विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/त
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ त
⋙ त
संस्कृत या हिंदी वर्णमाला का १६वाँ और तवर्ग का पहला अक्षर विसका उच्चारणस्थान दंत है । इसके उच्चारण में विवार, श्वास और अघोष प्रयत्न लगते हैं । इसके उच्चारण में आधी मात्रा का समय लगता है ।
⋙ तं
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाव । नोका । २. पुण्य । पवित्राता ।
⋙ तंक
संज्ञा पुं० [सं० तड़्क] १. भय । डर । वह दुःख जो किसी प्रिय के वियोग से हो । ३. पत्थर काटने की टाँकी । ४. पहनने का कपड़ा । ५. कष्टपूर्ण जीवन । विपत्तिमय जीवन (को०) ।
⋙ तंकन
संज्ञा पुं० [सं० तङ्कन] कष्टमय जीवन । दुःख के साथ जीवन व्यतीत करना [को०] ।
⋙ तंका पु
वि० [हिं० तंक] भयकारी । आतंक उत्पन्न करनेवाला । उ०— नरवल औ चितौड़ सुव तंका ।— ह० रासो, पृ० ५९ ।
⋙ तंग (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] घोड़ों की जीन कसने का तस्मा । घोड़ों की पेटी । कसन ।
⋙ तंग (२)
वि० १. कसा । दृढ़ । २. आजिज । दुखी । दिक । विकल । हैरान । मुहा०— तंग आना, तंग होना = घबरा जाना । थक जाना । तंग करना = सतान । दुःख देना । हाथ तंग होना = पल्ले पैसा न होना । धनहीन होना ।३. सँकंरा । संकुचित । पतला । चुस्त । संकीर्ण । ओछा । छोटा । सिकुड़ा हुआ । सकेत । उ०— कहै पदमाकर त्यों उन्नत उरोजन पै तंग अँगिया है तनी तनिन तनाइकै ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० १२६ ।
⋙ तंगदस्त
वि० [फा़०] १. कृपण । कंजूस । २. दरिद्री । धनहीन । गरीब ।
⋙ तंगदस्ती
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. कृपणता । कंजूसी । २. दरिद्रता । धनहीनता । गरीबी ।
⋙ तंगदिल
वि० [फा़०] कंजूस । उ०— हुआ मालूम यह गुंचे से हमको । जो कोइ जरदार है सो तंगदिल है ।— कविता कौ०, भाग० ४, पृ० ३० ।
⋙ तंगमजर
वि० [फा़० तंग + अ० नजर] १. तुच्छ दृष्टि का । सीमित दृष्टिवाला । बहुत कम देखनेवाला । उ०— उसने उनकी तुलना उन तंगनजर चींटियों से की, जो किसी प्रतिमा के सोंदर्य को इसलिये वहीं देख पातें कयोंकि उसपर रेंगते समय वे केवल उसके छोटे मोटे उतार चढ़ावों पर ही दृष्टि केंद्रित रखती हैं ।— प्रेम० और गोर्की, पृ० 'च' । २. अनुदार । दकियानूस ।
⋙ तंगनजरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तंगनजर + ई (प्रत्य०)] १. दृष्टि की संकीर्णता । दृष्टि की अल्पता । २. अनुदारता । दकियानूसी ।
⋙ तंगहाल
वि० [फ़्रा०] १. निर्धन । गरीब । २. विपद्ग्रस्त । कष्ट में पड़ा हुआ । ३. बीमार । रोगग्रस्त । मरणासन्न ।
⋙ तंगहाली
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तंग + अ० हाल + फ़ा० ई (प्रत्य०)] १. तंग होने की स्थिति । कठिनाई । २. अभाव । ३. परेशानी । दिक्कत । ४. अर्थाभाव की स्थिति [को०] ।
⋙ तंगा
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पेड़ । २. अधन्ना । डवल पैसा ।
⋙ तंगिश
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तंगी' ।
⋙ तंगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. तंग या सँकरे होने का भाव । संकी— णँता । संकोच । २. दुःख । तकलीफ । क्लेश । ३. निर्धनता । गरीबी । ४. कमी । उ०— बंध ते निर्बंध कीन्हा तोड़ सब तंगी । कहैं कबीर अगम गम कीया नाम रंग रंगी ।—कबीर श० भा० १, पृ० ७७ ।
⋙ तंजन
संज्ञा पुं० [फ़ा० ताजियाना] दे० 'ताजन' । उ०— जल बिनु पदुम घ्रानि बिनु चंपा विद्या चतूर धोड़ बिनु तंजन ।— सं० दरिया, पृ० ९० ।
⋙ तंजेब
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तनजेब] एक प्रकार का महीन और बढ़िया मलमल ।
⋙ तंड (१)
संज्ञा पुं० [सं० ताण्डव] नृत्य । नाच । उ०— बहुत गुलाब के सुगंध के समीर सने परत कुही है जल जंत्रन के तंड की ।— रसकुसुमाकर (शब्द०) ।
⋙ तंड (२)
संज्ञा पुं० [सं तण्डा] एक ऋषि का नाम ।
⋙ तंड पु (२) पुं०
संज्ञा पुं० [सं० तण्डा] १. वध । संहारा । २. आक्रमण । प्रहार । उ०— जिन बीरन बसि करन दुंद आराधत तंडहि ।— पृ० रा० ६ ।५९ ।
⋙ तंडक
संज्ञा पुं० [सं० तण्डक] १. खंलन पक्षी । २. फेन । ३. पेड़ का तना । ४. वह वाक्य जिसमें बहुत से समास हों । ५. बहुरूपिया । ६. सज्जा । सजावट (को०) । ७. ऐंद्रजालिक । बाजीगर (को०) । ८. पृर्वाभ्यास अथवा पूर्व अभिनय (को०) ।
⋙ तंड़ना पु
क्रि० स० [सं० तण्ड] नष्ट करता । समाप्त करना । उ०— तोप नगारो तंडियो, असुराँ देव अमाप ।— शिखर०, पृ० ९५ ।
⋙ तंडव पु
संज्ञा पुं० [सं० ताण्डव] नुत्पविशेष । एक प्रकार का नाट । जैसे,— दोऊ रति पंडित अखंडित करत काम तंडव सो मंडित कला कहूँ पूरन की ।— देव (शब्द०) ।
⋙ तंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० तण्डा] १. मार डालना । वध । २. आक्रमण । प्रहार [को०] ।
⋙ तंडि
संज्ञा पुं० [सं० तण्डि] एक बहुत प्राचीन ऋषि का नाम जिनका वर्णन महाभारत में आया है । इनके पुत्र के बनाए हुए मंत्र यजुर्वेंद में हैं ।
⋙ तंडीर पु
संज्ञा पुं० [सं० तूणीर] तूणीर । तरकस । उ०— तीन पनच धुनहीं करन बड़े कटन तंडीर ।— पृ० रा० ७ ।७९ ।
⋙ तंडु
संज्ञा पुं० [सं० तण्डु] महादेव जी के नंदिकेश्वर । नंदी ।
⋙ तंडुरण
संज्ञा पुं० [सं० तणडुरण] १. चावल का पानी । २. कीड़ा मकोड़ा ।
⋙ तंडुरीण
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुरीण] १. वह पानी जिसमें चावल धोया गया हो । चावल का धोवन । २. माँड़ । ३. बज्र मूर्ख । बबँर व्यक्ति । ४. कीड़ मकोड़ा [को०] ।
⋙ तंडुल
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुल] १. चावल । २. वाबिड़ंग । ३. तंडुली शाक । चोलाई का साग । ४. प्राचीन काल की हीरे की एक तोल जो आठ सरसों के बराबर होती थी ।
⋙ तंडुलजल
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलजल] चावल का पानी जो वैद्यक में बहुत हितकर बतलाया गया है । यह दो प्रकार से तैयार किया जाता है— (१) चावल को कूटकर अठगुने पानी में पकाकर छान लेते हैं, यह उत्तम, तंडुलजल है । (२) चावल को थोड़ी देर तक भीगोकर छान लेते हैं । यह तंडुलजल साधारण हैं ।
⋙ तंडुलांबु
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलाम्बु] १. तंडुलजल । २. माँड़ । पीच ।
⋙ तंडुला
संज्ञा स्त्री० [सं० तण्डुला] १. बायबिडंग । ककड़ी का पौधा । २. चोलाई का साग ।
⋙ तंडुलिया
संज्ञा स्त्री० [सं० तण्डुल] चौलाई । चोराई ।
⋙ तंडुली
संज्ञा स्त्री० [सं० तण्डुली] १. एक प्रकार की ककड़ी । २. चोलाई का साग । ३. यवतिक्ता नाम की लता ।
⋙ तंडुलीक
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलीक] चौलाई का साग ।
⋙ तंडुलीय
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलीय] चौलाई का साग ।
⋙ तंडुलीयक
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलीयक] १. बायबिड़ंग । २. चोलाई का साग ।
⋙ तंडुलीयिका
संज्ञा स्त्री० [सं० तणडुलीयिका] बायविडंग ।
⋙ तंडुलू
संज्ञा स्त्री० [सं० तण्डल] बायविड़ंग । बिड़ंग ।
⋙ तंडुलेर
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलेर] चौलाई का साग ।
⋙ तंडुलेरक
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलेरक] चौलाई का साग ।
⋙ तंडुलोत्थ
संज्ञा पुं० [सं० तणडुलोत्थ] चावल का पानी । दे० 'तंडुल जल' ।
⋙ तंडुलोत्थक
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलोत्थक] दे० 'तंडुलोत्थ'[को०] ।
⋙ तंडुलोदक
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलोदक] चावल का पानी । दे० 'तंडुलजल' ।
⋙ तंडुलौघ
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुलोघ] १. एक प्रकार का बाँस । कट— वाँसी । २. अनाज का ढेर (को०) ।
⋙ तंत (१)पु †
संज्ञा पुं० [सं० तन्तु] 'तन्तु' । उ०— किंगरी हाथ गहै बैरागी । पाँच तंत घुनि यह एक लागी ।— जासयी (शब्द०) ।
⋙ तंत (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तुरंत] किसी बात के जल्दी । आतुरता । उतावली । उ०— ध्यान की मूरति आँखि ते आगे जानि परत रघुनाथ ऐसे कहति हैं तंत सों ।— रघुनाथ (शब्द०) । क्रि० प्र०— लगाना ।
⋙ तंत (३)
संज्ञा पुं० [सं० तत्व] दे० 'तत्व' । उ०— योगिहि कोह न चाही तब न मोहि रिस लाग । योग तंग ज्यों पानी काहि करै तेहि आग ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ तंत (४)
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्र] १. वह बाज जिसमें बजाने के लिये तार लगे हों । जैसे,— सितार, बीन, सारंगी । उ०— (क) नटिनी डोमिनि ढोलिनी सहनाईनि भेरिकार । निरतन तंत विनोद सउँ बिहँसत खेलति नारि ।— जायसी (शब्द०) । (ख) तंतन की झनकार बजन झीनी झीनी ।— संतवाणी०, पृ० २३ । २. क्रिया । उ०—जनु उन योग तंत अब खेला ।—जायसी (शब्द०) । ३. तंत्रशास्त्र । उ०— कइ जीउ तंत मंत सउं हेरा । गएउ हेराय सो वहु भा मेरा ।— जायसी (शब्द०) ४. इच्छा । प्रबल कामना । उ०— (क) दिसि परजंत अनंत ख्यात जय बिजय तंत जिय ।— गोपाल (शब्द०) । बुद्धिमंत दुतिमंत तंत जय मय निरधारत ।—गोपाल (शब्द०) । ५. वश । अधीनता । उ०— त्यों पदमाकर आइगो कंत इकंत जबैं निज तंत मैं । पद्माकर (शब्द०) । विशेष— दे० 'तंत्र' ।
⋙ तंत (५)
वि० जो तौल में ठीक हो । जो वजन में बराबर हो ।
⋙ तंतमंत पु
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रमन्त्र] दे० 'तत्र मंत्र' । उ०— कइ जिउ तंत मंत सों हेरा । गएउ हिराय जो वह भा मेरा— जायसी (शब्द०) ।
⋙ तंतरी पु
संज्ञा पुं० [सं० तंत्री] वह तारवाले बाजे बजाता हो । उ०— आयो दुसह बसंत री कंत न आए बीर । जन मन बेधत तंतरी मदन सुमन के तीर ।— श्रृ० संत० (शब्द०) ।
⋙ तंताल पु
संज्ञा पुं० [?] पाताल । उ०— नभ नाल तंताल धराल मिले त्रयलोक सुरप्पति बिद्धि सही ।—राम० धर्म०, पृ० ३०० ।
⋙ तंति
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्ति] १. गौ । गाय । २. रस्सी (को०) । ३. पंक्ति (को०) ।४. शृंखला (को०) । ५. फैलाव । प्रसार (को०) ।
⋙ तंति (२)
संज्ञा पुं० जुलाहा ।
⋙ तंति पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्त्री] १. तंत्री । वीणा । उ०—नृत्तंत एक संगीत भति । नारद्द रिभझ कर धरत तंति ।— पृ० रा०, ६ ।४१ । २. तांत । प्रत्यंत । डोरी । गुण । उ०— नव पुहु्पन के धनुष बनावे । मधुप पाँति तिनि तंति चढ़ावे ।— नंद० ग्रं०, पृ० १६४ ।
⋙ तंतिपाल
संज्ञा पुं० [तन्तिपाल] १. सहदेव का वह नाम जिससे वह अज्ञातवास के विराट के यहाँ प्रसिद्ध थे । २. वह जो गौ की रक्षा या पालन करता हो ।
⋙ तंती पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तंत्री' । उ०— तंतिनाद । तँबोल रस सुरहि सुगंधउ जाँह ।— ढोला०, दू० २२३ ।
⋙ तंतु (१)
संज्ञा पुं० [सं० तन्तु] १. सूत । डोरा । तागा । यौ०— तंतुकीठ । २. ग्राह । ३. संतति । संतान । बाल बच्चे । ४. विस्तार । फैलाव । ५. यज्ञ की परंपरा । ६. वंशपरंपरा । ७. ताँत । ८. मकड़ी का जाला ।
⋙ तंतु (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्र] तंत्र । उ०— जिहि मूरि औषद लगै, जहि तंतु नहि मंतु । पिय पऊष पावै नहीं, व्याधि कहत इमि जंतु ।— रस र०, पृ० ५० ।
⋙ तंतुक (१)
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुक] १. सरसों । २. (केवल समासांत में) सूत्र । रस्सा (को०) । ३. सर्प (को०) ।
⋙ तंतुक (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाड़ी ।
⋙ तंतुकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुकाष्ठ] जुलाहों की एक लकड़ी जिसे तूली कहते हैं ।
⋙ तंतुकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाड़ी ।
⋙ तंतुकीट
संज्ञा पुं० [सं०तन्तुकीट] १. मकड़ी । २. रेशम का कीड़ा ।
⋙ तंतुजाल
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुजाल] नसों का समूह (वैद्यक) ।
⋙ तंतुण
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुण] १. एक बड़ी मछली । २. मगर [को०] ।
⋙ तंतुन
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुन] दे० 'तंतुण' [को०] ।
⋙ तंतुनाग
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुनाग] मगर ।
⋙ तंतुनाभ
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुनाभ] मकड़ी ।
⋙ तंतुनिर्यास
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुनिर्यास] ताड़ का पेड़ ।
⋙ तंतुपर्व
संज्ञा पुं० [सं० तंतुपर्व्वन] श्रावण की पूर्णिमा जिस दिन रखी बाँधी जाती है । रक्षाबंधन ।
⋙ तंतुभ
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुभ] १. सरसों । २. बछड़ा ।
⋙ तंतुमत्
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुमत्] आग ।
⋙ तंतुमान्
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुमत्] आग [को०] ।
⋙ तंतुर
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुर] मृणाल । भसीड़ । मुरार । कमल की जड़ । कमलनाल ।
⋙ तंतुल
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्तुल] दे० 'तंतुर' ।
⋙ तंतुवर्धन (१)
वि० [सं० तन्तुवर्धन] जाति को बढ़ानेवाला [को०] ।
⋙ तंतुवर्धन (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु । २. शिव [को०] ।
⋙ तंतुवादक
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुवादक] तंत्री । बीन आदि तार के बाजे बजानेवाला । उ०— बहुरि तंतुवादक रघुराई । गान करन में निपुन बनाई ।— रामाश्वमेध (शब्द०) ।
⋙ तंतुवाद्य
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुवाद्य] १. तारवाला बाजा [को०] ।
⋙ तंतुवाप
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुवाप] १. ताँत । २. ताँती । दे० 'तंतुवाय' ।
⋙ तंतुवाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपड़े बुननेवाला । तांती । विशेष— भिन्न भिन्न स्मृतियों में इनकी उत्पति भन्नि भिन्न प्रकार से बतलाई गई है । किसी में इन्हें मणिबंध पुरुष और मणिकार स्त्री से और किसी में वैश्य पिता और क्षत्रियाणी माता के गर्भ से उत्पन्न बतलाया गया है । इनकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक प्रकार की कथाएँ भी हैं । २. मकड़ी । उ०— आकाश जाल सब ओर तना, रवि तंतुवाय है आज बना । करता है पदप्रहार वही, मक्खी सी भिन्ना रही मही ।— साकेत, पृ० २६७ ।
⋙ ततुवायदंड
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुवायदण्ड़] करघा [को०] ।
⋙ तंतुविग्रह
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुविग्रह] केले का पेड़ ।
⋙ तंतुविग्रहा
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्तुविग्रहा] केले का पेड़ [को०] ।
⋙ तंतुशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्तुशाला] जुलाहे का कपड़ा बुनने का स्थान [को०] ।
⋙ तंतुसंतत
वि० [सं० तनतुसन्तत] बुना हुआ [को०] ।
⋙ तंतुसंतति
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्तुसन्तति] बुनाई [को०] ।
⋙ तंतुसंतान
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुसन्तान] बुनाई [को०] ।
⋙ तंतुसार
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुसार] सुपारी का पेड़ ।
⋙ तंत्र
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्र] १. तंतु । ताँत । २. सूत । ३. जुलाहा । ४. कपड़ा बुनने की सामग्री । ५. कपड़ । वस्त्र । ६. कुटुंब के भरण और पोषण आदि का कार्य । ७. निश्चित सिद्धांत । ८. प्रमाण । ९. औषध । दवा । १०. झाड़ने फूँकने का मंत्र । ११. कार्य । १२. कारण । १३. उपाय । १४. राज- कर्मचारी । १५. राज्य । १६. राज का प्रबंध । १७. सेना । फौज । १८. अधिकार । १९. कार्य का स्थान । पद । २०. समूह । २१. प्रसन्नता । आनंद । २२. घर । मकान ।२३. धन । संपत्ति । २४. अधीनता । परवश्यता । २५. श्रेणी । वर्ग । कोटि । २६. दल । २७. उद्देश्य । १८. कुल । खानदान । २९. शपथ । कसम । ३०. हिदुओं का उपासना संबंधी एक शास्त्र । विशेष— लोगों का विश्वास है कि यह शास्त्र शिवप्रणीत है । यह शास्त्र तीन भागों में विभक्त है— आगम, यामल और मुख्य तंत्र । वाराही तंत्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सब कार्यों के साधना, पुरश्चरण, षट्कर्म- साधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो, उसे आगम और जिसमें सृष्टितत्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं; और जिसमें सृष्टि, लट, मंत्रनिर्णय, देवताओं, के संस्थान, यंत्रनिर्णय, तीर्थ, आश्रम, धर्म, कल्प, ज्योतिष संस्थान, व्रत- कथा, शौच और अशौच, स्त्री—पुरूष—लक्षण, राजधर्म, दान— धर्म, युवाधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक विषयों का वर्णन हो, वह तंत्र कहलाता है । इस शास्त्र का सिद्धांत है कि कलि- युग में वैदिक मंत्रों, जपों और यज्ञों आदि का कोई फल नहीं होता । इस युग में सब प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिये तंत्राशास्त्र में वर्णित मंत्रों और उपायों आदि से ही सहायता मिलती है । इस शास्त्र के सिद्धांत बहुत गुप्त रखे जाते हैं और इसकी शिक्षा लेने के लिये मनुष्य को पहले दीक्षित होना पड़ना है । आजकल प्रायः मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि के लिये तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों आदि के साधन के लिये ही तंत्रोक्त मंत्रों और क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है । यह शास्त्र प्रधानतः शाक्तों का ही है और इसके मंत्र प्रायः अर्थहीन और एकाक्षरी हुआ करते हैं । जैसे,— ह्नीं, क्लीं, श्रीं, स्थीं, शूं, क्रू आदि । तांत्रिकों का पंचमकार— मद्य, मांस, मत्स्य, मुदेरा और मैखुन— और चक्रपूजा प्रसिद्ध है । तांत्रिक सब देवताओं का पूजन करते है पर उनकी पूजा का विधान सबसे भिन्न और स्वतंत्र होता है । चक्रपूजा तथा अन्य अनेक पूजाओं में तांत्रिक लोग मद्य, मांस और मत्स्य का बहुत अधिकता से व्यवहार करते हैं और धोबिन, तेलिन आदि स्त्रियों को नंगी करके उनका पूजन करते है । यद्यपि अथर्ववेद संहिता में मारण, मोहन, उच्चाटन और वशीकरणआदि का वर्णन और विधाना है तथापि आधुनिक तंत्र का उसके साथ कोई संबंध नहीं हैं । कुछ लोगें का विश्वास है कि कनिष्क के समय में और उसके उपरांत भारत में आधुनिक तंत्र का प्रचार हुआ है । चीनी यात्री फाहियान और हुएनसांग ने अपने लेखों में इस शास्त्र का कोइ उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि तंत्र का प्रचार कब से हुआ पर तो भी इसमें संदेह नहीं कि यह ईसवी चौथी या पांचवीं शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है । हिंदुओं की देखादेखी बौद्धों में भी तंत्र का प्रचार हुआ और तत्संबंधी अनेक ग्रंथ बने । हिंदू तांत्रिक उन्हों उपतंत्र कहते हैं । उनका प्रचार तिब्बत तथा चीन में है । वाराही तंत्र में यह भी लिखा है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गर्ग, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतंत्रों की रचना की है ।
⋙ तंत्रक
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रक] नया कपड़ा ।
⋙ तत्रकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्राकाष्ठ] दे० ' तंतुकाष्ठ' [को०] ।
⋙ तंत्रण
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रण] शासन या प्रबंध आदि करने का काम ।
⋙ तंत्रता
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्त्रता] कई कार्यों के उद्देश्य से कोइ एक कार्य करना । कोइ ऐसा कार्य करना जिससे अनेक उद्देश्य सिद्ध हों । जैसे, यदि किसी ने अनेक प्रकार के पाप किए हों तो उनमें प्रत्येक पाप के लिये प्रायश्चित्त न करके एक ऐसा प्राय- श्चित्त करना जिससे सब पाप नष्ट हो जायँ अथवा बार बार अस्पृश्य होने की दशा में प्रत्येक बार स्नान न करके सबके अंत में एक ही बार स्नान कर लेना । (धर्मशास्त्र) ।
⋙ तंत्रधारक
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्राधारक] यज्ञ आदि कार्यों में वह मनुष्य जो कर्मकाड़ आदि की पुस्तक लेकर याज्ञिक आदि के साथ बैठता हो । विशेष— स्मृतियों के अनुसार यज्ञ आदि में ऐसे मनुष्य का होना आवश्यक है ।
⋙ तंत्रमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्र + मन्त्र] जादुगोरी । जादू टोना । २. उपाय । युक्ति । ढब । ३. साधक द्वारा साधना में प्रयुक्त तंत्रादि ।
⋙ तंत्रयुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्त्रयुक्ति] वह युक्ति जिसकी सहायता से किसी वाक्य का अर्थ आदि निकालने या समझने में सहायता ली जाय । विशेष— सुश्रुत संहिता में तंत्रयुक्तियाँ इस प्रकार की बताई गई हैं ।— अधिकरण, योग, पदार्थ, हेत्वर्थ, प्रदेश, अतिदेश, अपवर्ग, वाक्यशेष, अर्थापत्ति, विपर्यय, प्रसंग, एकांत अनेकांत, पूर्व पक्ष, निर्णय, अनुमत, विधान अनागतवेक्षण, अतिक्रांतावेक्षण, संशय, व्याख्यान, स्वसंज्ञा, निर्वचन, निदर्शन, नियोग, विकल्प, समुच्चय और ऊह्य ।
⋙ तंत्रावाद्य
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रवाद्य] तारवाले वाद्य यंत्र । जैसे, वीणा, सांरगी आदि ।
⋙ तंत्रवाप
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रावाप] १. तंतुवाय । तांती । २. मकड़ी ।
⋙ तंत्रावाय
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रवाय] १. तंतुवाय । ताँती । २. मकड़ी । ३. ताँत ।
⋙ तंत्रसंस्था
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रसंस्था] वह संस्था जो राज्य का शासन या प्रबंध करे । गवर्नमेंट । सरकार ।
⋙ तंत्रस्कंद
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रस्कन्द] ज्योतिष शास्त्र का वह अंग जिसमें गणित के द्वारा ग्रहों गति आदि का निरूपण होता है । गणित ज्योतिष ।
⋙ तंत्रस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्त्रस्थिति] राज्य के शासन की प्रणाली ।
⋙ तंत्रहोम
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रहोम] वह होम जो तंत्रशास्त्र के मत से हो ।
⋙ तंत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्त्रा] दे० 'तंद्रा' ।
⋙ तंत्रायी
संज्ञा पुं० [सं० तंत्रायिन्] सूर्य [को०] ।
⋙ तंत्रि
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्त्रि] १. तंत्री । २. तंद्रा । ३. तार । तंत्र (को०) । ४. वीणा का तार (को०) । ५. नस । शिरा (को०) । ५. पूँछ । दुम (को०) । ७. विचित्र गुणों से युक्त शौ (को०) । ८. वीणा (को०) । ९. अमृता । गुड़ूची (को०) ।
⋙ तंत्रिपाल
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रिपाल] दे० 'तंतिपाल' ।
⋙ तंत्रिपालक
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रिपालक] जयद्रथ का एक नाम ।
⋙ तंत्रिमुख
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रिमुख] हाथ की एक मुद्रा या स्थिति [को०] ।
⋙ तंत्रिल
वि० [सं० तन्त्रिल] राजकार्य में लग्न [को०] ।
⋙ तंत्री (१)
१. बीन, सितार आदि बाजों में लगा हुआ तार । २. गुड़ूची । गुरुच । ३. शरीर की नस । ४. एक नदी का नाम । ५. रज्जु । रस्सी । ५. वह बाजा जिसमें, बजाने के लिये तार लगे हों । तंत्र । जैसे, सितार, बीन, सारंगी आदि । ७. वीणा ।
⋙ तंत्री (२)
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रिन्] १. वह जो बाजा बजाता हो । २. वह जो गाता हो । गवैया । उ०— तंत्री काम क्रोध निज दोऊ अपनी अपनी रोति । दुविधा दुंदुभि है निसिवासर उपजावति विपरूत ।— सूर (शब्द०) । ३. सैनिक (को०) ।
⋙ तंत्री (३)
वि० १. जिसमें तार लगे हों । तार का बना हुआ । २. जो तारवाला हो (जैसे, वीणा) । ३. तंत्र का अनुसरण करनेवाला [को०] ।
⋙ तंत्री (४)
वि० [सं० तन्त्रिन्] १. आलसी । २. अधीन ।
⋙ तंत्रीभांड
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रीभाण्ड] वीणा [को०] ।
⋙ तंत्रीमुख
संज्ञा पुं० [सं० तन्त्रीमुख] हाथ कै एक मुद्रा या अवस्थान ।
⋙ तंदरा पु †
संज्ञा पु० [सं० तन्द्रा] दे० ' तंद्रा' । उ०—/?/तरिणि जुन्हाई ज्यों तरुण तम तरुणी तपी ज्यों तरुण ज्वर तंदरा ।— देव (शब्द०) ।
⋙ तंदान
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बढ़िया अंगूर जो क्वेटा के आसपास होता है और जिसको सुखाकर किशमिश बनाते हैं ।
⋙ तंदिही
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तनदिही] दे० ' तंदेही' । उ०— मगर कोशिश व तंदिही करने से वह सब आसानी रफा हो सकती है ।—श्रीनिवास० ग्रं०, पृ० ३२ ।
⋙ तंदुआ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बारहमासी घास जो ऊसर जमीन में ही जमती है और चारे के काम में आती है । यह ऊसर जमीन में खाद का भी काम देती है ।
⋙ तंदुरुस्त
वि० [फ़ा०] जिसका स्वास्थ्य अच्छा हो । जिसे कोई रोग या बीमारी न हो । निरोग । स्वस्थ ।
⋙ तंदुरुस्ती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. शरीर की आरोग्यता । निरोग होने की अवस्था या भाव । २. स्वास्थ ।
⋙ तंदुल †पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० तण्डुल] १. दे० 'तडुल' । उ०— (क) तंहल माँगि दो चिलाई सो दीन्हों उपहार । फाटे बसन बाँधि कै । रजवर अति दुर्बल तनहार ।— सूर (शब्द०) (ख) तिल तंदुल के न्याय सों है संसृष्टि बखान । छीर नीर के न्याय सों संकर कहत सुजान ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० ७४ । २. दे० ' तंडुल' । उ०— आठ श्वेत सरसों को तंदुल जानिये । दश तंदुल परिमाण सुगुंजा मानिये ।— रत्नपरीक्षा (शब्द०) ।
⋙ तंदुल पु (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० तंदुर] गर्जन । आवाज । ध्वनि । उ०— बज चिक्कार फिकार सबद्दं । तंदुल तबल मृदंग रबइं ।— पृ० रा०, ९ ।१२७ ।
⋙ तंदुलीयक
संज्ञा पुं० [सं० तंदुलीयक] चौलाई का शाक । चौराई का साग ।
⋙ तदुर
संज्ञा पुं० [फ़ा० तनूर] अँगीठी, चूल्हे या भट्ठी आदी की तरह का बना हुआ एक प्रकार का मिट्टी का बहुत बड़ा, गोल और ऊँचा पात्र जिसके नीचे का भाग कुछ अधिक चौड़ा होता है । उ०— आज तंदूर से गरम रोटी लपककर भूखे की झोली में आ गिरी ।— बंदनवार, पृ०, ५९ । विशेष— इसमें पहले लकड़ी आदि की खूब तेज आँच सुलगा देते हैं और जब वह खूब तप जाता है तब उसकी दीवारों पर भीतर की ओर मोटी रोटियाँ चिपका देते हैं जो थोड़ी देर में सिककार लाल हो जाती हैं । कभी कभी जमीन में गड़्ढा खोदकर भई तंदूर बनाया जाता है । क्रि० प्र०—लगाना । मुहा०— संदूर झोंकना = भाड़ झोंकना । निकृष्ट काम करना ।
⋙ तंदूरी (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का रेशम जो मालदह से आता है । विशेष— इसका रंग पीला होता है और यह अत्यंत बारीक और मुलायम होता है । यह किरची से कुछ घटिया होता है ।
⋙ तंदूरी (२)
वि० [हिं० तंदूर + ई (प्रत्य०)] तंदूर संबंधी । जैसे, तंदूरी रोटी ।
⋙ तंदेही
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तबदिही] १. परिश्रम । मेहनत । २. प्रयत्न । कोशिश । ३. किसी काम को करने के लिये बार बार चेतावनी । ताकीद । क्रि० प्र०—करना । रखना ।
⋙ तंद्रा
वि० [सं० तंद्र] १. थकित । क्लांत । २. सुस्त । आलसी [को०] ।
⋙ तंद्रवाप, तंद्रवाय
संज्ञा पुं० [सं० तन्द्रवाय, तनद्रवाय] दे० ' तंतुवाय' ।
⋙ तंद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्द्रा] १. वह अवस्था जिसमें बहुत अधिक नींद मालूम पड़ने के कारण मनुष्य कुछ कुछ सो जाय । उँधाई । ऊँघ । २. वह हलकी बेहोशी जो चिंता, भय, शोक या दुर्बलता आदे के कारण हो । विशेष— वैद्यक के अनुसार इसमें मनुष्य को व्याकुलता बहुत होती है, इंद्रियों का ज्ञान नहीं रह जाता, जँभाई आती है, उसका शरीर भारी जान पड़ता है, उससे बोला नहीं जाता तथा इसी प्रकार की दूसरी बातें होती हैं । तंद्रा कटुतिक्त या कफनाशक वस्तु खाने और व्यायाम करने से दूर होती है । क्रि० प्र०—आना ।
⋙ तंद्रालस
वि० [सं० तन्द्रा + अलस] १. तंद्रालीन । आलस्ययुक्त । सुस्त । २. क्लांत । थकित । ३. निद्रित । उ०— भीतर नंद- राम और प्रेमा का स्नेहालाप बंद हो चुका था । दोनों तंद्रा- लस हो रहे थे ।— इंद्र०, पृ० २२ ।
⋙ तंद्रालु
वि० [सं० तन्द्रालु] चिसे दंद्रा आती हो ।
⋙ तंद्रि
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्द्रि] दे० 'तंद्रा' ।
⋙ तंद्रिक
संज्ञा पुं० [सं० तन्द्रिक] एक प्रकार का ज्वर [को०] ।
⋙ तंद्रिक सन्निपात
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा सन्निपात ज्वर जिसमें उँघाई विशेष आए, ज्वर वेग से चढे, प्यास विशेष लगे, जीभ काली होकर खुरखुरी हो जाय, दम फूले, दस्त विशेष हों, जलन न हो और कान में दर्द रहे । इसकी अवधि २५ दिन है ।
⋙ तंद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्द्रिका] दे० 'तंद्रा' ।
⋙ तंद्रित
वि० [सं० तन्द्रित] तंद्रा युक्त । अलसाया हुआ । उ०— थक तंद्रित राग रोग है, अब जो जाग्रत है वियोग है ।— साकेत, पृ० ३२१ ।
⋙ तंद्रिता
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्द्रिता] तेद्रा में होने का भाव ।
⋙ तंद्रिल
वि० [सं० तन्द्रिल] १. जिसे तंद्रा आदी हो । आलसी । २. तंद्रा या आलस्य से युक्त । ३. अलसाया हुआ । तंद्रित । सुस्त । उ०— तंद्रिल तरुतल, छाया शीतल, स्वप्निल मर्मर । हो साधारण खाद्य उपकरण, सुरा पात्र भर ।—मधुज्वाल, पृ० ९० ।
⋙ तंद्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्द्री] १. तंद्रा । २. भृकुटी । मौंह ।
⋙ तंद्रो (२)
वि० [सं० तंद्रिन्] १. थका हुआ । क्लांत । २. आलसी [को०] ।
⋙ तंपा
संज्ञा स्त्री० [सं० तम्पा] गौ । गाय ।
⋙ तंफना पु
क्रि० अ० [सं० स्तम्भन] स्तंभना । स्तंभित होना । उ०— धरि ध्यान ध्यान तिन अगनि ईस । षडे सु जग्गि तंफै जगीस । पृ० रा० १ । ४८८ ।
⋙ तंबा (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० तम्बा] गौ । गाय ।
⋙ तंबा (२)
संज्ञा पु० [अं० तंबान] बहुत चौड़ी मोहरी का एक प्रकार का पायजामा । उ०—तंबा सूथन सरो जाँधिया तनियाँ धवला । पगरी चीरा ताजगोस वंदा सिर अगला ।—सूदन (शब्द०) ।
⋙ तंबाकू
संज्ञा पु० [अं० टोबैको] दे० 'तमाकू' ।
⋙ तंबाकूगर
संज्ञा पुं० [हिं० तंबाकू + फा़० गर] तमाकू बनानेवाला ।
⋙ तंबालू †
संज्ञा पुं० [देश०] एक पौधा । उ०— निकल आया मूँ तंबालू के सार ।— दक्खिनौ० पृ० ९० ।
⋙ तंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० तम्बिका] गौ । गाय ।
⋙ तंबिया
संज्ञा पुं० [हिं० ताँबा + इया (प्रत्य०)] १. ताँबे का बना हुआ छोटा तसला या इसी प्रकार का और कोई गोल बरतन । २. किसी प्रकार का तसला ।
⋙ तंबीर
संज्ञा पुं० [सं० तम्बीर] ज्योतिष का एक योग । उ०— होय तंबीर जब कठिन कुँदी करै चामदल कष्ट तहाँ परै गाढ़ी ।— राम० धर्म०, पृ० ३८१ ।
⋙ तंबीह
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. ऐसी मूचना या क्रिया आदि जिसके कारण कोई मनुष्य आगे के लिये सावधान रहे । नसीहत । शिक्षा । २. दंड । सजा । (लश०) ।
⋙ तंबू
संज्ञा पुं० [हिं० तनना] १. कपडै़, टाट, कनवास, आदि का बना हुआ वह बड़ा घर जो खंभों और खूँटों पर तना रहता है और जिसे एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान तक ले जा सकते हैं । खेमा । डेरा । शिविर । शामियाना । विशेष— साधारणतः तंबू का व्यवहार जंगलों में शिकार आदि के समय रहने अथवा नगरों में सार्वजनिक सभाएँ, खेल, तमाशे और नाच आदि करने के लेये होता है । क्रि० प्र०—खड़ा करना ।—तानना । २. एक प्रकार कौ मछली जो वाँद की तरह होती है ।
⋙ तंबुआ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० तम्बू] दे० 'तंबू' । उ०—हाथी घोड़ा तंबुआ आवै केहि कामा । फूलन सेज बिछावते फिर गोर मुकाम ।— पलटू०, भा० ३, पृ० ९७ ।
⋙ तंबूर (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का छोटा ढोल ।
⋙ तंबूर (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तंबूरा' ।
⋙ तंबूरची
संज्ञा पुं० [फा़० तम्बूर + ची (प्रत्य०)] तंबूर बजानेवाला ।
⋙ तंबूरा
संज्ञा पुं० [हिं० तानपूरा या तुम्बुरु (गंधर्व)] बीन या सितार की तरह का एक बहुत पुराना बाजा जो अलापचारी में केवल सुर का सहारा देने के लिये बजाया जाता है । तान- पूरा । उ०— अजब तरह का बना तंबूरा, तार लगे सौ साठ रे । खूँटी टूटी तार बिलगाना कोई न पूछे बात रे ।— कबीर श०, पृ० ४७ । विशेष— इससे राग के बोल नहीं निकाले जाते । इसमें बीच में लोहे के दो तार होते हैं जिनके दोनों ओर दो और तार पीतल के होते हैं । कुछ लोग कहते हैं कि इसे तुंबुरु गंधर्व ने बनाया था, इसी से इसका नाम तंबूरा पड़ा । इसकी जवारी पर तारों के नीचे सूत रख देते हैं जिसके कारण उनसे निकलनेवाले स्वर में कुछ झनझनाहट आ जाती है ।
⋙ तंबूरा तोप
संज्ञा स्त्री० [हिं० तंबुरा + तोप] एक प्रकार की बड़ी तोप ।
⋙ तंबूल पु †
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूल] पान । तांबूल ।
⋙ तंबेरण पु
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बेरम] हाथी (डिं०) ।
⋙ तंबेरम पु
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्बेरम] हाथी उ०— पानहु दीन्ह समुद्र हलोरा, लहट मनुज तंबेरम घोरा ।—इंद्रा०, पृ० ९६ ।
⋙ तंबोल
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूल] १. दे० 'तांबू' । और 'तमोल' । उ०— अपु सरूप सजि झग्गरहिं ऐकु तल अरु तेल्लु ।—अकबरी०, पृ० ३१२ । २. एक प्रकार का पेड़ जिसके पत्ते लिसोडे़ के पत्तों से मिलते जुलते होते हैं । ३. वह धन जो बरात के समय वर को दिया जाता है । (पंजाब) । ४. वह धन जो विवाह या बरात के/?/ते के साथ मार्ग- व्यय के लिये भेजा जाता है । (वुंड वंड) । ५. वह खून जो लगाम की रगड़ के कारण घोडे़ के मुँह से निकलता है । (साईस) । क्रि० प्र०—आना ।
⋙ तंबोलिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० तम्बोली का स्त्री०] पान बेचनेवाली स्त्री । बरइन ।
⋙ तंबोलिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० तम्बूल + इया (प्रत्य०)] पान के आकार की एक प्रकार की मछली जो प्रायः गंगा और जमुना में पाई जाती है ।
⋙ तंबोली
संज्ञा पुं० [हिं० तम्बोल + ई (प्रत्य०)] जो पान बेचता हो । पान बेचनेवाला । करई ।
⋙ तंभ पु
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भ] शृंगार रस के १० वों में से एक । स्तंभ । उ०— मोहति मुरति आँसू स्वेत अपुलक विबनं कंप सुरभंग मूरछि परति है ।— देव (शब्द०) ।
⋙ तंभन
संज्ञा पुं० [सं० स्तम्भन] शृंगार रस के १० सात्विक भावों में से एक । स्तंभन । उ०— आरंबन तंभन स्तंभ परिरंभन कचगृह संरभन चुंबन घनेरे ई ।—देव (शब्द०) ।
⋙ ताबती
संज्ञा स्त्री० [सं० तम्भावती या हिं०] संपूर्ण आति की एक रागिनी जो रात के दूसरे पहर में गाई जाती है ।
⋙ तमोल पु
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूल] दे० 'तमोल' । उ०— (क) अधराम रागु तंमोल जौभ ।— प० रासो०, पृ० ६५ । (ख) दुति दसन हीर तंमो रंग । दाड़िमी बीज मान तुरंग ।— रसरतन०, पृ० २४६ ।
⋙ तँई
प्रत्य० [हिं०] दे० 'तई' ।
⋙ तँकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टंकारी' ।
⋙ तँगिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० तगिया] दे० 'तेगी' ।
⋙ तँडलना पु
क्रि० स० [सं० तण्ड] तोड़ना । उ०— अल्ह झोक आयक्क, तेग आबल कर दँडला ।— रा० रू०, पृ० ८५ ।
⋙ तँबरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तबला' । उ०— डीग/?/तँबरा बाजा, देखो फिरंगी का— पोद्दार अभि० ग्रं०/?/६९ ।
⋙ तँबियाना
क्रि० अ० [हिं० ताँबा] १. ताँबे के रंग का । २. ताँबे के बरतन में रहने कारम किसी पदार्थ में ताँबे का स्वाद या गंध आ जाना ।
⋙ तँबुआ पु
संज्ञा पुं० [हिं० तेबू] दे० 'तंबू' ।
⋙ तँबूरची
संज्ञा पुं० [फा० तंबू जी (प्रत्य०)] दे० 'तंबूरची' ।उ०— कहै पदमाकर तिलँगी भीर भृंगन को मेजर तँबूरची मयूर गुम गायो है ।— पद्माकर ग्रं०, पृ०, ३२० ।
⋙ तँबोर पु
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूल] दे० 'तमोर' । उ०— दृग अनुरागे पागे रंग तँबोर ।— घनानंद, पृ० ३३४ ।
⋙ तँबोल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तांबूल' । उ०— मुख तँबोल रंग धारहिं रासा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९० ।
⋙ तँबोलिन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० तम्बोली] दे० 'तंबोलिन' ।
⋙ तँबोलिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० तंबोल + इया (प्रत्य०)] दे० 'तंबोलिया' ।
⋙ तँबोली
संज्ञा पुं० [हिं० तम्बोल + ई (प्रत्य०)] दे० 'तंबोली' ।
⋙ तँमोर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तमोर' । उ०— मंगल अरमाने दृग राजत अधर मंगल रुचि रच्यौ तँसोर ।— घनानंद, पृ० ३२९ ।
⋙ तँबकना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तौंकना' । उ०— तँवकि निखंड खंड ह्वै गयऊ ।— माधवानल०, पृ० २०२ ।
⋙ तँवचुर पु
संज्ञा पुं० [सं० ताग्रचूड] दे० 'ताम्रचूड़' । उ०— गिड मंजुर तंबचुर जो हारा ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९४ ।
⋙ तँबर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोमर' ५ । उ०— कमध्वज कूरम गोड़ तँबर परिहार अमानो ।— ह० रासो०, पृ० १२२ ।
⋙ तँवाना पु †
क्रि० अ० [हिं० तमकना] आवेश में आना । क्रुद्ध होना । उ०— सवति भौजिया और जेठनिया ठाढ़ी रहलि तँवाई ।— गुलाल०, पृ० ५७ ।
⋙ तँवार
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताव] १. सिर में आनेवाला चक्कर । घुमटा । घुमेर । २. हरारत । ज्वारांश । क्रि० प्र०—आना ।—खाना ।
⋙ तँबारा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तँवार' ।
⋙ तँवारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तँवार' ।
⋙ तँवाना पु
क्रि० स० [?] स्तुति करना । २. प्रतीक्षा करना । उ,— राउत राना ठाढ़ तँबाहीं ।— चित्रा०, पृ० १७६ ।
⋙ तँह पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तहाँ' । उ०— ललित लसैं सिर पागु तकैं, तक तँह तँह मुरझे ।— नंद० ग्रं०, पृ० २०७ ।
⋙ त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नौका । नाव । २. पुण्य । ३. चोर । ४. झूठ । ५. पूँछ । दुम । ६. गोद । ७. म्लेच्छ । ८. गर्भ । ९. शठ । १०. रत्न । ११. बुद्ध । १२. अमृत ।१३. योद्धा (को०) । १४. रत्न (को०) । १५. एक पिंगल (को०) ।
⋙ त † पु (२)
क्रि० वि० [सं० तद, हिं० तो] तो । उ०— (क) अउ पाएउँ मानुस कइ शाखा । नाहिं त पखि मूठि भर पाँखा ।— जायसी (शब्द०) । (ख) हमहुँ कहब ठकुर सोहाती । नाहिं त मोन रहव दिन राती ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) करतेहु राज त तुमहिं न दोसू । रामहि होत सुनत संतोसू ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तअज्जुब
संज्ञा पुं० [अं० तअज्जुब] आश्चर्य । विस्मय । अचंभा । क्रि० प्र०—करना ।—में आना ।—होना ।
⋙ तअम्मुल
संज्ञा पुं० [अं० तअम्मुल] १. सोच । फिक्र । विचार । उ०—लिहाजा बिला तअमुल हँसी और मजाक की बातें कर चलते ।—प्रेमघन०, भाग० २, पृ० ९३ । २. देर । अरसा । ३. सब्र । धैर्य ।
⋙ तअमुल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तअम्मुल' ।
⋙ तअल्लुकः
संज्ञा पुं० [अ० त अल्लुकह्] बहुत से मौजों की जमीं- दारी । बड़ा इलाका । यौ०—तअल्लुकःदार ।
⋙ तअल्लुकःदार
संज्ञा पुं० [अ० तअल्लुककह् + फ़ा० दार (प्रत्य०)] इलाकेदार । तअल्लुके का मालिक ।
⋙ तअल्लुकःदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० तअल्लुकह् + फ़ा० दारी (प्रत्य०)] तअल्लुकःदार का पद ।
⋙ तअल्लुक
संज्ञा पुं० [अ० तअल्लुक्] १. इलाका । २. संबंध । लगाव ।
⋙ तअल्लुका
संज्ञा पुं० [अ० तअल्लुका] दे० 'तअल्लुकः' ।
⋙ तअल्लुकदार
संज्ञा पुं० [अ० अल्लुकह् + फ़ा० दार (प्रत्य०)] दे० 'तअल्लुकःदार' ।
⋙ तअल्लुकेदार
संज्ञा पुं० [अ० तअल्लुकह् + फ़ा० दार (प्रत्य०)] दे० 'तअल्लुकादार' ।
⋙ तअल्लुकेदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० तअल्लुकह् + फ़ा० दारी (प्रत्य०)] तअल्लुकःदारी ।
⋙ तअस्सुब
संज्ञा पुं० [अ०] पक्षपात, विशेषतः धर्म या जाति संबंधी पपात । उ०—तअस्सुब में हुए हैवान दिलशादा ।—कबीर ग्रं०, पृ० २०८ ।
⋙ तईँ पु (१)
प्रत्य० [हिं० तें अथवा सं० तस् (तसिल्), तः तह्, तइ, तईँ] से । उ०—कीन्हेसि कोइ निभरोसी कीन्हेसि कोइ बरियार । छारहिं तईँ सब कीन्हेसि पुनि कीन्हेसि सब छार ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तईँ (२)
प्रत्य० [प्रा०] प्रति । को । से । (क्व०) । जैसे,—मैने आपके तईँ कह रखा था ।
⋙ तईँ पु (३)
सर्व [सं० त्वया; प्रा० तईँ] दे० 'तुम' । उ०—तईँ अणदिट्ठा सज्जणा, किउँ करि लग्गा पेम ।—ढोला०, पृ० ६ ।
⋙ तइ पु
सर्व० [सं० तत्] वह । उस । उ०—तइ हुंती चन्दउ कियइ, लइ रचियउ आकाश ।—ढोला०, दू० ४३७ ।
⋙ तइक
संज्ञा पुं० [देश०] चमार । (सोनारों की बोली) ।
⋙ तइनात
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तैनात' ।
⋙ तइस पु †
वि० [सं० तादृश, अप० तइस] दे० 'तैसा' ।
⋙ तइसन पु
वि० [हिं०] दे० 'तइसा' । उ०—तनु पसेव पसाहनि आसलि, पुलग तइसन जागु ।—विद्यापति, पृ० ३१ ।
⋙ तइसा †
वि० [सं० तादृश] दे० 'तैसा' या 'वैसा' । उ०—जस हीछा मन जेहि कइ सो तइसन फल पाउ ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तई (१)
अव्य० [सं० तावत्] लिये । वास्ते ।
⋙ तईँ † (२)
क्रि० वि० [हिं०] तभी । तब । उ०—हम जरा सेंडल पर पालिस करके तईं भीतर गये ।—अभिशप्त, पृ० ८८ ।
⋙ तई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तवा या तया का स्त्री०] इसका आकारथाली का सा होता है और इसमें कड़े लगे होते हैं । इसमें प्रायः जलेबी या/?/पुआ ही बनाया जाता है ।
⋙ तई पु (२)
प्रत्य० [हिं०] ति । को । से । उ०—कोउ कहै हरि रीति सब तई । और मिलन का सब सुख दई ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तउ पु †
अव्य० [हिं० सं० तर्ह्यपि (तहि + अपि) या तदापि अथवा तदपि (तद् अपि)] १. दे० 'तब' । २. दे० 'त्यों' । उ०—भा परलउ नियराना जउ हीं । मरइ सो ता कह पालउ तउ हीं ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तऊ पु †
अव्य० [हिं० तउ] तौ भी । तिस पर भी । तब भी । तथापि ।
⋙ तए
वि० [हिं० तया का बहुव०] गरम किए हुए । गरमाए हुए ।
⋙ तक (१)
अव्य० [सं० तावत्क, ताअक्क, तक्क, तक] एक विभक्ति जो किसी वस्तु या व्यापार की सीमा अथवा अवधि सूचित करती है । पर्यत । जैसे,—वे दिल्ली तक गए हैं । परसों तक ठहरो । दस रुपए तक दे देंगे । उ०—जो पल तकिया छोड़ि दृग सकै न तुव तक आइ । दरस भीख उनकौ कहाँ दीजत नहिं पहुँचाइ ।—रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ तक (२)
संज्ञा स्त्री० [पं० तकड़ी] १. तराजू । २. तराजू का पल्ला ।
⋙ तक (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'टक' । उ०—अति बल जल बरसत दोउ लोचन दिन अरु रइन रहत एकहि तक ।— तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तकड़ा
वि० [हिं०] दे० तगड़ा' ।
⋙ तकड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो रेतीली जमीन में बारह महीने खूब पैदा होती है । चरमरा । हैग । विशेष—इसे घोड़े बहुत चाव से खाते हैं । इसकी फसल साल में ६ या ७ बार हुआ करती है ।
⋙ तकड़ी †
संज्ञा पुं० [देश०] तराजू (पंजाब) । उ०—तकड़ी के एक पलड़े में तो उसके सब पाप रखे और एक पलड़े में भग- वन्नाम रखा, तो पापवाला पलड़ा हलका हो गया ।—राम० धर्म०, पृ० २९५ ।
⋙ तकत पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्त] दे० 'तख्त' । उ०—बाट संतरि तिरहुत पइट्ठ । तकत चडिढ सुरुतान बइट्ठ ।—कीर्ति०, पृ० ९५ ।
⋙ तकथ पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्त] दे० 'तख्त' । उ०—हाजीर हजूर बैठे तकथ ताहीं कगों को क्यों न जाचियै रे ।—सं० दरिया, पृ० ६८ ।
⋙ तकदमा
संज्ञा पुं० [अ० तक़दमह्] किसी चीज कै तौयारी का वह हिसाब जो पहले से तैयार किया जाय । तखमीना ।
⋙ तकदीर
संज्ञा स्त्री० [अ० तक़दीर] १. अदांजा । मिकदार । २. भाग्य । प्रारब्ध । किस्मत । नसीब । यौ०—तकदीरवर । विशेष—'तकदीर' के मुहाविरों के लिये देखी 'किस्मत' के मुहाविरे ।
⋙ तकदीरवर
वि० [अ० तकदीर + फ़ा० वर] जिसका भाग्य बहुत हो । भाग्यवान् ।
⋙ तकन
संज्ञा स्त्री० [हिं० तकना] ताकने की क्रिया या भाव । देखना । दृष्टि ।
⋙ तकना †पु
क्रि० अ० [हिं० ताकना(सं० तर्कण)] १. देखना । निहारना । अवलोकन करना । उ०—(क) देखि लागि मधु कुटिल किराती । जिमि गँव तकइ लेऊँ केहि भाँती ।—तुलसी (शब्द०) (ख) कहि हरिदास जानि ठाकुरी बिहारी तकत न भोर पाट ।—स्वामी हरिदास (शब्द०) । (ग) तेरे लिये तजि ताकि रहे तकि हेत किए बलबीर विहारी ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । २. शरण लेना । पनाह लेना । आश्रय लेना । उ०—देवन तके मेरु गिरि खोहा ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तकवर पु
वि० [अ० तकब्बुर] मानी । अभिमानी । उ०—शाह हमायूँ को नंदन चंदन एक, तेग एक जोधा तकवर ।— अकबरी०, पृ० १०९ ।
⋙ तकबीर
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. किसी को बड़ा मानना या कहना । २. ईश्वर की प्रशंसा । उ०—ऊँ लोहा पीर । ताँबा तकबीर । गोरख०, पृ० ४१ ।
⋙ तकब्बरी पु
संज्ञा स्त्री० [?] एक तरह की तलवार । उ०—रिपु- झलन झकोरैं मुख नहिं मोरै बखतर तोरैं तकब्बरी ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २८ ।
⋙ तकब्बुर
संज्ञा पुं० [अ०] १. घमंड । अभिमान । २. अकड़ । ३. ३. शोखी [को०] ।
⋙ तकमा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तमगा' । २. दे० 'तुकमा' ।
⋙ तकमील
संज्ञा स्त्री० [अ०] पूरा होने की क्रिया या भाव । पूर्णता ।
⋙ तकरमल्ही
संज्ञा स्त्री० [देश०] भेड़ों के ऊपर से ऊन काटने का हँसिया । (गढ़वाल) ।
⋙ तकरार
संज्ञा स्त्री० [अ०] किसी बात को बार बार कहना । २. हुज्जत । विवाद । ३. झगड़ा । टंटा । लड़ाई । ४. कविता में किसी वर्णन को दोहराना । ४. चावल का वह खेत जो फसल काटने के बाद फिर खाद दे के जोता गया हो । ५. वह खेत जिसमें जो, चना, गेहूँ इत्यादि एक साथ बोया गया हो ।
⋙ तकरारी
वि० [अ० तकरार + हिं० ई(प्रत्य०)] तकरार करनेवाला । झगड़ालू । लड़ाका ।
⋙ तकरीब
संज्ञा स्त्री० [अ० तकरीब] वह शुभ कार्य जिसमें कुछ लोग सँमिलित हों । उत्सव । जलसा ।
⋙ तकरीर
संज्ञा स्त्री० [अ० तक़रीर] १. बातचीत । गुफ्तगू । उ०— दमे तकरीर गोया बाग में बुलबुल चहकते हैं ।—भारतेंदु ग्रं० भाग १, पृ० ८४७ । २. वक्तृता । भाषण ।
⋙ तकर्रुरी
संज्ञा स्त्री० [अ० तकरुरी] मुकर्रर होने की क्रिया या भाव । नियुक्ति ।
⋙ तकला
संज्ञा पुं० [सं० तर्कु] १. लोहे की वह सलाई जो सूत कातने के चरखे में लगी होती है और जिसपर सूत लिपटता जाताहै । टेकुआ । २. बिटैयों की टेकुरी की सलाई जिसपर कला- बत्तू बटकर चढ़ाते जाते हैं । ३. सुनारों को सिकरी बनाने की सलाई । ४. रस्सा या रस्सी बनाने की टिकुरी । मुहा०—किसी के तकले से बल निकालना = सारी शेखी या पाजीपन दूर करना । अच्छी तरह दुरुस्त या ठीक करना ।
⋙ तकली
संज्ञा स्त्री० [हिं० तकला] छोटा तकला या टेकुरी ।
⋙ तकलीद
संज्ञा स्त्री० [अ० तक्लीद] अनुसरण । अनुकरण । देखा देखी कोई काम करना । नकल । उ०—क्यों अंग्रेजियत की तकलीद की जाय ।—प्रेमघन०, भा०, २, पृ० ९१ ।
⋙ तकलीफ
संज्ञा स्त्री० [अ० तकलीफ] १. कष्ट । कलेश । दुःख । आपत्ति । मुसीबत । जैसे,—(क) आजकल वह बड़ी तकलीफ से अपने दिन बिताते हैं । (ख) इस तोते को पिंजड़े में बड़ी तकलीफ है । २. विपत्ति । मुसीबत । क्रि० प्र०—उठाना ।—करना ।—देना ।—पाना ।—भोगना ।—मिलना ।—सहना । २. खेद । शोक (को०) । ३. आमय । रोग । मर्ज (को०) । ४. मनोव्यथा (को०) । ५. निर्धनता । मुफलिसी (को०) ।
⋙ तकल्लुफ
संज्ञा पुं० [अ० तकल्लुफ़] १. शिष्टाचार । दिखावा । दिखाने के लिये कष्ट उठाकर कोई काम करना । २. टीमटाम । बाहरी सजावट । मुहा०—तकल्लुफ का = बहुत अच्छा । बढ़िया या सजा हुआ । ३. संकोच । पसोपेश (को०) । ४. शील संकोच । लिहाज (को०) । ५. लज्जा । शर्म (को०) । ६. बेगानगी । परायापन (को०) । ७. कष्ट सहन करना । तकलीफ उठाना (को०) ।
⋙ तकवा
संज्ञा पुं० [अ० तक्वहू] संयम । इंद्रियनिग्रह । परहेजगारी । शुद्ध रहना । उ०—तूँ तो नफस सूं तकवा राखे शरअ मुहम्मदी आवे ।—दक्खिनी०, पृ० ५५ ।
⋙ तकवाना
क्रि० स० [हिं० तकना का प्रे० रूप] ताकने का काम दूसरे से कराना । दूसरे को ताकने में प्रवृत्त करना ।
⋙ तकवाहा पु
संज्ञा पुं० [हिं ताकना] खेतों या बागों का रखवाला । देखभाल करनेवाला । निगरानी करनेवाला व्यक्ति । उ०— बड़ी चारपाई जिसपर बैठा तकवाहा ।—अपरा, पृ० १९८ ।
⋙ तकवाही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० तकवाह + ई (प्रत्य०)] १. देखभाल । रखवाली । किसी चीज की रक्षा के लिये उसपर बराबर नजर रखना । २. दे० 'तकाई' ।
⋙ तकसी †
संज्ञा स्त्री० [?] नाश । दुर्दशा ।
⋙ तकसीम
संज्ञा स्त्री० [अ० तक़सीम] बाँटने की क्रिया या भाव । बँटवारा । विभाजन । बँटाई । २. गणित में वह क्रिया जिससे कोई संख्या कई भागों में बाँटी जाय । बड़ी संख्या का छोटी संख्या से विभाजन । भाग । क्रि० प्र०—देना । यौ०—तकसीमेकार = हर एक को अलग काम काँ बाँटना । तकसीमे मुल्क, तकसीमे वतन = देश का विभाजन या बँटवारा ।
⋙ तकसीर
संज्ञा स्त्री० [अ० तक़सीर] १. अपराध । दोष । कसूर । २. भूल । चूक । त्रुटि । उ०—सच तो यों है कि हमें इश्क सजावार नहीं । तेरी तकसीर है क्या ।—श्यामा०, पृ० १०२ । ३. कर्तव्य में कमी (को०) । ४. न्यूनता । कमी (को०) ।
⋙ तकसीर (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. प्रचुरता । अधिकता । २. वृद्धि करना । आधिक्य करना [को०] ।
⋙ तकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताकना+ ई (प्रत्य०)] ताकने की क्रिया या भाव । २. वह धन जो ताकने के बदले में दिया जाय ।
⋙ तकाजा
संज्ञा पुं० [अ० तका़जा] १. ऐसी चीज माँगना जिसके पाने का अधिकार हो । तगादा । जैसे,—जाओ, उनसे रुपयों का तकाजा करो । २. कोई ऐसा काम करके के लिये कहना जिसके लिये वचन मिल चुका हो । जैसे,—बहुत दिनों से उनका तकाजा है । चलो आज उनके यहाँ हो आएँ । ३. किसी प्रकार की उत्तेजना या प्रेरणा । जैसे, उम्र या वक्त का तकाजा । ४. आवश्यकता । जरूरत (को०) । ५. किसी काम के लिये किसी से बराबर कहना (को०) । यौ०—तकाजाए उम्र = (१) उम्र की माँग । (२) उम्र के लिहाज से कोई काम करना या न करना । तकाजाए वक्त = समय की माँग । किसी समय क्या करना है यह माँग ।
⋙ तकातक
क्रि० वि० [हिं० तकना] देखते हुए । देखकर निशान लेते हुए । उ०—धनुष बान ले चढ़ा पाधी धनुआ के परच नहीं है रे । सरसर बान तकातक मारे मिरगा के घाव नहीं है रै ।—कबीर श०, भा० २, पृ० ६९ ।
⋙ तकान
संज्ञा स्त्री० [हिं० थकान] दे० 'थकान' या 'थकावट' ।
⋙ तकाना (१)
क्रि० स० [हिं० ताकना का प्रे० रूप] १. ताकने का काम दूसरे से कराना । दूसरे को ताकने में प्रवृत्त करना । दिखाना । २. प्रतीक्षा करना । किसी को आशा में रखना ।
⋙ तकाना (२)
क्रि० अ० किसी ओर को रुख करना । किसी ओर को भागना या जाना । जैसे, उसने घने जंगल का रास्ता तकाया ।
⋙ तकावी
संज्ञा स्त्री० [अ० तक़ावी] वह धन जो जमींदार, राजा या सरकार की ओर से गरीब खेतिहरों को खेती के औजार बनवाने, बीज, खरीदने या कुआँ आदि बनवाने के लिये ऋण स्वरूप दिया जाय । क्रि० प्र०—बाँठना ।—देना । २. इस प्रकार का ऋण देने की क्रिया ।
⋙ तकित पु
वि० [हिं०] १. थकित । थका । २. ताकता हुआ । देखता हुआ । उ०—हिय धरक्क धुँधरह बदन लोइन जल निभझर । तकित चकित संभीत सभग संकरिय दुष्षभर ।— पृ० रा०, ६ । १०० ।
⋙ तकिया
संज्ञा पुं० [फ़ा० तकियह्] १. कपड़े का बना हुआ लंबो— तरा, गोल या चौकौर थैला जिसमें रूई, पर आदि भरते हैं और जिसे सोने लेटने आदि के समय सिर के नीचे रखते हैं । बालिश । उपधान । २. पत्थर की वह पटिया आदि जो छज्जे, रोक या सहारे कि लेय लगाई जाती है । मुतक्का । ३. विश्रामकरने या आश्रय लेने का स्थान । ४. आश्रय । सहारा । आसरा । भरोसा । उ०—तहँ तुलसी के कौल कौ काको तकिया रे ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—तकियाकलाम । ५. वह स्थान विशेषतः शहर के बाहर था कब्रिस्तान के पास का स्थान जहाँ कोई मुसलमान फकरी रहता हो । कब्रिस्तान का स्थान । ६. चारजामाँ । (लश०) ।
⋙ तकिया कलाम
संज्ञा पुं० [फा० तकियह् + अ० कलाम] दे० 'सखुनतकिया' ।
⋙ तकियागाह
संज्ञा स्त्री० [फा० तकियहु + गाह] फकीर का निवास । पीर या फकीर का स्थान [को०] ।
⋙ तकियादार
संज्ञा पुं० [फा़०] मजार पर रहनेवाला मुसलमान फकीर ।
⋙ तकिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूर्त । २. औषध ।
⋙ तकिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. औषध । दवा । २. एक जड़ी (को०) ।
⋙ तकी
[अ० तकी] संयमी । इंद्रियनिग्रही ।
⋙ तकुआ— (१)
संज्ञा पुं० [सं० तर्कुक] दे० 'तकला' ।
⋙ तकुआ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ताकना + उआ (प्रत्य०)] ताकनेवाला । देखनेवाला ।
⋙ तकैया †
संज्ञा पुं० [हिं० ताकना + ऐया (प्रत्य०)] ताकने या देखनेवाला ।
⋙ तकोली †
संज्ञा पुं० [देश०] शीशम की जाति का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष, जिसे पस्सी भी कहते हैं । वि दे० 'पस्सी' ।
⋙ तक्कर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तक्र' । उ०—के गए मुक्कि पाइल भ्रगय वीर छडि तक्कर परत । दिष्षयौ लंग लंगावली बियौ न कोई धीरज धरत ।—पृ० रा०, १७ । ५ ।
⋙ तक्कह पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तर्क' । उ०—सय सुपंच वर विप्र, वेद मंत्रं अधिकारिय । उभय सहस कोविद्द, छंद तक्कह अनुसारिय । पृ० रा०, १२ । ९३ ।
⋙ तक्की †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताकना] ताकने रहने की क्रिया या भाव । दे० 'टकटकी' ।
⋙ तक्कोल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पेड़ ।
⋙ तक्मा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तक्मन्] १. वसंत नामक चर्मरोग । २. शीतला देवी ।
⋙ तक्मा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तमगा] दे० 'तमगा' ।
⋙ तक्मा † (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तुकमा' ।
⋙ तक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मट्ठा । छाछ । मठा । उ०—छलकत तक्र उफनि अँग आवत नहिं जानति तेहि कालहि सों ।—सूर (शब्द०) । २. शहतूत के पेड़ का एक रोग ।
⋙ तक्रकूर्चिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] फटा हुआ दूध । छेना ।
⋙ तक्रपिंड
संज्ञा पुं० [सं० तक्रपिण्ड] फटा हुआ दूध । छेना ।
⋙ तक्रप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुषों के एक रोग जिसमें छाछ का सा श्वेत मूत्र है, और मट्ठे की सी गंध आती है ।
⋙ तक्रभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] कैथ । कपित्थ ।
⋙ तक्रमांस
संज्ञा पुं० [सं०] मांस का रसा । अखनी ।
⋙ तक्रवामन
संज्ञा पुं० [सं०] नागरंग ।
⋙ तक्रसंधान
संज्ञा पुं० [सं० तक्रसन्धान] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार की काँजी । विशेष—इसे सौ टके भर छाछ में एक एक टके भर साँभर नमक, राई और हल्दी का चूर्ण डालकर बनाते हैं । यह काँजी पहले पंद्रह दिन पड़ी रहने दी जाती है, तब तैयार होती है । ऐसा कहते हैं कि यदि २१ दिनों तक यह नित्य दो दो टंक पी जाय तो तापतिल्ली अच्छी हो जाती है ।
⋙ तक्रसार
संज्ञा पुं० [सं०] मक्खन ।
⋙ तक्राट
संज्ञा पुं० [सं०] मथानी ।
⋙ तक्रार
संज्ञा स्त्री० [अ० तकरार] दे० 'तकरार' ।
⋙ तक्रारिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का अरिष्ट जो मट्ठे में हड़ और आँवले आदि का चूर्ण मिलाकर बनाया जाता है । विशेष—यह संग्रहणी रोग का नाशक और अग्निदीपक माना जाता है ।
⋙ तक्राह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का क्षुप ।
⋙ तक्वा
संज्ञा पुं० [सं० तक्वन्] १. चोर । २. शिकारी चिड़िया [को०] ।
⋙ तक्मीम
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. सीधा करना । २. मूल निश्चित करना । ३. पंचांग । जंतरी । उ०—मुनज्जिम अक्ल का देखा ताजा तक्वीम । किया है बात सूँ उस वक्त तरकीम ।—दक्खिनी०, पृ० २७६ ।
⋙ तज्ञ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामचंद्र के भाई भरत का बड़ा पुत्र । २. वृक के पुत्र का नाम । ३. पतला करने की क्रिया ।
⋙ तज्ञ (२)
वि० काटनेवाला (केवल समासांत में प्राप्त) ।
⋙ तज्ञक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पाताल के आठ नागों में से एक नाग जो कश्यप का पुत्र था और कद्रु के गर्भ से उत्पन्न हुआ था । विशेष—शृंगी ऋषि का शाप पूरा करने के लिये राजा परीक्षित- को इसी ने काटा था । इसी कारण राजा जममेजय इससे बहुत बिगड़े और उन्होंने संसार भर के साँपों का नाश करने के लिये सर्पयज्ञ आरंभ किया । तक्षक इससे डरकर इंद्र की शरण में चला गया । इसपर जनमेजय ने अपने ऋषियों को आज्ञा दी कि इंद्र यदि तक्षक को न छोड़े, तो उसे भी तक्षक के साथ खींच मँगाओ और भस्म तर दो । ऋत्विकों के मंत्र पढ़ने पर तक्षक साथ इंद्र भी खिंचने लगे । तब इंद्र ने डरकर तक्षक को छोड़ दिया । जब तक्षक खिंचकर अग्निकुंड के समीप पहुँचा, तब आस्तीक ने आकर जनमेजय से प्रार्थना की और तक्षक के प्राण बच गए । आजकल के विद्धानों का विश्वास है कि प्राचीन काल में भारत में तक्षक नाम की एक जाति ही निवास करती थी । नाग जाति के लोग अपने आपको तक्षक की संतान ही बतलाते हैं । प्राचीन काल में ये लोग सर्प का पूजन करते थे । कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि प्राचीन काल में कुछ विशिष्ट अनायों को हिंदू लोग तक्षक या नाग कहा करते थे । और ये लोग संभवतः शक थे । निब्बत, मंगोलिया ओरचीन के निवासी अबतक अपने आपको तक्षक या नाग के वंशधर बतलाते हैं । महाभारत के युद्ध के उपरांत धीरे धीरे तक्षकों का अधिकार बढ़ने लगा और उत्तरपश्चिम भारत में तक्षक लोगों का बहुत दिनों तक, यहाँ तक कि सिकंदर के भारत आने के समय तक राज्य रहा । इनका जातीय चिह्न सर्प था । ऊपर परीक्षित और जनमेजय की जो कथा दी गई है, उसके संबंध में कुछ पाश्चात्य विद्वानों का गत है कि तक्षकों के साथ एक बार पांडवों का बड़ा भारी युद्ध हुआ था जिसमें तक्षकों की जीत हुई थी ओर राजा परीक्षित मारे गए थे, और अंत से जनमेजय ने फिर तक्षशिला में युद्ध करके तक्षकों का नाश किया था और यही घटना जनमेजय के सर्पयज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुई है । २. साँप । सर्प । ३. विश्बकर्मा । ४. सुत्राधार । ५. दस वायुओं में से एक । नागवायु । उ०—प्रान, अपान, व्यान, उदान ओर कहियत प्राण समान । तक्षक, धनंजय पुनि देवदत्त और पौंड्रक शख द्युमान ।—सूर (शब्द०) । ६. एक प्रकार का पेड़ । ७. प्रसेनजित् के पुत्र का नाम जिसका वर्णन् भागवत में आया है । ८. एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति सूचिक पिता और ब्राह्मणी माता से मानी गई है ।
⋙ तज्ञक (१)
वि० छेदनेवाला । छेदक ।
⋙ तज्ञण
संज्ञा पुं० [सं०] २. लकड़ी को साफ करने का काम । रंदा करने का काम । २. बढ़ई । ३. लकड़ी पत्थर आदि में खोदकर मूर्तियाँ और बेल बूटे बनाने का काम । लकड़ी पत्थर आदि गढ़कर मूर्तियाँ बनाना ।
⋙ तज्ञणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बढ़इयों का वह औजार जिससे वे लकड़ी छीलकर साफ करते हैं । रंदा ।
⋙ तज्ञशिल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] तक्षशिला का निवासी [को०] ।
⋙ तज्ञशिल (२)
वि० तक्षशिला संबंधी [को०] ।
⋙ तक्षशिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक बहुत प्राचीन नगरी का नाम जो भरत के पुत्र तक्ष की राजधानी थी । विशेष—विद्वानों का मत है कि प्राचीन काल में इसके आसपास के प्रेदश में तक्षक लोगों का राज्य था, इसलिये इस नगरी का नाम भी तक्षशिला पड़ा था । महाभारत में लिखा है कि यह स्थान गाँधार में हे । अभी हाल में यह नगर रावलपंडी के पास जमीन खोदकर निकाला गया है । वहाँपर बहुत से बोद्ध मंदिर और स्तूप भी पाए गए हैं । महाभारत में लिखा है कि जनजेजय ने यहीं सर्पयज्ञ किया था । सिकदंर जिस समय भारत में आया था, उस समय यहाँ के राजा ने उसे अपने यहाँ ठहराया था और उसका बहुत आदर सत्कार किया था । कुछ समय तक उसके आस पास का प्रदेश अशोक के शासन में था । अनेक यूनानी और चीनी यत्रियों ने तक्षशिला के वैभव और विस्तार आदि का बहुत अच्छा वर्णन किया है । बहुत दिनों तक यह नगरी पश्चिम भारत का प्रधान विद्यापीठ थी । दूर दूर से यहाँ विद्यार्थी आते थे । चाणक्य यहीं का था ।
⋙ तज्ञा
संज्ञा पुं० [सं० तक्षन्] बढ़ई ।
⋙ तखड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तकड़ी] तराजू ।
⋙ तखत
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्त] दे० 'तख्त' । उ०—दीजै भेजि हरम हजूर मरहट्ठी बेगि, चाहियै जो कुसल तख्त सिरताजी कौं ।— हम्मीर०, पृ० २१ । मुहा०—तखत पलटना = तख्ता उलटना । उ०—जब निबध हो बने सबल संगी । तभ पलटते न किस तरह तखने । तो चले क्यों बराबरी करने । बल बराबर अगर नहीं रखते ।— चुभते० पृ० ६८ ।
⋙ तखतनसीन
वि० [फ़ा० तख्तनशीन] दे० 'तख्तनशीन' । उ०— जो है दिल्ली तख्तनसीन । पातसाह आलाउद्दीन ।—हम्मीर०, पृ० १७ ।
⋙ तखफोफ
संज्ञा स्त्री० [अ० तखफी़फ़] कमी । न्यूनता ।
⋙ तखमीनन्
क्रि० वि० [अ० तखमीनन्] अंदाज से । अटकल से । अनुमान से ।
⋙ तखमीना
संज्ञा पुं० [अ० तखमीनह्] अंदाज । अनुमान । अटकल । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना ।
⋙ तखय्यल
संज्ञा पुं० [अ० तखय्युल] १. विचारना । २. कल्पना । ३. काव्यविषय ।
⋙ तखरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तकड़ी' ।
⋙ तखलिया
संज्ञा पुं० [अ० तख्लियह्] एकांत स्थान । निर्जन स्थान ।
⋙ तखल्लुस
संज्ञा पुं० [अ० तखल्लुस] कवि या शायर का वह नाम जो वह अपनी कविता में लिखता है । उपनाम ।
⋙ तखान †
संज्ञा पुं० [सं० तक्षण] बढ़ई ।
⋙ तखिया
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० ताकी़] लंबी टोपी, जो संत लोग लगाते थे । उ०—बिनु हरि भजन को भेष लिए कहा दिए तिलक सिर तखिया ।—भीखा० श०, पृ० ७१ ।
⋙ तखिहा
वि० [अ० ताक] वह वैल जिसकी दोनों आँखों दो रंग की हों ।
⋙ तखीत
संज्ञा स्त्री० [अ० तहकी़क़] १. तलाशी । २. तहकीकात । (लश०) ।
⋙ तख्त
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्त] १. राजा के बैठने का आसन । सिंहा- सन । २. तख्तों की बनी हुई बड़ी चौकी । यौ०—तख्त की रात = सोहागरात । (मुसल०) । ३. राज्य । शासन । हुकूमत (को०) । ४. पलंग । चारपाई (को०) । ५. जीन (को०) ।
⋙ तख्तगाह
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तख्तागाह] राजधानी [को०] ।
⋙ तख्त ताऊस
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्त + अ० ताऊस] एक प्रसिद्ध राजसिंहासन जिसे शाहजहाँ ने ६ करोड़ रुपया लगवाकर बनवाया था । इसके ऊपर एक जड़ाऊ मोर पंख फैलाए हुए खड़ा था । इश तख्त को सन् १७३९ ई० में नादिरशाह लूटकर ले गया ।
⋙ तख्तनशीन
वि० [फ़ा० तख्तनशीन] जो राजसिंहासन पर बैठा हो । सिंहासना्रूढ़ ।
⋙ तख्तनशीनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तख्तनशीन + ई (प्रत्य०)] राज्याभिषेक ।उ०—और तख्तनशीनी के दराबार का तो फिर कहना ही क्या है ।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० १५४ ।
⋙ तख्तपोश
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्तपोश] १. तख्त या चौकी पर बिछाने की चादर । २. चौकी । तख्त ।
⋙ तख्तबंद
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्तबंद] १. बंदी । कैदी । २. कारावास । कैद । ३. लकड़ी की वह खपची जो टूटी हड्डी कौ जोड़ने के लिये बाँदी जाती है [को०] ।
⋙ तख्तबंदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तख्तबंदी] १. तख्तों की बनी हुई दीवार । २. तख्तों की दीवार बनाने की क्रिया । ३. बाग की क्यारियों आदि को ढंग से सजाना (को०) ।
⋙ तख्तरवाँ
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्तरवाँ] १. वह तख्त जिसपर बादशाह सवार होकर निकलता हो । हवादार । २. वह तख्त् या बड़ी चौकी जिसपर शादियों में बरात के आगे रंडियाँ, नाचनेवाली या लाँडे नाचते हुए चलते हैं । ३. उड़नखटोला ।
⋙ तख्ता
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्तह्] १. लकड़ी का वह चीरा हुआ लंबा चौड़ा और चौकोर टुकड़ा जिसकी मोटाई अधिक न हो । बड़ा पटरा । पल्ला । मुहा०—तख्ता उलटना = (१) किसी प्रबंध का नष्ट भ्रष्ट हो जाना । किसी बने बनाए काम का बिगड़ जाना । (२) किसी प्रबंध को नष्ट भ्रष्ट करना । बना बनाया काम बिगाड़ना । तख्ता हो जाना = ऐंठ या अकड़ जाना । तख्ते की तरह जड़ हो जाना । २. लकड़ी की बड़ी चौकी । तख्त । ३. अरथी । टिखटी । ३. कागज का ताव । ४. खेतों या बागों में जमीन का वह अलग टुकड़ा जिसमें बीज बोए या पौधे लगाए जात हैं । कियारी । यौ०—तख्तए कागज = कागज का ताव । तख्तए ताबूत = वह संदूक या पलंग जिसमें शव ले जाते है । तख्तए तालीम = वह काला पटरा जिसपर बच्चों को अक्षर, गिनती आदि सिखाते हैं । शिक्षापटल । ब्लैक बोर्ड । तख्तए नर्द = चौसर खेलने का तख्ता । तख्तए मय्यत = मुर्दे को नहलाने का तख्ता । तख्तए मशक = (१) बच्चों की तख्ती । (२) वह चीज जो बहुत प्रयुक्त हो । तख्तए मीना = आकाश । आसमान ।
⋙ तख्तापुल
संज्ञा पुं० [फ़ा० तख्तह् + पुल] पदरों का पुल जो किले की खंदक पर बनाया जाता है । यह पुल इच्छानुसार हटा भी लिया जा सकता है ।
⋙ तख्तो
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० तख्ती] १. छोटा तख्ता । २. काठ की वह पटरी जिसपर लड़के अक्षर लिखने का अभ्यास करते हैं । पटिया । ३. किसी चीज की छोटी पटरी ।
⋙ तख्तोताज
संज्ञा पुं० [फ़ा०] शासनसूत्र । राज्यभार । शासनप्रबंध [को०] ।
⋙ तख्मीना
संज्ञा पुं० [अ० तख्मीनह्] दे० 'तखमीना' ।
⋙ तग
अव्य० [हिं०] दे० 'तक' । उ०—राजा के हीन हयात तग बादशाह के ताबे नहीं हुआ ।—दक्खिनी०, पृ० ४४३ ।
⋙ तगड़ा
वि० [हिं० तन + कड़ा] [वि० स्त्री० तगड़ी] १. जिसमें ताकत ज्यादा हो । सबल । बलवान् । मजबूत । २. अच्छा और बड़ा ।
⋙ तगड़ी † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तागड़ी' ।
⋙ तगड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तखड़ी' ।
⋙ तगण
संज्ञा पुं० [सं०] छंदःशास्त्र में तीन वर्णो का वह समूह जिसमें पहले दो गुरु और तब एक लघउ (/?/) वर्ण होता है ।
⋙ तगदमा, तगदम्मा
संज्ञा पुं० [अ० तकददुम] १. व्यय आदि का किया हुआ अनुमान । तखमीना । २. दे० 'तकदमा' ।
⋙ तगना
क्रि० अ० [हिं० तागना] तागा जाना ।
⋙ तगनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तागना] तागने का भाव । तगाई ।
⋙ तगपहनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तागा + पहनना] जुलाहों का एक औजर जो टूटा हुआ सूत जोड़ने में काम आता है ।
⋙ तगमा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तमगा' ।
⋙ तगर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का पेड़ जो अफगानिस्तान, कश्मीर, भूटान और कोंकण देश में नदियों के किनारे पाया जाता है । विशेष—भारत के बाहर यह मडागास्कर और जंजीबार में भी होता है । इसकी लकड़ी बहुत सुगंधित होती है और उसमें से बहुत अधिक मात्रा में एक प्रकार का तेल निकलता है । यह अकड़ी अगर की लकड़ी के स्थान पर तथा औषध के काम में आती है । लकड़ी काले रंग की और सुगंधित होती है और उसका बुरादा जलाने के काम में आता है । भावप्रकाश के अनुसार तगर दो प्रकार का होता है, एक में सफेद रंग के और दूसरे में नीले रंग के फूल लगते हैं । इसकी पत्तियों के रस से आँख के अनेक रोग दूर होते हैं । वैद्यक में इसे उष्ण, वीर्यवर्धक, शीतल, मधुर, स्निग्ध, लघु और विष, अपस्मार, शूल, दृष्टिदोष, विषदोप, भूतोन्माद और त्रिदोष आदि का नाशक माना है । पर्या०—वक्र । कुटिल । शठ । महोरग । नत । दीपन । विनम्र । कुंचित । घंट । नहुष । पार्थिव । राजहर्षण । क्षत्र । दीन । कालानुशारिवा । कालानुसारक । २. इस वृक्ष की जड़ जिसकी गिनती गंध द्रव्यों में होती है । इसके चबाने से दाँतों का दर्द अच्छा हो जाता है । ३. मदनवृक्ष । मैनफल ।
⋙ तगर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की शहद की मक्खी ।
⋙ तगला
संज्ञा पुं० [हिं० तकला] १. तकला । २. दो हाथ लंबा सरकंडे का एक छड़ जिससे जोलाहे साँथी मिलाते हैं ।
⋙ तगसा
संज्ञा पुं० [देश०] वह लकड़ी जिससे पहाड़ी प्रांतो में ऊन को कातने से पहले साफ करने के लिये पीटते हैं ।
⋙ तगा (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तागा' । उ०—प्रफुल्लित ह्वै कै आन दीन है यशोदा रानी झीनी ए झगुली तामें कंचन को तगा ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तगा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक जाति जो रुहेलखंड में बसती है । इसट जाति के लोग जनेऊ पहनते और अपने आपको ब्राह्मण मानते हैं ।
⋙ तगाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० तागना] १. तागने का काम । २. तागने का भाव । ३. तागने की मजदूरी ।
⋙ तगाड़
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'तगार' । २. वह चौकौर इंटों का घेरा जिसमें गारा या सुरखी चूना सानते हैं ।
⋙ तगाड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० गारा] [स्त्री० तगाड़ी] वह तसला या लोहे का छिछला बरतन जिसमें मसाला या चूना गारा रखकर जोड़ाई करनेवालों के पास ले जाते हैं । अढ़िया ।
⋙ तगादा
संज्ञा पुं० [अ० तकाजा] दे० 'तकाजा' । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ तगाना
क्रि० स० [हिं० तागना का प्रे० रूप] तागने का काम कराना । दूसरे को तागने में प्रवृत्त करना ।
⋙ तगाफुल
संज्ञा पुं० [अ० तगाफुल] १. गपलत । उपेक्षा । ध्यान । न देगा । असावधानी । उ०—हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन, खाक हो जायँने हम तुमको खबर होने तक ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४६९ ।
⋙ तगार
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'तगारी' ।
⋙ तगारा
संज्ञा पुं० [हिं० तगर] १. हलवाइयों का नाद । २. तरकारी बेचनेवाले का नाद ।
⋙ तगारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. उखली गाड़ने का गड्ढा । २. हलवाइयों का मिठाई बनाने का मिट्टी का बड़ा बरतन या नाँद । ३. चूना गारा इत्यादि ढोने का तसला ।
⋙ तगियाना
क्रि० स० [हिं० तागा से नामिक धातु] दे० 'तागना' ।
⋙ तगीर पु
संज्ञा पुं० [अ० तगीर, तरईर] बदलने की क्रिया या भाव । परिवर्तन । बदलना । कुछ का कुछ कर देना । तब्दीली । उ०—(क) अहदी गह रोग अनंता । जागीर तगीर करंता ।—विश्राम (शब्द०) । (ख) जोबन आमिल आइ कै भूषन कर तदबीर । घट बढ़ रकम बनाई सिसुता करी तगीर ।—रसिनिधि (शब्द०) ।
⋙ तगीरी पु
संज्ञा स्त्री० [अ० तगय्युर, हिं० तगीर] बदली । परिवर्तन । उ०—गैरहाजिरी लिखिहै कोई । मनसब घटै तगीरी होई ।—लाल कवि (शब्द०) ।
⋙ तगैय्युर
संज्ञा स्त्री० [अ० तगैयुर] बहुत बड़ा परिवर्तन । उ०— मुझको मारा ये मेरे हाल तगैय्युर न कि है, कुछ गुमाँ और ही घड़के से दिले मुनिस्के ।—श्रीनिवास० ग्रं०, पृ० ८५ ।
⋙ तग्गना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तगना' ।
⋙ तघार, तघारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'तगार' ।
⋙ तचना
क्रि० अ० [हिं० तचना] तपना । तप्त होना । उ०—(क) तापना सों तवती बिरमैं बिन काज वृथा मन माँहि बिदूषतीं ।—प्रताप (शब्द०) । (ख) मानों विधि अब उलटि रची री । जानस नहीं सखी काहैं ते वही न तेज तची री ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ तचा †
संज्ञा स्त्री० [सं० त्वचा] चमड़ा । खाल । त्वचा । उ०—तुम बिन नाह रहै पै नचा । अब नहिं बिरह गरुड़ पै बचा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ तचाना
क्रि० स० [हिं० तापाना] तपाना । जलाना । तप्त करना । संतप्त करना । उ०—अनल उचाट रूप लाट मैं तचाई भारी कारीगर कान ने सुधारी अभिराम सान ।—दीनदयालु (शब्द०) ।
⋙ तच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० तक्ष] दे० 'तक्ष' ।
⋙ तच्छक पु
संज्ञा पुं० [सं० तक्षक] दे० 'तक्षक' ।
⋙ तच्छना पु
क्रि० स० [सं० तक्षण] १. फाड़ना । २. नष्ट करना । काटकर टुकड़े करना ।
⋙ तच्छप पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तक्षक' ।
⋙ तच्छिन पु
क्रि० वि० [सं० तत्क्षण] उसी समय । तत्काल ।
⋙ तच्छन पु †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तत्क्षण' । उ०—कैसैं राखि आपने लयै । अगिनिहि तछन भछन करि गयै ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१० ।
⋙ तछिन पु †
अव्य० [सं० तत्क्षण] दे० 'तच्छिन' । उ०—जाके डर तहँ जात न कोई । तछिन भछत करि डारै ओई ।—नंद० ग्रं०, पृ० २७७ ।
⋙ तज
संज्ञा पुं० [सं० त्वज्] १. तमाल और दालचीनी की जाति का मझोले कद का एक सदाबहार पेड़ जो कोचीन, मलाबार, पूर्व बंगाल, आसिया की पहाड़ियों और बरमा में अधिकता से होता है । विशेष—भारत के अतिरिक्त यह चीन, सुमात्रा और जावा आदि स्थानों में भा होना है । खासिया और जयंतिया की पहाड़ियों में यह पेड़ अधिकता से लगाया जाता है । जिन स्थानों पर समय समय पर गहरी वर्षा के उपरांत कड़ी धूप पड़ती है, वहाँ यह बहुत पर बीज से लगाए जाते हैं और जब पेड़ पाँच वर्ध के हो जाते हैं, तब वहाँ से हटाकर दूसरे स्थान पर रोपे जाते हैं । छोटे पौधे प्रायः बड़े पेड़ों या झाड़ियों आदि की छाया में ही रखे जातै हैं । बाजारों में मिलनेवाला तेजवान या तेजपत्ता इस पेड़ का पत्ता और तज (लकड़ी) इसकी छाल है । कुछ लोग इसे और दारचीनी के पेड़ को एक ही मानते हैं, पर वास्तव में यह उससे भिन्न हैं । इस वृक्ष की डालियों की फुनगियों पर सफेद फूल लगते हैं जिनसें गुलाब की सी सुगंध होती है । इसके फल करौंद के से होते है जिनमें से तेज निकाला जाता है ओर इत्र तथा अर्क बानाया जाता है । यह वृक्ष प्रायः दो वर्ष तक रहता है । २. इस पेड़ की छाल जो बहुत सुंगधित होती है और औषध के काम में आती है । वैद्यक में इसे चरपरा, शीतल, हलका, स्वादिष्ट, कफ, खाँसी, आम, कंडु, अरुचि, कृमि, पीनस आदि को दूर करनेवाला, पित्त तथा धातुवर्धक और बलकारक माना जाता है । पर्या०—भृंग । वरांग । रामेष्ट । बिज्जुल । त्वच । उत्कट चोल । सुरभिवत्कल । सूतकट । मुखशोधन । सिंहजष । सुरस । कामवल्लभ । बहुगंध । वनप्रिय । लटपर्ण । गंधवक्कल । वर । शीत । रामवल्लभ ।
⋙ तजकिरा
संज्ञा पुं० [अ० तजकिरह्] १. चर्चा । जिक्र । क्रि० प्र०—करना ।—चलना ।—छिड़ना ।—होना । २. वार्तालाप । बाचचीत (को०) । ३. ख्याति । प्रसिद्ध (को०) । ४. प्रसंग । सिलसिला (को०) ।
⋙ तजगरी
संज्ञा स्त्री० [फा० तेजगरी] सिकलीगरों की दो अंगुल चौड़ी और अनुमानतः डेढ़ बालिश्त लंबी लोहे की पटरी जिसपर तेल गिराकर रंदा तेज करते हैं ।
⋙ तजदीद
संज्ञा स्त्री० [अ० तज्दीद] १. नया करना । नवीनीकरण । २. नवीनता । नयापन [को०] ।
⋙ तजन पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्यजन] तजने की क्रिया भाव । त्याग । परित्याग ।
⋙ तजन (२)
संज्ञा पुं० [सं० तजीन] कोड़ा या चाबुक ।
⋙ तजना
क्रि० स० [सं० त्यजन] त्यागना । छोड़ना । उ०—(क) सब तज । हर भज ।—(शब्द०) । (ख) तजहु आस निज निज गृह जाहू ।—मानस, १ ।२५२ ।
⋙ तजरबा
संज्ञा पुं० [अ० तज्रबह्, तज्रिबह्, तज्रुबह्] १. वह ज्ञान जो परीक्षा द्वारा प्राप्त किया जाय । अनुभव । जैसे,—मैंने सब बातें अपने तजरबे से कही हैं । यौ०—तजरबेकार = जिसने परीक्षा द्वारा अनुभव प्राप्त किया हो । अनुभवी । २. वह परीक्षा जो ज्ञान प्राप्त करने के लिये की जाय । जैसे,— आप पहले तजरबा कर लीजिए, तब लीजिए ।
⋙ तजरबाकार
संज्ञा पुं० [अ० तज्रुबह् + फा़० कार] जिसने तजरबा किया हो । अनुभवी ।
⋙ तजरवाकारी
संज्ञा स्त्री० [अ० तज्रुबह्+ फा़ कारी (प्रत्य०)] अनुभव ।
⋙ तजरी
वि० [अ० तज्रीद] १. उदघाटित कर किसी चीज को असली दशा में कर देना । नंगा कर देना । २. (काट छाँटकर) सजाना या सँबारना । ३. सुधार करना । ४. एकाकी जीवन । ब्रह्मचर्य । उ०—कोई तजरीद तफीरद बोलते हैं कोई नफीं ।—दक्खिनी०, पृ० ४३३ ।
⋙ तजरुबा
संज्ञा पुं० [अ० तज्रुबह्] दे० 'तजरबा' ।
⋙ तजरुबाकार
संज्ञा पुं० [अ० तज्रुवह् + फा० कार] दे० 'तजरबा— कार' ।
⋙ तजरुबाकारी
संज्ञा स्त्री० [अ० तज्रुबह् + फा० कारी] दे० 'तजरबा— कारी' ।
⋙ तजल्ली
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. प्रकाश । रोशनी । नूर । २. प्रताप । जलाल । ३. अध्यात्म ज्योति । उ०—कीजै फहम फना को लै कै, नूर तजल्ली अपनी ।—पलटू०, भा० ३, पृ० ९२ ।
⋙ तजवीज
संज्ञा स्त्री० [अ० तज्जवीज] १. सम्मति । राय । २. फैसला । निर्णय । ३. बंदोबस्त । इंतिजाम । प्रबंध ।
⋙ तजबीजसानी
संज्ञा स्त्री० [अ० तज्वीज + सानी] किसी अदालत में उसी अदालत के किए हुए किसी फैसले पर फिर से होनेवाला विचार । एक ही हाकिम के सामने होनेवाला पुनर्विचार ।
⋙ तजावुज
संज्ञा पुं० [अ० तबावुज] १. सीमा का उल्लंघन । २. अपने इक्तियार से बाहर कोई काम करना । ३. अवज्ञा । हुकमउदूधी । उ०—शरीअत के माने तुकर्मा और हर्दा जो इस हद थे तजावुज न करे ।—दक्खिनी०, पृ० ४२९ । ४. धृष्टता । गुस्ताखी (को०) ।
⋙ तजुब पु
अव्य० [अ० तअज्जुब] आश्चर्य । विस्मय । अचंभा । उ०—तजुब नहीं कि खोपरी टूट जाय ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५५ ।
⋙ तज्जनित
वि० [सं०] उससे उत्पन्न ।
⋙ तज्जन्य
वि० [सं०] उससे उत्पन्न । उ०—कविता हमारे मन पर पड़े हुए सामाजिक प्रतिवेधों और तज्जन्य विचारों की प्रति- क्रिया है ।—नया०, पृ० ३ ।
⋙ तज्जातपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] का निपुण श्रमी । होशियार कारीगर ।
⋙ तज्जी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिंगुपत्री ।
⋙ तज्ञ
वि० [सं० तज् + ज्ञ (तत् + ज्ञ)] १. तत्व का जाननेवाला । तत्वज्ञ । उ०—देवतज्ञ सर्वज्ञ जज्ञेश अच्युत विभो विस्व भवदंश संभव पुरारी ।—तुलसी (शब्द०) । २. ज्ञानी ।
⋙ तटंक पु
संज्ञा पुं० [सं० ताटङ्क] कर्णफूल नामक कान का आभूषण । कर्णफूल । उ०—चलि चलि आवत श्रवण अति सकुचि तटंक फँदा ते ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षेत्र । खेत । २. प्रदेश । ३. तीर । किनारा । कूल । ४. शिव । महादेव । ५. जमीन या पर्वत का ढाल (को०) । ६. आकाश (को०) ।
⋙ तट (२)
क्रि० वि० समीप । पास । नजदीक । निकट ।
⋙ तटक
संज्ञा पुं० [सं०] नदी, तालाब आदि का किनारा [को०] ।
⋙ तटका
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० तटकी] दे० 'टटका' । उ०—निसि के उनींदे नैना तैसे रहे टरि टरि । किधौं कहूँ प्यारी को तटकी लागी नजरि ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तटक्कना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तड़कना' । उ०—तटक्कं दुहू छोह लोहं चलावै ।—प० रासो, पृ० ८३ ।
⋙ तटग
संज्ञा पुं० [सं०] तड़ाग ।
⋙ तटनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तटिनी] (तटवाली) नदी । सरिता । दरिया । उ०—(क) मदकिनी तटनि तीर मंजु मृग बिहंग भीर धीर मुनि गिरा गंभीर साम गान की ।—तुलसी(शब्द०) । (थ) कदम बिटप के निकट तटनी के आय अटा चढ़ि चाहि पीतपट फहरानी सौ ।—रसखान(शब्द०) ।
⋙ तटवर्ती
वि० [सं०] तट से संबंध रखनेवाला या होनेवाला [को०] ।
⋙ तटस्थ (१)
वि० [सं०] १. तीर पर रहनेवाला । किनारे पर रहनेवाला । २. समोप रहनेवाला । निकट रहनेवाला । ३. किनारे रहनेवाला । अलग रहनेवाला । ४. जो किसी का पक्ष न ग्रहण करै । उदासीन । निरेपेक्ष । यौ०—तटस्थ वृत्ति ।
⋙ तटस्थ (२)
संज्ञा पुं० किसी वस्तु का वह लक्षण जो उसके स्वरूप को लेकर नहीं बल्कि उसके गुण और धर्म आदि को लेकर बत- लाया जाय । दे० 'लक्षण' । यौ०—तटस्थ लक्षण ।
⋙ तटस्थित
वि० [सं०] दे० 'तटस्थ' ।
⋙ तटाक
संज्ञा पुं० [सं०] तड़ाग । तालाब ।
⋙ तटाकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ा तालाब [को०] ।
⋙ तटाघात
संज्ञा पुं० [सं०] पशुओं का अपने सींगों या दाँतों से जमीन खोदना ।
⋙ तटिनो
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी । सरिता । दरिया ।
⋙ तटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तीर । कूल । किनारा । तट । २. नदी । सरिता । उ०—ताहि समै पर नाभि तटी को गयो उड़ि सेवक पौन प्रसंग मैं ।—सेवक (शब्द०) । ३. तराई । घाटी ।
⋙ तटी (२)
संज्ञा स्त्री० समाधि ।
⋙ तठ †
अव्य० [सं० तत्र] वहाँ । उस जगह पर ।
⋙ तठना
क्रि० वि० [सं० तत्र, प्रा० तथ्य] वहाँ । उ०—जुध वेल खगे रिण छोड़ जठै । तन पाध जिसौ रुघनाथ तठै ।—रा० रू०, पृ० ३५ ।
⋙ तड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० तट] १. सामज में हो जानेवाला विभाग । पक्ष । यौ०—तड़बंदी । २. स्थल । खुश्की । जमीन ।—(लश०) ।
⋙ तड़ (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. थप्पड़ आदि मारने या कोई चीज पटकने से उत्पन्न होनेवाला शब्द । यौ०—तड़ातड़ । २. थप्पड़ ।—(दलाल) । क्रि० प्र०—जमाना ।—देना ।—लगाना । ३. लाभ का आयोजन । आमदनी की सूरत ।—(दलाल) । क्रि० प्र०—जमाना ।—बैठाना ।
⋙ तड़क (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तड़कना] १. तड़कने की क्रिया या भाव । २. तड़कने के कारण किसी चीज पर पड़ा हुआ चिह्न । ३. भोजन के साथ खाए जानेवाले अचार, चटनी आदि चटपटे पदार्थ । चाट ।
⋙ तड़क (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तण्डक (= धरन)] वह बड़ी लकड़ी जो दीवार से बँडेर लगाई जाती है और जिसपर दासे रखकर छप्पर छाया जाता है ।
⋙ तड़कना (१)
क्रि० अ० [अनु० तड़] १. 'तड़' शब्द के साथ फटना, फूटना या टूटना । कुछ आवाज के साथ टूटना । चटकना । कड़कना । जैसे, शीशा तड़कना; लकड़ी तड़कना । २. किसी चीज का सूखने आदि के कारण फट जाना । जैसे, छिलका तड़कना, जखम तड़कना । ३. जोर का शब्द करना । उ०— कहि योगिनि निशि हित अति तड़की । विंध्याचल के ऊपर खडकी ।—गोपाल (शब्द०) । ४. क्रोध से बिगड़ना । झुँझ— लाना । बिगड़ना । ५. जोर से उछलना या कूदना । तड़पना । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ तड़कना † (२)
क्रि० स० तड़का देना । छोंकना । बधारना ।
⋙ तड़क भड़क
संज्ञा स्त्री० [अनु०] वैभव, शान आदि की दिखावट ।
⋙ तड़कली
संज्ञा स्त्री० [देश०] ताटंक । तरौना । कर्णाभूषण । तरकी । उ०—नाग फण का तड़कली, छोटि कसण पयोहर खीची ।— वी० रासो०, पृ० ७२ ।
⋙ तड़का
संज्ञा पुं० [हिं० तड़कना] १. सबेरा । सुबह । प्रातःकाल । प्रभात । २. छौंक । बधार । क्रि० प्र०—देना ।
⋙ तड़काना
क्रि० स० [हिं० तड़कना का सक० रूप] १. किसी वस्तु को इस तरह से तोड़ना जिससे 'तड़' शब्द हो । २. किसी पदार्थ को सुखाकर या और किसी प्रकार बीच में से फाड़ना । ३. जोर का शब्द उत्पन्न करना । ४. किसी को क्रोध दिलाना या खिंजाना ।
⋙ तड़कीला †
वि० [हिं० तड़कना + ईला (प्रत्य०)] १. चमकीला । भड़कीला । २. तड़कनेवाला । फट जानेवाला । ३. फुर्तीला ।
⋙ तड़क्का (१)
संज्ञा पुं० [अनु० तड़] तड़ का शब्द ।
⋙ तड़क्का † (२)
क्रि० वि० [हिं० तड़ाका] जल्दी । झटपट । उ०—चेतहु काहे न सबेर यमन सों रारिहै । काल के हाथ कमान तड़क्का मारिहै ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ तड़ग
संज्ञा पुं० [सं० तडग] तालाब । तड़ाग [को०] ।
⋙ तड़तड़ाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] तड़ तड़ शब्द होना ।
⋙ तड़तड़ाना (२)
क्रि० स० तड़ तड़ शब्द उत्पन्न करना ।
⋙ तड़तड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] तड़तड़ाने की क्रिया या भाव ।
⋙ तड़ता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तडित] बिजली । विद्युत ।—(डिं०) ।
⋙ तड़प
संज्ञा स्त्री० [हिं० तड़पना] १. तड़पने की क्रिया या भाव । २. चमक । भड़क ।
⋙ तड़प झड़प
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'तड़क भड़क' । उ०—केवल ऊपरी तड़पझड़प रखनेवाली पश्चिमीय सभ्यता ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २१५ ।
⋙ तड़पदार
वि० [हिं० तड़प + फा़० दार] चमकीला । भड़कदार । भड़कीला ।
⋙ तड़पन
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तड़प' ।
⋙ तड़पना
क्रि० अ० [अनु०] १. बहुत अधिक शारीरिक या मानसिक वेदना के कारण व्याकुल होना । छटपटाना । तड़फड़ाना । तलमलाना । संयो० क्रि०—जाना । २. घोर शब्द करना । भयंकर ध्वनि के साथ गरजना । जैसे, किसी से तड़पकर बोलना, शेर का तड़पकर झाड़ी में से निकलना ।
⋙ तड़पवाना
क्रि० स० [हिं० तड़पाना का प्रे० रूप] किसी को तड़— पाने का काम दूसरे से कराना ।
⋙ तड़पाना
क्रि० स० [हिं० तड़पाना का स० रूप] १. शारीरिक या मानसिक वेदना पहुँचाकर व्याकुल करना । २. किसी को गर- जने के लिये बाध्य करना । संयो० क्रि०—देना ।
⋙ तड़फड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० तड़फड़ाना] तड़पने की क्रिया ।
⋙ तड़फड़ाना
क्रि० अ० [हिं०] तड़पना । छटपटाना । तलमलाना ।
⋙ तड़फड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० तड़फड़ + आहट (प्रत्य०)] १. छट- पटाहट । तलमलाहट । बेचैनी । २. मारे जाने या जलकर मरने के समय की बेचैनी या तड़पन ।
⋙ तड़फना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तड़पना' ।
⋙ तड़भड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] हड़बड़ । जल्दी जल्दी । उ०—पातसाह अजमेर परस्से । कूच कियौ तड़भड़ भड़ कस्से ।—रा० रू०, पृ० २५ ।
⋙ तड़बंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तड़+ फा़० बंदी] समाज, बिरादरी या गोल में अलग अलग तड़ बनाना ।
⋙ तड़ाक (१)
संज्ञा पुं० [सं० तडाक] तड़ाग । तालाब । सरोवर ।
⋙ तड़ाक (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] तड़ाके का शब्द । किसी चीज के टूटने का शब्द ।
⋙ तड़ाक (३)
क्रि० वि० १. 'तड़' या 'तड़ाक' शब्द के सहित । २. जल्दी से । चटपट । तुरंत । यौ०—तड़ाक पड़ाक = चटपट । तुरंत ।
⋙ तड़ाका (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] १. 'तड़' शब्द । जैसे,—न जाने कहाँ कल रात को बड़े जोर का तड़ाका हुआ । २. कमख्वाब बुननेवालों का एक डंडा जो प्रायः सवा गज लंबा होता है और लफे में बँधा रहता है । इसके नीचे तीन और डंडे बँधे होते हैं । ३. पेड़ । वृक्ष ।—(कहारों की परि०) ।
⋙ तड़ाका (२)
क्रि० वि० [हिं० तड़ाक] चटपपट । जल्दी से । तुरंत । जैसे,—तड़ाका जाकर बाजार से सौदा ले आओ (बोलचाल) ।
⋙ तड़ाग
संज्ञा पुं० [सं० तडाग] १. तालाब । सरोवर । ताल । पुष्कर । पोखरा । पद्मादियुक्त सर । उ०—(क) भरतु हंस रबि बंस तड़ागा । जनमि कीन्ह गुन दोष विभागा ।—मानस, ३ ।२३१ । (ख) अनुराग तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मनो मंजुल कंजकली ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १६७ । विशेष—प्राचीनों के अनुसार तड़ाग पाँच सौ धनुष लंबा, चौड़ा और खूब गहरा होना चाहिए । उसमें कमल आदि भी होने चाहिए ।
⋙ तड़ागना
क्रि० अ० [अनु०] १. गर्जन तर्जन करना । तड़फड़ाना । २. डींग मारना । ३. प्रयास करना । उ०—पहुँचेंगे तब कहेंगे वही देश की सीच । अबहीं कहा तड़ागिए बेड़ी पायन बीच ।—संतवाणी०, पृ० ३५ ।
⋙ तड़ागी
संज्ञा स्त्री० [सं० तडाग] १. करधनी । २. कमर ।
⋙ तड़ाघात
संज्ञा पुं० [सं० तड़घात] दे० 'तटाघात' [को०] ।
⋙ तड़ातड़
क्रि० वि० [अनु०] १. तड़तड़ शब्द के साथ । इस प्रकार जिसमें तड़तड़ शब्द हो । जैसे, तड़ातड़ चपत जमाना । उ०— आगे रघुबीर के समीर के तनय के संग तारी दे तड़ाक तड़ातड़ के तमंका में ।—पद्माकर (शब्द०) । २. जल्दी से ।
⋙ तड़ातड़ी
क्रि० वि० [अनु० मि० बँगला ताड़ाताड़ी] जल्दी में । शीघ्रता में । उ०—ओ कुछ शुना नेई और बड़ा तड़ातड़ी में भाग ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १४५ ।
⋙ तड़ाना (१)
क्रि० स० [हिं० ताड़ना का प्रे० रूप] किसी दूसरे को ताड़ने में प्रवृत्त करना । भँपाना ।
⋙ तड़ाना (१)
क्रि० स० [हिं०] जल्दी मचना ।
⋙ तड़ावा
संज्ञा स्त्री० [हिं० तड़ाना (= दिखाना)] १. ऊपरी तड़क भड़क । वह चमर दमक जो केवल दिखाने के लिये हो । २. धोखा छल ।—(क्व०) । क्रि० प्र०—देना ।
⋙ तड़ि (१)
संज्ञा [सं० तडि] आघात [को०] ।
⋙ तड़ि (१)
वि० आघात करनेवाला [को०] ।
⋙ तड़ि (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० तड़ित्] बीजली । उ०—मेघनि विवँ अलप जल परै । तड़ि भई अलुप नेह परिहरै ।—नंद०, ग्रं०, पृ० २९० ।
⋙ तड़ित
संज्ञा स्त्री० [सं० तडित्] बिजली । विद्युत । उ०—उपमा एक असुभ भई तब जब जननी पट पीत उढ़ाए । नील जलब पर उड़गन बिरखत तजि सुभानु मनो तड़ित छिपाए ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तड़िता
संज्ञा स्त्री० [सं० तड़ित्] दे० 'तड़ित्' । उ०—तड़पै तड़िता चहुँ ओरत तें छिति छाई समीरन सी लहरैं । मदमाते महा गिरि शृंगनि पै गन मंजु मयूरन के कहरैं ।—इतिहास, पृ०, ३१८ ।
⋙ तड़ित्कुमार
संज्ञा पुं० [सं० तड़ित्कुमार] जैनों के एक देवता जो भुवनपति देवगण में से है ।
⋙ तड़ित्पति
संज्ञा पुं० [सं० तड़ित्पति] बादल । मेघ ।
⋙ तड़ित्प्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं० तड़ित्पभ्रा] कार्तिकेय की एक मात्रिका का नाम ।
⋙ तड़ित्वान्
संज्ञा पुं० [सं० तड़ित्वान्] १. नागरमोथा । २. बादल ।
⋙ तड़िदगर्भ
संज्ञा पुं० [सं० तड़िदगर्भ] बादल ।
⋙ तड़िद्दाम
संज्ञा पुं० [सं० तड़िद्दामन्] बिज्जुलता । विद्युल्लता । बिबली चमकते समय दीखनेवाली रेखा [को०] ।
⋙ तड़िन्मय
वि० [स० तड़िन्मय] बिजली की तरह चमकनेवाला [को०] ।
⋙ तड़िया
संज्ञा स्त्री० [देश०] समुद्र के किनारे की हवा ।—(लश०) ।
⋙ तड़ियाना (१)
क्रि० अ० [हिं०] दे० तड़पना' ।
⋙ तड़ियाना (२)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तड़पाना' ।
⋙ तड़ियाना (३)
क्रि० अ० [हिं०] जल्दी करना । जल्दी मचाना ।
⋙ तड़िल्लता
संज्ञा स्त्री० [सं० तड़िल्लता] विद्युल्लता [को०] ।
⋙ तड़िल्लेखा
संज्ञा स्त्री० [सं० तड़िल्लेखा] बिजली की रेखा [को०] ।
⋙ तड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [तड़ से अनु०] १. चपत । धौल । क्रि० प्र०—जड़ना ।—जमाना ।—देना ।—लगाना । २. धोखा । छल ।—(दलाल) ३. बहाना । हीला । क्रि० प्र०—देना ।—बताना ।
⋙ तड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] जल्दी । शीघ्रता ।
⋙ तड़ीत पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तड़ित' ।
⋙ तण पु
अव्य० [हिं० तनु] की तरफ । ओर का ।
⋙ तणई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तनया] कन्या । पुत्री ।
⋙ तणमीट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] मुसलमान ।
⋙ तणी (१)
अव्य० [हिं०] दे० 'तड़' ।
⋙ तणी (२)
अव्य० [हिं० तनिक] थोड़ा । अल्प ।
⋙ तणु पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनु' ।
⋙ तणौ पु
अव्य० [हिं० तनु] कै लिये । की तरफ ।
⋙ तत्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्म या परमात्मा का एक नाम । जैसे,— औं तत् सत् । २. वायु । हवा ।
⋙ तत् (२)
सर्व० उस । विशेष—इसका प्रयोग केवल संस्कृत के समस्त शब्दों के साथ उनके आरंभ में बोता है । जैसे,—तत्काल, तत्क्षण, तत्पुरुष, तत्पश्चात्, तदनंतर, तदाकार, तदद्वार, तत्पुर्व, तत्प्रथम ।
⋙ तत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु । २. विस्तार । ३. पिता । ४. पुत्र ।संतान । ५. वह बाजा जिसमें बजाने के लिये तार लगे हों । जैसे, सारंगी, सितार, बीन, एकतारा, बेहला आदि । विशेष—तत बाजे दो प्रकार के होते हैं—एक तो वे जो खाली उँगली या मिजराव आदजि से बजाए जाते हैं; जैसे, सितार बीन, एकतारा आदि । ऐसे बाजों को अंगुलित्र यंत्र कहते हैं और जो कमानी की सहायता से बजाए जाते हैं, जैसे, सारंगी, बेला आदि, वे धनुःयंत्र कहलाते हैं ।
⋙ तत (२)
वि १. विस्तृत । फैला हुआ । २. विस्तारित । ३. ढका हुआ । छिपा हुआ । ४. झुका हुआ । ५. अंतरहित । लगातार [को०] ।
⋙ तत पु † (३)
वि० [सं० तप्त] तपा हुआ । गरम । उ०—नखत अकासहिं चढ़ई दिपाई । तत तत लूका परहिं बुझाई ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ तत पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्व] दे० 'तत्व' ।
⋙ तत पु (५)
सर्व० [सं० तत्] उस । जैसे,—ततखन = तत्क्षण ।
⋙ ततकरा
क्रि० वि० [सं० तत्काल] तुरंत । उ०—ततकरा अपवित्र कर मानिए जैसे कागदगर करत विधार ।—रैदास०, पृ० ३७ ।
⋙ ततकार †
अव्य० [हिं०] दे० 'तत्काल' ।
⋙ ततकाल पु †
अव्य० [हिं०] दे० 'तत्काल' ।
⋙ ततखण
क्रि० वि० [सं० तत्क्षण; प्रा० तक्खण] दे० 'तत्क्षण' । उ०—ततखण मालवणी कहइ साँभलि कंत सुरंग ।—ढोला०, दु० ६५४ ।
⋙ ततखन पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'ततक्षण' । उ०—ततखन आइ बिदाँन पहूँचा । मन तें अधिक गगन ते उँचा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ ततच्छन
क्रि० वि० [सं० तत्क्षण] दे० 'तत्क्षण' । उ०—(क) राज काज आजय विद्यालय बीच ततच्छन ।—प्रेमघन०, पृ० ४१५ । (ख) अरज गरज सुनि देत उचित आदेश ततच्छन ।—प्रेमघन०, भा० २ पृ० १५ ।
⋙ ततछन पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तत्क्षण' ।
⋙ ततछिन पु
क्रि० वि० [सं० तत्क्षण, हिं० ततछन] दे० 'तत्क्षण' । उ०—सिघ पौरि वृषभानु की, ततछिन पहुँचे जाइ ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९८ ।
⋙ ततताथेई
संज्ञा स्त्री० [अनु०] नृत्य का शब्द । नाच के बोल ।
⋙ ततत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. विलंबित काल । मंद काल ।—(संगीत) । २. नैरंतर्य । निरंतरता [को०] ।
⋙ ततपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] केले का वृक्ष ।
⋙ ततपर
वि० [सं० तत्पर] दे० 'तत्पर' ।
⋙ ततबाउ पु †
संज्ञा पुं० [सं० तुन्तुवाय] दे० 'तंतुवाय' ।
⋙ ततबीर पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० तदबीर] दे० 'तदबीर' । उ०— कोउ गई जल पैठि तरुनी और ठाढ़ी तीर । तितहि खई बोलाइ राधा करत सुख ततबीर ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ ततबेता
वि० [सं० तत्ववेत्ता] ज्ञानी । उ०—जैसा ढूँढ़त मै फिरौ, तैसा मिला न कोय । ततबेता निरगुन रहित, निरगुन सै रत होय ।—कबीर सा०, सं०, पृ० १८ ।
⋙ ततरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का फलदार पेडु ।
⋙ ततवर
वि० [सं० तत्ववर] तत्वज्ञानी । तत्व की बात जाननेवाला । उ०—ततवर मित्र कृष्न तेहि आगे । उधो रोई जप तप को लागे ।—घट०, पृ० २३२ ।
⋙ ततसार पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० तप्तशाला] तापने का स्थान । आँच देने या तपाने की जगह । उ०—सतगुर तो ऐसा मिला ताते लोह लुहार । सकनी दे कंचन किया ताय लिया ततसार ।— कबीर (शब्द०) ।
⋙ ततहड़ा
संज्ञा पुं० [सं० त्पत + हिं० हाँड़ी] [स्त्री० अल्पा० ततहड़ी] वह बरतन विशेषतः मिट्टी का बरतन जिसमें देहातवाले नहाने का पानी गरम करते हैं ।
⋙ तताई †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० तत्ता] तप्त होने की क्रिया या भाव गरमी । उ०—बरनि बताई छिति ब्यौम की तताई, जेठ आयौ आतताई पुटपाक सी करत है ।—कवित०, पृ० ५९ ।
⋙ ततामह
संज्ञा पुं० [सं०] पितामह । दादा ।
⋙ ततारना
क्रि० स० [हिं० तत्ता (=गरम)] १. अरम जल से धोना । २. तरेरा देकर धोना । धार देकर धोना । उ०—मनहु विरह के सद्य धाय हिये लखि तकि तकि धरि धीर ततारति ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १श्रणी । पंक्ति । ताँता । २. समूह । सेना । भीड़ । ३. विस्तार । ४. यज्ञ का समारोह । उत्सव (को०) ।
⋙ तति (२)
वि० [सं०] लंबा चौड़ा । विस्तृत । उ०—यज्ञोपवीत पुनीत विराजत गूड़ जत्रु बनि पैन अंस तति ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ ततुबाऊ पु †
संज्ञा पुं० [सं० तन्तुवाय] दे० 'तंतुवाय' ।
⋙ ततुरि (१)
वि० [सं०] १. हिंसा करनेवाला । २. तारनेवाला । ३. जीतनेवाला (को०) । ४. रक्षण या पालन करनेवाला (को०) ।
⋙ ततुरि (२)
संज्ञा पुं० १ अग्नि । २. इंद्र [को०] ।
⋙ ततैया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तिक्त या तप्त (=तत) + हिं० ऐया (प्रत्य०)] २. बर्रे । भिड़ । हड्डा । २. जवा मिर्च जो बहुत कडुई होती है ।
⋙ ततैया (२)
वि० [हिं० तीता अथवा तत्ता] १. तेज । फुरतीला । २. चालाक । बुद्धिमान ।
⋙ ततोधिक
वि० [सं० ततोधिक] उससे अधिक [को०] ।
⋙ ततौ पु
अव्य० [हिं०] तो । उ०—जो हम सों हिंत हानि कियो । ततौ भूलिबो वा हरि कौन सौ साह थो ।—नट०, पृ० ३४ ।
⋙ तत्काल
क्रि० वि० [सं०] तुरंत । फौरन । उसी समय । उसी वक्त ।
⋙ तत्कालीन
वि० [सं०] उसी समय का ।
⋙ तत्क्षण
क्रि० वि० [सं०] उसी समय । तत्काल । फौरन । उसी दम ।
⋙ तत्त पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्व, हिं०] दे० 'तत्त्व' ।
⋙ तत्त पु (२)
वि० [सं० तप्त, हिं० ] दे० 'तप्त' । उ०—चुरंगी सु तत्तं, वरं सिंघ उत्तं । मिल्यौ बथ्थ आनं, दुअं मल्ल जानं ।—पृ० रा०, १ । ६४५ ।
⋙ तत्तदू (१)
वि० [सं०] भिन्न भिन्न [को०] ।
⋙ तत्तदू (२)
सर्व० वह वह । उन उन [को०] ।
⋙ तत्तमत्त पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तंत्रमंत्र' । उ०—हथ्थ जोर अल्हन सो बुल्लिव । तत्तमत्त अंतर कव खुल्लिव ।—प० रासो, पृ० १७२ ।
⋙ तत्ता पु
वि० [सं० तप्त] जलता या तपता हुआ । गरम । उष्ण । मुहा०—तत्ता तवा = जो बात बात पर लड़े । लड़ाका । झगड़ालू ।
⋙ तत्ताथेई
संज्ञा स्त्री० [अनु०] नाच का बोल ।
⋙ तत्ती
वि० स्त्री० [हिं० तत्ता] तीक्ष्ण । तप्त । उ०—जगपत्ती उण जोस मै, रत्ती आप समांण । वनसपती खल जालवा, कर तत्ती केवांण ।—रा० रू०, पु० १२९ ।
⋙ तत्तोथंवो
संज्ञा पुं० [हिं० तत्ता (= गरम) + थामना] १. दम दिलासा । बहलावा । २. दो लड़ते हुए आदमियों को समझा बुझाकर शांत करना । बीच बचाव ।
⋙ तत्व
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्व] १. वास्तविक स्थिति । ययार्थता । वास्तविकता । असलियत । २. जगत् का मूल कारण । विशेष—सांख्य में २५ तत्व माने गए हैं—पुरुष, प्रकृति, महत्तत्व (बुद्धि), अहंकार, चक्षु, कर्ण, नासिका, जिह्वा, त्वक्, वाक्, पाणि, पायु, पाद, उपस्थ, मल, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश । मूल प्रकृत्ति से शोष तत्वों की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है—प्रकृति से महत्तत्व (बुद्धि), महत्तत्व से अहंकार, अहंकार से ग्यारह इंद्रियाँ (पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ और मन) और पाँच तन्मात्र, पाँच तन्मात्रों से पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, आदि) । प्रलय काल में ये सब तत्व फिर प्रकृति में क्रमशः विलीन हो जाते हैं । योग में ईश्वर को और मिलाकर कुल २६ तत्व माने गए हैं । सांख्य के पुरुष से योग के ईश्वर में विशेषता यह है कि योग का ईश्वर क्लेश, कर्मविपाक आदि से पृथक् माना गया है । वेदांतियोँ के मत से ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थ तत्व है । शून्य— वादी बौद्धों के मत से शून्य या अभाव ही परम तत्व है, क्यों कि जो वस्तु है, वह पहले नहीं थी और आगे भी न रहेगी । कुछ जैन तो जीव और अजीव ये ही दो तत्व मानते हैं और कुछ पाँच तत्व मानते हैं—जीव, आकाश, धर्म, अधर्म, पुदगल और अस्तिकाय । चार्वाक् के मत में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये ही तत्व माने गए हैं और इन्हीं से जगत् की उत्पत्ति कही गई है । न्याय में १६, वैशेषिक में ६, शैवदर्शन में ३६; इसी प्रकार अनेक दर्शनों की भिन्न भिन्न मान्यताएँ तत्व के संबंध में हैं । यूरोप में१६वीं शती में रसायन के क्षेत्र का विस्तार हुआ । पैरासेल्सस ने तीन या चार तत्व माने, जिनके मूलाधार लवण गंधक और पारद माने गए । १७वीं शती में फांस एवं इग्लैंड में भी इसी प्रकार के विचारों की प्रश्रय मिलता रहा । तत्व के संबंध में सबसे अधिक स्पष्ट विचार रावर्ट जायल (१६२७—१६९१ ई०) ने १६६१ ई० में रखा । उसने परिभाषा की कि तत्व उन्हें कहेंगे जो किसी यांत्रिक या रासायनिक क्रिया से अपने से भिन्न दो पदार्थो में विभाजित न किए जा सकें । १७७४ ई० में प्रीस्टली ने आक्सिजन गैस तैयार की । कैबेंडिश ने १७८१ ई० में आक्सिजन और हाइड्रोजन के योग से पानी तैयार करके दिखा दिया और तब पानी तत्वं न रहकर यौगिकों की श्रेणी में आ गया । लाव्वाज्ये ने १७८९ ई० में यौगिक और तत्व के प्रमुख अंतरों को बताया । उसके समय तक तत्वों की संख्या २३ तक ग्हुँच चुकी थी । १९वी० शती में सर हंफ्री डेवी ने नमक के मूल तत्व सोडियम को भी पृथक् किया और कैल्सियम तथा पोटासियम को भी यौगिकों में से अलग करके दिखा दीया । २०वीं शती में मोजली नामक वैज्ञानिक न परमाणु संख्या की कल्पना रखी जिससे स्पष्ट हो गया कि सबसे हल्के तत्व हाइड्रोजन से लेकर प्रकृति में प्राप्त सबसे भारी तत्व यूरेनियम तक तत्वों की संख्या लगभग १०० हो सकती है । प्रयोगों ने यह भी संभव करके दिखा दिया है कि हम अपनी प्रयोगशालाओं में तत्वों का विभाजन और नए तत्वों का निर्माण भी कर सकते हैं । ३. पंचभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) । ४. परमात्मा । ब्रह्म । ५. सार वस्तु । सारांश । जैसे,—उनके लेख में कुछ तत्व नहीं है । यौ०—तत्त्वमसि = यह उपनिषद् का एक वाक्य है जिसका तात्पर्य है हर व्यक्ति ब्रह्म है ।
⋙ तत्वज्ञ
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वज्ञ] १. वह जो ईश्वर या ब्रह्म को जानता हो । तत्वज्ञानी । ब्रह्मज्ञानी । २. दार्शनिक । दर्शन शास्त्र का ज्ञाता ।
⋙ तत्वज्ञान
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वज्ञान] ब्रह्म, आत्मा और सृष्टि आदि के संबंध का यथार्थ ज्ञान । ऐसा ज्ञान जिससे मनुष्य को मोक्ष हो जाय । ब्रह्मज्ञान । विशेष०—सांख्य और पातंजल के मत से प्रकृति और पुरुष का भेद जानना और विदांत के मत से अविद्या का नाश और वस्तु का वास्तविक स्वरूप पहचानना ही त्तवज्ञान है । यौ०—तत्वज्ञानार्थ दर्शन = तत्वज्ञान का विमर्श या आलोचना ।
⋙ तत्वज्ञानी
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वज्ञानिन्] १. जिसे ब्रह्म, सृष्टि और आत्मा आदि के संबंध का ज्ञान हो । तत्वज्ञ । दार्शनिक ।
⋙ तत्वतः
अव्य० [सं० तत्त्वतः] वस्तुता । यथार्थतः । वास्तव में [को०] ।
⋙ तत्वता
संज्ञा स्त्री० [सं० तत्त्वता] १. तत्व होने का भाव या गुण । २. यथार्थता । वास्तविकता ।
⋙ तत्वदर्श
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वदर्श] १. तत्वज्ञानी । २. सावर्णि मन्वंतर के एक ऋषि का नाम ।
⋙ तत्वदर्शी
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वदर्शिन्] १. जो तत्व को जानता हो । तत्वज्ञानी । रैवत मनु के एक पुत्र का नाम ।
⋙ तत्वद्दष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० तत्त्वदृष्टि] वह दृष्टि जो तत्व का ज्ञान प्राप्त करने में सहायक हो । ज्ञानचक्षु । दिव्य द्यष्टि ।
⋙ तत्वनिष्ठ
वि० [सं० तत्त्वतिष्ठ] तत्व में निष्ठा रखनेवाला [को०] ।
⋙ तत्वन्यास
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वन्यास] तंत्र के अनुसार विष्णुपूजा में एक अंगन्यास जो सिद्धि प्राप्त करने के लिये किया जाता है ।
⋙ तत्वभाव
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वभाव] प्रकृति । स्वभाव ।
⋙ तत्वभाषी
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वभाषिन्] वह जो स्पष्ट रूप से यथार्थ बात कहता हो ।
⋙ तत्वभूत
वि० [सं० तत्त्वभूत] तत्व या सार रूप [को०] ।
⋙ तत्वरश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार स्त्री देवता का बीज । वधूबीज ।
⋙ तत्ववाद
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्ववाद] दर्शनशास्त्र संबंधी विचार ।
⋙ तत्ववादी
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्ववादिन्] १. जो तत्ववाद का ज्ञाता और समर्थक हो । २. जो यथार्थ और स्पष्ट बात कहता हो ।
⋙ तत्वविद्
संज्ञा पुं० [तत्त्वविद्] १. तत्ववेत्ता । २. परमेश्वर ।
⋙ तत्वविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दर्शनशास्त्र ।
⋙ तत्ववेत्ता
संज्ञा पुं० [तत्त्ववेत्तृ] १. जिसे तत्व का ज्ञान हो । तत्वज्ञ । २. दर्शनशास्त्र का ज्ञाता । फिलासफर । दार्शनिक ।
⋙ तत्वशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वशास्त्र] १. दर्शनशास्त्र । २. वैशेषिक दर्शनशास्त्र ।
⋙ तत्वावधान
संज्ञा पुं० [तत्त्वावधान] निरीक्षण । जाँच पड़ताल । देख रेख ।
⋙ तत्धावधानक
संज्ञा पुं० [सं० तत्त्वावधानक] देखरेख करनेवाला । निरीक्षक ।
⋙ तत्थ † (१)
वि० [सं० तत्त्व] मुख्य । प्रधान ।
⋙ तत्थ † (२)
संज्ञा पुं० शक्ति । बल । ताकत ।
⋙ तत्पत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केले का पेड़ । २. वंशपत्री नाम की घास ।
⋙ तत्पद
संज्ञा पुं० [सं०] परम पद । निर्वाण ।
⋙ तत्पदार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] सृष्टिकर्ता । परमात्मा ।
⋙ तत्पर (१)
वि० [सं०] [संज्ञा तत्परता] १. जो कोई काम करने के लिये तैयार हो । उद्यत । मुस्तैद । सन्नद्ध । २. निपुण । ३. चतुर । होशियार । ४. उसके बाद का (को०) ।
⋙ तत्पर (२)
संज्ञा पुं० समय का एक बहुत छोटा मान । एक निमेष का तीसवाँ भाग ।
⋙ तत्परता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तत्पर होने की क्रिया या भाव । सन्नद्धता । मुस्तैदी । २. दक्षता । निपुणता । ३. होशियारि ।
⋙ तत्परायण
वि० [सं०] किसी वस्तु या ध्येय में पूरी तरह से लग्न या दत्तचित [को०] ।
⋙ तत्पश्चात्
अव्य० [सं०] उसके बाद । अनंतर [को०] ।
⋙ तत्पुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । परमेश्वर । २. एक रुद्र का नाम । ३. मत्स्य पुराण के अनुसार एक कल्प (काल विभाग) का नाम । ४. व्याकरण में एक प्रकार का समास जिसमें पहले पद में कर्ता कारक की विभक्ति को छोड़कर कर्म आदि दूसरे कारकों की विभक्ति लुप्त हो और जिसमें पिछले पद का अर्थ प्रधान हो । इसका लिंग और वचन आदि पिछले या उत्तर पद के अनुसार होता है । जैसे,—जलचर, नरेश, हिमालय, यज्ञशाला ।
⋙ तत्प्रतिरूपक व्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के मत से एक अतिचार जो बेचने के खरे पदार्थों में खोटे पदार्थ की मिलावट करने से होता है ।
⋙ तत्फल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुट नामक औषधि । २. बेर का फल । ३. कुवलय । नील कमल । ४. चीर नामक गंधद्रव्य । ५. श्वेत कमल (को०) ।
⋙ तत्र
क्रि० वि० [सं०] उस स्थान पर । उस जगह । वहाँ ।
⋙ तत्रक
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ जो योरप, अरब, फारस से लेकर पूर्व में अफगानिस्तान तक होता है । विशेष—यह अनार के पेड़ के बराबर या उससे कुछ बड़ा होता है । इसकी पत्तियाँ नीम की पत्ती की तरह कटावदार और कुछ ललाई लिए होती हैं । इसमें फलियाँ लगती हैं जिनमें मसूर के से बीज पड़ते हैं । ये बीज बाजार में अत्तारों के यहाँ समाक के नाम से बिकते हैं और हकीमी दवा में काम आते हैं । बीज के छिलके का स्वाद कुछ खट्टा और रुचिकर होता है । इसकी पत्तियों से एक प्रकार का रंग निकलता है । डंठल और पत्तियों से चमड़ा बहुत अच्छा सिझाया जाता है । हिंदुस्तान में चमड़े के बड़े बड़े कारखानों में ये पत्तियाँ सिसली से मँगाई जाती हैं ।
⋙ तत्रत्य
वि० [सं०] वहाँ रहनेवाला [को०] ।
⋙ तत्रभवान्
संज्ञा पुं० [सं०] माननीय । पूज्य । श्रेष्ठ । विशेष—अत्रभवान् की तरह इस शब्द का प्रयोग भी प्रायः संस्कृत नाटकों में अधिकता से होता है ।
⋙ तत्रस्थ
वि० [सं०] वहाँ स्थित । वहाँ का निवासी ।
⋙ तत्रापि
अव्य० [सं०] तथापि । तो भी ।
⋙ तत्संबंधी
वि० [सं० तत्संबंधिन्] उससे संबंध रखनेवाला [को०] ।
⋙ तत्सम
संज्ञा पुं० [सं०] भाषा में व्यवहृत होनेवाला संस्कृत का वह शब्द जो अपने शुद्ध रूप में हो । संस्कृत का वह शब्द जिसका व्यवहार भाषा में उसके शुद्ध रूप में हो । जैसे,—दया, प्रत्यक्ष, स्वरूप, सृष्टि आदि ।
⋙ तत्सामयिक
वि० [सं०] उस समय से संबंधित । उस समय का [को०] ।
⋙ तथ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तत्व' । उ०—उह मनु कैसा जो कथै अकथु । उह मनु कैसा जो उलटै चुनि तथु ।—प्राण०, पृ० ३४ ।
⋙ तथता
संज्ञा पुं० [सं० तथ + ता] १. सत्यता । वस्तु का वास्तविक स्वरूप में निरूपण । २. तथा का भाव । उ०—यदि आप चाहें तो असंस्कृतों को धर्मता, तथता का प्रज्ञप्तिसत् मान सकगते हैं ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ३३५ ।
⋙ तथा (१)
अन्य० [सं०] १. और । व । २. इसी तरह । ऐसे ही । जैसे—यथा नाम तथा गुण । यौ०—तथारूप । तथारूपी । तथावादी । तथाविध । तथा- विधान । तथावृत । तथाविधेय । तथास्तु = ऐसा ही हो । इसी प्रकार हो । एवमस्तु । विशेष—इस पद का प्रयोग किसी प्रार्थना को स्वीकार करने अथवा माँगा हुआ वर देने के समय होता है ।
⋙ तथा (२)
संज्ञा पुं० १. सत्य । २. सीमा । हद । ३. निश्चय । ४. समानता ।
⋙ तथा (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० तथ्य] दे० 'तथ्य' ।
⋙ तथाकथित
वि० [सं०] जो मूलतः न हो परंतु उस नाम से प्रचलित हो । नामधारी ।
⋙ तथाकथ्य
वि० [सं०] दे० 'तथाकथित' [को०] ।
⋙ तथाकृत
वि० [सं०] इसी या उसी प्रकार किया हुआ या निर्मित [को०] ।
⋙ तथागत
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुद्ध का एक नाम । २. जिन (को०) ।
⋙ तथागुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैसा हि गुण । २. सत्य । वस्तु— स्यिति [को०] ।
⋙ तथाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तथता' [को०] ।
⋙ तथानुरूप
वि० [सं०] दे० 'तदनुरूप' । उ०—सत्य में जो संगति होती है वह तत्वों का समवर्गीय होना और उनका और उनसे निकाले हुए नियमों का तथानुरूप होता है ।—प्रा० सा० सि०, पृ० ५ ।
⋙ तथापि
अव्य० [सं०] तो भी । तिस पर भी । तब भी । उ०—प्रभुहिं तथापि प्रसन्न बिलोकी । माँगि अगम बरु होउँ असोकी ।—मानस, १ । १६४ । विशेष—इसका प्रयोग यद्यपि के साथ होता है । जैसे,—यद्यपि हम वहाँ नहीं गए, तथापि उनका काम हो गया ।
⋙ तथाभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैसा भाव या स्थिति । २. सत्यता [को०] ।
⋙ तथाभूत
वि० [सं०] १. उस प्रकार के गुण या प्रकृति का । २. उस स्थिति का [को०] ।
⋙ तथाराज
संज्ञा पुं० [सं०] गौतम बुद्ध ।
⋙ तथेई ताथेइ ताधे
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'ताताथेई' । उ०—लग्यौ कान्ह कै आनि, तथेई ताथेइ ताधे । ब्रजनिधि कौ चित चूर चूर करि डारयौ राधे ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १९ ।
⋙ तथैव
अव्य [सं०] वैसा ही । उसी प्रकार ।
⋙ तथोक्त
वि० [सं०] वैसा वर्णित । जैसा कहा गया है । २. तथा- कथित । उ०—भारत की तथोक्त ऊँची जातियाँ चाहे कितना ही अभिमान करैं पर उनकी आकृतियाँ और इतिहास पुकार पुकार कर कहते हैं कि वह सांकर्य दोष से बची नहीं हैं ।— आर्यों०, पृ० १३ ।
⋙ तथ्य (१)
वि० [सं०] १. सत्य । सचाई । यथार्थता । २. रहस्य [को०] ।
⋙ तथ्य † (२)
अव्य० [सं० तप्त] उस जगह । वहाँ [को०] ।
⋙ तथ्यतः
क्रि० वि० [सं०] सत्य या सचाई के अनुसार [को०] ।
⋙ तथ्यभाषी
वि० [सं० तथ्यभाषिन्] साफ और सच्ची बात कहनेवाला ।
⋙ तथ्यवादी
वि० [सं० तथ्यवादिन्] दे० 'तथ्यभाषी' ।
⋙ तद्
वि० [सं०] वह । विशेष—इसका प्रयोग यौगिक शब्दों के आरंभ में होता है । जैसे,—तदनंतर, तदनुसार ।
⋙ तद †
क्रि० वि० [सं० तदा] उस समय । तब ।
⋙ तदंतर
क्रि० वि० [सं० तदन्तर] इसके बाद । इसे उपरांत ।
⋙ तदनंतर
क्रि० वि० [सं० तदनन्तर] उसके पीछे । उसके बाद । उसके उपरांत ।
⋙ तदनन्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] कार्य और कारण में अभेद । कार्य और कारण की एकता । (वेदांत) ।
⋙ तदनु
क्रि० वि० [सं०] १. उसके पीछे । तदनंतर । उसके अनुसार २. उसी तरह । उसी प्रकार ।
⋙ तदनुकूल
वि० [सं०] उसके अनुसार । तदनुसार ।
⋙ तदनुरूप
वि० [सं०] उसी के जैसा । उसी के रूप का । उसी के समान ।
⋙ तदनुसार
वि० [सं०] उसके मुताबिक । उसके अनुकूल ।
⋙ तदन्यबाधितार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] नव्य न्याय में, तर्क के पाँच प्रकारों में से एक ।
⋙ तदपि
अव्य० [सं०] तो भी । तिसपर भी । तथापि ।
⋙ तदबीर
संज्ञा स्त्री० [अं०] अभीष्ट सिद्धि करने का साधन । उक्ति । तरकीब । यत्न ।
⋙ तदर्थ
अव्य० [सं०] उसके लिये । उसके वास्ते [को०] ।
⋙ तदर्थी
वि० [सं० तदर्थिन्] दे० 'तदर्थीय' ।
⋙ तदर्थीय
वि० [सं०] उसके अर्थ की तरह अर्थ रखनेवाला । समानार्थक [को०] ।
⋙ तदा
क्रि० वि० [सं०] उस समय । तब । तिस समय ।
⋙ तदाकार
वि० [सं०] १. वैसा ही । उसी आकार का । उसी आकृतिवाला । तद्रूप । २. तन्मय ।
⋙ तदारक
संज्ञा पुं० [अं०] १,खोई हुई चीज या आगे हुए अपराधी आदि की खोज या किसी दुर्घटना आदि के संबंध में जाँच । २. किसी दुर्घटना को रोकने के लिये पहले से किया हुआ प्रबंध । पेशबंदी । बंदोबस्त । ३. सजा । दंड ।
⋙ तदि पु
क्रि० [हिं०] तदा । तब । उस समय । उ०—तदि करयौ बोध वहु बिधि सुताहि ।—ह० रासो, पृ० ४९ ।
⋙ तदीय
सर्व [सं०] उससे संबंध रखनेवाला । उसका । यौ०—तदीय समाज । तदीय सर्वस्व ।
⋙ तदुत्तर
वि० [सं०] उसके बाद । उसके अतिरिक्त । उ०—कठिन है अपना तर्क तुम्हें समझाना । इह मेरा है पूर्ण, तदूत्तर परलोकों का कौन ठिकाना ।—इत्यलम्, पृ० २१८ ।
⋙ तदुपरांत
क्रि० वि० [सं० तद् + उपरान्त] उसके पीछे । उसके बाद ।
⋙ तदुपरि
वि० [सं०] उसके ऊपर । उसके बाद । उ०—कष्टो में अल्प उपशम भी क्लेश को है घटाना । जो होती है तदुपरि व्यथा सो महादुर्भगा है ।—प्रिय०, पृ० १२२ ।
⋙ तदूगत
वि० [सं०] १. उससे संबंध रखनेवाला । उसके संबंध का । २. उसके अंतर्गत । उसमें व्याप्त ।
⋙ तदूगुण
संज्ञा पुं० [सं०] एक अर्थालंकार जिसमें किसी एक वस्तु का अपना गुण त्याग करके समीपवर्ती किसी दूसरे उत्तम पदार्थ का गुण गहण कर लेना वर्णित होता है । जैसे,—(क) अधर धरत हरि के परत ओंठ वीठ पट जोति । हरित बाँस की बाँसुरी इंद्रधनुष सी होती ।—बिहारी (शब्द०) । इसमें बाँस की बाँसुरी का अपना गुण छोड़कर इंद्रधनुष का गुण ग्रहण करना वर्णित है । (ख) जाहिरै जागत सी जमुना जब बूड़ै बहै उमहैं वह बेनी । त्यों पदमाकर हीर के हारन गंग तरंगन को सुख देनी । पायन के रँग सों रँगि जात सुभाँतिहिं आँति सरस्वति सेनी । पेरे जहाँ ही जहाँ वह बाल तहाँ तहँ ताल में होत त्रिबेनी ।—पद्माकर (शब्द०) । यहाँ ताल के जल का बालों, हिरे, मोती के हारों और तलवों के संसर्ग के कारण त्रिवेणी का रूप धारण करना कहा गया है ।
⋙ तड़पि पु
अव्य० [हिं०] दे० 'तद्यपि' । उ०—अध उद्ध भ्रम्यौबहु कमलि नाल । नहिं पार लह्यौ तद्दपि मुहाल ।—ह० रासो, पृ० ४ ।
⋙ तद्धन
संज्ञा पुं० [सं०] कृपण । कंजूस ।
⋙ तद्धर्म
वि० [सं० तदधर्मन्] जिनका वह धर्म हो । उस धर्मवाला । उ०—किंतु आप कहेंगे कि यद्यपि जाति का तद्धर्मत्व नहीं है तथापि तीक्ष्णत्व और कपिलत्व का अग्निजाति से अविनाभाव है ।—संपुर्णा० अग्नि० ग्रं०, पृ० ३३७ ।
⋙ तद्धित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याकरण में एक प्रकार का प्रत्यय जिसे संज्ञा के अंत में लगाकर शब्द बनाते हैं । विशेष—यह प्रत्यय पाँच प्रकार के शब्द बनाने के काम में आता है—(१) अपत्यवाभक, जिससे अपत्यता या अनुयायित्व आदि का बोध होता है । इसमें या तो संज्ञा के पहले स्वर की वृद्धि कर दी जाती है अथवा उसके अंत में 'ई' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है । जैसे, शिव से शैव, विष्णु से वैष्णव, रामानंद से रामानंदी आदि । (२) कर्तृवाचक—जिससे किसी क्रिया के कर्ता होने का बोध होता है । इसमें 'वाला' या 'हारा' अथवा इन्हीं का समानार्थक और कोई प्रत्यय लगाया जाता है । जैसे, कपड़ा से कपड़ेवाला, गाड़ी से गाड़ीवाला, लकड़ी से लकड़ीवाला या लकड़हारा । (३) भाववाचक—जिससे भाव का बोध होता है । इसमें 'आई', 'ई', 'त्व', 'ता', 'पन', 'पा', 'वट', 'हट', आदि प्रत्यय लगाते हैं । जैसे, ढीठ से ढिठाई, ऊँचा से ऊँचाई, मनुष्य से मनुष्यत्व, मित्र से मित्रता, लड़का से लड़कपन, बूढ़ा से बुढ़ापा, मिलान से मिलावट, चिकना से चिकनाहट आदि । (४) ऊनवाचक—जिससे किसी प्रकार की न्यूनता या लघुता आदि का बोध होता है । इसमें संज्ञा के अंत में 'क', 'इया' आदि लगा देते हैं और 'आ' को 'ई' से बदल देते हैं । जैसे,—वृक्ष से वृक्षक, फोडा से फोडिया, डोला से डोली । (५) गुणवाचक— जिससे गुण का बोध होता है । इसके संज्ञा के अंत में 'आ', 'इक', 'इत', 'ई', 'ईला', 'एला', 'लु',' वंत', 'वान', 'दायक', 'कारक', आदि प्रत्य लगाए जाते हैं । जैसे, ढंढ से ठंढा, मेल से मैला, शरीर से शारीरिक, आनंद से आनंदित, गुण से गुणी, रँग से रँगीला, घर से घरेलू, दया से दयावान्, सुख से सुखदायक, गुण से गुणकारक आदि । २. वह शब्द जो इस प्रकार प्रत्यय लगाकर बनाया जाय ।
⋙ तद्धित (२)
वि० उसके लिये उपयुक्त [को०] ।
⋙ तदूबल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाण ।
⋙ तदूभव
संज्ञा पुं० [सं०] भाषा में प्रयुक्त होनेवाला संस्कृत का वह शब्द जिसका रूप कुछ विकृत या परिवर्तित हो गया हो । संस्कृत के शब्द का अपभ्रंश रूप । जैसे, इस्त का हाथ, अश्रु का आँसू, अर्ध का आधा, काष्ठ का काठ, कर्पूर का कर्पूर, वृत का घी ।
⋙ तद्यपि
अव्य० [सं०] तथापि । तो भी ।
⋙ तद्रूप
वि० [सं०] समान । सद्दश । वैसा ही । उसी प्रकार का ।
⋙ तद्रूपता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सादृश्य । समानता । उ०—जानि जूग जूप मैं भूप तद्रूपता बहुरि करिहै कलुष भूमि भारी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तद्वत्
वि० [सं०] उसी के जैसा । उसके समान । ज्यों का त्यों । यौ०—तद्वत्ता = तद्वत् होने का भाव या स्थिति ।
⋙ तधी †
क्रि० वि० [सं० तदा] तभी (क्व०) ।
⋙ तन (१)
संज्ञा पुं० [सं० तनु । तुल० फा० तन] १. शरीर । देह । गात । जिस्म । यौ०—तनताप = (१) शारीरिक कष्ट । (२) भूख । क्षुधा । मुहा०—तन को लगाना = (१) हृदय पर प्रभाव पड़ना । जी में बैठना । जैसे,—चाहे कोई काम हो, जब तन को न लगै तब तक वह पूरा नहीं होता । (१) (खाद्य पदार्थ का) शरीर को पुष्ट करना । जैसे,—जब चिंता छूटे, तब खाना पीना भी तन को लगे । तन तोड़ना = अँगड़ाई लेना । तन देना = ध्यान देना । मन लगाना । जैसे,—तन देकर काम किया करो । तन मन मारना = इंद्रियों को वश में रखना । इच्छाओं पर अधिकार रखना । २. स्त्री की मूत्रेंद्रिय । भग । मुहा०—तन दिखाना = (स्त्री का) संभोग करना । प्रसंग कराना ।
⋙ तन (२)
क्रि० वि० तरफ ओर । उ०—बिहँसे करुना अयन चितइ जानकी लखन तन ।—मानस, २ । १०० ।
⋙ तन (३)
संज्ञा पुं० [सं० स्तन; प्रा० थण; हिं० थन; राज० तन; ] दे० 'स्तन' । उ०—तिया मारू रा तन खिस्या पंडर हुवा ज केस ।—ढोला०, दू० ४४२ ।
⋙ तनक (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक रागिनी का नाम जिसे कोई कोई मेघ राग की रागिनी मानते है ।
⋙ तनक † (२)
वि० [हिं०] दे० 'तनिक' । उ०—अबही देखे नवल किशोर । घर आवत ही तनक भसे हैं ऐसे तन के चोर—सूर (शब्द०) ।
⋙ तनकना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तिनकना' ।
⋙ तनकीद
संज्ञा स्त्री० [अ० तनकीद] १. आलोचना । २. परख । [को०] ।
⋙ तनकीह
संज्ञा स्त्री० [अ० तन्कीह] १. जाँच । खोज । तहकीकात । २. न्यायालय में किसी उपस्थित अभियोग के संबंध में विचार- णीय और विवादास्पद विषयों को ढूँढ निकालना । अदालत का किसी मुकदमे की उन बातों का पता लगाना जिनके लिये वह मुकदमा चलाया गया हो और जिनका फैसला होना जरूरी हो । विशेष—भारत में दीवानी अदालतों में जब कोई मुकदमा दायर होता है, तब पहले उसमें अदालत की ओर से एक तारीख पड़ती है । उस तारीख को दोनों पक्षों के वकील बहस करते हैं जिससे हाकिम को विवादास्पद और विचारणीय बातों को जानने में सहायता मिलती है । उस समय हाकिम ऐसी सब बातों की एक सूची बना लेता है । उनहीं बातों को ढूँढ़ निका- लना और उनकी सूची बनाना तनकीह कहलाता है ।
⋙ तनक्कना पु
क्रि० वि० [हिं० तनक] दे० 'तनिक' । उ०—रहे तनक्क पौरि जाय फेरि अग्गि हल्लियं ।—ह० रासी, पृ० ५१ ।
⋙ तनखाह
संज्ञा स्त्री० [फा० तनख्वाह] वह धन जो प्रति सप्ताह, प्रति मास या प्रति वर्ष किसी को नौकरी करने के उपलक्ष्य में मिलता है । बेतन । तलब ।
⋙ तनखाहदार
संज्ञा पुं० [फा०] वह जो तनखाह पर काम करता हो । तनखाह पानेवाला नौकर । वेतनभोगी ।
⋙ तनख्वाह
संज्ञा स्त्री० [फा० तनख्वाह] दे० 'तनखाह' ।
⋙ तनख्वाहदार
संज्ञा पुं० [फा० तनख्वाहदार] दे० 'तनखाहदार' ।
⋙ तनगना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तिनकना' । उ०—अनतहि बसत अनत ही डोलत आवत किरिन प्रकास । सुनहु सूर पुनि तौ कहि आवे तनगि गए ता पास ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तनगरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] शरीर ढँकने का मामूली वस्त्र । उ०— लई तनगरी तोरि कै सु हरि बोलौ हरि बोल ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ३१७ ।
⋙ तनज
संज्ञा पुं० [अं० तंज] १. ताना । २. मजाक ।
⋙ तनजीम
संज्ञा स्त्री० [अ० तनजीम] अपने वर्ग को संघटित करना । संघटन [को०] ।
⋙ तनजील
संज्ञा स्त्री० [अ० तनजील] १. आतिथ्य करना । २. उता- रना [को०] ।
⋙ तनजेब
संज्ञा स्त्री० [फा० तनजेब] एक प्रकार का बहुत ही महीन बढ़िया सूती कपड़ा । महीन चिकनी मलमल ।
⋙ तनज्जुल
संज्ञा पुं० [अं० तनज्जुल] तरक्की का उलटा । अवनति । उतार । घटाव ।
⋙ तनज्जुली
संज्ञा स्त्री० [अ० तनज्जुल + फा० ई (प्रत्य०)] अवनति । उतार । तरक्की का उलटा ।
⋙ तनतनहा
क्रि० वि० [हिं० तन + फा० तनहा] बिलकुल अकेला । जिसके साथ और कोई न हो । जैसे,—वह तनतनहा दुश्मन की छावनी से चला गया ।
⋙ तनतना
संज्ञा पुं० [हिं० तनतनाना या अ० तनतनह्] १. रोबदाब । दबदबा । २. क्रोध । गुस्सा । (क्व०) । क्रि० प्र०—दिखाना ।
⋙ तनतनाना
क्रि० अ० [अनु० या अ० तनतनह्] १. दबदबा दिख- लाना । दान दिखाना । २. क्रोध करना । गुस्सा दिखलाना ।
⋙ तनत्राण
संज्ञा पुं० [सं० तनुत्राण] १. वह चीज जिससे शरीर की लक्षा हो । २. कवच । बखतर ।
⋙ तनदिही
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'तंदेही' ।
⋙ तनधर
संज्ञा पुं० [सं० तनु + धर] दे० 'तनुधारी' ।
⋙ तनधारी पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनुधारी' ।
⋙ तनना (१)
क्रि० अ० [सं० तन या तनु] १. किसी पदार्थ के एक या दोनों सिरों का इस प्रकार आगे की ओर बढ़ना जिसमें उसके मध्य भाग का झोल निकल जाय और उसका विस्तार कुछ बढ़ जाय । झटके, खिंचाव या खुश्की आदि के कारण किसी पदार्थ का विस्तार बढ़ना । जैसे, चादर या चाँदनी तनना, घाव पर की पपड़ी तनना । २. किसी चीज का जोर से किसी ओर खिंचना । आकर्षित या प्रवृत्त होना । ३.किसी चीज का अकड़कर सीधा खड़ा होना । जैसे,—यह पेड़ कल झुक गया था, पर आज पानी पाते ही फिर तन गाया ।४. कुछ अभिमान- पूर्वक रुष्ट या उदासीन होना । ऐंठना । जैसे,—इधर कई दिनों से वे हमसे कुछ तने रहते हैं । संयो० क्रि०—जाना ।
⋙ तनना (२)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तानना' । उ०—ग्रहपथ के आलोक- वृत्त से कालजाल तनता अपना ।—कामायनी, पृ० ३४ ।
⋙ तनना (३)
संज्ञा पुं० [हिं० ताना] वह रस्सी जिससे तानने का कार्य किया जाता है ।
⋙ तनपात पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनुपात' ।
⋙ तनपोषक
वि० [सं० तन + पोषक] जो केवल अपने ही शरीर या लाभ का ध्यान रखे । स्वार्थी ।
⋙ तनबाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश जिसका लाभ महाभारत में आया है ।
⋙ तनमय
वि० [सं० तन्मय] दे० 'तन्मय' । उ०—अपनो अपनो आम सखी री तुम तनमय मैं कहूँ न नेरे ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तनमात्रा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० तन्मात्रा] दे० 'तन्मात्रा' ।
⋙ तनमानसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्ञान की सात भूमिकाओं में तीसरी भूमिका ।
⋙ तनय
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुत्र । बेटा । लड़का । २. जन्मलग्न से पाँचवाँ स्थान जिससे पुत्र भाव देखा जाता है ।
⋙ तनया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लड़की । बेटी । पुत्री । २. पिठवन लता ।
⋙ तनराग
संज्ञा पुं० [सं० तनु + राग] दे० 'तनुराग' ।
⋙ तनरुह पु
संज्ञा पुं० [सं० तनुरुह] दे० 'तनूरुह' । उ०—हरषवंत चर अचर भूमिसुर तनरुह पुलकि जनाई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तनवाद
संज्ञा पुं० [सं०] भौतिकवाद । शरीर को मुख्य माननेवाला सिद्धांत । उ०—वह ठेठ तनवाद और कर्मवाद है ।—सुखदा, पृ० १६१ ।
⋙ तनवाना
क्रि० स० [हिं० तनना का प्रे० रूप] तानने का काम दूसरे से कराना । दूसरे को तानने में प्रवृत्त करना । तनाना ।
⋙ तनवाल
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति ।
⋙ तनसल
संज्ञा पुं० [देश०] स्फटिक । बिल्लौर ।
⋙ तनसिज
संज्ञा पुं० [सं०] उरोज । उ०—सब गनना चित चोर सों, बनी सुनत यह बोल । भरके तनसिज तरुवि के, फरके ओल कपोल ।—स० सप्तक, पृ० २४२ ।
⋙ तनसीख
संज्ञा स्त्री० [अ० तनसीख] रद्द करना । बातिल करना । नाजायज करना । मंसूखी ।
⋙ तनसुख
संज्ञा पुं० [हिं० तन + सुख] तंजेब या अद्धी की तरह का एक प्रकार का बढ़िया फूलदार कपड़ा । उ०—(क) तनसुख सारी लही अँगिया अतलस अतरौटा छबि चारि चारि चूरी पहुँचीनि पहुँची छमकी बनी नकफूल जेब मुख बीरा चौके कौधे संभ्रम भूली ।—हरिदास (शब्द०) । (ख) कोमलता पर रसाल तनसुख की सेज लाल मनहुँ सोम सूरज पर सुधाबिंदु वरषै ।
⋙ तनहा (१)
वि० [फा०] १. जिसके संग कोई न हो । बिना साथी का । अकेला । एकाकी । २. रिक्त । खाली (को०) ।
⋙ तनहा (२)
क्रि० वि० बिना किसी सँगी साथी का । अकेले ।
⋙ तनहाई
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. तनहा होने की दशा या भाव । २. वह स्थान जहाँ और कोई न हो । एकांत । यौ०—तनहाई कैद ।
⋙ तना (१)
संज्ञा पुं० [फा० तनह्] वृक्ष का जमीन से ऊपर निकला हुआ वहाँ तक का भाग जहाँ तक डालियाँ न निकली हों । पेड़ का धड़ । मंदल ।
⋙ तना (२)
क्रि० वि० [हिं० तन] ओर । तरफ । दे० 'तन' । उ०— नील पट झपटि लपेटि छिगुनी पै धरि टेरि टेरि कहैं हँसि हेरि हरिजू तना ।—देव (शब्द०) ।
⋙ तना (३)
संज्ञा पुं० [हिं० तन] शरीर । जिस्म । उ०—तना सुख में पड़ा तब से गुरू का शुक्र क्यों भूला —कबीर मं०, पृ० ५४३ ।
⋙ तनाइ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनाव' ।
⋙ तनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तनाव' ।
⋙ तनाउ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तनाव' । उ०—फटिक छरी सी किरन कुंजरंध्रनि जब आई । मानो बितनु बितान सुदेस तनाउ तनाई ।—नंद० ग्रं०, पृ० ७ ।
⋙ तनाउल
संज्ञा पुं० [अ० तनावुल] भोजन करना । उ०—हुजूर को खासा तनाउल फर्माने को नावक्त हुआ जाता है ।— प्रेमघन०, पृ० ८५ ।
⋙ तनाऊ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनाव' ।
⋙ तनाक
वि० [हिं०] दे० 'तनिक' । उ०—दर, स्तोक, ईख्त, अलप, रंचक, मंद, मनाक । तब प्रिय सहचरि तन चितै, सुसकी कुँअरि तनाक ।—नंद० ग्रं० पृ० १०० ।
⋙ तनाकु पु †
वि० [हिं०] दे० 'तनिक' ।
⋙ तनाजा
संज्ञा पुं० [अ० तनाजअ] १. बखेड़ा । झगड़ा । टंटा । दंगा । संघर्ष । फसाद । २.अदावत । कशाकश । शत्रुता । वैर । वैमनस्य ।
⋙ तनाना
क्रि० स० [हीं० तानना का प्रे० रूप] तानने का काम दूसरे से कराना । दूसरे को तानने में प्रवृत करना । उ०—कलस चरन तोरन ध्वजा सुवितान तनाए ।—तुलसी (शबद०) ।
⋙ तनाव †
संज्ञा स्त्री० [अ० तिनाव] १. खेमे की रस्सी । २. बाजी- गरों का रस्सा जिसपर वे चलते तथा दूसरे खेल करते हैं । यौ०—तनाबे अमल = (१) आशा रूपी डोर । (२) आशा । तनाबे उम्र = आयुसूत्र । आयु । जीवनकाल ।
⋙ तनाय पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनाव' ।
⋙ तनाव
संज्ञा पुं० [हिं० तनना०] १. तनने का भाव या क्रिया । २. वह रस्सी जिसपर धोबी कपड़े सुखाते हैं । ३. रस्सी । डोरी । जेवरी । रज्जु ।
⋙ तनासुख
संज्ञा पुं० [अ० तनासुख] आवागमन [को०] ।
⋙ तनि (१)
क्रि० वि० [हिं० ] दे० 'तनिक' । स०—तनि सुख तौ चहियत हतौ हर विध विधिहि मनाय । भली भई जो सखि भयो मोहन मथुरै जाय ।—रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ तनि (२)
अव्य० तरफ । ओर ।
⋙ तनि (३)
संज्ञा पुं० [सं० तनु] शरीर । देह ।
⋙ तनिक (१)
वि० [सं० तनु (= अल्प)] १. थोड़ा । कम । २. छोटा । उ०—इहाँ हुती मेरी तनिक मड़ैया को नृप आइ छव्यौ ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ तनिक (२)
क्रि० वि० जरा । टुक ।
⋙ तनिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह रस्सी जिससे कोई चीज बाँधी जाय ।
⋙ तनिका (२)
सर्व० [हिं० तिनका] उसका । उ०—भनइ विद्यापति कवि कंठहार । तनिका दोसर काम प्रहार ।—विद्या- पति०, पृ० २८ ।
⋙ तनिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० तनिमन्] १. कृशता । २.नजाकत । उ०—तनिमा ने हर लिया तिमिर, अंगों में लहरी फिर फिर, तनु में तनु आरति सी स्थिर, प्राणो की पावनता वन ।— गीतिका, पृ० ६९ ।
⋙ तनिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० तनी] १. लँगोट । लँगोटी । कौपीन । २. कछनी । जाँघिया । उ०—तनिया ललित कठि विचित्र टिपारो सीस सुनि मन हरत बचन कहै तोतरात ।—तुलसी (शब्द०) । ३. चोली । उ०—तनियाँ न तिलक सुथनियाँ पगनियाँ न घामै घुमरात छोड़ि सेजियाँ सुखन की ।—भूषन (शब्द०) ।
⋙ तनिष्ठ
वि० [सं०] जो बहुत ही दुबला पतला, छोटा या कमजोर हो ।
⋙ तनिस †
संज्ञा पुं० [देश०] पुआल ।
⋙ तनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तनिका, हिं० तानना] १. डोरी की तरह बटा या लपेटा हुआ वह कपड़ा जो अँगरखे, चोली आदि में उनका पल्ला तानकर बाँधने के लिये लगाया जाता है । बंद । बंधन । उ०—कंचुकि ते कुचकलस प्रगट ह्वै टूटि न तरक तनी ।—सूर (शब्द०) । २. दे० 'तनिया' ।
⋙ तनी † (२)
क्रि० वि० [सं० तनु] दे० 'तनिक' ।
⋙ तनी † (३)
वि० दे० 'तनिक' ।
⋙ तनीदार
वि० [हिं० तनी + फा० दार] तनी या बंदवाला ।
⋙ तनु (१)
वि० [सं०] १. कृश । दुबला पतला । २. अल्प । थोड़ा । कम । ३. कोमल । नाजुक । ४. सुंदर । बढ़िया । ५. तुच्छ (को०) । ६. छिछला (को०) ।
⋙ तनु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शरीर । देह । बदन । २. चमड़ा । खाल । त्वक् । ३. स्त्री । औरत । ४. केंचुली । ५. ज्योतिष में लग्न- स्थान । जन्मकुंडली में पहला स्थान । ६. योग में अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन चारों क्लेशों का एक भेद जिसमें चित्त में क्लेश की अवस्थिति तो होती है, पर साधन या सामग्री आदि के कारण उस क्लेश की सिद्धि नहीं होती ।
⋙ तनुक पु † (१)
वि० [सं० तनु + क (प्रत्य०)] दे० 'तनिक' ।
⋙ तनुक (२)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तनिक' ।
⋙ तनुक (३)
संज्ञा पुं० [सं० तनु] दे० 'तनु' ।
⋙ तनुक (४)
वि० [सं०] १. पतला । क्षीण । कृश । २. छोटा [को०] ।
⋙ तनकूप
संज्ञा पुं० [सं०] रोमछिद्र [को०] ।
⋙ तनुकेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदर बालोंवाली स्त्री [को०] ।
⋙ तनुक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार वह लाभ जो मंत्र मात्र से साध्य हो ।
⋙ तनुक्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] आमड़े का पेड़ ।
⋙ तनुगृह
संज्ञा पुं० [सं०] अश्विनी नक्षत्र [को०] ।
⋙ तनुच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] कवच । बखतर ।
⋙ तनुच्छाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लाल बबूल का पेड़ ।
⋙ तनुच्छाय (२)
वि० अल्प या कम छायावाला [को०] ।
⋙ तनुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुत्र । बेटा । लड़का । २. जन्मकुंडली में लग्न से पाँचवाँ स्थान जहाँ से पुत्रभाव देखा जाता है ।
⋙ तनुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या । लड़की । पुत्री । बेटी ।
⋙ तनुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लघुता । छोटाई । २. दुर्बलता । दुबलापन । कृशता ।
⋙ तनुत्याग
वि० [सं०] कम खर्च करनेवाला । कृपण [को०] ।
⋙ तनुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तनुत्राण' ।
⋙ तनुत्राण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह चीज जिससे शरीर की रक्षा हो । २. कवच । बखतर ।
⋙ तनुत्रान पु
संज्ञा पुं० [सं० तनुत्राण] दे० 'तनुत्राण' ।
⋙ तनुत्वचा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी अरणी ।
⋙ तनुत्वचा (२)
संज्ञा स्त्री० जिसकी छाल पतली हो ।
⋙ तनुदान
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंगदान । शरीरदान (संभोग के लिये) ।
⋙ तनुधारी
वि० [सं०] शरीरधारी । देहधारी । शरीर धारण करनेवाला । उ०—कहहु सखी अस को तनुधारी । जो न मोह येहु रूपु निहारी ।—मानस, १ । २२१ ।
⋙ तनुधी
वि० [सं०] क्षीणमति । अल्पबुद्धि [को०] ।
⋙ तनुपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] गोंदनी या गोंदी का पेड़ । इँगुआ वृक्ष ।
⋙ तनुपात
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर से प्राण निकलना । मृत्यु । मौत ।
⋙ तनुपोषक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अपने ही शरीर या परिवार का पोषण करता हो । स्वार्थी । उ०—तनुपोषक नारि नरा सगरे । परनिदक जे जग मों बगरे ।—मानस, ७ ।१०२ ।
⋙ तनुप्रकाश
वि० [सं०] धुँधले या मंद प्रकाशवाला [को०] ।
⋙ तनुबीज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] राजबेर ।
⋙ तनुबीज (२)
वि० जिसके बीज छोटे हों ।
⋙ तनुभव
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० तनुभवा] पुत्र । बेटा । लड़का ।
⋙ तनुभस्त्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नासिका । नाक [को०] ।
⋙ तनुभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्ध श्रावकों के जीवन की एक अवस्था ।
⋙ तनुभृत्
वि० [सं०] देहधारी, विशेषतः मनुष्य [को०] ।
⋙ तनुमत्
वि० [सं०] १. समाहित । सन्निहित । २. शरीर युक्त । शरीरवाला ।
⋙ तनुमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] कमर वा कटि [को०] ।
⋙ तनुमध्य
वि० क्षीण कटि या कमरवाला [को०] ।
⋙ तनुमध्यमा
वि० [सं०] पतली कमरवाली [को०] ।
⋙ तनुमध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण और यगण (ssi—iss) होता है । इसको चौरस भी कहते हैं । जैसे,—तू यों किमि आली, घूमै मतवाली ।—(शब्द०) ।
⋙ तनुरस
संज्ञा पुं० [सं०] पसीना । स्वेद ।
⋙ तनुराग
संज्ञा पुं० [सं०] १. केसर, कस्तूरी, चंदन, कपूर, अगर आदि को मिलाकर बनाया हुआ उबटन । २. वे सुगंधित द्रव्य जिनसे उक्त उबटन बनाया जाता है ।
⋙ तनुरुह
संज्ञा पुं० [सं०] रोआँ । रोम ।
⋙ तनुल
वि० [सं०] विस्तृत । फैला हुआ [को०] ।
⋙ तनुलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] लता सदृश सुकुमार पतला शरीर [को०] ।
⋙ तनुवात
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ हवा बहुत ही कम हो । २. एक नरक का नाम ।
⋙ तनुवार
संज्ञा पुं० [सं०] कवच । बखतर ।
⋙ तनुवीज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] राजबेर ।
⋙ तनुवीज (२)
वि० जिसके बीज छोटे हों ।
⋙ तनुव्रण
संज्ञा पुं० [सं०] बल्मीक रोग । फीलपाँव ।
⋙ तनुशिरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० तनुशिरस] एक वैदिक छंद ।
⋙ तनुशिरा (२)
वि० छोटे सिरवाला [को०] ।
⋙ तनुसर
संज्ञा पुं० [सं०] पसीना । स्वेद ।
⋙ तनू
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूत्र । बेटा । लड़का । २. शरीर । ३. प्रजा- पति । ४. गौ । गाय । ५. अंग । अवयव (को०) ।
⋙ तनूज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तनुज' ।
⋙ तनूजा पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तनुजा' ।
⋙ तनूजानि
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्र । बेटा [को०] ।
⋙ तनूजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० तनूजन्मन्] पुत्र [को०] ।
⋙ तनतल
संज्ञा पुं० [सं०] लंबाई की एक माप जो एक हाथ के बराबर थी [को०] ।
⋙ तनताप
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनुताप' [को०] ।
⋙ तनूनप
संज्ञा पुं० [सं०] घृत । घी ।
⋙ तनूनपात् तनूनपाद्
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । आग । २. चीते का वृक्ष । चीता । चीतावर । चित्रक । ३. प्रजापति के पोते का नाम । ४. घी । घृत । ५. मक्खन ।
⋙ तनूनप्ता
संज्ञा पुं० [सं० तनूनप्तृ] वायु [को०] ।
⋙ तनूपा
संज्ञा पुं० [सं०] वह अग्नि जिससे खाया हुआ अन्न पचता है । जठराग्नि ।
⋙ तनूपान
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शरीर की रक्षा करता है । अंगरक्षक ।
⋙ तनूपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सोमयाग ।
⋙ तनूर
संज्ञा पुं० [फा०] खमीरी रोटी पकाने की गहरी डहरनुभा भट्ठी । तंदूर ।
⋙ तनूरुह
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोम । लोम । रोआँ । २.पक्षियों का पर । पंख । ३. पुत्र । लड़का । बेटा ।
⋙ तने †
अव्य० [हिं० तनै] की ओर । की तरफ ।
⋙ तनेनना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'तानना' । उ०—तू इत बैठी भौंह तनेनत नहिं सोहात मोहिं यह रूखो कलि ।—भा० ग्रं०, भा० १, पृ० ४८३ ।
⋙ तनेना
वि० [हिं० तनना + एना (प्रत्य०)] [वि० स्त्री०तनेनी] १. खिंचा हुआ । टेढ़ा । तिरछा । उ०—बात के बूझत ही मतिराम कहा करती अब भौंह तनेनी ।—मतिराम (शब्द०) । २. कुद्ध । जो नाराज हो । उ०—आली हौं गई ही आजु भूमि बरसाने कहूं तापै तू परै है पद्याकर तनेनी क्यों ।—पद्याकर (शब्द०) ।
⋙ तनै पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनय' ।
⋙ तनै † (२)
वि० [हिं० तन (= ओर, तरफ)] तई । लिये । उ०—दोउ जंघ रंभ कंचन दिपत, थरी कमल हाटक तनौ ।— ह० रासो, पृ० २५ ।
⋙ तनैना पु
संज्ञा पुं० [हिं०] [वि० स्त्री० तनैनी] दे० 'तनेना' । तना हुआ । खिंचा हुआ ।
⋙ तनैया पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तनया] पुत्री । बेटी । कन्या । लड़की ।
⋙ तनैया पु † (२)
वि० [हिं० तानना + ऐया (प्रत्य०)] ताननेवाला ।
⋙ तनैला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़ जिसके फूल खुशबूदार और सफेद होते हैं ।
⋙ तनों
वि० [हिं० तन (= तरफ)] तई । के लिये । वास्ते । उ०— नहिं तजूँ सेख को प्रण करिव, सरन धरम छत्रिय तनों ।— ह० रासो, पृ० ५७ ।
⋙ तनोआ †
संज्ञा पुं० [हिं० तानना] १. वह वस्त्र जिसे तानकर छाया की जाती है । २. चँदोआ ।
⋙ तनोजा †
संज्ञा पुं० [सं० तनूज] १. रोम । लोम । रोआँ । उ०— अँग थरहरे क्यों भरे खरे तनोज पसेव ।—शृं० सत० (शब्द०) । २. लड़का । बेटा ।
⋙ तनोरुह पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनूरुह' ।
⋙ तनोवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तनोआ' ।
⋙ तन्ना
संज्ञा पुं० [हिं० तानना] १. बुनाई में ताने का सूत जो लंबाई में ताना जाता है । २. वह जिसपर कोई चीज तानी जाय ।
⋙ तन्नाना †
क्रि० अ० [हिं० तनना] अकड़ना । ऐंठना । अकड़ दिखाना । बिगड़ना । क्रुद्ध होना ।
⋙ तन्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिठवन । २. काश्मीर की चंद्रतुल्या नदी का नाम ।
⋙ तन्नी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० तनिका, हिं० तानना या तनी] १. तराजू में जोती की रस्सी । वह रस्सी जिसमें तराजू के पल्ले लटकते हैं । जोती । २. एक प्रकार की अँकुसी जिससे लोहे की मैल खुरचते हैं । ३. जहाज के मस्तूल की जड़ में बँधा हुआ एक प्रकार का रस्सा जिसकी सहायता से पाल आदि चढ़ाते हैं (लश०) ।
⋙ तन्नी (२)
संज्ञा पुं० [हिं० तरनी] किसी व्यापारी जहाज का वह अफसर जो यात्राकाल में उसके व्यापार संबंधी कार्यों का प्रबंध करता हो ।
⋙ तन्नी (३)
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'तरनी' ।
⋙ तन्मनस्क
वि० [सं०] तन्मय । तल्लीन [को०] ।
⋙ तन्मय
वि० [सं०] जो किसी काम में बहुत ही मग्न हो । लवलीन । लीन । लगा हुआ । दत्तचित्त । उ०—कबहूँ कहति कौन हरि को मैं यों तन्मय ह्वै जाहीं ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तन्मयता
संज्ञा स्त्री० [सं०] लिप्तता । एकाग्रता । लीनता । तदाकारता । लगन ।
⋙ तन्मयासक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] भगवान् में तन्मय हो जाना । भक्ति में अपने आपको भूल जाना और अपने को भगवान् ही समझना ।
⋙ तन्मात्र
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्य के अनुसार पंचभूतों का अविशेष मूल । पंचभूतों का आदि, अमिश्र और सूक्ष्म रूप । ये संख्या में पाँच हैं—शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध । विशेष—सांख्य में सृष्टि की उत्पत्ति का जो क्रम दिया है, उसके अनुसार पहले प्रकृति से महत्तत्व की उत्पत्ति होती है । महत्तत्व से अहंकार और अहंकार से सोलह पदार्थों की उत्पत्ति होती है । ये सोलह पदार्थ पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, एक मन और पाँच तन्मात्र हैं । इनमें भी पाँच तन्मात्रों से पाँच महाभूत उत्पन्न होते हैं । अर्थात् शब्द तन्मात्र से आकाश उत्पन्न होता है और आकाश का गुण शब्द है । शब्द और स्पर्श दो तन्मात्राओं से वायु उत्पन्न होती है और शब्द तथा स्पर्श दोनों ही उसेक गुण हैं । शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्र के संयोग से जल उत्पन्न होता है और जिसमें ये चारों गुण होते हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन पाँचों तन्मात्रों के संयोग से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है जिसमें ये पाँचों गुण रहते हैं ।
⋙ तन्मात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तन्मात्र' ।
⋙ तन्मात्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तन्मात्रा' । वेदांत शास्त्र की एक संज्ञा । पाँच विषयों की पाँच तन्मात्राएँ । उ०—इनि तन्मात्रिका सहेता । ये पंच विषय कौ होता ।—सूंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ६७ ।
⋙ तन्मूलक
वि० [सं०] उससे निकला हुआ [को०] ।
⋙ तन्य
वि० [हिं० तनना] तानने या खींचने योग्य ।
⋙ तन्युत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु । हवा । २. रात्रि । रात । ३. गर्जन । गरजना । ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा ।
⋙ तन्वंग
वि० [सं० तन्वङ्ग] सुकुमार या क्षीण शरीरवाला [को०] ।
⋙ तन्वंगिनी
वि० स्त्री० [सं०] तन्वंगी । उ०—विवसना लता सी, तन्वंगिनि, निर्जन में क्षणभर की संगिनि ।—युगांत, पृ० ३७ ।
⋙ तन्वंगी
वि० [सं० तन्वंगी] कृशांगी । दुबली पतली ।
⋙ तन्वि
संज्ञा स्त्री० [सं०] काश्मीर की चंद्रकुल्या नदी का एक नाम ।
⋙ तन्विनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तन्वो' ।
⋙ तन्वी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से भगण, तगण, नगण, सगण, भगण, यगण नगण और यगण (ऽ।।-ऽऽ।-।।।-।।ऽ-ऽ।।-ऽ।।-।।।-।ऽऽ) होते हैं । इसमें ५ वें, १२ वें और २४ वें अक्षर पर यति होती है । २. कोमलांगी । कृशांगी (को०) ।
⋙ तन्वी (२)
वि० दुबले पतले और कोमल अंगोंवाली । जिसके अंग कृश और कोमल हों ।
⋙ तपःकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. तपस्वी । २. तपसी मछली ।
⋙ तपःकृश
वि० [सं० ] तप से क्षीण ।
⋙ तपःपूत
वि० [सं०] तपस्या करके जो शरीर एवं मन से पवित्र हो गया हो [को०] ।
⋙ तपःप्रभाव
संज्ञा पुं० [सं०] तप द्वारा की हुई शक्ति [को०] ।
⋙ तपःभूत
वि० [सं०] तपस्या द्वारा आत्मशुद्धि प्राप्त करनेवाला [को०] ।
⋙ तपःसाध्य
वि० [सं०] जो तप द्वारा सिद्ध हो [को०] ।
⋙ तपःसुत
संज्ञा पुं० [सं०] युधिष्ठिर [को०] ।
⋙ तपःस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] तप करने का स्थान । तपोभूमि [को०] ।
⋙ तपःस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] काशी [को०] ।
⋙ तप
संज्ञा पुं० [सं० तपस्] १. शरीर को कष्ट देने वाले वे व्रत और नियम आदि जो चित्त को शुद्ध और विषयों से नीवृत्त करने के लिये किए जायँ । तपस्या । क्रि० प्र०—करना ।—साधना । विशेष—प्राचीन काल में हिंदुओं, बौद्धों, यहूदियों और ईसाइयों आदि में बहुत से ऐस लोग हुआ करते थे जो अपनी इंद्रियों को वश में रखने तथा दुष्कर्मों से बचने के लिये अपने धार्मिक विश्वास के अनुसार बस्ती छोड़कर जंगलों और पहाड़ों में जा रहते थे । वहाँ वे अपने रहने के लिये घास फूस की छोटी मोटी कुटी बना लेते थे और कंद मूल आदि खाकर और तरह तरह के कठिन ब्रत आदि करते रहते थे । कभी वे लोग मौन रहते, कभी गरमी सरदी सहते और उपवास करते थे । उनके इन्हीं सब आचरणों को तप कहते हैं । पुराणों आदि में इस प्रकार के तपों और तपस्वियों आदि की अनेक कथाएँ हैं । कभी किसी अभीष्ट की सिद्धि या किसी देवता से वर की प्राप्ति आदि के लिये भी तप किया जाता था । जैसे, गंगा को लाने के लिये भगीरथ का तप, शिव जी से विवाह करने के लिये पार्वती का तप । पातंजल दर्शन में इसी तप को क्रियायोग कहा है । गीता के अनुसार तप तीन प्रकार का होता है—शारीरिक, वाचिक और मानसिक । देवताओं का पूजन, बड़ों का आदर सत्कार, ब्रह्मचर्य, अहिंसा आदि शारीरिक तप के अंतर्गत हैं; सत्य और प्रिय बोलना, वेदशास्त्र का पढ़ना आदि वाचिक तप हैं और मौनावलंबन, आत्मनिग्रह आदि की गणना मानसिक तप में है । २. शरीर या इंद्रिय को वश में रखने का धर्म । ३. नियम । ४. माघ का महीना । ५. ज्योतिष में लग्न से नवाँ स्थान । ६. अग्नि । ७. एक कल्प का नाम । ८. एक लोक का नाम । वि० दे० 'तपोलोक' ।
⋙ तप (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताप । गरमी । २. ग्रीष्म ऋतु । ३. बुखार । ज्वर ।
⋙ तपकना पु
क्रि० अ० [हिं० टपकना या तमकना] १. धड़कना उछलना । उ०—रतिया अँधेरी धीर न तिया धरति मुख बतिया कढ़ति उठै छतिया तपकि तपकि ।—देव (शब्द०) २. दे० 'टपकना' ।
⋙ तपचाक
संज्ञा पुं० [देश०] एक तरह का तुर्की घोड़ा ।
⋙ तपच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तपनच्छद' ।
⋙ तपड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. ढूह । छोठा टीला । २. एक प्रकार का फल जो पकने पर पीलापन लिए लाल रंग का हो जाता है । यह जाड़े के अंत में बाजारों में मिलता है ।
⋙ तपत †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तपन (२)' ।
⋙ तपति
वि० [देश०] बूढ़ी । बृद्ध । उ०—भोग रहें भरपूरि आयु यह बीति गई सब । तप्यौ नाहिं तप मूढ़ अवस्था तपति हुई अब ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १०९ ।
⋙ तपती
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार सूर्य की कन्या का नाम । विशेष—यह छाया के गर्भ से उत्पन्न हुई थी । सूर्य ने कुरुवंशी संवरण की सेवा आदि से प्रसन्न होकर तपती का विवाह उन्हीं के साथ कर दिया था ।
⋙ तपतोदक पु
संज्ञा पुं० [सं० तप्त + उदक] गरम पानी । उ०—यह तीनों रसजर के नेती । पीस पिए तपतोदक सेती ।—इंद्रा०, पृ० १५२ ।
⋙ तपन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तपने की क्रिया या भाव । ताप । जलन । आँच । दाह । २. सूर्य । आदित्य । रवी । ३. सूर्य- कांत मणि । सूरजमुखी । ४. ग्रीष्म । गरमी । ५. एक प्रकार की अग्नि । ६. पुराणानुसार एक नरक जिसमें जाते ही शरीर जलता है । ७. धूप । ८. भिलावे का पेड़ । ९. मदार । आक । १०. अरनी का पेड़ । ११. वह क्रिया या हाव भाव आदि जो नायक के वियोग में नायिका करे या दिखलावे । इसकी गणना अलंकार में की जाती है । यौ०—तपनयौवन = सूर्य का यौवन । सूर्य की प्रखरता । उ०—प्रखर से प्रखरतर हुआ तपनयौवन सहसा ।—अपरा, पृ० ६१ ।
⋙ तपन (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तपना] तपने की क्रिया या भाव । ताप । जलन । गरमी । मुहा०—तपन का महीना = वह महीना जिसमें गरमी खूब पड़ती हो । गरमी ।
⋙ तपनकर
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की किरण । रश्मि ।
⋙ तपनच्छद्
संज्ञा पुं० [सं०] मदार का पेड़ ।
⋙ तपनतनय
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य के पुत्र—यम, कर्ण, शनि, सुग्रीव आदि ।
⋙ तपनतनया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शमी वृक्ष । २. यमुना नदी ।
⋙ तपनमणि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यकांत मणि ।
⋙ तपनांशु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य की किरण । रश्मि ।
⋙ तपना (१)
क्रि० अ० [सं० तपन] १. बहुत अधिक गर्मी, आँच या धूप आदि के कारण खूब गरम होना । त्पत होना । उ०— निज अध समुझि न कुछ कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ।—तुलसी (शब्द०) । संयो० क्र०—जाना । मुहा०—रसोई तपना = दे० 'रसोई' के मुहाविरे । २. संतप्त होना । कष्ठ सहना । मुसीबत झेलना । जैसे,—हम घंटों से यहाँ आपके आसरे तप रहे हैं । उ०—सीप सेवाति कहँ तपइ समुद्र मँझ नीर ।—जायसी (शब्द०) । ३. तेज या ताप धारण करना । गरमी या ताप फैलाना । उ०— जइस भानु जप उपर तापा ।—जायसी (शब्द०) । ४. प्रबलता, प्रभुत्व या प्रताप दिखलाना । आतंक फैलाना । जैसे,—आजकल यहाँ के कोतवाल खूब तप रहे हैं । उ०— (क) सेरसाहि दिल्ली सुलतानू । चारिउ खंड तपइ जस भानू ।—जायसी (शब्द०) । (ख) कर्मकाल, गुल, सुभाउ सबके सीस तपत ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तपना (२)
क्रि० अ० [सं० तप्] तपस्या करना । तप करना ।
⋙ तपनाराधना
संज्ञा पुं० [सं०] तपस्या [को०] ।
⋙ तपनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तपन' ।
⋙ तपनी † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० तपना] १. वह स्थान जहाँ बैठकर लोग आग तापते हों । कौड़ा । अलाव । क्रि० प्र०—तापना । २. तपस्या । तप । ३. तपन (को०) ।
⋙ तपनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोदावरी नदी । २. पाठा लता (को०) ।
⋙ तपनीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सोना ।
⋙ तपनीय (२)
वि० तपने या तापने योग्य [को०] ।
⋙ तपनीयक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तपनीय' ।
⋙ तपनेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] ताँबा ।
⋙ तपनोपल
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यकांत मणि ।
⋙ तपभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं० तपस् + हिं० भूमि] दे० 'तपोभूमि' ।
⋙ तपराशि
संज्ञा पुं० [सं० तपोराशि] दे० 'तपोराशि' ।
⋙ तपोरासी पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तपोराशि' । उ०—ब्रह्म के उपासी तपरासी बनवासी वर विपुल मुनीशन के आश्रम सिधायो मैं ।—राम० धर्म०, पृ० २६० ।
⋙ तपलोक
संज्ञा पुं० [सं० तपोलोक, हिं०] दे० 'तपोलोक' ।
⋙ तपवाना
क्रि० स० [हिं० तपाना का प्रे० रूप] १. गरम करवाना । तपाने का काम दूसरे से कराना । ३. किसी से व्यर्थ व्यय कराना । अनावश्यक व्यय कराना ।
⋙ तपवृद्ध पु
वि० [सं० तपोवृद्ध, हिं० ] दे० 'तपोवृद्ध' ।
⋙ तपशील
वि० [सं० तपःशील] तपस्या करनेवाला [को०] ।
⋙ तपश्र्वरण
संज्ञा पुं० [सं०] तप । तपस्या ।
⋙ तपश्चर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] तपस्या । तपश्चरण ।
⋙ तपस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. सूर्य ।३. पक्षी ।
⋙ तपस (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तपस्] तप । तपस्या । उ०— न्याय, तपस, ऐश्वर्य में पगे, ये प्राणी चमकीले लगते । इस निदाघ मरु में सूखे से, स्रोतों के तह जैसे जगते ।—कामायनी, पृ० २७० ।
⋙ तपस † (३)
संज्ञा पुं० तपस्वी ।
⋙ तपसनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तपस्विनी' । उ०—काम कुमत्तों उप्पनौं दिय तपसनी स्राप । बीसल दे बुधि चल विचल प्रगटि पुव्व कौ पाप ।—पृ० रा०, १ ।४९५ ।
⋙ तपसरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तपस्विनी' । उ०—भय दिवाह आहुट्ठ दुति तपसरनी कौ कोप । जल बेली विहु बाग ब्रिष । ते जिन भए अलोप ।—पृ० रा०, १ ।५०७ ।
⋙ तपसा
संज्ञा स्त्री० [सं० तपस्या] १. तपस्या । तप । २. तापती नदी का दूसरा नाम जो बैतूल के पहाड़ से निकालकर खंभात की खाड़ी में गिरती है ।
⋙ तपसालि पु
संज्ञा पुं० [हिं० तप + साली] दे० 'तपसाली' ।
⋙ तपसाली
संज्ञा पुं० [सं० तपःशालिन्] वह जिसने बहुत तपस्या की हो । तपस्वी । उ०—आए मुनिवर निकर तब कौशिकादि तपसालि ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तपसी
संज्ञा पुं० [सं० तपस्वी] तपस्या करनेवाला । तपस्वी । उ०—तपसी तुमको तप करि पावें । सुनि आगवत गृही गुन गावैं ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ तपसी मछली
संज्ञा स्त्री० [सं० तपस्या मत्स्य] एक बालिश्त लंबौ एक प्रकार की मछली । विशेष—यह बंगाल की खाड़ी में होती है । बैसाख या जेठ के महीने में अंडे देने के लिये यह नदियों में चली जाती है ।
⋙ तपसोमर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार बारहवें मन्वंतर के चौथे सावर्णि के सप्तर्षियों में से एक ।
⋙ तपस्तक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र ।
⋙ तपस्तति
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।
⋙ तपस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुंद पुष्प । २. तपस्या । तप । ३. हरिवंश के अनुसार तामस मनु के दस पुत्रों में से एक पुत्र का नाम । ४. फागुन का महीना । ५. अर्जुन । विशेष—अर्जुन का एक नाम फाल्गुन भी था, इसीलिये तपस्य भी अर्जुन का एक नाम हो गया ।
⋙ तपस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तप । व्रतचर्या । २. फागुन मास । ३. दे० 'तपसी मछली' ।
⋙ तपस्वत्
संज्ञा पुं० [सं०] तपस्वी ।
⋙ तपम्विता
संज्ञा स्त्री० [सं०] तपस्वी होने । अवस्था या भाव ।
⋙ तपस्विनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तपस्या करनेवाली स्त्री । २. तपस्वी की स्त्री । ३. पतिव्रता या सती स्त्री । ४. जटा- मासी । ५. वह स्त्री जो अपने पति के मरने पर केवल अपनी संतान का पालन करने के लिये सती न हो और कष्टपूर्वकअपना जीवन बितावे । ६. दीन और दुखिया स्त्री । ७. बड़ी गौरखमुंडी । ८. कुटकी । कटुरोहिणी ।
⋙ तपस्विपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दमनक वृक्ष । दौने का पेड़ ।
⋙ तपस्वी (१)
संज्ञा पुं० [सं० तपस्विन्] [स्त्री० तपस्विनी] १. वह जो तप करता हो । तपस्या करनेवाला । २. दीन । ३. दया करने योग्य । ४. घीकुआर । ५. तपसी मछली । ६. तपसोमूर्ति का एक नाम ।
⋙ तपस्स पु
संज्ञा पुं० [सं० तपस] दे० 'तपस्वी' । उ०—घंमकी घरा घंम घंमै धरक्की । कठं पिठ्ठ कंमट्ठ कट्ठै करक्की । डियै अड्डिगँ सो दिगंपाल दस्सं । तरक्के चके मुनि जंनं तपर्स्स ।— पृ० रा०, ६ ।१५१ ।
⋙ तपा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० तप] तपस्वी । उ०—मठ मंडप चहुँपास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तपा (२)
वि० तप में मग्न । जो तपस्या में लीन हो । उ०—फेरे मेल रहै आ तपा । धूरि लपेडा मानिक छपा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तपाक
संज्ञा पुं० [फा०] १. आवेश । जोश । जैसे,—आते ही यह बड़े तपाक से बोला । मुहा०—तपाक बदलना = नाराज होना । बिगड़ जाना । तेवर बदलना । २. वेग । तेजी ।
⋙ तपात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रीष्म का अंत या वर्षाकाल । बरसात ।
⋙ तपानल
संज्ञा पुं० [सं०] तप से उत्पन्न तेज । वह तेज जो तप करने के कारण उत्पन्न हो ।
⋙ तपाना
क्रि० स० [हिं० तपना] १. बहुत अधिक गर्मी, आग, धूप आदि की सहायता से गरम करना । तप्त करना । २. संतप्त करना । दुःख देना । क्लेश देना । ३. तप करके शरार को कष्ट देना । तप करने में शरीर को प्रवृत्त करना ।
⋙ तपायमान
वि० [सं० तप] तप्त । दुखी । उ०—एक काल में भृगु की स्त्री जात रही थी, तिसके वियोग कर वह ऋषि तपायमान हुआ ।—योग०, पृ० ७ ।
⋙ तपारी
संज्ञा पुं० [हिं०] तपस्वी [को०] ।
⋙ तपावंत
संज्ञा पुं० [हिं० तप + वंत (प्रत्य०)] तपस्वी । तपसी । वह जो तपस्या करता हो । उ०—तपावंत छाला लिखि दीन्हा । वेग चलाव चहूँ सिधि कीन्हा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तपाव
संज्ञा पुं० [हिं० तपना + आव (प्रत्य०)] तपने की क्रिया या भाव । गरमाहट । ताप ।
⋙ तपावस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तपस्या' । उ०—करै तपावस अदली आपै । उन्मन कालु कउ मारै चाहै ।—प्राण०, पृ० २२७ ।
⋙ तपित पु †
वि० [सं०] तपा हुआ । गरम । तप्त ।
⋙ तपिय
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तपी' । उ०—सुनत बखान कलिंजर ईसू । तपिय चरन पर डारेउ सीसू ।—इंद्रा०, पृ० १९ ।
⋙ तपिया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो मध्यभारत, बंगाल तथा आसाम में होता है । विशेष— इसकी छाल तथा पत्तियाँ औषध के काम में आती हैं । इसे बिरमी भी कहते हैं ।
⋙ तपिश
संज्ञा स्त्री० [फा०] गरमी । तपन । आँच । ताव ।
⋙ तपी
संज्ञा पुं० [हिं० तप + ई (प्रत्य०)] १. तप करनेवाला । तपस्वी । तापस । ऋषि । उ०—धनवंत कुलीन मलीन अपी । द्विज चीन्ह जनेउ उधार तपी ।—मानस, ७ । १०१ । २. सूर्य (डिं०) ।
⋙ तपीसर पु
वि० [सं० तपीश्वर] तपस्या करनेवाला । उ०—न सोहागनि महापवीत । तपे तपीसर डालै चीत ।—कबीर ग्रं०, पृ० २८४ ।
⋙ तपु (१)
संज्ञा पुं० [सं० तपुस्] १. अग्नि । आग । २. सूर्य । रवि । ३. शत्रु ।
⋙ तपु (२)
वि० १. तप्त । उष्ण । गरम । २. तापने या गरम करनेवाला ।
⋙ तपुराग्र
वि० [सं०] जिसका अगला भाग तपा या तपाया हुआ हो [को०] ।
⋙ तपुराग्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरछी या भाला [को०] ।
⋙ तपेदिक
संज्ञा पुं० [फा० तप + छ० दिक] राजयक्ष्मा । क्षयी रोग ।
⋙ तपेस्सा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तपस्या' ।
⋙ तपोज
वि० [सं०] १. जो तपस्या से उत्पन्न हुआ हो । २. जो अग्नि से उत्पन्न हुआ हो ।
⋙ तपोजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जल । पानी । विशेष—प्राचीन आर्यो का विश्वास था कि यज्ञ आदि की अग्नि की सहायता से ही मेघ बनता है, इसीलिये जल का एक नाम 'तपोज' पड़ा ।
⋙ तपोड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] काठ का एक प्रकार का बरतन ।—(लश०) ।
⋙ तपोदान
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन पुण्यतीर्थ जिसका वर्णन महाभारत में आया है ।
⋙ तपोद्युति
संज्ञा पुं० [सं०] बारहवें मन्दंतर के एक ऋषि [को०] ।
⋙ तपोधन
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो तपस्या के अतिरिक्त और कुछ भी न करता हो । तपस्वी । उ०—सिद्ध तपोधन जोगि जन सुर किन्नर मुनि बृंद ।—मानस, १ ।१०५ । २. दौने का पेड़ ।
⋙ तपोधना
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोरखमुंडी ।
⋙ तपोधनी
वि० [सं० तपोधनिन्] दे० 'तपोधन' । उ०—तपोधनी मैं जात कहायो । तैं नहिं जान्यो सन्मुख आयो ।—शकुंतला, पृ० ६२ ।
⋙ तपोधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] तपस्वी ।
⋙ तपोधाम
संज्ञा पुं० [सं० तपोधामन्] १. तप करने का स्थान । २. एक प्राचीन तीर्थ [को०] ।
⋙ तपोधृति
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार बारहवें मन्वंतर के चौथे सावर्णि के सप्तर्षियों में से एक ऋषि ।
⋙ तपोनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] तपोनिष्ठ । तपस्वी ।
⋙ तपोनिष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] तपस्वी ।
⋙ तपोबन पु
संज्ञा पुं० [सं० तपोवन] दे० 'तपोवन' ।
⋙ तपोबल
संज्ञा पुं० [सं०] तपस्या से प्राप्त बल, तेज या शक्ति [को०] ।
⋙ तपोभंग
संज्ञा पुं० [सं० तपोभङ्ग] विध्नादि के कारण तप का भंग होना [को०] ।
⋙ तपोभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तप करने का स्थान । तपोवन ।
⋙ तपोमय
संज्ञा पुं० [सं०] परमेश्वर ।
⋙ तपोमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमेश्वर । २. तपस्वी । ३. पुराणा- नुसार बारहवें मन्वंतर के चौथे सावर्णि के समय के सप्तर्षियों में से एक ऋषि का नाम ।
⋙ तपोराज
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०] ।
⋙ तपोराशि
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत बड़ा तपस्वी ।
⋙ तपोलोक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार चौदह लोकों में से ऊपर के सात लोकों में से छठा लोक जो जनलोक और सत्य लोक के बीच में है । विशेष—पदमपुराण में लिखा है कि यह लोक तेजोमय है; और जो लोग अनेक प्रकार की कठिन तपस्याएँ करके भी कृष्ण भगवान् को संतुष्ट करते हैं; वे इस लोक में भेजे जाते हैं ।
⋙ तपोवट
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मावर्त देश ।
⋙ तपोवन
संज्ञा पुं० [सं०] वह एकांत स्थान या वन जहाँ तप बहुत अच्छी तरह हो सकता हो । तपस्वियों के रहने या तपस्या करने के योग्य वन ।
⋙ तपोवरण
वि० [देशी०] तप से च्युत कर देनेवाली । उ०—एक तेरी तपोवरण —अर्चना, पृ० ३ ।
⋙ तपोवल
संज्ञा पुं० [सं०] तप का प्रभाव या शक्ति ।
⋙ तपोवृद्ध (१)
वि० [सं०] जो तपस्या द्वारा श्रेष्ठ हो ।
⋙ तपोवृद्ध (२)
संज्ञा पुं० बहुत बड़ा तपस्वी [को०] ।
⋙ तपोव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. तपस्या संबंधी व्रत । २. वह जिसने तपस्या का व्रत धारण कर लिया हो [को०] ।
⋙ तपोशहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. तामस मनु के पुत्र तपस्य का एक नाम २. तपसोमूर्ति का एक नाम ।
⋙ तपौनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तापना] १. ठगों की एक रसम जो मुसा- फिरों के गिरोह को लूट मार चुकने और उनका जान ले लेने पर होती है । इसमें सब ठग मिलकर देवी की पूजा करते हैं और गुड़ चढ़ाकर उसी का प्रसाद आपस में बाँटते हैं । मुहा०—तपौनी का गुड़ = (१) तपौनी की पूजा के प्रसाद का गुड़ जो किसी नए आदमी को पहले पहल अपनी मंडली में मिलाने के समय ठग लोग खिलाते हैं । (२) किसी नए आदमी को अपनी मंडली में मिलाने के समय किया जानेवाला काम या दिया जानेवाला पदार्थ । २. दे० 'तपनी' ।
⋙ तप्त
वि० [सं०] १. तपाया या तपा हुआ । जलता हुआ । तापित । गरम । उष्ण । २. दुःखित । क्लेशित । पीड़ित । यौ०—तप्त शरीर = जलती हुई देह ।उ०—कभी यहाँ देखे थे जिनके, श्याम बिरह से तप्त शरीर ।—अपरा, पृ० १०२ ।
⋙ तप्तक
संज्ञा पुं० [सं०] कड़ाही [को०] ।
⋙ तप्तकुंड
संज्ञा पुं० [सं० तप्तकुण्ड] वह प्राकुतिक जलधारा जिसका पानी गरम हो । गरम पानी का सोता या कुंड । विशेष—पहाड़ों तथा मैदानों आदि में कहीं कहीं ऐसे सोते मिलते हैं जिनका पानी गरम होता है । भिन्न भिन्न स्थानों में ऐसे सोतों का पानी साधारण गरम से लेकर खौलता हुआ तक होता है । पानी के गरम होने का मुख्य कारण यह है कि यह पानी या तो बहुत अधिक गहराई से, या भूगर्भ के अंदर की अग्नि से तपी हुई चट्टानों पर से होता हुआ आता है । ऐसे स्त्रोतों के जल में बहुधा अनेक प्रकार के खनिज द्रव्य (जैसे, गंधक, लोहा, अनेक प्रकार के क्षार) भी मिले होते हैं जिनके कारण उन जलों में बहुत से रोओं को दूर करने का गुण आ जाता है । भारतवर्ष में तो ऐसे सोते कम हैं, पर यूरोप और अमेरिका में ऐसे सोते बहुत पाए जाते हैं, जिन्हें दिखने तथा उनका जल पीने के लिये बहुत दूर दूर से लोग जाते हैं । बहुत से लोग अनेक प्रकार के रोगों से मुक्त होने के लिये महीनों उनके किनारे रहते भी हैं । प्रायःजल जितना अधिक गरम होता है, उसमें गुण भी उतना ही अधिक होता है । ऐसे सोतों के जल में दस्त लाने, बल बढ़ाने या रक्तविकार आदि दूर करनेवाले खनिज द्रव्य मिले हुए होते हैं ।
⋙ तप्तकुंभ
संज्ञा पुं० [सं० तप्तकुम्भ] पुराणानुसार एक बहुत भयानक नरक जिसके विषय में यह माना जाता है कि वहाँ खौलते हुए तेल के कड़ाहे रहते हैं । उन्हीं कड़ाहों में दुराचारियों को यम के दूत फेंक दिया करते हैं ।
⋙ तप्तकृच्छ्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकरा का व्रत जो बारह दिनों में समाप्त होता और प्रायश्चित्तस्वरूप किया जाता है । विशेष—इसमें व्रत करनेवालों को पहले तीन दिन तक प्रतिदिन तीन पल गरम दूध, तब दीन दिन तक नित्य एक पल घी, फिर तीन दिन तक रोज छह पल गरम जल और अंत में तीन दिन तक गरम वायु सेवन करना होता है । गरम वायु से तात्पर्य गरम दूध से निकलनेवाली भाप का है । यह व्रत करने से द्विजों के सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं । किसी किसी के मत से यह व्रत केवल चार दिनों में किया जा सकता है । इसमें पहले दिन तीन पल गरम दूध, दूसरे दिन एक पल गरम घी और तीसरे दिन छह पल गरम जल पीना चाहिए और चौथे दिन उपवास करना चाहिए ।
⋙ तप्तपाषाण
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम ।
⋙ तप्तबालुक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नरक का नाम ।
⋙ तप्तमाष
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की परीक्षा जिससे व्यवहार या अपराध आदि के संबंध में किसी मनुष्य के कथन की सत्यता मानी जाती थी । विशेष—इसमें लोहे या ताँबे के बरतन में घी या तेल खौलाया जात था और परीक्षार्थी उस खौलते हुए घीया तेल में अपनी उँगली डालता था । यदि उसकी उँगली में छाले आदि न पड़ते तो वह सच्चा समझा जाता था ।
⋙ तप्तमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वारका के शंख चक्रादि के छापे जो तपाकर वैष्णव लोग अपनी भुजा तथा दूसरे अंगों पर दाग लेते हैं । चक्रमुद्रा । विशेष- यह धार्मिक चिह्न माना जाता है और वैष्णव लोग इसे मुक्तिदायक मानते हैं ।
⋙ तप्तरूपक
संज्ञा पुं० [सं०] तपाई हुई और साफ चाँदी ।
⋙ तप्तशुर्मी
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नरक का नाम जिसमें अगम्या स्त्री के साथ संभोग करनेवाले पुरुष और अगम्य पुरुषों के साथ संभोग करनेवाली स्त्रीयाँ भेजी जाती हैं । विशेष—इसमें उन पुरुषों और स्त्रीयों को जलते हुए लोहे के खंभे आलिंगन करने पड़ते हैं ।
⋙ तप्तसुराकुंड
संज्ञा पुं० [सं० तप्तसुराकुण्ड] पुराणानुसार एक नरक का नाम ।
⋙ तप्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं० तप्त] १. तवा । २. मट्ठी । उ०—निदान कई अहरे और एक भारी त्पता जलाकर आवश्यक कुत्य आरंभ हो चला ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५२ ।
⋙ तप्ता (२)
वि० तप्त करनेवाला ।
⋙ तप्ताभरण
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध सोने का गहना [को०] ।
⋙ तप्तायन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तप्तायनी' [को०] ।
⋙ तप्तायनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि जो दीन दूखियों को बहुत सताकर प्राप्त की जाय ।
⋙ तप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] तप्त होने की अवस्था या भाव । गरमी । ताप [को०] ।
⋙ तप्प पु †
पुं० [हिं० तप] दे० 'तप' उ०—साधक सिद्धि न पाय जौ लहि साधि न तप्प । सोई जानहिं बापुरो सीस जो करहिं कलप्प ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १२३ ।
⋙ तप्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव ।
⋙ तप्य (२)
वि० [सं०] जो तपने या तपाने योग्य हो ।
⋙ तफक्कुर
संज्ञा पुं० [अ० तफक्कुर] १. चिंता । फिक्र । २. भयाशंका । उ०—मेरी खुराक आगे से इस तफक्कुर में आधी हो गई ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५२२ ।
⋙ तफज्जुल
संज्ञा पुं० [अ० तफज्जुल] बड़ाई । बड़प्पन [को०] ।
⋙ तफतीश
संज्ञा स्त्री० [अ० तफतीश] छानबीन । खोज । गवेषणा । उ०—मैं दोड़ा हुआ पिता जी के पास गया । वह कहीं तफ- तीश पर जाने को तैयार खड़े थे । मान०, पृ० ३८ ।
⋙ तफरका
संज्ञा पुं० [अ० तफकंहु] विरोध । वैमनस्य । क्रि० प्र०—डालना ।— पड़ना ।
⋙ तफराक †
संज्ञा पुं० [हिं०] तमचा । उ०—होर मुसल्मनाँ के मूँ पर तफराक मारना गुनाह कबीरा है ।—दक्खिनी०, पृ० ४०१ ।
⋙ तफरीक
संज्ञा स्त्री० [अ० तफरीक] १. जुदाई । भिन्नता । अल- हदगी । २. बाकी निकालना । घटाना (गणित) । क्रि० प्र०—निकालना । ३.फरक । अंतर । ४. बँटबारा । बाँट । बँटाई (कानून) ।
⋙ तफरीह
संज्ञा स्त्री० [अ० तफरीह] १. खुशी । प्रसन्नता । फरहत । २. दिलबहलाव । दिल्लगी । हँसी । ठट्ठा । ३. हवाखोरी । सैर । ताजापन । ताजगी ।
⋙ तफरीहन
अव्य० [अ० तफरीहन्] १. मनबहलाव के लिये । २. हँसी/?/के लिये [को०] ।
⋙ तफर्का
संज्ञा पुं० [अ० अफर्कह् या तफ्रिकह्] १. फूट । परस्पर विरोध । २. शत्रुता । दुशमनी । ३. पृथकता । अलगाव । उ०—अगर इन बातों में जिस कदर तफर्का पड़ता जायगा, सुननेवाले के दिल का असर बदलता चला जायगा । ग्रं०, पृ० ३१ । यौ०—तफर्का अंगसेज, तफर्का अंगेज, तफर्का परदान, तफर्का पर्वर = फूट डालनेवाला । तफर्का अंगेजी, तफर्का, अंदाजी, तफर्का परदाजी, तफर्का पर्वरी = फूट या विरोध डालना ।
⋙ तफर्रुज
संज्ञा स्त्री० [अ० तफर्रुज] १. दरिद्रता और हीनता से समृद्धि और उन्नति की और जाना । ३. सैर । आनंद बिहार । क्रीड़ा । कौतुक । तमाशा । उ०—तफर्रुज सते शाहजादा निकल । चल्या कामरानी का घर दिल शवल ।—दक्खिनी०, पृ० २७० । यौ०—तफर्रुज वाह = सैर तमाशे का स्थान । क्रीड़ास्थल विनोदस्थल ।
⋙ तफसील
संज्ञा स्त्री० [अ० तफ्सील] १. विस्तृत वर्णन । २. टीका । तशरीह । ३. सूची । फेहरिस्त । फर्द । ४. कैफियत । ब्योरा । बिवरण ।
⋙ तफसीर
संज्ञा स्त्री० [अ० तफ़सीर] कुरान शरीफ की टीका । उ०—मो आलिम तफ़सौर सूरत नजम में यह लिखता है ।—कबीर मं०, पृ० ८७ ।
⋙ तफाउत
संज्ञा पुं० [अ० तफ़ावृत] दे० 'तफावत' । उ०—पिदर पर देखकर बवशो मुझे अब, अमानत में तफाउत में करो सब ।—दक्खिनी०, पृ० ३३९ ।
⋙ तफावज
संज्ञा पुं० [अ० तफ़ावत] फर्क । तफावत । उ०— उ०—सुकवि सूँम सम दाखिए, नहीं तफावज रेह ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ८७ ।
⋙ तफावत
संज्ञा पुं० [अ० तफ़ावत] १. अंतर । फर्क । २. दूरी । फासिला ।
⋙ तफ्सीर
संज्ञा पुं० [अ० तफ्सीर] १. व्यारुया । तशरौह । २. किसी धर्मग्रंथ की व्यारुया या भाष्य । उ०—है तारीख व तफऔर बहतर, के अब्रहा बामौ एक था खर ।—दक्खिनी०, पृ० २२० ।
⋙ तब
अव्य० [सं० तदा] १. उस समय । उस वक्त । विशेष—इस क्रि० वि० का प्रयोग प्रायः जब के साथ होता है । जैसे,—जब तुम जाओगे, तब मैं चलूँगा । २. इस कारण । इस वजह से । जैसे,—मेरा उधर काम था तब मैं गया, नहीं तो क्यों जाता ?
⋙ तब (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. ताप । तपन । गर्मी । २. ज्वर । बुखार [को०] ।
⋙ तबई पु †
क्रि० वि० [सं० तबैव] तभौ । उ०—जबई आनि परै तहाँ, तबई ता सिर देहि ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३५ ।
⋙ तबक
संज्ञा पुं० [अ० तबक़] १. आकाश के वे कल्पित खंड जो पुथ्वी के ऊपर और नीचे माने जाते हैं । लोक । तल । २. परत । तह । ३. चाँदी, सोने आदि धातुओं के पतरों को पीटकर कागज की तरह बनाया हुआ पतला वरक जो बहुधा मिठाइयों आदि पर चपकाया और दवाओं में डाला जाता है । ४. चोड़ी और छिछली थाली । ५. वह पूजा या उपचार जो मुसलमान स्त्रियाँ परियों की बाधा से बचने के लिये करती हैं । परियों की नमाज । क्रि० प्र०—छोड़ना । ६. घोड़ों का एक रोग जिसमें उनके शरीर पर सूजन हो जाती है । ७. रक्तविकार के कारण शरीर पर पड़ा हुआ दाग । चकता ।
⋙ तबकगर
संज्ञा पुं० [अ० तबक़ + फा़० गर] वह जो सोने चाँदी आदि के तबक का पत्तर बनाता हो । तबकिया ।
⋙ तबकड़ी †
संज्ञा स्त्री० [अ० तबक़ + डी (प्रत्य०)] छोटी रिकाबी ।
⋙ तबकचा
संज्ञा पुं० [अ० तबक़ + फा़० चह्] छोटी रिकाबी [को०] ।
⋙ तबकफाड़
संज्ञा पुं० [अ० तबक + हिं० फाड़] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—जब शत्रु पेट में घुस जाता है; तब पहलवान अपनी दाहिनि टाँग से उसके बाएँ पाँव को भीतर से बाँधते हैं और दोनों हाथों से उसकी दाहिने टाँग को जाँघ की जगह पकड़कर उसके दोनों पाँव फाड़ते हैं और पाकर उसे चित कर देते हैं ।
⋙ तबका
संज्ञा पुं० [अ० तबक़ह्] १. खंड । विभाग । २. तह । परत । ३. लोक । तल । ४. आदमियों का गरोह । ५. पद । रुतबा ।
⋙ तबकिया (१)
संज्ञा पुं० [अ० तबक + इया (प्रत्य०)] वह जो सोने चाँदी आदि से तबक या पत्तर बनाता हो । तबकगर ।
⋙ तबकिया (२)
वि० तबक संबंधी । जिसमें तबक या परत हों । जैसे तबकिया हरताल ।
⋙ तबकिया हरताल
संज्ञा पुं० [हिं० तबकिया + हरताल] एक प्रकार की हरताल जिसके टुकड़ों में तबक या परत होते हैं । इसके टुकड़े में से अलग अलग पपड़ियाँ सौ उतरती हैं ।
⋙ तबदील
वि० [अ० तब्दील] जो बदला गया हो । परिवर्तित । यौ०—तबदील आबोहवा = जलवायु का बदलना । एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना । तबदीले सूरत = (१) रूप या शक्ल बदल जाना । (२) हुलिया बदलना । बहुरूपिया बनना ।
⋙ तबदीली
संज्ञा स्त्री० [अ० तब्दील + फा० ई (प्रत्य०)] १. बदले जाने या परिवर्तन होने की क्रिया । बदली । परिवर्तन । २. स्थानांतरण (को०) । ३. उथल पुथल । क्रांति । इनकिलाव (को०) । ५. किसी चीज के बदले में कोई दूसरी चीज लेना (को०) ।
⋙ तबदुदुल
संज्ञा पुं० [अ०] १. बदल जाना । बदलना । २. क्रांति । इनकिलाब ।
⋙ तबर (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. कुल्हाड़ी । डाँगी । २. कुल्हाड़ी की तरह का लड़ाई का एक हथियार ।
⋙ तबर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] मस्तूल के सबसे ऊपरी भाग में लगाई जानेवाली पाल जिसका व्यवहार बहुत हलकी हवा चलने के समय होता है ।
⋙ तबरदार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] कुल्हाड़ी या तबर चलानेवाला ।
⋙ तबरदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] तबर, कुल्हाड़ी या फरसा चलाने का काम ।
⋙ तबर्रक
संज्ञा पुं० [अ०] प्रसाद । आशीर्वाद रूप में प्राप्त हुई वस्तु [को०] ।
⋙ तर्बरा
[अ०] १. घृणा प्रकट करना । नफरत । २. वे दुर्वचन जो शिया लोग सुन्नियों के पैगंबरों को कहते हैं । ३. मजहब विरोधियों के लिये गाया जानेवाला गीत [को०] ।
⋙ तबल
संज्ञा पुं० [फा़०] १. बड़ा ढोल । २. नगाड़ा । डंका ।
⋙ तबलची
संज्ञा पुं० [अ० तबलह्+ ची (प्रत्य०)] वह जो तबला बजाता हो । तबलिया ।
⋙ तबला
संज्ञा पुं० [अ० तबलहु] १. ताल देने का एक प्रसिद्ध बाजा जिसमें काठ के लंबोतरे और खोखले कूँड़ पर गोल चमड़ा मढ़ा रहता है । विशेष—यह चमड़ा 'पूरी' कहलाता है और इसपर लोहचून, झाँवे, लोई, सरेस, मँगरैले और तेल को मिलाकर बनाई हुई स्याही की गोल टिकिया अच्छी तरह जमाकर चिकवे पत्थर से घोटी हुई होती है । इसी स्याही पर आघात पड़ने से तबले में से आवाज निकलती है । कुँड़ पर रखकर यह पूरी चारों ओर चमड़े के फीते से, जिसे दद्धी' कहते है, कसकर बाँध दी जाती है । इस बद्धी और कुँड़ के बीच में काठ की गुल्लियाँ भी रख दी जाती हैं जिनकी सहायता से तबले का स्वर आदश्यकतानुसार चढ़ाते या उतारते हैं । वातावरण अधिक ठंढा हो जाने के कारण भी तबला आपसे आप उतर जाता और अधिक गरमी के कारण आपसे आप चढ़ जाता है । यह बाजा अकेला नहीं बजाया जाता, इसी तरह के और दूसरे बाजे के सात बजायाँ जाता है जिसे 'बायाँ', 'ठेका' या 'डुग्गी' कहते हैं । साधारणतः बोलचाल में लोग तबले और बाएँ को एक साथ मिलाकर भी केवल तबला ही कहते हैं । तबला दाहिने हाथ से और बायाँ बाएँ हाथ से बजाया जाता है । क्रि० प्र०—बजना ।—बजाना । मुहा०—तबला उतरना = तबले की बद्धी का ढीला पड़ जाना जिसके कारण तबले में से धीमा या मंद स्वर निकलने लगे । तबला उतारना = तबले की बद्धी को ढीला करके या और किसी प्रकार पूरी पर का तनाव कम कर देना जिससे तबले में से धीमा या मंद स्वर निकलने लगे । तबला खनकना =दे० 'तबला ठनकना' । तबला चढ़ना = तबले की बद्धी का कस जाना जिससे पूरी पर तनाव अधिक पड़ता है और स्वर ऊँचा निकलने लगता है । तबला चढ़ाना = तबले की बद्धी को कसकर पूरी पर का तनाव अधिक करना जिसमें तबले में से स्वर निकलने लगे । तबला ठसकना = (१) तबला बजना । (२) पाच रंग होना । तबला मिलाना = तबले की गु- ल्लियों को ऊपर नीचे हटा बढ़ाकर ऐसी स्थिति में लाना जिसमें पूरी पर चारों ओर से समान तनाव पड़े और तबले में से चारों ओर से कोई एक ही विशिष्ट स्वर निकले । पु २. एक तरह का बर्तन । ताँबे या पीतल का एक पात्र । उ०— पुनि चरवा चरई तष्टी तबला झारी लोटा गावहिं ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ७४ ।
⋙ तबलिया
संज्ञा पुं० [हिं० तबला + इया (प्रत्य०)] वह जो तबला बजाता हो । तबलची ।
⋙ तबलीग
संज्ञा पुं० [अ० तब्लीग] प्रचार । प्रसार । उ०—क्या यही वह इस्लाम है जिसकी तबलीग का तूने बीड़ा उठाया है ?—मान०, भा० १, पृ० १८४ ।
⋙ तबल्ल
संज्ञा पुं० [अ० तबलह] दे० 'तबला' । उ०—किते बीर तोरा तबल्लं बनाए ।—ह० रासो, पृ० १४९ ।
⋙ तबस्ता पु
संज्ञा पुं० [देश०] एक फूल का नाम । उ०—बन उनये हरियर होय फूला । केतक भिरँग तबस्ता फूला ।—हिंदी प्रेम०, पृ० २७७ ।
⋙ तबस्सुम
संज्ञा पुं० [अ०] मुस्कुराहट [को०] ।
⋙ तबह
वि० [फा़० तबाह का लघु रूप] दे० 'तबाह' [को०] । यौ०—तबहकार = तबाहकार । तबहहाल = तबाह हाल ।
⋙ तबा
संज्ञा पुं० [अ० तिबाअ] १. प्रकृति । २. प्रतिज्ञा । उ०— मिसाल हूर कै तन यो अमृत है जान, तबा बाव की दौड़कर कर पछाव ।—दक्खिनी०, पृ० २४३ ।
⋙ तबाअत
संज्ञा स्त्री० [अ०] मुद्रण । छपाई । उ०—'प्रेम बत्तीसी' की तबाअत अभी शुरू नहीं हुई ।—प्रेम० गो०, पृ० ५२ ।
⋙ तबाक
संज्ञा पुं० [अ० तबाक़] बड़ा थाल । परात । यौ०—तबाकी कुत्ता = केवल खाने पीने का साथी । वह जो केवल अच्छी दशा में साथ दे और आपत्ति के समय अलग हो जाय ।
⋙ तबाख
संज्ञा पुं० [अ० तबाक, हिं०] दे० 'तबाक' ।
⋙ तबाखी
संज्ञा पुं० [हिं० तबाख] वह जो परात में रखकर सौदा बेचता है । यौ०—तबाखी कुत्ता = स्वार्थी मित्र ।
⋙ तबादला
संज्ञा पुं० [अ० तबादुल या तबादलह्] १. बदली स्थानांतरण । २. परिवर्तन । उ०—मामले को सच समझा हो या झूठ, मुन्शी का बहरहाल तबादला हो गया । बरखास्त होते होते बचे, यह उन्होंने अपना सौभाग्य समझा ।—काले०, पृ० ६७ ।
⋙ तबावत
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिकित्सा । वैद्यक ।
⋙ तबाशीर
संज्ञा पुं० [सं० तवक्षीर] बंसलोचन ।
⋙ तबाह
वि० [फा़०] १. जो नष्टभ्रष्ट या बिलकुल खराब हो गया हो । नष्ट । बरबाद । चौपट । २. जनशून्य । निर्जन (को०) । ३. निकृष्ट । खराब (को०) । ४. दुर्दशाग्रस्त । बदहाल (को०) । यौ०—तबाहकार = (१) तबाही मचानेवाला । विनाशकारी । अत्याचारी । (२) कदाचारी । बदचलन । तबाह रोजगार = कालचक्रग्रस्त । दुर्दशापीड़ित । तबाह हाल = (१) दुर्दशाग्रस्त (२) निर्धन । दरिद्र ।
⋙ तबाही
संज्ञा स्त्री० [फा़०] नाश । बरबादी । अधःपतन । क्रि० प्र०—आना । मुहा०—तबाही खाना = जहाज का टूट फूटकर रद्दी होना ।— (लश०) । तबाही पड़ना = जहाज का काम के लिये मुहताज रहना । जहाज को काम न मिलना ।—(लश०) ।
⋙ तबिअत
संज्ञा स्त्री० [अ० तबीअत] दे० 'तबीअत' ।
⋙ तबी
अव्य० [हिं०] तभी । तब ही उ०—तो तबी कि जब उनपर— ।—प्रेमघन०, भाग २, पृ० २५३ ।
⋙ तबीअत
संज्ञा स्त्री० [अ० तबीयत] १. चित्त । मन । जी । मुहा०—(किसी पर) तबीअत आना = (किसी पर) प्रेम होना । आशिक होना । (किसी चीज पर) तबीअत आना = (किसी चीज को) लेने की इच्छा होना । तबीअत उलझना = जी घबराना । तबीअत खराब होना = (१) बीमारी होना । स्वास्थ बिगड़ना । (२) जी मिचलाना । तबीअत फड़क उठना = चित्त का उत्साहपूर्ण और प्रसन्न हो जाना । उमंग के कारण बहुत प्रसन्न होना । तबीअत फड़क जाना = दे० 'तबीअत फड़क उठना' । तबीअत फिरना = जी हटना । अनुराग न रहना । तबीअत बिगड़ना = दे० 'तबीअत खराब होना' । तबीअत भरना = (१) संतोष होना । तसल्ली होना । (२) संतोष करना । तसल्ली करना । जैसे,—हमने अच्छी तरह उनकी तबीअत भर दी, तब उन्होंने रुपए लिए । (३) मन भरना । अनुराग या इच्छा न रहना । जैसे,—अब इन कामों से हमारी तबीअत भर गई । तबीअत लगना = (१) मन में अनुराग उत्पन्न होना । (२) ख्याल लगा रहना । ध्यान लगा रहना । जैसे,—इधर कई दिनों से उनकी चिट्ठी नहीं आई, इससे तबीअत लगी हुई है । तबीअत लगाना = (१) चित्त को किसी काम में प्रवृत्त करना । जैसे,—तबीअत लगाकर काम किया करो । (२) प्रेम करना । मुहब्बत में फँसना । तबीअत होना =अनुराग या प्रवृत्ति होना । जी चाहना । २. बुद्धि । समझ । भाव । मुहा०—तबीअत पर जोर डालना = विशेष ध्यान देना । तवज्जह करना । जैसे,—जरा तबीअत पर जोर डाला करो, अच्छी कविता करने लगोगे । तबीअत लड़ाना = दे० 'तबीअत पर जोर डालना' । यौ०—तबीअतदार । तबीअतदारी ।
⋙ तबीअतदार
वि० [अ० तबीअत + फा़० दार (प्रत्य०)] १. जो भावों को चट ग्रहण करता हो । समझदार । २. भावुक । रसिक । रसज्ञ ।
⋙ तबीअतदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० तबीअत+ फा० दारी (प्रत्य०)] १. होशियारी । समझदारी । २. भावुकता । रसज्ञता ।
⋙ तबीब
संज्ञा पुं० [अ०] वैद्य । चिकित्सक । हकीम । उ०—तब तबीब तसलीम करि लै घरि ।
⋙ तबीन
संज्ञा पुं० [अ० ताबअ] ताबेदार । सेवक । उ०—पलटू ऐसी साहिबी साहब रहे तबीन । दुई पासाही फकर की एक दुनियाँ इक दीन ।—पलटू०, भा० १, पृ० ६३ ।
⋙ तबेला (१)
संज्ञा पुं० [अ० तवेलहु] वह स्थान जहाँ घोड़े बाँधे जाते और गाड़ी, एक्के आदि सवारियाँ रखी जाती हों । अस्तबल । घुड़साल । मुहा०—तबेले में लत्ती चलाना = विशिष्ट कार्य करने मे अड़चन उपस्थित होना ।
⋙ तबेला † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ताँबा] ताँबे का एक पात्र ।
⋙ तबेली पु
क्रि० अ० [फा़० ताब (=ताप)+ हिं० एली (प्रत्य०)] छटपटाना । तालाबेली । उ०—कहा करौ कैसें मन समझाऊँ व्याकुल जियरा धीर न धरत लागियै रहति तबेली ।—घनानंद, पृ० ४८० ।
⋙ तबोताब
संज्ञा पुं० [सं० तप+ फा़० ताब] रंजोगम । गरमी । उ०— माल से उसको बस है वह तबोताब । के होय महशर में उसको तूले हिसाब ।—दक्खिनी०, पृ० २१९ ।
⋙ तबोरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ताम्बोल] पान । लगाया हुआ पान । उ०—अधर अधर सों भीज तबोरी । अलका डरि मुरि मुरि गौ मोरी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३४२ ।
⋙ तबौ पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'तऊ' । उ०—सहस अठासी मुनि जौ जेंवें तबौ न घंटा बाजै । कहहिं कबीर सुपच के जेंए, घंट मगन ह्वै गाजै ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ तब्ब
अव्व० [हिं०] दे० 'तब' । उ०—गही क्यों न अब्बं । कहै बैन तब्बं ।—ह० रासो, पृ० १३६ ।
⋙ तब्बर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तबर' ।
⋙ तभी
अव्य० [हिं० तब + ही] १. उस समय । २. उसी वक्त । उसी घड़ी । जैसे,—जब तुम नहीं आए, तभी मैनें समझ लिया कि दाल में कुछ काला है । २. इसी कारण । इसी वजह से । जैसे,—तुम्हारा उधर काम था, तभी तुम गए ।
⋙ तमंग
संज्ञा पुं० [सं० तमङ्ग] १. रंगमंच । २. मंच [को०] ।
⋙ तमंगक
संज्ञा पुं० [सं० तमङ्गक] छत या छाजन का आगे निकला हुआ भाग [को०] ।
⋙ तमंचा
संज्ञा पुं० [फा़० तमंचह्] १. छोटी बंदूक । पिस्तौल । क्रि० प्र०—चलाना —दागना —मारना —छोड़ना । यौ०—तमंचे की टाँग = कुश्ती का एक पेंच जिसमें शत्रु के पेट में घुस आने पर बाएँ हाथ से कमर पर से उसका लँगोट पकड़ लेते हैं और उसकी दाहिनी बगल से अपना बायाँ पाँव चढ़ाकर पीठ पर से उसकी बाई जाँघ फँसाते और उसे चित कर देते हैं २. एक लंबा पत्थर जो दरवाजों की मजबूती के लिये बगल में लगाया जाता है ।
⋙ तमः
संज्ञा पुं० [सं०] तमस् का समस्तपदों में प्रयुक्त रूप । यौ०—तमःप्रभ, तमःप्रभा = एक नरक । तनःप्रवेश = (१) अँधेरे में टटोलना । (२) विषाद ।
⋙ तम (१)
संज्ञा पुं० [सं० तमः, तमस्] १. अंधकार । अँधेरा । २. पैर का अलग भाग । ३. तमाल वृक्ष । ४. राहु । ५. वराह । सुअर । ६. पाप । ७. क्रोध । ८. अज्ञान । ९. कालिख । कालिमा । श्यामता । १०. नरक । ११. मोह । १२. सांख्य के अनुसार अविद्या । १३. सांख्य के अनुसार प्रकृति का तीसरा गुण जो भारी और रोकनेवाला माना गया है । विशेष—जब मनुष्य में इस गुण की अधिकता होती है, तब उसकी प्रवृत्ति, काम, क्रोध, हिंसा आदि नीच और बुरी बातों की ओर होने लगती है ।
⋙ तम (२)
वि० १. काला । दूषित । बुरा [को०] ।
⋙ तम (३)
वि० [सं० तमय्] एक प्रकार का प्रत्यय, जो विशेषण शब्दों में लगने पर अतिशय या सबसे अधिक का अर्थ प्रकट करता है जैसे, क्रूरतम, कठिनतम ।
⋙ तम पु (४)
सर्व० [सं० त्वाम्, हिं० तुम, गुज० तम] दे० 'तुम' । उ०—हाहुलि राय हमीर सलष पांमार जैत सम । कह्वौ राज हम मात तात अप्पी दिल्ली तम ।—पृ० रा०, १८ ।६ ।
⋙ तमअ
संज्ञा स्त्री० [अ० तमअ] १. लालच । लोभ । हिर्स । २. चाह । इच्छा । ख्वाहिश ।
⋙ तमक (१)
संज्ञा पुं० [हिं० तमकना] १. जोश । उद्वेग । २. तेजी । तीव्रता । ३. क्रोध । गुस्सा ।
⋙ तमक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार श्वास रोग का एक भेद । विशेष—इसमें दम फूलने के साथ साथ बहुत प्यास लगती है, पसीना आता है, जी मिचलाता है और गले में धरघराहट होती है । जिस समय आकाश में बादल छाए हों, उस समय इसका प्रकोप अधिक होता है ।
⋙ तमकनत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. इज्जत । प्रतिष्ठा । २. गौरव । ३. गौरव का अनुचित प्रदर्शन । ४. आडंबर । ५. घमंड । गरूर [को०] ।
⋙ तमकना
क्रि० अ० [अनु०] १. क्रोध का आवेश दिखलाना । क्रोध के कारण उछल पड़ना । उ०—अंजन त्रास तजत तमकत तकि तानत दरसन डीठि । हारेहू नहिं अमित बल बदन पयोधि पईठ ।—सूर (शब्द०) । २. दे० 'तमतमाना' ।
⋙ तमकश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का दमा जिसमें कंठ रुक जाता है और घरघराहट होती है । विशेष—इसके उत्पन्न होने से प्रायः रोगी के मर जाने का भी भय होता है ।
⋙ तमका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूम्यामलकी । भुईँ आँवला [को०] ।
⋙ तमकाना
क्रि० स० [हिं० तमकना का प्रे० रूप] तमकने में प्रवृत्त कराना ।
⋙ तमकि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० तमक] दे० 'तमक' (१) । उ०—सतगुर मिलिअँ तमकि मिटि जाई । नानक तपसी कौ मिली बड़ाई ।—प्राण०, पृ० ९० ।
⋙ तमगा
संज्ञा पुं० [तु० तमगह्] पदक । तगमा । मेडल ।
⋙ तमगुन पु
संज्ञा पुं० [सं० तमोगुण] दे० 'तमोगुण' ।
⋙ तमगेही (१)
वि० [सं० तमगेहिन्] अंधकार में घर बनानेवाला । अंधकार में रहनेवाला [को०] ।
⋙ तमगेही (२)
संज्ञा पुं० पतंगा ।
⋙ तमचर
संज्ञा पुं० [सं० तमीचर] १. राक्षस । निशाचर । २. उलूक । उल्लू ।
⋙ तमचुर पु †
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रचूड़] मुरगा । कुक्कुट । उ०— (क) सुनि तमचुर को सोर घोस की बागरी । नवसत साजि सिंगार चलीं ब्रज नागरी ।—सूर (शब्द०) । (ख) ससि कर हीन छीन दुति तारे । तमचुर मुखर सुनहु मोरे प्यारे ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तमचूर पु
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रचूड़, हिं० तमचुर] दे० 'तमचुर' । उ०—(क) बोले लागे ठौर ठौर तमचूर । हुहिं बोली री पिक बैनी ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३६७ । (ख) बिख राखे नहिं होत अँगूरू । सबद न देइ बिरह तमचुरू ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ तमचोर पु †
संज्ञा पुं० [सं० ताम्रचूड] दे० 'तमचुर' ।
⋙ तमच्छन्न
वि० [सं० तमस् (श्) + च्छन्न] तम से आच्छादित । अँधकारमय । उ०—धन्य मार्क्स । चिर चमच्छन्न । पृथ्वी के उदय शिखर पर, तुम त्रिनेत्र के ज्ञान चक्षु से प्रकट हुए प्रलयंकर ।—युगवाणी, पृ० ३८ ।
⋙ तमजित्
वि० [सं०] अंधकार को जीतनेवाला । उ०—बाँधो, बाँधो किरणों चेतन, तेजस्वी, हे तमजिज्जीवन ।—अपरा, पृ० २०६ ।
⋙ तमत
वि० [सं०] १. इच्छुक । अभिलाषी । २. वांछित । चाहा हुआ [को०] ।
⋙ तमतमाना
क्रि० आ० [सं० ताम्र] १. धूप या क्रोध आदि के कारण चेहरा लाल हो जाना । २. चमकना । दमकना । (क्व०) ।
⋙ तमतमाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० तमतमाना] तमतमाने का भाव ।
⋙ तमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तम का भाव । २. अँधेरा । अंधकार ।
⋙ तमदुदुन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शहर में एक स्थान पर मिल जुलकर रहना और वहाँ की व्यवस्था करना । नागरिकता । २. किसी की वेशभूषा, रहन सहन का ढंग और आचार व्यवहार । सभ्यता [को०] ।
⋙ तमन
संज्ञा पुं० [सं०] दम घुटने की अवस्था [को०] ।
⋙ तमना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तमकना' ।
⋙ तमन्ना
संज्ञा स्त्री० [अ०] आकांक्षा । इच्छा । ख्वाहिश । कामना । अभिलाषा । उ०—दिल लाखों तमन्ना उस पै और ज्यादा हवस । फिर ठिकाना है कहाँ उसके टिकाने के लिये ।—तुरसी० श०, पृ० ४ ।
⋙ तमप्रभ
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नरक का नाम ।
⋙ तमयी
संज्ञा स्त्री० [सं० तमी अथवा तममयी] रात ।
⋙ तमरंग
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का नीबू जिसे 'तुरंज' कहते हैं । विशेष—दे० 'तुरंज' ।
⋙ तमर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बंग ।
⋙ तमर (२)
संज्ञा पुं० [सं० तम] अंधकार । अँधेरा ।
⋙ तमराज
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की खाँड़ जो वैद्यक में ज्वर, दाह तथा पित्तनाशक मानी गई है ।
⋙ तमलूक
संज्ञा पुं० [हिं० तामलूक] दे० 'तामलूक' ।
⋙ तमलेट
संज्ञा पुं० [अं० टम्ब्लर] १. लुक फेरा हुआ टीन या लोहे का बरतन । २. फौजी सिपाहियों का लोटा ।
⋙ तमस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंधकार । २. अज्ञान का अंधकार । ३. प्रकृति का एक गुण । तमोगुण । वि० दे० 'गुण' ।
⋙ तमस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंधकार । २. अज्ञान का अंधकार । ३. पाप । ४. नगर । ५. कूप । कूआँ ।
⋙ तमस (२)
वि० काले रंग का । श्याम वर्ण का [को०] ।
⋙ तमस पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० तमसा] ६. तमसा नदी । टौंस । उ०—आयो तमस नदी के तीरा । तब लाडिल परिहार सुबीरा ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ तमसना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तमकना' । उ०—तमसि तमति सामंत जाई वर वीर सुरुध्यौ । उभय पुत्त इक बंधु भोम भगीरथ बल बंध्यौ ।—पृ० रा०, १२ ।१५३ ।
⋙ तमसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] टौंस नाम की नदी । दे० 'टौंस' । विशेष—इस नाम की तीन नदियाँ हैं ।
⋙ तमसाच्छन्न
वि० [सं०] अंधकार से ढका हुआ । उ०—उसे अपनी माता के तत्काल न मर जाने पर झुँझलाहट सी हो रही थी । समीर अधिक शीतल हो चला । प्राची का आकाश स्पष्ट होने लगा, पर जग्गैया का अद्दष्ट तमसाच्छन्न था ।— इंद्र०, पृ० ११० ।
⋙ तमसावृत
वि० [सं०] अंधकार से घिरा हुआ । उ०—मानव उर का मंदिर, कब से भीतर से तमसावृत ।—युगपथ, पृ० १०३ ।
⋙ तमसील
संज्ञा स्त्री० [अ० तम्सील] १. उपमा । तुलना । २. समानता । बराबरी । ३. द्दष्टांत । उदाहरण । मिसाल । उ०—याने इसका तमसील यूँ है ।—दक्खिनी०, पृ० ३९५ ।
⋙ तमस्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. अँधेरा । २. विषाद । म्लानता [को०] ।
⋙ तमस्कांड
संज्ञा पुं० [सं० तमस्काण्ड] घना अँधेरा । भारी अँधेरा [को०] ।
⋙ तमस्खुर
संज्ञा पुं० [अ० तमस्खुर] मस्खरापन । उ०—उसके मिजाज में जराफत और तमस्खुर जियादा है—प्रेमघन०, भाग २, पृ० १०२ ।
⋙ तमस्तति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंधकार की अधिकता । अंधकार का बाहुल्य [को०] ।
⋙ तमस्तरण
वि० [सं०] अंधकार को तरने या पार करनेवाला । उ०— मग डगमग पग, तमस्तरण जागे जग ।—अर्चना, पृ० १४ ।
⋙ तमस्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'तमस्विन्' ।
⋙ तमस्विनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात्रि । रात । रजनी । २. हल्दी ।
⋙ तमस्वी
वि० [सं० तमस्विन्] अंधकारयुक्त । अंधकारपूर्ण [को०] ।
⋙ तमस्सुक
संज्ञा पुं० [अ०] वह कागज जो ऋण लेनेवाला ऋण के प्रमाण स्वरूप लिखकर महाजन को देता है । दस्तावेज । ऋणपत्र । लेख ।
⋙ तमहँड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ताँबा + हाँड़ी] हाँड़ी के आकार का ताँबे का एक प्रकार का छोटा बरतन ।
⋙ तमहर
संज्ञा पुं० [हिं० तम + हर] दे० 'तमोहर' ।
⋙ तमहाया
वि० [सं० तम + हिं० हाया] १. अंधकारवाला । २. तमोगुणी ।
⋙ तमहीद
संज्ञा स्त्री० [अ० तम्हीद] वह जो कुछ किसी विषय को आरंभ करने से पहले किया जाय । भूमिका । दीबाचा । क्रि० प्र०—बाँधना ।
⋙ तमाँचा
संज्ञा पुं० [फा़० तमांचह्] दे० 'तमाचा' ।
⋙ तमा (१)
संज्ञा पुं० [सं० तमा, तमस्] राहु ।
⋙ तमा (२)
संज्ञा स्त्री० रात । रात्रि । रजनी ।
⋙ तमा (३)
संज्ञा स्त्री० [अ० तमअ] दे० 'तमअ' ।
⋙ तमा (४)
संज्ञा स्त्री० [फा़० तमाम] दे० 'तमाम' । उ०—तमा दुनिया की जर पर कर वह बदजात । उठाया दीन से इकबारगी हात ।—दक्खिनी०, पृ० १९० ।
⋙ तमाई पु
संज्ञा स्त्री० [अ० तमअ] दे० 'तमअ' । उ०—(क) लोक परलोक बिसोक सो तिलोक ताहि तुलसी तमाइ कहा काहू वीर वान की ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) आप कीन तप खप कियो न तमाइ जोग जाग न विराग त्याग तीरथ न तन कौ ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ तमाई (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] खेत जोतने से पूर्व उसमें की घास आदि साफ करना ।
⋙ तमाई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तम + हिं० आई (प्रत्य०)] १. अँधेरा । श्यमाता । ताम्रता । २. अज्ञान । उ०—साहब मिल साहब भए कछु रही न तमाई । कहैं मलूक तिस घर गए जँह पवन न जाई ।—मलूक०, पृ० ७ ।
⋙ तमाकू
संज्ञा पुं० [पुर्त० टबैको] १. तीन से छह फुट तक ऊँचा एक प्रसिद्ध पौधा जो एशिया, अमेरिका तथा उत्तर युरोप में अधिकता से होता है । तंबाकू । विशेष—इसकी अनेक जातियाँ हैं, पर खाने या पीने के काम में केवल ५-६ तरह के पत्ते ही आते हैं । इसके पत्ते २-३ फुट तक लंबे, विषाक्त और नशीले होते हैं । भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में इसके बोने का समय एक दूसरे से अलग है, पर बहुधा यह कुआर, कातिक से लेकर पूस तक बोया जाता है । इसके लिये वह जमीन उपयुक्त होती है जिसमें खार अधिक हो । इसमें खाद की बहुत अधिक आवश्यकता होती है । जिस जमीन में यह बोया जाता है, उसमें साल में बहुधा केवल इसी की एक फसल होती है । पहले इसका बीज बोया जाता है और जब इसके अंकुर ५-६ इंच के ऊँचे हो जाते हैं, तब इसे दूसरी जमीन में, जो पहले से कई बार बहुत अच्छी तरह जोती हुई होती हैं, तीन तीन फुट की दूरी पर रोपते हैं । आरंभ से इसमें सिंचाई की भी बहुत अधिक आव- श्यकता होती है । इसके फूलने से पहले ही इसकी कलियाँ और नीचे के पत्ते छाँट दिए जाते हैं । जब पत्ते कुछ पीले रंग के हो जाते हैं और उसपर चित्तियाँ पड़ जाती हैं, तब या तो ये पत्ते काट लिय जाते हैं या पूरे पौधे ही काट लिए जाते हैं । इसके बाद वे पत्ते धूप में सुखाए जाते हैं और अनेक रूपों में काम में लाए जाते हैं । इसके पत्तों में अनेक प्रकार के कीड़े लगते हैं और रोग होते हैं । सोलहवीं शताब्दी से पहले तंबाकू का व्यवहार केवल अमेरिका के कुछ प्रांतों के आदिम निवासियों में ही होता था । सन् १४९२ में जब कोलंबस पहले पहल अमेरिका पहुँचा, तब उसने वहाँ के लोगों को इसके पत्ते चबाते और इसका धूआँ पीते हुए देखा था । सन् १५३९ में स्पेनवाले इसे पहले पहल यूरोप ले गए थे । भारत में इसे पहले पहल पुर्तगाली पादरी लाए थे । सन् १६०५ में इसे असदबेग ने बीजापुर (दक्षिण भारत) में देखा था और वहाँ से वह अपने साथ दिल्ली ले गया था । वहाँ उसने हुक्के और चिलम पर रखकर इसे अकबर को पिलाना चाहा था, पर हकीमों ने मना कर दिया । पर आगे चलकर धीरे धीरे इसका प्रचार बहुत बढ़ गया । आरंभ में इंगलैंड, फ्रांस तथा भारत आदि सभी देशों में राज्य की ओर से इसका प्रचार रोकने के अनेक प्रयत्न किए गए थे, धर्माधिकारियों और चिकित्सकों ने भी इसका प्रचार रोकने के अनेक उद्योग किए थे, पर वै सब निष्फल हुए । अब समस्त संसार में इसका इतना अधिक प्रचार हो गया हैं कि स्त्रियाँ, पुरुष, बच्चे और बुड्ढे प्रायः सभी किसी न किसी रूप में इसका व्यवहार करते हैं । भारत की गलियों में छोटे छोटे बच्चे तक इसे खाते या पीते देखे जाते हैं । २. इस पेड़ का पत्ता । सुरती । विशेष—इसका व्यवहार लोग अनेक प्रकार से करते हैं । चूर करके खाते हैं, सूँघते हैं, धूआँ खींचने के लिये नली में या चिलम पर जलाते हैं । इसमें नशा होता है । भारत में धूआँ पीने के लिये एक विशेष प्रकार से तमाकू तैयार किया जाता है (दे० तीसरा अर्थ) । इसका बहुत महीन चूर्ण सुँघनी कहलाता है जिसे लोग सूँघते हैं । भारत के लोग इसके पत्तों को सुखाकर पान के साथ अथवा यों ही खाने के लिये कई तरह का चूरा बनाते हैं, जैसे, सुरती जरदा आदि । पान के साथ खाने के लिये इसकी गीली गोली बनाई जाती है और एक प्रकार का अवलेह भी बनाया जाता है जिसे 'किमाम' कहते हैं । इस देस में लोग इसके सूखे पत्तों को चूने के साथ मलकर मुँह में रखते हैं । चूना मिलाने से बहुत तेज हो जाता है । इस रूप में इसे 'खैनी' या 'सुरती' कहते हैं । यूरोप, अमेरिका आदि देशों में इसके चूरे को कागज या पत्तों आदि में लपेटकर सिगार या सिगरेट बनाते हैं । इसका व्यवहार नशे के लिये किया जाता है और इससे स्वास्थ्य और विशेषतः आँखों को बहुत हानि पहुँचती है । वैद्यक में यह तीक्ष्ण,गरम, कडुआ, मद और वमनकारक तथा द्दष्टि को हानि पहुँचानेवाला माना जाता है । ३. इन पत्तों से तैयार की हुई एक प्रकार की गीली पिंडी जिसे चिलम पर जलाकर मुँह से धूँआ खींचते हैं । विशेष—पत्तियों के साथ रेह मिलाकर जो तमाकू तैयार होता है, वह 'कडुआ' कहलाता है, गुड़ मिलाकर बनाया हुआ 'मीठा' कहलाता है, और कटहल, बेर आदि की खमीर मिलाकर बनाया हुआ 'खमीरा' कहलाता है । इसे चिलम पर रखकर उसके ऊपर कौयले की आग या सुलगती हुई टिकिया रखते हैं और खाली हाथ गौरिए अथवा हुक्के पर रखकर नली से धूआँ खींचते हैं । मुहा०—तमाकू चढ़ाना = तमाकू को चिलम पर रखकर और उसपर आग या टिकिया रखकर उसे पीने के लिये तैयार करना । तमाकू पीना = तमाकू का धूआँ खींचना । तमाकू भरना = दे० 'तमाकू चढ़ाना' ।
⋙ तमाखू †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तमाकू' ।
⋙ तमाचा
संज्ञा पुं० [फा़० तमंचह] हथेली और उँगलियों से गाल पर किया हुआ प्रहार । थप्पड़ । झापड़ । क्रि० प्र०—जड़ना ।—देना ।—मारना ।—लगाना ।
⋙ तमाचारी
संज्ञा पुं० [सं० तमाचारिन्] राक्षस । दैत्य । निशिचर ।
⋙ तमादी
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. अवधि बीत जाना । मुद्दत या मियाद गुजर जाना । २. उस अवधि का बीत जाना जिसके अंदर लेन देन संबंधी कोई कानूनी कारवाई हो सकती हो । उस मुद्दत का गुजर जाना जिसके अंदर अदालत में किसी दावे की सुनवाई हो सकती हो । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ तमान
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का घेरदार पाजामा जिसकी मोहरी नीचे से तंग होती है ।
⋙ तमाना †
क्रि० अ० [सं० तम से नामिक धातु] ताव में आना । आवेश में आना ।
⋙ तमाम
वि० [अ०] १. पूरा । संपूर्ण । कुल । सारा । बिल्कुल । जैसे,—(क) दो ही बरस में तमाम रुपए फूँक दिए । (ख) तमाम शहर में बीमारी फैली है । २. समाप्त । खतम । मुहा०—तमाम होना = (१) पूरा होना । समाप्त होना । (२) मर जाना ।
⋙ तमामी
संज्ञा स्त्री० [अ० तमाम + फा़० ई (प्रत्य०)] एक प्रकार का देशी रेशमी कपड़ा । विशेष—इसपर कलाबत्तू की धरियाँ होती हैं । यह प्रायः गोट लगाने के कामे में आता है ।
⋙ तमारा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तँवार' ।
⋙ तमारि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य । दिनकर । रवि ।
⋙ तमारि (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तँवार' । उ०—पल मैं पल रूप बीतिया लोगन लगी तमारि ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ तमारी (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तमारि' । उ०—संत उदय संतत सुखकारी । बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ।—मानस, ७ । १२१ ।
⋙ तमारी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ताँवरा' ।
⋙ तमाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीस पचीस फुट ऊँचा एक बहुत सुंदर सदाबहार वृक्ष जो पहाड़ों पर और जमुना के किनारे भी कहीं कहीं होता है । विशेष—यह दो प्रकार का होता है, एक साधारण और दूसरा श्याम तमाल । श्याम तमाल कम मिलता है । उसके फूल लाल रंग के और उसकी लकड़ी आबनूस की तरह काली होती है । तमाल के पत्ते गहरे हरे रंग के होते हैं और शरीफे के पत्ते से मिलते जुलते होते हैं । बैसाख के महीने में इसमें सफेद रंग के बड़े फूल लगते हैं । इसमें एक प्रकार के छोटे फल भी लगते हैं जो बहुत अधिक खट्टे होने पर भी कुछ स्वादिष्ट होते हैं । ये फल सावन भादों में पकते हैं और इन्हें गीदड़ बड़े चाव से खाते हैं । श्याम तमाल को वैद्यक में कसैला, मधुर, बलवीर्यवर्धक, भारी, शीतल, श्रम, शोथ और दाह को दूर करनेवाला तथा कफ और पित्तनाशक माना है । पर्या०—कालस्कंध । तापित्थ । अमितद्रुम । लोकस्कंध । नीलध्वज । नीलताल । तापिंज । तम । तया । कालताल । महाबल । २. तेजपत्ता । ३. काले खैर का वृक्ष । ४. बाँस की छाल । ५. वरुण वृक्ष । ६. एक प्रकार की तलवार । ७. तिलक का पेड़ । ८. हिमालय तथा दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का सदाबहार पेड़ । विशेष—इसमें से एक प्रकार का गोंद निकलता हैं जो घटिया रेवंद चीनी की तरह का होता है । इसकी छाल से एक प्रकार का बढ़िया पीला रंग निकलता है । पूस, माघ में इसमें फल लगता है जिसे लोग यों ही खाते अथवा इमली की तरह दाल तरकारियों में डालते हैं । इसका व्यवहार औषध में भी होता है । लोग इसे सुखाकर रखते और इसका सिरका भी बनाते हैं । इसे मन्डोला और उमवेल भी कहते है । ९. सुरती (को०) । १०. तमाल के बीज के रस और चंदन का तिलक (को०) ।
⋙ तमालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तेजपत्ता । २. तमाल वृक्ष । ३. बाँस की छाल । ४. चौपतिया साग । सुसना साग ।
⋙ तमालपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. तमाल का पत्ता । २. सुरती का पत्ता । ३. सांप्रदायिक तिलक [को०] ।
⋙ तमाला †
संज्ञा पुं० [हिं० तमारा] आँखों में अँधियारी छा जाना । चकाचौंध । उ०—होस उड़े फाटै हियो, पड़े तमाला आय । देखे जुध तसवीर द्रग, मावड़िया मुरझाय ।—बाँकी ग्रं०, भा० २, पृ० ६७ ।
⋙ तमालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भुइँ आँवला । भृम्यामलकी । २. ताम्रवल्ली नाम की लता ।
⋙ तमालिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ताम्रलिप्त देश का एक नाम । २. भूम्यामलकी । भुईँ आँवला । ३. काले खैर का वृक्ष । कृष्ण खदिर । ४. वह भूमि जहाँ तमाल के वृक्ष अधिक हों (को०) ।
⋙ तमाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वरुण वृक्ष । २. ताम्रवल्ली नाम की लता जो चित्रकूट में बहुत होती है ।
⋙ तमाशगीर †
संज्ञा पुं० [फा़० तमाश + गीर] दे० 'तमाशबीन' ।
⋙ तमाशबीन
संज्ञा पुं० [अ० तमाशा + फा़० बीन] १. तमाशा देखनेवाला । सैलानी । २. रंडीबाज । वेश्यागामी । ऐयाश ।
⋙ तमाशबीनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० तमाशबीन + ई (प्रत्य०)] रंडीबाजी । ऐयाशो । बदकारी । उ०—फारसी पढ़ने से इश्कबाजी तमाश- बीनी और अय्याशी ।—प्रेमघन०, भाग २, पृ० ८२ ।
⋙ तमाशा
संज्ञा पुं० [अ०] १. वह द्दश्य जिसे देखने से मनोरंजन हो । चित्त को प्रसन्न करनेवाला द्दश्य । जैसे, मेला, थिएटर, नाच, आतिशबाजी आदि । उ०—मद भोलक जब खुलत हैं तेरे दृग गजराज । आई तमासे जुरत हैं नेही नैन समाज ।— रसनिधि (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना —कराना —देखना ।—दिखाना —होना । २. अदभुत व्यापार । विलक्षण व्यापार । अनोखी बात । मुहा०—तमाशे की बात = आशचर्य भरी और अनोखी बात । यौ०—तमाशागर = तमाशा करनेवाला । तमाशागाह= क्रीड़ा- स्थल । कौतुकागार । तमाशबीन = तमाशा देखनेवाला ।
⋙ तमाशाई
संज्ञा पुं० [अ० तमाशा + फा़० ई (प्रत्य०)] तमाशा देखनेवाला । वह जो तमाशा देखता हो ।
⋙ तमास पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तमाशा' । उ०—काहू संग मोह नहिं ममता देखहिं निर्पष भये तमास ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १५५ ।
⋙ तमासा पु
संज्ञा पुं० [अ० तमाशा] उ०—मेहर की आसा तमासा भी मेहर का, मेहर का आब दिल को पिलाइए ।—कबीर रे०, पृ० ३४ ।
⋙ तमाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] तालीशपत्र [को०] ।
⋙ तमि
संज्ञा पुं० [सं०] १. रात । २. मोह ।
⋙ तमिनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा ।
⋙ तमिल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] तमिल भाषा का प्रदेश । २. तमिल भाषाभाषी ।
⋙ तमिल (२)
संज्ञा स्त्री० १. तमिल जाति । २. तमिल जाति की भाषा । वि० दे० 'तामिल' ।
⋙ तमिल (३)
वि० रात्रि में विचरण करनेवाला [को०] ।
⋙ तमिसरा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तमिस्त्रा' । उ०—रवि परभात झरोखे उवा । गयउ तमिसरा बासर हुआ ।—इंद्रा०, पृ० ८० ।
⋙ तमिस्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंधकार । अँधेरा । २. क्रोध । गुस्सा । ३. पुराणानुसार एक नरक का नाम । ४. अज्ञान । मोह (को०) । ५. कृष्ण पक्ष (को०) ।
⋙ तमिस्रपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] किसी मास का कृष्ण पक्ष । अँधेरा पक्ष ।
⋙ तमिस्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अँधेरी रात । २. गहरा अँधेरा या अंधकार (को०) ।
⋙ तमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात । रात्रि । निशा । २. हरिद्रा । हलदी ।
⋙ तमीचर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] निशाचर । राक्षस । दैत्य । दनुज ।
⋙ तमीचर (२)
वि० रात्रि में विचरण करनेवाला [को०] ।
⋙ तमीज
संज्ञा स्त्री० [अ० तमीज] १. भले और बुरे को पहचानने की शक्ति । विवेक । २. पहचान । ३. ज्ञान । बुद्धि । ४. अदब । कायदा । यौ०—तमीजदार = (१) बुद्धिमान । समझदार । (२) शिष्ट । सभ्य ।
⋙ तमीपति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा । निशाकर । क्षपाकर ।
⋙ तमीश
संज्ञा पुं० [सं० तमी+ ईश] चंद्रमा । क्षपाकर । उ०—तौ लौं तम राजै तमी जौ लौं नहिं रजनीश । केशव ऊगे तरणि के तुम न तमी न तमीश ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ तमु पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तम' ।
⋙ तमूरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तबूंरा' ।
⋙ तमूल †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तांबूल' ।
⋙ तमे पु †
सर्व [गुज० तमे (= तुम)] तुम ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २१८ ।
⋙ तमोंत्य
वि० [सं० तमोत्य] सूर्य और चंद्रमा के दस प्रकर के ग्रासों में से एक । विशेष—इसमें चंद्रमंडल की पिछली सीमा में राहु की छाया बहुत अधिक और बीच के भाग में बहुत थोड़ी सी जान पड़ती है । फलित ज्योतिष के अनुसार ऐसे ग्रहण से फसल को हानि पहुँ- चती है और चोरों का भय होता है ।
⋙ तमोंध
वि० [सं० तमोन्ध] १. अज्ञानी । २. क्रोधी ।
⋙ तमोगुण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'तमस्'-३ ।
⋙ तमोगुणी
वि० [सं०] जिसकी वृत्ति में तमोगुण हो । अधम वृत्तिवाला । उ०—तमोगुणी चाहै या भाई । मम बैरी क्यों ही मर जाई ।—सूर (शब्द०)
⋙ तमोघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । २. चंद्रमा । ३. सूर्य । ४. बुद्ध । ५. बौद्ध मत के नियम आदि । ६. विष्णु । ७. शिव । ८. ज्ञान । ९. दीपक । दीया । चिराग ।
⋙ तमोघ्न (२)
वि० जिससे अँधेरा दूर हो ।
⋙ तमोज्योति
संज्ञा पुं० [सं० तमोज्योतिस्] जुगनू [को०] ।
⋙ तमोदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] वह ज्वर जो पित्त के प्रकोप से उत्पन्न हो ।
⋙ तमोनुद
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । २. चंद्रमा । ३. अग्नि । आग ।
⋙ तमोभिदू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जुगनू ।
⋙ तमोभिदू (२)
वि० अंधकार दूर करनेवाला ।
⋙ तमोमणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुगनू । २. ओमेदक मणि ।
⋙ तमोमंय (१)
वि० [सं०] १. तमोगुणयुत्ता २. अज्ञानी । ३. क्रोधी ।
⋙ तमोमय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] राहु ।
⋙ तमोर पु †
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूल] ताँबूल । पान । उ०—(क) थार तमोर दूध दधि रोचन हरषि यशोदा लाई ।—सूर (शब्द०) । (ख) सुरँग अधर औ लीन तमोरा । सोहै पान फूल कर जोरा ।—जायसी ग्रं०, पृ० १४३ ।
⋙ तमोरि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य ।
⋙ तमोरी पु †
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'तबोली' ।
⋙ तमोल पु †
संज्ञा पुं० [सं० ताम्बूल] १. पान का बीड़ा । उ०— बंदी भाल तमोल मुख सीस सिलसिले बार । द्दग आँजे राजे खरी ये ही सहज सिंगार ।—बिहारी (शब्द०) । २. दे०
⋙ 'तंबोल' ।
⋙ तमोलिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० तमोली का स्त्री०]दे० 'तंबोलिन' ।
⋙ तमोलिप्ती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ताम्रलिप्त' ।
⋙ तमोली
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तंबोली' ।
⋙ तमोविकार
संज्ञा पुं० [सं०] तमोगुण के कारण उत्पन्न होनेवाला विकार । जैसे, नींद, आलस्य आदि ।
⋙ तमोहंत
संज्ञा पुं० [सं० तमोहन्त] दस प्रकार के ग्रहणों में से एक । विशष—दे० 'तमोंत्य' ।
⋙ तमोहपह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. चंद्रमा । ३. अग्नि । ४. दीपक । दीआ ।
⋙ तमोहपह (२)
वि० १. मोहनाशक । २. अंधकार दूर करनेवाला ।
⋙ तमोहर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. सूर्य । ३. अग्नि । आग । ४. ज्ञान ।
⋙ तमोहर (२)
वि० [सं०] अंधकार दूर करनेवाला । २. अज्ञान दूर करनेवाला ।
⋙ तमोहरि पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तमोहर' ।
⋙ तम्मना पु
क्रि० अ० [हिं० तमकना] तप्त होना । क्रुद्ध होना । उ०—परि लर थरै उट्ठै एक । तम्मी उकसि झारै नेक (तेक) ।—पृ० रा०, ९ ।१९४ ।
⋙ तय (१)
वि० [अ०] १. पूरा किया हुआ । निबटाया हुआ । समाप्त । जैसे, रास्ता तय करना । काम तय करना । २. निश्चित । स्थिर । ठहराया हुआ । मुकर्रर । जैसे,—सोमजार को चलना तय हुआ है । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—तय पाना = निश्चित होना । ठहराना ।
⋙ तय पु (२)
अव्य० [हिं० तहँ] तहाँ । वहाँ । उ०—बुल्लाय दास सुंदर षित्रिय । पठ्यौ प्रत्ति चहुआन तय ।—पृ० रा०, ९९ ।
⋙ तय (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षा । २. रक्षक [को०] ।
⋙ तथना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० तपन] १. बहुत परम होना । तपना । उ०—निसि बासर तया तिहूँ ताय —तुलसी (शब्द०) । २. संतप्त होना । दुखी होना । पीड़ित होना । विशेष—दे० 'तपना' ।
⋙ तयना पु † (२)
क्रि० स० [हिं०]दे० 'तपाना' ।
⋙ तयनात †
वि० [हिं०] दे० 'तँबात' ।
⋙ तया †
संज्ञा पुं० [हिं०] 'तवा' ।
⋙ तयार पु
वि० [हिं०] दे० 'तैयार' ।
⋙ तयारी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तैयारी' ।
⋙ तय्यार
वि० [हिं०] दे० 'तैयार' । उ०—कौआ ऐसा लजौज तैयार हुआ । —प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८४ ।