विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/विप
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ विपंचनक
संज्ञा पुं० [सं० विपञ्चनक] ज्योतिषी। भविष्य- द्वक्ता [को०]।
⋙ विपंचिक
संज्ञा पुं० [सं० विपञ्चिक] [स्त्री० विपंचिका] भविष्य- द्वक्ता [को०]।
⋙ विपंचिका, विपंची
संज्ञा स्त्री० [सं० विपञ्चिका, विपञ्ची] १. एक प्रकार का बाजा जिसमें तार लगे रहते हैं। एक प्रकार की वीण। उ०—(क) नवल वसंत धुनि सुनिए विपंची नाद पंचम सुरनि ठानि ओठनि अमेठिए।—देव (शब्द०)। (ख) तंत्री वीणा वल्लभी बहुरि विपंची आहि।—नंददास (शब्द०)। २. केलि। क्रीड़ा। खेल।
⋙ विप
वि० [सं०] विद्वान् [को०]।
⋙ विपक्त्रिम
वि० [सं०] विपक्व। पका हुआ। परिवक्व [को०]।
⋙ विपक्व
वि० [सं०] १. खूब पका हुआ। २. पूर्ण अवस्था को प्राप्त। ३. जो पका न हो। कच्चा।
⋙ विपक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरुद्ध पक्ष। किसी बात के विरुद्ध दूसरी स्थिति। २. शत्रु या विरोधी का पार्श्व। ३. विरोध करनेवाला दल। शत्रु पक्ष। विरोधी। प्रतिद्वद्वी। दूसरा फरीक। जैसे—विपक्ष में जाना। ४. प्रतिवादी या शत्रु। विरुद्ध दल का मनुष्य। ५. किसी बात के विरुद्ध की स्थापना विरोध। खंडन। जैसे,—इसके विपक्ष में तुम्हें क्या कहना है ? ६. व्याकरण में किसी नियम क विरुद्ध व्यवस्था बधक नियम। अपवाद। ७. न्याय या तर्क शास्त्र में वह पक्ष जिसमें साध्य का अभाव हो। ८. वह दिन जब पक्ष बदले (को०) ९. निष्पक्ष होने का भाव। निष्पक्षता। पक्षीवहीनता (को०)।
⋙ विपक्ष (२)
वि० १. विरुद्ध। खिलाफ। प्रतिकूल। २. उलटा। विप- रीत। ३. जिसके पक्ष में कोई न हो। जिसका कोई तरफदार न हो। बिना पक्ष का। ४. विना पर या डैने का। पक्षहीन। यौ०—विपक्षभाव, विपक्षवृत्ति=दे० 'विपक्षता'। विपक्षरमणी।
⋙ विपक्षता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरुद्ध पक्ष का अवलंबन। २. विपक्ष होने की क्रिया या भाव। खिलाफ होना।
⋙ विपक्षरमणी
संज्ञा सत्री० [सं०] वह स्त्री जिसकी किसी अन्य स्त्री से प्रतिद्वं द्विता हो [को०]।
⋙ विपक्षी
संज्ञा पुं० [सं० विपक्षिन्] १. विरुद्ध पक्ष का। दूसरी तरफ का। २. शत्रु। प्रतिद्वंद्वी। प्रतिवादी। फरीक सानी। ३. बिना पक्ष का। बिना पंख या डैने का।
⋙ विपच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० विपक्ष, प्रा० विपच्छ] १. दे० 'विपक्षी'। २. बिना पंख या डैने का। उ०—गिरिहै विपच्छ बनाइ।—गुमान (शब्द)।
⋙ विपज्जन्य
वि० [सं० विपत् + जन्य] दुःखी। पीड़ित। उ०—जन विपज्जन्य होकर अगर आपके—आराधना, पृ० १९।
⋙ विपण,विपणन
संज्ञा पुं० [सं०]
⋙ विपणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूकान। २. विक्रय का सामान। ३. व्यापार। ४. विक्रय। ५. बाजार। उ०—अपने इन विहारों के दौरान में कर्मशाला, सभा, कूप, विपणि, निर्माण- शाला—इन सब आवासस्थानों में।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २२५। यौ०—विपणिकर्म। विपणिगत=बाजार में उपलब्ध या प्राप्त। विपणिजीविका=व्यापारजीवी। व्यवसायी। विपणिपथ= बाजार का मार्ग। पण्यवीथी।
⋙ विपणिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० विपणिकर्मन्] दूकानदारी। व्यापर।
⋙ विपणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'विपणि'।
⋙ विपणी (२)
संज्ञा पुं० [सं० विपणिन्] व्यापारी [को०]।
⋙ विपण्यु
वि० [सं०] १. जिसने अपना रोजगार धंधा छोड़ दिया हो। २. अन्यमनस्क [को०]।
⋙ विपताक
वि० [सं०] पताकारहित। ध्वजविहीन [को०]।
⋙ विपतित
वि० [सं०] १. गिरा हुआ। २. उड़ा हुआ [को०]।
⋙ विपत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विपद्'। यौ०—विपत्कर=कष्टकर। विपत्ति पैदा करनेवाला। विपत्काल= बुरा समय। विपज्जन्य। विपत्फल=जिससे संकट उठाना पड़े। विपत्संकुल=विपत्तियों, आपत्तियों से भरा हुआ। उ०—छोटे छोटे राज्यों से हो गया विपत्संकुल यह देश।—अपरा, पृ० २१६। विपत्सागर=बहुत बड़ा संकट। विपत्तियों का समुद्र।
⋙ विपत्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कष्ट, दुःख या शोक की प्राप्ति। भारी रंज या तक्लीफ का आ पड़ना। आफत। २. क्लेश या शोक की स्थिति। रंज या तकलीफ की हालत। संकट की अवस्था। बुरे दिन। जैसे,—विपत्ति में कोई साथी नहीं होता। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना। मुहा०—विपत्ति उठाना=संकट या कष्ट सहना। रंज या तकलीफ बरदाश्त करना। विपत्ति काटना=संकट या कष्ट के दिन बिताना। रंज या तकलीफ में रहना। विपत्ति झेलना=कष्ट या शोक सहना। (किसी पर) विपत्ति डालना=(किसी को) शोक या दुःख पहुँचाना। किसी को रंज या तकलीफ में डालना। (किसी पर) विपत्ति ढहना=सहसा कोई दुःख या शोक उपस्थित होना। एक बारगी आफत आना। विपत्तिमें डालना=संकट या दुःख की अवस्था में करना। विपत्ति में पड़ना=शोक, दुःख या संकट की दशा को प्राप्त होना। विपत्ति भुगतना या भोगना=शोक, दुःख या संकट सहना। ३. कठिनाई। झंझट। बखेड़ा। मुहा०—विपत्ति मोल लेना=व्यर्थ अपने ऊपर झंझट लेना। बखेड़े में पड़ना। विपत्ति सिर पर लेना=व्यर्थ झंझट में पड़ना। दिक्कत में पड़ना। ४. मुत्यु। नाश। विध्वंस (को०)। ५. समाप्ति।
⋙ विपत्ति (२)
संज्ञा पुं० श्रेष्ठ पदाति। पैदल सिपाही। प्यादा [को०]।
⋙ विपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुमार्ग। वुरी राह। खराब रास्ता। २. बगल का रास्ता। ३. बुरी चाल चलन। मंद आचरण। ४. एक प्रकार का रथ। यौ०—विपथगति=कुमार्ग गमन। विपथगमन। विपथगा। विपथगामी।
⋙ विपथगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरिता। नदी। २. वह जो कुमार्ग पर चले [को०]।
⋙ विपथगामिन्
वि० [सं० विपथगामिन्] [वि० स्त्री० विपथगामिनी] कुमार्गगामी। विरुद्ध मार्ग पर चलनेवाला। उ०—विपथ- गामी होने पर, वही संकेत करके मनुष्य का अनुशासन करती है।—आँधी, पृ० २०।
⋙ विपद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] विपत्ति। आफत। संकट।
⋙ विपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विपत्ति। आफत। दुःख, शोक या संकट। यौ०—विपद् गत=विपत्ति में पड़ा हुआ। धिपद्ग्रस्त=विपन्न। आफत का मारा। विपद्दशा=संकट की स्थिति। विपद्य़ुक्त= विपत्तिग्रस्त। अभागा।
⋙ विपन पु
संज्ञा पुं० [सं० बिपिन] जंगल। विपिन। उ०—विपन विहर ऊपल अकल सकल जीव जड़ जाल।—पृ० रा०, ६।१४।
⋙ विपन्न (१)
वि० [सं०] १. जिसपर विपत्ति पड़ी हो। विपत्ति में पड़ा हुआ। मुसीबत का मारा। २. दुःखी। आर्त। ३. कठिनाई या झंझट में पड़ा हुआ। ४. भूला हुआ। भ्रम में पड़ा हुआ। ५. विध्वस्त। नष्ट (को०)। ६. मृत।
⋙ विपन्न (२)
संज्ञा पुं० सर्प [को०]।
⋙ विपन्नक
वि० [सं०] १. भाग्यहीन। २. मृत। ३. नष्ट [को०]।
⋙ विपन्नाव
संज्ञा स्त्री० [सं० विपत् + हिं० नाव] विपत्ति या भँवर में पड़े हुई नौका। उ०—जीवन बिना अन्न के विपन्नाव।—अर्चना, पृ० ८५।
⋙ विपरिक्रांत
वि० [सं० विपरिक्रान्त] वीर। साहसी। हिम्मतवर [को०]।
⋙ विपरिच्छिन्न
वि० [सं०] १. कर्तित। कटा हुआ। २. विध्वस्त। नष्ट [को०]।
⋙ विपरिणति
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिणाम। परिवर्तन। उ०—वह यह सिद्ध करने का जतन करता था कि मानव इतिहास का विकास प्राकृतिक प्रभावों की विपरिणतियों का ठीक अनुसरण करता है।—भारत नि०, पृ० ३।
⋙ विपरिणमन
संज्ञा पुं० [सं०] परिवर्तन [को०]।
⋙ विपरिणाम
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिवर्तन। २. रुपपरिवर्तन। रूपांतरण। ३. प्रौढ़ि [को०]।
⋙ विपरिणामी
वि० [सं० विपरिणामिन्] परिवर्तनशील [को०]।
⋙ विपरिधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. विशिष्ट परिधान। विशिष्ट प्रकार का पहनावा। २. विनिमय। लेनदेन [को०]।
⋙ विपरिवर्तन (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लौटना। घूमना। २. चक्कर खाना [को०]।
⋙ विपरिवर्तन (२)
वि० लौटानेवाला [को०]।
⋙ विपरिवर्तनी विद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह विद्या या मंत्र जो किसी व्यक्ति को दूर से खींच लाए [को०]।
⋙ विपरिवर्तित
वि० [सं०] लौटा या लौटाय हुआ [को०]।
⋙ विपरिवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] लौटना [को०]।
⋙ विपरीत (१)
वि० [सं०] १. जो मेल में या अनुरूप न हो। जो विपर्यय के रूप में हो। उलटा। विरुद्ध। खिलाफ। २. किसी की इच्छा या हित के विरुद्ध। प्रतिकूल। जैसे,—विपरीत आचरण। ३. अनिष्टसाधन में तत्पर। रुष्ट। जैसे,—दैव या विधि का विपरीत होना। ४. हितसाधन के अनुपयुक्त। दुःखद। जेसे,— विपरीत समय। उ०—आजु विपरीत समय सब ही विपरीत है। (शब्द०)। ५. मिथ्या। असत्य (को०)। ७. व्यत्यस्त अर्थात् उलटा वा प्रतिकूल अभिनय करनेवाला (को०)।
⋙ विपरीत (२)
संज्ञा पुं० १. केशव के अनुसार एक अर्थालंकार, जिसमें कार्य की सिद्धि में स्वयं साधक का बाधक होना दिखाया जाता है। जैसे,—'राधा जू सों कहा कहौं दुतिन की मानैं सीख साँ पनी सहित विषरहित फनिन की। क्यों न पैर बीच, बीच आँगियौ न सहि सकै, बीच परी अंगना अनेक आँगननि की'। (यहाँ दूती को साधक होना चाहिए था, पर वह बाधक हुई)। २. सोलह प्रकार के रतिबंधों में से दसवाँ रतिबंध। यौ०—विपरीतकर, विपरीतकारक, विपरीतकृत=उलटा काम करनेवाला। विपरीतचेता। विपरीतर्मात। विपरीतरत= विपरीतरति। विपरीतलक्षणा। विपरीतवृत्ति।
⋙ विपरीतक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विपरीतरति [को०]।
⋙ विपरीतक (२)
वि० प्रतिकूल। विपरीत [को०]।
⋙ विपरीतकरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हठयोग की एक क्रिया। उ०— विपरीतकरणी पुनि बज्रोली शक्ति चालन कीजिए।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ५०।
⋙ विपरीतकारी
वि० [सं० विपरीतकारिन्] विपरीत या उलटा काम करनेवाला। प्रतिकूल कार्य करनेवाला [को०]।
⋙ विपरीतचेता
वि० [सं० विपरीतचेतस्] उलटी बुद्धिवाला [को०]।
⋙ विपरीतता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विपरीत होने का भाव।
⋙ विपरीतत्व
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विपरीतता' [को०]।
⋙ विपरीतरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्य के अनुसार संभोग का एक प्रकार जिसमें पुरुष नीचे की ओर चित लेटा रहता है और स्त्री उसके ऊपर लेटकर संभोग करती है। कामशास्त्र में इसे पुरुषा- यित संबंध कहा है। इसके कई भेद कहे गए हैं।
⋙ विपरीतलक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह व्यंग्यात्मक उक्ति जो विरोधी बात द्वारा व्यक्त की जाय [को०]।
⋙ विपरीतवृत्ति
वि० [सं०] उलटा काम करनेवाला।
⋙ विपरीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुश्चरित्रा स्त्री।
⋙ विपरीतार्थ
वि० [सं०] जिसका अर्थ उलटा हो।
⋙ विपरीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विपरीत'।
⋙ विपरीतोपमा
संज्ञा पुं० [सं०] केशव के अनुसार एक अलंकार जिसमें किसी भाग्यवान् व्यक्ति की हीनता वर्णन की जाय और वह अतिहीन दशा म दिखाया जाय। यथा, —देखिए मंडित दंडन सों, भुजदंड दोऊ असि दंड विहीनो। राजनि श्री रघुनाथ के राज कुमंडल छांड़ि कमंडली लीनो।—केशव (शब्द०)।
⋙ विपर्जय पु
संज्ञा पुं० [सं० विपर्यय] दे० 'विपर्यय—३'। उ०—तब साधै हठ जोग विपर्जय कौ घर पावै। प्रान करै आयाम पुरुष तव नजरि में आवै।—पलटू०, पृ० ३७।
⋙ विपर्णक (१)
वि० [सं०] पर्णरहित। विना पत्तों का।
⋙ विपर्णक (२)
संज्ञा पुं० पलाश का पेड़। टेसू।
⋙ विपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वस्तु का दूसरी के स्थान पर और दूसरी का पहली के स्थान पर होना। उलट पुलट। इधर का उधर। जैसे,—वर्णविपर्यय। २. ऐसा परिवर्तन जिसमें दो वस्तुओं की स्थिति पूर्वस्थिति से विरुद्ध हो जाय। जैसी चाहिए, उससे विरुद्ध स्थिति। और का और। व्यतिक्रम। ३. मिथ्या ज्ञान। और का और समझना। विशेष—योग दर्शन के अनुसार 'विपर्यय' चित्त की पाँच प्रकार की वृत्तियों (प्रमाण, विकल्प आदि) में से एक है। जैसे,—रस्सी को साँप या सीप की चाँदो समझता। ययार्थ ज्ञान द्वारा इसका निराकरण होता है। इस 'विपर्यय' या विपरीत ज्ञान के पाँच अवयव कहे गए हैं—अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। इन्हीं को सीख्य में क्रमशः तम, माह, महामीह तामिस्त्र और अंधतामिस्त्र कहते हैं। ४. भ्रम। भूल। गलती। समझ का फेर। ५. गड़बड़ी। अव्यवस्था। ७. नाश। विनाश। ७. अदल बदल। विनिमय (को०)। ८. शत्रुता (को०)। ९. बैर। विरोध (को०)। १०. प्रलय (को०)। ११. अभाव। अनस्तित्व (को०)।
⋙ विपर्यस्त
वि० [सं०] १. जिसका विपर्यय हुआ हो। जो उलट पलट गया हो। जो इधर का उधर हो गया हो। २. अस्त व्यस्त। गड़बड़। चौपट। ३. मिथ्याज्ञानजन्य। और का और समझा हुआ। भूल से वास्तविक समझा हुआ (को०)।
⋙ विपर्यस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसे लड़का न होता हो।
⋙ विपर्याण
वि० [सं०] पयणिहीन। जिसपर पलाना न हो। जिसमें चारजामा न हो [को०]।
⋙ विपर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विपर्यस्त] १. विपर्यय। उलट पलट। इधर का उधर। व्यतिक्रम।२. पूर्व से विरुद्ध स्थिति। एक वस्तु का दूसरी के स्थान पर होना। ३. जैसा चाहिए, उसके विरुद्ध स्थिति। और का और। ४. मिथ्या ज्ञान। और का और समझना। विशेष—न्याय में अप्रमात्मक बुद्धि का नाम विपर्यास है। जैसे,— रस्सी को साँप समझना।
⋙ विपल
संज्ञा पुं० [सं०] समय का एक अत्यत छोटा विभाग जो एक पल का साठवाँ भाग होता है।
⋙ विपलायन
संज्ञा पुं० [सं०] इतस्ततः भागना। पलायन। इधर उधर भागना [को०]।
⋙ विपलायित
वि० [सं०] १. खदेड़ा या भगाया हुआ। २. पलायित। भागा हुआ [को०]।
⋙ विपलायी
वि० [सं० विपलायिन्] इधर उधर पलायन करने या भागनेवाला [को०]।
⋙ विपलाश
वि० [सं०] विपर्ण। पलाशहीन। पत्रविहीन [को०]।
⋙ विपवन (१)
वि० [सं०] [वि० विपवनीय, विपव्य] १. विशेष रूप से पवित्र करनेवाला। २. वायुरहित। पवनरहित।
⋙ विपवन (२)
संज्ञा पुं० विशुद्ध पवन। साफ हवा।
⋙ विपव्य
वि० [सं०] विशेष रूप से शुद्ध या पवित्र करने योग्य [को०]।
⋙ विपशी
संज्ञा पुं० [सं० विपशिन्] एक बुद्ध का नाम।
⋙ विपश्चित्
वि० [सं०] पीडत। बुद्धिमान्। सूक्ष्मदर्शी। उ०—तेहि कारण शिव गंग तेहि गहै विपरिचत लोक। यहि में मज्जन किए ति मिटे महा अध शोक।—शं० दि० (शब्द०)।
⋙ विपश्यन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकृत ज्ञान। यथार्थ बोध। (बौद्ध)।
⋙ विपश्यी
संज्ञा पुं० [सं० विपश्यिन्] एक बुद्ध का नाम।
⋙ विपश्वी
संज्ञा पुं० [सं० विरश्विन्] बुद्ध का एक नाम [को०]।
⋙ विपस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेधा। बुद्धि। २. ज्ञान। समझ।
⋙ विपहुर पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० द्रि + प्रहर, प्रा० वि + पहर] द्वितीय प्रहर। दुपहर।—पृ० रा०, ६१। १७०८।
⋙ विपांडु
वि० [सं० विपाणड्ड] स्वर्णभ। पीला [को०]।
⋙ विपांडुर
वि० [सं० विपाणडुर] पीत। पीला [को०]।
⋙ विपांडुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महामेदा।
⋙ विपांसुल
वि० [सं०] जिसमें धूल न हो [को०]।
⋙ विपाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिपक्व होना। पचन। पकना। २. पूर्ण दशा को पहुँचना। तैयारी पर आना। चरम उत्कर्ष। ३. फल। परिणाम। ४. कर्म का फल। विशेष—योग दर्शन में यह विपाक तीन प्रकार का कहा गया है— जाति (जन्म), आयु और भोग। ५. खाए हुए भोजन का पेट में पचना। खाद्य द्रव्य की पेट के अंदर रस रूप में परिणति। ६. दुर्गति। दुर्दशा। ७. स्वाद। जायका। ८. पकाना। परिपक्व करना। ९. मुरझाना। कुम्हलाना (को०)। यौ०—विपाककाल=पूर्णता या परिपक्व होने का समय। विपाक- दारुण=जिसका परिणाम दुःखद हो। विपाकदोष=पाचन- क्रिया का दोष या कुप्रभाव। अजीर्ण।
⋙ विपाट्
संज्ञा स्त्री० [सं० विपाश्] एक नदी। विशेष—दे० 'विपासा' [को०]।
⋙ विपाट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वाण।
⋙ विपाटक
वि० [सं०] १. विपाटन करनेवाला। उत्पाटित करनेवाला। उखाड़नेवाला। खोदनेवाला। अपहर्ता। अपहारक (को०)।
⋙ विपाटन
संज्ञा पुं० [सं०] १. उखाड़ना। खोदना। २. खंड खंड करना (को०)। ३. अपहरण (को०)।
⋙ विपाटल
वि० [सं०] गहरा लाल। विशेष लाल [को०]।
⋙ विपाटित
वि० [सं०] १. उखाड़ा हुआ। उन्मूलित। खोदा हुआ। २. खंड खंड किया हुआ। अलग किया हुआ। ३. अपहृत। [को०]।
⋙ विपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार लंबा वाण। तीर।
⋙ विपात
संज्ञा पुं० [सं०] पातन। नाश।
⋙ विपातक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाश करनेवाला। नाशक। २. गला देनेवाला। पिघलानवाला।
⋙ विपातन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गलाना। २. नाश करना।
⋙ विपादन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विपादित] वध। हत्या। नाश।
⋙ विपादिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुष्ठ रोग का एक भेद। अपरस। विशेष—यह पैर में होता है। इससे उँगलियों के पास से ऊपर तक चमड़े में दरारें पड़ जाती है और बड़ी खुजली होती है। पीड़ा के कारण पैर नहीं रखा जाता है। २. प्रहेलिका। पहेली।
⋙ विपादित
वि० [सं०] विनाशित। नष्ट किया हुआ।
⋙ विपाद्य
वि० [सं०] नाश करने योग्य। मारने योग्य। वध्य [को०]।
⋙ विपाप
वि० [सं०] पापरहित। निष्पाप [को०]।
⋙ विपापा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत में वर्णित एक नदी का नाम।
⋙ विपाप्मा
वि० [सं० विपाप्मन्] निष्पाप [को०]।
⋙ विपाल
वि० [सं०] (पशु) जिसका कोई पालनेवाला या मालिक न हो। (स्मृति)।
⋙ विपाश
वि० [सं०] पाशरहित। बंधनमु्क्त। निर्बंध [को०]।
⋙ विपाशन
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्त करानेवाला [को०]।
⋙ विपाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यास नदी जो पंजाब में है। विशेष दे० 'विपासा'।
⋙ विपासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पंजाब की एक नदी। व्यास। विशेष—ऋग्वेद में इस नदी का उल्लेख शतुद्री (सतलज) के साथ है।
⋙ विपिन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वन। जंगल। २. उपवन। वाटिका।
⋙ विपिन (२)
वि० भयानक। डरावना।
⋙ विपिनचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वन में रहनेवाला। वनचर। २. जंगली आदमी। ३. पशु पक्षी आदि।
⋙ विपिनतिलका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में नगण, सगण, नगण, और दो रगण (न, स, न, र, र अर्थात् III, IIS, III, SIS, SIS होते हैं।
⋙ विपिनपति
संज्ञा पुं० [सं०] वन का राजा, सिंह। उ०—जिमि भेरी दल लै विपिनपति रिसि दुचंग मन में धरत। तिमि लस्यो प्रवीन उताल गति सुर सिंगार करि समर रत।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ विपिनविहारी
संज्ञा पुं० [सं० विपिन + विहारिन्] १. बन में विहार करनेवाला। वनचारी। २. कृष्ण का एक नाम। उ०—दरसन पाइ थकित भई सारी। कहत भए तब विपननविहारी।— विश्राम (शब्द०)।
⋙ विपिनौका
संज्ञा पुं० [सं० विपिनौकस्] १. बंदर। २. बनमानुस। ३. वन में रहनेवाला मनुष्य [को०]।
⋙ विपुंसक
वि० [सं०] पुंसत्वरहित। पुरुषत्व से हीन।
⋙ विपुंसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसकी चेष्टा, स्वभाव या आकृति पुरुषों जैसी हो।
⋙ विपुत्र
वि० [सं०] [स्त्री० विपुत्रा] पुत्ररहित। पुत्रहीन।
⋙ विपुन पु
संज्ञा पुं० [?] पक्ष। पखवारा। उ०—पख हारयौ पाँसू विपुन अर्धमास बल जान। पख जु पक्ष हरि राखिए जातें होइ कल्यान।—नंद० ग्रं०, पृ० ६७।
⋙ विपुर
वि० [सं०] जो एक स्थान पर न रहे [को०]।
⋙ विपुल (१)
वि० [सं०] [स्त्री० विपुला] १. विस्तार, संख्या या परिमाण में बहुत अधिक। २. बृहत्। बड़ा। ३. अगाध। बहुत गहरा। ४. रोमांचित (को०)।
⋙ विपुलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुमेरु पर्वत का पश्मिमी भाग। २. मगध देश की प्राचीन राजधानी राजगृह के पास की एक पहाड़ी। ३. हिमालय। ४. एक देवीपीठ। देवी का एक प्रधान स्थान जहाँ की देवी का नाम विपुला है। ५. रोहिणी से उत्पन्न वसुदेव के एक पुत्र का नाम। उ०—विपुल विपुल बल चल्यो रचत रन में पुल सर को।—गोपाल (शब्द०)। ६. समाद्दत ब्यक्ति। संमानित व्यक्ति (को०)।
⋙ विपुलक
वि० [सं०] १. बहुत चौड़ा। २. जिसे रोमांच न हो। पुलकरहित।
⋙ विपुलग्रीव
वि० [सं०] जिसकी गर्दन लंबी हो [को०]।
⋙ विपुलच्छाय
वि० [सं०] (वृत्त) जो घनो छायावाला हो [को०]।
⋙ विपुलजघना
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथु या बड़े नितंबोंवाली स्त्री [को०]।
⋙ विपुलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] आधिक्य। बहुतायत। बड़ाई। उ०— खड़ी बोली में उसकी भी विपुलता है।—अर्चना (भू०), पृ० 'ख'।
⋙ विपुलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विपुलता'।
⋙ विपुलपार्श्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।
⋙ विपुलद्रव्य
वि० [सं०] जिसके पास प्रचुर धन हो [को०]।
⋙ विपुलप्रज्ञ, विपुलबुद्धि
वि० [सं०] दे० 'विपुलमति'।
⋙ विपुलमति (१)
वि० [सं०] बहुत बुद्धिवाला। बहुत बुद्धिमान्।
⋙ विपुलमति (२)
संज्ञा पुं० १. एक बोधिसत्व का नाम। २. जैनों के अनुसार मनःपर्यायि ज्ञान का एक भेद। उ०—मनःपर्याय ज्ञान के दो भेद है—ऋजुमति,...और विपुलमति जो दूसरे के मन में सरलता तथा वक्रता से ठहरे हुए पदार्थों को जताता है।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २४२।
⋙ विपुलरस
संज्ञा पुं० [सं०] गन्ना। ईख [को०]।
⋙ विपुलश्रोणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विपुलजघना' [को०]।
⋙ विपुलस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० विपुलस्कन्ध] अर्जुन का एक नाम।
⋙ विपुलस्तवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धीकुवार। विपुलास्रवा [को०]।
⋙ विपुलहृदय
वि० [सं०] विशाल हृदयवाला। उदारचेता।
⋙ विपुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। वसुंधरा। २. एक प्रकार का छंद, जिसके प्रत्येक चरण में भगण, रगण और दो लघु होते है। ३. आर्या छंद के तीन भेदों में से जिसके प्रथम चरण में १८, दूसरे में १२, तीसरे में १४ और चौथे में १३ मात्राएँ होती हैं। ४. विपुल नामक पर्वत की अधिष्ठात्री देवी। ५. एक प्रसिद्ध सती जो बहुला के नाम से प्रसिद्ध है। ६. एक ताल का नाम। (संगीत)।
⋙ विपुलाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विपुल + हिं० आई (प्रत्य०)] विपुलता। अधिकता। ज्यादती। उ०—को कहि सक कपि दल विपुलाई।—मानस, ६। ४।
⋙ विपुलास्रवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] घृतकुमारी। धीकुवार। ग्वारपाठा।
⋙ विपुलक्षण
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विपुलेक्षणा] विशाल नेत्रोंवाला। बड़ी आँखोंवाला [को०]।
⋙ विपुंलोरस्क
वि० [सं०] जिसका उरस्क छौड़ा हो। चौड़ी छातीवाला। विशाल वक्षवाला [को०]।
⋙ विपुष्ट
वि० [सं०] दुर्बल। जिसे पर्याप्त पोषण न मिला हो [को०]।
⋙ विपुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] उन्नति। समृद्धि। अभ्युदय [को०]।
⋙ विपुष्पित
वि० [सं०] हर्षित। प्रफुल्ल।
⋙ विपूय
संज्ञा पुं० [सं०] मुंज तृण। मूँज।
⋙ विपूयूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सड़ी हुई वस्तु की गंध। सड़ाँव। २. सड़ा हुआ शव (बौद्ध)।
⋙ विपृक्
वि० [सं० विपृच्] अलग। जुदा। पृथक् [को०]।
⋙ विपृक्त
वि० [सं०] असंपृक्त। अलग किया हुआ। वियुक्त [को०]।
⋙ विपृक्वत्
वि० [सं०] शुद्ध। बेमेल। निर्मल [को०]।
⋙ विपोहना पु
क्रि० स० [सं० वि + प्रोत] १. पोतना। लीपना। २. नाश करना। मिटाना। उ०—ज्योति जगै जमुना सी लगै जग लाल विलोचन पाप विपोहै।—केशव (शब्द०)। ३. दे० 'पोहना'।
⋙ विप्पंन पु
संज्ञा पुं० [सं० विपिन, प्रा० बिपन, विपन।] दे० 'विपिन'। उ०—बगुर घेरि विप्पनं अप्प मूलन में मंडिय। तक्क तके इक रहिय हक्कि षेदा षिझ छंडिय।—पृ० रा०, ६।९७।
⋙ विप्प पु
संज्ञा पुं० [सं० विप्र, प्रा० विप्प] दे० 'विप्र'। उ०—पधराइ राइ मुख दरस कीन। क्रित क्रम्म पुब्ब फल मान लीन। करि जातक्रम्म मति ग्रंथ सोधि। वेदोक्त विप्प बर बुद्धि बोधि।—पृ० रा०, १।६९९।
⋙ विप्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मण। विशेष—जो यजन, याजन आदि कर्म पूर्ण रीति से करता है वह विप्र है। विशेष दे० 'ब्राह्मण'। २. पुरोहित। यज्ञ करानेवाला। ३. वेदमंत्रों को जाननेवाला। कर्मनिष्ठ। स्तवन करनेवाला। स्तुतिपाठक। ४. शिरीष वृक्ष। सिरिस का पेड़। ५. अश्वस्थ। पीपल का पेड़। ६. पापर का पौधा जो औषध के काम में आता है। रेणुक। ७. भाद्रपद मास (को०)। ८. चंद्रमा (को०)। ९. बुद्धिमान् व्यक्ति।
⋙ विप्र (२)
वि० मेवांवी। बुद्धिमान्।
⋙ विप्रक
संज्ञा पुं० [सं० विप्र + क (प्रत्य०)] निम्न ब्राह्मण। क्षुद्र वा कुत्सित ब्राह्मण [को०]।
⋙ विप्रकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० विप्रकर्तृ] वह जो विप्रकार करे। अपकार या तिरस्कार करनेवाला ब्यक्ति [को०]।
⋙ विप्रकर्ष, विप्रकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विप्रकृष्ट] १. दूर खींच ले जाना। दूर हटाना। २. किसी कर्म या कृत्य का अंत। ३. अंतर। दूरी। फासला (को०)। ४. बिलगाव। अलगाव। भेद। फर्क (को०)।
⋙ विप्रकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विप्रकृत] १. तिरस्कार। अनादर। २. उपकार। ३. विभिन्न या विविध प्रकार। अनेक ढंग (को०)। ४. प्रतिशोध। बदला (को०)। ५. क्षति। हानि (को०)।
⋙ विप्रकार (२)
अव्य० विविध प्रकार से।
⋙ विप्रकारी
वि० [सं० विप्रकारिन्] १. तिरस्कार करनेवाला। २. विरोधी। ३. बदला लेनेवाला [को०]।
⋙ विप्रकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] नरमा या कपास का पौधा।
⋙ विप्रकीर्ण
वि० [सं०] १. बिखरा हुआ। छितराया हुआ। इधर उधर पड़ा हुआ। २. अस्त व्यस्त। अव्यवस्थित। गड़बड़। ३. चौड़ा। विस्तृत। फैला हुआ (को०)।
⋙ विप्रकुंड
संज्ञा पुं० [सं० विप्रकुण्ड] ब्राह्मण की जारज संतान [को०]।
⋙ विप्रकृत
वि० [सं०] १. तिरस्कृत। २. जिसकी हानि की गई हो [को०]।
⋙ विप्रकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विप्रकार। अपकार। २. परिवर्तन। भिन्नता। रद्दोबदल (को०)।
⋙ विप्रकृष्ट (१)
वि० [सं०] १. खीडंकर दूर किया हुआ। २. जो दूरी पर हो। दूरस्थ। ३. फैलाया हुआ। विस्तारित (को०)।
⋙ विप्रकृष्ट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] किसी ऋतु में संचित हुए कफ, पित्त आदि का अन्य ऋतु में कुपित होना। उ०—विप्रकृष्ट उसे कहते हैं जैसे हेमंत ऋतु में संचित हुआ कफ वसंत ऋतु में कुपित होता है।—माधव०, पृ० ३।
⋙ विप्रकृष्टक
वि० [सं०] दूरवर्ती। दूरस्थ। जो फासले पर हो [को०]।
⋙ विप्रगीत
वि० [सं०] जिसके विषय में मतैक्य न हो (जैन)।
⋙ विप्रगह
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मराक्षस [को०]।
⋙ विप्रचरण
संज्ञा पुं० [सं०] भृगु मुनि की लात का चिह्न जो विष्णु के हृदय पर माना जाता है।
⋙ विप्रचरन पु
संज्ञा पुं० [सं० विप्रचरण]दे० 'विप्रचरण'। उ०—(क) उर बनमाल पदित अति शोभित विप्रचरन, चित कहँ करषै।—तुलसी (शब्द०)। (ख) उर मति हार पदिक का सोभा। विप्रचरन देखत मन लोभा।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ विप्रचित्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विप्रचिति'।
⋙ विप्रचित्ति
संज्ञा पुं० [सं०] एक दानव जिसकी पत्नी सिंहिका के गर्भ से राहु की उत्पत्ति हुई थी।
⋙ विप्रच्छन्न
वि० [सं०] छिपा हुआ। अंतर्हित। प्रच्छन्न [को०]।
⋙ विप्रणाश
संज्ञा पुं० [सं०] विनाश। नाश। प्रणाश [को०]।
⋙ विप्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मणत्व।
⋙ विप्रतापस
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण तपस्वी।
⋙ विप्रतारक
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण तपस्वी।
⋙ विप्रतारक
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत धोखा देनेवाला।
⋙ विप्रतारित
वि० [सं०] जिसने धोखा खाया हो। जो छला गया हो [को०]।
⋙ विप्रतिकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. खंडन। विरोध। २. प्रतिकार। प्रतिशोध [को०]।
⋙ विप्रतिकृत
वि० [सं०] जिसका विप्रतिकार किया गया हो। जिसका प्रतिशोध किया गया हो [को०]।
⋙ विप्रतिपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरोध। मेल न बैठना। जैसे,— मनुष्यों के स्वार्थ की विप्रतिपत्ति। (मिताक्षरा)। २. ऐसा कथन जिसके अंदर दो ऐसी बातें हों जो एक के साथ न हो सकती हों। परस्पर विरुद्ध वाक्य। (न्याय)। विशेष—जैसे काई कहे कि वहाँ अग्नि है और नहीं है तो उसका यह कथन विप्रतिपत्ति का उदाहरण होगा। ३. किसी बात का बिलकुल उलटा निरूपण। किसी बात में ऐसा नतीजा। निकालना जो ठीक न हो। विपरीत प्रतिपत्ति। असिद्धि। उ०—उनमें विप्रतिपत्ति न हो; उनमें यथार्थता हो।—पा० सा० सिं०, पृ० १३२। ४. प्रसिद्धि का अभाव। अख्याति। ५. कुख्याति। बदनामी। ६. गलत धारणा। भ्रांत धारणा (को०)। ७. पारस्परिक संबंध। परिचय। जान पह- चान (को०)। ८. हैरानी। घबड़ाहट (को०)। ९. चातुर्य। विद- ग्धता (को०)। १०. किसी कृत्य या पूजन की वह विकृति जो प्रतिनिधि द्रव्य का नाम लेने से होती है। विशेष—किसी कृत्य या पूजन में जो द्रव्य विहित है, उसके अभाव में यदि कोई दूसरा द्रव्य प्रतिनिधि रूप में रखा जाय, तो समर्पण वाक्य में प्रतिनिधि द्रव्य का नाम न लेकर जिसके अभाव में वह द्रव्य रखा गया हो, उसी का नाम कहना चाहिए। प्रतिनिधि द्र्वय का नाम लेने से पूजा विकृत हो जाती है।
⋙ विप्रतिपद्य
वि० [सं०] १. जो अनेक प्रकार से सिद्ध किया जाय। अनेक ढंग से सिद्ध किया जानेवाला। २. जिसका खंडन या विरोध किया जाय [को०]।
⋙ विप्रतिपद्यमान
वि० [सं०] पाप करनेवाला। पापात्मा।
⋙ विप्रतिपन्न
वि० [सं०] १. विप्रतिपत्तियुक्त। संदेहयुक्त। २. अस्वीकृत। ३. जो साबित न हुआ हो। असिद्ध। ४. ब्याकुल। घबड़ाया हुआ। हतबुद्धि। किंकर्तव्यविमूढ़ (को०)। ५. परस्पर संयुक्त या संबंद्ध (को०)। यौ०—विप्रतिपन्न बुद्धि = जिसकी धारणा गलत हो।
⋙ विप्रतिषिद्ध
वि० [सं०] १. जिसका निषेध किया गया हो। जो मना हो। निषिद्ध। (स्मृति)। २. विरुद्ध। खिलाफ। उलटा। ३. निवारित। वर्जित।
⋙ विप्रतिषेध
संज्ञा पुं० [सं०] १. दो बातों का परस्पर विरोध, मेल न बैठना। २. नियंत्रण या वश में रखना (को०)। ३. प्रति- षेध। रोक। वर्जन (को०)। ४. व्याकरण में समान रूप से महत्वपूर्ण दो नियमों की एक स्थान पर उपस्थिति। जहाँ दो प्रसंग अन्वयार्थ एक साथ प्राप्त हों।—यंत्र द्वौ प्रसंगान्वयार्थौ एकस्मिन् प्राप्नुनः सः विप्रतिषेधः (काशिका)।
⋙ विप्रतिसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुताप। पछतावा। २. रोष। क्रोध। ३. दुष्टता।
⋙ विप्रतिसारी
वि० [सं० विप्रतिसारिन्] दुःखी। अनुतप्त [को०]।
⋙ विप्रतीप
वि० [सं०] उलटा। प्रतिकूल [को०]।
⋙ विप्रतीसार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विप्रतिसार'।
⋙ विप्रत्यनीक, विप्रत्यनीयक
वि० [सं०] शत्रुतापूर्ण। बैरभाव से युक्त [को०]।
⋙ विप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं०] अविश्वास [को०]।
⋙ विप्रत्व
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मणत्व।
⋙ विप्रथित
वि० [सं०] विख्यात। मशहूर।
⋙ विप्रदह
संज्ञा पुं० [सं०] सूखा फल, कंद, मूल आदि [को०]।
⋙ विप्रदुष्ट
वि० [सं०] १. पापरत। २. कामी। ३. मंद। नष्ट।
⋙ विप्रधर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीड़ा। क्लेश। दुःख। २. विरक्ति। व्यग्रता [को०]।
⋙ विप्रधुक्
वि० [सं०] लाभकारी। हितकर।
⋙ विप्रपद
संज्ञा पुं० [सं०] भृगु मुनि की लात का चिह्न जो विष्णु के वक्षस्थल पर माना जाता है। विप्रचरण।
⋙ विप्रपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. विशेष रूप से पतन। बिलकुल गिर जाना। २. ऊँचा ढालवाँ टीला। ३. खाईँ। ४. उड़ने की एक विशेष स्थिति या ढंग (को०)।
⋙ विप्रप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलाश का वृक्ष। २. जमा हुआ और खट्टा दही (को०)।
⋙ विप्रबंधु
संज्ञा पुं० [सं० विप्रबन्धु] १. वह ब्राह्मण जो अपने कर्म से च्युत हो। नीच ब्राह्मण। २. गोपायन गोत्रीय एक मंत्रद्रष्टा ऋषि।
⋙ विप्रबुद्ध
वि० [सं०] १. जागा हुआ। २. ज्ञानप्राप्त।
⋙ विप्रबोधित
वि० [सं०] १. जिसकी चर्चा हो चुकी हो। जो विचारित हो। २. जगाया हुआ। प्रबोध किया हुआ।
⋙ विप्रमत्त
वि० [सं०] जो अनवधान न हो। प्रमादरहित [को०]।
⋙ विप्रमना
वि० [सं० विप्रमनस्] जिसका जी न लगता हो। अन्य- मनस्क। अनमना।
⋙ विप्रमाथी
वि० [सं० विप्रमाथिन्] [वि० स्त्री० विप्रमाथिनी] १. खूब मथन करनेवाला। २. ध्वस्त या नष्ट करनेवाला। ३. आकुल या क्षुब्ध करनेवाला।
⋙ विप्रमुक्त
वि० [सं०] १. निर्बंध। स्वतत्र। खुला हुआ। मुक्त। २. जिसपर लक्ष्य संधान किया गया हो। ३. रहित। मुक्त। (समा- सांत में प्रयुक्त) जैसे, भयविप्रमुक्त [को०]।
⋙ विप्रमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मोक्ष। मुक्ति [को०]।
⋙ विप्रमोच्य
वि० [सं०] छोड़ने या मुक्त करने योग्य। जिसे मुक्त किया जाय [को०]।
⋙ विप्रमोह
संज्ञा पुं० [सं०] नियमभंग। अपराध। त्रुटि [को०]।
⋙ विप्रमोहित
वि० [सं०] मुग्ध। मूढ़। हतबुद्धि [को०]।
⋙ विप्रयाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. भागना। पलायन। २. चलना। गमन। जाना।
⋙ विप्रयात
वि० [सं०] १. गत। गया हुआ। प्रस्थित। २. पलायित। भागा हुआ [को०]।
⋙ विप्रयुक्त
वि० [सं०] १. जो मिला न हो। विश्लिष्ट। विभिन्न। अलग। २. वियुक्त, बिछड़ा हुआ। (मित्र या प्रिय से)। ३. वंचित। रहित। उ०—संघ से मैं विप्रयुक्त हूँ, इसलिये दुखी हूँ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० १६। ४. मुक्त। छोड़ा हुआ। ५. जिसका विभाग हुआ हो।
⋙ विप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विप्रयुक्त] १. वियोग। विरह। जुदाई। विप्रलंभ। २. विसंवाद। बुरा समाचार। ३. विच्छेद। अलग होना। ४. असहमति। कलह। मतभेद (को०)। ५. अनुकूलता। योग्यता। पात्रता (को०)। ६. अभाव (को०)।
⋙ विप्रयोगी
वि० [सं० विपयोगिन्] विरही। वियुक्त [को०]।
⋙ विप्रयोजित
वि० [सं०] वियुक्त, रहित वा मुक्त किया हुआ।
⋙ विप्रराम
संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम। उ०—बैरिन में विप्रराम, नीति माहिँ जदुराम, बूँदीनाथ राजाराम शील माहि राम है।— मतिराम (शब्द०)।
⋙ विप्रलंभ
संज्ञा पुं० [सं० विप्रलम्भ] १. अभिलाषित वस्तु की अप्राप्ति। चाही हुई वस्तु का न मिलना। २. प्रिय का न मिलना। वियोग। जुदाई। विरह। अमिलन। विशेष—साहित्य में शृंगार रस दो प्रकार का कहा गया है— संभोग शृंगार विप्रलंभ शृंगार। इन्हीं को संयोग और वियोग भी कहते है। विप्रलंभ शृंगार में नायक नायिका के विरहजन्य संताप आदि का वर्णन होता है। ३. अलग होना। विच्छेद। ४. छल से किसी को किसी लाभ से वंचित करना। धोखा। छल। धूर्तता। वंचना। ५. विरुद्ध कर्म। बुरा काम। ६. असहमति। कलह।
⋙ विप्रलंभक
संज्ञा पुं० [सं० विप्रलम्भक] धूर्त या धोखेबाज आदमी। वंचक।
⋙ विप्रलंभन
संज्ञा पुं० [सं० विप्रलम्भन] छल करना।
⋙ विप्रलंभी
संज्ञा पुं० [सं० विप्रलम्भिन्] धोखेबाज। धूर्त।
⋙ विप्रलपित
वि० [सं०]दे० 'विप्रलप्त (१)'।
⋙ विप्रलप्त (१)
वि० [सं०] १. तर्क या विवाद से युक्त। विचारित। २. विलपित। विलाप किया हुआ।
⋙ विप्रलप्त (२)
संज्ञा पुं० १. तर्क। विवाद। २. विलाप।
⋙ विप्रलब्ध
वि० [सं०] १. जिसे चाही हुई वस्तु न प्राप्त हुई हो। रहित। वंचित। निराश। २. जिसे प्रिय का समागम न प्राप्त हुआ हो। वियोगदशाप्राप्त। ३. जो छल द्वारा किसी लाभ से वंचित किया गया हो। प्रतारित। ४. हानि पहुँचाया हुआ। क्षतिग्रस्त (को०)।
⋙ विप्रलब्धा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह नायिका जो संकेत स्थान में प्रिय को न पाकर निराश या दुःखी हो।
⋙ विप्रलब्धा
वि० [सं० विप्रलब्ध] छलिया। धूर्त [को०]।
⋙ विप्रलय
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्ण विनाश। विलय। प्रलय [को०]।
⋙ विप्रलाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. सारहीन वाक्य। व्यर्थ बकवाद। २. पारस्परिक वचन विरोध। विवाद। ३. झगड़ा। तू तू मैं मै। ४. बुरा वचन। ५. प्रतिज्ञाभंग। वचनभंग। कही हुई बात से मुकर जाना (को०)।
⋙ विप्रलापी
वि० [सं० विप्रलापिन्] विप्रलाप करनेवाला। व्यर्थ बकवाद करनेवाला। बकवादी [को०]।
⋙ विप्रलीन
वि० [सं०] बिखरा हुआ। छितराया हुआ। इधर उधर पड़ा हुआ। जैसे—विप्रलीन सैन्य = जिसकी सेना हारकर विच्छिन्न हो गई हो।
⋙ विप्रलुंपक
संज्ञा पुं० [सं० विप्रलुम्पक] १. बड़ा लालची। अति लोभी। २. अपने लाभ के लिये लोगों को सतानेवाला। उत्पीड़क। ३. छीनकर लेनेवाला। बलात् लूटनेवाला (को०)। ४. अधिक कर लेनेवाला।
⋙ विप्रलुप्त
वि० [सं०] १. जो लूटा गया हो। अपहृत। २. जो गायब किया गया हो। जो उड़ा लिया गया हो। ३. जिसके कार्य में विघ्न पहुँचाया गया हो।
⋙ विप्रलून
वि० [सं०] १. छिन्न किया या तोड़ा हुआ। २. एकत्रित। इकट्ठा किया हुआ [को०]।
⋙ विप्रलोक
संज्ञा पुं० [सं०] चिड़िया पकड़नेवाला। व्याध। शिकारी।
⋙ विप्रलोडित
वि० [सं०] विलोडित या इतस्ततः किया हुआ। बरबाद किया हुआ [को०]।
⋙ विप्रलोप
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विप्रलुम] १. पूर्णतः अदर्शन या लोप। २. ध्वंस। नाश।
⋙ विप्रलोपी
वि० [सं० विप्रलोपिन्] तोड़नेवाला। नष्ट या लुप्त करनेवाला।
⋙ विप्रलोभी
संज्ञा पुं० [सं० विप्रलोभिन्] किंकिरात नामक वृक्ष, जो अशोक की तरह होता है [को०]।
⋙ विप्रवसित
वि० [सं०] प्रवास के लिये गया हुआ। प्रवासगत [को०]।
⋙ विप्रवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. बूरे वचन। २. व्यर्थ बकवाद। ३. कलह। विवाद। झगड़ा।
⋙ विप्रवास
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विप्रवसित] १. विदेश में वास। परदेस में रहना। २. संन्यास आश्रम में एक अपराध जो अपने कपड़े दूसरे को देने से होता है।
⋙ विप्रवासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. देश से निकाल देना। २. प्रवासी होना। प्रवास में रहना [को०]।
⋙ विप्रवासित
वि० [सं०] दूर किया हुआ। अपवारित या नष्ट किया हुआ। (पाप आदि)।
⋙ विप्रविद्ध
वि० [सं०] जो प्रविद्ध किया गया हो। इधर उधर किया या मारा हुआ [को०]।
⋙ विप्रव्राजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो दो पुरुषों से संबंध रखे।
⋙ विप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रश्न जिसका उत्तर फलित ज्योतिष द्वारा दिया जाय।
⋙ विप्रश्निक
संज्ञा पुं० [सं०] दैवज्ञ। ज्योतिषी।
⋙ विप्रश्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दैवज्ञा। ज्योतिषी स्त्री [को०]।
⋙ विप्रष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक यादव का नाम जो बलरामजी का छोटा भाई लगता था।
⋙ विप्रसन्न
वि० [सं०] अत्यंत संतुष्ट। बहुत अधिक खुश।
⋙ विप्रसारण
संज्ञा पुं० [सं०] विस्तार करना। फैलाना।
⋙ विप्रस्थित
वि० [सं०] प्रस्थान किया हुआ। गया हुआ।
⋙ विप्रहत
वि० [सं०] १. मारा हुआ। २. पारजित किया हुआ। मर्दित। पराभूत।
⋙ विप्रहरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्याग। २. मुक्ति।
⋙ विप्रहाण
संज्ञा पुं० [सं०] लोप। अंत [को०]।
⋙ विप्रहीण
वि० [सं०] १. वंचित। निरस्त। २. लुप्त [को०]।
⋙ विप्राधिप
संज्ञा पुं० [सं०] शशि। चंद्रमा [को०]।
⋙ विप्रियंकर
वि० [सं० विप्रियङ्कर] अप्रिय काम करनेवाला [को०]।
⋙ विप्रिय (१)
वि० [सं०] १. अप्रिय। २. कटु। ३. अतिशय प्रिय। ४. वियोग।
⋙ विप्रिय (२)
संज्ञा पुं० अपराध। कसुर।
⋙ विप्रुट्
संज्ञा स्त्री० [सं० विप्रुष्] १. पानी की छोटी बूँद या छींटा। २. थूक का वह छींटा जो वेदपाठ करने में उड़ता है। विशेष—मनुस्मृति के अनुसार ऐसा छींटा अपवित्र नहीं है। ३. चिह्न। विंदु। धब्बा (को०)। ४. द्दग्विषय। गोचर वस्तु (को०)।
⋙ विप्रुद्धोम
संज्ञा पुं० [सं० विप्रुष् + होम] एक प्रकार का पूजन जो यज्ञ के अवसर पर सोमप्राप्ति के लिये किया जाता था।
⋙ विप्रुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी की छोटी बूँद या छींटा। २. दे० 'विप्रुट्'। ३. पक्षी।
⋙ विप्रेंद
संज्ञा पुं [सं० विप्रेन्द्र] वह जो ब्राह्मणों में मुख्य या प्रधान हो।
⋙ विप्रेक्षण, विप्रेक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] चारों ओर देखना [को०]।
⋙ विप्रक्षिता
वि० [सं० विप्रेक्षितृ] चारों ओर देखनेवाला [को०]।
⋙ विप्रेत
वि० [सं०] १. गत। २. फैला या बिखरा हुआ [को०]।
⋙ विप्रोषित
वि० [सं०] १. प्रवास में गया हुआ। २. अनुपस्थित। ३. पठाया हुआ वा निष्काषित (को०)।
⋙ विप्रोषितभर्तुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका पति या प्रेमी परदेश गया हो। प्रोषितभर्तुका।
⋙ विप्लव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपद्रव। हंगामा। अशांति और हल- चल। २. राज्य के भीतर जनता की अशांति और उद्धत आचरण। बलवा। ३. दूसरे राष्ट्र द्वारा उपस्थित अशांति। परचक्र भय। ४. उथल पुथल। अब्यवस्था। ५. आफत। विपत्ति। ६. विनाश। ७. शत्रु को डराने के लिये मचाया हुआ शोरगुल। डाँट उपट या भभकी। ८. नाव का डूबना। पोतभंग। ९. जल की बाढ़। बहिया। १०. वेदों के अपूर्ण ज्ञान द्वारा उनका अनादर। ११. घोड़े की बहुत तेज चाल। १२. बहना। इधर उधर प्रवाहित होना (को०) १३. विरोध। वैपरीत्य (को०)। १४. आइने पर का धब्बा (को०)। १५. पाप। दुष्टता (को०)।
⋙ विप्लव (२)
वि० [सं०] प्लवरहित। पोताविहीन [को०]।
⋙ विप्लवक
वि० [सं०] विप्लव करनेवाला [को०]।
⋙ विप्लवी
वि० [सं० विप्लविन्] १. अस्थिर। अनश्वर। २. विप्लव या विद्रोह करनेवाला। [को०]।
⋙ विप्लाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी की बाढ़। बहिया। २. घोड़े की बहुत तेज चाल। ३. विप्लव। उपद्रव (को०)।
⋙ विप्लावक
वि० [सं०] १. विप्लवकारी। उपद्रव मचानेवाला। २. राज्य में उपद्रव खड़ा करनेवाला। बलवाई। ३. जल की बाढ़ लानेवाला।
⋙ विप्लावन
संज्ञा पुं० [सं०] निंदनीय वचन। अपशब्द [को०]।
⋙ विप्लावित
वि० [सं०] १. बहाया हुआ। २. नष्ट किया हुआ। ३. व्यग्रता में फेंका हुआ [को०]।
⋙ विप्लावी
संज्ञा पुं० [सं० विप्लाविन्] [स्त्री० विप्लाविनी] १. उपद्रव करनेवाला। २. जल की बाढ़ लानेवाला।
⋙ विप्लुट्
संज्ञा स्त्री० [सं० विप्लुष्] १. जलसीकर। २. स्फुलिंग। चिनगारी। ३. कण। ४. निशान। धब्बा। बिंदी [को०]।
⋙ विप्लुत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विस्फोट। स्फोट [को०]।
⋙ विप्लुत (२)
वि० [सं०] १. छितराया हुआ। बिखरा हुआ। २. घबराया हुआ। आकुल। ३. क्षुब्ध। व्यग्र। दुखी। ४. भ्रष्ट। पतित। ५. नियम, प्रतिज्ञा आदि से च्युत। ६. व्यसन के कारण किसी वस्तु के अभाव में ब्याकुल। व्यसनार्त। ७. इधर उधर बहा हुआ (को०)। ८. डूबा हुआ। निमग्न। बाढ़ग्रस्त (को०)। ९. विध्वस्त । उजड़ा हुआ (को०)। १०. अपमानित। अनादृत (को०)। ११. नष्ट। बरबाद (को०)। १२. तिरोहित। विलुप्त (को०)। १३. विपरीत। उलटा (को०)। १४. असत्य। मिथ्या। झूठा (को०)।
⋙ विप्लुतनेत्र, विप्लुतलोचन
वि० [सं०] हर्ष, शोक आदि के कारण जिसकी आँखों अश्रुपूरित हों। [को०]।
⋙ विप्लुतभाषी
वि० [सं० विप्लुतभाषिन्] तुतलाकर या हकलाकर बोलनेवाला [को०]।
⋙ विप्लुतयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक स्त्रीरोग। दे० 'विप्लुत' [को०]।
⋙ विप्लुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्रियों की एक व्याधि जिसमें उनकी योनि में नित्य पीड़ा रहती है।
⋙ विप्लुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विप्लव। हलचल। उपद्रव। २. हानि। क्षति। (को०)।
⋙ विप्लुष्
संज्ञा पुं० दे० 'विप्रुट्'।
⋙ विप्लुष्ट
वि० [सं०] झुलसा या जला हुआ [को०]।
⋙ विप्सा
संज्ञा स्त्री० [सं० वीप्सा]दे० 'वीप्सा'।
⋙ विफल
वि० [सं०] १. जिसमें फल न लगता या लगा हो। फलरहित। उ०—मुरली सुनत अचल चले। द्रवित ह्वै जल झरत पाहन विफल वृक्ष फले।—सूर (शब्द०)। २. जिसका कुछ परिणाम न हो। जिसका कुछ नतीजा न हो। जिससे कुछ सिद्धि न प्राप्त हो। निष्फल। व्यर्थ। बेफायदा। जैसे,— कोई प्रयत्न विफल होना; विफलमनोरथ होना। ३. जिसके प्रयत्न का कुछ परिणाम न हुआ हो। अकृतकार्य। नाकामयाब। ४. हताश। निराश। ५. अंडकोशरहित। ६. प्रभाव- रहित। जिसका कुछ असर न हो (को०)।
⋙ विफलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्य की सिद्धि न होना। असफलता।
⋙ विफला (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. बिना फल की। जिसमें फल न लगें। २. जिसका कुछ परिणाम न निकले। ३. जो प्रयत्न में कृतकार्य न हुई हो।
⋙ विफला (२)
संज्ञा स्त्री० केतकी।
⋙ विफाक
संज्ञा पुं० [अ० विफा़क़] १. संघ। २. अनुकूलता। ३. दोस्ती। मित्रता [को०]।
⋙ विबंध
संज्ञा पुं० [सं० विबन्ध] १. विशेष रूप से बंधन। खूब जक- ड़ना। २. आनाह। रोग (अफरा) का एक भेद जिसमें खाए हुए पदार्थ का बिना पचा रस मल रूप में पेट में रुका रहता है और दस्त नहीं होता। ३. एक प्रकार की पट्टी। विबंधन।
⋙ विबंधन
संज्ञा पुं० [सं० निबन्धन] पीठ, छाती, पेट आदि के घाव या फोड़े को कपड़े से विशेष रूप से बाँधने की युक्ति या क्रिया। (सुश्रुत)।
⋙ विबंधवर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० विबन्धवर्ति] घोड़ों का एक रोग जिसमें उनका पेशाब बंद हो जाता है तथा और नाड़ियों में जक- ड़ने की सी पीड़ा होती है।
⋙ विबंधहृत्
वि० [सं०] विबंध को दूर करनेवाला।
⋙ विबंधु
वि० [सं० वि + बन्धु] १. बंधुरहित। जिसके भाई बंधु न हों। २. पितृहीन। अनाथ।
⋙ विबद्ध
वि० [सं०] पूर्णतया बँधा हुआ [को०]।
⋙ विबल
वि० [सं०] १. बलरहित। २. कमजोर दुर्बल। अशक्त। ३. विशेष बली। अधिक ताकत रखनेवाला।
⋙ विबाध (१)
वि० [सं०] बाधारहित। कष्टरहित।
⋙ विबाध (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दूर करना। हटा देना [को०]।
⋙ विबाधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कष्ट। ब्यथा। पीड़ा [को०]।
⋙ विबाहु
वि० [सं०] बाहुरहित। भुजाविहीन [को०]।
⋙ विबुक
संज्ञा पुं० [सं०] मल्लि से उत्पन्न वैश्य का पुत्र [को०]।
⋙ विबुद्ध
वि० [सं० वि + बुध] १. जाग्रत। जगा हुआ। २. विकासित। खिला हुआ। ३. ज्ञानप्राप्त। सचेत। ४. कुशल। चतुर (को०)।
⋙ विबुध
संज्ञा पुं० [सं० वि + बुध] १. पंडित। बुद्धिमान्। २. देवता। ३. चंद्रमा। ४. एक राजा का नाम। ५. शिव। महादेव।
⋙ विबुधगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति [को०]।
⋙ विबुधताटिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवताओं की नदी, आकाशगंगा। २. गंगा, देवनदी।
⋙ विबुधतरु
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पवृक्ष।
⋙ विबुधद्विट्
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के शत्रु। असुर [को०]।
⋙ विबुधधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामधेनु।
⋙ विबुधनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा। देवापगा [को०]।
⋙ विबुधपति
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का राजा, इंद्र।
⋙ विबुधप्रिया
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवी। भगवती। २. अप्सरा। ३. एक वर्णवृत्त।
⋙ विबुधबेलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कल्पलता। उ०—कृपा सुधा सींची विबुधबेलि ज्यौं फिरि सुख फरनि फरी।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ विबुधरिपु
संज्ञा पुं० [सं०] असुर [को०]।
⋙ विबुधवन
संज्ञा पुं० [सं० विबुध + वन] इंद्र का उद्यान। नंदन कानन।
⋙ विबुधविलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवांगना। देवता की स्त्री। २. स्वर्ग की वेश्या। अप्सरा। उ०—सकल सुआसिनी गुरुजन पुरजन पाहुने लोग। बिबुधबिलासिनी सुर मुनि जाचक जो जेहि जोग—तुलसी (शब्द०)।
⋙ विबुधबैद पु
संज्ञा पुं० [सं०] विवुधवैद्य, अश्विनीकुमार।
⋙ विबुधवैद्य
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के वैद्य, अश्विनीकुमार।
⋙ विबुधशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्य। असुर [को०]।
⋙ विबुधसद्म
संज्ञा पुं० [सं० विबुधसद्मन्] सुरलोक। स्वर्ग [को०]। यौ०—विबुधसद्मस्त्री = अप्सरा। देवांगना।
⋙ विबुधाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] देवों के आचार्य, बृहस्पति [को०]।
⋙ विबुधाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के राजा, इंद्र।
⋙ विबुधाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] देवराज। इंद्र [को०]।
⋙ विबुधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पंडित। बुद्धिमान। विज्ञ। आचार्य। शिक्षक। २. देवता।
⋙ विबुधानुचर
संज्ञा पुं० [सं०] देवसेवक। देवोपासक [को०]।
⋙ विबुधापगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवताओं की नदी, आकाशगंगा।
⋙ विबुधावास
संज्ञा पुं० [सं० विबुध + आवास] १. देवताओं का निवासस्थान, स्वर्ग। २. देवमंदिर।
⋙ विबुधेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० विबुधेन्दर] इंद्र [को०]।
⋙ विबुधेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र। देवराज [को०]।
⋙ विबुभूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आत्माभिव्यक्ति इच्छा या कामना [को०]।
⋙ विबोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. जागरण। जागना। २. एक संचारी भाव। उ०—चिंता मोह सुपन विबोध स्मृति अमर्ष गर्व उतसुक तासु अवहित्थ ठानिस।—पद्याकर (शब्द०)। विशेष—दे० साहित्यदर्पण के अनुसार 'विबोधः कार्य मार्गणम्' अर्थात् कार्य का अन्वेषण विबोध कहा जाता है। साहित्य के रसविधान में विबोध संचारी या व्यभिचारी भावों में से एक है। २. सम्यक् बोध। अच्छा ज्ञान। ३. सचेत होना। जागना। सावधान होना। ४. होश में आना। ५. विकास। प्रफुल्लता। ६. बुद्धि। प्रतिभा (को०)। ७. प्रमाद। अनवधानता (को०)। ८. एक पक्षी का नाम (को०)।
⋙ विबोधन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विबोधित] १. जगाना। प्रबोधन। २. ज्ञान कराना। आँख खोलना। ३. जगना। जागृत होना। ४. समझाना बुझाना। ढाढ़स देना।
⋙ विबोधित
वि० [सं०] १. जगाया हुआ। २. ज्ञापित। जताया हुआ। बतलाया हुआ। ३. खिलाया या प्रफुल्लित किया हुआ। विकासित।
⋙ विब्बोक
संज्ञा पुं० दे० 'बिब्बोक' [को०]।
⋙ विभंगी
संज्ञा पुं० [सं० विभङ्ग] १. विन्यास। गठन या रचना। २. टूटना। ३. विभाग। ४. क्रम या परंपरा का टूटना। ५. भ्रूभंग। भौ की चेष्टा। ६. मुख का भाव या चेष्टा। ७. ठहराना। अवरोध। पड़ाव (को०)। ८. शिकन। झुर्री (को०)। ९. सोपान। सीढ़ी (को०)। १०. फूट पड़ना। प्रकट होना (को०)। ११. तरंग। लहर (को०)।
⋙ विभंग (१)
वि० चपल। उ०—विमल विपुल बहसि वारि सीतल भय ताप हारि भँवर बर विभंग तर तरंग मालिका।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ विभंगि
संज्ञा स्त्री० [सं० विभङ्गि] १. अनुकृति। २. भंगिमा। भंगी। [को०]।
⋙ विभंगी
वि० [सं० विभङ्गिन्] १. कंपनधर्मा। कंपनशील। २. जिसपर झुर्रियाँ पड़ी हों [को०]।
⋙ विभंगुर
वि० [सं० विभङ्गुर] लोल। अस्थिर (द्दष्टि)।
⋙ विभंज
वि० [सं० वि + भज् (१)] १. टूटना। फूटना। २. नाश। ध्वंस।
⋙ विभक्त (१)
वि० [सं० वि + √ भज् + क्त (प्रत्य०)] १. बँटा हुआ। विभाजित २. अलग किया हुआ। पृथक् किया हुआ। ३. जो अपने पिता की संपत्ति से अपना भाग पा चुका हो और अलग हो। ४. विभिन्न। विविध (को०)। ५. सेवानिवृत्त। एकांतवासी (को०)। ६. नियमित (को०)। ७. विभूषित। अलंकृत (को०)। ८. मापा हुआ (को०) ।
⋙ विभक्त (२)
संज्ञा पुं० १. कार्तिकेय। २. एकांतवास। ३. अलगाव। पार्थक्य। ४. भाग। हिस्सा। ५. संपत्ति जो विभाजित की हुई हो। विभक्त संपत्ति।
⋙ विभक्तज
संज्ञा पुं० [सं०] वह बालक जो भाइयों या हिस्सेदारों में संपत्ति का विभाजन हो जाने पर जन्मा हो [को०]।
⋙ विभक्ता
वि० [सं० विभक्तृ] १. हिस्सा बाँटनेवाला। विभक्त करनेवाला। २. प्रबंधक [को०]।
⋙ विभक्ति
वि० [सं०] १. विभक्त होने की क्रिया या भाव। विभाग। बाँट। २. अलग होने की क्रिया या भाव। अलगाव। पार्थक्य। ३. उत्तराधिकार में मिली हुई संपत्ति या हिस्सा (को०)। ४. व्याकरण में शब्द के आगे लगा हुआ वह प्रत्यय या चिहुन जिससे पता लगता है कि उस शब्द का क्रियापद से क्या संबंध है। उ०—एक ही प्रत्यय अथवा विभक्ति के योग से निष्पन्न धातु, शब्द, प्रत्यय या विभक्ति में निर्दिष्ट क्रमानुसार स्वरध्वनियों में परिवर्तन हो जाता है।—भोज० भा० सा०, पृ० १०। विशेष—संस्कृत व्याकरणानुसार नाम या संज्ञाशब्दों के बाद लगनेवाले वे प्रत्यय जो नाम या संज्ञा शब्दों को पद (वाक्य प्रयोगार्ह) बनाते हैं और कारक परिणति के द्वारा क्रिया के साथ संबंध सूचित करते हैं। प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि विभक्तियाँ हैं जिनमें एकवचन, द्विवचन, बहुवचन—तीन बचन होते है। पाणि- नीय व्याकरण में इन्हें 'सुप' आदि २७ विभक्ति के रूप में गिनाया गया है। संस्कृत व्याकरण में जिसे 'विभक्ति' कहते है, वह वास्तव में शब्द का रूपांतरित अग होता है। जैसे,—रामेण, रामाय इत्यादि। आजकल की प्रचलित खड़ी बोली में इस प्रकार की विभक्तियाँ प्रायः नहीं हैं, केवल कर्म और सप्रदान कारक के सर्वनामों में विकल्प से आती हैं। जैसे,—मुझे, तुझे, इन्हें इत्यादि। संस्कृत में विभक्तियों के रूप शब्द के अंत्य अक्षर के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं। पर यह भेद खड़ीबोली के कारकों में नहीं पाया जाता, जिसमें शुद्ध विभक्तियों का ब्यवहार नहीं होता, कारकचिह्नों का व्यवहार होता है।
⋙ विभग्न
वि० [सं० वि + भग्न] १. टूटा फूटा हुआ। २. जो जुदा हो। अलग हुआ। छिन्न।
⋙ विभचार पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यभिचार]दे० 'व्यभिचार'। उ०— आचार ध्रंम नहि सुद्द मन विधि विचार विभचार घन।—पृ० रा०, २५।१२९।
⋙ विभच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० वीभत्स, प्रा० वीभच्छ] दे० 'बीभत्स'। उ०—भणैं सिंगार, विभच्छ, भय सांत सुअद्भुत सार। करुण वीर रुद्र, हास रस, नव रस उक्त निहार।—रघु० रू०, पृ० ४९।
⋙ विभज
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक बड़ी संख्या [को०]।
⋙ विभजन
संज्ञा पुं० [सं०] भेद। अंतर। पार्थक्य [को०]।
⋙ विभजनीय
वि० [सं०] विभक्त करने योग्य [को०]।
⋙ विभज्य (१)
वि० [सं०] १. जिसका विभाग करना हो। २. जिसका भेद दिखाना हो [को०]।
⋙ विभज्य (२)
क्रि० वि० विभाग करके। खंड खंड करके।
⋙ विभय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भय से छुटकारा। भय से मुक्ति।
⋙ विभय (२)
वि० निर्भय [को०]।
⋙ विभव
संज्ञा पुं० [सं०] १. धन। संपत्ति। २. ऐश्वर्य। शक्ति। उ०—भव भव विभव पराभव कारिनि।—तुलसी (शब्द०)।३. औदार्य। ४. बहुतायत। आधिक्य। ५. मोक्ष। जन्ममरण से छुटकारा। ६. साठ संवत्सरों में से छत्तीसवाँ संवत्सर। ७. उन्नत अवस्था। पद। प्रतिष्टा (को०)। ८. महत्ता (को०)। ९. पालन। रक्षण (को०)। १०. प्रलय (बौद्ध)। ११. संगीत में एक ताल (को०)।
⋙ विभवराशि
संज्ञा स्त्री० [सं० विभव + राशि] धनरशि। संपत्ति का ढेर। उ०—......विश्व की विभव राशि, और थे प्रणत वहीं गुर्जर महीप भो।—लहर, पृ० ७७।
⋙ विभववान्
संज्ञा स्त्री० [सं० विभववत्] [स्त्री० विभववती] १. विभववाला। धनी। दौलतमंद। २. शक्तिशाली।
⋙ विभवशाली
वि० [सं० विभवशालिन्] [वि० स्त्री० विभवशालिनी] १. विभववाला। २. प्रतापवाला। ऐश्वर्य़वाला।
⋙ विभवी
वि० [सं० विभविन्] ऐश्वर्यवान्। प्रतापी [को०]।
⋙ विभांडक
संज्ञा पुं० [सं० विभाण्डक] एक ऋषि जो ऋष्यशृंग के पिता थे।
⋙ विभांडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० विभाण्डिका] आहुल्य वृक्ष।
⋙ विभांडी
संज्ञा स्त्री० [सं० विभाण्डी] नीली अपराजिता। विष्णुक्रांता लता।
⋙ विभाँति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वि + हिं० भाँति] प्रकार। भेद। किस्म।
⋙ विभाँति (२)
वि० अनेक प्रकार का।
⋙ विभाँति (३)
अव्य० अनेक प्रकार से।
⋙ विभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रभा। कांति। चमक। २. किरण। रश्मि। ३. शोभा। सुंदरता।
⋙ विभाइ पु
संज्ञा पुं० [सं० विभाव]दे० 'विभाव'। उ०—रस दारुन भय संचरिग। घोर गँभीर विभाइ।—पृ० रा०, ६१।२८८।
⋙ विभाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाशवाला। २. सूर्य। उ०—तिमिर ग्रसित सब लोक ओक लखि दुखित दयाकर। प्रगट कियो अदभुत प्रभाउ भागवत विभाकर।—नंद० ग्रं०, पृ० ४। ३. आक का पौधा। मदार। ४. चित्रक। चीते का पेड़। ५. अग्नि। ६. राजा। ७. चंद्रमा का वह अंश जो सूर्य के प्रकाश से दीप्त होता है।
⋙ विभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँटने को क्रिया या भाव। किसी वस्तु के कई भाग या हिस्से करना। बँटवारा। तकसीम। जैसे,— संपत्ति का विभाग। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. कई वर्गों या खंडों में विभक्त वस्तु का एक एक खंड या वर्ग। भाग। अंश। हिस्सा। बखरा। ३. पैतृक संपत्ति का कोई अंश जो किसी को नियमानुसार दिया जाय। हिस्सा। बखरा। ४. प्रकरण। अध्याय। जैसे,—ग्रंथ का विभाग। ५. कार्य- क्षेत्र। मुहकमा। जैसे,—शिक्षा विभाग। ६. व्यवस्था। प्रबध। इंतजाम (को०)। ७. गणित में भिन्न का अंश (को०)। ८. न्यायशास्त्र के अनुसार २४ गुणौ में से एक का नाम। यौ०—विभागकल्पना = हिस्सा या अंश नियत करना (याज्ञ- बल्क्य स्मृति)। विभागज्ञ = अंतर को जाननेवाला। विभाग को समझनेवाला। विभागधर्म = दायभाग की विधि। बँटवारा संबंधी नियम कानून। विभागपत्रिका = विभाजन का दस्ता- वेज। वह कागज जिसपर विभाग का विवरण दर्ज हो। विभागभाक्, विभागभाज् = पहले से बँटी हुई संपत्ति का हिस्सेदार। विभाग पानेवाला। विभागरेखा = विभाजन की रेखा। दो हिस्सों का अलगाव सूचित करनेवाला चिह्न या निशान।
⋙ विभागक
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यवस्था करनेवाला व्यक्ति। २. हिस्से बाँटनेवाला [को०]।
⋙ विभागतः
क्रि० वि० [सं० विभागतस्] विभाग के अनुसार हिस्से के मुताबिक।
⋙ विभागशः
क्रि० वि० [सं० विभागशस्] विभाग के अनुसार।
⋙ विभागात्मक नक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] रोहिणी, आर्द्रा, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, स्वाती, ज्येष्ठा और श्रवण आदि आठ प्रकाशमय नक्षत्र।
⋙ विभागाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं० विभाग + अध्यक्ष] विभाग (अं० डिपार्टमेंट) का प्रधान अधिकारी या अध्यक्ष जैसे, हिंदी विभागाध्यक्ष।
⋙ विभागी
संज्ञा पुं० [सं० विभागिन्] [स्त्री० विभागिनी] १. विभाग करनेवाला। २. विभाग या हिस्सा पानेवाला। हिस्सेदार।
⋙ विभाजक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विभाग करनेवाला। बाँटनेवाला। २. गणित में वह संख्या जिससे किसी दूसरी संख्या को भाग दें। भाजक।
⋙ विभाजक (२)
वि० विभाग या विच्छेद करनेवाला।
⋙ विभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विभाजनीय, विभाजित, विभाज्य] १. विभाग करने की क्रिया या भाव। बाँटने का काम। २. पात्र। बरतन।
⋙ विभाजयिता
वि० [सं० विभाजयितृ] विभाजन करनेवाला [को०]।
⋙ विभाजित
वि० [सं०] जिसकी विभाग किया गया हो। जो बाँटा गया हो। जिसके खंड या हिस्से किए गए हों।
⋙ विभाज्य
वि० [सं०] १. विभाग करने योग्य। २. जिसका विभाग करना हो। जिसे बाँटना हो। ३. (संख्या) जिसे किसी संख्या से बाँटना हो। भाज्य (गणित)।
⋙ विभाड़ पु
वि० [प्रा० विब्भाड़] नाशक। नाश करनेवाला। उ०—बेमग्ग राइ दारिद् विभाड़। अचगल्ल राइ जाड़ा उपाड़।—पृ० रा०, ५७।१९२।
⋙ विभात
संज्ञा पुं० [सं०] सबेरा। प्रभात।
⋙ विभाति
संज्ञा पुं० [सं० विभा] दीप्ति। शोभा। सुदंरतदा।
⋙ विभाती
संज्ञा स्त्री० [सं०] पौ फटना। प्रभात। सुबह (को०)। पु २. दीप्ति। शोभा। विभाति। उ०—और बनिता की ओर भूलेहुँ न दैहौं मन तुम जो कहत आए सोह सीरी ताती में। ताको अब करिबो निबाह सो देखाऊँ तुम्हैं रघुनाथ देखौ देह आपनी विभागी में।—रघुनाथ (शब्द०)।
⋙ विभाना पु
क्रि० अ० [सं० विभा + ना (प्रत्य०)] १. चमकना। झलकना। २. शोभा पाना। शोभित होना। उ०—मनु फुल्ल कमल के मधि कठी सतगुन लता विभाति है।— गोपाल (शब्द०)।
⋙ विभारना पु
क्रि० अ० [हिं० विभाना या सं० वि० + √ म्राज्] चमकना। झलकना। उ०—स्याम बरन पट अरुन विभारैं। रवि सम तेज सुलच्छन धारैं।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ विभाव
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में वह वस्तु जो रति आदि स्थायी भावों को आलंबन में उत्पन्न करनेवाली या उदीप्त करनेवाली हो। रसविधान में भाव का आलंबन या विभावक या उद्दीपक। उ०—इसी भाव (प्रेम) के विविध प्रकार के आलंबनों और उद्दीपनों का चित्रण इस भूमि के विभाम पक्ष में पाया जाता है।—रस०, पृ० ७४। विशेष—विभाव दो कहे गए हैं—आलंबन और उद्दीपन। आलंबन वह है जिसके प्रति आश्रय या पात्र के हृदय में कोई भाव स्थित हो। जैसे नायक के लिये नायिका और नायिका के लिये नायक। उद्दीपन वह है जिससे आलंबन के प्रति स्थित भाव उद्दीप्त या उत्तेजित हो। रसभेद से आलंबन और उद्दीपन बिन्न भिन्न होंगे। जैसे, शृंगार में आलंबन होगे नायक नायिका; हास में कोई बढंगी आकृति या वाणी आदि वाला व्यक्ति; करुण में विनष्ट बंधु आदि या कोई पीड़ित अथवा शोचनीय व्यक्ति इत्यादि, इत्यादि। इसी प्रकार उद्दीपन भी रसभेद से भिन्न होगे। जैसे, शृंगार में चाँदनी, फूल आदि; रौद्र में आलबन की दुष्ट चेष्टा इत्यादि। २. मित्र। परिचित व्यक्ति (को०)। ३. कोई भी उत्तेजक दशा, अवस्था या स्थिति जिससे भावों का उद्दीपन हो (को०)। ४. शिव का एक नाम (को०)।
⋙ विभावक
वि० [सं०] १. वहस करनेवाला। २. प्रकट करनेवाला। व्यक्त करनेवाला ३. संपादक। संघटित करनेवाला (को०)।
⋙ विभावन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विभाबनीय] १. विशेष रूप से चिंतन। विचार। विमर्श। २. साहित्य के रसविधान में वह मानसिक व्यापार जिसके कारण पात्र में प्रदर्शित भाव का श्रोता या पाठक भी साधारणीकरण द्वारा भागी होता है, विभावन व्यापार उ०—पर विभावन द्वारा जब वस्तुप्रतिष्ठा पूर्ण रूप से हो ले तब आगे कुछ और होना चाहिए।—रस० पृ० ११९। ३. स्पष्ट ज्ञान या निश्चय। विवेक। निर्णय (को०)। ४. प्रत्यय। कल्पना (को०)। ५. विकास। प्रसार (को०)। ६. पालन। रक्षण (को०)। ७. देखना। अवलोकन। दर्शन (को०)। ८. दिखाना। अभिव्यक्ति।
⋙ विभावना
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें (क) कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति या (ख) अपूर्ण कारण से कार्य की उत्पत्ति या (ग) प्रतिबंध होते हुए भी कार्य की सिद्धि या (घ) जो जिस कार्य का कारँण नहीं हुआ करता, उससे उस कार्य की उत्पत्ति अथवा (ङ) विरुद्ध कारण से किसी कार्य की उत्पत्ति या (च) कार्य से कारण की उत्पत्ति दिखाई जाती है। उ०—(क) सुनत लथत श्रुति नैन बिनु, रसना बिनु रस लेत। (ख) राजकुमार सरोज से हाथिन सों गहि शंभु शरासन तोड़यौ। (ग) तव बेनी नागिनि रहै, बाँधी गुनन बनाय। तऊ बाम व्रजचंद को बदाबदी डसि जाय। (घ) कारे घन उमड़ि अँगारे बरसत है। (ङ) अग्निधार स्वरत सुधाकर बिलोकिए। (च) और नदी नदन तें कोकनद होत तेरो कर कोकनद नदी नद प्रगटत हैं।
⋙ विभावनीय
वि० [सं०] भावना या चिंतन करने योग्य।
⋙ विभावर
वि० [सं०] उज्वल। प्रदीप्त [को०]।
⋙ विभावरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात्रि। रात। २. वह रात जिसमें तारे चमकते हों। ३. हरिद्रा। हरदी। ४. कुट्टनी। कुटनी। दूती। ५. डेढ़ी स्त्री। चाल की औरत। ६. मुखरा स्त्री। बहुत बड़ बड़ करनेवाली स्त्री। ७. मेदा वृक्ष। ८. प्रचेतस् की नगरी का नाम। ९. वेश्या। गणिका (को०)। १०. एक प्रकार का वृत्त (को०)।
⋙ विभावरीकांत
संज्ञा पुं० [सं० विभावरीकान्त] निशापति। चंद्रमा। रजनीकांत [को०]।
⋙ विभावरीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] संध्या [को०]।
⋙ विभावरीश
संज्ञा पुं० [सं०] निशापति। चंद्रमा।
⋙ विभावस पु
वि० [सं० विभावसु] दे० 'विभावसु'। उ०—हरि हरन- छिछ सुअछिछ बछिछ वर जछिछ विभावस।—पृ० रा०, २।१४४।
⋙ विभावसु (१)
वि० [सं०] जिसमें प्रकाश की अधिकता हो। अधिक प्रभावाला।
⋙ विभावसु (२)
संज्ञा पुं० १. वसुओं के एक पुत्र। २. सूर्य। ३. आक का पौधा। अर्क। मदार। ४. अग्नि। ५. चित्रक वृक्ष। चीता। ६. चंद्रमा। ७. एक प्रकार का हार। ८. एक दानव जो नरकासुर का पुत्र था। ९. एक ऋषि का नाम। (महाभारत)। १०. एक गंधर्व जिसने गायत्री से वह सोम छीना था, जो वह देवताओं के लिये ले जा रही थी।
⋙ विभावाश्रित
वि० [सं०] विभाव पर आदधृत वर्ण्य वस्तु पर आश्रित। उ०—जो भावपक्ष को महत्व देते हुए भी उसे विभावाश्रित देखना चाहती है।—आचार्य०, पृ० २२।
⋙ विभावित
वि० [सं०] १. चिंतन किया हुआ। सोचा या विचारा हुआ। २. कल्पित। अनुमित। संकेतित। ३. निश्चित। ४. स्वीकृत। मंजूर किया हुआ। ५. व्यक्त वा स्पष्ट किया हुआ। प्रकटीकृत (को०)। ६. सिद्ध। सर्वसंमत (को०)।
⋙ विभावी
वि० [सं० विभाविन्] १. भाव जाग्रत् करनेवाला। २. व्यक्त करनेवाला। ३. शक्तिमान् (को०)।
⋙ विभाव्य
वि० [सं०] १. अनुभव किया जाने योग्य। २. विवेच्य। ३. ध्यान देने योग्य [को०]।
⋙ विभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संस्कृत व्याकरम में वह स्थल जहाँ ऐसे वचन मिलते हैं कि 'ऐसा न होगा' तथा 'ऐसा' हो भी सकता हैं'। विकल्प। २. किसी व्यापक साहित्यभाषा क्षेत्र के अंतर्गत अन्य साहित्यिक प्रतिष्ठाप्राप्त भाषा—उ०—ब्रजभाषा हिंदी की विभाषा है। ३. बोली। किसी प्रधान भाषा के भीतर आनेवाली जलभाषा (को०)। ४. एक रागिनी (को०)। ५. (बौद्ध) बृहत्कारिका (को०)।
⋙ विभाषित
वि० [सं०] वैकल्पिक। विकल्प से होनेवाला [को०]।
⋙ विभास
संज्ञा पुं० [सं०] १. चमक। तेज। २. एक राज जो सबेरे के समय गाया जाता है। इसे कुछ लोग भैरव राग का ही भेद मानते हैं। उ०—अशब्द हो गई वीणा, विभास बजता था।— बेला, पृ० २६। ३. तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार सप्तर्षियों में से एक। ४. मार्कडेयपुराण के अनुसार एक देवयोनि। ५. सात सूर्यो में से एक सूर्य (को०)।
⋙ विभासक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विभासिका] १. चमकनेवाला। प्रकाशयुक्त। २. चमकानेवाला। झलकानेवाला। ३. प्रकाशित करनेवाला। प्रकट या व्यक्त करनेवाला। जाहिर करनेवाला।
⋙ विभासना पु
क्रि० अ० [सं० विभास + हिं० ना (प्रत्य०)] चम- कना। झलकना।
⋙ विभासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमक। दीप्ति। प्रभा [को०]।
⋙ विभासिका
वि० स्त्री० [सं०] चमकानेवाली। दीप्त करनेवाली। उ०—कंचनधाम अकास विभासिका।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१।
⋙ विभासित
वि० [सं०] १. प्रकाशित। दीप्त। चमकता हुआ। २. प्रकट। जाहिर।
⋙ विभित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० उप० वि + √ भिद् (= विदारण)] १. काटकर पृथक्करना। भेदना। २. टुकड़े टुकड़े करना [को०]।
⋙ विभिदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भेद। अंतर [को०]।
⋙ विभिन्न (१)
वि० [सं०] १. छिदा हुआ। बँटा हुआ। काटकर अलग किया हुआ। २. बिलकुल अलग। पृथक्। जुदा। ३. अनेक प्रकार का। कई तरह का। ४. मिश्रित। मिला हुआ (को०)। ५. और का और किया हुआ। उलटा। ६. हताश। निराश। ७. हैरान। परेशान। ब्याकुल (को०)। ८. इधर उधर घूमा हुआ (को०)। ९. प्रकटित। प्रदर्शित (को०)। १०. जो विश्वास करने योग्य न हो। अविश्वसनीय। अविश्वसित (को०)। ११. विरोधी (को०)।
⋙ विभिन्न (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।
⋙ विभिन्नता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विभिन्न होने का भाव। पार्थक्य। अलगाव। फर्क।
⋙ विभी
वि० [सं०] निर्भय। अभीत। विगतभय। बेडर [को०]।
⋙ विभीत (१)
[सं०] [वि० स्त्री० विभीता] डरा हुआ। उ०—वे परांपरा- प्रेमी, परिवर्तन से विभीत; ईश्वर परोक्ष से ग्रस्त, भाग्य के दास क्रीत।—ग्राम्या, पृ० ९१।
⋙ विभीत (२)
संज्ञा पुं० विभीतक। बहेड़ा।
⋙ विभीतक
संज्ञा पुं० [सं०] बहेड़ा। बहेड़े का वृक्ष।
⋙ विभीतकी, विभीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहेड़ा [को०]।
⋙ विभीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डर। भय। २. शंका। संदेह। उ०— नहिं तोरिहैं राम शिव को धनु यह विभीति परिहरहु।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ विभीषक
संज्ञा पुं० [सं०] डरानेवाला। भयानक।
⋙ विभीषण (१)
वि० [सं०] बहुत डरावना। बहुत भयानक।
⋙ विभीषण (२)
संज्ञा पुं० १. एक राक्षस जो रावण का भाई था और रावण के मारे जाने पर राम द्वारा लंका का राजा बनाया गया था। विशेष—यह विश्रवा मुनि द्वारा कैकयी राक्षसी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था और सुमाली नामक राक्षस का दौहित्र (नाती) था। एक दिन सुपाली ने कुबेर को पुष्पक विमान पर चढकर जाते देखा। उसे यह इच्छा हुई कि मेरे भी ऐसा ही दौहित्र होता। उसने अपनी परम रूपवती कन्या कैकयी को विश्रवा मुनि के पास भेजा। जिस समय वह गई, उस समय मुनि ध्यान में मग्न थे। वे उसका अभिप्राय समझकर बोले—'तू बड़े विकट समय में आई। इससे इस बार तुझे एक विकट आकृति का पुञ उत्पन्न होगा।' कैकयी के बहुत विनय करने पर ऋषि ने फिर आशीर्वाद दिया—'अच्छा जा ! तेरा अंतिम पुत्र मेरे ही वंश का सा और परम धार्मिक होगा'। वही अंतिम पुत्र विभीषण हुआ। अपने बड़े भाइयों रावण और कुंभकर्ण के साथ विभीषण ने भी घोर तप किया। जब ब्रम्हा वर देने आए, तब विभीषण ने यही वर माँगा—मेरी मति धर्म में सदा स्थिर रहे'। ब्रह्मा ने वर दिया—'तुम बड़े धार्मिक और अमर होगे'। वरप्राप्ति के उपरांत विभीषण भी रावण के साथ लंका में ही आकर रहने लगा। रावण ने जब सीता- हरण किया, तब यह राम की ओर हो गया था। २. नल तृण। नरसल का पौधा।
⋙ विभीषणा (१)
वि० स्त्री० [सं०] डरावनी। भयानक।
⋙ विभीषणा (२)
संज्ञा स्त्री० १. एक मुहूर्त का नाम। २. स्कंद की एक मातृका (को०)।
⋙ विभीषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भयालुता। भीरुता। भयभीत या शंकित होने की भावना [को०]।
⋙ विभीषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भयप्रदर्शन। डर दिखाना। २. भयंकर बात। भयानक कांड या द्दश्य। ३. आंतक। भय। खौफ (को०)। ४. भयभीत करनेका साधन (को०)।
⋙ विभु (१)
वि० [सं०] १. जो सर्वत्र वर्तमान हो। जो सब मूर्त पदार्थों में रम रहा हो। जिससे कोई स्थान खाली न हो। सर्वगत। सर्वव्यापक। जैसे,—दिक्, काल और आत्मा। विशेष—जीव की जाग्रत आदि चारो अवस्थाओं के चार विभु माने गए हैं। जाग्रत् का विभु 'विश्व', स्वप्न का 'तेजस्' सुषुप्ति का 'प्राज्ञ' और तुरीय का 'ब्रह्म' कहा गया है। २. जो सब जगह जा सकता हो। सर्वत्र गमनशील। जैसे, मन। ३. अत्यंत विस्तृत। बहुत बड़ा। महान्। ४. सब काल में रहनेवाला। सर्वकालव्यापी। नित्य। ५. दृढ़। अचल। अचल। चिर स्थायी। ६. शक्तिमान्। ऐश्वर्ययुक्त। ७. योग्य। समर्थ। क्षम (को०)। ८. आत्मसंयमी। जितेंद्रिय (को०)।
⋙ विभु (२)
संज्ञा पुं० १. ब्रह्मा। २. आत्मा। जीवात्मा। ३. प्रभु। स्वामी। ४. ईश्वर। उ०—विभु की बाट जोहते हैं सब ले लेकरअपने उपहार।—साकेत, पृ० ३७५। ५. शंकर। शिव। ६. विष्णु। ७. भृत्य। ८. सूर्य (को०)। ९. चंद्र (को०)। १०. कुबेर (को०)। ११. एक देव वर्ग (को०)। १२. बुद्ध का एक नाम (को०)। १३. आकाश (को०)। १४. अवकाश। अवसर (को०)। १५. काल (को०)।
⋙ विभुक्षित
वि० [सं० 'बुभुक्षित' का असाधु प्रयोग] भूखा। उ०—वह तीस कोटि विभुक्षित और नग्नतन संतान की माँ है।—हिं० का० प्र०, पृ० २३३।
⋙ विभुग्न
वि० [सं०] वक्र। टेढ़ा। कुटिल [को०]।
⋙ विभुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विभु होने का भाव। सर्वव्यापकता। उ०—युग युग की नव मानवता को। विस्तृत बसुधा की विभुता को।—लहर, पृ० ३। २. ऐश्वर्य। शक्ति। ३. प्रभुता। ईश्वरता। ४. अधिकार।
⋙ विभुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विभुता'।
⋙ विभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'विभु'।
⋙ विभूत
वि० [सं०] १. उत्पन्न। जात। २. प्रकट। व्यक्त। ३. महान्। शक्तिमान्। ४. उत्थित। [को०]।
⋙ विभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहुतायत। वृद्धि। बढ़ती। २. विभव। ऐश्वर्य। ३. संपत्ति। धन। ४. दिव्य या अलौकिक शक्ति जिसके अंतर्गत अणिमा, महिमा, गरिमा, लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियाँ हैं। विशेष—योगदर्शन के विभूतिपाद में इसका वर्णन है कि किन किन साधनाओं से कौन कौन सी विभूतियाँ प्राप्त होती हैं। ५. शिव के अंग में चढ़ाने की राख या भस्म। विशेष—देवी भागवत, शिवपुराण आदि में भस्म या विभूति धारण करने का माहत्म्य विस्तार से वर्णित है। ६. भगवान् विष्णु का वह ऐश्वर्य जो नित्य और स्थायी माना जाता है। ७. लक्ष्मी। ८. विविध सृष्टि। ९. एक दिव्यास्त्र जो विश्वामित्र ने राम को दिया था। १०. प्रभुत्व। बड़ाई। ११. सृष्टि। १२. ताकत। शक्ति। महत्ता (को०)। १३. प्रतिष्ठा। उच्च पद (को०)। १४. विस्तार। प्रसार (को०)। १५. प्रवृत्ति। प्रकृति। स्वभाव (को०)।
⋙ विभूतिमान्
वि० [सं० विभूतिमत्] [वि० स्त्री० विभूतिमती] १. शक्ति सपन्न। ऐश्वर्यशाली। २. सपतिशाली। धनवान्। ३. विभूत। अलौकिक शक्ति से युक्त (को०)। ४. जिसने विभूति या भस्म धारण किया हो (को०)।
⋙ विभूमा
वि० [सं० वि + भूमन्] ऐश्वर्यवान्। शक्तिशाली।
⋙ विभूमा (२)
संज्ञा पुं० १. श्रीकृष्ण। २. महत्व। शक्ति (को०)।
⋙ विभूमा (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] शक्ति। महत्ता। ऐश्वर्य [को०]।
⋙ विभूरसि
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि की एक मूर्ति।
⋙ विभूषण
संज्ञा पुं० [वि० विभूष्य, विभूषित] १. अलंकृत करने की क्रिया। गहने आदि से सजाने का काम। २. भूषण। अलंकार। जेवर। गहना। विशेष—किसी शब्द के आगे लगकर यह शब्द श्रेष्ठतावाचक हो जाता है। जैसे, रघुवंशविभूषण। ३. मंजुश्री का एक नाम। (बौद्ध)। ४. सौंदर्य। द्युति। (को०)।
⋙ विभूषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गहनों आदि का सजावट। भूषा। २. शोभा।
⋙ विभूषना पु
क्रि० स० [सं० विभूषण] १. अलंकृत करना। गहने आदि से सजाना।२. सुशोभित करना। मंडित करना। ३. अपने आगमन द्वारा सुशोभित करना। उ०—कहा रीति रावरी जो रंक को विभूषौ गेह, तुम सो प्रबीन गुरु सेवा ततपर कों।—दूलह (शब्द०)।
⋙ विभूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गहनों आदि की खूब सजावट। २. भूषण। अलंकार। गहना। ३. शोभा। सौंदर्य। कांति।
⋙ विभूषित (१)
वि० [सं०] १. गहनों आदि से सजाया हुआ। २. अलंकृत ३. (अच्छी वस्तु, गुण आदि से) युक्त। सहित। जैसे,—वे सब गुणों से विभूषित हैं। ४. शोभित।
⋙ विभूषित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] अलंकार। गहना [को०]।
⋙ विभूषी
वि० [सं० विभूषिन्] १. अलंकृत। सज्जित। २. (गुण से) शोभित। ३. सजानेवाला [को०]।
⋙ विभूष्णु (१)
वि० [सं०] विभूतियुक्त। सर्वव्यापक।
⋙ विभूष्णु (२)
संज्ञा पुं० शिव।
⋙ विभूष्य
वि० [सं०] १. विभूषित करने योग्य। सजाने योग्य। २. जिसे गहनों आदि से सजाना हो।
⋙ विभृत
वि० [सं०] १. जो धारण किया गया हो। सँमाला हुआ। २. पोषित। पालित [को०]।
⋙ विभेंटन पु
संज्ञा पुं० [सं० वि० + भेट] आलिंगन करना। गले मिलना। भेटना। उ०—एरे बाम नैन मेरे एरी भुज बाम आज रौरे फरकन तें जो बालम बिहारि हौं। करिहौं गुलाब उपकार गुन मानिना कै देखन विभेंटन मैं आगे बिस्तारिहौं।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ विभेद
संज्ञा पुं० [सं०] विभिन्नता। फरक। अंतर। उ०—दोनों तुल्य स्त्री वा पुरुष बन सके और कभी कोई विभेद न रहे।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६७। २. अनेक भेद। कई प्रकार। ३. छेदकर घुसना। धँसना। ४. काटना, तोड़ना या छेदना। ५. काटव। छेद। दरार। ६. दो या कई खंडों में करना। विभाग। ७. एक- रूपता से अनेकरूपता की प्राप्ति। विकास। परिवर्तन। ८. मिश्रण। ९. आहत करना (को०)। १०. विरोध। वैर (को०)। ११. हस्तक्षेप। बाधा (को०)।
⋙ विभेदक (१)
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] १. भेदन करनेवाला। काटने या छेदनेवाला। २. घुसनेवाला। धँसनेवाला। ३. दो वस्तुओं में भेद प्रकट करनेवाला। फर्क दिखाने या डालनेवाला। एक से दूसरे में विशेषता प्रकट करनेवाला।
⋙ विभेदक (२)
संज्ञा पुं० विभीतक। बहेड़ा।
⋙ विभेदकर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विभेदकरी] विलगाव, फर्क, वा भेद पैदा करनेवाला। दे० 'विभेदकारी'। उ०—अब दीनदयाल दया करिए मति मोरि विभेदकरी हरिए।—मानस, ६।११०।
⋙ विभेदकारी
वि० [सं० विभेदकारिन्] [वि० स्त्री० विभेदकारिणी] १. छेदने या का काटनेवाला। २. भेद या फर्क करनेवाला। ३. दो व्यक्तियों में विरोध उत्पन्न करनेवाला। फूट डालनेवाला।
⋙ विभेदन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विभेदनीय, विभेद्य] १. छेदना। काटवा या तोड़ना। २. छेदकर घुसना। धँसना। ३. काटकर दो या कई खंड़ो में करना। ४. पृथक् पृथक् करना। अलग अलग करना। ५. भेद या फर्क डालना या दिखाना।
⋙ विभेदन (२)
वि०दे० 'विभेदक'। (१)
⋙ विभेदना पु
क्रि० स० [सं० विभेदन] १. भेदन करना। छेदना। काटना। २. घुसना। प्रवेश करना। उ०—लोक विभेदति कासना वासु परी मनु दीरघ में गनिए जू।—केशव (शब्द०)। ३. भेद या फर्क डालना।
⋙ विभेदिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विभेदिका] पृथक् पृथक् करनेवाला। विभक्त करनेवाला [को०]।
⋙ विभेदिनी
वि० स्त्री० [सं० विभेदिन्] १. छेदन या भेदन करनेवाली। २. छेदकर घुसनेवाली। ३. भेद या फर्क करनेवाली।
⋙ विभेदी
वि० [सं० विभेदिन्] [वि० स्त्री० विभेदिनी] १. छेदन करनेवाला। काटनेवाला। २. छेदकर घुसनेवाला। धँसनेवाला। ३. भेद या फर्क करनेवाला। ४. दूर, अलग या नष्ट करनेवाला (को०)।
⋙ विभेद्य
वि० [सं०] विभेद करने लायक। काटने या अलग करने लायक [को०]।
⋙ विभेष
संज्ञा पुं० [सं० वि + वेष/?/भेष] कुवेश। विकृत वेष। बुरा वेश। उ०—भोजन क्षोभ मलीन तन बसन विभेष बनाइ। रैनि दिवस छिन पावत कल नहीं जहँ तहँ जाइ।—कबीर सा०, पृ० ४०३।
⋙ विभो (१)
संज्ञा पुं० [सं० 'विभु' का संबोधन रूप] हे विभु।
⋙ विभो पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० विभव] दे० 'विभव'। उ०—फल आए तरवर झुकै झुक्न मेघ जल आय। विभो पाय सज्जन झुकै यह परकाजि सुभाय।—शकुंतला, पृ० ८८।
⋙ विभोर
वि० [सं० विह्वल, बग० विभोर] आत्मावस्मृत। किसी भाव में तल्लीन या खोया हुआ।
⋙ विभौ पु
संज्ञा पुं० [सं० विभव]दे० 'विभव'। उ०—जोधपुर विभौ जेवड़ियौ मेल बहादर खान जूँ। हरि लखै अचंभा साहरा, दै थाँमा अपमान नूँ—रा० रु०, पृ० २४।
⋙ विभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. विनाश। ध्वंस। २. पतन। अपनति। ३. ऊँचा कगार। ४. पहाड़ की चोटी पर का चौरस मैदान। ५. ह्लास। क्षय। बरबादी (को०)। ६. प्रवाहिका। संग्रहणी। अविस्तार (को०)। ७. अस्तव्यस्तता। अराजकता। विशृंख- लता (को०)।
⋙ विभ्रंशयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] एक दिन में पूर्ण होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ [को०]।
⋙ विभ्रंशित
वि० [सं०] १. विनष्ट। ध्वस्त। २. पतित। ३. गुमराह किया हुआ। बहकाया हुआ (को०)। यौ०—विभ्रंशितज्ञान = जिसका ज्ञान नष्ट हो गया हो। मूर्ख। निर्बुद्धि।
⋙ विभ्रंशी
वि० [सं० विभ्रंशिन्] १. भ्रष्ट होनेवाला।२. खंड खंड होनेवाला [को०]।
⋙ विभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. भ्रमण। चक्कर। फेरा। २. भ्रम। भ्रांति। धोखा। भूल। ३. संदेह। संशय। ४. चकपकाहट। घबराहट। अस्थिरता। ५. स्त्रियों का हाब जिसमें वे भ्रम से उलचे पलटे भूषण वस्त्र पहन लेती हैं; तथा रह रहकर मतवाले की तरह कभी क्रोध, कभी हर्ष आदि भाव प्रकट करती हैं। ६. कांति। शोभा। ७. घमंड। अभिमान (को०)। ८. तरंग। सनक। मन की लहर (को०)। ९. विक्षोभ। उद्वेग (को०)।
⋙ विभ्रमवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाव विशेषवाली कन्या। बालिका [को०]।
⋙ विभ्रमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुढ़ाई। बुढ़ापा। वार्धक्य।
⋙ विभ्रमी
वि० [सं० विभ्रमिन्] १. इधर उधर घूमनेवाला। भ्रमणकारी। घुमक्कड़। २. चक्कर करने या खानेवाला [को०]।
⋙ विभ्रष्ट
वि० [सं०] १. दूर किया हुआ। अलग किया हुआ। २. क्षीण। लुप्त। पतित। नष्ट। ३. ओझव। अंतर्हित। ४. वंचित। विरहित। ५. व्यर्थ। अनुपयुक्त। ६. स्तरहीन। निस्तत्व [को०]।
⋙ विभ्रांत
वि० [सं० विभ्रान्त] १. घूमता हुआ। चक्कर खाता हुआ। २. भ्रम में पड़ा हुआ। विभ्रमयुक्त। ३. विक्षुब्ध। व्याकुल (को०)। ४. चारों ओर फैला हुआ (को०)। यौ०—विभ्रांतनयन = तिरछी चितवनवाला। विभ्रांतमना = हतबुद्धि। जड़। विभ्रांतशील = मत्त। मतवाला। ५. हतबुद्धि। ६. बंदर। ७. सूर्य या चंद्रमा का मंडल [को०]।
⋙ विभ्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० विभ्रान्ति] १. फेरा। चक्कर। २. भ्रम। संदेह। ३. हड़बड़ी। घबराहट।
⋙ विभ्राजित
वि० [सं०] चमकदार या दीप्तियुक्त किया हुआ [को०]।
⋙ विभ्राट् (१)
संज्ञा पुं० [सं० विभ्राज् ? तुल० बँ०] १. आपत्ति। विपत्ति। संकट। २. उपद्रव। बखेड़ा। उ०—(क) तिलक विभ्राट के समय गोखले विलायत में थे।—सरस्वती (शब्द०)। (ख) कुछ न कुछ बिघटित हुआ विभ्राट्।—साकेत, १६८।
⋙ विभ्राट् (२)
वि० [सं० विभ्राज्] प्रकाशमान्। दीप्तिमान्। उ०—भर सको अगर तो प्रतिमा में चेतना भरो, यदि नहीं निमंत्रण दो जीवन के दानी को। विभ्राट् महावल जहाँ थके से दीख रहे, आगे आने दो वहाँ क्षीणबल प्राणी को।—धूप०, ७।
⋙ विभ्रातृव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैर। शत्रुता। २. होड़ा होड़ी। प्रतिद्वंद्विता [को०]।
⋙ विभ्रेष
संज्ञा पुं० [सं०] दुष्कर्म करना। अपराध करना [को०]।
⋙ विमंडन
संज्ञा पुं० [सं० विमण्डन] [वि० विमंडित] १. गहने आदि से सजाना। २. शृंगार करना। सँवारना। ३. अलंकार। भूषण। गहना।
⋙ विमंडित
वि० [सं० विमण्डित] १. अलंकृत। सजा हुआ। २. सुशोभित। ३. सहित। युक्त। (अच्छी वस्तु से)। उ०—देखिविमंडित दंडिन सो भुजदंड दुऔ असि दंड विहीनो।—केशव (शब्द०)।
⋙ विमंथन
संज्ञा पुं० [सं० विमन्थन] खूब मथना।
⋙ विमंथित
वि० [सं०] मथा हुआ। विलोड़ित [को०]।
⋙ विमज्जित
वि० [सं०] डूबा हुआ। निमज्जित [को०]।
⋙ विमत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरुद्ध मत। विपरीत सिद्धांत। उ०— छमत, विमत, न पुरान मत एक पथ नेति नेति नेति नित निगम करत।—तुलसी (शब्द०)। २. खिलाफ राय। प्रतिकूल संमति। ३. शत्रु। बैरी (को०)।
⋙ विमत (२)
वि० १. विरुद्ध मतवाला। भिन्न मत का। २. विषम। असंगत (को०)। ३. अनाद्दत। उपेक्षित (को०)। ४. संशया- स्पद। संदिग्ध (को०)।
⋙ विमति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] विरुद्ध मति। खिलाफ राय। प्रतिकूल विचार। २. उचित के विपरीत विचार। कुमति। दुर्बुद्धि। बुरा विचार। ३. असंमति। अस्वीकृति। ४. वाद विवाद। वितर्क। वितंडा (को०)।
⋙ विमति (२)
वि० मूढ़। मूर्ख। अज्ञ [को०]।
⋙ विमत्त
वि० [सं०] १. अभिमानी। उ०—जे ज्ञानमान विमत्त तव भय हरनि भगति न आदरी।—मानस, ७।१३। २. मतवाला या मस्त (हाथी)।
⋙ विमत्सर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] अधिक अहंकार।उ०—तजि काम क्रोध विमत्सरालस लोभ मोह निवारि कै। छल मल कुसंगति त्यागि मद दुरवासना सनमानि कै।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ विमत्सर (२)
वि० १. मत्सररहित। २. अहंकारशून्य।
⋙ विमद
वि० [सं०] १. मदरहित। उन्मादहीन। जो मतवाला न हो। २. (वह हाथी) जिसे मद न बहता हो। ३. आनंद, दुःख आदि से रहित। हर्षशून्य (को०)।
⋙ विमद्य
वि० [सं०] जिसने शराब पीना छोड़ दिया हो। जो मदिरा पान करना छोड़े हो [को०]।
⋙ विमध्यम
वि० [सं०] तटस्थ। मध्यवर्ती। उदासीन [को०]।
⋙ विमन (१)
वि० [सं० विमस्] अनमना। उदास। रंजीदा। खिन्न। उ०—विमन बंटि मुनि सरि तीरा। तह आयो नारद मुनि धीरा। क्यों उदास अस पूछयौं व्यासै। वर्ण्यो व्यास सकल निज आसै।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ विमनस्क
वि० [सं०] १. जिसका मन उचटा हो। जिसका मन न लगता हो। अनमना। २. उदास। खिन्न। अप्रसन्न। रंजीदा। ३. परेशान। व्य़ाकुल। हैरान (को०)।
⋙ विमना
वि० [सं० विमनस्] दे० 'विमनस्क' [को०]।
⋙ विमनिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० विमनिमन्] उदासी। विमनस्क होने का भावखिन्नता [को०]।
⋙ विमन्यु
वि० [सं०] विगतमन्यु। क्रोधरहित [को०]।
⋙ विमय
संज्ञा पुं० [सं०] परिवर्तन। अदला बदली। लेन देन। विनिमय [को०]।
⋙ विमर्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूर्ण करना। पीसना। २. मींजना। मसलना। रगड़ना। ३. संघर्ष। युद्ध। ४. बाधा। ५. संपर्क। स्पर्श। ६. खग्रास। ७. सूर्य और चंद्रमा का मेल। ८. एक वृक्ष। ९. संपीड़ित करना। कसना (आलिंगन करते समय)। १०. छीनना। अपहरण करना। बिगाड़ देना (को०)। ११. शरीर पर उबटन आदि लगाना या मलना (को०)। १२. विध्वंस। विनाश (को०)। १३. थकान। क्लांति (को०)।
⋙ विमर्दक (१)
वि० [सं०] १. खूब मर्दन करनेवाला। मसल डालनेवाला। २. चूर चूर करनेवाला। पीस डालनेवाला। ३. नष्ट भ्रष्ट करनेवाला। ध्वस्त करनेवाला।
⋙ विमर्दक (२)
संज्ञा पुं० १. विमर्दन करने की क्रिया। २. उपराग। ग्रहण। ३. एक पौधा। चक्रमर्द। चकवँड़ [को०]।
⋙ विर्मदन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विमर्दनीय, विमर्दित] १. खूब मर्दन करना। अच्छी तरह मलना। दलना। २. कुचलना। पीस डालना। ३. ध्वस्त करना। नष्ट करना। बरबाद करना। ४. मार डालना। ५. पीड़ित करना। ६. अभिभव। प्रस्फुटन। स्फुरण। जैसे,—बीज फूटकर अंकुर का प्रकट होना (सांख्य)। ७. युद्ध। लड़ाई। संघर्ष (को०)। ८. उपराग। ग्रहण (को०)। ९. एक राक्षस का नाम (को०)।
⋙ विमर्दना
संज्ञा [सं०] दे० 'विमर्दन' [को०]।
⋙ विमर्दनीय
वि० [सं०] मर्दन करने योग्य।
⋙ विमर्दित
वि० [सं०] १. मला दला हुआ। २. कुचला हुआ। ३. नष्ट किया हुआ। बरबाद किया हुआ। ४. पीड़ित। ५. अपमानित।
⋙ विमर्दिनि, पु
वि० स्त्री० [सं०] नाश करनेवाली। ध्वस्त करनेवाली। उ०—जै मधुकैटभ छलनि देवि जै महिष विमर्दिनि।—भूषण ग्रं० पृ० ३।
⋙ विमर्दिनी
वि० स्त्री० [सं०] नाश करनेवाली। वध करनेवाली।
⋙ विमर्दी
वि० [सं० विमर्दिन्] [स्त्री० विमर्दिनी] १. खूब मर्दन करनेवाला। २. कुचलनेवाला। पीसनेवाला। ३. नष्ट करनेवाला। ४. वध करनेवाला। मारनेवाला।
⋙ विमर्दोत्थ
वि० [सं०] (सुगंध आदि) जो रगड़ने से उत्पन्न हो [को०]।
⋙ विमर्श
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी तथ्य का अनुसंधान। किसी बात का विवेचन या विचार। २. आलोचना। समीक्षा। ३. पर- खने की क्रिया। परीक्षा। ४. परामर्श। सलाह। ५. असंतोष। अधीरता। ६. संकोच। संदेह (को०)। ७. ज्ञान (को०)। ८. विपरीत निर्णय (को०)। ९. पिछले शुभाशुभ कर्मों की मन के ऊपर बनी हुई भावना या वासना (को०)। १०. शिव (को०)। ११. नाटक की पाँच प्रकार की संधियों में से एक। अवमर्श संधि (को०)।
⋙ विमर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विमृष्ट, विमर्शी] १. विवेचन करना। तर्क वितर्क करना। २. आलोचना करना।
⋙ विमर्श संधि
संज्ञा स्त्री० [सं० विमर्श सन्धि] नाट्यशास्त्र के अनुसार पाँच प्रकार की संधियों में से एक। दे० 'अवमर्श संधि'।
⋙ विमर्शित
वि० [सं०] १. विचारित। विवेचित। २. आलोचित। समी- क्षित [को०]।
⋙ विमर्शी
वि० [सं० विमर्शिन्] १. विचारक। विवेचक। २. आलोचक। समीक्षक [को०]।
⋙ विमर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवेचन। विचार। २. आलोचना। समीक्षा। ३. नाटक का एक अंग जिसके अंतर्गत अपवाद, संफेट, व्यवसाय, द्रव, द्युति, शक्ति, प्रसंग, खेद, प्रतिषेध, प्ररोचना, आदान और छादन का वर्णन होता है। विशेष—दोष कथन को अपवाद, क्रोध से भरी बातचीत को संफेट, कार्य के हेतु के उद्भव को व्यवसाय, शोक आदि के वेग में गुरुजनों के आदर आदि का ध्यान न रखने को द्रव, भय- प्रदर्शन द्वारा उद्धेग उत्पन्न करने को द्युति, विरोध की शांति को शक्ति, अत्यंत गुणकीर्तन या दोषदर्शन को प्रसंग, शरीर या मन की थकावट को खेद, अभिलषित विषय में रुकावट को प्रतिषेध, कार्यध्वंस को बिरोध, प्रस्तावना के समय नट, नटी नाटक या नाटककार आदि को प्रशंसा को प्ररोचना, संहार विषय के प्रदर्शित होने को आदान, तथा कार्योद्धार के लिये अपमान आदि सह लेने को छादन कहते हैं। ४. उद्वेग। व्याकुलता। क्षोभ (को०)।
⋙ विमर्षित
वि० [सं०] अशांत। क्षुब्ध। व्याकुल। परेशान। उ०—अर्ध जीवित सा, औ' मृत सा, न हर्षित सा, न विमर्षित सा।— पल्लव, पृ० १११।
⋙ विमल (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विमला] १. निर्मल। मलरहित। स्वच्छ। साफ। जैसे, जल। २. बिना ऐब का। निर्दोष। जैसे, विमल मति। ३. रमणीय। सुंदर। मनोहर। ४. श्वेत। उज्वल। यौ०—विमलकीर्ति। विमलगर्भ। विमलदंत। विमलनिर्भास = दे० 'विमलभास'। विमलमणि। विमलमति।
⋙ विमल (२)
संज्ञा पुं० १. एक उपधातु जिसके शोधन आदि की विधि रसेंद्र- सार में लिखी है। २. चाँदी। ३. गत उत्सर्पिणी के ५वें और वर्तमान अवसर्पिणी के १३ वें अर्हत् या तीर्थंकर। (जैन)। ४, सुद्यु्म्न का पुत्र। ५. पद्मकाष्ठ। पद्म काठ। ६. सेंधा नमक। ७. चांद्र वर्ष (को०)। ८. अस्त्र संबंधी एक मंत्र (को०)। ९. एक लोक का नाम (को०)। १०. समधि का एक प्रकार (को०)। ११. सिलखड़ी। खड़िया (को०)।
⋙ विमलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नग या बहुमूल्य पत्थर [को०]।
⋙ विमलकीर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. महायान पंथ के एक बौद्ध आचार्य जिन्होंनें कई सूत्रों की रचना की है, जो उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हैं। २. वह जिसकी कीर्ति विमल हो।
⋙ विमलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निर्मलता। स्वच्छता। सफाई। २. पवित्रता। ३. शुद्धता। निर्दोषता। ४. रमणीयता। मनोहरता।
⋙ विमलदान
संज्ञा पुं० [सं०] वह दान जो नित्य नैमित्तिक और काम्य के अतिरिक्त हो और केवल ईश्वर के प्रीत्यर्थ दिया जाय। (गरुड़पुराण)।
⋙ विमलध्वनि
संज्ञा पुं० [सं०] छह चरणों का एक छंद जो एक दोहे और समान सवैया से मिलकर बनता है।
⋙ विमलनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम [को०]।
⋙ विमलप्रदीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की समाधि। २. एक बुद्ध का नाम [को०]।
⋙ विमलभास
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि [को०]।
⋙ विमलमणि
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक [को०]।
⋙ विमलमति
वि० [सं०] पवित्र अंतःकरणवाला। जिसकी मति शुद्ध हो शुद्ध बुद्धिवाला [को०]।
⋙ विमला (१)
वि० स्त्री० [सं०] निर्मल। स्वच्छ।
⋙ विमला (२)
संज्ञा स्त्री० १. सप्तला का पेड़। कोची। सातला। चर्मकषा। २. सिद्धि की दस भूमियों (अवस्थायों) में सें एक प्रकार की भूमि। ३. एक देवी का नाम जो कालिकापूराण में वासुदेव की नायिका कही गई है। ४. शारदा। सरस्वती। ५. चाँदी का मुलम्मा (को०)।
⋙ विमलाक्ष
वि० [सं०] वह घोड़ा जिसकी शरीर पर बालों की दस भौंरी हो। इस प्रकार का घोड़ा बहुत उत्तम माना जाता है [को०]।
⋙ विमलात्मक
वि० [सं०] शुद्ध। साफ। विमल [को०]।
⋙ विमलात्मा (१)
वि० [सं० विमलात्मन्] शुद्ध हृदयवाला। शुद्ध मनवाला।
⋙ विमलात्मा (२)
संज्ञा पुं० चंद्रमा।
⋙ विमलाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] गिरनार नामक पर्वत जो गुजरात में स्थित है [को०]।
⋙ विमलापति
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा। उ०—जानत हो जिय सोदर दोऊ। कै कमला विमलापति कोऊ।—केशव (शब्द०)।
⋙ विमलार्थक
वि० [सं०] विमल। निर्मल [को०]।
⋙ विमलाशोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. संन्यासियों का एक भेद। २. एक तीर्थ स्थान।
⋙ विमलीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. विमल करने की क्रिया। शुद्ध करने की क्रिया।२. सर्वदर्शनसंग्रह के अनुसार मन में विचार कर ज्योति मंत्र से तीनों मलों का नाश करना।
⋙ विमलोदका, विमलोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम।
⋙ विमांस
संज्ञा पुं० [सं०] अशुद्ध, अपवित्र या न खाने योग्य मांस। (जैसे, कुत्ते आदि का)।
⋙ विमाँन पु
संज्ञा पुं० [सं० विमान] दे० 'विमान'। उ०—परमानंद निरखि लीला थके सुर विमाँन।—पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० २३०।
⋙ विमाई †
संज्ञा स्त्री० [सं० विपादिका, हिं० बिवाई]दे० 'बिवाई'। उ०—तुम्हरे पग तो भई विमाई सो भल जानहु।—श्यामा०, पृ० १५९।
⋙ विमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० विमातृ] अपनी माता के अतिरिक्त पिता की दुसरी विवाहिता स्त्री। सौतेली माँ।
⋙ विमातृज
संज्ञा पुं० [सं०] विमाता का पुत्र। सौतेला भाई।
⋙ विमात्र, विमात्रा
वि० [सं०] जिसकी मात्रा समान न हो [को०]।
⋙ विमान
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाशमार्ग से गमन करनेवाला रथ जो देवताओं आदि के पास होता है। देवयान। जैसे, पुष्पक विमान। २. हवाई जहाज। वायुयान। उड़न खटोला (अँ० एयरोप्लेन)। ३. मरे हुए वृद्ध मनुष्य की अर्थी जो सजधज के साथ निकाली जाती है। ४. रथ। गाड़ी। ५. अश्व। घोड़ा। ६. सात खंड का मकान। सात मंजिल का घर। ७. अपमान। अनादर। ८. जलपोत। जहाज (को०)। ९. परिमाण। माप। १०. रामलीला आदि में सजाई हुई एक सवारी। ११. राज- प्रासाद (को०)। १२. एक प्रकार का बुर्ज या मीनार (को०)। १३. उपवन। वृक्षवाटिका (को०)।१४. विस्तार। फैलाव। वितति (को०)।१५. सभाभवन या कक्ष (को०)। १६. प्राचीन वास्तु विद्या के अनुसार वह देवमंदिर जो ऊपर की ओर गावदुम या पतला होता हुआ चला जाय। विशेष—'मानसार' नामक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार विमान गोल, चौपहला और अठपहला होता है। गोल को 'बेसर', चौपहले को 'नागर' और अठपहले को 'द्राविड़' कहते हैं।
⋙ विमानगति
संज्ञा पुं० [सं० विमान+ गति] देवता।—अनेकार्थ०, पृ०४१।
⋙ विमानच्छंद
संज्ञा पुं० [सं० विमानच्छन्द] प्रासाद विशेष। उ०— विमानच्छंद प्रासाद का नाम है।—बृहत्संहिता, पृ० २८२।
⋙ विमानचारी
वि० [सं० विमानचारिन्] विमान पर चलनेवाला। वायुमान से यात्रा करनेवाला [को०]।
⋙ विमानचालक
संज्ञा पुं० [सं०] विमान या वायुमान चलानेवाला।
⋙ विमानधुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] तामाजार, पालकी आदि ढोनेवाला व्यक्ति। (कहार आदि)।
⋙ विमानना
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपमान। अवमानना। तिरस्कार।
⋙ विमाननिर्व्युह
संज्ञा पुं० [सं०] एक समाधि [को०]।
⋙ विमानयान
वि० [सं०] दे० 'विमानचारी' [को०]।
⋙ विमानराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रेष्ठ व्योमयान। २. देवविमान का चालक [को०]।
⋙ विमानवाह
संज्ञा पुं० [सं०] पालकी ढोनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ विमानित
वि० [सं०] तिरस्कृत। उपेक्षित [को०]।
⋙ विमानीकृत
वि० [सं०] १. तिरस्कृत। अनादृत। २. विमान की तरह व्यवहृत। विमान बनाया हुआ [को०]।
⋙ विमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुरा रास्ता। २. कदाचार। बुरी चाल। ३. झाड़ू। कुचा।
⋙ विमार्गगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] असती या कुलटा स्त्री [को०]।
⋙ विमार्गगामी
वि० [सं० विमार्गगामिन्] कुमार्ग पर जानेवाला [को०]।
⋙ विमार्गण
संज्ञा पुं० [सं०] अन्वेषण। खोज। तलाश [को०]।
⋙ विमार्गदृष्टि
वि० [सं०] असत् पथ पर दृष्टि डालनेवाला [को०]।
⋙ विमार्गप्रस्थित
वि० [सं०] कुमार्ग की ओर प्रस्थित। विमार्गगामी। कदाचारी [को०]।
⋙ विमार्गस्थ
वि० [सं०]दे० 'विमार्गगामी' [को०]।
⋙ विमार्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पवित्र करना। शुद्ध करना। २. मार्जन करना। धोना [को०]।
⋙ विमासना पु
क्रि० स० [सं० विमर्शन, प्रा० विमस्प] विचार विमर्श करना। सोचना। सलाह मशविरा करना। उ०—राणी राय विमासियउ, तेड़इ साल्हकुमार।—ढोला०, दु० १००।
⋙ विमित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह चौकोर शाला या इमारत जो चार खभों पर टिकी हो। २. बड़ा कमरा या इमारत।
⋙ विमित (२)
वि० १. जिसकी सीमा या हद हो। परिमित। निश्चित। २. निर्मित।
⋙ विमिश्र
वि० [सं०] १. मिला हुआ। मिश्रित। २. जिसमें कई प्रकार की वस्तुओं का मेल हो। मिला जुला। ३. (मूल या धन) जो सूद के साथ मिला हो (को०)।
⋙ विमिश्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृगशिरा, आर्द्रा, मघा, और अश्लेषा नक्षत्र में बुध की गति का नाम जो ३० दिनों तक रहती है।
⋙ विमिश्रित
वि० [सं०] १. मिलाया हुआ। २. मिला जुला। विमिश्र।
⋙ विमुक्त
वि० [सं०] १. अच्छी तरह मुक्त। छुटा हुआ। जो बंधन से अलग हुआ हो। २. जिसे किसी प्रकार का प्रतिबंध या रुकावट न रह गई हो। ३. स्वच्छंद। आजाद। ४. (हानि, दंड आदि से) बचा हुआ। ५. अलग किया हुआ। बरी। ६. पकड़ से छुटकर चला हु्आ। फेंका हुआ। छोड़ा हुआ। जैसे,—विमुक्त बाण। ७. अभिव्यक्त (को०)। ८. मुक्तकंचुक। (सर्प) जिसने केचुली छोड़ी हो (को०)। ९. युक्त। सहित (को०)। १०. जो जल में उतरा गया हो। जैसे, जलपोत (को०)।
⋙ विमुक्तकंठ
वि० [सं० विमुक्तण्ठ] १. जोर से चिल्लानेवाला। २. उच्च स्वर से रोनेवाला।
⋙ विमुक्तप्रग्रह
वि० [सं०] ढीली लगामवाला या जिसकी लगाम को ढील दे दी गई हो [को०]।
⋙ विमुक्तमौन
वि० [सं०] जिसने मौन व्रत समाप्त कर दिया हो [को०]।
⋙ विमुक्तशाप
वि० [सं०] जिसे शाप से छुटकारा मिल गया हो। शाप- मुक्त [को०]।
⋙ विमुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छुटकारा। रिहाई। २. मुक्ति। मोक्ष। ३. पृथकता। अलगाव। वियोग (को०)। यौ०—विमुक्तिपथ=मुक्ति का मार्ग।
⋙ विमुख
वि० [सं०] १. मुखरहित। जिसके मुँह न हो। २. जिसने किसी बात से मुँह फेर लिया हो। जो किसी कार्य या विषय में दत्तचित न हो। जो किसी काम से हटा या अलग हो। अतत्पर। विरत। निवृत्त। जैसे,—कर्तव्य से विमूख होना। ३. जो अनुरक्त न हो। जैसे, परवाह न हो। जिसने मन न लगाया हो। उदासीन। जैसे—हरिपद विमुख। ४. जो किसी के हित के प्रतिकूल हो। जिसको स्थिति या आचरणअनुकूल न हो। विरुद्ध। खिलाफ। अप्रसन्न। जैसे,—जब ईश्वर ही विमुख है, तब क्या हो सकता है। ५. मुखरहित। छिद्ररहित। ६. जिसकी चाह या माँग पूरी न हुई हो। अप्राप्तमनोरथ। निराश। जैसे,—उनके यहाँ से कोई पाचक विमुख नहीं गया। उ०—जो ऐहै सो भोजन पैहैं। विमुख कोउ इततें नहिं जैहे।—रघुराज (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ विमुखता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी बात से दुर रहना। अतत्परता विरति। २. विपरीतता। विरोध। अप्रसन्नता।
⋙ विमुग्ध
वि० [सं०] १. मोहित। आसक्त। २. भ्रम में पड़ा हुआ। भूला हुआ। भ्रांत। ३. घबराया हुआ। डरा हुआ। ४. उन्मत्त। मतवाला। ५. पागल। बावला। ६. बेसुध।
⋙ विमुग्धक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोहनेवाला। २. एक प्रकार का छोटा अभिनय या नकल। (नाट्यशास्त्र)।
⋙ विमुग्धकर
वि० [सं०] मोहक। आनंदप्रद। उ०—रस का विवेचन जितना ही विमुग्धकर है उतना ही पांडित्यपूर्ण।—रस क०, पृ० २४।
⋙ विमुग्धकारी
संज्ञा पुं० [सं० विमुग्दकारिन्] [स्त्री० विमुग्धकारिणी] १. मोहित करनेवाला।२. भ्रम में डालनेवाला।
⋙ विमुद (१)
वि० [सं०] आनंदरहित। उदास। खिन्न। उ०—करति केलि पिय हिय लगी, कोक कलनि अवरेखि। विमुद कुमुद लौं ह्वै रही चंदु मंद दुति देखि।—पद्माकर (शब्द०)।
⋙ विमुद (२)
संज्ञा पुं० एक बड़ी संख्या का नाम।
⋙ विमुद्र
वि० [सं०] १. जो मुद्रांकित न हो। बिना मुहर का। २. विकसित। खिला हुआ। ३. अत्याधिक। प्रचुर। बहुत ज्यादा [को०]।
⋙ विमुद्रण
संज्ञा पुं० [सं०] १. खोलना। अनावृत करना। विकसित करना। खिलाना [को०]।
⋙ विमूढ़ (१)
वि० [सं० विमूढ़] [स्त्री० विमूढ़ा] १. विशेष रुप से मुग्ध। अत्यंत मोहित। २. मोहप्राप्त। भ्रम में पड़ा हुआ। चकराया हुआ। ३. बेसुध। अचेत। ४. ज्ञानरहित। जिसे समझ न पड़ता हो। जैसे—किंकर्तव्यविमूढ़। ५. बहुत मूर्ख। जड़बुद्धि। नादान। नासमझ। ६. चतुर। बुद्धिमान् (को०)।
⋙ विमूढ़ (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार की संगीत कला।२. एक देव- योनि (को०)।
⋙ विमूढ़क
संज्ञा पुं० [सं० विमूढक] एक प्रकार का प्रहसन [को०]।
⋙ विमूढ़गर्भ
संज्ञा पुं० [सं० विमूढगर्भ] वह गर्भ जिसमें बच्चा मरा या बेहोश हो और प्रसव में बड़ी कठिनता हो।
⋙ विमूढ़चेता
वि० [सं० विमूढ़चेतस्] १. हतबुद्धि। अज्ञ। मूर्ख [को०]।
⋙ विमूढ़धी
वि० [सं० विमूढधी]दे० 'विमूढ़चेता' [को०]।
⋙ विमूढ़भाव
संज्ञा पुं० [सं० विमूढ़भाव] विमूढ़ होने की स्थिति [को०]।
⋙ विमूढ़संज्ञ
वि० [सं० विमूढ़संज्ञ] विभ्रमित। घबराया हुआ। व्याकुल [को०]।
⋙ विमूढ़ात्मा
वि० [सं० विमूढ़ात्मन]दे० 'विमूढ़संज्ञ' [को०]।
⋙ विमूर्छित (१)
वि० [सं०] बेहोश या अचेत पड़ा हुआ। उ०—दीर्घकाल से सुप्त और विमूर्छित राष्ट्र में नवचेतना के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे।—हि० आं० प्र०, पृ० ३३।२. भरा हुआ। पूर्णा (को०)।३. जो जमकर गाढ़ा हो गया हो (को०)।
⋙ विमूर्छित (२)
संज्ञा पुं० मूर्छा। बेहोशी। गश [को०]।
⋙ विमूर्छन
वि० [सं० विमूर्छन] बेहोश करनेवाला। उ०—सामर्थ्य दर्प से उन्मद, मैने जब तुझे पुकारा। किस ओर से बही उच्छल, यह दीप्त विमूर्छन धारा।—विश्वप्रिया, पृ० २२।
⋙ विमूर्त
वि० [सं०] जमा हुआ। ठोस [को०]।
⋙ विमूर्ध, विमूर्धज
वि० [सं०] गंजा। खल्वाट [को०]।
⋙ विमूल
वि० [सं०] १. मूलरहित। विना जड़ का। २. मूल से रहित। उच्छिन्न। निर्मूल। ३. बरबाद। नष्ट। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ विमूलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. जड़ से उखाड़ना। उन्मूलन। २. विनाश। ध्वंस।
⋙ विमृग
वि० [सं०] मृगरहित। जिसमें हिरन न हो। जैसे, जंगल [को०]।
⋙ विमृत्यु
वि० [सं०] जिसकी मृत्यु न हो। अमर [को०]।
⋙ विमृदित
वि० [सं०] मसला हुआ [को०]।
⋙ विमृश
संज्ञा पुं० [सं०] चिंता। विमर्श। विचार [को०]।
⋙ विमृशित
वि० [सं०] विचारित। चिंतित [को०]।
⋙ विमृश्य (१)
वि० [सं०] १. विवेचन के योग्य। आलोचना या समीक्षा के योग्य। २. जिसपर विवेचना या विचार करना हो। जिसकी समीक्षा करनी हो।
⋙ विमृश्य (२)
क्रि० वि० विचारोपरांत। विचार करके। विचार विमर्श के अनंतर [को०]।
⋙ विमृश्यकारी
वि० [सं० विमृश्यकारिन्] [वि० स्त्री०विमृश्यकारिणी] सोच विचारकर कार्य करनेवाला। विचारपूर्वक काम करनेवाला [को०]।
⋙ विमृष्ट (१)
वि० [सं०] जिसपर तर्क वितर्क या सम्यक् विचार हुआ हो। २. जिसकी पूरी आलोचना या समीक्षा हुई हो। ३. परिच्छन्न। ४. मर्दित। मला हुआ। रगड़ हुआ (को०)।
⋙ विमृष्ट (२)
संज्ञा पुं० चिंतन। विचार [को०]।
⋙ विमोक (१)
वि० [सं०] १. मलरहित। रागरहित। दुर्वासनारहित। (जैन)। २. ऊपरी आवरणरहित।३. साफ। स्पष्ट।
⋙ विमोक (२)
संज्ञा पुं० १. मुक्ति। छुटकारा। रिहाई। २. मुक्त करने, छोड़ने या खोलने की क्रिया।
⋙ विमोक्ता
संज्ञा पुं० [सं० विमोक्तृ] मुक्त करनेवाला। छुड़ानेवाला।
⋙ विमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. बंधन गाँठ आदि का खुलना। २. छुटकारा। मुक्ति। रिहाई। ३. जन्म मरण के बंधन से छुटना। आवगमन से छुट्टी पाना। मुक्ति। निर्वाण। ४. सूर्य या चंद्रमा का ग्रहण से छुटना। ग्रहण का हटना। उग्रह ५. किसी वस्तुका पकड़ से इस प्रकार छुटना कि वह दुर जा पड़े। प्रक्षेपण। ६. मेरु पर्वत का एक नाम। ७. दान। उपहार (को०)।
⋙ विमोक्षक
वि० [सं०] मुक्त करने या बंधन से छुड़ानेवाला [को०]।
⋙ विमोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० विमोक्षणा] १. बंधन आदि खोलना। २. मुक्त करना। रिहा करना। ३. हाथ से छोड़ना जिसमें कोई वस्तु दुर जा पड़े। प्रक्षेपण। ४. अंडे देना (को०)।
⋙ विमोक्षी
वि० [सं० विमोक्षिन्] मोक्षप्राप्त। मुक्ति पानेवाला [को०]।
⋙ विमोघ
वि० [सं०] १. व्यर्थ न होनेवाला। न चुकनेवाला। खाली न जानेवाला। अमोघ। २. व्यर्थ। बेकार। निष्फल (को०)।
⋙ विमोचक
वि० [सं०] १. मुक्त करनेवाला। छुड़ानेवाला। २. बंधन खोलनेवाला। ३. गिरानेवाला। छोड़नेवाला। डालनेवाला।
⋙ विमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विमोचनीय, विमोचित, विमोच्य] १. बंधन, गाँठ आदि खोलना। २. बंधन से छुड़ाना। मुक्त करना। रिहा करना। ३. गाड़ी से बैल आदि को खोलना। ४. निकालना। बाहर करना। जैसे,—अश्रुविमोचन। ५. इस प्रकार अलग करना कि कोई वस्तु दुर जा पड़े। छोड़ना। फेंकना। जैसे,—धनुष से बाण। ६. गिराना। ढालना। ७. शिव का एक नाम (को०)।
⋙ विमोचना पु
क्रि० स० [सं० विमोचन] १. बंधन आदि खोलना। २. छुटकारा देना। रिहा करना। मुक्त करना। छोड़ना। ३. गिराना। टपकना। ४. निकालना। बाहर करना। उ०— जब तें परदेश सिधारे पिया अँसुआ आँखियानि विमोचति सी।—बेनीप्रवीन (शब्द०)।
⋙ विमोचनीय
वि० [सं०] विमोचन को योग्य। छोड़ने के योग्य। मुक्त करने योग्य।
⋙ विमोचित (१)
वि० [सं०] १. खुला हुआ। जो बँधा न हो। २. जो छोड़ दिया गया हो। मुक्त किया हुआ।
⋙ विमोचित (२)
संज्ञा पुं० शिव का एक नाम [को०]।
⋙ विमोचितावास
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार ऐसे स्थान में निवास करना जिसे किसी ने रहने के अयोग्य समझकर छोड़ दिया हो।
⋙ विमोच्य
वि० [सं०] १. छोड़ने योग्य। मुक्त करने योग्य। २. जिसे छोंड़ना, खोलना या मुक्त करना हो।
⋙ विमोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोह। अज्ञान। भ्रम। भ्रांति। उ०— मन वसुदेव विमोह केस से। मोचक माधव दुविद ध्वंस से।— रघुराज (शब्द०)। २. बेसुध होना। अचेत होना। आसाक्ति। ३. एक नरक का नाम।
⋙ विमोहक
वि० संज्ञा पुं० [सं०] १. मोहनेवाला। लुभावना। २. मन में लोभ उत्पन्न करनेवाला। ललचानेवाला। ३. ज्ञान या सुध हरनेवाला।
⋙ विमोहक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग जो हिंडोल राग का पुत्र माना जाता है।
⋙ विमोहन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विमोहित, विमोही] १. मोहित करना। मन लुभाना। मुग्ध करना। २. दुसरे का मन वश में करना। ३. सुध बुध भुलाना। ऐसा प्रभाव डालना कि चित्त- ठिकाने न रहे। मतिभ्रंश करना। ४. कामदेव के पाँच बाणों में से एक। ५. एक नरक का नाम। ६. भ्रम। चक्कर (को०)।
⋙ विमोहनशील
वि० [सं० विमोहन+ शील] [वि० स्त्री० विमोहनशीला] १. भ्रमकारी। धोखा देनेवाला। चक्कर में डालनेवाला। भ्रांत करनेवाला। उ०—गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज विमोहनशील।—तुलसी (शब्द०)। २. मोहित करनेवाला। लुभानेवाला।
⋙ विमोहना पु (१)
क्रि० अ० [सं० विमोहन] मोहित होना। लुभा जाना। आसक्त होना। उ०—एक न्यन कवि मुहमद गुनी। सोइ विमोहा जो कवि सुनी।—जायसी (शब्द०)। २. बेसुध होना। तन मन की सुध न रकना। भ्रांत होना। धोखा खाना।
⋙ विमोहना (२)
क्रि० स० १. मोहित करना। लुभाना। २. ऐसा प्रभाव डालना कि तन मन की सुधि न रहे। बेसुध करना। ३. भ्रांति में करना। धोखे में डालना। ४. वशीभूत करना (को०)।
⋙ विमोहा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक छंद जिसके चरण में दो रगण (/?/)होते हैं। इसे 'जोहा', 'विजोहा' और 'विज्जोहा' भी कहते हैं। विशेष दे० 'विजोहा'।
⋙ विमोहित
वि० [सं०] १. लुभाया हुआ। मुग्ध। उ०—तुम अस बहुत विमोहित भए। धुन धुन सीस जीव दै गए।—(शब्द०)। २. तन मन की सुध भूला हुआ। ३. मूर्छित। उ०—यह सुनना न पड़े सोई अच्छा है और यही कहते कहते वह विमोहित हो गई।—कादंबरी (शब्द०)।४. वशीकृत (को०)।
⋙ विमोही
वि० [सं० बिमोहिन्] [वि० स्त्री० विमोहिनी] १. मोहित करनेवाला। जो लुभानेवाला। मन आकर्षित करनेवाला। २. सुध बुध भूलानेवाला। ऐसा प्रभाव डालनेवाला कि तन मन की सुध न रहे। ३. मूर्छित या बेहोश करनेवाला। ४. भ्रम में डालनेवाला। भ्रांत करनेवाला। ५. जिसे मोह या दया न हो। जिसे ममता या स्नेह न हो । निष्ठुर। कठोरहृदय। उ०—जिउ गँवाइ सो गएउ विमोही। भा विनु जिन, जिउ दीन्हेसी ओही।—जायसी (शब्द०)।
⋙ विमौट
संज्ञा पुं० [सं० वल्मीक, प्रा० बम्बी+औट (प्रत्य०)] दीमकों का उठाया हुआ मिट्टी का ढूह। बाँबी। उ०—गोहर ह्वै तुम पूरब जनमा। बसे विमौट एक कहँ बन माँ।—रघुराज (शब्द०)।
⋙ विम्लान
वि० [सं०] १. मुरझाया हुआ। विवर्ण। शुष्क। २. ताजा। हरा भरा [को०]।
⋙ विम्लापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताजगी। अम्लानता। २. विशुद्धि। परिष्कृति। ३. म्लान करनेवाला। मुरझा देनेवाला [को०]।
⋙ वियंग पु
संज्ञा पुं० [हिं० विय+ अंग] दो अंगवाले, महादेव। उ०—करहि वियंगा आलिंगन। तेहि चंद्रहि कबहूँ सालिंगन।—शं०, दि० (शब्द०)।
⋙ वियंता
वि० [सं० वियन्तृ] १. जिसका कोई निर्यता न हो। निया- मकरहिन। २. सारथिहीन [को०]।
⋙ विय पु
वि० [सं० द्वि, द्वितीय, प्रा० विय] १. दो। जोड़ा। २. दूसरा। उ०—कहत सबै कवि कमल से, मो मत नैन पखान। नातरु कता इनि विय लगत उपजत विरह कृशान।—बिहारी (शब्द०)।
⋙ वियच्चारी
संज्ञा पुं० [सं० वियतचारिन्] चील पक्षी [को०]।
⋙ वियत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश। २. वायुमंडल।
⋙ वियत् (२)
वि० गमनशील।
⋙ वियत् पताका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्युत्। बिजली।
⋙ वियत्पथ
संज्ञा पुं० [सं०] आकाशमार्ग। वायुमंडल [को०]।
⋙ वियति
संज्ञा पुं० [सं०] १. भागवत के अनुसार नहुष राजा के एक पुत्र का नाम। २. चिड़िया। पक्षी (को०)।
⋙ वियद् गंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० वियदगङ्गा] आकाशगंगा।
⋙ वियदगति
वि० [सं०] आकाशचारा [को०]।
⋙ वियद्ध पु
संज्ञा पुं० [सं० वियत्]दे० 'वियत्'। उ०—उठति एहि हल्लिता। वियद्ध चंद्र चल्लिता।—पृ०, रा०, २५।१३१।
⋙ वियद्व्यापी
वि० [सं० वियत्+ व्यापिन्] आकाशव्यापी। उ०— शब्द वियद्व्यापी सत्ता है।—संपूर्णनिंद अभि० ग्रं०, पृ० ११२।
⋙ वियद्भूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अँधेरा। अंधकार [को०]।
⋙ वियन्मणि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।
⋙ वियन्मध्यहंस
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।
⋙ वियम
संज्ञा पुं० [सं०] १. संयम। इंद्रियदमन। २. दुःख। क्लेश। यातना। ३. प्रतिबंध। रोक। नियंत्रण (को०)। ४. विराम। पड़ाव (को०)।
⋙ वियव
संज्ञा पुं० [सं०] आँत में उत्पन्न होनेवाला एक प्रकार का कीड़ा [को०]।
⋙ वियात
वि० [सं०] १. रास्ते से भटका हुआ। पथभ्रष्ट। २. गया गुजरा। गया बीता। ३. ढीठ। हिम्मती। धृष्ट (को०)। ४. निर्लज्ज। बेहया। ५. दुश्चरित्र। व्यसनी (को०)।
⋙ वियान
संज्ञा पुं० [सं० व्यान] शरीरस्थ एक वायु का नाम। दे० 'व्यान'। उ०—पाँचई बानी सिंगन लेखा। वियान ध्यान सो कीन्ह विवेखा।—कबीर सा०, पृ० ८८०।
⋙ वियाम
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रियनिग्रह। संयम। २. दे० 'वियम' (को०)। ३. एक प्रकार की नाप जो विस्तृत दोनों भूजाओं की लंबाई के बराबर कही गई है (को०)।
⋙ वियास
क्रि० अ० [सं० व्यास] १. विस्तृत होना। बढ़ना। फैलना। २. उगना। हरा भरा होना। उ०—मन वच कर्म लगाय संत की सेवा लावै। उकठा काठ वियास साच जो दिल में आवै।—पलटु०, पृ० १०४।
⋙ वियुक्त
वि० [सं०] १. जो संयुक्त न हो। जिसकी जुदाई हो गई हो। विछुड़ा हुआ। वियोगप्राप्त। २. जुदा। अलग। पृथक्। ३. रहित। हीन। वंचित। ४. अभावग्रस्त (को०)।
⋙ वियुत
वि० [सं०] १. वियुक्त। अलग। २. रहित। हीन।
⋙ वियुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गणित में दो राशियों का अंतर [को०]।
⋙ वियूथ
वि० [सं०] जो अपने दल से हो गया हो। यूथभ्रष्ट [को०]।
⋙ वियो पु
वि० [सं० द्वितीय, प्रा० वीय] दूसरा। अन्य। उ०—ज्ञान स्मारत पक्ष को वाहिन कोउ खंडन वियो।—नाभादास। (शब्द०)।
⋙ वियोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. संयोग का अभाव। मिलाप का न होना। विच्छेद। २. पृथक् होने का भाव। अलगाव। ३. दो प्रेमियों का एक दूसरे से अलग होना। विरह। जुदाई। विशेष—साहित्य में शृंगार रस दो प्रकार का माना गया है— संयोग शृंगार (या संभोग शृंगार) और वियोग शृंगार (या विप्रलंभ शृंगार)। वियोग की दशा तीन प्रकार की होती है—पूर्वराग, मान और प्रवास। ४. गणित में राशि का व्यकलन। ५. अभाव। हानि (को०)।
⋙ वियोगभाक्
वि० [सं० वियोगभाज्] वियोगी। विरही [को०]।
⋙ वियोगांत
वि० [सं० वियोगान्त] (उपन्यास, नाटक या कथा आदि) जिसकी कथा का अंत दुःखपूर्ण हो। विशेष—आधुनिक नामक दो प्रकार के माने जाते हैं—सुखांत और दुःखात। इन्हीं का कुछ लोग संयोगांत और वियोगांत भी कहते है। भारतवर्ष में संयोगांत या सुखांत नाटक लिखने की ही चाल पाई जाती है; दुःखांत का निषेध ही मिलता है । पर पूर्वकाल में दुःखांत नाटक भी लिखे जाते थे, इसका आभास कालिदास के पूर्ववर्ती महाकवि भास के नाटकों से मिलता है।
⋙ वियोगावसान
वि० [सं०] जिसका अंत वियोग हो [को०]।
⋙ वियोगावह
वि० [सं०] वियोगजनक। वियोग करने या देनेवाला [को०]।
⋙ वियोगिन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वियोगिनी] दे० 'वियोगिनी'।
⋙ वियोगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो अपने पति या प्रिय से वियुक्त हो। जो अपने प्यारे से बिछूड़ी हुई हो। वह स्त्री जिसका पति या नायक पास में न हो और जो उसके न रहने से दुःखी हो। २. एक प्रकार का छंद। विशेष—इसे वैतालीय और सुंदरी भी कहते हैं। इसके विषम चरणों में स स ज ग और सम चरणों में स भ र ल ग होते हैं।
⋙ वियोगी (१)
वि० [सं० वियोगिन्] [वि० स्त्री० वियोगिनी] जो प्रिया से वियुक्त हो। जो प्रियतमा से बिछुड़ा हो। विरही। २. पृथक् किया हुआ। जुदा किया हुआ (को०)। ३. अनुपस्थित (को०)।
⋙ वियोगी (२)
संज्ञा पुं० १. वियोगी पुरुष।२. चक्रवाक। चकवा।
⋙ वियोजक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अलग करनेवाला। दो मिली हुई वस्तुओं को पृथक् करनेवाला। २. गणित में वह संख्या जिसे किसी दुसरी बड़ी संख्या में से घटाना हो।
⋙ वियोजन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वियोजनीय, वियोजित, वियोज्य] १. मिली हुई वस्तुओं को अलग करना। जुदा करना। पृथक् करना। २. गणित में एक संख्या में से उससे कुछ छोटी दुसरी संख्या निकालने या घटाने की क्रिया। बाकी।
⋙ वियोजित
वि० [सं०] १. पृथक् किया हुआ। अगल किया हुआ। २. रहित। शून्य।
⋙ वियोज्य (१)
वि० [सं०] १. वियोजन के योग्य। पृथक् करने योग्य। २. जिसे अलग करना हो। जिसे जुदा करना हो।
⋙ वियोज्य (२)
संज्ञा पुं० गणित में वह संख्या जिसमें से कोई संख्या घटानी हो।
⋙ वियोनि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनेक जन्म। बहु जन्म। नाना जन्म। २. पशुओं का गर्भाशय। ३. हीन जन्म। निकृष्ट या कलंकपूर्ण पैदाइश।४. अन्य जातीय स्त्री। विजातीय महिला [को०]।
⋙ वियोनि (२)
वि० १. हीनजन्मा। जारज। २. हीन या तिर्यक् योनिवाला [को०]।
⋙ वियोनिज
वि० [सं०] जो तिर्यक् योनि से उत्पन्न हो (पक्षी, पशु आदि) [को०]।
⋙ वियोनी
संज्ञा स्त्री, वि० [सं० वियोगिनी]दे० 'वियोनि'।
⋙ विरंग (३)
वि० [सं० विरङ्ग] १. बुरे रंग का। बदरंग। विवर्ण। फीका। उ०—क्वैला करी काकिल कुरंग बार कोर कोर कुढ़ि कुढ़ि केहरि कलंक लंक हदली। जरि जरि जंबुनद विद्रुम विरंग होत, अंग फारि दाडिम त्वचा भूजंग बदली।—(शब्द०)। २. अनेक रंगोंका। कई वर्णों का। यौ०—रंग बिरग, रंग बिरंगा।
⋙ विरंग (२)
संज्ञा पुं० कंकुष्ठ। एक प्रकार की पहाड़ी मिट्टी। विशेष दे० 'कंकुष्ठ'।
⋙ विरंग (३)
संज्ञा पुं० [सं०विराग] वैराग्य। विराग। विरक्ति।
⋙ विरंग काबूली
संज्ञा पुं० [फा०] बायविडंग। भाभीरंग।
⋙ विरंच
संज्ञा पुं० [सं० विरञ्च] ब्रह्मा।
⋙ विरंचन
संज्ञा पुं० [सं० विरञ्चन] ब्रह्मा। विधाता [को०]।
⋙ विरंचि
संज्ञा पुं० [सं० विरच्चि] सृष्टि रचनेवाला, ब्रह्मा। विधाता। उ०—संचि विरंचि निकाई मनोहर लाजाति मूरतिवंत बनाई। तापर तो बड़ भाग बड़े मतिराम लसैं पति प्रीति सुहाई।— मतिराम (शब्द०)।
⋙ विरंचिसुत
संज्ञा पुं० [सं० विरच्चि+ सूत] ब्रह्मा के पुत्र, नारद। उ०—सुनि विरंचिसूत अति हरषाए। कहत सुनहु जो चहत सुहाए।—गोपाल (शब्द०)।
⋙ विरंच्य
संज्ञा पुं० [सं० विरञ्च्य़] ब्रह्मा [को०]।
⋙ विरंज फूल
संज्ञा पुं० [हिं० बिरंज+ फूल] एक प्रकार का धान या जड़हन।
⋙ विरंजित
वि० [सं० विरञ्जित] विगतानुराग। जिसका प्रेम मंद पड़ गया हो [को०]।
⋙ विरकत पु् †
वि० [सं० विरक्त]दे० 'विरक्त'। उ०—जन रामा विरक्त सोई चौथे पद विश्राम जी।—राम० धर्म, पृ० ६८।
⋙ विरक्त (१)
वि० [सं०] १. जो अनुरक्त न हो। जिसका जो हटा हो। जिसे चाह न हो। विमुख। जैसे,—ऐसी बातों से वे सदा विरक्त रहते हैं। २. जो कुछ प्रयोजन न रखता हो। उदा- सीन। ३. अप्रसन्न। खिन्न। जैसे,—उनकी बातें सुनकर वे और भी विरक्त हो गए। ४. अत्यंत लाल रंग का (को०)। ५. बदरँग (को०)। ६. आविष्ट। आसक्त। आवेशयुक्त (को०)।
⋙ विरक्त (२)
संज्ञा पुं० ऐसे बाजे जो केवल ताल देने के काम में आते हैं।
⋙ विरक्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुराग का अभाव। विरक्त होने का भाव। २. उदासीनता।
⋙ विरक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भाग्यहीन या खिन्न स्त्री। दुखियारी औरत। २. अननुकुला स्त्री [को०]।
⋙ विरक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुराग का अभाव। चाह का न होना। जी का हटा रहना। विराग। विमुखता। २. उदासी- नता। ३. अप्रसन्नता। खिन्नता।
⋙ विरचन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विरचनीय विरचित] १. प्रणयन। निर्माण। बनाना। २. क्रमपूर्वक रचना या बनाना (को०)। ३. धारण करना (को०)।
⋙ विरचना पु (१)
क्रि० स० [सं० विरचन] १. रचना। बनाना। निर्माण करना। २. अलंकृत करना। सजाना।
⋙ विरचना (२)
क्रि० अ० [सं० वि०+ रञ्जन] विरक्त होना। जी का हटना। उचटना। उ०—विरचि मन पेरि राच्यो जाइ।— सुर० (शब्द०)।
⋙ विरचयिता
संज्ञा पुं० [सं० विरचयितृ] रचनेवाला। बनानेवाला।
⋙ विरचित
वि० [सं०] १. बनाया हुआ। निर्मित। २. रचा हुआ। जैसे,—कालिदास विरचित शकुंतला नाटक। ३. घटित किया हुआ। सरंचित। खचित। जटित (को०)। ४. सँवारा हुआ। अलंकृत (को०)। ५. धारण किया हुआ। पहनाया हुआ (को०)।
⋙ विरछ पु
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष]दे० 'वृक्ष'। उ०—अरणव सांते उदर, विरछ रोमांच विचालें।—रघु० रुं०, पृ० ४४।
⋙ विरज (१)
वि० [सं० विरजस्] १. रजोगुणरहित। सुख, वासना आदि से मुक्त। २. जिसपर धुल या गर्द न हो। निर्मल। स्वच्छ। साफ। ३. निर्दोष। बेऐब। ४. (स्त्री) जिसका रजोधर्म बंद हो गया हो।
⋙ विरज (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु। २. शिव। ३. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ४. वसिठ के एक पुत्र का नाम (को०)। ५. एक ऋषि (को०)।
⋙ विरजतमा
वि० [सं० विजतमस्] जो रजोगुण और तमोगुण से रहित हो [को०]।
⋙ विरजप्रभ
संज्ञा पुं० [सं०] एख बुद्ध का नाम।
⋙ विरजमंडल
संज्ञा पुं० [सं० विरजमण्डल] एक तीर्थ जो उड़ीसा में जाजपुर के पास माना गया है। यहाँ देवी की महाजया नामक मूर्ति है। (प्रभास खंड)।
⋙ विरजस्क
वि० [सं०] दे० 'विरज' को०।
⋙ विरजस्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका मासिक धर्म रुक गया हो [को०]।
⋙ विरजा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कपित्थानी का पौधा जिसकी पत्तियाँ कैथ की पत्तियों के समान होती हैं। २. श्रीकृष्ण की एक प्रेमिका सखी जिसने राधा के भय से नदी का रूप धारण कर लिया था। विशेष—इसकी कथा ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में दी हुई है। गोलोक में एक बार कृष्ण जी राधा को न देखकर विरजा नाम की एक गोपी के पास चले गए। खबर पाते ही राधा दौड़ी। श्रीकृष्ण तो अंतर्धान हो गए; और विरजा बेचारी डर के मारे नदी हो गई। जब कृष्ण इसके विरह में बहुत व्याकुल हुए, तब इसने फिर अपना पूर्व रुप धारण कर लिया। ३. दूब। दूर्वा (को०)। ४. राजा नहूष की पत्नी (को०)। ५. जगन्नाथ क्षेत्र (को०)।
⋙ विरजा (२)
वि० [सं० विरजस्]दे० 'विरज'।
⋙ विरजा (३)
संज्ञा स्त्री० गतार्तवा स्त्री। वह स्त्री जिसका मासिक धर्म बंद हो गया है।
⋙ विरजाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कडेयपुराण के अनुसार एक पर्वत जो मेरु के उत्तर ओर है।
⋙ विरजाक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] उड़ीसा में एक तीर्थ स्थान जो जाजपुर के पास माना जाता है। विरज मंडल।
⋙ विरझ पु
संज्ञा पुं० [देश०] समूह। उ०—नंद० ग्रं०, पृ०११४।
⋙ विरट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंधा। २. अगरु। अगर वृक्ष।
⋙ विरण
संज्ञा पुं० [सं०] बरिन नाम की घास।
⋙ विरण्य
वि० [सं०] विस्तृत। विस्तीर्ण [को०]।
⋙ विरतंत पु
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तान्त] वृत्तांत। हाल। कथा। उ०— ढोल्यु मनि आरति हुई सांभलि ए विरतंत। जे दिन मारु विण गया, दई न ग्याँव गिणंत।—ढोला०, दु० २०८।
⋙ विरत
वि० [सं०] १. जो अनुरक्त न हो। जिसे चाह न हो। जिसका मन हटा हो। विमुख। जैसे,—स्त्री या भोग विलास से विरत होना। २. जो लगा हुआ न हो। जिसने अपना हाथ हटा लिया हो। निवृत्त। जैसे,—किसी कार्य से विरत होना। ३. जिसने सांसारिक विषयों से अपना मन हटा लिया हो। विरक्त। वैरागी। ४. विशेष रुप से रत। बहुत लीन। बिल्कुल लगा हुआ। उ०—कहूँ गनक गनत, जोगी जपत जंत्र मंत्र मन विरत नित।—गुमान। (शब्द०)। ५.जिसका अंत समाप्ति हो गई हो। समाप्त। उपपंहृत (को०)। ६. विश्रांत। थका या ठहरा हुआ (को०)।
⋙ विरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुराग का अभाव। चाह का न होना। २. जी का उचटना। उदासीनता। ३. सांसारिक विषयों से जी का हटाना। वैराग्य। उ०—जोग तें विरति, विरति ते ज्ञाना।—तुलसी (शब्द०)। ४. विश्राम। अवसान। मति (को०)।
⋙ विरत्त पु
वि० [सं० विरक्त, प्रा० विरक्त] विरत। अप्रसन्न। उ०— साह विरतो मारवाँ ग्राह जही गज वार। जठै सदरसण चक्र ज्याँ रिणमल्लाँ पणधार।—रा० रु०, पृ० ७०।
⋙ विरथ
वि० [सं०] १. बिना रथ का। जिसके पास रथ या सवारी न हो। उ०—रावण रथी विरथ रघुबीरा।—तुलसी (शब्द०)। २. रथ से गिरा हुआ। ३. पैदल।
⋙ विरथीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध में रथ नष्ट करके शत्रु को रथहीन करना।
⋙ विरथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।
⋙ विरथ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुमार्ग। खराब राह। २. उपमार्ग। गली। लेन [को०]।
⋙ विरद (१)
संज्ञा पुं० [सं० विरुद] १. बड़ा नाम। लंबा चौड़ा या सुंदर नाम।२. ख्याति। प्रसिद्धि। उ०—बड़े न हुजै गुनन बिनु विरद बड़ाई पाय। कहत धतूरा को कनक गहनों गढ़्यो न जाय।—बिहारी (शब्द०)। ३. यश। कीर्ति। विशेष दे० 'विरुद'।
⋙ विरद (२)
वि० [सं०] बिना दाँत का।
⋙ विरदावली
संज्ञा स्त्री० [सं० विरुदावली] यश की कथा। कीर्ति की कथा। प्रशंसा के गीत।
⋙ विरदैत पु
वि० [हिं० बिरद+ ऐत (प्रत्य०)] बडे़ विरदवाला। कीर्ति या यशवाला। बड़े नामवाला।
⋙ विरध पु †
वि० [सं वृद्ध]दे० 'वृदध'। उ०—विरध भया कफ वाय ने घेरा। खाट पड़ा नहिं जाय खिमका रे।—कबीर श०, पृ० २९।
⋙ विरम
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यास्त। २. समाप्ति। अंत। ३. निवृत्ति। त्याग [को०]।
⋙ विरमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. विराम करना। रुकना। ठहरना। थमना।२. रम जाना। मन लगाना। ३. संभोग। विलास। ४. विरत होना। निवृत होना। त्याग। जैसे,—अदत्तदान- विरमण। (जैन)।
⋙ विरमना (१)पु
क्रि० अ० [सं० विरमण] १. रम जाना। मन लगाना। अनुरक्त हो जाना। २. विराम करना। ठहरना। रुकना। ३. मोहित होकर रुक जाना। उ०—सूरदास कित विरमि रहे प्रभु आवत नाहिं चले।—सुर (शब्द०)। ४. वेग आदि का थमना या कम होना।उ०—विरमैं नहिं जताए बिन, जगजीवन की अहै रीति यही। करै जाहिर जीभ सो लाज लगै जो अकाज न आज फिरै उमही।—(शब्द०)।
⋙ विरमना (२)
क्रि० अ० [सं० विलम्बन अथवा सं० विरम से हिं० नामिक धातु] दे० 'बिलंबना'।
⋙ विरमाना पु (१)
क्रि० स० [हिं० विरमना का सक० रुप] १. दुसरे का मन लगाना। अनुकक्त करना। २. मोहित करके रोक लेना। फँसाना। उ०—उत कुबजा विरमायो श्यामहि, इत यह दशा भई।—सूर (शब्द०)। ३. फैसा रखना। मशगूल रखना। उ०—देति न लेति कछू हँसिकै बड़ी बैर लौं बातन ही विरमावति।—(शब्द०)। ४. भुलावे में रखना। भ्रम में डाले रखना।
⋙ विरमाना (२)
क्रि० स० [सं० बिलम्बन]दे० 'विलंबाना'।
⋙ विरर
वि० [सं० विरल]दे० 'विरल'। उ०—विरर चिकुर मुख चुंव सनेही।—कबीर सा०, पृ० १५९७।
⋙ विरल (१)
वि० [सं०] १. जो घना न हो। जिसके बीच बीच में अवकाश हो। जिसके बीच बीच में खाली जगह हो। 'सघन' का उलटा। जैसे,—आगे चलकर यह बन विरल होता गया है। २. जो पास पास न हो। जो दुर दुर पर हो। ३. जो अधिकता से न मिले। जो केवल कहीं कहीं पाया जाय। दुर्लभ। जैसे,—ऐसे लोग संसार में बहुत बिरल हैं। ४. जो गाढ़ा न हो। पतला। ढीला। ५. शून्य। निर्जन। ६. अल्प। थोड़ा।
⋙ विरल (१)
संज्ञा पुं० जमाया हुआ दुध। दही।
⋙ विरल (३)
अव्य० कठिनाई से। कभी कभी।
⋙ विरलजानुक
वि० [सं०] जिसके दोनों घुटनों में अधिक दुरी हो। जिसके घुटने आपस में मिल न सकें। धनुःपदी [को०]।
⋙ विरलद्रवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लपसी [को०]।
⋙ विरलपातक
वि० [सं०] जो बहुत कम पाप करे [को०]।
⋙ विरलपार्श्वंग
वि० [सं०] जो कम अनुचर या सेवक रखता हो [को०]।
⋙ विरलभक्ति
वि० [सं०] जिसमें विविधता न हो। एक समान। नीरस। उबानेवाला [को०]।
⋙ विरला
वि० [सं० विरल] कोई एक। इक्का दुक्का। दे० 'बिरला'। उ०—चित्र खींचती थी जब चपला। नीलमेघ पट पर वह विरला।—लहर, पृ० २६।
⋙ विरलागत
वि० [सं०] जो शायद हो कभी घटित होने। विरल रुप में आनेवाला [को०]।
⋙ विरलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का झीना या महीन वस्त्र।
⋙ विरलित
वि० [सं०] जो सघन न हो [को०]।
⋙ विरलीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] सघन को विरल करना।
⋙ विरव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अनेक प्रकार के शब्द।
⋙ विरव (२)
वि० शब्दरहित। नीरव।
⋙ विरश्मि
वि० [सं०] रशिम या किरणों से रहित [को०]।
⋙ विरष पु
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष] दे० 'वृक्ष'। उ०—भएँ विरष पुनि हात न आवै। जो बल करै सोई दुख पावै।—चित्रा०, पृ० ५२।
⋙ विरस (१)
वि० [सं०] १. रसहीन। फीका। नीरस। बिना स्वाद का। उ०—जल पय सरिस, बिकाय, देखहु प्रीति की रीति यह। विरस तुरत ह्वै जाय, कपट खटाई परत ही।—तुलसी (शब्द०)। २. जो अच्छा न लगे। विरक्तिजनक। जो हटानेवाला। अप्रिय। अरुचिकर। उ०—चहुँटो चिबुक चाँपि चूँबि लोल लोयन कौ, रस में विरस कलो वचन मलीनो है । गहि भरि लीनो कछू उत्तर न बाल दीनी हाल से हवाल राउ अंक भरि लीनो है।—सूदन (शब्द०)। ३. (काव्य) जो रस- हीन हो गया हो। जिसमें रस का निर्वाह न हो सका हो। ४. क्रुर। निर्दय (को०)।
⋙ विरस (२)
संज्ञा पुं० १. काव्य में रसभंग। विशेष—केशव ने इसे 'अनरस' के पाँच भेदों में से एक माना है। २. पीड़ा। वेदना (को०)।
⋙ विरसता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नीरसता। फीकापन। २. रसभंग। मजा किरकिरा होना।
⋙ विरसा
संज्ञा स्त्री० [अ०] मीरास। मृतक की संपत्ति। मरे हुए आदमी की जायदाद [को०]।
⋙ विरह (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी वस्तु से रहित होने का भाव। किसी वस्तु का अभाव। किसी वस्तु के बिना स्थिति। २. किसी प्रिय व्यक्ति का पास से अलग होना। विच्छेद। वियोग। जुदाई। ३. वियोग का दुःख। जुदाई का रंज। ४. अंतर। व्यवधान। अविद्यमानता। उ०— नव नवय प्रातय विरह प्रावय संष दिव धुनि बज्जियं। —पृ० रा०, २४।११८। ५. परित्याग। छोड़ देना (को०)।
⋙ विरह (२)
वि० रहित। शून्य। बगैर। बिना।
⋙ विरहज, विरहजनित, विरहजन्य
वि० [सं०] जो विरह के कारण उत्पन्न हो [को०]।
⋙ विरहज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] विरह से उत्पन्न ताप या पीड़ा [को०]।
⋙ विरहन ‡
वि० स्त्री० [सं० विरहिणी] दे० 'विरहिणी'। उ०— तजे सुग्रह धन धाम सहेली। पिय विरहन उठि चलै अकेली।—कबीर सा०, पृ० ९।
⋙ विरहविधुर
वि० [सं०] विरह के कारण व्यथित या अकेला। उ०— क्या आँसु सा ढुलक गया वह, विरहविधुर उर का उदगार?—अपरा, पृ० १०२।
⋙ विरहा †
संज्ञा स्त्री० [सं० विरहक या हि० विरह] एक प्रकार का गीत जिसे अहीर और गड़रिए गाते है। विशेष दे० 'बिरहा'। २. विरह। विय़ोग।
⋙ बिरहगि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विरहाग्नि]दे० 'विरहाग्नि'।
⋙ विरहग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] विरह से उत्पन्न ताप [को०]।
⋙ विरहानल
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'विरहाग्नि' [को०]।
⋙ विरहिणी
वि० स्त्री० [सं०] १. जिसे प्रिय या पति का वियोग हो। जो पति या नायक से अलग होने के कारण दुःखी हो। २. पारिश्रमिक। मजुरी [को०]।
⋙ विरहित
वि० [सं०] १. रहित। शुन्य। बिना। उ०— आश्रम बरन धरम विरहित जग लोक बेद मरजाद गई है। —तुलसी (शब्द०)। २. छोड़ा हुआ। परित्यक्त (को०)। ३. वियुक्त (को०)। ४. अकेला। एकाकी (को०)।
⋙ विरही (१)
वि० [सं० विरहिन्] [वि० स्त्री० विरहिणी] १. जिसे प्रिया का वियोग हो। जो प्रियतमा से अलग होने के कारण दुःखी हो। उ०— बिरही कहँ लौ आयु सँभारै।—सुर। (शब्द०)। २. अकेला। एकाकी (को०)।
⋙ बिरही‡ (२)
संज्ञा पु० [देश०] भींगा हुआ अन्न। उ०— नवरात्र में घटस्थापन के साथ साथ, भूमि पर बाँस की आयताकार चौहद्दी बनाकर अनाज भिगोए जाते है, जिन्हें विरही कहते हैं।—शुक्ल अभि० ग्रं० पृ० १३६।
⋙ विरहोत्कोठिता
संज्ञा स्त्री० [सं० विरहोत्कणिठता] नायिकाभेद के अनुसार प्रिय के न आने से दुखी वह नायिका जिसके मन में पूरा विश्वास हो के पति या नायक आवेगा, पर फिर भी किसी कारणवश वह न आवे।
⋙ विराग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुराग का अभाव। चाह का न होना। लगन न होना। २. किसी वस्तु से न विशेष प्रेम होना न द्बेष। उदासीन भाव। ३. सांसारिक सुखों की चाह न करना। विषयभोग आदि से निवृत्ति। वैराग्य। उ०— राजमोग्य के योग्य, विपिन में बैठा आज विराग लिए।—पंचवटी, पृ० ६।४. एक में मिले हुए दो राग। विशेष—एक राग में जब दुसरा राग मिल जाता है, तब उसे विराग कहते हैं। ५. वर्ण या रंग का परिपर्तन (को०)। ६. असंतुष्टि। असंतोष (को०)।
⋙ विराग (१)
वि० १. राग से रहित। उदासीन। विरागो। २. वर्ण या रंगहीन [को०]।
⋙ विरागी
वि० [सं० विरागिन्] [वि० स्त्री० विरागिनी] १. जिसे राग न हो। जिसे जाह न हो। जिसने मन न लगाया हो। उदा- सीन। विमुख। २. जिसने सांसारिक विषयों से मन हटा लिया हो। संसारत्यागी। विरक्त।
⋙ विराज्
वि०, संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'विराट्'।
⋙ विराज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंदिर का एक विशेष प्रकार। २. एक पौधा। ३. एक प्रजापति का नाम (को०)।
⋙ विराज (२)
वि० १. अत्युत्तम अत्यंत उत्कृष्ट। २. शासन करनेवाला। ३. चमकने वा द्योतित होनेवाला [को०]।
⋙ विराजन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विराजमान, विराजित] १. शोभित होना। २. शासक का कार्य करना। शासन करना (को०)। ३. वर्तमान होना। रहना।
⋙ विराजना
क्रि० अ० [सं० विराजन] १. शोभित होना। प्रकाशित होना। सोहना। फबना। २. वर्तमान होना। मौजुद रहना। उपस्थित रहना। होना। रहना। ३. बैठना। जैसे,— आइए, विराजिए।
⋙ विराजमान
वि० [सं०] १. प्रकाशमान। चमकता हुआ। चमक दमकवाला। २. विद्यमान। उपस्थित। मौजूद। जैसे,— पंड़ित जो यहाँ पहले ही से विराजमान हैं। ३. बैठा हुआ। उपविष्ट।
⋙ विराजित
वि० [सं०] १. सुशोभित। २. प्रकाशित। ३. उपस्थित। विद्यमान।
⋙ विराज्ञी
संज्ञा स्त्री० [सं०] साम्राज्ञी। रानी [को०]।
⋙ विराज्य़
संज्ञा पुं० [सं०] १.शासन। हुकूमत। २. राज्य [को०]।
⋙ विराट् (१)
संज्ञा पुं० [सं० विराज्] ब्रह्मा का वह स्थूल स्वरूप जिसके अंदर अखिल विश्व है अर्थात् सपूर्ण विश्व जिसका शरीर है। विश्वशरीरमय अनंत पुरूष। विशेष—इस भावना का निरूपण इस प्रकार है— 'उस पुरूष के सहस्त्रों मस्तक, सहस्रो आँखों और सहस्त्रों चरण हैं। वह पृथ्वी में सर्वत्र व्याप्त रहने पर भी दस अंगुल ऊपर अवस्थित है। पुरूष ही सब कुछ है—जो हुआ है और जो होगा। उसकी इतनी बड़ी महिमा है, पर वह इससे कहीं बडा है। सँपूर्ण विश्व और भूत एक पाद है, आकाश का अमर अँश त्रिपाद हैं। उससे विराट् उत्पन्न हुए और विराट् से अधिपुरुष। उन्होंने आविर्भूत होकर संपूर्ण पृथ्वी को आगे पीछे घेर लिया।' भगवदगीता के अनुसार भगवान् ने जो अपना विराट् स्वरूप दिखाया था, उसमें समस्त लोक, पर्वत, समुद्र, नद, नदी, देवता आदि दिखाई पड़े थे। बलि को छलने के लिये भगवान् ने जो त्रिविक्रम रूप धारण किया था, उसे भी विराट् कहते हैं। पुराणों में विराट् को ब्रह्मा का प्रथम पुत्र कहा है। ब्रह्मा दो भागों में विभक्त हुए— स्त्री और पुरूष। स्त्री अंश से विराट् की उत्पत्ति हुई जिसने स्वायंभुव मनु को उप्तन्न किया। स्वायं- भुत्र मनु सें प्रजापतियो की उत्पत्ति हुई। २. लड़ाकू जाति। क्षत्रिय। ३. कांति। दीप्त। सौदर्य। ४. शरीर। देह (को०)।५. प्रज्ञान। प्रतिभा। प्रज्ञा। (वेंदांत दर्शन)। ६. ब्रह्माड़ (को०)।
⋙ विराट् (२)
वि० १. बहुत बड़ा। बहुत भारी। जैसे,— विराट् सभा, विराट् आयोजन। २. शासन करनेवाला। प्रधान (को०)।
⋙ विराट् (३)
संज्ञा स्त्री० १. एक वैदिक वृत्ति का नाम। २. उत्कृष्टता। दीप्तिमत्ता। सुंदरता [को०]।
⋙ विराट् स्वराज
संज्ञा पुं० [सं०] एक दिन में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ। एक प्रकार का एकाह। (श्रोत सुत्र)।
⋙ विराट
संज्ञा पुं० [सं०] १. मत्स्य देश जहाँ के राजा के यहाँ पाँचो पांड़व अजातवास के समय छिपे थे। विशेष—मनुस्मृति में मत्स्य देश का उल्लेख कुरुक्षेत्र और पांचाल के साथ है; इससे अनुमान होता था कि वह थानेसर के आस पास होगा। पर अब यह बात एक प्रकार से निश्चित हो गई है कि अलवर और जयपुर के बीच का प्रदेश ही महाभारत के समय मत्स्य देश कहलाता था। उक्त प्रदेश के अंतर्गत 'बैराट' और' माचड़ी' दो स्थान अब तक विराट और 'मत्स्य' का स्मरण दिलाते हैं। २. मत्स्य देश का राजा। विशेष—इनके यहाँ अज्ञातवास के समय पांड़व नौकर के रूप में रहते थे। इनकी कन्या उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से हुआ था जिससे परीक्षित की उप्तत्ति हुई। ३. महाभारत का एक पर्व। ४. संगीत में एक ताल का नाम।
⋙ विराटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का निम्न कोटि का हीरा या नग जो विराट देश में निकलता था। राजपट्ट। राजावर्त।
⋙ विराटज
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विराटक'।
⋙ विराटपर्व
संज्ञा पुं० [सं० विरटपर्वन्] महाभारत के अठारह पवो में से एक पर्व का नाम [को०]।
⋙ विराणी
संज्ञा पुं० [सं० विराणिन्] हस्ती। हाथी।
⋙ विरातक
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन वृक्ष।
⋙ विरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. रात का अवसान। प्रातःकाल। २. रात का द्बितीय तृतीय प्रहर। बहुरात्र। अपरात्र [को०]।
⋙ विराद्ध
वि० [सं०] १. तिरस्कृत। २. जिकसा विरोध किया गया हो। ३. अपकृत। जिसका अपकार किया गया हो [को०]।
⋙ विराध
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीड़ा। क्लेश। तकलीफ। २. पीड़ित करनेवाला। सतानेवाला। ३. विऱोध। खिलाफत (को०)।४. एक राक्षस जिसे दंड़कारण्य में लक्ष्मण ने मारा था। विशेष—अग्निपुराण के अनुसार इसके पिता का नाम सुपर्यन्य ओर माता का नाम शतद्रुता था। यह राक्षास पूर्व जन्म में तुंबुंरु नामक गंधर्व था, जो बैश्रवण या कुबेर के शाप से राक्षस योनि में उत्पन्न हुआ था। इसके बहुत प्रार्थना करने पर बैश्रवण ने कहा था।—'अत्छा, जाओ। जब दशरथ के यहाँ भगवान् अवतार लेगे, तब तुम्हारा शाप छुटेगा'। रामायण में लिखा है कि दंड़कारणय में विराध सीता को लेकर भागने लगा। राम ने बहुत बाण चलाए, पर वह युद्ध में न मारा गया और राम तथा लक्ष्मण दोनों को उठाकर ले चला। रास्ते मे फिर युद्ध होने लाग और दोनों भाइयो ने मिलकर उसकी भुजाएँ काट डालीं। पर वह जल्दी मरता नहीं था। अंत में अक्ष्मण ने एक बड़ा सा गड़ढ़ा खोदा और उसका शऱीर उसमें ड़ाल दिया गाय। मरने के पहले इसे अपने पूर्वशरीर और शाप का स्मरण गो आया था।
⋙ विराधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपकार करना। हानि करना। २. विऱोध (को०)। ३. पीड़ित करना। सताना। तंग करना। ४. बेदना। पीड़ (को०)।
⋙ विराधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपकार। दूसरे की हानि करना [को०]।
⋙ विराधान
संज्ञा पुं० [सं०] कष्ट। व्यथा। दुःख [को०]।
⋙ विराना
वि० [फा० बेगानह] दे० 'बिराना'। उ०— फिर बिराने देश में किससे पुछें।—प्रेमघन०, भा०२, पृ०१५९।
⋙ विराम
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी क्रिया या व्यापार का कुछ देर के लिये बद होना। रूकना या थमना। ठहराव। ठहरना। यो०—विरामसंधि=युद्ध में लिप्त दोनो पक्षो की ओर कुछ समय के लिये युदध बंद करने का सपझौता। युदध बंद करने की संधि। उ०— हंगेरी ने विरामसंधि कर ली।—आ० अ० रा०, पृय ५२। २. चलने की थकावट दूर करने के लिये रास्ते में ठहरना। चलना रोकना। सुस्ताना। दम मारना। विश्राम। क्रि० प्र०—करना।—होना। ३. वाक्य के अंतर्गत वह स्थान जहाँ बोलते समय ठहरना पड़ता हो। ४. छंद के चरण में वह स्थान जहाँ पढ़ते समय कुछ ठहरना पड़े। यति। ५. विष्णु का एक नाम (को०)। ६. अंत। समाप्ति। उपसंहार। यौ०—विरामचिह्न=वह निशान वा चिहुन जिससे रूकाव, ठहराव या समाप्ति सूचित हो।
⋙ विरामण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ठहराव [को०]।
⋙ विरामण (२)
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण] ब्राह्मण।
⋙ विरामताल
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्म ताल का एक प्रकरा या भेद [को०]।
⋙ विरामदायिनी
वि स्त्री० [सं०] विश्राम देनेवाली। आराम पहुँचानेवाली। उ०—और विरामदायिनी अपनी संध्या को दे जाता हैं।— पंचवटी, पृ० ६।
⋙ विरामब्रह्म
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में ब्रह्म ताल के चार भेदों में से एक भेद।
⋙ विराल
संज्ञा पुं० [सं०] विड़ाल। बिल्ली। उ०— नेतक मांड़क गेंडुआ एक सफुर विराल एक —वर्ण०, पृ० १४।
⋙ विराव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द। बोली। कलरव।उ०— कान परी कोकिला की काकली कलित जो कलापिन की कूक कल कोमल विराव की।— देव (शब्द०)। २. हल्ला गुल्ला। शोर गुल।
⋙ विराव (२)
वि० शब्दरहित।
⋙ विरावण
संज्ञा पुं० [सं०] जिससे बहुत ओर गुल हो। बहुत हंल्ला करने या करानेवाला [को०]।
⋙ विराविणी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. बोलनेवाली। शब्द करनेवाली। २. रोने चिल्लानेवाली।
⋙ विराविणी (२)
संज्ञा स्त्री० १. झाड़ू। २. चिल्लाहट। रूदन। ३. ध्वनि (को०)। ४. नदी।
⋙ विरावित
वि० [सं०] ध्वनित किया हुआ [को०]।
⋙ विरावी
वि० [सं० विराविन्] [वि, स्त्री विराविणी] १. शब्द करनेवाला। बोलनेवाला। ध्वनि करनेवाला। गूँडनेवाला। २. रोने चिल्लानेवाला। विलाप करनेवाला।
⋙ विरावृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] काली मिर्च [को०]।
⋙ विरास पु
संज्ञा पुं० [सं० विलास] दे० 'विलास'।
⋙ विरासत
संज्ञा स्त्री० [अ०] उत्तराधिकार। वरासत। विरसा। उ०— जो मिला विरासत तुम्हें, आँख उसकी आँसु से गीली है।— धुप०, पृ० ६३।
⋙ विरासी पु
वि० [सं० विलासिन्] दे० 'विलासी'। उ०— जो लगि कालिंदि होसि विरासी। पुनि सुरसारी होइ समुद परासी।— जायसी (शब्द०)।
⋙ विरिंच
संज्ञा पुं० [सं० विरिञ्र] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव।
⋙ विरिचन
संज्ञा पुं० [सं० विरिञ्रन] १. ब्रह्मा। २. विष्णु (को०)। ३. शिव (को०)।
⋙ विरिंचि
संज्ञा पुं० [सं० विरिञ्र] दे० 'विरिंच'।
⋙ विरक्त
वि० [सं०] १. जिसे विरेचन दिया गया हो। २. जिसका पेट छुटा हो। जिसे दस्त आ रहे हों। ३. निकालकर साफ या रिक्त किय़ा हुआ (को)।
⋙ विरिक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरेचन। २. रिक्त करने की क्रिया [को०]।
⋙ विरिब्ध
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वनि। स्वर [को०]।
⋙ विरुक्मान्
संज्ञा पुं० [सं० विरुक्मत] १. दीप्तिमय या चमकीला आभुषण। २. दीप्त या ज्योतित शस्त्रु [को०]।
⋙ विरुखा
वि० [फा० बेरुख]दे० 'बेरुखा' या 'बेरुख'।
⋙ विरुग्ण
वि० [सं०] १. विशेष रोगी। २. सुस्त। ३. खंड़ित। टुकड़ो में विभक्त। कटा फटा। विदीर्ण। ४. झुका हुआ। ५. विध्वस्त। विनष्ट। ६. कुंठित। मोथरा [को०]।
⋙ विरूच
संज्ञा पुं० [सं०] मंत्रविशेष जिससे अभिमंत्रित कर मस्त्रक्षीपण किया जाय [को०]।
⋙ विरुज्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अत्यधिक पीड़। भीषण वेदना। २. विशिष्ट रोग। बड़ी व्याधि [को०]।
⋙ विरुज
वि० [सं०] रोगरहित। नीरोग। स्वस्थ।
⋙ विरुझना पु ‡
क्रि० अ० [सं० वि+रून्धन] दे० 'उलझन'।
⋙ विरुझना पु
क्रि० सं० [हि० विरुझना] दे० 'उलझाना'।
⋙ विरूत (१)
वि० [सं०] रवयुक्त। अव्यक्त शब्दय़ुक्त। कूजित। गूँजता हुआ।
⋙ विरुत (१)
संज्ञा पुं० १. चीखना। चिल्लाना। २. चिल्लाहट। ध्वनि। शोर। कोलाहल। ३. कलरव। गुंजार [को०]।
⋙ विरुति
संज्ञा स्त्री० उत्क्रोश। क्रंदन। चीख। चिल्लाहट [को०]।
⋙ विरुद
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुण, प्रताप आदि का वर्णन। राजाओं की स्तुति या प्रशंसा जो सुंदर भाषा में की गई हो। यश- कीर्तन। प्रशस्ति। २. यश या प्रर्शसासुचक पदवी जो राजा लोग प्राचीन काल में धारण करते थे। जैसे, चंद्रगुप्त विक्रमा दित्य। (इसमें चंद्रगुप्त तो नाम है और विक्रमादित्य विरुद है।) ३. यश। कीर्ति। ४. उच्चारणा करना। घोषित करना। प्रख्यापन (को०)। ५. जोर से चिल्लाना। चिल्लाहट (को०)।
⋙ विरुदध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] राज्य या शासन की पताका। शासकीय ध्वज [को०]।
⋙ विरूदावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी के गुण, प्रताप, पराक्रम आदि का सविस्तर कथन।यशवर्णन। प्रशंसा। २. धार्मिक स्तुतियो का संग्रह। स्तुतिसंग्रह (को०)।
⋙ विरुदित
संज्ञा पुं० [सं०] रुदन। रोना। शोक, संताप करना [को०]।
⋙ विरुद्ध (१)
वि० [सं०] १. जो हित के अनुकूल न हो। विरोक्युक्त। प्रतिकूल। खलाफ। जैसे,— आजकल बह हमारी विरुद्ब है। २. अप्रसन्न। वाम। ३. जो मेल में न हो। जो एकदम भिन्न या उलटा हो। विपरीत। जैसे,—यह बात उस बात से सर्वथा विरुद्ब है। ४. जो उचित से सर्वथा। भिन्न हो। जो न्याय या नीति के अनुकूल न हो। विपरीत। अनुचिंत। जैसे,—विरूद्ब आचरण। ५. वाधित। जिसका विरोध किया गया हो (को०)। ६. घेरा हुआ। नाकेबंदी किया हुआ (को०)। ७. प्रतिषद्ध। वर्जित (को०)। ८. अनिश्चित। संदेहपूर्ण (को०)। ९. बहिष्कृत। निराकृत। वंचित (को०)।
⋙ विरुद्ध (२)
क्रि० वि० प्रतिकुल स्थिति में। खिलाफ। जैसे,— आजकल वह हमारे विरुद्ध चल रहा है।
⋙ विरुद्ध (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरोध। वैपररीत्य। शत्रुता। २. विरोध नामक एक अलंकार (साहित्य)। ३. वैमत्य। असहमति [को०]।
⋙ विरूद्धकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० विरूद्धकर्मन्] १. विरूद्ध कर्म करनेवाला व्यक्ति। विपरीत आचरम का मनुष्य। बुरे चाल चलन का आदमी। २. केशव के अनुसार श्लेष अलंकार का एक भेद, जिसमें एक ही क्रिया के कई परस्पर विरुद्ध फला दिखा जाते है। उ०— वारुणी को राण होत, सुरज करत अस्त, दो द्बिजराज का जु होत यह कैसो है ?—केशव (शब्द०) इस पद का साधा रण अर्थ तो यह है कि पश्चिम दिशा के लाल होते ही सुर्य तो अस्त होता है और चंद्रमा उदय, यह कैसी बात है। पर श्लेष से इसके अर्थ होता है कि वारुणी (शराब) की चाह होते ही शुरवीर का तो पराभव होता है, पर वारुणी (उपनिषद् की एक विद्या) की चाह होते ही ब्राह्मण की उन्नति होती है।
⋙ विरुद्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरुद्ध होने का भाव। २. प्रति- कूलता। विपरीतता। उलटापन।
⋙ विरुद्धधी
वि० [सं०] वैर भाव रखनेवाला। दुष्ट। खोटा [को०]।
⋙ विरुद्धप्रसंग
संज्ञा पुं० [सं० विरुद्धप्रसङ्क] अकरणीय कार्य। न करने योग्य काम [को०]।
⋙ विरुद्धमतिकारिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक काव्यदोष, जो ऐसे पद या वाक्य के प्रयोग से होता है जिससे वाच्य के संबंध में विरूद्ध या अनुचित बुद्धि हो सकती है; जैसे, 'भवानीश' शब्द के प्रयोग से। 'भवानी' शब्द का अर्थ ही है 'शिव' की पत्नी। उसमें ईश लगाने से सहसा यह ध्यान हो सकता है कि 'शिव की पत्नी' का कोई और भी पति है।
⋙ विरुद्धमतिकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विरूदधमतिकारिता'।
⋙ विरूद्धरूपर
संज्ञा पुं० [सं०] केशव के अनुसार रूपक अलंकार का एक भेद, जिसमें कही हुई बात बिलकुल 'अनमिल' अर्थात् असंगत या असंबद्ध सी जान पड़ती है, पर विचार करने पर अर्थात् रूपक के दोनों पक्षों (उपमेय, उपमान) का ध्यान करने पर अर्थ संगत ठहरता है। विशेष—इसमें उपमेय का कथन नहीं होता, इससे यह 'रूपकाति- शयोक्ति' ही है।
⋙ विरूद्ध हेत्वाभास
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में वह हेत्वाभास जहाँ साध्य के साधक होने के स्थान पर साध्य के अभाव का साधक हेतु हो। जैसे,—यह द्रव्य वह्निमान् है; क्योकि यह महा हृद है। यहाँ महा हृद होना वह्नि के होने का हेतु नहीं है, वरन् वह्रि के अभाव का हेतु है।
⋙ विरुद्धाचरणा
संज्ञा पुं० [सं०] अनुचित, प्रतिषिद्ध या विरुद्ध आचरण और व्यवहार [को०]।
⋙ विरूद्धार्थ
वि० [सं०] विपरीत अर्थवाला [को०]।
⋙ विरूद्धार्थदीपक
संज्ञा पुं० [सं०] काव्यादर्श के अनुसार दीपक अलंकार का एक भेद जिसमें एक ही बात से दो परस्पर विरुद्ध क्रियाआँ का एक साथ होना दिखाया जाता है। जैसे; —जलकण मिली वायु 'ग्रीष्मताप' को घटाती ओर 'विरहताप' को बढ़ाती है।
⋙ विरुद्धाशन
संज्ञा पुं० [सं०] वर्जित आहार। अखाद्य भोजन [को०]।
⋙ विरूद्धोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विरोधपूर्ण कथन। प्रतिकूल कथन।
⋙ विरूध पु
वि० [सं० विरुद्ध] दे० 'विरूद्ध'। उ०— कहे बले छवकाल विरुध भाषा विसतारै। —रघु रू०, पृ० १४।
⋙ विरूल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप [को०]।
⋙ विरूला पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० विरुह] दे० 'विरवा'। उ०— कलियाय कुरे कौ रह्यौ विरूला परि लेत नहीं छबि फुलि भली।— शंकुतला, पृ० १०७।
⋙ विरुक्ष
वि० [सं०] कठोर। कर्कश [को०]।
⋙ विरुक्षण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रूखा करना। २. गर्हणा। निंदा। ३. शाप। अभिशाप। ४. रक्तस्राव को रोकनेवाली दवा [को०]।
⋙ विरुक्षण (२)
वि० १. सुखाने या रुक्ष करनेवाला। २. संकोचक [को०]।
⋙ विरुक्षित
वि० [सं०] १. जो रुखा किया हुआ हो। २. लेपन किया हुआ। आवृत [को०]।
⋙ विरुज
संज्ञा पुं० [सं०] एक अग्नि जिसका जल में होना कहा गया है।
⋙ विरुढ़
वि० [सं० विरुढ] १. आरुढ़। चढ़ा हुआ। २. अंकुरित। जमा हुआ। बीज से फुटा हुआ। ३. जात। उत्पन्न। पैदा। ४. सूब जमा हुआ। सूब बैठा हुआ। सूब गड़ा या धंसा हुआ। ५. मुकुलित। खिला हुआ। (को०)। ६. भरा हुआ (घाव) (को०)।
⋙ विरुढ़क
संज्ञा पुं० [सं० बुरूढ़क] १. इक्ष्वाकु के एक पुत्र का नाम। २. एक शाक्यवंशीय राजा का नाम। ३. एक लोकपाल का नाम। ४. अंकुरित अन्न (को०)।
⋙ विरूढि
संज्ञा स्त्री० [सं० विरुढ़ि] १. भेद या फोड़कर ऊपर उठना। २. अंकुरित होना। अँखुआ फूटना (को०)।
⋙ विरूथिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैशख कृष्ण एकादशी। वरूथिनी एकादशी।
⋙ विरुप (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० विरूपा, विरूपी] १. कई रंग रूप का। कई शकलों का। तरह तरह का। २. कुरुप वदसुरत। भद्दा। ३. विकटाकार। ३. बदला हुआ। परिवर्तित। ४. शोभोहीन। शोभा- रहित। ५. जो अनुरूप न हो। विरुद्ब। अप्राकृतिक। उलटा। ६. दुसरी तरह का। विलकुल भिन्न।७. जिसमें एक कम हो (को०)।
⋙ विरुप (२)
संज्ञा पुं० १. पिपरामूल। २. पांड़ुरोग (को०)। ३. शिव का एक नाम् (को०)। ४. एक असुर (को०)। ५. कुरूपता। भद्दी आकृति (को०)। ६. रूप, प्रकृति या चरित्र की भिन्नता (को०)।
⋙ विरूपक (१)
वि० १. कुरूप। २. भयंकर। कराल। ३. अनुमित [को०]।
⋙ विरूपक (२)
संज्ञा पुं० १. एक असुर। २. पुकारने का अथवा अपाधिनाम [को०]।
⋙ विरुपकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुरूप बनाने की क्रिया। २. क्षिति या हानि पहुँचाना [को०]।
⋙ विरुपचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० विरुपचक्षुस्] त्रिनेत्र। शिव [को०]।
⋙ विरुपता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरूप होने का भाव। २. कुरूपता। बदसुरती। ३. भद्दापन। बेढ़गापन।
⋙ विरूप परिणाम
संज्ञा पुं० [सं०] एकरूपता से अनेकरूपता अर्थात् निर्विशेषता से विशेषता की और परिवर्तन। एक मूल प्रकृति से अनेक विकृतियों की ओर गति। विशेष—सांख्य में परिणाम दो प्रकार के कहे गए है— स्वरूप परिणाम और विरूप परिणाम। 'विरूप परिणाम' द्बारा प्रकृति से नाना रूप पदाथों का विकास होता है; और 'स्वरूप परिणाम' द्बारा फिर नाना पदार्थ क्रमशः अपने रूप खोते हुए प्रकृति में लीन होते हैं। एक परिणाम सृष्टि की और अग्रसर होता है और दूसरा लय की ओर।
⋙ विरूपरुप
वि० [सं०] कुरूप। बदशक्ल [को०]।
⋙ विरुपा (१)
वि० स्त्री० [सं०] कुरुप। बदसुरत। उ०—शूर्पणखै जो विरुपा करी तुम तातें दियो हमहुँ दुख भारी।—केशव (शब्द०)।
⋙ विरुपा (२)
संज्ञा स्त्री० १. दुरालभा। २. अतिविषा। ३. यम की पत्नी का नाम।
⋙ विरुपाक्ष (१)
वि० [सं०] जिसके नेत्र बेढ़ंगे या डरावने हों।
⋙ विरुपाक्ष (२)
संज्ञा पुं० १. शिव। शंकर। २. शिव के एक गण का नाम। ३. रावण का एक सेनानायक जिसे हनुमान ने प्रमोद वन उजाड़ने के समय मारा था। ४. एक राक्षस का नाम जिसे सुग्रीव ने राम-रावण-युद्ब में मारा था। ५. रावण का एक मंत्री। ६. एक दिग्गज का नाम। ७. एक नाग का नाम।
⋙ विरुपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुरूप स्त्री। बदसूरत औरत।
⋙ विरुपी (१)
वि० [सं० विरूपिन्] [वि० स्त्री० विरूपिणी] १. बदसुरत। कुरुप। उ०—हरि रूकमिनि मुख देखि छाँड़ि तब दीन्हेउ। मोछ गोछ शिर मुंड़ि विरूपी कीन्हेउ।— अकबरी०, पु०, ३४४। २. ड़रावनी सूरत का।
⋙ विरूपी (२)
संज्ञा पुं० कृकलास। गिरगिट।
⋙ विरूर
[सं० (उप०) वि०+हि० रूरि या सं० विरूढ़, विरुह(=अंकु- रित, जमा हुआ) १. अत्यंत सुंदर। ह्वदयहारी। २. जमा हुआ। एकत्र। उ०—अग्गै सुदंति पंतिय विरुर। षलकंत अंदु मद झरत भूर।—पृ० रा०, १।६२४।
⋙ विरेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दस्तावर दवा। जुलाब। विरेचन। २. आँत की सफाई। मल के निकालने की क्रिया (को०)।
⋙ विरेचक
वि० [सं०] दस्त लानेवाला। मलभेदक। दस्तावर।
⋙ विरेचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलभेदक औषध। दस्त लानेवाली दवा। जैसे,—रेंड़ी का तेल। २. दस्त लाना। मलभेद करने की क्रिया। विशेष—वैद्यक के ग्रंथों में विरेचन की विधि विशेष विस्तार से लिखी है; क्योंकि कुपित मल ही सब रोगों का कारण कहा गया है। पूरी विधि के साथ विरेचन का विधान स्नेहन, स्वेदन और वमन के उपरांत किया गया है। शरद और वसंत में विरेचन विधेय ठहराया गया है। बालक, वृद्ध, क्षतग्रस्त, रोग से अत्यंत क्षीण, भयार्त, श्रांत, पिपासार्त और मतवाले को विरेचन नहीं कराना चाहिए।
⋙ विरेचित
वि० [सं०] विरेचन कराया हुआ। दस्त लाया हुआ [को०]।
⋙ विरेची
वि० [सं० विरेचिन्] दस्त लानेवाला [को०]।
⋙ विरेच्य
वि० [सं०] विरेचन के योग्य। जो दस्तावर दवा देने के योग्य़ हो। विशेष—वैद्यक के ग्रंथों में नीचे लिखे रोगियों को विरेचन के योग् कहा है—गुल्म, बवासीर, विस्फोटक (चेचक), कमल रोग, जीर्णज्वार, उदररोग, विष, पेट की पीड़ा योनि और शुकगत रोग, प्लीहा, कुष्ठा, मेह,श्लीपद (फीलापाँव), उन्माद, काश, श्वास, विसर्प इत्यादि से पीड़ित रोगियों को विरेचन देना चाहिए।
⋙ विरेफ
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरिता। नदी। २. 'र' वर्ण का अभाव या अनुपस्थिति [को०]।
⋙ विरेभित
वि० [सं०] ध्वनित। शब्दित [को०]।
⋙ विरोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चमक। दीप्ति। २. रश्मि। किरण। ३. छिद्र। छेद। ४. चंद्रमा। ५. विष्णु। ६. प्रभात। प्रातःकाल (ऋग्वेद)।
⋙ विरोग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्वस्थता। निरोगता [को०]।
⋙ विरोग (२)
वि० स्वस्थ। तंदुरूस्त [को०]।
⋙ विरोचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चमकना। प्रकाशित होना। २. दीप्ति- युक्त। प्रकाशमान। ३. सूर्य।४. चंद्र। ५. अग्नि। ६. मदार का पौधा। आक। ७. विष्णु। ८. रोहित वृक्ष। ९. श्योनाक वृक्ष। १०. घृत करंज। ११. प्रल्हाद के पुत्र और बलि के पिता। १२. आलोचना। स्थापन (को०)।
⋙ विरोचनसुत
संज्ञा पुं० [सं०] राजा बलि।
⋙ विरोचिष्णु
वि० [सं०] चमकीला। दीप्तिमान् [को०]।
⋙ विरोद्धा
वि० [सं० विरोद्ध] विरोध करनेवाला [को०]।
⋙ विरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेल न होना। किसी दूसरी वस्तु के साथ अत्यंत भिन्नता। विपरीत भाव। अनैक्य। जैसे,—इन दोनों भावों का परस्पर विरोध है। २. मेल का न होना। वैर। शत्रुता। बिगाड़। अनबन। जैसे,—उन दोनों का विरोध बहुत पुराना है। यौ०—वैर विरोध। ३. दो बातों का एक साथ न हो सकता। विप्रतिपत्ति। व्याघात। असहभाव। जैसे,—आपके कथन में पूर्वापर विरोध है। ४. उलटी स्थिति। सर्वथा दुसरे प्रकार की स्थिति। ५. नाश। ६. नाटक का एक अंग, जिसमें किसी बात का वर्णन करते समय विपत्ति का आभास दिखाया जाता है। ७. एक अर्थालंकार जिसमें जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य में से किसी एक का दुसरी जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य में से किसी एक के साथ विरोध होता है। जैसे—तुम्हारे वियोग में उस कामिनी को मलयानल दावानल हो रहा है। यहाँ जाति के साथ जाति का विरोध है। इसी प्रकार यह कहना गुण का द्रव्य के साथ जातिविरोध होगा—'तुम्हारे बिना चंद्रमा विष कि ज्वाला से पूर्ण हो गया'। ८. प्रतिरोध। रूकावट (को०)।९. नाकेबंदी। घेरा। आवरण (को०)। १०. संकट। दुर्भाग्य (को०)। ११. कलह। असह- मति (को०)।
⋙ विरोधक
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरोध करनेवाला। २. नाटक में वे विषय जिनका वर्णन निषिद्ध हो।
⋙ विरोधकारक
वि० [सं०] झगड़ालू। विरोधी।
⋙ विरोधकारी
वि० [सं० विरोधकारिन्] विरोध उत्पन्न करनेवाला।
⋙ विरोधकृत्
वि० संज्ञा पुं० [सं०] विरोधी। शत्रु [को०]।
⋙ विरोधक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] शत्रुता। झगड़ा। कलह [को०]।
⋙ विरोधन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विरोधी, विरोधित, विरोध्य] १. विरोध करना। बैर करना। २. नाश। बरबादी। ३. नाटक में विमर्ष का एक अंग जो उस समय होता है, जब किसी कारण- वश कार्यध्वंस का उपक्रम (सामान) होता है। जैसे—कुरुक्षेत्र के युद्ध के अंत होने के निकट जब दु्र्योधन बच रहा था, तब भीम का यह प्रतिज्ञा करना कि 'यदि दु्र्योधन को न मारूँगा तो अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा'। सब बात बन जाने पर भी भीम का यह कहना युधिष्ठिर आदि के मन में यह विचार लाया कि यदि दु्र्योधन न मारा गया तो हम सब लोग भी भीम के बिना कैसे रहेंगे। ४. बाधा। रूकावट (को०)। ५. प्रतिरोध। मुकाबिला (को०)। ६. परस्पर विरोध। असंगति (को०)। ७. कलह (को०)।
⋙ विरोधना पु
क्रि० सं० [सं० विरोधन] विरोध करना। अपने विरूद्ध करना। वैर करना। शत्रुता या झगड़ा करना। उ०—साईं ये न विरोधिए गुरू, पंड़ित, कवि, यार।—गिरिधर (शब्द०)।
⋙ विरोधपरिहार
संज्ञा पुं० [सं०] झगड़ा मिटना। असामंजस्य या विरोध का दूर होना [को०]।
⋙ विरोधवचन
संज्ञा पुं० [सं०] विरूद्ध कथन। किसी के विरोध में कही गई बात [को०]।
⋙ विरोधशमन
संज्ञा पुं० [सं०] झगड़ा मिटना।
⋙ विरोधाचरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हित के प्रतिकूल आचरण। खिलाफ काररवाई।२. शत्रुता का व्यवहार।
⋙ विरोधाभास
संज्ञा पुं० [सं०] एक अर्थालंकार जिसमें जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य का विरोध दिखाई पड़ता है। विशेष दे० 'विरोध'।
⋙ विरोधित
वि० [सं०] १. जिसका विरोध किया गया हो। २. क्षति- ग्रस्त (को०)। ३. अस्वीकृत। निराकृत (को०)।
⋙ विरोधिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरोध। शत्रुता। वैर। २. नक्षत्रों की प्रतिकूल दृष्टि। (फलित ज्योतिष)।
⋙ विरोधिनी
वि० स्त्री० [सं०] १. विरोध करनेवाली। वैरिन। २. विरोध करानेवाली। दो आदमियों में झगड़ा लगानेवाली। ३. एक राक्षसी जो दुःसह की पुत्री थी (को०)।
⋙ विरोधिश्लेष
संज्ञा पुं० [सं०] दे०' विरोधीश्लेष'।
⋙ विरोधी (१)
वि० [सं० विरोधिन्] [स्त्री० विरोधिनी] १. विरोध करनेवाला। हित के प्रतिकूल चलनेवाला। कार्य़ासिद्धि में बाधा ड़ालनेवाला। २. प्रतिद्बंद्बी। विपक्षी। शत्रु। बैरी। दुश्मन। ३. मुकाबिला करनेवाला। घेरा डालनेवाला (को०)। ४. झगड़ालू (को०)। ५. अनुकुल न पड़नेवाला। (अन्न) (को०)।
⋙ विरोधी (१)
संज्ञा पुं० १. साठ संवत्सरों में से पचीसवाँ संवत्सर। २. शत्रु। बैरी (को०)।
⋙ विरोधी श्लेष
संज्ञा पुं० [सं०] केशव से अनुसार श्वेष अलंकार का एक भेद, जिसमें श्लिष्ट शब्दों द्बारा दो पदार्थों में भेद, विरोध या न्युनाधिकता दिखाई जाती है। जैसे, उ०—कृष्णा हरे हरये हरै संपति, शंभु विपत्ति यहै अधिकाई। जातक काम अकामन के हित, घातक काम सकाम सहाई। इसमें यह दिखाया गया है कि हर (शिव) दासों पर हरि की अपेक्षा अधिक कृपा करते है। कृष्णा धीरे धीरे संपत्ति हरते हैं और शिव विपत्ति। हरि काम को उत्पन्न करनेवाले है और निष्काम लोगों के हितू है; शिव काम के घातक है, पर कामना रखनेवालों के सहायक हैं। यहाँ 'काम' शब्द के 'कामदेव' और 'कामना' दो अर्थ हैं।
⋙ विरोधोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विरोधी उक्ति। विरोध में कही गई बात [को०]।
⋙ विरोधोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपमा अलंकार का एक भेद, जिसमें किसी वस्तु की उपमा एक साथ दो विरोधी पदार्थों से दी जाती है। जैसे,—'तुम्हारा मुख चंद्रमा और कमल के समान है।' यहाँ कमल और चंद्रमा इन दोनों उपमानों में विरोध है।
⋙ विरोघ्य
वि० [सं०] १. विरोध के योग्य। २. जिसका विरोध करना हो।
⋙ विरोपण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विरोपणीय, विरोपित, विरोप्य] १. लेपन। लेप करना। २. लीपना। पोतना। तह चढ़ाना। लेव चढ़ाना। ३. जमीन में पौधा लगाना। रोपना।४. घाव का भरना (को०)।
⋙ विरोपण (२)
वि० १. पौधा रोपनेवाला। २. (औषधादि) जिससे घाव भर जाय़ (को०)।
⋙ विरोपित
वि० [सं०] १. रोपा हुआ। २. भरा हुआ। यौ०—विरोपितव्रण=जिसका घाव भर गया हो।
⋙ विरोम
वि० [सं० विरोमन्] रोमरहित। बिना रोएँ का।
⋙ विरोमा
वि० [सं० विरोमन्] दे० 'विरोम' [को०]।
⋙ विरोलना पु †
क्रि० सं० [सं० विलोड़न] विलोड़ना। मंथन करना। विवोचित करना। उ०— मुंद्रा संतोष शर्म पति झोली। गुरमुखि जोगी तत्तु विरोली। —प्राण०, पृ० १०९।
⋙ विरोलित
वि० [सं०] अस्तव्यस्त। तितर बितर किया हुआ [को०]।
⋙ विरोस पु
वि० [सं० विरोष] रोष से पूर्ण। उ०— मुष हास नेन विरोस। नासाग्र उग्र न जोस। —पृ० रा०, ६१।१४९।
⋙ विरोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. उदभव स्थान। उदगम। बुनियाद। मूल। २. अंकुरित होना। उगाना [को०]।
⋙ विरोहण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० विरोहणीय विरोहित] १. एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगाना। रोपना। २. अंकुरित होना (को०)। ३. एक नाग (को०)।
⋙ विरोहण (२)
वि० १. दे० 'विरोही'। २. जिससे घाव भर जाय (को०)।
⋙ विरोही
वि० [सं० विरोहिन्] [वि० स्त्री० विरोहिणी] १. रोपनेवाला। पौधा लगानेवाला। २. अँखुआ फोड़नेवाला। अंकुरित होनेवाला (को०)।
⋙ विरौनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] बाजरा, मड़ुवा, कोदो वगैरह की एक प्रकार की जोताई जो उनके पौधे कुछ ऊँचे होने पर की जाती है।
⋙ विर्त ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० वृत्ति] दे० 'वृत्ति'। उ०— तस वह मोती आइ निसाई। तोहि सँग परमद विर्त सवारै। —इंद्रा०, पृ० ३९।