कलंक
संज्ञा पुं० [सं० कलङ्क] [वि० कलकित, कलंकी ] १. दाग । धब्बा । २. चंद्रमा पर काला दाग । यौ०— कलंकांक । ३. लांछन । बदनामी । ४. ऐब । दोष । क्रि० प्र०— छूटना ।— देना । —लगना ।— लगाना । मुहा०— कलंक चढ़ाना = कलंक या दोष लगाना । कलंक का टीका लगाना = दोष या धब्बा लगना । लांछन लगना । अपयश होना । उ०— बूढ़ा़ आदमी हूँ, इस बुढ़ौती में कलंकका टीका लगे तो कहीं का न रहूँ । फइसाना०, भा० ३, पृ० ११६ । ५. वह कजली जो पार सिद्ध हो जाने पर बैठ जाती है । उ०— करत न समुझत झूठ गुन सुनत होत मतिरंक । पारद प्रगट प्रपंच मय सिद्धिउँ नाउ कलंक ।— तुलसी (शब्द०) । ३. पारे और गंधक की कजली । उ०— जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होहि नहि कंचन करा ।— जायसी (शब्द०) । ७. लोहे का मुरचा ।

कलंक (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कल्कि, कलंकी †] दे० 'कल्कि' । यौ०— कलंक सरूप = कल्कि रूप या अवतार । उ०— कलि कलिमल सौं कलंक सरूप ।— पृ० रा०, २ । ५७१ ।

कलंकष
संज्ञा पुं० [ सं० कलङ्कष] १. सिंह । शेर । २. एक प्रकार का बाजा [को०] ।

कलंकषी
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्ङ्कषी] सिंहनी [को०] ।

कलंकांक
संज्ञा पुं० [कलङ्काङ्क] चंद्रमा का काला दाग ।

कलंकित
वि० [सं० कलङ्कित] १. जिसे कलंक लगा हों । लांछित । दोषयुक्त । २. जिसमें मुरचा लगा हो ।

कलंकी (१)
वि० [सं० कलङ्किन्] [ स्त्री० कलंकिनी] जिसे कलंक लगा हो । दोषी । अपराधी । उ०— वे करता नहिं भए कलंकी, नहीं कलिगै मार । — घट०, पृ० २६४ ।

कलंकी (२)
संज्ञा पुं० चंद्रमा । उ०— मैलो मृग धारे जगत नाम कलंकी जाग । तऊ कियो न मयंक तुम सरनागत को त्याग ।— दीन० ग्रं०, पृ० १९८ ।

कलंकी पु (३) †
संज्ञा पुं० [सं० कल्कि] दे० 'कल्कि' । यौ०—कलंकी सरूप = कल्कि अवतार । उ०— कलंकी सरूपं धरंतं अनूपं । पृ० रा०, २ । ५८४ ।

कलंकुर
संज्ञा पुं० [ सं० कल्ङ्कृर] पानी का भँवर ।

कलंकूट पु
संज्ञा पुं० [सं० कालकूट] दे० 'कालकूट' । उ०— तुटै दंत जारी । करै गै विहारी । परे भूमि थान । कलंकूट जानं ।— पृ० रा०, १ । ६४३ ।

कलंगी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलगी] दे० 'कलगी' । उ०— बहै लाल लोहू लसै वारिधारा । मनौ कौल फूले कलंगी अपारा ।—हम्मीर०, पृ० ५९ ।

कलंगो
संज्ञा स्त्री० [ देश०] दे० पहाड़ों में होनेवाली जंगली भाँग का वह पौधा जिसमें बीज लगते हैं । फुलंगों का उलटा ।

कलंज
संज्ञा पुं० [सं०] १. तंबाकू का पौधा । २. मृग । ३. पक्षी । ४. पक्षी का मांस । ५. १० पल की तौल । ६. विषैले अस्त्र से मार हुआ मृग या पक्षी (को०) ।

कलंड़र
संज्ञा पुं० [अं० कैलेंड़र] वह अँगरेजी यंत्री या तिथिपत्र जिसका प्रारंभ पहली जनवरी से होता है ।

कलंदक
संज्ञा पुं० [अ० कलन्दक] एक ऋषि का नाम ।

कलंदर (१)
संज्ञा पुं० [अ० कलंदर] १. एक प्रकार का मुसलमान साधु जो संसार से विरक्त होता है । २. रीछ और बंदर नचानेवाला । इस देश में ये लोग प्रायः मुसलमान होते हैं । उ०—आसा की डोरी गरे बाँधि देत दुख छोभ । चित पितु को बंदर कियो अहो कलँदर लोभ ।—दीन० ग्रं०, पृ० २५२ । ३. दे० 'कलंदरा' ।

कलंदर (२)
संज्ञा पुं० [सं० कलन्दर] १. एक वर्णसंकर जाति का नाम । २. उस जाति का व्यक्ति [को०] ।

कलंदरा (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जो सूत, रेशम और टसर से बुना जाता है । गुद्दड़ । २. खेने का अकुँडा जिसपर कपड़ा या रेशम लिपटा रहता है । इसमें लोग कपड़े या और और वस्तु लटका देते हैं । उ०—तंबू, पाल, कनात, साएबान, सिरायचे । रावटि हू बहू भाँति, पुनि कुंदरा कलंदरा ।—सूदन (शब्द०) ।

कलंदरा (२)
संज्ञा पुं० [अं० कैलेंडर] १. वह जंत्री या पत्रा जिसका साल पहली जनवरी से प्रारंभ होता है । २. जुर्म या जुर्मों की वह सूची याददाश्त जो मजिस्ट्रेट को ऐसे मुकद्दमों में तैयार करनी पड़ती है जिन्हें वह दौरा सुपुर्द करता है ।

कलंदरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलंदरा + ई (प्रत्य०)] १. वह छोलदारी जिसमें कलंदर लगे हों । २. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा ।

कलंदरी (२)
वि० कलंदर से संबंधित । कलंदरों का ।

कलंदरी (३)
संज्ञा स्त्री० कलंदर का पेशा या धंधा ।

कलंदिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कलन्दिका] ज्ञान । बुद्धि [को०] ।

कलंधर
संज्ञा पुं० [सं० कलन्दर] चंद्रमा ।

कलंब
संज्ञा पुं० [सं० कलम्ब] १. शर । बाण । २. शाक का डंठल । ३. कदंब ।

कलंबक
संज्ञा पुं० [सं० कलम्बक] एक प्रकार का कदंब [को०] ।

कलंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कलम्बिका] १. गले के पीछे की नाड़ी । मन्या । २. एक साग (को०) ।

कलंबियन
संज्ञा पुं० [अं०] प्रेस या छापे की कल का एक भेद । विशेष—इसमें दो लंगर होते हैं । एक चिड़िया के आकार का ऊपर रहता है, दूसरा पीछे की ओर । इन्हीं लंगरों से इसकी दाब उठती है । कमानी नहीं होती । इसका चलन अब कम है । इस चिड़िया प्रेस भी कहते हैं ।

कलँगड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० कलिङ्ग] कलींदा । तरबूज ।

कलँगा
संज्ञा पुं० [हिं० कलँगी] १. लोहे की एक छेनी जिससे ठठेरे थाली में नक्काशी करते हैं । २. छीपियों का एक ठप्पा जिसमें १८ फूल होते हैं । ३. दे० 'कलगा' ।

कलँगी
संज्ञा स्त्री० [फा़० कलगी] दे० 'कलगी' (२) । उ०—कलँगी सड़क सेत गज गाहैं । मालनि जटित मंजु मुकता है ।—हम्मीर०, पृ० ३ ।

कल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अव्यक्त मधुर ध्वनि । जैसे—कोयल की कूक, भौंरों की गुंजार । यौ०—कलकंठ ।२. वीर्य । ३. साल का पेड़ । ४. पितरों का एक वर्ग (को०) । ५. शंकर । शिव (को०) । ६. चार मात्राओं का काल (को०) । ७. मात्रा (को०) ।

कल (२)
वि० १. मनोहर । सुंदर । उ०—सोमेस सूर प्रथिराज कल तिम संमुह चर बर कही ।—पृ० रा०, ८ ।३ । २. कोमल । ३. मधुर । ४. कमजोर । दुर्बल (को०) । ५. कच्चा । अपक्व (को०) । ६. मधुर स्वर करनेवाला (को०) । ७. अस्पष्ट और मधुर । मंद मधुर (ध्वनि) (को०) ।

कल (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्य, प्रा० कल्ल] २. नैरोग्य । आरोग्य । सेहत तंदुरुस्ती । २. आराम । चैन । सुख । उ०—कल नहिं लेत पहरुआ, कबन बिधि जाइब हो ।—धरम०, पृ० ६४ । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना ।—पाना ।—होना । मुहा०—कल से= चैन से । उ०—सुवै तहाँ दिन दस कल काटी । आयउ ब्याध दूका लै टाटी ।—जायसी (शब्द०) । †कल से= आराम से । धीरे धीरे । आहिस्ता आहिस्ता । ३. संतोष । तुष्टि । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना ।—पाना ।—होना ।

कल (४)
क्रि० वि० [सं० कल्य = प्रत्यूष, प्रभात] १. दूसरे दिन का सबेरा । आनेवाला दिन । जैसे,—मैं कल आऊँगा । मुहा०—कल कल करना या आज कल करना= किसी बात के लिये सदा दूसरे दिन का वादा करना । टाल मटूल करना । हीला हवाला करना । २. भविष्य में । पर काल में । किसी दूसरे समय । जैसे,—जो आज देगा, सो कल पावेगा । ३. गया दिन । बीता हुआ दिन । जैसे, —वह कल घर गया था । मुहा०—कल का= थोड़े दिन का । हाल का । जैसे, —कल का लड़का हमसे बातें करने आया है । कल की बात=थोड़े दिनों की बात । ऐसी घटना जिसे हुए बहुत दिन न हुए हों । हाल का मामला । कल की रात= वह रात जो आज से पहले बीत गई । कल की घर पर है= आगे की बात आगे देखी जाएगी । कल को= भविष्य में ।

कल (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० कला = अंग, भाग] १. ओर । बल । पहलू । जैसे, —(क) देखें ऊँट किस कल बैठता है (ख) कभी वे इस कल बैठत हैं, कभी उस कल । २. अंग । अवयव । पुरजा ।

कल (६)
संज्ञा स्त्री० [सं० कला = विद्या] १. युक्ति । ढंग । उ०—मुझ में तीनों कल बल छल । किसी की कुछ नहिं सकती चल ।— हरिश्चंद्र (शब्द०) । २. कई पेंचों और पुरजों के जोड़ से बनी हुई वस्तु जिससे कोई काम लिया जाय । यंत्र । जैसे— छापे की कल । कपड़ा बुनने की कल । सोने की कल । पानी की कल । यौ०—कलदार= यंत्र से बना हुआ सिक्का । रुपया । पानी की कल= वह नल जिसकी मूंठ ऐंठने या दबाने से पानी आता है । क्रि० प्र०—खोलना ।—चलना ।—चलाना ।—लगाना । ३. पेंच पुरजा । क्रि० प्र०—उमेठना ।—ऐंठना ।—घुमाना ।—फेरना ।—मोड़ना । मुहा०—कल ऐंठना= किसी के चित्त को किसी ओर फेरना । जैसे, —तुमने तो ऐसी कल ऐंठ दी है की अब वह किसी की सुनता ही नहीं । कल का पुतला= दूसरे के कहने पर चलनेवाला । दूसरे के अधीन कामकरनेवाला । कल बेकल होना= (१) पुरजा ढीला होना । जोड़ आदि का सरकना । (२) अव्यवस्थित होना । क्रम बिगड़ना । किसी की कल हाथ में होना= किसी की मति गति पर अधिकार होना । किसी का ऐसा वश में होना कि जिधर चलावे, उधर वह चले । ४. बंदूक का घोड़ा या चाप । यौ०—कलदार बंदूक= तोड़ेदार बंदूक ।

कल (७) पु
संज्ञा पुं० [सं० कलइ] युद्ध । संग्राम । उ०—भुज दुहुवाँ बल, बीस भुज कल दस माथा काट ।—बाकी० ग्रं०, भा १, पृ० ६० ।

कल (८)
वि० [हिं० काला शब्द का संक्षिप्त या समासगत रूप] काला । जैसे, —कलमुहाँ । कलसिरा । कलजिब्भा । कलपोटिया । कलदुमा ।

कलइया (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलैया] दे० 'कलैया' ।

कलइया (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलाई] दे० 'कलाई' ।

कलई
संज्ञा स्त्री० [अ० कलई] १. राँगा । यौ०—कलई का कुश्ता= राँगे का भस्म । बंग । कलई का चूना= सफेदी के काम में आनेवाला पत्थर का चूना । २. राँगे का पतला लेप जो बरतन इत्यादि पर खाद्य पदार्थों को कसाव से बचाने के लिये लगाते हैं । मुलम्मा । उ०—कलई कै काम सबै मिटि जावै ।—दरिया० बानी, पृ० ३० । यौ०—कलईगर । क्रि० प्र०—उड़ना ।—उतरना ।—करना ।—होना । ३.वह लेप रंग चढ़ाने या चमकाने के लिये किसी वस्तु पर लगाया जाता है । जैसे,—(क) दीवार पर चूने की कलई करना । (ख) दर्पण के पीछे की कलई । ४. बाहरी चमक दमक । दिखाव । आवरण । तड़क भड़क । ऊपरी बनावट । उ०—साहित सत्य सुरीति गई घटि बढ़ी कुरीति कपट कलई है ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—कलई खुलना= असलियत जाहिर होना । असली भेद खुलना । वास्तविक रूप का प्रगट होना । उ०—आई उधरि प्रीति कलई सी जैसी खाटी आमी ।—सूर (शब्द०) । कलई न लगना= युक्ति न चलना । जैसे, —यहाँ तुम्हारी कलई न लगेगी । ५. चूना । कली । क्रि० प्र०—करना ।—पोतना ।

कलईगर
संज्ञा पुं० [अ० कलई + फा़० गर] कलई करनेवाला ।

कलईदार
वि० [अ० कलई + फा़० दार] जिस पर कलई की हो । जिसपर राँगे का लेप चढ़ा हो । जैसे, —कलईदार बरतन ।

कलऊ (१) पु
वि० [सं० कलियुग] दे० 'कलियुगी' । उ०—कहै कबीर पुकारि कै ये कलऊ बेवहार ।—कबीर सा०, पृ० ७१ ।

कलऊ (२) पु
संज्ञा पुं० दे० 'कलियुग' । उ०—तीनो जुग जब जाय ओराई । तेहि पाछे कलऊ चलि आई ।—द० सागर, पृ० १३ ।

कलकंठ (१)
संज्ञा पुं० [सं० कलकण्ठ] [स्त्री० कलकण्ठी] १. कोकिल । कोयल । उ०—काक कहहि कलकंठ कठोरा ।— तुलसी (शब्द०) । २. पारावता । परेवा । कबूतर । पिंडुक । ३. हंस । ४. सुंदर कंठ । शोभायुक्त कंठ । उ०—कलकंठ बनी जलजावलि द्वै ।— घनानंद, पृ० ५८५ ।

कलकंठ (२)
वि० मीठि ध्वनि करनेवाला । सुंदर बोलनेवाला ।

कलकंठिनि
संज्ञा स्त्री० [सं० कलकण्ठी] कोयल । उ०—कलकं- ठिनि निज कलरव में भर, अपने कवि के गीत मनोहर, फैला आओ बन बन घर घर ।—वीणा, पृ० ५२ ।

कलकंठी
संज्ञा स्त्री० [सं० कलकण्ठी] कोयल ।

कलक (१)
संज्ञा पुं० [अ० क़लक़] १. बेकली । बेचनी । घबराहट । क्रि० प्र०—गुजरना ।—होना ।—रहना ।—मिटना । २. रंज । दुःख । खेद । सोच । चिंता । उ०—पर एक कलक होत बड़ ताता । कुसमय भये राम बिनु भ्राता ।—(शब्द०) ।

कलक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली । २. एक प्रकार का गद्य [को०] ।

कलक (३)
संज्ञा पुं० [सं० कल्क] दे० 'कल्क' ।

कलकतिया
वि० [हिं० कलकत्ता + इया (प्रत्य०)] कलकत्तेवाला । कलकत्ते से संबंधित । उ०—क्रमशः कलकतिये समाचारपत्र भी होली मनाने लगे ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५१ ।

कलकत्ता
संज्ञा पुं० [अं० कैल्कटा] भारत का एक प्रमुख शहर जो बंगाल की राजधानी है ।

कलकना पु
क्रि० अ० [हिं० कलकल = शब्द] चिल्लाना । शोर करना । चीत्कार करना । चिग्घाड़ मारना । उ०—अंगनि उतंग जंग जैतवार जोर जिन्हैं चिक्करत दिक्कारि हिलति कलकत हैं ।—मति० ग्रं० पृ० ३८७ ।

कलकल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. झरने आदि के जल के गिरने का शब्द । उ०—कलकल छलछल सरिता का जल बहता छिन छिन ।—मधुज्वाला, पृ० ४१ । २. कोलाहल । हल्ला । शोर । ३. शिव (को०) ।

कलकल (२)
संज्ञा स्त्री० झगड़ा । वाद विवाद । दाँता किटकिट ।

कलकल (३)
संज्ञा पुं० [सं०] साल वृक्ष की गोंद । राल ।

कलकल (४) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कल्लाना] खुजली । सुरसुरी । चुन- चुनाहट ।

कलकलती पु
वि० [हिं० कलकलाना अथवा कड़कड़ाती] अत्यंत तेज । उ०—कलकलती किरणेह, बाँका भटकै लोभ बन ।— बाँकी ग्रं०, भा० ३. पृ० ५४ ।

कलकलाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] कलकल की आवाज होना ।

कलकलाना (२)
क्रि० अ० [देश० अथवा हिं० कुलबुलाना] १. शरीर में गरमी या चुनचुनाहट की अनुभूति होना । २. कुलबुलाना । उ०—कूर्म कलकलाइ गउ ।—वर्ण०, पृ० ३१ । ३. किसी ओर प्रवृत्ति होना । जैसे, —मार खाने के लिये पीठ का कलकलाना ।

कलकान
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलकानि] दे० 'कलकाली' । उ०—घर की त्रिया बिमुक हो बैठी, पुत्र कियो कलकान ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ७ ।

कलकानि †
संज्ञा स्त्री० [अ० कलक = रंज] दिक्कत । हैरानी । दुःख । उ०— (क) नारी बिनु नहिं बोले पूत करै कलकानी । घर में आदर कादर कोसों सीझत रैनि बिहानी ।—सूर (शब्द०) । (ख) भूपाल पालन भूमिपति बदनेस नंद सुजान है । जानै दिली दल दक्खिनी कीन्हें महा कलकानि है ।— सूदन (शब्द०) ।

कलकी पु
संज्ञा पुं० [सं० कल्कि] दे० 'कल्कि' । उ०—अग्निकुंड सों बुध भये जिन मुख निंदा कीन । कलकी असि सों जानियै म्लेच्छ हरन परबीन ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २३ ।

कलकीट
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक कीड़ा । २. संगीत में एक ग्राम ।

कलकूजिका
वि०, स्त्री० [सं०] १. मधुर ध्वनि करनेवाली । २. कुलटा । पुंश्चली [को०] ।

कलकूणिका
वि० स्त्री० [सं०] १. मधुर बोलनेवाली । २. पुंश्चली [को०] ।

कलक्खि, लक्खी पु
संज्ञा पुं० [सं० कलक्षिक] मुर्गा । उ०—कुंजन अलि गुंजन लगे किय कलक्खिन सोर । सजनी गत रजनी भई नीरजनी छबि ओर ।—स० सप्तक, पृ० ३८८ ।

कलक्टर (१)
संज्ञा पुं० [अं० कलेक्टर] माल का बड़ा हाकिम जिसके अधिकार में जिले का प्रबंध होता है । यह सरकारी मालगुजरी वसूल करता है और माल के मुकदमों का फैसला करता है । यौ०—डिप्टी कलक्टर ।

कलक्टर (२)
वि० वसूल करनेवाला । जैसे, —टिकट कलक्टर, बिल कलक्टर ।

कलक्टरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलक्टर] १. जिले में माल के मुकदमों की कचहरी । २. कलक्टर का पद ।

कलक्टरी (२)
वि० कलक्टर से संबंध रखनेवाला ।

कलख
संज्ञा पुं० [अ० कलुष] कलुषता । कालापन । उ०—मानी कुछ भीतर कलख हो रहा है ।—सुनिता, पृ०, १८५ ।

कलगट
संज्ञा पुं० [देश०] कुल्हाड़ी ।

कलगा
संज्ञा पुं० [तु० कलगी] मरसे की तरह का एक पौधा । मुर्गकेश । जटाधारी । विशेष—यह बरसात में उगता है और क्वार कातिक में इसके सिर पर कलगी की तरह गुच्छेदार लाल लाल फूल निकलते हैं । फूल चौड़ा चपटा होता है, जिसपर लाल लाल रोएँ होते हैं, जो ज्यों ज्यों ऊपर को जाते हैं, अधिक लाल होते हैं । यह देखने में मुर्गे के चोटी की तरह दिखाई देता है ।

कलगी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. शुतुरमुर्ग आदि चिड़ियों के सुंदर पंख जिन्हें राजा लोग पगड़ी या ताज पर लगाते है और जिसमें कभी कभी छोटे मोती भी पिरोए जाते हैं । २. मोती या सोने का बना हुआ सिर का एक गहना । ३. चिड़ियों के सिर पर की चोटी, जैसी मोर या मुर्गे के सिर पर हेती है । ४. टोपी या पदड़ी में लगाया जानेवाला तुर्रा । ५. किसी ऊँची इमारत का शिखर । ६. लावनी का एक ढंग । यौ०—कलगीबाज ।

कलघोष
संज्ञा पुं० [सं०] कोयल [को०] ।

कलचाला पु
वि० [सं० कलह + हिं० चाल] युद्ध में छेड़छाड़ करनेवाला । उ०—हरियँद तणा दलाँ हातालाँ, कमँधाँ गल आगल कलचला ।—रा० रू०, पृ० १४१ ।

कलचिड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काला = सुन्दर + चिड़िया] [पुं० कलचिड़ा] एक चिड़िया जिसका पेट काला, पीठ मटमैली और चोंच लाल होता है । इसकी बोली सुरीली होती है ।

कलची (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कंजा] कंजा नाम की कँटली झाड़ी ।

कलची (२)
वि० दे० 'कंजा' (२) ।

कलचुरि
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण का एक प्राचीन राजवंश जिसके अधिकार में कर्णाट, चेदि, दाहल, मंडल आदि देश थे ।

कलचोंचा
संज्ञा पुं० [सं० काला + चोंचा] एक प्रकार का कबूतर जिसका सारा शरीर सफेद और चोंच काली होता है ।

कलछा
संज्ञा पुं० [सं० कर + रक्षा, हिं० करछा] [स्त्री० अल्पा० कलछी] बड़ी डाँड़ी का चम्मच या बड़ी कलछी ।

कलछी
संज्ञा स्त्री० [सं० कर + रक्षा] चम्मच के आकार का लंबी डाँड़ी का एक प्रकार का पात्र जिसका अगला भाग गोल कटोरी के आकार का होता है और जिससे पकाते समय चावल, दाल, तरकारी आदि चलाते या परोसते हैं ।

कलछुल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलछी] दे० 'कलछी' ।

कलछुला
संज्ञा पुं० [हिं० कलछा] लोहे का लंबा छड़ जिसके सिरे पर एक कटोरा सा लगा रहता है । विशेष—इससे भाड़ में से गरम बालू निकालकर भड़भूँजे चबैना भूनते हैं ।

कलछुली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलछुल] दे० 'कलछी' ।

कलजिब्भा
वि० [हिं० काला + जिह्वा या जीभ] [स्त्रीं० कलजिब्भी] १. जिसकी जीभ काली हो । २. जिसके मुँह से निकली हुई अशुभ बातें प्रायः ठीक घटें ।

कलजिभी
वि० स्त्री० [हिं० काला > कल + जीभ > जिभ + ई(प्रत्य०)] दे० 'कालजिब्भा' । उ०—अब्बासी महरी ने सुन लिया तो अहिस्ते से मुँह पर एक थप्पड़ दिया क्यों रा कलजिभी ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० ४२७ ।

कलजीहा (१)
वि० [हिं० काला + प्रा० जीह] दे० 'कलजिब्भा' ।

कलजीहा (२)
संज्ञा पुं० काली जीभ का हाथी जो दूषित समझा जाता है ।

कलजुग
संज्ञा पुं० [सं० कलियुग] दे० 'कलियुग' । उ०—दिवस न भूख रैन नहीं सुख है जैसे कलजुग जाम ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ७४ ।

कलझँवा
वि० [हिं० काला + झाँई] काले मुँह का । साँवला । जैसे, — इस कलझँवे मुँह पर यह लैसदार टोपी ।

कलट
संज्ञा पुं० [सं०] मकान की छाजन [को०] ।

कलटोरा
संज्ञा पुं० [सं० कल = काला + हिं० ठोर = चोंच] वह कबूतर जिसका सारा शरीर सफेद हो, पर चोंच काली हो ।

कलट्टर पु †
संज्ञा पुं० [अं० कलेक्टर] दे० 'कलक्टर' ।

कलठोरी
संज्ञा पुं० [हिं० काला + ठोर] कलचोंचा कबूतर ।

कलत
वि० [सं०] गंजा । खल्वाट [को०] ।

कलतूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलटा । पुंश्चली [को०] ।

कलत्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कलत्रवान्, कलत्री] १. स्त्री । पत्नी । उ०—किसके माँ बाप और किसके पुत्र कलत्र, कोई किसी का नहीं ।—श्यामा०, पृ० १२८ । २. नितंब । ३. दुर्ग । किला । ४. सात की संख्या का सूचक शब्द ।

कलत्रगर्हि सैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] परिवार के वशीभूत सेना । वह सेना जो परिवार (पुत्र कलत्र) की चिंता में डूबी रहे । विशेष—कौटिल्य ने यद्यपि ऐसी सेना को ठीक नहीं कहा है, तथापि अंतःशल्य (शत्रु से भीतर भीतर मिली हुई) सेना से अच्छी कहा है ।

कलत्थना पु
क्रि० अ० [सं० कलह] छटपटाना । दुखी होना । उ०—उलत्थैं पलत्थैं कलत्थैं कराहैं ।—पद्माकर ग्रं०, पृ०११ ।

कलथरा (१) †
संज्ञा पुं० [देश०] करघे की चक नामक लकड़ी ।

कलथरा (२) †
वि० दे० 'चक' ।

कलदार (१)
वि० [हि० कल+फा़० दार (प्रत्य०)] जिसमें कल लगी हो । पेंचदार ।

कलदार (२)
संज्ञा पुं० वह रुपया जो टकसाल की कल में बना हो । सरकारी रुपया । राजकीय रुपया ।

कलदुमा (१)
वि० [हिं० काला + फा़ दुम + हिं० आ (प्रत्य०)] काली दुम का । काली पूँछ का ।

कलदुमा (२)
संज्ञा पुं० काली दुम का कबूतर ।

कलधूत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चाँदी ।

कलधूत (२)
संज्ञा पुं० [सं० कलधौत] दे० 'कलधौत' । उ०—कलधूत कलस दस गढ़ित हथ्थ । उंच कुंडि जल न्हाँन सथ्थ ।—पृ० रा०, १४ । १२३ ।

कलधौत
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । उ०—केतिक ये कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारों ।—रसखान (शब्द०) । २. चाँदी । ३. सुंदर ध्वनि ।

कलध्वनि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] मधुर ध्वनि । कोमल आवाज । सुरीली आवाज ।

कलध्वनि (२)
संज्ञा पुं० १. कबूतर । २. मार [को०] ।

कलध्वनि (३)
संज्ञा स्त्री० कोयल [को०] ।

कलन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कलित] १. उत्पन्न करना । बनाना । लगाना । सजाना । २. धारण करना । होना । ३. आचरण । ४. लगाव । संबंध । ५. गणित की क्रिया । हिसाब । जैसे, — संकलन, व्यवकलन । ६. ग्रास । कौर । ७. ग्रहण । ८. शुक्र और शोणित के संयोग का वह विकार जो गर्भ की प्रथम रात्रि में होता है और जिससे कलल बनता है । ९. बेंत । १०. धब्बा (को०) । ११. दोष । अपराध (को०) ।

कलना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गणना । हिसाब । उ०—देव सृष्टि की सुख विभावरी, ताराओं की कलना थी ।—कामायनी, पृ०८ । २. आदान । ग्रहण (को०) । ३. रचना । उत्पन्न करना (को०) ।४. अधीनता । वश्यता (को०) । ५. बोध । प्रत्यय । ज्ञान (को०) । ६. धारण करना (को०) । ७. परित्याग । मोचन (को०) ।

कलना (२)पु
क्रि० स० [हिं० करना] करना । किसी कार्य को करना । उ०—करि कंक संक आसुरनि उर कपर बत्त ता दिन कलिय ।—पृ० रा० २ । २८५ ।

कलनाद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधुर ध्वनि । २. हंस [को०] ।

कलनाद (२)
वि० मधुर ध्वनिवाला । जिसकी आवाज मीठी हो [को०] ।

कलनादी
वि० [सं० कलनादिन्] कलकल ध्वनि करनेवाली । उ०—मीना और गुल को ढकेलते हुए सब उसी कलनादी स्रोत में कूद पड़े ।—आकाश, दी० पृ० २७ ।

कलप (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलपना] व्याकुलता । छटपटाहट । उ०—तन बिहवल दुख तलफ, कलप उपजे निज काया ।— रा० रू०, पृ० ३३७ ।

कलप (२)
संज्ञा पुं० [सं० कल्प = रचना] १. कलफ । उ०—छूटैमल दाग नाम का कलप लगावै ।—पलटू०, भा० १, पृ० ४ । २. खिजाब ।

कलप (३)
संज्ञा पुं० [सं० कल्प] दे० 'कल्प' । उ०—कोटी कलप लगि तुम प्रति प्रति उपकार करौ जो । हे मनहरनी तरुनी उऋन न होउँ तबौ तौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २१ ।

कलपतरु
संज्ञा पुं० [सं० कल्पतरु] दे० 'कल्पतरु' । उ०—चाह आलबाल और अचाह के कलपतरु, कीरति मय्क प्रेमसागर अपार है ।—घनानंद०, पृ० १३१ ।

कलपत्तर
संज्ञा पुं० [सं० कल्पतरु] एक पेड़ जो शिमले और जौनसार की पहाड़ियों में अधिक होता है । विशेष—इसकी लकड़ी सफेद और मजबूत होती है जो मकानों में लगती है, तथा खेती के सामान बनाने के काम में आती है ।

कललपद्रुम पु
संज्ञा पुं० [सं० कल्पद्रुम] दे० 'कल्पद्रुम' । उ०— एक कहैं कलपद्रुम है इमि पूरत है सबकी चित चाहै ।—भूषण ग्रं०, पृ० ५० ।

कलपना
क्रि० अ० [सं० कल्पना = उद्भावना करना (दुःख की)] १. विलाप करना । बिलखना । दुःख की बात सोच सोच या कह कहकर रोना । जैसे, —अब रोने कलपने से क्या होगा । उ०—नेकु तिहारे निहारे बिना कलपै जिप क्यों पल धीरज लेखों । नीरजनैनी के नीर भरे कित नीरद से दृग निरज देखों ।—पद्माकर (शब्द०) । पु । २. कल्पना करना ।

कलपना पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्पना] दे० 'कल्पना' । उ०—माया मोह भरम की मोटरी, यह सब काल कलपना ।—धरनी०, पृ० २८ ।

कलपना (३)पु
क्रि० स० [सं० कर्त्तन, कल्पन, प्रा० कप्पण] कायना । कतरना । उ०—हौं रनथंभउर नाह हमीरू । कलपि माथ जेह दीन्ह सरीरू ।—जायसी (शब्द०) ।

कलपनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्पनी] कतरनी । कैंची ।—(डिं०) ।

कलपबृच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० कल्पवृक्ष] दे० 'कल्पवृक्ष' । उ०— कलपबृच्छ जड़ सुनिय सकल चिंतनि फलदायक ।—नँद ग्रं०, पृ० ३१ ।

कलपबेलि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्प + हिं० बेलि] कल्पतता । उ०—(क) कलपबेलि जिमि बहु बिधि लाली । सीचि सनेह सलिल प्रतिपाली ।—मानस, २ । ५९ । (ख) सत्ता के सपुत तै जगाई 'मतिराम' कहैं, लहलही कीरति कलपबेलि बाग हैं ।—मति० ग्रं०, पृ० ३८६ ।

कलपांत पु
संज्ञा पुं० [सं० कलपान्त] दे० 'कल्पांत' । उ०—लघु जीवन संवत पंचदसा । कलपांत न नास गुमानु असा ।— मानस, ७ । १०२ ।

कलपाना
क्रि० स० [हिं० कललपना] दुःखी करना । जी दुखाना । तरसना । रुलना ।

कलपून
संज्ञा पुं० [देश०] एक सदाबहार पेड़ जो उत्तरीय और पूर्वीय बंगाल में होता है । विशेष—इसकी लकड़ी लाल रंग की और मजबूत होती है । यह घर बनाने में काम आती है और बड़ी कीमती समझी जाती है ।

कलपोटिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० काला + पोटा] एक चिड़िया जिसका पोटा काला होता है ।

कलप्प पु
संज्ञा पुं० [सं० कल्पन, प्रा० कप्पण] काटना । काटने का कार्य । खंडन । उ०—साधन्ह सिद्धि न पाइअ जौ लहि़ साध न तप्प । सोई जानहि बापुरे जो सिर करहिं कलप्प ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २०३ ।

कलप्पा
संज्ञा पुं० [मल० कलपा = नारियल] नीलापन लिए हुए सफेद रंग की कड़ी वस्तु । नारियल का मोती । विशेष—यह कभी कभी नारियल के भीतर मिलती है । चीन के लोग इसे बड़े मूल्य की समझते हैं ।

कलफ (१)
संज्ञा पुं० [सं० कल्प] पंक चावल या आरारोट आदि की पतली लेई जिसे कपड़ों पर उनकी तह कड़ी और बराबर करने के लिये लगाते हैं । माँड़ी । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—लगाना ।

कलफ (२)
संज्ञा पुं० [देश०] चेहरे पर का काला धब्बा । झाँई ।

कलफदार
वि० [हिं० कलफ + फा़० दार (प्रत्य०)] कलफ या माँड़ी लगा हुआ ।

कलफा (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] देशी दारचीनी की छाल । विशेष—यह मलाबार से आती है और चीन की दारचीनी में, उसे सस्ता करने के लिये, मिलाई जाती है ।

कलफा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] कल्ला । कोपल । नया अंकुर ।

कलब
संज्ञा पुं० [देश०] टेसू के फूलों को उबालकर निकाला हुआ रंग । विशेष—इसमें कत्था, लोध और चूना मिलाकर अगरई रंग बनाते हैं ।

कलबल (१)
संज्ञा पुं० [सं० कला + बल] उपाय । दाँव पेंच । जुगुत ।

कलबल (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] हल्ला गुल्ला । शोर गुल । उ०— सखिन सहित सो नित प्रति आवै । कलबल मुनि के निकट मचावै ।—विश्राम (शब्द०) ।

कलबल (३)
वि० [अनुध्व०] अस्पष्ट (स्वर) । (शब्द०) जो अलग अलग न मालूम हो । गिलबिल । उ०—कलबल बचन अधर अरुनारे । दुइ दुइ दसन विसद वर वारे ।—तुलसी (शब्द०) ।

कलबोर
संज्ञा पुं० [हिं० अकलबीर] दे० 'अकलबीर' ।

कलबुद्ध पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलबूत] दे० 'कलबूत (१)' । उ०—हाड़ मास रुधिर की मोटरी एह कलबुद्ध बनायों ।—सं० दरिया, पृ०१०० ।

कलबूत
संज्ञा पुं० [फा़० कालबुद] १. ढ़ाँचा । साँचा । उ०—पूत कलबूत से रहैंगे सब ठाड़े तब कछू न चलैगी जब दूत धरि पावैगो ।—दीन० ग्रं०, पृ० २४१ । २. लकड़ी का ढाँचा जिसपर चढ़ाकर जूता सिया जाता है । फरमा । ३. मिट्टी, लकड़ी या टीन का गुंबदनुमा टुकड़ा जिसपर रखकर चौगोशिया या अठगोशिया टोपी या पगड़ी आदि बनाई जाती है । गोलंबर । कालिब ।

कलबूद पु
संज्ञा पुं० [फा़०, कालबूद या हिं० कलबूत] दे० 'कलबूत' । उ०—पाँच औ तत्तु पचीस प्रक्रीति है तीनि गुन बाँधि कलबूद दीन्हा ।—सं० दरिया, पृ० ८३ ।

कलभ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कलमी] १. हाथी का बच्चा । उ०— उर मनि माल कंबु कलग्रीवा । काम कलभ कर भुज बल सीवा ।—तुलसी (शब्द०) । २. हाथी । ३. ऊँट का बच्चा । ४. धतूरा ।

कलभक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का बच्चा [को०] ।

कलभवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] पीलू का पेड़ ।

कलभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथी या ऊँट का बच्चा (मादा) । २. चेंच का पौधा । चंचु ।

कलम (१)
संज्ञा पुं० सं० स्त्री० [अ० कलम, तुलनीय] १. सरकड़े की कटी हुई छोटी छड़ या लोहे की जीभ लगी हुई लकड़ी का टुकड़ा जिसे स्याही में डुबाकर कागज पर लिखते हैं । लेखनी । उ०—लिए हाथ में कलम कलम सिर करत अनेकन ।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० १५ । क्रि० प्र०—चलना ।—चलाना ।—बनना ।—बनाना । मुहा०—कलम खींचना, फेरना या मारना= लिखे हुए को काटना कलम चलना= (१) लिखाई होना । (२) कलम का कागज पर अच्छी तरह खिसकना । जैसे, —यह कलम अच्छी नहीं चलती, दुसरी लाओ । कलम चलाना= लिखना । कलम तोड़ना= लिखने की हद कर देना । अनूठी उक्ति कहना । कलमबंद करना= लेखबद्ध करना । कलमबंद= पूरा पूरा । ठीक ठीक । जैसे, —कलमबंद सौ जूते लगेंगे । यौ०—कलम कसाई । कलमतराश । कलमदान । २. किसी पेड़ की टहनी जो दूसरी जगह बैठने या दूसरी पेड़ में पैबंद लगाने के लिये काटी जाय । क्रि० प्र०—करना ।—कराना ।—काटना ।—लगाना । मुहा०—कलम करना= काटना । उ०—लिए हाथ में कलम कलम सिर करत अनेकन ।—प्रेमघन०, १, पृ० १५ । कलम कराना= कटवाना । उ०—कलम रुकै तो कर कलम कराइये ।—(शब्द०) । कलम घिसना=कलम चलाना । उ०—आखिर कलम घिसने से पहिले ही जीभ चलाने की विद्या सीखी थी ।—किन्नर०, पृ० २१ । ३. वह पौधा जो कलम लगाकर तैयार किया गया हो । ४. वे छोटे बाल जो हजामत बनवाने में कनपटियों के पास छोड़ दिए जाते हैं । क्रि० प्र०—काटना ।—छाँटना ।—बनाना ।—रखना । ५. एक प्रकार की वंशी जिसमें सात छेद हैं ।६. बालों की कूची जिससे चित्रकार चित्र बनाते या रंग भरते हैं । यौ०—कलमकार । ७. शीशे का काटा हुआ लंबा टुकड़ा जो झाड़ में लटकाया जाता है ।८. शोरे, नौसादर आदि का जमा हुआ छोटा लंबा टुकड़ा । रवा ।९. छछुंदर । फुलझड़ी (आतशबाजी) । १० . सोनारों या संगतराशों का एक औजार जिससे वे बारीक नक्काशी का काम करते हैं ।११. मुहर बनाने वालों का वह औजार जिससे वे अक्षर खोंदते हैं ।१२. किसी पेशेवाले का वह औजार जिससे कुछ काटा, खोदा या नकाशा जाय ।१३. शैली । पद्धति । जैसे, राजपूती कलम ।१४. लेखनकौशल ।

कलम (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह धान जो एक जगह बोया जाय और उखाड़कर दूसरी जगह लगाया जाय । जड़हन । यौ०—कलमोत्तम= बहुत अच्छा महीन धान । कलमगोपवधू कलमगोपी= धान के खेतों की रखवाली करनेवाली स्त्री । २. लेखनी (को०) ।३. चोर (को०) ।४. दुष्ट । बदमाश (को०) ।

कलमक, कलमक्क
संज्ञा पुं० [फा०] एक प्रकार का अंगूर जो बलूचिस्तान में बहुत । यत से होता है ।

कलमकसाई
संज्ञा पुं० [हिं० कलम + अ० कसाई] कठोर लिखनेवाला । क्रूरतापूर्वक लिखनेवाला ।

कलमकार
संज्ञा पुं० [फ०] १. चित्रकार । चित्रों में रंग भरनेवाला । २. एक प्रकार का बाफता (कपड़ा) जिसमें कई प्रकार के बेलबूट होते हैं ।

कलमकारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. कलम से किया हुआ काम । जैसे,— नक्कशी, बेलबूटा आदि ।

कलमकीली
संज्ञा स्त्री० [अ० कलम + हिं० कीली] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें विपक्षी के सामने खड़े होने पर अपने दाहिने हाथ की उँगलियों से उसके बाएँ हाथ की उँगलियों में पंजा गठकर अपने दाहिने हाथ को उसके पंजे के सहित अपनी गरदन पर लाते हैं और अपनी दाहिनी कोहनी उसकी बाँई कलाई से ऊपर लाकर नीचे की और दबाकर उसे चित कर देते हैं ।

कलमख पु
संज्ञा पुं० [सं० कल्मष] १. पाप । दोष ।२. कलंक । लांछन । दाग । धब्बा । उ०—बिमल ज्ञान प्रगटै तहाँ कलमख डोरे खोय ।—दरिया० बानी०, पृ० १३ ।

कलमजद
वि० [अ० कलम + फा० जद] कलम किया हुआ । कटा हुआ ।

कलमतराश
संज्ञा पुं० [अ० कलम + फा० तराश] कलम बनाने कीछुरी । चाकू ।२. (कहारों और हाथीवानों की बोली में) अरहर की खूँटी ।

कलमदान
संज्ञा पुं० [अ० कलम + फा० दान] काठ का एक पतला लंबा संदुक जिसमें कमल, दावात, पेंसिल चाकू आदि रखने के खाने बने रहते हैं । उ०—अपनी लेखनी को आनंद के कलम- दान विश्रामालय में स्थान दिया ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४५८ । मुहा०—कलमदान देना= किसी को लिखने पढ़ने की कोई नौकरी देना ।

कलमना पु
क्रि० स० [हिं० कलम] काटना । दो टुकड़े करना । उ०—तब तमचरपति तमकि कह्यौ धरि धरि हरि खाहू । मिलि मारौ दोउ बंधु बंक पकि कलमत जाहू ।—रघुनाथ (शब्द०) । विशेष—यह प्रयोग अनुचित और भददा है ।

कलमबंद (१)
वि० [अ० कलम + फ० बंद] लिखित । लिपिबद्ध ।

कलमबंद (२)
संज्ञा पुं० चित्रकार की कूँची बनानेवाला कारीगर ।

कलमरिया
संज्ञा स्त्री० [पुर्त०] हवा का बंद हो जाना ।—(लश०) ।

कलमल (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] कुलबुलाहट । कसमसाहट । मुहा०—कलमल कलमल करना= व्याकुल होना । व्यथित होना । उ०—पिय मूरति जु आनि उर अरं । कामिनि कलमल कलमल करै ।—नंद ग्रं०, पृ० १३३ ।

कलमल (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कलिमल] कल्मष । पाप । उ०—भए कलमल दूर तन के, गई तपन नसाय हो ।—धरनी० पृ० ३ ।

कलमलना पु
क्रि० अ० [अनु०] दाब या अंडस से पड़ने के कारण अंगों का इधर उधर हिलना डोलना । कुलबुलाना । उ०—(क) चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरम कलमले ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) चौंके विरंचि शंकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यो ।—तुलसी (शब्द०) ।

कलमलना
क्रि० अ० [अनु०] दाब या अंडस में पकड़ने के कारण अगों का इधर उधर हिलना डोलना । कुलबुलाना । उ०—भूमी भय कलमलात डगमग अकुलाई ।—संत तुरसी०, पृ० १५२ ।

कलमस पु
संज्ञा पुं० [सं० कल्मष] दे० 'कल्मष' । उ०—जड़ उन्मत्त समान होइ बिचरत गत कलमस ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ४२५ ।

कलमा
संज्ञा पुं० [अ० कलिमह] १. वाक्य । बात ।२. वह वाक्य जो मुसलमान धर्म का मूल मंत्र है— 'ला इलाह इल्लिल्लाह, महम्मद उर् रसूलिल्लाह' । उ०—चारों वर्ण धर्म छोड़ि कलमा निवाज पढ़ि, शिवाजी न होते तौ सुनति होति सब की ।— भूषण (शब्द०) । मुहा०—कलमा पढ़ना= मुसलमान होना । किसी के नाम का कलमा पढ़ना= किसी व्यक्तिविशेष पर अत्यंत श्रद्धा या प्रेम रखना । कलमा पढाना= मुसलमान करना । कलमा भराना= इस्लाम धर्म के प्रति प्रेरित करना । उ०—दिल्ली बादिसाहाँ दीन आपाँ कै मिलाया । कलमा भी भराया साथ षाँणाँ भी खिलाया ।—शिखर०, पृ० ५५ ।

कलमास पु
वि० [सं० कल्माष] चितकबरा ।

कलमी (१)
वि० [अ० कलम + फा० ई (प्रत्य०)] १. लिखा हुआ । लिखित । हाथ का लिखा हुआ । हस्तलिखित ।२. जो कलम लगाने से उत्पन्न हुआ हो । जैसे, —कलमी नीबू कलमी आम । ३. जिसमें कलम या रवा हो । जैसे, —कलमी शोरा ।

कलमी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कलम्बी] करेमू । कलमी साग ।

कलमीशोरा
संज्ञा पुं० [हिं० कलमी + शोरा] साफ किया हुआ शोरा । विशेष—इसमें कलमें होती हैं । शोरे को पानी में साफ करके उसकी मैल को छाँटकर कलम जमाते हैं । यह शोरा साधारण शोरे से अधिक साफ और तेज होता है । इसकी कलमें भई बड़ी बड़ी होती हैं ।

कलमुहाँ
वि० [हि० काला + मुँह] १. काले मुँह का । जिसका मुँह काला हो ।२. कलंकित । लांछित ।

कलयुग
संज्ञा पुं० [सं० कलियुग] दे० 'कलियुग' । उ०—असाधारणों की लोलुपता ने जो कलयुग में बढ़ गई है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६९ ।

कलरव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधुर शब्द । कोमल या मंद मधुर ध्वनि । उ०—रजनी की लाज समेंटो तो कलरव से उठकर भेटो तो ।— कहर, पृ० २२ । २. कोकिल ।३. कबूतर ।४. चिड़ियों के चहकने की आवाज (को०) ।

कलरासि पु
वि० [सं० कला + राशि] कलाविद् । कलाओं में कुशल । कलाओं में जानकर । उ०—चतुरई रासि, छल रासि, कल- रासि, हरि भजै जिहिं हेत तिहिं देन हारी ।—सूर०, १० । १८०३ ।

कलरिन
संज्ञा स्त्री० [देश०] जोंक लगानेवाली स्त्री । कीड़ी लगाने— वाली स्त्री ।

कलल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भाशय में रज और वीर्य की वह अवस्था जिसमें एक पतली झिल्ली सी बन जाती है और जो कलन के उपरांत होती है । विशेष—सुश्रुत के अनुसार जब ऋतुमती स्त्री का स्वप्न मैथुन द्वारा रज उसके गर्भाशय में प्रवेश करता है, तब भी उससे हड्डी आदि से रहित एक बुलबुला सा बनकर रह जाता है और कलल कहलाता है । २. गर्भाशय (को०) । यौ०—कललज=(१) गर्भ । (२) राल ।

कलल (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलकल] कलकल ।

कललिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णाक्षरों में लिखावट । सोने के पानी की लिखावट [को०] ।

कलवरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलवार + इया (प्रत्य०)] कलवार की दुकान । शराब की दुकान ।

कलवार
संज्ञा पुं० [सं० कल्यपाल, प्रा० कल्लवाल] [स्त्री० कलवारी, कलवारिन] एक जाति जो किसी समय शराब बनाती और बेचती थी । शराब बनाने और बेचनेवाला । उ०—सुनि कलवार कहा हो जोगी । महारूप के अहउ वियोगी ।—इंद्रा० पृ०, ७९ ।

कलवारि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलवार] कलवार जाति की स्त्री । कलवारिन । उ०—चली सुनारि सुहाग सुनाती । औ कलवारि प्रेम मधुमाती ।—जायसी (शब्द०) ।

कलवारिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलवार का स्त्री०] १. कलवार जाति की स्त्री० ।२. कलवार की स्त्री ।

कलवारिनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलवारिन] दे० 'कलवारिन' । उ०—माया कलवारिनी देत विष धोरिकै, पिए बिष सबै ना कोउ भागै ।—पलटू०, भा० २, पृ० ३८ ।

कलविंक
संज्ञा पुं० [सं० कलविङ्क] १. चटक । गौरैया ।२. कालींदा । तरबूज ।३. सफेद चँवर ।४. त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के तीन मस्तकों में से वह मस्तक जिसके मुँह से वह शराब पीता था ।५. एक तीर्थ का नाम ।६. धब्बा । दाग (को०) । ७. कोयल (को०) ।

कलविंकविनोद
संज्ञा पुं० [सं० कलविङ्कविनोद] नृत्य के ५१ मुख्य चालकों में से एक । विशेष—इसमें माथे के ऊपर दोनों हाथों को ले जाकर आकाश में घुमाते हैं और फिर पसली पर लाकर नीचे ऊपर घुमाने हैं ।

कलविंकस्वर
संज्ञा पुं० [सं० कलविङ्कस्वर] एक प्रकार की समाधि [को०] ।

कलविंग
संज्ञा पुं० [सं० कलविङ्क] १. गोरैया । चटक ।२. दाग । धब्बा । [को०] ।

कलश
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० कलशी] १. घड़ा । गगरा । २. तंत्र के अनुसार वह घडा या गगरा जो व्यास में कम से कम ५० अंगुल और उँचाई में १३ अंगुल हो और जिसका मुँह ८ अंगुल से कम न हो ।३. मंदिर, चैत्य आदि का शिखर ।४. मंदिर के शिखर पर लगा हुआ पीपल, पत्थर आदि का कँगूरा ।५. खपड़ैल के कानों पर हुआ मिट्टी का कँगूरा । ६. एक प्रकार का मान जो द्रोण या आठ सेर के बराबर होता था ।७. चोटी । सिरा ।८. प्रधान अंग । श्रेष्ठ व्यक्ति । जैसे, —रघुकुलकलश ।९. काश्मीर का एक राजा जिसका नाम रणादित्य भी था । विशेष—यह ९५७ शकाब्द में हुआ था और बड़ा कुमार्गी तथा अन्यायी था । इसने अपने पिता पर बहुत से अत्याचार किए थे और अपनी भगिनी तक का सतीत्व नष्ट किया था । मंत्रियों ने इसे सिंहासन से उतारकर इसके पिता को गद्दी पर बैठाया था । १०. कोहल मुनि के मत से नृत्य की एक वर्तना ।११. समुद्र (को०) । यौ०—कलशांभोधि, कलशार्णव, कलशोदधि= (१) समुद्र । (२) क्षीरसागर ।

कलशक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कर्णाटक देश के अंतर्गत एक तीर्थ ।

कलशज
संज्ञा पुं० [सं०] कलश से उत्पन्न अगस्त्य ऋषि [को०] ।

कलशभव
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य ऋषि जिनकी उत्पत्ति घट से कही गई है ।

कलशयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य ऋषि [को०] ।

कलशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कलशी' [को०] ।

कलशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गगरी । छोटा कलसा ।२. मंदिर का छोटा कँगूरा ।३. पृष्ठपर्णी । पिठवन ।४. एक प्रकार का बाजा, जिसे कलशीमुख भी कहते थे ।

कलशीसुत
संज्ञा पुं० [सं०] कलशी से उत्पन्न अगस्त्य ऋषि ।

कलस
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कलश' । उ०—कीरति कुल कलस अलस तजि सेस सुनाम असेस सिथिल गति है ।—घनानंद, पृ० ६०६ ।

कलसजोनि
संज्ञा पुं० [हिं० कलस + जोनि] दे० 'कलशयोनि' । उ०—कलसजोनि जिय जानेउ नाम प्रतापु ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २४ ।

कलसभव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कलशभव' । उ०—अकनि कटु बानी कुटिल की क्रोध बिंध्य बढ़ोइ । सकुचि सम भयो ईस आयसु कलसभव जिय जोइ ।—तुलसी (शब्द०) ।

कलसरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलाई + सर] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें विपक्षी को नीचे लाकर उसके मुँह की तरफ बैठकर अपना दाहिना हाथ सामने से उसकी बाँह में डालकर पीठ पर ले जाते हैं और दूसरे हाथ की कलाई पकड़ कर बाई और जोर करके चित कर देते हैं ।

कलसरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलसिरी] दे० 'कलसिरी (१)' । उ०— सीकरा सो काल है कलसरी सी लपेट ले है ।—मलूक०, पृ० ३१ ।

कलसवंदाना
क्रि० अ० [सं० कलश + वन्दन] विवाह में एक रीति जिसमें स्त्रियाँ पानी भरे घड़े सिर पर रखकर शुभार्थ ले जाती हैं । उ०—परणवाँ चाल्यो वीसलराव । पंच सखी मिलि कलस वंदावि ।—बी० रासो, पृ० १२ ।

कलसा
संज्ञा पुं० [सं० कलसक] [स्त्री० अल्पा० कलसी] १. पानी रखने का बरतन । गगरा । घड़ा । उ०—जस पनिहारी कलस भरे मारुग में आवै । कर छोड़े मुख बचन चित कलसा में लावै ।—पलटू०, पृ० ४२ ।२. मंदिर का शिखर ।

कलसार पु
संज्ञा पुं० [सं० कलशा, हिं० कलसा] अधीन । उ०— सागर कोट जाके कलसार । छपन कोट जाके पनिहार ।— दरिया० बानी०, पृ० ४३ ।

कलसि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कलसी' [को०] ।

कलसिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलसी + इया (प्रत्य०)] दे० 'कलसी (१)' । उ०—तश्तरी, प्याले, कलसिया, सिंगारदानी, डिबियाँ.... ।— हिंदु० सभ्यता, पृ० २० ।

कलसिरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० काला + सिर] एक चिड़िया जिसका सिर काला होता है ।

कलसिरी (२)
वि० स्त्री० [हिं० कलह + सिरी] लड़ाकी (स्त्री) । झगड़ालू (स्त्री) ।

कलसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा गगरा ।२. छोटे छोटे कँगूरे । मंदिर का छोटा शिखर या कँगूरा ।

कलसीसुत
संज्ञा पुं० [सं०] घड़े से उत्पन्न, अगस्त्य ऋषि ।

कलहंतरिता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कलहान्तारिता] दे० 'कलबांतरिता' ।उ०— प्रोषितपतिका अरु खंडिता । कलहंतरिता उत्कंठिता ।—नंद० ग्रं०, पृ० १४९ ।

कलहंस
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंस ।२. राजहंस । उ०—कूजत कहुँकल- हंस कहूँ मज्जत पारावत ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४५६ । ३. श्रेष्ठ राजा ।४. परमात्मा । ब्रह्मा ।५. एक वर्णवृत का नाम । विशेष—इसमें प्रत्येक चरण में १३ अक्षर अर्थात् एक सगण, एक जगण, फिर दो सगण और अंत में एक गुरु होता है ।— सज सी सिंगार कलहंस गति सी । अलि आई राम छबि मंडप दीसी । ६. संकर जाति की एक रागिनी जो मधु, शंकरविजय और आभीरी के योग से बनती है ।७. राजपूतों की एक जाती । उ०—गहखार परिहार जो कुरे । औ कलहंस जो ठाकुर जुरे ।—जायसी (शब्द०) ।

कलह
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवाद । झगड़ा । उ०—कलह कलपना दुख घना रहै मन भंग ।—सहजो०, पृ० १९ । यौ०—कलहप्रिय । २. लड़ाई । युद्ध ।३. तलवार की म्यान ।४. पथ । रास्ता ।

कलहकार
वि० [सं०] झगड़ालू । झगड़ा करनेवाला ।

कलहकारी
वि० [सं० कलहकारिन्] [वि० स्त्री० कलहकारिणी] झगड़ा करनेवाला । झगड़ालू ।

कलहनी
वि० स्त्री० [सं० कलहिनी] दे० 'कलहिनी' ।

कलहप्रिय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नारद ।

कलहप्रिय (२)
वि० [वि० स्त्री० कलहप्रिया] जिसे लड़ाई भली लगे । लड़ाका । झगड़ालू ।

कलहप्रिया (१)
वि० स्त्री० [सं०] झगड़ालू ।

कलहप्रिया (२)
संज्ञा स्त्री० मैना ।

कलहर
संज्ञा पुं० [देश०] बनियों की एक जाति मध्य प्रदेश में पाई जाती है ।

कलहरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलार> कलारी] दे० 'कलवारिन' । उ०—तब सुखसागर के बीच, कलहरी ह्वै रहु री ।—चरण० बानी, पृ० १३७ ।

कलहलना पु
क्रि० अ० [सं० कलकलाय, प्रा० कलकल ? या सं० कोलाहल अथवा अनुध्व] कोलाहल या शोरगुल करना । उ०—एही भली न, करहला, कलहलिया कइकाँण ।—ढोला० पृ० ६२७ ।

कलहांतरिता
संज्ञा स्त्री० [सं० कलहान्तरिता] अवस्थानुसार नायिका के दस भेदों में से एक । वह नायिका जो नायक या पति का अपमान कर पीछे पछताती है ।

कलहारी
वि० स्त्री० [सं० कलहकार, हिं० कलहार + ई (प्रत्य०)] कलह करनेवाली । लड़ाकी । झगड़ालू । कर्कशा ।

कलहास
संज्ञा पुं० [सं०] केशवदास के अनुसार हास के चार भेदों में से एक जिसमें थोड़ी थोड़ी कोमल और मधुर ध्वनि निकलती है जैसे, —जेहि सुनिए कलधुनि कछू कोमल विमल विलास । केशव तन मन मोहिए बरनत कवि कलहास (शब्द०) ।

कलहासिनि
वि० स्त्री० [सं०] मधुर हास्यवाली । सुंदर हँसीवाली । उ०—कुमुदकला बन कलाहासिनि अमृत प्रकाशिनी, नभवासिनि तेरी आभा को पाकर माँ । जग का तिमिर त्रास हर दूँ ।— वीणा, पृ० २ ।

कलहिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] लड़ाकी । झगड़ालू ।

कलहिनी (२)
संज्ञा स्त्री० शनि की स्त्री का नाम ।

कलही (१)
वि० [सं० कलहिन्] [वि० स्त्री० कलहिनी] झगड़ालू । लड़ाका ।

कलही (२)
वि० स्त्री० दे० 'कलहिनी' ।

कलांकुर
संज्ञा पुं० [सं० कलाङ्कुर] १. कराकुल पक्षी ।२. कंसासुर । ३. चौरशास्त्र के प्रर्वतक कर्णीसुत ।

कलांतर
संज्ञा पुं० [सं० कलान्तर] १. सूद । ब्याज ।२. दूसरी या अन्य कला (को०) ।३. लाभ [को०] ।

कलांबि, कलांबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कलाम्बि, कलाम्बिका] १. ऋण देना ।२. सूदखोरी [को०] ।

कलाँ
वि० [फा०] बड़ा । दीर्घाकार । यौ०—कलाँराशि का घोड़ा= बड़ी जाति का घोड़ा ।

कलाँवत पु
वि० [हिं० कलावंत] दे० 'कलावंत' । उ०—ढाढ़ी कलाँवत नट नरतक अरु पातुर ।—प्रेमघन, भा० १, पृ० ३० ।

कला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंश । भाग ।२. चंद्रमा का सोलहवाँ भाग । इन सोलहो कलाओं के नाम ये हैं ।—१. अमृता, २. मानदा, ३. पूषा, ४. पुष्टि, ५. तुष्टि,६.रति ७. धृति, ८. शशनी, ९. चंद्रिका, १०. कांति, १२. ज्योत्स्ना, १२. श्री, १३. प्रीति, १४. अंगदा, १५. पूर्णा और १६. पूर्णामृता । विशेष—पुराणों में लिखा है कि चंद्रमा में अमृता है, जिसे देवता लोग पीते हैं । चंद्रमा शुक्ल पक्ष में कला कला करके बढ़ता है और पूर्णिमा के दिन उसकी सोलहवीं कला पूर्ण हो जाती है । कृष्णपक्ष में उसके संचित अमृत को कला कला करके देवतागण इस भाँति पी जाते हैं—पहली कला को अग्नि, दूसरी कला को सूर्य, तीसरी कला को विश्वेदेवा, चौथी को वरुण, पाँचवीं को वषट्कार, छठी को इंद्र, सातवीं को देवर्षि; आठवीं को अजएकपात्, नवीं को यम, दसवीं को वायु, ग्यारहवीं को उमा, बारहवीं को पितृगण, तेरहवीं को कुबेर, चौदहवीं को पशुपति, पंद्रहवीं को प्रजापति और सोलहवीं कला अमावस्या के दिन जल और ओषधियों में प्रवेश कर जाती है जिनके खाने पीने से पशुओं में दूध होता है । दूध से घी होता है । यह घी आहुति द्वारा पुनः चंद्रमा तक पहुँचता है । यौ०—कलाधर । कलानाथ । कलानिधि । कलापति । ३. सूर्य का बारहवाँ भाग । विशेष—वर्ष की बारह संक्रांतियों के विचार से सूर्य के बारह नाम हैं, अर्थात्—१. विवस्वान, २. अर्यमा, ३. तूषा, ४. त्वष्टा, ५. सविता, ६. भग, ७. धाता, ८. विधाता, ९. वरुण, १०. मित्र, ११. शुक्र और १२. उरुक्रम । इनके तेज को कला कहते हैं । बारह कलाओं के नाम ये हैं—१. तपिनि, २. तापिनी, ३. धूम्रा, ४. मरीचि, ५. ज्वालिनी, ६. रुचि, ७. सुषुम्णा, ८.भोगदा, ९. विश्वा, १०. बोधिनी, ११. धारि णी और १२. क्षमा । ४. अग्निमंडल के दस भागों में से एक । विशेष—उसके दस भागों के नाम ये हैं—१. धूम्रा, २. अर्चि, ३. उष्मा, ४. ज्वलिनी, ५. ज्वालिनी, ६. विस्फुल्लिंगिनी, ७. ८. सुरूपा, ९. कपिला और १० हव्यकव्यवहा । ५. समय का एक विभाग जो तीस काष्ठा का होता है । विशेष—किसी के मत से दिन का १/६०० वाँ भाग और किसी के मत से १/१८०० वाँ भाग होता है । ६. राशि के ३०वें अंश का ६०वाँ भाग । ७. वृत्त का १८००वाँ भाग ।८. राशिचक्र के एक अंश का ६०वाँ भाग । ९. उपनिषदों के अनुसार पुरुष की देह के १३ अंश या उपाधि । विशेष—इनके नाम इस प्रकार हैं—१. प्राण, २. श्रद्धा, ३. व्योम, ४. वायु, ५. तेज, ६. जल, ७. पृथ्वी, ८. इंद्रिय, ९. मन १०. अन्न, ११. वीर्य, १२. तप, १३. मंत्र, १४. कर्म, १५. लोक और १६. नाम । १०. छंदशास्त्र या पिंगल में 'मात्रा' या 'कला' । यौ०—द्विकल । त्रिकल । ११. चिकित्सा शास्त्र के अनुसार शरीर की सात विशेष झिल्लियों के नाम जो मांस, रक्त, मेद, कफ, मूत्र, पित्त और वीर्य को अलग अलग रखती हैं ।१२. किसी कार्य को भली भाँति करने का कौशल । किसी काम को नियम और व्यवस्था के अनुसार करने की विद्या । फन । हुनर । विशेष—कामशास्त्र के अनुसार ६४ कलाएँ ये हैं ।—(१) गीत (गाना), (२) वाद्य (बाजा बाजाना), (३) नृत्य (नाचना), । (४) नाट्य (नाटक करना, अभिनय करना), (५) आलेख्य (चित्रकारी करना), (६) विशेषकच्छेद्य (तिलक के साँचे बनाना), (७) तंड्डल-कुसुमावलि-विकार (चावलों और फूलों का चौक पूरना), (८) पुष्पास्तरण (फूलों की सेज रचना या बिछाना), (९) दशन-वसनांग राग (दातों, कपड़ों और अंगों को रँगना या दाँतों के लिये मंजन, मिस्सी आदि, वस्त्रों के लिये रंग और रँगने की सामग्री तथा अंगों में लगाने के लिये चंदन, केसर, मेहँदी, महावर आदि बनाना और उनके बनाने की विधि का ज्ञान), (१०) मणिभूमिकाकर्म (ऋतु के अनुकूल घर सजाना), (११) शयनरचना (बिछावन या पलग बिछाना), (१२) उदकवाद्य (जलतरंग बजाना), १३. उदकघात (पानी ते छीटे आदि मारने या पिचकारी चलाने और गुलाबपास से काम लेने की विद्या), (१४) चित्रयोग (अवस्थापरिवर्तन करना अर्थात् नपुंसक करना, जवान को बुड्ढा और बुड्ढे को जवान करना इत्यादि), (१५) माल्य- ग्रंथविकल्प (देवपूजन के लिये या पहनने के लिये माला गूँथना), (१६) केश-शेख रापीड़-योजन (सिर पर फूलों से अनेक प्रकार की रचना करना या सिर के बालों में फूल लगाकर गूँथना), (१७) नेपथ्ययोग (देश काल के अनुसार वस्त्र, आभूषण आदि पहनना, (१८) कणँपत्रभँग (कानों के लिये कर्णफूल आदि आभूषण बनाना), (१९) गंधयुक्त पदार्थ जैसे गुलाब, केवड़ा, इत्र, फुलेल आदि बनाना, (२०) भूषणभोजन, (२१) इंद्रजाल, (२२) कौचुमारयोगो (कुरूप को सुंदर करना या मुँह में और शरीर में मलने आदि के लिये ऐसे उबटन आदि बनाना जिनसे कुरूप भी सुंदर हो जाय), (२३) हस्तलाघव (हाथ की सफाई, फुर्ती या लाग), (२४) चित्रशाकापूपभक्ष्य-विकार-क्रिया (अनेक प्रकार की तरकारियाँ, पूप और खाने के पकवान बनाना, सूपकर्म), (२५) पानकरसरागासव भोजन (पीने के लिये अनेक प्रकार के शर्बत, अर्क और शराब आदि बनाना), (२६) सूचीकर्म (सीना, पिरोना), (२७) सूत्रकर्म (रफगूरी और कसीदा काढ़ना तथा तागे से तरह तरह के बेल बूटे बनाना), (२८) प्रहेलिका (पहेली या बुझौवल कहना और बूझना), (२९) प्रतिमाला (अंत्याक्षरी अर्थात् श्लोक का अंतिम अक्षर लेकर उसी अक्षर से आरंभ होनेवाला दूसरा श्लोक कहना, बैतबाजी), (३०) दुर्वाचकयोग (कठिन पदों या शब्दों का तात्पर्य निकालना), (३१) पुस्तकवाचन (उपयुक्त रीति से पुस्तक पढ़ना), (३२) नाटिकाख्यायिकादर्शन (नाटक देखना या दिखलाना), (३३) काव्यसमस्या— पूर्ति, (३४) पट्टिका—वेत्र—बाण, विकल्प, (नेवाड़, बाध या बेंत से चारपाई आदि बुनना), (३५) तर्ककर्म (दलील करना या हेतुवाद), (३६) तक्षण (बढ़ई, संगतराश आदि का काम करना), (३७) वास्तुविद्या (घर बनाना, इंजीनियरी), (३८) रूप्यरत्नपरीक्षा (सोने, चाँदि धातुओं और रत्नों को परखना), (३९) धातुवाद (कच्ची धातुओ का साफ करना या मिली धातुओं को अलग अलग करना), (४०) माणि राग—ज्ञान (रत्नों के रंगो को जानना), (४१) आकरज्ञान (खानों की विद्या), (४) वृक्षायुर्वेदयोग (वृक्षों का ज्ञान, चिकित्सा और उन्हें रोपने आदि की विधि), (३४) मेष- कुक्कुट—लावक—युद्ध—विधि, (भेड़े, मुर्गे, बटर, बुलबुल आदि को लड़ाने की विधि), (४४) शुक—सारका—प्रलापन (तोता, मैना पढ़ाना), (४५) उत्सादन (उबटन लगाना और हाथ, पैर, सिर आदि दबाना), (४६) केश—मार्जन—कौशल (बालों का मलना और तेल लगाना), (४७) अक्षरमुष्टिका कथन (करपलई), (४८) म्लेच्छितकला विकल्प (म्लच्छ या विदेशी भाषाओं का जानना), (४९) देशभाषाज्ञान (प्राकृतिक बोलियों को जानना), (५०)पुष्पशकटिकानिमि- त्तज्ञान (देवी लक्षण जैसे बादल की गरज, बिजली की चमक इत्यादि देखकर आगामी घटना के लिये भविष्यद्वाणी करना), (५१) यत्रमातृका (यंत्रनिर्माण), (५२) धारण मातृका (स्मरण बढ़ना), (५३) सपाठ्य (दूसर को कुछ पढ़ते हुए सुनकर उसे उसी प्रकार पढ़ देना), (५४) मानसीकाव्य क्रिया (दूसरे का अभिप्राय समझकर उसके अनुसार तुरंत कविता करना या मन मे काव्य करके शीघ्र कहते जाना), (५५) क्रियाविकल्प (क्रिया के प्रभाव को पलटना), (५६) छलितकयोग (छल या ऐयारी करना), (५७) अभिधानकोष- छंदोज्ञान, (५८) वस्त्रगोपना (वस्त्रों की रक्षा करना), (५९)द्यूतविशेष (जुआ खेलना), (६०) आकर्षण क्रीड़ा (पासा आदि फेंकना), (६१) बालक्रीड़ाकर्म (लड़का खेलाना), (६२) वैनायिकी विद्या—ज्ञान (विनय और शिष्टाचार, इल्मे इख्लाक वौ आदाब), (६३) वैजयिकी विद्याज्ञान, (६४) वैतालिकी विद्याज्ञान । यौ०—कलाकुशल । कलाकौशल । कलावत । १३. मनुष्य के शरीर के आध्यात्मिक विभाग । उ०—सजन साधि कला । बस कीन्ही मन पवन घर आयो ।—चरण० बानी, पृ० १६७ । विशेष—ये संख्या में १६ हैं । पाँच ज्ञानेंद्रिया, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच प्राण और मन या बुद्धी । १४. वृद्धि । सूद । १५. नृत्य का एक भेद । १६. नौका । १७. जिह्वा ।१८. शिव ।१९. लेश । लगाव ।२०. वर्ण । अक्षर । (तंत्र) ।२१. मात्रा (छंद) ।२२. स्त्री का रज । २३. पाशुपत दर्शन के अनुसार शरीर के अंग या अवयव । विशेष—इनमें कला दो प्रकार की मानी गई हैं ।—एक कार्याख्या, दूसरी कारणाख्या । कार्याख्या कलाएँ दस हैं, पृथिव्यादि पाँच तत्व, और गंधादि उनके पाँच गुण । कारणाख्या १३ हैं—पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ तथा अध्यवसाय, अभिमान और संकल्प । २४. विभूति । तेज । जैसे, ईश्वर की अदभूत कला है । उ०—(क) कासिहु से कला जाती, मथुरा मसीद होती, सिवाजी न होते तो सुनति होति सबकी ।—भूषण (शब्द०) । (ख) रामजानकी लषन में ज्यों ज्यों करिहो भाव । त्यों त्यों दरसैहै कला दिन दिन दून दुराव ।—रघुराज (शब्द०) ।२५. शोभा । छटा । प्रभा । उ०—लखन बतीसी कुल निरमला । बरनि न जाय रूप की कला ।—जायसी (शब्द०) ।२६. ज्योति । तेज । उ०—अब दस मास पूरि भई घरी । पद्मावति कन्या अवतरी । जानो सुरुज किरिन हुत गढ़ी । सूरज कला घाट, वह बढ़ी ।—जायसी (शब्द०) ।२७. कौतुक । खेल । लीला । उ०— यहि विधि करत कला विविध बसत अवधपुर माहिं । अवध प्रजानि उछाह नित, राम बाँह की छाहि ।—रामस्वरूप (शब्द०) । मुहा०—कला बजाना=बंदरों का मजीरा बजाना (मदारी) । २८. छल । कपट । धोखा । बहाना । उ०—यौ ही रच्यौ करैहैं कला कामिनी धनी ।—प्रताप (शब्द०) । यौ०—कलाकार=छली । कपटी । फसादी । २९. बहाना । मिस । हीला ।३०. ढंग । युक्ति । करतब । जैसे— तुम्हारी कोई कला यहाँ नहीं लगेगी । उ०—बिरहा कठिन काल कै कला ।—जायसी ग्रं०, पृ० १०६ । ३१. नटों की एक कसरत जिसमें खिलाड़ी सिर नीचे करके उलटता है । ढेकली । उ०—(क) नाचौ घूँघट खोलि ज्ञान का ढोल बजाओ । देखै सब संसार कलाएँ उलटी खाओ ।—पलटू०, पृ० ५८ । (ख) कतहूँ नाद शब्द ही मला कतहूँ नाटक चेटक कला ।—जायसी (शब्द०) । यौ०—कलाबाजी । कलाजंग । क्रि० प्र०—खाना ।—मारना । ३२. यज्ञ के तीन अंगों में से कोई अंग । मंत्र, द्रव्य और श्रद्धा ये तीन यज्ञ के अंग या उसकी कला हैं । ३३. यंत्र । पेंच । जैसे, — पथरकला । दमकला । ३४. मरीचि ऋषि की स्त्री का नाम । ३५. विभीषण की बड़ी कन्या का नाम । ३६. जानकी की एक सखी का नाम । ३७. एक वर्णवृत का नाम । विशेष—इसके प्रत्येक चरण में एक भगण और एक गुरु (/?/) होता है । जैसे—भाग भरे ग्वाल खरे । पूर्ण कला । नंद लला । ३८. जैन दर्शन के अनुसार वह अचेतन द्रव्य जो चेतन के अधीन रहता है । पुद्गल । प्रकृति । यह दो प्रकार का है—कार्य और कारण ।

कला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कला] १. नकलबाजी ।२. बहानेबाजी । उ०—पुनि सिंगार करु कला नेवारी । कदम सेवती बैठु पियारी ।—जासयी ग्रं०, पृ० १४४ ।

कलाई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कलाची] १. हाथ के पहुँचे का वह भाग जहाँ हथेली का जोड़ रहता है । इसी स्थान पर स्त्रियाँ चूड़ी पहनतीं और पुरुष रक्षा बाँधते हैं । उ०—कहा परेखै करि रही इत देखै चित हाल । गई ललाई दृगति तें छुवत कलाई लाल ।—राम० धर्म०, पृ० २४८ । पर्या०—मणिबंध । गट्टा । प्रकोष्ठ । २. एक प्रकार की कसरत जिसमें दो आदमी एक दूसरे की कलाई पकड़ते हैं और प्रत्येक अपनी कलाई को छुड़ाकर दूसरे की कलाई पकड़ने की चेष्टा करता है । क्रि० प्र०—करना ।

कलाई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कलापी] १. पूला । गट्ठा ।२. पहाड़ी प्रदेशों में एक प्रकार की पूजा जो फसल के तैयार होने पर होती है । विशेष—इसमें फसल के कटने से पहले दस बारह बालों को इकट्ठा बाँधकर कुलदेवता को चढ़ाते हैं ।

कलाई (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कलापी=समूह] १. सूत का लच्छा । करछा । कुकरी ।२. हाथी के गले में बाँधने का कलावा जिसमें पैर फँसाकर पीलवान हाथी हाँकते हैं ।३. अँदुवा । अलान ।

कलाई (४) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुलत्थ] उरद ।

कलाउँत पु
वि० [हिं० कलावंत] दे० 'कलावंत' । उ०—कलाउंत काजै भजन बारहमासी सखि लीनै आप मुख गावैं राग रागिनी न राचवो ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २७ ।

कलाकंद
संज्ञा पुं० [फा० कलाकंद] एक प्रकार की बरफी जो खोए और मिस्त्री की बनती है । उ०—कलाकंद तजि बनजी खारी । अइया मनुषहु बूझि तुम्हारी ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३२८ ।

कलाकर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] अशोक की तरह का एक पेड़ । विशेष—यह बंगाल और मदरास में होता है । इसे कहीं कहीं देवदारी भी कहते हैं ।

कलाकर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कलाओं का आकर, चंद्रमा । कलाधर । उ०—कुअरप्पन प्रथिराज तपै तेजह सु महावर । सुकल बीजु दिन हुतें कला दिन चढ़त कलाकर ।—पृ० रा०, २ । २ ।

कलाकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी कला का ज्ञाता और उस कला में कार्य करनेवाला । कलावंत ।२. कार्यकुशल । ललित कला का करने या बनानेवाला ।

कलाकारिता
संज्ञा स्त्री० [सं० कला+कारिता] कलाकुशलता । कुशलतापूर्वक कार्य करने की योग्यता ।

कलाकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कला + कारी] दे० 'कलाकारिता' ।

कलाकाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह काव्य जिसमें कला का अधिक समा- वेश हो । उ०—पर उंटन ने शक्तिकाव्य से भिन्न को जो कलाकाव्य (पोएट्री इज ऐन आर्ट) कहा है वह कला का उद्देश्य केवल मनोरंजन मानकर ।—रस०, पृ० ५७ ।

कलाकुल
संज्ञा पुं० [सं०] हलाहल विष ।

कलाकुशल
वि० [सं०] किसी कला को कुशलतापूर्वक सपंन्न करनेवाला । चतुर । होशियार ।

कलाकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कलापूर्ण रचना । श्रेष्ठ कृति ।

कलाकेलि
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव ।

कलाकौशल
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी कला की निपुणता । हुनरा । दस्तकारी । कारीगरी ।२. शिल्प ।

कलाक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा की कलाओं का क्रमशः घटना [को०] ।

कलाक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कामरूप देश के अंतर्गत एक प्राचीन तीर्थ ।

कलाचिक, कलाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलाई ।२. कलछी [को०] ।

कलाजंग
संज्ञा पुं० [हिं० कला + जंग] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें विपक्षी के दाहिने पैतरे पर खड़े होने पर अपने बाएँ हाथ से नीचे से उसका दाहिना हाथ पकड़कर अपना बाँया घुटना जमीन पर टेकते हुए दाहिने हाथ से उसकी दाहिनी रान अंदर से पकड़ते हैं, और अपना सिर उसकी दाहिनी बगल में से निकालकर बाँएँ हाथ से उसका हाथ खींचते हुए दाहिने हाथ से उसकी रान उठाकर अपनी बाईँ तरफ गिराकर उसे चित कर देते हैं ।

कलाजीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कलौजी । मँगरैला ।

कलाटीन
संज्ञा पुं० [सं०] खंजन की एक जाती का एक पक्षी [को०] ।

कलातीत
वि० [सं०] सभी प्रकार की कलाओं से परे । उ०— कलातीत कल्यान कल्पांतकारी । सदा सज्जनानंद दाता पुरारी ।—मानस, ७ । १०८ ।

कलात्मक
वि० [सं०] कलापूर्ण । कलामय ।

कलाद
संज्ञा पुं० [सं०] सोनार । उ०—जा दिन से तजी तुम ता दिन तें प्यारी पै कलाद कैसो पेसो लियो अधन अनंग है (शब्द०) ।

कलादक
संज्ञा पुं० [पुं०] दे० 'कलाद' ।

कलादा पु
संज्ञा पुं० [सं० कलाप, हिं० कलावा] हाथी की गर्दन पर वह स्थान जहाँ महावत बैठता है । कलावा । किलावा । उ०— चारिहु बंधु कबहुँ सीखन हित सखन सहित अहलादे । सज्जित सिंधुर सकल भाँति सों बैठहिं आपु कलादे ।—रघुराज (शब्द०) ।

कलाधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । उ०—यह समता क्यौं करि बनत मो कर मुख मृदु गात । कमल कलाधर कनक लखि कबि कुल कहत लजात ।—स० सप्तक, पृ० ३८४ ।२. दंडक छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में एक गुरु, एक लघु, इस क्रम से १५ गुरु और १५ लघु होकर अंत में गुरु होता है । जैसे,— जाय के भरत्थ चित्रकूट राम पास बेगि, हाथ जोरि दीन ह्वै सुप्रेम तें बिनै करी । सीय तात मात कौशिला वशिष्ठ आदि पूज्य लोक वेद प्रीती नीति की सुरति ही धरी । जान भूप बैन धर्म पाल राम ह्वै सकोच धीर दे गंभीर बंधुकी गलानि को हरी । पादुका दई पठाय औध को समाज साज देख नेह राम सीय के हिये कृपा भरी (शब्द०) ।३. शिव ।४. कलाओं को जाननेवाला । वह जो कलाओं का ज्ञाता हो । उ०—कविकुल विद्याधर सकल कलाधर राज राज बर वेश बने ।—केशव (शब्द०) ।

कलानक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के गण का ना ।

कलाना पु †
क्रि० अ० [प्रा० कल = आवाज करना] बोलना । चिल्लाना । उ०—मारू मारू कलाइयाँ उज्वल दंती नारि । हसनइ दे हुँकारड़उ, हिवड़उ फूटण हारि ।—ढोला दू० ६११ ।

कलानाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । उ०—यह लघु लहरों का विकास है कलानाथ जिसमें खिंच आता । —रस० पृ० ३४१ । २. एक गंर्धव का नाम जिसने संगीताचार्य सोमेश्वर से संगीत सीखा था ।

कलानिधि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा ।

कलानिपुण
वि० [सं०] कलाकुशल । कलाप्रवीण । कला का ज्ञाता । उ०—कवि को कलानिपुण और सहृदय दोनों होना चाहिए ।—रस०, पृ० ९९ ।

कलान्यास
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र का एक न्यास जो शिष्य के शरीर पर किया जाता है । विशेष—इसमें शिष्य के पैर से घुटने तट ऊँ नवृत्यै नमः, घुटने से नाभि तक 'ऊँ प्रतिष्ठायै नमः', नाभि से कंठ तक 'ऊँ विद्यायै नमः', कंठ से ललाट तक 'ऊँ शांत्यै नमः' और ललाट से ब्रह्मरंध्र तक 'ऊँ शांत्यंतीतायैनमः' कहकर न्यास करते हैं और फिर इसी क्रिया को सिर से पैर तक उल्टा दोहराते हैं ।

कलाप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह । झुंड । जैसे,—क्रियाकलाप । उ०—को कवि को छबि को बरनै रचि राखनि अंग सिंगार कलापन ।—घनानंद, पृ० ३९ । २. मोर की पूँछ ।३. पूला । मुट्ठा ।४. बाण ।५. तूण । तरकाश ।६. कमरबंद । पेटी ७. करधनी ।८. चंद्रमा । ९. कलावा ।१०. कातंत्र व्याकरण, जिसके विषय में कहा जाता है कि इसे कार्तिकेय ने शर्ववर्मन को पढ़ाया था ।११. व्यपार । १२. वह ऋण जो मयूर के नाचने पर अर्थात वर्षा में चुकाया जाय । १३. एक प्राचीन गाँव जहाँ भागवत के अनुसार देवर्षि और सुदर्शन तप करते हैं । इन्हीं दोनों राजर्षियों से युगांतर में सोमवंशी और सूर्यवंशी क्षत्रियों की उत्पत्ति होगी ।१४. वेद की एक शाखा ।१५. एक अर्थ चंद्राकार अस्त्र का नाम ।१६. एक सकर रागिनी जो बिलावल, मल्लार, कान्हाड़ और नट रागों को मिलाकरबनाई जाती है ।१७. आभरण । जेवर । भूषण ।१८. अर्धचंद्राकार गहना । चंदन ।

कलाप (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलपना] व्यथा । दुःख । क्लेश । उ०—अबही भेली हेकली करही करइ कलाप । कहियउ लोपाँ साँमिकउ, सुंदरि लहाँ सराप ।—ढोला०, दू० ३२३ ।

कलापक
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह ।२. पूला । गट्ठा ।३. हाथी के गले का रस्सा ।४. चार श्लोकों का समूह जिनका अन्वय एक में होता है ।५. वह ऋण जो मयूरों के नाचने पर अर्थात् वर्षा ऋतु में चुकाया जाय ।६. मोतियों की लड़ी (को०) । ७. मेखला । करधनी (को०) । ललाट पर अंकित सांप्रदायिक चिह्न या लक्षणविशेष (को०) ।

कलापट्टी
संज्ञा स्त्री० [पुर्त० कलफेटर] जहाजों की पटरियों की दर्ज में सन आदि ठूसने का काम ।—(लश०) । क्रि० प्र०—करना ।

कलापति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा । उ०—हम प्रणय की सदय मुखछबि देख लें, लोल लहरों पर कलापति से लिखी ।—ग्रंथि, पृ० ६५ ।

कलापद्दीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलाप ग्राम । विशेष—भागवत के अनुसार यहाँ सोमवंशी देवर्षि और सूर्यवंशी सुदर्शन नाम के दो राजर्षि तप कर रहे हैं । कलियुग के अंत में फिर इन्हीं दोनों राजर्षियों से चंद्र और सूर्य वंश चलेगा । २. कातंत्र व्याकरण पर एक भाष्य का नाम ।

कलापशिरा
संज्ञा पुं० [सं० कलापशिरस्] एक मुनि का नाम ।

कलापा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंगहार (नृत्य) में वह स्थान जहाँ तीन करण हों ।

कलपिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात्रि ।२. नागरमोथा ।३. मयूरी । मोरनी ।

कलापी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कलापिन्] [स्त्री० कलापिनी] १. मोर । उ०—पैड़े परे पापा ये कलापी निस द्योस ज्यौही, चातक । घातक त्यौं ही तू हू कान फोरि लै ।—घनानंद, पृ० ८७ ।२. कोकिल ।३. बरगद का पेड़ ।४. वैशंपायन का एक शिष्य । ५. मयूर के नृत्य का समय (जब मयूर अपनी पूँछ के पंखों को फैलाता है) (को०) ।

कलापी (२)
वि० १. तूणीर बाँधे हुए । तरकशबंद ।२. कलाप व्याकरण पढ़ा हुआ ।३. झुंड में रहनेवाला ।४. पूँछ या दूम फैलाने— वाला (मोर) (को०) ।

कलाबतून
संज्ञा वि० [हिं० कलाबत्तू] दे० 'कलाबत्तू' ।

कलाबतूनी
वि० [तु० कलाबतून] कलाबत्तू का बना हुआ ।

कलाबत्तू
संज्ञा पुं० [तु० कलाबतून] [वि० कलाबतूनी] १. सोने चाँदी आदि का तार जो रेशम पर चढ़ाकर बटा जाय । २. सोने चाँदी के कलाबत्तू का बना हुआ पतला फीता जो लचके से पतला होता है और कपड़ों के किनारों पर टाँका जाता है ।३. सोने चाँदी का तार ।

कलाबा
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'कलावा' ।

कलाबाज
वि० [हिं० कला+फा़० बाज] कलाबाजी करनेवाला । नटक्रिया करनेवाला । कलैया लगानेवाला ।

कलाबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कला+फा० बाजी] १. सिर नीचे करके उलट जाना । ढेकली ।२. लोटनिया । क्रि० प्र०—करना ।—खाना ।ेे मुहा०—कलाबाजी खाना=लोटनिया लेना । उड़ते उड़ते सिर नीचे करके पलटा खाना (गिरहबाज कबूतर का) । २. नाचकूद ।

कलाबीन
संज्ञा पुं० [देश०] एक वृक्ष । विशेष—यह सिलहट, चटगाँव और वर्षा में होता है । वह ४०—५० फुट ऊँचा होता है । इसके फल के बीज को मूँगला चावल या कलौथी कहते हैं, जिसका तेल चर्मरोगों पर लगाया जाता है ।

कलाभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा ।

कलाम
संज्ञा पुं० [अ०] १. वाक्य । वचन । उक्ति ।२. बातचीत । कथन । बात ।३. वादा । प्रतिज्ञा । उ०—पुनि नैन लगाइ बढ़ाइ के प्रीति निबाहन को क्यों कलाम कियो है ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना । २. उज्र । वक्तव्य । एतराज । उ०—दहन पर हैं उनके गुमाँ कैसे कैसे । कलाम आते हैं दर्मियाँ कैसे कैसे ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४०७ । मुहा०—कलाम होना=संदेह होना । शंका होना । जैसे, —तुम्हारी सचाई में कोई कलाम नहीं है ।

कलामक
संज्ञा पुं० [सं०] जाड़े में पकनेवाला एक धान [को०] ।

कलामपाक
संज्ञा पुं० [अ० कलाम+फा० पाक] कुरान शरीफ ।

कलाममजोद
संज्ञा पुं० [अ० कलाम + मजीद] कुरान शरीफ ।

कलामल पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलिमल] दे० 'कलिमल' । उ०— काया धरि हम घर घर आए, काया नाम कलामल पाए ।— कबीर सा०, पृ० २५३ ।

कलामुल्लाह
संज्ञा पुं० [अ०] कुरानशरीफ । उ०—मगर जब उसको किसी तरफ से एतकाद आ जाता है तो वो उसके कलाम को कलामुल्लाह समझना है ।—श्रीनिवास० ग्रं०, पृ० १२४ ।

कलामेमजीद
संज्ञा पुं० [हिं० कलाममजीद] दे० 'कलाममजीद' । उ०—ख्वाजा—कलामेमजीद की कसम, जब तक अहल्या का पता न लगा लूँगा, मुझे दाना पानी हराम है ।—काया०, पृ० ३३५ ।

कलामोचा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो बंगाल में होता है ।

कलाय
संज्ञा पुं० [सं०] मटर ।

कलायखंजा
संज्ञा पुं० [सं० कलामखन्ज] एक रोग जिसमें रोगी के जोड़ों की नसें ढीली पड़ जाती हैं । और उसके अंगों में कँपकँपी होती है । वह चलने में लँगड़ाता है ।

कलायन
संज्ञा पुं० [सं०] नर्तक [को०] ।

कलायाँ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलाई] दे० 'कलाई' । उ०—वादीला बनराव रै, जिसै कलायाँ जोर ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० २० ।

कलार
संज्ञा पुं० [हिं० कलवार] दे० 'कलवार' । उ०—चलो कलार की हाट में मदिरा को प्रथम प्रीति का साक्षी बनावें ।— शकुंतला, पृ० १०४ ।

कलारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलवार] १. कलवार जाति की स्त्री । कलवारिन । उ०—सुरत कलारी भइ मतवारी मदवा पी गइ बिन तोले ।—संत वाणी०, भा० २, पृ० १७ ।२. शराब बेचने या बनाने का स्थान । कलवरिया ।

कलाल
संज्ञा पुं० [सं० कल्यापाल] [स्त्री० कलाली] कलवार । मद्य बेचनेवाला । उ०—सूरख लोक नू जाणही चोर जुवारि अनइ कलाल ।—बी० रासो, पृ० ५३ । यौ०—कलालखाना=शराबखाना । मद्य बिकने का स्थान ।

कलाली पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलारी] दे० 'कलारी' । उ०—आगे कलाली की हाट हैं रे चोरना फूल चूनंत ।—कबीर मं०, पृ० १७५ ।

कलावंत (१)
संज्ञा पुं० [सं० कलावान्] १. संगीत कला में निपुण व्यक्ति । वह पुरुष जिसे गाने बजाने की पूरी शिक्षा मिली हो । गवैया । उ०—बिनकुँ राग सुनवे को व्यसन बहुत हुतो सो गान सुनायबे के लिये देश देश के कलावंत गवैया उहाँ आवते हते ।—अकबरी०, पृ० ३९ ।२. कलाबजी करनेवाला । नट । ३. बाजीगर । जादूगर । उ०—कथनी कथा तो क्या हुआ करनी ना ठहराय । कलावंत का कोट ज्यों देखत ही ढहि जाय ।—कबोर सा० सं०; पृ० ८८ ।

कलावंत (२)
वि० कलाओं का जाननेवाला ।

कलावंत (३)पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलावंत] दे० 'कलावंत' । उ०—जहाँई कलावतं अलापैं मधुर स्वर । —भूषण ग्रं०, पृ० ५४ ।

कलाव
संज्ञा पुं० [हिं० कलावा] दे० 'कलावा' ।

कलावत पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलावंत] दे० 'कलावा' । उ०—भाट कलावत बसैं सुजाना । जिन्ह पिंगल संगीत बखाना ।— चित्रा०, पृ० ११ ।

कलावती (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. जिसमें कला हो ।२. शोभावाली । छविवाली ।

कलावती (२)
संज्ञा स्त्री० १. तुंबुरु नामक गंधर्व की वीणा ।२. द्रुमिल राजा की पत्नी ।३. एक अप्सरा का नाम ।४. गंगा (काशी खंड) ।५. तंत्र की एक प्रकार की दीक्षा ।

कलावली पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलबल] दे० 'कलबल' । उ०—अबला कहत भला कहो मरा कैसे यह याकी कलावली बीर विपुल विनासे हैं ।—दीन० ग्रं०; पृ० १३६ ।

कलावा
संज्ञा पुं० [सं० कलापक, प्रा० कलावअ, तुलनीय फा० कलाबह] [स्त्री० अल्पा कलाई] १. सूत का लच्छा जो टेकुए पर लिपटा रहता है ।२. लाल पीले सूत के तागों का लच्छा जिसे विवाह आदि शुभ अवसरों पर हाथ, घड़ों तथा और और वस्तुओं पर भी बाँधते हैं ।३. हाथी के गले में पड़ी हुई कई लड़ों की रस्सी जिसमें पैर फैसाकर महावत हाथी हाँकते हैं ।४. हाथी की गरदन ।

कलावादी
वि०—[सं० कला + वाद + हिं० ई (प्रत्य०)] १. कला के दृष्टिकोण से संबंधित । कला के विचार से युक्त । उ०—शुद्ध कलावादी दृष्टिकोण से तो इतिहास नहीं लिखे गए लेकिन न्यूनाधिक मात्रा में एकांगी समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण आचार्य शुक्ल जी से लेकर आजतक अपनाए जाते रहे हैं ।—आचार्य० पृ० २ ।२. 'कला कला के लिये' सिद्धांत को माननेवाला । उ०—इसी प्रकार कलावादियों का केवल कोमल और मधुर की लीक पकड़ना मनोरंजन मात्र की रुचि और दृष्टि की परिस्थिति के कारण समझना चाहिए ।—रस०, पृ० ५९ ।

कलावान
वि० [सं० कलावान्] [स्त्री० कलावती] कलाकुशल । गुणी ।

कलाविक
संज्ञा पुं० [सं०] कुक्कुट । मुर्गा ।

कलास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत प्राचीन समय का एक बाजा जिसपर चमड़ा चढ़ा रहता है ।

कलास (२)
संज्ञा पुं० [अं० क्लास] दर्जा । कक्षा । श्रेणी ।

कलासी
संज्ञा पुं० [देश०] दो तख्तों के जोड़ की लकीर (लश०) ।

कलाहक
संज्ञा पुं० [सं०] काहल नाम का बाजा ।

कलिंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० कलिङ्ग] १. मटमैले रंग की एक चिड़िया जिसकी गरदन लंबी और लाल तथा सिर भी लाल भी लाल होता है । कुलंग ।२. कुटज । कुरैया ।३. इंद्रजौ ।४. सिरिस का पेड़ ।५. पाकर का पेड़ ।६. तरबूज ।७. कलिंगड़ा राग । ८. प्राचीन काल का एक राजा जो बलि की रानी सुदेष्णा और दीर्घतमस् ऋषि के नियोग से उत्पन्न हुआ था ।९. एक प्राचीन समुद्र तटस्थ देश जिसके राज्य का विस्तार गोदावरी और वैतरणी नदी के बीच में था । यहाँ के लोग जहाज चलाने में प्रसिद्ध थे । यह राज्य आधुनिक आंध्र का वह भाग था जो कटक से मद्रस तक फैला है ।१०. कलिंग देश का निवासी ।

कलिंग (२)
वि० १. कलिंग देश का ।२. कुशल । चतुर (को०) ।३. धूर्त (को०) ।

कलिंगक
संज्ञा पुं० [सं० कलिङ्गक] १. इंद्रयव । इंद्रजौ ।२. तरबूज ।

कलिंगड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कलिङ्ग] एक राग जो दीपक राग का पाँचवाँ पुत्र माना जाता है । उ०—जीवन में आग लगा डालूँ ? हँसकर कलिंगड़ा गाऊँ ? मेरा अंतरयामी कहता है, मैं मलार बरसाऊँ ।—हिम०, पृ० ४५ । विशेष—यह संपूर्ण जाति का राग है और रात के चौथे पहर में गाया जाता है । इसमें सातों स्वर लगते हैं इसका स्वरपाठ इस प्रकार हैः म ग रे सा सा रे ग म प ध नी सा ।

कलिंगा
संज्ञा पुं० [देश०] तेवरी नाम का पेड़ जिसकी छाल रेचक होती है ।

कलिंज
संज्ञा पुं० [सं० कलिञ्ज] नरकट नाम की घास ।२. चटाई [को०] ।३. परदा (के०) ।

कलिंजर
संज्ञा पुं० [सं० कालिञ्जर] दे० 'कालिंजर' ।

कलिंद
संज्ञा पुं० [सं० कलिन्द] १. बहेड़ा ।२. सूर्य ।३. पर्वत जिससे यमुना नदी निकलती है ।यौ०—कलिंदकन्या, कलिंदतनया, किलंदनंदिनी कलिंदसुता= दे० 'कलिंदजा' ।

कलिंदजा
संज्ञा स्त्री० [सं० कलिन्द+जा] यमुना नदी जो कलिंद नामक पर्वत से निकली है । उ०—कूल कलिंदजा के सुखमूल लतान के बृंद बितान तने हैं ।—भिखारीदास (शब्द०) ।

कलिंदी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कालिन्दी] दे० 'कालिंदी' । उ०—तब कदर कदब के मूलनि । दुरत हैं जाई कलिंदी कुलनि ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९० ।

कलिंद्र
संज्ञा पुं० [सं० कलिन्द] दे० 'किलंद ३' । उ०—जनु कलिंद्र गिर सूर सुहावई ।—प० रा०, पृ० ११२ ।

कलि
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहेड़े का फल या बीज । विशेष—वामन पुराण में ऐसी कथा है कि जब दमयती ने नल के गले में जयमाल डाली, तब कलि चिढ़कर नल से बदला लेने के लिये बहेड़े के पेड़ों में चल गया, इससे बहेड़े का नाम 'कलि' पड़ा । २. पासे कै खेल में वह गोटी जो उठी न हो । उ०—कलि [नामक पासा] सो गया है, द्वापर स्थान छोड़ चुका है, त्रेता अभी खड़ा है, कृत चल रहा है [तेरी सफलता की संभावना है] परिश्रम करता जा ।—भा० प्रा० लि०, पृ० ११ । विशेष—ऐतरेय ब्राह्मण से पता लगता है कि पहले आर्य लोग बहेड़े के फलों से पासा खेलते थे । ३. पासे का वह पार्श्व जिसमें एक ही बिंदी हो ।४. कलह । विवाद । झगड़ ।५. पाप ।६. चार युगों में से चौथा युग जिसमें देवताओं के १२०० वर्ष या मनुष्यो के ४३२००० वर्ष होते हैं । विशेष—पुराणों के मत से इसका प्रारंभ ईसा से ३१०२ वर्ष से पूर्व माना जाता है । इसमें दुराचार और अधर्म की अधिकता कहीं गई । ७. छंद में टगण का एक भेद जिसमें क्रम से दो गुरु और दो लघु होते हैं (/?/) ।८. पुराण के अनुसार क्रोध का एक पुत्र जो हिंसा से उत्पन्न हुआ था । इसकी बहन दुरुक्ति और दो पुत्र, भय और मृत्यु हैं ।९. एक प्रकार के देव गंधर्व जो कश्यप और दक्ष की कन्या से उत्पन्न हैं ।१०. शिव का एक नाम । ११. सूरमा । वीर । जवाँमर्द । १२. तरकश । १३. क्लेश । दुख ।१४. संग्राम । युद्ध । उ०— कलि कलेश कलि शूरमा कलि निषंग संग्राम । कलि कलियुग यह और नहिं केवल केशव नाम ।—नंददास (शब्द०) । यौ०—कलिकर्म = संग्राम । युद्ध ।

कलि (२)
वि० श्याम । काला । उ०—श्वेत लाल पीरे युग युग में । भे कलि आदि कृष्ण कलियुग में ।—गोपाल (शब्द०) ।

कलि (३)
क्रि० वि० [सं० कल्य] दे० 'कल' । उ०—तब कहै कुँअर सामंत सम, कलि आषेटक रंग । भयौ सुरसमै एक भल, आलस ही में गंग ।—पृ० रा०, ६ । १४१ ।

कलि (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कली । उ०—जैसे नव ऋति नव कलि आकुल नव अंजलि ।—अर्चना, पृ० २५ । २. वीणा का मूल (को०) ।

कलिअल पु
संज्ञा पुं० [सं० कलकल] दे० 'कलकल' । उ०—कुंझड़ियाँ कलिअल कियउ, सुणी उ पेखइ वाइ । ज्याँ की जोड़ी बीछड़ी, ज्याँ निसि नींद न आइ । —ढोला०, दू० ५८ ।

कलिक
संज्ञा पुं० [सं०] क्रौंच पक्षी [को०] ।

कलिकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध । संग्राम । उ०—करहि आय कलिकर्म धर्म जो क्षत्रिन को है ।—विश्राम (शब्द०) ।

कलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिना खिला फूल । कली ।२. वीणा का मूल ।३. प्राचीन काल का एक बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा जाता था ।४. एक सस्कृत छंद का भेद ।५. कलौंजी । मँगरैला ।६. कला । मूहूर्त ।७. अंश । भाग ।८. संस्कृत की पदरचना का एक भेद जिसमें ताल नियत हो ।

कलिकान †
वि० [देश०] परेशान । हैरान । (बोल०) ।

कलिकापूर्व
संज्ञा पुं० [सं०] वह वस्तु जिसका कारण अंशतः अज्ञात- पूर्व हो (जैसे जन्म, आग्रेयादि यज्ञ) और जिसका फल (जैसे स्वर्ग आदि) नितांत अपूर्व या अज्ञातपूर्व हो ।

कलिकार, कलिकारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारद ।२. पूर्ति- करंज [को०] ।

कलिकारक (१)
वि० [सं०] १. झगड़ा करनेवाला ।२. झगड़ा लगानेवाला ।

कलिकारक (२)
संज्ञा पुं० १. पूर्तिकरंज ।२. नारद ऋषि ।

कलिकारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कलियारी विष ।

कलिकाल
संज्ञा पुं० [सं०] कलियुग ।

कलिकालीन
वि० [सं०] कलियुगी । कलियुग का । उ०—कलि- कालीन मलीते दीन जन पावन करन परम गंभीर ।—घनानंद, पृ० ४४९ ।

कलिकालु पु
संज्ञा पुं० [सं० कलिकाल] दे० 'कलिकाल' । उ०— राम नाम नर केसरी कनक कसिपु कलिकालु ।—मानस १२७ ।

कलिजुग पु
संज्ञा पुं० [सं० कलियुग] दे० 'कलियुग' । उ०—कलि युग में काशी चलि आए । जब हमरे तम दरसन पाए ।— कबीर सा०, पृ० ८२५ ।

कलित
वि० [सं०] १. विदित । ख्यात । उक्त ।२. प्राप्त । गृहीत । ३. सजाया हुआ । सुसज्जित । शोभित । युक्त । रचित । उ०— (क) कुलिश कठोर, तन जोर परे शेर रन, करुना कलित मन धारमिक धीर को ।—तुलासी (शब्द०) । (ख) आलस वलित, कोरैं काजर कलित, मतिराम वै ललित अति पानिप धरत हैं ।—मतिराम (शब्द०) ।४. सुंदर । मधुर । उ०— कलित किलाकिला, मिलित मोद उर, भाव उदोतनि (शब्द०) ।

कलितरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. पापवृक्ष ।२. बहेड़ा । उ०—प्रेम कामतरु परिहरत, सेवत कलितरु ठूँठ ।—तुलसी ग्रं० पृ० १०९ ।

कलित्तर पु
संज्ञा पुं० [सं० कलत्र] दे० 'कलत्र' । उ०—पुत्र कलित्तर भाई बंधु सब ही ठोक जलाहीं ।—चरण बानी०, पृ० १०८ ।

कद्रिमम
संज्ञा पुं० [सं०] बहेड़े का पेड़ ।

कलिनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत के चार आचार्यों में से एक ।

कलिपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पद्यराग मणि या मानिक की एक प्राचीन खान का नाम ।२. पद्मराग मणि का एक भेद जो मध्यम माना जाता था ।

कलिप्रद
संज्ञा पुं० [सं०] शराब की दूकान (को०) ।

कलिप्रिय (१)
वि० [सं०] झगड़ालू । दुष्ट ।

कलिप्रिय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारद मुनि ।२. बंदर ।३. बहेड़े का पेड़ ।

कलिमल पु
संज्ञा पुं० [सं०] पाप । कलुष । उ०—चलत कुपंथ वेद मग छाड़े । कपट कलेवर कलिमल भाँड़े ।—मानस, १ । १२ । यौ०—कलिमल सरि = कर्मनाश नदी ।

कलियल पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलियल] करुण ख । क्लेशजन्य चीत्कार । उ०—जिणि दीहे पालउ पड़इ माथइ, माथउ भिड़इ तिलाँह । तिणि दिस जाए प्राहुणउ कलियल कुरझड़ियाँह ।—ढोला०, दू० २८३ ।

कलिया
संज्ञा पुं० [अं०] पकाया हुआ मांस । घी में भूनकर रसेदार पकाया हुआ मांस । उ०—कलिया नानपुलाव पेट भरि खाइ कै ।—पलटू०, भा० २, पृ० ८५ ।

कलियाना
क्रि० अ० [हिं० कलि] १. कली लेना । कलियों से युक्त होना । उ०—जावक जय चरणों पर छाई । पलक पलास डाल कलियाई ।—आराधना, पृ० ४० । २. चिड़ियों का नथा पंख निकालना ।

कलियारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कलिहारी] एक विषैला पौधा जिसकी पतियाँ पतली और नुकीली होती हैं और जिसकी जड़ में गाँठें पड़ती हैं । विशेष—इसका फूल नारंगी रंग का अत्यंत सुंदर होता है । फूल झड़ जाने पर मिर्चे के आकार का फल लगाता है, जिसमें तीन धारियाँ होती हैं । पके फल के भीतर लाल छिलके में लिपटे हुए इलायची के दाने के आकार के बीज होते हैं । इसकी जड़ या गाँठ में विष होता है । यह कड़ुई, चरपरी, तीखी, कसैली और गरम होती है तथा कफ, वात, शूल; बवासीर, खुजली, व्रण, सूजन और शोथ के लिये उपकारी है । इससे गर्भपात हो जाता है । इसके पत्ते, फूल और फल से तीखी गंध आती है । पर्या०—कलिकारी । लांगलिकी । दीप्ता । गर्भधातिनो । अग्नि जिह्वा । वहिनशिखा । लांगुली । हली । नक्ता । इंद्रपुष्पिका । विद्युज्ज्वाला । कलिहारी ।

कलियुग
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार युगों में से चौथा युग । २. पापयुग । कलहयुग ।

कलियुगाद्या
संज्ञा पुं० [सं०] माघ की पूर्णिमा जिसे कलियुग का आरंभ हुआ था ।

कलियुगी
वि० [सं०] १. कलियुग का ।२. बुरे युग का । कुप्र- वृत्तिवाला । जैसे,—कलियुगी लड़के ।

कलियुग्ग पु
संज्ञा पुं० [सं० कलियुग] दे० 'कलियुग' । उ०—धनि सुयुग्ग कलियुग्ग धन्य संवत् समत्थ मनि ।—अकबरी०, पृ० ७ ।

कलिख पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलख] दे० 'कलख' । उ०—एक भरई बीजी कलिख करई तीजी धरी पीवजे ठंड़ा नीर ।— बी० रासो, पृ० २८ ।

कलिल (१)
वि० [सं०] १. मिला जुला । ओतप्रोत । मिश्रित । २. गहन । घना । दुर्गम । उ०—मोह कलिल व्यापित मति भोरी ।—तुलसी (शब्द०) ।

कलिल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह । ढेर । राशि ।

कलिवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक चालुक्य राजा का नाम जिसे ध्रुव भी कहते थे ।

कलिकर्ज्य
वि० [सं०] जिसका करना कलयुग में निषिद्ध है । विशेष—धर्मशास्त्रों में उस कर्म को कलिवर्ज्य कहते हैं जिसका करना अन्य युगों में विहित था, पर कलियुग में निषिद्ध या वर्जित है, जैसे अश्वमेध, गोमेध, देवरादि से नियोग, संन्यास, मांस का पिंडदान ।

कलिविक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण देश का एक चालुक्यवंशी राजा जिसे त्रिभुवन मल्ला वा चतुर्थ विक्रमादित्य भी कहते हैं । इसके बाप का नाम आहववल्ल था । इसने संवत् ९९१ से १०४८ तक राज्य किया था ।

कलिवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] बहेड़ा [को०] ।

कलिहारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कलियारी । करियारी ।

कलोंदा
संज्ञा पुं० [सं० कलिंग] तरबूज । हिनवाना ।

कली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिना खिला फूल । मुँहबँधा फूल । बोंड़ी । कलिका । उ०—कली लगावै कपट की, नाम धरावै हेम ।—दरिया० बानी, पृ० ३४ । क्रि० प्र०—आना ।—खिलना ।—निकलना ।—फटना ।— लगना । मुहा०—दिल की कली खिलना=आनंदित होना । चित्त प्रसन्न होना । २. ऐसी कन्या जिसका पुरुष से समागम न हुआ हो । मुहा०—कच्ची कली=अप्राप्तयौवना । ३. चिड़ियों का नया निकला हुआ पर । ४. वह तिकोना कटा हुआ कपड़ा जो कुर्त्ते, अँगरखे और पायजामे आदि में लगाया जाता है । ५. हुक्के का वह भाग जिसमें गड़ागड़ा लगाया जाता है और जिसमें पानी रहता है । जैसे, नारियल की कली । ६. वैष्णवों के तिलक का एक भेद जो फूल की कली की तरह होता है ।

कली (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० कलई] पत्थर या सीप आदि का फुँका हुआ टुकड़ा जिससे चूना बनाया जाता है । जैसे—कली का चूना ।

कली (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० कालिय] दे० 'कालिय' । उ०—मुषे काल व्यालं । सिसू बछ्छ पालं । कली उत्तमंगं । कियं न्नित्त रंगं ।—पृ० रा०, २ ।५० ।

कलीआ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कलिका, प्रा० कलिआ] दे० 'कली' । उ०—बिगसी रहिया भँवर ज्यों कलिआ ।—प्राण०, पृ० ३६ ।

कलीट †
वि० [हिं० काला+ ईट (प्रत्य०)] काला कलूटा । उ०— मुरली के सँग मिले मुरारी । ये कुलटा कलीट वे दोउ । इक तें एक नहिं घाटे कोऊ ।—सूर (शब्द०) ।

कलीमा पु
संज्ञा पुं० [अ० कलीम] वाक्य । बात । उ०—अबे वेभणंता सराबा पिबंता, कलीमा कहंता कलामे जीअंता ।—कीर्ति०, पृ० ४० ।

कलोरा
संज्ञा पुं० [सं० कली+ रा (प्रत्य०)] कौड़िया और छुहारों आदि को पिरोकर बनाई हुई एक प्रकार की माला । विशेष—प्रायः विवाह आदि के समय कन्या अथवा दीवाली आदि अवसरों पर यों ही बच्चों को उपहार में दी जाती है ।

कलील
संज्ञा पुं० [अ०] १. थोड़ा । कम । २. छोटा ।

कलोसा
संज्ञा पुं० [यू० इकलीसिया] मसीहा लोगों का मंदिर । गिरजा । उ०—अगर मस्जिद में अजान होती है तो कलीसा में घंटा क्यों न बजे?—मान०, भा०१, पृ० १९८ ।

कलीसाई (१)
वि० [हिं० कलीसा] १. कलीसा से संबंधित । २. मसीही ।

कलीसाई (२)
संज्ञा पुं० ईसा मसीह के मत के माननेवाला । ईसाई । मसीही ।

कलोसिया
संज्ञा पुं० [यू० इकलीसिया] १. इसाइयों या यहूदियों की धर्ममंडली ।

कलु
संज्ञा पुं० [सं० कलियुग, पु कलऊ] दे० 'कलियुग' । उ०— इह संसार असार सार कित्ती कलु माँही ।—पृ० रा०, ७ ।१५० ।

कलुआबीर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कलुवाबीर' ।

कलुक्क
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाजा । झाँझ (को०) ।

कलुक्का
संज्ञा पुं० [सं०] १. सराय । २. उल्का [को०] ।

कलुख पु
संज्ञा पुं० [सं० कलुष] दे० 'कलुष' । उ०—काम कलुख कुंजर कदन समरथ जो सब भाँति, गदा चिह्न येहि हेतु हरि धरत चरन जुत क्रांति ।—भारतेंदु ग्रं० भा० २, पृ० १३ ।

कलुखाई पु
संज्ञा स्त्री० [हि० कलुख+ आई (प्रत्य०)] दे० 'कलुषाई' ।

कलुखी
वि० [हिं० कलुख+ई (प्रत्य०)] दोषी । कलंकी । बदनाद । उ०—बैरी यह बंधु देव, दीनबंधु जानि हम बंधन में डारे तुम न्यारे कलुखी भये ।—देव (शब्द०) ।

कलुवा पु
वि० संज्ञा पुं० [हिं० काला] काला कुत्ता । काले रंग का कुत्ता । उ०—कलुवा कबरा मोतिया झबरा बुचवा मोंहि डेरवावे ।—मलूक०, पृ० २५ । विशेष—कुत्तों के इस प्रकार के विशेषणमूलक नाम प्रचलित हैं ।

कलुवाबीर
संज्ञा पुं० [हिं० काला+ बीर] टोना टामर या साबरी मंत्रों का एक देवता । विशेष—इसकी दुहाई मंत्रों में दी जाती है ।

कलुष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [विं० कलुषित, कलुषी] १. मलिनता । मैल । २. पाप । दोष । ३. कलंक । यौ०—कलुषचेता । कलुषमति । कलुषात्मा । ४. क्रोध । ५. भैंसा ।

कलुष (२)
वि० [वि० स्त्री० कलुषा, वि० कलुषी] १. मलिन । मैला । गंदा । २. निंदित । ३. दोषी । पापी ।

कलुषचेता
वि० [सं० कलुषचेतस्] १. जिसके मन में कलुष हो । २. जो कलुषित कार्य करने में प्रवृत्त हो (को०) ।

कलुषता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कल्मष । पाप । उ०—प्रेम भक्ति यह मै कही जाने बिरला कोई । हृदय कलुषता क्यौं रहै, जा घट जैसी होइ ।—सुंदर ग्रं०, भा०१, पृ० २७ ।

कलुषमानस
वि० [सं०] कलुषित मनवाला । दुष्ट । पापी [को०] ।

कलुषयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] वर्णसंकर । दोगला । यौ०—कलुषयोनिज=वर्णसकर । दोगला ।

कलुषाई
संज्ञा स्त्री० [सं० कलुष+ हिं० आई (प्रत्य०)] १. बुद्धि की मलिनता । चित्त का विकार या दोष । उ०—भए सब साधु किरात किरातिनि रामदरस मिटिगै कलुषाई ।—तुलसी (शब्द०) । २. अपवित्रता । मलिनता । उ०—तीय सिरोमणि सीय तजी जिन पावक की कलुषाई दही है ।— तुलसी (शब्द०) ।

कलुषित
वि० [सं०] १. दूषित । उ०—कलुषित कैसे शुद्ध सलिल को आज करूँ मै ।—साकेत, पृ० ४०२ । २. मलिन । मैला । ३. पापी । ४. दुःखित । ५. क्षुब्ध । ६. असमर्थ । ७. काला । ८. रुष्ट (को०) । ९. दुष्ट (को०) ।

कलुषी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. पापिनी । दोषी । २. मलिन । गंदी । ३. कुद्धा (को०) । ४. दुष्टा [को०] ।

कलुषी (२)
वि० सं० [सं० कलुषिन्] १. मलिन । मैला । गंदा । २. पापी । दोषी । ३. क्रुद्ध (को०) । ४. दुष्ट (को०) ।

कलू पु
संज्ञा पुं० [सं० कलियुग, पु † कलऊ] दे० 'कलियुग' । उ०— आया है कलू का दौर घरो घर कांगारौल ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३३ ।

कलूटा
वि० [हिं० काला+ टा (प्रत्य०)] [स्त्री० कलूटी] काले रंग का । काला । यौ०—काला । कलुटा ।

कलूना
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा धान जो पंजाब में उत्पन्न होता है ।

कलूब पु
संज्ञा पुं० [अ० कल्ब] हृदय । अंतःकरण । उ०—दादू पसु पिरंनि के, पेही मंझि कलूब ।—दादू०, पृ० ९० ।

कलेंडर
संज्ञा पुं० [अं०] तिथिपत्र । पंचांग । ईसवी सन का तिथिपत्र ।

कलैऊ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कलेवा] प्रातकाल का लघु भोजन । जलपान । कलेवा । उ०—प्रातःकाल उठि देहु कलेऊ बदन चुपरि अरु चोटी । को ठाकुर ठाढ़ों हाथ लकुट छोटी ।—सूर (शब्द०) ।

कलेक्टर
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'कलक्टर' ।

कलेजई (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कलेजा] एक रंग का नाम । विशेष—यह छिबुला, हर्रे, कसीस और मजीठ या पतंग के मेल से बनता है । इसे चुनौटिया रंग भी कहते हैं ।

कलेजई (२)
वि० कलेजई रंग का । चुनैटिया ।

कलेजा
संज्ञा पुं० [सं० यकृत, (विपर्यय) कृत्य, कृज्ज] १. प्राणियों का एक भीतरती अवयब ।विशेष—यह छाती के भीतर बाई ओर को फैला हुआ होता है और इससे नाड़ियों के सहारे शरीर में रक्त का संचार होता है । यह पान के आकार की मांस की थैली की तरह होता है जिसके भीतर रुधिर बनकर जाता है और फिर उसके ऊपरी परदे की गति या धड़कन से दबकर नाड़ियों में पहुचता और सारे शरीर में फैलता है । मुहा०—कलेजा उछलना=(१) दिल धड़कना । घबड़ाहट होना । (२) हृदय प्रफुल्लित होना । कलेजा उछल उछल पड़ना=आनंद विभोर होना । उ०—हैं उमंगें छलाँग सी भरतीं है कलेजा उछल उछल पड़ता ।—चोखे०, पृ० ८ । कलेजा उड़ना= होश जाता रहना । घबड़ाहट होना । कलेजा उलटना= (१) कै करते करते आँतों में बल पड़ना । वमन करते करते जी घबराना । (२) होश का जाता रहना । कलेजा काटना=(१) हीरे की कनी या और किसी विष के खाने से अँतडियों में छेदन होना । (२) मल के साथ रक्त गिरना । खूनी दस्त आना । (३) दिल पर चोट पहुँचना । अत्यंत हार्दिक कष्ट पहुँचना, जैसे—उनकी दशा देख किसका कलेजा नहीं कटता । (४) बुरा लगना । नागवार लगना । जब मालूम होना, जैसे—पैसा खर्च करते उसका कलेजा कटता है । (५) दिल जलना । डाह होना । हसद होना । जैसे—उसे चार पैसा पाते देख तुम्हारा कलेजा क्यों कटता है । कलेजा काँपना=जी दहलना । डर लगना, जैसे—नाव पर चढ़ते हमारा कलेजा काँपता है । कलेजा काढ़कर रखना=दे० 'कलेजा निकालकर रखना' । कलेजा काढ़ना=(१) दिल निकालना । अत्यंत वेदना पहुँचाना । उ०—आँख तो आप काढ़ते ही थे । अब लगे काढ़ने कलेजा क्यों ।—चोखे, पृ० ६२ । (२) किसी की अत्यंत प्रिय वस्तु ले लेना । किसी का सर्वस्व हरण करना । कलेजा काढ़ लेना=(१) हृदय में बेदना पहुँचाना । अत्यंत कष्ट देना । (२) मोहित करना । रिझाना । (३) चोटी की चीज निकाल लेना । सबसे अच्छी वस्तु को छाँट लेना । सार वस्तु ले लेना । (४) किसी का सर्वस्व हरण कर लेंना । कलेजा काढ़ के देना=(१) अपनी अत्यंत प्यारी वस्तु देना । (२) सूम का किसी को अपनी वस्तु देना (जिससे उसे बहुत कष्ट हो) । कलेजा खाना=(१) बहुत तंग करना । दिक करना । (२) बार बार तकाजा करना । जैसे—वह चार दिन से कलेजा खा रहा है, उसका रुपया आज दे देंगे । कलेजा खिलना=किसी को अत्यंत प्रिय वस्तु देना । किसी का पोषण या सत्कार करने में कोई बात उठा न रखना, जैसे,—उसने कलेजा खिला खिलाकर उसे पाला है । कलेजा खुरचना=(१) बहुत भूख लगना, जैसे—मारे भूख के कलेजा खुरच रहा है । (२) किसी प्रिय के जाने पर उसके लिये चिंतित और व्याकुल होना, जैसे—जब से वह गया है, तब से उसके लिये कलेजा खुरच रहा है । कलेजा गोदना=दे० कलेजा छेदना या बींधना । कलेजा छिदना या बिंधना=कड़ी बातों से जो दुखना । ताने मेहने से हृदय व्यथित होना, जैसे,—अब तो सुनते, सुनते कलेजा छिद गया, कहाँ तक सुनें । कलेजा छेदना या बींधना=कटु वाक्यों की वर्षा करना । लगती बात कहना । ताने मेहने मारना । कलेजा छलनी होना=दे० 'कलेजा छिदना या बिंधना' । कलेजा जलना=(१) अत्यंत दुःख पहुँचाना । कष्ट पहुँचना । (२) बुरा लगना । अरुचिकर होना । कलेजा जलाना=दुःख देना । दुःख पहुँचाना । कलेजा जला देना=दे० 'कलेजा जलाना' । उ०—क्या अजब, कवि जला भुना कोई । है कलेजा जला जला देता ।—चोखे०; पृ० १० । कलेजा जली=दुखिया । जिसके दिल पर बहुत चोट पहुँची हो । कलेजा जली तुक्कल=वह तुक्कल जिसके बीच का भाग काला हो । कलेजा टूटना या टुकड़े टुकड़े होना=जी टूटना । उत्साह भंग होना । हौसला न रहना । कलेजा टूक टूक होना=शोक से हृदय विदीर्ण होना । दिल पर कड़ी चोट पहुँचना । कलेजा ठंढा करना= संतोष देना । तुष्ट करना । चित्त की अभिलाषा पूरी करना । जैसे,—उसे देख मैने अपना कलेजा ठंढ़ा किया । कलेजा ठंडा होना=तृप्ति होना । संतोष होना । अभिलाषा पूरी होना । शांति मिलना । चैन पड़ना । कलेजा तर होना= (१) कलेजे में ठंढक पहुँचना । (२) धन से भरे पूरे रहने के कारण निर्द्वंद रहना । कलेजा थामना=दुःख सहने के लिये जी कड़ा करना । शोक के वेग को दबाना । कलेजा थामकर बैठ जाना या रह जाना—(१) शोक के वेग को दबाकर रह जाना । मन मसोसकर रह जाना । जैसे,— जिस समय यह शोकसमाचार मिला, वे कलेजा थामकर रह गए । उ०—(क) उस समय रवाना अशरते काशाना की तरफ नजर डाली तो महताबी पर उदासी छाई हुई । कलेजा थाम के बैठ गए ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३२४ । (ख) थाम कर रह गए कलेजा हम । कर गया काम आँख का टोना ।—चोखे०, पृ० ४२ । (२) संतोष करना । कलेजा थाम थामकर रोना=(१)मसोस मसोस कर रोना । शोक के वेग को दबाते दबाते रोना । (२) रह रहकर रोना । कलेजा दहलाना=भय से जी काँपना । कलेजा धक धक करना=भय से व्याकुल होना । आशंका से चित्त विचलित होना । केलजा धक्क धक्क करना= दे० 'कलेजा धक धक करना' । उ०—आप जावें, मैं आपको रोक नहीं सकती पर मैं बड़ी अभागिनी हूँ, इसी से मेरा कलेजा धक्क धक्क कर रहा है ।—ठेठ०, पृ० ५२ । कलेजा धक से हो जाना=(१) भय से सहसा स्तब्ध होना । एक- बारगी डर छा जाना । उ०—हरिमोहन का कलेजा धक से हो गया और उन्होंने लड़खड़ाती जीभ से कहा ।—अयोध्या (शब्द०) । (२) चकित होना । विस्मित होना । भौंचक्का रहना । उ०—उसकी बुराई सुनते ही उसका कलेजा धक से हो गया ।—अयोध्या (शब्द०) । कलेजा घड़कना=(१) डर से जी काँपना । भय से व्याकुलता होंना । (२) चित्त में चिंता होना । जी में खटका होना । कलेजा घड़ घड़ करना= दे० 'कलेजा धड़कना' । उ०—दूसरा अफसर—कलेजा धड़ धड़ कर रहा है ।—फिसाना०, भाग३, पृ० १०५ । कलेजा धड़कना=(१) डरा देना । भयभीत कर देना । (२) खटकेमें डाल देना । कलेजा धुकड़ पुकड़ होना=दे० 'कलेजा धड़कना । कलेजा निकलना । (१) अत्यंत कष्ट होना । आसह्य क्लेश होना । खलना । (२) सार वस्तु का निकल जाना । हीर निकल जाना । कलेजा निकालकर दिखलाना=हृदय की बात प्रकट करना । उ०—कम नहीं है कमाल कवियों का । हैं कलेजा निकाल दिखलाते—चोखे०, पृ० ८ । कलेजा निकाल घर देना=दे० 'कलेजा' निकालकर रखना । उ०—बेधने के लिये कलेजों को । हैं कलेजा निकाल धर देते ।—चोखे०, पृ० ७ । कलेजा निकलना=दे० 'कलेजा काढ़ना' । कलेजा निकालकर रखना=अत्यंत प्रिय वस्तु समर्पण करना । सर्वस्व दे देना । जैसे,—यदि हम कलेजा निकालकर रख दें तो भी तुम्हें विश्वास न होगा । कलेजा पक जाना=कष्ट से जो ऊब जाना । दुःख सहते सहते तंग आ जाना । जैसे,—नित्य के लड़ाई झगड़े से तो कलेजा पक गया । कलेजा पकड़ना=दे० 'कलेजा थामना' । कलेजा पकड़ लेना (१) किसी कष्ट को सहने के लिये जी कड़ा कर लेना (२) कलेजे पर भारी बोझ मालूम होना । जैसे—(क) बलगम ने कलेजा पकड़ लिया । (ख) मैदे की पूरीयों ने तो कलेजा पकड़ लिया । कलेजा पकाना=इतना दुःख देना कि जी जल जाय । नाक में दम करना । हैरान करना । पत्थर का कलेजा=(१) कड़ा जी । दुःख सहने में समर्थ हृदय । (२) कठोर चित्त । कलेजा पत्थर का करना=(१) भारी दुःख झेलने के लिये चित्त को दबाना । जैसे,—जो होना था सो हो गया अब कलेजा पत्थर का करके घर चलो । (२) किसी निष्ठुर कार्य के लिये चित्त को कठोर करना । जैसे,—पत्थर का कलेजा करके मुझे उस निरपराध को मारना पड़ा । कलेजा पत्थर का=होना (१) जी कड़ा होना । जैसे,—उसका दुःख सुनकर पत्थर का कलेजा भी पानी होता था । कलेजा फटना=(१) किसी के दुःख को देखकर मन में अत्यंत कष्ट होना । जैसे,—(क) दुखिया माँ का रोना सुनकर कलेजा फटता था । (ख) किसी को चार पैसे पाते दुःख तुम्हारा कलेजा क्यों फटता है । कलेजा फूलना= आनंदित होना । फूल मुँह से झड़े किसी कवि के, है कलेजा न फूलता किसका ।—चोखो०, पृ० ८ । कलेजा बढ़ जाना=(१) दिल बढ़ना । उत्साह और आनंद होना । हौसला होना । उ०—चढ़ गए चाव चित्त गया चढ़ बढ़ । बढ़ गए बढ़ गया कलेजा है ।—चोखे०, पृ० २२ । कलेजा बाँसों, बल्लियों या हाथों उछलना=(१) आनंद से चित्त प्रफुल्लित होना । आनंद की उमग में फूलना । उ०—मेरा कलेजा बल्लियों उछलता है । भरी बरसात के दिन हैं । कहीं फिसल न पड़े तो कहकहा उड़े ।—फिसाना०, भा१, पृ० १ । (१) भय या आशंका से जी धक धक करना । कलेजा बैठा जाना=भय या शिथिलता से चित्त का संज्ञाशून्य और व्याकुल होना । क्षीणता के कारण शरीर और मन की शक्ति का मंद पड़ना । कलेजा भरना=तृप्त होना । अघा जाना । उ०— प्यार से किसका कलेंजा है भरा ।—चोखे०, पृ० १०— । कलेजा मलना=दिल दुखाना । कष्ट पहुँचाना । कलेजा मसोस कर रह जाना=कलेजा थामकर रह जाना । दुःख के वेग को रोककर रह जाना । कलेजा मुहँ को मुँह तक आना= (१) जी घबराना । जी उकताना । व्याकुलता होना । उ०— क्षुधा के संताप से कलेजा मुँह को आता है ।—अयोध्या (शब्द०) । (२) संताप होना । दुःख से व्याकुल होना । उ०—इस दुनिया की इन बातों से बटोही का कलेजा मुँह को आ रहा था ।—अयोध्या (शब्द०) । कलेजा सुलगना=दिल जलना । अत्यंत दुःख पहुँचाना । संताप होना । उ०—कवि सिवा कौन लग सका उसके है । कलेजा सुलग रहा जिसका ।—चोखे०, पृ० ११ । कलेजा सुलगना=बहुत सताना । अत्यंत कष्ट देना । दिल जलाना । कलेजा हिलना=कलेजा काँपना । अत्यंत भय होना । कलेजे का टुकड़ा=(१) लड़का । बैटा । संतान । (२) अत्यंत प्रिय व्यक्ति । कलेजे की कोर=(१) संतान । लड़का । लड़की । (२) अत्यंत प्रिय व्यक्ति । कलेजे खाई=डाइन । बच्चों पर टोना करनेवाली । कलेजे पर चोट खाना=दुःख होना । क्लेश होना । उ०—अब तो जान पर बन गई । कलेजे पर चोट खाई है तबीब बेचारा नब्ज क्या देखेगा?—फिसाना०, भा० १, पृ० ११ । कलेजे पर चोट लगना=सदसा पहुँचना । अत्यंत क्लेश होना । कलेजे पर छुरी चल जाना=दिल पर चोट पहुँचाना । अत्यंत क्लेश पहुँचाना । कलेजे पर साँप लोंटना=चित्त में किसी बात का स्मरण आ जाने से एक बारणी शोक छा जाना । जैसे,—जब वह अपने मरे लड़के की कोई चीज देखता है, सब उसके कलेजे पर साँप लोट जाता है । (ख) जब वह अपने पुराने मकान को दुसरों के अधिकार में देखता है, तब उसके कलेजे पर साँप लोट जाता है । कलेज पर हाथ धरना या रखना= अपने दिल से पूछना । अपनी आत्मा से पूछना । चित्त में जैसा विश्वास हो, ठीक वैसा ही कहना । जैसे,—तुम कहते हो कि तुमने रुपया नहीं लिया, जरा कलेजे पर तो हाथ रखो । विशेष—यदि कोई मनुष्य कोई दोष या अपराध करता है तो उसकी छाती धक धक करती है । इसी से जब कोई मनुष्य झूठ बोलता है या अपना अपराध स्वीकार करता है, तब यह गुहावरा बोला जाता है । कलेजे पर हाथ घरकर रखकर देखना=अपनी आत्मा से पूछ कर देखना । अपने चित्त का जो यथार्थ विश्वास हो, उसपर ध्यान देना । उ०—देखना हो अगर दहल दिल की । देखिए हाथ रख कलेजे पर ।—चोखें०, पृ० ६१ । कलेजे में आग लगना=(१) अत्यंत दुःख या शोक होना । (२) डाह होना । द्वेष की जलन होना । (३) बहुत प्यास लगना । कलेजे मे गाँठ पड़ना=मन में भेद पैदा होना । उ०— तब सके गाँठ हम कहाँ मतलब । पड़ गई गाँठ जब कलेजे में ।—चोखे०, पृ० ३६ । कलेज में छेद करना=अत्याधिक क्लेश पहुँचाना । मार्मिक पीड़ा देना । उ०—बात से छेद छेद करके क्यों । छेद करदे किसी कलेजे में ।—चोखें०, पृ० २२ । कलेजे में डालना=प्यार से सदा अपने बहुत पास रखना ।हृदय से लगाकर रखना । जैसे,—जी चाहता है कि उसे कलेजे में डाल लूँ । कलेजे में डाल लेना=दे० 'कलेजे में डालना' उ०—मनचले नौनिहाल हैं जितने । हम उन्हैं डाल लें कलेजे में ।—चोखे०, पृ०, १३ । कलेजे में पैठना या घुसना= किसी का भेद लेने या किसी से अपना कोई मतलब निकालने के लिये उससे खूब ऊपरी हेल मेल बढ़ाना । जैसे—वह इस ढब से कलेजे में पैठकर बातें करता है कि सारी भेद ले लेता है । कलेजे में लगना=कलेजे में अटकना । कलेजे पर भारी मालूम होना । कलेजे या पेट में विकार उत्पन्न करना । जैसे,—(क) पानी धीरे धीरे पीओ नहीं तो कलेजे में लगेगा (ख) देखना यह कई दिनों का भूखा है बहुत सा खा जायगा तो अन्न कलेजे में लगेगा । कलेजे में लगाकर रखना=(१) किसी प्रिय वस्तु को अपने अत्यंत निकट रखना या पास से जुदा न होने देना । बहुत प्रिय करके रखना । (२) बहुत यत्न से रखना । २. छाती । वक्षस्थल । मुहा०—कलेजे से लगाना=छाती से लगाना । आलिंगन करना । प्यार करना । गले लगना । उ०—दुख कलेजा गया जिन्हें देखे । क्यों लगाएँ उन्हें कलेजे से ।—चोखे०, पृ० ६२ । २. जीवट । साहस । हिम्मत । क्रि० प्र०—करना ।—बढ़ना ।

कलेजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलेजा] कलेजे का मांस ।

कलेटा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बकरी जिसके ऊन से कंबल आदि बुने जाते हैं ।

कलेव
संज्ञा पुं० [सं० कलेवर] कलेवर । शरीर । उ०—तब कामन सु कलेव सुर करे सेव सुचि संच ।—पृ० रा०, २५ । १७९ ।

कलेवर
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर । देह । चोला । मुहा०—कलेवर चढ़ाना=महावीर, भैरव, गणेश आदि देवताओं की मूर्ति पर घी या तेल में मिले सेंदुर का लेप करना । कलेवर बदलना=(१) एक शरीर त्यागकर दूसरा शरीर धारण करना । चोला बदलना । (२) एक रूप से दूसरे रूप में जाना । (३) जगन्नाथ जी की पुरानी मूर्ति के स्थान पर नई मूर्ति स्थापित होना । विशेष—यह एक प्रधान उत्सव है, जो जगन्नाथ पुरी में जब मलमास असाढ़ में पड़ता है, तब होता है । इसमें लकड़ी की नई मूर्ति मंदिर में स्थापित की जाती है और पुरानी फेंद दी जाती है । (४) कायाकल्प होना । रोग के पीछे शरीर पर नई रंगत चढ़ाना । (५) पुराना कपड़ा उतारकर नया और साफ कपड़ा पहनना । २. ढाँचा । आकार । डील डौल ।

कलेवा
संज्ञा पुं० [सं० कल्पवर्त, प्रा० कल्लवट्ट] १. वह हलका भोजन जो सबेरे बाँसी मुँह किया जाता है । नहारी । जलपान । उ०—छगन मगन प्यारे लाल कीजिए कलेवा ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—कलेवा करना=निगल जाना । खा जाना । उ०— जिन भूपन जग जीति बाँधि जम अपनी बाँह बसायो । तेऊ काल कलेवा कीन्हों तू गिनती कब आयो?—तुलसी (शब्द०) । २. वह भोजन जो यात्री घर से चलते समय बांध लेते हैं । पाथेय । संबल । ३. विवाह के अनंतर एक रीति जिसमें वर अपने साखाओं के साथ ससुराल में भोजन करने जाता है । खीचड़ी । बासी । विशेष—यह रीति प्रायः विवाह के दूसरे दिन होती है ।

कलेवार पु
संज्ञा पुं० [सं० कलेवर] कलेवर । शरीर । उ०— कलेवार षेतं ढंर दूअचेत । उभै सूर झुभझै उभै साहि हेतं पृ० रा०, ९ ।१५२ ।

कलेस पु
संज्ञा पुं० [सं० क्लेश] दे० 'क्लेश' । उ०—कत हम धैरज बाँधव सजनि तनि बिनु सहब कलेस ।—विद्यापति, पृ० ५०८ ।

कलेसुर †
संज्ञा पुं० [हिं० कलसिरा] दे० 'कलसिरा' ।

कलैया
संज्ञा स्त्री० [सं० कला] सिर नीचे और पैर ऊपर कर उलट जाने की क्रिया । कलाबाजी । क्रि० प्र०—खाना ।—मारना ।

कलाई बोड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा साँप या अजगर जो बंगाल में होता है ।

कलोपनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मध्यम ग्राम की सात मूर्छनाओं में से दूसरी मूर्छना ।

कलोर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्या या हिं० कलोल=कलोल करनेवाली बिना बरदाई गाय] वह जवान गाय जो बरदाई या ब्याई न हो ।

कलोर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कलोल] किलोल । चहचहाना । चिड़ियों का स्वर । उ०—परिमल वास उडे चहुँ ओरा, बहु विधि पक्षी करै कलोरा ।—कबीर सा०, पृ० ४९३ ।

कलोल
संज्ञा पुं० [सं० कल्लोल] आमोद प्रमोद । क्रीड़ा । केलि । उ०—(क) विचित्र बिहँग अलि जलज ज्यौं सुखमा सर करत कलोल ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मिलि नाचत करत कलोल छिरकत हरद दही । मानो वर्षत भादों मास नदी घृत दूध बही ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—मचाना ।

कलोलना पु
क्रि० अ० [सं० कल्लोल, हिं० कलोल] क्रीड़ा करना । आमोग प्रमोद करना ।

कलोलह पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलोल] दे० 'कलोल' । उ०—सब घर काल कलोलह खेले बिनु पगु जग में डोले ।—सं० दरिया, पृ० ११२ ।

कलौंछ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काला+ औंछ (प्रत्य०)] दे० 'कलौंस' ।

कलौंछ (२)
वि० दे० 'कलौस' ।

कलौंजी
संज्ञा पुं० [सं० कालाजाजी] एक पौधा जो दक्षिण भारत और नेपाल की तराई में होता है । मँगरैला । विशेष—इसकी खेती नदियों के किनारे होती है । दोमट या बुलई जमीन में इसे अगहम पूस में बोते हैं । इसका पौधा डेढ़ दो हाथ ऊँचा होता है । फूल झड़ जाने पर कलियाँ लगती हैं जो ढाई तीन अंगुल लंबी होती हैं और जिनमें काले काले दाने भरे रहते हैं । दानों से एक तेज गंध आती है और इसी से वे मसाले के काम में आते हैं । इन बीजों से तेल भी निकाला जाता है, जो दवा के काम में आता है । तेल के विचार से यह दो प्रकार का होता है । एक का तेल काला और सुंगंधित होता है, दूसरे का तेल साफ रेंड़ी के तेल का सा होता है । यह सुगंधित, वातघ्न तथा पेट के लिये उपकारी और पाचक होता है । बंगाल में इसी काला जीरा भी कहते हैं । २. एक प्रकार की तरकारी । मरगल । विशेष—इसके बनाने की विधि यह कि करैले, परवर, भिंड़ी, बैंगन आदि का पेटा चीरकर उसमें धनियाँ, मिर्च, आदि मसाले खटाई नमक के साथ भरते हैं, और उसे तेल या घी में तल लेते हैं ।

कलौंस (१)
वि० [हिं० काला+ औंस (प्रत्य०)] कालापन लिए । सियाही मायल ।

कलौंस (२)
संज्ञा स्त्री० १. कालापन । स्याही । कालिख । २. कलंक ।

कलौंथी पु
संज्ञा पुं० [सं० कुलत्थ] मुँगरा चावल ।

कलौल पु
संज्ञा पुं० [हिं० कलोल] दे० 'कलोल' । उ०—इनमें करै कलौल सदाई करै भोग जीवन भरमाई ।—कबीर सा०, पृ० ८४० ।

कल्क (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूर्ण । बुकनी । २. पीठी । ३. गूदा । ४. दंभ । पाखंड । ५. शठता । ६. मल । मैल । कोट । ७. कान की मैल । खूँटा । ८. विष्ठा । ९. पाप । १०. गीला या भिगोई हुई ओषधियों को बारीक पीसकर बनाई हुई चटनी । अवलेह । ११. बहेड़ा । १२. तुरुक नाम का गंधद्रव्य । १३. शत्रुता (को०) ।

कल्क (२)
वि० १. पापी । २. दुष्ट [को०] ।

कल्कफल
संज्ञा पुं० [सं०] अनार ।

कल्कि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु के दसवें अवतार का नाम जो संभल मुरादाबाद में एक कुमारी कन्या के गर्भ से होगा ।

कल्किपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपपुराण जिसमें कल्कि अवतार की कथा का वर्णन् है [को०] ।

कल्की (१)
वि० [सं० कल्किन्] १. गंदा । २. सदोष । ३. दुष्ट [को०] ।

कल्की (२)
संज्ञा पुं० दे० 'कल्कि' [को०] ।

कल्प (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विधान । विधि । कृत्य । यौ०—प्रथम कल्प=पहला कृत्य । २. वेद के प्रधान छह अंगो में से एक । एक प्रकार के वैदिक सूत्र ग्रंथ । विशेष—इसमें यज्ञादि करने का विधान है । श्रौत, गृह्या, आदि सूत्रग्रंथ इसी के अंतर्गत हैं । ३. प्रताःकाल । ४. वैद्यक के अनुसार रोग निवृत्ति का एक उपाय या युक्ति । जैसे, — केशकल्प । कायाकल्प । ५. प्रकारण । एक विभाग । जैसे,— औषधकल्प । श्राद्धकल्प इत्यादि । ६. एक प्रकार का नृत्य । ७. काल का एक विभाग जिसे ब्रह्मा का एक दिन कहते हैं और जिसमें १४ मन्वंतर या ४३२००००००० वर्ष होते हैं । विशेष— पुराणनुसार ब्रह्मा के तीस दिनों के नाम ये हैं— (१) श्वेत (वाराह), (२) नीललोहित, (३) वामदेव, (४) रथंतर, (५) रौरव, (६) प्राण, (७) बृहत्कल्प, (८) कंदर्प, (९) सत्य या सद्य, (१०) ईशान, (११) व्यान, (१२) सारस्वत, (१३) उदान, (१४) गारूड़, (१५) कौम (ब्रह्म की पूर्णमासी), (१६) नारसिंह, (१७) समान (१८) आग्नेय, (१९) सोम, (२०) मानव, (२१) पुमान्, (२२) वैकुंठ, (२३) लक्ष्मी, (२४) सावित्री, (२५) घोर, (२६) वाराह, (२७) वैराज, (२८) गौरी, (२९) महेश्वर, (३०) पितृ (ब्रह्मा की अमावस्या) । ८. प्रलय (को०) । ९. मदिरा । शराब (को०) । १०. देह को नवीन और नीरोग करने की क्रिया या उपाय (को०) । ११. स्वर्ग का वृक्षविशेष (को०) । यौ०— कल्पवृक्ष । कल्पतरु । कल्पलता ।

कल्प (२)
वि० २. तुल्य । समान । जसे— ऋषिकल्प । देवकल्प । विशेष— इस अर्थ में यह समास के अंत में आता है । पाणिनि ने इसे प्रत्यय मान है । २. योग्य (को०) । ३. उचित (को०) । ४. शत्तिमान (को०) । ५. संभव (को०) । ६. व्याहारिक (को०) ।

कल्पक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाई । नापित । २. कचूर । कलायुक्त बाल काटनेवाला ।

कल्पक (२)
वि० १. कल्पना करनेवाला । रचनेवाला । २. काटनेवाला ।

कल्पकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कल्पशास्त्र का रचनेवाला व्यक्ति । गृह्य या श्रोत सूत्र का रचयिता । २. नाई (को०) । ३. शराब बनानेवाला (को०) ।

कल्पकार (२)
वि० १. कल्पशास्त्र रचनेवाला जिसने गृह्य या श्रोत सूत्र रचे हों । जैसे— कल्पकार ऋषियों ने कहा हैं । २. सजाने सँवारनेवाला (को०) ।

कल्पक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पांत [को०] ।

कल्पतरु
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पवृक्ष ।

कल्पद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पवृक्ष ।

कल्पन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निर्माण । रचना । २. सजान । साज । ३. सज्जा के लिये एक वस्तु का दूसरी वस्तु पर रखना । ४. धोखा । जालसाजी । ५. कल्पना करना । ६. काटना । कतरना [को०] ।

कल्पना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रचना । बनावट । सदावट । यौ०— प्रबंधकल्पना । २. वह शक्ति जो अंतःकरण में ऐसी वस्तुओं स्वरूप के स्वरूप उपस्थित करती है जो उस समय इद्रियों के संमुख उपस्थित नहीं होती । उद् भावना । अनुमान । संकल्पनशीलता की शक्ति ।विशेष— काव्य, उपन्यास, चित्र अदि इसी शक्ति के द्वारा बनते हैं । क्रि० प्र०— करना । — होना । यो०— कल्पनाप्रसूत । कल्पनाशक्ति । ३. किसी एक वस्तु में अन्य वस्तु का आरोप । अध्यारोप । जैसे, रस्सी में साँप की भावना । ४. भावना । मान लेना । फर्ज । जैसे— कल्पना करो कि अ ब एक सरल रेखा है । ५. मनगढंत बात । जैसे— यह सब तुम्हारी कल्पना है । क्रि० प्र०— करना । ६. पाश्चात्य साहित्यालोचन और सौंदर्यशास्त्र के अनुसार कलात्मक सर्जना की शक्ति । ७. सवारी के लिए हाथी की सजावट ।

कल्पना
क्रि० अ० [हिं० कल्पना ] दे० 'कल्पना'

कल्पनाचित्र
क्रि० अ० [हिं० कल्पना + चित्र] कल्पना से निर्मित चित्र । ऐसा चित्र जिसकी रचयिता ने स्वयं उद्भावना की हो जिसके निर्माण में बाहय जगत् का आधार न लिया हो ।

कल्पनातीत
वि० [सं०] १. कल्पना से भरे । जो कल्पना में भी न आ सके । उ०— कल्पनातीत काल की घटना । हृदय को लगी अचानक रटना ।—झरना, पृ० १ ।

कल्पनाप्रसूत
वि० [सं०] १. कल्पना से उत्पन्न । २.मनगढंत ।

कल्पनावाद
संज्ञा पुं० [सं० कल्पना+ वाद] १. कल्पना पर बल देनेवाला सिद्धांत । यब सिद्धांत कि कला अनुभव की कल्पना है ।

कल्पनाशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्पना+शक्ति] कल्पना करने की क्षमता । उद्भावना शक्ति ।

कल्पनासृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कल्पनाप्रसूत रचना । २. कल्पना का राज्य ।

कल्पनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्तनी । कतरनी । कैंची ।

कल्पनीय
वि० [सं०] जिसकी कल्पना की जा सके ।

कल्पपादप
संज्ञा पुं० [सं०] कलावृक्ष । यो०— कल्पपादप दान = एक महादान जिसमें सोने के पेड़, फूल आदि बनाकर दान किए जाते हैं ।

कल्पपाल
संज्ञा पुं० [सं०] शराब बेचनेवाला [को०] ।

कल्पभव
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार एक प्रकार के देवगण । विशेष — ये वैमानिक के अंतर्गत माने जाते हैं और संख्या में १२ हैं, अर्थात् सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्मा, कालांतक, सुक्र, सहस्त्रार, आनत, प्रणत, आरण और अच्युत । जैनियों का विश्वास है कि ये लोग तीर्थकरों के जन्मादि संस्कारों में आते हैं ।

कल्पलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कल्पवृक्ष । यौ०— कल्पलता दान = जिसमें सोने की दस लताएँ तथा सिद्धि, मुनि, पक्षी आदि बनाकर दान किए जाते हैं ।

कल्पवयन
संज्ञा पुं० [सं०] सोचविचार । उधेड़बुन । उ०—मुँदे पलक जब निशा शमन में लगे प्रबल मन कल्पवयन में । — गीतिका, पृ० १८ ।

कल्पवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] उग्रसेन के भाई जो देवक के पुत्र थे ।

कल्पवास
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कल्पवासी, वि० स्त्री० कल्पवासिनी] माघ के महीने में महीना भर गंगा तठ पर संयम के साथ रहना ।

कल्पविटप
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पवृक्ष ।

कल्पविद्
वि० [सं०] कल्पसूत्रों का ज्ञान [को०] ।

कल्पवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणनुसार देवलोक का एक वृक्ष जो समुद्र मथने समय समुद्र से निकला हुआ और १४ रत्नों में माना जातता है । यह इंद्र को दिया गया था । विशेष— हिंदुओं का विश्वास है कि इससे जिस वस्तु की प्रार्थना की जाय, वही यह देता है । इसका नाश कल्पांत तक नहीं होता । इसी प्रकार का एक पेड़ मुसलमानों के स्वर्ग में भी है, जिसे वे तूबा कहते हैं । पर्या०— कल्पद्रुम । कल्पतरु । सुरतरु । कल्पलता । देवतरु । २. एक वृक्ष जो संसार में सब पेड़ों से ऊँचा, घेरदार और दीर्घजीवी होता है । विशेष— अफ्रीका के सेनीगाल नामक प्रदेश में इसका एक पेड़ है जिसके विषय में विद्वानों का अनुमान है कि वह ५२०० वर्ष का है । यह पेड़ ४० से लेकर ७० फुट तक ऊँचा होता है । सावन भादों में यह पत्तों और फूलों से लदा हुआ दिखाई पड़ता है । फूल प्रायः सफेद रंग होते हैं और चार छह इँच तक चौड़े होते हैं । उनसे पके संतरों की महक आती है । फूलों के झड़ जाते पर कद्दू के आकार के लगते हैं, जो एक फुट लंबे होता हैं । फल पकने पर खटमिट्ठे होते हैं, जिन्हें बंदर बहुत खाते हैं । मिस्र देश के लोग फल का रस निकालकर और उसंमें शक्कर मिलाकर पीते हैं । इसका गूदा पेचिश में देते हैं; इसके बीज दवा के काम में आते हैं । कहीं कहीं इसकी पत्तियों की बुकनी भोजन में मिलाकर खाते हैं । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत नहीं होती, इसी से इसमें बड़े बड़े खोंड़रे पड़ जाते हैं । इसकी छल के रेशे की रस्सी बनती है और एक प्रकार का कपड़ा भी बुना जाता है । यह वृक्ष भारत वर्ष में मद्नास, बंबई और मध्यप्रदेश में बहुत मिलता है । बरसात में बीज बोने से यह लगाता है और बहुत जल्दी बढ़ता है । इसे गोरख इमली भी कहते हैं ।

कल्पशाखी
संज्ञा पुं० [सं० कल्पशाखिन्] कल्पवृक्ष । उ०— जयति संग्राम जय राम संदेशहर कौशल कुशाल कल्याण भाखी । राम बिरहार्क संतप्त भरतादि नर नारि शीतल करण कल्पशाखी ।— तुलसी (शब्द०) ।

कल्पसाल
संज्ञा पुं० [सं०] कल्पवृक्ष । उ०— आक कल्पसाल कों निसाक कहै कहा माल मोहि लै पिनाकपानि सीस श्री बढा़ई है । — दीन० ग्रं०, पृ० १३० ।

कल्पसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह सूत्रग्रंथ जिसमें यज्ञादि कर्मों या गृहय कर्मों का विधान लिखा हो । विशेष— ऐसे ग्रंथ वेदों की प्रत्येक शाखा के लिये पृथक् पृथक् ऋषियों के बनाए हुए हैं और विषयभेद से इनके दो भेद हैं— श्रौत और गृह्य । वे सूत्रगंथ जिनमें दर्शपौर्ण मास से लेकरअश्वामेधादि यज्ञों तक की विधि का विधान है, श्रौतसूत्र कहलाते हैं; तथा जिनमें गृहस्थों के पंचमहायज्ञादि कृत्यों और गर्भाधानादि संस्कारों की विधि लिखी है, वे गृह्मसूत्र कहलाते हैं ।

कल्पहिंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन शास्त्रों के अनुसार वह हिंसा जो पकाने, पीसने आदि में होती है । हिंदू इसे 'पंचसूना' कहते हैं ।

कल्पांत
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्पान्त] प्रलय ।

कल्पातीत (१
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के शास्त्रों के अनुसार देवताओं का एक गण । विशेष— यह वैमानिक देवताओं के अंतर्गत है । इसके देवता दो प्रकार के हैं और इनकी संख्या १४ है— नौग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर ।

कल्पातीत (२)
वि० जिसका अंत कल्प में भी न हो । नित्य ।

कल्पारंभी
संज्ञा पुं० [सं० कल्पारम्भिन्] प्रशंसा कराने के लालच से काम करनेवाला । वाहवाही के लिये कुछ करनेवाला ।

कल्पिक
वि० [सं०] योग्य । उपयुक्त [को०] ।

कल्पित
वि० [सं०] १. जिसकी कल्पना गई हो । २. मनमाना । मनदढ़ंत । फर्जी । यौ० कपोलकल्पित । ३. बनावटी । नकली ।

कल्पितोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का उपमालंकार जिसमें कवि उपमेय के लिये कोई ओक स्वाभाविक उपयुक्त उपमान न मिलने से मनमाना उपमान कल्पित कर लेता है । इसे 'अभूतोपमा' भई कहते हैं । जैसे,— (क) कंकनहार विविध भूषण विधि रचे निज कर मन लाई ।— गजमणि माल बीच भ्राजत कहि जाता न पदिक निकाई । जनु उड़गन मंड़ल व रिद पर नवग्रह रची अथाई । —तुलसी (शब्द०) । इसमें गजमुक्ता के हार के बीज में पदिक की शोभा के हेतु उपयुक्त उपनमान न पाकर कवि कल्पना करता है कि मानों मेघों के ऊपर बैठकर नवाग्रह ने अथाई रची है । (ख) राधे मुख ते छुटि अलका लगी पयोधर आया । शशि मंड़ल मेरु सिर लटकी भोगिनी भाय (शब्द०) ।

कल्ब
संज्ञा पुं० [अ० कल्ब] १. हृदय । दिल । उ०— खोलकर बंदे कबा सा मुल्के दिल गारत किया । क्या हिसारे कल्ब दिलवर ने खुले बंदी लिया ।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४७ । २. मन । ३. मध्यभाग, विशेषतः सेना का मध्य भाग । ४. १७वाँ नक्षत्र । ५. खोटी चाँदी या सोना ।

कल्मष (१
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाप । अघ । २. मैल । मल । ३. पीब । मवाद । ४. एक नरक का नाम । ५. कलाई का निचला भाग (को०) ।

कल्मष (२
वि० १. पापी । २. गदा । मलिन । ३. दुष्ट । बदमाश [को०] ।

कल्माष (१
वि० [सं०] १. चितकबार । चित्तवर्ण । २. काला रंग । यौ०— कल्माषपाद । कल्माषकठ ।

कल्माष
संज्ञा पुं० १. चितक्बारा रंग । २. काला रंग । ३. राक्षस । ४. अग्नि का एक रूप । ५. एक प्रकार का सुगंधित चावल [को०] ।

कल्माषकंठ
संज्ञा पुं० [सं० कल्माषकण्ठ] शिव ।

कल्माषपाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा का नाम ।

कल्माषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमुना नदी का नाम [को०] ।

कल्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सवेर । भोर । प्राताःकाल । २. आनेवाला कल । उ०— आएँगे फिर ये विध कल्य ।— साकेत, पृ० १६९ । ३. मधु । शराब । ४. बधाई । शुभकामना (को०) । ५. शुभ समाचार । शुभ समाचार सुसंवाद (को०) । ६. स्वास्थ्य (को०) । ७. बीता हुआ कल [को०] । ८. प्रशंसा (को०) । ९. उपाय । साधान (को०) । १० क्षेपण (को०) ।

कल्य (२)
वि० १. स्वस्थ । निरोग । २. तैयार । प्रस्तुत । ३. चतुर । ४. शुभ । मंगलकारक । ५. बहरा और गूँगा । ६. उपदेशात्मक । शैक्षिक । ७. कुशल । दक्ष [को०] ।

कल्याता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वास्थ्य [को०] ।

कल्यपाल, कल्यापालक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कल्यपाली] कलवार ।

कल्यवत
संज्ञा पुं० [सं०] सबेरे का भोजन । कलेवा [को०] ।

कल्याँन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कल्याण' । उ०— कुम्मैत कुमद कल्यांन । मोती सु मगसी आँन ।— हम्मीर रा०, पृ० १२५ ।

कल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह बछिया जो बरदाने के योग्य हो गई हो । कलोर । २. मदिरा । शराब । ३. हरीतकी । ४. बधाई । शुभकामना [को०] ।

कल्याण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल । शुभ । भलाई । यौ०— कल्याणकारी । २. सोना । ३. संपूर्ण जाति का एक शुद्ध राग । विशेष— यह श्रीराग का सातवाँ पुत्र माना जाता है । इसके गाने का समय रात का पहला पहर है । कोई कोई इसे मेघ राग का पुत्र मानते हैं । इसके मिश्र और शुद्ध मिलकर यमन कल्याण, शुद्ध कल्याण, जयत कल्याण श्रावणी कल्याण, पूरिया कल्याण, कल्याण वराली, कल्याण कामोद, नट कल्याण, श्याम कल्याण, हेम कल्याण, क्षेम कल्याण, भूपाली कल्याणी ये बारह भेद हैं । इसका सरगम यह है— ' ग, म, ध, रि, स, नि, ध, प, म, स, रि, ग' । ४. एक प्रकार का घृत (वैद्यक) । ५. सौभाग्य (को०) । ६. प्रसन्नता । सुख (को०) । ७. संवन्नता (को०) । ८. त्यौहार (को०) । ९. स्वर्ग (को०) ।

कल्याण (२)
वि० [स्त्री० कल्याणी] १. शुभ । अच्छा । भला । मंगलप्रद । यौ०— कल्याणभार्य । २. सुंदर (को०) । ३. प्रामाणिक । यथार्थ (को०) ।

कल्याणक, कल्याणकर
वि० [सं०] शुभ या कल्याण करनेवाला । कल्याणकारक [को०] ।

कल्याणकारी
वि० [सं० कल्याणकारिन्] [वि० स्त्री कल्याणकारिणी] दे० 'कल्याणकर' [को०] ।

कल्याणकामोद
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जो रात के पहले पहरस में गाया जाता है ।

कल्याणकृत्
वि० [सं०] १. कल्याणपूर्ण या मंगलमय कार्य करने— वाला । २. भाग्मयशाली [को०] ।

कल्याणधार पु
वि० [सं० कल्याणधार] कल्याणकर । उ०— उस कल्याणधार एकमात्र छप्पर को जिसके नीचे असंख्य आर्य संतानों को सुख छाया की आशा है । — प्रेमघन०, भा० २, पृ० २९० ।

कल्याणनट
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जो कल्याण और नट के संयोग से बनता है ।

कल्याणबीज
संज्ञा पुं० [सं०] मसूर [को०] ।

कल्याणभार्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरूष जो बार बार विवाह करे, पर जिसकी स्त्री मर जाय ।

कल्याणिका
संज्ञा पुं० [सं०] मैनसिल [को०] ।

कल्याणी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. कल्याण करनेवाली । सुंदरी । २. कल्याणकर । मंगलकारक । उ०— विधाता की कल्याणी सृष्टि, सफल हो इस भूतल पर पूर्ण० — कामयनी, पृ०५८ ।

कल्याणी (२)
संज्ञा स्त्री० १. माषपर्णी । जगली उड़द । २. गाय । ३. प्रयाग तीर्थ की एक प्रसिद्ध देवी । ४. पवित्र गाय । (को०) । ५. बछिया (को०) । ६. एक रागिनी (को०) ।

कल्याणीय
वि० [सं० कल्याणी] कल्याणकारी । उ०— हे, परम कल्याणमय, तेरी कल्याणीय, लीला को मैं नहीं जानता हूँ । — त्याग०, पृ० ४५ ।

कल्याँन पु †
संज्ञा पुं० [सं० कल्याण] दे० 'कल्याण' ।

कल्यानकर पु
वि० [सं० कल्याणकर] दे० 'कल्याणकर' । उ०— 'हारचंद' सीसा राजत सदा कलिमलहर कल्यानकर ।— भारतेंदु० ग्रं०, भा० ३,पृ० ६६० ।

कल्याश
संज्ञा पुं० [सं०] सबेरे का भोजन । कलेवा [को०] ।

कल्योना †
संज्ञा पुं० [सं० कल्य] कलेवा ।

कल्ल
वि० [सं०] बहरा [को०] ।

कल्लता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहरापन [को०] ।

कल्लर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. नोनी मिट्टी । क्रि० प्र०— लगना । २. रेह । ऊसर । बंदर । उ०— सैकड़ों क्लेशों के साथ एक एक पैसा इकट्टा करना और फिर विवाह के समय अंधे होकर कल्लर में बखेर देना ।— भाग्यवती (शब्द०) ।

कल्लर (२)
वि० नमकीन । उ०— के हल्लर फल्लर करै, पावै कल्लर राब ।— बाँकी ग्रं०, भा० ३. पृ० ८१ ।

कल्लाँच
वि० [तु० कल्लाच] १. लुच्चा । शोहदा । गुंड़ा । चाँई । २. दरिद्र । कंगाल । अनाथ ।

कल्ला (१)
संज्ञा पुं० [सं० करीर = बाँस का करैल] १. अंकुर । कलफा । किल्ला । गोंफा । क्रि० प्र०— उठना ।— निकलना ।—फूटना । यौ०— करमाकल्ला ।

कल्ला (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुल्या] वह गड़्ढ़ा या कूआँ जिसे पान के भीटे पर पान सींचने के लिये खोदते हैं ।

कल्ला (३)
संज्ञा पुं० [फा०] १. गाल के भीतर का अंश । जबड़ा । उ०—त्यौं बोल उमराउनि हल्ला । जम के भये कटीले कल्ला ।— लाला (शब्द०) । यौ०— कल्लातोड़ । कल्लादराज । मुहा०—कल्ला चलाना = मुँहा चलाना । खाना । जैसे,— कल्ला चले बला टले । कल्ला दबाना = (१) गला दबाना । बोलने से रोकना । मुँहा पकड़ना । (२) अपने सामने दूसरे को न बोलने देना । कल्ला फुलाना = (१) गाल फुलाना । खफगी या रज से मुँह फुलाना या किसी से बोलचाल बंद कर देना । रिसाना । रूठना । (२) घमंड़ से मुँह फुलाना या बनाना । घमंड़ करना । ३. जबड़े के नीचे गले तक का स्थान; जैसे, थसी का कल्ला । कल्ले का मांस । मुहा०— कल्ले पाए =सिर और पैर का मांस । कल्ला मारना = गला बजाना या मारना । ड़ींग हाँकना । शेखी बघारना ।

कल्ला (४) †
संज्ञा पुं० [हिं० कलह] झगड़ा । तकरार वादविवाद । यौ०— झगड़ा कल्ला = वादविवाद । क्रि० प्र०— करना ।— मचाना ।

कल्ला (५)
संज्ञा पुं० [हिं० कल्ला] लंप का वह ऊपरी भाग जिसमें बत्ती जलती है । बर्नर ।

कल्ला (६) †
[सं० कलाचि, हि० कलाई] कलाई ।

कल्लाठल्ला
संज्ञा पुं० [बिं० कल्ला + अनु० ठल्ला] मजबूत कलाई । उ०— ऐसा पहलवान था कि बस मैं क्या कहूँ । इधर देखो, यह खपचे (हाथ से दिखाकर) यह कल्ला ठल्ला । — फिसाना०, भा० ३, पृ० १७१ ।

कल्लातोड़
वि० [हिं० कल्ला + तोड़] १. मुँहतोड़ । प्रबल । २. जोड़ तोड़ का । बराबरी का ।

कल्लादराज
वि० [फा०] [संज्ञा कल्लादराजी, कल्लेदराजी] बढ बढकर बात बोलनेवाला । दुर्वचन कहनेवाला । जिसकी जबान में लगाम न हो । मुँहजोर । जैसे,— वह बड़ी कल्लेदराज औरत है ।

कल्लादराजी
संज्ञा स्त्री० [फा०] बढकर बातें करना । मुँहजोरी ।

कल्लाना (१)
क्रि० अ० [सं० कड् या कल् = असंज्ञा होना] १. शरीर में चमड़े के ऊपर हि ऊपर कुछ जलन लिए हुए एक प्रकार की पीड़ा होना, जैसे थप्पाड़ लगने से । २. असहय होना । दुःख- दायी होना । मुहा०— जी कल्लाना =चित्त को दुःख पहुँचना । उ०— आज वे बिना खाए गए हैं, वह भला काहे को खाने पीने को पूछेगी । जैसा हमारा जी कल्लाता है, वैसा ही उसका भी थोड़े कल्लायगा— सौ अजान० (शब्द०) ।

कल्लाना (२)
क्रि० अ० [हिं० कल्ला] १. कल्ले निकलना । पल्लवित होना । २. विकसित होन । समृद्ध होना । उ०— वे पुराने परिवार वृक्ष की कलमों के रूप में नई भूमि पा, नए परिवार की लहलहाती शाखा के रूप में कल्ला उठे ।— भस्मावृत०, पृ० ९ ।

कल्लाश
संज्ञा पुं० [अ० कल्लास] चढ़ी हुई नदी । वह नदी जिसमें बाढ़ आई हो । उ०— कल्लाश जो शाहो गदा अलहाम वही कलमः निंदा ।— कबीर मं०, पृ० ३७१ ।

कल्लि
क्रि० वि० [सं०] कल । अनेवाला दिन । अगला दिन [को०] ।

कल्लू †
वि० [हि० काला] काला कलूटा ।

कल्लेदराज
वि० [फा० कल्लादराज] दे० ' कल्लादराज' ।

कल्लेदराजी
संज्ञा [फा़० कल्लादराजी] स्त्री० दे० 'कल्लादराजी' ।

कल्लोल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी की लहर । तरंग । २. मौज । उमग । आमोंद प्रमोद । क्रोड़ा । ३. शत्रु । दुश्मन (को०) ।

कल्लोलना पु
क्रि० अ० [सं० कल्लोल] कलोलना ।

कल्लोलित
वि० [सं०] लहराता हुआ । तरंगित ।

कल्लोलिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कल्लोल करनेवाली नदी । लहराती हुई नदी ।

कल्लोलिनी (२)
वि० कल्लोल करनेवाली । कल कल करनेवाली ।

कल्व
संज्ञा पुं० [सं०] वास्तु या भवननिर्माण शिल्प में द्वारा के वे किनारे जो नुकीले बनाए जाते हैं ।

कल्ह †
क्रि० वि० [सं० कल्य, कल्लि] दे० 'कल' । उ०— कल्ह संध्या को ऐसी बदली छाई कि मेरे सिर में पीड़ा आई । — श्यामा०, पृ० ६ ।

कल्हक
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक चिड़िया जो कबूतर के बराबर होती है । विशोष— इसका रंग ईंट का सा लाल होता है, केवल कंठ काला होता है, आँखें मोतीचूर होती हैं और पैर लाल होते हैं ।

कल्हण
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कृत के एक प्रसिद्ध पंड़ित और इतिहासकार । विशेष— ये कश्मीर के राजमंत्री चंपक प्रतु के पुत्र और राज- तरंगिणी के कर्ता थे । इनका समय ईसवी १२वीं शताब्दी का मध्य है ।

कल्हर पु
संज्ञा पुं० [हि० कल्लर] दे० 'कल्लर' ।

कल्हरना (१) †
क्रि० अ० [हि० कड़ाह + ना (प्रत्य०)] भुनना । कड़ाही में तला जाना ।

कल्हरना (२)
क्रि० अ० [प्रा० कल्हार] पुष्पित होना । पल्लवित होना । विकसित होना । उ०— कामलता कल्हरी पेम मारुत झकझोरी ।— पृ० रा० २५ । ३८१ ।

कल्हरा (१) †
संज्ञा पुं० [देश०] करघे की वह लकड़ी जिसे चक कहते हैं । विशेष दे० 'चक' ।

कल्हाना पु
क्रि० स० [हि० कल्लाना] दे० 'कहलाना' । उ०— खबर सुन साममीन ने मिलके सारे कल्हा भेजे हैं उसकूँ ।— दक्खिनी०, पृ० १९० ।

कल्हार (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० कल्हारना] कल्हारने की क्रिया या भाव ।

कल्हार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद कोई । श्वेत कमलिनी । उ०— मुक्तफल कल्हार कमल तहाँ कुंदन से मणिन सों जरी पाल चहूँ और साँकरी । — राम० धर्म०, पृ० ६७ ।

कल्हारना (१) †
क्रि० स० [हि० कड़ा + ना (प्रत्य०)] कड़ाही में ड़ालकर भूनाना । तलना । संयो० क्रि० — ड़ालना ।— देना ।

कल्हारना (२) †
क्रि० अ० [सं० कल्ल = शोर करना] दुःख से करा- हना । चिल्लाना ।

कवंद पु
संज्ञा पुं० [सं० कबन्ध] दे० 'कवंध' । उ०— सूरा वही सराहिये बिन सिर लड़त कवंद । —दरिया० बानी, पृ० ६ ।

कवे पु
संज्ञा पुं० [सं० कवि] दे० 'कवि' । उ० —जालंधर राजा अजौ आखै कव आसीस ।— रा० रू०, पृ० ३६२ ।

कवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कवल । ग्रास । २. छत्रक । कुकुरमुत्ता ।

कवच
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कवची] १. आवरण । छाल । छिलका । २. लोहे की कड़ियों के जाल का बना हुआ पहनाव जिसे योद्धा लड़ाई के समय पहनते थे । जिरह— बकतर । सँजोया । यौ०— कवचधर । कवचधृत् । कवचधारी । कवचपाश । कवचहर । पर्या०— तनुत्र । वर्म । दंशन । कंकटक । अजगर । जगर । जगर । कटक । योग । सन्नाह । कंचुक । ३. तंत्र शास्त्र का एक अंग जिसमें भिन्न भिन्न मंत्रों द्वारा अपने शरीर के भिन्ना भिन्ना अंगों की रक्षा के लिये प्रार्थना की जाती हैं । विशेष—लोगों का विश्वास है कि कवच का पाठ करने से उपासक समस्त बाधाओं से रक्षित रहता है । इसे कोई कोई भोजपत्र पर लिखकर तावीज बनाकर भी पहनते हैं । ४. तांत्रिक मंत्र ' हूँ ' । हुँकार । ५. बड़ा नगाड़ा जो लड़ाई के समय बजाया जाता है । पटह । ड़ंका । ६. पाकर का पेड़ ।

कवचधार
वि० [सं०] वच धारण करनेवाला ।

कवचधारी
वि० [सं० कवचधारिन्] कवच धारण करनेवाला ।

कवचपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र ।

कवची (१)
वि० [सं० कवचिन्] [वि० स्त्री० कवचिनी] कवच धारण करनेवाला । कवचयुक्त ।

कवची (२)
संज्ञा पुं० १. शिव । २. धृतराष्ट का एक पुत्र ।

कवटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दरवाजे का पल्ला । किवाड़ का पल्ला । २. शूद्र जातिविशेष की स्त्री [को०] ।

कवड
संज्ञा पुं० [सं०] मुँह धोने का पानी [को०] ।

कवड़ी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कपर्दिका, प्रा० कवड़्ड़िआ] दे० ' कौड़ी' । उ०— उदर भरण धर धर अटे, रटे नहीं श्रीराम । सूँस करे कवड़ी सटे, ते गुण घटे तमाम ।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४२ ।

कवण पु †
सर्व० [हिं कौन] दे० 'कौन' ।

कवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी । २. कथन । कहना । ३. काव्य या कविता की रचना करना [को०] ।

कवन पु (२) †
सर्व० [हिं० कौन] दे० 'कौन' । उ०— तहाँ हौं कवन निपट मतिमंद । बौना पै पकरावौ चंद । नंद० ग्रं०, पृ० २१६ ।

कवनी पु
वि० [सं० कमनीय] दे० ' कमनीय' । उ०—कहियै कहा महारुचि रवनी कवनी निपट नंद ब्रज अवनी ।— घनानंद, पृ० २८७ ।

कवयिता
संज्ञा पुं० [सं० कवियितृ] [ वि० स्त्री० कवयित्री] कवि [को०] ।

कवयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मछली जो एक जलाशय से दूसरे जलाशय में पलट खाती हुई चली जाती है । सुंभा ।

कवर (१)
संज्ञा पुं० [सं० कवल] ग्रास । कौर । लुकमा । निवाला ।

कवर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कवरी] १. केशपाश । २. गुच्छा । फुल का गुच्छा । स्तवक । यौ०— कवरपुच्छा = मयूरी । ३. नमक । ४. लोनापन । ५. खटाई ।

कवर (३)
संज्ञा पुं० १. गुथा हुआ । २. मिला हुआ । ३. चितकबरा ।

कवर (४)
संज्ञा पुं० [अं०] १. ढकना । २. आच्छादन । बेठन । ३. पुस्तकों के ऊपर का वह कागज जिसपर नाम आदि छपा रहता है । ४. चिट्टी का खाम । लिफाफा ।

कवरकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंदिनी [को०] ।

कवरना पु †
क्रि० स० [हिं० कौरना] दे० 'कौरना' ।

कवरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चोटी । जूड़ा । वेणी । उ०—अति सुदेस मृदु चिकुर हरत चित गूँथे सुमन रसालहिं । कवरी अति कमनीय सुभग सिर राजति गौरी बालहिं ।— सूर (शब्द०) । २. बर्बरी । बबई । बनतुलसी । ३. कवरी गाय ।

कवरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कवरी' । उ०— कबरी हिरती सम सोभ बढ़ी । मनिनं मणि कंचन खंभ चढ़ी । — प० रासो०, पृ० १६३ ।

कवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कवर्गीय] क से ङ तक के अक्षरों का समूह जिनका उच्चारण कंठ से होता है ।

कवल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कवलित] अन्न या भोज्य पदार्थ की वह मात्रा जो खाने के लिये एक बार मुँह में ड़ाली जाय । उतनी वस्तु जितनी एक बार में खाने के लिये मुँह में रखी जाय । कौर । ग्रास । गस्सा । २. उतना पानी जितना मुँह साफ करने के लिये एक बार मुँह में लिये जाय । कुल्ली । ३. एक प्रकार की मछली । कौवा । ४. एक प्रकार की तौल । कर्ष ।

कवल (२)
संज्ञा पुं० [देश०] किनारा । कोना ।

कवल (३)
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० कवली] १. एक पक्षी का नाम । २. घोड़े की ऐक जाती का नाम । उ०— जरदा, जिरही, जाँग, सुनौची खदे खंजन । करर, कवाहे, कवल, गिलगिली, गुल गुलरंजन । — सूदन (शब्द०) । ३ एक प्रकार का रोग (को०) । ४. वाराह । शूकर (को०) ।

कवल (४) † पु
संज्ञा पुं० [सं० कमल] दे० 'कमल' । उ०— कालिंदी न्हावहि न नयन अंजै न म्रगंमद । कुचा अग्र परसै न नील दल कवल तोरि सद ।— पृ० रा०, २ । ३४९ ।

कवलग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तौल जो दवा तौलने में काम आती थी । कर्ष । विशेष—यह मागधी मान से सोलह माशे की होती थी । पर आजकल के व्यावहारिक मान से एक तोले के बराबर होती है । पर्या०—कर्ष । तिंदुक । षोडशिका । हंसपदा । सुवर्ण । उदुंबर । करमध्य । पणितल । किंचितपणि । पणिमानिका ।

कवलन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी चीज को खाने या चबाने की क्रिया । चर्वण । निगलना [को०] ।

कवलना पु
क्रि० स० [सं० कवलन] खाना । भक्षण करना । उ०—अटल अखंड कैवल कवलंतु । शाख तरोवर मोहण- मंत ।—प्राण०, पृ० १९० ।

कवलनैन पु
वि० [सं० कमलनयन] दे० 'कमलनयन' ।

कवलाकंत पु
संज्ञा पुं० [सं० कमलाकन्त] कमलापति विष्णु । उ०— ब्रह्मा विष्णु महेश मुनि कवलाकंतु मुरारि । किर्तु लिखिआ रचनु रचाया त्रैगुन करि विस्था रु । —प्राण०, पृ० २०४ ।

कवलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपडे़ या पत्ते की वह गद्दी जो घाव या फोड़े के ऊपर बाँधी जाती है ।

कवलित
वि० [सं०] कौर किया हुआ । खाया हुआ । भक्षित । उ०— सकुल सदन रावन सरिस कवलित काल कराल । सोच पोच असगुन असुभ जाय जीव जंजाल । —तुलसी (शब्द०) ।

कवलेस पु
संज्ञा पुं० [सं० क्लेश] दे० 'क्लेश' । उ०—महा कवलेस दुख वार अरु पार नहिं मारि जमदूत दें त्रास भारी ।—भीखा श०, पृ० ६१ ।

कवष
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढाल । २. एक ऋषि का नाम । विशेष—ये इलूस के पुत्र थे और इनकी माँ दासी थी । इनके बनाए मंत्र ऋग्वेद के दसवें मंडल में हैं । ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि सारस्वत प्रदेश में कुछ ऋषि यज्ञ कर रहे थे । उनकी पंक्ति में बैठकर कवष खाना पीना चाहते थे । ऋषियों ने उन्हें दासीपुत्र कहकर निकाल दिया । इससे वे उनसे क्रुद्ध होकर वहाँ से चले गए और तप करके बहुत से मंत्र रचकर उन्होंने देवताओं को प्रसन्न किया । इसपर ऋषियों ने उनकी बड़ी प्रार्थना की और उन्हें अपनी पंक्ति में ले लिया ।

कवस
संज्ञा पुं० [सं०] १. कवच । २. एक कँटीली झाँड़ी [को०] ।

कवा पु
संज्ञा पुं० [सं० कवक] ग्रास । कौर । कवल । उ०—कर आढर मीठा कवा, जीमाडै़ जेहल्ल ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ५ ।

कवाई पु
संज्ञा पुं० [हिं० कबाय] दे० 'कबाय' । उ०—ब्राह्मण समदइ छइ बीसलराय । हाँसलउ धोड़उ कुलह कवाई । — बी० रासो, पृ० ९ ।

कवाट
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कवाटी] १. कपाट । किवाडा । २. दरवाजा (को०) ।

कवाम
संज्ञा पुं० [अ० क़वाम] १. पकाकर शहद की गाढ़ा किया हुआ रस । किमाम । जैसे,—सुतरी का कवाम । २. चाशनी । शीरा ।

कवायत पु †
संज्ञा स्त्री० [अ० कवायद] दे० 'कवायद' । उ०— कवायत आसमान के बीच होवै । —पलटू०, पृ० ११ ।

कवायद
संज्ञा स्त्री० [अ० कवायद] दे० नियम । व्यवस्था । यौ०—कवायद पटवारियान ।२. व्याकरण । ३. सेना के युद्ध करने के नियम । ४. लड़नेवाले सिपाहियो की युद्ध नियमों के आभ्यास की क्रिया । विशेष—फौज में सिपाहियों की पंक्तियाँ आगे पीछे खड़ी की जाती हैं । फिर अफसर सेना क नियमानुसार भिन्न भिन्न शब्द बोलता है या बिगुल आदि के संकेत करता है । उन शब्दों और संकेतों के अनुसार सिपाही आगे बढ़ते हैं, पीछे हटते हैं, एक मुद्रा से दूसरी मुद्रा धारण करते हैं, बंदुक भरते, तानते या चलाते हैं, धावा करते, हटते, लेटते और बैठते है । इन्हीं सब क्रियाओं को कवायद कहते हैं । क्रि० प्र०—करना ।—लेना ।

कवार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल । २. एक प्रकार का ढेंक या जलपक्षी जिसकी चोंच बहुत लंबी होती है ।

कवारी (१)
वि० [सं०] १. स्वार्थी । खुदगर्ज । मतलबी । २. तुच्छ या गर्हणीय (शत्रु) [को०] ।

कवारी (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० कबाड़ी] दे० 'कबाड़ी' । उ०—करवत्त तत्त विहार कितुरत जनु कि कवारिय पटुपट ।—पृ० रा०, ७ । १०९ ।

कवारी (३) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अरवन' ।

कविंद पु
संज्ञा पुं० [सं० कवीन्द्र] दे० 'कवींद्र' । उ०—उनके अनुयायी 'कविंदों' में प्रकृति का रूप विश्लेषण ढूँढ़ ना ही व्यर्थ है । —रस०, पृ० १३८ ।

कविंमन्य
संज्ञा पुं० [सं० कविम् + मन्य] वह जो कवि न होते हुए भी अपने को कवि दिखाए या कहे । उ०—स्वतंत्र भारत में राजकीय मंत्रियों को अभिनंदनग्रंथ समर्पित करने में हिंदी के कविंमन्य और पंडितंमन्य महानुभावों के द्वारा देखी जा रही है ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८९ ।

कवि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काव्य करनेवाला । यौ०—कविज्येष्ठ । कविपुत्र । कविराज । कविश्रेष्ठ । २. ऋषि । ३. ब्रह्मा । ४. शुक्राचार्य । ५. सूर्य । ६. उल्लू ।

कवि (२)
वि० १. सर्वज्ञ । २. चतुर । होशियार । ज्ञानी । प्रशंसनीय [को०] ।

कविक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लगाम ।

कविक (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक वृक्ष का नाम जो मलाया प्रायद्वीप में होता है । विशेष—इसके फल गुलाबजामुन की तरह और रसीले होते हैं । बंगाल, दक्षिण भारत तथा बर्मा में भी अब इसके पेड़ लगाए जाते हैं । इसे मलाक जामरूल भी कहते हैं ।

कविकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] काव्यरचना की क्रिया । काव्योद्भावन । उ०—जहाँ मान ही लेने की बात हो, वहाँ कवि और कविकर्म की परीक्षा कैसे हो सकती है । —पोद्दार अभि० ग्रं०,पृ० १०८ ।

कविका
संज्ञा पुं० [सं०] १. लगाम । २. केवड़ा । ३. कवई मछली ।

कविकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] कवियों का गुणगान । कवियों की कोरी प्रशंसा । उ०—मेरा उद्देश्य अपने साहित्य के इतिहास का एक पक्का और व्यवस्थित ढाँचा खड़ा करना था, न कि कविकीर्तन करना । —इतिहास, पृ० ३ ।

कविज्येष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] आदिकवि वाल्मीकि ।

कविता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनोविकारों पर प्रभाव डालनेवाला रमणीय पद्यमय वर्णन । काव्य । क्रि० प्र०—करना ।—जोड़ना ।—पढ़ना ।—रचना ।

कविता (२)
संज्ञा पुं०, वि० [सं० कवितृ] दे० 'कवि' । उ०—(क) बरने नष की उपमा कविता । सु जरे मनुं कंदुन मुत्तियता ।— पृ० रा०, २१ ।८६ । (ख) दिन फेर पिता वर दे सविता कर दे कविता कवि शंकर को ।—कविता कौ०, भा० २, पृ० ९६ ।

कविताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कविता] दे० 'कविता' ।

कविताना
क्रि० स० [सं० कविता से नाम०] पद्यबद्ध करना । छंद की जोड़जाड़ करना ।

कविताव्रत
वि० [सं०] काव्यरचना का व्रत लेनेवाला । उ०—हुए कृती कविताव्रत राजकवि समूह ।—अनामिका, पृ० १४२ ।

कवित्त
संज्ञा पुं० [सं० कवित्व] १. कविता । काव्य । उ०—निज कवित्त केहि लाग न नीका । —तुलसी (शब्द०) । २. दंडक के अंतर्गत ३१ अक्षरों का एक वृत्त । विशेष—इसमें प्रत्येक चरण में ८, ८, ८, ७ के विराम से ३१ अक्षर होते हैं । केवल अंत में गुरु होना चाहिए, शेष वर्णो के लिये लघु गुरु का कोई नियम नहीं है । जहाँ तक हो, सम वर्ण के शब्दों का प्रयोग करें तो पाठ मधुर होता है । यदि विषम वर्ण के शब्द आएँ तो दो एक साथ हों । इसे मनहरन और घनाक्षरी भी कहते हैं । जैसे,—कूलन में, केलि में, कछारन में, कुंजन में, कयारिन में कलिन कलीन किलकंत है । कहै पझाकर परागन में, पौनहू में, पातन में, पिक में, पलासन पगंत है । द्वारे में, दिसान में दुनी में, देस देसन में, देखी दीप दीपन में, दीपत दिगंत है । बीथिन में, ब्रज में, नबेलिन में, बेलिन में, बनन में, बागन में, बगरयो बसंत है । —पद्माकर ग्रं०, पृ० १६१ । ३. छप्पय छंद का एक नाम ।

कवित्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. काव्य—रचना—शक्ति । २. काव्य का गुण । यौ०—कवित्वशक्ति ।

कविनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] कविश्रेष्ठ । कवियों का स्वामी । श्रेष्ठ कवि । उ०—अक्रमातिशय उक्ति सो कहि भूषन कविनाथ । — भूषण ग्रं०, पृ० ८२ ।

कविपरंपरा
संज्ञा स्त्री० [सं० कविपरम्परा] कवियों की परंपरा । पूरा कविसमूह या संप्रदाय । उ०—जिसका विधान कविपरंपरा बराबर करती चली आ रही है उसके प्रति उपेक्षा प्रकट करने.....का जो नया फैशन टाल्सटाय के समय से चला है वह एकदेशीय है । —रस०, पृ० ६४ ।

कविपुंगव
संज्ञा पुं० [सं० कविपुग्ङव] श्रेष्ठ कवि । बडा कवि । उ०—इस प्रत्यक्षवादिता के लिये सांप्रतिक राजनीति संवलित कविपुंगवों और साहित्यिकों से अधिक प्रशंसा के भाजन अवश्य हैं । —पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८९ ।

कविपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. भृगु के एक पुत्र का नाम । २. शुक्राचार्य ।

कविप्रसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] काव्य में प्रचलित रूढियाँ जो सत्य न होने पर भी सत्य की भाँति ही काव्य में वर्णित हुई हैं । कविसमय । कविरूढ़ि । जैसे, केले से कपूर निकलना या चकवा चकई का दिन में साथ साथ रहना और रात में अलग हो जाना, आदि ।

कविर्मनीषी
संज्ञा पुं० [सं०] श्रेष्ठ कवि । महान् कवि । चिंतक कवि । —अपरा, पृ० २०० ।

कविराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रेष्ठ कवि । उ०—इतमें हम महाराज हैं उतै आप कविराज । —अकबरी०, पृ० १२९ । २. भाट । ३. बंगाली वैद्यों की उपाधि ।

कविरामायण
संज्ञा पुं० [सं०] वाल्मीकि [को०] ।

कविराय पु
संज्ञा पुं० [सं० कवि + हिं० राय] दे० 'कविराज' । उ०—अकबर ने इन्हें कविराय की उपाधी दी थी ।— अकबरी०, पृ० ८४ ।

कविलास पु
संज्ञा पुं० [सं० कैलास, प्रा० कइलास, कविलास] १. कैलास । २. स्वर्ग । उ०—सात सहस हस्ती सिंहली । जनु कविलास इरावत बली ।—जायसी (शब्द०) ।

कविलासिका
संज्ञा स्त्री० [दे०] एक प्रकार की वीणा ।

कविली पु
वि० [हिं० काबुली] दे० 'काबुली' । उ०—बत्तीस सहस कविली करूर । जम जोर जोध नज्जरि गरूर ।— पृ० रा०, १३ । १३ ।

कविवाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कवि की वाणी । कविता । काव्य । उ०—कविवाणी के प्रसाद से हम संसार से सुख दुःख, आनंद क्लेश का शुद्ध स्वार्थमुक्त रूप में अनुभव करते हैं ।—रस०, पृ० २४ ।

कविशेखर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. संगीत में ताल के ६० मुख्य भेदों में से एक । २. उत्तम कवियों को प्रदत्त एक उपाधि (को०) ।

कविशेखर (२)
वि० श्रेष्ठ कवि [को०] ।

कविसमय
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य में प्रचलित रूढ़ियाँ । कविप्रसिद्धि ।

कविसम्राट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कवियों की श्रेष्ठतासूचक एक उपाधि । २. महान् कवि । श्रेष्ठ कवि ।

कविसम्राट्
वि० कवियों में श्रेष्ठ । अच्छे कवियों में अच्छा या उत्तम । उ०—आप उच्चकोटि के कविसम्राट् भी हैं और प्रशस्त काव्यचार्य भी ।—रस क०, पृ० ३ ।

कवींद्र
संज्ञा पुं० [सं० कवीन्द्र] श्रेष्ठ कवि । बड़ा कवि ।

कविय
संज्ञा पुं० [सं०] 'कविक' [को०] ।

कवो (१)
वि० [अ० क़वी] बलवान् । शक्तिशाली । मजबूत । दृढ़ । उ०—दलालत यो सही कुरान सूँ है । कवी इसलाम के ईमान सूँ है । —दक्खिनी०, पृ० १६३ ।

कवी (२)
संज्ञा पुं० [सं० कवि] दे० 'कवि' । उ०—किवलो पिच्छू कहैं लहू अंक लहावैं । गिणै बंद बस गूरू कवी लघु चार कहावैं । —रघु० रू०, पृ० ५ ।

कवीठ
संज्ञा पुं० [सं० कवीष्ठ, प्रा० कविट्ठ] कैथा । कैथ ।

कवीय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कविक' [को०] ।

कवेरा †
संज्ञा पुं० [हिं० गाँव > गवेरा?] [स्त्री० कवेरिन] १. गँवार । देहाती । २. भद्दी चाल चलन का व्यक्ति ।

कवेल
संज्ञा पुं० [सं०] कमल (को०) ।

कवेला (१)
संज्ञा पुं० [अ० क़िवला] दौर की कील । दिग्दर्शक यंत्र की वह कील जिसपर सूई रहती है ।—(लश०) ।

कवेला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कौवा +एला (प्रत्य०)] कौए का बच्चा ।

कवेस पु
संज्ञा पुं० [सं० कवीश] कवीश । श्रेष्ठ कवि । उ०— वयणसगाई वेश मिल्या साँच दोषण मिटै । कियणक समैं कवेस, थपियो सगपण ऊथपै ।—रघु० रू०, पृ० १३ ।

कवोष्ण
वि० [सं०] हलका गरम । गुनगुना [को०] ।

कव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह अन्न जो पितरों को दिया जायँ । वह द्रव्य जिससे पिंड, पितृयज्ञादि किए जायँ । उ०—विधिवत कव्य सँजोइ नित्त हमें तर्पित करे ।—शकुंतला पृ० १२५ । विशेष—कव्य अन्न श्रोत्रिय को देना चाहिए ।

कव्यवाह, कव्यवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] वह अग्नि जिसमें पिंड से पितृयज्ञ में आहुति दी जाती है ।

कव्व पु
संज्ञा पुं० [सं० काव्य, प्रा० कव्व] दे० 'काव्य' । उ०—ते मोञे भलओ निरूढ़ि गए, जइसओ तईसओ कव्व ।—कीर्ति०, पृ० ४ ।

कव्वाण पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृवाण प्रा० किवाण] दे० 'कृपाण' । उ०—काल कव्वाण कसी सिर ऊपरै मारसी जोय नहि कोय जाड़ा ।—राम० धर्म० पृ० १३९ ।

कव्वाल
संज्ञा पुं० [हिं० कौवाल] दे० 'कौवाल' ।

कश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कशा] चाबुक ।

कश (२)
संज्ञा पुं० [फा़०] १. खिंचाव । यौ०—कशमकश । धुआँकश (स्टीमर) । २. हुक्के या चिलम का दम । फूँक । जैसे, —दो कश हुक्का पी लें तब चलें । क्रि० प्र०—खींचना ।—मारना ।—लगाना ।—लेना ।

कश (३)
वि० खींचनेवाला । करनेवाला । जैसे, —आराकश, मेहनतकश, कद्दूकश । विशेष—इस अर्थ में इसका प्रयोग केवल समस्त पदों के अंत में होता है ।

कशकु
संज्ञा पुं० [सं०] गवेधुक् । कसी ।

कशकोल
संज्ञा पुं० [हिं० कजकोल] दे० 'कजकोल' ।

कशमकश
संज्ञा स्त्री० [फा० कश्मकश] १. खींचातानी । २. भीड़ । धक्कमधक्का । ३. आगापीछा । सोचविचार । असमंजस । दुबिधा ।

कशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रस्सी । २. कोड़ा । चाबुक । यौ०—कशात्रय = कोड़ा मारने के तीन प्रकार । विशेष—चाबुक मारने के तीन प्रकार कहे गए हैं—मृदु, मध्य और निष्ठुर । साधारण नटखटी पर मृदु आघात होता है और अलफहोने या घोड़ी इत्यादि देखकर बिगड़ने पर मध्य या निष्ठुर आघात किया जाता है । भड़कने पर गरदन पर चाबुक लगाना चाहिए और घोड़ी देखकर हिनहिनाने या बिगड़ने पर कंधे पर चाबुक मारना चाहिए ।

कशाघात
संज्ञा पुं० [सं०] चाबुक या कोडे़ की मार ।

कशारि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्मकांड में यज्ञ की उत्तर वेदी जिसपर अग्नि जलाई जाती है और कभी कभी अग्निकुंड भी बनाया जाता है ।

कशिक
संज्ञा पुं० [सं०] नेवला [को०] ।

कशिपु
संज्ञा पुं० [सं०] १. तकिया । २. बिछौना । आसन । ३. पहनावा । कपड़ा । ४. अन्न । ५. भात । ६. शंख (को०) । यौ०—हरिष्यकशिपु ।

कशिश
संज्ञा पुं० [फा़०] १. आकर्षण । खिंचाव । २. झुकाव । रुझान । प्रवृत्ति । ३. रोचकता ।

कशीदया
संज्ञा पुं० [फा़० कशीद =खींचना + या =पैर] कुश्ती का एक पेंच जिसमें विपक्षी की गरदन पर बाँया हाथ रखकर बाँएँ पंजे से उसका दाहिना मोजा अपनी तरफ को खींच और उसके दाहिने हाथ से पकड़कर गिरा देते हैं ।

कशीदा (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० कसीदा] कपडे पर सूई और तागे से निकाला हुआ काम । तागे भरकर कपडे़ में निकाले हुए बेल- बूटे । गुलकारी का काम । विशेष—कशीदा कई प्रकार का होता है; जैसे—सादा, गड़ारीदार, तिनकलिया, कड़ीदार, मुर्रीदार, पेंचदार, जंजीरेदार, गुलदार इत्यादि । क्रि० प्र०—काढ़ना ।—निकालना ।

कशीदा (२)
वि० [फा़० कशीदह्] १. खिंचा हुआ । उठाया हुआ । २. अप्रसन्न । यौ०—कशीदा कामत = लंबे डीलडौलवाला ।

कशेरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. रीढ़ की हड्डी । २. एक प्रकार की घास ३. जंबू—द्वीप के नौ खडों में से एक । ४. कसेरू [को०] ।

कशेरुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कसेरू' ।

कशेरुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीठ की लंबी हड्डी । रीढ़ ।

कशेरू
संज्ञा पुं० [सं० कशेरु] दे० 'कसेरू' ।

कश्चित् (१)
वि० [सं०] कोई । कोई एक ।

कश्चित् (२)
सर्व० [सं०] कोई (व्यक्ति) ।

कश्ती
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. नौका । नाव । उ०—कश्ती सकल जहाँन के, चस्तीसाह निजाम ।—चित्रा०, पृ० १० । २. पान, मिठाई या बायना बाँटने के लिये धातु या काठ का बना हुआ एक छिछला बर्तन । विशेष—यह बर्तन लगभग थाली के बराबर और कुछ लंबाई लिए होता है । ३. शतरंज का मोहरा ।

कश्फ
संज्ञा पुं० [अ० कश्फ़] प्रकट होना । खुलना । उ०—करामत कश्फ हक तुमना देवेगा । भोत कुछ न्यामताँ कर रोज उकवा ।—दक्खिनी०, पृ० ११५ ।

कश्मल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोह । मूर्च्छा । बेहोशी । २. पाप । अघ । ३. अंबरबारी ।

कश्मल (२)
वि० [सं०] [स्त्री० कश्मला] पापयुक्त । मैला । गंदा ।

कश्मीर
संज्ञा पुं० [सं०] पंजाब के उत्तर में हिमालय से घिरा हुआ एक पहाड़ी प्रदेश जो प्राकृतिक सौंदर्य और उर्वरता के लिये संसार में प्रसिद्ध है । विशेष—यहाँ अंगूर, सेब, नाशपाती, अनार, बादाम आदि फल बहुतायत से होते हैं । यहाँ बहुत से झीलें हैं जिनमें डल प्रसिद्ध है । यहाँ के निवासी भी बहुत भोले और सुंदर होते हैं । केसर इसी देश में होता है । यहाँ के शाल, दुशाले और लोइयाँ बहुत काल से प्रसिद्ध हैं । प्रचिन काल में यह संस्कृत विद्यापीठ था झेलम कश्मीर से होकर ही पंजाब की ओर बही है । ऐसा पसिद्ध है कि यहाँ पहले जल ही जल था, कश्यप ऋषि ने बारामूला के मार्ग से सारा जल झेलम में निकाल दिया और यह अनूठा प्रदेश निकल आया । इसकी राजधानी श्रीनगर है जो समतल भूमि पर बसा हुआ है ।

कश्मीरज
संज्ञा पुं० [सं०] केसर ।

कश्मीरी (१)
वि० [हि० कश्मीर + ई (प्रत्य०)] कश्मीर का । कश्मीर देश में उत्पन्न ।

कश्मीरी (२)
संज्ञा स्त्री० १. कश्मीर देश की भाषा । २. एक प्रकार की चटनी । विशेष—इसके बनाने की विधियाँ हैं—अदरक को छीलकर छोटे छोटे टुकडे़ कर लेते हैं । तरनंतर शक्कर, मिर्च, शीतल- चीनी, केसर, इलायची, जावित्री, सौंफ और जीरा आदि मिला देते हैं । फिर अंदाज से नमक और सिरका डालकर रख देते हैं ।

कश्मीरी (३)
संज्ञा पुं० [हिं० कश्मीर] [स्त्री० कश्मीरिन] १. कश्मीर देश का निवासी । २. कश्मीर देश का घोड़ा ।

कश्य (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शराब । मदिरा । २. घोड़े का पुट्ठा (को०) ।

कश्य (२)
पुं० चाबुक मारने के योग्य [को०] ।

कश्यप
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वैदिककालीन ऋषि का नाम । विशेष—ऋग्वेद में इनके हुए अनेक मत्र हैं । २. एक प्रजापति का नाम । ३. कछुआ । कच्छप । ४. एक प्रकार की मछली । ५. एक प्रकार का मृग । ६. सप्तर्षिमंडल के एक तारे का नाम ।

कश्यप
वि० [सं०] १. काले दाँतवाला । २. मद्यप । शराबी ।

कश्यपनंदन
संज्ञा पुं० [सं० कश्यपनन्दन] गरुड़ [को०] ।

कष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सान । २. कसौटी (पत्थर) । यौ०—कषपट्टिका । ३. परीक्षा । जाँच । ४. रगड़ने की क्रिया (को०) ।

कषण (१)
वि० [सं०] बिना पका हुआ । कच्चा [को०] ।

कषण (२)
संज्ञा पुं० १. रगड़ना । २. चिह्न बनाना । ३. खरोंचना । ४. कसौटी पर सोने को कसना [को०] ।

कषट पु
संज्ञा पुं० [सं० कष्ट] दे० 'कष्ट' । उ०—मन वचन क्रम भ्रम कषट सहत तन ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४५६ ।

कषट्ट पु
संज्ञा पुं० [सं० कष्ट] दे० 'कष्ट' । उ०—जग जंतु जनम्म अनंत कषट्टय महा दुषट्टय ह्वाल हुआ ।—राम० धर्म०, पृ० ३०० ।

कषपट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कसौटौ [को०] ।

कषा
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कशा' ।

कषाइ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कषाय] दे० 'कषाय' । उ०—जोके रंचक सुनत सब, कर्म कषाइ नसाइ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२३ ।

कषाकु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । २. सूर्य [को०] ।

कषाय (१)
वि० [सं०] १. कसैला । बाकठ । विशेष—यह छह रसों में है । २. सुगंधित । खुशबूदार । ३. रँगा हुआ । ४. गेरू के रंग का । गैरिक । यौ०—कषायवस्त्र । ५. मधुर स्वरवाला (को०) । ६. अनुपयुक्त । अनुचित (को०) । ७. गंदा (को०) ।

कषाय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसैली वस्तु । २. गोंद । वृक्ष का निर्यास । ३. क्वाथ । गाढ़ा रस । ४. सोनापाठ का पेड़ । श्योनाक वृक्ष । ५. क्रोध लोभादि विचार (जैन), जैसे, — कषाय दोष । ६. कलियुग । ७. अंगरागलेपन (को०) । ८. ११. उत्तेजना । भावावेश (को०) । १२. मंदता । मूर्खता (को०) । १३. सांसारिक पदार्थों के प्रति अनुरक्ति (को०) । धूल (को०) । ९. गंदगी (को०) । १०. विनाश । ध्वंस (को०) ।

कषायित
वि० [सं०] १. गेरू के रंग का । २. प्रभावित [को०] ।

कषायी (१)
[सं० कषायिन्] १. जिस से गोंद जैसा पदार्थ निकले ।२. कसैला । ३. गेरुए रंग का । ४. भौतिकतावादी । दुनिया— दार [को०] ।

कषायी (२)
संज्ञा पुं० खजूर, शाला आदि वृक्ष [को०] ।

कषि
वि० [सं०] हानिकारक । नुकसानदेह [को०] ।

कषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पक्षी [को०] ।

कषित
वि० [सं०] १. रगड़ा हुआ । कसौटी पर कसा हुआ । २. जिसे आघात लगा हो [को०] ।

कषीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पक्षी [को०] ।

कषेरुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] रीढ़ [को०] ।

कष्कष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का जहरीला कीड़ा [को०] ।

कष्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्लेश । पीड़ा । वेदना । तकलीफ । व्यथा । दुःख । क्रि० प्र०—उठाना ।—करना ।—झेलना । देना—भोगना ।—सहना । २. संकट । आपत्ति । मुसीबत । ३. पाप । दोष (को०) । ४. दुष्टता । शैतानी (को०) । ५. प्रयत्न । उद्योग (को०) । ६. परिश्रम । श्रम (को०) ।

कष्ट (२)
वि० १. बुरा । सदोष । २. हानिकारक । ३. जो क्रमशः बुरी हालत को पहुँचा हो । ४. बदतर । कष्टकर । दुखदायक । ५. चितापूर्ण । ६. कठिन । दुस्साध्य । ७. घातक [को०] ।

कष्टकर
वि० [सं०] कष्ट देनेवाला । तकलीफदेह ।

कष्टकल्पना
संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुत खींचखाँच की और कठिनता से ठीक घटनेवाली युक्ति । विचारों का घुमाव फिराव ।

कष्टकारक (१)
वि० [सं०] दुःखदायी । तकलीफदेह [को०] ।

कष्टकारक (२)
संज्ञा पुं० संसार [को०] ।

कष्टभागिनेय
संज्ञा पुं० [सं०] पत्नी की बहन का लड़का [को०] ।

कष्टमातुल
संज्ञा पुं० [सं०] सौतेली माँ का भाई [को०] ।

कष्टमोचन
वि० [सं०] कष्ट से उबारनेवाला ।

कष्टलभ्य
वि० [सं०] कष्ट से प्राप्त । कठिनाई से प्राप्त होनेवाला ।

कष्टसाध्य
वि० [सं०] जिसका साधन या करना कठिन हो । मुश्किल से होनेवाला । जैसे,—कष्टसाध्य कार्य ।

कष्टस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] अरुचिकर स्थान [को०] ।

कष्टार्जित
वि० [सं०] कष्ट से कमाया हुआ । अत्यंत परिश्रम से प्राप्त किया हुआ (को०) ।

कष्टार्तव
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री को कष्ट से रजोधर्म का होना [को०] ।

कष्टार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] खींचतान कर लगाया हुआ अर्थ [को०] ।

कष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परीक्षा । २. कष्ट । ३. आघात [को०] ।

कष्टित
वि० [सं०] [स्त्री० कष्टिता] दुःखित । दुःखी । उ०—मैं ऐसी हूँ न निज दुःख से कष्टिता शोकमग्न ।—प्रिय०, पृ० २५९ ।

कष्टी
वि० स्त्री० [सं० कष्ट] १. प्रसववेदना से पीड़ित (स्त्री) । २. जिसे कष्ट हो । दुःखी । पीड़ित । दरशनारत दास त्रसित माया पास त्राहि दास कष्टी ।—तुलसी (शब्द०) ।

कस (१)
संज्ञा पुं० [सं० कष] १. परीक्षा । कसौटी । जाँच । उ०—जौ मन लागै रामचरन अस । देह, गेह, सुत, बित, कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किए जस । द्वंद—रहित, गतमान, ज्ञान रत, बिषय—बिरत खटाइ नाना कस ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५६१ । क्रि० प्र०—पर खींचना या रखना । २. तलवार की लचक जिससे उसकी उत्तमता की परख होती है ।

कस (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसना] १. वह रस्सी जिसके कोई वस्तु कसकर बाँधी जाय; जैसे, —गाड़ी की कस । मोट या पुरवट की कस । २. बंध । बंद । उ०—खेल किधौं सतभाव लाड़िले कंचुकि के कस खोंलौ ।—घनानंद, पृ० ५६६ ।

कस (३)
संज्ञा पुं० [हिं० कसना] १. बल । जोर । उ०—रहि न सक्यो कस करि रह्यो बस करि लीनी मार । भेद दुसार कियो हियो तन दुति भेदी सार ।—बिहारी (शब्द०) । यौ०—कसबल । २. दबाव । वश । काबू । इख्तियार । जैसे, —(क) वह आदमी हमारे कस का नहीं है । (ख) यह बात हमारे कस की होती तब तो ? मुहा०—कस का = वश का । अधीन । जिसपर अपना इख्तियार हो । कस में करना या रखना = वश में रखना । अधीन रखना । कस की गोदी = कुश्ती का पेंच । विशेष—जब विपक्षी पेट में घुस आता है, तब खिलाड़ी अपना एक हाथ उसकी बगल के नीचे से ले जाकर उसकीगर्दन पर इस प्रकार चढ़ाता है कि दोनों की काँखें मिल जाती हैं । फिर वह दूसरे हाथ से विपक्षी का आगे बढ़ा हुआ पैर और (उसी और का) हाथ थींचकर गर्दन की और ले जाता हैं और झोंका देकर चित करता है । ३. रोक । अवरोध । मुहा०—कस में कर रखना = रोक रखना । दबाना । उ०—पर- तिय दोष पुराण सुनि हैसि मुलकी सुखदानि । कस करि राखी मिश्रहूँ मुख आई मुसकानि ।—बिहारी (शब्द०) ।

कस (४)
संज्ञा पुं० [सं० कषीय हिं० कसाव] १. 'कसाव' का संक्षिप्त रूप । २. निकाला हुआ अर्क । ३. सार । तत्व ।

कस (५) †
क्रि० वि० १. कैसे । क्योंकर । २. क्यों । उ०—सो काशी सेइय कस न ।—तुलसी (शब्द०) ।

कसई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कसी' या 'केसई' ।

कसऊटी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसौटी] दे० 'कसौटी' । उ०—तब की बात रहित भई, अब कसऊटी अदल चलाई ।—कबीर सा०, पृ० ९२८ ।

कसक
संज्ञा स्त्री० [सं० कष् = आघात, चोट] १. वह पीड़ा जो किसी चोट के कारण उसके अच्छे हो जाने पर भी रह रहकर उठे । मीठा मीठा दर्द । साल । टीस । उ०—कसक बनी तब तें रहे बँधत न ऊपर खोट । दृग अनियारन की लगी जब ते हिय में चोट ।—रसनिधि (शब्द०) । क्रि० प्र०—आना । होना । २. बहुत दिन का मन में हुआ द्वेष । पुराना बैर । मुहा०—कसक निकालना या काढ़ना = पुराने बैर का बदला लेना । ३. हौसला । अरमान । अभिलाषा । मुहा०—कसक मिटाना या निकालना = हौसला पूरा करना । ४. हमदर्दी । सहानुभूति । परपीडा का दुःख । उ०—तिन सों चाहत दादि तैं मन पशु कौन हिसाब । छुरी चलावत हैं गरे जे बेकसक कसाब ।—रसनिधि (शब्द०) । विशेष—इस अर्थ में यह संबंधकारक के साथ आता है ।

कसकन
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसकना] कसक । टीस । पीड़ा । उ०— कुछ कसकन और कराह लिए । कुछ दर्द लिए कुछ दाह लिए । हिल्लोल, पृ० १७ ।

कसकना
क्रि० अ० [हिं० कसक] दर्द करना । सालना । टीसना । उ०—(क) कमठ कटिन पीठ घट्ठा परो मंदर को आयो सोई काम पै करेजो कसकतु है ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) काहे को कलह नाध्यो, दारुण दाँवर बाँध्यो, कटिन लकुट लै त्रास्यो मेरो भैया । नहीं कसकत मन निरखि कोमल तन तनिक दधि काज भली री तू मैया ।—सूर (शब्द०) (ग) नासा मोरि नचाइ दृग करी क्का की सौंह । काँटे लौं कसकत हिए गड़ी कटीली भौंह ।—बिहारि (शब्द०) । (घ) नंदकुमारहिं देखि दुखी छतिया कसकी न कसाइन तेरी ।—पद्माकर (शब्द०) ।

कसकानि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसकना] दे० 'कसक' । उ०— ज्यों हिये पीर तीर सम सालत कसक कसक कसकानि ।— घट०, पृ० २०० ।

कसकुट
संज्ञा पुं० [हिं० कांस+कुट = टुकड़ा] एक मिश्रित धातु जो ताँबे और जस्ते को बराबर भाग से मिलाकर बनाई जाती है । भरत । काँसा । विशेष—इस धातु से बटलोई, लाटे, कटोरे आदि बनते हैं । इसके बर्तनों में खट्टे पदार्थ बिगड़कर जहरीले हो जाते हैं ।

कसगर
संज्ञा पुं० [फा० कासागर] मुसलमानों की एक जाति जो मिट्टी छोटे छोटे बर्तन बनाती है ।

कसट्ट पु
संज्ञा पुं० [सं० कष्ट] दे० 'कष्ट' । उ०—मिटे संकटं वाट घाटं विघट्टं । रटै नाम तो कोटि काटै कसट्टं ।—पृ० रा०, १ ।३९३ ।

कसतुरी पु
संज्ञा स्त्री० [कस्तूरिका या कस्तुरी] दे० 'कस्तूरी' उ०—कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्होसि भीमसेन औ चीना ।—जायसी ग्रं०, पृ० २ ।

कसतूर पु
संज्ञा पुं० [हिं० कस्तूरी] कस्तूरी । उ०—चंदन सुलेप कसतूर चित्र । नभ कमल प्रगटि जनु किरन मित्र ।— पृ० रा०, ६ । ३६ ।

कसदार
वि० [हिं० कस+ फा़० दार (प्रत्य०)] १. ताकतवर । बलवान् । उ०—इनपर लक्ष्मीबाई के उन कसदार दो सौ घोड़ों का सपाटा पड़ा ।—झाँसी०, पृ० ४०० । २. जो अच्छी तरह कसा या जाँचा गया हो ।

कसन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसना] १. कसने की क्रिया । २. कसने की दीशा । कसने का ढंग । जैसे,—इस बोरे की कसन ढीली पड़ गई है । ३. वह रस्सी जिससे किसी वस्तु को बाँधकर कसते हैं । ४. घोड़े की तंग ।

कसन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कषन] दुःख । क्लेश । तप ।

कसनई
संज्ञा स्त्री० [सं० कृष्ण] एक चिड़िया जिसके डैन काले, छाती और पीठ गुलाबी और चोच लाल रंग की होती है ।

कसना (१)
क्रि० स० [सं० कर्षण, प्रा० कस्सण] १. किसी बंधन को दृढ़ करने के लिये उसकी डोरी आदि को खींचना । जकड़ने के लिये तानना । जैसे—(क) फीते को कसकर बाँध दो । (ख) पलंग की डोरी कस दो । २. बंधन को खींचकर बँधी हुई वस्तु को अधिक दबाना । जैसे, —बोझ को थोड़ा और कस दो । मुहा०—कसकर = (१) खींचकर । जोर से । बलपूर्वक । जैसे, कसकर चार तमाचे लगाओं सीधा हो जाय । उ०—दहै निगोड़े नैन ये गहैं न चेत अचेत । हौं कसि कसिकै रिस करौं ये निरखे हँसि देत—(शब्द०) । (२) पूरा पूरा । बहुत अधिक । जैसे, —(क) कसकर तीन कोस चलाना । (ख) कसकर दाम लेना । कसा = पूरा पूरा । बहुत अधिक । जैसे, — कसा कोस, कसा दाम । कसा तौलना = कम तौलना । तौल में कम देना । ३. जकड़कर बाँधना । जकड़ना । बाँधना । जैसे, —पैटी कसना । उ०—कटि पटपीट कसे बर भाथा । रुचिर चाप सायक दुहु हाथा ।—तुलसी (शब्द०) ४. पुरजों को दृढ़ करके बैठना ।जैसे, —पेंच कसना । ५. साज रखकर सवारी तैयार करना । जैसे, —घोड़ा कसना, हाथी कसना, गाड़ी कसना । मुहा०—कसा कसाया = चलने के लिये बिलकुल तैयार । जैसे, — हम तो तुम्हारे आसरे में कसे कसाए बैठे हैं । ६. ठूँस ठूँसकर भरना । बहुत अधिक भरना । जैसे, —(क) संदूक को कपड़ों से कस दो । (ख) संदूक में सब कपड़े कस दो । (गद) बंदूक कसना = बंदूक भरना ।

कसना (२)पु
क्रि० अ० १. बंधन का खिंचना जिससे वह अधिक जकड़ जाय । जकड़ जाना । जैसे, —कुत्ते का पट्टा कसा है, थोड़ा ढीला कर दो २. किसी लपेटने या पहनने की वस्तु का तंग होना । जैसे, —कुरता कसता है । ३. बंधन के तनने या जकड़ने से बँधी हुई वस्त का अधिक दब जाना । जैसे, — कुत्ते का गला कसता है, पट्टा ढीला कर दो । ४. बँधना । जैसे, —बिस्तर इत्यादि सब कस गया, चलिए । ५. साज रखकर सवारी का तैयार होना । जैसे, —गाड़ी कसी है, चलिए । ६. खूब भर जाना । जैसे—(क) संदूक कपड़ों से कसा है । (ख) पेट खूब कसा है, कुछ न खाएँगे ।

कसना (३)
क्रि० स० [सं० कषण] १. परखने के लिये सोने आदि धातुओं को कसौटी पर घिसना । कसौटी पर चढ़ाना उ०—कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महँ दामिनी परगसी ।—जायसी (शब्द) २. खरे खोटे की पहचान करना । परखना । जाँचना । आजमाना । उ०—सूर प्रभु हँसत, अति प्रीति उर में बसत, इंद्र को कसत हरि जगत— धाता ।—सूर (शब्द०) । तलवार को लचाकर उसके लोहे की परीक्षा करना । ४. दूध की परीक्षा के लिये उसे आँच पर गाढ़ा करना । ५. दूध को गाढ़ा करके खोया बनाना । जैसे—कुंदा कसना । ६. घी में भूनना । तलना ।

कसना (४)
क्रि० सं० [सं० कषण = कष्ट देना] क्लेश देना । कष्ट पहँचाना । उ०—(क) अत्रि आदि मुनिवर बहु बकहीं करहिं जोग, जप तप तन कसहीं ।—तुलसी (शब्द०) ।

कसना (५)
संज्ञा पुं० [स्त्री० कसनी] १. जिससे कोई वस्तु कसी जाय । बँधना । जैसे, —बिस्तर का कसना । पलंग का कसना । २. पिटारी, तकिए आदि का गिलाफ । बेठन । ३. एक प्रकार का जहरीला मकड़ा ।

कसनि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कषण अथवा हिं० कसना] दे० 'कसन' । उ०—महा तपन से जेहि कारन मुनि साधत तन मन कसनि ।—काष्ठ जिह्वा (शब्द०) ।

कसनिय पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसना] एक प्रकार की अँगिया । कसनी । उ०—फुँदिया और कसनिया राती । छापल बँद लाए गुजराती ।—जायसी ग्रं०, पृ० १४५ ।

कसनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसना] १. रस्सी जिससे कोई वस्तु बाँधी जाय । २. वह कपड़ा जिसमें चीज को कसकर बाँधते हैं । बेठन । गिलाफ । ३. कंचुकी । अँगिया । उ०— हुलसे कुच कसनी बँद टूटी । हुलसे भुज बलियाँ कर फटी ।— जायसी (शब्द०) । ४. कसौटी । उ०—सतगुरु तो ऐसा मिला ताते लोह लोहार । कसनी दै कंचन किया ताप लिया ततकार ।—कबीर (शब्द०) । ५. परीक्षा । परख । जाँच । उ०—(क) या में कसनी भक्तन केरी । लेहु न नाथ अरज यह मेरी ।—विश्राम (शब्द०) । (क) साह सिकंदर कसनी लीन्हा बरत अग्नि में डारी । मस्ता हाथी आनि झुकाए कठिन कला भइ भारी ।—कबीर (शब्द०) । क्रि० प्र०—लेना ।—देना ।

कसनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्षणी] एक प्रकार की हथौड़ी जिससे कसेरे बर्तनों का गला बनाते हैं । हथौड़ी ।

कसनी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कसाना] कसाव का पुट । कसैली वस्तु में डुबाने की क्रिया ।

कसपत
संज्ञा पुं० [देश०] १. काले रंग का कूटू । काला फाफर । २. कूटू का पौधा ।

कसब
संज्ञा पुं० [अ० क़सब] १. परिश्रम । मेहनत । पेशा ।— उ०—जाति भी ओछी करम भी ओछा ओछा कसब हमारा ।—रे० बानी, पृ० ७२ । क्रि० प्र०—उठाना । २. छिनाला । व्यभिचार । उ०—बहुर कुमार अवस्था आई । कसब करन लाग्यों हरखाई ।—रघुनाथ (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—कराना ।—कमाना ।—कमवाना ।

कसबल
संज्ञा पुं० [हिं० कस+ बल] १. शक्ति । सामर्थ्य । बल । जोर । ताकत । २. साहस । हिम्मत ।

कसबा
संज्ञा पुं० [अ० कस्बहू] [वि० कसबाती] बड़ा गाँव । साधारण गाँव से बड़ी और शहर से छोटी बस्ती ।

कसबाती
वि० [अ० कसबह] [वि० स्त्री० कसबातिन] १. कसबे का । जो कसबे में हो । जैसे—कसबाती मदरसा । २. कसबे का रहनेवाला ।

कसबिन
संज्ञा स्त्री० [अ० कसब हिं० इन (प्रत्य०)] दे० 'कसबी' ।

कसबी
संज्ञा स्त्री० [अ० क़सब हिं० ई (त्रत्य०)] १. वेश्या । रंडी । पतुरिया । १. व्यभिचारिणी स्त्री । छिनाल औरत । यौ०—कसबीखाना ।

कसबीखाना
संज्ञा पुं० [हिं० कसबी+ फा़० खानह (प्रत्य०)] वेश्यालय ।

कसम
संज्ञा स्त्री० [अ० कसम] शपथ । सौगंध । उ०—वल्लाह मेरे सिर की कसम जो न पी जाओ ।—भारतेंदु ग्रं०, भाग १ पृ० ५४५ । क्रि० प्र०—उठाना ।—खाना ।—खिलाना । मुहा०—कमस उतारना—(१) शपथ का प्रभाव दूर करना । खाई या दिलाई हुई शपथ के अनुसार न चलने पर उसके दोष का परिहार करना । विशेष—खेल में किसी लड़के पर जब दूसरा लड़का शपथ या कसम रख देता है तब वह कुछ वाक्य कहता है जिससे यह समझना है कि शपथ का प्रभाव दूर हो जायगा । (२) किसी काम को नाममात्र के लिये करना ।— जैसे, —कसमउतारने को वे हमारे यहाँ भी होते गए थे । कसम देना, दिलना, रखाना—किसी को शपथ द्वारा बाध्य करना । जैसे—हमारे सिर की कसम, तुम हमारे यहाँ आज आओ । (इस उदाहरण में कसम दी गई है ।) कसम लेना = कसम खिलाना । शपथ उठाने के लिये बाध्य करना । प्रतिज्ञा करना । जैसे, —तुम अपने सिर की कसम खाओ कि वहाँ न जायँगे । (इस उदाहरण में कसम ली गई है ।) किसी बात की कसम खाना—(१) किसी बात के करने की प्रतिज्ञा करना । (२) किसी बात के न करने की प्रतिज्ञा करना । जैसे, —मैने आज से वहाँ जाने की तो कसम खाई है । कसम तोड़ना = शपथ खाकर किसी कार्य को पूरा न करना । प्रतिज्ञा भंग करना । कसम खाने को = नाममात्र को । जैसे, —(क) हमारे पास कसम खाने का एक पैसा नहीं है । (क) कसम खाने को तुम भी पुस्तक हाथ में ले लो । कसम खाने के लिये = दे० 'कसम खाने को' । उ०—तो कसम खाने के लिये बेशक एक जगह है ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० ४३९ । यौ०—कसमाकसमी = परस्पर प्रतिज्ञा ।

कसमर पु
संज्ञा पुं० [सं० कशमल] दे० 'कश्मल' । उ०—नीमी रिषि निमी जिन्हि भखेव । कसेव काम कसमर दुरि भगेव ।— सं० दरिया, पृ० ८९ ।

कसमस (१)
वि० [हिं० कस+ मस (अनुध्व०)] कसा हुआ । कठोर । उ०—खींचती उबहनी वह, बरबस चोली से उभर उभर कसमस खिंचते सग युग रसभरे कलश ।—ग्राम्या, पृ० १८ ।

कसमस (२)
संज्ञा पुं० स्त्री० दे० 'कसमसाहट' ।

कसमसक पु
क्रि० वि० [हिं० कसमसाना] कसमसाते हुए । उ०— भुजन सों भज बँधे अंग प्रति अंग सधे कसमसक कुम्हिलात सेज कुसुमन कली ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ४७२ ।

कसमसना पु †
क्रि० अ० [हिं० कसमसाना] दे० 'कसमसाना' । उ०—भए क्रुद्धयुद्ध विरुद्ध रघुपति त्रोण शायक कसमसे ।—तुलसी० (शब्द०) ।

कसमसाना
क्रि० अ० [अनु०] १. एक ही स्थान पर बहुत सी वस्तुओं या व्यक्तियों का एक दूसरे से रगड़ खाते हुए हिलना डोलना । खलबलाना । कुलबुलाना । जैसे, —भीड़ के मारे लोग कसमसा रहे हैं । उ०—यहि के बीच निसाचर अनी । कसमसाति आई अति घनी ।—तुलसी (शब्द०) । २. उकताकर हिलना डोलना । ऊब ऊबकर इधर से उधर होना । जैसे, —ये बड़ी देर से यहाँ बैठे हैं; इसी से अब चलने के लिये कसमसा रहे हैं । ३. विचलित होना । घबराना । बेचैन होना । ४. आगा पीछा करना । हिचकना ।

कसमसाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसमसाना+ आहट (प्रत्य०)] १. कुलबुलाहट । जुंबिश । डोलाव । हिलाव । हिलाव । २. बेचैनी । व्याकुलता । घबराहट ।

कसमसी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसमस+ ई (प्रत्य०)] दे० 'कसमसाहट' ।

कसमाकसमी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसम] दोनों पक्षों का परस्पर कसम खाना ।

कसमिया
क्रि० वि० [हिं० कसम] कसम खाकर । शपथपूर्वक ।

कसमीर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कश्मीर] केशर । उ०—गोर शरीर अधीर से लोचन मस्तक में कसमीर लगाएँ ।—पोद्दार अभि०, पृ० ४९० ।

कसर (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कमी । न्यूनता । त्रुटि । उ०—कसर न मुझमें कुछ रही असर न अब तक तोहिं । आइ भावते दीजिए बेगि सुदरसन मोहिं ।—रसनिधि (शब्द०) । क्रि० प्र०—आना ।—करना ।—पड़ना ।—रखना ।—रहना ।—होना । मुहा०—कसर करना, छोड़ना रखना = त्रुटि करना । कुछ बाकी छोड़ना । जैसे, —उन्होंने मेरी बुराई करने में कोई कसर न की । कसर निकलना = कमी पूरी होना । कमर निकालना = कमी पूरी करना । २. द्वेष । बैर । अकस । मनमुटाव । जैसे, —वे हमसे मन में कुछ कसर रखते हैं । क्रि० प्र०—रखना । मुहा०—कसर निकालना या काढ़ना = बदला लेना । (दो आदमियों के बीच) कसर पड़ना = (दो आदमियों के बीच) मनमोटाव होना । ३. टोटा । घाटा । हानि । जैसे, —इस माल के बेचने में हमें दो सौ की कसर पडती है । क्रि० प्र०—पड़ना ।—होना । मुहा०—कसर खाना या सहना = हानि उठाना । घाटा सहना । कसर देना या भरना = घाटा पूरा करना । ४. नुक्स । दोष । विकार । जैसे, —उनके पेट में कुछ कसर है । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ४. किसी वस्तु के सूखने या उसमें से कूड़ा करकट निकलने से जो कमी हो । जैसे, —१० सेर गेहूँ में से १ सेर तो कसर गई । क्रि० प्र०—जाना ।

कसर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] कुसुम या बर्रे का पौधा ।

कसरकोर
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसर +कोर] दे० 'कोरकसर' । उ०— यद्यपि कसरकोर किसी में नहीं गै ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० २१२ ।

कसरत (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० कसरत] [वि० कसरती] १. शरीर को पुष्ट और बलवान् बनाने के लिये दंड, बैठक आदि परिश्रम का का काम । व्यायाम । मेहनत । क्रि० प्र०—करना ।

कसरत (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] अधिकता । बहुतायत । ज्यादती । यौ०—कसरतराय = बहुमत ।

कसरती
[अ० कसरत+ हिं० ई (प्रत्य०)] १. कसरत करनेवाला । जैसे—कसरती जवान । २. कसरत से पुष्ट और बलवान् बनाया हुआ । जैसे—कसरती बदन ।

कसरवा
संज्ञा पुं० [देश०] सालपान नाम का क्षुप । वि० दे० 'सालपान' ।

कसरवानी
संज्ञा पुं० [सं० कांस्यवणिक, हिं० केसरवानी] बनियों की एक जाति ।

कसरहट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० कसेरा+ हट्ट या हाट] कसेरों का बाजार जहाँ बरतन बनते और बिकते हैं ।

कसरि पु
संज्ञा स्त्री० [अ० कसर] दे० 'कसर' । उ०—करनी करत कसरि होय आई, तबहीं कालघर बाजु बँधाई—कबीर सा०, पृ० ९०७ ।

कसली
संज्ञा स्त्री० [सं० √ कृष या कर्ष = खोदना+हिं० ली (प्रत्य०)] छोटा फावड़ा जिसकी धार पतली होती है ।

कसवटी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कषपट्टिका, प्रा० कसवट्टी] दे० 'कसौटी' ।

कसवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसवाना] १. कसवाने की क्रिया । २. कसने की मजदूरी ।

कसवाना
क्रि० स० [हिं० कसना का प्रे० रूप] कसने में प्रवृत्त करना । कसने का काम कराना । जैसे, —घोड़ा कसवा लाओ ।

कसवार
संज्ञा पुं० [सं० कोशकार अथवा देश०] एक प्रकार की ईख जो डेढ़ इंच मोटी होती है और जिसका छिलका बादमी और कड़ा होता है । विशेष—इसके भीतर के गूदे में रस अधिक और रेशे कम होते हैं । यह अधिकतर चूसने के काम में आती है । इसे कुसियार भी कहते हैं ।

कसहँड़
संज्ञा पुं० [सं० कांस्यभाण्ड अथवा हिं काँसा+ हँडा] टूटे फूटे काँसे के बरतनों के टकड़े ।

कसहँड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कांस्यभाण्ड] दे० 'कसहँड़ी' ।

कसहँड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० कांस्यभाण्ड अथवा हिं० काँसा+ हाड़ी] काँसे या पीतल का एक बरतन जिसका मुँह चौड़ा होता है । विशेष—यह खाना पकाने या पानी रखने के काम में आता है ।

कसाइन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसाई का स्त्री] कसाई की स्त्री ।

कसाइन (२)
वि० स्त्री० क्रूरतावाली । निठुर । उ०—नंदकुमारहिं देख दुखी छतिया कसकी नं कसाइन तेरी ।—पद्माकर (शब्द०) ।

कसाई (१)
संज्ञा पुं० [अ० क़स्साब] [स्त्री० कसाइन] १. वधिक । घातक । २. गोघातक । बूचड़ । मुहा०—कसाई के खूंटे बंधना = निष्ठुर के पाले पड़ना । कसाई का काठ = क्रूरता । कुत्सापूर्ण निर्दयता । उ०—कई बार उसने निश्चय किया कि अपने आप को कसाई के इस काठ से हटाकर संसार के भँवर में डाल दे । अभिशप्त, पृ० ६५ । यौ०—कसाईबाड़ा ।

कसाई (२)
वि० निर्दय । बेरहम । निष्ठुर ।

कसाई (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसाना+ आई (प्रत्य०)] दे० 'कसवाई ।

कसाईखाना
संज्ञा पुं० [हिं० कसना = फा० खानहू] वह स्थान जहाँ पशुओं का बध किया जाता है । जानवरों के काटने का स्थान ।

कसाकस
क्रि० वि० [हिं० कसना] अच्छी तरह कसकर । ठसाठस ।

कसाकसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसना] मनमुटाव । बैर । विरोध । तनातनी ।

कसाना (१)
क्रि० अ० [हिं० काँसा या कसाव] १. कसैला हो जाना । काँसे के योग से खट्टी चीज का बिगड़ जाना । जैसे, —इस बरतन में दही कसा गया है । विशेष—जब खट्टी चीज काँस के बरतन में देर तक रखी जाती है तब उसका स्वाद बिगड़कर कसंला हो जाता है । ऐसी बिगड़ी हुई चीज के खाने से वमन होता या जी मचलाता है । २. स्वाद में कसैला लगना । जैसे, —कच्चा अमरूद कसाता है ।

कसाना (२)
क्रि० स० [हिं० कसना का प्रे० रूप] दे० 'कसवाना' ।

कसाना (३)पु
क्रि० अ० [हिं० कसना या कषापित] कष्टयुक्त होना । पीड़ित होना । उ०—अंषड़िया प्रेम कसैइयाँ, लोग जाँणे दुखड़ियाँ ।—कबीर ग्र०, पृ० ९ ।

कसाफत
संज्ञा स्त्री० [अ० कसाफ़त] १. मैलापन । गंदगी । २. गाढ़ापन । २. मोटाई । स्थूलता ।

कसाब पु
संज्ञा पुं० [अ० कस्साब] दे० 'कसाई' । उ०—दरिया छुरी कसाब की, पारस परसै आप ।—संतबाणी०, पृ० १२९ ।

कसार (१)
संज्ञा पुं० [सं० कृसर] चीनी मिला हुआ भुना आटा तथा सूजी । पँजीरी ।

कसार (२
पु संज्ञा पुं० [सं० कासार] दे० 'कसारा' । उ०—निरखि मलिन मुख नलिन कहँ, फूले कमल कसार ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३४ ।

कसालत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. आलस्य । शैथिल्य । २. थकावट । ३. काहिली ।

कसाला (१)
संज्ञा पुं० [सं० कष=पीड़ा, दुःख अथवा अ० कसालत] १. कष्ट । तकलीप । उ०—कहै ठाकुर कासों कहा कहिये हमैं प्रीति करे के कसाले परे ।—ठाकुर (शब्द०) । क्रि० प्र०—उठाना ।—करना ।—खींचना ।—झेलना ।— पड़ना ।—सहना । २. कठिन परिश्रम । श्रम । मेहनत उ०—करत सुतप बीते बहु काला । पुत्र होन हित कियो कसाला ।—रघुराज (शब्द०) ।

कसाला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कसाव] खटाई जिसमें सोनार गहना साफ करते हैं ।

कसाव (१)
संज्ञा पुं० [सं० कषाय] कसैलापन । जैसे, —कढ़ी में कसाव आ गया है । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना ।—होना ।

कसाव (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कसना] कसने का भाव । खिंचाव । तनाव ।

कसावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसना] १. कसने का भाव । तनाव । खिंचावट । उ०—इसकी कसावट से कितनी हीं मेंमें दम घुट घुटकर मर गईं । प्रेमघन०, भा०२, पृ० २६२ । २. अच्छी गठन, विशेषतः शरीर की ।

कसावड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० कसाई] कसाई ।

कसावर
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा] काँसे का थाली की तरह का बाजा जिसे लकड़ी से बजाते हैं । काँसे का घंटा । उ०— ठनक कसावर रहा ठनाठन, थिरक चमारिन रही छनाछन ।—ग्राम्या, पृ० ४४ ।

कसिपा
संज्ञा पुं० [सं० हिरण्यकशिपु] दे० 'हिरण्यकशिपु' । उ०— कसिया कहै पहलाद को मार डारूँ ।—कबीर सा०, पृ० १० ।

कसिपु
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन । २. पका चावल । भात [को०] ।

कसिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] भूरे रंग की एक चिड़िया जो राजपूताने और पंजाब को छोड़ सारे भारतवर्ष में पाई जाती है । विशेष—यह पेड़ों की डालियों में बहुत ऊँचाई पर घोसला बनाती है और पीले रंग के अडे देती है ।

कसियाना †
क्रि० अ० [हिं० कस=कसाव] कसाव से युक्त होना । ताँबे या पीतल के बरतन में रहने के कारण कसैला होना । कसना ।

कसी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कशा=रस्सी] १. पृथ्वी नापने की एक रस्सी जो दो कदम या ४९ १/४ इंच की होती है ।

कसी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कषण=खरोचना, खोदना] हल की कुसी । लांगूल । फाल ।

कसी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कशुक] एक पौधा जिसे संस्कृत में गवेधुक और कशुक कहते हैं । विशेष—वैदिक काल में यज्ञों में इसके चरु का प्रयोग होता था । इस समय इसकी खेती भी होती थी । यद्यपि आजकल मध्य प्रदेश, सिक्किम, आसाम और बरमा की जंगली जातियों के अतिरिक्त इसकी खेती कोई नहीं करता, फिर भी यह समस्त भारत, चीन, जापान, बरमा, मलाया, आदि देशों में वन्य अवस्था में मिलती है । इसकी कई जातियाँ है, पर रंग के विचार से इसके प्रायः दो भेद होते हैं । एक सफेद रंग की, दूसरी मटमैली या स्याही लिए हुए होती है । यह वर्षा ऋतु में उगती है । इसकी जड़ में दो तीन बार डालियाँ निकलती हैं । इसके फल गोल, लंबोतरे और एक और नुकीले होते हैं । इनके बीच सुगमता से छेद हो सकता है । छिलका इनका कड़ा और चिकना होता है । छिलके के भीतर सफेद रंग की गिरी होती है जिसके आटे की रोटी गरीब लोग खाते हैं । इसे भूनकर सत्तु भी बनाते हैं । छिलका उतर जाने पर इसकी गिरा के टुकड़ों को चावल के साथ मिलाकर भात की तरह उबालकर खाते हैं । यह खाने में स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक होती है । जापान आदि में इसके मावे से एक प्रकार का मद्य भी बनाया जाता है । इसका बीज औषध के कम आता है । इसके दानों को गूँथकर माला बनाई जाती है । नेपाल के थारू इसके बीज को गूँथकर टोकरों की झालर बनाते हैं । पर्या०—कोड़िल्ला । केस्सी । कसेई ।

कसीदा (१)
संज्ञा पुं० [फा० कशीदहू] दे० 'कशीदा' ।

कसीदा (२)
संज्ञा पुं० [अ० कशीदहु] उर्दू या फारसी भाषा की एक प्रकार की कविता, जिसमें प्रायः किसी की स्तुति या निंदा की जाती है । इस कविता में १७ पंक्ति से कम न हो, अधिक का कोई नियम नहीं है ।

कसीदागो
वि० [अ० कसीदह्+ फा० गौ] कसीदा । लिखनेवाला ।

कसीर
वि० [अ०] अधिक । बहुत । ज्यादा । उ०—आतिश की एक चिंगारी रुई के अंबारे कसीर को खाक कर डालती है ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ११७ ।

कसीस (१)
संज्ञा पुं० [सं० कासीस] लोहे का एक प्रकार का विकार जो खानों में मिलता है । विशेष—यह दो प्रकार का होता है । एक हरा जिसे धातु कसीस अथवा हरा या हीरा कसीस कहते हैं, दूसरा पीला जिसे पांशु या 'पुष्प कसीस' कहते हैं । कसौली वस्तु के साथ मिलने से कसीस काला रंग उत्पन्न करता हैः अतः यह रँगाई के काम में बहुत आता है । तेजाब में घुले हुए सोने को अलग करने के लिये हरा कसीस बड़े काम का है । वैद्यक के अनुसार कसीस शीतल, कसैला, नेत्रों को हितकारी तथा विष, कोढ़, कृमि और खुजली को दूर करनेवाली है ।

कसीस (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० कशिश] दे० 'कशिश' । उ०—मारयौ पैचि कसीस करि बचन लगाया बान ।—सुंदर ग्रं०, भा० १ पृ० २४७ ।

कसीसना पु
क्रि० अ० [हिं० कसीस+ ना (प्रत्य०)] १. आकर्षित करना । खींचना । उ०—बाम हाथ लीध वाह जीमणै कसीस जाह ।—र० रू०, पृ० ७६ । २. तानना ।

कसूँब पु
संज्ञा पुं० [सं० कुसुम्भ या कुसुम] दे० 'कुसुम' । उ०— जैसा रंग कसूँब का तैसा यहु संसार ।—संत र०, पृ० १२६ ।

कसूँभ पु
संज्ञा पुं० [सं० कुसुंभ] दे० 'कुसुंभ' । उ०—तूँ वै एकहि पन रहै रंग कसूँभ प्रमान ।—पृ० रा०, २५ ।७३२ ।

कसूँभी
वि० [सं० कुसुम्भ, हिं० कसूँभ+ ई (प्रत्य०)] कुसुम के रंग का अथवा कुसुंभ के फूलों के रंग से रँगा हुआ । उ०— सोनजुही सी बगमगति अँग जोंबन जोति । सुंरँग कसूँभी कंचुकी दुरँग दुति होति ।—बिहारी (शब्द०) ।

कसूत पु
संज्ञा पुं० [हिं० क (= कु)+सूत] बुरा सूत । उलझनदार सूत । उ०—पूजै नवग्रह देवता पित्तर सतो अकूत । सहजो कैसे सुलझिहै होई सुत रहो सूत कसूत ।—सहजो०, पृ० ४८ ।

कसून
संज्ञा पुं० [देश०] कंजी आँख का घोड़ा । सुलेमानी घोड़ा ।

कसूम पु
संज्ञा पुं० [सं० कुसुम] दे० 'कुसुम' । उ०—हरि को हित ऐसी जैसो रंग मजीठ संसार को हित जैसो कसूम दिन हुँती कौ । पौद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० १९५ ।

कसूमर
संज्ञा पुं० [सं० कुसुम] दे० 'कुसुम' ।

कसूमी पु †
वि० [हिं० कसूम+ ई (प्रत्य०)] कुसुम रंग की । उ०—पहिरै कसूमी सारी, अंग अंग छबि भारी, गोरी गोरी बाहुन में मोती के गजरा ।—नंद ग्रं०, पृ० ३५३ ।

कसूर
संज्ञा पुं० [अ० कुसूर] अपराध । दोष खता । उ०— (क) मैण लगाड़े पालड़ा, तौलाँ माँहि कसूर ।—बाँकी० ग्रं०, भा०२, पृ० ६९ । (ख) मैंने छोटी बड़ी भेड़ का ख्याल नहीं किया मेरा कुछ कसूर नहीं —भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६६९ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

यौ०—कसूरमंद । कसूरवार । बेकसूर ।

कसूरमंद
वि० [अ० कुसूर+ फा० मंद] दोष । अपराधी ।

कसूरवार
वि० [अ० कुसूर+ हिं० वार (प्रत्य०)] दोषी । अपराधी ।

कसेंड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसहँड़ी, ने० कसौंड़ि] जलपात्र । ब० —तब वैष्णवन कसेंड़ी, डोरी काढ़िकै जल कूआँ में तें काढ्यो ।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ७२ ।

कसेरहट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० कसेरा+ हाट] दे० 'कसरहट्टा' ।

कसेरा
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा+ एरा (प्रत्य०)] [स्त्री० कसेरिन] काँसे, फूल आदि के बरतन ढालने और बेचनेवाला । यौ०—कसेरहट्टा या कसरहट्टा ।

कसेरु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कशेरु' ।

कसेरुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कशेरुका' ।

कसेरू
संज्ञा पुं० [सं० कशेरू] एक प्रकार के मोथे की जड़ जो तालों और झीलों के किनारे मिलती है । विशेष—यह जड़ गोल गाँठ की तरह होती है और इसके काले छिलके पर काले रोएँ या बाल होते हैं । कसेरू खाने में मीठा और ठंढ़ा होता है । फागुन में यह तैयार हो जाता और असाढ़ तक मिलता है । सिंगापुर का कसेरू अच्छा होता है । कसेरू के पौधे को कहीं कहीं गोंदला भी कहते हैं ।

कसया
संज्ञा पुं० [हिं० कसना] १. कसनेवाला । जकड़कर बाँधने— वाला । उ०—मतिराम कहै करबार के कसैया केते, गाड़र से मूँड़े जग हाँसी को प्रसंग भी ।—मति० ग्रं०, पृ० ३६५ । २. परखनेवाला । जाँचनेवाला । पारखी ।

कसैला
वि० [हि० कसाव+ ऐला (प्रत्य०)] [स्त्री० कसैली] कषाय स्वादवाला । जिसमें कसाव हो । जिसके खाने से जीभ में एक प्रकार की ऐंठन या संकोच मालूम हो । जैसे— आँवला, हड़ बेहड़ा, सुपारी आदि । विशेष—कसैला छह रसों में से एक है । कसैली वस्तुओं के उबा- लने से प्रायः काला रंग निकलता है ।

कसैलापन
संज्ञा पुं० [हिं० कसैला+ पन (प्रत्य०)] कसैला होने का भाव ।

कसैली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसैला] सुपारी ।

कसोंदरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसौदा+ ई (प्रत्य०)] 'कसौंजा' । उ०—सनैर कसोंदिय कैबर कोह । करोदिन कान्ह कहाँ कहु मोह ।—पृ० रा०२, ३५५ ।

कसोरा
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा+ ओरा (प्रत्य०)] १. कटोरा । २. मिट्टी का प्याला ।

कसौंजा
संज्ञा पुं० [सं० कासमर्द, प्रा० कसमद्द] एक पौधा जो बरसात में उगता है और बहुत बढ़ने पर आदमी के बराबर ऊँचा होता है । विशेष—पत्तियाँ इसकी एक सीके में आमने सामने लगती है और चौड़ी तथा नुकीली होती है । जाड़े के दिनों में इसमें चकवँड़ की तरह के फूल लगते हैं । छह सात अंगुल लंबी, चिपटी फलियाँ लगती हैं । फलिंयों के भीतर बीज भरे रहते हैं, जो एक ओर कुछ नुकीले होते हैं । लाल कसौजा सदाबहार होता है और इसका पत्तियाँ गहरे हरे रंग की कुछ लनाई लिए होती है तथा फूल का रंग भी कुछ ललाई लिए होता है । कसौंजे का पौधा चकवँड़ के पौधे से बहुत कुछ मिलता जपलता है । भेद केवल यहीं है कि इसके पत्ते नुकीले होते है और चकवँड़ के गोल । इसकी फली चौड़ी और बीज नुकीले और कुछ चिपटे होते हैं, पर चकवँड की पतली फली और गोल होती है जिसके भीतर उर्द की तरह दाने होते हैं । यह कड़ुवा, गरम, कफ—वात—नाशक और खाँसी दुर करनेवाला होता है । कोई कोई इसका साग भी खाते हैं । लाल कसौंजे की पत्ती और बीज बवासीर की दवा से काम आते है । पर्या०—कासमर्द । अरिमर्द । कासारि । कर्कश । कालकंत । काल । कनक ।

कसौंजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसौजा] दे० 'कसौंजा' ।

कसौंदा
संज्ञा पुं० [सं० कासमर्द, प्रा० कासमद्द] दे० 'कसौंजा' । उ०—कोई हरफा रेउरी कसौंदा ।—जायसी ग्रं०, पृ० २४७ ।

कसौंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसौँदा] दे० 'कसौंजा' ।

कसौटा पु
संज्ञा पुं० [सं० कषपट्ट, प्रा० कसवट्ट] दे० 'कसौटी' । उ०—कसल कसौटा न भेल मलान । विनु हुत वहे भले बाहर बान ।—विद्यापति, पृ० ३०६ ।

कसौटी
संज्ञा स्त्री० [सं० कषपट्टी, प्रा० कसवट्टी] १. एक प्रकार का काला पत्थर जिसपर गरड़कर सोने की परख की जाती है । शालिग्राम इसी पत्थर के होते हैं । कसौटी के खरल भी बनते हैं । उ०—कसिअ कसौटी चिन्हिअ हेम, प्रकृत परेखिअ सुपुरुष पेम ।—विद्यापति, पृ० ३८१ । क्रि० प्र०—पर कसना ।—चढ़ाना ।—रखना ।—लगाना । मुहा०—कसौटी पर कसना = (१) जाँचना । (२) खरा सिद्ध होना । उ०—निज विचारों की कसौटी पर कस चले हैं ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७३ । २. परीक्षा । जाँच । परख । जैसे,—विपत्ति ही धैर्य की कसौटी है । ३. जाँच या परीक्षा का आधार ।

कसौली
संज्ञा पुं० [देश०] शिमले के पास ६००० फुट की ऊँचाई पर पहाड़ में एक स्थान जहाँ कुत्ते, स्यार आदि के विष की दवा की जाती है ।

कस्टम कस्टम्स
संज्ञा पु० [अं०] दे० 'कस्टम ड्यटी' ।

कस्टम ड्यूटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह कर या महसूल जो विदेश से आने जानेवाले माल पर लगता है । कर । महसूल । चुंगी । परमट ।

कस्टमहाउस
संज्ञा पुं० [अं०] वह स्थान या मकान जहाँ विदेश से आने जानेवाले माल पर महसूल देना पड़ता है । परमट हाउस ।

कस्त पु
संज्ञा पुं० [अ० क़स्द] दृढ़ निश्चय । उ०—यह कस्त करि आए यहाँ रन हथ्यारन कै भेटबी ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १४ ।

कस्तरी
संज्ञा स्त्री० [फा० कासा] मिट्टी का चौड़े मुँह का एक बर्तन जिसमें दूध पकाया या रखा जाता है ।

कस्तीर
संज्ञा पुं० [सं०] टीन [को०] ।

कस्तुर
संज्ञा पुं० [सं० कस्तुरी] १. कस्तुरी मृग । वह मृग जिसकीनाभि से क्सतूरी निकलती है । २. एक सुंगंधित जो वीवर नामक जंतु की नाभि से निकलता है ।

कस्तूरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कस्तूरी] कस्तूरी मृग ।

कस्तूरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. जहाज के तख्तों की संधि या जोड़ । २. वह सीप जीससे मोती निकलता है । ३. एक चिड़िया जिसका रंग भूरा पेट कुछ सफेदी लिए तथा पैर और चोंच पीले होते हैं । विशेष—यह पक्षी झुंड़ों में रहना पसंद करता है । यह पहाड़ी देशों में कशमीर के आसाम तक पाया जाता है और अच्छा बोलता है । ४. एक ओषधि जो पोर्ट ब्लेयर के पहाड़ो की चट्टानों से खुरचकर निकाली जाती है । विशेष—यह दवा बहुत बलकारक होती है । दूध के साथ दो रत्ती भर खाई जाती है । लोग ऐसा मानते है कि यह अबाबील चिड़िया के मुँह का फेन है । ४. लोमड़ी के आकार का एक प्रकार का जानवर जिसकी दुम लोमड़ी की दुम से लंबी और झबरी होती है । विशेष—कुछ लोगों का विश्वास है कि इसकी नाभि में से भी कस्तूरी निकलती है, पर वह बात ठीक नहीं है ।

कस्तूरिका (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कस्तूरी ।

कस्तूरिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कस्तूरी] कस्तूरी मृग ।

कस्तुरिया (२)
वि० १. कस्तूरीवाला । कस्तूरीमिश्रित । २. कस्तूरी के रंग का । मुश्की ।

कस्तूरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक सुगंधित द्रव्य । विशेष—यह एक प्रकार के मृग से निकलता है जो हिमालय पर गिलगित्त से आसाम तक ८००० से १२००० फुट की ऊँचाई तक के स्थानों तथा तिब्बत और मध्य एशिया में साइबेरिया तक अर्थाक् बहुत ठंड़े स्थानों में पाया जाता है । यह मृग बहुत चंचल और छलाँग मारनेवाला होता है । डील डौल में यह साधारण कुत्ते के बराबर होता है और रात का चरता है । नर मृग की नाभि के पास एक गाँठ होती है, जिसमें भूरे रंग का चिकना सुगंधित द्रव्य संचित रहता है । यह मृग जनवरी में जोड़ा खाता है औऱ इसी संय इसकी नाभि में अधिक मात्रा से सुगधित द्रव्य मिलता है । शिकारी लोग इस मृग का शिकार कस्तूरी के लिये करते है । शिकार लेने पर इसकी नाभि काट ली जाती है, फिर शिकारी लोग इसमें रक्त आदि मिलाकर उसे सुखाते है । अच्छी से अच्छी कस्तूरी में भी मिलावट पाई जाती है । कस्तूरी का नाफा मुर्गी के अंडे के बराबर होता है । एक नाफे में लगभग आधौ छटाँक कस्तूरी निकलती है । कस्तूरी के समान सुगंधित पदार्थ कई एक अन्य जंतुओं की नाभियों से भी निकलता है । वैद्यक में तीन प्रकार की कस्तूरी मानी गई है, कपिल (सफेद), पिंगल और कृष्ण नेपाल की क्स्तूरी कपिल, कश्मीर की पिंगल और कामरूप (सिकिम, भूटान आदि) की कृष्ण होती है । कस्तुरी स्वाद में अड़वी और बहुत गरम होती है । यह वात पित्त, शीद, छर्दि आदि के लिये बहुत उपकारी मानी गई है, पर विशेषकर द्रव्यों को सुगंधित करने के काम में आती है । मुहा०—कस्तूरी हो जाना = किसी वस्तु का बहुत महँगा हो जाना या कम मिलना । यौ०—कस्तूरी मृग । उ०—पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगध से कस्तूरी मृग जैसी ।—लहर, पृ० ६६ ।

कस्तूरी मल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की चमेली । १. कस्तूरी मृग की नाभि [को०] ।

कस्तूरी मृग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हिरन जिसकी नाभि से कस्तूरी निकलती है । विशेष—यह ढाई फुट ऊँचा होता है । इसका रंग काला होता है जिसके बीच में लाल और पीली चितियाँ होती है । यह बड़ा डरपोक और निर्जनप्रिय होता है । इसकी टाँगे बहुत पतली और सीधी होती हैं जिससे कभी कभी घुटने का जोड़ बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता । यह कश्मीर, नैपाल, आसाम, तिब्बत, मध्य एशिया और साइबेरिया आदि स्थानों में होता है । सहयाद्रि पर्वत पर भी कस्तूरी मृग कभी कभी देखे गए हैं । तिब्बत के मृग की कस्तूरी अच्छी समझी जाती है ।

कस्द
संज्ञा पुं० [अ० कस्द] संकल्प । इरादा । विचार । उ०—सब आशिकों में हमकू मजदा है आबरू का । है कस्द गर तुम्हारे दिल बीच इम्तिहाँ का ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० १३ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

कस्दन
अव्य० [अ० कस्द] जान बूझकर । निशचयपुर्वक ।

कस्बी
संज्ञा स्त्री० [अ० क्सब+ हिं० ई० (प्रत्य०)] वेश्या । रंडी । उ०—उसे यही डर है कि कारखाना लगने से ताड़ी शराब का प्रचार बढ़ेगा ओर गाँव में कस्बियाँ आ बसेंगी ।—प्रेम० और गोर्की, पृ० ३३३ ।

कस्मिया
क्रि० वि० [हिं० कसम] कसम खाकर । शपथपूर्वक ।

कस्म
संज्ञा स्त्री० [अ० क़सम] दे० 'कसम' । उ०—तुम मानो या न मानो हम तो फिदा भई हैं । यह साँच जी में जानो हम कस्म खा रही हैं ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ४१ ।

कस्यप पु
संज्ञा पुं० [सं० कच्छप] दे० 'कच्छप' । उ०—महापिष्ठ के धार धारी धरती । करी न्नमलं रूप कत्ती ।पृ० रा०, २ ।२०८ ।

कस्यप (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० कश्पय] एक जातीय उपाधि । काश्पय गोत्र । उ०—मो प्रभुदयाल कस्यय तनय कहि नरहरि बंदी चरन ।—अकबरी०, पृ० ८९ ।

कस्यपी पु
वि० [हिं० कस्यप] कश्यप गोत्र का । कश्यप । उ०—दुज कनौज कुल कस्यपी, रतनाकर सुत धीर ।—भूषण ग्रं०, पृ० १८ ।

कस्सना पु
क्रि० स० [हिं० कसना] दे० 'कसना' । उ०—पहु दिय आएसं, सेव नरेसं कस्से तंसं उत्तसं ।—पृ० रा०, ९ ।१११ ।

कस्सर
संज्ञा स्त्री० [हिं० कसना, अ० कासर] लंगर खींचना या उठाना ।—(लश०) । क्रि० प्र०—करना ।—(लश०) ।

कस्सा
संज्ञा पुं० [सं० कषाय] १. बबूल की छाल जिससे चमड़ा सिझाते है । २. वह मद्य जो बबुल की छाल से बनता है । ठर्रा ।

कस्सा चना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'केसारी' ।

कस्साब
संज्ञा पुं० [अ० कस्साब] कसाई । उ०—कही मुर्गा है बिस्मिल हाथ कस्साब ।—कबीर ग्रं०, पृ० ४७ ।

कस्साबखाना
संज्ञा पुं० [अ० क़स्साब + फा० खानहू] कसाईखाना । यौ०—बकरसाब = चिक । बूचड़ ।

कस्सी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्षण = खरोचना, खोदना] मालियों का छोटा फावड़ा ।

कस्सी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कशा = रस्सी] जमीन की एक नाप जो कदम के बराबर होती है ।

कहँ (१)पु
प्रत्य० [सं० कक्ष, प्रा० कच्छ] के लिये । उ०—(क) राम पयादेहि पाँव सिधाये । हम कहँ रथ गज बाजि बनाए ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) तुम कहँ तौ न दीन बनबासू । करहु जो कहहिं ससुर गुरु सासू ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) गयो कचहरी को वह गृह कहँ जहँ मुनसी गन ।—प्रेमधन० भा०१, पृ० १४ । विशेष—अवधी बोली में यह द्वितीया और चतुर्थी का चिहन है३ ।

कहँ (३) पु
क्रि० वि० [हिं० कहाँ] दे० 'कहाँ' । यौ०—कहँ लगि = कहाँ तक । उ०—कहँ लगि सहिय रहिय मन मारे । नाथ साथ धनु हाथ हमारे ।—तुलसी (शब्द०) ।

कहँरना पु †
क्रि० अ० [हिं० कहरना] दे० 'कहरना' ।

कह (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] घास । तृण । तिनका । उ०—तुम्हारा नूर है हर शै मे सह से कोह तक प्यारे । इसीसे कहके हर हर तुमको हिंदू ने पुकारा है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ८५२ ।

कह पु (२) †
वि० [सं० क?] क्या । उ०—द्विज दोषी न विचारिये कहा पुरुष कह नारि ।—केशव (शब्द०) ।

कहकशाँ
संज्ञा पु० [फा०] आकाशगंगा ।

कहकहा
संज्ञा पुं० [अनु० अ० क़हकहा] अट्टहास । ठट्ठा । जोर की हँसी । क्रि० प्र०—उड़ाना ।—मारना ।—लगाना । यौ०—कहकहा दीवार । मुहा०—कहकहा उड़ना = हँसी होना । उपहास होना । उ०— भरी बरसात के दिन ये हैं । कहीं फिसल न पड़ै तो कहकहा उड़े, यार लोगों को दिल्लगी हाथ आए ।—फिसाना०, भा०१, पृ० १ ।

कहकहा दीवार
संज्ञा पुं० [फा०] १. एक काल्पनिक दीवार । उ०— पलटू दीवाल कहकहा मत कोउ झाकन जाय ।—पलटू०, भा० १, पृ० २८ । विशेष—यह चीन देश की सोह्वाडनी नामक राजा ने ईसामसीह के पूर्व तीसरी शताब्दी के अंत में फू—किन, क्वाँ-तुंग और क्वाँसी नामक मंगोल जातियों के आक्रमण को रोकने के लिये चीन के उत्तर में बनवाई थी । यह दीवार १५०० मील लंबी, २०-२५ फुट ऊँची और इतनी ही चौड़ी है । इसमें सौ गज की दूरी पर बुर्ज बने हैं । २. कठिन रोक जिसे किसी तरह पार न कर सकें । क्रि० प्र०—उठाना ।—डालना ।

कहकहाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहकहा+आहट (प्रत्य०)] जोर की हँसी । अट्टहास ।

कहगल पु
संज्ञा पुं० [फा० कहगिल] दे० 'कहगिल' । उ०—करि कहगल ब्रह्नो कौ दीनी ।—प्राण०, पृ० ७१ ।

कहगिल
संज्ञा स्त्री० [फा० काह = घास + गिल = मिट्टी] दीवार में लगाने का मिट्टी का गारा जो मिट्टी में घास फूस सड़ाकर बनाया जाता है ।

कहत
संज्ञा पुं० [अ० क़हत] दुर्भक्ष । अकाल । उ०—इक तो कहत माँ सर मिटी खिलकत जो है गा सब । तेह पर टिकस बँधा है कि भैया जो है सो है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०३, पृ० ८६१ । क्रि० प्र०—पड़ना । यौ०—कहतसाली = दुर्भिक्ष का समय ।

कहतजदा
वि० [अ० क़हत + फा० जदह्] अकालपी़ड़ित । अकाल से मारा हुआ ।

कहता
संज्ञा पुं० [हिं० कहना, कहता हुआ] कहनेवाला पुरुष । उ०—(क) कहते को कौन रोक सकता है? (ख) कहता बावला, सुनता स रेख ।

कहन
संज्ञा स्त्री० [सं० कथन] १. कथन । उक्ति । २. वचन । बात । ३. कहावत । कहनूत । ४. कविता । शायरी ।

कहना (१)
क्रि० स० [सं० कथन, प्रा० कहन] १. बोलना । उच्चारण करना । मुँह से शब्द निकालना । शब्दों द्वारा अभिप्राय प्रकट करना । वर्णन् करना । उ०—(क) विधि, हरि, हर, कवि कोविद बानी । कहत साधु महिमा सकुचानी ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—कह उठना = कहने लगना । कहना । उ०—इस गजल ने वह लुप्त दिखाया और ऐसा रंग जमाया कि हमारे हबीब लबीब तक अहो हो कहो उठते थे ।—फिसाना०, भा०१, पृ० ९ । कहने न आना = अकथ्य होना । कहते न बन पड़ना । उ०—कोने जाइ उपास भरै दुख कहत न आवै ।—नंद०, ग्रं०, पृ० २०१ । कहना बदना = निश्चय करना । छहराना । जैसे,— यह बात पहले से कही बदी थी । कह बदकर = (१) प्रतिज्ञा करके । दृढ़ संकल्प करके । जैसे,—तुम बदकर निकल जाते हो । (२) ललकारकर । खुले खजाने । दावे के साथ । जैसे,—हम जो करते है, कह बदकर करते हैं, छिपकर नहीं । कह बैठना = एकाएक कह देना । कहजाना । उ०—और जो साहब कुछ कह बैठ?—फिसाना० भाग३, पृ० ५ । कहना सुनना = बातचीत करना । कहने को = (१) नाममात्र को । जैसे,—वे केवल कहने को वैद्य हैं । (२) भविष्य में स्मरण के लिये । जैसे,—यह बात कहने को रह जायगी । कहने सुनने को = दे० 'कहने को' । कहने की बात = वह कथन जिसके अनुसार कोई कार्य न किया जाय । वह बात जो वास्तव में न हो । सयौ० क्रि०—उठना । डालना ।—देना ।—रखना । २. प्रकट करना । खोलना । जाहिर करना । जैसे,—तुम्हारी सूरत कहे देती है कि तुम नशे में हो । उ०—मोंहि करत कत बावरी, किए दुराव दुरै न । कहै देत रँग रात के रँत निचुरत से नैन ।—बिहारी (शब्द०) । संयो क्रि—देना । ३. सूचना देना । खबर देना । जैसे,—वह किसी से कह सुनकर नहीं गया है । ४. नाम रखना । पुकारना । जैसे,—इन कीड़े को लगो क्या कहते है? ५. समझाना । बुझाना । जैसे,— तुम जाओ, हम उनसे कह लेंगे । मुहा०—कहना सुनना = (१) समझाना बुझाना । मनाना । (२) बिनती या प्रार्थना करना । जैसे,—हम उनसे कह सुनकर तुम्हारा आराध क्षमा करा देंगे । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ६. बहकाना । बातों में भुलाना । बनावटी बातें करना । मुहा०—कहने या सुनने में आना = किसी की बनावटी बातों पर विशवास करके उसके अनुसार कार्य करना । जैसे,—चतुर लोग धूर्तों के कहने सुनने में नहीं आते । कहने पर जाना = किसी को बनावटी बातों पर विश्वास करना और उसके अनुसार कार्य करना । ७. अयुक्त बात बोलना । भला बुरा कहना । जैसे,—(क) एक कहोगे, दस सुनोगे । (ख) हमें एक ही दस कह लो । संयो० क्रि० लेना ।

कहना (१)
संज्ञा पुं० कथन । बात । आज्ञा । अनुरोध । जैसे,—(क) उनका यह कहना है कि तुम पीछे जाना । (ख) वह किसी का कहना नहीं मानता । क्रि० प्र०—करना (= मानना) ।—टालना (= न मानना) ।— मानना ।

कहनाउत पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहनावत] दे० 'कहनावत' ।

कहनावत
संज्ञा स्त्री० [हिं कहना + आवत (प्रत्य०)] १. बात । कथन । २. कहावत । मसल । अहाना ।

कहनावति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहनावत] १. बात । कथन । उ०—सुनहु सखी राधा कहनावति । हम देख्यो सोई इन देखे ऐसेहिं ताते कहि मन भावति ।—सूर (शब्द०) । २. कहावत । मसल । उ०—साँची भई कहनावति वा कवि ठाकुर कान सुनी हती जोऊ । माया मिली नहिं राम मिले दुबिधा में गये सजनी सुनु दोऊ ।—ठाकुर (शब्द०) ।

कहनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहन] दे० 'कहन' । उ०—कहै तरै तो जग तरै, कहनि रहनि बिनु छार ।—कबीर श०, पृ० ३१ ।

कहनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० *कथनिका, कथानक प्रा० *कहनिआ कहनी] १. कथा । कहानी । २. कथन । बात ।

कहनूत†
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहना + ऊत (प्रत्य०) ] कहावत । मसल । अहाना ।

कहर (१)
संज्ञा पुं० [सं० क़हूर] विपत्ति । आफत । संकट । गजब । उ०—क्या क़हुर है यारो जिसे आ जाय बुढ़ापा । आशिक को तो अल्लाह न दिखालाये बुढ़ापा ।—नजीर (शब्द०) । मुहा०—कहर का = (१) कटिन । असह्यय । मात्रा से अधिक । अत्यंत । जैसे,—कहर की गरमी, कहर का पानी । (२) भयानक । डरावना । (३) बहुत बड़ा । महान् । कहर करना = (१) अत्याचार करना । जुल्म करना (२) अदभुत कर्म करना । ऐसा काम करना जिससे लोगों को विस्मय हो । अनोखा काम करना । (३) असंभव को संभव करना । अमानुष कृत्य करना । कहर टूटना = आफत आना । दैवी विपत्ति पड़ना । कहर ढाना = किसी के लिये संकट पैदा करना । संकटग्रस्त बनाना । कहर मचना = भयंकर उत्पात मचना । भयंकर उपद्रव होना ।

कहर (२)
वि० [अ० क़हूहार] अगम । अपार । घोर । भयंकर । उ०— चिबुक सरूप समुद्र में मन जान्यो तिल नाव । तरम गयो बूड़े़उ तहाँ रूप कहर दरियाव ।—मुबारक (शब्द०) ।

कहर नजर
संज्ञा स्त्री० [अ० क़हूर+ नज़र] कोप दृष्टि । उ०—कहर नजर कूँ छाँड़ि के मिहर नजर कूँ कोजौ ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ४१ ।

कहरना
क्रि० अ० [हिं० कराहना अथवा अनुध्व०] कराहना । पीड़ा आह आह से करना । उ०—श्रीपति सुकवि यों वियोगी कहरन, लागे, मदन को आगि लहरन लागी तन में ।—श्रीपति (शब्द०) ।

कहरवा
संज्ञा पुं० [हिं० कहार] १. पाँच मात्राओं का एक ताल । विशेष—इसमें चार पूर्ण और दो अर्ध मात्राएँ होती हैं । इसमें केवल चार आघात होते हैं । इसके बोल यों हैं—धागे तेटे नाग दिन,धागे तेटे नाग—दिन । धा । २. दादरा गीत जो कहरवा ताल पर गाया जाता है । विशेष—यह गीत प्राय?नाच के अंत में पाया जाता है । ३. वह नाच जो कहरवा ताल पर होता है । ४. कहारों का नाच ।

कहरी
वि० [हिं० कहर + ई (प्रत्य०) कहर करनेवाला । आफत ढानेवाला । उ०—लंक से बंक महागढ़ दुर्गम ढाहिबे ढाहिबे को कहरी है ।—तुलसी (शब्द०) ।

कहरुवा
संज्ञा सं० [कहरुबा] १. बरमा की खानों से निकला हुआ एक अकार का गोंद जैसा पदार्थ । वीशेष—यह रंग में पीला होता है और औषध में काम आता है । चीन देश में इसको पिघलाकर माला की गुरियाँ, मुँहनालइत्यादि वस्तुएँ बनाते हैं । इसकी वारनिश भी बनती है । इसे कपड़े आदि पर रगड़कर यदि घास या तिनके के पास रखें तो उसे चुंबक की तरह पकड़ लेता है । २. एक बड़ा सदाबहार वृक्ष जिसका गोंद राल या धूप कहलाता है । विशेष—यह पेड़ पशि्चमी घाट की पहाड़ियों में बहुत होता है । इसे सफेद डामर भी कहते हैं । पेड़ से पोंछकर राल निकालते हैं । ताड़पीन के तेल में यह अच्छी तरह घुल जाता है और वारनिश के काम में आता है । इसकी माला भी बनती है । उत्तरी भारत में स्त्रियाँ इसे तेल में पकाकर टिकली चपकाने का गोंद बनाती हैं । अर्क बनाने में भी कहीं कहीं इसका उपयोग होता है ।

कहल पु †
संज्ञा पुं० [देश०] १. उमस । औंस । व्याकुल करनेवाली गरमी जो हवा के बंद होने पर होती है । २. ताप कष्ट । उ०—रघुराज आनंद को दहल अवध भयो कढ़ि गो कलेस कोटि कल्मष कहल को ।—रघुराज (शब्द०) ।

कहलना पु
क्रि० अ० [हिं० कहल] कसमसाना । अकुलाना । दहलना । उ०—(क) कवि ब्रह्मा भनै घुँघुँरी अलकौं अपने बल काढ़न को कहलै । ब्रह्म (राजा बीरबल) । (शब्द०) । (ख) नभ कहलि परत पुरहूत हहलि मजबूत फूंतकारै छडै । गुमान (शब्द०) । (ग) कहलि कोल अरु कमठ दिग्गज दस दलमलि । धसकि धसकि महि मसकि जाति सहसफ्फण फण दलि ।—रसकुसुमार (शब्द०) ।

कहलवाना
क्रि० स० [लं० कहना का प्रे० रुप] १. दूसरे के द्वारा कहने की क्रिया कराना । २. संदेसा भेजना ।

कहलाना (१)
क्रि० स० [कहना का प्रे० रुप] १. दूसरे के द्वारा कहने की क्रीया कराना । २. सँदेसा भेजना । संयो क्रि०—भेजना । देना । ३. उच्चारण कराना । ४. नामजद होना । पुकारा जाना । जैसे,—वह क्या कहलाता है जो कल तुमने मुझे दिखलाया था ।

कहलाना (२)
क्रि० अ० [हिं० कहलाना] दे० 'कहलना' । उ०—कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाध । जगत तपोवन सो कियौ दीरघ दाघ निदाघ ।—बिहारी र०, दो०, ४८९ ।

कहली पु
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का नृत्य ।—पृ० रा०, १५ ।१२ ।

कहवत्त पु
क्रि० स० [हिं० कहना] बातचीत । वार्तालाप । कथन ।

कहवाँ पु †
क्रि० वि० [हिं० कहाँ] दे० 'कहा' । उ०—और बिगाड़ै काम साइत जनि सोधैं कोई । एक भरोसा नहिं कुसल कहवाँ से होई ।—पलटू०, भा०१, पृ० ३४ ।

कहवा
संज्ञा पुं० [अ० कह़वा] १. पेड़ का बीज । विशेष—यह पेड़ अरब, मिस्त्र, हबस आदि देशो में होता है । इसकी खेती भी उन देशों में में की जाती है । पेड़ सोलह से अठारह फुट तक ऊँचा होता है, पर फल तोड़ने के सुभीते के लिये इसे आठ नौ फुट से अधिक बढ़ने नहीं देते और इसकी फुनगी कुतर लेते हैं । इसकी पत्तियाँ दो दो आमने सामने होती हैं । पेड़ का तना सीधा होता है जिसपर हलके भूरे रंग की छाल होती है । फरवरी मार्च में पत्तियों की जड़ों में गुच्छे के गुच्छे सफेद लंबे फूल लगते हैं, जिसमें पाँच पंखुड़ियाँ होती हैं । फूल की गंध अच्छी होती है । फूलों के झड़ जाने पर मकोय के बराबर फल गुच्छों में लगते हैं । फल पकने पर लाल रंग के हो जाते हैं । गूदे के भीतर पतली झिल्ली में लिपटे हुए बीज होते है । पकने पर फल हिलाकर ये गिरा लिए जाते हैं । फिर उन्हें मलकर बीज अलग किए जाते हैं । फिर बीजों को भूनते हैं और उनके छिलके अलग करते हैं । इन्ही बीजों को पीसकर गरम पानी में दूध आदि मिलाकर पीते हैं । अरब आदि देशों में इसके पीने की बहुत चाल है । युरोप में भी चाय के पहुँचने के पूर्व इसकी प्रथा थी । हिंदुस्तान में इसका बीज पहले पहल दो ढाई सौ वर्ष हुए, मैसूर में बाबा बूढ़न लाए थे । वे मक्का गए थे, वही से सात दाने छिपाकर ले आए थे । अब इसकी खेती हिंदुस्तान में कई जगह होती है । इसके लिये गरम देश की बलुई दोमट भूमि अच्छी होती है तथा सब्जी, हड्डी, खली आदि की खाद उपकारी होत है । इसके बीज को पहले अलग बोते हैं । फिर एक साल के बाद इसे चार से आठ फुट की दुरी पर पंक्तियों में बैंठाते हैं । तीसरे वर्ष इसकी फुनगी कपट दी जाती है जिससे इसकी बाढ़ बंद हो जाती है । इसके लिये अधिक वृष्टि तथा वायु हानिकारक होती है । बहुत तेज धूप में इसे बाँसों की टट्टियों से छा देते हैं या इसे पहले ही से बड़े बड़ें पेड़ों के नीचे लगाते हैं । सुमात्रा में इसकी पत्तियों को चाय की तरह उबालकर पीते हैं । मुख्खा का कहवा बहुत अच्छा माना जाता है । भारत में कहवे की खेती नीलगिरि पर होती है । भारत कि सिवाय लंका, ब्राजील, मध्य अमेरिका आदि में भी इसकी खेती होती है । कहवा पीने में कुछ उत्तेजक होता है । २. कहवे का पेड़ । ३. कहवा के बीजों से बना हुआ शरबत । यौ०—कहवादान ।

कहवाना
क्रि० स० [हिं० कहना का प्रे० रूप] दे० 'कहलाना' । उ०—जैसे उग्र ऋनी कहवाया मिटि गया रूप भेष नहिं माया ।—केशव अभी०, पृ० ६ ।

कहवाव पु
संज्ञा पुं० [हिं० कहना] संदेशा । कथन । उ०—कहवाव कियौ नृप अप्प साम । तुम सो न हमहिं चाकरह काम ।— पृ० रा० ५ ।२७ ।

कहवैया †
वि० [हिं० कह+ (ना) वैया (प्रत्य०)] कहनेवाला (पुरुष) ।

कहाँ (१)
क्रि० वि० [वैदिक सं० कुह? या कुत्र, या कुत्थ] स्थान संबंध मे एक प्रश्नवाचक शब्द । किस जगह? किस स्थान पर ? जैसे,—तुम कहाँ गए थे ? मुहा०—कहाँ का =(१) न जाने कहाँ का? ऐसा जो पहले और कहीं देखने में न आया हो । असाधारण । बड़ा भारी । जैसे—कहाँ के मूर्ख से आज पाला पड़ा । (ख) उल्लू कहाँ का ! (इस अर्थ मे प्रश्न का भाव नहीं रह जाता) । (२)कहीं का नहीं । जो नहीं है । जैसे—(क) वे कहाँ के हमारे दोस्त है? (ख) वे कहाँ के बड़े सत्यवादी हैं? कहाँ का कहाँ= बहुत दूर । जैसे,—हम लोग चलते चलते कहाँ के कहाँ जा निकले । कहाँ का........कहाँ का = (१) बड़ी दूर दूर के । जैसे,—यह नदी नाव संयोग है, नहीं तो कहाँ के हम और कहाँ के तुम । (२) यह सब दूर हुआ । यह सब नहीं हो सकता । जैसे,—जब वे यहाँ आ जाते हैं तब फिर कहाँ का पढ़ना और कहाँ का लिखना । इस अर्थ में 'कहाँ का' के आगे मिलते जुलते अर्थवाले जोड़ के शब्द आते हैं, जैसे,— आना जाना, पढ़ना लिखना, नाच रंग) । कहाँ का कहाँ पहुँच जाना = ऐसी उन्नत दशा को प्राप्त कर लेना जिसकी कल्पना तक हो । उ०—और तू सि़डि़त है । अगर राहें मालुम होतीं तो अब तक क्या जानें कहाँ की कहाँ पहुँच गई होती ।—सैर०, पृ० २७ । कहाँ की बात = यह बात ठीक नहीं है । यह बात कहीं नहीं हो सकती । जैसे,—अजी कहाँ की बात, वह सदा यों ही कहा करते हैं । कहाँ तक=(१) कितनी दूर तक । जैसे,—वह कहाँ तक गया होगा । (२) कितने परिमाण तक । कितनी संख्या तक । कितनी मातत्रा तक । जैसे,—(क) हम आज देखेंगे कि तुम कहाँ तक खा सकते हो । (ख) उन्हें हम कहाँ तक समझावेंगे? । (ग) यह घोड़ा कहाँ तक पटेगा? । (३) कितनी देर तक । कितने काल पर्यंत । जैसे,—हम कहाँ तक उनका आसरा देखें? कहाँ....कहाँ = इनमें बड़ा अंतर है । उ०—कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगा तेली । (दो वस्तुओं का बड़ा भारी अंतर देखाने के लिये इस वाक्य का प्रयोग होता है) । कहाँ से = क्यो । व्यर्थ । नाहक । जैसे,—कहाँ से हमने यह काम अपने ऊपर लिया । (जब लोग किसी बात से घबरा जाते या तंग हो जाते हैं, तब उसके विषय में ऐसा कहते हैं) । (२) कभी नहीं । कदापि नहीं । नहीं । जैसे,— (क) अब उनके दर्शन कहाँ । (ख) अब उस बूँद से भेंट कहाँ? (यह अर्थ काकु अलंकार से सिद्ध होता है) ।

कहाँ (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] तुरंत के अत्पन्न बच्चे के रोने का शब्द । उ०—'कहाँ कहाँ' हरि रोवन लाग्यो ।—विश्राम (शब्द०) ।

कहाँहु पु
क्रि० वि० [हिं० कहाँ + हु (प्रत्य०)] कही भी । उ०— ए सखि अपुरुब रीति कहाँहु न पेखिअ अइसनि पिरीति ।— विद्यापति, पृ० ३९४ ।

कहा (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० कथन, प्रा० कहन, हिं० कहना] कथन । कहना । बात । आज्ञा । उपदेश । उ०—जासु प्रभाव जान मारीचा । तासु कहा नहिं मानेउ नीचा ।—तुलसी (शब्द०) ।

कहा (२)
क्रि० वि० [सं० कथम्] कैसे । किस प्रकार के । उ०— कहा लड़ैते दृग करे परे लाल बेहाल कहुँ मुरली कहुँ पीत पट कहूँ मुकुट बनमाल ।—बिहारी (शब्द०) ।

कहा (३) पु †
सर्व० [सं० क?] क्या । (ब्रज) । उ०—(क) नारद कर मै कहा बिगारा । भवन मोर जिन बसत उजारा ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) कहा करों लालच भरे चपल नैन चलि जात ।—बिहारी (शब्द०) ।

कहा (४)
वि० क्या । जैसे,—कहा वस्तु ।

कहाउति †
संज्ञा स्त्री० देश० दे० 'कहावत' ।

कहाकही
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहना] दे० 'कहासुनी' ।

कहाणी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहानी] दे० 'कहानी' । उ०—पुराण कहाणी पिन कहहु सामिञ सुनओ सुहेण ।—कीर्ति०, पृ० १६ ।

कहना (१) पु
संज्ञा पुं० [हिं० कथन, हिं० कहन या कहना] कहाने का ढंग । उ०—सीखि लीन्हों मीन मृग खंजन कमल नैन सीखि लीन्हों जस औ प्रताप को कहानो है ।—इतिहास पृ० ३८४ ।

कहाना (२)
क्रि० स० ['कहना का प्रे० रूप] कहलाना ।

कहानी
संज्ञा स्त्री० [सं० कथानक, *कथानिका, प्रा० कहुनी, हिं० कहानी] १. कथा । किस्सा । आख्यायिका । २. झूठी बात । गढ़ी बात । क्रि० प्र०—कहना ।—सुनना ।—सुनना । २. वृत्तांत । ४. किसी घटना या परिस्थिति के आधार पर गद्य में लिखी उपन्यास के ढंग की छोटी रचना । मुहा०—कहानी जोड़ना = कहानी बनाना । आख्यायिका रचना । यौ०—राम कहानी = लंबा चौड़ा वृतांत ।

कहार
संज्ञा पुं० [सं० क = जल + हार या सं० स्कन्धभारक] एक हिंदुओं की जाति जो पानी भरने और डोली उठाने का काम करती है । उ०—लगैं संग उत्ती फुटै पुट्ठि पच्छी । कि कंधं कहारं कटै जार मच्छी ।—पृ० रा०, ७ ।९० ।

कहारा
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्धमार] बड़ा टोकरा । बड़ी दौरी ।

कहाल †
संज्ञा पु० [सं० काहल] एक प्रकार का बाजा । उ०— मंजीर मुरज उमंग वेण मृदंग सलिल तरंग । बाजत विशाल कहाल त्यों करनाल तालन संग ।—रघुराज (शब्द०) ।

कहाली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कहल] मिट्टी का एक बर्तन । उ०— चपनी ढकन सराव गगरिया कलश कहाली नाना घाट ।— सुदंर ग्रं०, भा०१, पृ० ७३ ।

कहावत
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ कह से] १. बोलचाल में बहुत आनेवाला ऐसा बँधा वाक्य जिसमें कोई अनुभव की बात संक्षेप में और प्राय? अलंकृत भाषा में ही कही गई हो । कहनूत । लोकोक्तिं । मसल । जैसे,—ऊँची दूकान के फीके पकवान । क्रि० प्र०— कहना ।—सुनना । २. कही हुईबात । उक्ति । उ०—भरत कहावत कही सोहाई ।— तुलसी (शब्द०) । ३. वह सँदेशा या चिट्ठी जो किसी के मर जाने पर उसके घरवाले अपने इष्ट मित्रों या संबंधियों को इसलिये भेजते हैं कि वे लोग मृतककर्म में किसी नियत तिथि पर आकर संमिलित हों । क्रि० प्र०— आना ।—भेजना ।

कहावना पु
क्रि० स० [हिं० कहाना] दे० 'कहाना' । उ०— हमहूँ निरखि सकें छबि नेंसुक, छैल कहावत निज मुख दोउ ।—पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० २१६४ ।

कहासुना
संज्ञा पु० [हिं० कहना + सुनना] अनुचित कथन और व्यवहार । भूल चूक । जैसे,—हमारा कहा सुना माफ करना ।

कहासुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहना + सुनना] वादविवाद । झगड़ा तकरार । जैसे,—कल उन दोनों से कुछ कहासुनी हो गई ।

कहाह
संज्ञा पुं० [सं०] महिष । भैंसा ।

कहि पु
प्रत्य० [हिं०] दे० 'को' । उ०—इक्क समय पातसाह बन, मृगया कहि मन किन्न ।—हम्मीर रा०, पृ० ३४ ।

कहिनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहना] कहानी । कहन । बात । उ०—फरमान भेल कओण चाहि, तिरहुति लेलि जेन्हि साहि, डरे कहिनी कहए आन ।—कीर्ति०, पृ० ५८ ।

कहियाँ (१) पु
प्रत्य० [हिं० कहुँ] 'को' । उ०—पुनि बिहरन लागे ब्रज महियाँ । दैन लगे सुख अपनह कहियाँ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २५५ ।

कहिया (१)पु
क्रि० वि० [सं० कुह] किस दिन । कब ।

कहिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गहना = पकड़ना] कलईगरों का एक औजार जिससे राँगा रखकर जोड़ मिलाते हैं । विशेष—यह दस्ता लगा हुआ लोहे का छड़ होता है जिसकी एक नोक कौवे की चोंच की तरह झुकाई हुई होती है । इसी नोक को गरम करके उससे बरतनों पर राँगा रखकर राँजते हैं ।

कहिलाना पु
क्रि० अ० [हिं० कहलाना] दे० कहलाना' ।

कहीं
क्रि० वि० [हिं० कहाँ] किसी अनिश्चित स्थान में । ऐसे स्थान में जिसका ठीक ठिकाना न हो । जैसे,—वे घर में नहीं हैं, कहीं बाहर गए हैं । मुहा०—कहीं और = दूसरी जगह । अन्यत्र । जैसे,—कहीं और माँगो । कहीं कहीं = (१) किसी किसी स्थान पर । कुछ जगहों में । जैसे—उस प्रदेश में कहीं कहीं पहाड़ भी हैं । (२) बहुत कम स्थानों में । जैसे,मोती समुद्र में सब जगह नहीं, कहीं कहीं मिलता है । कहीं का = न जाने कहाँ का । ऐसा जो पहले देखने सुनने में न आया हो । बड़ा भारी । जैसे,—उल्लू कहीं का । कहीं का न रहना या होना = दो पक्षों में से किसी पक्ष के योग्य न रहना । दो भिन्न भिन्न मनोरथों में से किसी एक का भी पूरा न होना । किसी काम का न रहना । जैसे,—वे कभी नौकरी करते, कभी रोजगार की धुन में रहते, अंत में कहीं के न हुए । उ०—बुढ़ा आदमी हूँ, इस बुढ़ौतौ में कलंक का टीका लगे तों कहीं का न रहूँ ।—फिसाना०, भा०३, पृ० ११६ । कहीं न कहीं = किसी स्थान पर अवश्य । जैसे,—इसी पुस्तक में ढूँढों, कहीं न कहीं वह शब्द मिल जायगा । कहीं का कहीं = (१) एक ओर से दूसरी ओर । दूर । जैसे,—वह जंगल में भटककर कहीं के कहीं जा निकले । (२) (प्रश्न रूप में और निषेधार्थक) नहीं । कभी नहीं । जैसे,—(क) कहीं ओस से भी प्यास बुझती हैं? (ख) कहीं बंध्या को भी पुत्र होता है? (आशंका और इच्छासूचक) (३) कदाचितय़ यदि । अगर । जैसे,—(क) कहीं वह आ गया तो बड़ी मुशकिल होगी । (ख) इस अवसर पर कहीं वे आ जाते तो बड़ा आनंद होता । कहीं .... न = (आशंका और आशा सूचित करने के लिये ऐसा न हो के । जैसे,—(क) देखना, कहीं तुम भी न वहीं रह जाना । (ख) कहीं वह आ न जाय । (ग) देखी कहीं वे ही न आ रहे हों, जिनका आसरा देख रहे हो । (इस मुहावरे में या तो भावरूप में क्रियाएँ आती है अथवा संदिग्ध भूत, संभाव्य भविष्यत् आदि संभावनासूचक क्रियाएँ आती है) कहीं ... तो नहीं=(प्रश्न के रूप में आशंका और आशा सूचित करने के लिये) जैसे,—कहीं वह रास्ता तो नहीं भूल गया? (इस मुहावरे में प्राय? सामान्यभूत, सामान्य भविष्यत् और सामान्य वर्तमान क्रियाएँ आती हैं । ४. बहुत अधिक । बहुत बढ़कर । जैसे,—यह चीज उससे कहीं अच्छी है ।

कही पु
क्रि० वि० [हिं० कहना] कथित । कही हुई । उ०—तब इक उपमा मो मन भई । कही कहत, किधौं उपजी नई ।— नंद०, ग्रं०, पृ० ३०८ ।

कही
संज्ञा स्त्री० [हिं० कहना] बात । कथन ।

कहँ (१) पु †
क्रि० वि० [हिं० कहुँ] दे० 'कहूँ' ।

कहुँ (२)
प्रत्य० [हिं० कहँ] दे० 'को' । उ०—बिरह में चित्त समाधि लाइहौ । तुरतहि तब मो कहुँ पाइहौ ।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३०३ ।

कहुवा (१)
संज्ञा पुं० [अ० कइवा] एक दवा जो घी, चीनी, मिर्च और सोंठ को आग पर पकाने से बनती है और जुकाम (सरदी) में दी जाती है ।

कहुवा (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कोह] अर्जुन नामक वृक्ष ।

कहूँ पु
क्रि० वि० [सं०कुह] किसी स्थान पर । कहीं । उ०—कहा लड़ैंते दृग करे परे बाल बेहाल । कहुँ मुरली कहुँ पीत पट कहुँ मुकुट बनमाल ।—बिहारी (शब्द०) ।

कहूँ पु
प्रत्य० [हिं०] दे० 'को' । उ०—तजि जाय सकै कब नंदलाल । हम सबन कहूँ वह तीन काल ।—प्रेमघन०, भा०१, पृ० ९८ ।

कहैया पु †
वि० [हिं० कहना] दे० 'कहवैया' । उ०—प्रिय संदेश कहैया है यह द्विजवर कोई । नंद०, ग्रं०, पृ० २०२ ।

कह्न
संज्ञा पुं० [अ, कह्न] दे० 'कहर' ।

कह्लार
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत कमल । सफेद कमल ।

कह्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सारस । बगुला (कगो०) ।

कांक्षणीय
वि० [सं० काङ्क्षणीय] दे० 'कांक्षनीय' ।

कांक्षनीय
वि० [सं० काङ्क्षनीय] इच्छा करने योग्य । चाहने लायक ।

कांक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० काङ् क्षा] [वि० कांक्षनीय, कांक्षित, कांक्षी, कांक्ष्य] इच्छा । अभिलाषा । चाह ।

कांक्षित
वि० [सं० काङंक्षित] चाहा हुआ । इच्छित । अभिलाषित ।

कांक्षी (१)
वि० [सं० काङ्क्षिन्] [स्त्री० कांक्षिणी] चाहनेवाला । इच्छा रखनेवाला ।

कांक्षी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० काङ्क्षी] एक प्रकार की सुगंधित मिट्टी ।

कांक्षोरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सारस । २. बगुला [को०] ।

कांग्रेस
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह महासभा जिसमें भिन्न भिन्न स्थानों के प्रतिनिधि एकत्रहोकर किसी सार्वजनिक या विद्या संबंधी विषय पर विचार करते हैं । २. भारत की राष्ट्रीय महासभा इंडियन नेशनल कांग्रेस ।विशेष—सन् १८८५ में कई भारतीय प्रमुख जनों के सहयोग से ह्यूम ने इसकी स्थापना की । आगे चलकर इस संस्था ने स्वतत्रता को अपना लक्ष्य रखा और महात्मा गांधी के तेतृत्व में सन् १९४७ में इस संस्था ने देश को स्वतंत्र किया । ३. संमेलन । ४. किसी संघटन या समुदाय के प्रतिपाधियों की वार्षिक बैठक । ५. संयुक्त राष्ट्र अमेंरिका की संसद् या पार्लमेंट ।

कांग्रेसमैन
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो कांग्रेस का सदस्य हो । वह जो कांग्रेस के सिद्धांत या मंतव्य को माननेवाला हो । कांग्रेस सदस्य । कांग्रेस का अनुयायी । कांग्रेस पंथी ।

कांग्रेसी
वि० [हिं० कांग्रस+ ई (प्रत्य०)] १. कांग्रेस से संबंध रखनेवाला । २. कांग्रेस दल का सदस्य ।

कांचन (१)
संज्ञा पुं० [सं० काञ्च्चन] [वि० कांचनीय] १. सोना । २. कचनार । ३. चंपक । चंपा । ४. नागकेसर । ५. गूलर । ६. धतूरा । ७. चमक । ज्योति । दीप्ति (को०) ।

कांचन (२)
वि० १. सोने का बना हुआ । २. सुनहरा [को०] ।

कांचनकंदर
संज्ञा पुं० [सं० काञ्चनकन्दर] सोने की खान [को०] ।

कांचनक
संज्ञा पुं० [सं० काञ्चनक] १. हरताल । २. चंपा । ३. अन्न । अनाज (को०) ।

कांचनगिरि
संज्ञा पुं० [सं० काञ्चनगिरि] सुमेरु पर्वत ।

कांचनजंगा
संज्ञा पुं० [काञ्चनशृङ्ग] हिमालय की एक चोटी जो नेपाल और सिकिम के बीच में है ।

कांचनपुरुष
संज्ञा पुं० [सं० काञ्चनपुरुष] एकादश कर्म में महाब्राह्यण को दी जानेवाली मूर्ति, जो सोने के पत्तर पर बनाई जाती है [को०] ।

कांचनप्रभ
वि० [सं० काञ्चनप्रभ] सोने की तरह चमकनेवाला । सोने की प्रभावाला [को०] ।

कांचनसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० काञ्चनसन्धि] वह संधि जो दोनों पक्षों में समानता के आधार पर होती है [को०] ।

कांचनार
संज्ञा पु० [सं० काञ्चनार] कचनार ।

कांचनी
संज्ञा स्त्री० [सं० काञ्चनी] १. हल्दी । उ०—पीता गौरी कांचनी रजती पिंडा नाम ।—अनेकार्थ०, पृ० १०५ । २. गोरोचन ।

कांचनीय
वि० [सं० काञ्चनीय] १. सोने का बना हुआ । २. सोने की आभावाला [को०] ।

कांचि
संज्ञा स्त्री० [सं० काञ्चि] दे० 'काञ्ची' [को०] ।

कांचिक
संज्ञा पु० [सं० काञ्चिक] काँजी [को०] ।

कांची
संज्ञा स्त्री० [सं० काञ्ची] १. मेखला । क्षुद्रघंटिका । करधनी । उ०—नृप माणिक्य सुदेश, दक्षिण तिय जिय भावतो । कटि तट सुपट सुवेश, कल कांची शुभ मंडई ।— राम० धर्म०, पृ० १५ । यौ०—कांचीकल्प । कांचीगुणास्थान । कांचीपद । २. गोटा । पट्टा । ३. गुँजा । घुँघची । ४. हिंदुओं की सात पुकियों में से एक पुरी जिसे अब कांजीवरम् कहत हैं । विशेष—यह दक्षिण में मद्रास के पास है और एक प्रधान तीर्थ है ।

कांचीकल्प
संज्ञा पुं० [सं० कान्चीकल्प] मेखला । करधनी ।

कांचीगुणस्थान
संज्ञा पुं० [सं० काञ्चीगुणस्थान] पुट्ठा । कमर ।

कांचीपद
संज्ञा पुं० [सं० कांन्चीपद] पुट्ठा । कमर ।

कांचीपुर
संज्ञा पुं० [सं० कान्चीपुर] कांची । कांजीवरम् ।

कांचीपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कान्चीपुरी] कांची । कांजीवरम् ।

कांछीय पु
वि० [सं० काङक्षिन] इच्छावाला । कांक्षी । उ०— मुक्तिकांछीय जन भक्तिदायक प्रभू सकल सामर्थ गुन गनन भारी ।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३२५ ।

कांजिक
संज्ञा स्त्री० [सं० काञ्जिक] १. काँजी । २. चावल का माँड जो बहुत दिन रहने से उठ गया हो । पचुई ।

कांजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० काञ्जिका] जीवंती लता ।

कांजिवरम्
संज्ञा पुं० [सं० कान्चीपुर] दे० 'काँजीवरम्' ।

कांजी
संज्ञा स्त्री० [सं० काञ्जी] दे० 'काँजी' [को०] ।

कांड
संज्ञा पुं० [सं० काण्ड] १. बाँस, नरकट या ईख आदि का वह अंश जो दो गाँठो के बीच में हो । पोर । गाँडा । गेंडा । २. शर । सरकंडा । ३. वृक्षों की पेड़ी । तना । ४. पेड़ी या तने का वह भाग जहाँ से ऊपर चलकर डालियाँ निकलती हैं । तरुस्कंध । ५. शाखा । डाली । डंठल । ६. गुच्छा । ७. धनुष के बीच का मोटा भाग । ८. किसी कार्य या विषय का विभाग । जैसे—कर्मकांड, ज्ञानकांड, उपासनाकांड । ९. किसी ग्रंथ का वह विभाग जिसमें एक पूरा प्रसंग हो । जैसे,— अयोध्याकांड । १०. समूह । वृंद । ११. हाथ या पैर की लंबी हडडी या नली । १२. बाण । तीर । १३. डाँड़ा । बल्ला । १४. एक वर्ग माप । १५. खुशामद । झूठी प्रशंसा । १६. जल । १७. निर्जन स्थान । एकांत । १८. अवसर । १९. व्यापार । घटना । उ०—जिस अभागे कि लिये यह कांड, आ गया वह भर्त्सना का भांड ।—साकेत, पृ० १८८ ।

कांड (२)
वि० कुत्सित । बुरा ।

कांडकटुक
संज्ञा पुं० [सं० काण्डकटुक] करेला [को०] ।

कांडकार
संज्ञा पुं० [सं० काण्डकार] १. बाण बनानेवाला । २. सुपाड़ी [को०] ।

कांडगोचर
संज्ञा पुं० [सं० काण्डगोचर] लोहे का बाण [को०] ।

कांडतिक्त
संज्ञा पुं० [सं० काण्डतिक्त] चिरायता ।

कांडत्रय
संज्ञा पुं० [सं० काण्डत्रय] तीन कांडों का समूह । वेदों के तीन विभाग, जिनको कर्मकांड, उपासनाकांड, और ज्ञानकांड कहते हैं ।

कांडधार (१)
संज्ञा पुं० [सं० काण्डधार] १. एक प्रदेश का नाम जिसका उल्लेख पणिनि ने अपने तक्षशिलादि गण में किया है ।

कांडधार (२)
वि० कांडधार देश का निवासी ।

कांडपट, कांडपटक
संज्ञा पुं० [सं० काण्डपुट, काण्डपटक] तंबू के चारों ओर लगाया जानेवाला परदा । कनात ।

कांडपात
संज्ञा पुं० [सं० काण्डपात] १. तीर की मार । २. वह दूरी जहाँ तक तीर जाय [को०] ।

कांडपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० काण्डपृष्ठ] १. भारी धनुष । २. कर्ण के धनुष का नाम । ३. वह ब्राह्मण जो धनुष आदि शस्त्र बनाकरनिर्वाह करता हो । ४. सिपाही । ५. वह अपने कुल को त्यागकर दूसरे के कुल में मिले । ९. वेश्या का पति (को०) । ७. दत्तक पुत्र (को०) । ८. निम्नकोटि का व्यक्ति (को०) ।

कांडभंग
संज्ञा पुं० [सं० काण्डभङ्ग] दे० 'कांडभग्न' [को०] ।

कांडभग्न
संज्ञा पुं० [सं० काण्डभग्न] वैद्यक में आघात या चोट का भय जिसमें हाथ या पैर की हड्डी टूट जाती है । विशेष—चोट के बारह भेद ये हैं—कर्कट, अश्वकर्ण, विचूर्णित, अस्थिछिल्लिका, पिच्चित, कांडभग्न, अतिपतित, मज्जागत, स्फुटित, वक्र, छिन्न और द्विधाकर ।

कांडर्षि
संज्ञा पुं० [सं० काण्डर्षि] वह ऋषि जिसनें वेद के किसी कांड या विभाग (कर्म, ज्ञान या उपासना) पर विचार किया हो, जैसे—जैमिनी, व्यास, शांडिल्य ।

कांडवान्
संज्ञा पुं० [सं० काण्डवत्] तीरंदाज [को०] ।

कांडसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्डसन्धि] गाँठ या जोड़ (जैसे पेड़ के तने का जोड़) [को०] ।

कांडस्पृष्ट
संज्ञा पुं० [सं० काण्डस्पुष्ट] १. शस्त्रजीवी । सैनिक । २. बहादुर [को०] ।

कांडहीन
संज्ञा पुं० [सं० काण्डहीन] एक घास । भद्रमुस्तक [को०] ।

कांडार
संज्ञा पुं० [सं० काण्डार] एक वर्णसंकर जाति [को०] ।

कांडारी
संज्ञा पुं० [सं० कर्णधार] कर्णधार ।

कांडाल
संज्ञा पुं० [सं० काण्डाल] नरकट की टोकरी [को०] ।

कांडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्डिका] १. एक प्रकार का अनाज । २. एक प्रकार का कुम्हड़ा । ३. पुस्तक का भाग या अध्याय [को०] ।

कांडीर
संज्ञा पुं० [सं० काण्डीर] १. तीरंदाज । २. निंद्य व्यक्ति [को०] ।

कांडेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्डेरी] मंजिष्ठा [को०] ।

कांडेरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्डरुहा] कटुकी [को०] ।

कांडोल
संज्ञा पुं० [सं० काण्डोल] नरकट की टोकरी या डलिया [को०] ।

कांति (१)
संज्ञा पुं० [सं० कान्त] १. पति । शौहर । यौ०—उमाकांत, गौरीकांत, लक्ष्मीकांत, इत्यादि । २. श्रीकृष्णचंद्र का एक नाम । ३. चंद्रमा । ४. विष्णु । ५. शिव । ६. कार्तिकेय । ७. हिंजल का पेड़ । ईजड़ । ८. वसंत ऋतु । ९. कुंकुम । १०. एक प्रकार का लोहा जो वैद्यक में औषध के काम में आता है । विशेष—वैद्यकशास्त्र में इसकी पहचान यह लिखी है कि जिस लोहे के बर्तन में रखे गरम जल में तेर की बूँद न फैले, जिसमें हींग की गंध और नीम का कड़वापन जाता रहे तथा जिसमें औटाने पर दूध का उफान किनारे की ओर न जाय, वल्कि बीच में इकट्ठा होकर ढूह की तरह उठे, उसे कांत कहते हैं । ऐसे लोहे के बरतन में रखी वस्तु में कसाव नहीं आता । इसे कांतसार भी कहते हैं ।

कांत (२)
वि० १. इच्छित । २. प्रिय । ३. सुंदर । मनोरम [को०] ।

कांतपक्षी
संज्ञा पुं० [सं० कान्तपक्षिन्] मोर [को०] ।

कांतपाषाम
संज्ञा पुं० [सं० कान्तपाषाण] चंबक पत्थर । अयस्कांत ।

कांतलक
संज्ञा पुं० [सं० कान्तलक] नंदी वृक्ष [को०] ।

कांतलौह
संज्ञा पुं० [सं० कान्तलौह] कांतसार ।

कांतसार
संज्ञा पुं० [सं० कान्तसार] कांत लोहा । दे० 'कांत'—१० ।

कांता
संज्ञा स्त्री० [सं० कान्ता] १. प्रिया । सुंदरी स्त्री । २. विवाहिता स्त्री । भार्या । पत्नी । ३. पृथ्वी (को०) । ४. प्रियगुं लता (को०) । ५. बड़ी इलायची [को०] । ३. एक सुगंधित द्रव्य (को०) ।

कांतार
संज्ञा पुं० [सं० कान्तार] १. भयानक स्थान । विशेष—बौद्ध ग्रंथों में पाँच प्रकार के कांतार लिखे है—चौर कांतार, व्याल कांतार, अमानुष, निरुदक कांतार और अल्पभक्ष्य कांतार । २. दुर्भिद्य और गहन वन । घना जंगल । ३. एक प्रकार की ईख । केतार । ४. बाँस । ५. छेद । दरार । ६. बुरा रास्ता । दुर्दम रास्ता (को०) । ७. लक्षण (को०) । ८. कमल (को०) ।

कांतारक
संज्ञा पुं० [सं० कान्तारक] एक प्रकार की ईख [को०] ।

कांतासक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० कान्तासक्ति] भक्ति का एक भेद जिसमें भक्त ईशवर को अपना पति मानकर पति-पत्नी-भाव से उसमें प्रेम और भक्तिं करता है ।

कांति
संज्ञा स्त्री० [सं० कान्ति] १. दीप्ति । प्रकाश । आभा । २. सौंदर्य । शोभा । छवि । ३. चंद्रमा की १६ कलाओं में एक । ४. चंद्रमा की एक स्त्री का नाम । ५. आर्या छंद का एक भेद जिसमें १३ लघु और २५ गुरु होते हैं । ६. दुर्गा (को०) ।

कांतिकर
वि० [दे० कान्तिकर] सौंदर्य बढ़ानेवाला । शोभाकर [को०] ।

कांतिद (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कान्तिद] शुद्ध किया हुआ माक्खन [को०] ।

कांतिद (२)
वि० १. सौंदर्य प्रदान करनेवाला । २. सौदर्य बढ़ानेवाला [को०] ।

कांतिदा
संज्ञा स्त्री० [सं० कान्तिदा] सोमराजी [को०] ।

कांतिदायक (१)
संज्ञा पुं० [सं० कान्तिदायक] सौंदर्य प्रदान करनेवाला । सुंदरता बढ़ानेवाला ।

कांतिदायक (२)
संज्ञा पुं० कालीयक वृक्ष [को०] ।

कांतिभृत
संज्ञा पुं० [सं० कान्तिभृत्] चंद्रमा [को०] ।

कांतिमान्
वि० [सं० कांतिमत्] कांतियुक्त । चमकीला । सुंदर ।

कांतिसार
संज्ञा पुं० [सं० कांतिसार] दे० 'कांतसार' [को०] ।

कांतिसुर
संज्ञा पुं० [सं० सुरकान्ति] १. देवताओं की द्यृति । २. सोना ।—अनेक० (शब्द०) ।

कांतिहर
वि० [सं० कान्तिहर] १. कांति को नष्ट करनेवाला । कुरूप बनानेवाला [को०] ।

कांतिहीन
वि० [सं० कान्तिहीन] बिना कांति का । कुरूप । निष्प्रभ [को०] ।

कांती
संज्ञा स्त्री० [सं० कान्ति] एक प्रकार का घटिया लोहा जिसमें मिट्टी मिली रहती है और जो रेलिंग कड़ाही आदि बनाने के काम मे आती है ।

कांद पु
संज्ञा पु० [सं० स्कन्ध, पु †काँध] दे० 'कँधा' । उ०— कांद न देइ मसकरी करई । कहु दुई भाँति कैसे निस्तरई ।— कबीर बी०, पृ० २०६ ।

कांदव
संज्ञा पुं० [सं० कान्दव] चूल्हे या कड़ाही में भूनी अथवा सेंकी हुई चीज ।

कांदविक
संज्ञा पुं० [सं० कान्दविक] १.नानबाई । रोटीवाला । २. हलवाई [को०] ।

कांदिशीक
वि० [सं० कान्दिशीक] १. भागा हुआ । २. भयभीत [को०] ।

कांपिल
संज्ञा पुं० [सं० काम्पिल] दे० 'कांपिल्य' [को०] ।

कांपिल्य
संज्ञा पुं० [सं० काम्पिल्य] एक प्राचीन प्रेदश । विशेष—यह आजकल फरुँखाबाद जिले की कायमंगज तहसील के अंचर्गत कंपिल नामक परगना कहलाना है । राजधानी के स्थान पर कंपिल नाम का एक छोटा सा कसबा रह गया है ।

कांपिल्ल (१)
संज्ञा पुं० [सं० काम्पिल्ल] १. कांपिल्य । २. एक प्रकार का पेड़ । ३. एक प्रकार की सुंगंध [को०] ।

कांपिल्लक
संज्ञा पुं० [सं० काम्पिल्लक] दे० 'कांपिल्य' ।

कांबलिक
संज्ञा पुं० [सं० काम्बलिक] काँजी [को०] ।

कांबोज (१)
वि० [सं० काम्बोज] १. कंबोज देश का । कंबोज देश संबंधी । २. कंबोज देश का निवासी ।

कांबोज (२)
संज्ञा पुं० १. कंबोज देश का निवासी व्यक्ति । २. पुंनाग वृक्ष । ३. कबोज देशीय घोड़ों की एक जाति [को०] ।

कांसल
संज्ञा पुं० [अं० कौन्सल] वह मनु्ष्य जो किसी स्वाधीन राज्य या देश के प्रतिनिधि रूप से दूसरे देश में रहता और अपने देश के स्वार्थोँ, विशेषकर व्यापारिक स्वार्थोँ की रक्षा करता हो । वाणिज्यदूत । राजदूत । जैसे,—कलकत्ते में रहनेवाले अमेरिकन कांसल ने अमेरिकन माल पर, विशेषकर मोटर- गाड़ियें पर, अधिक महसूल लगाने के बारे में भारत सरकार को लिखा है ।

कांसोलेट
संज्ञा पुं० [अँ० कौंसलेट] दे० 'दूतावास' ।

कांस्टिट्युएसी
संज्ञा स्त्री० [अं० कांस्टिटुएसी] सं० 'निर्वाचक संघ' ।

कांस्टिट्यूशन
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी देश या राज्य के शासन या सरकार का विधिविहित या व्यवस्थित रूप । संघटना । २. वह विधि विधान या सिद्धांत जो किसी राज्य, राष्ट्र, समाज या सस्था की संघटना के लिये रचे और निश्चिक किए गए हों । विधि विधान । व्यवस्था ।

कांस्पिरेसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] किसी बुरे उद्देश्य या दुरभिसंधि से लोगों का गुप्त रूप से मिलना जुलना या साँठ गाँठ । किसी राज्य या सरकार के विरुद्ध गुप्त रूप से कोई भयंकर काम करने की तैयारी या आयोजन करना । षडयंत्र । साजिश ।

कांस्टेब्ल
संज्ञा पुं० [अं० कान्स्टेबल] पुलिस का सिपाही । यौ०—हेड कांस्टेब्ल = पुलिस के सिपाहियों का जमादार ।

कांस्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँसा । कसकुट । यौ०—कांस्यकार । काँस्यदोहनी । २. धातु का बना हुआ पानपात्र (को०) ।

कांस्यक
संज्ञा पुं० [सं०] पीतल [को०] ।

कांस्यकार
संज्ञा पुं० [सं०] कसेरा । भरतवाला । ठठेरा ।

कांस्यताल
संज्ञा पु० [सं०] मँजीरा । ताल ।

कांस्यदोहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काँसे का बर्तन जिसमें दूध दुहा जात है । कमोरी । विशेष—यह गोदान के साथ दी जाती है ।

कांस्यभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] काँसे का बरतन [को०] ।

कांस्यमल
संज्ञा पुं० [सं०] ताँबा पीतल आदि धातुओं में लगनेवाला मोची [को०] ।

कांस्ययुग
संज्ञा पुं० [सं०] इतिहास का वह युग जब अस्त्र शस्त्र और बर्तन आदि काँस के बनते थे ।

काँ (१)पु
प्रत्य० [हिं०] दे० 'को' । उ०—साईँ नावों तोहि का माथ ।—जग० बानी, पृ० ३३ ।

काँ (२)पु †
क्रि० वि० [हिं० कहाँ का संक्षिप्त रूप] दे० 'कहाँ' । उ०— गया था काँ तेरा तब होश दाई, जो ऐसे मस्त दीवाने को लाई ।—दक्खिनी०, पृ० २५१ ।

काँइ पु
सर्व० [अप०] कोई । कुछ । उ०—मैं अकेला ए दोइ जणाँ छेती नाँही काँई ।—कबीर ग्रं०, पृ० ७२ ।

काँइया
वि० [अनु० काँव काँव = (काँए का शब्द)] चालाक धूर्त ।

काँई (१) †
अव्य० [सं० किम्] क्यों । उ०—माई म्हाको स्वप्त में बरनी गोपाल । राती पीती चूनरि पहिरी मेहंदी पाणि रसाल । काँईँ और की भरो भाँवरै म्हाको जग जंजाल । मीरा प्रभु गिरधरन लला सों करी सगाई हाल ।—मीरा (शब्द०) ।

काँई (२) †
सर्व० [हिं० काहि] किसे । किसको ।

काँ क †
संज्ञा पुं० [सं० कङ्कु] कँगनी नाम का अनाज ।

काँ क (२) †
संज्ञा पुं० [सं० कङ्क] १. सफेद चील । कंक । २. गीध ।

काँ कड़ (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्कर, हिं० कंकड़] दे० 'ककड़' । उ०— कासली षडेलो भूमि काँकड़ पैगाम ।—शिखर०, पृ० ३३ ।

काँकड़ (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० कंकड़] कपास का बीज । बिनौला ।

काँक़ड़ (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० कङ्क] युद्ध । उ०—काकण समै कुबैलियाँ सरकण तणों सुभाव ।—बाँकी० ग्रं०, भा०,३, पृ० २४ ।

काँ कर पु †
संज्ञा पुं० [सं० कर्कर] [स्त्री० अल्प० काँकहरी] कंकड़ । उ०—(क) काँकर पाथर जोरिके मसजिद लई चुनाय । ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय?—कबीर (शब्द०) (ख) कुस कंटक मग काँकर नाना । चलब पियादे बिनु पद- आना ।—तुलसी (शब्द०) ।

काँकरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँकर का अल्पा०] छओटा कँकड़ ।— (क) कुस कंटक काँकरी कुराई । कटुक कठोर कुवस्तु दुराई । तुलसी (शब्द०) । (ख) गली साँकरी हेरि री गदई कांकरीमारि नहिं बिसरै बिसरायहुँ हरे हाँकरी नारि ।—श्रृ संत (शब्द०) । मुहा०— काँकरी चुनना = चुपचाप मन मारकर बैठना । चिंता या वियोग के दु?ख सि किसी काम में मन न लगना ।

काँकरु पु
संज्ञा पुं० [हिं० काँकर] दे० 'काँकर' । उ०—घर बैठे आनि उख नींद करत 'काँकरु' चलावत निडर पाहि किन सीख दीनी अहो लै ।—धनानंद, पृ० ४६२ ।

काँकल पु
संज्ञा पु० [सं० कङ्क] युद्ध । उ०—मचियै काँकल मदतच री, वीर न देखै बैट ।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ५ ।

काँकाँ
संज्ञा पुं० [अनु०] कोए की बोली । उ०—घरी एक सज्जन कुटुँब मिलि बैठे रुदन कराहीं । जैसे काग के मुए काँ काँ करि उड़ि जाहिं ।—सूर (शब्द०) ।

काँकुन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्कु] दे० 'कँगनी' ।

काँकुनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँकुन] दे० कँगनी' ।

काँख
संज्ञा स्त्री० [सं० कक्ष] बाहुमूल के निची की ओर का गड्ढ़ा । बगल । उ०—अंगदादि कपि मुर्छित करि समेत सुग्रीव । काँख दाबि कपिराज कहँ चला अमित बल सींव ।—तुलसी (शब्द०) ।

काँखना
क्रि० अ० [अनु०] १. किसी श्रम या पीड़ा से उहँ आँह आदि शब्द मुँह से निकालना । २. मल या मूत्र को निकालने के लिये पेट की वायु को दबाना ।

काँखासोती
संज्ञा स्त्री० [हिं० काख + सं० श्रोत्र, प्रा० सोत] दुपट्टा डालने का एक ढंग । जनेउ की तरह दुपट्टा डालने का ढंग । उ०—पियर उपरना काँखासोती । दुहुँ आचरन्हि लगे मनि मोती ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—इसमें दुपट्टे को बाँए कंधे और पीठ पर से ले जाकर दाहिनी बगल के नीचे से निकालते हैं और फिर बाँए कंधे पर डाल लेते हैं ।

काँखी पु
संज्ञा पुं० [सं० काढ्क्षिन्] दे० कांक्षी' । उ०—शुक्र भागवत प्रकट करि गायो कछू न दुबिधा राखी । सूरदास ब्रजनारि संग हरि माँगी करहिं नहीं कोउ काँखी ।—सूर (शब्द०) ।

काँगड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कंक] खाकी रंग का एक पक्षी । विशेष—इसकी छाती सफेद, कनपटी लाल और चोटी काली होती है । यह डोलडौल में बुलबुल ले बड़ा और गिलैगिलिया से छोटा होता है ।

काँगड़ा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] पंजाब प्रांत का एक छोटा पहाड़ी प्रेदश । उ०—मथुरा को छोड़कर कोट कांगड़ा में गई ।—कबीर ग्रं०, पृ० ४० । विशेष—इसमें एक छोटा ज्वालामुखी पर्वत है जो ज्वालामुखी देवी के नाम से प्रसिद्ध है । प्राचीन काल में यह कुलूत और कुलिंग प्रदेश के अंतर्गत था ।

काँगड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँगड़ा] एक छोटी अँगाठी जिसे कशमीरी लोग गले में लटकाए रहता हैं । विशेष—यह अंगूर के बेल की बनती है इसके भीतर मिट्टी लपेटी रहती है । पुरुष इसे गले से छाती के पास और स्त्रियाँ नाभि के पास लटकाती हैं ।

काँगनी
संज्ञा स्त्री० [ हि० कँगनी] दे० ' कँगनी ' ।

काँगर पु
संज्ञा पुं० [फा० कंगूरह्] दे० 'कँगूरा' । उ० — जैसी बिधि काँगरेऊ कोट पर जैसी विधि देषियत बुदवुदान नीर मैं । — सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६५० ।

काँगरु
संज्ञा पुं० [अ० कंगू] दै० 'कागारोल' उ० — आया है कालू का दौर घरो घर काँगारौल, पौर पौर ठौर ठौर पाप बेलि जागी है । — पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ४३३ ।

काँगुनी पु
संज्ञा स्त्री० [ही० कँगनी] दे० ' कँगनी' । उ० — निपजे छेत्र काँगुनी धान । तिनहि निरखि हरखे जु किसान । — नंद० ग्रं०, पृ० २८९ ।

काँग्रेस
संज्ञा स्त्री० [ अं० काँग्रेस] दे० ' कांग्रेस' ।

काँच (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कक्ष, प्रा० कच्छ] १. धोती का वह छोर जिसे दोनों जाँघों के बिच से ले जाकर पीछे खोंसते हैं । लाँग । क्रि० प्र० — बाँधना । — खोलना । मुहा० — काँच खोलना = (१) प्रसंग करना । उ० कामी से कुता भला रितु सर खोले काँच । राम नास जाना नहिं भावी जाय न बाँच । — कबिर (शब्द०) । (२) हिम्मत छोड़ना । साहस छोड़ना । बिरोध करने में असमर्थ होना । ३. गुदेंद्रिय के भीतर का भाग । गुदाचक्र । गुदावर्त । क्रि० प्र०—निकलना = काँच का बाहर आना । विशेष — एक रोग जिसमें कमजोरी आदि के कारण पाखाना फिरते समय काँच बाहर निकल आती है । यह रोग प्राय? दस्त की बीमारीवाले को हो जाता है । मुहा० — काँच निकलना = (१) किसि श्रम या चोट के सहने में असमर्थ होना । किसि आघात या परिश्रम से बुरी दशा होना । जैसे — (क)मारेंगे काँच निकल आवेगी । (ख) इस पत्थर को उठाऔ तो काँच निकल आवे । काँच निकलना = (१) अत्यंत चोट या कष्ट पहुँचाना । बेदम करना । (२) बहुत अधिक परिश्रम लेना ।

काँच (२)
संज्ञा पुं० [सं० काच] एक मिश्र पदार्थ जो बालू और रेह या खारी मिट्टी को आग में गलाने से बनती है और पारदर्शक होती है । उ० काँच किरच बदले सठ लेहीं । कर तें डारि परसमणिं देहीं । — तुलसी (शब्द ०) । विशेष — इसकी चूडी, बोतल, दर्पण आदी बहुत सी चीजें बनती हैं । यह कडा़ और बहुत कड़कीला होता है, इससे थोडी चोट से भी टूट जाता है । इसे बोलचाल में शीशा बी कहते हैं ।

काँचरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँचरी] दे० ' कचारी' । उ० — तजौ दह जिमि काँचरी साँपा । — कबीर सा०, पृ ८५ ।

काँचरी पु
संज्ञा स्त्री ० [सं कञ्चुलिका, हिं० काँचली] दे० ' काँचली' । उ० — जौ लगि पौल चलै जग में सिय जीवित है बिनु राम सँघाती । तौ लगि देह को यों तजु रे जैसे पन्नगी काँचरी को तजि जाती । — हनुमान (शब्द०) ।

काँचली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुलिका = आवरण] १. साँप की केचुली । उ० — बल, बक, हीरा, केवरा, कौडा़ करका, काँस ।उरग काँचली, कमल, हिम, सिकवा, भस्म, कपास ।— के शव (शब्द०) । २. कंचुकी । चोली । उ० — रतन जडि़त की काँचली औ कसी कंचूवउ षरउ हो सुमीड़ । — बि० रासो, पृ . ६६ ।

काँचा पु
वि० [सं० कषण या कषण अथवा कुपक्व, * प्रा० कुपच्च * कुअच्च, कच्च, कच्चा] [स्त्री० काँची] १. कक्चा । अपक्व । २. अदृढ़ । दुर्बल । अस्थिर । मुहा०— काँचा मन = जो शुद्धता और भक्ति में ढढ़ न हो । उ० — जप माला, छापा तिलक सरै न एकौ काम । मन काँचे नाचे वृथा साँचे राँचे राम । — बिहारी (शब्द०) मन काँचा होना = जि छोटा होना । उत्सार और दृढ़ता न रहना । उ० — समय सुभाय नारि कर साँचा । संगल महँ भय मन अति काँचा । — तुलसी (शब्द०) काँची मति या बुद्धि = अपरिपक्व बुद्धि । खोटी समझ । उ० — ठकुराइत गिरिधर जू की साँची । हरि चरणारविंद तजि लागत अनत कहुँ तिनकी मति काँची । सूरदास भगवंत भजत जे तिनकी लीक चहूँ युग खाँची ।— सूर (शब्द०) ।

काँची पु
वि० [हिं० काँचा] दे० 'कच्चा' । उ० — काया काँची काँच सी, कंचन होत न बार । — दरिया ० बाती० पृ० ६ ।

काँचु पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कञचुक, प्रा० कचुअ, कंचु] दे० 'कँचुकी' । उ० — गलि पइहर्यो टंकाउलि हारि परिरि, पदारथ काँचु वड । — बी रासी, पृ० ११३ ।

काँचुरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँचरी] दे० 'काँचरी ' । उ० — जैसे सर्प काँचुरी जानै काया को ऐसे करि मानै । — कबीर सा०, पृ० ९५७ ।

काँचू (१)†
संज्ञा पुं० [सं० कञचुल] केंचुल ।

काँचू (२)
वि० [हिं० काँच] जिसे काँच का रोग हो ।

काँछ
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँच] दे० ' काँच' ।

काँछना
क्रि० स० [हिं० काछना] दे० 'काछना'

काँछा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० काङ्क्षा] अभिलाषा ।

काँज पु †
संज्ञा पुं० [सं० कार्य, प्रा ० कञ्ज० अप०, कंज] दे० 'कार्य । उ० — बडि साति छोटाहु काँज, कटक लटक परम वाज । — कीति० पृ० ६७ ।

काँजी
संज्ञा स्त्री [सं० काञ्जिक] एक प्रकार का खट्टा रस जो कई प्रकार से बनाया जाता है और जिसमें अचार ओर बडे़ आदि भी पड़ते है । विशष — य़ह पाचक होता है और अपच में दिया जाता है । इसके बनाने की प्रधान रीतियाँ ये है०,— (क) चावल के माँड को मिट्टी के बर्तन में तीन दिन तक राई में मिलाकर रखते हैं और उसमें नमक आदि डालते हैं ।(ख) राई को पिसकर पानी में घोलते हैं और फिर उसमें नमक, जीरा, सोंठ आदि मिलाकर मिट्टी के बर्तन में रखते हैं । उठने या खट्टा होने के पहले बडे़ और अचार उसमें डालते हैं । (ग) दही के पानी में राई नमक मिलाकर रख देते हैं और उठने पर काम में लाते हैं । (घ) चीनी और नीबू का रस अथवा सिरका मिलाकर पकाते और किमाम बनाते हैं । २. मट्ठें या दही का पानी । फटे हुए दूध का पानी । छाँछ । उ० — (क) बिरचि मन बहुरी राचो आइ । टुटी जुरै बहूत जतननि करि तऊ दोष नहिं जाइ । करट हेतु की प्रीति निरंतर नोथि चोखाई गाइ । दूध फाटि जैसे भइ काँजी कौन स्वाद करि खाइ । — सूर (शब्द०) । (ख) भरतहिं होइ न राजमद, बिधि हरिहर पद पाइ । कबहुँ कि काँजी सीकरनि छोरसिंधु बिनसाइ । — तुलसी (शब्द०) ३. कैदखाने में बह कोठरी जहाँ केदियों को माँड खिलाया जाता है ।

काँजीवरम्
संज्ञा पुं० [सं० काञ्चीपुरम् ] मदरास राज्य का एक नगर जिसे प्रचीन काल में काँचीपुर कहते थे ।

काँजिहाउस
संज्ञा पुं० [अं० काइन हाउस] वह मकान जहाँ खेती आदि को हानि पहुँचानेवाले अथवा इधर उधर बिना प्रयोजन घूमनेवाले चौपाए बंद किए जाते हैं । चौपायों के मालिक कुछ देकर अपने चौपायों को छुंडा़ते हैं ।

काँट (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० कण्ट, हिं० काँटा ] दे० 'काँटा' । उ० — भवँर भटैया जाहु जनि काँट बहुत रस थोर । आस न पूजै बासरा तासों प्रीति न जोर । — गिरधर (शब्द०) ।

काँट पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० काट] जंग । मोरचा । उ० — दरिया सोना सोल्हवाँ काँट न लागै कोय । — दरिया० बानी, पृ ० २५ ।

काँटवा पु
संज्ञा पुं० [हिं० काट + वा (प्रत्य०) ] दे० ' काँट' । उ०— नामन जानै गाँव का भूला मारग जाय । काल्ह गडै़गा काँटवा, अगमन कस न कराय । — कबीर सा० से०, पृ० ७३ ।

काँटा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कण्टक, प्रा ० कंटय, कंटग ] [वि० कँटीला ] १. किसी किसी पेड़ की डालियों और टहनियों में निकले हुए सुई की तरह के नुकिले अंकुर जो पुष्ट होने पर बहुत कडे़ हो जाते हैं । कंटक । उ० — रोयँ रोयँ जन लागहिं चाँटे । सूत सूत बेधे जनु काँटे । — जायसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—गड़ना । —चुभना ।— धँसना ।—निकलना ।— लगना । मुहा० — काँटा निकालना = (१) बाधा या कष्ट दूर होना । चैन होना । आराम होना । (२) खटका मिटना । काँटा निका- लना = (१) बाधा या कष्ट दूर करना । (२) खटका मिटाना । रास्ते में काँटा बिछाना = अड़चन डालना । विघ्न करना । बाधा डालना । रास्ते का काँटा = विघ्नरूप । बाधास्वरूप । काँटा बखेरना = कठिनाइयाँ पैदा करना । उ० — जो सदा हैं बखेरते काँटे । दे सके वे न फूल के दोने । — चुभते०, पृ० ५२ । काँटा बोना = (१) बुराई करना । अनिष्ट करना । उ०— जो तोको काँटा बुवै ताहि बोउतू फूल । — कबीर (शब्द०) । (२) अड़चन डालना । उपद्रव मचाना । अपने लिये काँटा बोना = अपने हित की हानि करना । काँटा सा = कंटक के समान दु?खदायी । खटकनेवाला । काँटा सा खटकना = अच्छा नलगना । दु?खदायी होना । आँखों में काँटा सा खटकना = बुरा लगना । नागवार लगना । असहा होना । काँटा सा होना = बहुत दुबला होना । ठठरी ही ठठरी । रह जाना । काँटा होना = (१) दुबला होना । सूखकर ठठरी ही ठठरी रह जाना । (२) सूखकर कडा़ हो जाना । जैसे, — चाशनीकाँटा हो गई । काँटे पर की ओस = क्षणभंगुर वस्तु । थोडे़ दिन रहनेवाली चीज । काँटों में घसीटना = किसी की इतनी अधिक प्रशसा या आदर करना जिसके योग्य वह अपने को न समझे । (जव कोई मित्र या श्रेष्ठ पुरुष किसी की बहुत प्रशंसा या आदर करता है, तब वह नम्रता प्रकट करने के लिये कहता है कि 'आप तो मुझे काँटों में घसीटते हैं ' ।) काँटों पर लोटना = (१) दुःख से तड़पना । बेचैन होना । तिलमिलाना । (२) डाह से जलना । ईर्ष्या से व्याकुल होना । काँटों पर लोटाना = दुःख देना । सताना । ईर्ष्या से व्याकुल होना । करना । (२) डाह से जलाना । काँटों में फूल चुनना = दोषों में गुण ग्रहण करना । दोनो के बीच गुण देखना । उ० — लोग काँटों में फूल चुनते हैं । — चुभते०, पृ ६ । २. वह काँटा जो मोर, मुर्गे, तीतर आदि पक्षियों की नर जातियों के पैरो में पंजे के ऊपर निकलता है । ईससे लड़ते समय वे एक दूसरे को मारते हैं । खाँग । क्रि० प्र०—मारना । ३. काँटा जो मैना आदि पक्षियों के गले में निकलता है । विशेष —यह एक रोग है जिससे पक्षी मर जाते हैं । पालतू मैना का काँटा लोग निकालते हैं । मुहा० —काँटा लगना— पक्षी को काँटे का रोग होना । ४. छोटी छोटी नुकीली और खुरखुरी फुंसियाँ जो जीभ में निकलती हैं । मुहा० —जीभ या गले में काँटे पडना = अधिक प्यास से गला सूखना । ५. [स्त्री० अल्पा काँटी ] लोहे की बडी कील चाहे वह झुकी हो या सीधी । क्रि० प्र०— गाड़ना । — जड़ना । — ठोंकना । — बैठाना । — लगाना । ६. मछली पकड़ने की झुकी हुई नोकदार अँकुडी़ या कटिया । मुहा० — काँटा डालना या लगाना = मछली फँसाने के लिये काँटे को पानी में डालना । ७. लोहे की झुकी हुई अँकुडियों का गुचछा जिसे कुएँ में डालकर गिरे हुए लोटे या गगरे आदि को निकालते हैं । क्रि प्र०—डालना । ८. सुई या कील की तरह की कोई नुकीली वस्तु । जैसे, साही की पीठ का काँटा, जूते की एँजी का काँटा (जिससे घोडे को एँड लगाते हैं) । ९. एक झुका हुआ लोहे का काँटा जिसमें तागे का फँसाकर पटहार या पटवा गुहने का काम करते है । १०. वह सुई जो लोहे की तराजू की डाँडी की पीठ पर होती है और जिससे दोनों पलडों के बराबर होने की सूचना मिलती है । विशेष — यदि काँटा ठीक सीधा खडा़ होगा तो समझा जायगा कि पलडे़ बराबर हैं । यदि कुछ झुका हुआ या तिरछा होगा, तो समझा जायगा कि कि बराबर नहीं हैं । ११. वह लोहै का तराजू जिसकी डाँडी़ पर काँटा होता है । विशेष — इससे तौल ठीक ठीक मालूम होती है । मुहा०— काँटे की तौल होना = न कम न वेश होना । ठीक ठीक होना । काँटे में तुलना = महँगा होना । गिराँ होना । १२. नाक में पहनने का एक आभूषण । कील । लौंग । १३. पंजे के आकार का धातु का बना हुआ एक औजार जिससे अंग्रेज लोग खाना खाते है । १४. लकडी का एक ढाँचा जिससे किसान घास भूसा उठाते हैं । बैशाखी । अखानी । १५. सूआ । सूजा । १६.घडी़ की सूई । १६. गणित में गुणन के फल के शुद्धाशुद्ध की जाँच की एक क्रिया जिसमें एक दूसरे को काटती हुई तो लकीरें बनाई जाती हैं । विशेष — गुण्य के अकों को जोड़कर ९ से भाग देते हैं अथवा एक एक अंक लेकर जोड़ते और उसमें से ९ घटाते जाते हैं । फिर जो बचता है, उसे काटनेवाली लकीरों के एक सिरे पर रखते हें । पिर इसी प्रकार गुणक के अंकों को लोकर करते हैं, जो फल होता है, उसे लकीर के दूसरे सिरे पर रखते है, फिर ईन दोनों आमने सामने के सिरों के अंकों को गुणते हैं और इसी प्रकार ९ से भाग देकर शेष को दूसरी लकीर के एक सिरे पर रखते हैं । अब यदि गुणन फल के अंकों को लेकर यही क्रिया करने से दूसरी लकीर के दूसरे सिरे पर रखने के लिये वही अंक आ जाय, तो गुणनफल ठीक समझना चाहिए । जैसे, —/?/२८४ ? १२ = ३४०८ परीक्ष्य । २ + ८ +४ = १४ ? ९ = शेष ५ लकीर के एक सिरे पर । १+ २ = ३ (९ का भाग नहीं लगता) दूसरे सिरे पर । ५?३ = १५ ? ९ शेष ६, दूसरी लकीर के एक सिरे पर । ३ +४ + ८ = १५ ? ९ शेष ६ दूसरे सिरे पर । १८ । वह क्रिया जो किसी गणित की शुद्धि की परीक्षा के लिये की जाय । १९. वह कुश्ती जिसमें दोनों पक्ष मिलकर न लडें, बल्कि प्रतिद्वंद्विता के भाव से लडें । २०. दरी की बीनावट में उसके बेल बूटे का एक भेद जिसमें नोक निकली होती हैं । २१. एक प्रकार की आतशबाजी । २२. झाड़ या फानूस टाँगने या लटकाने की बंसी की तरह बडी कँटिया । २३. मछली की हड्डी ।

काँटा (२) †
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठ, या उपकण्ठ हिं० काँठा ] जमुना के किनारे की वह निकम्मी भूमि जिसमें कुछ उपजता नहीं ।

काँटाबाँस
संज्ञा पुं० [हिं० काँटा +बाँस ] एक प्रकार का कँटीला बाँस । मगरबांस । नालबाँस । कटबाँसी । विशेष — यह मध्य प्रदेश, पूर्वी बंगाल और आसाम को छोडकर प्राय? शेष सारे भारत में जंगली रूप में पाया जाता है और लगाया भी जाता है । तवाशीर प्राय? इसी की गाँठों से निकलता है ।

काँटी
संज्ञा स्त्री ०[ हिं० काँटा का अल्पा० ] १. छोटा काँटा । कील । उ० — दरिया काँटी लोह की, पारस परसै सोय । — दरिया० बानी, पृ० ३३ ।क्रि० प्र०—गाड़ना ।—लगाना ।—ठोंकना ।—जड़ना । २. वह छोटी तराजू जिसकी डाँडी पर काँटा लगा हो । ऐसी तराजू सुनार लुहार आदि रखते हैं । ३. झुकी हुई छोटी कील । अँकुडी़ । ४. साँप पकड़ने की एक लकडी जिसके सिरे पर लोहे का अँकुडा लगा रहता है । ५. बेडी़ । मुहा० — काँटी खाना = कैद काटना । जेल काटना । कैद होना । (जुआरियों की बोली) । ३. वह रूई जो धुनने के बाद बिनौला के साथ रह जाती है । ७. लड़कों का खेल जिसमें वे डोरे में कंकड बाँधकर लडाते हैं, लंगर । मुहा०. — काँटी लडा़ना = लंगर लडाना ।

काँठा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कण्ठ ] १. गला । उ० — बाँधा कंठ परा जरि काँठा । विरह का जरा जाइ कहँ नाँठा । — जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २७० । २. वह लाल नीली रेखा जो तोते के गंले के किनारे मंडलाकार निकलती है । उ०— हीरामन हौं तेहीके परेवा । काँठा फूट करत तेहि सेवा । — जायसी (शब्द०) । ३. किनारा ।तट । उ०— (क) भाइ विभीषन जाइ मिल्यो प्रभु आइ परेसुनि सायर काँठे । — तुलसी (शब्द०) । (ख) दरिया का काँठा । — (लश०), ४. पार्श्व । बगल ।

काँठा (२)
संज्ञा पुं० [सं० काष्ठ ] जुलाहों का लकडी का एक बालिश्त लंबा पतला छड़ । विशेष — इसमें जुलाहे बाना बुनने के लिये रेशम लपेटते हैं । यदी ताना बादले का होता है तो काँठे ही ही बुनते भी हैं ।

काँठी †
संज्ञा स्त्री० [हीं० काठी ] दे 'काठी' ।

काँड़ना पु
क्रि ० स० [सं० कण्डन (< √ कडि = रौदना, भूसी अलग करना) ] १. रौंदना । कुचलना । २. धान को कूट कर चावल और भूसी अलग करना । कूटना । उ० उदधि अपार उतरतहू न लागी बार केसरी सो अडंड ऐसो डाँडिगो । बाटिका उजारि अक्ष रक्षकनि मारि भट भारी भारी रावरे के चाउर से काँडि़गो । — तुलसी ग्रं०, पृ० १८८ । ३. लात लगाना । खूब पीटना । मारना ।

काँडली
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड़ ] लोनी । कुलफा ।

काँडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्णाक ] १. पेडों का एक रोग जिसमें उनकी लकडी में कीडे पड जाते हैं । २. लकडी का कीडा़ । ३. दाँत का कीडा़ ।

काँडा (२)
संज्ञा पुं० [सं० काण] काना ।

काँडी़ (१)
संज्ञा स्त्री० [से० काण्डनी अथवा हिं० काँड़ना ] १. ओखली का वह गड्ढा जिसमें धान आदि डालकर मूसल से कूटते हैं । २. भूमि में गडा़ हुआ लकडी या पत्थर का तुकडा जिसमें धान कूटने के लिये गड्ढा बना रहता हैं । ३. हाथी का एक रोग जिसमें उसके पैर के तलवे में गहरा घाव हो जाता है और उसको चलने फिरने में बडा कष्ट होता है । घाव में छोटे छोटे कीडे़ भी रहते हैं ।

काँडि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड ] १. लकडी़ का डंडा जिससे भारी चीजों को ढकेलते, ऊपर जढा़ते तथा और प्रकार से हटाते हैं । २. जहाज के लंगर की डाँडी़, अर्थात् बह सीधा भाग जो मुडे़ हुए अँकुडों और ऊपरी सिरे के बीच में होता है । ३. बाँस या लकडी़ का कुछ पतला सीधा लट्ठा जो घर की छाजन में लगता तथा और और कामों में भी आता है । यौ०— काँडी कफन = मुरदे की रथी का सामान । ४. छड़ । लट्ठा । उ० — और सुआ सोने के डाँडी़ । सारदूल रूपे की काँडी़ । — जायसी (शब्द०) । ५. अरहर का सूखा डठल । रहठा ।

काँडी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड = समूह, झुँड ] मछलियों का समूह या झुंड । ढाँवर ।

काँती‡
संज्ञा स्त्री० [ही० कत्तो] १. कैंची । २. छुरी । ३. बिच्छू का ड़क । ४. अत्यधिक व्यथा ।

काँथरा पु
संज्ञा पुं० [पुं० कन्था, हिं० कथरी का पुं० ] दे० 'काँथरी' । उ० — दे मदिरा भर प्याला पीवों । होइ मतवार कांथरा सीवों । — इंद्रा०, पृ० २० ।

काँथरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्था ] कथरी । गुदडी़ । उ० — कैसे ओढ़ब काँथरी कंथा । कैसे पांय चलब भुइँ पंथा । — जायसी (शब्द०) ।

काँथरी †
संज्ञा स्त्री० [हीं० कथरी] कथरी । गुदडी़ ।

काँद पु
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध, प्रा० कंध पु † काँध ] दै० 'कंधा' । उ० न देखे कोई त्यों आहीस्ता डग डग । हलू इस काँद ते उस काँद कू लग । — दक्खिनी०, पृ० २८२ ।

काँदना
क्रि० अ० [ सं० क्रन्दन = चिल्लाना । बँग०] रोना । चिल्लाना । उ०— उसी समय एक ऋषि जो ईंधन के लिये बहाँ जा निकले, दूर ही से उसका रोना सुनके अति व्याकुल हो लगे सोच करने कि यह तो अनाथ स्त्री कोई काँदती है ।— सदल मिश्र (शब्द०) ।

काँदर पु
संज्ञा पुं० [सं० कादर ] दे० ' कादर' । उ० — झलमल तीर तरवारि बरछी देषि काँदरैकाचा । — सुंदर ग्र०, भा० २, पृ० ८८५ ।

काँदरना पु
क्रि० अ० [सं० क्रन्दन, हिं० काँदना ] चिल्लाना । क्रंदन करना । उ०— बिजल ज्यौं चमकै बाढाली, काइर काँदरि भाजै । — सुंदर ग्रं० भा० २, पृ० ८८५ ।

काँदव †
संज्ञा पुं० [सं० कर्दम, प्रा० कद्दम, पु कंदो, काँदो] दे० 'काँदो' उ० — बिन काँदव जिमि कमल सुखाई । — माधवा नल०, पृ० २०२ ।

काँदा पु
संज्ञा पुं० [सं० कन्द ] एक गुल्म जिसमें प्याज की तरह गाँठ पडती है । विशेष — इसकी पत्तियाँ प्याज से कुछ चौडी़ होती हैं । यह तालों के किनारे होता है । वर्षा का जल पड़ने पर इसमें पत्ते निकलते और सफेद रंग के फूल (धतूरे के फूल के ऐसे) लगते हैं जिनके दलों पर पाँच छह खडी़ लाल धारियाँ होती हैं । इन धारियों के सिरों पर अर्धचंद्राकार पीले चिह्न होते हैं । इसकी गाँठ माडी, देने के काम में आती है । इसे कँदली या कंदली भी कहते हैं । इनका संस्कृत नाम भी कंदली ही हैं ।२.प्याज । उ० — ज्याँ मझ काँदा छोंत जिम । — बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ ९७ ।

काँदू
संज्ञा पुं० [सं० कान्दविक] १. बनियों की एक जाति । २. वह जाति जो भड़भूजे का व्यवसाय करती है ।

काँदो पु †
संज्ञा पुं० [सं० कर्दम, पा०कद्दम ] कीच । कीचड़ । पंक ० उ० — अगिलही कहँ पानी खर बाँटा । पछिल हिं काहु न काँदो आँटा । — जायसी (शब्द०) ।

काँध पु
संज्ञा पुं० [सं० कन्ध, प्रा० खंध ] कंधा । उ०— (क) मत मतँग सब गजरहि बाँधे । निसि दिन रहहिं महाउत काँधे । जायसी (शब्द०) । (ख) मस्तक टीका काँध जनेऊ । कवि बियास पंडीत सहदेऊ । — जायसी (शब्द) । मुहा० — काँध दैना = (१) सहारा देना । उठाने में सहायता करना । किसी भारी चीज को कंधे पर उठा कर ले जाने में सहायता देना । (२) अंगीकार करना । ऊपर लेना । मानना । उ० — यह सो कृष्ण बलराम जस कीन चहै छर बाँध । हम विचार अस आवहिं मेरहिं दीज न काँध । जायसी (शब्द) । काँध मारना = न टिकना । धोखा देना । काम न आना । उ० — सजग जो नाहिं मार बल काँधा । बुध कहीये हस्ती काँबाँधा । — जायसी (शब्द०) । काँध लगना = भारी या दूर तक बोझ ले जाने से कंधा दुखना या कल्लाना (कहारों की बोली) । काँध लेना = उठाना । ऊपर लेना । सँभालना । उ० — काँध समुद धस लीन्हेसि भा पाछे सब कोइ । कोइ काहु न सँभारै आपन आपन होइ । — जायसी (शब्द०) । २. कोल्हू की जाठ में मुंडी के ऊपर का पतला भाग ।

काँधना पु
क्रि० स० [हिं० काँध से नाम० ] १. उठाना । सिर परलेना । सँभालना । उ०— (क) प्रीति पहाड भार जो काँधा । कित तेहि छूट लाइ जिय बाँधा । — जायसी (शब्द) । (ख) उठा बाँध जस सब गढ बाँधा । कीजै बेगि भार जस काँधा । — जायसी (शब्द) । १. ठानना । मचाना । उ० — (क) सुभुज मारीच खर त्रिसिर दूषन बालि दलत जेहि दूसरो सर न साँधो । आनि पर बाम, बिधि बाम तेहि राम सों सकत संग्राम दसकंध काँधो । तुलसी (शब्द०) । (ख) भूषन भनत सिवराज तब किर्ति सम और की न किर्ति कहिबे को काँधियतु है । — भूषण (शब्द०) । ३. स्वीकार करना । अंगीकार करना । उ० — (क) जो पहिले मन मान न काँधे । परखे रतन गाँठि तब बाँधे । — जायसी (शब्द०) । (ख) तिनहिं जीति रन आनेसु बाँधी । उठि सुत पितु अनुसासन काँधी । — तुलसी (शब्द०) । ४.भार सहना । अँगेजना । सहना । उ० — बिरह पीर को नैन ये सकैं नहीं पल काँध । मीत आइके तूँ इन्हैं रूप पीठि दै बाँध । — रतनहजारा (शब्द०) ।

काँधर पु
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण० प्रा० कण्ह ] कान्ह । कृष्ण । उ० — कहि सुंदर भीतर जाइ जो देखों तो खोज नहीं कहुँ काँधर को । — सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) ।

काँधा (१)†
संज्ञा पुं० [सं० स्मन्ध, प्रा० कंध, ] दे० ' कंधा' ।

काँधा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण, प्रा ०कह्व, पु कान्ह] दे० ' कान्हा' ।

काँधी
संज्ञा स्त्रि ० [हिं० काँधा ] कंधा । मुहा० — काँधी दैना = इधर उधर करके बात टालना । टाल मटूल करना । काँधी मारना = घोडे़ का अपनी गर्दन को किसी ओर को झटके के साथ फेरना जिससे सवार का आसन हिल जाय ।

काँन (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह, पु कान्ह] दे० 'कान्ह' । उ० — अलक लोक बज्जत विषम गन गंध्रव्व विमांन । सुरपति मति भूल्यो रहसि रास रचित व्रज काँन । — पृ० रा०, २ ।३४१ ।

काँन (२)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण, प्रा० कष्ण] दे० 'कान' । उ०— 'बैजू' बनवारी बंसी अधर धरि बृंदावन चंद, बस किए सुनतहि काँनन । —पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १५१ ।

काँन्ह पु
संज्ञा पु० [सं० कर्ण, प्रा० कप्ण, हि० कान] दे० 'कान' । उ० —प्रहिरो वस्त्र जादर सार काँन्हें कुँडल आडो़या । बी० रासो, पृ २२ ।

काँप
संज्ञा स्त्रि० [सं० कम्पा] १. बाँस या किसी और चीज की पतली लचीली तीली जो झुकाने से झुक जाय । २.पतंग या कनकौवे की वह पतली तीली जो धनुष की तरह झुकाकर लगाई जाती है । ३. सुअर का खाँग । ४. हाथी की दाँत । ५. कान में पहनने का सोने का गहना । विशेष — यह पते के आकार का होता और पहनने पर हीला करता है । स्त्रियाँ इसे पाँच पाँचया सात सात करके कान की बाली में पहनती हैं । यह जडा़ऊ भी होता है । ६. करनफूल । ७. कलई का चूना ।

काँपना
क्रि० स० [सं० कम्पन] १. हिलना । थरथराना । उ०— खन खन जोहि चीर सिर गहा । काँपत बीजु दुहूँ दिसि रहा । — जायसी (शब्द०) । २. डर से काँपना । थर्राना । उ० — डोलइ गगन इँदर डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँहा । — जायसी (शब्द०) । ३. डरना । भयभीत होना । संयो० क्रि० — उठना । — जाना ।

काँपा पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कंपा या काँप ] लासा जिससे चिडि़या फँसती है । उ० — काम क्रोध को काँपा खायो भयो अधीन सबन को ।— चरण० बानी, पृ०११८ ।

काँपा पु (२).
संज्ञा पुं० [से० कम्प ] कंप । कंपन । उ० — गदगद कपन कहति भई ऐसै । काँपा जुत सुर पिकगन जैसे । — नंद० ग्रं, पृ० ३२० ।

काँमनी पु
संज्ञा स्त्री०[सं० कामिनी ] दे० 'कामिनी' । उ०— ब्राह्मण उचरइ वेद पुराण मंगल गावइ काँमनी । —बी० रासो० पृ० १३ ।

काँमडगारौ पु
संज्ञा पुं० [सं० कार्मण (वशीकरण) + कार, गुज० कामण + प्रा० गार (प्रत्य०)] जादूगर । —काँमडगारौ नंद जी रौ प्यारौ मधुरी बौन बनावै छै । — घनानंद, पृ०४४७

काँमण
संज्ञा स्त्री० [सं० कामिनी ] दे० 'कामिनी' । उ० — देश सुहामण जल सजल मीठा बोला लोइ । मारू काँमण भुइँ दखिण, जइ हरि दियइ त होइ । — ढोला०, दू० ४८५ ।

काँमरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कामरी ] दे० 'कामरी' ।उ— मैया मेरी काँमरि चोरि लई । — पोद्दार अभि० ग्रं, पृ० १६९

काँय काँय
संज्ञा पुं० [अनु०] कौवे का शब्द ।

काँव काँव
संज्ञा पुं० [अनु०] कौवे का शब्द ।

काँवर
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँध + आवर (प्रत्य०) अथवा सं० स्मन्धभार ] १. बांस का एक मोटा कट्टा जिसके दोनों छोरों पर वस्तु लादने के लिये छिंके लगे रहते हैं और जिससे कंधे पर रखकर कहार आदि चलते हैं । बहँगी । मुहा० — काँवर बहना = (१) भार या उतरदायित्व का निर्वाह करना । (२) बोझा ढोना । २. एक डंडे को छोर पर बँधी हुई बाँस की टोकरीयाँ जिसमें यात्री गंगाजल ले जाते हैं ।

काँवरथी
संज्ञा पुं० [हिं० काँवारथी ] दे० 'कांवारथी' ।

काँवरा
वि० [पं० कमला = पागल ] व्याकुल । घवराया हुआ । भौचक्का । हक्का बक्का । जैसे — उन लोगों ने चारों ओर से घेरकर मुझे कांवरा कर दिया । क्रि० प्र०— करना । — होना ।

काँवरि †
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँवर ] दे० 'काँवर' । उ० — (क) श्रवन श्रवन करि ररि मुई माता काँवरि लागि । तुम बिनु पानि न पावइ दशरथ लावै आगि । — जायसी (शब्द०) । (ख) सहस शकट भरि कमल चलाए । अपनी समसरि और गोप जो तिनको साथ पठाए । और बहुत काँवरि माखन दधि अहिरन काँधै जोरी । बहुत बिनती मोरी कहिये और धरे जलजामल तोरी ।— सुर (शब्द०) । (ग) कोटिन काँवरि चले कहारा । विविध वस्तु को बरनइ पारा । — तुलसी (शब्द०) ।

काँवरिया
संज्ञा पुं० [हिं० काँवरि ] काँवरि लेकर चलनेवाला मनुष्य । काँवाँरथी ।

काँवरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँवर ] दे० 'काँवरि' ।

काँवरू (१)
संज्ञा पुं० [सं० कामरुप, प्रा० कामरूअ] कामरूप देश । उ० — तू काँवरू परा बस लोना । भूला जोग छरा जनु टोना । जायसी ग्रं०(गुप्त), पृ० ३७० ।

काँवरू † (२)
संज्ञा पुं० [सं० कमल ] कमल रोग ।

काँवाँरथी
संज्ञा पुं० [सं० कामार्थी] वह जो किसी तीर्थ में किसी कामना से काँवर लेकर जाय ।

काँस
संज्ञा पुं० [सं० काश] एक प्रकार की लंबी घास जो परती अथवा ऊँजी और ढलुई जमीन सें होती है । उ० फूले काँस सकल महि छाई । जनु वर्षा ऋतु प्रगट बुढाई । — तुलसी (शब्द०) । (ख) आए कनागत फूले काँस । ब्राम्हन कूदै नौ नौ बाँस (शब्द०) । विशेष— इसकी पतियाँ दो दो ढाई ढाई हाथ लंबी और शर से भी पतली होती हैं । काँस पुरसा भर तक बढ़ता है और बर्षा के अंत में फलता है । फूल जीरे में सफेंद रूई की तरह लगते हैं । काँस रस्सियाँ बटने और टोकरे आदि बनाने के काम में आता है । इसकी एक पहाड़ी जाति बनकस या बगई कहलाती है जिसकी रस्सियाँ ज्यादा मजबूत होती है और जिससे कागज भी बनता है । विशेष—कोई कोई इस शब्द को स्त्रीलिंग में भी बोलते हैं । मुहा०—काँस में तैरना= असमंजन में पड़ना । दुबिधा में पड़ना । काँस में फँसना = संकट में पड़ना ।

काँसा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कांस्य०] [वि० काँसी] एक मिश्रित धातु जो ताँबे और जस्ते के संयोग से बनती है । कसकुट । भरत ।— उ०—काँसे ऊपर बीजुरी, परै अचानक आय । ताते निर्भय ठीकरा, सतगुरु दिया बताय ।—कबीर (शब्द०) । विशेष—इसके बरतन और गहने आदि बनते हैं । यौ०—कँसभरा = काँसे का गहना बनाने और बेचनेवाला ।

काँसा (२)
संज्ञा पुं० [फा० कासा] १. भीख माँगने का ठीकरा या खप्पर । २. प्याला ।

काँसागर
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा+ फा़० गर (प्रत्य०)] काँसे का काम करनेवाला ।

कांसार
संज्ञा पुं० [सं० कांस्यकार] काँसे का बरतन बनानेवाला । कसेरा ।

काँसी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० काश] धान के पौधे का एक रोग । क्रि० प्र०—लगना ।

काँसी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कांस्य] काँसा ।

काँसी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० कनिष्ठा या कनीयसी] सबसे छोटी स्त्री । कनिष्ठा ।

काँसुला
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा] काँसे का चौकार टुकड़ा जिसमें चारों ओर गोल गोल खडढ़े या गड्ढ़े बने होते हैं । कँसुला । विशेष—इसपर सुनार चाँदी सोने आदि के पत्तर रखकर गोल करते हैं और कंठा, घुंडी आदि बनाते हैं ।

का (१)
प्रत्य० [सं० क, जैसे—वासुदेवक, स्थानिक अथवा सं०, कृते, प्रा० केर, केरक, अप० पु † अप० कर, भोज० क, कर आदि अथवा सं० * कक्षे या कक्ष, प्रा० कच्छ, कक्ख, अप०, कहु, कह आदि] संबंध था षष्ठी का चिह्यन; जैसे,—राम का घोड़ा । उसका घर । विशेष—इस प्रत्यय का प्रयोग दो शब्दों के बीच अधिकारी अधिकृत (जैसे,—राम की पुस्तक), अधार आधेय (जैसे,—ईख का रस, घर की कोठरी), अंगांगी (जैसे,—हाथ की उँगली), कार्य कारण (जैसे,—मिट्टी का घड़ा), कर्तृ कर्म (जैसे,— बिहारी की सतसई) आदि अनेक भावों को प्रकट करने के लिये होता है । इसके अतिरिक्त सादृश्य (जैसे,—कमल के समान), योग्यता (जैसे, —यह भी किसी से कहने की बात है ?) समस्तता (जैसे,—गाँ के गाँव बह गए) आदि दिखाने के लिये भी लइसका व्यवहार होता है । तद्धित प्रत्यय 'वाला' के अर्थ में भी षष्ठी विभक्ति आती है, जैसे, वह नहीं आने का । षष्ठी विभक्ति का प्रयोग द्वितीया (कर्म) और तृतीया (करण) के स्थान पर भी कहीं कहीं होता है, जैसे, रोटी का खाना, बंदुक की लड़ाई । विभक्तियुक्त शब्द के साथजिस दूसरे शब्द का संबंध होता है, यदि वह स्त्रीलिंग होता है तो 'का' के स्थान पर 'की' प्रत्यय आता है ।

का (२) †
सर्व० [सं० क?, या किम् या किमिति] १. क्या । उ०—का क्षति लाभ जीर्ण धनु तोरे—तुलसी (शब्द०) । २. ब्रज भाषा में कौन का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने के पहले प्राप्त होता है; जैसे,—काको, कासों । उ०—कहो कौशिक, छोटो सो ढोटो है काको ?—तुलसी (शब्द०) ।

का (३)पु †
संज्ञा पुं० [हिं० काका का सक्षिप्त रूप] दे० 'काका' । उ०—पंच राइ पंचाल, लिन्न बैराट बद्धवर । जैतसिंह भोंहा भुआल का कन्ह नाह नर ।—पृ० रा०, २१ । ५५ ।

काअथ पु
संज्ञा पुं० [सं० कायस्थ] 'कायथ' । उ०—बहुल ब्राह्मण बहुल काअथ राजपुत्त कुल बहुल बहुल ।—कीर्ती०, पृ० ३२ ।

काअर पु
वि० [सं० कातर] दे० 'कायर' । उ०—सरण पइट्ठे जीअना तीनू काअर काज ।—कीर्ति०, पृ० २० ।

काइ (१) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० काया] दे० 'काया' । उ०—सप्त बितस्ति काइ कौं करयो । रहत बहुरि कहाँ धौं परयौ ।—अंद ग्रं०, पृ० २७० ।

काइ (२) पु
क्रि० वि० [सं० क इति या किमिति, हिं०] 'क्यौ' । उ०— दादू मंझि कलूव मैला, तोड़े बीयान काइ डें—दादू०, पृ० ५४४ ।

काइथ पु †
संज्ञा पुं० [सं० कायस्थ] दे० 'कायथ' । उ०—बुल्लि सुजान करेय दिवानह । काइथ सब लायक बुधवानह ।—प० रासो, पृ० २० ।

काइम पु
वि० [अ० का़यम] दे० 'कायम' । उ०—(क) दिखाइ दीदार मौज बंदे कौ काइम करौ मिहाल ।—दादू०, पृ० ५९७ । (ख) मरदूद तुझे मरना सही । काइम अकल करके कही ।—संत तुंरसी०, पृ० ४१ ।

काइर पु
वि० [सं० कातर, प्रा० कायर] दे० 'कायर' । उ०— इसौ आगमं भौ सुबावन्न बीरं । कपे काइरं धीर रष्यौ सुधीरं ।—पृ० रा०, ६ । १५२ ।

काइयाँ
वि० [हिं० काँइयाँ] दे० 'काइयाँ' ।

काई
संज्ञा स्त्री० [सं० कावार] १. जल या सीड़ में होनेवाली एक प्रकार की महीन घास या सूक्ष्म बनस्पतिजाल । विशेष—काई भिन्न आकारों और भिन्न भिन्न रंगों की होती है । चट्टान या मिट्टी पर जो कोई जमती है, वह महीन सूत के रूप में और गहरे या हलके रंग की होती है । पानी के ऊपर जो काई फैलती है, वह हल्के रंग की होती है और उसमें गोल गोल बारीक पत्तियाँ होती हैं तथा फूल भी लगते हैं । एक काई लंबी जठा के रूप में होती है, जिसे सेवार कहते हैं । क्रि० प्र०—जमना ।—लगना । मुहा०—कोई छुड़ाना = (१) मैल दूर करना । (२) दु?ख दरिद्रय दूर करना । कोई या फट जाना = तितर बितर हो जाना । छँट जाना । जैसे,—बादलों का, भीड़ का इत्यादि । २. एक प्रकार का हरा मुर्चा जो ताँबे, पीतल इत्यादि के बरतनों पर जम जाता है । ३. मल । मैल । उ०—जब दर्पन लागी काई । तब दरस कहाँ ते पाई ।—(शब्द०) ।

काउरु पु०
संज्ञा पुं० [हिं० काँवर] दे० 'काँवर'—२ । उ०— काउरु का पाँणी पुनिर गिर पईसै ।—गोरख० पृ० १३५ ।

काऊ (१)
क्रि० वि० [सं० कुह, या *कुध अथवा सं० कदाषि, प्रा० कदावि कआवि> कआड़, फाऊ] कभी । उ०—हिय तेहि निकट जाय नहिं काऊ ।—तुलसी (शब्द०) ।

काऊ (२)
सर्व० [सं० किमपि या कोपि] १. कोई । २. कुछ ।—उ० (क) पथ श्रम लेश कलेश न काऊ ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) गुन अवगुन प्रभु मान न काऊ ।—तुलसी (शब्द०) ।

काऊ † (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह छोटी खूँटी जो बरही के सिरे पर जोते हुए खेत को बराबर करनेवाले पाटे या हेंगे में लगी रहती हैं । कानी ।

काए पु †
वि० [हिं० का] दे० 'किस' । उ०—कै दुखु री तोई मात पिता कौ, कै तेरे मा जाए बीर, काए दुख डूबि जैऐ ।— पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१६ ।

काएथ्थ पु
संज्ञा पुं० [सं० कायस्थ] दे० 'कायस्थ' । उ०—तबहु न चुविक्य एककओ शिरिं केशव काएथ्थ ।—कीर्ति०, पृ० ७० ।

काएनात
संज्ञा स्त्री० [अ० काइनात] सृष्टि । संसार । दुनिया । उ०— जिससे है कायम यह कुल काएनात ।—कबीर मं०, पृ० ४६ ।

काकंदि
संज्ञा स्त्री० [सं० काकन्दि] एक देश का प्राचीन नाम । आजकल इसे कोकंद कहते हैं । तृर्किस्तान में कोकंद नाम का नगर जो समरकंद सं पुरब है ।

काक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [सं० काकी] १. कौआ । २. लँगड़ा व्यक्ति (को०) । ३. एक प्रकार का तिलक (को०) । ४. एक माप (को०) । ५. एक द्वीप (को०) । ६. कौओं की भाँति पानी में केवल सिर डुबाकर स्नान करना (को०) । ७. धूर्त व्यक्ति (को०) । ८. ढीठ या घृष्ट व्यक्ति (को०) ।

काक (२)
संज्ञा पुं० [अं० कार्क] एक प्रकार की नर्म लकड़ी जिसकी डाट बोतलों में लगाई जाती है । काग ।

काक पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० काका] दे० 'काक' । उ०—पुनि कन्ह काक गोइंद राइ । परिपुर्न क्रोध जे लगत लाइ ।—पृ० रा०, १४ ।४० ।

काककंगु
संज्ञा पुं० [सं० काककङ्ग] चेना । कँगनी । काकुन ।

काककला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चतुर्दश ताल का एक भेद । २. काकजंघा नाम की ओषधि ।

काकगोलक
संज्ञा पुं० [सं०] कौए की आँख की पुतली । उ०— उनकौ हितु उनहीं बनै कोऊ करौ अनेकु । फिरतु काकुगोलक भयौ दुहूँ देह ज्यौं एकु ।—बिहारी (शब्द०) । विशेष—प्रसिद्ध है कि कौए की आँखे तो दो होती हैं, पर पुतली एक ही होती है और वह जब जिस आँख से देखना चहुता है, तब वह पुतली उसी आँख में चली जाती है ।

काकचंचकु पु
संज्ञा स्त्री० [सं० काकचिञ्चा] दे० 'काकचिंचा' । उ०— काकचचकु कृस्नला गृंजा करत प्रनाम ।—अनेकार्थ०, पृ० २८ ।

काकचिंचा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० काकचिञ्चा] गुंजा । घुँघची [को०] ।

काकचेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौए के समान सावधान या चैकान्ना रहना [को०] ।

काकच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] १. काकपक्ष । २. खंजन [को०] ।

काकजंघा
संज्ञा स्त्री० [सं० काकजङ्घ] १. चकसेनी । मसी । विशेष—इसका पौधा तीन चार हाथ तक ऊँचा जाता है । इसके डंठल में चार—पाँच अंगुल पर फूली हुई गाँठें होती हैं । गाँठों पर डंठल कुछ टेढ़ा रहता है जिससे वह चिड़िया की टाँग की तरह दिखाई देता है । प्रत्येक पुरानी मोटी गाँठ के भीतर एक छोटा कीड़ा होता है जो बच्चों की पसली फड़कने में दवा की तरह दिया जाता है । इसकी पत्तियाँ इंच डेंढ़ इंच लंबी होती हैं । वेद्यक में काकजंघा कफ, पित्त, खुजली, कृमि और फौड़े फुंसी को दूर करनेवाली मानी जाती है । २. गुंजा । घुँघची । ३. मुगौन या मुगवन नाम की लता ।

काकजंबु
संज्ञा पुं० [सं० काकजम्बु] दे० 'काकफला' [को०] ।

काकजात
संज्ञा पुं० [सं०] कोकिल कोयल [को०] ।

काकड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्कट, प्रा० कक्कड़] एक बड़ा पेड़ जो सुलेमान पहाड़ तथा हिमालय पर कुमाऊँ आदि स्थानों में होता है । विशेष—जाड़े में इसके पत्ते झड़ जाते हैं । इसकी कड़ी लकड़ी पीलापन लिए हुए भूरे रंग की होती है और कुरसी, मेज, पलंग आदि बनाने के काम में आती है । इसपर खुदाई का काम भी अच्छा होता है । पत्ते चौपायों को खिलाए जाते हैं । इसमें सींग के आकार के पोले बाँदे लगते हैं जिन्हें 'काकड़ासींगी' कहते हैं ।

काकड़ा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का हिरन जिसे साँभर या साबर भी कहते हैं ।

काकड़ासींगी
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्कटश्रृङ्गी] हिमालय के उत्तर पश्चिम भाग में काँकड़ा नामक पेड़ में लगा हुआ एक प्रकार का टेढ़ा पोला बाँदा जिसका प्रयोग औषधौ में होता है । विशेष—यह रँगने और चमड़ा सिझाने के काम में भी आता है । लोहे के चूर के साथ मिलकर यह काला नीला रंग पकड़ना है । वैद्यक में इसे गरम और भारी मानते हैं । खाने में इसका स्वाद कसैला होता है । वात, कफ, श्वास, खाँसी, ज्वर, अतिसार और अरुचि आदि रोंगों में इसे देते हैं । अरकोल या लाखर नामक वृक्ष का बाँदा भी काकड़ासींगी नाम से बिकता हैं ।

काकण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कोढ़ । विशेष—इस रोग में त्रिदोष के कारण रोगी के शरीर में गुँजा के समान लाल रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं जिनमें बीच बीच में काले चिह्यन भी होते हैं । ये चकत्ते पकते तो नहीं, पर इनमें पीड़ा और खुजली बहुत अधिक होती है ।

काकणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घुँघची ।

काकतालीय
वि० [सं०] संयोगवश होनेवाला । इत्तफाकिया । विशेष—यह वाक्य इस घटना के अनुसार है कि किसी ताड़ के पेड़ पर एक कौआ ज्यों ही आकर बैठा त्यों ही उसका एक पका फल लद से नीचे टपक पड़ा । यद्यपि कौए ने फल को नहीं गिराया, तथापि देखनेवालों को यह धारणा होना संभव है कि कौए ने ही फल गिराया ।

यौ०—काकतालीय न्याय ।

काकतालीय न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'काकतालीय' ।

काकतिक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकजंघा । घुँघची [को०] ।

काकतुंड
संज्ञा पुं० [सं० काकतुण्ड] काला अगर ।

काकतुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० काकतुण्डी] कौआठोंठी ।

काकदंत
संज्ञा पुं० [सं० काकदन्त] काई असंभव बात । विशेष—कौए को दाँत नहीं होते, इससे शशशृंग, वंध्यापुत्र आदि शब्दों की तरह काकदंत भी असंभववाचक है । यौ०—काकदंतगवेषण=(१) असंभव की खोज ।(२) व्यर्थ चेष्टा या श्रम ।

काकध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] बड़वानल । बाड़वाग्नि ।

काकपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] बालों के पट्टे जो दोनों ओर कानों और कनपटियों के ऊपर रहते हैं । कुल्ला । जुल्फ । विशेष—इस प्रकार के बाल रखनेवाले माथे के ऊपर के बाल मुँड़ा़ डालते हैं और दोनों ओर बड़े बड़े पट्टे छोड़ देते हैं जो कौए के पंख के समान लगते हैं ।

काकपक्ष पु
संज्ञा पुं० [सं० कापपक्ष] दे० 'काकपच्छ' । काकपच्छ सिर सोहत नीके । गुच्छा बिच बिच कुसुम कली के ।—तुलसी (शब्द०) ।

काकपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह चिह्न जो छूटे हुए शब्द के स्थान को जताने के लिये पंक्ति के नीचे बनाया जाता है और वह छूटा हुआ शब्द ऊपर लिख दिया जाता है । २. हीरे का एक दोष । छपहलू या अठपहलू हीरे में यदि यह दोष हो तो पहननेवाले के लिये हानिकारक समझा जाता है । ३. कौए के पैर का परिमाण । स्मृति में यह एक शिखा का परिमाण माना गया है । ४. चर्मच्छेदन । ५. रतिविषयक एक आसन या बंध (को०) ।

काकपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोयल । उ०—लगे सोम कर तोम सर भई हिए बर धाइ । कूक काकपाली दई आली लाइ लगाइ ।—राम० धर्म०, पृ० २७३ ।

काकपीलु
संज्ञा पुं० [सं०] कुचला ।

काकपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] कोयल ।

काकपुष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] कोयल ।

काकपेय
वि० [सं०] छिछला [को०] । यौ०—काकपेया नदी = छिछली नदी ।

काकफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीम का पेड़ । २. नीम का फल ।

काकफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का जामुन । बनजामुन ।

काकबंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० काकबन्ध्या] वह स्त्री जिसे एक संतति के उपरांत दूसरी संतति न हुई हो । एक बाँझ ।

काकबलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्राद्ध के समय भोजन का वह भाग जो कौओं को दिया जाता है । कागौर ।

काकभीरू
संज्ञा पुं० [सं०] उलूक । उल्लू ।

काकभुशुँडि
संज्ञा पुं० [सं० काकभुशुण्डि] एक ब्राह्मण जो लोमश के शाप से कौआ हो गए थे और राम के बड़े भक्त थे । कहते है कि इनकी बनाई भुशुंडि रामायण भी है ।

काकमदगु
संज्ञा पुं० [सं०] दात्यूह नामक पक्षी [को०] ।

काकमर्द, काकमर्दक
संज्ञा पुं० [सं०] लौकी [को०] ।

काकमाचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मकोय [को०] ।

काकमाची, काकमाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मकोय ।

काकमारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ककमारी' ।

काकयव
संज्ञा पुं० [सं०] छुछा पौधा । ऐसा पौधा जिसकी बाल में दाना न हो [को०] ।

काकरव
संज्ञा पुं० [सं०] डरपोक व्यक्ति । असाहसी मनुष्य । वह व्यक्ति जो जरा सी बात से डर जाय और कौए की तरह काँव काँव मचाने लगे ।

काकरासंगी †
संज्ञा स्त्री० [सं० काकड़ासींगी] दे० 'काकड़ासींगी' ।

काकरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्कटी, हिं० ककड़ी] ककड़ी । उ०— काकरी के चोर को काटरी मारियतु है ।—पद्माकर (शब्द०) ।

काकरुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उल्लू । २. जोरू का गुलाम । स्त्रीभक्त । ३. धोखा । वंचना (को०) ।

काकरुक (२)
वि० १. कायर । डरपोक । २. निर्धन । ३. नग्न [को०] ।

काकरुकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उल्लू की मादा [को०] ।

काकरूक
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे० 'काकरुक' [को०] ।

काकरूकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] 'काकरुकी' [को०] ।

काकरूत
संज्ञा पुं० [सं०] कौए की कर्कश बोली [को०] ।

काकरूहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा जो पेड़ों के सहारे जीता है [को०] ।

काकरेज
संज्ञा पुं० [फा़० काकरेज] बैगनी रंग । काले और लाल रंग के मेल से बनाया हुआ रंग । ऊदा रंग ।

काकरेजा
संज्ञा पुं० [फा़० काकरेज + हिं० आ (प्रत्य०)] १. काकरेजी रंग का कपड़ा ।२. काकरेजी रंग ।

काकरेजी (१)
संज्ञा पुं० [फा़० काकरेजी] एक रंग जो लाल और काले के मेल से बनता है । कोकची । विशेष—कपड़े को आल के रंग में रँगकर फिर लोहार की स्याही में रँगते हैं ।

काकरेजी (२)
वि० काकरेजी रंग का ।

काकलंब पु
वि० [सं० काक + लभ्य] कौए का प्राप्य या ग्राह्य (आहार) । उ०—भष जोइ सिंध जंबक हरै । काकलंब पप्पील गहि ।—पृ० रा०, २६ । १० ।

काकल
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० काकली] १. गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घंटी । टेंटुवा । १. काला कौआ । ३. कंठ की मणि । गले की मणि (को०) ।

काकलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वरनलिका या स्वरयंत्र का सिरा । २. गले की मणि । ३. एक धान का नाम [को०] ।

काकलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'काकली' [को०] ।

काकली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मधुर ध्वनि । कलनाद । उ०—पिय बिनु कोकिल काकिली भली अली दुख देत'—शृं०, सत० (शब्द०) । २. सेंध लगाने की सबरी । ३. साठी धान । ४. संगीत में वह स्थान जहाँ सूक्ष्म और स्फुट लगते हैं ५. घुँघची । गुंजा । ६. कैंची (को०) । ७. हलकी ध्वनि का वाद्य जिसको चोरी करते समय चोर यह जानने के लिये बजाते हैं कि लोग सोए हैं या नहीं (को०) । यौ०—काकलीद्राक्षा ।

काकली (२)
वि० [सं० काकलिन्] जिसे काकली या घंटी हो ।

काकलीक
संज्ञा पुं० [सं०] मंद मधुर स्वर [को०] ।

काकलीद्राक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा अंगूर । विशेष—इसमें बीज नहीं होते और इसे सुखाकर किशमिश बनाते हैं । २. किशमिश ।

काकली निषाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक विकृत स्वर । विशेष—यह कुमुद्वती नामक श्रुति से आरंभ होता है और इसमें चार श्रुतियाँ होती हैं ।

काकलीरव
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० काकलीरवा] कोयल ।

काकशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त का पेड़ या फूल । वकपुष्प । हथिया ।

काकसेन
संज्ञा पुं० [अं० काकस्वेन] वह पुरुष जो किसी अफसर की मातहती में रहकर जहाज और मजदूरों की निगरानी करता हो ।—(लश०) ।

काकंगा, काकांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० काकाङ्गा, काकाङ्गी] काकजंघा । मसी [को०] ।

काकांची
संज्ञा स्त्री० [सं० काकाञ्ची] काकजंघा [को०] ।

काका (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काकजंघा । मसी । २. काकोली । ३. घुँघची । ४. कठूमर । कठगूलर । ५. मकोय ।

काका (२)
संज्ञा पुं० [फा०] [स्त्री० काकी] १. बाप का भाई । चाचा । २. चमारों के नाच में करिंगे का वह साथी जिससे वह व्यंग्य और हास्यपूर्ण सवाल जवाब करता है । इस काका को फोकली काका भी कहते हैं । उ०—काका उसका है साथी नट, गदके उसपर जमा पटापट, उसे टोकता गोली खाकर, आँख जायगी क्य़ो बे नटखट? भुन न जायगा भुनगे सा झट? ।—ग्राम्या, पृ० ४५ ।

काकाकौआ
संज्ञा पुं० [हिं० काका + कौआ] दे० 'काकातुआ' ।

काकक्षिगोलक न्याय
संज्ञा पु० [सं०] एक शब्द या वाक्य को उलट फेरकर दो भिन्न भिन्न अर्थों में लगाना । विशेष—लोगों का विश्वास है कि कौए को एक ही आँख होती है जिसे वह इच्छानुसार दाहिने या बाएँ गोलक में लाकर अपना काम चलाता है । इसीलिये संस्कृत में कौए को एकाक्ष भी कहते हैं । जिस तरह एक आँख को कौआ कभी दाहिनी और कभी बाई ओर ले जाता है, उसी तरह किसी शब्द या वाक्य का यथेच्छ सीधा उलटा अर्थ करने को काकक्षिगोलक न्याय कहते हैं ।

काकतुआ
संज्ञा पुं० [मला०] एक प्रकार का बड़ा तोता जो प्रायः सफेद रंग का होता है ।विशेष—इसके सिर पर टेढ़ी चोटी होती है । इस चोटी को यह ऊपर नीचे हिला सकता है । इसका शब्द बड़ा कर्कश होता है और सुनने में 'क क तु अ' की तरह मालूम होता है । यह पक्षी जावा, बोर्नियो आदि पूर्वी द्वीपसमूह के टापुओं में होता हैं ।

काकतूआ
संज्ञा पुं० [हिं० काकातुआ] दे० 'काकतुआ' । उ०— काकतूआ महर गृह के द्वार का भी दुखी था । भूला जाता सकल स्वर था उन्मता हो रहा था ।—प्रिय० पृ० ५१ ।

काकादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कौआठोठी । २. सफेद घुँघची ।

काकायु
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण वल्ली [को०] ।

काकार
वि० [सं०] जल छिड़कने या फैलानेवाला [को०] ।

काकारि
संज्ञा पुं० [सं०] उल्लू [को०] ।

काकाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'काकल' [को०] ।

काकाष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] पर्यंक । खाट [को०] ।

काकिणि, काकिणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'काकिणी' [को०] ।

काकिणिक
वि० [सं०] दे० 'काकिणीक' [को०] ।

काकिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घुँघची । गुंजा । २. पणा का चतुर्थ भाग जो पाँच गंडे कौड़ियों का होता है । ३. माशे का चौथाई भाग । ४. कौड़ी ।

काकाणीक
वि० [सं०] काकिनीवाला । अल्पतम धनवाला [को०] ।

काकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'काकिणी' । उ०—साधन फल स्त्रुति सार नाम तव भवसरिता कहँ बेरो । सोइ पर कर काकिनी लाग सठ बेचि होत हठ चेरो ।—तुलसी (शब्द०) ।

काकिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंठहार । कंठमणि । २. गरदन का ऊपरी भाग [को०] ।

काकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौए की मादा ।

काकी (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० काका] चाची । चची ।

काकु
संज्ञा पुं० [सं०] १. छिपी हुई चुटीली बात । व्यंग । तनज । ताना । उ०—(क) राम बिरह दशरथ दुखित कहत केकयी काकु । कुसमय जाय उपाय सब केवल कर्मविपाकु ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) —बिनु समझे निज अघपरिपाकू । जारिउ जाय जननि कहि काकू ।—तुलसी (शब्द०) । २. अलंकार में वक्रोक्ति के दो भेदों में से एक जिसमें शब्दों के अन्यार्थ या अनेकार्थ से नहीं बल्कि ध्वनि ही से दूसरा अभिप्राय ग्रहण किया जाय । जैसे, —क्या वह इतने पर भी न आवेगा? अर्थात् आवेगा । उ०—आलिकुल कोकिल कलित यह ललित वसंत बहार । कहु सखि नहिं ऐ हैं कहा प्यारे अबहुँ अगार (शब्द०) । ३. अस्पष्ट कथन (को०) । ४. जिह्वा (को०) । ५. जोर देना । बल देना (को०) ।

काकुत्स्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. ककुत्स्थ राजा के वंश में उत्पन्न पुरुष । २. रामचंद्र ।

काकुद
संज्ञा पुं० [सं०] तालु [को०] ।

काकुन †
संज्ञा पुं० [सं० कङ्गनी] दे० 'कँगनी' ।

काकुम
संज्ञा पुं० [तु० काकुम] तातार देश के ठंढे भागों में होनेवाला एक प्रकार का नेवला । विशेष—इसका चमड़ा बहुत सफेद मुलायम और गरम होता है । अमीर लोग इस चमड़े की पोस्तीन बनवाकर पहनते हैं ।

काकुल
संज्ञा पुं० [फा०] कनपटी पर लटकते हुए लंबे बाल । कुल्ले । जुल्फें । उ०—दामे काकुल का तेरे कोई गिरफ्तार नहीं, पेंच हम पर ए पड़ा ।—श्यामा० पृ० १०२ । मुहा०—काकुल छोड़ना = बालों की लट गिराना या बिखराना । काकुल झाड़ना = बालों में कंघी करना ।

काकेची
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०] ।

काकोचिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०] ।

काकोदर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० काकोदरी] १. साँप । उ०— दादुर काकोदर दसन परै मसन मति ध्याउ ।—दीन०, ग्रं०, पृ० २०९ । २. अघासुर नाम का राक्षस जिसका वध कृष्ण ने किया था । उ०—हरि तन चितय कहत काकोदर । याके उदर दोउ मेरे सोदर ।—नंद ग्रं०, पृ० २६० ।

काकोल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक विष का नाम । २. काला कौआ (को०) । ३. सर्प (को०) । ४. शूकर (को०) । ५. कुम्हार (को०) । ६. एक नरक (को०) । ७. एक बहुमूल्य वस्तु या पदार्थ (को०) ।

काकोली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक ओषधि । विशेष—यह एक प्रकार की जड़ या कंद है जो सतावर की तरह होती है, पर आजकल मिलती नहीं । इसका एक भेद क्षीरका- कोली भी है । वैद्यक में यह वीर्यवर्धक और क्षीरवर्द्धक मानी गई है । पर्या०—शीतपाकी । पपस्या । क्षीरा । बीरा । घीरा । शुल्का । मेदुरा । जीवंती । पयस्विनी ।

काकोलूकिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौआ और उल्लू के जैसी सहज शत्रुता [को०] ।

काकोलूकीय
संज्ञा पुं० [सं०] १. काक और उलूक का सहज वैर । २. पंचतंत्र का तीसरा तंत्र [को०] । यौ०—काकोलूकीय तंत्र = पंच तंत्र का तीसरा तंत्र । काकलूकीय न्याय = वह न्याय जहाँ कौआ और उल्लू की सहज शत्रुता की स्थिति हो ।

काक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. तिरछी नजर । कटाक्ष । २. कोप दृष्टि । ३. कुदृष्टि [को०] ।

काक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का सुगंधित पदार्थ । २. एक प्रकार की सुगंधित मिट्टी [को०] ।

काख पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँख] दे० 'काँख' । उ०—पट अरु जठर बीच तौ बेनु । काख, बेत, लपटे रेनु ।—नँद० ग्रं०, पृ० २६४ ।