शुंग
संज्ञा पुं० [सं० शुङ्ग] १. वट वृक्ष। २. आँवला। ३. पाकड़। पकड़ी। ४. नव पल्लव। ५. फूल के नीचे का आधार या कटोरी। ६. एक राजवंश जो मौर्यों के पीछे मगध के सिंहासन पर बैठा था। विशेष—इस वश का स्थापक मौर्यो का सेनापति पुष्यमित्र था जिसने मौर्यवंश के अंतिम राजा बृहद्रथ को मारकर ईसा से १८५. वर्ष पूर्व उसके साम्राज्य पर अपना अधिकार जमा लिया था। विशेष दे० 'पुष्यमिञ' शब्द। ७. जौ या अन्न का टूँड़। किशारु। शूक (को०)।

शुंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० शुङ्गा] १. पर्कटी का पेड़। २. कली का रक्षक आवरण। ३. गेहूँ जो आदि का टूँड़। शूल [को०]। यौ०—शुंगाकर्म = पुसवन नाम का एक संस्कार विशेष।

शुंगी
संज्ञा पुं० [सं० शुङिगन्] १. पक्कड़ का पेड़। पाकर। २. वट वृक्ष।

शुंठि, शुंठी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्ठि, शुण्ठी] सोंठ।

शुंठय
संज्ञा पुं० [सं० शुण्ठय] सूखी आदी। सोंठ [को०]।

शुंड
संज्ञा पुं० [सं० शुण्ड] १. हाथी की सूँड़। २. हाथी का मद जो उसकी कनपटी से बहता है।

शुंडक
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डक] १. एक प्रकार का रणवाद्य। भेरी। २. युद्धगान। युद्धगीत (को०)। ३. मद्य उतारने या बेचनेवाला।

शुंडमूषिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्डभूषिका] छछुंदर [को०]।

शुंडरोह
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डरोह] अगिया घास। भूतृण।

शुंडा
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डा] १. सूँड़। २. मद्यपान करने का स्थान। हौली। ३. शराब। ४. वेश्या। ५. कुटनी। ६. कमलनाल। नलिनी। कमल की डंडी (को०)। ७. चिबुक। हनु (को०)। यौ०—शुंडादंड। शुंडापान।

शुंडादंड
संज्ञा पुं० [सं० शूद्रादण्ड] हाथी की सूँड़।

शुंडापान
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डापान] मधुशाला। मद्यपानगृह [को०]।

शुंडार
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डार] १. हाथी की सूँड़। २. साठ वर्ष का हाथी। ३. मद्य उतारने या बेचनेवाला।

शुंडाल
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डाल] हाथी।

शुंडिक
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डिक] १. मद्य बिकने का स्थान। कलवरिया। २. एक प्राचीन जाति का नाम जिसका व्यवसाय मद्य उतारना और बेचना था।

शुंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्डिका] १. अलिजिह्वा। गले का कौवा। घाँटी। २. ग्रंथि में आनेवाली सूजन। ३. दे० 'शुंडा' [को०]।

शुंडिमूषिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शुण्डिमूषिका] छछूँदर।

शुंडी (१)
संज्ञा पुं० [सं० शुण्डिन्] १. (सूँड़वाला) हाथी। २. मद्य बनानेवाला। कलवार। यौ०—शुंडिमूषिका।

शुंडी (२)
संज्ञा स्त्री० १. हाथीसूँड़ी़ का पौधा। २. गले का कौवा। घाँटी।

शुंध्यु (१)
संज्ञा पुं० [सं० शुन्ध्यु] १. वायु। २. अग्नि। ३. एक पक्षी। ४. आदित्य [को०]।

शुंध्यु (२)
संज्ञा स्त्री० बडवा। घोड़ी [को०]।

शुंध्यु (३)
वि० पवित्र। विमल। शुचि [को०]।

शुंभ
संज्ञा पुं० [सं० शु्म्भ] एक असुर जिसे दुर्गा ने मारा था। विशेष—अग्निपुराण के अनुसार यह प्रह्लाद का पौत्र और गवेष्ठी का पुत्र था। इसके भाई का नामनिशुंभथा। वामनपुराण में इसे कश्यप की दनु नामक भार्या से उत्पन्न कहा गया है। यौ०—शुंभघातिनी। शुंभपुर। शुंभपुरी। शुंभमथनी। शुंभमर्दिनी। शुंभहननी = दुर्गा।

शुंभघातिनी, शुंभमर्दिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुम्भघातिनी, शुम्भमर्दिनी] दुर्गा।

शुंभपुर
संज्ञा पुं० [सं० शुम्भपुर]दे० 'शुंभपुरी'।

शुंभपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुम्भपुरी] शुंभ राक्षस की पुरी। एकचक्रा पुरी। हरिगृह। विशेष—विद्वानों का अनुमान है कि मध्य प्रदेश में गोंड़वाना के अंतर्गत सभलपुर ही प्राचीन शुंभपुरी है।

शुंशुमार
संज्ञा पुं० [सं०] शिशुमार का आसाधु रूप। सूँस [को०]।

शु
क्रि० वि० [सं०] शीघ्रतापूर्वक। त्वरित। जल्दी [को०]।

शुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तोता। सुग्गा। २. एक प्रकार की गठिवन। ३. सिरिस का पेड़। ४. सोना पाठा। ५. लोध का वृक्ष। ६. तालीशपत्र। ७. भरभंडा। भरभाँड़। ८. रावण के एक दूत का नाम। ९. व्यासदेव के पुत्र। विशेष दे० 'शुकदेव'। १०. वस्त्र। कपड़ा। ११. कपड़े का आँचल। १२. शिरस्त्राण। खोद (को०)। १३. पंगड़ी। साफा। १४. महाभारत के अनुसार एक पौराणिक अस्त्र (को०)। १५. एक वीर योद्धा (को०)। १६. गंधर्वो का एक राजा।

शुककर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा।

शुककीट
संज्ञा पुं० [सं०] हरे रंग का एक फतिंगा जो खेतों में दिखाई पड़ता है।

शुककूट
संज्ञा पुं० [सं०] दो खंभों के बीच में शोभा के लिये लटकाई हुई माला।

शुकच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] १. तोते का पर। २. ग्रंथिपर्ण। गठिवन। ३. तेजपत्ता।

शुकजिह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुकतुंडी। सुआठोंठी नामक पौधा।

शुकतरु
संज्ञा पुं० [सं०] शिरीष वृक्ष।

शुकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शुकत्व' [को०]।

शुकतुंड
संज्ञा पुं० [सं० शुकतुण्ड] १. तोते की चोंच। २. हाथ की एक मुद्रा जो तांत्रिक पूजन में बनाई जाती है।

शुकतुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुकतुण्डी] शुकजिह्वा या सूआठोंठी नामक पौधा।

शुकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शुक होने का भाव। शुग्गापन। शुकता [को०]।

शुकदेव
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णद्वैपायन व्यास के पुत्र जो पुराणों के भारी वक्ता और ज्ञानी थे। विशेष—इन्होंने राजा परीक्षित को उनके मरने के पहले मोक्ष धर्म का उपदेश दिया था। कहा जाता है, वही उपदेश भागवत पुराण है।

शुकद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] शिरीष वृक्ष।

शुकनलिका न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] तोता जिस प्रकार फँसाने की नली (नलनी) में लोभ के कारण फँस जाता है, वैसे ही फँसने की रीति। विशेष—सूर, तुलसी आदि हिंदी के कवियों ने भी 'नलनी के सुअटा' पद का व्यवहार किया है।

शुकनामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुकजिह्वा या सूआठोंठी नामक पौधा।

शुकनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] चकवँड़। चक्रमर्द।

शुकनास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपिकच्छु। केवाँच। कौंछ। २. शुकजिह्वा। सुआठोंठी। ३. गंभारी। ४. नलिका। ५. श्योनाक वृक्ष। छोंकर। ६. सोनापाठा। ७. अगस्त का पेड़। ८. वास्तुशास्त्र के अनुसार गृह की सजावट (को०)। ९. कादंबरी में वर्णित तारापीड का एक अमात्य (को०)।

शुकनास (२)
वि० जिसकी नाक सुग्गे के समान झुकी हुई हो [को०]।

शुकनासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शुकनास'।

शुकनासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुक की तरह झुकी हुई नासिका [को०]।

शुकपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] गंधक।

शुकपुच्छक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की गठिवन। थुनेर।

शुकपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. थुनेर। २. सिरिस का पेड़। ३. गंधक। ४. अगस्त का पेड़।

शुकपोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का विषरहित वा अहानिकर सर्प [को०]।

शुकप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिरिस का पेड़। २. कमरख।

शुकप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नीम। २. जामुन।

शुकफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आक। मदार। २. सेमर।

शुकबर्ह
संज्ञा पुं० [सं०] गठिवन।

शुकरान
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जिसके फल कडुए होते हैं।

शुकराना
संज्ञा पुं० [अ० शुक्र] १. शुक्रिया। कृतज्ञता। २. वह धन जो कार्य हो जाने के पश्चात् धन्यवाद के रूप में किसी को दिया जाय। जैसे,—वकीलों का शुकराना, जमीदारों का शुकराना इन्यादि।

शुकलोचन
वि० [सं० शुक(= तोता) + लोचन(= चश्म)] तोताचश्म। तोते के समान आँख फेर लेनेवाला। बेमुरौवत। (व्यंग्य में)। उ०—ए निर्दयी क्या तुझे दया का नम भी भूल गया जो ऐसे शुकलोचन से पाला डाला। प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५।

शुकवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] अनार। दाड़िम।

शुकवाक्
वि० [सं० शुकवाच्] जिसकी बोली सुग्गे की तरह मीठी हो [को०]।

शुकवाह, शुकवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव, जिसका वाहन शुक या तोता माना गया है।

शुकशालक
संज्ञा पुं० [सं०] बकायन।

शुकशिंबा, शुकशिंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुकशिम्बा, शुकशिम्बि] कपिकच्छु। किवाँच।

शुकशीर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. थुनेर। स्थौणेयक। २. तालीस। तेजपत्ता।

शुकसप्तति
संज्ञा स्त्री० [सं०] इस नाम की एक पुस्तिका जिसमें शुक ने ७० कहानियाँ कही हैं।

शुकाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुकजिह्वा नामक पौधा।

शुकादान
संज्ञा पुं० [सं०] अनार।

शुकानना
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुकाख्या नामक पौधा।

शुकायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुद्ध। २. अर्हत।

शुकाह्व, शुकाह्वय
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की मोथा।

शुकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मादा तोता। सुग्गी। २. कश्यप की पत्नी का नाम।

शुकेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] शिरोष वृक्ष। सिरिस।

शुकोदर
संज्ञा पुं० [सं०] तालीश वृक्ष।

शुकोह
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] रोबदाब। शान शौकत। यौ०—शुकोहे अलफाज = शब्दाडंबर। उत्कलिका।

शुक्त (१)
वि० [सं०] १. सड़ाकर खट्ठा किया हुआ। खमीर उठाया हुआ। २. खट्टा। अम्ल। ३. कड़ा। कठोर। ४. अप्रिय। नापसंद। ५. निर्जन। सुनसान। उजाड़। ६. श्लिष्ट। मिला हुआ। ७. पूत। शुद्ध। स्वच्छ। साफ (को०)।

शुक्त (२)
संज्ञा पुं० १. अम्लता। खटाई। २. वसिष्ठ के एक पुत्र का नाम। ३. सड़ाकर खट्टी की हुई कोई वस्तु। ४. काँजी। ५. सिरका। ६. चुक। ७. मांस। ८. कठोर वचन।

शुक्तक
संज्ञा पुं० [सं०] खट्टी डकार [को०]।

शुक्तपाक
संज्ञा पुं० [सं०] आमाशय या पक्वाशय का खट्टापन [को०]।

शुक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] चुक्रिका का पौधा। चुका। २. काँजी।

शुक्ताम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] चुक्रिका शाक। चुक का साग।

शुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीप। सीपी। २. ताल की सीपी। सुतुही। ३. शंख। ४. दो कर्ष या चार तोले की एक तौल। ५. बेर। ६. नखी नामक गंधद्रव्य। ७. अर्श। बवासीर। ८. आँख का एक रोग जिसमें सफेद डेले के ऊपर मांस की एक बिंदी सी निकल आती है। ९. कपाल जो काली या कापालिकों के हाथ में रहता है। १०. हड्डी। ११. घोड़े का गरदन अथवा छाती की एक भौंरी। १२. छोटा शंख। शंखनख (को०)। यौ०—शुक्तिकर्ण = जिसके कान सीपी के समान हों। शुक्ति- खलति = पूर्णतः खल्वाट। पूरी तरह गंजा। शुक्तिचूर्णक। शुक्तिपेशी = दे० 'शुक्तिपुट'। शुक्तिबीज। शुक्तिवधू।

शुक्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का नेत्ररोग। २. गंधक।

शुक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीप। सीपी। २. चुक्रिका शाक। चुक नाम का साग। ३. आँख का शुक्ति नामक रोग।

शुक्तिचूर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार एक प्रकार का घटिया किस्म का रत्न जो देखने में सीपी की खोल जैसा होता है।

शुक्तिज
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्ता। मोती।

शुक्तिपत्र, शुक्तिपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] छतिवन। सप्तपर्ण वृक्ष।

शुक्तिपुट
संज्ञा पुं० [सं०] सीपी का खोल [को०]।

शुक्तिबीज, शुक्तिमणि
संज्ञा पुं० [सं०] मोती।

शुक्तिमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक नदी का नाम। २. चेदि की राजधानी।

शुक्तिमान्
संज्ञा पुं० [सं० शुक्तितमत्] एक पर्वत जो आठ कुलपर्वतों में से है।

शुक्तिवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीप। सीपी।

शुक्तिस्पर्श
संज्ञा पुं० [सं०] मोती पर पड़ा हुआ मटमैला धब्बा [को०]।

शुक्त्यंगी
संज्ञा पुं० [सं० शुक्त्यड्गिन्] संभालू। सिंदुवार। मेउड़ी।

शुक्त्युद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] मोती [को०]।

शुक्र (१)
वि० [सं०] १. देदीप्यमान। चमकीला। २. स्वच्छ। उज्वल।

शुक्र (२)
संज्ञा पुं० १. अग्नि। २. एक बहुत चमकोला ग्रह या तारा जो पुराणनुसार दैत्यों का गुरु कहा गया है। विशेष—आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार इसका व्यास ७०० मील है। यह पृथ्वी से सबसे अधिक निकट है; एक करोड़ कोस से कुछ ही अधिक दूर है। सूर्य से इसकी दूरी तीन करोड़ पैतीस लाख कोस है। इसका पक्ष-भ्रमण-काल २२५ दिनों का है अर्थात् इसका एक दिन रात हमारे २२५ दिनों के बराबर होता है। बुध के समान यह ग्रह भी प्रधान युति के पीछे पश्चिम में निकलता है और पूर्व की ओर बढ़ता हुआ लघु युति के समय लुप्त हो जाता है। इसमें वायु और जल दोनों का होना अनुमान किया गया है। इसका पृष्ठ बादलों से ढका रहता है। फलित ज्योतिष में इसका वर्ण जल के समान श्यामल कहा गया है और यह धान्य का स्वामी, जलभूमिचारी और स्निग्ध रुचिवाला माना गया है। पुराणों में शुक्र दैत्यों के गुरु और भृगु के पुत्र कहे गए हैं। ऐसी कथा है कि दैत्यराज बलि जब वामन को पृथ्वी दान करने लगे,तब वे उन्हें रोकने के विचार से उस जलपात्र की टोंटी में जा बैठे जिसमें संकल्प करने का जल था। उस समय सींक से गोदने पर इनकी एक आँख फूट गई। इसी कारण काने आदमी को लोग हँसी में शुक्राचार्च कह दिया करते हैं। विशेष दे० 'शुक्राचार्य'। पर्या०—दैत्यगुरु। काव्य। उशना। भार्गव। कवि। सित। भृगु। षोड़शार्चि। श्वेतरथ। ३. ज्येष्ठ मास। जेठ (यह कुवेर का भंडारी कहा गया है)। ४. स्वच्छ और शुद्ध सोम। ५. चित्रक वृक्ष। चीता। ६. सार। रस। सत। ७. नर जीवों के शरीर की वह धातु जिसमें माता के अंड को गर्भित करनेवाली घटक या अणु रहते हैं। वीर्य। मनी। ८. बल। सामर्थ्य। पौरुष। शक्ति। ९. सप्ताह का छठा दिन जो बृहस्पतिवार के बाद और शनिवार से पहले पड़ता है। १० आँख की पुतली का एक रोग। फूला। फूली। ११. एरंड वृक्ष। अंडी का पेड़। रेंड़। १२. स्वर्ण। सोना। १३. धन। दौलत। संपत्ति। १४. जल (को०)। १५. चमकीला- पन (को०)। १६. गायत्री मंत्र में आनेवाली प्रथम तीन (भूः भुवः स्वः) व्याहृतियाँ (को०)। १७. वशिष्ठ के एक पुत्र का नाम (को०)। १८. तीसरे मनु के एक पुत्र का नाम (को०)। १९. सत्कार्य। सत्कर्म (को०)।

शुक्र (३)
संज्ञा पुं० [अ०] धन्यवाद। कृतज्ञता प्रकाश। जैसे,—खुदा का शुक्र है।

शुक्रकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मज्जा, जिससे शु्क्र या वीर्य का बनना कहा गया है।

शुक्रकर (२)
वि० वीर्य को बढ़ानेवाला [को०]।

शुक्रकृच्छ्
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रकृच्छ् रोग। सूजाक।

शुक्रगुजार
वि० [अ० शुक्र + फ़ा० गुजार] एहसान माननेवाला। धन्यवाद देनेवाला। आभारी। कृतज्ञ।

शुक्रगुजारी
संज्ञा स्त्री० [अ०] एहसानमंदी। किए हुए उपकार को मानना। कृतज्ञता।

शुक्रज
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुत्र। बेटा। २. देवताओं का एक भेद (जैन)।

शुक्रद
संज्ञा पुं० [सं०] गेहूँ। गोधूम।

शुक्रदोष
संज्ञा पुं० [सं०] क्लीवत्व। नपुंसकता।

शुक्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. कटसरैया। २. सफेद अपराजिता।

शुक्रप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] धातुक्षोणता। धातु का गिरना जो एक रोग है।

शुक्रभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] मयूर। मोर।

शुक्रभू
संज्ञा पुं० [सं०] मज्जा।

शुक्रमाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बभनेटी। भारंगी।

शुक्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शुक्रप्रमेह'।

शुक्रल
वि० [सं०] १. जिसमें शुक्र या वीर्य हो। २. वीर्य उत्पन्न करनेवाला।

शुक्रला
संज्ञा स्त्री० [सं०] उटंगन के बीज। उच्वटा। ओकड़ा।

शुक्रवर्ण
वि० [सं०] उज्वल। चमकीला। दीप्तियुक्त (को०)।

शुक्रवार, शुक्रवासर
संज्ञा पुं० [सं०] सप्ताह का छठा दिन जो जो बृहस्पतिवार के बाद और शनिवार के पहले पड़ता है।

शुक्रशिष्य
संज्ञा पुं० [सं०] दैत्य। असुर।

शुक्रस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० शुक्रस्तम्भ] ध्वजभंग या नपुंसकता का एक भेद जो बहुत दिनों तक ब्रह्मचर्य पालन करने से होता है।

शुक्रांग
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्राङ्ग। मयूर। मोर।

शुक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० बंसलोचन] बंसलोचन।

शुक्राचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि जो दैत्यों के गुरु और महर्षि भृगु के पुत्र थे। विशेष—इनकी कन्या का नाम देवयानी था और पुत्रों का नाम षंड तथा अमर्क था। देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच ने इनसे संजीवनी विद्या सीखी थी। दे०। 'शुक्र (२)'।

शुक्राना
संज्ञा पुं० [फा़० शुक्रानह्] दे० 'शुकराना'।

शुक्राश्मरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्मरी रोग का एक भेद। वह पथरी जो वीर्य को स्खलित होते समय रोकने से उत्पन्न होती है।

शुक्रिय
वि० [सं०] १. शुक्र संबंधी। शुक्र का। २. शुक्र को बढ़ानेवाला। शुक्रल। ३. जिसमें शुद्ध रस हो।

शुक्रिया
संज्ञा पुं० [फ़ा० शुक्रियह्] धन्यवाद। कृतज्ञता प्रकाश। क्रि० प्र०—अदा करना।

शुक्ल (१)
वि० [सं०] १. सफेद। उजला। धवल। श्वेत। स्वच्छ। २. निष्कलंक। बेदाग (को०)। ३. सात्विक (को०)। ४. यशस्कर (को०)। ५. तेजोमय। प्रकाशदीप्त (को०)।

शुक्ल (२)
संज्ञा पुं० १. ब्राह्मणों की एक पदवी। २. शुक्ल पक्ष। ३. सफेद रेंड़ का वृक्ष। ४. आँखों का एक प्रकार का रोग जो उसके सफेद तल या डेले पर होता है। ५. कुंद नामक पुष्पवृक्ष। ६. सफेद लोध। ७. नवनीत। मक्खन। ८. चाँदी। रजत। ९. धव वृक्ष। धौ। १०. एक योग। ११. विष्णु का एक नाम। १२. श्वेत रंग (को०)। १३. शिव (को०)। १४. कपिल मुनि का नाम (को०)। १५. खट्टी कांजी। १६. उज्वलता (को०)। १७. सफेद धब्बा (को०)। १८. वैशाख मास (को०)। १९. एक संवत्सर (को०)। २०. बलभद्र। बलराम (को०)।

शुक्लकंठ, सुक्लकंठक
संज्ञा पुं० [सं० शुक्लकण्ठ, शुक्लकण्ठक] मुर्गा। जलकाक।

शुक्लकंद
संज्ञा पुं० [सं० शुल्ककन्द] १. भैसाकंद। २. शंखालू। ३. अतीस।

शुक्लकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० शुक्लकन्दा] १. सफेद अतीस। २. बिदारी कंद।

शुक्लक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुक्ल पक्ष। २. श्वेत वर्ण (को०)। ३. खिरनी का वृक्ष।

शुक्लकर्कट
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद रंग का केकड़ा।

शुक्लकर्मा
वि० [सं० शुक्लकर्मन] सात्विक कर्मोंवाला। सुकर्मा [को०]।

शुक्लकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] वह कोढ़ जिसमें शरीर पर सफेद चकत्ते प़ड़ जाती हैं।

शुक्लक्षीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकोली।

शुक्लक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पवित्र स्थान। तीर्थस्थान।

शुक्लचीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काकोली। २. वह जो श्वेत दुग्ध- युक्त ही [को०]।

शुक्लजीव
संज्ञा पुं० [सं०] वज्री नामक पौधा [को०]।

शुक्लता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुक्ल का भाव या धर्म। २. सफेदी। श्वेतता।

शुक्लतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम जिसे विष्णु- तीर्थ भी कहते हैं।

शुक्लत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुल्क का भाव या धर्म। शुक्लता। २. सफेदी। श्वेतता।

शुक्लदुग्ध
संज्ञा पुं० [सं०] सिंघाड़ा।

शुक्लदेह
वि० [सं०] १. शुद्ध शरीरवाला। २. शरीर की तरह जिसका मन भी शुद्ध हो [को०]।

शुक्लधातु
संज्ञा पुं० [सं०] खरिया नाम की मिट्टी।

शुक्लध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] योग। उ०—जैन शास्त्रों में शुक्ल ध्यान या योग के भी चार भेद हैं।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २३४।

शुक्ल पक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अमावस्या के उपरांत प्रतिपदा से लेकर पूर्णमा तक का पक्ष, जिसमें चंद्रमा की काल प्रतिदिन बढ़ती जाती है जिससे रात उजेली होती है। चांद्रमास में कृष्ण पक्ष से भिन्न दूसरा पक्ष।

शुक्लपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षत्रक वृक्ष। २. कुंद नामक फूल का पौधा। ३. मरुआ। सफेद तालमखाना। ५. पिंडार। ६. मैनफल।

शुक्लपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथीशुंडी नामक क्षुप। २. शीत- कुंभी। शीतली लता। ३. कुंद।

शुक्लपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागदंती। २. कुंद नामक फूल का पौधा।

शुक्लपृष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] मेंउड़ी। सँभालू। सिंधुआर।

शुक्लफल
संज्ञा पुं० [सं०] मदार। आक।

शुक्लफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शमी। छीकुर। २. अर्क। मदार।

शुक्लफेन
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रफेन।

शुक्लबल
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार एक जिन देव का नाम।

शुक्लमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुक्लमञ्जरी] सफेद निर्गुंडी।

शुक्लमंडल
संज्ञा पुं० [सं० शुक्लमण्डल] आँखों का सफेद भाग जो पुतली से भिन्न होता है।

शुक्लमेह
संज्ञा पुं० [सं०] चरक के अनुसार एक प्रकार का प्रमेह रोग।

शुक्ल रोहित
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वेत रोहितक का वृक्ष। २. श्वेत रोहित या रोहू नाम की मछली [को०]।

शुक्लल
वि० [सं०] श्वेत। शुभ्र [को०]।

शुक्लला
संज्ञा स्त्री० [सं०] उच्चटा। शुक्रला [को०]।

शुक्लवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] उच्चटा वस्तुओं का समूह। वैद्यक में श्वेत वस्तुओं का वर्ग। जैसे, शंख, शुक्ति, कौड़ी आदि [को०]।

शुक्लवस्त्र
वि० [सं०] स्वच्छ वस्त्रधारी। श्वेत वस्त्रवाला [को०]।

शुक्लवायस
संज्ञा पुं० [सं०] वक। बगुला।

शुक्लवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] धौ या धव का वृक्ष।

शु्क्लवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जीवनयापन की शुद्ध पद्धति या विद्या। २. वह वृत्ति या आजीविका जो ब्राह्मण को ब्राह्मण द्वारा प्राप्त हो [को०]।

शुक्लशाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरिनिंब। २. सफेद शाल का वृक्ष।

शुक्लांग
संज्ञा पुं० [सं० शुक्लाङ्ग] चोबचीनी।

शुक्लांगा
संज्ञा स्त्री० [सं० शुक्लाङ्ग] निर्गुंडी। शेफालिका।

शुक्लांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुक्लाङ्गी] निर्गुंडी। शेफालिका।

शुक्ला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरस्वती। २. शर्करा। शक्कर। चीनी। ३. काकोली। ४. बिदारी। ५. शूकरकंद। ६. श्वेत वर्ण की या श्वेत मुखरागवाली स्त्री (को०)। ७. निर्गुडी। शेफालिका।

शु्क्लाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी।

शुक्लाचार
वि० [सं०] जिसका आचार व्यवहार शुद्ध हो [को०]।

शुक्लापांग
संज्ञा पुं० [सं० शुक्लापाङ्ग] मयूर पक्षी। मोर।

शुक्लाम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] चूका या चुक्रिका नामक साग।

शुक्लायन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शुक्लार्क
संज्ञा पुं० [सं० शुक्लार्मन्] आँखों का एक प्रकार का रोग। विशेष—इसमें आँखों के सफेद भाग में एक प्रकार का सफेद मस्सा हो जाता है जो धीरी धीरे बढ़ता रहता है।

शुक्लाहिफेन
संज्ञा पुं० [सं०] पोस्ते का पेड़।

शुक्लोदन
संज्ञा पुं० [सं०] ललितविस्तर के अनुसार महाराजा शुद्धो- दन के भाई का नाम।

शुक्लोपला
संज्ञा स्त्री० [सं०] चीनी। शर्करा।

शुक्लौदन
संज्ञा पुं० [सं०] अरवा चावल। भुजिया का उलटा।

शुक्षि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. तेज। ३. अग्नि (को०)। ४. चित्र। तसवीर।

शुगुन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] शकुन। सगुन [को०]।

शुचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शोक। दुःख। रंज। २. दे० 'शुचि'।

शुचि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। आग। २. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ३. ग्रीष्म ऋतु। गरमी। ४. ज्येष्ठ मास। ५. आषाढ़मास। ६. चंद्रमा। ७. शु्क्र। ८. ब्राह्मण। ९. श्वेत वर्ण। सुफेद रंग (को०)। १०. शुद्ध बुद्धिवाला मंत्री या सलाहकार (को०)। ११. सूर्य की ऊष्मा। सौराग्नि (को०)। १२. भागवत के अनुसार अंधक के एक पुत्र का नाम। १३. कार्तिकेय। १४. शृंगार रस जिसका वर्ण श्वेत कहा गया है (को०)। १५. अर्क का वृक्ष। मदार (को०)। १६. निष्कपट मित्र या सखा (को०)। १७. अन्नप्राशन के समय होनेवाला हवन (को०)। १८. वह जो सद्वृत्तिवाला हो। सदाचारी व्यक्ति (को०)। १९. आकाश। व्योम। नभ (को०)।

शुचि (२)
संज्ञा स्त्री० १. पवित्रता। सफाई। स्वच्छता। शुद्धता। २. पुराणानुसार कश्यप की पत्नी ताम्रा के गर्भ से उत्पन्न एक कन्या का नाम।

शुचि (३)
वि० १. शुद्ध। पवित्र। २. स्वच्छ। साफ। ३. निरपराध। निर्दोष। ४. दीप्तिमान्। चमकीला (को०)। ५. उज्वल। धवल (को०)। ६. जिसका अंतःकरण शुद्ध हो। स्वच्छ हृदयवाला।

शुचिकर्मा
वि० [सं० शुचिकर्मन्] पवित्र कार्य करनेवाला। सदाचारी। कर्मनिष्ठ।

शुचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार एक अप्सरा का नाम।

शुचिकापुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] केवड़ा। केतकी।

शुचित
वि० [सं०] विषण्ण। संतप्त। दुःखित। अवसन्न [को०]।

शुचितम
वि० [सं०] अतिशय पवित्र। उ०—बिखर चुकी थी अंबर तल में, सौरभ की शुचितम सुख धूल।—झरना, पृ० १४।

शुचिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूचि का भाव या धर्म। उ०—मैं शुचिता सरल समृद्धि।—अपरा, पृ० ७०।

शुचिद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] पीपल। अश्वत्थ वृक्ष।

शुचिप्रणी
संज्ञा पुं० [सं०] आंचमन।

शुचिमणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्फटिक मणि। २. शिरोमणि। वह मणि जो सिर पर धारण की जाय [को०]।

शुचिमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नेवारी। नवमल्लिका।

शुचिरोचि
संज्ञा पुं० [सं० शुचिरोचिस्] चंद्रमा।

शुचिवाच्
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।

शुचिवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन प्रवरकार ऋषि का नाम।

शुचिव्रत
वि० [सं०] जिसका सकल्प या कार्य शुद्ध हो। पुण्यात्मा [को०]।

शुचिश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० शुचिश्रवस्] विष्णु का एक नाम।

शुर्चिष्मान् (१)
वि० [सं० शुचिष्मत्] चमकीला। द्युतिमान्।

शुचिष्मान् (२)
संज्ञा पुं० अग्नि [को०]।

शुचिस्
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकाश। ज्योति। दीप्ति [को०]।

शुचिस्मित
वि० [सं०] [वि० स्त्री० शुचिस्मिता] जिसकी हँसी प्रसन्न और निश्छल हो [को०]।

शुची
वि० [सं० शुचिन्] १. शुद्ध। पवित्र। २. स्वच्छ। साफ।

शुचीरता
संज्ञा स्त्री०, पुं० [सं०] वीर्य।

शुचीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] वीर्य। शुक्र।

शुजा
वि० [अ० शुजाअ] बहादुर। शूरवीर। दिलेर।

शुजाअत
संज्ञा स्त्री० [अ०] वीरता। बहादुरी। शूरता। दिलेरी।

शुजात पु
संज्ञा स्त्री० [अ० शुजाअत] दे० 'सुजाअत'। उ०— देखे माँ जिनों की हैं मरियम शुजात। औ बीबियाँ में बीबी अहै पाकजात।—दक्खिनी०, पृ० ३५०।

शुटीर
संज्ञा पुं० [सं०] वीर व्यक्ति। योद्धा [को०]।

शुटीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्र। वीर्य।

शुठि पु
अव्य० [हिं०] दे० 'सुठि'। उ०—पहुप वाटिका प्रेम सोहा- वन। वहु शोभा सुंदर शुठि पावन।—कबीर सा०, पृ० ३९८।

शुतर
संज्ञा पुं० [फ़ा० शुतुर] दे० 'शुतुर'। उ०—था उसके ऊपर लिबास मोटा, बालाँ से शुतर के ऐ।—दक्खिनी, पृ० २२८।

शुतरी
वि० [फ़ा०] ऊँट का सा या भूरा। उ०—आज शाल के बदले वह शुतरी रंग का ओवरकोट पहने थी।—पिंजरे०, पृ० १४।

शुतुद्रि, शुतुद्रु
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतद्रु नदी। सतलज।

शुतुर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] ऊँट [को०]। यौ०—शुतुरगाव। शुतुरदिल=डरपोक। बुजदिल। शुतुरनाल= एक प्रकार की तोप जो ऊँट पर लादी जाती थी। शुतुरमुर्ग। शुतुर सवार=साँड़नी सवार। ऊँटनी का सवार।

शुतुरगाव
संज्ञा पुं० [फ़ा] जिराफा नामक जंतु। विशेष दे० 'जिराफा'।

शुतुरमुर्ग
संज्ञा पुं० [फ़ा०] अमेरिका, अफ़िका और अरब के रेगि- स्तान में होनेवाला एक प्रकार का बहुत बड़ा पक्षी। विशेष—यह प्रायः तीन गज तक ऊँचा होता है। इसकी गरदन ऊँट की तरह बहुत लबी होती है। यह उड़ तो नहीं सकता, पर रेगिस्तान में घोड़े से भी अधिक तेज दौड़ सकता है। यह घास और अनाज खाता है। कभी कभी कंकड़ पत्थर भी खा जाता है। इसके पर बहुत दाम पर बिकते हैं। यह एक बार में तीस से कम अंडे नहीं देता।

शुतुर्मुर्ग
संज्ञा पुं० [फ़ा शुतुरमुर्ग] दे० 'शुतुरर्मुर्ग'।

शुद (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'सुदी'।

शुद (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० सुध या सुधि] दे० 'सुध'। उ०—अबस जग के धंधे में तू शुद गँवाया। नहीं काम आण्गा अपना पराया।—दक्खिनी०, पृ० २५४।

शुदनी
संज्ञा स्त्री० [फा०] वह बात जिसका होना पहले से ही किसी दैवी शक्ति से निश्चित हो। भावी। होनहार। नियति।

शुदा
वि० [फ़ा०] जो हो चुका हो। जैसे, शादीशुदा। (शब्दांत में प्रयुक्त)।

शुद्घ (१)
वि० [सं०] १. जिसमें किसी प्रकार की मैल या खोट आदि न हो। पवित्र। साफ। स्वच्छ।विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्रायः यौगिक बनाने में शब्दों के आरंभ में होता है। जैसे,—शुद्घबुद्धि, शुद्धमति। २. सफेद। उज्वल। ३. जिसमें किसी प्रकार की अशुद्धि न हो। जो गलत न हो। ठीक। सही। ४. दोषरहित। निर्दोष। बेऐब। ५. जिसमें किसी तरह की मिलावट न हो। खालिस। ६. निष्क- लंक। बेदाग (को०)। ७. ईमानदार (को०)। ८. चुकाया हुआ ऋण (को०)। ९. केवल। मात्र। १०. अद्वितीय (को०)। ११. अधिकृत (को०)। १२. अननुनासिक (को०)। १३. संपूर्ण। निरा। पूरा (को०)। १४. भोलाभाला। सीधा सादा (को०)। १५. जाँचा हुआ। परीक्षित (को०)। तीक्ष्ण। तेज किया हुआ (को०)।

शुद्ध (२)
संज्ञा पुं० १. सेंधा नमक। काली मिर्च। ३. चाँदी। रूपा। ४. गुंडा नाम की घास। ५. संगीत में राग के तीन भेदों में से एक भेद। वह राग जिसमें और किसी राग का मेल न हो जैसे,—भैरव, मेघ। ६. शिव का एक नाम। ७. चौदहवें मन्वंत के सप्तर्षियों में से एक। ८. शुद्घ वस्तु (को०)। ९. शुक्ल पक्ष। सुदी (को०)। १०. वह मकान जो किसी एक ही वस्तु से निर्मित हो और जिसमें नाममात्र के लिये लकड़ी, ईट, प्रस्तर का उपयोग किया हो (को०)।

शुद्धकर्मा
वि० [सं० शुद्धकर्मन्] जिसके कर्म शुद्ध हों। पवित्र आचार, विचार, व्यवहारवाला [को०]।

शुद्धकोटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह त्रिभुज जिसके कोण सम हों। सम- कोण त्रिभुज [को०]।

शुद्धचैतन्य
संज्ञा पु० [सं०] शुद्ध आत्मा या चेतना [को०]।

शुद्धजंघ
संज्ञा पुं० [सं० शुद्धजङ्घ] गर्दभ। गदहा।

शुद्धजड़
संज्ञा पुं० [सं० शुद्धजड] चौपाया। चतुष्पद [को०]।

शुद्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुद्ध होने का भाव या धर्म। पवित्रता। २. निर्दोषिता।

शुद्धत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शुद्ध होने का भाव या धर्म। शुद्धता। पवित्रता।

शुद्धदंत (१)
वि० [सं० शुद्धदन्त] श्वेत हाथीदाँत का बता हुआ। शुद्ध हाथीदाँत का। २. दे० 'शुद्धरत्' [को०]।

शुद्धदंत (२)
वि० [सं०] जिसके दाँत श्वेत हों [को०]।

शुद्धधी
वि० [सं०] पवित्र विचारोंवाला। सच्चा। ईमानदार [को०]।

शुद्ध निसाणी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुद्ध + हिं० निसाणी] एक प्रकार का डिंगल छंद जिसमें पहले तेरह मात्राएं और फिर दस मात्राएँ इस प्रकार २३ मात्राएँ प्रत्येक पद में होती है और तुकांत में दो गुरु होते हैं। उ०—कल तेरह फिर दशकला, दे मोहरे गुरु दोय। कली एक ते वीस कल, शुद्ध निसाणी सीय।— रघु० रू०, पृ० २६९ ।

शुद्धनेरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का नृत्य [को०]।

शुद्धपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अमावस्या के उपरांत की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक का पक्ष। शुक्ल पक्ष।

शुद्धपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षिण भारत के एक पवित्र तीर्थ का नाम।

शुद्धप्रतिभास
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक प्रकार की समाधि [को०]।

शुद्धबटुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का दुंदुभीवादक [को०]।

शुद्धबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शुद्धधी'।

शुद्धबोध
वि० [सं०] (वेदांत) विशुद्ध ज्ञान से युक्त [को०]।

शुद्धभाव
वि० [सं०] पवित्र विचारोंवाला [को०]।

शुद्धमति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० शुद्धधी [को०]।

शुद्धमांस
संज्ञा पु० [सं०] वैद्यक के अनुसार वह पकाया हुआ मांस जिसके साथ में हड्डी आदि न लगी हो।

शुद्धमुख
संज्ञा पुं० [सं०] भली भाँति सिखाया हुआ घोड़ा [को०]।

शुद्धवंश्य
वि० [सं०] [वि० स्त्री० शुद्धवंश्या] शुद्धवंश में उत्पन्न होनेवाला। पवित्र कुल का [को०]।

शुद्धवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गिलोय। गुड़ुच।

शु्द्धवासा
वि० [सं० शुद्धवासस] स्वच्छ वस्त्राभूषणादि धारण करनेवाला [को०]।

शुद्धविष्कंभक
संज्ञा पुं० [सं० शुद्धविष्कम्भक] विष्कंभक का एक भेद जिसमें केवल संस्कृत बोलनेवाले पात्र ही हों [को०]।

शुद्धव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार सेना का वह व्यूह जिसमें उरस्य में हाथी, मध्य में तेज धोड़ और पक्ष में व्याल (मतवाले हाथी) हों।

शुद्धशुक्र
संज्ञा पुं० [सं०] आँख की पुतली में होनेवाला एक दोष [को०]।

शुद्धहार
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह हार जिसमें एक शीर्षक मोती का हो।

शुद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० शुद्धान्त] १. अंतःपुर। रनिवास। जनानखाना। २. राजमहिषी। रानी (को०)। यौ०—शुद्धांतचर, शुद्धांतचारी, शुद्धांतरक्षक=दे० 'शुद्धांतपालक'।

शुद्धांतपालक
संज्ञा पुं० [सं० शुद्धान्तपालक] वह जो अंतःपुर के द्वार पर पहरा देता हो। गृहदौवारिक।

शुद्धांता
संज्ञा स्त्री० [सं० शुद्धान्ता] रानी। राज्ञी।

शुद्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रजव। कुटज बीज।

शुद्धाचार
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तम व्यवहार। उ०—रखती थी प्रेमार्द्र सभी को वह अपने व्यवहारों से। पशु पक्षी भी सुख पाते थे उसके शुद्धाचारों से।—शकुं० (आमुख)।

शुद्धात्मा
संज्ञा पुं० [सं० शुद्धात्मन्] १. शिव का एक नाम। २. वह जिसका हृदय पवित्र हो (को०)। ३. निखालिस या बिना मिली हुई शराब (को०)।

शुद्धानुमान
संज्ञा पुं० [सं०] अनुमान का एक भेद। केवलान्वयी। विशेष दे० 'अनुमान'।

शुद्धापह्नुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अलंकार जिसमें प्रकृत अर्थात् उपमेय को झूठ ठहराकर या उसका निषेध करके उपमान की सत्यता स्थापित की जाती है। अपह्नति। उ०—शुद्धा- पह्नुति झूँठ लहि, साँची बात दुराहि। नैन नहीं ये मीन युग, छबि सागर के आहि।—भानु (शब्द०)।

शुद्धाभ
वि० [सं०] पवित्र आभा से युक्त [को०]।

शुद्धाशय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० शुद्धाशया] जिसके विचारा शुद्ध हों। जिसका हृदय पवित्र है [को०]।

शुद्धाशुद्धीय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।

शुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुद्ध होने का कार्य। २. सफाई। स्वच्छता। ३. वैदिक धर्म के अनुसार वह कृत्य या संस्कार जो किसी अशुद्धया अशुच व्यक्ति के शुद्ध होने के समय होता है। जैसे—अशौच की समाप्ति पर शुद्ध होने के समय का कृत्य या किसी धर्मभ्रष्ट व्यक्ति के शुद्ध होकर पुनः अपने धर्म में आने के समय होनेवाला कुत्य या संस्कार। ४. दुर्गा का एक नाम। ५. दीप्ति। चमक। कांति (को०)। ६. पवित्रता। पुण्यशीलता (को०)। ७. ऋण आदि का परिशोधन (को०)। ८. प्रतिहिंसा। प्रतिशोध (को०)। ९. छुटकारा (को०)। १०. सचाई। यथार्थता (को०)। ११. समाधान। संशोधन (को०)। १२. व्यवकलन (को०)।

शुद्धिकंद
संज्ञा पुं० [सं० शुद्धिकन्द] लहसुन।

शुद्धिकर
वि० [सं०] शुद्ध करनेवाला। पवित्र करनेवाला [को०]।

शुद्धिकरण
वि० [सं० शुद्धि + करण] शुद्ध या पवित्र करनेवाला। उ०—पापों के शुद्धिकरण चारु, चरण धोए।—बेला, पृ० ४५।

शुद्धिकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] रजक। धोबी [को०]।

शुद्धिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह व्यवस्थापत्र जो प्रायश्र्चित्त के पीछे शुद्धि के प्रमाण में पंडितों की ओर से दिया जाता था। (शुक्रनीति) २. वह पत्र जिसमें छपने के समय पु्स्तक में रही हुई अशुद्धियाँ बतलाई गई हों। वह पत्र जिससे सूचित हो कि कहाँ क्या अशुद्धि है।

शुद्धिबोध
संज्ञा पुं० [सं० शुद्धि (=शुद्ध) + बोध] शुद्धि या पवित्रता का ज्ञान। उ०— शतशुद्धिबोध सुक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक।—अपरा, पृ० ४७।

शुद्धोद
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र। सागर।

शुद्धोदन
संज्ञा पुं० [सं०] एक सुप्रसिद्ध शाक्य राजा जो भगवान् बुद्धदेव के पिता थे और जिनकी राजधानी कपिलवस्तु में थी। विशेष—इस शब्द के साथ पुत्र या उसका वाचक कोई शब्द लगने से 'बुद्धदेव' अर्थ होता है।

शुद्धोदनि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।

शुनः
संज्ञा पुं० [सं०] शुनस् (=श्वान) शब्द का समासप्रयुक्त रूप।

शुनःपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. अजीगर्त का एक पु्त्र जो शुनःशेप का भाई था। २. कुत्ते की पूँछ [को०]।

शुनःशेप, शुनःशेफ
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक प्रसिद्ध ऋषि जो महर्षि ऋचीक के पुत्र थे। विशेष—रामायण के अनुसार ये महाराज अंबरीष के यज्ञ में बलि के लिये लाए गए थे। विश्र्वामित्र ने दयावश इनको अग्नि की स्तुति बतला दी थी। अग्निदेव इनकी स्तुति से इतने प्रसन्न हुए थे कि जब ये यज्ञकुंड में डाले गए, तब उसमें से अक्षत शरीर बाहर निकल आए। इसके उपरांत ये महर्षि विश्र्वामित्र के यहाँ उनके पुत्रतुल्य होकर रहने लगे। देवीभागवत आदि कुछ पुराणों में इनके संबंध में कई कथाएँ आई हैं। ऐतरेय ब्राह्मण (हरिश्चंद्रोपाख्यान) के अनुसार ये अजीगर्त के पुत्र थे और हरिश्र्चंद्र के यज्ञ में वरुणदेव की बलि के लिये लाए गए थे। २. कुत्ते का लिंग [को०]।

शुनःसख
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम जिनका उल्लेख महाभारत में है।

शुनःस्कर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शुन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ता। २. वायु। ३. सुख। आराम।

शुन पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० शुन्य] दे० 'शुन्य'। उ०—रामा हरिजन अगम गति रामनाम सब टेक। एकै माँहि अनेक है एक बिना शुन देक।—राम० धर्म०, पृ० २४१।

शुनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ता। कुक्कुर। श्र्वान। २. छोटा श्र्वान। कुत्ते का बच्चा। पिल्ला (को०)। ३. महाभारत के अनुसार एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

शुनकचंचुका
संज्ञा स्त्री० [सं० शुनकचञ्चुका] चेंच नाम का साग।

शुनकचिल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] बथुआ।

शुनकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुत्ते की मादा। कुतिया [को०]।

शुनहोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. भरद्वाज ऋषि के पुत्र का नाम जो ऋग्वेद के कई मंत्रों के द्रष्टा हैं।

शुनामुख
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय के उत्तर ओर के एक प्रदेश का प्राचीन नाम। अनुमान है कि यह नेपाल के उत्तर का प्रदेश है।

शुनाशीर, शुनासीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. वायु और सूर्य। ३. इंद्र और वायु। ४. उल्लू। कौशिक [को०]।

शुनासीरी
संज्ञा पुं० [सं० शुनासीरिन्] इंद्र।

शुनासीरीय
वि० [सं०] १. इंद्र संबंधी। इंद्र का। २. वायु देवता के संबंध का। ३. सूर्य देवता के संबंध का।

शुनि
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शुनी] कुत्ता।

शुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुष्मांडी। २. कुतिया [को०]।

शुनीर
संज्ञा पुं० [सं०] कुतियों का समूह [को०]।

शुनीलांगूल
संज्ञा पुं० [सं० शुनीलांगूल] देवीभागवत के अनुसार शुनःशेफ के छोटे भाई का नाम।

शुन्य (१)
वि० [सं०] खाली। शुन्य। रिक्त [को०]।

शुन्य (२)
संज्ञा पुं० १. कुतियों का दल या समूह। २. दे० 'शून्य१' [को०]।

शुबहा
संज्ञा पुं० [अं० शुबहह्] १. संदेह। शक। २. धोखा। वहम। भ्रम।क्रि० प्र०—करना।—निकालना।—मिटना।—मिटाना।—होना।

शुभंकर
वि० [सं० शुभङ्कर] १. शुभ या मंगल करनेवाला। मंगलकारक। शुभकारी। २. प्रसन्न करनेवाला [को०]।

शुभंकरी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुभङ्करी] १. कल्याण करनेवाली, पार्वती। २. शमी वृक्ष।

शुभंयु
वि० [सं०] १. मंगलान्वित। मंगलमय। २. शुभ।

शुभंभावुक
वि० [सं० शुभंम्भावुक] सज्जित। भूषित। द्योतित। अलंकृत [को०]।

शुभ (१)
वि० [सं०] १. अच्छा। भला। उत्तम। सुखप्रद। जैसे—शुभ शकुन, शुभ समाचार, शुभ कार्य। २. कल्याणकारी। मंगलप्रद। ३. सुंदर। लावण्ययुक्त। लोना (को०)। ४. दीप्तियुक्त चमकीला (को०)। ५. भाग्यवान्। भाग्यशाली। ६. वेदप्रवण। वेदविद् (को०)। ७. जो प्रतिकूल न हो। अनुकूल (को०)।

शुभ (२)
संज्ञा पुं० १. मंगल। कल्याण। भलाई। २. विष्कंभादि सत्ताईस योगों के अंतर्गत एक योग। विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार जो बालक इस योग में जन्म लेता है, वह सब लोगों का कल्याण करनेवाला, पंडितों का सत्संग करनेवाला और बुद्धिमान् होता है। ३. पदुमाख। एक सुगंधित लकड़ी। पदमकाठ। ४. चांदी। ५. बकरा। ६. वह जो अजन्मा हो। सर्वशक्तिमान् (को०)। ७. जल (को०)। ८. एक प्रकार का आभूषण (को०)।

शुंभक
संज्ञा पुं० [सं०] सरसों का बोज। सर्षप [को०]।

शुंभकथ
वि० [सं०] कल्याणप्रद बातें कहनेवाला। अच्छी बात कहनेवाला।

शुभकर
वि० [सं०] शुभ या मंगल करनेवाला।

शुभकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती।

शुभकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुभ काम। सत्कर्म। २. वह वृत्ति या आचार जो आदरणीय हो। [को०]।

शुभकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० शुभकर्मन्] १. वह जो शुभ कर्म करता हो। २. स्कद का एक अनुचर [को०]।

शुभकाम
वि० [सं०] शुभ या कल्याण की कामना करनेवाला [को०]।

शुभकूट
संज्ञा पुं० [सं०] सिंहल द्वीप या लंका का एक प्रसिद्ध पर्वत जिसपर चरणचिह्न बने हुए हैं। ईसाई इन्हें हजरत आदम के चरणचिह्न और बौद्ध महात्मा बुद्ध के चरणचिह्न मानते हैं।

शुभकृत्
वि० [सं०] शुभकर। मंगल करनेवाला।

शुमकृत्स्न
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध देवताओं का एक वर्ग।

शुभगंधक
संज्ञा पुं० [सं० शुभगन्धक] बोल नामक गंधद्रव्य। गंधबाला।

शुभग
वि० [सं०] १. भाग्यवान्। खुशकिस्मत। २. सुंदर। सौंदर्ययुक्त [को०]।

शुभग
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक शक्ति का नाम [को०]।

शुभग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति और शुक्र। विशेष—ये दोनों ग्रह सौम्य और शुभ माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त बुध ग्रह भी, यदि पापयुक्त न हो तो, शुभ माना जाता है। आधे से अधिक चंद्र भी शुभ कहा गया है।

शुभचिंतक
वि० [सं० शुभचिन्तक] शुभ या भला चाहनेवाला। भलाई की इच्छा रखनेवाला। हितैषी। खैरख्वाह।

शुभजानि
वि० [सं०] जिसकी स्त्री सुंदर हो [को०]।

शुभताति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कल्याण। मंगल। शुभ [को०]।

शुभदंता
संज्ञा स्त्री० [सं० शुभदन्ता] पुराणानुसार पुष्पदंत नामक हाथी की हथिनी का नाम।

शुभदंती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके दाँत सुंदर हों [को०]।

शुभद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वत्थ वृक्ष। पीपल का पेड़।

शुभद (२)
वि० शुभ्रप्रद। शुभदायक।

शुभदर्श, शुभदर्शन
वि० [सं०] १. जिसका मुँह देखने से कोई शुभ या मंगल बात हो। २. सुंदर। खुबसूरत।

त्रुभदायी
वि० [सं० शुभदायिन्] शुभ या मंगल करनेवाला। शुभप्रद। शुभद।

शुभदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० शुभ + दृष्टि] १. शुभदर्शन। २. मुँह देखना। मुँह दिखाई। उ०—विवाह के बाद जब दूल्हा वधू के मुख से शुभदृष्टि के अवसर पर पहली बार घूँघट हटाता है।—जनानी०, पृ० ४३०।

शुभनामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी, दशमी या पूर्णिमा तिथि।

शुभपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरिवन। शालपर्णी।

शुभप्रद
वि० [सं०] शुभ या मंगल करनेवाला। शुभद। मंगलकारी।

शुभफलप्रद
वि० [सं०] सुफल देनेवाला। उ०—सकल शुभफलप्रद एक विधान, बाँध माँ, तंत्री के से गान।—गीतिका, पृ० ३५।

शुभमंगल
संज्ञा पुं० [सं० शुभमङ्गल] सौभाग्य। कल्याण [को०]।

शुभर पु †
संज्ञा पुं० [?] गड्ढा। उ०—नउसर शुभर दशवैँ चढ़िआ।—प्राण०, पृ० ८०।

शुभलक्षण
वि० [सं०] जिसके लक्षण शुभ हों। अच्छे लक्षणों से युक्त [को०]।

शुभलग्न
संज्ञा पुं० [सं०] शुभ समय। शुभ मुहूर्त [को०]।

शुभवक्मा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।

शुभवार्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुभ समाचार [को०]।

शुभवासन
संज्ञा पुं० [सं०] मुख को सुवासित करनेवाली वस्तु [को०]।

शुभविमलगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] बोधिसत्व का नाम।

शुभव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत जो कार्तिक शुक्ला पंचमी को किया जाता है।

शुभशंसी
वि० [सं० शुभशंसिन्] शुभ करनेवाला। मंगल को सूचित करनेवाला [को०]।

शुभशैल
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार एक कल्पित पर्वत का नाम।

शुभसूचक
वि० [सं०] दे० 'शुभशंसी' [को०]।

शुभसूचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] कल्याण की सूचना [को०]।

शुभसूचनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम जिनको पूजा का संकल्प किसी शुभ काम के होने की आशा से किया जाता है, और वह शुभ काम हो जाने पर जिनकी पूजा की जाती है। इनकी पूजा प्रायः स्त्रियाँ ही करती हैं।

शुभसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मंगलसूत्र' [को०]।

शुभस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मंगल भूमि। पवित्र स्थान। २. यज्ञभूमि।

शुभस्रवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार एक नदी का नाम।

शुभांग
वि० [सं० शुभाङ्ग] सुंदर। सलोना। लावण्ययुक्त [को०]।

शुभांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुभाङ्गी] १. कुबेर की पत्नी का नाम। २. कामदेव की पत्नी, रति। ३. महाभारत के अनुसार राजा कुरु की पत्नी का नाम। ४. सुंदरी स्त्री (को०)।

शुभांजन
संज्ञा पुं० [सं० शुभाञ्जन] दे० 'शोभांजन'।

शुभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शोभा। कांति। छवि। २. इच्छा। ३. वंशलोचन। ४. गोरोचन। ५. शमी। सफेद कीकर। ६. प्रियंगु। बनिता। ७. सफेद दूब। ८. बकरी। ९. अरारोट। १०. पुरइन की पत्ती। ११. सोआ। १२. सफेद बच। १३. असबरग। १४. पार्वती की एक सखी का नाम। १५. देवताओं की सभा। १६. प्रकाश। दीप्ति (को०)। १७. पुराणानुसार एक नदी का नाम।

शुभाकांक्षी
वि० [सं० शुभाकांक्षिन्] शुभ की कामना करनेवाला। हित चाहनेवाला। हितैषी।

शुभाकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भुइँआँवला।

शुभाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।

शुभागमन
संज्ञा पुं० [सं०] सुख या मंगलसूचक आगमन या अवाई।

शुभाचल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक कल्पित पर्वत का नाम।

शुभाचार
वि० [सं०] पवित्र आचरणवाला। सदाचारी [को०]।

शुभाचारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार पार्वती की एक सखी का नाम।

शुभानना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदर स्त्री [को०]।

शुभानुष्ठान
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल संबंधी कार्य।

शुभान्वित
वि० [सं०] कल्याणयुक्त। मंगलयुक्त [को०]।

शुभापांगा
संज्ञा स्त्री० [सं० शुभापाङ्गा] वह स्त्री जिसके नेत्रकोण शुभद हो। सुंदर स्त्री [को०]।

शुभावह
वि० [सं०] मंगलमय। मंगलजनक [को०]।

शुभाशंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुभ या भला कहना। २. सद्विचार। सुविचार। उ०—आपकी शुभाशंसा से ही मैंने वह सब लिखा था।—नदी०, पृ० १००।

शुभाशीर्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] मंगलकारक आशीर्वचन [को०]।

शुभाशीष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शुभाशीर्वाद'।

शुभाशुभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. भला और बुरा। २. पवित्र और अपवित्र [को०]।

शुभिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुष्पमाला। पुष्पहार। फूलों का हार [को०]।

शुभेक्षण
वि० [सं०] शुभ दृष्टि या नेत्रोंवाला [को०]।

शुभेक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदर नेत्रोंवाली स्त्री।

शुभेतर
वि० [सं०] १. बुरा। खराब। २. अशुभ। अमांगलिक [को०]। यौ०—शुभेतरक्षति=अशुभ का दूरीकरण या मांगलिकता।

शुभैषिणी
वि० [सं०] शुभ चाहनेवाली। उ०—वह रचनात्मक साहित्य को प्रिय सखी, शुभैषिणी सेविका और हृदय स्वामिनी कही जा सकती है।—नया०, पृ० २७।

शुभोदय
वि० [सं०] भाग्यवाला। सौभाग्यपूर्ण [को०]।

शुभोदर्क
वि० [सं०] जिसका अंत आनंददायक हो।

शुभ्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अबरक। २. साँभर नमक। ३. चाँदी। रूपा। ४. कसीस। ५. पद्माख। पदुमकाठ। ६. खस। उशीर। ७. चरबी। ८. रूपामक्खी। ९. सेंधा नमक। १०. बंसलोचन। ११. फिटकिरी। १२. चीनी। १३. सफेद विधारा। १४. श्वेत वर्ण। श्वेत रंग (को०)। १५. चंदन (को०)। १६. स्वर्ग (को०)।

शुभ्र (२)
वि० १. श्वेत। सफेद। उ०—शोभजति दंतरुचि शुभ्र उर मानिए।—केशव (शब्द०)। २. चमकता हुआ। चमकीला। देदीप्यमान (को०)।

शुभ्रकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर [को०]।

शुभ्रतरु
संज्ञा पुं० [सं०] सिरिस का वृक्ष।

शुभ्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुभ्र का भाव या धर्म। सफेदी। श्वेतता।

शुभ्रत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शुभ्रता' [को०]।

शुभ्रदंत
वि० [सं० शुभ्रदन्त] [वि० स्त्री० शुभ्रदन्ती] दे० 'शुभ्रदत्' [को०]।

शुभ्रदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० शुभ्रदन्ती] पुराणानुसार पुष्पदंत नामक दिग्गज की हथनी का नाम। दे० 'शुभदंती'। २. सार्वभौम दिग्गज की हस्तिनी (को०)।

शुभ्रदत्
वि [सं०] [वि० स्त्री० शुभ्रदती] चमकीले दाँतवाला [को०]।

शुभ्रपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद पान।

शुभ्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] खस। उशीर।

शुभ्रभानु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शुभ्ररश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

शुभ्रवेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] शाल्मली। सेमल।

शुभ्रांशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

शुभ्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बंसलोचन। २. फिटकरी। ३. गंगा (को०)। ४. स्फटिक (को०)। ५. शर्करा। शिता। चीनी (को०)।

शुभ्रालु
संज्ञा पुं० [सं०] १. भैसा कंद। महिष कंद। २. शंखालु।

शुभ्रि
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. सूर्य [को०]।

शुभ्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शहद से तैयार की हुई चीनी। मधुशर्करा।

शुमार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. गिनती। गणना। २. तखमीना। अंदाज। ३. जोड़। मीजान। ४. आतंक या भय [को०]। यौ०—शुमारकुनिंदा=दे० 'शुमारिंदा'। शुमारनवीस=हिसाब किताब करनेवाला।

शुमारिंदा
वि० [फ़ा० शुमारिंदह्] शुमार करनेवाला। गणना करनेवाला। गणक [को०]।

शुमारी
प्रत्य० [फ़ा०] गणना का काम। गिनने की स्थिति या क्रिया। जैसे, मर्दुमशुमारी।

शुमाल
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. एक जाति। दे० सुमाली'। २. उत्तर दिशा। ३. बायाँ हाथ [को०]।

शुमाली
वि० [फा०] उत्तरी। उत्तर का [को०]।

शुरफा
संज्ञा पुं० [अ० शरीफ का बहु व०] शरीफ लोग। उ०— शुरफा व रूजला एक है दरबार में मेरे। कुछ खास नहीं फैज तो इक आम है मेरा।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७९१।

शुरवा
संज्ञा पुं० [फ़ा० शोरबा] दे० 'शोरबा'।

शुरू
संज्ञा पुं० [अ० शुरुअ] १. किसी कार्य की प्रथमावस्था का संपादन। आरंभ। प्रारंभ। जैसे,—अब तुम यह काम जल्दी शुरू कर डालो। २. वह स्थान जहाँ से किसी वस्तु का आरंभ हो। जैसे,—शुरू से आखीर तक।

शुरूआत
संज्ञा स्त्री० [अ०] आरंभ। प्रारंभ [को०]।

शुल्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह महसूल जो घाटों और रास्तों आदि पर राज्य की ओर से वसूल किया जाता है। २. वह धन जो कन्या का विवाह करने के बदले में उसका पिता वर के पिता से लेता है। विशेष—शास्त्र में इस प्रकार का धन या शुल्क लेने का बहुत अधिक निषेध किया गया है। ३. विवाह के समय दिया जानेवाला दहेज। दायजा। वैवाहिक उपहार। ४. बाजी। शर्त। ५. किराया। भाड़ा। ६. मूल्य। दाम। ७. वह धन जो किसी कार्य के बदले में लिया या दिया जाय। फीस। जैसे,—प्रवेश शुल्क। ८. फायदा। लाभ (को०)। ९. किसी सौदे को पक्का करने के लिये दिया गया अग्रिम धन (को०)। १०. दूल्हे द्वारा दुलहिन को दो हुई भेंट (को०)। ११. श्वान (को०)। १२. कर। टैक्स। महसूल (को०)। यौ०—शुल्कग्राहक, शुल्कग्राही=कर या शुल्क एकत्र करनेवाला। शुल्कखंडन=शुल्क मोषण। शुल्कद=(१) वैवाहिक उपहार देनेवाला। (२) विवाहार्थी। शुल्कमोषण=वह जो करग्राहक को कर देने में धोखा दे टैक्सचोर। कर चौर शुल्कशाला। शुल्कस्थान।

शुल्कता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुल्क का भाव या धर्म।

शुल्कशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्थान जहाँ पर घाट या मार्ग आदि का महसूल चुकाया जाता है। महसूल अदा करने की जगह।

शुल्कस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ आने जानेवालों को शुल्क देना पड़ता हो।

शुल्काध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिलीय अर्थशास्त्रानुसार चुंगी का अध्यक्ष।

शुल्ब
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शुल्व'।

शुल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. रस्सी। २. ताँबा।

शुल्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. ताँबा। २. रज्जु। रस्सी। ३. यज्ञकर्म। ४. आचार। ५. नियम। विधि (को०)। ६. जल का सामीप्य। जल की निकटता (को०)।

शुल्वज
संज्ञा पुं० [सं०] पीतल [को०]।

शुल्वल
संज्ञा पुं० [सं०] संत। ऋषि [को०]।

शुल्वसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक सूत्रग्रंथ जिसमें श्रौत कर्मकांडों से संबंधित गणितीय आकलन दिए गए हैं।

शुल्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शुल्व'।

शुल्वारि
संज्ञा पुं० [सं०] गंधक।

शुल्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शुल्व' [को०]।

शुश्रू
संज्ञा स्त्री० [सं०] बालक की सेवा शुश्रूषा करनेवाली, माता। माँ। जननी।

शुश्रूषक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो शुश्रुषा करता हो। सेवा करनेवाला। खिदमत करनेवाला। जैसे,—शिष्य, दास, अधीनस्थ कर्मचारी आदि।

शुश्रूषण
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा स्त्री० शुश्रूषणा] १. शुश्रूषा। शुश्रूषा करने का कार्य। सेवा करना। खिदमतगुजारी। २. सुनने की इच्छा (को०)। ३. कर्तव्यनिष्ठता। आज्ञा कारिता (को०)।

शुश्रूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० शुश्रूष्य] १. सेवा। टहल। परिचर्या। २. खुशामद। ३. कथन। ४. किसी से कुछ सुनने की इच्छा। ५. समान (को०)। ६. कर्तव्यनिष्ठता (को०)। यौ०—शुश्रूषा पद्धति।शुश्रूषा प्रणाली=सेवा की रीति या ढंग।

शुश्रूषिता
वि० [सं० शुश्रूषितृ] सेवक। आज्ञापालक [को०]।

शुश्रूषी
वि० [सं०] दे० शुश्रूषक।

शुश्रूषु
वि० [सं०] १. सुनने को उत्सुक। श्रवणेच्छु। २. सेवा करने के लिये इच्छुक। नौकरी चाकरी चाहनेवाला। ३. आज्ञा पालन करनेवाला। हुक्म माननेवाला [को०]।

शुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. छिद्र। विवर। गर्त। २. शुष्क होना। शोष। सूखना [को०]।

शुषि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूखना। २. गर्त। बिल। ३. ऐंठन। बल। मरोड़। शिकन। ४. सर्प के विष के दाँत का सूराख [को०]।

शुषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुष्कता। खुश्की। प्यास [को०]।

शुषिर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लौंग। २. अग्नि। ३. मूसा। चूहा। ४. बिल। गड्ढा। विवर। ५. आकाश। ६. वह बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता हो। जैसे, वंशी, अलगोजा, शहनाई आदि।

शुषिर (२)
वि० छिद्रयुक्त। छेदवाला। सूराखदार [को०]।

शुषिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नदी। दरिया। २. धरणी। ३. नलिका या नली नाम का गंधद्रव्य।

शुषिल
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। हवा [को०]।

शुषेण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सुषेण'।

शुष्क (१)
वि० [सं०] १.जिसमें किसी प्रकार की नमी या गीलापन न रह गया हो। जो किसी प्रकार सुखा लिया गया हो। आर्द्रता- रहित। सूखा। खुश्क। जैसे,—शुष्क काष्ठ। २. जिसमें जल या और किसी तरल पदार्थ का व्यवहार न किया गया हो। ३. जिसमें रस का अभाव हो। नीरस। रसहीन। ४. जिससे मनोरंजन न होता हो। जिसमें मन न लगता हो। जैसे,—शुष्क विषय। ५. जिसका कुछ परिणाम न निकलता हो। निरर्थक। व्यर्थ। जैसे,—शुष्क वादविवाद। ६. जिसमें सौहार्द्र आदि कोमल मनोवृत्तियाँ न हों। स्नेह आदि से रहित। निर्मोही। ७. जो बिलकुल पुराना और बेकाम हो गया हो। जीर्ण शीर्ण। ८. निराधार। निष्कारण (को०)। ९. झुर्रीदार। सिकुड़नवाला। कृश (को०)।

शुष्क (२)
संज्ञा पुं० १. काला अगर। कालागुरु। २. कोई भी सूखी हुई वस्तु या पदार्थ (को०)।

शुष्कक
वि० [सं०] शुष्क। सूखा हुआ। क्षीण [को०]।

शुष्ककलह
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यर्थ या निराधार झगड़ा। अकारण संघर्ष। २. छद्म संघर्ष [को०]।

शुष्ककास
संज्ञा पुं० [सं०] सूखी खाँसी [को०]।

शुष्कक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वितस्ता नदी के किनारे के एक पर्वत का नाम।

शुष्कगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार स्त्रियों का एक रोग जिसमें वायु के प्रकोप से स्त्रियों का गर्भ सूख जाता है।

शुष्कगान
संज्ञा पुं० [सं०] किसी भी प्रकार के उपवाद्य या सह ध्वनि के साथ गाना [को०]।

शुष्कगोमय
संज्ञा पुं० [सं०] कंडा। उपला [को०]।

शुष्कचर्चण
संज्ञा पुं० [सं०] निरर्थक बातचीत [को०]।

शुष्कता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुष्क होने का भाव या धर्म। सूखापन।

शुष्कतर्क
संज्ञा पुं० [सं०] मात्र बहस। बेकार बहस।

शुष्कतोय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० शुष्कतोया] जिसका जल सूख गया हो।

शुष्कपाक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० शुष्काक्षिपाक [को०]।

शुष्कमत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] सूखी या सुखाई हुई मछली [को०]।

शुष्कमांस
संज्ञा पुं० [सं०] सुखाया हुआ मांस।

शुष्करुदित
संज्ञा पुं० [सं०] इस प्रकार रोना जिसमें आँख से आँसू न गिरे [को०]।

शुष्करेवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार एक मातृका का नाम। २. एक प्रकार का बालग्रह जिसके प्रकोप से बालकों के अंग सूखने या क्षीण होने लगते हैं।

शुष्कल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मांस। गोश्त। २. वह जो मांस खाता हो। मांसभक्षी। ३. सूखा मांस (को०)।

शुष्कली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मांस। गोश्त। २. सूखा मांस (को०)।

शुष्कवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] धव का वृक्ष। धौ।

शुष्कवैर
संज्ञा पुं० [सं०] अकारण वैर। निराधार शत्रुता [को०]।

शुष्कव्रण
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रियों का योनिकंद नामक रोग। विशेष दे० 'योनिकंद'। २. सूखा हुआ घाव (को०)।

शुष्कांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० शुष्काङ्ग] धव का वृक्ष। धौ।

शुष्कांग (२)
वि० कृश शरीरवाला। दुबला पतला [को०]।

शुष्कांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० शुष्काङ्गी] १. प्लव जाति का एक प्रकार का पक्षी। २. गोह। गोधिका।

शुष्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्रियों का योनिकंद नामक रोग।

शुष्काक्षिपाक
संज्ञा पुं० [सं०] आँखों का एक प्रकार का रोग। विशेष—इसमें आँखों की पलकें कठोर और रूखी हो जाती हैं और उनके खोलने बंद करने में पीड़ा होती हैं, आँखों में जलन होती है और साफ नहीं देख पड़ता।

शुष्कार्द्र
संज्ञा पुं० [सं०] सूखा अदरक। सोंठ।

शुष्कार्द्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'शुष्कार्द्र' [को०]।

शुष्कान्न
संज्ञा पुं० [सं०] भूसा मिला हुआ अन्न [को०]।

शुष्कार्श
संज्ञा पुं० [सं० शुष्कार्शस्] आँखों का एक प्रकार का रोग जिसमें आँख की पलकों के भीतर खरखरी और कठिन फुंसियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

शुष्काशुष्क
संज्ञा पुं [सं०] समुद्रफेन।

शुष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. बल। शक्ति। ताकत। ४. एक राक्षस (को०)।

शुष्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. तेज। पराक्रम। २. अग्नि। ३. सूर्य। ४. वायु। ५. पक्षी। चिड़िया। ६. प्रकाश। कांति (को०)। ७. लौ। लपट (को०)।

शुष्मा
संज्ञा पुं० [सं० शुष्मन्] १. अग्नि। २. चीता। चित्रक। ३. तेज। पराक्रम। ४. प्रकाश। कांति (को०)।

शुष्मी
वि० [सं० शुष्मिन्] १. शक्तिशाली। बलवान्। २. बहुत जल्दी भड़क जानेवाला। जैसे, घोड़ा, साँड़, हाथी। ३. प्रतिभाशाली। मेधावी [को०]।

शुहदा
वि० [अ० शहीद का बहुव०] गुंडा। बदमाश। चरित्रहीन। ऐश अय्याशी में रुपया उड़ानेवाला। दे० 'शोहदा'। उ०—महाआलसी झूठे शुहदे बेफिकरे बदमासी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३३३।

यौ०—शुहदापन, शुहदापना=शोहदापन।

शुहरत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. शोहरत। प्रसिद्धि। ख्याति। २. दे० 'शोहरत'। यौ०—शुहरतपसंद, शुहरतपरस्त=प्रसिद्धि का भूखा। नामवरी का इच्छुक। यशलोलुप।

शूंडल
संज्ञा पुं० [देश०] मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष। विशेष—इसके हीर की लकड़ी मजबूत, कड़ी और लाली लिए होती है और अच्छे दामों पर बिकती है। यह इमारतों और पुलों के बनाने के काम में आती है। इसकी छाल बहुत पतली होती है और उतारने से बारीक कागज के वरकों की तरह उतरती है। बंगाल के सुंदरवन में यह पेड़ बहुत होता है।

शूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न की बाल या सींका जिसमें दाने लगते हैं। २. यव। जौ। ३. एक प्रकार का कीड़ा। ४. एक प्रकार का तृण जिसे शूकड़ी कहते हैं और जो दुर्बल पशुओं के लिये बहुत बलकारक माना जाता है। ५. एक प्रकार का रोग जो लिंगवर्धक औषधों के लेप के कारण होता है। विशेष—इसमें लिंग पर कई प्रकार की फुसियाँ और घाव आदि हो जाते हैं। यह रोग १८ प्रकार का माना गया है। यथा- सर्षपिका, अष्ठीलिका, ग्रथित, कुंभिका, अलजी, मृदित, संमूढ- पीड़का, अधिमंथ, पुष्करिका, स्पर्शहानि, उत्तमा, शतपोनका, त्वकपाक, शोणितार्बुद, मांसार्बुद, मांसपाक, विद्रधि और तिलकालक। ५. यवादि की बाल का अगला, नुकीला भाग, टूँड़। ६. रेशा या रोआँ जो नुकीला हो (को०)। ७. नोक। नुकीला अग्रभाग (को०)। ८. मृदुता। करुणा। कोमलता (को०)। ९. श्मश्रु। दाढ़ी (को०)। १०. शोक। दुःख (को०)।

शूकक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर का रस नामक धातु। २. टूंड़ (को०)। ३. दया। दयालुता (को०)। ४. एक प्रकार का अन्न (को०)। ४. पावस। प्रावृट्। वर्षा (को०)।

शूककीट, शूककीटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोएँदार कीड़ा।

शूकज
संज्ञा पुं० [सं०] जवाखार। यवक्षार।

शूकतृण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की घास जो दुर्बल पशुओं के लिये बहुत बलकारक मानी जाती है। इसे शकड़ी या चोरहुली भी कहते हैं।

शूकदोष
संज्ञा पुं० [सं०] शूक नामक रोग। विशेष दे० 'शूक'—५।

शूकधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह अन्न जिसके दाने बालों या सीकों में लगते हैं। जैसे,गेहूँ, जौ आदि।

शूकपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह साँप जिसमें विष न होता हो। जैसे,— पानी का साँप या डेड़हा।

शूकपाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] जवाखार। शूकज।

शूकपिडि, शूकपिंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० शूकपिण्ड़ि, शूकपिण्डी] कपि- कच्छु। किंवांछ। कौंछ।

शूकर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शूकरी] १. सूअर। वाराह। उ०— भजन बिनु कूकर शूकर जैसो।—सूर (शब्द०)। २. विष्णु का तीसरा अवतार। वाराह अवतार। विशेष दे० 'वाराह'।

शूकरकंद
संज्ञा पुं० [सं० शूकरकन्द] वाराही कंद।

शूकरक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक तीर्थ जो नैमिषारण्य के पास है। उ०—मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा जो शूकरखेत। समुझी नहिं तस बालपन तब अति रहेउँ अचेत।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—कहते हैं, भगवान् विष्णु ने वाराह अवतार धारण करने पर हिरण्यकेशी (हिरण्याक्ष) को यहीं मारा था। आजकल यह स्थान सोरों नाम से प्रसिद्ध है।

शूकरदंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसे सुअरडाढ़ कहते हैं। विशेष—यह रोग प्रायः बालकों को होता है। इसमें दाह सहित सूजन हो जाती है, जो पकती, पीड़ा करती और खुजलाती है; और इसके विकार से ज्वर उत्पन्न होता है।

शूकरपादिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोलशिंबी। सेम की फली।

शूकरशिंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० शूकरशिम्बी] सेम की फली।

शूकराक्रांता
संज्ञा स्त्री० [सं० शूकराक्रान्ता] वराहक्रांता। खैरी साग।

शूकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूअर की मादा। सूअरी। वाराही। २. खैरी साग। वाराहक्रांता। वाराहीकंद। गेंठी। ४. सुइँस या सूँस नामक जलजंतु। ५. विधारा।

शूकरेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसेरू। २. मोथा। मुस्तक।

शूकरोग
संज्ञा पु० [सं०] शूक नामक रोग। विशेष दे० 'शूक'—५।

शूकल
संज्ञा पुं० [सं०] वह घोड़ा जो जल्दी चौंक या भड़क जाता हो।

शूकवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपिकच्छु। किवाँच। कौंछ।

शूकवान्
वि० [सं० शूकवत्] १. नुकीला। टूँड़वाला। २. दाढ़ीवाला [को०]।

शूकशिंबा
संज्ञा स्त्री० [सं० शूकशिम्बा] कपिकच्छु। किवाँच। कौंछ।

शूकशिंबिका, शूकशिंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० शूकशिम्बिका, शूकशिम्बी] कौंछ। केवाँच।

शूकशिंखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूकशिंबा। केवाँच [को०]।

शूका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपिकच्छु। केवाँच। कौंछ।

शूकाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] सिरिस। शिरीष।

शूकाट्य
संज्ञा पुं० [सं०] शूक या शूकरी नामक तृण।

शूकापट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] कहरुवा नामक गोंद जो बरमा की खानों से निकलता और औषध के काम आता है। तृणमणि। विशेष दे० 'कहरुआ—१'।

शूकामय
संज्ञा पुं० [सं०] शूक नामक रोग। विशेष दे० 'शूक—५'।

शूकी
वि० [सं० शकिन्] श्मश्रुल। शूकवाला। टूँड़दार [को०]।

शूकुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की मछली। २. एक प्रकार की सुगंधित घास।

शूक्त
संज्ञा पुं० [सं० शुक्त] सिरका।

शूक्ष्म पु
वि० [सं० सूक्ष्म] दे० 'सूक्ष्म'।

शूची
संज्ञा स्त्री० [सं० सूची] सूई। उ०—भक्ति सार तब करत भे, शंकर सों परिहास। शूची छिद समानवर, देहु नाथ कैलास।—रघुराज (शब्द०)।

शूट

शूटिंग
१. फिल्म की शूटिंग। २. गोलियाँ आदि चलना। शूट करना। लक्ष्य बनाना।

शूटिंग स्टिक
संज्ञा स्त्री० [अं०] छापेखाने में काम आनेवाली एक लकड़ी जो प्रायः एक बालिश्त लंबी होती है। विशेष—इसके मुँह पर एक गड्ढदार पीतल की सामी होती है। इसी में गुल्ली अड़ाकर ठोंकते हैं जिससे यह सूजे पर चढ़कर टाइप को कस देती है। किसी किसी में स्टिक सामी नहीं भी होती।

शूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अभिवृद्धि। बढ़ती [को०]।

शूतिपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] अमलतास। आरग्वध वृक्ष। धनबहेड़ा।

शूद्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शूद्रा, शूद्री] १. प्राचीन आर्यों के लोकविधान के अनुसार चार वर्णों में से चौथा और अंतिम वर्ण। विशेष—इनका कार्य अन्य तीन वर्णों की सेवा करना और शिल्प- कला के काम करना माना गया है। यजुर्वेद में शूद्रों की उपमा समाजरूपी शरीर के पैरों से दी गई है; इसीलिये कुछ लोग इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के पैरों से मानते हैं। इनके लिये गृहस्थाश्रम के अतिरिक्त और किसी आश्रम में जाने का निषेध है। आजकल इनमें से कुछ लोग अछूत और अंत्यज समझे जाते हैं। साधारणतः कोई इस वर्ण के लोगों का अन्न ग्रहण नहीं करना। पर्या०—अवर वर्ण। वृषल। दास। पादज। अंत्यजन्मा। जघन्य। द्विजसेवक। अंत्यवर्ण। द्विजदास। उपासक। जघन्यज। २. शूद्र जाति का पुरुष। ३. नैऋत्य कोण में स्थित एक देश का नाम। ४. बहुत ही खराब। निकृष्ट। ५. सेवक। दास।

शूद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. विदिशा नगरी का एक राजा और 'मृच्छ कटिक' का रचयिता महाकवि। २. शूद्र। (डिं०)। ३. शूद्र जाति का एक व्यक्ति जिसका नाम शंबुक था। विशेष—कहते हैं, यह रामचंद्र के राजत्व काल में था। एक बार एक ब्राह्मण का पुत्र इसकी तपस्या के कारण मर गया। उसने जाकर रामचंद्र जी के यहाँ प्रार्थना की। नारद आदि ऋषियों ने कहा कि इस राज्य में कोई शूद्र तपस्या कर रहा है; उसी के फलस्वरूप इस ब्राह्मण का पुत्र इसके सामने मरा है। इसपर रामचंद्र जी ने इसका पता लगवाया और तब इसका सिर कटवा डाला।

शूद्रकल्प
वि० [सं०] शूद्र के समान। शूद्र तुल्य [को०]।

शूद्रकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र का कार्य। शूद्रों के लिये विहित कर्तव्य [को०]।

शूद्रकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक शिवलिंग का नाम।

शूद्रक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह भूमि जिसका रंग काला हो और जिसमें अनेक प्रकार की घास, तृण, बबूर के वृक्ष तथा नाना प्रकार के धान उत्पन्न हों।

शूद्रघ्न
वि० [सं०] शूद्र की हत्या करनेवाला [को०]।

शूद्रजन्मा
वि० [सं० शूद्रजन्मन्] शूद्र से उत्पन्न होनेवाला [को०]।

शूद्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूद्र का भाव या धर्म। शूद्रत्व। शूद्रपन।

शूद्रत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र होने का भाव या धर्म। शूद्रता। शूद्रपन।

शूद्रद्युति
संज्ञा पुं० [सं०] नीला रंग जो रंगों में शूद्र वर्ण का माना जाता है। उ०—वैश्य श्वेत मिलि पीत हीत घृत बरुण रुचिर अति। हरित श्याम मिलि होइ शूद्रद्युति तरु तमाल प्रति। गुरुदास (शब्द०)।

शुद्रपति
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्रों का सरदार। उ०—आयसु दीन्हेउ कुरु- पति जोई। लागेउ करन शद्रपति सोई।—सबलसिंह (शब्द०)।

शूद्रप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] पलांडु। प्याज।

शूद्रप्रेष्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य जो किसी शूद्र की नौकरी या सेवा करता हो।

शुद्रभूयिष्ठ
वि० [सं०] जहाँ शूद्रों की संख्या अधिक हो। (राष्ट्र) जो अत्यधिक शद्रों से युक्त हो [को०]।

शूद्रभोजी
वि० [सं० शूद्रभोजिन्] शूद्र के यहाँ भोजन करनेवाला [को०]।

शूद्रवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्रश्रेणी या सेवक वर्ग [को०]।

शूद्रवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूद्र का आचरण या पेशा [को०]।

शूद्रशासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शूद्र राज्य। २. शूद्रों के लिये निर्धा- रित आचार व्यवहार। ३. शूद्र द्वारा लिखा गया प्रतिज्ञा- पत्र [को०]।

शूद्रसेवन
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र की सेवा।

शूद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूद्र जाति की स्त्री। शूद्राणी। यौ०—शूद्रापरिणयन=दे० 'शूद्रावेदन'। शूद्राभार्य=जिसकी भार्या शूद्र जाति की हो। शूद्रावेदन। शूद्रावेदी। शूद्रासुत।

शूद्राणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूद्र की स्त्री।

शूद्रान्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. शूद्र से प्राप्त होनेवाली जीविका। २. शूद्र वर्ण के व्यक्ति द्वारा दिया हुआ अन्न आदि [को०]।

शूद्रार्त्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रियंगु वृक्ष। बनिता।

शूद्रावेदन
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्रा स्त्री के साथ विवाह करना [को०]।

शूद्रावेदी
संज्ञा स्त्री० [सं० शूद्रावेदिन्] उच्च वर्ण का वह व्यक्ति जिसने शूद्र जाति की किसी स्त्री के साथ विवाह कर लिया हो। मनु के अनुसार ऐसा व्यक्ति पतित माना जाता है।

शूद्रासुत
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो किसी उच्च वर्ण के व्यक्ति के वीर्य से शूद्रा माता के गर्भ से उत्पन्न हुआ हो।

शूद्राह्निक
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र का दैनिक कृत्य [को०]।

शूद्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूद्र की स्त्री। शूद्रा। उ०—सो शूद्री पुनि जन्यो कुमारा। नाम तासु कनि कृष्ण उचारा।—रघुराज (शब्द०)।

शून
वि० [सं०] १. शून्य। २. सूजा हुआ। शोथयुक्त। फूला हुआ (को०)। ३. वर्धित। बढ़ा हुआ (को०)।

शूनकचंचु
संज्ञा पुं० [सं० शूनकचञ्चु] क्षुद्रचंचु या छोटा चेंच नाम का साग।

शूना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गृहस्थ के घर के वे स्थान जहाँ नित्य अनजान में अनेक जीवों की हत्या हुआ करती है। जैसे,— चूल्हा, चक्की, पानी का बरतन आदि। विशेष—इन स्थानों में जीवों की जो हत्या होती है, उसी के दोष के परिहार के लिये ब्रह्मयक्ष, देवयज्ञ और पितृयज्ञ करने की आवश्यकता होती है। विशेष दे० 'पंचसूना' और 'पंच महायज्ञ'। २. तालू के ऊपर की छोटी जीभ। छोटी जीभ। गलशुंडी। ३. थूहर। स्नुही। ४. वधस्थान। बूचड़खाना (को०)।

शून्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जिसमें कुछ भी न हो। खाली स्थान। २. आकाश। ३. एकांत स्थान। निर्जन स्थान। ४. विंदु। विंदी। सिफर। ५. अभाव। राहित्य। कुछ न होना। जैसे,—तुम्हारे हिस्से में शून्य है। ६. स्वर्ग। ७. विष्णु। ८. ईश्वर। उ०—कहैं एक तासों शिवे शून्य एकै। कहैं काल एकै महा विष्णु एकै। कहैं अर्थ एकै परब्रह्म जानो। प्रभा पूर्ण एकै सदा शून्य मानो।—केशव (शब्द०)। ९. कान का एक आभूषण (को०)।

शून्य (२)
वि० १. जिसके अंदर कुछ न हो। खाली। २. निराकार। उ०—रूप रेख कछु जाके नाहीं। तौ का करब शून्य के माही।—विश्राम (शब्द०)। ३. जो कुछ न हो। असत्। ४. विहीन। रहित। जैसे,—संज्ञाशून्य। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग यौगिक शब्द बनाने में अंत में होता है। जैसे, विवेकशून्य। ५. एकांत। निर्जन (को०)। ६. खिन्न। उदास। उत्साहहीन (को०)। ७. तटस्थ। निरपेक्ष (को०)। ८. निर्दोंष (को०)। ९. अर्थहीन। निरर्थक (को०)।

शून्यगर्भ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पपीता नामक फल।

शुन्यगर्भ (२)
वि० १. जिसके अंदर कुछ न हो। २. जिसमें कुछ भी सार या तत्व न हो। ३. बेवकूफ। मूर्ख।

शून्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शून्य का भाव या धर्म। शून्यत्व।

शून्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शून्य का भाव या धर्म। शून्यता।

शून्यदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूनी निगाह। उदास दृष्टि [को०]।

शून्यपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंतरिक्ष। आकाश। व्योम। २. सूना रास्ता। निर्जन मार्ग (को०)।

शून्यपदवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्रह्मरंध्र।

शून्यपाल
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी के रिक्त स्थान पर अस्थायी रूप से काम करता हो। एवजी।

शून्यबहरी
संज्ञा स्त्री० [सं० शून्य + बहरी?] पाँव का सुन्न हो जाना या उसमें झुनझुनी चढ़ना।

शून्यमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदार्थ जिसके बीच का भाग खाली हो। जैसे,—नल, नरसल, नरकट।

शून्यमनस्क
वि० [सं०] अन्यमनस्क। अनमना [को०]।

शून्यमना
वि० [सं० शून्यमनस्] दे० 'शून्यमनस्क' [को०]।

शून्यमय
वि० [सं०] निष्कल। व्यर्थ [को०]।

शून्यमूल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सेना की एक प्रकार की सजावट।

शून्यमूल (२)
वि० कौटिल्य के अनुसार (सेना) जिसका वह केंद्र नष्ट हो गया हो जहाँ से सिपाही आते रहे हों।

शून्यवाद
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों का एक सिद्धांत जिसमें ईश्वर या जीव किसी को कुछ भी नहीं माना जाता।

शून्यवादी
संज्ञा पुं० [सं० शून्यवादिन्] १. शून्यवाद का माननेवाला, अर्थात् वह व्यक्ति जो ईश्वर और जीव के अस्तित्व में विश्वास न करता हो।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २२७। २. बौद्ध। ३. नास्तिक।

शून्यहर
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाश। उजाला। २. सोना। स्वर्ग।

शून्यहस्त
वि० [सं०] जिसका हाथ खाली हो। रिक्तपाणि [को०]।

शून्यहृदय
वि० [सं०] १. अनमना। शून्यमना। २. खुले हृदयवाला। विशाल हृदय का। संदेहरहित [को०]।

शून्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नलिका या नली नाम का गंधद्रव्य। २. वंध्या स्त्री। बाँझ औरत, जिसे कोई संतान न होती हो। ३. नरकट। नरसल (को०)। ४. थूहर या स्नुही का वृक्ष।

शून्यालय
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ कोई न हो। एकांत स्थान।

शुन्याशून्य
संज्ञा पुं० [सं०] जीवन्मुक्ति।

शूप
संज्ञा पुं० [सं० शूर्प] बेंत, सींक या बाँस आदि का बना हुआ एक प्रकार का लंबा चौड़ा पात्र जिसमें रखकर अन्न आदि पछोड़ा जाता है। सूप। फटकनी। उ०—तेहि बन शूप बनावनहारे। बेत लेन इक समय सिधारे।—रघुराज (शब्द०)। विशेष—इसकी लंबाई के बल में एक सिरे पर कुछ ऊँची लंबी बाढ़ होती है; और दूसरा सिरा बिलकुल खाली रहता है। चौड़ाई के बल में दोनों ओर कुछ ऊँची ढालुआँ बाढ़ होती है जो बिलकुल आगे के सिरे पर पहुँचकर खतम हो जाती है।

शूपकार
संज्ञा पुं० [सं० शूर्पकार] दे० 'सूपकार'।

शूम
संज्ञा पुं० [अ०] 'सूम'।

शूरंगम
संज्ञा पुं० [सं० शूरङ्गम] १. एक प्रकार की समाधि। २. एक बोधिसत्व [को०]।

शूरंमन्य
वि० [सं० शूरम्मन्य] अपने आपको वीर समझनेवाला [को०]।

शूर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीर। बहादुर। सूरमा। २. योद्धा। भट। सिपाही। ३. सूर्य। ४. सिंह। ५. सुअर। शूकर। ६. चीता।७. शाल। साखू। ८. बड़हर। लकुच। ९. मसूर। मांगल्य। १०. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ११. आक। मदार। १२. कृष्ण के पितामह का नाम। १३. विष्णु का एक नाम। १४. जैन हरिवंश के अनुसार उत्तर दिशा के एक देश का नाम। १५. श्वान। कुत्ता (को०)। १६. कुक्कुट। मुर्गा (को०)।

शूर (२)
वि० [सं०] योद्धा। बहादुर। शौर्यशक्तियुक्त। [को०]।

शूरकीट
संज्ञा पुं० [सं०] कमजोर या साधारण कोटि का वीर।

शूरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूरन। ओल। जमींकंद। विशेष दे० 'सूरन'। २. श्योनाक वृक्ष।

शूरणोद् भुज
संज्ञा पुं० [सं०] हरियल या हारिल नाम का पक्षी।

शूरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूर होने का भाव या धर्म। शौर्य। बहादुरी। वीरता।

शूरताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० शूरता + हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'शूरता'।

शूरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] शूर होने का भाव या धर्म। शूरता। वीरता। बहादुरी।

शूरदेव
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार भविष्य में होनेवाले चौबीस अर्हतों में से एक अर्हत का नाम।

शूरन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'सूरन'।

शूरपुत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अदिति का एक नाम।

शूरबल
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक देवपुत्र का नाम।

शूरभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शूरभूमि'।

शूरभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] उग्रसेन की एक कन्या का नाम। विशेष—भागवत में लिखा है कि वसुदेव के छोटे भाई श्यामक ने इसके साथ विवाह किया था, और उनके वीर्य से इसके गर्भ से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे।

शूरमान
संज्ञा पुं० [सं०] अभिमान। अहंकार [को०]।

शूरमानी
संज्ञा पुं० [सं० शूरमानिन्] वह जिसे अपनी शूरता का बहुत अभिमान हो। अपनी बहादुरी पर बहुत भरोसा रखनेवाला।

शूरवाणेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।

शूरवाद
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों का शून्यवाद का सिद्धांत [को०]।

शूरवादी
वि० [सं०] शूरवादिन्। २. बौद्ध। २. नास्तिक [को०]।

शूरविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] युद्ध आदि करने की विद्या।

शूरवीर
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अच्छा वीर और योद्धा हो। सूरमा।

शूरवीरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीर्य। बहादुरी।

शूरश्लोक
संज्ञा पुं० [सं०] वीरों के वीरतापूर्ण कृत्यों की कहानी। वीरगाथा।

शूरसेन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मथुरा के एक प्रसिद्ध राजा जो कृष्ण के पितामह और वसुदेव के पिता थे। २. मथुरा और उसके आस पास के प्रदेश का प्राचीन नाम जहाँ राजा शूरसेन का राज्य था।

शूरसेनप
संज्ञा पुं० [सं०] शूरवीरों की सेना का पालन करनेवाले, कार्तिकेय।

शूरसेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूरसेन राजा की पुरी। मथुरा नगरी एक का नाम [को०]।

शूरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षीरकाकोली नामक अष्टवर्गीय ओषधि।

शूरा पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० शूर] सामंत। वीर। उ०—पैठि गुफा में सब जग देखै, बाहर कछू न सूझै। उलटा बान पारथिव लागे, शूरा होय सो बूझै।—कबीर (शब्द०)।

शूरा (३)
संज्ञा पुं० [सं० शूर (=सूर्य) अथवा सूर्य] सूर्य। उ०—जहाँ चंद न शूरा, तारा नहिं जही मोरनिया।—कबीर (शब्द०)।

शूरिमृग
संज्ञा पुं० [सं०] वाराह आदि जंगली पशु।

शूर्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. गेहूँ, चावल आदि अन्न पछोड़ने के लिये बना हुआ बाँस या सींक का पात्र। सूप। २. एक प्राचीन तौल जो २०४८ तोले या ३२ सेर की होती थी।

शूर्पक
संज्ञा पुं० [सं०] एक असुर जो किसी किसी के मत से कामदेव का शत्रु और किसी किसी के मत से उसका पुत्र था।

शुर्पकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी, जिसके कान सूप के समान होते हैं। २. गणेश। ३. एक प्राचीन देश का नाम। ४. इस देश का निवासी। ५. पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।

शूर्पकाराति
संज्ञा पुं० [सं०] शूर्पक राक्षस का शत्रु, कामदेव।

शूर्पकारि
संज्ञा पुं० [सं०] शूर्पक नामक राक्षस का शत्रु, कामदेव।

शूर्पखारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की तौल जो १६ द्रोण की होती थी [को०]।

शूर्पणखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रसिद्ध राक्षसी जो रावण की बहिन थी। विशेष—कहते हैं, इसके नख सूप के समान थे। राम के वन- वास के समय काम से पीड़ित होकर यह राम के पास उनके साथ विवाह करने की इच्छा से गई थी। वहाँ राम के इशारे से लक्ष्मण ने इसकी नाक और कान काट लिए थे। इसी का बदला लेने के लिये रावण सीता को हर ले गया था।

शूर्पणखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सूर्पणखा'।

शूर्पणाय
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक ऋषि का नाम।

शूर्पनखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शूर्पणखा'।

शूर्पपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बन मूंग। बन उर्द।

शूर्पवात
संज्ञा पुं० [सं०] सूप की हवा। अनाज फटकने के समय शूर्प से उत्पन्न हवा [को०]। विशेष—बच्चों को सूप की हवा लगना अशुभ माना जाता है।

शूर्पश्रुति
संज्ञा पुं० [सं०] हस्ती। हाथी।

शूर्पा
संज्ञा स्त्री० [सं० शूर्य या शूर्पी] बच्चों के खेलने का एक प्रकार का खिलौना।

शूर्पाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिणी भारत के एक पर्वत का नाम। इसे कुछ लोग सूर्याद्रि भी कहते हैं।

शूर्पारक
संज्ञा पुं० [सं०] बंबई प्रांत के थाना जिले के सोपारा नामक स्थान का प्राचीन नाम।

शूर्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा सूप। सुपेली। २. शूर्पणखा का एक नाम। ३. बच्चों के खेलने का एक खिलौना [को०]।

शूर्म
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० शूर्मि] १. लोहे की बनी हुई मूर्ति। २. निहाई।

शूर्मि, शूर्मिका, शूर्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शूर्म' [को०]।

शूल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जो प्रायः बरछे के आकार का होता था। २. सूली जिससे प्राचीन काल के लोगों को प्राणदंड दिया जाता था। ३. दे० 'त्रिशूल'। ४. कोई बड़ा, लंबा और नुकीला काँटा। ५. वायु के प्रकोप से होनेवाला एक प्रकार का बहुत तेज दर्द। विशेष—यह दर्द प्रायः पेट, पसली, कलेजे या पेड़ू आदि में होता है। वैद्यक के अनुसार बहुत अधिक व्यायाम या मैथुन करने, घोड़े पर चढ़ने, रात के समय जागने, बहुत अधिक ठंढा जल पीने, रूखे द्रव्यों का सेवन करने, सूखा मांस खाने, विरुद्ध भोजन करने, शारीरिक वेगों को रोकने, बहुत अधिक शोक या उपवास करने अथवा बहुत अधिक हँसने के कारण वायु का प्रकोप होता है जिससे पेट में या उसके आस पास बहुत तीव्र पीड़ा होती है। इस पीड़ा में ऐसा अनुभव होता है कि कोई अंदर से बहुत नुकीला काँटा या शूल गड़ा रहा है; इसी से इले शूल कहते हैं। यह रोग आठ प्रकार का—वातज, पित्तज, कफज, संनिपातज, आमज, वातश्लैष्मिक, पित्तश्लैष्मिक और वात- पैत्तिक—कहा गया है; और इसे शांत करने के लिये स्वेद, अभ्यंग, मर्दन और स्निग्ध तथा उष्ण द्रव्यों के सेवन का विधान है। ६. किसी नुकीली वस्तु के चुभने के समान होनेवाली पीड़ा। कोंच। टीस। ७. पीड़ा। क्लेश। दुःख। दर्द। उ०—(क) तुम लछिमन निज पुरहि सिधारो बिछुरन मेट देहु लघु बंधू जियत न जैहै शूल तुम्हारो।—सूर (शब्द०)। (ख) मन तोसों कोटिक बार कही। समुझ न चरण गहत गोविंद के उर आध शूल सही।—सूर (शब्द०)। ८. ज्योतिष में विष्कंभ आदि सत्ताइस योगों के अंतर्गंत नवाँ योग। विशेष—कहते हैं, जो बालक इस योग में जन्म लेता है, वह डरपोक, दरिद्र, मूर्ख, विद्याहीन, शूलरोगी, दुसरों का अनिष्ट करनेवाला और अपने बंधु बांधव को शूल के समान खटकनेवाला होता है। इस योग में किसी प्रकार का शुभ काम करने का निषेध है। ९. छड़। सलाख। सींख। उ०—खाने को बहुधा शूल पर भुना हुआ मांस मिलता है, सो भी कुसमय।—लक्ष्मणसिह (शब्द०)। १०. मृत्यु। ११. झंडा। पताका। १२. पोस्ते की पत्तियों की वह तह जो अफीम की चक्की जमाने के समय उसके चारों ओर ओर ऊपर नीचे लगाई जाती है। (बंगाल)। १३. ग्रंथि- वात। गठिया (को०)।

शूल (२)
वि० काँटे की तरह नोकवाला। नुकीला।

शूलक
संज्ञा पु० [सं०] १. पुराणानुसार एक ऋषि का नाम। २. दुष्ट या पाजी घोड़ा। शकल।

शूलकार
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नीच जाति का नाम।

शूलगजकेसरी रस
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैद्यक में एक प्रकार का रस। विशेष—यह रस शुद्ध गंधक, पारे, कंटकवेधी, ताँबे के पत्र आदि के योग से तैयार किया जाता है और शूल रोग के लिये गुणकारी माना जता है। २. वैद्यक में एक प्रकार की बटी या गोली। विशेष—इसके लिये कौड़ियों की राख, शुद्ध सिंगी मुहरा, सेंधा नमक, काली मिर्च, पिप्पली इन सब का चूर्ण कर पान के रस में एक रत्ती के बराबर गोलियाँ बनाई जाती हैं। ये गोलियाँ शूल का नाश करती हैं।

शूलगव
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम।

शूलगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] मदरास प्रांत के एक पर्वत का नाम।

शूलग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० शूलग्रन्थि] माला दूब।

शूलग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ में त्रिशूल धारण करनेवाले, शिव।

शूलग्राही
संज्ञा पुं० [सं० शूलग्राहिन्] शिव। महादेव।

शूलधातन
संज्ञा पुं० [सं०] मंडूर। लौहकिट्ट।

शूलघ्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] तुंबुरु वृक्ष।

शूलघ्न (२)
वि० शूल को शमन करनेवाला [को०]।

शूलघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सज्जी मिट्टी। सर्जिखार। २. नरसल जैसा एक पौधा (को०)।

शूलदावानल रस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रस। विशेष—यह दो तरह से बनता है—(१) शद्ध पारा, शुद्ध सींगी मुहरा, काली मिर्च, पिप्पली, सोंठ, भुनी हींग, पाँचो नमक, इमली का खार, जंभीरी का खार, शंखभस्म और नीबू के रस के योग से बनता है और शूल रोग को तत्काल दूर करता है। (२) शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, सिंगी मुहरा, पिप्पली, भूनी हींग,पाँचो नमक, इमली के खार और नीबू के रस में भुने हुए शंख की राख तथा नीबू के रस से बनता है और शूल, अजीर्ण, उदररोण और मंदाग्नि को दूर करता है।

शूलद्विट्
संज्ञा पुं० [सं० शूलद्विष्] हींग। हिंगु।

शूलधन्वा
संज्ञा पुं० [सं० शूलधन्वन्] शिव। महादेव।

शूलधर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। शंकर। उ०—गंगाधर हर शूलधर, ससिधर शंकर बाम। सर्वेस्वर भव शंभु शिव, रुद्र कामरिपु नाम।—नंद (शब्द०)।

शूलधरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।

शूलधारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा। शूलधरा।

शूलधारी
संज्ञा पुं० [सं० शूलधारिन्] त्रिशूल धारण करनेवाले शिव। महादेव। उ०—संध्यावलि पूजन जब होइ शूलधारी कौ, दुंदुभि की ठौर दीजो गरज सुनाइ कै।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)।

शूलधृक् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

शूलधृक् (२)
संज्ञा स्त्री० दुर्गा [को०]।

शूलना पु
क्रि० अ० [हिं० शूल + ना (प्रत्य०)] १. शूल के समान गड़ना। २. दुःख देना। पीड़ा देना। कष्ट देना। उ०—(क) सो युधि यदुनंदन नहिं भूलत। सुमिरि सुमिरि अजहूँ, उर शूलत।—सबल (शब्द०)। (ख) लै लै पिय को नाम ठाँव हमरो नहिं छोड़ै। कठिन तुम्हारो बोल जाइ हिरदै में शूलै।— गिरधर (शब्द०)।

शूलनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सौवर्चल लवण। २. हींग। ३. पुष्करमूल। ४. वैद्यक में एक प्रकार का चूर्ण। विशेष—यह चूर्ण शंखभस्म, करंजमूल, भूती हींग, सोंठ, काली मिर्च, पीपल और सेंधा नमक के योग से बनाया जाता है और इसका व्यवहार प्रायः शूलरोग में किया जाता है।

शूलनाशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूलरोग का नाश करनेवाली, हींग।

शूलनाशिनी वटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की बटी या गोली। विशेष—इसके लिये हड़ का छिलका, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, शुद्ध कुचला, शुद्ध गंधक, भूनी गंधक, भूनी हींग, सेंधा नमक जल से खरल करके चने के बराबर गोलियाँ बनाई जाती हैं। कहते हैं कि प्रातःकाल इसे गरम जल के साथ सेवन करने से संग्रहणी, अतिसार, अजीर्ण, मंदाग्नि आदि दूर होती है।

शूलनाशी
संज्ञा पुं० [सं० शसनाशिन्] हींग।

शूलनिर्मूलन
संज्ञा पुं० [सं०] दुःख का नाश करनेवाले, शिव। महादेव।

शुलपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की घास जिसे शूली भी कहते हैं।

शूलपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की घास जिसे शूली भी कहते हैं।

शूलपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ में शूल धारण करनेवाले, शिव। महादेव।

शूलपानि पु
संज्ञा पुं० [सं० शूलपाणि] शिव। महादेव। उ०— दारिद्रदमन, दुखदोष दाह—दावानल, दुनि न दयालु दूजो दानि शूलपानि सों।—तुलसी (शब्द०)।

शूलपाल
संज्ञा पुं० [सं०] वेश्यालय का रक्षक [को०]।

शूलप्रोत
संज्ञा पुं० [सं०] नरक के एक भाग का नाम।

शूलभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] शूलधारी शिव [को०]।

शूलमर्द्दन
संज्ञा पुं० [सं०] तालसखाना। कोकिलाक्ष।

शूलयोग
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के २७ योगों मे से एक योग। विशेष दे० 'शूल'—८।

शूलशत्रु
संज्ञा पुं० पुं० [सं०] रेंड़ का पेड़।

शूलशब्द
संज्ञा पुं० [सं०] पेट की गड़गड़ाहट के कारण होनेवाला शब्द।

शूलस्थ
वि० [सं०] शूली पर चढ़ा हुआ [को०]।

शूलहंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० शूलहन्त्री] शूल का नाश करनेवाली, अजवाइन। यवानी।

शूलहर
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्करमूल।

शूलहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ में शूल धारण करनेवाले, शिव। महादेव।

शूलहृत्
संज्ञा पुं० [सं०] हिंगु। हींग।

शूलांक
संज्ञा पुं० [सं० शूलाङ्क] शिव। महादेव।

शूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या। रंडी। २. सूली जिसके द्वारा प्राचीन काल में लोगों को प्राणदंड दिया जाता था। ३. छड़। सीख। सलाख।

शूलाकृत
संज्ञा पुं० [सं०] लोहे की सीख में खोंसकर भूना हुआ मांस। सीख पर भूना हुआ मांस। कबाब आदि।

शूलारि
संज्ञा पुं० [सं०] हिंगोट। इंगुदी वृक्ष।

शूलि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम। महादेव।

शूलि (२)
वि० शूल या कुंत धारण करनेवाला [को०]।

शूलि (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'सूली'।

शूलिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खरगोश। खरहा। २. सीख में गोदकर पकाया हुआ मांस। कबाब। ३. फाँसी देनेवाला। सूली देनेवाला। उ०—इन मघादि तीसरे मंडल के दैत्यगुरु यदि और किसी ग्रह से रूक जाँय तो पेड़ों के समूह, शबर, शूद्र, पुंड्र, पश्चिम की सीमा का अन्न, शूलिक, बनवासी, द्रविड़, समुद्र के पुरुषों का नाश हो जाता है।—बृहत्संहिता (शब्द०)। ४. कुक्कुट। मुर्गा (को०)। ५. ब्राह्मण या क्षत्रिय की वह जारज संतति जो शूद्रा से उत्पन्न हो (को०)।

शूलिक (२)
वि० १. प्रासधारी। शूल धारण करनेवाला। २. सलाख पर भुना हुआ [को०]।

शुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीख में गोदकर भूना हुआ मांस। कबाब। २. वह सीख जिसमें गोदकर मांस भूना जाता है (को०)।

शुलिकाप्रोत
संज्ञा पुं० [सं०] १. भांडीर वृक्ष। बट का वृक्ष। २. गुलर का पेड़। उदुंबर।

शूलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा का एक नाम जो त्रिशूल धारण करनेवाली मानी जाती हैं। २. पान। नागवल्ली। ३. पुत्रदात्री नाम की लता।

शूली (१)
संज्ञा पुं० [सं० शूलिन्] १. त्रिशूल धारण करनेवाले, शिव। महादेव। उ०—शृंगी शूली धूरजटी, कुंडलीश त्रिपुरारि। वृषा कपर्दी मानहर, मृत्युंजय कामारि।—सबल (शब्द०)। २.खरगोश। शशक। खरहा। ३. शूलरोग से पीड़ित व्यक्ति। वह जिसे शूलरोग हुआ हो। ४. एक नरक का नाम। उ०—(क) तेरहों शूली नरक कहावै। शूली सम दुख तामे पावै। जो नर पाप करै अधिकाई। करि शिकार मृग मारै जाई।—विश्राम (शब्द०)। (ख)—काहू को शस्त्रन ते मारै। तेहि यम शूली नरक में डारै।—विश्राम (शब्द०)। ५. कुंतधारी व्यक्ति। वह जो शूल धारण किए हो (को०)।

शूली (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'सुली'। उ०—नाहक नर शूली धरि दीन्हों। जिन बन माहिं ठगाही कीन्हों।—विश्राम (शब्द०)। (ख) कौन पाप मैं ऐसो कियो। जाते मोकूँ शूली दियो।— सूर (शब्द०)।

शूली (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० शूल] पीड़ा। शूल। उ०—सो सुधि भूप हिये महँ भूली। अजहूँ उठत जासु ते शूली।—सबल (शब्द०)। क्रि० प्र०—उठना।

शूली (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की घास। शूलीपत्री। विशेष—इस घास को पशु बड़े चाव से खाते हैं और इसका व्यवहार औषध रूप में भी होता है। वैद्यक के अनुसार यह किंचित उष्ण गुरु, बलकारक, पित्त तथा दाहनाशक और गौओं तथा भैसों का दूध बढ़ानेवाली मानी जाती।

शूलोत्खा, शूलोत्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमराजी लता। बकुची।

शूल्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सीख में बेधकर पकाया हुआ मांस। कबाब।

शूल्य (२)
वि० १. सीख पर भूना हुआ। २. शूली पर चढ़ाए जाने या शूली पाने योग्य [को०]।

शूल्यपाक
संज्ञा पुं० [सं०] कबाब।

शूल्यमांस
संज्ञा पुं० [सं०] कबाब।

शूल्यवाण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की भूतयोनि जिसका मान वैदिक काल में होता था।

शूष (१)
वि० [सं०] १. गुंजायमान। २. साहसी [को०]।

शूष (२)
संज्ञा पुं० १. गुंजित होता हुआ स्वर। २. साहस। शक्ति। वेग [को०]।

शृंखल
संज्ञा पुं० [सं० श्रङ्खल] १. एक प्रकार का आभरण जो प्राचीन काल में पुरुष लोग कमर में पहनते थे। मेखला। २. हाथी आदि के बाँधने की लोहे की जंजीर। साँकल। सिक्कड़। उ०—अंकुस घंट सुशृंखल जेऊ। चौदह सहस महा गज लेऊ।—पद्माकर (शब्द०)। ३. हथकड़ी बेड़ी। ४. नियम। ५. मापने की जंजीर (को०)। ६. परंपरा । सिलसिला (को०)। ७. बंधन (को०)।

शृंखलक
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्खलक] १. ऊँट। २. दे० 'शृंखल'। ३. वह जानवर जिसके पैर बँधे हों (को०)।

शृंखलता
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खलता] मिलसिलेवार या क्रमबद्ध होने का भाव।

शृंखलबद्ध
वि [सं० श्रृङ्खलबद्ध] १. नियमबद्ध। २. बंधन या जंजीर से बंधा हुआ [को०]।

शृंखला
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खला] १. क्रम। सिलसिला। २. जंजीर। साँकल। ३. पुरुष का कटिबंधन वस्त्र। मेखला। ४. चाँदी का एक आभूषण जिसे स्त्रियाँ कमर में पहनती हैं। करधनी। तागड़ी। श्रेणी। कतार। ६. एक प्रकार का अलंकार जिसमें कथित पदार्थों का वर्णन शृंखला के रूप में सिलसिलेवार किया जाता है।

शृंखलाबद्ध
वि० [सं० शृंङ्खालाबद्ध] १. जो क्रम से हो। सिलसिले- वार। २. जो शृंखला से बाँधा हुआ हो।

शृंखलि
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्खलि] कोलिलाक्ष। तालमखाना।

शृंखलित
वि० [सं० श्रङ्खलित] १. क्रमबद्ध। श्रेणीबद्ध। सिलसिले- वार। २. पिरोया हुआ। ३. निगडित। शृंखलाबद्ध (को०)।

शृंखली
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्खली] कोकिलाक्ष।

शृंग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत का ऊपरी भाग। शिखर। चोटी। २. गो, भैंस, बकरी आदि के सिर के सींग। उ०—भक्ति बिन बैल बिराने ह्वै हो। पाउ चारि सिर शृंग गुंग मुख तब कैसे गुण गैहो।—सूर (शब्द०)। ३. कँगूरा। उ०—जो कांचनीय रथ शृंग मयूर माली। जाके उदार उर षणमुख शक्तिशाली।— केशव (शब्द०)। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है। सिंगी बाजा। उ०— कंस ताल करताल बजावत श्रंग मधुर मुहचंग। मघुर खंजरी पटह प्रणव मिल सुख पावत रतभंग।—सूर (शब्द०)। ५. कमल। पद्म। ६. जीवक नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ७. सोंठ। ८. अदरक। आदी। ९. अगर। १०. प्रभुत्व। प्रधानता। ११. काम की उत्तेजना। १२. चिह्व। निशान। १३. स्तन। छाती। १४. एक प्राचीन ऋषि का नाम। वि० दे० 'ऋष्यशृंग'। १५. पानी का फौवारा या पिचकारी। १६. कूर्चशीर्षक वृक्ष (को०)। १७. उत्तुंगता। ऊँचाई (को०)। १८. चंद्रचूड़ा। चाँद की नोक (को०) १९. किसी वस्तु का अग्रभाग। नोक (को०)। २०. कोटि। चाप के सिरे का नुकीला अंश (को०)। २१. अभिमान। आत्मश्लाघा (को०)। २२. बाण का नुकीला दंड। बाणकांड (को०)। २३. एक प्रकार का सेना का व्युह (को०)। २४. हाथी का दाँत (को०)। २५. उत्कर्ष। अभ्युदय (को०)।

शृंग (२)
वि० नुकोला। तीक्ष्ण। तेज।

शृंगकंद
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गकन्द] सिंघाड़ा।

शृंगक
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गक] १. जीवक वृक्ष। २. सिंगिया नामक विष। ३. सींग (को०)। ४. चंद्रमा को नोक। चंद्रचूडा (को०)। ५. कोई भी नुकीला पदार्थ (को०)। ६. पिचकारी (को०)।

शृंगकूट
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गकूट] एक पर्वत का नाम।

शृंगगिरि
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गगिरि] दे० 'शृंगकूट'।

शृंगग्राहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उचित मार्ग। सीधा मार्ग। सरल विधि। २. एक न्याय। दे० 'शृंगग्राहिता न्याय'।

शृंगग्राहिता न्याय
संज्ञा पुं० [सं० श्रङ्गग्राहिता न्याय] एक न्याय जिसका उपयोग उस समय होता है, जब किसी कठिन काम का एक अंश हो जाने पर शेष अंश का संपादन उसी प्रकार सहज हो जाता है, जिस प्रकार सींग मारनेवाले बैल का एक सींग पकड़ लेने पर दूसरा सींग भी पकड़ लेना सहज हो जाता है।

शृंगज (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गज] १. अगर। अगरू। २. शर। तीर।

शृंगज (२)
वि० १. शृंगनिर्मित। २. शृंग से उत्पन्न [को०]।

शृंगधर
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्धर] पर्वत। पहाड़ [को०]।

शृंगनाभ
संज्ञा पुं० [सं० ऋङ्गानाभ] एक प्रकार का विष।

शृंगनाम्नी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गनाम्नी] काकड़ासिंगी। कर्कटशृंगी।

शृंगपुर
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गपुर] दे० 'शृंगवेरपुर'।

शृंगप्रहारी
वि० [सं० श्रृङ्गप्रहारिन्] सींग से प्रहार करनेवाला [को०]।

शृंगप्रिय
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गप्रिय] शिव [को०]।

शृंगभेदी
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गभेदिन्] गुंदा नामक तृण।

शृंगमूल
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गमूल] सिंघाड़ा।

शृंगमोही
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गमोहिन्] चंपक वृक्ष। चंपा।

शृंगरूह
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङगरुह] सिंघाड़ा।

शृंगला
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गला] मेढ़ासिंगी।

शृंगवत्
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवत्] पुराणानुसार कुरुवर्ष की सीमा पर के एक पर्वत का नाम।

शृंगवाद्य
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवाद्य] सिंधा। सींग का बना बाजा। सिंगी।

शृंगवान् (१)
वि० [सं० श्रृङ्गवत्] शिखरयुक्त। शृंगयुक्त। चोटीवाला [को०]।

शृंगवान् (२)
संज्ञा पुं० १. पर्वत। २. शृंगवत् नामक गिरि [को०]।

शृंगवृष
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवृष] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

शृंगवेर
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवेर] १. आदी। अदरक। २. सोंठ। ३. महाभारत के अनुसार एक नाग का नाम। ४. दे० 'शृंगवेरपुर'।

शृंगवेरक
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवेरक] १. अदरक। आदी। २. सोंठ।

शृंगवेरपूर
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवेरपुर] रामायण के अनुसार एक प्राचीन नगर का नाम। उ०—(क) ता देन श्रृगवेरपुर आए। राम सखा ते समाचार सुनि बारि बिलोचन छाए।—तुलसी (शब्द०)। (ख) छलि पुरबासिन को आए शृंगवेरपुर खबरि निषाद राजै कोऊ कही जाइकै।—रघुराज (शब्द०)। विशेष—रामचंद्र के समय में यह निषाद राजा गुह की राजधानी थी। संभवतः प्रतापगढ जिले का सिंगरौरा (आधुनिक इलाहाबाद जिले का गंगातट पर बसा हुआ सिंगरौर) नामक गाँव ही प्राचीन शृंगवेरपुर है। गोस्वामी तुलसोदास कृत रामचरितमानस में इसका एक नाम सिंगरौर भी आया है।

शृंगवेराभमूल
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गवेराभमूल] गुंदा नामक तृण।

शृंगवेरिका
संज्ञा स्त्री०[सं० श्रृङ्यवेरिका] गोभी।

शृंगसुख
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गसुख] सिंगी या सिंघा नामक बाजा।

शृंगाट
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गाट] १. सिंघाड़ा। २. गोखरू। ३. कँटाई। विकंकत। ४. कामरूप देश के एक पर्वत का नाम। ५. चौराहा। चौमुहानी।

शृंगाटक
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ् गाटक] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो मांस से बनाया जाता था। २. एक मर्मस्थान जो सस्तक में उस स्थान पर माना जाता है, जहाँ नाक, कान, आँख और जीभ से संबंध रखनेवाली चारों शिराएँ मिलती हैं। विशेष—कहते हैं, यह मर्मस्थान चार अंगुल का होता है और इसके चारों ओर से चारों शिराएँ निकलती हैं; इसी से इसे शृंगाटक कहते हैं। यह भी माना जाता है कि इस स्थान पर चोट लगने से तुरंत मृत्यु हो जाती है। ३. सिंघाड़ा। दे० 'शृंगाट'। ४. तीन चोटियोंवाला पहाड़ (को०)। ५. द्वार। दरवाजा (को०)। ६. एक प्रकार का सिंघाड़े के आकार का पकवान। समोसा (को०)। ७. चौराहा (को०)। ८. काँटा। कंटक (को०)।

शृंगाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० शृंङ्गाटिका] तौमुहानी। चौराहा।

शृंगाटी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गाटी] जीवंती।

शृंगार
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गार] १. साहित्य के अनुसार नौ रसों में से एक रस जो सबसे अधिक प्रसिद्ध है और प्रधान माना जाता है। उ०—जाको थायी भाव रस, सो शृंगार सुहोत। मिलि विभाव अनुभाव पुनि संचारिन के गोत।—पद्माकर (शब्द०)। विशेष—इसमें नायक नायिका के परस्पर मिलन के कारण होनेवाले सुख की परिपुष्टता दिखलाई जाती है। इसका स्थायी भाव रति है। आलंबन विभाव नायक और नायिका हैं। उद्दीपन विभाव सखा, सखी, वन, बाग आदि, विहार, चंद्र- चंदन, भ्रमर, झंकार, हाव भाव, मुसक्यान तथा विनोद आदि हैं। यही एक रस है जिसमें संचारी विभाव, अनुभाव सब भेदों सहित होता है; और इसी कारण इसे रसराज कहते हैं। इसके देवता विष्णु अथवा कृष्ण माने गए हैं और इसका वर्ण श्याम कहा गया है। यह दो प्रकार का होता है—एक संयोग और दूसरा वियोग या विप्रलंभ। नायक नायिका के मिलने को संयोग और उनके विछोह को वियोग कहते हैं। २. स्त्रियों का वस्त्राभूषण आदि से शरीर को सुशोभित और चित्ताकर्षक बनाना। सजावट। संग सखी सोहैं बिधि बारा। कीन्हें तन षोड़श शृंगारा।—रधुनाथ (शब्द०)। विशेष—शृंगार १६ कहे गए हैं—अंग में उबटन लगाना, नहाना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, बाल सँवारना, काजल लगाना, सेंदुर से माँग भरना, महावर देना, भाल पर तिलक लगाना, चिबुकपर तिल बनाना, मेंहदी लगाना, अर्गजा आदि सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग करना, आभूष्ण पहनना, फूलों की माला धारण करना, पान खाना, मिस्सी लगाना। जैसे—अंग शुची मंजन बसन, माँग महावर केश। तिलक भाल तिल चिबुक में भूषण मेंहदी वेश। मिस्सी काजल अर्गजा, बीरी और सुगंध। पुष्प कली युत होय कर, तब नव सप्त निबंध। ३. किसी चीज को दूसरे सुंदर उपकरणों से सुसज्जित करना। सजा- वट। बनाव चुनाव। ४. भक्ति का एक भाव या प्रकार जिसमें भक्त अपने आप को पत्नी के रूप में और अपने इष्टदेव को पति के रूप में मानते हैं। उ०—शति दास्य सख्य वात्सल्य और शृंगारु चारु पाँचौ रस सार विस्तार नीक गाए हैं।—नाभादास (शब्द०)। ५. वह जिससे किसी चीज की शोभा बढ़ती हो। उ०—यशुमति कोखि सराहि बलैया लेन लगी ब्रजनार। ऐसो सुत तेरे गृह प्रकट्यो या ब्रज को शृंगार।—सूर (शब्द०)। ६. लौंग। ७. सेंदुर। ८. अदरक। ९. चूर्ण। चूरन। १०. काला अगर। ११. सोना। १२. रति। मैथुन। १३. हाथी की सूँड़ पर चित्रित सिंदुर की रेखाएं (को०)।

शृंगारक (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारक] १. सेंदुर। २. लौंग। ३. अद- रक। आदी। ४. काला अगर।

शृंगारक (२)
वि० सींग का बना हुआ। शृंग से निर्मित। सींग सबंधी [को०]।

शृंगारगर्व
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारगर्व] १. प्रेम का गर्व। २. सजाव- बनाव का अभिमान।

शृंगारगर्व
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गारचेष्टा] शृंगारजन्य क्रिया। कामचेष्टा। अनुराग, रति, सभोग आदि को व्यक्त करना [को०]।

शृंगारचेष्टित
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारचेष्टित] दे० 'शृंगारचेष्टा'।

शृंगारजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारजन्मन्] कामदेव या मदन का एक नाम।

शृंगारण
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारण] १. किसी रूपवती स्त्री को देखकर उसपर अपनी कामवासना प्रकट करने की क्रिया। प्रेम प्रदर्शन। मुहब्बत जतलाना। २. शृंगार करना। सजाना। सिंगारना।

शृंगारधारी
वि० [सं० श्रृङ्गारधारिन्] जिसका शृंगार हुआ हो। जो सजाया गया हो। रंगबिरंगो रेखाओं और भूषणों से शोभित।

शृंगारना
वि० सं० [सं० श्रृङ्गार से नाम०] आभूषण आदि से या और किसी प्रकार सँवारना। शृंगार करना। सजाना।

शृंगारभाषित
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारभाषित] प्रेमालाप। प्रणय- वार्ता। केलिसंलाप [को०]।

शृंगारभूषण
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारभूषण] १. सेंदुर। सिंदुर। २. हड़ताल।

शृंगारमंडल
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारमण्डल] १. व्रज का एक स्थान जहाँ पर श्रीकृष्ण ने राधिका का शृंगार किया था। २. वह स्थान जहाँ प्रेमी और प्रेमिका मिलकर कामक्रीड़ा करते हों। क्रीड़ास्थल।

शृंगारयोनि
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारयोनि] मदन या कामदेव का एक नाम।

शृंगार रस
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गार रस] साहित्य शास्त्र के ९ रसों में पहला रस। विशेष दे० 'शृंगार'—१।

शृंगारलज्जा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गारलज्ज] प्रेम वा कामजन्य अनुरक्ति के कारण उत्पन्न लज्जा [को०]।

शृंगारविधि
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गार विधि] दे० 'शृंगारवेश'।

शृंगारवेश
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारवेश] वह सुंदर वेश जिसे धारण करके प्रेमी अपनी प्रेमिका के पास जाता है।

शृंगारसहाय
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गार सहाय] नायक नायिका के प्रेम व्यापार में सहायता देनेवाला व्यक्ति। प्रेम व्यापार में मध्यस्थ रहनेवाला व्यक्ति। नर्मसचिव [को०]।

शृंगारहाट
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गार + हिं० हाट] १. वह बाजार जहाँ वेश्याएँ रहती हों। चकला। उ०—पुनि शृंगारहाट भल देसा। किए सिंगार बैठि तहँ बेसा।—जायसी (शब्द०)। २. वह बाजार जहाँ शृंगार की वस्तुएँ बिकती हों।

शृंगारिक
वि० [सं० श्रृङ्गारिक] शृंगार संबंधी। न०—ललित लताओं को पहले के अपने सब शृंगारिक भाव। हरिण, नारियों को नयनों की चंचलता का सहज स्वभाव।—महावीरप्रसाद (शब्द०)।

शृंगारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गारिणी] १. शृंगार करनेवाली स्त्री। शृंगारप्रिय। २. एक वृक्त का नाम जिसके प्रत्येक पाद में चार रगण (SIS) होते हैं। इसको 'स्त्रग्विणी', 'कामिनी', 'मोहन', 'लक्ष्मीधारा' और 'अक्ष्मीधर' भी कहते हैं।

शृंगारित
वि० [सं० श्रृङ्गारित] १. जिसका शृंगार किया गया हो। सजाया हुआ। सँवारा हुआ। २. भूषित। सज्जित। सजा हुआ (को०)। ३. प्रेमाभिभूत। कामाभिभूत (को०)। ४. चित्रित। रँगा हुआ (को०)।

शृंगारिया
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गार + हिं० इया (प्रत्य०)] १. वह जो देवताओं आदि का शृंगार करता हो। २. नाटक, लीला आदि में मेक अप करनेवाला। वह जो लीला की मूर्तियों का शृंगार करता हो। ३. वह जो तरह तरह के भेस बनाता हो। बहुरूपिया।

शृंगारी (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गारिन्] १. सुपारी। २. मानिक। चुन्नी। ३. हाथी। ४. शृंगारयुक्त वा कामोत्तेजनायुक्त व्यक्ति (को०)। ५. वेशभूषा। सजावट (को०)। ६. पान का बीड़ा बनाना (को०)। ७. सुंदर वेशभूषा वाला या सजा हुआ व्यक्ति (को०)।

शृंगारी (२)
वि० १. प्रेमासक्त। २. शृंगार या प्रेम संबंधी। ३. सिंदूर या गेरू से चित्रित [को०]।

शृंगारुहा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गरुहा] सिंघाड़ा। शृंगाटक।

शृंगांलिका, शृगाली संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गालिका, श्रृङ्गाली] विदारीकंद।

शृंगाह्व
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गाह्व] १. जीवक नामक अष्टवर्गीय ओषधि। २. सिंघाड़ा।

शृंगाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गाह्वा] १. जीवक। शृंगाह्व। २. सिंघाड़ा।

शृंगि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गि] सिंगी मछली।

शृंगि (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गि] आभूषण में प्रयुक्त वा आभूषण तैयार करने का सोना [को०]।

शृंगि (३)
संज्ञा पुंय [सं० श्रृङ्गिन्] वह पशु जिसके सिर पर सींग हो। सींगवाला जानवर। उ०—नखी, नदी और शृंगि जो धरत शस्त्र निज पास। राजवंस औ नारि में करु न कबहुँ विश्वास।—सीताराम (शब्द०)।

शृंगिक
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गिक] १. सिंगिया विष। २. एक प्रकार का वाद्य। सिंगी (को०)।

शृंगिका
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गिका] १. बहुत प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था। सिंगी। २. अतीस। अतिविषा। ३. काकड़ासिंगी। ४. मेढ़ा- सिंगी। ५. पिप्पली। पीपल।

शृंगिण
संज्ञा पुं० [सं० शृंङ्गिण] १. जंगली मेढ़ा। मेष। २. वह जो सींगवाला हो [को०]।

शृंगिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गिणी] १. गाय। गौ। २. मल्लिका। मोतिया। ३. मालकंगनी। ज्योतिष्मती लता। ४. अतीस। अतिविषा।

शृंगी (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गिन्] १. हाथी। हस्ती। २. वृक्ष। पेड़। ३. पर्वत। पहा़ड़। ४. एक ऋषि जो शमीक के पुत्र थे। इन्हीं के शाप से अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को तक्षक ने डसा था। उ०—(क) शृंगी ऋषि तब कियो विचार। प्रजा दुःख कर नृपत गुहार।—सूर (शब्द०)। (ख) जहँ शृंगी ऋषिवर तप करहीं। चर्म नयन सो देखि न परहीं।—राधा- कृष्ण (शब्द०)। ५. बरगद। ६. पाकड़। ७. अमड़ा। ८. ऋषभक, नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ९. सींगवाला पशु। जैसे,—गौ, बैल, बकरी आदि। १०. जीवक नामक ओषधि। ११. सिंगिया नामक विष। १२. सींग का बना हुआ एक प्रकार का बाजा, जिसे कनफटे बजाते हैं। उ०—शृंगी शब्द धंधरी करा। जरै सो ठाठ जहाँ पग धरा।—जायसी (शब्द०)। १३. महादेव। शिव। उ०—शृंगी शूली धूरजटि, कुंडलीश त्रिपुरारि। बृषा कपर्दी मानहर, मृत्युंजय कामारि।—सबल (शब्द०)। १४. एक प्राचीन देश का नाम। उ०—शृंगी सिंधु कच्छ के राई। आए सकल समेत सहाई।—सबल (शब्द०)। १५. मेष। भेड़ा (को०)। १६. वृष। बैल (को०)। १७. शिव का एक गण (को०)।

शृंगी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गी] १. अतीस। २. काकड़ासिंगी। ३. सिंगी मछली। ४. मजीठ। मंजिष्ठा। ५. आँवला। ६. पोई का साग। ७. ऋषभक नामक ओषधि। ८. पाकर। ९. वट। बड़। १०. विष। जहर। ११. वह सोना जिससे गहने बनाए जाते हैं।

शृंगीक
संज्ञा पुं० [सं० श्रङ्गीक] काकड़ासिंगी।

शृंगीकनक
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गीकनक] वह सोना जिससे गहने बनाए जाते हैं।

शृंगीगिरि
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गीगिरि] एक प्राचीन पर्वत का नाम जिसपर शृंगी ऋषि तप किया करते थे। उ०—पूरण काम ज्ञान णन राजा। शृंगी गिरि गवने यति राजा। जहँ शृंगी ऋषि वर तप करहीं। चर्म नयन सो देखि न परहीं।— राधाकृष्ण (शब्द०)।

शृंगेरी
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गेरी] १. मैसूर (दक्षिण भारत) का एक पर्वत। २. शंकराचार्य के मतानुयायी संन्यासियों का एक प्रसिद्ध मठ। विशेष—यह स्थान मैसूर (दक्षिण भारत) में है। इसके प्रधान अधीश्वर शंकराचार्य कहलाते हैं। आद्य शंकराचार्य द्वारा भारत में स्थापित चार पीठों में यह एक है। शृंगगिरि पर स्थित होने से इसे शृंगेरी कहते हैं।

शृंगोन्नति
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृङ्गोन्नति] ग्रहों और नक्षत्रों आदि की एक प्रकार की गति।

श्रंगोष्णीश
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गोष्णीश] सिंह। मृगेंद्र। पंचास्य [को०]।

श्रृकाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'श्रृगाल'।

श्रृग पु
संज्ञा पुं० [सं० श्रृगाल] दे० 'श्रृगाल'। उ०—बहुतन कंक काक श्रृग श्वाना। भक्षत करत कटकटी नाना।—विश्राम (शब्द०)।

श्रृगाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गीदड़ नामक जंगली जंतु। सियार। जंबुक। विशेष दे० 'गीदड़'। उ०—व्याघ्र कुरंग श्रृगाल शशादी। कानन नर बानर चित्तादी।—सबल (शब्द०)। २. एक दैत्य का नाम। ३. वासुदेव। कृष्ण।

श्रृगाल (२)
वि० १. कायर। भीरु। डरपोक। २. क्रूर। निष्ठुर। निर्दय। ३. खल। दुष्ट।

श्रृगालकंटक
संज्ञा पुं० [सं० श्रृगालकण्टक] भरभाँड़ या सत्यानासी नाम का कँटीला क्षुप।

श्रृगालकोलि
संज्ञा पुं० [सं०] उन्नाब। कर्कधु।

श्रृगालघंटी
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृगालघणटी] तालमखाना। कोकिलाक्ष।

श्रृगालजंबु
संज्ञा पुं० [सं० श्रृगालजम्बु] १. गोडुंबा। गोमा ककड़ी। २. कर्कधु। उन्नाब। ३. तरबूज।

श्रृगालजंबू
संज्ञा पुं० [सं० श्रृगालजम्बू] दे० 'श्रृगालजंबु' [को०]।

श्रृगालयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूसरे जन्म में श्रृगाल रूप में जन्म लेना [को०]।

श्रृगालरूप
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।

श्रृगालविन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन। पृश्निपर्णी।

श्रृगालवृंता
संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृगालवृन्ता] पृश्निपर्णी [को०]।

श्रृगालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विदारी कंद। २. पुश्निपर्णी। पिठवन। ३. सियारिन। गीदड़ी। ४. लोमड़ी। ५. भय से पलायन की क्रिया।

श्रृगाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तालमखाना। २. बिदारी कंद। ३. गीदड़ की मादा। गीदड़ी। ४. भयजन्य पलायन (को०)।

श्रृणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गजबाग। अंकुश। आँकुस। २. पैना।

श्रृत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्वाथ। काढ़ा। २. औटा हुआ दूध।

श्रृत (२)
वि० १. उद्वेलित। खौलाया हुआ। २. पकाया हुआ [को०]।

श्रृतपाक
वि० [सं०] पूर्णतः पक्व। पूरी तौर से पकाया हुआ [को०]।

श्रृतशीत
संज्ञा पुं० [सं०] औटाया हुआ पानी जो प्रायः ज्वर के रोगियों को दिया जाता है और वैद्यक के अनुसार रक्तविकार, वमन, ज्वर और संनिपात आदि रोगों का नाशक माना जाता है।

श्रृदर
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प। साँप [को०]।

श्रृद्ध
वि० [सं०] १. आर्द्र। गीला। २. शरीर के भीतर से नीचे की ओर निकाला हुआ (वायु)। जैसे, अपान [को०]।

श्रृधु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मलद्वार। गुदा। २. बुद्धि।

श्रृधू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गुदा। मलद्वार।

श्रृधू (२)
वि० कुत्सित। बुरा। खराब।

श्रृष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] कंस के आठ भाइयों में से एक। उ०— श्रृष्टि सुनामा कंक सुहु राष्ट्रपाल न्यग्रोध। शंकु तुष्टि ए शस्त्रधर योधा पूरित क्रोध।—गोपाल (शब्द०)।