विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/मू
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ मूँ † (१)
संज्ञा पुं० [सं० मुख, प्रा० मुँह] दे० 'मुँह'। उ०—वो शा/?/के मूँते सुने यो वैन। नसीहत पर उसका गजब में हो ऐन।— दक्खिनी०, पृ० १०।
⋙ मूँ पु † (२)
सर्व० [हिं० मुझ का संबंध कारक का रूप] मेरा। मेरी/?/उ०—करहा देश सुहामणउ, जे मूँ सासरिवाड़ि। आँव सरीख/?/आँव गिणि, जालि करीराँ झाड़ि।—ढोला०, दू० ४३२।
⋙ मूँग
संज्ञा स्त्री० पुं० [सं० मुदग] एक अन्न जिसकी दाल बनती है विशेष—मूँग भादों में प्रायः साँवाँ आदि और अन्नों के साथ बोई जाती है और अगहन में कटती है। इसके पौधे को टहनियाँ लता के रूप में इधर उधर फैली होती हैं। एक एक सींके में सेम को तरह तीन तीन पत्तियाँ होती हैं। फूल नी/?/या बैंगनी होते हैं। फलियाँ ढाई तीन अँगुल को पतली पतली होता हैं और गुच्छा में लगती हैं। फलियों/?/भीतर ५-६ लंबे गोल दाने होते हैं, जिसके मुह पर की बिं/?/उर्द की तरह स्पष्ट नहीं होती। मूँग के लिये बलुई मिट्टी और थोड़ी वर्षा चाहिए। मूँग कई प्रकार की होती है—हरी, काली या पीली। हरी या पीली मूँग अच्छी समझी जाती है और 'सो/?/मूँग' कहलाती है। वैद्यक में मूँग रुखी, लघु, धारक, कफघ्न, पित्तनाशक, कुछ वायुवर्धक, नेत्रो के लिये हितकर और ज्वरनाशक कही गई है। बनमूँग के भी प्रायः यही गुण हैं। मूँग की दा/?/बहुत हलकी और पथ्य समझा जाती है; इसी से रोगियों को प्रायः दी जाती है। इससे बड़ी, पापड़, लड्डू आदि भी बनते हैं पर्या०—सूपश्रेष्ठ। वर्णर्ह। रसोत्तम। भुक्तिप्रद। हयानंद। सुफल। वजिभभाजन। मुहा०—छाती पर मूग दलना = दे० 'छाती' का मुहा०। मूँग/?/दाल खानेवाला = पुरुषार्थहीन। निवल। डरपोक।
⋙ मूँगफली
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूँग + फली या सं० भूमि + हिं० फली] १. एक प्रकार का क्षुप्र जिसकी खेती फलों के लिये प्रायः सारे भारत में की जाती है। विशेष—यह क्षुप तीन चार फुट तक ऊँचा होकर पृथ्वी पर चारों और फैल जाता है। इसके डंठल रोएँदार होते हैं और सींकों पर दो दो जोड़े पत्ते होते हैं जो आकर में चकवँड़/?/पत्तों के समान अंडाकार, पर कुछ लंबाई लिए होते हैं। सूर्यास्त होने पर इसके पत्तों के जोड़े आपस में मिल जाते हैं और सूर्योदय होने पर फिर अलग हो जाते हैं। इसमें अरहर/?/फूलों के से चमकीले पीले रंग के २-३ फूल एक साथ और एक जगह लगते हैं। इसकी जड़ में मिटटी के अंदर फल लगते है जिनके ऊपर कड़ा और खुरदुरा छिलका होता है तथा अं/?/गोल, कुछ लंबोतरा और पतले लाल छिलकेवाला फल हो/?/है, जो रूप, रँग तथा स्वाद आदि में बादाम से बहुत कुछ मिलता जुलता होता है। इसी कारण इसे 'चिनिया बादाम' भी कहते है। फागुन के आरंभ में ही जमीन को अच्छी तरह जोतकर दो दो फुट की दूरी पर छह छह इंच के गड्ढे बनाकर इसके बीज वो देते है; और यदि एक सप्ताह में बीज अंकुरित नहीं होता, तो कुछ सिंचाई करते हैं। आश्विन कार्तिक में पीले रंग के फूल लगते हैं जो मटर के फूलों के समान होते हैं। इसके डंठलों की गाँठों में से जो सोरें निकलती हैं, वही जमीन के अंदर जाकर फल बन जाती हैं। इस फल के पक जाने पर मिट्टी खोदकर उन्हें निकाल लेते हैं। और धूप में सुखाकर काम में लाते हैं। ये फल या तो साधाणतः यों ही अथवा ऊपरी छिलकों समेत भाड़ में भूनकर खाए जाते हैं। इनसे तेल भी निकाला जाता है जो खाने तथा दूसरे अनेक कामों में आता है। यह तेल जैतून के तेल की तेल की तरह का होता है और प्रायः उसके स्थान में काम आता है। वैद्यक में इसका फल मधुर, स्निग्ध, वात तथा कफकारक और कोष्ठ का बद्ध करनेवाला माना जाता है; और किसी के मत से गरम है और मस्तक तथा वीर्य में गरमी उत्पन्न करनेवाला है। २. इस क्षुप का फल। चिनिया बादाम। विलायती मूँग। पर्या०—भूचणक। भूशिबिका।
⋙ मूँगरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की तोप। उ०—चली मूँगरी उच्च ह्वै आसमानै।—हिम्मत०, पृ० ६।
⋙ मूँगा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मूँग] १. समुद्र में रहनेवाले एक प्रकार के कृमियों के समूहपिंड की लाल ठठरी जिसकी गुरिया बनाकर पहनते हैं। इसकी गिनती रत्नों में की जाती है। विशेष—समुद्रतल में एक प्रकार के कृमि खोलड़ी की तरह का घर बनाकर एक दूसरे से लगे हुए जमते चले जाते हैं। ये कृमि अचर जीवों में हैं। ज्यों ज्यों इनकी वंशवृद्धि होती जाती है, त्यों त्यों इनका समूहपिंड थूहर के पेड़ के आकार में बढ़ता चला जाता है। सुमात्रा और जावा के आसपास प्रशांत महासागर में समुद्र के तल में ऐसे समूहपिंड हजारों मील तक खड़े मिलते हैं। इनकी वृद्धि बहुत जल्दी जल्दी होती है। इनके समूह एक दूसरे के ऊपर पटते चले जाते हैं जिससे समुद्र की सतह पर एक खासा टापू निकल आता है। ऐसे टापू प्रशांत महासागर में बहुत से हैं जो 'प्रवालद्वीप' कहलाते हैं। मूँगे की केवल गुरिया ही नहीं बनती; छड़ी, कुरसी आदि चीजें भी बनती हैं। आभूषण के रूप में मूँगे का व्यवहार भी मोती के समान बहुत दिनों से है। मोती और मूँगे का नाम प्रायः साथ साथ लिया जाता है। रत्नपरीक्षा की पुस्तकों में मूँगे का भी वर्णन रहता है। साधारणतः मूँगे का दाना जितना ही बड़ा होता है, उतना अधिक उसका मूल्य भी होता है। कवि लोग बहुत पुराने समय से ओठों की उपमा मूँगे से देते आए हैं। पर्या०—प्रवाल। विद्रुम।२. एक प्रकार का रेशम का कीड़ा जो आसाम में होता है।
⋙ मूँगा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का गन्ना जिसके रस का गुड़ अच्छा होता है।
⋙ मूँगिया (१)
वि० [हिं० मूँग + इया (प्रत्य०)] मूँग का सा। मूँग के रंग का। हरे रंग का। उ०—क्या न था काफी बनाने का मुझे पागल, तुम्हारे गर्म होठों पर सुलगता मूँगिया बादल।— ठंडा० पृ० २२।
⋙ मूँगिया (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का अमौआ रंग जो मूँग का सा हरा होता है। २. एक प्रकार का धारीदार चारखाना।
⋙ मूँछ
संज्ञा स्त्री० [सं० श्मश्रु, प्रा० मस्सु > मच्छु > मुच्छ > हिं० मूँछ] ऊपरी ओंठ के ऊपर के बाल जो केवल पुरुषों के उगते हैं। ये बाल पुरुषत्व का विशेष चिन्ह माने जाते हैं। विशेष—'मूँछों पर हाथ फेरना' हिंदुओं में बहुत दिनों से वीरता की अकड़ दिखाने का संकेत माना जाता है। रणक्षेत्र में वीर लोग मूँछों पर ताव देते हुए चढ़ाई करते कहे जाते हैं। किसी कठिन काम से सफलता होने पर भी लोग मूँछों पर ताव देते है। पृथ्वीराज चौहान के चाचा कण्ह या कन्ह के विषय में प्रसिद्ध है कि उनकी आँखों पर दरबार में सदा पट्टी बँधी रहती थी; क्योंकि जिस किसी का हाथ वे मूँछों पर जाते देखते थे, उसका सिर उड़ा देते थे। पृथ्वीराजरासों के एक अध्याय में कन्ह की इसी कथा का विस्तृत वर्णन है। मुहा०—मूँछ नीची करना = हेठा बनना। छोटा हो जाना। बेइज्जत हो जाना। उ०—पर जिस काम के करने से मुझको अपनी मूँछ नीची करनी पड़ेगी, उस काम को मैं जी रहते न कर सकूँगा।—ठेठ०, पृ० ११। मूँछें उखाड़ना = कठिन दंड देना। घमंड चूर करना। (गाली)। मूँछे नीची होना = (१) लज्जित होना। घमंड टूट जाना। मूँछें मूड़वाना = हार मान लेना। पुरुषत्व का दावा त्याग देना। जैसे,—यह बात सत्य हुई तो मूँछें मुड़वा दूँगा। मूँछों पर ताव देना = अभिमान से मूँछ मरोड़ना। बीरता की अकड़ दिखाना। (२) अप्रितिष्ठा होना। बेइज्जती होना। मूछों का हाथ फेरना = दे० 'मूँछो पर ताव देना'। मूँछों का कूँड़ा करना = एक मुसलमानी रस्म जो बेटे के मूँछें निकलने पर होती है।
⋙ मूँछी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] बेसन की बनी हुई एक प्रकार की कढ़ी जिसमें बेसन के सेव या पकौड़ियाँ आदि पड़ी होती हैं। सेव या पकौड़ियों की कढ़ी।
⋙ मूँज
संज्ञा स्त्री० [सं० मुञ्ज] एक प्रकार का तृण। उ०—जैसे, सोने की सिकड़ी में लोहे की घंटी और दरियाई की अँगिया में मूँज की बखिया।—भारतेंदु ग्रं० भा० १, पृ० ३७७। विशेष—इसमें डंठल या टहनियाँ नहीं होती; जड़ से बहुत ही पतली (जौ भर से कम चौड़ी) दो दो हाथ लंबी पत्तियाँ चारों और निकली रहती हैं। ये पत्तियाँ बहुत घनी निकलती हैं। जिससे पौधा बहुत सा स्थान घेरता है पत्तियों के मध्य में एक सूत्र यहाँ से वहाँ तक रहता है। पौधे के बीजोबीच से एक सीधा कांड पतली छड़ के रूप में ऊपर निकलता है जिसके सिरे पर मंजरी या धूए के रूप में फूल लगते हैं। सरकंडे से इसमें यह भेद होता है कि इसमें गाँठें नहीं होतीं और छाल वड़ी चमकीली तथा चिकनी होती है। सींक से यह छाल उतारकर बहुत सुंदर सुंदर डलियाँ बुनी जाती हैं। मूँज प्रायः ऊँचे ढालुएँ स्थानों पर बगीचे की बाढ़ीं या ऊँची मेंड़ों पर लगाई जाती है। मूँज बहुत पवित्र मानी जाती है। ब्राह्मणों के उपनयन संस्कार के समय वटु को मुंजमेखला (मूँज को करवनी) पहनाने का विधान है। पर्या०—मौंजीतृण। ब्राह्मण्य। तेजनाह्वय। वानीरक। मुंजनक। शीरी। दर्भाद्वय। दूरमूल। दृढमूल। वटुप्रज। रंजन। शत्रुभंग।
⋙ मूँजी लांछन पु †
वि० [सं० मौञ्जीलाञ्छल] मूँज की मेखला से युक्त। उ०—मूँजीलांछन कृष्नाजिन सहित मुनि यूँ राजै।— बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १५५।
⋙ मूँझा पु †
वि० [सं० मुग्ध] लीन। सराबोर। तर। उ०—गूझा रस मूँझा न्यारी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०।
⋙ मूँठी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मुट्ठी] दे० 'मुठ्ठी' 'मुष्टि'। उ०—नाहि त काह छार एक मूँठी।—जायसी ग्रं०, पृ० २३२।
⋙ मूँड़ †
संज्ञा पुं० [सं० मुण्ड] सिर। कपाल। उ०—(क) तुलसी की बाजी राखी राम ही के नाम, नत भेंट पितरन को न मूँड़ हू में बारु है।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—मूँड़ चढ़ना = ढिठाई करना। सिर चढ़ना। मूँड़ चढ़ाना = ढीठ करना। निडर कर देना। सिर चढ़ाना। मूँड़ मारना = बहुत हैरान होना। बहुत कोशिश करना। उ०—मूँड़ मारि हिय हारि कै हित हंहरि अब चरन सरन तकि आयो।—तुलसी (शब्द०)। मूँड़ मुड़ाना = (१) संन्यासी होना। (२) बाना बदलना। अन्य रूप स्वीकारना। नारि मुई गृह संपति नासी मूँड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी।—मानस, ७।१००। विशेष दे० 'सिर'।
⋙ मूँड़कटा
संज्ञा पुं० [हिं० मूँड़ + काटना] दूसरे का सिर काटनेवाला। दूसरे की हानि करनेवाला। धोखा देकर दूसरे को नुकसान पहुँचानेवाला।
⋙ मूँड़न
संज्ञा पुं० [सं० मुण्डन] मुंडन संस्कार जिसमें बालक के बाल पहले पहल मुँडा़ए जाते हैं। चूड़ा़करण संस्कार। यौ०—मूँड़न छेदन = कर्णवेध और चूड़ा़करण।
⋙ मूँड़ना
क्रि० स० [सं० मुण्डन] १. सिर के बाल बनाना। हजामत करना। २. धोखा देकर माल उड़ाना। ठगना। जैसे,—उसने १०) तुमसे मूँड़ लिए। ३. भेड़ों के शरीर पर से ऊन कतरना। ४. चेला बनाना। दीक्षित करना। जैसे, चेला मूँड़ना। उ०— जुरे सिद्ध साधक ठगिया से बड़ो जाल फैलायो। मूँड़यो जिन्हैं मिटायो तिनको जग सो नाम धरायो।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४९।
⋙ मूँड़ा़
संज्ञा पुं० [सं० मुण्ड] १. सिर। २. मूँड के आकार की वस्तु।
⋙ मूँड़ी़
संज्ञा स्त्री० [सं० मुण्डिका] १. सिर। मस्तक।मुहा०—मूँडी काटे = स्त्रियों की बोलचाल में पुरुषों के लिये स्त्रियों की एक गाली। मूँडी मरोड़ना = (१) गला दबाकर मार डालना। (२) धोखा देकर हानि पहुँचाना। २. किसी वस्तु का शिरोभाग (जो मूँड़ के आकार का हो)।
⋙ मूँड़ी़बंध
संज्ञा पुं० [हिं० मूँड़ी़ + बंध] कुश्ती का एक पेंच जिसमें एक पहलवान दूसरे की पीठ पर चढ़कर उसकी बगलों के नीचे से अपने हाथ ले जाकर उसकी गर्दन दबाता है।
⋙ मूँदना
क्रि० स० [सं० मुद्रण] १. ऊपर से कोई वस्तु डाल या फैलाकर किसी वस्तु को छिपाना। आच्छादित करना। बंद करना। ढाँकना। जैसे, आँख मूँदना। उ०—मूँदिअ आँखि कतहुँ कोउ नाहीं।—तुलसी (शब्द०)। २. छेद, द्वार, मूँह आदि पर कोई वस्तु फैला या रखकर उसे बंद करना। खुला न रखने देना। जैसे, नाक कान मूँदना, छेद मूँदना, खिड़की मूँदना, घड़े का मूँह मूँदना। ३. रोकना। अवरोध करना। घेरना। छिपा रखना। उ०—तब सत्याजी कहे, जो इनकों इक ठोरे क्यों मूँदि राखे हैं।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १२६। क्रि० प्र०—देना।—लेना।—रखना।
⋙ मूँदर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मुद्रा, मुद्रिका] मुँदरी। अँगूठी।
⋙ मूँध †
वि० [सं० मुग्ध] दे० 'मुग्ध'।
⋙ मूँधना पु
क्रि० स० [हिं०] १. मूँदना। २. मुग्ध करना। उ०— आए अलि ऊधो प्रेम पथ की करन मूँधो रूधो निज खास वास तजो री घरनि को।—दीन० ग्रं० पृ० ४७।
⋙ मूँधा †
वि० [देश० या सं० मूर्धा ? ] उलटा। औंधा। सिर के बल। उ०—बनियाँ मूँधौ ह्वै रह्यौ टूँगै फेरौ हाथ। सुंदर ऐसी भ्रम भयौ मेरे तौ नहि माथ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७७३।
⋙ मूँन †पु
वि० [सं० मौन, पु० हिं० मवन] दे० 'मौन'। उ०— अंगन अनंग तन में छिपाइ, रहै मून मनह तन ज्यौ लुपाई।—पृ० रा०, १५।३५।
⋙ मूँसना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'मूसना'। उ०—जौ लहि चोर सेंध नहि देई। राजा केर न मूँसै पेई।—जायसी ग्रं०, पृ० २६४।
⋙ मू (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] १. बाल। सिर के बाल। केश। २. रोम [को०]।
⋙ मू † (२)
संज्ञा पुं० [सं० मुख, प्रा० मुह] मुख। चेहरा। उ०—व मोटा तन व थुँदला थुँदला मू व कुच्ची आँख, व मोटे ओंठ मुछंदर की आदम आदम है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७८९।
⋙ मूआ
संज्ञा पुं० [सं० मृत, प्रा० मुअ, हिं० मरना] मृत। मरा हुआ। विशेष—इसका प्रयोग स्त्रियाँ प्रायः गाली के रूप में करती हैं।
⋙ मूक (१)
वि० [सं०] १. जिसके मुँह से अलग वर्ण न निकल सक्ते हों। गूँगा। अवाक्। उ०—मूक होइ बाचालु पंगु चढ़ै गिरिवर गहन।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—सुश्रुत ने लिखा है कि गर्भवती को जिस वस्तु के खाने की इच्छा हो, उसके न मिलने से वायु कुपित होता है और गर्भस्थ शिशु कुबड़ा, गूँगा इत्यादि होता है। २. दीन। विवश। लाचार।
⋙ मूक (२)
संज्ञा पुं० १. दैत्य। दानव। २. तक्षक के एक पुत्र का नाम। ३. गूँगा व्यक्ति (को०)। ४. मत्स्य। मछली (को०)।
⋙ मूकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गूँगापन।
⋙ मूकना पु
क्रि० स० [सं० मुक] १. दूर करना। अलग करना। छोड़ना। त्यागना। उ०—(क) पाल्यो तेरे टूक परेहू चूक मूकिए न कूर कौड़ी दू को हौं आपनी ओर हेरिए।—तुलसी (शब्द०)। (ख) अब जोर जरा जरि गात गयो मन मानि गलानि कुवानि न मूकि।—तुलसी (शब्द०)। २. वंधन खोलना। बंधन हटाना। ३. वंधन खोलकर मुक्त करना। बंधन से छुड़ाना।
⋙ मूकबधिर
वि० [सं०] जो गूँगा और बहरा हो।
⋙ मूकभाव
संज्ञा पुं० [सं०] मौनता। गूँगापन [को०]।
⋙ मूकांडज
वि० [सं० मूकाण्डज] (वन, उपवन आदि) जहाँ की रहनेवाली चिड़ियाँ शांत रहती हों [को०]।
⋙ मूकांबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मूकाम्बिका] १. दुर्गा का एक नाम। २. एक प्राचीन नगरी का नाम।
⋙ मूका † (१)
संज्ञा पुं० [सं० मूका = मूषा (= गवाक्ष)] १. किसी दीवार के आर पार बना हुआ छेद। २. छोटा गोल झरोखा। मोखा। उ०—मूका मेलि गहे जुछिन हाथ न छोड़े हाथ।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ मूका (२)
संज्ञा पुं० [हिं० मुक्का] बँधी हुई मुट्ठी का प्रहार। घूँसा।
⋙ मूकित
वि० [सं०] १. शांत। मौन। २. गूँगा [को०]।
⋙ मूकिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूकता। गूँगापन।
⋙ मूखना पु
क्रि० स० [सं० मूषण, मुपण] दे० 'मूसना'।
⋙ मूचना पु
क्रि० स० [सं० मुञ्चन] दे० 'मोचना'।
⋙ मूछ्र
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'देखो 'मूँछ'।
⋙ मूजिद
वि० [अ०] ईजाद करनेवाला। आविष्कारक [को०]।
⋙ मूजिब
संज्ञा पुं० [अ०] १. कारण। हेतु। २. द्वारा। जरिया। उ०—ब्याह आपकी नामवरी के मूजिव करना पड़ेगा।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २३८।
⋙ मूजी
संज्ञा पुं० [अ० मूजी़] कष्ट पहुँचानेवाला। दुष्ट। दुर्जन। खल। उ०—अगर जर्रे को जर कर तू, बड़े मूजी को सर कर तू।—बेला, पृ० ६५।
⋙ मूझ पु †
सर्व० [सं० मह्यम् प्रा० मुज्झ, हिं० मुझ] दे० 'मुझ'। उ०—आवौ मूझ हजूर, सूर साखेत सज्या सा।—रा० रू०, पृ० २४।
⋙ मूझना पु †
क्रि० अ० [सं० मुह्य, प्रा० मुझझ] मुग्ध होना। मुरझाना। मोह से युक्त होना। व्यग्र होना। उ०—लाज ते सखि कौं नाहिन वूझै। चिंता करि मनही मन मूझै।—नंद० ग्रं०, पृ० १५३।
⋙ मूठ
संज्ञा स्त्री० [सं० मुष्टि, प्रा० मुट्ठि] १. उँगलियों को मोड़कर बाँधी हुई हथेली। मुष्टि। मुट्टी। उ०—जिहि पालन के हित धान समा नित मूठहि मूठ खवावत ही।—शकुंतला पृ० ७५। वि० दे० 'मुट्ठी'।मुहा०—मूठ काना = तीतर, बटेर आदि को मुट्ठी में पकड़कर उनके शरीर में गरमी पहुँचाना जिससे उनमें वल का आना मान जाता है। मूठ मारना = (१) कबूतर को मुट्ठी में पकड़ना। (२) हस्तक्रिया करना। २. किसी औजार या हथियार का वह भाग जो व्यवहार करते समय हाथ में रहता हैं। मुठिया। दस्ता। कव्जा। जैसे, तलवार की मूठ, छाते की मूठ, कमान की मूठ। उ०— टूटि टाटि गोसा गए, फूटि फाटि मूठ गई, जेवरि न राखो जोर जानत है।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। ३. उतनी वस्तु जितनी मुट्ठी में आ सके। ४. एक प्रकार का जूआ जिसमें मुट्ठी में कौड़ियाँ बंद करके बुझाते हैं। ५. मंत्र का प्रयोग। जादू। टोना। मुहा०—मूठ चलाना या मारना = जादू करना। टोना मारना। तंत्र मंत्र का प्रयोग करना। उ०—(क) काहू देवननि मिलि मोटी मूठ मार दी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पीठि दिए ही नेकु मुरि कर घूँघट पट टारि। भरि गुलाल की मूठि सों गई मूठि सी मारि।—बिहारी (शब्द०)। (ग) कोउ पै कोउ मारै मूठ यथा।—गोपाल (शब्द०)। (घ) अविर उड़ावैं मूठि मूठि सो चलावै, सखी देखिए लुनाई नटनागर गोपाल की।— दीनदयाल (शब्द०)। मूठ लगाना = जादू का असर होना। टोना लगना। मंत्र तंत्र का प्रभाव पड़ना। उ०—डीठि सी डीठि लगी उनको इनको लगी मूठि सी मूठि गुलाल की।— पद्माकार (शब्द०)।
⋙ मूठना पु
क्रि० अ० [सं० मुष्ट प्रा० मुठ्ठ] नष्ट होना। मर मिटना। न रह जाना। उ०—दुई तुरंग दुइ नाव पाँव धरि ते कहि कवन न मूठे।—सूर (शब्द०)।
⋙ मूठा
संज्ञा पुं० [हिं० मूठ] घास फूस को रस्सी से बाँधकर बनाए हुए लट्ठे के आकार के लंबे लंबे पूले जो खपरैल की छाजन में लगाए जाते हैं। मुट्ठा।
⋙ मूठाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूठ + आली (प्रत्य०)] तलवार। (डिं०)।
⋙ मूठि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मुष्टि, प्रा० मुट्ठि] १. दे० 'मूठ'। मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरी सान बनाई।—तुलसी (शब्द०)। २. मंत्र। तंत्र। जादू टोना। उ०—केचित् मूठि चलावैं काहू। नारसिंह भैरव तुम जाहू।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ९३। ३. दे० 'मुट्ठी'।
⋙ मूठी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मुष्टि, प्रा० मुठ्ठि] दे० 'मुट्ठी'। उ०—और पहिरें नग जरी अँगूठी। जग विनु जीव जीव ओहि मूठी।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९४। मुहा०—मूठी खुलना = दान करना। देना। हाथ खोलकर देना। उ०—हैं तरसते एक मूठी अन्न को। आपकी मूठी नहीं अब भी खुली।—चुभते०, पृ० ४। मूठी में करना या लेना = वश में करना। अपने अधिकार में करना। अधीन करना। उ०— हम तुम्हें तो ले न मूठी में सके। मूठियों में अव हमें कर लो तुम्हीं।—चोखे०, पृ० ६०। मूठी में रहना = वश में रहना। उ०—दिन बिताएँ चाव मूठी भर चना। पर किसी की भी न मूठी में रहें।—चुभते०, पृ० १९।
⋙ मूड़
संज्ञा पुं० [सं० मुण्ड] दे० 'मूँड़'। उ०—आपन करे हाम मुड़ मुड़यर्लु कामुक प्रेम बढ़ाइ।—विद्यापति, पृ० ५८४। मुहा०—मूड़ हिलाना=भूत या आसेब आने पर सर हिलाने की क्रिया। अभूआना। हवुआना। उ०—जंतर टोना मूँड़ हिलावन ताकूँ साँच न मानो।—वरण० वानी पृ० १११।
⋙ मूड़ना
क्रि० सं० [सं० मुण्डन] दे० 'मूँड़ना'।
⋙ मूढ़ (१)
वि० [सं० मूढ] १. अज्ञान। मूर्ख। जड़बुद्धि। बेवकुफ। अहमक। २. ठक। स्तव्ध। निश्चेष्ट। ३. जिसे आगा पोछा न सूझता हो। ठगमारा।
⋙ मूढ़ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] योग में चित्त की पाँच वृत्तियों या अवस्थाओं में से एक, जिसमें चित्त तमोगुण के कारण तंद्रायुक्त या स्तव्ध रहता है। कहा गया है कि यह अवस्था योग के लिये अनुकूल या उपयुक्त नहीं होती। विशेष दे० 'चित्तभूमि'।
⋙ मूढ़गर्भ
संज्ञा पुं० [सं० मूढ़गर्भ] गर्भ का विगड़ना जिससे गर्भस्राव आदि होता है। विगड़ा हुआ गर्भ। विशेष—सुश्रुत में लिखा है कि रास्ता चलने, सवारी पर चढ़ने, गिरने पड़ने, चोट लगने, उलटा लेटने, मल मूत्र का वंश रोकने, रूखा, कड़ूवा या तीखा भोजन करने, वमन, विरेचन, हिलने- डोलने आदि से गर्भबंधन ढीला हो जाता है और उसको स्थिति बिगड़ जाती है। इससे पेट, पार्श्व, वस्ति आदि में पीड़ा होती है तथा और भी अनेक उपद्रव होते हैं। मूढ़गर्भ चार प्रकार का होता है—कोल, प्रतिखुर, वीजक और परिघ। यदि गर्भ कील को तरह आकर योनि मुख बंद कर दे, तो उसे 'कील' कहते हैं। यदि एक हाथ, एक पैर और माथा बाहर निकले और बाकी देह रुकी रहे, तो उसे 'प्रतिखुर' कहते हैं। यदि एक हाथ और माथा निकले, तो 'बीजक' कहलाता है; और यदि भ्रूण डंडे की तरह आकर अड़े; तो वह गर्भ 'परिघ' कहलाता है। इसमें प्रायः शल्याचिकित्सा की जाती है।
⋙ मूढ़ग्राह
संज्ञा पुं० [सं० मूढग्राह] खव्त। गलन धारणा [को०]।
⋙ मूढग्राहा
वि० [सं० मूढग्राहिन्] गलन अर्थ समझकर उसी पर दृढ़ रहनेवाला। दुराग्रही [को०]।
⋙ मूढ़चेता
वि० [सं० मूढचेतस्] जिसकी बुद्धि या मति मूढ़ हो। अज्ञ [को०]।
⋙ मूढ़ता
संज्ञा स्त्री० [सं० मूढता] १. मूर्खता। अज्ञता। वेवकूफी। उ०—ऐसी मूढ़ता या मन की। परिहरि रामभक्ति सुरसरिता आस करत ओस कन की।—तुलसी (शब्द०)। दे० 'मूढ़त्व'।
⋙ मूढ़त्व
संज्ञा पुं० [सं० मूढ़त्व] १. उलझन। घबराहट। असमंजस। २. अज्ञानता। मूढ़ता। बेवकूफी। ३. मूढ़वात। शरीरस्थ वायु। ४. बतौरी। गिल्टी [को०]।
⋙ मूढ़प्रभु
संज्ञा पुं० [सं० मूढप्रभु] महामूढ़। मूर्खराज [को०]।
⋙ मूढ़वात
संज्ञा पुं० [सं० मूढवात] किसी कोश रुकी वा बँधी हुई वायु।
⋙ मूढ़वाताहत
वि० [सं० मूढबाताहत] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार तूफान में पड़ा हुआ (जहाज या नाव)।
⋙ मूढ़सत्व
वि० [सं० मूढ़सत्व] उन्मत्त [को०]।
⋙ मूढ़ा ‡
संज्ञा पुं० [सं० मूर्द्धा, प्रा० मूड्ढा] एक प्रकार का ऊँचा आसन। मोढ़ा। उ०—मूढ़ा गादी सामंतन को दोने।—पृ० रा०, ५७।१७०।
⋙ मूढ़ात्मा
वि० [सं० मूढात्मन्] निर्बोध। मूर्ख। अहमक।
⋙ मूढ़ी ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] लाई। चावल की फरवी। उ०—मलेटरीवाले जमीन पर कंवल बिछाकर बैठे हैं। मूढ़ी फाँक रहे हैं।—मैला०, पृ० २।
⋙ मूत (१)
वि० [सं०] निवद्ध। बाँधा हुआ। संयत।
⋙ मूत (२)
संज्ञा पुं० [सं० मूत्र] १. वह जल जो शरीर के विषैले पदार्थों को लेकर प्राणियों के उपस्य मार्ग से निकलता है। पेशाव। विशेष—दे० 'मूत्र'। मुहा०—मूत्र निकल पड़ना=डर के मारे वुरी दशा हो जाना। जैसे,—उसे देखेगें तो मूत्र निकल पड़ेगा। मूत से निकलकर गू में पड़ना=और भा बुरी दशा में जा पड़ना। २. पुत्र। संतान। (तिरस्कार)।
⋙ मूतना
क्रि० अ० [हिं० मूत+ना (प्रत्य०)] शरीर के गंदे जल को उपस्थ मार्ग से निकालना। पेशाब करना। उ०—तिन की आजु समाधि पर, मूतत स्वान सियार।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ३४०। संयो० क्रि०—देना।—लेना। मुहा०—मूत मारना=डर से मूत देना। मूत देना=डर से घबरा जाना।
⋙ मूतरी
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का जंगली काँवा। महताब। महालत।
⋙ मूतिव
संज्ञा पुं० [?] आर्यों से इतर एक जाति विशेष जिसका प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख है। उ०—पुंड्र, मूतिव, पुलिंद, और शाबर भी अनाय थे।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ७६।
⋙ मूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर के विपैल पदार्थ को लेकर प्राणियों के उपस्थ मार्ग से निकलनेवाला जल। पेशाब। मूत। विशेष—मूत्र के द्वारा शरीर के अनावश्यक और हानिकारक क्षार, अम्ल या और विपैली वस्तुएँ निकलती रहती हैं, इससे मूत्र का वेग रोकना बहुत हानिकारक होता है। कई प्रकार के प्रमेहों में मूत्र के मार्ग से विपैली वस्तुओं के अतिरिक्त शर्करा तथा शरीर की कुछ धातुएँ भी गल गलकर गिरने लगाती हैं। अतः मूत्रपरीक्षा चिकित्साशास्त्र का एक प्रधान अंग पहले भी था और अब भी हे। भारतवर्ष में गोमूत्र पवित्र माना गया है और पंचगव्य के अतिरिक्त धातुओं और ओपधिओं के शोधने में भी उसका व्यवहार होता है। वैद्यक में गोमूत्र, महिषमूत्र, छागमूत्र मेषमूत्र, अश्वमूत्र आदि सवके गुणों का विवेचन किया गया है और विविध रोगों में उनका प्रयोग भी कहा गया है। स्वमूत्र द्वारा चिकिस्ता का भी अनेक रोगों में विधान है। मूत्रदोष से अश्मरी, मूत्रकृच्छ आदि अनेक रोग हो जाते हैं।
⋙ मूत्रकृच्छ्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें पेशाव बहुत कष्ट से या रुक रुककर थोड़ा थोड़ा होता है। विशेष—आयुर्वेद के अनुसार यह रोग अधिक व्यायाम करने, तीव्र औषध सेवन करने, बहुत तेज घोड़े पर चढ़ने, बहुत रूखा अन्न खाने, अधिक मद्य सेवन करने तथा अजीर्ण रहने से होता है। मूत्रकृच्छ आठ प्रकार का कहा गया है—वातज, पित्तज, कफज, सान्निपातिक, शल्यज, पुरीषज, शुक्रज और अश्मरीज। 'वातज' में शिश्न और वस्ति में बहुत पीडा़ होती है और मूत्र थोड़ा थोड़ा आता है। 'पित्तज' में पीला या लाल पेशाव पीड़ा और जलन के साथ उतरता है। 'कफज' में वस्ति और शिश्न में सूजन होती है और पेशाव कुछ झाग लिए होता है। 'सान्निपातिक' में वायु के सब उपद्रव दिखाई देते हैं और थह बहुत कष्टसाध्य होता है। 'शल्यज' मूत्र की नली में काँटे आदि के द्वारा घाव हो जाने से होता है और इसमें वातज के से लक्षण देखे जाते हैं। 'पुरीषज' में मलरोघ होता है और वात की पीड़ा के साथ पेशाब भी रुक रुककर आता है। 'शुक्रज' शुक्रदोष से होता है और इसके पेशाब में वीर्य मिला आता है और पीड़ा भी बहुत होती है। 'अश्मरीज' अश्मरी या पथरी होने से होता है और इसमें मूत्र बहुत कष्ट से उतरता है। सुश्रुत के मत से शर्कराजन्य मूत्रकृच्छ भी कई प्रकार का होता है। शर्करा भी एक प्रकार की अश्मरी ही है।
⋙ मूत्रकोश
संज्ञा पुं० [सं०] अंडकोश।
⋙ मूत्रक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्राघात रोग का एक भेद। उ०—बस्ति में रहे जो पित्त और वायु वे मूत्र को क्षय करें, और पीड़ा तथा दाह होता है उसकी मूत्रक्षय कहते हैं।—माधव०, पृ० १७६।
⋙ मूत्रग्रंथि
संज्ञा पुं० [सं० मूत्रग्रन्थि] मूत्राघात का एक भेद। उ०—उसमें पथरी के समान पीड़ा हो इस रोग को मूत्रग्रंथि कहते हैं।—माधव०, पृ० १७६।
⋙ मूत्रग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों का मूत्रसंग रोग जिसमें झाग लिए थोड़ा पेशाब आता है।
⋙ मूत्रजठर
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्राघात से उत्पन्न एक दोष। उ०— अधोवस्ति का रोष करनेवाले इस रोग मूत्रजठर कहते हैं।—माधव०, पृ० १७५।
⋙ मूत्रदशक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी, मेढ़ा, ऊँट, गाय, बकरा, घोडा़, भैंसा, गदहा, मनुष्य और स्त्री इन देश के मूत्रों का समूह।
⋙ मूत्रदोष
संज्ञा पुं० [सं०] पेशाब का रोग। प्रमेह [को०]।
⋙ मूत्रनिरोध
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मूत्ररोध'।
⋙ मूत्रपतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूत्र गिरना। २. गंधमार्जार। गंध- बिलाव।
⋙ मूत्रपथ
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रनली [को०]।
⋙ मूत्रपरीक्षा
संज्ञा स्त्र० [सं०] मूत्र की जाँच। परीक्षण द्वारा मूत्र क दोषों को जानना।
⋙ मूत्रपुट
संज्ञा पुं० [सं०] नाभि से नीचे का हिस्सा। आमाशय [को०]।
⋙ मूत्रप्रसेक
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रनली।
⋙ मूत्रफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] ककड़ी।
⋙ मूत्ररोध
संज्ञा पुं० [सं०] एकबारगी पेशाब रुक जाने का रोग।
⋙ भूवला (१)
वि० [सं०] [वि० पुं० मूत्रल] पेशाव करानेवाली (ओषधि)।
⋙ मूत्रला (२)
संज्ञा स्त्री० ककड़ी।
⋙ मूत्रवर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] अंडशोथ।
⋙ मूत्रवर्धक
वि० [सं०] दे० 'मूत्रल'।
⋙ मूत्रविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रपरीक्षा पर आयुर्वेद का एक ग्रंथ। विशेष—आयुर्वेद का यह ग्रंथ जानुकर्ण ऋषि का बनाया हुआ कहा जाता है। इसमें मुत्रपरीक्षा करने की अनेक प्रमालियों का सविस्तर वर्णन है। चरक सुश्रुत आदि में इस विषय का विशेष विवेचन नहीं है; इससे नहीं कहा जा सकता कि यह ग्रंथ कहाँ तक प्राचीन है।
⋙ मूत्रवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधिक मूत्र उत्पन्न होना [को०]।
⋙ मूत्रशुक्र
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्र के साथ शुक्र निकलना [को०]।
⋙ मूत्रशूल
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रमार्ग में होनेवाला दर्द [को०]।
⋙ मूत्रसंग
संज्ञा पुं० [सं० मूत्रसङ्ग] एक प्रकार का मूत्ररोग जिसमें पेशाब थोड़ा थोड़ा और रक्त के साथ होता है। पेशाव निकलते समय इसमें दर्द भी होता है [को०]।
⋙ मूत्रसाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मूत्ररोग जिसमें कि चूर्ण के समान या कई रंगों का पेशाब हो। उ०—जब वह मूत्र००० शंख का चूर्ण ऐसा वर्ण होय अथवा सर्व वर्ण का होय, इस रोग को मूत्रसाद कहते हैं।—अथवा०, पृ० १७७।
⋙ मूत्राघात
संज्ञा पुं० [सं०] पेशाब बंद होने का रोग। मूत्र का रुक जाना। विशेष—वैद्यक में यह रोग बारह प्रकार का कहा गया है— (१) वातकुंडली, जिसमें वायु कुपित होकर वस्तिदेश में कुंडली के आकार में टिक जाती है, जिससे पेशाब बंद हो जाता है। (२)वातष्ठीला जिसमें वायु मूत्र द्वारा या वस्ति देश में गाँठ या गोले के आकार में होकर पेशाब रोकती है। (३) वातवस्ति, जिसमें मूत्र के वेग के साथ ही वस्ति की वायु वस्ति का मुख रोक देती है। (४) मूत्रातीत, जिसमें बार बार पेशाव लगता और थोड़ा थोड़ा होता है। (५) मूत्रजठर, जिसमें मूत्र का प्रवाह रुकने से अधोवायु कुपित होकर नाभि के नीचे पीड़ा उत्पन्न करती है। (६) मूत्रोत्संग, जिसमें उतरा हुआ पेशाव वायु की अधिकता से मूत्र नली या वस्ति में एक बार रुक जाता है और फिर बड़े वेग के साथ कभी कभी रक्त लिए हुए निकलता है। (७) मूत्रक्षय, जिसमें खुश्की के कारण वायु पित्त के योग से दाह होता है और मूत्र सूख जाता है। (८) मूत्रग्रंथि, जिसमें वस्तिमुख के भीतर पथरी की तरह गाँठ सी हो जाती है और पेशाव करने में बहुत कष्ट होता है। (९) मूत्रशुक्र, जिसमें मूत्र के साथ अथवा आगे पीछे शुक्र भी निकलता है। (१०) उष्णवात, जिसमें व्यायाम या अधिक परिश्रम करने, और गरमी या धूप सहने से पित्त कुपित होकर वस्तिदेश में वायु से आवृत हो जाता है। इसमें दाह होना है और मूत्र हलदी की तरह पीला और कभी कभी रक्त मिला आता है। इसे 'कड़क' कहते है। (११) पित्तज मूत्रौकसाद, जिसमें पेशाव कुछ जलन के साथ गाढ़ा गाढ़ा होकर निकलता है और सूखने पर गोरोचन के चूर्ण की तरह हो जाता है; और (१२) कफज मूत्रौकसाद, जिसमें सफेद और लुआवदार पेशाब कष्ट से निकलता है।
⋙ मूत्रातीत
संज्ञा पुं० [सं०] मधुमेह। प्रमेह [को०]।
⋙ मूत्राशय
संज्ञा पुं० [सं०] नाभि के नीचे का वह स्थान जिसमें मूत्र संचित रहता है। मसाना। फुकना।
⋙ मूत्रासाद
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रौकसाद नामक मूत्राघात रोग।
⋙ मूत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सल्लकी वृक्ष। सलई का पेड़।
⋙ मूत्रोत्संग
संज्ञा पुं० [सं० मूत्रोत्सङ्ग] दे० 'मूत्रसंग'। उ०—विगुण वायु से उत्पन्न हुई इस व्याधि को मूत्रोत्संग कहते है।—माधव०, पृ० १७६।
⋙ मूत्रित
वि० [सं०] १. मूत्रसंपर्क के कारण अशुचि या गंदा। २. मूत्र के रूप में निकला हुआ [को०]।
⋙ मूदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मुद्रिका] दे० 'मुंदरी'। उ०—यह तोपै कैसी बनी अरी सूंदरी हाय। उन कोमल अँगरीन तजि पैठी जल में जाय।—ज्ञकुतला, पृ० ११६।
⋙ मूना (१)
संज्ञा पुं० [दंश०] १. पीतल वा लोहे की अँकुसी जो टेकुए के सिर पर जड़ी रहती है और जिसमें रस्सी या डोरा फँसा रहता है। २. एक झाड़ी जिसके फल बेर के समान सुंदर होते है।
⋙ मूना † (२)
क्रि० अ० [सं० मृत, प्रा० मुअ+हिं० ना (प्रत्य०)] मरना। दे० 'मुवना'।
⋙ मुनिस
संज्ञा पुं० [अ०] मित्र। सहायक। मददगार। उ०—मुझको मारा ये मेरे हाल तगैयुर न कि है। कुछ गुमाँ और ही धड़के से दिल मूनिस के।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ८५।
⋙ मूनी पु
संज्ञा पुं० [सं० मौनी] चुप। मौन। उ०—खरो में जू खूनी। रहे क्यों न मूनी।—ह० रासो, पृ० १३६।
⋙ मूबाफ
संज्ञा पुं० [फा़० मूबाफ़] चोटी गूँथने बाँधने का डोरा या फीता। उ०—झूठे पट्टे की है मुबाफ पड़ी चोटी में। देखते ही जिसे आखों में तरा आती है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७९०।
⋙ मूर पु
संज्ञा पुं० [सं० मूल] १. मूल। जड़। २. जड़ी। ३. मूलधन। असल। उ०—(क) दरस सूर देती नहीं जौ लौं मीत चुकाय। बिरह व्याज वाको अरे नितहू बाढ़त जाय।— रसनिधि (शब्द०)। (ख) कोई चले लाभ सों कोई सूर गँवाय।—जायसी (शब्द०)। (ग) चल्यौ बनिक जिमि सूर गँवाई।—तुलसी (शब्द०)। ४. मूल नामक नक्षत्र। उ०—काहे चंद घटत है काहे सूरज पूर। काहे होई अमावस काहे लागे सूर।—जायसी (शब्द०)। ४. अफ्रिका में रहनेवाली एक जाति।
⋙ मूरख पु ‡
वि० [सं० मूर्ख] दे० 'मूर्ख'। उ०—इतनी जउ जानत मन मूरख मानत या हीं धाम।—सूर०, १।७६।
⋙ मूरखताई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्खता, हिं० मूर्खता+ई (प्रत्य०)] मूर्खता। अज्ञता। नासमझी। नादानी। उ०—(क) यौं० पछितात कछू पदमाकर कासों कहौ निज मूरखताई।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) त्यौं वे सत्र वेदना खेद पीड़ा दुखदाई। जिन बखसीसति सदा घमंडहिं मूरखताई।—श्रीधर पाठक (शब्द०)।
⋙ मूरचा
संज्ञा पुं० [हिं० मोरचा] दे० 'मोरचा'।
⋙ मूरछना पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्च्छना] दे० 'मूर्च्छना'। उ०— (क) पंचम नाद निखादहि में सूर, मूरछना गन ग्राम सूभावनि।—देव (शब्द०)। (ख) मूरछना उघटै उत वे इत मो हिय मूर्छना सरसाना।—गुमान (शब्द०)।
⋙ मूरछना (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'मुर्छा'।
⋙ मूरछना (३)
क्रि० अ० मूर्छित होना। बेहौश होना।
⋙ मूरछा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्च्छा] दे० 'मूर्छा'। उ०—दिन दिन तनु तनुता गर्हा लहौ मूरछा तापु। पिक द्विज ये बोलत न जनु बुरहिनि देत सरापु।—गुमान (शब्द०)।
⋙ मूरत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्ति] दे० 'मूर्ति'। उ०—निसि दिन ध्यावत वा मूरत को आनँदघन सो मीत।—घनानंद, पृ० ५८३।
⋙ मूरति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्ति] दे० 'मूर्ति'। उ०—बार बार मूदु मूरति जाही। लागाह ताति बयारि न मोही।— मानस, २।६७।
⋙ मूरतिवंत पु
वि० [सं० मूर्ति+वत् (प्रत्य०)] मूर्तिमान्। देहधारी। सशरीर। उ०—रिषिन गोरि देखि तहँ केसी। मूरतिवंत तपस्या जैसी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मूरध पु
संज्ञा पुं० [सं० मूर्द्धा] दे० 'मूर्द्धा'। उ०—(क) कीन्हे बाहु ऊरध को सूरध के खोल केश, लेश ना दया का ताको कोपांह को भारा है।—रघुराज (शब्द०)। (ख) मूरध ऊरधपुंड्र दिए अघ झुंड छीनकर।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ मूरधा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्द्धा] दे० 'मूर्द्धा'।
⋙ मूरा †
संज्ञा पुं० [सं० मूलिका] मूली।
⋙ मूरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मूल] १. मूल। जड़। २. जड़ी। बूटी। वनस्पति। जैसे, जीवनमूरि। उ०—सूरदास प्रभु बिन क्यौं जीवों जात सजीवन मूरि।—सूर (शब्द०)।
⋙ मूरिस
वि० [अ०] १. पूर्वज। वारिस करनेवाला। २. वंशप्रवर्तक। ३. पैदा करनेवाला। उत्पन्न करनेवाला।
⋙ मूरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० मूल, हिं० सूर+ई (प्रत्य०)] दे० 'मूलो'।
⋙ मूरुख, मूरुष पु
वि० [सं० मूर्ख, हिं० मूरख] दे० 'मूर्ख'। उ०— (क) ता सन आइ कीन छल मूरुख अवगुन गेह।—मानस, ३।१। (ख) दीठिवंत कहं नायरे, अध मूरुखहिं दूरि।—जायसी ग्रं०, पृ० ३। (ग) आपुहिं मूरुप आपुहिं ज्ञानी, सब महँ रह्यो समोई।—जग० श०, भा० २, पृ० ९५।
⋙ मूर्ख (१)
वि० [सं०] बेवकूफ। अन। मूढ़। नादान। नासमझ। लैठ। अपढ़। जाहिल। यौ०—मूर्खपंडित=पठित मूर्ख। पढ़ा लिखा मूर्ख। मूर्खभ्रातृक= जिसका भाई मूर्ख हो। मूर्खमंडल=मूर्खों की टोली या दल मूर्खशत=सैकड़ा मूर्ख।
⋙ मूर्ख (२)
संज्ञा पुं० १. उर्द। २. वनमूँग। ३. वह जो अपढ़ और जाहिल हो।
⋙ मूर्खता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अज्ञता। मूढ़ता। नासमझी। बेवकूफी। अज्ञानता।
⋙ मूर्खत्व
संज्ञा पुं० [सं०] नादनी। नासमझी। बेवकूफी। अज्ञता।
⋙ मूर्खाधिराज
संज्ञा पुं० [सं०] महामूर्ख। मूर्खों का राजा।
⋙ मूर्खिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्ख] मूढ़ा स्त्री। बेसमझ औरत। उ०—लै ओदन तिय को। दिखरायो। कह्यौ मूर्खिनी कहँ ते आयो।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मूर्खिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्खता। जड़ता। बेवकूफी।
⋙ मूर्च्छन
संज्ञा पुं० [सं०] १. संज्ञा लोप होना या करना। बेहोश करना। २. मूर्च्छित करने का मंत्र या प्रयोग। उ०—आजु हौं राज काज करि आऊँ। वेगि सँहारी सकल घोष शिशु जो मुख आयसु पाऊँ। तौ मोहन मूर्च्छन वशीकरन पढ़ि अमित देह बढ़ऊँ—सूर (शब्द०)। ३. पारे का तीसरा संस्कार जिसमें त्रयुष्ण त्रिफलादि में सात दिन तक भावना दी जाती है। ४. कामदेव का एक वाण।
⋙ मूर्च्छना
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक जाने में सातो स्वरों का आरोह अवरोह। उ०—(क) सूर नाद ग्राम नूत्यति मानि। मुख वर्ग विविध आलाप काल। बहु कला जाति मूर्च्छना मानि। बढ़ भाग गमक गुन चलत जानि।—केशव (शब्द०)। (ख) सुर मूर्च्छना ग्राम लै ताला। गावत कृष्णचरित सब ग्वाला।—रघुराज (शब्द०)। विशेष—ग्राम के सातवें भाग का नाम मूर्च्छना है। भरत के मत से गाते समय गले को कँपाने से ही मूर्च्छना होती है; और किसी किसी का मत मत है कि स्वर के सूक्ष्म विराम को ही मूर्च्छना कहते हैं। तीन ग्राम होने के कारण २१ मूर्च्छनाएँ होती हैं जिनका व्योरा इस प्रकार है— पडज ग्राम की मध्मम ग्राम की गांधार ग्राम की ललिता पंचमा रौद्री मध्ममा मत्सरी ब्राह्मी चित्रा मृदुमध्या
वैष्णवी रोहिणी शुद्धा खेदरी मतंगजा अंता सुरा सौवीरी कलावती नादावती षड़मध्या
तीब्रा
विशाल अन्य मत से मूर्च्छनाओं के नाम इस प्रकार हैं— उत्तरमुद्रा सौवीरी नंदा
⋙ रजनी हरिणाश्वा विशाला उत्तरायणी कपोलनता सोमपी शुद्धपडजा शुद्धमध्या विचित्रा मत्सरीक्रांता मार्गो रोहिणी अश्वक्रांता पौरवी सुखा अभिरुता मंदाकिनी अलापी
⋙ मूर्च्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राणी की वह अवस्था जिसमें उसे किसी बात का ज्ञात नहीं रहता, वह निश्चेष्ट पड़ा रहता है। संज्ञा का लोप। अचेत होना। बेहोशी। उ०—गइ मूर्च्छा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत कहन अस लागे।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—आना।—खकर गिरना।—होना। विशेष—आयुर्वद में मूर्च्छा रोग के ये कारण कहे गए हैं—विरुद्ध वस्तु खा जाना, मलमूत्र का वेग रोकना, अस्त्रशस्त्र से सिर आदि मर्मस्थानों में चोट लगाना अथवा सत्व गुण का स्वभावतः कम होना। इन्हीं सब्र कारणों से वाताति दोष मनोधिष्ठान में प्रविष्ट होकर अथवा जिन नाड़ियों द्वारा इंद्रियों और मन का व्यापार चलता है उनमें अधिष्ठित होकर, तमोगुण की वृद्धि करके मूर्च्छा उत्पन्न करते हैं। मूर्च्छा आने के पहले शैथिल्य होता है, जँभाई आती है और कभी कभी सिर या हृदय में पीड़ा भी जान पड़ती है। मूर्च्छा रोग सात प्रकार का कहा गया है—वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, रक्तज, मद्यज और विषज। 'वातज' मूर्च्छा में रोगी को पहले आकार नीला या काला दिखाई पड़ने लगता है और वह बेहोश हो जाता है, पर थोड़ी ही देर में होश आ जाता है। इसमें कंप और अंग में पीड़ा भी होती है और शरीर भी बहुत दर्बल और काला हो जाता है। 'पित्तज' मूर्च्छा में बेहोशी के पहले आकाश लाल, पीला या हरा दिखाई पड़ता है और मूर्च्छा छूटते समय आँखें लाल हो जाती है, शरीर में गरमी मीलूम होती है, प्यास लगती है और शरीर पीला पड़ जाता है। 'श्लेष्मज' मूर्च्छा' में रागी स्वच्छ आकाश को भी बादलों से ढका और अँधेरा देखते देखते बेहोश हो जाता है और बहुत देर में होश में आता है। मूर्च्छा टूटते समय शरीर ढीला और भारी मालूम होता है और पेशाब तथा वमन की इच्छा होती है। 'सन्निपातज' में उपर्युक्त तीनों लक्षण मिले जुले प्रकट होते हैं और मिरगी के रोगी की तरह रोगी जमीन पर अकस्मात गिर पड़ता है और बहुत देर में होश में आता है। मिरगी और मूर्च्छा में भेद केवल इतना होता है कि इसमें मुँह से फेन नहीं आता और दाँत नहीं बैठते। 'रक्तज' मूर्च्छा में अंग ठक और दृष्टि स्थिर सी हो जाती है और साँस साफ चलती नहीं दिखाई देती। 'मद्यज' मूर्च्छा में रोगी हाथ पैर मारता और अनाप शनाप बकता हुआ भूमि पर गिर पड़ता है। 'विषज' मूर्च्छा में कंप, प्यास और झपकी मालूम होती है तथा जैसा विष हो, उसके अनुसार और भी लक्षण देखे जाते हैं।
⋙ मूर्च्छापगम
संज्ञा पुं० [सं०] बेहोशी दूर होना [को०]।
⋙ मूर्च्छाल
वि० [सं०] मूर्च्छित। मूर्च्छायुक्त। संज्ञाहीन [को०]।
⋙ मूर्च्छित, मूर्च्छित
वि० [सं०] १. जिसे मूर्च्छा आई हो। बेसुध बेहोश। अचेत। उ०—(क) सुनत गदाधर भट्ठ तहाँ ही। मूर्च्छित गिरत भए महि माहीं।—रघुराज (शब्द०)। (ख) यह सुन कंस मूर्च्छित हो गिरा।—लल्लूलाल (शब्द०)। २. मारा हुआ (पारे आदि धातुओं के लिये)। ३. दे० 'उच्छ्रिय' (को०)। ४. मूढ़ (को०)। ५. वृद्ध। ६. व्याप्त।
⋙ मूर्च्छित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की स्वरलहरी या वायु [को०]।
⋙ मूर्ण
वि० [सं०] बद्ध। बँधा या कसा हुआ [को०]।
⋙ मूर्त्त
वि० [सं०] १. जिसका कुछ रूप या आकार हो। साकार। विशेष—नैयायिकों के मत से पृथ्वी, जल, तेज, वायु और मन मूर्त्त पदार्थ हैं इनके गुण रूप, रस, गंध, स्पर्श, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, स्नेह और वेग हैं। २. कठिन। ठोस। ३. मूर्च्छित।
⋙ मूर्त्तता
संज्ञा पुं० [सं०] मूर्त होने का भाव।
⋙ मूत्तत्व
संज्ञा पुं० [सं०] मूर्त होने की क्रिया या भाव। मूर्त्तता।
⋙ मर्त्त प्रत्यक्षीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] अमूर्त को मूर्त रूप देना। अगोचर पदार्थ को गोचर रूप देना। रूपरहित भावनाओं और विचारों को वस्तुरूप में व्यक्त करना। ठोस रूप देना। उ०— तीव्र अंतरदृष्टिवाले कवि अपने सूक्ष्म विचारों का बड़ा ही रसणीय मूर्त्त प्रत्यक्षीकरण करते हैं।—चिंतामणि, भा० २, पृ० ६६।
⋙ मूर्त्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कठिनता। ठोसपन। २. शरीर। देह। ३. आकृति। शकल। स्वरूप। सूरत। जैसे,—उस मनुष्य की भयंकर मूर्त्ति देखकर वह डर गया। ४. किसी के रूप या आकृति के सदृश गढ़ी हुई वस्तु। प्रतिमा। विग्रह। जैसे, कृष्ण की मूर्त्ति, देवी की मूर्त्ति। मुहा०—मूर्ति के समान=ठक। स्तब्ध। निश्वल। ५. रंग या रेखा द्वारा बनी हुई आकृति। चित्र। तस्वीर। ६. ब्रह्म सावर्ण के एक पुत्र का नाम। ७. व्यक्ति। मनुष्य (विशेषतः साधुसमाज में प्रयुक्त)। उ०—आजकल दा मूर्ति निवास करते है।—किन्नर०, पृ० १८।
⋙ मूर्त्तिकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्त्ति गढ़ने या निर्माण करने की कला। मूर्तिविद्या।
⋙ मूर्तिकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूर्ति बनानेवाला। २. तसवीर बनानेवाला। मुसौवर।
⋙ मूर्त्तित
वि० [सं०] मूर्त। साकर। उ०—मन से प्राणों में, प्राणों से जीवन में कर मूर्त्तित। शोभा आकृति में जन भू का स्वर्ग करो नब निर्मित।—अतिमा, पृ० ७।
⋙ मूर्तिधर
वि० [सं०] मूर्ति को धारण करनेवाला। विग्रहवान। उ०—आकाश में शब्द के अनुरणन स्पंद से ही असूर्त्त मूर्त्ति- धर होता है।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ११४।
⋙ मूर्त्तिप
संज्ञा पुं० [सं०] पुजारी।
⋙ मूर्त्तिपूजक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो मूर्त्ति या प्रतिमा की पूजा करना हो। मूर्त्ति पूजनेवाला।
⋙ मूर्त्तिपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्त्ति में ईश्वर या देवता की भावना करके उसकी पूजा करना।
⋙ मूर्त्तिभंजक
वि० [सं० मूर्त्तिभञ्जक] मूर्तियों को तोड़नेवाला [को०]।
⋙ मूर्त्तिमान (१)
वि० [सं० मूर्त्तिमत्] [वि० स्त्री० मूर्त्तिमती] १. जो रूप धारण किए हो। शरीरधारी। २. साक्षात्। गोचर। प्रत्यक्ष। ३. ठोस (को०)।
⋙ मूर्त्तिमान् (२)
संज्ञा पु० शरीर। जिस्म। देह [को०]।
⋙ मूर्त्तिविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रतिमा गढ़ने की कला। २. चित्रकारी।
⋙ मूर्द्ध
संज्ञा पुं० [सं० मूर्द्धन्] मस्तक। सिर।
⋙ मूर्द्धक
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रिय।
⋙ मूर्द्धकपारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्द्धकर्परी] दे० 'मूर्द्धकर्णी'।
⋙ मूर्द्धकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छाता या और कोई वस्तु (जैसे टोकरा) जो धूप, पानी आदि से बचने के लिये सिर पर रखा जाय।
⋙ मूर्द्धकर्परी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छतरी। छाता [को०]।
⋙ मूर्द्धखोल
संज्ञा पुं० [सं० मूर्द्ध+हिं० खोल] दे० 'मूर्द्धकर्णी'।
⋙ मूर्द्धज (१)
वि० [सं०] सिर से उत्पन्न होनेवाला।
⋙ मूर्द्धज (२)
संज्ञा पुं० केश। बाल।
⋙ मूर्द्धज्योति
संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्द्धज्योतिस्] ब्रह्मरंध्र। (योग)।
⋙ मूर्द्धन्य
वि० [सं०] १. मर्द्धा से संबंध रखनेवाला। मूर्द्धा संबंधी। २. जिसका उच्चारण मूर्द्धा से हो। ३. सिर या मस्तक में स्थित। ४. सर्वोच्च। सर्वश्रेष्ठ।
⋙ मूर्द्धन्य वर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वे वर्ण जिनका उच्चारण मूर्द्धा से होता है। विशेष—मूर्द्धन्य वर्ण ये हैं; —ऋ, ऋ, ट, ठ, ड, ढ, ण, र और ष।
⋙ मूर्द्ध न्वान्
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गंधर्व का नाम। २. वामदेव ऋषि जो ऋग्वेद के दशम मंडल के अष्टम सूक्त के द्रष्टा थे।
⋙ मूर्द्धपिंड
संज्ञा पुं० [सं० मूर्द्धपिण्ड] गजकुंभ। हाथी का मस्तक।
⋙ मूर्द्धपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] शिरीष पुष्प।
⋙ मूर्द्धरस
संज्ञा पुं० [सं०] भात का फेन।
⋙ मूर्द्धवेष्ठन
संज्ञा पुं० [सं०] शिरोवेष्ठन। पगड़ी। साफा [को०]।
⋙ मूर्द्धा
संज्ञा पुं० [सं० मूर्द्धन्] १. मस्तक। सिर। २. मुँह के भीतर तालु के और कंठ के बीच का उठा हुआ भाग जहाँ से मूर्द्धन्य वर्ण का उच्चारण होता है।
⋙ मूर्द्धाभिषिक्त
वि० [सं०] १. जिसके सिर पर अभिषेक किया गया हो। २. सबस श्रेष्ठ। सर्वमान्य (को०)।
⋙ मूर्द्धाभिषिक्त
संज्ञा पुं० १. क्षत्रिय। २. राजा। ३. एक मिश्र जाति जिसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से विवाही क्षत्रिय स्त्री के गर्भ से कही गई है। इस जाति की वृत्ति हाथी, घाड़े और रथ की शिक्षा तथा शस्त्रधारण है।
⋙ मूर्द्धाभिषेक
संज्ञा पुं० [सं०] सिर पर अभिषेक या जलसिंचन होना। (जैसा कि राजाओं के गद्दी पर बैठने के समय होता है।)
⋙ मूर्ध, मूर्धा
संज्ञा पुं० [सं० मूर्धन्] दे० 'मूर्द्ध', 'मूर्द्धा'। (संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'मूर्द्ध' और 'मूर्ध' दोनों रूप' होते हैं।)
⋙ मूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मरोड़फली नाम की लता जो हिमालय के उत्तराखंड को छोड़ भारतवर्ष में और सब जगह होती है। विशेष—इसमें सात आठ डंठल निकलकर इधर उधर लता की तरह फैलते हैं। फूल छोटे छोटे, हरापन लिए सफेद रंग के होते हैं। इसके रंशे बहुत मजबूत होते हैं जिससे प्राचीन काल में उन्हें वटकर धनुष की डोरी बनाते थे। उपनयन में क्षत्रिय लोग मूर्वा की मेखला धारण करते थे। एक मन पत्तियों से आधा सेर के लगभग सुखा रेशा निकलता है, जिससे कहीं कहीं जाल बुने जाते हैं। त्रिचिनापल्ली में मूर्वा के रेशों से बहुत अच्छा कागज बनता है। ये रेशे रेशम की तरह चमकीले और सफेद होते हैं। मूर्वा की जड़ औषध के काम में भी आती है। वैद्य लोग इसे यक्ष्मा और खांसी में देते हैं। आयुर्वेद में यह अति तिक्त, कसैली, उष्ण तथा हृद्रोग, कफ, वात, प्रमेह, कुष्ठ और विषमज्वर को दूर करनेवाली मानी जाती है। पर्या०—देवी। मधुरसा। मोरटा। तेजनी। स्त्रदा। मधुलिका। धनुश्रेणी। गोकर्णी। पीलुकर्णी। स्त्रुवा। मूर्वी। मधुश्रेणी। सुसगिका। पृथक्त्वचा। दिव्यलता। गोपवल्ली। ज्वलिनी।
⋙ मूर्विका, मूर्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्वा।
⋙ मूल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ों का वह भाग जो पृथ्वी के नीचे रहता है। जड़। उ०—एहि आसा अटक्यो रहै अलि गुलाब के भूल।—बिहारा (शब्द०)। २. खाने योग्य मोटी मीठी जड़। कंद। उ०—संबत सहस मूल फल खाए। साक खाइ सत वर्ष गँवाए।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—कंदमूल। ३. आदि। आरंभ। शुरू। उ०—(क) उमा संभु सीतारमन जो मा पर अनुकूल। तौ बरनौं सो होइ अंत मध्य अरु मूल।—विश्राम (शब्द०)। (ख) सेतु मूल सिव सोभिजै केसव परम प्रकाश।—केशव (शब्द०)। आदि कारण। उत्पत्ति का हेतु। उ०—करम को मूल तन, तन मूल जीव जग जीवन को मूल अति आनंद ही धरिबो।—पद्माकर (शब्द०)। ५. असल जमा या धन जो किसी व्यवहार या व्यवसाय में लगाया जाय। असल। पूँजी। उ०—और बनिज में नाहीं लाहा, होत मूल में हानि।—सूर (शब्द०)। ६. किसी वस्तु के आरंभ का भाग। शुरू का हिस्सा। जैसे, भुजमूल। ७. नीवँ। बुनियाद। ८. ग्रंथकार का निज का वाक्य या लेख जिसपर टीका आदि की जाय। जैसे,—इस संग्रह में रामायण मूल और टीका दोनों हैं। ९. सत्ताइस नक्षत्रों में से उन्नीसवाँ नक्षत्र। विशेष—इस नक्षत्र के अधिपति निऋति है। इसमें नौ तारे हैं जिनकी आकृति मिलकर सिंह की पूँछ के समान होती है। यहअधोमुख नक्षत्र है। फलित के अनुसार इस नक्षत्र में जन्म लेनेवाला वृद्धावस्था में दरिद्र, शरीर से पीड़ित, कलानुरागी, मातृपितृहंता और आत्मीय लोगों का उपकार करनेवाला होता है। १०. निकंज। ११. पास। समीप। १२. सूरन। जिमीकंद। १३. पिप्पलीमूल। १४. पुष्परमूल। १५. किसी वस्तु के नीचे का भाग या तल। पादप्रदेश। जैसे, पर्वतमूल गिरिमूल। १६. दुर्ग। राष्ट्र। १७. किसी देवता का आदिमंत्र या बीज।
⋙ मूल (२)
वि० [सं०] मुख्य। प्रधान। खास। उ०—ल्याउ मूल वल बोलि हमारो सोई सैन्य हजूरी। पर चर दौरि वोलि ल्याए द्रुत सैन्य भयंकर भूरी।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मूल पु ‡ (३)
संज्ञ पुं० [सं० मूल्य, प्रा० मुल्ल] दे० 'मूल्य'। उ०— पाज क सए साना क टका, चंदन क मूल इंधन विका।— कीर्ति० पृ० ६८।
⋙ मूलक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूली। उ०—(क) काँचे घट जिमि डारऊँ फोरी। सकउँ मेरु मूलक इब तोरी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जिनके दसन करालक फूटे। उर लागत मूलक इब टूटे।— तुलसी (शब्द०)। २. चौंतीस प्रकार के स्थावर विषों में से एक प्रकार का विष। ३. मूल स्वरूप।
⋙ मूलक (२)
वि० १. उत्पन्न करनेवाला। जनक। जैसे, अनर्थमूलक, भ्रांतिमूलक। २. मूल नक्षत्र में उत्पन्न।
⋙ मूलकपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शोभांजन। सहिंजन का पेड़।
⋙ मूलकपोतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूली [को०]।
⋙ मूलकम
संज्ञा पुं० [सं० मूलकर्मन] १. त्रासन, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरण, आदि का वह प्रयोग जो ओपधियों के मूल (जड़ी) द्वारा किया जाता है। मूठ। टोना। टोटका। विशेष—मनु ने इसे उपपातकों में गिना है। २. प्रधान कर्म। विशेष—पूजा आदि में कुछ कर्म प्रधान होते हैं और कुछ अंग।
⋙ मूलकार
संज्ञा पुं० [सं०] मूल ग्रंथकर्ता [को०]।
⋙ मूलकारण
संज्ञा पुं० [सं०] आदिकारण। प्रधान हेतु। उ०— समस्त शब्दों का मूलकारण ध्वनिमय ओंकार है।—गीतिका (भू०), पृ० १।
⋙ मूलकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूल ग्रंथ के पद्य। २. मूलधन की एक विशेष प्रकार की वृद्धि। ३. चंडी। ४. भट्ठी।
⋙ मूलकृच्छ्र
संज्ञा पुं० [सं०] मिताक्षरा आदि स्तृतियों में वर्णित ग्यारह प्रकार के पर्णाकृच्छ्र व्रतों में से एक व्रत जिसमें मूली आदि विशेष जड़ो के क्वाध या रस को पीकर एक मास व्यतीत करना पड़ता था।
⋙ मूलकेशर
संज्ञा पुं० [सं०] नींबू।
⋙ मूलखानक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन वर्णसंकर जाति जो पेड़ों की जड़ खोदकर जीविका निर्वाह करती थी।
⋙ मूलग्रंथ
संज्ञा पुं० [सं०] असल ग्रंथ जिसका भापांतर, टीका आदि की गई हो।
⋙ मूलच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. जड़ से नाश। २. पूर्ण नाश।
⋙ मूलच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मूलच्छेद'।
⋙ मूलज
संज्ञा पुं० [सं०] अदरक।
⋙ मूलतः
अव्य० [सं० मूलतस्] १. मूल रूप में। २. आदि में। प्रथमतः [को०]।
⋙ मूलतत्व
संज्ञा पुं० [सं० मूलतत्व] १. आदि बीज। आधारभूत सिद्धांत। २. मूल पदार्थ। ३. निष्कर्ष। सारांश।
⋙ मूलत्रिकोण
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य आदि ग्रहों की कुछ विशेष राशियों में स्थिति। ग्रह जब मूलत्रिकोण में रहते हैं, तब मध्यम बल के माने जाते हैं। विशेष—रवि का मूलत्रिकोण सिंह राशि, चद्र का वृष, मंगल का मेष, बुध का कन्या, वृहस्पति का धनु, शुक्र का तुला और शनि का कुंभ है। मतलब यह कि इन राशियों में यदि ये ये ग्रह होंगे, तो मूलत्रिकोण में कहे जायँगे। (फलित ज्योतिष)।
⋙ मूलदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंस। २. चौरशास्त्र के प्रवर्तक का नाम [को०]।
⋙ मूलद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] मूल धन। २. आदिम द्रव्य या भूत जिससे और द्रव्यों या भूतों की उत्पत्ति हुई हो।
⋙ मूलद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] प्रधान द्वार। सिंहद्वार। सदर फाटक।
⋙ मूलद्वारावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वारावती नगरी का प्राचीन अंश जो आजकल की द्वारका से कुछ दूर प्रायः समुद्र के भीतर पड़ता है।
⋙ मूलधन
संज्ञा पुं० [सं०] वह असल धन जो किसी व्यापार में लगाया जाय। पूँजी।
⋙ मूलधातु
संज्ञा स्त्री० [सं०] मज्जा।
⋙ मूलनिकृंतन
संज्ञा पुं० [सं० मूलनिकृन्तन] जड़ या मूल का उच्छेद करना [को०]।
⋙ मूलपर्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंडूकपर्णी नाम की ओषधि।
⋙ मूलपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वंश का आदिपुरुष। सबसे पहला पुरखा जिससे वंश चला हो।
⋙ मूलपुष्कर
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्पकरमूल।
⋙ मूलपोती
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी पोय नामक शाक।
⋙ मूलप्रकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संसार की बीजशक्ति या वह आदिम सत्ता, संसार जिसका परिणाम या विकास है। आद्या शक्ति। दुर्गा। २. सांख्य में त्रिगुण—सत्व, रज, तम—की साम्य स्थिति। प्रधान। विशेष दे० 'प्रकृति'।
⋙ मूलप्रतीकार
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री और धन की रक्षा। धन और दारा का रक्षण [को०]।
⋙ मूलफलद
संज्ञा पुं० [सं०] कटहल।
⋙ मूलबंध
संज्ञा पुं० [सं० मूलबन्ध] १. हठयोग की एक क्रिया जिसमें सिद्धासन या वज्रासन द्वारा शिश्न और गुदा के मध्यवाले भाग की दबाकर अपान वायु को ऊपर की ओर चढ़ाते हैं। उ०—सोधै मूलबंध दैं राख आसन सिद्ध करौ।—चरण०वानी, भा० २, पृ० १२८। २. तंत्रोपचार पूजन में एक प्रकार का अंगुलिन्वास।
⋙ मूलबद्ध
वि० [सं०] जिसने जड़ जमा लिया हो। बद्धमूल। गड़ा हुआ। जमा हुआ। उ०—यह धारण पूर्वा (एशियाई) जातियों में अब तक मूलबद्ध है।—चिंतामणि, भा० २, पृ० ७६।
⋙ मूलबर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूलोच्छेदन। २. मूल नक्षत्र।
⋙ मूलबल
संज्ञा पुं० [सं०] प्रधान सेना। मूल सेना [को०]।
⋙ मूलभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण का एक नाम [को०]।
⋙ मूलभृत्य
संज्ञा पु० [सं०] पुराना अथवा पुश्तैनी नौकर [को०]।
⋙ मूलमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० मूलमन्त्र] मूख्य साधन। कुंजी। गुर। उ०—सामंदस्य काव्य और जोवन दोनों को सफलता का मूलमंत्र है।—चिंतामणि, भा० १, पृ० ५२।
⋙ मूलरक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] राजधानी या शासन के क्रेंद्र स्थान की रक्षा।
⋙ मूलरस
संज्ञा पुं० [सं०] मोरट लता। सूर्या।
⋙ मूलवचन
संज्ञा पुं० [सं०] मूलग्रंथ वाक्य [को०]।
⋙ मूलवर्ती
वि० [सं० मूलवर्तिन्] मूल। प्रधान। उ०—परंतु हिंदी साहित्य की नव्यतम भावभूमिका में प्रवेश कर उसके मूलवर्ती तथ्यों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न अवश्य किया है।—नवा०, पृ० १०।
⋙ मूलवाप
संज्ञा पुं० [सं०] मूल या जड़ को रोपनेवाला। मूल को लगानेवाला [को०]।
⋙ मूलवित्त
संज्ञा पुं० [सं०] मूलधन।
⋙ मूलविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वादशाक्षर मंत्र। द्वादशक्षरी—ओं नमों भगवते वासुदेवाय।
⋙ मूलविभूज
संज्ञा पुं० [सं०] रथ [को०]।
⋙ मूलविष
स्त्री० पुं० [सं०] जिसकी जड़ विपैली हो। जैसे, कनेर।
⋙ मूलव्यसन
संज्ञा पुं० [सं०] वध का दंड। मारण।
⋙ मूलव्रती
संज्ञा पुं० [सं० मूलव्रतिन्] केवल कंद, मूल खाकर रहनेवाला तपस्वी [को०]।
⋙ मूलशाकट
संज्ञा पुं० [सं०] वह खेत जिसमें मूली, गाजर आदि मोटी जड़वाले पौधे बोए जायँ।
⋙ मूलशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] पुंडरीक वृक्ष।
⋙ मूलसर्वास्तिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों का एक संप्रदाय।
⋙ मूलसिद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० मूलसिद्धान्त] आधारभूत नियम या सिद्धांत। उ०—उसके मूल सिद्धांत वे ही थे जो श्वेतपत्र के प्रारूप थे।—भारतीय०, पृ० १।
⋙ मूलस्थली
संज्ञा पुं० [सं०] थाला। आलवाल। उ०—कहूँ वृक्ष मूलस्थली तोय पीवैं। महामत्त मातंग सीमा न छीवैं।— केशव (शब्द०)।
⋙ मूलस्थान
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आदिस्थान। वाप दादा की जगह। पूर्वजों का स्थान। २. प्रधान स्थान। ३. भीत। दीवार। ४. ईंश्वर। ५. मूलतान नगर जहाँ भास्कर तीर्थ था। ६. कौटिल्य के अनुसार राजधानी। शासन का मुख्य केंद्र।
⋙ मूलस्थानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गौरी।
⋙ मूलस्थायी
संज्ञा पुं० [सं० मूलस्थायिन्] शिव।
⋙ मूलस्रोत
संज्ञा पुं० [सं० मूलस्रोतस] झरना, नदी आदि की मूख्य धारा या उदगम स्थान [को०]।
⋙ मूलहर (१)
वि० [सं०] समूल उन्मूलन करनेवाला। जड़ से उखाड़ देनेवाला [को०]।
⋙ मूलहर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह राजा जो फजूल खर्च करता हो। वह जिसने अपना संपूर्ण धन नष्ट कर दिया हो।
⋙ मूला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सतावर। २. मूल नक्षत्र। ३. पृथ्वी। (डिं०)।
⋙ मूला (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] मौला नाम की वेल जो वृक्षों पर चढ़कर उन्हें बहुत हानि पहुँचाती है। विशेष दे० 'मौला'।
⋙ मूलाधार
संज्ञा पुं० [सं०] योग में माने हुए मानव शरीर के भीतर के छह् चक्रों में से एक चक्र जिसका स्थान गुदा शिश्न के मध्य में है। इसका रंग लाल और देवता गणेश माने गए हैं। इसके दलों की संख्या ४ और अक्षर व, श, ष, तथा स हैं।
⋙ मूलाभ
संज्ञा पुं० [सं०] मूली [को०]।
⋙ मूलामना
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें वायु के कुपित होने पर हाथ और पैरों में कंपन होता है। उ०—जो वायु पैर, जंघा, उरु और हाथ के मूल में कंपन करे उसको मूलामना रोग कहते हैं।—माधव०, पृ० १४६।
⋙ मूलायतन
संज्ञा पुं० [सं०] मूल आयतन। मूल स्थान या गृह।
⋙ मूलावाधक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार राष्ट्रशक्ति के केंद्र को घेरनेवाला।
⋙ मूलिक (१)
वि० [सं०] १. मूल संबंधी। मूल का। २. मूख्य। प्रधान।
⋙ मूलिक (२)
संज्ञा पुं० कंदमूल खाकर रहनेवाला संन्यासी।
⋙ मूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ओषधियों की जड़। जड़ी। उ०—वैदिक विधान अनेक लौकिक आचरत सुनि जानि के। बलिदान पूजा मूलिका मनि साधि राखी आनि कै।—तुलसी (शब्द०)। (ख)आयो सदन सहित सोवत ही लौ पलक परै न। जिसे कुवेर निसि मिलै मूलिका कीन्हीं विनय सुखेन।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मूलिनि (१)
वि० [सं०] मूल से उत्पन्न।
⋙ मूलिन (२)
संज्ञा पुं० वृक्ष [को०]।
⋙ मूलिनीवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार ये सोलह प्रकार के मूल (जड़)—नागदंती, श्वेतवचा, श्यामा, त्रिवृत्, वृद्धदारका, सप्तला, श्वेतापराजिता, मूषकपर्णी, गोडुंवा, ज्योतिष्मती, बिवी, क्षणपुष्पी, विपाणिका, अश्वगंधा, द्रवंती और क्षीरिणी।
⋙ मूली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मूलक] १. एक पौधा जो अपनी लंवी मूलायम जड़ के लिये वोया जाता है। यह जड़ खाने में मीठी, चपरी और तीक्ष्ण होती है।विशेष—मूली साल में दो वार बोई जाती है; इससे प्रायः सब दिन मिलती है। मूली की जड़ नीचे की ओर पतली और ऊपर की ओर मोटी होती जाती है। इसकी कई जातियाँ होती हैं। साधारणतः मूली एक वालिश्त लंवी और दो ढाई अंगुल मोटी होती है। पर वड़ी मूली हाथ हाथ भर लंवी और चार पाँच अंगुल तक मोटी होती है। नेपाल देश में उत्पन्न होने के कारण इसे नेवाड़ या नेवार भी कहते हैं। यह खाने में मीठी होती है और इसमें कडुवापन या चरपराहट नहीं होती। मूली का रंग सफेद होता है; पर लाल रंग की मूली भी अब हिंदुस्तान में वोई जाने लगी है, जिसे विलायती मूली कहते हैं। इसकी जड़ से सरसों के से लंबे लंबे पत्ते ऊपर की ओर निकलते हैं। बीज छोटे और काले होते हैं। इन बीजों में से एक प्रकार का दुर्गंध- युक्त तेल निकलता है, जिसमें गंधक का बहुत कुछ अंश रहता है। मूली अधिक्तर कच्ची या शाक के रूप में पकाकर खाई जाती है। बीज दवा के काम में आते हैं। मूली साधारणतः उत्तेजक, मूत्रकारक और अश्मरीनाशक होती है। मूत्रकृच्छ्र आदि रोगों में इसका सेवन हितकर है। भावप्रकाश के अनुसार छोटी मूली कटुरस, उष्णवीर्य, रुचिकारक, लघु, पाचक, त्रिदोषनाशक, श्वरप्रसादक तथा ज्वर, श्वास, नासारोग, कंठरोग और चक्षुरोग को दूर करनेवाली है। बड़ी मूली या नेवाड़ रूखी, उष्णवीर्य, गुरु और त्रिदोषनाशक है। पर्या०—(छोटी मूली) शालाक। कटुक। मिश्र। वालेय। मरुसंभब। चाणक्यमूलक। मूलकपोतिका। मुहा०—(किसी को) मूली गाजर समझना=अति तुच्छ समझना। नाचीज गिनना। २. एक प्रकार का बाँस। ३. जड़ी बूटी। मूलिका।
⋙ मूली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ज्येष्ठी। २. मत्स्यपुराण के अनुसार एक नदी का नाम। छोटी छिपकिली (को०)।
⋙ मूली (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० मूलिन्] वृक्ष। पेड़ [को०]।
⋙ मूलुक्का ‡
संज्ञा पुं० [अ० मूल्क] दे० 'मूल्क'। उ०—आवंता तुरक्का पाण मुलुक्का, पअ भरे पथर चूरीआ।—कीर्ति०, पृ० ४६।
⋙ मूलेर
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा। नरेश। २. भारतीय लोमशा। जटामांसी [को०]।
⋙ मूलोदय
संज्ञा पुं० [सं०] ब्याज का मूलधन के बराबर हो जाना।
⋙ मूल्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु के बदले में मिलनेवाला धन। दाम। कीमत आदि। जैसे,—एक सेर चाय का मूल्य दस रुपए। उ०—वास्तव में अर्थ प्रायः सर्वदा द्रव्य के रूप में ही व्यक्त किया जाता है। और तब उसे मूल्य कहते हैं।—अर्थ० (वै०), पृ० १८। २. वेतन। भृति (को०)। ३. मूल। मूलधन (को०)। ४. लाभ। प्राप्ति। अर्जन। ५. उपयोगिता (को०)। यौ०—मूल्यरहित=(१) बिना मूल्य का। जिसका कुछ मूल्य न हो। निकम्मा (२) व्यर्थ। वेकार। मूल्यवृद्ध=बाजार में वस्तुओं का दाम बढ़ जाना। मूल्यहीन=दे० 'मूल्यरहित'।
⋙ मूल्य (२)
वि० १. प्रतिष्टा का योग्य। कदर के लायक। २. रोपने या लगाने योग्य (पौधा)। ३. मूल में होनेवाला। जो मूल में हो (को०)। ४. जड़ से उखाड़ने योग्य। (खेत की फसल, जैसे, उर्द, मूँग आदि)।
⋙ मूल्यक
संज्ञा पुं० [सं०] मूल्य। धन। दान। कीमत [को०]।
⋙ मूल्यवान्
वि० [सं० मूल्यवत्] जिसका दाम बहुत अधिक हो। बड़े दाम का। कीमती।
⋙ मूल्यांकन
संज्ञा पुं० [सं० मूल्याङ्कन] १. कीसी वस्तु का मूल्य निर्धा- रित या निश्चित करना। २. किसी विशिष्ट क्षेत्र में किसी व्यक्ति अथवा कृति की उपयोगिता एवं महत्व का आकलन करना। उ०—रहीम हिंदी जगत् के ख्यातिप्राप्त कवि हैं, किंतु अभी तक उनकी काव्यगत विचारधारा का मूल्यांकन नहीं हो पाया था।—अकबरी०, पृ० ८।
⋙ मूवमेंट
संज्ञा पुं० [अं०] वह प्रयत्न या आंदोलन जो किसी उद्देश्य की सिद्धि या अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिये एक या अधिक व्यक्ति करते हैं। आंदोलन। जैसे,—स्वदेशी मूवमेंट; नाम- कोआपरेशन मूवमेंट।
⋙ मूश
संज्ञा पुं० [फा० तुल० सं० मूप (=चूहा)] मूषक। मूहा [को०]। यौ०—मूशदान=दे० 'चूहादान'।
⋙ मूशली
संज्ञा स्त्री० [सं०] तालमूली।
⋙ मूष
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूहा। २. गोली खिड़की। गवाक्ष (को०)। ३. सोना आदि गलाने की कुल्हिया (को०)।
⋙ मूषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूहा। उ०—खल बिनु स्वारथ घर अपकारी। अहि मूषक इब सुनु उरगारी।—तुलसी (शब्द०)। २. तस्कर। चोर (को०)।
⋙ मूषककर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूसाकानी नाम की लता। आखुकर्णी।
⋙ मूषकवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश।
⋙ मूषकमारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रुतश्रेणी नाम की लता।
⋙ मूषण
संज्ञा पुं० [सं०] चुराना। मूसना [को०]।
⋙ मूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सोना आदि गलाने की घरिया। तैजसा- वर्तिनी। २. देवताड़ वक्ष। ३. गोखरू का पौधा। ४. चुहिया। मूषिका (को०)। ५. गंवाक्ष। झरोखा।
⋙ मूषाकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूसाकानी लता।
⋙ मूषातुत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] नीला थोथा। तूतिया।
⋙ मूषिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूहा। मूसा। २. सिरस का वृक्ष। शिरीप वृक्ष (को०)। ३. मूसनेवाला। तस्कर। चोर (को०)। ४. महाभारत के अनुसार दक्षिण के एक जनपद का प्राचीन नाम।
⋙ मूषिकपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जल में होने वाला एक प्रकार का नृण। पर्या०—न्यग्रोधी। चित्रा। उपचित्रा। द्रवंती। संबरी। वृषा। वृषपर्णी। आखुपर्णी।
⋙ मूषिकरथ
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश [को०]।
⋙ मूषिकविपाण
संज्ञा पुं० [सं०] चूहे की सींग जैसी अनहोनी वा असंभव बात [को०]।
⋙ मूषिकसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र का एक साधन जिसके सिद्ध हो जाने से, कहा जाता है कि, मनुष्य चूहे की बोली समझकर उससे शुभ अशुभ फल कह सकता है।
⋙ मूषिकस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वल्मीक। बाँबी [को०]।
⋙ मूषिकांक
संज्ञा पुं० [सं० मूषिकाङ्क] गणेश।
⋙ मूषिकांचन
संज्ञा पुं० [सं० मूषिकाञ्चन] गणेश।
⋙ मूषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा चूहा। चूहिया। २. मूसाकानी लता।३. तेजसाबर्तनी। मूषा (को०)। ४. गवाक्ष। खिड़की (को०)।
⋙ मूषिकाद
संज्ञा पुं० [सं०] मार्जार। बिडाल [को०]।
⋙ मूषिकार
संज्ञा पुं० [सं०] नर चूहा। चूहा [को०]।
⋙ मूषिकाराति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मूषिकाद'।
⋙ मूषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सोना आदि गलाने की घरिया। २. बड़ा चूहा।
⋙ मूषीक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मूषीका] बड़ा चूहा [को०]।
⋙ मूषीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] घरिया में धातु आदि गलाने की क्रिया।
⋙ मूष्यायण
संज्ञा पुं० [सं०] गुप्त व्यभिचार से उत्पन्न पुरुष। वह जिसके बाप का पता न हो। दोगला।
⋙ मूस
संज्ञा पुं० [सं० मूष] चूहा। उ०—मूस मारि कै दीन्ह्या डारि।—हम्मीर०, पृ० १०।
⋙ मूसदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मूस+फा़० दानी (सं० आधान?)] चूहा फेसाने का पिंजड़ा। चूहादान।
⋙ मूसना
क्रि० स० [सं० मूषण] चुराकर उठा ले जाना। उ०— (क) मूसत पाँच चोर करि दंगा। रहत हितू ह्वै निसि दिन सैंगा।—रघुनाथदास (शब्द०)। (ख) भीतर भीतर सब रस चूसै, हाँसि हाँसि कै तन धन मूसै।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८११। (ग) सुनितय बिरद रूप रस नागरि लीन्ही पलटि कछू सी। तेरे हेत प्रेम संपति सखि सो संपति केहि मूसी।—सूर (शब्द०)। (घ) दिया मँदिर निसि कलै उजेरा। दिया नाहिं घर मूसहिं चोरा।—जायसी (शब्द०)। संयो० क्रि०—ले जाना।—लेना।
⋙ मूसर
संज्ञा पुं० [हिं० मूसर] १. दे० 'मूसल'। उ०—गुन ज्ञान गुमान भभोरे बड़ी कलपद्रुम काटत मूसर को।—तुलसी (शब्द०)। २. गँवार। अपढ़। असभ्य।
⋙ मूसरचंद
संज्ञा पुं० [हिं० मूसर+चंद्र] १. अपढ़। गँवार। असभ्य। जड़। २. हट्टा कट्टा पर निकम्मा। मुसंडा।
⋙ मूसल
संज्ञा पुं० [सं० मूशल] १. धान कूटने का औजार जो लंबा, मोटा डंडा सा होता है और जिसके मध्य भाग में पकड़ने के लिये खड्डा सा होता है और छोर पर लोहे की साम जड़ी रहती है। २. एक अस्त्र जिसे बलराम धारण करते थे। ३. राम वा कृष्ण के पद का एक चिह्न। मुहा०—मूसल से या मूसलों ढाल बजाना=अत्यंत आनंद मनाना। अत्याधिक प्रसन्नता दिखाना।
⋙ मूसलधार
कि० वि० [हिं० मूसल+धार] इतनी मोटी धार से, जितना मोटा मूसल होता है। बहुत अधिक वेग से। धारासार। जैसे, मूसलधार पानी बरसना। उ०—उसने आते ही व्रजमंडल को घेर लिया और गरज गरज बड़ी बड़ी बूदों लगा मूसलधार जल बरसाने।—लल्लू (शब्द०)।
⋙ मूसलमान पु
संज्ञा पुं० [अ० मुसल्मान] दे० 'मुसलमान'। उ०—सेवा मानव भेदियन हिंदु मूसलमान।—पृ० रा०, ६१। ४६९।
⋙ मूसला
संज्ञा पुं० [हिं० मूसल] वह जड़ जो मोटी और सीधी कुछ दूर तक जमीन में चली गई हो, जिसमें इधर उधर सूत या शाखाएँ न फूटी हों। झखरा का उलटा। विशेष—जड़ दो प्रकार की होती है—एक झखरा दूसरी मूसला।
⋙ मूसली
संज्ञा पुं० [सं० मूशली] १. हल्दी की जाति का एक पौधा। विशेष—इसकी जड़ औषध के काम में आती है और पुष्टई मानी जाती है। यह पौधा सीड़ की जमीन में उगता है और नदियों के कछारों में भी पाया जाता है। बिलासपुर जिले में अमरकंटक पहाड़ पर नर्मदा के किनारे यह बहुत मिलता है। २. खल, इमामदस्ता आदि में किसी वस्तु को कूटने की छोटी मुँगरी या डंडा।
⋙ मूसा (१)
संज्ञा पुं० [सं० मूषक] चूहा।
⋙ मूसा (२)
स्त्री० पुं० [इबरानी] यहूदी लोगों के एक पैगंबर जिनको खुदा का नूर दिखाई पड़ा था। किताब या पैगंबरी मतों का आदि प्रवर्तक इन्हीं को समझना चाहिए। उ०—यूसुफ नबी को अमर न वारा। जेहि घर माँ मूसै अवतारा।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २९२। मूहा०—मूसा आग लेने गए थे पैगंबरी मिल गई=करने क्या गए और क्या हो गया। मामूली चीज की कामना से जाने पर किसी को बहुत बड़ी वस्तु का मिल जाना। उ०—यजदानी इन्कार तो कर रहे थे, पर छाती फूल जाती थी। मूसा आग लेने गए थे, पैगंवरी मिल गई।—मान०, भा० १, पृ० १८७।
⋙ मूसाई
संज्ञा पुं० [इब० मूसा+ई (प्रत्य०)] मूसा द्वारा प्रवर्तित मत के अनुयायी। यहूदी। उ०—मद्यपि मूसाइयों और प्रवर्तित अनुगामी ईसाइयों की धर्मपुस्तक में आदम खुदा की प्रतिमूर्ति बताया गया पर नर में नारायण की दिव्य कला का दर्शन भारतीय भक्तिमार्ग में ही दिखाई पड़ा।—रस०, पृ० ५५।
⋙ मूसाकानी
संज्ञा स्त्री० [सं० मूषाकर्णी] औषध में प्रयुक्त होनेवाली एक प्रकार की लता जो प्रायः सारे भारत की गीली भूमि में चौमासे में पाई जाती है। चूहाकानी। आखुकर्णी। विशेष—इस लता की पत्तियाँ आकार में गोल प्रायः आधा से डेढ़ इंच तक की होती हैं, जो देखने में चूहे के कान केसमान, वीच में कमानदार और रोएँदार होती हैं। इसकी शाखाएँ बहुत घनी होती हैं और इसकी गाँठों में से जड़ निकलकर जमीन में जम जाती है। इसमें बैंगनी या गुलाबी रंग के छोटे छोटे फूल और चने के समान गोल फल लगते हैं जो पहले हरे अथवा बैंगनी रंग के और पकने पर भूरे रंग के हो जाते हैं। ये फल चीरने पर दो दलों में विभक्त हो जाते हैं और प्रत्येक दल में से एक बीज निकलता है। इसके प्रायः सभी अंग औषधि के रूप में काम में आते हैं। विशेषतः चूहे के विष को दूर करने के लिये इसे लगाया और इसका काढा़ पीया जाता है। वैद्यक में यह चरपरी, कड़वी, कसैली, शीतल, हलकी, दस्तावर, रसायन तथा कफ, पित्त, कृमि, शूल, ज्वर, ग्रंथि, सूजाक, प्रमेह, पांडु, भगंदर और कोढ़ आदि रोगों को दूर करनेवाली मानी जाती है। मूत्ररोग, उदररोग, हृदय- रोग आदि में भी् इसका व्यवहार होता है और यह रक्तशोधक भी होती है। यह बड़ा और छोटी दो प्रकार की होती है। इसके अतिरिक्त इसके और भी कई भेद होते हैं, जिनमें से एक भेद के पत्ते गोभी के पत्तों की तरह लंबे और किनारे पर कटाबदार होते हैं। एक और भेद क्षुप जाति का होता है, जो एक से चार फुट तक ऊँचा होता है। इसका डंठल पीला होता है, जिसमें से बहुत सी शाखाएँ निकलती हैं। इन सबका व्यवहार पथरी के समान होता है। इसे 'चूहाकानी' भी कहते हैं। पर्या०—आखुकर्णी। द्रवंती। मूषिकपर्णी। मूषिकाहृदा। उंदरकर्णी।
⋙ मूसीकार
संज्ञा पुं० [अ० मूसीकार] संगीत का अच्छा जानकार। संगीतज्ञ [को०]।
⋙ मूसीकी
संज्ञा स्त्री० [अ० मूसोकी] संगीतकला। गानविद्या [को०]।
⋙ मूह †
संज्ञा पुं० [सं० मुख] दे० 'मुँह'। उ०—देखतेहि काफिर मूह फिरावे।—कबीर सा०, पृ० १५१०।
⋙ मृकंडु
संज्ञा पुं० [सं० मृकण्ड] एक मुनि, जिनके पुत्र मार्कंडेय ऋषि थे।
⋙ मृगंक पु
संज्ञा पुं० [सं० मृगाङ्क?] हिरण्यकशिपु दानव। उ०— मृगंकस्य ऊरं, नषं तोरि तूरं।—पृ० रा०, २।१०।
⋙ मृगंमाल पु
संज्ञा पुं० [सं० मृगमाला] मृगसमूह। उ०—कहूँ बीन वादित्र बाजंत ऐसी। सुने रागं मोहं मृगंगाल बैसी।—ह० रासो०, पृ० ३७।
⋙ मृग
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मृगी] १. पशुमात्र, विशेषतः वन्य पशु। जंगली जानवर। २. हिरन। विशेष—मृग नौ प्रकार के कहे गए हैं—मसूरु, रोहित, न्यंकु, संबर, वभ्रुण, रुरु, शश, एण और हरिण। विशेष दे० 'हिरन'। ३. हाथियों की एक जाति जिसकी आँखें कुछ बड़ी होती है और गंडस्थल पर सफेद चिह्न होता है। उ०—च्यारि प्रकार पिष्षि बन वारन। भद्र मंद मृग जाति सधारन।—पृ० रा०, २७।४। ४. मार्गशीर्ष। अगहन का महीमा। ५. मृगशिरा नक्षत्र। ६. एक यज्ञ का नाम। ७. मकर राशि। ८. अन्वेषण। खोज। ६. कस्तुरी का नाफा। १०. ज्योतिष में शुक्र की नी वीथियों में से आठवीं बीथी जो अनुराधा, ज्योष्ठा और मुल में पड़ती है। ११. पुरुष के चार भेदों में से एक। विशेष—मृग जाति का पुरुष मधुरभाषी, बड़ी आँखोंवाला, भीरु चपल, सुंदर और तेज चलनेवाला होता है। यह चित्रिणी स्त्री के लिये उपयुक्त कहा गया है। १२. वैष्णवों के तिलक का एक भेद। १३. चंद्रमा का लांछन। चंद्रमा में मृग का चिह्न (को०)।
⋙ मृगकानन
संज्ञा पुं० [सं०] १. उद्यान। उपवन। २. आखेटोप- योगी पशुओं से भरा हुआ बन [को०]।
⋙ मृगकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।
⋙ मृगगामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक ओषध। दायविडंग [को०]।
⋙ मृगघर्मज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कस्तुरी का नाफा। २. जवादि नामक गंधद्रव्य।
⋙ मृगचर्म
संज्ञा पुं० [सं०] मृगछाला। हिरन का चमड़ा। विशेष—यह पवित्र माना जाता है। इसका व्यवहार उपनयन संस्कार में होता है और इसे साधु संन्यासी बिछाते हैं।
⋙ मृगचर्या
संज्ञा पुं० [सं०] मृग की तरह का रहन सहन जो एक प्रकार की तपस्या या आत्मनिग्रह है [को०]।
⋙ मृगचारी
वि० [सं० मृगचारिन्] मृगचर्या करनेवाला। हिरण की तरह जीवन बितानेवाला [को०]।
⋙ मृगचेटक
संज्ञा पुं० [सं०] गंधबिलाव। मुश्क बिलाव। खट्टास।
⋙ मृगछाला
संज्ञा स्त्री० [सं० मृग + हिं० छाला] मृगचर्म।
⋙ मृगछौना
संज्ञा स्त्री० [सं० मृग + हिं० छौना] [स्त्री० मृगछौनी] मृगशावक। उ०—प्यारो अंक दुरि रही ऐसै, जैसे केहरि क्रंदन सुनि मृगछौनी।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७३।
⋙ मृगजरस
संज्ञा पुं० [सं०] एक रसौपध जिसका व्यवहार रक्तपित्त में होता है। विशेष—शोधा हुआ पारा और मृत्तिका लवण (लौनी) बासे के रस में एक दिन तक घोटने से यह तैयार होता है।
⋙ मृगजल
संज्ञा पुं० [सं०] मृगतृष्णा। मृगतृष्णा की लहरें। उ०— (क) सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजल निरखि मरहु कत धाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) नृपा जाइ वरु मृगजल पाना। बरु जामहि सम सीस विषाना।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—मृगजलस्नान=मृगजल में नहाना। अनहोनी बात।
⋙ मृगजा
संज्ञा पुं० [सं०] कस्तुरी।
⋙ मृगजालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिरनों को फँसाने का जाल।
⋙ मृगजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] शिकरी। अहेरी [को०]।
⋙ मृगजुंभ
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगजृम्भ] खोए या चोरी गए हुए धन की खोंज।
⋙ मृगटंक
संज्ञा पुं० [सं० मृगटङ्क] चंद्रमा।
⋙ मृगणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपहृत धन की खोज। २. खोज। अन्वेषण।
⋙ मृगतृषा
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगतृपा] दे० 'मृगतृष्णा'।
⋙ मृगतृष्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जल या जल की लहरों की वह मिथ्या प्रतीति जो कभी कभी ऊपर मैदानों में भी कड़ी धुप पड़ने के समय होती है। मृगमरीचिका। विशेष—गरमी के दिनों जब वायु तहों का धनत्व उष्णता के कारण असमान होता है, तब पृथ्वी के निकट की वायु अधिक उष्ण होकर ऊपर को उठना चाहती है, परंतु ऊपर की तहें उठने नहीं देती, इससे उस वायु की लहरें पृथ्वी के समानांतर बहने लगती है। यही लहरें दुर से देखने में जल को धारा सी दिखाई देती हैं। मृग इससे प्रायः धोखा खाते हैं, इससे इसे मृगतृष्णा, मृगजल आदि कहते हैं।
⋙ मृगतृष्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मृगतृष्णा'। उ०—चारो ओर से काट काटकर अपने को अलग करती हुई, और एकाकी बनकर जिधर भागती हुई चली आई हुँ जहाँ वहाँ देखती हुँ रेत, रेत, रेत, केवल मृगतृष्णिका।—सुखदा, पृ० १३।
⋙ मृगतृष्ना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगतृष्णा] दे० 'मृगतृष्णा'। उ०— मृगतृष्ना सम जग जिय जानी। तुलसी ताहिं संत पहिचानी।— तुलसी ग्रं०।
⋙ मृगदंशक
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता।
⋙ मृगदर्प
संज्ञा पुं० [सं०] कस्तुरी [को०]।
⋙ मृगदाव
संज्ञा पुं० [सं० मृगदाव (=मृगों का वन)] १. वह वन जिसमें बहुत मृग हों। २. काशी के पास 'सारनाथ' नामक स्थान का प्राचीन नाम। (कहा जाता है कि वहाँ वन में मृग स्वच्छंद विचरण किया करते थे)।
⋙ मृगद्यु
संज्ञा पुं० [सं०] शिकारी।
⋙ मृगांद्वष्
संज्ञा पुं० [सं०] शेर। सिंह [को०]।
⋙ मृगद्दशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिरन जैसी आँखोंवाली स्त्री।
⋙ मृगद्दष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] शेर। बाघ [को०]।
⋙ मृगधर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ मृगधुम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।
⋙ मृगधुर्त
संज्ञा पुं० [सं०] श्रृगाल।
⋙ मृगधुर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मृगधुर्त' [को०]।
⋙ मृगनयना
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिरन को आँखोंवाली स्त्री।
⋙ मृगनयनि, मृगनयनो
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मृगनयना'। उ०— चंद्रवदनि की सी अलकावलि, लहराती थी लोल शैवलिनि। कोमल चंचल धरणी श्यामल, किसी मृगनयनि की थी दृगकनि।—मधुज्वाल, पृ० १७।
⋙ मृगनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह। विशेष—'मृग' शब्द के आगे पति, नाथ, राज आदि शब्द लगने से सिंहवाचक शब्द बनता है।
⋙ मृगनाभि
संज्ञा पुं० [सं०] कस्तुरी।
⋙ मृगनाभिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कस्तुरी।
⋙ मृगनेत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृगशिरा नक्षत्र से युक्त रात्रि। विशेष—अगहन महीने के वीसवें दिन के २० दंड के उपरांत से लेकर संक्रांति तक के काल को मृगनेत्रा कहते हैं, जिसमें श्राद्ध नवात्र आदि वर्जित है।
⋙ मृगनैनी
वि० स्त्री० [सं० मृग + नयन] जिसकी आँखें हिरन के समान सुंदर हों। बहुत सुंदर नेत्रोंवाली स्त्री। उ०—वासों मृग अंक कहै तोसों मृगनैनों सब, वह सुधाधर तुहुँ सुधाधर मानिए।—केशव (शब्द०)।
⋙ मृगपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह। उ०—कटि मृगपति को चरम चरन में धुँघरुप धारत।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ४१७। २. मृगशिरा नक्षत्र का स्वामी। चंद्रमा। उ०—मृगनयणी, मृगपति मुखी मृगमद तिलक निलाट।—ढोला०, दु० ४६६। यौ०—मृगपतिमुखी =चंद्रमुखी।
⋙ मृगपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृग का पैर। २. मृग के खुर का चिह्न या गड्ढा जो जमीन पर पड़ गया हो।
⋙ मृगपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कास्तुरीमृग।
⋙ मृगपिप्लु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।
⋙ मृगपोत
संज्ञा पुं० [सं०] मृगशावक। मृगछोना।
⋙ मृगप्रभु
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह। शेर [को०]।
⋙ मृगप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. भुतृण। २. जलकदली।
⋙ मृगबंधिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगबन्धिनी] हिरन पकड़ने का जाल [को०]।
⋙ मृगबधाजीव
संज्ञा पुं० [सं०] वहेलिया। व्याध। शिकारी [को०]।
⋙ मृगभक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जटामासी। २. इंद्रवारुणी। इंद्रायन।
⋙ मृगभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों की एक जाति। उ०—भद्र और मृगभद्र आदि बहु जे जग जाति बिख्याती।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मृगमंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगमन्दा] कश्यप ऋषि की क्रोधवशा नाम्नी पत्नी से उत्पन्न दस कन्याओं में से एक जिसमें ऋक्ष, सृमर और चमर जाति के मृग उत्पन्न हुए थे।
⋙ मृगमंद्र
संज्ञा पुं० [सं० मृगमन्द्र] हाथियों की एक जाति।
⋙ मृगमत्तक
संज्ञा पुं० [सं०] श्रृगाल।
⋙ मृगमद
संज्ञा पुं० [सं०] कस्तुरी। उ०—मृगनयनी मृगपति मुखी मृगपद तिलक निलाट।—ढोला०, दु० ४६६। यौ०—मृगमदमय=कस्तुरी से युक्त। उ०—अवलोकने विलोकिए मृगमदमय घनसार।—केशव (शब्द०)।
⋙ मृगदबासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कस्तुरी की तरह गंधवाली—कस्तुरी मल्लिका।
⋙ मृगमदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कस्तुरी।
⋙ मृगमरीचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृगतृष्णा।
⋙ मृगमातृक
संज्ञा पुं० [सं०] लंबोदर मृग। कस्तुरी मृग।
⋙ मृगमास
संज्ञा पुं० [सं०] मार्गशीर्ष मास। अगहन [को०]।
⋙ मृगमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। उ०—मृगमित्र विलोकित चित्त जरै लिए चंद्र निशाचर पद्धति को।—केशव (शब्द०)।
⋙ मृगमुख
संज्ञा पुं० [सं०] मकर राशि।
⋙ मृगमेद पु
संज्ञा पुं० [सं०] कस्तुरी। मुश्क। उ०—(क) सब और लिप्यो मृगमेद महा। तम हेत भयो दिग भेद कहा।—गुमान (शब्द०)। (ख) पुन्यन के जल धोरि घने घनसार मिले मृगमेद दहावत।—गुमान (शब्द०)। (ग) चोवा मिलै मृगमेद धसै घनसार सों केसरि गारत डोलैं।—देव (शब्द०)।
⋙ मृगया
संज्ञा पुं० [सं०] शिकार। अहेर। आखेट। उ०—(क) हम छत्री मृगया बन करहीं। तुमसे खल मृग खोजत फिरहीं।—तुलसी (शब्द०)। (ख)एक दिवस मृगया को निकस्यो कंठ महामणि लाइ।—सुर (शब्द०)। (ग) भुलि परी मृग को मृग चाहि भई मृगया की मृगी मृगनैनी।—देव (शब्द०)। यौ०—मृगयाक्ररीड़न =शिकार खेलने की प्रसन्नता। मृगयाधर्म = शीकार खेलने का नियम। मृगयायान =मित्रों के साथ सदलवल शिकार खेलने जाना। मृगयारस =शिकार खेलने का आनंद। मृगयावन =शिकारगाह। मृगयाव्यसन =आखेट का व्यसन या आदत।
⋙ मृगयु, मृगयू
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. गीदड़। ३. व्याध।
⋙ मृगयूथ
संज्ञा पुं० [सं०] मृगों का समुह। हिरनों का झुंड [को०]।
⋙ मृगरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सहदेइया नामक पौधा। सहदेवी। महाबला।
⋙ मृगराज
संज्ञा पुं० [सं० मृगराट्, मृगराज्] १. सिंह। २. व्याघ्र (को०)। ३. चंद्रमा (को०)। ४. सिंह राशि या लग्न (को०)।
⋙ मृगराटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीवंती लता।
⋙ मृगरिपु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह। शेर। २. सिंह राशि वा लग्न [को०]।
⋙ मृगरोग
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों का एक घातक रोग जिसमें वे जल्दी जल्दी साँस लेते हैं और उनके नथुने सुज आते हैं।
⋙ मृगरोचन
संज्ञा पुं० [सं०] कस्तुरी। मुश्क। उ०—मैं मृगरोचन और तीर्थ की मिट्टी और दुब मंगल उपचार की सामग्री ले आऊँ।—शकुंतला, पृ० ६८।
⋙ मृगरोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीला अंगरावा [को०]।
⋙ मृगरोम
संज्ञा पुं० [सं०] ऊन [को०]। यौ०—मृगरोमज =ऊन का वस्त्र। ऊनी कपड़ा।
⋙ मृगलच्छन पु
संज्ञा पुं० [सं० मृगलाञ्च्छन] दे० 'मृगलांछन'। उ०—मृगपति जित्यो सुलंक सों, मृगलच्छन मृदु हास। मृग मद जित्यो सुनैन सों मृगमद जित्यो सुवास।—मति० ग्रं०, पृ० ४४७।
⋙ मृगलक्ष्मा
संज्ञा पुं० [सं० मृगलाक्ष्मन्] दे० 'मृगलांछन' [को०]।
⋙ मृगलांछन
संज्ञा पुं० [सं० मृगलाञ्छन] १. चंद्रमा। २. मृगशिरा।
⋙ मृगला पु †
संज्ञा पुं० [हिं० मृग + ला (प्रत्य०)] १. दे० 'मृग'। २. मृग के समान चंचल पंच कर्मेंद्रियाँ (लाक्ष०)। उ०— काया कठिन कमना है, खाँचे बिरला कोइ। मारै पंचौ मृगला दादु सुरा सोइ।—दादु०, पृ० ३८०।
⋙ मृगलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमा का धब्बा।
⋙ मृगलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।
⋙ मृगलोचना
वि० स्त्री० [सं०] हरिण के समान नेत्रवाली (स्त्री)।
⋙ मृगलोचनी
वि० स्त्री० दे० 'मृगलोचना'।
⋙ मृगलोमिक
वि० [सं०] ऊन का ऊर्णनिर्मित। ऊनी।
⋙ मृगव
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध शास्त्रों के अनुसार एक बहुत बड़ी संख्या का नाम।
⋙ मृगवधु
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृगी। हरिणी [को०]।
⋙ मृगवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] कुंदुरु तृण।
⋙ मृगवारि पु
संज्ञा पुं० [सं०] मृगतृष्णा का जल। उ०—सुते सपने ही सहै संसृत संताप रे। बुड़ो मृगवारि खायो जेवरि के साँप रे।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मृगवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। पवन। २. स्वाति नाम का नक्षत्र [को०]।
⋙ मृगवीथिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मृगवीथी।
⋙ मृगवीथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ज्योतिष के अनुसार शुक्र की नौ वीथियों में से एक जिसमें शुक्र ग्रह अनुराधा, ज्योष्ठा और मुल पर आता है। २. चंद्रमा की वह स्थिति जब वह श्रवण, शतभिषा और पूर्व भाद्रपदा से युक्त होता है (को०)।
⋙ मृगव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. आखेट। मृगया। २. (धनुर्विद्या) लक्ष्य। निशाना [को०]।
⋙ मृगव्याध
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिकारी। अहेरी। २. एक नक्षत्र। ३. शिव [को०]।
⋙ मृगशाव, मृगशावक
संज्ञा पुं० [सं०] मृगछौना। हिरन का कोमल बच्चा। यौ०—मृगशावकनैनी =मृगछौने की तरह चंचल नेत्रोंवाली।
⋙ मृगशिरा
संज्ञा पुं० [सं० मृगशिरस्] सत्ताइस नक्षत्रों में से पाँचवाँ नक्षत्र। विशेष—इसके अधिपति चंद्रमा है और यह आड़ा या तिर्यङ्मुख नक्षत्र है। यह तीन तारों से मिलकर बना हुआ और बिल्ली के पैर के आकार का है। आकाश में यह नक्षत्र कन्या लग्न के बाईस पल बीतने पर उदित होता है। मृगशिरा नक्षत्र के पूर्वीर्ध में (अर्थात् ३० दंड के बीच) वृष राशि और अपरार्ध में मिथुन राशइ होती है। इस नक्षत्र में उत्पन्न मनुष्य मृगचक्षु, अति बलवान्, सुंदर कपालवाला, कामुक, साहसी, स्थिरप्रकृति, मित्र पुत्र से युक्त और थोड़ा धनवान् होता है।
⋙ मृगशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मृगशिरा नक्षत्र। २. अगहन का महीना। मार्गशीर्ष (को०)।
⋙ मृगश्रष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] वाघ [को०]।
⋙ मृगसत्र
संज्ञा पुं० [सं०] उन्नीस दिन का एक सत्र।
⋙ मृगहा
संज्ञा पुं० [मृगहन्] शिकारी [को०]।
⋙ मृगांक
संज्ञा पुं० [सं० मृगाङ्क] १. चंद्रमा। उ०—दुजराजा शशधर उदधितनय ससांक मृगांक।—नंद० ग्रं०, पृ० ११६। २. एक रस जो सुवर्ण और रत्नादि से बनता है और क्षय रोग में विशेष उपकारी होता है। विशेष दे० 'मृगांकरस'। उ०—(क) राम की रजाइ ते रसाइनी समीर सुनु उकतरि परयोधि पार सोधि के ससांक सो। जातुधान वुट पुट पाक लंक जातरुप रतन जतन जारि कियो है मृगांक सो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) किधौं विराट के सुरारि राजरोग जानि जु। निमित्त तासु बैद ज्यौं जरयौ मृगांक ठानि जु।—रघुनाथदास (शब्द०)।
⋙ मृगांकरस
संज्ञा पुं० [सं० मृगाङ्करस] एक प्रकार का रसौपध। विशेष—पारा एक भाग, सोना एक भाग, मोती दो बाग, गंधक दो भाग और सोहागा एक भाग, इन सब चीजो को काँजी में पीसकर नमक के भाँड़े में रखकर चार पहर पकाते हैं। इस रस को चार रत्तो की मात्रा में सेवन करने से राजयक्ष्मा रोग नष्ट हो जाता है। राजमृगांक और महामृगांक रस भी होते हैं, जिसमें द्रव्यों की संख्या अधिक होती है।
⋙ मृगांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगाङ्गना] मृगी। हरिणी।
⋙ मृगांडजा
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगाण्डजा] कस्तुरी। मुश्क [को०]।
⋙ मृगांतक
संज्ञा पुं० [सं० मृगान्तक] चीता [को०]।
⋙ मृगा † (१)
संज्ञा पुं० [सं० मृग] हिरन। मृग।
⋙ मृगा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सहदेई का पौधा।
⋙ मृगाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरिण के से नेत्रोंवाली स्त्री।
⋙ मृगाजिन
संज्ञा पुं० [सं०] मृगछाला। मृगचर्म [को०]।
⋙ मृगाजीव
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वारुणी लता। २. कस्तुरी। ३. व्याध। शिकारी (को०)।
⋙ मृगाद, मृगादन
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह, चीता, बाध इत्यादि वनजंतु जो मृगों को खाते हैं।
⋙ मृगादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इंद्रवारुणी। इंद्रायन। २. सहदेई। ३. ककड़ी।
⋙ मृगाधिप, मृगाधिराज
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह। शेर।
⋙ मृगाराति
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ता। २. सिंह (को०)। ३. सिंह राशि (को०)।
⋙ मृगारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह। २. कुत्ता। ३. बाध। चीता। ४. एक वृक्ष। लाल लहिजन। ५. सिंह राशि [को०]।
⋙ मृगाविध
संज्ञा पुं० [सं०] व्याध। शिकारी [को०]।
⋙ मृगाश
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह। उ०—(क) मुपकादि ग्रह में रहैं बहिर मृगाश शकुंतु। गो अश्वादिक जीव बहु जीवहिं सब लघु जंतु।—शंकर दि० वि० (शब्द०)।
⋙ मृगाशन
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह। मृगाधिप। उ०—दबति द्रौपदी देखि दुशासन। जिमि वन में लखि मृगी मृगाशन।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मृगिंद्र पु
संज्ञा पुं० [सं० मृगेन्द्र] १. दे० 'मृगेंद्र'। २. सिंह के समान शुर वीर। उ०—गज्जैं न लज कोपै मृगिंद्र। उतकिष्ट सुर सिर सहिन निंद्र।—पृ० रा०, ९।४९।
⋙ मृगित
वि० [सं०] १. अन्वेषित। जिसका पीछा किया गया हो। २. याचित।
⋙ मृगिनी पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगा] हरिणी। उ०—(क) ज्यौ मृगिनी वृक झुंड के बासा। त्यों ये अंधसुतन के वासा।— लल्लुलाल (शब्द०)। (ख) मृग मृगिनी द्रुव वन सारस खग काहु नही बताया री।—सुर (शब्द०)। (ग) बाँसुरी को शब्द सुनिकै बधिक की मृगिनी भई।—सुर (शब्द०)।
⋙ मृगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मृग नामक वन्य पशु की मादा। हरिणी। हिरनी। उ०—मनहु मृगो मृग देखि दियासे।—तुलसी (शब्द०)। २. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक रगण (/?/) होता है। जैसे,—री प्रिया। मान तू। मान ना। ठान तु। इसे 'प्रिय वृत्त' भी कहते हैं। ३. कश्यप ऋप की क्रोध- वशा नाम्नी पत्नी से उत्पन्न दस कन्याओं में से एक, जिससे मृगों की उत्पत्ति हुई है और जी पुलह ऋषि की पत्नी थी। ४. पीले रंग की एक प्रकार की कौड़ी जिसका पेट सफेद होता है। ५. अपस्मार नामक रोग। मृगो रोग। ६. कस्तुरी।
⋙ मृगीदृश्, मृगलाचन
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृगी या हिरनी के समान नेत्रावाली स्त्री [को०]।
⋙ मृगीपति
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
⋙ मृगीवंत पु
वि० [सं० मृगी + हिं० वंत] अपस्मार का रोगी। मृगी रोग से ग्रस्त। उ०—धनसारहिं दिखि मुरझति ऐसै। मृगीवत जल दरसै जैसे।—नंद० ग्रं०, पृ० १४४।
⋙ मृगेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० मृगेन्द्र] १. सिंह। २. बाध। चीता (को०)। ३. सिंह राशि (को०)।
⋙ मृगेंद्रचटक
संज्ञा पुं० [सं० मृगेन्द्रचटक] बाज पक्षी।
⋙ मृगेंद्राशी
संज्ञा स्त्री० [सं० मृगेन्द्राशी] अडुसा। वासक।
⋙ मृगेंद्रासन
संज्ञा पुं० [सं० मृगेन्द्रासन] पत्थर। प्रस्तर।
⋙ मृगेद्रास्य
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ मृगेक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'मृगीदृश'। २. श्वेत इंद्रायन। श्वेत इंद्रवारनी [को०]।
⋙ मृगक्षिणी
वि० स्त्री० [सं० मृग + ईक्षण] हिरन के से नेत्रोंवाली। उ०—मृगोक्षिणी ! इनमें खग अज्ञान।—गुंजन, पृ० ४०।
⋙ मृगेल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो संयुक्तप्रांत, बंगाल पंजाब तथा दक्षिण की नदियों में पाई जाती है। विशेष—इसकी आँखें सुनहरी होती है। यह डेढ़ हाथ के लगभग लंबी होती है और तौल में नौ या दस सेर होती है।
⋙ मृगेश
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह।
⋙ मृगेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की चमेली। मोगरा [को०]।
⋙ मृगैर्वारु
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेतेंद्रवारुणी। सफेद इंद्रायन।
⋙ मृगोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] मृगोशेरा नक्षत्र।
⋙ मृग्य
वि० [सं०] १. जिसका अन्वेषण या पीछा किया जाय। २. जो निश्चित न हो [को०]।
⋙ मृच्छकटिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. संस्कृत का एक बहुप्रसिद्ध नाटक जिसके रचयिता शुद्रक कहे जाते है। २. मिट्टी का रथ।
⋙ मृज
संज्ञा पुं० [सं०] मुरज नाम का बाजा।
⋙ मृजा
संज्ञा पुं० [सं०] मार्जन।
⋙ मृजित
वि० [सं०] मार्जित। जिसका मार्जन किया गया हो [को०]।
⋙ मृज्य
वि० [सं०] मार्जन के योग्य। मार्जनीय।
⋙ मृजाद पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मर्यादा] इज्जत। मान। उ०—सबही मृजाद देखी सुनी जदपि बड़ाई हु सहित।—ब्रज०ग्रं०, पृ० ७१।
⋙ मृडंकण
संज्ञा पुं० [सं० मृड्डकण] बालक। शिशु [को०]।
⋙ मृड़
संज्ञा पुं० [सं० मुड] [स्त्री० मृडानी] शिव। महादेव। उ०— मदन मथन मृड़ अंतरजामी। त्राता हाहु जगत के स्वाप्ती।—नंद०, ग्रं०, पृ० १५४।
⋙ मृडन
संज्ञा पुं० [सं०] अनुकुलता। अनुग्रह। अनुकंपा [को०]।
⋙ मृडा़
संज्ञा स्त्री० [सं० मृडा] दुर्गा। पार्वती। उ०—मृड़ा चंडिका मृडी अंविका भवा भवानी सोय।—नंददास (शब्द०)।
⋙ मृड़ानी
संज्ञा स्त्री० [सं० मृडानी] दुर्गा। भवानी। पार्वती। उ०— अदेवी नृदेबीन को होहु रानी। करैं सेव बानी मधौनी मूड़ा़नी।—केशव (शब्द०)।
⋙ मृडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा [को०]।
⋙ मृडीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिरन। २. शिव का एक नाम। ३. मछली (को०)।
⋙ मृणाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमल का डंठल जिसमें फुल लगा रहता है। कमलनाल। उ०—(क) तौ शिव धनुष मृणाल कि नाई। तोरहिं राम गणेश गौसाँईँ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) आई जु चलि गोपाल घरै ब्रजबाल बिशाल मृणाल सो बाहीं।—पद्माकर (शब्द०)। २. कमल की जड़। मुरार। भसींड। ३. उशीर। खस। यौ०—मृणालकंठ। मृणालभंग =कमलनाल के तंतु या रेशे का टुकड़ा। मृणालसुत्र =कमलनाल का तंतु।
⋙ मृणालकंठ
संज्ञा पुं० [सं० मृणाल + कण्ठ] एक प्रकार का जल- पक्षी।
⋙ मृणालिका
संज्ञा पुं० [सं०] कमल की डंठी। कमलनाल। उ०— भैरिन ज्यौ भँवत रहत बन बीथिकान हंसिनि ज्यौ मृदुल मृणालिका चहति है।—केशव (शब्द०)।
⋙ मृणालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमलिनी। २. वह स्थान जहाँ कमल हों। ३. कमल का समुह।
⋙ मृणाली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कमल का डंठल। कमलनाल। उ०— (क) धरे एक वेणी मिली मैल सारी। मृणाली मनों पंक सों काढ़ि डारी।—केशव (शब्द०)। (ख) मैलते सहित मानो कंचन की लता लोनी, पंक लपटानी ज्यों मृणाली दरसाई है।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मृणाली (२)
संज्ञा पुं० [सं० मृणालिन्] कमलपुष्प। कमल [को०]।
⋙ मृण्मय
वि० [सं०] मृत्तिकानिर्मित। दे० 'मृन्मय' [को०]।
⋙ मृण्मूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिट्टी की बनी हुई मुर्ति [को०]।
⋙ मृत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मृद्' [को०]।
⋙ मृतंड
संज्ञा पुं० [सं० मृतण्ड] सूर्य। मृतांड [को०]।
⋙ मृतंपुर पु
संज्ञा पुं० [सं० मृतम् (=मृत्यु) + पुर (=लोक)] मर्त्य लोक। मानवलोक। उ०—चलै थान कैलास परी अच्छरी मृतंपुर।—पृ० रा०, २५।१६३।
⋙ मृत (१)
वि० [सं०] १. मरा हुआ। मुर्दा। २. मृत तुल्य। मृत सा (को०)। ३. मुर्छित। शोधित। जैसे, पारा (को०)। ४. माँगा हुआ। याचित।
⋙ मृत (२)
संज्ञा पुं० १. मृत्यु। मरण। २. माँगने से मिला हुआ अन्न वा भिक्षा आदि [को०]।
⋙ मृतकंबल
संज्ञा पुं० [सं० मृतकम्बल] वह कपड़ा जिससे मुर्दे को ढँकते हैं। कफन।
⋙ मृत्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरा हुआ प्राणी। मुर्दा। २. मरण का अशौच। ३. मरण। मृत्यु। मौत (को०)।
⋙ मृतककर्म
संज्ञा पुं० [सं०] मृतक पुरुष की शुद्ध गति के लिये किया जानेवाला कृत्य। प्रेतकर्प। जैसे, दाह, पोडशी, दशगात्र, इत्यादि। उ०—तब सुग्रीवहिं आयसु दीन्हा। मृतककर्म विधिवत् सब कीन्हा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मृतकधुम
संज्ञा पुं० [सं०] राख। भस्म। उ०—जम्यो गाड़ भर भर रुधिर ऊपर धुरि उड़ाय। जिभि अँगार रासीन्ह पर मृतक- धुम रह छाय।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मृतकल्प
वि० [सं०] मृतप्राय। मरणासन्न [को०]।
⋙ मृतकांतक
संज्ञा पुं० [सं० मृतकान्तक] श्रृगाल। गीदड़।
⋙ मृगगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका गर्भस्थ शिशु (भ्रुण) मर गया हो।
⋙ मृतगृह
संज्ञा पुं० [सं०] श्मसान। कब्र [को०]।
⋙ मृतचेल
संज्ञा पुं० [सं०] मुर्दे के ऊपर का कपड़ा। कफन। मृत- कंबल। [को०]।
⋙ मृतजीव
संज्ञा पुं० [सं०] १.भरा हुआ प्राणी। २. तिलक वृक्ष।
⋙ मृतजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] मरे हुए को जिलाना।
⋙ मृतजीवनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह विद्या जिसमें मुर्दें को जिलाया जाता है। उ०—क्यों न जिवावै असुरगुरु तम असुरै परभात। संध्यावृत मृत्यजीवनी विद्या कहीं न जात।—गुमान (शब्द०)। २. दुधिया घास। दुग्धिका।
⋙ मृतदार
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जिसकी स्त्री मर गई हो। रडुँआ।
⋙ मृतधर्मा
वि० [सं० मृतधर्मन्] नष्ट हो जानेवाला। नश्वर।
⋙ मृतनंदन
संज्ञा पुं० [सं० मृतनन्दन] वास्तुविद्या में एक प्रकार का बड़ा कक्ष या कमरा जिसमें ५८ खंभे हों [को०]।
⋙ मृतनिर्यातक
संज्ञा पुं० [सं०] मुर्दे को श्मसान पहुँचाने का पेशा करनेवाला। मडाफेका (बँगला)।
⋙ मृतप
संज्ञा पुं० [सं०] एक निम्न जाति [को०]। विशेष—इस जाति के लोग मुर्दों की रखवाली करते हैं, श्मसान तक उन्हें पहुँचाते है और मरे हुए प्राणियों के कपड़े इकट्टा करते हैं।
⋙ मृतप्रजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके बच्चे मर गए हों।
⋙ मृतभर्तृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विधवा। राँड़ [को०]।
⋙ मृतमंडल पु
संज्ञा पुं० [सं० मृत + मण्डल] मृत्युलोक। उ०— मृतमंडल कोउ थिर नहीं आवा सो चलि जाय।—जग० श०, पृ० १३०।
⋙ मृतमंडा पु
संज्ञा पुं० [सं० मृताण्ड =(सूर्य)] मार्तंड। सूर्य। उ०—भुई उड़ि अंतरिक्ख मृतमंडा। खंड खंड धरती बरम्हंडा।—जायसी ग्रं०, पृ० ५।
⋙ मृतमत्त
संज्ञा पुं० [सं०] श्रृगाल। गीदड़ [को०]।
⋙ मृतमातृक
वि० [सं०] जिसकी माता मर चुकी हो [को०]।
⋙ मृतवत्सा
वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री०) जिसकी संतति मर मर जाती हो। जैसे मृतवत्सा स्त्री, मृतवत्सा गौ।
⋙ मृतसंजीवनरस
संज्ञा पुं० [सं० मृतसञ्जीवन रस] एक रसौषध जिसका व्यवहार ज्वर में होता है।
⋙ मृतसंजीवनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मृतकसञ्जीवनी] १. एक बुटी जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि इसके खिलाने से मुर्दा भी जी उठता है। उ०—मृतसंजीवनि औषधी अरु करनी सघान। अरु विशल्य करनी सुखद ल्यावहु द्रुत हनुमान।—रघुराज (शब्द०)। २. मृत को जीवित करने की विद्या। ३. ज्वर का एक औषध जो सुरा के रुप में प्रस्तुत किया जाता है।
⋙ मृतसंजीवनी सुरा
संज्ञा स्त्री० [सं० मृतसञ्जीवनी सुरा] एक वाजीकरण औषध।
⋙ मृतसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] मृत व्यक्ति का दाह संस्कार। अंत्येष्टि [को०]।
⋙ मृतसूत
संज्ञा पुं० [सं०] रससिंदुर।
⋙ मृतसूतक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मृतसूतिका] १. वह जिसे मृत संतान उत्पन्न हुई हो। २. भस्म किया हुआ पारा।
⋙ मृतस्नात
वि० [सं०] १. जिसने किसी सजाति या बंधु के मरने पर उसके उद्देश्य से स्नान किया हो। २. वह मुरदा जिसे दाह के पूर्व स्नान कराया गया हो।
⋙ मृतस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी भाई बंधु के मरने पर किया जानेवाला स्नान। २. मृतक का स्नान।
⋙ मृतहार
संज्ञा पुं० [सं०] मुदी ढोने या ले जानेवाला। मृतनियतिक मृतहारी [को०]।
⋙ मृतहारी
संज्ञा पुं० [सं० मृतहारिन्] दे० 'मृतहार' [को०]।
⋙ मृतांग
संज्ञा पुं० [सं० मृताङ्ग] मृत्त शरीर। शव। लाश [को०]।
⋙ मृतांड
संज्ञा पुं० [सं० मृताण्ड] सूर्य [को०]।
⋙ मृतांडा
स्त्री० [सं० मृताण्डा] वह स्त्री जिसका बच्चा मर गया हो या मर जाता हो [को०]।
⋙ मतान पु †
संज्ञा पुं० [सं० मृत ?] मुर्दा। भुत प्रेत। कव्र। उ०— काहु बुतान को पूजत है पशु, काहु मृतान को पूजन धायौ।— घट०, पृ० ३३६।
⋙ मृतामद
संज्ञा पुं० [सं०] तुत्थ। तुतिया।
⋙ मृतालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अरहर। २. गोपीचंदन।
⋙ मृताशन
वि० [सं०] ९० से १०० वर्ष की अवस्था का [को०]।
⋙ मृताशौच
संज्ञा पुं० [सं०] वह अशौच (अपवित्रता) जो किसी आत्मीय, संबंधी, गुरु पड़ोसी आदि के मरने पर लगता है और जिसमें शुद्ध होने तक ब्रह्मचर्य के साथ देवकर्म तथा गृहकर्म से अलग रहना पड़ना है।
⋙ मृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मरण। मृत्यु। यौ०—मृतिरेखा =मृत्युसूचक रेखा।
⋙ मृतिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मृत्तिका] मिट्टी। खाक। उ०—कंचन को मृतिका करि मानत। कामिनि काष्ठशिला पहिचानत।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ मृतु †
संज्ञा स्त्री० [सं० मृत्यु] मृत्यु। मौत। उ०—जब आवै मृतु अंध, जीव कहँ जाई पराई।—धरम० श०, पृ० ७८।
⋙ मृत्कर
संज्ञा पुं० [सं०] कुलाल। कुम्हार [को०]।
⋙ मृत्कला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिट्टी की कला। उ०—आसव पान संबंधी एक द्दश्य मृत्कला में आया है।—संपुर्ण० अभि० ग्रं०, पृ० ३०४।
⋙ मृत्कांस्य
संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी का पात्र या बरतन [को०]।
⋙ मृत्किरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुकीट। घुर्घुरिया [को०]।
⋙ मृत्ताल, मृत्तालक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'आढकी' [को०]।
⋙ मृत्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मिट्टी। खाक। उ०—जथा हट तंतु घट मृत्तिका सर्प स्रग दारु करि कनक कटकांगदादी।—तुलसी (शब्द०)। २. अरहर।
⋙ मृत्तिकालवण
संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी का लोना या नोना। (पुराने घरों की मिट्टी की दीवारों पर सीड़ होने से एक प्रकार का नमक लग जाता है।)
⋙ मृत्तिकावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] नर्मदा के किनारे की एक प्राचीन नगरी। (महाभारत)।
⋙ मृत्पच
संज्ञा पुं० [सं०] कुम्हार। कुलाल।
⋙ मृत्पट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी का पटरा। उ०—मृत्पट्टकों में अनेक ऐसे द्दश्य हैं जिनको निश्चित रुप से पहचानना कठिन है।—संपुर्णा०, अभि०, ग्रं०, पृ० ३०३।
⋙ मृत्पात्र
संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी का बरतन।
⋙ मृत्पिंड
संज्ञा पुं० [सं० मृत्पिंण्ड] मिट्टी का लोंदा या ढेला। यौ०—मृंत्पिंडबुद्धि =मुर्ख।
⋙ मृत्य पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृत्यु। दे० 'मृत्यु'। उ०—क्यौ न जाइ जीवत घरह, कहा करौगे मृत्य।—पृ० रा०, २५।७५६। यौ०—मृत्युलोक =मृत्युलोक। उ०—मृत्यलोक कव भोग तजि स्वर्ग लोक मन लाय।—प० रासो, पृ० ८१।
⋙ मृत्युंजय
संज्ञा पुं० [सं० मृत्युञ्जय] १. वह जिसने मृत्यु को जीत लिया हो। २. शिव का एक रुप। ३. शीव का एक मंत्र जिसके विधिपूर्वक जपने से अकालमृत्यु टल जाती है।
⋙ मृत्युं जयरस
संज्ञा पुं० [सं० मृत्युञ्जयरस] ज्वर के लिये उपयोगी एक रसौषध। विशेष—पारा एक माशा, गंधक दो माशे, सोहागा चार चार माशे, विष आठ माशे, धतुरे का बीज सोलह माशे तथा सोंठ, मिर्च और पीपल दस दस माशे सात सात रत्ती, इन सबको धतुरे की जड़ के रस में पीसकर माशे माशे भर की गोलियाँ बना लें, और जैसा ज्वर हो, उसके अनुसार अनुपान के साथ सेवन करे।
⋙ मृत्यु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शरीर से जीवात्मा का वियोग। प्राण छुटना। मरण। मौत। २. यमराज। ३. ग्यारह रुद्रो में से एक। ४. विष्णु। ५. ब्रह्मा। ६. माया। ७. कलि। ८. फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुंडली का आठवाँ स्थान। ९. कामदेव। १०. एक साममंत्र। ११. बौद्ध देवता पद्मपाणि के एक अनुचर। १२. संसार (को०)।
⋙ मृत्युकर (१)
वि० [सं०] मरणकारक।
⋙ मृत्युकर (२)
संज्ञा पुं० किसी की मृत्यु होने पर उसकी संपत्ति के ऊपर लगनेवाला कर [को०]।
⋙ मृत्युकाल
संज्ञा पुं० [सं०] मौत का क्षण [को०]।
⋙ मृत्युतूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाजा जो दाहक्रिया या अत्येष्टि क्रिया के समय बजाया जाता है [को०]।
⋙ मृत्युदूत
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु की खबर लानेवाला [को०]।
⋙ मृत्युनाशक
संज्ञा पुं० [सं०] पारा।
⋙ मृत्युपा
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ मृत्युपाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईख। गन्ना। २. केला। ३. बाँस (को०)।
⋙ मृत्युप्राय
वि० [सं०] जो मरना ही चाहता हो। जो मरने ही वाला हो। आसन्न मृत्यु। उ०—एक ओर पय के कृष्णकाय, कंकाल- शेष नर मृत्युप्राय।—अपरा, पृ० १४९।
⋙ मृत्युफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. केला। २. महाकाल नाम की लता।
⋙ मृत्युफला, मृत्युफली
संज्ञा स्त्री० [सं०] केला [को०]।
⋙ मृत्युबंध
संज्ञा पुं० [सं० मृत्युबन्ध] यम।
⋙ मृत्युंबाज
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस।
⋙ मृत्युभीत
वि० [सं०] मौत से डरनेवाला [को०]।
⋙ मृत्युभत्य
संज्ञा पुं० [सं०] रोग [को०]।
⋙ मृत्युयोग
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रह नक्षत्रों का मृत्युकारक योग [को०]।
⋙ मृत्युराज
सं० पु० [सं०] मृत्यु के देवता—यम [को०]।
⋙ मृत्युरुपी
संज्ञा पुं० [सं० मृत्युरुपिन्] १. यमदुत। २. वर्णमाला का 'श' अक्षर।
⋙ मृत्युलोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. यमलोक। २. मुर्त्युलोक।
⋙ मृत्युवंचन
संज्ञा पुं० [सं० मृत्युवञ्चन] १. शिव का एक नाम। २. काला कौआ [को०]।
⋙ मृत्युवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राज्य की रक्षा में युद्ध में मरणोपरांत मिलनेवाली सहायता। उ०—चंदेल लेख में 'मृत्युवृत्ति' नामक शब्द मिलता है, जिसका तात्पर्य यह था कि मुसलमानों से युद्ध करने में मरे व्यक्ति के परिवार को राजा की ओर से, उसकी बहादुरी के स्मरण में मासिक धन (वृत्ति) मिलता था।—पूर्व० म० भ०, पृ० १०५।
⋙ मृत्युसूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] केकड़े की मादा (जो अंडे देते ही मर जाती है)।
⋙ मृत्स
वि० [सं०] चिपचिपा।
⋙ मृत्सा
संज्ञा स्त्री० [स्त्री०] दे० 'मृत्स्ना'।
⋙ मृत्स्न
संज्ञा पुं० [सं०] घुल [को०]।
⋙ मृत्स्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भूमि। मिट्टी। २. अच्छी भूमि या मिट्टी। ३. एक प्रकार की सुवासित मिट्टी। ४. स्फटिक मिट्टी की पट्टी। ५. छेनी। टाँकी [को०]।
⋙ मृथा पु ‡
क्रि० वि० १. दे० 'वृथा'। २. दे० 'मृषा'।
⋙ मृद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृत्तिका। मिट्टी। विशेष—इस शब्द का अधिकतर व्यवहार समस्त पद बनाने में होता है।
⋙ मृदंकुर
संज्ञा पुं० [सं० मृदङ्कुर] हारीत पक्षी [को०]।
⋙ मृदंग
संज्ञा पुं० [सं० मृदङ्ग] १.एक प्रकार का बाजा जो ढोलक से कुछ लंबा होता है। तबले की तरह इसके दोनों मुँहड़ें चमड़े से मढ़े जाते है। इसका ढाँचा पक्की मिट्टी का होता है, इससे यह मृदंग कहलाता है। उ०—(क)बाजहिं ताल मृदंग अनुपा। सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) काहु बीन गहा कर काहु नाद मृदंग। सब दिन अनँद बधावा रहस कुद इक संग।—जायसी (शब्द०)। यौ०—मृदंगकेतु =धर्मराज युधिष्ठिर। मृदंगफल। मृदंगफलिनी। मृदंगवादक =मृदंग बजानेवाला। २. बाँस। ३. निनाद। ध्वनि (को०)।
⋙ मृदंगफल
संज्ञा पुं० [सं० मृदङ्गफल] कटहल। पनस।
⋙ मृदंगफलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मृदंगफलिनी] तरोई। तोरई।
⋙ मृदगी (१)
वि० [सं० मृदङ्ग + ई (प्रत्य०)] मृदंग बजानेवाला या बजाने का पेशा करनेवाला। उ०—कहाँ है रबाबी मृदंगी सितारी। कहाँ हैं गवैए कहाँ नृत्यकारी।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ७०२।
⋙ मृदंगी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० मृदङ्गी] तरोई। तोरई।
⋙ मृदव
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक को भाषा में गुण के साथ दोष के वैषम्य का प्रदर्शन (नाट्यशास्त्र)।
⋙ मृदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृत्तिका। मिट्टी।
⋙ मृदाकर
संज्ञा पुं० [सं०] व्रज।
⋙ मृदित
वि० [सं०] मर्दित [को०]।
⋙ मृदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अच्छी मिट्टी। २. गोपीचंदन।
⋙ मृदु (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मुद्धी] १.जो छुने में कड़ा न हो। कोमल। मुलायम। नरम। २. जो सुनने में कर्कश या अप्रिय न हो। जैसे, मृदु वचन। ३. सुकुमार। नाजुक। ४. जो तीव्र या वेगयुक्त न हो। धीमा। मंद। जैसे, मृदु स्वर, मृदु गति।
⋙ मृदु (२)
संज्ञा स्त्री० १. घृतकुमारी। घीकुआँर। २. सफेद जातिपुष्प। जुही नामक फुल का पौधा।
⋙ मृदुकंटक
संज्ञा पुं० [सं० मृदुकण्टक] कटसरैया।
⋙ मृदुका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मृद्धिका] दाख। अंगुर। उ०—स्वादी मृदुका मधुरसा काल मेखला होइ। अनेकार्थ०, पृ० ३७।
⋙ मृदुकृष्णायस
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा धातु [को०]।
⋙ मृदुकोष्ठ
वि० [सं०] जिसे हलके जुलाव या विरेचन से दस्त आ जाय [को०]।
⋙ मृदुखुर
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों के खुर का एक रोग।
⋙ मृदुगण
संज्ञा पुं० [सं०] नक्षत्रों का एक गण जिसमें चित्रा, अनुराधा मृगशिरा और रेवती, ये चार नक्षत्र हैं।
⋙ मृदुगमन
वि० [सं०] [वि० स्त्री० मृदुगमना] मंदगामी। धीमी चालवाला।
⋙ मृदुगमना
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंसी। हंसिनी [को०]।
⋙ मृदुचर्मी
संज्ञा पुं० [सं० मृदुचर्मिन्] भोजपत्र।
⋙ मृदुच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजपत्र का पेड़। २. पीलू वृक्ष। ३. लाल लजालु।
⋙ मृदुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कोमलता। मुलायमियत। २. धीमापन। मंदता।
⋙ मृदुतीक्ष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] कृत्तिका और विशाखा नक्षत्र।
⋙ मृदुताल
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीताल का वृक्ष [को०]।
⋙ मृदुत्वक्
संज्ञा पुं० [सं० मृदुत्वच्] भोजपत्र।
⋙ मृदुदर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कुश।
⋙ मृदुन्नक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण। सोना [को०]।
⋙ मृदुपवक
संज्ञा पुं० [सं०] बेंत। नरकुल [को०]।
⋙ मृदुपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] शिरीप वृक्ष। सिरिस।
⋙ मृदुफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधु नारिकेल। नारियल। २. विकंकत का वृक्ष।
⋙ मृदुभाषी
वि० [सं० मृदुभाषिन्] [वि० स्त्री० मृदुभाषिणी] मधुर या मीठा बोलनेवाला।
⋙ मृदुरोमक
संज्ञा पुं० [सं०] खरगोश। शशक [को०]।
⋙ मदुरोमा
संज्ञा पुं० [सं० मृदुरोमन्] खरगोश [को०]।
⋙ मृदुल (१)
[सं०] १. कोमल। मुलायम। नरम। उ०—सुमन सेज ते लगि रहे सुंदरि तेरे गात। सुरभित हु मिडि कै भए मृदुल नाल जलजात।—लक्षणसिंह (शब्द०)। २. कोमलहृदय। दयामय। कृपालु। उ०—मृदुल चित अजित कृत गरलपान।—तुलसी (शब्द०)। ३. नाजुक। सुकुमार। उ०—मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मृदुल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल। पानी। २. अंजीर।
⋙ मृदुलाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मृदुल + हिं० अ ई (प्रत्य०)] मार्दव। मृदुता। कोमलता।
⋙ मृदुसूर्य
वि० पुं० [सं०] जिस दिन सूर्य तीक्ष्णता से न चमकता हो [को०]।
⋙ मृदुस्पर्श
वि० [सं०] जो छुने में मुलायम हो।
⋙ मृदुहृदय
वि० [सं०] कोमलहृदय। दयावान।
⋙ मृदुत्पल
संज्ञा पुं० [सं०] नीलोत्पल। नील पद्म [को०]।
⋙ मृद्वी (१)
वि० स्त्री [सं०] १. मृदु। कोमल। २. कोमलांगी।
⋙ मृद्वी (२)
संज्ञा स्त्री० कपलि द्राक्षा। सफेद अंगुर।
⋙ मृद्वीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कपिल द्राक्षा। सफेद अंगुर। २. अंगुर की शराब। द्राक्षासव।
⋙ मृद्वीकासव
संज्ञा पुं० [सं०] द्राक्षासव। अंगुर की शराब।
⋙ मृध
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई। उ०—आयोधन, रन, आजि, मृध, आहव, संग, समीक।—नंद० ग्रं०, पृ० ९७।
⋙ मृनाल पु
संज्ञा पुं० [सं० मृणाल] दे० 'मृणाल'।
⋙ मृन्मय पु
वि० [सं०] मिट्टी का बना हुआ।
⋙ मृन्मरु
संज्ञा पुं० [सं०] पाषाण। प्रस्तर [को०]।
⋙ मृन्मात्र
वि० [सं०] केवल मिट्टी का। उ०—मर्त्य हम, केवल क्षर मृन्मात्र।—मधुज्वाल, पृ० ३४।
⋙ मृन्मान
संज्ञा पुं० [सं०] कुआँ। कुप।
⋙ मृषा (१)
अव्य० [सं०] झुठमुठ। व्यर्थ। उ०—मुढ़ मृषा का करसि बड़ाई।—मानस, ५।५६।
⋙ मृषा (२)
वि० असत्य। झुठ।
⋙ मृषाज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] झूठ वा असत्य ज्ञान। अज्ञान [को०]।
⋙ मृषात्व
संज्ञा पुं० [सं०] मिथ्यात्व। असत्यता। झूठपन।
⋙ मृषाध्यायी
संज्ञा पुं० [सं० मृषाध्यायिन्] एक प्रकार का सारस [को०]।
⋙ मृषाभाषी
वि० [सं० मृषाभाषिन्] झुठ बोलनेवाला। असत्यवक्ता।
⋙ मृषार्थक
वि० [सं०] असंभव। झुठा। जैसे, मृषार्थक वचन [को०]।
⋙ मृषालक
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़। विशेष—आम्र के वृक्ष में थोड़े ही दिन मंजरियों का अलंकार रहता है, इसी से इसका यह नाम रखा गया है।
⋙ मृषावाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. झुठ बोलना। २. झुठी बात। असत्य वचन।
⋙ मृषावादी
वि० [सं० मृषावादिन्] [वि० स्त्री० मृषावादिनी] असत्य- वादी। झुठा। मिथ्याभाषी।
⋙ मृष्ट (१)
वि० [सं०] शोघित।
⋙ मृष्ट (२)
संज्ञा पुं० मिर्च।
⋙ मृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिशुद्धि। शोधन।
⋙ मेंठ
संज्ञा पुं० [सं० मेण्ठ] हस्तिपक। हाथी रखनेवाला [को०]।
⋙ मेंड
संज्ञा पुं० [सं० मेण्ड] दे० 'मेंठ'।
⋙ मेंढ, मेंढक
संज्ञा पुं० [सं० मेण्ढ, मेण्ढक] मेढ़ा। मेष [को०]।
⋙ मेंढ्र
संज्ञा पुं० [सं० मेण्ढ्र] दे० 'मेढ्र' [को०]।
⋙ मेंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० मेन्धिका] दे० 'मेहँदी'।
⋙ मेंधी
संज्ञा स्त्री० [सं० मेंन्धी] दे० 'मेहँदी'।
⋙ मेंबर
संज्ञा पुं० [अं० मेम्बर] किसी सभा, समाज या गोष्ठी में संमिलित व्यक्ति। सभासद। सदस्य। जैसे, काउंसिल का मेंबर।
⋙ मेंबरी
संज्ञा स्त्री० [अं० मेम्बर + हिं० ई (प्रत्य०)] मेंबर का पद। सदस्यता।
⋙ मेँ (१)
अव्य० [सं० मध्ये, प्रा० मज्झे, मज्झि, पुं० हिं० महँ, माहिं] अधिकारण कारक का चिह्न किसी शब्द के आगे लगकर उसके भीतर, उसके बीच या उसके चारों ओर होना सूचित करता है। आधार या अवस्थान सूचक शब्द। जैसे,—वह घर में बठा है। घड़े में पानी है। वह चार दिन में आवेगा। पैर में माज जा जुता पहनना।
⋙ मेँ (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] बकरी बोलने का शब्द।
⋙ मेँ पु ‡
सर्व० [सं० स्मिन्, प्रा० म्मि, अप० मइँ] दे० 'मैं'। उ०— (क) ती में ढोटा नंद कौ, (जौ) पाँइन परि परि देंइ।— नंद० ग्रं०, पृ० १९५। (ख) अपनी मति अनुसार श्री गीता पदार्थ बोधिनी बचनिका भाषा में ने करी है।—पोद्यार अभि० ग्रं०, पृ० ५२०।
⋙ मैँगनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मींगा?] ऐसे पशुओं की विष्ठा जो छोटी छोटी गोलियों के आकार में होती है। लेंड़ी। जैसे, बकरी की मेंगनी, ऊँट की मेंगनी।
⋙ मेँड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० डाँड़ का अनु या सं० मण्डल] १. ऊँची उठी हुई तंग जमीन जो दुर तक लकीर के रुप में चली गई हो। २. दो खेतों के बीच को कुछ ऊँची उठी हुई सँकरी जमीन जिसपर लोग आते जाते हैं। डाँड़। पगडंडी। यौ०—डाँड़मेंड़ =कुल। किनारा। वार पार। उ०—पवनहुँ ते मन चाँड़, मन ते आसु उतावला। कतहुँ मेंड़ न डाँड़, मुँहमद बहु विस्तार सो।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मेँड़की
संज्ञा स्त्री० [सं० मेढकी] दे० 'मेढ़की'। उ०—महातम जानै नहीं मेंड़की गंगा बीच। पलटु सबद लगै नहीं कतनौ रहै नगीच।—पलटु० भा० ३, पृ० १००।
⋙ मेँडरा †
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] १. घेरकर बनाया हुआ कोई गोल चक्कर। २. एँडुआ। गेडुरी।
⋙ मेँडगना † (१)
क्रि० अ० [सं० मण्डल] दे० 'मँडराना'। उ०— राजपंखि तेहि पर मेंडराही। सहस कोस तिन्ह कै परछाहीं।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मेँड़राना (२)
क्रि० स० घेरकर गोल चक्कर बनाना। मेंडरा बनाना।
⋙ मेँड़ी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] ऊँची जगह। महल। प्रासाद। उ०—ऊँची मेंड़ी कौन काज की ब्रज बसिबौ भलौ छाज कौ। छीत०, पृ० ८०।
⋙ मेँढ़क
संज्ञा पुं० [सं० मण्डुक] [स्त्री० मेंढकी] दे० 'मेंढ़क'।
⋙ मेँह
संज्ञा पुं० [सं मेघ, प्रा० मेह] वर्षा। झड़ी।
⋙ मेँहदी
संज्ञा स्त्री० [सं० मेन्धिका] दे० 'मेहँदी'।
⋙ मेउ ‡
संज्ञा पुं० [सं० मेघ, प्रा० मेह] मेघ। बादल। उ०—नँनद भवज दोऊ भेंटिऐ रे जैसे साँमन कौ ए मेउ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३३।
⋙ मेक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अज। छाग। बकरी।
⋙ मेक ‡ (२)
संज्ञा पुं० [सं० एक, देश०] दे० 'एक'। उ०—मेक सपत संमत मै, पैतीसै जसराज। गौ हरिधाम जिहान तज, हिंदुस्थान जिहाज। रा० रु०, पृ० १७।
⋙ मेकदार †
संज्ञा पुं० [अ० मिक़दार] परिमाण। मात्रा। अंदाज।
⋙ मेकल
संज्ञा पुं० [सं०] विंध्य पर्वत का एक भाग जो रीवा राज्य के अंतर्गत है और जिसमें अमरकटक है। इसी पर्वत से नर्मदा नदी निकली है। विशेष—यह मेखला के आकार का है, इसी से मेखल भी कहते हैं।
⋙ मेकलकन्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नर्मदा नदी।
⋙ मेकलसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नर्मदा नदी। उ०—मेकल सुता गोदावरि धन्या।—मानस,।
⋙ मेकलाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] मेकल पर्वत। यौ०—मेकलाद्रिजा =नर्मदा नदी।
⋙ मेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञपात्र। विशेष—यह चम्मच या करछी के आकार का और चार अंगुल चौड़ा तथा आगे की ओर निकला हुआ होता है।
⋙ मेख (१)
संज्ञा पुं० [सं० मेष] दे० 'मेष'।
⋙ मेख (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़० मेख] जमीन में गाड़ने के लिये एक ओर नुकीली गढ़ी हुई लकड़ी। खुँटा। खुँटी। उ०—उन्हें यों हतज्ञान सा देख, ठोंकती सी छाती पर मेख।—साकेत०, पृ० ४८। २. कील। कँटिया। क्रि० प्र०—उखाड़ना।—गाड़ना।—ठोंकना।—मारना। मुहा०—मेख ठोंकना =(१) हाथ पैर में कील ठोंककर कहीं स्थिर कर देना। बहुत कठोर दंड देना। (इस प्रकार का दंड पहले प्रचलित था)। (२) हराना। दबाना।जेर करना। तोप के मुँह में मेख ठोंकना =तोप का मुँह बंद करके उसे निकम्मा कर देना। मेख मारना =(१) कील ठोंककर चलनाया हिलना बंद कर देना। (२) कोई ऐसी बात बोल देना जिससे किसी का होता हुआ काम न हो। भाँजी मारना। (३) चलते हुए काम में रुकावट डालना। २. कील। काँटा। ३. लकड़ी की फट्टी जो किसी छेद में बैठाई हुई वस्तु को ढीली होने से रोकने के लिये इधर उधर पेसी जाय। पच्चड़। ४. घोड़े का लँगड़ापन जो नाल जड़ते समय किसी कील के ऊपर ठुक जाने से होता है।
⋙ मेखड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० मेखला] बाँस की वह फट्टी जिसे डले या झाबे के मुँह पर गोल घेरा बनाकर बाँध देते हैं।
⋙ मेखल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मेखला] १. करघनी। किंकिणी। उ०— कटि मेखल बर हारग्रीव दइ रुचिर बाहु भुषन पहिराए।—तुलसी (शब्द०)। २. वह वस्तु जो किसी दुसरी वस्तु के मध्य भाग में उसे चारों ओर से धेरे हो। वि० दे० 'मेंखला'।
⋙ मेखल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मेकल' [को०]।
⋙ मेखला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह वस्तु जो किसी दुसरी वस्तु के मध्य भाग में उसे चारो ओर से घेरे हुए पड़ी हो। २ सिकड़ी या माला के आकार का एक गहना जो कमर को घेरकर पहना जाता है। करघनी। तागड़ी। किंकिणी। पर्या०—सप्तकी। कांची। रशना। रसना। कक्षा। कलाप। ३. कमर में लपेटकर पहनने का सुत या डोरी। करधनी। जैसे, मुंजमेखला। ४. कोई मंडलाकार वस्तु। गील घेरा। मंडल। मँडरा। ५. पेटी या कमरबंद जिसमें तलवार बाँधी जाती है। ६. तलवार की मुठ (को०)। ७. डंडे मूसल आदि के छोर पर या औजारों के मुठ पर लगा हुआ लोहे आदि के घेरदार बंद। सामी। साम। ८. पर्वत का मध्यभाग। ९. नर्मदा नदी। १०. पृश्निपर्णी। ११. होमकुंड के ऊपर चारों ओर बना हुआ मिट्टी का घेरा। १२. यज्ञवेष्टन सुत्र। १३. कपड़े का टुकड़ा जो साधु लोग गले में डाले रहते हैं। कफनी। अलफी। १४. घोड़े का तंग। जीन कसने का तस्मा (को०)।
⋙ मेखलापद
संज्ञा पुं० [सं०] श्रोणि। नितंब। चूतड़ [को०]।
⋙ मेखलाल
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ मेखलित
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेखलायुक्त। चारों ओर से मेखला की तरह घेरनेवाला। उ०—साथ ही इन सबके केंद्रीय मेंरु को मेखलित करनेवाला इलावृत्त भी एक स्वतंत्र वर्ष बन गया है।—संपुर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० १७०।
⋙ मेखली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मेखला या मेखलित] १. एक प्रकार का पहनावा जिसेगले में डालने से पेट और पीठ ढँकी रहती है और दोनों हाथ खुले रहते हैं। यह देखने में तिकोना होता है और ऊपर चौड़ा तथा नुकीला होता है। इसे देवमुर्तियों को रामलीला, रासलीला आदि में पहनाते हैं। २. करधनी। कटि- बंध। उ०—कबहुँक अपर खिरनही भावत कबहुँ मेखली उदर समानी।—सुर (शब्द०)।
⋙ मेखली (२)
संज्ञा पुं० [सं० मेखलिन्] १. शिव। २. बटु। ब्रह्मचारी।
⋙ मेखली (३)
वि० मेखला धारण करनेवाला [को०]।
⋙ मेखवा †
संज्ञा पुं० [फा़० मेख + हिं० वा (प्रत्य०)] मेख। खूँटा। विशेष—सवारी लेकर चलते वक्त जब रास्ते में आगे खूँटा मिलता तब है, उससे बचने के लिये अगला कहरा यह शब्द बोलता है।
⋙ मेखी
वि० [फा़० मेखी] जिसमें मेख से छेद किया गया हो। यौ०—मेखी रुपया =वह रुपया जिसमें छेद करके चाँदी निकाल ली गई हो और सीसा भर दिया गया हो।
⋙ मेग
संज्ञा पुं० [फा़० मेग। तुल सं० मेघ] मेघ। बादल। घटा। उ०—होर शोर भी भाँत भाँत का था। बहु भाँत जो मेग साँत का था।—दक्खिनी०, पृ० १६९।
⋙ मेगजीन
संज्ञा पुं० [अं० मेगजी़न] १. वह स्थान जहाँ सेना के लिये बारुद रखी जाती है। बारुदखाना। २. सामयिक पत्र, विशेषतः मासिकपत्र जिसमें लेख छपते हैं।
⋙ मेगनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'मेंगनी (१)'।
⋙ मेगरा †
संज्ञा पुं० [फा़० मेग + राज० रा (प्रत्य०)] घटा। मेघ। बादल। उ०—खुशी का मेगरा वाँ बरसता।—दक्खिनी०, पृ० २७३।
⋙ मेघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश में घनीभुत जलवाष्प जिससे वर्षा होती है। बादल। उ०—कबहुँ प्रबल चल मारुत जहँ तहँ मेघ उड़ाहि।—तुलसी (शब्द०)। २. संगीत में छह् रागों में से एक। विशेष—हनुमत् के मत से यह रोग ब्रह्मा के मस्तक से उत्पन्न है और किसी के मते से आकाश से इसकी उत्पत्ति है। यह ओड़व जातिका राग है; और इसमें ध, नि सा रे ग, ये पाँच स्वर लगते हैं। हनुमत् के मत से इसका सरगम इस प्रकार है—ध नि सा रे ग म प ध। वर्षाकाल में रात के पिछले पहर इसे गाना चाहिए। इसकी स्त्रियाँ या रागिनियाँ हनुमत् के मत से मल्लारी, सोरठी, सारंगी वा हंसिका और मधुमाधवी हैं। अन्य मत से रागनियाँ हैं—मल्लारी, देशी, सोरठ, नाटिका, तरुणी और कादंविनी। इसके पुत्र—मल्लार, गौर, कर्णाट, जलधर, मालाहक, तैलंग, कमल, कुसुम, मेघनाट, सामंत, लुम, भुपति, नाट और बंगाल है। ३. मुस्तक। मोथा। ४. तुंडलीय शाक। ५. राक्षस। ६. आधिक्य। बहुलता।
⋙ मेधकफ
संज्ञा पुं० [सं०] ओला। करका। वर्षोपल।
⋙ मेघकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्कंदानुचर मातृभेद।
⋙ मेघकाल
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा ऋतु।
⋙ मेघगर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] बादल की गरज। विशेष—मेघगर्जन के समय वेदाध्ययन निषिद्ध है। उपनयन के दिन यदि बादल गरजे, तो उपनयन टाल देना चाहिए।
⋙ मेघचिंतक
संज्ञा पुं० [सं० मेघचिन्तक] चातक [को०]।
⋙ मेघज
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा मोती। २. मेघजन्य वस्तु [को०]।
⋙ मेघजाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघसमूह। घनघटा। २. अभ्रक। अबरक [को०]।
⋙ मेघजीवक, मेघजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] चालक।
⋙ मेघज्योति
संज्ञा स्त्री० [सं० मेघज्योतिस्] वज्राग्नि। बिजली।
⋙ मेघडंबर
संज्ञा पुं० [सं० मेघडम्बर] १. मेघगर्जन। २. बड़ा चंदोवा। बड़ा शामियाना। दल वादल। ३. एक प्रकार का छत्र। उ०—छत्र मेघडंबर सिरधारी। सोइ जनु जलद घटा अतिकारी।—मानस, ६।१३।
⋙ मेघडंबर रस
संज्ञा पुं० [सं० मेघडम्बर रस] एक रसौषध जो श्वास और हिचकी के रोग में दी जाती है। विशेष—बराबर बराबर पारे और गंधक की कजली चौलाई के रस में पाँच दिन खरल करके मजबुत घरिया में रखकर 'बालुका' यंत्र से एक दिन भर की आँच देने से यह बनता है। इसकी मात्रा ६ रत्ती है।
⋙ मेघदीप
संज्ञा पुं० [सं०] बिजली [को०]।
⋙ मेघदुंदुभि
संज्ञा पुं० [सं० मेघदुन्दुभि] १. मेघगर्जन। २.एक राक्षस का नाम।
⋙ मेघदूत
संज्ञा पुं० [सं०] महाकवि कलिदासप्रणीत एक खंडकाव्य। विशेष—इसमें कर्तव्यच्युति के कारण स्वामी के शाप से प्रिया- वियुक्त एक विरही यक्ष न मेघ को दुत बनाकर अपनी प्रिया के पास संदेश भेजा है।
⋙ मेघद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश। अंतरिक्ष।
⋙ मेघधनु
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रधनुष।
⋙ मेघनाट
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग जो मेघ राग का पुत्र माना जाता है।
⋙ मेघनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ मेघनाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ का गर्जन। बिजली का कड़क। २.वरुण। ३. रावण का पुत्र इंद्रजित् जो लक्ष्मण के हाथ से मारा गया था। ४. पलाश का पेड़। ५. हरिवंश के अनुसार एक दानव। ६. मयुर। मोर। ७. बिंडाल। बिल्ली। यौ०—मेघनादजित् =लक्ष्मण जिन्होंने मेघनाद को मारा था। मेघनादबध =माइकेल मधुसूदन दत्त द्धारा रचित बँगला भाषा का प्रसिद्ध महाकाव्य। मेघनादानुलासक, मेघनादानुलासी = मयूर। मोर।
⋙ मेघनादमूल
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौलाई की जड़।
⋙ मेघनाद रस
संज्ञा पुं० [सं०] एक रसौषध जो ज्वर में दी जाती है। विशेष—एक एक तोला रुपा, काँसा और ताँबा तितराज की जड़ के काढ़े में डालकर छह बार गजपुट पाक करने से यह बनता है। इसकी मात्रा पान के साथ दो रत्ती है।
⋙ मेघनामा
संज्ञा पुं० [सं० मेघनामन्] एक प्रकार की घास। मुस्तक [को०]।
⋙ मेघनिर्घोष
संज्ञा पुं० [सं०] बादलों का गरजना।
⋙ मेघनीलक
संज्ञा पुं० [सं०] तालीश वृक्ष।
⋙ मेघपटल
संज्ञा पुं० [सं०] बादल की घटा।
⋙ मेघपति
संज्ञा पुं० [सं०] बादलों का राजा या स्वामी, इंद्र।
⋙ मेघपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र का घोड़ा। २. श्रीकृष्ण के रथ के चार घोड़ों में से एक। उ०—शैव्य, बलाहक, मेघपुष्प सुग्रीव बाजीरथ।—गोपाल (शब्द०)। ३. वर्षा का जल। ४. बकरे का सींग। ५. मोथा मुस्तक।
⋙ मेघपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जल। २. बेंत। ३. ओला।
⋙ मेघप्रसर, मेघप्रसव
संज्ञा पुं० [सं०] जल [को०]।
⋙ मेघपृष्ठि
संज्ञा पुं० [सं०] क्राँच द्बीप के एक खंड का नाम।
⋙ मेघफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ के वर्ण द्बारा वर्प के शुभाशुभ फल का निर्णय। २. निकंकत वृक्ष।
⋙ मेघभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वज्र। बिजली।
⋙ मेघमंडल
संज्ञा पुं० [सं० मेघमण्डल] १. मेघसमूह। २. आकाश।
⋙ मेघमल्लार
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जो मेघ राग और उसकी पत्नी मल्लारी के योग से बनता है। इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
⋙ मेघमाल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बादलों की घटा। उ०—माली मेघमाल बनपाल विकराल भटु नीके सब काल सीचैं सुधासार नीर के।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मेघमाल (२)
संज्ञा पुं० १. रंभा (रमा ?) के गर्भ से उत्पन्न कल्कि के पुत्र का नाम। (कल्किपुराण)। २. प्लक्ष द्बीप का एक पर्वत। ३. एक राक्षस का नाम।
⋙ मेघमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बादलों की घटा। कादंबिनी। २. स्कंद की अनुचरी एक मातृका का नाम।
⋙ मेघमाली
संज्ञा पुं० [सं० मेघमालिन्] १. स्कंद का एक अनुचर। २. एक असुर।
⋙ मेघमूर्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिजली।
⋙ मेघमूर्ति (२)
वि० बादलों से घिरा या ढका हुआ।
⋙ मेघमदुर
वि० [सं०] मेघ के कारण चिकना। बादलों से स्निग्ध।
⋙ मेघमोदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जामुन का फल या वृक्ष [को०]।
⋙ मेघयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धूँआँ। २. कुहरा।
⋙ मेघरव
संज्ञा पुं० [सं०] मेघगर्जन।
⋙ मेघराज
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्करावर्तक आदि मेघों के नायक इंद्र।
⋙ मेघराव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का जलपक्षी [को०]।
⋙ मेघरेखा, मेघलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बादलों की कतार। मेघ पंक्ति [को०]।
⋙ मेघवर्ण
वि० [सं०] श्याम वर्ण का। बादल के समान रंगवाला।
⋙ मेघवर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नील का पौधा।
⋙ मेघवर्त, मेघवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रलय काल के मेघों में से एक का नाम।उ०—सुनि मेघवर्तक साजि सैन लै आए। जलवर्त वारिवर्त पवनवर्त वज्रवर्त आगिवर्तक जलद सँग लाए।—सूर (शब्द०)। २. संवर्त।
⋙ मेघवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० मेघवर्त्मन्] बादलों का पथ। मेघपथ। आकाश।
⋙ मेघवह्नि
संज्ञा पुं० [सं०] मेघज्योति। वज्र की अग्नि। विद्युत् [को०]।
⋙ मेघवाई पु ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० मेघ + वाई (प्रत्य०)] बादल की घटा। उ०—चली सैन्य कछु बरनि न जाई। मनहुँ उठी पूरब मेघवाई।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मेघवान्
संज्ञा पुं० [सं०] पश्र्चिम दिशा का एक पर्वत। (वृह- त्संहिता)।
⋙ मेघवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. शिव (को०)। ३. एक बौद्घ राजा का नाम।
⋙ मेघविस्फूर्जित
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ गरजन। मेघ का गड़ग- ड़ाना। २. एक छंद। दे० 'मेघविस्फूर्जिता' [को०]।
⋙ मेघविस्फूर्जिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में यगण, मगण, नगण, सगण, टगण, रगण, और एक गुरु होता है।
⋙ मेघवेश्म
संज्ञा पुं० [सं० मेघवेश्मन्] आकाश [को०]।
⋙ मेघव्रती
संज्ञा पुं० [सं० मेघव्रतिन्] चातक।
⋙ मेघश्याम
वि० [सं०] बादलों का सा काला (राज और श्रीकृष्ण)।
⋙ मेघसंघात
संज्ञा पुं० [सं० मेघसङ्घात] बादलों का जमावड़ा।
⋙ मेघसार
संज्ञा पुं० [सं०] चीन कर्पूर। चीनिया कपूर [को०]।
⋙ मेघसुहृदु
संज्ञा पुं० [सं०] मयूर। मोर [को०]।
⋙ मेघस्तनित
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिजली। यौ०—मेवस्तनितोद्भव = विकंकत वृक्ष।
⋙ मेघस्वन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बादलों का शब्द। मेघों का गर्जन।
⋙ मेघस्वन (२)
वि० बादल की तरह गरजनेवाला।
⋙ मेघस्वनांकुर
संज्ञा पुं० [सं० मेघस्वनाङ्कुर] वैदूर्य मणि। बिल्लौर। विशेष—ऐसा प्रवाद है कि बादल के गरजने पर वैदूर्य मणि की उत्पत्ति होती है।
⋙ मेघस्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम।
⋙ मेघांत
संज्ञा पुं० [सं० मेघान्त] वर्षा का अंत। शरद्काल [को०]।
⋙ मेघा †
संज्ञा पुं० [सं० मेघ (= बादल के आने पर जो दिखाई दे)] मेढक। मंडूक।
⋙ मेघागम
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्षाकाल। २. धारा कदंब।
⋙ मेघाच्छन्न
वि० [सं०] बादलों से ढका हुआ।
⋙ मेघाच्छादित
वि० [सं०] बादलों से ढका हुआ। बादलों से छाया हुआ।
⋙ मेघाटोप
संज्ञा पुं० [सं० मेघ + आटोप] घटाटोप।
⋙ मेघाडंबर
संज्ञा पुं० [सं० मेघ + आडम्बर] १. मेघगर्जन। बादल की गरज। २. बादल का फैलाव। बादलों का घटाटोप। उ०—ना मैं मेघाडंबर भीजौं। शीत काल जल मैं नहिं छीजौं—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३०५।
⋙ मेघाडंमर पु
संज्ञा पुं० [सं० मेघ + डम्बर] एक प्रकार का छत्र। मेघडंबर। उ०—मेघाडंर सिर छत्र ठयो। देश मालगिर चालियो राई।—वी० रासो०, पृ० १३।
⋙ मेघानंद
संज्ञा पुं० [सं० मेघानन्द] १. मोर। मयूर। २. बलाका। बगला।
⋙ मेघारि
संज्ञा पुं० [सं० मेघ + अरि] मेघ का शत्रु वायु [को०]।
⋙ मेघावरि पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० मेघावलि] बादलों की घटा। मेघ- पंक्ति। उ०—केश मेघावरि सिर ता पाईं। चमकहि दसन बीजु कै नाई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मेघास्थि
संज्ञा पुं० [सं०] ओला।
⋙ मेघोदय
संज्ञा पुं० [सं०] बादल घिरना। घटा का उठना। यौ०—मेघोदपकाल = वर्षा ऋतु। बरसात।
⋙ मेघौना †
संज्ञा पुं० [सं० मेघवर्ण] मेघवर्ण या रंगवाला कपड़ा। दे० 'मेघोना'।
⋙ मेच † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मञ्व] १. पर्यंक। पलंग। २. बेंत की बुनी हुई खाट।
⋙ मेच ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मेज़] दे० 'मेज'।
⋙ मेच (३)
संज्ञा पुं० [देश०] आसाम की एक पहाड़ी जाति।
⋙ मेचक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंधकार। अँधेरा। २. नीलांजन। सुरमा। ३. मोर की चंद्रिका। ४. धूआँ। धूम। ५. मेघ। ६. शोभांजन। सहिंजन। ७. पीतशाल। पियासाल। ८. काला नमक। ९. बिच्छू की एक छोटी जाति।
⋙ मेचक (२)
वि० श्यामल। काला। स्याह। उ०—चोकने मेचक रुचिर, सुकुंचित सुंचित केस।—घनानंद०, पृ० २९९। यौ०—मेचकगल = मोर। मयूर। मेचकापगा = यमुना नदी।
⋙ मेचकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कालापन। श्यामलता।
⋙ मेचकताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मेच कता + ई (प्रत्य०)] दे० 'मेचकता'। उ०—कह प्रभु ससि महु मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई।—मानस, ६।१२।
⋙ मेचकित
वि० [सं०] गहरे नीले रंगवाला [को०]।
⋙ मेचटिक
संज्ञा पुं० [सं०] खराब तेल की महक या गंध (को०)।
⋙ मेछ
संज्ञा पुं० [सं० म्लेच्छ, प्रा० मिच्छ, मेच्छ] अनार्य। म्लेच्छ। विदेशी। उ०—(क) जल थलति थलति करि जल प्रमांन। उनरयौ मेछ जनु मध्य भांन।—पृ० रा०, १९।८४। (ख) कै भंजौ मेछान दल, कै रंजों षुरसान।—पृ० रा०, १२।११९।
⋙ मेज (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की पहाड़ी घास जो हिमालय पर ५००० फुट की ऊँचाई तक पाई जाती है और जिसे घोड़े और चौपाए बड़े चाव से खाते हैं।
⋙ मेज (२)
संज्ञा स्त्री० [पुर्त०/?/फ़ा० मेज़] लंबी चौड़ी और ऊँची चौकी जो बैठे हुएः आदमी के सामने उसपर रखकर खाना खाने, या लिखने पढ़ने और कोई काम करने के लिये रखी जाती है। २. दावत का सामन। भोजन की सामग्री।
⋙ मेजपोश
संज्ञा पुं० [फ़ा० मेज़पोश] चौकी या मेज पर बिछानेवाला कपड़ा।
⋙ मेजबान
संज्ञा पुं० [फ़ा० मेज़बान] भोजन कराने या आतिथ्य करनेवाला। मेहमानदार। 'मेहमान' का उलटा। उ०—१७ मई का रामपुर और अपने मेजबान से बिदाई ले ली।— किन्नर०, पृ० २८।
⋙ मेजबानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मेज़बानी] १. मेजबान का भाव या धर्म। २. वे खाद्य पदार्थ जो बरात आने पर पहले पहल कन्या पक्ष से बरतियों के लिये जाते हैं। ३. भोज। दावत (को०)।
⋙ मेजर
संज्ञा पुं० [अं०] फौज का एक अफसर। कप्तान से ऊँचा और लेफ्टिनेंट कर्नल से नीचे का अफसर।
⋙ मेजर जनरल
संज्ञा पुं० [अं०] फौज का एक अफसर जिसका दर्जा लेफ्टिनेंट जनरल के बाद ही है।
⋙ मेजा †
संज्ञा पुं० [देश० सं० भंड़ूक, हिं० मेढक, पू० हिं० मेझुका] मेढक। मंडूक। उ०—केवट हँसे सो सुनत गवेजा। समुद न जानु कुवाँ कर मेजा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मेजारिटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] बहुसंख्या। आधे से अधिक पक्ष। अधिकांश। जैसे, मेजारिटी रिपोर्ट।
⋙ मेजुक
संज्ञा पुं० [देश०] मेजा। मेढक।
⋙ मेट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सफेदी किया हुआ मकान जिसमें कई खंड वा मरातिब हों [को०]।
⋙ मेट (२)
संज्ञा पुं० [अं०] १. मजदूरों का अफस़र या सरदार। टंडैल। जमादार। २. जहाज का एक कर्मचारी जिसका काम जहाज के अफसर की सहायता करना है। ३. संगी। साथी। जैसे, क्लास मेट।
⋙ मेटक पु †
संज्ञा पुं० [देशी/?/मिट, मेट, हिं० मेटना + सं० क (प्रत्य०)] नाशक। मिटानेवाला।उ०—देव जू का न हिये हुलसा तुलसी बन में कुलसीउ को मेटक।—देव (शब्द०)।
⋙ मेटनहार, मेटनहारा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० मेटना + हार (प्रत्य०)] मिटानेवाला। दूर करनेवाला। हटानेवाला।उ०—बिधि कर लिखा को मेटनहारा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मेटना †
क्रि० स० [सं० मृष्ट (= साफ किया हुआ) प्रा० मिट्ट + हिं० ना (प्रत्य०) अथवा देशी/?/मिट्ट, मेट + हिं० ना (प्रत्य०)] १. घिसकर साफ करना। मिटाना। २. दूर करना। न रहने देना। ३. नष्ठ करना। उ०—तिण बेला तारण तरण गिर- धारी गोपाल। मिलियौ उर भ्रम मेटवा, हिंदू ध्रम रखवाल।—रा० रू०, पृ० ७०। दे० 'मिटाना'।
⋙ मेटर्निटी हास्पिटल
संज्ञा पुं० [अं०] प्रसवशाला। प्रसूति अस्पताल। उ०—मैन प्रस्ताव रखा कि उसे कार पर बिठाकर किसी अच्छे मेटर्निटी हास्पिटल में पहुँचा दूँ।—जिप्सी०, पृ० ४९०।
⋙ मेटा (१)
वि० [सं० मृष्ट, हिं० मिटाना] मेटक। मिटानेवाला। उ०— धनमद अंध नंद को बेटा। सो भयौ हमरे मख को मेटा।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०७।
⋙ मेटा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०, सं० मृदुमाण्ढ] भाँडा। मिट्टी का बना भाँडा या बर्तन।
⋙ मेटिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० मृत्कांस्य, हिं० मटका] घड़े से छोटा मिट्टी का बर्तन जिसमें दूध, दही आदि रखते हैं। मटकी।
⋙ मेटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मेटिया'।
⋙ मेटीरियलिस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] भाँतिकवादी।
⋙ मेटुकिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मटकी'। उ०—भर्म मेटुकिया सिर के ऊपर सो मेटुकी पटकी।—कबीर श०, भा०, ३, पृ० ७।
⋙ मेटुकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'मटकी'।
⋙ मेटुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] आमलकी। आमला।
⋙ मेटुवा †
वि० [हिं० मेटना] किए हुए उपकार को न माननेवाला। कृतघ्न।
⋙ मेठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथीवान। फीलवान। २. मेप। मेढ़ा (को०)।
⋙ मेठ † (२)
संज्ञा पुं० [अं० मेट] दे० 'मेट'।
⋙ मेड़
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल या मिति (= इयता, सीमा) या मृद्वन्ध या मृद्दण्ड] १. मिट्टी डालकर बनाया हुआ खेत या जमीन का घेरा। २. दो खेतों के बीच में हद या सीमा के रूप में बना हुआ रास्ता। उ०—धन संपति सबसे गेह नसौ नहिं प्रेम की मेड़ सो एड़ टलै।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २३८। क्रि० प्र०—डालना।—बाँधना। यौ०—मेड़बंदी। ३. ऊंची लहर या तरंग। (लश०)। क्रि० प्र०—पड़ना।
⋙ मेडक
संज्ञा पुं० [सं० मण्डूक] दे० 'मेढक'।
⋙ मेड़बंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मेड़ + फ़ा० बंद, या हिं० बँधना] १.मिट्टी डालकर बनाया हुआ घेरा। २. इस प्रकार घेरा बनाने की क्रिया। हदबंदी।
⋙ मेडर †
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] चक्कर। मंडल। घेरा। उ०— एक कहा रजनीपति आही। मेडर अबहिं न छेका ताही।—इंद्रा०, पृ० १२७।
⋙ मेड़रा
संज्ञा पुं० [सं० मण्डल, हिं० मँड़रा] [स्त्री० अल्पा० मेड़री] १. किसी गोल वस्तु का उभरा हुआ किनारा। २. किसी वस्तु का मंडलाकार ढाँचा। जैसे, छलनी या खँजरी का मेड़रा।
⋙ मेड़राना †
क्रि० अ० [सं० मण्डल] दे० 'मँडराना'।
⋙ मेड़री
संज्ञा स्त्री० [हिं० मेड़रा] १. किसी गोल या मंडलाकार वस्तु का उभरा हुआ किनारा। २. मंडलाकार वस्तु का ढाँचा। ३. चक्की के चारो और का वह स्थान जहाँ आटा पिसकर गिरता है।
⋙ मेडल
संज्ञा पुं० [अं०] चाँदी सोने आदि की वह विशेष प्रकार की मुद्रा जो कोई अच्छा या बड़ा काम करने अथवा विशेष निपूणता दिखाने पर किसी को दी जाय और जिसपर देनेवाले का नाम खुदा हो, तथा जिस बात के लिये वह दी गई हो उसका भी उल्लेख हो। तमगा। पदक। उ०—जितना जो बड़ा मेरा मित्रहो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४७४।
⋙ मेडिकल
वि० [अं०] पाश्वत्य औषध और चिकित्सा से संबंध रखनेवाला।—डाक्टरी संबंधी। जैसे, मेडिकल कालेज, मेडिकल डिपार्ट- मेंट।
⋙ मेड़िया
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डप, हिं० मढ़ी] मढ़ी। मंडप। छोटा घर। उ०—कहा चुनावै मेडिया, चूना माटी लाय। मीच चुनैगी पापिनी, दौरि कै लैगी खाय।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मेडिसिन
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. दवा। औषध। जैसे,—डाक्टर ने बहुत तेज मेडिसिन दे दी है। २. चिकित्सा विज्ञान।
⋙ मेड़ी †
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डप या मढ़ी] प्रसाद वा मकान की ऊपरी मंजिल। अट्टालिका। दे० 'मेंड़ी'। उ०—ऊन मियउ उत्तर दिसइँ मेड़ी ऊपर मेह। ते विरहिणि किम जीवसे, ज्याँरा दूर सनेह।—ढोला०, दू० ४२।
⋙ मेढक
संज्ञा पुं० [सं० मण्ड़ूक] एक जल-स्थल-चारी जंतु जो तीन चार अंगल से लेकर एक बालिश्त तक लंबा होता है। यह पानी में तैरता है और जमीन पर कूद कूदकर चलता है। इसके चार पैर होते हैं जिनमें जालीदार पंजे होते हैं। यह फेफड़ों से साँस लेता है, मछलियो की तरह गलफड़ों से नहीं। पर्या०—मंडूक। दर्दुर। विशेष—विकासक्रम में यह जलचारी और स्थलचारी जंतुओं के बीच का माना जाता है। मछलियों से ही क्रमशः विकास परंपरानुसार जल-स्थल-चारी जंतुओं की उत्पत्ति हुई है, जिनमे सबसे अधिक ध्यान देने योग्य मेढक है। रीढ़वाले जंतुओं में जो उन्नत कोटि के हैं, वे फेफड़ों से साँस लेते हैं। पर जिनका ढाँचा सादा है और जिन्हें जल ही में रहना पड़ता है, वे गलफड़ों से साँस लेते हैं। मछली के ढाँचे से उन्नति करके मेढ़क का ढाँचा बना है, इसका आभास मेढ़क की वृद्धि को देखने से मिलता है। अंडे के फूटने पर मेढ़क का डिंभकीट मछली के रूप में आता है, जल ही में रहता है, गलफड़ों से साँस लेता है और घासपात खाता है। उसे लंबी पूँछ होती है, पैर नहीं होते। कहीं कहीं उसे 'छुछमछली' भी कहते हैं। धीरे धीरे कायाकल्प करता हुआ वह उभयचारी जंतु का रूप प्राप्त करता है और जालीदार पंजों से युक्त पैरवाला, फेफड़े से साँस लेनेवाला और कीड़े पर्तिगे खानेवाला मेढ़क हो जाता है।
⋙ मेढकी
संज्ञा स्त्री० [सं० मण्डूकी] मंडूकी। मेढक की मादा। मुहा०—मेडकी को जुकाम होना = छोटे आदमी में बड़ों की बराबदी करने का हौसला होना।
⋙ मेढ़ा
संज्ञा पुं० [सं० मेढू, मेण्ढ, मेण्ढक] [स्त्री० भेंड़] सींगवाला एक चौपाया जो लगभग डेढ़ हाथ ऊँचा और घने रोयों से ढका होता है। मेष। विशेष—इनका रोयाँ बहुत मुलायम होता है और ऊन कहलाता है। इनका माथा और सींग बहुत मजबूत होते हैं। ये आपस में बड़े बेग से लड़ते हैं, इससे बहुत से शौकीन इन्हें लड़ाने के लिये पालते हैं। मादा भेंड़ जितनी ही सीधी होती है, उतनी ही मेढ़े क्रोधी होते हैं। मेढ़े की एक जाति ऐसी होती है जिसकी पूँछ में चरबी का इतना अधिक संचय होता है कि वह चक्की के पाट की तरह फैलकर चौड़ी हो जाती है। ऐसा मेढ़ा 'दुंबा' कहलाता है। विशेध दे० 'भेड़'।
⋙ मेढासिंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० मेढ्श्रृङ्गी] औषध के रूप में प्रयुक्त एक झाड़ीदार लता। विशेष—यह लता मध्यप्रदेश और दक्षिण के जंगलो में तथा बंबई के असापास बहुत होती है। इसकी जड़ औषध के काम आती है और सर्प का विष दूर करने के लिये प्रसिद्ध है। इसकी पत्तियाँ चबाने से जीभ देर तक सुन्न रहती है। वैद्यक में यह तिक्त, वातवर्धक, श्र्वास और कासवर्धक, पाक में रुक्ष, कटु तथा ब्रण, श्लेष्मा और आँख के दर्द को दूर करनेवाली मानी जाती है। इसके फल दीपन तथा कास, कृमि, व्रण, विष और कुष्ठ को दूर करनेवाले कहे जाते हैं।
⋙ मेढिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मढ़ी] दे० 'मढी'।
⋙ मेढी †
संज्ञा स्त्री० [सं० वेणी] १. तीन लड़ियों में गूथी हुई चोटी। उ०—लटकन चारु, भुकुटिया टेढ़ी, मेढ़ी, सुभग सुदेश सुभाए।—तुलसी। (शब्द०)। २. घोड़ों के माथे पर की एक भौंरी।
⋙ मेढ्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिश्न। लिंग। २. मेढ़ा। यौ०—मेढ्रज = शिव का एक नाम। मेढ्रशृंगी = दे० 'मेढ़ासिंगी'।
⋙ मेथि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'जुआठा'। २. दे० 'मेधि' [को०]।
⋙ मेथि (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'मेथी' [को०]।
⋙ मेथिका, मेथिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेथी।
⋙ मेथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मसाले और ओषध में काम आनेवाला। एक बहुप्रसिद्ध छोटा पौधा और उसका फल। विशेष—भारतवर्ष में इसका पौधा प्रायः सर्वत्र पाया जाता है। इसकी पत्तियाँ कुछ गोल होती हैं और साग की तरह खाई जाती हैं। इसकी फलियों के दाने मसाले और औषध के काम में आते हैं और देखने में कुछ चौखूँटे होते हैं। इसकी फसल जाड़े में तैयार होती है। वैद्यक में इसका गुण कटु, उष्ण, अरुचिनाशक, दीप्तिकारक, वातघ्न तथा रक्तपित्त प्रकोपन माना गया है। पर्या०—दीपनी। बहुमूत्रिका। गंधबीजा। ज्योति। गंधकला। बल्लरी। चंद्रीका। मंथा। मिश्रपुष्पा। कैरवी। बहुपर्णी। पीतबीजा।
⋙ मेथौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० मेथी + बरी] मेथी का साग मिलाकर बनाई हुई उर्द की पीठी की बरी।
⋙ मेद
संज्ञा पुं० [सं० मेदस्, मेद] १. शरीर के अंदर की वसा नामक धातु। चरबी। विशेष—सुश्रुत के अनुसार मेद मांस से उत्पन्न धातु है जिससे अस्थि बनती है। भावप्रकाश आदि वैद्यक ग्रंथों में लिखा है कि जब शरीर के अंदर की स्वाभाविक अग्नि से मांस का परिपाकहोता है, तब मेद बनता है। इसके इकट्ठा होने का स्थान उदर कहा गया है। २. मोटाई या चरबी बढ़ने का रोग। ३. कस्तूरी। उ०—(क) रचि रचि साजे चंदन चौरा। पोते अगर मेद औ गौरा।—जायसी (शब्द०)। (ख) कहि केशव मेद जवादि सों माँजि इते पर आँजे में अंजन दै।—केशव (शब्द०)। ४. नीलम की एक छाया।—रत्नपरीक्षा (शब्द०)। ५. एक अंत्यज जाति जिसकी उत्पत्ति मनुस्मृति में वैदेहिक पुरुष और निषाद स्त्री से कही गई है।
⋙ मेदज
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गुग्गुल [को०]।
⋙ मेदनी
संज्ञा स्त्री० [सं० मेदिनी ?] यात्रियों का वह दल या गोल जो झंडा लेकर किसी तीर्थस्थान या देवस्थान को जाता है।
⋙ मेदपाट
संज्ञा पुं० [सं०] मेवाड़। उ०—शत्रुराजाओं के आयुष्यरूपी पवन का पान करने के लिये चलती हुई कृष्णसर्प जैसी तलवार के अभियान के कारण मेदपाट (मेवाड़) के राजा जयतल (जैत्रसिंह) ने हमारे साथ मेल न किया।—राज० इति०, पृ० ४६०।
⋙ मेदपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] दुंबा। मेढ़ा।
⋙ मेदसारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अष्टवर्ग की एक ओषधि। विशेष दे० 'मेदा'।
⋙ मेदस्वी
वि० [सं० मेदस्विन्] १. स्थूल। मोटा। अधिक चरबीवाला। २. ताकतवर [को०]।
⋙ मेदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्वर और राजयक्ष्मा में अत्यंत उपकारी अष्टवर्ग में एक प्रसिद्ध ओषधि। विशेष—कहते हैं, इसकी जड़ अदरक की तरह पर बहुत सफेद होती है और नाखून गाड़ने से उसमें से मेद के समान दूध निकलता है। वैद्यक में यह मधुर, शीतल तथा पित्त, दाह, खाँसी, ज्वर और राजयक्ष्मा को दूर करनेवाली कही गई है। यह मोरंग की ओर पाई जाती है।
⋙ मेदा
संज्ञा पुं० [अं०] पाकाशय। पेट। कोठा। जैसे, मेदे की शिकायत। मुहा०—मेदा कड़ा होना = आँतों की क्रिया इस प्रकार की होना कि जल्दी दस्त न हो।
⋙ मेदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। धरती। विशेष—पुराणों में मधुकैटभ के भेद से पृथ्वी की उत्पत्ति कही गई है, इसी पृथिवी का यह नाम पड़ा है। २. मेदा। ३. स्थान। जगह (को०)। ४. एक संस्कृत कोश का नाम (को०)। यौ०—मोदिनीज = मंगलग्रह। मेदिनीद्रव = धूलि। मेदिनीधर = शैल। पर्वत। मेदिनीपति = राजा।
⋙ मेदुर
वि० [सं०] १. चिकना। स्निग्ध। २. मोटा। स्थूल (को०)। ३. भरा हुआ। आच्छन्न (को०)।
⋙ मेदोज
संज्ञा पुं० [सं०] हड्डी। अस्थि।
⋙ मेदोधरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर की तीसरी कला या झिल्ली जिसमें मेद या चरबी रहती है।
⋙ मेदोर्वुद
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेदयुक्त गाँठ या गिल्टी जिसमें पीड़ा हो। २. ओठ का एक रोग।
⋙ मेदोवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चरबी का बढ़ना। मोटाई। २. अंडवृद्धि।
⋙ मेद्य
वि० [सं०] १. मोटा। २. निविड़। गाढ़ा। ठोस [को०]।
⋙ मेघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ। २. हवि। यज्ञ में बलि दिया जानेवाला पशु। ४. मांस का शोरबा या रसा (को०)। ५. रस। सार। निर्यास (को०)।
⋙ मेघज
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।
⋙ मेघा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंतःकरण की वह शक्ति जिससे जानी, देखी, सुनी या पढ़ी हुई बातें मन में बराबर बनी रहती हैं, भूलती नहीं। बात को स्मरण रखने की मानसिक शक्ति। धारणावाली बुद्धि। २. दक्ष प्रजापति की एक कन्या। ३. षोडश मातृकाओं में से एक, जिसका पूजन तांदीमुख श्राद्ध में होता है। ४. छप्पय छंद का एक भेद। ५. शक्ति। ताकत। बल (को०)। ६. सरस्वती का एक रूप (को०)। यौ०—मेघाकर = बुद्धि बढ़ानेवाला। मेघाजित्। मेघारुद्र।
⋙ मेघाजित्
संज्ञा पुं० [सं०] कात्यायन मुनि।
⋙ मेघातिथि
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाम जो बहुत से लोगों का है। १. काण्ववंश में उत्पन्न एक ऋषि जो ऋग्वेद के प्रथम मंडल के १२-३३ सूक्तों के द्रष्टा थे। २. कणव मुनि के पिता। (महाभारत)। ३. भट्ट वीरस्वामी के पुत्र जो मनुसंहिता के प्रसिद्ध भाष्यकार हैं। ४. प्रियव्रत के पुत्र और शाकद्वीप के अधिपति। (भागवत)। ५. कर्दम प्रजापति के पुत्र।
⋙ मेघारुद्र
संज्ञा पुं० [सं०] कालिदास [को०]।
⋙ मेघावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाज्योतिष्मती लता।
⋙ मेघावान्
वि० [मेघावत्] [वि० स्त्री० मेघावती] जिसकी स्मरण- शक्ति तीव्र हो। धारणाशक्तिवाला।
⋙ मेघाविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्रह्मा की पत्नी का नाम [को०]।
⋙ मेघावी (१)
वि० [सं० मेघाविन्] [वि० स्त्री० मेघाविनी] १. मेघाशक्तिवाला। जिसकी धारणाशक्ति तीव्र हो। २. बुद्धिमान्। चतुर। ३. पंडित। विद्वान्।
⋙ मेघावी (२)
संज्ञा पुं० १. शुक पक्षी। सूआ। तोता। २. मद्य। शराब। ३. कश्यप के एक पुत्र। ४. च्यवन के एक पुत्र। उ०—च्यवन पुत्र मेघावी नामा। करै तपस्या विपिन अकामा।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ मेघि
संज्ञा पुं० [सं०] उस स्थान पर गड़ा हुआ खंभा जहाँ खेत से लाकर फसल फैलाई जाती है। दाँनेवाले बैल इसी खंभे में बँधे हुए चारों ओर घूमकर पैरों से डंठलों के दाने झाड़ते हैं।
⋙ मेघिर
वि० [सं०] तत्पर बुद्धिवाला। मेघावी। बुद्धिमान्।
⋙ मेघिष्ठ
वि० [सं०] अत्यंत मेघावी [को०]।
⋙ मेघ्य (१)
वि० [सं०] १. बुद्धि बढ़ानेवाला। मेघाजनक। २. पवित्र। शुचि। ३. यज्ञ संबंधी। यज्ञ के योग्य।
⋙ मेघ्य (२)
संज्ञा पुं० १. खैर। कत्था। २. जौ। ३. बकरा।
⋙ मेघ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] केतकी, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, मंडूकी आदि बुद्धिवर्धक बूटियाँ। २. गोरोचन। ३. एक रक्तवाहिनी नस [को०]।
⋙ मेनका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वर्ग की एक अप्सरा। विशेष—यह अप्सरा इंद्र की आजा से विश्वामित्र का तप भंग करने के लिये गई थी और विश्वामित्र के संयोग से इसे शकुंतला नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी। २. उमा या पार्वती की माता जो हिमवान् की पत्नी थी।
⋙ मेनकात्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शकुंतला। २. पार्वती। दुर्गा।
⋙ मेनकाहित
संज्ञा पुं० [सं०] रासक नामक नाटक का एक भेद।
⋙ मेना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पितरों की मानसी कन्या मेनका। २. हिमवान् की स्त्री। मेनका। ३. स्त्री। ४. वृपणश्र्व की मानसी कन्या (ऋग्वेद)। ५. वाक्।
⋙ मेना † (२)
क्रि स० [हिं० मोपन] पकवान आदि में मोयन देना। मोयन डालना। उ०—लुचुई पोइ पोर घिउ मेई। पाछे छानि खाँड़ रस भेई।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मेनाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिल्ली। २. बकरी। ३. मोर।
⋙ मेनाघव
संज्ञा पुं० [हिं०] हिमालय।
⋙ मेमंत पु
वि० [सं० मदमत्त, हिं० मैमंत] मदमत्त। मतवाला। उ०— मेमंति दंति घन बज्जि सार।—पृ० रा०, ६१।६०३।
⋙ मेम
संज्ञा स्त्री० [अं० मैडम का संक्षिप्त रूप] १. योरोप या अमेरिका आदि की विवाहिता स्त्री। २. ताश का एक पत्ता जिसे बीबी या रानी कहते हैं। यह पत्ता बादशाह से छोटा और गुलाम से बड़ा माना जाता है।
⋙ मेमना
संज्ञा पुं० [अनु० में में] १. भेड़ का बच्चा। २. घोड़े की एक जाति। उ०—कोइ काबुल कँबोज कोई कच्छी। बोत मेमना मुंजी लच्छी।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ मेमो
संज्ञा पुं० [अं०] मेमोरैंडम का संक्षिप्त रूप।
⋙ मेमार
संज्ञा पुं० [अं०] भवन निर्माण करनेवाला शिल्पी। इमारत बनानेवाला। थवई। राजगीर।
⋙ मेमोरियल
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह प्रार्थनापत्र जो किसी बड़े अधिकारी के पास विचारार्थ भेजा जाय। आवेदनपत्र। उ०— जिस नगर में श्रीमान् लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर जायँ वहीं उनको नागरी के प्रचारर्थ मेमोरियल दिए जायँ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ५७। २. स्मारकचिह्न। यादगार।
⋙ मेमोरेंडम
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह पत्र जिसमें कोई बात स्मरण दिलाने के लिये लिखी गई हो। याददाश्त। स्मरणपत्रक। २. वक्तव्य। अभिमत।
⋙ मेमोरेंडम आफ ऐशोसिएशन
संज्ञा पुं० [अं०] किसी ज्वाइंट स्टाक कपंनी या संमिलित पूँजी से खुलनेवाली कंपनी की उद्देश्यपत्रिका जिसमें उस कंपनी का नाम और उद्देश्य आदि लिखे होते हैं और अंत में हिस्सेदारों के हस्ताक्षर होते हैं। सरकार में इसकी रजिस्ट्री हो जाने पर कंपनी की कानूनी अस्तित्व हो जाती है। उद्देश्यपत्रिका।
⋙ मेय
वि० [सं०] १. जिसकी नाप जोख हो सके। जिसका परिमाण या विस्तार ठीक बताया जा सके। २. जो नापा जोखा जानेवाला हो।
⋙ मेयना †
क्रि० स० [सं० मेदन हिं० मेयन (= मोयन)] पकवान आदि में मोयन डालना। मोयन देना।
⋙ मेयर
संज्ञा पुं० [अं०] म्युनिसिपल कारपोरेशन का प्रधान। जैसे, कलकत्ता कारपोरेशन के मेयर। विशेष—इंगलैंड में म्युनिसिपैलटियों के प्रधान मेयर कहलाते हैं। ये अपने नगरों की म्युनिसिपैलटियों के प्रधान होने के सिवा वहाँ के प्रधान मैजिस्ट्रेट भी होते हैं। लंडन तथा और कई नगरों की म्युनिसिपैलटियों के प्रधान लार्ड मेयर कहलाते हैं। हिंदुस्तान में कारपोरेशन के प्रधान मेयर कहलाते हैं। इनका केवल म्युनिसिपल प्रबंध से ही संबंध है। ईस्ट इंडिया कंपनी के समय सन् १७२६ ई० में भारत में, कलकत्ता, बंबई और मद्रास में, विचारकार्य के लिये मेयर कोर्ट स्थापित किए गए थे। यह ऐतिहासिक तथ्य है परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतवर्ष के अन्य बड़े नगरों में भी कारपोरेशन या महापालिकाएँ बनाई गई हैं। उन सबके प्रधान को मेयर या उध्यक्ष कहते हैं। इनका निर्वाचन कार्पीरेशन के सभासदों द्वारा किया जाता है।
⋙ मेयान ‡
संज्ञा पुं० [फ़ा० मियान] दे० 'म्यान'। उ०—कहाँ ग्यान का पयान, कहाँ मेयान का मुसकला।—रामानंद०, पृ० ३२।
⋙ मेये
संज्ञा स्त्री० [सं० बँग०] कन्या। बेटी। पुत्री। उ०—पंजाबी मेये तो बेश सुंदरी।—भस्मावृत०, पृ० ७२।
⋙ मेर पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० मेल] दे० 'मेल'।उ०—(क) एहि सो कृष्ण बलराज जस कीन्ह चहै छर बाँध। मन बिचार हम आवही मेरहि दीज न काँध।—जायसी। (शब्द०)। (ख) गएउ हेराइ जो ओहि भा मेरा।—जायसी ग्रं०, पृ० ९२। (ग) अपने अपने मेरनि मानो उनि होरी हरख लगाई।—सूर (शब्द०)।
⋙ मेर पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० मेरु] दे० 'मेरु'। उ०—सुंदर हय हींसे जहाँ गय गाजै चहुँ फेर। काइर भागै सटक दे सूर अडिग ज्यौ मेर।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३९। यौ०—मेरडंड = दे० 'मेरुदंड'। उ०—थिर मन मेरडंड चढ़ तारी।—घट०, पृ० ३१।
⋙ मेर † (३)
संज्ञा पुं० [देश०] पर्वतीय जातिविशेष। एक लडा़कू पर्वतवासी जाति। उ०—जहँ पब्बय घाटो हुतौ मीना मेर मवास।— पृ० रा०, ७।७६।
⋙ मेरक
संज्ञा पुं० [सं०] एक असुर जिसे विष्णु ने मारा था।
⋙ मेरठी
संज्ञा पुं० [हिं० मेरठ नगर से] गन्ने की एक जाति जो मेरठ की ओर होती है।
⋙ मेरवन
संज्ञा स्त्री० [हिं० मेरवना] मिलाने कि क्रिया या भाव। मिलान।
⋙ मेरवना
क्रि० स० [सं० मेलन] १. दो या कई वस्तुओं को एक में करना। मिश्रित करना। मिलाना। उ०—ते मेरए धरि धूरि सुजोधन जे चलते वह छत्र की छाहों।—तूलसी (शब्द०)। २. दो या कई व्यक्तियों को एक साथ करना। संयोग करना। मिलाप करना। उ०—(क) चतुरवेद हौं पंडित हीरामन मोहि नाऊँ। पझावत सौ मेरवौ सेव करौ तेहि ठाउँ।—जायसी (शब्द०)। (ख) है मोहि आस मिलैकै जौ मेरव करतार। जायसी (शब्द०)। (ग) औ विनती पँडितन सन भजा। टूट सँवारहु, मेरवहु सजा।—जायसी ग्रं०, पृ० ९।
⋙ मेखनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० मेखना] दे० 'मेखन'। उ०—सुंदर श्यामल अंग बसन पीत सुरंग कटि निषंग परिकर मेरवनि।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ मेरा (१)
सर्व० [हिं० मैं + रा (प्रा० केरिओ, हिं० केग)] [स्त्री० मेरी] 'मैं' के संबंधकारक का रूप। मुझसे संबंध रखनेवाला। मदीय। मम। जैसे,—यह घोड़ा मेरा है। उ०—मेरहुँ जेट्ट गरिठ्ठ अछ मंति विअक्खन भाए।—कीर्ती०, पृ० २०।
⋙ मेरा पु † (२)
संज्ञा पुं० [ सं० मेला] दे० 'मेला'। उ०—यह संसार सुवन जस मेरा। अंत न आपन को केहि केरा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मेराउ †
संज्ञा पुं० [हिं० मेर (= मेल)] दे० 'मेराव'। उ०—घनि ओहि जीव दीन्ह बिधि भाऊ। दहुँ का सउँ लेइ करइ मेराऊ।— जायसी (शब्द०)।
⋙ मेराज
संज्ञा स्त्री० [अं० मेराज] सीढ़ी। ऊपर चढ़ने का साधन। उ०—रूह करै मेराज कुफर का खोलि कुलावा। तीसो रोजा रहै अंदर में सात टिकावा।—पलटू०, पृ० ४३।
⋙ मेराना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'मिलाना'। उ०—(क) सो बंसीठ सरजा लेई आवा। बादसाह कहँ आनि मेरावा।—जायसी (शब्द०)। (ख) कपूर लाइची मोरया वामें पूजा यही हमारा। जग० बानी०, पृ० १।
⋙ मेराव
संज्ञा पुं० [हिं० मेर (= मेल)] मेल। मिलाप। सप्तागम। उ०—पदुमावति पुनि पूजइ आवा। होइहि ओहि मिसु दिस्ट मेरावा।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मेरी (१)
सर्व० [हिं०] 'मेरा' का स्त्री० रूप।
⋙ मेरी (२)
संज्ञा स्त्री० अहंकार। उ०—मेरी मिटी मुक्ता भया पाया ब्रह्म विस्वास। मेरे दूजा कोउ नहीं एक तुम्हारी आस।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मेरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक पुराणोक्त पर्वत जो सोने का कहा गया है। विशेष दे० 'सुमेरु'। पर्या०—हेमाद्रि। रत्नसानु। सुरालय। २. जपमाला के बीज का बड़ा दाना जो और सब दानों के ऊपर होता है। इसी से जप का आरंभ और इसी पर उसकी समाप्ति होती है। सुमेरु। (जप करते समय 'मेरु' का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।) उ०—कबिरा माला काठ की बहुत जतन का फेर। माला फेरौ साँस की जामे गाँठि न मेरु।—कबीर (शब्द०)। २. एक विशेष ढाँचे का देवमंदिर। विशेष—वृहत्संहिता के अनुसार यह षट्कोण होता है और इसमें १२ भूमिकाएँ या खंड होते हैं। अंदर अनेक प्रकार के गवाक्ष (मोखे) और चारों दिशाओं में द्वार होते हैं। इसका विस्तार ३२ हाथ और उँचाई ६४ हाथ होनी चाहिए। ४. वीणा का एक अंग। ५. पिंगल या छंदशस्त्र की एक गणना जिससे यह पता लगता है कितने कितने लघु गुरु के कितने छंद हो सकते हैं। ६. करमाला में अंगुलि का पर्व या पोर (को०)। ७. हार का मध्यवर्ती रत्न (को०)।
⋙ मेरुआ
संज्ञा पुं० [सं० मेरु + हिं० आ (प्रत्य०)] खेत बराबर करने के पाटे का छोर पर का भाग जिसमें रस्सियाँ बँधी होती हैं।
⋙ मेरुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईशान कोण में स्थित एक देश। (वृहत्संहिता)। २. यज्ञधूम। धूना।
⋙ मेरुकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम।
⋙ मेरुदंड
संज्ञा पुं० [सं० मेरुदण्ड] १. पीठ के बीच की हड्डी। रीढ़। २. पृथ्वी के दोनों ध्रुवों के बीच गई हुई सीधी कल्पित रेखा।
⋙ मेरुदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेरु की कन्या और नाभि की पत्नि जो विष्णु के अवतार ऋषभदेव की माता थी।
⋙ मेरुधामा
संज्ञा पुं० [सं० मेरुधामन्] शिव। महादेव।
⋙ मेरुपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश। २. स्वर्ग।
⋙ मेरुभूत
संज्ञा पुं० [सं०] एक जाति का नाम।
⋙ मेरुभूतसिंघ
संज्ञा पुं० [सं०] पह्नव देश का दूसरा नाम।
⋙ मेरुयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० मेरुयन्त्र] १. चरखा। २. बीजगणित में एक प्रकार का चक्र।
⋙ मेरुशिखर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेरु की चोटी। २. हठयोग में माने हुए मस्तक के छह चक्रों मे से सबसे ऊपर का चक्र। विशेष—इसका स्थान ब्रह्मरंघ्र, रंग अवर्णनीय और देवता चिन्मय शाकत है। इसके दलों की संख्या १०० और दलों का अक्षर ओंकार है। इसे सहस्रार भी कहते हैं।
⋙ मेरुश्रीगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम।
⋙ मेरुसावर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] ग्यारहवें मनु का नाम।
⋙ मेरे
सर्व० [हिं० मेरा] १. मेरा का बहुवचन। जैसे,—ये आम मेरे हैं। २. मेरा का वह रूप जो उसे संबंधवान् शब्द के आगे विभक्ति लगने के कारण प्राप्त होता है। जैसे,—मेरे घर पर आना।
⋙ मेल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दो या अधिक वस्तुओं या व्यक्तियों के हकट्ठा होने का व्यापार अयवा भाव। मिलने की क्रिया या भाव। संयोग। समागम। मिलाप। मिलान। उ०— दारिया सुमिरन नाम का, देखत भूली खेल। धनसून हैं वे साधवा, जिन लीवा मन मेल।—दरिया० बानी०, पृ० ८। क्रि० प्र०—करना।—कराना।—रखना।—होना। जैसे,—(क) इधर से यह चल, उधर से वह चला, बीच में दोनों का मेल हो गया। (ख) इसी स्टेशन पर दोनों गाड़ियों का मेल होता है। यौ०—मेलमिलाप। २. एक साथ प्रीतीपूर्वक रहने का भाव। अनबन का न रहना। एकता। सुलह। जैसे, दोनों भाइयों में बड़ा मेल है। यौ०—मेलजोल। मुहा०—मेल करना = विरोध दूर करना और परस्पर हित संबंध स्थापित करना। सुलह करना। संधि करना। मेल होना = झगड़ा मिटना। सुलह होना। ३. पारस्परिक घनिष्ठ व्यवहार। मैत्री। मित्रता। दोस्ती। प्रीति- संबंध। जैसे,—उसने अब मेरे शत्रुओं से मेल किया है। मुहा०—मेल बढ़ाना = घनिष्ठ व्यवहार करना। अधिक परिचय और साथ करना। मैत्री करना। जैसे,—बहुत मेल मत बढ़ाओ, नहीं तो धोखा खाओगे। ४. अनुकूलता। अनुरूपता। उपयुक्तता। संगति। सामंजस्य। मुआफिकत। मुहा०—मेल खाना = (१) साथ का ठीक होना। संगति का उपयुक्त होना। साथ निभना। जैसे,—हमारा उनका मेल नहीं खा सकता। (२) वस्तुओं की एक साथ स्थिति का अच्छा या ठीक होना। दो चीजों का जोड़ ठीक बैठना। जैसे,—इसका रंग कपड़े के रंग के साथ मेल नही खाता है। मेल बैठना = दे० 'मेल खाना'। मेल मिलाना = दे० 'मेल बैठना'। ५. जोड़। टक्कर। बराबरी। समता। जैसे,—इसके मेल की चीज का मिलना तो कठिन है। ६. ढंग। प्रकार। चाल। तरह। जैसे,—इसकी दुकान पर कई तरह की चीजें हैं। ७. दो वस्तुओं का एक में होना। मिश्रण। मिलावट। जैसे,—हरा रंग नीले और पीले रंगों के मेल से बनता है।
⋙ मेल (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. वे सब चिट्ठियाँ और पार्सल आदि जो ड़ाक से भेजी जायँ। डाक का थैला। डाकगाड़ी। यौ०—मेलट्रेन।
⋙ मेलट्रेन
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह बहुत तेज चलनेवाली गाड़ी जो केवल बड़े बड़े स्चेशनों पर ही ठहरती हैं, छोटे छोटे स्टेशनों पर नहीं ठहरती और जिसके द्वारा दूर की डाक भेजी जाती है।
⋙ मेलवान
संज्ञा पुं० [अं०] रेल का वह डिव्बा जिसमें डाक भेजी जाय।
⋙ मेलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. संग। सहवास। २. मेला। ३. समूह। जमावड़ा। ४. मिलन। समागम। ५. वर और कन्या की राशी, नक्षत्र आदि का विवाह के लिये किया जानेवाला मिलान।
⋙ मेलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक साथ होना। इकट्ठा होना। मिलन। २. जमावड़ा। ३. मिलाने की क्रिया या भाव।
⋙ मेलना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० मेल + ना (प्रत्य०)] १. मिलाना। २. डालना। रखना। उ०—जे कर कनक कचोरा भरि भरि मेलत तेल फुलेल।—सूर (शब्द०)। ३. धारण कराना। पहनाना। उ०—सिय जयमाल राम उर मेली।—तुलसी (शब्द०)। ४. रमाना। लगाना। उ०—छाँड़ा नगर मेलि कै धूरी।—जायसी ग्रं०, पृ० ५६। ५. भेजना। उ०—नूप मेले आया नगर, दोढ़ बधाईदार। कहो विगत विध विध करे आर्नंद भरे अपार।—रघु रू०, पृ० ९२।
⋙ मेलना (२)
क्रि० अ० इकठ्टा होना। एकत्र होना। जुटना। उ०— बलसागर लछमन सहित कपिसागर रनधीर। जससागर रघुनाथ जू मेले सागर तीर।—(शब्द०)।
⋙ मेलमल्लार
संज्ञा पुं० [सं०] एक रागिनी जिसकी स्वरलिपि इस, प्रकार है—स स स रे म प ध स स ध प म ग रे स।
⋙ मेलांधु
संज्ञा पुं० [सं० मेलान्धु] दवात।
⋙ मेला (१)
संज्ञा पुं० [सं० मेलक] १. बहुत से लोगों का जमावड़ा। भीड़ भाड़। २. देवदर्शन, उत्सव, खेल, तमाशी आदि के लिये बहुत से लोगों का जमावड़ा। जैसे, माघमेला, हरिहरक्षेत्र का मेला। यौ०—मेला ठेला। मेला तमाशा। मुहा०—मेला भरना = किसी खेल तमाशी या उत्सव में काफी भीड़- भाड़ एकट्ठी होना। मेला लगना = जमाव होना। भीड़ लगना।
⋙ मेला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहुत से लोगों का जमावड़ा। २. मिलन। समागम। मिलाप। ३. स्याही। रोशनाई। ४. अजंन। ५. महानीली।
⋙ मेलाठेला
संज्ञा पुं० [हिं० मेला + ठेला (= धक्का)] भीड़ भाड़ और धक्का। जमावड़ा। जैसे,—मेले ठेले में स्त्रियों का जाना ठीक नहीं।
⋙ मेलानंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० मेलानन्दा] दवात।
⋙ मेलान पु
संज्ञा पुं० [अं०] मंजिल। पड़ाव। टिकान। डेरा। उ०—सागरतीर मेलान पुनि करिहैं रघुकुल नाह।—केशव (शब्द०)।
⋙ मेलाना †
क्रि० स० [हिं० मेल] १. मेलना का प्रेरणार्थ रूप। रेहन या गिरवी रखी हुई वस्तु को रुपया देकर छुड़ाना।
⋙ मेलायप
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिलाने, इकट्ठा करनेवाला। २. ग्रहों का संयोग। ३. भीड़। जमाव।
⋙ मेलापन
संज्ञा पुं० [सं०] मिलना। संयोग। समागम।
⋙ मेली (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मेल] वह जिससे मेल जोल हो। वह जिससे घनिष्ट पश्चिय हो। मुलाकाती। संगी। साथी।
⋙ मेली (२)
वि० हेल मेल रखनेवाला। जल्दी हिल मिल जानेवाला। जिसकी प्रवृत्ति लोगों को मित्र बनाने की हो। यारबाश। जैसे,—वह बड़ा मेली आदमी है।
⋙ मेल्टिग केट्ल
संज्ञा पुं० [अं०] सरेस गलाने की देगची। विशेष—यह एक ढकनेदार दोहरा बर्तन होता है। नीचे के बर्तन में पानी भरकर उसके अंदर दूसरा बर्तन रखकर उसमें सरेस भर देते हैं और ढककर आच पर चढ़ा देते हैं। पानी की भाप से सरेस गल जाता है। गल जाने पर उसे रोलर मोल्ड में ढाल देतेहैं जिससे वह जम जाता है और स्याही देने का बेलन तैयार होकर निकल आता है। (छापाखाना)।
⋙ मेल्हना † (१)
क्रि० स० [प्रा० मेल्ल, गुज० मेलबुं = (छोड़ना, रखना)] १. छोड़ना। रखना। डालना। उ०—पग पलका की सुधि नहीं सार सबद क्या होइ। कर मुख माहैं मेल्हताँ, दादू लखै न कोइ।—दादू०, बानी, पृ० ३९०। २. गड़ा रहना। पड़ा रहना। उ०—मेल्ही रही सूम की थाती। सुंदर दी आगै कौं थाती।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३५८।
⋙ मेल्हना (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की नाव जिसका सिक्का खड़ा रहता है।
⋙ मेल्हना † (३)
क्रि० अ० १. क्लेश या पीड़ा से बार बार इस करवट से उस करवट होना। छटपटाना। बेचैन होना। २. कोई काम करने में आनाकानी करके समय बिताना।
⋙ मेव
संज्ञा पुं० [देश०] राजपूताने की ओर बसनेवाली एक लुटेरी जाती। मेवाती। उ०—छवि बन में दौरन लगे जब तें तव दृग मेव। तब ते कढ़े सनोहिया मन छन लै कै छेव।—रसनिधि (शब्द०)। विशेष—मेव पहले हिंदु थे और मेवात में बसते थे। पर मुसलमानी बादशाहत के जमाने में ये मुसलमान हो गए। अब ये लोग लूट- पाट प्रायः छोड़ते जा रहे हैं।
⋙ मेवक †
संज्ञा पुं० [फ़ा० मेवह्] मेवा। उ०—भूखो नैन रूप को चाहत मिलनि सकल रस मेवक।—भीखा श०, पृ० ८६।
⋙ मेवड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] निर्गुंडी। सँभालू।
⋙ मेवा (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० मेवह्] १.खाने का फल। २. किसमिस, बादाम, अखरोट आदि सुखाए हुए बढ़िया फल। उ०—बिबिध मधु मेवा भोग रचाय।—घनानंद०, पृ० ५६१।
⋙ मेवा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] सूरत के गन्ने की एक जाति जिसे 'खजुरिया' भी कहते हैं।
⋙ मेवाटी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मेवा + बाटी] एक पकवान जिसके अंदर मेवे भरे रहते हैं। उ०—फूटि जाय फन फनीराज को समोसा सम फटि जाय कच्छप की पीठ हू मेवाटी सी।— गोपाल (शब्द०)।
⋙ मेवाड़
संज्ञा पुं० [देश०] १. राजपूताने का एक प्रांत जिसकी प्राचीन राजधानी चितौर थी और आजकल उदयपुर है। २. एक राग जो मालकोस राग का पुत्र माना जाता है।
⋙ मेवाड़ी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मेवाड़ + ई (प्रत्य०)] मेवाड़ प्रदेश का निवासी।
⋙ मेवाड़ी (२)
वि० मेवाड़ में होनेवाला। मेवाड़ से संबंध रखनेवाला। मेवाड़ का।
⋙ मेवात
संज्ञा पुं० [सं०] राजपूताने और सिंध के बीच के प्रदेश का पुराना नाम। यहाँ मेव नाम की जाती का निवास था, जो हिंदू थे। उ०—मेवात धनी आए महेस। मोहिल्ल दुनांपुर दिए पेस।—पृ० रा०, १। ४२२।
⋙ मेवाती
संज्ञा पुं० [हिं० मेवात + ई (प्रत्य०)] मेवात का रहनेवाला।
⋙ मेवादार
वि० [फ़ा० मेवहदार] फलदार। फलयुक्त।
⋙ मेवाफरोश
संज्ञा पुं० [फ़ा० मेवह् + फ़रोश] फल या मेवे बेचनेवाला।
⋙ मेवासा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० मवासा] १. किला। गढ़। २. रक्षा का स्थान। ३. घर। उ०—कबीर हरि की गति का मन में बुहत हुलास। मेवासा भाँजै नहीं होन चहे निज दास।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मेवासी
संज्ञा पुं० [हिं० मेवासा] १. घर में रहनेवाला। घर का मालिक। उ०—मन मेवासी मूड़िए केशहि मूढ़े काहि। जो कुछ किया सो मन किया केशाँ किया कछु नाहिं।—कबीर (शब्द०)। २. किले में रहनेवाला। संरक्षित और प्रबल। उ०—कबिरा मन मेवासी भया बस करि सकै न कोय। सनकादिक रिषि सारखे तिनके गया विगोय।—कबीर (शब्द०)।
⋙ मेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेड़। २. बारह राशियों में से एक जिसके अंतर्गत अश्विनी, भरणी और कृत्तिका नक्षत्र का प्रथम पाद पड़ता है। विशेष—इस राशी पर सूर्य वैशाख में रहते हैं। राशियों की गणना में इसका नाम सबसे पहले पड़ता है। इसकी आकृति मेष के समान मानी गई है। यह राशि सूर्य का उच्च स्थान है। इसमें जबतक सूर्य रहते हैं, तबतक बहुत प्रबल रहते हैं। उच्चांश काल वैशाख में प्रथम दस दिन तक रहता है। इसके उपरांत सूर्य उच्चांशच्युत होने लगते हैं। ३. एक लग्न जो सूर्य के मेष राशी में रहने पर माना जाता है। जैसे,—यदि किसी का जन्म सूर्य के मेष राशि में रहने पर होगा, तो कहा जाएगा कि उसका जन्म मेष लग्न में हूआ। मुहा०—मेष काना पु = मीन मेष करना। आगा पीछा करना। संकल्प विकल्प करना। उ०—कियो अक्रूर भोजन दुहुन संग लै, नर नारी ब्रज लोग सबै देखै। मनी आए संग, देखि ऐसे रंग, मनहि मन परस्पर करत मेषै।—सूर (शब्द०)। ४. एक औषधि। ५. जीवशाक। सुसना।
⋙ मेषकबल
संज्ञा पुं० [सं० मेषकम्बल] मेष के रोएँ का कंबल। ऊनी कंबल [को०]।
⋙ मेषकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] चकवँड़ नाम का पौधा। चक्रमर्द [को०]।
⋙ मेषग
वि० [सं०] मेष राशि में गया हुआ। उ०—माधव मेषग भानु मैं हे मधुसत्रु मुरारि। प्रात न्हान फल दीजिए नाथ पाप निरुवारि।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ९०।
⋙ मेषपाल
संज्ञा पुं० [सं०] गड़रिया।
⋙ मेषपालक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मेषपालक' [को०]।
⋙ मेषपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेढ़ासिंगी।
⋙ मेषमास
संज्ञा पुं० [सं०] वैशाख मास [को०]।
⋙ मेषर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मेखला] दे० 'मेखला'। उ०—रवंत कट्टि मेषर, चकोर साव से सुरं।—पृ० रा०, ६१।७७०।
⋙ मेषलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] चक्रमर्द। चकवँड़।
⋙ मेषवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेढ़ासिंगी।
⋙ मेषविषाणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेढ़ासिंगी।
⋙ मेषवृषण
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम। उ०—मेषवृषण अस नाम शक्र को ह्लैहै सब संसारा। अवृपण मेष देव पितरन को दैहै तोहि अपारा।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ मेषशृंग
संज्ञा पुं० [सं० मेषश्रृङ्ग] सिंगिया नामक स्थावर विष।
⋙ मेषशृंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० मेषश्रुङ्गी] मेढ़ासिंगी।
⋙ मेषसंक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० मेषसङ्क्रान्ति] मेष राशी पर सूर्य के आने का योग वा काल। विशेष—इसी दिन से सौर मास के वैशाख का आरंभ होता है। इस दिन हिंदू लोग सत्तु दान करते हैं, इससे इसे 'सतुआ संक्रांति' भी कहते हैं।
⋙ मेषांड
संज्ञा पुं० [सं० मेषाण्ड] इंद्र।
⋙ मेषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुजराती इलायची। २. चमड़े का एक भेद जो लाल भेड़ की खाल से बनता है।
⋙ मेषालु
संज्ञा पुं० [सं०] बर्बरी। बनतुलसी। बबुई।
⋙ मेषिका, मेषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भेड़। स्त्री मेष। २. तिनिश वृक्ष। ३. जटामासी।
⋙ मेषूरण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मेसूरण' [को०]।
⋙ मेस
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह स्थान जहाँ मूल्य लेकर विद्यार्थियों के लिये भोजन का प्रबंध किया जाय। छात्रावास से संबद्ध भोजनालय जहाँ विद्यार्थी मूल्य देकर भोजन करते हैं। २. फौजी अफसरों, सैनिकों आदि का संयुक्त भोजनालय।
⋙ मेसूरण
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में दशम लग्न जो कर्मस्थान कहा जाता है।
⋙ मेस्मराइजर
संज्ञा पुं० [अं० मेज्मराइज़र] वह जो किसी को अपनी इच्छाशक्ति से अचित कर देता है। मेस्मरिज्म करनेवाला। संमोहित करनेवाला। संमोहक।
⋙ मेस्मरिज्म
संज्ञा पुं० [अं० मेज्मरिज्म] (मेज्मर नामक जर्मन डाक्टर का निकाला हुआ) वह सिद्धात जिससे कि मनुष्य किसी गुप्त शक्ति या केवल इच्छाशक्ति से दूसरे की इच्छाशक्ति को प्रभा- वान्वित या वशीभूत कर सकता है। वह विदया या शक्ति जिससे कोई मनुष्य अचेत कर वश में किया और अपने इच्छा- नुसार परिचालित किया जा सके, अर्थात् उससे जो कुछ कहलाया जाय, वह कहे या जो कुछ पूछा जाय, उसका उत्तर दे। संमोहिनो विद्या। संमोहन। विशेष—जिसपर मेस्मरिज्म किया जाता है, वह अचेत सा हो जाता है, और उस अवस्था में उससे जो कुछ कहलाना होता है, वह कहता है या जो कुछ पूछा जाता है, उसका उत्तर देता है।
⋙ मेहँदी
संज्ञा स्त्री० [सं० मेन्धी, मेन्धिका] पत्ती झाड़नेवाली एक झाड़ी जो बंलोचिस्तान के जंगलों में आपसे आप होती है और सारे हिंदुस्तान में लगाई जाती है। विशेष—इसमें मंजरी के रूप में सफेद फूल लगते हैं जिनमें भीनी भीनी सुगंध होती है। फल गोल मिर्च की तरह के होते हैं और गुच्छों में लगते हैं। इसकी पत्ती को पीसकर चढ़ाने से लाल रंग आता है, इसी से स्त्रियाँ इसे हाथ पैर में लगाती हैं। बगीचे आदि के किनारे पर भी लोग शोभा के लिये एक पंक्ति में इसकी टट्टी लगाते हैं। पर्या०—नखरंज। कोकदंता। रागगर्भा। मेंधिका। नखरंजनी। मुहा०—क्या पैर में मेहँदा लगी है ? = सक्या पैर काम में नहीं ला सक्ते जो उठकर नहीं आते ? मेहँदी रचना = मेहँदी का अच्छा रंग आना। जैसे,—उसके पैर में मेहँदी खूब रचती है। मेहँदी बाँधना = मेहँदी की पत्तियाँ पीसकर लगाना। मेहँदी रचना = मेहँदी लगाना। मेहँदी लगाना = मेहँदी की पत्तियाँ पीसकर हथेली या तलुए में लगाना।
⋙ मेह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रस्राव। मूत्र। २. प्रमेह रोग। ३. मेष। मेढ़ा। ४. अज। छाग। बकरा (को०)।
⋙ मेह (२)
संज्ञा पुं० [मेघ, प्रा० मेह] १. मेघ। बादल। २. वर्षा। झड़ी। मेंह। उ०—छाई पियराई और विथा हियराई जानै, जके थके बैन नैन निदरत मेह कों।—घनानंद, पृ० ७७। क्रि० प्र०— आना।—पड़ना।—बरसना।
⋙ मेह (३)
वि० [फ़ा० मिह, मेह] बड़ा। बुजुर्ग। सरदार [को०]।
⋙ मेहघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरिद्रा। हल्दी [को०]।
⋙ मेहतर
संज्ञा पुं० [फ़ा० मेहतर, तुल० सं० महत्तर] १. बुजुर्ग। सबसे बड़ा। जैसे, सरदार, शाहजादा, मालिक, हाकिम, अमीर आदि। २. [स्त्री० मेहतरानी] नीच मुसलमान जाति जो झाडू देने, गंदगी उठाने आदि का काम करती है। मुसलमान भंगी। हलालखोर।
⋙ मेहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिशन। लिंग। २. मूत्र। मूत। ३. मूतना (को०)। ४. मुष्क वृक्ष। मोरवा (को०)।
⋙ मेहनत
संज्ञा स्त्री० [अं०] मिहनत। श्रम। प्रयास। कष्ट। तकलीफ। यौ०—मेहनत मजदूरी, मेहनत मजूरी = शारीरिक श्रम का काम। मुहा०—मेहनत ठिकाने लगना = श्रम का सफल होना। परिश्रम सफल होना। क्रि० प्र०—करना।—पड़ना।—लेना।—होना।
⋙ मेहनतकश
वि० [अ०] मेहनत करनेवाला। परिश्रमी। उ०— है इतनी सी चाह हमारी पूरी कर मेरे ईश्वर। एकाकी हूँ मेहनतकश हूँ, और किराए का है घर।—मिट्टी०, पृ० ८७।
⋙ मेहनताना
संज्ञा पुं० [अं० मेहनत + फ़ा० आना] किसी काम की मजदूरी। परिश्रम का मूल्य। जैसे, वकील का मेहनताना।
⋙ मेहनती
वि० [अं० मेहनत + ई (प्रत्य०)] मेहनत करनेवाला। परिश्रमी।
⋙ मेहना
संज्ञा स्त्री० [सं०] महिला। स्त्री।
⋙ मेहमान
संज्ञा पुं० [फ़ा० मेहमाँ, मेहमान] अतिथि। पाहुना। यौ०—मेहमानखाना = अतिथिशाला। मेहमानदार =आतिथ्यकरनेवाला। मेजवान। मेहमाननवाज = (१) मेहमानों की खातिर करनेवाला। (२) खिलाने पिलाने का शौकीन। मेहमाननवाजी = अतिथिसत्कार।
⋙ मेहमानदारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] आतिथ्य। अतिथिसत्कार। पहुनाई।
⋙ मेहमानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मेहमान + ई (प्रत्य०)] १. आतिथ्य। सत्कार। पहुनाई। उ०—मेहमानी करि हरहु स्रम कहा मुदित रिषिराज।—मानस, २। मुहा०—मेहमानी करना = खूब गत बनाना। मारना पीटना। दंड देना। (व्यंग्य)। उ०—नंद महरि की कानि करति हौं नतरु करति मेहमानी।—सूर (शब्द०)। ‡२. मेहमान बरकर रहने का भाव। जैसे,—वह मेहमानी करने गए हैं।
⋙ मेहर † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० मेहना या देश०] पत्नी। बीवी। स्त्री।
⋙ मेहर (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० मेह्व] मेहरबानी। कृपा। अनुग्रह। दया। उ०—नेक नजर मेहर मीरा बंदा मैं तेरा। दादू दरबार तेरे, खूब साहिब येरा।—दादू० बानी, पृ० ६०४।
⋙ मेहरबाँ
वि० [फ़ा० मेह्ववाँ] दे० 'मेहरबान'। उ०—गिराया है जमीं होकर छुटाया आसमाँ होकर। निकाला दुश्मने जाँ, औ बुलाया मेहरबाँ होकर।—बेला, पृ० ६२।
⋙ मेहरबान
वि० [फ़ा० मेहर + बान] कृपालु। दयालु। अनुग्रह करनेवाला। विशेष—बड़ों के संबोधन के लिये अथवा किसी के प्रति आदर दिखलाने के लिये भी इस शब्द का प्रयोग होता है।
⋙ मेहरबानगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] दे० 'मेहरबानी'।
⋙ मेहरबानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] दया। कृपा। अनुग्रह। क्रि० प्र०—करना।—दिखलाना।—होना।
⋙ मेहरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० मेहरी] १. स्त्रियों की सी चेष्टावाला। स्त्री प्रकृतिवाला। जनखा। २. स्त्रियों में रहनेवाला। ३. जुलाहो की चरखी का घेरा।
⋙ मेहरा (२)
संज्ञा पुं० [मेहरचंद (मूलपुरुष)] खत्रियों की एक जाति।
⋙ मेहरा पु
संज्ञा पुं० [सं० मेघ, प्रा० मेह + हिं० रा (प्रत्य०)] दे० 'मेह'। उ०—उघरि उघारी अब बरसन लाग्यौ अचरज को यह मेहरा।—घनानंद, पृ० ३३९।
⋙ मेहराब
संज्ञा स्त्री० [अं०] द्वार के ऊपर अर्धमंडलाकार बनाया हुआ भाग। दरवाजे के ऊपर का गोल किया हुआ हिस्सा। विशेष—मेहराब बनाने की रीती प्राचीन हिंदू शिल्प में प्रचलित न थी। विदेशियों, विशेषतः मुसलमानों के द्बारा ही, इस देश में इसका प्रचार हुआ है।
⋙ मेहराबदार
वि० [अ० मेहराब + फ़ा० दार] ऊपर की और गोल कटा हुआ (दरवाजा)।
⋙ मेहरारू †
संज्ञा स्त्री० [सं० मेहना अथवा महिला + रू] औरत। स्त्री। महिला।
⋙ मेहरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० मेहर + इया (प्रत्य०)] दे० 'मेहरी'।
⋙ मेहरी
संज्ञा स्त्री० [सं० मेहना] १. स्त्री। औरत। २. पत्नी। जोरू। उ०—मेहरिन्ह सेंदुर मेला, चंदन खेवरा देह।—जायसी (शब्द०)।
⋙ मेहल
संज्ञा पुं० [देश०] मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष हिमालय में काश्मीर से भूटान तक ८००० फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। इसको पत्तियाँ पाँच छह अंगुल लंबी होती है और पुरानी होने पर काली हो जाती हैं। जाड़े में इसके फल पकते हैं जो खाए जाते हैं। इसकी लकड़ी की छड़ियाँ और हुक्के की निगालियाँ बनती हैं और पत्तियाँ पशुओं के लिये चारे के काम में आती हैं।
⋙ मेहाउर पु, मेहावरि पु †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'महावर'।
⋙ मेही ‡
वि० [हिं० महीन, मिहीन > मेहीं] महीन। बारीक। यौ०—मेहीं मेहीं = महीन। अत्यंत बारीक। उ०—मेहीं मेहीं बुकबा पिसावो तो पिय के लगावो हो।—धरम०, पृ० ४८।
⋙ महु पु
संज्ञा पुं० [सं० मेघ] दे० 'मेह'।
⋙ मेंद
संज्ञा पुं० [सं० मैन्द] एक दानव का नाम जिसे कुष्ण ने मारा था [को०]। यौ०—मैंदहा = श्रीकृष्ण का एक नाम।