विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ट
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ ट
⋙ ट
संस्कृत या हिंदी वर्णमाला में ग्यारहवाँ ब्यंजन जो टवर्ग का पहला वर्ण है । इसका उच्चारण स्थान मूर्धा है । इसका उच्चारण करने में तालु से जीभ का अग्र भाग लगाना पड़ता है ।
⋙ टंक (१)
संज्ञा पुं० [सं० टङ्क] १. एक तौल लो चार माशे की होती है । विशेष—कोई कोई इसे तीन माशे या २४ रत्ती की भी मानते हैं । २. वह नियत मान या बाट जिससे तौल तौलकर धातु टकसाल में सिक्के बनने के लिये दी जाती है । ३. सिक्का । ४. मोती की तौल जो २१ १/४ रत्ती की मानी जाती है । ५. पत्थर काटने या गढ़ने का औजार । टाँकी । छेनी । ६. कुल्हाड़ी । परशु । फरसा । ७. कुदाल । ८. खड्ग । तलवार । ९. पत्थर का कटा हुआ टुकड़ा । १०. डाँग । ११. नील कपित्थ । नीला कैथ । खटाई । १२. कोप । क्रीध । १३. वर्प । अभिमान । १४. पर्वत का खड्डु । १५. सुहागा । १६. कोष । खजाना । १७. संपुर्ण जाति का एक राग जो श्री, भैरव और कान्हड़ा के योग से बना है । विशेष—इसके गाने का समय रात १६ दंड से २० दंड तक है । इसमें कोमल ऋषभ लगता है और इसका सरगम इस प्रकार है—सा रे म म प ध नि । हनुमत् के मत से स्वरग्राम है—स ग म प ध नि सा सा । ८. म्यान । १९. एक काँटेदार पेड़ जिसमें बेल या कैथ के वरावर फल लगते है । २०. सौंदर्य (को०) । २१. गुल्फ (को०) ।
⋙ टंक (२)
संज्ञा पुं० [अं० टैंक] १. तालाब, पानी रखने का हौज ।
⋙ टंक पु (३)
संज्ञा पुं० [?] अल्पांश । थोड़ा अंश । उ०—जाको जस टंक सातो दीप नव खंड महिमंडल की कहा ब्रह्नांड ना समात है ।—भूषण० ग्रं०, पृ० २२२ ।
⋙ टंकक (१)
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कक] १. चाँदी का सिक्का या रुपया । २. टाँकी । छेनी (को०) ।
⋙ टंकक (२)
संज्ञा पुं० [हिं० टंकण] टंकण यंत्र पर टंकण कार्य करनेवाला व्यक्ति । (अं० टाइपिस्ट) ।
⋙ टंककपति
संज्ञा पुं० [सं० टङ्ककपति] दे० 'टंकपति' [को०] ।
⋙ टंककशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० डङ्ककशाला] टकसाल धर ।
⋙ टंकटीक
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कटीक] शिव ।
⋙ टंकण (१)
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कण] १. सुहागा । २. धातु की चीज में टाँका मारकार जोड़ लगाने का कार्य । ३. घोड़े की एक जाति । ४. एक देश जिसका नाम जो बृहत्संहिता में कोंकण आदि के साथ आया है ।
⋙ टंकण (२)
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] टाइपराइटर पर टंकित करने का कार्य । टाइप करना । उ०—छपाई और टंकण की कठिनाइयाँ कैसे दूर हों ।—भा० शिक्षा, पृ० ५९ ।
⋙ टंकणक्षार
संज्ञा पु० [सं० टङ्कणक्षार] सोहागा [को०] ।
⋙ टंकन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'टंकण' । उ०—एक ओर कौ प्रेम, जोर करने बरजोरिए । ज्यो टंकन तैं हेम, पिघरम प्रान अकोरिए ।—ब्रज० ग्रं० १४१ ।
⋙ टंकणयंत्र
संज्ञा पुं० [हिं० टंकण + सं० यन्त्र] एक प्रकार का छापने का छोटा यंत्र जिसपर अक्षरों की पंक्तियाँ अलग अलग लगी होती हैं और जब छापना होता है तो उन्हीं पंक्तियो को उँग— लियों से दबाते जाते है और यंत्र के ऊपर लगे हुए कागज पर अक्षर छापते जाते हैं । टाइपराइटर । विशेष—कार्बन पेपर की सहायता से इस यंत्र पर एकाधिक प्रतियाँ टंकित की जा सकती है ।
⋙ टंकना (१)
क्रि० अ० दे० [हिं० टाँकना] दे० 'टँकना' ।
⋙ टंकना पु (२)
क्रि० स० [?] टंकना । आवृत करना । उ०—बढ्ढैन सील कठि छीन ह्वै लज्ज मान टंकनि फिरै ।—पृ० रा०, २५ ।९६ ।
⋙ टंकपति
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कपति] टकसाल का अधिपति ।
⋙ टंकवान्
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कवत्] एक पहाड़ जिसका नाम वाल्मीकि रामायण में आया है ।
⋙ टंकवाना †
क्रि० स० [हिं० टँकवाना] दे० 'टँकाना' ।
⋙ टंकशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० टंङ्कशाला] टकसाल ।
⋙ टंका (१)
संज्ञा पुं० [सं० टङ्क] १. पुराने समय में चाँदी की एक तौल जो एक तोले के बराबर होती थी । २. ताँबे का एक पुराना सिक्का । टका । ३. सिक्का । मुद्रा । उ०—पान कसए सोनाक टंका चादन क मूल ईंधन बिका ।—कीर्ति०, पृ० ६८ ।
⋙ टंका (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गन्ना या ईख ।
⋙ टंका (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० टंङ्का] १. जंघा । २. तारा देवी । ३. संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो त्रिषडज और आदि मूर्च्छना युक्त होती है । हनुमत् के अनुसार इसका स्वरग्राम यों है—स रे ग म प ध नि स ।
⋙ टंकानक
संज्ञा पुं० [सं टङ्कानक] ब्रह्मदारु । शहतूत ।
⋙ टंकार
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्कार] १. वह शब्द जो धनुष की कसी हुई डोरी पर बाण रखकर खींचने से होता है । धनुष की कसी हुई पतंचिका खींच या तानकर छोड़ने का शब्द । २. टनटन शब्द जो कसे हुए तार आदि पर उँगली मारने से होता है । ३. धातुखंड पर आघात लगने का शब्द । ठनाका । झनकार । ४. विस्मय । ५. कीर्ति । नाम । प्रसिद्धि । ६. कोलाहल । शोरगुल (को०) । ७. अपयश । कुख्याति (को०) ।
⋙ टंकारना
क्रि० स० [सं० टङ्कार + ना (प्रत्य०)] धनुष की डोरी खींचकर शब्द करना । पतंचिका तानकर ध्वनि उत्पन्न करना । चिल्ला खींचकर बजाना ।
⋙ टंकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्कारी] एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ लंबोतरी होती है । विशेष—फूल के भेद से इसकी कई जातियाँ हैं । किसी में लाल फूल लगते हैं, किसी में गुलाबी और किसी में सफेद । फूल गुच्छों में लगते हैं जिनके झड़ने पर छोटे छोटे फलों के गुच्छे लगते हैं । यह क्षुप जँगलों में बहुत होता है । वैद्यक में इसका स्वाद—कटु और गुण वात कफ का नाशक और अग्निदीपक लिखा है । टंकारी उदर रोग और विसर्प रौग में भी दी जाती है ।
⋙ टंकारी (२)
वि० [सं० टङ्कारिन्] [वि० स्त्री० टङ्कारिणी] टंकार करनेवाला [को०] ।
⋙ टंकिका
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्किका] पत्थर काटने का औजार । टाँकी । छेनी । उ०—सुतरु सुजन बन ऊख सम खल टंकिका रुखान । परहित अनहित लागि सब साँसति सहत समान ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टंकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्क] श्री राग की एक रागिनी ।
⋙ टंकी
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्क (= खङ्ड या गड्डा)] १. दीवार उठाकर बनाया हुआ पानी भरने का एक छोटा सा कुंड । चौबच्चा । टाँका । २. पानी भरने का बड़ा बर्तन । ठब । ३. तेल भरने या संचित करने का पात्र ।
⋙ टंकृत
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कृत] टंकार की ध्वनि [को०] ।
⋙ टंकोर
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कार] दे० 'टंकार' । उ०—देखे राम पविक नाचत मुदित मोर । मानत मनहु सतडित ललित धन, बनु सुरधनु, गरजनि टंकोर ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३६३ ।
⋙ टंकोरना
क्रि० स० [अनु०] १. धनुष की रस्सी को खींचकरउससे शब्द उत्पन्न करना । टंकारना । २. ठोकर लगाना । ठोकर मारकर उत्पन्न करना । ३. तर्जनी या मध्यमा उँगली की कुंडली बनाकर उसकी नोक को अँगूठे से दबाकर बलपूर्वक छोड़ना जिससे किसी वस्तु में जोर से टक्कर लगे ।
⋙ टंग
संज्ञा पुं० [सं० टङ्क] १. टाँग । टँगड़ी । २. कुल्हाड़ी । ३. कुदाल । परशु । फरसा । ४. सुहागा । ५. चार माशे की एक तोल । ६. एक प्रकार की तलवार (को०) ।
⋙ टंगण
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कण] टंकण । सोहागा ।
⋙ टंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्गा] टाँग । पैर [को०] ।
⋙ टंगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० टगिनी] पाठा ।
⋙ टंच † (१)
वि० [सं० चण्ड, हिं० चंठ] १. सूमड़ा । कंजूस । कृपण । २. कठोरहृदय । निष्ठुर ।
⋙ टंच (२)
वि० [हिं० टिचन] तैयार । मुस्तैद ।
⋙ टंटघंट
संज्ञा पुं० [अनु० टन टन + घंटा] पूजा पाठ का भारी आडंबर । घड़ी घंटा आदि बजाकर पूजा करने का भारी प्रपंच । मिथ्या आडंबर । क्रि० प्र०—करना ।—फैलाना ।
⋙ टंटा
संज्ञा पुं० [सं० तण्डा (= आक्रमण) अथवा अनु० टनटन] १. उपद्रव । हलचल । दंगा । फसाद । क्रि० प्र०—मचाना । मुहा०—टंटा खड़ा करना = उपद्रव करना । झगड़ा मचाना । २. तकरार । लड़ाई । कलह । यौ०—झगड़ा टंटा । ३. आडंबर । प्रपंच । बखेड़ा । खटराग । लंबी चौड़ी प्रक्रिया । जैसे,—इस दवा के बनाने में तो बड़ा टंटा है ।
⋙ टंडर
संज्ञा पुं० [अं० टेंडर] १. वह कागज जिसके द्वारा कोई मनुष्य किसी दूसरे से कुछ काम करने या कोई माल किसी नियत दर पर बेचने खरीदने का इकरार करता है । निविदा । २. अदालत का वह आज्ञापत्र जिसके द्वारा कोई मनुष्य किसी के प्रति अपना देना अदालत में दाखिल करे । निविदा ।
⋙ टंडल (१)
संज्ञा पुं० [अं० जेनरल, हिं० जंडैल] मजदूरों का मेठ या जमादार ।
⋙ टंडल (२)
संज्ञा पुं० [अं० टेंडर] दे० 'टंडर' ।
⋙ टंडस पु
संज्ञा पुं० [हिं० टंटा] दिखावटी काम । झूठा काम । उ०—टंडस तें बाढ़े जंजाला ।—धरनी०, पृ० ४१ ।
⋙ टंडैल
संज्ञा पुं० [अं० जेनरल, हिं० जंडैल] दे० 'टंडल' ।
⋙ टंसरी
संज्ञा स्त्री० [?] एक प्रकार की बीणा ।
⋙ टँकना
क्रि० अ० [हिं० टाँकना का अक० रूप] १. टाँका जाना । कील आदि जड़कर जोड़ा जाना । जैसे—एक छोटी सी चिप्पी टँक जायगी तो यह गगरा काम देने लायक हो जायगा । संयो० क्रि०—जाना । २. सिलाई के द्वारा जुड़ना । सिलना । सिया जाना । जैसे, फटा जूता टँकना, चकती टँकना, गोटा टँकना । संयो० क्रि०—जाना । ३. सीकर अँटकाया जाना । सिलाई के द्वारा ऊपर से लगाया जाना । जैसे, झालर में मोती टँके हैं । संयो० क्रि०—जाना । ४. रेती या सोहन के दाँतों का नुकीला होना । रेती का तेज होना । संयो० क्रि०—जाना । ५. अंकित होना । लिखा जाना । दर्ज किया जाना । जैसे,—यह रुपया वही पर टँका है या नहीं ? संयो० क्रि०—जाना । विशेष—इस अर्थ में इस क्रिया का प्रयोग ऐसी रकम या नाम के लिये होता है जिसका लेखा रखना होता है । ६. सिल, चक्की आदि का टाँकी से गढ्ढे करके खुरदरा किया जाना । छिनना । रेहा जाना । कुटना ।
⋙ टँकवाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'टँकाना' ।
⋙ टँकसालि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टकसाल' । उ०—घड़ी और शब्दि रची टँकसालि ।—प्राण०, पृ० १०२ ।
⋙ टँकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाँकना] १. टाँकने की क्रिया या भाव । २. टाँकने को मजदूरी ।
⋙ टँकाना
क्रि० स० [टाँकना का प्रे० रूप] १. टाँकों से जोड़वाना या सिलवाना । जैसे, जूता टँकाना । २. सिलाकर लगवाना । जैसे, बटन टँकाना । ३. (सिल, जाँता, चक्की आदि) खुरदुरा करना । कुटाना । ४. लिखवाना । टँकवाना ।
⋙ टँकाना (२)
क्रि० स० [सं० टङ्क (= सिक्का)] सिक्कों का परखवाना सिक्कों की जाँच कराना ।
⋙ टँकारना
क्रि० स० [हिं० टंकारना] दे० 'टंकारना' । उ०—सुफलक बढ़ि निज धनुष टँकायो । बीस बाण बाहलीकहि मान्यो ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ टँकावल पु
वि० [सं० टङ्क (= सिक्का) + आवल (=वाला)] टंकोवाला । बहुमूल्य । उ०—काने कुंडल झलमलइ कंठ टँकावल हार ।—ढोला०, दू० ४८० ।
⋙ टँकोर पु
संज्ञा पुं० [हिं० टंकोर] दे० 'टंकोर' । उ०—प्रभु कीन्ह धनुष टँकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टँकोरी
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्क] दे० 'टंकौरी' ।
⋙ टँकौरी
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्घ] सोना, चाँदी आदि तौलने का छोटा तराजू । छोटा काँटा ।
⋙ टँगड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्ग] घुटने से लेकर एँड़ी तक का भाग । टाँग । मुहा०—टँगड़ी पर उड़ाना = लंग मारकर गिराना । कुशती में पैर से पैर फँसाकर गिराना । अडंगा मारना ।
⋙ टँगना (१)
क्रि० अ० [सं० टङ्कण या टङ्गण (= जड़ा जाना)] १. किसी वस्तु का किसी उँचे आधार पर बहुत थोड़ा सा इस प्रकार अटकना या ठहरा रहना कि उसका प्रायः सब भाग उस आधार से नीचे की ओर गया हो । किसी वस्तु का दूसरी वस्तु से इस प्रकार बँधना या फँसना अथवा उसपर इस प्रकारटिकना या अटकना कि उसका (प्रथम वस्तु का) बहुत सा भाग नीचे की ओर लटकता रहे । लटकना । जैसे, (खूँटी पर) कपड़े टँगना, परदा टंगना, तसवीर टँगना । विशेष—यदि किसी वस्तु का बहुत सा अंश आधार पर हो और थोड़ा सा अंश आधार के नीचे लटका हो तो उस वस्तु को टंगी हुई नहीं कहेंगे । 'टँगना' और 'लटकना' में यह अंतर है कि 'टँगना' क्रिया में वस्तु के फसने या टिकने या अटकने का भाव प्रधान है और 'लटकना' में उसके बहुत से अंश का नीचे की ओर अधर में दूर तक जाने का भाव । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना । २. फाँसी पर चढ़ना । फाँसी लटकना । संयो क्रि०—जाना ।
⋙ टँगना (२)
संज्ञा पुं० १. वह आड़ी बँधी हुई रस्सी जिसपर कपड़े आदि टाँगे या रखे जाते हैं । अलगनी । बिलगनी । २. जुलाहों की वह रस्सी जिसमें उठौनी टाँगी जाती है । ३. वह फंदा जिसे मेटी, लोटे आदि के गले में फंसाकर हाथ में लटकाए हुए ले चलने के लिये बनाते हैं ।
⋙ टँगरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टँगड़ी' ।
⋙ टँगा
संज्ञा पुं० [देश०] मूँज ।
⋙ टँगारी †
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्ग] कुल्हाड़ी । कुठार ।
⋙ टँड पु
संज्ञा पुं० [हिं० टंटा] झगड़ा । प्रपंच । सांसारिक माया । उ०—टँड संकट में ग्रसित हैं सुत दारा रहसाई ।—भीखा श० पृ० ८७ ।
⋙ टँड़िया
संज्ञा स्त्री० [सं० ताड अथवा देश०] बाँह में पहनने का एक गहना जो अनंत के आकार का, पर उससे भारी और बिना घुँडी का होता है । टाँड़ । बहूँटा ।
⋙ टँडुलिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] बनचौलाई जो कुछ काँटेदार होती है । यह साग और दवा दोनों के काम आती है ।
⋙ टँसहा †
संज्ञा पुं० [हिं० टाँस + हा (प्रत्य०)] वह बैल नसों के सिकुड़ जाने से लँगड़ा हो गया हो ।
⋙ ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारियल का खोपड़ा । २. वामन । ३. चौथाई भाग । ४. शब्द ।
⋙ टई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ठही' ।
⋙ टक
संज्ञा स्त्री० [सं० टक (= बाँधना) या सं० भाटक] १. ऐसा ताकना जिसमें बड़ी देर तक पलक न गिरे । किसी ओर लगी या बँधी हुई द्दष्टि । गड़ी हुई नजर । स्थिर द्दष्टि । क्रि० प्र०—लगना ।—लगाना । मुहा०—टक बँधना = स्थिर द्दष्टि होना । टक बाँधना = किसी की ओर स्थिर दृष्टि से देखना । टकटक देखना = बिना पलक गिराए लगातार कुछ काल तक देखते रहना । टक लगाना = आसरा देखते रहना । प्रतीक्षा में रहना । २. लकड़ी आदि भारी बोझों को तोलनेवाले बड़े तराजू का चोखूँटा पलड़ा ।
⋙ टकझक पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टकटकी + झाँकना] ताकझाँक । उ०—टकझक सौं झुकि बदन निहारत अलक सँवारत पलक न मारत जान गई नँदरानी ।—नंद०, ग्रं० पृ० ३३८ ।
⋙ टकटक पु
क्रि० वि० [हिं० टकटकाना] टकटकी लगाकर देखना । एक टक देखना । उ०—टकटक ताकि रही ठग मूरी आपा आप बिसारौ हो ।—पलटू० भा० ३, पृ० ८४ । क्रि० प्र०—ताकना ।—देखना ।
⋙ टकटका पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० टक या सं० त्राटक] [स्त्री० टकटकी] स्थिर दृष्टि । टकटकी । उ०—सुनि सो बात राजा मन जागा । पलक न मार टकटका लागा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ टकटका (२)
वि० स्थिर या बँधी हुई (द्दष्टि) । उ०—रूपासक्त चकोर कवक करि पावक को खात कन । रामचंद्र को रूप निहारत साधि टकाटक तकन ।—देवस्वामी (शब्द०) ।
⋙ टकटकाना † (१)
क्रि० स० [हिं० टक] १. एक टक ताकना । स्थिर द्दष्टि से देखना । उ०—टकटकै मुख झुकी नैनहीं नागरी, उरहनों देत रुचि अधिक बाढ़ी ।—सूर (शब्द०) । २. टकटक शब्द उत्पन्न करना । ३. फल गिराने के लिये किसी पेड़ आदि को हिलाना ।
⋙ टकटकाना (२)
क्रि० स० [हिं० टका (= सिक्का)] १. रुपए लेना । चालाकी से रुपए लेना । २. धन कमाना । आय करना ।
⋙ टकटकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टक या सं० त्राटकी] ऐसी तकाई जिसमें बढ़ी देर तक पलक न गिरे । अनिमेष दृष्टि । स्थिर दृष्टि । गड़ी हुई नजर । उ०—टकटकी चंद चकोर ज्यों रहत है । सृरत और निरत का तार बाजै ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ८८ । क्रि० प्र०—लगाना । मुहा०—टकटकी बँधना = स्थिर दृष्टि होना । टकटकी बाँधना = स्थिर दृष्टि से देखना । ऐसा ताकना जिसमें कुछ काल तक पलक न गिरे । उ०—और की खोट देखती बेला । टकटकी लोग बाँद देते हैं ।—चोखे०, पृ० १५ ।
⋙ टकटोना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'टकटोलना' । उ०—पुनि पीवत ही कच टकटोवै झूठे रढ़ै ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ टकटोरना †
क्रि० स० [सं० त्वक् (=चमड़ा)+तोलन (=अंदाज करना)] हाथ से छूकर पता लगाना या जाँचना । स्पर्श द्वारा अनुसंधान या परीक्षा करना । टटोलना । उ०—(क) सूर एकहू अंग न काँची मैं देखी टकटोरि ।—सूर (शब्द०) । (ख) नहि सगुन पायउ एक मिसु करि एक धनु देखन गए । टकटोरि कपि ज्यौ नारियरु सिर नाइ सब बैठत भए ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५३ । २. तलाश करना । ढूँढना । खोजना । उ०— मोहि न पस्याहु तौ टकटोरी देखो पन दै ।—स्वामी हरिदास (शब्द०) ।
⋙ टकटोलना
क्रि० स० [सं० त्वक् (= चमड़ा) + तोलना (= अंदाज करना)] हाथ से छूकर पता लगाना या जाँचना । टटोलना ।
⋙ टकटोहन
संज्ञा पुं० [हिं० टकटोना] टटोलकर देखने की क्रिया । स्पर्श । उ०—श्याम श्यामा मन रिझवत पीन कुचन टकटोहन ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ टकटोहना पु
क्रि० स० [हिं० टकटोना] दे० 'टकटोलना' । उ०— या बानक उपमा दीवे को सुकवि कहा टकटोहै । देखन अंग थके मन में शशि कोटि मदन छबि मोहै ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ टकतंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० हिं० टक + सं० तन्त्री] सितार के ढंग का एक प्राचीन बाजा ।
⋙ टकना (१) †
संज्ञा पुं० [सं० टङ्क (= टाँग)] घुटना ।
⋙ टकना (२) †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'टकना' ।
⋙ टकबीड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की भेंट जो किसानों की ओर से विवाहदि के अवसरों पर जमीदारों को दी जाती है । मधवच । शादिया ।
⋙ टकराना (१)
क्रि० अ० [हिं० टक्कर] १. एक वस्तु का दूसरी वस्तु से इस प्रकार वेग के साथ सहसा मिलना या छू जाना कि दोनों पर गहरा आघात पहुँचे । जोर से भिड़ना । धक्का या ठोकर लेना । जैसे,—(क) चट्टान से टकराकर नाव चूर चूर होना । (ख) अँधेरे में उसका सिर दीवार से टकरा गया । संयो० क्रि०—जाना । २. इधर से उधर मारा फिरना । डाँवाडोल घूमना । कार्य- सिद्धि की आशा से कई स्थानों पर कई बार आना जाना । घूमना । जैसे,—उसका घर मालूम नहीं मैं कहाँ टकराता फिरूँगा ? उ०—जँह तँह फिरत स्वान की नाई द्वार द्वार टकरात ।—सूर (शब्द०) । मुहा०—टकराते फिरना = मारे मारे फिरना । हैरान घूमना । ३. लड़ाई या झगड़ा होना ।
⋙ टकराना (२)
क्रि० स० १. एक वस्तु को दूसरी वस्तु पर जोर से मारना । जोर से भिड़ाना । पटकना । मुहा०—माथा टकराना = (१) दूसरे के पैर के पास सिर पटककर विनय करना । अत्यंत अनुनय विनय करना । (२) घोर प्रयत्न करना । सिर मारना । हैरान होना । २. किसी को किसी से लड़ा देना ।
⋙ टकराव
संज्ञा पुं० [हिं० टकर + आव (प्रत्य०)] टक्कर । टकराहट ।
⋙ टकराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० टकराना] १. टकराने का भाव या क्रिया । उ०—वह स्वर जिसकी तीखी सशक्त टकराहट से, नारी की आत्मा में भी कुछ जग जाता है ।—ठंडा०, पृ० ७१ । २. संघर्ष । लड़ाई ।
⋙ टकरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पेड़ का नाम ।
⋙ टकसरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो आसम, चटगाँव और बर्मा में होता है । इससे अनेक प्रकार के सजावट के समान बनते हैं ।
⋙ टकसार †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. दे० 'टकसाल' । उ०—पारस रूपी जीव है लोह रूप संसार । पारस से पारस भया, परख भया ठकसार ।—कबीर (शब्द०) । मुहा०—टकसार वाणी = प्रामाणिक बात । सच्ची वाणी । उ०—दूसरे कबीर साहब की जो टकसार वाणी है ।—कबीर मं०, पु० १८ । २. जँची या प्रामाणिक वस्तु । उ०—नष्टै का यह राज है न फरक बरतै द्वैक । सार शब्द टकसार है हिरदय मांहि विवेक ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ टकसारी पु
वि० [हिं० टकसार] दे० 'टकसाली' ।
⋙ टकसाल
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्कशाला] १. वह स्थान जहाँ सिक्के बनाए या डाले जाते हैं । रुपए पैसे आदि का कार्यालय । मुहा०—टकसाल का खोटा = नीच । दुष्ट । कमीना । कम असज अशिष्ट । टकसाल के चट्टे बट्टे = टकसाल में ढले हुए । विशिष्ट प्रकृति के । उ०—राज्य के अधिकारी तो वही पुरानी टकसाल के चट्टे बट्टे थे ।—किन्नर०, पृ० २५ । टकसाल चढ़ना = (१) टकसाल में परखा जाना । सिक्के या धातु- खंड की परीक्षा होना । (२) किसी विद्या या कला कौशल में दक्ष माना जाना । पारंगत माना जाना । (३) बुराई में अम्यस्त होना । कुकर्म या दुष्टता में परिपक्व, होना । बदमाशी में पक्का होना । निर्लज्ज होना । टकसाल बाहर = (१) (सिक्का) जो राज्य की टकसाल का न होने के कारण प्रामाणिक न माना जाय । जो प्रचार में न हो । (२) (वाक्य या शब्द) जो प्रामाणिक न माना जाय । जिसका प्रयोग शिष्ट न माना जाय । २. जँची या प्रामाणिक वस्तु । असल चीज । निर्दोष वस्तु ।
⋙ टकसाली (१)
वि० [हिं० टकसाल + ई (प्रत्य०)] १. टकसाल का । टकसाल संबंधी । २. जो टकसाल का बना हो । खरा । चोखा । जैसे, टकसाली रुपया । ३. सर्वसंमत । अधिकारियों या विज्ञों द्वारा अनुमोदित । माना हुआ । जैसे, टकसाली भाषा । ४. जँचा हुआ । पक्का । प्रामाणिक । परीक्षित । जैसे, टकसाली बात । मुहा०—टकसाली बात = पक्की बात । ठीक बात । ऐसी बात जो अन्यथा न हो । टकसाली बोली = सर्वसंमत भाषा । विर्ज्ञो द्वारा अनुमोदित भाषा । शिष्ट भाषा । ऐसी भाषा जिसमें ग्राम्य आदि दोष न हों ।
⋙ टकसाली (२)
संज्ञा पुं० टकसाल का अधिकारी । टकसाल का अध्यक्ष ।
⋙ टकहाई
वि० स्त्री० [हिं० टका] जो टके टके पर व्यभिचार करती हो । जो वेश्याओं में नीच हो । जैसे, टकहाई रंडी ।
⋙ टका
संज्ञा पुं० [सं० टक्क] १. चाँदी का एक पुराना सिक्का । रुपया । उ०—(क) रतन सेन हीरामन चीन्हा । लाख टका बाह्यन कँह दीन्हा ।—जायसी (शब्द०) (ख) लाख टका अरु झूमक सारी दे दाई को नेग ।—सूर (शब्द०) । २. ताँबे का एक सिक्का जो दो पैसों के बराबर होता हैं । अधन्ना । दो पैसे । जैसे—अँधेर नगरी चौपठ राजा । टके सेर भाजी टके सेर खाजा । मुहा०—टका पास न होना = निर्धन होना । दरिद्र होना । टका सा जवाब देना = (१) खट से जवाब देना । तुरंत अस्वीकार करना । किसी की प्रार्थना, याचना, अनुरोध या आज्ञा को तुरंत अस्वीकार करना । साफ इनकार करना । कोरा जवाब देना । जैसे,—मैंने दो दिन के लिये उनसे घोड़ा माँगा तो उन्होंने टका सा जबाव दे दिया । (२) साफ जवाब देना कि मैंने इसकाम को नहीं या मैं इस बात को नहीं जानता । साफ निकल जाना । कानों पर हाथ रखना । टका सा मुँह लेकर रह जाना = छोटा सा मुँह लेकर रह जाना । लज्जित हो जाना । खिसिया जाना । टका सी जान = अकेला दम । एका ही जीव । (स्त्री०) । टके ऐंठना = अनुचित रूप से या धूर्तता से रुपया प्राप्त करना । रुपया ऐंठना । उ०—क्यों टका सा जबाब उसको दें । जिस किसी से सदा टके ऐंठे ।—चोखे०, पृ० २७ । टके की औकात = (१) साधारण वित्त का आदमी । गरीब आदमी । (२) अस्तित्वहीनता । उ०—हम गरीब आदमी हैं, टके की हमारी औकात ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० ८७ । टके को न पूछना = लेशमात्र महत्व न देना । महत्वहीन समझना । उ०—भूखों मरते हैं कोई टके को भी नहीं पूछता । फिसान०, भा० ३, पृ० ३६७ । टके कोस का दौड़नेवाला = थोड़ी मजूरी पर अधिक परिश्रम करनेवाला । गरीब नौकर । उ०—टके कोस के दौड़नेवाले, हमको दौड़ने धूपने से काम है ।—सैर कु०, भा० १, पृ० ३१ । टके गज की चाल = मोटी चाल । किफा- यत से निर्वाह । †टके गिनना = हुक्के का गुड़ गुड़ बोलना । ३. धन । द्रव्य । रुपया पैसा । जैसे,—जब टका पास में रहेगा, अतब सब सूनेंगे । ४. तीन तोले की तौल । दो बालशाही पैसे भर की तौल । आधी छँटाक का मान । (वैद्यक) । मुहा०—टका भर = (१) तीन तोले का परिमाण । (२) थोड़ा सा । जरा सा । ५. गढ़वाल की एक तौल जो सवा सेर के बराबर होती है ।
⋙ टकाई (१)
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'टकाही', 'टकहाई' ।
⋙ टकाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टकासी' ।
⋙ टकाउल पु
वि० [हिं० टका (= सिक्का) उल (= वाला) (प्रत्य०)] टकावाला । टके का । उ०—आँणिसुं कोड़ि टकाउल हार ।—बी० रासो, पृ० ३९ ।
⋙ टकाटकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टकटकी' ।
⋙ टकातोप
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की तोप जो जहाजों पर रहती हैं ।—(लश०) ।
⋙ टकाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'टँकाना' ।
⋙ टकानी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टँकना] बैलगाड़ी का जूआ ।
⋙ टकासी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टका] १. टके रुपए का ब्याज । दो पैसे रुपए का सुद । २. वह कर या चंदा जो प्रति मनुष्य से एक एक टके के हिसाब से लिया जाय ।
⋙ टकाही (१)
वि० [हिं० टका + हीं० (प्रत्य०)] दे० 'टकहाई' ।
⋙ टकाही (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'टकासी' ।
⋙ टकी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टक] दे० 'टकटकी' ।
⋙ टकी (२)
वि० [हिं० टकना] टँकी हुई ।
⋙ टकुआ
संज्ञा पुं० [सं० तर्कुक, प्रा० तक्कुअ] १. एक प्रकार का सूआ जो चरखे में लगा रहता है । तकला । २. बिनौला निकालने की चरखी में लगा हुआ लोहे का एक पुरजा । ३. छोटे तराजू या काँटे के पलड़ों में बँधा हुआ तागा ।
⋙ टकुली (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] हिमालय की तराई में होनेवाला एक ऐसा पेड़ जिसकी पत्तियाँ झर जाया करती हैं । चपोट सिरीस ।
⋙ टकुली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्क] १. पत्थर काटने का औजार । २. पेचकस की तरह लोहे का एक औजार जो नक्काशी बनाने के काम में आता है ।
⋙ टकुवा पु
संज्ञा पुं० [सं० तर्कुक, प्रा० तक्कुअ] दे० 'टकुआ' । उ०— टिकुली सेंदुर टकुवा चरखा दासी ने फरमाया ।—कबीर०, श०, भा० ४, पृ० २५ ।
⋙ टकूचना
क्रि० स० [हिं० टाँकना] खाना । —(दलाल) ।
⋙ टकैट (१)
वि० [हिं०] दे० 'टकैत' ।
⋙ टकैत (२)
वि० [हिं० टका + ऐत (प्रत्य०)] १. टकेवाला । रुपए पैसेवाला । धनी । २. कम हैसियत या थोड़ी पूँजीवाला ।
⋙ टकैया
वि० [हिं० टका + इया (प्रत्य०)] १. टके का । टकेवाला । २. तुच्छ । साधारण ।
⋙ टकोर
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्कार] १. हलकी चोट । प्रहार । आधात । ठेस । थपेड़ । क्रि० प्र०—देना । २. डंके की चोट । नगाड़े पर का आघात । ३. डंके का शब्द । नगाड़े की आवाज । ४. धनुष की डोरी खींचने का शब्द । टंकार । ५. दवा भरी हुई गरम पोटली को किसी अंग पर रखकर छुलाने की क्रिया । सेंक । ६. दाँतों की वह टीस जो किसी वस्तु के खाने से होती है । दाँतों के गुठले होने का भाव । चमक । क्रि० प्र०—लगना । ७. झाल । परपराहट । उ०—कबहूँ कौर खात मिरचन की लगी दसन टंकोर ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—लगना ।
⋙ टकोरना
क्रि० स० [हिं० टकोर से नामिक धातु] १. ठोकर लगाना । हलका आघात पहुँचाना । ठेस या थपड़ मारना । २. डंके आदि पर चोटे लगाना । बजाना । ३. दवा भरी हुई किसी गरम पोटली को किसी अंग पर रह रहकर छुलाना । सेंकना । सेंक करना ।
⋙ टकोरा
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कार] डंके की चोट । नौजत की आवाज ।
⋙ टकौना †
संज्ञा पुं० [हिं० टका + औना (प्रत्य०)] दे० 'टका' ।
⋙ टकौरी
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्क] १. सोना आदि तौलने का छोटा तराजू । छोटा काँटा । २. दे० 'टकासी' ।
⋙ टक्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंजूस व्यक्ति । कृपण । २. वाहीक जातीय व्यक्ति [को०] ।
⋙ टक्कदेश
संज्ञा पुं० [सं०] चुनाव और ब्यास के बीच के प्रदेश का प्राचीन नाम । विशेष—राजरंतगिणी में टक्क देश को गुर्जर (गुजरात) राज्य के अंतर्गत लिखा है । टक्क जाति किसी समय में अत्यंत प्रताप— शालिनी थी और सारे पंजाब में राज्य करती थी । चीनीयात्री हुएनसाँग ने टक्क राज्य तथा उसके अधिपति मिहिरकुल का उल्लेख किया है । मिहिरकुल का हूण होना इतिहासों में प्रसिद्ध है । ये हूण पंजाब और राजपूताने में बस गए थे । यशोधर्मन् द्वारा मिहिरकुल के पराजित होने (५२८ ईसवी) के ७८ वर्ष पीछे हर्षवर्धन राजसिंहासन पर बैठे थे जिनके राजत्वकाल में हुएनसाँग आया था । टक्क शायद हूण जाति की ही कोई शाखा रही हो ।
⋙ टक्कदेशीय (१)
वि० [सं०] टक्कदेश का । टक्क देश में उत्पन्न ।
⋙ टक्कदेशीय (२)
संज्ञा पुं० बथुआ नाम का साग ।
⋙ टक्कबाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टकं + बाई] एक प्रकार का बात- रोग जिसमें रोगी का शरीर सुन्न हो जाता है और वह टक बाँधकर ताकता रहता है ।
⋙ टक्कर (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु० ठक] १. वह आघात जो दो वस्तुओं के वेग के साथ मिलने या छू जाने से लगता हैं । दो वस्तुओं के भिड़ने का धक्का । ठोकर । क्रि० प्र०—लगना । मुहा०—टक्कर खाना = (१) किसी कड़ी वस्तु के साथ इतने वेग से भिड़ना या छू जाना कि गहरा आघात पहुँचे । जैसे,—चट्टान से टक्कर खाकर नाव चूर चूर हो गई । २. मारा मारा फिरना । जैसे,—नौकरी छूट जाने से वह इधर उधर टक्करे खाता फिरता है । २. मुकाबिला । मुठभेड़ । भिड़ंत । लड़ाई । जैसे,—दिन भर में दोनों की एक टक्कर हो जाती है । मुहा०—टक्कर का = जोड़ का । मुकाबिले का । बराबरी का । समान । तुल्य । जैसे,—उनकी टक्कर का विद्वान् यहाँ कोई नहीं है । टक्कर खाना = (१) मुकाबिला करना । संमुख होना । लड़ना । भिड़ना । (२) मुकाबिले का होना । समान होना । तुल्य होना । उ०—इस टोपी का काम सच्चे काम से टक्कर खाता है । टक्कर लड़ना = बराबरी होना । समानता होना । उ०—इस ठास से रहती है कि अच्छी अच्छी रईस जातियों से टक्कर लड़े ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १ । टक्कर लेना = वार सहना । चोट सहारना । मुकाबिला करना । लड़ना । भिड़ना । पहाड़ से टक्कर लेना = बड़े भारी शत्रु से भिड़ना । अपने से अधिक सामर्थ्यवाले शत्रु से लड़ना । ३. जोर से सिर मारने का धक्का । किसी कड़ी वस्तु पर माथा मारने या पटकने का आघात । क्रि० प्र०—लगाना । मुहा०—टक्कर मारना = (१) आघात पहुँचाने के लिये जोर से सिर मारना या पटकना । सिर से धक्का लगाना । (२) माथा मारना । हैरान होना । घोर परिश्रम और उद्दोग करना । ऐसा प्रयत्न करना जिसका फल शीघ्र न दिखाई दे । जैसे,—लाख टक्कर मारो अब वह तुम्हारे हाथ नहीं आता । टक्कर लड़ना = दूसरे के सिर पर सिर मारकर लड़ना । माथे से माथा भिड़ाना । जैसे,—दोनों मेंढ़े खूब टक्कर लड़ रहे हैं । टक्कर लड़ाना = सिर से धक्का मारना । ४. घाटा । हानि । नुकसान । धक्का । जैसे,—(१०) की टक्कर बैठे बैठाए लग गई । क्रि० प्र०—लगना । मुहा०—टक्कर झेलना = (१) हानि उठाना । नुकसान सहना । (२) संकट या आपत्ति सहना ।
⋙ टक्कर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।
⋙ टखना
संज्ञा पुं० [सं० टङ्क (= टाँग)] एड़ी के ऊपर निकली हुई हड्डी की गाँठ । पैर का गट्टा । गुल्फ । पादग्रंथि ।
⋙ टग पु
संज्ञा स्त्री० [?] 'टकटकी' । उ०—दिषि चालुक भ्रत तेह टग कुलह बाजि जनु डारि ।—पृ० रा०, ५ ।५५ ।
⋙ टगटग पु
क्रि० वि० [हिं० टकटकाना] टकटकी लगाकर । एकटक । उ०—कबीर टग टग चोघताँ पल पल गई बिहाइ ।—कबीर ग्रं०, पृ० ७२ ।
⋙ टगटगाना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'टकटकाना' ।
⋙ टगटगी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टकटकी' । उ०—पलु एक कबहुँ न होइ अंतर टगटगी लागी रहै ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २८ ।
⋙ टगट्टग पु
क्रि० वि० [हिं० टगटगी] स्थिर दृष्टि से । टकटक । उ०—टट्टग चाहि रहे सब लोई । विष्यो वर तेज अदभ्भुत सोई ।—पु० रा०, १२ । १३६ ।
⋙ टगण
संज्ञा पुं० [सं०] मात्रिक गर्णो में से एक । यह छह मात्राओं का होता है और इसके १३ उपभेद हैं । जैसे,—/?/इत्यादि ।
⋙ टगमग पु
क्रि० वि० [हिं० टकटकी] एकटक । स्थिर । उ०— टगमग नयन सु मग्ग मग विमग सु भुल्लिय भंग ।—पु० रा०, २ । ४५७ ।
⋙ टगना पु
क्रि० अ० [?] टलना । डिगना । उ०—टगै न टेक टूटि नहि जाई । टलै काल औरहि कौ पाई ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २२२ ।
⋙ टगर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. टंकण । सोहागा । २. विलास । क्रीड़ा । ३. तगर का पेड़ । ४. मेड़ (को०) । ५. टीला (को०) ।
⋙ टगर (२)
वि० तिरछी निगाह से देखनेवाला । ऐंचाताना [को०] । क्रि० प्र०—देखना ।
⋙ टगरगोड़ा
संज्ञा पुं० [?] लड़को का एक खेल जिसमें कुछ कौड़ियाँ चिल करके जमा कर देते हैं और फिर एक कौड़ी से उन्हें मारते हैं ।
⋙ टगर टगर पु
क्रि० वि० [हिं०] आँखें खोले हुए । ध्यान लगाकर । टकटकी बाँधकर । उ०—सोभासदन वदन मोहन को देखि जी जियै टगर टगर ।—घनानंद, पृ० ४८९ ।
⋙ टगरा †
वि० [सं० टेरक] ऐंचाताना । भेंगा ।
⋙ टगाटगी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टकटकी] समाधि की अवस्था । उ०—टगाटगी जीवन मरण,ब्रह्म बराबरि हौइ ।—दादू०, पृ० १४४ ।
⋙ टघरना †
क्रि० अ० [सं० तप (= गरम करना) + गरण(= पिघलना)] १. घी, चरबी, मोम आदि का आँच खाकर द्रव होना । पिघलना । संयो० क्रि०—जाना । २. ह्रदय का द्रवीभूत होना । चित में दया आदि उत्पन्न होना । हृदय पर किसी की प्रार्थना या कष्ट आदि का प्रभाव पड़ना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ टघराना
क्रि० स० [हिं० टघरना] घी, मोम, चरबी आदि को आँच पर रखकर द्रव करना । पिघलाना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना ।—लेना ।
⋙ टचटच पु
क्रि० वि० [हिं० टचना (= जलना)] धाँय धाँय । धक धक (आग की लपट का शब्द) । उ०—टच टच तुम बिनु आगि मोहिं लागी । पाँचों दाध विरह मोहिं जागी ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ टचना
क्रि० अ० [हिं० टचटच] आग का जलना ।
⋙ टचनी
संज्ञा स्त्री० [सं० टंङ्क] लोहे का एक औजार जिससे कसेरे बरतनों पर नक्काशी करते हैं ।
⋙ टट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तट' । उ०—भाएउ भागि समुँद टट तबहुँ न छाँडै़ पास ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३७० ।
⋙ टटका †
वि० [सं० तत्काल] [वि० स्त्री० टटकी] १. तत्काल का । तुरंत का प्रस्तुत या उपस्थित । जिसकी वर्तमान रूप से आए हुए बहुत देर न हुई हो । हाल का । ताजा । उ०—(क) मेटे क्यों हूं मिटति छाप परी टटकौ ।—सूर (शब्द०) । (ख) मनिहार गरे सुकुमार घरै नट भेस अरे पिय को टटको ।— रसखान (शब्द०) । २. नया । कोरा ।
⋙ टटड़ा †
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० टटड़ो] टट्टो । टटिया । टाटी ।
⋙ टटड़ी †
संज्ञा स्त्री० [पंजाबी] १. खोपड़ी । २. दे० 'ठठरी' । ३. दे० 'टट्टी' ।
⋙ टटपूँज्यौ पु
वि० [हिं०] दे० 'टुटपुँजिया' । उ—कौड़ी फिरै उछालतौ जो टटपूँज्यौ होइ ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७९७ ।
⋙ टटरा †
संज्ञा पुं० [हिं० टटड़ा] [स्त्री० टटरी] बड़ी टटिया या टाटी ।
⋙ टटरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टट्टी' ।
⋙ टटलबटल †
वि० [अनु०] अटसट । अंड बंड । उटपटाँग । उ०— टटलबटल बोल पाटल कपोल देव दीपति पटल मैं अटल ह्वै कै अटकी ।—देव (शब्द०) ।
⋙ टटाना †
क्रि० अ० [ठाँठ] सूख जाना ।
⋙ टटांबरी पु
वि० [हिं० टाट + अंबर] टाट पहननेवाला । जिसका वस्त्र टाट हो । उ०—सुंदर गए टटांवरी बहुरि दिगंबर होइ ।—सुंदर० ग्रं०, या० २, पृ० ३५ ।
⋙ टटाबक पु
संज्ञा पुं० [!] टाबक । टामक । टामन । टोटका । टोना । उ०—नंददास सखि मेरी कहा बच काम के आए टटाबक टोने ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४३ ।
⋙ टटाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'टल' [को०] ।
⋙ टटावली
संज्ञा स्त्री० [सं० टिट्टभावली] टिटिहरी नाम की चिड़िया । कुररी ।
⋙ टटिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टट्टी' । उ०—देखत कछु कौतिगु इतै देखौ नैक निहारि । कब की इकटक डटि रही टठिया अँगुरिनु फारि ।—बिहारी र०, दो० ९३४ ।
⋙ टटियाना †
क्रि० अ० [हिं० ठाँठ] सूख जाना । सूखकर अकड़ जाना ।
⋙ टटीबा
संज्ञा पुं० [अनु०] घिरनी । चक्कर । उ०—खैंचूँ तो आवै नहीं जो छोड़ँ तो जाय । कबीर मन पूछ रे प्रान टटीबा खाय ।—कबीर (शब्द०) । क्रि० प्र०—खाना ।
⋙ टटीरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टिटिहरी' । उ०—चीरती, ज्यों वेदना का तीर, लंबी टटीरी की आह ।—इत्यलम पृ० २१९ ।
⋙ टटुआ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टट्टू' । उ०—ताके आगै आइके टटुआ फेरै बाल ।—सुदंर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७३७ ।
⋙ टटुई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टट्टू] मादा टट्टू ।
⋙ टटुवा पु
संज्ञा पुं० [हिं० टट्टू] दे० 'टट्टू' । उ०—काहै का टटुवा काहे का पाखर काहे का भरी गौनियाँ ।—कबीर श०, भा० १, पृ० २२ ।
⋙ टटोना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'टटोलना' ।
⋙ टटोरना †
क्रि० स० [हिं० टटोलना] दे० 'टटोलना' । उ०— कबहूँ कमला सपला पाइ के टेढ़े टेढ़े जात । कबहुँक मग पग धूरि टटोरत भोजन को बिलखात ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ टटोल
संज्ञा स्त्री० [हिं० टटोलना] टटोलने का भाव । उँगलियों से छू या दबाकर मालूम करने का भाव या क्रिया । गूढ़ स्पर्श ।
⋙ टटोलना
क्रि० स० [सं० त्वक् + तोलन(= अंदाज करना)] १. मालूम करने के लिये उँगलियों से छूना या दबाना । किसी वस्तु के तल की अवस्था अथवा उसकी कड़ाई आदि जानने के लिये उसपर उँगलियाँ फेरना या गड़ाना । गूढ़ संस्पर्श करना । जैसे,—ये आम पके हैं, टटोलकर देख लो । संयो० क्रि०—लेना ।—डालना । २. किसी वस्तु को पाने के लिये इधर उधर हाथ फेरना । ढुँढने या पता लगाने के लिये इधर उधर हाथ रखना । जैसे,— (क) अँधेरे में क्या टटोलते हो । रुपया गिरा होगा तो सबेरे मिल जायगा । (ख) वह अंधा टटोलता हुआ अपने घर तक पहुँच जायगा । (ग) घर के कोने टटोल डाले कहीं पुस्तक का पता न लगा । संयो० क्रि०—डालना । ३. किसी से कुछ बातचीत करके उसके विचार या आशय का इस प्रकार पता लगाना कि उसे मालूम न हो । बातों में किसी के हृदय के भाव का अंदाज लेना । थाह लेना । थहाना । जैसे,— तुम भी उसे टटोलो कि वह कहाँ तक देने के लिये तैयार है । मुहा०—मन टटोलना = हृदय के भाव का पता लगाना ।४. जाँच या परीक्षा करना । परखना । आजमाना । जैसे,— (क) हम उसे खूब टटोल चुके हैं, उसमें कुछ विशेष विद्या गहीं है । (ख) मैंने तो सिर्फ तुम्हें टटोलने के लिये रुपए माँगे थे, रुपए मेरे पास हैं ।
⋙ टटोहना पु †
क्रि० स० [हिं० टोहना] दे० 'टटोलना' ।
⋙ टट्टड़ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टट्टर' ।
⋙ टट्टनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिपकली ।
⋙ टट्टर
संज्ञा पुं० [सं० तट (= ऊँचा किनारा) या सं० स्थान (=जो खड़ा हो)] बाँस की फट्टियों, सरकंड़ों आदि को परस्पर जोड़कर बनाया हुआ ढाँचा । जैसे,—(क) कुत्ता ट्टर खोलकर झोपड़े में घुस गया । (ख) टट्टर खोलो निखट्टू आए । (कहावत) । मुहा०—टट्टर देना या लगाना = टट्टर बंद करना ।
⋙ टट्टरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ढोल का शब्द । नगाड़े आदि का शब्द । २. लंबी चौड़ी बात । ३. चुहलबाजी । ठठ्ठा । ४. झूठ (को०) ।
⋙ टट्टा
संज्ञा पुं० [सं० तट (= ऊँचा किनारा) या सं० स्थाता (= जो खड़ा हो)] [स्त्री० टट्टी] १. बाँस की फट्टियों का परदा या पल्ला । टट्टर । बड़ा टट्टी । २. लकड़ी का पल्ला । बिना पुश्तवान का तख्ता । ३. अंडकोश ।—(पंजाबी) ।
⋙ टट्टी
संज्ञा स्त्री० [सं० तटी(= ऊँचा किनारा) या सं० स्थात्री (= जो खड़ी हो)] १. बाँस की फट्टियों, सरकंडों आदि को परस्पर जोड़कर बनाया हुआ ढाँचा जो आड़, रोक या रक्षा के लिये दरवाजे, बरामदे अथवा और किसी खुले स्थान में लगाया जाता है । बाँस की फट्टियों आदि का बना पल्ला जो परदे, किवाड़ या छाजन आदि का काम दे । जैसे, खस की टट्ठी । क्रि० प्र०—लगाना । मुहा०—टट्टी की आड़ (या ओट) से शिकार खोलना = (१) किसी के विरुद्ध छिपकर कोई चाल चलना । किसी के विरुद्ध गुप्त रूप से कोई कारवाई करना । (२) छिपाकर बुरा काम करना । लोगों की द्दष्टि बनाकर कोई अनुचित कार्य करना । टट्टी का शीशा = पतले दल का शीशा । टट्टी में छेद करना = किसी की बुराई करने में किसी प्रकार का परदा न रखना । प्रकट रूप से कुकर्म करना । खुल खेलना । निर्लज्ज हो जाना । लोकलज्जा छोड़ देना । टट्टी लगाना = (१) आड़ करना । परदा खडा करना । (२) किसी के सामने भीड़ लगाना । किसी के आगे इस प्रकार पंक्ति में खड़ा होना कि उसका सामना रुक जाय । जैसे,—यहाँ क्यै टट्टी लगा रखी है, क्या कोई तमाशा हो रहा है । धोखे की टट्टी = (१) वह टट्टी जिसकी आड़ में शिकारी शिकार पर वार करते हैं । (२) ऐसी वस्तु जिसे ऊपर से देखने से उससे होनेवाली बुराई का पता न चले । ऐसी वस्तु या बात जिसके कारण लोग धोखा खाकर हानि उठावें । जैसे,—उसकी दूकान वगैरह सब धोखे की टट्टी है; उले भूलकर भी रुपया न देना । (३) ऐसी वस्तु जो ऊपर से देखने में सुंदर जान पड़े, पर काम देनेवाली न हो । चटपट टूट या बिगड़ जानेवाली वस्तु । काजू भोजू चीज । २. चिक । चिलमन । ३. पतली दीवार जो परदे के लिये खड़ी की जाती है । ४. पाखाना । क्रि० प्र०—जाना । ५. पुलवारी का तखता जो बरातों में निकलता है । ६. बाँस की फट्टियों आदि की बनी हुई वह दीवार और छाजन जिसपर अंगूर आदि की बेलें चढ़ाई जाती हैं ।
⋙ टट्टी संप्रदाय
संज्ञा पुं० [हिं० टट्टी + संप्रदाय] एक धार्मिक वैष्णव संप्रदाय जिसके संस्थापक स्वामी हरिदास जी हैं ।
⋙ टट्टुर
संज्ञा पुं० [सं०] भेरी का शब्द ।
⋙ टट्टु
संज्ञा पुं० [अनु०] [वि० ट्टुआनी, टटुई] १. छोटे कद का घोड़ा । टाँगन । मुहा०—टटू पार होना = बेड़ा पार होना । काम निकल जाना । प्रयोजन सिद्ध हो जाना । भाड़े का टट्टू = रुपया लेकर दूसरे की ओर से कोई काम करनेवाला । २. लिंगेद्रिय ।—(बाजारू) । मुहा०—टट्टू भड़कना = कामोद्दीपन होना ।
⋙ टठिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टाठी' ।
⋙ टठिया (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की भाँग ।
⋙ टड़िया
संज्ञा स्त्री० [सं० ताड] बाँह में पहनने का एक गहना जो अनंत के आकार का पर उससे मोटा और बिना घुंडी का होता है । टाँड़ ।
⋙ टण
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टना' ।
⋙ टन (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] घंटा बजनै का शब्द । किसी घातु खंड पर आघात पड़ने से उत्पन्न ध्वनि । टनकार । झनकार । जैसे,—टन से घंटा बोला । विशेष—'खटपट' आदि शब्दों के समान इस शब्द का प्रयोग भी अधिकतर 'से' बिभक्ति के साथ क्रि० वि० वत् ही होता है । अतःइसका लिंग उतवा निशिचत नहीं हैं । मुहा०—टन हो जाना = चटपट मर जाना ।
⋙ टन (२)
संज्ञा पुं० [अं०] एक अंग्रेजी तौल जो अट्ठाईस मन के लगभग होती है ।
⋙ टनकना
क्रि० अ० [अनु० टन] १. टनटन बजना । २. धूप या गरमी लगने के कारण सिर में दर्द होना । रह रहकर आघात पड़ने की सी पीड़ा देना । जैसे, माथा टनकना ।
⋙ टनकार पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टन] दे० 'टंकार' । उ०—कड़ी कमान जब ऐठि के खैँचिया, तीन बेर टनकार सहज टंका ।— कबीर श०, भा० ४, पृ० १३ ।
⋙ टनटन
संज्ञा स्त्री० [अनु० टन] घंटा बजने का शब्द । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ टनटनाना (१)
क्रि० स० [हिं० टनटन से नामिक धातु] घंटा बजाना । किसी धातु खंड पर आघात करके उसमें से 'टनटन' शब्द निकालना ।
⋙ टनटनाना (२)
क्रि० अ० टनटन बजना ।
⋙ टनमन (१)
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्र मन्त्र] तंत्र मंत्र । टोना । जादू ।
⋙ टनमन (२)
वि० [हिं० टनमना] दे० 'टनमना' ।
⋙ टनमना
वि० [सं० तन्मनस्] जो सुस्त न हो । जिसकी चेष्टा मंद न हो । जिसकी तबीयत हरी हो । जो शिथिल न हो । स्वस्थ । चंगा । 'अनमना' का उलटा ।
⋙ टनमनाना
क्रि० अ० [हिं० टनमना + ना (प्रत्य०)] १. तबीयत हरी होना । स्वस्थ होना । २. कुलबुलाना । टलमनाना ।
⋙ टना
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड] [स्त्री० अल्पा० टनी] १. स्त्रियों की योनि में निकला हुआ वह मांस का टुकड़ा जो दोनों किनारों के बीच में होता है । २. योनि । भग ।
⋙ टनाका (१) †
संज्ञा पुं० [अनु० टन] घंटा बजने का शब्द ।
⋙ टनाका (२)
वि० बहुत कड़ी (धूप) । माथा टनकानेवाली (धूप) ।
⋙ टनाटन (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] लगातार घंटा बजने का शब्द ।
⋙ टनाटन (२)
क्रि० वि० १. भला । चंगा । २. अच्छी हालत में । बढ़िया । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ टनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टना' ।
⋙ टनेल
संज्ञा पुं० [अं०] सुरंग खोदकर बनाया हुआ मार्ग । ऐसा रास्ता जो जमीन या किसी पहाड़ आदि के नीचे होकर गया हो ।
⋙ टन्नाका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० टनाका] दे० 'टनाका' ।
⋙ टन्नाका (२)
वि० दे० 'टनाका' ।
⋙ टन्नाना (१)
क्रि० अ० [हिं० टनटन] टनटन की आवाज करना । टनटन की ध्वनि उत्पन्न होना ।
⋙ टन्नाना (२)
क्रि० अ० [हिं०] बिगड़ना । नाराज होना । बझझक करना ।
⋙ टप (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोप, तोप (= आच्छादन, जैसे, घटाटोप)] १. जोड़ी, फिटन, टमटम या इसी प्रकार की और खुली गाड़ियों का ओहार या सायबान जो इच्छानुसार चढ़ाया था गिराया जा सकता है । कलंदरा । २. लटकानेवाले लंप के ऊपर की छतरी ।
⋙ टप (२)
संज्ञा पुं० [अं० टब] नाँद के आकार का पानी रखने का खुला बरतन । टाँका ।
⋙ टप (३)
संज्ञा पुं० [अं० ट्यूब] जहाजों की गति का पता लगाने का एक औजार ।—(लश०) ।
⋙ टप (४)
संज्ञा पुं० [हिं० ठप्पा] एक औजार जिससे डिबरी का पेच घुमावदार बनाया जाता है ।
⋙ टप (५)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. बूँद बूँद टपकने का शब्द । उ०— (क) परत श्रम बूँद टप टपकि आनन बाल भई बेहाल रति मोह मारी ।—सूर (शब्द०) । (ख) प्यारी विनु कठत न कारौ रैन । टप टप टपकत दुख भरे नैन ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । यौ०—टप टप । २. किसी वस्तु के एकबारगी ऊपर से गिर पड़ने का शब्द । जैसे—आम टप से टपक पड़ा । यौ०—टप टप ।
⋙ टप (६)
संज्ञा पुं० [अं० टौप] कानो में पहनने का स्त्रियों का एक आभूषण ।
⋙ टप (७)
क्रि० वि० [अनु०] शीघ्र । तुरत । उ०— कैसें कहै कछु भोई सवाव मिलै बड़ी बैर सों पाहि मिल्यी टप ।—घनानंद, पृ० १५१ । मुहा०— टप सै= चट से । झट से बड़ी जल्दी । जैसे,—(क) बिल्ली ने टप से चूहे को पकड़ लिया । (ख) टप से आओ । विशेष—खट, पट आदि और अनुकरण शब्दों के समान इसका प्रयोग भी आधिकतर 'से' विभक्ति के साथ क्रि० वि० वत् ही होता है । अतः इसका लिंग उतना निश्चित नहीं है ।
⋙ टपकं
संज्ञा स्त्री० [हिं० टपकना] १. टपकने का भाव । २. बूँद बूँद गिरने का शब्द । ३. रुक रुककर होनेवाला दर्द । ठहर ठहरकर होनेवाली पीड़ा । जैसे, फोड़े की टपक ।
⋙ टपकन
संज्ञा स्त्री० [हिं० टपकना] १. टपकने की क्रिया या भाव । २. लगातार बूँद बूँद गिरने की स्थिति । ३. रुक रुककर पीड़ा होना । टीसना । टकसना ।
⋙ टपकना
क्रि० अ० [अनु० टपटप] १. बूँद बूँद गिरना । किसी द्रव पदार्थ का बिंदु के रूप में ऊपर से थोड़ा थोड़ा पड़ना । चूना । रसना । जैसे, घड़े से पानी टपकना, छत टपकना । उ०—टप टप टपकत दुख भरे नैन ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । विशेष—इस क्रिया का प्रयोग जो वस्तु गिरती है तथा जिस वस्तु में से कोई वस्तु गिरती है. दोनों के लिये होता है । संयो० क्रि०—जाना ।—पड़ना । २. फल का पककर आपसे आप पेड़ से गिरना ।जैसे, आम टपकना । महुआ टपकना । संयो० क्रि०—पड़ना । ३. किसी वस्तु का ऊपर से एकबारगी सीध में गिरना । ऊपर से सहसा पतित होना । टूट पड़ना । संयो० क्रि०— पड़ना । मुहा०—टपक पड़ना = एकबारगी आ पहुँचना । अकस्मात् आकर उपस्थित होना । जैसे,—हैं ! तुम बीच में कहाँ से टपक पड़े । आ टपकना= दे० 'टपक पड़ना' । ४. किसी बात का बहुत अधिक आभास पाया जाना । अधिकता से कोई भाव प्रगट होना । लक्षण, शब्द, चेष्टा या रूप रंग से कोई भाव ध्यंजित होना । जाहिर होना । झलकना । जैसे,—(क) उसके चेहरे से उदासी टपक रही थी । (ख) मुहल्ले में चारों ओर उदासी टपकती है । (ग) उसकी बातों से बदमाशी टपकती है । संयो० क्रि०—पड़ना । जैसे,—उसके अंग अंग से यौवन टपका पड़ता था । ५. (चित्त का) तुरंत प्रवुत्त होना । (हृदय का) झट अकर्षित होना । ढल पड़ना । फिसलना । लुभा जाना । मोहित हो जाना । संयो० क्रि०—पड़ना ।६. स्त्री का संभोग की ओर प्रवृत्त होना । ढल पड़ना ।— (बाजारू) । संयो० क्रि०—पड़ना । ७. घाव, फोड़े आदि का मवाद आने के कारण रह रहकर दर्द करना । धिलकना । टीस मारना । टीसना । ८. फोड़े का पककर बहना । संयो० क्रि०— पड़ना । ९. लड़ाई में घायल होकर गिरना । संयो० क्रि०—पड़ना ।
⋙ टपकवाना
क्रि० स० [हिं० टपकाना] किसी को टपकाने के कार्य में प्रवृत्त करना । टपकाने के लिये प्रेरित करना ।
⋙ टपका
संज्ञा पुं० [हिं० ठपकना] १. बूँद बूँद गिरने का भाव । यौ०— टपका टपकी । २. वह जो बूँद बूँद करके गिरा हो । टपकी हुई वस्तु । रसाव । ३. पककर आपसे आप गिरा हुआ फल । ४. रह रहकर उठनेवाला दर्द । टीस । ५. चौपायों के खुर का एक रोग । खुरपका । †६. डाल में पका हुआ आम ।
⋙ टपका टपकी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टपकाना] १. बूँदाबूँदी । (मेह की) हलकी झड़ी । फुहार । फुही । २. फलों का लगातार एक एक करके गिरना । ३. किसी वस्तु को लेने के लिये आदमियों का एक पर एक टूटना । ४. एक के पीछे दूसरे आदमी की मृत्यु । एक एक करके बहुत से आदमियों की मृत्यु (जैसे हैजे आदि में होती है) । क्रि० प्र०—लगना ।
⋙ टपका टपकी (२)
वि० इक्का दुक्की । भूला भटका । एक आध । बहुत कम । कोई कोई ।
⋙ टपकाना
क्रि० स० [हिं० टपकाना] १. बूँद बूँद गिराना । चुआना । २. अरक उतारना । भबके कसे अरक खींचना । चुआना । जैसे, शराब टपकाना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना ।
⋙ टपकाव
संज्ञा पुं० [हिं० टपकना] टपकाने का भाव ।
⋙ टपना (१)
क्रि० अ० [हिं० तपना] १. बिना कुछ खाए पीए पड़ा रहना । बिना दाना पानी के समय काटना । जैसे,—सबेरे से पड़े टप रहे हैं; कोई पानी पीने को भी नहीं पूछता ।२. बिना किसी कार्यसिद्धि के बैठा रहना । व्यर्थ आसरे में बैठा रहना । —(दलाल) । विशेष—दे० 'टापना' ।
⋙ टपना † (२)
क्रि० अ० [हिं० टापना] १. कूदना । उछलना । उचकना । फाँदना । २. जोड़ा खाना । प्रसंग करना ।
⋙ टपना (२)
क्रि० अ० [हिं० तोपना] ढाँकना । आच्छादित करना ।
⋙ टपनामा
संज्ञा पुं० [ हिं० टिप्पन] जहाज पर का वह रजिस्टर जिसमें समुद्रयात्रा के समय तूफान, गर्मी आदि का लेखा रहता है ।—(लश०) ।
⋙ टपमाल
संज्ञा पुं० [अं० टपमाल] एक बड़ा भारी लोहे का घन जो जहाजों पर काम आता है ।
⋙ टपरा (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० तोपना] [स्त्री० टपरी, टपरिया] १. छप्पर । छाजन । २. झोपड़ा ।
⋙ टपरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० टप्पा] छोटे छोटे खेतों का विभाग ।
⋙ टपरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टपरा] झोपड़ी । मड़ैया । घास— फूस का मकान ।
⋙ टपाक पु †
वि० [हिं० टप] टप से । शीघ्र । उ०—ऐसे तोहि काल आइ लेइगौ टपाकि दै ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४१२ ।
⋙ टपाटप
क्रि० वि० [अनु० टपटप] १. लगातार टपटप शब्द के साथ (गिरना) । बराबर बूँद बूँद करके (गिरना) । जैसे,—छाते पर से टपाटप पानी गिर रहा । २. झट पट । जल्दी जल्दी । एक एक करके शीघ्रता से । जैसे,—बिल्ली चूहों को टपाटप ले रही है ।
⋙ टपाना (१)
क्रि० स० [हिं० तपाना] १. बिना दाना पानी के रखना । बिना खिलाए पिलाए पड़ा रहने देना । २. व्यर्थ आसरे में रखना । निष्प्रयोजन बैठाए रखना । व्यर्थ हैरान करना ।
⋙ टपाना (२)
क्रि० स० [हिं० टाप] कुदाना । फँदाना ।
⋙ टप्पर †
संज्ञा पुं० [हिं० तोपना] १. छप्पर । छाजन । मुहा०—टप्पर उलटना = दे० 'टाट उलटना' । २. दे० 'टापर' ।
⋙ टप्पा
संज्ञा पुं० [सं० स्थापन, हिं० थाप, टाप] १. किसी सामने फेंकी हुई वस्तु का जाते हुए बीच बीच में भूमि का स्पर्श । उछल उछकर जाती हुई वस्तु का बीच में टिकान । जैसे,— गेंद कई टप्पे खाती हुई गई हैं । मुहा०—टप्पा खाना= किसी फेंकी हुई वस्तु का बीच में गिरकर जमीन से छू जाना और फिर उछलकर आगे बढ़ना । २. उतनी दूरी जितनी दूरी पर पर कोई फेंकी हुई वस्तु जाकर पड़े । किसी फेंकी हुई चीज की पहुँच का फासला । जैसे, गोली का टप्पा । ३. उछाल । कूद । फाँद । फलाँग । मुहा०—टप्पा देना= लंबे लंबे डग बढ़ाना । कूदना । ४. नियत दूरी । मुकर्रर फासला । ५. दो स्थानों के बीच पड़ने— वाला मैदान । जैसे,—इन दोनों गाँवों के बीच में बालू का बड़ा भारी टप्पा पड़ता है । ६. छोटा भूवि भाग जमीन का छोटा हिस्सा । परगने का हिस्सा । ७. अंतर । बीच । फर्क । उ०—पीपर सूना फूल बिन फल बिन सूना राय । एकाएकी मानुषा टप्पा दीया आय । कबीर (शब्द०) । मुहा०—टप्पा देना= अंतर डालना । फर्क डालना । ८. दूर दूर की भद्दी सिलाई । मोटी सीवन (स्त्रि०) । मुहा०—टप्पे डालना, भरना, मारना= दूर दूर बखिया करना । मोटो और भद्दी सिलाई करना । लंगर डालना । ९. पालकी ले जानेवाले कहारों की टिकान जहाँ कहार बदले जाते हैं । पालकीवालों की चौकी या डाक । †१०. डाकखाना । पोस्ट आफिस । ११. पाल के जोर से चलनेवाला बेड़ा । १२. एक प्रकार का चलता गाना जो पंजाब से चला है ।†१३ एक प्रकार का ठेका जो तिलवाड़ा ताल पर बजाया जाता है । १४. एक प्रकार का हुक या काँटा ।
⋙ टब (१)
संज्ञा पुं० [अं०] पानी रखने के लिये नाँद के आकार का खुला बरतन ।
⋙ टब (२)
संज्ञा पुं० [अं०] जलाने का एक प्रकार का लंप जो छत या किसी दूसरे ऊँचे स्थान पर लटकाया जाता है ।
⋙ टबलना पु †
संज्ञा पुं० [?] चलाचली की स्थिति । भहाप्रयाण की स्थिति होना । उ०—खंजर जुदाई घबला, अब तो इधर भी टबला । ब्रज० ग्रं०, पृ० ४३ ।
⋙ टबूकना पु
क्रि० अ० [हिं० टपकना] टपकना । टप टप करके गिरना । उ०—हियड़उ बादल छाइयउ, नयण टबूकई मेह ।—ढोला०, दू० ३६० ।
⋙ टब्बर †
संज्ञा पुं० [सं० कुटंब] कुटुंब । परिवार । (पंजाब) ।
⋙ टमकना पु
क्रि० अ० [हिं० टमकना] बजना । शब्द करना । उ०—टमकंत तबल टामक बिहद्द । ठमकंत टाम विनु भुव गरद्द ।—सुजान०, पृ० ३८ ।
⋙ टमकी
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्कार] छोटा नगाड़ा जिसे बजाकर किसी प्रकार की घोषणा की जाती है । डुगडुगिया ।
⋙ टमटम
संज्ञा स्त्री० [अं० टैमम] दो ऊँचे ऊँचे पहियों की एक खुली हलकी गाड़ी जिसमें एक घोड़ा लगता है और जिसे सवारी करनेवाला अपने हाथ से हाँकता है ।
⋙ टमठी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का बरतन । उ०—अष्टा अरु आधार भर्त के बहुत खिलौना । परिया टमटी अतरदान रुपे कै सोना ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ टमस
संज्ञा स्त्री० [सं० तमसा] टोंस नदी । तमसा ।
⋙ टमाटर
संज्ञा पुं० [अं० टमैटों] एक प्रकार का फल जो गोलाई लिए हुए चिपटा तथा स्वाद में खट्टा होता है । विलायती भंटा । विशेष—यह क्च्चा रहने पर हरा और पकने पर लाला हो जाता है तथा तरकारी,चटनी, जेली आदि के काम आता है ।
⋙ ठमुकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टमकी' ।
⋙ टर
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. कर्कश शब्द । कर्कश वाक्य । कर्णकटु वाक्य । अप्रिय शब्द । कडुई बोली । यौ०—टरटर । मुहा०—टरटर करना = (१) ढिठाई से बोलते जाना । प्रतिवाद में बार बार कुछ कहते जाना । जाबनदराजी करना । जैसे,—टर टर करता जायगा, न मानेगा । (२) वकवाद करना । टर टर लगाना = व्यर्थ बकवाद करना । झूठमूठ बक बक करना । इतना और इस प्रकार बोलना जो अच्छा न लगे । २. मेढ़क की बोली । यौ०—टर टर । ३. घमंड से भरी बात । अविनीत वचन और चेष्टा । ऐंठ । अकड़ । जैसे—शेखों की शेखी, पठानों की टर । ४. हठ । जिद । अड़ । ५. तुच्छ बात । पोच बात । बेमेल बात । ६. ईद के बाद का मेला (मुसलमान) । उ०— ईद पीछे दर, बरात पीछे धौंसा ।
⋙ टरकना
क्रि० अ० [हिं० टरना] १. चला जाना । हट जाना । खिसक जाना । टल जाना । संयो० क्रिय०—जाना । मुहा०—टरक देना= धीरे से चला जाना । चुपचाप हट जाना । जैसे,—जब काम का वक्त आता है तो वह कहीं टरक देना है । पु † (२) टर टर करना । कर्कश स्वर से बोलना । उ०—टर्र टर्र टरकन लगे दसहु दिसा मंडूक ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ टरकनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] ईख या गन्ने की दूसरी बार की सिंचाई ।
⋙ टरकाना
क्रि० स० [हिं० टरकना] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर कर देना । हटाना । खिसकाना । जैसे,—(क) देखते रहो, ये चीजें इधर उधर टरकाने न पावें । (ख) जब कोई ढूँढ़ने आवे तब इस लड़के को कहीं टरका दो । २. किसी काम के लिये आए हुए मनुष्य को बिना उसका काम पूरा किए कोई बहाना कर के लौटा देना । टाल देना । चलता करना । धता बताना । जैसे,—जब हम अपना रुपया माँगने आते हैं तो तुम यों ही टरका देते हो ।
⋙ टरकी
संज्ञा पुं० [तुरकी] १. एक प्रकार का मुर्गा जिसकी चोंच के नीचे गले में लाल झालर रहती है और जिसके काले परों पर छोटी छोटी सफेद बुँदकियाँ होती है । विशेष— इसका माँस बहुत स्वादिष्ठ माना जाता है । इसे पेरू भी कहते हैं । २. एक देश तुरकी ।
⋙ टरकुल
वि० [हिं० टरकाना] १. बहुत साधारण । बिलकुल मामूली । घटिया । खराब ।
⋙ टरगी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जो चारे के काम में आती है । इसे भैंस बड़े चाव से खाती है । विशेष—यह सुखाकर बारह तेरह बरस तक रखी जा सकती है और घोड़ों के लिये अत्यंत पुष्ट और लाभदायक होती है । हिंदुस्तान में वह घास हिसार, मांटगोमरी (पंजाब) आदि स्थानों में होती है, पर विलायती के ऐसी सुगंधित नहीं होती । इसे पलका या पलवन भी कहते हैं ।
⋙ टरटराना
क्रि० स० [हिं० टर] १. बक बक करना । २. ढिठाई से बोलना । टर टर करना ।
⋙ टरना (१) †
क्रि० स० [हिं० टलना] दे० 'टलना' । उ०—(क) तृण से कुलिस कुलिस तृण करई । तासु दूत पग कहु किमि टरई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) उस विचारि सोचहि मति माता । सो न टरइ जो रचह विधाता ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टरना (२)
संज्ञा पुं० [देश०] तेली के कोल्हू में ठेका और कतरी से बँधी हुई रस्सी ।
⋙ टरनि †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टरना] टरने का भाव ।
⋙ टर्र टर्र
संज्ञा स्त्री० [हिं० टर्राना] १. मेंढक की आवाज । २. बे मतलब की बात । बकवाद । उ०—स्तय बंधु, सत्य; वहाँ नहीं अर्र अर्र; नहीं वहाँ भेक, वहाँ नहीं टर्र टर्र । —अनामिका, पृ० ११ ।
⋙ टर्रा
वि० [अनु० टर टर ] १. टर्रानेवाला । ऐंठकर बात करने— वाला । अविनीत और कठोर स्वर से उत्तर देनेवाला । घमंड के साथ चिढ़ चिढ़करे बोलनेवाला । सीधे न बोलनेवाला । २. धृष्ट । कटुवादी ।
⋙ टर्राना
क्रि० अ० [अनु० टर] ऐंठकर बातें करना । अविनीत और कठोर स्वर से उत्तर देना घमंड के साथ चिढ़ चिढ़कर बोलना । सीधे से न बोलना । घमंड लिए हुए कटु वचन कहना ।
⋙ टर्रापन
संज्ञा पुं० [हिं० टर्रा] बातचीत में अविनीत भाव । कटुवादिता ।
⋙ टर्रू
संज्ञा पुं० [हिं० टर टर] १. टर्रा आदमी । २. मेंढ़क । ३. चमड़े की झिल्ली मढ़ा हुआ एक खिलौना जो घोड़े की पूँछ के बाल से एक लकड़ी में बँधा होता हैं । इसे घुमाने से ठर्र की आवाज निकलती है । मेंढ़क । भौंरा । कौवा ।
⋙ टल
संज्ञा पुं० [सं०] घबराहट । परेशानी [को०] ।
⋙ टलन
संज्ञा पुं० [सं०] घबराहट । परेशानी [को०] ।
⋙ टलटल
क्रि० वि० [अनु०] कलकल ध्वनि के साथ । उ०—तेरे गीतों को वह जिसमें गाती हैं टल् टल् छल् छल् । —वीणा, पृ० २८ ।
⋙ टलना (१)
क्रि० अं० [सं० टल(= विचलित होना)] १. अपने स्थान से अलग होना । हटना । खिसकना । सरकना । जैसे,—वह पत्थर तुमसे नहीं टलेगा । मुहा०—अपनी बात से टलना= प्रितिज्ञा पूरी न करना । मुकरना । २. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना । अनुपस्थि होना । किसी स्थान पर न रहना । जैसे,—(क) काम के समय तुम सदा टल जाते हो । (ख) जब इसके आने का समय हो, तब तुम कहीं टल जाना । संयो० क्रि०—जाना । ३. दूर होना । मिटना । न रह जाना । जैसे, आपत्ति टलना, संकट टलना, बला टलना । संयो० क्रि०—जाना । ४. (किसी कार्य के लिये) निश्चित समय से और आगे का समय स्थिर होना । (किसी काम के लिये) मुकर्रर वक्त से और आगे का वक्त ठहराया जाना । मुलतवी होना । विशेष—इस क्रिया का प्रयोग समय और कार्य दोनों के लिये होता है । जैसे, तिथि टलना, तारीख टलना, विवाह की सायत टलना, दिन टलना, लग्न टरना, विवाह टलना, इम्तहान टलना । संयो० क्रि०—जाना । ५. (किसी बात का) अन्यथा होना । और का और होना । ठीक न ठहरना । खंडित होना । जैसे,—हमारी कही हुई बात कभी नहीं टल सकती । ६. (किसी आदेश या अनुरोध का) न माना जाना । उल्लंधित होना । पूरा न किया जाना । जैसे,—बादशाह का हुक्म कहीं टल सकता है । ७. समय व्यतीत होना । बीतना ।
⋙ टलमल (१)
वि० [हिं० टलमलाना] हिलता हुआ । कंपित । उ०—लौटे यूग दल राक्षस पद तल पृथ्वी टलमल ।—अपरा, पृ० ३८ ।
⋙ टलमल (२)
क्रि० वि० [अनु०] कलकल ध्वनि के साथ ।
⋙ टलमलाना
क्रि० अ० [अनु०] हिलना डुलना । टलमल होना ।
⋙ टलहा †
वि० [देश०] [वि० स्त्री० टलही] खोटा । खराब । दूषित । जैसे, टलहा रुपया, टलही चाँदी ।
⋙ टलाटली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टालटूल' । उ०—पति रति की बतियाँ कहीं, सखी लखी मुसकाइ । कै कै सबै टलाटली, अली चली सुखु पाइ ।—बिहारी र०, दो० २४ ।
⋙ टल्ला †
संज्ञा पुं० [अनु०] धक्का । आघात । ठोकर । उ०—तो बस उस एक टल्ले से ही हो जाए जीवन कल्याण ।—अपलक, पृ० २९ । मुहा०—टल्ले मारना= ठोकर खाते फिरना । मारा मारा फिरना । इधर से उधर निष्फल घूमना ।
⋙ टल्ली
संज्ञा पुं० [देश०] १.एक प्रकार का बाँस । दे० 'टोली' । पु †२. आधार । उ०—चंद सूर्य दुइ टल्ली लावै । इहि विधि र्खिथा खिसनि न पावै ।—प्राण०, पृ० ८ ।
⋙ टल्लेनवीसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टल्ला + फा० नदीसी] दे० 'टिल्ले— नवीसी' ।
⋙ टल्लो †
संज्ञा पुं० [सं० पल्लव?] १. हरी टहनी । २. पल्लव ।
⋙ टवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] ट ठ ड ढ ण—इन पाँच वर्णो का समूह ।
⋙ टवाई
संज्ञा स्त्री० [सं० अटन(= घूमना)] आवारगी । व्यर्थ घूमना । उ०—फेर रह्यो पुर करत टवाई । मान्यो नहिं जो जननि सिखाई ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ टस
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. किसी भारी चीज के खिसकने का शब्द । टसकने का शब्द । मुहा०—टस से मस न होना= (१) किसी भारी चीज का जरा सी भी जगह न छोड़ना । कुछ भी न खिसकना । (२) किसी कड़ी वस्तु का (पकाने या पलाने आदि से) जरा सी भी न गलना । ३. कहने सुनने का कुछ भी प्रभाव न पड़ना । किसी के अनुकूल कुछ भी प्रवृत्त न होना । ४. कपड़े आदि फटने का शब्द । मसकने का शब्द ।
⋙ टसक
संज्ञा स्त्री० [हिं० टसकना] रह रहकर उठनेवाली पीड़ा । कसक । टीस । चसक ।
⋙ टसकना
क्रि० अ० [सं० तस(=केलना) + करण] १. किसी भारी चीज का जगह से हटना । जगह से हिलना । खिसकना । जैसे,—यह पत्थर जरा सा भी इधर उधर नहीं टसकता । २. रह रहकर दर्द करना । टीस मारना । कसकना । ३.प्रभावित होना । हृदय में प्रार्थना या कहने सुनने का प्रभाव अनुभव करना । किसी के अनुकूल कुछ प्रवृत्त होना । किसी की बात मानने को कुछ तैयार होना । जैसे,—उससे इतना कहा सुना पर वह ऐसा कठेर हृदय है कि जरा भी न टसका । ४. पककर गदराना । गुदार होना । † ५. रोना धोना । आँसू बहाना । ६. घसकना । चलना । जाना । उ०—किसी को भी आपके टसकने का पूर्ण विश्वास न था ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १३६ ।
⋙ टसकाना
क्रि० स० [हिं० टसकना का प्रे० रूप] किसी भारी चीज को जगह से हटाना । खिसकाना । सरकाना ।
⋙ टसना †
क्रि० अ० [अनु० टस] कपड़े आदि का फटना । मसक जाना । दरकना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ टसर
संज्ञा पुं० [सं० टसर] १. एक प्रकार का कड़ा और मोटा रेशम जो बंगाल के जंगलों में होता है । विशेष—छोटा नागपुर, मयूरअंज, बालेश्वर, बीरभूम, मेदिनीपुर आदि के जंगलों में साखू बहेड़ा, पियार, कुसुम, बेर इत्यादि वृक्षों पर टसर के कीड़े पलते हैं । रेशम के कीड़ों की तरह इन कीड़ों की रक्षा के लिये अधिक यत्न नहीं करना पड़ता । पालनेवालों को जंगल में आप से आप होनेवाले कीड़ों को केवल चीटियों और चिड़ियों आदि से बचाना भर पड़ता है । पालनेवाले इनकी बृद्धि के लिये कोश से निकले हुए कीड़ों को जंगल में छोड़ आते हैं । जहाँ अपने जोड़े ढूँढ़कर वे अपनी वृद्धि करते हैं । मादा कीड़े पेड़ की पत्तियों पर सरसों के ऐसे पर चिपटे चिपटे अंडे देते हैं जो पत्तियों में चिपक जाते हैं । एक कीड़ा तीन चार दिन के भीतर दो ढाई सौ तक अंडे देता है । अंडे देकर ये कीड़े मर जाते हैं । दस बारह दिनों में इन अंडों से सूंटी या ढोल के आकार के छोटे छोटे कीड़े निकल आते हैं और पत्तियाँ चाट चाटकर बहुत जल्दी बढ़ जाते हैं । इस बीच में ये तीन चार बार कलेवर या खोली बदलते हैं । अधिक से अधिक पंद्रह दिन में ये कीड़े अपनी पूरी बाढ़ को पहुंच जाते हैं । उस समय इनका आकार ८, १० अंगुल तक होता है । ये यटमैले, भूरे, नीले, पीले कई रंगों के होते हैं । पूरी बाढ़ को पहुँचने पर ये कीड़े कोश बनाने में लग जाते हैं और अपने मुँह से एक प्रकार की लार निकालते है जो सूखकर सूत के रूप में हो जाती हैं । सूत निकालते हुए घूम घूम कर ये अपने लिये एक कोश तैयार कर लेते हैं और उसी में बंद हो जाते हैं । ये कोश अंडाकार होते हैं । बड़ा कोश ६— ६ १/२ अंगुल तक लंबा होता है । कोश के भीतर तीन चार दिनों तक सूत निकालकर ये कीड़े मुरदे की तरह चुप- चाप पड़ जाते हैं । पालपेदाले कोशों के पकने पर उन्हें इकट्ठा कर लेते हैं; क्योंकि उन्हें भय रहता है कि पर निकलने पर कीड़े सूत को कुतर कुतरकर निकल जायँगे; अतःउड़ने के पहले ही इन कोशों को क्षार साथ गरम पानीं में उबालकर वे कीड़ों को मार डालते हैं । जिन कोशों को उबालना नहीं पड़ता, उनका टसर सबसे अच्छा होता है । जो कोश पकने के पहले ही उबाले जाते हैं, उनका सूत कच्चा और निकम्मा होता है । २. टसर का बुना हुआ कपड़ा ।
⋙ टसुआ
संज्ञा पुं० [सं० अश्रु, हिं० आँसू, अँसुआ] आँसू । अश्रु । (पश्चिम) । क्रि० प्र०—बहाना । मुहा०—टसुए बहाना = झूठमूठ आँसू गिराना ।
⋙ टसूआ
संज्ञा पुं० [सं० अश्रु , द्दिं० आँसु, अँसूआ] दे० 'टसुआ' । मुहा०—टसूए बहाना = दे० 'टसुए बहाना' । उ०—बड़ी बेगम, अब टसूए पीछे बहाना । पहले हमारी बात का जवाब दो ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० २१५ ।
⋙ टहक †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टसक] शरीर के जोड़ों की पीड़ा । रह रहकर उठनेवाली पीड़ा । चसक ।
⋙ टहकना †
क्रि० अ० [हिं० टसकना] १. रह रहकर दर्द करना । टसकना । टीस मारना । २. (घी, मोम, चरबी आदि का) आँच खाकर तरल होना या बहना । पिघलना ।
⋙ टहकाना †
क्रि० स० [हिं० टहकना] आँच से पिघलाना ।
⋙ टहटह पु
क्रि० वि० [देश०] स्पष्टतापूर्वक । उ०—टह टह सु बुल्लिय मोर ।—प० सो०, पृ० ८१ । मुहा०—टहटह चाँदनी= निर्मल चाँदनी । श्वेत चाँदनी ।
⋙ टहटहा †
वि० [हिं० टटका] टटका । ताजा ।
⋙ टहना (१)
संज्ञा पुं० [सं० तनु (=पतला या शरीर)] [स्त्री० टहनी] १वृक्ष की पतली शाखा । पतली डाल ।
⋙ टहना (२)
संज्ञा पुं० [सं० अष्ठीवान्] घुटना । टेहुना । उ०—जल टहने तक पहुंच गया था । —हुमायूँ०, पृ० ५४ ।
⋙ टहनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टहना] वृक्ष की बहुत पतली शाखा । पेड़ की डाल के छोर पर की कोगल, पतली और लचीली उपशाखा जिसमें पत्तियाँ लगती हैं । जैसे, नीम की टहनी ।
⋙ टहरकट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० ठहर+ काठ] काठ का टुकड़ा जिसपर टकुए या तकले से उतारा हुआ सूत लपेटा जाता है ।
⋙ टहरना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'टहलना' ।
⋙ टहल
संज्ञा स्त्री० [हिं० टहलना] १. सेवा । शुश्रूषा । खिदमत । क्रि० प्र०—करना । यौ०—टहल टई= सेवा शुश्रूषा । उ०—कभि करनी बरनिए कहाँ लौं करत फिरत नित टहल टई है ।—तुलसी (शब्द०) । टहल टकोर = सेवा शुश्रूषा । मुहा०—टहल बजाना = सेवा करना । २. नौकरी चाकरी । काम धंधा ।
⋙ टहलना
क्रि० अ० [?] १. धीरे धीरे चलना । मंद गति से भ्रमण करना । धीरे धीरे कदम रखते हुए फिरना । मुहा०—टहल जाना = धीरे से खिसक जाना । चुपचाप अन्यत्र चला जाना । हट जाना । जान बूझकर उपस्थित न रहना । २. केवल जी बहलाने के लिये धीरे धीरे चलना । हवा खाना ।सैर करना । जैसे,—वे सँध्या को नित्य टहलने जाते हैं । ३. परलोक गमन करना । मर जाना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ टहलनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टहल+ नी (प्रत्य०)] १.टहल करनेवाली । सेवा करनेवाली । दासी । मजदूरनी । लौंड़ी । चाकरानी । उ०—म्हाँसी थाँके घड़ी टहलनी भँवर कमल फुल बास लुभावै ।—घनानंद, पृ० ३३४ । २. वह लकड़ी जो बत्ती उकसाने के लिये चिराग में पड़ी रहती हैं ।
⋙ टहलान
संज्ञा स्त्री० [हिं० टहलना] टहलने की क्रिया या भाव ।
⋙ टहलाना
क्रि० स० [हिं० टहलना] १. धीरे धीरे चलाना । घुमाना । फिराना । २. सेर कराना । हवा खिलाना । ३. हटा देना । दूर करना । ४. चिकनी चुपड़ी बातें करके किसी को अपने साथ ले जाना । मुहा०—टहला ले जाना = उड़ा ले जाना । गायब करना । चोरी करना । उ०—पेशकार, हुजूर जूता कोई जात शरीफ टहला लै गए ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ४६ ।
⋙ टहलि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टहलना] दे० 'टहल' । उ०—छोट सी भैंस सोहने सीगनि टहलि करनि को गोली जू ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३७ ।
⋙ टहलुआ
संज्ञा पुं० [हिं० टहल] [स्त्री० टहलुर्दृ, टहलनी] टहल करनेवाला । सेवक । नौकर । खिदमतगार ।
⋙ टहलुई
संज्ञा स्त्री० [हिं० टहल] १. दासी । किंकरी । लौंड़ी । चाकराणी । मजदूरनी । नौकरानी । २. वह लकड़ी जो बत्ती उकसाने के लिये चिराग में पड़ी रहती हैं ।
⋙ टहलुनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टहलू] दे० 'टहलनी' । उ०—पहले गाँव में से एक लड़की आई, फिर एक टहलुनी आई, उसके पीछे एक और आई ।—ठेठ०, पृ० ३० ।
⋙ टहलुवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टहलुआ' । उ०—और सब व्रजवासी टहलुवान को महाप्रसाद लिवायो । —दो सौ बावन०, भा० २, पृ० १४ ।
⋙ टहलू
संज्ञा पुं० [हिं० टहल] नौकर । चाकर । सेवक ।
⋙ टहाका †
वि० [देश०] दे० 'टहाटह' । यौ०—टहाका अजोरिया = निर्मल चाँदनी ।
⋙ टहाटह †
वि० [देश०] निर्मल । चटकीला । यौ०—टहाटह चाँदनी= निर्मल चाँदनी ।
⋙ टरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घात, घात] मतलब निकालने की घात । प्रयोजनसिद्धि का ढंग । ताक । युक्ति । जोड़ तोड़ । मुहा०—टही लगाना = जोड़ तोड़ लगाना । टही में रहना = काम निकालने की ताक में रहना ।
⋙ टहुआटारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] इधर की उधर लगाना । चुगलखोरी ।
⋙ टहूकड़ा पु
संज्ञा पुं० [हिं० टहूकना] शब्द । ध्वनि । उ०—करहइ किया टहूकड़ा, निद्रा जागी नारि ।—ढोला०, दु० ३४५ ।
⋙ टहूकना पु
क्रि० अ० [अनु०] बोलना । आवाज करना । उ०— मोर टहूकइ सीखर थी ।—बी० रासो०, पृ० ७० ।
⋙ टहूका (१)
संज्ञा [हिं० ठक या ठहाका] १. पहेली । २. चमत्कारपूर्ण उक्ति । चुटकुला ।
⋙ टहूका पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० टहूकना] आवाज । स्वर । उ०—टहूका मोर का सालै । हाये में हूक सी चालै ।—राम० धर्म०, पृ० ३८ ।
⋙ टहेल पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टहल] दे० 'टहल' । उ०—सो वह वीराँ नित्य अपने हाथ सों श्री ठाकुर जी की सेवा टहेल करती ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १२१ ।
⋙ टहोका
संज्ञा पुं० [हिं० ठोकर अथवा ठोका] हाथ या पैर से दिया हुआ धक्का । झटका । मुहा०—टहोका देना= हाथ या पैर से धक्का देना । झटकना । ढकेलना । ठेलना । टहोका खाना= धक्का खाना । ठोकर सहना । उ०—मैने इनकी ठंडी माँस की फाँस का टहोका खाकर झुँझलाकर कहा ।—इंशा अल्ला खाँ (शब्द०) ।
⋙ टांक
संज्ञा पुं० [सं० टाङ्क] एक प्रकार की शराब [को०] ।
⋙ टांकर
संज्ञा पुं० [सं० टाङ्कर=] १. कामी । लंपट । २. कुटना चुगलखोर [को०] ।
⋙ टांकार
संज्ञा पुं० [सं० टाङ्कार] दे० 'टंकोर' [को०] ।
⋙ टाँक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्क] १. एक प्रकार की तौल जो चार माशे की (किसी किसी के मत से तीन माशे की) होती है । इसका प्रचार जौहरियों में है । २. धनुष की शक्ति की परीक्षा के लिये एक तौल जो पचीस सेर की होती थी । विशेष—इस तौल के बटखरे को धनुष की डोरी में बाँधकर लटका देते थे । जितने बटखरे बाँधने से धनुष की डोरी अपने पूरे संधान या खिंचाव पर पहुंच जाती थी, उतनी टाँके का, वह धनुष समझा जाता था । जैसे,— कोई धनुष सवा टांक का, कोई डेढ टाँक का, यहाँ तक कि कोई तो या तीन टाँक तक होता था जिसे अत्यंत बलवान पुरुष ही चढ़ा सकते थे । ३.जाँच । कूत । अंदाज । आँक । ४. हिस्सेदारों का हिस्सा । बखरा । ५.एक प्रकार का छोटा कटोरा । उ०—घीउ टाँक मँह सोध सेरावा । लौंग मिरिच तेहि ऊपर नावा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ टाँक (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाँकना] १. लिखावट । लिखने का अंक या चिह्न । लिखन । उ०—छतौ नेह कागर हिये भई लखाय न टाँक । विरह तज्यो उघरयो सु अब सेंहुड़ को सो आँक ।— बिहारी (शब्द०) । २. कलम की नौक । लेखनी का डंक । उ०—हरि जाय चेत चित सूखि स्याही झरि जाय, बरि जाय कागद कलम टाँक जरि जाय ।—रघुनाथ (शब्द०) ।
⋙ टाँकना
क्रि० स० [सं० टंकन] १. एक वस्तु के साथ दूसरी वस्तु को कील आदि जड़कर जोड़ना । कील काँटे ठोककर एक वस्तु (धातु की चद्दर आदि) की दूसरी वस्तु में मिलाना या एक वस्तु पर दूसरी को बैठाना । जैसे, फूटे हुए बरतन पर चिप्पी टाँकना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । २. सुई के सहारे एक ही तागे को दो वस्तुओं के नीचे ऊपर ले जाकर उन्हें एक दूसरे से मिलाना । सिलाइ के द्वारा जोड़ना ।सीना । जैसे, चकती टाँकना, गोटा टाँकना, फटा जूता टाँकना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ३. सौकर अटकाना । सुई तागे से एक वस्तु पर दूसरी इस प्रकार लगाना वा ठहराना कि वह उसपर से न हटे या गिरे । जैसे, बटन टाँकना । मोती टाँकना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ४. सिल, चक्की आदि को टाँकी से गड्ढे करके खुरदरा करना । कूटना । रेहना । छीलना । संयो० क्रि०—देना । लेना । ६. किसी कागज, वही या पुस्तक पर स्मरण रखने के लिये लिखना । दर्ज करना । चढ़ाना । जैसे,—ये दस रुपए भी वही पर टाँक लो । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । मुहा०—मन में टाँक रखना= स्मरम रखना । याद रखना । †७. लिखकर पेश करना । दाखिल करना । जैसे, अर्जी टाँकना । ८. चट कर जाना । उड़ा जाना । खाना । (बाजारु) । जैसे— देखते देखते वह सब मिठाई टाँक गया । संयो० क्रि०—जाना । ९. अनुचित रूप से रुपया पैसा आदि ले लेना । मार लेना । उड़ा लेना ।—(दलाल) ।
⋙ टाँकली (१)
संज्ञा स्त्री० [?] पाल लपेटने की घिरनी या गड़ारी । (लश०) ।
⋙ टाँकली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ढक्का] एक प्रकार का पुराना बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था ।
⋙ टाँका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० टाँकना] १. वह जड़ी हुई कील जिससे दो वस्तुएँ (विशेषतःधातु की चद्दरें) एक दूसरे से जड़ी रहती हैं । जोड़ मिलानेवाली कील या काँटा । क्रि० प्र०—उखड़ना ।—निकालना ।—लगना ।—लगाना । सीयन का उतना अंश जितना सुई को एक बार ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर ले जाने में तैयार होता है । सीलाई का पृथक पृथक अंश । डोभ । जैस,—दो टाँके लगा दो । ज्यादा काम नहीं हैं । क्रि० प्र०—उधड़ना ।—खुलना ।—टूटना ।—लगना ।—लगाना । मुहा०—टाँका चलाना =सीने के लिये कपड़े आदि में आर पार सुई डालना । टाँका भरना= सुई से छेदकर तागा फँसाना या अटकाना । सीना । सिलाई करना । टाँका मारना= दे० 'टाँका भरना' । ३. सिलाई । सीवन । ४. टँकी हुई चकती । थिगली । चिप्पी । ५. शरीर पर के घाव या कटे हुए स्थान की सिलाई जो घाव पूजने के लिये की जाती है । जोड़ । क्रि० प्र०—उखड़ना ।—खुलना ।—टूटना ।—लगना ।—लंगाना । ६. धातुओं के जोड़ने का मसाला जो उनको गलाकर बनाया जाता है । क्रि० प्र०—भरना ।
⋙ टाँका (२)
संज्ञा पुं० [सं० टङ्क] [स्त्री० अल्पा० टाँकी] लोहे की कील जो नीचे की और चौड़ी और धारदार होती है और पत्थर छीलने या काटने के काम में आती है । पत्थर काटने की चौड़ी छेनी ।
⋙ टाँका (३)
संज्ञा पुं० [सं० टङ्क (=खङ्ड या गड्ढा)] १. दीवार उठाकर बनाया हुआ पानी इकठ्ठा रखने का छोटा सा कुंड । हौज । चहबच्चा । २. पानी रखने का बड़ा बरतन । कंडाल ।
⋙ टाँकाटूक
वि० [हिं० टाँक + तौल] तौल में ठीक ठीक । वजन में पूरा पूरा । ठीक ठीक तुला हुआ ।—(दूकानदार) ।
⋙ टाँकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्क] १. पत्थर गढ़ने का औजार । वह लोहे की कील जिससे पत्थर तोड़ते, काटते या छीलते हैं । छेनी । उ०—यह तेलिया पखान हठी, कठिनाई याकी । टूटीं याके सीस बीस बहु बाँकी टाँकी ।—दिनदयाल (शब्द०) । क्रि० प्र०—चलना ।—चलाना ।—बैठना ।—मारना ।—लगना ।—लगाना । मुहा०—टाँकी बजना = (१) पत्थर पर टाँकी का आघात पड़ना । (२) पत्थर की गढ़ाई होना । इमारत का काम लगना । २. तरबूज या खरबूजे के ऊपर छोटा सा चौखूँटाँ कटाव या छेद जिससे उसके भीतर का (कच्चे, पक्के, सड़े आदि होने का) हाल मालूम होता है । विशेष—फल बैचनेवाले प्रायः इस प्रकार थोड़ा सा काठकर तरबूज रखते हैं । ३. काटकर बनाया हुआ छेद । ४. एक प्रकार का फोड़ा । डुंबल । ५. गरमी या सूजाक का घाव । ६. आरी का दाँत । दाँता । दंदाना ।
⋙ टाँकी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्क = (खङ्ड या गड्ढा] १. पानी इकठा रखने का छोटा हौज । छोटा टाँका । छोटा चहबच्चा । २. पानी रखने का बड़ा बरतन । कंडाल ।
⋙ टाँकीबंद
वि० [हिं० टाँकी+ फा० बंद] (इमारत, दीवार या जुड़ाई) जिसमें लगे हुए पत्थर पहुओं या दोनों और गड़नेवाली कीलों के द्वारा एक दूसरे से खूब जुड़े हों । जैसे, टाँकीबंद जुड़ाई । टाँकीबँद इमारत । विशेष—दो पत्थरों के जोड़ के दोनों ओर आमने सामने दो छेद किए जाते हैं । इन्हीं छेदों में दो ओर झुकी हुई कीलों को ठोककर छेदों में गला हुआ सीसा भर देते हैं जिससे पत्थर के दोनों टुकड़े एक दूसरे से जकड़कर मिल जाते हैं । किले की दीवारों, पुल के खंभों आदि में इस प्रकार की जुड़ाई प्रायः होती है ।
⋙ टाँग
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्ग] १. शरीर का वह निचला भाग जिसपर धड़ ठहरा रहता है और जिससे प्राणी चलते या दौड़ते हैं । साधारणतः जाँघ की जड़ से लेकर एड़ी तक का अंग जो पतले खंभे या डंडे के रूप में होता है, विशेषतः घुटने से लेकर एड़ी तक का अंग । जीवों के चलने फिरने का अवयव । (जिसकी संख्या भिन्न भिन्न प्रकार के जीवों में भिन्न भिन्न होती है) ।मुहा०—टाँग अड़ाना = (१) बिना अधिकार के किसी काम में योग देना । किसी ऐसे काम में हाथ डालना जिसमें उसकी आवश्यकता न हो । फजूल दखल देना । (२) अड़ंगा लगाना । विघ्न डालना । बाधा उपस्थित करना । (३) ऐसे विषय पर कुछ कहना जिसकी कुछ जानकारी न हो । ऐसे विषय में कुछ विचार या मत प्रकट करना जिसका कुछ ज्ञान न हो । अनधिकार चर्चा करगा । जैसे,—जिस बात को तुम नहीं जानते उसमें क्यों टाँग अड़ाते हो ? टाँग उठाना = (१) स्त्रीसंभोग करना । स्त्री के साथ सँभोग करने के लिये प्रस्तुत होना । आसन लेना । (२) जल्दी जल्दी पैर बढ़ाना । जल्दी जल्दी चलना । टाँग उठाकर मूतना = कुत्तों की तरह मूतना । टाँग की राह निकल जाना = दे० 'टाँग तले (या नीचे)' से निकलना । उ०—उस अंदर के अखाड़े से कोरे निकल जाओ तो टाँग की राह निकल जाऊँ ।—फिसाना०, भा० १, पृ० ७ । टाँग टूटना = चलने फिरने से थकावट आना । उ०—हर रोज आप दौड़ते हैं । साहब हमपर अलग खफा होते हैं और टाँगें अलग टूटती हैं ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १५७ । टाँग तले (या नीचे) से निकलना = हार मानना । परास्त होना । नीचा देखना । अधिन होना । टाँग तले (या नीचे) से निकालना = हराना । परास्त करना । नीचा दिखाना । अधीनता या हीनता स्वीकार कराना । टाँग तोड़ना = (१) अंगभंग करना । (२) बेकाम करना । निकम्मा करना । किसी काम का न रखना । (३) किसी भाषा को थोड़ा सा सीखकर उसके टूटे फूटे या अशुद्ध वाक्य बोलना । जैसे,—क्या अंग्रेजी की टाँग तोड़ते हो ? (अपना) टाँग तोड़ना = चलते चलते पैर थकना । घूमते घूमते हैरान होना । टाँग पसारकर सोना = (१) निर्द्धद होकर सोना । बिना किसी प्रकार के खटके के चैन से दिन बिताना । टाँगें रह जाना = (१) चलते चलते पैर दर्द करने लगना । चलते चलते पैरों का शिथिल हो जाना । (२) लकवा या गठिया से पैर का बेकाम हो जाना । टाँग लेना = (१) टाँग का पकड़ना (२) (कुत्ते आदि का) पैर पकड़कर काट खाना । (३) कुत्ते की तरह काटना । (४) पीछे पड़ जाना । सिर होना । पिंड न छोड़ना । टाँग घराबर = छोटा सा । जैसे,—टाँग बराबर लड़का, ऐसी ऐसी बातें कहता है । (किसी की) टाँग से टाँग बाँधकर बैठना = किसी के पास से न हटना । सदा किसी के पास बना रहना । एक घड़ी के लिये भी न छोड़ना । टाँग से टाँग बाँधकर बैठाना = अपने पास से हटने न देना । सदा अपने पास बैठाए रहना । एक घड़ी के लिये भी कहीं आने जाने न देना । २. कुश्ती का एक पेंच जिसमें विपक्षी की टाँग में टाँग मारकर या अड़ाकर उसे चित्त कर देते हैं । विशेष—यह कई पर्करा का होता है । जैसे,—(क) पिछली टाँग = जब विपक्षी पीछे या पीठ की ओर हो तब पीछे से उसके घुटने के पास टाँग मारने को पिछली टाँग कहते हैं । (ख) बाहरी टाँग = जब दोनों पहलवान आमने सामने छाती से छाती मिलाकर भिड़े हों तब विपक्षी के घुटने के पिछले भाग में जोर से टाँग मारने को बाहरो टाँग कहते हैं । (ग) बगली टाँग = विपक्षी को बगल में पाकर बगल से उसके पैर में टाँग मारने को बगली टाँग कहते हैं । (घ) भीतरी टाँग = जब विपक्षी पीठ पर हो, तब मौका पाकर भीतर ही से उसके पैर में पैर फँसाकर झटका देने को भीतरी टाँग कहते हैं । (च) अड़ानी टाँग = विपक्षी को दोनों टाँगों के बीच में टाँग फँसाकर मारने अड़ानी टाँग कहते हैं । ३. चतुर्थांश । चौथाई भाग । चहारुम ।—(दलाल) ।
⋙ टाँगना
संज्ञा पुं० [सं० तुरंगम या हिं० ठेंगना] छोटी जाति का घोड़ा । वह घोड़ा जो बहुत कम ऊँचा हो । पहाड़ी टट्टू । विशेष—नैपाल और बरमा के टाँगन बहुत मजबूत और तेज होते हैं ।
⋙ टाँगना
क्रि० स० [हिं० टँगना] १. किसी वस्तु को किसी ऊँचे आधार से बहुत थोड़ा सा लगाकर इस प्रकार अटकाना या ठहराना कि उसका प्रायः सब भाग उस आधार से नीचे की ओर हो । २. किसी वस्तु को दूसरी वस्तु से इस प्रकार से बाँधना या फँसाना अथवा उसपर इस प्रकार टिकना या ठहराना कि उसका (प्रथम वस्तु का) सब (या बुहत सा) भाग नीचे की ओर लटकता रहे । किसी वस्तु को इस प्रकार ऊँचे पर ठहराना कि उसका आश्रय ऊपर की और हो । लटकाना । जैसे, (खूँटी पर) कपड़ा टाँगना, परदा टाँगना, झाड़ टाँगना । विशेष—यदि किसी वस्तु का बहुत सा अंश आधार के नीचे लटकता हो, तो उसे 'टाँगना' नहीं कहेंगे । 'टाँगना' और 'लटकाना' में यह अंतर है कि 'टाँगना' क्रिया में वस्तु के फँसाने, टिकाने या ठहराने का भाव प्रधान है और 'लटकाना' में उसके बहुत से अंश को नीचे की ओर दूर तक पहुँचाने का भाव है । जैस,—कुएँ में रस्सी लटकाना कहेंगे रस्सी टाँगना नहीं कहेंगे । पर टाँगना के अर्थ में लटकाना का भी प्रयोग होता है । संयो० क्रि०—देना । २. फाँसी चढ़ाना । फाँसी लटकाना ।
⋙ टाँगा (१)
संज्ञा पुं० [सं० टङ्ग] बड़ी कुल्हाड़ी ।
⋙ टाँगा (२)
संज्ञा पुं० [सं० टँगना] एक प्रकार की दो पहिए की गाड़ी जिसका ढाँचा इतना ढीला होता है कि वह पीछे की ओर कुछ झुका या लटका या आगे पीछे टँगा भी रहता है । ताँगा । विशेष—इस में सवारी प्रायः पीछे की ओर ही करके बैठती है और जमीन से इतने पास रहती है कि घोड़े के भड़कने आदि पर झट से जमीन पर उतर सकती है । इस गाड़ी के इधर उधर उलटने का भय भी बहुत कम रहता है । यह प्रायः पहाड़ी रास्तों के लिये बहुत उपयुक्त होती है । इसमें घोड़े या बैल दोनों जोते जाते हैं ।
⋙ टाँगानोचन
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाँग+ नोचना] नोचखसोट । खींचा- खींची । खींचातानी ।
⋙ टाँगी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाँगा] कुल्हाड़ी ।
⋙ टाँगुन
संज्ञा स्त्री० [देश० या हिं० ककूनी (वैसे ही जैसे किंशुक से टेसू)] बाजरे या कँगनी की तरह का एक अनाज जिसकी फसल सावन भादों में पककर तैयार हो जाती है । विशेष—इसके दाने महीन और पीले रंग के होते हैं । गरीब लोग इसका भात खाते हैं ।
⋙ टाँघन †
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'टाँगन' ।
⋙ टाँच (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाँकी] ऐसा वचन जिससे किसी का चित्त फिर जाय और वह जो कुछ दूसरे का कार्य करनेवाला हो, उसे न करे । दूसरे का काम बिगाड़नेवाली बात या वचन । भाँजी । उ०—मेरे व्यवहारों में टाँच मारी है, मेरे मित्रों को ठंढा और मेरे शत्रुओं को गर्म किया है ।— भारतेंदु० ग्रं०, भाग० १, पृ० ५९९ । क्रि० प्र०—मारना ।
⋙ टाँच (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाँका] १. टाँका । सिलाई । डोभ । २. टँकी हुई चकती । थिगली । उ०—देह जीव जोग के सखा मृषा टाँच न ठाँचा ।—तुलसी (शब्द०) । ३. छेद । सूराख ।
⋙ टाँच † (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] हाथ पैर का सुत्र पड़ जाना या सो जाना । टाँस । क्रि० प्र०—धरना ।—पकड़ना ।— होना ।
⋙ टाँचना (१)
क्रि० स० [हिं० टाँच] १. टाँकना । डोभ लगाना । सीना । उ०—देह जीव जोग के सखा मृषा टाँच न टाँचो ।— तुलसी (शब्द०) । २. काटना । तराशना । छीलना । छाँटना ।
⋙ टाँचना
क्रि० अ० फूला फूला फिरना । गुलछरें उड़ाते हुए घूमना ।
⋙ टाँची (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० टङ्क(=रुपया)] रुपया भरने की लम्बी थैली जिसमें रुपए भरकर कमर में बाँध लेते हैं । न्यौजी । न्यौली । मियानी । बसनी ।
⋙ टाँची (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाँकी] भाँजी । क्रि० प्र०—मारना ।
⋙ टाँचु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'टाँच' ।
⋙ टाँट †
संज्ञा पुं० [हिं० टट्टी] खोपड़ी । कपाल । मुहा०—टाँट के बाल उड़ना = (१) सिर के बाल उड़ना । (२) सर्वस्व निकल जाना । पास में कुछ न रह जाना । (३) खूब मार पड़ना । भुरकुस निकलना । टाँट के बाल उड़ाना = सिर पर खूब जूते लगाना । मारते मारते सिर पर बाल न रहने देना । टाँट खुजाना = मार खाने को जी चाहना । कोई ऐसा काम करना जिससे मार खाने की नौबत आवे । दंड पाने का काम करना । टाँट गंजी कर देना = (१) मारते मारते सिर गंजा करना । (२) खूब खर्च करवाना । खूब रुपए गलवाना । खर्च के मारे हैरान कर देना । पास का धन निकलवा देना । टाँट गंजी होना = (१) मार खाते खाते सिर गंजा होना । खूब मार पड़ना । (२) खर्च के मारे धुर्रे निकलना । खर्च करते करते पास में धन न रह जाना ।
⋙ टाँटर
संज्ञा पुं० [हिं० टट्टर] खोपड़ी । कपाल ।
⋙ टाँठ
वि० [अनु० ठन ठन या सं० स्थाणु] १. जो सूखकर कड़ा हो गया हो । करारा । कड़ा । कठोर । उ०—राम सों साम किए नित है हित कोमल काज न कीजिए टाँठे ।—तुलसी (शब्द०) । २. डढ़ । बली । तगड़ा । मुस्टंडा ।
⋙ टाँठा
वि० [हिं० टाँठ] [वि० स्त्री० टाँठी] १. करारा । कड़ा कठोर । २. दृढ़ । हृष्ट पुष्ट । तगड़ा ।
⋙ टाँड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थाणु] १. लकड़ी के खंभों पर या दो दीवारों के बीच लकड़ी की पटरियाँ या बाँस के लट्ठे ठहरा कर बनाई हुई पाटन जिसपर चीज असबाब रखते हैं । परछती । २. मचान जिसपर बैठकर खेत की रखवाली करते हैं । ३. गुल्ली डंडे के खेल में गुल्ली पर डंडे का आघात । टोला । क्रि० प्र०—मारना ।—लगाना ।
⋙ टाँड़ा (२)
संज्ञा पुं० [दे० ताड] बाहु पर पहनने का स्त्रियों का एक गहना । टँड़िया ।
⋙ टाँड़ा (३)
संज्ञा पुं० [सं० अट्टाल, हिं० अटाला, टाल] १. ढेर । अटाला । टाल । राशि । २. समूह । पंक्ति । ३. घरों की पंक्ति । ४. दे० 'टाँड़' ।
⋙ टाँड़ा (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कंकड़ मिली मिट्टी । कंकरीली मिट्टी ।
⋙ टाँड़ा (५)
संज्ञा पुं० [हिं० टाँड़ (=समूह)] १. अन्न आदि व्यापार की वस्तुओं से लदे हुए बैलों या पशुओं का झुंड जिसे व्यापारी लेकर चलते हैं । बरदी । बनजारों के बैलों आदि का झुंड । बनजारें के बैल ज्यों टाँड़ो उतरयौ आय ।—कबीर (शब्द०) । २. व्यापारियों के माल की चलान । बिक्री के माल का खेप । व्यापारी का माल जो लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाय । उ०—अति खीन मृनाल के तारहु ते तेहि ऊपर पाँव दै आवनो है । सुई बेह लौं बेह सकी न तहाँ परतीति को टाँड़ो लदावनों है ।—बोधा (शब्द०) । मुहा०—टाँड़ा लदना = (१) बिक्री का माल लदना । (२) कूच की तैयारी होना । (३) मरने की तैयारी होना । ३. व्यापारियों का चलता समूह । बनजारों का झुंड जो एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता हो । ४. नाव पर चढ़कर इस पार से उस पार जानेवाले पथिकों और व्यापारियों का समूह । उ०—लीजै बेगि निबेरि सूर प्रभु यह पतितन को टाँड़ो ।— सूर (शब्द०) । ५. कुटुंब । परिवार ।
⋙ टाँड़ा (६)
संज्ञा पुं० [सं० तुणड, हिं० टूँड़] एक प्रकार का हरा कीड़ा जो गन्ने आदि की जड़ों में लगकर फसल को हानि पहुँचाता है । क्रि० प्र०—लगना ।
⋙ टाँड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] टिड्डी । उ०—उमड़ि रारि तुरकन त्यों माँड़ी । छूटे तीर उड़ति ज्यों टाँड़ी ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ टाँण पु
संज्ञा पुं० [सं० ताड़] दे० 'टाड़ा' । उ०—बारी टाँण सलोनी टूटी ।—जायसी ग्रं०, पृ० १४१ ।
⋙ टाँयटाँय
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. कर्कश शब्द । अप्रिय शब्द । कडुई बोली । टें टें । २. बक बक । बकवाद । प्रलाप । मुहा०—टाँय टाँय करना = बगवाद करना । निरर्थक बोलना । निना समझे बूझे बोलना । उ०—तुम कुछ समझते तो हो नहीं बेकार टाँय टाँय करते हो ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ११५ । टाँय टाँय फिस = (१) बकवाद, पर फज कुछ नहीं । किसी कार्य के संबंध में बातचीत तो बहुत बढ़कर पर परिणाम कुछ नहीं । (२) किसी कार्य के आरंभ में तो बड़ी भारी त्पतरता पर अंत में सिद्धि कुछ भी नहीं । कार्य का आरंभ तो बड़ी धूमधाम के साथ, पर अंत को होना जाना कुछ नहीं ।
⋙ टाँस
संज्ञा स्त्री० [हिं० टानना (=खींचना)] हाथ या पैर के बहुत देर तक मुड़े रहने के कारण नसों की सिकुड़न या तनाव जिससे फँसने की सी असह्य पीड़ा होने लगती है । यह पीड़ा प्रायः क्षणिक होती है । क्रि० प्र०—चढ़ना ।
⋙ टाँसना †
क्रि० प्र० [हिं० ] दे० 'टाँचना', 'टाँकना' ।
⋙ टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । २. शपथ । कसम [को०] ।
⋙ टाइटिल पेज
संज्ञा पुं० [अं०] किसी पुस्तक के सबसे ऊपर का पृष्ठ जिसपर पुस्तक और ग्रंथकार का नाम आदि कुछ बड़े अक्षरों में रहता है । आवरण पृष्ठ ।
⋙ टाइप
संज्ञा पुं० [अं०] सीसे अथवा सीसे और ताँबे के मिश्रण से ढले हुए अक्षर जिनको मिलाकर पुस्तकें छापी जाती हैं । काँटे का अक्षर ।
⋙ टाइपकास्टिंग मशीन
संज्ञा स्त्री० [अं०] काँटे का अक्षर ढालने का कल ।
⋙ टाइपमोल्ड
संज्ञा पुं० [अं०] काँटे के अक्षर ढालने का साँचा ।
⋙ टाइपराइटर
संज्ञा पुं० [अं०] एक कल या यंत्र जिसमें कागज रखकर टाइप के से अक्षर छापे जाते हैं । यह दफ्तरों और कार्यालयों में चिट्टी पत्री आदि छापने के काम में आता है । टंकण यंत्र ।
⋙ टाइफायड
संज्ञा पुं० [अं० टाइफा़यड] एक प्रकार का विषेला ज्वर जिसमें सबेरे ताप घट जाता है और संध्या को बढ़ जाता है । मोतीझरा ।
⋙ टाइफोन
संज्ञा पुं० [अं० टाइफून, तुलनीय तूफा़न] एक प्रकार का तूफान जो चीन के समुद्र में और उसके आस पास बरसात के चार महीनों में आया करता है ।
⋙ टाइम
संज्ञा पुं० [अं०] समय । वक्त । यौ०—टाइमटेबुल । टाइमपीस ।
⋙ टाइमटेबुल
संज्ञा पुं० [अं०] वह विवरणपत्र या सारणी जिसमें भिन्न भिन्न कार्यों के लिये निश्चित समय लिखा रहता है । जैसे, स्कूल का टाइमटेबुल, दफ्तर का टाइमटेबुल, रेलवे टाइमटेबुल ।
⋙ टाइमपीस
संज्ञा स्त्री० [अं०] कमरे में मेज, आलमारी अथवा डेस्क पर रहनेवाले वह छोटी घड़ी जो केवल समय बताती है, बजती नहीं । कीसी किसी में जगाने की घंठी समय निर्धारित करने पर बजती है ।
⋙ टाई
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. कपड़े की एक पट्टी जो. अंग्रेजी पहनावे में कालर के अंदर गाँठ देकर बाँधी जाती है । नेकटाई । २.— जहाज के ऊपर कें पाल की वह रस्सी जिसकी मुद्दी मस्तूल के छेदों में लगाई जाती है ।
⋙ टाउन
संज्ञा पुं० [अं०] शहर । कसबा ।
⋙ टाउन ड्यूटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] चुंगी । पौंटूटी ।
⋙ टाउनहाल
संज्ञा पुं० [अं०] किसी नगर में वह सार्वजनिक भवन जिसमें नगर की सफाई, रोशनी आदी के प्रबंधकर्ताओं की तथा दूसरी सर्वसाधारण संबंधी सभाएँ होती है ।
⋙ टाकरी लिपि
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठाकुरी, ठक्कुरी ?] एक प्रकार की लिपि जो शरदा लिपि का घसीट रूप है । विशेष—इस लिपि में इ, ई, उ, ए, ग, घ, च, ञ, ड़, ढ, त, थ, द, ध, प, भ, म, य, र, ल, और ह वर्ण वर्तमान शारदा लिपि से मिलते जुलते हैं । शेष वर्ण भिन्न हैं, जिसका कारण संभवतः शीघ्रता से लिखाना और चलतू कलम है । इसमें 'ख' के स्थान पर 'ष' लिखा जाता है ।
⋙ टाका पु
संज्ञा पुं० [हिं०] कंडाल । दे० 'टाँका' । उ०—आगे सगुन सगनिआँ ताका । दहिउ मच्छ रूपे कर टाका ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ०, २११ ।
⋙ टाकू
संज्ञा पुं० [सं० तर्कु] टकुआ । टकला । टेकुरी ।
⋙ टाकोली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] भेंट । नजराना । उ०—उन्होंने उड़ीसा के समस्त जमीदारों से टाकोली या पेशकश वसूल किया ।—शुक्ल अभि, ग्रं०, पृ० ९९ ।
⋙ टाट (१)
संज्ञा पुं० [सं० तन्तु] १. सन या पटुए की रस्सियों का बना हुआ मोटा खुरदुरा कपड़ा जो बिछाने, परदा डालने आदि के काम में आता है । मुहा०—टाट में मूँज का बखिया = जैसी भद्दा । चीज, वैसी ही उसमें लगी हुई सामग्री या साज । टाट में पाट का बाखिया = चीज तो मद्दी और सस्ती, पर उसमें लगी हुई सामग्री बढ़िया ओर बहुमूल्य । बेमेल का साज । २. बिरादरी । कुल । जैसे,—वे दूसेरे टाट के हैं । मुहा०—एक ही टाट के = (१) एक ही बिरादरी के । (२) एक साथ उठने बैठनेवाले । एक ही मंडली के । एक ही दल के । एक ही विचार के । टाट बाहर होना =बहिष्कृत होना । जाति पाँति से अलग होना । ३. साहूकार के बैठने का बिछावन । महाजन की गद्दी । मुहा०—टाट उलटना = दिवाला निकालना । दिवालिया होने की सूचना देना । विशेष—पहले यह रिति थी कि जब कोई महाजन दिवाला बोलता था, तब वह अपनी कोठी या दूकान पर का टाट औरगद्दी उलटकर रख देता था जिससे व्यवहार करनेवाले लौट जाते थे ।
⋙ टाट (२)
वि० [अं० टाइट ] कसा हुआ ।—(लश०) । महा०—टाट करना = मस्तूल खड़ा करना ।
⋙ टाटक † (१)
वि० [हिं०] दे० 'टटका' । उ०—(क) घिउ टाटक महँ सोधि सेरावा ।—पदमावत, पृ० ५८९ । (ख) भीखा पावत मगन रेन दिन टाटक होत न बासी ।—भीखा श०, पृ०, १२ ।
⋙ टाटक पु
संज्ञा पुं० [सं० त्राटक] दे० 'त्राटक' । उ०—टाटक ध्यान जपै नौकारा । जब या जीव को होइ उबारा ।—घट०, पृ० ८५ । यौ०—टाटक टोटक ।
⋙ टाटबाफ
संज्ञा पुं० [हिं० टाट + फा़० बाफ़] १. टाट बुननेवाला । २. कपड़ों पर कलाबत्तू का काम करनेवाला ।
⋙ टाटबाफी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाट + फा़० बाफी़] १. कलाबत्तू का काम । २. टाट बुनने का काम ।
⋙ टाटबाफीजूता
संज्ञा पुं० [फा़० तारबाफी़] वह जूता जिसपर कलाबत्तू का काम हो । कामदार जूता ।
⋙ टाटर (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्यातृ(=जो खड़ा हो)] १. टट्टर । टट्टी । २. सिर की हड्डी या परदा । खोपड़ी कपाल । उ०—टाटर टूट, टूट सिर तासू ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ टाटर (२)
संज्ञा पुं० [?] घोड़ों को सजाने की सामग्री । उ०— टाटर पाषर सज्जित किया राव । —बी० रासो०, पृ० १३ ।
⋙ टाटरिकएसिड
संज्ञा पुं० [अं०] इमली का सत । इमली का चुक ।
⋙ टाटिका पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाटी] टट्टी । उ०—विरचि हरि भक्त को बेष वर टाटिका, कपट दल हरित पल्लवनि छावा । तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टाटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० स्थात्री ता तटी] छोटा टट्टर । टट्टी । उ०—(क) आँधी आई ज्ञान की ढही भरम की भोति । माया टाटी उड़ि गई नाम सों प्रीति ।—कबीर (शब्द०) । (ख) सूरदास प्रभु कहा निहारौं मानत रक त्रास टाटा को ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ टाठी †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थाली (=बटलोई), प्रा० ठाली, ठाडी] थाली ।
⋙ टाड़
संज्ञा स्त्री० [सं० ताड] भुजा पर पहनने का एक गहना । टाँड़ । टँड़िया । बहुँटा । उ०—बाहु टाड़ कर ककन बाजूवद एते पर हो तोकी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ टाडर
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया ।
⋙ टासाँ पु
संज्ञा पुं० [?] (विवाहादि) उत्सव । उ०—अदता टाणाँ ऊपरै, नाणा खरचै नाहिं ।—बाँकी० ग्रं० भा० ३, पृ० ८२ ।
⋙ टान (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तान (=फैलाव, खिंचाव)] १. तनाव । खिंचाव । फैलाव । २. खींचने की क्रिया । खींच । ३. सितार के परदे पर ऊँगली रखकर इस प्रकार खींचने की क्रिया जिससे बीज के सब स्वंर निकल आवें । ४. साँप के दाँत लगने का एक प्रकार जिसमें दाँत घँसता नहीं केवल छीलता या खरोंच डालता हुआ निकल जाता हैं ।
⋙ टान (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्थाणु (=थून या लकड़ी का खंभा)] टाँड़ । मचान ।
⋙ टान (३)
संज्ञा स्त्री० [अं० टर्न] प्रेस में किसी कागज को एकाधिक बार छापने का भाव । एक टान प्रायः एक हजार प्रतियों का होता है ।
⋙ टानना
क्रि० स० [हिं० टान + ना (प्रत्य०)] तानना । खींचना ।
⋙ टानिक
संज्ञा पुं० [अं० टाँनिक] वह औषध जो शरीर का बल बढ़ाती हो । बलवीर्यवर्धक औषध । पुष्टिकारक औषध । ताकत की दवा । पुष्टई । जैसे—डाकटर ने उन्हें कोई टानिक दिया है ।
⋙ टाप
संज्ञा स्त्री० [सं० स्थापन, थाप] १. घोड़े के पैर का वह सबसे निचला भाग जो जमीन पर पड़ता है और जिसमें नाखून लगा रहता है । घोड़ों का अर्धचंद्राकार पादतल । सुम । उ०— जे जल चलहिं थलहिं की नाई । टाप न बूड़ वेग आधिकाई । तुलसी (शब्द०) । २. घोड़े के पैरों के जमीन पर पड़ने का शब्द । जैसे,—दूर पर घोड़ों की टाप सुनाई पड़ी । ३. पलंग के पास का तल भाग जो पृथ्वी से लगा रहता है और जिसका घेरा उभरा रहता है । ४. बेंत या और किसी पेड़ की लचीली टहनियों का बना हुआ मछली पकड़ने का झाबा जिसकी पेदी में एक छेद होता है । मछली पकड़ने का ढ़ाँचा । ५. मुरगियों के बंद करने का झाबा ।
⋙ टापड़
संज्ञा पुं० [हिं० टप्पा] ऊसर मैदान ।
⋙ टापदार
वि० [हिं० टाप + फा० दार (प्रत्य०)] जिसके सिरे या छोर पर के कुछ भाग का घेरा उभरा हुआ हो । जिसके ऊपर या नीचे का छोर कुछ फैला हुआ हो । जैसे, टापदार पाया ।
⋙ टापना (१)
क्रि० अ० [हिं० टाप + ना (प्रत्य०)] १. घोड़ों का पैर पटकना । विशेष—प्रायः जब दाना पाने का समय होता है, तब घोड़े टाप पटककर अपनी भूख की सूचना देते हैं । इससे 'टापने' का अर्थ कभी कभी 'दाना माँगना' भी लेते हैं । २. टक्कर मारना । किसी वस्तु के लिये इधर उधर हैरान फिरना । ३. व्यर्थ इधर उधर फिरना । ४. उछलना । कूदना ।
⋙ टापना (२)
क्रि० स० कूदना । फाँदना । उछलकर लाँघना । जैसे, दीवार टापना ।
⋙ टापना (३)
क्रि० म० [सं० तप] १. बिना कुछ खाए पिए पड़ा रहना । बिना दाना पानी के समय बिताना । जैसे—सबेरे से बैठे टाप रहै हैं, कोई पानी पीने को भी नहीं पूछता । २. ऐसी बात के आसरे में रहना जो होती हुई न दिखाई दे । व्यर्थ प्रतीक्षा करना । आशा में पड़े पड़े अद्विग्न और व्यग्र होना । जैसे,—घंटों से बैठे टाप रहे है कोई आता जाता नहीं दिखाई देता । ३. किसी बात से निराश और दुखी होना । हाथ मलना । पछताना । जैसे,—वह चला गया, मैं टापता रह गया ।
⋙ टापर † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. ओढ़ने का मोटा कपड़ा । चद्दर । २. घोड़ों को शीत से बचाने के लिये ओढ़ाने का मोटा वस्त्र । तप्पड़ । जीन के नीचे का मोटा कपड़ा । उ०—(क) जिणि दीहे पालउ पड़इ, टापर तुरी सहाइ ।—ढोला०, दू० २७९ । (ख) घाली टापर बाग मुखि, झेक्यउ राजदुआरि । करहइ किया टहूकड़ा निद्रा जागी नारि ।—ठोला०, दू० ३४५ । ३. तिरपाल । ४. झोपड़ा ।
⋙ टापर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० टाप] छोटी मोटी सवारी । टट्टू आदि की सवारी ।
⋙ टापा
संज्ञा पुं० [सं० स्थापन, हिं० थाप] १. टप्पा । मैदान । २. उजाड़ मैदान । ऊसर मैदान । ३. उछाल । कूद । छलाँग । फाँद । मुहा०—टापा देना = लंबे डग भरना । उ०—कबिरा यह संसार में घने मनुष मतिहिन । राम नाम जाना नहीं आए टापा दीन ।—कबीर (शब्द०) । ४. कीसी वस्तु को ढकने या बंद करने का टोकरा । झाबा ।
⋙ टापू
संज्ञा पुं० [हिं० टापा या टप्पा] १. स्थल का वह भाग जिसके चारों ओर जल हो । वह भूखंड जो चारो ओर जल से घिरा हो । द्बीप । † २. टप्पा । टापा ।
⋙ टाबर †
संज्ञा पुं० [पं० टब्बर] १. बालक । लड़का । उ०—घर कौ सब टाबर मुवौ सूंदर कही न जाइ ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७५२ । २. परिवार ।
⋙ टाबू
संज्ञा पुं० [देश०] रस्सी की बुनी हुई कटोरे के आकार की जाली जिसे बैलों के मुँह पर इसलिये चढ़ा देते हैं जिसमें वे काम करते समय इधर उधर चर न सकें । जाबा ।
⋙ टामक †
संज्ञा पुं० [अनु०] टिमटिमी । डिमडिमी । उ०—दुंदुभि पटह मृदंग ढोलकी डफला टामक । मंदरा तबला सुमरू खँजरी तबला धामक ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ टामकटोया †
संज्ञा पुं० [हिं०] टकटोहना । टटोलना । क्रि० प्र०—मारना = अंधेरे में टटोलना या भटकना ।
⋙ टामन
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्र] तंत्रविधि । टोटका । उ०—जानत हाँ जु दई मुँदरी पढ़ि राम कछु जनु टामन कीन्हो ।—हनुमान (शब्द०) । यौ०—टामन टूमन = सर्वस्व । उ०—इतना कहत हाथ तब जोरे । टामन दूमन सब ही तोरे ।—राम० धर्म०, पृ० ३४६ ।
⋙ टार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घोड़ा । २. गाँड़ू । लौंडा । लंग । ३. स्त्री पुरुष का संयोग करानेवाला व्यक्ति । कुटना । दलाल । भँडुआ ।
⋙ टार (२)
संज्ञा पुं० [सं० अट्टाल, हिं० टाल] ढेर । राशि । टाल ।
⋙ ठार (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठारना] टालटूल । वि० दे० 'टाल' ।
⋙ टार (४)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार हैल जिसमें लगी हुई चोंगी से बीज गिरता रहता है ।
⋙ टारन
संज्ञा पुं० [हिं० टारना] १. टालने या सरकाने की वस्तू । २. कोल्हु में पड़ा हुआ वह लकड़ी का डंड़ा जिससे गँड़ेरियाँ चलाई या हिलाई जाती हैं ।
⋙ टारना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'टालना' । उ०—(क) भूप सहस दस एकहिं बारा । लगे उठावन टरै न टारा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) जियन मूरि जिमि जोगवत रहेऊँ । दीप बाति नहि टारन कहेऊँ ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टारपोडो
संज्ञा पुं० [अं०] एक विध्वंसकारी यंत्र जिसमें भीषण विस्फोटक पदार्थ भरा रहता है और जो बड़े समुद्री मत्स्य के आकार का होता है । विस्फोटक बज्र । विशेष—यह जल के अंदर छिपाया रहता है । युद्ध के समय शत्रु के जहाय पर इसे चलाते हैं । इसके लगने से जहाज में बड़ा सा छेद हो जाता है और वह वहीं ड़ूब जाता है ।
⋙ टारपीडो कैचर
संज्ञा पुं० [अनु०] तेज चलनेवाला एक शक्तिशाली रणपोत या जंगी जहाज जो टारपीडो बोट के प्रयत्न को विफल करने और उसे नष्ट करने के काम में लाया जाता है ।
⋙ टारपीडो बोट
संज्ञा पुं० [अं०] तेज चलनेवाली एक छोटी स्टीम बोट जो युद्ध के समय शत्रु के जहाज को नष्ट करने के लिये उसपर टारपीडो या विस्फोटक वज्र चलाती है । नाशक जहाज ।
⋙ टाल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अट्टाल, हिं० अटाला] १. नीचे ऊपर रखी हुई वस्तुओं का ढेर जो दूर तक ऊँचा उठा हो । ऊँचा ढेर । भारी राशी । अटाला । गंज । जैसे, लकड़ी की टाल, भुस की टाल, पयाल की टाल, घास, की टाल । २. लकड़ी, भुस, पयाल आदि की बड़ी दूकान । ३. बैलगाड़ी के पहिए का किनारा । मुहा०—टाल मारना = पहिए के किनरों का छीलना ।
⋙ टाल (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का घंटा जो गय,बैल, हाथी आदि के गले में बाँधा जाता है ।
⋙ टाल (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० डालना] १. टालने का भाव । २. किसी बात के लिये आजकल का झूठा वादा । ऐसा बहाना जिससे किसी समय किसी काम को करने से कोई बच जाय । यौ०—टालटूल । टालबटाल । टालमठाल । टालमटूल । टालमटोल ।
⋙ टाल (४)
संज्ञा पुं० [सं० टार] व्यभिचार के लिये स्त्री पुरूष का समागम करानेवाला । कुटना । भँड़ुआ ।
⋙ टालटूल
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाल +टूल] दे० 'टालमठूल' ।
⋙ टालना
क्रि० स० [हिं० टालना] १. अपने स्थान से अलग करना । हटाना । खिसकाना । सरकाना । संयो० क्रि०—देना । २. दूसरे स्थान पर भेज देना । अनुपस्थित कर देना । दूर करना । भगा देना । जैसे,—जब काम का समय होता है तब तुम उसे कहीं टाल देते हो । संयो० क्रि०—देना । ३. दूर करना । मिटाना । न रहने देना । निवारण करना ।जैसे, आपत्ति टालना, संकट टालना, बला टालना । उ०— मुनि प्रसाद बल तात तुम्हारी । ईस अनेक करवरैं टारी ।— तुलसी (शब्द०) । संयो० क्रि०—देना । ४. किसी कार्य का निश्चित समय पर न करके उसके लिये दूसरा समय स्थिर करना । नियत समय से और आगे का समय ठहराना । मुलतबी करना । विशेष—इस क्रिया का प्रयोग समय और कार्य दोनों के लिये होता है । जैसे, तिथि टालना, विवाह की सायत या लग्न टालना, विवाह टालना, इम्तहान टालना । संयो० क्रि०—देना । ५. समय व्यतीत करना । समय बिताना । ६. किसी (आदेश या अनुरोध) को न मानना । न पालन करना । उल्लघन करना । जैसे,—(क) हमारी बात वे कभी न टालेगे । (ख) राजा की आज्ञा को कौन टाल सकता है ? ७. किसी काम को तत्काल न करके दूसरे समय पर छोड़ना । मुलतबी करना । जैसे,—जो काम आवे, उसे तुरंत कर डालो, कल पर मत टालो । ८. बहाना करके किसी काम से बचना । किसी कार्य के संबँघ में इस प्रकार की बातें कहना जिससे वह न करना पडे़ । संयो० क्रि०—देना । मुहा०—किसी पर टालना = स्वयं न करके किसी के करने के लिये छोड़ देना । किसी के सिर मढ़ना । जैसे,—जो काम उसके पास जाता है, वह दूसरों पर टाल देता है । ९. किसी बात के लिये आजकल का झूठा वादा करना । किसी काम को और आगे चलकर पूरा करने की मिथ्या आशा देना या प्रतिज्ञा करना । जैसे—तुम इसी तरह महीनों से टालते आए हो, आज हम रुपया जरूर लेंगे । १०. किसी प्रयोजन से आए हुए मनुष्य को निष्फल लौटाना । किसी मनुष्य का कोई काम पूरा न करके उसे इधर उधर की बातें कहकर फेर देना । धता बताना । टरकाना । जैसे,—इस समय इसे कुछ कह सुनकर टाल दो, फिर माँगने आवेगा तब देखा जायगा । ११. पलटना । फेरना । और का और करना । १२. कोई अनुचित या अपने विरुद्ध बात देख सुनकर न बोलना । बचा जाना । तरह दे जाना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ टालबटाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाल + बटाल] दे० 'टालमटाल' ।
⋙ टालमटाल (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाल + म (प्रत्य०) + टाल] दे० 'टालमटूल' ।
⋙ टालमटाल (२)
क्रि० वि० [(दलाली) टाली (=अठन्नी)] आधे आध । निस्फा निस्फ ।
⋙ टालमटूल
संज्ञा पुं० [हिं० टालना] बहाना ।
⋙ टाला
वि० [(दलाली) टाली (=अठन्नी)] [स्त्री० टाली] आधा । अर्ध (दलाल) ।
⋙ टालाटूली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टालना] टालटूल । उ०—टाला— टूली दिन गया, ब्याज बढ़ंता जाय ।—कबीर सा०, पृ० ७५ ।
⋙ टलिमा पु
वि० [हिं० टालना ?] चुने हुए । चुनिंदा । उ०—तिणि मइँ लेस्याँ टालिमा, बाँकड़ मुहाँ विडंग ।—ढोला०, दू० २२७ ।
⋙ टाली
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. गाय बैल आदि के गले में बाँधने कि घंटी । २. जवान गाय या बछिया जो तीन वर्ष से कम की हो और बहुत चंचल हो । उ०—पाई पाई है भैया कुंज वृंद में टाली । अब के अपनी अट ही चरावहु जैहें हटकौ घाली ।—सूर (शब्द०) । ३. एक प्रकार का बाजा । ४. अठन्नी । आधा रुपया । धेली ।—(दलाल) ।
⋙ टाल्ही
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का शीशम जिसके पेड़ पंजाब में बहुत होते हैं । विशेष—इसके हीर की लकड़ी भूरी और बहुत मजबूत होती हैं । यह इमारतों में लगती है तथा गाड़ी, खेती के समान आदि बनाने के काम में आति हैं ।
⋙ टावर
संज्ञा पुं० [अं०] १. लाट । मीनार । बुर्ज । २. किला । कोट ।
⋙ टाहली †
संज्ञा पुं० [हिं० टहल] टहल करनेवाला । टहलुआ । दास । सेवक । खिदमतगर । उ०—कादर को आदर काहू के नाहिं देखियत सबनि सोहात है सेवा सुजान टाहली ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टाँहुली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टाहली] टहलुई । नौकरानी । उ०— यान समारो टाहुली, चोवा चंदन अंग सुहाई । —बी० रासो, पृ० ४६ ।
⋙ टिंग †
संज्ञा स्त्री० [देश०] स्त्री को योनि । भग ।—(अशिष्ट) ।
⋙ टिंचर
संज्ञा पुं० [अं० टिंकचर] किसी औषध का सार जो स्पिरिट के योग से तरल रूप में बनाया जाता है ।
⋙ टिंचर आयोडीन
संज्ञा पुं० [अं० टिंक्चर आयोडीन] सूजन आदि पर लगाने के लिये आयोडिन और स्पिरिट आदि का घोल ।
⋙ टिंचर ओपियाई
संज्ञा पुं० [अं० टिंक्चर ओपियाई] अफीम और स्पिरिट आदि का घोल ।
⋙ टिंचर कार्डिमम
संज्ञा पुं० [अं० टिंक्चर कार्डिमम] इलायची का अर्क ।
⋙ टिंचर स्टील
संज्ञा पुं० [अं० टिंक्चर स्टील] फौलाद आदि का स्पिरिट में बनाया हुआ घोल ।
⋙ टिंटिनिका
संज्ञा स्त्री० [सं० टिणिटनिका] १. जल सिरीस का पेड़ । अंबु शिरीषिका । दाढ़ौन । २. जोंक ।
⋙ टिंड
संज्ञा पुं० [सं० टिण्डिश] १. ककड़ी की जाती की एक बेल जिसमें गोल गोल फल लगते हैं । इन फलों की तरकारी बनती है । ढेंड़सी । डेंड़सी । २. रहट में लगा हुआ बरतन जिसमें पानी भरकर आता है । डब्बू ।
⋙ टिंडर
संज्ञा पुं० [सं० टिणड(=डेड़सी)] रहट में लगी हुई हँड़िया ।
⋙ टिंडसी
संज्ञा स्त्री० [सं० टिण्डिश] टिंड नाम की तरकारी । डेंड़सी ।
⋙ टिंडा
संज्ञा पुं० [सं० टिण्डिश] ककड़ी की जाति की एक बेल जिसमेंछोटे खरबूजे के बराबर गोल फल लगते हैं । इन फलों की तरकारी बनती है । ढेंड़सी । डेंड़सी ।
⋙ टिंडिश
संज्ञा पुं० [सं० टिण्डिश] टिंडा । डेंड़सी । ढेंड़सी ।
⋙ टिंडी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. हल को पकड़कर दबानेवाले मुठिया । २. जाँता घुमाने का खूँटा ।
⋙ टिक
संज्ञा पुं० [?] टिक्कर । लिट । ठोकवा । पूआ ।
⋙ टिकई
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. टीकेवाली गाय । वह गाय जिसके माथे पर सफेद टीका हो । †२. एक छोटी चिड़िया जो तालों में उतरती है और जाड़ा बीतने पर बाहर चली जाती है ।
⋙ टिकट
संज्ञा पुं० [अं० टिकेट] १. वह कागज का टुकड़ा जो किसी प्रकार का महसुल, भाड़ा, कर या फीस चुकानेवाले को दिया जाय और जिसके द्बारा वह कहीं आ जा सके या कोई काम कर सके । जैसे, रेल का टिकट; डाक का टिकट, थिएटर का टिकट । २. कहीं आने जाने जाने या कोई काम करने के लिये अधिकारपत्र । ३. संसद् या विधानसभा या नगरपालिका के चुनाव के लिये किसी प्रत्याशी को दलविशेष के प्रतिनिधि के रूप में चुनाव लड़ने के लिये दिया जानेवाला अधिकार या स्वीकृति । ४. वह कर, फीस या महसूल जो किसी काम के करनेवालों पर लगाया जाय । जैसे, स्नान का टिकट, मेले का टिकट । मुहा०—टिकट लगाना = महसूल लगाना । कर नियत करना ।
⋙ टिकटघर
संज्ञा पुं० [अं० टिकट + हिं० घर] वह स्थान या कमरा जहाँ टिकट बीकता है ।
⋙ टिकटिक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. घोड़ों को हाँकने के लिये मुँह से किया हुआ शब्द । २. घड़ी के बोलने का शब्द ।
⋙ टिकटिकी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकठी] १. तीन तिरछी खड़ी की हुई लकड़ियों का एक ढाँचा जिससे अपराधियों के हाथ पैर बाँधकर उनके शरीर पर बेत या कोड़े लगाए जाते हैं । ऊँची तिपाई जिसपर अपराधियों को खड़ा करके उनके उनके गले में फाँसी लगाते हैं । टिकठी । २. ऊँची तिपाई । टिकठी । मुहा०—टिकटिकी पर खड़ा करना = लड़ई में न हटनेवाले चोट खाकर मरे हुए मुरगे को तीन लकड़ियों पर खड़ा करना । विशेष—मुरगों की लड़ाई में जब कोई बहादुर मुरगा लड़ते ही लड़ते चोट खाकर मर जाता है और मरते दम तक नहीं हटता है, तब उसके शरीर को तीन लकड़ियों पर खड़ा कर देते हैं । यदि दूसरा मुरग लात मारकर उसे लकड़ी के नीचे गिरा देता है तो उसकी जीत समझी जाती है और यदि वह किसी और तरफ चला जाता हैं तो मरे हुए मुरगे की जीत समझी जाती है ।
⋙ टिकटिकी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] आठ नौ अंगुल लंबी एक चिड़िया जिसका रंग भूरा और पैर कुछ लाली लिए होते हैं । विशेष—जाड़े में यह सारे भारतवर्ष में देखी जाती है और प्रायः जलाशयों के किनारे झाड़ियों में घोंसला बनाती है । यह एक बार में चार अंडे देती है ।
⋙ टिकटिकी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टकटकी' ।
⋙ टिकठी
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिकाष्ठ या हिं० तीन काठ] १. तीन तिरछी खड़ी की हुई लकड़ियों का एक ढाँचा जिससे अपराधियों के हाथ पैर बाँधकर उनके शरीर पर बेत या कोड़े लगाए जाते हैं । टिकटीकी । २. ऊँची तिपाई जिस— पर अपराधियों को खड़ा करके उनके गले में फाँसी का फंदा लगाया जाता है । ३. काठ का आसन जिसमें तीन ऊँचे पाए लगे हों । तिपाई । ४. बुना हुआ कपड़ा फैलाने के लिये दो लकड़ियों का बना हुआ एक ढाँचा । यह कपड़े की चौड़ाई के बराबर फैल सकता है ।—(जुलाहे) । ५. अरथी जिसपर शव को अंत्योष्टि क्रिया के लिए ले जाते हैं ।
⋙ टिकड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० टिकिया] [स्त्री० अल्पा० टिकड़ी] १. चिपटा गोल टुकड़ा । धातु, पत्थर, खपड़े या और किसी कड़ी वस्तु का चक्राकार खंड । २. आँच पर सेंकी हुई छोटी मोटी रोटी । वाटी । अंगाकड़ी । मुहा०—टिकड़ा लगाना = आग पर बाटी सेंकना या पकाना । ३. जड़ाऊ या ठप्पे के गहनों में कई नर्गा को जड़कर बनाया हुआ एक एक विभाग या अंश ।
⋙ टिकड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकड़ा] छोटा टिकड़ा ।
⋙ टिकना
क्रि० अ० [सं० स्थित + √ कृ या अ(=नहीं) + टिक (=चलना)] १. कुछ काल तक के लिये रहना । ठहरना । डेरा करना । मुकाम करना । उ०—टिकि लीजियो रात में काहू अटा जहाँ सोवत होंय परेवा परे ।—लक्ष्मण (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना ।—रहना ।—लेना । २. किसी घुली हुई वस्तु का नीचे बैठना । तल मे जमना । तलछट के रूप में नीचे पेदे में इकट्ठा होना । ३. स्यायी रहना । कुछ दिनों तक चलना या बना रहना । कुछ दिनों तक काम देना । जैसे—यह जूता तुम्हारे पैर में कितने दिन टिकेगा । ४. स्थित रहना । अड़ा रहना । इधर उधर न गिरना । ठहरना । सहारे पर रहना । जमना या बैठना । जैसे,—(क) यह गोला डंडे की नोक पर टिका हुआ है । (ख) इसपर तो पैर ही नहीं टिकता, कैसे खड़े हों । ५. युद्ध या लड़ाई में सामना करते हुए जमे रहना । ६. विश्राम के उद्देश्य से थोड़ी देर के लिये कहीं रुकना । ७. प्रतिकूल समय या मौसम में किसी पदार्थ का विकृत न होना । ८. ध्यान या निगाह का स्थिर होना ।
⋙ टिकरी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकिया] १. नमकीन पकवान जो बेसन और मैदे की दो मोयनदार लोइयों को एक में बेलकर और घी में तलकर बनाया जाता है । २. टिकिया । ३. लिट्टी ।
⋙ टिकरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टीका] सिर पर पहनने का एक गहना ।
⋙ टिकली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकिया या टिका] १. छोटी टिकिया । २. पन्नी या काँच की बहुत छोटी बिंदी के आकार की टिकिया जिसे स्तियाँ श्रुंगार के लिये अपने माथे पर चिपकाती हैं । सितारा । चमकी । ३. छोटा टीका । माथे पर पहनने की छोटी बेंदी ।
⋙ टिकली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तर्क हिं० तकला] सूत बटने की फिरकी । सूत कातने का एक औजार । विशेष—यह बाँस या लोहै की सलाई पर लगी हुई काठ की गोल टिकिया होती है जिसे नचाने या फिराने से उसमें लपेटा हुआ सूत ऐंठकर कड़ा होता जाता है ।
⋙ टिकस
संज्ञा पुं० [अं० टैक्स] महसूल । कर । जैसे, पानी का टिकस, इनकम टिकस । उ०—सबके ऊपर टिकस लगाऊँ, धन है मुझको धन्न ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४७३ । मुहा०—टिकस लगना = महसुल या कर नियत होना ।
⋙ टिकसार †
वि० [हिं० टिकना + सार (प्रत्त०)] टिकाऊ । टिकने— वाला ।
⋙ टिकाई †
संज्ञा पुं० [हिं० टीका] राजा का वह पुत्र जो राजा के पोछे राजतिलक का अधिकारी हो । युवराज । उत्तरधिकारी राजकुमार ।
⋙ टिकांऊ
वि० [हिं० टिक + आऊ (प्रत्य०)] टिकनेवाला । कुछ दिनों तक काम देनेवाला । चलनेवाला । पायदार ।
⋙ टिकान
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकना] १. टिकने या ठहरने का भाव । २. टिकने या ठहरने का स्थान । पड़ाव । चट्टी ।
⋙ टिकाना
क्रि० स० [हिं० टिकन] १. रहने के लिये जगह देना । निवासस्थान देना । कुछ काल तक किसी के रहने के लिये स्थान ठीक करना । ठहराना । जैसे—इन्हें तुम अपने यहाँ टिका लो । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । २. सहारे पर खड़ा करना या रोकना । अड़ाना । ठहराना । स्थित करना । जमाना । जैसे,—(क) एक पैर जमीप पर अच्छी तरह टिका लो, तब दूसरा पैर उठाओ । (ख) इसे दिवार से टिकाकर खड़ा कर दो । (ग) बोझ को चबूतरे पर टिकाकर थोड़ा दम ले लो । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । † ३. किसी उठाए जाते हुए बोझ में सहारे के लिये हाथ लगाना । बोझ उठाने या ले जाने में सहायता देना । जैसे,— (क) अकेले उससे चारपाई न जायगी, तुम भी टिका लो । (ख) चार आदमी जब उसे टिकाते हैं, तब वह उठता है । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ४. देना । प्रस्तुत करना ।
⋙ टिकानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकाना] छकड़ा गाड़ी की वे दोनों लकड़ियाँ जिनमें पैंजनी डालकर रस्सी से बाँधते हैं ।
⋙ टिकाव
संज्ञा पुं० [हिं० टिकना] १. स्थिति । ठहराव । २. स्थिरता । स्थायित्व । ३. वह स्थान जहाँ यात्री आदि ठहरते हों । पड़ाव ।
⋙ टिकावली पु
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का आभूषण । उ०— टीका टीक टिकावली हीरा हार हमेल ।—छीत०, पृ० २५ ।
⋙ टिकिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वटिका] १. गोल और चिपटा छोटा टुकड़ा । गोल और चिपटे आकार की छोटी वस्तु । चक्राकार छोटी मोटी वस्तु । जैसे, दवा की टिकिया, कुनैन की टिकिया । विशेष—चकती और टिकिया में यह अंतर है कि टिकिया का प्रयोग प्रायः ठोस और उभरे हुए मोटे दल की वस्तुओं के लिये होता है, पर चकती का प्रयोग कपड़े चमड़े आदि महीन परत की वस्तुओं कै लिये होता है । जैसे, कपड़े या चमड़े की चकती, मैदे की टिकिया । २. कोयली की बुकनी को कीसी लसीली चीज में सानकर बनाया हुआ चिपटा गोला टुकड़ा जिससे चिलम पर आग सुलगाते हैं । ३. एक प्रकार की चिपटी गोल मिठाई जो मोयनदार मैदे की छोटी लोई की घी में तलने और चाशनी में डुबाने से बनती है । ४. बरतन के साँचे का ऊपरी भाग जिसका सिरा बाहर निकला रहता है । ५. छोटी मोटी रोटी । बाटी । लिट्टी ।
⋙ टिकिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टीका] १. माथा । ललाट । २. माथे पर लगी हुई बिंदी । ३. ऊँगली में चूना, रंग या और कोई वस्तु पोतकर बनाई हुई खड़ी रेखा या चिह्न । विशेष—अनपढ़ लोग नित्य प्रति के लेन देन की वस्तु का लेखा रखने के लिये इस प्रकार के चिह्न प्रायः दीवार पर बनाते हैं ।
⋙ टिकरा †
संज्ञा पुं० [देश०] टीला । भींटा ।
⋙ टिकुरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तर्कु, हिं० टकुआ] सूत बटने या कातने की फिरकी । टिकली ।
⋙ टिकुरी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] निसोथ । तुबुँद ।
⋙ टिकुला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ठिकोरा' ।
⋙ टिकुली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टिकली' ।
⋙ टिकुवा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टकुआ', 'टेकुआ' ।
⋙ टिकैत
संज्ञा पुं० [हिं० टीका + ऐत (प्रत्य०)] १. राजा का वह पुत्र जो राजा के पीछे राजतिलक का अधिकारी हो । राजा का उत्तराधिकारी कुमार । युवराज । २. अधिष्ठाता । सरदार ।
⋙ टिकोर
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टकोर' ।
⋙ टिकोरा †
संज्ञा पुं० [सं० वटिका, हिं० टिकिया] आम का छोटा और कच्चा फल । आम का वह फल जिसमें जाती न पड़ी हो । आम की पतिया ।
⋙ टिकोला †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टिकोरा' ।
⋙ टिकोना, टिकौना
संज्ञा पुं० [हिं० √ टिक + औना (प्रत्य०)] आधार । टेक । सहारा । उ०—जिन टिकौनों से उसने अपने मन के सँभाला था, वे सब इस भूकंप में नीचे आ रहै और वह झोपड़ा नीचे गिर पड़ा ।—ओदान, पृ० ११४ ।
⋙ टिक्कड़
संज्ञा पुं० [हिं० टिकिया] १. बड़ी टिकिया । २. हाथ की बनी छोटी मोटी रोटी जो सेंकी गई हो । बाटी । लिट्टी । अंगाकड़ी । ३. मालपूवा ।—(साधु) ।
⋙ टिक्कस पु
संज्ञा पुं० [अं० टैक्स] कर । महसूल । उ०—टिक्कस लगा रे कस कस के छोड़ी अपना रोजगार ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३६१ ।
⋙ टिक्का (१)
संज्ञा पुं० [देश०] मूँगफली के पौधे का एक रोग ।
⋙ टिक्का (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० टीका] [स्त्री० टिक्की] १. टीका । तिलक । बिंदी । २. उँगली में रंग आदि लगाकर बनाया हुआ खड़ा चिह्म । विशेष—दे० 'टिककी' । ३. सुध । स्मरण । याद ।
⋙ टिक्का साहब
संज्ञा पुं० [हिं० टीका(=तिलक) + अ० साहब] राजा का वह बड़ा लड़का जिसका यौवराज्याभिषेक होने को हो । युवराज ।—(पंजाब) ।
⋙ टिक्की (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकिया] १. गोल और चिपटा छोटा टुकड़ा । टिकिया । मुहा०—टिक्की जमना, बैठना या लगना = प्रयोजनसिद्धि का उपाय होना । युक्ति लड़ना । प्राप्ति आदि का डौल होना । गोटी जमना । २. अंगाकड़ी । बाटी । लिट्टी ।
⋙ टिक्की (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टीका] उँगली में रंग या और कोई वस्तु पोतकर बनाया हुआ गोल चिह्न । बिंदी । २. माथे पर की बिंदी । गोल टीका । ३. ताश की बूटी । ताश में बना हुआ पान आदि का चिह्न ।
⋙ टिक्की (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] काली सरसों ।
⋙ टिकटिख
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टिकटिक' ।
⋙ टिखटी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकठी] तख्ती । पटिया । उ०— कै शिव तंत्र सटीक खुल्यौ विलसत टिखटी पर ।—का० सुषमा, पृ० ६ ।
⋙ टिघलना
क्रि० अ० [सं० तप + गलन] पिघलना । आँच से द्रवी— भूत होना । विशेष—दे० 'पिघलना' ।
⋙ टिघलाना
क्रि० स० [हिं० टिघलना] पिघलाना ।
⋙ टिचन
वि० अं० [अटेंशन] १. तैयार । ठीक । दुरुस्त । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. उद्यत । मुस्तैद । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ टिटकारना
क्रि० स० [अनु०] टिक टिक शब्द करके किसी पशु को चलने के लिये उभारना । 'टिक टिक' करके हाँकना । जैसे, घोड़े को टिटकारना । मुहा०—टिटकारी पर लगना = (पशु का) इशारा पाकर काम करना । संकेत पाकर या बोली पहचानकर पास चला आना ।
⋙ टिटकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिटकारना] घोड़े या अन्न पशु को टिकटिक करके हाँकने की ध्वनि । उ०—टमटमवालों ने अपनी टिटकारियाँ भरनी शुरू की ।—नई०, पृ० २० ।
⋙ टिटिंबा †
संज्ञा पुं० [अं० ततिम्मह्] १. अनावश्यक झंझट । २. ठकोसला । प्रपंच । ३. आडंबर ।
⋙ टिटिम्मा †
संज्ञा पुं० [अ० ततिम्महू] दे० 'टिटिंबा' ।
⋙ टिटिह
संज्ञा पुं० [सं० टिट्टिभ] टिटिहरी चिड़िया का नर । उ०— देखा टिटिह टिटिहरी आई । चौंचे भरि भरि पानी लाई ।— नारायणदास (शब्द०) ।
⋙ टिटिहरी
संज्ञा स्त्री० [सं० टिट्टिभ, हिं० टिटिह] पानी के किनारे रहनेवाली एक चिड़िया जिसका सिर लाल, गरदन सफेद, पर चितकबरे, पीठ खैरै रंग की, दुम मिलेजुले रंगो की और चोंच काली होती है । कुररी । विशेष—इसकी बोली कडुई होती है और सुनने में 'टीं टीं' की ध्वनि के समान जान पड़ती है । स्मृतियों में द्बिजातियों के लिये इसके मांसभक्षण का निषेध है । इस चिड़िया के सँबंध में ऐसा प्रवाद हे कि यह रात को इस भय से कि कहीं आकाश न टूट पड़े, उसे रोकने कि लिये दोनों पैर ऊपर करके चित सोती है ।
⋙ टिटिहा
संज्ञा पुं० [सं० टिट्टिभ] टिटिहरी चिड़िया का नर । उ०— टिटिहा कही जाऊँ लै कहाँ । यहि ते नीक ओर है जहाँ ।— नारायणदास (शब्द०) ।
⋙ टिटिहारोर
संज्ञा पुं० [हिं० टिटिहा + रोर] १. चिल्लाहट । शोर— गुल । २. रोना पोटना । क्रंदन ।
⋙ टिटुआ
संज्ञा पुं० [हिं० टट्टू का अल्पा०] [स्त्री० टिटुई] छोटा ठट्टू । उ०—टिटुई ऊँटन को बोझा बहि सकत नहीं जिमि ।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० ५७ ।
⋙ टिट्टिभ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० टिट्टिभी] १. टिटिहा । नर टिटिहरी । दे० 'टिटिहरी' । उ०—उमा राबनहिं अस अभिमाना । जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना ।—तुलसी (शब्द०) । २. टिड्डि ।
⋙ टिट्टिभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] टिट्टिभ की मादा । टिटिहरी ।
⋙ टिट्टिभी
संज्ञा स्त्री० [सं० टिट्टिभ] टिट्टिभ की मादा ।
⋙ टिड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिड़्डी] दे० 'टड्डी' । उ०—भेड़ औ टिडी को काज कीजै ।—कबीर० रे०, पृ० २६ ।
⋙ टिड़िबिड़ी †
वि० [देश०] दे० 'तिड़ीबिड़ी' । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ टिड़ा
संज्ञा पुं० [सं० टिट्टिभ] एक प्रकार का परदार कीड़ा जो खेतों में तथा छोटे पेड़ो या पौधों पर दिखआई पड़ता है । विशेष—यह चार पाँच अंगुल लंबा और कई तरह का होता है, जैसे,—हरा, भूरा, चित्तीदार । यह नरम पत्ते खाकर रहता है । गुबरैले, तितली, रेशम के कीड़े आदि की तरह इसके जीवन में आकृतिपरिवर्तन की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ नहीं होतीं । मक्खियो की तरह इसके मुँह में भी धँसाने के लिये टूँड़ होते हैं ।
⋙ टिड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० टिट्टिभ या सं० तत् + डीन (=उड़ना) ] एक जाति का टिड़ा या उड़नेवाला कीड़ा जो भारी दल या समूह बाँधकर चलता है और मार्ग के पेड़ पौधे और फसल को बड़ी हानि पहुँचाता है । इसका आकार साधारण टिड्डे के ही समान, पैर और पेट का रंग लाल चा नारंगी तथा शरीर भूरापन लिए और चित्तादार होता है । जिस समय इसका दल बादल कीघटा के समान उमड़कर चलता है, उस समय आकाश में अंधकार सा हो जाता है और मार्ग के पेड़ पौधों खेतों में पत्तियाँ नहीं रह जाती । टिड्डियाँ हजार दो हजार कोस तक की लंबी यात्रा करती हैं और जिन जिन प्रदेशों में होकर जाती हैं, उनकी फसल को नष्ट करती जाती हैं । ये पर्वत की कंदराओं और रेगिस्तानों में रहती हैं और बालू में अपने अंडे देती हैं । अफ्रिका के उत्तरी तथा एशिया के दक्षिणी भागों में इनका आक्रमण विशेष होता है । मुहा०—टिड्डि दल = बहुत बड़ा झुंड । बहुत बड़ा समूह । बड़ी भारी भीड़ या सेना ।
⋙ टिढ़िबिंगा
वि० [हिं० टेढ़ा + बंक] जो सीधा और सुडौल न हो । टेढ़ामेढ़ा ।
⋙ टिढ़बिडंगा
वि० [हिं० टेढ़ा + बेढंगा] टेढ़ामेढ़ा । बेढंगा ।
⋙ टिन्नाना
क्रि० अ० [हिं०] १. क्रुद्ध होना । रुष्ट होना । २. (शिशन का) उत्तेजित होना ।
⋙ टिन्नाफिस्स
संज्ञा पुं० [हिं० टिन्नाना + फिस] आलोचना । निंदा । कहासुनी । उ०—तिस पर भी आपने जो इतना टिन्नाफिस्स किया तो बड़ा परिश्रम पड़ा ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २३ ।
⋙ टिप (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टीपना] साँप के काटने का एक प्रकार । साँप का ऐसा दंश जिसमें दाँत चुभ गए हों और विष रक्त में मिल गया हो ।
⋙ टिप (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०] पुरस्कार के रूप में अल्प मात्रा में दिया जानेवाला द्रव्य । बख्शीश । विशेष—भोजनालय और होटलों आदि में बैरों तथा मोटर ड्राइवरों को दिया जानेवाला पुरस्कार 'टिप' कहा जाता है ।
⋙ टिपकना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'टपकना' ।
⋙ टिपका पु †
संज्ञा पुं० [हिं० टिपकना] बूँद । कतरा । विदुं । उ०— नव मन दूध बटोरिया टिपका किया बिनास । दूध फाटि काँजी भया भया घीव का नास ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ टिपकारी
संज्ञा पुं० [हिं० टिप] दीवारों पर इंटों की बीच की जोडा़ई पर सीमेंट अथवा चूने की लकीर ।
⋙ टिपटाप
वि० [अं० टिप + टाँप] १. चुस्त । २. साफ सुथरी सुंदर वेशभूषा पहने हुए ।
⋙ टिपटिप
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. बूँद बूँद गिरने का शब्द । टपकने का शब्द । वह शब्द जो किसी वस्तु पर बूँद के गिरने से होता है । २. बूँद बूँद के रूप में होनेवाली वर्षा । हलकी बूँदाबाँदी । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—टिप टिप करना = बूँद बूद गिरना या बरसना ।
⋙ टिपटिपाना †
क्रि० अ० [हिं० टिपटिप से नामिक धातु] हलकी वर्षा होना ।
⋙ टिपरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० तोपना] बाँस, बेंत या मूँज के छिलके से बना हुआ ढक्कनदार छोटा पिटारा । पिटारी ।
⋙ टिपवाना
क्रि० स० [हिं० टीपना] १. दबवाना । चँपवाना । मिसवाना । जैसे, पैर टिपवाना । २. पिटवाना । धीरे धीरे प्रहार करना । ३.लिखवाना । टँकवाना ।
⋙ टिपाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० टीपना] टीपने की क्रिया । लेखन । अंकन । उ०—इतिहास में भूतकाल की घटनाओं का उल्लेख और अनुस्मरण रहता है । उसकी टिपाई सच्ची होनी चाहीए ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १ ।
⋙ टिपारा
संज्ञा पुं० [हिं० तीन + फा० पारह्(=टुकड़ा)] मुकुट के आकार की एक टोपी जिसमें कँलगी की तरह तीन शाखाएँ निकली होती हैं, एक सिर पर, दो बगल में । उ०—भोर फूल बीनिबे को गए फुलवाई हैं । सीसनि टिपारो, उपवीत पीन पट कटि , दोना बाम करनि सलोने भेसवाई है ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टिपिर टिपिर
क्रि० वि० [अनु०] टिपटिप की ध्वनि । हवा के साथ पानी की बूँदों के गिरने की ध्वनि । उ०—बूदें टिपिर टिपिर टपकीं दल बादल से ।—क्वासि, पृ० ४५ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ टिपुर
संज्ञा पुं० [देश०] १. गुमान । अभिमान । गुरूर । २. बहुत अधिक आचार विचार । पाखंड । आडंबर ।
⋙ टिप्पणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी वाक्य या प्रसंग का अर्थ सूचित करनेवाला विवरण । टीका । ब्याख्या । २. किसी घटना के संबंध में समाचारपत्रों में संपादक की ओर से लिखा जानेवाला छोटा लेख ।
⋙ टिप्पन
संज्ञा पुं० [सं०] १. टीका । व्याख्या । २. जन्मकुंडली । जन्मपत्री । मुहा०—टिप्पन का मिलान = विवाहसंबंध स्थिर करने के लिये वर कन्या को जन्मपत्रियों का मिलान ।
⋙ टिप्पनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी वाक्य या प्रसंग का अर्थ सूचित करनेवाला विवरण । टीका । व्याख्या । उ०—संपादक लोग अपनी अपनी टिप्पनियों में इसपर शोक सूचित करते— ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २९९ ।
⋙ टिप्पस †
संज्ञा स्त्री० [देश०] अभिप्रायसाधन का ढंग । युक्ति । क्रि० प्र०—जमना ।—जमाना ।—बैठना ।—भिड़ाना ।—लगना । विशेष—दे० 'टिक्की' ।
⋙ टिप्पा पु (१)
संज्ञा पुं० [?] १. धावा । उ०—छुटे सव्ब सिप्पे करैं दिग्ध टिप्पे, सबै सत्रु छिप्पे कहूँ हैं न दिप्पे ।—पझाकर ग्रं०, पृ० ११ । २. टिप्पस । युक्ति ।
⋙ टिप्पा † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] पुरुषेंद्रिय । लिंग ।—(अशिष्ट) ।
⋙ टिप्पी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टीका] १. उँगली में रंग आदि लगाकर बनाया हुआ चिह्न । २. ताश की बूटी । विशेष—दे० 'टिक्की' ।
⋙ टिफिन
संज्ञा स्त्री० [अं० टिफिन] अँगरेजों का दोपहर के बाद का जलपान ।
⋙ टिबरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] पहाड़ो की छोटी चोटी ।
⋙ टिबिल
संज्ञा पुं० [अं० टैबुल] भेज । उ०—नाक पर चश्मा देगे,कांटा और चिमटे से टिबिल पर खाएँगे ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पु० ८५६ ।
⋙ टिब्बा
संज्ञा पुं० [हिं० टीला] दे० 'टीबा' । उ०—जोनसार और गढ़वाल की नाग टिब्बा श्रुंखला—सब भीतरी श्रुंखला के पहाड़ों के नमूने हैं ।—भा० भू०, पृ० १११ ।
⋙ टिमकना †
क्रि० अ० [देश०] १. रुकना । ठहरना । २. चमकना । प्रकाशयुक्त होना ।
⋙ टिमकी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. छोटा मोटा बरतन । २. बच्चों का पेट ।
⋙ टिमटिम †
वि० [हिं० टिमटिमाना] मद्धिम या अंद (प्रकाश) । उ०—टिमटिम दीपक के प्रकाश में पढ़ते निज पोथी शिशुगण ।—रेणुका, पृ० १० ।
⋙ टिमटिमाना
क्रि० अ० [सं० तिम (=ठंढा होना)] १. (दीपक का) मंद मंद जलना । क्षीण प्रकाश देना । जैसे,—कोठरी में एक दीया टिमाटिमा रहा था । २. समान बँधी हुई लौ के साथ न जलना । बुझने पर हो होकर जलना । झिलमिलाना । जैसे,—दिपक टिमटिमा रहा है, बुझा चाहता है । मुहा०—आँख टिमटिमाना = आँख को थोड़ा थोड़ा खोलकर फिर बंद कर लेना । २. मरने के निकट होना । कुछ ही घड़ी के लिये और जीना ।
⋙ टिमटिम्याँ †
संज्ञा पुं० [देश०] ढ़ोल की तरह का एक बाजा । उ०—शहा के मंदिर टिमटिम्याँ बाजाया ।—दक्खिनी०, पृ० ७३ ।
⋙ टिमाक
संज्ञा स्त्री० [देश०] बनाव । सिंगार । ठसक । (स्त्री०) ।
⋙ टिमिला †
संज्ञा स्त्री० [देश०] [स्त्री० टिमिली] लड़का । छोकरा ।
⋙ टिमिली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] लड़की । छोकरी ।
⋙ टिम्मा †
वि० [देश०] छोटे डील डौल का । नाटा । ठेगना । बौना ।
⋙ टिर
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टर' ।
⋙ टिरफिस
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिर + फिस] चींचपड़ । प्रतिवाद । विरोध । बात न मानने की ढिठाई । जैसे,—सीधे से जो कहते हैं वह करो, जरा भी टिरफिस करोगे तो मार बैठेंगे । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ टिरिकबाजी
संज्ञा स्त्री० [अं० ट्रिक + फा० बाजी] चालाकी । फरेब । उ०—तुम हमको टिरिकबाजी दिखाती हो ।—मैला०, पृ० ३५६ ।
⋙ टिर्रा †
वि० [हिं० टर्रा] दे० 'टर्रा' ।
⋙ टिर्राना †
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'टर्राना' । उ०—माया को कस के एक थप्पड़ लगाया तो वह टिर्राने लगी ।—सैर कु०, भा० १, पृ० १४ ।
⋙ टिलटिलाना †
क्रि० अ० [अनु०] पतला दस्त फिरना । दस्त आना ।
⋙ टिलटिलो †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] पतला दस्त फिरने की क्रिया या भाव ।
⋙ क्रि० प्र०—आना ।—छूटना ।
⋙ टिलिवा
संज्ञा पुं० [देश०] १. लकड़ी का वह टुकड़ा जो छोटा, गँठीला और टेढ़ा हो । गठीला और टेढ़ा मेढ़ा कुंदा । २. नाटा या ठिगना आदमी । ३. चापलूस आदमी ।
⋙ टिलिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. छोटी मुर्गी । २. मुर्गी का बच्चा ।
⋙ टिलीलिली
संज्ञा स्त्री० [अनु०] बीच की उँगली हिला हिलाकर चिढ़ाने का शब्द ।—(लड़के) । विशेष—जब एक लड़का कोई वस्तु नहीं पाता या किसी बात में अकृतकार्य होता है, तब दूसरे लड़के उसके सामने हथेली सीधी करके और बीच की उँगली हिलाकर 'टिलीलिली' कहकर चिढ़ाते हैं ।
⋙ टिलेहू
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का नेवला जिसके शरीर से दुगँध निकलती है । विशेष—इसका सिर सू्अर के ऐसा और दुम बहुत छोटी होती है । यह तलवों के बल चलता है और अपने थूथन से जमीन की मिट्टी खोदता है । सुमात्रा, जावा आदि टापुओं में यह पाया जाता है ।
⋙ टिलोरिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] मुर्गी का बच्चा ।
⋙ टिल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० ठेलना] धक्का । टोकर । चोट ।—(बाजारू) । यौ०—टिल्लेनवीसी ।
⋙ टिल्जेबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिल्ली + फा० नवीसी] १. निकृष्ट सेवा । नीच सेवा । २. व्यर्थ का काम । ऐसा काम जिससे कोई लाभ न हो । निठल्लापन । ३. हीलाहवाली । टाल— मटूल । बहाना । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ टिसुआ †
संज्ञा पुं० [सं० अश्रु] आँसू ।—(पंजाबी) ।
⋙ टिहुक †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. ठिठक । रुकाव । २. चौंकना । ३. चकम । ४. रूठना । ५. रोना । रुदन । ६. कोयल की कूक ।
⋙ टिहुकना
क्रि० अ० [देश०] १. ठिठकना । २. चौंकना । ३. रूठना । ४. चमकना । ५. रोना । ६. कोयल का कूकना ।
⋙ टिहुकार †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कोयल की कूक ।
⋙ टिहुकारना पु †
क्रि० अ० [हिं० टिहुकार से नामिक धातु] कोयल का कूकना ।
⋙ टिहुनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० घुणठ, हिं० घुटना] घुटना । २. कोहनी ।
⋙ टिहूक †
संज्ञा स्त्री० [देश०] चौंकने की क्रिया या भाव । चौंक । झझक । उ०—एक ताग बनवल, दूसर गैल टूटी । चिलरे काटल, उठलि टिहूकी ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ टिहूकना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'टिहुकना' ।
⋙ टीँगा †
संज्ञा पुं० [देश०] भग । योनि ।
⋙ टीँटीँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] एक विशेष प्रकार की ध्वनि । टीं टीं की ध्वनि । उ०—तब एकाकी खग कोई तिनकों के बंदीघर में । कर टींटीं चुप हो बैठा अपने सूने पिंजर में ।—दीप०, पृ० ९५ ।
⋙ टीँड
संज्ञा पुं० [सं० टिणिडश(=डेंढ़सी)] रहठ में बाँधने की हँड़िया ।
⋙ टीँड़सी
संज्ञा स्त्री० [सं० टिणिडश] ककड़ी की जाती की एक बेल जिसमें गोल गोल फल लगते हैं । इन फलों की तरकारी होती है ।
⋙ टीँड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] १. जाँता घुमाने का खूँटा । २. दे० 'टिड्डा' ।
⋙ टीँड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टिड्डी' । उ०—जिमि टींड़ी दल गुहा समाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टी †
संज्ञा स्त्री० [अं०] चाय ।
⋙ टीक
संज्ञा स्त्री० [सं० तिलक] १. गले में पहनने का सोने का एक गहना जो ठप्पेदार या जड़ाऊ बनता है । २. माथे में पहनने का सोने का एक गहना ।
⋙ टी गार्डेन
[अं० टी(=चाय); + गार्डेन(=बाग)] वह जमीन जहाँ चाय होती है । चाय बगीचा । जैसे,—आसाम के टी गार्डेनों के कुलियों की दशा शोचनीय और करुणाजनक है ।
⋙ टीकठ †
संज्ञा पुं० [हिं० टिकना] रीढ़ की हड्डी ।
⋙ टीकन
संज्ञा पुं० [हिं० टेकना] थूनी । चाँड़ । वह खंभा या खड़ी लकड़ी जो किसी भार को सँभाले रहने या किसी वस्तु को एक स्थिति में रखने के लिये लगाई जाती है । मुहा०—टोकन देना = बढ़ते पौधों को सीधा और सुडौल रखने के लिये थूनी लगाना ।
⋙ टीकना
क्रि० स० [हिं० टीका] १. टीका लगाना । तिलक देना । २. ऊँगली में रंग आदि पोतकर चिह्न या रेखा बनाना ।
⋙ टीका (१)
संज्ञा पुं० [सं० तिलक] १. वह चिह्न जो उँगली में गीला चंदन, रोली, केस, मिट्टी आदि पोतकर मस्तक, बाहु आदि अंगों पर शृंगार आदि या सांप्रदायिक संकेत के लिये लगाया जाता है । तिलक । क्रि० प्र०—लगाना । मुहा०—टीका टाकना = बकरे को बलिदान करने के पहले टीका लगाना । उ०—छेरी खाए भेड़ी खाए बकरी टीका टाके ।— कबीर श०, भा० ३, पृ० ५२ । टीका देना = टीका लगाना । माथे पर घिसे हुए चंदन आदि से चिह्न बनाना । विशेष—टिका पूजन के समय तथा अनेक शुभ अवसरों पर लगाया जाता है । यात्रा के समय भी जानेवाले के शुभ के लिये उसके माथे पर टीका लगाते हैं । २. विवाह स्थिर होने की रीति जिसमें कन्यापक्ष के लोग वर के माथे में तिलक लगाते हैं और कुछ द्रव्य वरपक्ष के लोगों को देते हैं । इस रीति के हो चुकने पर विवाह का होना निश्चित समय माना जाता है । तिलक । क्रि० प्र०—चढ़ना ।—चढ़ाना ।—भेजना । ३. दोनों भौं के बीच माथे का मध्य भाग (जहाँ टीका लगाते हैं) । ४. किसी समुदाय का शिरोमणि । (किसी कुल, मंडली या जनसमूह में) श्रेष्ठ पुरुष । उ०—समाधान करि सो सबही का । गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका ।—तुलसी (शब्द०) । ५. राजतिलक । राजसिंहासन या गद्दी पर बैठने का कृत्य । क्रि० प्र०—देना । होना । ६. † वह राजकुमार जो राजा के पीछे राज्य का उत्तराधिकारी होनेवाला हो । युवराज । जैसे, टीका साहब । ७. आधिपत्य का चिह्न । प्रधानाता की छाप । जैसे,—क्या तुम्हारे ही माथे पर टीका है और किसी को इसका अधिकार नहीं है? मुहा०—टीके का = विशेषता रखनेवाला । अनोखा । जैसे,—क्या वही एक टीके का है जो सब कुछ रख लेगा ?—(स्त्रि०) । ८. वह भेंट जो राजा या जमींदार को रेयत या असामी देते हैं । ९.सोने का एक गहना जिसे स्त्रियाँ माथे पर पहनती हैं । १० घोड़े की दोनों आँखों के बीच माथे का मध्य भाग जहाँ भँवरी होती है । ११. धब्बा । दाग । चिह्न । १२. किसी रोग से बचाने के लिये उस रोग के चेप या रस से बनी ओषधि को लेकर किसी के शरीर में सुइयों से चुभाकर प्रविष्ट करने की क्रिया । जैसे, शीतला का टीका, प्लेग का टीका । विशेष—टीके का व्यवहार विशेषतः शीतला रोग से बचाने के लिये ही इस देश में होता है । पहले इस देश में माली लोग किसी रोगी की शीतला का नीर लेकर रखते थे और स्वस्थ मनुष्यों के शरीर में सुई से गोदकर उसका संचार करते थे । संथाल लोग आग से शरीर में फफोले डालकर उनके फूटने पर शीतला का नीर प्रविष्ट करते हैं । इस प्रकार मनुष्य को शीतला के नीर द्वारा जो टीका लगाया जाता है, उसमें ज्वर वेग से आता है, कभी कभी सारे शरीर में शीतला भी आती हैं और डर भी रहता है । सन् १७९८ में डा० जेनर नामक एक अँगरेज ने गोथन में उत्पन्न शीतला के दानों के नीर से टीका लगाने की युक्ति निकाली जिसमें ज्वर आदि का उतना प्रकोपनहीं होता और न कीसी प्रकार का भय रहता है । इंग्लैंड में इस प्रकार के टीके से बड़ी सफलता हुई और धीरे धीरे इस टीके का व्यवहार सब देशों में फैल गया । भारतवर्ष में इस टीके का प्रचार अंग्रेजी शासनकाल में हुआ है । कुछ लोगों का मत है कि गोथन शीतला के द्वारा टीका लगाने की युक्ति प्राचीन भारतवासियों को ज्ञात थी । इस वात के प्रमाण में धन्वंतरि के नाम से प्रसिद्ध एक शाक्त ग्रंथ का एक श्लोक देते हैं— धेनुस्तन्यमसूरिका नराणां च मसूरिका । तज्जलं बाहुमूलाच्च शस्त्रांतेन गृहीतवान् । । बाहुमूले च शस्त्राणि रक्तोत्पत्तिकराणि च । तज्जलं रक्तमिलितं स्फोटकज्वर संभवम् । ।
⋙ टीका (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी वाक्य, पद या ग्रंथ का अर्थ स्पष्ट करनेवाला वाक्य या ग्रंथ । व्याख्या । अर्थ का विवरण । विवृत्ति । जैसे, रामायण की टीका, सतसई की टीका ।
⋙ टीकाई
वि० [हिं० टीका] टीका लेनेवाला । टीका किया हुआ । उ०—लालवास जी के बालकृष्ण जी टीकाई चेले गद्दी बैठे ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, (जी०), पृ० १४० ।
⋙ टीकाकार
संज्ञा पुं० [सं०] व्याख्याकार । किसी ग्रंथ का अर्थ लिखने— वाला । वृत्तिकार ।
⋙ टीका टिप्पणी
संज्ञा स्त्री० [सं० टीका + टिप्पणी] १. आलोचना । तर्क वितर्क । २. अप्रशंसा । निंदा ।
⋙ टीकारो पु
वि० [हिं० टीका] टीकाई । प्रधान । सवोंच्च । उ०— टीकारो मालक तिको श्रीकारो मूख आस ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ७७ ।
⋙ टीकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टीका] १. टिकुली । २. टिकिया । टिक्की । ३. टीका । उ०—चंद्रभगा लो बीच लगावत पिय कै टीकी ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८६ ।
⋙ टीकुर †
संज्ञा पुं० [देश०] १. ऊँची पृथ्वी । नदी के बाहर की ऊँची और रेतीली भूमि । २. जंगल । वन ।
⋙ टीटा
संज्ञा पुं० [देश०] स्त्रीयों की योनि में वह मांस जो कुछ बाहर निकला रहता है । टना ।
⋙ टीडरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टींड' । उ०—बाँधे ज्यूँ अरहर की टीडरि, आवत जात बिगूते ।—कबीर ग्रं०, पृ० १५५ ।
⋙ टीड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टिड्डी' । उ०—(क) कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई । जनु टीड़ी गिरि गुहा समाई ।—मानस, ६ ।६६ । (ख) मानो टीड़ी दल गिरत साँझ अरुण की बार ।—शकुंतला, पृ० २५ ।
⋙ टीन
संज्ञा पुं० [अं० टीन] १. राँगा । २. राँगे की कलई की हुई लोहे की पतली चद्दर । ३. इस प्रकार की चद्दर का बना बरतन या डिब्बा ।
⋙ टीप (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टीपना] १. हाथ से दबाने की क्रिया या भाव । दबाव । दाब । २. हलका प्रहार । धीरे धीरे ठोंकने की क्रिया या भाव । ३. गच कूटने का काम । गच की पिटाई । ४. बिना पलस्तर की दीवार में ईटों के जोड़ों में मसाला देकर नहले से बनाई हुई लकीर । ५. टंकार । ध्वनि । धोर शब्द । ६. गाने में ऊँचा स्वर । जोर की तान । क्रि० प्र०—लगाना । ७.हाथी के शरीर पर लेप करने की ओषधि । ८. दूध और पानी का शीरा जिससे चीनी का मैल छँटता है । ९. स्मरण के लिये किसी बात को झटपट लिख लेने की क्रिया । टाँक लेने का काम । नोट । १०. वह कागज जिसपर महाजन को मूल और ब्याज के बदले में फसल के समय अनाज आदि देने का इकरार लिखा रहता है । ११. दस्तावेज । १२. हुंडी । चेक । १३. सेना का एक भाग । कंपनी । १४. गंजीफे के खेल में विपक्षी के एक पत्ते को दो पत्तों से मारने की क्रिया । १५. लड़की या लड़के की जन्मपत्री । कुंडली । टिप्पन ।
⋙ टीप (२)
वि० चोटी का । सबसे अच्छा । चुनिंदा । बढ़िया ।—(स्त्रि०) ।
⋙ टीपटाप
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. ठाटवाट । सजावट । तड़क भड़क । दिखावट । २. दरारों या संधियों में मसाला भरना ।
⋙ टीपणा पु
संज्ञा पुं० [सं० टिप्पणी] दे० 'टीपना (३)' । उ०—पोथी पुस्तक टीपणो जग पंजित को काम ।—राम० धर्म०, पृ० ५७ ।
⋙ टीपदार
वि० [हिं० टीप + दार (प्रत्य०)] सुरीला । मधुर । उ०—वल्लाह क्या टीपदार आवाज है, बस यह मालुम पड़ता है कि कोई बीन बजा रहा है ।—फिसाना०, भा० १, पृ० २ ।
⋙ टीपन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टीपना] शरीर में वह स्थान जहाँ काँटा या कंकड़ चुभने से मांस ऊँचा होकर कड़ा हो जाता हैं । गाँठ । टाँका । घट्टा ।
⋙ टीपन (२)
संज्ञा पुं० [सं० टिप्पणी] जन्मपत्री । टीपना ।
⋙ टीपना (१)
क्रि० स० [टेपन (=फेंकना)] १. हाथ या उँगली से दबाना । चापना । मसलना । जैसे, पैर टीपना । २. धीरे धीरे ठोंकना । हलका प्रहार करना । ३. ऊँचे स्वर में गाना । ४. गंजीफे के खेल में दो पत्तों से एक पत्ता जितना । ५. दीवाल या फरश की दरारों को मसाले से भरना ।
⋙ टीपना (२)
क्रि० स० [सं० टिप्पनी] लिख लेना । टाँक लेना । अंकित कर लेना । दर्ज कर लेना ।
⋙ टीपना (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० टिप्पणी] जन्मपत्री । उ०—श्रीमत गंगाधर राव की जन्मपत्री मिलाकर देखूँ शायद टक्कर खा जाय । टीपना प्राप्त हो गई । मिल गई ।—झाँसी०, पृ० ४२ ।
⋙ टीबा
संज्ञा पुं० [हिं० टीला] टीला । ढूह । भीटा ।
⋙ टीम
संज्ञा स्त्री० [अं०] खेलनेवालों का दल । जैसे, क्रिकेट की टीम ।
⋙ टीमटाम
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. बनाव सिंगार । सजावट । २. ठाठबाट । तंडक भड़क । उ०—टीमटाम बाहर बहुतेरे दिल दासी से बँधा ।—कबीर श०, भा० ४, पृ० २५ ।
⋙ टीला
संज्ञा पुं० [सं० उष्ठीला (=भार)] १. पृथ्वी का वह उभरा । हुआ भाग जो आसपास के तल से ऊँचा हो । ढूह । भीटा । २. मिट्टी या बालू का ऊँचा ढेर । घुस । ३. छोटी पहाड़ी । ४. साधुओं का मठ ।
⋙ टीशन
संज्ञा स्त्री० [अं० स्टेशन] रेलगाड़ी के ठहरने का स्थान । स्टेशन । उ०—पुरैनिया ष्टीशन पर गाड़ी पहुँची भी नहीं थी ।—मैला०, पृ० ७ ।
⋙ टीस (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] चुभती हुई पीड़ा । रह रहकर उठनेवाला दर्द । कसक । चकस । हूल । क्रि० प्र०—होना । मुहा०—टीस उठना = दर्द शुरू होना । रह रहकर पीड़ा होना । (घाव आदि का) टीस मारना = रह रहकर दर्द करना ।
⋙ टीस (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० स्टिच] किताब की सिलाई । जुजबंदी ।
⋙ टोसना
क्रि० अ० [हिं० टीस] १. चुभती पीड़ा होना । रह रहकर दर्द उठना । कसक होना । घाव फोड़े आदि का दर्द करना ।
⋙ टुंग †
संज्ञा पुं० [सं० उत्तुङ्ग] पहाड़ की चोटी ।
⋙ टुंच
वि० [सं० तुच्छ] क्षुद्र । तुच्छ । टुच्चा । मुहा०—टुंच भिड़ाना = थोड़ी पूँजी से काम करना । टुंच लड़ाना = (१) थोड़ी पूँजी से काम प्रारंभ करना । (२) थोड़ी पूँजी से जुआ खेलना । धीरे धीरे जीतना ।
⋙ टुंटा
वि० [सं० रुण्ड या हिं० टूटा] १. जिसका हाथ कटा हो । बिना हाथ का । लूला । २. ठूँठा ।
⋙ टुंटुक (१)
संज्ञा पुं० [सं० टुण्टुक] १. श्योनाक । सोना पाठा । आलू । टेटु । २. काला खैर ।
⋙ टुंटुक (२)
वि० १. छोटा । २. क्रूर । दुष्ट । ३. कठोर [को०] ।
⋙ टुंटुका
संज्ञा स्त्री० [सं० टुण्टुका] पाठा ।
⋙ टुंड
संज्ञा पुं० [सं० रुण्ड(=बिना सिर का धड़), या स्थाणु(=छीन्न वृक्ष)] १. वह पेड़ जिसकी डाल टहनी आदि कट गई हों । छिन्न वृक्ष । ठूँठ । २. वह पेड़ जिसमें पत्तियाँ न हों । ३. कटा हुआ हाथ । ४, एक प्रकार का प्रेत जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह घोड़े पर सवार होकर और अपना कटा सिर आगे रखकर रात को निकलता है । ५. खंड । टुकड़ा । उ०—बहु सुडंन टुंडन टुंड कियं । निरखै नभ नाइक अच्छरियं ।—रसर०, पृ० २२७ ।
⋙ टुंडा (१)
वि० [हिं० टुंड] [स्त्री० अल्पा० टुंडी] १. जिसकी डाल टहनी आदि कट गई हों । ठूंठा । २. जिसका हाथ कट गया हो । बिना हाथ का । लूला । लुंजा । ३. (बैल) जिसका सींग टूटा हो । एक सींग का बैल । डूँडा ।
⋙ टुंडा (२)
संज्ञा पुं० १. हाथ कटा आदमी । लूला मनुष्य । २. एक सींग का बैल ।
⋙ टुंडी (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० तुणि़ड] नाभी । ढोंढ़ी ।
⋙ टुंडी † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० दण्ड] बाहुदड । भुजा । मुश्क । मुहा०—टुँडिया बाँधना या कसना = मुश्कें बाँधना । टुंडियाँ खिंचना = मुश्कें बाँधना । हथकड़ी पहनना ।
⋙ टुंडी †
वि० स्त्री० [सं० स्थाणु, हीं० ठूँठ, टुंड टुंडा, टुंडी,] जिसे हाथ न हो । कटे हाथ की । लूली ।
⋙ टुंड्रा
संज्ञा पुं० [अं०] साइबेरिया के उत्तर में स्थित एक हिमप्रदेश ।
⋙ टुँगना
क्रि० स० [हिं० टुनगा] १. (चौपायों का) टहनी के सिरे की पत्तियों को दाँत से काटना । कुतरना । २. कुतर कर चबाना । थोड़ा सा काटकर खाना । संयो० क्रि०—जाना ।—लेना ।
⋙ टुइयाँ (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] छोटी जाति का सुआ या तोता । सुग्गी । विशेष—इसकी चोंच पीली और गरदन बैगनी रंग की होती है ।
⋙ टुइयाँ (२)
वि० ढेगना । नाटा । बौना ।
⋙ टुइल
संज्ञा स्त्री० [अं० टील] एक प्रकार का मोटा मुलायम सूती कपड़ा ।
⋙ टुक (१)
वि० [सं० स्तोक (=थोड़ा)] थोड़ा । जरा । किंचित् । तनिक । मुहा०—टुक सा = जरा सा । थोड़ा सा ।
⋙ टुक (२)
क्रि० वि० थोड़ा । जरा । तनिक । जैसे,—टुक इधर देखो । उ०—मातः कातर न हो, अहो, टुक धीरज धारो ।—साकेत, पृ० ४०४ । विशेष—इस शबद का प्रयोग क्रि० वि० वत् ही अधिक होता है । कभी कभी यह यों ही बेपरवाई करने के लिये किसी क्रिया के साथ बौला जाता है । जैसे,—टुक जाकर देखो तो ।
⋙ टुक टुक (१)
क्रि० वि० [अनु०] दे० 'टुकुर टुकुर' ।
⋙ टुक टुक (२)पु
क्रि० वि० [हिं० टुकड़ा] टूक टूक । टूकड़े टुकड़े । उ०—दरजी ने टुक टुक कीन्ह दरद नहिं जाना हो ।— धरनी०, पृ० ३६ । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ टुकड़गदा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० टुकडा़ + फा़० गदा] वह भिखमंगा जो घर पर रोटी का टुकडा़ माँगकर खाता हो । भिखारी । मँगता ।
⋙ टुकड़गदा (२)
वि० १. तुच्छ । २. अत्यंत निर्धन । दरिद्र । कंगाल ।
⋙ टुकड़गदाई (१)
संज्ञा पुं० [हिं० टुकडा़ + फा़० गदा + हीं० ई (प्रत्य०)] दे० 'टुकड़गदा' ।
⋙ टुकड़गदाई (२)
संज्ञा स्त्री० टुकडा़ माँगने का काम ।
⋙ टुकड़तोड़
संज्ञा पुं० [हिं० टुकडा़ + तोड़ना] दूसरे का दिया हुआ टुंकडा़ खाकर रहनेवाला आदमी । दूसरे का आश्रित मनुष्य ।
⋙ टुकडा़
संज्ञा पुं० [सं० स्तोक(= थोडा़), हिं० टुक, टूक + डा़(प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० टुकडी] १. किसी वस्तु का वह भाग जो उससे टूट फूट या कट छँटकर अलग हो गया हो । खंड । छिन्न अंश । रेजा । जैसे, रोटी का टुकडा़, कागज या कपडे़ का टुकडा़, पत्थर या ईंट का टुकडा़ । मुहा०—टुकडे़ उडा़ना = काटकर कई भाग करना । टुकडे़ करना = काटकर या तोड़कर कई भाग करना । खंड करना । टुकडे़ टुकडे़ उडा़ना = काटकर खंड खंड करना । (किसी वस्तु को) टुकडे़ टुकडे़ करना = इस प्रकार तोड़ना कि कई खंड हो जायँ । चूर चूर करना । खंडित करना । २. चिह्न आदि के द्वारा विभक्त अंश । भाग । जैसे, खेत का टुकडा़ । ३. रोटी का टुकडा़ । रोटी का तोडा़ हुआ अंश । ग्रास । कौर । मुहा०— (दूसरे का) टुकडा़ तोड़ना = दूसरे की दी हुई रोटी खाना । दूसरे के दिएं हुए भोजन पर निर्वाह करना । जैसे,—वह ससुराल का टुकडा़ तोड़ता है । टुकडा़ तोड़कर जवाब देना = दे० 'टुकडा़ सा जवाब देना' । टुकडा़ देना = भिखमंगे को रोटी या खाना देना । (दूसरे के) टुकडों पर पड़ना = दूसरे की दी हुई खाकर रहना । दूसरे के यहाँ के भोजन पर निर्वाह करना । पराई कमाई पर गुजर करना । जैसे,—वह ससुराल के टुकडे़ पर पडा़ है । टुकडा़ माँगना = भीख माँगना । टुकडा़ सा जवाब देना = झट और स्पष्ट शब्दों में अस्वीकार करना । संकोच नहीं करना । साफ इनकार करना । लगी लिपटी न रखना । कोरा जवाब देना । टुकडा़ सा तोड़कर हाथ में देना = दे० 'टुकडा़ सा जवाब देना' । टुकडे़ टुकडे़ को मुहताज होना = अत्यंत दरिद्रावस्था को पहुँच जाना । उ०—मगर जूए की लत थी सब दौलत दाँव पर रख दी तो टुकडे़ टुकडे़ को मुहताज । करें तो क्या करें ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ६२ ।
⋙ टुकडी़
संज्ञा स्त्री० [हिं० टुकडा़] १. छोटा टुकडा़ । खंड । जैसे, एक टुकडी़ नमक, काँच की टुकडी़ । २. थान । कपडे़ का टुकडा़ । ३. समुदाय । मंडली । दल । जैसे, यारों की टुकडी़ । ४. पशु पक्षियों का दल । झुंड । गोल । जत्था । जैसे, कबूतरों की टुकडी़ । ५. सेना का एक अंश । हिस्सा । कंपनी । ६. स्त्रियों का लहँगा ।७. कार्तिक के स्नान का मेला ।
⋙ टुकना † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोकनी' ।
⋙ टुकना † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० टूकाना(प्रत्य०)] टुकडा़ । टूका ।
⋙ टुकनी (१)
संज्ञा स्त्री०[हिं०]दे० 'टोकनी' ।
⋙ टुकनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टूक + नी (प्रत्य०)] छोटा टुकडा़ ।
⋙ टुकरिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टुकडा़] छोटा टुकडा़ । टुकडी । खंड । टूक । उ०—दरजौ और जू नाहिं, यहै बाँस की टुकरिया ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५१ ।
⋙ टुकरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] सल्लम की तरह का एक टुकडा़ ।
⋙ टुकरीपु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टुक़डी़' ।
⋙ टुकुर टुकुर
क्रि० वि० [अनु०] निनिंमेष । बिना पलक गिराए हुए । उ०—उडुगण अपना रुप देखते टुकुर टुकुर थे । —साकेत, पृ ४०९ । मुहा०—टुकुर टुकुर ताकना = दे० 'टुकुर टुकुर देखना' । उ०—चिड़ि- याएँ सुख से घोंसलों में बैठी टुकुर टुकुर ताकतीं ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १९ । टुकुर टुकुर देखना = ललचाई हुई दृष्टि से या विवशता के साथ किसी वस्तु या व्यक्ति की ओर देखना ।
⋙ टुक्क †
संज्ञा पुं० [हिं० टुकडा़] १. टुकडा़ । २. चौथाई भाग । उ०—दुइ टुक्क होइ भुमि अद्ध काय ।— ह० रासो, पृ० ८२ ।
⋙ टुक्कड †
संज्ञा पुं० [सं० स्तोक] 'टुकडा़' ।
⋙ टुक्कर †
संज्ञा पुं० [सं० स्तोक]दे० 'टुकडा़' ।
⋙ टुक्का
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'टुकडा़' । मुहा०—टुक्का सा जवाब देना = दे० 'टुकडा़ सा जवाब देना' । २. चौथाई भाग या अंश ।
⋙ टुक्की †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. छोटा टुकडा़ । २. चौथाई अंश ।
⋙ टुगर टुगर पु
क्रि० वि० [हिं०]दे० 'टुकुर टुकुर' । उ०—टुगर टुगर वेस्या करै सुंदर बिरहा ऐन ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ६८३ ।
⋙ टुघलाना
क्रि० अ० [देश०] १. चुभलाना । मुँह में रखकर घीरे धीरे कूँचना । २. जुगाली करना ।
⋙ टुचकारा
संज्ञा पुं० [हिं० टुच्चा] निंदा । टुच्ची बात । अपशब्द । उ०—तब अपने मुहल्ले में लौटती समय कई मसखिरयाँ, बोलीठोली और टुचकारे उसे सुनने पड़ते ।—अभिशप्ता, पृ० १२७ ।
⋙ टुच्चा
वि० [सं० तुच्छ, या देश०] १. तुच्छ । ओछा । नीच । नीचाशय । छिछोरा । क्षुद्र प्रकृति का । कमीना । शोहदा । जैसे, टुच्चा आदमी । २. छोटा या बेनाप का (कपडा़) ।
⋙ टुटका
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोटका' ।
⋙ टुट्टुट्
संज्ञा स्त्री० [अनु०] चिड़ियों के बोलने की एक प्रकार की की ध्वनि । उ०—हैं चहक रहीं चिड़ियाँ टी वी टी—टुटटुट् । युगांत, पृ० १९ ।
⋙ टुटना (१)पु
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'टूटना' । उ०—फिरि फिरि चितु उत हीं रहतु टुटी लाज की लाव । अंग अंग छवि झौर मैं भयौ भौंर की नाव ।—बिहारी र०, दो० १० ।
⋙ टुटना (२)
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० टुटनी] टूटनेवाला ।
⋙ टुटनो
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोंटी] झारी या गड़ुवे की पतली नली । छोटी टोंटी ।
⋙ दुटपुँजिया
वि० [हिं० टूटी + पूँजी] थोडी़ पूँजी का । जिसके पास किसी काम में लगाने कै लिये बहुत थेडा़ धन हो ।
⋙ दुटरूँ
संज्ञा पुं० [अनु०] छोटी पंडुकी । छोटी फाख्ता । मुहा०—टुटरूँ सा = अकेला । एकाकी ।
⋙ टुटरूँ टूँ (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] पंडुकी के बोलने का शब्द । पेंडुकी या फाख्ता की बोली ।
⋙ टुटरूँ टूँ (२)
वि० १.अकेला । एकाकी । जैसे,—सब लोग अपने अपने घर गए हैं, मैं ही टूटरूँ टूँ रह गया हूँ । २. दुबला पतला । कमजोर । जैसे,—बेचारे टुटरूँ टूँ आदमी कहाँ तक करें ।
⋙ टुटहा †
वि० [हिं० टूटना] [वि० स्त्री० टुटही] १.टूटा हुआ । २. टूटे (हाथ आदि) वाला । २.जातिबहिष्कृत ।
⋙ टुटाना (१)
क्रि० स० [हिं० टूटना का प्रेरणा०] टूटने के लिये प्रेरित करना । टुडवा दैना । उ० बरने को वारण के पथ से, काजे तारे कौ टुटा दिया ।—अर्चना, पृ० ३८ ।
⋙ टुटाना (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] चमडा़ मढा़ हुआ एक बाजा ।
⋙ टुटियल
वि० [हिं० टूट + इयल(प्रत्य०)] १.टूटा फूटा हुआ या टूटने फूटनेवाला । जीर्णशीर्ण । २.कमजोर । निर्बल ।
⋙ टुटुहा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक चिडी़या का नाम ।
⋙ टुटेला †
वि० [हिं० टूट + एला(प्रत्य०)] टूटा हुआ ।—(लश०) ।
⋙ टुट्टना पु
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'टूटना' । उ०—पाओ पहारे पुहवि कप्प गिरि सेहर टु्टटइ ।—कीर्ति, पृ० १०२ ।
⋙ टुडी़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तुंडि] १.नाभि । २.ठोढी़ ।
⋙ टुडी़ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टुकडी़] टुकडी़ । डली ।
⋙ टुनकी †
संज्ञा पुं० [देश०] बार बार मूत्रस्त्राव होने और उसके साथ धातु गिरने का रोग ।
⋙ टुनका †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक परदार कीडा़ जो घाव को हानि पहुँचाता है ।
⋙ टुनगा †
संज्ञा पुं० [सं० तनु(= पतला) + अग्र(= अगला)-तन्दग्र] [स्त्री० टुनगी] डाल ता टहनी के सिरे का भाग जिसकी पत्तियाँ छोटी और कोमल होती हैं । टहनी का अगला भाग ।
⋙ टुनगी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टुनगा] डाल या टहनी के सिरे पर का भाग जिसकी पत्तियाँ छोटी और कोमल होती हैं । टहनी का अगला भाम ।
⋙ टुनटुना †
संज्ञा पुं० [देश०] मैदे का बना हुआ एक नमकीन पकवान जो मैदे की चिकनी लंबी बत्तियों को घी में तलकर बनाया जाता है ।
⋙ टुनटुनाना
क्रि० अ० [हिं० टुनटुन] घंटियों के बजने की आवाज । टुनटुन की ध्वनि । उ०—और ध्वनि ? कितनी न जाने घंटियाँ, टुनटुनाती थीं, न जाने शंख किनने ।—हरी घास० पृ० २० ।
⋙ टुनहाया †
संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० टुनहाई]दे० 'टोनहाया' ।
⋙ टुनाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तालमूली ।
⋙ टुनियाँ †
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड] मिट्टी का टोंटीदार बरतन ।
⋙ टुनिहाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टोनहाई' । उ०—टुनिहाई सब टोल में रही जु सौति कहाय । सुतौ ऐंचि पिय आप त्यौं करी अदोखिल आइ ।—बिहारी (शब्द०) ।
⋙ टुनिहाया †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोनहाया' ।
⋙ टुन्ना
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड] वह नाल जिसमें फल लगते हैं और लटकते हैं । जैसे, कददू का दुन्ना ।
⋙ टुपकना †
क्रि० अ० [अनु०] १.धीरे से काटना या डंक मारना । २, किसी के विरुद्ध धीरे से कुछ कह देना । चुगली खाना । अवांछित रूप से बीच में पडना । संयो० क्रि०—देना ।
⋙ टुबी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टूबना] गोता । डुब्बी । उ०—टुबी देई पाण में, डिठो हँझेई ।—दादू०, पृ० ९७ ।
⋙ टुमकना
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'टपकना' ।
⋙ टुम्मा
संज्ञा पुं० [देश०] रुपए पाने की एक गैरमामूली रसीद ।
⋙ टुरन पु
क्रि० अ० [पं० टुर] चलना । उ०—शिव शांति सरोवरि संत समाने, फिरन टुरन के गवन मिटाने ।—प्राण०, पृ० ६५ ।
⋙ टुर्रा
संज्ञा पुं० [?] १.टुकडा़ । डली । दाना । रवा । कण । २. मोटे अनाज का दाना । ज्वार, बाजरे आदि का दाना ।
⋙ टुलकना †
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'ढुलकना' ।
⋙ टुलडा़
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो पूरबी वंगाल और आसाम में होता है ।
⋙ टुसकना
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'टसकना' ।
⋙ टूँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] पादने का शब्द ।
⋙ टूँक †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टूक' ।
⋙ टूँगना
क्रि० स० [हिं० टूगना] १.(चौपायों का) टहनी के सिरे की कोमल पत्तियों को दाँत से काटना । कुतरना । २. थोडा़ सा काटकर खाना । कुतरकर चबाना । संयो० क्रि०—जाना ।—लेना ।
⋙ टूँगा पु
वि० [सं० तुङ्ग] ऊँचा ।
⋙ टूँटा पु
वि० [हिं०] जिसके हाथ टूटे हुए या खराब हों । उ०— टूँटा पकरि उठावै पर्वत पंगुल करै नृत्य अहलाद ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५०८ ।
⋙ टूँड़
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड] [स्त्री० अल्पा० टूँडी़] १.मच्छड़, मक्खी, टिड्डे आदि कीड़ों के मुँह के आगे निकली हुई वाल की तरह दो पतली नलियाँ जिन्हें धँसाकर वे रक्त आदि चूसते हैं । २.जे, गेहूँ आदि की बाल में दाने के कोश के सिरे पर निकला हुआ बाल की तरह का पतला नुकीला अवयव । सींग । सींगुर ।
⋙ टूँडी़
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड] १.जौ गेहूँ, धान आदि की बाल में दानों के खोलों के ऊपर निकली हुई बाल की तरह पतली नोक । सीगा । २. ढोंढी़ । नाभि । ३.गाजर, मूली आदि की नोक । ४. किसी वस्तु की दूर तक निकली हुई नोक ।
⋙ टूअर †
वि० [देश०] वह असहाय बालक जिसकी माँ मर गई हो ।
⋙ टूक †
संज्ञा पुं० [सं० स्तोक] टुकडा़ । खंड । उ०— तिहि मारि करुँ ततकाल टूक ।—ह० रासो, पृ० ४८ । यौ०—टूक टूक । उ०—मन को मारूँ पटकि के, टूक टूक होइ जाय ।—कबीर सा०, पृ० ५५ । मुहा०—दो टूक करना = स्पष्ट करना । किसी प्रकार का भेद न रहने देना । = दो टूक जवाब देना = स्पष्ट जवाब देना । साफ साफ नकार देना ।
⋙ टूकडा़ पु
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टूकडा़' । उ०—टूकडा़ टूकडा़ होई जावै ।—कबीर० रे०, पृ० २३ ।
⋙ टूकर †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टुकडा़ ।
⋙ टूका †
संज्ञा पुं० [हिं० टूक] १. टूकडा़ । २. रोटी का टुकडा़ । उ०—केचित् घर घर माँगहि टूका । बासी कूसी रूखा सूका ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ९१ । ३. रोटी का चौथाई भाग । ४. भिक्षा । उ०—बरु तन राख लगाय चाह भर, खाय घरन के टूका ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ९४ । क्रि० प्र०—माँगना ।
⋙ टूकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठूक] १. टूक । खंड । टुकडा़ । २. अँगिया के मुलकट के ऊपर की चकती ।
⋙ टूक्यो पु
संज्ञा पुं० [(डिं०)] भालू ।
⋙ टूट (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रुटि, हिं० टूटना] १. वह अंश जो टूटकर अलग हो गया हो । खंड । टूटन । संयो० क्रि०—जाना । यौ०—टूटफूट । २. टूटने का भाव । ३. लिखावट में वह भूल से छूटा हुआ शब्द या वाक्य जो पीछे से किनारे पर लिख दिया जाता है । उ०—औ विनती पँडितन मन भजा । टूट सँवारहु मेटवहु सजा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ टूट (२)
संज्ञा पुं० टोटा । घाटा । कमी । मुहा०—टूट में पड़ना = घाटे में पड़ना । हानि उठाना । कमी होना । उ०—ठूट में जाय पड़ नहीं कोई । टूटकर भी कमर न टूट सके ।—चुभते०, पृ० ४७ ।
⋙ टूटदार
वि० [हिं० टूटना] टूटनेवाला । जोड़ पर से खुलने बंद होनेवाला (कुर्सी, टेबुल आदि) ।
⋙ टूटना
क्रि० अ० [सं० त्रुट] १. किसी वस्तु का आघात, दबाव या झटके के द्वारा दो या कई भागों में एकबारगी विभक्त होना । टुकडे़ टुकडे़ होना । खंडित होना । भग्न होना । जैसे,— छडी़ टूटना, रस्सी ठूटना । संयो० क्रि०—जना । यौ०—टूटना फूटना । विशेष—'टूटना' और 'फूटना' क्रिया में यह अंतर है । कि फूटना खरी वस्तुओं के लिये बोला जाता है, विशेषतः ऐसी जिनके भीतर अवकाश या खाली जगह रहती है । जैसे, घडा़फूटना, बरतन फूटना, खपडे़ फूटना, सिर फूटना । लकडी़ आदि चीमड़ वस्तुओं के लिये 'फूटना' का प्रयोग नहीं होता । पर फूटना के स्थान पर पश्चिमी हिंदी में 'टूटना' का प्रयोग होता है, जैसे, घडा़ ठूटना । २.किसी अंग के जोड़ का उखड़ जाना । किसी अंग का चोट खाकर ढीला और बेकाम हो जाना । जैसे,—हाथ टूटना, पैर टूटना । ३. किसी लगातार चलनेवाली वस्तु का रुक जाना । चलते हुए क्रम का भंग होना । सिलसिला बंद होना । जारी न रहना । जैसे,—पानी इस प्रकार गिराओ कि धार न टूटे । ४. किसी ओर एकबारगी वेग से जाना । किसी वस्तु पर झपटना । झुकना । जैसे, चील का मांस पर टूटना, बच्चे का खिलौने पर टूटना । संयो० क्रि०—पड़ना । ५. अधिक समूह में आना । एकबारगी बहुत सा आ पड़ना । पिल पड़ना । जैसे,—दूकान पर ग्राहकों का टूटना, विपत्ति या आपत्ति टूटना । संयो० क्रि०—पड़ना । मुहा०—टूट टूटकर बरसना = बहुत अधिक पानी बरसना । मूसलाधार बरसना । ६.दल बाँधकर सहसा आक्रमण करना । एकबारगी धावा करना । जैसे, फौज का दुश्मन पर टूटना । संयो० क्रि०—पड़ना । ७. अनायास कहीं से आ जाना । अकस्मात् प्राप्त होना । जैसे,— दो ही महीने में इतनी संपत्ति कहाँ से टूट पडी़ ? उ०— आयो हमारे मया करि मोहन मोकों तो मानो महानिधि टूटो ।—देव । (शब्द०) । ८. पृथक् होना । अलग होना । च्युत होना । मेल में न रहना । जैसे, पंक्ति से टूटना, गवाह का टूट जाना । संयो० क्रि०—जाना । ९. संबंध छूटना । लगाव न रह जाना । जैसे, नाता टूटना । मित्रता टूटना । संयो० क्रि०—जाना । १०. दुर्बल होना । कृश होना । दुबला पड़ना । क्षीण होना । जैसे,—(क) वह खाने बिना टूट गया है । (ख) उसका सारा बल टूट गया । संयो० क्रि०—जाना । मुहा०—(कुएँ का) पानी टूटना = पानी कम होना । ११. धनहीन होना । कंगाल होना । बिगड़ जाना । जैसे,—इस रोजगार में बहुत से महाजन टूट गए । संयो० क्रि०—जाना । १२. चलता न रहना । बंद हो जाना । किसी संस्था, कार्यालय आदि का न रह जाना । जैसे, स्कूल टूटना, बाजार टूटना, कोठी टूटना, मुकदमा टूटना । संयो० क्रि०—जाना । १३. किसी स्थान, जैसे गढ़ आदि का शत्रु के अधिकार में जाना । जैसे, किला टूटना । उ०— मेघनाद तहँ करइ लराई । टूट न द्वार परम कठिनाई ।—तुलसी (शब्द०) । संयो० क्रि० —जाना । १४. रुपए का बाकी पड़ना । वसूल न होना । जैसे,—अभी हिसाब साफ नहीं हुआ, हमारे १० टूटते हैं । १५. टोटा होना । घाटा होना । हानि होना । १६. शरीर में ऐंठन या तनाव लिए हुए पीडा़ होना । जैसे,—बुखार चढ़ने पर जोड़ जोड़ टूटता है । मुहा०—बदन या अंग टूटना = अँगडा़ई आना । १७. पेड़ों से फल का तोडा़ जाना । फलों का इकट्ठा किया जाना । फल उतरना । जैसे, आम टूटना ।
⋙ टूटा (१)
वि० [हिं० टूटना] [वि० स्त्री० टूटी] १. टुकडे़ किया हुआ । भग्न । खंडित । यौ०—टूटा फूटा = जीर्ण । निकम्मा । मुहा०—टूटी फूटी जबान, बात या बोली = (१) असंबद्ध वाक्य । ऐसे वाक्य जो व्याकरण से शुद्ध और संबद्ध न हों । जैसे, टूटी फूटी अंग्रेजी । उ०—क्या कहें हाले दिल गरीब जिगर । टूटी फूटी जबान है प्यारे ।— वि० भा० । २. अस्पष्ट वाक्य । उ०—शीत, पित्त कफ कंठ निरोधे रसना टूटी फूटी बात ।—सूर (शब्द०) । टूटी बाँह गले पड़ना = अपाहिज के निर्वाह का भार अपने ऊपर पड़ना । किसी संबंधी का खर्च अपने जिम्मे होना । २. दुबला । कमजोर । क्षीण । शिथिल । ३. निर्धन । दरिद्र । दीन ।
⋙ टुटा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोटा' । उ०—करु व्योपार सहज है सौदा, टूटा कबहुँ न परता ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० १० ।
⋙ टूटा फूटा
वि० [हिं० टूटना + फूटना] बिगडा़ हुआ । जिसकी हालत बुरी हो गई हो । उ०—आप भी उन्हीं टूटे फूटे नवाबों में हैं ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १५९ ।
⋙ टूठना पु
क्रि० अ० [सं० तुष्ट, प्रा० तुष्ठ, हिं० टूठ + वा (प्रत्य०)] तुष्ट होना । प्रसन्न होना । उ०—हमसों मिले वर्ष द्वादश दिन चारिक तुम सौं टूठे । सूर आपने प्राचन खेलैं ऊधव खेलैं रूठे ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ टूठनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टूठना] संतोष । तुष्टि । प्रसन्नता । उ०—ठुमुक ठुमुक पग धरनि नटनि लरखरनि सुहाई । भजनि मिलनि रूठनि टूठनि किलकनि अवलोकनि बोलनि बरनि न जाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टूनरोटी
संज्ञा स्त्री० [अं० टाउन ड्यूटी] चुंगी ।
⋙ टुना †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोना' ।
⋙ टूम
संज्ञा स्त्री० [अनु० टुन टुन] गहना पाता । आभूषण । यौ०—टूमटामृ = (१) गहना पाता । वस्त्राभूषण । (२) बनाव सिंगार । टूम छल्ला = छोटा मोटा गहना । साधारण गहना । २. सुंदर स्त्री । ३. घनी स्त्री । मालदार स्त्री । ४. नौची । (बाजारू) ५. चालाक और चतुर आदमी । ६. उकसाने या खोदने की क्रिया । झटका । धक्का ।मुहा०—टूम देना = कबूतर को छतरी पर से उडा़ना । ७. ताना । व्यंग्य । क्रि० प्र०—टूम झारना या तोडना = ताना मारना ।
⋙ टूमना
क्रि० स० [अनु०] १. धक्का देना । झटका देना । खोदना । २. ताना मारना । व्यंग्य बोलना ।
⋙ टूरनामेंट
संज्ञा पुं० [अं० टूर्नामेंट] खेल जिनमें जीतनेवालों को इनाम मिलता है ।
⋙ टूल (१)
संज्ञा पुं० [अं०] औजार जिसकी सहायता से कोई काम किया जाय ।
⋙ टूल (२)
संज्ञा पुं० [अं०स्टूल] ऊँचे पावों की छोटी चौकी जिसपर लड़के बैठते हैं या कोई चीज रखी जाती है । तिपाई ।
⋙ टूसा (१)
संज्ञा पुं० [सं० तुष(= भूसी) ?] १. मंदार का फल । डोडा । २. रेशा । फुचडा़ । सूत । ३. पक्कड़ का फूल । पाकर का फूल । ४. पतझड़ के बाद टहनियों के सिरे पर पत्तियों का संश्लिष्ट नुकीला आकार जो नीम, पाकर आदि वृक्षों में मिलता है ।
⋙ टूसा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] टुकडा़ । खंड ।
⋙ टूसी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टूसा] कली । बिना खिला हुआ फूल ।
⋙ टेंकिका
संज्ञा स्त्री० [सं० टेड्किका] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक ।
⋙ टेंकी
संज्ञा स्त्री० [सं० टेङ्की] १. शुद्ध राग का एक भेद । २. एक प्रकार का नृत्य ।
⋙ टेंपरेचर
संज्ञा पुं० [अं०] शरीर या किसी स्थान की उष्णता या गर्मी का मान जो थर्मामीटर से जाना जाता है । तापमान । जैसे,—(क) सबेरे उसका टेंपरेचर लिया था; १०२ डिग्री बुखार था । (ख) इस बार इलाहाबाद में ११८ डिग्री टेंपरेचर हो गया था । क्रि० प्र०—लेना ।—होना ।
⋙ टेँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] तोते की बोली । सुए की बोली । यौ०—टेँ टेँ । मुहा०—टेँ टेँ = व्यर्थ की बकदाद । हुज्जत । टेँ होना या बोलना = उसी तरह चटपट मर जाना जिस प्रकार बिल्ली के पकड़ने पर तोता एक बार टेँ शब्द निकालकर मर जाता है । झट प्राण छोड़ देना । मर जाना । न बचना ।
⋙ टेँगड़
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टेंगरा' ।
⋙ टेँगडा़
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टेंगरा' ।
⋙ टेँगन पु
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड] टेंगरा मछली । उ०—संघ सुगंध धरै जल बाढे़ । टेंगन मुवे टोय सब कादे ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ टेँगना †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टेंगरा' ।
⋙ टेँगर
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड(= एक मछली)] एक प्रकार की मछली । विशेष—यह टेंगरा ही के तरह की पर उससे बहुत बडी़ अर्थात् दो ढाई हाथ तक लंबी होती है । टैंगरा की तरह इसे भी काँटे होते हैं ।
⋙ टेँगरा
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड(= एक प्रकार की मछली)] एक प्रकार की मछली । विशेष—यह भारत के अनेक भागों में, विशेषकर अवध, बिहार और बंगाल के उत्तर के जलाशयों में पाई जाती है । यह डे़ढ़ बालिश्त लंबी तथा सफेद या कुछ कालापन लिए बादामी होती है । इसके शरीर में सेहरा नहीं होता और इसके मुँह के किनारे लंबी मूँछें होती हैं । इसके शरीर में तीन काँटे होते हैं, दो अगल बगल और एक पीठ में । क्रुद्ध होने पर यह इन काँटों से मारती है । सबसे बडी़ विलक्षणता इस मछली में यह है कि यह मुँह से गुनगुनाहट के ऐसा शब्द निकालती है ।
⋙ टेँघुना †
संज्ञा पुं० [सं० अष्ठीवान्] [स्त्री० टेंघुनी] घुटना ।
⋙ टेँघुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टेंघुना' ।
⋙ टेँचन †
संज्ञा पुं० [हिं० टेक] खंभा । टेक । चाँड़ ।
⋙ टेँट (१)
संज्ञा स्त्री०[हिं० तट + ऐंठ] धोती की वह मंडलाकार ऐंठन जो कमर पर पड़ती है और जिसमें लोग कभी कभी रुपया पैसा भी रखते हैं । मुर्री । मुहा०—टेंट में कुछ होना = पास में कुछ रुपया पैसा होना ।
⋙ टेँट (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोंट] १. कपास की ढोंढ़ । कपास का डोडा जिसमें से रुई निकलती है । २. करील का फल । ३. करील । ४. पशुओं के शरीर पर का ऐसा घाव जो ऊपर से देखने में सूखा जान पडे़ पर जिसमें से समय समय पर रक्त बहा करे । ५. दे० 'टेंटर' ।
⋙ टेंटड़
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टेंटर' ।
⋙ टेंटर
संज्ञा पुं० [देश०] रोग या चोट के कारण आँख के डेले पर का उभरा हुआ मांस । ढेंढर । क्रि० प्र०—निकलना ।
⋙ टेँटा
संज्ञा पुं० [देश०] एक बडा़ पक्षी । विशेष—इसकी चोंच बालिश्त भर की और पैर डेढ़ हाथ तक ऊँचे होते हैं । इसका बदन चितकबरा पर चोंच काली होती है ।
⋙ टेँटार
संज्ञा पुं० [हिं० टेंट + आर (प्रत्य०)]दे० 'टेंटा' ।
⋙ टेँटिहा (१) †
वि० [हिं०]दे० 'टेंटी' ।
⋙ टेँटिहा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार के क्षत्रिय जो प्रायः बिहार के शाहाबाद जिले में पाए जाते हैं ।
⋙ टेँटी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेंट] १. करील । उ०—सूर कहौ कैसे रुचि मानै टेँटी के फल खारे ।—सूर (शब्द०) । २. करील का फल । कचडा़ ।
⋙ टेँटी (२)
वि० [अनु० टें टें] बात बात में बिगड़नेवाला । व्यर्थ झगडा़ करनेवाला ।
⋙ टेँटु
संज्ञा पुं० [सं० टुण्टक] श्योनाक । सोनापाठा ।
⋙ टेँटवा
संज्ञा पुं० [देश०] १. गला । घेंटू । घीची । २. अँगूठा ।
⋙ टेँटेँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. तोते की बोली । २. व्यर्थ की बकवाद । हुज्जत । धृष्टतापूर्ण बात । जैसे,—कहाँ राम राम कहाँ टें टें । क्रि० प्र०—करना ।—मचाना ।—होना । मुहा०—टें टें लगाना = बकबाद करना । अनावश्यक बोलना ।उ०—तुमको इन बातों में क्या दखल है । नाहक बिन नाहक की टें टें लगाई है ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३७१ ।
⋙ टेँड
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टिंडसी' ।
⋙ टेँव पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टेव' । उ०—गुन गोपाल उचारत रसना, टेंव एह परी ।—संतवाणी०, पृ० ४८ ।
⋙ टेउ †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टेव' ।
⋙ टेउकन †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टेकन' ।
⋙ टेउका †
संज्ञा पुं० [हिं० टेक] [स्त्री० टेउकी]दे० 'टेकन' ।
⋙ टेउकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेक] १. किसी वस्तु को लुढ़कने या गिरने से बचाने के लिये उसके नीचे लगाई गई वस्तु । २. जुलाहों की वह लकडी जो ताने की डाँडी में इसलिये लगाई जाती है जिसमें ताना जमीन पर न गिरे, ऊपर उठा रहे । ३. साधूओं की अधारी ।
⋙ टेक
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिकना] १. वह लकडी़ या खंभा जो किसी भारी वस्तु को अडा़ए या टिकाए रखने के लिये नीचे या बगल से भि़डा़कर लगाया जाता है । चाँड़ । थूनी । थम । क्रि० प्र०—लगाना । २. टिकने या भार देने की वस्तु । ओठँगने की चीज । ढासना । सहारा । ३. आश्रय । अवलंब । उ०—दै मुद्रिका टेक तेहि अवसर सुचि समीरसुत पैर गहे री ।—तुलसी (शब्द०) । ४. बैठने के लिये बना हुआ ऊँचा चबूतरा या बेदी । बैठने का स्थान । जैसे, राम टेक । ५. ऊँचा टीला । छोटी पहाडी़ । ६. चित्त में टिका या बैठा हुआ संकल्प । मन में ठानी हुई बात । दृढ संकल्प । अड़ । हठ । जिद । उ०—सोइ गोसाइँ जो बिधि गति छेंकी । सकइ को टारि टेक जो टेकी ।— तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना । मुहा०—टेक गहना = दे० 'टेक पकड़ना' । टेक पकड़ना = जिद पकड़ना । हठ करना । टेक निभना = (१) जिस बात के लिये आग्रह या हठ हो उसका पूरा होना । (२) प्रतिज्ञा पूरी होना । टेक निबाहना = दे० 'टेक निभाना ।' ठेक निभाना = प्रतिज्ञा या आन का पूरा होना । टेक निभाना = प्रतिज्ञा पूरी करना । टेक रहना = दे० 'टेक निभाना' । ७. वह बात जो अभ्यास पड़ जाने के कारण मनुष्य अवश्य करे । बान । आदत । संस्कार । क्रि० प्र०—पड़ना । ८. गीत का वह टुकडा़ जो बार बार गाया जाय । स्थायी । ९. पृथ्वी की नोक जो पानी में कुछ दूर तक चली गई हो ।— (लश०) ।
⋙ टेकडी़
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेक + डी़ (प्रत्य०)] १. टीला । ऊँचा धुस्स । २. छोटी पहाडी़ । उ०—टेकड़ियों के पार, कहो कैसे चढ़कर आते हो ?—हिम०, पृ० १०१ ।
⋙ टेकन
संज्ञा पुं० [हिं० टेकना] [स्त्री० टेकनी] वह वस्तु जो भारी या लुढ़कनेवाली वस्तु को टिकाए रखने के लिये उसके नीचे या बगल में लगाई जाय । अढुकन । रोक । जैसे,—घडे़ के नीचे टेकन लगा दो । क्रि० प्र०—लगाना ।
⋙ टेकना (१)
क्रि० स० [हिं० टेक] १. खडे़ खडे़ या बैठे बैठे श्रम से बचने लिये शरीर के बोझ को किसी वस्तु पर थोडा़ बहुत डालना । सहारे के लिये किसी वस्तु को शरीर के साथ भिडा़ना । सहारा लेना । ढासना लेना । आश्रय बनाना । जैसे, दीवार या खंभा टेककर खडा़ होना । संयो० क्रि०—लेना । २. किसी अंग को सहारे आदि के लिये कहीं टिकाना । ठहराना या रखना । मुहा०—घुटने टेकना = पराजय स्वीकार करना । हार मानना । माथा टेकना = प्रणाम करना । दंडवत् करना । ३. चलने, चढ़ने, उठने बैठने आदि में शरीर का कुछ भार देने के लिये किसी वस्तु पर हाथ रखना या उसको हाथ से पकड़ना । सहारे के लिये थामना । जैसे, चारपाई टेककर उठना बैठना, लाठी टेककर चलना । उ०— (क) सूर प्रभु कर सेज टेकत कबहुँ टेकत ढहरि ।—सूर (शब्द०) । (ख) नाचत गावत गुन की खानि । समित भए टेकत पिय पानि ।—सूर (शब्द०) । ४. चलने में गिरने पड़ने से बचने के लिये किसी का हाथ पकड़ना । हाथ का सहारा लेना । उ०—गृह गृह गृहद्वार फिरयो तुमको प्रभु छाँडे । अंध अंध टेकि चलै क्यों न परै गाढे़ ।—सूर (शब्द०) । † पु ५. टेक करना । हठ करना । ठानना । उ०—सोइ गोसाइँ जेइ निधि गति छेंकी । सकइ को टारि टेक जो टेकी ।—तुलसी (शब्द०) । ६. किसी को कोई काम करते हुए बीच में रोकना । पकड़ना । उ०—(क) रोवहि मातु पिता औ भाई । कोउ न टेक जो कंत चलाई ।—जायसी (शब्द०) । (ख) जनहुँ औटि कै मिलि गए तस दूनौ भए एक । कंचन कसत कसौटी हाथ न कोऊ टेक ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ टेकना (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली धान । चनाव ।
⋙ टेकनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेकना] टेकने का आधार , छडी़ आदि । उ०—उन्हीं की टेकनी के सहारे वे चल सकते हैं ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७३ ।
⋙ टेकनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेकन + ई (प्रत्य०)]दे० 'टेकन' ।
⋙ टेकर
संज्ञा पुं० [हिं० टेक] [स्त्री० टेकरी] १. टीला । उठी हुई भूमि । २. छोटी पहाडी़ ।
⋙ टेकरा
संज्ञा पुं० [हिं० टेक]दे० 'टेकर' ।
⋙ टेकरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टेकर' । उ०—यमुना अपनी धोती लेकर बजरै से उतरी और बालू की एक ऊँची टेकरी के कोने में चली गई ।—कंकाल, पृ० ८८ ।
⋙ टेकला †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेक] धुन । रट । उ०—बन बन पुकारूँ एकला, डारूँ गले बिच मेंखला । एक नाम की है टेकला, सोहबत की तई मैं क्या करूँ ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ टेकली
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेक] किसी चीज को उठाने आ गिराने का औजार ।—(लश०) ।
⋙ टेकान
संज्ञा पुं० [हिं० टेकना] १. टेक । वह लकडा़ जो किसी गिरनेवाली धरन या छत आदि को सँभालने के लिये उसके नीचे खडी़ कर दी जाती है । चाँड़ । २. ऊँचा चबूतरा या खंभा जिसपर बोझावाले अपना बोझा अडा़कर थोडी़ देर सुस्ता लेते हैं । धरम ढीहा ।
⋙ टेकाना †
क्रि० स० [हिं० टेकना] १. किसी वस्तु को कहीं ले जाने में सहायता देने के लिये पक़ड़ना । उठाकर ले जाने में सहारा देने के लिये थामना । जैसे,—चारपाई को टेका लो, भीतर कर दें । संयो क्रि०—देना ।—लेना । २. उठने बैठने या चलते फिरने में सहायता देने के लिये थामना । जैसे,—ये इतने कमजोर हो गए हैं कि दो आदमी टेकाकर उन्हें भीतर बाहर ले जाते हैं ।
⋙ टेकानी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेकना] पहिए को रोकने की कील । किल्ली ।
⋙ टेकी
संज्ञा पुं० [हिं० टेक] १. कही हुई बात पर जमा रहनेवाला । प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहनेवाला । २. अड़नेवाला । हुठी । दुराग्रही । जिद्दी । ३. आधार । टेक । सहारा । उ०—कहिं बल्ली टेकी थूनी है, कहिं घास कड़ब की पूली है ।—राम० धर्म०, पृ० ९२ ।
⋙ टेकुआ † (१)
संज्ञा पुं० [सं० तर्कुक, प्रा० टक्कुअ] चरखे का तकला जिस— पर सूत कातकर लपेटा जाता है । तकुआ ।
⋙ टेकुआ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० टेक] १. टिकाने या अडा़ने की वस्तु । अढुकन । २. सहारे की वह लकडी़ जो एक पहिया निकाल लेने पर गाडी़ को ऊपर ठहराए रखने के लिये लगाई जाती है ।
⋙ टेकुरा †
संज्ञा पुं० [देश०] पान ।
⋙ टेकुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० तर्कु, हिं० टेकुआ] १. फिरकी लगा हुआ सूआ जिसके घूमने से फँसी हुई रुई का सूत कतकर लिपटता जाता है । सूत कातने का तकला । २. बाँस की डाँडी़ के एक छोर पर लाह लगाकर बनाई हुई जुलाहों की फिरकी जिसमें रेशम फँसाया रहता है । ३. रस्सी बटने का तकला या औजार । ४. चमारों का सुआ जिससे वे तागा खींचते और निकालते हैं । ५. गोप नाम का गहना बनाने के लिये सुनारों की सलाई जिससे तार खींचकर फंदा दिया जाता हैं । ६. मूर्ति बनानेवालों का चिपटी धार का एक औजार जिससे वे मूर्ति का तल साफ और चिकना करते हैं ।
⋙ टेकुवा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'टेकुआ' । उ०—टेकुवा साधत जो बनि आवै, मँहगे मोल बिकाय ।—कबीर श०, भा०२, पृ० ४८ ।
⋙ टेघरना †
क्रि० अ० [हिं०]दे० 'टिघलना' ।
⋙ टेचिन
संज्ञा पुं० [अं० स्टिचिंग] एक प्रकार का काँटा जिसके एक ओर माथा होता है और दूसरी ओर ढिबरी होती है । यह किसी चीज को अडा़ने या थामने के काम में आता है ।—(लश०) ।
⋙ टेटका †
संज्ञा पुं० [सं० ताटङ्क] कान में पहनने का एक गहना ।
⋙ टेतुआ
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टेंटुवा' । उ०—अजी अब बनाने की बात तो और है पूरी दास्तान भी नहीं सुनी और टेटुए पर चड़ बैठे ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १९६ ।
⋙ टेढ़ही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेढा़] टेढी़ लकडी़ की छडी़ । उ०— लिये हाथ में ढाल टेड़ही ।—ग्राम्या, पृ० ४४ ।
⋙ टेढ़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेढा़] १. टेढा़पन । वक्रता । २. अकड़ । ऐंठ । उजड्डपन । नटखटी । शरारत । मुहा०—टेढ़ की लेना = नटखटी करना । शरारत करना । उजड्डपन करना ।
⋙ टेढ़ (२)
वि० दे० 'टेढा़' ।
⋙ टेढ़बिडंगा
वि० [हिं० टेढा़ + बेढंगा] टेढा़मेढा़ । टेढा़ और बेढंगा । बेडोल ।
⋙ टेढा़
वि० [सं० तिरस्(= टेढा़)] [वि० स्त्री० टेढी़] १. जो लगातार एक ही दिशा को न गया हो । इधर उधर झुका या घूमा हुआ । फेर खाकर गया हुआ । जो सीधा न हो । वक्र । कुटिल जैसे, टेढी़ लकीर, टेढी़ छडी़, टेढा़ रास्ता । यौ०—टेढा़ मेढा़ = जो सीधा और सुडौल न हो । टेढा़ बाँका = नोक झोंक का । बना ठना । छैल चिकनिया । मुहा०—टेढी़ चितवन = तिरछी चितवन । भावभरी दृष्टि । २. जो अपने आधार पर समकोण बनाता हुआ न गया हो । जो समानांतर न गया हो । तिरछा । ३. जो सुगम न हो । कठिन । बेंडा़ । फेरफार का । मुश्किल । पेंचीला । जैसे, टेढा़ काम, टेढा़ प्रश्न, टेढा़ मामला । उ०—मगर शेरों का मुकाविला जरा टेढी़ खीर है ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २४ । मुहा०—टेढी़ खीर = मुश्किल काम । कठिन कार्य । दुष्कर कार्य । विशेष—इस मुहा० के संबंध में लोग एक कथा कहते हैं । एक आदमी ने एक अंधे से पूछा 'खीर खाओगे ?' । अंधे ने पूछा 'खीर कैसी होती है ?' उस आदमी ने कहा 'सफेद' । फिर अंधे ने पूछा 'सफेद कैसा ?' । उसने उत्तर दिया 'जैसा बगला होता है ?' इसपर उस आदमी ने हाथ टेढा़ करके बताया । अंधे ने कहा—'यह तो टेढी़ खीर है, न खाई जायगी' । ४. जो शिष्ट या नभ्र न हो । उद्धत । उग्र । उजड्ड । दुःशील । कोपवान् । जैसे, टेढा़ आदमी, टेढी़ बात । उ०—टेढे़ आदमी से कोई नहीं बोलता ।—(शब्द०) । महा०—टेढा़ पड़ना या होना = (१) उग्र रूप धारण करना । जैसे,—कुछ टेढे़ पडो़गे तभी रुपया निकलेगा, सीधे से माँगने से नहीं । (२) अकड़ना । ऐंठना । टर्राना । जैसे,—वह जरा सी बात पर टेढा़ हो जाता है । टेढी़ आँख से देखना = क्रूर दृष्टि करना । शत्रुता की दृष्टि से देखना । अनिष्ट करने का विचार करना । बुरा व्यवहार करने का विचार करना । टेढी़ आँखें करना = कुपित दृष्टि करना । क्रोध की आकृति बनाना ।बिगड़ना । टेढी़ सीधी सुनाना = ऊँची नीची सुनाना । खरी खोटी सुनाना । भला बुरा कहना । टेढी़ सुनाना = दे० 'टेढी़ सीधी सुनाना' ।
⋙ टेढा़ई
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेढा़] टेढा़ होने का भाव । टेढा़पन ।
⋙ टेढा़पन
संज्ञा पुं० [हिं० टेढा़ + पन (प्रत्य०)] टेढा़ होने का भाव ।
⋙ टेढा़मेढा़
वि० [हिं० टेढा़ + अनु० मेढा़] जो सीधा न हो । टेढा़ । वक्र ।
⋙ टेढे़
क्रि० वि० [हिं० टेढा़] सीधे नहीं । घुमाव फिराव के साथ । जैसे,—वह टेढे़ जा रहा है । मुहा०—टेढे़ टेढे़ जाना = इतराना । घमंड करना । उ०—(क) कबहूँ कमला चपल पाय के टेढे़ टेढे़ जात । कबहुँक मग मग धूरि टटोरत, भोजन को बिललात ।—सूर (शब्द०) । (ख) जो रहीम ओछो बढै़ तौ अति ही इतरात । प्यादा सों फरजी भयो टेढो़ टेढो़ जात ।—रहीम (शब्द०) ।
⋙ टेना (१)
क्रि० स०[हिं० टेव + ना (प्रत्य०)] १. किसी हथियार की धार को तेज करने के लिये पत्थर आदि पर रगड़ना । उ०— कुबरी करी कुबलि कैकेई । कपट छुरी उर पाहन टेई ।—तुलसी (शब्द०) । २. मूँछ के बालों को खडा़ करने के लिये ऐंठना । जैसे, मूँछ टेना ।
⋙ टेना पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टेनी' । मुहा०—टेना मारना = दे० 'टेनी मारना' । उ०—करै बिबेक दुकान ज्ञान का लेना देना । गादी हैं संतोष नाम का मारै़ टेना ।—पलटू०, भा० १, पृ० १०० ।
⋙ टेनिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेनी + इया (प्रत्य)]दे० 'टेनी' । उ०—काहे की डंडी काहे का पलरा काहे की मारौ टेनिया ।—कबीर श०, भा० २, पु १५ ।
⋙ टेनिस
संज्ञा पुं० [अं०] गेंद का एक प्रकार का अंगरेजी खेल ।
⋙ टेनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] छोटी उँगली । मुहा०—टेनी मारना = सौदा तौलने में उँगली को इस तरह घुमाना फिराना कि चीज कम चढे़ । (सौदा) कम तौलना ।
⋙ टेनेंट
संज्ञा पुं० [अं०] १. किराएदार । २. असामी । पहरेदार । रैयत ।
⋙ टेप
संज्ञा पुं० [अं०] फीता । यौ०—टेप रिकार्डर = रिकार्ड करनेवाला वह यंत्र जो बैटरी से चालित होता है और प्रवचनों को फीते पर रिकार्ड करने के काम आता है ।
⋙ टेपारा
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टिपारा' । उ०—अरुन अति ललित भाल जटिल लाल टेपारो ।—नंद०, ग्रं० पृ० ३९५ ।
⋙ टेबलेट
संज्ञा पुं० [अं०] १. छोटी ठिकिया । जैसे, क्विनाइन टेबलेट । २. पत्थर, काँसे आदि का फलक जिसपर किसी की स्मृति में कुछ लिखा या खुदा रहता है । जैसे,—किसान सभा ने उनके स्मारक स्वरूप एक टेबलेट लगाना । निश्चित किया है ।
⋙ टेबिल
संज्ञा पुं० [अं० टेबुल] मेज । उ०—अँगरेजों के साथ एक टेबिल पर खाना न खाएँगे ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ७८ ।
⋙ टेबुल (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. मेज । यौ०—टेबुल क्लाथ = मेजपोश । २. नकशा । ३. वह जिसमें बहुत से खाने या कोष्ठक बने हों । नकशा । सारिणी ।
⋙ टेम (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टिमटिमाना] दिपशिखा । दिए की लौ । दिपक की ज्योति । लाट । उ०—श्यामा की मूरति दीप की टेम में दिखाने लगी ।—श्यामा०, पृ० १५६ ।
⋙ टेम (२)
संज्ञा पुं० [अं० टाइम] समय । वक्त ।
⋙ टेमन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का साँप ।
⋙ टेमा
संज्ञा पुं० [देश०] कटे हुए चारे की छोटी अँटिया ।
⋙ टेर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तार(= संगीत में ऊँचा स्वर)] १. गाने में ऊँचा स्वर । तान । टीप । क्रि० प्र०—लगाना । २. बुलाने का ऊँचा शब्द । पुकारने की आवाज । बुलाहट । पुकार । हाँक । उ०—(क) टेर लखन सुनि बिकल जानकी अति आतुर उठि धाई ।—सूर (शब्द०) । (ख) कुश के टेर सुनी जबै फूलि फिरे शत्रुघ्न ।—केशव(शब्द०) ।
⋙ टेर (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तार(= तै करना)] निर्वाह । गुजर । मुहा०—टेर करना = गुजारना । बिताना । काटना । जैसे,— जिंदगी टेर करना ।
⋙ टेर (३)
वि० [सं०] तिरछी निगाह का । ऐंचाताना [को०] ।
⋙ टेरक
वि० [सं०] ऐंचाताना [को०] ।
⋙ टेरना (१)
क्रि० स० [हिं० टेर + ना (प्रत्य०)] १. ऊँचे स्वर से गाना । तान लगाना । २. बुलाना । पुकारना । हाँक लगाना । उ०—(क) भई साँझ जननी टेरत है कहाँ गए चारो भाई ।—सूर (शब्द०) । (ख) फिरि फिरि राम सीय तन हेरत । तृषित जानि जल लेन लखन गए, भुज उठाय ऊँचे चढ़ि टेरत ।—तुलसी ।—(शब्द०) ।
⋙ टेरना (२)
क्रि० सं० [सं० तीरण(= तै करना)] १. तै करना । चलता करना । निबाहना । पूरा करना । जैसे,—थोडा़ सा काम और रह गया है किसी प्रकार टेर ले चलो । २. बिताना । गुजारना । काटना । जैसे,—वह इसी प्रकार जिंदगी टेर ले जायगा । संयो० क्रि०—ले चलना ।—ले जाना ।
⋙ टेरनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेरना] टेर । पुकार । उ०—हरि की सी गाइ निबेरनि टेरनि अंबर झेरनि ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९ ।
⋙ टेरवा
संज्ञा पुं० [देश०] हुक्के की नली जिसपर चिलम रखी जाती है ।
⋙ टेरा (१)
संज्ञा पुं० [?] १.ढेरा । अंकोल का पेड़ । २. पेड़ों का घड़ । तना । वृक्षस्तंभ । जैसे, केले का टेरा । ३. शाखा । जैसे,— हाथी के लिये टेरा काटना है ।
⋙ टेरा (२)
वि० [सं० टेर] ऐंचाताना । टेपरा । भेंगा ।
⋙ टेरा पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० टेरना] बुलावा । उ०—पाछे टेराआयो । तब यह सावधान ह्वै विचार । करने लाग्यौ ।— दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २३२ ।
⋙ टेराकोटा
संज्ञा पुं० [अं०] १. पकी हुई मिट्टी जिससे मूर्तियाँ, इमारतों में लगाने के लिये बेलबूटे, आदि बनते हैं । २. पकी हुई मिट्टी का रंग । इँटकोहिया रंग ।
⋙ टेरिऊल
संज्ञा पुं० [अं०] टेरिलिन और ऊन के मिश्रित धागे या उनसे बना वस्त्र ।
⋙ टेरिकाट
संज्ञा पुं० [अं० टोरिकाँट] टेरिलिन और सूत के धागे या उनसे बना हुआ वस्त्र ।
⋙ टेरिटोरियल फोर्स
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह सैन्यदल जिसका संबंध अपने स्थान से हो । नागरिक सेना । देशरक्षिणी सेना । देशरक्षक सेना । विशेष—इन्हें साधारणतः देश के बाहर लड़ने की नहीं जाना पड़ता ।
⋙ टेरिलिन
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का कृत्रिम रेशा या उन रेशों से बुना हुआ वस्त्र ।
⋙ टेरी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] टहनी । पतली शाखा । जैसे, नीम की टेरी ।
⋙ टेरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेकुरी] दरी बुनने का सूजा ।
⋙ टेरी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक पौधा जिसकी कलियाँ रँगने और चमडा़ सिझाने में काम आती हैं । इसे 'बखेरी' और 'कुंती' भी कहते हैं । २. बक्कम की फली ।
⋙ टेरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] सरसों का एक भेद । उलटी ।
⋙ टेलपेल
संज्ञा स्त्री० [अनु०] ठेलठाल । धक्कामुक्की । उ०—हम लोग भी टेल पेलकर रेल पर चढ़ बैठे ।—प्रेमघन०, भा०, २. पृ० ११२ ।
⋙ टेलर (१)
वि० [?] नाम मात्र को । कहने भर के लिये । उ०—उन्हें टेलर हिंदू कंहलाने की अपकीर्ति से बचाना ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५७ ।
⋙ टेलर (२)
संज्ञा पुं० [अं०] दर्जी । सीने का काम करनेवाला ।
⋙ टेलिग्राफ
संज्ञा पुं० [अ०] तार जिसके द्वारा खबरें भेजी जाती हैं । दे० 'तार' ।
⋙ टेलिग्राम
संज्ञा पुं० [अं०] तार से भेजी हुई खबर । तार ।
⋙ टेलिपैथी
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह मानासिक क्रिया जिसके द्वारा दूसरों की भावनाओं का ज्ञान होता है ।
⋙ टेलिप्रिंटर
संज्ञा पुं० [अं०] विद्युत् संचालित वह टाइपराइटर या टंकित यंत्र जिसमें तार द्वारा प्राप्त समाचार आदि अपने आप टंकित होते हैं ।
⋙ टेलिफोटोग्राफी
संज्ञा स्त्री० [अं०] दूरवीक्षण यंत्र द्वारा फोटो लेना ।
⋙ टेलिफोन
संज्ञा पुं० [अं०] वह यंत्र जिसके द्वारा एक स्थान पर कहा हुआ शब्द कितने ही कोस दूर के दूसरे स्थान पर सुनाई पड़ता हैं । विशेष—इसी साधारण य़ुक्ति यह है कि दो चोंगे लो जिनका मुँह एक ओर कागज, चमडे़ आदि से मढा़ हो तथा दूसरी ओर खुला हो । मढे़ हुए चमडे़ के बीचोबीच से लोहे का एक लंबा तार ले जाकर दोनों चोंगों के बीच लगा दो । यदि एक चोंगे में कोई बात कही जायगी और दूसरे चोंगे में (जो दूर पर होगा) किसी का कान लगा होगा तो वह बात सुनाई पडे़गी । पर यह युक्ति थोडी़ ही दूर के लिये काम दे सकती है । अधिक दूर के लिये बिजली के प्रवाह का सहारा लिया जाता है । चुंबक की एक छड़, जिसमें रेशम (या और कोई ऐसा पदार्थ जिससे होकर बिजली का प्रवाह न जा सके) से लिपटा हुआ ताँवे का तार कमानी की तरह घुमाकर जडा़ रहता है, एक नली के भीतर बैठाई रहती है । चुंबक के एक छोर के पास लोहे का एक पत्तर बँधा रहता है । यह पत्तर काठ की खोली में रहता है—जिसका मुँह एक ओर चोंगे की तरह खुला रहता है । इस प्रकार दो चोगों की आवश्यकता टेलीफोन में होती है एक बोलने के लिये, दूसरा सुनने के लिये । इन दोनों चोंगों के बीच तार लगा रहता है । शब्द वायु में उत्पन्न तरंग या कंप मात्र हैं । मुँह से निकला हुआ शब्द चोंगे के भीतर की वायु को कंपित करता है जिसके कारण बँधे हुए लोहे के पत्तर में भी कंप होता है अर्थात् वह आगे पीछे जल्दी जल्दी हिलता है । इस हिलने से चुंबक की शक्ति एक बार घटती और एक बार बढ़ती रहती है । इस प्रकार तार की मंडलाकार कमानी के एक बार एक ओर दूसरी बार दूसरी ओर बिजली उत्पन्न होती रहती है । इसी बिजली के प्रवाह द्वारा बहुत दूर के स्थानों पर भी शब्द पहुँचाया जाता है । टेलिफोन के द्वारा स्थल पर हजारों कोस दूर तक की और समुद्र में सैकड़ों कोस तक की कही बातें सुनाई पड़ती है ।
⋙ टेलिविजन
संज्ञा पुं० [अं०] किसी वस्तु, दृश्य या घटना के चित्र को बेतार के तार से या तार द्वारा संप्रेषित करने की वह प्रक्रिया जिससे दूरस्थ व्यक्ति भी उसे तत्काल ज्यों का त्यों देख सुन सके । विशेष—टेलिविजन में प्रकाशतरंगों को किसी दृश्य पर से विद्युत् तरंगों में परिवर्तित कर दिया जाता है जो बेतार के तार या तार द्वारा संप्रेषित होती है और इसके बाद उनको पुनः प्रकाशतरंगों में परिवर्तित कर दिया जाता है जो टेलिविजन पट पर उस दृश्य को चित्रित करती है ।
⋙ टेलिस्कोप
संज्ञा पुं० [अं०] वह यंत्र जो दूरस्थ वस्तुओं को निकटतर और विशालतर दिखाने का कार्य करता है ।
⋙ टेली
संज्ञा पुं० [देश०] मझले आकार का एक पेड़ जिसकी लकडी़ लाल और मजबूत होती है तथा चारपाई, औजारौं के दस्ते आदि बनाने के काम में आती है । विशेष—यह पेड़ आसाम, कछार, सिलहट और चटगाँव में बहुत होता है ।
⋙ टेव
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेक] अभ्यास । आदत । ज्ञान । स्वभाव । प्रकृति । उ०—(क) सुनु मैया याकी टेव लरन की, सकुच बेचि सी खाई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तुम तो टेव जानतिहि ह्वै हा तऊ मोहि कहि आवै । प्रात उठत मेरे लाल लडै़तहिं माखन रोटी भावै ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—पड़ना ।
⋙ टेवकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेवकन, टेकन] १. दोनों छोरों पर कुछ, दूर तक बाँस की एक चिरी लकडी़ जो जुलाहों की डाँडी़ में इसलिये लगी रहती है जिसमें तागा गिरने न पावे । २. नाव के पालों में से सबसे ऊपर का छोटा पाल ।
⋙ टेवना †
क्रि० स० [हिं०]दे० 'टेना' ।
⋙ टेवा
संज्ञा पुं० [सं० टिप्पन] १. जन्मपत्री । जन्कुंडली । २. लग्न- पत्र जिसमें विवाह की मिति, दिन, घडी़ आदि लिखी रहती है और जिसे लड़की के यहाँ से शकुन के साथ नाई ले जाकर लड़के के पिता को विवाह से १० या बारह दिन पहले देता है ।
⋙ टेवैया †
संज्ञा पुं० [हिं० टेवना] १. टेनेवाला । सिल्ली पर धार तेज करनेवाला । २. चोखा करनेवाला । तीक्ष्ण या पैना करनेवाला । उ०—जहाँ जमजातन घोर नदी भट कोटि जलच्चर दंत टेवैया ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ टेसुआ †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टेसू' ।
⋙ टेसू
संज्ञा पुं० [सं० किंशुक] १. पलाश का फूल । ढाक का फूल । विशेष—इसे उबालने से इसमें से एक बहुत अच्छा पीला रंग निकलता है जिससे पहले कपडे़ बहुत रँगे जाते थे । दे० 'पलाश' । २. पलाश का पेड़ । ३. लड़कों का एक उत्सव । उ०—जे कच कनक कचोरा भरि भरि मेलत तेल फुलेल । तिन केसन को भस्म चढा़वत टेंसू के से खेल ।—सूर (शब्द०) । विशेष—इसमें विजयादशमी के दिन बहुत से लड़के इकट्ठे होकर घास का एक पुतला सा लेकर निकलते हैं और कुछ गाते हुए घर घर घूमते हैं । प्रत्येक पर से उन्हें कुछ अन्न या पैसा मिलता है । इसी प्रकार पाँच दिन तक अर्थात् शरद् पूनो तक करते हैं और जो कुछ भिक्षा मिलती है उसे इकठ्ठा करते जाते हैं । पूनों की रात को मिले हुए द्रव्य से लावा, मिठाई आदि लेकर वे बोए हुए खेतों पर जाते हैं जहाँ बहुत से लोग इकट्ठे होते हैं और बलाबल की परीक्षा संबंधी बहुत सी कसरतें और खेल होते हैं । सबके अंत में लावा, मिठाई लड़कों में बँटती है । टेसू के गीत इस प्रकार के होते हैं—इमली के जड़ से निकली पतंग । नौ सौ मोती नौ सौ रंग । रंग रंग की बनी कमान । टेसू आया घर के द्वार । खोलो रानी चंदन किवार ।
⋙ टेहला †
संज्ञा पुं० [देश०] विवाह के व्यवहार । ब्याह की रीति रस्म ।
⋙ टेहुना †
संज्ञा पुं० [हिं० घुटना] घुटना ।
⋙ टेहुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'कोहनी' ।
⋙ टैंक
संज्ञा पुं० [अं०] १. मोटर की तरह का एक युद्धयान जो मजबूत इस्पात का बना होता है और जिसमें तोपें लगी रहती हैं । २. तालाब ।
⋙ टैँठी पु
वि० [?] चंचल । उ०— पैठत प्रान खरी अनखीली सु नाक चढा़एई डोलत टैंठी ।—घनानंद, पृ० ३७ ।
⋙ टैयाँ (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी कौ़डी़ जिसकी पीठ साधारण कौडी से कुछ चिपटी होती है और उसपर दो चार उभरे हुए बडे़ दाने से होते हैं । विशेष—इसका रंग निलापन लिए या बिलकुल सफेद होता है । फेंकने से यह चित अधिक पड़ती है इसी से इसका व्यवहार जुए में अधिक होता है । इसे चित्ती भी कहते हैं ।
⋙ टैयाँ (२)
वि० नाटा और ह्वष्ट पुष्ट ।
⋙ टैक्स
संज्ञा पुं० [अं०] कर या महसूल जो राज्य अथवा नगरपालिका अथवा जिला परिषद् या पंचायत की ओर से किसी वस्तु पर लगाया जाय । जैसे, इनकम टैक्स ।
⋙ टैक्सी
संज्ञा स्त्री० [अं०] किराए पर चलनेवाली मोटर गाडी़ ।
⋙ टैन
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो चमडा़ सिझाने के काम में आती है ।
⋙ टैना †
संज्ञा पुं० [देश०] घास का पुतला या डंडे पर रखी हुई काली हाँडी़ आदि जिन्हें खेतों में पक्षियों को डराने के लिये रखते हैं ।
⋙ टैनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] भेड़ों का झुंड ।—(गडे़रिए) ।
⋙ टैरा †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोरा' ।
⋙ टैरी
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टेरी' ।
⋙ टैबलेट
संज्ञा पुं० [अं०]दे० 'टेबलेट' ।
⋙ टोँक (१) †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोंका' ।
⋙ टोँक (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टोक' । उ०—उलझन की मीठी रोक टोंक, यह सब उसीक है नोक झोंक ।—कामायनी, पृ० २३५ ।
⋙ टोँका †
संज्ञा पुं० [सं० स्तोक (= थोडा़)] १. छोर । सिरा । किनारा । २. नोक । कोना । ३. जमीन जो नदी में कुछ दूर तक गई हो ।—(मल्लाह) ।
⋙ टोँगा
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टाँगा' ।
⋙ टोँगू
संज्ञा पुं० [देश०] फैलनेवाली एक झाडी़ जिसकी छाल के रेशों से रस्सी बनाई जाती है । जिती । जक ।
⋙ टोँच
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोंचना] १. सीयन । सिलाई का टाँका । २. टोंचने की क्रिया ।
⋙ टोँचना (१)
क्रि० स० [सं० टङ्कन] चुभाना । गडा़ना । घँसाना । कोंचना ।
⋙ टोँचना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ताना] १. ताना । व्यंग्य । २. उपालंभ । उलाहना ।
⋙ टोँट
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण़्ड] ठोर । चोंच । उ०—मारत टोंट भुजा उधिराना ।—जग० वानी, पृ० ८२ ।
⋙ टोँटरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टोंटी' ।
⋙ टोँटा
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड] १. चिड़िया की चोंच के आकार की निकली हुई कोई वस्तु । २. चोंच के आकार के गडे़ हुए काठ के डेढ़ दो हाथ लंबे टुकडै़ जो घर की दीवार के बाहर की ओर पंक्ति में बढी़ हुई छाजन को सहारा देने के लिये लगाए जाते हैं । घोड़िया । ३. पानी आदि ढालने के लिये बरतन में लगी हुई नली ।
⋙ टोँटी
संज्ञा स्त्री० [सं० तुण्ड] १. पानी आदि ढालने के लिये झारी । लोटे आदि में लगी हुई नली जो दूर तक निकली रहती है । तुलतुली । २. पशुओं का थूथन । जैसे, सू्अर की टोंटी ।
⋙ टोँस
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टौंस' ।
⋙ टोआ (१)
संज्ञा पुं० [सं० तोय (= पानी)] गड्डा ।—(पंजाबी) ।
⋙ टोआ (२)
संज्ञा पुं० [सं० तोक्म] अंकुर [को०] ।
⋙ टोआ (३)
संज्ञा पुं० [हिं० टोहना] जहाज या नाव के आगे के भाग पर पानी की थाह लेने के लिये बैठनेवाला मल्लाह ।
⋙ टोआ † (४)
संज्ञा पुं० [हिं० टोह]दे० 'टोह' ।
⋙ टोइयाँ
संज्ञा स्त्री० [देश० या *हिं० तोतिया] छोटी जाति का सुआ जिसकी चोंच तक सारा भाग बैगनी होता है । तोती ।
⋙ टोई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] पोर । पर्व । एक गाँठ से दूसरी गाँठ तक का भाग ।
⋙ टोक (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्तोक] एक बार में मुँह से निकला हुआ शब्द । किसी पाया शब्द का टुकडा़ । उच्चारण किया हुआ अक्षर । जैसे,—एक टोक मुँह से न निकला ।
⋙ टोक (२)
संज्ञा स्त्री० १. छोटा सा वाक्य जो किसी को कोई काम करते देख उसे टोंकने या पूछताछ करने के लिये कहा जाय । पूछाताछ । प्रश्न आदि द्वारा किसी कार्य में बाधा । जैसे,— 'क्या करते हो ?', 'कहाँ जाते हो ?' इत्यादि । यौ०—टोक टाक = पूछताछ । प्रश्न आदि द्वारा बाधा । जैसे,— बडे़ जरूरी काम से जा रहै हैं, टोकटाक न करो । रोक टोक = मनाही । मुमानिअत । निषेध । २. नजर । बुरी दृष्टि का प्रभाव ।—(स्त्रि०) । मुहा०—टोक में आना = नजर लगानेवाले आदमी के सामने पड़ जाना । जैसे—बच्चा टोक में पड़ गया ।
⋙ टोक पु (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टेक] टेंक । प्रतिज्ञा । उ०—बिप्र सूद्र जोगी तपी सुकवि कहत करि टोक ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ११८ ।
⋙ टोकणीं पु
संज्ञा स्त्री० [?] एक प्रकार का हंडा । उ०—कबीर तष्टा टोकणी लीए फिरै सुभाई ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३५ ।
⋙ टोकनहार
वि० [हिं० टोकना + हार(प्रत्य०)] टोकनेवाला । बाधा पहुँचानेवाला ।—उ०—कोई न टोकनहार नफा घर बैठे पावो ।—पलटू०, पृ० १४ ।
⋙ टोकना (१)
क्रि० स० [हिं० टोक] १. किसी को कोई काम करते देखकर उसे कुछ कहकर रोकना या पूछताछ करना । जैसे, 'क्या करते हो ?' 'कहाँ जाते हो ?' इत्यादि । बीच में बोल उठना । प्रश्न आदि करके किसी कार्य में बाधा डालना । उ०—गोपिन के यह ध्यान कन्हाई । नेकु न अंतर होय कन्हाई । घाट बाट जमुना तट रोकै । मारग चलत जहाँ तहँ टोकै ।—सूर (शब्द०) । विशेष—यात्रा के समय यदि कोई रोककर कुछ पूछता है तो यात्री अपने कार्य की सिद्धि के लिये बुरा शकुन समझता है । २. नजर लगाना । बुरी दृष्टि डालना । हूँसना । ३. एक पहलवान का दूसरे पहलवान से लड़ने के लिये कहना । ४. गलती बतलाना । अशुद्धि की ओर ध्यान दिलाना । ५. आपत्ती करना । एतराज करना ।
⋙ टोकना (२)
संज्ञा पुं० [?] [स्त्री० टोकनी] १. टोकरा । डला । २. पानी रखने का धातु का एक बडा़ बरतन । एक प्रकार का हंडा ।
⋙ टोकनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोकना] १. टोकरी । डलिया । उ०— आज के दिन छोटी छोटी टोकनियों में अनाज बोया जाता है और देवी के गीत गाए जाते हैं ।—शुक्ल० अभि० ग्रं०, पृ० १३८ । २. पानी रखने का छोटा हंडा । ३. बटलोई । देगची ।
⋙ टोकरा
संज्ञा पुं० [?] [स्त्री० टोकरी] बाँस की चिरी हुई फट्टियों, अरहर, झाज की पतली टहनियों आदि को गाँछकर बनाया हुआ गोल और गहरा बरतन जिसमें घास, तरकारी, फल आदि रखते हैं । छावडा़ । डला । झावा । खाँचा । मुहा०—टोकरे पर हाथ रहना = इज्जत बनी रहता । परदा न खुलना । भरम बना रहना ।
⋙ टोकरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोकरी का अल्पा०]दे० 'टोकरी ।
⋙ टोकरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोकरा] १. छोटा टोकरा । छोटा डला या छाबडा़ । झाँपी । झपोली । २. देगची । बटलोई ।
⋙ टोकवा †
संज्ञा पुं० [देश०] उत्पाती लड़का । नटखट लड़का ।
⋙ टोकसी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] नरियरी । नारियल की आधी खोपडी़ ।
⋙ टोका (१)
संज्ञा सं० [देश०] एक कीडा़ जौ उर्द की फसल को नुकसान पहुंचात है ।
⋙ टोका (२)
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोंका' । यौ०—टोकाटोकी = बाधा । टोकटाक ।
⋙ टोकना पु †
क्रि० स० [हिं०]दे० 'टिकाना-४' । उ०—इहि बिधि चारि टकोर टोकावै ।—कबीर सा०, पृ० १५८४ ।
⋙ टोकारा †
संज्ञा पुं० [हिं० टोक] वह संकेत का शब्द जो किसी को कोई बात चिताने या स्मरण दिलाने के लिये कहा जाय । इशारे के लिये मुँह से निकाला हुआ शब्द ।
⋙ टोट
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोटा' । उ०—रोम रोम पूरि पीर, ब्याकुल सरीर महा, घूमै मति गति आसै, प्यास की न टौठ है ।—घनानंद, पृ० ६६ ।
⋙ टोटक पु †
संज्ञा पुं० [सं० त्रोटक]दे० 'टोटका' । उ०—स्वारथ के साथिन तज्यो तिजरा को सो टोटक, औचट उलटि न हेरो ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५९३ ।
⋙ टोटका
संज्ञा पुं० [सं० त्रोटक] १. किसी बाधा को दूर करने या किसी मनोरथ को सिद्ध करने के लिये कोई ऐसा प्रयोग जो किसी अलौकिक या दैवी शक्ति पर विश्वास करके किया जाय । टोना । यंत्र मंत्र । तांत्रिक प्रयोग । लटका । उ०—तन की सुधि रहि जात जाय मन अंतै अटका । बिसरी भूख पियास किया सतगुर ने टोटका ।—पलटू०, भा० १, पृ० ३२ । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—टोटका करने आना = आकर कुछ भी न ठहरना ।थोडी़ देर भी न बैठना । तुरत चला जाना । जैसे,—थोडा़ बैठो, क्या टोटका करने आई थी ? —(स्त्रि०) । टोटका होना = किसी बात का चटपट हो जाना । किसी बात का ऐसी जल्दी हो जाना कि देखकर आश्चर्य हो । २. काली हाँडी़ जिसे खेतों में फसल को नजर से बचाने के लिये रखते हैं ।
⋙ टोटकेहाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोटका + हाई (प्रत्य०)] टोटका करनेवाली । टोना या जादू करनेवाली ।
⋙ टोटल
संज्ञा पुं० [अं०] जोड़ । ठीक । मीजान । मुहा०—टोटल मिलाना = जोड़ ठीक करना ।
⋙ टोटा (१)
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड] १बाँस आदि का कटा हुआ टुकडा़ । २. मोमबत्ती का जलने से बचा हुआ टुकडा़ । ३. कारतूस । ४. एक प्रकर की आतशबाजी ।
⋙ टोटा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० टूटना, टूटा] १. घाटा । हानि । उ०— लेन न देन दुकान न जागा । टोटा करज ताहि कस लागा ।— घट०, पृ० २७५ । क्रि० प्र०—उठाना ।—सहना मुहा०—टोटा देना या भरना = नुकसान पूरा करना । घाटा पूरा करना । हरजाना देना । २. कमी । अभाव । जैसे,—यहाँ कागज का क्या टोटा है ! क्रि० प्र०—पड़ना ।
⋙ टोटि पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] त्रुटि । गलती । उ०—कोटि विनायक जो लिखें, महि से कागर कोटि । ता परि तेरे पीय के गुन नहिं आवै टोटि ।—नंद० ग्रं०, पृ० ९१ ।
⋙ टोडा़
संज्ञा पुं० [सं० तुण्ड] चोंच के आकार का गढा़ हुआ काठ का डेढ़ हाथ लंबा टुकडा़ जो घर की दीवार के बाहर की ओर पंक्ति में बढी़ हुई छाजन को सहारा देने के लिये लगाया जाता है । टोंटा ।
⋙ टोडी़
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रोटकी] १. एक रागिनी जिसके गाने का समय १० दंड से १६ दंड पर्यत है । विशेष—इसका स्वरग्राम इस प्रकार है— स रे ग म प ध नि स स नि ध प म ग ग रे स । रे सा नि स नि ध ध नि स ग रे स नि स नि ध । प ग ग म रे ग रे स रे नि स नि ध स रे ग म प ध ध प । म ग म ग रे स नि स रे रे स नि ध ध ध नि स । हनुमत मत से इसका स्वरग्राम यह है—म प ध नि स रे ग म अथवा स रे ग म प ध नि स । यह संपूर्ण जाति की रागिनी हैं । इसमें शुद्ध मध्यम और तीव्र मध्यम के अतिरिक्त बाकी सब स्वर कोमल होते हैं । यह भैरव राग की स्त्री मानी जाती है और इसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है—हाथ, में वीणा लिए हुए, प्रिय के विरह में गाती हुई, श्वेत वस्त्र धारण किए और सुंदर नेत्रोंवाली । २. चार मात्राओं का एक ताल जिसमें २ आघात और २ खाली + ० रहते हैं । इसका तबले का बोल यह है—धिन् धा, गेदिन, ३ ० + जिनता, गोदिन, धा । अथवा । + ० ० ० + धेद्धां के टे, नेद्धा के टे । धा ।
⋙ टोनहा †
वि० [हिं० टोना + हा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० टोनही] टोना करनेवाला । जादू मारनेवाला ।
⋙ टोनहाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोना + हाई (प्रत्य०)] १. टोना करनेवाली । जादू मारनेवाली । ३. टोना करने की क्रिया ।
⋙ टोनहाया
संज्ञा पुं० [हिं० टोना + हाया (प्रत्य०)] टोना करनेवाला मनुष्य । जादू करनेवाला मनुष्य ।
⋙ टोना (१)
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्र] १. मंत्र तंत्र का प्रयोग । जादू । क्रि० प्र०—करना ।—चलाना ।—मारना । २.एक प्रकार का गीत जो विवाह में गाया जाता है और जिसमें 'होना' शब्द कई बार आता है ।
⋙ टोना (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक शिकारी चिड़िया । उ०—जुर्रा बाज बाँसे, कुही, बहरी, मगर लौन टोनै जरकटी त्यों सचान सानवारे हैं ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ टोना (३) †
क्रि० स० [सं० त्वक् (= स्पर्शेद्रिय) + ना (प्रत्य०)] १. हाथ से टटोलना । छूना । छूकर मालूम करना । उ०—साँच अहै अँधरे को हाथी और साँचे है सधरे । हाथ की टोई साषि कहत हैं हैं आँखिन के अँधरे ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ५४ । २. अच्छी तरह समझना । अनुभव करना । उ०—जग में आपन कोई नहीं, देखा सब टोई ।—संतवाणी०, पृ० ४३ ।
⋙ टोनाहाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोना + हाई (प्रत्य०)]दे० 'टौनहा' ।
⋙ टोप (१)
संज्ञा पुं० [हिं० तोपना (= ढाँकवा)] १.बडी़ टोपी । सिर का बडा़ पहनावा । उ०—सुँदर सीध सनाह करि तोष दियौ सिर टोप ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७४० । यौ०—कवटोप । २. सिर की रक्षा के लिये लडा़ई में पहनने की लोहै की टोपी । शिरस्त्राण । खोद । कूँड़ । ३.खोल । गिलाफ । ४. अंगुश्ताना ।
⋙ टोप (२) †
संज्ञा पुं० [अनु० टप टप या सं० स्तोक] बूँद । कतरा । यौ०—टोप टोप = बूँद बूँद ।
⋙ टोपन
संज्ञा पुं० [देश०] टोकरा ।
⋙ टोपर †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोकना' ।
⋙ टोपरा †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोकना' ।
⋙ टोपरी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोपर]दे० 'टोकरी' ।
⋙ टोपरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोपा] टोप । शिरस्त्राण विशेष । उ०— फुटंत यों सु षोपरी । कि जोग पत्र टोपरी ।—पृ० रा० ५ ।७७ ।
⋙ टोपही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोप] बरतन के साँचे का सबसे ऊपरी भाग जो कटोरे के आकार का होता है ।
⋙ टोपा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० टोप] बडी़ टोपी ।
⋙ टोपा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तोपना] टोकरा ।
⋙ टोपा † (३)
संज्ञा पुं० [सं० टङ्कन, हिं० तोपना, तुरपना] टाँका । डोभ । सीवन । मूहा०—टोपा भरना = तागा भरना । सीना ।
⋙ टोपी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तोपना (= ढाकना)] १. सिर पर का पहनावा । सीर पर ढाँकने के लिये बना हुआ आच्छादन । क्रि० प्र०—पहनना ।—लगाना । मुहा०—टोपी उछलना = निरादर होना । बेइज्जती होना । टोपी उछालना = निरादर करना । बेइज्जती करना । टोपी देना = टोपी पहनना । टोपी बदलना = भाई भाई का संबंध जोड़ना । भाईचारा करना । टोपी बदल भाई = वह जिससे टोपी बदलकर भाई का संबंध जोडा़ गया हो । विशेष—लड़के खेल में जब किसी से मित्रता करते हैं तब अपनी टोपी उसे पहनाते और उसकी टोपी आप पहनते हैं । २. राजमुकुट । ताज । मुहा०—टोपी बदलना = राज्य बदलना । दूसरे राजा का राज्य होना । ३. टोपी के आकार की कोई गोल और गहरी वस्तु । कटोरी । ४. टोपी के आकार का धातु का गहरा ढक्कन जिसे बंदूक की निपुल पर चढा़कर घोडा़ गिराने से आग लगती है । बंदूक का पडा़का । ५. वह थैली जो शिकारी जानवर के मुँह पर चढा़ई रहती है । ६.लिंग का अग्र भाग । सुपारा । ७. मस्तूल का सिरा ।—(लश०) ।
⋙ टोपीदार
वि० [हिं० टोपी० + फा़० दार] जिसपर टोपी लगी हो । जो टोपी लगने पर काम दें । जैसे, टोपीदार बंदूक, टोपीदार तमंचा ।
⋙ टोपीवाला
संज्ञा पुं० [हिं० टोपी] १. वह आदमी जो टोपी पहने हो । २. अहमदशाह और नादिरशाह के सिपाही जो लाल टोपियाँ पहनकर आए थे । ये टोपीवाले कहलाते थे । ३. आँगरेज या यूरोपियन जो हैट पहनते हैं । ४. टोपी बेचनेवाला ।
⋙ टोभ †
संज्ञा पुं० [हिं० डोअ] टाँका । तोपा । उ०—बैरिनि जीभही टोभ दै री मन बैरी कौ भूँजि के भौन घरौगी ।— देव (शब्द०) ।
⋙ टोभा
संज्ञा पुं० [हिं० टाभ] दे० 'टोभ' ।
⋙ टोया †
संज्ञा पुं० [सं० तोय] गड्ढा ।—(पंजाबी) ।
⋙ टोर (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कटारी । कटार । उ०—तुम सों न जोर चोर भूपन के भोर रूप काँकरी को चोर काऊ मारो है न टोर कै ।—हनुमान (शब्द०) ।
⋙ टोर (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] शोरे की मिट्टी का वह पानी जो साधारण नमक की कलमों को छानकर निकाल लेने पर बच रहता है और जिसे फिर उबाल और छानकर शोरा निकाला जाता है ।
⋙ टोर पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० ठोर] ठोर । मुँह । उ०—लगौ टोर निरहट्ट गरवं मिलायं ।—प० रासो, पृ० १४१ ।
⋙ टोरना †
क्रि० स० [सं० त्रुट] तोड़ना । उ०—(क) रिझकवार दृग देखि कै मनमोहन की ओर । भौंहन मारत रिझि जनु डारत है तन टोर ।—रसनिधि (शब्द०) । (ख) कोउ कहँ टोरन देत न माली । माँगेहु पर मुरके हम खाली ।— रघुराज (शब्द०) । मुहा०—आँख टोरना = लज्जा आदि से दृष्टि हटना या अलग करना । आँख मोड़ना । दृष्टि छिपाना । उ०—सूर प्रभु के चरित सखियन कहत लोचन टोरि ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ टोरा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] जुलाहों का सूत तौलने का तराजू ।
⋙ टोरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोडा़' ।
⋙ टोरा † (३)
संज्ञा पुं० [सं० तोक] [स्त्री० टोरी] लड़का । छोकडा़ ।
⋙ टोरी † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टोडी़' ।
⋙ टोरी (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०]दे० 'कंसरवेटिव' ।
⋙ टोरी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'टोली' । उ०—दो दो पंजे तो कसा लें इधर या उधर देखिए तो मेरी टोरी कैसी बढ़ बढ़के लात देती है ।—फिसाना०, भा० १, पृ० ३ ।
⋙ टोरी (४)
संज्ञा पुं० [सं० तुवर] अरहर का वह छिलके सहित खडा़ दाना जो बनाई हुई दाल में रह जाय ।
⋙ टोर्रा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. रोडा़ । कँकड़ । ईंट का टुकडा़ । २. लड़का ।
⋙ टोल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तोलिका (= गढ़ के चारों ओर का घेरा, बाडा़)] १. मंडली । समूह । जत्था । झुँड । उ०—(क) अपने अपने टोल कहत ब्रजवासी आई । भाव भक्ति लै चलौ सुदंपति आसी आई ।—सूर (शब्द०) । (ख) टुनिहाई सब टोल में रही जु सौत कहाय । सुतौ ऐंचि तिय आप त्यों करी अदोखिल आय ।—बिहारी (शब्द०) । यौ०—टोल मटोल = झुंड के झुंड । २. मुहल्ला । बस्ती । टोला । उ०—आजु भोर तमचुर के रोल । गोकुल मैं आनंद होत है, मंगल धुनि महराने टोल ।—सूर०, १० ।९४ । ३. चटसार । पाठशाला ।
⋙ टोल (२)
संज्ञा पुं० [देश०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं । इसके गाने का समय २५ दंड से २८ दंड तक है ।
⋙ टोल (३)
संज्ञा पुं० [अं० टाल] सड़क का महसूल । मार्ग का कर । चुंगी । यौ०—टोल कलेक्टर = कर लेनेवाला । महसूल वसूल करनेवाला ।
⋙ टोलना पु
क्रि० स० [हिं०]दे० 'टटोलना' । उ०—नौ ताली दे दसवाँ खोलिया । तब इस गढ़ महि एकौ टोलिया ।—प्राण०, पृ० २८ ।
⋙ टोला (१)
संज्ञा पुं० [सं० तोलिका (= किसी स्तंभ या गढ़ के चारों ओर का घेरा, बाडा़)] १. आदमियों की बडी़ बस्ती का एक भाग । महल्ला । उ०—घर में छोटे बडे़ और टोला परोसियों के उत्साह भंग हो गए ।—श्यामा०, पृ० ४७ । २. एक प्रकारका व्यवसाय करनेवाले या एक जातिवालै लोगों की बस्ती । जैसे, चमरटोला ।
⋙ टोला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] बडी़ कौडी़ । कौडा़ । टग्घा ।
⋙ टोला (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. गुल्ली पर डंडे की चौट । क्रि० प्र०—लगाना । २. उँगली को मोड़कर पीछे निकली हुई हड्डी से मारने की क्रिया । ठूँग । उ०—जो वैष्णब आवै तो ताके मूँड में टोला देतो ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३३१ । ३. पत्थर या इँट का टुकडा़ । रोडा़ । ४. बेंत आदि के आघात का पडा़ हुआ चिह्न जो कभी लाल और कभी कुछ नीलापन लिए होता है । साँट । नील । क्रि० प्र०—पड़ना ।
⋙ टोलिया
संज्ञा स्त्री० [सं० तोलिका (= घेरा, हाता)] टोली । छोटा । महल्ला ।
⋙ टोली
संज्ञा स्त्री० [सं० तोलिका (= हाता, बाडा़)] १. छोटा महल्ला । बस्ती का छोटा भाग । उ०—नैन बचाय चवाइन के नहिं रैन में ह्वै निकसी यह टोली ।—सेवक (शब्द०) । २. समूह । झुँड । जत्था । मंडली । उ०—इस टोली ते सतगुरु राखै ।— प्राण०, ८८ । ३. पत्थर की चौकोर पटिया । सिल । ४. एक जाति का बाँस जो पूर्वीय हिमालय, सिक्किम और आसाम की ओर होता है । विशेष—इसकी आकृति कुछ कुछ पेड़ों की होती है और इसमें ऊपर जाकर टहनियाँ निकलती है । यह बाँस बहुत सीधा और सुडौल होता है । टोकरे बनाने के लिये यह बाँस सवसे अच्छा समझा जाता है । यह छप्परों में लगता है और चटाइयाँ बनाने के काम में भी आता है । इसे 'नाल' और 'पकोक' भी कहते हैं ।
⋙ टोलीधनवा
संज्ञा पुं० [हिं० टोली + धान] धान की तरह की एक घास जिसके नरम पत्ते घोडे़ और चौपाए बडे़ चाव से खाते हैं । इसके दानों को भी कहीं कही गरीब लोग खाते हैं ।
⋙ टोवना †
क्रि० स० [हिं०]दे० 'टोना' ।
⋙ टोवा
संज्ञा पुं० [देश०] गलही पर बैठनेवाला वह माझी जो पानी की गहराई जाँचता है ।
⋙ टोह
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोली] १. टटोल । खोज । ढूँढ । तलाश । पता । मूहा०—टोह मिलना = पता लगना । टोह में रहना = तलाश में रहना । ढूँढते रहना । टोह लगाना या लेना = पता लगाना । सुराग लगाना । २. खबर । देखभाल । मुहा०—टोह रखना = खबर रखना । देखमाल रखना ।
⋙ टोहना
क्रि० स० [हिं० टोह] १. ढूँढ़ना । खोजना । २. हाथ लगाना । छूना । टटोलना । उ०—अब तनकौ धीरज न लगत हाथ अपनो सो मैं बहुतै टोह्यो ।—घनानंद, पृ० ३४० ।
⋙ टोहाटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोह] १. छानबीन । ढूँढ़ । तलाश । २. देखभाल ।
⋙ टोहाली पु
संज्ञा स्ञी० [हिं० टोहना] टोह । देखभाल । उ०— करि टोहाली नाम की बिगड़न कूँ कछु नाँहि ।—राम० धर्म०, पृ० ७१ ।
⋙ टोहिया
वि० [हिं० टोह] १. टोह लगानेवाला । ढूँढनेवाला । २. जासूस ।
⋙ टोहियाना †
क्रि० स० [हिं०]दे० 'टोहना' ।
⋙ टोह
संज्ञा स्त्री० [हिं० टोह] तलाश करनेवाला । पता लगानेवाला ।
⋙ टौंना पु †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'टोना' । उ०—धुनि सुनि मोही राधिका औ ब्रज सिगरी नारि, मनौ टौंना कयौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९८ ।
⋙ टौंस
संज्ञा स्त्री० [सं० तमसा] १. एक छोटी नदी जो अयोध्या के पश्चिम से निकलकर बलिया के पास गंगा में मिलती है । विशेष—रामायण में लिखी हुई तमसा यही है जहाँ बन को जाते हुए रामचंद्र जी ने अपना डेरा किया था तथा जिससे आगे चलकर गोमती और गंगा पडी़ थीं । बालकांड के आदि में तमसा के तट पर वाल्मीकि के आश्रम का होना लिखा है । अयोध्याकांड में प्रयाग से चित्रकूट जाते हुए भी रामचंद्र को वाल्मीकि का आश्रम मिला था पर वहाँ तमसा का कोई उल्लेख नहीं है । इससे संभव है कि वाल्मीकि दो स्थानों पर रहे हों । २. एक नदी जो मैहर के पास कैमोर पहाड़ से निकलकर रीवाँ होती हुई मिर्जापुर और इलाहाबाद के बीच गंगा से मिलती है । विशेष—इस नदी के तट पर वाल्मीकि का एक आश्रम बतलाया जाता है जो संभवतः उस आश्रम को सूचित करता हो जिसका उल्लेख अयोध्याकांड में है । ३. एक नदी जो जमुनोत्री पहाड़ से निकलकर टेहरी और देहरादून होती हुई जमुना में जा मिली है ।
⋙ टौंहना पु
क्रि० स० [हिं० टोहना]दे० 'टोहना' । उ०—टौंहन को पतिया लिखी भेजतु थौंहन कौं सबही धन धामैं ।— सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ६३ ।
⋙ टौड़िक पु
वि० [?] पेटू । उ०— टौड़िक ह्वै घन आनंद डाटत काटत क्यों नहीं दीनता सौं दिन ।—घनानंद, पृ० २५३ ।
⋙ टौनहाल
संज्ञा पुं० [अं० टाउनहाल]दे० 'टाउनहाल' ।
⋙ टौना टामन पु †
संज्ञा पुं० [हिं० टोना + अनु० टामन] जादू टोना । तंत्र मत्र । उ०—टौना टामन मंत्र यंत्र सब साधन साधे ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १४ ।
⋙ टौर पु
संज्ञा पुं० [हिं० टोल] समूह । झुंड । यूथ । उ०—यह औसर फाग को नीको फब्यौ गिरिधारी हिले कहूँ टौरनि सो ।— घनानंद, पृ० ५९८ ।
⋙ टौरना †
क्रि० स०[हिं० टेरना?] भली बुरी बात की जाँच करना । २. किसी व्यक्ति या बात की थाह लेना । पता लगाना ।
⋙ टौरिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] ऊँचा टीला । छोटी पहाडी़ । उ०—बैरीअपनी टोपे ऊँची टोरिया पर चढा़ ले जावेगा और वहाँ से फाटक और बूजं की घुस्स करने का उपाय करेगा ।—झाँसी०, पृ० ३२० ।
⋙ टौरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] टीला । घुस्स । पहाडी़ ।
⋙ ट्योंझा
संज्ञा पुं० [देश०] झंझट । बखेडा़ ।
⋙ ट्रंक
संज्ञा पुं० [अं०] लोहे का सफरी संदूक ।
⋙ ट्रंप
संज्ञा पुं० [अं०] १. ताश के खेल में वह रंग जो और रंगों के बडे़ से बडे़ पत्ते को काटने के लिये नियत किया जाता है । हुक्म का रंग । तुरुप । २. ट्रंप का खेल ।
⋙ ट्रक
संज्ञा स्त्री० [अं०] बोझा ढोनेवाली खुली मोटर ।
⋙ ट्राम
संज्ञा स्त्री० [अं०] बडे़ बडे़ नगरों में एक प्रकार की लंबी गाडी़ जो लोहे कि बिछी हुई पटरी पर चलती है । इसमें पहले घोडे़ लगते थे पर अब यह बिजली से चलाई जाती है ।
⋙ ट्रेडमार्क
संज्ञा पुं० [अं०] वह चिह्न जो व्यापारी लोग पहचानने के लिये अपने यहाँ के बने या भेजे हुए माल पर लगाते हैं । छाप ।
⋙ ट्रस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] संपत्ति या दान । संपत्ति को इस विचार या विश्वास से दूसरे व्यक्ति के सुपुर्द करना कि वे संपत्ति का प्रबंध या उपयोग उसके स्वामी या अधिकारी की लिखापढी़ या दानपत्र के अनुसार करेंगे ।
⋙ ट्रस्टी
संज्ञा पुं० [अं०] वह व्यक्ति जिसके सुपुर्द कोई संपत्ति इस विचार और विश्वास से की गई हो कि वह उस संपत्ति का प्रबंध या उपभोग उसके स्वामी या अधिकारी की लिखापढी़ या दानपत्र के अनुसार करेगा । अभिभावक ।
⋙ ट्रांसपोर्ट
संज्ञा पुं० [अं०] १. माल असबाब एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाना । बारबरदारी । २. वह जहाज जिसपर सैनिक या युद्ध का सामान आदि एक स्थान से दूसरे स्थान को भेजा जाता है । ३. सवारी । गाडी़ ।
⋙ ट्रांसलेटर
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो एक भाषा का दूसरी भाषा में उल्था करता है । भाषांतरकार । अनुवादक । जैसे, गवर्न— मेंट ट्रांसलेटर ।
⋙ ट्रांसलेशन
संज्ञा पुं० [अं०] एक भाषा में प्रदर्शित भावों या विचारों को दूसरि भाषा के शब्दों में प्रगट करना । एक भाषा को दूसरी में उल्था करना । भाषांतर । अनुवाद । उल्था । तर्जुमा ।
⋙ ट्रप
संज्ञा स्त्री० [अं० ट्रुप] १. पलटन । सैन्यदल । जैसे, ब्रिटिश ट्रूप । २. घुड़सवारों का एक दल जिसमें एक कप्तान की अधीनता में प्रायः साठ जवान होते हैं ।
⋙ ट्रस
संज्ञा स्त्री० [अं०] दो लड़नेवाली सेनाओं के नायकों की स्वीकृति से लडा़ई का स्थगित होना । कुछ काल के लिये लडा़ई बंद होना । क्षणिक संधि ।
⋙ ट्रेक्टर
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का मशीनी हल ।
⋙ ट्रेजरर
संज्ञा पुं० [अं० ट्रेजरर] खजानची । कोषाध्यक्ष ।
⋙ ट्रेडिल
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का छापने का छोटा यंत्र ।
⋙ ट्रोडिल मशीन
संज्ञा स्त्री० [अ०] एक प्रकार का छापने का छोटा यंत्र जिसे एक आदमी पैर या बिजली आदि से चलाता तथा हाथ से उसमें कागज रखता जाता है । स्याही इसमें आपसे आप लग जाती हैं । इसमें (हाफटोन ब्लाक) फोटो की तसवीरें बहुत साफ छपती हैं और कार्य कार्य बहुत शीघ्रता से होता है ।
⋙ ट्रेन
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. रेलगाड़ी में लगी हुई गाडियों की पंक्ति । २. रेलगाड़ी । मुहा०—ट्रेन छूटना = रेलगाड़ी का स्टेशन पर से चल देना ।
⋙ ट्रैजेडियन
संज्ञा पुं० [अ०] १. वह अभिनेता जो विषाद, शोकऔर गंभीर भावव्यंजक अभिनय करता हो । २. वियोगांत नाटक लिखनेवाला । वियोगांत नाटकलेखक ।
⋙ ट्रैजेड़ी
संज्ञा स्त्री० [अं०] नाटक का एक भेद जिसमें किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के जीवन की महत्वपूर्ण घटना का वर्णन हो, मनोविकारों का खूब संघर्ष और द्वंद्व दिखाया गया हो और जिसका अंत शोक जनक या दुःखमय हो । वह नाटक जिसका अंत करुणोत्पादक और विषादमय हो । दुःखांत नाटक । वियोगांत नाटक ।