संस्कृत वर्णमाला का ग्यारहवाँ और देवनागरी वर्ममाला का आठवाँ स्वर वर्ण । शिक्षा में यह संध्यक्षर माना गया है और इसका उच्चारण कंठ और तालु से होता है । यह अ और इ के योग से बना है, इसीलिये यह कंठतालव्य है । संस्कृत में मात्रानुसार इसके केवल दीर्घ और प्लुत दो ही भेद होते है; पर हींदी में इसका ह्यस्व या एकमात्रिक उच्चारण भी सुना जाता है । जैसे,—एहि विधि राम सबहिं समुझावा ।—तुलसी । भाषा वैज्ञानिक इसे स्पष्ट करने के लिये इनके ऊपर एक टेढ़ी 'ए' की मात्रा 'लगाते हैं । पर इसके लिये कोई और संकेत नहीं माना गया है । मौके के अनुसार ह्यस्व पढ़ा जाता है । प्रत्येक के सानुनासिक और निरनुनासिक दो भेद होते हैं ।

एँगुर † पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ईँगुर' । उ०—अभरक कै तनु एँगुर कीन्हा । सो तुम फेरि अगिनि महँ दीन्हा ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० ३२१ ।

एँचपेंच
संज्ञा पुं० [फा० पेच या सं० अति+ अन्च; प्रा० अइंच +फा० पेंच] १. उलझाव । उलझन । घुमाव फिराव । अटकाव । २. टेढ़ी चाल । चाल । घात । गुढ़ युक्ति । क्रि० प्र०—करना ।—डालना ।—होना ।

एंजिन
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'इंजन' । उ०—पुतलीघर में एंजिन चलाते हुए देशी साहब की अपेक्षा खेत में हल चालते हुए किसान में अधिक स्वाभाविक आक्रषण हैं । —राम०, पृ० १४६ ।

एँड़ाबेंड़ा
वि० [हिं० बेंड़ा+ अनु० एँड़ा; या हिं० एँड़ा+ बेंड़ा] [स्त्री० एँड़ीबेंड़ी] उलटा सीधा । अंडबंड । मुहा०—ऐंड़ी बेंड़ी सुनाना=भला बुरा कहना । फटकारना् ।

एँड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० एरण्ड़िका प्रा०, एआँडिआ] १. एक प्रकार का रेशम का कीड़ा । विशेष—यह कीड़ा अंड़ी के पत्ते खाता है । यह पुर्वी बंगाल तथा आसाम के जिलों में होता है । जो कीड़े नवंबर, फरवरी और मइ में रेशम बनाते हैं उनका रेशम बहुत अच्छा समझा जाता है । मुँगा से अंडी का रेशम कुछ घट कर होता है । इसे अंडी या एँड़ी भी कहते हैं । २. इस कीड़े का रेशम । अंडी । मूँगा ।

एँड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'एड़ी' । उ०—क्या बुरे से बुरे दुखों को सह, एँड़ियाँ ही घिसा करेंगे हम ।—चुभते०, पृ० २३ ।

एँड़ुआ
संज्ञा पुं० [हिं० ऐड़ना] [स्त्री० अल्पा० एँड़ुई] रस्सी, कपड़े आदि का बना हुआ गोल मँड़रा जिसे गद्दी की तरह सिर पर रखकर मजदूर लोग बोझ उठाते हैं । गेंड़री । बिड़ुआ । बिना पेंदे के बरतनों के नीचे भी एडुआ लगाया जाता है जिसमें वे लुढ़क न जायँ ।

ए (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।

ए (२)
अव्य०[हिं०] एक अव्यय जिसे संबोधन या बुलाने के लिये प्रयोग करते हैं । उ०—ए! बिधिना जो हमैं हँसतीं अब नेक कहीं उतको पग धारैं । —रसखान (शब्द०) ।

ए (३) पु
सर्व० [सं० एष, > प्रा० एह] यह । उ०—दुरैं न निधरघटयौ दियै ए रावरी कुचाल । विषु सी लागाति है बुरी, हँसी खइसी की लाल । —बिहारी र०, दो० ४८२ ।

एकंक पु
क्रि० वि० [सं० एक अङ्ग] निश्चय । इकंक । इकआँक । उ०—ये गेह के लोग धौ कातकी न्हान कौं ठानिहैं कल्हि एकंक ही गौन । —भिखारी०, ग्रं०, भा०१, पृ० २४५ ।

एकंग
वि० [सं० एक +अङ्ग =एकांग] अकेला । तनहा ।

एकंगा
वि० [सं० एक +अङ्ग =ओर, तरफ] एक ओर का । एकतरफा ।

एकंगी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० एक+ अंगी] मुठिया लगा हुआ दो डेढ़ गज लंबा लटटूदार डंडा जिसे हाथ में लेकर लकड़ी खेलनेवाले लकड़ी खेलत हैं । इसी डंडे से वार भी कहते हैं और रोकते भी हैं ।

एकंगी (२)
वि० [सं० एकांङ्गी] एक ओर या पक्ष का । एकतरफा । एकांगी । उ०—चंद की चाह चकोर मरै अरु दीपक चाह जरै जो पतंगी । ये सब चाहैं, इन्हैं नहिं कोऊ, सो जानिए प्रीति की रीति एकंगा । —(शब्द०) ।

एकँड़िया (१)
संज्ञा पुं० [सं० एकाण्ड] १. वह घोड़ा या बैल जिसके एक ही अंडकोष हो । २. वह लहसुन की गाँठ जिसमें एक ही अंडी हो । एकपुतिया लहसुन ।

एकँड़िया (१)
वि० एक अंडे का ।

एकंत पु
वि० [सं० एकान्त] जहाँ कोई न हो । एकांत । निराला । सूना । जैसे—एकांत स्थान में मैं तुमसे कुछ कहुँगा । उ०— आइ गयो मतिराम तहाँ घर जानि एकंत अनंद से चंचल ।—मतिराम (शब्द०) ।

एकंतरि पु
वि० [सं० एकान्तर] एक के अंतरवाला । एक व्यवधानवाला । उ०—बाँणी सुरग सोधि करि आँखौ आँणो नौ रँग धागा । चंद सुर एकंतरि कीया सीवत बहु दिन लागा ।—कबीर ग्रं०, पृ० १६० ।

एक
वि० [सं०] १. एकाइयों में सबसे छोटी और पहली संख्या । वह संख्या जिससे जाति या समूह में से किसी अकेली वस्तु या व्यक्ति का बोध हो । २. अकेला । एकता । अद्वितीय । बेजोड़ । अनुपम । जैसे—वह अपने ढंग का एक आदमी है । उ०—प्रभु देखौ एक सुभाई । अति गंभीर उदार उदधि हरि, जान सिरोमनि राइ । —सुर०, १ ।८ । ३. कोई । अनिश्चित । किसी । जैसे—सबको एक दिन मरना है । उ०—एक कहैं अमल कमल मुख सीता जु को, एक कहैं चंद्र सम आनँद को कंद री । —रांमचं०, पृ० ५३ । ४. एक प्रकार का । सामान । तुल्य । जैसे—एक उमर के चार पाँच लड़के खेल रहे हैं । उ०—एक रूप तुम भ्राता दोऊ ।—मानस, ४८ । मुहा०—एक अंक या एक आँक=एक बात । ध्रुव बात । पक्की बात । निश्चय । उ०—(क) मुख फेरि हँसैं सब राव रंक । तेहि धरे न पैहू एक अंक । —कबीर (शब्द०) । (ख) जाउँ राम पहिं आयेसु देहु । एकहि आँक मोर हित एहू । — मानस, २ ।१७८ । एक अनार सौ बीमार=किसी चीज के अनेक चाहनेवाले । एक आँख देखना=समान भाव रखना । एक ही तरह का बर्ताव करना । एक आँख न भाना=तनिक भी अच्छा न लगना । नाम मात्र पसंद न आना । उ०— 'हमें यह बातें एक आँख नहीं भाती; जब देखो बमचख मची हुई हैं ।' —सैर०, पृ० ३२ । एक आधा (वि०)=थोड़ा । कम । इक्का दुक्का । जैसे—(क) सब लोग चले गए हैं एक आध आदमी रह गए हैं । (ख) अच्छा एक आध रोटी मेरे लिये भी रहने देना । एक एक=(१) हर एक । प्रत्येक । जैसे—एक एक मुहताज को दो दो रोटियाँ दो । (२) अलग अलग । पृथक् पृथक् । जैसे—एक एक आदमी आवे और अपने हिस्से को उठा उठा चलता जाय । (३) बारी बारी । क्रमश? । जैसे—एक एक लड़का मदरसे से उठे और घर की राह ले । एक एक करके=एक के पीछे दूसरा । धीरे धीरे । जैसे,—यह सुन सब लोग एक एक करके चलते हुए । एक एक के दो दो करना=(१) काम बढ़ाना । जैसे— एक एक के दो दो मत करो झटपट काम होनो दो । (२) व्यर्थ समय खोना । दिन काटना । जैसे—वह दिन भर बैठा हुआ एक एक के दो दो किया करता है । उ०—कहना, एक एक के दो दो कर रहे हैं और नहीं ।—फिसाना०, भा०३, पृ० २९० । एक ओर या एक तरफ=किनारे । दाहिने या बाएँ । जैसे—'एक तरफ खड़े हो, रास्ता छोड़ दो ।' एक और एक ग्यारह करना=मिलकर शक्ति बढ़ाना । एक और एक ग्यारह होना=कई आदामियों के मिलने से शक्ति बढ़ना । एक कलम=बिल्कुल । सब । एकदम । जैसे—(क) 'साहब ने उनको एक कमल बरखास्त कर कर दिया' । (ख) 'इस खेत में एक कलम ईख ही बो दी गई' । एक के स्थान पर चार सुनना=एक कड़ी बात के बदले चार कड़ी बातें सुनना । उ०—'वरंच एक के स्थान पर चार सुनने ही पर सन्नद्ध होते हैं । —प्रेमघन०, भा०२, पृ० २८५ । एक के दस सुनाना=एक कड़ी बात के बदले दस कड़ी बातें सुनाना । एक जान=खूब मिला जुला । जो मिलकर एक रूप हो गया हो । (अपनी और किसी की) एक जान करना= (१) किसी की अपनी सी दशा करना । (२) मारना और मर जाना । जैसे—'अब फिर तुम ऐसा करोगे तो मैं अपनी और तुम्हारी जान एक कर दुँगा । एक जान दो कालिब= एक प्राण दो शरीर । अत्यंत कर दूँगा । एक जान दो कालिब= एक प्राण दो शरीर । अत्यंत घनिष्ठ । गहरी दोस्ती । जैसे— 'इन दोनों साहिबों में एक जान दो कालिब का मुआमला है' ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० ६२ । एक टाँग फिरना=बराबर घूमा करना । बैठकर दम भी न लेना । एक टक=(१) बिना आँख की पलक मारे हुए । अनिमेष । स्थिर दृष्टि से । नजर गड़ाकर । उ०—(क) भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा । मानस, २ ।१९५ । (ख) उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारी ।—मानस, २ ।३०२ । एक टाक आसा लगाना= लगातार बहुत दिन से आसारा बँधा रहना । उ०—जन्म तें एकटक लागि आसा रही विषय विष खात नहिं तृप्ति मानी । सूर०, १ ।११० । एक ताक=सामन । बराबर । भेदरहित । तुल्य । उ०—सखन संग हरि जेंवत छाक । प्रेम सहित मैया दै पठयौ सबै बनाए है एक ताक ।—सूर० (शब्द०) । एक तार=वि० (१) एक ही नाप का । एक ही रूप रंग का । समान । बराबर । (२) (क्रि० वि०) समभाव से । बराबर । लगातार । उ०—का जानौं कब होयगा हरि सुमिरन एक तार । का जानौ कब छाँड़िहै यह मन विषय विकार ।— दादू (शब्द०) । एक तो=पहले तो । पहिली बात तो यह कि । जैसे—(क) 'एक तो वह यों ही उजड्ड है दूसरे आज उसने भाँग पी ली है' । (ख) 'एक तो वहाँ भले आदमियों का संग नहीं दूसरे खाने पीने की भी तकलीफ' । एक दम= (१) बिना रुके । एक क्रम से । लगातार । जैसे—(क) 'यह सड़क एकदम चुनार चली गई है' । (ख) 'एक दम घर ही चले जाना बीच में रुकना मत ।' (२) फौरन । उसी समय । जैसे—'इतना सुनते ही वह एकदम भागा ।' (३) एक बारगी । एक साथ । जैसे—'एकदम इतना इतना बोझ मत लादो कि बैल चल ही न सके । उ०—'साधारण लोग कहैंगे कहाँ का दरिद्र एकदम से आ गया जो घर की चीजें बेच डालते है ।'—प्रताप० ग्रं०, पृ० ० ० ० ० ० । (४) बिल्कुल । नितांत । जैसे—'हमने वहाँ का आना जाना एकदम बंद कर दिया' । (५) जहाज में यह वाक्य कहकर उस समय चिल्लाते हैं जब बहुत से जहाजियों को एक साथ किसी काम में लगाना होता हैं । एक दिल=(१) खुब मिला जुला । जो मिलकर एक रूप हो गया हो । जैसे,—'सब दवाओं को खरल में घोंटकर दिल कर डालो' । (२) एक ही विचार का । अभिन्नहृदय । एक दीवार रुपया=हजार रुपए । (दलाल) । एक दूसरे, का, षर, में, से=परस्पर । जैसे—(क) 'वे एक दूसरे का बड़ा उपकार मानते हैं' । (ख) 'वहाँ कोई एक दूसरे से बात नहिं कर सकता' । (ग) मित्र एक दूसरे में भेद नहीं मानतें' । (घ) 'वे एक दुसरे पर हाथ रखे जाते थे । एक न चालाना या एक एक नहीं चल पाना=कोई युक्ति सफल न होना । एक नमानना=विरोध में कोई बात न सुनना । एक पास=पास पास । एक ही जगह । परस्पर निकट । उ०—(क) रची सार दोनों एक पासा । होय जुग जुग आवाहिं कैसासा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) जलचर वृंद जाल अंतरगत सिमिटि होत एक पासा ।—तुलसी (शब्द०) । एक पेट के=सहोदर । एक ही माँ से उत्पन्न (शब्द०) । एक ब एक=अकस्मात् । अचानक । एकबारगी । एक बात=(१) दृढ़ प्रतिज्ञा । जैसे—'मर्द की एक बात' । (२) ठीक बात । सच्ची बात । जैसे—'एक बात कहो' । मोलचाल मत करो ।' । एकमएका होना=एक दिल होना । खूब मिलजुल जाना । उ०—एकम- एका होन दे बिनसन दै कैलास । धरती अंबर जान दे मो में मेरे दास ।—कबीर सा०, सं०, य़भा१, पृ० २१ । एक मामला=कई आदमियों में परस्पर इतना हेलमेल कि किसी एक का किया हुआ दूसरों को स्वीकार हो । जैसे—'हमारा उनका तो एक मामला है' । एक मुँह से कहना, बोलना आदि=एकमत होकर कहना । एक स्वर से कहना । जैसे—'सब लोग एक मुँह से यही बात कहते हैं ।' एक मुँह कोहर कहना बोलना इत्यादि=एक मत होकर कहना । एक मुश्त या एक मुटठ=एक साथ । एक बारगी । इकट्ठा (रुपये पैसे के संबंध में) । जैसे—जो कुछ देना हो एकमुश्त दिजिए, थोड़ा थोड़ा करके नहीं ।' एकमेक होना=एकाकार होना । परस्पर मिलाकर एक समान होना । एक लख्त=एकदम । एकबारगी । एक समझना=भेद न मानना । अभिन्न समझना । उ०— 'बादल और आसमान को यह लोग एक समझते हैं' । सैर०, भा०१, पृ० १२ । एक सा=समान । बराबर । एक से एक, एक ते एक=एक से एक बढ़कर । जैसे,— 'वहाँ एक से एक महाजन पड़े हैं ।' उ०—एक ते एक महा रनधीरा । —मानस (शब्द०) । एक से इक्कीस होना= वढ़ना । उन्नति करना । फलना फूलना । एक स्वर से कहना या बोलना=एकमत होकर कहना । जैसे—'ब लोग स्वर से इसका विरोध कर रहे हैं' । एक होना= (१) मिलना जुलना । मेल करना । जैसे—'ये लड़के अभी लड़ते हैं, फिर एक होंगे ।' (२) तद्रूप होना ।

एकइस पु †
वि० [सं० एकविंशति] इक्कीस । उ०—एकइस खंड महल के भीतर ।—धरम०, भा०१, पृ० ६६ ।

एकक
वि० [सं०] १. अकेला । बिना किसी व्यक्ति के साथ । २. वही ।

एककपाल
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरोडाश जो यज्ञ में एक कपाल में पकाया जाय ।

एककलम
क्रि० वि० [फा० यक+ अ० कलम] एक बार ही । पुर्णरूपेण । पूरी तरह से ।

एककालिक
वि० [सं०] एक ही समय में होनेवाला । एक काल का । एक समय का [को०] ।

एककालीन
वि० [सं०] दे० 'एककालिक' [को०] ।

एककुंडल
संज्ञा पुं० [सं एककुण्डल] १.बलराम । २. कुबेर । ३.शेषनाग [को०] ।

एककुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कोढ़ [को०] ।

एककुष्ट
वि० [सं०] एक बार जोता हुआ (खेत) [को०] ।

एककोशी
वि० [सं० एककोशिन्] १. एक ही कोश का बना हुआ (प्राणी) [को०] ।

एकगम्य
संज्ञा पुं० [सं०] परब्रह्यम । परमात्मा [को०] ।

एकगाछी
संज्ञा स्त्री० [हिं० एक+ गाछ ई (प्रत्य०)] वह नाव जो एक ही पेड़ के तने को खोखला करके बनाई गई हो ।

एकग्राम
वि० [सं०] एक ही गाँव में रहनेवाला । एक गाँव का [को०] ।

एकचक्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य का रथ (जिसमें एक ही पहिया माना गया है) । २. सूर्य ।

एकचक्र (२)
वि० १. एक चक्कावाला । एक पहियावाला (को०) । २. एक राजा द्वारा शासित (को०) । ३. चक्रवर्ती । उ०— चल्यो सुभट हरिकेश सुवन स्यामक को भारी । एकचक्र नृप जोग दोय भुज सरधनुधारी ।—गोपाल (शब्द०) ।

एकचक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नगरी जो आरा के पास थी । यहाँ बकासुर रहता था । पांडव लोग लाक्षागृह से बचकर यहीं रहे थे और यहीं भीम ने बकासुर को मारा था ।

एकचक्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाड़ी जिसमें एक ही पहिया हो [को०] ।

एकचर (१)
वि० [सं०] १. अकेले चरनेवाला । झुंड में न रहनेवाला । एक्का । २. अकेला । एकाकी (को०) । ३. एक समय या एक साथ चलनेवाला ।

एकचर (२)
संज्ञा पुं० १. जंतु या पशु जो झुंड में नहीं रहते अकेले चरते हैं, जैसे, सिंह साँप । २. गैंड़ा । ३. यति (को०) ।

एकचश्म (१)
वि० [हिं० एक+ फा० चशम] एक आँखवाला । काना [को०] ।

एकचश्म (२)
संज्ञा पुं० वह चित्र जिसमें चेहरे का एक ही पक्ष दीख पड़ता है [को०] ।

एकचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पतिव्रता स्त्री [को०] ।

एकचारी
वि० [सं० एकचारिन्] दे० 'एकचर' ।

एकचित (१)
वि० [सं० एकचित्त] १. स्थिरचित्त । एकाग्रचित्त । जैसे—'मैं कथा कहता हूँ एकचित होकर होकर सुनो । २. समान विचार का । एक दिल । खुब हिलामिला । जैसेज—'तुम दोनों एकचित हो ।'

एकचित (२)
संज्ञा पुं० १. एक ही बात या विचार पर दृढ़ रहनेवाला चित्त । उ०—जागि सुरति सपन मिट गयऊ । दुईचित मेटि एकचित भयेऊ ।—कबीर सा०, पृ० १५३८ । २. एकाग्रता ।

एकचेता
वि० [सं० एकचेतस्] दे० 'एकचित्र' [के०] ।

एकचोबा
संज्ञा पुं० [फा०] वह खेमा या डेरा जिसमें केवल एक चोब या खंभा लगे ।

एकछत †पु
वि० [हिं० एकछत्र] दे० 'एकछत्र' उ०—रावन अस तेंतीस कोटि सब एकछत राज करे ।—घट०, पृ० २६५ ।

एकछत्र (१)
वि० [सं० एकच्छत्र] बिना और किसी के अधिपत्य का (राज्य) । जिलमें कहीं और किसी का राज्य या अधिकारन हो । पूर्ण प्रभुत्वयुक्त । अनन्यशासनयुक्त । निष्कंटक । उ०— जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जिनि कोउ । एकछत्र रिपुहीन महि राज कलपसत होउ ।—मानस, १ ।१६४ ।

एकछत्र (२) पु
क्रि० वि० एकाधिपत्य के साथ । पूर्ण प्रभुत्व के साथ । उ०—बैठ सिंहासन गरभहिं गूजा । एकछत्र चारऊ खँड भूजा । जायसी (शब्द०) ।

एकछत्र (३)
संज्ञा पुं० [सं०] शासन या राज्यप्रणाली का वह भेद जिसमें किसी देश के शासन का सारा अधिकार अकेले एक पुरुष को प्राप्त होता है और वह जो चाहे सो कर सकता है ।

एकज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो द्विज न हो । शुद्र । २. राजा । ३. सगा भाई [को०] ।

एकज (२)
वि० [एक +एव, प्रा० ज्जेव जेव] एक ही । एकमात्र । उ०—थली जो चरता मिरिगला बेधा एकज सौन । हम तो पंथी पंथ सिर हरा चरैगा कौन ।—कबीर (शब्द०) ।

एकजटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी । उग्रतारा [को०] ।

एकजद्दी
वि० [फा०] जो एक ही पूर्वज से उत्पन्न हुए हों । सपिंड या सगोत्र ।

एकजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० एकजन्मन्] १. शूद्र । २. राजा ।

एकजबान
वि० [हिं० एक+फा० जबान] एक विचार । एक मत । २. एक वाक्य [को०] ।

एकजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सगी बहन [को०] ।

एकजाई
वि० [फा० यक+जा=जगह, स्थान+हिं० ई (प्रत्य०)] एक स्थान में सीमित । एक जगह का । उ०—अरे एकजाई तूँ तो हाजिर रहता है हर जा ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५६१ ।

एकजात
वि० [सं०] एक माँ बाप से पैदा हुआ । सहोदर ।

एकजाति (१)
वि० [सं०] एक ही जाति या वंश का [को०] ।

एकजाति (२)
संज्ञा पुं० शूद्र [को०] ।

एकजातीय
वि० [सं०] एक ही जाति का । समान जाति का । उ०—राजनीति विषयिणी छोटी बड़ी एक जातीय तथा बहुजातीय सभाओं, उपदेशकों और समाचारपत्रों का प्रादुर्भाव इसी उद्देशय से हुआ है ।—प्रताप० ग्रं०, पृ० ३९७ ।

एकजीक्यूटिव
वि० [अँ० एग्जिक्यूटिव] १. प्रबंध विषयक । कार्य संपादन संबंधी । अमलदरामद या कारखाई से संबंध रखनेवाला । २. प्रबंध करनेवाला । अमलदरामद करनेवाला । आमिल । कार्य में परिणत करनेवाला । विशेष—शासन के तीन विभाग हैं,—नियम, न्याय और प्रबंध । विचारपूर्वक नियम निर्धारित करना अर्थात् कानून बनाना और आवशयकतानुसार समय समय पर उनका संशोधन करना नियम या लेजिस्लेटिव विभाग का काम है । उन नियमों के अनुसार मुकदमों का फैसला करना या मामलो में व्यवस्था देना न्याय या जुडिशियल विभाग का काम है । उन नियमों का दुख या अपनी निगरानी में पालन कराना प्रबंध या एकजीक्यूटिव बिभाग का काम है ।

एकजीक्यूटिव आफिसर
संज्ञा पुं० [अं० एग्जक्यूटिव आफिसर] वह राजकर्मचारी जिसका काम प्रबंध करना हो । नियमों का पालन करानेवाल कर्मचारी । आमिल । अधिशासी अधिकारी ।

एकजीक्यूटिव कमेटी
संज्ञा स्त्री० [अं० एग्जीक्यूटिव कमिटी] प्रबंधकारिणी समिति । प्रबंध समिति ।

एकजीक्यूटिव काउंसिल
संज्ञा स्त्री० [अं० एकजीक्यूटिव काउंसिल] कार्यकारिणी सभा । वह सभा जो निश्चित नियमों के पालन का प्रबंध करती है । अधिशासी समिति ।

एकजीव
वि० [सं०] १. एकरूप । अभिन्न । समान [को०] ।

एकटंगा
वि० [हिं० एक+टांग] एक टाँगवाला । लँगड़ा ।

एकट (१) पु
वि० [सं० एकस्थ, एकल] दे० 'एकल' । उ०—एकट चीता रहीले नीता और छुटीले सब आसा ।—दक्खिनी०, पृ० १६ ।

एकट (२)
संज्ञा पुं० [अं० एकट] नियम । कानून । आईन ।

एकटकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० एकटक] स्तब्ध दृष्टि । टकटकी ।

एकटग †पु
वि० [हिं०] अनिमेष । एकटक । उ०—राम जपै रुचि साधु कौ, साधु जपै रुचि राम । दादू दोन्यू एकटग यहु आरंभ यहु काम । —दादू०, पृ० ११८ ।

एकटा पु
वि० [सं० एकस्थ?एकत?या एक, मि० बँ० एकटा, एकटि] एक सा । एकत्र । उ०—गुरु धनि धन ह्वै पाइए शिष्य सुलक्षण लेहि । उभय अभागी एकटे कहा लेयकहा देहि ।—रज्जब०, पृ० १४ ।

एकट्ठा
वि० [सं० एकस्थ] [वि० स्त्री० एकट्ठी] दे० 'इकट्ठा' ।

एकठा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० एक+ काठ=एककठा] एक प्रकार की नाव जो एक लकड़ी की होती है ।

एकठा (२) पु
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० एकठी] दे० 'एकट्ठा' । उ०— (क) गउखे बइठा एकठा, मालवणी नइ ढोल ।—ढोला० दू०, २४३ । (ख) सातौं धात मिलाइ एकठी तामैं रंग निचोया ।—सुंदर०, ग्रं०, भा०२, पृ० ८७८ ।

एकठो पु †
वि० [हिं०] दे० 'एकट्ठा' । उ०—और वह बटोरयौ माखन सब एकठो करि कै घी तायो' ।—दो सौ बावन०, भा०,२, पृ० ४ ।

एकड़
संज्ञा पुं० [अ० एकर] पृथ्वी की एक माप जो १३/५ बीघे या ३२ बिस्से के बराबर होती है ।

एकडाल (१)
वि० [हिं० एक+ डाल] १. एख मेल का । एक ही तरह का एक ही टुकड़े का बना हुआ ।

एकडाल (२)
संज्ञा पुं० वह कटार या छुरा फल और बेंट एक ही लोहे का हो ।

एकडेमी
संज्ञा स्त्री० [अं० एकाडमी] १. शिक्षालय । विद्यालय । स्कूल । २. वह सभा या समाज जो साहित्य, ललितकला, शिल्पकला या विज्ञान की उन्नति के लिये स्थापित हुआ हो । विज्ञान समाज ।

एकण पु †
वि० [सं० एकल?] एक । एक ही । उ०—अकबर एकण बार दागल की सारी दुनी । पृथ्वीराज (शब्द०) ।

एकतंत्र
वि० [सं० एकतन्त्र] जिस व्यवस्था में शासन सूत्र एक आदमी के हाथ में हो । उ०—एकतंत्र शासन होते हुए भीराजा परोपकारी तथा प्रजाहितैषी होते थे ।—पू० म०, भा०, पृ० १०१ । यौ०—एकतंत्र शासन प्रणाली=वह शासन पद्धति जिसमें केवल राजा की इच्छा पर शासन चलता हो ।

एकत?
क्रि० वि० [सं० एकतस्] एक ओर से ।

एकत पु
क्रि० वि० [सं० एकत्र; प्रा० एकत्त] एकत्र । एक जगह । इकट्ठा । उ०—(क) नहिं हरि लों हियरा धरों नहिं हर लौं अरधंग । एकत ही करि राखियौ अंग अंग प्रति अंग ।— बिहारी र०, दो०, ४९४ । (ख) कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ । जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ—दाघ निदाघ ।—बिहारी र०, दो०, ४८९ ।

एकतन
क्रि० वि० [हिं० एक+तन=ओर, तरफ] दे० 'इकतन' । उ०—इकतन नर एकतन भई नारी । खेल मच्यो ब्रज कै बिच भारी । —सूर, २ ।३५१९ ।

एकतरफा
वि० [फा०] १. एक ओर का । एक पक्ष का । २. जिसमें तरफदारी की गई हो । पक्षपातग्रस्त । ३. एकरुखा । एक पाश्र्व का । मुहा०—एकतरफा डिगरी=वह व्यवस्था जो प्रतिवादी का उत्तर बिना सुने दी जाय । वह डिगरी जो मुद्दालैह के हाजिर न होने के कारण मुद्दई को प्राप्त हो । एकतरफा फैसला= एकतरफा डिगरी । एकतरफा राय या विचार=एक ही पश्र की बात सुनकर बनी हुई धारणा ।

एकतरा
संज्ञा पुं० [सं० एकोत्तर, या एकान्तर] एक दिन अंतर देकर आनेवाला ज्वर । अँतरा ।

एकतल्ला
वि० [हिं०] एक मंजिलवाला । जैसे, एकतल्ला मकान ।

एकता (१)
संज्ञा स्त्री [सं०] १. ऐक्य । मेल । २. समानता । बराबरी । यौ०—एकताचारी=अभिन्नता का व्यवहार या आचरण । आत्मीयता । उ०—ता पाछें वा ब्रजवासिनी तें गोबर्धन- नाथ जी तें एकताचारी भई ।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ६ ।

एकता (२)
वि० [फा० यकता] अकेला । एकका । अद्धितीय । बेजोड़ । अनुपम । जैसे०—'वह अपने में एकता है । उ०—'कोई मुर्ग लड़ाने में एकता, कोई किस्सा खाँ ।'—प्रेमधन०, भा० २, सपृ० ८७ ।

एकताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० एकता+हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'एकता' ।

एकतान
वि० [सं०] तन्मय । लीन । एकाग्रचित । उ०—'तुझमें इस तरह एकतान हुई उस बाला को देख मैने अपना प्रयास सफल समझा ।'—सरस्वती (शब्द०) ।

एकतानता
संज्ञा स्त्री० [सं० एकतान+ता (प्रत्य०)] तल्लीनता । तन्मयता । उ०—'वास्तव में विषय और विषयी की यह एकतानता कोई दुर्लभ या निराली वस्तु नहीं है' ।— आचार्य०, पृ—० १४८ ।

एकतारा
संज्ञा पुं० [हिं० एक+ तार] एक तार का सितार या बाजा । विशेष—इनमें एक डंडा होता है जिसके एक छोर पर चमड़े से मढ़ा हुआ तूँबा लगा रहता है और दूसरे छोर पर एक खूँटी होती है । डंडे के एक छोर से लेकर दूसरे छोर की खूँटी तक एक तार बँधा रहता है जो मढ़े हुए चमड़े के बीचोबीच घोड़िया पर से होकर जाता है । तार को अँगूठे के पासवाली उँगली (तर्जनी) से बजाते हैं ।

एकताल
वि० [सं० एक+ताल] दे० 'एक' शब्द का मुहावरा । 'एकतार' ।

एकताला
संज्ञा पुं० [सं० एकताल] बारह मात्राऔं का एक ताल । इसमें केवल तीन आघात होते हैं । खाली का इसमें व्यवहार नहीं होता । एकताला का तबले का बोल यह है?—धिन् धिन् धा, धा (३) दिन् ता तादेत् धागे तेरे केटे धिन्+ता, धा ।

एकतालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सालंग अर्थात् दो रागों से मिलकर बने हुए रोगों में से एक ।

एकतालीस (१)
वि० [सं० एकचत्वारिंशत्; पा० एकचत्तालीसा, एकत्तालीस] गिनती में चालीस ओर एक ।

एकतालीस (२)
संज्ञा पुं० ४१ की संख्या का बोध करानेवाला अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—४१ ।

एकति पु
क्रि० वि० [सं० एकत्र] दे० 'एकत' । उ०—खंजन मीन कमल नरगिस मृग सीप भौंर सर साधे । मनु इनके गुन एकति करिकै अंजन गुन दै बाधे ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४१४ ।

एकतीर्थी (१)
संज्ञा पुं० [सं० एकतीर्थिन्] वह जिसने एक ही आश्रय में एक ही गुरु से शिक्षा पाई हो । गुरुभाई ।

एकतीर्थी (२)
वि० १. एक ही तीर्थ में नहानेवाला । २. एक ही संप्रदाय, विचार या पंथ को माननेवाला [को०] ।

एकतीस (१)
वि० [सं० एकत्रिंश, पा० एकतीसा] गिनती में तीस और एक ।

एकतीस (२
संज्ञा पुं० ३१ की संख्या का वोधक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—३१ ।

एकतोभोगी मित्र
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य मत से वह वश्य मित्र जो एक साथ एक ही को लाभ पहुँचा सके, अर्थात् अमित्र को नहीं । उभयतोभोगी का उलटा ।

एकत्थ पु
वि० [सं० एकस्थ] दे० 'एकत्र' ।

एकत्र
क्रि० वि० [सं०] एकट्ठा । एक जगह । उ०—वक्षस्थल पर एकत्र धरे, संसृति के सब विज्ञान ज्ञान ।—कामायनी, पृ० १६८ । मुहा०—एकत्र करना=बटोरना । संग्रह करना । उ०—सुखसाधन एकत्र कर रहे जो उनके संबल में हैं ।—कामायनी, पृ० १८२ । एकत्र होना=जमा होना । इकट्ठा होना । जुड़ना । जुटना । उ०—हुई एकत्र इस मेरी अंगलतिका में ।—लहर, पृ० ६० ।

एकत्रा
संज्ञा पुं० [सं० एकत्र] कुल जोड़ । मीजान । टोटल ।

एकत्रिंशत्
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० एकतीस' ।

एकत्रित
वि० [सं० एकत्र से हिं०] जो इकट्ठा किया गया हो या जो इकट्ठा हुआ हो । जुटा हुआ । संगृहीत । उ०—और लोग भी एकत्रित थे, कैसी बातें होती थीं ।—प्रेम०, पृ० १८ ।

क्रि० प्र०—करना । —होना ।

एकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] ऐक्य । एकता । उ०—'हमारी आत्मा और परमात्मा का एकत्व अर्थात् आत्मिक सुख का जनक हमारा प्यारा प्रेम तो कहीं जाता ही नहीं ।'—प्रताप० ग्रं०, पृ० १०३ ।

एकत्वभावना
संक्षा स्त्री० [सं०] जैन शास्त्रानुसार आत्मा की एकता का चिंतन । जैसे—जीव अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है, अकेले ही जन्म लेता और मरता है । इसका कोई साथी नहीं; स्त्रीपुत्रादि सब यहीं रह जाते हैं । यहाँ तक कि उसका शरीर भी यहीं छूट जाता है । केवल उसका कर्म ही उसका साथी होता है, इत्यादि बातों का सोचना ।

एकदंडा
संज्ञा पुं० [सं० एकदण्ड] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—यह पीठ के डंडे की तोड़ का तोड़ है । इसमें शत्रु जिस और को कुंदा मारता है, खिलाड़ी उसकी दूसरी ओर का हाथ झट गर्दन पर से निकाल कर कुंदे में फँसा हुआ हाथ खूब जोर से गर्दन पर चढ़ाता है । फिर गर्दन को उखेड़ते हुए पुट्ठे पर से लेकर टाँग मारकर गिराता है । तोड़—खिलाड़ी के तरक की टाँग से भीतरी अड़ानी खिलाड़ी की दूसरी टाँग पर मारे और दूसरी तरफ के हाथ से टाँग को लपेट कर पिछली बैठक करके खिलाड़ी को पीछे सुलाने को तोड़ कहते हैं ।

एकदंडी
संज्ञा पुं० [सं० एकदण्डिन्] संन्यासियों का वह वर्ग जिसकी उपाधि हंस है [को०] ।

एकदंत (१)
वि० [सं० एकदन्त] एक दाँतवाला । उ०—'आदिदेव श्री एकदंत गणेश जी को प्रणाम करके श्री पुष्पदंताचार्य़ ने महिम्न में जिनकी स्तुति की है' ।—प्रताप० ग्रं, पृ० १६३ ।

एकदंत (२)
संज्ञा पुं० [सं० एकदन्त] गर्णश ।

एकदंता
वि० [सं० एकदन्तक] [स्त्री० एकदन्तकी] एक दाँतवाला । जिसके एक दाँत हो ।

एकदंष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश [को०] ।

एकदरा
संज्ञा पुं० [हिं० एक+फा० दर=द्वार] एक दर का दालान ।

एकदस्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० एक+फा० दस्ती=हाथ संबंधी] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें खिलाड़ी एक हाथ से विपक्षी का हाथ दस्ती से खींचता है और दूसरे हाथ से झट पीछे से उसी तरफ की टाँग का मोजा उठाता है और भीतरी अड़ानी से टाँग मारकर गिराता है ।

एकदा
क्रि० वि० [सं०] एक समय । एक बार । उ०—जोरि तुरँग रथ एकदा रवि न लेत विश्राम ।—शकुंतला, पृ० ८३ ।

एकदिशा परिमाणातिक्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] जैनशास्त्रानुसार दिशा संबंधी बाँधे नियम का उल्लंघन करना । विशेष—प्रत्येक श्रावक का यह कर्तव्य है कि वह नित्य यह नियम कर लिया करे कि आज मैं अमुक दिशा में इतनी इतनी दूर से अधिक न जाऊँगा । जैसे किसी श्रावक ने यह निश्चय किया कि आज मैं १ कोस पूरब, १ १/२ कोस पच्छिम और १/२ कोस उत्तर तथा १/२ कोस दक्षिण दाऊँगा । यहि वह किसी दिशा में निर्धारित नियम के विरुद्ध अधिक चला जाय और अपने मन में यह समझ ले कि मैं अमुक दिशा में नहीं गया उसके बदले इसी ओर अधिक चला गया तो वह एकदिशा परीमाणातिक्रमण का नाम अतिचार हुआ ।

एकदृक्
वि० [सं०] १. काना । २. समदर्शी । ३. ब्रह्मज्ञानी । तत्वज्ञ ।

एकदृक् (२)
संज्ञा पुं० १. शिव । २. कौवा ।

एकदृष्टि
वि० संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'एकदृक्' [को०] ।

एकदेशी
वि० [एकदेशिन] दे० 'एकदेशीय' ।

एकदेशीय
वि० [सं०] एक देश का । एक ही स्थान से संबंध रखनेवाला । जो एक ही अवसर या स्थल के लिये हो । जिसको सब जगह काम में न ला सकें । जी सर्वत्र न घटे । जो सर्वदेशीय या बहुदेशीय न हो । जैसें,—एकदेशीय नियम, एकदेशीय प्रवृत्ति, एकदेशीय आचार । उ०—'एक नया फैशन टाल्सटाय के समय से चला है वह एकदिशीय है ।'— रस०, पृ० ६४ । यो०—एकदेशीय समास=षष्ठी तत्पुरुष समास का एक भेद ।

एकदेह
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुध ग्रह । २. गोत्र । वंश । ३. दंपती ।

एकधर्मा
वि० [सं० एकधर्मन्] समान गुण, धर्म या स्वभाववाला [को०] ।

एकधर्मी (१)
वि० [सं० एकधर्मिन्] दे० 'एकधर्मा' ।

एकनयन (१)
वि० [सं०] काना । एकाक्ष । उ०—सुनि कृपाल अति आरत बानी । एकनयन करि तजा भवानी ।—मानस, ३ ।२ ।

एकनयन (२)
संज्ञा पुं० १. कौवा । २. कुबेर । ३. शिव (को०) । ४. शुक्र ग्रह (को०) ।

एकनायक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

एकनिष्ठ
वि० [सं०] जिसकी निष्ठा एक में हो । जो एक ही से सरोकार रखे । एक पर श्रद्धा रखनेवाला ।

एकनेत्र, एकनेत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

एकन्नी
संज्ञा स्त्री० [हिं० एक+आना] ब्रिटिश भारत का निकल धातु का एक छोटा सिक्का जो एक आने या चार पैसे मूल्य का होता है । आजकल यह ६ नए पैसे के मूल्य का है ।

एकपक्षी, एकपक्षीय
वि० [सं०] एक ओर का । एकतरफा ।

एकपटा
वि० [हि० एक+पाट=चौड़ाई] [स्त्री० एकपटी] एक पाट का । जिसकी चौड़ाई में जोड़ न हो । जैसे, एकपटी चादर । उ०—भेद न बिचारयो गुंजमालै औ गुलीक मालै नीली एकपटी अरु मीली एकलाई में ।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १४९ ।

एकपट्टा
संज्ञा पुं० [हिं० एक+पट्टा] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—जब विपक्षी सामने होता है तब उसका पाँव जंघे में से उठाकर बगली बाहरी ठोकर दूसरे पाँव में लेकर उसे चित करते हैं ।

एकपत्नी
वि० स्त्री० [सं०] जो एक ही की पत्नी हो । पतिव्रता ।

एकपत्नीव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक को छोड़ दूसरी स्त्री से विवाह या प्रेम संबंध न करने का व्रत । २. केवल एक विवाहिता पत्नी को छोड़कर और स्त्री से विवाह या प्रेम संबंध न करने का व्रत । उ०—'राम के तरह एकपत्नीव्रत कर सकूँगा तो कर लूँगा ।—इंद्र०, पृ० ५० ।

एकपत्नीव्रती
वि० [सं० एकपत्नीव्रत] एकपत्नीव्रत का पालन करनेवाला । उ०—चिरंजीव संयोग योगी अरोगी । सदा एक- पत्नीव्रती भोग भोगी ।—रामचं०, पृ० १५८ ।

एकपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंधपत्रा । दौना [को०] ।

एकपद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश । यह आर्द्रा, पुनर्वसु ओर पुष्प नक्षत्रों के अधिकार में है । २. बैकुंठ । ३. कैलास । ४. रतिक्रिया का एक आसन (को०) ।

एकपद (२)
वि० लँगड़ा । एक पैरवाला [को०] ।

एकपदी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पगडंडी । रास्ता । गली ।

एकपदी (२)
वि० एक पद या चरणवाला (छंद०) [को०] ।

एकपर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा । २. एक देवी । ३. एक पत्तेवाला पौधा [को०] ।

एकपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा ।

एकपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा ।

एकपलिया (मकान)
संज्ञा पुं० [हिं० एक+पल्ला+इया (प्रत्य०)] वह मकान जिसमें बँड़ेर नहीं लगाई जाती बल्कि लंबाई की दोनों आमने सामने की दीवारों पर लकड़ियाँ रखकर छाजन की जाती है । छाजन की ढाल ठीक रखने के लिये एक ओर की दीवार ऊँची कर दी जाती है ।

एकपाटला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवी । २. दुर्गा [को०] ।

एकपाठी
वि० [सं० एकपाठिन्] एक ही बार पढ़कर या सुनकर पाठ याद कर लेनेवाला [को०] ।

एकपात्
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. सूर्य । ३. शिव ।

एकपात (१)
वि० [सं०] अचानक होनेवाला [को०] ।

एकपात (२)
संज्ञा पुं० मंत्र का पहला शब्द या प्रतीक [को०] ।

एकपाद (१)
वि० [सं०] लँगड़ा । एक टाँगवाला [को०] ।

एकपाद (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु । २. शिव [को०] ।

एकपादवध
संज्ञा पुं० [सं०] एक पैर काट देने का दंड । विशेष—जो लोग साधारण द्रव्य की चोरी करते थे उनको एक पैर काट लेने का दंड मिलता था । प्रायः३०० पण देकर वे इस दंड से मुक्त भी हो सकते थे ।

एकपिंग
संज्ञा पुं० [सं० एकपिंङ्ग] कुबेर ।

एकपिंगल
संज्ञा पुं० [सं० एकपिङ्गल] कुबेर ।

एकपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] कौड़िल्ला पक्षी ।

एकपेंचा (१)
वि० [फा०] एक पेंच का । जिसमें एक ही पेंच या ऐठन हो ।

एकपेंचा (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार की पगड़ी जो बहुत पतली होती है । इसकी चाल दिल्ली की ओर है । इसे पेंचा भी कहते हैं ।

एकपेटिया
वि० [हिं० एक+पेट+इया (प्रत्य०)] सिर्फ पेट पर काम करनेवाला । उ०—'सो श्री गुसाईं जी वाको गरीब जानि एक- पेटिया करि दीये' । —दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ११२ ।

एकप्राण
वि० [सं०] एक दिल । जो मिलकर एक जैसे हो गए हों । एकाकार । उ०—बन गए स्थूल, जगजीवन से हो एक प्राण ।—युग०, पृ० १५ ।

एकफर्दा
वि० [फा०] जिस (खेत या जमीन) में वर्ष में केवल एक हा फसल उपजे । एकफसला ।

एकफसला
वि० [फा० यकफसली] दे० 'एकफर्दा' ।

एकबद्धी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० एक+बद्धी] नाव ठहराने का लोहे का लंगर जिसमें किवल दो आँकुड़े हों ।

एकबद्धी (२)
वि० [हि०] एक बाध या रस्सी का ।

एकबारगी
क्रि० वि० [फा० यकबारगी] १. एक ही दफे में । एक ही साथ । एक ही समय में । जैसे—'सब पुस्तकें एक- बारगी मत ले जाओ एक एक करके ले जाओ । २. अचानक । अकस्मात् । जैसे—'तुम एकबारगी आ गए इससे मैं कोई प्रबंध न कर सका । '३. बिल्कुल । सारा । जैसे—'आपने तो एकबारगी दवात ही खाली कर दी ।

एकबारी
वि० [फा०यकबार] दे० 'एकबारगी' । उ०—एकबारी धक से होकर दिल की फिर निकली न साँस ।—शेर०, भा० १, पृ० १२१ ।

एकबाल
संज्ञा पुं० [अ० इकबाल] १. प्रताप । सौभाग्य । ३. स्वीकार । हामी । यौ०—एकबाल दावा=(१) मुद्दई या महाजन के दावे की स्वीकृति में मुद्दाअलेह की ओर से लिखा हुआ स्वीकारपत्र जो अदालत में हाकिम के सामने उपस्थित किया जाता है । एकरार दावा । (२) राजीनामा ।

एकभाव
वि० [सं०] १. एकनिष्ठ । २. परस्पर समान भाव वाला [को०] ।

एकभुक्त (१)
वि० [सं०] जो रात दिन में किवल एक बार भोजन करे ।

एकभुक्त (२)
संज्ञा पुं० एकबार भोजन करने का व्रत [को०] ।

एकभूम
वि० [सं०] एक मंजिल या एक खंडवाला [को०] ।

एकमंजिला
वि० [हिं० एक+फा० मंजिल] जिसमें एक ही मंजिल हो । एकतल्ला ।

एकमंत पु
वि० [हि० एक+मंत=सलाह] दे० 'एकमत' । उ०— अजहूँ आइ सँभारहु कंता । बिरहा जाड़ भए एकमंता ।— चित्रा०, पृ० १७२ ।

एकमत
वि० [सं०] एक या समान मत रखनेवाले । एक राय के । जैसे,—'सब ने एकमत होकर उस बात का विरोध किया' । उ०—एकमत होइ कै कीन्ह बिचारा । विलँब न करिय धरम बेवहारा । —चित्रा०, पृ० १९६ ।

एकमति
वि० [सं०] एकमत । एक राय के । उ०—अंग अंग सुभग अति चलति गजराज गति कृष्न सौं एकमति जमुन जाहीं ।— सूर०, १० । ७५१ ।

एकमत्त पु
वि० [सं० एकमात्र; प्रा० एकमत्त] एकमात्रिक । उ०— एकमत्त लहु भनि गुरु को दुमत्त गनि याहीं से उदाहरन हेरि लै हृदय जाँचि ।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १६७ ।

एकमना
वि० [सं० एकमनस्] १. एक तरह के विचारवाले । एकचित्त । किसी एक ओर ही मन को लगानेवाला [को०] ।

एकमात्र
अव्य० [सं०] एक ही । केवल एक । अकेला । उ०—(क) 'वाराणसी युद्ध के अन्यतम वीर सिंहमित्र की यह एकमात्र कन्या है' । —आँधी, पृ० ११४ । (ख) जय जयति लच्छमी जगत की एकमात्र सुख सार जो । —कविता कौ०, भा० २, पृ० १९९ ।

एकमात्रिक
अव्य० [सं०] एक मात्रा का । जिसमें केवल एक ही मात्रा हो । जैसे—एक मात्रिक छंद ।

एकमुँहा
वि० [सं० एकमुख] एक मुँह का । यौ०—एकमुँहा दहरिया=फूल या काँसे का एक गहना जिसे लोधियों और काछियों की स्त्रियाँ पहनती हैं । इसके ऊपर रब्वा और नीचे सूत होता है ।

एकमुख
वि० [सं०] १. उद्देश्य की ओर प्रवृत्त । २. एक दरवाजेवाला । ३. एक की प्रधानता से युक्त [को०] ।

एकमुखविक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] सबके हाथ एक दाम पर बेचना । बँधी कीमत पर बेचना । विशेष—कौटिल्य के अनुसार चंद्रगुप्त के समय में पण्य बाहुल्य अर्थात् माल की पूरी आमदनी होने पर व्यापारियों को माल बँधी कीमत पर बेचना पड़ता था । वे भाव घटा बढ़ा नहीं सकते थे ।

एकमुखी
वि० [सं०] एक मुँहवाला । यौ०—एकमुखी रुद्राक्ष=वह रुद्राक्ष जिसमें फाँकवाली लकोर एक ही हो ।

एकमूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शालपर्णी । २. अलसी । तीसी ।

एकमेक
वि० [हिं०] दो या इनसे अधिक के मिलकर एक होने का भाव । एकाकार या तद्रूप होना । उ०—धरती अंबर जायँगे, बिनसैंगे कैलास । एकमेक होइ जायँगे, तब कहाँ रहैंगे दास ।—कबीर सा०, भा० १, पृ० २१ ।

एकमेव
वि० [सं०] एकमात्र । एक ही । उ०—'अपना सुख त्यागना उनके दुख में साथी होना एकमेव कर्तव्य है ।'— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २८१ ।

एकमोला
वि० [हिं० एक+मोल] १. एक मूल्यवाला । निश्चित दाम का । २. कहे हुए दाम में कमी वेशी न करनेवाला ।

एकरंग
वि० [हिं० एक+रंग] १. एक रंगढंग का । समान । २. जिसका भीतर बाहर एक हो । जो बाहर से भी वही कहता या करता हो जो उसके मन में हो । कपटशून्य । साफ दिल । ३. जो चारो ओर एक सा हो । जैसे—'दो- रंगी छोड़ दे एकरंग हो जा ।'

एकरंगा (१)
वि० [हिं०] एक रंगवाला । जिसमें एक ही रंग हो ।

एकरंगा (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का कपड़ा जो लाल रंग का होता है ।

एकरंगी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. एकरूपता । २. निष्कपटता [को०] ।

एकरदन
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश । उ० —कदन अनेकन बिधन को एकरदन गनराउ ।—भीखारी० ग्रं० भा०, १, पृ० ३ ।

एकरस
वि० [सं०] एकढंग का । न बदलेनेवाला । समान । उ०— (क) सिसु, किसोर, बिरधौ तनु होइ । सदा एकरस आतम सोइ । सूर० ७ ।२ । (२) सुखी मीन सब एकरस आति अगाध जल माहि । —मानस, ३ । ३३ । २. एकमेक । एक दिल ।

एकरसता
संज्ञा स्त्री० [सं० एकरस+ता (प्रत्य०)] समानता ।

एकरात्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक ही रात में पूरा होनेवाला यज्ञ [को०] ।

एकरार
संज्ञा पुं० [अं०] १. स्वीकार । हामी । स्वीकृति । मंजूरी । २. प्रतिज्ञा । वादा । क्रि० प्र०—करना । —लेना ।—होना । यौ०—एकरारनामा=वह पत्र जिसमें दो या दो से अधिक पुरुष परस्पर कोई प्रातिज्ञा करें । प्रतिज्ञापत्र ।

एकरुखा
वि० [हि० एक+फा० रुख] [वि० स्त्री० एकरुखी] १. एक तरक ऱुखवाला । एक तरफ मुँहवाला । २. जिसमें कोई कार्य (कपड़े आदि में बेल बूटे) एक ही तरफ किया गया हो । एकतरफा ।

एकरूप
वि० [सं०] १. एक ही रूप का । समान आकृति का । एक ही रंग ढ़ंग का । उ०— एकरूप तुम भ्राता दोऊ ।— मानस, ४ ।८ । २. ज्यों का त्यो वैसा ही । जैसे का तैसा कोरा । उ०—एक रूप ऊधो फिरि आए हरि चरनन सिर नायो । —सूर (शब्द०) ।

एकरूपता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समानता । एकता । २. सायुज्य मुक्ति ।

एकरूपी
वि० [सं० एकरूपिन]१. [स्त्री० एकरूपिणी] समान रूप का । एक तरह का । एक सा ।

एकरेज
संज्ञा पुं० [अं०] एकड़ के आधार पर लगनेवाली माल- गुजारी या भूमिकर । उ०—(क) एकरेजा तो लगा है; वह भी नहीं देना चाहता । (ख) एकरेज तो तुमको देना ही चाहिए ।—तितली०, पृ० ३८ ।

एकलंगा
संज्ञा पुं० [हि० एक+लंगा=लंगड़ा] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—जब विपक्षी सामने खड़ा होता है । तब खिलाड़ी अपने दाहिने हाथ से विपक्षी की बाई बाहँ ऊपर से लपेट अपने बाएँ हाथ से विपक्षी का दाहिना पहुँचा पकड़ अपनी दाहिनी टाँग को, विपक्षी की बाई टाँग पर रखता है और उसको एकबारगी उठाता हुआ विपक्षी को बाँह से दबाकर झुकाकर चित्त कर देता है ।

एकलंगाडंड
संज्ञा पुं० [हि०एक+अलंग(=ओर, तरफ,+डंड़] एक प्रकार की कसरत या डंड़ जिसे करते समय एक ही हाथ पर बहुत जोर देकर उसी ओर सारा शरीर झुकाकर दंड करते है और दूसरी ओर का पाँव उठाकर हाथ के पास ले जाते हैं ।

एकल पु
वि० [सं०] १. अकेला । २. अद्वितीय । एकता । उ०— वेद पुरान कुरान कितेबा नाना भाँति बखानी । हिंदू तुरक जैन अरु जोगी एकल काहु न जानी ।—कबीर (शब्द०) ।

एकलड़ी †पु
वि० [सं० एकल+हि० ड़ी (प्रत्य०)] अकेला । एकाकी । एकला । उ०—महि मोराँ मंड़न करइ, मनमथ अंगि न भाइ । हूँ कलड़ी किम रईऊँ मेह पधारउ भाइ । —ढ़ोला० दू०, २६३ ।

एकलत्तीछ़पाई
संज्ञा स्त्री० [हि० एकलत्ती+छपाई] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—जब विपक्षी के हाथ और पाँव जमीन पर टिके रहते है और उसकी पीठ पर खिलाड़ी रहतां है तब वह विपक्षी की पीठ पर अपना सिर रखकर बाएँ हाथ को उसकी पीठ पर ले जाकर पेट के पास लँगोट पकड़ता है और दाहिने पाँव से उसके दाहिने हाथ की कुहनी पर थाप मारता है और उसे लुढ़काकर चित्त करता है ।

एकलबैण †
संज्ञा पुं० [ड़ि०] एक प्रकार का ड़िगल गीत । इसे घणकठा भी कहते हैं ।

एकलव्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक निषाद का नाम जिसने द्रोणचार्य की मूर्ति को गुरु मानकर उसके सामने शस्त्रभ्यास किया था ।

एकला पु †
वि० [सं० एकल, प्रा० एकल्ल] [स्त्री० एकली] अकेला । उ०— कई आलम किए हैं कत्ल उनने । करे क्या एकला हातिम बेचारा ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४० ।

एकलिंग
संज्ञा पुं० [सं० एकलिङ्ग] १. शिव का एक नाम । एक शिवलिंग जो मेवाड़ के महाराणओं गहलौत राजपूतों का प्रधान कुलदेव है । २. कुबेर । ३. वह शिवलिंग जो पाँच कोश के भीतर अकेला हो (को०) ।

एकलेखा
संज्ञा पुं० [हिं०] एक प्रकार का फूल या उसका पौधा ।

एकलो †
संज्ञा पुं० [सं० एकला] ताश या गंजीफे का एक्का ।

एकलौता
वि० [सं, एकज (=अकेला) +पुत्र; प्रा० उत्त] [स्त्री० एकलौती] अपने माँ बाँप का एक ही (लड़का) । जिसके और भाई न हों ।

एकवचन
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में वह वचन जिससे एक का बोध होता हो । यौ०—एकवचनांत=एकवचन की विभक्तिवाला ।

एकवर्ण
वि० [सं०] १. एक रंगवाला । २. एक रूपवाला । एक समान । ३. एक वर्ण या जातिवाला । ३. जो वर्ण, जाति आदि भेदों से अलग हो [को०] ।

एकवर्ण
संज्ञा पुं० १. समान रूप, रंग या आकृति । २., ब्राह्मण । ३. उँची जाति [को०] ।

एकवर्षी
वि० [सं० एकवर्षिन्] एक ही वर्ष तक रहनेवाला । वर्ष में एक ही बार फूलने फलनेवाला [को०] ।

एकवसना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'एकवस्त्रा' ।

एकवस्त्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जो एक ही वस्त्र पहने । रजस्वला [को०] ।

एकवाँज
संज्ञा स्त्री० [सं० एक+ वन्ध्या, प्रा० वंझा] वह स्त्री जिसे एक बच्चे के पीछे और दूसरा बच्चा न हुआ हो ।—काकवंध्या ।

एकवाक्य
वि० [सं०] एक राय । एक विचार । एक मत ।

एकवाक्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ऐकमत्य । परस्पर दो या अधिक लोगों के मत ता मिल जाना । २. मीमांसा में दो या अधिक आचार्यों, ग्रंथों या शास्त्रों के वाक्यों या उनके आशयों का परस्पर मिल जाना ।

एकवासा
संज्ञा पुं० [सं एकवासस्] एक प्रकार के दिगंबर जैन जो नग्न के अंतर्गत हैं ।

एकविंश
वि० [सं०] इक्कीसवाँ [को०] ।

एकविंशति (१)
वि० [सं०] एक और बीस । इक्कीस [को०] ।

एकविंशति (२)
संज्ञा स्त्री० २१ की संख्या [को०] ।

एकविंसति पु
वि० [सं० एकविंशातिः] इक्कीस । उ०— तब एक- बिंसति बेर मैं बिन छत्र की पृथ्वी रची ।—रामचं०, पृ० ४१ ।

एकविध
वि० [सं०] एक ही प्रकार का । एक ही विधि का । साधारण [को०] ।

एकविलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार पश्चिमोत्तर दिशा में एक देश जो उत्तराषाढ़ श्रवण और धनिष्ठा नक्षत्रों के अधिकार में है । २. कुबंर (को०) । ३. कौआ (को०) ।

एकवृंद
संज्ञा पुं० [सं० एकवृन्द] गले का एक रोग जिसमें कफ और रक्त के विकार से गले में गिल्टी या सूजन हो जाती है । इस गिल्टी या सूजन में दाह और खुजली भी होती है तथा यह पकने पर भी कड़ी रहती है ।

एकवेणी
वि० [सं०] १. जो (स्त्री) शृंगार की रीति से कई चोटियाँ बनाकर सिर न गुँथाए बल्कि एक ही चोटी बनाकर बालों को किसी प्रकार समेट ले ।२. वियोगिनी । जिसका पति परदेश गया हो । ३. विधवा ।

एकशफ
संज्ञा पुं० [सं०] वह पशु जिसके खुर फटे न हों, जैसे— घोड़ा, गदहा ।

एकशासन
संज्ञा पुं० [सं०] वह शासन व्यवस्था जिसमें सत्ता एक ही व्यक्ति के हाथ में हो । एकतंत्र [को०] ।

एकशेष
वि० [सं०] १. एकमात्र बचा हुआ । उ०—कर भस्मीभूत समस्त विश्व को एकशेष, उड़ रही धूल, नीचे अदृश्य हो रहा देश । —अनामिका, पृ० ८४ । २. द्वंद्व समास का एक भेद जिसमें दो या अधिक पदों में से एक ही शेष रह जाता है । जैसे—पितरौ=माता और पिता [को०] ।

एकश्रुत
वि० [सं०] एक बार का सुना हुआ [को०] । यौ०—एकश्रुतधर=एक बार का सुना हुआ याद रखनेवाला ।

एकश्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदपाठ करने का वह क्रम जिसमें उदात्तादि स्वरों का विचार न किया जाय ।

एकषष्ठि
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'एकसठ' [को०] ।

एकसठ (१)
वि० [सं० एकषष्ठ, एकषष्टि, पा०, एकसटिठ, प्रा०, एकसटठ्] साठ और एक ।

एकसठ (२)
संज्ञा पुं० वह अंक जिससे एकसठ की संख्या का बोध हो—६१ ।

एकसत्ताक
वि० [सं०] एक ही की सत्ता या अधिकारवाला । एक के तंत्र का; जैसे, एकसत्ताक शासन या राज्य ।

एकसत्तावाद
संज्ञा पुं० [सं०] दर्शन का एक सिद्धांत जिसमें सत्ता ही प्रधान वस्तु ठहराई गई है ।विशेष—योरोप में इस मत का प्रधान प्रवर्तक पर्मेंड़ीज था । यह समस्त संसार को सत्स्वरूप मानता था । इसका कथन था कि सत् ही नित्य वस्तु है । यह एत अविभक्त और परिमाण- शून्य वस्तु है । इसका विभाजक असत् हो सकता है, पर असत् कोई वस्तु नहीं । ज्ञान सत् का होता है असत् का नहीं । अतः ज्ञान सत्स्वरूप है । सत् निर्विकल्प और अविकारी है अतः इंद्रियजन्य ज्ञान केवल भ्रम है; क्योंकि इंद्रिय से वस्तुएँ अनेक और विकारी देख पड़ती है । वास्ताविक पदार्थ एक सत् ही है पर मनुष्य अपने मन से असत् की कल्पना कर लेता है । य़ही सत् और असत् अर्थात् प्रकाश और तम सब संसार का कारण रूप है । यह मत शंकराचार्य के मत से बिल्कुल मिलता हुआ है । भेद केवल यही है कि शंकार ने सत् और असत् को ब्रह्म और माया कहा है ।

एकसर (१) पु †
वि० [सं० एकशाम् या हि० एक+सर (प्रत्य०)] १. अकेला । उ०—एकसर आइ मढ़ी महँ सेवा । ढ़ूँढ़ता फिरहि रतन जनु खोवा । —चित्त०, पृ०, ३२ । २. एक पल्ले का ।

एकसर (२)
वि० [फा० यकसर] एक सिरे से दूसरे सिरे तक । बिल्कुल । तमाम ।

एकसाँ
वि० [फा०, यकसाँ] १. बराबर । समान । तुल्य । २. समतल । हमवार ।

एकसाक्षिक
वि० [सं०] जिसका एक ही साक्षी (गवाह) हो [को०] ।

एकसार्थ
अव्य० [सं०] एक साथ [को०] ।

एकसाला
वि० [फा० यकसाला] जो एक साल तक वैध हो । जिसकी अवधि एक साल हो [को०] ।

एकसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] केवल एक ही उपाय से होनेवाली सिद्धि ।

एकसूत्र (१)
वि० [सं०] [संज्ञा एकसूत्रता] एक रूप । आपस में संबद्ध [को०] ।

एकसूत्र (२)
संज्ञा पुं० डमरू [को०] ।

एकसूनु
संज्ञा पुं० [सं०] इकलौता लड़का [को०] ।

एकस्थ
वि० [सं०] १. एक व्यक्ति या स्थान पर केंद्रित । २. मिला हुआ । एकत्र [को०] ।

एकहजारी
संज्ञा पुं० [फा० यकहजारी] १. एक हजार सेना का स्वामी । २. मुगल बादशाहों द्वारा दिया जानेवाला एक पद । उ०— इनको एकहजारी का पद और आठ सौ घोड़े प्रदान किए थे । —अकबरी०, पृ० ४९ ।

एकहत्तर (१)
वि० [एकसप्ताति; पा० एकसत्तरि, एकहत्तरि] सत्तर और एक ।

एकहत्तर (२)
संज्ञा पुं० सत्तर और एक की संख्या का बोध करानेवाला अंक जो इस तरह लिखा जाता है—७१ ।

एकहत्था
संज्ञा पुं० [हि० एक+ हाथ] किसी विषय़ बिशेषकर व्यापार या रोजगार को अपने हाथ में करना, दूसरे को न करने देना । कीसी व्यापर या बाजार पर अपना एकमात्र अधिकार जमाना । एकधिकार । जैसे—'रूई' के व्यापार को उन्होंने एकहत्था कर लिया' । क्रि० प्र०—करना ।

एकहत्था
संज्ञा स्त्री० [हि० एक+ हाथ] मालखंभ की एक कसरत । विशेष— इसमें एक हाथ उलटा कमर पर ले जाते है और दूसरे हाथ से पकड़ के ढंग से मालखंभ में लपेटकर उड़ते है । कभी कभी कमर पर के हाथ में तलवार और छुरा भी लिए रहते हैं । यौ०—एकहत्थी छूट= मालखंभ की एक कसरत जिसमें किसी तरह की पकड़ करके मालखंभ पर एक ही हाथ की थाप देते हुए कूदते है । एकहत्थी निचली कमान=मालखंभ की कसरत के समान उतरने की वह विधि जिसमें खिलाड़ी एक ही हाथ से मालखंभ पकड़ता है । खिलाड़ी का मुँह नीचे की ओर झुकता है और छाती उठी रहती है । एकहत्थी पीठ की उड़ान=मालखंभ की एक एकरत जिसमें खिलाड़ी मालखंभ को एक बगल में दबाकर दूसरा हाथ पीछे की ओर से ले जाकर दोनों हाथ बाँधकर पीठ के बल उलटा उड़ता है और उलटी सवारी बाँधता है ।

एकहत्थो हुलूक
संज्ञा पुं० [देशी० ] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें विपक्षी जब बगल में आता है तब खिलाड़ी अपने उस बगल के हाथ को उसकी गरदन में लपेटता हे और दूसरे हाथ से उस हाथ को तानते हुए गरदन दबाकर बगली टाँग से चित करता है ।

एकहरा
वि० [सं० एक+स्तर, हि० हरा (प्रत्य०)या सं० एक+ धर, प्रा०, हर] [स्त्री० एकहरी] एक परत का । जैसे— एकहरा अंग । यौ०— एकहरा बदन=वह शरीर जो मोटा न हो । दुबला पतला शरीर । न मोटानेवाली देह ।

एकहरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० एकहरा] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें जब विपक्षी सामने खड़ा होकर हाथ मिलाता है तब खिलाड़ी उसका हाथ पकड़कर अपनी दाहिनी तरफ झटका देकर दोनों हाथों से उसकी दाहिनी रान निकाल लिता है ।

एकहल्य
वि० [सं०] एक बार जोता हुआ [को०] ।

एकहस्तपादवध
संज्ञा पुं० [सं०] एक हाथ और एक पैर काट लेने का दंड़ । विशेष— कौटिल्य के अनुसार चंद्रगुप्त के समय में जो लोग ऊँचे वर्ण के लोगों तथा गुरुओं के हाथ पैर मरोड़ देते थे या सरकारी घोड़ो गड़ियों पर बिना आज्ञा के चढ़ते थे, उनको यह दंड दिया जाता था । जो लोग इस दंड से बचना चाहते थे, उनको ४०० पण देना पड़ता था ।

एकहस्तवध
संज्ञा पुं० [सं०] एक हाथ काटने का दंड़ । विशेष—कौटिल्य के अनुसार जो लोग नकली कौड़ी, पासा आदि बनाकर खेलते थे या हाथ की सफाई से बाजी जीतते थे, उनको यह दंड़ दिया जाता था । जो लोग इस दंड से बचना चाहते थे, उनको ४०० पण देना पड़ता था ।

एकहाज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य का एक भेद । एक प्रकार का नाच ।

एकहायन
वि० [सं०] एक वर्ष की अवस्थावाला [को०] ।

एकांक
वि० [सं० एकाङ्क] दे० 'एकाकी' [को०] ।

एकांकी
वि० [सं० एकाङि्कन्] एक अंकवाला (नाटक) आधुनिक नाटक की एक विशेष विधा ।

एकांग
वि० [सं०एकाङ्ग] एक अंग का । जिसे एक अंग हो ।

एकांग †
संज्ञा पुं० १. बुध ग्रह । २. चंदन । ३. विष्णु (को०) । ४. सिर (को०) । ५. अंगरक्षक । शरीररक्षक (को०) ।

एकांगघात
संज्ञा पुं० [सं० एकाङ्गघात] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर का एक अंग सुन्न हो जाता है [को०] ।

एकांगदर्शिता
संज्ञा स्त्री० (सं० एकाङ्गदर्शिता] किसी एक ही पक्ष पर ध्यान देने की वृत्ति । एकतरफा देखना । दृष्टि सकीर्णता । उ०—'इसी प्रकार की एकांगदर्शिता के कारण कवि के कर्मक्षेत्र से सहृदयता धक्के देकर निकाल दी गई । —रस०, पृ०, १०३ ।

एकांगबध
संज्ञा पुं० [सं० एकाङ्गबध] कौटिल्य के अनुसार एक अंग काटने का दंड ।

एकांगवात
संज्ञा पुं० [सं० एकाङ्गवात] पक्षाघात । लकवा [को०] ।

एकांगिका
संज्ञा स्त्री० (सं० एकाङ्गिका) चंदन के योग से तैयार किया हुआ एक मिश्रण [को०] ।

एकांगी
वि० [सं० एकङ्गिन] १. एक ओर का । एक पक्ष का । एकतरफा । जैसे—एकांगी प्रीति । उ०—'तुम्हारी' भक्ति अभी एकांगी है ।' —इतिहास, पृ० ६७ । २. एक ही पक्ष पर अड़नेवाला । हठी । जिद्दी । ३. एक ओषधि जो कड़वी, शीतल और स्वादिष्ट होती है । यह पित्त, वात, ज्वर, रुधिर- दोष आदि को नष्ट करती है । ४. एक अंगवाला । ५. असमाप्त । अपूर्ण (को०) ।

एकांड
संज्ञा पुं० (सं० एकाण्ङ) एक प्रकार का घोड़ा [को०] ।

एकांत (१)
वि० (सं० एकान्त) १. अत्यंत । बिल्कुल । नितांत । अति । २. अलग । पृथक् । अकेला । ३. अपवादरहीत । निरपवाद (को०) । ४. एकनिष्ठ ।

एकांत (२)
संज्ञा पुं० १. निर्जन स्थान । निराला । सूना स्थान । २. अकेलापन । तनहाई (को०) ।

एकांतकैवल्य
संज्ञा पुं० [सं० एकान्तकैवल्य] मुक्ति का एक भेद । जीवन्मुक्ति ।

एकांतता
संज्ञा स्त्री० [सं० एकान्तता] अकेलापन । तनहाई ।

एकांतर (१)
वि० [सं० एकान्तर] एक का अंतर देकर पड़ने या होनेवाला । एक के बाद होनेवाला [को०] ।

एकांतर (२)
संज्ञा पुं० एक दिन का अंतर देकर आनेवाला ज्वर । अँतरा या अँतरिया ज्वर [को०] ।

एकांतवास
संज्ञा पुं० [सं० एकान्तवास] निर्जन स्थान में रहना । अकेले में रहना । सबसे न्यारा रहना । उ०—आठ बरम के दीर्घ एकांतवास के बाद सौदर्य के चुनाव में भाग लेने के लिये सालवती बाहर आ रही है ।—इंद्र०, पृ०, १४६ ।

एकांतवासी
वि० (सं० एकान्तवसिन्) (स्त्री० एकान्तवसिनी) निर्जन स्थान में रहनेवाला । अकेले में रहनेवाला । सबसे न्यारा रहनेवाला । उ०— 'फिर एकांतवासी लोग भी परम धर्म से क्योंकर न्यारे होंगे ।' —प्रताप० ग्र०, पृ० १०३ ।

एकांतस्वरूप
वि० [सं० एकान्तस्वरूप] असंग । निर्लिप्त ।

एकांतिक
वि० [सं० एकान्तिक] एकदेशीय । जो एक ही स्थल के लिये हो । जिसका व्यवहार एक से अधिक स्थानों या अवसरों पर न हो सके । जो सर्वत्र न घटे । एकदेशीय । जैसे— एकांतिक नियम ।

एकांती
संज्ञा पुं० [सं०एकान्तिन्] एक प्रकार का भक्त जो भगवत्प्रेम को अपने अंतःकरण में रखता है, प्रकट नहीं करता फिरता ।

एका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा ।

एका (२)
संज्ञा पुं० [सं० एकता, > प्रा०* एकआ,> हिं० ] ऐक्य । एकता । मेल । अभिसंधि । जैसे—(क) उन लोगों में बड़ा एका है । (ख) उन्होंने एका करके माल का लेना ही बंद कर दिया । उ०—ऐसें केऊ जुद्ध जीते सिंघ सुजान नै । तब मलार ह्वै सु्द्ध कूरम सौ एको कियौं ।—सुजान०, पृ०, ३५ ।

एकाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० एक +आई(प्रत्य०)] १. एक का भाव । एक का मान । इकाई । लघुतम घटक अंग । २. वह मात्रा जिसके गुणन या विभाग से और दूसरी मात्राओं का मान ठहराया जाता है । जैसे—किसी लंबी दीवार को मापने के लिये कोई लंबाई ले ली और उसका नाम गज फुट इत्यादि रख लिया । फिर उस लंबाई को एक मानकर जितनी गुनी दीवार होगी उतने ही गज या फुट लंबी वह कही जायगी । ३. अंकों की गिनती में पहले अंक का स्थान ।४. उस स्थान पर लिखा हुआ अंक । विशेष—अंकों के स्थान की गिनती दाहिनी ओर से चलती है, जैसे—हजार, सैकड़, दहाई, एकाई । एक स्थान पर केवल ९ तक की संख्या लिखी जा सकती है । संख्या के अभाव में शून्य रखा जाता है; जैसे '१०' । इसका अभिप्राय यह है कि इस संख्या में केवल एक दहाई (अर्थात् दस) है और एकाई के स्थान पर कुछ नहीं है । इसी प्रकार १०५ लिखने से यह अभिप्राय है कि इस संख्या में एक सैकड़ा, शून्य दहाई और पाँच एकाई है ।

एकाएक
क्रि० वि० [हिं० एक; मि० फा० यकायक] अकस्मात् । अचानक । सहसा । उ०— एकाएक मिलै गुरु पूरा मूल मंत्र तब पावै । —धरम० पृ०, ७६ ।

एकाएकी पु †
क्रि० वि० [हि० एकाएक] अकस्मान् । सहसा । अचानक । एकाएक । उ०—'सहृदयों को इस पत्र का एकाएकी अंत हो जाना अत्यंत कष्टदायक होगा ।' —प्रताप० ग्रं० पृ०, ७२३ ।

एकाएकी (२)
वि० अकेला । तरहा । उ०—एकाएकी रमै अवनि पर दिल का दुबिधा खोइबे । कहै कबीर अलमस्त फकीरा आप निरंतर सोइबे ।— कबीर (शब्द०) ।

एकाकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०एक+आकार] मिल मिलाकर एक होने की़ क्रिया । ऐकमय होना । भेद का अभाव । जैसे 'वहाँ सर्वत्र एकाकार है, जाति पाँति कुछ नहीं है ।

एकाकार (२)
वि० एक आकार का । समान रूप का । मिल जुलकर एक ।

एकाकी
वि० [सं० एकाकिन्] [स्त्री० एकाकिनी] अकेला । तनहा । उ०—देवविग्रह एकाकी धर्मोंन्मत्त काला पहाड़ के अश्वारोंहियों से घिर गया । —इंद्र०, पृ०, ११७ ।

एकाक्ष (१)
वि० [सं०] [स्त्री० एकाक्षी] जिसे एक ही आँख हो । काना । २. एक ही अक्ष या धुरीवाला (को०) । यौ०— एकाक्ष रुद्राक्ष=वह रुद्राक्ष जिसमें एक ही आँख या बिंदी हो । एकमुख रुद्राक्ष । एकाक्षपिंगल ।

एकाक्ष (२)
संज्ञा पुं० १. कौआ । २. शुक्राचार्य । ३. शिव (को०) ।

एकाक्षपिंगल
संज्ञा पुं० [सं०एकाक्षपिङ्गल] कुबेर ।

एकाक्षर (१)
वि० [सं०] एक अक्षरवाला [को०] ।

एकाक्षर (२)
संज्ञा पुं० १. एक अक्षरवाला मंत्र 'ऊँ' । २. एक उपनिषद् [को०] ।

एकाक्षरी
वि० [सं०एकाक्षरिन्] एक अक्षर का । जिसमें एक ही अक्षर हो । एक अक्षरवाला । जैसे—'एकाक्षरी मंत्र' । यौ०— एकाक्षरी कोश=वह कोश जिसमें अक्षरों के अलग अलग अर्थ दिए हों जैसे 'ए' से वासुदेव, 'इ' से कामदेव इत्यादि ।

एकागर पु †
वि० [सं० एकाग्र] एक ओर स्थिर । चंचलता रहित । एकाग्र । उ०—चाँद सुरज एकागर करिकै उलटि उरध अनुसेरे । —भीखा श०, पृ०, ८ ।

एकाग्र (१)
वि० [सं०] १. एक और स्थिर । चंचलता से रहित । २. अनन्यचित्त । जिसका ध्यान एक ओर लगा हो । यौ०—एकाग्रचित्त । एकाग्रदृष्टि । एकाग्रभूमि । एकाग्रमन ।

एकाग्र (२)
संज्ञा पुं० .योग में चित्ता की पाँच वृत्तियों या अवस्थाओं में से एक जिसमें चित्ता निरंतर किसी एक ही विषय की ओर लगा रहता है । ऐसी अवस्था योगसाधना के लिये अनुकूल और उपयुक्त कही गई है । वि० 'चित्तभूमि' ।

एकाग्रचित्त
वि० [सं०] स्थिरचित्त । जिसका ध्यान बँधा हो । जिसका मन इधर उधर न जाता हो, एक ही ओर लगा हो । उ०— मैने भी आज इस मामले को बड़े एकाग्रचित्त से विचारा था ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ६९ ।

एकाग्रचित्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्थिरचित्त होने की स्थिति या भाव । उ०— 'पर यह उन्हीं का साध्य है जिन्हें एकाग्रचित्तता का अभ्यास हो ।'—प्रताप०, ग्रं०, पृ०, ५२३ ।

एकाग्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चित्त का स्थिर होना । अचंचलता । उ०— 'उसे कल्पना की एकाग्रता ने माता के पैरों की चाँप तक सुनवा दी' ।—तितली, पृ०, ६८ । २. योगदर्शन के अनुसार चित्त की एक भूमि जिसमें किसी प्रकार की चंचलता या अस्थिरता नहीं रह जाती और योगी का मन बिलकुल शांत रहता है ।

एकाग्रंदृष्टि
वि० [सं०] एक विंदु पर दृष्टि केंद्रित रखनेवाला [को०] ।

एकाग्रभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्ता की अवस्था जिसमें किसी वस्तु पर चित्त एकाग्र हो जाता है [को०] ।

एकाच्
वि० [सं०] एक स्वरवाला (शब्द०) [को०] ।

एकाच्छरी पु
वि० [सं०एकाक्षर+ हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'एकाक्षरी' । उ०—भाषा करि एकाच्छरी समझौ बुद्धि अगाधि ।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५४३ ।

एकात्म
वि० [सं० एकत्मन्] एकहृदय । एकप्राण । अभिन्न [को०] ।

एकात्मता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एकता । अभेद । २. मिल मिलाकर एक होना । एकमय होना ।

एकात्मवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह सिद्धांत जिसमें आत्मा और परमात्मा के एकाकर की मान्यता है । जीव ब्रह्म के ऐक्य का सिद्धांत । अद्वैतवाद [को०] ।

एकादश (१)
वि० [सं०] ग्यारह ।

एकादश (२)
संज्ञा पुं० ग्यारह की संख्या का बोध करानेवाला अंक—११ ।

एकादशाह
संज्ञा पुं० [सं०] मरने के दिन से ग्यारहवाँ दिन । विशेष—उस दिन हिंदू मृतक के लिये वृषोत्सर्ग करते हैं, महाब्राह्मण खिलाते हैं तथा शय्यादान इत्यादि देते हैं ।

एकादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रत्येक चांद्र मास के शुक्ल और कृष्ण पक्ष की ग्यारहवीं तिथि । विशेष—वैष्णव मत के अनुसार एकादशी के दिन अन्न खाना दोष है । इस दिन लोग अनाहार या फलाहार व्रत करते हैं । व्रत के लिये दशमीविद्धा एकादशी का निषेध है और द्वादशी- विद्धा ही ग्राह्य है । वर्ष में चौबीस एकादशी होती हैं जिनके जिनके नाम अलग हैं, जैसे, भीमसेनी, प्रबोधिनी, हारिशयनी, उप्तन्ना इत्यादि । मुहा०—एकादशी मनाना=भूखे रहना । बिना भोजन के रहना । उ०—इस महँगी से नित एकादशी मनाते, लड़के बाले सब घर में हैं चिल्लाते । —कविता कौ०, भा०२, पृ० ३७ ।

एकादसी—पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० एकादशी] दे० . 'एकादशी' । उ०— (क) 'सो ऐसें करत बोहोत दिन बीते । तब एक एकादसी आई ।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० २७ । (ख) एकादसी गाल मह आवै द्वादसि काम कपोल समावै ।—चित्रा०, पृ० २१६ ।

एकाध
वि० [हिं० एक+ आधा] कुछ । स्वल्प । थोड़ा । इक्का दुक्का । उ०—(क) 'उत्तर में सिसकियों के साथ एकाध हिचकी ही सुनाई पड़ जाती थी' ।—आँधी,' पृ० ३८ । (ख) 'यार यह तो होता रहेगा, एकाध तान तो उड़ै' ।—प्रताप० ग्रं०, पृ० ६ ।

एकाधिक
वि० [सं०] एक से अधिक । अनेक [को०] ।

एकाधिकार
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्यक्ति या दल का अधिकार । एक का प्रभुत्व । उ०—एकाधिकार रखते भी धन पर, अविचल चित्त । अपरा, पृ० ६३ ।

एकाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण देश का एकमात्र शासक । एकमात्र स्वामी [को०] ।

एकाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'एकाधिप' [को०] ।

एकाधिपत्य
संज्ञा पुं० [सं०] एकमात्र अधिकार । पूर्ण प्रभुत्व । उ०—'जब से श्यामदुलारी चली गई, धामपुर में तहसीलदार का एकाधिपत्य था । —तितली पृ० १६६ ।

एकानन
वि० [सं० एक+आनन=मुख] एक मुखावाला । उ०— एकानन हम, चतुरानन तू, अतः कहैं क्या और विशेष ।— कविता कौ०, भा० २, पृ० १५२ ।

एकान्विति
संज्ञा पुं० [सं०] एक में अन्वित अर्थात् युक्त होना । ऐक्य । एकत्व । उ०—उनमें एकान्विति और संबंध की सच पूछिए जगह ही नहीं रहती ।—आचार्य०, पृ० १२८ ।

एकाब्दा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्ष की बछिया [को०] ।

एकायन (१)
वि० [सं०] १. एकाग्र । २. एकमात्र या एक के गमन योग्य । जिसको छोड़ और किसी पर चलने लायक न हो (मार्ग आदि) ।

एकायन (२)
संज्ञा पुं० १. नीतिशास्त्र । २. विचारों की एकता (को०) । ३. एकमात्र मार्ग (को०) । ४. एकांत स्थान (को०) ।

एकार (१)पु †
क्रि० वि० [हिं० एकाकार] एक समान । एक सदृश । एक सा । उ०—परदल पिण जीपि पदमणी परणे । आणँद उभै हुआ एकार ।—बेलि०, दू०, १३८ ।

एकार (२)
संज्ञा पु० [सं०] 'ए' अक्षर तथा उसकी ध्वनि [को०] ।

एकार्गल
संज्ञा पुं० [सं०] खर्जू रवेध नामक योग ।

एकार्णव
संज्ञा पुं० [सं०] जलप्लावन । जलप्रलय [को०] ।

एकार्थ
वि० [सं०] समान अर्थवाला ।

एकार्थक
वि० [सं०] समानर्थक ।

एकावला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक अलंकार जिसमें पूर्व और पूर्व के प्रति उत्तरोत्तर वस्तुओं का विशेषण भाव से स्थापन अथवा निषेध दिखलाल जाय । विशेष—इसके दो भेद हैं । पहला वह जिसमें पूर्वकथित वस्तुओं के प्रति उत्तरोत्तर कथित वस्तु का विशेषण भाव से स्थापन किया जाय । जैसे—सुबुद्धि सो जो हित आपुनो लखै, हितौ वही ह्वै परदुःख ना जहाँ । परौ वहै आश्रित साधु भाव जो जहाँ रहैं केशव साधुता वही । यहाँ सुबुद्धि का विशेषण 'हित आपनो लखैं' और 'हित' का 'परदुःख ना जहाँ' रखा गया है । दूसरा वह जिसके पूर्वकथित वस्तु के प्रति उत्तरोत्तर कथित वस्तु का विशेषण भाव से निषेध किया जाय । जैसे— शोभित सो न सभा जहँ वृद्ध न, ते जे पढ़े कछु नाहीं । ते न पढ़े जिन साधु न साधत, दीह दया न दिखै जिन माँहीं । सो न दया जुन धर्म न सो जहँ दान बृथा हीं । दान न सो जहँ साँच न केशव, साँच न सो, जु बसै छल छाहिं । २. एक छंद । दे० 'पंकजवाटिका' । ३. मोतियों की एक हाथ लंबी माला । एक तार की माला जिसमें मोतियों की संख्या नियत न हो । उ०—'अभयकुमार ने एक क्षण में अपने गले से मुक्ता की एकावली निकालकर अंजलि में ले ली ।' इंद्र०, पृ० १३४ । विशेष—कौटिल्य के अनुसार यदि इस माला के बीच में मणि होती थी तो इसकी 'यष्टी' संज्ञा थी ।

एकावली (२)
वि० एक लर का । एकहरा ।

एकाष्टक
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ का आठवाँ दिन [को०] ।

एकाष्ठी
संज्ञा पुं० [सं०] १. बक वृक्ष । २. मंदार । ३. एक बीज का बिनौला [को०] । पर्या०—एकाष्ठील । एकाष्ठीला ।

एकाह
वि० [सं०] एक दिन में पूरा होनेवाला । जैसे—'एकाह पाठ । एकाह यज्ञ' ।

एकाहिक
वि० [सं०] एक दिन का । एक दिन में पूरा होनेवाला । एकाह ।

एकीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] एक करना । मिलाकर एक करना । गड़डबड्ड करना ।

एकीकृत
वि० [सं०] एक किया हुआ । मिलाया हुआ ।

एकीभवन, एकीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिलना । मिलाव । एक होना । २. एकत्र होना । इकट्ठा होना ।

एकीभूत
वि० [सं०] १. मिला हुआ । मिश्रित । जो मिलाकर एक हो गया हो । २. जो इकट्ठा हुआ हो ।

एकेंद्रिय
संज्ञा पुं० [सं० एकेन्द्रिय] १. सांख्य शास्त्र के अनुसार उचित और अनुचित दोनों प्रकार के विषयों से इंद्रियों को हटाकर उन्हें अपने मन में लीन करना । २. जैन मतानुसार वह जीव जिसके केवल एक ही इंद्रिय अर्थात् त्वाचामात्र होती है; जैसे जोंक, केचुआ आदि ।

एकेश्वरवाद
संज्ञा पुं० [सं०] जगत् की उत्पत्ति और नियमन करनेवाला ईश्वर एक ही है, यह सिंद्धात या मत । उ०—'यह सामान्य भक्ति मार्ग एकेश्वरवाद का एक अनिश्चित स्वरूप लेकर खड़ा हुआ' । —इतिहास, पृ० ६६ ।

एकेश्वरवादी
वि० [सं० एकेश्वरवादिन्] एकेश्वरवाद को माननेवाला । संसार का सर्जन, स्थिति, संहार करनेवाली शक्ति 'ईश्वर' एक ही है, इस विचार या मत को माननेवाला । उ०—'हमारा धर्म मुख्यतः एकेश्वरवादी है—वह ज्ञानप्रधान है' । —कंकाल, पृ० १०५ ।

एकोतर पु
वि० [सं० एकोत्तर] दे० 'एकोत्तर' । उ०—पान एकोतर लैहैं जाई । असंख्य जन्म का कर्म नशाई । —कबीर सा०, पृ० ५५२ ।

एकोतरसो पु
वि० [सं० एकोत्तरशन; अप० एकोत्तरसय] एक सौ एक । उ०—उनकर सुमिरण जो तुम करिहौ । एकोतरसो पुरुषा लै तरिहौ । —कबीर सा०, पृ० ४०० ।

एकोतरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० एकोत्तर] एक रुपया सैकड़ा ब्याज ।

एकोतरा (२)
वि० एक दिन अंतर देनेवाला । जैसे—'एकोतरा ज्वर' ।

एकोत्तर
वि० [सं०] एक से अधिक [को०] ।

एकोदक
संज्ञा पुं० [सं०] वह संबंधी जो एक ही पितर को जल देता हो [को०] ।

एकोद्दिष्ट (श्राद्ध)
संज्ञा पुं० [सं०] पह श्राद्ध जो एक के उद्देश्य से किया जाय । यह प्रायः वर्ष में एक बार किया जाता है ।

एकोहं
सर्व० [सं० एकोहम्] मै एक हुँ । मैं अकेला हुँ । उ०—गा गा एकोहं बहुस्याम । हर लिए भेद भव भीति भार ।— युगांत, पृ० ५९ । यौ०—एकोहं बृहस्यामि ।

एकौटेंट
संज्ञा पुं० [अं० अकाउन्टेन्ट] दे० 'अकाउंटेंट' । उ०— किसी एकौंटेंट की जगह खाली है, आप सिफारिश कर दे तो शायद वह जगह मुझे मिल जाय—काया० पृ० २९८ ।

एकौझा पु †
वि० [सं० एक] अकेला । एकाकी । उ०—जो देवपाल राउ रन गाजा । मोहिं तोहिं जूझ एकौझा राजा ।— जायसी (शब्द०) ।

एकौतना †
क्रि० अ० [हिं० एक+ पत्ता] धान या गेहूं में उस पत्ते का निकलना जिसके गाभ में बाल हो । धान आदि का फूटने पर आना । गरभाना ।

एकौसा पु
वि० [सं० एक+आवास, प्रा० ओवास, अप० ओसास] १. अकेला । एक की । २. एक ही वासवाला । एक ही के प्रति रागवाला । उ०—चलौ न बलाइ लेउँ आगे तें एकौंसि होहु, ताही के सिधारौ जाके निसि बसि आए हौ ।—गंग०, पृ० ५७ ।

एक्का (१)
वि० [सं० एकक] १. एकवाला । एक से संबंध रखनेवाला । २. एकेला । यौ०—एक्का दुक्का=अकेला । दुकेला ।

एक्का (२)
संज्ञा पुं० १. वह पशु या पक्षी जो झुंड छोड़कर अकेला चरता या घूमता हो । विशेष—इसका व्यवहार उन पशुओं या पक्षियों के संबंध में आता है जो स्वभाव से झुंड बाँधकर रहते हैं । जैसे, एक्का सूअर, एक्का मुर्ग । २. एक प्रकार की दोपहिया गाड़ी जिसमें एक बैल या घोड़ा जोता जाता है । ३. वह सिपाही जो अकेले बड़े वड़े काम कर सकता है और जो किसी कठिन समय में भेजा जाता है । ४. फौज में वह सिपाही जो प्रतिदिन अपने कमान अफसर के पास तमन (फौज) के लोगों की रिपोर्ट करे । ५. बड़ा भारी मुगदर जिसे पहलवान दोनों हाथों से उठाते हैं । ६. बाँह पर पिहनने का एक गहना जिसमें एक ही नग होता है । ७. वह बैठकी या शमादान जिसमें एक ही बत्ती जलाई जाती है । इक्का । ८. ताश या गंजीफे का वह पत्ता जिसमें एक ही बूटी या चिह्न हो । एक्की ।

एक्कावान
संज्ञा पुं० [हिं० एक्का+ वान (प्रत्य०)] [संज्ञा एक्का— वानी] एक्का हाँकनेवाला । वह पुरुष जो एक्का चलाता हो ।

एक्कावानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० एक्कावान+ई (प्रत्य०)] १. एक्का हाँकने का काम । २. एक्का हाँकने की मजदूरी ।

एक्की
संज्ञा स्त्री० [हिं० एक्का+ ई (प्रत्य०)] १. वह बैलगाड़ी जिसमें एक ही बैल जोता जाय । २. ताश या गंजीफे का वह पत्ता जिसमें एक ही बूटी हो । विशेष—यह पत्ता प्रायः सबसे माना जाता है और अपने रंग के सब पत्तों को मार सकता है ।

एक्जिबिशन
संज्ञा स्त्री० [अं० एग्जीबिशन] प्रदर्शनी । नुमाइश ।

एक्ट
संज्ञा पुं० [अं० ऐक्ट] नियम । कानून । उ०—'दुष्ट रेलवे एक्ट हृदय भरा था । इससे रक्त का घूट भीतर ही भीतर पिया किए ।—प्रताप०, ग्रं०, पृ० ६७ ।

एक्टिंग
संज्ञा स्त्री० [अं०] अभिनय । नकल करना ।

एक्यानबे (१)
वि० [सं० एक्नवति; प्रा० एक्काणउइ] नब्बे और एक ।

एक्यानबे (२)
संज्ञा पुं० नब्बे और एक की संयुक्त संख्या का बोध करानेवाला अंक, जो इस प्रकार लिखा जाता है—९१ ।

एक्यावन (१)
वि० [सं० एकपञ्चास, प्रा० एक्कावन्न] पचास और एक ।

एक्यावन (२)
संज्ञा पुं० पच्चास और एक की संख्या का बोधक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—५१ ।

एक्यासी (१)
वि० [सं० एकाशीति, प्रा० एक्कासीइ] अस्सी और एक ।

एक्यासी (२)
संज्ञा पुं० एक और अस्सी की संख्या का बोधक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—८१ ।

एक्सचेंज
संज्ञा पुं० [अं० इक्सचेंज] १. बदला । परिवर्तन । २. वह स्थान जहाँ नगर के व्यापारी और महाजन परस्पर लेनदेन या क्रय विक्रय के लिये इकट्ठे होते हैं ।

एक्सपर्ट
संज्ञा पुं० [अं०] वह जिसे किसी विषय का विशेष ज्ञान हो । किसी विषय में पारंगत । विशेषज्ञ ।

एक्सपोज
संज्ञा पुं० [अं० एक्सपोज] १. किसी वस्तु को इसलिये दूसरे वस्तु के सामने या निकट रखना जिसमें उसपर उस दूसरी वस्तु का प्रभाव पड़े । २. फोटोग्राफी में प्लेट को कैमरे में लगाकर अक्स लेने के लिये लेंस का मुँह खोलना ।

एक्सपोर्ट
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'निर्याति' । जैसे—एक्सपोर्ट ड्यूटी ।

एक्सप्रेशन
संज्ञा स्त्री० [अं०] भाव भंगिमा । अभिव्यक्ति । उ०— उनेक चेहरे का एक्सप्रेशन देखते नहीं, एक भरपेट भोजन- प्राप्त गँवार की तरह हँस रहे हैं ।—सन्यासी, पृ० १८७ ।

एक्सप्लोसिव
संज्ञा पुं० [अं०] भभक उठनेवाला पदार्थ । बिस्फोटक पदार्थ । गंधक, बारूद आदि । जैसे—एक्सप्लोसिव ऐक्ट ।

एक्सरे
संज्ञा पुं० [अं०] एक विद्युतकिरण जिसकी सहायता से शरीर के भीतरी भागों का चित्र लिया जाता है । उ०— एक्स रे की तरह उसके शरीर के बाह्यावरण को भेदकर उसके मर्म का अणु अणु देख लेगी ।—संन्यासी, पृ० ३७५ ।

एक्साइज
संज्ञा पुं० [अं० एक्साइज] वह टैक्स या कर जो नमक और आबकारी की चीजों पर लगता है । नमक और आबकारी की चीजों पर लगनेवाला टैक्स या कर । महसूल । चुंगी । यौ०—एकसाइज डिपार्टमेंट=आबकारी विभाग । एक्साइज डयूटी=मादक द्रव्यों आदि पर लगनेवाला कर ।

एखनी
संज्ञा स्त्री० [फा० यखनी] मांस का रसा । मांस का शोरबा । यौ०—एखनी पुलाव=वह पुलाव जिसमें एखनी डालते है ।

एगानगी
संज्ञा स्त्री० [फा० यगानगी] १. एका । मेल । २. मित्रता मैत्री । हेलमेल ।

एगाना
वि० [फा० यगामह] जो बेगाना न हो । अपना । आत्मीय । उ०—(क) मातु पिता सुत बांधवा सभ कहत एगाना रे ।कहै दरिया सतगुर बिना जम हाथ बिकाना रै ।—सं० दरिया पृ० १६७ । (ख) 'जितने ही एगाने मिलैं अच्छा ही है ।— प्रेमघन०, भा०२, पृ० १३८ ।

एग्जामिनेशन
संज्ञा पुं० [अं०] परीक्षा । इम्तिहान ।

एग्जिबिट
संज्ञा पुं० [अं०] १. प्रदर्शनी आदि में दिखाई जानेवाली वस्तु । २. वह जो आदालत में किसी मामले में प्रमाण- स्वरूप दिखाई जाय । अदालत में किसी मामले के संबंध में प्रमाणस्वरूप उपस्थित की जानेवाली वस्तु ।—जैसे—'नं०' ३० एग्जिबिट एक तेज छुरा था ।

एग्जिबिशन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रदर्शनी । नुमायश । जैसे—'एपायर एग्जिबिशन' ।

एजाज
संज्ञा पुं० [अ० ऐजाज़] चमत्कार । अद्भुत कार्य । करिश्मा ।

एजुकेशन
संज्ञा पुं० [अं०] शिक्षा । तालीम । यौ०—एजुकेशन डिपार्टमेंट=शिक्षाविभाग ।

एजुकेशनल
वि० [अं०] शिक्षासंबंधी ।

एजंट
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह आदमी जो किसी की ओर से उसका कोई काम करता हो । मुखतार । २. वह आदमी जो किसी कोठी, कारखाने या व्यापारी की ओर से माल बेचने या खरीदने के लिये नियुक्त हो । ३. वह राजपुरुष या अफसर जो (अँगरेज) सरकार (या बड़े लाट) के प्रतिनिधि के रूप में किसी (देशी) राज्य में रहता हो । ४. दे० एजेंट गवर्नर जनरल' ।

एजेंट गवर्नरजनरल
संज्ञा पुं० [अं०] भारत में अंग्रेजी शआसन काल का वह राजपुरुष या अफसर जो बड़े लाट के एजेंट या प्रतिनिधि रूप से कई देशी राज्यों की राजनीतिक दृष्टि से देखभाल करता था ।

एजेंडा
संज्ञा पुं० [अं०] किसी सभा का कार्यक्रम ।

एजेंसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. आढ़त । वह स्थान जहाँ किसी कार- खाने या कंपनी का माल एजेंट के द्वारा बिकता हो । २. वह स्थान जहाँ एजेंट या गुमाश्ते किसी कंपनी या कारखाने के लिये माल खरीदते हो । ३. वह स्थान जहाँ शासक या सरकार या गवर्नरजनरल (बड़े लाट) या स्वामी का एजेंट या प्रतिनिधि रहता था या जहाँ उसका कार्यालय है । ४. वह प्रांत जो राजनीतिक दृष्टि से एजेंट के अधिकारयुक्त था । जैसे—राजपूतना एजेंसी, मध्यभारत एजेंसी । विशेष—अँग्रेंजों के शासनकाल में हिंदुस्तान में पाँच रेजिड़ें- सियाँ (हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा, काश्मीर और सिकम में) और चार एजेंसियाँ (राजपूताना, मध्यभारत, बिलोचिस्तान तथा पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में) थी । एक एक एजेंटी के अंतर्गत कई राज्य थे । इन एजेंसियों में सब मिलाकर कोई १७५ राज्य रियासतें थीं । प्रत्येक एजेंसी में गवर्नर जनरल या बड़े लाट का एजेंट या प्रतिनिधि रहता था । इन एजेंटों के सहायतार्थ रियासतों में पोलिटिकल अफसर रहते थे । जिस स्थान पर ये लोग रहते वहाँ प्रायः अँगरेज सरकार की छावनी होती थी और कुछ फौज रहती थी ।

एटम
संज्ञा पुं० [अं०] अणु । यौ०—एटमबम=अणुबम । एक महाविध्वंसक आयुध । द्वितीय महायुद्ध के आखिरी वर्ष अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर इसका पहले पहल प्रयोग किया था ।

एटर्नी
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'अटरनी' ।

एड (१)
वि० [सं०] बहरा [को०] ।

एड (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मेष [को०] ।

एड (३)
संज्ञा पु० [अं०] सहायता । मदद ।

एडक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० एडका] १. मेष । भेड़ा । २. जंगली बकरा ।

एडगज
संज्ञा पुं० [सं०] चकवँड़ । चक्रमर्द ।

एडवांस
वि० [अ० ऐडवांस] अग्रिम । उ०—मैने तत्काल एडवांस भाड़ा चुकाकर रसीद लेकर उसे ठिक कर लिया ।—सन्यासी, पृ० १३४ ।

एडवोकेट
संज्ञा पुं० [अं० एडवोकेट] वह वकील जो साधारण वकीलों से पद में बड़ा और जो पुलिस कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट तक में बहस कर सके । वकील ।

एडवोकेट जनरल
संज्ञा पुं० [अं० ऐडवोकेट जनरल] सरकार का प्रधान कानूनी परामर्शदाता और उसकी और से मामलों की पैरवी करनेवाला । महाधिवक्ता । विशेष—भारत में बंगाल, मद्रास, और बंबई में एडवोकेट जनरल होते थे । इन तीनों में बंगाल के एडवोकेट जनरल का पद बड़ा था । बंगाल सरकार के सिवा भारत सरकार भी (कौंसिल के बाहर) कानूनी मामलों में इनसे सलाह लेती थी । जजों की भाँति इन्हें भी सम्राट नियुक्त करते थे ।

एडिटर
संज्ञा पुं० [अं०] संपादक । किसी समाचारपत्र, पत्रिका या पुस्तक को ठीक करके उसे प्रकाशित योग्य बनानेवाला । उ०—(क) चरन खावैं एडिटर जात, जिनके पेट पचै महिं बात ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०,१, पृ० ६६३ । (ख) 'खास अपने शहर की खबर, और वह भी एडिटर हो के, झूठी छापे ।—प्रताप०, ग्रं०, पृ० १७९ । यौ०—एडिटरपोशी=अपने अनुकूल करने के लिये संपादकों का पोषण । उ०—दाँत पीसि हाय हाय, एडिटरपोशी हाय हाय ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ६७८ ।

एडिटरी
संज्ञा स्त्री० [अं० एडिटर +हिं० ई (प्रत्य०)] संपादन । किसी ग्रंथ या पत्र की प्रकाशित करने के लिये ठीक करने का काम । उ०—'पच' की एडिटरी चिरकीन के शागिर्दों का काम नहीं' । —प्राताप०, ग्रं०, पृ० ६११ ।

एडीकांग
संज्ञा पु० [अं०] १. वह कर्मचारी जो सेना के प्रधान सेनापति को आज्ञा का प्रचार करता हो और काम पड़ने पर उसकी ओर से पत्रव्यवहार भी करता हो । एडीकांग प्रधान शरीरक्षक का काम भी करता है । २. प्रधान शरीरक्षक ।

एड़
संज्ञा स्त्री० [सं० एडूक=हि़ड्डी या हड्डी की तरह कड़ा] टखनी के पीछे पैर की गद्दी का निकाला हुआ भाग । एड़ी । क्रि० प्र०—देना ।—मारना ।—लगाना । मुहा०—एड़ करना=(१) एड़ लगाना । (२) चल देना । खानाहोना । एड़ देना या लगाना=(१) लात मारना । (२) घोड़े को आगे बढ़ाने के लिये एड़ से मारना । (घोड़े को) आगे बढ़ाना । (३) उभाड़ना । उसकाना । उत्तेजित करना । (४) अडंग लगाना । चलते हुए काम में बाँधा डालना ।

एड़क
संज्ञा पुं० [सं० एडक] [स्त्री० एड़का] भेड़ा । मेढा ।

एड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० एडूक=हड्डी या हड्डी की तरह कड़ा, हिं० एड़] टखनी के पीछे पैर की गद्दी का निकला हुआ भाग । एड़ । उ०—बार बार एड़ी अलगाय कै उचकि लफी, गई लचि बहुरि पयोधर विदेह सो ।—कविता कौ०, भा० २, पृ० ६९ । महा०—एड़ी घिसना या रगड़ना=(१) एड़ी को मल मलकर धोना । उ०—मुँह धोवति एड़ी घसति, हसति अनँगवति तीर । बिहारी र०, दो०, ६९७ । (२) रीघना । बहुत दिनों से क्लेश या दुःख में पड़ा रहना । कष्ट उठाना । जैसे—'वे महीनों से चारपाई पर पड़ेएड़ियाँ घिस रहे हैं । (३) खूब दौड़धूप करना । अंगतोड़ परिश्रम करना । अत्यंत यत्न करना । जैसे—'व्यर्थ एड़ियाँ घिस रहे हो कुछ होने जाने का नहीं । एड़ी चोटी पर से वारना=(१) सिर और पाँव पर से न्योछावर करना । तुच्छ समझना । नाचीज समझना । कुछ कदर न न करना । (स्त्रियाँ०) । जैसे—ऐसों को तो मैं एडी चोटी पर वार दूँ । उ०—एड़ी चोटी पै मुए देव को कुरबान करूँ ।— इंदरसना (शब्द०) । एड़ीदेख=चश्मबददूर । तेरी आँख में राई लोन । जब कोई ऐसी बात कहता है जिससे बच्चे का नजर या भूत प्रेत लगने का डर होता है तब स्त्रियाँ यह वाक्य बोलती हैं) । एड़ी से चोटी तक=सिर से पैर तक । एड़ी चोटी का पसीना एक होना या करना=अति परिश्रम करना । श्रम पड़ना ।

एड़ोटर
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'एड़ीटर' । उ०—'इस अखबार के एडीटर को पहले लाला मदनमोहन से अच्छा फायदा हो चुका था' । —श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३८४ ।

एड्रेस
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'अड्रेस' ।

एढ़ा पु
वि० [सं० आढ्य या देशी] बलवान् । बली ।—(डिं०) ।

एण
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० एणी] १. हिरण की एक जाति जिसके पैर छोटे और आँखें बड़ी होती हैं । यह काले रंग का होता है । कस्तूरीमृग । यौ०—एणतिलक; एणभृत्, एणलांछन=चंद्रमा ।

एणहक
संज्ञा पुं० [सं०] मकरराशि [को०] ।

एणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिरणी [को०] ।

एणीदाह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ज्वर । एक प्रकार का सन्निपात ।—माधव०, पृ० २१ ।

एणीपद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप [को०] ।

एणीपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक जहरीला कीड़ा ।

एत पु †
वि० [सं० इयत्] दे० 'एना' । उ०—छोरि उदर तैं दुसह दाँवरी डारि कठिन कर बेंत । कहि धौं री तोहिं क्यों करि आवै सिसु पर तामस एत । —सूर० १० ।३४९ ।

एत (२)
वि० [सं०] १. मिश्रित रंग का । २. चमकता हुआ । ३. आगत । आया हुआ । ४. गतिशील । गमनशील [को०] ।

एत (३)
संज्ञा पुं० १. हिरन । मृग । मृग की ऊँचाई । ३. मिश्रित रंग [को०] ।

एतक पु
वि० [सं० एतावत्, प्रा० एतिअ, अत्तिक] इतना । एतना । उ०—एतत कष्ट सहा दुख अंगा ।—कबीर सा०, पृ० २८२ ।

एतकाद
संज्ञा पुं० [अं० एतकाद] विश्वास । भरोसा । उ०— मत रंज कर किसी को कि अपने तो एतकाद । दिन ढाय कर जो काबा बनाया तो क्या हुआ । —कविता कौ०, भा० ४, पृ० ९८ । क्रि० प्र०—जमना=दृढ़ विशवास या भरोसा होना ।

एतत्, एतद्
सर्व० [सं०] यह । विशेष—इसका प्रयोग यौगिक या समस्त पद बनाने ही में अधिक होता है; जैसे—ए द्देशीय, एवाद्विषयक ।

एतदनुसार
क्रि० वि० [सं० एतद्+अनुसार] इसके अनुसार । इसके समान । इसके मुआफिक । 'एतदनुसार आज हमारी होली है ।' —प्रताप०, ग्रं०, पृ० ५०२ ।

एतदर्थ
क्रि० वि० [सं०] १. इसके लिये । इसके हेतु । २. इसलिये । इस हेतु ।

एतदवधि
अव्य० [सं०] इस सीमा तक । अब तक [को०] ।

एतदाल
संज्ञा पुं० [अ०] [वि० मुअतदिल] १. बराबरी । समता । न कमी न आधिकता । १. फारसी के मुकान नामक राग का पुत्र ।

एतद्देशीय
वि० [सं०] इस देश का । इस देश से संबंध रखेनेवाला । उ०—'अतः वे जो बातें नियत कर गए हैं ।' एतद्देशीय जलवायु एवं प्रकृति के अनुकूल ही नियत कर गए है ।—प्रताप० ग्रं०, पृ० ६७२ ।

एतद्विषयक
वि० [सं०] इस संबंध का । इस विषय से संबंद्ध । उ०—'एतद्विषयक कानून बनाने की नौबत आई तब कान खड़े हुए हैं'—प्रताप ग्रं०, पृ० ४०४ ।

एतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वास । निःश्वास । २. एक प्रकार की मछली ।

एतना पु
वि० [सं० एतावत्] [स्त्री० एतनी] दे० 'इतना' । उ०— (क) एकता कहत छींक भइ बाएँ ।—मानस, २ ।१९२ । (ख) एतना बोल कहत मुख, बिरह कै आगि—जायसी ग्रं०, पृ० ९० ।

एतनिक पु †
वि० [सं० एतावत्, प्रा० एत्तणिअ] दे० 'इतनक' । उ०—(क) एतनिक दोस विरचि पिउ रूठा । जो आपन कहै सो झूठा ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० १७८ ।

एतबार
संज्ञा पुं० [अ०] विश्वास । प्रीति । धाक । साख । उ०— आप जो कुछ करार करते हैं । कहिए हम एतबार करते हैं ।—शेर, भा०१, पृ० १४५ । क्रि० प्र०—करना ।—मानना । होना ।मुहा०—(किसी का) एतबार उठना=किसी के ऊपर से लोगों का विश्वास हटना । (किसी का) अविश्वास होना । जैसे,— 'उनका एतबार उठ गया है इससे उन्हें कहीं उधार भी नहीं मिलता । एतबार खोना=अपने ऊपर से लोगों का विश्वास हटना । जैसे,—तुमने अपनी चाल से अपना एतबार खो दिया । एतबार जमाना=विश्वास उत्पन्न होना ।

एतबारी
वि० [अ०] विश्वसनीय । विश्वास करने योग्य [को०] ।

एतमाद
संज्ञा पुं० [अ०] विश्वास । प्रतीति । भरोसा । उ०—जान तुझ प कुछ एतमाद नहीं । जिंदगानी का क्या भरोसा है ।—कविता कौ०, भा०४, पृ० ४८ ।

एतराज
संज्ञा पुं० [अ०] बिरोध । आपत्ति । नुक्ताचीनी ।

एतली †
वि० [हिं०] दे० 'एतना' । उ०—बात सुणंते एतली, दूजा आया दूत ।—रा० रू०, पृ० १७७ ।

एतवार
संज्ञा पुं० [सं० आदित्यबार] दे० 'इतवार' ।

एतवारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० इतवार] १. वह दान जो रविवार को दिया जाता है । २. पैसा जो मदरसों के लड़के प्रति रविवार को गुरु जी या मौलवी साहब को देते हैं । ३. एतवार संबंधी कार्य या वस्तु ।

एता पु †
वि० [सं० इयत्] [स्त्री० एती] इतना । इस मात्रा का । उ०—(क) काहे कौं एता किया पसारा, यह तन जरि बरि ह्वै है छारा ।—कबीर ग्रं०, पृ० ११८ । (ख) देखि री हरि के चंचल तारे । कमल मीन कौं कहँ एती छबि खंजन हू न जात अनुहारे । —सूर०, १० ।१७९७ ।

एतादृश
वि० [सं० एतादृश] [वि० स्त्री० एताशी] ऐसा । इसके समान ।

एतदृस पु
वि० [सं०] दे० 'एतादश' । उ०—ससरु एतादृस अवध निवासू—मानस २ ।९८ ।

एतावत् पु
वि० [सं०] इतना [को०] ।

एतावता
क्रि० वि० [सं०] एस कारण । इसलिये । अतः । उ०— 'एतावता मैं यह नहीं कह सकता कि इस विषय पर उसमें क्या लिखा है ।—हम्मीर०, (भू०), पृ० ४ ।

एतिक पु †
वि० स्त्री० [सं० एतावत् प्रा० एतिअ, एत्तिक (शौ०)] इतनी । उ०—जेतिक सैल सुमेरु धरनि मैं भुजभरि आन मिलाऊँ । सप्त समुद्र देउँ छातीतर, एतिक देह बढ़ाऊँ ।— सूर० ९ ।१०७ ।

एथ पु †
क्रि० वि० [सं० अत्र, प्रा० अत्थ] दे० 'यत्र' । उ०—लागा धंधै लेणई; आयो कुसले एथ ।—बाँकीदास ग्रं०, भा० ३, पृ० २६ ।

एध
संज्ञा पुं० [सं०] इंधन । ईंधन [को०] ।

एधस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईंधन । २. वृद्धि । अभ्युदय [को०] ।

एधित
वि० [सं०] १. वर्द्धित । पूर्ण । भरा हुआ [को०] ।

एन पु
संज्ञा पुं० [सं० एण] [स्त्री० एनी] दे० 'एण' । उ०—(क) कहै कबि गंग कुल एननि को चैनहर नीलपट ओट नैना ऐसें दमकत हैं । —गंग०, पृ० १० । (ख) एनी की आँखियनि ते नीकी अँखियानि । —स० सप्तक, पृ० २५१ ।

एनडोर्स
संज्ञा पुं० [अं० एनडोर्स] १. हुंडी आदि की पीठ पर हस्ताक्षर करना । २. हुंडी या चेक की पीठ पर हस्ताक्षर करके उसे हस्तांतरित करना । ३. सकारना । स्वीकार करना । क्रि० प्र०—करना ।—कराना ।

एनमद पु
संज्ञा पुं० [सं० एणमद] मृगमद । कस्तूरी । उ०—यों होत है जाहिरे तो हिये स्याम, ज्यों स्वर्नसीसी भरयो एनमद बाम ।—भिखारी ग्रं०, भा०,१, पृ० २०१ ।

एनस
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाप । २. अपराध ।

एनामेल
संज्ञा पुं० [अं०] कुछ विशिष्ट क्रियाओं से प्रस्तुत किया हुआ एक प्रकार का लेप जो चीनी मिट्टी या लोहे आदि के बरतनों तथा धातु के और अनेक पदार्थों पर लगाया जाता है । विशेष—यह कई रंगो का होता है और सूखने पर बहुत अधिक कड़ा तथा चमकीला हो जाता है । कभी कभी यह पारदर्शी भी बनाया जाता है ।

एनी
संज्ञा पुं० [देश०] एक बहुत बड़ा पेड़ जो दक्षिण में पच्छिमी घाट पर होतो है । विशेष—इसकी लकड़ी मकानों में लगती है तथा असाबाब बनाने के काम में आती है । इसके हीर की लकड़ी मजबूत और कुछ पीलापन लिए हुए भूरी होती है । एनी ही का दूसरा भेद डील है जिसकी लकड़ी बहुत चमकदार होती है तथा जिसके बीज और फल कई तरह से खाए जाते हैं ।

एप्रिल
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'अप्रैल' । यौ०—एप्रिल फूल ।

एप्रवर
संज्ञा पुं० [अं०] किसी फौजदारी के मामले का वह अभियुक्त जो अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और अपने साथी या साथियों के विरुद्ध गवाही देता है । वह अभियुक्त या अपराधी जो सरकारी गवाह हो जाता है । अपराधी साक्षी । मुजरिम इकरारी । इकबाली गवाह । सरकारी गवाहा । विशेष—एप्रूवर मामला हो जाने पर छोड़ दिया जाता है ।

एफीडेविट
संज्ञा पुं० [अं०] १. शपथ । हलफ । २. हलफनामा ।

एबा
संज्ञा पुं० [अ० अबा] दे० 'अबा' । उ०—एबा और कबा पहिनना छोड़ा ।—प्रमेघन०, भा० १, पृ० २५८ ।

एम पु †
क्रि० वि० [गुज़०] ऐसा । इस तरह । उ०—ग्रेह सीस ईसं करारंत दींसं । जुरंतं मरद्दं मचे एम कद्दं ।— पृ० रा०, २ ।२९ ।

एनम
संज्ञा पुं० [सं०यवन, फा० यमन] एक संपूर्ण जाति का राग जो कल्याण और केदारा राग के मिलाने से बना है । विशेष—इसमें तीव्र मध्यम स्वर लगता है और यह रात के पहले पहर में गाया जाता है । इसको लोग श्री राग का पुत्र मानते हैं । कोई इसे कौआली के ठेके से बजाते हैं और कोई झपताल के । यौ०—एमन कल्याण । एमन चौताल । एमन धमार । एमन रूपक ।

एमिग्रेशन
संज्ञा पुं० [अं०] एक देश से दूसरे देश या राज्य में बसने के लिये जाना । देशांतराधिवास । उत्प्रवास । परदेशमन ।

एम्बुलेंस
संज्ञा पुं० [अं०] १. युद्ध क्षेत्र का अस्पताल जिसमें घायलों की मरहम पट्टी आदि की जाती है । मैदानी अस्पताल । २. एक प्रकार की गाड़ी जिसमें घायलों या बीमारों को आराम से लेटाकर अस्पताल आदि में पहुँचाते हैं ।

एम्बुलेंसकार
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'एम्बुलेंस'—२ ।

एरंग
संज्ञा पुं० [सं० एरङ्ग, एलङ्ग] एक प्रकार का मत्स्य [को०] ।

एरंड
संज्ञा पुं० [सं० एरण्ड] रेंड़ीं । रेंड़ीं । उ०—तेल के लिये सिल भी और एरंड भी कम नहीं ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० १८ । यौ०—एरंडपत्रिका । एरंडफला । एरंडबीज ।

एरंडक
संज्ञा पुं० [सं० एरण्डक] दे० 'एरंड' [को०] ।

एरंडखरबूजा
संज्ञा पुं० [सं० एरण्ड+ हिं० खरबूजा] पपीता । रेंड खरबूजा ।

एरंडपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० एरण्डपत्रिका] रेंड़ की जाति का एक वृक्ष । दंतीवृक्ष [को०] ।

एरंडफला
संज्ञा स्त्री० [सं० एरण्डफला] दे० 'एरंडपत्रिका' [को०] ।

एरंडबीज
स्त्री० पुं० [सं० एरण्डबीज] रेंडी ।

एरंडसफेद
संज्ञा पुं० [सं० एरण्ड+हिं० सफेद] मोगली । बाग बरैड़ा ।

एरंडा
संज्ञा स्त्री० [एरण्डा] पिप्पली ।

एरंडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक झाड़ी जो सुलेमान पर्वत और पश्चिम हिमालय के ऊपर ६०० फुट तक की ऊँचाई पर होती है । इसकी छाल, पत्ती और लकड़ियाँ चमड़ा सिझाने के काम में आती हैं । इसे तुंगा, आमी या दरेगड़ी भी कहते हैं ।

एरफेर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हेरफेर' ।

एराक
संज्ञा पुं० [अ०] [वि० एराकी] १. फारसी संगीत के अनुसार बाहर मोकामों या स्थानों में से एक । २. अरब देश का एक प्रदेश जहाँ का घोड़ा अच्छा होता है ।

एराकी (१)
वि० [फा०] एराक देश का । एराक का ।

एराकी (२)
संज्ञा पुं० वह घोड़ा जिसकी नस्ल एराक देश की हो । यह अच्छी जाति के घोड़ों में गिना जाता है ।

एराफ
संज्ञा पु० [अ० एराफ=स्वर्ग और नरक के बीच का स्थान] जहाज का पेंदा ।—(लश०) ।

एराब
संज्ञा पुं० [अ० एराफ] जहाज का पेंदा ।

एरिसा पु †
क्रि० वि० [सं० ईदृश, ईदृशी] दे० 'ईदृश' । उ०— ईखे पित मात एरिसा अवयव विमल विचार करै वीवाह ।—वेलि०, दु०, ४० ।

एरे
अव्य० [अनु०] अरे । हे (संबो०) । उ०—एरे दगादार मेरे पातक अपार तोहि गंगा की कछार में पछार छार करिहों ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २५५ ।

एरोड्रोम
संज्ञा पुं० [अं०] हवाई अड्डा ।

एरोप्लेन
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार की उड़ने की मशीन । वायु- यान । हवाई जहाज ।

एर्वारु, एर्वारुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की ककड़ी [को०] ।

एल
संज्ञा पुं० [अं०] कपड़े की एक नाप जो ४५ इंच की होती है । इससे अधिकतर विलायती रेशमी कपड़े और मखमल आदि नापे जाते हैं ।

एलक
१) संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'एडक' [को०] ।

एलक
२) संज्ञा पुं० [सं० एलक=भेड़ या भेड़ के चमड़े का बना हुआ] १. चलनी जिसमें आटा चालते हैं । २. मैदा चालने का आखा ।

एलकेशी
संज्ञा स्त्री० [सं० एला+केश] एक तरह का बैगन जो बंगाल में होता हैं ।

एलकोहल
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रसिद्ध मादक तरल पदार्थ जो कोई चिजों का खमीर उठाकर बनाया जाता है । फूल शराब । विशेष—इसका कोई रंग नहीं होता । इसमें स्पिरिट की सी महक आती है । यह पानी में भली भाँती घुल जाता है और स्वाद में बहुत तीक्ष्ण होता है । इसमें गोंद, तेल तथा इसी प्रकार के और अनेक पदार्थ बहुत सहज में घुल जाते हैं, इसलिये रंग आदि बनाने तथा औषधि में इसका बहुत अधिक व्यवहार होता है । शराब इसी से बनती है । जिस शराब में इसकी मात्रा जितनी ही अधिक होती है, वह शराब उतनी ही तेज होती है ।

एलची
संज्ञा पुं० [तुं०] वह जो एक राज्य का संदेशा लेकर दूसरे राज्य में जाता हैं । दूत । राजदूत । उ०—लखि हजरति फरमाँन उलटि एलची पठाए ।—ह० रासो० पृ०, ५६ ।

एलचीगरी
संज्ञा पुं० [फा०] दौत्य । दूतकर्म ।

एलवालु, एलवालुपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपित्थ की सुगंधित छाल । २. एक दानेदार पदार्थ [को०] ।

एलविल
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर ।

एला
१) संज्ञा पुं० [सं०, मल० एलाम्] १. इलायची तथा उसका पेड़ । २. शुद्ध राग का एक भेद । ३. बनरीठा । ४. आमोद प्रमोद । विलास । क्रीड़ा ।

एला
२) संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की कँटीली लता जिसकी पत्तियों की चटनी बनाई जाती है । वि० दे० 'रसौलू' ।

एलागंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० एलागान्धिका] कैंथ या कपित्थ की छाल [को०] ।

एलान
१) संज्ञा पुं० [सं०] नारंगी [को०] ।

एलान
२) संज्ञा पु० [अं०] मुनादी । घोषणा । सार्वजनिक घोषणा या सूचना ।

एलापर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा । रास्ना [को०] ।

एलार्म
संज्ञा पुं० [अं०] विपद् या खतरे का सूचक शब्द या संकेत । यौ०—एलार्मघडी=बड़ी घड़ी जो नियत समय पर टन टन का शब्द करके सूचित करती है । एलार्म चेन । एलार्म बेल एलार्म सिगनल ।

एलार्मचेन
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह जंजीर जो रेलगाड़ियों के अंदर लगी रहती है और किसी प्रकार की विपद् की आशंका होने पर जिसे खींचने ट्रेन खड़ी कर दी जाती है । खतरे की जंजीर । विपद्सूचक शृंखला ।

एलार्म बेल
संज्ञा पुं० [अं०] वह घंटा जो विपद् या खतरे की सूचना देने के लिये बजाया जाता है । विपदसूचक घंटा । खतरे का घंटा ।

एलि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० एलीका] एला । इलायची । उ०—इत लवंग नव रंग एलि इत झोलि रही रस । इत कुरुबक केवरा केतकी गंध बंधु बस ।—नंद०, ग्रं०, पृ० ९३ ।

एलिमवार पु †
वि० [फा० इल्मवार] ज्ञानवाला । ज्ञानी । उ०— दरिया जो कहैं दल एलिमवार है पार कहा सब सुन्न सुनायो ।—सं० दरिया, पृ० ६५ ।

एलीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी इलायची [को०] ।

एलुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक सुगंधित द्रव्य । २. ओषधि में प्रयुक्त एक पौधा या द्रव्य [को०] ।

एलुला, एलुवा
संज्ञा पुं० [अ० या अं० एलो] कुछ विशेष प्रकार से सुखाया और जमाया हुआ घीकुवाँर का दूध या रस । मुसब्बर ।

एलेक्टर
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'निर्वाचक' ।

एलेक्टरेट
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'निर्वाचकसंघ' ।

एलेक्टेड
वि० [अं०] दे० 'निर्वाचित' ।

एलेक्ट्रिक
संज्ञा स्त्री० [अं०] विद्युत् । बिजली ।

एलेक्शन
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'निर्वाचन' ।

एल्क
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का बहुत बड़ा बारहसिंवा जो यूरोप और एशिया में मिलता है । विशेष—यह घोड़े से ऊँचा होता है । इसे थूथन होता है । इसकी गरदन इतनी छोटी होती है कि यह जमीन पर की घास आराम से नहीं चर सकता । इससे यह पेड़ की पत्तियाँ और डालियाँ खाता है । इसकी टाँगें चलते समय छितरा जाती हैं । यह न हिरन की तरह दौड़ सकता और न कूद सकता है । इसकी घ्राणशक्ति बहुत तीव्र होता है ।

एल्डरमैन
संज्ञा पुं० [अं०] म्यूनिसिपल कारपोरेशन का सदस्य जिसका दर्जा मेयर या प्रधान के या डिप्टी मेयर के बाद और साधारण कौन्सिलर सदस्य से ऊँचा होता है जैसे,—कलकात्ता कारपोरेशन के एल्डरमैन । विशेष—इंगलैड आदि देशों में एल्डरमैन को म्युनिसिपैलिटी सदस्य होने के सिवा स्थानिक पुलिस मैजिस्ट्रेट के भी अधिकार प्राप्त होते हैं । सन् १७२६ ई० में बंबंई, मद्रास और कलकत्ता आदि में जो मेयर कोर्ट स्थापित किए गए थे, उनमें भी एल्डरमैन थे ।

एल्युमिनम
संज्ञा पुं० [अं० एलुमीनियम] एक प्रकार की बहुत हल्की सफेद धातु जिससे बर्तन, कल, पुर्जे आदि बनते हैं । अलुमीनियम । अलमोनियम ।

एल्वालु, एल्वालुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'एलवालु' [को०] ।

एवं
१) क्रि० वि० [सं० एवम्] ऐसा ही । इसी प्रकार । यौ०—एवंगुण=ऐसे गुणोंवाला । एवंबिध=इस प्रकार का । इस रूप ढंग का । ऐसा । उ०—एवंबिध तुम, जीवन कुंकुम, चढ़ी देह पर द्रुम हो ।—आराधना, पृ० ९० । एवंभूत= इस प्रकार का । एवमस्तु=ऐसा ही हो । उ०—एवमस्तु कहि रमानिवास । हरषि चले कुंभज रिषि पासा ।— मानस ३ ।६ (क) । विशेष—इस पद का प्रयोग प्रार्थना को स्वीकार करने या माँगा हुआ वरदान देने के समय होता है ।

एवं (२)
अव्य० और । ऐसे ही और । इसी प्रकार और ।

एव
अव्य० [सं०] १. एक निश्चयार्थक शब्द । ही । उ०—बलि मिस देखे देवता कर मिस मानव देव । मुए मार सुविचार हत स्वारथ साधन एव ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १३२ । २. भी ।

एवज
संज्ञा पुं० [अ० एवज़] १. बदला । प्रतिफल । प्रतिकार । २. परिवर्तन । बदला । क्रि० प्र०—देना । उ०—'और मै उसका भी एवज दिया चाहता था' ।—श्रीविवास ग्रं०, पृ० ३४३ ।—मिलना ।—लेना ।३. स्थानापन्न पुरुष । दूसरे की जगह पर कुछ काल तक के लिये का काम करनेवाला आदमी । यौ०—एवज मुआवजा=अदल बदल ।

एवजी
संज्ञा पुं० [फा० एवजी] स्थानापन्न पुरुष । दूसरे की जगह पर कुछ काल के लिये काम करनेवाला आदमी ।

एवजीदार
वि० [फा० एवजी+ दार (प्रत्य०)] दूसरे की जगह पर कुछ समय के लिये काम करनेवाला । स्थानापन्न । उ०—जै दिन काम न करें तै दिन पूरी तनख्याह एवजीदार को दें ।— प्रताप०, ग्रं०, पृ० ४६१ ।

एवड़ पु †
संज्ञा पुं० [देश०] 'रेवड़' । उ०—आडवले आधोफरइ, एवड़ माँहि असन्न ।—ढोला०, दू०, ४३९ ।

एवाल पु †
संज्ञा पुं० [सं० अविपाल] गड़ेरिया । आमीर । उ०— ढोलइ करह विभासियड, देखे वीस वसाल । ऊँचे थलइ ज एकलो बच्चालइ एवाल ।—ढोला०, दू०, ४३५ ।

एवेन्यू
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह स्थान जो वृक्ष, लता, आदि से आच्छादित हो । कुंज । २. रास्ता । मार्ग । जैसे,—चितरंजन एवेन्यू ।

एशिया
संज्ञा पुं० [यू० (यह शब्द० इबरानीशब्द 'अशु' से निकला) ] है जिसका अर्थ है 'वह दिशा जहाँ से सूर्य निकले अर्थात् पूर्व पाँच बड़े भूखड़ो से एक भूखंड जिसके अंतर्गत भारतवर्ष, फारस, चीन, ब्रह्मा, इत्यादि अनेक देश है ।

एशियाई
वि० [यू० एशिया+हिं० ई (प्रत्य०)] एशिया का । एशिया संबंधी । उ०—हिंदू मुस्लिम एक हैं दोनों । यानी ये दोनों एशियाई हैं ।—कविता कौ०, भा०४, पृ० ६४३ । यौ०—एशियाई रूम । एशियाई रूस । एसियाई कोचक ।

एषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. इच्छा । अभिलाषा । चाहना । २. लेने का यत्न करना । पाने का प्रयास करना । ३. दबाना । ४. रोग की जाँच करना । ४.लोहे का बाण [को०] ।

एषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० एषणीय, एषतव्य] १. इच्छा । आकांक्षा । अभिलाषा । उ०—सबके पीछे लगी हुई हैं कोई व्याकुल नई एषणा ।—कामायनी, पृ० २६६ । २. याचना । माँगना (को०) ।

एषणासमिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनों में४२ दोषरहित वस्तुओं के आहार का नियम । दूषणरहित आहार का ग्रहण ।

एषणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सर्राफ की तराजू [को०] ।

एषणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'एषणिका' । २. लोहे की सलाख । लौहशाला का [को०] ।

एषणी (२)
वि० [सं० एषणिन्] चाहने या इच्छा रखनेवाला [को०] ।

एषणीय
वि० [सं०] चाहने या प्राप्त करने योग्य [को०] ।

एषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाह । आकंक्षा । इच्छा [को०] ।

एषिता
वि० [सं० एषितृ] चाहनेवाला । अभिलाषुक । इच्छा करनेवाला [को०] ।

एषी
वि० [सं० एषिन्] दे० 'एषिता' ।

एष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाहना । इच्छा (को०) ।

एष्य
वि० [सं०] १. चाहने योग्य । प्रस्तुत करने योग्य । ३. निरीक्षण करने योग्य [को०] ।

एसिड
संज्ञा पुं० [अं०] तेजाब । अम्लक्षार । द्राव ।

एसीवादी
संज्ञा पुं० [प्रा०] जैन संप्रदाय में बाणब्यंतर नामक देवगण के अंतर्गत एक देवता ।

एसेंब्ली
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. सभा । परिषद् । मंडल । मजलिस । व्यवस्थापिका सभा । जैसे—सेजिस्लेटिव एसेंब्ली । २. समूह । जमाव । मजमा ।

एसेंस
संज्ञा पुं० [अं०] १. रासायनिक प्रक्रिया से खींचा हुआ फलों फूलों की सुंगध आदि का सार । पुष्पसार । अतर । २. वनस्पति आदि क खींचा हुआ सार । अरक । ३. सुंगंध । ४. रूह ।

एस्टिमेट
संज्ञा पुं० [अं०] अंदाज । तखमीना । अनुमान । जैसे,— 'इसमें कितना खर्च पड़ेगा, इसका एस्टिमेट दीजिए' । क्रि० प्र०—देना । —बताना । —लगाना ।

एस्परांटो, एस्परांतो
संज्ञा दे० [अं०] यूरोप आदि के प्रचलित एक नवीन कल्पित अंतराष्ट्रीय भाषा । उ०—'सरस्वती की कीसी पिछली संख्या मे हमने एस्परांटो भाषा के विषय में' कुछ लिखा है' । —सरस्वती, अप्रैल, १९०५, पृ० १२१ ।

एह (१) पु
सर्व० [सं० एषः, अप० एह] यह । उ०—स्वारथ परमारथ रहित सीताराम सनेह । तुलसी सो फल चारि को फल हमार मत एह ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९१ ।

एह (२)
वि० यह ।

एहतमाम
संज्ञा पुं० [अ० एहतिमाम] १. प्रबंध । २. निरीक्षण ।

एहतियात
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. सावधानी । होशियारी । चौकसी । बचाव । २. परहेज ।

एहतियातन
वि० [अ०] होशियारी से । एहतियात के तौर पर । सुरक्षा की दृष्टि से ।

एहतियाती
वि० [अ०] एहतियात संबंधी । जिससे एहतियात का खयाल रहे । हिफाजत संबंधी [को०] । यौ०—एहतियाती कारखाई=खतरे से बचने के लिये की जानेवाली कारखाई । हिफाजत संबंधी व्यवस्था ।

एहितिलाम
संज्ञा पुं० [अ०] स्वप्नदोष [को०] ।

एहवा पु †
वि० [सं० एषः, अप० एह+वा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० एहवी] दे० 'एसा' । उ०—(क) पिय खोंटाँरा एहवा, जेहा काती मेह । आडंबर अति दाखवइ, आस न पूरइ तेह ।—ढोला० दू०३३९ । (ख) एक उजाथर कलहि एहवा, साथी सहु आखाढ़सिध ।—बेलि० दू० ७४ ।

एहसान
संज्ञा पु० [अ०] वह भाव जो उपंकार करनेवाले के प्रति होता है । कृतज्ञता । निहोरा । उ०—कहो हुआ एहसान कौन सा किसी व्यक्ति पर मेरा ।—पथिक, पृ० ६४ । २. उपकार । भलाई । नेकी ।

एहसानफरामोश
वि० [अ० एहसान +फा० फरामोश] [संज्ञा स्त्री० एहसानफरामोशी] कृतघ्न । अकृतज्ञ । उ०—पर यहएहसानफरामोश आदमी सीधा चला गया ।—रंग०, पृ० ९०० ।

एहसानमंद
वि० [अ०] निहोरा माननेवाला । उपकार माननेवाला कृतज्ञ ।

एहाता
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'अहाता' ।

एहि
सर्व० [हिं० एह] 'एह' का वह रूप जो हिंदी की विभाषाओं और बोलियो में उसे विभक्ति के पहले प्राप्त होता है । उ०— एहि मह रघुपति नाम उदारा ।—मानस, १ ।१० ।

एहो
अव्य० [हिं० हे, हो] संबोधन शब्द । हे । ऐ ।ऐ ऐ—संस्कृत वर्णमाला का बारहवाँ और हिंदी या देवनागरी वर्णमाला का नवाँ स्वर वर्ण । इसका उच्चारण स्थान कंठ और तालु है । विशेष—हिंदी में इसका उच्चारण दो ढंग से होता है । संस्कृत या तत्सम श्बदों में तो 'ए' का उच्चारण संस्कृत के अनुसार ही कुछ 'इ' लिए हुए 'अइ' के ऐसा होता है, जैसे 'ऐरावत' । पर हिंदी शब्दों में इसका उच्चारण 'य' लिए 'अय्' की तरह होता है, जैसे—'ऐसा' । यह प्रवृत्ति पश्चिम की है । पूरब की प्रांतिक बोलियों में या मराठीभाषी आदि के हिंदी उच्चारण में 'ऐसा' में भी 'ऐ' का उच्चारण संस्कृत ही की तरह रहता है ।