सर्पकंकालिका। २. कंटकारी। कंटाई। रेंगनी।

स्पृशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंटकारी। कँटाई।

स्पृश्य
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्पृश्या] १. जो स्पर्श करने के योग्य हो। छूने के लायक। उ०—होगा कोई इंगित अदृश्य, मेरे हित है हित यही स्पृश्य।—अपरा, पृ० १८१। २. अधिकृत करने योग्य (को०)। यौ०—स्पृश्यास्पृश्य=स्यृश्य और अस्पृश्य। छूने लायक और न छूने के योग्य।

स्पृश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की समिधा [को०]।

स्पृश्यास्पूश्य विवेक
संज्ञा पुं० [सं०] छूने और न छूने योग्य वस्तुओं या पदार्थों का विचार।

स्पृष्ट (१)
वि० [सं०] १. जिसने स्पर्श किया हो। २. छूआ हुआ। हाथ से स्पर्श किया हुआ। ३. संपर्क में आया हुआ (को०)। ४. ग्रस्त। प्रभावित (को०)। ५. दूषित। कलुषित। कलंकित। जैसे, स्पृष्टमैथुना (को०)। ६. पहुँचनेवाला। उपयोग करनेवाला (को०)। ७. जिह्वा के या उच्चारण अवयवों के पूर्ण स्पर्श से बना हुआ (को०)।

स्पृष्ट (२)
संज्ञा पुं० व्याकरण के अनुसार 'क्' से 'म्' तक के वर्णी के उच्चारण में प्रयुक्त आभ्यतर प्रयत्न [को०]।

स्पृष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] चलते समय किसी पुरुष और स्त्री के अंगों का परस्पर हलका स्पशँ। एक प्रकार का आलिंगन [को०]।

स्पृष्टमैथुन
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्पृष्टमैथुना] मैथुन के कारण जो अपवित्र या जूषित हो गया हो [को०]।

स्पृष्टरोदनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लजालू या लाजवंती नाम की लता।

स्पृष्टास्पृष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] छूआछूत। स्पृष्टास्पृष्टि।

स्पृष्टस्पृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] परस्पर एक दूसरे को छूने की क्रिया। छूआछूत।

स्पृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छूने की क्रिया। स्पर्श। २. संयोग। लगाव। संपर्क (को०)।

स्पृष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'स्पृष्टि'। २. शपथ ग्रहण के समय अंगों का स्पर्श।

स्पृष्टी
वि० [सं० स्पृष्टिन्] स्पर्श करनेवाला [को०]।

स्पृहण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० स्पृहणीय] अभिलाषा। स्पृहा। इच्छा। कामना।

स्पृहणीय
वि० [सं०] १. जिसके लिये अभिलाषा या कामना की जा सके। वांछनीय। उ०—यह कितनी स्पृहणीय बन गई, मधुर जागरण सी छविमान।—कामायनी, पृ० २७। २. गौरवशाली। गौरव या बड़ाई के योग्य। ३. रमणीय। मोहक (को०)। ४. ईर्ष्या करने योग्य (को०)। यौ०—स्पृहणीयवीर्य=जिसका पराक्रम स्पृहणीय या वांछनीय हो। स्पृहणीयशोभ=जो अपनी शोभा या सौंदर्य के कारण स्पृहा करने योग्य हो।

स्पृहयालु
वि० [सं०] १. जो स्पृहा या कामना करे। स्पृहा करनेवाला। २. लोभी। लालची।

स्पृहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अभिलाषा। इच्छा। कामना। ख्वाहिश। २. न्यायदर्शन के अनुसार किसी ऐसे पदार्थ की प्राप्ति की कामना जो धर्म के अनुकूल हो। ३. ईर्ष्या (को०)।

स्पृहालु
वि० [सं०]दे० 'स्पृहयालु'।

स्पृहित
वि० [सं०] १. जिसकी स्पृहा या कामना की गई हो। २. जो ईर्ष्या का विषय हो [को०]।

स्पृही
वि० [सं० स्पृहिन्] १. कामना या इच्छा करनेवाला उ०— गृह योग्य बने हैं वन स्पृही, वन योग्य हाय ! हम बने गृही।— साकेत, पृ० १५९। २. स्पर्धा करनेवाला।

स्पृहय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बिजौरा नींबू।

स्पूहय (२)
वि० जिसके लिये कामना या स्पृहा की जा सके। स्पृहणीय। वांछनीय।

स्पेशल (१)
वि० [अं०] १. जिसमें औरों की अपेक्ष कोई विशेषता हो। विशिष्ट। खास। २. जो विशेष रूप से किसी एक व्यक्ति या काम के लिये हो। जैसे,—स्पेशल गाड़ी। ३. जो साधारण न हो। असाधारण।

स्पेशल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह रेल गाड़ी जो किसी विशिष्ट कार्य, उद्देश्य या व्यक्ति के लिये चले। जैसे,—लाट साहब की स्पेशल, बारात की स्पेशल।

स्पेशलिस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] वह जिसे किसी विषय का विशेष ज्ञान हो। वह जो किसी विषय में पारंगत हो। विशेषज्ञ। जैसे,—वि आँख के इलाज के स्पेशलिस्ट हैं।

स्प्रष्टव्य
वि० [सं०] १. छूने लायक। स्पर्श करने गोग्य। २. जिसका ज्ञान स्पर्श से किया जाय [को०]।

स्प्रष्टा (१)
वि० [सं० स्पष्टृ] छूनेवाला या स्पर्श करनेवाला [को०]।

स्प्रष्टा (२)
संज्ञा पुं० स्पर्शजन्य रोग। व्याधि [को०]।

स्प्रिंग
संज्ञा स्त्री० [अं०] लोहे की तीली, पत्तर, तार या इसी प्रकार की और कोई लचीली वस्तु जो दाब पड़ने पर दब जाय और दाब हटने पर फिर अपने स्थान पर आ जाय। कमानी। विशेष दे० 'कमानी'।

स्प्रिंगदार
वि० [अं० स्प्रिंग+फा० दार (प्रत्य०)] जिसमें स्प्रिंग या कमानी लगी हो। कमानीदार।

स्प्रिचुअलिज्म
संज्ञा पुं० [अं०] आत्माविद्या। भूतविद्या। दे० 'स्पिरिचुअलिज्म।'

स्प्लिट
संज्ञा पुं० [अं०] पाश्चात्य चिकित्सा में चिपटी लकड़ी का वह टुकड़ा जो शरीर की किसी टूटी हुई हड्डी आदि को फिर यथास्थान बैठाकर, उस अंग को सीधा या ठीक स्थिति में रखने के लिये उसपर बाँधा जाता है। पट्टी। पटरी।

स्फट
संज्ञा पुं० [सं०] १. फट फट शब्द। २. साँप का फन।

स्फटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साँप का फन। २. फिटकिरी (को०)।

स्फटिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का सफेद बहुमूल्य पत्थर या रत्न। बिल्लौर। विशेष—स्फटिक काँच के समान पारदर्शी होता है और इसका व्यवहार मालाएँ, मूर्तियाँ तथा दस्ते आदि बनाने में होता है। इसके कई भेद और रंग होते हैं। २. सूर्यकांत मणि। ३. शीशा। काँच। ४. कपूर। कर्पूर। ५. फिटकरी।

स्फटिककुडय
संज्ञा पुं० [सं०] बिल्लौर की दीवार।

स्फटिकपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक का बरतन [को०]।

स्फटिकप्रभ
वि० [सं०] स्फटिक के समान चमकीला या दीप्त [को०]।

स्फटिकभित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'स्फटिककुड्य'।

स्फटिकमणि
संज्ञा पुं० सं० बिल्लौर पत्थर [को०]।

स्फटिकविष
संज्ञा पुं० [सं०] दारुमोच नाम का विष।

स्फटिकशिखरी
संज्ञा पुं० [सं० स्फटिकशिखरिन्] कैलाश पर्वत।

स्फटिकशिला
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक की शिला। बिल्लौर।

स्फटिकस्कंभ
संज्ञा पुं० [सं० स्फटिकस्कम्भ] स्फटिक का खंभा।

स्फटिकहर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक का बना भवन।

स्फटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. फिटकिरी। २. कपूर (को०)।

स्फटिकाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] फिटकिरी।

स्फटिकाचल
संज्ञा पुं० [सं०] कैलाश पर्वत जो दूर से देखने में स्फटिक के समान जान पड़ता है।

स्फटिकात्मा
संज्ञा पुं० [सं० स्फटिकात्मन्] बिल्लौर। स्फटिकमणि।

स्फटिकाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्फटिकाचल' [को०]। यौ०—स्फटिकाद्रिभिद्=कपूर। कर्पूर।

स्फटिकाभ्र
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर।

स्फटिकारि, स्फटिकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] फिटकिरी [को०]।

स्फटिकारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] फिटकिरी।

स्फटिकाश्मा
संज्ञा पुं० [सं० स्फटिकाश्मन्] फिटकिरी [को०]।

स्फटिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] फिटकिरी।

स्फटिकोपम
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपूर २. जस्ता नाम की धातु। ३. चंद्रकांत मणि।

स्फटिकोपल
संज्ञा पुं० [सं०] बिल्लौर। स्फटिक।

स्फटित
वि० [सं०] फटा हुआ। विदीर्ण [को०]।

स्फटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] फिटकिरी।

स्फर, स्फरक
संज्ञा पुं० [सं०] चर्म। ढाल [को०]।

स्फरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँपना। थरथराना। फड़कना। २. प्रवेश करना [को०]।

स्फाटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्फटिक। बिल्लौर। २. पानी की बूँद।

स्फाटकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] फिटकिरी [को०]।

स्फाटिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का श्वेत रत्न। बिल्लौर। विशेष दे० 'स्फटिक'। २. एक प्रकार का चंदन (को०)।

स्फाटिक (२)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० स्फाटिकी] स्फटिक या बिल्लौर संबंधी। बिल्लौर का।

स्फाटिकोपल
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक। बिल्लौर।

स्फाटित
वि० [सं०] फटा या फाड़ा हुआ। विदीर्ण [को०]।

स्फाटीक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्फटिक'।

स्फात
वि० [सं०] १. बढ़ा हुआ। २. फूला हुआ [को०]।

स्फाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वृद्धि। बढ़ती। २. सूजन। शोथ [को०]।

स्फार (१)
वि० [सं०] १. प्रचुर। विपुल। बहुत। २. विकट। ३. विस्तृत। बड़ा। बढ़ा हुआ (को०)। ४. ऊँचा। तार। उच्च। जैसे, स्वर (को०)। ५. अविरल। निविड। घना (को०)।

स्फार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूजन। वृद्धि। २. (सोने में पड़ी हुई) फुटकी। ३. उभार। गिल्टी। ४. धकधकी। थरथरी। ५. टंकार। ६. प्राचुर्य। अधिकता (को०)।

स्फारण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्फुरण'।

स्फारित
वि० [सं०] विस्तृत किया हुआ। फैलाया हुआ [को०]।

स्फाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'स्फूर्ति'। २. धड़कन। कँपकँपी (को०)।

स्फालन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिलाना। डुलाना। २. रगड़ना। घिसना। ३. घोड़े आदि को थपथपाना। सहलाना। ४. स्पंदन। धकधकी [को०]।

स्फिक्
संज्ञा स्त्री० [सं० स्फिच्] चूतड़।

स्फिक्स्राव
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग [को०]।

स्फिग्घातक
संज्ञा पुं० [सं०] कट्फल [को०]।

स्फिग्दघ्न
वि० [सं०] कूल्हे या चूतड़ तक पहुँचनेवाला [को०]।

स्फिच्
संज्ञा स्त्री० [सं०] चूतड़।

स्फिर
वि० [सं०] १. आयत। विशाल। विस्तृत। २. अधिक। प्रचुर। बहुत। ३. असंख्य [को०]।

स्फीत
वि० [सं०] १. बढ़ा हुआ। वर्धित। २. फूला हुआ। ३. समृद्धि। ४. मोटा। पीन। स्थूल (को०)। ५. बहुत। प्रचुर (को०)। ६. पूत। पवित्र। शुद्ध (को०)। ७. जो पैतृक रोग सो ग्रस्त हो (को०)। ८. आनंदित। खुश। प्रसन्न (को०)।

स्फीतता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्फीत होने का भाव या धर्म। २. वृद्धि। ३. पीनता। मोटाई। ४. समृद्धि।

स्फीतनितंबा
संज्ञा स्त्री० [सं० स्फीतनितम्बा] बड़े और सुदर कूल्हेवाली स्त्री [को०]।

स्फीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वृद्धि। विस्तार। बढ़ती। २. प्राचुर्य। अधिकता (को०)। ३. समृद्धि (को०)।

स्फुट
वि० [सं०] १. जो सामने दिखाई देता हो। प्रकाशित। व्यक्त। २. खिला हुआ। विकसित। जैसे,—स्फुटित कमल। ३. जो स्पष्ट हुआ हो। साफ। ४. शुक्ल। सफेद। ५. फुटकर। अलग अलग। ६. टूटा हुआ या फटा हुआ। विदीर्ण। खंडित (को०)। ७. सुविदित। प्रसिद्ध (को०)। ८. उच्च ऊँचा (को०)। ९. सत्य। प्रत्यक्ष (को०)। १०. दीप्तिमान्। चमकीला (को०)। ११. सुधारा हुआ। संशोधित (को०)। १२. विशिष्ट। असाधारण (को०)।

स्फुट (२)
संज्ञा पुं० १. जन्मकुंडली में यह दिखाना कि कौन सा ग्रह किस राशि में कितने अंश, कितनी कला और कितनी विकला में है। २. साँप का फन (को०)।

स्फुट (३)
अव्य० साफ साफ। स्फष्टतः [को०]।

स्फुटक
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष्मती लता। मालकंगनी।

स्फुटचंद्रतारक
वि० [सं० स्फुटचद्रतारक] जिसमें चंद्रमा और तारि- काएँ प्रकाशित हों। सुव्यकत चंद्र और तारों से युक्त।

स्फुटता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्फुट होने का भाव या धर्म।

स्फुटतार, स्फुटतारक
वि० [सं०] जिसमें तारे स्पष्ट दिखाई दें। तारों से प्रकाशित [को०]।

स्फुटत्व
संज्ञा पुं० [सं०] स्फुट का भाव या धर्म। स्फुटता।

स्फुटत्वचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाज्योतिष्मती। मालकंगनी।

स्फुटध्वनि
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद पंडुक। एक पक्षी।

स्फुटन
संज्ञा पुं० [सं०] १. फटना या फूटना। २. विकसित होना। खिलना। ३. संधि या जोड़ का चटकना (को०)।

स्फुटपुंडरीक
वि० [सं० स्फुटपुण्डरीक] खिला हुआ या विकसित हृदयरूपी कमल [को०]।

स्फुटपौरुष
वि० [सं०] अपनी शक्ति प्रदर्शित करनेवाला [को०]।

स्फुटफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. तुंबुरु। २. किसी त्रिकोण का यथार्थ क्षेत्रफल (को०)। ३. किसी गणित का मूल फल (को०)।

स्फुटबंधनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्फुटबन्धनी] मालकंगनी। ज्योतिष्मती।

स्फुटंरगिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्फुट राङ्गिणी] एक प्रकार की लता जिसका व्यवहार औषध में होता है।

स्फुटवक्ता
वि० [सं० स्फुटवक्तृ] साफ साफ कहनेवाला। स्पष्ट बोलनेवाला [को०]।

स्फुटवल्कली
संज्ञा स्त्री [सं०] ज्योतिष्मती। मालकंगनी।

स्फुटसार
संज्ञा पुं० [सं०] किसी नक्षत्र अथवा ग्रह का वास्तविक आयाम [को०]।

स्फुट सूर्यगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुर्य की दृश्यमान गति अथवा सूर्य की वास्तविक गति [को०]।

स्फुटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] साँप का फन।

स्फुटि्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पादस्फोटक नाम का रोग। पैर की बिवाई फटना। २. फूट नाम का फल।

स्फुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. फूट नामक फल। २. फिटकिरी। ३. छोटा खंड या टुकड़ा (को०)।

स्फुटित
वि० [सं०] १. विकसित। खिला हुआ। २. जो स्पष्ट किया गया हो। प्रकट किया हुआ। ३. हसता हुआ। ४. विदीर्ण। फटा हुआ (को०)। ५. नष्ट किया हुआ (को०)।

स्फुटितकांडभग्न
संज्ञा पुं० [सं० स्फुटितकाण्डभग्न] वैद्यक के अनुसार हड्डी टूटने का एक भेद। हड्डी का टुकड़े टुकड़े होकर खिल जाना।

स्फुटितचरण
वि० [सं०] १. चौड़े और फैले हुए पैरोंवाला २. जिसके पैर फटे हुए हों [को०]।

स्फुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पादस्फोट नामक रोग। पैर की बिवाई फटना। २. फूट नाम का फल।

स्फुटीकरण
संज्ञा पुं० [सं० स्फुट+करण] १. स्पष्ट करना। प्रकट या व्यक्त करना। २. संशोधन। ठीक करना। सुधारना।

स्फुत्
अव्य० [सं०] टूटने या चटचटाने की ध्वनि।

स्फुत्कर
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिससे 'स्फुत्' अर्थात् चट् चट् की आवाज हो। अग्नि। आग।

स्फुत्कार
संज्ञा पुं० [सं०] फुफकार। फूत्कार।

स्फुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. दे० 'स्फुरण'। ३. वर्धन। वृद्धि (को०)। ४. ढाल (को०)।

स्फुरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ का जरा जरा हिलना या काँपना। २. अंग का फड़कना। ३. दे० 'स्फुर्ति'। ४. प्रत्यक्ष या व्यक्त होना (को०)। ५. चमक। दीप्ति। प्रभा (को०)। ६. मन में एकाएक कोई विचार आना (को०)।

स्फुरणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंगों का फड़कना।

स्फुरत्
वि० [सं०] चमकता हुआ। दीप्त। प्रकाशित [को०]। यौ०—स्फुरदुल्का=दीप्त एवं कंपित उल्कापिंड। स्फुरदोष्ठ= जिसके होंठ फड़क रहे हों। स्फुरदोष्ठक=दे 'स्फुरदोष्ठ'। स्फुरद्गगंध=(१) फैली हुई सुगंध। (२) जिससे सुगंध फैल रही हो।

स्फुरति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्फूर्ति]दे० 'स्फूर्ति'।

स्फुरना पु
क्रि० अ० [सं० स्फुरण] १. कंपित होना। हिलना। २. फड़कना। ३. व्यक्त या द्योतित होना। ४. विकसित होना। खिलना।

स्फुरित (१)
वि० [सं०] १. जिसमें स्फुरण हो। २. हिलने या फड़कनेवाला। ३. जो स्थिर न हो। ३. दीप्त। चमकता हुआ (को०)। ४. फूला हुआ या सूजा हुआ (को०)। ५. व्यक्त। प्रकट (को०)।

स्फुरित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'स्फुरण'। २. मन का संवेग या विक्षोभ। मानसिक उथल पुथल [को०]।

स्फुर्जथु
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'स्फूर्जथु' [को०]।

स्फुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्फूर्ति। २. तंबू। खेमा।

स्फुलन
संज्ञा पुं० [सं०] कंपन। कड़कना। स्फुरण [को०]।

स्फुलमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हुलहुल नामक पौधा।

स्फुलिंग
संज्ञा पुं० [सं० स्फुलिङ्ग] अग्नि का छोटा कण। आग की चिनगारी।

स्फुलिंग
संज्ञा स्त्री० [सं० स्फुलिङ्ग] अग्निकण। अग्नि की चिन- गारि। स्फुलिंग [को०]।

स्फुलिंगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० स्फुलिङ्गिनी] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।

स्फुलिंगी
वि० [सं० स्फुलिङ्गिन्] स्फुलिंगयुक्त। चिनगारियोंवाला। जिसमें से अग्निकण निकल रहे हों [को०]।

स्फूर्छित
वि० [सं०] १. फैलाया हुआ। विकीर्ण। २. विस्मृत। भूला हुआ [को०]।

स्फूर्ज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघगर्जन। बादलों का गरजना। २. इंद्र का अस्त्र। वज्र। ३. एकाएक फूट निकलना। उद् भूत या उदय होना। ४. प्रेमी प्रेमिका का प्रथम मिलन जिसमें आनंद के साथ भय की भी आशंका रहती है। ५. एक राक्षस का नाम। ६. स्फूर्जक पौधा [को०]।

स्फूर्जक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिंदुक या तेंदू नाम का वृक्ष। २. सोना पाढ़ा।

स्फूर्जथु
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिजली की कड़क। २. चौलाई का साग।

स्फूर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिंदुक या तेंदु नाम का वृक्ष। २. बलिया पीपल। नंदीतरु। ३. गरज। गड़गड़ाहट (को०)। ४. स्फोट (को०)।

स्फूर्जा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्युत् गर्जन। गड़गड़ाहट।

स्फूर्ण
वि० [सं०] १. गर्जित। २. दे० 'स्फूर्छित' [को०]।

स्फूर्त
वि० [सं०] १. हिलता डुलता। कंपित। २. जो एकाएक याद आया हो। जिसकी अचानक स्मृति हुई हो [को०]।

स्फूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धीरे धीरे हिलना। फड़कना। स्फुरण। २. (विचार आदि) मन में फुरना या उदय होना (को०)। ३. काव्य की प्रेरणा। कविकर्म की उद् भूति या प्रेरणा (को०)। ४. कोई काम करने के लिये मन में उत्पन्न होनेवाली हलकी उत्तेजना। फुरती। तेजी। जैसे—स्नान करने से शरीर में स्फूर्ति आती है। ६. गर्व। घमंड (को०)। ७. खिलना। विकसित होना (को०)। ८. उद् भूत या व्यक्त होना (को०)। ९. छलाँग। चौकड़ी (को०)।

स्फुर्तिकारक
वि० [सं०] स्फूर्ति लानेवाला। फुर्सीं या तेजी लानेवाला।

स्फूर्तिदायक
वि० [सं०] जिससे स्फूर्ति प्राप्त हो। स्फूर्ति देनेवाला।

स्फूर्तिमान् (१)
वि० [सं० स्फूर्तिमत्] १. फुर्तीला। स्फूर्ति से युक्त। उ०—वह जैसे क्षण भर के लिये स्फूर्तिमान् हो गया।—इंद्र- जाल, पृ० ३०। २. कंपित। धड़कता हुआ। विक्षुब्ध। ३. कोमलहृदय। दयार्द्रचित्त (को०)।

स्फूर्तिमान् (२)
संज्ञा पुं० शिव का उपासक। पाशुपत [को०]।

स्फेयस
वि० [सं०] जो अतिशय स्फिर हो। जो प्रचुरतर एवं विस्तुत हो [को०]।

स्फेष्ठ
वि० [सं०] १. प्रचुरतम। २. अत्यंत विस्तार से युक्त [को०]।

स्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंदर भरे हुए किसी पदार्थ का अपने ऊपरी आवरण को तोड़ या भेदकर बाहर निकलना। फूटना। जैसे,—ज्वालामुखी का स्फोट। २. शरीर में होनेवाला फौड़ा, फुंसी आदि। ३. मोती। मुक्ता। ४. सर्वदर्शनसंग्रह (पाणिनीय दर्शन) के अनुसार नित्य शब्द जिससे वर्णात्मक शब्दों के अर्थ का ज्ञान होता है। जैसे, कमल शब्द में क, म और ल ये तीन वर्ण हैं; और इन तीनों के अलग अलग उच्चारण से कुछ भी अभिप्राय नहीं निकलता। परंतु तीनों वर्णीं का साथ साथ उच्चारण करने पर जो स्फोट होता है, उसी से कमल शब्द का अभिप्राय जाना जाता है। कुछ लोग इसी स्फोट (नित्य शब्द) को संसार का कारण मानते हैं। ५. मीमांसकों द्वारा मान्य नित्य शब्द। आभ्यंतर ध्वनि (को०)। ६. फूट पड़ना या खुलना। व्यक्त या प्रकट होना (को०)। ७. फैलना। विस्तार। फैलाव (को०)। ८. लघुखंड। छोटा टुकड़ा। ९. धान्य का फटकना। शूर्पादि द्वारा अन्न का प्रस्फोटन (को०)। १०. फटना। विदीर्ण होना (को०)।

स्फोटक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पिटिका फोड़ा। फुंसी। २. भिलावाँ। भल्लातक। विशेष—भिलावाँ का तेल लगाने से शरीर में फोड़ा सा हो जाता है।

स्फोटक (२)
वि० [सं०] फट जानेवाला। फूटनेवाला (आग्नेय पदार्थ आदि)।

स्फौटकर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्फोटबीजक' [को०]।

स्फोटन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंदर से फोड़ना। २. विदारण। फाड़ना। ३. प्रकट या प्रकाशित करना। ४. शब्द। आवाज। ५. सुश्रुत के अनुसार वायु के प्रकोप से होनेवाली व्रण की पीड़ा जिसमें व्रण फटता हुआ सा जान पड़ता है। ६. हाथ की उँगलियाँ चटकाना (को०)। ७. शिव (को०)। ८. एकाएक फट पड़ना (को०)। ९. अनाज फटकना (को०)। १०. हाथ आदि कँपाना या हिलाना (को०)। ११. परस्पर मिले हुए व्यंजनों का अलग अलग उच्चारण (को०)।

स्फोटनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरमा [को०]।

स्फोटबीजक
संज्ञा पुं० [सं०] भिलावाँ [को०]।

स्फोटलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कनफोड़ा नाम की लता।

स्फोटवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह मत या सिद्धांत जो नित्य शब्द को संसार का कारण मानता हो [को०]।

स्फोटवादी
संज्ञा पुं० [सं० स्फोटवादिन्] वह जो स्फोट या नित्य शब्द को ही संसार का मूल हेतु या कारण मानता हो। वैयाकरण या मीमांसक। उ०—पतंजलि के इस कथन की चाहे स्फोटवादी वैयाकरण जो व्याख्या करें पर इसका सीधा साधा यह अर्थ है।—शैली, पृ० २४।

स्फोटबीजक
संज्ञा पुं० [सं०] भल्लातक। भिलावाँ।

स्फोटहेतु, स्फोटहेतुक
संज्ञा पुं० [सं०] भल्लातक। भिलावाँ।

स्फोटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साँप का फन। २. सफेद अनंतमूल ३. हाथ का हिलाना (को०)।

स्फोटायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैदिक ऋषि कक्षीवान् मुनि का एक नाम। २. व्याकरण के एक आचार्य जो पाणिनि के पुर्ववर्ती थे। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में इनका उल्लेख किया है।

स्फोटिक
संज्ञा पुं० [सं०] पत्थर या जमीन आदि को तोड़ने फोड़ने का काम।

स्फोटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा फोड़ा। फुंसी। २. हापुत्रिका नामक पक्षी।

स्फोटित (१)
वि० [सं०] १. जिसका स्फोट किया गया हो। जो फोड़ा गया हो। २. जो व्यक्त या प्रकटित हो [को०]।

स्फोटित (२)
संज्ञा पुं० फटने की क्रिया। फटना [को०]।

स्फोटितनयन
वि० [सं०] जिसकी आँख फोड़ दी गई हो या जिसकी आँख फूटी हो। फूटी हुई आँखों वाला [को०]।

स्फोटितार्गल
वि० [सं०] अर्गला तोड़नेवाला। दरवाजे की कुंडी या ताला चटकानेवाला।

स्फोटिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ककड़ी।

स्फोता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनंतमूल। शरिवा। २. सफेद आक। सफेद मदार।

स्फोरण
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'स्फुरण' [को०]।

स्फ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ में प्रयुक्त होनेवाला तलवार के आकार का एक काष्ठनिर्मित उपकरण। २. नौकादंड। बल्ली। पतवार। ३. मस्तूल का मजबूत डंडा। बल्ली [को०]।