करंक (१)
संज्ञा पुं० [सं० करङ्क] १. मस्तक । २. करवा । कमंडलु । ३. नरियरी । नारियल की खोंपड़ी । ४. पंजर । ठठरी । उ०—(क) चारों ओर दौरे नर आए ढिग टरि जानी ऊँट— के करंक मध्य देह जा दुराई है । जग दुर्गंध कोई ऐसी बुरी लागी जामें बहु दुर्गँध सो सुगंध लौ सराही है ।—प्रिया (शब्द०) । (ख) कागा रे करंक परि बोलइ । खाइ मास अरु लगही डोलइ ।—दादू (शब्द०) ।

करंक (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] भोज में अनाहुत रूप में डटने और भोजन किए बिना न हटनेवाला व्यक्ति । कँगला ।

करंगण
संज्ञा पुं० [सं० करङ्गण] १. हाट । बाजार । २. मेला [को०] ।

करँगा
संज्ञा पुं० [हिं० काला या कारा+ अंग] एक प्रकार का मोटा धान । विशेष—इसकी भूसी कुछ कालापन लिए होती है । यह क्वार महीने में पकता है ।

करँगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० करँगा] दे० 'करँगा' । विशेष—करँगा का दाना आकार में कुछ छोटा होता है ।

करंज
संज्ञा स्त्री० [हिं० करञ्ज] १. कंजा । २. एक छोटा जंगली पेड़ जिसकी पत्तियाँ सीसम की सी पर कुछ बड़ी होती हैं । इसकी डाल बहुत लचीली होती है । इसकी टहनियों की लोग दातून करते है । ३. एक प्रकार की आतिशबाजी ।

करंज (२)
संज्ञा पुं० [सं० कलिङ्ग, फा० कुलंग] मुरगा । यौ०—करंजखाना ।

करजखाना
संज्ञा पुं० [हिं० करंज+ फा० खानह् (घर)] वह स्थान जहाँ बहुत से मुरगे पले हों । पालतू मुरगों के रहने का स्थान । उ०—हिरन हरमखाने, स्याही हैं सुनुरखाने, पाढ़े पीलाखाने और करंजखाने कीस हैं ।—भूषण (शब्द०) ।

करंजा (१)
संज्ञा पुं० [सं० करंज] दे० 'कंजा' ।

करंजा (२)
वि० [स्त्री० करंजी] करंज या कजे के रंग की सी आँखवाला । भूरी आँखवाला ।

करंजुवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० करञ्ज] दे० 'करंज' या 'कंजा' ।

करंजुवा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार के अंकुर जो बाँस, ईख या उसी जाति के और पौधों में होते हैं और उनको हानि पहुँचाते है । घमोई । २. जौ के पौधे का एक रोग जो खेती को हानिकारक है ।

करंजुवा (३)
वि० [सं० करञ्ज] करंज के रंग का । खाकी ।

करंजुवा (४)
संज्ञा पुं० खाकी रंग । करंज का सा रंग । विशेष—यह रंग माजु, कसीस, फिटकरी और नासपाल के योग से बनता है ।

करंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० करण्ड] १. मधुकोश । शहद का छत्ता । २. तलवार । ३. कारंडव नाम का हंस । ४. बाँस की बनी हुई टेकरी या पिटारी । डला । डली उ०—मन भुजंग गुरु गारडी राखै कील करंड । रज्जब०, पृ० २० । ५. एक प्रकार की चमेली । हजारा चमेली ।

करंड
संज्ञा पुं० [सं० कुरविन्द] कुरुल पत्थर जिसपर रखकर छुरी और हथियार आदि तेज किए जाते हैं ।

करंडक
संज्ञा पुं० [सं० करण्डक] बाँस का बना छोटा पिटारा या बक्स [को०] ।

करंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० करण्डिका] बाँस की बनी छोटी पिटारी या पेटी [को०] ।

करंडी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० अंडी] कच्चे रेशम की बनी हुई चादर ।

करंडी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० करण्डी] बाँस की बनी छोटी पेटी या पिटारी [को०] ।

करंडी (३)
संज्ञा पु० [सं० करण्डिन्] मछली [को०] ।

करंतीना
संज्ञा पुं० [अँ० क्वारंटाइन] दे० 'क्वारंटाइन' ।

करंद †
संज्ञा पुं० [देश०] बिना भोजन किए न टलनेवाला व्यक्ति । कँगला ।

करंधय
वि० [सं० करन्धय] हाथ का चुंबन करनेवाला । हाथ चुमनेवाला [को०] ।

करंब
संज्ञा पुं० [सं० करम्ब] [वि० करम्बिन] मिश्रण । मिलावट ।

करंबित
वि० [सं० करम्बित] १. मिश्रित । मिलवाँ । मिला हुआ । २. खचित । बना हुआ । गढ़ा हुआ ।

करंभ
संज्ञा पुं० [सं० करम्भ] १. दही में सना सत्तु । २. दलिया । ३. मिली जुली गंध । ४. पंक । उ०—जौ को कुटकर भुसी अलग करके भुनकर पीसते थे और उसको सत्तु एवं दही में मिलाकर नमक भोज्य पदार्थ बनाते थे ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ८० ।

करंभक
संज्ञा पुं० [सं० करम्भक] १. दलिया । २. दही में सना हुआ सत्तु [को०] ।

करंभका
संज्ञा स्त्री० [सं० करंभका] १. सत्त । २. दही मेंसना सत्तु । ३. अनेक उपभाषाओं में लिखित प्रलेख [को०] ।

करंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० करम्भा] १. शतावरी । २. दही मथने का पात्र [को०] ।

करँही
संज्ञा स्त्री० [सं० कर+ हिं० गहना] मोचियों या चमारों का एक हाथ, लंबा, ६ अंगुल चौड़ा और ३ अंगुल मोटा एक औजार जिसपर जुता सिया जाता है ।

कर (१)
संज्ञा पु० [सं०] १. हाथ । मुहा०—कर गहना=(१) हाथ पकड़ना । (२) पणिग्रहण या विवाह करना । कर मलना=हाथ मलना । पश्चाताप करना उ०—ननद देखि कै रहहि रिसाइ । तब चलिहुहु कर मलि पछिताय ।—जग० श०, पृ० ७० । २. हाथी की सुँड़ । ३. सुर्य या चंद्रमा की किरण । ४. ओला । पत्थर । ५. प्रजा के उपार्जित धन में से राजा का भाग । मालगुजारी । महसुल । टैक्स । क्रि० प्र०—चुकना ।—चुकाना ।—देना ।—बाँधना ।—लगना ।—लगाना ।—लेना । ६. करनेवाला । उत्पन्न करनेवाला । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग केवल योगिक शब्दों में होता है, । जैसे,—कल्याणाकर, सुखकर, स्वास्थ्यकर इत्यादि । ७. छल । युक्ति । पाखंड । जैसे,—कर, बल, छल । उ०—कीरतन करत कर सपनेहु मथुरादास न मंडियो ।—नाभा (शब्द०) ।

कर (२)
प्रत्य० [सं० कृत] का । उ०—(क) राम ते अधिक राम कर दासा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) वै सहब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३ ।

करइत (१) †
संज्ञा पुं० [देश०] एक तरह का कीड़ा जो अनुमानतः छह अंगुल लंबा होता है और हवा में उड़ता है ।

करइत (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० करैत] दे० 'करैत' ।

करइला †
संज्ञा पुं० [हिं० करेला] दे० 'करेला' । उ०—दुचे पटाइअ, सीचीअ नीत । सहज न तेज करइला तीन ।—विद्दापति, पृ० ४२३ ।

करई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० करवा+ ई (प्रत्य०)] पानी रखने का एक प्रकार का टोंटीदार बरतन । छोटा करवा ।

करई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० करक] एक छोटी चिड़िया जो गेहुँ के छोटे छोटे पौधों को काट काटकर गिराया करती है ।

करकंटक
संज्ञा पुं० [सं० करकण्टक] नख । नाखुन ।

करक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमंडलु । करवा । उ०—कहु मृगचर्म कतहुँ कोपीना । कहुँ कंथा कहु करक नवीना ।—शं० दिं० (शब्द०) । २. दाड़िम । अनार । उ०—सहज रुप की राशि नागरी भुषण अधिक बिराजै ।...नासा नथ मुक्ता बिंबाधरप्रतिबिंबित असमुच । बीध्यो कनकपाश शुक सुंदर करक बीज गहि चुँच ।—सुर (शब्द०) । ३. कचनार । ४. पलास । ५. बकुल । मौलसिरी । ६. करील का पेड़ । ७. नारियल की खोपड़ी । ८. ठठरी । ९. हस्त । हाथ (को०) । १०. कर । महसुल (को०) । ११. उपल । करका । ओला (को०) । १२. एक पक्षी का नाम (को०) । १३. उच्चघोष । ऊँची ध्वनि (को०) ।

करक (२)
संज्ञा पुं० [अ० कलक] १. रुक रुककर होनेवाली पीड़ा । पीड़ा । व्याकुल । बेचैनी । २. कसक । चिनक । उ०— बाबल बैद बुलाइया रे, पकड़ दिखाई म्हाँरी बाँह । मुरख बैद मरन नहिं जाने, करक कलेजे माँह ।—संतवाणी०, भा० २, पृ० ७१ ।

करक (३)
संज्ञा पुं० [हिं० कड़क] १. रुक रुककर और जलन के साथ पेशाब होने का रोग । क्रि० प्र०—थामना ।—पकड़ना । २. वह चिह्न जो शरीर पर किसी वस्तु की दाब, रगड़ या आघात से पड़ जाता है । साँट । उ०—दिग्गज कमठ कोल सहसानन धरत धरनि धर धीर । बारहिं बार अमरखत करखत करकैं परी सरीर ।—तुलसी (शब्द०) ।

करक (४) †
संज्ञा पुं० [सं० कर्क] दे० 'कर्क' । उ०—दोय संक्रात का भेद बताई । एक मकर दुजा करक कहाई ।—कबीर सा०, पृ० ५५९ ।

करकच (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का नमक जो समुद्र के पानी के निकाला जाता है । २. टुकड़ा । खंड । उ०—जगमग जगमग करै नग, जौ, जराय संग होई । काच करकचन बिच खचे, भलौ कहै नहिं कोइ ।—नंद ग्रं०, पृ० ११७ । ३. गिद्ध । चील ।—तिनके तन को करकच छेदैं, बहुत भाँति चोंदन सों भेदैं ।—कबीर सा०, पृ० ४६४ ।

करकच (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष का एक योग [को०] ।

करकचहा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमलतास' ।

करकट
संज्ञा पुं० [हिं० खर+ सं० कट] कुड़ा । झाड़न । बहारन । घास पात । घास फुत । कतवार । यौ०—कुड़ा करकट ।

करकटिया
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्करेटु] एक चिड़िया । दे० 'करकरा' ।

करकना (१)
क्रि० अ० [हिं० कड़क वा करक] किसी कड़ी वस्तु का कर कर शब्द के साथ टुटना । तड़कना । फटना । फुटना । चिटकना । उ०—फरकि फरकि उठैंबाँहैं अस्त्र बाहिबै को करकि करकि उठें करी बख्तर की ।—हरिकेस (शब्द०) ।

करकना (२)
क्रि० अ० [अ० कलक>हिं० करक से नाम०] रह रहकर दर्द करना । कसकना । सालना । खटकना । उ०—बचन बिनीत मधुर रधुबर के । सर सम लगे मातु उर करके ।—तुलसी (शब्द०) ।

करकनाथ
संज्ञा पुं० [सं० कर्करेटु] एक काला पक्षी जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि उसकी हड्डियाँ तक काली होती हैं ।

करकमल
संज्ञा पुं० [सं०] कमल जैसे, सुंदर एवं कोमल हाथ [को०] ।

करकर (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्कर] एक प्रकार का नमक जो समुद्र के पानी से निकाला जाता है ।

करकर (२)
वि० [हिं० करकरा] १. दे० 'करकरा' । २. दे० 'करकट' । उ०—उसमें दुर्गंध से भरा हुआ कपड़ा करकर देखा ।—कबीर मं०, पृ० २५६ ।

करकरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्क रेटु] एक प्रकार का सारस जिसका पेट तथा नीचे का भाग काला होता है और जिसके सिर पर एक चोटी होती है । करकटिया । विशेष—इसका कंठ काला हेता है और बाकी शरीर करंज के रंग का खाकी होता है । इसकी पुँछ एक बित्ते की तथा टेढ़ी होती है ।

करकरा
वि० [सं० कर्कर] [स्त्री० करकरी] छुने में जिसके रवे या कण उँगालियों में गड़ें । खुरखुरा । उ०—बालु जैसी करकरी उज्जल जैसी धुप । ऐसी मीठी कछु नहीं जैसी मीठी चुप ।— कबीर (शब्द०) ।

करकराता
वि० [हिं० कड़कड़ाना] खुरखुरा । माड़ी इत्यादि से जिसमें करकराहट आ गई हो । उ०—आप लोगों के समान परम प्रियतम सफेद करकराता डुपट्टा ओढ़नेवाली अनाथ बाला ने ही सिखलाए होंगे ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ३५४ ।

करकराना (१) पु
क्रि० अ० [हिं० कटकट] कटकटाना । उ०—डावउ करेवउ करकरइं ।—बी० रासो, पृ० ५९ ।

करकराना (२)
क्रि० अ० [हिं० कड़कड़ाना=अत्यंत कड़ा या कठोर होना] प्रचंड होना । कठोर होना । उ०—पास जाकर उनसे कहा अब रियासत नहीं है । अंग्रेजी करकरा उठी है । ठिकाने से काम करो, नहीं तो खाल टुटती फिरेगी ।—झाँसी०, पृ० १८० ।

करकराहट
संज्ञा पुं० [हिं० करकरा+ आहट (प्रत्य०)] १. कड़ापन । खुरखुराहट । २. आँख में किरकिरी पड़ने की सी पीड़ा ।

करकल †
संज्ञा पुं० [हिं० करकट] १. कुड़ा । कतवार । २. किरकिरी । कन ।

करकलश
संज्ञा पुं० [सं०] अंजलि [को०] ।

करकस पु
वि [सं० कर्कश] दे० 'कर्कश' ।

करका
संज्ञा पुं० [सं०] ओला । वर्षा का पत्थर ।

करकाघन
संज्ञा पुं० [सं० करका+घन] ओले बरसानेवाले बादल । उ०—'आह' घिरेगी हृदय लहलहे खेतों पर करकाधन सी । छिपी रहेगी अंतरतम में, सबके तु निगुढ़ धन सी ।—कामायनी पृ० ६ ।

करकायु
संज्ञा पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के पुत्र का नाम ।

करकोटक †
संज्ञा पुं० [सं० कर्कोटक] दे० 'कर्कोटक' ।—प्रा० भा० प०, पृ० १६५ ।

करकोष
संज्ञा पुं० [सं० कर+ कोष] अंजलि । चुल्लु [को०] ।

करक्कना (१)पु †
क्रि अ० [हिं० करकना] दे० 'कड़कना' । उ०— धरक्कै धरन्नी करक्कै सुसोयं ।—प० रा०, पृ० ८५ ।

करक्कना (२) पु
संज्ञा अ० [हिं० करकना] दे० 'करकना' । उ०— भोरा अभंग लग्गयौ रहसि । काम करक्कै प्रानियाँ ।—पृ० रा०, १ ।१२० ।

करखना (१) †
क्रि० अ० [सं० कर्षण] आवेश या जोश में आना । उ०—ता दिन अखिल खलभलै खल खलक, मै, जा दिन सिवा जी गाजी नेक करखत बैं ।—भुषण ग्रं०, पृ० ४२ ।

करखना (२) †
क्रि० स० [सं० कर्षण] खींचना । आकर्षण करना । उ०—बहुरि निरखि रघुबरहि प्रेम मन करखइ ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५२ ।

करखा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कड़खा] १. दे० 'कड़खा' । २. एक छंद जिसके प्रत्येक पद में ८, १२, ८ और ९ के विराम से ३७ मात्राएँ होती है और अंत में यगण होता है । उ०—नमों नरसिंह बलवंत प्रभु, संत हित काज, अवतार धारो । खंभ तें निकसि, भु हिरनकश्यप पटक, भटक दै नखन सों उर विदारो ।

करखा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ष] १. उत्तेजना । बढ़ावा । २. रणगीत । उ०—जहँ आँगरे करखा कहैं । अति— उँमगि आनँद कों लहैं ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० ८ । ३. लागडाँट । ताव । उ०—नैननि होड़ बदी बरखा सों । राति दिवस बरसत झर लाये दिन टुना करखा सों—सूर (शब्द०) । (ख) भलेहि नाथ सब कहहिं सहरषा । एकहिं एक बढ़ावहिं करषा—तुलसी (शब्द०) ।

करखा (३) †
संज्ञा पुं० [हिं० कालिख] दे० 'कालिख' ।

करगत
वि० [सं० कर+गत] हाथ में रखा हुआ । हुस्तगत । प्राप्त । प्रस्तुत । उ०—करगत बेदतत्व सब तोरे ।— मानस, १ ।४५ ।

करगता
संज्ञा पुं० [सं० कटि+गता] १. सोने वा चाँदी की करधनी । २. सुत की करधनी । कटिसुत्र [को०] ।

करगस (१)
संज्ञा पुं० [फा०] गिद्ध ।

करगस (२)
संज्ञा पुं० [देश०] तीर । उ०—करगस सम दुर्जन बचन, रहै संत जन टारि ।—कबीर सा०, पृ० ५० ।

करगह पु
संज्ञा पुं० [फा० कारगाह] १. जुलाहों के कारखाने की वह नीची जगह जिसमें जुलाहै पैर लटकाकर बैठते हैं और कपड़ा बुनते हैं । २. जुलाहों का कपड़ा बुनने का यंत्र । ३. जुलाहों का कारखाना । उ०—करगह छड़ तमाशे जाय । नाहक चोट जुलाहे खाय ।—(शब्द०) ।

करगहना
संज्ञा पुं० [सं० कर+ हिं० गहना] पत्थर या लकड़ी जिसे खिड़की या दरवाजा बनाने में चौखटे के ऊपर रखकर आगे जोड़ाई करते हैं । भरेठा ।

करगही
संज्ञा स्त्री० [हिं० कारा, काला+ अंग] एक मोटा जड़हन धान जो अगहन में तैयार होता है ।

करगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कर+ गहना] १. चीनी के कारखाने में साफ की हुई चीनी बटोरने की खुरचनी । पु † २. बाढ़ । बुढ़ा । उ०—राही ले पिपराही बही । करगी आवत काहु न कही ।—जायसी (शब्द०) ।

करग्ग पु
संज्ञा पुं० [सं० कराग्र] हथेली । उ०—फेरे वग्ग तुरंग री, तोले खग्ग करग्ग ।—रा० रु०, पृ० ३२ ।

करग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाणिग्रहण । ब्याह । २. कर वसुल करना या लगाना (को०) ।

करग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'करग्रह' [को०] ।

करग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] १. पति ।२. कर वसूल करनेवाला [को०] ।

करघा
संज्ञा पुं० [फा० कारगाह] दे० 'करगह' ।

करचंग
संज्ञा पुं० [हिं० कर+चंग] ताल देने का एक बाजा । एक प्रकार का डफ या बड़ी खँजरी जिसपर लावनीबाज प्रायः ठेका देते हैं ।

करच पु
क्रि० वि० [फा० किर्च] टुकड़े टुकड़े । खंड खंड । उ०—(क) करच करच टुटि फुटि गयौ ऐसें । हर सर हत्यो त्रिपुर रिपु जैसें ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४२ । (ख) करच करच ह्वै गयौ लिलार । मुखतैं चली रुधिर की धार ।—नंद० ग्रं०, पृ० २६८ ।

करछा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर/?/रक्षा] [स्त्री० करछी] बड़ी करछी ।

करछा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० करौंछा=काला] एक प्रकार की चिड़िया । दे० 'करछिया' ।

करछाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० कर+उछाल] उछाल । छलाँग । कुलाँग । चौकड़ी । कुदान । कुलाँच । फलाँग ।

करछिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० करौंछा+काला] पानी के किनारे रहनेवाली एक पहाड़ी चिड़िया । विशेष—यह हिमालय पर काश्मीर, नेपाल आदि प्रदेशों में होती हैं । जाड़े के दिनों में मैदानों में भी उतर आती है और पानी के किनारे दिखाई पड़ती हैं । यह पानी में तैरती और गोता लगाती है । इसके पंजों में आधी ही दूर तक झिल्ली रहती है जिससे वस्तुओं को पकड़ भी सकती है । इसका शिकार किया जाता है, पर इसका मांस अच्छा नहीं होता ।

करछी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कलछी' ।

करछल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कलछी' ।

करछला †
संज्ञा पुं० १. दे० 'कलछी' ।२. भड़भूजों की बड़ी कलछी जिसमें हाथ डेढ़ हाथ लंबा लकड़ी का बेंट लगा रहता है और जिसमें चरबन भूनते समय उसमें गरम बालू डालते हैं ।

करछुली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० करछुल] दे० 'कलछी' ।

करछैयाँ पु †
वि० [हिं० काली+छाया] श्यामवर्णा । काले रंग की आभा लिए हुए ।

करछौंहा पु
वि० [हिं० करछा+औंहा (प्रत्य०)] दे० 'कलझँवाँ' । श्यामाभ । काली आभावाला । थोड़ा साँवले रंगवाला । उ०—दमक रही उजियारीं छाती, करछौंहे पर । श्याम घनों से झलक रही बिजली क्षण क्षण पर ।—ग्राम्या, पृ० ७४ ।

करज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नख । नाखून । २. उँगली । उ०— (१) सिय अंदेश जानि सूरज प्रभु लियो करज की कोर । टूटत धनु नृप लुके जहाँ तहँ ज्यों तारागन भोर ।—सूर (शब्द०) । (ख) करज मुद्रिका, कर कंकन छबि, कटि किंकिन, नूपुर पग भ्राजत । नख सिख कांति विलोकि सखी री शशि अरु भानु मगन तनु लाजत ।—सूर (शब्द०) ।३. नख नामक सुगंधित द्रव्य ।४. करंज । कंजा ।

करज (२)
संज्ञा पुं० [अ० क़र्ज़] दे० 'कर्ज' । उ०—लेन न देन दुकान न जागा । टोटा करज ताहि कस लागा ।— घट०, पृ० २७५ ।

करजदा †
वि० [अ० कर्ज+फा० दार (प्रत्य०)] दे० 'कर्जदार' ।उ०—संसार में किसी करजदार को करज उतारने की सामर्थ्य नहीं होती तो वो साहूकार की दृष्टि बचाकर परदेश जाने का विचार करता है ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १४३ ।

करजोड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० करज्योडि] एक प्रकार की ओषधि जो पारा बाँधने के काम में आती है । हस्तजोड़ी । हत्थाजड़ी । वि० दे० 'हत्था जड़ी' ।

करज्योडि
संज्ञा पुं० [सं०] एक वृक्ष का नाम । करजोड़ी [को०] ।

करट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौआ । उ०—कटु कुठाव करटा रटहिं फेकराहिं फेंरु कुभाँति । नीच निसाचर मीचु बस अनी मोह मदमाँति ।—तुलसी (शब्द०) ।२. हाथी की कनपटी । हाथी का गंडस्थल ।३. कुसुम का पौधा ।४. एकादशाहादि क्षाद्ध । ५. दुर्दुरूढ़ । नास्तिक ।६. क्षुद्र या तुच्छ़ मनुष्य (को०) ।७. एक प्रकार का बाजा (को०) ।८. अधम ब्राह्मण (को०) ।

करटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौआ ।२. कर्णीरथ जिन्होंने चोरी की कला और उसके शास्त्र का प्रवर्तन किया ।

करटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कठिनाई से दुही जानेवाली गाय ।२. हाथी का गंडस्थल (को०) ।

करटी
संज्ञा पुं० [सं० करटिन्] हाथी । उ०—मधुकर कुल करटीनि के कपोलनि तें उड़ि उड़ि पियत अमृत उड़पति मैं ।—मति- राम (शब्द०) ।

करटु
संज्ञा पुं० [सं०] सारस पक्षी । करकटिया [को०] ।

करड़ करड़
संज्ञा पुं० [अनु०] १. किसी वस्तु के बार बार टूटने या चिटकने का शब्द ।२. दाँतों के नीचे पड़कर बार बार टूटने का शब्द । जैसे,—कुत्ता करड़ करड़ करके हड्डी चबा रहा है ।

करड़ा †
वि० [हिं० कर्रा, पु कड्ड़ा] दे० 'कड़ा' । उ०—(क) दूजी दिस ताकें नहीं, पडै जो करड़ा काम ।—दरिया० बानी, पृ० १२ ।

करण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याकरण में वह कारक जिसके द्वारा कर्ता क्रिया को सिद्ध करता है । जैसे,—छड़ी से साँप मारो । इस उदाहरण में 'छड़ी' 'मारने' का साधक है अतः उसमें करण का चिह्न 'से' लगाया गया है । २. हथियार । औजार । ३. इंद्रिय । उ०—विषय करन सुर जीव समेता । सकल एक से एक सचेता ।—तुलसी (शब्द०) । ४. देह । ५. क्रिया । कार्य । उ०—कारण करण दयालु दयानिधि निज भय दीन डरे ।—सूर (शब्द०) । ६. स्थान । ७. हेतु । ८. असाधारण कारण । ९. ज्योतिष में तिथियों का एक विभाग । विशेष—एक एक तिथि में दो दो करण होते हैं । करण ग्यारह हैं जिनके नाम ये हैं—वव, वालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, किंतुघ्न और नाग । इनके देवता यथाक्रम ये हैं—इंद्र, कमलज, मित्र, अर्यमा, भू, श्री, यम, कलि, वृष, फणी, मारुत । शुक्ल प्रतिप्रदा के शेषार्ध से कृष्णों चतुर्दशी के प्रथमार्ध तक वव आदि प्रथम सात करणों की आठ आवृत्तियाँ होती हैं । फिर कृष्ण चतुर्दशी के शेषार्ध से शुक्ल प्रतिप्रदा के प्रथमार्ध तक शेष चार करण होते हैं । १०. नृत्य में हाथ हिलाकर भात बताने की क्रिया । विशेष—इसके चार भेद हैं—आवेष्ठित, उद्वेष्ठित, व्यावर्तित और परिवर्तित । जिसमें तिरछे फैले हुए हाथ की उँगलियाँ तर्जनी से आरंभ कर एक एक करके हथेली में लगाते हुए हाथ को छाती की ओर लाएँ, उसे आवेष्ठित कहते हैं । जिसमें इसी प्रकार एक एक उँगली उठाते हुए हाथ को लाएँ उसे उद्वेष्टित कहते हैं । जिसमें तिरछे़ फैले हाथ की उँगलियाँ कनिष्ठिका से आरंभ कर एक एक करके हथेली में मिलाते हुए छाती की ओर लाएँ, उसे व्यावर्तित कहते हैं और जिसमें इसी प्रकार उँगलियाँ उठाते हुए हाथ को लाएँ उसे परिवर्तित कहते हैं । ११. गणित (ज्योतिष) की एक क्रिया ।१२. एक जाति । विशेष—ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण वैश्य और शूद्रा से उत्पन्न है और लिखने का काम करते थे । तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं । १३. कायस्थों का एक अवांतर भेद ।१४. आसाम, बरमा और स्याम की एक जंगली जाति ।१५. वह संख्या जिसका पूरा पूरा वर्गमूल निकल सके । करणीगत संख्या ।१६. देह (को०) । १७. क्षेत्र (को०) ।१८. लिखित या लेख प्रमाण (को०) ।१९. परमात्मा (को०) ।२०. एक रतिबंध (को०) ।२१. धार्मिक कृत्य (को०) ।२२. कारण । उद्देश्य (को०) ।२३. उच्चारण (को०) ।२४. करणी का कार्य या प्रयोग (को०) ।२५. वराह मिहिर की एक कृति जिसमें ग्रहों की गति का विवेचन है (को०) । यौ०—करणग्राम=इंद्रियसमूह । करणत्राण=सिर । करण विभक्ति=करण कारक का सूचक पद । करणविन्यय= उच्चारण की पद्धति ।

करण (२)
वि० [सं०] करनेवाला । उ०—दादू दुख दूरि करण, दूजा नहिं कोई ।—दादू०, पृ० ५३ ।

करण (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण] १. कान । उ०—शंभु शाज्ञसन गुण करौं करणालंबित आज ।—केशव (शब्द०) ।२. कौरव पक्ष के एक महारथी जो कुंती की कुमारी अवस्था में उत्पन्न माने जाते हैं । कर्ण । उ०—मारयो करण गंगसुत द्रौना । सबको मारि कियो दल सूना ।—कबीर सा०, पृ० ५० ।

करणाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. करण अर्थात् इंद्रियों का स्वामी । मन । आत्मा ।२. कार्याधिकारी [को०] ।

करणाल †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'करनाल' । उ०—बींद चढ़े जी में बलाँ, बज करणाल सुवेस ।—रघु० रू०, पृ० ९४ ।

करणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्य । कर्तृत्व । करनी । करतूत [को०] ।

करणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गणित में वह संख्या जिसका पूरा पूरा वर्गमूल न निकल सके । वाहियात संख्या ।२. मिश्रित अर्थात् दोगली जाति की स्त्री [को०] । यौ०—करणीसुता=गोद ली हुई लड़की ।

करणी (२)
वि० [सं० करणिन्] करणवाला । करण सहित ।

करणीगर
संज्ञा पुं० [सं० करणि+फा० गर] कार्यकर्ता । कर्ता । उ०—करणीगर तैं क्या किया, ऐसा तेरा नाम ।—दादू ग्रं०, पृ० ११७ ।

करणीय
वि० [सं०] करने योग्य । करने के लायक । कर्तव्य ।

करतब
संज्ञा पुं० [सं० कर्तव्य] [वि० करतबी] १. कार्य । काम । करनी । करतूत । कर्म । उ०—(क) बचन विकार करतबऊ खुआर मन विगत विचार कलिमल को निधान है ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) जे जनमे कलिकाल कराला । करतब बायस, वेष मराला ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना । २. कला । हुनर । गुण । क्रि० प्र०—दिखाना । उ०—देखिए, अब क्या तमाशा होगा, कौन सा करतब दिखाया जाएगा ।—फिसाना०, भी० ३, पृ० ९ । ३. करामात । जादू ।

करतबिया
वि० [हिं० करतब+इया (प्रत्य०)] दे० 'करतबी' ।

करतबी
वि० [हिं० करतब+ई (प्रत्य०)] १. काम करने वाला । पुरुषार्थी ।२. निपुण । गुणी ।३. करामात दिखानेवाला । बाजीगर ।

करतरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्तरी] दे० 'कर्तरी' ।

करतल
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० करतली] १. हाथ की गदोरी । हथेली । उ०—धटवहन से स्कंध नत थे और करतल लाल । उठ रहा था श्वासगति से वक्षदेश विशाल ।—शकुं०, पृ० ७ । यौ०—करतलगत । २. मात्रिक गणों में चार मात्राओं के गण (डगर) का एक रूप जिसमें प्रथम दो मात्राएँ लघु और अंत में एक गुरु होती है । जैसे, हरि जू ।३. छप्पय के एक भेद का नाम ।

करतलध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं० करतल+ध्वनि] थपोड़ी । ताली [को०] ।

करतली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हथेली ।२. हथेली का शब्द । ताली ।

करतली (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] बैलगाड़ी में हाँकनेवाले के बैठने की जगह ।

करतव्य पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० कर्तव्य] दे० 'कर्त्तव्य' ।

करता (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ता] दे० 'कर्त्ता' । उ०—वा करता को सेइए, जिन सृष्टि उपाई ।—धरम०, पृ० १० । यौ०—करताखानदान=परिवार का प्रधान प्रबंधक पुरुष । करता धरता=संख्या या कुटुंब का प्रधान प्रबंधसंचालक ।

करता (२)
संज्ञा पुं० १. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण और एक लघु गुरु होता है । उ०—न लग मना । अधम जना । सिय भरता । जग करता ।२. उतनी दूरी जहाँतक बंदूक से छुटी हुई गोली जा सकती है । गोली का टप्पा या पल्ला ।

करतार (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्तार] सृष्टि करनेवाला । ईश्वर । उ०—जड़ चेतन गुन दोष मय विस्व कीन्ह करतार । संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार ।—तुलसी (शब्द०) ।

करतार (२)
संज्ञा पुं० [सं० करताल] दे० 'करताल' ।

करतारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० करतार] ईश्वर की लीला । उ०— केशव और भई गति, जानि न जाय कछू करतारी ।— केशव (शब्द०) ।

करतारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० करतारी] दे० 'करताली' ।

करताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोनों हथेलियों के परस्पर आघात का शब्द । २. लकड़ी, काँसे आदि का एक बाजा जिसका एक एक जोडा़ हाथ में लेकर बजाते हैं । लकड़ी के करताल में झाँझ या घुंघरू बँधे रहते हैं । उ०—अनहद बाजे बजैं मधुर धुन बिन करताल तँबूरा ।—कबीर श०, पृ० ८५ ।३. झाँझ । मँजीरा ।

करतालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हथोड़ी । थपोड़ी । ताली [को०] ।

करताली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दोनों हथेलियों के परस्पर आघात का शब्द । ताली । हथोड़ी ।२. करताल नाम का बाजा ।

करती
संज्ञा स्त्री० [सं० कृति] गाय के मरे बछड़े का, भूसा भरा हुआ चमड़ा जो बिलकुल बछड़े के आकार का होता है । इसे गाय के पास ले जाकर अहीर दूध दुहते हैं ।

करतू †
संज्ञा स्त्री० [देश०] खेत सींचने की दौरी की रस्सियों के सिर पर लगी हुई लकड़ी जो हाथ में रहती है ।

करतूत
संज्ञा स्त्री० [हिं० करना+ऊत (प्रत्य०)] [सं० कर्तृत्व] १. कर्म । करती । काम । जैसे,—यह सब तुम्हारी ही करतूत है ।२. कला । गुण । हुनर । उ०—हमारी करतूत तो कुछ भी नहीं, पर तुम्हारी तो बहुत कुछ है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २५८ ।

करतूति पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० करना+ऊत, आवत (प्रत्य०)] १. कर्म । करनी । काम । करतब । उ०—सोइ करतूति बिभीषन केरी । सपनेहु सो न राम हिय हेरी ।—मानस, १ । २९ । क्रि० प्र०—करना । २. कला । हुनर । गुण । उ०—कहि न जाइ कछु नगर विभूती । जनु इतनिय विरंचि करतूती ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—दिखाना ।

करतोया
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी । विशेष—यह जलपाईगोड़ी के जंगलों से निकलकर रंगपुर होती हुई, बोगड़ा जिले के दक्षिण हलहलिया नदी में मिलती है । यहाँ से इसकी कई शाखाएँ हो जाती हैं । फूलझर नाम से एक शाखा अत्राई नदी में मिलती है । कोई इसी फूलझर को करतोया की धारा मानते हैं । यह नदी बहुत पवित्र मानी गई है । वर्षा में सब नदियों का अशुचि होना कहा गया है पर यह वर्षा काल में भी पवित्र मानी गई है, इसी से इसका नाम 'सदानीरा' या 'सदानीरवहा' भी है । इसके विषय में यह कथा है कि पार्वती के पाणिग्रहण के समय शिवजी के हाथ से गिरे हुए जल से इसकी उत्पत्ति हुई, इसी से इसका नाम 'करतोया' पड़ा ।

करथरा
संज्ञा पुं० [देश०] हाला पहाड़ का सिलसिला जो सिंधु नदी के पार सिंध और बलूचिस्तान के बीच में है ।

करद (१)
वि० [सं०] १. करदेनेवाला । मालगुजार । अधीन । जैसे,— करद राज्य ।२. सहारा देनेवाला । उ०—राँक सिरोमनि काकिनी भाव विलोकत लोंकप को करदा है ।—तुलसी (शब्द०) ।

करद (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० कारद] छुरा । चाकू । बड़ा छूरा । उ०— (क) करद मरद को चाहिए जैसी तैसी होय ।—(शब्द०) । (ख) गरद भई है वह, दरद बतावै कोन, सरद मयक मारी करद करेदे में ।—बेनी प्रवीन (शब्द०) ।

करद (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मालगुजारी देनेवाला किसान । विशेष—चाणक्य ने लिखा है कि जो किसान मालगुजारी देते हों, उनको हलके सुधरे हुए खेत खेती करने के लिये दिए जायँ बिना सुधरे खेत उनको न दिए जायँ । जो खेती न करें, उनके खेत छीन लिए जायँ । गाँव के नौकर या बनिए उसपर खेती करें । खेती न करनेवाला सरकारी नुकसान दें । जो लोग सुगमता से कर दे दें, राजा उनको धान्य, पशु, हल आदि की सहायता दे । २. कर देनेवाला राजा या राज्य ।३. वह घर जिसका राज्य को कर मिले ।—(को०) ।

करदम पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्दम] दे० 'कर्दम' ।

करदल, करदला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा वृक्ष । विशेष—इसकी छाल चिकनी और कुछ पीलीपन लिए हुए होती है । इसकी टहनियों के सिरे पर छोटी छोटी पत्तियों के गुच्छे़ होते हैं । पतझड़ के बाद नई पत्तियाँ निकलने से पहले इसमें पीले रंग के फूल लगते हैं जिनके बीच में दो दो बीज होते हैं । हिमालय में यह वृक्ष पाँच हजार फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है । यह मार्च अप्रैल में फूलता है और इसके बीज खाए जाते हैं ।

करदा
संज्ञा पुं० [हिं० गर्द] १. बिक्री की वस्तु में मिला हुआ कूड़ा करकट या खूदखाद । जैसे, अनाज में धूल, बरतन में लगी हुई लाख । जैसे,—अनाज में से इतना तो करदा गया । क्रि० प्र०—जाना ।—निकलना । २. किसी वस्तु के बिकने के समय उसमें मिले हुए कूड़े करकट का कुछ दाम कम करके या माल अधिक देकर पूरी करना । क्रि० प्र०—काटना ।—देना । ३. दाम में वह कमी जो किसी वस्तु बिकने के समय उसमें मिले कूड़े करकट आदि का वजन निकाल देने के कारण की जाय । धड़ा । कटौती । क्रि० प्र०—कटना ।—काटना ।—देना । ४. पुरानी वस्तुओं को नई वस्तुओं से बदलने में जो और धन ऊपर से दिया जाय । बदलाई । बट्टा । फेरवट । बाध । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः बरतनों को बदलने में होता है ।

करदाता
संज्ञा पुं० [सं० करदातृ] कर देनेवाला [को०] ।

करदौना
संज्ञा पुं० [सं० कर+हिं० दौना] दौना नामक पौधा जिसकी पत्तियाँ तक सुगंधित होती हैं ।

करधई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] झाड़ीदार वृक्षविशेष । उ०—पहाड़ी के ऊपर करधई की घनी हलकी कत्थई रंग की झाड़ी थी ।—मृग०, पृ० ५० ।

करधन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० करधनी] दे० 'करधनी' ।

करधनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कटि+आधानी, अथवा सं० किङ्किणी] १. सोने या चाँदी का कमर में पहनने का एक गहना जो या तो सिकड़ी के रूप में होता है या घुँघरूदार होता है । अब घुँघरूवाली करधनी केवल बच्चों को पहनाई जाती है । तागड़ी ।२. कई लड़ों का सूत जो कमर में पहना जाता है । मुहा०—करधन टूटना=(१) सामर्थ्य न रहना । साहस छूटना । हिम्मत न रहना । (२) धन का बल न रहना । दरिद्र होना । करधन में बूना होना=कमर में ताकत होना । शरीर में बल होना । पौरुष होना ।

करधनी (२
संज्ञा पुं० [सं० कला+धान्य, हिं० *कल+धनी> करधनी] एक प्रकार का मोटा धान जिसके ऊपर का छिलका काला और चावल का रंग कुछ लाल होता है ।

करधर (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर=वर्षोपल+धर=धारण करनेवाला] बादल । मेघ । उ०—करधर, की धरमैर सखी री, की सुक सीपज की बगपंगति की मयूर की पीड़ पखी री ।—सूर (शब्द०) ।

करधर (२
संज्ञा पुं० [देश०] महुवे के फल की रोटी । महुअरी ।

करन (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक ओषधि । जरिश्क । विशेष—यह स्वाद में कुछ खटमिट्ठी होती है और प्रायः चटनी आदि में डाली जाती है । यह दस्तावर भी है । यह रेचन के औषधों में भी दी जाती है ।

करन (२) पु †
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण] १. कान । उ०—करन कटक बटु बचन बिसिष सम हिय हुए ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३४ । २. राजा कर्ण । उ०—करन पास लीन्हेउ कै छंदू । विप्र रूप धरि झिलमिल इंदू ।—जायसी (शब्द०) । यौ०—करन का पहरा=प्रभात या प्रतः काल का समय, जो राजा कर्ण के पहरा देने का समय माना जाता है । ३. नाव का पतवार ।

करन (३)पु
वि० [सं० करण] करनेवाला । उ०—भजौं श्री वल्लभ- सुत के चरन । नंदकुमार भजन् सुखदाइक, पतितन पावन करन ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३२९ ।

करनधार पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्णधार] दे० 'कर्णधार' ।

करनफूल
संज्ञा पुं० [सं० कण+हिं० फूल] स्त्रियों के कान पहनने का सोने चाँदी का एक गहना । तरौना । काँप । विशेष—यह फूल के आकार का बनाया जाता है और कान की लौ में बड़ा सा छेद करके पहना जाता है । करनफूल सादा भी होता है और जड़ाऊ भी ।

करनबेध
संज्ञा पुं० [सं० कर्णवेध] बच्चों के कान छेदने का संस्कार अथवा रीति । उ०—करनबेध उपवीत विवाहा । सग सग सब भयउ उछाहा ।

करना (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण] एक पौधा । सुदर्शन । उ०—(क) मौल- सिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना ।—जायसी ग्रं०, पृ० १३ । (क) करना के करनफूल करन बीच धारे । भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४० ।विशेष—इसके पत्ते केवड़े के पत्ती की तरह लंबे लंबे पर बिना काँटे के होते हैं । इसमें सफेद सफेद फूल लगते हैं जिनमें हलकी मीठी महक होती है ।

करना (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० करुणा] बिनौरे की तरह का एक बड़ा नीबू । विशेष—यह कुछ लंबोतरा होता है । इसे पहाड़ी नीबू भी कहते है । वैद्यक में इसको कफ, वायुनाशक और वित्तवर्धक बताया है ।

करना (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० करण] किया हुआ काम । करनी । करतूत । उ०—अति अपार करता कर करना । बरन न कोई पावै बरना ।—जायसी (शब्द०) ।

करना (४)
क्रि० स० [सं० करण] १. किसी काम को चलाना । किसी क्रिया को समाप्ति की ओर ले जाना । निबटाना । भुगताना । सपराना । अमल में जाना । अंजाम देना । संपादित करना । जैसे,—यह काम चटपट कर डालो । संयो० क्रि०—आना ।—छोड़ना ।—जाना ।—डालना ।—देखना ।—दिखाना ।—देना ।—धरना ।—पाना ।—बैठना —रखना ।—लाना ।—लेना । २. पकाकर तैयार करना । राँधना । जैसे, रसोई करना, दाल करना, रोटी करना । विशेष—इसका प्रयोग ऐसी संज्ञाओं के साथ ही होता है जो तैयार की हुई वस्तुओं के नाम है, प्राकृत पदार्थों के नामों के साथ नहीं जैसे, दूध करना, पानी करना, कोई नहीं कहता । ३. ले जाना । पहुचाना । रखना । जैसे,—(क) इस किताब को जरा पीछे कर दो । (ख) इनको इनके बाप के यहाँ कर आओ ।४. धारण करना । उ०—कंबु कंठ कौस्तुभ मनि धरे । संख चक्र आयुध कर करे—नंद० ग्रं०, पृ० २६७ । मुहा०—किसी वस्तु में करना=किसी वस्तु में घुसाना । डालना । जैसे,—तलवार म्यान में कर लो । कर गुजरना=विलक्षण या साहसिक कार्य कर डालना । ५. पति या पत्नी रूप से ग्रहण करना । खसम या जोरू बनाना । जैसे,—उस स्त्री ने दूसरा कर लिया ।६. रोजगार खोलना । व्यवसाय खोलना । जैसे,—दलाली करना, दूकान करना, प्रेस करना । विशेष—वस्तुवाचक संज्ञा के साथ इसका प्रयोग इस अर्थ में दो चार इने गिने शब्दों के साथ ही होता है । ७. सवारी ठहराना । भाड़े पर सवारी लेना । जैसे, गाड़ी करना, नाव करना, पालकी करना । उ०—पैदल मत जाना, रास्ते में एक गाड़ी कर लेना ।८. रोशनी बुझाना । प्रकाश बुझाना । जैसे,—सबेरा हुआ चाहता है, अब दिया कर दो ।९. कोई रूप देना । किसी रूप में लाना । एक रूप से दूसरे रूप में जाना । बनाना । जैसे,—(क) उन्होंने उस चाँदी के कटोरे को सोना कर दिया । (ख) गधे को मार पीटकर घोड़ा नहीं कर सकते ।१०. कोई पद देना । बनाना । जैसे,—कलक्टर ने उनपर प्रसन्न होकर उन्हें तहसीलदार कर दिया ।११. किसी वस्तु को पोतना । जैसे,—स्याही करना, रंग करना, चूना करना । १२. पशुओं का वध या जबह करना । जैसे,—उसने आज १५ बकरियाँ की हैं ।१३. संभोग करना । प्रसंग करना । विशेष—संज्ञा शब्दों के साथ 'करना' लगाने से बहुत सी क्रियाएँ बनती हैं । जैसे,—प्रशंसा करना, सुस्ती करना, अच्छा करना, बुरा करना, ढीला करना । सब भाववाचक और गुणवाचक संज्ञाओं में इसका प्रयोग हो सकता है । पर वस्तु या व्यक्ति- वाचक संज्ञाओं के साथ यह केवल कहीं कहीं लगता है और भिन्न भिन्न अर्थों में । जैसे,—गड्ढा करना, छेद करना, घास करना, दाना पानी करना, लकीर करना ।

करनाई
संज्ञा स्त्री० [अ० करनाय] तुरही ।

करनाट
संज्ञा पुं० [सं० कर्णाट] दे० 'कर्णाट' । उ०—करनाट हबस फिरंगहू बिलायती बलख रूप अरि तिय छतियाँ दलति हैं ।— भूषण ग्रं०, पृ० ८६ ।

करनाटक
संज्ञा पुं० [सं० कर्णाटक] कर्णाटक नामक देश का एक भाग । विशेष—यह पूर्वी और पश्चिमी घाटों के बीच, दक्षिण में पाल- घाट से लगाकर उत्तर में बीदर तक फैला हुआ है । यहाँ प्रायः कन्नड़ भाषा बोली जाती है । आजकल इस प्रदेश का नाम मैसूर राज्य है ।

करनाटकी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कणटिकी] १. करनाटक प्रदेश का निवासी ।२. कलाबाज । कसरत दिखानेवाला मनुष्य ।३. जादूगर । इंद्रजाली । उ०—करनाटकी हाटकी सुंदर सभा तुरंत बनाई । ढोल बजाय बखानि भूप कँह दिय आवर्त लगाई ।—(शब्द०) ।

करनाटकी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णाटकी] करनाटक प्रदेश की भाषा । कन्नड़ भाषा ।

करनाटी
संज्ञा पुं० [सं० कर्णाटी] दे० 'कर्णाटी' । उ०— करनाटी, हंसावती, पदमावती, ससिवृता, इच्छित पवाँरी, ये पंच पटरानी बुलवाय हजूर लई ।—प० रासो पृ० ५५ ।

करनाल
संज्ञा पुं० [अ० करनाय] १. सिंघा । नरसिंहा । भोंपा । धूतू । उ०—कहूँ भरे करनाल बीना मुरारी ।—प० रासो, पृ० १७६ । २. एक बड़ा ढोल जो गाड़ी पर लदकर चलता है ।३. एक प्रकार की तोप । उ०—(क) भेजना है भेजो सो रिसालै सिवराज जू को बाजीं करनालैं परनालैं पर आय- कै ।—भूषण (शब्द०) । (ख) तिमि घरनाल और करनालैं सुतरनाल जंजालै । गुरगुराव रहैकले तहँ लाये बिपुल बयालैं ।—रघुराज (शब्द०) ।४. पंजाब का एक नगर ।

करनास †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'कटनास' । नीलकंठ पक्षी । उ०— बहु करनास रहहि तेहि पासा । देखि सो संग भाग जेहि बासा ।—चित्रा०, पृ० ६२ ।

करनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० करिणी] दे० 'करिनी' । उ०—बारुनी बस घूर्न लोचन बिहरत बन सचुपाए । मनहुँ महा गजराज बिराजत, करनि जूथ सँग लाए ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २५७ ।

करनिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णिका] दे० 'कर्णिका' । उ०—सोहत सब तै सन्मुख ऐसें । कमल के बीच करनिका जैसे,—नंद० ग्रं०, पृ० २६४ ।

करनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० करना से ब्यु०] १. कार्य । कर्म । करतूत । करतब । उ०—(क) करनी क्यारी बोय कर, रहनी कर रख- वार ।—कबीर श०, पृ० २१ । (ख) देखो करनी कमल की, कीनों जल सों हेत । प्राण तज्यो प्रेम न तज्यो, सूख्यो सरहि समेत ।— सूर (शब्द०) । (ग) अपने मुख तुम आपनि करनी । बार अनेक भाँति बहु बरनी ।—तुलसी (शब्द०) ।२. मृतक क्रिया । अंत्योष्टि कर्म । मृतक संस्कार ।उ०—पितु हित भरत कीन्ह जस करनी । सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी ।—तुलसी (शब्द०) ।३. पेसराजों या कारीगरों का लोहे का एक औजार जिससे वे दीवार पर पन्ना या गारा लगाते हैं । कन्नी ।४. विवाह में कन्या के निमित्त दी हुई संपत्ति ।

करनैल
संज्ञा पुं० [अं० कर्नल] सेना का एक उच्च कर्मचारी । फौज का एक बड़ा अफसर ।

करन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण, प्रा० कशण, पु करन] दे० 'कर्ण' । उ०—द्रोन सो भाऊ, करन्न सो, और सबै दल सो दल भार्यो ।—भूषण ग्रं०, पृ० ६ ।

करन्नफूल पु
संज्ञा पुं० [हिं० करनफूल] दे० 'करनफूल' । उ०—करन्नफूल राजयं, उभे कि भाँन साजयं ।—हम्मीर रा०, पृ० २४ ।

करन्नी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० करनी] दे० 'करनी' । उ०—हँसै संकरं भैरवं की करन्नी ।—हम्मीर रा०, पृ० ८५ ।

करन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] मंत्रों को पढ़ते हुए दोनों हाथों द्वारा विशेष प्रकार की मुद्रा रचना । उ०—नहिं संध्या सूत्र न करन्यास । नहिं होम न यज्ञ न व्रत उपास ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ७८ ।

करपंकज, करपद्म
संज्ञा पुं० [सं० करञ्ज, करपद्म] दे० 'कर- कमल' [को०] ।

करपत्र, करपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] आरा [को०] ।

करपना
क्रि० अ० [देश०] पल्लवित होना । बढ़ना । डहडहाना ।

करपर (१) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्पर] खोपड़ी ।

करपर (२) पु
वि० [सं० कृपण] कंजूस ।

करपरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पीठी की पकौड़ी । बरी । उ०—भई मुगोछै मिरचाहि परी । कीन्ह मुँगौरा औ करपरी ।— जायसी (शब्द०) ।

करपलई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० करपल्लवी] दे० 'करपल्लवी' ।

करपल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] उँगली ।

करपल्लवो
संज्ञा स्त्री० [सं०] उँगलियों के संकेत से शब्दों को प्रकट करने की विद्या । विशेष—इस विद्या का सूत्र यह है—अहिफन, कमल, चक्र, टंकार तरु, पर्वत, यौवन, शृंगार । अँगुरिन अच्छर, चुटकिन, मंत्र । कहैं राम बूझें हनुमंत । जैसे,—कमल का आकार दिखाने सा कवर्ग का ग्रहण होता है । उसके बाद एक उँगली दिखाने से 'क', दो से ख, इसी प्रकार और अक्षर समझ लिए जाते हैं ।

करपल्लौ पु
संज्ञा पुं० [सं० करपल्लव] दे० 'करपल्लव' । उ०— दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि करपल्लौ, बर बाहाँ ।— जायसी ग्रं०, पृ० ४ ।

करपा
संज्ञा पु० [देश०] अनाज के तैयार पौधे जिनमें बाल लगी हो । लेहना । डाँठ ।

करपात्र
संज्ञा [सं०] वस्तुग्रहण के लिये गहरी की हुई दोनों हाथों की संयुक्त हथेली [को] ।

करपात्री
वि० [सं० करपात्रिन्] अन्न जल आदि के ग्रहण के लिये अंजुलि ही जिसका बर्तन हो । विरक्त साधु [को०] ।

करपान
संज्ञा पुं० [देश०] एक चर्मरोग जिसमें बच्चों के शरीर पर लाल लाल दाने निकल आते है ।

करपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. खंग । २. तलवार । ३. लाठी । ४. गदा [को०] ।

करपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लाठी । सोंटा । २. तलवार [को०] ।

करपिचकी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर=हाथ + हिं० पिचकी (पिचकारी)] दोनो हाथों के योग से बनाई हुई पिचकारी । उ०— छिड़के नाह नवोढ़ दृग, करपिचकी जल जोर । रोचक रँग ताली भई विय तिय लोचन कोर । बिहारी (शब्द०) । विशेष— प्रायः लोग दोनों हाथों के बीच में, कई प्रकार से जल भरकर इस प्रकार और ऐसे दबाते हैं कि उसमें से पिचकारी सी छूटती है इसी को करपिचकी कहते हैं ।

करपीड़न
संज्ञा पुं० [सं० करपीडन ] पाणिग्रहण । विवाह । उ०— कर—पीडन—प्रेम याम था । कह, स्वीकार कहूँ कि त्याग था ? साकेत, पृ० ३५८ ।

करपुट
संज्ञा पुं० [सं०] १.संमानार्थ हाथ जोड़ना । २. अंजलि । दोनों हथेली मिलकर किसी वस्तु के ग्रहणार्थ बनाया गड्ढा (को०) ।

करपूर पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्पूर] दे० 'कर्पुर' । उ०— उसिर, गुलाब नीर, करपूर परसत, बिरह—अनल—ज्वाल—जालन जगतु है ।— नंद० ग्र०, पृ० २६५ ।

करपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] हथेली के पीछे का भाग ।

करफूल
संज्ञा पुं० [हि० कर + फुल] दे० 'दौना' ।

करफ्यू
संज्ञा पुं० [अं० कर्फ्यू] १. घंटा बजना जो निश्चित समय पर सायंकाल संकेत के लिये बजता था, जिसके कारण रोशनी बुझा दी जाती थी और आग को ढक दिया जाता था । रोशनी बुझा देना । रोशनी की ऐसी व्यवस्था जिससे बाहर या ऊपर से प्रकाश का पता न चले । विशेष — द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हवाई हमले की आशंका के कारण इस प्रकार की व्यवस्था की गई थी और साइरन बजाकर इसकी सूचना दी जाती थी । २. विशेष प्रकार की राजकीय निषेधाज्ञा जिसके द्वारा घर से बाहर निकलना या किसी विशेष मार्ग या स्थान पर जाना आदि निषिद्ध होता है । करर्फ्यू आडर । यौ०—करफ्यू आर्डर = प्रकाश हीनता का आदेश या करफ्यू की व्यवस्था ।

करकच †
संज्ञा पुं० [देश०] बैलों पर लादने का दोहरा । थैला । खुरजी । गौन ।

करबर पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्बर] चिता । उ०— डारी सारी नील की ओट अचूक, चुकैन । मो मन मृग करबर गहैं अहे अहैरी नैन । — बिहारी र०, दो० ५० ।

करबरना पु †
क्रि० अ० [सं० कलरव] पक्षियों आदि का कलरव करना । उ०— सारौ सुआ जो रहचह करहीं । कुरहीं परेवा औ करवरहीं । — जायसी (शब्द०) ।

करबकाना †
क्रि० अ० [हिं० कलबल से नाम०] हलचल करना । खड़बड़ाना । चंचल हो उठना ।

करबला
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. अरब का वह उजाड मैदान जहाँ हुसैन मारे गए थे । २. वह स्थान जहाँ ताजिए दफन किए जायँ । ३. वह स्थान जहाँ पानी न मिले ।

करबस
संज्ञा पुं० [देश०] दरियाई घोडे़ के चमडे़ का बना हुआ एक प्रकार का चाबुक । विशेष — यह अफ्रिका के सिनार नगर में बनता है और मिस्त्र में बहुत काम में लाया जाता है ।

करबाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० १. 'करवाल' । २. हाथ की उँगलियों का नख [को०] ।

करबी †
संज्ञा स्त्री० [सं० खर्व] ज्वार के पेड़ जो काटकर चौपायों को खिलाए जाते हैं । काँटा । उ०— तहँ कढ़ीं मगरबी अरिगन चरबी चापट करबी सी काटैं । — पद्माकर ग्रं०, पृ० १६२ ।

करब्बी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० करबी ] दे० 'भरबी' । उ०— कटैसैन चहुवान मानहु करब्बी । —प० रासो, पृ० ८४ ।

करबुर पु
सज्ञा पुं० [सं० कर्बुर या कर्बुर ] दे० 'कर्बुर' ।

करबूस पु
संज्ञा पुं० [देश०] घोडे़ की जीन या चारजामे में टँकी हुई रस्सी या तसमा जिसमें हथियार या और कोई चीज लटकाते हैं ।

करभ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० करभी] १. हथेली के पीछे का भाग । करपृष्ठ । २. ऊँट का बच्चा । ३. हाथी का बच्चा । ४. उँट । उ०— पंच सहस सादी परे, करभ कठि्ठ सत षेत । डेठ अहन रण भुंम मह, बही श्रोण मिलि रेत । — प० रासो, पृ० १५४ । ५. नख नाम की सुगंधित वस्तु । ६. कटि । कमर । ७. दोहे के सातवे भेद का नाम जिसमें १६ गुरु और १६. लघु होते हैं । जैसे, — भए पशू तारे पशू सुनी पशुन की बात । मेरी पशुमति देखि कै काहे मोहिं विनात । ८कनिष्ठा (छिंगुनी) अँगुली से लगाकर उसके नीचे तक हथेली का उभरा भाग (को०) ।

करभा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली गाना जो प्रायः कोल, भील आदि गाते हैं ।

करभा (२)
संज्ञा पुं० [सं० करभा ] दे० 'करभ' । उ०— जानु जंघ, सुघटनि करभा, नहीं रंभा तूल । पीत पट काछनी मानहुँ, जलज केसन झूल । सूर०,१० । १७५५ ।

करभार
संज्ञा पुं० [सं० कर+भार] कर का बोझ । भारी कर ।

करभीर
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह ।

करभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ में पहनने का आभूषण । कड़ा या कंकण जैसा गहना [को०] ।

करभोरु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी की सूँड जैसा सुडौल जंघा । उ०— पृथु नितंब करभोरु कमल पद नख मणि चंद्र अनूप । मानहु लब्ध भयो वारिज दल इंदु किए दश रूप — सूर (शब्द०) ।

करभोरु (२)
वि० जिसकी जाँघ हाथी की सूँड की सी मोटी हो । जिसकी जाँघ सुदर हो । सुंदर जाँघवाली ।

करम (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्म] १. कर्म । काम । करनी । यौ०—करमभोग= अपने कर्मों का फल । वह दुःख जो अपने किए हुए कर्मों के कारण हो । करम धरम = आचार व्यवहार । उ०— जिसे अपने करम धरम की बातें कम मालूम थीं ।— किन्नर०, पृ० १८ । मुहा० — करम भोगना = अपने किए का फल पाना । २. कर्म का फल । भाग्य । किस्मत । मुहा० — करम फूटना = भाग्य मंद होना । भाग्य बुरा होना । किस्मत खोटी होना । करम टेढ़ा या तिरछा होना= दे० 'करम फूटना ।' उ०—पालागौं छाड़ौ अब अंचल बार बार अंचल करौं तेरी । तिरछे़ करम भयो पूरब को प्रीतम भयो पाँय की बेरी । — सूर (शब्द०) । यौ० —करम का धनी या बली= (१) जिसका भग्य प्रबल हो । भाग्यवान । (२) अभागा । बदकिस्मत — (व्यंग) । करमरेख= भाग्य का लिखा । वह बात जो किस्मत में लिखी हो ।

करम (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १.मिहरबानी । कृपा । उ०— करम उनका मदद जब तें न होवे । वली हरगिज विलायत कूँ न पावे । — दक्खिनी, पृ० ११४ । २. मुर नाम का गोंद या पश्चिमी गुग्गुल जो अरब और अर्फिका से आता है । इसे 'बंदा करम' भी कहते हैं ।

करम (३)
संज्ञा पुं० [देश० ] एक बहुत ऊँचा पेड़ जो तर जगहों में, विशेषकर जमुना के पूर्व की ओर, हिमालय पर ३००० फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है । विशेष— इसकी सफेद और खुरदरी छाल आध इंच के लगभग मोटी होती है, जिसके भीतर से पीले रंग की मजबूत लकड़ी निकलती है । इस लकडी का वजन प्रति घनफुट १८ से २५ सेर तक होता है । यह लकड़ी इमारतों में लगती है और मेज, अलमारी आदि असबाब बनाने के काम में आती है । इस पेड़ को हलदू वा हरदू भी कहते हैं ।

करमई
संज्ञा स्त्री० [देश] कचनार की जाति का एक झाडीदार पेड़ । विशेष — यह दक्षिण मलावार आदि प्रांतों में होता है । हिमालय की तराई में गंगा से लेकर आसाम तथा बंगाल और बरमा में भी यह पाया जाता है । बंबई में इसकी चरपरी पत्तियाँ खाई जाती हैं । अन्य जगह भी इसकी कोपलों का साग बनता है ।

करमकल्ला
संज्ञा पुं० [अ० करम + हिं० कल्ला] एक प्रकार की गोभी जिसमें केवल कोमल कोमल पत्तों का बँधा हुआ संपुट होता है । इन पत्तों की तरकारी होती है । बँधी गोभी, पातगोभी । बंदगोभी । विशेष — यह जाडे में फूलगोभी के थोडा पीछे माघ फागुन में होता है । चैत में पत्ते खुल जाते हैं और उनके बीच से एक डंठल निकलता है जिसमें सरसों की तरह के फूल और पत्तियाँ लगती हैं । फलियों के भीतर राई के से दाने या बीज निकलते हैं ।

करमचंद पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्म + हिं० चंद] कर्म । उ०—बाँस पुरान साज सब अटखट सरल तिकोन खटोला रे । हमहि दिहल करि कुटिल करमचंद मंद मोल बिनु डोला रे ।— तुलसी (शब्द०) ।

करमज पु
वि० [सं० कर्मज अथवा हिं० करम + क = (का) ] दे० ' कर्मज' । उ०— संत चरण कर अस परतापा । मेटैं दोष दुख करमज दापा । — कबीर सा०, पृ० ४१० ।

करमट्टा
वि० [पुं० कर+ हिं० मट्ठा सुस्त या आलसी] कृपण । सूम । कंजूस ।

करमठ पु
वि० [कर्मठ] १. कर्मनिष्ठ । २. कर्मकांडी । उ०— करमठ कठसलिया कहै, ज्ञानी ज्ञान विहीन । तुलसी त्रिपथ बिहाइ गो, राम दुआरे दीन ।—तुलसी (शब्द०) ।

करमता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्म + ता (प्रत्य०) ] दे० 'कर्म' । उ०— सकल करमता लाभ यह जीव जडयंता माँहि । —रज्जब०, पृ० ६ ।

करमफरमा
वि० [अ० करम + फा० फर्मा] दयालु । मेहरबान ।

करमरत पु
वि० [सं० कर्म+रत] कर्मठ । कर्मलीन उ०—बिरत, करमरत, भगत, मुनि, सिद्ध ऊँच अरु नीचु ।— तुलसी ग्रं०, पृ० १०२ ।

करमरिया
वि० [पुर्त० कलमरिया ] समुर्द में हवा के गिर जाने से लहरों का शांत हो जाना ।

करमरी
संज्ञा पुं० [सं० करमरिन्] आजीवन काराव स के लिये दंडित बंदी [को०] ।

करमरेख
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्म + लेख ] दे० ' कर्मरेख' । उ०—है करमरेख मूठियों में ही । बेहतरी बाँह के सहारे है । —चुभते०, पृ०१० ।

करमर्द, करमर्दक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कराम्ल । आँवला । २.करौंदा ।

करमसेंक
संज्ञा पुं० [हिं० कर्म + सेंकना] १. पंचों का हुक्का । बिरादरी का हुक्का । २. कम घी में पके हुए कडे़ पराठे जो कठिनता से खाए जायँ ।

करमहीन
वि० [सं० कर्म +हीन ] दे० 'कर्महीन' । उ०— सकल पदारथ हैं जग माहीं । करमहीन नर पावत नाहीं ।— तुलसी (शब्द०) ।

करमा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्मा ] एक भक्तिन का नाम । विशेष — इसका मंदिर जगन्नाथ जी में बना है । इसकी खिचड़ी जगन्नाथ जी को भोग लगती है ।

करमा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कैमा ] दे० ' कैमा' ।

करमा (३)
संज्ञा पुं० [देश० ] कोल—भीलों के नृत्य एवं गान की एक शैली ।

करमात पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्म ] कर्म । भाग्य । किस्मत । नसीब । उ०— सुनु सजनी मेरी एक बात । तुम तौ अति ही करति बड़ाई मन मेरो सरमात । मोसों हैसति स्याम तुम एकै यह सुनि कै भरमात । एक अंस को पार न पावति चकित होइ भरमात । वह मूरति द्वै नैन हमारे लिखा नहीं करमात । सूर (शब्द०) ।

करमाल
संज्ञा पुं० [सं०] धुआँ [को०] ।

करमाला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ] उँगलियों के पोर जिनपर उँगली रखकर माला के अभाव में जप की गिनती करते हैं ।

करमाला (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] अमलतास ।

करमाली
संज्ञा पु० [सं० करमालिन्] सूर्य । उ०—दिनदयाल दया कर देवा । करैं मिनि मनुज सुरासुर सेवा । हिम तम करिकेहरि करमालि । दलन दोष दुरित रुजालि । —तुलसी (शब्द०) ।

करमिया †
वि० [सं० कर्म+हिं० इया (प्रत्य०)] १. कर्मी ।२. कर्मण्य ।

करमी
वि० [हिं० कर्मी] १. कर्म करनेवाला । २. कर्मठ । कर्मरत । उ०—महा कुटिल बड़ करमी गूहिया, ताते नरक अघोर बड़परिया । — कबीर सा०, पृ० ४६६ ।

करमुँहा पु †
वि० [हिं०काला + मुँह ] १. काले मुँहवाला । उ०— जरी लंगूर सु राति उहाँ । निकसि जो भाग गए करमुँहा ।—जायसी (शब्द०) । २. कलंकी ।

करमुक्त (१)
वि० [सं०] कर से विमुक्त । जिसे या जिसपर कर न चुकाना पड़ [को०] ।

करमुक्त (२)
संज्ञा पुं० फेंक कर प्रहार के काम आनेवाला हथियार [को०] ।

करमुखा पु
वि० [हिं० काला + मुख] [स्त्री० करमुखी] काले मुँहवाला । कलंकि । उ०— (क) सुरुज के दुख जों ससि होइ दुखी । सो कित दुख मानै करमुखी ।— जायसी(शब्द०) । (ख) कित करमुखे नयन भै हरा जिव जेहि बाट । सरवर नीर बिछोह ज्यौं, तड़क तड़क हीय फाट । — जायसी (शब्द०) ।

करमूल
संज्ञा पुं० [सं० कर+मूल] कलाई [को०] ।

करमूली
संज्ञा पुं० [देश०] एक पहाडि पेड़ । विशेष— यह गढ़वाल और कुमाऊँ में अधिक होता है । इसकी लकड़ी कड़ी और ललाई लिए हुए भूरे रंग को तथा वजन में प्रति घनफुट २२ सेर के लगभग होती है । यह इमारतों में लगती है और खेती के औजार बनाने के भी काम आती है । पहाड़ी लोग इस लकड़ी के कटोरे भी बनाते हैं ।

करमेस
संज्ञा पुं० [देश०] करगह की एक लकड़ी । कुलवाँसा । कुलर । अभैर । सुत्तुर । विशेष— यह ऊपर की ओर बँधी रहती है । इसी में दो नचनियाँ लटकति हैं जो कंधियों की काँड़ी से बँधी रहती हैं । इन नचनियों को पैर से दबाकर जुलाहे ताने का सूत ऊपर का निचे और निचे का उपर किया करते हैं ।

करमैत पु
वि० [हिं० करम +ऐत(प्रत्य०)] उत्कृष्ट कर्म करने- बाला । उ०— हरनाथ जसौ करमैत कुल, बयण लखे वध वक्कियौ :—रा० रू०, पृ० १५७ ।

करमैती पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० करम+ऐत (प्रत्य०)] कृष्ण की एक उपासिका भक्तिन जो शेषावती नगरी के राजा के पुरोहित परशुराम की कन्या थी ।

करमैल †
संज्ञा पुं० [देश० ] एक प्रकार का तोता । विशेष— यह साधारण तोते से कुछ बड़ा होता है । इसके परों पर लाल दाग होते हैं ।

करमोद
संज्ञा पुं० [सं० मोद + कर ?] एक प्रकार का धान जो अगहन के महिने में तैयार होता है ।

करर
संज्ञा पुं० [देश० ] १. एक जहरीला कीड़ा जिसके शरीर में बहुत सी गाँठें होती हैं ।२. रंग के अनुसार धोड़े का एक भेद ।३. एक प्रकार का जंगली कुसुम वा बरें का पौधा । विशेष— यह उत्तरपश्चिम में पंजाब, पेशावर, आदि सूखे स्थानों में बहुत होता है । जहाँ यह अधिक होता है वहाँ इसके बीज का तेल निकाला जाता है जो पोली का तेल कहलाता है । अफरीदियों का मोमजामा इसी तेल से बनाया जाता है । इसमें फूल बहुत अधिकता से लगते हैं । इसकी लकड़ी बहुत मुलायम होती है । इसकी टहनियाँ और पत्तियाँ चारे के काम में आती हैं ।

कररना, करराना पु
कि० अ० [अनु०] १. चरमराकर टूटना । मरमराकर टूटना ।२. कर्णकटु शब्द करना । कर्कश शब्द बोलना । उ०— मधुर वचन कटु बोलिबो बिनु श्रम भाग ।— अभाग । कुहु कुहू कलकंठ रव का का कररत काग ।— तुलसी (शब्द०) ।

कररा
संज्ञा पुं० [फा० गर्रा] गिराब । छर्रा । उ०— छीटै छिरकत अंग रंग के उठत भभूके । मनमथगोलंदाज मनौं सो कररा फूके । — ब्रज० ग्रं०, पृ० २० ।

कररान पु
संज्ञा स्त्री० [अनु०] धनुष चलाने का शब्द । धनुष की टंकार । उ०—कररान धनुष सुन्नी । मरमरान बीर दुन्नी ।—सूदन (शब्द०) ।

कररी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्बुर] बनतुलसी । बबरी । ममरी । उ०— ऊधो तनिक सुयश श्रौनन सुन । कंचन काँच, कपूर कररि रस, सम दुख सुख, गुन औगुन ।— सूर (शब्द०) ।

कररी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुररी] बटेर की जाति की एक प्रकार की चिड़िया । विशेष— यह साधारण बटेर से कुछ बड़ी और बहुत सुंदर होती है । यह हीमालय में प्रायः इसी जगह पाई जाती है । इसकी खाल का बहुत बडा व्यापार जोता है ।

कररुह
संज्ञा पुं० [सं०] नख । नाखून ।

कररेचकरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य में ५१ प्रकार के चालको या हाथ घमाने फिराने की मुद्राओं में से एक जो बहुत कठिन समझी जाती है । विशेष— इसमें दोनों हाथों को कमर पर रख स्वस्तिक कर माथे पर ले जाते हैं तथा हाथों को मंडलाकार करते हुए ऊपर लाते हैं । फिर एक हाथ नितंब पर रखकर दूसरे हाथ को पहिए की तरह घुमाते हुए दोनों हाथों को झुलाते हैं और सिर सरल उतारी करके सीधा फैलाते हैं । फिर उद्वेष्ठित, प्रसारित आदि कई प्रकार के कंधों के पास दोनों हाथ घुमाते हैं । इसी प्रकार की और बहुत सी क्रियाएँ करते हैं ।

करल (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० कटाह] कड़ाह । कड़ाही । उ०— करल चढै़ तेहि पाराहिं पूरी । मूठी माँझ रहैं सौ जूरी । — जायसी (शब्द०) ।

करल (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० करग्र] मुष्टि । उ०—(क) तीखा लोयण, कटि करल, उर रतड़ा बिबीह । ढोला थाँकी मारुइ जाँणि विलूछउ सीह । — ढोला०, दू० ४५६ ।(ख) स्यामा कटि कटि मेखला समरपित किसा अंग मापित करल ।— बेलि०, दू० ९६ ।

करलव पु
संज्ञा पुं० [सं० कलरव] दे० 'कलरव' । उ०— कूँझडियाँ करलव कियउ, धरि पाछिले वणोहि । सूती साजण संभरया, द्रह भरिया नयणोहि । —ढोला०, दू० ५४ ।

करला पु
संज्ञा पुं० [हिं० कल्ला] दे० 'कल्ला' ।

करली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० करील] कल्ला । कोमल पत्ता । कनखा । उ०— वही भाँति पलही सुख बारी । उठी करलि नइ कोप सँवारी । — जायसी (शब्द०) ।

करलुरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की काँटेदार लता जिसमें सफेद और गुलाबी फूल लगते हैं । विशेष— यह समस्त भारत में पाई जाती है और फरवरी से मई तक फूलती तथा अगस्त सितंबर में फलती है । इसका फूल सुर्खी लिए भूरे रंग का होता है और उसका अचार पड़ता हैं । हाथी इसकी पत्तियाँ और टहनियाँ बड़ी रुचि से खाते हैं ।

करवँट
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार कि लता जो अवध, बंगाल, दक्षिण और लंका में पाई जाती है । विशेष— इसमें ४-५ इंच लंबी पत्तियाँ लगती हैं और पीले फूल होते हैं । इसकी डाल छाजन या दौरियाँ बनाने के काम में आती है ।

करवँदा पु
संज्ञा पुं० [ सं० करमर्द] दे० 'करौंदा' । उ०—बैर करबँदे हैस सिंहोर अनास । — प्रेमघन०, भा० १, पृ० ७५ ।

करवट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० करवर्त, प्रा० करवट्ट] हाथ के बल लेटने की मुद्रा । वह स्थिति जो पार्शव के बल लेटने से हो । उ०— गइ मुरछा रामहिं सुमिरि, नृप फिरि करवट लीन्ह । सचिव राम आगमन कहि विनय समय सम कीन्ह । — तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—फिरना । —फेरना । —बदलना । —लेना । मुहा०—करवट बदलना = (१)दूसरी ओर घूमकर लेटना । (२) पलटा खाना । और का और कर बैठना । (३) एक ओर से दूसरी ओर जाना । एक पक्ष छोडकर दूसरे पक्ष में हो जाना । करवट लेना = (१) दूसरी ओर फिर कर लेटना । मुँह फेरना । पीठ फेरना । (२) और का और हो जाना । पलट जाना । (३) बेरुख होना । फिर जाना । विमुख होना । करवट खाना या होना = (१) उलट जाना । फिर जाना । (२) जहाज का किनारे लग जाना । (३) जहाज का टेढ़ा होना वा झुक जाना । — (लश०) । करवट न लेना = किसी कर्तव्य का ध्यान न रखना । दम न लेना । साँस न लेना । सन्नाटा खींचना । जैसे,— इतने दिन रुपये लिए हो गए, अबतक करवट न ली । करवटें बदलना = बार बार पहलू बदलना । बिस्तर पर बेचैन रहना । तड़पना । विकल रहना । करवटों में काटना = सोने का समय व्याकुलता में बिताना ।

करवट (२)
संज्ञा पुं० [सं० करपत्र, प्रा० करवत्त] १. एक दाँतेदार औजार जिससे बढ़ई बड़ी बड़ी लकड़ियाँ चीरते हैं । करवत । आरा । २. पहले प्रयाग, काशी आदि स्थानों में आरे वा चक्र रहते थे जिनके नीचे लोग फल की आशा से, प्राण देते थे, ऐसै आरे वा चक्र को 'करवट' कहते थे, जैसे, 'काशिकरवट' ।मुहा०—करवट लेना = करवट कै नीचे सिर कटाना । उ०— तिल भर मछली खाइ जो कोटि गऊ दे दान । काशी करवट लै मरै तौ हू नरक निदान । — (शब्द०) ।

करवट (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष । जसूँद । नताउल । विशेष— इसका गोंद जहरीला होता है और जिसमें तीर जहरीले करने के लीये बुझाए जाते हैं ।

करवट्ट पु
संज्ञा पुं० [सं० करपत्र, प्रा० करवत अथवा हिं० करवट] दे० 'करवट (२)' । उ०— गारी मती, दीजो मो गरीबिनी को जायो है ।......काशी करवट्ट लीनों द्रव्य हू लुटायो है ।— (शब्द०) ।

करवत
संज्ञा पुं० [सं० करपत्र, प्रा० करवत्त] एक दाँतेदार औजार जिससे लकड़ी काटी जाती है । आरा । उ०— दादू सिरि करवत वहै, बिसरै आतम राम ।— दादू०, पृ० ५२ ।

करवर पु†
संज्ञा स्त्री० [देश०] अलप । घात । विपत्ति । औचट । आफत । संकट । आपत्ति । कठिनाई । मुसीबत । जानजोखिम । उ०— (क) ईश अनेक करवरै टारी । — तुलसी (शब्द०) । (ख) क्यों मारीच सुबाहु महाबल प्रबल ताड़का मारी । मुनि प्रसाद मेरे राम लखन की विधि बड़ि करवरैं टारी । — तुलसी (शब्द०) । (ग) कुँवरि सों कहति वृषभानु घरनी ।.......बडी करवर टरी साँप सों ऊबरी, बात के कहत तोहि लगति जरनी ।—सूर (शब्द०) । (घ) बुझहु जाय तात सों बात ।.... जब ते जनम भयो हरि तेरो कितने करवर टरे कन्हाई । सूर स्याम कुल देवनि तोको जहाँ तहाँ करि लिए सहाई ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—टलना । —पड़ना ।

करवरना पु
क्रि० अ० [सं० कलरव, हिं० करवर, कलबल ] कलरव या शोर करना । चहकार करना । चहकना । उ०—सारी सुआ जो रहचह करहीं । कुरहि परेवा औ करवरहीं ।— जायसी (शब्द) ।

करवल
संज्ञा स्त्री० [देश०] जस्ता मिली हुई चाँदी । वह चाँदी जिसमें रुपए में दो आने भर जस्ता मिला हो ।

करवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० करक] १. धातु या मिट्टी का टोंटीदार लोटा । बधना । उ०— इक हाथ करवा दुसर हाथ रसरी त्रिकुटी महल की डगरी पकरी ।— कबीर श०, भा० ३, पृ० ४० । २. जहाज में लगाने की लोहे की कोनिया या घोड़िया ।—(लश०) ।

करवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कर्क = केकड़ा ] एक प्रकार की मछली जो पँजाब, बँगाल तथा दक्खिन नदियों में पाई जाती है ।

करवा (३)पु
संज्ञा पुं० [हिं० कारा + वा (प्रत्य०)] श्याम रंगवाला अर्थात् कृष्ण । उ०— मन लगाइ प्रीति कीजै कर करवा सों ब्रज बीथिन दीजै सोहनी ।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १९६ ।

करवागौर
संज्ञा स्त्री० [हिं० करवा + गौर ] दे० ' करवा चौथ' ।

करवाचौथ
संज्ञा स्त्री० [सं० करका चतुर्थी ] कार्तिक कृष्ण चतुर्थी । विशेष— इस दिन स्त्रियाँ सौभाग्य आदि के लिये गौरी का व्रत करती हैं और सायंकाल मिट्टी के करवे से चद्रमा को अर्घ्य देती हैं तथा पकवान के साथ करवे का दान करती हैं ।

करवानक
संज्ञा पुं० [सं० कलविङ्क] चटक पक्षी । गौरैया । उ०— सारस से सूबा, करवानक से साहजादे, मोर से मुगुल मीर धीर ही धचै नहीं । — भूषण (शब्द०) ।

करवाना
क्रि० स० [हिं० करना का प्रै० रूप] करने में लगाना । दूसरे को करने में प्रवृत करना ।

करवार पु
संज्ञा स्त्री० [सं० करबाल ] तलबार । उ०— फूले फदकत लै फरी पल कटाछ करवार । करत बचावत विय नयन पायक घाय हजार ।—बिहारी (शब्द०) ।

करवाल
संज्ञा पुं० [सं० करबाल] १. नख । नाखून । २. तलवार ।

करवालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा डंडा । यष्टि । लगुड़ । दंड [को०] ।

करवाली
संज्ञा स्त्री० [सं० करबाल] छोटी तलवार । कराली । उ०— कर करवाली सोह जथा काली विकराली ।— गोपाल (शब्द०) ।

करवावना
क्रि० स० [हिं० करवाना ] दे० 'करवाना ' । उ०— श्री ठाकुर जी कौ अपने कार्यार्थ श्रम नाहीं करवावनों । — दो सौ वावन०, भा० १, पृ० ३३१ ।

करवी †
संज्ञा स्त्री० [ देश०] पशुओं का चारा । उ०— सारा गाँव सोता था पर सुजान करवी काट रहे थे ।— मान०, भा० ५, पृ० १८५ । विशेष— यह प्रायः ज्वार बाजरे के हरे या सूखे पौधों की होती है ।

करवीर, करवीरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कनेर का पेड़ । २. तलवार । खंग । ३. श्मशान । ४. ब्रह्मावर्त देश में दृशद्वती के किनारे की एक प्राचीन राजधानी ।५. चेदि देश का एक नगर जहाँ के राजा श्रृगाल ने कृष्ण और बलराम को उस समय रोका था; जब वे जरासध के भागने पर करवीर की ओर ससैन्य जा रहे थे ।

करवीराक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] खर राक्षस का एक सेनापति जिसे रामचंद्र ने मारा था ।

करवील †
संज्ञा पुं० [सं० करीर ] करील । टेंटी का पेड़ । कचड़ा ।

करवैया पु †
वि० [हिं० करना+कैया (प्रत्य०)] करनेवाला ।

करवोटी
संज्ञा पुं० [देश०] एक चिड़िया का नाम । उ०— करवोटी बागबगी नाक बासा बेसर दै श्यामा बाया कूर ना गरूर गहियतु है (चिड़िमारिन) ।— रघुनाथ (शब्द०) ।

करशाखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उँगली ।

करशू
संज्ञा पुं० [देश०] हिमालय पर होनेवाला एक बड़ा सदाबहार पेड़ । विशेष— यह अफगानिस्तान से लेकर भूटान तक होता है । इसकी लकड़ी बहुत दिनों तक रहती है और बडी मजबूत होती है । इसका कोयला भी बहुत अच्छा होता है । इसकी पत्तियाँ चारे के काम में आती हैं । इसपर चीनी रेशम के कीडे़ भी पाले जाते हैं ।

करशूक
संज्ञा पुं० [सं०] नख । नाखून [को०] ।

करश्मा
संज्ञा पुं० [फा० किरिश्मह्] चमत्कार । अदभुत व्यापार । करामात ।

करष (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ष ] १. खिंचाव । मनमोटाव । अकस । तनाजा । तनाव । द्रोह । उ०— कंत करष हरि सन परि हरहू । मोर कहा अति हित हिय धरहू ।—तुलसी (शब्द०) । २. क्रोध । असर्ष । ताव । लड़ाई का जोश । उ०— बातहिं बात करक बढ़ि आई । जुगुज अतुल बल पुनि तरुनाई ।— तुलसी (शब्द०) ।

करष (२) पु
संज्ञा पुं० [अ० कलक] दुख । व्यथा । उ०— सुण वाणी तन करष मिटे सह छक बँदे मन हरष छया । — रघु० रु०, पृ० ९८ ।

करषक पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्षक] खेती से जीविका करनेवाला । किसान । खेतिहर । उ०— गइ बरषा करषक बिकल सूखत सालि सुनाज ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ९७१ ।

करषना
क्रि० स० [सं० कर्षण] १. खींचना । तानना । घसीटना । उ०— (क) बारहिं बार अमरषत करषत करकैं परी सरीर ।— तुलसी (शब्द) । (ख) सुर तरु सुमन माल सूर बरषही ।— मनहुँ बलाक अपलि मनु करषहिं । —तुलसी (शब्द०) । (ग) पद नख निरषि देवसरि हरषी । सुनि प्रभु वचन मोह मति करषी । — तुलसी (शब्द०) । २. सोख लेना । सुखाना । जज्ब करना । उ०— कोइ सिरजै पालै संहारै । कोइ बरषै करषै कोइ जारै । — रघुनाथ (शब्द) । ३. बुलाना । निमं- त्रित करना । आकर्षण करना । समेटना । इकट्ठा करना । बटोरना । उ०— सुनि बसुदेव देवकी हरषे । गोद लगाइ सकल सुख करषे —(शब्द०) ।

करषा पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्ष] १. उतेजना । बढ़ावा । उ०— (क) एकहिं एक बढ़ावही करषा । — मानसे २ । १९१ । (ख) करषा तजिकै परुषा बरषा हित मारुत घाम सदा सहिकै । — (शब्द०) । २. क्रोध । अमर्ष । ताव । लड़ाई का जोश ।

करषेव पु
वि० [सं० कृश + इव] कृश । दुर्बल । कमजोर ।

करसंपुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथों की अंजलि । २. हाथ जोड़कर विनय करने की मुद्रा । उ०— सिरु नाइ देव मनाय सब सन कहत करसंपुट किएँ । — मानस, २ । ३२६ ।

करसण पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्षण] कृषि । खेती । उ०— ढ़ाठी एक सँदेशड़उ ढोलइ लगि लइ जाइ । कण पाकउ करसण हुवउ भोग लियउ धरि आइ । — ढोला०, दू० १२१ ।

करसण †
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण] दे० कृष्ण ।

करसना पु
क्रि० स० [सं० कर्षण] दे० 'करसना' । उ०—या पर कृष्न चरन परसिहैं । इत तें अहि दुष्टहिं करसिहैं ।—नंद० ग्र०, पृ० २७९ ।

करसनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की लता । विशेष— यह समस्त उत्तर भारत में होती है । इसकी पतियाँ २—३ इंच लिबी होती हैं जिनपर भूरे रंग के रोएँ होते हैं । यह फरवरी और मार्च में फूलती है । इसके पके फलों के रंग से एक प्रकार की बैंगनी स्याही बनती है । इसकी जड़ और पत्तियाँ दवा के काम आती हैं । इसको हीर भी कहते हैं ।

करसमा पु
संज्ञा पुं० [फा० किरिश्मह्] दे० करश्मा' । उ०— मुकामी सैल समझावैं । करसमा देख दरसावैं ।—संत तुरसी०, पृ० ३६ ।

करसाइल पु
संज्ञा पुं० [हि० करसायल] दे० 'करसायल' करसायर' ।

करसाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ की दुर्बलता । २. किरणों का मंद पड़ना [को०] ।

करसान पु
संज्ञा पुं० [सं० कृषाण] किसान । खेतिहर । उ०— कुरुक्षेत्र सब मेदिनी खेत करै करसान । मोह मृगा सब चरि गया आस न रहि खलिहान ।—कबीर (शब्द०) ।

करसायर, करसायल
संज्ञा पुं० [सं० कृष्णसागर] काला मृग । काला हिरण । उ०— घायल ह्वै करसायल ज्यों मृग ज्यों उतही उतरालय घूमें ।—(शब्द०) ।

करसी
संज्ञा स्त्री० [सं० करीष] १. उपले या कंड़े का टुकड़ा । उपलों का चूर । कंड़ो की भूसी या कुनाई कंड़े की कोर । २. कंड़ा । उपला । उ०—सोइ सुकृती सुचि साँचो जाहि राम तुम रीझे । गनिका गीध बधिक हरिपुर गए लै करसी प्रयाग कब सीझे ।—(शब्द०) । मुहा०—करसी लेना=उपले या कंड़े की आग में शरीर को सिझाने का तप करना । उ०— सिर करवत तन करसी लै लै बहु सीझे तेहि ईस । बहुत धूम घूँटत मैं देखे उतरु न देइ निरास ।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), १९६ ।

करसूत्र पु
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह का कंगन [को०] ।

करस्पर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य में उत्प्लुत करण के ३६ भेदों में से एक जिसमें गर्दन नीची करके उछलते तथा धरती पर गिर और कुक्कुट आसन रच दोनों हाथों को उलट देते हैं ।

करस्थाली
संज्ञा पुं० [सं० करस्थालिन्] शिव [को०] ।

करस्वन
संज्ञा पुं० [सं०] करताली । हात की ताली [को०] ।

करहंच पु
संज्ञा पुं० [हिं० करहंस] दे० 'करहंस' ।

करहंत पु
संज्ञा पुं० [हिं० करहंस] दे० 'करहंस' ।

करहंज
संज्ञा पुं० [सं०] एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक पद में नगण, सगण और एक लघु (न स ल अर्थात/?/+/?/+/?/) होता है । इसी को करहंस वीरवर या करहंच भी कहते हैं । उ०—निसि लखु गुपाल । ससिहि मम बाला । लखत अरि कस । नखत करहंस ।

करहँज पु
संज्ञा पुं० [सं० कर+खञ्ज] खेत में अनाज (अलसी, चना, मूँग, उरद आदि) का वह पौधा जो अधिक जोरदार जमीन में पडने के कारण बढ़ तो बहुत जाता है, पर जिसमें दाना बहुत कम पड़ता है ।

करह पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० करभ] ऊँट । उ०—दादू करह पलाणि करि को चेतन चढ़ि जाइ । मिलि साहिब दिन देषताँ साँझ पड़ै जिनि आइ । —दादू (शब्द०) । (ख) बन ते भगि बिहड़ें परा करहा अपनी बानि । वेदन करह कासों कहै को करहा को जानि ।—कबार (शब्द०) । (ग) ऊमर सुणि मुझ वीनती, दउड़ि म मार तुरंग । करहउ लँघियउ, कूटियउ, आड़ावल बड़वंग । —ढोला०, दू० ६४७ ।

करह (२)
संज्ञा पुं० [कलिः] फुल की कली । उ०—बाल विभूषन लसत पाइ मृदु मंजुल अंग विभाग । दसरथ सुकृत मनोहर निरवनि रूप करह जनु लाग ।—तुलसी (शब्द०) ।

करह कटंग
संज्ञा पुं० [सं० देश०] गढ़ करंग । यह अकबर के समय में सूबा मालवा के १२ सरकारों में से एक था ।

करहनी पु
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है और जिसका चावल बहुत दिनों तक रहता है ।

करहल पु
संज्ञा पुं० [हिं करह] उँट । उ०—आँब कै बौरे चरहल करहल निबिया छोलि छोलि खाई ।—कबीर ग्रं०, पृ० १४८ ।

करहा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] सफेद सिरिस का वृक्ष ।

करहा (२)
संज्ञा पुं० [सं० करभ] दे० 'करह' । उ०—द्वै घर चढ़ि गयौ राँड़ कौ करहा ।—कबीर ग्रं०, पृ० ११२ ।

करहाई
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बेल ।

करहाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल की जड़ । भसीड़ । मुरार । २. कमल का छत्ता । कमल की छतरी । उ०—अगद कूदि गए जहँ आसनगम लंकेश । मनु हाटक करहाट पर शोमित श्यामल वेश । —केशव (शब्द) । ३. मैनफल ।

करहाटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल की मोटी जड़ । भसंड़ । मुरार । २. कमल का छत्ता । कमल के फूल के भीतर की छतरी जो पहले पीली होती है, फिर बढ़ने पर हरी हो जाती है । उ०—(क) सुंदर मंदिर में मन मोहति । स्वर्ण सिंहासन ऊपर सोहति । पंकज के करहाटक मन मानहु । है कमला विमला यह जानहु ।—केशव (शब्द०) । (ख) सुंदर सेत सरोरुह में करहाटक हाटक की दुति को है ।—केशव (शब्द०) । ३. मौनफल ।

करही †
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह दाना जो पीटने के बाद बाल में लगा रह जाता है । उ०— कहुँ करही उबलत, सूखत, महजूम बनत कहूँ पर ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ३४ । २. शीशम की तरह का एक प्रकार का वृक्ष जिसके पत्ते शीशम के पत्तों से दूने बड़े होते हैं । इसकी लकड़ी बहुत भारी होती और प्रायः इमारत के काम में आती है ।

करांगण
संज्ञा पुं० [सं० कराङ्गण] १. बाजार । मेला । २. कर या चुंगी इकट्ठी करने का स्थान [को०] ।

कराँ पु
संज्ञा पुं० [सं० कला] दे० 'कला' । उ०—कुँवर बतीसी लक्खना सहस कराँ जस भान ।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ३०६ ।

कराँकुल
संज्ञा पुं० [सं० कलाङ्कुर] पानी के किनारे की एक बड़ी चिड़िया । कूंज । पनकुकड़ी । क्रौंच । उ०—(क) तहँ तमसा के विपुल पुलिन में लख्यो कराँकुल जोरा । बिहरत मिथुन भाव मँह अति रत करत मनोहर शोरा ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) तहँ विचरत बन मँह मुनिराई । युगल कराँकुल परे दिखाई ।—रघुराज(शब्द०) । विशेष— इस चिड़िया के झुंड़ ठंड़े पहाड़ो देशों से जाड़े के दिनों में आते हैं । यह 'कर्र कर्र' शब्द करती हुई पंक्ति बाँधकर आकाश में उड़ती है । इसका रंग स्याही और कुछ सुर्खी लिए हुए भूरा होता है और इसकी गरदन के नीचे का भाग सफेद होता है । यद्यपि संस्कृत कोषों में 'कलांकुर' और 'क्रौंच' दोनों एक नहीं माने गए हैं तथापि अधिकांश लोग 'कराँकुल' को ही 'क्रौंच' पक्षी मानते हैं ।

कराँत
संज्ञा पुं० [सं० करपत्र, प्रा० करक्त] लकड़ी चीरने का आरा ।

कराँती
संज्ञा पुं० [हि० कराँत] कराँत या आरा चलानेवाला ।

करा पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कला] दे० 'कला' । उ०—(क) कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनो करा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) तुम हुत मयो पतंग की करा । सिंहल दीप आय उड़ि परा ।—जायसी (शब्द०) ।

करा (२)
संज्ञा स्त्री० [?] सौरी या सबरी नाम की मछली जिसका मांस खाया जाता है ।

करा (३) †
संज्ञा पुं० [देश०] १. सन या मूँज का रेशा । २. दूव दल ।

कराइत
संज्ञा पुं० [सं० किरात हि० कारा, काला] एक प्रकार का काला साँप जो बहुत विषैला होता है ।

कराइन †
संज्ञा पुं० [हि० खर+सं० अयन=घर] छप्पर के ऊपर का फूस ।

कराई (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० केराना] दाल का छिलका । उर्द, अरहर आदि के ऊपर की भूसी ।

कराई (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० कारा, काला] कालापन । श्यामता । उ०— मुख मुरली सिर मोर पखौआ बन बन धेनु चराई । जे जमुना जल रंग रँगे हैं ते अजहूँ नहिं तजत कराई ।—सूर (शब्द०) ।

कराई (३)
संज्ञा स्त्री० [हि० करना] १. कराने या करने का भाव । २. करने या कराने की मजदूरी ।

कराकुल
संज्ञा पुं० [सं० कलाङ्कुर] दे० 'कराँकुल' । उ०—कोउ तलही मुर्गाबी, कोऊ कराकुल मारे ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २६ ।

कराग पु
संज्ञा पुं० [सं० कराग्र] करीग्र । हाथ । उ०—वधिया कराग खग वाहते, रूक जाग चतुरंगिणी ।—रा० रू०, पृ० ८५ ।

कराघात
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ का आघात । हाथ का प्रहार । उ०—एक लहर आ मेरे उर में मधुर कराघातों से देगी खोल ह्वदय का तेरा चिर परिचीत वह द्वार ।—अनामिका, पृ० ३५ ।

कराड़
संज्ञा पुं० [सं० क्रयार=खरीदनेवाला अथवा सं० किराट] १. महाजन ।—(हिं०) । २. बनियों की एक जाती जो पंजाब के उत्तरपश्चिम भाग में मिलती है । ये लोग महाजनी का व्यवसाय करते हैं ।

कराड़ना पु
क्रि० अ० [सं० कराल] ऊँची आवाज में बोलना । जोर से बोलना । उ०—करहा लंब कराड़ियां बे वे अंगुल कन्न । रति ज चीन्हों बेलड़ी, तिण लाखौणा पन्न ।—ढोला०, दू० ४१३ ।

करात (१)
संज्ञा पुं० [अ० कीरात] एक तौल जो चार जौ की होती है । विशेष—यह प्रायः सोना, चाँदी या दवा तौलने के काम में आती है । इसका वजन लगभग साढ़े तीन ग्रेन होता है ।

करात (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० कैरट] दे० 'कैरट' ।

कराना
क्रि० सं० [हि० करना का प्रे० रूप] करने में लगाना । कुछ करने के लिये उत्प्रेरित करना ।

कराबत
संज्ञा स्त्री० [अ० कराबत] १. नजदीकी । समीपता । २. नाता । रिश्ता । रिश्तेदारी । संबंध ।

काराबतदार
वि० [अ० कराबत+फा० दार] रिश्तेदार । संबंधी ।

कराबतदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० कराब+फा० दार+ई (प्रत्य०)] रिश्तेदारी । नातेदारी । अपनायत । संबंध ।

कराबा
संज्ञा पुं० [अ० कराबा, सं करका, हि० करबा] शीशे का बड़ा बरतन जिसमें अर्क इत्यादि रखते हैं । काँच का छोटे मुँह का पात्र । शीशे की सुराही ।

कराम पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्म] दे० 'कर्म' । उ०—नामु दाम इस्तानु अरु काम । तिस मिलै पदारथ जिस लिखिपा कराम ।— प्राण०, पृ० १५३ ।

करामत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. प्रतिष्ठा । २. कृपा । ३. चमत्कार । ४. बुजुर्गी । ५. बड़ाई ।

करामन कातवीन
संज्ञा पुं० [अ० किरामा कातबीन] इस्लामी धर्म के अनुसार वे दैवी व्यक्ति जो लोगों के पुण्य या पाप कर्मों का लेखा जोखा तैयार करते हैं । उ०—करामन कात/?/न की पुस्तक में लिखा है कि इसराकील सदैव दुखी रहता है ।— कबीर मं०, पृ० २२० ।

करामात
संज्ञा स्त्री० [अ० करामत' का बहु०] चमत्कार । अदभुत व्यापार । करश्मा । जैसे,—बाबा जी, कुछ करामत दिखाओ ।

करामाति पु
वि० [हि० करामाती] दे० 'करामती' । उ०—दुहूँ करा- माती सम गनो, आप और हम्मीर ।—हम्मीर रा०, पृ० ६५ ।

करामाती
वि० [हि० करामात+ई (प्रत्य०)] १. करामात दिखानेवाला । करश्मा दिखानेवाला । सिद्ध । २. करामत से संबंधित । उ०—कई योगियों के साथ ख्याजा मुइनुद्दीन का भी ऐसा ही करामाती दंगल कहा जाता है ।—इतिहास, पृ० १५ ।

कराजया †
संज्ञा पुं० [सं० कुटज] १. कोरैया । २. इंद्रजवा ।

करायल (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० काला] कलौंजी । मँगरैला ।

करायल (२)
संज्ञा पु० [सं० कराल] तेल मिली हुई राल ।

करायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पक्षी । सारस का एक छोटा प्रकार [को०] ।

करार
संज्ञा पुं० [सं० कराल=ऊँचा । हि० =कट=कटना+सं० आर=किनारा] नदी का ऊँचा किनारा जो जल के काटने से बनता है ।

करार (२)
संज्ञा पुं० [अ० करार] १. स्थिरता । ठहराव । क्रि० प्र०—पाना । —देना । —होना । २. धैर्य । धीरज तसल्ली । संतोष । उ०—प्रब दिल को करार नहीं ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८८ । ३. आराम । चैन । उ०—सुनो रे मेरे देव रे दिल को नहीं करार । जल्दी मेरे वास्ते सभा करो तैयार ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७८९ । ४. दादा । प्रतिज्ञा । कौल । क्रि० प्र०—पाना=निश्चित होना । ठहरना । तै पाना । जैसे,— उन दोनों के बीच यह बात करार पाई है ।

करार (३) पु
वि० [सं० कराल] दे० 'कराल' । उ०—भीरै दूऊ भारं तुटै वग्गतारं, अकथ्थं करारं कहै देव पारं ।—पृ० रा०, २४ ।१७१ ।

करार (४) पु
संज्ञा पुं० [हि० करारा=कौआ] दे० 'करारा' । उ०— प्रातः समय बोल्ले करार सुभ कहिय पूर्व गनि । अगिनि कोन रिपु मरन पथिक आवइ दहिन मनि ।—अकबरी० पृ० ३२९ ।

करारना पु
क्रि० अ० [अनु । सं० करट] काँ काँ शब्द करना । कौवे का बोलना । कर्कश स्वर निकलना । उ०—राधे भूलि रही अनुराग । तरु तरु रुदन करत मुरझानी ढूँढि फिरी बन बाग । कुँवरि ग्रसित श्रीखंड़ अहि भ्रम चरण शिलीमुख लाग । बाणी मधुर जानि पिक बोलत कदम करारत काग ।— सूर (शब्द०) ।

करारा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कराल=ऊँचा या हिं० कट=काटना+सं० आर=किनारा] १. नदी का वह ऊँचा किनीरा जो जल के काटने से बने । उ०—जघन सघन जु भयानक भारे । महानदी के जनु कि करारे ।—नंद ग्रं०, पृ० २३९ । २. ऊँचा किनारा । ३. टीला । ढ़ूह ।

करारा (२)
संज्ञा पुं० [सं० करट, प्रा० करह] कौआ । उ०—असगुन होहिं नगर पैठारा । रटहि कुभाँति कुखेत कगारा ।— तुलसी (शब्द०) ।

करारा (३)
संज्ञा पुं० [हि० कड़ा, कर्रा] १. छूने में कठोर । कड़ा । २. दृढ़चित्त जैसे,—जरा करारे हो जाओं, रुपया निकल आवे । ३. खुब सेंका हुआ । आँच पर इतना तला या सेंका हुआ कि तोड़ने से कुर कुर शब्द करे । जैसे,—करारा सेव, करारा पापड़ । ४. उग्र । तेज । तीक्ष्ण । मुहा०—करारा दम=जो थका माँदा न हो । जो शिथिल न हो । तेज । ५. चोखा । खरा । जैसे,—करारा रुपया । ६. अधिक गहरा । घोर । जैसे,—उसपर बड़ी करारी मार पड़ी । ७. जिसका बदन कड़ा हो । हट्टा कट्टा । बलवान । जैसे,—करारा जवान ।

करारा (४)
संज्ञा पुं० [हि०] एक प्रकार की मिठाई ।

करारापन
संज्ञा पुं० [हि० करारा+पन (प्रत्य०)] कड़ाई । कड़ापन ।

करारी पु
संज्ञा स्त्री० [हि० करार] करार । समझौता । उ०— हाथ पाँव कटि जाय करै ना संत करारी ।—पलटू०, भा० १, पृ० ३२ ।

कराल (१)
वि० [सं०] १. जिसके बड़े दाँत हों । २. डरावनी आकृति का । डरावन । भयानक । भीषण । ३. ऊँचा ।

कराल (२)
संज्ञा पुं० १. राल मिसा हुआ तेल । गर्जन तेल । २. दाँत का एक रोग जिसमें दाँतों में बड़ी पीड़ा होती है और वे ऊँचे नीचे और बेड़ौल हो जाते हैं ।

करालमंच
संज्ञा पुं० [सं० करालमञ्च] संगीत में एक ताल का नाम ।विशेष—इसमें तीन आघात और दो खाली होते हैं । इसके पखा- वज के बोल ये हैं—+१०२०+धा केटे खुंता केटेताग् गदि धेने नागदेत । धा ।

कराला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनंतमूल । सारिवा । भीषण या भयंकर रुपवाली । २. दुर्गा । चंड़ी (को०) ।

करालिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष । २. तलवार [को०] ।

करालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा । चंड़ी ।

कराली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक ।

कराली (२)
वि० डरावनी । भयावनी । उ०—परम कराली दूबरी लंबवान जिन केश । सहसन महा पिशाचिका देखि परी तेहि देश ।—रघुराज (शब्द०) ।

कराव
संज्ञा पु० [हि० करका] १. एक प्रकार का विवाह या सगाई । बैठावा ।२. विधवा स्त्री से किया जानेवाला विवाह ।

करावना
क्रि० स० [हि० कराना] दे० 'करवाना' । उ०—अब ही तो तोसों आगे सेवा करावनी है ।—दो सौ बावन०, भाग० १, पृ० २२७ ।

करावन
वि० [हिं० कराना] करानेवाला । करवानेवाला । उ०—जग जीवन घट घन बसै करन करावन सोय ।—केशव० अमी०, पृ० १३ ।

करावल
संज्ञा पुं० [तू०] १. वे सैनिक या सैनिकों का दस्ता जिसका काम आगे जाकर शत्रुपक्ष के विषय में सूचना लाना है । २. घुड़सवीर । पहरेदार । ३. शिकारी ।

करावा
संज्ञा पुं० [हिं० कराव] दे० 'कराव' ।

कराह (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० करना+आह] वह शब्द जो व्यथा के समय प्राणी के मँह से निकलता है । पीड़ा का शब्द । जैसे,—आह ! ऊह्व ! इत्यादि । उ०—या रोगी की तरह कराह कराहकर दिन बिताते हैं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५५४ । मुहा०—कराह उठना=दुःख या पीड़ा की गहरी अनुभुति प्रकट करना । अत्यधिक व्यवस्थित होना । उ०—भरी वासना सरिता का वह, कैसा था मदमंत्त प्रवाह, प्रलय जलधि में संगम जिसका देख हृदय था उठा कराह ।—कामायनी, पृ० १० ।

कराह (२) पु †
संज्ञा पुं० [सं० कटाह, प्रा० कड़ाह] दे० 'कड़ाह' ।

कराहट
संज्ञा स्त्री० [हि० कराहना] कराहने का भाव या क्रिया । कराह । उ०—इसी कराहट को कला में लपेटकर दर्द भरे संगीत का रूप देना चाहते हैं ।—वो दुनिया, प्रा०;

कराहत
संज्ञा स्त्री० [अ०] नफरत । घृणा ।

कराहना
क्रि० अ० [हि० 'कराह' से नामिक धा०] व्यथा सुचक शब्द मुँह से निकलना । क्लेश या पीड़ा का शब्द मुँह से निकलना । आह आह करना । उ०—मरी डरी कि टरी ब्यथा कहा खरी चलि चाहि । रही कराहि कराहि अति अब मुख अहि न आहि ।— बिहारी (शब्द०) ।

कराहा पु
संज्ञा पुं० [हि० कराह] दे० 'कड़ाह' ।

कराही पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० कराह का स्त्री०] दे० 'कड़ाही' । उ०— तेल चोर कहँ तेल कराही, घृत चोरहि घृत माँझ गिराही ।— कबीर सा०, पृ० ४६७ ।

करिंगा पु †
संज्ञा पुं० [देश०] चमारों के नाच का विदूषक । उ०— झुम झुम बाँसुरी करिंगा बजा रहा, बेसुध सब हरिजन ।— ग्राम्या, पृ० ४४ ।

करिंद पु
संज्ञा पुं० [सं० करीन्द्र] १. हाथियों में श्रेष्ठ । उत्तम हाथी । बड़ा हाथी । २. ऐरावत हाथी ।

करिंदा
संज्ञा पुं० [हि० करिंदा] दे० 'कारिंदा' । उ०—साँच करिंदा औ पटवरी धीरज नेम बिचारै ।—चरण० बानी, भा० २, पृ० १२४ ।

करि (१)
संज्ञा पुं० [सं० करिन] [स्त्री० करिणी] सूँड़ वाला अर्थात् हाथी ।

करि (२) पु
प्रत्य [हिं०] १. से । २. लिये । ३. द्वारा । उ०—तुम करि तोषित पोषित गात । तुम ही मामत ह्वै हैं तात ।— 'नंद० ग्रं०' पृ० २३६ ।

करि (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० कर] दे० 'कर' । उ०—नरपति व्यास कहइ करि जोड़ तो तूठा तौंतिसौ कोड़ि—बी० रासौ, पृ० ३० ।

करिकट
संज्ञा पुं० [देश०] किलकिला नाम का पक्षी जो मछलियाँ पकड़कर खाता है [को०] ।

करिआ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० काला] दे० 'काला' । उ०—बदन में कुड़िता खुलि बनौ, करिआ गाई में समाई मनोहर साँमरे ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९२९ ।

करिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह घाव जो नाखून की खरोंच से हो जाता है [को०] ।

करिकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० करिकुम्भ] हाथी का माथा या मस्तक [को०] ।

करिकुसुंभ
संज्ञा पुं० [सं० करिकुसुम्भ] नागकेशर का सुगंधित चूर्ण [को०] ।

करिखई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कारिख+ई (प्रत्य)] श्यामता । कालापन ।

करिखा पु
संज्ञा पुं० [हिं० कालिख] दे० 'कालिख' ।

करिगह †
संज्ञा पुं० [हिं० करगह] दे० 'करगह' ।

करिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हस्तिनी । हथिनी । २. वह कन्या जो वैश्य पिता और शूद्र माता से उत्पन्न हुई हो । ३. हस्ति- पिप्पली । गजपिप्पली (को०) ।

करित
संज्ञा पुं० [दे० या सं० कारित] वह पदार्थ जो आर्डर या आज्ञा देकर बनवाया गया हो [को०] ।

करिदारक
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह । शेर [को०] ।

करिनासिका
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाज या वाद्य [को०] ।

करिनिका पुं०
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णिका] दे० ' कर्णिका' । उ०—माधि कमनीय करिनिका सब सुख सुदंर कंदर ।— नंद ग्रं०, पृ०६ ।

करिनी पुं०
संज्ञा स्त्री० [सं० करिणी] दे० ' करिणी' । उ०— संग लाइ करिनी करि लेही । मामहु मोहि सिखावन देहीं ।— मानस, ३ ।३१ ।

करिप
संज्ञा पुं० [सं०] महावत [को०] ।

करिपा
संज्ञा स्त्री० [सं० कृपा] दे० 'कृपा' । उ०— करि करिपा अब हेरिए दीन भक्त जोरे करन । — श्यामा०, पृ० १५८ ।

करिपोत
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का बच्चा [को०] ।

करिबंध
संज्ञा पुं० [सं० करिबन्ध] हाथी के बाँधने का खुटा [को०] ।

करिबदन पुं
संज्ञा पुं०[सं० करिवदन] दें० 'करिवदन' ।

करिबू
संज्ञा पुं० [देश०] अमेरिका के उत्तर ध्रुवीय प्रदेश का एक बारहसिगा । विशेष— इससे वहाँ के निवासियों का बहुत सा सकाम चलता है । वे इसका मांस खाते हैं, इसकी खाल औढ़ते हैं, खाल से तंबू या बरफ पर चलने का जूता बनाते हैं और हड़्ड़ी की छुरी बनाते हैं ।

करिमाचल
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह । शेर [को०] ।

करिमुक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गजमुत्का [को०] ।

करिमुख
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश [को०] ।

करिया (१) पुं०
संज्ञा पुं० [सं० कर्णी] १. पतावार । कलवारी । उ०— सारँग स्यामहि सुराति कराइ । पोढ़े होंहि जहाँ नँदनंदन उँचे टेर सुनाइ । गए ग्रीषम पावस ऋतु आई सब काहु चित चाई । तुम विनु ब्रजवासी यौं जीवैं करिया बिनु नाइ । तुम्हरे कह्यो मानिहैं मोहन चरन पकरि लै आइ । अबकी बेर सूर के प्रभु को नैनानि आइ दिखाइ ।— सूर (शब्द०) । २. कर्णधार । माँझी । केवट । मल्लाह । ३. पतावार थामनेवाला माँझी । किलवारी धरनेवाला मल्लाह । उ०— (क) सुआँ न रहइ खुरकि जिव, अबहि काल सो आउ । सत्तुर अहइ जो करिया, कबहुँ सो बोरइ नाउ ।— जायसी (शब्द०) । (ख) सेतु मूल शिव शोभिजै केशव परम प्रकास । सागर जगत को करिया केशवदास । —केशव (शब्द०) । (ग) जल बूड़त नाव राखिहै सोई जोई करिया पुरौ । करौ सलाह देव जो माँगै मैं कहा तुम तै दुरौ । — सूदन (शब्द०) ।

करिया पुं० (२) †
वि० [हिं० काला] काला । श्याम । उ०— (क) ताके बचन बान सम लागे । करिया मुख करि जाहि अभागे ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) तुलसी दुख दूनो दसा दुहु देखि कियो मुख दारिद को करिया ।— तुलसी (शब्द०) ।

करिया (३)
संज्ञा पुं० [देश०] ईख का एक रोग रस ससुख देता हैं और पौधे को काल कर देता है ।

करिया (४) पुं
संज्ञा पुं० [हिं० काला] काला साँप । काला नाग । उ०— करिया काटे् जिये रे भाई । गुरू काटे मरि जाई ।— कबीर ष०, भा० ३. पृ० १९ ।

करियाई पुं० †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० करिया + ई (प्रत्य०)] १. काला- पन । स्याही । कालिमा । श्यामता । २. कजली । कालिख ।

करीयाद
संज्ञा पुं० [सं० करियादस्] जलहस्ती [को०] ।

करियारी †
संज्ञा स्त्री० [सं० कलिकारी] १. कलियारी विष । २. लगाम । उ०— छठी भवन भुपति रानिन युतक छठी कृत्य सब करही । खंग, कमान, बान करियारि मंछ पुजि सुख भरही ।— रघुराज (शब्द०) ।

करिरत
संज्ञा पुं० [सं०] मैथुन की एक स्थिति [को०] ।

करिल (१) पुं०
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोंपल] कोंपल । नया कल्ला । उ०— ओहि भाँति पलुही सुखवारी । उठी करिल नइ कोंप सँवारी ।— जायसी (शब्द०) ।

करिल (२)
वि० [हिं० काला] दे० 'काला' । उ०— करिल केस बिसहर बिस भरे । लहरैं लेहि कँवल मुख धरे । —जायसी (शब्द०) ।

करिवदन
संज्ञा पुं० [सं०] जिनका मुँह हाथी के ऐसा हो । गणेश ।

करिवर
संज्ञा पुं० [सं०] श्रेष्ट हाथी । उ०— जो सुमिरत सिधि होइ गननायक करिवर बदन । करौ अनुग्रह बुद्धिरासि सुभ गुन सदन ।— मानस, १ ।

करिवाँण पु
संज्ञा स्त्री० [हि० कृपाण] कृपाण । छोटी तलावार । तलवार । उ०—सीगणि जोड़लीयाँ करिवाँण ।— बी० रासो०, पृ० ५९ ।

करिवैजयंती
संज्ञा पुं० [करिबैजयन्ती] हाथी पर स्थापित झंड़ा या निशान [को०] ।

करिशाव, करिशावक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का बच्चा [को०] ।

करिश्मा
संज्ञा पुं० [फ० किरिश्मह] दे० 'करश्मा' । उ०— इस चमत्कार से दुनिया को चैकाया । कुछ शत्त्कि करिश्मा आज हमें दिखलाओ ।—सूत०, पृ० ९४ ।

करिस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० करिस्कन्ध] हस्तिसेन । गजसेना [को०] ।

करिहस्ताचार
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य में देशी भूमिचार के ३५ भेदों में एक जिसमें हम स्थानक रचकर दोनों पैर तिरछे करके जमीन पर रगड़ते हैं ।

करिहाँ †
संज्ञा स्त्री० [पुं० कटिभाग] कमर । कटि । उ०— यों मिचकी मचकौ न हहा लचकै करिहाँ मचकें मिचकी के ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० १३० ।

करिहाँव †
संज्ञा स्त्री० [सं० कटिभाग] १. कमर । कटि । २. कोल्हू का वह गड़ारीदार मध्य भाग जिसमें कनेठा और भुजेला घुमता है ।

करिहा पुं०
संज्ञा स्त्री० [सं० कटि, प्रा० कड़ि] दे० ' करिहाँ' । उ०— कीरहा सजि संग चलै बलकै ।— हम्मीर रा०, पृ० १२९ ।

करिहायँ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० करिहा] कमर । कटि । उ०— कर जमाय करिहायँ नैन नभ ओर लगाए । रत्नाकर, भा० १, पृ० २०५ ।

करींद्र
संज्ञा पुं० [सं० करीन्द्र] १. ऐरावत हाथी । २. बहुत बड़ा या विशाल हाथी ।

करी (१)
संज्ञा पुं० [सं० करिन्] [स्त्री० करिणी] १. हाथी । उ०— दीरघ दरीन बसै केशोदास केसरी ज्यों केसरी को देखे बन करी ज्यों कँपत हैं ।—केशव (शब्द०) ।

करी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० काणड़ > * काण्डिका] छत पाटने का शहतीर । धरन । कड़ी ।

करी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कली] कली । अनखिला फुल । उ०— कहुँ सुगंध कनि कसि निरमरी । भा अलि संग कि अबहीं करी ।— जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० ९४ । २. १५ मात्राओं का एक छँद जिसको चौपैया भी कहते है । उ०— चलत कहों मधुर भूपाल । दखिनी आवत तुम पै हाल ।— सूदन (शब्द०) ।

करी (४)
वि० [सं० कर प्रत्य० का स्त्री०] १. करने या करानेवाली । जैसे, प्रलयंकरी । २. प्राप्त करानेवाली । उत्पन्न करानेवाली । जैसे, अर्थकरी ।

करीन
वि० [अ० करीन] १. साथ रहने या बैठनेवाला । २. सदृश । समान । ३. मिला हुआ ।

करीना (१)
संज्ञा पुं० [देश.] पत्थर गढ़ने का छेनी । ठाँकी ।

करीना (२) पुं०
संज्ञा पुं० [हि० केरना] केराना । मसाल । उ०— इत पर घर, है घरा, बनिज यन आए हाट । कर्म करीना बेंचिकै, उठि करि चालो बाट ।— कबीर (शब्द०) ।

करीना (३)
संज्ञा पुं० [अ० करीन] १. ढंग । तर्ज । तरीका । अंदाज । चाल । २. क्रम । तरबीज । जैसे,— इन सब चीजों के करीने से रख दो । ३. रीति । व्यहार । शऊर । सलीक । जैसे,— दस भले आदमियों करीने से बैठा करो । ४. हुक्के के नीचे का कपड़े लपटे हुआ वह भागह जो फरशी के मुँहड़े पर ठीक बैठ जाता है ।

करीब
क्रि० वि० [अ० कराब] समीप । पास । नजदीक । निकट का । २. लगभग । जैसे— ५००) के करीब तो चंदा आ गया है । यौ.—करीब करीब = प्राय? । लगभग । करीबतर =निकटतम । पासं का ।करीबतरीन = सबसे निकटतम । बिलकुल पास का ।

करीबन
क्रि० वि० [अ० करीबन्] लगभग । प्राय? ।

करीबी
वि० [अ० करीब + फ० ई] (प्रत्य०)] नजदीकी या निकट संबंधी ।

करीबुलमर्ग
वि० [अ० करीबुलमर्ग] मरणासन्न ।

करीम (१)
वि० [अ०] १. कृपालु । दयालु । २. क्षमाशील । ३. उदार ।

करीम (२)
संज्ञा पुं० ईश्वर । उ०— कर्म करीमा लिखि रहा होनहार समरत्थ । — कबीर (शब्द०) । मुहा०—करीम लेना= भालू के नाखून काटना ।— (कलंदर) ।

करीमभार
संज्ञा पुं० [देश. ] एक प्रकार की जंगली घास जो चौपायों को हरी और सूखी खिलाई जाती है ।

करीमुख पु
संज्ञा पुं० [हिं० करी + मुख] हाथी के मुँहवाले, गणेश जी । उ०— साधुन को सुबसी करतार करीमुख के कर सीकर सोहै । — मति० ग्रं०, पृ० ३६२ ।

करीमुननफस
वि० [अ० करीमुन्नफस] पुण्यात्मा । सदाचारी । नेकदिल । भाला । उ०— जों पहचान कोई करीमुननफश । न हो कैद सो अनसरी के कफस । — कबीर मं०, पृ ३८९ ।

करीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस का अँखुआ । बाँस का नया कल्ला । २. करील का पेड़ । उ०— धारयो दलन करीर तुम वहु रितुराजन पाया ।— दीन० ०ग्रं०, पृ० २१९ । ३. घड़ा ।

करीरक
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध । लड़ाई [को०] ।

करीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झींगुर या पतंगा । २. हाथी की सुँड़ का प्रारंभिक भाग । शुंडमुल [को०] ।

करीरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथी की सूँड का प्रारभिक भाग । शुंडमूल [को०] ।

करीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'करीरिका' ।

करीरु, करीरू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झींगुर या पतंगा । २. हाथी का शुंडमूल [को०] ।

करील
संज्ञा पुं० [सं० करीर] ऊसर और कँकरीली भूमि में होनेवाली एक कँटीली झाड़ी । उ०—(क) केतिक ये कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारों ।—रसखान (शब्द०) । (ख) दीष बसंत को दीजै कहा उलही न करील की डारन पाती ।—पद्माकर (शब्द०) । विशेष—इस झाड़ी में पत्तियाँ नहीं होतीं, केवल गहरे हरे रंग की पतली पतली बहुत सी डंठलें फूटती है । राजपुताने और ब्रज में करील बहुत होते हैं । फागुन चैत में इसमें गुलाबी रंग के फूल लगते हैं । फूलों के झड जाने पर गोल गोल फल लगते हैं जिन्हें हेटी या कचड़ा कहते हैं । ये स्वाद में कसैले होते हैं और इनका अचार पड़ता है । करील के हीर की लकड़ी बहुत मजबूत होती है और इससे कई तरह के हलके असबाब बनते हैं । रेशे से रस्सियाँ बटी जाती हैं और जाल बुने जाते हैं । वैद्यक में कचड़ा गर्म, रूखा, पसीना लानेवाला, कफ, श्वास, वात, शूल, सूजन, खुजली और आँव को दूर करनेवाला माना गया है ।

करीश, करीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों में श्रेष्ठ । गजराज ।

करीषंकषा
संज्ञा स्त्री० [करीषङ्कषा] आँधी [को०] ।

करीष
संज्ञा पुं० [सं०] सूखा गोबर जो जंगलीं में मिलता है और जलाने के काम आता है । बनकंड़ा । अरना कंडा । जंगली कंड़ा । बन उपल । उ०—कछु है अब तो कह लाज हिये । कहि कोन विचार हथ्यार लिये । अब जाइ करीष की आगि जरो । गरु बाँधि कै सागर बुढि मरौ ।—केशव (शब्द०) ।

करीषिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी [को०] ।

करीस पु
संज्ञा पुं० [सं० करीश] दे० 'करीश' ।

करीसा पु
वि० [देश०] चूर्ण करनेवाला । कुचलनेवाला । उ०— सुकज दुरग भगवान सरीसा, रिणमल जोधा दुयण करीसा ।—रा० रू०, पृ० ३२९ ।

करुआ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दारचीनी की तरह का एक पेड़ जो दक्षिण के उतरी कनाड़ा नामक स्थान में होता है । विशेष—इसकी सुगंधित छाल और पत्तियों से एक प्रकार का तेल निकाला जाता है जो सिर के दर्द आदि में लगाया जाता है । इसका फल दारचीनी के फल से बड़ा होता है और काली नागकेसर के नाम से विकता है ।

करुआ (२) †पु
वि० [सं० कटुक] [स्त्री० करुई] १. कड़ुआ । उ०—सुनतहि लागत हमैं और इमि ज्यों करुई ककरी ।—सूर (शब्द०) । २. प्रप्रिय । उ०—कहहि झूठफुर बात बनाई । ते प्रिय तुमहिं करुइ मैं माई ।—तुलसा (शब्द०) ।

करुआ (३) †
वि० [हिं० काला] काला । श्यामवर्ण का ।

करूआइ पु
वि० [हिं० करुआ] दे० 'करुआ२' । उ०—बिनु बूझै करुआइ अस लगिहै वचन हमार । जब बूझै तब मीठे हो कहैं कबीर पुकार ।—कबीर सा०, पृ० ३९५ ।

करुआई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० करुआ+ई (प्रत्य०)] कड़ुआपन । उ०—(क) सुर, सुजान, सपुत सुलक्षण गनियत गुन गरुआई । बिनु हरिभजन इनारुन के फल तजत नहीं करुआई । —तुलसी ग्रं०, पृ० ५४६ । (ख) धूमउ तजै करुआई । अगरु प्रसंग सुगंध बसाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

करुआना पु
क्रि० अ० [हि० करुआ से नाम०] १. कड़ुआ लगना । २. अप्रिय लगना । ३. गड़ना । दुखना ।

करुई पु
वि० [सं० कटुक, प्रा० कड़ुआ] कड़वी । कणुई । उ०— पहिले करुई सोइ अब मीठी ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११७ ।

करुखी
कि० वि० [हिं० कनखी] कनखी । तिरछी नजर । उ०— सूरदास प्रभु त्रिय मिली, नैन प्राण सुख भयो चितए करुखियनि अनकनि दिए—सूर (शब्द०) ।

करुण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मनोविकार या दुःख जो दुसरों के दुःएख के ज्ञान से उत्पन्न होता है और दूसरे के दुःख को दूर करने की प्रेरणा करता है । दया । २. वह दुःख जो अपने प्रिय बंधु या इष्ट मित्र आदि के वियोग से उत्पन्न होता है । शोक । विशेष—यह काव्य के नव रसों में से है । इसका आलंबन बंधु या इष्ट मित्र का वियोग, उद्दीपन मृतक का० दाह या वियुक्त पुरुष की किसी वस्तु का दर्शन या उसका दर्शन, श्रवण आदि तथा अनुभाव भाग्य की निंदा, ठंढी सांस निकलना, रोना पीटना आदि है । करुण रस के अधिष्ठाता वरुण माने गए हैं । ३. एक बुद्ध का नाम । ४. परमेश्वर । ५. कालिका पुराण के अनुसार एक तीर्थ का नाम । ६. करना नीबू का पेड़ ।

करुण (२)
वि० करुणायुक्त । दयार्द्र ।

करुणामल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मल्लिका [को०] ।

करुणविप्रलंभ
संज्ञा पुं० [सं करुणविप्रलम्भ] वियोग शृंगार [को०] ।

करुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह मनोविकार या दुःख जो दूसरों के दुःख के ज्ञान से उत्पन्न होता है और जो दूसरों के दुःख को दूर करने की प्रेरण करता है । दया । रहम । तर्स । यौ.—करुणाकर । करूणानिधि । करुणासिंधु । करुणामय । करुणायतन । करुणार्द्र, इत्यादि । २. वह दुःख जो अपने प्रिय बंधु, इष्ट मित्रादि के वियोग से उत्पन्न होता है । शोक । ३. करना का पेड़ । उ०—सिय को कछ सोध कहौ करुणामय सो करुणा करुणा करिक ।—राम चं० पृ० ७९ ।

करूणाकर
वि० [सं०] करुणा करनेवाला । दयालु । ईश्वर ।

करुणागार
वि० [सं०] करुणा से औतप्रोत । करुणामय । उ०— कहाँ वह करुणा करुणागार, विषयरस में रत मेरे प्राण । पीठ पर लदा मोह का भार, कहाँ वह दया, करे जो त्राणा ।— मधुज्वाल, पृ० ५५ ।

करुणादृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दयादूष्टि । कृपा । २. नृत्य की छत्तीस दुष्टियों में से एक जिसमें ऊपर की पलक दबाकर अश्रुपात सहित नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि लाते है ।

करुणाद्र पु
वि० [सं० करुणार्द्र] करुणा से आद्रे या द्रवित होनेवाला ।

करुणानिधान
वि० [सं०] जिसका हृदय करुणा से भरा हो । दयालु ।

करुणानिधि
वि० [सं०] जिसका हृदय करुणा से भरा हो । दयालु ।

करुणापर
वि० [सं०] करुणाकर । दयालु ।

करुणामय
वि० [सं०] जिसमें बहुत करुणा हो । दयावान । उ०— वह शुभ मन सा कर करुणामय अरु शुभ तरंगिनी शोभ सनी ।—केशव (शब्द०) ।

करुणार्द्र
वि० [सं०] करुणा से पीड़ित । दुखी । द्रवित । उ०— राजा हरिश्चंद्र को श्मशान में रानी शैव्या से कफन माँगते हुए, राम जानकी को वनगमन के लिये निकलते हुए पढ़कर ही लोग क्या करुणार्द्र नहीं ही जाते ?—चिंतामणि, भा० २, पृ० ४४ ।

करुणावान
वि० [सं० करुणावान्] करुणामय । दयालु । उ०—जब तुम मुझे गंभीर गोद में लेते हो, हे करुणावान । मेरी छाया भी तब मेरा पा सकती है नहीं प्रमाण ।—वीणा, पृ० २५ ।

करुणासिक्त
वि० [सं०] करुणा से द्रवित । करुणापूर्णा । उ०— नरेंद्र की 'युवक कलर्क' पर कविता भी करुणासिक्त है ।— हिं० आँ० प्र०, पृ० २३३ ।

करुणी
वि० [सं० करुणिन्] १.दयनीय । दया का पात्र । २. दु?खी । पीड़ित [को०] ।

करुना पु
संज्ञा पुं० [सं० करुणा] दे० 'करुणा' ।

करुनाकार पु
वि० [सं० करुणाकर] दे० 'करुणाकर' । उ०—काकुस्थ करुनाकार । गुन निद्धि सुभ्भट भार ।—पृ रा०, २५ । ३६५ ।

करुनानिधि पु
वि० [सं० करुणानिधि] दे० 'करुणानिधि' । उ०— देखि प्रीति सुनि बचन अमोले । एवमस्तु करुनानिधि बोले ।— मानस०, १ ।१५० ।

करुनामय पु
वि० [सं० करुणामय] दे० 'करुणामय' । उ०—ऐसेहिं मोहिं करौ करुनामय, सूर स्याम ज्यों सुत हित माई ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २४९ ।

करुर पु
[सं० कटु] कड़ुआ । तीखा ।

करुल
संज्ञा पुं० [दोश०] एक प्रकार की बड़ी चिड़िया । विशेष—यह जल के किनारे रहती है और घोंघे आदि फोड़कर खाया करती है । इसके डैने काले छाती सफेद होती है ।इसकी चोंच बहुत लंबी और नुकीली होती है । लोग इसका शिकार भी करते हैं ।

करुवा (१) †
संज्ञा पुं० [हि० करवा] दे० 'करवा' ।

करुवा (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० कड़वा] दे० 'कड़ुआ' । उ०—सुंदर सुगंधमय मंजरी मधुर तजि करुवे कुसुम कहो वाके मन भावै क्यों ।—मोहन०, पृ० ४२ ।

करुवार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कलवारी] नाव खेने का एक प्रकार का डाँड़ । विशेष—इस डाँड़ के पत्ते में थामने का बाँस और डाँड़ों से लंबा होता है । छोटी नावों में, जिनमें पतवार नहीं होती, वह माँझी इसे लेकर पीछे की तरफ बैठता है जो अच्छा खेना जानता हो, क्योंकि नाव का सीधा ले जाना और घुमाना सब कूछ उसी के हाथ में रहता है ।

करुवार (२)
संज्ञा पुं० [देश०] लोहे का बंद जिसके दोनों नुकीले छोर मुड़े होते हैं और जो दो लकड़ियों या पत्थरों के जोद्ध को दृढ़ रखने के लिये जड़ा जाता है ।

करू पु
वि० [हिं० कड़ू या कड़ुआ] दे० 'कड़ुआ' ।

करूबेल पु
संज्ञा स्त्री० [सं०कारुवेल] इंद्रायणा की बेल या लता । उ०— कीन्हेसि ऊख मीठ रस भरी । कीन्हेसि करूबेल बहु ।— जायसी ग्रं०, पृ० २ ।

करूर (१) †
वि० [हि० कड़ुआ] दे० 'कड़ुआ' ।

करूर (२)पु
वि० [सं० क्रूर] १. कठोर । कड़ा । उ०—चंदेल बनाफर मुख्य सो सूर । वघेल सुगोहिल लोह करूर ।—प० रा०, पृ० ४१ । २. क्रूर । निर्दय । उ०—श्वास श्वास छीजत अवश्य दुष्कर काल करूर । रामा यातैं ऊबरै समरथ साधु हजूर ।— राम० धर्म०,पृ० २३८ ।

करूला †,
संज्ञा पुं० [हिं० कड़ा+ऊला (प्रत्य०)] १. हाथ में पहनने का कड़ा । २. एक प्रकार का मध्यम सोना जिसकी कड़े के आकार की कामी होती है । इसमें तोला पीछे चार रत्ती चाँदी होती है, इसी से यह कुछ सस्ता बिकता है । ३. मुँह में भरे हुए पानी या और किसी पनीली वस्तु को जोर से मुँह से निकालना । कुल्ला ।

करूष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम । उ०—पूरब मलय करूष देश द्वै देव किए निरमाना । पूरन रहे धान्य धन जन ते सरित तड़ागहु नाना ।—रघुराज (शब्द०) । विशेष—रामायण के अनुसार यह गंगा के किनारे गया था और राम के समय में घोर बन था और ताड़का नाम की राक्षसी रहती थी । महाभारत के समय में यह देश बस गया था और इसका राजा दंतवक्र था । वायुपुराण और मत्स्यपुरा में करूष को विध्य पर्वत पर बतलाया गया है । इससे विदित होता है कि वर्तमान शाहाबाद का जिला ही प्राचीन करूष देश है ।

करेंसी
वि० [अं०] हाथों हाथ चलनेवाला । लेनदेन के व्यवहार में धन की तरह काम आनेवाला । जैसे,—करेंसी नोट ।

करेज †
संज्ञा पुं० [हिं० करेजा] दे० 'करेजा' । उ०—औटि करेज पानि भा लोहू ।—चित्रा० पृ०, ३६ ।

करेजवा †
संज्ञा पुं० [हिं० करेजा] कलेजा । उ०—कवन रौग दुहुँ छतियाँ उपजेउ आय । दुखि दुखि उठै करेजवा लगि जनु जाय ।—रहीम (शब्द०) । विशेष—पूर्वी क्षेत्रों में 'या', 'वा' प्रत्यय लगाकार विशिष्ट निर्देशार्थ व्यक्त किया जाता है ।

करेजा पु †
संज्ञा पुं० [सं०यकृत अथवा हिं० कलेजा] कलेजा । हृदय । उ०—(क) कीजो पार हरचार करेजे । गंधक देख आमहिं जिउ दीजे ।—जायसी (शब्द०) । (ख) मानो गिन्यो हेमगिरि शृंग पै सुकेलि करि कढ़ि कै कालंक कलानिधि के करेजे तै ।—पद्माकर (शब्द०) ।

करेजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० करेजा] पशुऔं के कलेजे का मांस जो खाने में अच्छा समझा जाता है । यौ०—पत्थर की करेजी=पत्थर की खानों में चट्टानों की तह में से निकली हुई पपड़ी की सी वस्तु जो खाने में सोंधी लगती है ।

करेणु
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी । २. कर्णिकार वृक्ष । कनेर ।

करेणुक
संज्ञा पुं० [सं०] करेणु नामक पौधे का विषैला फल [को०] ।

करेणुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हथिनी । मादा । हाथी ।

करेणुभू
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिशास्त्र के प्रवर्तक पालकाप्य मुनि [को०] ।

करेणुवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] चेदिराज की कन्या का नाम जो नकुल को ब्याही गई थी ।

करेणुसुत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'करेणुभू' [को०] ।

करेणु
संज्ञा स्त्री० [सं०] हथिनी [को०] ।

करेता
संज्ञा पुं० [देश०] बरियारा । बला । खिरैंटी ।

करेनर
संज्ञा पुं० [सं०] धूप । लोहबान । [को०] ।

करेनुका पु
संज्ञा स्त्री० [सं०करेणुका] दे० 'करेणुका' । उ०—केसोदास । प्रबल करेनुका गमन हर मुकुत सुहंसक सबद सुखदाई है ।—केशव० ग्रं०, भा०१, पृ० १३७ ।

करेप
संज्ञा स्त्री० [हिं० करेब] दे० 'करेब' । उ०—वे करेप की बनी नीकरें, जूतों पर अजगर की खाल । कमरों में शेरों की खालें औ अरना सिर सजी दिवाल ।—बंदन, पृ० १४४ ।

करेब
संज्ञा स्त्री० [अं० क्रेप] एक करारा झीना रेशमी कपड़ा । उ०—पंचरंग उपट्यौ दुपटो करेक कौ त्यौं इत, बेल कारचोबी जामैं सोहति मोहति चित ।—रत्नाकर, भा० १, पृ० ९ ।

करेमुआ
संज्ञा पुं० [हिं० करेमू] दे० 'करेमू' । उ०—तालों में से भी करेमुआ और....... । प्रेमघन, भा० २, पृ० १८ ।

करेमू
संज्ञा पुं० [सं० कलम्बु] एक घास जो पानी में होती है । विशेष—यह पानी के ऊपर दूर तक फैलती है । इसके डंठल पतलै और पोले होते हैं, जिनकी गाँठों पर से दो लबी लंबी पत्तियाँ निकलती हैं । लड़के डंठलों को लेकर बाजा बजाते हैं । इस घास का लोग साग बनाकर खाते हैं । करेमू अफीम का विष उतारने की दवा है । जितनी अफीम खाई गई हो, उतना करेम का रस पिला देने से विष शांत हो जाता है ।

करेर पु †
वि० [हि० कड़ा,पु करा+एर (प्रत्य०)] कड़ा । कठिन । कठोर । उ०—काया नगर सोहावत जहँ बसें आतम राम । मन पवन तहँ छाइब कठिन करेरो काम ।—गुलाल०, पृ० १३४ ।

करेरा पु
[हि०] दे० 'करेर' ।

करेरुवा
संज्ञा पुं० [देश०] एक कँटीली बेल । विशेष—इसके पत्ते नीबू के आकार के होते हैं । चैत बैषाख में इसमें हलके करौंदिया रंग के फूल लगते हैं जिनकी केसर बहुत लंबी होती है फूलों के झड़ने पर इसमें परवल की तरह फल लगत हैं जिनमें बीज ही बीज भरे रहते हैं । यह खाने में बहुत कड़ुआ होता है, यहाँ तक कि इसके पत्ते से भी बड़ी कडुई गंध निकलती है । फल की तरकारी बनाई जाती है । लोगों का विश्वास है कि आर्द्रा नक्षत्र क पहले दिन इसे खा लेने से साल भर फोड़ा फुंसी होने का डर नहीं रहता । करेरुवा के पत्ते पीसकर घाव पर भी रखते हैं ।

करेल
संज्ञा पुं० [हिं० करेला] १. एक प्रकार का बड़ा मुगदर जो दोनो हाथों से घुमाया जाता है । इसका वजन दो मुगदरों के बराबर होता है । इसका सिरा गालाई लिये हुए होता है; इससे यह जमीन पर नहीं खड़ा रह सकता, दीवार इत्यादि से अड़ा कर रखा जाता है । २. करेल घुमाने की कसरत । क्रि० प्र०—करना ।

करेलनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] लकड़ी की वह फरुई जिससे घास का अटाला लगाते हैं ।

करेला
संज्ञा पुं० [सं० कारवेल्ल] १. एक छोटी बेल । उ०—भाब की भाजी सील की सेमा बने कराल करेला जी ।—कबीर शा०, पृ० ११ । विशेष—इसकी पत्तियाँ पाँच नुकीली फाँकों में कटी होती हैं । इसमें लंबे लबे गुल्ली के आकार के फल लगते हैं जिनके छिलके पर उभड़े हुए लंबे लंबे और छोटे बड़े दाने होते हैं । इन फलों की तरकारी बनती है । करेला दो प्रकार का होता है । एक बैसाखी जो फागुन में क्यारियों में बोया जात है, जमीन पर फैलता है और तीन चार महीने रहता है । इसका फल कुछ पीला होता है, इसी से कलौजी बनाने के काम में भी आता है । दूसरा बरसाती जो बरसात में बोया जाता है, झाड़पर चढ़ता है और सालों फूलता फलता है । इसका फल कुछ कुछ पतला और ठोस होता है । कहीं कहीं जंगली करेला भी मिलता है जिसके फल बहुत छोटे और कड़ुए होते हैं । इसे करेली कहते हैं । २. माला या हुमेल की लंबी गुरिया जो बड़े दानों या कोंढ़ेदार रुपयों के बीच में लगाई जाती है । हर्रे । ३. एक प्रकार की आतशबाजी ।

करेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० करेला] जंगली करेला जिसके फल बहुत छोटे छोटे और कड़ुए होते हैं ।

करेवर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'करेनर' ।

करैत
संज्ञा पुं० [हिं० कराईत] दे० 'कराइत' ।

करैया पु †
वि० [हिं० करना+ऐया (प्रत्य०)] कर्ता । करनेवाला । कार्य करनेवाला । उ०—क्है कोई लाखों, करैया कोई एक है ।—कबीर श०, भा० १, पृ० १० ।

करल (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० कारा, काला] १. एक प्रकार की काली मिट्टी जो प्रायः तालों के किनारे मिलती है । विशेष—यह बहुत कड़ी होती है, पर पानी पड़ने पर गलकर लसीली हो जाती है । इससे स्त्रियाँ सिर साफ करती हैं । कुम्हार भी इसे काम में लाते हैं । २. वह भूमि जहाँ की मिट्टी करैल या काली हो ।

करैल (२)
संज्ञा पुं० [सं० करीर] १. बाँस का नरम कल्ला या अँखुआ । २. डोम ।

करैला
संज्ञा पुं० [हिं० करेला] दे० 'करेला' ।

करैली
संज्ञा स्त्री० [हिं० करेली] दे० 'करेली' ।

करैली मिट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० करैल+मिट्टी] दे० 'करैल' ।

करोंट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० करवट] दे० 'करवट' ।

करो पु
प्रत्य० [सं० कृत पु †कर] का । उ०—तान्हि करो पुत्र युवराजन्हि माँझ पवित्र..... ।—कीर्ति०, पृ० १२ ।

करोट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० करोटी] खोपड़े की हड्डी । खोपड़ा ।

करोट (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० करवट] दे० 'करवट' । उ०—जागत जाति राति सब काटी । लेत करोट सेज की पाटी ।—शकुंतला पृ० १०८ ।

करोटन
संज्ञा पुं० [अं० क्रोटन] १. वनस्पति की एक जाति जिसके अंतर्गत अनेक पेड़ और पौधे होते हैं । विशेष—इस जाति के सब पौधों में मजरी लगती है और फलों में तीन या छह बीज निकलते हैं । इस जाति के कई पेड़ दवा के काम में भी आते हैं और दस्तावर, होते हैं । रेंड़ी और जमाल्गोटा इसी जाति के पेड़ हैं । २. एक प्रकार के पौधे जो अपने रग बिरंगे और विलक्षण आकार के पत्तों के लिये लगाए जाते हैं ।

करीटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] खोपड़ी ।

करोटी (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० करवट] दे० 'करवट' । उ०—एक दिना हरि लई करोटी सुनि हरषीं नँदरानी । विप्र बुलाइ स्वस्तिवाचन करि रोहिणि नेन सिरानी ।—सूर (शब्द०) ।

करोड़ी
वि० [सं० कोटि] सौ लाख की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है—१००००००० । मुहा०—करोड़ की एक=बहुत सी बातों का तत्व । यथार्थ तत्व । बड़े अनुभव की बात । जैसे,—इस समय तुमने करेड़ की एक कही ।

करोड़खुख
वि० [हिं० करोड़+खुख] झूठमूठ लाखों करोड़ों की बात हाँकनेवाला । झूठा । गप्पी ।

करोड़पति
वि० [हिं० करोड़+सं० पति] करो़ड़ों रुपए का स्वामी । वह जिसके पास करोड़ों रुपए हों । बहुक बड़ा धनी ।

करोड़ी
संज्ञा पुं० [हिं० करोड़+ई (प्रत्य०)] १. रोकड़िया । तहवीलदार । २. मुसलमानी राज्य का एक अफसर जिसके जिम्मे कुछ तहसील रहती थी । ३. करोड़पति । अत्यंत धनी ।

करोत
संज्ञा पुं० [सं० करपत्र, प्रा० *करवत] लकड़ी चीरने का औजार ।—आरा । उ०—जात न उठि लपटात सुठि, कठिन प्रेम की बात । सूर उदोत करोत सम, चीरि कियो बिबि गात । नंद० ग्रं०, पृ० १४३ ।

करोदना पु
क्रि० स० [सं० कर्त्तन, हिं० कुरेदना] खरोचना । खूरचना । करोना । उ०—मिहिर नजर सों भावते राखु याद भरि माद । अनखन खनि अनखन अरे मत मो मनहिं करोद ।—रसनिधि (शब्द०) ।

करीध पु †
संज्ञा पुं० [सं० क्रोध] दे० 'कोध' । उ०—जीतै पहिल अहार की दूजे और करोध । बहु मनुष्षों क संग तजि छाँड़ै प्रीति विरोध ।—तेज०, पृ० १५६ ।

करोना पु †
क्रि० स० [सं० क्षुरण=खरोंचना] १. खुरचना । खसोटना । उ०—लाल निठुर ह्वै बैठि रहे । प्यारी हाहा करति न मानत पुनि पुनि चरन गहे । नहिं बोलत नहिं चितवत मुख तन धरनी नखन करोवत ।—सूर (शब्द०) । २. पके हुए दूध या दही का अंश जो पेंदी में जमा रहता है और जिसे खुरचकर निकालते हैं । ३. लोहे या पीतल का बना खुर्पी के आकार का औजार जिससे खुरचते हैं ।

करोनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० करोना] १. पके हए दूध या दही का वह अंश जो बरतन में चिपका रह जाता है और खुरचने से निकलता है । २. खुरचन नाम की मिठाई । ३. लोहे या पीतल का बना हुआ खुर्पी के आकार का एक औजार जिससे दूध- बसौंधी आदि कड़ाही में से खुरची जाती है ।

करोर पु †
वि० [हिं० करोड़] दे० 'करोड़' । उ०—करुना कोर किसोर की रोर हरन बरजोर । अष्ट सिद्धि नव निद्धि जुत करत समृद्ध करोर ।—स० सप्तक, पृ० ३४४ ।

करोला (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं० करवा] करवा । गड़आ । उ०—(क) लसत अमोले कनक करोले । भरे सुरभि जल धरे अतोले । रघुराज (शब्द०) । (ख) थार कटोरे कनक करोले । चिमचा प्याले परम अमोले ।—रघुराज (शब्द०) ।

करोला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] भालू । रीछ ।—(हिं०) ।

करौंछा पु †
वि० [हिं० कारा, काला+औंछा (प्रत्य०)] [स्त्री० करौछी] काला । श्याम । उ०—केसर सों उबटी अन्हवाइ चुनी चुनरी चुटकीन सों कोंछी । बेनी जु माँग भरे मुकता बड़ी बेनी सुगंध फुलेल तिलोंछी । औचक आए वे रोम उठे लखि मूरति नदलला की करोंछी । ओछिल है कह्यो आली री तैं हहा देह गुलाल की पोती सों पोंछी ।—बेनी (शब्द०) ।

करौंजी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कालाजाजी] कलौजी । मँगरेला । उ०— काथ करौंजी कारी जीरी । काइफरो कुचिला कनकीरी ।— सूदन (शाब्द०) ।

करौंट पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० करवट] दे० 'करवट' ।

करौंदा
संज्ञा पुं० [सं० करमर्द, प्रा० करमद्द, कुरवंद] १. एक कटीला झाड़ । विशेष—इसकी पत्तियाँ नीबू की तरह की, पर छोटी छोटी होती हैं । इसमें जूही की तरह के सफेद फूल लगते हैं—जिनमें भीनी भीनी गध होती है । यह बरसात में फलता है । इसके फूल छोटे बैर के बराबर बहुत सुंदर होते हैं जिसका कुछ भाग खूब सफेद और कुछ हलका और गहरा गुलाबी होता है । ये फल खट्टे होते हैं तथा अचार और चटनी के काम में आते हैं । पंजाब में करौंदे के पेड़ से लाह भी निकलती है फल रगों में भी पड़ता है । डालियों को छीलने से एक प्रकार का लासा निकलता है । कच्चा फल मलरोधक होता है । इसकी जड़ को कपूर और नीबू में फेंटकर खाज पर लगाते हैं जिससे खुजली कम होती है और मक्खियाँ नहीं बैठतीं । इसकी लकड़ी ईंधन के काम में आती है, पर दक्षिण में इसके कंधे और कलछुले भी बनते हैं । करौंदे की झाड़ी टट्टी के लिये भी लगाई जाती है । करौंदा प्रायः सब जगह होता है । पर्या०—करमर्द्द । कराम्ल । करांबुक । बोल । जातिपुष्प । २. एक छोटी कँटीली झाड़ी । विशेष—यह जंगलों में होती है जिसमें मटर के बराबर छोटे फल लगते हैं, जो जाड़े के देनों में पककर खूब काले हो जाते हैं । पकने पर इन फलों का स्वाद मीठा होता है । ३. कान के पास की गिल्टी ।

करौंदिया (१)
वि० [हिं० करौंदा+इया(प्रत्य०)] १. करौंदे से संबद्ध । २. करौंदे के रंग का । करौंदे के समान हलकी स्याही लिए हुए खुलते लाल रंग का । उ०—करौंदिया और सुआपंखी धानी रंग के वस्त्रीं । प्रेमघन०, भा० २, पृ० १० ।

करौंदिया (२)
संज्ञा पुं० एक रंग जो हल्की स्याही के लिए लाल होता है । विशेष—गुलाबीं से इसमें थोड़ा ही अंतर जान पडता है । रँगरेज लोग जिन वस्तुऔं से अब्बासी रंग बनाते हैं, उन्हीं से इसे भी बनाते हैं; अर्थात् ४ छटाँक शहाब के फूल, १/२ छटाँक आम की खटाई और ८—९ माशे नील ।

करौंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० करौंदा का स्त्री०] दे० 'करौंदिया' । उ०— उत्फुल्ल करौंदी कुंज वायु रह रहकर, करती थी सबको पुलक- पूर्ण मह मह कर ।—साकेत, पृ० २२७ ।

करौंत (१)
संज्ञा पुं० [सं० करपत्र] [स्त्री० करौती] लकड़ी चीरने का औजार । आरा ।

करौंत (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० करना] रखेली ।

करौता (१)
संज्ञा पुं० [हिं० करौत] दे० 'करौत' ।

करौता (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कारा, काला] करैल मिट्टी ।

करौता (३)
संज्ञा पुं० [हिं० करवा] काँच का बड़ा बरतन । कराबा । बड़ी शीशी ।

करौती (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० करौता] लकड़ी चीरने का औजार । आरी ।

करौती (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० करवा] १. शीशे का छोटा बरतन । कराबा । उ०—(क) जाही सों लगत नैन, ताही खगत बैन, नख सिख लौं सब गात ग्रसति । जाके रंग राचे हरि सोइ है अंतर संग, काँच की करौती कै जल ज्यौं लसति ।—सूर (शब्द०) । (ख) वे अति चतुर प्रबीन कहा कहौं जिन पठई तौ को बहरावन । सूरदास प्रभु जिय की होनी की जानति काँच करौती में जल जैसे ऐसे तू लागी प्रगटावन ।—सूर (शब्द०) । २. काँच की भट्ठी ।

करौना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० करोना=खुरचना] कसेरों की वह कलम जिससे वे बरतनों पर नक्काशी करते हैं । नक्काशी खोदने की कलम या छेनी ।

करौना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० करमर्द, पुकरवंद] दे० 'करौंदा' ।

करौला पु
संज्ञा पुं० [हिं० रौला+शोर] हँकवा करनेवाला । शिकारी । उ० एक समै सजिकै मब सैन सिकार को आलमगीर सिधाए । 'आवत है सरजा सँभरौ' एक और तें लोगन बोलि जनाए । भूषन भी भ्रम औरँग को सिव भोंसला भूप की धाक धकाए । धाय कै सिंह' कह्यौ समुझाय करौलनि आय अचेत उठाए ।— भूषण ग्रं० पृ० ६५ ।

करौली
संज्ञा स्त्री० [हिं० राजस्थान का एक नगर] १. राजस्थान का एक शहर । २. एक प्रकार की सीधी छुरी जो भोंकने के काम में आती है । इसमें मूँठ लगी रहती है । यह करौली शहर में अच्छी बनने से उसी के नाम से ख्यात है ।

कर्कंधु
संज्ञा पुं० [सं० कर्कन्घु] दे० 'कर्कंधू' ।

कर्कंधू
संज्ञा पु० [स० कर्कन्धू] १. बेर का पेड़ या फल । २. अंधा कुआँ । सूखा कुआँ (को०) ।

कर्क (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. केकड़ा । २. बारह राशियों में से चौथी राशि । उ०—अब मैं कहों तंद्र की धारा । कर्क संक्रांति छेमास विचारा ।—कबीर सा०, पृ० ८७९ । विशेष—इसमें पुनर्वसु का अंतिम चरण तथा पुष्य और अश्लेषा नक्षत्र हैं । ३६० अंक के १२ विभाग करने से एक एक राशि मोटे हिसाब से ३० की मानी जाती है । कर्क पृष्टोदय राशि है । ३. काकड़ासांगी । ४. अग्नि । ५. दर्पण । ६. घड़ा । ७. कात्या— यन और सूत्र के एक भाष्यकार । ८. सफेद घोड़ा (को०) । ९. एक प्रकार का रत्न (को०) ।

कर्क (२)
वि० १. सफेद । सुंदर । अच्छा [को०] ।

कर्क (३)
वि० [प्रा० कक्कर] कठोर । कठिन । परुष । उ०—फटै बीर बीरं सुबीरं सुघट्ट' । मनो कर्क करवत्त विहरंत कढढ'— पृ० रा०, २५ ।४४९ ।

कर्कचिर्भटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ककड़ी [को०] ।

कर्कट
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्रीं० कर्कटी, कर्कटी] १ कैकडा । २. कर्क राशि । ३. एक प्रकार का सारस । करकरा । करकरिया । ४. लौकी । घीआ । ५. कमल की मोटी जड़ । भसीड़ । तराज की डंडी का मुड़ा हुआ सिरा जिसमें पलड़े की रस्सी बंधी रहती है । ७. सँड़सा । ८. वुत्त की त्रिज्या । ९. नृत्य में तेरह प्रकार के हस्तकों में से एक । विशेष—दोनों हाथ की उँगलियाँ बाहर भीतर मिलाकर कड़काते हैं । यह क्रिया आलस्य या शंख बजाने का भाव दिखाने के लिये की जाती है ।

कर्कटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. केकड़ा । कर्क राशि । ३. वृत्त । ४. एक प्रकार की ईख । २. अँकुशी । ६. हूक [को०] ।

कर्कटकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मादा केकड़ा [को०] ।

कर्कटशृंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० ककटशृंङ्गी] काकड़ा सींगी ।

कर्कटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता जिसमें करैले की तरह के छोटे छोटे फल लगते हैं, जिनकी तरकारी बनती है । ककोड़ा । खेखसा ।

ककटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कछुई । २. ककड़ी । ३. सेमल का फल ४. साँप । ५. घड़ा । ६. बँदाल की लता । ७. तरोई । ८. काकड़ासींगी ।

कर्कटु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सारस [को०] ।

कर्कर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंकड़ । २. कुरंज पत्थर जिसके चुर्ण की सान बनती है । ३. दर्पण । ४. नीलम का के भेद । ५. हथौड़ा (को०) । ६. खोपड़ी का टुकड़ा (को०) । ७. चमड़े की पट्टी (को०) ।

कर्कर (२)
वि० १. कड़ा । करारा । २. खुरखुरा ।

कर्करांग
संज्ञा पुं० [सं० कर्कराङ्ग] खंजनपक्षी [को०] ।

कर्करांधुक
संज्ञा पुं० [सं० कर्करान्धुक] अंधकुप । अंधा कुआँ । सुखा हुआ कुआँ [को०] ।

कर्कराटु
संज्ञा पुं० [सं०] तिरछी चितवन । कटाक्ष [को०] ।

कर्कराल
संज्ञा पुं० [सं०] बालों का जुड़ा [को०] ।

कर्करी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पानी का एक घड़ा, जिसके पेंदे में छेद हो । २. एक प्रकार की बाँसुरी । ३. एक प्रकार का पौधा [को०] ।

कर्करेटु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सारस । करकरा । करकटिया ।

कर्कश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमीले का पेड़ । २. ऊख । ईख । ३. खंग । तलवार ।

कर्कश (२)
वि० [संज्ञा कर्कशता, कर्कशत्व, कार्कश्य] १. कोठर । कड़ा । यौ०—ककश स्वर=कड़ा आवाज । कानों को अच्छा न लगनेवाला शब्द । २. खुरखुरा । काँटेदार । ३. तेज । तीव्र । प्रकंड । ४. अधिक । ५. कठोरहृदय । क्रुर । ६. दुराचारी (को०) । ७. बलिष्ठ । हट्टा कट्टा (को०) । ८. दुशचरित्र (को०) ।

कर्कशता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कठोरता । कड़ापन । २. खुरखुरापन ।

कर्कशत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. कड़ापन । २. खुरखुरापन ।

कर्कशा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृश्चिचकाली का पौधा ।

कर्कशा (२)
वि० स्त्री० झगड़ालु । झंझटी । झगड़ा करनेवाली । लड़ाकी । कटुभाषिणी ।

कर्कशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली बेर [को०] ।

कर्कशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कर्कशिका' ।

कर्कस पु
वि० [सं० कर्कश] कठोर । असह्य । उ०—कर्कश पवन गुहा ते ऐसी । आवत अजगर मुख ते जैसो ।—नंद०, ग्रं०, पृ० २६१ ।

कर्काटकशृंगी
संज्ञा पुं० [सं० कर्काटकश्रृह्गिन्] वह असंहत व्युह जिसमें तीन भाग अर्धचंद्राकार असंहत हो ।

कर्कारु
संज्ञा पुं० [सं०] भुरा कुम्हड़ा । रकसवा कुम्हड़ा । पेठा ।

कर्कारुक
संज्ञा पुं० [सं०] तरबुज । हिनुबाना ।

कर्कि
संज्ञा पुं० [सं०] कर्क राशि ।

कर्केतन
संज्ञा पुं० [सं०] एक रत्न या बहुमुल्य पत्थर । जमुर्रद । विशेष—कर्कतन या जमुर्रद हरे या नीले रंग का होता है । अच्छा जमुर्रद दुब के रंग का और बिना सुत का स्वच्छ होता है । जमुर्रद से बिल्लौर कट जाता है । जमुर्रद को काटने के लिये नीलम और मानिक की आवश्यकता होती है । इसकी घिसने से इसमें से एक प्रकार की चमक निकलती है । दक्षिण भारत में कोयमबटुर के पास इसकी खान है । यह और जगह भी नीलम और पन्ने के साथ मिलता है । भारतवर्ष के अतिरिक्त सिंहल, उत्तार अमेरिका, मिस्त्र, रुप (युराल पर्वत), ब्राजिल आदि स्थानों में भी यह होता है । जिस कर्कतन में सुत होना है अर्थात् जो बहुत स्वच्छ नहीं होता और मटमैले रंग का होता है, उसे लसुनिया कहते हैं ।

कर्केतर
संज्ञा पुं० [सं०] कर्कतन या रत्न । जमुर्रद ।

कर्कोट, कर्कोटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेल का पेड़ । २. खेखसा । ककोड़ा । ३. एक राजा का नाम । ४. काशमीर का एक राजवंश । ५. पुराण के अनुसार आठ नागों में से एक नाग का नाम । ६. ईख ।

कर्कोटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बनतोरई । २. खेखसी । ककोड़ा । ३. देवदाली । बंदाल ।

कर्चरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कचौड़ी । बेढ़ई । बेढ़वी ।

कर्ची
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया ।

कर्चूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । सुवर्ण । २. कचुर । नरकचुर ।

कर्चूरक
संज्ञा पुं० [सं०] हल्दी [को०] ।

कर्ज
संज्ञा पुं० [अ० कर्ज] ऋण । उधार । क्रि० प्र०—अदा करना ।—करना ।—काढ़ना ।—खाना ।— चुकना ।—चुकना ।—देना ।—पटना ।—पटाना ।— लेना ।—होना । मुहा०—कर्ज उतारना=कर्ज देना या चुकाना । उधार बेबाक करना । कर्ड उठाना=ऋण लेना । ऋण लेना । ऋण का बोझ ऊपर लेना । कर्ज खाना=(१) कर्ज लेना । (२) उपकृत होना । दबायल होना । वश में होना । जैसे,—क्या हमने तुम्हारा कर्ज खाया है, जो आँख दिखाते हो? कर्ज खाए बैठना=दे० 'उधार खाए बैठना' । यौ०—कर्जदार ।

कर्जखाह
संज्ञा पुं० [अ० कर्ज+फा० ख्वाह=चाहनेवाला] वह जो किसी से कर्ज लेना चाहता हो । ऋण लेने की इच्छा रखनेवाला ।

कर्जदार
वि० [अ० कर्ज+ फा० दार] उधार लेनेवाला । ऋणी ।

कर्जा †
संज्ञा पुं० [अ० कर्ज] दे० 'कर्ज' ।

कर्जी †
वि० [अ० कर्ज+ हिं० ई (प्रत्य०)] ऋणी । कर्जदार । ऋणग्रस्त ।

कर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कान । श्रवणोंद्रिय । २. कुंती का सब सेट बड़ा पुत्र । विशेष—यह कन्याकाल में सुर्य से उत्पन्न हुआ था, इसी से कानीन भी कहलाता था । पर्या.—राधेय । वसुषेण अर्कनंदन । घटोत्कचाँतक । चांपेश । सुतपुत्र । ३. सुवर्णालि वृक्ष । ४. नाव की पतवार । ५. समकोण त्रिभुज में समकोण के सामने के कोणों को मिलानेवाली रेखा । ६. किसी चतुर्भुज मेम आमने सामने के कोणों को मिलानेवाली रेखा । ७. पिंगल में डगण अर्थात् चार मात्रावाले गणों की संज्ञा । जैसे,—/?/—माधो । ८. छप्पय के चौथे भेद का नाम । इसमें ६७ गुरु, १८ लघु, वर्ण और १५२ मात्राएँ होती हैं । परंतु जिसमें उल्लाला २६ मात्राओं का होता है, उस छप्पय में ६७ गुरु, १४ लघु, ८१ वर्ण और १४८ मात्राएँ होती हैं । ९. दो की संख्या (काव्य०) । १० उपदिग्भाग । दो दिशाओं का मध्यवर्ती कोण या भाग (को०) । ११. किसी पात्र या बर्तन का हत्था या कुंडा (को०) ।

कर्णाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बर्तन इत्यादि को पकड़ने का कुंड़ा । २. पेड़ के पत्ते और शाखाएँ । ३. एक बेल । ४. एक प्रकार का ज्वर [को०] ।

कर्णकटु
वि० [सं०] कान को अप्रिय । जो सुनने में कर्कश लगे ।

कर्णकसन्निपात
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सन्निपात । विशेष—इसमें रोगी कान से बहरा हो जाता है, उसके शरीर में ज्वर रहता है, कान के नीचे सुजन होती है वह अंडबंड बकता है, उसे पसीना होता है, प्यास लगती है, बेहोशी आती है औऱ डर लगता है ।

कर्णकीटा, कर्णकीटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कनखजुरा । गोजर ।

कर्णकुहर
संज्ञा पुं० [सं०] कान का बिल । कान का छेद । उ०— कुहरित भी पंचम स्वर, रहे बंद कर्णकुहर ।—अनामिका, पृ० १३ ।

कर्णक्ष्वेड
संज्ञा पुं० [सं०] कान का एक रोग । विशेष—इसमें पित्ता और कफयुक्त वायु कान में घुस जाने से बाँसुरी का सा शब्द तुन पड़ता है ।

कर्णागूथ
संज्ञा पुं० [सं०] कान का खुँट । कान की मैल ।

कर्णागूथक
संज्ञा पुं० [सं०] कान के खुँटा का कड़ा होना [को०] ।

कर्णगोचर
वि० [सं०] कान को सुनाई देनेवाला [को०] ।

कर्णघंट
संज्ञा पुं० [सं०] शिव जी के उपासकों का एक वर्ग जो, कानों में इसलिये घंटा या घंटी बाँधे रहता था, जिससे उसके स्वर में विष्णु का स्वर दब जाय [को०] ।

कर्णज
संज्ञा पुं० [सं०] कान का खुँट [को०] ।

कर्णजप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चुगलखोरी [को०] ।

कर्णजप (२)
वि० चुगलखोर [को०] ।

कर्णजाप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चुगलखोरी [को०] ।

कर्णजाप (२)
वि० चुगलखोर [को०] ।

कर्णजलूका, कर्णजलौका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कनखजुरा [को०] ।

कर्णजाह
संज्ञा पुं० [सं०] कान की जड़ [को०] ।

कर्णजित्
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन [को०] ।

कर्णताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी का कान हिलाना । २. हाथी के कानों के हिलाने की ध्वनि ।

कर्णदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] कान के देवता, वायु ।

कर्णधार (१)
पुं० [सं०] १. नाविक । माँझी । मल्लाह । केवट । २. पतवार थामनेवाला माँझी । ३. पतवार । कलवारी ।

कर्णधार
वि० बहुत बड़े कार्य को करनेवाला । दुसरों का दु?खादि दुर करनेवाला ।

कर्णनाद
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कान में सुनाई पड़ती हुई गुँज । घनघनाहट जो कान में सुन पड़ती है । २. एक रोग जिसमें वायु के कारण कान में एक प्रकार की गुँज सी सुनाई पड़ती है ।

कर्णपथ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रवण का क्षेत्र । वह दुरी जहाँ तक की आवाज सुनाई दे [को०] ।

कर्णपरंपरा
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णपरम्परा] एक के कान से दुसरे के कान में बात जाने का क्रम । सुनी सुनाई व्यवस्था । (किसी) बात को) बहुत दिनों से लगातार सुनने सुनते चले आने का क्रम । श्रृतिपरंमरा ।

कर्णपाक
संज्ञा पुं० [सं०] कान पकने की स्थिति या देश [को०] ।

कर्णपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कान की लौ । कान की लोलक । कान की लोबिया । कान की लहर । २. कान की बाली । मुरकी । ३. एक रोग जो कान की लोलक में होता है ।

कर्णपिशाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक तांत्रिक देवी । विशेष—इसके सिद्ध होने पर, कहा जाता है, मनुष्य जो चाहे सो जान सकता है ।

कर्णपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कान का घेरा । २. चंपा नगरी जो अंग देश की राजधानी थी ।

कर्णपूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिरिस का पेड़ । २. अशोक का पेड़ । ३. नील कमल । ४. करनफुल ।

कर्णपूरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कदंब का पेड़ । २. कर्णफुल (को०) । ३. अशोक का वृक्ष (को०) । ४. नील कमल (को०) ।

कर्णप्रणाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कर्ण प्रतिनाह' ।

कर्मप्रतिनाह
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार कान का एक रोग । विशेष—इसमें खुँट फुलकर अर्थात् पतली होकर नाक और मुँह में पहुँच जाती है इस रोग के होने से आधीसीसी उत्पन्न हो जाती है ।

कर्णप्रयाग
संज्ञा पुं० [सं०] गढ़वाल का एक गाँव । विशेष—यह अलकनंदा और पिंडार नदी के संगम पर है तथा बदरिकाश्रम के मार्ग में पड़ता है । हिंदुओं के मत से यहाँ स्नान करने का माहात्म्य है ।

कर्णफल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०] ।

कर्णफूल
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण+ पुल] कान का एक आभुषण । करन- फूल [को०] ।

कर्णभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] कान का एक आभुषम [को०] ।

कर्णभूसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कान का एक आभुषम [को०] ।

कर्णमल
संज्ञा पुं० [सं०] कान का मैल । कान का खुँट [को०] ।

कर्णमूल
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें कान की जड़ के पास सुजन होती है कनपेड़ा ।

कर्णमृदंग
संज्ञा पुं० [सं० कर्णमृदङ्ग] कान के भीतर की चमड़े की वह झिल्ली जो मृदंग के चमड़े की तरह हड्डियों पर कसी रहती है । इनपर शब्द द्धारा कंपित वायु के आघात से शब्द का ज्ञान होता है ।

कर्णमोटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा देवी का एक रुप [को०] ।

कर्णयुग्म प्रकीर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य के ५१ प्रकार के चालकों में से एक जिसमें दोनों हाथों को घुमाते हुए बगल से सामने ले आते हैं ।

कर्णयोनी
वि० [सं०] कान से जन्म लेनेवाला [को०] ।

कर्णरंध्र
संज्ञा पुं० [सं० कर्णरन्ध्र] कान का छेद ।

कर्णलग्न स्कंध
संज्ञा पुं० [सं० कर्णलग्नस्कन्ध] नृत्य में कंधे के पाँच भेदों में से एक जिससे कंधे सीधा ऊँचा करके कान की ओर ले जाते हैं ।

कर्णवंश
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस का मंच [को०] ।

कर्णवर्जित
संज्ञा पुं० [सं०] साँप । विशेष—प्राचिनों का विश्वास था कि साँप के कान नहीं होतो; पर वास्तव में साँप की आँखों के पास कान के छेद प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते हैं ।

कर्णविद्रधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कान के अंदर की फुंसी । कान के भीतर की फुड़िया घाव ।

कर्णवेध
संज्ञा पुं० [सं०] बालकों के कान छेदने का संस्कार । कनछेदन । करनबेध ।

कर्णवेधनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कान छएदने का औजार ।

कर्णवेष्ट, कर्मवेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कान का बाला । कुंडल । २. कान की बाली [को०] ।

कर्णशष्कुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] कान का बाहरी भाग [को०] ।

कर्णशूल
संज्ञा पुं० [सं०] कान की पीड़ा ।

कर्णशोभन
संज्ञा पुं० [सं०] कान का एक आभुषण । कान का एक गहना । उ०—तीसरा आभुषण कर्णशोभन था ।—संपुर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ६९ ।

कर्णश्रव
वि० [सं०] जो कान के द्धारा सुना जाय [को०] ।

कर्णसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुंती [को०] ।

कर्णसूची
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक छोटा कीड़ा [को०] ।

कर्णस्फोटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की बेल । चित्रपर्णी [को०] ।

कर्णस्त्राव
संज्ञा पुं० [सं०] फुंसी, फोड़ा आदि के कारण कान के भीतर से पीब या मवाद बहने का रोग ।

कर्णहल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कान का एक रोग [को०] ।

कर्णहीन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प । साँप ।

कर्णहीन (२)
वि० जो सुन न सकता हो । बहरा [को०] ।

कर्णांदु कर्णांदू
संज्ञा पुं० [सं० कर्णान्दु, कर्णान्दु] कान का गहना । बाली [को०] ।

कर्णाकर्णि
क्रि० वि० [सं०] कान से कान तक । कानोंकान [को०] ।

कर्णाट
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण का एक देश । विशेष—इसके अंतर्गत प्राचीन काल में वर्तमान मैसुर के उत्तरीय भाग से लेकर बीजापुर तक का प्रदेश था । पर इधर तंत्रवाले आजकल के करनाटक के अनुसार रामेशवर से लेकर कावेरी तक के प्रदेश को कर्णाट मानते हैं । २. संपुर्ण जाति का एक रोग जो मेघ राग का दुसरा पुत्र माना जाता है । विशेष—इसके गाने का समय रात का पहला पहर है । इसका स्वर पाठ इस प्रकार है—प ध नि सा रे ग म प । इसे हिंदी में कान्हड़ा भी कहते हैं ।

कर्णाटक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कर्णाट' ।

कर्णाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संपुर्ण जाति का एक शुद्ध रागिनी जो मालवा या किसी मत से दीपक राग की पत्नी है । विशेष—यह रात के दुसरे पहर की दुसरी घड़ी में गाई जाती है । स्वरपाठ इस प्रकार है—नि सा रे ग म प ध नी । संगीतदर्पण के अनुसार इसका ग्रहांशन्यास या ग्राम निषाद है, पर किसी किसी के मत से षड़ज भी कहते हैं । इसे कान्हड़ी भी कहते हैं । २. कर्माट देश की स्त्री । ३. कर्णाट देश की भाषा । ४. हंसपदी लता । ५. शब्दालंकार अनुप्रास की एक वृत्ति जिसमें केवल कवर्ग के ही अक्षर होते हैं ।

कर्णादर्श
संज्ञा पुं० [सं०] कान में पहनने का गहना । करन- फुल [को०] ।

कर्णाधार
संज्ञा पुं० [सं० कर्णधार] सं० 'कर्णाधार' । उ०—विसर्जन ही है कर्णाधार वही पहुँचा देगा उस पार ।—यामा, पृ० १९ ।

कर्णानुज
संज्ञा पुं० [सं०] युधिष्ठिर ।

कर्णाभरणक
संज्ञा पुं० [सं०] अमलतास ।

कर्णारि
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन जिसने कर्ण को मारा था ।

कर्णिक (१)
वि० [सं०] १. कानवाला । जिस कान हो । २. जिसके हाथ में पतवार हो [को०] ।

कर्णिक (२)
संज्ञा १. लिखनेवाला । लिपिक । क्लार्क । उ०—सीढ़ियों के निकट वृद्ध कर्णिक गण सन्निपात की तमान कार्यवाही लिखने को तैयार बैठे थे ।—वैशाली०, न०,पृ० १४ । २. माँझी, कर्णधार (को०) ।

कर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कान का एख गहना । करनफुल । २. हाथ की बिचली उँगली । ३. हाथी के सुँड़ की नोक । ४. कमल का छत्ता जिसमें से कँवलगट्टे निकलते हैं । ५. सेवती । सफेद गुलाब । ६. एक योनिरोग जिसमें योनि के कमल के चारों ओर कँगनी के अँकुर से निकल आते हैं । ७. अरनी का पैड़ । ८. मेढ़ासींगी । ९. कलम । लेखनी ।१0.डंठल जिसमें फल लगा रहता है ।

कर्णिकाचल
संज्ञा पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत [को०] ।

कर्णिकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कनियार या कनकचंपा का पेड़ । उ०—सहज मातुगुण गंध था कर्णिकार का भाग । विगुण रुप दृष्टांत के अर्थ न हो यह त्याग । —साकेत, पृ० २९१ । २. एक प्रकार का अमलतास जिसका पेड़ बड़ा होता है । इसमें भी अमलतास ही की तरह की लंबी लंबी फलियाँ लगती हैं जिनके गुदे का जुलाब दिया जाता है । वैद्यक में यह सारक और गरम तथा कफ, शुल, उदररोग, प्रमेहु, व्रण और गुल्म का दुर करनेवाला माना जाता है ।

कर्णिकारप्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिव [को०] ।

कर्णि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का बाण । २. चौर्य शास्त्र के कर्ता की माता (को०) । ३. कंस की माता का नाम (को०) ।

कर्णी (२)
संज्ञा पुं० [सं० कर्णिन्] १. बाण । तीर । २. सप्तवर्ष पर्वतों में से एक । सप्तवर्ष पर्वत ये कहलाते है—हिमावान, हेमकुट, निषद, मेरु, चैत्र, कर्णी, शृंगी । ३. गधा (को०) । ४. गर्भाशय का एक रोग (को०) । ५. कर्णघार (को०) ।

कर्णी (३)
वि० १. कानवाला । २. बड़े बड़े कानवाला । ३. जिसमें पतवार लगी हो ।

कर्णीरथ
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों की सवारी में काम आनेवाली डोली । पालकी [को०] ।

कर्णीसुत
संज्ञा पुं० [सं०] चौर्य शास्त्र के प्रवर्तक मुलदेव [को०] ।

कर्णोजप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पीठ पीछे लोगों की निंदा करनेवाला व्यक्ति । धीरे धीरे कान में लोगों की चुगली खानेवाला व्यक्ति । चगुलखोर । पिशुन ।

कर्णोजप (२)
वि० निंदक । चुगलखोर । पिशुन [को०] ।

कर्णोपकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक कान से दुसरे कान में बात का जाना । कर्णपरंपरा । अफवाह । जनश्रृति [को०] ।

कर्ण्यगण
संज्ञा पुं० [सं०] कानों के लिये हितकारी ओषधियों का समुह, जिसके अंतर्गत तिलपर्णि, समुद्रफेन, कई समु्द्री कीड़ों की हड्डियाँ आदि हैं ।

कर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] काटना । कतरना । जैसे, केशकर्तन । २. (सुत इत्यादि) कातना ।

कर्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कतरनी । कैंची ।

कर्तब पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्तव्य] दे० 'करतब' । उ०—जिस समय वह अपने 'पवनवेग' घोड़ो को किले के मैदान में फेरकर अपना कर्तब दिखाता है, उस समय और राजकुमार .... चकित हो, चित्र बन जाते हैं ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ७ ।

कर्तरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कर्तरी' ।

कर्तरिअंचित
संज्ञा पुं० [सं० कर्तरिअन्चित] नृत्य में उत्पुलतकरम के १६ भेदों में से एक जिसमें चरण स्वस्तिक रचककर उछलते हैं ।

कर्तरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कर्तरी' ।

कर्तरिप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में कर्ता के पुरुष, लिंग और वचन के अनुसार क्रिया का प्रयोग [को०] ।

कर्तरिलोहड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्प्लुतकरण के ३६ भेदों में सेएक । इसमें करण स्वास्तक रचकर फिर खोलते हुए उछलकर तिरछे गिरते है ।

कर्तरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कैंची । कतरनी । २. (सुनारों की) काती । ३. छोटी तलवार । छुरी । कटारी । ४. ताल देने का एक बाजा । ५. फलित ज्योतिष का एक योग । जब दो क्रुर ग्रहों के बीच में चंद्रमा या कोई लग्न हो, तब कर्तरी योग होता है । इससे कन्या की मृत्य और अपना बंधन होता है । ६. बाण का वह भाग जहाँ पख लगाया जाता है [को०] ।

कर्तरीफल
संज्ञा पुं० [सं०] कैंची या छुरी का फल [को०] ।

कर्तव्य (१)
वि० [सं०] करने के योग । करणीय ।

कर्तव्य (२)
संज्ञा पुं० करने योग्य कार्य । करणीय कर्म । उचित कर्म । धर्म । फर्ज । जैसे,—बड़ों की सेवा करना छोटों का कर्तव्य है । क्रि० प्र०—करना ।—पालन करना ।—पालना । यौ०—कर्तव्याकर्तव्या=करने और न करने योग्य कर्म । उचित कर्म । और अनुचित कर्म । योग्य अयोग्य कार्य । जैसे,—बहुत से अधिकारियों को अपने कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नहीं होता ।

कर्तव्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कर्तव्य का भाव । यौ०—इतिकर्तव्यता= उद्योग या प्रयत्न की पराकाष्ठा । कोशिश या कार्रवाई की हद । दौड़ । जैसे,—उनकी इतिकर्तव्यता यहीं तक थी । २. कर्तव्य कराने की दक्षिण । कर्मकांड की दक्षिणा ।

कर्तव्यमूढ़, कर्तृव्यविमूढ़
वि० [सं० कर्तव्यमुढ़, कर्तव्यविमुढ़] [संज्ञा कर्तव्यमुढ़ता, कर्तव्यविमुढता] १. जिसे यह न सुझाई दे कि क्या करना चाहिए । जो कर्तृव्य स्थिर न कर सके । २. घबराहट के कारण जिससे कुछ करते धरते न बने । भौंचक्का ।

कर्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं० 'कर्तृ'] की प्रथमा का एक०] [स्त्री० कर्त्री] १. करनेवाला । काम करनेवाला । २. रचनेवाला । बनाने— वाला । ३. विधाता । ईश्वर । उ०—मेरे मन कछु और है कर्ता के कछु और (शब्द०) । ४. परिवार का, विशोषत? संयुक्त परिवार का वह व्यक्ति जो घर का सब उत्तरदायित्व वहन करता है और परिवार की ओर से वैधानिक रुप से भी कार्य कर सकता है । परिवार का प्रबधक व्यक्ति । ५. व्याकरण के छह कारकों में पहला । जिससे क्रिया के करनेवाले का ग्रहण होता है ।जैसे,—यज्ञदत्त मारता है । यहाँ मारने की क्रिया को करनेवाला । यज्ञदत्त कर्ता हुआ ।

कर्ता (२)
वि० करनेवाला । क्रिया का करनेवाला । जिससे क्रिया का संबंध हो ।

कर्ताधर्ता
संज्ञा पुं० [सं०] १. सब कुछ करने धरनेवाला व्यक्ति । वह व्यक्ति जिसे सब कुछ करने धरने का अधिकार हो [को०] ।

कर्तार
संज्ञा पुं० [सं० 'कर्तृ' का प्रथमा का बहु०] १. करनेवाला । बनानेवाला । २. विधाता । ईश्वर ।

कर्तृ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कर्त्री] १. करनेवाला । २. बनानेवाला । कर्ता ।

कर्तृक
वि० [सं०] १. किया हुआ । संपादित । बनाया हुआ । जैसे— हर्षकर्तृक या माघकर्तृक । २. किसी की ओर से कुछ करने— वाला (को०) ।

कर्तृत्व
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ता का भाव । कर्ता का धर्म । यौ०—कर्तृत्वशक्ति=करने का सामर्थ्य । कार्य करने की शक्ति ।

कर्तृप्रधान क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह क्रिया । जिसमें कर्ता प्रधान हो; जैसे,—खाना, पीना, करना आदि । विशेष—खाया जाना, पीया जाना, किया जाना आदि कर्मप्रधान क्रियाएँ हैं ।

कर्तृप्रधान वाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह वाक्य जिसमें कर्ता प्रधान रूप से आया हो, जैसे,—यज्ञदत्त रोटी खाता है ।

कर्तृवाचक
वि० [सं०] कर्ता का बोध करानेवाला ।

कर्तृवाची
वि० [सं०] जिससे कर्ता का बोध हो ।

कर्तृवाच्य क्रिया
संज्ञा पुं० [सं०] वह क्रिया जिसमें कर्ता का बोध प्रधान रूप से हो, खाना, पीना, मारना । विशेष—खाया जाना, पीया जाना, मारा जाना आदि कर्मप्रधान कियाएँ हैं ।

कर्त्रिका, कर्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चाकू । २. कैंची [को०] ।

कर्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्दम । कीचड़ । २. मिट्टी (को०) । ३. कमल की जड़ (को०) । ४. जल की लताविशेष (को०) ।

कर्दट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलम की जड़ । पद्मकंद । २. कीचड़ । कर्दम (को०) । ३. मिट्टी (को०) । ४. जल में होनेवाली लता- विशेष (को०) ।

कर्दट (२)
वि० कीचड़ में चलनेवाला ।

कर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] पेट का शब्द । पेट की गुड़गुड़ाहट ।

कर्दम
संज्ञा पुं० [सं०] १. कीचड़ । कीच । चहला । २. मांस । ३. पाप । ४. छाया । ५. स्वायंभुव मन्वंतर के एक प्रजापति । विशेष—इनकी पत्नी का नाम देवहूति और पुत्र का नाम कपिलदेव था । ये छाया से उत्पन्न, सूर्य के पुत्र थे, इसी से इनका नाम कर्दम पड़ा था ।

कर्दमक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का चावल । २. साँप का एक भेद [को०] ।

कर्दमाटक
संज्ञा पुं० [सं०] मल फेंकने का स्थान [को०] ।

कर्दमित
वि० [सं०] कीचड़युक्त । कीचड़ से लथपथ [को०] ।

कर्दमिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कीचड़वाली धरती । दलदली जमीन ।

कर्दमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि [को०] ।

कर्न पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण] दे० 'कर्ण' । उ०—केहरि कल्याण कर्न कुंदन कविंद से ।—सुजान०, पृ० १ ।

कर्नफूली
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्ण + हिं० फूल] पुर्वी बंगाल की एक नदी । विशेष—यह आसाम के पहाड़ों से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है । चटगाँव नगर इसी किनारे बसा है ।

कर्नल
संज्ञा पुं० [अं०] एक फौजी अफसर ।

कर्नेता (करनेता)
संज्ञा पुं० [देश०] रंग के अनुसार घोड़े का एक भेद । उ०—कारूमी संदली स्याह करनेता रूना ।—सूदन (शब्द०) ।

कर्पट
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराना चिथड़ा । गूदढ़ । लत्ता । २. कालिकापुराण के अनुसार नाभिमंडल के पूर्व और भस्मकूट केदक्षिण का एक पर्वत । ३. कपड़े का टुकड़ा या पट्टी (को०) । ४. मटीला या लाल रंग का परिधान (को०) । ५. कपड़ा (को०) ।

कर्पटिक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कर्पटिका] चिथड़े गुदड़ेवाला- भिखारी । भिखमंगा ।

कर्पटी
संज्ञा पुं० [सं० कर्पटिन्] [स्त्री० कर्पटिनी] चिथड़े गुदड़े पहननेवाला, भिखारी ।

कर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शस्त्र ।

कर्पर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपाल । खोपड़ी । २. खप्पर । ३. कछुए । की खोपड़ी । ४. एक शस्त्र । ५. कड़ाह । ६. गूलर ।

कर्पराल
संज्ञा पुं० [सं०] पीलू का पेड़ ।

कर्परी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दारुहलदी के क्वाथ से निकला हुआ तूतिया । खपरिया ।

कर्पास
संज्ञा पुं० [सं०] कपास ।

कर्पासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपास का पौधा ।

कर्पूर
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर ।

कर्पूरक
संज्ञा पु [सं०] कर्चूरक । कपूर कचरी ।

कर्पूरगौर
वि० [सं०] कपूर की तरह सफेद ।

कर्पूरगौरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संकर जाति की एक रागिनी जो ज्योति, खंबावती, जयतश्री, टक और वराटी के योग से बनी है ।

कर्पूरनालिका
संज्ञा पुं० [सं०] एक पकवान । विशेष—यह मोयनदार मैदे की लंबी नली के आकार की लोई में लौंग, मिर्च, कपूर, चीनी आदि भरकर उसे घी में तलने से बनता है ।

कर्पूरमणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का पत्थर जो दवा के काम आता है । यह वातनाशक है । २. एक रत्न [को०] ।

कर्पूरवर्ति, कर्पूरवर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन समय में घी और कपूर का चूर्ण मिलाकर कपड़े में रखकर और लपेटकर बनाई हुई बत्ती जिसी जलाने पर कपूर की सुगंध निकला करती थी । कपूर की बत्ती । उ०—बँधकर घुलना अथवा, जल पल दीप दान कर खुलना, तुझको सभी सहज है मुझको कर्पूरवर्ति, बस घुलना ।—साकेत, पृ० ३१६ ।

कर्पूरश्वेत
वि० [सं०] कपूर की भाँति सफेद । अत्यंत उज्वल । उ०—कर्पू रश्वेत मधु की किन्नर देश में बड़ी महिमा है ।— किन्नर,० पृ० ७८ ।

कर्फर
संज्ञा पुं० [सं०] दर्पण । आरसी । शीशा । आईना ।

कर्फ्यू
संज्ञा पुं० [अं० कफ़र्यू] दे० 'करफ्यू' ।

कर्बुदार
संज्ञा पुं० [सं०] १. लिसोड़ा । २. सफेद कचनार । ३. तेदू का पेड़ जिससे आबनूस निकलता है ।

कर्बुर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । स्वर्ण । २. धतूरा । ३. जल । ४. पाप । ५. राक्षस । ६. जड़हन धान । ७. कचूर ।

कर्बूर (२)
वि० नाना वर्णों का । रंगबिरँगा । चितकबरा ।

कर्बुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बनतुलसी । बबरी । २. कृष्णतुलसी ।

कर्बुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा ।

कर्मंद
संज्ञा पुं० [सं० कर्मन्द] भिक्षु सूत्रकार एक श्रृषि ।

कर्म
संज्ञा पुं० [सं० कर्मन् का पथ्रमा रूप] १. वह जो किया जाय । क्रिया । कार्य । काम । करनी । करतूत । यौ०— कर्मकार । कमंक्षेत्र । कर्मचारी । कर्मफल । तकर्मभोग । कर्मकेंद्रक । करमेंद्रिय । २. व्याकरण में वह शब्द जिसके वाच्य पर कर्ता की क्रिया का प्रभाव पड़े । कर्ता की क्रिया या व्यापार द्वार साध्य जो अभीप्सिततम कार्य हो जैसे, राम ने रावण को मार । यहाँ राम के मारने का प्रभाव रावण में पाया गया, इससे वह कर्म हुआ । यह द्वितीय कारक माना जाता है जिसका विभक्तिचिह्न 'को' है । कभी कभी अधिकरण अर्थ में भी द्वितीया रूप का प्रयोग होता है । जैसे,— वह घर को गया था । पर ऐसा प्रयोग अकर्मक क्रियाओं में विशेषपर आना, जाना, फिरना, लौटना, फेंकना, आदि गत्यर्थक के ही साथ होता, है, जिनका संबंध देश स्थान और काल से होता है । संप्रदान कारक में भी कर्मकारक का चिह्न 'को' लगाया जाता है । जैसे,— 'उसको रूपया दो' (व्याकरण में कर्म दो प्रकार के होते हैं— मुख्य कर्म और गौण कर्म ।)३. वैशेषिक के अनुसार छह पदार्थों में से एक जिसका लक्षण इस प्रकार लिखा है— जो एक द्रव्य में हो, गुण न हो और संयोग और विभाग में अनपेक्ष कारण हो । (कर्म यहाँ क्रिया का लगभग पर्याय शब्द है । 'व्यापार' भी उसे वैयाकरण कहते हैं ।) कर्म पाँच हैं—उत्क्षेपण (ऊपर फेंकना), अवक्षेपण (नीचे फेंकना), आकुंचन (सिकोड़ना), प्रसारण (फैलाना), और गमन (जाना, चलना) । गमन के पाँच भेद किए हैं— भ्रमण (घूमना), रेचना (खाली होना), स्यंदन (बाहना या सरकना), उर्धज्वलमन (ऊपर की ओर जलना), तिर्थग्गमन (तिरछा चलना) । ४. मीमांसा के अनुसार कर्म के दो प्रकार जो ये हैं—गुण या गौण कर्म और प्रधान या अर्थ कर्म । गुण (गौण) कर्म वह है जिससे द्रव्य (सामग्री) की उत्पत्ति या संस्कार हो, जैसे, — धान कूटना, यूप बनाना, घी तपाना आदि । गुअ कर्म का फल दृष्ट हैं, जैसे, धान कूटने से चावल निकलाता हैं, लकड़ी गढ़ने से यूप बनता है । गुण कर्म के भी चार भेद किए गए हैं—(क) उत्पत्ति (जैसे, लकड़ी के गढ़ने से यूप का तैयार होना । (ख) अप्रित (जैसे, गाय के दुहने से दूध की प्राप्ति), (ग) विकृत (धान कूटना, सोम का रस निचोड़ना, घी तपाना), (घ) संस्कृति (चावल पछाड़ना, सोम का रस छानना) । प्रधान या अर्थकर्म वह है जिससे द्रव्य की उत्पत्ति या शुद्धि न हो, बल्कि उसका प्रयोग हो, जैसे, यज्ञ आदि । उसका फल अष्ट है, जैसे स्वर्ग की प्राप्ति इत्यादि । प्रधान या अर्थकर्म के तीन भेद हैं— नित्य, नैमित्तिक और काम्य । नित्य वह है जिससे न करने से पापा हो अर्थात् जिसका करना परम कर्तव्य हो, जैसे, संध्या अग्निहोत्र आदि । नैमित्तिक वह है जो किसी निमित्ति से किसी अवसर पर क्रिया जाय, जैसे, पौर्णमासपिंड़, पितृयज्ञ आदि । जो कर्म किसी विशेष फल की कामना से कायि जाया, वह वाक्य है, जैसे, पुत्रेष्टि, कारिरि आदि । मीमांसक लोग कर्म को प्रधान मानते हैं और वेदांती लोग ज्ञान को प्रधान मानकर उससे मुक्ति मानते हैं । यौ०— कर्मकांड़ ।५. योगससूत्र की वृत्ति में कर्म के तीन भेद । भोज ने ये भेद किए हैं— (क) विहित, जिलके करने की शास्त्रों में आज्ञा है; (ख) निषिद्ध, जिनके करने का लिषेध है और (ग) मिश्र अर्थात् मिले जुले । जाति, आयु और भोग कर्म के विपाक या फल कहे जाते है । ६. जन्मभेद से कार्म के चार विभाग— संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण और भावी । ७. जैन दर्शन के अनुसार कर्म पुदगल और जीव के अनादि संबंध से उत्पन्न होता हैं, इसी से जैन लोग इसे पौद्गलिक भी कहते हैं । इसके दो भेद हैं । (क) धाति जो मुक्ति का बाधक होंता है और (ख) अधाति जो मुक्ति का बाधक नहीं होता । ८. वह कार्यं या क्रिया जिसका करना कर्तव्य हो । जैसे,— ब्राह्मणों के षट्कर्म- यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दात्त, प्रतिग्रह । ९. कर्म का फल । भाग्य । प्रारब्ध । किस्मत । उसके भी दो भेद हैं— (क) प्रारब्ध कर्म जिसका फल मनुष्य भोग रहा है और (२) संचित कर्म जिसका फल भविष्यत् में मिलनेवाला हैं । जैसे,— (क) अपना कर्म भोग रहे हैं । (ख) कर्म में जो लिखा होगा, सो होगा । उ०— कर्म हगयो सीता कहै आई, दूख सुख कर्म ताहि भुगताई ।— कबीर सा०, पृ० ९६० । वि० दे० 'करम' । १०. मृतकसंस्कार । क्रिया कर्म । उ०— जब तनु तज्यो गीध रघुपति तब बहुत कर्म बिधि कीनी । जान्यो सखा राय दशरथ को तुरतहि निज गति दीनी ।— सूर (शब्द०) ।

कर्मकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रमी । मजदुर । २. प्राचीन काल की एक जाति जो सेवा कर्म करती थी । आजकल इसे कमकर कहते हैं । ३. गम [को०] ।

कर्मकांड़
संज्ञा पुं० [सं० कर्मकाण्ड़] १. धर्मसंबंधी कृत्य । यज्ञादि कर्म । २. वह शास्त्र जिसमें यज्ञादि कर्मों का विधान हो ।

कर्मकांड़ी
संज्ञा पुं० [सं० कर्मकाण्ड़िन्] यज्ञादि कर्म करानेवाला । धर्मसंबधी कृत्य करानेवाला ।

कर्मकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वर्णसंकर जाति जो शूद्रा और विश्वकर्मा से उत्पन्न हुई हैं । २. लोहे या सोने का काम बनानेवाला । लुहार । सुनार । ३. बैल । ४. नौकर । सेवक । मजदूर । ५. बिना वेतना या मजदूरी को काम करनेवाला । बेकार ।

कर्मकारक
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में कर्म । दें० 'कर्म' २. ।

कर्मकार्मुक
संज्ञा पुं० [सं०] मजबूत धनुष [को०] ।

कर्मकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] धोबी [को०] ।

कर्मक्षम
वि० [सं०] जो काम करने में समर्थ हो ।

कर्मक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] कर्मों का विनाश । विशेष— भुतकाल में किए हुए पापकर्मों का विनाश उनके विपरीत पुण्यकर्म करने से होता है ।

कर्मक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्य करने का स्थान । २. भारतवर्ष । विशेष— भागवत में लिख है कि नौ वर्षों (प्रदेशों) में से भारत- वर्ष कर्म करने के लिये है; शेष आठ वर्ष कर्मों के अवशिष्ट भोग के लिये हैं ।

कर्मगुण
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य मत से काम की अच्छाई बुराई । कार्यक्षमता ।

कर्मगुणापकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] काम इच्छा न होना । श्रमियों की कार्यक्षमता का घ टना [को०] ।

कर्मगृहीत
वि० [सं०] जो चेरी आदी अनुचित दंड़नीय कार्य करते हुए पकड़ा जाया [को०] ।

कर्मघात
संज्ञा पुं० [सं०] कर्मक्षय । काय स्थगन [को०] ।

कर्मचांड़ाल
संज्ञा पुं० [सं० कर्मचाण्ड़ाल] नीच कार्य करनेवाला- व्यक्ति । नीच कार्य के करने कारण चांडाल माना जानेवाल व्यक्ति । विशेष— वशिष्ठ के अनुसार कार्मचांड़ाल ये हैं— असूयक, पिशुन, कृतघ्न और दीर्घरोषक (बहुत समय तक रोष माननेवाला ।)

कर्मचारी
संज्ञा पुं० [सं० कर्मचारिन्] १. काम कतरनेवाला । कार्यकर्ता २. वह जिसका अधीन राज्यप्रबंध या और किसी कार्यालय के संकबंधर रखनेवाला कोई कार्य करता हो ।

कर्मचारीसंघ
संज्ञा पुं० [सं०] कर्मचारियों का ऐसा संघचन जो उनके हितों की रक्ष के कार्य करता है ।

कर्मचेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्य । कर्म [को०] ।

कर्मचोदना
संज्ञा पुं० [सं०] कर्म की प्रेरण करनेवाला हेतु । कर्म की प्रेरणा ।

कर्मज (१)
वि० [सं०] कर्म से उत्पन्न । २. जन्मांतर में किए हुए पुण्यपाप से उत्पन्न ।

कर्मज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलयुग । २. वट वृक्ष । ३. वह रोग जो जन्मांतर के कर्मों का फल हो । जैसे,— क्षयी ।

कर्मजित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. मगध का जरासंधवंशी एक राजा । २. उड़ीसा का एक राजा ।

कर्मजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ममय जीवन । वह जीवन जो कर्म से परिपूर्ण या संकुल हो । उ०— मेदकर कर्मजीवन के दुस्तर क्लेश सुषम आई ऊपर । अनामिका, पृ० ८७ ।

कर्मठ (१)
वि० [सं०] १. कामं में चतुर । २. धर्मसंबंधी कृत्य करनेवाला । कर्मनिष्ठ ।

कर्मठ (२)
संज्ञा पुं० १. शास्त्रविहित अग्निहोत्र, संध्या आदि नित्य कर्मों को विधिपूर्वक करनेवाला व्यक्ति । २. कर्मकांड़ी । उ०— कर्मठ कठमलिया कहै, ज्ञानी ज्ञानीविहीन ।— तुलसी (शब्द०) ।

कर्मणा
क्रि० वि० [सं० कर्मन् का तृतीया एक०] कर्म से । कर्म द्वारा । जैसे,— मनसा, वाचा, कर्मणा, तुम्हारी सेवा करूँगा । उ०— जब मनसा होगा तब न कर्मणा होगा?— साकेत, पृ० २१६ ।

कर्मण्य (१)
वि० [सं०] काम करनेवाला । कार्य में कुशल । उद्योगी । प्रयत्नशील ।

कर्मण्य (२)
संज्ञा पुं० कर्मणता । कार्यनिष्ठ । सक्रियता [को०] ।

कर्मण्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्य कुशलता । तत्परता ।

कर्मण्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] पारिश्रमिक । मजदूरी [को०] ।

कर्मतः
क्रि० वि० [सं०] कर्म से । कर्म द्वारा [को०] ।

कर्मदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐतरंय और बृहदारण्यक उपनिषदों के अनुसार देवताओं का एक भेद । विशेष— इसमें तैतीस देवता हैं— अष्टावसु, एकादश रुद्र, द्वादश सूर्य, तथा इंद्र लोग प्रजापति इनका राजा इंद्र और आचार्य बृहस्पति हैं । ये लोग अग्निहोत्र आदि वैदिक कर्म करके देवता हुए थे । २. पुण्य कर्मों से देवपद प्राप्ति ।

कर्मधारय समास
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह समास जिसमें विशेषण और विशेष्य का समान अधिकरण हो; जैसे, कचलहू, नवठट, नवयुवक, नवांकुर, चिरायु । विशेष— हिंदी में कर्मधारय समास बहुत कम होता है क्योंकि इसमें विशेष्य के साथ विशेषण में भी विभक्ति लगाने का साधारणतः नियम नहीं है ।

कर्मना (१) पु
क्रि० वि० [सं० कर्मणा] दे० 'कर्मणा' ।

कर्मना (२) पु
क्रि० स० [सं० कर्म + हिं० ना (प्रत्य०)] कर्म करना । क्रिया करना । उ०— जुग जुग भर्मिया कर्म बहुत कर्मिया ।— कबीर रे०, पृ० १८ ।

कर्मनाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी जो शाहाबाद जिले के कैमोर पहाड़ से निकलकर चौसा के पास गंगा में मिलती है । विशेष— लोगों का विश्वास है कि इसके जल के स्पर्श से पुण्य का क्षय होता है । कोई इसका कारण यह बतलाते हैं कि यह नदी त्रिशंकु राजा की लार से उत्पन्न हुई है, कोई कहते हैं कि रावण के मूत्र से निकली है । पर कुछ लोगों का यह मत है कि प्राचीन काल में कर्मनिष्ठ आर्य ब्राह्मण इस नदी को पार करके कीकट (मगध) और बंग देश में भी नहीं जाते थे । इसी से यह अपवित्र मानी गई है ।

कर्मनिष्ठ
वि० [सं०] शास्त्रविहित कर्मों में निष्ठा रखनेवाला । संध्या, अग्निहोत्र आदि कर्तव्य करनेवाला । क्रियावान् ।

कर्मनिष्पत्तिवेतवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. काम की अच्छाई बुराई के अनुसार वेतन । २. वह वेतन जो काम पूरा होने पर दिया जाय [को०] ।

कर्मनिष्पाक
संज्ञा पुं० [सं०] मेहनता मजदूरों से काम को अंत तक पूरा करवाना ।

कर्मनी पु
वि० [सं० कर्मम्य] कर्मवाली । कर्म से संबद्ध उ०— कर्मनी नदी पै भर्मनी ताल है, ताल के बीच में रहत अरना ।— पलटू०, भा० २, पृ० ३१ ।

कर्मन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मकृत्यों के फल का परित्याग [को०] ।

कर्मपंचमी
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्मपञ्चमी] ललित, बसंत, हिंड़ोल और देशकार के संयोग से बनी हुई एक रागिनी ।

कर्मपाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्वजन्म में किए गए कार्मों का फल । २. कर्मों की पूर्णता [को०] ।

कर्मप्रधान
वि० [सं०] १. जिसमें कर्म प्रधानता हो । २. बहिर्दृष्टि रखनेवाला [को०] ।

कर्मप्रधान क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्याकरण में वह क्रिया जिसमें कमं ही मुख्य होकर कर्ता के समान आता है जिसका लिंगवचन उसी कर्म के अनुसार होता है । जैसे, वह पुस्तक पढ़ी गई ।

कर्मप्रधान वाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह वाक्य जिसमें मुख्य रूप से कर्ता की तरही आया हो । जैसे,— पुस्तक पढ़ी जाता है ।

कर्मफल
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्वजन्म में किए हुए कार्मों का फल, दुःख सुख आदि [को०] ।

कर्मबंध, कर्मबंधन
संज्ञा पुं० [सं० कर्मबन्ध, कर्मबन्धन] अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार जन्म और मृत्यु का बंधन या चक्र ।

कर्मभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] आर्यावर्ती देश । भारतवर्ष । दे० 'कर्मक्षेत्र' ।

कर्मभूंमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कर्मभू' ।

कर्मभोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्मफल । करनी का फल । २. पूर्वजन्म के कर्मों का परिणाम ।

कर्ममार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] विहित कर्मों द्वारा मोक्षप्राप्ति का मार्ग [को०] ।

कर्ममास
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का महीना जो ३० सावन दिनों का होता है । सावन मास [को०] ।

कर्ममूल
संज्ञा पुं० [सं०] कुश । कुशा [को०] ।

कर्मयुग
संज्ञा पुं० [सं०] कलियुग ।

कर्मयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. चित्त शुद्ध करनेवाला शास्त्रविहित कर्म । उ०— कर्म योग पुनि ज्ञान उपासन सबही भ्रम भरमायो । श्री वल्लभ गुरू तत्व सुनायो लीला भेद बतायो ।— सूर (शब्द०) । २. उस शुभ और कर्तव्य कर्म का साधन जो सिद्धि और असिद्धि में समान भाव रखकर निर्लिप्त रूप से किया जाय । इसका उपदेश श्रीकृष्ण ने गीता में विस्तार के साथ किया है ।

कर्मयोगी
संज्ञा पुं० [सं० कर्मयोगिन्] कर्ममार्ग का अनुयायी । दृढतापूर्वक कार्य करनेवाला व्यक्ति ।

कमंरग
संज्ञा पुं० [सं० कर्मरङ्ग] १. कमरख का वृक्ष ।२. कम— रख का फल ।

कर्मरत
वि० [सं०] काम में लगा हुआ । काम में लीन । उ०— श्याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन, प्रिय कर्मरत मन ।— अनामिका, पृ० ७९ ।

कर्मरेख
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्मरेखा] कर्म की रेखा । भाग्य की लिखन । तकदीर । उ०— कर्मरेख नहिं मिटै करै कोइ लाखन चतुराई (शब्द०) ।

कर्मरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कर्मरेख' ।

कर्मलीन
क्रि० वि० [सं०] कर्म में ड़ूबी हुई । कमँमय कर्मयुक्त । उ०— धाराएँ ज्योति सुरभि उर भर, बह चलीं चतुर्दिक् कर्मलीन । — अपरा, पृ० ३९ ।

कर्मवंत पु
वि० [सं० कर्मवत्] कर्मशील । कर्मठ । काम करनेवाल । उ०— जब कर्मवंत पवित्र मनुष्य ऋतु योनि ने इस और भूत आत्मग्नि को धारण किया ।— कबीर०,मं०, पृ० ३९७ ।

कर्मबध
संज्ञा पुं० [सं०] चिकित्सा में असापधानी जिससे रोगी को हानि पहुँच जाय [को०] ।

कर्मवध वैगुण्यकरण
संज्ञा पुं० [सं०] चिकित्सा में असावधानी के कारण बीमारी का बढ़ जाना [को०] ।

कर्मवाच्य क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह क्रिया जिसमें कर्म मुख्य होकर कर्ता के रूप से आया हो और जिसका लिंग, वचन उसी कर्म के अनुसार हो । जैसे,—पुस्तक पढ़ी जाती है ।

कर्मवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. मीमांसा, जिसमें कर्म प्रधान माना गया है । २. कर्मयोग । उ०— कर्मवाद ब्यापन को प्रगटे पृश्निगर्भ ।अवतार । सुधापान दीन्हों सुरगण को भयो जग जस विस्तार ।— सूर (शब्द०) ।

कर्मवाद
संज्ञा पुं० [सं० कर्मवादिन्] कर्मकाड़ं या कर्म को प्रधान माननेवाला । मीमांसक ।

कर्मवान्
वि० [सं०] वेद विहित नित्य कर्य को विधिपूर्वक करनेवाला । कर्म करनेवाला । क्रियावान् ।

कर्मविपाक
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्वजन्म के किए हुए शुभ और अशुभ कर्मों का भला और बुरा फल । उ०— राम दशरथ दुखित कहति कैकेई काकु । कुसमय जाँय उपाय सब केवल कर्मविपाकु । — तुलसी (शब्द०) । विशेष— पुराण के मत से प्राणी अपने कर्मों के अनुसार भला या बुरा जन्म धारण करता हैं, और पृथ्वी पर धन, ऐश्वर्य इत्यादि का सुख या रोग इत्यादि का कष्ट भोगता है । किन किन पापों से कौन कौन दुःख भोगने पड़ते हैं, इसका विवरण गरुण पुराण आदि ग्रंथों में है ।

कर्मवीर
वि० [सं०] प्रशंसनीय ढंग से करनेवाला । दृढ़तापूर्वक कार्य करनेवाला । विघ्न बाधाओं में अविचल भाव से कार्य करनेवाला । पुरुषार्थी ।

कर्मशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जहाँ कार्य किया जाता है । कारखाना आदि । उ०— अपने इन विहारों के दौरान में कर्मशाला, सभा, कूप, विपणि निर्माण निर्माणशाला .........हिंदु० सभ्यता, पृ० २२५ ।

कर्मशील
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो फल की अभिलाष छोड़कर स्वभावतः काम करे । कर्मवान् । २. यत्नवान् । उद्योगी ।

कर्मशूर
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो साहस और दृढ़ता के साथ कर्म करने में प्रवृत्त हो । उद्योगी । कर्मवीर ।

कर्मशौच
संज्ञा पुं० [सं०] विनय । नम्रता [को०] ।

कर्मसंग
संज्ञा पुं० [सं० कर्मसङ्ग] सांसारिक कार्यों और उनके फलों के प्रति असक्ति [को०] ।

कर्मसंधि
संज्ञा पुं० [सं० कर्मसन्धि] दुर्ग बनाने के संबंध में दो राज्यों के बीच संधि [को०] ।

कर्मासंन्यास
संज्ञा पुं० [सं० कर्मसंन्यास] १. कर्म का त्याग । २. कर्म के फल का त्याग ।

कर्मसंन्यासी
संज्ञा पुं० [सं० कर्मन्यासिन्] कर्मत्यागी । यती ।

कर्मसाक्षी (१)
वि० [सं० कर्मसाक्षिन्] जो कर्मों का देखनेवाला हो । जिसके सामने कोई काम हुआ हो ।

कर्मसाक्षी (२)
संज्ञा पुं० वे देवता जो प्रणियों के कर्मों को देखते रहते हैं और उनके साक्षी रहते हैं । विशेष— ये नौ हैं— सूर्य, चंद्र, यम, काल, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ।

कर्मसिद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० कर्मसिद्धान्त] कर्मवाद । उ०— इस जटिल प्रश्न के उत्तर के में उपनिषद् कर्मसिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं ।— हिदु० सभ्याता, पृ० १२४ ।

कर्मसौंदर्य
संज्ञा पुं० [सं० कर्म+सौन्दर्य] कर्म में निहित सौंदर्य । कर्म की महानता उ०— वे प्रेम के लिये जीवनव्यापी कर्मसौंदर्य के प्रधान रूप को प्रकाश में लाने के लिये उत्सुक थे । — आचार्य० पृ० १६२ ।

कर्मस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. काम करने की जगह । २. फलित ज्योतिष में लग्न से दसवाँ स्थान जिसके अनुसार मनुष्य के पिता, पदा, राजसम्मान आदि के संबंध में विचार होता है । ३. वह स्थान जहाँ कारीगर काम करते हों । कतारखाना [को०] ।

कर्महीन
वि० [सं०] १. जिससे शुभ कर्म न बन पड़े । अकर्मनिष्ठ । २. अभागा । भाग्यहीन ।

कर्महीनी पु
वि० स्त्री०[सं० कर्महीन + ई] भाग्यहीन । अभागी । उ०— मंदमति हम कर्महीनी दोष काहि लगाइप । प्राणपति सों नेह बाँध्यो कर्म लिख्यो सो पाइए । — सूर (शब्द०) ।

कर्मांत
संज्ञा पुं० [सं० कमन्ति] १. काम का अंत । काम की समाप्ति । २. जोती हुई धरती । ३. अन्नभांड़ार (कौ०) । ४. कार्यालय । कारखना (कौ०) ।

कर्मांतिक
संज्ञा पुं० [हिं कर्मन्तिक] कर्मचारी मजदुर [को०] ।

कर्मा पु
वि० [हिं० कर्म + प्रा० (पत्य०)] दे० कर्मपरायण उ०— कर्मा धर्म स्रावग जैनी । ये उतर भौजल सैनी— घट०, पृ०, २९३ ।

कर्माकारी पु
संज्ञा पुं० [ हिं० कर्म +कारी] कर्म करनेवाला । कर्मकाड़ी । उ०— सुन हो पंड़ित कर्माकारी । ज्ञान पदार्थ तत्तु वौचारी । — प्राण०, पृ० २६४ ।

कर्माजीव
संज्ञा पुं० [सं०] किसी पेशे में जीवननिर्वाह करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

कर्मादान
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यापार जिसका श्रावकों के लिये निषेध हैं । विशेष— ये १५ हैं— १. इंगला कर्म । २. वन कर्म । ३. साकट कर्म या साडी कर्म । ४. भाडी कर्म । ५. स्फोटिक कर्म— कोडी कर्म । ६. दंतकुवाणिज्य । ७. लाक्ष— कुवाणिज्य । ८. रस- कुवाणिज्य । ९. केशकुवाणिज्य । १०. विषकुवाणिज्य । ११. यंत्रपीड़न । १२. निलाछन । १३. दावाग्नि— दान— कर्म । १४. शोषण कर्म । १५. असतीपोषण ।

कर्मापरोध
संज्ञा पुं० [सं०] चिकित्सा में असावधानी । बीमार का इलाज ठीक ढ़ग पर न करना ।

कर्मार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कारीगर (सुनार, लोहार इत्यादि) । २. कर्मकार । लोहार । ३ कमरख । ४. एक प्रकार का वाँस ।

कमश्रियाभृति
संज्ञा पुं० [सं०] काम के अच्छे़ बुरे अथवा कम या अधिक होने के अनुसार मजदूरी । कार्य के अनुसार वेतन ।

कर्मिष्ठ
वि० [सं०] १. कर्म करनेवाला । काम में चतुर । २. विधि- पूर्वक शास्त्रविहित संध्या, अग्निहोत्र आदि कर्म करनेवाला । क्रियावान् ।

कर्मी
वि० [सं० कर्मिन्] [स्त्री० कर्मिणी] १. कर्म करनेवाला । २. फल की आकांक्षा से यज्ञादि कर्म करनेवाले ।

कर्मीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारंगी रंग । किर्मीर । २. चितकबार रंग ।

कर्मोद्रिय
संज्ञा पुं० [सं० कर्मेन्द्रिय] काम करनेवाली इंद्रिय । वह इंद्रिय जिस हिला ड़ुलाकर कोई क्रिया उत्पन्न की जाती है । विशेष— कर्मेंद्रियाँ पाँच हैं— हाथ, पैर, वाणी, गुदा और उपस्थ । सांख्य में ग्यारह इंद्रियाँ मानी गई हैं । पाच ज्ञानेंद्रिय पाँच कर्मेंद्रिय और एक उभायात्मक मन ।

कर्मोपघातो
वि० [सं० कर्मोपघातिन्] काम बिगाड़नेवाला (को०) ।

कर्रा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० कराल] [ स्त्री० कर्री] जुलाहों का सूत फैलाकर तानने का काम । क्रि० प्र०— करना ।

कर्रा (२) †
वि० [हिं० कड़ा या करड़ा या कररा] १. कड़ा । सख्त ।२. कठिन । मुश्किल । जैसे, —कर्रा काम, कर्र मेहनत ।

कर्राना पु †
क्रि० अ० [हिं० कर्रा] कड़ा होना । कठोर होना । सख्त होना ।

कर्री (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो देहरादून और अवध के जंगलों तथा दक्षिण में पाया जाता है । विशेष— इसके पत्ते बहुत बड़े हैं और मार्च में झड़ जाते हैं । पत्ते चारे के काम आते हैं । इन वृक्ष में फल भी लगते हैं जो जून में पकते हैं ।

कर्री (२)
वि० [हिं० कर्रा का स्त्री०] कड़ी । कठोर ।

कर्रोफर
संज्ञा पुं० [अ० कर्र—उ—फ़र्र] गर्व । वैभव । उ०—गर न होता पास मेरे यह कँकर । काँसू होता मुज को इतना कर्रोंफर ।— दक्खिनी०, पृ० १८४ ।

कर्वट
संज्ञा पुं० [सं०] दो सौ गाँवों के बीच का कोइ सुंदर स्थान जहाँ आसपास के लोग इकट्ठे होकर लेनदेन और व्यापार करते हों । मंड़ी । २. नगर । ३. वह गाँव जो काँटेदार झाड़ियों से घिर हो ।

कर्वर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाप । २. चीत । ३. राक्षस [को०] ।

कर्वरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा । २. रात्रि । ३. राक्षसी । ४. मादा । चीता । व्याघ्री [को०] ।

कर्शन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अग्ति । आग [को०] ।

कर्शन (२)
वि० १. दुर्बल करनेवाला । क्षीण करनेवाला । २. कष्ट देनेवाला । कष्ट दायक [को०] ।

कर्शित
वि० [सं०] क्षीण । दुर्बल । कमजोर [को०] ।

कशर्य
संज्ञा पुं० [सं०] कचूर । नरकचूर । जरंबाद ।

कर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोलह माशे का एक मान । विशेषे— प्राचीन काल में माशा पाँच रत्ती का होता था । इससे आजकल के अनुसार कर्ष दस ही माशे का ठहरेगा । वैद्यक में कहीं कहीं कर्ष दो तोले का भी मान गया है । २. खिचाव । घसीटना ।३. जोताई । ४. (लकीर आदि) खींचना । खरोंचना । ५. बहैड़ा । ६. प्राचीन काल का एक प्रकार का सिक्का । विशेष— यह सिक्का आजकाल के हिसाब से लगभग ४ ।) मूल्य का होता था । यह चाँदी के १९ कार्षापण के बराबर था । इसे 'हुण' भी कहते थे ।

कर्ष (२)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ष] ताव । जोश । बढ़ाव । दे० ' करष' ।

कर्षक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खीचनेवाला । २. हल जोतनेवाला । किसान । खेतिहर ।— हम राज्य लिए मरते हैं । सच्चा राज्य परंतु हमारे कर्षक ही करते हैं । — साकेत, पृ० २८५ ।

कर्षक (२)
वि० खींचनेवाला [को०] ।

कर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कर्षित, कर्षी, कर्षक, कर्षणीय, कर्ष्य] १. खींचना । २. खरोंचकर लकीर ड़ालना । ३. जोतना । ४. कृषि कर्म । खेती का काम । ५. आकर्षण । खिंचाव । उ०— कितु तो भी कर्षण बलवंत है जब तक मिले हैं वे आपस में ।— अपरा, पृ० ९८ ।

कर्षणाविकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. खींचतान । २. आसक्ति और अनासक्ति । उ०— कर्षण विकर्षण भाव जारी रहेगा यदि इसी तरह आपस में ।— अपर, पृ० ९७ ।

कर्षणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यभिचारिणी स्त्री । कुलटा [को०] ।

कर्षना पु
क्रि० स० [कष + हिं० ना (प्रत्य०)] खींचना । उ०— कोउ आजु राज समाज में बल शंभु कों धनु कर्षिहै ।— केशव (शब्द०) ।

कर्षफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहेड़ा । विभीतक । २. आँवला ।

कर्षफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] आमलकी [को०] ।

कर्षिणी
संज्ञा वि० [सं०] १. खिरनी का पेड़ । क्षीरिणी वृक्ष । २. घोड़े की लगाम ।

कर्षित
वि० [सं०] १. खींचा हुआ । आकृष्ट किया हुआ । उ०— बार बार देखती चपल चित स्पर्श चकित कर्षित हो हर्षित ।— गीतिका, पृ० १४ । २. सताया हुआ । पीड़ित (को०) ।३. क्षीण किया हुआ (कों) । ४. जोता हुआ (को०) ।

कर्षिताभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि जिसको शत्रु ने पूर्ण रूप से निचोड़ लिया हो ।

कर्षी (१)
वि० [सं० कर्षिन्] आकर्षक । खींचनेवाला [को०] ।

कर्षी (२)
संज्ञा पुं० किसान । हल चलानेवाला [को०] ।

कर्षू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंड़े की आग । २. खेती । ३. जीविका ।

कर्षू (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा ताल । २. नदी । नहर । ४. छोटा कुंड़ जिसमें यज्ञ की अग्नि रखी जाती है । ५. कुँड़ । जुताई (को०) ।

कर्हि
क्रि० वि० [सं०] कब ? किसी समय ?

कर्हिचित्
क्रि० वि० [सं०] १. कभी । किसी समय । २. कदाचित् ।